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Premchand 5
Premchand 5
कथा-बम
अमृत : 3
अपनी करनी : 12
गैरत क कटार : 22
घमंड का पुतला : 29
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अमृत
नै
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रं ग’ के शु करते हुए ह मुझे एक आ यजनक और दल तोड़ने
वाला अनुभव हुआ। ई र जाने य मेर अ ल और मेरे िचंतन पर
पदा पड़ गया। घंट त बयत पर जोर डालता मगर एक शेर भी ऐसा न
िनकलता क दल फड़के उठे । सूझते भी तो द रि, पटे हुए वषय, जनसे
मेर आ मा भागती थी। म अ सर झुझलाकर उठ बैठता, कागज फाड़
डालता और बड़ बे दली क हालत म सोचने लगता क या मेर का यश
का अंत हो गया, या मने वह खजाना जो ूकृ ित ने मुझे सार उॆ के िलए
दया था, इतनी ज द िमटा दया। कहां वह हालत थी क वषय क
बहुतायत और नाजुक खयाल क रवानी क़लम को दम नह ं लेने दे ती थी।
क पना का पंछ उड़ता तो आसमान का तारा बन जाता था और कहां अब
यह पःती! यह क ण द रिता! मगर इसका कारण या है ? यह कस क़सूर
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क सज़ा है । कारण और काय का दस
ू रा नाम दिु नया है । जब तक हमको
य का जवाब न िमले, दल को कसी तरह सॄ नह ं होता, यहां तक क
मौत को भी इस य का जवाब दे ना पड़ता है । आ खर मने एक डा टर से
सलाह ली। उसने आम डा टर क तरह आब-हवा बदलने क सलाह द ।
मेर अ ल म भी यह बात आयी क मुम कन है नैनीताल क ठं ड आब-हवा
से शायर क आग ठं ड पड़ गई हो। छ: मह ने तक लगातार घूमता- फरता
रहा। अनेक आकषक ँय दे खे, मगर उनसे आ मा पर वह शायराना
कै फयत न छाती थी क याला छलक पड़े और खामोश क पना खुद ब
खुद चहकने लगे। मुझे अपना खोया हुआ लाल न िमला। अब म जंदगी से
तंग था। जंदगी अब मुझे सूखे रे िगःतान जैसी मालूम होती जहां कोई
जान नह ं, ताज़गी नह ं, दलचःपी नह ं। हरदम दल पर एक मायूसी-सी
छायी रहती और दल खोया-खोया रहता। दल म यह सवाल पैदा होता क
या वह चार दन क चांदनी ख म हो गयी और अंधेरा पाख आ गया?
आदमी क संगत से बेजार, हम जंस क सूरत से नफरत, म एक गुमनाम
कोने म पड़ा हुआ जंदगी के दन पूरे कर रहा था। पेड़ क चो टय पर
बैठने वाली, मीठे राग गाने वाली िच ड़या या पंजरे म ज़ंदा रह सकती ह?
मुम कन है क वह दाना खाये, पानी पये मगर उसक इस जंदगी और
मौत म कोई फक नह ं है ।
आ खर जब मुझे अपनी शायर के लौटने क कोई उ मीद नह ं रह ,
तो मेरे दल म यह इरादा प का हो गया क अब मेरे िलए शायर क
दिु नया से मर जाना ह बेहतर होगा। मुदा तो हूँ ह , इस हालत म अपने को
जंदा समझना बेवकूफ है । आ खर मैने एक रोज कुछ दै िनक पऽ का अपने
मरने क खबर दे द । उसके छपते ह मु क म कोहराम मच गया, एक
तहलका पड़ गया। उस व मुझे अपनी लोक ूयता का कुछ अंदाजा हुआ।
यह आम पुकार थी, क शायर क दिु नया क कःती मंझधार म डू ब गयी।
