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प्रथम प्रकरण

हे ईश ! मानव ज्ञान कसे , प्राप्त कर सकता अहो ! ै हमें मक्तत और वैराग्य कसे , ममल सक कृपया कहो [ १ ] ै ें ु अष्टावक्र उवाचः प्रप्रय तात यदि तू ममक्ष, तज प्रवषयों को ,जैसे प्रवष तजें, ु ु सन्तोष, करूणा सत, क्षमा, पीयष वत ननत -ननत भजें . [ २ ] ू न ही वाय, जल, अक्ग्न, धरा और न ही तू आकाश है, ु मक्तत हे तु साक्ष्य त, चैतन्य रूप प्रकाश है . [ ३ ] ु ू यदि पथक करक िे ह भाव को, िे ही में आवास हो े ृ तब तू अभी सख शाांनत, बन्धन मतत भव, प्रवश्वास हो .[ ४ ] ु ु वणण आश्रम का न आत्मा, से कोई सम्बन्ध है, आकार हीन असांग कवल, साक्ष्य भाव प्रबांध है . [ ५ ] े सख िःख धमण - अधमण मन क, प्रवकार हैं तेरे नहीां, े ु ु कताण, कृतत्त्व का और भताण भाव भी घेरे नहीां . [ ६ ] सवणस्व दृष्टा एक तू , और सवणिा उन्मतत है , ु यदि अन्य को दृष्टा कहे, भ्रम, तू ही बन्धन यतत है . [ ७ ] ु तू अहम ् रुपी सपण िां प्रषत, कह रहा कताण मैं ही , प्रवश्वास रुपी अममय पीकर कह रहा, कताण नहीां . [ ८ ] मैं सध, बद्ध, प्रबद्ध, चेतन, ज्ञानमय चैतन्य हूूँ, ु ु ु अज्ञान रुपी वन जला कर, ज्ञान से मैं धन्य हूूँ . [९ ] सब जगत कक्पपत असत, रज्जु मैं सपण का आभास है इस बोध का कारण कक तझमें, भ्रम का ही वास है .[१०] ु अष्टावक्र उवाचः जो मतत माने ,मतत स्व को, बद्ध माने बद्ध है , ु ु जैसी मनत वैसी गनत, ककवांिांती ऐसी प्रमसद्ध है .---११ पररपण,पणण है, एक प्रवभ, चैतन्य साक्षी शाांत है , ू ण ू ु यह आत्मा ननःस्पह प्रवमल , सांसारी लगती भ्राांत है .---१२ ृ यह िे ह मन बप्रद्ध अहम ्, ममकार , भ्रम, है अननत्य हैं, ु कटस्थ बोध अद्वैत ननश्चय , आत्मा ही ननत्य है .---१३ ू बहुकाल से तू िे ह क अमभमान में आबद्ध है, े कर ज्ञान रूपी अरर से बेधन, ननत्य तब ननबणद्ध है .---१४ ननक्ष्क्रय ननरां जन स्व प्रकामशत , आत्म तत्व असांग है,

तू ही अनष्ठाप्रपत समाधी, कर रहा तया प्रवसांग है .---१५ ु यह प्रवश्व तझमें ही व्याप्त है , तझमें प्रपरोया सा हुआ, ु ु तू वस्ततः चैतन्य, सब तझमें समाया सा हुआ.---१६ ु ु ननरपेक्ष अप्रवकारी तू ही, चचर शाक्न्त मक्तत का मल है, ु ू चचन्मात्र चचद्घन रूप त, चैतन्य शक्तत समल है .---१७ ू ू िे ह ममथ्या आत्म तत्व ही , ननत्य ननश्चल सत्य है , उपिे श यह ही यथाथण, जग आवागमन, से मतत है .---१८ ु ज्यों प्रवश्व में प्रनतबबम्ब अपने रूप का ही वास है, त्यों बाह्य अांतिे ह में , परब्रह्म का आवास है .---१९ ज्यों घट में अन्तः बाह्य क्स्थत सवणगत आकाश है, त्यों ननत ननरां तर ब्रह्म का सब प्राणणयों में प्रकाश है .---२०

द्ववतीय प्रकरण
बोधस्वरूपी मैं ननरां जन , शाांत प्रकृनत से परे , ठचगत मोह से काल इतने , व्यथण सांसनत में करे .----१ ृ ज्यों िे ह िे ही से प्रकामशत, जगत भी ज्योनतत तथा, या तो जगत सम्पणण या कछ भी नहीां मेरा यथा .----२ ू ु इस िे ह में ही प्रविे ह जग से त्याग वनत आ गई ृ आश्चयण ! कक पथकत्व भाव से ब्रह्म दृक्ष्ट भा गई ----३ ृ ज्यों फन और तरां ग में , जल से न कोई मभन्नता, े त्यों प्रवश्व ,आत्मा से सक्जत , तद्रप एक अमभन्नता ----४ ू ृ ज्यों तांतओां से वस्त्र ननममणत, तन्तु ही तो मल हैं. ु ू त्यों आत्मा रूपी तांतओां से, सक्जत प्रवश्व समल हैं.----५ ु ू ृ ज्यों शकरा गन्ने क रस से ही प्रवननममणत व्याप्त है , ण े त्यों आत्मा में ही प्रवश्व , प्रवश्व में आत्मा भी व्याप्त है .----६ सांसार भामसत हो रहा, बबन आत्मा क ज्ञान से, े ज्यों सपण भामसत हो रहा हा,रज्जू क अज्ञान से.----७ े ज्योनतमणयी मेरा रूप मैं, उससे पथक ककां चचत नहीां , ृ जग आत्मा की ज्योनत से ,ज्योनतत ननममष वांचचत नहीां ----८ अज्ञान- से ही जगत कक्पपत , भासता मझमें अहे, ु रज्जू में ,अदह सीपी में चाांिी , रप्रव ककरण में जल रहे .-----९ माटी में घट जल में लहर , लय स्वणण भषन में रहे , ू वैसे जगत मझसे सक्जत , मझमें प्रवलय कण कण अहे.----१० ु ु ृ

