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Shri Guru Gita
Shri Guru Gita
Shri Guru Gita
||ॐ||
ॐ असय शीगुरगीतासतोतमालामंतसय भगिान सदािशिः ऋिषः। ििराट छनदः।
शीगुरपरमातमा दे िता। हं बीजम।् सः शिकः। सोs हं कीलकम।् शीगुरकृ पापसादिसदधयथे
जपे िििनयोगः।।
|| अथ करनयासः||
ॐ हं सां सूयातवमने अंगुषाभयां नमः।
ॐ हं सीं सोमातमने तजन
व ीभयां नमः।
ॐ हं सूं िनरं जनातमने मधयमाभयां नमः।
ॐ हं सै िनराभासातमने अनािमकाभयां नमः।
ॐ हं सः अवयकातमने करतलकरपष
ृ ाभयां नमः।
|| इित करनयासः||
|| अथ हदयािदनयासः||
ॐ हं सां सूयातवमने हदयाय नमः।
ॐ हं सीं सोमातमने िशरसे सिाहा।
ॐ हं सूं िनरं जातमने िशखायै िषट।
ॐ हं सै िनराभासातमने किचाय हुम।्
ॐ हं सौ अतुसूकमातमने नेततयाय िौषट।
ॐ हं सः अवयकातमने असाय फट।
|| इित हदयािदनयासः||
|| अथ धयानम ्||
नमा िम सद गुरं श ानत ं पतयक ं िशिर िपणम।्
िशरसा योगपीठसथ ं मु िककामाथ व िसिद दम।् ।1।।
पात ः िशर िस श ुकलाबजो िि नेत ं िि भुज ं ग ुर म।्
िराभयकर ं श ानत ं स मरेतनन ामप ूि व कम।् ||2||
पसननिदनाक ं च सि व देिसिरिपणम। ्
ततपादोदकजा धारा िनपतिनत सिम ू धव िन। ||3||
तया संकालय ेद द ेहे ह नतबा व ह गतं मल म।्
ततकणा ििरजो भूतिा जायत े सफ िटकोपम ः। ||4||
ती थाव िन दिकण े पाद े ि ेदासतन मुखरिकताः।
पूज येद िच व तं त ं त ु तदिम धया नपूि व क म।् ||5||
||इित धयानम ्||
|| मानसोपचारै ः शीगुरं पूजियतिा||
लं पिृथवयातमने गंधतनमाता पकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय नमः पिृथवयातमकं गंधं
समपय
व ािम।। हं आकाशातमने शबदतनमातापकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय नमः
आकाशातमकं पुषपं समपय
व ािम।। यं िायिातमने सपशत
व नमातापकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय
नमः िायिातमकं धूपं आघापयािम।। रं तेजातमने दशय
व ािम।। िं अपातमने
रसतनमातापकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय नमः अपातमकं नैिेदकं िनिेदयािम।। सं
सिातवमने सित
व नमातापकृ तयाननदातमने शीगुरदे िाय नमः सिातवमकान ् सिोपचारान ्
समपय
व ािम।।
|| इित मानसपूजा||
शीग ुरगीता
|| अथ पथ मोऽधयायः ||
पहला अ धय ाय
जो बह अिचनतय, अवयक, तीनो गुणो से रिहत (िफर भी दे खनेिालो के अजान की
उपािध से) ितगुणातमक और समसत जगत का अिधषान रप है ऐसे बह को नमसकार हो
| (1)
ऋषयः ऊ चुः
सूत उ िाच
शृणुधि ं म ुनयः सि े श दया परय ा म ुदा |
िदािम भ िरोगघनी ं गी ता मा तृ सिरिपणीम ् ||
पाि व तयुिाच
ॐ नमो द ेि द ेि ेश परातपर जगद गुरो |
तिा ं नमसक ु िव ते भकतया सुरास ुरनराः सदा ||
पाित
व ी ने कहा: हे ॐकार के अथस
व िरप, दे िो के दे ि, शष
े ो के शष
े , हे जगदगुरो! आपको
पणाम हो | दे ि दानि और मानि सब आपको सदा भिकपूिक
व पणाम करते है | (11)
आप बहा, ििषणु, इनद आिद के नमसकार के योगय है | ऐसे नमसकार के आशयरप होने
पर भी आप िकसको नमसकार करते है | (12)
इस पकार (पाित
व ी दे िी िारा) बार-बार पाथन
व ा िकये जाने पर महादे ि ने अंतर से खूब
पसनन होते हुए पाित
व ी से इस पकार कहा | (14)
