RAAG-SAMVEDAN: DR Mahendra Bhatnagar

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राग-संवेदन

[मह भटनागर]

क वताएँ

1 राग-संवेदन / 1
2 मम व
3 यथाथ
4 लमहा
5 िनर तरता
6 नह ं
7 अपे ा

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8 िचर-वंिचत
9 जीव त
10 अितचार
11 पूवाभास
12 अवधूत

13 सार-त व
14 िन कष
15 तुलना
16 अनुभूित
17 आ ाद
18 आस
19 मं -मु ध
20 हवा
21 जजी वषु
22 राग-संवेदन / 2
23 वरदान
24 मृित
25 बहाना
26 दरवत
ू से
27 बोध

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28 ेयस
29 संवेदना
30 दो ुव
31 वप - त
32 वजयो सव
33 है रानी
34 समता- व न
35 अपहता
36
37 प रवत न
38 युगा तर
39 ाथ ना
40 बोध
41 सुखद
42 बदलो
43 बचाव
44 पहल
45 अ त

46 व न
47 यथाथ ता
48 खलाड़

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49 िसफ़त
50 बोध- ाि
 

(1) राग-संवेदन / 1

सब भूल जाते ह ...


केवल
याद रहते ह
आ मीयता से िस
कुछ ण राग के,
संवेदना अनुभूत
र त क दहकती आग के!

आदमी के आदमी से
ीित के स ब ध
जीती-भोगती सह-राह के
अनुब ध!
केवल याद आते ह!
सदा।

जब-तब

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बरस जाते
यथा-बो झल
िनशा के
जागते एका त ण म,
डू बते िन संग भार
ला त मन म!
अ ु बन
पावन!

(2) मम व

न दल
ु भ ह
न ह अनमोल
िमलते ह नह ं
इहलोक म, परलोक म
आँसू .... अनूठे यार के,
आ मा के
अपार-अगाध अित- व तार के!

दय के घन-गहनतम तीथ से
इनक उमड़ती है घटा,
और फर ....

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जस ण
उभरती चेहरे पर
स व भाव क छटा —
हो उठते सजल
दोन नयन के कोर,
प छ लेता अंचरा का छोर!

(3) यथाथ
राह का
नह ं है अंत
चलते रहगे हम!

दरू तक फैला
अँधेरा
नह ं होगा ज़रा भी कम!

टम टमाते द प-से
अहिन श
जलते रहगे हम!

साँस िमली ह
मा ा िगनती क

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अचानक एक दन
धड़कन दय क जायगी थम!

समझते-बूझते सब
मृ यु को छलते रहगे हम!

हर चरण पर
मं ज़ल होती कहाँ ह?
ज़ दगी म
कंकड़ के ढे र ह
मोती कहाँ ह?

(4) लमहा

एक लमहा
िसफ़ एक लमहा
एकाएक छ न लेता है
ज़ दगी!
हाँ, फ़क़त एक लमहा।

हर लमहा
अपना गूढ़ अथ रखता है,

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अपना एक मुक मल इितहास
िसरजता है ,
बार - बार बजता है ।

इसिलए ज़ र है —
हर लमहे को भरपूर जयो,
जब-तक
कर दे न तु हार स ा को
चूर - चूर वह।

हर लमहा
ख़ामोश फसलता है
एक-सी नपी र ऱतार से
अनिगनत हादस को
अं कत करता हआ
ु ,
अपने मह व को घो षत करता हआ
ु !

(5) िनर तरता

हो वरत ...
एका त म,
जब शा त मन से

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भु जीवन का
सहज करने वचारण —

झाँकता हँू
आ मगत
अपने वलु अतीत म —

िच ावली धुँधली
उभरती है वशृंखल ... भंग- म
संगत-असंगत
तारत य- वह न!

औचक फर
वतः मुड़
लौट आता हँू
उप थत काल म!
जीवन जगत जंजाल म!

(6) नह ं

लाख लोग के बीच


अप रिचत अजनबी

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भला,
कोई कैसे रहे !

उमड़ती भीड़ म
अकेलेपन का दं श
भला,
कोई कैसे सहे !

असं य आवाज़ के
शोर म
कसी से अपनी बात
भला,
कोई कैसे कहे !

(7) अपे ा

कोई तो हम चाहे
गाहे -ब-गाहे !

िनपट सूनी
अकेली ज़ दगी म,
गहरे कूप म बरबस

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ढकेली ज़ दगी म,
िन ु र घात-वार- हार
झेली ज़ दगी म,

कोई तो हम चाहे ,
सराहे !

कसी क तो िमले
शुभकामना
स ावना!

अिभशाप झुलसे लोक म


सव छाये शोक म
हमदद हो
कोई
कभी तो!

ती व ु मय
दिमत वातावरण म
बेतहाशा गूँजती जब
मम वेधी

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चीख-आह-कराह,
अितदाह म जलती
व वंिसत ज़ दगी
आब कारागाह!

ऐसे तबाह के ण म
चाह जगती है क
कोई तो हम चाहे
भले,
गाहे -ब-गाहे !

(8) िचर-वंिचत

जीवन - भर
रहा अकेला,
अनदे खा —
सतत उपे त
घोर ितर कृ त!

