Manas Katha PDF

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ीरामचिरतमानस-कथा

मानसमें तीस कथाएँ

प िवभूषण जग ु रामान◌ाचाय
वामी रामभ ाचाय
ीरामचिरतमानस-कथा—मानसमें तीस कथाएँ
ीरामचिरतमानस-कथा
मानसमें तीस कथाएँ

वाचक
धमच वत महामहोपा याय किवकलर वाच पित प िवभूषण
महाकिव ीिच कटतुलसीपीठाधी र जग ु रामान◌ाचाय
वामी रामभ ाचाय
जीवन पय◌ कलािधपित
जग ु रामभ ाचाय िवकला िव िव ालय
िच कट

संपादन
डॉ. रामाधार शमा और िन यान िम

जग ु रामभ ाचाय िवकला िव िव ालय, िच कट


२०१७
काशक
जग ु रामभ ाचाय िवकला िव िव ालय
कव , िच कट, उ र देश २१०२०४, भारत
www.jrhu.com

थम सं करण: िच कट, जनवरी २०१७

यौछावर: ३०० पये मा

© २०१७ वामी रामभ ाचाय

ISBN-13: 978-93-82253-05-1
ISBN-10: 93-82253-05-X

आवरण- परखा: िन यान◌ िम

चाण सं कृत म अ र-संयोजन: िन यान◌ िम

मु क
Nik & Nik Graphic
Sheetal Vishram, Opp. Kalyani Complex
Langer Toli Chauraha, Patna 800004, India
nikandnikgraphic@gmail.com
संकेता र-सूची
अ.को. अमरकोश
अ.रा. अ या म-रामायण
अ.शा. अिभ ानशाक◌ल
ई.उ. ई ा योपिनष
ऋ.वे. ऋ वेद
क. उ. कठोपिनष
क. किवतावली
का.िव.◌ो. काशीिव नाथा क◌ो
क.स. कमारस भव
गी. गीतावली
चा.नी. चाण‍ नीित
त.सं. तकसं ह
तै.उ. तैि रीयोपिनष
दु.स. दुगास शती
दो. दोहावली
ना.भ.सू. ीनारदभि सू
नी.श. नीितशतक
प.पु. प पुराण
पा.सू. पािणनीय सू
पृ.रा. पृ वीराज-रासो
बृ.उ. बृहदार यकोपिनष
.सू. सू
भ.गी. ीम गव ीता
भ.गी.शा.भा. ीम गव ीता शांकरभा य
भ.पु. भिव य-पुराण
भ.मा. ीभ माल
भा.पा.सू. महाभा य पािणनीय सू
भा.पु. ीम ागवत-पुराण
म.भा. महाभारत गीता ेस सं करण
म. मृ. मनु मृित
मा. ीरामच रतमानस तुलसीपीठ सं करण
मा.गी. े. ीरामच रतमानस गीता ेस सं करण
मा.पु. माक डय-पुराण
मु.उ. मु डकोपिनष
र.वं. रघुवंश
रा.र.◌ो. ीरामर ा◌ो
रा.◌.◌ो. ीराम◌वराज◌ो
ल.िस.कौ. लघुिस ा◌कौमुदी
वा.रा. वा मीक य रामायण
िव.प. िवनयपि का
िव.पु. िव णुपुराण
वृ.र. वृ र ाकर
वै.सू. वैशेिषक-सू
श.◌ो. शत◌ो ी
िश.पु. िशवपुराण
िश.व. िशशुपालवध
शु.य.वे. शु यजुवद (मा य ◌नी संिहता)
े.उ. ेता तरोपिनष
स.दु. स ोक दुगा
सां.का. सां यका रका
सा. साकत महाका य
क.पु. क◌पुराण
ह.चा. ीहनुमा -चालीसा
ह.ना. हनुमा ाटक
िह. िहतोपदेश

vi
िवषय-सूची
संपादकीय ix

भूिमका १

थम पु प २१
ीरामच रतमानसम ३० कथाएँ ‍ ? . . . . . . . . . . . . . . . . २९
कथा १: िनज संदेह ... हरनी (मा. १.३१.४) . . . . . . . . . . . . . ३३

ि तीय पु प ४५
कथा २: िनज ... मोह ... हरनी (मा. १.३१.४) . . . . . . . . . . . . ४८
कथा ३: िनज ... म हरनी (मा. १.३१.४) . . . . . . . . . . . . . ५३

तृतीय पु प ७५
कथा ४: करउ कथा भव स रता तरनी (मा. १.३१.४) . . . . . . . . . . ८५
कथा ५: बुध िब ाम (मा. १.३१.५) . . . . . . . . . . . . . . . . ८६
कथा ६: सकल जन रजिन (मा. १.३१.५) . . . . . . . . . . . . . . ९३
कथा ७: रामकथा किल कलष िबभंजिन (मा. १.३१.५) . . . . . . . . . ९८

चतुथ पु प १०५
कथा ८: रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६) . . . . . . . . . . . १०९
कथा ९: पुिन िबबेक पावक कह अरनी (मा. १.३१.६) . . . . . . . . . . १२६
प म पु प १२९
कथा १०: रामकथा किल कामद गाई (मा. १.३१.७) . . . . . . . . . . १३५
कथा ११: सुजन सजीविन मू र सुहाई (मा. १.३१.७) . . . . . . . . . . १४२
कथा १२: सोइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८) . . . . . . . . . . १८८
ष पु प २०५
कथा १३: भय भंजिन (मा. १.३१.८) . . . . . . . . . . . . . . . . २०६
स म पु प २२९
कथा १४: म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८) . . . . . . . . . . . . . २२९
अ म पु प २४९
कथा १५: असुरसेन सम नरक िनकिदिन (मा. १.३१.९) . . . . . . . . . २४९
कथा १६: साधु िबबुध कल िहत िग रनंिदिन (मा. १.३१.९) . . . . . . . . २५५
कथा १७: संत समाज पयोिध रमा सी (मा. १.३१.१०) . . . . . . . . . . २५८
कथा १८: िव भार भर अचल छमा सी (मा. १.३१.१०) . . . . . . . . . २६१
कथा १९: जम गन मुँह मिस जग जुमना सी (मा. १.३१.११) . . . . . . . . २६२
कथा २०: जीवन मुकित हतु जनु कासी (मा. १.३१.११) . . . . . . . . . २६३
कथा २१: रामिह ि य पाविन तुलसी सी (मा. १.३१.१२) . . . . . . . . . २६७
कथा २२: तुलसीदास िहत िहय लसी सी (मा. १.३१.१२) . . . . . . . . २६९
कथा २३: िशवि य मेकल शैल सुता सी (मा. १.३१.१३) . . . . . . . . . २७१
कथा २४: सकल िसि (मा. १.३१.१३) . . . . . . . . . . . . . . . २७५
कथा २५: सुख (मा. १.३१.१३) . . . . . . . . . . . . . . . . . . २८०
कथा २६: संपित रासी (मा. १.३१.१३) . . . . . . . . . . . . . . . २८२

नवम पु प २८७
कथा २७: सदगुन सुरगन अंब अिदित सी (मा. १.३१.१४) . . . . . . . . २८८
कथा २८: रघुबर भगित (मा. १.३१.१४) . . . . . . . . . . . . . . . ३०३
कथा २९: ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४) . . . . . . . . . . . . . . ३०९
कथा ३०: रामकथा मंदािकनी (मा. १.३१) . . . . . . . . . . . . . . ३१२

ीसीतारामजीकी आरती ३१७

ीरामचिरतमानसजीकी आरती ३१९

viii
संपादकीय
अकारणक णाव णालय भगवा ीसीतारामजी ेहवश हम मानव शरीर दान करते ह।
िजनक िवषयम भ मालकारने किल कुिटल जीव िन ारिहत वा मीिक तुलसी भयो
(भ.मा. १२९) कहा, ऐसे किलपावनावतार गो वामी तुलसीदासजी महाराजक कालजयी कित
रामच रतमानसम यह घोषणा ह वयं रघुनाथजीक अथा जीव क नाथक । उ◌ ने आगे कहा
िक यह मानव शरीर ही भवसागरक िलए बेड़ा ह, भुक कपा ही अनुकलताक वायु ह, स ु
ही उस नौकाक अिवचल कणधार ह; ये सब ह तो दुलभ साज पर जीवने उनको सुलभ करक
पा िलया ह। जो मनु य इस सु◌र समाजको पाकर भी भवसागरको पार नह कर पाता वह
भुक ित कत ह और वह आ मह यारक गितको ा करता ह—
कब क किर क ना नरदेही। देत ईश िबनु हेतु सनेही॥
नरतनु भवबािरिध कह बेरो। स मुख म त अनु ह मेरो॥
करनधार सदगु ढ़ नावा। दुलभ साज सुलभ किर पावा॥
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत िनंदक मंदमित आ माहन गित जाइ॥
(मा. ७.४४.६–८, ७.४४)
जैसा िक गो वािमपादक ित ा ह नानापुराणिनगमागमस मत (मा. १ म. ो. ७),
यह भलीभाँित ◌ि गोचर होता ह। अब यह देिखये—
नृदेहमा ं सुलभं सुदुलभं वं सुक पं गु कणधार ।
मयानुकूलेन नभ वतेिरतं पुमा भवाि धं न तरे स आ महा॥
(भा.पु. ११.२०.१७)
अथा मनु य का शरीर सब फल का मूल ह और दुलभ होते ए भी सुलभतासे िमला ह।
भवसागर पार करनेक िलए यह सु◌ढ नौका ह। स ु ही इसक कणधार (कवट) ह। भगवा
कहते ह िक मेरी कपा पी अनुकल पवनसे यह नौका े रत अथा ल यक ओर अ सर भी
ह। इतना होनेपर भी जो मनु य इस संसार-सागर क पार नह करता वह आ मघाती ह।
अब देिखए, िकतनी ग भीर बातको िकतनी सहजतासे गो वामीजीने कहा ह। उसे समझना
होगा। पर कसे? उ र ऊपर ही िनिहत ह गु कणधार । तभी तो गु देव भगवा कहते
ह—य मानसे त मानसे, जो रामच रतमानसम नह ह वह भारतीय मानसम भी नह ह।
हम सब लोग का परम सौभा य ह िक मानसजीम िनिहत गूढाथको सहज पसे
सोदाहरण ◌ुत करनेक िलए हमार बीच पदवा‍ माणपारावारीण िनगमागमपार◌ ा
किवतािककचूडामिण सार वतसावभौम प डत का ड परमहस प र ाजकाचाय ि द डी र
ीरामच रतमानस-कथा संपादक य

ीिच कटतुलसीपीठाधी र धमच वत महामहोपा याय प िवभूषण-स मािनत वाच पित


जग ु रामान◌ाचाय वामी रामभ ाचायजी महाराज कणधारक पम उप थत ह।
य तो भवसागर पार जानेक िलए संत और िव ान ने िविभ पंथ क चचा क ह—जैसे,
ान-पंथ, वैरा य-पंथ, और भि -पंथ—पर◌ु ीरामच रतमानसका ता◌य तो भि ही ह। और
हो भी ‍ नह ? ीम ागवत क माहा यम आया ह िक भि माँ ह और ान और वैरा य
उनक पु । अतः भि क न होने पर तो ान और वैरा यक पु ता संिद ध हो जायेगी तथा वह
पु भी तो कपु ही कहलायेगा जो माँका ही िनरादर कर दे। तभी तो गो वामीपाद मानसम
कहते ह—
िधग जीवन देवशरीर हरे। तव भि िबना भव भूिल परे॥
(मा. ६.११.९)
जे यान मान िबम तव भव हरिन भि न आदरी।
ते पाइ सुर दुलभ पदादिप परत हम देखत हरी।
(मा. ७.१३.३)
भि वतं सकल सुख खानी। िबनु सतसंग न पाविह ानी॥
(मा. ७.४५.५)
मोदीनगर, मेरठक भि रसा◌ािवत रिसक ने इस भि क ाि क िलए ही स संग मागको
अपनाया ‍ िक िबनु सतसंग न पाविह ानी, और वे शरणागत ए समथ कणधार जग ु
रामान◌ाचाय वामी रामभ ाचायजी महाराजक। ीरामचिरतमानस-कथा—मानसमें तीस
कथाएँ शीषक वाली रामकथाका ार भ १७ िसत बर २०१६को आ और िव ाम २५ िसत बर
२०१६को। गु देव भगवा क कथा- वचन का यह साठवाँ वष चल रहा ह जो १४ जनवरी २०१७
को पूण होगा। भि , ान, और वैरा यसे संपृ इस सौ य कथाने इस सौ य संव सरम हम
सबको आ ािदत िकया। ब ऐसा कहा जाता ह िक वा मीिक रामायणक रचना २४ हजार
ोक म इसिलए क गयी ‍ िक गाय ीजीक वण क सं या २४ ह। गु देवक अवधारणा ह
िक गाय ीका जप या ितय सिहत होता ह और या ितय सिहत गाय ीजी ३० वण क हो
जाती ह, अतः वा मीिकजी क गाय ीम◌ क या या का प र कार करते ए वा मी‍वतार
तुलसीदासजी महाराजने मानसजीम ३० कथाएँ गु फत क । ‍ा ही अ त अवधारणा ह!
इस कथाक िवल णताका अनुमान तो पाठक पढ़कर ही लगा लगे। कथाक श द म यिद
सागरक गहराई ह तो भाव म िहमालयक ऊचाई ह। िवषमसे िवषम िवषय का सरलतया
िन पादन ह। गो वामी तुलसीदासक सम वयवादक तरह ही अनेकानेक िवषय , िस ा◌ , और
आ यान का रामकथासे अलौिकक सम वय ह। कह देवी दुगा म सम◌ देव क तेजक एक थ
होनेक आ यानक साथ रामकथाका सम वय थािपत िकया गया ह, तो कह सां यशा म
ितपािदत उप थत व◌ुको भी न देख पानेक आठ कारण क साथ सम वय िदखाया गया ह।
गु देवक यि वम यिद कछ सम ह तो वह ह उनक सरलता, तरलता, स दयता, इ यािद
िजसे हम छकर भी नह छ पाते। इसी सरलताम गु वरका आदेश हो गया इन नौ िदवसीय
वचन को पु◌काकार प देने का और वह भी िदस बर २०१६ तक ही। िवषयका गा भीय,

x
संपादक य ीरामच रतमानस-कथा

वाचकक ानग रमाम डत मह ा, और अपनी अ तासे हमलोग ल त और संकिचत


हो रह थे। हाम भरने का साहस नह कर पा रह थे पर आ या िसर पर नाथ तु हारी (मा.
१.७७.४)। अ◌तः यह काय ार भ िकया गया। पु◌काकार प देने म य -त कछ अिनवाय
प रवतन भी िकये गये ह। वचन-कालम िकसी िवषयको सु प करने हतु क गयी पुन ि को
छोड़ भी िदया गया ह तथा कछ थल पर सु प ता हतु गु देवक ही वा≠यिनिधसे कछ र को
जोड़ भी िदया गया ह, पर◌ु सव यह महाराज ीक अनुमोदनसे ही आ ह। इतना यान रखा
गया ह िक िवषयानु मिणका सवथा तदनुवत हो एवं भाव, भाषा, तथा शैली पूवव रह।
एक बात और, इस बार मानसजीक छ◌ और चौपाई इ यािदक का पाठ गु देवने स वर
िकया ह। अतएव य -त जो माि क िवकितयाँ देखी जाती ह उनका भी यान इस पु◌कम
रखा गया ह। सामा यतः ए कार तथा ओ कार गु (ि माि क) होते ह पर छ◌ और गायनक
अनुरोधसे यह कभी-कभी लघु (एकमाि क) भी होते ह, यथा मन जािह राँचॆउ िमिलिह सो
बर सहज सु र साँवरो (मा. १.२३६.९)। यहाँ राँचॆउ म ए कार एकमाि क ह, अत: व
मा ािच (चॆ )का योग िकया गया। यही थित ओ कारम भी ह यथा सॊइ बसुधातल सुधा
तरिगिन (मा. १.३१.८)। यहाँ सॊइम ओ कार एकमाि क ह, अत: व मा ािच (सॊ )का
योग िकया गया। यास िकया गया ह िक पाठम इसका सव अनुसरण िकया जाए। िफर
भी म- माद-िव िल सा-करणापाटवािद स भा य दोष तथा हम लोग क अ ानताक कारण
जो भी ुिटयाँ रह गय ह गी, उनक िलए िव वर हम लोग को मा करते ए माग- दशन कर
तािक भिव यम ुिटय का अपमाजन हो सक।
अ◌म, िजस कार ग ाजी क समचा ग ाजलसे ही होती ह उसी कार गु देव भगवा
क समचा उ◌ क कित एवं उ◌ ारा द साम यसे उनक वचन को पु◌काकार प
देकर क जा रही ह िजससे गु वर और रघुवरक कपा ा हो।
इित िनवेदयतो गु पादप च रीकौ

डॉ. रामाधार शमा और िन यान िम

मकर सं ा ◌ िव.सं. २०७३


(१४ जनवरी २०१७ ई.)

xi
भूिमका
॥ नमो राघवाय॥
भुषुि डभूते रया व तुल युश मानसराजहस ।
सौिमि सीतािचतपादप ं रामं भजे नीलपयोदकाि ॥
तुलसीिगिरस भूता ीरामाणवसंगता।
एषा ीमानसी ग ा पुनाित भुवन य ॥
सीताराम पदारिव मकर मधु त।
रामभ सुरधेनु शा िनगमागम स मत॥
ोक सोरठा छद िद य दोहा चौपाई।
तुलसीदास महेश मुिदत किव कोिकल गाई॥
रामभ िगिरधर गिदत म लमय पावन था।
ेमसिहत सादर सुनो रामचिरतमानस कथा॥
प रपूणतम परा◌र परमा मा भगवा ीसीतारामजीक अहतुक कपाने सम◌ भारतीय
मनीषाको पू ीभूत करक गो वामी तुलसीदासजीक पम अवतीण िकया और उ◌
लसी-हषवधन भु वा मीिकक अवतार गो वामी तुलसीदासजीक कालजयी रचना
ीरामच रतमानसजीक म लमयी कथाने स पूण िव को एक ऐसा सां कितक पा दान
िकया िक िजसका सह ा दय पय◌ आधम य वीकारता रहगा मानव समाज। स पूण वैिदक
वा≠यम गाय ी-म◌का एक अपूव अवदान रहा ह और सभी लोग यह कहते ह—गाय ीं
वेदमातर । अथा , गाय ी वेद क माँ ह। महिष वा मीिकजीने गाय ीक चौबीस अ र क
आधार पर वा मीिक-रामायणम चौबीस हजार म◌ क रचना क । वह म ार भ होता
ह—त सिवतुवरे यं भग देव य धीमिह िधयो यो नः चोदया । इस ि पदाक ार भसे
वरेिणय को मानकर चौबीस (२४) अ र हो जाते ह। पर◌ु, इस गणनाम या ितयाँ छट
जाती ह और यिद णवक साथ या ितय को जोड़ा जाए तो होते ह कल उनतीस अ र—
ॐ भूभुव वः त सिवतुवरेिणयं भग देव य धीमिह िधयो योनः चोदया । पर◌ु, इसक
प ा ॐ जोड़ देनेसे गाय ीक तीस अ र हो जाते ह, अथा ॐ भूभुव वः त सिवतुवरेिणयं
भग देव य धीमिह िधयो योनः चोदया ॐ। अतएव, कदािच गो वामी तुलसीदासजी
महाराजने िवचार िकया होगा िक पूवावतार अथा वा मीिकक पम गाय ीक चौबीस (२४)
अ र को ही याय िदया, पर◌ु इस बार या ित और णव सिहत गाय ीको याय देना होगा।
और ऐसा करने पर गाय ीक कल अ र क सं या तीस (३०) होगी। फलतः गो वामीजीने तीस
(३०) अ र क आधारपर रामच रतमानसम तीस (३०) कथाएँ िलख । और, यिद व थ मानससे
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

गणना क जाए तो रामच रतमानसम तीस (३०) ही कथाएँ ह। इस योगक साथ गो वामीजीक
एक अवधारणा भी िनिहत ह िक येक महीनेम तीस (३०) ही िदन होते ह। अतः येक िदनक
क याणाथ गो वामीजीने एक-एक कथाका िनवचन िकया। इसीिलए रामच रतमानसम उ◌ ने
तीस (३०) कथाएँ कह , और उन तीस कथा का बड़ा ही मनोहर म ह। रामच रतमानसजीक
बालका डक इकतीसव दोहक चतुथ पि से एकतीसव दोह पय◌, अथा बारह पि य म,
गो वामीजीने ीरामकथा क सूची ◌ुत क ह। गो वामीजी ारा गायी गय कथाएँ ह इस
कार—
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
बुध िब ाम सकल जन रजिन। रामकथा किलकलष िबभंजिन॥
रामकथा किल प ग भरनी। पुिन िबबेक पावक कह अरनी॥
रामकथा किल कामद गाई। सुजन सजीविन मूिर सुहाई॥
सॊइ बसुधातल सुधातरिगिन। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन॥
असुरसेन सम नरक िनकंिदिन। साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन॥
संतसमाज पयोिध रमा सी। िव भार भर अचल छमा सी॥
जमगन मुँह मिस जग जुमना सी। जीवन मुि हेतु जनु कासी॥
रामिह ि य पाविन तुलसी सी। तुलसीदास िहत िहय लसी सी॥
िशवि य मेकल शैलसुता सी। सकल िसि सुख संपित रासी॥
सदगुन सुरगन अंब अिदित सी। रघुबरभगित ेम परिमित सी॥
रामकथा मंदािकनी िच कूट िचत चा ।
तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहा ॥
(मा. १.३१.४–१.३१)
यहाँ गो वामीजीने मका ब त ग भीरतापूवक िनवचन िकया ह। ार भ करते ह
ीरामच रतमानसम विणत तीस (३०) कथा क सूची अथा तािलका—(१) िनज संदेह हरनी
(२) िनज मोह भरनी (३) िनज म हरनी (४) करउ कथा भव सिरता तरनी (५) बुध
िब ाम (६) सकल जन रजिन (७) रामकथा किलकलष िबभंजिन (८) रामकथा किल
प ग भरनी (९) पुिन िबबेक पावक कह अरनी (१०) रामकथा किल कामद गाई
(११) सुजन सजीविन मूिर सुहाई (१२) सॊइ बसुधातल सुधातरिगिन (१३) भय भंजिन
(१४) म भेक भुजंिगिन (१५) असुरसेन सम नरक िनकंिदिन (१६) साधु िबबुध कुल
िहत िगिरनंिदिन (१७) संतसमाज पयोिध रमा सी (१८) िव भार भर अचल छमा सी
(१९) जमगन मुँह मिस जग जुमना सी (२०) जीवन मुि हेतु जनु कासी (२१) रामिह
ि य पाविन तुलसी सी (२२) तुलसीदास िहत िहय लसी सी (२३) िशवि य मेकल
शैलसुता सी (२४) सकल िसि (२५) सुख (२६) संपित रासी (२७) सदगुन सुरगन अंब
अिदित सी (२८) रघुबरभगित (२९) ेम परिमित सी (३०) रामकथा मंदािकनी िच कूट
िचत चा , तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहा ।
इस मम थम कथा ह—िनज संदेह हरनी (मा. १.३१.४), यही ह गो वामी

भूिमका ीरामच रतमानस-कथा

तुलसीदासजी ारा कही ई कथा; ‍ िक गो वामीजीने अपने ही मानसी-संभव


संदेहको दूर करनेक िलए और—िनज संदेह, िनज जन क संदेहको दूर करनेक िलए
रामच रतमानसजीका णयन िकया और वो कह भी रह ह— वा ःसुखाय तुलसी
रघुनाथगाथा भाषािनब धमितम ुलमातनोित (मा. १. मं. ो. ७)। यहाँ वा ःसुख का
यही ता◌य ह िक म—(१) व अथा स पूण जीवा मा क अ◌ःकरणक सुखक िलए
मानसजीक रचना कर रहा । (२) व अथा आ मीय जन क अ◌ःसुखक िलए मानसजीक
रचना कर रहा अथा अपनी मानव जाितक सुखक िलए मानसजीक रचना कर रहा ।
(३) व अथा अपने धन ीरामजीक अ◌ःकरणक सुखक िलए मानसजीक रचना कर रहा
। (४) व अथा ीरामजीक जो सेवक ह उनक सुखक िलए मानसजीक रचना कर रहा ।
वे यह भी कह रह ह—भाषाब करब मैं सोई, मोरे मन बोध जॆिह होई (मा. १.३१.२)।
अतएव वणानामथस ानांसे ार भ करक ततालीसव दोह पय◌ गो वामीजीने अपने तथा
संत क संदेह को दूर करने वाली कथाका णयन िकया। यही ह थम िदनक कथा।
दूसरी कथा ह मोह हरनी (मा. १.३१.४)। भर ाजजीको ीरामजीक लीला म मोह आ
और वे कह भी रह ह—अस िबचािर गटउ िनज मो (मा. १.४६.१)। भर ाजक मोहको
न करनेक िलए ीरामच रतमानसका णयन िकया गया। अतः या व ‍ ारा कही गयी
और भर ाज ारा सुनी गयी कथा मोह हरनी ह। यह ह ि तीय कथा।
तीसरी कथा ह म हरनी (मा. १.३१.४)। सतीजीको म आ िक भगवा श रने
राघवजीको णाम कसे कर िलया—
श र जगतबं जगदीशा। सुर नर मुिन सब नावत शीशा॥
ितन नृपसुतिह की परनामा। किह सि दानंद परधामा॥
भये मगन छिब तासु िबलोकी। अज ीित उर रहित न रोकी॥
(मा. १.५०.६-८)
अतः पावतीजीक मको िनवृ करनेक िलए िशवजी ारा ीरामकथा कही गयी और वे
कह भी रह ह—सुनु िगिरराजकुमािर म तम रिबकर बचन मम (मा. १.११५)। पावतीको
म था अतः िशवजी कहते ह—
जासु चिरत अवलोिक भवानी। सतीशरीर रिह बौरानी॥
अज न छाया िमटित तु हारी। तासु चिरत सुनु म ज हारी॥
(मा. १.१४१.५)
अतः िशव-पावती पम ◌ुत ई ीरामकथा म हरनी ह।
चतुथ कथा ह—करउ कथा भव सिरता तरनी (मा. १.३१.४)। संसारनदीक तरणीक
पम ◌ुत हो रही ह ीरामकथा। यही भुशु डजी ारा गायी गई ीरामकथा ह, जो
उ रका डम पतीस (३५) चौपाइय म कही गयी। यह जीवको संसारक नदीसे पार कर देती
ह—मोह नदी कह सु र तरनी (मा. ७.१५.७)।
अब प म कथा जो रामच रतमानसक एक सौ इ सव दोहसे ार भ होकर एक सौ
चालीसव दोहपर िव ाम लती ह। इस कथाका नाम ह बुध िव ाम (मा. १.३१.५)। इस


ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

कथाम तीन अवतार क संि चचाक गयी ह। सनकािदको जब जय-िवजयक यवहारपर


ोध आया तो उ◌ ने ाप िदया; तब जय-िवजय ही िहर यकिशपु और िहर या , रावण और
क भकण, तथा िशशुपाल और द◌व बने। और इधर जाल धरक प ी वृ◌ाक तको भुने
थाना◌ रत िकया तो वृ◌ाने शाप देकर जाल धरको रावण बननेक िलए िववश कर िदया और
िविवधिव ािवशारद वशीकतशारद देविष नारद जब मोिहत ए तब उनक मोह-भ क िलए
भगवा ने अ त लीला रची। इन तीन घटना को गो वामीजीने एक करणम बाँधा ह। इसका
नाम ह—बुध िव ाम, ‍ िक बुध जन को भगवा क यशम ही िव ाम िमलता ह। भगवा क
यश का वणन करक ही िव न अपनी वाणीको पिव करते ह। गो वामी तुलसीदासजी
बालका डक ार भम कहते ह—
एक अनीह अ प अनामा। अज सि दानंद पर धामा॥
यापक िब प भगवाना। तॆिह धिर देह चिरत कृत नाना॥
सो केवल भगतन िहत लागी। परम कृपाल नत अनुरागी॥
जॆिह जन पर ममता अित छो । जॆिह क ना किर की न को ॥
गई बहोर गरीबिनवाजू। सरल सबल सािहब रघुराजू॥
बुध बरनिह हिरजश अस जानी। करिह पुनीत सुफल िनज बानी॥
(मा. १.१३.३-८)
अथा िव न भगवा क बीस यश का िचंतन करते ह। उनमसे दस यश ऐ यपरक ह और
दस सुयश भगवा क माधुयपरक ह। तीत होता ह िक ये ही भगवा क बीस यश रावणक बीस
भुजाएँ काट डालते ह। भुकपासे ये बीस यश ह और ठीक इसक िवपरीत रावणक अपयश भी
ह—(१) एक—देिखये, रामच◌जी एक ह तो रावण अनेक ह। (२) अनीह—यिद रामच◌जी
अनीह ह तो रावणक पास ईहा ह अथा िविवध अ य◌ गलत चे ाएँ ह। (३) अ प—
यिद रामच◌जी अ प ह तो रावण क प ह। (४) अनामा—यिद रामच◌जी अनाम ह तो
रावण कनाम ह। (५) अज—यिद रामच◌जी अज मा ह तो रावण बार-बार ज म लता ह।
(६) सि दानंद —यिद रामच◌जी सि दानंद ह तो रावण असि दानंद ह। (७) परधामा—
यिद रामच◌जी परधाम ह तो रावण पापधाम ह। (८) यापक—यिद रामच◌जी यापक ह
तो रावण या य ह। (९) िब प—यिद रामच◌जी िव प ह तो रावणका प संि ह।
(१०) भगवाना—यिद रामच◌जी भगवा ह तो रावण षड य-िवहीन ह। (११) परम कृपाल—
यिद रामच◌जी परम कपाल ह तो रावण िन र ह। (१२) नत अनुरागी—यिद रामच◌जी
णत-अनुरागी ह तो रावण पािपय म अनुराग करता ह। (१३) जॆिह जन पर ममता अित
छो —यिद रामच◌जीको अपने जन पर मम व और छोह ह तो रावणको आ ोश ह, न मम व
ह न छोह ह उसको। (१४) जॆिह क ना किर की न को —यिद रामच◌जी क णाकर
ह, ोध नह करते तो रावण सदैव ोध करता ह। (१५) गई बहोर—यिद रामच◌जी -
गई-बहोर- ह तो रावण व◌ु को छीन लता ह, लौटाता नह । (१६) गरीबिनवाजू —यिद
रामच◌जी गरीबिनवाजू ह, गरीब का स मान करते ह तो रावण गरीब का अस मान करता ह।
(१७) सरल—यिद रामच◌जी सरल ह तो रावण कठोर ह। (१८) सबल—यिद रामच◌जी


भूिमका ीरामच रतमानस-कथा

सबल ह तो रावण िनबल ह। (१९) सािहब—यिद रामच◌जी सािहब ह तो रावण काम-िककर


ह। तथा (२०) रघुराजू —यिद रामच◌जी रघुराज ह तो रावण कछ नह , कथि ल ाका
राजा बन गया ह। इस कार भगवा क बीस यश को थािपत करनेक िलए यह बुध िव ाम
ह। इनम परम कपाल णत अनुरागी सगुण साकारक पम भगवा ने दस यश कट िकये।
जय-िवजयका उ ार करनेक िलए भगवा परम कपाल और णत अनुरागी ह। भगवा ने
पृ वीपर कपा क । और णत ादसे ेह िकया। पृ वीपर कपा करक बारह अनुराग िकये
और ादपर भी अनु ह करनेक िलए नरिसंहावतार वीकार कर िलया भुने। जॆिह जन पर
ममता अित छो अथा भगवा को भ पर मम व और छोह भी ह। पृ वीपर ममता ह और
ादपर छोह। पृ वी भगवा क प ी ह और ाद ह पु । जॆिह क ना किर की न को ।
जाल धरक प ीक तको भगवा ने टाला। वृ◌ाम कोई पा ता नह थी, पर भगवा ने क णा
क । क णा करक उसक पास आये। वृ◌ाक ाप देनेपर भी भगवा ने ोध नह िकया। यही
ह—जॆिह क ना किर की न को । और इसी कार, नारदजीक यि वम तो भगवा क
छह ऐ य पूण पसे प िदख रह ह। और व◌ुतः यश ‍ा, ये भगवा क छह भग ह—
(१) ऐ य —गई बहोर भगवा का ऐ य ह। (२) धम —गरीबिनवाजू भगवा का धम ह।
(३) यश —सरल भगवा का यश ह। (४) ी —सबल भगवा क ी ह। (५) ान —सािहब
भगवा का ान ह। (६) वैरा य —रघुराजू भगवा का वैरा य ह। अथा िव मोिहनीको देखकर
नारदक मनम काम, ोध, लोभ, मद, मोह, और मा सय छह व◌ुएँ आ गय । (१) काम —
काम आया, नारदका सब कछ चला गया—गई बहोर। (२) ोध — ोध आया, नारद गरीब
हो गये, अथा िव मोिहनीक मोहम अपनेको इतना परत◌ कर िलया। (३) लोभ —लोभ आया
तो नारद किटल हो गये, सरल नह रह। िव मोिहनीको देखकर झूठ बोल िदया। ल ण को
देखकर बनावटी बात क —ल न तासु िबलोिक भुलाने, दय हरष निह गट बखाने
(मा. १.१३१.२)। (४) मोह —मनम मोह आया तो िनबल हो गये—देिख प मुिन िबरित
िबसारी, बड़ी बार लिग रहे िनहारी (मा. १.१३१.१)। (५) मद —नारदक मनम मद आया
तो उ◌ ने उ म ताका बताव िकया और भगवा क पास जाकर उ◌ क आसनपर बैठ गये।
(६) मा सय —नारदक मनम मा सय आ तभी तो—समरभूिम तॆिह जीत न कोई (मा.
१.१३१.३) अथा नारद ऐसी मिहला चाहते ह िजसक आने से वे िव िवजयी हो जाएँ, उ◌
कोई जीत न सक। इस कार काम, ोध, लोभ, मद, मोह, और मा सय इन छह कामक
िवषय ने नारदको पतनो मुख बना िदया। पर नारद एक ऐसे यि वसे जुड़ रह ह िजसक
म क पना नह कर सकता। काम, ोध, लोभ, मद, मोह, और मा सय छह ह। अतएव
नारदको बचानेक िलए भगवा ने छः यश का योग िकया। (१) गई बहोर—नारदका गया
आ च र लौटा िलया भगवा ने। पुिन जल दीख प िनज पावा, तदिप दय संतोष न
आवा (मा. १.१३६.१)। वानरका प देकर भगवा ने कपा क , काम को समा कर िदया।
(२) गरीबिनवाजू —भगवा ने नारदको स मािनत िकया, ोध समा िकया। (३) सरल—
ाप लनेक बीचम ही आ गये—बीचिह पंथ िमले दनुजारी। (मा. १.१३६.४), नारदका लोभ
समा कर उ◌ शर य बनाया। (४) सबल—नारदका मोह समा कर उ◌ सबल बनाया।


ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

(५) सािहब—नारदका मद समा कर उ◌ सािहब बना डाला और (६) रघुराजू —नारदका


मा सय समा कर उ◌ रघुकल-राज बना िदया। इस कार बुध िव ाम।
अब छठी कथा—सकल जन रजिन (मा. १.३१.५)। यह कथा स पूण भ को आन◌
देती ह। यह ह मनुक कथा। मनुका स पूण प रवार स प ह िफर भी वे भगवा क समान
पु चाहते ह—चाहउ तुमिह समान सुत भु सन कवन दुराव (मा. १.१४९)। भगवा
कट हो रह ह। वे तीन को आन◌ दे रह ह—नील सरो ह नील मिन नील नीरधर याम,
लाजिह तनशोभा िनरिख कोिट कोिट शत काम (मा. १.१४६)। सकल जन रजिन, अथा
सबक मनको यह कथा स कर रही ह। सबक मनको यह कथा आन◌ दे रही ह। इसिलए
(१) नील सरो हसे पातालवािसय क मनको, (२) नील मिनसे म यलोकवािसय क मनको
तथा (३) नील नीरधर यामसे आकाशवािसय क मनको आन◌ दे रही ह। यह ह—बुध
िब ाम सकल जन रजिन। इस कार यही ह मनुक कथा, जो छठी कथा ह। और संयोगसे
इसी व पम भगवा ने—(१) नारदजीको ध य-ध य कर िदया, (२) मनुजीको ध य-ध य कर
िदया, (३) शत पाजीको ध य-ध य कर िदया। सबको आन ◌त िकया। बुध िब ाम सकल
जन रजिन, रामकथा किलकलष िबभंजिन। और मनुने भी यही माँगा था िक आप मेर यहाँ
पु बनकर आय। छठी कथाम तीन लोक म रहने वाल को आन ◌त िकया। इसीिलए, इसे
सकल जन रजिन। कहा गया। हमार भारतीय वा≠यम (१) आकाश, (२) पाताल, (३) म य
लोक—ये तीन लोक कह जाते ह तथा इ◌ को सं कत ि लोक कहते ह। स पूण प रवारको
छोड़कर मनुजी शत पाक सिहत ीरामजीको ा करनेक िलए नैिमषार य गये और उ◌ ने
तप याक भी तीन ही िवभाग िकये ह— (१) थम िवभागम जल िपया, (२) ि तीय िवभागम
वायु पी, और (३) तृतीय िवभागम वायु भी छोड़ दी—
ऄिह िविध बीते बरष षट सहस बािर आहार।
संबत स सह पुिन रहे समीर अधार॥
बरष सहस दश यागॆउ सॊऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
(मा. १.१४४, १४५.१)
इसीिलए मनुको वरदान देनेक िलए (१) ा, (२) िव णु, और (३) िशव—ये ि देव आये,
पर इनको भी उ◌ ने लौटाया। अतएव, तीन लोक को रि त करने वाल भगवा ीरामका
ाक आ और गो वामीजीने उस शोभाका वणन िकया—नील सरो ह नील मिन नील
नीरधर याम, लाजिह तनशोभा िनरिख कोिट कोिट शत काम (मा. १.१४६)। भगवा ने
(१) नील सरो हसे जलचर को आन ◌त िकया, (२) नील मिनसे थलचर को आन ◌त िकया
तथा (३) नील नीरधर यामसे नभ र को आन ◌त िकया। इस कार सबको आन ◌त िकया।
अ◌तोग वा, लाजिह तनशोभा िनरिख कोिट कोिट शत काम (मा. १.१४६)। मनुक सम
भगवा कट ए। भगवा ने पूछा—“‍ा चािहए मनु?” सकुच िबहाइ माँगु नृप मोही, मोरे
निह अदेय कछ तोही (मा. १.१४९.८)। “संकोच छोड़कर माँग लो न!” मनुने कहा—चाहउ
तुमिह समान सुत (मा. १.१४९), “म आपक समान पु चाहता । और व◌ुत◌ु, समान
तु याथम नह पर मानक सिहत। म पु तो चाहता पर◌ु आपक ित मेरा स मान उसी


भूिमका ीरामच रतमानस-कथा

कार रहना चािहए अथा साधारणीकरण मुझे वीकाय नह होगा। आप भगवा बनकर मुझे
कतक य कर।” भगवा ने ध य कर िदया। अतएव—सकल जन रजिन।
रामकथा किलकलष िबभंजिन (मा. १.३१.५)— ीरामकथा किलयुगक पाप को न
करती ह। यह सातव कथा ह। किलयुगक पाप ‍ा ह—तामस ब त रजोगुन थोरा, किल
भाव िबरोध च ओरा (मा. ७.१०४.५)। यहाँ तमोगुण ब त ह, रजोगुण थोड़ा ह, और
चार ओरसे िवरोध ह। इसी िवड बनाको दूर करने क िलए भुका रामावतार हो रहा ह। यहाँ
तमोगुण और रजोगुण समा ए— ेता भइ कृतजुग कै करनी (मा. ७.२३.६) अथा ेताम
भी कतयुग, थम युग, आ गया। और, भगवा ीरामका अवतार आ—चर अ अचर
हरषजुत राम जनम सुखमूल (मा. १.१९०)। स यसंध भुक आनेसे सार पाप दूर हो गये।
अब कह पाप नह होगा। भगवा ीरामका नाम ही सार पाप को न कर देता ह—जासु नाम
पावक अघ तूला, सुिमरत सकल सुमंगल मूला (मा. २.२४८.२)। इसिलए—रामकथा
किलकलष िबभंजिन।
रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६)—किलयुग प सपको न करनेक िलए
भरणी न क भूिमकाम ह आठव ीरामकथा। यही भगवा का शेष-च रत ह। शेष-च रतम
किलयुगम सप नह रह जाता, वह समा हो जाता ह। जीव भगव मय हो जाता ह। रामकथा
किल प ग भरनी।
पुिन िबबेक पावक कह अरनी (मा. १. ३१.६)। नौव ीरामकथा िववेक प अरिणक
िलए अि क समान ह। यहाँ िववेकका ही तो योग हो रहा ह। भोजन करते ए दशरथजी
ीरामजीको बुला रह ह, पर उनक िम को नह बुला रह ह तो—निह आवत तिज बाल
समाजा (मा. १.२०३.६)। इसीिलए भगवा ीरामजी नह आये। यहाँ भी िववेक ह। भगवा को
अकल कभी नह बुलाना चािहए, उनको तो सायुध सप रकर बुलाना चािहए। इसी कार—
गु गृह गए पढ़न रघुराई, अलप काल िब ा सब आई (मा. १.२०४.४); यहाँ पढ़ने
जा रह ह। िव ाका फल ही ह िववेक—िव ा िबनु िबवेक उपजाये, म फल पढ़े िकए
अ पाये (मा. ३.२१.९)। ीित नय िबनु मद ते गुनी, नासिह बेिग नीित अिस सुनी
(मा. ३.२१.११)। िरपु ज पावक पाप भु अिह गिनय न छोट किर, अस किह िबिबध
िबलाप किर लागी रोदन करन (मा. ३.११)। अतः िववेक प अरिणक िलए यह कथा
अि क समान ह। सव िववेकका ही प रचय यहाँ भगवा ने िदया ह। अलप काल िब ा
सब आई—िव ाका आना ही िववेकका वा◌िवक ल य ह। इसिलए यह लीला िववेक प
अरिणक िलए पावकक समान ह।
और अब, भगवा क िववाहक कथा। इसिलए कहते ह—रामकथा किल कामद गाई
(मा. १.३१.७)। यह दसव कथा किलयुगम कामधेनुक समान ह। सब कछ दे देती ह। यही कथा
ह िव ािम क आगमनक कथा। िव ािम जी ीअवध पधार रह ह और दशरथजी िनःसंकोच
ीरामका दान कर रह ह। िनि त पसे यह कथा किलयुगम कामधेनु गायक समान ह। गायक
पास चार ◌न होते ह। इसी कार इस कथाम भी चार िवभाग कह गये ह—(१) ीराम दशन,
(२) ीरामक त वका िवमश, (३) ीरामका दान, और (४) पुनः ीरामक झाँक क धारणा।


ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

इसम भगवा ने तीन लोग का दमन (ताटका, मारीच, और सुबा ) करक िव ािम क र ा क
तथा आपु रहे मख की रखवारी (मा. १.२१०.२)। अतः वयं किलकामद गाई िस हो
गयी।
सुजन सजीविन मूिर सुहाई (मा. १.३१.७)—यही ह अह यो ारक यारहव कथा।
अह यो ारम भगवा ने एक स ीवनीको ◌ुत िकया और वह ह—रघुपित भगित सजीवन
मूरी (मा. ७.१२२.७)। भगवा क भि ही स ीवनी बूटी ह, भगवा ने उसीको कट कर
िदया। अह या ध य हो गयी। अह याने भगवा क चरण-कमलक रज चाही। भगवा ीरामने
िव ािम जीसे िज ासा क —“अह या मेरी चरण-रज ‍ चाहती ह?” िव ािम जीने कहा—
“आप गु ह—जग ु च शा त , तुरीयमेव केवल (मा. ३.४.९)। पर◌ु भु िपतु मातु
सु द गु वामी (मा. २.२९८.१), और गु होनेक कारण िश य तो गु देवक चरण-कमलक
रज चाहगा ही। ‍ा आपि कर दी?” िव ािम जी और िव◌ारसे भगवा से कहते ह—
“आप गु ह। हमको आपक चरण-कमलक परागम सु िच ह—बंदउ गु पद पदुम परागा,
सु िच सुबास सरस अनुरागा (मा. १.१.१)। आपक चरणम सु िच ह और अह याक मनम
क िच ह। आपक चरणम सुबास ह और अह याक मनम कबास ह। आपक चरण सरस ह
और अह याका मन नीरस ह। आपक चरणम अनुराग ह और अह याक मनम हयराग ह।
इसिलए चरन कमल रज चाहती (मा. १.२१०)। भु! अिमय मूिरमय चूरन चा (मा.
१.१.२)—अह या ण हो चुक ह। अिमय मूिरमय—अमृतक जड़ी, जो सु◌र चूण ह, वह
माया और मोहका जो एक कारसे अ यासा मक स ब ध ह उसको यह दूर कर देती ह। शमन
सकल भव ज पिरवा (मा. १.१.२)—अह या ण ह और आपक चरण क धूिल सभी
रोग क प रवारको दूर कर देती ह। भु! इसिलए भी उसे आपक चरण-कमलक धूिल चािहए।
सुकृित शंभु तनु िबमल िबभूती (मा. १.१.३)—आप सवसमथ ह भु! अह या आपसे
अपे ा करती ह िक उसे पूण श र बना िदया जाए, आधा श र तो बन चुक ह। अह या
अपने िपता ाका कतृ व भी झुठलानेक िलए तैयार ह ‍ िक उसका जीवन वासना मक हो
चुका ह, अतः ण ह। श र तो बन गयी, आधा श र बनी। उसे पूरा श र बनना ह और
पूरा श र बननेक िलए आपक चरण क उसे िवभूित चािहए। अह याक जीवनम म ल नह
ह और आपक चरण क धूिल मंजुल मंगल मोद सूती (मा. १.१.३) ह अथा यह मधुर
म ल और स ता को ज म देने वाली ह। इसिलए भी अह याको आपक चरण-कमलक
रज चािहए। जन मन मंजु मुकुर मल हरनी (मा. १.१.४)—अह याका मन दपणक समान
ह और उसक मलको दूर करना होगा, पर कोमलतासे। यिद हठा हो गया तो उसका मनोभ
भी हो सकता ह। िकये ितलक गुनगन बश करनी (मा. १.१.४)—इसिलए उसको ितलकसे
िवभूिषत कर दीिजये, िजससे स पूण गुण-गण को वशम कर सक। ीगु पदनख मिनगन
जोती (मा. १.१.५)—अह याक मनम कोई योित नह ह इसिलए कोई िसि ा नह
हो रही ह। सुिमरत िद य ि िहय होती (मा. १.१.५)— भु! आपक चरणक नख प
मिणगण क योितक सुिमरनसे िद य ◌ि आती ह और अह याक पास िद य ◌ि नह ह,
अतः वह चरण-कमल रज चाहती ह। अब कपा क िजये भु! दलन मोह तम सो सु कासू