शायर क मह फल उखड़ गयी। पऽ-प ऽकाओं म मेरे जीवन-च रऽ ूकािशत
हुए जनको पढ़ कर मुझे उनके एड टर क आ वंकार-बु का क़ायल होना
पड़ा। न तो म कसी रईस का बेटा था और न मने रईसी क मसनद
छोड़कर फक र अ तयार क थी। उनक क पना वाःत वकता पर छा गयी
थी। मेरे िमऽ म एक साहब ने, ज हे मुझसे आ मीयता का दावा था, मुझे
पीने- पलाने का ूेमी बना दया था। वह जब कभी मुझसे िमलते, उ ह मेर
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आख नशे से लाल नजर आतीं। अगरचे इसी लेख म आगे चलकर उ होन
मेर इस बुर आदत क बहुत दयता से सफाई द थी य क खा-सूखा
आदमी ऐसी मःती के शेर नह ं कह सकता था। ताहम है रत है क उ ह यह
सर हन गलत बात कहने क ह मत कैसे हुई।
खैर, इन गलत-बयािनय क तो मुझे परवाह न थी। अलब ा यह बड़
फब थी, फब नह ं एक ूबल ज ासा थी, क मेर शायर पर लोग क
जबान से या फतवा िनकलता है । हमार जंदगी के कारनामे क स ची
दाद मरने के बाद ह िमलती है य क उस व वह खुशामद और बुराइय
से पाक-साफ होती ह। मरने वाले क खुशी या रं ज क कौन परवाह करता
है । इसीिलए मेर क वता पर जतनी आलोचनाऍं िनकली ह उसको मने बहुत
ह ठं डे दल से पढ़ना शु कया। मगर क वता को समझने वाली क
यापकता और उसके मम को समझने वाली िच का चार तरफ अकाल-सा
मालूम होता था। अिधकांश जौह रय ने एक-एक शेर को लेकर उनसे बहस
क थी, और इसम शक नह ं क वे पाठक क है िसयत से उस शेर के
पहलुओं को खूब समझते थे। मगर आलोचक का कह ं पता न था। नजर क
गहराई गायब थी। समम क वता पर िनगाह डालने वाला क व, गहरे भाव
तक पहुँचने वाला कोई आलोचक दखाई न दया।
३
ए क रोज़ म ूेत
प लक लाइॄेर
क दिु नया से िनकलकर घूमता हुआ अजमेर क
म जा पहुँचा। दोपहर का व था। मने मेज पर
झुककर दे खा क कोई नयी रचना हाथ आ जाये तो दल बहलाऊँ। यकायक
मेर िनगाह एक सुंदर पऽ क तरफ गयी जसका नाम था ‘कलाम अ तर’।
जैसे भोला ब चा खलौने क तरफ लपकता है उसी तरह झपटकर मने उस
कताब को उठा िलया। उसक ले खका िमस आयशा आ रफ़ थीं। दलचःपी
और भी यादा हुई। म इ मीनान से बैठकर उस कताब को पढ़ने लगा। एक
ह प ना पढ़ने के बाद दलचःपी ने बेताबी क सूरत अ तयार क । फर
तो म बेसुधी क दिु नया म पहुँच गया। मेरे सामने गोया सूआम अथ क
एक नद लहर मार रह थी। क पना क उठान, िच क ःव छता, भाषा क
नम । का य- ऐसी थी क दय ध य-ध य हो उठता था। म एक
पैरामाफ पढ़ता, फर वचार क ताज़गी से ूभा वत होकर एक लंबी सॉस
लेता और तब सोचने लगता, इस कताब को सरसर तौर पर पढ़ना
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अस भव था। यह औरत थी या सु िच क दे वी। उसके इशार से मेरा
कलाम बहुत कम बचा था मगर जहां उसने मुझे दाद द थी वहां स चाई के
मोती बरसा दये थे। उसके एतराज म हमदद और ूशंसा म भ था।
शायर के कलाम को दोष क य से नह ं दे खना चा हये। उसने या नह ं
कया, यह ठ क कसौट नह ं। बस यह जी चाहता था क ले खका के हाथ