जीवन - भर
अपने बलबूते
झंझावात का रे ला

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झेला !
जीवन - भर
जस-का-तस
ठहरा रहा झमेला !

जीवन - भर
अस दख
ु - दद सहा,
नह ं कसी से
भूल
श द एक कहा!
अिभशाप ताप
दहा - दहा!

रसते घाव को
सहलाने वाला
कोई नह ं िमला —
पल - भर
नह ं थमी
सर -सर
वृ - िशला!

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एकाक
फाँक धूल
अभाव म —
घर म :
नगर -गाँव म!
यहाँ - वहाँ
जान कहाँ - कहाँ!

(9) जीव त

दद समेटे बैठा हँू!


रे , कतना- कतना
दःख
ु समेटे बैठा हँू !
बरस -बरस का दख
ु -दद
समेटे बैठा हँू!

रात -रात जागा,


दन- दन भर जागा,
सारे जीवन जागा!
तन पर भूर -भूर गद
लपेटे बैठा हँू!

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दलदल-दलदल
पाँव धँसे ह,
गदन पर, टख़न पर
नाग कसे ह,
काले-काले ज़हर ले
नाग कसे ह!

शैया पर
आग बछाए बैठा हँू!
धायँ-धायँ!
दहकाए बैठा हँू!

(10) अितचार

अथ ह न हो जाता है
सहसा
िचर-संबंध का व ास —
नह ं, ज म-ज मा तर का व ास!
अरे , ण-भर म
िमट जाता है
वष -वष का होता घनीभूत
अपनेपन का अहसास!

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ताश के प जैसा
बाँध टू टता है जब
मयादा का,
विनिम त सीमाओं को
आवे त करते व ुत- वाह-यु तार
तब बन जाते ह
िनज व अचानक!
लु हो जाती ह सीमाएँ,
छलाँग भर-भर फाँद जाते ह
थर पैर,
डगमगाते काँपते हए

थर पैर!
भंग हो जाती है
शु उपासना
क ठन िस साधना!
धम- व हत कम
खोखले हो जाते ह,
तथाकिथत स य ित ाएँ
झुठलाती ह।
बेमानी हो जाते ह

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वचन-वायदे !
और —
यार बन जाता है
िनपट वाथ का समानाथ क!
अिभ ाय बदल लेती ह
या याएँ
पाप-पु य क ,
छल —
आ माओं के िमलाप का
न न स य म / यथाथ प म
उतर आता है !
संयम के लौह- त भ
टू ट ढह जाते ह,
ववेक के शहतीर थान- युत हो
ितनके क तरह
डू ब बह जाते ह।

जब भूक प वासना का
‘ती ानुराग’ का
आमूल थरथरा दे ता है शर र को,
हल जाती ह मन क

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हर पु ता-पु ता चूल!
आदमी
अपने अतीत को, वत मान को, भ व य को
जाता है भूल!

(11) पूवाभास

बहत
ु पीछे
छोड़ आये ह
ेम-संबंध
श ुताओं के
अधजले शव!

खामोश है
बरस , बरस से
तड़पता / चीखता
दम तोड़ता रव!

इस समय तक —
सूख कर अवशेष
खो चुके ह गे
हवा म!

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बह चुके ह गे
अनिगनत
बा रश म!

जब से छोड़ आया
लौटा नह ं;
फर, आज यह य
ेत छाया
सामने मेरे?

शायद,
ह अब होना
यह है —
मेरे समूचे
अ त व का!

हर वालामुखी को
एक दन
सु होना है !
सदा को
लु होना है !


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(12) अवधूत

लोग ह —
ऐसी हताशा म
य हो
कर बैठते ह
आ म-ह या!
या
खो बैठते ह संतुलन
तन का / मन का!
व हो व
रोते ह — अकारण!
हँ सते ह — अकारण!

क तु तुम हो
थर / व-सीिमत / मौन / जी वत / संतुिलत
अभी तक!

व तुतः
जसने जी िलया सं यास
मरना और जीना

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एक है उसके िलए!
वष हो या अमृत
पीना
एक है उसके िलए!

(13) सार-त व

सकते म य हो,
अरे !
नह ं आ सकते
जब काम
कसी के तुम —
कोई य आये
पास तु हारे ?
चुप रहो,
सब सहो!
पड़े रहो
मन मारे ,
यहाँ-वहाँ!

कोई सुने
तु हारे अनुभव,

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कोई सुने
तु हार गाथा,
नह ं समय है
पास कसी के!
िन फल —
ऐसा करना
आस कसी से!

अ छा हो
सूने कमरे क द वार पर
श दां कत कर दो,
नाना रं ग से
िच ां कत कर दो
अपना मन!
शायद, कोई कभी
पढ़े / गुने!
या
कसी रकॉ डग-डे क म
भर दो
अपनी क ण कहानी
बख़ुद ज़बानी!

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शायद, कोई कभी
सुने!

ले कन
िन त रहो —
कह ं न फैले दग
ु ध
इसिलए तुर त
लोग तु ह
ग ढ़े म गाड़ / दफ़न
या
कर स प न दहन
विधवत ्
कर दगे ख़ाक / भ म
ज़ र!
विधवत ्
पूर कर दगे
आ ख़र र म
ज़ र!