महाद ेि उ िाच
न िकवयिम दं द ेिि रहसया ितरहसयकम ् |
न क सयािप प ुरा पोकं ति दकतयथ व िदािम त त ् ||
हे दे िी ! तुम मेरा ही सिरप हो इसिलए (यह रहसय) तुमको कहता हूँ | तुमहारा यह पश
लोक का कलयाणकारक है | ऐसा पश पहले कभी िकसीने नहीं िकया |
िजसको ईशर मे उतम भिक होती है , जैसी ईशर मे िैसी ही भिक िजसको गुर मे होती है
ऐसे महातमाओं को ही यहाँ कही हुई बात समझ मे आयेगी |
यो गु र स िश िः प ोको , यः िश िः स गुरस मृ तः |
ििक लपं यसत ु कुिीत स नरो गुरतलपग ः ||
हे िपये ! िेद, शास, पुराण, इितहास आिद मंत, यंत, मोहन, उचचाटन आिद ििदा शैि,
शाक आगम और अनय सि व मत मतानतर, ये सब बाते गुरतति को जाने िबना भानत
िचतिाले जीिो को पथभष करनेिाली है और जप, तप वत तीथव, यज, दान, ये सब वयथव
हो जाते है | (19, 20, 21)
शी गुरदे ि का चरणामत
ृ पापरपी कीचड़ का समयक् शोषक है , जानतेज का समयक्
उदीपक है और संसारसागर का समयक तारक है | (25)
‘गु’ कार अंधकार है और उसको दरू करनेिाल ‘र’ कार है | अजानरपी अनधकार को नष
करने के कारण ही गुर कहलाते है | (34)
‘गु’ कार से गुणातीत कहा जता है , ‘र’ कार से रपातीत कहा जता है | गुण और रप से
पर होने के कारण ही गुर कहलाते है | (35)
सि व शु ित िशरोरतििरािज तपदा ंब ुज म ् |
िेदानताथ व पिकार ं तस मातस ंप ूजय ेद ग ुरम ् ||
गुर सि व शिुतरप शष
े रतो से सुशोिभत चरणकमलिाले है और िेदानत के अथ व के पिका
है | इसिलये शी गुरदे ि की पूजा करनी चािहये | (37)
संसार रपी अरणय मे पिेश करने के बाद िदगमूढ़ की िसथित मे (जब कोई माग व नहीं
िदखाई दे ता है ), िचत भिमत हो जाता है , उस समय िजसने माग व िदखाया उन शी
गुरदे ि को नमसकार हो | (41)
इस पथ
ृ िी पर ितििध ताप (आिध-वयािध-उपािध) रपी अगनी से जलने के कारण अशांत
हुए पािणयो के िलए गुरदे ि ही एकमात उतम गंगाजी है | ऐसे शी गुरदे िजी को नमसकार
हो | (42)
हे िपये ! गुर ही ितनेतरिहत (दो नेत िाले) साकात ् िशि है , दो हाथ िाले भगिान ििषणु
है और एक मुखिाले बहाजी है | (46)
दे ि, िकननर, गंधिव, िपतृ, यक, तुमबुर (गंधि व का एक पकार) और मुिन लोग भी गुरसेिा
की िििध नहीं जानते | (47)
यिद गुरतति से पाडमुख हो जाये तो यािजक मुिक नहीं पा सकते, योगी मुक नहीं हो
सकते और तपसिी भी मुक नहीं हो सकते | (49)
न मुकासत ु गन धि व ः िपत ृ यकासत ु चारणाः |
ॠष यः िसदद ेिादाः ग ुरस ेिापराडम ुखा ः ||
गुरसेिा से ििमुख गंधिव, िपतृ, यक, चारण, ॠिष, िसद और दे िता आिद भी मुक नहीं
होगे |
|| अथ िितीयोऽधयायः ||
द ू सरा अ धय ाय
करणारपी तलिार के पहार से िशषय के आठो पाशो (संशय, दया, भय, संकोच, िननदा,
पितषा, कुलािभमान और संपित ) को काटकर िनमल
व आनंद दे नेिाले को सदगुर कहते है
| ऐसा सुनने पर भी जो मनुषय गुरिननदा करता है , िह (मनुषय) जब तक सूयच
व नद का
अिसतति रहता है तब तक घोर नरक मे रहता है | (55, 56)
शी गुरदे ि के समक पजािान ् िशषय को कभी हुँकार शबद से (मैने ऐसे िकया... िैसा
िकया ) नहीं बोलना चािहए और कभी असतय नहीं बोलना चािहए | (58)