और कलम चूम लूँ। ‘सफ़ र’ भोपाल के द तर से एक प ऽका ूकािशत हुई
थी। मेरा प का इरादा हो गया, तीसरे दन शाम के व म िमस आयशा के
खूबसूरत बंगले के सामने हर -हर घास पर टहल रहा था। म नौकरानी के
साथ एक कमरे म दा खल हुआ। उसक सजावट बहुत साद थी। पहली चीज़
पर िनगाह पड़ ं वह मेर तःवीर थी जो द वार पर लटक रह थी। सामने
एक आइना रखा हुआ था। मने खुदा जाने य उसम अपनी सूरत दे खी।
मेरा चेहरा पीला और कु हलाया हुआ था, बाल उलझे हुए, कपड़ पर गद क
एक मोट तह जमी हुई, परे शानी क जंदा तःवीर थी।
उस व मुझे अपनी बुर श ल पर स त शिमदगी हुई। म सुंदर न
सह मगर इस व तो सचमुच चेहरे पर फटकार बरस रह थी। अपने
िलबास के ठ क होने का यक न हम खुशी दे ता है । अपने फुहड़पन का जःम
पर इतना असर नह ं होता जतना दल पर। हम बुज दल और बेहौसला हो
जाते ह।
मुझे मु ँकल से पांच िमनट गुजरे ह गे क िमस आयशा तशर फ़
लायीं। सांवला रं ग था, चेहरा एक गंभीर घुलावट से चमक रहा था। बड़ -बड़
नरिगसी आंख से सदाचार क , संःकृ ित क रोशनी झलकती थी। क़द
मझोले से कुछ कम। अंग-ू यंग छरहरे , सुथरे , ऐसे ह क -फु क क जैसे
ूकृ ित ने उसे इस भौितक संसार के िलए नह ं, कसी का पिनक संसार के
िलए िसरजा है । कोई िचऽकार कला क उससे अ छ तःवीर नह खींच
सकता था।
िमस आयशा ने मेर तरफ दबी िनगाह से दे खा मगर दे खते-दे खते
उसक गदन झुक गयी और उसके गाल पर लाज क एक ह क -परछा
नाचती हुई मालूम हुई। जमीन से उठकर उसक ऑ ंख मेर तःवीर क तरफ
गयीं और फर सामने पद क तरफ जा पहुँचीं। शायद उसक आड़ म
िछपना चाहती थीं।
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िमस आयशा ने मेर तरफ दबी िनगाह से दे खकर पूछा—आप ःवग य
अ तर के दोःत म से ह?
मने िसर नीचा कये हुए जवाब दया--म ह बदनसीब अ तर हूँ।
आयशा एक बेखद
ु के आलम म कुस पर से खड़ हुई और मेर तरफ
है रत से दे खकर बोलीं—‘दिु नयाए हुःन’ के िलखने वाले?
अंध व ास के िसवा और कसने इस दिु नया से चले जानेवाले को
दे खा है ? आयशा ने मेर तरफ कई बार शक से भर िनगाह से दे खा। उनम
अब शम और हया क जगह के बजाय है रत समायी हुई थी। मेरे कॄ से
िनकलकर भागने का तो उसे यक न आ ह नह ं सकता था, शायद वह मुझे
द वाना समझ रह थी। उसने दल म फैसला कया क इस आदमी मरहूम
शायर का कोई क़र बी अजीज है । शकल जस तरह िमल रह थी वह दोन
के एक खानदान के होने का सबूत थी। मुम कन है क भाई हो। वह
अचानक सदमे से पागल हो गया है । शायद उसने मेर कताब दे खी होगी
ओर हाल पूछने के िलए चला आया। अचानक उसे ख़याल गुजरा क कसी
ने अखबार को मेरे मरने क झूठ खबर दे द हो और मुझे उस खबर को
काटने का मौका न िमला हो। इस ख़याल से उसक उलझन दरू हुई, बोली—
अखबार म आपके बारे म एक िनहायत मनहूस खबर छप गयी थी? मने
जवाब दया—वह खबर सह थी।
अगर पहले आयशा को मेरे दवानेपन म कुछ था तो वह दरू हो गया।
