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[10]

( भगवान की िवभूित और योगशिकत का कथन तथा उनके जानने का


फल)
शीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यतेऽहं पीयमाणाय वकयािम िहतकामयया ॥
भावाथर : शी भगवान्‌ बोले- हे महाबाहो! िफर भी मेरे परम रहसय और
पभावयुकत वचन को सुन, िजसे मै तुझे अितशय पेम रखने वाले के
िलए िहत की इचछा से कहँूगा॥1॥
न मे िवदुः सुरगणाः पभवं न महषरयः ।
अहमािदिहर देवाना महषीणा च सवरशः ॥
भावाथर : मेरी उतपित को अथात्‌ लीला से पकट होने को न देवता
लोग जानते है और न महिषरजन ही जानते है, कयोिक मै सब पकार से
देवताओं का और महिषरयो का भी आिदकारण हँू॥2॥
यो मामजमनािदं च वेित लोकमहेशरम्‌ ।
असममूढः स मतयेषु सवरपापैः पमुचयते ॥
भावाथर : जो मुझको अजनमा अथात्‌ वासतव मे जनमरिहत, अनािद
(अनािद उसको कहते है जो आिद रिहत हो एवं सबका कारण हो) और
लोको का महान्‌ ईशर तततव से जानता है, वह मनुषयो मे जानवान्‌ पुरष
संपूणर पापो से मुकत हो जाता है॥3॥
बुिदजानमसममोहः कमा सतयं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
अिहंसा समता तुिषसतपो दानं यशोऽयशः ।
भविनत भावा भूताना मत एव पृथिगवधाः ॥
भावाथर : िनशय करने की शिकत, यथाथर जान, असममूढता, कमा,
सतय, इंिदयो का वश मे करना, मन का िनगह तथा सुख-दुःख, उतपित-
पलय और भय-अभय तथा अिहंसा, समता, संतोष तप (सवधमर के
आचरण से इंिदयािद को तपाकर शुद करने का नाम तप है), दान,
कीितर और अपकीितर- ऐसे ये पािणयो के नाना पकार के भाव मुझसे ही
होते है॥4-5॥
महषरयः सपत पूवे चतवारो मनवसतथा ।
मदावा मानसा जाता येषा लोक इमाः पजाः ॥
भावाथर : सात महिषरजन, चार उनसे भी पूवर मे होने वाले सनकािद तथा
सवायमभुव आिद चौदह मनु- ये मुझमे भाव वाले सब-के-सब मेरे संकलप
से उतपन हुए है, िजनकी संसार मे यह संपूणर पजा है॥6॥
एता िवभूितं योगं च मम यो वेित तततवतः ।
सोऽिवकमपेन योगेन युजयते नात संशयः ॥
भावाथर : जो पुरष मेरी इस परमैशयररप िवभूित को और योगशिकत को
तततव से जानता है (जो कुछ दृशयमात संसार है वह सब भगवान की
माया है और एक वासुदेव भगवान ही सवरत पिरपूणर है, यह जानना ही
ततव से जानना है), वह िनशल भिकतयोग से युकत हो जाता है- इसमे
कुछ भी संशय नही है॥7॥
( फल और पभाव सिहत भिकतयोग का कथन )
अहं सवरसय पभवो मतः सवर ं पवतरते ।
इित मतवा भजनते मा बुधा भावसमिनवताः ॥
भावाथर : मै वासुदेव ही संपूणर जगत्‌ की उतपित का कारण हँू और
मुझसे ही सब जगत्‌ चेषा करता है, इस पकार समझकर शदा और
भिकत से युकत बुिदमान्‌ भकतजन मुझ परमेशर को ही िनरंतर भजते
है॥8॥
मिचचता मदगतपाणा बोधयनतः परसपरम्‌ ।
कथयनतश मा िनतयं तुषयिनत च रमिनत च ॥
भावाथर : िनरंतर मुझमे मन लगाने वाले और मुझमे ही पाणो को अपरण
करने वाले (मुझ वासुदेव के िलए ही िजनहोने अपना जीवन अपरण कर
िदया है उनका नाम मदगतपाणाः है।) भकतजन मेरी भिकत की चचा के
दारा आपस मे मेरे पभाव को जानते हुए तथा गुण और पभाव सिहत
मेरा कथन करते हुए ही िनरंतर संतुष होते है और मुझ वासुदेव मे ही
िनरंतर रमण करते है॥9॥
तेषा सततयुकताना भजता पीितपूवरकम्‌ ।
ददािम बिदयोगं तं येन मामुपयािनत ते ॥
भावाथर : उन िनरंतर मेरे धयान आिद मे लगे हुए और पेमपूवरक भजने
वाले भकतो को मै वह तततवजानरप योग देता हूँ, िजससे वे मुझको ही
पापत होते है॥10॥
तेषामेवानुकमपाथरमहमजानजं तमः।
नाशयामयातमभावसथो जानदीपेन भासवता ॥
भावाथर : हे अजुरन! उनके ऊपर अनुगह करने के िलए उनके
अंतःकरण मे िसथत हुआ मै सवयं ही उनके अजानजिनत अंधकार को
पकाशमय तततवजानरप दीपक के दारा नष कर देता हूँ॥11॥
( अजुरन दारा भगवान की सतुित तथा िवभूित और योगशिकत को कहने
के िलए पाथरना )
अजुरन उवाच
परं बह परं धाम पिवतं परमं भवान्‌ ।
पुरषं शाशतं िदवयमािददेवमजं िवभुम्‌ ॥
आहुसतवामृषयः सवे देविषरनारदसतथा ।
अिसतो देवलो वयासः सवयं चैव बवीिष मे ॥
भावाथर : अजुरन बोले- आप परम बह, परम धाम और परम पिवत है,
कयोिक आपको सब ऋिषगण सनातन, िदवय पुरष एवं देवो का भी
आिददेव, अजनमा और सवरवयापी कहते है। वैसे ही देविषर नारद तथा
अिसत और देवल ऋिष तथा महिषर वयास भी कहते है और आप भी मेरे
पित कहते है॥12-13॥
सवरमेतदृतं मनये यनमा वदिस केशव ।
न िह ते भगवनवयिकतं िवदुदेवा न दानवाः ॥
भावाथर : हे केशव! जो कुछ भी मेरे पित आप कहते है, इस सबको मै
सतय मानता हँू। हे भगवन्‌! आपके लीलामय (गीता अधयाय 4 शलोक 6
मे इसका िवसतार देखना चािहए) सवरप को न तो दानव जानते है और
न देवता ही॥14॥
सवयमेवातमनातमानं वेतथ तवं पुरषोतम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगतपते ॥
भावाथर : हे भूतो को उतपन करने वाले! हे भूतो के ईशर! हे देवो के
देव! हे जगत्‌ के सवामी! हे पुरषोतम! आप सवयं ही अपने से अपने को
जानते है॥15॥
वकतुमहरसयशेषेण िदवया हातमिवभूतयः ।
यािभिवरभूितिभलोकािनमासतवं वयापय ितषिस ॥
भावाथर : इसिलए आप ही उन अपनी िदवय िवभूितयो को संपूणरता से
कहने मे समथर है, िजन िवभूितयो दारा आप इन सब लोको को वयापत
करके िसथत है॥16॥
कथं िवदामहं योिगंसतवा सदा पिरिचनतयन्‌ ।
केषु केषु च भावेषु िचनतयोऽिस भगवनमया ॥
भावाथर : हे योगेशर! मै िकस पकार िनरंतर िचंतन करता हुआ आपको
जानूँ और हे भगवन्‌! आप िकन-िकन भावो मे मेरे दारा िचंतन करने
योगय है?॥17॥
िवसतरेणातमनो योगं िवभूितं च जनादरन ।
भूयः कथय तृिपतिहर शृणवतो नािसत मेऽमृतम्‌ ॥
भावाथर : हे जनादरन! अपनी योगशिकत को और िवभूित को िफर भी
िवसतारपूवरक किहए, कयोिक आपके अमृतमय वचनो को सुनते हुए मेरी
तृिपत नही होती अथात्‌ सुनने की उतकंठा बनी ही रहती है॥18॥
(भगवान दारा अपनी िवभूितयो और योगशिकत का कथन)
शीभगवानुवाच
हनत ते कथियषयािम िदवया हातमिवभूतयः ।
पाधानयतः कुरशेष नासतयनतो िवसतरसय मे ॥
भावाथर : शी भगवान बोले- हे कुरशेष! अब मै जो मेरी िदवय िवभूितया
है, उनको तेरे िलए पधानता से कहँूगा; कयोिक मेरे िवसतार का अंत
नही है॥19॥
अहमातमा गुडाकेश सवरभूताशयिसथतः ।
अहमािदश मधयं च भूतानामनत एव च ॥
भावाथर : हे अजुरन! मै सब भूतो के हृदय मे िसथत सबका आतमा हँू
तथा संपूणर भूतो का आिद, मधय और अंत भी मै ही हँू॥20॥
आिदतयानामहं िवषणुजयोितषा रिवरंशुमान्‌ ।
मरीिचमररतामिसम नकताणामहं शशी ॥
भावाथर : मै अिदित के बारह पुतो मे िवषणु और जयोितयो मे िकरणो
वाला सूयर हँू तथा मै उनचास वायुदेवताओं का तेज और नकतो का
अिधपित चंदमा हँू॥21॥
वेदाना सामवेदोऽिसम देवानामिसम वासवः ।
इंिदयाणा मनशािसम भूतानामिसम चेतना ॥
भावाथर : मै वेदो मे सामवेद हँू, देवो मे इंद हँू, इंिदयो मे मन हँू और भूत
पािणयो की चेतना अथात्‌ जीवन-शिकत हँू॥22॥
रदाणा शङ‌करशािसम िवतेशो यकरकसाम्‌ ।
वसूना पावकशािसम मेरः िशखिरणामहम्‌ ॥
भावाथर : मै एकादश रदो मे शंकर हँू और यक तथा राकसो मे धन का
सवामी कुबेर हँू। मै आठ वसुओं मे अिगन हँू और िशखरवाले पवरतो मे
सुमेर पवरत हँू॥23॥
पुरोधसा च मुखयं मा िविद पाथर बृहसपितम्‌ ।
सेनानीनामहं सकनदः सरसामिसम सागरः ॥
भावाथर : पुरोिहतो मे मुिखया बृहसपित मुझको जान। हे पाथर! मै
सेनापितयो मे सकंद और जलाशयो मे समुद हँू॥24॥
महषीणा भृगुरहं िगरामसमयेकमकरम्‌ ।
यजाना जपयजोऽिसम सथावराणा िहमालयः ॥
भावाथर : मै महिषरयो मे भृगु और शबदो मे एक अकर अथात्‌ ओंकार
हँू। सब पकार के यजो मे जपयज और िसथर रहने वालो मे िहमालय
पहाड हँू॥25॥
अशतथः सवरवृकाणा देवषीणा च नारदः ।
गनधवाणा िचतरथः िसदाना किपलो मुिनः ॥
भावाथर : मै सब वृको मे पीपल का वृक, देविषरयो मे नारद मुिन, गनधवों
मे िचतरथ और िसदो मे किपल मुिन हँू॥26॥
उचचैःशवसमशाना िविद माममृतोदवम्‌ ।
एरावतं गजेनदाणा नराणा च नरािधपम्‌ ॥
भावाथर : घोडो मे अमृत के साथ उतपन होने वाला उचचैःशवा नामक
घोडा, शेष हािथयो मे ऐरावत नामक हाथी और मनुषयो मे राजा मुझको
जान॥27॥
आयुधानामहं वजं धेनूनामिसम कामधुक् ‌ ।
पजनशािसम कनदपरः सपाणामिसम वासुिकः ॥
भावाथर : मै शसतो मे वज और गौओं मे कामधेनु हँू। शासतोकत रीित
से सनतान की उतपित का हेतु कामदेव हँू और सपों मे सपरराज वासुिक
हँू॥28॥
अननतशािसम नागाना वरणो यादसामहम्‌ ।
िपतॄणामयरमा चािसम यमः संयमतामहम्‌ ॥
भावाथर : मै नागो मे (नाग और सपर ये दो पकार की सपों की ही जाित
है।) शेषनाग और जलचरो का अिधपित वरण देवता हँू और िपतरो मे
अयरमा नामक िपतर तथा शासन करने वालो मे यमराज मै हँू॥29॥
पहादशािसम दैतयाना कालः कलयतामहम्‌ ।
मृगाणा च मृगेनदोऽहं वैनतेयश पिकणाम्‌ ॥
भावाथर : मै दैतयो मे पहाद और गणना करने वालो का समय (कण,
घडी, िदन, पक, मास आिद मे जो समय है वह मै हँू) हँू तथा पशुओं मे
मृगराज िसंह और पिकयो मे गरड हँू॥30॥
पवनः पवतामिसम रामः शसतभृतामहम्‌ ।
झषाणा मकरशािसम सोतसामिसम जाहवी ॥
भावाथर : मै पिवत करने वालो मे वायु और शसतधािरयो मे शीराम हूँ
तथा मछिलयो मे मगर हूँ और निदयो मे शी भागीरथी गंगाजी हूँ॥31॥
सगाणामािदरनतश मधयं चैवाहमजुरन ।
अधयातमिवदा िवदाना वादः पवदतामहम्‌ ॥
भावाथर : हे अजुरन! सृिषयो का आिद और अंत तथा मधय भी मै ही
हूँ। मै िवदाओं मे अधयातमिवदा अथात्‌ बहिवदा और परसपर िववाद
करने वालो का ततव-िनणरय के िलए िकया जाने वाला वाद हूँ॥32॥
अकराणामकारोऽिसम दंदः सामािसकसय च ।
अहमेवाकयः कालो धाताहं िवशतोमुखः ॥
भावाथर : मै अकरो मे अकार हूँ और समासो मे दंद नामक समास हूँ।
अकयकाल अथात्‌ काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला,
िवराटसवरप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मै ही हूँ॥33॥
मृतयुः सवरहरशाहमुदवश भिवषयताम्‌ ।
कीितरः शीवाकच नारीणा समृितमेधा धृितः कमा ॥
भावाथर : मै सबका नाश करने वाला मृतयु और उतपन होने वालो का
उतपित हेतु हँू तथा िसतयो मे कीितर (कीितर आिद ये सात देवताओं की
िसतया और सतीवाचक नाम वाले गुण भी पिसद है, इसिलए दोनो पकार
से ही भगवान की िवभूितया है), शी, वाक्,‌ समृित, मेधा, धृित और कमा
हँू॥34॥
बृहतसाम तथा सामा गायती छनदसामहम्‌ ।
मासाना मागरशीषोऽहमृतूना कुसुमाकरः॥
भावाथर : तथा गायन करने योगय शुितयो मे मै बृहतसाम और छंदो मे
गायती छंद हँू तथा महीनो मे मागरशीषर और ऋतुओं मे वसंत मै हँू॥
35॥
दूतं छलयतामिसम तेजसतेजिसवनामहम्‌ ।
जयोऽिसम वयवसायोऽिसम सततवं सततववतामहम्‌ ॥
भावाथर : मै छल करने वालो मे जूआ और पभावशाली पुरषो का पभाव
हँू। मै जीतने वालो का िवजय हँू, िनशय करने वालो का िनशय और
सािततवक पुरषो का सािततवक भाव हँू॥36॥
वृषणीना वासुदेवोऽिसम पाणडवाना धनञयः ।
मुनीनामपयहं वयासः कवीनामुशना किवः ॥
भावाथर : वृिषणवंिशयो मे (यादवो के अंतगरत एक वृिषण वंश भी था)
वासुदेव अथात्‌ मै सवयं तेरा सखा, पाणडवो मे धनञय अथात्‌ तू,
मुिनयो मे वेदवयास और किवयो मे शुकाचायर किव भी मै ही हँू॥37॥
दणडो दमयतामिसम नीितरिसम िजगीषताम्‌ ।
मौनं चैवािसम गुहाना जानं जानवतामहम्‌ ॥
भावाथर : मै दमन करने वालो का दंड अथात्‌ दमन करने की शिकत हूँ,
जीतने की इचछावालो की नीित हूँ, गुपत रखने योगय भावो का रकक
मौन हूँ और जानवानो का तततवजान मै ही हूँ॥38॥
यचचािप सवरभूताना बीजं तदहमजुरन ।
न तदिसत िवना यतसयानमया भूतं चराचरम्‌ ॥
भावाथर : और हे अजुरन! जो सब भूतो की उतपित का कारण है, वह भी
मै ही हूँ, कयोिक ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नही है, जो मुझसे
रिहत हो॥39॥
नानतोऽिसत मम िदवयाना िवभूतीना परनतप ।
एष तूदेशतः पोकतो िवभूतेिवरसतरो मया ॥
भावाथर : हे परंतप! मेरी िदवय िवभूितयो का अंत नही है, मैने अपनी
िवभूितयो का यह िवसतार तो तेरे िलए एकदेश से अथात्‌ संकेप से कहा
है॥40॥
यदिदभूितमतसततवं शीमदिू जरतमेव वा ।
ततदेवावगचछ तवं मम तेजोऽशसमभवम्‌ ॥
भावाथर : जो-जो भी िवभूितयुकत अथात्‌ ऐशयरयुकत, काितयुकत और
शिकतयुकत वसतु है, उस-उस को तू मेरे तेज के अंश की ही
अिभवयिकत जान॥41॥
अथवा बहुनैतेन िकं जातेन तवाजुरन ।
िवषभयाहिमदं कृतसनमेकाशेन िसथतो जगत्‌ ॥
भावाथर : अथवा हे अजुरन! इस बहुत जानने से तेरा कया पायोजन है।
मै इस संपूणर जगत्‌ को अपनी योगशिकत के एक अंश मात से धारण
करके िसथत हँू॥42॥
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॥ ॐ10।
[11]
( िवशरप के दशरन हेतु अजुरन की पाथरना )
अजुरन उवाच
मदनुगहाय परमं गुहमधयातमसिञजतम्‌ ।
यततवयोकतं वचसतेन मोहोऽयं िवगतो मम ॥
भावाथर : अजुरन बोले- मुझ पर अनुगह करने के िलए आपने जो परम
गोपनीय अधयातम िवषयक वचन अथात उपदेश कहा, उससे मेरा यह
अजान नष हो गया है॥1॥
भवापययौ िह भूताना शुतौ िवसतरशो मया ।
तवतः कमलपताक माहातमयमिप चावययम्‌ ॥
भावाथर : कयोिक हे कमलनेत! मैने आपसे भूतो की उतपित और पलय
िवसतारपूवरक सुने है तथा आपकी अिवनाशी मिहमा भी सुनी है॥2॥
एवमेतदथातथ तवमातमानं परमेशर ।
दषुिमचछािम ते रपमैशरं पुरषोतम ॥
भावाथर : हे परमेशर! आप अपने को जैसा कहते है, यह ठीक ऐसा ही
है, परनतु हे पुरषोतम! आपके जान, ऐशयर, शिकत, बल, वीयर और तेज
से युकत ऐशयर-रप को मै पतयक देखना चाहता हँू॥3॥
मनयसे यिद तचछकयं मया दषुिमित पभो ।
योगेशर ततो मे तवं दशरयातमानमवययम्‌ ॥
भावाथर : हे पभो! (उतपित, िसथित और पलय तथा अनतयामी रप से
शासन करने वाला होने से भगवान का नाम 'पभु' है) यिद मेरे दारा
आपका वह रप देखा जाना शकय है- ऐसा आप मानते है, तो हे योगेशर!