संपूणव ततिज भी यिद गुर का तयाग कर दे तो मतृयु के समय उसे महान ् ििकेप अिशय
हो जाता है | (62)
गुर के आशम मे नशा नहीं करना चािहए, टहलना नहीं चािहए | दीका दे ना, वयाखयान
करना, पभुति िदखाना और गुर को आजा करना, ये सब िनिषद है | (64)
गुर के आशम मे अपना छपपर और पलंग नहीं बनाना चािहए, (गुरदे ि के सममुख) पैर
नहीं पसारना, शरीर के भोग नहीं भोगने चािहए और अनय लीलाएँ नहीं करनी चािहए |
(65)
गुरणा ं सदसिािप यद ु कं तनन लंघय ेत ् |
कुि व ननाजा ं िदिारातौ दासि िननिस ेद गुरौ ||
गुरओं की बात सचची हो या झूठी, परनतु उसका कभी उललंघन नहीं करना चािहए | रात
और िदन गुरदे ि की आजा का पालन करते हुए उनके सािननधय मे दास बन कर रहना
चािहए | (66)
जो दवय गुरदे ि ने नहीं िदया हो उसका उपयोग कभी नहीं करना चािहए | गुरदे ि के
िदये हुए दवय को भी गरीब की तरह गहण करना चािहए | उससे पाण भी पाप हो सकते
है | (67)
पादक
ु ा, आसन, िबसतर आिद जो कुछ भी गुरदे ि के उपयोग मे आते हो उन सि व को
नमसकार करने चािहए और उनको पैर से कभी नहीं छूना चािहए | (68)
चलते हुए गुरदे ि के पीछे चलना चािहए, उनकी परछाई का भी उललंघन नहीं करना
चािहए | गुरदे ि के समक कीमती िेशभूषा, आभूषण आिद धारण नहीं करने चािहए |
(69)
गुरदे ि की िननदा करनेिाले को दे खकर यिद उसकी िजहा काट डालने मे समथव न हो तो
उसे अपने सथान से भगा दे ना चािहए | यिद िह ठहरे तो सियं उस सथान का पिरतयाग
करना चािहए | (70)
मुिनिभ ः प ननग ैिा व िप स ुर ैिा शा िपतो यिद |
कालम ृ तयुभयािािप ग ुर ः स ं ताित पाि व ित ||
हे पित
व ी ! मुिनयो पननगो और दे िताओं के शाप से तथा यथा काल आये हुए मतृयु के
भय से भी िशषय को गुरदे ि बचा सकते है | (71)
हदय मे अंगुष मात पिरणाम िाले चैतनय पुरष का धयान करना चािहए | िहाँ जो भाि
सिुिरत होता है िह मै तुमहे कहता हूँ, सुनो | (76)
अजोऽ हममरोऽह ं च हनािदिन धनोहहम ् |
अििकारिश दा ननदो ह िणयान ् महतो महान ् ||
मै अजनमा हूँ, मै अमर हूँ, मेरा आिद नहीं है , मेरी मतृयु नहीं है | मै िनििक
व ार हूँ, मै
िचदाननद हूँ, मै अणु से भी छोटा हूँ और महान ् से भी महान ् हूँ | (77)
हे पित
व ी ! बह को सिभाि से ही अपूि व (िजससे पूि व कोई नहीं ऐसा), अिितीय, िनतय,
जयोितसिरप, िनरोग, िनमल
व , परम आकाशसिरप, अचल, आननदसिरप, अििनाशी,
अगमय, अगोचर, नाम-रप से रिहत तथा िनःशबद जानना चािहए | (78, 79)
िजस पकार कपूर, िूल इतयािद मे गनधति, (अिगन मे) उषणता और (जल मे) शीतलता
सिभाि से ही होते है उसी पकार बह मे शशतता भी सिभाििसद है | (80)
िजस पकार कटक, कुणडल आिद आभूषण सिभाि से ही सुिण व है उसी पकार मै सिभाि
से ही शाशत बह हूँ | (81)
सियं िैसा होकर िकसी-न-िकसी सथान मे रहना | जैसे कीडा भमर का िचनतन करते-
करते भमर हो जाता है िैसे ही जीि बह का धयान करते-करते बहसिरप हो जाता है |
(82)
गुरोधया व नेन ैि िनतय ं दे ही ब हमयो भि ेत ् |
िसथत श यतक ुतािप म ुकोऽसौ नात स ं शयः ||
सदा गुरदे ि का धयान करने से जीि बहमय हो जाता है | िह िकसी भी सथान मे रहता
हो ििर भी मुक ही है | इसमे कोई संशय नहीं है | (83)