भूिमका ीरामच रतमानस-कथा

(मा. १.१.६)—अह याक मनम जो मोह प अ धकार ह, उसको न कर दीिजये। बड़े भाग
उर आवइ जासू (मा. १.१.६)। उघरिह िबमल िबलोचन ही के (मा. १.१.७)—अह याक
पास ने का अभाव ह, इसक दयक ने खुलने चािहएँ। िमटिह दोष दुख भवरजनी के (मा.
१.१.७)—संसार-राि क दोषको िमटाना होगा। आप कपा करक अह याक संसारक दोषको
िमटा दीिजये। जथा सुअंजन अंिज ग साधक िस सुजान, कौतुक देखिह शैल बन
भूतल भूिर िनधान (मा. १.१)—अह याक जीवनम अ न चािहए और आपक चरण क
धूिल अ न ही तो ह। इस कार, सुजन सजीविन मूिर सुहाई अथा अह याजीक कथा
स न क िलए स ीवनी बूटी ह। अब कपा क िजये भु!”
अह यो ारक प ा , अब गो वामीजीक बारहव कथा ह—सॊइ बसुधातल सुधातरिगिन
(मा. १.३१.८)। यह िववाह कथा ह। अथा यह ीरामकथा पृ वी पम अमृत बनकर कट
ई। िमिथलाक या ाम भुने सव अमर व ही दान िकया। िकसीको ेह-सुधा दी, िकसीको
प-सुधा, िकसीको शील-सुधा, िकसीको सौ◌य-सुधा, िकसीको ऐ य-सुधा, और िकसीको
माधुय-सुधा। िक ब ना, भल राजा ने तो कह िदया िक ीराम-ल मण सुधाक सागर बनकर
आये ह—सुधा समु समीप िबहाई, मृगजल िनरिख मर कत धाई (मा. १.२४६.५)। ये
सुधाक सागर ह। िजतना हो सक, अमृत पी लो। िमिथलािनयाँ कहती ह—मरनशील िजिम पाव
िपयूषा, सुरत लहै जनम कर भूखा (मा. १.३३५.५) अथा भुका दशन मरणशीलक
िलए अमृत ाि क समान ह। सॊइ बसुधातल सुधातरिगिन। अह यो ारक प ा भुका
िमिथलाम गमन हो रहा ह। सव अमृतक ही वषा हो रही ह, जहाँ देखो वहाँ अमृत ही अमृत
ह। मरण-धमसे भुने सबको मु िकया ह।
राम सीय िशर सेंदुर देहीं। शोभा किह न जाित िबिध केहीं॥
अ न पराग जलज भिर नीके। शिशिह भूष अिह लोभ अमी के॥
(मा. १.३२५.८-९)
यहाँ अमृतक लोभसे सप कमलम भली कारसे लाल पराग भरकर च◌माको सुशोिभत
कर रहा ह। यहाँ सीताजीका मुख च◌मा ह। सोहत जनु जुग जलज सनाला, शिशिह सभीत
देत जयमाला (मा. १.२६४.७)। तो वहाँ ीरामच◌जीका मुख च◌मा ह—रामचं मुख चं
छिब लोचन चा चकोर, करत पान सादर सकल ेम मोद न थोर (मा. १.३२१)।
इसीिलए यहाँ चकोर क बड़ी लबी तािलका ह। सभी चकोर ही बने। िव ािम जी चकोर बन रह
ह—भये मगन देखत मुख शोभा, जनु चकोर पूरन शिश लोभा (मा. १.२०७.६)। वयं
िवदेहराज जनक चकोर बन रह ह—सहज िबराग प मन मोरा, थिकत होत िजिम चं
चकोरा (मा. १.२१६.३)। ीसीतामुखक ीरामच◌जी चकोर बने—अस किह िफिर िचतये
तॆिह ओरा, िसयमुख शिश भे नयन चकोरा (मा. १.२३०.३), एवं सीताजी वयं चकोरी
बन —अिधक सनेह देह भइ भोरी, शरदशिशिह जनु िचतव चकोरी (मा. १.२३२.६)।
सव चकोर क ही भरमार ह। िक ब ना, सीताजीक माता चकोरी बन —
तुलसी मुिदत मन जनकनगर जन
झाँकतीं झरोखें लागीं सोभा रानीं पावतीं।

ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

मन चकोरीं चा बैठीं िनज िनज नीड


चंदकी िकिरन पीवैं पलकौ न लावतीं॥
(क. १.१३)
अयो या पय◌ अमृतक नदी बहती आयी और माता को भी भगव◌ाि उसी कार हो
रही ह—पावा परम त व जनु जोगी, अमृत लहेउ जनु संतत रोगी (मा. १.३५०.६)। इस
कार ीरामिववाह कथा—सुधा तरि नी।
अब गो वामीजी अयो याका डका उप म करते ह। अयो याका डम दो ही कथा का
◌ाव िकया ह—भय भंजिन म भेक भुजंिगनी (मा. १.३१.८)। अयो याका डक
पूवाधक कथा भय भंजिन ह। सबको अभय दान करनेक िलए भुने अपने वनवासक
लीला ◌ुत क ह। सभीक मनम िकसी न िकसी कारका भय ह। िक ब ना, महाराज दशरथ
वयं भयभीत ह—कोपभवन सुिन सकुचॆउ राऊ, भयबश अग ड़ परइ न पाऊ (मा.
२.२५.१)। ककयी वयं भयभीत ह—सभय रािन कह कहिस िकन कुशल राम मिहपाल
(मा. २.१३)। सिचव सुम◌ भयभीत ह—सिचव सभीत सकइ निह पूँछी (मा. २.३८.८)।
और ल मणजी—माँगत िबदा सभय सकुचाहीं (मा. २.७३.८)। सव भय ही भय ह। िनभय
कवल भगवा ीराम ह और उनका यि व ह। सबको िनभयता दान कर रह ह। इसीसे
आज कवट भी नह डरा—माँगी नाव न केवट आना, कहइ तु हार मरम मैं जाना (मा.
२.१००.३)। च वत क पु से िनभ क होकर तू-तू म-म करता जा रहा ह। उसे िकसी भी कारका
डर नह लग रहा ह। कहता ह िक भल ही—केवटकी जाित कछ बेद न पढ़ाइहौं, ..., िबना
पग धोये नाथ नाव ना चढ़ाइहौं (क. २.८)। कह देता ह िक भु! िबना पग धोये नाथ
नाव ना चढ़ाइहौं। इसिलए अयो याका डका पूवाध, राम-वनवास करण, सबको िनभय बना
रहा ह। इस तेरहव कथाम कोल-िकरात भी िनभ क होकर भगवा ीरामसे बातचीत करते ह।
म भेक भुजंिगनी (मा. १.३१.८)—चौदहव भरतकथा म प मढकको न करनेक
िलए सिपनीक समान ह। सबको एक कारका म ह िक ‍ा होगा, ‍ा नह । प रणाम िकसक
प म जायेगा। अयो यावािसय को भरतक ित म ह—भरत कुशल पूँिछ न सकिह भय
िबषाद मन मािह (मा. २.१५८)। ककयीक यि वक ित सबको म ह िक ऐसा ‍
हो गया। और यह भरतजीका च र जीवनक सभी प क मको न करता ह। दुख दाह
दािरद दंभ दूषन सुजश िमस अपहरत को, किलकाल तुलसी से शठिन हिठ रामसनमुख
करत को (मा. २.३२६.९)। अतएव, भरतचिरत किर नेम तुलसी जो सादर सुनिह, सीय
राम पद ेम अविश होइ भवरस िबरित (मा. २.३२६)। म भेक भुजंिगनी—यह म
प मढकको न करनेक िलए सिपनीक समान ह। सबका म दूर आ। भरतजीको भुने
पादुका दान कर दी— भु किर कृपा पाँवरी दी ीं, सादर भरत शीष धिर ली ी (मा.
२.३१६.४)।
अर यका डक ार भको गो वामीजीने कहा िक यह कथा पावतीक समान ह—असुरसेन
सम नरक िनकंिदिन, साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन (मा. १.३१.९)। िगिरनंिदिन
श दम यहाँ ेष ह, अथा असुरसेन सम नरक िनकंिदिन िगिरनंिदिन। इस कार अथ

१०
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा

आ िक िजस कार पावतीजीने असुर क सेनाका संहार िकया, उसी कार यह कथा नरकका
संहार करती ह। यही ह जय◌िन ह कथा। जय◌ने नरक जैसा कक य िकया पर◌ु भुक
कपाने उसका समाधान कर िदया। जय◌पर भगवा ने ा का योग िकया। कनोपिनष म
पावतीजीने इ◌को का बोध कराया था। उसी कार इस कथाने इ◌-पु जय◌को का
बोध कराया—
नारद देखा िबकल जयंता। लािग दया कोमलिचत संता॥
पठवा तुरत राम पह ताही। कहॆिस पुकािर नतिहत पाही॥
(मा. ३.२.९-१०)
इसिलए यह जय◌-िन हक कथा प◌हव कथा ह।
साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन (मा. १.३१.९)। संत को आन◌ देनेक िलए सोलहव
ीरामकथा ग ाजीक समान ह। ग ाजीने चार थान को े बनाया—(१) ह र ार, (२)
याग, (३) काशी, और (४) ग ासागर। उसी कार इस स म यह कथा भी चार मुिनय क
यि वसे स ब होकर िवराजमान हो रही ह—(१) अि , (२) शरभ , (३) सुती ण, और
(४) अग◌य। अि से भट ह र ारक ग ा ह। भगवा शरभ से िमल रह ह, यही यागक ग ा
ह। यहाँ कामदेवक पाँच बाण का भ हो रहा ह और माियक प को छोड़कर शरभ जी
वैक ठ जा रह ह—अस किह जोग अिगिन तनु जारा, रामकृपा बैकुंठ िसधारा (मा.
३.९.१)। सुती णजीका जो दशन भगवा का हो रहा ह वह काशीक ग ा ह। और ग ासागर
क समान अग◌यजीसे िमलन ह। वहाँ ग ा सागरसे िमलती ह और यहाँ अग◌यजीका यि व
रामजीसे िमल रहा ह। ग ाजीने साठ हजार सगरपु का उ ार िकया। यहाँ अग◌यजीक योगसे
अनेकानेक ा ण का उ ार आ, वैिदक धमका उ ार आ। इसिलए, साधु िबबुध कुल
िहत िगिरनंिदिन—सा ा ग ाक समान।
अ त आन◌ हो रहा ह। संतसमाज पयोिध रमा सी, िव भार भर अचल छमा सी
(मा. १.३१.१०)। स हव ीरामकथा संत समाज प ीरसागरसे उ◌ ई ल मीजीक
समान ह। यही ह ल मण-गीताका करण। ल मण-गीताम भगवा ीरामने पाँच िस ा◌ का
िन पण िकया ह—(१) व व प, (२) पर व प, (३) उपाय व प, (४) फल व प, और
(५) िवरोिध व प। इसी कार जैसे यहाँ संत क समाज प ल मीजीका ाक समु -म थनसे
आ, उसी कार वेद प सागरका म थन कर ीरामकथा कट हो रही ह— पयोिनिध
मंदर ान संत सुर आिह, कथा सुधा मिथ काढ़िह भगित मधुरता जािह (मा. ७.१२०)।
िव भार भर अचल छमा सी (मा. १.३१.१०)—संसारक भारको धारण करनेक िलए
यह ीरामकथा अचल पृ वीक समान ह। यही स ह शूपणखाका जो अठारहव कथा ह।
अथा िजस कार िकसी भी कारसे पृ वी नह िडगती उसी कार इस कथाक नायक भगवा
ीराम शूपणखाक िकसी भी प से नह िडग रह ह, सु थर ह। पृ वीको शेषने धारण िकया
ह। इसी कार शूपणखाको िव िपत कर ल मणजीने चा रि क पर परा प पृ वीक र ा कर
ली।
और अब—जमगन मुँह मिस जग जुमना सी (मा. १.३१.११)। अथा यम-गण क मुखपर

११
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

याही लगानेक िलए यह उ ीसव कथा यमुनाक समान ह। यही खरदूषण- स क कथा ह।
इ◌ ने इतना बड़ा पाप िकया था िक इनको यमराजक यहाँ जाना था, इनको नरक होता पर◌ु
ीरामकथाने यम-गण क मुखम कािलख लगाकर इ◌ सा ा िनवाण पद दे िदया—राम राम
किह तनु तजिह पाविह पद िनबान, किर उपाय िरपु मारेउ छन मह कृपािनधान (मा.
३.२०)। और स पूण रा स समाज साकत-लोकको ा हो गया। खर, दूषण, ि िशरा, और
उनक चौदह सह सैिनक को भगवा ने साकत लोक दे िदया—जमगन मुँह मिस जग जुमना
सी। वहाँ भी यमुना यमराजक बहन ह, पर◌ु उनक स पकम आकर भ गण यमराजसे छट
गये, इसी कार यहाँ भी भगवा ीरामक कथाक स पकम आकर, भगवा रामका गुणगान
कर रा स भी यमराजक ब धनसे छट गये।
जीवन मुि हेतु जनु कासी (मा. १.३१.११)। यह बीसव कथा ह। इसका ार भ
सीताजीक अि -िनवास करणसे होता ह। काशी महा मशान ह। वहाँ अि कभी बुझती नह ।
इसी कार यहाँ भी अि बुझ नह रही ह। िक ब ना, काशीम तो अि देव सबको जला डालते ह
पर यहाँ सीताजीको भगवा ने अि म िनवास िदया। अि ने सीताजीको भ म नह िकया ‍ िक—
नैनं िछ ि श ािण नैनं दहित पावकः, न चैनं ेदय ापो न शोषयित मा तः (भ.
गी. २.२३)। काशीम ही आ मत वका िववेचन होता ह और आ मत वक िलए यही कहा जाता
ह। इसीिलए अि नह जलाती, श नह काटते, जल गीला नह करता, वायु नह सुखाता। ठीक
इसी आ मत वक आधारपर सीताजीको भगवा ने अि म िनवास िदया—तुम पावक मह कर
िनवासा, जब लिग करौं िनशाचरनाशा (मा. ३.२४.२) अथा जबतक म रा स का नाश
कर रहा तबतक आप अि म िनवास कर लीिजये। और सीताजी अि म वेश कर गय — भु
पद धिर िहय अनल समानी (मा. ३.२४.३)। पूण काशीका वणन! वहाँ भी महा मशान और
यहाँ भी। पर◌ु वहाँ मशानम मृतक जला और यहाँ अि म जाकर भी सीताजी नह जल ,
यह वैिश◌ ह। काशी प ोशा मका ह, यहाँ भी पाँच लोग को भगवा ने मुि दी—(१)
मारीचको, (२) जटायुको, (३) कब धको, (४) शबरीको, एवं (५) नारदको। मुि क शा ने
पाँच भेद कह—(१) सामी य मुि —इस कथाम भगवा ने मारीच जैसे रा सको सामी य मुि
दे दी। मारीच भुको दूर ल गया—ऄिह िविध भुिह गऄऊ लै दूरी (मा. ३.२७.१४), पर◌ु
भगवा मारीचको समीप ल आये। यही तो वैल य ह। िनज पद दी असुर कह दीनबंधु
रघुनाथ (मा. ३.२७)। (२) सा य मुि —जटायुको भगवा ने सा य मुि दी—गीध देह
तिज धिर हिर पा, भूषन ब पट पीत अनूपा (मा. ३.३४.१)। सा यका अथ होता ह
समान प। समान श द ति त सा यका वाचक होता ह। ीरामजीने जटायुको अपना
प नह िदया, अपने समान िव णुजीका प िदया—
गीध देह तिज धिर हिर पा। भूषन ब पट पीत अनूपा॥
याम गात िबशाल भुज चारी। अ ुित करत नयन भिर बारी॥
(मा. ३.३४.१-२)
(३) सालो‍ मुि —कब धको भगवा ने सालो‍ मुि दी। कब धने भगवा को अपनी
बा म जकड़ िलया। भगवा ीराम और ल मणने उसक भुजाएँ काट दी, उसको मारकर

१२
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा

जलाया और तुर◌ उसे रा स योिनसे छटकारा िमला—रघुपितचरन कमल िशर नाई, गऄउ
गगन आपिन गित पाई (मा. ३.३६.४)। (४) साि मुि —शबरीको भगवा ने साि मुि
दी। साि का अथ होता ह सायु य, भगवा म लीन हो जाना। शबरीने भुको मातृ- ेम िदया,
चरणपखार, अपने आँचलक आसनपर बैठाया और क◌, मूल तथा फल िखलाये। भुने नवधा
भि दी। िफर शबरी योगाि म शरीर छोड़कर भुक चरण म लीन हो गय —तिज जोग पावक
देह हिर पद लीन भइ जह निह िफरे (मा. ३.३८.१४)। यही ह साि अथा सायु य मुि ।
(५) एक व मुि —नारदजीको भगवा ने एक व मुि दी। एक वका अथ भागवतक अनुसार
होता ह—एक वं स ब धः।
गो यः कामा या ंसो ेषा ै ादयो नृपाः।
स ब धा ृ णयः ेहा ूयं भ ा वयं िवभो॥
(भा.पु. ७.१.३०)
स ब धा ृ णयः, इसी स ब धक या या क —कामं ोधं भयं ेहमै ं सौ दमेव च
(भा.पु. १०.२९.१५)। तो, ऐ ं स ब ध (त य भावाथदीिपका), ऐसा ीधराचाय भी कहते
ह। अथा नारदजीको भगवा ने स ब ध-बोध कराकर एक व मुि दे दी। भगवा ने नारदजीसे
कहा िक तुमको सब कछ ा ह, पर एक प से अभी तुम अधूर हो। तुमको माँ नह िमली
‍ िक तुम ाजीक गोदसे उ◌ ए हो—उ स ा ारदो ज े (भा.पु. ३.१२.२३), अतः
म तु ह स ब ध-बोध करा रहा । अब तुम मुझे माँ मान लो— वमेव माता च िपता वमेव ।
नारदक भगवा से यह पूछने पर िक जब वे उनक मायासे मोिहत होकर िववाह करना चाह तो
िववाह नह होने िदया तो भगवा ने कहा—
सुनु मुिन तोिह कहउ सहरोसा। भजिह जॆ मॊिह तिज सकल भरोसा॥
करउ सदा ितन कै रखवारी। िजिम बालक राखइ महतारी॥
(मा. ३.४५.४-५)
भगवा नारदक महतारी बन गये।
गह िशशु ब अनल अिह धाई। तेिह राखइ जननी अरगाई॥
ौढ़ भये तॆिह सुत पर माता। ीित करइ निह पािछिल बाता॥
(मा. ३.४५.६-७)
इसिलए, एक व मुि दी। काशीम राम-नामक धानता ह और इस कथाम भी नारदजीने
भगवा से यही वरदान माँगा िक भल ही आपक नाम अनेक ह पर राम-नाम सभी नाम से अिधक
होना चािहए—
ज िप भु के नाम अनेका। ुित कह अिधक एक ते एका॥
राम सकल नामन ते अिधका। होउ नाथ अघ खग गन बिधका॥
राका रजनी भगित तव राम नाम सॊइ सोम।
अपर नाम उडगन िबमल बस भगत उर योम॥
(मा. ३.४४.७-८, ३.४४)
िजस कार काशीम रामनामक धानता ह—काशी मरत जंतु अवलोकी, जासु नाम

१३
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

बल करउ िबशोकी (मा. १.११९.१) तथा जासु नाम बल श र काशी, देत सबिह सम
गित अिबनाशी (मा. ४.१०.४)—उसी कार भुक अनेक नाम से अिधक राम नाम हो—
ज िप भु के नाम अनेका। ुित कह अिधक एक ते एका॥
राम सकल नामन ते अिधका। होउ नाथ अघ खग गन बिधका॥
(मा. ३.४४.७-८)
पूण एकवा‍ता ह। एतावता पूण काशीक भाँित यह कथा ह।
अब गो वामीजी िक क धाका डम तीन कथा का ◌ाव करते ह। रामिह ि य पाविन
तुलसी सी (मा. १.३.१२)। यह इ सव कथा ीरामजीको उतनी ि य ह, िजतनी तुलसी। यह
ीहनुमा जीक िमलनक कथा ह। ीहनुमा जी रामजीसे िमल रह ह। तुलसीको भगवा ने िशरपर
चढ़ाया और हनुमा जीको दयसे लगाया—तब रघुपित उठाइ उर लावा (मा. ४.३.६)। ेह
िकया। तुलसीपर भगवा का मधुर भाव ह और हनुमा जीपर वा स य भाव ह। बार-बार तुलसीजी
भगवा क चरणको पश करती रहती ह और इधर हनुमा जी भी— भु पिहचािन परेउ गिह
चरना, सो सुख उमा जाइ निह बरना (मा. ४.२.६) और अस किह परॆउ चरन अकुलाई,
िनज तनु गिट ीित उर छाई (मा. ४.३.५)। तुलसीक िबना भगवा स नह होते उसी
कार हनुमा जीक िबना रामजी स नह होते। तुलसीदास िहत िहय लसी सी (मा.
१.३१.१२)। यह बाईसव कथा तुलसीदासजीको इतनी ि य ह िजतनी िक उनक माँ लसी।
यह बािल-वधक कथा ह। अथा बािलको मारकर भुने िजस कार सु ीवक र ा क , उसी
कार किलयुगक पाप को न कर भु मेरी र ा करगे ही करगे। भुने सु ीवका प िलया,
बािलका नह । गो वामीजी कहते ह िक उसी कार भु हम जैसे िनबल का प लगे, सबल का
नह ।
िशवि य मेकल शैलसुता सी (मा. १.३१.१३)। िशवजीको यह तेईसव कथा उतनी ही
ि य ह िजतनी नमदाजी। नमदाजीक वाहम िशवजी डब जाते ह, उसी कार िक क धाका डक
उ राधक कथाम िशवजी डब जाते ह, त मय हो जाते ह ‍ िक िशवजीक ही व प हनुमा जी
महाराज अब मुि का लकर सीताजीका समाचार लने जा रह ह—
पाछे पवन तनय िसर नावा। जािन काज भु िनकट बोलावा॥
परसा शीष सरो ह पानी। करमुि का दी जन जानी॥
(मा. ४.२३.९-१०)
अथा जैसे नमदे र नमदाको नह छोड़ पाते, उनक धाराम डबते ह—बानरकटक उमा
मैं देखा, सो मूरख जॊ करन चहॆ लेखा (मा. ४.२२.१)। इतने िनकट हो गये! पावतीजी
कहती ह िक हनुमा जी ारा बुलाई गयी वानर-सेनाको मने देखा, वह मूख ह जो इसका
लखा-जोखा कर रहा ह! इसक गणना क ही नह जा सकती! यहाँ िशवजी डबे-डबे दीख
रह ह िक क धाका डक उ राधक कथाम, इसिलए—िशवि य मेकल शैलसुता सी (मा.
१.३१.१०)।
सकल िसि सुख संपित रासी (मा. १.३१.१३) सु◌रका डम तीन कथा का
◌ाव करते ह। सु◌रका डक पूवाधम चौबीसव सकल िसि कथाम हनुमा जीक आठ
१४
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा

िसि य क चचा ह। इस कथाम हनुमा जी अपनी अ िसि य का योग कर रह ह—अिणमा


गिरमा चैव मिहमा लिघमा तथा, ाि ः ाका यमीिश वं विश वं चा िस यः (अ.को.
१.१.३५क)। (१) अिणमा —अिणमा िसि का योग करक इतने अणु हो रह ह हनुमा जी—
िसंधु तीर ऄक भूधर सुंदर, कौतुक कूिद चढ़ॆउ ता ऊपर (मा. ५.१.५)। उछलकर कद
पड़ उसपर। बार बार रघुबीर सँभारी, तरकॆउ पवनतनय बल भारी (मा. ५.१.६)। इतने
ह क—अणु। (२) ग रमा —और ग रमा अथा गु —जॆिह िगिर चरन देइ हनुमंता, चलॆउ
सो गा पाताल तुरता (मा. ५.१.७)। िजस पवतपर हनुमा जी चरण देकर चढ़ वह पातालम
चला गया, इतना गु ! हनुमा जीक भारीपनको पवत नह सह सका। (३) लिघमा —िफर
लिघमा—िजिम अमोघ रघुपित कर बाना, एही भाँित चलेउ हनुमाना (मा. ५.१.८)। िजस
कार रामजीका बाण सररसे चलता ह उसी कार हनुमा जी चल, िकसीने रोका नह । मैनाकने
रोका पर हनुमा जीने नह वीकारा—राम काज की े िबनु मोिह कहाँ िब ाम (मा. ५.१)।
(४) मिहमा —सुरसाने हनुमा जीको खानेका ◌ाव िकया। यहाँ मिहमाका योग हनुमा जी
करते ह—उसने एक योजनका मुँह बनाया तो हनुमा जी दो योजनक हो गये, उसने सोलह
योजनका मुँह बनाया तो हनुमा जी ब ीस योजनक हो गये। िफर लिघमा—उसने सौ योजनका
मुँह बनाया तो हनुमा जी ब त छोटा-सा प बनाकर—बदन पइिठ पुिन बाहॆर आवा, माँगी
िबदा तािह िशर नावा (मा. ५.२.११)—अिणमा का योग कर िदया। (५) ाि —अब
आगे बढ़। िसंिहकाको मारकर आ रह ह। लि नीका दमन िकया और िवभीषणसे स स
िकया। इसक प ा सीताजीक ाि कर ली—देिख मनिह मन की नामा, बैठॆिह बीित
गई िनिश जामा (मा. ५.८.७)। यह ह ाि । (६) ाका य —सीताजीको स◌ेह ह िक यह
छोटा-सा वानर कसे रावणक सेनाका वध कर सकगा। तब हनुमा जीने ाका य िसि का
योग िकया और िवशाल बन गये—कनक भूधराकार शरीरा, समर भयंकर अितबल
बीरा (मा. ५.१६.८)। यह हनुमा जीक छठव िसि ाका य ह। इससे रा स का वध िकया।
(७) ईिश व —अशोक वािटकाको िव वंस कर अब हनुमा जी सातव िसि ईिश वका योग
कर रह ह। सबको द ड दे रह ह। रा स को मारा। ल ा जला डाली। ईिश वका योग िकया।
(८) विश व —ल ाक र पर हनुमा जीका मन नह गया यही उनका विश व ह। सभी र को
जलाकर खाक कर डाला पर एक भी अपने िलए नह रखा। सब कछ जलाकर खाक कर िदया।
आठ िसि य का योग कर िदया। सीताजीसे चूड़ामिण लकर रामजीक पास आये। रामजीने
शंसा क , दयसे लगाया और पूछा—कॆिह िविध दहॆउ दुग अित बंका (मा. ५.३३.५)।
तब भी अिभमान नह आया, यह उनका विश व ह। उ◌ ने कहा—
नािघ िसंधु हाटकपुर जारा। िनिशचरगन बिध िबिपन उजारा॥
सो सब तव ताप रघुराई। नाथ न कछ मोिर भुताई॥
(मा. ५.३३.८-९)
प ीसव कथा सुख (मा. १.३१.१३)। सुखी मीन जह नीर अगाधा, िजिम हिरशरन
न एकउ बाधा (मा. ४.१७.१)। भगवा क शरणम यि जब जाता ह, तब उसे सार सुख
िमल जाते ह। रावणक ारा अपमािनत होकर िवभीषण आ रह ह, पर◌ु भुको ा करक

१५
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

िवभीषणक सार दुःख समा हो जाते ह ‍ िक भगवा ने उ◌ नयनान◌ दे िदया—


दूिरिह ते देखे ौ ाता। नयनानंद दान के दाता॥
ब िर राम छिबधाम िबलोकी। रहॆउ ठटिक ऄकटक पल रोकी॥
(मा. ५.४५.२-३)
िवभीषण भगवा को देख रह ह। वे िकसी-न-िकसी भाँित वीकार िलये ह—अहोभा य मम
अिमत अित राम कृपा सुख पुंज, देखेउ नयन िबरिच िशव से य जुगल पद कंज (मा.
५.४७)।
छ बीसव कथा संपित रासी (मा. १.३१.१३)। भगवा ने िवभीषणका राजितलक कर
िदया—जो संपित िशव रावनिह दीि िदये दश माथ, सॊइ संपदा िबभीषनिह सकुिच
दीि रघुनाथ (मा. ५.४९) अथा जो संपि िशवजीने रावणको दश िशर देनेक बाद दी
थी, आज उसी संपि को संकोच करते ए भगवा ने दे िदया और सागर िन ह िकया। सागरने
भगवा को संपि भट क —कनकथार भिर मिनगन नाना, िब प आयउ तिज माना (मा.
५.५८.८)। कनकथारका भगवा ने वयं उपयोग नह िकया। आगे चलकर—किपन सिहत
िब न कह दान िबिबध िबिध दी (मा. ६.१२०) होगा। इस कार सु◌रका डक कथाका
सं ेपीकरण आ।
अब, सदगुन सुरगन अंब अिदित सी (मा. १.३१.११)। यह स ाईसव यु का डक
कथा ह। स ाईसक मालाक सुमे नी होती ह। इस कार गो वामीजी कहते ह िक इस कथाको
स ाईसव सुमे नी क भाँित मरण रखना चािहए। जैसे बारह सुरगण को अिदितने उ◌
िकया वैसे ही यह कथा बारह स ुण को उ◌ करती ह। आिद य बारह ह—िवव वानयमा
पूषा व ाऽथ सिवता भगः, धाता िवधाता व णो िम ः श उ मः (भा. ६.६.३९)
अथा (१) िवव वा , (२) अयमा, (३) पूषा, (४) व ा, (५) सिवता, (६) भग, (७) धाता,
(८) िवधाता, (९) व ण, (१०) िम , (११) इ◌, और (१२) उपे◌—ये बारह आिद य ह।
इसी कार यहाँ भी बारह जन का यु का डम प रतोष आ। म देिखये—(१) िशवजीक
थापना क और उनको स िकया। (२) अ दजीका िव ास कट आ, अ दक पाँवको
रावण उठाता रह गया पर वह टस-से-मस नह आ, (३) हनुमा जी महाराज ल मणजीक िलए
स ीवनी लाये, (४) वयं ल मणजीका याग यहाँ िदखा, (५) नल और (६) नीलका परा म
िदखा, (७) जा बवा और (८) सु ीवका याग िदखा, (९) म◌ोदरी तथा (१०) मा यवा का
यि व िदखा, (११) कालनेिमने भावना िदखायी, और (१२) अ◌तोग वा िवभीषणक भि
तो िदखी ही िदखी। िवभीषणको भगवा ने िशरमौर बना िदया। यु का डम रामे र क थापना
क और यहाँ िवभीषणको ल ाका राजा बनाया। व◌ुत◌ु, िजन बारह गुण क चचा भगवा ने
सु◌रका डम क ह—
तिज मद मोह कपट छल नाना। करउ स तॆिह साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तन धन भवन सु द पिरवारा॥

१६
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनिह बाँध बिर डोरी॥


समदरशी इ ा कछ नाहीं। हरष शोक भय निह मन माहीं॥
(मा. ५.४८.३-६)
यहाँपर िकन संत क चचा भगवा करना चाहते ह? उ र ह िक जो समदश ह, िजनक
दयम कोई इ◌ा नह ह तथा जो हष, शोक और भयसे मु ह। आगे कहते ह—
अस स न मम उर बस कैसे। लोभी दय बसइ धनु जैसे॥
सगुन उपासक परिहत िनरत नीित ढ़ नेम।
ते नर ान समान मम िजन के ि ज पद ेम॥
(मा. ५.४८.७, ५.४८)
इ◌ बारह गुण का यु का डम पूण िद दशन आ ह। इ◌ गुण का प रचय िवभीषणक
मनम संदिशत प दीख रहा ह। हनुमा जीक संदभम परम िम भगवा ही दीख रह ह। न
हष ह, न शोक ह, न भय ह। सगुण-साकारक उपासक ह हम लोग—हम सब सेवक अित
बड़भागी, संतत सगुन अनुरागी (मा. ४.२६.१३)। परिहत िनरत अथा परिहतम
िनर◌र लगे रहते ह; अपना कोई नह , कवल रामजीका काय कर रह ह, नीितम िनपुण, ◌ढ़
नेम अथा अ य◌ कठोर िनयम और ा ण क ित ेम—इन बारह गुण का इस स ाईसव
कथाम दशन कराया गया। तिज मद मोह कपट छल नाना, करउ स तेिह साधु समाना
(मा. ५.४८.३)। सभय होकर िवभीषण भगवा क शरणम आये। उ◌ ने (१) मद, (२) मोह,
(३) कपट तथा (४) छलको छोड़ा, उनका (५) समदिश व, (६) इ◌ाका अभाव, (७) हष,
शोक, और भयका याग, (८) सगुण उपासक, (९) परिहत िनरत, (१०) नीित िनपुण, (११) ◌ढ़
नेम, तथा (१२) ा ण क ित ेम—सब कछ िवभीषणम सकारा मक बन गया, इसिलए यह
यु का ड िवभीषणक िलए ही यु आ ह—कर शीष धिर भूप रजाई, है तुम कह सब
भाँित भलाई (मा. २.१७४.६)। और रावण-वधक प ा िवभीषणको ही भगवा ने कहा िक
िकसी भी कार तुम मुझे भरतजीसे िमलवा दो—देखौं बेिग सॊ जतन क क सखा िनहोरउ
तोिह (मा. ६.११६)। म तु ह िनहोरा कर रहा । सार स ुण िवभीषणम ही आ गये—सुनु
लकेश सकल गुन तोरे, ताते तुम अितशय ि य मोरे (मा. ५.४९.१)। तुम मुझे ब त ि य
हो। तुमम सभी गुण ह। तुमम अिदितक सभी पु क गुण आ गये ह। यहाँ यु का डक स पूण
कथा िवभीषणक िलए समिपत ई।
अब अ ाईसव कथा ह—रघुबर भगित (मा. १.३१.१४)। भगवा क पाँच भि याँ कह
गय ह—अिवचला भि , अिवरला भि , िनभरा भि , अनपाियनी भि , और ेमा भि ।
यहाँ भी पाँच भि याँ दीख रह ह। (१) अिवचला भि —िशव- व प हनुमा जी ह—िब
प धिर पवनसुत आइ गयउ जनु पोत (मा. ७.१); यह हनुमा जीक अिवचला भि ह।
(२) अिवरला भि —भरतजीक अिवरला भि ह—रामिबरह बारीस मह भरत मगनमन
होत (मा. ७.१.क), बैठे देिख कुशासन जटामुकुट कृशगात, राम राम रघुपित जपत
वत नयन जल जात (मा. ७.१.ख)। (३) िनभरा भि —सुनत सकल जननी उिठ
धा (मा. ७.३.३)—माता क िनभरा भि ह। (४) अनपाियनी भि — ेमातुर सब लोग
१७
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

िनहारी (मा. ७.६.४)—अवधवािसय क अनपाियनी भि ह। और (५) ेमा भि —अ◌म


विस जीने जब कहा—अब मुिनवर िबलब निह कीजै, यह उनक ेमा भि ह। इसीिलए
इस स म वेद ने और िशवजीने भी भगवा से भि माँगी—अनाथ पर कर ीित जो (मा.
७.१३०.११)। वेद ने यह वर माँगा—क नायतन भु सदगुनाकर देव यॆह वर माँगहीं, मन
बचन कम िबकार तिज तव चरन हम अनुरागहीं (मा. ७.१३.६)। और िशवजी भी—
बार बार वर माँगउ हरिष दे ीरग, पद सरोज अनपायनी भि सदा सतसंग (मा.
७.१४)। रघुबरभगित। िबरित िबबेक भगित ढ़ करनी, मोह नदी कह सु र तरनी (मा.
७.१५.७)। इस कारसे पूण भि , अ ाईसव कथा, भि क प रणित तब बन गयी जब सभी
वानर को भुने िवदा िकया; अ दक भि छलक पड़ी—अंगद दय ेम निह थोरा, िफिर
िफिर िचतव राम की ओरा (मा. ७.१९.२)। और, अ दको भेजनेक प ा भी हनुमा जीको
नह भेजा ‍ िक हनुमा जी परम भागवत ह। अब अ दको कहना पड़ा—कहॆ दंडवत
भुिह सन तुमिह कहउ कर जोिर, बार बार रघुनायकिह सुरित कराऄ मोिर (मा.
७.१९ क)। इस कार अ ाईसव कथा रघुबर भगितक कथा ह।
अब उनतीसव कथा— ेम पिरिमित सी (मा. १.३१.१४)। यह कथा ेमक सीमा ह।
उ रका डक बीसव दोहक सातव पि से आगे चलकर पतीसव दोह पय◌ ेम पिरिमित
सी कथा ह। सव ेम ही ेम ह—
राम राज बैठे ैलोका। हरिषत भये गये सब शोका॥
बैर न कर का सन कोई। राम ताप िबषमता खोई॥
(मा. ७.२०.७-८)
कोई िकसीसे वैर नह कर रहा ह। दैिहक, दैिवक, और भौितक ताप राम-रा यम नह याप
रह ह। सब एक-दूसरसे ेम कर रह ह। अ पमृ यु कह नह ह। न कोई द र ह, न ही दुःखी।
हाथी और िसंह एक घाटपर पानी पीते ह—रहिह एक सँग गज पंचानन (मा. ७.२३.१)।
रामजीने करोड़ अ मेध य िकये। सीताजी रामजीक साथ रह रह ह, अथा सीताजीका ि तीय
वनवास नह आ; यह ीरामकथाम नह ह—कोिटन बािजमेध भु की े, दान अनेक
ि जन कह दी े (मा. ७.२४.१)। पित अनुकूल सदा रह सीता। शोभाखािन सुशील
िबनीता (मा. ७.२४.३)—सीताजी िनर◌र ीरामजीक साथ ह। लव-कशका ज म ीअवधम
हो रहा ह। अनुजन संजुत भोजन करहीं। इतना ेम! पूरा वातावरण ेममय ह। अ◌म ी
सनकािद ेमा-भि माँग रह ह— ेम भगित अनपायनी दे हमिह ीराम (मा. ७.३४)।
और—बार बार अ ुित किर ेम सिहत िसर नाइ, भवन सनकािद गे अित अभी
वर पाइ (मा. ७.३५) अथा बार-बार ◌ुित करते ए ेम सिहत भगवा का वंदन कर अभी
वरक ाि कर सनकािद लोकको चल गये।
अब तीसव कथा एक आ यजनक घटनाक साथ उप थत हो रही ह। वह कथा ह—
रामकथा मंदािकनी िच कूट िचत चा , तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहा
(मा. १.३१)। यहाँ एक िज ासा हो सकती ह िक उ रका डम िच कटक स क बात ‍ा
ह और िच कूट िचत चा कहकर इस कथाको िव ाम ‍ िदया जा रहा ह। इसका संकत

१८
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा

यह ह िक तीसव कथा िच कटक कथा ह। कारण, भगवा संत-असंतक भेदक कथाको


ीभरतजीको सुनाते ह। िफर ीअवध लौटकर स पूण जाको भि का उपदेश दे रह ह। भगवा
कहते ह िक सब लोग भजन करो। म◌ािकनी भगवा क भि ह—
मंदािकिनिह िमलत झरना झिर झिर भिर भिर जल आछे।
तुलसी सकल सुकृत सुख लागे मानौ राम भगितके पाछे॥
(गी. २.५०.६)
और अ◌तोग वा, सारी जाको उपदेश देकर विस जीको वरदान देकर भगवा शीतल
अँवराईक ओर जा रह ह। यहाँ संकत ‍ा ह? भगवा ीरामने अपने चार भाइय क पु को
बुलाया—लव-कश, त -पु कल, च◌कतु-अ द, तथा सुबा -श ुघाती। सबसे कह िदया—
“देखो, हम जो करना था वह कर िलया और—चौथेपन जाइिह नृप कानन (मा. ६.७.३),
अथा राजाको चौथेपनम वन जाना चािहए। म िन य , मेरा शरीर कभी नह छटगा। इसिलए,
अब मुझे िव ाम करना ह। पर िव ाम कहाँ क ? अब तुमलोग अयो या सँभालो और म
चलता िच कट। िच कटम ही िव ाम क गा।” इसीिलए गो वामीजीने िलखा—गये जहाँ
शीतल अँवराई (मा. ७.५०.५)। पुिन कृपाल पुर बाहेर गयऊ (मा. ७.५०.३)—कहाँ गये?
नगरक बाहर। िच कटम यिद िव ामक बात नह होती तो िच कूट िचत चा कहते ही
‍ ? ीरामजीक कथा म◌ािकनी ह, िच ही िच कट ह, ेह ही वन ह जहाँ भगवा का
िवहार हो रहा ह। इसका अथ यही ह िक अ ◌म िवहार-लीला भगवा ीिच कटम करते ह।
यही अ ◌म ॐक या या ह—ॐ भूभुवः वः त सिवतुवरे यं भग देव य धीमिह िधयो
योनः चोदया ॐ। प रणित हो चुक ीरामकथाक और ये ही ह मानसक तीस कथाएँ।
इस बार मोदीनगरम स प ई कथाक िलए हमने िवचार िकया िक इसे पु◌काकार
िकया जाए और मानसम तीस कथा क पम इसे जनता जनादनक सम उप थत िकया
जाए। सौभा यसे इस बार १४ जनवरीको मेरी कथाक भी साठ वष पूर हो रह ह। इस म लमय
महो सवपर इस पु◌कका जनता जनादनक कर-कमल म अपण होगा, इससे मुझे ब त स ता
होगी। म ब त-ब त आशीवाद दे रहा मोदीनगरक प रकर को, िजनम पवन िसंघल, राजे◌
िसंघल इ यािद और शारदा ुप ह, अनेकानेक आशीवाद! ब त ब त आशीवाद व. शारदा
िसंघल एवं न◌िकशोर िसंघल को िजनक पु क सौज य और आिथक सहयोगसे यह पु◌क
जनता जनादनक सामने उप थत हो रही ह। म आशीवाद दे रहा अपने प रकर राजेश विश को
िज◌ ने इसे म करक मुि त िकया! म ब त-ब त आशीवाद दे रहा इस राघव-प रवारक
काका, अपने सुयो यतम िश य डॉ. ीरामाधार शमाको और राघव-प रवारक व र सद य
ीिन यान◌जी िम को, अपने यार प रकर ीपवन शमा, मोहन गग और वयम ब त छोट पर
ब त यु◌ अंकर नागपालको! इस कथाक संरचनाम राघव-प रवारक बुआजी और मेरी
अ जा डॉ. कमारी गीता देवी िम ने अि म भूिमका िनभायी, अतः उनको भी आशीवाद! अपने
प रकर व सुयो य व ा ीउ ल शा ड य एवं मेर वैयि क सहायक और मेर भावना जग क
पौ एवं सुयो य व ा ीव स बाल यास जय िम को भी अनेकशः आशीवाद! साधुवाद!

१९
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका

अ◌तोग वा, यह ीरामच रतमानसकथा गो वामी तुलसीदासजीक ही चरण-कमल म


समिपत—
वदीयं व ु भो देव तु यमेव समपये।
गृहाण स मुखो भू वा सीद परमे र॥
इित म लमाशा◌े,

जग ु रामान ाचाय वामी रामभ ाचाय


िच कट, भारत

मकर सं ा ◌ िव.सं. २०७३


(१४ जनवरी २०१७ ई.)

