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अनुकररम

पररथम सगरर
ििरिििय सगरर
िृििय सगरर
चिुथरर सगरर
मोकरष धाम
पंचम सगरर
शी गुर वनदना
।। शी गणेशाय नमः ।।


।। 1।।
िसििरध बुििरध के पररिािा, पािररिीननरिन, गणनायक शररी गणेश जी को मैं बार-बार
नमसरकार करिा हूँ।(1)

।। 2।।
िीणा एिं पुसरिक धारण करने िाली सरसरििी िेिी को मैं नमसरकार करिा हूँ। िििरया
पररिान करने िाले पूजरय गुरुिेि को मैं सािर पररणाम करिा हूँ।(2)

।। 3।।
मैं सरिेचरछा से योगीराज (पूजरयपाि संि शररी आसारामजी बापू) के पािन चिरि का
िणररन कर रहा हूँ। महानर पुरुषों की जनरमगाथा भी भििाप को नाश करने िाली होिी है।(3)

।। 4।।
योगिििरया में ििचकरषण, धमररशासरिररों में ििशारि एिं बररहरमिििरया में अगररगणरय
कोई (महान संि) भारिभूिम में अिििरि हुआ है। (4)

।। 5।।
परमािरमा ने हमारे िलये ये महानर योगी भेजे हैं। (भगिान शररी कृषरण ने) गीिा
में कहा ही है िक (जब-जब धमरर की हािन और अधमरर की िृििरध होिी है िब-िब) मैं अपने
रूप को रचिा हूँ। (अथाररिर साकार रूप में लोगों के समरमुख पररकट होिा हूँ।)(5)

।। 6।।
जब संि पृथि र ी पर जनरम लेिे हैं िब िन शर चय ही पृथरिी पर सुिभकरष होिा है। समय
पर बािल िषारर करिे हैं और पृथरिी धनधानरय से युकरि हो जािी है।(6)

।। 7।।
निियों में िनमररल जल सरियं ही सब ओर बहने लग जािा है। मनुषरय सब पररसनरन
होिे हैं और इसी पररकार मृग एिं प श -पकर
ु षी आिि जीि भी सब पररसनरन रहिे हैं।(7)

।। 8।।
महानर आिरमाओं के जनरम के समय िृकरष फल िेने लग जािे हैं। संसार में ऐसा
पररिीि होिा है मानों किलयुग में िररेिायुग आ गया हो।(8)

।। 9।।
अब मैं बररहरमिििरया के पररचार के िलए और सब पररािणयों के िहि के िलए आसुमल
की िििरय कथा का िणररन कर रहा हूँ।(9)

।। 10।।

।। 11।।
अखणरड भारि में िसनरध पररानरि के निाबशाह नामक िजले में बेराणी नाम नगर में
अपने कमरर में कुशल, सिरय सनािन धमरर में िनषरठ, िै शर य िंश के भूषणरूप थाऊमल नाम
के ििखरयाि सेठ रहिे थे।(10, 11)

।। 12।।
िे धमाररिरमाओं में अगररगणरय, गौबरराहरमणों के रकरषक, सिरय भाषी, िि शु िरध आिरम, ा
नगरसेठ के रूप में जाने जािे थे। (12)

।। 13।।
उनकी धमररपिरनी का नाम महँगीबा था, जो कुशल गृिहणी एिं अपने कुल के धमरर का
पालन करने िाली पिििररिा नारी थी। (13) अनुकररम


।। 14।।
ििकररम संिि 1998 चैि ििी छठ रिििार को मािा महँगीबा के गभरर से
योगिेिरिाओं में शररेषरठ योगी आसुमल का जनरम हुआ।(14)

।। 15।।
हृषरटपुषरट कुलिीपक, गौरिणरर सुनरिर बालक को अपनी आँखों से िेखकर मािा
(महँगीबा) बहुि पररसनरन हुईं।(15)

।।16।।
(घर में) पुिरर पैिा हुआ है यह सुनकर िपिा थाऊमल भी बहुि पररसनरन हुए। ररेषरठी
के घर पुिरररिरन की पररािपरि सुनकर सब समरबनरधी लोग भी उनरहें बधाइयाँ िे रहे थे।(16)

।। 17।।

।। 18।।
िपिा ने बरराहरमणों को िान और समरमान के िरिारा, गौओं को िृणिान के िरिारा,
ििरिररनारायणों को अनरनिान के िरिारा और सरिजनों को लडरडू आिि िमठाई के िरिारा.... इस
पररकार सभी गररामिनिािसयों को संिुषरट िकया करयोंिक पुिरररिरन की पररािपरि सिा ही
आननरििायक होिी है। (17, 18)

।। 19।।

।। 20।।
गली में कुछ सरिररी-पुरषु बालक के जनरम पर चचारर कर रहे थे िकः "िीन कनरयाओं
के बाि पुिरररिरन की पररािपरि अ शु भ है। इस अ शु भ योग से धनहािन होगी , इसिलये को यजरञ
आिि ििशेष कायरर करने चािहये।"(19, 20)

! ।। 21।।

।। 22।।
(उसी समय) कोई िरयिकरि एक िहंडोला (झूला) िेने के िलए आया और कहने लगाः
"सेठजी ! आपके घर में सचमुच कोई नरशररेषरठ पैिा हुआ है। यह सब मैंने सरिपरन में
िेखा है, अिः आप मेरे इस झूले को गररहण करें।" इसके बाि सेठजी ने अपने पूजनीय
कुलपुरोिहि को (अपने गर) बुलिाया। (21, 22)

।। 23।।

।। 24।।

।। 25।।

।। 26।।
पंचांग में बचरचे के ििनमान िेखकर पुरोिहि भी आ शर चयररचिकि हो गया और
बोलाः "सेठ सािहब ! योगिेिरिाओं में शररेषरठ यह कोई योगी आपके घर में अिििरि हुआ
है। यह भिसागर में डूबिे हुए लोगों को भि से पार करेगा। ऐसे लोग संसार में युगों
के बाि आया करिे हैं। धिनक िरयिकरियों के घर में ऐसे योगयुकरि िपसरिी जन जनरम
धारण िकया करिे हैं और उनकी कृपा से घर ऋििरध-िसििरध से पिरपूणरर हो जाया करिा है।
शीमन् ! आपके इस पुिरर के पररभाि से आपका िरयापार अपने आप चलने लगेगा और थोड़े
ही समय में िह िुगुना हो जायेगा। (23, 24, 25, 26)

।। 27।।

।। 28।।
िब िपिा ने पुिरर का नामकरण संसरकार करिाया और ििरिररनारायणों को लडरडू और
गुड़ बाँटा गया। बरराहरमणों को धन, िसरिरर आिि ििये गये करयोंिक िान से लकरषरमी, आयु,
िििरया, यश और बल बढ़िा है। (27, 28)

।। 29।।
िुिैररि से भारिो का ििभाजन हो गया। िब ये सब लोग बनरध-ु बानरधिोंसिहि गुजराि
पररानरि में आ गये। (29) अनुकररम

।। 30।।
भारि
श में भी अमिािाि में आकर इनरहोंने निीन आिास िन ि र चििकयाजहाँनया
नगर था और सब लोग अपिरिचि थे।(30)

।। 31।।
धन,धानरय, भूिम, गाँि और सब पररकार के िमिररों को एिं अपनी जनरमभूिम को छोड़कर
सेठ थाऊमल (भारि के गुजराि पररानरि मे) आ गये।(31)

।। 32।।
भारि ििभाजन के समय रकरिपाि एिं अनेक िुःखों को कोई भुकरिभोगी (भोगनेिाला)
ही जानिा हूँ, िूसरा कोई िरयिकरि नहीं जानिा।(32)