मोक की आकांका करनेिालो को गुरभिक खूब करनी चािहए, कयोिक गुरदे ि के िारा ही
परम मोक की पािप होती है | (91)
गुरदे ि ही सतिगुणी होकर ििषणुरप से जगत का पालन करते है , रजोगुणी होकर बहारप
से जगत का सजन
व करते है और तमोगुणी होकर शंकर रप से जगत का संहार करते है
| (94)
तसयािलोकन ं पापय स िव संग ििििज व तः |
एकाकी िनःसप ृ हः शा नत ः सथातवय ं ततपसादत ः ||
ऐसा पुरष जहाँ रहता है िह सथान पुणयतीथव है | हे दे िी ! तुमहारे सामने मैने मुक पुरष
का लकण कहा | (97)
हे िपये ! मनुषय चाहे चारो िेद पढ़ ले, िेद के छः अंग पढ़ ले, आधयातमशास आिद
अनय सिव शास पढ़ ले ििर भी गुर के िबना जान नहीं िमलता | (98)
पतथरो के समूह को तैराने का जान पतथर मे कहाँ से हो सकता है ? जो खुद तैरना नहीं
जानता िह दस
ू रो को कया तैरायेगा | (103)
भेदबुिद उतनन करनेिाले, सीलमपट, दरुाचारी, नमकहराम, बगुले की तरह ठगनेिाले, कमा
रिहत िननदनीय तको से िितंडािाद करनेिाले, कामी कोधी, िहं सक, उग, शठ तथा अजानी
और महापापी पुरष को गुर नहीं करना चािहए | ऐसा ििचार करके ऊपर िदये लकणो से
िभनन लकणोिाले गुर की एकिनष भिक से सेिा करनी चािहए | (105, 106, 107 )
गुरगीता के समान अनय कोई सतोत नहीं है | गुर के समान अनय कोई तति नहीं है |
समग धम व का यह सार मैने कहा है , यह सतय है , सतय है और बार-बार सतय है |
(108)
जो कोई इसका उपयोग लौिकक कायव के िलए करे गा िह जानहीन होकर संसाररपी सागर
मे िगरे गा | जान भाि से िजस कमव मे इसका उपयोग िकया जाएगा िह कमव िनषकम व मे
पिरणत होकर शांत हो जाएगा | (110)
गुरगीता अकाल मतृयु को रोकती है , सब संकटो का नाश करती है , यक राकस, भूत, चोर
और बाघ आिद का घात करती है | (115)
इस गुरगीता का पाठ करनेिाले पर सिव पाणी मोिहत हो जाते है बनधन मे से परम मुिक
िमलती है , दे िराज इनद को िह िपय होता है और राजा उसके िश होता है | (118)
यिद िह (ििधिा) सकाम होकर जप करे तो अगले जनम मे उसको संताप हरनेिाल
अिैधवय (सौभागय) पाप होता है | उसके सब दःुख भय, ििघन और संताप का नाश होता
है | (125)
यिद कोई इस गुरगीता को िलखकर उसकी पूजा करे तो उसे लकमी और मोक की पािप
होती है और ििशेष कर उसके हदय मे सिद
व ा गुरभिक उतपनन होती रहती है | (127)
शिक के, सूय व के, गणपित के, िशि के और पशुपित के मतिादी इसका (गुरगीता का)
पाठ करते है यह सतय है , सतय है इसमे कोई संदेह नहीं है | (128)
जपं हीनासन ं कुि व न ् हीनकमा व फ लपदम ् |
गुरगीता ं पयाण े िा संगाम े िरप ु संकट े ||
जपन ् जयमिापन ोित मरण े मुिकदाियका |
सिव कमािण िसदयिनत गुरप ुत े न स ं शयः ||
हे दे िी ! कुश और दि
ु ा व के आसन पर सिेद कमबल िबछाकर उसके ऊपर बैठकर एकाग
मन से इसका (गुरगीता का) जप करना चािहए (136)
सामनयतया सिेद आसन उिचत है परं तु िशीकरण मे लाल आसन आिशयक है | हे िपये
! शांित पािप के िलए या िशीकरण मे िनतय पदासन मे बैठकर जप करना चािहए |
(137)
काले मग
ृ चमव और दभास
व न पर बैठकर जप करने से जानिसिद होती है , वयागचमव पर जप
करने से मुिक पाप होती है , परनतु कमबल के आसन पर सि व िसिद पाप होती है |