ब्रह्मा से ले पयंत तण, जग शेष हो तब भी मेरा, ृ अक्स्तत्व, अक्षय , ननत्य, प्रवस्मय, नमन हो मझको मेरा.---११ ु मैं िे हधारी हूूँ, तथाप्रप अद्वैत हूूँ, प्रवस्मय अहे, आवागमन से हीन जग को व्याप्त कर क्स्थत महे .-----१२ मझको नमन आश्चयणमय ! मझसा न कोई िक्ष है . ु ु स्पशण बबन ही िे ह धारू, जगत तया समकक्ष है .------१३ ूँ मैं आत्मा आश्चयण वत हूूँ , स्वयां को ही नमन है, या तो सब या कछ नहीां, न वाणी है न वचन है .------१४ ु जहाूँ ज्ञेय, ज्ञाता,ज्ञान तीनों वास्तप्रवकता मैं नहीां, अज्ञान- से भामसत हैं कवल, आत्मा सत्यम मही.------१५ े चैतन्य रस अद्वैत शद्ध,में ,आत्म तत्व मदहम मही, ु द्वैत िःख का मल, ममथ्या जगत, औषचध भी नहीां.-----१६ ु ू अज्ञान- से हूूँ मभन्न कक्पपत, अन्यथा मैं अमभन्न हूूँ, मैं ननप्रवणकपप हूूँ, बोधरूप हूूँ, आत्मा अप्रवनछन्न हूूँ.------१७ में बांध मोक्ष प्रवहीन, वास्तव में जगत मझमें नहीां, ु हुई भ्राांनत शाांत प्रवचार से, एकत्व ही परमां मही.-------१८ यह िे ह और सारा जगत, कछ भी नहीां चैतन्य की, ु एक मात्र सत्ता का पसारा, कपपना तया अन्य की -----१९ नरक, स्वगण, शरीर, बन्धन, मोक्ष भय हैं, कपपना, तया प्रयोजन आत्मा का, चैतन्य का इनसे बना.----२० हूूँ तथाप्रप जन समहे, द्वैत भाव न चचत अहो, ू एकत्व और अरण्य वत, ककसे िसरा अपना कहो.----२१ ू न मैं िे ह न ही िे ह मेरी, जीव भी में हूूँ नहीां, मात्र हूूँ चैतन्य, मेरी क्जजीप्रवषा बन्धन मही.-----२२ मैं महोिचध, चचत्त रूपी पवन भी मझमें अहे , ु प्रवप्रवध जग रूपी तरां गें, मभन्न न मझमें रहे .----२३ ु मैं महोिचध चचत्त रूपी, पवन से मझमें मही, ु प्रवप्रवध जगरूपी तरां गें, भाव बन कर बह रहीां .----२४ मैं महोिचध, जीव रूपी, बहु तरां चगत हो रहीां, ज्ञान से मैं हूूँ यथावत, न प्रवसांगनत हो रही.-----२५

ततीय प्रकरण ृ

अद्वैत आक्त्मक अमर तत्व से, सवणथा तम ् प्रवज्ञ हो, ु तयों प्रीनत, सांग्रह प्रवत्त में , ऋत ज्ञान से अनमभज्ञ हो.---१ ज्यों सीप क अज्ञान से,चाांिी का भ्रम और लोभ हो, े त्यों आत्मा क अज्ञान से,भ्रममत मनत, अनत क्षोभ हो.----२ े आत्मा रूपी जलचध में, लहर सा सांसार है, मैं हूूँ वही, अथ प्रवदित, क़िर तयों िीन, हीन प्रवचार हैं.-----अनत सन्िरम चैतन्य पावन, जानकर भी आत्मा, ु अन्यान्य प्रवषयासतत यदि,तू मढ़ है, जीवात्मा.-------४ ू आत्मा को ही प्राणणयों में,आत्मा में प्राणणयों आश्चयण !ममतासतत मनन, यह जान कर भी ज्ञाननयों.-----५ ु क्स्थत परम अद्वैत में, तू शद्ध, बद्ध, ममक्ष है , ु ु ु ु आश्चयण ! है यदि तू अभी, प्रवषयामभमख कामेच्छ है .-----६ ु ु काम ररपु है ज्ञान का, यह जानते ऋप्रष जन सभी, आश्चयण ! कामासतत हो सकता है मरणासन्न भी.------७ प्रवरत ननत्याननत प्रववेचक, भोग हैं ननरपेक्ष में, आश्चयण ! है यद्यप्रप ममक्षु , भय तथाप्रप मोक्ष में .-----८ ु ु ज्ञानी जन तो भोग पीडा , भाव में समभाव हैं, हषण क्रोध का आत्मा ,पर कोई भी न प्रभाव है .----९ िे ह में वैिेह ऋत अथों में ,है ज्ञानी वही, हों भाव सम ननांिा प्रसांशा , में कोई अन्तर नहीां . ------१० अज्ञान क्जसका शेष, ऐसा धीर इस सांसार को, मात्र माया मान, तत्पर मत्यु क सत्कार को.-----११ े ृ इच्छा रदहत मन मोक्ष में भी, मदह मदहम मदहमा महे , उस आत्म ज्ञानी से तप्त जन की, साम्यता ककससे अहे .----१२ ृ धीर ज्ञानी जानता है, जगत छल है प्रपांच है, ग्रहण त्याग से मन परात्पर, न रमे कहीां रां च है .-----१३ वासना क कषाय कपमष, क्जसने अांतस से तजे, े ननद्णवि िै प्रवक सख या िःख, पर शाक्न्त अांतस में सजे.-----१४ ां ु ु

चतथथ प्रकरण ु
आत्म ज्ञानी धीर जन क, कमण अनतशय गढ़ हैं, े ू जग मलप्त जन से साम्यता, ककां चचत करें वे मढ़ हैं.----१ ू

िे वता इन्द्रादि भी, इच्छक हैं क्जस पि को मही, ु क्स्थत उसी पि पर अहो! योगी को ककां चचत मि नहीां.-----२ ननमलणप्त अांतस पाप -पण्य से, आत्म ज्ञानी का रहे , ु ज्यों गगन का धूम से ,सम्बन्ध ककां चचत न रहे .------३ प्रवश्वात्मा क रूप में, िे खा जगत क्जस सांत ने, े उसे कोई इक्च्छत कायण से, नहीां रोक सकता अनांत में .------४ ब्रह्मा से पयंत चीांटी, चार जीव प्रकार हैं, बस प्रवज्ञ को इच्छा अननच्छा, त्याग पर अचधकार है .-------५ है आत्मा परमात्म मय, कोई प्रवरला जानता, ज्ञानी ही ननद्णवि कवल कर सक जो ठानता .--------६ ां े े

पंचम प्रकरण
अष्टावक्र उवाचः नहीां सांग है तेरा ककसी से, शद्ध तू चैतन्य है, ु त्याज्य, तन अमभमान ताज िे , मोक्ष पा तू अनन्य है .-----१ तझसे ननःसत सांसार, जैसे जलचध से हो बलबला ु ु ु ृ आत्मा क एकत्व बोध से, मोक्ष शाक्न्त पथ खला.------२ े ु दृश्य जग प्रत्यक्ष ककां तु , रज्जू सपण प्रतीत है, चैतन्य पर तेरी आत्म तत्व में , सत्य दृढ़ प्रतीनत है .----३ आशा-ननराशा , िःख -सख, जीवन -मरण समभाव हैं, ु ु ब्रह्म -दृक्ष्ट, प्रज्ञ क्स्थत, पर न इसका प्रभाव है .------४

षष्टम प्रकरण
अष्टावक्र उवाचः घटवत जगत, प्रकृनत ननःसत आकाश वाट में अनांत है, ृ अतः इसक ग्रहण त्याग और लय में भी ननक्श्चांत है .-------१ े में समद्र सदृश्य हूूँ, यह जग तरां गों तपय है, ु ु अतः इसक ग्रहण, लय और त्याग का तया मपय है .------२ े ू सीपवत मैं हूूँ यथा जग में रजत सम भ्राक्न्त है , अतः इसको ग्रहण लय न त्याग, ज्ञान ही, शाक्न्त है .------३ में आत्मा अद्वैत व्यापक , प्राणणयों का मल हूूँ, ू अतः इसक ग्रहण लय और त्याग में ननमपय हूूँ.------४ े ूण