उस अिवनाशी सवरप का मुझे दशरन कराइए॥4॥
(भगवान दारा अपने िवश रप का वणरन )
शीभगवानुवाच
पशय मे पाथर रपािण शतशोऽथ सहसशः ।
नानािवधािन िदवयािन नानावणाकृतीिन च ॥
भावाथर : शी भगवान बोले- हे पाथर! अब तू मेरे सैकडो-हजारो नाना
पकार के और नाना वणर तथा नाना आकृितवाले अलौिकक रपो को
देख॥5॥
पशयािदतयानवसूनुदानिशनौ मरतसतथा ।
बहनू यदृषपूवािण पशयाशयािण भारत ॥
भावाथर : हे भरतवंशी अजुरन! तू मुझमे आिदतयो को अथात अिदित के
दादश पुतो को, आठ वसुओं को, एकादश रदो को, दोनो अिशनीकुमारो
को और उनचास मरदगणो को देख तथा और भी बहुत से पहले न
देखे हुए आशयरमय रपो को देख॥6॥
इहैकसथं जगतकृतसनं पशयाद सचराचरम्‌ ।
मम देहे गुडाकेश यचचानयददषिमचछिस ॥
भावाथर : हे अजुरन! अब इस मेरे शरीर मे एक जगह िसथत चराचर
सिहत समपूणर जगत को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता हो
सो देख॥7॥ (गुडाकेश- िनदा को जीतने वाला होने से अजुरन का नाम
'गुडाकेश' हुआ था)
न तु मा शकयसे दषमनेनैव सवचकुषा ।
िदवयं ददािम ते चकुः पशय मे योगमैशरम्‌ ॥
भावाथर : परनतु मुझको तू इन अपने पाकृत नेतो दारा देखने मे
िनःसंदेह समथर नही है, इसी से मै तुझे िदवय अथात अलौिकक चकु
देता हूँ, इससे तू मेरी ईशरीय योग शिकत को देख॥8॥
(संजय दारा धृतराषट के पित िवशरप का वणरन )
संजय उवाच
एवमुकतवा ततो राजनमहायोगेशरो हिरः ।
दशरयामास पाथाय परमं रपमैशरम्‌ ॥
भावाथर : संजय बोले- हे राजन्‌! महायोगेशर और सब पापो के नाश
करने वाले भगवान ने इस पकार कहकर उसके पशात अजुरन को परम
ऐशयरयुकत िदवयसवरप िदखलाया॥9॥
अनेकवकतनयनमनेकादुतदशरनम्‌ ।
अनेकिदवयाभरणं िदवयानेकोदतायुधम्‌ ॥
िदवयमालयामबरधरं िदवयगनधानुलेपनम्‌ ।
सवाशयरमयं देवमननतं िवशतोमुखम्‌ ॥
भावाथर : अनेक मुख और नेतो से युकत, अनेक अदुत दशरनो वाले,
बहुत से िदवय भूषणो से युकत और बहुत से िदवय शसतो को धारण िकए
हुए और िदवय गंध का सारे शरीर मे लेप िकए हुए, सब पकार के
आशयों से युकत, सीमारिहत और सब ओर मुख िकए हुए िवराटसवरप
परमदेव परमेशर को अजुरन ने देखा॥10-11॥
िदिव सूयरसहससय भवेदुगपदुितथता ।
यिद भाः सदृशी सा सयादाससतसय महातमनः ॥
भावाथर : आकाश मे हजार सूयों के एक साथ उदय होने से उतपन जो
पकाश हो, वह भी उस िवश रप परमातमा के पकाश के सदृश
कदािचत्‌ ही हो॥12॥
ततैकसथं जगतकृतसनं पिवभकतमनेकधा ।
अपशयदेवदेवसय शरीरे पाणडवसतदा ॥
भावाथर : पाणडुपुत अजुरन ने उस समय अनेक पकार से िवभकत
अथात पृथक-पृथक समपूणर जगत को देवो के देव शीकृषण भगवान के
उस शरीर मे एक जगह िसथत देखा॥13॥
ततः स िवसमयािवषो हृषरोमा धनञयः ।
पणमय िशरसा देव ं कृताञिलरभाषत ॥
भावाथर : उसके अनंतर आशयर से चिकत और पुलिकत शरीर अजुरन
पकाशमय िवशरप परमातमा को शदा-भिकत सिहत िसर से पणाम
करके हाथ जोडकर बोले॥14॥
(अजुरन दारा भगवान के िवशरप का देखा जाना और उनकी सतुित
करना )
अजुरन उवाच
पशयािम देवासतव देव देहे सवासतथा भूतिवशेषसङ‌घान्‌ ।
बहाणमीशं कमलासनसथमृषीश सवानुरगाश िदवयान्‌ ॥
भावाथर : अजुरन बोले- हे देव! मै आपके शरीर मे समपूणर देवो को तथा
अनेक भूतो के समुदायो को, कमल के आसन पर िवरािजत बहा को,
महादेव को और समपूणर ऋिषयो को तथा िदवय सपों को देखता हूँ॥
15॥
अनेकबाहूदरवकतनेतंपशयािम तवा सवरतोऽननतरपम्‌ ।
नानतं न मधयं न पुनसतवािदंपशयािम िवशेशर िवशरप ॥
भावाथर : हे समपूणर िवश के सवािमन्! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख
और नेतो से युकत तथा सब ओर से अननत रपो वाला देखता हँू। हे
िवशरप! मै आपके न अनत को देखता हँू, न मधय को और न आिद को
ही॥16॥
िकरीिटनं गिदनं चिकणं च तेजोरािशं सवरतो दीिपतमनतम्‌ ।
पशयािम तवा दुिनररीकयं समनतादीपतानलाकरदुितमपमेयम्‌ ॥
भावाथर : आपको मै मुकुटयुकत, गदायुकत और चकयुकत तथा सब ओर
से पकाशमान तेज के पुंज, पजविलत अिगन और सूयर के सदृश
जयोितयुकत, किठनता से देखे जाने योगय और सब ओर से
अपमेयसवरप देखता हँू॥17॥
तवमकरं परमं वेिदतवयंतवमसय िवशसय परं िनधानम्‌ ।
तवमवययः शाशतधमरगोपता सनातनसतवं पुरषो मतो मे ॥
भावाथर : आप ही जानने योगय परम अकर अथात परबह परमातमा है।
आप ही इस जगत के परम आशय है, आप ही अनािद धमर के रकक है
और आप ही अिवनाशी सनातन पुरष है। ऐसा मेरा मत है॥18॥
अनािदमधयानतमननतवीयरमननतबाहंु शिशसूयरनेतम्‌ ।
पशयािम तवा दीपतहुताशवकतंसवतेजसा िवशिमदं तपनतम्‌ ॥
भावाथर : आपको आिद, अंत और मधय से रिहत, अननत सामथयर से
युकत, अननत भुजावाले, चनद-सूयर रप नेतो वाले, पजविलत अिगनरप
मुखवाले और अपने तेज से इस जगत को संतृपत करते हुए देखता
हँू॥19॥
दावापृिथवयोिरदमनतरं िह वयापतं तवयैकेन िदशश सवाः ।
दृषटवादुतं रपमुगं तवेदल
ं ोकतयं पवयिथतं महातमन्‌ ॥
भावाथर : हे महातमन्‌! यह सवगर और पृथवी के बीच का समपूणर आकाश
तथा सब िदशाएँ एक आपसे ही पिरपूणर है तथा आपके इस अलौिकक
और भयंकर रप को देखकर तीनो लोक अितवयथा को पापत हो रहे
है॥20॥
अमी िह तवा सुरसङ‌घा िवशिनत केिचदीताः पाञलयो गृणिनत।
सवसतीतयुकतवा महिषरिसदसङ‌घा: सतुविनत तवा सतुितिभः पुषकलािभः ॥
भावाथर : वे ही देवताओं के समूह आप मे पवेश करते है और कुछ
भयभीत होकर हाथ जोडे आपके नाम और गुणो का उचचारण करते है
तथा महिषर और िसदो के समुदाय 'कलयाण हो' ऐसा कहकर उतम-
उतम सतोतो दारा आपकी सतुित करते है॥21॥
रदािदतया वसवो ये च साधयािवशेऽिशनौ मरतशोषमपाश ।
गंधवरयकासुरिसदसङ‌घावीकनते तवा िविसमताशैव सवे ॥
भावाथर : जो गयारह रद और बारह आिदतय तथा आठ वसु, साधयगण,
िवशेदेव, अिशनीकुमार तथा मरदगण और िपतरो का समुदाय तथा
गंधवर, यक, राकस और िसदो के समुदाय है- वे सब ही िविसमत होकर
आपको देखते है॥22॥
रपं महते बहुवकतनेतंमहाबाहो बहुबाहूरपादम्‌ ।
बहदू रं बहुदषं टाकरालंदृषवा लोकाः पवयिथतासतथाहम्‌ ॥
भावाथर : हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेतो वाले, बहुत हाथ,
जंघा और पैरो वाले, बहुत उदरो वाले और बहुत-सी दाढो के कारण
अतयनत िवकराल महान रप को देखकर सब लोग वयाकुल हो रहे है
तथा मै भी वयाकुल हो रहा हँू॥23॥
नभःसपृशं दीपतमनेकवणरवं याताननं दीपतिवशालनेतम्‌ ।
दृषवा िह तवा पवयिथतानतरातमा धृितं न िवनदािम शमं च िवषणो ॥
भावाथर : कयोिक हे िवषणो! आकाश को सपशर करने वाले, दैदीपयमान,
अनेक वणों से युकत तथा फैलाए हुए मुख और पकाशमान िवशाल नेतो
से युकत आपको देखकर भयभीत अनतःकरण वाला मै धीरज और
शािनत नही पाता हँू॥24॥
दंषटाकरालािन च ते मुखािनदृषैव कालानलसिनभािन ।
िदशो न जाने न लभे च शमर पसीद देवेश जगिनवास ॥
भावाथर : दाढो के कारण िवकराल और पलयकाल की अिगन के समान
पजविलत आपके मुखो को देखकर मै िदशाओं को नही जानता हँू और
सुख भी नही पाता हँू। इसिलए हे देवेश! हे जगिनवास! आप पसन
हो॥25॥
अमी च तवा धृतराषटसय पुताः सवे सहैवाविनपालसंघैः ।
भीषमो दोणः सूतपुतसतथासौ सहासमदीयैरिप योधमुखयैः ॥
वकतािण ते तवरमाणा िवशिनत दंषटाकरालािन भयानकािन ।
केिचिदलगना दशनानतरेषु सनदृशयनते चूिणरतैरतमाङ‌गै ॥
भावाथर : वे सभी धृतराषट के पुत राजाओं के समुदाय सिहत आप मे
पवेश कर रहे है और भीषम िपतामह, दोणाचायर तथा वह कणर और हमारे
पक के भी पधान योदाओं के सिहत सबके सब आपके दाढो के कारण
िवकराल भयानक मुखो मे बडे वेग से दौडते हुए पवेश कर रहे है और
कई एक चूणर हुए िसरो सिहत आपके दातो के बीच मे लगे हुए िदख रहे
है॥26-27॥
यथा नदीना बहवोऽमबुवेगाः समुदमेवािभमुखा दविनत ।
तथा तवामी नरलोकवीरािवशिनत वकताणयिभिवजवलिनत ॥
भावाथर : जैसे निदयो के बहुत-से जल के पवाह सवाभािवक ही समुद
के ही सममुख दौडते है अथात समुद मे पवेश करते है, वैसे ही वे
नरलोक के वीर भी आपके पजविलत मुखो मे पवेश कर रहे है॥28॥
यथा पदीपतं जवलनं पतंगािवशिनत नाशाय समृदवेगाः ।
तथैव नाशाय िवशिनत लोकासतवािप वकतािण समृदवेगाः ॥
भावाथर : जैसे पतंग मोहवश नष होने के िलए पजविलत अिगन मे
अितवेग से दौडते हुए पवेश करते है, वैसे ही ये सब लोग भी अपने
नाश के िलए आपके मुखो मे अितवेग से दौडते हुए पवेश कर रहे है॥
29॥
लेिलहसे गसमानः समनताललोकानसमगानवदनैजवरलिदः ।
तेजोिभरापूयर जगतसमगंभाससतवोगाः पतपिनत िवषणो ॥
भावाथर : आप उन समपूणर लोको को पजविलत मुखो दारा गास करते
हुए सब ओर से बार-बार चाट रहे है। हे िवषणो! आपका उग पकाश
समपूणर जगत को तेज दारा पिरपूणर करके तपा रहा है॥30॥
आखयािह मे को भवानुगरपोनमोऽसतु ते देववर पसीद ।
िवजातुिमचछािम भवनतमादंन िह पजानािम तव पवृितम्‌ ॥
भावाथर : मुझे बतलाइए िक आप उगरप वाले कौन है? हे देवो मे शेष!
आपको नमसकार हो। आप पसन होइए। आिद पुरष आपको मै िवशेष
रप से जानना चाहता हँू कयोिक मै आपकी पवृित को नही जानता॥
31॥
(भगवान दारा अपने पभाव का वणरन और अजुरन को युद के िलए
उतसािहत करना)
शीभगवानुवाच
कालोऽिसम लोककयकृतपवृदोलोकानसमाहतुरिमह पवृतः ।
ऋतेऽिप तवा न भिवषयिनत सवे येऽविसथताः पतयनीकेषु योधाः ॥
भावाथर : शी भगवान बोले- मै लोको का नाश करने वाला बढा हुआ
महाकाल हँू। इस समय इन लोको को नष करने के िलए पवृत हुआ
हँू। इसिलए जो पितपिकयो की सेना मे िसथत योदा लोग है, वे सब तेरे
िबना भी नही रहेगे अथात तेरे युद न करने पर भी इन सबका नाश हो
जाएगा॥32॥
तसमाततवमुिकतष यशो लभसव िजतवा शतूनभुङ‌कव राजयं समृदम्‌ ।
मयैवैते िनहताः पूवरमेव िनिमतमातं भव सवयसािचन्‌ ॥
भावाथर : अतएव तू उठ! यश पापत कर और शतुओं को जीतकर धन-
धानय से समपन राजय को भोग। ये सब शूरवीर पहले ही से मेरे ही
दारा मारे हुए है। हे सवयसािचन! (बाएँ हाथ से भी बाण चलाने का
अभयास होने से अजुरन का नाम 'सवयसाची' हुआ था) तू तो केवल
िनिमतमात बन जा॥33॥
दोणं च भीषमं च जयदथं च कणर ं तथानयानिप योधवीरान्‌ ।
मया हतासतवं जिह मा वयिथषायुधयसव जेतािस रणे सपतान्‌ ॥
भावाथर : दोणाचायर और भीषम िपतामह तथा जयदथ और कणर तथा
और भी बहुत से मेरे दारा मारे हुए शूरवीर योदाओं को तू मार। भय
मत कर। िनःसंदेह तू युद मे वैिरयो को जीतेगा। इसिलए युद कर॥
34॥
(भयभीत हुए अजुरन दारा भगवान की सतुित और चतुभुरज रप का
दशरन कराने के िलए पाथरना)
संजय उवाच
एतचछुतवा वचनं केशवसय कृताजिलवेपमानः िकरीटी ।
नमसकृतवा भूय एवाह कृषणंसगदगदं भीतभीतः पणमय ॥
भावाथर : संजय बोले- केशव भगवान के इस वचन को सुनकर
मुकुटधारी अजुरन हाथ जोडकर कापते हुए नमसकार करके, िफर भी
अतयनत भयभीत होकर पणाम करके भगवान शीकृषण के पित गद‌गद‌
वाणी से बोले॥35॥
अजुरन उवाच
सथाने हृषीकेश तव पकीतया जगतपहृषयतयनुरजयते च ।
रकािस भीतािन िदशो दविनत सवे नमसयिनत च िसदसङ‌घा: ॥
भावाथर : अजुरन बोले- हे अनतयािमन्! यह योगय ही है िक आपके नाम,
गुण और पभाव के कीतरन से जगत अित हिषरत हो रहा है और अनुराग
को भी पापत हो रहा है तथा भयभीत राकस लोग िदशाओं मे भाग रहे है
और सब िसदगणो के समुदाय नमसकार कर रहे है॥36॥
कसमाचच ते न नमेरनमहातमन्‌ गरीयसे बहणोऽपयािदकते।
अननत देवेश जगिनवास तवमकरं सदसततपरं यत्‌ ॥
भावाथर : हे महातमन्‌! बहा के भी आिदकता और सबसे बडे आपके
िलए वे कैसे नमसकार न करे कयोिक हे अननत! हे देवेश! हे
जगिनवास! जो सत्,‌ असत्‌ और उनसे परे अकर अथात
सिचचदाननदघन बह है, वह आप ही है॥37॥
तवमािददेवः पुरषः पुराणसतवमसय िवशसय परं िनधानम्‌ ।
वेतािस वेद ं च परं च धाम तवया ततं िवशमननतरप । ।
भावाथर : आप आिददेव और सनातन पुरष है, आप इन जगत के परम
आशय और जानने वाले तथा जानने योगय और परम धाम है। हे
अननतरप! आपसे यह सब जगत वयापत अथात पिरपूणर है॥38॥
वायुयरमोऽिगनवररणः शशाङ‌क: पजापितसतवं पिपतामहश।
नमो नमसतेऽसतु सहसकृतवः पुनश भूयोऽिप नमो नमसते ॥
भावाथर : आप वायु, यमराज, अिगन, वरण, चनदमा, पजा के सवामी बहा
और बहा के भी िपता है। आपके िलए हजारो बार नमसकार! नमसकार
हो!! आपके िलए िफर भी बार-बार नमसकार! नमसकार!!॥39॥
नमः पुरसतादथ पृषतसते नमोऽसतु ते सवरत एव सवर।
अननतवीयािमतिवकमसतवंसवर ं समापोिष ततोऽिस सवरः ॥
भावाथर : हे अननत सामथयरवाले! आपके िलए आगे से और पीछे से भी
नमसकार! हे सवातमन्‌! आपके िलए सब ओर से ही नमसकार हो,
कयोिक अननत पराकमशाली आप समसत संसार को वयापत िकए हुए है,
इससे आप ही सवररप है॥40॥
सखेित मतवा पसभं यदुकतं हे कृषण हे यादव हे सखेित।
अजानता मिहमानं तवेदमं या पमादातपणयेन वािप ॥
यचचावहासाथरमसतकृतोऽिस िवहारशययासनभोजनेषु ।
एकोऽथवापयचयुत ततसमकंततकामये तवामहमपमेयम्‌ ॥
भावाथर : आपके इस पभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा है ऐसा
मानकर पेम से अथवा पमाद से भी मैने 'हे कृषण!', 'हे यादव !' 'हे
सखे!' इस पकार जो कुछ िबना सोचे-समझे हठात्‌ कहा है और हे
अचयुत! आप जो मेरे दारा िवनोद के िलए िवहार, शयया, आसन और
भोजनािद मे अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमािनत िकए
गए है- वह सब अपराध अपमेयसवरप अथात अिचनतय पभाव वाले
आपसे मै कमा करवाता हूँ॥41-42॥
िपतािस लोकसय चराचरसय तवमसय पूजयश गुरगररीयान्‌।
न तवतसमोऽसतयभयिधकः कुतोऽनयोलोकतयेऽपयपितमपभाव ॥
भावाथर : आप इस चराचर जगत के िपता और सबसे बडे गुर एवं
अित पूजनीय है। हे अनुपम पभाववाले! तीनो लोको मे आपके समान
भी दस
ू रा कोई नही है, िफर अिधक तो कैसे हो सकता है॥43॥
तसमातपणमय पिणधाय कायंपसादये तवामहमीशमीडयम्‌।
िपतेव पुतसय सखेव सखयुः िपयः िपयायाहरिस देव सोढुम्॥

भावाथर : अतएव हे पभो! मै शरीर को भलीभाित चरणो मे िनवेिदत कर,
पणाम करके, सतुित करने योगय आप ईशर को पसन होने के िलए
पाथरना करता हूँ। हे देव! िपता जैसे पुत के, सखा जैसे सखा के और
पित जैसे िपयतमा पती के अपराध सहन करते है- वैसे ही आप भी मेरे
अपराध को सहन करने योगय है। ॥44॥
अदृषपूवर ं हृिषतोऽिसम दृषटवा भयेन च पवयिथतं मनो मे।
तदेव मे दशरय देवरपंपसीद देवेश जगिनवास ॥
भावाथर : मै पहले न देखे हुए आपके इस आशयरमय रप को देखकर
हिषरत हो रहा हँू और मेरा मन भय से अित वयाकुल भी हो रहा है,
इसिलए आप उस अपने चतुभुरज िवषणु रप को ही मुझे िदखलाइए। हे
देवेश! हे जगिनवास! पसन होइए॥45॥
िकरीिटनं गिदनं चकहसतिमचछािम तवा दषुमहं तथैव।
तेनैव रपेण चतुभुरजेनसहसबाहो भव िवशमूते॥
भावाथर : मै वैसे ही आपको मुकुट धारण िकए हुए तथा गदा और चक
हाथ मे िलए हुए देखना चाहता हँू। इसिलए हे िवशसवरप! हे
सहसबाहो! आप उसी चतुभुरज रप से पकट होइए॥46॥
(भगवान दारा अपने िवशरप के दशरन की मिहमा का कथन तथा
चतुभुरज और सौमय रप का िदखाया जाना)
शीभगवानुवाच
मया पसनेन तवाजुरनेदर
ं पं परं दिशरतमातमयोगात्‌ ।
तेजोमयं िवशमननतमादंयनमे तवदनयेन न दृषपूवरम्‌ ॥
भावाथर : शी भगवान बोले- हे अजुरन! अनुगहपूवरक मैने अपनी
योगशिकत के पभाव से यह मेरे परम तेजोमय, सबका आिद और