(14) िन कष

ऊहापोह

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( जतना भी)
ज़ र है ।
वचार- वमश
हो प रप व जतने भी समय म।

त व-िनण य के िलए
अिनवाय
मीमांसा-समी ा / तक / वशद ववेचना
येक वांिछत कोण से।

य क जीवन म
हआ
ु जो भी घ टत —
वह थर सदा को,
एक भी अवसर नह ं उपल ध
भूल-सुधार को।

स भव नह ं
कंिचत बदलना
कृ त- या को।

स य —

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कता और िनणायक
तु ह ं हो,
पर िनयामक तुम नह ं।
िनिल हो
प रणाम या फल से।
( ववशता)

िस है —
जीवन : पर ा है क ठन
पल-पल पर ा है क ठन।

वी ा करो
हर साँस िगन-िगन,
जो सम
उसे करो वीकार
अंगीकार!

(15) तुलना

जीवन
कोई पु तक तो नह ं
क जसे

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सोच-समझ कर
योजनाब ढं ग से
िलखा जाए / रचा जाए!

उसक वषयव तु को —

िमक अ याय म
सावधानी से बाँटा जाए,
मम पश संग को छाँटा जाए!

व-अनुभव से, अ यास से


सु दर व कला मक आकार म
ढाला जाए,
शैिथ य और बो झलता से बचा कर
चम कार क चमक म उजाला जाए!

जीवन क कथा
वतः बनती- बगड़ती है
पूवापर संबंध नह ं गढ़ती है!

कब या घ टत हो जाए
कब या बन-सँवर जाए,

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कब एक झटके म
सब बगड़ जाए!

जीवन के कथा- वाह म


कुछ भी पूव-िन त नह ं,
अपे त-अनपे त नह ं,
कोई पूवाभास नह ,ं
आयास- यास नह ं!
ख़ूब सोची-समझी
शतरं ज क चाल
द ू षत संगणक क तरह
चलने लगती ह,
िनयं क को ह
छलने लगती ह
जीती बाज़ी
हार म बदलने लगती है !

या अचानक
अ य हआ
ु वत मान
पुनः उसी तरतीब से
उतर आता है

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भूक प के प रणाम क तरह!
अपने पूव वत ् प-नाम क तरह!

(16) अनुभूित

जीवन-भर
अजीबोगर ब मूख ताएँ
करने के िसवा,
समाज का
थोपा हआ
ु कज़
भरने के िसवा,
या कया?

ग़लितयाँ क ं
ख़ूब ग़लितयाँ क ं,
चूके
बार-बार चूके!

य कह —
जये;
ले कन जीने का ढं ग
कहाँ आया?

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(ढ ग कहाँ आया!)
और अब सब-कुछ
भंग-रं ग
हो जाने के बाद —
दं ग हँू ,
बेहद दं ग हँू !
ववेक अपंग हँू!

व ास कया
लोग पर,
अंध- व ास कया
अपन पर!

और धूत
साफ़ कर गये सब
घर-बार,
बरबाद कर गये
जीवन का
प-रं ग िसँगार!

छ थे, मुखौटे थे,

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स य के िलबास म
झूठे थे,
अजब ग़ज़ब के थे!

ज़ दगी गुज़र जाने के बाद,


नाटक क
फल- ाि / समाि के क़र ब,
सलीब पर लटके हए

सचाई से -ब- हए
ु जब —
अनुभूत हए

असं य व ुत-झटके
ती अ न-कण!
ऐंठते
दद से आहत
तन-मन!

है रतअंगेज़ है, सब!


सब, अ त
ु है !
अ त व कहाँ ह मेरा,
मेरा बुत है!
अब,

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पछतावे का कड़वा रस
पीने के िसवा
बचा या?

ज़माने को
न थी, न है
र ी-भर
शम-हया!

(17) आ ाद

बदली छायी
बदली छायी!

दशा- दशा म
बजली क धी,
िम ट महक
स धी-स धी!

युग-युग
वरह- वरस म
डू बी,

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एकाक
घबरायी
ऊबी,
अपने
य जलधर से
िमल कर,
हाँ, हई
ु सुहािगन
ध य धरा,
मेघ के रव से
शू य भरा!

वषा आयी
वषा आयी!
उमड़
शुभ
घनघोर घटा,
छायी
यामल द छटा!

दल
ु हन झूमी
घर-घर घूमी

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मनहर वर म
कजली गायी!

बदली छायी
वषा आयी!

(18) आस

भोर होते —
ार वातायन झरोख से
उचकतीं-झाँकतीं उड़तीं
मधुर चहकार करतीं
सीधी सरल िच ड़याँ
जगाती ह,
उठाती ह मुझे!

रात होते
िनकट के पोखर से
आ - आ
कभी झींगुर; कभी ददरु
गा - गा
सुलाते ह,

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नव-नव व न-लोक म
घुमाते ह मुझ!े

दन भर —
रँ ग- बरं गे य-िच से
मोह रखता है
अनंग-अनंत नीलाकाश!

रात भर —
नभ-पय क पर
पहले- व ण म िसतार क छपी
चादर बछाए
सोती यो ना
कतना लुभाती है !
अंक म सोने बुलाती है!

