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ूेमचंद

कथा-बम

अमृत : 3
अपनी करनी : 12
गैरत क कटार : 22
घमंड का पुतला : 29

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अमृत

मे र उठती जवानी थी जब मेरा दल दद के मजे से प रिचत हुआ।


कुछ दन तक शायर का अ यास करता रहा और धीर-धीरे इस
शौक ने त लीनता का प ले िलया। सांसा रक संबंधो से मुंह मोड़कर अपनी
शायर क दिु नया म आ बैठा और तीन ह साल क मँक़ ने मेर क पना
के जौहर खोल दये। कभी-कभी मेर शायर उःताद के मशहूर कलाम से
ट कर खा जाती थी। मेरे क़लम ने कसी उःताद के सामने सर नह ं
झुकाया। मेर क पना एक अपने-आप बढ़ने वाले पौधे क तरह छं द और
पंगल क क़ैदो से आजाद बढ़ती रह और ऐसे कलाम का ढं ग िनराला था।
मने अपनी शायर को फारस से बाहर िनकाल कर योरोप तक पहुँचा दया।
यह मेरा अपना रं ग था। इस मैदान म न मेरा कोई ूित ं था, न बराबर
करने वाला बावजूद इस शायर जैसी त लीनता के मुझे मुशायर क वाह-
वाह और सुभानअ लाह से नफ़रत थी। हां, का य-रिसक से बना अपना
नाम बताये हुए अ सर अपनी शायर क अ छाइय और बुराइय पर बहस
कया करता। तो मुझे शायर का दावा न था मगर धीरे -धीरे मेर शोहरत
होने लगी और जब मेर मसनवी ‘दिु नयाए हुःन’ ूकािशत हुई तो सा ह य
क दिु नया म हल-चल-सी मच गयी। पुराने शायर ने का य-मम क
ूशंसा-कृ पणता म पोथे के पोथे रं ग दये ह मगर मेरा अनुभव इसके
बलकुल वपर त था । मुझे कभी-कभी यह ख़याल सताया करता क मेरे
किदान क यह उदारता दस
ू रे क वय क लेखनी क द रिता का ूमाण है ।
यह ख़याल हौसला तो ने वाला था। बहरहाल, जो कुछ हुआ, ‘दिु नयाए हुःन’
ने मुझे शायर का बादशाह बना दया। मेरा नाम हरे क ज़बान पर था। मेर
चचा हर एक अखबार म थी। शोहरत अपने साथ दौलत भी लायी। मुझे
दन-रात शेरो-शायर के अलावा और कोई काम न था। अ सर बैठे-बैठे रात
गुज़र जातीं और जब कोई चुभता हुआ शेर कलम से िनकल जाता तो म
खुशी के मारे उछल पड़ता। म अब तक शाद - याह क कद से आजा था
या य क हए क म उसके उन मज से अप रिचत था जनम रं ज क त खी
भी है और खुशी क नमक नी भी। अ सर प मी सा ह यकार क तरह
मेरा भी याल था क सा ह य के उ माद और सौ दय के उ माद म पुराना
बैर है । मुझे अपनी जबान से कहते हुए शिम दा होना पड़ता है क मुझे
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अपनी त बयत पर भरोसा न था। जब कभी मेर आँख म कोई मो हनी
सूरत घूम जाती तो मेरे दल- दमाग पर एक पागलपन-सा छा जाता। ह त
तक अपने को भूला हुआ-सा रहता। िलखने क तरफ त बयत कसी तरह न
झुकती। ऐसे कमजोर दल म िसफ एक इँक क जगह थी। इसी डर से म
अपनी रं गीन तितबयत के खलाफ आचरण शु रखने पर मजबूर था।
कमल क एक पंखड़
ु , ँयामा के एक गीत, लहलहाते हुए एक मैदान म मेरे
िलए जाद ू का-सा आकषण था मगर कसी औरत के दलफ़रे ब हुःन को म
िचऽकार या मूितकार क बैलौस ऑ ंख से नह ं दे ख सकता था। सुंदर ी
मेरे िलए एक रं गीन, क़ाितल नािगन थी जसे दे खकर ऑख
ं खुश होती ह
मगर दल डर से िसमट जाता है ।
खैर, ‘दिु नयाए हुःन’ को ूकािशत हुए दो साल गुजर चुके थे। मेर
याित बरसात क उमड़ हुई नद क तरह बढ़ती चली जाती थी। ऐसा
मालूम होता था जैसे मने सा ह य क दिु नया पर कोई वशीकरण कर दया
है । इसी दौरान मने फुटकर शेर तो बहुत कहे मगर दावत और
अिभनंदनपऽ क भीड़ ने मािमक भाव को उभरने न दया। ूदशन और
याित एक राजनीित के िलए कोड़े का काम दे सकते ह, मगर शायर क
त बयत अकेले शांित से एक कोने के बैठकर ह अपना जौहर दखालाती है ।
चुनांचे म इन रोज-ब-रोज बढ़ती हुई बेहूदा बात से गला छुड़ा कर भागा
और पहाड़ के एक कोने म जा िछपा। ‘नैरंग’ ने वह ं ज म िलया।

नै

रं ग’ के शु करते हुए ह मुझे एक आ यजनक और दल तोड़ने
वाला अनुभव हुआ। ई र जाने य मेर अ ल और मेरे िचंतन पर
पदा पड़ गया। घंट त बयत पर जोर डालता मगर एक शेर भी ऐसा न
िनकलता क दल फड़के उठे । सूझते भी तो द रि, पटे हुए वषय, जनसे
मेर आ मा भागती थी। म अ सर झुझलाकर उठ बैठता, कागज फाड़
डालता और बड़ बे दली क हालत म सोचने लगता क या मेर का यश
का अंत हो गया, या मने वह खजाना जो ूकृ ित ने मुझे सार उॆ के िलए
दया था, इतनी ज द िमटा दया। कहां वह हालत थी क वषय क
बहुतायत और नाजुक खयाल क रवानी क़लम को दम नह ं लेने दे ती थी।
क पना का पंछ उड़ता तो आसमान का तारा बन जाता था और कहां अब
यह पःती! यह क ण द रिता! मगर इसका कारण या है ? यह कस क़सूर
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क सज़ा है । कारण और काय का दस
ू रा नाम दिु नया है । जब तक हमको
य का जवाब न िमले, दल को कसी तरह सॄ नह ं होता, यहां तक क
मौत को भी इस य का जवाब दे ना पड़ता है । आ खर मने एक डा टर से
सलाह ली। उसने आम डा टर क तरह आब-हवा बदलने क सलाह द ।
मेर अ ल म भी यह बात आयी क मुम कन है नैनीताल क ठं ड आब-हवा
से शायर क आग ठं ड पड़ गई हो। छ: मह ने तक लगातार घूमता- फरता
रहा। अनेक आकषक ँय दे खे, मगर उनसे आ मा पर वह शायराना
कै फयत न छाती थी क याला छलक पड़े और खामोश क पना खुद ब
खुद चहकने लगे। मुझे अपना खोया हुआ लाल न िमला। अब म जंदगी से
तंग था। जंदगी अब मुझे सूखे रे िगःतान जैसी मालूम होती जहां कोई
जान नह ं, ताज़गी नह ं, दलचःपी नह ं। हरदम दल पर एक मायूसी-सी
छायी रहती और दल खोया-खोया रहता। दल म यह सवाल पैदा होता क
या वह चार दन क चांदनी ख म हो गयी और अंधेरा पाख आ गया?
आदमी क संगत से बेजार, हम जंस क सूरत से नफरत, म एक गुमनाम
कोने म पड़ा हुआ जंदगी के दन पूरे कर रहा था। पेड़ क चो टय पर
बैठने वाली, मीठे राग गाने वाली िच ड़या या पंजरे म ज़ंदा रह सकती ह?
मुम कन है क वह दाना खाये, पानी पये मगर उसक इस जंदगी और
मौत म कोई फक नह ं है ।
आ खर जब मुझे अपनी शायर के लौटने क कोई उ मीद नह ं रह ,
तो मेरे दल म यह इरादा प का हो गया क अब मेरे िलए शायर क
दिु नया से मर जाना ह बेहतर होगा। मुदा तो हूँ ह , इस हालत म अपने को
जंदा समझना बेवकूफ है । आ खर मैने एक रोज कुछ दै िनक पऽ का अपने
मरने क खबर दे द । उसके छपते ह मु क म कोहराम मच गया, एक
तहलका पड़ गया। उस व मुझे अपनी लोक ूयता का कुछ अंदाजा हुआ।
यह आम पुकार थी, क शायर क दिु नया क कःती मंझधार म डू ब गयी।
शायर क मह फल उखड़ गयी। पऽ-प ऽकाओं म मेरे जीवन-च रऽ ूकािशत
हुए जनको पढ़ कर मुझे उनके एड टर क आ वंकार-बु का क़ायल होना
पड़ा। न तो म कसी रईस का बेटा था और न मने रईसी क मसनद
छोड़कर फक र अ तयार क थी। उनक क पना वाःत वकता पर छा गयी
थी। मेरे िमऽ म एक साहब ने, ज हे मुझसे आ मीयता का दावा था, मुझे
पीने- पलाने का ूेमी बना दया था। वह जब कभी मुझसे िमलते, उ ह मेर
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आख नशे से लाल नजर आतीं। अगरचे इसी लेख म आगे चलकर उ होन
मेर इस बुर आदत क बहुत दयता से सफाई द थी य क खा-सूखा
आदमी ऐसी मःती के शेर नह ं कह सकता था। ताहम है रत है क उ ह यह
सर हन गलत बात कहने क ह मत कैसे हुई।
खैर, इन गलत-बयािनय क तो मुझे परवाह न थी। अलब ा यह बड़
फब थी, फब नह ं एक ूबल ज ासा थी, क मेर शायर पर लोग क
जबान से या फतवा िनकलता है । हमार जंदगी के कारनामे क स ची
दाद मरने के बाद ह िमलती है य क उस व वह खुशामद और बुराइय
से पाक-साफ होती ह। मरने वाले क खुशी या रं ज क कौन परवाह करता
है । इसीिलए मेर क वता पर जतनी आलोचनाऍं िनकली ह उसको मने बहुत
ह ठं डे दल से पढ़ना शु कया। मगर क वता को समझने वाली क
यापकता और उसके मम को समझने वाली िच का चार तरफ अकाल-सा
मालूम होता था। अिधकांश जौह रय ने एक-एक शेर को लेकर उनसे बहस
क थी, और इसम शक नह ं क वे पाठक क है िसयत से उस शेर के
पहलुओं को खूब समझते थे। मगर आलोचक का कह ं पता न था। नजर क
गहराई गायब थी। समम क वता पर िनगाह डालने वाला क व, गहरे भाव
तक पहुँचने वाला कोई आलोचक दखाई न दया।