२०
थम पु प
॥ नमो राघवाय॥
गाइये गणपित जगवंदन। शंकरसुवन भवानीके नंदन॥
िसि सदन गजवदन िवनायक। कृपािसंधु सुंदर सब लायक॥
मोदकि य मुद मंगलदाता। िव ाबािरिध बुि िवधाता॥
मांगत तुलसीदास कर जोरे। बस रामिसय मानस मोरे॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
सीतारामगुण ामपु यार यिवहािरणौ ।
व े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
तुलसी सीताराम कहो दय रािख िब वास।
कब िबगड़त ना सुने ( ी)सीतारामके दास॥
प रपूणतम परा◌र परमा मा भगवा ीसीतारामजीक कपासे इस बारका मोदीनगरका यह
एक ऐितहािसक आयोजन ह। कथाएँ तो यहाँ ब त ई ह गी, पर इस कथाक दो िवशेषताएँ सुन
लीिजये। १४ जनवरी १९५७से अबतक मेरी एक हजार दो सौ पचास (१२५०) ीरामकथाएँ हो
चुक ह और अब एक हजार दो सौ इ‍ावनव (१२५१व ) ीरामकथा म करने जा रहा ।
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

इतना ल बा इितहास ब त कम लोग का होगा।


आपको एक बात और सुनाऊ। और लोग बड़-बड़ सेठ और सा कार को कथा सुनाते ह।
पर मने अपनी कथाका ार भ िकया तो िकसी सेठ-सा कारक यहाँसे नह , िकसी बड़ यि क
यहाँसे नह , िकसी बड़ यि को यजमान बनाकर नह । जीवनक सात वषक अव थाक प ा
मने कथाका ार भ िकया और अपने घरम हल चलाने वाल एक साधारण ह रजनको मने
यजमान बनाया। उसे वणानामथस ानां (मा. १ म. ो. १)से लकर द ि नो मानवाः
(मा. ७ उ. ो. २) पय◌ छः महीनेम पूरी रामकथा सुनायी। और कथाक दि णा ‍ा ली
थी? यह सुनकर आपको बड़ा आ य लगेगा। म उनको काका बोलता था। मेरी कथाक यही
दि णा थी िक वे मुझे अपनी पीठपर बैठाकर बगीचेम घुमाते थे। यही मेरी दि णा थी। आज
इतने ल बे इितहासम, इतनी पिव -कथा म मोदीनगरम सुनाने जा रहा । ल मीनारायणजीक
म ◌रम, ल मीनारायणजीको सुना रहा । और यही कथा मेरी, भगवा ने व थ रखा तो १४
जनवरीको मेर ६७व ज मिदनपर, आप लोग क सम ◌ुत होगी। म अ या म चैनलको भी
मेरी १२५१व ीरामकथाक सारणक िलए बधाई देता । १२५१व यह ीरामकथा ह और
अबतक मने पाँच सौ ीम ागवत कथाएँ भी क ह।
आइये! अब कथाम चल।
रामकथा सुंदर करतारी। संशय िबहग उड़ावनहारी॥
(मा. १.११४.१)
रामच रतमानसक इस पि पर म चचा करने जा रहा । गो वामी तुलसीदासजी कहते
ह िक ीरामकथा एक ब त सु◌र करतािलका (ताली) ह, जो संशय प प ीको उड़ाती ह।
जब प ी आता ह और हम ताली बजाते ह, तो वह उड़ जाता ह। ीरामकथा एक ताली ह,
बड़ी सु◌र करतािलका ह। ताली दो हाथ से बजती ह, एक हाथसे नह बजती; दोन हाथ जब
पर पर टकराते ह, तब बजती ह। इसका अथ यह ह िक ीरामकथाक दो िस ा◌ ह—(१)
लोकिस ा◌ और (२) वेदिस ा◌ और ीरामच रतमानसजीम दोन का सम वय ह—
सरजू नाम सुमंगलमूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥
(मा. १.३९.१२)
अथा लोकमत और वेदमत—दोन का ीमानसजीम सम वय ह। ीरामकथा हमार
जीवनक लोकको भी सुधारती ह और परलोकको भी। ीरामकथा सुनने और कहनेसे लोकम
भी लाभ और परलोक तो चकाचक ह ही। गो वामीजीसे पूछा जाता ह िक आप ीरामकथाका
जो णयन कर रह ह, यह बता दीिजये िक िकसक िलए कर रह ह। उ◌ ने ब त अ◌ी बात
कही, ार भम ही कहा—
नानापुराणिनगमागमस मतं य ामायणे िनगिदतं िचद यतोऽिप।
वा ःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथाभाषािनब धमितम ुलमातनोित॥
(मा. १ म. ो. ७)
यह जो नाना-पुराण-िनगमागम-स मत कह रहा —कह -कह अ यतः (अथा का य व
नाटक से) स मत कह रहा —यह अपने वा◌ःसुखक िलए। वका ‍ा अथ होता ह?
२२
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

वका अ◌ःसुख ‍ा ह? सामा यतः वक चार अथ कह जाते ह—


(१) वका थम अथ ह—आ मा, अथा आ माक अ◌ःसुखक िलए। यहाँ िजतनी भी
जीवा माएँ ह, सबक अ◌ःसुखक िलए यह कथा कही जा रही ह।
(२) वका दूसरा अथ ह—आ मीय, आ मीयजन क अ◌ःसुखक िलए।
(३) वका तीसरा अथ ह—जाित, अपनी जाितक सुखक िलए।
(४) वका चौथा अथ ह—धन, अपने धनक सुखक िलए।
देिखये! यहाँ एक बात ब त अ◌ी ह। जैसा िक म कह चुका , मेरी ीरामकथाका
ब त ल बा इितहास ह। उठता ह—“गो वामीजीका धन ‍ा ह?” ीरामजी तो धन ह ही;
पर मुझे लगता ह िक गो वामीजीका धन यह रा भी ह। गो वामीजीने कहा—“अपने रा क
अ◌ःसुखक िलए म रामच रतमानसक चचा कर रहा ।” गो वामीजी जानते ह िक कसे
समयम उनका ज म हो रहा ह।
िम ो! आप सबने इितहास पढ़ा होगा और जानते ह गे, उस समय देशम हाहाकार मचा
आ था। सभी जानते ह िक िसकदरसे लकर इतने आ मण भारतपर ए िक रा जजर हो
गया, टट गया; वा मी‍वतार गो वामी तुलसीदासजी महाराजक अ◌रा माने यह भी देखा।
जब पृ वीराज चौहानजीक आँख िनकाली गय , गो वामीजीने अपनी आ मासे वह ◌ य भी
देखा। जब महमूद गजनवीने सोमनाथ म ◌र तोड़ा और कम-से-कम ६४ ख र सोना लटकर
ल गया, गो वामीजीक जीवा माने वह ◌ य भी देखा। मुह मद गोरी स ह बार परािजत होनेक
प ा १८व बार धोखेसे पृ वीराज चौहानको ल गया और वहाँ उ◌ िकतनी यातनाएँ दी गय ।
गो वामी तुलसीदासजीक आ माने यह भी देखा िक किवताने ही, पृ वीराजक ारा, मुह मद
गोरीका अ◌ भी करवाया। जब श दवेधी बाणक चचा चली तो च◌बरदाई सु तानक सामने
कहते ह—“हमार महाराज तो श दवेधी बाण चलाना जानते ह; भल ही उनक आँख िनकाल ली
गय ह।” सु तानने कहा—“एक बार परी ा कर लते ह।” वयं ब त ऊचे मचानपर िसंहासन
लगाकर बैठा। पृ वीराजक आँख िनकल चुक ह, उ◌ लाया गया। पूरी नाप च◌बरदाईने
बतायी—
चािर बाँस चौबीस गज अंगुल अ मान।
ता ऊपर सु तान है अब न चूक चौहान॥
(पृ.रा.)
इतना बताते ही पृ वीराजने उसी कारसे बाणका संधान िकया और एक ही बाणम मुह मद
गोरीक छाती चीर दी; यह ◌ य भी गो वामीजीक आ माने देखा। जैसा िक हम आपको बता
चुक ह िक वा मीिकजीने ही िफर अवतार िलया था तुलसीदासजीक पम।
मुझपर यह आरोप लोग लगाते ह—“जग ु जीक कथा िकसीक समझम नह आती।”
आज म ित ा करक आया िक नौ िदनम जहाँ आपको कथा समझम नह आये तो बता
दीिजयेगा, समाधान क गा।
िम ो! गो वामी तुलसीदासजीक आ मा सब कछ देख रही ह। इसीिलए संव १५५४क
ावण शु ा स मीक िदन हमार उ र देशक बुंदेलख डक िच कट िजलक राजापुर नामक

२३
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

ामम आ माराम ि वेदीक प ी लसी माताजीक कोखसे एक ऐसे बालकका ज म आ,


िजसने भारतक िदशा भी बदली और दशा भी बदली।
प ह सौ चौवन िबसै कािल ीके तीर।
ावण शु ा स मी तुलसी धय शरीर॥
ावण शु ा स मीक िदन तुलसीदासजीका आिवभाव आ। गो वामीजी कहते ह—
जायो कुल मंगल बधावनो बजायो सुिन
भयो पिरतापु पापु जननी जनकको।
(क. ७.७३)
आकाशम बधावे बजे। िम ो! सोिचये। ज मते ही ब ीस दाँत, पाँच वषक बालक-जैसा
शरीर, ज मक समय मुखसे राम-राम िनकला। रामबोला नाम रख िदया गया। जय-जयकार ई।
अपने लोग एक गीत गा लते ह, ब त अ◌ा गीत ह—
हे िच कूटके ाण तु हारी हो जय जय।
ओ सं कृितके आ ान तु हारी हो जय जय॥
तुमने मृत भारतको नव जीवन दान िदया।
तुमने ही मानसका मृदु म ल गान िकया॥
हे गुण गण ान िनधान तु हारी हो जय जय।
हे िच कूटके ाण तु हारी हो जय जय॥
तुमने पिहचानी धमशा ुित पिरभाषा।
तुमसे ही ई सनाथ ा य और सुरभाषा॥
हे रामभ धनवान तु हारी हो जय जय।
हे िच कूटके ाण तु हारी हो जय जय॥
हे संत वंश अवतंस सुकिव कुलभूषण।
ए भूिर भाग तु हे पाकर दूषण-दूषण॥
हे मानवता वरदान तु हारी हो जय जय।
हे िच कूटके ाण तु हारी हो जय जय॥
हे कालजयी युग ा बाबा तुलसी।
तु हे पाकर वसुधा लसी लसी लसी॥
हे िगिरधर के भगवा तु हारी हो जय जय।
हे िच कूटके ाण तु हारी हो जय जय॥
॥ बोिलये गो वामी तुलसीदासजी महाराजक जय ॥
महापु ष का जीवन संघषमय होता ह और मुझे तो ऐसा लगता ह िक जबतक संघष नह
होता, तबतक उ◌ष भी नह होता। िजसक जीवनम िजतना अिधक संघष होता ह, उसक
जीवनम उतना ही अिधक उ◌ष होता ह। कछ अफवाह ह तुलसीदासजीक संब धम। गीता ेस
ारा कािशत तुलसीदासजीक जीवनीने ब त अफवाह फला दी ह। अभु मूल न क चचा
करते ह ये लोग और झूठ बोलते ह िक तुलसीदासजी अभु -मूल-न म ज मे थे। उ◌ िपताने

२४
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

िफकवा िदया—ऐसा कछ नह ह। अब तो सब कछ इ टरनेटपर पता चल जाता ह। योितषक


अनुसार िजस िदन तुलसीदासजीका ज म आ था, उस िदन अभु मूल न था ही नह ; न
जाने कहाँसे ये लोग ल आये। इतना स य ह िक माता-िपता ज दी चल गये। यह तो कालका कम
ह, ज दी उनक ाण छट गये और इनका पालन माता पावतीजीने िकया; सोिचये। किवतावलीम
कह भी रह ह—मेरे माय बाप गु शंकर भवािनये (क. ७.१६८) और रामच रतमानसम
कह रह ह िक मेर गु -िपता-माता वयं श र-भवानी ह—
गु िपतु मातु महेश भवानी। नवउ दीनबंधु िदन दानी॥
(मा. १.१५.३)
इस पि क दो अथ ह—
(१) एक अथ तो यही ह िक महश भवानी ही हमार गु -िपता-माता ह, अथा श र गु व
िपता ह और पावतीजी मेरी माँ ह।
(२) और दूसरा अथ यह ह िक यहाँ म पाँच लोग क व◌ना कर रहा —(क) अपने गु देव
नरह रदासक व◌ना, (ख) अपने िपता आ माराम-ि वेदीक व◌ना, (ग) अपनी लसीमाताक
व◌ना, (घ) महशक व◌ना और (ङ) पावतीजीक व◌ना। एक-साथ गु , िपतु, मातु ए—
गु िपतु मातु महेश भवानी। नवउ दीनबंधु िदन दानी॥
िकतनी मधुर-कथा ह। देखो! पावतीजीने तथा िशवजीने पालन िकया और गो वामीजीक
िलए नरह रदासजी महाराजको बुलाकर कहा—“आप जाइये, बालकको राजापुरसे ल आइये।
पालन-पोषण क िजये, होनहार बालक ह।” और नरह रदासजी महाराजने िकया भी। उ◌ ने
गो वामीजीको ीरामम◌क दी ा दी, रामबोला नाम हटाकर सां दाियक नाम तुलसीदास
रखा।
॥ बोिलये तुलसीदास महाराजक जय ॥
गो वामीजी कह भी रह ह िक मेरा रामबोला नाम गु देवने हटाया—
रामको गुलाम नाम रामबोला रा यौ राम
काज यहै नाम ै हौ कब कहत हौं।
(िव.प. ७६.१)
तो तुलसीदास नाम रखा। और गो वामीजीक िववाहक कथा जोड़ी गयी ह। उनका िववाह
नह आ, लोग झूठ बोलते ह। गो वामीजी बा यकालीन साधु ह ‍ िक वा मीिकजीक अवतार
ह। यह कथा भिव यो रपुराण ितसगपवक चौथे सगम ह। हनुमा जी महाराज वा मीिकजीक
यहाँ आते ह ितिदन कथा सुनने रामायणजीक । एक िदन लीला करनी थी भुको। वा मीिकजी
सिठयाये िक इतनी सु◌र कथा इस वानरको सुनाऊ, अपमान कर िदया हनुमा जीका। हनुमा जी
भी तरगम आ गये। िफर अपने नाखून से ही उ◌ ने बड़-बड़ प थर पर महानाटक िलखा।
िवनयपि काम उसका उदाहरण ह—
महानाटक-िनपुन कोिट-किवकुल-ितलक
(िव.प. २९.३)
एक बार हनुमा जी उन प थर को ीरामजीक समीप ल आये। उ◌ बड़-बड़ प थर लाते
२५
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

देख सब लोग डर और सोचा िक िकसक ऊपर काल मंडरा रहा ह? यह एक भी प थर िकसीक


ऊपर लगेगा तो उसक ऐसी-तैसी होने वाली ह। रामजीक पास ल आये, तो रामजीने कहा—“ये
िशलालख महिष वा मीिकको िदखाइये।” हनुमा जीने िदखाये तो महिष वा मीिकने देखकर
कहा—“यिद यह थ रहा, तो मेर थको तो कोई पूछगा ही नह ।” महिष वा मीिकजीने ब त
ेमसे हनुमा जीक ◌ुित क , क तन िकया। आप जानते ह िक आज शिनवार ह और शिनवार
व म लवारका यह िनयम ह िक व ा न भी चाह, तो भी हनुमा जी आपको ठल-पेलक आयगे,
चाह कोई भी आप कथा करते रह। अतः—
सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा । सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा ॥
सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा । सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा ॥
(क तन)
यह क तन सुनकर हनुमा जी अ य◌ स ए। संत का मानना ह िक हनुमा जीसे बड़-
से-बड़ा कोई भी काम लना हो, तो २४ घ टका यही अख ड क तन उ◌ सुनाओ। बड़-से-बड़ा
काम भी हनुमा जी कर देते ह। यह क तन सुनकर झूम गये हनुमा जी और उ◌ ने कहा—“वर
ूिह! वा मीिकजी! आप कोई वरदान माँिगये।” वा मीिकजीने कहा—“ये जो िशलालख
लकर आये हो, इ◌ समु म फक दो।” हनुमा जी बोल—“ठीक ह! फक देता ।” उ◌ ने
सार िशलालख समु म फक िदए, पर कहा—“अभी तो तुमने मुझे वा मीक य-रामायण नह
सुनायी, वानर कहकर मेरा अपमान िकया। पर म तु ह एक वचन देता ( ाप तो नह कहा
जा सकता)। म तु ह वरदान देता िक किलयुगम तुम िफर अवतार लोगे और अवधी-भाषाम
तुम ीरामकथा सुनाओगे, िजसे सभी लोग िबना यासक गा-सुन लगे। तब तु ह सुनानेक
आव यकता नह पड़गी। इतनी सरल ीरामकथा होगी िक सभी अपने-आप सुन लगे, पढ़ लगे,
जाओ।” तब वा मीिकजीने कहा—“म आपक आ ा िशरोधाय करता । िकतु एक वचन
आपसे और ल रहा िक जब-जब रामकथा कहते ए म फसूंगा, तब-तब आपको मेरी जीभपर
बैठकर उसको सुधारना पड़गा।” हनुमा जीने कहा—“ठीक ह।”
ऐसा हो भी गया िक दो बार ीरामकथा कहते-कहते गो वामीजी फस गये, तब हनुमा जीने
तुर◌ सुधार िदया। उ◌ वा मीिकजीने तुलसीदासजीक पम अवतार िलया। इसक संब धम
वेद यासजीने यह वा‍ िलखा ह—
वा मीिक ुलसीदासः कलौ देिव भिव यित।
रामच कथामेतां भाषाब ां किर यित॥
(भ.पु. ितसग पव ४.२०)
िशवजी पावतीजीसे कहते ह—“ह देिव! वा मीिकजी ही किलयुगम तुलसीदासजीक नामसे
अवतार लगे और वे ीरामच◌जीक िद य-कथा, सौ करोड़ रामायण क सारांशभूता कथाको
अवधी भाषाम िनब कर दगे।” और यह बात भ मालकार नाभागो वामी ीनारायणदासजी
भी वीकार करते ह। वे खुलकर कह रह ह भ मालजीम—
ेता का य िनबंध करी सत कोिट रमायन।
इक अ र उ रे ह यािद परायन॥
२६
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

अब भ न सुख दैन ब िर लीला िब ारी।


रामचरण रसम रहत अहिनिस तधारी॥
संसार अपारके पारको सुगम प नौका लयो।
किल कुिटल जीव िन ार िहत बा मीिक तुलसी भयो॥
(भ.मा. १२९)
हम लोग का िन◌ार करनेक िलए ीवा मीिकजी ही तुलसीदासजी बने। इसक आव यकता
यह थी िक हनुमा जीने कहा—“जो तुमने सौ-करोड़ रामायण बनाय ह, उ◌ सामा य यि
कसे पढ़गा?” आज कोई सौ-करोड़ िदनतक तो जी ही नह सकता। कोई ब त ल बी आयु
िजयेगा, तो भी वह १०० वष। सौ वषम बताइये िक कहाँ सौ-करोड़ िदन हो पायगे? एक
िदनम कोई एक रामायण पढ़गा, तो कसे पढ़ पायेगा? जबिक यि बचपनम ायः पढ़ता
नह , युवाव थाम भी नह पढ़ता। जब बै ी िड चाज होने लगती ह, तब पढ़ना ार भ करता
ह। जब बेट-ब अपमान करना ार भ कर देते ह, तब सोचता ह िक चलो भाई! रामायणजी
पढ़ लते ह। मेरा तो म◌ य ह िक इस रा को यिद सबल बनाना ह, तो रामायणजी बचपनसे ही
पढ़नी चािहए। महारानी ल मीबाई इतनी बड़ी वीरा ना ‍ थ ? ‍ िक वे बचपनसे रामायण
पढ़ती थ । रामलीलाम ल मणजीका अिभनय करती थ महारानी ल मीबाई। बंदउ लिछमन
पद जल जाता (मा. १.१७.५)। तो ‍ा अव यकता थी? १०० करोड़ रामायण का सारांश
दस हजार छ◌ म जनता-जनादनक सामने उप थत करना था। गागरम सागरका काम कौन
करवाये? हनुमा जीक कपा थी। इसिलए गो वामीजी कहते ह िक म जब यह ीरामकथा
िलख रहा , तो वहाँ तीन लोग क कपा ह—(१) रामजीक कपा ह, (२) मेर गु देवक कपा
ह, और (३) हनुमा जीक कपा ह।
संबत सोरह सै एकतीसा। करउ कथा हिर पद धिर शीसा॥
(मा. १.३४.४)
हिर पद धिर शीसा—(१) हिर माने गु देव नरहयान◌जीक चरण म णाम करक, (२)
हिर माने हनुमा जीक चरण म णाम करक, और (३) हिर माने भगवा ीरामजीक चरण म
णाम करक, संव १६३१क चै शु ा नवमीक िदन ीरामकथाका ार भ कर रहा । किव
तो ब त ह और होते रहगे; पर गो वामीजीका इतना स मान ‍ ह? आज तो कथावाचक ने
कथाको ब त िवकत कर िदया ह। कोई पढ़ता-िलखता ही नह , तो ‍ा करगे? यिद व ा
पढ़गा-िलखेगा नह , तो तीन घ टका समय काटनेक िलए वह कछ तो करगा।
म कहने जा रहा िक सात वषक आयुम १४ जनवरी १९५७को मने पूरी रामायणजी
क ठ थ कर ली थी। मुझे रामायण क ठ थ िकये अब साठ वष हो जायगे। िजस िदन पूरी
रामायणजी क ठ थ कर ली, उसी िदन वणानामथस ानांसे कथाका मने ार भ िकया। तो
साठ वष जब मुझे रामायण क ठ थ िकये हो गये, तो पाठ तो िकया ही होगा मने। जब हम
रामायणजीका पाठ करगे, तब न हमको नये-नये अथ सूझगे!
तो ‍ा कारण ह िक गो वामी तुलसीदासजीने इतनी िसि पायी? कोई भी कथा तबतक
सफल नह होती, जबतक उसक पास रा क यथाक समाधानक सू नह िमलते। इतना यान

२७
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

रखना चािहए। वही कथा सबसे सफल होती ह, जो रा क सम याका समाधान करती ह। जो
रा क सम याका समाधान न कर, वो कथा ह ‍ा? कथाएँ तो ब त होती ह, नाम मत लो
उनका; ऐसी-ऐसी कथाएँ होती ह। काद बरीक भी कथा ह, पर कौन उसे पढ़ता ह? दो-चार
लोग पढ़ते ह गे। य िप उसम कवल सू ह, पर रामकथा तो नह ह वो। कथाएँ तो ब त ह,
पटकथा लोग आये िदन िलखते रहते ह। िसनेमाम ितवष हजार पटकथाएँ िलखी जाती ह,
उनपर हजार चलिच बनते ह। उनसे ‍ा लना देना? यिद ेमी- ेिमकाक कथाक बात करो
तो बताओ, लला-मजनू जैसी कथा कहाँ िमलगी आपको? पर ‍ा यह कोई कथा ह, िजसम
रा क सम याका समाधान नह ? और गो वामीजी कह रह ह िक मेरी कथाम िवषयरस तो
िमलगा ही नह —
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न िबषय कथा रस नाना॥
तेिह कारन आवत िहय हारे। कामी काक बलाक िबचारे॥
(मा. १.३८.४–५)
गो वामीजी कह रह ह िक घ घे, भेक (मढक) और शैवाल—ये सब कचड़ मेर
रामच रतमानसम नह ह। यहाँ िवषयरसक कथाएँ नह ह। इसीिलए साधारण लोग तो यहाँ
आयगे नह । जो राम और रा म भेद नह मानता होगा, िनि त ही वह मेरी कथाका ोता और
पाठक बनेगा। और देिखये, तुलसीदासजी महाराजको इस रा क ित िकतनी पीड़ा ह। मुझे तो
लगता ह िक रामायणजी भी रा ायण ह। यह भारत-रा क संिहता ह। गो वामीजी अकबरक
शासनकालम जी रह थे और उ◌ ने जनताक िवपि का वणन किवतावलीम िकया। िकतना
शोषण हो रहा था उस समय जनताका! अब देिखये गो वामीजीक बात—
खेती न िकसानको िभखारीको न भीख बिल
बिनकको बिनज न चाकरको चाकरी।
जीिवकािबहीन लोग सी मान सोचबस
कहै ऄक एकन सों कहाँ जाई का करी॥
बेद पुरान कही लोक िबलोिकअत
साँकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दािरद-दसानन दबाई दुनी दीनबंधु
दुिरत-दहन देिख तुलसी हहा करी॥
(क. ७.९७)
“जनता हाहाकार कर रही ह, अब ‍ा क ? िकसान खेती नह कर पा रहा ह। िभखारीको
भीख नह िमलती; जब िकसी दाताक पास व◌ु नह ह तो िभखारीको कसे भीख िमलगी?
यापारी ठीकसे यापार नह कर पा रहा ह। नौकर नौकरी नह कर पा रहा ह। िकसीको
कह जीिवका नह िमल रही ह। लोग एक-दूसरसे कह रह ह िक म कहाँ जाऊ, ‍ा क ?”
तुलसीदासजी आगे कहते ह—“ह नाथ! वेद-पुराण भी कहते ह और लोकम देखा जाता ह िक
िवपि म आप सभीपर कपा करते ह। ह नाथ! यह रावण देिखये। आप तो रावणको मार चुक
ेताम, पर किलयुगम द र ता प रावणने सार संसारको दबाकर रख िदया ह। म हाहाकार कर
२८
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा ३० कथाएँ ‍

रहा ।”
अब रामजीने कहा—“कोई बात नह । म आपक मुखसे रामच रतमानसक पम अवतार
लगा और सार रावण को समा कर दूँगा।” अब इतना उदाहरण देनेपर भी आपको यिद
तुलसीदासजीक तुलना समझम न आये, तो अब ‍ा कह? भारतक सम या का सू ढढा
था गो वामीजीने। म तो इस सरकारसे क गा, पहल कहा भी ह। आज मोदीजीका भी ६७वाँ
ज मिदन ह। १९५०म उनका भी ज म आ, मेरा भी। मेरा १४ जनवरी और उनका १७ िसत बर
(आज) ह। आज ब त उ साह ह। म भगवा से ाथना करता िक मोदीजी िचरजीवी ह । आज
वे अपनी माँक पास गये थे। म उनसे क गा िक यिद तुम स े मातृभ हो, गांधीजीक भ
हो—िज◌ ने, रामच रतमानससे रघुपित राघव राजा राम सू िलया था—तो रामच रतमानसको
रा ीय- थ घोिषत करो। यही तु हारी गांधीजीक ित स ी ा िल होगी और तु हारी माताक
ित स ी भावा िल होगी। अ त थ ह यह! गो वामीजीको िकतनी पीड़ा ह इस देशक
ित। उनको एक सु◌र शासक चािहए। अतः वे िफर रामजीको बुला रह ह—“ह राघवे◌जी!
एक बार िफर आप इस देशको सँभािलये।” इसिलए रा क सम या क समाधानक िलए
गो वामीजीने रामच रतमानसजीक रचना क । िवष भर गया था इस देशम, पूरा देश िवषैला हो
गया था, अब अमृत चािहए। इसीिलए गो वामीजीने कहा—
वणानामथस ानां रसानां छ सामिप।
म लानां च क ारौ व े वाणीिवनायकौ॥
(मा. १ म. ो. १)
इस देशमसे िवष िनकालना ह, िवरोधका िवष िनकालना ह। अतः अमृतक बीजसे ार भ
करते ह। व अमृतका बीज ह, तो वणानांसे ार भ करते ह, और व पर िव ाम भी करगे—
द ि नो मानवाः। व से ार भ और व से ही िव ाम। देशम अमृतक धारा जो बहाये, ऐसी
रामकथा सुधा ह—
रामकथा शिश िकरन समाना। संत चकोर करिह जेिह पाना॥
(मा. १.४७.७)
हम भी अमृतक वषा कर रह ह। गो वामीजीने कहा—“भगव ! जब रावणने सभी वानर-
भाल को मार डाला था, तब आपने इ◌से अमृतक वषा करवायी थी—”
सुधाबृि भै दु दल ऊपर। िजये भाल किप निह रजनीचर॥
(मा. ६.११४.६)
रामजी बोल—“कोई बात नह । उस बार सुर◌ (इ◌)को मा यम बनाया था, इस बार
कवी◌ (तुलसीदासजी)को मा यम बनाकर, रामकथाक सुधावषा करवाकर सबको िजलाना
ह।” ब त मधुर ◌ुित ह गो वामीजीक !

२९
३० कथाएँ ‍ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

ीरामचिरतमानसमें ३० कथाएँ ों?


वा मीिकजीने कहा—“मने गाय ीजीक २४ अ र क या या करक वा मीिक-रामायणम २४
हजार ोक िलखे। गाय ीजीम चौबीस अ र माने जाते ह। वरेिणय , वरे य नह , माना
जाता ह। त सिवतुवरेिणयं भग देव य धीमिह िधयो यो नः चोदया —ये २४ अ र।
तो २४ हजार ोक क या या ई।” गो वामीजीने कहा—“म िवन ाथना करता िक २४
हजार ोक क तो या या हो गयी। पर यह बताइये िक ‍ा जपम त सिवतुः ..... ही जपा
जाता ह? जपम ॐ भूभुवः वः ॐ—ये ६ अ र भी तो आते ह। इनको िमलाकर कल
३० अ र गाय ीक बन जायगे। म अपने रामच रतमानसम ३० अ र क या या क गा।”
इसिलए उ◌ बनना पड़ा तुलसीदास ‍ िक वा मीिक पम उस बार या ितक या या नह
कर पाये थे। अतः गो वामीजीने अपने रामच रतमानसम ीरामजीक ३० कथाएँ िलख और ३०
कथा क मा यमसे गाय ीजीक ३० अ र क या या क । एक महीनेम कल तीस िदन होते
ह। अतः ३० िदन क िलए गो वामीजीने एक-एक कथा िलखी, एक-एक िदनक िलए एक-एक
कथा िलखी ह। तु ह तीस िदन रामकथा सुननी ह। इसिलए रामच रतमानसम कल कथा क
िकतनी सं या बतायी? तीस। अब चिलये, एक-एक कथासे म आपका प रचय कराऊगा और
नौ िदन म आपको तीस कथा का प रचय हो जायेगा।
रामकथा सुंदर करतारी। संशय िबहग उड़ावनहारी॥
(मा. १.११४.१)
देिखये, गाय ीजीम दो बात कही जा रही ह। ‍ा दो बात कही जा रही ह—त सिवतुवरे यं
भग देव य धीमिह, िधयो यो नः चोदया । पहल ‍ा कहा जा रहा ह? सिवतुः देव य
वरे यं भगः धीमिह। सामा य लोग कहते ह िक सिवतुः देव यम सामानािधकरणम ष ी ह।
दोन ष ी ह, पर एक िवशेषण ह और एक िवशे य ह। सिवता प जो देवता ह, उनक वर य
तेजका हम यान कर—ऐसा साधारण लोग कहते ह। पर हम कह रह ह िक यहाँ यिधकरणम
ष ी ह और दोन म संब ध ष ी ह—सिवतुदव य त रे यं भग धीमिह। सिवता प देवता
नह , युत सिवताक भी जो देवता ह—सिवता माने सूयनारायण। यहाँ ब त अ◌े-अ◌े िव ा
लोग भी ह, पर म ित ा करक आया िक इस बार मेरी कथाका यिद एक भी अ र आपको
समझम नह आये, तो बता दीिजयेगा म िफर या या क गा, ‍ िक म जग ु और येक
िह◌ू मेरा ोता ह। म कोई नचिनया-गवैया तो नह । इस सिवतुः देव यम सिवता प देवता
नह । िकसक तेजका हम यान कर? जो सिवताक भी देवता ह। सूयनारायणक भी देवता कौन
ह? रामच◌जी—
सूयम डलम य थं रामं सीतासमि वत ।
नमािम पु डरीका ममेयं गु त र ॥
(रा.◌.◌ो. ५०)
रामजी सीताजीक साथ सूयम डलक बीचम िवराजते ह। कभी-कभी लोग कहते ह िक
हनुमा जी तो ािननाम ग य (मा. ५ म. ो. ३) ह, पर उनका बालच र देखकर लगता

३०
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा ३० कथाएँ ‍

ह िक ‍ा ानी ह वे? इतना तो कम-से-कम उनको िववेक होना चािहए था, सूयनारायणको
मुँहम भर िलया—
जुग सह जोजनपर भानू। ली यो तािह मधुर फल जानू॥
(ह.चा. १८)
अथा जो इतने उपर सूयनारायण ह—युग (१२ हजार योजन) सह , अथा १२,०००,०००
योजन। चार युग (सं या और सं यांश)को िमलाकर सं या १२ हजार (देववष) हो जाती ह
[देख—एत ादशसाह ं देवानां युगमु यते (म. मृ. १.७१)पर मनुभा यम मेधाितिथ व
क कभ क टीका]। अ त ह िक हनुमा जी सूयनारायणको िनगल गये मधुर फल जानकर।
इसक दो उ र ह—(१) एक उ र यह ह िक हनुमा जी जानते ह िक सूयनारायणक म डलक
म यम सीतारामजी रहते ह। अतः मुँहम भर िलया और बस!—“ह सूयनारायण! आप अपने
म डलवाल सीतारामको मेर दयम िवराजमान करा दीिजये। िफर म आपको उगल देता ।”
और वही आ। सूयनारायण म डलसे सीताराम हनुमा जीक दयम आ गये और सूयनारायणको
हनुमा जीने उगल िदया—
जासु दय आगार बसिह राम शर चाप धर॥
(मा. १.१७)
कहाँ हनुमा जीने मूखता क ? उनको ब त ान ह।
(२) और अब कहा यह जाता ह िक NASAक वै ािनक ने सूयम डलसे िनगत तरग का
वरण कर उसक विनको रकॉड िकया तो पाया गया िक वह ॐक समान ह। ॐ भगवा राम
ही ह। अकार ह ल मणजी, उकार ह श ु जी, मकार ह भरतजी और अ मा ा ह रामजी—
धरे नाम गु दय िबचारी। बेद त व नृप तव सुत चारी॥
(मा. १.१९८.१)
इसिलए गाय ीम दो बात कही गय ह—(१) त सिवतुदव य वरे यं भग धीमिह—
सूयनारायणक देवताक े तेजका यान कर—जो सूयनारायणक देवता भगवा राम ह, तथा
(२) िधयो यो नः चोदया —हमारी बुि य को बुर काय से हटाकर अ◌े काय क िलए
े रत कर। इसी कार ीरामकथाक भी दो अंश ह। जब गो वामीजीसे पूछा गया—“आपक
ीरामकथाम ‍ा कट ह?” तो वे कहते ह—
जदिप किबत रस एकउ नाहीं। राम ताप गट एिह माहीं॥
(मा. १.१०.७)
गो वामीजी कहते ह िक य िप मेर ीरामच रतमानसम किवताका एक भी रस नह ह,
इसम िवषयरसक चचा ही नह कर रहा । तो उठता ह—“िफर इतना बड़ा थ िलख
‍ रह ह?” गो वामीजीने कहा—इसम तो रामजीका ताप कट ह—राम ताप गट
एिह माहीं (मा. १.१०.७)। तापका अथ ‍ा होता ह?—तेज। त सिवतुवरे यं भग देव य
धीमिह अथा रामजीका भग कट ह, जो वर य यानी े ह; जो भूभुवः वः ॐ ह, ॐ
ह, सबका पालक ह, जो भूलोकम, भुवल क (अ◌ र -लोक)म, वल क ( वगलोक)म, त
यानी यापक, सव या ह, वह रामजीका भाव तीन लोक म या ह—

३१
३० कथाएँ ‍ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

रिब मंडल देखत लघु लागा। उदय तासु ि भुवन तम भागा॥


(मा. १.२५६.८)
इस कथाम गो वामीजी कहते ह िक रामजीका काश ताप कट ह। यही ह सिवताक
देवताका वर य भग। यह भग ह, तेज यहाँ नह कहा जानकर; तेजः नह कहा, भगः कहा।
तेज नह ह, यह तो भग ह। भृ ित इित भगः—जो बुराइय को भून डालता ह, उसे कहते ह
भग। रामजीका भग यानी ताप िकतनी व◌ु को भून डालता ह? गो वामीजीने कहा—“कम-
से-कम सात व◌ु को।” रामच रतमानसक बालका डका ३२वाँ (क) दोहा देिखये। हमारी
कथाम तो रामायण भी लकर बैठा क िजये। हमार यहाँ तो रामायण छपी ह ब त ामािणक—
रामच रतमानस तुलसीपीठका िवजय-सं करण। लोग ने मुझपर मुकदमा चलाया था इसको लकर
िक जग ु जीने पाठम छड़छाड़ क ह। ब त सताया िभ -िभ लोग ने, नाम लना ठीक नह ह।
लखनऊ ख डपीठक िडवीजन बचने मेर अनुकल िनणय दे िदया िक जग ु जीक रामायण
िब कल ामािणक ह और इनपर बीस हजार पयेका द ड लगाया। और कहा िक अब िवरोध
करोगे, तो गैर जमानती वॉर ट िनकलगा और कमसे कम छः महीने जेलका आन◌ हो जायेगा।
तो देिखये म ‍ा कह रहा था? भग या ताप िकतनी व◌ु को भूनता ह? सात व◌ु को।
इतना अ◌ा भूनता ह िक खाने लायक नह , खाक कर देता ह, जला डालता ह—भृ ित इित
भगः। कौन-सी व◌ु को?—
कुपथ कुतरक कुचािल किल कपट दंभ पाखंड।
दहन राम गुन ाम िजिम इधन अनल चंड॥
(मा. १.३२क)
इन सात व◌ु को ीरामकथा जलाती ह, यही भग ह। गो वामीजीसे पूछा गया िक आपने
रामायणजीम सात का ड ‍ िलखे? उ◌ ने उ र िदया िक इसिलए िलखे ‍ िक मेरी कथाका
एक-एक का ड एक-एक व◌ुको जलायेगा—
(१) बालका ड—यह का ड कुपथको जलाता ह।
(२) अयो याका ड—यह का ड कुतकको जलाता ह।
(३) अर यका ड—यह का ड कुचािलको जलाता ह।
(४) िकि क धाका ड—यह का ड किल अथा झगड़को जलाता ह।
(५) सु रका ड—यह का ड कपटको जलाता ह। इसिलए भगवा कहते ह—
िनमल मन जन सो मोिह पावा। मोिह कपट छल िछ न भावा॥
(मा. ५.४४.५)
सु◌रका डक यह चौपाई रामजी ारा कही जा रही ह। सु◌रका ड कपट, छल, िछ को
जलाता ह।
(६) यु का ड—यह का ड दंभ को जलाता ह।
(७) उ रका ड—यह का ड पाखंड को जलाता ह।
यह भग ह, इस भगका यान कर। जो इन सात बुराइय को भून डालता ह—भृ ित । ज
पाक। भृ ित इित भगः। यो नः िधयः चोदया अथा जो हमारी िधयः यानी बुि य को

३२
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १

े रत कर। ब वचन नः ‍ कहा गाय ीम? तीन कारक जीव होते ह—(१) िवषयी, (२)
साधक, (३) और िस । अतः सबक बुि य को े रत कर। भगवा तीन क बुि य को े रत
करते ह। िस क भी बुि को े रत करते ह, साधक क बुि को भी शु करते ह, और
िवषयीको तो शु करते ह ही—
िबषयी साधक िस सयाने। ि िबध जीव जग बेद बखाने॥
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभा बड़ आदर तासू॥
(मा. २.२७७.३–४)
तो गो वामीजीने कहा—“ऋिष वा मीिक! आपने कवल २४ अ र क या या क , ६
अ र छट गये।” ॐ भूः भुवः वः और अगला ॐ—ये ६ अ र छट गये। अतः २४ और
६ = ३०, ऐसी ३० कथाएँ गो वामीजीने कह । एक-एक अ रक या या क । गो वामीजीने
३० कथा क मा यमसे गाय ीजीक कल ३० अ र क या याको पूण कर िदया।

कथा १: िनज संदेह ... हरनी (मा. १.३१.४)


आइये आगे चल! कथाका ार भ करते ह। जब गो वामीजीने कहा—
मैं पुिन िनज गु सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी निह तिस बालपन तब अित रहॆउ अचेत॥
(मा. १.३०क)
तो लोग ने पूछा—“आपने अपने गु देवसे कौन-सी कथा सुनी?” गो वामीजी कहते ह—
“मेर गु देवने मुझे ३० िदन क आधारपर ३० कथाएँ सुनाय , वे ३० कथाएँ म िलखने जा रहा
।” आगे ३१व दोहक चौथी पि से गो वामीजीने कहना ार भ िकया। गो वामीजी अपनी
कथाक िवषयसूची (अनु मिणका) बता रह ह।
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(मा. १.३१.४)
चार व ा क ◌ि उप थत हो रही ह यहाँ। चार व ा ह हमार मानसजीम। चार घाट
ह—
(१) शरणागित घाट—इसे गऊ घाट भी कहते ह। इसक व ा ह गो वामीजी, ोता ह
सभी संत और मन।
(२) कम घाट—इसे पंचायती घाट भी कहते ह। इसक व ा ह या व ‍जी और ोता
भर ाजजी।
(३) ान घाट—इसे राजघाट भी कहते ह। इसक व ा ह िशवजी और ोता ह भगवती
पावतीजी।
(४) उपासना घाट—इसको भाषाम जनानाघाट या पनघट भी कहते ह। यहाँ पु ष ान
नह करते, मिहलाएँ करती ह। हमार यहाँ पहल अनुशासन था। इसीिलए हमारी कथाम कहा
जाता ह िक मिहलाएँ िजन पि य म बैठती ह वहाँ पु ष को नह बैठना चािहए और पु ष िजन

३३
कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

पि य म बैठते ह वहाँ मिहला को नह बैठना चािहए। ब त पाप लगता ह। यहाँ तो मिहलाएँ


ठल-पेलकर पु ष वाली पि य म जाकर बैठ जाती ह। यह ठीक नह ह।
पिनघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पु ष करिह अ ाना॥
(मा. ७.२९.२)
यह स यता ह। पनघटपर पु ष कभी नह जाता था ान करनेक िलए। इस पनघटक, भि
घाटक, व ा ह भुशु डजी और ोता ह ग डजी।
तो गो वामीजी पहल अपने घाटसे ार भ कर रह ह, ‍ िक शरणागितसे सार स ुण आ
जाते ह जीवम। यथा—
भि ः परेशानुभवो िवरि र य चैष ि क एककालः।
प मान य यथा तः यु ुि ः पुि ः ुदपायोऽनुघास ॥
(भा.पु. ११.२.४२)
भागवतम कहा गया ह िक भि , भगवदनुभव, और िवरि सब शरणागितसे ा हो जाते
ह। अतः पहला घाट गो वामीजीका शरणागित घाट ह।
वणानामथस ानां रसानां छ सामिप।
म लानां च क ारौ व े वाणीिवनायकौ॥
गो वामीजी वाणी-िवनायकक व◌ना करते ह। सर वती और गणपितक व◌नाएँ तो
साधारण अथ ह। व◌ुतः यहाँ वाणी माने सीताजी और िवनायक माने िविश नायक भगवा
ीराम, इनक व◌ना कर रह ह। ‍ ? गो वामीजी कहते ह—ह भगव ! हमार रा म आज
पाँच पर संकट ह—
(१) वणाना —आज वण पर संकट ह; वण यव था चूण-मूण हो रही ह, तहस-नहस हो
रही ह। शासक भी वोट बकम प पात कर रह ह, उ◌ का प ल रह ह जो आत वािदय क
सरगने ह। हमारा प कौन ल रहा ह? क तो ब त कछ ह कहनेको। हज या ाम िकतनी
स सडी दी जा रही ह! आज हमार िह◌ू आये िदन ब ीनाथ, कदारनाथम मर जाते ह। ‍ा
स सडी दी गयी उनको? मानसरोवरक या ाम ‍ा स सडी दी गयी उनको? कछ नह िदया
गया। अभी गािजयाबादम ब त बड़ा हज हाऊस बनाया गया और जो पचास करोड़ पया लगा
वह हमारा लगा। इनक बापका लगा ‍ा? हमारा ही तो पया लगा ह, और िकसका लग रहा
ह? हज हाऊस बना रह ह आप, पर हमार यहाँ िह◌ू जो तीथम मरते ह उनका ‍ा होता ह?
चार-धाम हाऊस आपने ‍ नह बनाया, मानसरोवर हाऊस ‍ नह बनवाया? कहा िकसे
जाए? जवरा मारे रोए न देय । पर अब नह चलगा। गो वामीजीने कहा—“ह भगव ! हमार
वणा मपर संकट ह।”
(२) अथस ाना —हमारी आिथक प र थितम संकट ह। अब तो, हमार यहाँ गोमांसक
िनयातपर छट दे दी गयी। अब तो खुलआम िनयात हो रहा ह मांस का। यही प र थित रही
तो हमारा पशुधन समा हो जायेगा, यहाँ पशु देखनेको नह िमलगे। चार ओरसे हमारी थित
चरमरा रही ह, हमार अथपर संकट ह।
(३) रसाना —हमार रस (आन◌)पर संकट ह, हम आन ◌त नह हो पा रह ह।
३४
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १

(४) छ सा —वेद पर संकट ह। वैिदक सं कितको कहाँ बढ़ावा िदया जा रहा ह?


(५) म लाना —हमार म लपर संकट ह।
ह भगव ! हमार इन पाँच संकट को दूर क िजये।
इसीिलए गो वामीजीने कहा िक हम रामजीक पाँच लीला का वणन करगे। ये पाँच
लीलाएँ हमार पाँच संकट को दूर कर दग —
(१) बाल-लीला—इस लीलासे वणाना वणा म-संकट दूर होगा। (२) िववाह-
लीला—इस लीलासे अथस ाना अथ-संकट दूर होगा। (३) वन-लीला—इस लीलासे
रसाना रस का संकट दूर होगा। (४) रण-लीला—इस लीलासे छ सा छ◌का (वेद का)
संकट दूर होगा। (५) रा य-लीला—इस लीलासे म लाना म ल का संकट दूर होगा।
वणानामथस ानां रसानां छ सामिप।
म लानां च क ारौ व े वाणीिवनायकौ॥
अब गो वामीजी सर वती और गणपितका भी व◌न करते ह। साथ-साथ वाणी माने ाणी,
बृहती वाणी सीताजीका, एवं िवशेषनायक धीरोदा नायक ीरामच◌जीका व◌न करते ह।
भवानीश रौ व े ािव ास िपणौ।
या यां िवना न प यि िस ाः वा ः थमी र ॥
(मा. १ म. ो. २)
हमार जीवनम ा नह रही आज। वैिदक धमक ित आ था भी नह ह, िव ास भी नह
ह। इससे—भवानीश रौ व े ािव ास िपणौ। ह भगव ! हमार ोता क मनम
वैिदक धमक ित आ था जगाइये और वैिदक धमक ित िव ास जगाइये।
व े बोधमयं िन यं गु श र िपण ।
यमाि तो िह व ोऽिप च ः सव व ते॥
(मा. १ म. ो. ३)
आजकल तो गु क बाढ़ लग गयी ह। सब गु बनते िफर रह ह भईया!
गली-गली गु िफरत है मोते दी ा लेओ।
और,
धोती लोटा कुरता बीस पैया देओ॥
आजकल दी ा देना बड़ा सरल हो गया ह, सभी दी ा दे रह ह। माईकपर १२० पये जमा
कराकर दी ा दी जा रही ह। पर गु कौन हो सकता ह? जो बोधमय हो, सार पुराण , वेद का
िजसे ान हो। गु श रजीक समान ीरामभ होना चािहए।
िशव सम को रघुपित तधारी। िबनु अघ तजी सती अिस नारी॥
पन कर रघुपित भगित ढ़ाई। को िशव सम रामिह ि य भाई॥
(मा. १.१०४.७–८)
गु श रको बुलाओ, श रजीक समान गु होना चािहए।

३५
कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

तुम पुिन राम राम िदन राती। सादर जप अनँग आराती॥


(मा. १.१०८.७)
एक बार िकसीने िशवजीसे ये िकये—
(१) “‍ भगव ! आप सचमुच भोल भ डारी ह? अर! िजस च◌माको द ने ाप दे
िदया, िकतना दु शिश! शिश गु ितय गामी ... (मा. २.२२८), जो गु प ीगामी, गु प ीपर
िजसक ◌ि चली गयी—ऐसे कलि त च◌माको माथेपर धारण कर िलया आपने?” यहाँ
िशवजीका उ र ब त िवमल ह, सुनने लायक ह। िशवजीने कहा—“देिखये! मेरी ◌ि च◌माक
िकसी अवगुणपर नह गयी। च◌माम एक स ुण ह।” “‍ा स ुण ह?” बोल—“मेर भुक
नामका उ रा च◌मासे जुड़ा ह। रामच◌ मेर भु ह, उनक नामका उ रा च◌ ह, अतः उसे
मने अपने म◌कपर चढ़ा िलया।” बोिलये भ व सल भगवा क जय! इतना कोई भगवा का
भ होगा?— ीरामच रघुपु व राजवय (रा.◌.◌ो. ९५)! िकतना सु◌र!!
(२) “ ीग ाको म◌कपर ‍ रखा? ग ाजी तो भगवा क चरणोदक ह।”—आगे
चलकर भगवा ग ाको पार करगे रामावतारम, इसिलए ग ाको म◌कपर रख िलया।
(३) “और तीन-तीन ने ‍ भगव ?”—(क) अि ने , (ख) सूय ने , और (ग) च◌
ने —ये तीन हमार रामजीक नामसे कट ए ह। रसे अि कट होती ह, आसे सूयनारायण
कट होते ह, मसे च◌मा कट होते ह—हेतु कृशानु भानु िहमकर को (मा. १.१९.१)
इसिलए इनको म◌कपर रख िलया।
िशव समको रघुपित तधारी। िबनु अघ तजी सती अिस नारी॥
(मा. १.१०४.७)
िकतना सु◌र! यमाि तो िह व ोऽिप च ः सव व ते (मा. १ म. ो. ३) ‍ा सु◌र,
अर! िशवजीको पाकर ि तीयाका च◌मा आज पूिजत हो गया। उसी कार यिद गु देवका
आ य ल ल, तो जीवनम जो टढ़ा िश य ह उसक उसी कार पूजा होगी जैसे श रजीक
म◌कपर ि तीयाक च◌माक पूजा होती ह। िश यको गु माथेपर चढ़ा लता ह।
गु देव परम कृपाल रे। भज मन ीगु चरण ॥
गु देव दीन दयाल रे। भज मन ीगु चरण ।
ीगु चरणं भवभयहरण ।
गु देव परम कृपाल रे। भज मन ीगु शरण ॥
ीगु चरणं म लकरण ।
गु देव दीनदयाल रे। भज मन ीगु चरण ॥
बोलो गु देव भगवा क जय-जय हो! बोलो श रजीक जय!! श र पम ह गु देव।
श रजी संहार करते ह, उसी कार गु देव िश य क दोष का संहार कर देते ह। िजस कार
श रजी यि को रामजीसे िमला देते ह, उसी कार गु देव यि को रामजीसे िमला देते ह।
सीतारामगुण ामपु यार यिवहािरणौ ।
व े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥
(मा. १ म. ो. ४)
३६
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १

सीतारामजीक गुण ाम प वनम दो लोग िवहार करते ह—(१) कवी र—वा मीिकजी
और (२) कपी र—हनुमा जी। इन दोन का िव ान माने अनुभव िवशु ह, परमपिव ह। वो
मेरा गीत ह ना—
एक पी-पी करके गाता है एक गा-गा करके पीता है। २
इक जी-जी करके गाता है इक गा-गा करके जीता है॥ २
सं कतम वा मीिकको िपक कहते ह। ‍ा कहते ह? िपक —व े वा मीिककोिकल
(रा.र.◌ो. ३४) और हनुमा जीको किप कहते ह। और दोन को देखो तो एक दूसरका उ टा
ह। िपकः का उ टा ‍ा ह? किपः। और किपः का उ टा ‍ा ह? िपकः। िपब कायित का
अथ ह—पीते-पीते गाता ह और काय िपबित —गाते-गाते पीता ह। एक भगवा क ऐ यका
गान करता ह, दूसरा भगवा क माधुयका गान करता ह। वा मीिकजी भगवा क माधुयका गान
करते ह, हनुमा जी भगवा क ऐ यका गान करते ह। पर सौ◌य दोन म रहता ह।
अब गो वामीजी सीताजीक ◌ुित करते ह—
उ वि थितसंहारकािरणीं ेशहािरणी ।
सव ेय करीं सीतां नतोऽह रामव भा ॥
(मा. १ म. ो. ५)
उ व थितसंहारा कारयित । सीताजी ‍ा करती ह? (१) उ व-कािरणी —सीताजी
ाजीसे जीवक उ◌ि कराती ह। ाजीको शि देकर जीवक उ◌ि कराती ह,
(२) ि थित-कािरणी —सीताजी िव णुजीको शि देकर जीवका पालन कराती ह, (३)
संहार-कािरणी —सीताजी श रजीको शि देकर जीवका संहार कराती ह, और (४)
ेशहािरणी —सीताजी रामजीसे ाथना करक जीवका श हरवा लती ह। तो भ ने
कहा—“सीताजी चार लोग से चार काम करवा लती ह, वयं ‍ा करती ह?” तो (५)
सव ेय करी —सीताजी जीवका क याण वयं करती ह। उपिनष म ेय और ेय दो बात
कह गय ह—(१) यिद ेय चािहए तो संसार िमलगा, (२) यिद ेय चािहए तो ीराघवे◌
सरकार िमलगे। सीताजी जीवको िकसीको नह स पत । कहती ह—“बेटा! तुमको यिद ेय
चािहए तो तुम रामजीक चरण म चलो। म तु हारी सहायता क गी।” तो सीताजी सवका,
सबका ेय करती ह। इसपर मेरा क तन ह न—
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण।
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण॥
सीता रानीके चरण, ब रानीके चरण।
सीता रानीके चरण, ब रानीके चरण॥
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण।
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण॥
सीता रानीके चरण, महारानीके चरण।
सीता रानीके चरण, महारानीके चरण।

३७
कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

सीता रानीके चरण, पटरानीके चरण।


सीता रानीके चरण, पटरानीके चरण।
सीता रानीके चरण, राधा-रानीके चरण।
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण।
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण॥
ीसीता महारानीजूक जय हो! नतोऽह रामव भा —गो वामीजी कह रह ह िक ऐसी
सीताजीको म नमन करता । अपनी कथाका ार भ करगे गो वामीजी। कहते ह—
य मायावशवि िव मिखल ािददेवासुरा
य स वादमृषैव भाित सकल र ौ यथाऽहे मः।
य ादः व एक एव िह भवा भोधेि तीषावतां
व ेऽह तमशेषकारणपर रामा यमीशं हिर ॥
(मा. १ म. ो. ६)
व ेऽह रामा यमीशं हिर —राम ही िजनका नाम ह ऐसे ह र, ई र भगवा रामजीको
म व◌न करता । कौन से ह र? तो, य मायावशवि िव मिखल ािददेवासुरा। सारा
संसार— ािद देवता, असुर—ये सब िजनक मायाक वशम ह; य स वा —िजनक स ासे;
अमृषैव भाित सकल—अमृषा सव सकल य स वादेव भाित —य िप संसार स य ह, परतु
भगवा क काशक िबना कािशत नह होता—
जगत का य काशक रामू। मायाधीश यान गुन धामू॥
(मा. १.११७.७)
इतना ही नह ! र ौ यथाऽहे मः—जैसे साँपम र सीका म भी कािशत होता ह
काशक कारण; यिद आँखम काश न हो तो ‍ा आप र सीको समझ सकगे? उनक
काशसे तो सभी कािशत ह—अस पदाथ भी और स पदाथ भी।
जासु स यता ते जड़ माया। भास स य इव मोह सहाया॥
(मा. १.११७.८)
और भी, य ादः व एक एव िह भवा भोधेि तीषावतां—संसार-सागरसे पार करने
वाल क िलए, िजनक मनम संसार सागरको पार करनेक इ◌ा ह, उनक िलए भगवा का चरण
ही एकमा जहाज ह और कोई जहाज नह । बस, भगवा क चरण हम पकड़ ल; वे हम डबने
नह दगे। तमशेषकारणपर—जो सभी कारण से पर ह, ाजीसे भी पर ह, िव णुजीसे भी पर
ह, श रजीसे भी पर ह—ऐसे रामजीको म व◌न करता ।
पाँच देवता क व◌ना क गो वामीजीने—(१) गणपित, (२) सूय, (३) िव णु, (४)
पावतीजी, और (५) िशवजीक । ‍ िक उनक ◌ि म सब राममय ह। िमिथलाक करणम
कहगे िक रामजीक दशनम पाँच देवता क दशन हो जाते ह, ये भगवा क पाँच अ ह—
कुंजर मिन कंठा किलत उरिन तुलिसका माल।
बृषभ कंध केहिर ठविन बल िनिध बा िबशाल॥
(मा. १.२४३)
३८
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १

गो वामीजी ित ा करते ह।
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(१) िनज संदेह हरनी—म यह जो कथा कह रहा , वह मेर स◌ेहको दूर कर रही ह।
(२) मोह हरनी—या व ‍जीक जो कथा ह, वह मोहको दूर करगी। (३) म हरनी—
िशवजीक जो कथा ह, वह मको दूर करगी और (४) भव सिरता तरनी—भुशु डजीक
जो कथा ह, वह भव स रताक नाव ह।
गो वामीजीको एक ही स◌ेह ह। वे कहते ह—“म ीरामकथा कसे गाऊगा?” किव
ने—िनज बुिध बल भरोस मोिह नाहीं, ताते िबनय करउ सब पाहीं (मा. १.८.४) कहा।
उनको स◌ेह ह—“रामजीक िद य च र को म कसे कह सकगा?”
कह रघुपित के चिरत अपारा। कह मित मोिर िनरतसंसारा॥
(मा. १.१२.१०)
“कहाँ रामच◌जीक अपार-च र और कहाँ संसारम फसी मेरी बुि !” इसीिलए सार
िव को दूर करनेक िलए म लाचरण िकया। और आप जानते ह िक आजतक िकसी किवने
इतना बड़ा म लाचरण नह िकया। कोई कर! २० ोक कर िलया, ब त कर िलया।
काद बरीकारने भी २० ोक म म लाचरण िकया ह, तो भी उनक काद बरी पूरी नह ई।
इतना म लाचरण तो िकसीने िकया ही नह । अब ब तसे म लाचरणका फल िमला, इतना
चार भी आजतक िकसी थका आ नह िजतना रामच रतमानसका आ।
पाँच देवता क ाथना कर ली। गु देवक ाथनाक —“भगव ! आप कपा क िजये।”
संत क ाथना क और दु क ाथनाक िक तुमलोग िव मत डालना। दु ब त िव डालते
ह, िबना कारण। अ◌म कह िदया िक म संपूण संसारको सीताराममय जानता —सीयराममय
सब जग जानी (मा. १.८.२)। यहाँ मय यय आगत अथम आ ह। कहते ह िक संपूण
नारीवग सीताजीक पाससे आया, पु षवग रामजीक पाससे आया। अतः—
सीयराममय सब जग जानी। करउ नाम जोिर जुगपानी॥
(मा. १.८.२)
इतना बड़ा भ कौन होगा?
“‍ िलख रह ह आप ीरामकथा?” तो गो वामीजीने कहा—बात ऐसी ह िक आपने
इितहास तो पढ़ा होगा। नाल◌ा िव िव ालय और त िशला िव िव ालयक पु◌कालय म
जब िवधिमय ने आग लगायी तो छः महीने पय◌ आग जलती रही। सारी पु◌क जलकर खाक
हो गय , राख हो गय । यह तो कितपय पु◌क को ही हमार पूवज ा ण ने अपनी जांघ म
काट-काटकर िसलकर रखा। आज ा ण को ब त गािलयाँ दी जाती ह, ब त गािलयाँ; पर
आज यिद हमारा ा ण-समाज न होता तो कछ भी न बचता। ये तो अब ा ण बौरा गये
ह, और पि मी-उ र देशम तो ९९%से भी अिधक ा ण क क ध पर जनेऊ नह होता। ये
ल ण ठीक नह ह। हम िफर, एक बार िफर, अपने धमपर त◌र हो जाना चािहए। िफरसे ॐ
भूभुवः वः त सिवतुवरे यं भग देव य धीमिह िधयो यो नः चोदया ॐक गुंजार हो
जानी चािहए। तो देिखये, गो वामीजीने कहा—“िजतने थ जल गये ह, उन सबको म िफर
३९
कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

उ ीिवत क गा।” वे तो वा मीिक ह न; तो वा मीिकजीको तो सब थ का ान ह। पूर थ


जो भी जल गये थे, सार थ क सार त वको रामच रतमानसम लाकर भर िदया गो वामीजीने।
बोल—“जाओ िकतना जलाओगे? ऋिषय क ाको तो तुम नह जला सकते!” वे कह
रह ह िक मेरी किवता तो मशानक िवभूित ह, राख ह—भव अंग भूित मसान की (मा.
१.१०.११), वह रामजीक व प संकषक शरीरम लग गयी, ध य हो गयी।
मंगलकरिन किलमलहरिन तुलसी कथा रघुनाथ की।
गित कूर किबता सिरत की यों सिरत पावन पाथ की॥
भु सुजश संगित भिनित भिल होइिह सुजन मन भावनी।
भव अंग भूित मसान की सुिमरत सुहाविन पावनी॥
(मा. १.१०.११)
अथा मेरी (तुलसीदासजीक ) यह कथा मंगलकरिन ह। यह किलमलहरिन ह,
किलमलको न करगी। मेरी किवता ग ाजीक वाहक भाँित ह। गित कूर किबता सिरत
की यों सिरत पावन पाथ की ग ाजीका वाह टढ़ा ह, व गितसे बहती ह, पर जग को
ध य करती ह। उसी कार मेरी किवता भल ही टढ़ी हो, पर ग ाजीक वाहक भाँित ही
जीवक िदशाको भी बदलगी और दशाको भी। म मानता िक मेरी किवता मसानक राख ह।
मशानक राख अपिव होती ह पर वह जब श रजीक शरीरम लग जाती ह, तब तो पिव
हो जाती ह। उसी कार मेरी किवता जब रामजीसे िमल गयी, तो िन य ही म ध य-ध य हो
गया! आहा!
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(मा. १.३१.४)
गो वामीजीने सबक व◌ना कर डाली और कहा—“सब लोग आशीवाद द मुझे।” देिखये!
ब त भ ह गो वामीजीक, रामजी क। एक छोटी-सी बात क ! एक बार गो वामीजी
ीअवधम, ीसरयूजीम ान करने आये। उसी समय एक मिहला आयी। उसे ान करना
था। उसने गो वामीजीसे कहा—“बाबा! आपको आपक रामजीक शपथ। जबतक म न क ,
पीछ मुड़कर न देिखयेगा और न ही बाहर आइयेगा।” गो वामीजी बोल—“ठीक ह।” तो उस
मिहलाने ान कर िलया, परतु ान करनेक प ा वह कहना भूल गयी िक बाबा बाहर िनकल
आइये। ान करक, कपड़ धारण कर वह चली गयी। कड़ाकक ठड, पौषका महीना और
गो वामीजी खड़ रह गये—“जब मेर रामजीक शपथ दी ह, तब तो जब ये बोल तब म बाहर
िनकल।” पूरी रात खड़ रह गो वामीजी! सवेरा आ। अयो याक राजाने पता लगवाया िक
गो वामीजी ह कहाँ? सेवक ने आकर बताया िक महाराज! वे तो सरयूजीम खड़ ह। राजाने
पूछा—“‍ खड़ ह?” तब सेवक ने कहा—“एक मिहलाने शपथ दे दी थी िक जबतक
म न क , बाहर न िनकिलयेगा।” राजाने पूछा—“नाम ‍ा था उसका?” तुलसीदासजीने
कहा—“नाम म नह जानता।” अब बताय, और सम या हो गयी। और उ◌ ने (गो वामीजीने)
कहा—“जबतक वह मिहला नह कहगी तबतक भल मर जाऊ; बाहर नह िनकलगा, उसने
मुझे मेर रामजीक शपथ दी ह।” जब पूरी अयो याम मिहलाको ढढनेम टाईम लगा तब िढढोरा

४०
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १

िपटवाया गया िक कौन मिहला गो वामीजीसे िमली थी। अ◌म वह मिहला दोपहरतक िमली।
उसने कहा—“म गो वामीजीसे िमली थी। मने उ◌ रामजीक शपथ दी थी, परतु म तो उनसे
कहना भूल गयी। भगव ! मुझे मा कर।” लोग ने कहा—“चल मूख! चल अब तो कह दो
गो वामीजीसे।” नारी सरयूजीक तटपर गयी और बोली—“बाबाजी! मुझसे भूल हो गयी। अब
आप बाहर िनकल आइये।” तो गो वामीजीने कहा—“बड़ी कपा क आपने, इस बहाने सरयूम
खड़ रहनेका सौभा य मुझे िमला।” इतने रामभ थे। इतनी रामनामम िन ा िकसक होगी?
सीतारामजीक तथा सबक व◌नाक गो वामीजीने। चार ाता क व◌ना, हनुमा जीक
व◌ना, सीतारामजीक व◌ना। िकसीने पूछा—“जब चार ाता क और सीताजीक व◌ना
कर ली, तो शेष तीन ब ने—(१) मा डवीजीने, (२) उिमलाजीने, (३) ुितक ितजीने—‍ा
िबगाड़ा था? उनक व◌ना ‍ नह क आपने?” तो गो वामीजीने कहा िक भई! मने इनक
भी व◌नाक ह; वह , सीताजीक व◌नाम—
जनकसुता जगजनिन जानकी। अितशय ि य क ना िनधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउ। जासु कृपा िनरमल मित पावउ॥
(मा. १.१८.७–८)
देिखये! यहाँ चार िवशेषण िदए गये ह—जनकसुता, जगजनिन, जानकी, अितशय ि य
क ना िनधान की।
(१) जनकसुता—इसम जनकसुता श दका जो योग िकया ह गो वामीजीने—मांडवी
ुतकीरित उरिमला कुअँिर लई हकािर कै (मा. १.३२५.१२)—ये मा डवीजी ह, जनक
वंशक राजा कशकतु (कश वज)क बेटी ह। तो मा डवी जनकसुता ह।
(२) जगजनिन— ुितक ितजी श ु लालजीक प ी ह, ये जगजनिन अथा जग क माता
ह।
(३) जानकी—उिमलाजी जनकजीक गो म कट (उ◌ ) ई ह, अतः जानकी ह।
(४) अितशय ि य क ना िनधान की—और सीताजी पृ वीसे कट ई ह; इसिलए
यवहारसे न तो वे जनकजीक पु ी ह न ही कछ। वे तो अितशय ि य क ना िनधानक ह,
वे तो रामजीको ब त ि य ह—
मन जािह राँचेउ िमिलिह सो बर सहज सु र साँवरो।
क ना िनधान सुजान शील सनेह जानत रावरो॥
(मा. १.२३६.९)
इसिलए चार क व◌ना गो वामीजीने कर ली। जनकसुतासे मा डवीजी, जगजनिनसे
ुितक ितजी, जानकीसे उिमलाजी, और अितशय ि य क ना िनधान की कहनेसे
सीताजीक । तो, नाम-व◌ना—ब त उ ल, ब त िवमल चचा। “‍ा धानता ह आपक
कथाम?” गो वामीजी कहते ह—मेरी कथाम भगवा क वभावक धानता ह—
भु त तर किप डारपर ते िकए आपु समान।
तुलसी क न रामसे सािहब शीलिनधान॥
(मा. १.२९क)
४१
कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प

इसिलए यहाँ गो वामीजी भगवा क वभाव- धान कथा कहगे।


संबत सोरह सै एकतीसा। करउ कथा हिर पद धिर शीसा॥
नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरी यह चिरत कासा॥
(मा. १.३४.४–५)
म लका िदन, चै शु क नवमी, अयो या और—
िबमल कथा कर की अरभा। सुनत नसािह काम मद दंभा॥
(मा. १.३५.६)
और नाम पर िलखा—
रामचिरतमानस एिह नामा। सुनत वन पाइय िब ामा॥
(मा. १.३५.७)
“िकसने नामकरण िकया आपक कथाका?” बोल—इसका नामकरण करने वयं श रजी
आये—
रिच महेश िनज मानस राखा। पाइ सुसमय िशवा सन भाखा॥
ताते रामचिरतमानस बर। धरेउ नाम िहय हेिर हरिष हर॥
(मा. १.३५.११–१२)
मने कहा—“महाराज मेर थका नामकरण करगे?” वयं श रजीने दयम िवचार करक
कहा—“िब कल क गा।” श रजीने आकर मेर थका नाम रामच रतमानस िकया और पूरा
मानसका पक सुनाया। रामच रतमानसम वही गुण ह जो मानसम ह, मानसरोवरम ह। यहाँ
सात सोपान ह—स बंध सुभग सोपाना (मा. १.३७.१)। यहाँ ब ध माने सात का ड ह,
वे ही सु◌र सीिढ़याँ ह उनक । रामजीक मिहमा ही जल ह; पुरईन चौपाई ह; छ◌, सोरठा,
और दोहा उसक सु◌र कमल ह। सारा प वणन कर िदया और कहा िक इसी मानसक दशन
करक मेरी बुि िद य हो गयी। ान िकया उसम और मेर मुखसे किवता िनकल पड़ी।
तब कहा—“आपक किवताका ‍ा नाम ह?” तो कहा—मेरी किवताका नाम ह सरजू।
मानससे सरजू कट और रामच रतमानससे मेरी किवता—
सरजू नाम सुमंगलमूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥
(मा. १.३९.१२)
यही सरजू आगे रामभ ग ाजीसे िमली और राम-ल मण युगल व प शोणसे िमली और
बन गयी ि मुहानी! राम प सागरम जाकर—राम व प िसंधु समुहानी (मा. १.४०.४)
आन◌ ल िदया इसने, ग ाजीसे िमलकर। राम पी सागरम स मिलत हो गयी। यहाँ िद य
सरजूम उमा-महश िववाह-बराती—ये सब जलचर; रामजीक ज मो सवक बधाई—यही भँवर;
चार भाइय का बालच र —यही कमल, हाय-हाय! अ त पूरा पक; सीताजीक वयंवरक
कथा—नदीक सु◌रता; नाना कारक ो र—नावपर चढ़ या ी और कवटक चचा;
परशुरामजीका ोध—घोर धार [घोर धार भृगुनाथ िरसानी (मा. १.४१.४)]; और आन◌
करक भगवा ीरामजीका जो िववाह उ साह आ—यही नदीक बाढ़। सब लोग स तासे
नहा रह ह।

४२
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १

राम ितलक िहत मंगल साजा। परब जोग जनु जुरेउ समाजा॥
काई कुमित कैकयी केरी। परी जासु फल िबपित घनेरी॥
(मा. १.४१.७–८)
ीराम-राज-ितलक क िलए ीअयो याम जो म ल सजाये गये—वे ही ानक िलए पव
ह, ककयीक कमित—काई ह और उसको न करनेक िलए भरतजीका च र ही जप-य
ह। गो वामीजीने कहा िक मेरी किवताम छह ऋतुएँ ह—(१) हेम — ीश र-पावतीजीका
िववाह; (२) िशिशर— ीरामजीक ज मो सवका वणन; (३) वस — ीसीतारामजीक
िववाहका वणन; (४) ी म— ीरामजीक वनवासका वणन; (५) वषा—राम-रावण यु
वणन; तथा (६) शर —रामरा यका सुख और िवशेष नीितक बड़ाई ही सु◌र शर ऋतु ह।
एतावता—
मित अनुहािर सुबािर गुन गन गिन मन अ वाइ।
सुिमिर भवानी शंकरिह कह किब कथा सुहाइ॥
अब रघुपितपद पंक ह िहय धिर पाइ साद।
कहउ जुगल मुिनवय कर िमलन सुभग संबाद॥
(मा. १.४३ क-ख)
िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो! अब मोह हरनी कथाक चचा कल।
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(मा. १.३१.४)
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
बोिलये रामच◌ भगवा क जय हो!
पवनपु हनुमा जीक जय हो!
गो वामीजी तुलसीदास महाराजक जय हो!
॥ जय जय ीसीताराम ॥

४३
ि तीय पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
ीरामच रघुपु व राजवय
राजे राम रघुनायक राघवेश।
राजािधराज रघुन न रामभ
दासोऽहम भवतः शरणागतोऽि म॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
य य रघुनाथकीतनं त त कृतम का िल ।
वा पवािरपिरपूणलोचनं मा ितं नमत रा सा क ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय। पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी
तुलीदासजी महाराजक जय हो। ेमसे बोिलये ीसीताराम भगवा क जय हो।
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
तुलसी सीताराम कहो दय रािख िब वास।
कब िबगड़त ना सुने ( ी)सीतारामके दास॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

रामकथा सुंदर करतारी। संशय िबहग उड़ावनहारी॥


(मा. १.११४.१)
प रपूणतम परा◌र परमा मा भगवा ीसीतारामजीक कपासे आज हम एक ब त
ऐितहािसक चचा करने बैठ ह। ऐितहािसक चचा इसिलये िक यह मोदीनगरक कथा, हमारी
कथा क जो सं या ह, उसम यह १२५१व रामकथा ह। दूसरी बात ा प क कथा ह और
तीसरी बात, िजस िदन मेरी कथाका ६०वाँ वष पूण होगा [१४ जनवरी २०१७को]—मने १४
जनवरी १९५७को कथाका ार भ िकया था और अब आप लोग क पु यसे ६० वष पूण हो
गये—ब त अ◌ा रहगा िक उसी समय यह कथा पु◌काकार होकर आपक सम आयेगी।
कलक चचाम हम एक बात कह चुक ह िक गाय ीजीक जो २४ अ र होते ह, वे जब
त सिवतुवरे यंसे िगनते ह तब होते ह। पर इसक पहल या ित तो होती ह, णव होता ह,
और जब जपक प ा भी एक बार णव लगाया जाता ह; तब पूण गाय ी बनती ह—
ॐ भूभुवः वः। त सिवतुवरे यं भग देव य धीमिह। िधयो यो नः चोदया । ॐ।
अब गाय ीजीक अ र क सं या हो जाती ह—तीस। तो गो वामीजीने यही कहा िक महिष
वा मीिकजीने वा मीक यरामायणम चौबीस हजार ोक कहकर गाय ीजीक चौबीस अ र क
या या क , पर ॐ भूभुवः वः और प ा का ॐ—ये ६ अ र छट गये। वही वा मीिकजी
तुलसीदासजी बनकर कट ए और कहा—“भगव ! जो छट गया था, उसे पूरा कर दे रहा
।” तब उ◌ ने रामच रतमानसजीम २४ और ६ = ३० कथाएँ िलखकर गाय ीजीक तीस
अ र क या या क —यही यहाँक संगित ह। जैसा िक आप सुन रह ह और म बार-बार यह
बात कह भी रहा िक मेरी कथाम वे ही िवषय आयगे जो गो वामीजीक स मत ह, िज◌
तुलसीदासजी महाराज चाहते ह। यिद तुलसीपीठाधी रक कथाम तुलसीदासजीक स मित नह
आयेगी तो िफर और कहाँ आयेगी? वे पहल कह चुक ह—
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न िबषय कथा रस नाना॥
तेिह कारन आवत िहय हारे। कामी काक बलाक िबचारे॥
(मा. १.३८.४–५)
कहते ह िक जैसे मानसरोवरम सीपी नह रहती, क टभ ी मढक नह होते, शैवाल नह
होते; उसी कार मेरी रामच रतमानसम िवषय-कथाएँ तो ह ही नह । भागवतजीम ह, बुरा मत
मािनयेगा। भागवतजीम िवषय-कथाएँ ह कछ। अ य थ म ह। परतु गो वामीजीक ित ा ह
िक उनक रामच रतमानसम िकसी भी कारक िवषय-कथा नह ह। इसिलए मनचल लोग का
यहाँ आना नह हो सकता। यहाँ बालक आ सकते ह, बािलकाएँ आ सकती ह, युवक-युवितयाँ
आ सकती ह, वृ -वृ ाएँ आ सकती ह; पर ल ड-लफाड़ी यहाँ नह आ सकते, म िफर कह
रहा । इसिलए तीस कथा का ार भ करते ह। थम कथा वे अपनी ही कह रह ह—
िनज संदेह मोह म हरनी
(मा. १.३१.४)
कहते ह—िनज संदेह । गो वामीजीको भगवा पर संदेह नह , िनजपर संदेह ह। बार बार
कह रह ह िक म ीरामकथा कह सकगा या नह —

४६
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

कह रघुपित के चिरत अपारा। कह मित मोिर िनरत संसारा॥


(मा. १.१२.१०)
‍ा बात ह! कहाँ रामच◌जीक अपार च र जो सौ करोड़ रामायण म कह गये! अकल
महिष वा मीिकने सौ करोड़ रामायण म रामकथाएँ गाय और अग◌य, लोमश, अि वेश,
क ण ैपायन वेद यास आिद मुिन पहल ही रामायण बनाकर ीह र भु ीराम क क ित का
गान कर चुक ह—
मुिनन थम हिरकीरित गाई
(मा. १.१३.१०)
इतना यापक तो िकसीका च र हो ही नह सकता। इसीिलए गो वामीजीको अपनेपर संदेह
ह—
िनज बुिध बल भरोस मोिह नाहीं। ताते िबनय करउ सब पाहीं॥
(मा. १.८.४)
सबसे कहते ह—“कपा क िजये, िजससे िक म ह रयशक रचना क , ीह रजीका यश
कह सक।”
िबबुध िब बुध ह चरन बंिद कहउ कर जोिर।
होइ स पुरव सकल मंजु मनोरथ मोिर॥
(मा. १.१४छ)
और पहल कह चुक ह—
सो न होइ िबनु िबमल मित मॊिह मितबल अित थोर।
कर कृपा हिरजस कहउ पुिन पुिन करउ िनहोर॥
(मा. १.१४ख)
इतना िवन कोई हो ही नह सकता। जो बड़ा होता ह, वह िवन होता ही ह—
नमि फिलनो वृ ा नमि गुिणनो जनाः।
शु कका ा मूखा न नमि कदाचन॥
“फलवाल वृ झुकते ही ह। िव ािवनयसंप लोग झुकते ही ह। सूखी लकड़ी और
मूख—ये कभी नह झुकते।” इतने िवन ! हमार यहाँ ब त अ◌े किव ए [२०व शता दीम],
भोजपुरीक किवता उ◌ ने ही ार भक —साकतवासी प डत च◌शेखरजी िम । वे िलखते
ह गो वामीजीक िलए िक अर! इतने िवन ह गो वामीजी—
शा छहों रस वेद पुरानन आगमके सब त व िनचोरे।
िजये लगे सब ि ये लगे सब आखर-आखर अमृत घोरे।
पाप नसायन पु यपरायन हाथ रामायन मानस तोरे।
काहे बदे िलखे बबुआ यह स य कहउ िलिख कागद कोरे॥
इतनी िवन ता होनेपर भी आ ा करते ह—

४७
कथा २ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

किबत िबबेक एक निह मोरे। स य कहउ िलिख कागद कोरे॥


(मा. १.९.११)
अपने संदेहक ४३ दोह म चचा कर ली िक मुझे अब अपनेपर संदेह ह, म ीरामकथा
कसे कह सकगा और कह रहा —“िनि त ह िक हमार भु राघवजी, भगवा रामच◌जी,
शठ सेवकक ीित व िचक र ा करगे। यह उनका वभाव ह। य िप म शठ सेवक , मने
देखा ह िक जब अह याको तारा भुने, तो येक प थरक इ◌ा ई िक मुझपर भी भगवा
चरण रख। तब प थर क िचक र ा करनेक िलए सेतुब धक भगवा ने लीला कर दी। सार
वानर से प थर ढलवाया और सभी प थर पर अपने चरणकमल रखकर उनक िचक र ा कर
ली।” नह तो ‍ा एक ही बाणसे सागरको सोख नह लते? िवभीषण वयं चिकत ह। शुकने
रावणसे कहा—“िजनका एक बाण सकड़ सागर को सोख सकता ह, इतना साम य होनेपर
भी आज वे ही ीराम, आपक छोट भैया िवभीषणसे सागर तरणका उपाय पूछ रह ह—सक
सर एक शोिष शत सागर (मा. ५.५६.२), इतना साम य होने पर भी—तव ातिह पूँछॆउ
नय नागर (मा. ५.५६.२) जो एक बाणसे अन◌ सागर को सुखा सकते ह, आज वही भु
िवभीषणसे पूछ रह ह—“बताइये िवभीषण! सागरको कसे पार िकया जाए?”
राम तेज बल बुिध िबपुलाई। शेष सहस शत सकिह न गाई॥
तासु बचन सुिन सागर पाहीं। माँगत पंथ कृपा मन माहीं॥
(मा. ५.५६.१ व ३)
यही तो च र ह भुका! अब इतना उदा उदाहरण पूर िव म कहाँ िमलगा? बताइये न!
हम तो उ र लनेक िलए बैठ ह। पूरी क वाली, शेर-शायरी सब कछ कर लो; रामजी जैसा
कह उदाहरण िमल जाए संसारक सम सािह यम और जो दे द, तो म उनका िश य बननेक
िलए तैयार —म कह दे रहा ।
गो वामीजी कहते ह िक य िप मुझको संदेह ह, पर मुझे रामजीक वभावका भरोसा ह िक
रामजी दु सेवकक भी ीित और िचक र ा करगे। प थर क ीितक र ा क । वानर से
सभी प थर मँगवाकर तथा येक िशलापर अपने चरण रखकर उ◌ ध य कर िदया। और
वानर-भाल क िचक र ा कर दी, उ◌ म◌ी बना िलया अपना।
शठ सेवककी ीित िच रिखहै राम कृपाल।
उपल िकए जलयान जेिह सिचव सुमित किप भाल॥
(मा. १.२८क)

कथा २: िनज ... मोह ... हरनी (मा. १.३१.४)


अब भर ाज संवादका ार भ कर रह ह—मोह हरनी (मा. १.३१.४)। भर ाजजी ी यागम
िवराजते ह—
भर ाज मुिन बसिह यागा। ितनिह रामपद अित अनुरागा॥
(मा. १.४४.१)

४८
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २

भर ाजजी तप वी ह—
तापस शम दम दया िनधाना। परमारथपथ परम सुजाना॥
(मा. १.४४.२)
माघम क पवास होता ह, जब सूयनारायण मकरपर आते ह। यहाँ गो वामीजी संिहता कह
रह ह िक व ाको इतना वत◌ नह होना चािहए, जो वैिदक-मयादाका ही उ न कर बैठ।
कहते ह िक देिखये! व ाको ‍ा-‍ा कहना चािहए इसक एक आचार-संिहता ह—
िन पन धरमिबिध बरनिह त विबभाग।
कहिह भगित भगवंत कै संजुत यान िबराग॥
(मा. १.४४)
कह तो िदया गो वामीजीने। अब इतनेपर भी कोई न माने; यिद भीड़ जुटाना ही व ाका
ल य बन जाए, तो ठीक ह, उसे हम व ा नह , बकता कहगे। गो वामीजीने इस एक
दोहम संपूण वैिदक-भारतीय-सं कितक या या कर डाली। वैिदक-भारतीय-सं कित ‍ा ह?
िकन-िकन िवषय पर चचाक जा सकती ह? िन पन— का िन पण होना चािहए,
वह अपने-अपने सं दायक अनुसार व ा कर; अ ैत, िविश ा ैत, िवशु ा ैत, ैत, ैता ैत,
अिच◌भेदाभेद आिद। अब कौन कर रहा ह। धरमिबिध—धमक िविधक चचा मीमांसाक
अनुसार। बरनिह त व िबभाग—त वक िवभागक चचा सां य, योग, वैशेिषक, और
यायक अनुसार। कहिह भगित भगवंत कै संजुत यान िबराग— ान और वैरा यसे यु
भगवा क भि का वणन। और वैसी चचा क , तो सात का ड का िवषय कह रह ह—(१)
बालका ड— िन पण, (२) अयो याका ड—धमिविध/मीमांसा, (३) अर यका ड—
सां य, (४) िकि क धाका ड—योग, (५) सु रका ड—वैशेिषक, (६) यु का ड वा
ल ाका ड— याय और (७) उ रका ड— ान, वैरा य सिहत भगवा क भि —यह ह
या या।
अब तो बाल यास बन गये ह लोग। अनुिचत नह मानना चािहए, पर ऐसे-ऐसे लड़क
कथा कहते ह जो वयं रामायण कभी पढ़ नह । िजनको रामः रामौ रामाः—पूरा श द प भी
नह आता होगा। सोिचये! अर ‍ा बाल यास? बालशुक ए थे, कवल एक ही थे वे। अब
बाल यास कौन बनेगा? वे तो बालक कभी नह रह, ज म लते ही वे युवक बनकर बद रका म
चल गये, तो कहाँ वो बाल यास रह? ‍ िक यि जब कथाको पैसेका साधन बना लगा,
जब कथा हरी-हरी नोटका साधन बन जायेगी, तो ह रका साधन तो नह बनेगी।
क पवासम ब त अ◌ा स संग होता ह।
एक बार भिर मकर नहाये। सब मुनीश आ मिन िसधाये॥
(मा. १.४५.३)
संपूण मकराक-पय◌ ान िकया। सभी ऋिष अपने-अपने आ म आ गये, परतु
या व ‍जी महाराजको भर ाजजीने चरण पकड़कर रोक िलया—भर ाज राखे पद टेकी
(मा. १.४५.३), पूजा क और कहा—“भगव ! मुझे एक संशय ह—नाथ एक संशय बड़
मोरे (मा. १.४५.७)। मुझे डर भी लग रहा ह, लाज भी लग रही ह। वा मीिकजीका म िश य

४९
कथा २ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

, िफर भी मुझे संशय ह। भगव ! आप स ु ह, उपिनषद क या याता ह। आज आपसे म


औपिनषद पु षक संब धम पूछ रहा —तं वा औपिनषदं पु षं पृ ािम (बृ.उ. ३.९.२६)।
राम नाम कर अिमत भावा। संत पुरान उपिनषद गावा॥
(मा. १.४६.२)
वेद, पुराण, ीरामतािपनी-उपिनष , सीतोपिनष , रामरह योपिनष , हनुम ह योपिनष
आिद अनेक उपिनष ीरामनामका भाव कहते ह। िशवजी िनर◌र जपते ह रामनामको—
संतत जपत शंभु अिबनाशी (मा. १.४६.३)। और सुना ह िक वही वेदवेदा◌वे रामच◌जी
दशरथजीक यहाँ अवतार लकर आये—
एक राम अवधेशकुमारा। ितन कर चिरत िबिदत संसारा॥
(मा. १.४६.७)
परतु उनक च र को देखकर मुझे मोह हो गया। ‍ ?—
नािर िबरह दुख सहॆउ अपारा। भयउ रोष रन रावन मारा॥
(मा. १.४६.८)
भगव ! काम, ोध, लोभ—ये तीन िवकार तो यि को नरकम ल जाते ह। ये तीन
नरकक ार ह—
ि िवधं नरक येदं ार नाशनमा मनः।
कामः ोध था लोभ मादेत यं यजे ॥
(भ.गी. १६.२१)
पर मुझे तो रामजीम तीन दोष िदख रह ह। (१) काम—मुझे रामजीम काम भी िदख रहा
ह, तभी तो नारीका िवयोग आ। (२) ोध—रामजीम ोध भी िदख रहा ह, ोध आया तो
यु म रावणको मार डाला। (३) लोभ—रामजीम लोभ भी िदख रहा ह, वणमृगक पीछ दौड़
पड़। रामजी तो मुझे कामी भी िदख रह ह, ोधी भी िदख रह ह, और लोभी भी िदख रह ह।
यिद इनम तीन दोष ह तो श रजी इनका नाम जपते कसे ह?
भु सॊइ राम िक अपर कॊउ जािह जपत ि पुरािर
(मा. १.४६)
भगव ! यह मेर मनम मोह ह—”
अस िबचािर गटउ िनज मो । हर नाथ किर जन पर छो ॥
(मा. १.४६.१)
िकतनी यव थत ीरामकथा ह। म िफर कह दे रहा , िह◌ुओ! िच◌ा मत करना।
िकसीको कोई िच◌ा करनेक आव यकता नह । कहते ह—जबतक िजयगे ..., ‍ा िजयगे?
ऐसी-ऐसी बात मेर िलए नह कहनी चािहए। अजरामरव ा ो िव ामथ िच ये (िह.)।
िव ा िव ाका जब िच◌न करता ह, तो वह कभी नह कहता िक हमको मरना ह। वह तो
अमर ◌ि से पढ़ता ह। ये सब िनरथक बात मेर सामने तो बोलनी ही नह चािहए। अभी तो म
ब त ल बे समयतक िह◌ूधमका नेतृ व क गा। तो िम ो! िनज संदेह मोह म हरनी (मा.
१.३१.४)क अनुसार या व ‍-भर ाज संवादक यह ि तीय-कथा मोह हरनी ह।
५०
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २

या व ‍जीको हसी आयी—जा यब बोले मुसुकाई (मा. १.४७.२)। या व ‍का


मतलब जानते हो? य य व कः य व कः। य व क भवः या व ‍ः। गगािद यो
य (पा.सू. ४.२.१०५)। य म जो व कल (वृ क छालक जो व ) टगे थे, उसीसे
या व ‍जीका ाक हो गया था। अ त संत ह। या व ‍जीने भर ाजसे कहा—“अर!
आप मूख नह ह। रामभ तुम मन म बानी, चतुराई तु हािर मैं जानी (मा. १.४७.३)।
आप मनसा-वाचा-कमणा राघवजीक भ ह और आप चतुर ह। चाह सुनै राम गुन गूढ़ा
(मा. १.४७.४)— भु ीरामजीक िछपे ए गुण को आप सुनना चाहते ह, तभी की े
मन अित मूढ़ा (मा. १.४७.४)—ऐसे कर रह ह, मानो आप ब त मूख ह; पर मूख नह
ह। आप मन लगाकर सुिनये—”
तात सुन सादर मन लाई। कहउ राम कै कथा सुहाई॥
(मा. १.४७.५)
आपक मनका जो मोह ह, वह मिहषासुर ह। उसको न करनेक िलए ीरामजीक कथा
सा ा कािलका मैया ह—
महामोह मिहषेश िबशाला। रामकथा कािलका कराला॥
(मा. १.४७.६)
उस मिहषासुरको मारनेक िलए भगवती कट थ । संपूण देवता क शि याँ इक ी
होकर नारी बन गय —
एक थं तदभू ारी या लोक यं ि वषा
(दु.स. २.१३)
संपूण देवता का तेज एक आ, तब वह बन गया नारी। इसी कार संपूण वैिदक-
वा≠यका ान एक होकर बन गयी ीरामकथा—इदं नवीनतया याच े जग ु ः। म
जग ु और जग ु ने तो िकसीसे उधार नह िलया ह। मने सर वतीजीक िनल भ सेवा क
ह। अहकार नह कर रहा , पर आपको बता तो दूँ। सोिचये! लोग ‍ पढ़ते ह? नौकरी
करनेक िलए पढ़ते ह न। Percentage ‍ इतने अ◌े-अ◌े लाते ह? इसीिलए िक नौकरी
िमल जाए। पर आप लोग क पु यसे मेर िकतने सु◌र percentage रह ह! सोिचये! िश ा
े म ९९% येक क ाम लाकर भी, ९९% ितशतसे नीचे तो हमने कभी देखा ही नह ,
इतना करक भी कभी नौकरीक इ◌ा नह क िक मुझे नौकरी िमल। दो-बार यूिनविसटीको
टॉप करने वाला यि नौकरी न कर। ये जे.आर.एफ. जब चला था, िजस वष थम बार
ार भ आ था, उस समय पूर भारतक िव िव ालय से कवल आठ लड़क का चयन आ
था। मुझे कहनेम स ता हो रही ह िक उसम आठ लड़क म सबसे पहल चयन मेरा आ था।
जे.आर.एफ. आप जान ही रह ह—J for Junior, R for Research, F for Fellow—
Junior Research Fellow और म Senior Research Fellow भी रहा अपने समयका।
परतु पढ़नेका फल नौकरी करना थोड़ ही ह। नौकरी करते ह लोग अपने दो-एक ब का
पेट पालनेक िलए। पहल तो चार-छः ब े, अब तो वे भी नह । लोग-बाग अब यही कह रह
ह—“हम दो हमार दो, बां लादेशी आने दो।” दो लड़क को आप नह पाल पाते और अपे ा
५१
कथा २ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

करते ह िक ये हमारी सेवा करगा। और म िनरपे भावसे पाल रहा सोलह वष से हजार
लड़क को और मने अपे ा ही नह क िक कछ दगे ये। आपको तो अपने बेटसे अपे ा होगी
िक इसक ब आयेगी, सेवा करगी, भल ही ब डड मार। पर हमारा तो ही नह उठता।
इतने ब को हमने research करायी, पर िकसी Research Scholar से एक घूँट पानीतक
नह िपया—यह मेरा रकॉड ह अपना। िम ो! म यह िनवेदन करने जा रहा िक ीरामकथाका
‍ा यि व ह! देिखये—
महामोह मिहषेश िबशाला। रामकथा कािलका कराला॥
(मा. १.४७.६)
जबतक ीरामकथाको हम साधन मानते रहगे, तबतक हमारा क याण नह होगा।
ीरामकथा साधन नह ह, यह तो हमार स◌म का फल ह।
ीम ागवतम म आपको ल चल रहा , जहाँ नारदजी वेद यासजीसे कहते ह—अर
वेद यास!
इदं िह पुंस पसः ुत य वा ि व य सू य च बुि द योः।
अिव युतोऽथः किविभिन िपतो यदु म ोकगुणानुवणन ॥
(भा.पु. १.५.२२)
कहते ह—पुंसः तपसः ुत य ि व य सू य बुि द योः इदमेव फल किविभः
उ म ोकगुणानुवणन अिव युतोऽथः िन िपतः। महापु ष ने संपूण स◌म का यही
एकमा फल बताया ह िक भगवा क गुणगण का अनुकलतासे हम वणन करते रह। आपने
मुझे देखा होगा। िजस समय म ितलक आिद करक ... कोई ब त मेक-अप तो नह करता;
आजकल तो व ा, हाय .. हाय ... हाय! मेक-अप करनेक िलए लोग को बुलाते ह। भल ही
भगवा उनका चेहरा गोबर-गणेश जैसे बनाये ह ; भल चेहर पर पौने बारह बज रह ह इनक,
पूरा मेक-अप करते ह। एक बार िकसी व ाक उ ाटनम मुझे जाना था। म तो तैयार था और
वह व ा तैयार ही नह । मने कहा—“कहाँ?” बोल—“गु जी अभी मेक-अप कर रह ह।”
अब आयगे धीर-धीर! अर पगल! इस मेक-अपसे कोई लाभ नह होगा। ीरामकथाक िलए
आ या मक मेक-अपक आव यकता होती ह—
केयूरािण न भूषयि पु षं हारा न च ो ला
न ानं न िवलेपनं न कुसुमं नाल ता मूधजाः।
वा येका समल रोित पु षं या सं कृता धायते
ीय े खल भूषणािन सततं वा भूषणं भूषण ॥
(नी.श.)
सु◌र हार यि को सुशोिभत नह करते। ये पु ष को सुशोिभत नह करते, मिहला को
करते ह। यह बिहन क िलए ार ह, तु हार िलए नह । िवलपन नह , पु प नह , अलकत बाल
नह , तो यि को सुशोिभत कौन करता ह? वा येका समल रोित पु ष —जो सं कारवती
वाणी होती ह, वही यि को स य अलकत कर डालती ह। आज हमार जीवनम वाणीक
सं कार कहाँ ह? ीय े खल भूषणािन—सभी आभूषण न हो जाते ह। िनर◌रका आभूषण
५२
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

ह कौन? सततं भूषणं िक ? सततं वा भूषणं भूषण —वाणीका आभूषण ही यि का


सततका आभूषण ह।
भगवती ीरामकथा—
महामोह मिहषेश िबशाला। रामकथा कािलका कराला॥
(मा. १.४७.६)
ीदुगास शतीका यह च र बडा उ ल च र ह, इसे म यम च र कहते ह। और म यम
च र का पाठ अलगसे िकया भी जाता ह। भगवतीजी मिहषासुरको मार रही ह—
गज गज णं मूढ मधु यावि बा यह ।
मया विय हतेऽ ैव गिज य ाशु देवताः॥
(दु.स. ३.३८)
और जब भगवतीजीने मिहषासुरको मार िदया—
श ादयः सुरगणा िनहतेऽितवीय ति म ुरा मिन सुरािरबले च दे या।
तां तु वुः णितन िशरोधरांसा वाि भः हषपुलको मचा देहाः॥
(दु.स. ४.२)
सब भगवतीजीक ◌ुित करते ह। तो यह मोहदलनी ि तीय-कथा स प ।

कथा ३: िनज ... म हरनी (मा. १.३१.४)


अब तृतीय कथा ह— म हरनी।
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(मा. १.३१.४)
िवकार म मोहका थान कौन ह? जानते हो आप लोग? मु य छः िवकार कह जाते
ह—(१) काम, (२) ोध, (३) लोभ, (४) मोह, (५) मद, (६) मा सय। तो िवकार म मोहका
कौन-सा थान बताया गया?—चौथा। और संयोग देिखये, या व ‍जीने भर ाजक कथाका
जो उप म िकया गो वामीजीने चार दोह म ही िकया ह—बालका डक ४४व दोहसे ४७व दोह
पय◌। तुलसीदासजीक कथा िनज संदेह हरनी थम िदनक कथा। या व ‍जीक िनज
मो (मा. १.४६.१) ि तीय िदनक कथा। इन चार दोह म यि का मोह दूर होगा ‍ िक—
महामोह मिहषेश िबशाला। रामकथा कािलका कराला॥
(मा. १.४७.६)
यहाँ गो वामीजीने एक संकत िकया िक जैसे सभी देवता का तेज एक होकर भगवती
दुगा बन गया, उसी कार अबतक उपल ध िजतना भी आष-वा≠य ह [संपूण लगभग डढ़
लाख पु◌क कम-से-कम उपल ध ह]; ऋ वेदसे लकर हनुमा चालीसा पय◌ डढ़ लाख जो
देवतु य थ ह, उन सभी थ का सार-सव व इक ा होकर रामच रतमानस बन गया—यह
यहाँका ता◌य ह।
म मोदीनगरवाल को कह रहा िक आपको जहाँ भी समझम नह आया उसे म िफर

५३
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

बताऊगा। एक-एक अ र आपको समझानेका यास क गा म। और मेरा यह दािय व भी ह,


कत य भी ह ‍ िक म जग ु । और मुझे यास करक अपने ोता को वैिदक-िह◌ू-
सं कितसे प रिचत कराना ही होगा।
अब तृतीय कथा पावती-िशव संवादक कथा ह। यह म हरनी कथा ह। तुलसीदासजीको
संदेह हो रहा ह अपनेपर, भर ाजको मोह हो रहा ह, और पावतीजीको म हो रहा ह। भल
उसक मोह सं ा दी गयी हो बार-बार, पर ह वह म। नारदजी भी कहते ह िक सतीजीको म
आ—
एक बार आवत िशव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥
भयउ मोह िशव कहा न की ा। मवश बेष सीय कर ली ा॥
(मा. १.९८.७–८)
यह कथा यि क मका हरण करगी—िनज संदेह मोह म हरनी (मा. १.३१.४)।
चिकत भये म दय िबशेषा (मा. १.५३.१) ब त सु◌र ◌ावना ह।
एक बार ेता जुग माहीं। शंभु गये कुंभज ऋिष पाहीं॥
(मा. १.४८.१)
एक बार ेतायुगम श रजी सतीजीको साथ लकर क भजक यहाँ जा रह ह। यहाँ िशवजीक
जीवनम नौ (९) ल ण घट रह ह, भि क नौ अनुमापक। ‍ा माण ह िक यि भ ह?
यहाँ िशवजीम नव ल ण घटगे—
वणं कीतनं िव णोः मरणं पादसेवन ।
अचनं व नं दा यं स यमा मिनवेदन ॥
(भा.पु. ७.५.२३)
(१) वण —िशवजी सतीजीक साथ अग◌यजीक यहाँ आये तो िस ा◌ बनाया वण
का—िकसी समथ स◌से ीराम-कथाका वण करना चािहए। िकतनी सु◌र बात ह! नह तो
‍ा आव यकता थी िक िशवजी अग◌यजीक यहाँ आ रह ह—
संतनके संग लाग रे, तेरी िबगड़ी बनेगी।
िबगड़ी बनेगी तेरी, सबरी बनेगी॥
ुवजीकी बन गयी, ादजीकी बन गयी।
गिणकाको खुल गयो भाग रे, तेरी िबगड़ी बनेगी॥
शबरीकी बन गयी, अिह याकी बन गयी।
केवटको खुल गयो भाग रे, तेरी िबगड़ी बनेगी॥
सु ीवकी बन गयी, िवभीषणकी बन गयी।
हनुमतको खुल गया भा य रे, तेरी िबगड़ी बनेगी॥
अरे पा डवकी बन गयी, सुदामाकी बन गयी।
ौपदीको खुल गयो भाग रे, तेरी िबगड़ी बनेगी॥
कमाकी बन गयी और मीराकी बन गयी।
करमैतीको खुल गयो भाग रे, तेरी िबगड़ी बनेगी॥
५४
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

तुलसीकी बन गयी, कबीराकी बन गयी।


रामभ ाचायको खुल गयो भाग रे, तेरी िबगड़ी बनेगी॥
संतनके संग लाग रे, तेरी िबगड़ी बनेगी॥
िबगड़ीको तो संत या भगवंत ही बनाते ह। वेषसे कोई संत नह होता, संतक ल ण होते ह।
म तो यह नह कह रहा िक मुझम संतक ल ण ह, पर यास कर रहा । ६६ वष ब त काम
कर िलया, अब तो संत क पदिच पर चलनेका यास क । रामनाम जपम और रामकथाम
शेष जीवन पूण हो—यही भगवा से ाथना ह। जब नारदजीसे पूछा गया—“भगवा क भि
कसे िमलती ह?” तो उ◌ ने कहा—“मु य साधन यही ह िक मह संग होना चािहए। संत का
संग हो, स ु यिद िमल जाएँ। आहाहा! स ु िमलै जािह िजिम संशय म समुदाइ (मा.
४.१७), मह स ु दुलभोऽग योऽमोघ (ना.भ.सू. २.१५)।
िशवजी कथा वण करने गये अग◌यजीक यहाँ।
रामकथा मुिनवय बखानी। सुनी महेश परम सुख मानी॥
(मा. १.४८.३)
अग◌यजीक यहाँ िशवजी भगवा क कथा सुन रह ह— वण ।
(२) कीतन —और क तन देिखये! अग◌यजीने कहा िक मुझे दि णाम आपसे कछ
लना ह। ोता व ाको दि णा देता ही ह, आपने मुझसे रामकथा सुनी ह। म दि णाम आपसे
भगवा क भि क िवषयम कछ पूछगा—
ऋिष पूछी हिर भगित सुहाई। कही शंभु अिधकारी पाई॥
(मा. १.४८.४)
तो ८४ संग सुनाये िशवजीने अग◌यजीको और उ◌ ८४ संग म भि क ८४ सू क
िस ा◌ घटा िदए।
कहत सुनत रघुपित गुणगाथा। कछ िदन तहाँ रहे िगिरनाथा॥
(मा. १.४८.५)
कछ िदन तक वहाँ िवराजे। इतने त मय ह िक सतीजीका मरण ही नह आया िक वह भी
वहाँ रह रही ह। इसिलए गो वामीजी िगिरनाथा कह रह ह, सितनाथा नह कहा। सतीजीने
भगवा क कथा नह सुनी। वह कछ और िच◌न कर रही थ । सब पंडालम आते ह, कथा
सुनने थोड़-ही आते ह। तो िम ो! सतीजीने कथा नह सुनी। पर िशवजीने मनम परम सुख
मानकर यह कथा सुनी—सुनी महेश परम सुख मानी। क तन भी हो गया—कहत सुनत
रघुपित गुणगाथा।
(३) मरण —अब मरण देिखये। इतने त मय ए िशवजी िक अग◌यजीसे कहा—
“भगव ! इतनी सु◌रकथा आपने सुनायी। मुझे रामजीक दशन करने ह।” अग◌यजीने कहा—
“अर िम ! आपक आनेसे थोड़ी देर पहल, कछ ही घ ट पहल, भु मेर यहाँ आये थे और
मने उनसे ब त अ◌ी चचाएँ क ।” भु अग य कर संग (मा. ७.६५)। कछ िदन रहनेक
कारण इतने िदन म ही रामजीने ल मणजीको उपदेश भी दे िदया और शूपणखाका का ड हो
गया। कछ िदन तहाँ रहे िगिरनाथा (मा. १.४८.५)—जबतक अग◌यजीक यहाँ िशवजी
५५
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