सीमारिहत िवराट् रप तुझको िदखाया है, िजसे तेरे अितिरकत दस
ू रे
िकसी ने पहले नही देखा था॥47॥
न वेदयजाधययनैनर दानैनर च िकयािभनर तपोिभरगैः।
एवं रपः शकय अहं नृलोके दषु ं तवदनयेन कुरपवीर ॥
भावाथर : हे अजुरन! मनुषय लोक मे इस पकार िवश रप वाला मै न वेद
और यजो के अधययन से, न दान से, न िकयाओं से और न उग तपो से
ही तेरे अितिरकत दस
ू रे दारा देखा जा सकता हूँ।48॥
मा ते वयथा मा च िवमूढभावोदृषटवा रपं घोरमीदृङ‌ममेदम्‌।
वयतेपभीः पीतमनाः पुनसतवंतदेव मे रपिमदं पपशय ॥
भावाथर : मेरे इस पकार के इस िवकराल रप को देखकर तुझको
वयाकुलता नही होनी चािहए और मूढभाव भी नही होना चािहए। तू
भयरिहत और पीितयुकत मनवाला होकर उसी मेरे इस शंख-चक-गदा-
पदयुकत चतुभुरज रप को िफर देख॥49॥
संजय उवाच
इतयजुरन ं वासुदेवसतथोकतवा सवकं रपं दशरयामास भूयः ।
आशासयामास च भीतमेनभं ूतवा पुनः सौमयवपुमरहातमा ॥
भावाथर : संजय बोले- वासुदेव भगवान ने अजुरन के पित इस पकार
कहकर िफर वैसे ही अपने चतुभुरज रप को िदखाया और िफर महातमा
शीकृषण ने सौमयमूितर होकर इस भयभीत अजुरन को धीरज िदया॥50॥
(िबना अननय भिकत के चतुभुरज रप के दशरन की दुलरभता का और
फलसिहत अननय भिकत का कथन) )
अजुरन उवाच
दृषटवेद ं मानुषं रपं तव सौमयं जनादरन।
इदानीमिसम संवृतः सचेताः पकृितं गतः॥
भावाथर : अजुरन बोले- हे जनादरन! आपके इस अितशात मनुषय रप को
देखकर अब मै िसथरिचत हो गया हँू और अपनी सवाभािवक िसथित को
पापत हो गया हँू॥51॥
शीभगवानुवाच
सुदुदरशरिमदं रपं दृषवानिस यनमम।
देवा अपयसय रपसय िनतयं दशरनकािङ‌कणः॥
भावाथर : शी भगवान बोले- मेरा जो चतुभरज रप तुमने देखा है, वह
सुदुदरशर है अथात्‌ इसके दशरन बडे ही दुलरभ है। देवता भी सदा इस
रप के दशरन की आकाका करते रहते है॥52॥
नाहं वेदैनर तपसा न दानेन न चेजयया।
शकय एवं िवधो दषु ं दृषटवानिस मा यथा ॥
भावाथर : िजस पकार तुमने मुझको देखा है- इस पकार चतुभुरज रप
वाला मै न वेदो से, न तप से, न दान से और न यज से ही देखा जा
सकता हँू॥53॥
भकतया तवननयया शकय अहमेविं वधोऽजुरन ।
जातुं दषु ं च ततवेन पवेषु ं च परनतप ॥
भावाथर : परनतु हे परंतप अजुरन! अननय भिकत (अननयभिकत का भाव
अगले शलोक मे िवसतारपूवरक कहा है।) के दारा इस पकार चतुभुरज
रपवाला मै पतयक देखने के िलए, ततव से जानने के िलए तथा पवेश
करने के िलए अथात एकीभाव से पापत होने के िलए भी शकय हँू॥54॥
मतकमरकृनमतपरमो मदकतः सङ‌गविजरतः ।
िनवैरः सवरभूतेषु यः स मामेित पाणडव ॥
भावाथर : हे अजुरन! जो पुरष केवल मेरे ही िलए समपूणर कतरवय कमों
को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भकत है, आसिकतरिहत है और
समपूणर भूतपािणयो मे वैरभाव से रिहत है (सवरत भगवदुिद हो जाने से
उस पुरष का अित अपराध करने वाले मे भी वैरभाव नही होता है, िफर
औरो मे तो कहना ही कया है), वह अननयभिकतयुकत पुरष मुझको ही
पापत होता है॥55॥
ॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
॥ ॐ11ॐ
[12]
(साकार और िनराकार के उपासको की उतमता का िनणरय और
भगवतपािपत के उपाय का िवषय)
अजुरन उवाच
एवं सततयुकता ये भकतासतवा पयुरपासते ।
ये चापयकरमवयकतं तेषा के योगिवतमाः ॥
भावाथर : अजुरन बोले- जो अननय पेमी भकतजन पूवोकत पकार से
िनरनतर आपके भजन-धयान मे लगे रहकर आप सगुण रप परमेशर को
और दस
ू रे जो केवल अिवनाशी सिचचदाननदघन िनराकार बह को ही
अितशेष भाव से भजते है- उन दोनो पकार के उपासको मे अित उतम
योगवेता कौन है?॥1॥
शीभगवानुवाच
मययावेशय मनो ये मा िनतययुकता उपासते ।
शदया परयोपेतासते मे युकततमा मताः ॥
भावाथर : शी भगवान बोले- मुझमे मन को एकाग करके िनरंतर मेरे
भजन-धयान मे लगे हुए (अथात गीता अधयाय 11 शलोक 55 मे िलखे
हुए पकार से िनरनतर मेरे मे लगे हुए) जो भकतजन अितशय शेष शदा
से युकत होकर मुझ सगुणरप परमेशर को भजते है, वे मुझको योिगयो
मे अित उतम योगी मानय है॥2॥
ये तवकरमिनदेशयमवयकतं पयुरपासते।
सवरतगमिचनतयं च कूटसथमचलं धुवम्‌ ॥
सिनयमयेिनदयगामं सवरत समबुदयः ।
ते पापुविनत मामेव सवरभूतिहते रताः ॥
भावाथर : परनतु जो पुरष इिनदयो के समुदाय को भली पकार वश मे
करके मन-बुिद से परे, सवरवयापी, अकथनीय सवरप और सदा एकरस
रहने वाले, िनतय, अचल, िनराकार, अिवनाशी, सिचचदाननदघन बह को
िनरनतर एकीभाव से धयान करते हुए भजते है, वे समपूणर भूतो के िहत मे
रत और सबमे समान भाववाले योगी मुझको ही पापत होते है॥3-4॥
कलेशोऽिधकतरसतेषामवयकतासकतचेतसाम्‌ ।
अवयकता िह गितदर ु ःखं देहविदरवापयते ॥
भावाथर : उन सिचचदाननदघन िनराकार बह मे आसकत िचतवाले
पुरषो के साधन मे पिरशम िवशेष है कयोिक देहािभमािनयो दारा
अवयकतिवषयक गित दुःखपूवरक पापत की जाती है॥5॥
ये तु सवािण कमािण मिय सनयसय मतपराः ।
अननयेनैव योगेन मा धयायनत उपासते ॥
भावाथर : परनतु जो मेरे परायण रहने वाले भकतजन समपूणर कमों को
मुझमे अपरण करके मुझ सगुणरप परमेशर को ही अननय भिकतयोग से
िनरनतर िचनतन करते हुए भजते है। (इस शलोक का िवशेष भाव
जानने के िलए गीता अधयाय 11 शलोक 55 देखना चािहए)॥6॥
तेषामहं समुदता मृतयुसस
ं ारसागरात्‌ ।
भवािम निचरातपाथर मययावेिशतचेतसाम्‌ ॥
भावाथर : हे अजुरन! उन मुझमे िचत लगाने वाले पेमी भकतो का मै शीघ
ही मृतयु रप संसार-समुद से उदार करने वाला होता हँू॥7॥
मययेव मन आधतसव मिय बुिदं िनवेशय ।
िनविसषयिस मययेव अत ऊधवर ं न संशयः ॥
भावाथर : मुझमे मन को लगा और मुझमे ही बुिद को लगा, इसके
उपरानत तू मुझमे ही िनवास करेगा, इसमे कुछ भी संशय नही है॥8॥
अथ िचतं समाधातुं न शकोिष मिय िसथरम्‌ ।
अभयासयोगेन ततो मािमचछापतुं धनञय ॥
भावाथर : यिद तू मन को मुझमे अचल सथापन करने के िलए समथर
नही है, तो हे अजुरन! अभयासरप (भगवान के नाम और गुणो का शवण,
कीतरन, मनन तथा शास दारा जप और भगवतपािपतिवषयक शासतो का
पठन-पाठन इतयािद चेषाएँ भगवतपािपत के िलए बारंबार करने का नाम
'अभयास' है) योग दारा मुझको पापत होने के िलए इचछा कर॥9॥
अभयासेऽपयसमथोऽिस मतकमरपरमो भव ।
मदथरमिप कमािण कुवरिनसिदमवापसयिस ॥
भावाथर : यिद तू उपयुरकत अभयास मे भी असमथर है, तो केवल मेरे
िलए कमर करने के ही परायण (सवाथर को तयागकर तथा परमेशर को
ही परम आशय और परम गित समझकर, िनषकाम पेमभाव से सती-
िशरोमिण, पितवरता सती की भाित मन, वाणी और शरीर दारा परमेशर
के ही िलए यज, दान और तपािद समपूणर कतरवयकमों के करने का नाम
'भगवदथर कमर करने के परायण होना' है) हो जा। इस पकार मेरे
िनिमत कमों को करता हुआ भी मेरी पािपत रप िसिद को ही पापत
होगा॥10॥
अथैतदपयशकतोऽिस कतुर ं मदोगमािशतः ।
सवरकमरफलतयागं ततः कुर यतातमवान्‌ ॥
भावाथर : यिद मेरी पािपत रप योग के आिशत होकर उपयुरकत साधन
को करने मे भी तू असमथर है, तो मन-बुिद आिद पर िवजय पापत करने
वाला होकर सब कमों के फल का तयाग (गीता अधयाय 9 शलोक 27 मे
िवसतार देखना चािहए) कर॥11॥
शेयो िह जानमभयासाजजानादयानं िविशषयते ।
धयानातकमरफलतयागसतयागाचछािनतरननतरम्‌ ॥
भावाथर : ममर को न जानकर िकए हुए अभयास से जान शेष है, जान
से मुझ परमेशर के सवरप का धयान शेष है और धयान से सब कमों
के फल का तयाग (केवल भगवदथर कमर करने वाले पुरष का भगवान
मे पेम और शदा तथा भगवान का िचनतन भी बना रहता है, इसिलए
धयान से 'कमरफल का तयाग' शेष कहा है) शेष है, कयोिक तयाग से
ततकाल ही परम शािनत होती है॥12॥
(भगवत्-‌ पापत पुरषो के लकण)
अदेषा सवरभूताना मैतः करण एव च ।
िनमरमो िनरहङ‌कारः समदुःखसुखः कमी ॥
संतुषः सततं योगी यतातमा दृढिनशयः।
मययिपरतमनोबुिदयो मदकतः स मे िपयः॥
भावाथर : जो पुरष सब भूतो मे देष भाव से रिहत, सवाथर रिहत सबका
पेमी और हेतु रिहत दयालु है तथा ममता से रिहत, अहंकार से रिहत,
सुख-दुःखो की पािपत मे सम और कमावान है अथात अपराध करने
वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी िनरनतर संतुष है, मन-
इिनदयो सिहत शरीर को वश मे िकए हुए है और मुझमे दृढ िनशय वाला
है- वह मुझमे अपरण िकए हुए मन-बुिदवाला मेरा भकत मुझको िपय है॥
13-14॥
यसमानोिदजते लोको लोकानोिदजते च यः।
हषामषरभयोदेगैमुरकतो यः स च मे िपयः॥
भावाथर : िजससे कोई भी जीव उदेग को पापत नही होता और जो सवयं
भी िकसी जीव से उदेग को पापत नही होता तथा जो हषर, अमषर (दस
ू रे
की उनित को देखकर संताप होने का नाम 'अमषर' है), भय और
उदेगािद से रिहत है वह भकत मुझको िपय है॥15॥
अनपेकः शुिचदरक उदासीनो गतवयथः।
सवारमभपिरतयागी यो मदकतः स मे िपयः॥
भावाथर : जो पुरष आकाका से रिहत, बाहर-भीतर से शुद (गीता
अधयाय 13 शलोक 7 की िटपपणी मे इसका िवसतार देखना चािहए)
चतुर, पकपात से रिहत और दुःखो से छू टा हुआ है- वह सब आरमभो
का तयागी मेरा भकत मुझको िपय है॥16॥
यो न हृषयित न देिष न शोचित न काङ‌कित।
शुभाशुभपिरतयागी भिकतमानयः स मे िपयः॥
भावाथर : जो न कभी हिषरत होता है, न देष करता है, न शोक करता है,
न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ समपूणर कमों का तयागी
है- वह भिकतयुकत पुरष मुझको िपय है॥17॥
समः शतौ च िमते च तथा मानापमानयोः।
शीतोषणसुखदुःखेषु समः सङ‌गिवविजरतः॥
भावाथर : जो शतु-िमत मे और मान-अपमान मे सम है तथा सदी, गमी
और सुख-दुःखािद दंदो मे सम है और आसिकत से रिहत है॥18॥
तुलयिननदासतुितमौनी सनतुषो येन केनिचत्‌।
अिनकेतः िसथरमितभरिकतमानमे िपयो नरः॥
भावाथर : जो िनंदा-सतुित को समान समझने वाला, मननशील और
िजस िकसी पकार से भी शरीर का िनवाह होने मे सदा ही संतुष है
और रहने के सथान मे ममता और आसिकत से रिहत है- वह िसथरबुिद
भिकतमान पुरष मुझको िपय है॥19॥
ये तु धमयामृतिमदं यथोकतं पयुरपासते।
शदाना मतपरमा भकतासतेऽतीव मे िपयाः॥
भावाथर : परनतु जो शदायुकत (वेद, शासत, महातमा और गुरजनो के
तथा परमेशर के वचनो मे पतयक के सदृश िवशास का नाम 'शदा' है)
पुरष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धमरमय अमृत को िनषकाम
पेमभाव से सेवन करते है, वे भकत मुझको अितशय िपय है॥20॥
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[13]
(जानसिहत केत-केतज का िवषय)
शीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौनतेय केतिमतयिभधीयते।
एतदो वेित तं पाहुः केतज इित तिददः॥
भावाथर : शी भगवान बोले- हे अजुरन! यह शरीर 'केत' (जैसे खेत मे बोए
हुए बीजो का उनके अनुरप फल समय पर पकट होता है, वैसे ही
इसमे बोए हुए कमों के संसकार रप बीजो का फल समय पर पकट
होता है, इसिलए इसका नाम 'केत' ऐसा कहा है) इस नाम से कहा
जाता है और इसको जो जानता है, उसको 'केतज' इस नाम से उनके
ततव को जानने वाले जानीजन कहते है॥1॥
केतजं चािप मा िविद सवरकेतेषु भारत।
केतकेतजयोजानं यतजजानं मतं मम॥
भावाथर : हे अजुरन! तू सब केतो मे केतज अथात जीवातमा भी मुझे ही
जान (गीता अधयाय 15 शलोक 7 और उसकी िटपपणी देखनी चािहए)
और केत-केतज को अथात िवकार सिहत पकृित और पुरष का जो
ततव से जानना है (गीता अधयाय 13 शलोक 23 और उसकी िटपपणी
देखनी चािहए) वह जान है- ऐसा मेरा मत है॥2॥
ततकेतं यचच यादृकच यिदकािर यतश यत्‌।
स च यो यतपभावश ततसमासेन मे शृणु॥
भावाथर : वह केत जो और जैसा है तथा िजन िवकारो वाला है और
िजस कारण से जो हुआ है तथा वह केतज भी जो और िजस
पभाववाला है- वह सब संकेप मे मुझसे सुन॥3॥
ऋिषिभबरहुधा गीतं छनदोिभिवरिवधैः पृथक् ‌ ।
बहसूतपदैशैव हेतुमिदिवरिनिशतैः ॥
भावाथर : यह केत और केतज का ततव ऋिषयो दारा बहुत पकार से
कहा गया है और िविवध वेदमनतो दारा भी िवभागपूवरक कहा गया है
तथा भलीभाित िनशय िकए हुए युिकतयुकत बहसूत के पदो दारा भी
कहा गया है॥4॥
महाभूतानयहङ‌कारो बुिदरवयकतमेव च ।
इिनदयािण दशैकं च पञच चेिनदयगोचराः ॥
भावाथर : पाच महाभूत, अहंकार, बुिद और मूल पकृित भी तथा दस
इिनदया, एक मन और पाच इिनदयो के िवषय अथात शबद, सपशर, रप,
रस और गंध॥5॥
इचछा देषः सुखं दुःखं सङ‌घातशेतना धृितः ।
एततकेतं समासेन सिवकारमुदाहृतम्‌ ॥
भावाथर : तथा इचछा, देष, सुख, दुःख, सथूल देहका िपणड, चेतना
(शरीर और अनतःकरण की एक पकार की चेतन-शिकत।) और धृित
(गीता अधयाय 18 शलोक 34 व 35 तक देखना चािहए।)-- इस पकार
िवकारो (पाचवे शलोक मे कहा हुआ तो केत का सवरप समझना चािहए
और इस शलोक मे कहे हुए इचछािद केत के िवकार समझने चािहए।)
के सिहत यह केत संकेप मे कहा गया॥6॥
अमािनतवमदिमभतवमिहंसा कािनतराजरवम्‌ ।
आचायोपासनं शौचं सथैयरमातमिविनगहः ॥
भावाथर : शेषता के अिभमान का अभाव, दमभाचरण का अभाव, िकसी
भी पाणी को िकसी पकार भी न सताना, कमाभाव, मन-वाणी आिद की
सरलता, शदा-भिकत सिहत गुर की सेवा, बाहर-भीतर की शुिद
(सतयतापूवरक शुद वयवहार से दवय की और उसके अन से आहार की
तथा यथायोगय बताव से आचरणो की और जल-मृितकािद से शरीर की
शुिद को बाहर की शुिद कहते है तथा राग, देष और कपट आिद
िवकारो का नाश होकर अनतःकरण का सवचछ हो जाना भीतर की शुिद
कही जाती है।) अनतःकरण की िसथरता और मन-इिनदयो सिहत
शरीर का िनगह॥7॥
इिनदयाथेषु वैरागयमनहङ‌कार एव च ।
जनममृतयुजरावयािधदुःखदोषानुदशरनम्‌ ॥
भावाथर : इस लोक और परलोक के समपूणर भोगो मे आसिकत का
अभाव और अहंकार का भी अभाव, जनम, मृतयु, जरा और रोग आिद मे
दुःख और दोषो का बार-बार िवचार करना॥8॥
असिकतरनिभषवङ‌ग: पुतदारगृहािदषु ।
िनतयं च समिचततविमषािनषोपपितषु ॥
भावाथर : पुत, सती, घर और धन आिद मे आसिकत का अभाव, ममता
का न होना तथा िपय और अिपय की पािपत मे सदा ही िचत का सम
रहना॥9॥
मिय चाननययोगेन भिकतरवयिभचािरणी ।
िविवकतदेशसेिवतवमरितजरनसंसिद ॥
भावाथर : मुझ परमेशर मे अननय योग दारा अवयिभचािरणी भिकत
(केवल एक सवरशिकतमान परमेशर को ही अपना सवामी मानते हुए
सवाथर और अिभमान का तयाग करके, शदा और भाव सिहत परमपेम से
भगवान का िनरनतर िचनतन करना 'अवयिभचािरणी' भिकत है) तथा
एकानत और शुद देश मे रहने का सवभाव और िवषयासकत मनुषयो के
समुदाय मे पेम का न होना॥10॥
अधयातमजानिनतयतवं ततवजानाथरदशरनम्‌ ।
एतजजानिमित पोकतमजानं यदतोऽनयथा ॥
भावाथर : अधयातम जान मे (िजस जान दारा आतमवसतु और
अनातमवसतु जानी जाए, उस जान का नाम 'अधयातम जान' है) िनतय
िसथित और ततवजान के अथररप परमातमा को ही देखना- यह सब
जान (इस अधयाय के शलोक 7 से लेकर यहा तक जो साधन कहे है,
वे सब ततवजान की पािपत मे हेतु होने से 'जान' नाम से कहे गए है) है
और जो इसके िवपरीत है वह अजान (ऊपर कहे हुए जान के साधनो
से िवपरीत तो मान, दमभ, िहंसा आिद है, वे अजान की वृिद मे हेतु होने
से 'अजान' नाम से कहे गए है) है- ऐसा कहा है॥11॥
जेय ं यततवपवकयािम यजजातवामृतमशुते ।
अनािदमतपरं बह न सतनासदुचयते ॥
भावाथर : जो जानने योगय है तथा िजसको जानकर मनुषय परमाननद
को पापत होता है, उसको भलीभाित कहँूगा। वह अनािदवाला परमबह