ए क रोज़ म ूेत
प लक लाइॄेर
क दिु नया से िनकलकर घूमता हुआ अजमेर क
म जा पहुँचा। दोपहर का व था। मने मेज पर
झुककर दे खा क कोई नयी रचना हाथ आ जाये तो दल बहलाऊँ। यकायक
मेर िनगाह एक सुंदर पऽ क तरफ गयी जसका नाम था ‘कलाम अ तर’।
जैसे भोला ब चा खलौने क तरफ लपकता है उसी तरह झपटकर मने उस
कताब को उठा िलया। उसक ले खका िमस आयशा आ रफ़ थीं। दलचःपी
और भी यादा हुई। म इ मीनान से बैठकर उस कताब को पढ़ने लगा। एक
ह प ना पढ़ने के बाद दलचःपी ने बेताबी क सूरत अ तयार क । फर
तो म बेसुधी क दिु नया म पहुँच गया। मेरे सामने गोया सूआम अथ क
एक नद लहर मार रह थी। क पना क उठान, िच क ःव छता, भाषा क
नम । का य- ऐसी थी क दय ध य-ध य हो उठता था। म एक
पैरामाफ पढ़ता, फर वचार क ताज़गी से ूभा वत होकर एक लंबी सॉस
लेता और तब सोचने लगता, इस कताब को सरसर तौर पर पढ़ना
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अस भव था। यह औरत थी या सु िच क दे वी। उसके इशार से मेरा
कलाम बहुत कम बचा था मगर जहां उसने मुझे दाद द थी वहां स चाई के
मोती बरसा दये थे। उसके एतराज म हमदद और ूशंसा म भ था।
शायर के कलाम को दोष क य से नह ं दे खना चा हये। उसने या नह ं
कया, यह ठ क कसौट नह ं। बस यह जी चाहता था क ले खका के हाथ
और कलम चूम लूँ। ‘सफ़ र’ भोपाल के द तर से एक प ऽका ूकािशत हुई
थी। मेरा प का इरादा हो गया, तीसरे दन शाम के व म िमस आयशा के
खूबसूरत बंगले के सामने हर -हर घास पर टहल रहा था। म नौकरानी के
साथ एक कमरे म दा खल हुआ। उसक सजावट बहुत साद थी। पहली चीज़
पर िनगाह पड़ ं वह मेर तःवीर थी जो द वार पर लटक रह थी। सामने
एक आइना रखा हुआ था। मने खुदा जाने य उसम अपनी सूरत दे खी।
मेरा चेहरा पीला और कु हलाया हुआ था, बाल उलझे हुए, कपड़ पर गद क
एक मोट तह जमी हुई, परे शानी क जंदा तःवीर थी।
उस व मुझे अपनी बुर श ल पर स त शिमदगी हुई। म सुंदर न
सह मगर इस व तो सचमुच चेहरे पर फटकार बरस रह थी। अपने
िलबास के ठ क होने का यक न हम खुशी दे ता है । अपने फुहड़पन का जःम
पर इतना असर नह ं होता जतना दल पर। हम बुज दल और बेहौसला हो
जाते ह।
मुझे मु ँकल से पांच िमनट गुजरे ह गे क िमस आयशा तशर फ़
लायीं। सांवला रं ग था, चेहरा एक गंभीर घुलावट से चमक रहा था। बड़ -बड़
नरिगसी आंख से सदाचार क , संःकृ ित क रोशनी झलकती थी। क़द
मझोले से कुछ कम। अंग-ू यंग छरहरे , सुथरे , ऐसे ह क -फु क क जैसे
ूकृ ित ने उसे इस भौितक संसार के िलए नह ं, कसी का पिनक संसार के
िलए िसरजा है । कोई िचऽकार कला क उससे अ छ तःवीर नह खींच
सकता था।
िमस आयशा ने मेर तरफ दबी िनगाह से दे खा मगर दे खते-दे खते
उसक गदन झुक गयी और उसके गाल पर लाज क एक ह क -परछा
नाचती हुई मालूम हुई। जमीन से उठकर उसक ऑ ंख मेर तःवीर क तरफ
गयीं और फर सामने पद क तरफ जा पहुँचीं। शायद उसक आड़ म
िछपना चाहती थीं।

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िमस आयशा ने मेर तरफ दबी िनगाह से दे खकर पूछा—आप ःवग य
अ तर के दोःत म से ह?
मने िसर नीचा कये हुए जवाब दया--म ह बदनसीब अ तर हूँ।
आयशा एक बेखद
ु के आलम म कुस पर से खड़ हुई और मेर तरफ
है रत से दे खकर बोलीं—‘दिु नयाए हुःन’ के िलखने वाले?
अंध व ास के िसवा और कसने इस दिु नया से चले जानेवाले को
दे खा है ? आयशा ने मेर तरफ कई बार शक से भर िनगाह से दे खा। उनम
अब शम और हया क जगह के बजाय है रत समायी हुई थी। मेरे कॄ से
िनकलकर भागने का तो उसे यक न आ ह नह ं सकता था, शायद वह मुझे
द वाना समझ रह थी। उसने दल म फैसला कया क इस आदमी मरहूम
शायर का कोई क़र बी अजीज है । शकल जस तरह िमल रह थी वह दोन
के एक खानदान के होने का सबूत थी। मुम कन है क भाई हो। वह
अचानक सदमे से पागल हो गया है । शायद उसने मेर कताब दे खी होगी
ओर हाल पूछने के िलए चला आया। अचानक उसे ख़याल गुजरा क कसी
ने अखबार को मेरे मरने क झूठ खबर दे द हो और मुझे उस खबर को
काटने का मौका न िमला हो। इस ख़याल से उसक उलझन दरू हुई, बोली—
अखबार म आपके बारे म एक िनहायत मनहूस खबर छप गयी थी? मने
जवाब दया—वह खबर सह थी।
अगर पहले आयशा को मेरे दवानेपन म कुछ था तो वह दरू हो गया।
आ खर मैने थोड़े लझजो म अपनी दाःतान सुनायी और जब उसको यक न
हो गया क ‘दिु नयाए हुःन’ का िलखनेवाला अ तर अपने इ सानी चोले म
है तो उसके चेहरे पर खुशी क एक ह क सुख दखायी द और यह ह का
रं ग बहुत ज द खुददार और प-गव के शोख रं ग से िमलकर कुछ का
कुछ हो गया। ग़ािलबन वह शिमदा थी क य उसने अपनी क़िदानी को
हद से बाहर जाने दया। कुछ दे र क शम ली खामोशी के बाद उसने कहा—
मुझे अफसोस है क आपको ऐसी मनहूस खबर िनकालने क ज रत हुई।
मने जोश म भरकर जवाब दया—आपके क़लम क जबान से दाद
पाने क कोई सूरत न थी। इस तनक़ द के िलए म ऐसी-ऐसी कई मौते मर
सकता था।
मेरे इस बेधड़क अंदाज ने आयशा क जबान को भी िश ाचार और
संकोच क क़ैद से आज़ाद कया, मुःकराकर बोली—मुझे बनावट पसंद नह ं
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है । डा टर ने कुछ बतलाया नह ं? उसक इस मुःकराहट ने मुझे द लगी
करने पर आमादा कया, बोला—अब मसीहा के िसवा इस मज का इलाज
और कसी के हाथ नह ं हो सकता।
आयशा इशारा समझ गई, हँ सकर बोली—मसीहा चौथे आसमान पर
रहते ह।
मेर ह मत ने अब और कदम बढ़ाये--- ह क दिु नया से चौथा
आसमान बहुत दरू नह ं है ।
आयशा के खले हुए चेहरे से संजीदगी और अजन बयत का ह का रं ग
उड़ गया। ताहम, मेरे इन बेधड़क इशार को हद से बढ़ते दे खकर उसे मेर
जबान पर रोक लगाने के िलए कसी क़दर खुददार बरतनी पड़ । जब म
कोई घंटे-भर के बाद उस कमरे से िनकला तो बजाय इसके क वह मेर
तरफ अपनी अंमेजी तहज़ीब के मुता बक हाथ बढ़ाये उसने चोर -चोर मेर
तरफ दे खा। फैला हुआ पानी जब िसमटकर कसी जगह से िनकलता है तो
उसका बहाव तेज़ और ताक़त कई गुना यादा हो जाती है आयशा क उन
िनगाह म अःमत क तासीर थी। उनम दल मुःकराता था और ज बा
नाजता था। आह, उनम मेरे िलए दावत का एक पुरजोर पैग़ाम भरा हुआ
था। जब म मु ःलम होटल म पहुँचकर इन वाक़यात पर गौर करने लगा तो
म इस नतीजे पर पहुँचा क गो म ऊपर से दे खने पर यहां अब तक
अप रिचत था ले कन भीतर तौर पर शायद म उसके दल के कोने तक
पहुँच चुका था।

ज ब म खाना खाकर पलंग पर लेटा तो बावजूद दो दन रात-रात-भर


जागने के नींद आंख से कोस दरू थी। ज बात क कशमकश म नींद
कहॉ। आयशा क सूरत, उसक खाितरदा रयॉ और उसक वह िछपी-िछपी
िनगाह दल म एकसास का तूफान-सा बरपा रह थी उस आ खर िनगाह ने
दल म तम नाओं क म-धूम मचा द । वह आरजुएं जो, बहुत अरसा हुआ,
मर िमट थीं फर जाग उठ ं और आरजुओं के साथ क पना ने भी मुंद हुई
आंखे खोल द ं।
दल म ज ात और कै फ़यात का एक बेचैन करनेवाला जोश महसूस
हुआ। यह आरजुएं, यह बेचैिनया और यह कोिशश क पना के द पक के
िलए तेल ह। ज बात क हरारत ने क पना को गरमाया। म क़लम लेकर
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बैठ गया और एक ऐसी नज़म िलखी जसे म अपनी सबसे शानदार दौलत
समझता हूँ।
म एक होटल मे रह रहा था, मगर कसी-न- कसी ह ले से दन म
कम-से-कम एक बार ज र उसके दशन का आनंद उठाता । गो आयशा ने
कभी मेरे यहॉ तक आने क तकलीफ नह ं क तो भी मुझे यह यक न करने
के िलए शहादत क ज रत न थी क वहॉ कस क़दर सरगम से मेरा
इं तजार कया जाता था, मेरे क़दमो क पहचानी हुई आहटे पाते ह उसका
चेहरा कैसे कमल क तरह खल जाता था और आंख से कामना क करण
िनकलने लगती थीं।
यहां छ: मह ने गुजर गये। इस जमाने को मेर जंदगी क बहार
समझना चा हये। मुझे वह दन भी याद है जब म आरजुओं और हसरत के
ग़म से आजाद था। मगर द रया क शांितपूण रवानी म िथरकती हुई लहर
क बहार कहां, अब अगर मुह बत का दद था तो उसका ूाणदायी मज़ा भी
था। अगर आरजुओं क घुलावट थी तो उनक उमंग भी थी। आह, मेर यह
यासी आंख उस प के ॐोत से कसी तरह त न ह ती। जब म अपनी
नश म डू बी हुई आंखो से उसे दे खता तो मुझे एक आ मक तरावट-सी
महसूस होती। म उसके द दार के नशे से बेसुध-सा हो जाता और मेर
रचना-श का तो कुछ हद- हसाब न था। ऐसा मालूम होता था क जैसे
दल म मीठे भाव का सोता खुल गया था। अपनी क व व श पर खुद
अच भा होता था। क़लम हाथ म ली और रचना का सोता-सा बह िनकला।
‘नैरंग’ म ऊँची क पनाऍं न हो, बड़ गूढ़ बात न ह , मगर उसका एक-एक
शेर ूवाह और रस, गम और घुलावट क दाद दे रहा है । यह उस द पक का
वरदान है , जो अब मेरे दल म जल गया था और रोशनी दे रहा था। यह
उस फुल क महक थी जो मेरे दल म खला हुआ था। मुह बत ह क
खुराक है । यह अमृत क बूंद है जो मरे हुए भाव को जंदा कर दे ती है ।
मुह बत आ मक वरदान है । यह जंदगी क सबसे पाक, सबसे ऊँची,
मुबारक बरक़त है । यह अ सीर थी जसक अनजाने ह मुझे तलाश थी।
वह रात कभी नह ं भूलेगी जब आयशा द ु हन बनी हुई मेरे घर म आयी।
‘नैरंग’ उसक मुबारक जंदगी क यादगार है । ‘दिु नयाए हुःन’ एक कली थी,
‘नैरंग’ खला हुआ फूल है और उस कली को खलाने वाली कौन-सी चीज
है ? वह जसक मुझे अनजाने ह तलाश थी और जसे म अब पा गया था।
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....उद ू ‘ूेम पचीसी’ से