आ खर मैने थोड़े लझजो म अपनी दाःतान सुनायी और जब उसको यक न
हो गया क ‘दिु नयाए हुःन’ का िलखनेवाला अ तर अपने इ सानी चोले म
है तो उसके चेहरे पर खुशी क एक ह क सुख दखायी द और यह ह का
रं ग बहुत ज द खुददार और प-गव के शोख रं ग से िमलकर कुछ का
कुछ हो गया। ग़ािलबन वह शिमदा थी क य उसने अपनी क़िदानी को
हद से बाहर जाने दया। कुछ दे र क शम ली खामोशी के बाद उसने कहा—
मुझे अफसोस है क आपको ऐसी मनहूस खबर िनकालने क ज रत हुई।
मने जोश म भरकर जवाब दया—आपके क़लम क जबान से दाद
पाने क कोई सूरत न थी। इस तनक़ द के िलए म ऐसी-ऐसी कई मौते मर
सकता था।
मेरे इस बेधड़क अंदाज ने आयशा क जबान को भी िश ाचार और
संकोच क क़ैद से आज़ाद कया, मुःकराकर बोली—मुझे बनावट पसंद नह ं
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है । डा टर ने कुछ बतलाया नह ं? उसक इस मुःकराहट ने मुझे द लगी
करने पर आमादा कया, बोला—अब मसीहा के िसवा इस मज का इलाज
और कसी के हाथ नह ं हो सकता।
आयशा इशारा समझ गई, हँ सकर बोली—मसीहा चौथे आसमान पर
रहते ह।
मेर ह मत ने अब और कदम बढ़ाये--- ह क दिु नया से चौथा
आसमान बहुत दरू नह ं है ।
आयशा के खले हुए चेहरे से संजीदगी और अजन बयत का ह का रं ग
उड़ गया। ताहम, मेरे इन बेधड़क इशार को हद से बढ़ते दे खकर उसे मेर
जबान पर रोक लगाने के िलए कसी क़दर खुददार बरतनी पड़ । जब म
कोई घंटे-भर के बाद उस कमरे से िनकला तो बजाय इसके क वह मेर
तरफ अपनी अंमेजी तहज़ीब के मुता बक हाथ बढ़ाये उसने चोर -चोर मेर
तरफ दे खा। फैला हुआ पानी जब िसमटकर कसी जगह से िनकलता है तो
उसका बहाव तेज़ और ताक़त कई गुना यादा हो जाती है आयशा क उन
िनगाह म अःमत क तासीर थी। उनम दल मुःकराता था और ज बा
नाजता था। आह, उनम मेरे िलए दावत का एक पुरजोर पैग़ाम भरा हुआ
था। जब म मु ःलम होटल म पहुँचकर इन वाक़यात पर गौर करने लगा तो
म इस नतीजे पर पहुँचा क गो म ऊपर से दे खने पर यहां अब तक
अप रिचत था ले कन भीतर तौर पर शायद म उसके दल के कोने तक
पहुँच चुका था।
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अपनी करनी
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लौटता था तो मुझे कैसे-कैसे बहाने सूझते थे, िनत नये ह ले गढ़ता था,
शायद व ाथ जीवन म जब बै ड के मजे से मदरसे जाने क इजाज़त न
दे ते थे, उस व भी बु इतनी ूखर न थी। और या उस मा क दे वी
को मेर बात पर यक़ न आता था? वह भोली थी मगर ऐसी नादान न थी।
मेर खुमार-भर आंखे और मेरे उथले भाव और मेरे झूठे ूेम-ूदशन का
रहःय या उससे िछपा रह सकता था? ले कन उसक रग-रग म शराफत
भर हुई थी, कोई कमीना ख़याल उसक जबान पर नह ं आ सकता था। वह
उन बात का जब करके या अपने संदेह को खुले आम दखलाकर हमारे
प वऽ संबध
ं म खचाव या बदमज़गी पैदा करना बहुत अनुिचत समझती थी।