िवराजे, इतने ही िदन म प वटीम खर-दूषणक साथ रामजीका सं ाम और उन दोन का वध,


सीताजीका अि वेश, मारीचक साथ रावणका द डकार यम आना तथा उसका कपट कर
बनना और मारीचक सहायतासे छल करक रावण ारा सीताजीका अपहरण कर लना—ये
सब घटनाएँ घट गय । इधर जटायु और शबरीजीको गित देकर भगवा प पा सरक ओर बढ़
रह ह। दय िबचारत जात हर केिह िबिध दरसन होइ (मा. १.४८क)। िशवजी चल पड़,
माग म जाते-जाते मन म िवचार कर रह ह िक भु ीरामजीक दशन िकस िविधसे हो सकते
ह।
शंकर उर अित छोभ सती न जानिह मरम सॊइ।
तुलसी दरशन लोभ मन डर लोचन लालची॥
(मा. १.४८ख)
तलफला गये। यह ह मरण । आन◌ कर िदया—मन डर लोचन लालची। लोग कथाक
बीचम िभ -िभ गाने गाते ह। म इतना करता िक म भगवा क च र क ही गीत बनाकर
गाता । गाता म भी , पर म गाना नह गाता , गीत गाता । गीत भगवा क होते ह।
मेरा जग गया मनका गीत, अब मुझे ा िच ा।
मुझे िमल गया मनका मीत, अब मुझे ा िच ा॥
िशवजी तड़प रह ह और सभीसे पूछ रह ह—“ह वृ ो! ह गोदावरी मैया! तुमने मेर
रामजीको देखा ह?” “कसे रामजीको?”
धनुिह चढ़ाते ए िकसीने मेरे राम देखे।
म मु काते ए िकसीने मेरे राम देखे॥
किटतट मुनीपट बाण-धनुधारी।
िकतको गये है मेरे िविपनिबहारी॥
िच को चुराते ए िकसीने मेरे राम देखे॥ धनुिह ...
नील- याम-घनतन जटा िसर धारे।
किटपे िनसंग कसे धनुष सँवारे॥
मनको लभाते ए िकसीने मेरे राम देखे॥ धनुिह ...
गोदावरी कृपा करके भुको बता दो।
त वों दया करके राघवको िदखा दो॥
नैन तरसाते ए िकसीने मेरे राम देखे॥ धनुिह ...
िकस िबधरामजीके दशन पाऊँ।
िगिरधर भुको अपने गमें बसाऊँ॥
क णा बरसाते ए िकसीने मेरे राम देखे॥ धनुिह ...
धनुिह चढ़ाते ए िकसीने मेरे राम देखे।
म मु काते ए िकसीने मेरे राम देखे॥

५६
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

शंकर उर अित छोभ सती न जानिह मरम सॊइ।


तुलसी दरशन लोभ मन डर लोचन लालची॥
िशवजीक मनम ब त ोभ ह पर सतीजी नह जान पा रह ह। गो वामीजी कहते ह िक
िशवजीक मनम तुलसी—तु अथा तुरीय ीराम, ल अथा ल मण और सी अथा सीताजीक
दशन का लोभ ह। पर◌ु भुक गोपनीयता-भ का डर ह। और तभी—शंभु समय तेिह रामिह
देखा (मा. १.५०.१) अथा िशवजीने भगवा ीरामक दशन पा िलए। पर◌ु, कुसमय जािन
न की िच ारी (मा. १.२३१.६)। स ए िशवजी।
(४) पादसेवन —सतीजी भगवा रामक पास आय । उनको यह लगा िक मुझे देखकर
रामजी अपनी ◌ि डालगे मुझपर। रामजी तो जेिह सपने पर नािर न हेरी (मा. १.२३१.६)।
ीराम◌वराजम एक वचन आया ह ब त अ◌ा—
िव ािम ि यं दा ं वदारिनयत त ।
य ेशं य पु षं य पालनत र ॥
(रा.◌.◌ो. ४३)
जब रामजीने सतीजीपर ◌ि नह डाली तो िशवजी ब त स ए। वाह! भो!! वाह!!!
आपने सेमी-फाईनल तो जीत िलया। इतने स िक—
जय सि दानंद जग पावन। अस किह चले मनोज नसावन॥
(मा. १.५०.३)
कामदेवने पाँच बाण का योग िकया, कोई अ◌र ही नह पड़ा। रामजीको कछ नह लग
रहा ह, युत रामजीको तो लग रहा ह िक यह कामदेव पाँच फल क माला पहना रहा ह—
अरिव मशोक चूत नवमि का।
नीलो ल प ैते प बाण य सायकाः॥
(वृ.र.)
(१) कमल, (२) अशोक, (३) आ , (४) नवमि का (चमेली), और (५) पा रजात—पाँच
बाण मार िदए, पर कोई अ◌र नह । िशवजीक भल समािध टट, पर रामजीको कछ होने वाला
ही नह ह। इतने स ए िशवजी िक कहा—“वाह! भो!!”
िम ो! इतने भाव ह मानसजी क ... िम ो! मानसजीक इतने भाव ह िक म ‍ा बताऊ
आपको! मने तो संसारम रहकर ब त सहा; ‍ िक ९९% मूख से ही मेरा पाला पड़ा। कछ
लोग ने मुझपर कटा िकये िक महाराजजीक यहाँ तो बैठो तो कवल कछ मत सुनो, रामकथाका
पारायण सुन लो; पूरी चौपाई गा डालते ह। अब उनको ‍ा समझाऊ! उनक क उ र मने
ब त िदये, पर एक उ र ब त अ◌ा ह; जो मुझे अभी सूझ रहा ह। गो वामीजीसे पूछा जाता
था—“आपक कथा ‍ा ह? बताइये! आपक चौपाइयाँ ‍ा ह?” गो वामीजी बोल—
याम सुरिभ पय िबशद अित गुनद करिह सब पान।
िगरा ा य िसयराम जस गाविह सुनिह सुजान॥
(मा. १.१०ख)

५७
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

“मेरी चौपाई यामा गौ ह।” कौन गौ ह? यामा गौ। कोई कह—“गायको न दो और दूध
िमल जाए”, यह संभव ह ‍ा? आप बताओ। अर! गौको यारसे पुचकारो और िखलाओ-
िपलाओ। बछड़ा गायक थनम मुँह मार, तब दूध देगी। इसी कार गो वामीजीक वाणी काली
गाय ह। उसको जब हम दुलारगे, तब न चौपाई सु◌र-सु◌र भाव हमको बतायेगी। वह हमारी
कोई नौकर तो नह ह। गाय ब त िविच होती ह। उसको ेम दो, तो दूधसे पूरी बा टी भर देती
ह और अगर िचढ़ा दो तो इतना बिढ़या लात मारती ह िक ऐसी-तैसी हो जाती ह, दाँत ही टट
जाते ह। गायक मार ब त किठन होती ह; भस उतना नह मारती ह, मूख। गौमाता िफर सीधा
लात चलाती ह, और वह मुखपर लगे तो एकौ दाँत बचनेक थित नह बनती। तो भईया!
हमार पास तो यामा गौ ह, ब त ेमसे हम पालते ह, देशी गाय ह हमारी। और उनको अपनी
भि का चारा िखलाते रहते ह और वो हम दूध देती रहती ह।
अब यह देिखये! िशवजी इतने स ए। “भगवा क उपर कामदेवक पाँच बाण का
भाव नह पड़ पाया—यह बात कहाँसे िस होगी?”
जय सि दानंद जग पावन। अस किह चले मनोज नसावन॥
यहाँ जो पाँच संबोधन िदये भगवा ीरामको—(१) ह स , (२) ह िच , (३) ह आन◌,
(४) ह जगपावन, (५) ह मनोज नसावन जय! अस किह चले। अब यिद आप यह अथ
नह क रयेगा तब चौपाई लगेगी नह । अभी तो श रजीने कामदेवको नह जलाया ह न। तो
जब कामदेवको नह जलाया तो िफर कसे मनोज नसावन कह रह ह गो वामीजी? कोई
गो वामीजीको पागल क ेने काट रखा ह ‍ा? इतना तो उनको ान ह न िक अभी संगम
काम-दहन नह आ ह, इसीिलए िशवजीक िलए मनोज नसावन श द कहा ही नह जा
सकता। अतः—
जय सि दानंद जग पावन। अस किह चले मनोज नसावन॥
ह भु! आपक जय हो। ह राघवे◌! ह मेर भु!!
हे राम तु हारी जय जय हो। हे राम तु हारी जय जय हो॥
िजतकाम तु हारी जय जय हो। भु राम तु हारी जय जय हो॥
हे राम तु हारी जय जय हो। भु राम तु हारी जय जय हो॥
सब लोग गाइये। हमार मोदीनगरवाल पूछगे—“आप ‍ गवा रह ह हमसे?” तो ‍ा
कर, आप ही बताइये? हम तो रावण नह ह िक हम आपको लाय, हम तो गवायगे। और
आपका लाभ ‍ा ह? जानते ह? हम आपको वचन देकर जा रह ह—यिद मेर साथ आज इस
कथाम गा लगे न, तो एक वषक मेरी गारटी! एक वषतक तो आपक घरम रोनेका संग ही
नह आयेगा और एक वष यिद बीत जाए तो िफर मेर साथ गा लीिजयेगा, िफर renew करवा
लीिजयेगा। आप गा नह रह ह; मुझे ब त ोध आ रहा ह, थुथुरने करनेका मन कर रहा ह।
िफरसे गाइये! पहल म गाऊ, िफर आप गाइयेगा।
ीराम तु हारी जय जय हो। ीराम तु हारी जय जय हो॥
आ काम तु हारी जय जय हो। आ काम तु हारी जय जय हो॥

५८
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

पूणकाम तु हारी जय जय हो। पूणकाम तु हारी जय जय हो॥


घन याम तु हारी जय जय हो। घन याम तु हारी जय जय हो॥
मेरे राम तु हारी जय जय हो। मेरे राम तु हारी जय जय हो॥
ीराम तु हारी जय जय हो। ीराम तु हारी जय जय हो॥
इस चौपाईम िशवजीने भगवा क पाँच लीला का संक तन िकया। ये पाँच लीलाएँ ह—
(१) बाललीला, (२) िववाहलीला, (३) वनलीला (४) रणलीला तथा (५) राजलीला।
(क) स से िशवजीने बाललीलाका संक तन िकया। इसीिलए बाललीलाम स ाका वणन
आया ह।
(ख) िच से िशवजीने िववाहलीलाका संक तन िकया। इसीिलए रामजीने िशवजीक अहकार
प धनुषको तोड़ा।
(ग) आनंद से िशवजीने वनलीलाका संक तन िकया। इसीिलए अयो याका डम बार-बार
आन◌ श द आया ह। देख—
नव गयंद रघुबीरमन राज अलान समान।
छट जािन बनगमन सुिन उर अनंद अिधकान॥
(मा. २.५१)
अथा रघुकलक वीर ीरामक मन प युवा हाथीक दयम रा य प ब धनको छटा
जानकर और वनम जाना सुनकर आन◌ अिधक हो गया अथा जैसे ब धन छटनेसे गजशालासे
िनकलकर वन क ओर चला आ हाथी ब त आन ◌त हो उठता ह, उसी कार भगवा का
मन भी रा य प ब धनको छटा आ जानकर और अपने वनगमनक आ ा सुनकर ब त स
आ। और भी—
लसत मंजु मुिनमंडली म य सीय रघुचंद।
यानसभा जनु तनु धरे भगित सि दानंद॥
(मा. २.२३९)
अथा मुिन-म डलीक म यम भगवती ीसीता एवं रघुकलक च◌मा भगवा ीराम
सुशोिभत हो रह ह, मानो ानक सभाम भि तथा सि दान◌। ता◌य यह िक स , िच ,
और आन◌ व प पर ही शरीर धारण करक िवराजमान ह।
(घ) जगपावनसे िशवजीने रणलीलाका संक तन िकया। रा स को मारकर जग को पिव
िकया-
जग पाविन कीरित िब िरहै। गाइ गाइ भविनिध नर तिरहै॥
(मा. ६.६६.३)
(ङ) मनोज नसावनसे िशवजीने राजलीलाका संक तन िकया। सभीक िवकार को भगवा ने
दूर िकया। इसका ल◌ उदाहरण ह—
जब ते राम ताप खगेशा। उिदत भऄउ अित बल िदनेशा॥
पूिर ताप रहॆउ ित लोका। ब तन सुख ब तन मन शोका॥

५९
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

िजनिह शोक ते कहउ बखानी। थम अिब ा िनशा नसानी॥


अघ उलक जह तहाँ लकाने। काम ोध कैरव सकुचाने॥
िबिबध कम गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहिह न काऊ॥
म सर मान मोह मद चोरा। इन कर नर न कविन ओरा॥
धम तड़ाग ान िव ाना। ए पंकज िबकसे िविध नाना॥
सुख संतोष िबराग िबबेका। िबगत शोक ए कोक अनेका॥
यॆह ताप रिब जाके उर जब करइ काश।
पिछले बाढ़िह थम जे कहे तॆ पाविह नाश॥
(मा. ७.३१)
अथा , ग ड़जीको सावधान करते ए भुशु डजी कहते ह—“ह पि राज! जबसे ीराम
ताप प अ य◌ बल सूयनारायण उिदत ए ह, तभीसे तीन लोक भुक ताप प सूयक
काशसे भर रह ह। इससे ब त लोग क मनम सुख होता ह और ब त लोग क मनम शोक
होता ह। भुक ताप प सूयसे िज◌ शोक ह, उनका या यान करक कहता । सव थम
अिव ा प राि न हो गई, पाप प उ जहाँ-तहाँ िछप गये। काम, ोध और कमुद संकिचत
हो गये। भुक ताप प सूयनारायणक उिदत होने पर अनेक कम, तीन गुण, काल, वभाव—
ये सब चकोर कह भी सुख नह ा कर रह ह। म सर, मान, मोह, मद आिद जो चोर ह इनका
िकसी भी ओर कौशल नह िदख रहा ह। धम प सरोवरम ान और िव ान प ये नानािवध
कमल िवकिसत हो रह ह। सुख, स◌ोष, वैरा य, और िववेक प—ये अनेक चकवे शोकसे
रिहत हो गये। यह ीराम ताप प सूय जब भी िजसक दयम काश करता ह, तब पीछ कह
ए स ुण ( ान िव ानािद) बढ़ जाते ह तथा अिव ा, पाप, काम, ोधािदका नाश हो जाता
ह।”
अब पादसेवन कर िलया। णाम िकया और चरणक , चरणिच क सेवा कर ली।
भगवा क चरणिच पर जो धूल लगी थी, अपनी जटासे झाड़ दी। अपने िसरपर जो ग ाजी ह
उनसे कहा—“थोड़ी धार दे दो, भगवा क चरणिच को ान कराऊगा।” ान करवाया
भगवा क चरणिच को—ॐ शु वालः सवशु वालो मिणवाल ऽआि नाः येतः
येता ोऽ ण े ाय पशुपतये कणा यामाऽअविल ा रौ ा नभो पाः पाज याः
(शु यजुवद २४.३)। यह ह पादसेवन ।
(५) अचन —
चले जात िशव सती समेता। पुिन पुिन पुलकत कृपािनकेता॥
(मा. १.५०.३–४)
पुलकाविलसे भगवा िशव भगवा ीरामजीका अचन कर रह ह।
(६) व न —िशवजीने रामजीको णाम कर िलया। णाम करक ही चल थे। आगे
सतीजी कहग —ितन नृपसुतिह की पर नामा (मा. १.५०.७)।
ितन नृपसुतिह की परनामा। किह सि दानंद पर धामा॥
(मा. १.५०.७)
६०
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

(७) दा य —िशवजी सतीजीसे कहते ह—“धीर मुिनजन िजनक सदैव सेवा करते रहते
ह, वे ही याग-वीरता, दया-वीरता, िव ा-वीरता, परा म-वीरता, और धम-वीरता से उपलि त
रघुवीर भु ीराम मेर इ देव ह—”
सोइ मम इ देव रघुबीरा। सेवत जािह सदा मुिन धीरा॥
(मा. १.५१.८)
(८) स य —
मुिन धीर जोगी िस संतत िबमल मन जॆिह यावहीं।
किह नेित िनगम पुरान आगम जासु कीरित गावहीं॥
सॊइ राम यापक भुवन िनकाय पित माया धनी।
अवतरॆउ अपने भगत िहत िनज तं िनत रघुकुलमनी॥
(मा. १.५९.९)
(९) आ मिनवेदन —
अस किह लगे जपन हिरनामा।
(मा. १.५२.८)
पूरी नवधा भि ही िशवजीम आ गयी।
अब सतीजीको म हो रहा ह। उसी मको संदेह कहगे, पर ह वह म—सती सो
दशा शंभु कै देखी (मा. १.५०.५) संदेह हो गया—“अर! ये तो जग ◌ ह श रजी!
जगदी र ह!! देवता, मनु य सभी उ◌ णाम करते ह। ितन नृपसुतिह की पर नामा
(मा. १.५०.७)—इ◌ ने राजपु को णाम कर िलया।” किह सि दानंद — थमानुवाद कर
रही ह—स , िच , आन◌ और जगपावनका अनुवाद िकया पर , और मनोज नसावनका
अनुवाद िकया धामा। किह सि दानंद पर धामा (मा. १.५०.७) और
भये मगन छिब तासु िबलोकी।
(मा. १.५०.८)
सतीजीने भगवा क ित एक-दो संदेह नह िकये, १५ संदेह िकये, १५ कारसे म िकये
और ब त तीखा य◌ िकया—“िशव! ये यथक १५ ने रखे हो, तुम १५ ने वाल होकर भी
ने हीन हो चुक हो।”
जॊ यापक िबरज अज अकल अनीह अभेद।
सो िक देह धिर होइ नर जािह न जानत बेद॥
(मा. १.५०)
सतीजीने िशवजीक िदये पाँच िवशेषण —(१) स , (२) िच , (३) आन , (४)
जगपावन, (५) मनोज नसावन (मा. १.५०.३)पर म िकया। (६) ितन नृपसुतिह की
परनामा (मा. १.५०.७)— णामपर म िकया। (७) भये मगन छिब तासु िबलोकी (मा.
१.५०.८)—िशव भगवा क छिवपर म ए, उसपर म िकया। और—
जॊ यापक िबरज अज अकल अनीह अभेद।
सो िक देह धिर होइ नर जािह न जानत बेद॥

६१
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

(८) जो यापक, (९) िबरज—रजोगुणसे रिहत, (१०) अज, (११) अकल—िकसी


भी कारक कलासे रिहत, (१२) अनीह—चे ा रिहत, (१३) अभेद —अपने-परायेक भेदसे
रिहत, (१४) सो िक देह धिर होइ नर, (१५) जािह न जानत बेद —आठ म इनपर िकये।
आठ और सात प◌ह।
िशवजीने ब त समझाया—“सती! इतना बड़ा म नह करना चािहए। ये मेर इ देव ह
सती! तुम नह समझ रही हो। अवतारक कारण नह समझ पाय ।” िशवजीने कहा—
मुिन धीर जोगी िस संतत िबमल मन जेिह यावहीं।
किह नेित िनगम पुरान आगम जासु कीरित गावहीं॥
सोइ राम यापक भुवन िनकाय पित माया धनी।
अवतरॆउ अपने भ िहत िनज तं िनत रघुकुलमनी॥
(मा. १.५१.९)
एक बारम िशवजीने सतीजीक प◌ह क उ र िदए—
(१) मुिन, (२) धीर, (३) जोगी—योगी और (४) िस िनमलमनसे िज◌ गाते ह—ये
चार। (५) िनगम, (६) पुरान—पुराण, (७) आगम नेित कहकर िजनक क ित गाते ह—सात।
सोइ—(८) राम, (९) यापक, (१०) —दस। (११) भुवन िनकाय पित, (१२) माया
धनी, दस-दो बारह। (१३) अवतरेउ अपने भ िहत, (१४) िनज तं िनत, और (१५)
रघुकुलमनी। एक साथ इसी छ◌म सतीजीक पं ह क उ र िशवजीने िदये, िफर भी
सती नह समझ । िशवजीने कहा—“म ने हीन नह , मेर पं ह ने सुरि त ह सती! मने
िमिथलाक बारातम ही इ◌ पं ह ने से देखा। इन पं ह ने से इनक आरती िकया करता ।
लाग न उर उपदेश जदिप कहेउ िशव बार ब ।
(मा. १.५१)
इतना बड़ा म! कोई बात नह !” खीझकर कह िदया—
जौं तु हरे मन अित संदे । तौ िकन जाइ परी ा ले ॥
(मा. १.५२.१)
“यिद आपक मनम ब त संदेह ह तो जाकर परी ा ‍ नह ल लत ? ‍ िनरथक मेरा
िसर खा रही ह तक करक?” अब दूसरा कोई गँवार होता तो दो चाँट जड़ देता। पर चाँटा
जड़नेक समान ही तो ह, यिद प ीसे पित िकसी यवहारसे खीझ जाए। बड़ क वाणी ही बाणक
समान होती ह। जैसे जाइ मोह म भारी (मा. १.५२.३)—म कह चुका िक यह कथा म
हरनी ह। यहाँ मोह-मूलक म ह।
िशवजी कहते ह—सती! िववेकसे काम लीिजयेगा—करॆ सो जतन िबबेक िबचारी
(मा. १.५२.३)। िववेकसे काम कसे ल? िववेक कहाँसे आता ह? स संगसे आता ह—िबनु
सतसंग िबबेक न होई (मा. १.३.७) और इ◌ ने स संग िकया ही नह तो इनक पास िववेक
रहगा कहाँसे? और अिववेकका प रचय दे िदया—

६२
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

पुिन पुिन दय िबचार किर धिर सीता कर प।


आगे हॊइ चिल पंथ तॆिह जॆिह आवत नरभूप॥
(मा. १.५२)
सीताजीका वेष बनाया, पहनावा पहन िलया; पर व प नह बना सकती थ । आगे हॊइ
चिल पंथ तॆिह—आगे आ गय उसी मागम। जॆिह आवत नरभूप —जहाँसे भगवा आ रह ह।
ल मणजीने देखा—लिछमन दीख उ माकृत बेषा (मा. १.५३.१) और जान गये ल मणजी।
यहाँ उ एक पद ह और मा अलग ह—यह यान रिखये। यहाँ उका अथ ह सतीजी। ल मणजीने
‍ा देखा—चिकत भये म दय िबशेषा (मा. १.५३.१)। दयम िवशेष मक कारण,
उ माने, सतीजीने मा कृत बेषा—मेरी माता सीताजीका वेष बना िलया ह, ऐसा ल मणजीने
देखा। तब चिकत भये अथा चिकत हो गये। इस पि का िफरसे अथ समझ लीिजये, थोड़ा
किठन थ ह न! चिकत भये म दय िबशेषा— दयम िवशेष मक कारण—उ श द
महशका भी वाचक ह और महशक प ीका भी वाचक ह—उ माने सतीजीने, मा कृत बेषा,
मेरी माता सीताजीका वेष बना िलया। मा माने चैव मातिर कोषम ह यह वणन। नोट करो।
तब ल मण चिकत! अर राम-राम! यहाँ उ अलग ह।
लिछमन दीख उमाकृत बेषा। चिकत भये म दय िबशेषा॥
(मा. १.५३.१)
यहाँ उ जब आप अलग रखगे, तभी थ समझम आयेगा। उमाकृत बेषा कहगे तो
गड़बड़ा जायेगा। अभी इनका नाम उमा ह नह ; जब पावती बनगी, तब न इनका नाम उमा
होगा। इसीिलए मानसजीको समझनेक िलए ब त ती बुि क आव कता होगी। जब कह
रह ह—नानापुराणिनगमागमस मतं (मा. १ म. ो. ७), तो िफर इसम हठ करनेक ‍ा
आव यकता ह? अब िन र पहननेका भी स र नह और बन जाते ह कथावाचक, तो ‍ा कर
हम? हा! हा!! हा!!!
तो ल मणजी कछ नह बोल, समझ गये। लगा—“इनको भी शूपणखावाला साद दे द
अभी, ये भी अपनी सीमाम आ जाएँ।” पर राघवने कहा—“नह ल मण! शूपणखा और इनम
अ◌र ह। शूपणखा कामिववश होकर मेरी परी ा कर रही थी, यह उसे म ह। शूपणखा मेरी
परी ा नह कर रही थी, शूपणखा मुझे मोिहत करना चाहती थी; ये तो मेरी परी ा कर रही ह।
म परी ा क गी िक तुम परनारीको कसे नह देखते?” “भैया! िच◌ा न कर।” विस जीने
भी कह िदया—“भौजाई सािहबा! िच◌ा मत क िजये। यह बालक साधारण नह ह, यह विस
िव िव ालयसे पढ़कर आया ह चकाचक। यह परी ाम आपक शत- ितशत क उ र देगा,
िच◌ा मत क रये; यह मेरा िव ाथ ह, भाभी माँ!” और वही आ।
देिखये! यहाँ एक बात कहनी ब त आव यक ह। गो वामीजीने ीरामच रतमानसका
पहला संग यही ‍ चुना? आजतक िजतने भी किव ए—वा मीिकजीसे लकर अबतक—वे
नायकक ज मसे कथा कहगे या नायकक िववाहसे कथा करते ह। जैसे नैषधीयच रत नायकक
िववाहसे ार भ हो रहा ह, िकराताजुनीय अजुनक शौयसे ार भ हो रहा ह, िशशुपालवध
भगवा ीक णक िवजय-या ासे ार भ हो रहा ह; परतु रामच रतमानसका ार भ तो हो

६३
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

रहा ह जब नाियका िबछड़ गयी ह। नाियकाक िवयोगम भगवा ीराम याकल ह। वे हमको
आपको बता रह ह िक नाियकापर िकतना ेम ह रामजी को। सीताजीक अित र िकसी
दूसरी मिहलाको सामा य ◌ि से भी भु नह देख रह ह। इसिलए रामच रतमानस इसका नाम
ह—राम य चिरतािन मानसेषु येन त —िजनक कपासे हमार मनम रामजी, हमार मानस म,
रामजीक च र उतर आते ह। ल मणजीसे राघवे◌जीने कहा—“नह ल मण! ये मेरी परीि का
ह, म भारतीय छा । भारतीय छा परी कको गु व मानता ह। म इ◌ णाम क गा, इ◌
द ड नह देना ह।” तुर◌ भुने—जोिर पािन भु की नामू (मा. १.५३.७) हाथ जोड़कर
णाम िकया—“माताजी! दा ायणीजी णाम।” वेशप िदखाया—िपता समेत ली िनज
नामू (मा. १.५३.७)—“म दशरथपु राम आपको णाम करता ।” अर! परी ा हो चुक !
परनारीको माँक समान देखा, णाम िकया और आगे ानक परी ा। च र क परी ा हो चुक ,
अब चिलये ानक परी ा। म आपको पहचानता —
कहॆउ बहोिर कहाँ बृषकेतू। िबिपन अकेिल िफर कॆिह हेतू॥
(मा. १.५३.८)
श रजी कहाँ ह? अथा म आपको जान गया िक आप सतीजी ह, पर यह बताइये िक
आपने श रजीका साथ ‍ छोड़ िदया? ‍ िव ासको अलग कर िदया आपने?—
िबनु िब ास भगित निह तॆिह िबनु विह न राम।
रामकृपा िबनु सपनॆ जीव न लह िब ाम॥
(मा. ७.९०क)
अब आपको िव ाम नह िमलगा, िफरती रहगी आप। भि आपक पास आयी नह , मेरी
कपा आपपर हो नह रही ह; म आपको णाम कर रहा । सतीजी भयभीत हो गय —राम
बचन मृदु गूढ़ सुिन उपजा अित संकोच (मा. १.५३)। कोमल वचन तो ह ही पर गूढ ह,
ब त अथ िछपे ह यहाँ। सतीजीसे भगवा राम ब त सार कर रह ह—
मूल धमतरोिववेकजलधेः पूण ुमान दं
वैरा या बुजभा कर घघन वा ापह तापह ।
मोहा भोधरपूगपाटनिवधौ वःस भवं श र
व े कुल कल शमनं ीरामभूपि य ॥
(मा. ३ म. ो. १)
यहाँ रामजीने सतीजीसे यारह िकये—
(१) मूल धमतरोः—अर! कहॆउ बहोिर कहाँ बृषकेतू (मा. १.५३.८)। श रजी धमक
मूल ह—मूल धमतरोः, उनक प ी होकर आज आप इतना बड़ा अधम ‍ कर रही ह? ह
राम! ये गूढ वचन?—राम बचन मृदु गूढ़ सुिन ... (मा. १.५३)।
(२) िववेकजलधेः पूण ु —श रजी िववेक सागरक च◌मा ह, िववेक सागरको
उ िसत करनेक िलए शर क पूिणमाक च◌मा ह, उनक प ीम इतना बड़ा अिववेक कसे
आया? कहाँ बृषकेतू !
(३) आन द —श रजी सबको आन◌ देते ह, आज उ◌ क प ी मेर च र ान◌पर
६४
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

कठाराघात करने आ रही ह? कहाँ बृषकेतू !


(४) वैरा या बुजभा कर —श रजी वैरा य पी कमलको िवकिसत करनेक िलए
सूयक समान ह, उनक प ीको भी इतना बड़ा राग आज हो गया? ‍ा कभी ऐसी परी ा
आपको लनी चािहए? सूयकलम ज मे मेरी आप ह या करने आ गय आज? म भी तो कमल
, सात-सात कमल मेर पास ह माताजी! नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजा णं
(िव.प. ४५.१) और मेर ने भी अ बुज ह—नव अंबुज अंबक छिब नीकी (मा. १.१४७.३)।
आप ‍ा कर रही हो? कहाँ बृषकेतू !
(५) घघन वा ापह —श रजी पाप प घने अ धकारको न करते ह, िक◌ु आज
आप इतने पाप कर रही ह? कहाँ बृषकेतू !
(६) तापह —श रजी सबक ताप न करते ह और आप मुझे ताप दे रही ह? कहाँ
बृषकेतू !
(७) मोहा भोधरपूगपाटनिवधौ वःस भव —श रजी मोह पी बादलको न करने
हतु वायुक समान ह। उनक प ी सतीको मोह कसा? कहाँ बृषकेतू !
(८) कुल — ा ण श रजीका प रवार ह। उ◌ क प ी मुझ ा णभ को आज
सताने आ गय ? कहाँ बृषकेतू !
(९) कल शमन —श रजी कल को न करते ह! आज उ◌ क प ी मुझे कलि त
करने आ गय ? कहाँ बृषकेतू !
(१०) ीरामभूपि य —श रजी मुझको ि य ह। आज उ◌ क प ी मेर िलए अि य
काय ‍ कर रही ह? कहाँ बृषकेतू !
(११) श र —सबका क याण करते ह श रजी। उ◌ क प ी होकर आप इतना बड़ा
अक याण ‍ कर रही ह?
सतीजीने कोई उ र नह िदया। वे चल पड़ प ा ाप करते ए—
मैं शंकर कर कहा न माना। िनज अ यान राम पर आना॥
(मा. १.५४.१)
“‍ा क ? मने श रजीका कहा नह माना, अपना अ ान रामजीपर ला िदया। जाकर ‍ा
उ र दूँगी?” िफर भगवा ने भी अपने भावको िदखाया। इनको भगवा ने भी अपने भावसे
पं ह उ र िदए। इनक चचा िफर कभी क गा।
सती ‍ा कर अब? िशवजीक पास आय । मका प रणाम ब त भयंकर होता ह िम ो!
अभी भी म ह—
सती समुिझ रघुबीर भाऊ। भयबश िशव सन की दुराऊ॥
(मा. १.५६.१)
गड़बड़ कर िदया, झूठ बोल गय । िशवजीने कहा—“सही-सही बताइये, सच-सच बताइये,
आपने िकस िविधसे परी ा ली ह—ली परी ा कविन िबिध कह स य सब बात (मा.
१.५५)।” िकतु सतीजी झूठ बोल रही ह—कछ न परी ा ली गोसा (मा. १.५६.२)
अथा कछ भी परी ा मने नह ली। सर वतीजीने कहा िक म भी अब कछ क गी, ब त
६५
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

हो गया इनका! सर वतीजीने रामजीको यही कह िदया िक ये कहती ह िक कछ न परी ा


ली गोसा (मा. १.५६.२)। ये आपको गोसा कहती ह—“ह गोसा ! मने कोई परी ा
नह ली।” व◌ुतः—
कछ न परी ा ली गोसा । की नाम तु हािरिह ना ॥
(मा. १.५६.२)
सभी इि◌य क वामी रामजीने इनक कोई परी ा नह ली और इनको आपक ही भाँित
णाम कर िलया। जब सतीजीने यह बात कही, तब श रजीने यान देकर जाना—“अर राम-
राम! इ◌ ने तो मेरी वािमनीका वेष धारण कर िलया। ‍ा क ? अर! कछ भी हो, मेरी
माताजीका िच◌न िकया तभी इनका वेष बनाया न इ◌ ने! जब िच◌न कर रह ह तब तो ये
मेरी माँ हो गय , प ी नह रह ।” अब तो भाव इनका बदल गया। “अब ‍ा क ?” आहाहा!
िकतनी सु◌र मयादा ह िशवजीक !! नह अब ये मेरी प ी नह रहगी—परम ेम निह जाइ
तिज िकए ेम बड़ पाप (मा. १.५६)। पर करना ‍ा चािहए? अब तो भगवा ही समाधान
बताय! भगवा क चरणिच को णाम िकया—
तब शंकर भु पद िसर नावा। सुिमरत राम दय अस आवा॥
(मा. १.५७.१)
अब समाधान आ गया—
ऄिह तन सितिह भेंट मॊिह नाहीं। िशव संक प की मन माहीं॥
(मा. १.५७.२)
भगवा ने समाधान दे िदया—“इतना करना चािहए िक इस शरीरसे सतीजीका पश मत
करना बस! जबतक इनका यह शरीर रहगा, तबतक इनम प ी भाव मत रखना।” ऄिह तन
सितिह भेंट मॊिह नाहीं, िशव संक प की मन माहीं॥
देिखये! आगे कह रह ह आकाशवाणी ारा—
अस पन तुम िबनु करइ कॊ आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
(मा. १.५७.५)
िशवजीने याग कर िदया। यहाँ तो एक ही याग ह, पर एक साथ पाँच याग हो गये—
जाके ि य न राम-बैदेही।
तिजये तािह कोिट बैरी सम ज िप परम सनेही॥
(िव.प. १७४.१)
पाँच उदाहरण िदये ह—
त यो िपता हलाद िबभीषन बंधु भरत महतारी।
बिल गु त यो कंत ज-बिनति भये मुद मंगलकारी॥
(िव.प. १७४.२)
अ त आन◌ कर िदया। इन लोग ने पाँच व◌ुएँ याग —
(१) ादजी—इ◌ ने िपताको यागा, (२) िवभीषणजी—इ◌ ने बंधु रावणको यागा,

६६
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

(३) भरतजी—इ◌ ने महतारी अथा माता ककयीजीको यागा, (४) बिलजी—इ◌ ने गु


शु ाचायको यागा, (५) जविनताएँ —इ◌ ने कंत अथा पितय को यागा।
परतु यहाँ तो श रजीने एक साथ पाँच को याग िदया। कसे?
(१) त यो िपता हलाद—सतीजीक यागक समय उनक िपता द को याग िदया, तो
िपताका याग हो गया। प ीका िपता भी िपताक समान होता ह, याग िदया।
(२) िबभीषन बंधु—िवभीषणने ब धुको यागा था। िशवजीने सतीक यागक साथ-साथ
सभी देवता और अपने भाइय को याग िदया।
(३) भरत महतारी—भरतजीने माँको यागा, तो िशवजीने सतीजीको यागकर अपनी प ीक
माता सूितको याग िदया; वो भी माँ ह।
(४) बिल गु त यो—बिलने गु को यागा। िशवजीने अपने गु क समान ाजीक भी
बात नह मानी; ाजीको छोड़ िदया।
(५) कंत ज-बिनति — जविनता ने कतको यागा, तो िशवजीने अपनी का◌ाको
यागा।
एक साथ पाँच याग हो गये!
आकाशवाणी ई—“इतनी कठोर ित ा आपक िबना कौन कर सकता ह!” कलाश आये।
यह म हरनी (मा. १.३१.४) कथा ह। िशवजी सहज व पका िच◌न करने लगे—
शंकर सहज व प स हारा। लािग समािध अखंड अपारा॥
(मा. १.५८.८)
म तो भगवा का दास, आ मा । हमार शत◌ो ीम यह ◌ो आया ह। व व पिच◌न ,
सहज व पका िच◌न िकया—
अह नैव वण गृह थो न चाह न वैखानसोऽह यितन कदािच ।
अह िन यमु ो िवशु ोऽहमा मा सदा राघवीयो जनोऽह जनोऽह ॥
सदा राघवीयो जनोऽह जनोऽह सदा राघवीयो जनोऽह जनोऽह ॥
(श.◌ो. ९६)
इस व पका िच◌न िकया। लािग समािध अखंड अपारा (मा. १.५८.८)—स ासी
हजार वषक िलए समािधम चल गये। उठ तबतक सतीजीको िन य हो चुका था िक अब ये
मेर पित नह रह—
राम नाम िशव सुिमरन लागे। जानॆउ सती जगतपित जागे॥
(मा. १.६०.३)
जब म पहली कथा सुना रहा था हल जोतने वाल अपने काकाको, तो जब यह संग
आया—म छोटा था, सात वषक अव था कोई बड़ी नह होती। जब संग आया—जानॆउ सती
जगतपित जागे (मा. १.६०.३) तो उ◌ ने मुझे यह भाव बताया। कहा—“िगरधरजी! एक
हमरो भाव सुनो हो?” हमने कहा—“बतावा काका!” वे बोल—“सतीजीको िशवजी याग
चुक ह यह सतीजी जान गयी ह; इसिलए सतीजी यह नह कह रह ह िक जानॆउ सती मोर
पित जागे, वे कह रही ह—जानॆउ सती जगतपित जागे। अब ये मेर पित नह रह, अब तो
६७
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

जग क िपता हो चुक। और आगे चलकर पावतीजी कहगी—िब नाथ मम नाथ पुरारी (मा.
१.१०७.७)।”
तो इस कारसे िशवजीको व◌न िकया। श रजीने स मुख आसन दे िदया। इधर िपता
द जीका य हो रहा ह। द जीने सतीजीको नह बुलाया ह। िशवजीक मना करनेपर भी सतीजी
जा रही ह। और वा◌वम तो वे जानकर जा रही ह—“य म ही म अपना शरीर छोड़ दूँगी अि
म, और शरीर छोड़कर अि म िनवास कर रह सीताजीसे मा माँग लगी िक ह सीते! अपराध
मने िकया ह, आप मुझे मा क िजये।”
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
मैंने जाना नहीं, पहचाना नहीं
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
मोह म काननमें भटक भटक के
सीतारामको भी पहचाना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
राम कथा गा-गा करके
िवमल िववेक उर आना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
ि भुवनगु िशव ब त समझाये
उनका उपदेश मैंने माना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
माता कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
आपका ही प धिरके करी मैं परी ा
भि अनुराग उर ठाना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
िगिरधर वािमनी माकी पु ी सीता
दु सती पु ीको भूलाना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
अपनी कुपु ीको भूलाना नहीं
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥

सती मरत हिर सन बर माँगा। जनम जनम िशव पद अनुरागा॥


(मा. १.६५.५)
सीता कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
सीताजीने मा कर िदया। िहमाचलराजक क या बनकर िफर पावतीने ज म िलया। सतीजीने
जो प◌ह संदेह कर प◌ह अपराध िकये थे, उ◌ क अनुसार अपनी दस इि◌य और पाँच
महाभूत को अि म जला डाला और िफर भगव ि क पम कट । पावतीजीका ज म

६८
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

आ। देवता ने पु प क वषा क । पावती मैयाक जय हो!


सवम लम ये िशवे सवाथसािधके।
शर ये य बके गौिर नारायिण नमोऽ ु ते॥
(स.दु. ३)
गो वामीजीने देखा िक उधर श रजीक पास नौ ल ण आ गये ह, इधर पावतीजी नौ प म
िदख रही ह। गो वामीजीने कहा िक आज पावतीजीक आनेसे िहमाचल ब त सु◌र लग रह ह,
जैसे वै णव रामभ जन रामभि को पानेसे सु◌र लगते ह—
सोह शैल िगिरजा गृह आये। िजिम जन रामभगित के पाये॥
(मा. १.६६.३)
अ त आन◌ हो गया! वेद यासजी और तुलसीदासजीम होड़ लग गयी। वेद यासजीने
कहा—“म इनको नौ ◌ि से देखता ।” तुलसीदासजीने कहा—“ठीक ह! म भी इ◌ नौ ◌ि से
देखता ।” “अ◌ा कसे?” वेद यासजीने कहा— थमं शैलपु ी च (मा.पु. च डीकवच
३) अथा इनका थम व प ह शैलपु ी। तुलसीदासजीने कहा—“आपको ये शैलपु ी िदख
रही ह, मुझको तो सा ा स संगित ही िदख रही ह।” िजिम जन रामभगित के पाये (मा.
१.६६.३)। “स संगित ही पावतीजी बनकर आ गयी ह”— थम भगित संतन कर संगा (मा.
३.३७.८)। “अ◌ा?” “देिखये! नारदजीक साथ छोटी होकर भी िकतना बिढ़या स संग कर
रही ह”—सुता बोिल मेली मुिन चरना (मा. १.६६.८), “चरण म िलपट गयी ह, नारदजीक
बात सुन रही ह, िवचिलत नह हो रही ह। नारदजी जबिक कह रह ह िक इनको भयंकर पित
िमलगे—”
अगुन अमान मातु िपतु हीना। उदासीन सब संशय छीना॥
जोगी जिटल अकाम मन नगन अमंगल बेष।
अस वामी एिह कह िमिलिह परी ह अिस रेख॥
(मा. १.६७.८, १.६७)
सब लोग रो रह ह—
सुिन मुिन िगरा स य िजय जानी। दुख दंपितिह उमा हरषानी॥
(मा. १.६८.१)
पर ये मु करा रही ह, ‍ िक ये जानती ह—“संत कभी अशुभ बोलते ही नह । सारा संसार
अशुभ बोलता ह, पर संतक मुखसे अशुभ नह िनकलता।” जान गयी ह िक समाधान होगा। ये
भगवा ह। यारह आसि याँ इनम ह, भगवा क ित यारह कारका लगाव ह इनक अ◌र—
गुणमाहा यासि - पासि - मरणासि -पूजासि -दा यासि -स यासि -
वा स यासि -का ास ा मिनवेदनासि -त मयतासि -परमिवरहासि -
पैकधा येकादशधा भवित॥
(ना.भ. सू. ८२)
किठन नह ! िच◌ा मत करना। भगवा क ित यारह कारसे लगाव रखना चािहए। ये
यारह ल ण िशवजीम ह—

६९
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

(१) गुणमाहा यासि —भगवा क गुणम लगाव रखना चािहए।


(२) पासि —भगवा क पम लगाव रखना चािहए।
(३) मरणासि —भगवा क मरणम लगाव रखना चािहए।
(४) पूजासि —भगवा क पूजाम लगाव रखना चािहए।
(५) दा यासि —भगवा क दा यम, सेवाम, िजतना हो सक अपने हाथसे हम भगवा क
सेवा कर।
(६) स यासि —भगवा क स यम, िव ासम आसि ।
(७) वा स यासि —भगवा क ित वा स य रखना चािहए।
(८) का ासि —भगवा क का◌ा भावम, कमनीय सेवाम आसि रखनी चािहए।
(९) आ मिनवेदनासि —भगवा क ित आ मिनवेदन रखना चािहए, उ◌ सब कछ
स प देना चािहए।
(१०) त मयतासि —भगवा क ित त मयता होनी चािहए।
(११) परमिवरहासि —भगवा से िबछड़नेम परम िवरहक अनुभूित होनी चािहए।
“तो िशवजीम ये यारह आसि याँ ह, इसिलए एकादश ह िशवजी। सार दोष उनम
समा , उनक पास कोई दोष ही नह ह। म तप या क गी िशवजीक िलए। ये रामभ ह।”
नारदजीने सपनेम तप याक सात गुण िगनाते ए कहा—“पावतीजी! जाकर तप या क िजये।
ब त िवशेषता ह तप याक —
तप सुख द दुख दोष नसावा॥
तपबल रचइ पंच िबधाता। तपबल िब णु सकल जग ाता॥
तपबल शंभु करिह संघारा। तपबल शेष धरइ मिहभारा॥
तप अधार सब सृि भवानी। कर जाइ तप अस िजय जानी॥
(मा. १.७३.२–५)
(१) तप सुख द—तप या सुख द ह, (२) दुख दोष नसावा—तप या दोष-दुःखको
न करती ह, (३) तपबल रचइ पंच िबधाता—तपक बलसे ही ाजी इस प भूता मक
जग क रचना करते ह, (४) तपबल िब णु सकल जग ाता—तपक बलसे ही िव णुजी
सार संसारका पालन करते ह, (५) तपबल शंभु करिह संघारा—तपक बलसे ही श रजी इस
जग का संहार करते ह अथा िबखर ए संसारको समेटकर भु ीरामजीक चरण म िव ाम
करा देते ह, (६) तपबल शेष धरइ मिहभारा—तपक बलसे ही शेषजी पृ वीका भार धारण
करते ह, (७) तप अधार सब सृि भवानी—यह स पूण सृि तपक आधारपर चल रही ह।
ह भवानी! अथा क याणमय श रजीक शा त प ी पावतीजी! ऐसा दयम जानकर वनम
जाकर तप क िजये।
तब पावतीजी वन म जाकर तप या करने लग —
उर धिर उमा ानपित चरना। जाइ िबिपन लागीं तप करना॥
(मा. १.७४.१)
पावतीजीने सात कारसे तप या क —

७०
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

संबत सहस मूल फल खाये। शाक खाइ शत बरष गवाँये॥


कछ िदन भोजन बािर बतासा। िकये किठन कछ िदन उपवासा॥
बेल पात मिह परइ सुखाई। तीिन सहस संबत सोइ खाई॥
पुिन पिरहरे सुखानेउ परना। उमिह नाम तब भयउ अपरना॥
(मा. १.७४.४–७)
आन◌ कर िदया! भ क सात भूिमकाएँ होती ह—
(१) संबत सहस मूल फल खाये—एक सह वषतक मूल फल खाये, (२) शाक
खाइ शत बरष गवाँये—शाक खाकर सौ वष िबताये, शाक भरी बन गय । यहाँ समीप ही ह
शाक भरीका थान। बोिलये शाक भरी मैयाक जय! यहाँक लोग शाक भरी बोलते ह, (३)
कछ िदन भोजन बािर—और कछ िदन जल, (४) बतासा—कछ िदन वायु, (५) िकये
किठन कछ िदन उपवासा—कछ िदन किठन उपवास िकया, (६) बेल पात मिह परइ
सुखाई, तीिन सहस संबत सोइ खाई—तीन सह वष बेलप खाये, (७) पुिन पिरहरे
सुखानेउ परना, उमिह नाम तब भयउ अपरना—और िफर इसको छोड़ा तो इनका नाम पड़
गया अपणा । इस कार सात तप याएँ क ।
अ◌म भगवा रामने आकाशवाणीक और कहा—“ ाजी! जाकर इनको समझाइये।
चली जाएँ, श रजी िमलगे।” ाजीने पावतीजीको समझाया। भगवा राम श रजीक पास
कट ए और बोल—“देिखये! पावतीजीने अपार तप िकया ह। सुिनये! म आपका िहत
चाहता । िशवजी! आपम नौ दोष ह और ये नौव दोष जीवक तबतक नह िमटते, जबतक
उसको नवधा भि ा नह होती। आपक ये नौ दोष आगे कहगे स िष—”
तेिह के बचन मािन िब ासा। तुम चाह पित सहज उदासा॥
िनगुन िनलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह िदगंबर याली॥
(मा. १.७९.५–६)
(१) सहज उदासा—आप सहज उदास ह, (२) िनगुन—आप िनगुण ह, (३) िनलज—
आप िनल ह, (४) कुबेष —आप कवेषधारी ह, (५) कपाली—आप कपाली ह, (६)
अकुल —आप अकल ह, कोई कल नह ह आपका, (७) अगेह —आप अगेह ह, आपका घर
नह ह, (८) िदगंबर—आप िदग बर ह, (९) याली—आप याली ह—ये नौ दोष ह आपम।
जब नवधा भि प पावतीसे िववाह क रयेगा, तब ये नौव दोष िमट जायगे। इसिलए—
अब िबनती मम सुन िशव जौ मो पर िनज ने ।
जाइ िबबाह शैलजिह यह मॊिह माँगे दे ॥
(मा. १.७६)
“िशवजी! पावतीजीसे अब िववाह क िजये। यह म आपसे भीख माँगता ।” िशवजीने
कहा—“ठीक ह।” इधर स िषय ने पावतीजीक ेहक परी ा ली और उनसे कहा—
“नारदजीक बात सुनकर तुम सहज उदास पितको चाहती हो? नौ दोष ह इनक!” पावतीजीने
कहा—“अब तो तय हो गया। इनक नौ दोष ह तो म नवधा भि । अब तो इ◌ से िववाह
क गी—”
७१
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