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अपनी करनी

आ ह, अभागा म! मेरे कम के फल ने आज यह दन दखाये क


अपमान भी मेरे ऊपर हं सता है । और यह सब मने अपने हाथ
कया। शैतान के िसर इलजाम य दं ,ू कःमत को खर -खोट य सुनाऊँ,
होनी का य रोऊं? ज कुछ कया मने जानते और बूझते हुए कया। अभी
एक साल गुजरा जब म भा यशाली था, ूित त था और समृ मेर चेर
थी। दिु नया क नेमत मेरे सामने हाथ बांधे खड़ थीं ले कन आज बदनामी
और कंगाली और शंिमदगी मेर दद
ु शा पर आंसू बहाती है । म ऊंचे खानदान
का, बहुत पढ़ा-िलखा आदमी था, फारसी का मु ला, संःकृ त का पं डत,
अंगेजी का मेजए
ु ट। अपने मुंह िमयां िम ठू य बनूं ले कन प भी मुझको
िमला था, इतना क दस
ू रे मुझसे ईंया कर सकते थे। ग़रज एक इं सान को
खुशी के साथ जंदगी बसर करने के िलए जतनी अ छ चीज क ज रत
हो सकती है वह सब मुझे हािसल थीं। सेहत का यह हाल क मुझे कभी
सरदद क भी िशकायत नह ं हुई। फ़टन क सैर, द रया क दलफ़रे बयां,
पहाड़ के सुंदर ँय –उन खुिशय का जब ह तकलीफ़दे ह है । या मजे क
जंदगी थी!
आह, यहॉ तक तो अपना दद दल सुना सकता हूँ ले कन इसके आगे
फर ह ठ पर खामोशी क मुहर लगी हुई है । एक सती-सा वी, ूितूाणा ी
और दो गुलाब के फूल-से ब चे इं सान के िलए जन खुिशय , आरजुओ,ं
हौसल और दलफ़रे बय का खजाना हो सकते ह वह सब मुझे ूा था। म
इस यो य नह ं क उस पितऽ ी का नाम जबान पर लाऊँ। म इस यो य
नह ं क अपने को उन लड़क का बाप कह सकूं। मगर नसीब का कुछ ऐसा
खेल था क मने उन ब हँती नेमत क कि न क । जस औरत ने मेरे
हु म और अपनी इ छा म कभी कोई भेद नह ं कया, जो मेर सार बुराइय
के बावजूद कभी िशकायत का एक हफ़ ज़बान पर नह ं लायी, जसका गुःसा
कभी आंखो से आगे नह ं बढ़ने पाया-गुःसा या था कुआर क बरखा थी,
दो-चार हलक -हलक बूंद पड़ और फर आसमान साफ़ हो गया—अपनी
द वानगी के नशे म मने उस दे वी क कि न क । मैने उसे जलाया, लाया,
तड़पाया। मने उसके साथ दग़ा क । आह! जब म दो-दो बजे रात को घर

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लौटता था तो मुझे कैसे-कैसे बहाने सूझते थे, िनत नये ह ले गढ़ता था,
शायद व ाथ जीवन म जब बै ड के मजे से मदरसे जाने क इजाज़त न
दे ते थे, उस व भी बु इतनी ूखर न थी। और या उस मा क दे वी
को मेर बात पर यक़ न आता था? वह भोली थी मगर ऐसी नादान न थी।
मेर खुमार-भर आंखे और मेरे उथले भाव और मेरे झूठे ूेम-ूदशन का
रहःय या उससे िछपा रह सकता था? ले कन उसक रग-रग म शराफत
भर हुई थी, कोई कमीना ख़याल उसक जबान पर नह ं आ सकता था। वह
उन बात का जब करके या अपने संदेह को खुले आम दखलाकर हमारे
प वऽ संबध
ं म खचाव या बदमज़गी पैदा करना बहुत अनुिचत समझती थी।
मुझे उसके वचार, उसके माथे पर िलखे मालूम होते थे। उन बदमज़िगय के
मुकाबले म उसे जलना और रोना यादा पसंद था, शायद वह समझती थी
क मेरा नशा खुद-ब-खुद उतर जाएगा। काश, इस शराफत के बदले उसके
ःवभाव म कुछ ओछापन और अनुदारता भी होती। काश, वह अपने
अिधकार को अपने हाथ म रखना जानती। काश, वह इतनी सीधी न होती।
काश, अव अपने मन के भाव को िछपाने म इतनी कुशल न होती। काश,
वह इतनी म कार न होती। ले कन मेर म कार और उसक म कार म
कतना अंतर था, मेर म कार हरामकार थी, उसक म कार
आ मबिलदानी।
एक रोज म अपने काम से फुसरत पाकर शाम के व मनोरं जन के
िलए आनंदवा टका मे पहुँचा और संगमरमर के हौज पर बैठकर मछिलय
का तमाशा दे खने लगा। एकाएक िनगाह ऊपर उठ तो मने एक औरत का
बेले क झा ड़य म फूल चुनते दे खा। उसके कपड़े मैले थे और जवानी क
ताजगी और गव को छोड़कर उसके चेहरे म कोई ऐसी खास बात न थीं
उसने मेर तरफ आंखे उठायीं और फर फूल चुनने म लग गयी गोया उसने
कुछ दे खा ह नह ं। उसके इस अंदाज ने, चाहे वह उसक सरलता ह य न
रह हो, मेर वासना को और भी उ कर दया। मेरे िलए यह एक नयी
बात थी क कोई औरत इस तरह दे खे क जैसे उसने नह ं दे खा। म उठा
और धीरे -धीरे , कभी जमीन और कभी आसमान क तरफ ताकते हुए बेले
क झा ड़य के पास जाकर खुद भी फूल चुनने लगा। इस ढठाई का नतीजा
यह हुआ क वह मािलन क लड़क वहां से तेजी के साथ बाग के दस
ू रे
हःसे म चली गयी।
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उस दन से मालूम नह ं वह कौन-सा आकषण था जो मुझे रोज शाम
के व आनंदवा टका क तरफ खींच ले जाता। उसे मुह बत हरिगज नह ं
कह सकते। अगर मुझे उस व भगवान ् न कर, उस लड़क के बारे म कोई,
शोक-समाचार िमलता तो शायद मेर आंख से आंसू भी न िनकले, जोिगया
धारण करने क तो चचा ह यथ है । म रोज जाता और नये-नये प धरकर
जाता ले कन जस ूकृ ित ने मुझे अ छा प-रं ग दया था उसी ने मुझे
वाचालता से वंिचत भी कर रखा था। म रोज जाता और रोज लौट जाता,
ूेम क मं जल म एक क़दम भी आगे न बढ़ पाता था। हां, इतना अलब ा
हो गया क उसे वह पहली-सी झझक न रह ।
आ खर इस शांितपूण नीित को सफल बनाने न होते दे ख मने एक
नयी यु सोची। एक रोज म अपने साथ अपने शैतान बुलडाग टामी को भी
लेता गया। जब शाम हो गयी और वह मेरे धैय का नाश करने वाली फूल
से आंचल भरकर अपने घर क ओर चली तो मने अपने बुलडाग को धीरे से
इशारा कर दया। बुलडाग उसक तरफ़ बाज क तरफ झपटा, फूलमती ने
एक चीख मार , दो-चार कदम दौड़ और जमीन पर िगर पड़ । अब म छड़
हलाता, बुलडाग क तरफ गुःसे-भर आंख से दे खता और हांय-हांय
िच लाता हुआ दौड़ा और उसे जोर से दो-तीन डं डे लगाये। फर मने बखरे
हुए फूल को समेटा, सहमी हुई औरत का हाथ पकड़कर बठा दया और
बहुत ल जत और दख
ु ी भाव से बोला—यह कतना बड़ा बदमाश है , अब
इसे अपने साथ कभी नह ं लाऊंगा। तु ह इसने काट तो नह ं िलया?
फूलमती ने चादर से सर को ढ़ांकते हुए कहा—तुम न आ जाते तो वह
मुझे नोच डालता। मेरे तो जैसे मन-मन-भर म पैर हो गये थे। मेरा कलेजा
तो अभी तक धड़क रहा है ।
यह तीर लआय पर बैठा, खामोशी क मुहर टू ट गयी, बातचीत का
िसलिसला क़ायम हुआ। बांध म एक दरार हो जाने क दे र थी, फर तो मन
क उमंगो ने खुद-ब-खुद काम करना शु कया। मैने जैसे-जैसे जाल फैलाये,
जैसे-जैसे ःवांग रचे, वह रं गीन त बयत के लोग खूब जानते ह। और यह
सब य ? मुह बत से नह ं, िसफ जरा दे र दल को खुश करने के िलए,
िसफ उसके भरे -पूरे शर र और भोलेपन पर र झकर। य म बहुत नीच ूकृ ित
का आदमी नह ं हूँ। प-रं ग म फूलमती का इं द ु से मुकाबला न था। वह
सुंदरता के सांचे म ढली हुई थी। क वय ने स दय क जो कसौ टयां बनायी
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ह वह सब वहां दखायी दे ती थीं ले कन पता नह ं य मने फूलमती क
धंसी हुई आंख और फूले हुए गाल और मोटे -मोटे होठ क तरफ अपने
दल का यादा खंचाव दे खा। आना-जाना बढ़ा और मह ना-भर भी गुजरने
न पाया क म उसक मुह बत के जाल म पूर तरह फंस गया। मुझे अब
घर क सादा जंदगी म कोई आनंद न आता था। ले कन दल य - य घर
से उचटता जाता था य - य म प ी के ूित ूेम का ूदशन और भी
अिधक करता था। म उसक फ़रमाइश का इं तजार करता रहता और कभी
उसका दल दख
ु ानेवाली कोई बात मेर जबान पर न आती। शायद म अपनी
आंत रक उदासीनता को िश ाचार के पद के पीछे िछपाना चाहता था।
धीरे -धीरे दल क यह कै फ़यत भी बदल गयी और बीवी क तरफ से
उदासीनता दखायी दे ने लगी। घर म कपड़े नह ं है ले कन मुझसे इतना न
होता क पूछ लूं। सच यह है क मुझे अब उसक खाितरदार करते हुए एक
डर-सा मालूम होता था क कह ं उसक ं खामोशी क द वार टू ट न जाय और
उसके मन के भाव जबान पर न आ जायं। यहां तक क मने िगरःती क
ज रत क तरफ से भी आंखे बंद कर लीं। अब मेरा दल और जान और
पया-पैसा सब फूलमती के िलए था। म खुद कभी सुनार क दक
ु ान पर न
गया था ले कन आजकल कोई मुझे रात गए एक मशहूर सुनार के मकान
पर बैठा हुआ दे ख सकता था। बजाज क दक
ु ान म भी मुझे िच हो गयी।