।। 33।।
(िैि ने) िनिोररष लोगों को मानो अकारण सरिगरर से नरक में डाल ििया। आ शर चयरर
है िक मायापिि की माया को कोई मनुषरय नहीं जान सकिा।(33)

।। 34।।
िपिा जी के साथ बालक आसुमल नये िनिास में आये। (िहाँ) पररसनरन ििनिाला
(िह) बालक परम संिोष को पररापरि हुआ। (34)

।। 35।।
(बालक मन में सोच रहा था िक) 'इस धरिी पर यहाँ (गुजराि मे) िरिािरकाधीश सरियं
ििराजमान है। आज िासरिि में पूिररजनरम में कृि पुणरयों का उिय हो गया है।' (35)

।। 36।।
िपिा जी ने सरिेचरछा से बालक को पढ़ने के िलये भेजा। अपने पूिरर संसरकारों
के योग से (िह बालक आसुमल) कुछ ही समय में साकरषर हो गया।(36)

।। 37।।
उसकी (बालक आसुमल की) बुििरध अपूिरर और ििलकरषण थी। अिः िह ीघरर की छािररों
में ििशेषिः सिररिपररय हो गया।(37)

।। 38।।
राििरर के समय िे (बालक आसुमल) अपने िपिाजी की चरणसेिा िकया करिे थे और
पूणरर संिुषरट हुए िपिाजी भी (आसुमल को) शुभाआशीवाद िदया करते थे।(38)

।। 39।।
धािमररक कायोररं में रि सुिििरसला मािा पुिरर (आसुमल) से असीम सरनेह रखिी थीं
एिं सिैि रामायण आिि की कथा सुनाया करिी थीं।(39)

।। 40।।

।। 41।।
मािा अपने धािमररक संसरकारों से सिैि पुिरर (आसुमल) को सुसंसरकृि करिी रहिी
थीं। िह धरयान में िसरथि बालक के आगे सरियं मकरखन रख ििया करिी थीं। िफर मािा बालक
को सरिाभाििक ही कहा करिी थी िकः "आ शर चयरर की बाि है िक भगिान यशोिानंिन ने
िुमरहारे िलये यह मकरखन भेजा है।"(40, 41)

।। 42।।
(मािा के िरिारा िसंिचि िे) धािमररक संसरकार अब िटिृकरष का रूप धारण कर रहे हैं।
आज सब भकरिजन उन धािमररक संसरकारों से ही आननरि का अनुभि कर रहे हैं।(42)

।। 43।।
मािा के पररभाि से एिं िपिाजी के शुभाशीिाररि से िे आसुमल बररहरमिििरया में
िनषरणाि एिं पूजनीय बन गये।(43)

।। 44।।
(आसुमल ने) अनेक भाषाएँ पढ़ीं िकनरिु संसरकृि भाषा पर ििशेष धरयान ििया,
करयोंिक िेि आिि सभी शासरिरर संसरकृि में ही हैं। (44)

।। 45।।
(इस पररकार) पूिरर जनरम में पढ़ी हुई समसरि िििरयाएँ सरमरण हो आईं की यह जीि सिरय
सनािन है और संसार करषणभंगुर एिं अिनिरय है।(45) अनुकररम

।। 46।।
महाबुििरधमान सेठ थाऊमल िरयापार कायरर करिे थे। उस समय उनका जरयेषरठ पुिरर
(िरयापार में) उनकी सहायिा करिा था।(46)

।। 47।।
बुििरधमान लोग कहिे हैं िक िरयापार में लकरषरमी बढ़िी है। इस पररकार उनका
पिरिार िब (पुनः) पररिििषरठि हो गया। (47)

।। 48।।
मनुषरय जो सोचिा है िह नहीं होिा, िकनरिु होिा िही है िजसे भगिान सोचिे हैं।
उस समय अचानक ही सेठ थाऊमलजी का िेहानरि हो गया।(48)

।। 49।।
(पिि की मृिरयु िेखकर) मािा और सारा पिरिार रूिन करने लगा, िकनरिु आसुमल
पररयिरनपूिररक उन सबको धीरज बँधा रहे थे।(49)
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

।। 50।।
(आसुमल ने अपने पिरिारजनों से कहाः) "यह संसार न शर िर है। यहाँ कोई जीि
सिा जीििि नहीं रहिा। मुझे बिाइये िक मेरे िािा आिि सब िपिृ कहाँ चले गये?" (50)

।। 51।।
(आसुमल) ने अपने िपिाजी की) अिनरिम िकररया की और िपणरडिान आिि सिरर कायरर
सनािन रीिि के अनुसार समरपनरन िकये।(51)

।। 52।।
अब आसुमल अपने बड़े भाई के साथ सब िरयापार पर सरियं िनगरानी रखिे थे,
िकनरिु िे (अपनी पूजा-पाठ आिि के कारण िया भाि से) करषुधापीिड़ि लोगों को अनरन िबना
मूलरय ही ििला ििया करिे थे।(52)

।। 53।।
अथिा अपने जप आिि कायोररं में समािधसरथ होकर समय िरयिीि करिे थे और िहाँ
(िुकान पर) िेर से जाया करिे थे।(53)

! ।। 54।।
इससे कुिपि होकर बड़े भररािा ने मािा से िनिेिन िकया िकः "मािाजी ! इसके
(आसुमल के) साथ कायरर करना मुझे पसनरि नहीं है।"(54)

।। 55।।
इसके बाि बुििरधमान आसुमल सरियं िसिरधपुर नामक नगर में आये और यिरनपूिररक
िहाँ अपना कोई कायरर करने लगे।(55)

।। 56।।
अपने कायरर के समय भी िे लगािार भगिान शररीकृषरण का जप िकया करिे थे। अिः
(उस िपसरया एिं जप आिि साधना के कारण) भगिान ने उनरहें िाकर िसििरध का िरिान ििया।
(56)

।। 57।।
िे (आसुमल) िसिरधपुर में िसििरध पररापरि करके अपने घर को लौट आये। भगिान
सरियं अपने भकरिों के योगकरषेम का िहन करिे हैं।(57)

।। 58।।
इस पररकार अपने नगर में िसिरध पुरुषों में उनकी गणना की जािी थी। अिएि सरिररी-
पुरुष उनके िररशन के िलये राि-ििन िहाँ आया करिे थे।(58)

।। 59।।
िजस िकसी िरह (इस पिरिार में) पुनः लकरषरमी का सरियं आगमन हो गया। भररािा
अपने आप पररसनरन हो गये और मािा भी बहुि पररसनरन हुई।(59)

।। 60।।
धमररशासरिररों में पढ़कर (आसुमल का) मन (संसार से) ििरकरि हो गया और आसुमल
अपने नगर में पूजनीय एिं पररिििषरठि हो गये।(60) अनुकररम

।। 61।।
यह मूढ़ जीि िसरिुिः अपनी आिरमा के सरिरूप को नहीं जानिा। माया से मोिहि होकर
जीि इस संसार में बार-बार जनरम लेिा है।(61)

।। 62।।

।। 63।।
एक ििन मािा ने पररसनरन होकर ससरनेह उनसे (आसुमल से) कहाः "मैं अब िृिरध हो
गई हूँ और (घर का) कायरर करने में असमथरर हो गई हूँ। िन शर चय ही अब मैं एक गुणििी
पुिररिधू चाहिी हूँ इसिलए अब िुमरहारे िििाह के िलए मैं सरियं पररयिरन करूँगी।"(62, 63)

।। 64।।

।। 65।।
(आसुमल ने कहाः) "मैं िििाह करना नहीं चाहिा। िििाह िृथा बनरधन है। मैं िुमरहारी
सेिा के िलए यथाशिकरि पररयिरन करूँगा। मुझे जनकलरयाण के िलए एिं सब पररािणयों के
िहि के िलए भगिान िासुिेि ने ििशेष रूप से इस मृिरयुलोक में भेजा है।"(64, 65)