ऐसे यार से
मुँह मोड़ लूँ कैसे?
धरा — इतनी मनोहर
छोड़ दँ ू कैसे?

(19) मं -मु ध

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गहन पहे ली,
ओ लता — चमेली!

अपने
फूल म / अंग म
इतनी मोहक सुग ध
अरे ,
कहाँ से भर लायीं!

ओ ेता!
ओ शु ा!
कोमल सुकुमार सहे ली!
इतना आकष क मनहर सौ दय
कहाँ से हर लायीं!
धर लायीं!

सुवास यह
बाहर क , अ तर क
तन क , आ मा क
जब-जब

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करता हँू अनुभूत —
भूल जाता हँू
सांसा रकता,
अपना अता-पता!

कुछ ण को इस दिनया
ु म
खो जाता हँू ,
तुमको एकिन
अ प त हो जाता हँू!

ओ सुवािसका!
ओ अलबेली!
ओ र , लता — चमेली!

(20) हवा

ओ य
सुख-गंध भर
मदम हवा!
मेर ओर बहो —
हलके-हलके!

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बरसाओ
मेरे
तन पर, मन पर
शीतल छ ंट जल के!

ओ यार
लहर-लहर लहराती
उ म हवा!
िनःसंकोच करो
बढ़ कर उ ण पश
मेरे तन का!

ओ, सर-सर वर भरती
मधुरभा षणी
मुखर हवा!
चुपके-चुपके
मेरे कान म
अब तक अनबोला
कोई राज़ कहो
मन का!
आओ!

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मुझ पर छाओ!
खोल लाज-बंध
आज
आवे त हो जाओ,
आजीवन
अनुब धत हो जाओ!

(21) जजी वषु

अचानक
आज जब दे खा तु ह —
कुछ और जीना चाहता हँू !

गुज़र कर
बहत
ु ल बी क ठन सुनसान
जीवन-राह से,
ितपल झुलस कर
ज़ दगी के स य से
उसके दहकते दाह से,
अचानक
आज जब दे खा तु ह —
कड़वाहट भर इस ज़ दगी म

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वष और पीना चाहता हँू !
कुछ और जीना चाहता हँू !

अभी तक
ेय!
कहाँ थीं तुम?
नील-कुसुम!

(22) राग-संवेदन / 2

तुम —
बजाओ साज़
दल का,
ज़ दगी का गीत
म —
गाऊँ !

उ य
ढलती रहे ,
उर म
धड़कती साँस यह
चलती रहे !

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दोन दय म
नेह क बाती लहर
बलती रहे !
जीव त ाण म
पर पर
भावना - संवेदना
पलती रहे !

तुम —
सुनाओ
इक कहानी यार क
मोहक,
सुन जसे
म —
चैन से
कुछ ण
क सो जाऊँ !
दद सारा भूल कर
मधु- व न म
बे फ़ खो जाऊँ !

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तुम —
बहाओ यार-जल क
छलछलाती धार,
चरण पर तु हारे
वग - वैभव
म —
झुका लाऊँ !

(23) वरदान

याद आता है
तु हारा यार!

तुमने ह दया था
एक दन
मुझको
पहले प का संसार!

सज गये थे
ार- ार सुदश
ब दनवार!

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याद आता है
तु हारा यार!
ाण द उपहार!

(24) मृित

याद आते ह
तु हारे सां वना के बोल!

आया
टू ट कर
दभा
ु य के घातक हार से
तु हारे अंक म
पाने शरण!

समवेदना अनुभूित से भर
ओ, मधु बाल!
भाव- वभोर हो
त ण
तु ह ं ने यार से
मुझको
सहष कया वरण!

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द वष भरे आहत दय म
शा त मधुजा घोल!
खड़ ं
अब पास म मेरे,
िनरखतीं
ार हय का खोल!
याद आते ह
या!
मोहन तु हारे
सां वना के बोल!

(25) बहाना

याद आता है
तु हारा ठना!

मनुहार-सुख
अनुभूत करने के िलए,
एकरसता-भार से
ऊबे ण म
रं ग जीवन का

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नवीन अपूव
भरने के िलए!
याद आता है
तु हारा ठना!

ज म-ज मा तर पुरानी
ीित को
फर- फर िनखरने के िलए,
इस बहाने
मन-िमलन शुभ द प
आँगन- ार
धरने के िलए!
याद आता है
तु हारा ठना!
अपार-अपार भाता है
तु हारा रागमय
बीते दन का ठना!

(26) दरवत
ू से

शेष जीवन
जी सकूँ सुख से

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तु हार याद
काफ़ है !
कभी
कम हो नह ं
एहसास जीवन म
तु हारा
यह बछोह- वषाद
काफ़ है !
तु हार भावनाओं क
धरोहर को
सहे जा आज-तक
मन म,
अमरता के िलए
केवल उ ह ं का
सरस गीत म
सहज अनुवाद
काफ़ है !

(27) बोध

भूल जाओ —
िमले थे हम

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कभी!
िच जो अं कत हए

सपने थे
सभी!

भूल जाओ —
रं ग को
बहार को,
दे ह से : मन से
गुज़रती
कामना-अनुभूत धार को!