ए क रोज शाम के व रोज क तरह म आनंदवा टका म सैर कर रहा


था और फूलमती सोहल िसंगार
लद हुई, एक रे शमी साड़ पहने बाग क
कए, मेर सुनहर - पहली भटो से
या रय म फूल तोड़ रह थी,
ब क य कहो क अपनी चुट कंयो मे मेरे दल को मसल रह थी। उसक
छोट -छोट आंखे उस व नशे के हुःन म फैल गयी ,थीं और उनम शोखी
और मुःकराहट क झलक नज़र आती थी।
अचानक महाराजा साहब भी अपने कुछ दोःत के साथ मोटर पर
सवार आ पहुँचे। म उ ह दे खते ह अगवानी के िलए दौड़ा और आदाब बजा
लाया। बेचार फूलमती महाराजा साहब को पहचानती थी ले कन उसे एक
घने कुंज के अलावा और कोई िछपने क जगह न िमल सक । महाराजा
साहब चले तो हौज क तरफ़ ले कन मेरा दभ
ु ा य उ ह यार पर ले चला
जधर फूलमती िछपी हुई थर-थर कांप रह थी।
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महाराजा साहब ने उसक तरफ़ आ य से दे खा और बोले—यह कौन
औरत है ? सब लोग मेर ओर ू -भर आंख से दे खने लगे और मुझे भी
उस व यह ठ क मालूम हुआ क इसका जवाब म ह दं ू वना फूलमती
न जाने या आफत ढ़ा दे । लापरवाह के अंदाज से बोला—इसी बाग के
माली क लड़क है , यहां फूल तोड़ने आयी होगी।
फूलमती ल जा और भय के मारे जमीन म धंसी जाती थी। महाराजा
साहब ने उसे सर से पांव तक गौर से दे खा और तब संदेहशील भाव से मेर
तरफ दे खकर बोले—यह माली क लड़क है ?
म इसका या जवाब दे ता। इसी बीच क ब त दज़
ु न माली भी अपनी
फट हुई पाग संभालता, हाथ मे कुदाल िलए हुए दौड़ता हुआ आया और सर
को घुटन से िमलाकर महाराज को ूणाम कया महाराजा ने जरा तेज लहजे
म पूछा—यह तेर लड़क ह?
माली के होश उड़ गए, कांपता हुआ बोला--हुजरू ।
महाराज—तेर तन वाह या है ?
दज
ु न—हुजरू , पांच पये।
महाराज—यह लड़क कुंवार है या याह ?
दज
ु न—हुजरू , अभी कुंवार है
महाराज ने गुःसे म कहा—या तो तू चोर करता है या डाका मारता है
वना यह कभी नह ं हो सकता क तेर लड़क अमीरजाद बनकर रह सके।
मुझे इसी व इसका जवाब दे ना होगा वना म तुझे पुिलस के सुपुद कर
दँ ग
ू ा। ऐसे चाल-चलन के आदमी को म अपने यहां नह ं रख सकता।
माली क तो िघ घी बंध गयी और मेर यह हालत थी क काटो तो
बदन म लहू नह ं। दिु नया अंधेर मालूम होती थी। म समझ गया क आज
मेर शामत सर पर सवार है । वह मुझे जड़ से उखाड़कर दम लेगी। महाराजा
साहब ने माली को जोर से डांटकर पूछा—तू खामोश य है , बोलता य
नह ं?
दज
ु न फूट-फटकर रोने लगा। जब ज़रा आवाज सुधर तो बोला—हुजरू ,
बाप-दादे से सरकार का नमक खाता हूँ, अब मेरे बुढ़ापे पर दया क जए, यह
सब मेरे फूटे नसीब का फेर है धमावतार। इस छोकर ने मेर नाक कटा द ,
कुल का नाम िमटा दया। अब म कह ं मुंह दखाने लायक नह ं हूँ, इसको
सब तरह से समझा-बुझाकर हार गए हुजरू , ले कन मेर बात सुनती ह नह ं
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तो या क ं । हुजरू माई-बाप ह, आपसे या पदा क ं , उसे अब अमीर के
साथ रहना अ छा लगता है और आजकल के रईस और अमींर को या
कहूँ, द नबंधु सब जानते ह।
महाराजा साहब ने जरा दे र गौर करके पूछा— या उसका कसी
सरकार नौकर से संबंध है ?
दज
ु न ने सर झुकाकर कहा—हुजरू ।
महाराज साहब—वह कौन आदमी है , तु हे उसे बतलाना होगा।
दज
ु न—महाराज जब पूछगे बता दं ग
ू ा, सांच को आंच या।
मने तो समझा था क इसी व सारा पदाफास हुआ जाता है ले कन
महाराजा साहब ने अपने दरबार के कसी मुला जम क इ जत को इस तरह
िम ट म िमलाना ठ क नह ं समझा। वे वहां से टहलते हुए मोटर पर बैठकर
महल क तरफ चले।

इ स मनहूस वाक़ये के एक ह ते बाद एक रोज म दरबार से लौटा तो मुझे


अपने घर म से एक बूढ़ औरत बाहर िनकलती हुई दखाई द । उसे
दे खकर म ठठका। उसे चेहरे पर बनावट भोलापन था जो कुटिनय के चेहरे
क खास बात है । मने उसे डांटकर पूछा-तू कौन है , यहां य आयी है ?
बु ढ़या ने दोन हाथ उठाकर मेर बलाये लीं और बोली—बेटा, नाराज
न हो, गर ब िभखार हूँ, मािल कन का सुहाग भरपुर रहे , उसे जैसा सुनती
थी वैसा ह पाया। यह कह कर उसने ज द से क़दम उठाए और बाहर चली
गई। मेरे गुःसे का पारा चढ़ा मने घर जाकर पूछा—यह कौन औरत थी?
मेर बीवी ने सर झुकाये धीरे से जवाब दया— या जानूं, कोई
िभख रन थी।
मने कहा, िभखा रन क सूरत ऐसी नह ं हुआ करती, यह तो मुझे
कुटनी-सी नजर आती है । साफ़-साफ़ बताओं उसके यहां आने का या
मतलब था।
ले कन बजाय क इन संदेह-भर बात को सुनकर मेर बीवी गव से
िसर उठाये और मेर तरफ़ उपे ा-भर आंख से दे खकर अपनी साफ़ दली का
सबूत दे , उसने सर झुकाए हुए जवाब दया—म उसके पेट म थोड़े ह बैठ
थी। भीख मांगने आयी थी भींख दे द , कसी के दल का हाल कोई या
जाने!
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उसके लहजे और अंदाज से पता चलता था क वह जतना जबान से
कहती है , उससे यादा उसके दल म है । झूठा आरोप लगाने क कला म
वह अभी बलकुल क ची थी वना ित रया च र र क थाह कसे िमलती है ।
म दे ख रहा था क उसके हाथ-पांव थरथरा रहे है । मने झपटकर उसका हाथ
पकड़ा और उसके िसर को ऊपर उठाकर बड़े गंभीर बोध से बोला—इं द,ु तुम
जानती हो क मुझे तु हारा कतना एतबार है ले कन अगर तुमने इसी व
सार घटना सच-सच न बता द तो म नह ं कह सकता क इसका नतीजा
या होगा। तु हारा ढं ग बतलाता है क कुछ-न-कुछ दाल म काला ज र है ।
यह खूब समझ रखो क म अपनी इ जत को तु हार और अपनी जान से
यादा अज़ीज़ समझता हूँ। मेरे िलए यह डू ब मरने क जगह है क म
अपनी बीवी से इस तरह क बात क ं , उसक ओर से मेरे दल मे संदेह
पैदा हो। मुझे अब यादा सॄ क गुज
ं ाइश नह ं ह बोलो या बात है ?
इं दम
ु ती मेरे पैरो पर िगर पड़ और रोकर बोली—मेरा कसूर माफ कर
दो।
मने गरजकर कहा—वह कौन सा कसूर है ?
इं दम
ू ित ने संभलकर जवाब दया—तुम अपने दल म इस व जो
याल कर रहे हो उसे एक पल के िलए भी वहां न रहने दो , वना समझ
लो क आज ह इस जंदगी का खा मा है । मुझे नह ं मालूम था क तुम
मेरे ऊपर जो जु म कए ह उ ह मने कस तरह झेला है और अब भी सब-
कुछ झेलने के िलए तैयार हूँ। मेरा सर तु हारे परो पर है , जस तरह रखोगे,
रहूँगी। ले कन आज मुझे मालूम हुआ क तुम खुद हो वैसा ह दस
ू र को
समझते हो। मुझसे भूल अवँय हुई है ले कन उस भूल क यह सजा नह ं
क तुम मुझ पर ऐसे संदेह न करो। मने उस औरत क बात म आकर
अपने सारे घर का िच ठा बयान कर दया। म समझती थी क मुझे ऐसा
नह ं करना चा हये ले कन कुछ तो उस औरत क हमदद और कुछ मेरे
अंदर सुलगती हुई आग ने मुझसे यह भूल करवाई और इसके िलए तुम जो
सजा दो वह मेरे सर-आंख पर।
मेरा गुःसा जरा धीमा हुआ। बोला-तुमने उससे या कहा?
इं दम
ु ित ने दया—घर का जो कुछ हाल है , तु हार बेवफाई , तु हार
लापरवाह , तु हारा घर क ज रत क ६क न रखना। अपनी बेवकूफ का
या कहूँ, मैने उसे यहां तक कह दया क इधर तीन मह ने से उ ह ने घर
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के िलए कुछ खच भी नह ं दया और इसक चोट मेरे गहनो पर पड़ । तु हे
शायद मालूम नह ं क इन तीन मह न म मेरे साढ़े चार सौ पये के जेवर
बक गये। न मालूम य म उससे यह सब कुछ कह गयी। जब इं सान का
दल जलता है तो जबान तक उसी आंच आ ह जाती है । मगर मुझसे जो
कुछ खता हुई उससे कई गुनी स त सजा तुमने मुझे द है ; मेरा बयान लेने
का भी सॄ न हुआ। खैर, तु हारे दल क कै फयत मुझे मालूम हो गई,
तु हारा दल मेर तरफ़ से साफ़ नह ं है , तु ह मुझपर व ास नह ं रहा वना
एक िभखा रन औरत के घर से िनकलने पर तु ह ऐसे शुबहे य होते।
म सर पर हाथ रखकर बैठ गया। मालूम हो गया क तबाह के
सामान पूरे हुए जाते ह।