।। 66।।
(घर में) अपने िििाह की चचारर सुनकर िे (आसुमल) सरियं घर से भाग गये और
िफर उनकी खोज में बनरध-ु बानरधिों को साि ििन लग गये।(66)

।। 67।।
खोज करने पर भरूच नगर में िसरथि अशोक आशररम में िे िमले। उस समय भी
उनरहें िििाह का बनरधन रूिचकर नहीं था।(67)

।। 68।।
मािा
श ने अपने पुिरर को िििाह के िलये िफर समझाया। मािा की आजरञा िरोधायरर
करके (न चाहिे हुए भी) िे िििाह के िलए सहमि हो गये।(68)

।। 69।।
सब बनरध-ु बानरधिोंसिहि आििपुर नामक नगर में बाराि गई और िहाँ ुभ
सौभागरयििी सुनरिर कनरया लकरषरमीिेिी के साथ शािी की।(69)

।। 70।।
(िििाह के बाि आसुमल ने ििचार िकयाः) 'मैंने िििाह करके मािा को िो पररसनरन
कर ििया (िकनरि)ु अब मैं सरियं (सांसािरक बनरधनों) से बँध गया हूँ। सचमुच इस समय
संसार में कमलपिरर की िरह रहना ही मेरे िलये िहिपररि है।'(70)

।। 71।।
माया से मोिहि जीि काम-कररोधािि से अिभभूि होकर संसार में आसकरि हो जािा है
और िह सुख मानिा है।(71)

।। 72।।

।। 73।।
(अपने गृहसरथ) धमरर पर ििचार करिे हुए उनरहोंने (आसुमल ने) अपनी पिरनी को
समझायाः "हे िपररये ! मैं अपने कायरर की िसििरध के िलए अब जा रहा हूँ। हे सुमुखी ! िू
अपने धमरर का पालन कर और सिैि माँ की सेिा कर। मैं पररभुपररािपरि करके शीघरर ही
िापस आ जाऊँगा।" (72, 73)

।।74।।
(इस पररकार पिरनी को समझाकर आसुमल) भगिान िरिािरकाधीश के पररणाम करके
िृनरिािन गये। िहाँ से िे हिरिरिार और िफर हृिषकेश गये।(74)

।। 75।।
लेिकन (इन िीथोररं में भररमण करने पर भी। उनकी जरञानिपपासा शांि नहीं हुई। िहाँ
से िे िैियोग से सरियं ही नैनीिाल के अरणरय में गये।(75)

।। 76।।
िब िहाँ पर पूजरय शररी लीलाशाहजी महाराज के िररशन हुए। िे उस समय योगिेिरिाओं
में शररेषरठ योगिनषरठ योगी थे।(76) अनुकररम

।। 77।।
(उन ििनों) िे समसरि भारििषरर में बररहरमिििरया में ििशारि, पुणरयािरमा, िपसरिी एिं
एक बररहरमिेिरिा (पूजरय शररी लीलाशाहजी महाराज) थे।(77)

।। 78।।
आसुमल को िेखकर िे (योगीराज) मन में पररसनरन हुए। योगी लोग अपनी योगमाया
के पररभाि से योगिेिरिा को पहचान लेिे हैं।(78)

।। 79।।
उनका (आसुमल का) िििरय सरिरूप एिं पूिरर जनरम की साधना को जानकर योगीराज
पररसनरन हुए। (उनरहोंने मन-ही-मन अनुभि िकया िकः) 'आज मैंने (िशषय केरप मे ) एक रिरन
पररापरि िकया।' (79)

।। 80।।
(िब आसुमल) योिगराज को पररणाम करके उनके पास बैठ गये (करयोंिक) महानर पुरुषों
के िररशन से हृिय चनरिन की िरह शीिल हो जािा है।(80)

।। 81।।
योगीराज ने सरियं उनसे पूछाः "िुम कौन हो? कहाँ से आये हो और यहाँ (आशररम
में) िकसिलये आये हो? िुमरहारे मन में करया ििचार है?"(81)

।। 82।।

।। 83।।
(आसुमल ने कहाः) "मैं कौन हूँ यह िो मैं (सरियं भी) नहीं जानिा। यह िो मैं आज
(आप से) जानना चाहिा हूँ। मैं िो इस संसार की माया से मोिहि होकर इस मृिरयुलोक में
भटक रहा हूँ। गुरु के िबना जीि अपने आिरमसरिरूप का जरञान नहीं पा सकिा। आपके
चरणकमलों में मैं इसिलए (सरिरूपबोध) के िलए आया हूँ।" (82, 83)
! ।
।। 84।।
(पूजरय सिगुरुिेि शररी लीलाशाह जी महाराज बोलेः) "अचरछा ििरस ! सेिा करो और
ििशेष रूप से आशश ररम की सेिा करो। सेिा से ही मनुषरय इस संसार में िन ि रचिरूपसे
कलरयाण पररापरि कर सकिा है।"(84)

।। 85।।
(इस पररकार आशररम में सेिा करिे हुए आसुमल को) सिरिर ििन बीि गये िब
योगीराज पररसनरन हुए और उनरहोंने बुििरधमान आसुमल को गुरुमंिरर ििया।(85)

।। 86।।
गुरुिेि ने (आसुमल को) सरियं ही पररेरणा िी िकः "िनिरय साधना करो।" (आसुमल भी)
िहाँ िचरकाल िक ठहर कर साधना में लीन हो गये।(86)

।। 87।।
(िहाँ पर) गुरुिेि ने धरयानयोग आिि की समसरि िकररयाएँ उनरहें िसखाई। िहाँ
समािधसरथ उनरहोंने (आसुमल) ने भगिान के िररशन िकये।(87)

।। 88।।
"अब िुम अपने घर जाओ। िुम योगिसिरध हो जाओगे, िकनरिु गृहसरथ धमरर का अनािर
मि करना।(88)

।। 89।।
इस पररकार िसििरध पररापरि करके और गुरिु ेि को बार-बार नमसरकार करके शररेषरठ मन
िाले आसमुल अपने घर को िािपस आये।(89)

।। 90।।
योगी (आसुमल) को (घर) आया िेखकर सब नगरिनिासी एिं सजरजन, बनरध-ु बानरधि आिि
सब सचमुच पररसनरन हुए।(90)

।। 91।।
िे (आसुमल) नगर एिं समसरि (गुजराि) पररानरि में िसिरध पुरुष हुए और उनके
आशीिाररिमािरर से लोगों के सब कायरर िसिरध होिे हैं।(91)

।। 92।।
उनका समय िसरिुिः समािध और धरयानयोग में बीििा था और ििशेष करके िे अपने
घर में धमररशासरिररों का अधरययन करिे थे।(92)
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ


।। 93।।
(घर आने के) पनरिररह ििन बाि ही आसुमल पुनः घर छोड़कर चले गये। िन शर चय
ही
योगी का मन अपने घर में नहीं लगिा था। (93)

।। 94।।
िब (आसुमल का) िनिास सुनकर मािा भी मोटी कोरल मे आई और िफर पुिरर को घर लौट
जाने के िलये समझाया।(94)
! ।
।। 95।।
(आसुमल ने कहाः) "हे मािा ! मेरा अनुषरठान अभी कुछ बाकी है। मैं इस िररि को
पूणरर करके िफर घर अि शर य आ जाऊँगा।"(95)

।। 96।।
(आसुमल ने) इस पररकार संिुषरट हुई मािा को गरराम में भेज ििया। महानर लोगों के
कायरर महानर लोग ही जानिे हैं, अनरय लोग नहीं जानिे।(96)