भूल जाओ —
हर यतीत-अतीत को,
गाये-सुनाये
गीत को: संगीत को!

(28) ेयस ्

सृ म वरे य
एक-मा
नेह- यार भावना!

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मनु य क
मनु य-लोक म य,
सव जन-सम म य
राग- ीित भावना!

सम त जीव-ज तु म य
अशेष हो
मनु य क दयालुता!
यह
महान े तम उपासना!

व म
हरे क य
रात- दन / सतत
यह करे
पव कष साधना!

य - य म जगे
यह
सरल-तरल अबोध िन कपट
एकिन चाहना!


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(29) संवेदना

काश, आँसुओं से मुँह धोया होता,


बीज ेम का मन म बोया होता,
दभा
ु य त मानवता के हत म
अपना सुख, अपना धन खोया होता!

(30) दो ुव

प वभा जत है
जन-समुदाय —
समथ / असहाय।
ह एक ओर —
राजनीितक दल
उनके अनुयायी खल,
सुख-सु वधा-साधन-स प न
स न।
धन- वण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब!
बँगले ह / चकले ह,
तलघर ह / बंकर ह,
भोग रहे ह

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जीवन क तरह-तरह क नेमत,
है रत है , है रत!

दसर
ू तरफ़ —
जन ह
भूखे- यासे दब
ु ल, अभाव त ... त,
अनपढ़,
दिलत असंग ठत,
खेत - गाँव / बाजा़र - नगर म
मरत,
शो षत / वंिचत / शं कत!

(31) वप - त

बा रश
थमने का नाम नह ं लेती,
जल म डू बे
गाँव -क़ ब को
थोड़ा भी
आराम नह ं दे ती!
सचमुच,
इस बरस तो क़हर ह

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टू ट पड़ा है ,
दे वा, भौचक खामोश
खड़ा है !

ढह गया घर धा
छ पर-ट पर,
बस, असबाब पड़ा है
औ ं धा!

आटा-दाल गया सब बह,


दे वा, भूखा रह!

इं धन गीला
नह ं जलेगा चू हा,
तैर रहा है चौका
रहा-सहा!
घन-घन करते
नभ म वायुयान
मँडराते
िग जैस!े
शायद,

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नेता / मं ी आये
करने चेहलक़दमी,
उ र-द ण
पूरब-प म
छायी
ग़मी-ग़मी!

अफ़सोस
क बा रश नह ं थमी!

(32) वजयो सव

एरो ोम पर
वशेष वायुयान म
पाट का
लड़ै ता नेता आया है ,

‘शता द ’ से
टे शन पर
कां ेस का
चहे ता नेता आया है ,

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‘ए-सी ए बेसेडर’ से
सड़क-सड़क,
दल का
जेता नेता आया है ,

भरने जयकारा,
पुरज़ोर बजाने
िसंगा, डं का, डं डम,
पहँु चा
हरा
ु -हरा
ु करता
सैकड़ का हजू
ु म!

पालतू-फालतू बक रय का,
शॉल लपेटे सीधी मूखा भेड़ का,

संडमुसंड जंगली वराह का,


बुज़ दल भयभीत िसयार का!

म-म करता
गुरा-गुरा हंु कृित करता
करता हआँ
ु -हआँ
ु !

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िच लाता —
लूट-लूट,
ितप ी को ....
शूट-शूट!
जय का ज मनाता
‘ग बर’ नेता का!

(33) है रानी

कतना ख़ुदग़रज़
हो गया इं सान!
बड़ा ख़ुश है
पाकर तिनक-सा लाभ —
बेच कर ईमान!

चंद िस क के िलए
कर आया
शैतान को मतदान,
नह ं मालूम
‘ख़ुददार’ का मतलब
गट-गट पी रहा अपमान!

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रझाने मं य को
उनके सामने
कठपुतली बना िन ाण,
अजनबी-सा द खता —
आदमी क
खो चुका पहचान!

(34) समता- व न

व का इितहास
सा ी है —

अभाव क
धधकती आग म
जीवन
हवन जनने कया,
अ याय से लड़ते
यव था को बदलते
पी ढ़य
यौवन
दहन जनने कया,

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वे ह
छले जाते रहे
येक युग म,
ू र शोषण-च म

अ वरत
दले जाते रहे
येक युग म!

वषमता
और ...
बढ़ती गयी,
बढ़ता गया
व तार अ तर का!
हआ
ु धनवान
और साधनभूत,
िनध न -
और िनध न,
अथ गौरव ह न,
हत भ द न!

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ले कन;
व का इितहास
सा ी है —

पर पर
सा यवाह भावना इं सान क
िन य नह ं होगी,
न मानेगी पराभव!

ल य तक पहँु चे बना
होगी नह ं वचिलत,
न भटकेगा / हटे गा
एक ण
अव हो लाचार
समता-राह से मानव!

(35) अपहता

धूत —
सरल दब
ु ल को
ठगने

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धेखा दे ने
बैठे ह तैयार!

धूत —
लगाये घात,
िछपे
इद-िगद
करने गहरे वार!

धूत —
फ़रे बी कपट
चैक ने
करने छ ना-झपट ,
लूट-मार
हाथ-सफ़ाई
चतुराई
या
सीधे मु - हार!