(139)
उतर िदशा की ओर मुख करके पाठ करने से शांित, पूि व िदशा की ओर िशीकरण, दिकण
िदशा की ओर मारण िसद होता है तथा पिशम िदशा की ओर मुख करके जप-पाठ करने
से धन पािप होती है | (141)
|| अथ तृ तीयोऽधयायः ||
तीसरा अधया य
हे दे िी ! कलप पयन
व त के, करोड़ो जनमो के यज, वत, तप और शासोक िकयाएँ, ये सब
गुरदे ि के संतोषमात से सफल हो जाते है | (147)
िजसके अंदर गुरभिक हो उसकी माता धनय है , उसका िपता धनय है , उसका िंश धनय
है , उसके िंश मे जनम लेनेिाले धनय है , समग धरती माता धनय है | (150)
इसी पकार जानी सदा परमातमा के साथ अिभनन होकर रात-िदन आनंदििभोर होकर
सित
व ििचरते है | (154)
गुरभिक ही सबसे शष
े तीथ व है | अनय तीथव िनरथक
व है | हे दे िी ! गुरदे ि के चरणकमल
सित
व ीथम
व य है | (157)
जो चतुर हो, िििेकी हो, अधयातम के जाता हो, पिित हो तथा िनमल
व मानसिाले हो
उनमे गुरति शोभा पाता है | (161)
गुर िनमल
व , शांत, साधु सिभाि के, िमतभाषी, काम-कोध से अतयंत रिहत, सदाचारी और
िजतेिनदय होते है | (162)
सू चकािद पभ ेदेन ग ुरिो बह ु धा सम ृ ताः |
सिय ं समयक ् परीक याथ ततििनष ं भज ेतस ु धीः ||
सूचक आिद भेद से अनेक गुर कहे गये है | िबिदमान ् मनुषय को सियं योगय ििचार
करके ततििनष सदगुर की शरण लेनी चािहए| (163)
हे पाित
व ी ! धमाध
व म व का ििधान करनेिाली, िण व और आशम के अनुसार ििदा का पिचन
करनेिाले गुर को तुम िाचक गुर जानो | (165)
पंचाकरी आिद मंतो का उपदे श दे नेिाले गुर बोधक गुर कहलाते है | हे पाित
व ी ! पथम दो
पकार के गुरओं से यह गुर उतम है | (166)
मोहन, मारण, िशीकरण आिद तुचछ मंतो को बतानेिाले गुर को ततिदशी पंिडत िनिषद
गुर कहते है | (167)
हे पाित
व ी ! ततिमिस आिद महािाकयो का उपदे श दे नेिाले तथा संसाररपी रोगो का
िनिारण करनेिाले गुर कारणाखय गुर कहलाते है | (169)
अनेक जनमो के िकये हुए पुणयो से ऐसे महागुर पाप होते है | उनको पाप कर िशषय
पुनः संसारबनधन मे नहीं बँधता अथात
व ् मुक हो जाता है | (171)
हे पित
व ी ! इस पकार संसार मे अनेक पकार के गुर होते है | इन सबमे एक परम गुर
का ही सेिन सिव पयतो से करना चािहए | (172)
पाि व तयुिाच
सिय ं म ूढा म ृ तयुभीताः स ु कृताििर ितं गताः |
दैििनन िषदग ुरगा यिद त ेष ां त ु का गित ः ||
पि व ती ने कहा
पकृ ित से ही मूढ, मतृयु से भयभीत, सतकम व से ििमुख लोग यिद दै ियोग से िनिषद गुर
का सेिन करे तो उनकी कया गित होती है | (173)
शीमहाद ेि उिा च
िन िषदग ुर िशषयसत ु द ु षसंकल पद ू िषत ः |
बहप लयप यव न तं न पुनया व ित म ृ तयताम ् ||
हे पाित
व ी ! िजस पकार जलाशयो मे सागर राजा है उसी पकार सब गुरओं मे से ये परम
गुर राजा है | (177)
िजनके दशन
व मात से मन पसनन होता है , अपने आप धैयव और शांित आ जाती है िे परम
गुर है | (181)
हे पाित
व ी ! सुनो | ततिज दो पकार के होते है | मौनी और िका | हे िपये ! इन दोनो मे
से मौनी गुर िारा लोगो को कोई लाभ नहीं होता, परनतु िका गुर भयंकर संसारसागर को
पार कराने मे समथ व होते है | कयोिक शास, युिक (तकव) और अनुभूित से िे सिव संशयो