।। 97।।
अनुषरठान की समािपरि पर जब िे (आसुमल) गरराम से रिाना हुए िब सब गररामिासी लोग
सचमुच ििलाप करने लगे।(97)

।। 98।।
िहाँ से िे (आसुमल) मुमरबई नगर में आये, जहाँ पर गुरुिेि लीलाशाहजी महाराज
सरियं ििराजमान थे।(98)

।। 99।।
गुरुिेि के िररशन करके िे (आसुमल) कृिकृिरय हो गये और गुरुिेि भी उस
िसििरधपररापरि साधक को िेखकर बहुि पररसनरन हुए।(99)
! ।
।। 100।।
"बेटा ! िेरी िििरय साधना, िृढ़ िन शर चय एिं बररहरमिििरया में पररगिि िेखकर मेरा
मन बहुि पररसनरन हो रहा है।"(100)

।। 101।।
गुरुिेि के साथ जब उनकी भेंट हुई िब उनको (आसुमल को) सरियं ही सरिरूपबोध
(आिरमजरञान) हो गया।(101)

।।102।।
गुरुिेि की आशीष से िे (आसुमल) भी आिरमाननरि में िसरथर हो गये और
आननरिसागर में िनमगरन िे (संसार की) माया से मुकरि हो गये।(102)

।। 103।।

।। 104।।
"ििरस ! िुमने इस समय बरराहरमी िसरथिि पररापरि कर ली है और योगिििरया में िुम
िसिरध हो गये हो। योगी को काम-कररोधािि शिररु कभी नहीं सिाया करिे। अब िुमने (योगबल
से) समिृिषरट पररापरि कर ली है और िुम पूणररकाम हो गये हो। ऐसा पुरष ु सबको (परराणीमािरर)
को समभाि से िेखिा है।"(103, 104)

।। 105।।
गुरुिेि से पूणररिा पररापरि करके (मनुषरय के) सब पाप नषरट हो जािे हैं। अपूणरर
(मनुषरय) पूणररिा को पररापरि कर लेिा है और नर सरियं नारायण हो जािा है।(105)

।। 106।।
ििकररम संिि 2021 श
आ ि र ि न स ु ि ी ििरििियाकोआसुमलकोगुर
का बोध हुआ।(106)

।। 107।।
जब जीि अपनी िपसरया से समिृिषरट पररापरि कर लेिा है िब िह बरराहरमण, हाथी एिं
कुिरिे को सम भाि से िेखिा है। (अथाररिर उसे समिृिषरट से जीिमािरर में सिरय सनािन
चैिनरय का जरञान हो जािा है।(107)
! ।
।। 108।।

।। 109।।

।। 110।।
(परम सिगुरु पूजरयपाि सरिामी शररी लीलाशाहजी महाराज ने कहाः) "ििरस ! अब िुम जाओ
और संसार के जीिों को मोकरष का मागरर ििखाओ। अब िुम मेरे आशीिाररि से 'आसुमल' के
सरथान पर िन शर चय ह'आसाराम'
ी हो। अपने आप का उिरधार करने के िलए के िलये िो
करोड़ों लोग लगे हुए हैं, िकनरिु सचरचा उिरधार िो जरञानी के िरिारा ही होिा है। बेटा ! िुम
जाओ और मेरी आजरञा से जनिा को धमरर का उपिेश करो। िििरिान लोग जनसेिा को ही
पररभुसेिा कहिे हैं।"(108, 109, 110)

।। 111।।
गुरुिेि को पररणाम करके िे (संि शररी आसारामजी बापू) िहाँ से डीसा के आशररम
में आये और िहाँ बनास निी के िट पर िनिरय पररिि साधना करने लगे।(111)

।। 112।।
िे पररािः सायं बनास (निी के िट पर) जाकर धरयान में मगरन हो जाया करिे थे। िे
ममिा, अहंकार एिं राग और िरिेष से रिहि थे।(112)

।। 113।।
एक ििन िे (निी के िट पर) जप-धरयानािि करके जब अपने आशररम की ओर आ रहे
थे िब उन िपसरिी ने मागरर में एक जनसमूह को िेखा।(113)

।। 114।।

।। 115।।
ये लोग एक मृि गाय के पास चारों ओर खड़े उसे िेख रहे थे। उन मनसरिी संि
ने (उनमें से) एक आिमी को अपने पास बुलाकर उससे कहाः "िुम जाकर उस गाय पर इस
जल का अिभषेचन करो।" (उन संि ने) ििये हुए जल के अिभषेचन से िह गाय उठकर चल
पड़ी।(114, 115)
! ।
।। 116।।
(गाय को चलिी िेखकर लोगों ने आ शर चयरर िरयकरि िकया और कहाः ) "अहो ! पृथरिी पर
िपिसरियों की शिकरि िििचिरर है !" (इस पररकार) गाँि के सब िनिासी (संि की) कीििरर का
गुणगान करने लगे।(116)

।। 117।।

।। 118।।
(एक बार संि शररी आसारामजी ने िपसरिी धमरर पालने की इचरछा से िभकरषािृििरि
करने का मन बनाया और गाँि में एक घर के आगे जाकर कहाः) "नारायण हिर...." यह सुनकर
अभाि से पीिड़ि गृहसरिािमनी ने अिि कठोर िाणी में कहाः "िुम नौजिान और हटरटे-कटरटे
होिे हुए भी यह भीख माँगिे िुमरहें लजरजा नहीं आिी? िुम सरियं कमाकर अपना उिरपालन
करो।(117, 118)

।। 120।।
योगीराज िरिारा समझाया हुआ िह भी (िीसरे) िििाह से ििरकरि हो गया। उनके शुभ
आशीिाररि से िह भी महािरमा बन गया।(120)

।। 121।।
उनके िमिरर ििलाल(संि जी के) िररशन के िलए आया। िह रासरिे में सोचने लगाः

'कुिटया में साधना में मगरन (ये संि) भोजन कहाँ से करिे हैं?' (121)

।। 122।।

।। 123।।

।। 124।।
उसने अपने मन में जो ििचार िकया था, पूजरय बापू ने सिरसंग में उसका िजकरर
िकया और कहाः "िेरा सोचना िमथरया है (करयोंिक) मेरे आशररम में भोजन के िलए आज भी
आटा है और अगले ििन की िचनरिा भगिान िासुिेि करेंगे। अपने भकरिों के योगकरषेम
की रकरषा िो भगिान शररीकृषरण सरियं करिे हैं।" शइस पररकार िे ििलालभी(सिरसंग के
पररभाि से) भगििर आराधना में लग गये।(122, 123, 124)

।। 125।।
(एक बार) निी के पार करने की इचरछािाले एक पंगु को रूिन करिा हुआ िेखकर (शी
आसारामजी बापू ने) शीघ ही उसको अपन क े ं ध े प रबै(125)
ठाकरनदीपारकरवादी।

।। 126।।

।। 127।।
(मजिूर ने कहाः) "मैं काम करने में असमथरर हूँ करयोंिक मेरे पैर चोट लगी हुई
है। सेठ ने मुझे काम से िनकाल ििया है। अब मैं करया करूँ? कहाँ जाऊँ? मुझे यह
िचनरिा सिा रही है िक अब मैं अपने पिरिार का पालन कैसे करूँगा?" (126, 127)

।। 128।।
(पूजरय बापू ने कहाः) "अब िुम िफर िहाँ जाओ। िुमरहारा कायरर िसिरध हो जायेगा।" इस
पररकार उनके (संि के) शुभाशीवाद से वह सफल हो गया। (128)

।। 129।।
शराब पीन वेाले, मांस खाने िाले लोग एिं अनरय िरयसनी भी पूजरय बापू के पररभाि से
सिाचारी हो गये।(129)