धूत —
हड़पने धन-दौलत

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पुरख क वैध वरासत
हिथयाने माल-टाल
कर द ू षत बु - योग!

धृ ,
दःसाहसी
ु ,
िनडर!
बना रहे
छ लेख- लेख!
चम कार!
विच चम कार!

(36)

जीवन के क ठन संघष म
हारो हओ
ु !
हर क़दम
दभा
ु य के मारो हओ
ु !
असहाय बन
रोओ नह ं,
गहरा अँधेरा है,
चेतना खोओ नह ं!

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पराजय को
वजय क सूिचका समझो,
अँधेरे को
सूरज के उदय क भूिमका समझो!

व ास का यह बाँध
फूटे नह ं!
नये युग का सपन यह
टू टे नह ं!
भावना क डोर यह
छू टे नह ं!

(37) प रवत न

मौसम
कतना बदल गया!
सब ओर क दखता
नया-नया!

सपना —
जो दे खा था

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साकार हआ
ु ,
अपने जीवन पर
अपनी क़ मत पर
अपना अिधकार हआ
ु !

समता का
बोया था जो बीज-मं
पनपा, छतनार हआ
ु !
सामा जक-आिथ क
नयी यव था का आधार बना!

शो षत-पी ड़त जन-जन जागा,


नवयुग का छ वकार बना!
सा य-भाव के नार से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम
कतना बदल गया!

(38) युगा तर

अब तो
धरती अपनी,

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अपना आकाश है !

सूय उगा
लो
फैला सव
काश है !

वाधीन रहगे
सदा-सदा
पूरा व ास है!

मानव- वकास का च
न पीछे मुड़ता
सा ी इितहास है !

यह
योग-िस
त व- ान
हमारे पास है !

(39) ाथ ना

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सूरज,
ओ, दहकते लाल सूरज!

बुझे
मेरे दय म
ज़ दगी क आग
भर दो!
थके िन य
तन को
फूित दे
गितमान कर दो!
सुनहर धूप से,
आलोक से —
प र या
हम / तम तोम
हर लो!

सूरज,
ओ लहकते लाल सूरज!

(40) बोध

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नह ं िनराश / न ह हताश!

स य है —
गये य यथ सब
नह ं हआ
ु सफल,
क तु हँू नह ं
तिनक वकल!

बार-बार
हार के हार
श - ोत ह ,
कम म वृ मन
ओज से भरे
सदै व ओत- ोत ह !

ह दय उमंगमय,
व-ल य क
के नह ं तलाश!
भूल कर
के नह ं कभी
अभी व तु क तलाश!

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हो गये िनराश
तय वनाश!
हो गये हताश
सव नाश!

(41) सुखद

सहधम / सहकम
खोज िनकाले ह
दरू - दरू से
आस - पास से
और जुड़ गया है
अंग - अंग
सहज
क तु / रह यपूण ढं ग से
अटू ट तार से,
चार छोर से
प के डोर से!

अब कहाँ अकेला हँू ?


कतना व तृत हो गया अचानक
प रवार आज मेरा यह!

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जाते - जाते
कैसे बरस पड़ा झर - झर
वशु यार घनेरा यह!
नहलाता आ मा को
गहरे - गहरे !
लहराता मन का
र सरोवर
ओर - छोर
भरे - भरे !

(42) बदलो!

सड़ती लाश क
दग
ु ध िलए
छू ने
गाँव -नगर के
ओर-छोर
जो हवा चली —
उसका ख़ बदलो!

ज़हर ली गैस से
अलकोहल से

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लद -लद
गाँव -नगर के
नभ-मंडल पर
जो हवा चली
उससे सँभलो!
उसका ख़ बदलो!

(43) बचाव

कैसी चली हवा!

हर कोई
केवल
हत अपना
सोचे,
और का ह सा
हड़पे,
कोई चाहे कतना
तड़पे!
घर भरने अपना
और क
बोट -बोट काटे

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नोचे!

इस
सं ामक सामा जक
बीमार क
या कोई नह ं दवा?
कैसी चली हवा!

(44) पहल

घबराए
डरे -सताए
मोह ल म / नगर म / दे श म
यद —
स और सुकून क
बहती
सौ य-धारा चा हए,
आदमी-आदमी के बीच पनपता
यद —
ेम-बंध गहरा भाईचारा चा हए,

तो —

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ववेकशू य अंध- व ास क
क दराओं म
अटके-भटके
आदमी को
इं सान नया बनना होगा।
युगानु प
नया समाज-शा
वरचना होगा!

तमाम
खोखले अ ासंिगक
मज़हबी उसूल को,
आड बर को
याग कर
वै ािनक वचार-भूिम पर
नयी उ नत मानव-सं कृ ित को
गढ़ना होगा।
अिभनव आलोक म
पूण िन ा से
नयी दशा म
बढ़ना होगा!

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इं सानी र त को
सव च मान कर
सहज वाभा वक प म
ढलना होगा,
थायी शा त-राह पर
आ त भाव से
अ वराम अथक
चलना होगा!

क पत द य श के थान पर
‘मनुजता अमर स य’
कहना होगा!
स पूण व को
प रवार एक
जान कर , मान कर
पर पर मेल-िमलाप से
रहना होगा!