सप्तम प्रकरण
मझ अनांत महोिचध में, प्रवश्व रूपी नाव जो, ु मन स्वरूपी पवन प्रवचमलत, पर न मैं सम्भव जो.------१ मझ अनांत महोिचध में, जग कपलोल स्वभाव जो, ु उिय, चाहे अस्त, अब मैं वप्रद्ध क्षय, समभाव जो.-----२ ृ मैं अनांत महोिचध , जग कपपना ननःसार है, अब शाांत, मैं क्स्थत अवस्था, में न कोई प्रवकार है .----३ आसक्तत प्रवषयों क प्रनत, मन िे ह की मेरी नहीां, े आत्मज्ञ , मतत हूूँ स्पहा से, प्रवषयों की चेरी नहीां.------४ ु ृ आश्चयण ! मैं चैतन्य और यह प्रवश्व मात्र प्रपांच है , अतः जग की लाभ हानन मैं, रूचच नहीां रां च है .-----५

अष्टम प्रकरण
कछ त्यागता कछ ग्रहण करता, मन िणखत हप्रषणत कभी, ु ु ु यही भाव मन क प्रवकार , बांधन यतत हैं, बांचधत सभी.--------१ े ु न ही ग्रहण, न ही त्याग , िःख से परे मन मोक्ष है, ु एक रस मन की अवस्था, सवणिा ननरपेक्ष है .-----२ मन मलप्त होता जब कहीां, तो बांध बांधन हे तु है, ननमलणप्त होता जब वही मन , मोक्ष का मन सेतु है .-----३ "मैं" भाव ही बांधन महत, " मैं " का हनन ही मोक्ष है, त्याग और ग्रहण से हो परे मन, तब मनन ननरपेक्ष है .----------४

नवम प्रकरण
अष्टावक्र उवाचः कमण कृत और अकृत िःख - सख, शाांत कब ककसक हुए े ु ु त्यतत वनत, अव्रती चचत्त, ननरपेक्ष हैं क्जनक दहये.-----१ े ृ उत्पक्त्त और प्रवनाश धमाण तात ! प्रवश्व ननताांत है, जगत क प्रनत क्जजीप्रवषा, नहीां सांत की भी शाांत है .-----२ े त्रैताप िप्रषत, हे य, ननक्न्ित , जगत कवल भ्राक्न्त है, े ू त्यतत है , ननःसार जग को, त्यागने में शाक्न्त है .-----३ वह अवस्था काल कौन सी, जब मनज ननद्णवि हो, ां ु सलभ से सांतष्ट, मसप्रद्ध पथ चले , स्वच्छां ि हो.------४ ु ु

बहु मत मतान्तर योचगयों की, मनत भ्रममत करते यथा, अध्यात्म और वैराचगयों की, शाक्न्त भांग करें तथा.-----५ प्रारब्ध क अनसार तेरी, िे ह गनत व्यवहार है, े ु तू वासनाएां सकल तज िे , वासना सांसार है .------६ जब इक्न्द्रयों ही इक्न्द्रयों में, िे ह वते िे ह में, तत्काल बांधन मतत प्राणी, आत्मा ननज गह में .-----७ ु हे य तात ! तज िे वासनाएां, वासना सांसार है, कृत कमण अब जो भी करे , प्रारब्ध का ही प्रकार है .-----८

दशम प्रकरण
सब अनथों का मल कारण, अथण है और काम है, ू इनकी उपेक्षा मल धमण है, कमण में ननष्काम है .------१ ू धन, ममत्र, क्षेत्र , ननकत, स्त्री, बांधु स्वप्न समान हैं, े इन्द्र जाल समान, पाूँच या तीन दिन क प्रवधान हैं.-----२ े क्जस वस्तु में इच्छा बसे , समझो वहाां सांसार है, वैराग्य भाव प्रधान चचत्त से,जान सब ननःसार है .------३ सांसार तष्णा रूप है,तष्णा जहों सांसार है , ृ ृ वैराग्य आश्रय हो मना, तष्णा रदहत सख सार है .-----४ ु ृ यह अप्रवद्या भी असत और असत जड़ सांसार है, चैतन्य रूप प्रवशद्ध, तझको तो जगत ननःसार है .-----५ ु ु िे ह, नारी, राज्य, सत आसतत जन क सख सभी, े ु ु हर जनम में मरण धमाण, नष्ट ये होंगे सभी.-----६ धमण, अथण, और काम दहत, बहु कमण तो ककतने ककए, जगत रुपी वन में तो भी, शाक्न्त दहत भटक दहये.-----७ े िे ह, मन, वाणी से श्रम, िःख पणण बहु तने ककए, ु ू ू उपराम कर अब तो तननक, प्रवश्राांनत चचत दहय में ककए.-----८

एकादश प्रकरण
अष्टावक्र उवाचः भावों प्रवभावों क स्वभावों से ननःसत जो प्रवकार हैं े ृ क्जसे ज्ञात, तलेश प्रवहीन सखमय, शाक्न्त रस सांचार है ..-----१ ु सवण दृष्टा ईश ननश्चय, िसरा कोई नहीां, ू क्जसे ज्ञात वह अनत शाांत, उसकी कामना कोई नहीां.------२

सांपक्त्त और आपक्त्त ननश्चय, िै व योग प्रवधान हैं, सांतष्ट वाांछा शोकहीन हैं, क्जनको इसका ज्ञान.-------३ ु जीवन मरण सख और िःख िै वीय हैं जो जानता, ु ु भाव कताण शन्य होकर, कमण प्रवचध पहचानता.-------४ ू चचांता से िःख है अन्यथा कछ भी नहीां जो जानते, ु ु अन्तः समादहत शाांत वे सब ईश इच्छा मानते.------५ न मैं िे ह, न ही िे ह मेरी, ननत्य बोध स्वरुप हूूँ, कृत - अकृत का प्रवस्मरण और मैं प्रविे ह अरूप हूूँ.-----६ ब्रह्म से पयंत तण, बस एक मैं ही हूूँ यथा, ृ ननप्रवणकपपी शाांत, अज्ञ है लाभ हानन की प्रथा.-----७ आश्चमणय यद्यप्रप जगत, ममथ्या तथाप्रप क्षणणक है, बोधस्वरूपी ममण ज्ञाता, शाांत मलप्त न तननक है .------८

द्वादश प्रकरण
जनक उवाचः िे ह वाचचक मानमसक, कमों को कर स्वच्छां ि हूूँ, चैतन्य आत्मानांि क्स्थत, पणण परमानांि हूूँ.-------१ ू शब्िादि इक्न्द्रयों क प्रनत, अब प्रीनत भाव अभाव है े अब प्रवक्षेपों का न आत्मा पर भी कोई प्रभाव है,----२ मैं आत्म रूप हूूँ, अतः इन ननयमों क न वयवहार हैं.-----३ े ग्राह्य -त्याज्य प्रवयोग ननःसत , िर हषण प्रवषाि से, ू ृ अब हूूँ यथावत आत्म क्स्थत, ब्रह्म ज्ञान प्रसाि से -----४ आश्रम , अनाश्रम, ध्यान वजणन, आदि से उन्मतत हूूँ, ु इनसे परात्पर आत्म क्स्थत , आत्मा उन्मतत हूूँ.-----५ ु त्याग और सांकपप मन क, मल में अज्ञान हैं , े ू न मन मेरा अब कमण कताण और न उपराम है .------६ ब्रह्म चचांतन भी है बांधन, उससे भी उन्मतत हूूँ, ु आत्मा में ही हूूँ प्रनतक्ष्ठत, आत्मा से सांयतत हूूँ.------७ ु यदि आत्मवत ही स्वभाव स्वतः, वह तो कृत - कृत धन्य है , ज्ञानी हैं वे भी, स्वयम पायें, या कक साधन जन्य है .------८

