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राषटभाषा िहनदी

Posted by: संपादक- िमिथलेश वामनकर on: िसतमबर 2, 2008


• In: िहनदी भाषा व िलिप

• Comment!
राषटभाषा के मामले को, जो इस देश मे बेहद उलझ गया है और उस पर िलखना या बात करना
औसत दजे के पचारको का काम समझा जाने लगा है। आज अपनी भाषा मे िलखने पर भी
लोग भाषा पर बात करना अवािछत समझते है। भाषा का पश मानवीय है, खासकर भारत मे,
जहा सामाजयवादी भाषा जनता को जनतंत से अलग कर रही है। िहनदी और अंगेजी की सपदा
देशी भाषाओं और राषटभाषा के दंद मे बदल गई है, मनो को जोडने वाला सूत तलवार करार दे
िदया गया है, पराधीनता की भाषा सवाधीनता का गवर हो गई है। िनशय ही इसके पीछे दास मन
की सिकयता है। कैसा अजब लगता है, जब कोई इसिलए आंदोलन करे िक हमे दासता दो,
बेिडया पहनाओ !

भाषा के बारे मे हमारा सोच और रवैया वही है जो जीवन के बारे मे है। कोई भी मूलय नष होने
से बचा है िक भाषा और सवािभमान बचे रहे ? मुझे लगता है िक अब राजनीित, नौकरशाही,
पूँजीवाद या सामाजयवाद को कोसना बेकार है; जब तक जनता खुद ही अपना िहत-अनिहत न
देखेगी, तब तक कुछ नही बदलेगा। इसिलए कोई भी समसया हो, वह सीधे जनता को िनवेिदत
या संबोिधत होनी चािहए। लोगो को िवभाजनकारी षडयंतो के हवाले करके हम भाषा के भीतर
कोई संवेदन, कोई हािदरकता पैदा नही कर रहे है।

अिहनदीभाषी अगर गलती से यह समझ रहे हो िक िहनदी न रहेगी तो उनका भला होगा, तो
उनही से बात करनी होगी िक िहनदी चली जाएगी तो अंगेजी आएगी, राजभाषा के रप मे अंगेजी
का चिरत देशी भाषा और जनता से नफरत करना िसखाता है। िहनदी की कोई सपदा देशी
भाषाओं से नही है। वह उनहे फूलते-फलते देखना चाहती है, उनसे आतमालाप करना चाहती
है।

राषटभाषा िहनदी के बारे मे कुछ कहने मे िझझक होती है, कयोिक सौभागय या दुभागय से हम
िहनदीभाषी है, जबिक यह होना हमने नही चुना है। िहनदी को राषटभाषा बनाने का सवप भी
िहनदीभािषयो का नही था। राषटभाषा के रप मे इसकी आवशयकता सबसे पहले
अिहनदीभािषयो ने ही अनुभव की। िहनदीभािषयो ने तो उनके सवर मे सवर िमलाया, तािक उनहे
नाकारा न मान िलया जाए। िफर भी िवडंबना यह है िक उनही पर िहनदी थोपने या िहनदी का
सामजयवाद सथािपत करने का आरोप लगाया जाता है। यह िहनदी हम पर िकसने थोपी है ?
हमारी िहनदी तो संतो-भकतो की गोद मे पली है, आज तक कभी वह सता की मोहताज नही
रही। माखनलाल चतुवेदी के शबदो मे तो वह िसंहासनो से ितरसकृत रही है। िहनदी को कभी
संसकृत, पाली, अरबी, फारसी या अंगेजी की तरह राजयाशय नही िमला। तमगा बनने की
उसकी इचछा रही ही नही, अलबता वह देश की बासुरी, तलवार और ढाल जरर बनी है। जब
भी देश को एक सूत मे िपरोने की जररत पडी, जब भी उसके िवदोह को वाणी देने की
आवशयकता हुई, िहनदी ने पहले की है। तभी राजा राममोहन राय के पहले समाचार-पत की
वह भाषा बनी। गाधी की अखंड भारत की आवाज को उसने जन-जन तक पहुँचाया।
अफीका से लौटने पर जब गाधी जी ने पहला भाषण िहनदी मे िदया था और कुछ लोगो ने
आपित की थी तो उनहोने कहा था िक मै िहनदी मे नही, भारत की भाषा मे बोल रहा हूँ। िहनदी
मे ही सुभाषचंद बोस की ललकार दसो िदशाओं मे गूँजी थी। संभवतः इनही सेवाओं को याद
करके सवतंत भारत के संिवधान मे िहनदी को राषटभाषा और राजभाषा का सममान िदया गया।
भारतीय जनता के संवाद और एकातमता के िलए इस रप मे मात उसकी अिनवायरता को
रेखािकत िकया गया था। कया देश को आज एकातमता और संवाद की जररत नही रह गई है
?