दू सरे दन म य ह द तर म पहुंचा चोबदार ने आकर कहा-महाराज


साहब ने आपको याद कया है ।
म तो अपनी कःमत का फैसला पहले से ह कये बैठा था। म खूब समझ
गया था क वह बु ढ़या खु फ़या पुिलस क कोई मुख़ बर है जो मेरे घरे लू
मामल क जांच के िलए तैनात हुई होगी। कल उसक रप ट आयी होगी
और आज मेर तलबी है । खौफ़ से सहमा हुआ ले कन दल को कसी तरह
संभाले हुए क जो कुछ सर पर पड़गी दे खा जाएगा, अभी से य जान दं ,ू
म महाराजा क खदमत म पहुँचा। वह इस व अपने पूजा के कमरे म
अकेले बैठै हुए थे, क़ागज का एक ढे र इधर-उधर फैला हुआ था ओर वह
खुद कसी याल म डू बे हुए थे। मुझे दे खते ह वह मेर तरफ मुखाितब हुए,
उनके चेहरे पर नाराज़गी के ल ण दखाई दये, बोले कुंअर ँयामिसंह, मुझे
बहुत अफसोस है क तु हार बावत मुझे जो बात मालूम हु वह मुझे इस
बात के िलए मजबूर करती ह क तु हारे साथ स ती का बताव कया जाए।
तुम मेरे पुराने वसीक़ादार हो और तु ह यह गौरव कई पी ढ़य से ूा है ।
तु हारे बुजग
ु ने हमारे खानदान क जान लगाकार सेवाएं क ह और उ ह ं
के िसल म यह वसीक़ा दया गया था ले कन तुमने अपनी हरकत से अपने
को इस कृ पा के यो य नह ं र खा। तु ह इसिलए वसीक़ा िमलता था क
तुम अपने खानदान क परव रश कर , अपने लड़क को इस यो य बनाओ
क वह रा य क कुछ खदमत कर सक, उ ह शार रक और नैितक िश ा
दो ता क तु हार जात से रयासत क भलाई हो, न क इसिलए क तुम
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इस पये को बेहूदा ऐशपःती और हरामकार म खच करो। मुझे इस बात से
बहुत तकलीफ़ होती है क तुमने अब अपने बाल-ब च क परव रश क
ज मेदार से भी अपने को मु समझ िलया है । अगर तु हारा यह ढं ग रहा
तो यक नन वसीक़ादार का एक पुराना खानदान िमट जाएगा। इसिलए हाज
से हमने तु हारा नाम वसीक़ादार क फ़ेह रःत से खा रज कर दया और
तु हार जगह तु हार बीवी का नाम दज कया गया। वह अपने लड़क को
पालने-पोसने क ज मेदार है । तु हारा नाम रयासत के मािलय क
फ़ेह रःत मे िलया जाएगा, तुमने अपने को इसी के यो य िस कया है और
मुझे उ मीद है क यह तबादला तु ह नागवार न होगा। बस, जाओ और
मुम कन हो तो अपने कये पर पछताओ।

मु झे कुछ कहने का साहस न हुआ। मने बहुत धैयपूवक अपने क़ःमत


का यह फ़ैसला सुना और घर क तरफ़ चला। ले कन दो ह चार क़दम
चला था क अचानक ख़चाल आया कसके घर जा रहे हो, तु हारा घर अब
कहां है ! म उलटे क़दम लौटा। जस घर का म राजा था वहां दस
ू र का
आिौत बनकर मुझसे नह ं रहा जाएगा और रहा भी जाये तो मुझे रहना
चा हए। मेरा आचरण िन य ह अनुिचत था ल कन मेर नैितक संवदे ना
अभी इतनी थोथी न हुई थी। मने प का इरादा कर िलया क इसी व इस
शहर से भाग जाना मुनािसब है वना बात फैलते ह हमदद और बुरा
चेतनेवाल का एक जमघट हालचाल पूछने के िलए आ जाएगा, दस
ू र क
सूखी हमद दयां सुननी पडगी जनके पद म खुशी झलकती होगीं एक बारख ्
िसफ एक बार, मुझे फूलमती का खयाल आया। उसके कारण यह सब दग
ु त
हो रह है , उससे तो िमल ह लूं। मगर दल ने रोका, या एक वैभवशाली
आदमी क जो इ जत होती थी वह अब मुझे हािसल हो सकती है ? हरिगज़
नह ं। प क म ड म वफ़ा और मुह बत के मुक़ा बले म पया-पैसा यादा
क़ मती चींज है । मुम कन है इस व मुझ पर तरस खाकर या णक
आवेश म आकर फूलमती मेरे साथ चलने पर आमादा हो जाये ले कन या
णक आवेश म आकर फूलमती मेरे साथ चलने पर आमादा हो जाये
ले कन उसे लेकर कहां जाऊँगा, पांव म बे ड़यां डालकर चलना तो ओर भी
मु ँकल है । इस तरह सोच- वचार कर मने ब बई क राह ली और अब दो
साल से एक िमल म नौकर हूँ, तन वाह िसफ़ इतनी है क य- य
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ज दगी का िसलिसला चलता रहे ले कन ई र को ध यवाद दे ता हूँ और
इसी को यथे समझता हूँ। म एक बार गु प से अपने घर गया था।
फूलमती ने एक दस
ू रे रईस से प का सौदा कर िलया है , ले कन मेर प ी
ने अपने ूब ध-कौशल से घर क हालत खूब संभाल ली है । मने अपने
मकान को रात के समय लालसा-भर आंख से दे खा-दरवाज़े पर पर दो
लालटे न जल रह थीं और ब चे इधर-उधर खेल रहे थे, हर सफ़ाई और
सुथरापन दखायी दे ता था। मुझे कुछ अखबार के दे खने से मालूम हुआ क
मह न तक मेरे पते-िनशान के बारे म अखबर म इँतहार छपते रहे ।
ले कन अब यह सूरत लेकर म वहां या जाऊंगा ओर यह कािलख-लगा मुंह
कसको दखाऊंगा। अब तो मुझे इसी िगर -पड़ हालत म ज दगी के दन
काटने ह, चाहे रोकर काटू ं या हं सकर। म अपनी हरकत पर अब बहुत
शिमदा हूँ। अफसोस मने उन नेमत क कि न क , उ ह लात से ठोकर
मार , यह उसी क सजा है क आज मुझ यह दन दे खना पड़ रहा है । म
वह परवाना हूँ। म वह परवाना हूँ जसक खाक भी हवा के झ क से नह ं
बची।
-‘जमाना’, िसतंबर-अ ू बर, १९९४

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गौरत क कटारे


तनी अफ़सोसनाक, कतनी ददभर बात है क वह औरत जो कभी
हमारे पहलू म बसती थी उसी के पहलू म चुभने के िलए हमारा
तेज खंजर बेचैन हो रहा है । जसक आंख हमारे िलए अमृत के छलकते हुए
याले थीं वह आंख हमारे दल म आग और तूफान पैदा कर! प उसी व
तक राहत और खुशी दे ता है जब तक उसके भीतर एक हानी नेमत होती
ह और जब तक उसके अ दर औरत क वफ़ा क ह.हरकत कर रह हो
वना वह एक तकलीफ़ दे ने चाली चीज़ है , ज़हर और बदबू से भर हुई, इसी
क़ा बल क वह हमार िनगाह से दरू रहे और पंजे और नाखून का िशकार
बने। एक जमाना वह था क नईमा है दर क आरजुओं क दे वी थी, यह
समझना मु ँकल था क कौन तलबगार है और कौन उस तलब को पूरा
करने वाला। एक तरफ पूर -पूर दलजोई थी, दस
ू र तरफ पूर -पूर रजा। तब
तक़द र ने पांसा पलटा। गुलो-बुलबुल म सुबह क हवा क शरारत शु हु ।
शाम का व था। आसमान पर लाली छायी हुई थी। नईमा उमंग और
ताजुगी और शौक से उमड़ हुई कोठे पर आयी। शफ़क़ क तरह उसका
चेहरा भी उस व खला हुआ था। ऐन उसी व वहां का सूबेदार नािसर
अपने हवा क तरह तेज घोड़े पर सवार उधर से िनकला, ऊपर िनगाह उठ
तो हुःन का क रँमा नजर आया क जैसे चांद शफ़क़ के हौज म नहाकर
िनकला है । तेज़ िनगाह जगर के पार हुई। कलेजा थामकर रह गया। अपने
महल को लौटा, अधमरा, टू टा हुआ। मुसाहब ने हक म क तलाश क और
तब राह-राःम पैदा हुई। फर इँक क द ु ार मं ज़ल तय हु । वफ़ा ओर
हया ने बहुत बे खी दखायी। मगर मुह बत के िशकवे और इँक़ क कुृ
तोड़नेवाली धम कयां आ खर जीतीं। अःमत का खलाना लुट गया। उसके
बाद वह हुआ जो हो सकता था। एक तरफ से बदगुमानी, दस
ू र तरफ से
बनावट और म कार । मनमुटाव क नौबत आयी, फर एक-दस
ू रे के दल
को चोट पहुँचाना शु हुआ। यहां तक क दल म मैल पड़ गयी। एक-दस
ू रे
के खून के यासे हो गये। नईमा ने नािसर क मुह बत क गोद म पनाह
ली और आज एक मह ने क बेचैन इ तजार के बाद है दर अपने ज बात के
साथ नंगी तलवार पहलू म िछपाये अपने जगर के भड़कते हूए शोल को
नईमा के खून से बुझाने के िलए आया हुआ है ।
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धी रात का व था और अंधेर रात थी। जस तरह आसमान के
हरमसरा म हुसन के िसतारे जगमगा रहे थे, उसी तरह नािसर का
हरम भी हुःन के द प से रोशन था। नािसर एक ह ते से कसी मोच पर
गया हुआ है इसिलए दरबान गा फ़ल ह। उ ह ने है दर को दे खा मगर उनके
मुंह सोने-चांद से ब द थे। वाजासराओं क िनगाह पड़ ले कन वह पहले
ह एहसान के बोझ से दब चुके थे। खवास और कनीज ने भी मतलब-भर
िनगाह से उसका ःवागत कया और है दर बदला लेने के नशे म गुनहगार
नईमा के सोने के कमरे म जा पहुँचा, जहां क हवा संदल और गुलाब से
बसी हुई थी।
कमरे म एक मोमी िचराग़ जल रहा था और उसी क भेद-भर रोशनी
म आराम और तक लुफ़ क सजावट नज़र आती थीं जो सती व जैसी
अनमोल चीज़ के बदले म खर द गयी थीं। वह ं वैभव और ऐ य क गोद
म लेट हुई नईमा सो रह थी।
है दर ने एक बार नईया को ऑ ंख भर दे खा। वह मो हनी सूरत थी,
वह आकषक जाव य और वह इ छाओं को जगानेवाली ताजगी। वह युवती
जसे एक बार दे खकर भूलना अस भव था।
हॉ, वह नईमा थी, वह गोर बॉह जो कभी उसके गले का हार बनती
थीं, वह कःतूर म बसे हुए बाल जो कभी क ध पर लहराते थे, वह फूल
जैसे गाल जो उसक ूेम-भर आंख के सामने लाल हो जाते थे। इ ह ं
गोर -गोर कलाइय म उसने अभी-अभी खली हुई किलय के कंगन पहनाये
थे और ज ह वह वफा के कंगन समझ था। इसक गले म उसने फूल के
हार सजाये थे और उ ह ूेम का हार खयाल कया था। ले कन उसे या
मालूम था क फूल के हार और किलय के कंगन के साथ वफा के कंगन
और ूेम के हार भी मुरझा जायगे।
हां, यह वह गुलाब के-से ह ठ ह जो कभी उसक मुह बत म फूल क
तरह खल जाते थे जनसे मुह बत क सुहानी महक उड़ती थी और यह वह
सीना है जसम कभी उसक मुह बत और वफ़ा का जलवा था, जो कभी
उसके मुह बत का घर था।
मगर जस फूल म दल क महक थी, उसम दग़ा के कांटे ह।