त्रयोदश प्रकरण

जनक उवाचः कौपीन धारण पर भी िलभ, जो अवस्था चचत्त की, ु ण वह कछ नहीां क भाव से, अनभनत होती ननत्य की.-----१ े ु ू ु िे ह का िःख है कहीां तो वाणी मन का िःख कहीां, ु ु त्याग कर अतएव तीनों आत्मसख पाया यहीां.------२ ु िे हादि से कृत कमण उनसे तो आत्मा ननमलणप्त है, कृत कमण जो भी आ पड़ा, करक उसे सख, तप्त है .-----३ े ु ृ कमण और ननष्कमण बांधन यतत भाव क लोग से, े ु मैं सवणथा ही असांग, प्रमदित िे ह योग प्रवयोग से ------४ ु ननरपेक्ष, ननःस्पह हूूँ यथा, गनतस्वप्न, अथण अनथण से, ृ अथ जागता सोता तथाप्रप मदित, ननःस्पह से.------५ ु ृ सख अननत्य है, ममण बहु जन्मों में जाना इसमलए, ु अशभ - शभ सब त्याग ननःस्पह भाव हूूँ प्रमदित दहये -----६ ु ु ु ृ

चतुदथश प्रकरण
जनक उवाचः प्रवषय सेवी प्रभाव से और शन्य चचत्त स्वभाव से ू सप्त हैं,जाग्रत तथाप्रप, प्रवरत प्रवश्व प्रभाव से.-----१ ु पनाणत्मिशी अब मेरी प्रवषयानरक्तत शन्य है, ू ु ू ज्ञान धन और शास्त्र ममत्रों में भी रूचच अनत न्यन है .------२ ू अयआत्मा ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही सवणज्ञ है , मझे मोक्ष की चचांता नहीां, सवणग्य जब से प्रवज्ञ है .------३ ु सांकपप शन्य प्रवकपप से मन, बाह्य पर उन्मत्त है, ू यह िशा जाने वही, जो स्वयम ज्ञान प्रवत्त है .--------४

पंचदश प्रकरण
अष्टावक्र उवाचः सतबप्रद्ध जन उपिे श ककां चचत, मात्र से ही मसद्ध हों, ु पर जन असत क्जज्ञासु न, पयंत आयु प्रबद्ध हों.-----१ ु राग प्रवषयों से ही बांधन और प्रवरक्तत मोक्ष है , ज्ञान का है सार इतना, शेष सब सापेक्ष है .-------२ तत्त्वबोध है त्यतत क्जनको, भोग प्रप्रय है प्रवलासता, तत्वज्ञ को जड़ आलसी, करे मक की वाचालता.------३ ू

न तू िे ह, न ही िे ह तेरी, कताण तू भोतता नहीां, चैतन्य तू ननरपेक्ष साक्षी, ननत्य प्रवचरे हर कहीां.-----४ तम ननप्रवणकारी, ननप्रवणकपपी, बोधरूपी अनत महे, ु राग द्वेष प्रवकार मन क, न आत्मा ककां चचत गहे .-----५ े सब प्राणणयों में आत्मा और सब प्राणणयों को आत्मा में जान तज ममता अहम, सवणत्र है ब्रह्मात्मा -------६ स्फररत अांतस में तेरे, जगत होता लहर सा, ु पर आत्मा चैतन्य तू तो, सिा रहता एक सा.------७ हे तात ! तम श्रद्धा करो, नहीां मोह से कोई तरे , ु तू आत्मा परमात्मा मय, तू तो प्रकृनत से भी परे .-----८ यह िे ह बहु गण मलप्त और आवागमन से यतत है, ु ु मत सोच तू तो आत्मा, आवागमन से मतत है .-----९ ु िे ह चाहे जाए तत्क्षण या कक कपप क अांत में , े नहीां वप्रद्ध क्षय चैतन्य तत्व की, मल उसका अनांत में .-----१० ू ृ अष्टावक्र उवाचः तू महोिचध, प्रवश्व रूप तरां ग वनत आप्त है, ृ पर जगत की वप्रद्ध क्षय से आत्मा नहीां व्याप्त है .-----११ ृ हे तात ! तम चैतन्य, तमसे मभन्न जग ककां चचत नहीां, ु ु तया त्याज्य और तया ग्राह्य, इसकी कपपना समचचत नहीां.-----१२ ु तू एक ननमणल अव्ययां चैतन्य रूप आकाश में, कहाूँ जन्म, कमण, अहम कहाूँ, तू आत्म वत स्व प्रकाश में.------१३ तया कगना, तया घघरू, सब स्वणण क ही प्रकार हैं, ां े ूूँ तू आत्मा उसमें भी तेरे मभन्न -मभन्न आकार हैं.-------१४ यह मैं हूूँ और मैं यह नहीां, सब भ्रममत मन क प्रवकपप हैं, े सब आत्मा हैं अमभन्न इनमें , मभन्नता नहीां अपप है .----१५ परमाथणतः तू एक, तझसे अन्य कोई न ज्ञान है, ु सांसार, सांसारी, असांसारी भ्रममत अज्ञान है .------१६ सांसार भ्रम और कछ नहीां, क्जसे ज्ञात वह चैतन्य है, ु बहु वासनाओां से रदहत, वह शाांत व्यक्तत अनन्य है .-----१७ भव उिचध में तू ही था, और है रहे गा एक त, ू मोक्ष बांधन हीन, सख उन्मतत प्रवचरे गा एक त.------१८ ु ु ू सांकपप और प्रवकपप से, चैतन्य अब तू चचत्त को, क्षोमभत न कर, आनांि मन, सख रूप में पा ननत्य को ------१९ ु

चैतन्य सत्ता मतत रूप हो, आत्मा एकमेव ही, ु क़िर ध्यान चचांतन मनन ककसका, आत्म भू स्वयमेव ही.-------२०