।। 130।।
(िहाँ उनके) पररिचन में अनेक पररकार के सरिररी और पुरुष आिे थे। (िहाँ) योगी
की कृपा से िह डीसा नगर उस समय िृंिािन-सा हो गया था।(130)

।। 131।।
अनेक िुःखी लोग सिा िहाँ (सिरसंग में) आया करिे थे और िे रोग, शोक एव िंिनता
से मुकरि होकर हृिय में शांिि पररापरि करिे थे।(131)

।। 132।।
संि की कृपा से पापी लोग भी (भिसागर से) पार हो जाया करिे हैं िकनरिु पापी के
साथ धािमररक लोग भी डूब जाया करिे हैं।(132)

।। 133।।
(एक बार सभा में योगीराज ने शररोिाओं से पूछाः) "आप सब लोग ििशेष रूप से
ििचार कर बिाइये िक योगिसिरध साधुओं में और साधारण मनुषरयों में करया अनरिर है?
(133)

।। 134।।
(उनमें से) एक शररोिा ने कहाः "(योगी और साधारण जन में) कोई भेि नहीं है।
िििरिान लोग कहिे हैं िक सब मानि समान हैं।"(134)

। 135।।
(शोता से यह उतर सुनकर) िपसरिी योगीराज केिल एक िसरिरर (केिल अधोिसरिरर) के साथ
आशररम को छोड़कर चल पड़े।(135)

।। 136।।
(िहाँ सभा में िसरथि) सभी शररोिाओं ने बार-बार (संि से) परराथररना की िकनरिु साधु
लोग िो अपने िन शर चय (136)
पर सिैि िसरथर रहिे हैं।

।। 137।।
िपसरिी लोग माया से मोिहि कभी नहीं होिे, काम और राग से रिहि (संि लोग) मोह
और ममिा को िरयाग िेिे हैं।(137)
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ


।।138।।
िहाँ से िे (योगीराज) नारे शर िर
के गहन िन में आ गये। िहाँ पर नमररिा निी
के िट पर कर समािधसरथ हो गये।(138)

।। 139।।

।। 140।।
समिृिषरटिाले (िसंह आिि) िहंसरर जीिों से एिं चोरों से नहीं डरिे। सूयोररिय हो
गया। (निी के) जल में मेंढक कूि रहे थे। उन मेंढकों के छप-छप शबरि से योगी का
धरयान भंग हो गया। पररािििररिधयों से िनिृिरि होकर िे (योगीराज) पुनः िहीं पर बैठ गये।
(139, 140)

।। 141।।
"मुझे भूख िो लग रही है िकनरिु अब मैं (िभकरषा के िलए) कहीं न जाऊँगा। मैं आज
भगिान शररीकृषरण के िाकरय - 'योगकरषेमं िहामरयहं' की परीकरषा करूँगा।"(141)

।। 142।।
िब िो िकसान िहाँ निी िट पर (संि के पास) आये (और कहने लगेः) "शीमन् ! आप
यह िूध एिं कुछ मधुर फल (हमसे) गररहण करें।"(142)

।। 143।।
(पू. बापू ने उन िोनों से पूछाः) "आप कहाँ से आये हैं और आप िोनों को यहाँ
िकसने भेजा है? श मैं मानिा हूँ िक यह िूध िन ि र च ि "(143)
हीमेरेिलएनहींहै।

।। 144।।
(संि शररी ने मन ही मन सोचाः) "यह िूध यहाँ िकसने भेजा है,यह िो मैं नहीं
जानिा, अिः इस ििषय में कुछ नहीं कह सकिा। िन शर चय ही िह िनराकार ही यहाँ साकार हो
रहा है।"(144)

।। 145।।

।। 146।।
(िकसानों ने कहाः) "हमने सरिपरन में जो रूप िेखा था, अि शर य ही िह आपकी आकृिि
से िमलिा जुलिा था। अिः यह िूध आपके िलए ही है, इस ििषय में आप कोई ििचार न करें।
शीमान् जी ! हमारे नगर में इस समय कोई संि-महािरमा नहीं है। इसिलए गरराम के सब
िनिासी लोग आपको गाँि में ले जायेंगे।"(145, 146)

।। 147।।
यह कहकर िे िोनों िो (िूध-फल िहाँ रखकर अपने) गाँि की ओर चले गये। (िब
योगीराज ने भी अपने मन को ििचार िकया िक) मोह माया के ििनाश हेिु साधुओं के िलए
भररमण करिे रहना ही उिचि है। (िकसी एक सरथान पर ठहरना ठीक नहीं।(147)

।। 148।।
िहाँ गुरि ु ेि की आजरञा पररापरि करके इनरहोंने पहाड़ िेखने का मन बनाया और
िहाँ से भररमण के िलए िे हृषीकेश आये।(148)

।। 149।।
िहाँ से िटहरी नगर में आये और मागरर में लंका नामक सरथान को भी िेखा। िहाँ
से (पहाड़ की) पियािररा अिधक कषरटपररि हो गई।(149)

।। 150।।
िहाँ िहमशालाओं से आचरछाििि मागरर अिरयंि ही किठन था। िहाँ पर गररीषरम ऋिु
में िो सैंकड़ों यािररी यािररा के िलये आया करिे हैं।(150)

।। 151।।
यह िह पिििरर भूिम थी जहाँ से गंगा का उिगम हुआ है। जहाँ पर सरनान आिि करके
पापी लोग भिसागर से पार हो जािे हैं।(151)

।। 152।।
िहाँ उस समय योगमि से उिरधि एक संनरयासी रहा करिा था। िहाँ के सब साधु-
संनरयासी लोग उस योगी से डरिे थे।(152)

।। 153।।
(पूजरय बापू ने जाकर उस संनरयासी की कुिटया का िरिार खटखटाया िो िह संनरयासी
भीिर से ही बोलाः) "यह मेरी कुिटया के कपाट कौन खटखटा रहा है? मैं यह जानना चाहिा
हूँ िक यह कपाट खटखटाने िाला मृि है या जीििि है?"(153)

।। 154।।
(पू. बापू ने कहाः) "शीमन् ! मैं जीििि नहीं अिपिु पूणररिया मृि हूँ। आपके िररशन करना
चाहिा हूँ। आप बाहर आकर िेखें, यह िरयिकरि आपकी पररिीकरषा कर रहा है।

।।155।।

।। 156।।
िब बाहर आकर उस योगी ने अपने सामने खड़े बापू को िेखकर आ शर चयररचिकि
होकर आिरपूिररक िचन बोलेः "आ शर चयरर की बाि है मेरे पूिररपुणरयों के पररिाप से
आपके िररशन हुए हैं।" िफर उन िोनों में ििशेष रूप से आधरयाििरमक चचारर हुई।(155, 156)

।। 157।।
(संनरयासी ने कहाः) "यहाँ हमेशा जीििि नर िो अनेक आिे हैं िकनरिु मृि िरयिकरि
िो सचमुच आप ही आये हैं।"(157)

।। 158।।
(उस भेंट के बाि) योगीराज ने बिरीनाथ और केिारनाथ की यािररा भी की िथा
िीथोररं में इधर-उधर घूमिे हुए उनरहोंने िहाँ गुफा भी िेखी।(158)

।। 159।।
यह िह पिििरर भूिम है जहाँ युग-युगानरिरों से बररहरम में िनरि लोग िपसरया करने
के िलए आिे हैं।(159)

।। 160।।
िििभनरन िीथरर सरथानों में सरनान और योिगयों के िररशन संसार में पुणरयिानर लोग ही
करिे हैं, अनरय नहीं।(160)

।। 161।।
िफर िे (बापू) आबू पिररि पर आकर िहाँ का घनघोर िन एिं परम अिभुि (परराकृििक)
सौनरियरर िेखकर िे मंिररमुगरध हो गये।(161)