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है दर ने तेज कटार पहलू से िनकाली और दबे पांव नईमा क तरफ़ आया


ले कन उसके हाथ न उठ सके। जसके साथ उॆ-भर ज दगी क सैर
क उसक गदन पर छुर चलाते हुए उसका दय ि वत हो गया। उसक
आंख भीग गयीं, दल म हसरत-भर यादगार का एक तूफान-सा तक़द र क
या खूबी है क जस ूेम का आर भ ऐसा खुशी से भरपूर हो उसका अ त
इतना पीड़ाजनक हो। उसके पैर थरथराने लगे। ले कन ःवािभमान ने
ललकारा, द वार पर लटक हुई तःवीर उसक इस कमज़ोर पर मुःकरायीं।
मगर कमजोर इरादा हमेशा सवाल और अलील क आड़ िलया करता
है । है दर के दल म खयाल पैदा हुआ, या इस मुह बत के बा को उजाड़ने
का अ ज़ाम मेरे ऊपर नह ं है ? जस व बदगुमािनय के अंखए
ु िनकले,
अगर मने तान और िध कार के बजाय मुह बत से काम िलया होता तो
आज यह दन न आता। मेरे जु म ने मुह बत और वफ़ा क जड़ काट ।
औरत कमजोर होती है , कसी सहारे के बग़ैर नह ं रह सकती। जस औरत
ने मुह बत के मज़े उठाये ह , और उ फ़ात क नाजबरदा रयां दे खी ह वह
तान और ज लत क आंच या सह सकती है ? ले कन फर ग़ैरत ने
उकसाया, क जैसे वह धुंधला िचराग़ भी उसक कमजो रय पर हं सने लगा।
ःवािभमान और तक म सवाल-जवाब हो रहा था क अचानक नईमा
ने करवट बदली ओर अंगड़ाई ली। है दर ने फौरन तलवार उठायी, जान के
खतरे म आगा-पीछा कहां? दल ने फैसला कर िलया, तलवार अपना काम
करनेवाली ह थी क नईमा ने आंख खोल द ं। मौत क कटार िसर पर नजर
आयी। वह घबराकर उठ बैठ । है दर को दे खा, प र ःथित समझ म आ गयी।
बोली-है दर!

है दर ने अपनी झप को गुःसे के पद म िछपाकर कहा- हां, म हूँ है दर!


नईमा िसर झुकाकर हसरत-भरे ढं ग से बोली—तु हारे हाथ म यह
चमकती हुई तलवार दे खकर मेरा कलेजा थरथरा रहा है । तु ह ं ने मुझे
नाज़बरदा रय का आद बना दया है । ज़रा दे र के िलए इस कटार को मेर
ऑ ंख से िछपा लो। म जानती हूँ क तुम मेरे खून के यासे हो, ले कन मुझे
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न मालूम था क तुम इतने बेरहम और संग दल हो। मने तुमसे दग़ा क है ,
तु हार खतावार हूं ले कन है दर, यक़ न मानो, अगर मुझे च द आ खर बात
कहने का मौक़ा न िमलता तो शायद मेर ह को दोज़ख म भी यह आरजू
रहती। मौत क सज़ा से पहले आपने घरवाल से आ खर मुलाक़ात क
इजाज़त होती है । या तुम मेरे िलए इतनी रयायत के भी रवादार न थे?
माना क अब तुम मेरे िलए कोई नह ं हो मगर कसी व थे और तुम चाहे
अपने दल म समझते हो क म सब कुछ भूल गयी ले कन म मुह बत को
इतनी ज द भूल जाने वाली नह ं हूँ। अपने ह दल से फैसला करो। तुम
मेर बेवफ़ाइयां चाहे भून जाओ ले कन मेर मुह बत क दल तोड़नेवाली
यादगार नह ं िमटा सकते। मेर आ खर बात सुन लो और इस नापाक
ज दगी का हःसा पाक करो। म साफ़-साफ़ कहती हूँ इस आ खर व म
य ड ं । मेर कुछ दग
ु त हुई है उसके ज मेदार तुम हो। नाराज न होना।
अगर तु हारा य़ाल है क म यहां फूल क सेज पर सोती हूँ तो वह ग़लत
है । मने औरत क शम खोकर उसक क़ि जानी है । म हसीन हूं, नाजुक हूं;
दिु नया क नेमत मेरे िलए हा ज़र ह, नािसर मेर इ छा का गुलाम है ले कन
मेरे दल से यह खयाल कभी दरू नह ं होता क वह िसफ़ मेरे हुःन और
अदा का ब दा है । मेर इ जत उसके दल म कभी हो भी नह ं सकती। या
तुम जानते हो क यहां खवास और दस
ू र बी वय के मतलब-भरे इशारे मेरे
खून और जगर को नह ं लजाते? ओफ् , मने अःमत खोकर अःमत क क़ि
जानी है ल कन म कह चुक हूं और फर कहती हूं, क इसके तुम ज मेदार
हो।
है दर ने पहलू बदलकर पूछा— य कर?
नईमा ने उसी अ दाज से जवाब दया-तुमने बीवी बनाकर नह ं,
माशूक बनाकर र खा। तुमने मुझे नाजुबरदा रय का आद बनाया ले कन
फ़ज का सबक नह ं पढ़ाया। तुमने कभी न अपनी बात से, न काम से मुझे
यह खयाल करने का मौक़ा दया क इस मुह बत क बुिनयाद फ़ज पर है ,
तुमने मुझे हमेशा हुसन और म ःतय के ितिलःम म फंसाए र खा और
मुझे वा हश का गुलाम बना दया। कसी कँती पर अगर फ़ज का
म लाह न हो तो फर उसे द रया म डू ब जाने के िसवा और कोई चारा
नह ं। ले कन अब बात से या हािसल, अब तो तु हार गैरत क कटार मेरे

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खून क यासी है ओर यह लो मेरा िसर उसके सामने झुका हुआ है । हॉ,
मेर एक आ खर तम ना है , अगर तु हार इजाजत पाऊँ तो कहूँ।
यह कहते-कहते नईमा क आंख म आंसुओं क बाढ़ आ गई और
है दर क ग़ैरत उसके सामने ठहर न सक । उदास ःवर म बोला— या कहती
हो?
नईमा ने कहा-अ छा इजाज़त द है तो इनकार न करना। मुझ एक
बार फर उन अ छे दन क याद ताज़ा कर लेने दो जब मौत क कटार
नह ं, मुह बत के तीर जगर को छे दा करते थे, एक बार फर मुझे अपनी
मुह बत क बांह म ले लो। मेर आ ख़र बनती है , एक बार फ़र अपने
हाथ को मेर गदन का हार बना दो। भूल जाओ क मने तु हारे साथ दगा
क है , भूल जाओ क यह जःम ग दा और नापाक है , मुझे मुह बत से गले
लगा लो और यह मुझे दे दो। तु हारे हाथ म यह अ छ नह ं मालूम होती।
तु हारे हाथ मेरे ऊपर न उठगे। दे खो क एक कमजोर औरत कस तरह
ग़ैरत क कटार को अपने जगर म रख लेती है ।
यह कहकर नईमा ने है दर के कमजोर हाथ से वह चमकती हुई
तलवार छ न ली और उसके सीने से िलपट गयी। है दर झझका ले कन वह
िसफ़ ऊपर झझक थी। अिभमान और ूितशोध-भावना क द वार टू ट गयी।
दोन आिलंगन पाश म बंध गए और दोन क आंख उमड़ आयीं।
नईमा के चेहरे पर एक सुहानी, ूाणदाियनी मुःकराहट दखायी द
और मतवाली आंख म खुशी क लाली झलकने लगी। बोली-आज कैसा
मुबारक दन है क दल क सब आरजुएं पूर द होती ह ले कन यह क ब त
आरजुएं कभी पूर नह ं होतीं। इस सीने से िलपटकर मुह बत क शराब के
बगैर नह ं रहा जाता। तुमने मुझे कतनी बार ूेम के याले ह। उस सुराह
और उस याले क याद नह ं भूलती। आज एक बार फर उ फत क शराब
के दौर चलने दो, मौत क शराब से पहले उ फ़त क शराब पला दो। एक
बार फर मेरे हाथ से याला ले लो। मेर तरफ़ उ ह ं यार क िनगाह से
दं खकर, जो कभी आंख से न उतरती थीं, पी जाओ। मरती हूं तो खुशी से
म ं।
नईमा ने अगर सती व खोकर सती व का मू य जाना था, तो है दर ने
भी ूेम खोकर ूेम का मू य जाना था। उस पर इस समय एक मदहोशी
छायी हुई थी। ल जा और याचना और झुका हुआ िसर, यह गुःसे और
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ूितशोध के जानी दँु मन ह और एक गौरत के नाजुक हाथ म तो उनक
काट तेज तलवार को मात कर दे ती है । अंगूर शराब के दौर चले और है दर
ने मःत होकर याले पर याले खाली करने शु कये। उसके जी म बार-
बार आता था क नईमा के पैर पर िसर रख दं ू और उस उजड़े हुए
आिशयाने को आदाब कर दं ।ू फर मःती क कै ६यत पैदा हुई और अपनी
बात पर और अपने काम पर उसे अ य़यार न रहा। वह रोया, िगड़िगड़ाया,
िम नत क ं, यहां तक क उन दग़ा के याल ने उसका िसर झुका दया।

है दर कई घ टे तक बेसुध पड़ा रहा। वह च का तो रात बहुत कम बाक़


रह गयी थी। उसने उठना चाहा ले कन उसके हाथ-पैर रे शम क डो रय
से मजबूत बंधे हुए थे। उसने भौचक होकर इधर-उधर दे खा। नईमा उसके
सामने वह तेज़ कटार िलये खड़ थी। उसके चेहरे पर एक क़ाितल जैसी
मुसकराहट क लाली थी। फ़ज माशूक के खूनीपन और खंजरबाजी के तराने
वह बहुत बार गा चुका था मगर इस व उसे इस न जारे से शायराना
लु फ़ उठाने का जीवट न था। जान का खतरा, नशे के िलए तुश से यादा
क़ाितल है । घबराकर बोला-नईम!
नईमा ने लहजे म कहा-हां, म हूं नईमा।
है दर गुःसे से बोला- या फर दग़ा का वार कया?
नईमा ने जवाब दया-जब वह मद जसे खुदा ने बहादरु और क़ूवत
का हौसला दया है , दग़ा का वार करता है तो उसे मुझसे यह सवाल करने
का कोई हक़ नह ं। दग़ा और फ़रे ब औरत के हिथयार ह य क औरत
कमजोर होती है । ले कन तुमको मालूम हो गया क औरत के नाजुक हाथ
म ये हिथयार कैसी काट करते ह। यह दे खो-यह आबदार शमशीर है , जसे
तुम ग़ैरत क कटार कहते थे। अब वह ग़ैरत क कटार मेरे जगर म नह ं,
तु हारे जगर म चुभेगी। हदर, इ सान थोड़ा खोकर बहुत कुछ सीखता है ।
तुमने इ जत और आब सब कुछ खोकर भी कुछ न सीखा। तुम मद थे।
नािसर से तु हार होड़ थी। तु ह उसके मुक़ा बले म अपनी तलवार के जौहर
दखाना था ले कन तुमने िनराला ढं ग अ तयार कया और एक बेकस और
पर दग़ा का वार करना चाहा और अब तुम उसी औरत के समाने बना
हाथ-पैर के पड़े हुए हो। तु हार जान बलकुल मेर मु ठ म है । म एक