मुझे उसके वचार, उसके माथे पर िलखे मालूम होते थे। उन बदमज़िगय के
मुकाबले म उसे जलना और रोना यादा पसंद था, शायद वह समझती थी
क मेरा नशा खुद-ब-खुद उतर जाएगा। काश, इस शराफत के बदले उसके
ःवभाव म कुछ ओछापन और अनुदारता भी होती। काश, वह अपने
अिधकार को अपने हाथ म रखना जानती। काश, वह इतनी सीधी न होती।
काश, अव अपने मन के भाव को िछपाने म इतनी कुशल न होती। काश,
वह इतनी म कार न होती। ले कन मेर म कार और उसक म कार म
कतना अंतर था, मेर म कार हरामकार थी, उसक म कार
आ मबिलदानी।
एक रोज म अपने काम से फुसरत पाकर शाम के व मनोरं जन के
िलए आनंदवा टका मे पहुँचा और संगमरमर के हौज पर बैठकर मछिलय
का तमाशा दे खने लगा। एकाएक िनगाह ऊपर उठ तो मने एक औरत का
बेले क झा ड़य म फूल चुनते दे खा। उसके कपड़े मैले थे और जवानी क
ताजगी और गव को छोड़कर उसके चेहरे म कोई ऐसी खास बात न थीं
उसने मेर तरफ आंखे उठायीं और फर फूल चुनने म लग गयी गोया उसने
कुछ दे खा ह नह ं। उसके इस अंदाज ने, चाहे वह उसक सरलता ह य न
रह हो, मेर वासना को और भी उ कर दया। मेरे िलए यह एक नयी
बात थी क कोई औरत इस तरह दे खे क जैसे उसने नह ं दे खा। म उठा
और धीरे -धीरे , कभी जमीन और कभी आसमान क तरफ ताकते हुए बेले
क झा ड़य के पास जाकर खुद भी फूल चुनने लगा। इस ढठाई का नतीजा
यह हुआ क वह मािलन क लड़क वहां से तेजी के साथ बाग के दस
ू रे
हःसे म चली गयी।
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उस दन से मालूम नह ं वह कौन-सा आकषण था जो मुझे रोज शाम
के व आनंदवा टका क तरफ खींच ले जाता। उसे मुह बत हरिगज नह ं
कह सकते। अगर मुझे उस व भगवान ् न कर, उस लड़क के बारे म कोई,
शोक-समाचार िमलता तो शायद मेर आंख से आंसू भी न िनकले, जोिगया
धारण करने क तो चचा ह यथ है । म रोज जाता और नये-नये प धरकर
जाता ले कन जस ूकृ ित ने मुझे अ छा प-रं ग दया था उसी ने मुझे
वाचालता से वंिचत भी कर रखा था। म रोज जाता और रोज लौट जाता,
ूेम क मं जल म एक क़दम भी आगे न बढ़ पाता था। हां, इतना अलब ा
हो गया क उसे वह पहली-सी झझक न रह ।
आ खर इस शांितपूण नीित को सफल बनाने न होते दे ख मने एक
नयी यु सोची। एक रोज म अपने साथ अपने शैतान बुलडाग टामी को भी
लेता गया। जब शाम हो गयी और वह मेरे धैय का नाश करने वाली फूल
से आंचल भरकर अपने घर क ओर चली तो मने अपने बुलडाग को धीरे से
इशारा कर दया। बुलडाग उसक तरफ़ बाज क तरफ झपटा, फूलमती ने
एक चीख मार , दो-चार कदम दौड़ और जमीन पर िगर पड़ । अब म छड़
हलाता, बुलडाग क तरफ गुःसे-भर आंख से दे खता और हांय-हांय
िच लाता हुआ दौड़ा और उसे जोर से दो-तीन डं डे लगाये। फर मने बखरे
हुए फूल को समेटा, सहमी हुई औरत का हाथ पकड़कर बठा दया और
बहुत ल जत और दख
ु ी भाव से बोला—यह कतना बड़ा बदमाश है , अब
इसे अपने साथ कभी नह ं लाऊंगा। तु ह इसने काट तो नह ं िलया?