न सत्‌ ही कहा जाता है, न असत्‌ ही॥12॥
सवरतः पािणपादं ततसवरतोऽिकिशरोमुखम्‌ ।
सवरतः शुितमललोके सवरमावृतय ितषित ॥
भावाथर : वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत, िसर और मुख
वाला तथा सब ओर कान वाला है, कयोिक वह संसार मे सबको वयापत
करके िसथत है। (आकाश िजस पकार वायु, अिगन, जल और पृथवी
का कारण रप होने से उनको वयापत करके िसथत है, वैसे ही परमातमा
भी सबका कारण रप होने से समपूणर चराचर जगत को वयापत करके
िसथत है) ॥13॥
सवेिनदयगुणाभासं सवेिनदयिवविजरतम्‌ ।
असकतं सवरभृचचैव िनगुरणं गुणभोकतृ च ॥
भावाथर : वह समपूणर इिनदयो के िवषयो को जानने वाला है, परनतु
वासतव मे सब इिनदयो से रिहत है तथा आसिकत रिहत होने पर भी
सबका धारण-पोषण करने वाला और िनगुरण होने पर भी गुणो को भोगने
वाला है॥14॥
बिहरनतश भूतानामचरं चरमेव च ।
सूकमतवातदिवजयं दरू सथं चािनतके च तत्‌ ॥
भावाथर : वह चराचर सब भूतो के बाहर-भीतर पिरपूणर है और चर-
अचर भी वही है। और वह सूकम होने से अिवजेय (जैसे सूयर की
िकरणो मे िसथत हुआ जल सूकम होने से साधारण मनुषयो के जानने मे
नही आता है, वैसे ही सवरवयापी परमातमा भी सूकम होने से साधारण
मनुषयो के जानने मे नही आता है) है तथा अित समीप मे (वह परमातमा
सवरत पिरपूणर और सबका आतमा होने से अतयनत समीप है) और दरू मे
(शदारिहत, अजानी पुरषो के िलए न जानने के कारण बहुत दरू है) भी
िसथत वही है॥15॥
अिवभकतं च भूतेषु िवभकतिमव च िसथतम्‌ ।
भूतभतृर च तजजेय ं गिसषणु पभिवषणु च ॥
भावाथर : वह परमातमा िवभागरिहत एक रप से आकाश के सदृश
पिरपूणर होने पर भी चराचर समपूणर भूतो मे िवभकत-सा िसथत पतीत
होता है (जैसे महाकाश िवभागरिहत िसथत हुआ भी घडो मे पृथक-
पृथक के सदृश पतीत होता है, वैसे ही परमातमा सब भूतो मे एक रप
से िसथत हुआ भी पृथक-पृथक की भाित पतीत होता है) तथा वह
जानने योगय परमातमा िवषणुरप से भूतो को धारण-पोषण करने वाला
और रदरप से संहार करने वाला तथा बहारप से सबको उतपन
करने वाला है॥16॥
जयोितषामिप तजजयोितसतमसः परमुचयते ।
जानं जेय ं जानगमयं हृिद सवरसय िविषतम्‌ ॥
भावाथर : वह परबह जयोितयो का भी जयोित (गीता अधयाय 15 शलोक
12 मे देखना चािहए) एवं माया से अतयनत परे कहा जाता है। वह
परमातमा बोधसवरप, जानने के योगय एवं ततवजान से पापत करने योगय
है और सबके हृदय मे िवशेष रप से िसथत है॥17॥
इित केतं तथा जानं जेय ं चोकतं समासतः ।
मदकत एतिदजाय मदावायोपपदते ॥
भावाथर : इस पकार केत (शलोक 5-6 मे िवकार सिहत केत का सवरप
कहा है) तथा जान (शलोक 7 से 11 तक जान अथात जान का साधन
कहा है।) और जानने योगय परमातमा का सवरप (शलोक 12 से 17
तक जेय का सवरप कहा है) संकेप मे कहा गया। मेरा भकत इसको
ततव से जानकर मेरे सवरप को पापत होता है॥18॥
(जानसिहत पकृित-पुरष का िवषय)
पकृितं पुरषं चैव िवद‌ ्यनादी उभाविप ।
िवकाराश गुणाशैव िविद पकृितसमभवान्‌ ॥
भावाथर : पकृित और पुरष- इन दोनो को ही तू अनािद जान और राग-
देषािद िवकारो को तथा ितगुणातमक समपूणर पदाथों को भी पकृित से ही
उतपन जान॥19॥
कायरकरणकतृरतवे हेतुः पकृितरचयते ।
पुरषः सुखदःु खाना भोकतृतवे हेतुरचयते ॥
भावाथर : कायर (आकाश, वायु, अिगन, जल और पृथवी तथा शबद, सपशर,
रप, रस, गंध -इनका नाम 'कायर' है) और करण (बुिद, अहंकार और
मन तथा शोत, तवचा, रसना, नेत और घाण एवं वाक्,‌ हसत, पाद,
उपसथ और गुदा- इन 13 का नाम 'करण' है) को उतपन करने मे हेतु
पकृित कही जाती है और जीवातमा सुख-दुःखो के भोकतपन मे अथात
भोगने मे हेतु कहा जाता है॥20॥
पुरषः पकृितसथो िह भुङ‌कते पकृितजानगुणान्‌ ।
कारणं गुणसंगोऽसय सदसदोिनजनमसु ॥
भावाथर : पकृित मे (पकृित शबद का अथर गीता अधयाय 7 शलोक 14 मे
कही हुई भगवान की ितगुणमयी माया समझना चािहए) िसथत ही पुरष
पकृित से उतपन ितगुणातमक पदाथों को भोगता है और इन गुणो का
संग ही इस जीवातमा के अचछी-बुरी योिनयो मे जनम लेने का कारण
है। (सततवगुण के संग से देवयोिन मे एवं रजोगुण के संग से मनुषय
योिन मे और तमो गुण के संग से पशु आिद नीच योिनयो मे जनम होता
है।)॥21॥
उपदषानुमनता च भता भोकता महेशरः ।
परमातमेित चापयुकतो देहेऽिसमनपुरषः परः ॥
भावाथर : इस देह मे िसथत यह आतमा वासतव मे परमातमा ही है। वह
साकी होने से उपदषा और यथाथर सममित देने वाला होने से अनुमनता,
सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भता, जीवरप से भोकता, बहा
आिद का भी सवामी होने से महेशर और शुद सिचचदाननदघन होने से
परमातमा- ऐसा कहा गया है॥22॥
य एवं वेित पुरषं पकृितं च गुणैः सह ।
सवरथा वतरमानोऽिप न स भूयोऽिभजायते ॥
भावाथर : इस पकार पुरष को और गुणो के सिहत पकृित को जो
मनुषय ततव से जानता है (दृशयमात समपूणर जगत माया का कायर होने
से कणभंगुर, नाशवान, जड और अिनतय है तथा जीवातमा िनतय, चेतन,
िनिवरकार और अिवनाशी एवं शुद, बोधसवरप, सिचचदाननदघन परमातमा
का ही सनातन अंश है, इस पकार समझकर समपूणर माियक पदाथों के
संग का सवरथा तयाग करके परम पुरष परमातमा मे ही एकीभाव से
िनतय िसथत रहने का नाम उनको 'ततव से जानना' है) वह सब पकार
से कतरवय कमर करता हुआ भी िफर नही जनमता॥23॥
धयानेनातमिन पशयिनत केिचदातमानमातमना ।
अनये साङ‌खयेन योगेन कमरयोगेन चापरे ॥
भावाथर : उस परमातमा को िकतने ही मनुषय तो शुद हुई सूकम बुिद से
धयान (िजसका वणरन गीता अधयाय 6 मे शलोक 11 से 32 तक
िवसतारपूवरक िकया है) दारा हृदय मे देखते है, अनय िकतने ही जानयोग
(िजसका वणरन गीता अधयाय 2 मे शलोक 11 से 30 तक िवसतारपूवरक
िकया है) दारा और दस
ू रे िकतने ही कमरयोग (िजसका वणरन गीता
अधयाय 2 मे शलोक 40 से अधयाय समािपतपयरनत िवसतारपूवरक िकया
है) दारा देखते है अथात पापत करते है॥24॥
अनये तवेवमजाननतः शुतवानयेभय उपासते ।
तेऽिप चािततरनतयेव मृतयुं शुितपरायणाः ॥
भावाथर : परनतु इनसे दस
ू रे अथात जो मंदबुिदवाले पुरष है, वे इस
पकार न जानते हुए दस
ू रो से अथात ततव के जानने वाले पुरषो से
सुनकर ही तदनुसार उपासना करते है और वे शवणपरायण पुरष भी
मृतयुरप संसार-सागर को िनःसंदेह तर जाते है॥25॥
यावतसञायते िकिञचतसततवं सथावरजङ‌गमम्‌ ।
केतकेतजसंयोगातिदिद भरतषरभ ॥
भावाथर : हे अजुरन! यावनमात िजतने भी सथावर-जंगम पाणी उतपन
होते है, उन सबको तू केत और केतज के संयोग से ही उतपन जान॥
26॥
समं सवेषु भूतेषु ितषनतं परमेशरम्‌ ।
िवनशयतसविवनशयनतं यः पशयित स पशयित ॥
भावाथर : जो पुरष नष होते हुए सब चराचर भूतो मे परमेशर को
नाशरिहत और समभाव से िसथत देखता है वही यथाथर देखता है॥
27॥
समं पशयिनह सवरत समविसथतमीशरम्‌ ।
न िहनसतयातमनातमानं ततो याित परा गितम्‌ ॥
भावाथर : कयोिक जो पुरष सबमे समभाव से िसथत परमेशर को समान
देखता हुआ अपने दारा अपने को नष नही करता, इससे वह परम गित
को पापत होता है॥28॥
पकृतयैव च कमािण िकयमाणािन सवरशः ।
यः पशयित तथातमानमकतारं स पशयित ॥
भावाथर : और जो पुरष समपूणर कमों को सब पकार से पकृित दारा ही
िकए जाते हुए देखता है और आतमा को अकता देखता है, वही यथाथर
देखता है॥29॥
यदा भूतपृथगभावमेकसथमनुपशयित ।
तत एव च िवसतारं बह समपदते तदा ॥
भावाथर : िजस कण यह पुरष भूतो के पृथक-पृथक भाव को एक
परमातमा मे ही िसथत तथा उस परमातमा से ही समपूणर भूतो का िवसतार
देखता है, उसी कण वह सिचचदाननदघन बह को पापत हो जाता है॥
30॥
अनािदतवािनगुरणतवातपरमातमायमवययः ।
शरीरसथोऽिप कौनतेय न करोित न िलपयते ॥
भावाथर : हे अजुरन! अनािद होने से और िनगुरण होने से यह अिवनाशी
परमातमा शरीर मे िसथत होने पर भी वासतव मे न तो कुछ करता है
और न िलपत ही होता है॥31॥
यथा सवरगतं सौकमयादाकाशं नोपिलपयते ।
सवरताविसथतो देहे तथातमा नोपिलपयते ॥
भावाथर : िजस पकार सवरत वयापत आकाश सूकम होने के कारण िलपत
नही होता, वैसे ही देह मे सवरत िसथत आतमा िनगुरण होने के कारण देह
के गुणो से िलपत नही होता॥32॥
यथा पकाशयतयेकः कृतसनं लोकिममं रिवः ।
केतं केती तथा कृतसनं पकाशयित भारत ॥
भावाथर : हे अजुरन! िजस पकार एक ही सूयर इस समपूणर बहाणड को
पकािशत करता है, उसी पकार एक ही आतमा समपूणर केत को पकािशत
करता है॥33॥
केतकेतजयोरेवमनतरं जानचकुषा ।
भूतपकृितमोकं च ये िवदुयािनत ते परम्‌ ॥
भावाथर : इस पकार केत और केतज के भेद को (केत को जड,
िवकारी, किणक और नाशवान तथा केतज को िनतय, चेतन, अिवकारी
और अिवनाशी जानना ही 'उनके भेद को जानना' है) तथा कायर सिहत
पकृित से मुकत होने को जो पुरष जान नेतो दारा ततव से जानते है, वे
महातमाजन परम बह परमातमा को पापत होते है॥34॥
ॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ॥13ॐ
[14]
(जान की मिहमा और पकृित-पुरष से जगत्‌ की उतपित)
शीभगवानुवाच
परं भूयः पवकयािम जानानं मानमुतमम्‌ ।
यजजातवा मुनयः सवे परा िसिदिमतो गताः ॥
भावाथर : शी भगवान बोले- जानो मे भी अितउतम उस परम जान को
मै िफर कहूँगा, िजसको जानकर सब मुिनजन इस संसार से मुकत
होकर परम िसिद को पापत हो गए है॥1॥
इदं जानमुपािशतय मम साधमयरमागताः ।
सगेऽिप नोपजायनते पलये न वयथिनत च ॥
भावाथर : इस जान को आशय करके अथात धारण करके मेरे सवरप
को पापत हुए पुरष सृिष के आिद मे पुनः उतपन नही होते और
पलयकाल मे भी वयाकुल नही होते॥2॥
मम योिनमरहदबह तिसमनगभर ं दधामयहम्‌ ।
समभवः सवरभूताना ततो भवित भारत ॥
भावाथर : हे अजुरन! मेरी महत्-‌ बहरप मूल-पकृित समपूणर भूतो की
योिन है अथात गभाधान का सथान है और मै उस योिन मे चेतन
समुदायरप गभर को सथापन करता हूँ। उस जड-चेतन के संयोग से
सब भूतो की उतपित होती है॥3॥
सवरयोिनषु कौनतेय मूतरयः समभविनत याः ।
तासा बह महदोिनरहं बीजपदः िपता ॥
भावाथर : हे अजुरन! नाना पकार की सब योिनयो मे िजतनी मूितरया
अथात शरीरधारी पाणी उतपन होते है, पकृित तो उन सबकी गभरधारण
करने वाली माता है और मै बीज को सथापन करने वाला िपता हँू॥4॥
(सत्,‌ रज, तम- तीनो गुणो का िवषय)
सततवं रजसतम इित गुणाः पकृितसमभवाः ।
िनबधिनत महाबाहो देहे देिहनमवययम्‌ ॥
भावाथर : हे अजुरन! सततवगुण, रजोगुण और तमोगुण -ये पकृित से
उतपन तीनो गुण अिवनाशी जीवातमा को शरीर मे बाधते है॥5॥
तत सततवं िनमरलतवातपकाशकमनामयम्‌ ।
सुखसङ‌गेन बधाित जानसङ‌गेन चानघ ॥
भावाथर : हे िनषपाप! उन तीनो गुणो मे सततवगुण तो िनमरल होने के
कारण पकाश करने वाला और िवकार रिहत है, वह सुख के समबनध से
और जान के समबनध से अथात उसके अिभमान से बाधता है॥6॥
रजो रागातमकं िविद तृषणासङ‌गसमुदवम्‌ ।
तिनबधाित कौनतेय कमरसङ‌गेन देिहनम्‌ ॥
भावाथर : हे अजुरन! रागरप रजोगुण को कामना और आसिकत से
उतपन जान। वह इस जीवातमा को कमों और उनके फल के समबनध
मे बाधता है॥7॥
तमसतवजानजं िविद मोहनं सवरदेिहनाम्‌ ।
पमादालसयिनदािभसतिनबधाित भारत ॥
भावाथर : हे अजुरन! सब देहािभमािनयो को मोिहत करने वाले तमोगुण
को तो अजान से उतपन जान। वह इस जीवातमा को पमाद (इंिदयो
और अंतःकरण की वयथर चेषाओं का नाम 'पमाद' है), आलसय (कतरवय
कमर मे अपवृितरप िनरदमता का नाम 'आलसय' है) और िनदा दारा
बाधता है॥8॥
सततवं सुखे सञयित रजः कमरिण भारत ।
जानमावृतय तु तमः पमादे सञयतयुत ॥
भावाथर : हे अजुरन! सततवगुण सुख मे लगाता है और रजोगुण कमर मे
तथा तमोगुण तो जान को ढँककर पमाद मे भी लगाता है॥9॥
रजसतमशािभभूय सततवं भवित भारत ।
रजः सततवं तमशैव तमः सततवं रजसतथा ॥
भावाथर : हे अजुरन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सततवगुण,
सततवगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सततवगुण और
रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अथात बढता है॥10॥
सवरदारेषु देहेऽिसमनपकाश उपजायते ।
जानं यदा तदा िवदािदवृद ं सततविमतयुत ॥
भावाथर : िजस समय इस देह मे तथा अनतःकरण और इिनदयो मे
चेतनता और िववेक शिकत उतपन होती है, उस समय ऐसा जानना
चािहए िक सततवगुण बढा है॥11॥
लोभः पवृितरारमभः कमरणामशमः सपृहा ।
रजसयेतािन जायनते िववृदे भरतषरभ ॥
भावाथर : हे अजुरन! रजोगुण के बढने पर लोभ, पवृित, सवाथरबुिद से
कमों का सकामभाव से आरमभ, अशािनत और िवषय भोगो की लालसा-
ये सब उतपन होते है॥12॥
अपकाशोऽपवृितश पमादो मोह एव च ।
तमसयेतािन जायनते िववृदे कुरननदन ॥
भावाथर : हे अजुरन! तमोगुण के बढने पर अनतःकरण और इंिनदयो मे
अपकाश, कतरवय-कमों मे अपवृित और पमाद अथात वयथर चेषा और
िनदािद अनतःकरण की मोिहनी वृितया - ये सब ही उतपन होते है॥
13॥
यदा सततवे पवृदे तु पलयं याित देहभृत्‌ ।
तदोतमिवदा लोकानमलानपितपदते ॥
भावाथर : जब यह मनुषय सततवगुण की वृिद मे मृतयु को पापत होता है,
तब तो उतम कमर करने वालो के िनमरल िदवय सवगािद लोको को पापत
होता है॥14॥
रजिस पलयं गतवा कमरसिङ‌गषु जायते ।
तथा पलीनसतमिस मूढयोिनषु जायते ॥
भावाथर : रजोगुण के बढने पर मृतयु को पापत होकर कमों की आसिकत
वाले मनुषयो मे उतपन होता है तथा तमोगुण के बढने पर मरा हुआ
मनुषय कीट, पशु आिद मूढयोिनयो मे उतपन होता है॥15॥
कमरणः सुकृतसयाहुः सािततवकं िनमरलं फलम्‌ ।
रजससतु फलं दुःखमजानं तमसः फलम्‌ ॥
भावाथर : शेष कमर का तो सािततवक अथात् सुख, जान और वैरागयािद
िनमरल फल कहा है, राजस कमर का फल दुःख एवं तामस कमर का
फल अजान कहा है॥16॥
सततवातसञायते जानं रजसो लोभ एव च ।
पमादमोहौ तमसो भवतोऽजानमेव च ॥
भावाथर : सततवगुण से जान उतपन होता है और रजोगुण से िनःसनदेह
लोभ तथा तमोगुण से पमाद (इसी अधयाय के शलोक 13 मे देखना
चािहए) और मोह (इसी अधयाय के शलोक 13 मे देखना चािहए।)
उतपन होते है और अजान भी होता है॥17॥
ऊधवर ं गचछिनत सततवसथा मधये ितषिनत राजसाः ।
जघनयगुणवृितसथा अधो गचछिनत तामसाः ॥
भावाथर : सततवगुण मे िसथत पुरष सवगािद उचच लोको को जाते है,
रजोगुण मे िसथत राजस पुरष मधय मे अथात मनुषय लोक मे ही रहते
है और तमोगुण के कायररप िनदा, पमाद और आलसयािद मे िसथत
तामस पुरष अधोगित को अथात कीट, पशु आिद नीच योिनयो को
तथा नरको को पापत होते है॥18॥
(भगवतपािपत का उपाय और गुणातीत पुरष के लकण)
नानयं गुणेभयः कतारं यदा दषानुपशयित ।
गुणेभयश परं वेित मदावं सोऽिधगचछित ॥
भावाथर : िजस समय दृषा तीनो गुणो के अितिरकत अनय िकसी को
कता नही देखता और तीनो गुणो से अतयनत परे सिचचदाननदघनसवरप
मुझ परमातमा को तततव से जानता है, उस समय वह मेरे सवरप को
पापत होता है॥19॥
गुणानेतानतीतय तीनदेही देहसमुदवान्‌ ।
जनममृतयुजरादुःखैिवरमुकतोऽमृतमशुते ॥
भावाथर : यह पुरष शरीर की (बुिद, अहंकार और मन तथा पाच
जानेिनदया, पाच कमेिनदया, पाच भूत, पाच इिनदयो के िवषय- इस पकार
इन तेईस तततवो का िपणड रप यह सथूल शरीर पकृित से उतपन होने
वाले गुणो का ही कायर है, इसिलए इन तीनो गुणो को इसी की उतपित