तजउ न नारद कर उपदेशू। आपु कहिह शत बार महेशू॥


(मा. १.८१.५)
“अब म परी ा लगी। िशवजीसे म िववाह तभी क गी, जब वे कामको जला दगे। ‍ िक
िशवजी भ ह, भ क पास काम नह रहता।” देवता ने कामको परी ा लनेक िलए भेजा।
उसने सार संसारको यिथत िकया और िशवजीपर प बाण छोड़।
तब िशव तीसर नयन उघारा। िचतवत काम भयउ जिर छारा॥
(मा. १.८७.६)
तीसरा ने खोल िदया। तो कामको िशवजीने भ म िकया तीसर ने से, तीसरा ने म◌कपर
होता ह। रफका उ ारण म◌कसे होता ह—ऋटरषाणां मूधा (पा. १.१.८, ल.िस.कौ. १०)।
राम कवल कहा, राम भी पूरा नह । र कहते-कहते एक णम खाक हो गया। कामक िवभूित
लगा ली। िशवजीक गण ने िशवजीका ार िकया। जटाक मुकटपर सपका मौर; क डल,
क ण, और कौपीन भी सप; शरीरपर िवभूित; बाघा बर; म◌कपर च◌मा और ग ाजी; तीन
ने ; य ोवीत सपका; हाथम ि शूल और डम ; और न◌ी बैलपर िवराजमान होकर चल—
बसह चिढ बाजिह बाजा (मा. १.९२.५)। आहाहा! िशवजी जानते ह िक वे भ से िववाह
करने जा रह ह। न◌ी भी ब त सु◌र लग रह ह—
च वािर ा यो अ य पादा े शीष स ह ासो अ य।
ि धा ब ो वृषभो रोरवीित महो देवो म याँ आ िववेश॥
(ऋ.वे. ४.५८.३)
सामा य बैलक िकतने स ग होते ह? बताओ! आप तो जानते हो? दो। और न◌ीक जानते
हो? च वािर ा—चार स ग ह। बैलक िकतने चरण होते ह?—चार। और यहाँ— यो अ य
पादा—इसक तीन चरण ह। बैलक िसर िकतने होते ह?—एक। और यहाँ— े शीष—न◌ीक
दो िसर ह। बैलक पास हाथ तो नह होता, यहाँ स ह ासो अ य—सात हाथ ह इसक।
ि धा ब ो—तीन र सय से बँधा ह। वृषभो रोरवीित—“बा-बा” नह कर रहा ह, “राम राम
राम राम राम राम” कह रहा ह। ऐसे न◌ीपर चढ़कर भगवा श र आ रह ह। आहाहा ...
गण को बुला िलया ह भगवा ने—
जस दूलह तस बनी बराता। कौतुक िबिबध होिह मग जाता॥
(मा. १.९४.१)
बारात नगरक िनकट आ गयी, खलबली मच गयी। सब लोग आये और देवता क सेना
देखकर तो ब त स ए। जब भगवा को देखा—तो ‘यही दू हा ह’ कहकर लगे नम◌े
करने—“जीजाजी! नम◌े।” भगवा कहने लगे—“नह ! नह !! म तु हारा जीजा नह ।”
लोग ने पूछा—“िफर कौन हो?” भगवा ने कहा—“म तो सहबाला , जीजाजी आगे िमलगे।”
और जब जीजाजी िमल तो—
िशव समाज जब देखन लागे। िबडिर चले बाहन सब भागे॥
(मा. १.९५.४)
सब वाहन भड़क गये और ब े डर गये। जो युवक थे वो तो खड़ रह, बालक तो भागे
७२
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३

बेचार। इतने भयभीत जीजाको देखकर! जीजाजी नम◌े! अर जीजाजीको देखो साँप, िब◌ू,
मु डमाला! ब को तो डरसे सुसू होने लगा। माताएँ िकवाड़ बंद करक तैयारी कर रही थ ,
ब ने िकवाड़ खड़खड़ाये। माताएँ पूछ —“‍ा बात ह?” ब ने कहा—“अर!! िकवाड़
तो खोलो।” िकवाड़ खुला। माताएँ बोल —“अर! पायजामा कसे गड़बड़ हो गया?” ब ने
कहा—“‍ा कर, यह दु हा इतना ही भयंकर ह!”
बर बौराह बरद असवारा। याल कपाल िबभूषन छारा॥
तन छार याल कपाल भूषन नगन जिटल भयंकरा॥
(मा. १.९५.८–९)
“कोई बात नह बेटा! ये श रजी ह।” भगवा बारात लकर आये जनवासेम, मैनाजी
आरती उतारने चल —िबकट बेष िह जब देखा (मा. १.९६.४)। को देखा तो भयभीत
हो गय , भाग उठ और भवनम जा बैठ । आरती फक दी, भयभीत हो गय , ‍ा कर? उ◌ ने
कहा िक कछ भी हो म पावतीका िशवसे िववाह नह क गी—घर जाउ अपजस होउ जग
जीवत िबबाह न हौं करौं (मा. १.९६.९)।
भोजपुरीका यह गीत देिखये—
ज म भरी धेरीया कुमारी मोरी रइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै।
ज म भरी धेरीया कुमारी मोरी रइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
वेस िवकराल मुंडमाल लपटाए बा भूतवा िपसचवा बरितया ले आऐ बा।
इ ें देिख बेटी िबन मारे मर जइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
सीसपर गंगा सिस कंठमें गरल बा उरवामें सोहे सखी इनके मुंड मलवा।
इ ें देिख बेटी मोरी ाण तज देइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
साँपके जनेऊ सोहे साँपकी लगोटीयाँ अंगमें रमाए बाटै मुदाके भूितयाँ।
इ ें देखी बेटी मोरी कुँएनामें िगिरहे ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
बैल पे सवार बाटे बउरिह मुरितया जोिगनी जमाित लेही ेत कै बरितया।
रामभ ाचाय कैसे गीितयाँ सुनइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
ज म भरी धेरीया कुंवारी मोरी रइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
अब मैनाजीको पावतीजीने समझाया िक नह , जो मेर भा यम होगा वो होगा। सब लोग रोये।
अ◌म नारदजीने सबको समझाया, सब लोग स ए और िद य िववाह आ। िशवजीने आज
पावतीजीका पािण हण िकया—पािन हन जब की महेशा, िहय हरषे तब सकल सुरेशा
(मा. १.१०१.३) वैिदक म◌ो ारण ए। दहज िमला, सब श रजीने लौटा िदया; कवल
पावतीजीको लकर साथ चल। इसका अथ यह ह िक गो वामीजी ार भसे ही दहज थाक
िवरोधी ह। काि कयजीका ज म आ, गणपित ज मे और भगवती पावतीजी अब िशवजीसे
कथा सुननेको उप थत और बोल —
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(मा. १.३१.४)
अब कल चार कथाएँ आपको सुनायी जाएँग । सातव कथा ीरामज मक कथा ह। चिलये।
७३
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प

॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥


॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
बोिलये रामच◌ भगवा क जय हो!
सब लोग बोिलये िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो!
पवनपु हनुमा जीक जय हो!
गो वामीजी तुलसीदास महाराजक जय हो!
॥ जय जय ीसीताराम ॥

७४
तृतीय पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
य य रघुनाथकीतनं त त कृतम का िल ।
वा पवािरपिरपूणलोचनं मा ितं नमत रा सा क ॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी तुलीदासक जय हो।
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
तुलसी सीताराम कहो दय रािख िब वास।
कब िबगड़त ना सुने ( ी)सीतारामके दास॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
रामकथा सुंदर करतारी। संशय िबहग उड़ावनहारी॥
(मा. १.११४.१)
प रपूणतम परा◌र परमा मा भगवा ीसीतारामजीक कपासे मोदीनगरम, ीराघव-सेवा-
सिमितक त वावधानम, समायोिजत अपनी १२५१व रामकथाक तृतीय स म आप सभी बिहन -
भाइय का म ब त-ब त वागत करता । जैसा िक आप सुन रह ह, गो वामीजीक ित ा ह
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

िक वे हमार-आपक क याणक िलए, महीनेक तीस िदन क िलए, ब त सोच-समझकर तीस


कथाएँ कह रह ह।
चार व ा कथा कह रह ह—उसम (१) िनज संदेह हरनी गो वामीजीक िनजसंदेहक
कथा ह, (२) मोह हरनी कथा या व ‍जीक ह, जो भर ाजजीको सुनायी जा रही ह, (३)
म हरनी कथा िशवजी पावतीजीको सुना रह ह।
िशव-पावती-िववाह संप हो चुका ह। आज भि क नौ ल ण वाल िशवजी-जैसे परम
भ को नवधा भि व िपणी िहमाचलन ◌नी पावतीजी ा हो गय ह। िशवजीको सब कछ
िमल गया—
(१) थम भगित संतन कर संगा (मा. ३.३७.८)—स संगितक पम पावतीजी िमल ।
थमं शैलपु ी च (मा.पु. च डीकवच ३)।
(२) दूसिर रित मम कथा संगा (मा. ३.३७.८)—भगवा क कथा संग म रितक पम
पावतीजी िमल । ि तीयं चािरणी।
(३) गु पद पंकज सेवा तीसिर भगित अमान (मा. ३.३७)—मानरिहत गु चरणकमलक
सेवाक पम िशवजीको पावतीजी िमल । तृतीयं च घ टेित।
(४) चौिथ भगित मम गुनगन करइ कपट तिज गान (मा. ३.३७)—भगव ुणगणगानक
पम पावतीजी िमल । कू मा डेित चतुथक ।
(५) मं जाप मम ढ़ िब ासा। पंचम भजन सॊ बेद कासा॥ (मा. ३.३८.१)—
सा ा ◌ढ़-िव ासक साथ मं जपक पम भी िशवजीको पावतीजी िमल । प मं
क मातेित।
(६) छठ दम शील िबरित ब कमा। िनरत िनरतर स न धमा॥ (मा. ३.३८.२)—
दम, शील, ब त कम से वैरा य और स न -वै णव क धमक पम पावतीजी िशवजीको िमल ।
ष का यायनीित च।
(७) सातवँ सम मॊिह मय जग देखा। मोते संत अिधक किर लेखा॥ (मा. ३.३८.३)—
सातव भि क पम सव भगव शन और संत को भगवा से अिधक मानना—इस सातव
भि क पम भी पावतीजी िशवजीको िमल । स मं कालरा ीित।
(८) आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनॆ निह देखइ परदोषा॥ (मा. ३.३८.४)—जो
लाभ ह, उसीम संतोष करना और व म भी िकसीका दोष न देखना—ऐसी आठव भि क
पम भी पावतीजी िशवजीको िमल । महागौरीित चा म ।
(९) नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस िहय हरष न दीना॥ (मा. ३.३८.५)—
सरलता, सबसे छलहीन होना, दयम कवल भगवा का भरोसा, हष और दै य कछ नह । नवमं
िसि दा ी च।
इस कार आज नवधा-भि , माक डय पुराणोि िखत नवदुगा प पावतीजीका शरीर धारण
करक, िशवजीको ा हो गयी।
सोह शैल िगिरजा गृह आये। िजिम जन रामभगित के पाये॥
(मा. १.६६.३)

७६
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

अब ‍ा? जब नौ ल णवाल भ को नवधा-भि िमल गयी, तो िशवजीक सार नौ दुगुण


दूर हो गये—
तेिह के बचन मािन िब ासा। तुम चाह पित सहज उदासा॥
िनगुन िनलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह िदगंबर याली॥
(मा. १.७९.५–६)
(१) सहज उदासा—अब वे उदास नह रह, (२) िनगुन—अब वे िनगुण नह रह, सगुण
हो गये, (३) िनलज—अब िनल नह ह, उनक एक मयादा ह, (४) कुबेष —अब कवेष
नह , आज तो सु◌र वेष ह—
कुंद इदु दर गौर शरीरा। भुज लब पिरधन मुिनचीरा॥
त न अ न अंबुज सम चरना। नख दुित भगत दय तम हरना॥
भुजग भूित भूषन ि पुरारी। आनन शरद चं छिब हारी॥
(मा. १.१०६.६–८)
अर! ीरामजीक कथा कहनेक िलए आज िशवजी सज-धजकर आये ह। ‍ा सु◌र कद
पु प, च◌मा और श क समान गौर शरीर ह उनका, ल बी भुजाएँ ह, मुिनव - थ धारण
कर रखे ह। यह जो हमने धारण कर रखा ह, इसको हम थ कहते ह; यह राम थ
ह, यही रामजी धारण करते ह। और हम लोग सामा यतः ल मण थ धारण करते ह—यह
हमारा वेष ह। यहाँतक िक कता भी हमारा िनजी वेष नह ह। इसे धोतीक साथ पहना जाता ह,
वृ◌ावनम पहनते ह, उसको चौबंदी भी कहते ह और बगलबंदी भी कहते ह। वह हमारा वेष
ह। तो कवेष नह रह गया।
(५) कपाली, (६) अकुल, (७) अगेह, (८) िदगंबर, (९) याली।
जटा मुकुट सुरसिरत िशर लोचन निलन िबशाल।
नीलकंठ लाव यिनिध सोह बालिबधु भाल॥
बैठे सोह कामिरपु कैसे। धरे शरीर शांतरस जैसे॥
(मा. १.१०६, १०७.१)
भगवा िशव वटवृ क नीचे िकतने आन◌म बैठ ह। आज व ा पहल आ गया, ोताको
अब आना ह। पारबती भल अवसर जानी (मा. १.१०७.२)—ब त अ◌ा अवसर देखकर
भगवती आ रह ह और िशवजीने उ◌—बाम भाग आसन हर दी ा (मा. १.१०७.३)—
वामभागम बैठाया। िशवजीक धमप ी ब त ेमसे िवराजमान और कामक श ु िशवजीसे
रामक कथा पूछी—
कथा जॊ सकल लोक िहतकारी। सॊइ पूछन चह शैलकुमारी॥
(मा. १.१०७.६)
संपूण संसारका िहत करने वाली जो कथा ह, वही पूछना चाह रही ह भगवतीजी। जब
सतीजीक शरीरम थ , तब पं ह संशय िकये थे और आज सोलह कर रही ह। वा मीिकजीने
भी पावतीजीक गु देव नारदजीसे सोलह िकये थे। और पावतीजी ि भुवनपित िशवजीसे
अब सोलह करती ह; िजनम आठ ीरामकथाक ह। बड़ सु◌र-सु◌र िकये—

७७
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

(१) तुम पुिन राम राम िदन राती, सादर जप अनँग आराती, राम सॊ अवध नृपित
सुत सोई (मा. १.१०८.७–८)—िजनको आप जपते रहते ह, वे रामजी कौन ह? वे राम ‍ा
वही अवधनरश क पु ह?
(२) की अज अगुन अलख गित कोई (मा. १.१०८.८)—यिद अवधनृपितपु वही
ीरामजी ह; तो अलख, अगुण, अज मा कोई और भी ह ‍ा?
(३) जौ नृपतनय त िकिम नािरिबरह मित भोिर (मा. १.१०८)—यिद पर
परमा मा रामजी दशरथपु बने, तो कसे? उनक बुि नारीक िवरहम कसे याकल हो
गयी? उनका च र देखकर और मिहमा सुनकर मेरी बुि िमत हो रही ह— मित बुि
अित मोिर (मा. १.१०८)। म हरनी (मा. १.३१.४) कथा ह यह।
(४) जौ अनीह यापक िबभु कोऊ, कह बुझाइ नाथ मॊिह सोऊ (मा. १.१०९.१)—
यिद राम अनीह, यापक, िवभु ह; तो यह समझाकर बताइये।
ये चार अ या मक िकये। िफर आठ कथासे संब धत िकये—
(५) थम सॊ कारन कह िबचारी, िनगुन सगुन बपु धारी (मा. १.११०.४)—वह
कौन सा कारण ह िक िनगुण ने सगुण शरीर धारण िकया?
(६) पुिन भु कह राम अवतारा, बालचिरत पुिन कह उदारा (मा. १.११०.५)—हम
रामजीका अवतार सुनाइये, उनक उदार बाल च र सुनाइये।
(७) कह जथा जानकी िबवाही (मा. १.११०.६)—िजस कारसे ीसीतारामजीका
िववाह आ, वह सुनाइये।
(८) राज तजा सो दूषन काही (मा. १.११०.६)—भगवा ने रा यको छोड़ा, इसम िकसका
दोष ह?
(९) बन बिस की े चिरत अपारा (मा. १.११०.७)—भगवा ने वनम रहकर कौनसे
अपार च र िकये?
(१०) कह नाथ िजिम रावन मारा (मा. १.११०.७)—भगवा ने रावणको कसे मारा?
(११) राज बैिठ की ीं ब लीला, सकल कह शंकर शुभशीला (मा. १.११०.८)—
भगवा ने रा यिसंहासनपर बैठकर जो अनेक लीलाएँ क , उ◌ सुनाइये।
(१२) ब िर कह क नायतन की जॊ अचरज राम, जा सिहत रघुबंशमिन िकिम
गवने िनज धाम (मा. १.११०)। इस दोहपर लोग बड़ा संशय करते ह। पावतीजी कह रही ह—
“मुझे सबसे बड़ा आ य यह ह िक भगवा ने ल ा-िवजयक प ा संपूण वानरी जाको अपने
पु पक-िवमानपर कसे बैठा िलया और सबको पु पकसे लकर अयो याजी गये?” और कहा
जाता ह िक पु पक-िवमानका िनयम ह िक िकतने ही लोग को बैठाओ, िफर भी पु पक-िवमानक
एक सीट र ही रहती ह। ये बारह हो गये।
(१३) पुिन भु कह सॊ त व बखानी, जॆिह िब यान मगन मुिन यानी (मा.
१.१११.१)—वह रामत व किहये, िजसक िव ान (अनुभव)म ानी मुिन म रहते ह। यहाँ
िब यानका अथ ह अनुभव।
(१४) भगित यान िब यान िबरागा, पुिन सब बरन सिहत िबभागा (मा.

७८
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

१.१११.२)—मुझे भि , ान, िव ान और वैरा य इनको िवभागक सिहत समझाइये।


(१५) औरउ रामरह य अनेका, कह नाथ अित िबमल िबबेका (मा. १.१११.३)—
और भी जो अनेक रामजीक रह य ह, वे बताइये।
(१६) जो भु मैं पूछा निह होई, सॊउ दयाल राख जिन गोई (मा. १.१११.४)—
सोलहवाँ ब त अ◌ा ह। जो कछ मने नह पूछा उसको भी िछपाइयेगा नह , भगव ! बता
दीिजयेगा।
पावतीजीने ये सोलह िकये भगवा से। िशवजी ब त ग द हो गये और यानरसम दो
द डतक डबे रह—
मगन यानरस दंड जुग पुिन मन बाहॆर की ।
रघुपितचिरत महेश तब हरिषत बरनै ली ॥
(मा. १.१११)
यानरसम म हो गये िशवजी। म लाचरण करक उ◌ बाल पी भगवा रामका वणन
कर रह ह—
बंदउ बाल प सॊइ रामू। सब िसिध सुलभ जपत िजसु नामू॥
(मा. १.११२.३)
बालक तो बालक होता ह। बालकम भगव ुि ब त सरलतासे हो जाती ह, उसम संसारक
भाव तो आते नह । िशवजी रामक बाल पका म लाचरण कर रह ह।
िन िलिखत चौपाई संपूण रामायणका सारांश ह। गोसाईजीक मुखसे पहली बार यही चौपाई
िनकली थी, िजसको यहाँ उ◌ ने यव थत िकया—
मंगल भवन अमंगल हारी। वउ सॊ दशरथ अिजर िबहारी॥
(मा. १.११२.४)
हमार पि मी उ र देशक लोग कहते ह— वउ सॊ दशरथ अजर िबहारी। अजर कभी
मत बोलना, यह अिजर ह। अिजर माने आँगन होता ह। तो अिजर बोलना अजर नह ।
मंगल भवन अमंगल हारी, वउ सॊ दशरथ अिजर िबहारी (मा. १.११२.४)—
यह संपूण रामायण ह। (१) मंगल भवन—यह भगवा का नाम ह, (२) अमंगल हारी—यही
भगवा का प ह, (३) दशरथ अिजर—यह भगवा का धाम ह, (४) िबहारी—यह भगवा क
लीला ह। ऐसे भगवा वउ—हमपर कपा कर।
इस चौपाईका एक और अथ ब त अ◌ा ह। वउका एक ब त सु◌र अथ ह। श रजी
कहते ह—“भगव ! एक-बार िवत हो जाइये।”
भािज चले िकलकात मुख दिध ओदन लपटाइ।
(मा. १.२०३)
मुखम दही-भात भर ह। ऐसे बाल प भगव ! एक-बार िवत हो जाइये। अपनी लार टपका
दीिजये। दो-चार कण मुझे दे दीिजये, म खा ल। मेरा मुख िवष पीनेसे तीखा-तीखा हो गया ह।
सरकार! एक बार मुझे अपनी जूठन दे दीिजये।

७९
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

मंगल भवन अमंगल हारी। वउ सॊ दशरथ अिजर िबहारी॥


(मा. १.११२.४)
अहा! िकतना सु◌र! भगव ! मेर चेल भुशु डजी तो आपक जूठन खाते रहते ह—जूठन
परइ जो अिजर मह सो उठाइ किर खाउ (मा. ७.७५क) तो भगव ! एक बार िवत हो
जाइये। अपने मुखक लार िगरा दीिजये।
िव जाइये तिनक अरे िव जाइये, दशरथके ललन तिनक िव जाइये॥
राजीवलोचन राम भव-भय-मोचन, दही-भात बाँिट-बाँिटके खाइये॥
तिनक िव जाइये ..., दशरथके ललन तिनक िव जाइये॥
कुिटल अलक लटकित मुख ऊपर, िवधुमुखकी शोभा भु सरसाइये॥
तिनक िव जाइये ..., दशरथके ललन तिनक िव जाइये॥
घनकी िबजुिरयाँ-से दुई दुई दतुिरयाँ, मधुर-मधुर भु मु काइये॥
तिनक िव जाइये ..., दशरथके ललन तिनक िव जाइये॥
िकलकन िमस दिध ओदनिगराइये, िवधुमुखसे लार भु टपकाइये॥
तिनक िव जाइये ..., दशरथके ललन तिनक िव जाइये॥
जूठनिहत अब मततरसाइये, िगिरधर पर क णा बरसाइये॥
तिनक िव जाइये ..., दशरथके ललन तिनक िव जाइये॥
मंगल भवन अमंगल हारी वउ सो दशरथ अिजर िबहारी॥
तिनक िव जाइये ..., दशरथके ललन तिनक िव जाइये॥
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥
किर नाम रामिह ि पुरारी। हरिष सुधा सम िगरा उचारी॥
(मा. १.११२.४–५)
देख रह हो? यह ह मानसका भाव। देखो—किर नाम रामिह ि पुरारी। जब जूठन िमल
गयी, तब वाणी कसी िनकली?—हरिष सुधा सम िगरा उचारी (मा. १.११२.५) अमृतसमान
हो गयी। यह ह रामच रतमानसका भाव। अभी हम थ धारण करते-करते कह रह थे िक
येक वै णवका मन होता ह िक अपने ठाकरजीको बिढ़या सजाये, उ◌ सु◌र ार धारण
कराये। मेर पास तो वैसा साम य नह ह, मन मेरा भी होता ह। मने कहा िक कोई बात नह भो!
और लोग िभ -िभ व◌ु से आपका ार करगे और म जबतक जीिवत र गा, तबतक
मधुर-मधुर, नये-नये ीरामकथाक भाव से आपको सजाता र गा।
आन◌ आ गया। म मोदीनगरवाल को नह सुना रहा , यह यान रिखये। यह तो अपने
हनुमनउको सुना रहा और रामजीको सजा रहा । तो इसिलए, िकतने सु◌र लग रह ह
रामजी—‍ा बताऊ आपको।
मंगल भवन अमंगल हारी। वउ सॊ दशरथ अिजर िबहारी॥
(मा. १.११२.४)
दशरथजीक अिजर माने आँगनम भगवा िवहार कर रह ह, खेल रह ह। आपने देखा
होगा िक छोटा-सा बालक जब खेलता ह, तो मुखसे उसक लार टपकती ह। िशवजी कह रह
८०
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

ह—“थोड़ी-सी दही-भातवाली लार टपका दीिजये। दो चार कण मुझे िमल जाएँ तो मेर मुखका
कड़वापन चला जाए।” टपका दी लार तो िशवजीने चाट ली और मुखका कड़वापन चला
गया—तो हरिष सुधा सम िगरा उचारी (मा. १.११२.५)। और पावतीजी वीकारती भी यही
ह—
नाथ तवानन शिश वत कथा सुधा रघुबीर।
वन पुटिन मन पान किर निह अघात मितधीर॥
(मा. ७.५२.ख)
अभी तो आगे कहगी—
शिश कर सम सुिन िगरा तु हारी।
(मा. १.१२०.१)
“भगव ! आपक मुखच◌से िनझ रत होती ई रघुवीरजीक कथासुधाको वन पुटिन
कान पी दोन से पीता आ मेरा मन अघा नह रहा ह।” लोग कहते ह िक देवता क सुधापानक
प ा पावतीजी आय , तो उनको अमृत नह िमला। “पर देवताओ! मुझे तो वह अमृत िमल
गया, िजस अमृतको पीकर भुशु डजी स ाईस क प से अमर ह, मर नह । तुम तो एक म व◌र
प ा नह रहोगे।”
िशवजीने कथा ार भक और पावतीजीक ब त शंसा क —ध य ध य िगिरराजकुमारी
(मा. १.११२.६)। आप ध य ह पावतीजी! आपने तो ीरामकथा-ग ाक संब धम पूछा। अबतक
तो मेर िसरपर ग ा बहती थी, अब लगता ह िक आप यह कहना चाहती ह िक िसरवाली ग ासे
कोई लाभ नह होगा, अब आप अपने मुखसे ीरामकथा-ग ा बहाइये—
पूँिछ रघुपित कथा संगा। सकल लोक जस पाविन गंगा॥
(मा. १.११२.७)
आदरसे सुिनये पावतीजी! म मत क िजये। अगुण-सगुणम कोई भेद नह होता—
अस िनज दय िबचािर तजु संशय भजु रामपद।
सुनु िगिरराज कुमािर म तम रिब कर बचन मम॥
(मा. १.११५)
िशवजी बार-बार कह रह ह—पावती! रामजीको समझनेका यास करो। मेर मतम िनगुण-
सगुणम कोई भेद नह ह—
अगुन अ प अलख अज जोई। भगत ेम बश सगुन सॊ होई॥
(मा. १.११६.२)
पु ष िस काशिनिध गट परावर नाथ।
रघुकुलमिन मम वािम सॊइ किह िशव नायउ माथ॥
(मा. १.११६)
इस संगको रामायण-सं दायम िशवगीता भी कहा जाता ह। पावती! भगवा राम
सि दान◌ िदनेश ह—

८१
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

जासु नाम म ितिमर पतंगा।


(मा. १.११६.४)
नामजप क िजये, म अपने आप दूर हो जायेगा। पावती! रामजी यापक ह। “कौन
ह रामजी?” देिखये पावती! िवषय को इि◌य से काश िमलता ह, इि◌य को देवता से
काश िमलता ह, देवता को जीवा मासे काश िमलता ह, और जीवा माको भी परमा मा
ीरामच◌जीसे काश िमलता ह—
िबषय करन सुर जीव समेता। सकल एक ते एक सचेता॥
सब कर परम काशक जोई। राम अनािद अवधपित सोई॥
(मा. १.११७.५–६)
बार-बार िशवजी यह बात कहगे। पावती! र सीम यि को सपका म होता ह, जलम
सूयनारायणक िकरण का म होता ह; उसी कार इस भगव ूप-संसारम जीवको अपनेपनका
म हो रहा ह। यह म कवल भगवा क कपासे िमटता ह—
जासु कृपा अस म िमिट जाई। िगिरजा सॊइ कृपाल रघुराई॥
(मा. १.११८.३)
सतीक शरीरम तुमको इसीिलए म आ िक तुमपर भगवा क कपा नह ई थी और
भगवा क अकपाका यही ता◌य ह िक तु हारा मन स संगम नह लगा।
िबनु सतसंग िबबेक न होई। रामकृपा िबनु सुलभ न सोई॥
(मा. १.३.७)
म तुमको ल गया था अग◌यजीक यहाँ। िफर भी तु ह स संग सुलभ नह आ ‍ िक
तुमपर रामजीक कपा नह थी। अब हो गयी ह कपा—
रामकृपा ते पारबित सपनॆ तव मन मािह।
शोक मोह संदेह म मम िबचार कछ नािह॥
(मा. १.११२)
अब म हरनी (मा. १.३१.४) कथा से म दूर हो जाएगा। िकतना सु◌र!
अब चिलये पूरा वणन कर—
िबनु पद चलइ सुनइ िबनु काना। कर िबनु करम करइ िबिध नाना॥
आनन रिहत सकल रस भोगी। िबनु बानी ब ा बड़ जोगी॥
तन िबनु परस नयन िबनु देखा। हइ ान िबनु बास अशेषा॥
अिस सब भाँित अलौिकक करनी। मिहमा जासु जाइ निह बरनी॥
(मा. १.११८.५–८)
पावती! देख रही हो, भगवा क नौ िवल णताएँ ह। अब तुमको समझम आ ही जायेगा
‍ िक तुम नवधा-भि हो—
(१) िबनु पद चलइ—रामजीको चलनेक िलए चरणक आव यकता नह पड़ती। वे चरण
चलाये िबना भी चल सकते ह। ीअवधक राजमहलम माताजीने पालनेपर पौढ़ा िदया था। पट
बंद करक ीर नाथजीका भोग लगा रही थ । भुने चरण नह चलाया पर वहाँ प च गये।
८२
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

(२) सुनइ िबनु काना—रामजी िबना कानक सुन सकते ह। ताराक राजमहलम बािल और
ताराका जो संवाद हो रहा था उसे सुन िलया।
(३) कर िबनु करम करइ िबिध नाना—रामजी िबना हाथसे बड़-बड़ कम कर लते ह।
रामजीने श रजीक धनुषपर हाथ नह लगाया था। िकसीने नह देखा था—
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़े। का न लखा देख सब ठाढ़े॥
(मा. १.२६१.७)
िफर भी धनुष तोड़ा—तेिह छन राम म य धनु तोड़ा (मा. १.२६१.८) यह कसे तोड़ा?
कर िबनु करम करइ िबिध नाना।
(४) आनन रिहत सकल रस भोगी—मुख नह चलाया पर भर ाजजीक यहाँ जो भी
सु◌र-सु◌र पदाथ ऋि -िसि ने कट िकये, वह सब भगवा पा गये। और अवधम भी
माताजीने देखा तो सो रह ह—किर ंगार पलना पौढ़ाए (मा. १.२०१.१)। सोते ए भी
वहाँ—भोजन करत देख सुत जाई (मा. १.२०१.४)—सकड़ थािलय क ऐसी-तैसी कर
डाली।
(५) िबनु बानी ब ा—आगे जब हनुमा जी सीताजीको संदेश कह रह ह, तो वाणी ह
हनुमा जीक और बोल रह ह रामच◌जी। नह तो हनुमा जी सीताजीको ि या कहगे ‍ा?—
त व ेम कर मम अ तोरा। जानत ि या एक मन मोरा॥
(मा. ५.१५.६–७)
‍ा हनुमा जी ऐसा वा‍ बोलगे? हनुमा जी चुप हो गये—अस किह किप गदगद भयउ
(मा. ५.१४) ग दका अथ होता ह वाणीका क जाना। वे तो चुप हो गये, भरे िबलोचन
नीर (मा. ५.१४)। तब वर ह जैसे म बोल रहा माईकसे, तो हनुमा जीक वाणी माईकक
भूिमका िनभा रही ह। माईकको थोड़ कछ समझम आ रहा ह िक म ‍ा बोल रहा ; तभी
तो—
राम कहॆउ िबयोग तव सीता। मो कह सकल भये िबपरीता॥
नव त िकसलय मन कृशानू। काल िनशा सम िनिश शिश भानू॥
कुबलयिबिपन कुंतबन सिरसा। बािरद त तेल जनु बिरसा॥
जे िहत रहे करत तॆइ पीरा। उरग ास सम ि िबध समीरा॥
कहॆ ते कछ दुख घिट होई। कािह कहौं यॆह जान न कोई॥
त व ेम कर मम अ तोरा। जानत ि या एक मन मोरा॥
(मा. ५.१५.१–६)
यहाँ िबनु बानी ब ा ह।
(६) बड़ जोगी—रामजी ब त बड़ योगी ह। वषण-पवतपर अ ारह प वानर से िमलना
ह, समय नह ह। अतः िजतने वानर थे, उतने प बना िलये भगवा ने और कहते ह—
अस किप एक न सेना माहीं। राम कुशल जॆिह पूछी नाहीं॥
(मा. ४.२२.३)
ऐसा कोई वानर ही नह ह, िजससे रामजीने कशल नह पूछी। इसी कार अयो याजीम
८३
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

लौटनेपर—
अिमत प गटे तॆिह काला। जथाजोग िमलॆ सबिह कृपाला॥
(मा. ७.६.५)
(७) तन िबनु परस—रामजी शरीरक िबना भी पश कर सकते ह। सुती णजीको दयम
पश कर िलया और सुती णजी इतने पुलिकत ए िक जैसे कटहलका फल हो। कटहलक
फलम देखो, िकतना बिढ़या काँटा होता ह। अर! एक यि ने िवनोद िकया—“हरा-हरा काँटा;
बूझो तो बूझो नह तो नाक-कान काटा।” तो,
मुिन मग माझ अचल हॊइ बैसा। पुलक शरीर पनसफल जैसा॥
(मा. ३.१०.१५)
(८) नयन िबनु देखा—आँखका योग िकये िबना भगवा देख रह ह। ल ाम बैठ ह और
भरतजीपर ◌ि ह। िवभीषणसे कह िदया िक ज दी क िजये, मुझे पु पकसे ीअवध प चाइये—
दशा भरत की सुिमिर मोिह िनिमष क प सम जात॥
(मा. ६.११६क)
म देख रहा , ‍ा क ? अर!
बीते अविध जाउ जौ िजयत न पावउ बीर।
(मा. ६.११६ग)
यह ह नयन िबनु देखा।
(९) हइ ान िबनु बास अशेषा—भर ाजजीक आ मम ऋि -िसि से कट क
चंदन बिनतािदक भोगा (मा. २.२१५.८)। माला, च◌न सब लोग ने भोगे पर भरतजीको
कछ भी अनुभव नह आ और सारी सुग ध िबना नाकक रामजीने ल ली। इस कार ब त
सु◌र कथा सुनायी। पावतीजीका म दूर हो गया। और संकत देिखये—
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(मा. १.३१.४)
ायः मेरा वभाव ह िक कोई भी बात म िबना माणक कहना नह वीकारता, मुझे अ◌ा
नह लगता। पूरा सब समझा िदया। मुझे अपनेपर अहकार नह ह पर गौरव अव य ह। म ब त
स अपने जीवनम और म भगवा को कभी-कभी िचढ़ाता । आन◌ लता िक भगव !
आपने मेर कम का फल मुझे िदया ह। कोई छट नह दी आपने। कोई कम रह ह गे, आँख
बंद हो गय । परतु मने इन बंद आँख वाली अव थाम िजतना काम िकया ह भगव ! आपक
आँखवाल करोड़ बेट नह कर पायगे। अब देिखये! यह अहकार नह ह। बापक सामने भीख
माँगने नह जाना चािहए, ब क अ◌ा कम करक पुर कार लने जाना चािहए। तो म तो भुसे
पुर कार लने जाता , भीख नह माँगता उनसे।
तीसरी कथा म हरनी ह। पावतीजी! राम सॊ परमातमा भवानी (मा. १.११९.५)—
रामजी परमा मा ह, वहाँ भी आपने म कर िलया—तह म अित अिबिहत तव बानी (मा.
१.११९.५)।

८४
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ४

सुिन िशव के मभंजन बचना। िमिट गइ सब कुतरक कै रचना॥


(मा. १.११९.७)
िशवजी कहते ह—“ऐसा संशय मत करो”—ये मभ न वचन ह।
भइ रघुपितपद ीित तीती। दा न असंभावना बीती॥
(मा. १.११९.८)
पावतीजी ब त स और कहा—“भगव ! मुझे रामजीका व प ात हो गया। मेरा
सब कछ चला गया, मोहा मक शरदातप चला गया। म सुखी । अब कथा सुननेका मन ह।
तो िनगुण-िनराकार-िनिवकार भगवा सगुण-साकार शरीर ‍ धारण करते ह माने अवतार ‍
लते ह?” यहाँ तीसरी कथा संपूण—िनज संदेह मोह म हरनी (मा. १.३१.४)।

कथा ४: करउ कथा भव सिरता तरनी (मा. १.३१.४)


अब चौथी-कथा उ रका डम कहनी पड़गी। यह भुशु डजीक कथा ह—करउ कथा भव
सिरता तरनी (मा. १.३१.४)। चार व ा ह—(१) तुलसीदासजी—इनक कथा िनज संदेह
हरनी ह, (२) या व जी—इनक कथा मोह हरनी ह, (३) िशवजी—इनक कथा म
हरनी ह और (४) भुशुि डजी—इनक कथा भव सिरता तरनी ह। तरनी माने होता ह नाव।
वा◌वम मोह तो सबको होता ही ह। परतु जब भगवा यु म मेघनादक नागपाशम बंध गये
और नारदजीने ग डदेवको भेजा। ग डदेवने भगवा ीरामका ब धन काट तो िदया, पर उनको
मोह हो गया—“अर! ये कौन-से भगवा राम ह?”
भवबंधन ते छटिह नर जिप जाकर नाम।
खब िनशाचर बाँधॆउ नागपाश सॊइ राम॥
(मा. ७.५८)
“एक छोट-से रा सक नागपाशम बंध गये, ये कसे भगवा ?” ब त मोह हो गया, डबने
लगे ग डजी मोहक नदीम। नारदजीने समझाया, पर नह समझ पाये। ाजीने समझाया, तो
भी नह समझे। िशवजीने कहा—“भैया! जब नारद और ा नह समझा पाये आपको, दो-दो
आचाय आज अनु ीण हो गये, तो म अपना समय न नह क गा आपको समझानेक िलए।”
िमलॆ ग ड मारग मह मोही। कविन भाँित समुझावौं तोही॥
(मा. ७.६१.३)
“आपको तो म आपक ही वगक यि क पास भेज रहा , ‍ िक प ी प ीक भाषा
समझता ह—समुझइ खग खगही कै भाषा (मा. ७.६२.९)। चिलये! आपको म भेज रहा
। उ रिदशाम नीलिग र पवतपर भुशु डजी रह रह ह। इतनी कथा कोई सुनाता ही नह , पर वे
ितिदन कथा सुनाते ह। य िप वे मेर िव ाथ ह, मने उ◌ रामच रतमानस पढ़ाया; परतु इतना
अ◌ा वे सुनाते ह िक ‍ा क आपको—”
सुनिह सकल मित िबमल मराला। बसिह िनरतर जे तॆिह ताला॥
(मा. ७.५७.९)

८५
कथा ५ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

“मने भी हसका शरीर धारण करक वहाँ रहकर ब त िदनतक एक आवृि ीरामकथा
सुनी। देिखये! पढ़ाना अलग होता ह, सुनाना अलग होता ह। और जो यि पढ़ा भी सक
और सुना भी सक, वह ब त अ◌ा माना जाता ह। तो मने उ◌ से सुनानेक िविध सीखी, तब
पावतीजीको सुनायी। वह जाइये।”
ग डजी भुशु डजीक पास आये। भुशु डजीने देखा िक ग डजी चौरासी लाख योिनय म
भटकते-भटकते डब गये थे। इसीिलए ग डजीक चौरासी लाख योिनय को न करनेक िलए
भुशु डजीने ीरामकथाक ब त िद य चौरासी संग सुनाये। तो यह—भव सिरता तरनी (मा.
१.३१.४)।
भुशु डजी कह भी रह ह—
िबरित िबबेक भगित ढ़ करनी। मोह नदी कह सु र तरनी॥
(मा. ७.१५.७)
आन◌ कर िदया। यह ह चौथी कथा ह। िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो।
सुनु शुभ कथा भवािन रामचिरतमानस िबमल।
कहा भुशुंिड बखािन सुना िबहग नायक ग ड॥
सो संबाद उदार जॆिह िबिध भा आगे कहब।
सुन राम अवतार चिरत परम सुंदर अनघ॥
(मा. १.१२०ख–ग)
मने भी आपको चार कथाएँ सुना द ।

कथा ५: बुध िब ाम (मा. १.३१.५)


अब चिलये, पाँचव कथा। पाँच, छः, सात—इन तीन कथा का संकत गो वामीजी एक ही
चौपाईम दे रह ह—
बुध िब ाम सकल जन रजिन। रामकथा किल कलष िबभंजिन॥
(मा. १.३१.५)
प म कथाका शीषक ह बुध िब ाम और यह आर भ हो रही ह—
सुनु िगिरजा हिरचिरत सुहाये। िबपुल िबशद िनगमागम गाये॥
(मा. १.१२१.१)
से ....
सुर नर मुिन कोउ नािह जॆिह न मोह माया बल।
अस िबचािर मन मािह भिजय महामाया पितिह॥
(मा. १.१४०)
...तक।
देिखये! बुध िब ाम (मा. १.३१.५) यह प म कथा िव ान (बुध )को िव ाम देती ह
‍ िक भगवा क यशको बुधजन ब त ेमसे गाते ह। िव ा लोग जानते ह िक भगवा क

८६
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ५

सगुण-साकार यशम छः गुण ह। पर गो वामी तुलसीदासजीने भगवा क दस माधुयपरक यश का


वणन िकया ह। भगवा क िपता ीका नाम आप जानते ह न?
राम राम सब कॊइ कहे दशरथ कहे न कोइ।
एक बार दशरथ कहे जनम कोिट फल होइ॥
दशरथजी जैसा कोई ेमी नह ह भगवा का। तो भगवा क िपता ीका नाम ह दशरथ। जब
भगवा दशरथजीक बेट बनकर आये, तो अपने साथ िकतने यश ल आये? दस यश। रामजीक
मूल िकतने यश ह? दस, यान रिखये—
सो केवल भगतन िहत लागी। परम कृपाल नत अनुरागी॥
जॆिह जन पर ममता अित छो । जॆिह क ना किर की न को ॥
गई बहोर गरीब िनवाजू। सरल सबल सािहब रघुराजू॥
(मा. १.१३.५–७)
(१) परम कृपाल—भगवा ब त कपाल ह। (२) नत अनुरागी— णत पर भगवा
अनुराग करते ह। (३) जेिह जनपर ममता अित छो —भगवा को भ पर ममता भी ह और
छोह (अथा ेम) भी ह। (४) जेिह क ना किर की न को —भगवा कपा करक िफर
ोध नह करते। िजसपर कपा कर दी; कपाक प ा िकतनी भी गलती कर, उसपर उ◌
ोध नह आता। (५) गई बहोर—भगवा गयी ई व◌ुको लौटा लाने वाल ह। (६) गरीब
िनवाजू —भगवा दीन को स मािनत करते ह। (७) सरल, (८) सबल, (९) सािहब अथा
वामी, और (१०) रघुराजू —रघुकलक राजा ह।
बुध बरनिह हिरजश अस जानी। करिह पुनीत सुफल िनज बानी॥
(मा. १.१३.८)
िव ा लोग भगवा क इसी यशका वणन करते ह। दस यश क वणनक इस संगम
मूल पसे तीन भ क कथा कही जायेगी—(क) ादजीक कथा, (ख) वृ◌ाजीक कथा
और (ग) नारदजीक कथा।
ारपाल हिर के ि य दोऊ। जय अ िबजय जान सब कोऊ॥
(मा. १.१२२.४)
भगवा क दो ारपाल जय और िवजय ह। इ◌ सनकािदका ाप िमला, तब जय बने
िहर यकिशपु और िवजय बने िहर या ।
(१) परम कृपाल (मा. १.१३.५)—िहर या को मारनेक िलए परम कपाल भगवा ने
शूकरावतार धारण िकया और उसका वध िकया।
(२) नत अनुरागी (मा. १.१३.५)— णत ादपर ेम करते ए भगवा ने नृिसंहावतार
धारण कर िहर यकिशपुका वध िकया। यही दोन रामावतारम रावण और क भकण,
क णावतारम िशशुपाल और द◌व ए। भगवा ने इनका उ ार कर िदया।
(३) जॆिह जनपर ममता अित छो (मा. १.१३.६)—ममताक कारण व इन दोन भ का
उ ार करनेक िलए रामावतार िलया भगवा ने और रावण-क भकणको मारा। अित छो —
छोह करनेक कारण क णावतार लकर ितिदन सौ-सौ गािलयाँ देने वाल िशशुपालको मु

८७
कथा ५ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

िकया, द◌व को मु कर िदया।


(४) जॆिह क ना किर की न को (मा. १.१३.६)—वृ◌ाजी भगवा क भ थ ।
भगवा क ित उनका पितभाव था, परतु िववाह जल धरसे हो गया था। भगवा रामने िव णुसे
कहा—“इनका पश करक त टाल दीिजये।”
छल किर टारॆउ तासु त भु सुर कारज की ।
(मा. १.१२३)
टारॆउ श द ह, नास नह ह। भगवा अ युत ह, वे कभी युत नह होते। यिद युत ए
होते तब न उनका त न आ होता? पित तको टारॆउ अथा थाना◌ रत कर िदया, जो
जल धरक साथ था वह िव णुक साथ चला गया। यह भगवा ने क णाक और समझाया िक
इस संसारक पितको ‍ मानती हो?
ऐसे वरको ों वरे जो ज मे और मर जाए।
मीरा बरे गोपालको जहाँ चूड़ो अमर होई जाए॥
क णाक भगवा ने। परतु पि देिखये—
जब तॆिह जानॆउ मरम तब ाप कोप किर दी ॥
(मा. १.१२३)
अथा उसने जब मम जाना तो भगवा को होकर ाप िदया। भगवा ने तो क णाक
थी। वृ◌ाने शाप िदया—“जाओ िव णो! तुम प थर हो जाओगे।” िव णु तो बन गये शाल ाम
और रामजीको ाप िदया—“ भो! आपक कहनेसे िव णुने मेरा त टाला। जाइये! आपक
प ीका मेरा पित हरण करगा। परतु आप यु म उसे मारकर परम पद दे दीिजयेगा।” तो ाप
दोन को िमला। रामजीने क णा करक िव णुजीसे कवल वृ◌ाक तको अपनेतक सीिमत िकया।
भगवा िव णुक साथ इसको जोड़ िदया िक िजससे इसका क याण हो जाए पर ाप देनेपर
भी भगवा ने ोध नह िकया—
जॆिह क ना किर की न को ।
(मा. १.१३.६)
भगवा िजसपर क णा करते ह, वह िकतनी भी गलितयाँ कर िफर भी ोध नह करते।
भगवा को दूसरी तरफसे ोध आ रहा ह िक मने तु हारा क याण िकया और तुम मुझे ाप दे
रही हो? पर—
तासु ाप हिर की माना। कौतुकिनिध कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलधर रावन भऄऊ। रन हित राम परमपद दयऊ॥
(मा. १.१२४.१–२)
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥
देिखये! रामकथा ग ा ह यह—
रामकथा गंगा सरस बहल जाये यामे कोउ कोउ नहाये॥
ुवजी नहाये हलादजी नहाये गिणका नहायी आपन सुगना पढ़ाये।
रामकथा गंगा सरस बहल जाये यामे कोउ कोउ नहाये॥
८८
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ५