शोडष प्रकरण
अष्टावक्र उवाचः बहु भाांनत बहु शास्त्रीय अध्ययन , और कथन करते रहे , पर प्रवस्मरण इनका ककए बबन, शाक्न्त न कनतपय अहे .-----१ तेरा कमण, भोग समाचध में, यदि चचत्त भी उन्मख रहे, ु यदि मल में ननष्काम, प्रवज्ञ क ब्रह्म तो सन्मख अहे .-------२ े ू ु हैं तलाांत श्रम से जीव सब, इसको नहीां कोई जानता, यह ज्ञान गम्य, हैं धन्य जो इस ममण को पहचानता.------३ चक्षुओां क खोलने और बांि से भी जो िःखी, े ु उस मशरोमणण आलसी को कौन कर सकता सखी.------४ ु कृत और अकृत क द्वांि से, मन मतत हो तब मक्तत है , े ु ु धन, अथण, मोक्ष और काम इच्छा, शन्यता ही यक्तत है .-----५ ू ु प्रवषय का द्वेषी प्रवरत है, प्रवषयलोलप मलप्त है, ु त्याग और ग्रहण से जो परे , जन सवणथा ननमलणप्त हैं.------६ जब तक है तष्णा अप्रववेकी, भाव रहता समल है, ू ृ त्याग और ग्रहण की भावना सांसार वक्ष का मल है .------७ ू ृ राग में प्रवनत, ननवनत में द्वेष, भाव का िोष है, ृ ृ धी, मान, जन, ननद्णवि, सम बालक व्यवहृत ननिोष है .------८ ां िःख ननवनत क मलए, जग त्याग रागी की चाह है , े ु ृ पर वीतरागी जग में भी, सख शाक्न्त पाता अथाह है .------९ ु अमभमान क्जसको मोक्ष का, और िे ह ममता सतत है , ज्ञानी और योगी नहीां, बस िःख भोगी अशतत है .--------१० ु यदि ब्रह्मा, प्रवष्णु मशव तेरे, उपिे श कताण भी रहें , तो भी बबना प्रवस्मनत क, बबन त्याग न शाक्न्त अहे .------११ े ृ

सप्तदश प्रकरण
अष्टावक्र उवाचः जो ननत्य तप्त पप्रवत्र,इक्न्द्रय यतत एकाकी रमें, ु ृ वे, ज्ञान योगायतत, फल और मक्तत न उनकी थमे.----१ ु ु तत्व ज्ञानी को इस जगत क िःख किाप्रप न भासते. े ु

वे तो स्वयम भ, ब्रह्म तत्व क मल रूप उपासते.-------२ े ू ू ज्यों सपलकी पपलव को चख, गज नीम पपलव न चखे, त्यों आत्म रमणी, आत्म सख सम कोई भी सख न रखे.-----३ ु ु भोगे हुए भोगों में जो ककां चचत नहीां आसतत है, िलभ जगत में व्यक्तत जो, अभतत से भी प्रवरतत है ..-------४ ु ण ु भोग -मोक्ष की चाहनामय, जन जगत में सरल हैं, पर भोग मोक्ष की चाहना , से नर परे अनत प्रवरल है .-----५ जीवन, मरण, धन, धमण, मोक्ष व ् काम में ननरपेक्ष हो, त्याग और ग्रहण में आत्मज्ञानी न कभी सापेक्ष हों.------६ सांसार लय अथवा रहे, इसक प्रनत न प्रवद्वेष है, े वाांछारदहत, सांतष्ट, धन्य वे ब्रह्म भाव प्रवशेष है .------७ ु सघता, स्पशण, सनता, िे खता, खाता हुआ, ूां ु चेतना चैतन्य की ज्ञानी की सब करता हुआ.-------८ सांसार सागर क्षीण क्जसका, दृक्ष्ट भी अब न्यन है , ू व्यथण चेष्टा इक्न्द्रयाां तष्णा प्रवरक्तत शन्य है .-------९ ू ृ जागता, सोता, पलक न बांि करता खोलता, उत्कृष्ट प्राणी क़िर अहो! आनि दिव्य में डोलता------१० अष्टावक्र उवाचः मतत जन सवणत्र शाांत, पप्रवत्र मन का है अहे, ु सब वासनाओां से रदहत,सवणत्र शोमभत अनत महे .--११ िे खता, स्पशण, सनता, सघता, खाता हुआ, ु ूां आत्म ज्ञानी अमलप्त द्वांि प्रवमतत, सब करता हुआ.----१२ ु स्तनत ननांिा नहीां,क्रोचधत और हप्रषणत भी नहीां ु मन चचत्त नीरस मतत जन का, लेता िे ता भी नहीां.----१३ ु न ही प्रप्रनतमय नारी को अथवा मत्यु िे ख समीप में, ृ अप्रवचल मना मन चचत्त क्स्थत, ब्रह्म रूप अरूप में .----१४ सख िःख में, नर नारी में , सांपक्त्त और प्रवपक्त्त में, ु ु सवणत्र सम दृष्टा है ज्ञानी, सक्ष्ट में या व्यक्तत में .-------१५ ृ आत्म ज्ञानी को प्रयोजन प्रवश्व से ककां चचत नहीां, न क्षोभ, करुणा, िीनता, आश्चयणमय चचांनतत नहीां.----१६ ननमलणप्त, न प्रवषया प्रवद्वेषी, न प्रवषय स्पांदित रहे, प्राप्त और अप्राप्त में, मन प्रवरत आनांदित रहे .----१७ दहत अदहत, कारण अकारण का नहीां िौबणपय है,

जो मतत जन ननद्णवि मन,चचत्त शन्य, अथ कवपय है .----१८ ां ै ु ू अांतगणमलत आशाएां , दृढ़ मन अहम ममता कछ नहीां, ु करे कमण पर ननमलणप्त मन, यदि दृक्ष्ट क्षमता, तच्छ मही.---१९ ु सांकपप और प्रवकपप, अांतमणन की वक्त्त शाांत है, ृ स्वप्न और जड़ता से वक्जणत, चचत्त सौम्य ननताांत है .------२०

अष्टादश प्रकरण
अष्टावक्र उवाचः ब्रह्म बोध क उिय पर,सब भ्राक्न्त स्वप्न सी शेष हो, े उस तेजोमय आनि ब्रह्म को नमन मेरा प्रवशेष हो.------१ बहु सांपिा को जोड़ करक, भोग मानव भोगता, े पर त्याग वनत क बबना, नहीां सत्य सख की योग्यता.----२ े ु ृ कमणजन्य प्रवषाि रूपी, रप्रव से अांतमणन जला, शाक्न्त रूपी अममय धारा, क बबना तया सख भला.-----३ े ु परमाथण में आत्मा ही सत्य है , जगत भ्राक्न्त भाव है, भावाभाव प्रवभाव में स्वभावों का ही अभाव है .------४ यह सत्य पड़ न तो िर न सांकोच से हीप्राप्त है, ू ननप्रवणकपपी, ननप्रवणकारी, िोषहीन है आप्त है .-------५ उपराांत मोह ननवनत पर ही, ननज स्वरुप का भान हो, ृ वीतरागी, पारिशी जन की शोभा, मान हो.-----६ मतत और सनातन आत्मा, है जगत कवल कपपना, े ु यह जान बालक की तरह अज्ञान- है तयो अनमना ...७ यह आत्मा ही ब्रह्म भाव, अभाव है पररकपपना, यह जान जन ननष्काम की, तया कमण की सांकपपना .-----८ यह मैं हूूँ और मैं यह नहीां की, कपपनाएूँ प्रविीणण हों, आत्मा हैं एकत्व बोध से, तत्व ज्ञान प्रकीणण हो----९ शभ शाांत योगी क मलए, प्रवक्षेप है न एकाग्रता, े ु सख िःख बोध न मढ़ता है , और न ही व्यग्रता ----१० ु ु ू ननप्रवणकपपी आत्मयोगी, न राग न अपनत्व है , लाभ, हानन, राज्य , मभक्षा, वनत वन में समत्व है .---११ ृ कहाूँ धमण, काम, प्रववेक अथण हैं, मतत योगी क मलए, े ु कमण और अकमण क द्वांि से, मतत हैं क्जनक दहये.-----१२ े े ु कतणव्य कमण ननःशेष, जीवन मतत जो योगी महा, ु