सवाधीनता िनिशंतता और पूणरिवराम नही, एक सतत तप है। िजस िदन इस तथय को कोई देश
भूल जाता है, वही उसके िवघटन का पहला िदन होता है। ठीक उसी वकत देश अपनी पहचान
खोने लगता है और अपने अिसततव से इंकार करने लगता है। आज हम िवघटन के उसी चरम
दौर से गुजर रहे है। राषटभाषा को खािरज करने के बहाने , अनजाने ही हम समसत देशी
भाषाओं को िनरसत करते चले जा रहे है। यह िकसी भयावह संकट की पूवर सूचना है।

िपछले िदनो अथात् उनीसवी शती के उतरादर मे, भारत मे तीन दुघरटनाएँ एक साथ तेजी से
घिटत हुई-उग पातीयतावाद, सापदाियक उनमाद और अंगेजी की पूणर पितषा। ये बाते
अकारण एक साथ पैदा नही हुई-इनका एक-दूसरे से नािभ नाल संबध ं है-ये सभी राषट की
अिसमता को खंिडत करने और उसे िफर से पतयक या अपतयक पराधीनता के अंधे कुएँ मे
धकेलने वाली घटनाएँ है। इन तीनो मामलो मे िवदेशी शिकतयो के साथ िवघटनकारी शिकतयो
की िदलचसपी अकारण नही है।

सबसे पहले आपसे अपनी भाषा छीनी जा रही है, तािक आप िकसी भी मामले मे परसपर
आतमीय संवाद कायम न कर सके, जैसे आकामण सेनाएँ पुलो को उडा देती है। गूँगा और
संवादहीन देश आपस मे िसफर अपना माथा ही फोड सकता है। आपको अपनी भाषा के बदले
जो परदेशी भाषा दी गई है वह जोडने वाली नही है, कयोिक वह भारत की जनता को परसपर
जोडने के िलए लाई भी नही गई थी। गुलामो को अिधक गुलाम बनाने का इससे नायाब तरीका
अंगेजो के पास दूसरा न था।

इस सतय को न समझते हुए आज भी कुछ लोग तकर देते है िक अंगेजी िशका पाए हुए कुछ
लोगो ने ही सवाधीनता और सामािजक सुधारो के िलए संघषर िकया था। यानी अंगेजी िशका ने
ही उनमे सवाधीनता की आकाका पैदा की थी; उनहे सवाधीनता के िलए एकजुट िकया था। यह
सुनकर लगता है िक ये लोग इितहास की कूरता को चुनौती देने वाले इितहास से अपिरिचत
है। िवकलपहीन अवसथा मे हमेशा िवदोही शिकतया पापत साधनो को ही हिथयार बना लेती है,
जैसे आसन उपिसथत शतु से िनपटने के िलए पतथर, डंडा या नाखून तक बंदक ू बन जाते है।
जापािनयो, चीिनयो यहूिदयो यहा तक िक खुद अंगेजो ने भी अपने -अपने पराधीन काल मे
िवजेताओं की भाषाएँ शसतो की तरह इसतेमाल की थी, िजनहे सवाधीनता के बाद सबने फेक
िदया। आज भी अफीकी नीगो, गोरो के िवरद अंगेजी मे ही सािहतय िलख रहे है, परंतु इसकी
तीवर वेदना उनके सािहतय मे झलकती है। इसीिलए वे अपनी बोिलयो के जिरए सवयं अपनी
भाषा गढने मे वयसत है। इस दृिष से िकसी अिनवायर ऐितहािसक तदथरता को पमाण के रप मे
लेना चीजो का सरलीकरण करना और सचचाई को भुलाना है।