का छे दन करते है | (183, 184)
अपना कुल, धन, बल, शास, नाते-िरशतेदार, भाई, ये सब मतृयु के अिसर पर काम नहीं
आते | एकमात गुरदे ि ही उस समय तारणहार है | (186)
सचमुच, अपने गुरदे ि की सेिा करने से अपना कुल भी पिित होता है | गुरदे ि के तपण
व
से बहा आिद सब दे ि तप
ृ होते है | (187)
हे दे िी ! सिरप के जान के िबना िकये हुए जप-तपािद सब कुछ नहीं िकये हुए के बराबर
है , बालक के बकिाद के समान (वयथव) है | (188)
गुरदीका से ििमुख रहे हुए लोग भांत है , अपने िासतििक जान से रिहत है | िे सचमुच
पशु के समान है | परम तति को िे नहीं जानते | (189)
इसिलये हे िपये ! कैिलय की िसिद के िलए गुर का ही भजन करना चािहए | गुर के
िबना मूढ लोग उस परम पद को नहीं जान सकते | (190)
िेद और शास के अनुसार ििशेष रप से गुर की भिक करने से गुरभक घोर पाप से भी
मुक हो जाता है | (192)
दज
ु न
व ो का संग तयागकर पापकम व छोड़ दे ने चािहए | िजसके िचत मे ऐसा िचह दे खा
जाता है उसके िलए गुरदीका का ििधान है | (193)
हे दे िी ! िजसका िचत अतयनत पिरपकि हो, शदा और भिक से युक हो उसे यह तति
सदा मेरी पसननता के िलए कहना चािहए | (196)
नािसतक, कृ तघन, दं भी, शठ, अभक और ििरोधी को यह गुरगीता कदािप नहीं कहनी
चािहए | (198)
सीलमपट, मूखव, कामिासना से गसत िचतिाले तथा िनंदक को गुरगीता िबलकुल नहीं
कहनी चािहए | (199)
एकाकर मंत का उपदे श करनेिाले को जो गुर नहीं मानता िह सौ जनमो मे कुता होकर
िफर चाणडाल की योिन मे जनम लेता है | (200)
गुर का तयाग करने से मतृयु होती है | मंत को छोड़ने से दिरदता आती है और गुर एिं
मंत दोनो का तयाग करने से रौरि नरक िमलता है | (201)
िशि के कोध से गुरदे ि रकण करते है लेिकन गुरदे ि के कोध से िशिजी रकण नहीं
करते | अतः सब पयत से गुरदे ि की आजा का उललंघन नहीं करना चािहए | (202)
सप कोिटमहा मंतािशत ििभ ं शकारकाः |
एक एि म हाम ंतो गुरिरतयकरियम ् ||
हे महे शरी ! यह रहसय अतयंत गुप रहसय है | पािपयो को िह नहीं िमलता | अनेक
जनमो के िकये हुए पुणय के पिरपाक से ही मनुषय गुरतति को पाप कर सकता है |
(206)
शी सदगुर के चरणामत
ृ का पान करने से और उसे मसतक पर धारण करने से मनुषय
सिव तीथो मे सनान करने का फल पाप करता है | (207)
गुरदे ि के चरणामत
ृ का पान करना चािहए, गुरदे ि के भोजन मे से बचा हुआ खाना,
गुरदे ि की मूितव का धयान करना और गुरनाम का जप करना चािहए | (208)
गुरर ेको ज गतसि व ब हििषण ु िशिातमकम ् |
गुरोः परतर ं ना िसत तसमातस ंप ूज येद गुरम ् ||
बहा, ििषणु, िशि सिहत समग जगत गुरदे ि मे समाििष है | गुरदे ि से अिधक और कुछ
भी नहीं है , इसिलए गुरदे ि की पूजा करनी चािहए | (209)
गुरदे ि के पित (अननय) भिक से जान के िबना भी मोकपद िमलता है | गुर के मागव पर
चलनेिालो के िलए गुरदे ि के समान अनय कोई साधन नहीं है | (210)
हे पभो ! अजानरपी अंधकार मे अंध बने हुए और ििषयो से आकानत िचतिाले मुझको
जान का पकाश दे कर कृ पा करो | (214)
|| इित शी सकानदोतरखणड े उमामह ेशरस ंिाद े श ी ग ुरगीताया ं तृ ती योऽधयायः ||