ननःस्पह , प्रवयोगी, राग बबन, ननःस्वाथण कृत करता यहाूँ .------१३ ृ प्रवश्राांत योगी क मलए, कत मोह कत सांसार है, े सांकपप, मक्तत, ध्यान सब, ननःशेष जग ननःसार है .------१४ ु जगत दृष्टा ही कहे गा कक जगत ननःसार है, आत्म दृष्टा िे ख कर भी िे खता बस सार है .-------१५ िे खा है मैंने ब्रह्म, यह तो द्वैत भाव की व्यांजना , मैं स्वयां ही 'ब्रह्म' सत्य अद्वैत की अमभव्यांजना-----१६ सवोच्च क्स्थनत आत्म ज्ञान में , आत्मा ही शेष है, प्रवक्षेप मन चचत िे ह और सांसार क ननःशेष है .------१७ े आत्म ज्ञानी जग में रहकर , मानता नहीां गेह है , प्रवक्षेप और बांधन नहीां, और िे ह में भी प्रविे ह है .-----१८ कोई अहम नहीां कामना, करे कमण पर ननमलणप्त है, भाव और अभाव प्रवहीन, उसका मन सिा ही तप्त है .-----१९ ृ प्रवनत ननवनत में िराग्रह, धीर जन रखते नहीां, ु ृ ृ जो कमण भी करना पड़ा, सख से करें हटते नहीां.-----२० ु अष्टावक्र उवाचः वासना, आलम्ब, बन्धनहीन ज्ञान, से यतत है, ु प्रारब्ध रूपी पवन प्रेररत, शष्क पणण वत मतत है .----२१ ु ु न ही हषण, न ही प्रवषाि, ज्ञानी को कभी होता नहीां मन शाांत ननत्य प्रविे ह, पाता और कछ खोता नहीां.----२२ ु आत्म रमणी प्रवमल मन, आनांि मल ननवास हो, ू अनतशय परे हो ग्रहण त्याग से, ब्रह्म में प्रवश्वास हो.----२३ शन्य चचत्त स्वभाव ज्ञानी, मान न अपमान है , ू सहज रूप से कमण और ननष्काम भाव प्रधान है .-----२४ है कमण करता िे ह मन, यह आत्मा ककां चचत नहीां, जो कमणरत इस भावना से, प्रवरत, रत अनचचत नहीां.----२५ ु हैं मढ़ता मय कमण अज्ञानी क, ज्ञानी क नहीां, े े ू अहम मय हैं मढ़ , ज्ञानी ककां तु अमभमानी नहीां.------२६ ू द्वैत भाव प्रवमतत ज्ञानी को परम प्रवश्राांनत है, ु जानता, सनता न िे ख, कपपना न भ्राक्न्त है .-------२७ े ु प्रवक्षेप न कोई द्वैत , ज्ञानी इसमलए न प्रवमतत है, ु ब्रह्म वत क्स्थत उसे सांसार कक्पपत तच्छ है .-------२८ ु अन्तः अहम क्जसक, बबना ही कमण रत सांकपप से, े

ज्ञानी अहम से शन्य रत, पर प्रवरत कमण प्रवकपप से.---२९ ू मततजन कतणव्य , आशा द्वांि और उद्प्रवग्नता ु से प्रवरत, होकर परे , पर ब्रह्म से सांलग्नता.-----३० अष्टावक्र उवाचः मततजन का चचत्त, चेष्टा में प्रवत होता नहीां, ु ृ हे तु बबन ही ध्यान क्स्थत, कमण नाना बहु मही.----३१ मढ़मनत सन तत्व को , मढ़ता ही पा सक, े ू ु ू ककां तु ज्ञानी, मढ़वत आभास, गढ़ में जा सक.----३२ े ू ू मढ़ अनत अभ्यास पाते , चचत की एकाग्रता , ू ककां तु ज्ञानी की स्वप्नवत ही, स्वप्न क्स्थत प्रज्ञता.-----३३ बहु कमों से भी परम सख, अज्ञ को नहीां लब्ध है , ु ज्ञानी परूष को तत्व से, वही परम सख उपलब्ध है .-----३४ ु ु सांसार में अभ्यास से बनते नहीां मसद्धात्मा, प्रप्रय पणण बद्ध प्रपांच िःख से हीन, शद्ध है आत्मा.-------३५ ू ु ु ु अभ्यास रूपी कमण से , नहीां मोक्ष ममलता मढ़ को, ू कमण भाव प्रवहीन ज्ञानी, धन्य पाता गढ़ को.-----३६ ू अज्ञान- वश ननज रूप को, भला हुआ है, भ्रममत है, ू पर जीव ब्रह्म है जानते ही, ब्रह्म मय सख अममत है .----३७ ु आधार हीन िराग्रही मय , जग का पोषक अज्ञ है, ु मल छे िन इस जगत का, कर सक जो प्रवज्ञ है .----३८ े ू िशणन कहाूँ उसे आत्मा का,दृष्ट आलांबन क्जसे, जो दृष्ट को नहीां िे खते , अदृष्ट आलांबन उसे.---३९ उनको नहीां सख शाक्न्त , चचत्त जो रोकते हठ योग से, ु आत्म रमणी सहज सांयम, शाक्न्त सत्य प्रयोग से.-----४० अष्टावक्र उवाचः उनको नहीां सख शाक्न्त, चचत्त जो रोकते हठ योग से, ु आत्म रमणी , सहज सांयम, शाक्न्त सत्य प्रयोग से.----४१ भाव रूप है ब्रह्म तो, कोई कहता कछ नहीां, ु कोई िोनों पक्ष मन, ननरपेक्ष माने सैट मही.-----४२ िबप्रद्ध जन अद्वैत भाव का, मात्र ही चचांतन करें , ु ुण पयंत जीवन शाक्न्त सख से, हीन वे यापन करें .----४३ ु जन ममक्ष की बप्रद्ध तो, अबलम्ब बबन रहती नहीां, ु ु ु मतत जन ननष्काम, बबन अबलम्ब रहते हर कहीां.----४४ ु