का कारण कहा है) उतपित के कारणरप इन तीनो गुणो को उललंघन
करके जनम, मृतयु, वृदावसथा और सब पकार के दःु खो से मुकत हुआ
परमाननद को पापत होता है॥20॥
अजुरन उवाच
कैिलरङग
‌ ैसतीनगुणानेतानतीतो भवित पभो ।
िकमाचारः कथं चैतासतीनगुणानितवतरते ॥
भावाथर : अजुरन बोले- इन तीनो गुणो से अतीत पुरष िकन-िकन लकणो
से युकत होता है और िकस पकार के आचरणो वाला होता है तथा हे
पभो! मनुषय िकस उपाय से इन तीनो गुणो से अतीत होता है?॥21॥
शीभगवानुवाच
पकाशं च पवृितं च मोहमेव च पाणडव ।
न देिष समपवृतािन न िनवृतािन काङ‌कित ॥
भावाथर : शी भगवान बोले- हे अजुरन! जो पुरष सततवगुण के कायररप
पकाश (अनतःकरण और इिनदयािद को आलसय का अभाव होकर जो
एक पकार की चेतनता होती है, उसका नाम 'पकाश' है) को और
रजोगुण के कायररप पवृित को तथा तमोगुण के कायररप मोह (िनदा
और आलसय आिद की बहुलता से अनतःकरण और इिनदयो मे चेतन
शिकत के लय होने को यहा 'मोह' नाम से समझना चािहए) को भी न तो
पवृत होने पर उनसे देष करता है और न िनवृत होने पर उनकी
आकाका करता है। (जो पुरष एक सिचचदाननदघन परमातमा मे ही
िनतय, एकीभाव से िसथत हुआ इस ितगुणमयी माया के पपंच रप संसार
से सवरथा अतीत हो गया है, उस गुणातीत पुरष के अिभमानरिहत
अनतःकरण मे तीनो गुणो के कायररप पकाश, पवृित और मोहािद
वृितयो के पकट होने और न होने पर िकसी काल मे भी इचछा-देष
आिद िवकार नही होते है, यही उसके गुणो से अतीत होने के पधान
लकण है)॥22॥
उदासीनवदासीनो गुणैयो न िवचालयते ।
गुणा वतरनत इतयेव योऽवितषित नेङ‌गते ॥
भावाथर : जो साकी के सदृश िसथत हुआ गुणो दारा िवचिलत नही िकया
जा सकता और गुण ही गुणो मे बरतते (ितगुणमयी माया से उतपन हुए
अनतःकरण सिहत इिनदयो का अपने -अपने िवषयो मे िवचरना ही 'गुणो
का गुणो मे बरतना' है) है- ऐसा समझता हुआ जो सिचचदाननदघन
परमातमा मे एकीभाव से िसथत रहता है एवं उस िसथित से कभी
िवचिलत नही होता॥23॥
समदुःखसुखः सवसथः समलोषाशमकाञचनः ।
तुलयिपयािपयो धीरसतुलयिननदातमसंसतुितः ॥
भावाथर : जो िनरनतर आतम भाव मे िसथत, दुःख-सुख को समान
समझने वाला, िमटी, पतथर और सवणर मे समान भाव वाला, जानी, िपय
तथा अिपय को एक-सा मानने वाला और अपनी िननदा-सतुित मे भी
समान भाव वाला है॥24॥
मानापमानयोसतुलयसतुलयो िमतािरपकयोः ।
सवारमभपिरतयागी गुणातीतः सा उचयते ॥
भावाथर : जो मान और अपमान मे सम है, िमत और वैरी के पक मे भी
सम है एवं समपूणर आरमभो मे कतापन के अिभमान से रिहत है, वह
पुरष गुणातीत कहा जाता है॥25॥
मा च योऽवयिभचारेण भिकतयोगेन सेवते ।
स गुणानसमतीतयेतानबहभूयाय कलपते ॥
भावाथर : और जो पुरष अवयिभचारी भिकत योग (केवल एक
सवरशिकतमान परमेशर वासुदेव भगवान को ही अपना सवामी मानता
हुआ, सवाथर और अिभमान को तयाग कर शदा और भाव सिहत परम
पेम से िनरनतर िचनतन करने को 'अवयिभचारी भिकतयोग' कहते है)
दारा मुझको िनरनतर भजता है, वह भी इन तीनो गुणो को भलीभाित
लाघकर सिचचदाननदघन बह को पापत होने के िलए योगय बन जाता
है॥26॥
बहणो िह पितषाहममृतसयावययसय च ।
शाशतसय च धमरसय सुखसयैकािनतकसय च ॥
भावाथर : कयोिक उस अिवनाशी परबह का और अमृत का तथा िनतय
धमर का और अखणड एकरस आननद का आशय मै हँू॥27॥
ॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ॥14ॐ
[15]
(संसार वृक का कथन और भगवतपािपत का उपाय)
शीभगवानुवाच
ऊधवरमूलमधः शाखमशतथं पाहुरवययम्‌ ।
छनदािस यसय पणािन यसतं वेद स वेदिवत्‌ ॥
भावाथर : शी भगवान बोले- आिदपुरष परमेशर रप मूल वाले
(आिदपुरष नारायण वासुदेव भगवान ही िनतय और अननत तथा सबके
आधार होने के कारण और सबसे ऊपर िनतयधाम मे सगुणरप से वास
करने के कारण ऊधवर नाम से कहे गए है और वे मायापित,
सवरशिकतमान परमेशर ही इस संसाररप वृक के कारण है, इसिलए इस
संसार वृक को 'ऊधवरमूलवाला' कहते है) और बहारप मुखय शाखा
वाले (उस आिदपुरष परमेशर से उतपित वाला होने के कारण तथा
िनतयधाम से नीचे बहलोक मे वास करने के कारण, िहरणयगभररप
बहा को परमेशर की अपेका 'अधः' कहा है और वही इस संसार का
िवसतार करने वाला होने से इसकी मुखय शाखा है, इसिलए इस संसार
वृक को 'अधःशाखा वाला' कहते है) िजस संसार रप पीपल वृक को
अिवनाशी (इस वृक का मूल कारण परमातमा अिवनाशी है तथा
अनािदकाल से इसकी परमपरा चली आती है, इसिलए इस संसार वृक
को 'अिवनाशी' कहते है) कहते है, तथा वेद िजसके पते (इस वृक की
शाखा रप बहा से पकट होने वाले और यजािद कमों दारा इस संसार
वृक की रका और वृिद करने वाले एवं शोभा को बढाने वाले होने से वेद
'पते' कहे गए है) कहे गए है, उस संसार रप वृक को जो पुरष
मूलसिहत सततव से जानता है, वह वेद के तातपयर को जानने वाला है।
(भगवान्‌ की योगमाया से उतपन हुआ संसार कणभंगुर, नाशवान और
दुःखरप है, इसके िचनतन को तयाग कर केवल परमेशर ही िनतय-
िनरनतर, अननय पेम से िचनतन करना 'वेद के तातपयर को जानना' है)॥
1॥
अधशोधवर ं पसृतासतसय शाखा गुणपवृदा िवषयपवालाः ।
अधश मूलानयनुसनततािन कमानुबनधीिन मनुषयलोके ॥
भावाथर : उस संसार वृक की तीनो गुणोरप जल के दारा बढी हुई एवं
िवषय-भोग रप कोपलोवाली ( शबद, सपशर, रप, रस और गनध -ये
पाचो सथूलदेह और इिनदयो की अपेका सूकम होने के कारण उन
शाखाओं की 'कोपलो' के रप मे कहे गए है।) देव, मनुषय और ितयरक् ‌
आिद योिनरप शाखाएँ (मुखय शाखा रप बहा से समपूणर लोको सिहत
देव, मनुषय और ितयरक् ‌ आिद योिनयो की उतपित और िवसतार हुआ है,
इसिलए उनका यहा 'शाखाओं' के रप मे वणरन िकया है) नीचे और
ऊपर सवरत फैली हुई है तथा मनुषय लोक मे ( अहंता, ममता और
वासनारप मूलो को केवल मनुषय योिन मे कमों के अनुसार बाधने वाली
कहने का कारण यह है िक अनय सब योिनयो मे तो केवल पूवरकृत
कमों के फल को भोगने का ही अिधकार है और मनुषय योिन मे नवीन
कमों के करने का भी अिधकार है) कमों के अनुसार बाधने वाली
अहंता-ममता और वासना रप जडे भी नीचे और ऊपर सभी लोको मे
वयापत हो रही है। ॥2॥
न रपमसयेह तथोपलभयते नानतो न चािदनर च समपितषा
अशतथमेन ं सुिवरढमूल मसङ‌गशसतेण दृढेन िछततवा ॥
भावाथर : इस संसार वृक का सवरप जैसा कहा है वैसा यहा िवचार
काल मे नही पाया जाता (इस संसार का जैसा सवरप शासतो मे वणरन
िकया गया है और जैसा देखा-सुना जाता है, वैसा तततव जान होने के
पशात नही पाया जाता, िजस पकार आँख खुलने के पशात सवप का
संसार नही पाया जाता) कयोिक न तो इसका आिद है (इसका आिद
नही है, यह कहने का पयोजन यह है िक इसकी परमपरा कब से चली
आ रही है, इसका कोई पता नही है) और न अनत है (इसका अनत नही
है, यह कहने का पयोजन यह है िक इसकी परमपरा कब तक चलती
रहेगी, इसका कोई पता नही है) तथा न इसकी अचछी पकार से िसथित
ही है (इसकी अचछी पकार िसथित भी नही है, यह कहने का पयोजन
यह है िक वासतव मे यह कणभंगुर और नाशवान है) इसिलए इस
अहंता, ममता और वासनारप अित दृढ मूलो वाले संसार रप पीपल के
वृक को दृढ वैरागय रप (बहलोक तक के भोग किणक और नाशवान
है, ऐसा समझकर, इस संसार के समसत िवषयभोगो मे सता, सुख,
पीित और रमणीयता का न भासना ही 'दृढ वैरागयरप शसत' है) शसत
दारा काटकर (सथावर, जंगमरप यावनमात संसार के िचनतन का तथा
अनािदकाल से अजान दारा दृढ हुई अहंता, ममता और वासना रप
मूलो का तयाग करना ही संसार वृक का अवानतर 'मूलो के सिहत
काटना' है।)॥3॥
ततः पदं ततपिरमािगरतवयं यिसमनगता न िनवतरिनत भूयः
तमेव चादं पुरषं पपदे यतः पवृितः पसृता पुराणी ॥
भावाथर : उसके पशात उस परम-पदरप परमेशर को भलीभाित
खोजना चािहए, िजसमे गए हुए पुरष िफर लौटकर संसार मे नही आते
और िजस परमेशर से इस पुरातन संसार वृक की पवृित िवसतार को
पापत हुई है, उसी आिदपुरष नारायण के मै शरण हँू- इस पकार दृढ
िनशय करके उस परमेशर का मनन और िनिदधयासन करना चािहए॥
4॥
िनमानमोहा िजतसङदोषाअधयातमिनतया िविनवृतकामाः ।
दनदैिवरमुकताः सुखदुःखसञजैगरचछनतयमूढाः पदमवययं तत्‌ ॥
भावाथर : िजनका मान और मोह नष हो गया है, िजनहोने आसिकत रप
दोष को जीत िलया है, िजनकी परमातमा के सवरप मे िनतय िसथित है
और िजनकी कामनाएँ पूणर रप से नष हो गई है- वे सुख-दुःख नामक
दनदो से िवमुकत जानीजन उस अिवनाशी परम पद को पापत होते है॥
5॥
न तदासयते सूयो न शशाङो न पावकः ।
यदगतवा न िनवतरनते तदाम परमं मम ॥
भावाथर : िजस परम पद को पापत होकर मनुषय लौटकर संसार मे नही
आते उस सवयं पकाश परम पद को न सूयर पकािशत कर सकता है, न
चनदमा और न अिगन ही, वही मेरा परम धाम ('परम धाम' का अथर गीता
अधयाय 8 शलोक 21 मे देखना चािहए।) है॥6॥
(जीवातमा का िवषय)
शीभगवानुवाच
ममैवाशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षषानीिनदयािण पकृितसथािन कषरित ॥
भावाथर : इस देह मे यह जीवातमा मेरा ही सनातन अंश है (जैसे
िवभागरिहत िसथत हुआ भी महाकाश घटो मे पृथक-पृथक की भाित
पतीत होता है, वैसे ही सब भूतो मे एकीरप से िसथत हुआ भी परमातमा
पृथक-पृथक की भाित पतीत होता है, इसी से देह मे िसथत जीवातमा
को भगवान ने अपना 'सनातन अंश' कहा है) और वही इन पकृित मे
िसथत मन और पाचो इिनदयो को आकिषरत करता है॥7॥
शरीरं यदवापोित यचचापयुतकामतीशरः ।
गृहीतवैतािन संयाित वायुगरनधािनवाशयात्‌ ॥
भावाथर : वायु गनध के सथान से गनध को जैसे गहण करके ले जाता
है, वैसे ही देहािदका सवामी जीवातमा भी िजस शरीर का तयाग करता है,
उससे इन मन सिहत इिनदयो को गहण करके िफर िजस शरीर को
पापत होता है- उसमे जाता है॥8॥
शोतं चकुः सपशरन ं च रसनं घाणमेव च ।
अिधषाय मनशायं िवषयानुपसेवते ॥
भावाथर : यह जीवातमा शोत, चकु और तवचा को तथा रसना, घाण और
मन को आशय करके -अथात इन सबके सहारे से ही िवषयो का सेवन
करता है॥9॥
उतकामनतं िसथतं वािप भुञानं वा गुणािनवतम्‌ ।
िवमूढा नानुपशयिनत पशयिनत जानचकुषः ॥
भावाथर : शरीर को छोडकर जाते हुए को अथवा शरीर मे िसथत हुए
को अथवा िवषयो को भोगते हुए को इस पकार तीनो गुणो से युकत हुए
को भी अजानीजन नही जानते, केवल जानरप नेतो वाले िववेकशील
जानी ही तततव से जानते है॥10॥
यतनतो योिगनशैन ं पशयनतयातमनयविसथतम्‌ ।
यतनतोऽपयकृतातमानो नैन ं पशयनतयचेतसः ॥
भावाथर : यत करने वाले योगीजन भी अपने हृदय मे िसथत इस आतमा
को तततव से जानते है, िकनतु िजनहोने अपने अनतःकरण को शुद नही
िकया है, ऐसे अजानीजन तो यत करते रहने पर भी इस आतमा को नही
जानते॥11॥
(पभाव सिहत परमेशर के सवरप का िवषय)
यदािदतयगतं तेजो जगदासयतेऽिखलम्‌ ।
यचचनदमिस यचचागनौ ततेजो िविद मामकम्‌ ॥
भावाथर : सूयर मे िसथत जो तेज समपूणर जगत को पकािशत करता है
तथा जो तेज चनदमा मे है और जो अिगन मे है- उसको तू मेरा ही तेज
जान॥12॥
गामािवशय च भूतािन धारयामयहमोजसा ।
पुषणािम चौषधीः सवाः सोमो भूतवा रसातमकः ॥
भावाथर : और मै ही पृथवी मे पवेश करके अपनी शिकत से सब भूतो को
धारण करता हूँ और रससवरप अथात अमृतमय चनदमा होकर समपूणर
ओषिधयो को अथात वनसपितयो को पुष करता हूँ॥13॥
अहं वैशानरो भूतवा पािणना देहमािशतः ।
पाणापानसमायुकतः पचामयनं चतुिवरधम्‌ ॥
भावाथर : मै ही सब पािणयो के शरीर मे िसथत रहने वाला पाण और
अपान से संयुकत वैशानर अिगन रप होकर चार (भकय, भोजय, लेह
और चोषय, ऐसे चार पकार के अन होते है, उनमे जो चबाकर खाया
जाता है, वह 'भकय' है- जैसे रोटी आिद। जो िनगला जाता है, वह
'भोजय' है- जैसे दध
ू आिद तथा जो चाटा जाता है, वह 'लेह' है- जैसे
चटनी आिद और जो चूसा जाता है, वह 'चोषय' है- जैसे ईख आिद)
पकार के अन को पचाता हँू॥14॥
सवरसय चाहं हृिद सिनिवषोमतः समृितजानमपोहनं च ।
वेदैश सवैरहमेव वेदोवेदानतकृदेदिवदेव चाहम्‌ ॥
भावाथर : मै ही सब पािणयो के हृदय मे अनतयामी रप से िसथत हँू
तथा मुझसे ही समृित, जान और अपोहन (िवचार दारा बुिद मे रहने वाले
संशय, िवपयरय आिद दोषो को हटाने का नाम 'अपोहन' है) होता है और
सब वेदो दारा मै ही जानने योगय (सवर वेदो का तातपयर परमेशर को
जानने का है, इसिलए सब वेदो दारा 'जानने के योगय' एक परमेशर ही
है) हँू तथा वेदानत का कता और वेदो को जानने वाला भी मै ही हँू॥
15॥
(कर, अकर, पुरषोतम का िवषय)
दािवमौ पुरषौ लोके करशाकर एव च ।
करः सवािण भूतािन कूटसथोऽकर उचयते ॥
भावाथर : इस संसार मे नाशवान और अिवनाशी भी ये दो पकार (गीता
अधयाय 7 शलोक 4-5 मे जो अपरा और परा पकृित के नाम से कहे गए
है तथा अधयाय 13 शलोक 1 मे जो केत और केतज के नाम से कहे गए
है, उनही दोनो का यहा कर और अकर के नाम से वणरन िकया है) के
पुरष है। इनमे समपूणर भूतपािणयो के शरीर तो नाशवान और जीवातमा
अिवनाशी कहा जाता है॥16॥
उतमः पुरषसतवनयः परमातमेतयुदाहृतः ।
यो लोकतयमािवशय िबभतयरवयय ईशरः ॥
भावाथर : इन दोनो से उतम पुरष तो अनय ही है, जो तीनो लोको मे
पवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अिवनाशी परमेशर और
परमातमा- इस पकार कहा गया है॥17॥
यसमातकरमतीतोऽहमकरादिप चोतमः ।
अतोऽिसम लोके वेदे च पिथतः पुरषोतमः ॥
भावाथर : कयोिक मै नाशवान जडवगर- केत से तो सवरथा अतीत हूँ और
अिवनाशी जीवातमा से भी उतम हूँ, इसिलए लोक मे और वेद मे भी
पुरषोतम नाम से पिसद हूँ॥18॥
यो मामेवमसममूढो जानाित पुरषोतमम्‌ ।
स सवरिवदजित मा सवरभावेन भारत ॥
भावाथर : भारत! जो जानी पुरष मुझको इस पकार तततव से पुरषोतम
जानता है, वह सवरज पुरष सब पकार से िनरनतर मुझ वासुदेव परमेशर
को ही भजता है॥19॥
इित गुहतमं शासतिमदमुकतं मयानघ ।
एतद‌बुदधवा बुिदमानसयातकृतकृतयश भारत ॥
भावाथर : हे िनषपाप अजुरन! इस पकार यह अित रहसययुकत गोपनीय
शासत मेरे दारा कहा गया, इसको तततव से जानकर मनुषय जानवान
और कृताथर हो जाता है॥20॥
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॥ ॐ15ॐ
[16]
(फलसिहत दैवी और आसुरी संपदा का कथन)
शीभगवानुवाच
अभयं सततवसंशुिदजानयोगवयविसथितः।
दानं दमश यजश सवाधयायसतप आजरवम्‌॥
भावाथर : शी भगवान बोले- भय का सवरथा अभाव, अनतःकरण की पूणर
िनमरलता, तततवजान के िलए धयान योग मे िनरनतर दृढ िसथित
(परमातमा के सवरप को तततव से जानने के िलए सिचचदाननदघन
परमातमा के सवरप मे एकी भाव से धयान की िनरनतर गाढ िसथित का
ही नाम 'जानयोगवयविसथित' समझना चािहए) और सािततवक दान (गीता
अधयाय 17 शलोक 20 मे िजसका िवसतार िकया है), इिनदयो का दमन,
भगवान, देवता और गुरजनो की पूजा तथा अिगनहोत आिद उतम कमों
का आचरण एवं वेद-शासतो का पठन-पाठन तथा भगवान्‌ के नाम और
गुणो का कीतरन, सवधमर पालन के िलए कषसहन और शरीर तथा
इिनदयो के सिहत अनतःकरण की सरलता॥1॥
अिहंसा सतयमकोधसतयागः शािनतरपैशुनम्‌।
दया भूतेषवलोलुपवं मादरव ं हीरचापलम्‌॥
भावाथर : मन, वाणी और शरीर से िकसी पकार भी िकसी को कष न
देना, यथाथर और िपय भाषण (अनतःकरण और इिनदयो के दारा जैसा