।। 162।।
िहाँ बररहरमाननरि में िनमगरन िे (बापू) सरिेचरछा से पररािः सायं पिररिों पर एिं
िनों में इधर-उधर घूमिे थे।(162)

।।163।।
एक बार िहाँ िन में घूमिे हुए योगीराज ने िरकरि हसरि एिं रासरिा भूल गया हो ऐसे
एक भयभीि सैिनक को िेखा।(163)

।। 164।।
(िह सैिनक बोलाः) "िहंसरर जानिर (यहाँ) चारों ओर घूम रहे हैं। मैं खाली हाथ
यहाँ आ गया हूँ। िन शर चय ही आज आप िैि योग से इधर आ गये। " (164)

।। 165।।
िब (पूजरयपाि संि शररी आसारामजी) बापू ने उससे कहाः "यह िुमरहारा ििचार िनरथररक
है। (िसरिुिः) िुम अपने आिरमसरिरूप को नहीं पहचानिे, इसीिलए िुम डर रहे हो।(165)

।। 166।।

।। 167।।
(िासरिि) में शसरिरर का बल बल नहीं होिा, िुमरहारी आिरमा का बल ही (िासरिििक) बल
है। िुम िसरिुिः सिरय सनािन आिरमा हो और इन िहंसरर जीिों से िृथा ही डर रहे हो। िुम
मुझे िेखो, इन िहंसरर जीिों से मैं नहीं डरिा और ये जीि भी मेरे से कभी नहीं डरिे।
मैं इस िनजररन िन में िनिरय घूमिा हूँ।"(166, 167)

।। 168।।
(िसरिुिः) असरिरर-शसतो का बल वयथथ है। बहिवदा का बल ही असली बल है। संसार मे बह को जाननवेाले
लोग मौि से भी नहीं डरिे।(168)

।। 169।।
(एक ििन) िार बाबू मनोहर िररशन के िलए िहाँ आया। िहाँ योिगराज को पररणाम करके
थोड़ी िेर के िलए िहाँ बैठ गया।(169)

।। 170।।
परनरिु िैियोग से िह (िहाँ) समािधसरथ हो गया। (सायं) साि बजने के समय उसका
धरयान टूटा।(170)
।।
।। 171।।
"मैं नहीं जानिा हूँ िक इिने लमरबे समय िक मैं यहाँ पर कैसे बैठ गया !
संिों की शिकरि का अनुभि करके मेरा मन बहुि ही पररसनरन हो रहा है।"(171)

।। 172।।
(योगीराज िहाँ से हिरिरिार आ गये और) हिरिरिार में ििकररम संिि 2028 में
पािन गंगा के िट पर पूजरय गुरुिेि शररी लीलाशाह जी महाराज के िररशन हुए।(172)

! ।। 173।।
पूजरय गुरुिेि को मसरिक झुकाकर पररणाम िकया और आिर के साथ उनसे कहाः "गुरुिेि
! मेरे योगरय कोई सेिा की आजरञा करें।"(173)

।। 174।।

।। 175।।

।। 176।।
(गुरुिेि ने पररिरयुिरिर िियाः) "मैं िुमसे धन या धानरय नहीं चाहिा और न ही
गुरुििकरषणा माँगिा हूँ। हे िपोधन ! मैं िुमसे केिल जनसेिा की इचरछा करिा हूँ। इस
असार संसार में करोड़ों लोग भटक रहे हैं। िुम उन संसार में डूबे हुए लोगों का कषरट
िूर करो। (ििरस !) मेरे िरिारा जो कायरर शेष रह गया है, उसे पूणरर करने का िुम पररयिरन
करो।" (बापू ने गुरुिेि से कहाः) "मैं आप गुरुिेि की कृपा से यथाशिकरि उस शेष कायरर को
पूणरर करने का पररयिरन करूँगा।"(174, 175, 176)

।। 177।।
संसार के लोग िसरिुिः संि को पहचानिे नहीं हैं। गुरुभकरि (बापू आसारामजी)
ििरकरि होिे हुए भी लोगों को आसकरि-से पररिीि हो रहे हैं।(177)

।। 178।।
पूजरय गुरुिेि की आजरञा मानकर िे (योगीराज) सरिेचरछा से साि िषरर का अजरञाििास
समापरि करके अपने गृहनगर (अमिािाि) में आये।(178)

।। 179।।
ििकररम संिि 2028 शावण सुदी पूिणथमा को पातः काल (साि साल के एकानरििास के बाि) बापू
पुनः घर में आये। (179)

।। 180।।
िे इधर-उधर सिरसंग िकया करिे थे और उनका अपना साधनाकायरर िनरनरिर चलिा
रहिा था।(180)

।।181।।
शानत, िानरि और िपसरिी, एकानरि-पररकृििपररेमी बापू साबरमिी निी के िट पर आकर
धरयानयोग िकया करिे थे।(181)

।। 182।।
मोटेरा गाँि के पास िे जपािि िकया करिे थे। िब िहीं पर भकरिजनों ने (उनके
िलए) एक पणररशाला का िनमाररण िकया।(182)

।। 183।।
'मोकरषकुटीर' नाम की िह मंगलिायक पणररशाला इस समय 'मोकरषधाम' के रूप में
पिरणि हो गई है।(183)

।। 184।।
योगिेिरिाओं में शररेषरठ बापू यहाँ (इसी मोकरषधाम में) उपिेश करिे हैं। यहाँ
राि ििन सरिररी पुरुष सिरसंग के िलए आिे रहिे हैं।(184)

।। 185।।
पूजरय बापू सरिेचरछा से इस समय समसरि िि शर ि में जनकलरयाण की भािना से इधर -
उधर (िेश-परिेश) में उपिेश िेिे हैं।(185)

।। 186।।
सचमुच पुणरयशाली लोग ही (उपिेश का) शवण करते है। दस
ू रे लोग नही करते। (जैसे) उििि
सूयरर को उलरलू कभी भी नहीं िेख सकिा। (इसी पररकार पापी लोग सिरसंग से लाभ नहीं उठा
सकिे।(186)
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ


।। 187।।
अणु पररमाण बीज से जैसे ििशाल िटिृकरष बन जािा है इसी पररकार यह मोकरषकुटीर
इस समय मोकरषधाम के रूप में पिरणि हो रही है।(187)

।। 188।।
हजारों सरिररी-पुरुष (इस आशररम में) िररशन के िलए आिे हैं और िे इस मोकरषधाम
के िररशन करके सुख-शाित पापत करते है।(188)

।। 189।।
ििशेषरूप से आशररम की परराकृििक शोभा को िेखकर (िररशनािथररयों का) मन िुःख-
शोकािद से मुकत होकर िनमथल हो जाता है।(189)

।। 190।।
गुरुमंिरर के िबना कभी भी िसििरध नहीं होिी है, अिएि (गुरुमंिरर की) िीकरषा पररापरि
करने के िलए लोग सिा ही (इस धाम में) आिे रहिे हैं।(190)


-
।। 191।।
(मोकरषधाम की) परराकृििक रमणीय शोभा को िेखकर सब भकरि लोग पररसनरन हो जािे
हैं। सौनरियररपूणरर एिं रमणीय िृ शर योंसे युकरि यह मोकरषधाम सरियं ही ननरिनिन जैसा
पररिीि होिा है।(191)

।। 192।।
(एक बार निी में भयंकर बाढ़ आने के कारण) आशररम की भूिम जल में िनमगरन हो
गई िब बापू के पररभाि के कारण (िह बाढ़ का) जल सरििः ही उिर गया।(192)
' '।
।। 193।।
साधकों ने पूजरय बापू की कृपा से अिि सुनरिर 'नारी उिरथान आशररम' की सरथापना की।
(193)