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लहमे म उसे मसल सकती हूं और अगर म ऐसा क ं तो तु ह मेरा
शुबगुज़ार होना चा हये य क एक मद के िलए ग़ैरत क मौत बेग़रै ती क
ज दगी से अ छ है । ले कन म तु हारे ऊपर रहम क ं गी: म तु हारे साथ
फ़ैयाजी का बताव क ं गी य क तुम ग़ैरत क मौत पाने के हक़दार नह ं
हो। जो ग़ैरत च द मीठ बात और एक याला शराब के हाथ बक जाय
वह असली ग़ैरत नह ं है । है दर, तुम कतने बेवकूफ़ हो, या तुम इतना भी
नह ं समझते क जस औरत ने अपनी अःमत जैसी अनमोल चीज दे कर
यह ऐश ओर तक लुफ़ पाया वह ज दा रहकर इन नेमत का सुख जूटना
चाहती है । जब तुम सब कुछ खोकर ज दगी से तंग नह ं हो तो म कुछ
पाकर य मौत क वा हश क ं ? अब रात बहुत कम रह गयी है । यहां से
जान लेकर भागो वना मेर िसफ़ा रश भी तु ह नािसर के गुःसे क आग से
रन बचा सकेगी। तु हार यह ग़ैरत क कटार मेरे क़ जे म रहे गी और तु ह
याद दलाती रहे गी क तुमने इ जत के साथ ग़ैरत भी खो द ।
-‘जमाना’, जुलाई, १९९५

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घम ड का पुतला

शा म हो गयी थी। म सरयू नद के कनारे अपने कै प म बैठा हुआ


नद के मजे ले रहा था क मेरे फुटबाल ने दबे पांव पास आकर
मुझे सलाम कया क जैसे वह मुझसे कुछ कहना चाहता है ।
फुटबाल के नाम से जस ूाणी का जब कया गया वह मेरा अदली
था। उसे िसफ एक नजर दे खने से यक़ न हो जाता था क यह नाम उसके
िलए पूर तरह उिचत है । वह िसर से पैर तक आदमी क शकल म एक गद
था। ल बाई-चौड़ाई बराबर। उसका भार -भरकम पेट, जसने उस दायरे के
बनाने म खास हःसा िलया था, एक ल बे कमरब द म िलपटा रहता था,
शायद इसिलए क वह इ तहा से आगे न बढ़ जाए। जस व वह तेजी से
चलता था ब क य क हए जुढ़कता था तो साफ़ मालूम होता था क कोई
फुटबाल ठोकर खाकर लुढ़कता चला आता है । मने उसक तरफ दे खकर पूछ-
या कहते हो?
इस पर फुटबाल ने ऐसी रोनी सूरत बनायी क जैसे कह ं से पटकर
आया है और बोला-हुजरू , अभी तक यहां रसद का कोई इ तजाम नह ं हुआ।
जमींदार साहब कहते ह क म कसी का नौकर नह ं हूँ।
मने इस िनगाह से दे खा क जैसे म और यादा नह ं सुनना चाहता।
यह अस भव था क मिलःशे ट क शान म जमींदार से ऐसी गुःताखी होती।
यह मेरे हा कमाना गुःसे को भड़काने क एक बदतमीज़ कोिशश थी। मने
पूछा, ज़मीदार कौन है ?
फुटबाल क बॉछ खल गयीं, बोला- या कहूँ, कुंअर स जनिसंह। हुजरू ,
बड़ा ढ ठ आदमी है । रात आयी है और अभी तक हुजरू के सलाम को भी
नह ं आया। घोड़ के सामने न घास है न दाना। लँकर के सब आदमी भूखे
बैठे हुए ह। िम ट का एक बतन भी नह ं भेजा।
मुझे जमींदार से रात- दन साबक़ा रहता था मगर यह िशकायत कभी
सुनने म नह ं आयी थी। इसके वपर त वह मेर ख़ाितर-तवाज म ऐसी
जॉ फ़शानी से काम लेते थे जो उनके ःवािभमान के िलए ठ क न थी। उसम
दल खोलकर आित य-स कार करने का भाव तिनक भी न होता था। न
उसम िश ाचार था, न वैभव का ूदशन जो ऐब है । इसके बजाय वहॉ बेजा
रसूख क फ़ब और ःवाथ क हवस साफ़ दखायी दे ती भी और इस रसूख
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बनाने क क मत का योिचत अितशयो के साथ गर ब से वसूल क जाती
थी, जनका बेकसी के िसवा और कोई हाथ पकड़ने वाला नह ं। उनके बात
करने के ढं ग म वह मुलािमयत और आ जजी बरती जाती थी जसका
ःवािभमान से बैर है और अ सर ऐसे मौके आते थे, जब इन खाितरदा रय
से तंग होकर दल चाहता था क काश इन खुशामद आदिमय क सूरत न
दे खनी पड़ती।
मगर आज फुटबाल क ज़बान से यह कै फयत सुनकर मेर जो हालत
हुई उसने सा बत कर दया क रोज-रोज क खाितरदा रय और मीठ -मीठ
बात ने मुझ पर असर कये बना नह ं छोड़ा था। म यह हु म दे नेवाला ह
था क कुंअर स जनिसंह को हा जर करो क एकाएक मुझे खयाल आया क
इन मुझतखोर चपरािसय के कहने पर एक ूित त आदमी को अपमािनत
करना याय नह ं है । मने अदली से कहा-बिनय के पास जाओ, नक़द दाम
दे कर चीज लाओ और याद रखो क मेरे पास कोई िशकायत न आये।
अदली दल म मुझे कोसता हुआ चला गया।
मगर मेरे आ य क कोई सीमा न रह , जब वहां एक ह ते तक रहने
पर भी कुंअर साहब से मेर भट न हुई। अपने आदिमय और लँकरवाल
क ज़बान से कुंअर साहब क ढठाई, घम ड और हे कड़ क कहािनयॉ रोलु
सुना करता। और मेरे दिु नया दे खे हुए पेशकार ने ऐसे अितिथ-स कार-शू य
गांव म पड़ाव डालने के िलए मुझे कई बार इशार से समझाने-बुझाने क
कोिशश क । ग़ािलबन म पहला आदमी था जससे यह भूल हुई थी और
अगर मने जले के न शे के बदले लँकरवाल से अपने दौरे का ूोमाम
बनाने म मदद ली होती तो शायद इस अ ूय अनुभव क नौबत न आती।
ले कन कुछ अजब बात थी क कुंअर साहब को बुरा-भला कहना मुझ पर
उ टा असर डालता था। यहॉ तक क मुझे उस अदमी से मुलामात करने क
इ छा पैदा हुई जो सवश मान ् आफ़सर से इतना यादा अलग-थलग रह
सकता है ।

सू बह का व था, म गढ़ म गढ़ म गया। नीचे सरयू नद लहर मार


रह थी। उस पार साखू का जंगल था। मील तक बादामी रे त, उस पर
खरबूज़ और तरबूज़ क या रयॉ थीं। पीले-पीले फूल -से लहराती हुई बगुल
और मुगा बय के गोल-के-गोल बैठे हुए थे! सूय दे वता ने जंगल से िसर
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िनकाला, लहर जगमगायीं, पानी म तारे िनकले। बड़ा सुहाना, आ मक
उ लास दे नेवाला ँय था।
मने खबर करवायी और कुंअर साहब के द वानखाने म दा खल हुआ
ल बा-चौड़ा कमरा था। फश बछा हुआ था। सामने मसनद पर एक बहुत
ल बा-तड़ं गा आदमी बैठा था। सर के बाल मुड़े हुए, गले म िा क माला,
लाल-लाल, ऊंचा माथा-पु षोिचत अिभमान क इससे अ छ तःवीर नह ं हो
सकती। चेहरे से रोबदाब बरसता था।
कुअंर साहब ने मेरे सलाम को इस अ दाज से िलया क जैसे वह
इसके आद ह। मसनद से उठकर उ ह ने बहुत बड़ पन के ढं ग से मेर
अगवानी क , खै रयत पूछ , और इस तकलीफ़ के िलए मेरा शु बया अदा
रने के बाद इतर और पान से मेर तवाजो क । तब वह मुझे अपनी उस
गढ़ क सैर कराने चले जसने कसी ज़माने म ज़ रर आसफु ौला को ज़च
कया होगा मगर इस व बहुत टू ट -फ ट हालत म थी। यहां के एक-एक
रोड़े पर कुंअर साहब को नाज़ था। उनके खानदानी बड़ पन ओर रोबदाब का
जब उनक ज़बान से सुनकर व ास न करना अस भव था। बयान करने
का ढं ग यक़ न को मजबूर करता था और वे उन कहािनय के िसफ पासबान
ह न थे ब क वह उनके ईमान का हःसा थीं। और जहां तक उनक श
म था, उ ह ने अपनी आन िनभाने म कभी कसर नह ं क ।
कुंअर स जनिसंह खानदानी रईस थे। उनक वंश-परं परा यहां-वहां
टू टती हुई अ त म कसी महा मा ऋ ष से जाकर िमल जाती थी। उ ह
तपःया और भ और योग का कोई दावा न था ले कन इसका गव उ ह
अवँय था क वे एक ऋ ष क स तान ह। पुरख के जंगली कारनामे भी
उनके िलए गव का कुछ कम कारण न थे। इितहास म उनका कह ं जब न
हो मगकर खानदानी भाट ने उ ह अमर बनाने म कोई कसर न रखी थी
और अगर श द म कुछ ताकत है तो यह गढ़ रोहतास या कािलंजर के
कल से आगे बढ़ हुई थी। कम-से-कम ूाचीनता और बबाद के बा
ल ण म तो उसक िमसाल मु ँकल से िमल सकती थी, य क पुराने
जमाने म चाहे उसने मुहासर और सुरंग को हे च समझा हो ले कन व वह
ची टय और द मक के हमल का भी सामना न कर सकती थी।
कुंअर स जनिसंह से मेर भट बहुत सं थी ले कन इस दलचःप
आदमी ने मुझे हमेशा के िलए अपना भ बना िलया। बड़ा समझदार,
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मामले को समझनेवाला, दरू दश आदमी था। आ खर मुझे उसका बन पैस
का गुलाम बनना था।