िनशय िकया हो, वैस-े का-वैसा ही िपय शबदो मे कहने का नाम
'सतयभाषण' है), अपना अपकार करने वाले पर भी कोध का न होना,
कमों मे कतापन के अिभमान का तयाग, अनतःकरण की उपरित अथात्‌
िचत की चञचलता का अभाव, िकसी की भी िननदािद न करना, सब
भूतपािणयो मे हेतुरिहत दया, इिनदयो का िवषयो के साथ संयोग होने पर
भी उनमे आसिकत का न होना, कोमलता, लोक और शासत से िवरद
आचरण मे लजजा और वयथर चेषाओं का अभाव॥2॥
तेजः कमा धृितः शौचमदोहोनाितमािनता।
भविनत समपदं दैवीमिभजातसय भारत॥
भावाथर : तेज (शेष पुरषो की उस शिकत का नाम 'तेज' है िक िजसके
पभाव से उनके सामने िवषयासकत और नीच पकृित वाले मनुषय भी
पायः अनयायाचरण से रककर उनके कथनानुसार शेष कमों मे पवृत
हो जाते है), कमा, धैयर, बाहर की शुिद (गीता अधयाय 13 शलोक 7 की
िटपपणी देखनी चािहए) एवं िकसी मे भी शतुभाव का न होना और अपने
मे पूजयता के अिभमान का अभाव- ये सब तो हे अजुरन! दैवी समपदा को
लेकर उतपन हुए पुरष के लकण है॥3॥
दमभो दपोऽिभमानश कोधः पारषयमेव च।
अजानं चािभजातसय पाथर समपदमासुरीम्॥

भावाथर : हे पाथर! दमभ, घमणड और अिभमान तथा कोध, कठोरता और
अजान भी- ये सब आसुरी समपदा को लेकर उतपन हुए पुरष के लकण
है॥4॥
दैवी समपिदमोकाय िनबनधायासुरी मता।
मा शुचः समपदं दैवीमिभजातोऽिस पाणडव॥
भावाथर : दैवी समपदा मुिकत के िलए और आसुरी समपदा बाधने के िलए
मानी गई है। इसिलए हे अजुरन! तू शोक मत कर, कयोिक तू दैवी
समपदा को लेकर उतपन हुआ है॥5॥
(आसुरी संपदा वालो के लकण और उनकी अधोगित का कथन)
दौ भूतसगौ लोकऽिसमनदैव आसुर एव च।
दैवो िवसतरशः पोकत आसुरं पाथर मे शृणु॥
भावाथर : हे अजुरन! इस लोक मे भूतो की सृिष यानी मनुषय समुदाय दो
ही पकार का है, एक तो दैवी पकृित वाला और दस
ू रा आसुरी पकृित
वाला। उनमे से दैवी पकृित वाला तो िवसतारपूवरक कहा गया, अब तू
आसुरी पकृित वाले मनुषय समुदाय को भी िवसतारपूवरक मुझसे सुन॥
6॥
पवृितं च िनवृितं च जना न िवदुरासुराः।
न शौचं नािप चाचारो न सतयं तेषु िवदते॥
भावाथर : आसुर सवभाव वाले मनुषय पवृित और िनवृित- इन दोनो को
ही नही जानते। इसिलए उनमे न तो बाहर-भीतर की शुिद है, न शेष
आचरण है और न सतय भाषण ही है॥7॥
असतयमपितषं ते जगदाहुरनीशरम्‌।
अपरसपरसमभूतं िकमनयतकामहैतुकम्‌॥
भावाथर : वे आसुरी पकृित वाले मनुषय कहा करते है िक जगत्‌
आशयरिहत, सवरथा असतय और िबना ईशर के, अपने -आप केवल सती-
पुरष के संयोग से उतपन है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है।
इसके िसवा और कया है?॥8॥
एता दृिषमवषभय नषातमानोऽलपबुदयः।
पभवनतयुगकमाणः कयाय जगतोऽिहताः॥
भावाथर : इस िमथया जान को अवलमबन करके- िजनका सवभाव नष
हो गया है तथा िजनकी बुिद मनद है, वे सब अपकार करने वाले
कुरकमी मनुषय केवल जगत्‌ के नाश के िलए ही समथर होते है॥9॥
काममािशतय दषु पूरं दमभमानमदािनवताः।
मोहाद‌गृहीतवासदगाहानपवतरनतेऽशुिचवरताः॥
भावाथर : वे दमभ, मान और मद से युकत मनुषय िकसी पकार भी पूणर न
होने वाली कामनाओं का आशय लेकर, अजान से िमथया िसदातो को
गहण करके भष आचरणो को धारण करके संसार मे िवचरते है॥10॥
िचनतामपिरमेया च पलयानतामुपािशताः।
कामोपभोगपरमा एताविदित िनिशताः॥
भावाथर : तथा वे मृतयुपयरनत रहने वाली असंखय िचनताओं का आशय
लेने वाले, िवषयभोगो के भोगने मे ततपर रहने वाले और 'इतना ही सुख
है' इस पकार मानने वाले होते है॥11॥
आशापाशशतैबरदाः कामकोधपरायणाः।
ईहनते कामभोगाथरमनयायेनाथरसञचयान्‌॥
भावाथर : वे आशा की सैकडो फािसयो से बँधे हुए मनुषय काम-कोध के
परायण होकर िवषय भोगो के िलए अनयायपूवरक धनािद पदाथों का
संगह करने की चेषा करते है॥12॥
इदमद मया लबधिममं पापसये मनोरथम्‌।
इदमसतीदमिप मे भिवषयित पुनधरनम्‌॥
भावाथर : वे सोचा करते है िक मैने आज यह पापत कर िलया है और
अब इस मनोरथ को पापत कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और
िफर भी यह हो जाएगा॥13॥
असौ मया हतः शतुहरिनषये चापरानिप।
ईशरोऽहमहं भोगी िसदोऽहं बलवानसुखी॥
भावाथर : वह शतु मेरे दारा मारा गया और उन दस
ू रे शतुओं को भी मै
मार डालूँगा। मै ईशर हूँ, ऐशरवयर को भोगने वाला हूँ। मै सब िसिदयो से
युकत हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥
आढयोऽिभजनवानिसम कोऽनयोऽिसत सदृशो मया।
यकये दासयािम मोिदषय इतयजानिवमोिहताः॥
अनेकिचतिवभानता मोहजालसमावृताः।
पसकताः कामभोगेषु पतिनत नरकेऽशुचौ॥
भावाथर : मै बडा धनी और बडे कुटुमब वाला हँू। मेरे समान दस
ू रा
कौन है? मै यज करँगा, दान दँगू ा और आमोद-पमोद करँगा। इस
पकार अजान से मोिहत रहने वाले तथा अनेक पकार से भिमत िचत
वाले मोहरप जाल से समावृत और िवषयभोगो मे अतयनत आसकत
आसुरलोग महान्‌ अपिवत नरक मे िगरते है॥15-16॥
आतमसमभािवताः सतबधा धनमानमदािनवताः।
यजनते नामयजैसते दमभेनािविधपूवरकम्‌॥
भावाथर : वे अपने -आपको ही शेष मानने वाले घमणडी पुरष धन और
मान के मद से युकत होकर केवल नाममात के यजो दारा पाखणड से
शासतिविधरिहत यजन करते है॥17॥
अहङ‌कारं बलं दपर ं कामं कोधं च संिशताः।
मामातमपरदेहेषु पिदषनतोऽभयसूयकाः॥
भावाथर : वे अहंकार, बल, घमणड, कामना और कोधािद के परायण
और दस
ू रो की िननदा करने वाले पुरष अपने और दस
ू रो के शरीर मे
िसथत मुझ अनतयामी से देष करने वाले होते है॥18॥
तानहं िदषतः कूरानसंसारेषु नराधमान्‌।
िकपामयजसमशुभानासुरीषवेव योिनषु॥
भावाथर : उन देष करने वाले पापाचारी और कूरकमी नराधमो को मै
संसार मे बार-बार आसुरी योिनयो मे ही डालता हँू॥19॥
आसुरी योिनमापना मूढा जनमिन जनमिन।
मामपापयैव कौनतेय ततो यानतयधमा गितम्‌॥
भावाथर : हे अजुरन! वे मूढ मुझको न पापत होकर ही जनम-जनम मे
आसुरी योिन को पापत होते है, िफर उससे भी अित नीच गित को ही
पापत होते है अथात्‌ घोर नरको मे पडते है॥20॥
(शासतिवपरीत आचरणो को तयागने और शासतानुकूल आचरणो के िलए
पेरणा)
ितिवधं नरकसयेद ं दारं नाशनमातमनः।
कामः कोधसतथा लोभसतसमादेतततयं तयजेत्‌॥
भावाथर : काम, कोध तथा लोभ- ये तीन पकार के नरक के दार ( सवर
अनथों के मूल और नरक की पािपत मे हेतु होने से यहा काम, कोध
और लोभ को 'नरक के दार' कहा है) आतमा का नाश करने वाले
अथात्‌ उसको अधोगित मे ले जाने वाले है। अतएव इन तीनो को
तयाग देना चािहए॥21॥
एतैिवरमुकतः कौनतेय तमोदारैिसतिभनररः।
आचरतयातमनः शेयसततो याित परा गितम्‌॥
भावाथर : हे अजुरन! इन तीनो नरक के दारो से मुकत पुरष अपने
कलयाण का आचरण करता है (अपने उदार के िलए भगवदाजानुसार
बरतना ही 'अपने कलयाण का आचरण करना' है), इससे वह परमगित
को जाता है अथात्‌ मुझको पापत हो जाता है॥22॥
यः शासतिविधमुतसृजय वतरते कामकारतः।
न स िसिदमवापोित न सुखं न परा गितम्‌॥
भावाथर : जो पुरष शासत िविध को तयागकर अपनी इचछा से मनमाना
आचरण करता है, वह न िसिद को पापत होता है, न परमगित को और
न सुख को ही॥23॥
तसमाचछासतं पमाणं ते कायाकायरवयविसथतौ।
जातवा शासतिवधानोकतं कमर कतुरिमहाहरिस॥
भावाथर : इससे तेरे िलए इस कतरवय और अकतरवय की वयवसथा मे
शासत ही पमाण है। ऐसा जानकर तू शासत िविध से िनयत कमर ही
करने योगय है॥24॥
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[17]
(शदा का और शासतिवपरीत घोर तप करने वालो का िवषय)
अजुरन उवाच
ये शासतिविधमुतसृजय यजनते शदयािनवताः।
तेषा िनषा तु का कृषण सततवमाहो रजसतमः॥
भावाथर : अजुरन बोले- हे कृषण! जो मनुषय शासत िविध को तयागकर
शदा से युकत हुए देवािदका पूजन करते है, उनकी िसथित िफर कौन-
सी है? सािततवकी है अथवा राजसी िकंवा तामसी?॥1॥
शीभगवानुवाच
ितिवधा भवित शदा देिहना सा सवभावजा।
सािततवकी राजसी चैव तामसी चेित ता शृणु॥
भावाथर : शी भगवान्‌ बोले- मनुषयो की वह शासतीय संसकारो से रिहत
केवल सवभाव से उतपन शदा (अननत जनमो मे िकए हुए कमों के
सिञचत संसकार से उतपन हुई शदा ''सवभावजा'' शदा कही जाती
है।) सािततवकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनो पकार की ही होती
है। उसको तू मुझसे सुन॥2॥
सततवानुरपा सवरसय शदा भवित भारत।
शदामयोऽयं पुरषो यो यचछदः स एव सः॥
भावाथर : हे भारत! सभी मनुषयो की शदा उनके अनतःकरण के
अनुरप होती है। यह पुरष शदामय है, इसिलए जो पुरष जैसी
शदावाला है, वह सवयं भी वही है॥3॥
यजनते सािततवका देवानयकरकािस राजसाः।
पेतानभूतगणाशानये जयनते तामसा जनाः॥
भावाथर : सािततवक पुरष देवो को पूजते है, राजस पुरष यक और
राकसो को तथा अनय जो तामस मनुषय है, वे पेत और भूतगणो को
पूजते है॥4॥
अशासतिविहतं घोरं तपयनते ये तपो जनाः।
दमभाहङ‌कारसंयुकताः कामरागबलािनवताः॥
भावाथर : जो मनुषय शासत िविध से रिहत केवल मनःकिलपत घोर तप
को तपते है तथा दमभ और अहंकार से युकत एवं कामना, आसिकत
और बल के अिभमान से भी युकत है॥5॥
कशरयनतः शरीरसथं भूतगाममचेतसः।
मा चैवानतःशरीरसथं तािनवद‌ ्यासुरिनशयान्‌॥
(आहार, यज, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)
भावाथर : जो शरीर रप से िसथत भूत समुदाय को और अनतःकरण मे
िसथत मुझ परमातमा को भी कृश करने वाले है (शासत से िवरद
उपवासािद घोर आचरणो दारा शरीर को सुखाना एवं भगवान्‌ के
अंशसवरप जीवातमा को कलेश देना, भूत समुदाय को और अनतयामी
परमातमा को ''कृश करना'' है।), उन अजािनयो को तू आसुर सवभाव
वाले जान॥6॥

आहारसतविप सवरसय ितिवधो भवित िपयः।


यजसतपसतथा दानं तेषा भेदिममं शृणु॥
भावाथर : भोजन भी सबको अपनी-अपनी पकृित के अनुसार तीन
पकार का िपय होता है। और वैसे ही यज, तप और दान भी तीन-तीन
पकार के होते है। उनके इस पृथक्-‌ पृथक् ‌ भेद को तू मुझ से सुन॥
7॥
आयुः सततवबलारोगयसुखपीितिववधरनाः।
रसयाः िसनगधाः िसथरा हृदा आहाराः सािततवकिपयाः॥
भावाथर : आयु, बुिद, बल, आरोगय, सुख और पीित को बढाने वाले,
रसयुकत, िचकने और िसथर रहने वाले (िजस भोजन का सार शरीर मे
बहुत काल तक रहता है, उसको िसथर रहने वाला कहते है।) तथा
सवभाव से ही मन को िपय- ऐसे आहार अथात्‌ भोजन करने के पदाथर
सािततवक पुरष को िपय होते है॥8॥
कटवमललवणातयुषणतीकणरकिवदािहनः।
आहारा राजससयेषा दुःखशोकामयपदाः॥
भावाथर : कडवे, खटे, लवणयुकत, बहुत गरम, तीखे, रखे, दाहकारक
और दुःख, िचनता तथा रोगो को उतपन करने वाले आहार अथात्‌
भोजन करने के पदाथर राजस पुरष को िपय होते है॥9॥
यातयामं गतरसं पूित पयुरिषतं च यत्‌।
उिचछषमिप चामेधयं भोजनं तामसिपयम्॥

भावाथर : जो भोजन अधपका, रसरिहत, दुगरनधयुकत, बासी और
उिचछष है तथा जो अपिवत भी है, वह भोजन तामस पुरष को िपय
होता है॥10॥
अफलाकािङकिभयरजो िविधदृषो य इजयते।
यषवयमेवेित मनः समाधाय स सािततवकः॥
भावाथर : जो शासत िविध से िनयत, यज करना ही कतरवय है- इस
पकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरषो दारा िकया
जाता है, वह सािततवक है॥11॥
अिभसनधाय तु फलं दमभाथरमिप चैव यत्‌।
इजयते भरतशेष तं यजं िविद राजसम्‌॥
भावाथर : परनतु हे अजुरन! केवल दमभाचरण के िलए अथवा फल को
भी दृिष मे रखकर जो यज िकया जाता है, उस यज को तू राजस
जान॥12॥
िविधहीनमसृषानं मनतहीनमदिकणम्‌।
शदािवरिहतं यजं तामसं पिरचकते॥
भावाथर : शासतिविध से हीन, अनदान से रिहत, िबना मनतो के, िबना
दिकणा के और िबना शदा के िकए जाने वाले यज को तामस यज
कहते है॥13॥
देविदजगुरपाजपूजनं शौचमाजरवम्‌।
बहचयरमिहंसा च शारीरं तप उचयते॥
भावाथर : देवता, बाहण, गुर (यहा 'गुर' शबद से माता, िपता, आचायर
और वृद एवं अपने से जो िकसी पकार भी बडे हो, उन सबको समझना
चािहए।) और जानीजनो का पूजन, पिवतता, सरलता, बहचयर और
अिहंसा- यह शरीर- समबनधी तप कहा जाता है॥14॥
अनुदेगकरं वाकयं सतयं िपयिहतं च यत्‌।
सवाधयायाभयसनं चैव वाङ‌मयं तप उचयते॥
भावाथर : जो उदेग न करने वाला, िपय और िहतकारक एवं यथाथर
भाषण है (मन और इिनदयो दारा जैसा अनुभव िकया हो, ठीक वैसा ही
कहने का नाम 'यथाथर भाषण' है।) तथा जो वेद-शासतो के पठन का
एवं परमेशर के नाम-जप का अभयास है- वही वाणी-समबनधी तप कहा
जाता है॥15॥
मनः पसादः सौमयतवं मौनमातमिविनगहः।
भावसंशुिदिरतयेततपो मानसमुचयते॥
भावाथर : मन की पसनता, शानतभाव, भगविचचनतन करने का सवभाव,
मन का िनगह और अनतःकरण के भावो की भलीभाित पिवतता, इस
पकार यह मन समबनधी तप कहा जाता है॥16॥
शदया परया तपतं तपसतिततिवधं नरैः।
अफलाकािङकिभयुरकतैः सािततवकं पिरचकते॥
भावाथर : फल को न चाहने वाले योगी पुरषो दारा परम शदा से िकए
हुए उस पूवोकत तीन पकार के तप को सािततवक कहते है॥17॥
सतकारमानपूजाथर ं तपो दमभेन चैव यत्‌।
िकयते तिदह पोकतं राजसं चलमधुवम्‌॥
भावाथर : जो तप सतकार, मान और पूजा के िलए तथा अनय िकसी
सवाथर के िलए भी सवभाव से या पाखणड से िकया जाता है, वह
अिनिशत ('अिनिशत फलवाला' उसको कहते है िक िजसका फल होने
न होने मे शंका हो।) एवं किणक फलवाला तप यहा राजस कहा गया
है॥18॥
मूढगाहेणातमनो यतपीडया िकयते तपः।
परसयोतसादनाथर ं वा ततामसमुदाहृतम्‌॥
भावाथर : जो तप मूढतापूवरक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीडा
के सिहत अथवा दस
ू रे का अिनष करने के िलए िकया जाता है- वह
तप तामस कहा गया है॥19॥
दातवयिमित यदानं दीयतेऽनुपकािरणे।
देशे काले च पाते च तदानं सािततवकं समृतम्‌॥
भावाथर : दान देना ही कतरवय है- ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल
(िजस देश-काल मे िजस वसतु का अभाव हो, वही देश-काल, उस वसतु
दारा पािणयो की सेवा करने के िलए योगय समझा जाता है।) और पात
के (भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी और असमथर तथा िभकुक आिद तो अन,
वसत और ओषिध एवं िजस वसतु का िजसके पास अभाव हो, उस वसतु
दारा सेवा करने के िलए योगय पात समझे जाते है और शेष आचरणो
वाले िवदान्‌ बाहणजन धनािद सब पकार के पदाथों दारा सेवा करने के
िलए योगय पात समझे जाते है।) पापत होने पर उपकार न करने वाले
के पित िदया जाता है, वह दान सािततवक कहा गया है॥20॥
यतु पतयुपकाराथर ं फलमुिदशय वा पुनः।
दीयते च पिरिकलषं तदानं राजसं समृतम्‌॥
भावाथर : िकनतु जो दान कलेशपूवरक (जैसे पायः वतरमान समय के
चनदे-िचटे आिद मे धन िदया जाता है।) तथा पतयुपकार के पयोजन से
अथवा फल को दृिष मे (अथात्‌ मान बडाई, पितषा और सवगािद की
पािपत के िलए अथवा रोगािद की िनवृित के िलए।) रखकर िफर िदया
जाता है, वह दान राजस कहा गया है॥21॥
अदेशकाले यदानमपातेभयश दीयते।
असतकृतमवजातं ततामसमुदाहृतम्‌॥
भावाथर : जो दान िबना सतकार के अथवा ितरसकारपूवरक अयोगय
देश-काल मे और कुपात के पित िदया जाता है, वह दान तामस कहा
गया है॥22॥

(ॐ ततसत्‌ के पयोग की वयाखया)


ॐ ततसिदित िनदेशो बहणिसतिवधः समृतः।
बाहणासतेन वेदाश यजाश िविहताः पुरा॥
भावाथर : ॐ, तत्,‌ सत्-‌ ऐसे यह तीन पकार का सिचचदाननदघन बह