वत मान क चुनौितय से
जूझते हए

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जीवन वा तव को
चुनना होगा!
हर मनु य क
राग-भावना, वचारणा को
गुनना-सुनना होगा!

(45) अ त

आदमी —
अपने से पृ थक धम वाले
आदमी को
ेम-भाव से — लगाव से
य नह ं दे खता?
उसे ग़ैर मानता है ,
अ सर उससे वैर ठानता है!
अवसर िमलते ह
अरे , ज़रा भी नह ं झझकता
दे ने क ,
चाहता है दे खना उसे
जड-मूल-न !

दे ख कर उसे

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तनाव म
आ जाता है ,
सव
दभा
ु व भाव
घना छा जाता है !

ऐसा य होता है ?
य होता है ऐसा?

कैसा है यह आदमी?
गज़ब का
आदमी अरे , कैसा है यह?
ख़ूब अजीबोगर ब मज़हब का
कैसा है यह?
सचमुच,
डरावना बीभ स काल जैसा!

जो — अपने से पृ थक धम वाले को
मानता-समझता
केवल ऐसा-वैसा!

(46) व न

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पागल िसर फरे
कसी भटनागर ने
माननीय धन-मं ी ......... क
ह या कर द ,
भून दया गोली से!!

ख़बर फैलते ह
लोग ने घेर िलया मुझको —
‘भटनागर है ,
मारो ... मारो ... साले को!
ह यारा है ... ह यारा है !’

मने उ ह बहत
ु समझाया
चीख-चीख कर समझाया —
भाई, म वैसा ‘भटनागर’ नह ं!
अरे , यह तो फ़कत नाम है मेरा,
उपनाम (सरनेम) नह ं!


‘मह भटनागर हँू ,

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या ‘मह ’ हँू
भटनागर-वटनागर नह ं,
भई, कदा प नह ं!
ज़रा, सोचो-समझो।

ले कन भीड़ सोचती कब है ?
तक सचाई सुनती कब है ?
सब टू ट पड़े मुझ पर
और राख कर दया मेरा घर!!

इितहास गवाह दे —
कन- कन ने / कब-कब / कहाँ-कहाँ
झेली यह वभी षका,
यह ज़ु म सहा?
कब-कब / कहाँ-कहाँ
द र दगी क ऐसी रौ म
मानव समाज
हो पथ- बहा?

वंश हमारा
धम हमारा

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जोड़ा जाता है य
नाम से, उपनाम से?
कोई सहज बता दे —
ईसाई हँू या मु लम
या फर ह द ू हँू
(काय थ एक,
शू कह ं का!),स
कहा करे क
‘नाम है मेरा — मह भटनागर,
जसम न िछपा है वंश, न धम!’
(न और कोई मम!)

अतः कहना सह नह ं —
‘ या धरा है नाम म!’
अथवा
‘जात न पूछो साधु क !’
हे कबीर!
या कोई मानेगा बात तु हार ?
आ ख़र,
कब मानेगा बात तु हार ?

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‘िश त’ समाज म,
‘स य सुसं कृ त’ समाज म
आदमी - सुर त है कतना?
आदमी - अर त है कतना?
हे सव इलाह ,
दे , स य गवाह !

(47) यथाथ ता

जीवन जीना
दभर
ू - दव
ु ह
भार है !
मान
दो नाव क
वकट सवार है !

पैर के नीचे
वष - द ध दधार
ु आर है ,
कंठ - सट
अित ती ण कटार है !

गल - फाँसी है ,

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हर व त
बदहवासी है !

भगदड़ मारामार है ,
ग़ायब
पूरनमासी,
पसर िसफ़
घनी अँिधयार है!

जीवन जीना
लाचार है !
बेहद भार है !

(48) खलाड़

दौड़ रहा हँू


बना के / अ व ांत
िनर तर दौड़ रहा हँू !
दन - रात
रात - दन
हाँफ़ता हआ

बद-हवास,

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जब -तब
िगर -िगर पड़ता
उठता;
धड़-धड़ दौड़ िनकलता!
लगता है —
जीवन - भर
अ वराम दौड़ते रहना
मा िनयित है मेर !
समया तर क सीमाओं को
तोड़ता हआ

अ वरल दौड़ रहा हँू !

बना कये होड़ कसी से


िनपट अकेला,
दे खो —
कस क़दर तेज़ — और तेज़
दौड़ रहा हँू !

तैर रहा हँू


अ वरत तैर रहा हँू
दन - रात

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रात - दन
इधर-उधर
झटकता - पटकता
हाथ - पैर
हारे बग़ैर,
बार - बार
फचकुरे उगलता
तैर रहा हँू !
यह ओल पक का
ठं डे पानी का तालाब नह ं,
खलबल खौलते
गरम पानी का
भाप छोड़ता
तालाब है !
क जसक छाती पर
उलटा -पुलटा
व - म
दे खो,
कैसा तैर रहा हँू !
अगल - बगल
और - और

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तैराक़ नह ं ह
केवल म हँू
म य सर खा
लहराता तैर रहा हँू !
लगता है —
अब, ख़ैर नह ं
कब पैर जकड़ जाएँ
कब हाथ अकड़ जाएँ।
ले कन, फर भी तय है —
तैरता रहंू गा, तैरता रहंू गा!
य क
ख़ूब दे खा है मने
लहर पर लाश को
उतराते ... बहते!