ब रसात म सरयू नद इस जोर-शोर से चढ़


गए, बड़े -बड़े तनावर दर ितनक क
क हज़ार गांव बरबाद हो
तरह बहते चले जाते थे।
चारपाइय पर सोते हुए ब चे-औरत, खूंट पर बंधे हुए गाय और बैल उसक
गरजती हुई लहर म समा गए। खेत म नाच चलती थी।
शहर म उड़ती हुई खबर पहुंचीं। सहायता के ूःताव पास हुए। सैकड़
ने सहानुभूित और शौक के अरजे ट तार जल के बड़े साहब क सेवा म
भेजे। टाउनहाल म क़ौमी हमदद क पुरशोर सदाएं उठ ं और उस हं गामे म
बाढ़-पी ड़त क ददभर पुकार दब गयीं।
सरकार के कान म फ रयाद पहुँची। एक जांच कमीशन तेयार कया
गया। जमींदार को हु म हुआ क वे कमीशन के सामने अपने नुकसान को
वःतार से बताय और उसके सबूत द। िशवरामपुर के महाराजा साहब को
इस कमीशन का सभापित बनाया गया। जमींदार म रे ल-पेल श हुई।
नसीब जागे। नुकसान के तखमीन का फैलला करने म का य-बु से काम
लेना पड़ा। सुबह से शाम तक कमीशन के सामने एक जमघट रहता।
आनरे बुल महाराजा सहब को सांस लेने क फुरसत न थी दलील और शाहदत
का काम बात बनाने और खुशामद से िलया जाता था। मह न यह कै फ़यत
रह । नद कनारे के सभी जमींदार अपने नुकसान क फ रयाद पेश कर गए,
अगर कमीशन से कसी को कोई फायदा नह ं पहुँचा तो वह कुंअर
स जनिसहं थे। उनके सारे मौजे सरयू के कनारे पर थे और सब तबाह हो
गए थे, गढ़ क द वार भी उसके हमल से न बच सक थीं, मगर उनक
जबान ने खुशामद करना सीखा ह न था और यहां उसके बगैर रसाई
मु ँकल थी। चुनांचे वह कमीशन के सामने न आ सके। िमयाद खतम होने
पर कमीशन ने रपोट पेश क , बाढ़ म डू बे हुए इलाक म लगान क आम
माफ हो गयी। रपोट के मुता बक िसफ स जनिसंह वह भा यशाली जमींदार
थे। जनका कोई नुकसान नह ं हुआ था। कुंअर साहब ने रपोट सुनी, मगर
माथे पर बल न आया। उनके आसामी गढ़ के सहन म जमा थे, यह हु म
सुना तो रोने-धोने लगे। तब कुंअर साहब उठे और बुल द आवाजु म बोले-
मेरे इलाके म भी माफ है । एक कौड़ लगान न िलया जाए। मने यह वाकया
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सुना और खुद ब खुद मेर आंख से आंसू टपक पड़े बेशक यह वह आदमी
है जो हुकूमत और अ तयार के तूफान म जड़ से उखड़ जाय मगर झुकेगा
नह ं।

व ह दन भी याद रहे गा जब अयो या म हमारे जाद-ू सा करनेवाले क व


शंकर को रा क ओर से बधाई दे ने के िलए शानदार जलसा हुआ।
हमारा गौरव, हमारा जोशीला शंकर योरोप और अमर का पर अपने का य का
जाद ू करके वापस आया थां अपने कमाल पर घम ड करनेवाले योरोप ने
उसक पूजा क थी। उसक भावनाओं ने ॄाउिनंग और शेली के ूेिमय को
भी अपनी वफ़ा का पाब द न रहने दया। उसक जीवन-सुधा से योरोप के
यासे जी उठे । सारे स य संसार ने उसक क पना क उड़ान के आगे िसर
झुका दये। उसने भारत को योरोप क िनगाह म अगर यादा नह ं तो
यूनान और रोम के पहलू म बठा दया था।
जब तक वह योरोप म रहा, दै िनक अखबार के पऽे उसक चचा से
भरे रहते थे। यूिनविस टय और व ान क सभाओं ने उस पर उपािधय क
मूसलाधार वषा कर द । स मान का वह पदक जो योरोपवाल का यारा
सपना और ज दा आरजू है , वह पदक हमारे ज दा दल शंकर के सीने पर
शोभा दे रहा था और उसक वापसी के बाद उ ह ं रा ीय भावनाओं के ूित
ौ ा ूकट करने के िलए ह दोःतान के दल और दमाग आयो या म जमा
थे।
इसी अयो या क गोद म ौी रामचंि खेलते थे और यह ं उ ह ने
वा मी क क जाद-ू भर लेखनी क ूशंसा क थी। उसी अयो या म हम
अपने मीठे क व शंकर पर अपनी मुह बत के फूल चढ़ाने आये थे।
इस रा ीय कतै य म सरकार हु काम भी बड़ उदारतापूवक हमारे
साथ स मिलत थे। शंकर ने िशमला और दा जिलंग के फ रँत को भी
अयो या म खींच िलया था। अयो या को बहुत अ तजार के बाद यह दन
दे खना नसीब हुआ।
जस व शंकर ने उस वराट प डाल म पैर रखा, हमारे दय रा ीय
गौरव और नशे से मतवाले हो गये। ऐसा महसूस होता था क हम उस व
कसी अिधक प वऽ, अिधक ूकाशवान ् दिु नया के बसनेवाले ह। एक ण के
िलए-अफसोस है क िसफ एक ण के िलए-अपनी िगरावट और बबाद का
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खयाल हमारे दल से दरू हो गया। जय-जय क आवाज ने हम इस तरह
मःत कर दया जैसे महुअर नाग को मःत कर दे ता है ।
एसे स पढ़ने का गौरव मुझको ूा हुआ था। सारे प डाल म खामोशी
छायी हुई थी। जस व मेर जबान से यह श द िनकले-ऐ रा के नेता! ऐ
हमारे आ मक गु ! हम स ची मुह बत से तु ह बधाई दे ते ह और स ची
ौ ा से तु हारे पैर पर िसर झुकाते ह...यकायक मेर िनगाह उठ और मने
एक -पु है कल आदमी को ता लुकेदार क कतार से उठकर बाहर जाते
दे खा। यह कुंअर स जन िसंह थे।
मुझे कुंअर साहब क यह बेमौक़ा हरकत, जसे अिश ता समझने म
कोई बाधा नह ं है , बुर मालूम हुई। हजार आंख उनक तरफ है रत से उठ ं।
जलसे के ख म होते ह मने पहला काम जो कया वह कुंअर साहब
से इस चीज के बारे म जवाब तलब करना था।
मने पूछा- य साहब आपके पास इस बेमौका हरकत का या जवाब
है ?
स जनिसंह ने ग भीरता से जवाब दया-आप सुनना चाह तो जवाब
हूँ।
‘‘शौक से फरमाइये।’’
‘‘अ छा तो सुिनये। म शंकर क क वता का ूेमी हूँ। शंकर क
इ जत करता हूँ, शंकर पर गव करता हूँ, शंकर को अपने और अपनी कौम
के ऊपर एहसान करनेवाला समझता हूँ मगर उसके साथ ह उ ह अपना
आ या मक गु मानने या उनके चरण म िसर झुकाने के िलए तैयार नह ं
हूँ।’’
म आ य से उसका मुंह ताकता रह गया। यह आदमी नह ं, घम ड
का पुतला ह दे ख यह िसर कभी झुकता या नह ं।

पू रनमासी का पूरा चांद सरयू के सुनहरे फश पर नाचता था और लहर


खुशी से गलु िमल-िमलकर गाती थीं। फागुन का मह ना था, पेड़ म
कोपल िनकली थीं और कोयल कूकने लगी थी।
म अपना दौरा करके सदर लौटता था। राःते म कुंअर स जनिसंह से
िमलने का चाव मुझे उनके घर तक ले गया, जहां अब म बड़ बेतक लुफ
से जाता-आता था।
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म शाम के व नद क सैर को चला। वह ूाणदाियनी हवा, वह
उड़ती हुई लहर, वह गहर िनःतबधता-सारा ँय एक आकषक सुहाना
सपना था। चांद के चमकते हुए गीत से जस तरह लहर झूम रह थीं, उसी
तरह मीठ िच ताओं से दल उमड़ा आता था।
मुझे ऊंचे कगार पर एक पेड़ के नीचे कुछ रोशनी दखायी द । म
ऊपर चढ़ा। वहां बरगद क घनी छाया म धूनी जल रह थी। उसके सामने
एक साधू पैर फैलाये बरगद क एक मोट जटा के सहारे लेटे हुए थे। उनका
चमकता हुआ चेहरा आग क चमक को लजाता था। नीले तालाब म कमल
खला हुआ था।
उनके पैर के पास एक दस
ू रा आदमी बैठा हुआ था। उसक पीठ मेर
तरफ थी। वह उस साधू के पेर पर अपना िसर रखे हुए था। पैर को चूमता
था और आंख से लगता था। साधू अपने दोन हाथ उसके िसर पर रखे हुए
थे क जैसे वासना धैय और संतोष के आंचल म आौय ढू ं ढ़ रह हो। भोला
लड़का मां-बाप क गोद म आ बैठा था।
एकाएक वह झुका हुआ सर उठा और मेर िनगाह उसके चेहरे पर
पड़ । मुझे सकता-सा हो गया। यह कुंअर स जनिसंह थे। वह सर जो झुकना
न जानता था, इस व जमीन छू रहा था।
वह माथा जो एक ऊंचे मंसबदार के सामने न झुका, जो एक ूतानी
वैभवशाली महाराज के सामने न झुका, जो एक बड़े दे शूेमी क व और
दाशिनक के सामने न झूका, इस व एक साधु के क़दम पर िगरा हुआ
था। घम ड, वैरा य के सामने िसर झुकाये खड़ा था।
मेरे दल म इस ँय से भ का एक आवेग पैदा हुआ। आंख के
सामने से एक परदा-सा हटा और कुंअर स जन िसंह का आ मक ःतर
दखायी दया। म कुंअर साहब क तरफ से िलपट गया और बोला-मेरे
दोःत, म आज तक तु हार आ मा के बड़ पन से ब कुल बेखबर था। आज
तुमने मेरे हुदय पर उसको अं कत कर दया क वैभव और ूताप, कमाल
और शोहरत यह सब घ टया चीज ह, भौितक चीज ह। वासनाओ म िलपटे
हुए लोग इस यो य नह ं क हम उनके सामने भ से िसर झुकाय, वैरा य
और परमा मा से दल लगाना ह वे महान ् गुण ह जनक यौढ़ पर बड़े -
बड़े वैभवशाली और ूतापी लोग के िसर भी झुक जाते ह। यह वह ताक़त
है जो वैभव और ूताप को, घम ड क शराब के मतवाल को और जड़ाऊ
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मुकुट को अपने पैर पर िगरा सकती है । ऐ तपःया के एका त म बैठनेवाली
आ माओ! तुम ध य हो क घम ड के पुतले भी पैर क धूल को माथे पर
चढ़ाते ह।
कुंअर स जनिसंह ने मुझे छाती से लगाकर कहा-िमःटर वागले, आज
आपने मुझे स चे गव का प दखा दया और म कह सकता हूँ क स चा
गव स ची ूाथना से कम नह ं। व ास मािनये मुझे इस व ऐसा मालूम
होता है क गव म भी आ मकता को पाया जा सकता है । आज मेरे िसर म
गव का जो नशा है , वह कभी नह ं था।
-‘ज़माना’, अगःत, १९९६

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Title: ूेमचंद
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Creation Date: 2/19/2004 3:47:00 PM
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Last Printed On: 9/7/2007 11:59:00 AM
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