प्रवषय रूपी ब्याग्र से, भय भीत हो जग छोड़ते, मढ़, गढ़ ननगढ़ , ममण की ओर मन नहीां मोड़ते.-----४५ ू ू ू वासना से हीन जन, वे मसांह सम मदहमा मही, प्रवषय रूपी वीर ककन्नर, स्वयम नम होते नहीां.-----४६ सघता, स्पशण, सनता िे खता खाता हुआ, ूां ु कमण ननश्चय, भाव ननश्छल, ज्ञानी का करता हुआ-----४७ शद्ध, बप्रद्ध, स्वस्थ चचत मन, यतत व्यक्तत यथाथण को, ु ु ु श्रवण से ही ग्रहण, उनक प्रवरतत भाव पिाथण को.------४८ े हैं शभ अशभ, प्रारब्ध वश, आगत रदहत हो कमण को, ु ु ज्ञानी करे सब बालवत, बबन राग द्वेष स्व धमण को -----४९ राग द्वेष प्रवमतत चचत मन, सवणथा ही स्वतांत्र है, ु ज्ञान, ननत सख, परम पि स्व पर प्रवरल, स्व तांत्र है .----५० ु अष्टावक्र उवाचः जब अकताणपन का अपनी, आत्मा का भास हो, सकल उसकी चचत्त वनतयों चपलतायें नाश हों -----५१ ृ ज्ञानी की क्स्थनत उश्रुन्खल, हो तथाप्रप शाांत है . वक्त्त स्पहाणमयी की, शाक्न्त भ्रम, उद्भ्राांत है .------५२ ृ क्जस धीर ज्ञानी क चचत्त की, सब कपपनाएूँ शेष हों. े प्रारब्ध बस, भोग ककां त, चचत शाांत प्रवशेष हो-----५३ ु तीथण, पांडडत, िे वता हो, नारी, नप पत्रादि हो, ु ृ िे ख कर भी शाांत मन, उद्प्रवग्न पर न किाप्रप हो.-----५४ ककां करों, नानतयों, पत्रों, बांधु बाांधव आदि से ु हो नतरस्कृत या हो पक्जत, प्रवलग िःख सख आदि से.----५५ ू ु ु लोक दृक्ष्ट से जो सख िःख, उनसे ज्ञानी है परे . ु ु आश्चयणमय ऐसी िशा का ज्ञान, ज्ञानी ही करे .-------५६ चचत्त ज्ञानी का ननप्रवणकारी, शन्य न आकार है, ू सांकपप हीन ननरामया, कतणव्यता सांसार है .-----५७ मढ़ जन कताण ही है, कमण यद्यप्रप नही करें ,, ू ज्ञानी अकताण ही रहे, कमण यद्यप्रप बहु करें .-----५८ शयन भोजन और वचन में, ज्ञान ही आधार है , आत्म सखमय शाांत सम्यक, ज्ञानी का व्यवहार है .५९ ु ज्ञानी का व्यवहार प्रेररत,आत्मज्ञान स्वभाव से, तलेश, क्षोभ प्रवहीन, सागरवत, प्रवरतत प्रभाव से.----६०

अष्टावक्र उवाचः मढ़ की ननवनत भी, प्रवनत रूपी है तथा, ू ृ ृ ज्ञाननयों की प्रवनत है, रूप ननवनत की यथा ----६१ ृ ृ मढ़ का वैराग्य तो, गह आदि में दृष्टव्य है, ू ृ िे ह में लय राग धीर का, ब्रह्म ही गांतव्य है .----६२ भावना या अभावना में, मढ़ जन आसतत हैं, ू ककां तु ज्ञानी जन की दृक्ष्ट आत्मा अनरतत है .-----६३ ु करे बालवत व्यवहार ज्ञानी, कामनाओां से परे , प्रारब्ध वश रत कमण, रत न भावनाओां को करे .----६४ िे खता, स्पशण, सनता, सघता खाता हुआ, ु ूां आत्म ज्ञानी, धन्य सम मन, ननस्तरण पाता हुआ.-----६५ सवणिा आकाश वत ज्ञानी, सिा ननप्रवणकार है, आभास, साधन, साध्य, और उसका कहाूँ सांसार है .-----६६ जो समाचध सहज में, और पणाणनन्ि स्वरुप में, ू सतत ही करता रमण, जय जयनत अपने ही रूप में .-------६७ ननराकाांक्षी तत्व ज्ञानी, मोक्ष में और भोग में, राग द्वेष प्रवहीन हर पल ब्रह्म क सांयोग में .------६८ े मभन्नता अज्ञान है, जो द्वैत का आधार है, जो आत्मबोध प्रबद्ध, उसका छटता सांसार है .----६९ ु ू प्रवश्व मात्र प्रपांच ज्ञानी क मलए कछ भी नहीां, े ु चैतन्य आत्मा अनभवी को, तच्छ सारी भी मही .---७० ु ु अष्टावक्र उवाचः शम कहाूँ पर त्याग अथवा कमण प्रवचध, शाक्न्त कहाूँ, अज्ञानता का है पसारा, भ्रममत , भ्रम, भ्राक्न्त यहाूँ.-----७१ कहाूँ मोक्ष, बांधन ज्ञाननयों को, हषण और प्रवषाि है , सब ब्रह्ममय ब्रह्माण्ड माया, प्रकृनत ब्रह्म प्रसाि है .------७२ सांसार में पयंत बप्रद्ध, माया की ही माया है, ु ननष्काम बद्ध, प्रबद्ध दृक्ष्ट में, जगत कवल छाया है .----७३ े ु ु प्रवश्व, प्रवद्या, िे ह, जग, सब हैं कहाूँ, अनसार भी, ु आत्म ज्ञानी क मलए सब व्यथण हैं, ननःसार भी.-----७४ े जड़,मढ़, कमों को त्याग कर भी, मलप्त अांतस में कहीां, ू सांकपप और प्रवकपप मन से मतत होते हैं नहीां.------७५ ु मढ़ सनकर आत्म तत्व भी, मढ़ता नहीां छोड़ते, ू ु ू

ननप्रवणकपप हो बाह्य से, अांतःकरण नहीां मोड़ते.----७६ क्जस ज्ञान से सब ज्ञाननयों क, कमण होते नष्ट हैं, े वे तथाप्रप कमण रत, पर मन प्रवरत, स्पष्ट है .---७७ ननप्रवणकारी और ननभणय क मलए, कछ भी नहीां, े ु तम ् कहाूँ, ज्योनत कहाूँ और त्याग आदि कछ नहीां .-----७८ ु आत्म ज्ञानी की प्रकृनत तो, अननवणचन महान है, कहाूँ धैयण और प्रववेक है , कहाूँ ननयम और प्रवधान हैं.----७९ योगी नरक और स्वगण, जीवन मक्तत का इच्छक नहीां, ु ु बहुत कहना ननष्प्रयोजन, योग दृक्ष्ट से कछ नही.-----८० ु अष्टावक्र उवाचः चचत्त अमत से है पररत, योगी का शीतल तथा, ू ृ लाभ हानन से परे , नहीां प्राथणना करता यथा.-----८१ सौम्य जन की स्तनत और िष्ट की ननांिा नहीां, ु ु ननष्काम योगी तप्त, सख और िःख की चचांता नहीां.----८२ ु ु ृ हषण, रोग प्रवहीन ज्ञानी , भावः सम्यक सक्ष्ट है, ृ न ही मत और न ही जीप्रवत , जगत में सम दृक्ष्ट है .----८३ ृ पत्र स्त्री से प्रवरत, स्विे ह की चचांता नहीां, ु मतत आशाओां से ज्ञानी, शोभता है हर कहीां ------८४ ु स्वच्छां ि बहु िे शों में प्रवचरण, जो ममला पयाणप्त हो, सवणिा ही मदित मन, सोये जहाूँ सयाणस्त हो.----८५ ु ू ननज भाव भमम में रहे, सांसार प्रवस्मत हो क्जसे, ू ृ यह िे ह जाए या रहे, ककां चचत न स्मनत हो उसे.----८६ ृ सवणथा ही प्रवरत ज्ञानी, को न कोई द्वांि है, सवण भावों में रमण करता, सवणिा स्वच्छां ि है .-----८७ ककां करी, कचन और माटी में भी ममता हीन है, ां भाव राज तम ् क धुलें, ज्ञानी जो आत्म प्रवीण हैं.----८८ े सवणत्र आसक्तत रदहत, कछ वासना दहय में नहीां, ु तप्त ज्ञानी की भला तया साम्यता जग में कहीां.-----८९ ृ सब िे खता, सब बोलता, सब जानता ज्ञानी सभी, कोई वासना दहय में नहीां,तया अन्य है प्राणी कभी.----९० अष्टावक्र उवाचः श्रेष्ठ और ननकृष्ट िोनों, भावनाएां शेष हों, ननष्काम शोमभत सवणिा, चाहें मभक्षु, राजा प्रवशेष हों.----९१