।। 194।।
(इस आशररम में) सेिा और साधना में रि मािाएँ कीिररन, जप, धरयान करिी हैं।
सचमुच िे बररहरमिििरया में ििशारि होिी हैं।(194)

।।195।।
अपने आशररम में साधक लोग िनिरय खेिीबाड़ी का कायरर करिे हैं और साधक
जनों के िलये शाक-सबरजी, कनरिमूल आिि बोिे हैं।(195)

।। 196।।
आशररम में गायें भी हैं और साधक लोग उनका पालन करिे हैं। करयोंिक गाय के
िूध से सचमुच िििरया, बुििरध और बल बढ़िा है।(196)

! ।। 197।।
(यहाँ आशररम में) हिन की िेिी िेखकर मन बहुि ही पररसनरन होिा है। ऐसा लगिा है
मानो भारि में हमारा िह (ऋिष-मुिनयों का) परराचीन युग िफर आ गया हो।(197)

।। 198।।
(यहाँ आशररम में) सुनरिर शारिासिन भी है जहाँ िििरिान एिं कुशल लोग राि-ििन
पुसरिकों का मुिररण कायरर करिे हैं।(198)

।। 199।।
(यहाँ आशररम में) सिा अनरनपूणारर करषेिरर भी सबके मनोरथ हमेशा पूणरर करिा है।
यहाँ पर यािररी भकरिजन सिा पिििरर एिं शुिरध भोजन करिे हैं।(199)

।। 200।।
योग िेिानरि सिमिि में बहुि कायरर हैं। िषरय लोग उिरसाह से कायरर करिे हैं

िजनकी गणना यहाँ करना संभि नहीं है।(200)

।। 201।।
यह 'ऋिष पररसाि' (नाम की मािसक पििररका) िासरिि में इसी आशश ररम से पररका ििहोिी
है। िििरिान लोग कहिे हैं िक यह 'ऋिष पररसाि' ही गुरुपररसाि है।(201)

।। 202।।
ऋििरध-िसिरधपररिायक इस पिििरर रामायण का जो िनिरय पररयिरनपूिररक पाठ करिा है, िह

िन ि र च ि (202)याणपररापरिकरिाहै।
हीकलर
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

!

।। 203।।
(िशषय पूछता हैः) "हे गुरुिेि ! यह बिाइये िक मैं कौन हूँ और (यहाँ इस संसार में)
कहाँ से आया हूँ (िथा इस) संसार के साथ मेरा करया समरबनरध है। मैं िििध (ििधािा, िैि)
के ििधान को नहीं जानिा अिः यह जानना चाहिा हूँ िक इस संसार में मैं पुनः कैसे आ
गया।"(203)

।। 204।।
(गुरुिेि कहिे हैं-) "िू जीि है और िन ि र चि र शू प सेिूश उसपरमे र िरका
है (िकनरिु) िू अपने सरिरूप को नहीं जानिा। (यही कारण है िक संसार की) मोह-माया और
ममिा में िलपरि िू बार-बार गभरररूपी गुफा में जनरम धारण करिा है।(204)

।। 205।।
िह (ई शर )िर
सृिषरटकिरिारर है और कालों का काल है। िू जीिरूप में िसरथि होिे हुए भी
सनािन है िथा करषणभंगुर और मायामय िीसरे ििरिरि को योगिेिरिा लोग संसार कहिे
हैं।(205)

।। 206।।
(हे ििरस !) न िू शरीर है और न यह शरीर िेरा है। इस शरीर के साथ िेरा कोई भी
समरबनरध िेखकर मैं सरियं चिकि हूँ।(206)

।। 207।।
(ििरस !) इससे पहले िूने अनेक जनरम धारण िकये हैं और मृिरयु (के कषरट) को भी
अनेक बार िेखा है। करया िू जानिा है िक मोह के कारण ही संसार में सभी परराणी जनरम
एिं मृिरयु को पररापरि होिे हैं?(207)


-
।। 208।।
धन, कामोपभोग एिं राजसिरिा मनुषरय जीिन का साधरय नहीं है। िन र चयही
संसाररूपी समुिरर में भगिान का नाम ही साधरय है। शेष सब कायरर साधन हैं।(208)

।। 209।।

संसार में राग रखना और भगिान से िैरागरय होना यह िन ि र चिहीिेराििपरीि
कायरर है। सम (ई शर )िर
के साथ िू पररेम कर और संसार के साथ िैरागरय कर।(209)

।। 210।।
रे मूढ़ ! िू िनिरय धन कमाने में लगा रहिा है। जप का अजररन को कभी नहीं करिा।
िू आजीििका के िलये ही धनसंचय कर िकनरिु मोकरष पाने के िलए िो भगिान का भजन कर।
(210)

।। 211।।
मनुषरय लोक की यािररा िो धन से िसिरध होिी है िकनरिु परलोक की यािररा जप से िसिरध
होिी है। सरिगरर में भगिान नाम का िसकरका ही चलिा है। उसके िबना सरिगरर में मनुषरय की
कोई गिि नहीं है।(211)


!
।। 212।।
ििरस ! िू भगिान का अंश है, िनरंजन है और संसार की माया से रिहि है। अरे जीि
! िू िफर भी माया से डरिा है? यह माया िो िेरे भगिान की िासी है।(212)

।। 213।।
यह मोह िन शर चयही ममिा का सहोिर भाई है। यह जीि को राग से मुकरि नहीं करिा।
अिः जो (लोग) मोह-माया और ममिा में रि हैं िे िनिरय ही नये-नये नरकों में जािे
हैं।(213)

।। 214।।
ििधािा यिि मनुषरय को कुबेर (धनभणरडारी) बना िे अथिा राजाओं का राजा चकररििीरर
समरराट बना िे िो भी मनुषरय लोक में (मनुषरय) की िृषरणा सचमुच कभी जीणरर (शात) नहीं होिी।
(214)

।। 215।।
(िशषय बोलाः) "मेरा घर धन और धानरय से पिरपूणरर हैं। सौमरय मुखिाली सुनरिर मेरी
पिरनी है। मेरे पुिरर, पौिरर आिि एिं बानरधि-िमिरर सब मेरे अनुकूल हैं िकनरिु िफर भी
िचिरि शांिि नहीं पररापरि करिा है।" (215)
!

।। 216।।
"हे ििरस ! िू इस मनुषरय लोक में पररसनरन है िकनरिु यह संसार करषण भंगुर है। यह िो
बािल की छाया है। इसके ििरकाल बाि सूयरर की िह धूप िफर आ जायेगी।(216)


-
।। 217।।
जीि अपने पुरािन कमोररं के योग से िन शर चय ही नरक का िनिास पररापरि करिा है।
जीि िासरिि में मोकरष का मागरर ही नहीं जानिा। इसी कारण से संसार में इस जीि की
मुिकरि नहीं होिी है।(217)


।। 218।।
िू संसार की माया और ममिा की छोड़कर भगिान से अपना समरबनरध सरथािपि कर।
पराये (लोगों) से योग और पररभु से िियोग ही इस जगि में िेरे िुःख का कारण है। (218)

।। 219।।
जब िक मनुषरय का मन राग आिि से मुकरि (और) ििषयों से ििरकरि नहीं होिा िब िक
इस संसार से मनुषरय की मुिकरि नहीं हो सकिी। जीि ििषयों के िलए िृथा ही पररयिरन करिा
है। (219)

।। 220।।
िुमने सौमरय गुणों से युकरि, मन को जानने िाली सुशील युििी पिरनी िो पररापरि करली
िकनरिु िुमरहारा मन यिि भगिान के चरणकमलों में लगा िो िुमरहारे इस मनुषरय जीिन का कोई
लाभ नहीं है।(220)