का नाम कहा है, उसी से सृिष के आिदकाल मे बाहण और वेद तथा
यजािद रचे गए॥23॥
तसमादोिमतयुदाहृतय यजदानतपः िकयाः।
पवतरनते िवधानोकतः सततं बहवािदनाम्‌॥
भावाथर : इसिलए वेद-मनतो का उचचारण करने वाले शेष पुरषो की
शासत िविध से िनयत यज, दान और तपरप िकयाएँ सदा 'ॐ' इस
परमातमा के नाम को उचचारण करके ही आरमभ होती है॥24॥
तिदतयनिभसनदाय फलं यजतपःिकयाः।
दानिकयाशिविवधाः िकयनते मोककािङकिभः॥
भावाथर : तत्‌ अथात्‌ 'तत्'‌ नाम से कहे जाने वाले परमातमा का ही यह
सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना पकार के यज, तपरप
िकयाएँ तथा दानरप िकयाएँ कलयाण की इचछा वाले पुरषो दारा की
जाती है॥25॥
सदावे साधुभावे च सिदतयततपयुजयते।
पशसते कमरिण तथा सचछबदः पाथर युजयते॥
भावाथर : 'सत्'‌ - इस पकार यह परमातमा का नाम सतयभाव मे और
शेषभाव मे पयोग िकया जाता है तथा हे पाथर! उतम कमर मे भी 'सत्'‌
शबद का पयोग िकया जाता है॥26॥
यजे तपिस दाने च िसथितः सिदित चोचयते।
कमर चैव तदथीयं सिदतयवािभधीयते॥
भावाथर : तथा यज, तप और दान मे जो िसथित है, वह भी 'सत्'‌ इस
पकार कही जाती है और उस परमातमा के िलए िकया हुआ कमर
िनशयपूवरक सत्-‌ ऐसे कहा जाता है॥27॥
अशदया हुतं दतं तपसतपतं कृतं च यत्‌।
असिदतयुचयते पाथर न च ततपेतय नो इह॥
भावाथर : हे अजुरन! िबना शदा के िकया हुआ हवन, िदया हुआ दान एवं
तपा हुआ तप और जो कुछ भी िकया हुआ शुभ कमर है- वह समसत
'असत्'‌ - इस पकार कहा जाता है, इसिलए वह न तो इस लोक मे
लाभदायक है और न मरने के बाद ही॥28॥
ॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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[18]
(तयाग का िवषय)
अजुरन उवाच
सननयाससय महाबाहो तततविमचछािम वेिदतुम्‌ ।
तयागसय च हृषीकेश पृथकेिशिनषूदन ॥
भावाथर : अजुरन बोले- हे महाबाहो! हे अनतयािमन्!‌ हे वासुदेव! मै
संनयास और तयाग के ततव को पृथक्-‌ पृथक् ‌ जानना चाहता हँू॥1॥
शीभगवानुवाच
कामयाना कमरणा नयासं सननयासं कवयो िवदुः ।
सवरकमरफलतयागं पाहुसतयागं िवचकणाः ॥
भावाथर : शी भगवान बोले- िकतने ही पिणडतजन तो कामय कमों के
(सती, पुत और धन आिद िपय वसतुओं की पािपत के िलए तथा रोग-
संकटािद की िनवृित के िलए जो यज, दान, तप और उपासना आिद
कमर िकए जाते है, उनका नाम कामयकमर है।) तयाग को संनयास
समझते है तथा दस
ू रे िवचारकुशल पुरष सब कमों के फल के तयाग
को (ईशर की भिकत, देवताओं का पूजन, माता-िपतािद गुरजनो की
सेवा, यज, दान और तप तथा वणाशम के अनुसार आजीिवका दारा
ं ी खान-पान इतयािद िजतने
गृहसथ का िनवाह एवं शरीर संबध
कतरवयकमर है, उन सबमे इस लोक और परलोक की समपूणर कामनाओं
के तयाग का नाम सब कमों के फल का तयाग है) तयाग कहते है॥2॥
तयाजयं दोषविदतयेके कमर पाहुमरनीिषणः ।
यजदानतपःकमर न तयाजयिमित चापरे ॥
भावाथर : कई एक िवदान ऐसा कहते है िक कमरमात दोषयुकत है,
इसिलए तयागने के योगय है और दस
ू रे िवदान यह कहते है िक यज,
दान और तपरप कमर तयागने योगय नही है॥3॥
िनशयं शृणु मे तत तयागे भरतसतम ।
तयागो िह पुरषवयाघ ितिवधः समपकीितरतः ॥
भावाथर : हे पुरषशेष अजुरन ! संनयास और तयाग, इन दोनो मे से पहले
तयाग के िवषय मे तू मेरा िनशय सुन। कयोिक तयाग साितवक, राजस
और तामस भेद से तीन पकार का कहा गया है॥4॥
यजदानतपःकमर न तयाजयं कायरमेव तत्‌ ।
यजो दानं तपशैव पावनािन मनीिषणाम्‌ ॥
भावाथर : यज, दान और तपरप कमर तयाग करने के योगय नही है,
बिलक वह तो अवशय कतरवय है, कयोिक यज, दान और तप -ये तीनो ही
कमर बुिदमान पुरषो को (वह मनुषय बुिदमान है, जो फल और आसिकत
को तयाग कर केवल भगवदथर कमर करता है।) पिवत करने वाले है॥
5॥
एतानयिप तु कमािण सङ‌गं तयकतवा फलािन च ।
कतरवयानीित मे पाथर िनिशतं मतमुतमम्‌ ॥
भावाथर : इसिलए हे पाथर! इन यज, दान और तपरप कमों को तथा
और भी समपूणर कतरवयकमों को आसिकत और फलो का तयाग करके
अवशय करना चािहए, यह मेरा िनशय िकया हुआ उतम मत है॥6॥
िनयतसय तु सननयासः कमरणो नोपपदते ।
मोहातसय पिरतयागसतामसः पिरकीितरतः ॥
भावाथर : (िनिषद और कामय कमों का तो सवरप से तयाग करना
उिचत ही है) परनतु िनयत कमर का (इसी अधयाय के शलोक 48 की
िटपपणी मे इसका अथर देखना चािहए।) सवरप से तयाग करना उिचत
नही है। इसिलए मोह के कारण उसका तयाग कर देना तामस तयाग
कहा गया है॥7॥
दुःखिमतयेव यतकमर कायकलेशभयाततयजेत्‌ ।
स कृतवा राजसं तयागं नैव तयागफलं लभेत्‌ ॥
भावाथर : जो कुछ कमर है वह सब दुःखरप ही है- ऐसा समझकर यिद
कोई शारीिरक कलेश के भय से कतरवय-कमों का तयाग कर दे, तो वह
ऐसा राजस तयाग करके तयाग के फल को िकसी पकार भी नही
पाता॥8॥
कायरिमतयेव यतकमर िनयतं िकयतेअजुरन ।
सङ‌गं तयकतवा फलं चैव स तयागः सािततवको मतः ॥
भावाथर : हे अजुरन! जो शासतिविहत कमर करना कतरवय है- इसी भाव
से आसिकत और फल का तयाग करके िकया जाता है- वही सािततवक
तयाग माना गया है॥9॥
न देषटयकुशलं कमर कुशले नानुषजजते ।
तयागी सततवसमािवषो मेधावी िछनसंशयः ॥
भावाथर : जो मनुषय अकुशल कमर से तो देष नही करता और कुशल
कमर मे आसकत नही होता- वह शुद सततवगुण से युकत पुरष
संशयरिहत, बुिदमान और सचचा तयागी है॥10॥
न िह देहभृता शकयं तयकतुं कमाणयशेषतः ।
यसतु कमरफलतयागी स तयागीतयिभधीयते ॥
भावाथर : कयोिक शरीरधारी िकसी भी मनुषय दारा समपूणरता से सब
कमों का तयाग िकया जाना शकय नही है, इसिलए जो कमरफल तयागी
है, वही तयागी है- यह कहा जाता है॥11॥
अिनषिमषं िमशं च ितिवधं कमरणः फलम्‌ ।
भवतयतयािगना पेतय न तु सननयािसना कविचत्‌ ॥
भावाथर : कमरफल का तयाग न करने वाले मनुषयो के कमों का तो
अचछा, बुरा और िमला हुआ- ऐसे तीन पकार का फल मरने के पशात
अवशय होता है, िकनतु कमरफल का तयाग कर देने वाले मनुषयो के कमों
का फल िकसी काल मे भी नही होता॥12॥
(कमों के होने मे साखयिसदात का कथन)
पञचैतािन महाबाहो कारणािन िनबोध मे ।
साङखये कृतानते पोकतािन िसदये सवरकमरणाम्‌ ॥
भावाथर : हे महाबाहो! समपूणर कमों की िसिद के ये पाच हेतु कमों का
अंत करने के िलए उपाय बतलाने वाले साखय-शासत मे कहे गए है,
उनको तू मुझसे भलीभाित जान॥13॥
अिधषानं तथा कता करणं च पृथिगवधम्‌ ।
िविवधाश पृथकचेषा दैव ं चैवात पञचमम्‌ ॥
भावाथर : इस िवषय मे अथात कमों की िसिद मे अिधषान (िजसके
आशय कमर िकए जाएँ , उसका नाम अिधषान है) और कता तथा िभन-
िभन पकार के करण (िजन-िजन इंिदयािदको और साधनो दारा कमर
िकए जाते है, उनका नाम करण है) एवं नाना पकार की अलग-अलग
चेषाएँ और वैसे ही पाचवा हेतु दैव (पूवरकृत शुभाशुभ कमों के संसकारो
का नाम दैव है) है॥14॥
शरीरवाङ‌मनोिभयरतकमर पारभते नरः ।
नयाययं वा िवपरीतं वा पञचैते तसय हेतवः॥
भावाथर : मनुषय मन, वाणी और शरीर से शासतानुकूल अथवा िवपरीत
जो कुछ भी कमर करता है- उसके ये पाचो कारण है॥15॥
ततैव ं सित कतारमातमानं केवलं तु यः ।
पशयतयकृतबुिदतवान स पशयित दुमरितः ॥
भावाथर : परनतु ऐसा होने पर भी जो मनुषय अशुद बुिद (सतसंग और
शासत के अभयास से तथा भगवदथर कमर और उपासना के करने से
मनुषय की बुिद शुद होती है, इसिलए जो उपयुरकत साधनो से रिहत है,
उसकी बुिद अशुद है, ऐसा समझना चािहए।) होने के कारण उस
िवषय मे यानी कमों के होने मे केवल शुद सवरप आतमा को कता
समझता है, वह मलीन बुिद वाला अजानी यथाथर नही समझता॥16॥
यसय नाहङ‌कृतो भावो बुिदयरसय न िलपयते ।
हतवािप स इमाललोकान हिनत न िनबधयते ॥
भावाथर : िजस पुरष के अनतःकरण मे 'मै कता हँू' ऐसा भाव नही है
तथा िजसकी बुिद सासािरक पदाथों मे और कमों मे िलपायमान नही
होती, वह पुरष इन सब लोको को मारकर भी वासतव मे न तो मरता है
और न पाप से बँधता है। (जैसे अिगन, वायु और जल दारा पारबधवश
िकसी पाणी की िहंसा होती देखने मे आए तो भी वह वासतव मे िहंसा
नही है, वैसे ही िजस पुरष का देह मे अिभमान नही है और सवाथररिहत
केवल संसार के िहत के िलए ही िजसकी समपूणर िकयाएँ होती है, उस
पुरष के शरीर और इिनदयो दारा यिद िकसी पाणी की िहंसा होती हुई
लोकदृिष मे देखी जाए, तो भी वह वासतव मे िहंसा नही है कयोिक
आसिकत, सवाथर और अहंकार के न होने से िकसी पाणी की िहंसा हो
ही नही सकती तथा िबना कतृरतवािभमान के िकया हुआ कमर वासतव मे
अकमर ही है, इसिलए वह पुरष 'पाप से नही बँधता'।)॥17॥
जानं जेय ं पिरजाता ितिवधा कमरचोदना ।
करणं कमर कतेित ितिवधः कमरसङगहः ॥
भावाथर : जाता (जानने वाले का नाम 'जाता' है।), जान (िजसके दारा
जाना जाए, उसका नाम 'जान' है। ) और जेय (जानने मे आने वाली
वसतु का नाम 'जेय' है।)- ये तीनो पकार की कमर-पेरणा है और कता
(कमर करने वाले का नाम 'कता' है।), करण (िजन साधनो से कमर
िकया जाए, उनका नाम 'करण' है।) तथा िकया (करने का नाम 'िकया'
है।)- ये तीनो पकार का कमर-संगह है॥18॥
(तीनो गुणो के अनुसार जान, कमर, कता, बुिद, धृित और सुख के
पृथक-पृथक भेद)
जानं कमर च कता च ितधैव गुणभेदतः ।
पोचयते गुणसङखयाने यथावचछणु तानयिप ॥
भावाथर : गुणो की संखया करने वाले शासत मे जान और कमर तथा
कता गुणो के भेद से तीन-तीन पकार के ही कहे गए है, उनको भी तु
मुझसे भलीभाित सुन॥19॥
सवरभूतेषु येनैकं भावमवययमीकते ।
अिवभकतं िवभकतेषु तजजानं िविद सािततवकम् ॥
भावाथर : िजस जान से मनुषय पृथक-पृथक सब भूतो मे एक अिवनाशी
परमातमभाव को िवभागरिहत समभाव से िसथत देखता है, उस जान को
तू सािततवक जान॥20॥
पृथकतवेन तु यजजानं नानाभावानपृथिगवधान्‌ ।
वेित सवेषु भूतेषु तजजानं िविद राजसम्‌ ॥
भावाथर : िकनतु जो जान अथात िजस जान के दारा मनुषय समपूणर भूतो
मे िभन-िभन पकार के नाना भावो को अलग-अलग जानता है, उस
जान को तू राजस जान॥21॥
यतु कृतसनवदेकिसमनकाये सकतमहैतुकम्‌।
अतततवाथरवदलपंच ततामसमुदाहृतम्‌॥
भावाथर : परनतु जो जान एक कायररप शरीर मे ही समपूणर के सदृश
आसकत है तथा जो िबना युिकतवाला, तािततवक अथर से रिहत और
तुचछ है- वह तामस कहा गया है॥22॥
िनयतं सङ‌गरिहतमरागदेषतः कृतम।
अफलपेपसुना कमर यततसािततवकमुचयते॥
भावाथर : जो कमर शासतिविध से िनयत िकया हुआ और कतापन के
अिभमान से रिहत हो तथा फल न चाहने वाले पुरष दारा िबना राग-देष
के िकया गया हो- वह सािततवक कहा जाता है॥23॥
यतु कामेपसुना कमर साहङ‌कारेण वा पुनः।
िकयते बहुलायासं तदाजसमुदाहृतम्‌॥
भावाथर : परनतु जो कमर बहुत पिरशम से युकत होता है तथा भोगो को
चाहने वाले पुरष दारा या अहंकारयुकत पुरष दारा िकया जाता है, वह
कमर राजस कहा गया है॥24॥
अनुबनधं कयं िहंसामनवेकय च पौरषम्‌ ।
मोहादारभयते कमर यततामसमुचयते॥
भावाथर : जो कमर पिरणाम, हािन, िहंसा और सामथयर को न िवचारकर
केवल अजान से आरंभ िकया जाता है, वह तामस कहा जाता है॥25॥
मुकतसङ‌गोऽनहंवादी धृतयुतसाहसमिनवतः ।
िसदयिसदयोिनरिवरकारः कता सािततवक उचयते॥
भावाथर : जो कता संगरिहत, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैयर
और उतसाह से युकत तथा कायर के िसद होने और न होने मे हषर
-शोकािद िवकारो से रिहत है- वह सािततवक कहा जाता है॥26॥
रागी कमरफलपेपसुलुरबधो िहंसातमकोऽशुिचः।
हषरशोकािनवतः कता राजसः पिरकीितरतः॥
भावाथर : जो कता आसिकत से युकत कमों के फल को चाहने वाला
ू रो को कष देने के सवभाववाला, अशुदाचारी
और लोभी है तथा दस
और हषर-शोक से िलपत है वह राजस कहा गया है॥27॥
आयुकतः पाकृतः सतबधः शठोनैषकृितकोऽलसः ।
िवषादी दीघरसूती च कता तामस उचयते॥
भावाथर : जो कता अयुकत, िशका से रिहत घमंडी, धूतर और दस
ू रो की
जीिवका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और
दीघरसूती (दीघरसूती उसको कहा जाता है िक जो थोडे काल मे होने
लायक साधारण कायर को भी िफर कर लेगे, ऐसी आशा से बहुत काल
तक नही पूरा करता। ) है वह तामस कहा जाता है॥28॥
बुदेभेद ं धृतेशैव गुणतिसतिवधं शृणु ।
पोचयमानमशेषेण पृथकतवेन धनंजय ॥
भावाथर : हे धनंजय ! अब तू बुिद का और धृित का भी गुणो के
अनुसार तीन पकार का भेद मेरे दारा समपूणरता से िवभागपूवरक कहा
जाने वाला सुन॥29॥
पवितं च िनवृितं च कायाकाये भयाभये।
बनधं मोकं च या वेित बुिदः सा पाथर सािततवकी ॥
भावाथर : हे पाथर ! जो बुिद पवृितमागर (गृहसथ मे रहते हुए फल और
आसिकत को तयागकर भगवदपरण बुिद से केवल लोकिशका के िलए
राजा जनक की भाित बरतने का नाम 'पवृितमागर' है।) और िनवृित
मागर को (देहािभमान को तयागकर केवल सिचचदानंदघन परमातमा मे
एकीभाव िसथत हुए शी शुकदेवजी और सनकािदको की भाित संसार से
उपराम होकर िवचरने का नाम 'िनवृितमागर' है।), कतरवय और अकतरवय
को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक को यथाथर जानती है- वह
बुिद सािततवकी है ॥30॥
यया धमरमधमर ं च कायर ं चाकायरमेव च।
अयथावतपजानाित बुिदः सा पाथर राजसी॥
भावाथर : हे पाथर! मनुषय िजस बुिद के दारा धमर और अधमर को तथा
कतरवय और अकतरवय को भी यथाथर नही जानता, वह बुिद राजसी है॥
31॥
अधमर ं धमरिमित या मनयते तमसावृता।
सवाथािनवपरीताश बुिदः सा पाथर तामसी॥
भावाथर : हे अजुरन! जो तमोगुण से िघरी हुई बुिद अधमर को भी 'यह
धमर है' ऐसा मान लेती है तथा इसी पकार अनय संपूणर पदाथों को भी
िवपरीत मान लेती है, वह बुिद तामसी है॥32॥
धृतया यया धारयते मनःपाणेिनदयिकयाः।
योगेनावयिभचािरणया धृितः सा पाथर सािततवकी ॥
भावाथर : हे पाथर! िजस अवयिभचािरणी धारण शिकत (भगविदषय के
िसवाय अनय सासािरक िवषयो को धारण करना ही वयिभचार दोष है,
उस दोष से जो रिहत है वह 'अवयिभचािरणी धारणा' है।) से मनुषय
धयान योग के दारा मन, पाण और इंिदयो की िकयाओं ( मन, पाण और
इंिदयो को भगवतपािपत के िलए भजन, धयान और िनषकाम कमों मे
लगाने का नाम 'उनकी िकयाओं को धारण करना' है।) को धारण
करता है, वह धृित सािततवकी है॥33॥
यया तु धमरकामाथानधतया धारयतेऽजुरन।
पसङ‌गेन फलाकाङकी धृितः सा पाथर राजसी॥
भावाथर : परंतु हे पृथापुत अजुरन! फल की इचछावाला मनुषय िजस
धारण शिकत के दारा अतयंत आसिकत से धमर, अथर और कामो को
धारण करता है, वह धारण शिकत राजसी है॥34॥
यया सवपं भयं शोकं िवषादं मदमेव च।
न िवमुञचित दुमेधा धृितः सा पाथर तामसी॥
भावाथर : हे पाथर! दुष बुिदवाला मनुषय िजस धारण शिकत के दारा
िनदा, भय, िचंता और दु :ख को तथा उनमतता को भी नही छोडता
अथात धारण िकए रहता है- वह धारण शिकत तामसी है॥35॥
सुखं ितवदानी ितिवधं शृणु मे भरतषरभ।
अभयासादमते यत दुःखानतं च िनगचछित॥
यतदगे िवषिमव पिरणामेऽमृतोपमम्।

ततसुखं सािततवकं पोकतमातमबुिदपसादजम्‌॥
भावाथर : हे भरतशेष! अब तीन पकार के सुख को भी तू मुझसे सुन।
िजस सुख मे साधक मनुषय भजन, धयान और सेवािद के अभयास से
रमण करता है और िजससे दुःखो के अंत को पापत हो जाता है, जो
ऐसा सुख है, वह आरंभकाल मे यदिप िवष के तुलय पतीत (जैसे खेल