ननष्कपट और सरल योगी को कहाूँ, स्वच्छां िता , तत्व का ननश्चय कहाूँ, सांकोच की प्रनतबन्धता.-------९२ आत्म प्रवश्राांनत में तक्प्त, शोक आशा से परे , ृ ज्ञानी अभ्यान्तर में अनभव, तया कहे,ककस्से करे .----९३ ु स्वप्न जागत और सषक्प्त, धीर तीनों काल में, ु ु ृ सम्बन्ध कवल आत्मा से ही रखें त्रैकाल में .-----९४ े बप्रद्ध,चचांता, इक्न्द्रयों क, सदहत भी और रदहत भी, े ु अहम से भी सक्न्नदहत, ज्ञानी अहम ् से प्रवदहत भी.-----९५ न सखी, न ही िःखी, न मतत न ही ममक्ष है, ु ु ु ु ु ककां चन अककां चन से परे ,सांग और प्रवरक्तत तच्छ है .-----९६ ु प्रवक्षेप में प्रवक्षक्षप्त और पांडडत नहीां पाांडडत्य में , जड़ नहीां जड़ता में, चेतन पणण है, चैतन्य में .-----९७ ू समभाव हर क्स्थनत में ज्ञानी, जो ममला सांतोष है, कृत और अकृत कमों में ननःस्पह, मन प्रवरक्तत कोष है .-----९८ ृ सम भाव स्तनत और ननांिा, है वही ज्ञानी, परे , ु न मत्यु में न हषण में , उद्प्रवग्न, जीवन को करें .-----९९ ृ नगर वन सब एक, क्जसकी ज्ञान, धी, प्रज्ञा महे, सम भाव क्स्थत वह सभी, स्थान क्स्थनत में रहें .------१००

नवदश प्रकरण
जनक उवाचः तत्व ज्ञान की साांसी गरु से, ममल गए मैं कृतज्ञ हूूँ, ु से वाण रूप प्रवचार गए, ममणज्ञ हूूँ.-------१ मझे द्वैत से या अद्वैत से धन, ऐथण से और काम से, ु ककां चचत प्रयोजन भी नहीां, चचतवनत शेष प्रवराम से.-----२ ृ मैं ननत्य स्व मदहमा प्रनतक्ष्ठत,तीन कालों से परे , कहाूँ िे श कालों की पररचध, प्रनतबबम्ब सीमा से करें .-----३ शभ--अशभ, चचांता--अचचांता, आत्मा या अनात्मा, ु ु हूूँ ननत्य स्व मदहमा प्रनतक्ष्ठत, चचत्त में परमात्मा.------४ अब स्वप्न जाग्रत और सषक्प्त, तरीय अथवा भय कहाूँ, ु ु ु हूूँ ननत्य स्वमदहमा प्रनतक्ष्ठत, इनका न अनभव वहाूँ.----५ ु बाह्य अभ्यांतर कहाूँ पर सक्ष्म है , स्थूल है, ू हूूँ ननत्य स्व मदहमा प्रनतक्ष्ठत, मझको सब अनकल है .----६ ु ु ू

कहाूँ मत्यु है , जीवन कहाूँ, परलोक लौककक ज्ञान है , ृ लय समाचध है कहाूँ?मझे प्रवज्ञ आक्त्मक ज्ञान है-----७ ु आत्मा में प्रवश्राांनत, पणण मैं पा गया, अब पणण हूूँ. ू ू धमण, अथण और मोक्ष काम की, पणता सम्पणण हूूँ ----८ ू ण ू

ववंश प्रकरण
जनक उवाचः मेरे ननरां जन रूप में, कहाूँ पांचभत प्रवकार हैं, ू कहाूँ िे ह, मन, कहाूँ इक्न्द्रयों, कहाूँ शन्य पणण प्रकार है .----१ ू ू हूूँ ननप्रवणषय सब भाव में,न ही द्वांि, है न अद्वांि है, न तक्प्त, न तष्णा, न मन, अब आत्मा स्वच्छां ि है,------२ ृ ृ मेरे रूप को कहाूँ रूपता,प्रवद्या अप्रवद्या है कहाूँ? अहम और ममकार अथवा बांध मोक्ष भी है कहाूँ?------३ में ननप्रवणशष हूूँ आत्मा, कहाूँ कमण और प्रारब्ध हैं, े और कहाूँ कवपय, जीवन मक्तत आदि प्रबांध हैं.--------४ ै ु शेष हैं भोततत्व और कतत्व आत्मानांि है, णृ ृ ननःस्वभावी, स्फरण कहाूँ ज्ञान फल क द्वांि हैं.-------५ े ु स्व - स्वयम का रूप अद्वय , मैं स्वयां ही ज्ञान हूूँ, कहाूँ बद्ध और ममक्ष, द्वैत क द्वांि, ऋत प्रवज्ञानां हूूँ.?-----६ े ु ु मझ अद्वैत स्वरुप को, सक्ष्ट कहाूँ सांसार है,? ु ृ कहाूँ साध्य, साधन, मसप्रद्ध साधक, आत्मा का प्रसार है .?----७ मैं शद्ध, चेतन आत्मा,ककां चचत अककां चचत है कहाूँ,? ु अन, लघु, मदहमा, प्रमाता और प्रमाणणत है कहाूँ?------८ ु सवणिा ननक्ष्क्रय कहाूँ, प्रवक्षेप और एकाग्रता ? मढ़ता, अज्ञान, सख और है कहाूँ पर व्यग्रता ?-----९ ू ु वनत ज्ञान शन्य स्वरुप,अब मझमें कहाूँ व्यवहार है ? ू ु ृ सख कहाूँ और िःख कहाूँ, परमाथणता से पार है?-----१० ु ु जनक उवाचः प्रवमल हूूँ मझमें कहाूँ, माया कहाूँ सांसार है ? ु प्रीनत और प्रवरनत कहाूँ ,कहाूँ जीव ब्रह्म अपार है ?----११ आत्मा है कटस्थ और यह सवणिा अप्रवभाज्य है, ू प्रवनत और ननवनत कहाूँ, मझे ग्राह्य और तया त्याज्य है ?-----१२ ु ृ ृ मशव रूप हूूँ मैं उपाचध बबन,तयोंकक आत्मा ननरपेक्ष है,

कहाूँ शास्त्र, गरु, उपिे श, मशष्य हैं, कहाूँ बांधन मोक्ष हैं ?------१३ ु आक्स्त और नाक्स्त कहाूँ, और िो कहाूँ पर एक है ? नहीां बहुत कहने का प्रयोजन, ब्रह्म सवणम ् एक है .--------१४ ।।इतत श्री अष्टावक्रगीता काव्यानवाद।। ु

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