कूद - कूद कर
लगा रहा हँू छलाँग
ऊँ ची - ल बी
तमाम छलाँग-पर-छलाँग!
दन - रात
रात - दन

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कुंदक क तरह
उछलता हँू
बार - बार
घनच कर-सा लौट -लौट
फर - फर कूद उछलता हँू !

तोड़ दये ह पूवािभलेख


लगता है —
पैमाने छोटे पड़ जाएंग!े
उठा रहा हँू बोझ
एक-के-बाद-एक
भार — और अिधक भार
और ढो रहा हँू
यहाँ - वहाँ
दरू - दरू तक —
इस कमरे से उस कमरे तक
इस मकान से उस मकान तक
इस गाँव-नगर से उस गाँव-नगर तक
तपते म थल से शीतल हम पर
समतल से पव त पर!

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ले कन
मेर हँु कृित से
थराता है आकाश - लोक,
मेर आकृ ित से
भय खाता है मृ यु-लोक!
तय है
हारे गा हर दयाघात,
लुंज प ाघात
अमर आ मा के स मुख!
जीव त रहंू गा
मजीवी म,
जीवन-यु रहंू गा
उ मु रहंू गा!

(49) िसफ़त

यह
आदमी है —
हर मुसीबत
झेल लेता है !
वरोधी आँिधय के
ढ़ हार से,

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वकट वपर त धार से
िनडर बन
खेल लेता है !

उसका वेगवान ् अित


गितशील जीवन-रथ
कभी कता नह ,
चाहे कह ं धँस जाय या फँस जाय;
अपने
बु -बल से / बाहु-बल से
वह बना हारे -थके
अ वल ब पार धकेल लेता है !

यह
आदमी है / संयमी है
आफ़त सब झेल लेता है !

(50) बोध- ाि

प रप व
कड़वे अनुभव ने ह
बनाया है मुझे!

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आदमी क ु ताओं ने
सह जीना
िसखाया है मुझे!
व ासघात ने
मोह से कर मु
भेद जीवन का
बताया है मुझे!

ज़माने ने सताया जब
बेइं ितहा,
का य म पीड़ा
तभी तो गा सका,

ममाहत हआ

अपने-पराय से
तभी तो मम
जीवन का / जगत ् का
पा सका!


रचना-काल : सन ् 2002-2004

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काशन-वष : सन ् 2005

काशक : इं डयन प लशस ड यूटस , द ली — 110 06

स ित उपल ध : 'मह भटनागर क क वता-गंगा' [खंड : 3], ‘मह भटनागर-


सम ’ [खंड : 3] म ।

अ ययन:
(1) डा. मह भटनागर- वरिचत ‘राग-संवेदन’: वमश
[ ितभागी]
डा. व नाथ साद ितवार (गोरखपुर),
डा. कृ णकुमार गो वामी ( द ली) ,
डा. िशवकुमार िम (वललभ- व ानगर, गुजरात),
ो. काश द त  वािलयर)
(2) ‘राग-संवेदन’: डा. मह भटनागर- वरिचत अ तन क वताएँ / वीर मोहन
(सागर)
(3) ‘राग-संवेदन’: रागा मकता और िन संगता-बोध क क वताएँ / डा. ऋ षकुमार
चतुवद (रामपुर-उ र दे श)
(4) अनुभ व और अनुभूित क आँच म तपा — ‘राग-संवेदन’ / डा. रामसनेह लाल
शमा ‘यायावर’ (फ़ रोजा़बाद)
(5) ‘राग-संवेदन’: जीवन-दश न का वशद व तार / डा. संतोषकुमार ितवार (सागर)
(6) ‘राग-संवेदन’ का जीवन-राग / डा. ीिनवास शमा (कोलकता)
(7) नव- व छं दतावाद और डा. मह भटनागर का ‘राग-संवेदन’ / डा. आ द य
च डया ( अलीगढ़)
(8) ‘राग-संवेदन’: िनराशा और बु वाद के समानांतर एक रागमय संस ार क रचना
/ डा. जग नाथ पं डत (वललभ- व ानगर, गुजरात)

(9) A Critical Explication of Mahendra Bhatnagar's 'Passion and Compassion'


Dr. Anita myles, Gorakhpur (U.P.)
(10) Mahendra Bhatnagar's 'Passion and Compassion' : 'A Pilgrimage of the
Heart'
Dr. O. P. Mathur, Varanasi (U.P.)

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(11) 'Passion and Compassion' : Poetry Blended with Super Sense and
Perception
Mrs. Purnima Ray, Burdwan (W.B.)
(12) Mahendra Bhatnagar's Compassionate Passion in 'Passion and
Compassion'
Dr. Shaleen Kumar Singh, Budaun (U.P.)
(13) 'Passion and Compassion' : A Review
Dr. B. C. Dwivedy, Dhenkanal (Orissa)
(14) Poems That Ever Haunt : ['Passion and Compassion']
Dr. Narendra Sharma 'Kusum', Jaipur (Raj.)

  

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