मे आसिकत वाले बालक को िवदा का अभयास मूढता के कारण पथम
िवष के तुलय भासता है वैसे ही िवषयो मे आसिकत वाले पुरष को
भगवदजन, धयान, सेवा आिद साधनाओं का अभयास ममर न जानने के
कारण पथम 'िवष के तुलय पतीत होता' है) होता है, परनतु पिरणाम मे
अमृत के तुलय है, इसिलए वह परमातमिवषयक बुिद के पसाद से
उतपन होने वाला सुख सािततवक कहा गया है॥36-37॥
िवषयेिनदयसंयोगादतदगेऽमृतोपमम्‌।
पिरणामे िवषिमव ततसुखं राजसं समृतम्‌॥
भावाथर : जो सुख िवषय और इंिदयो के संयोग से होता है, वह पहले-
भोगकाल मे अमृत के तुलय पतीत होने पर भी पिरणाम मे िवष के तुलय
(बल, वीयर, बुिद, धन, उतसाह और परलोक का नाश होने से िवषय और
इंिदयो के संयोग से होने वाले सुख को 'पिरणाम मे िवष के तुलय' कहा
है) है इसिलए वह सुख राजस कहा गया है॥38॥
यदगे चानुबनधे च सुखं मोहनमातमनः।
िनदालसयपमादोतथं ततामसमुदाहृतम्‌॥
भावाथर : जो सुख भोगकाल मे तथा पिरणाम मे भी आतमा को मोिहत
करने वाला है, वह िनदा, आलसय और पमाद से उतपन सुख तामस
कहा गया है॥39॥
न तदिसत पृिथवया वा िदिव देवेषु वा पुनः।
सततवं पकृितजैमुरकतं यदेिभःसयािततिभगुरणैः॥
भावाथर : पृथवी मे या आकाश मे अथवा देवताओं मे तथा इनके िसवा
और कही भी ऐसा कोई भी सततव नही है, जो पकृित से उतपन इन
तीनो गुणो से रिहत हो॥40॥
(फल सिहत वणर धमर का िवषय)
बाहणकितयिवशा शूदाणा च परनतप।
कमािण पिवभकतािन सवभावपभवैगुरणैः॥
भावाथर : हे परंतप! बाहण, कितय और वैशयो के तथा शूदो के कमर
सवभाव से उतपन गुणो दारा िवभकत िकए गए है॥41॥
शमो दमसतपः शौचं कािनतराजरवमेव च।
जानं िवजानमािसतकयं बहकमर सवभावजम्‌ ॥
भावाथर : अंतःकरण का िनगह करना, इंिदयो का दमन करना,
धमरपालन के िलए कष सहना, बाहर-भीतर से शुद (गीता अधयाय 13
शलोक 7 की िटपपणी मे देखना चािहए) रहना, दस
ू रो के अपराधो को
कमा करना, मन, इंिदय और शरीर को सरल रखना, वेद, शासत, ईशर
और परलोक आिद मे शदा रखना, वेद-शासतो का अधययन-अधयापन
करना और परमातमा के तततव का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही
बाहण के सवाभािवक कमर है॥42॥
शौयर ं तेजो धृितदाकयं युदे चापयपलायनम्‌।
दानमीशरभावश कातं कमर सवभावजम्‌॥
भावाथर : शूरवीरता, तेज, धैयर, चतुरता और युद मे न भागना, दान देना
और सवािमभाव- ये सब-के-सब ही कितय के सवाभािवक कमर है॥43॥
कृिषगौरकयवािणजयं वैशयकमर सवभावजम्‌।
पिरचयातमकं कमर शूदसयािप सवभावजम्‌॥
भावाथर : खेती, गोपालन और कय-िवकय रप सतय वयवहार (वसतुओं
के खरीदने और बेचने मे तौल, नाप और िगनती आिद से कम देना
अथवा अिधक लेना एवं वसतु को बदलकर या एक वसतु मे दस
ू री या
खराब वसतु िमलाकर दे देना अथवा अचछी ले लेना तथा नफा, आढत
और दलाली ठहराकर उससे अिधक दाम लेना या कम देना तथा झूठ,
कपट, चोरी और जबरदसती से अथवा अनय िकसी पकार से दस
ू रो के
हक को गहण कर लेना इतयािद दोषो से रिहत जो सतयतापूवरक पिवत
वसतुओं का वयापार है उसका नाम 'सतय वयवहार' है।) ये वैशय के
सवाभािवक कमर है तथा सब वणों की सेवा करना शूद का भी
सवाभािवक कमर है॥44॥
सवे सवे कमरणयिभरतः संिसिदं लभते नरः।
सवकमरिनरतः िसिदं यथा िवनदित तचछृणु॥
भावाथर : अपने -अपने सवाभािवक कमों मे ततपरता से लगा हुआ मनुषय
भगवतपािपत रप परमिसिद को पापत हो जाता है। अपने सवाभािवक
कमर मे लगा हुआ मनुषय िजस पकार से कमर करके परमिसिद को पापत
होता है, उस िविध को तू सुन॥45॥
यतः पवृितभूरताना येन सवरिमदं ततम्‌।
सवकमरणा तमभयचयर िसिदं िवनदित मानवः॥
भावाथर : िजस परमेशर से संपूणर पािणयो की उतपित हुई है और
िजससे यह समसत जगत्‌ वयापत है (जैसे बफर जल से वयापत है, वैसे ही
संपूणर संसार सिचचदानंदघन परमातमा से वयापत है), उस परमेशर की
अपने सवाभािवक कमों दारा पूजा करके (जैसे पितवरता सती पित को
सवरसव समझकर पित का िचंतन करती हुई पित के आजानुसार पित
के ही िलए मन, वाणी, शरीर से कमर करती है, वैसे ही परमेशर को ही
सवरसव समझकर परमेशर का िचंतन करते हुए परमेशर की आजा के
अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेशर के ही िलए सवाभािवक
कतरवय कमर का आचरण करना 'कमर दारा परमेशर को पूजना' है) मनुषय
परमिसिद को पापत हो जाता है॥46॥
शेयानसवधमो िवगुणः परधमातसवनुिषतात्‌।
सवभाविनयतं कमर कुवरनापोित िकिलबषम्‌॥
भावाथर : अचछी पकार आचरण िकए हुए दस
ू रे के धमर से गुणरिहत भी
अपना धमर शेष है, कयोिक सवभाव से िनयत िकए हुए सवधमररप कमर
को करता हुआ मनुषय पाप को नही पापत होता॥47॥
सहजं कमर कौनतेय सदोषमिप न तयजेत्‌।
सवारमभा िह दोषेण धूमेनािगनिरवावृताः॥
भावाथर : अतएव हे कुनतीपुत! दोषयुकत होने पर भी सहज कमर (पकृित
के अनुसार शासत िविध से िनयत िकए हुए वणाशम के धमर और
सामानय धमररप सवाभािवक कमर है उनको ही यहा सवधमर, सहज कमर,
सवकमर, िनयत कमर, सवभावज कमर, सवभाविनयत कमर इतयािद नामो से
कहा है) को नही तयागना चािहए, कयोिक धूएँ से अिगन की भाित सभी
कमर िकसी-न-िकसी दोष से युकत है॥48॥
(जानिनषा का िवषय )
असकतबुिदः सवरत िजतातमा िवगतसपृहः।
नैषकमयरिसिदं परमा सननयासेनािधगचछित॥
भावाथर : सवरत आसिकतरिहत बुिदवाला, सपृहारिहत और जीते हुए
अंतःकरण वाला पुरष साखययोग के दारा उस परम नैषकमयरिसिद को
पापत होता है॥49॥
िसिदं पापतो यथा बह तथापोित िनबोध मे।
समासेनैव कौनतेय िनषा जानसय या परा॥
भावाथर : जो िक जान योग की परािनषा है, उस नैषकमयर िसिद को
िजस पकार से पापत होकर मनुषय बह को पापत होता है, उस पकार
को हे कुनतीपुत! तू संकेप मे ही मुझसे समझ॥50॥
बुद‌ ्या िवशुदया युकतो धृतयातमानं िनयमय च।
शबदादीिनवषयासतयकतवा रागदेषौ वयुदसय च॥
िविवकतसेवी लघवाशी यतवाकायमानस।
धयानयोगपरो िनतयं वैरागयं समुपािशतः॥
अहङकारं बलं दपर ं कामं कोधं पिरगहम्‌।
िवमुचय िनमरमः शानतो बहभूयाय कलपते॥
भावाथर : िवशुद बुिद से युकत तथा हलका, सािततवक और िनयिमत
भोजन करने वाला, शबदािद िवषयो का तयाग करके एकात और शुद
देश का सेवन करने वाला, सािततवक धारण शिकत के (इसी अधयाय के
शलोक 33 मे िजसका िवसतार है) दारा अंतःकरण और इंिदयो का
संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश मे कर लेने वाला, राग-देष
को सवरथा नष करके भलीभाित दृढ वैरागय का आशय लेने वाला तथा
अहंकार, बल, घमंड, काम, कोध और पिरगह का तयाग करके िनरंतर
धयान योग के परायण रहने वाला, ममतारिहत और शाितयुकत पुरष
सिचचदाननदघन बह मे अिभनभाव से िसथत होने का पात होता है॥
51-53॥
बहभूतः पसनातमा न शोचित न काङकित।
समः सवेषु भूतेषु मदिकतं लभते पराम्‌॥
भावाथर : िफर वह सिचचदाननदघन बह मे एकीभाव से िसथत, पसन
मनवाला योगी न तो िकसी के िलए शोक करता है और न िकसी की
आकाका ही करता है। ऐसा समसत पािणयो मे समभाव वाला (गीता
अधयाय 6 शलोक 29 मे देखना चािहए) योगी मेरी पराभिकत को ( जो
तततव जान की पराकाषा है तथा िजसको पापत होकर और कुछ
जानना बाकी नही रहता वही यहा पराभिकत, जान की परािनषा, परम
नैषकमयरिसिद और परमिसिद इतयािद नामो से कही गई है) पापत हो
जाता है॥54॥
भकतया मामिभजानाित यावानयशािसम तततवतः।
ततो मा तततवतो जातवा िवशते तदननतरम्‌॥
भावाथर : उस पराभिकत के दारा वह मुझ परमातमा को, मै जो हँू और
िजतना हँू, ठीक वैसा-का-वैसा तततव से जान लेता है तथा उस भिकत
से मुझको तततव से जानकर ततकाल ही मुझमे पिवष हो जाता है॥
55॥
( भिकत सिहत कमरयोग का िवषय )
सवरकमाणयिप सदा कुवाणो मदवयपाशयः।
मतपसादादवापोित शाशतं पदमवययम्‌॥
भावाथर : मेरे परायण हुआ कमरयोगी तो संपूणर कमों को सदा करता
हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अिवनाशी परमपद को पापत हो जाता है॥
56॥
चेतसा सवरकमािण मिय सननयसय मतपरः।
बुिदयोगमुपािशतय मिचचतः सततं भव॥
भावाथर : सब कमों को मन से मुझमे अपरण करके (गीता अधयाय 9
शलोक 27 मे िजसकी िविध कही है) तथा समबुिद रप योग को
अवलंबन करके मेरे परायण और िनरंतर मुझमे िचतवाला हो॥57॥
मिचचतः सवरदुगािण मतपसादातिरषयिस।
अथ चेतवमहाङ‌कारान शोषयिस िवनङकयिस॥
भावाथर : उपयुरकत पकार से मुझमे िचतवाला होकर तू मेरी कृपा से
समसत संकटो को अनायास ही पार कर जाएगा और यिद अहंकार के
कारण मेरे वचनो को न सुनेगा तो नष हो जाएगा अथात परमाथर से
भष हो जाएगा॥58॥
यदहङ‌कारमािशतय न योतसय इित मनयसे ।
िमथयैष वयवसायसते पकृितसतवा िनयोकयित ॥
भावाथर : जो तू अहंकार का आशय लेकर यह मान रहा है िक 'मै युद
नही करँगा' तो तेरा यह िनशय िमथया है, कयोिक तेरा सवभाव तुझे
जबदरसती युद मे लगा देगा॥59॥
सवभावजेन कौनतेय िनबदः सवेन कमरणा ।
कतुर ं नेचछिस यनमोहातकिरषयसयवशोऽिप तत्‌ ॥
भावाथर : हे कुनतीपुत! िजस कमर को तू मोह के कारण करना नही
चाहता, उसको भी अपने पूवरकृत सवाभािवक कमर से बँधा हुआ परवश
होकर करेगा॥60॥
ईशरः सवरभूताना हृदेशेऽजुनर ितषित।
भामयनसवरभूतािन यनतारढािन मायया॥
भावाथर : हे अजुरन! शरीर रप यंत मे आरढ हुए संपूणर पािणयो को
अनतयामी परमेशर अपनी माया से उनके कमों के अनुसार भमण
कराता हुआ सब पािणयो के हृदय मे िसथत है॥61॥
तमेव शरणं गचछ सवरभावेन भारत।
ततपसादातपरा शािनतं सथानं पापसयिस शाशतम्‌॥
भावाथर : हे भारत! तू सब पकार से उस परमेशर की ही शरण मे
(लजजा, भय, मान, बडाई और आसिकत को तयागकर एवं शरीर और
संसार मे अहंता, ममता से रिहत होकर एक परमातमा को ही परम
आशय, परम गित और सवरसव समझना तथा अननय भाव से अितशय
शदा, भिकत और पेमपूवरक िनरंतर भगवान के नाम, गुण, पभाव और
सवरप का िचंतन करते रहना एवं भगवान का भजन, समरण करते हुए
ही उनके आजा अनुसार कतरवय कमों का िनःसवाथर भाव से केवल
परमेशर के िलए आचरण करना यह 'सब पकार से परमातमा के ही
शरण' होना है) जा। उस परमातमा की कृपा से ही तू परम शाित को
तथा सनातन परमधाम को पापत होगा॥62॥
इित ते जानमाखयातं गुहाद‌गुहतरं मया ।
िवमृशयैतदशेषेण यथेचछिस तथा कुर ॥
भावाथर : इस पकार यह गोपनीय से भी अित गोपनीय जान मैने तुमसे
कह िदया। अब तू इस रहसययुकत जान को पूणरतया भलीभाित िवचार
कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर॥63॥
सवरगुहतमं भूतः शृणु मे परमं वचः ।
इषोऽिस मे दृढिमित ततो वकयािम ते िहतम्‌ ॥
भावाथर : संपूणर गोपनीयो से अित गोपनीय मेरे परम रहसययुकत वचन
को तू िफर भी सुन। तू मेरा अितशय िपय है, इससे यह परम
िहतकारक वचन मै तुझसे कहँूगा॥64॥
मनमना भव मदकतो मदाजी मा नमसकुर ।
मामेवैषयिस सतयं ते पितजाने िपयोऽिस मे ॥
भावाथर : हे अजुरन! तू मुझमे मनवाला हो, मेरा भकत बन, मेरा पूजन
करने वाला हो और मुझको पणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही पापत
होगा, यह मै तुझसे सतय पितजा करता हँू कयोिक तू मेरा अतयंत िपय
है॥65॥
सवरधमानपिरतयजय मामेकं शरणं वरज ।
अहं तवा सवरपापेभयो मोकियषयािम मा शुचः ॥
भावाथर : संपूणर धमों को अथात संपूणर कतरवय कमों को मुझमे तयागकर
तू केवल एक मुझ सवरशिकतमान, सवाधार परमेशर की ही शरण (इसी
अधयाय के शलोक 62 की िटपपणी मे शरण का भाव देखना चािहए।) मे
आ जा। मै तुझे संपूणर पापो से मुकत कर दँगू ा, तू शोक मत कर॥66॥
( शीगीताजी का माहातमय )
इदं ते नातपसकाय नाभकताय कदाचन ।
न चाशुशूषवे वाचयं न च मा योऽभयसूयित ॥
भावाथर : तुझे यह गीत रप रहसयमय उपदेश िकसी भी काल मे न तो
तपरिहत मनुषय से कहना चािहए, न भिकत-(वेद, शासत और परमेशर
तथा महातमा और गुरजनो मे शदा, पेम और पूजय भाव का नाम 'भिकत'
है।)-रिहत से और न िबना सुनने की इचछा वाले से ही कहना चािहए
तथा जो मुझमे दोषदृिष रखता है, उससे तो कभी भी नही कहना
चािहए॥67॥
य इमं परमं गुह ं मदकतेषविभधासयित ।
भिकतं मिय परा कृतवा मामेवैषयतयसंशयः ॥
भावाथर : जो पुरष मुझमे परम पेम करके इस परम रहसययुकत
गीताशासत को मेरे भकतो मे कहेगा, वह मुझको ही पापत होगा- इसमे
कोई संदेह नही है॥68॥
न च तसमानमनुषयेषु किशनमे िपयकृतमः ।
भिवता न च मे तसमादनयः िपयतरो भुिव ॥
भावाथर : उससे बढकर मेरा िपय कायर करने वाला मनुषयो मे कोई भी
नही है तथा पृथवीभर मे उससे बढकर मेरा िपय दस
ू रा कोई भिवषय मे
होगा भी नही॥69॥
अधयेषयते च य इमं धमयर ं संवादमावयोः ।
जानयजेन तेनाहिमषः सयािमित मे मितः ॥
भावाथर : जो पुरष इस धमरमय हम दोनो के संवाद रप गीताशासत को
पढेगा, उसके दारा भी मै जानयज (गीता अधयाय 4 शलोक 33 का अथर
देखना चािहए।) से पूिजत होऊँगा- ऐसा मेरा मत है॥70॥
शदावाननसूयश शृणुयादिप यो नरः ।
सोऽिप मुकतः शुभाललोकानपापुयातपुणयकमरणाम्‌ ॥
भावाथर : जो मनुषय शदायुकत और दोषदृिष से रिहत होकर इस
गीताशासत का शवण भी करेगा, वह भी पापो से मुकत होकर उतम कमर
करने वालो के शेष लोको को पापत होगा॥71॥
किचचदेतचछुतं पाथर तवयैकागेण चेतसा ।
किचचदजानसममोहः पनषसते धनञय ॥
भावाथर : हे पाथर! कया इस (गीताशासत) को तूने एकागिचत से शवण
िकया? और हे धनञय! कया तेरा अजानजिनत मोह नष हो गया?॥
72॥
अजुरन उवाच
नषो मोहः समृितलरबधा तवपसादानमयाचयुत ।
िसथतोऽिसम गतसंदेहः किरषये वचनं तव ॥
भावाथर : अजुरन बोले- हे अचयुत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष हो
गया और मैने समृित पापत कर ली है, अब मै संशयरिहत होकर िसथर
हँू, अतः आपकी आजा का पालन करँगा॥73॥
संजय उवाच
इतयहं वासुदेवसय पाथरसय च महातमनः ।
संवादिमममशौषमदुतं रोमहषरणम्‌ ॥
भावाथर : संजय बोले- इस पकार मैने शी वासुदेव के और महातमा
अजुरन के इस अद‌भुत रहसययुकत, रोमाचकारक संवाद को सुना॥74॥
वयासपसादाचछुतवानेतद‌गुहमहं परम्‌ ।
योगं योगेशरातकृषणातसाकातकथयतः सवयम्‌॥
भावाथर : शी वयासजी की कृपा से िदवय दृिष पाकर मैने इस परम
गोपनीय योग को अजुरन के पित कहते हुए सवयं योगेशर भगवान
शीकृषण से पतयक सुना॥75॥
राजनसंसमृतय संसमृतय संवादिमममदुतम्‌ ।
केशवाजुरनयोः पुणयं हृषयािम च मुहुमुरहुः ॥
भावाथर : हे राजन! भगवान शीकृषण और अजुरन के इस रहसययुकत,
कलयाणकारक और अद‌भुत संवाद को पुनः-पुनः समरण करके मै बार-
बार हिषरत हो रहा हूँ॥76॥
तचच संसमृतय संसमृतय रपमतयदुतं हरेः ।
िवसमयो मे महान्‌ राजनहृषयािम च पुनः पुनः ॥
भावाथर : हे राजन्!‌ शीहिर (िजसका समरण करने से पापो का नाश
होता है उसका नाम 'हिर' है) के उस अतयंत िवलकण रप को भी पुनः-
पुनः समरण करके मेरे िचत मे महान आशयर होता है और मै बार-बार
हिषरत हो रहा हँू॥77॥
यत योगेशरः कृषणो यत पाथो धनुधररः ।
तत शीिवरजयो भूितधुरवा नीितमरितमरम ॥
भावाथर : हे राजन! जहा योगेशर भगवान शीकृषण है और जहा गाणडीव-
धनुषधारी अजुरन है, वही पर शी, िवजय, िवभूित और अचल नीित है-
ऐसा मेरा मत है॥78॥
ॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ॥18ॐ

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