फूलमती ने चादर से सर को ढ़ांकते हुए कहा—तुम न आ जाते तो वह
मुझे नोच डालता। मेरे तो जैसे मन-मन-भर म पैर हो गये थे। मेरा कलेजा
तो अभी तक धड़क रहा है ।
यह तीर लआय पर बैठा, खामोशी क मुहर टू ट गयी, बातचीत का
िसलिसला क़ायम हुआ। बांध म एक दरार हो जाने क दे र थी, फर तो मन
क उमंगो ने खुद-ब-खुद काम करना शु कया। मैने जैसे-जैसे जाल फैलाये,
जैसे-जैसे ःवांग रचे, वह रं गीन त बयत के लोग खूब जानते ह। और यह
सब य ? मुह बत से नह ं, िसफ जरा दे र दल को खुश करने के िलए,
िसफ उसके भरे -पूरे शर र और भोलेपन पर र झकर। य म बहुत नीच ूकृ ित
का आदमी नह ं हूँ। प-रं ग म फूलमती का इं द ु से मुकाबला न था। वह
सुंदरता के सांचे म ढली हुई थी। क वय ने स दय क जो कसौ टयां बनायी
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ह वह सब वहां दखायी दे ती थीं ले कन पता नह ं य मने फूलमती क
धंसी हुई आंख और फूले हुए गाल और मोटे -मोटे होठ क तरफ अपने
दल का यादा खंचाव दे खा। आना-जाना बढ़ा और मह ना-भर भी गुजरने
न पाया क म उसक मुह बत के जाल म पूर तरह फंस गया। मुझे अब
घर क सादा जंदगी म कोई आनंद न आता था। ले कन दल य - य घर
से उचटता जाता था य - य म प ी के ूित ूेम का ूदशन और भी
अिधक करता था। म उसक फ़रमाइश का इं तजार करता रहता और कभी
उसका दल दख
ु ानेवाली कोई बात मेर जबान पर न आती। शायद म अपनी
आंत रक उदासीनता को िश ाचार के पद के पीछे िछपाना चाहता था।
धीरे -धीरे दल क यह कै फ़यत भी बदल गयी और बीवी क तरफ से
उदासीनता दखायी दे ने लगी। घर म कपड़े नह ं है ले कन मुझसे इतना न
होता क पूछ लूं। सच यह है क मुझे अब उसक खाितरदार करते हुए एक
डर-सा मालूम होता था क कह ं उसक ं खामोशी क द वार टू ट न जाय और
उसके मन के भाव जबान पर न आ जायं। यहां तक क मने िगरःती क
ज रत क तरफ से भी आंखे बंद कर लीं। अब मेरा दल और जान और
पया-पैसा सब फूलमती के िलए था। म खुद कभी सुनार क दक
ु ान पर न
गया था ले कन आजकल कोई मुझे रात गए एक मशहूर सुनार के मकान
पर बैठा हुआ दे ख सकता था। बजाज क दक
ु ान म भी मुझे िच हो गयी।
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गौरत क कटारे
क
तनी अफ़सोसनाक, कतनी ददभर बात है क वह औरत जो कभी
हमारे पहलू म बसती थी उसी के पहलू म चुभने के िलए हमारा
तेज खंजर बेचैन हो रहा है । जसक आंख हमारे िलए अमृत के छलकते हुए
याले थीं वह आंख हमारे दल म आग और तूफान पैदा कर! प उसी व
तक राहत और खुशी दे ता है जब तक उसके भीतर एक हानी नेमत होती
ह और जब तक उसके अ दर औरत क वफ़ा क ह.हरकत कर रह हो
वना वह एक तकलीफ़ दे ने चाली चीज़ है , ज़हर और बदबू से भर हुई, इसी
क़ा बल क वह हमार िनगाह से दरू रहे और पंजे और नाखून का िशकार
बने। एक जमाना वह था क नईमा है दर क आरजुओं क दे वी थी, यह
समझना मु ँकल था क कौन तलबगार है और कौन उस तलब को पूरा
करने वाला। एक तरफ पूर -पूर दलजोई थी, दस
ू र तरफ पूर -पूर रजा। तब
तक़द र ने पांसा पलटा। गुलो-बुलबुल म सुबह क हवा क शरारत शु हु ।
शाम का व था। आसमान पर लाली छायी हुई थी। नईमा उमंग और
ताजुगी और शौक से उमड़ हुई कोठे पर आयी। शफ़क़ क तरह उसका
चेहरा भी उस व खला हुआ था। ऐन उसी व वहां का सूबेदार नािसर