सबरी नहाई जटायूजी नहाये केवट नहाये भु नौका चढ़ाये।


रामकथा गंगा सरस बहल जाये यामे कोउ कोउ नहाये॥
सु ीव नहाये िवभीषण नहाये हनुमत नहाये आपन पूँिछया िहलाये।
रामकथा गंगा सरस बहल जाये यामे कोउ कोउ नहाये॥
हनुमत नहाये आपन चुटकी बजाये यामे कोउ कोउ नहाये॥
ाजी नहाये यामे िव णुजी नहाये शंकरजी नहाये आपन डम बजाये।
रामकथा गंगा सरस बहल जाये यामे कोउ कोउ नहाये॥
ल मी नहाई यामे पावती नहाई सर वती आपन वीणा बजाये।
रामकथा गंगा सरस बहल जाये यामे कोउ कोउ नहाये॥
नारद नहाये सनकािदक नहाये शुकदेव नहाये ीम ागवत सुनाये।
रामकथा गंगा सरस बहल जाये यामे कोउ कोउ नहाये॥
तुलसी नहाये यामे सूरा नहाये रामभ ाचाय नहाये मानस सुनाये।
रामकथा गंगा सरस बहल जाये यामे कोउ कोउ नहाये॥
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥
तो मोदीनगरवालो! समझम आ रहा ह न सबको? समझम आये तो ताली बजाना। चिलये
भाई, चिलये! अब बोिलये नह ! एक-एक अ रको समझानेका म यास क गा। िव ान क
चार यश क चचा मने कर दी, अब ीनारद-मोह करणम भगवा एक साथ इन छः यश का
योग करगे—
गई बहोर गरीब िनवाजू। सरल सबल सािहब रघुराजू॥
(मा. १.१३. ७)
भगवा क चार यश हम आपको अबतक सुना चुक ह और यही बुध िब ाम (मा.
१.३१.५), िव ान का िव ाम ह—
(१) परम कृपाल (मा. १.१३.५) जयक िलए और (२) नत अनुरागी (मा. १.१३.५)
िवजयक िलए बने। िहर या को मारनेक िलए शूकरावतार और िहर यकिशपुको मारनेक िलए
नृिसंहावतार िलया। (३) जॆिह जनपर ममता अित छो (मा. १.१३.६)—इन दोन क िलए
रामावतार और क णावतार आ। तो रामावतारम ममता िदखायी। इतनी ममता िदखायी िक जब
अ दजीको भेजने लगे राघवजी, तो उनसे कहा—
काज हमार तासु िहत होई। िरपु सन करॆ बतकही सोई॥
(मा. ६.१७.८)
यह ममता नह ह िव ािथयो? बताओ! काज हमार तासू िहत होई—मेरा काय भी
हो जाए और उसका िहत भी हो जाए, िरपु सन करॆ बतकही सोई। यह ह ममता—जॆिह
जन पर ममता अित छो (मा. १.१३.६)। क णावतारम िशशुपाल ितिदन गािलयाँ देता था
भगवा को। दमघोषसुतः पाप आर य कलभाषणा (भा.पु. ७.१.१७)—जबसे बोलना
ार भ िकया उसने, तबसे भगवा को ितिदन गािलयाँ देता था। पर इतना छोह था भगवा को
िक उ◌ ने कह िदया था—“गािलयाँ देनेका मन ह तो जीवन भर गािलयाँ दो। सौ गािलयाँ जीवन

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कथा ५ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

भर देते रहोगे तो म कछ नह बोलगा। पर िजस िदन एक सौ एक ह गी, उसी िदन म तु हारा


वध कर दूँगा।” और युिधि रक राजसूय य म जब एक सौ एक गािलयाँ दे द तब भगवा ने
उसका वध िकया।
देिखये! म रात-िदन रामायणजीक पि य को लगाता । जबतक िलखाता तबतक
पािणिनको िलखाता और जब उससे समय िमलता ह, तो िव ाक कसम! एक भी ण म
अपना यथ नह िबताता। कवल सीतारामजीक चरण का िच◌न करता रहता बस! कछ
नह करता म और न मेर िलए कछ करनी ह। म जानता िक मेरा ग◌ य यही ह िक आजतक
ब त कछ कर िलया। अब तो जीवन भर बस सीतारामजीक नाम, प, लीला, धामका िच◌न
क गा। यही कम िव ाम- ासतक चलगा मेरा। (४) जॆिह क ना किर की न को (मा.
१.१३.६)—यह ह क ना किर क णाकरका करण या वृ◌ाका करण।
अब नारदजीक करणम भगवा एक साथ शेष छः यश का योग करगे। नारदजीको एक-
बार समािध लगी और समािध लगनेपर इ◌को भय लगा िक कह नारदजी उसका िसंहासन ल
लगे। कामदेवको बुलाकर इ◌ने कहा—“िकसी कार नारदजीक समािध तोड़ो।” कामदेवने
पूरी कला का योग कर िलया, पर नारदजीक समािध नह टटी। तो कामदेवने एक दूसरा
उपाय सोचा। देिखये! एक बात बताऊ! दु लोग क पशसे भी ब त भाव पड़ता ह।
जो भजन नह करते, उसक छनेसे भी भजनपर भाव पड़ता ह। अब कामदेवने ‍ा िकया,
जानते ह—गहॆिस जाइ मुिन चरन (मा. १.१२६)। नारदजीक चरण पकड़ िलये। अब देिखये!
नारदजीक समािध टट रही ह पर नारदजी समझ नह पा रह ह। भयउ न नारद मन कछ
रोषा (मा. १.१२७.१)—उ◌ ोध तो नह आया, परतु भगवा का भजन तो छट गया। किह
ि य बचन काम पिरतोषा (मा. १.१२७.१)—ये लीिजये! मतलब कामदेवने अपना काय तो
कर ही िदया, कामदेवको नारद समझा रह ह िक कोई बात नह ! जाओ। अर! भगवा क
सेवा करते समय हमने िकसीसे बात कर ली तो भी सेवा तो टटी। इसिलए हमने िनणय िलया
िक जबतक भगवा क सेवा नह होगी, तबतक म िकसीसे बात नह क गा। और जब ब त
आव यक होगा तो सं कतम बोलगा, उससे त भ नह होता। सं कत भाषाका सबसे बड़ा
फल यह ह िक मान लो हम मौनम ह तो अ य भाषाम बोलगे तो मौन टट जायेगा, परतु सं कतम
बोलनेसे मौन नह टटता ह। वह देवभाषा ह न! परतु इसका अथ यह नह िक अिधक बोलते
जाओ। अपना काम चलानेक िलए तुम सं कतम बोलोगे तो मौन नह टटगा। इसीिलए जब
शबरी माताक यहाँ भगवा पधार और माताजीने चख-चखकर भगवा को फल िखलाये तो
भगवा भी ेम सिहत खाये। देिखये! मिहला का वभाव होता ह; वे भोजन बनाकर जब
िखलाती ह तो उनको अपे ा रहती ह िक खाने वाला उनक शंसा कर। एक िनयम ह, यह
मिहला क िलए उिचत भी ह। मिहला तबतक स नह होगी, जबतक उसको लगे नह
िक उसका भोजन अ◌ा बना ह। तो शबरी माताजीको भी लगा होगा िक मेर फल कसे ह,
इसिलए भगवा बार-बार बखान कर रह ह— ेम सिहत भु खाए बारबार बखािन (मा.
३.३६)। तो खाते समय भगवा बखान रह ह, ‍ा उनका मौन त नह टटा? तो हमने कहा
िक नह टटा, ‍ िक भगवा सं कतम बोल रह ह। शबरी माताजीसे कहा—“ब सु◌र ! ब

९०
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ५

वादु! सु वादु मातः।” अतः सं कतम बोलनेसे भगवा का िनयम नह टटा। गहॆिस जाइ मुिन
चरन तब किह सुिठ आरत बैन (मा. १.१२६)। नारदजीका त टट तो गया, पर िवकार नह
आया। उनको झूठा अहकार हो गया िक उ◌ ने कामको जीत िलया। ‍ िक श रजीको तो
ोध आ गया था, इ◌ ोध नह आया, जबिक सब र ा भगवा नेक थी। श रजीक पास
गये, बताया। श रजीने कहा—“ऐसी गलती अब दोबारा मत करना। भगवा िव णुको यह
बात मत बताना।” पर ‍ा! वो तो तरगम थे। जाकर िव णु भगवा को भी बता िदया िक मने
कामदेवको जीत िलया। और इतना अहकार ह िक भगवा क आसनपर उ◌ क साथ जाकर
बैठ गये। अब लो! यह कहा िक भगवा तो गृह थ ह, म तो िवर । िवर क मनम यह
बात कभी-कभी अिधक आती ह िक म िवर । अर! िवर हो तो ‍ा आ? ‍ा गृह थ
बुरा होता ह? कभी-कभी ऐसे गृह थ हमने देखे ह जो इतना भजन करते ह जो िवर कभी कर
ही नह सकता। यह सब भेद नह रखना चािहए। चाह गृह थ हो चाह िवर हो, मु य बात
यह ह िक वो भगवा क ित अनुर हो। जो भगवा क ित अनुर नह ह, वह िवर भी ह
तो दो कौड़ीका ह—
तुलसी जो पे राम सो नहीं साँिचलो ेह।
मुंड मुंडाए बाद ही भांड भये तज गेह॥
हमने ब त-से गृह थ को चार बजे उठकर भजन करते देखा ह और िवर जो सात-सात
बजेतक पसर कर सोता रहगा तो ‍ा होगा? बताइये! यहाँ तो भजन धान ह, कोई भी हो।
नारदजीको इतना अहकार हो गया िक बैठे आसन ऋिषिह समेता (मा. १.१२८.५)। भगवा ने
कहा—“अ◌ा!” िफर भगवा ने अपनी मायाक ेरणा कर दी—“दे दो एक बार बाबाको
साद।” मागम ही वैक ठसे भी सु◌र मायाका नगर रच डाला। अपनी मायाको िव मोिहनी
कमारी बना िदया, शीलिनिधक क या। और नारदजी देखे। अर! उनका वैरा य टटा, सब कछ
न हो गया। अब नारदजीक पास कछ भी शेष नह बचा।
करौं जाइ सॊइ जतन िबचारी। जॆिह कार मॊिह बरै कुमारी॥
(मा. १.१३१.७)
क याक ल ण देखे तो बुि दूिषत होनेक कारण उनक ल ण का उ टा अथ ल िलया।
देखा भगवा क माया को। अर! बड़ी सु◌र ह माया! बड़ी अ त ह माया! मायाक हाथक
ल ण देखे और मनम िवचार करने लगे—
जो ऄिह बरइ अमर सॊइ होई। समरभूिम तॆिह जीत न कोई॥
सेविह सकल चराचर ताही। बरइ शीलिनिध क या जाही॥
(मा. १.१३१.३–४)
पर उसका अथ दूसरा था—शीलिनिधक क या उसे वरण करगी जो अमर होगा। यह उसक
वरणक यो यता ह, वरणका प रणाम नह ह। शीलिनिधक क या उसका वरण करगी जो यु म
अजेय होगा, जो चराचर सबका से य होगा—यह ह मूल अथ। पर नारदजीक बुि म िवकार
आ गया ह, अतः वे कह रह ह—“नह ! नह !! जो पु ष इसका वरण करगा, वह अमर हो
जायेगा, वह यु म िवजयी होगा। जो पु ष इसका वरण करगा, वह चराचरका से य होगा।”

९१
कथा ५ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

अब नारदजीक मनम आया िक मुझे िकसी कार यह क या िमलनी चािहए। पर कसे िमलगी?
गाल तो िपचक ए ह, बाल सब ेत हो गये ह, य लगानेपर भी काल नह ह गे। तब
सोचा—“चलो! भगवा से प माँग लता ।” अब भगवा से कहा—“भगव ! आप अपना
प मुझे दे दीिजये।” भगवा ने पूछा—“‍ ?” नारदजी बोल—आन भाँित निह पावौं ओही
(मा. १.१३२.६)। भगवा ने पूछा—“िकसे?” नारदजी क याका नाम नह ल रह ह, कह रह
ह—“उसे।” भगवा ने कहा—“अर बाबा! अभी िववाह नह आ, तबतक घरवाली बना िलया
तुमने? अब सब कछ न हो गया, चला गया सब कछ। गरीब हो गये। सरलक अपे ा किटल
ए। सबल नह , िनबल हो गये। वामी नह , दास हो गये कािमनीक। राजा नह , रक हो गये।”
तब रामजीने कहा—“कोई बात नह ! िव णुजी आपने तो इ◌ द ड िदया पर म सुधा गा।”
तो भगवा ने सोचा िक ‍ा क । तब िव णुजीको हटाकर रामजीने वयं भूिमका सँभाली और
इनको वानरका प दे िदया। वानरका प ‍ िदया? ‍ िक आगे चलकर हनुमा जी वानर
बनगे। तो वा◌वम हनुमा जीका चेहरा दे िदया। यिद हनुमा जीका चेहरा इनको िमल जायेगा
तो ये मायाक च रसे बच जायगे, यह सबसे बड़ी बात ह। इसिलए—
मुिन िहत कारन कृपािनधाना। दी कु प न जाइ बखाना॥
(मा. १.१३३.७)
आहाहा! िकसीने नह देखा। सो व प नृपक या देखा (मा. १.१३४.७), राजकमारीने
देख िलया और कहा भगव ! आपने बचा िलया इनको, नह तो आज तो इनक ऐसी-तैसी
होती ही। इनको हनुमा जीका प िमल गया इसिलए मायाने इ◌ नह देखा, भूलकर भी नह
देखा। सब कछ िमल गया नारदजीको अब। नारदजीने देखा िक भगवा मायाको ल गये, तो
याकल हो गये। गण ने कहा—“अपना मुख शीशेम तो देखो।” जलम देखा—पुिन जल
दीख प िनज पावा (मा. १.१३६.१)—िमल गया प, सब कछ िमल गया। अ◌म नारदजी
भगवा नारायणको शाप देने चल। भगवा नारायण तो थे नह , रामजी थे वहाँ। संग रमा सॊइ
राजकुमारी (मा. १.१३६.४)—साथम सीताजी, सॊइ राजकुमारी’ वही मायावाली सीताजी,
िजनका योग अभी करगे अर यका डम। भगवा ने पूछा—“कहाँ जा रह हो?” नारदजीने
ाप दे िदया—“ठीक ह! आपने राजाका शरीर धारण करक मुझे ठगा, आपको वही शरीर
िमल।” भगवा ने कहा—“कोई बात नह ।” नारदजीने कहा—“मेरा अपकार िकया—आप
नारी िवयोगम दुःखी ह गे।” भगवा ने कहा—“कोई बात नह ! िववाह तो हो ही जायेगा मेरा।”
नारदजीने इ◌ यह नह कहा िक जैसे तुमने मेरा िववाह नह होने िदया, तु हारा िववाह भी न
हो। पर कहा—“आपने मेरी आकित वानरक क , वही वानर आपक सहायता करगे।”
किप आकृित तुम की हमारी।
किरहै कीस सहाय तु हारी॥
(मा. १.१३७.७)
आन◌ हो गया। भगवा ने माया दूर कर दी और एक साथ छः यश का योग िकया—(५)
गई बहोर (मा. १.१३.७)—उनका गया आ चय िमल गया, (६) गरीब िनवाजू (मा.
१.१३.७)—उ◌ स मान िदया भगवा ने, (७) सरल (मा. १.१३.७)—सरलता बरती, किटल

९२
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ६

मायाको दूर कर िदया, (८) सबल (मा. १.१३.७)—मुिनको बलवा बना िदया, गण को
शाप देकर उ◌ रा स बनाया, (९) सािहब (मा. १.१३.७)—सेवकक र ा कर ली, (१०)
रघुराजू (मा. १.१३.७)—मुिनको रक बननेसे रोक िदया। बोिलये भ व सल भगवा क जय
हो!
बुध िब ाम सकल जन रजिन। रामकथा किल कलष िबभंजिन॥
(मा. १.३१.५)
गण को वरदान िदया नारदजीने िक तु हार कारण भगवा का अवतार होगा। इस कार
प म कथाक या या कर दी।
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥

कथा ६: सकल जन रजिन (मा. १.३१.५)


अब छठी कथा—सकल जन रजिन (मा. १.३१.५)। दोहा १४१से १५२तक मानसजीक यह
छठी कथा ह। यह कथा ह मनु-शत पाक वरदानक कथा। इससे सबको आन◌ िमलगा, इसी
कथाक भावसे भगवा का ाक होगा। िशवजी कहते ह िक इस अवतारम िजतनी लीलाएँ
भगवा ने क —
लीला की जॊ तॆिह अवतारा। सो सब किहहउ मित अनुसारा॥
(मा. १.१४१.६)
इस अवतारक स पूण लीला का वणन रामच रतमानसम ह। और लीला क वणनक
बारम सं ेप ह। चिलये! प रचय ब त सु◌र ह—
वाय भुव मनु अ शत पा। िजन ते भइ नरसृि अनूपा॥
(मा. १.१४२.१)
वाय भुव मनु ाजीक दािहने अ से कट ए थे और शत पाजी ाजीक वाम अ से
कट । वैिदक िववाह आ और इ◌ से यव थत मनु-सृि का ार भ आ। इनक यहाँ दो
पु ह—उ ानपाद और ि य त। उ ानपाद ज बू ीपक राजा ह और शेष छः ीप क राजा ह
ि य त। मनुजीक यहाँ तीन बेिटयाँ ह—आकित, देव ित, और सूित। मनुजीने िव णुक ब त-
से अंशावतार क दशन िकये ह। कम से कम, यूनाित यून, भगवा क दस अवतार वाय भुव
मनुक सामने ए ह—
(१) सनकािद—यह अवतार मनुजीक ज मसे पहल आ पर दशन हो रह ह; (२) नारद—
यह अवतार भी मनुजीक ज मसे पहल आ, (३) वाराह—मनुजीक सामने ही भगवा का वाराह
अवतार हो रहा ह, मनुजी दशन कर रह ह। (४) सह शीषा—मनुजीक पौ ुवजीको वरदान
देनेक िलए भगवा का चतुथ अवतार सह शीषा अवतार आ—
त एवमु स भया उ मे कृतावनामाः ययुि िव प ।
सह शीषािप ततो ग मता मधोवनं भृ यिद या गतः॥
(भा.पु. ४.९.१)

९३
कथा ६ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

आज एक हजार म◌क धारण करक भगवा आ रह ह मनुक पौ को ुवको दुलारनेक


िलए। मनुने देखा। आहाहा!!
(५) पृथु—इ◌ ुवक वंशम सा ा पृथुजी ए। ये भी भगवा ह। इनम दोन अंश ह।
इनम भगवा का तो आवेश होता ह और भ का वेश भी होता ह यािन ट-इन-वन।
(६) ऋषभदेव —इ◌ मनुजीक यहाँ ि तीय पु ि य तक वंशम ऋषभदेवका अवतार हो
रहा ह। छः अवतार तो इनक पु क पर पराम ए।
और इ◌ मनुजीक बेिटय क यहाँ देिखये—
(७) य नारायण—आकितजीक यहाँ वयं य नारायणजीका ाक आ, इनको इ◌
बनाया मनुजीने।
(८) किपल—इधर देव ितजीक यहाँ किपलजीका अवतार आ—
आिददेव भु दीनदयाला। जठर धरॆउ जॆिह किपल कृपाला॥
(मा. १.१४२.६)
(९) द ा ेय —किपलजीक दूसरी बहन अनसूयाजीक यहाँ भगवा का द ा ेय अवतार
आ।
(१०) नर-नारायण—इधर सूितजीक तेरहव बेटी मूितक यहाँ धमक संक पसे नर-
नारायण अवतार आ, दसवाँ अवतार।
दस भगवान को मनु देख चुक ह, परतु उनको संतोष नह हो रहा ह—
अब तो वाय भुव मनुको अवतारी चािहए॥
अवतारी चािहए अिवकारी चािहए।
अब तो वाय भुव मनुको अवतारी चािहए॥
अवतारी चािहए अिवकारी चािहए।
अब तो वाय भुव मनुको सदाचारी चािहए॥
अब तो वाय भुव मनुको अवतारी चािहए॥
इसिलए दोन बेट को पूरा रा य सँभलवाया। ज बू ीप उ ानपादको और शेष छः ीप
ि य तको सँभलवाकर मनुजी अब अंश नह चाहते, अंशी चाहते ह। अवतार नह चाहते
अवतारी चाहते ह। अतः नैिमषार य आकर— ादश अ र मं वर जपिह सिहत अनुराग
(मा. १.१४३)—युगलम◌ (षड र सीताम◌ व षड र रामम◌), जो हम तुम लोग को देते
ह, उसी युगलम◌का जप करने लगे और बासुदेव पद पंक ह दंपित मन अित लाग (मा.
१.१४३)।
नमोऽ ु वासुदेवाय योितषां पतये नमः।
नमोऽ ु रामदेवाय जगदान िपणे॥
(रा.◌.◌ो. ५१)
देखो! वासुदेव श द सीतारामजीका वाचक ह। सीताजी वसुधासे कट ई ह इसिलए
उनको वासु कहते ह और दी यित इित देवः रामजीको देव कहते ह। अतः वासु और देव —

९४
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ६

सीताजी एवं रामजी—इन दोन क चरण म मन लग गया। उ तप या क —बुध िब ाम सकल


जन रजिन (मा. १.३१.५)। छः हजार वष कवल जल पीकर रह, छः हजार वष वायुका सेवन
िकया और दस हजार वष क िलए वो भी छोड़ िदया, एक चरणपर खड़ रह। ाजी लोक
देनेक िलए आये, िव णुजी वैक ठ देनेक िलए आये, िशवजी कलाश देनेक िलए आये, सबको
लौटा िदया। कहा—“नह ! हम नह चाहते िकसीसे कछ।” कह बस—
हमरा न चाही िशवलोक हो हम भारते रिहबै॥
ाके लोक न चाही िव णुके वैकुंठ न चाही।
अरे हमरा ना चाही कैलाश हो हम भारते रिहबै॥
हमरा न चाही िशवलोक हो हम भारते रिहबै॥
हमरा न चाही सुधा रामकथा सुधा पीबै।
वसुधापर सीताराम गुन गन गाई जीबै।
हमरा न चाही देव लोकके वैभव।
हम रहबै सदा ही अशोक हम भारते रिहबै॥
हमरा न चाही तीनों लोक हम भारते रिहबै॥
हमराके आठों जोगी जनककी िसि न चाही।
हमराके देव लोक दुलभ िनिध न चाही।
हमराके चाही भारत माता केर मिटया।
िसरधर होबई िवभोर हम भारते रिहबै॥
हमारा न चाही तीनों लोक हम भारते रिहबै॥
िच कूट कामदिगिरके पिर मा किरबै।
सीताराम सुषमा नयन भरी िनहरबै।
सरजू औ मंदािकिन िनत िह निहबै।
नचबई जईसे दीनवामें कोक हम भारते रिहबै॥
हमारा न चाही तीनों लोक हम भारते रिहबै॥
साग पात खाई खाई िदवस गवईबै।
रामायण गीता बाँची वाणी ध य करबै।
िगरधर भु केर गुण गण गाई गाई।
िदनरात रिहबे अशोक हम भारते रिहबै॥
हमारा न चाही तीनों लोक हम भारते रिहबै॥
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥
आहा! िशवजीसे कह िदया िक कछ भी करो, हमको भारतम रहना ह। अ◌म भगवा
रामने दशन िदया—िब बास गटे भगवाना (मा. १.१४६.८)। और जैसे हम कह सकल
जन रजिन (मा. १.३१.५), आज भगवा उसी कारका प धारण कर रह ह—

९५
कथा ६ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

नील सरो ह नील मिन नील नीरधर याम।


लाजिह तन शोभा िनरिख कोिट कोिट शत काम॥
(मा. १.१४६)
(१) नील सरो ह—नील कमल बनकर जलचर का र न िकया, (२) नील मिन—
नीलमिण बनकर थलचर का र न िकया, और (३) नील नीरधर याम—नील बादल बनकर
नभ र का र न िकया—सकल जन रजिन (मा. १.३१.५)। सीतारामजीक पको देखा
मनुजीने। भगवा ने कहा—“मनुजी! ‍ा चाहते ह आप?” मनुजीने कहा—“आप दगे?”
भगवा ने कहा—“हाँ! देनेक िलए ही तो आया ।” तो मनुजीने कहा—“ भु! चौथेपनम मने
तप याक ह।” चाहउ तुमिह समान सुत भु सन कवन दुराव (मा. १.१४९)। “म आपको
भी चाहता और आपक समान तीन बेट और चाहता —”
दािन िसरोमिन कृपािनिध नाथ कहउ सितभाव।
चाहउ तुमिह समान सुत भु सन कवन दुराव॥
(मा. १.१४९)
“म आपक समान सुत चाहता , पर कसे-कसे?—(१) दािन िसरोमिन—म पहला
बेटा दानी िशरोमिण चाहता आपको—रामजीको। (२) कृपािनिध—ि तीय पु मुझे चािहए
कपािनिध—भरत। (३) नाथ—तृतीय पु चािहए नाथ—ल मण। (४) भु—चतुथ पु चािहए
भु—सवसमथ श ु ।” ओह!
देिख ीित सुिन बचन अमोले। एवम ु क नािनिध बोले॥
(मा. १.१५०.१)
“ब त अ◌ा! आप माँिगये शत पाजी!” उ◌ ने कहा—
जो बर नाथ चतुर नृप मागा। सॊइ कृपाल मॊिह अित ि य लागा॥
(मा. १.१५०.४)
‍ा बात ह! यहाँ चतुर श द बरक साथ भी जुड़गा और नृप क साथ भी। ह नाथ! चतुर
नृप माने ब त ही चतुर महाराजने जो चतुर वर माँगे ह, जो चार वरदान माँगे ह, चार पु पी
वरदान माँगे ह, वो मुझे ब त ि य लगे। यह ह मानस। म जानती आपको—
तुम ािद जनक जग वामी। सकल उर अंतरजामी॥
(मा. १.१५०.६)
म जान गयी—आप ह, भरत ािद जनक ह, ल मण जग वामी ह, श ु
अंतरजामी ह। सब जानती म।
सॊइ सुख सॊइ गित सॊइ भगित सॊइ िनज चरन सने ।
सॊइ िबबेक सॊइ रहिन भु हमिह कृपा किर दे ॥
(मा. १.१५०)
भगवा ग द हो गये। माताजीने छः वरदान माँगे और बोल िक आप भगवा ह इसिलए
म आपसे छः वरदान माँगती —

९६
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ६

(१) सॊइ सुख —मुझे वही सुख अथा अपने िनजी भ जैसा सुख दीिजये, (२) सॊइ
गित—भ जैसी गित दीिजये, (३) सॊइ भगित—भ जैसी भि दीिजये, (४) सॊइ िनज
चरन सने —भ जैसा अपने चरण म ेम दीिजये, (५) सॊइ िबबेक —भ जैसा िववेक
दीिजये, (६) सॊइ रहिन—भ जैसी रहनी अथा यवहार दीिजये।
भगवा स ! और कहा—
मातु िबबेक अलौिकक तोरे। कब न िमिटिह अनु ह मोरे॥
(मा. १.१५१.३)
“माँ! आपका अलौिकक िववेक ह, ध य कर िदया!” मनुजीने कहा िक मुझे दो वरदान
और चािहए—
सुत िबषियक तव पद रित होऊ। मोिह बड़ मूढ़ कहै िकन कोऊ॥
(मा. १.१५१.५)
“ह भगव ! आपक चरण म मुझे पु िवषयक ेम हो।” यहाँ एक बात ब त ग भीर ह जो
यान देनी चािहए। आगे चलकर मनुजी दशरथक पम ‍ ज म िलये? इसीिलए िक यहाँक
करणम मनुजीने भगवा से दस वरदान माँगे थे। इसको यानसे सुनते ह। दस वरदान माँगे।
अब देखते जाइये—
जो व प बश िशव मन माहीं। जॆिह कारन मुिन जतन कराहीं॥
जो भुशुि ड मन मानस हसा। सगुन अगुन जॆिह िनगम शंसा॥
देखिह हम सॊ प भिर लोचन। कृपा कर नतारितमोचन॥
(मा. १.१४६.४–६)
यहाँ पर देखिह हम सॊ प भिर लोचनका अ वय उपरो चार अ ािलय से होगा।
अथा , जो व प बश िशव मन माहीं, देखिह हम सॊ प भिर लोचन, जेिह कारन
मुिन जतन कराहीं, देखिह हम सॊ प भिर लोचन। इ यािद। कारा◌रसे यहाँ चार वरदान
माँगे गये—
(१) जो व प बश िशव मन माहीं—आपका जो व प िशवजीक मनम िनवास करता
ह, हम उस पका ने भरकर दशन कर ऐसी कपा कर।
(२) जॆिह कारन मुिन जतन कराहीं—िजसक िलए मुिनजन य करते रहते ह (िक हमार
दयम बस), हम उस पका ने भरकर दशन कर ऐसी कपा कर।
(३) जो भुशुि ड मन मानस हसा—जो काकभुशु डजीक मन प मानस-सरोवरका हस
ह, हम उस पका ने भरकर दशन कर ऐसी कपा कर।
(४) सगुन अगुन जॆिह िनगम शंसा—सगुण और िनगुणक पम िजसक वेद ने
शंसाक ह, हम उस पका ने भरकर दशन कर ऐसी कपा कर। चार व प क दशन
करने क िलए चार वरदान माँगे, इसिलए अगल दोह (मा. १.१४६)म चार उपमाएँ दी गय —
(क) नील सरो ह, (ख) नील मिन, (ग) नील नीरधर याम, (घ) लाजिह तन शोभा
िनरिख कोिट कोिट शत काम—ये चार वरदान।

९७
कथा ७ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

और िफर अगल वरदानम चार पु माँगे—


दािन िसरोमिन कृपािनिध नाथ कहउ सितभाव।
चाहउ तुमिह समान सुत भु सन कवन दुराव॥
(मा. १.१४९)
(५) दािन िसरोमिन— थम पु क पम आप दानी िशरोमिण रामजी को चाहता , (६)
कृपािनिध—ि तीय पु क पम मुझे कपािनिध भरत चािहए, (७) नाथ—तृतीय पु क पम
नाथ ल मण चािहए, (८) भु—चतुथ पु क पम भु अथा सवसमथ श ु चािहए।
और दो वरदान—(९) सुत िबषियक तव पद रित होऊ। (मा. १.१५१.५) अथा आपक
चरण म मेरा पु -िवषयक ेम हो और (१०) मिन िबनु फिन िजिम जल िबनु मीना, मम
जीवन ितिम तुमिह अधीना (मा. १.१५१.६) अथा मेरा जीवन आपक अधीन हो।
दस वरदान माँगे मनुजीने और छः वरदान शत पाजीने। भगवा ने कहा—“आप जब
अयो याक राजा बनगे, तब म आपका पु बनूँगा।” इस कार बुध िब ाम सकल जन
रजिन (मा. १.३१.५)। सकल जन रजिन कथा हो चुक ह। इस कथाने सबको आन◌
िकया, सबक मनका र न िकया। जय-जयकार हो गया, देवता ने पु प क वषा क , ध य-
ध य कर डाला। बोिलये भ व सल ीरामच◌ भगवा क जय हो।

कथा ७: रामकथा किल कलष िबभंजिन (मा. १.३१.५)


अब सातव कथा। एक-एक कथापर ◌ि डालती जाओ माताओ! यूँ तो मोदीनगर मेरा ही ह,
पर म ब त य◌ रहता , सदा यहाँ आना नह हो पाता। पर यह कथा िनि त पसे आपको
अ या म समझनेक िलए िववश करगी। इतना तो समझम आ ही जायेगा िक रामच रतमानसजीम
कल िकतनी कथाएँ ह—३०। उनमसे मने िकतनी कथा क या या कर दी? छः। अब
सातव कथा रामकथा किल कलष िबभंजिन (मा. १.३१.५)—किलयुगक सभी कलष को
न करगी यह कथा।
सुनु मुिन कथा पुनीत पुरानी। जो िगिरजा ित शंभु बखानी॥
(मा. १.१५३.१)
१५३व दोहक थम पि से कथा ार भ हो रही ह और यह १९२व दोहतक जायेगी—
िब धेनु सुर संत िहत ली मनुज अवतार।
िनज इ ा िनिमत तनु माया गुन गो पार॥
(मा. १.१९२)
तापभानु, जो रावण बनगे, स यकतुक बड़ पु ह। स यकतुक दूसर पु ह—अ रमदन।
स यकतुने बड़ पु को रा य सँभलवाया। ये ककय देशक राजा ह। ककय देशक लीला ही
कछ ऐसी ह। ककय देशम ज मे तापभानु रामजीक श ु रावण बन गये और ककय देशम
ज म लनी वाली ककयीजीने रामजीको वनवास िदया। और लगता यही ह िक उ◌ ने बदला
िलया िक हमार देशक ज म ए यि का उ ार तो हम ही करना ह, इसिलए रावणका उ ार

९८
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ७

करनेक िलए ही ककयीजीने रामजीको वनवास िदया।


तापभानु एक बार िव याचलम आखेट करने आये। एक सुअरने उ◌ माग भुला िदया,
वह कालकतु नामका रा स था। उसने कपट मुिनसे इनको िमलवाया। और कपट मुिनने
तापभानुको इतना बरगला िदया िक अबतक वो भगवा से तो कछ नह माँगे थे। ानी थे,
भ होते तो कदािच पतन नह होता। तापभानु रावण, अ रमदन क भकण, और उनक म◌ी
धम िच िवभीषण बने। देिखये यहाँपर इतनी गड़बड़ ई। मनुजीने िकसीसे नह माँगा, भगवा से
माँगा। पर तापभानुने भगवा से न माँगकर िकसी दूसर यि से माँग िलया, इसिलए सवनाश
हो गया।
रावणने पूर संसारको वशम कर िलया। पृ वी भयभीत हो गयी। पृ वीने गौका प धारण
िकया। ाजीको साथ लकर कलाश आय । िशवजीने कहा—“भगवा ेमसे कट होते ह,
म जानता । इसिलए भगवा को बुलाइये।” अब ाजी चार मुख से भगवा को बुला रह
ह—
जय जय सुरनायक जन सुखदायक नतपाल भगवंता।
गो ि ज िहतकारी जय असुरारी िसंधुसुता ि य कंता॥
पालन सुर धरनी अ त करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनु ह सोई॥
(मा. १.१८६.१)
ाजी चार मुख से भगवा क ◌ुित कर रह ह—“ह सुरनायक।” शोभनो रः य म स
सुरः। आपको पाकर रकार अथा रफ सु◌र हो गया। रावणको पाकर रफ क सत हो गया
था। तो सूय ह आप! “ह भु! अब कपा क िजये।” िसंधुसुता ि य कंता—िस धुक सुता ह
ल मीजी, उनक ि य ह नारायण; उनक िस धुसुता ि यसे क सुखं तनोित इित कतः। िस धुसुता
ि य कंता। उनक सुखका िव◌ार कर रह ह भु।
जय जय अिबनाशी सब घट बासी यापक परमानंदा।
अिवगत गोतीतं चिरत पुनीतं मायारिहत मुकुंदा॥
जॆिह लािग िबरागी अित अनुरागी िबगतमोह मुिनबृंदा।
िनिशबासर याविह गुनगन गाविह जयित सि दानंदा॥
(मा. १.१८६.२)
ह भु आपक जय हो!
जॆिह सृि उपाई ि िबध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी िचंत हमारी जािनय भगित न पूजा॥
जो भवभय भंजन मुिनमन रजन गंजन िबपित ब था।
मन बच म बानी छािड़ सयानी शरन सकल सुरजूथा॥
(मा. १.१८६.३)
सभी देवता आपक शरणम ह। भु! अब बचा लीिजये।

९९
कथा ७ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

शारद ुित शेषा ऋषय अशेषा जा क कॊउ निह जाना।


जॆिह दीन िपयारे बेद पुकारे वउ सॊ ीभगवाना॥
भव बािरिध मंदर सब िविध सुंदर गुनमंिदर सुखपुंजा।
मुिन िस सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पदकंजा॥
(मा. १.१८६.४)
अब भगवा आकाशवाणी कर रह ह—
जिन डरप मुिन िस सुरेशा। तुमिह लािग धिरहउ नरबेशा॥
अंशन सिहत मनुज अवतारा। लैहउ िदनकर बंश उदारा॥
(मा. १.१८७.१–२)
भगवा चार बार ित ा कर रह ह—
(१) तुमिह लािग धिरहउ नरबेशा (मा. १.१८७.१)।
(२) अंशन सिहत मनुज अवतारा, लैहउ िदनकर बंश उदारा (मा. १.१८७.२)।
(३) ितनके गृह अवतिरहउ जाई (मा. १.१८७.५)।
(४) परम शि समेत अवतिरहउ (मा. १.१८७.६)।
अवतार लनेक भगवा ने चार-बार ित ा कर ली और कहा—“म चार लीलाएँ क गा।
हम चार भाई िमलकर अवतार लगे और परमशि सीताजी भी अवतार लग —इस कार
पाँच अवतार हमार ह गे।” रावणका अवतार हो ही गया ह। हनुमा जीका भी अवतार होगा—
राम काज लिग तव अवतारा (मा. ४.३०.६)। अब ाजीने पृ वीको समझाया। िशवजीने
कहा—“पावतीजी! सभी देवता वानर बन रह ह, म भी वानर बनूँगा। पावतीजी! अब आप
अपना घर सँभाल लीिजये—”
मि र संभारो गौरा मि र संभारो गौरा।
अरे गौरा संभारो पिरवार हम तो वानर बनबै॥
गणपित संभारो गौरा काि क संभारो गौरा।
गौरा संभारो गंगधार हम तो वानर बनबै॥
गौरा संभारो पिरवार हम तो वानर बनबै॥
शेषके संभारो गौरा च मा संभारो गौरा।
गौरा संभारो नंदी हमार हम तो वानर बनबै॥
गौरा संभारो पिरवार हम तो वानर बनबै॥
बाहर संभारो गौरा भीतर संभारो गौरा।
गौरा संभारो िगरधर िनराधार हम तो वानर बनबै॥
गौरा संभारो पिरवार हम तो वानर बनबै॥
पावतीजीने कहा—“म आपक िबना नह र गी।” िशवजीने कहा—“ठीक ह! म हनुमा
बनता और तुम हनुमा क पूँछ बन जाओ।” यही तो रावणने गलती क । पावतीजी
हनुमा जीक पूँछ बन गय । िशवजी हनुमा जी और पावती हनुमा जीक पूँछ! रावणने अगर
पूँछम आग न लगायी होती तो ल ा बच जाती। पर रावण तो मूख था, पूँछम आग लगवा दी।
१००
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ७

पावतीजीने कहा—“नालायक! यह तो तुम मुझे ही जलाना चाहते हो? तो म तेरी ल ा जला


दे रही । जाओ।”
इधर दशरथजी महाराज कट ए। तीन दशरथ क चचा ह—(१) मनुजी भी दशरथ,
(२) क यपजी भी दशरथ और (३) उ कामुख महाराज भी दशरथ। तीन कौश याएँ—(१)
शत पाजी भी कौश या, (२) अिदितजी भी कौश या, (३) उ कामुखक प ी सरोजवदना सती
भी कौश या। साठ हजार वष बीत गये, पु नह आया। एक बार भूपितमन माहीं, भइ
गलािन मोरे सुत नाहीं (मा. १.१८९.१)। प पुराणका वणन ह िक शा◌ाजी सुिम ाजीक
कोखसे ज मी थ । महाराजने अपने िम अ राज रोमपादको दे िदया था। इन दोन क संिध
थी िक िजसक यहाँ संतान पहल आयेगी वह एक दूसरको दे देगा। यहाँ इस बार जो िसया
क राम म िदखाया िक कौश याजीक बेटी शा◌ाजी , वह गलत ह। सुिम ाजीक बेटी ह
शा◌ाजी। तो भइ गलािन मोरे सुत नाहीं कह रह ह, यह नह कहा िक भइ गलािन मम
संतित नाहीं। संतान तो ह, बेटी मेर पास ह; परतु बेटा नह ह, यह लािन ई। गु देवक यहाँ
आये, कहा—“भगव ! ‍ा बताऊ? मेरी रािनय क गोद सूनी ह। एक बेटी थी, वो भी मने
अपने िम को दे दी।” हम लोग क भाषाम मानो यही कहा—
तू तो होई गईल गुलरीके फूलवा ललन॥
तू तो होई गईल, गुलरीके फूलवा ललन॥
सबके लालन मातु िढग करते िविवध िवनोद।
मेरी रानी आज लो भगवन सूनी कोख।
रोई रोईके िकतनी िबतौिल रैन तू तो होई गईल ...॥
चरण सरोजत शीश धरी िबनय करऽउ कर जोर।
िगरधर भुको गोद ले, पुरउ मनोरथ मोर।
भु कर दीजै, पूरी अब मेरे सपन तू तो होई गईल ...॥
गु देवने कहा—धर धीर होइहै सुत चारी (मा. १.१८९.४)। “राज !” धर धीर
“धैय धारण क िजये।” “कसे होइहै? बेटी तो ह।” “अर नह ! सुत ।” “कसे? मेरी पि याँ
तो अब वृ हो गयी ह। अब वो गभ नह धारण...!” “अर चुप चुप! सुत चारी एक नह
चार बेट ह गे। ल जाओ चकाचक।” य करवाया, अि कट ए। अि ने कहा—“राज !
विस जीने जो सोचा, आपका वह काय पूरा हो गया। यह लीिजये, (हिव य) खीर ल जाइये।”
सु◌र सोनेक बटलोईम खीर दी अि ने! आधा भाग कौश याजीको दे िदया। आधेक दो भाग
िकये, चौथाई ककयीजीको और इधर चौथाईम दो भाग कौश याजी और ककयीजीक हाथसे
रखकर सुिम ाजीको।
एिह िबिध गभसिहत सब नारी। भ दय हरिषत सुख भारी॥
जा िदन ते हिर गभिह आये। सकल लोक सुख संपित छाये॥
(मा. १.१९०.५–६)
आ गये भगवा गभम, बारह महीने गभम िवराजे, चै क शु प क नौव आयी। अर!

१०१
कथा ७ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

नौमी ितिथ मधु मास पुनीता (रामजी कट भये)।


शु प अिभिजत हिर ीता (रामजी कट भये)॥
(मा. १.१९१.१)
नवमी ितिथ, सु◌र मधुमास, शु प , अिभिज मु त, हिर ीता अथा ीराम िजस
पर स रहते ह ऐसा पुनवसु न , िदवसका म य भाग, पावनकाल ह; शीतल, म◌, और
सुग धत वायु बह रही ह; देवता स ह, संत क मनम चाव ह, वन कसुिमत ह, पवत क समूह
मिणय से यु हो गये ह, सभी स रताएँ आज अमृतक धारा बहा रही ह, आकाशम दु◌ुभी
बज रही ह, जयजयकार हो रहा ह! देवता िवनती करक पधार गये—सुर समूह िबनती किर
प चे िनज िनज धाम (मा. १.१९१)। यहाँ यह अथ नह लना चािहए िक वग गये। अिपतु
भगवा क शरीरम ही देवता समा गये, रामजीक शरीरम। भगवा क भुजाम इ◌ समा गये,
भगवा क चरणम चल गये िव णुजी, भगवा क ने म समा गये सूयनारायण, भगवा क दाँत म
यम देवता, भगवा क मनम च◌मा, बुि म ा, अहकारम श रजी, िच म िव णु और
सब देवता। अब भगवा कौश याजीक सामने कट हो रह ह। चार भुजाएँ नह , भगवा क
भुजा पर धनुष-बाण चारी अथा िथरक रह ह—िनज आयुध भुज चारी (मा. १.१९२.१)।
शरीर मेर मेघक समान ह, सार आभूषण धारण िकये ह, वनमाला ह, कमलक समान िवशाल
ने ह। कौश याजीने देखा, ◌ुित क —“अर भगव ! आप तो सा ा साकतिवहारी भगवा
राघवजी ह। रामजी! मेरी इ◌ा ह िक पहल आप बालक बिनये, िजससे आपक बाललीलाका
म आन◌ ल। मुझे दूधू िपलानेका मन ह।”
आहाहा,
भऄ गट कृपाला दीनदयाला कौस यािहतकारी।
हरिषत महतारी मुिनमनहारी अ त प िनहारी।
लोचन अिभरामा तनु घन यामा िनज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन िबशाला शोभािसंधु खरारी॥
कह दुइ कर जोरी अ ुित तोरी कॆिह िबिध करौं अनंता।
माया गुन यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता।
क ना सुखसागर सब गुन आगर जॆिह गाविह ुित संता।
सो मम िहत लागी जन अनुरागी भऄउ गट ीकंता॥
ांड िनकाया िनिमत माया रोम रोम ित बेद कहै।
मम उदर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मित िथर न रहै।
उपजा जब याना भु मुसुकाना चिरत ब त िविध की चहै।
किह कथा सुहाई मातु बुझाई जॆिह कार सुत ेम लहै॥
माता पुिन बोली सो मित डोली तज तात यह पा।
कीजै िशशुलीला अित ि यशीला यह सुख परम अनूपा।
सुिन बचन सुजाना रोदन ठाना हॊइ बालक सुरभूपा।
यह चिरत जॆ गाविह हिरपद पाविह ते न परिह भवकूपा॥

१०२
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ७

िब धेनु सुर संत िहत ली मनुज अवतार।


िनज इ ा िनिमत तनु माया गुन गो पार॥
(मा. १.१९२)
अयो या रामललाक जय हो! अयो या भरतललाक जय हो! अयो या ल मणललाक
जय हो! अयो या श ु ललाक जय हो! जय जय ीसीताराम। आन◌ कर िदया भगवा ने।
एक ही विन—
अवधमें आन भयो जय कौश या लाल की।
हाथी िदया घोड़ा िदया और िदया पालकी॥
ा णको दान िदया जय कौश या लाल की।
अवधमें आन भयो जय कौश या लाल की॥
॥ बोिलये कौश यालालक जय ॥
अब बधाई—
अरे! गटे है आज रघुरैया अवधपुर बाजे बधैया॥
चैत शु नवमी िदन मंगल अिभिजत नखत सुखदैया।
गटे है ीरघुरैया अवध आज बाजे बधैया॥
नाचिह गाविह अवध लगाई आन उर न समैया।
गटे है ीरघुरैया अवध आज बाजे बधैया॥
राजा दशरथ र लटावें धेनु लटावें तीनों मैया।
गटे है ीरघुरैया अवध आज बाजे बधैया॥
रामभ ाचाय आज बधाई गावत दे भगित रघुरैया।
अरे! गटे है ीरघुरैया अवध आज बाजे बधैया॥
बधाई हो कौश या कमारक ! बधाई हो ककयी कमारक !! बधाई हो सुिम ा कमारक !!!
बधाई हो!
अब आरतीका आन◌ लगे। आज दानका िदन ह खूब दान लटाय। हो...चलो सब तैयार
हो जाओ नाचनेक िलए जरा।
बधैया बाजे आँगने में बधैया बाजे आँगने में॥
आज अवधपुर राघव गटे लोग मगन अनुरागने में॥ बधैया ...
राम लखन अ भरत श ुहन झूलत कंचन पालने में॥ बधैया ...
कौश या कैकेयी सुिम ा मंगल मंगल साजने में॥ बधैया ...
नाचिह गावहीं अवध लगाई नाचिह गाविह अवध लगाई॥ बधैया ...
नाचिह गाविह नगर लगाई मंगल मंगल बाजने में॥ बधैया ...
राजा दशरथ र लटावे निह कोउ लाजै माँगने में॥ बधैया ...
िगरधर मुिदत बधाई गावत िनत नवल रस पागने में॥ बधैया ...
बधाई हो कौश याकमारक ! बधाई हो रामलला सरकारक ! बधाई हो भरतलला
सरकारक ! बधाई हो ल मणलाल सरकारक ! बधाई हो श ु लला सरकारक ! आज सबको

१०३
कथा ७ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प

बधाई और िजतने लोग हमार कलाकार ह सबको बधाई। म तो आज यही क गा—लटा दो


आज सवस तुम, लटौने बनके आये है।
अब चलो आरती करगे—
आरती िशशु राघवकी कीजै तन-मन ाण िनछावर कीजै॥
रानी कौश याके बारे नृप दशरथके राज दुलारे।
संतनकी अँिखयनके तारे अब इनको अपनो कर लीजै॥ आरती ...
यामल तन कर तीर धनुिहया पद पंकज लस लिलत पनिहया।
मुख लिख लाजत शरद जनुिहया अब इनके चरणन िचत दीजै॥ आरती ...
भरत लखन िरपुहनके भैया राघव किह किह बोलती मैया।
िगरधर को आन लटैया शोभा नयन भर भर कीजै॥ आरती ...