!
।। 221।।
रे मूढ़ ! मनुषरय ! इस संसार में यह काम ही जीि के बनरधन का कारण है। परनरिु राम
इस संसार सागर से पार करने के िलए है। (इसिलए) िू काम को छोड़कर राम का भजन कर
(करयोंिक) जहाँ काम है िहाँ िासरिि में राम नहीं रहिे।(221)

।। 222।।
यह जीि माया, ममिा और मोह को छोड़कर जब िक परमािरमा के साथ राग नहीं करिा
िब िक िह न िो मोकरष पररापरि कर सकिा है और न ही इस भिबनरधन से मुिकरि। केिल पुनः
जनरम को पररापरि करिा है।(222)

।। 223।।
यह मनुषरय लोग करषणभंगुर है। कोई भी जीि यहाँ िीघररकाल िक नहीं रहिा। यहाँ
संसार के जड़ चेिन सब पिाथरर नषरट हो जािे हैं और समय पाकर पुनः पररगट हो जािे
हैं।(223)

।। 224।।
िेरे पररयाणकाल में ये पुिरर-पौिरर, धन आिि िेरे साथ नहीं जािे हैं। बेचारा
जीि सचमुच सब कुछ छोड़कर खाली हाथ ही िेिलोक को पररयाण करिा है।(224)


।। 225।।
पररभु की कृपा से माया जीि को छोड़ िेिी है और माया से मुकरि जीि ही मोकरष को
पररापरि करिा है। इसिलए िू िनिरय भगिान िासुिेि का भजन कर करयोंिक केिल हिर का नाम
ही जीि को मोकरष पररिान करिा है।(225)

' ' ।। 226।।


संि की कृपा संसार के िाप को हरने िाली है। िह कलरयाणकारी है और परोपकारी
है। इसिलए िुम संि की कृपा को पररापरि करो। 'ऋिषपररसाि' ही संि की कृपा है।(226)

।। 227।।
सिररपररथम अपने गुरुिेि की पूजा करनी चािहए करयोंिक सारे िेििाओं से गुरु
अिधक महानर हैं। गुरु के िबना (मनुषरय का अजरञानरूपी) अनरधकार नषरट नहीं होिा और मनुषरय
भिसागर पार नहीं कर सकिा।(227)

।। 228।।
गुरुिेि के िरिारा पररििरि गुरुमंिरर को पररापरि करके जो िरयिकरि शररिरधा से उस मंिरर
का जप करिा है, िह सिैि मनचाहा फल पररापरि कर लेिा है और उसके सब मनोरथ पूणरर जो
जािे हैं।(228)

।। 229।।
पररभु के िबना संसार में मनुषरयों की गिि नहीं होिी। अिः हमेशा पररभुपररीिि करनी
चािहए। संसार में गुरु अनेक पररकार के हैं िकनरिु (पररभुपररीिि जगाने के िलए) जो
बररहरमिेिरिा हैं उनको ही सिगुरु बनाना चािहए।(229)

।। 230।।
जो गुरु राग-िरिेष आिि िोषों से एिं ििषयों से ििरकरि हैं, बररहरमिििरया में
ििशेष िकरष यानी कुशल हैं, जो िरयागी, िपसरिी, संसार के िाप को िूर करने िाले और
परोपकारी हैं उनको ही गुरु बनाना चािहए।(230)

।। 231।।
संिों का संग सिैि पररािणमािरर के िहि के िलए होिा है परनरिु कुसंग सिा ििनाश
के िलये होिा है। ििधािा चाहे नरक में िनिास िे िे िकनरिु िुजररन आिमी का संग कभी न
िेिे। (231)

।। 232।।
संि लोग कहिे हैं िक संसार में सुख की अनुभूिि िमथरया पररिीि होिी है। िन शर चय
ही सिरसंगिि में अथिा भगिान नारायण के कीिररन में सुख हैं और शेष सब िसरिुओं में
संपूणरर िुःख है।(232)

।। 233।।
संसार की माया जीि को नहीं छोड़िी। काम भी मनुषरय का पररबल शिररु है। इसीिलए
संसार में जीि की मुिकरि सुलभ नहीं है। संिों का संग ही एकमािरर मागरर है। (233)

।। 234।।
संिों का संग भिबनरधन से मुिकरि ििलाने िाला है। िह संसार के शोक-मोह से
छुड़ािा है। संिों का संग (सिरसंग) िासरिि में अमृि की धारा है, िकनरिु संसार में
भागरयिान लोग ही इस सिरसंगरूपी अमृि का पान करिे हैं।(234)

।। 235।।
ु पृथरिी पर रोज-रोज नहीं आिे हैं।
बापू जैसे योगिेिरिाओं में शररेषरठ पुरष
(इसिलये रे मनुषरय !) िू समय रहिे इस अिसर का लाभ उठा ले। अनरयथा, िफर से ऐसा मौका
हाथ नहीं लगेगा।(235)


-
।। 236।।
िन शर चय
ही परमािरमा ने लोगों का उिरधार करने के िलए इन पुरष ु को भेजा है। इस
पररकार के धमररधुरंधर पुरुष मनुषरय लोक में िीघरर काल िक नहीं रहिे।(236)

।। 237।।
गंगा िुमरहारे घर में सरियं आ गई है िो भी रे मूखरर ! िू उससे लाभ नहीं उठािा ? िू
उनसे अपनी आिरमकृपा के िलए यिरन कर। चनरिररमा के चले जाने पर राििरर शोभा नही
िेिी।(237)
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ




।। 1।।



।। 2।।



।। 3।।



।। 4।।
- ।

-
।। 5।।
परम सुख िेने िाले, शात, समरपूणरर गुणों के िनिध, धरयानिनषरठ, शेष िवदा केआधार ,
पररिसिरध कीििररिाले, पृथरिी पर धमरर की साकरषािर मूििरर, िि शर िििखरय , समसर
ाि ि पररािणयों के
कलरपिृकरष, पूजरयपाि महानर संि शररी आसारामजी बापू की िनरिना करिे हैं।(1)
जो धमरर के पररचार के िलए समरपूणरर िि शर ि में भररमण करिे हैं , सेिाभाि से सभी
के िुःख एिं िैनरय को सिि िूर करिे हैं, िजनके चरण-शरण मे आन व े ा ल ेमनुषयकोसवथतसौखय
पररापरि होिा है, ऐसे पूजरयपाि संि शररी आसारामजी बापू सभी मनुषरय के िनरिनीय हैं।(2)
आज हम सभी नगर-गृहिासी आपके पिििरर िररशन पररापरि कर धनरय हैं। जो कामना
हृिय में िचरलिसि थी, िह पूणरर हो गयी। ििमल मन से आपकी भिकरि के पिििरर गीि सुन-
सुनकर िथा आपके गुण-समूह को पुनः पुनः सरमरण कर सभी भकरिजन आननरिमगरन हैं।(3)
संसार में जब मानिों के पूिरर पुणरयों का उिय होिा है, िभी भागरयिसिरध संिों का
िररशन पररापरि होिा है। आज हमारा पूिररपुणरय पररकिटि हुआ है यह सिररथा सिरय है। अिः
जरञान के पररकाश, सियहृिय अपने गुरु पूजरयपाि शररी आसारामजी बापू को हम नमन करिे
हैं।(4)
िनिरय, िििरय, भिरय एिं निीन भािपूणरर उपिेशों से जो भारि राषरटरर को समरपूणरर
िि शर ि में कीििररयुकरि करिे हुए शोभायमान हैं , ऐसे उन धािमररकों में अगररमणरय,
जरञानगमरय संि शररी आसारामजी बापू हैं। हम उनको सिि नमन करिे हैं।(5)
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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