अपने हवा क तरह तेज घोड़े पर सवार उधर से िनकला, ऊपर िनगाह उठ
तो हुःन का क रँमा नजर आया क जैसे चांद शफ़क़ के हौज म नहाकर
िनकला है । तेज़ िनगाह जगर के पार हुई। कलेजा थामकर रह गया। अपने
महल को लौटा, अधमरा, टू टा हुआ। मुसाहब ने हक म क तलाश क और
तब राह-राःम पैदा हुई। फर इँक क द ु ार मं ज़ल तय हु । वफ़ा ओर
हया ने बहुत बे खी दखायी। मगर मुह बत के िशकवे और इँक़ क कुृ
तोड़नेवाली धम कयां आ खर जीतीं। अःमत का खलाना लुट गया। उसके
बाद वह हुआ जो हो सकता था। एक तरफ से बदगुमानी, दस
ू र तरफ से
बनावट और म कार । मनमुटाव क नौबत आयी, फर एक-दस
ू रे के दल
को चोट पहुँचाना शु हुआ। यहां तक क दल म मैल पड़ गयी। एक-दस
ू रे
के खून के यासे हो गये। नईमा ने नािसर क मुह बत क गोद म पनाह
ली और आज एक मह ने क बेचैन इ तजार के बाद है दर अपने ज बात के
साथ नंगी तलवार पहलू म िछपाये अपने जगर के भड़कते हूए शोल को
नईमा के खून से बुझाने के िलए आया हुआ है ।
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आ
२
धी रात का व था और अंधेर रात थी। जस तरह आसमान के
हरमसरा म हुसन के िसतारे जगमगा रहे थे, उसी तरह नािसर का
हरम भी हुःन के द प से रोशन था। नािसर एक ह ते से कसी मोच पर
गया हुआ है इसिलए दरबान गा फ़ल ह। उ ह ने है दर को दे खा मगर उनके
मुंह सोने-चांद से ब द थे। वाजासराओं क िनगाह पड़ ले कन वह पहले
ह एहसान के बोझ से दब चुके थे। खवास और कनीज ने भी मतलब-भर
िनगाह से उसका ःवागत कया और है दर बदला लेने के नशे म गुनहगार
नईमा के सोने के कमरे म जा पहुँचा, जहां क हवा संदल और गुलाब से
बसी हुई थी।
कमरे म एक मोमी िचराग़ जल रहा था और उसी क भेद-भर रोशनी
म आराम और तक लुफ़ क सजावट नज़र आती थीं जो सती व जैसी
अनमोल चीज़ के बदले म खर द गयी थीं। वह ं वैभव और ऐ य क गोद
म लेट हुई नईमा सो रह थी।
है दर ने एक बार नईया को ऑ ंख भर दे खा। वह मो हनी सूरत थी,
वह आकषक जाव य और वह इ छाओं को जगानेवाली ताजगी। वह युवती
जसे एक बार दे खकर भूलना अस भव था।
हॉ, वह नईमा थी, वह गोर बॉह जो कभी उसके गले का हार बनती
थीं, वह कःतूर म बसे हुए बाल जो कभी क ध पर लहराते थे, वह फूल
जैसे गाल जो उसक ूेम-भर आंख के सामने लाल हो जाते थे। इ ह ं
गोर -गोर कलाइय म उसने अभी-अभी खली हुई किलय के कंगन पहनाये
थे और ज ह वह वफा के कंगन समझ था। इसक गले म उसने फूल के
हार सजाये थे और उ ह ूेम का हार खयाल कया था। ले कन उसे या
मालूम था क फूल के हार और किलय के कंगन के साथ वफा के कंगन
और ूेम के हार भी मुरझा जायगे।
हां, यह वह गुलाब के-से ह ठ ह जो कभी उसक मुह बत म फूल क
तरह खल जाते थे जनसे मुह बत क सुहानी महक उड़ती थी और यह वह
सीना है जसम कभी उसक मुह बत और वफ़ा का जलवा था, जो कभी
उसके मुह बत का घर था।
मगर जस फूल म दल क महक थी, उसम दग़ा के कांटे ह।
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खून क यासी है ओर यह लो मेरा िसर उसके सामने झुका हुआ है । हॉ,
मेर एक आ खर तम ना है , अगर तु हार इजाजत पाऊँ तो कहूँ।
यह कहते-कहते नईमा क आंख म आंसुओं क बाढ़ आ गई और
है दर क ग़ैरत उसके सामने ठहर न सक । उदास ःवर म बोला— या कहती
हो?