सवाधीनता के बाद से हमारे देश मे, िहनदी के बारे मे कुतकों के ऐसे जाल लगातार फैलाए जाते
रहे है। उनही का पिरणाम है िक िहनदी आज तक अपना अिनवायर ऐितहािसक सथान नही पा
सकी है। मेरी जानकारी मे िकसी महततवपूणर सवाधीन राषट मे उसकी राषटभाषा इतने समय
तक अपदसथ नही रही। यहा तो िसथित यह है िक यह िसलिसला लगातार तेज होता जा रहा
है।

यह िसथित कयो पैदा हुई, इसके कया कारण रहे है, इस पर हम अगले पृषो मे िवचार करेगे,
परंतु आज तो देश के आम पढे िलखे लोगो की मानिसकता को इतना पदूिषत िकया जा चुका है
िक कभी-कभी लगता है िक राषटभाषा के बारे मे बात करना और सापदाियक दंगे कराना एक
ही बात है। ऐसी कूर और गुलाम मानिसकता पैदाकरने वाले लोग ही आज बडी हसरत से
अंगेज और अंगेजी राज को याद करते है-इससे कया यह सािबत नही होता िक भारत मे अंगेजो
और अंगेजी राज की भूिमका को अलग करना सरासर नासमझी िदखाना है।

किथत उदारता िदखाते हुए, सवाधीनता के पारंिभक नाजुक और भावनापूणर काल मे हम


भयानक चूक कर बैठे थे। तब कया पता था (जबिक होना चािहए था) िक िहनदी के साथ 15
वषो तक अंगेजी जारी करने का िनणरय िहनदी को अपदसथ करने की भूिमका सािबत होगा।
इस अंतराल मे अंगेजो के उिचछष नौकरशाहो, सवाथी राजनीितजो, िवदेशी शिकतयो, मतलबी
पूँजीपितयो वगैरह ने अपनी रणनीित तैयार कर ली थी और भारतीय भाषाओं तथा पातवाद को
आगे करके राषटभाषा पर चौतरफा आकमण कर िदया था। इितहास मे भी हम देख चुके है िक
मामूली छू ट के सहारे ही ईसट इंिडया कंपनी ने भारत मे अपना जाल फैलाया था और बाद मे
समसत देशी राजयो को एक-एक कर हडपते हएु संपूणर संपभुता हािसल कर ली थी। वही
चिरत तो अंगेजी का है-एक राजभाषा के रप मे।

इितहास और संसकृित के ममरज डॉ. राममनोहर लोिहया ने बहुत सही आंदोलन चलाया था-
अंगेजी हटाओ। इस बारे मे उनहोने उस बुजुगी सलाह को नजर अंदाज कर िदया था िक
िहनदी को समथर बनाइए, नाहक अंगेजी का िवरोध कयो करते है ?’ लोिहया जानते थे िक इस
िदखावटी अिहंसक सलाह के िनिहताथर कया है ? वासतव मे िकसी भी िवदेशी भाषा को
राषटभाषा का िवकलप बनाए रखना पराधीनता को सवाधीनता का िवकलप बनाए रखने की तरह
है। वे यह भी जानते थे िक अंगेजी की उपिसथित मे कोई भी देशी भाषा पनप नही सकती,
कयोिक अपने ऐितहािसक चिरत के अनुरप वह एक से दूसरी को िपटवाने का काम करती
रहेगी।

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