नईमा ने कहा-अ छा इजाज़त द है तो इनकार न करना। मुझ एक
बार फर उन अ छे दन क याद ताज़ा कर लेने दो जब मौत क कटार
नह ं, मुह बत के तीर जगर को छे दा करते थे, एक बार फर मुझे अपनी
मुह बत क बांह म ले लो। मेर आ ख़र बनती है , एक बार फ़र अपने
हाथ को मेर गदन का हार बना दो। भूल जाओ क मने तु हारे साथ दगा
क है , भूल जाओ क यह जःम ग दा और नापाक है , मुझे मुह बत से गले
लगा लो और यह मुझे दे दो। तु हारे हाथ म यह अ छ नह ं मालूम होती।
तु हारे हाथ मेरे ऊपर न उठगे। दे खो क एक कमजोर औरत कस तरह
ग़ैरत क कटार को अपने जगर म रख लेती है ।
यह कहकर नईमा ने है दर के कमजोर हाथ से वह चमकती हुई
तलवार छ न ली और उसके सीने से िलपट गयी। है दर झझका ले कन वह
िसफ़ ऊपर झझक थी। अिभमान और ूितशोध-भावना क द वार टू ट गयी।
दोन आिलंगन पाश म बंध गए और दोन क आंख उमड़ आयीं।
नईमा के चेहरे पर एक सुहानी, ूाणदाियनी मुःकराहट दखायी द
और मतवाली आंख म खुशी क लाली झलकने लगी। बोली-आज कैसा
मुबारक दन है क दल क सब आरजुएं पूर द होती ह ले कन यह क ब त
आरजुएं कभी पूर नह ं होतीं। इस सीने से िलपटकर मुह बत क शराब के
बगैर नह ं रहा जाता। तुमने मुझे कतनी बार ूेम के याले ह। उस सुराह
और उस याले क याद नह ं भूलती। आज एक बार फर उ फत क शराब
के दौर चलने दो, मौत क शराब से पहले उ फ़त क शराब पला दो। एक
बार फर मेरे हाथ से याला ले लो। मेर तरफ़ उ ह ं यार क िनगाह से
दं खकर, जो कभी आंख से न उतरती थीं, पी जाओ। मरती हूं तो खुशी से
म ं।
नईमा ने अगर सती व खोकर सती व का मू य जाना था, तो है दर ने
भी ूेम खोकर ूेम का मू य जाना था। उस पर इस समय एक मदहोशी
छायी हुई थी। ल जा और याचना और झुका हुआ िसर, यह गुःसे और
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ूितशोध के जानी दँु मन ह और एक गौरत के नाजुक हाथ म तो उनक
काट तेज तलवार को मात कर दे ती है । अंगूर शराब के दौर चले और है दर
ने मःत होकर याले पर याले खाली करने शु कये। उसके जी म बार-
बार आता था क नईमा के पैर पर िसर रख दं ू और उस उजड़े हुए
आिशयाने को आदाब कर दं ।ू फर मःती क कै ६यत पैदा हुई और अपनी
बात पर और अपने काम पर उसे अ य़यार न रहा। वह रोया, िगड़िगड़ाया,
िम नत क ं, यहां तक क उन दग़ा के याल ने उसका िसर झुका दया।
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लहमे म उसे मसल सकती हूं और अगर म ऐसा क ं तो तु ह मेरा
शुबगुज़ार होना चा हये य क एक मद के िलए ग़ैरत क मौत बेग़रै ती क
ज दगी से अ छ है । ले कन म तु हारे ऊपर रहम क ं गी: म तु हारे साथ
फ़ैयाजी का बताव क ं गी य क तुम ग़ैरत क मौत पाने के हक़दार नह ं
हो। जो ग़ैरत च द मीठ बात और एक याला शराब के हाथ बक जाय
वह असली ग़ैरत नह ं है । है दर, तुम कतने बेवकूफ़ हो, या तुम इतना भी
नह ं समझते क जस औरत ने अपनी अःमत जैसी अनमोल चीज दे कर
यह ऐश ओर तक लुफ़ पाया वह ज दा रहकर इन नेमत का सुख जूटना
चाहती है । जब तुम सब कुछ खोकर ज दगी से तंग नह ं हो तो म कुछ
पाकर य मौत क वा हश क ं ? अब रात बहुत कम रह गयी है । यहां से
जान लेकर भागो वना मेर िसफ़ा रश भी तु ह नािसर के गुःसे क आग से
रन बचा सकेगी। तु हार यह ग़ैरत क कटार मेरे क़ जे म रहे गी और तु ह
याद दलाती रहे गी क तुमने इ जत के साथ ग़ैरत भी खो द ।
-‘जमाना’, जुलाई, १९९५
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घम ड का पुतला
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Title: ूेमचंद
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Creation Date: 2/19/2004 3:47:00 PM
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Last Printed On: 9/7/2007 11:59:00 AM
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