१०४
चतुथ पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
मनोजवं मा ततु यवेगं िजतेि यं बुि मतां विर ।
वाता मजं वानरयूथमु यं ीरामदूतं िशरसा नमािम॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय।
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
रामकथा सुंदर करतारी। संशय िबहग उड़ावनहारी॥
(मा. १.११४.१)
रामकथा किल प ग भरनी। पुिन िबबेक पावक कह अरनी॥
(मा. १.३१.६)
॥ ीसीताराम भगवा क जय ॥
प रपूणतम परा◌र परमा मा मयादा-पु षो म जग पता परमे र पर भगवा
ीसीतारामजीक कपासे मोदीनगरम, ीराघव-सेवा-सिमितक त वावधानम समायोिजत, अपनी
१२५१व रामकथाक चतुथ स म समवेत सभी ब धु -बा धिवय का म दयसे ब त वागत
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

करता । म थम िदन ही यह बात कह चुका िक गो वामीजीने ब त सोच-समझकर हमार


महीनेक तीस िदन क िलए (एक महीनेम तीस िदन ही होते ह, अतः) रामच रतमानसम कल
तीस कथाएँ कह —यह जानते रिहये। और हमार सात ही िदन तो होते ह (रिववारसे लकर
शिनवारतक), तो सात िदन क िलए गो वामीजीने मानसरामायणजीम सात का ड ही िलखे।
इतनी सु◌र यव थाक ह। हमार शरीरक नव ार होते ह और य ोपवीतक नौ त◌ु होते ह,
इसिलए उ◌ ने अपनी कथाक नौ िव ाम भी कह। आज आठव कथासे हम अपना व य
ार भ करगे। मेरा यास रहगा िक शिनवारसे ार भ ए मेर इस नविदवसीय स म (िजसका
िव ाम रिववारको होगा) तीस कथाएँ संि त- पसे ◌ुत कर दी जाएँ। कल मेर िम कह
रह थे (मेर ब त अ◌े प रकर ह) िक गु जी! इस बार आप कथा तो ‍ा कह रह ह, इस
बार पढ़ा रह ह लोग को। तो हमने कहा िक जैसी आपक धारणा। यिद पढ़ा रहा तो भी तो
ब त अ◌ी बात ह। अर! साधारण टीचर (िश क)क लोग िव ाथ बनते ह, यिद जग ु क
िव ाथ बन जाओ तो जीवन ही ध य हो जायेगा।
तो ब त अ◌ी बात यह िक रामायणजीक आठव कथा ब त अ◌ी ह। सातव कथाम
हम ीरामज मक चचा कर चुक ह। रामकथा किल कलष िबभंजिन (मा. १.३१.५)—
गो वामीजीने कहा िक देिखये! ीरामज मक कथा किलयुगक कलषको न करगी। कलष
माने दोष, यह यान रिखये। गो वामीजीसे पूछा गया—“पहल आप हमको बता दीिजये िक
किलयुगम िकतने दोष होते ह?” गो वामीजीने कहा—“ठीक ह! बालका डका ३२वाँ दोहा
‘क’ पढ़ लीिजये। किलयुगम सात दोष होते ह।” िफर बीचम कह रहा , मुझपर आरोप लगता
रहा ह िक मेरी कथाको लोग समझते नह । पर यह आरोप िकतना झूठा ह, अब आप लोग
अनुभव कर लीिजये। मने भी कह िदया ह िक िजनका मानस भारतीय होगा, वे मेरी कथा अव य
समझ जायगे। जो रहते ह भारतम और ज म िलया ह िकसी िवदेशी सं मणसे तो वे मेरी कथा
नह समझगे। जो रहते तो ह भारतम, नमक खाते ह भारतका, पानी पीते ह भारतका, अ खाते
ह भारतका, पर चचा करते ह िवधम देश क ; उ◌ मेरी कथा अव य समझम नह आयेगी
और उ◌ मुझे समझाना भी नह ह। उ◌ समझाकर ‍ा क गा! वो तो वही हाल ह, इनका
वही दोगला च र ह—
खायें पीयें भतार के, गुण गावें यार के।
खायें पीयें खसम के, गुण गावें लसम के॥
िजनका कोई च र ही नह ह, उनको ‍ा समझाना? म तो भारतीय , भारतीय था,
भारतीय ही र गा। मुझे दोगल च र वाल को कथा न ही सुनानी ह और न ही समझानी ह।
‍ िक ीरामकथासे म नमक-रोटी तो नह खाता, ीरामकथा तो मेरा सा य ह। यह सभी लोग
जानते ह िक ीरामकथाका एक भी पैसा म अपने िलए नह लता। मने बार-बार कहा ह िक
ीराम-क णकथाका एक भी पैसा खानेपर मुझे उतना ही पाप लगेगा, िजतना वैिदक-आि◌क
िह◌ूको गोमांस छनेपर पाप लगता ह। इसिलए मेरी कथा तो वे सुनगे, िजनक माँ-बाप भारतीय
ह गे। और उ◌ को म समझाऊगा भी।
तो पहल म बताऊ, किलयुगक िकतने दोष मने कह? सात। उन सात दोष क चचा
१०६
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

गो वामीजी कर रह ह—
कुपथ कुतरक कुचािल किल कपट दंभ पाखंड।
दहन राम गुन ाम िजिम इधन अनल चंड॥
(मा. १.३२क)
गो वामीजी कहते ह िक किलयुगने कहा िक म सात दोष से ािणय को िततर-िबतर क गा।
(१) कुपथ—वेदिव माग, (२) कुतरक—वेदिव तक करना, (३) कुचािल—बुरी चाल
चलना, (४) किल—सबसे झगड़ा करना, (५) कपट, (६) दंभ —जैसे ह वैसे नह , उसक
िवपरीत अपनेको ◌ुत करना, और (७) पाखंड —िवधमका आचरण करना। ये सात दोष
किलयुगक ह। इन सात दोष को भगवा ीरामक गुण ाम उसी कार जला डालते ह, जैसे
च ड अि इ धनको जला डालती ह। तो रामजीने ज म िलया सातव कथाम। यह कथा सात
दोष को न करगी।
बुध िब ाम सकल जन रजिन। रामकथा किल कलष िबभंजिन॥
(मा. १.३१.५)
रावणक अ याचारसे ◌ ई गो पधा रणी पृ वीजीने ाजीक सम आकर अपनी
यथा कही, तब ाजी श रजीक पास आये। िशवजीने कहा िक भगवा तो ेमसे कट होते
ह— ेम ते गट होिह मैं जाना (मा. १.१८५.५)। तब ाजीने जय जय सुरनायक जन
सुखदायक नतपाल भगवंता (मा. १.१८६.१)—ब त सु◌र ◌वन ह रामायणजीका—
भगवा रामक ◌ुितक और भगवा रामने आकाशवाणी क । यान रिखये—किल कलष
िबभंजिन (मा. १.३१.५)। इसीिलए आकाशवाणीम भगवा ीराम सात ही पि याँ पढ़ रह ह
और दोहा भी ब त यारा ह। सुनकर नाच उठगे, ब त-ब त यारा दोहा ह। देिखये!—
जिन डरप मुिन िस सुरेशा। तुमिह लािग धिरहउ नरबेशा॥
(मा. १.१८७.१)
यहाँसे ार भ करते ह भगवा और,
हिरहउ सकल भूिम ग आई। िनभय हो देव समुदाई॥
(मा. १.१८७.७)
यहाँ ीरघुनाथजीने सात ही पि याँ पढ़ी ह और वे सूचना दे रह ह िक तु ह हम सात
दोष से मु करगे। यह कथा सात दोष से मु करगी—
(१) कुपथ—यह पि कपथसे मु करगी—
जिन डरप मुिन िस सुरेशा। तुमिह लािग धिरहउ नरबेशा॥
(मा. १.१८७.१)
(२) कुतरक—यह पि कतकसे मु करगी—
अंशन सिहत मनुज अवतारा। लैहउ िदनकर बंश उदारा॥
(मा. १.१८७.२)
(३) कुचािल—यह पि कचािलसे मु करगी—

१०७
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

क यप अिदित महातप की ा। ितन कह मैं पूरब बर दी ा॥


(मा. १.१८७.३)
(४) किल—यह पि किल माने झगड़से मु करगी—
ते दशरथ कौश या पा। कोसलपुरी गट नरभूपा॥
(मा. १.१८७.४)
(५) कपट—यह पि कपटसे मु करगी—
ितनके गृह अवतिरहउ जाई। रघुकुल ितलक सॊ चािरउ भाई॥
(मा. १.१८७.५)
(६) दंभ —यह पि द भसे मु करगी—
नारद बचन स य सब किरहउ। परम शि समेत अवतिरहउ॥
(मा. १.१८७.६)
(७) पाखंड —यह पि पाख डसे मु करगी—
हिरहउ सकल भूिम ग आई। िनभय हो देव समुदाई॥
(मा. १.१८७.७)
तो भगवा राम कट हो चुक ह। इस कथाने किल-कलषसे जीवको मु िकया। इतना
आन◌ आया िक गो वामीजीने कहा िक ‍ा बताय आपको, यहाँ तो—
जोग लगन ह बार ितिथ सकल भये अनुकूल।
चर अ अचर हरषजुत रामज म सुखमूल॥
(मा. १.१९०)
चतु पाद-िवभूितक पम भगवा कट हो रह ह। मेर वा‍पर ब त यान दीिजये।
अबतक ऐसा नह होता था—ि पादू व उदै ु षः पादोऽ येहाभव ुनः (ऋ.वे. १०.९०.४),
पादोऽ य िव ा भूतािन ि पाद यामृतं िदिव (ऋ.वे. १०.९०.३)। अबतक तो ि पाद वगम
रहते थे और एक पादसे भगवा संसारक यव था करते थे। परतु आज भगवा चतु पाद
िवभूितक साथ कट हो रह ह—रघुकुल ितलक सॊ चािरउ भाई (मा. १.१८७.५)।
गो वामीजीक एक-एक वा‍पर ब त ग भीरतासे सोचनेक आव यकता ह। अब भगवा
बाललीला ार भ करगे। माताजी कह चुक ह िक आप िवरा बनकर मुझे चकमा मत दीिजये—
माता पुिन बोली सो मित डोली तज तात यह पा।
(मा. १.१९२.४)
मने िनणय िलया ह िक इस बार मुझे आपको रामच रतमानसजीक सु◌र-सु◌र चौपाइय से
प रचय कराना ह। सु◌र-सु◌र चौपाइय का वाद आपको देना ह। माताजी कह रही ह—तज
तात यह पा (मा. १.१९२.४) अथा ह तात! ह बेट! आप यह प छोड़ दीिजये। तो ‍ा
क ?
कीजै िशशुलीला अित ि यशीला यह सुख परम अनूपा॥
(मा. १.१९२.४)
अथा आप िशशुलीला क िजये, मेरी आँख तरस रही ह िशशुलीला देखनेक िलए। िशशुका
१०८
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८

पािणिनजी िन करते ह— यित ख डयित अनथा यः सः िशशुः अथा जो प रवारम आकर


प रवारक सार अनथ को न कर देता ह, उसे िशशु कहते ह। अथवा यित तनूकरोित इित िशशुः।
आप िशशुलीला क िजये, ‍ िक—
तेरी म -म मु किनयाँ पे बिलहार राघवजू बिलहार राघवजू॥
ा याम शरीरकी शोभा लख कोटी मनोभव लोभा।
तेरी चपल-चपल िचतविनयाँ पे बिलहार राघवजू॥ तेरी म -म ...
मुख कुिटल अलिकया लटके मनु पाटल पे मधुकर भटके।
तेरी कुिटल-कुिटल अलकिनया पे बिलहार राघवजू॥ तेरी म -म ...
जब दुई-दुई दमके दतुिरयाँ मनु बदरामें चमके िबजुिरया।
तेरे मधुर-मधुर िकलकिरयाँ पे बिलहार राघवजू॥ तेरी म -म ...
जब गुलजी कहीके बुलावे जब गुलजी कहीके बुलावे।
जब गुलजी कहीके बुलावे तब िगिरधर को ललचावे।
तेरी तोतरी मधुर वचिनयाँ पे बिलहार राघवजू॥ तेरी म -म ...
देिखये! रामजी तोतल बोलते ह न, तो गु जी नह बोलते गुलजी बोलते ह।
‍ा सु◌र! उनका नाम आप सुन चुक न! हमार छगन-मगनका नाम आप जानते ह?
मु ा-सरकार! ब त सु◌र नाम ह। िशशु ह। िशशु वो होता ह जो कभी सुसू नह करता। संसारक
सार ब े सुसू करते ह, कवल राघवजी ही सुसू नह करते।
सुिन िशशु दन परम ि य बानी। सं म चिल आ सब रानी॥
हरिषत जह तह धा दासी। आनँद मगन सकल पुर बासी॥
(मा. १.१९३.१–२)
देिखये, झूमनेका अ यास क िजये। भगवा क कथाम वही झूम सकता ह, िजसक मनम
अहकार नह होता। िजसक मनम ईगो (ego) होगी, वह ‍ा झूमेगा? अर! हम इतने बड़ हो
गये! हम इस पदपर ह! हम ‍ झूम? जग ु को झूमते बने तो झूम। अर यार! बड़-बड़ पद
मने देखे ह! और बड़ी-बड़ी qualifications देखी ह!! म आज ब त िवन तासे कह रहा
िक यहाँ िजतने लोग बैठ ह, ‍ा मेर जैसा कोई well-qualified ह यहाँ?

कथा ८: रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६)


रामकथा किल प ग भरनी—प ग माने सप। भरनी माने—(१) साँपको झाड़ने वाल म◌,
कछ टीकाकार कहते ह। (२) और कछ टीकाकार कहते ह िक भरनी माने भरणी न । भरणी
न म साँप मर जाते ह। परतु मुझे ये दोन प अ◌े नह लग रह ह। यहाँ अथ ‍ा ह?
(३) भरनी माने होता ह—मयूरप ी, भरणी मयूरप ी या (मोरक प ी अथवा मोरनी)।
सपको मारनेक िलए मोरसे भी अिधक र मोरनी होती ह। मोर तो संकोच भी करता ह, पर
मोरनी कोई संकोच नह करती। साँपको देखा तो सीधा आ मण करक गला घ ट देती ह। तो
यह आठव कथा रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६) ह। यह दस दोह क कथा ह,

१०९
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

जो बालका डक १९३से ार भ होती ह और २०२तक िवराजती ह। दस दोह से इसका संकत


यह ह िक किलयुग पी साँप दस िदशा म जहाँ भी रहगा, यह ीरामकथा खदेड़-खदेड़कर
(हमारी भाषाम दौड़ा-दौड़ाकर) मारगी—रामकथा किल प ग भरनी।
दशरथ पु ज म सुिन काना (हो)।
(ललना) मान ानंद समाना माने (हो)॥
(जय जय) परम ेम मन पुलक शरीरा (हो)।
(ललना) चाहत उठन करत मित धीरा (हो)॥
(जय जय) जाकर नाम सुनत शुभ होई (हो)।
(ललना) मोरे गृह आवा भु सोई (हो)॥
(जय जय) परमानंद पूिर मन राजा (हो)।
(ललना) कहा बोलाइ बजाव बाजा (हो)॥
अब आप बताइये! ‍ा रामायणजीक चौपाई हम-आप नह गा पा रह ह? ‍ा हम
रामायणजीक चौपाइय म सोहर-जैसा आन◌ नह ल पा रह ह? परतु इसक िलए दय होना
चािहए और ीअवधक माटीसे संपक होना चािहए। तो सबको ब त आन◌ आ रहा ह।
सुिन िशशु दन परम ि य बानी। सं म चिल आ सब रानी॥
(मा. १.१९३.१)
यहाँ चार भ का आन◌ ह—
(१) आत—रािनयाँ आत ह। आगे गो वामीजी कहगे—अित आरित सब पूँछिह रानी (मा.
२.१४८.१), आरत जननी जािन िजयँ (मा. २.१८६)। तो सं म चिल आ सब रानी—यह
आत संग ह।
(२) िज ासु—हरिषत जह तह धा दासी (मा. १.१९३.२)—दािसयाँ दौड़ , ये िज ासु
स ह िक बालक ह कसा?
(३) अथाथ —आनँद मगन सकल पुर बासी (मा. १.१९३.२) ये सभी पुरवासी अथाथ
ह जो आन◌म डब गये, अथा इनको राम प र िमल गया। पायोजी मैंने राम रतन धन
पायो।
(४) ानी—और दशरथ पु ज म सुिन काना (मा. १.१९३.३)—ये ानी ह, ‍ िक
दशरथजीक िलए कह चुक ह—धरम धुरधर गुनिनिध यानी (मा. १.१८८.८)।
सब आन◌ ल रह ह। विस जीको बुलाया—
गु बिस कह गऄउ हकारा। आये ि जन सिहत नृप ारा॥
(मा. १.१९३.७)
यहाँ टीकाकार ने गलतीक ह। यहाँ नृप कता ह। गु बिस कह नृप हकारा गऄउ, अथा
गु विस जीक िलए महाराज दशरथजीने वयं बुलाते-बुलाते हकारा—“गु जी! गु जी!!
गु देव! गु देव!!” कहते-कहते उनक समीप गये। “‍ा हो गया महाराज आपको?”
दशरथजीने कहा—“आपका आशीवाद फलीभूत हो गया महाराज, बड़ी महारानीने ब त सु◌र
बालकको ज म िदया ह। मुझको सुन◌ा माताजी बता रही थ महाराज, जो मेरी माता इ◌ुमतीक
११०
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८

साथ आय थ । जब इ◌ुमतीजी वग जाने लग थ , इ◌ को मेरा लालन-पालन स प गय


थ । वे सुन◌ा-मौसीजी बता रह थ िक राज ! बालक तो आपका ब त सु◌र ह। ऐसा
बालक तो नह देखा गया आजतक। ज म लनेपर कौश याक शरीरसे एक भी ग◌ा व
नह िनकला”—सैकता भोजबिलना जा वीव शर ृशा (र.वं. १०.६९)। “इतनी सु◌र
कौश याजी सुशोिभत हो रही ह िक मानो िकसीने ग ाजीक गोदम नीला कमल पधरा िदया
ह। महाराज! सुन◌ाजीने बताया—”
अंिखयाँ तो बाटई िदलीप जैसन निकया तो रघु जैसन हो राजन।
लालन छितयाँ तो बाटई राजा अज जैसन बिहयाँ तोहारे जैसन हो राजन॥
“महाराज! सुन◌ाजी बता रही थ —इस बालकक ने तो महाराज िदलीप-जैसे ह”—
कामं कणा िव ा े िवशाले त य लोचने (र.वं. ४.१३), “नाक महाराज रघु-जैसी, छाती
महाराज अज-जैसी, और उसक भुजाएँ तो आप जैसी ह भगव ! इस कार बालकम चार
महापु ष क ितिब ब िदख रह ह।” तो,
(राजन) अनुपम बालक देखेिन जाई (हो)।
(राजन) प रािश गुन किह न िसराई (हो)॥
(मा. १.१९३.८)
विस जीने जाकर देखा—“आहा! ‍ा सु◌र बालक ह यह।” गोदम ल िलया।
िगिरधर भु थमिह कौिशलाकी गोद
पुिन मुिन ितलक विस जीको गोद भो।
रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६)—यह मयूरप ी इस सार किलयुगको ही न
करगी। यहाँ किलयुग कसे आयेगा? यहाँ तो ेताको आना ह, गोदम ल िलया।
तब नंदीमुख ा किर जातकरम सब की ।
हाटक धेनु बसन मिन नृप िब न कह दी ॥
(मा. १.१९३)
गोदम ल िलया, विस जीको यह संकोच नह लगा िक बड़ी रानी ‍ा कहग ? गोदम ल
िलया। कहा—“महारानीजी! मुझे इस बालकको देखनेका मन ह।” तो कौश याजीने कहा—
“महाराज! आपक ही तो ह लालाजी। मेर भा यम तो ये थे ही नह , आप ही इसे लाये। आपको
थम अिधकार ह महाराज गोदम लनेक िलए।” गोदम िलया। तब किवने एक भावना क ।
और कोई दूसरा किव नह , उ◌ क वंशम उ◌ ए िकसी किवने भावना क —
यापक हो या य भो िनरजन हो सांजन भो
अगुन सगुन अिवनोद सिवनोद भो।
अज जनम िलयो अकृत सुकृत िकयो
अचल सचल अ मोद-स मोद भो॥
नूतन पुरातन भो सगुण सनातन भो
अमल पयोिध िवमल सुपयोद भो।

१११
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

िगिरधर भु थमिह कौिशलाकी गोद


पुिन मुिनितलक विस जूकी गोद भो।
गोदम लकर नाचने लगे, बुढ़ऊ बाबा ठमका लगाने लगे! सबसे कहने लगे—
गु जीके गोद िखलौना हो क नजर न लागे॥
नजर न लागे क टोनवा न लागे गु जीके गोद ...॥
नील सरो ह याम सुभगतन अ ण नयन कर टोना हो।
क नजर न लागे गु जीके गोद िखलौना हो ...॥
कुिटल अलक लटकत मुख ऊपर लरत मन अिल छौना हो।
क नजर न लागे गु जीके गोद िखलौना हो ...॥
िमिथलाकी सब नारी टोनिहयाँ लावे जनी वो टोना हो।
क नजर न लागे गु जीके गोद िखलौना हो ...॥
रामभ ाचाय यह झाँकी िनहारत होइगा जवन रहा हो।
क नजर न लागे गु जीके गोद िखलौना हो ...॥
नजर न लागे क टोनवा न लागे गु जीके गोद ...॥
॥ बोिलये गु जीक गोद िखलौना सरकारक जय हो ॥
जातकम िकया गया। रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६)। सर वतीजी धग रन
बनकर आय और सोनेक नहरनी लायी ह। ठनगन कर रही ह—“हम िबना नेग िलए राघवक
नार न कटबई।” अवधक ना रयाँ कहती ह—“तु नार न किटबू, त तोह गारी देबइ।” कहा—
“कौनो बात नाह ।” बड़ी भयंकर गारी दी। हम लोग अवधक ह, हम जानते ह, ब त भयंकर
गाली देना।
धगिरन बड़ी हरजाई ललनजूको नारो न काटे॥
कोठा न लेबै अटारी न लेबै लेबै न अ धन गायी।
ललनजूको नारो न काटे धगिरन बड़ी हरजाई ....॥
रानी कौश याकी साड़ी हम लेबै जहाँ कटे थम रघुराई।
ललनजूको नारो न काट धगिरन बड़ी हरजाई ....॥
अब हरजाई श दम हम लोग को जो आन◌ आ सकता ह, वह आपको नह आ सकता।
सर वतीजीने कहा—“मुझे हरजाई कहती हो?” अवधक ना रयाँ कहती ह—“तुम हरजाई तो
हो ही। िकसीको बेटा बना लती हो, िकसीको पित भी बना लती हो। ‍ा कर? पुराण ने तुमको
ाक प ी भी कहा, िव णुक प ी भी कहा। ‍ा कर? अब तु हार कम ही ऐसे ह। हरजाई ही
ठीक ह।” सर वतीजीने कहा—“म तो कौश याजीक वो साड़ी लगी, िजस साड़ीपर थम बार
भगवा बाल पम आकर खेल।” और कौश याजीसे ल ली। आज भी उस साड़ीको बदला
नह सर वती माताजीने। या कु े ुतुषारहारधवला या शु व ावृता—यह शु व वही
ह। कभी अशु ही नह होती। जातकम िकया।

११२
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८

बृंद बृंद िमिल चलीं लगाई। सहज िसंगार िकये उिठ धाई॥
कनक कलश मंगल भिर थारा। गावत पैठिह भूप दुआरा॥
(मा. १.१९४.३–४)
समूहक समूह ीअवधक माताएँ वाभािवक ार िकये ए दौड़ । १२ बजे कौन ार
करगा? वणका कलश, म ल-थाल िलए गाते-गाते वेश कर रही ह।
किर आरित नॆवछाविर करहीं। बार बार िशशु चरनिन परहीं॥
(मा. १.१९४.५)
आरती कर रही ह राघवजीक और बार-बार भगवा क चरण को देख रही ह—
िहमकर बदन िनहािरके लोचन फल लीजै।
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
कौश याके लालकी सखी आरती कीजै॥
याम शरीर सुहावना तनु भूषण राजै।
वण सुभग मनभावना कल कुंडल भाजै।
तन-मन-धन सब वािरके जीवन सुख लीजै॥
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
खंजन कमल िवलोकना लिख मुिनमन मोहे।
अ ण अधर भवमोचना िवधु-आनन सोहे।
मु किन मधुर स हािरके सब पातक छीजै॥
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
कमल करन कंकन लसै बघनाह उर राजै।
मु ामाल दय बसै िझंगुली तन साजै।
नख िसख सुभग सँवािरके मन ेम पसीजै॥
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
िवधु मुखकमल िनहािरके लोचन भर लीजै।
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
बालक प अनूप है मानव तनुधारी।
रघुकुल सुकृत व प है नृप-अिजरिबहारी।
िगिरधर भु मनुहािरके जीवन रस लीजै।
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
आज भगवा क आरती कर रह ह माताएँ।
सबस दान दी सब का । जॆिह पावा राखा निह ता ॥
(मा. १.१९४.७)
रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६)—यह ीरामकथा दस िदशा से किलको
समा कर रही ह। इसीिलए यहाँ दस दोह कह गये ह। हमार जीवनक दस इि◌य म जो
किलकाल ह, उसको यह कथा न करगी। चार ओर बधाइयाँ बज रही ह—
११३
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

गृह गृह बाज बधाव शुभ गटे सुषमाकंद।


(मा. १.१९४)
श रजीसे रहा नह गया। िशवजीने कहा—“अवधम बधाइयाँ बज रही ह, मुझे भी जाना ह।”
और—काकभुशुि ड संग हम दोऊ (मा. १.१९६.४)। िशवजी पावतीजीसे कहते ह—“देखो
म तुमसे चोरी कह रहा । जहाँ-जहाँ जाता , तु ह लकर जाता । पर आज म तु ह लकर
नह गया। ‍ िक, प ीको ल जाओ तो उसको सँभालो भी। कहाँ पानी पीयेगी, कहाँ िव ाम
करगी, ‍ा करगी, कहाँ उसक कश गड़बड़ ह गे, कहाँ उसक साड़ीका प इधर-उधर होगा
... ब त झंझट होता ह। इतना झंझट आज मुझे मोल नह लना ह। आधा मन तो मेरा तु हारम
लगा रहगा, वहाँ तो परमान◌ ह।” तो ब त अ◌ा कहते ह—
औरउ एक कहउ िनज चोरी। सुनु िगिरजा अित ढ़ मित तोरी॥
काकभुशुि ड संग हम दोऊ। मनुज प जानइ निह कोऊ॥
(मा. १.१९६.३–४)
आज दोन ने मनु य प धारण िकया ह। मनु य प धारण करक आ रह ह—
परमानंद ेमसुख फूले। बीिथन िफरिह मगन मन भूले॥
(मा. १.१९६.५)
भूल गये ह। वा◌वम अबतक तो लोग इनको भोलबाबा कहते थे, पर सहीम ये भोलबाबा
नह ह। ये तो भूलबाबा ह। कौन ह? भूल बाबा। परमान◌म डब गये। यही ह—रामकथा किल
प ग भरनी (मा. १.३१.६)। यही प गभूषण भूल बाबा ह—व े प गभूषण —प गभूषण
भी आज मनु य बन गये। तरगम आ गये, आन◌ कर िदया। हमार यहाँ अवधी और भोजपुरीम
एक गीत गाया जाता ह। अब तो लचारी कहते ह, लचारी नह उसका नाम ह नचारी। इसीको
गाकर माताएँ नाचती ह। ब त सु◌र गीत ह यह। वर ब त अ◌ा होता ह इसका। िशवजी
भूल गये।
परमानंद सुख फूले अवध आज िफरे िशव भूले, परमानंद सुख ...॥
पावती मईयाको संग नहीं लाये काकभुशुंिडके संग मन हरषाये।
ेमरस झूला पे झूले अवध आज िफरे िशव भूले, परमानंद सुख ...॥
मनुज-शरीर धरे भोला भंडारी नाच रहे काग संग भवभयहारी।
गाई रहे चैता अनुकूले अवध आज िफरे िशव भूले, परमानंद सुख ...॥
अवधके लिरकनके ब त िचढ़ायें हाथनसे छीनी-छीनी ल िशव खायें।
पानी िपये सरजूके कूले अवध आज िफरे िशव भूले, परमानंद सुख ...॥
डम बजाये गावे रामकै बधैया िचरजीव िगिरधर के ईश चारों भैया॥
भोलेबाबा बने बाबा भूले अवध आज िफरे िशव भूले, परमानंद सुख ...॥
बोिलये भोल बाबाक जय! बोिलये भूल बाबाक जय!!
ब त आन◌ करते ह िशवजी। इतना आन◌ िक कहते ह—मनुज प जानइ निह कोऊ
(मा. १.१९६.४) िकसीको मने पता नह बताया। ये तो गो वामीजी जान गये। ये जान गये, और
कौन जानेगा?
११४
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८

सूयनारायणने ाजीको ाथना प िदया—“मेर कलम एक ब त होनहार बालकने ज म


िलया ह। मुझे उस बालकक ज ममहो सवम स मिलत होना ह, तो मुझे आपसे छ ी चािहए।”
ाजीने पूछा—“िकतने िदनक ?” सूयनारायणने कहा—“कमसे कम एक िदनक ।”
ाजीने कहा—“एक िदनक िलए आप चल जायगे, तो िबजलीक supply कौन करगा?
तीन लोक म अँधेरा छा जायेगा। नारायण मुझे मार डालगे िक ाजी! आपने ‍ा िकया?”
सूयनारायणने कहा—“कछ भी करो! मुझे जाना तो ह ही। ाजी CL दे दो।” ाजीने
सूयनारायणसे कहा—“नह ! आज CL इ यािद सब छि याँ िनर◌ (cancel) हो गय ह। आज
तो और काश चािहए।”
रामज मक िदन हमार यहाँ तो यह होता ह िक िह◌ू क यौहारम िबजली नह रहगी और
लोग क यौहार म अव य िबजली रहती ह। ‍ा हमारा दुभा य ह! अब हमार अ◌े िदन कहाँ
आयगे? हम तो िच◌ाम ह। हम तो मोदीजीसे कह िक भैया सबक अ◌े िदन ह तो िह◌ु ने
कौन-सा पाप िकया ह? हमार भी अ◌े िदन आने चािहए। ये जो अ ारह जवान मार गये ह
हमार, जबतक हम अ ारह हजार नह मारगे तबतक हम संतोष नह होगा। ये कोई बात ई?
सारा अ याय हम ही पर? सबक यौहार म िबजली रहगी, हमार यौहार म कट जाती ह। हमार
ही लोग ग ार ह, तो हम ‍ा कर? अब पहल तो एक जयच◌ था, तो हम सँभाल रह थे; अब
तो लाख जयच◌ ज म ल िलए ह। हम ‍ा कर? पहल एक मानिसंह था, अब तो घर-घरम
जयच◌ और मानिसंह ही ज म ल रह ह। हमारी मिहला म भी वािभमान नह रह गया
ह। लव-िजहादक नामपर ‍ा अनथ हो रह ह आज! िह◌ु क लड़िकय को िह◌ू होनेका
वािभमान नह धूमकतु को। इ◌ और कोई वर पसंद ही नह आता। उ◌ िव ासघाितय को
वरण कर लती ह धूमकतू। ‍ा कर हम? हमको तो एक बार िफर ल मीबाई चािहए, एक बार
िफर हम जीजाबाई चािहए जो िशवाजी-जैसे संतानको उ◌ कर सक। हम एक बार िफर रानी
कमवती चािहए। हमारी बड़ी आशाएँ ह।
तो िम ो! सूयनारायणको ाजीने कहा—“हम आपको छ ी तो नह दे सकते ‍ िक यह
िह◌ु का सबसे बड़ा पव, रामजीका ज मो सव (रामनवमी) ह। यहाँ मुझे िब कल काश
चािहए-ही-चािहए ‍ िक जगत का य काशक रामू (मा. १.११७.७)। हम आपको छ ी
नह दगे। ‍ िक हम मानते ह िक यिद रामनवमीक िदन अँधेरा आ तो िह◌ु का ब त बड़ा
अपमान होगा। इितहास मुझ ाको माफ नह कर सकगा।” सूयनारायणने कहा—“यहाँक
आकाशम मेरा रथ खड़ा रहगा और म आपको वचन देता िक आजका िदन एक महीनेका
होगा। एक महीनेतक म अ◌ नह होऊगा। काश चकाचक, झमाझम, चमाचम चमकगा।”
“ठीक ह!” ाजीने सूयनारायणका यह उपाय मान िलया—
कौतुक देिख पतंग भुलाना। एक मास तेिह जात न जाना॥
(मा. १.१९५.८)
एक महीना बीत गया, उनको पता नह चला—

११५
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

मास िदवस कर िदवस भा मरम न जानइ कोइ।


रथ समेत रिब थाकेउ िनशा कवन िबिध होइ॥
(मा. १.१९५)
एक महीनेतक सूयनारायण अ◌ नह ए, िद य आन◌ कर िदया। अबतक चौबीस घ टका
िदन होता था, आज तो आन◌ कर िदया। आज सात सौ बीस घ टका िदन हो गया, चकाचक
ह। और सब लोग नाचते-गाते रह, बधाइयाँ गाते रह, धन लटाते रह। इतना ल बा महो सव
िकसी अवतारम नह आ, पर यह रह य का निह जाना (मा. १.१९६.१)। उ सव पूरा आ
तो ाजीने कहा—“भगव ! अब तो पधारो।” तो सूयनारायणने कहा—“हाँ ठीक ह।”
यह रह य का नहीं जाना। िदनमिन चले करत गुनगाना॥
(मा. १.१९६.१)
आज िदनमिन कह रह ह। जैसे मिण कभी बुझती नह , उसी कार सूयनारायण एक महीने
पय◌ अ◌ नह ए; म या ही बना रह गया चकाचक। ब त आन◌ आया, सबक मन संतु
ए। सब आशीवाद दे रह ह—
मन संतोषे सबिन के जह तह देिह अशीश।
सकल तनय िचर जीव तुलिसदास के ईश॥
(मा. १.१९६)
अब छः िदन बीत गये, तो गो वामीजी अब छः िदन कसे कह? तो ऐसी चौपाईका योग
कर रह ह िजसम छः अ र आ जायगे, पहल छः अ र—
कछक िदवस बीते यॆिह भाँती। जात न जािनय िदन अ राती॥
(मा. १.१९७.१)
कछक िदवस। िकतने अ र हो गये? िगिनए—क, छ, क, िद, व, स—यह संकत ह
मानसकारका। इसे अ र- विन या वणक- विन कहते ह। छठी आयी। छठा िदन, जागरण हो
रहा ह। आन◌ कर िदया। चै क शु प क चतुदशी—ितनकी छठी मंगलमठी। िद य
आन◌ कर िदया, छठीक िदन सबने जागरण िकया। आगे बारहवाँ िदन आ गया। अब
रघुनाथजीका नामकरण होगा—नामकरन कर अवसर जानी (मा. १.१९७.२)। विस जी
महाराजको बुलाया—भूप बोिल पठये मुिन यानी (मा. १.१९७.२)। पूजा तैयार। “भगव !
आप नामकरण कर।” विस जीने देखा—“अर! इनके नाम अनेक अनूपा (मा. १.१९७.४)।
िफर क गा।” “‍ा कहगे?”
जो आनंद िसंधु सुखरासी (सुखरासी हो)।
(ललना) सीकर ते ैलोक सुपासी (सुपासी हो)॥
सो सुख धाम राम अस नामा (अस नामा हो)।
(ललना) अिखल लोक दायक िब ामा (िब ामा हो)॥
(मा. १.१९७.५–६)
िकतना सु◌र! इसका अथ थोड़ा िववेकसे समझना पड़गा। जो आनंद िसंधु सुखरासी
सीकर—यहाँ सुखरासी श द वत◌ नह ह, वह सीकरक साथ जुड़ा आ ह। अब

११६
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८

अथ ‍ा करगे? जो आन◌क सागर ह और अपनी सुखक रािशक एक सीकर ते—


एक बूँदसे— ैलोक सुपासी तीन लोक को जो आन◌ करते ह, सो—वे ही सुखक धाम,
अिखल लोकक िव ामदायक भु, राम अस नामा —राम नामसे िस ह। यहाँ नामा माने
िस —इ वाकुवंश भवो रामो नाम जनैः ुतः (वा.रा. १.१.८)।
“राज ! बालक तो ब त अ◌ा ह। महाराज! इनका राम नाम दे दीिजये।”
(१) “राज ! मेरा मन ह िक इनक नामम थोड़ा-सा एक अ र इनक बाबाका भी नाम आ
जाए, इनक परबाबाका भी नाम आ जाए और आपका भी नाम आ जाए। रसे महाराज रघु
और आप राजा दशरथ और असे अज—इन तीन को जो म अथा सुख देता ह, उसका नाम
ह—राम ।”
(२) “ह राज ! और बताऊ?” “जी और बता दीिजये।” “राज ! यहाँ राका अथ ह
रा स और मका अथ ह मरण। यहाँ ब ीिह समास होगा—रा सानां मरणं येन अथा
िजनसे सार रा स का मरण हो जायेगा, वो ह राम ।” “अ◌ा!” “हाँ राज ! आपका जो
ज मजात श ु ह—रावण...!” “हाँ! हाँ!!” “राज ! उस रावणका मरण इ◌ से होगा।”
“ह?” “हाँ महाराज। िकसीसे बताइये नह , आप ही समिझये।” “अ◌ा!”
(३) “राज ! र माने ऋ वेद, आ माने आ ित धान यजुवद, म माने माधुय दान
सामवेद, और अ माने अथववेद—राम कहनेसे चार वेद क पाठका फल िमल जाता ह राज ।”
“अ◌ा!”
(४) “राज ! आपका यह बेटा ऐितहािसक ह। हमार यहाँ भारतम दो इितहास ह। ‍ा?
दो इितहास ह—रामायण और महाभारत। तो रासे रामायण और मसे महाभारत अथा राम।
राज ! रामायण और महाभारत इन दोन म इनका वच व रहगा। रामायणम तो इनका वच व
ह ही, और महाभारतम इ◌ क सेवक हनुमा जीक कारण अजुन जीत पायगे महाभारतको।”
“अ◌ा!” “हाँ राज !”
(५) “राज ! र माने रा और म माने म ल, इ◌ से इस भारत रा का म ल होगा
राज !”
िब भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
(मा. १.१९७.७)
िव का भरण-पोषण करते ह—भरतीित भरतः। यहाँ कताम यय आ
वतमानकालम। “राज ! ये िव का भरण-पोषण करगे।” िब भरन पोषन कर जोई,
ताकर नाम भरत अस होई।
“राज !”
जाके सुिमरन ते िरपु नाशा। नाम श ुहन बेद काशा॥
(मा. १.१९७.८)
“इनक मरणसे श ु का नाश हो जाता ह। ये श ु ह तीसर। ह चौथे पु , पर जानकर
म तीसर मम दे रहा राज , म तोड़ रहा ‍ िक भरतक साथ श ु को रहना ह।”
और अब—

११७
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

ल नधाम रामि य सकल जगत आधार।


गु बिश तॆिह राखा लिछमन नाम उदार॥
(मा. १.१९७)
“म ‍ा क राज ! म जानता िक ल मणका नाम तीसर मम रखना चािहए था। पर
मुझे एक िस ा◌ समझाना था राज ! गिणतका एक िस ा◌ ह राज िक भाग-गिणतम चार
व◌ुएँ होती ह—(१) भा य, (२) भाजक, (३) भजनफल और (४) शेष। जैसे—हमने सं या
िलखी १७, यह भा य ह; हमने ४से भाग िदया तो ४ भाजक ह; जो भाग गया ४ वही भजनफल
ह और जो कटनेसे बच गया वही शेष १ ह। तो ‍ा क शेष तो अ◌म ही होता ह, उसको
कोई काट नह पाता राज ! इसी कार आपक इन ल मणलालको िव क कोई शि काट
नह सकगी। राज ! यह ब त बिढ़या बालक ह आपका ल मणवा, ब त यारा ह!”
लालनजोग लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहिह न होने।
पुरजन ि य िपतु मातु दुलारे। िसय रघुबीरिह ानिपयारे॥
(मा. २.२००.१–२)
ये तो िपतु मातु दुलारे ह न!
कौश याजीने और दशरथजीने सुन िलया—“‍ा कह रह ह गु देव? अ◌म ल मणका
नाम रखनेका गु जीका ‍ा अिभ ाय ह?” बताया िक यही अिभ ाय ह िक शेष अ◌म ही होता
ह और शेषको कोई काट नह पाता। इसीिलए जब परशुरामजी फरसा उठाते ह, तो ल मणजी
ब त हसते ह। परशुरामजी ल मणजीसे पूछते ह—“अ◌ा यह बताओ िक तुम मेर फरसे
उठानेपर हसते ‍ हो? ‍ा तुमने मुझे िचढ़ानेक ठान ली ह?” ल मणजीने कहा—“नह
गु देव! पर जब आप फरसा उठाते ह, तो मुझे यही लगता ह िक आपको तो ाथिमक गिणत
भी नह आती। यिद आपको भाग गिणत आ गयी होती गु देव तो आप जान जाते िक िजस
सं याको गिणत नह काट पा रही ह, शेष कह रही ह, उसीको आप फरसेसे काटना चाह रह ह।
इसीिलए मुझे हसी आती ह।” नामकरण हो गया। पि याद रिखये—रामकथा किल प ग
भरनी (मा. १.३१.६)।
धरे नाम गु दय िबचारी (मा. १.१९८.१)— दयम िवचारकर। इस पि का अथ और
ग भीरतासे समिझये। नाम िबचारी, गु दय धरे—चार भाइय क नाम का िवचार करक
गु देवने इन चार ाता को अपने दयम धारण कर िलया। कहा—“राज ! आपक पु तो
वेदक त व ह।” बेद त व नृप तव सुत चारी (मा. १.१९८.१)। अकार ल मणजी ह, उकार
श ु जी ह, मकार भरतजी ह, और अधमा ा मक भगवा राम ह। ये अवधेशक चार बालक
ह—
तनकी दुित याम सरो ह लोचन कंच की मंजुलताई हरै।
अित सुंदर सोहत धूिर भरे छिब भूिर अनंगकी दूिर धरै॥
दमकै दँितयाँ दुित दािमिन- यौं िकलकै कल बाल-िबनोद करै।
अवधेसके बालक चािर सदा तुलसी-मन-मंिदर में िबहरै॥
(क. १.३)
११८
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८

रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६)। अब घुटन से चल रह ह। हमारी अवधीम


कहते ह िक जब रामजी खेलते ह न तो देखकर मन आन ◌त हो जाता ह। माताएँ गाती ह
हमारी—
िजयरा अन होई जाई रे, जब राम खेले अंगनवा।
याम गौर सुंदर दोउ जोरी। िनरखिह छिब जननीं तृन तोरी॥
(मा. १.१९८.५)
िजयरा अिधक ललचाए रे, जब राम खेले अंगनवा।
कब उछग कब बर पलना। मातु दुलारइ किह ि य ललना॥
(मा. १.१९८.८)
िजयरा अिधक सरसाये रे, जबे राम खेले अंगनवा।
आन◌ हो रहा ह। रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६)—यहाँ किलयुग नह
रहगा, रामजी रहगे और जहाँ रामजी रहगे, वहाँ ेता होगा। वहाँ किलयुग हो ही नह सकता।
अभी मोदीनगरक इस पंडालम यहाँ किलयुग नह ह, यहाँ तो ेता ह ेता। शत पा माताजीने
वरदान माँगे थे भगवा से। माँगे थे न! िकतने वरदान माँगे थे? आपको मरण ह न? छः
वरदान माँगे थे। और मनुजीने िकतने वरदान माँगे थे? दस। दस वरदान को पाना था, इसीिलए
ये दशरथ बन गये। आज दशरथजीको दस वरदान सुलभ हो रह ह। शत पाजीने छः वरदान
माँगे—
सॊइ सुख सॊइ गित सॊइ भगित सॊइ िनज चरन सने ।
सॊइ िबबेक सॊइ रहिन भु हमिह कृपा किर दे ॥
(मा. १.१५०)
“ह नाथ! जो आपक िनजी भ ह, वे आपसे जो सुख पाते ह और जो गित ा करते
ह, (१) सॊइ सुख, (२) सॊइ गित, (३) सॊइ भगित, (४) सॊइ िनज चरन सने , (५) सॊइ
िबबेक, और (६) सॊइ रहिन दान क िजये।”
अब इन छः वरदान क पूित भगवा इस दोहम कर रह ह—
यापक िनरजन िनगुन िबगत िबनोद।
सो अज ेम भगित बश कौश या के गोद॥
(मा. १.१९८)
कौस याके गोद (मा. १.१९८)—यहाँ छः अ र ह, देिखये दोहको! कह कौश या के
गोद िलखा रहता ह तो कह कौश या की गोद, पर ह छः अ र। एक ही दोहम भगवा ने
कौश याजीको छः वरदान पूणतयासे दे िदये। (१) यापक—जो यापक ह, वही आज या
बनकर कौश या के गोदम आ गये। सॊइ सुख (मा. १.१५०) भ का सुख दे िदया माताजी
को। (२) —जो ह, वे भी कौश या के गोदम आ गये। सॊइ गित (मा. १.१५०) दे
दी बालक बनकर। (३) िनरजन—िनर न ह, पर कौश या के गोदम आ गये और सा न
हो गये। अ न लगा िदया माताजीने—

११९
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

तुलसी मन रजन रिजत अंजन नैन सुखंजन जातक से।


सजनी सिस में समसील उभै नवनील सरो ह से िबकसे॥
(क. १.१)
सॊइ भगित (मा. १.१५०), भि दे दी। (४) िनगुन—िनगुण ह, पर कौश या के गोदम
आ गये। जो िनगुण थे, वे सगुण बन गये। सगुण बन गये तो उनक चरण िमल गये और
चरण म कौश याजीका ेह हो गया—सॊइ िनज चरन सने (मा. १.१५०)। (५) िबगत
िबनोद—िवनोद-रिहत थे, पर कौश या के गोदम आ गये। िवनोद िकया तो िववेक दे िदया,
सॊइ िबबेक (मा. १.१५०)। (६) सो अज—अज मा थे, पर ज म लकर कौश या के गोदम
ह, सॊइ रहिन (मा. १.१५०)।
॥ बोिलये कौश याक गोदिवहारी सरकारक जय हो ॥
हम तो यही कहगे—
आज कौश याकी गोदमें ीराम गटे आज अवधमें राम अिभराम गटे॥
बनके बालक अवध अिभराम गटे जगके पालक अवध अिभराम गटे।
आज कौश याकी गोदमें ीराम गटे आज अवधमें राम अिभराम गटे॥
आज कौश याकी गोदमें ीराम िबलसे बनके बालक नयन अिभराम िबलसे॥
नील घन याम तन शीश पे कुलिहया मुखकी िनहार शोभा लाजती जुनिहया।
आज कौश याकी गोद सुखधाम िबलसे बनके बालक नयन अिभराम िबलसे॥
कुंडल वण सोहे कमल नयनवा आनन शशांक सव सुषमा अनयवा।
आज कौश याकी गोद छिवधाम िबलसे बनके बालक सुमन अिभराम िबलसे॥
अ ण अधर सोहे दुई दुई दसनवा साँवरी शरीर राजे शीशुरदी बसनवा।
आज कौश याकी गोद गुनधाम िबलसे बनके बालक मदन अिभराम िबलसे॥
करतल लघु लघु तीर औ धनुिहया िगिरधर भु चले िबनिह पनिहया।
आज कौश याकी गोद बलधाम िबलसे बनके बालक सदन अिभराम िबलसे॥
आज ध य कर िदया, छह सुख दे िदये माताजीको। रामकथा किल प ग भरनी (मा.
१.३१.६)।
बड़ा सु◌र व प ह, बड़ा सु◌र व प! कह रह ह िक इस आन◌को माता कौश याजीने
एक वष पय◌ िनहारा। ब त अ◌ा वणन कर रह ह अब! हमार यहाँ बारह महीने होते ह,
अब एक-एक महीनेक झाँक देिखये! इतनी सु◌र यव थत वणनना हमने कह देखी नह ।
आइये देखते ह! इस वणननासे आप बोर मत होइयेगा बस।
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥
तो िम ो! ीरामकथा संसारक सारी सम या को दूर कर सकती ह और कर देगी। और क
ीरामकथाक संब धम तो म नह कह सकता पर मेरी ीरामकथा—डगू, िचकनगुिनयाक बात
छोड़ो ये तो दूर करगी ही—मेर शासक को स ुि देगी, सैिनक को बा बल देगी। अब हम
तबतक िव ाम नह लगे, जब तब अपना क मीर पूराका पूरा अपने हाथम नह ल लगे। जबतक
क मीरसे इन पािजय को खदेड़ नह दगे, तबतक हम िव ाम नह लगे। आइये, अब देख आज

१२०
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८

रामच◌जीक बारह झाँिकयाँ! खोल लीिजये, रामायणजी खोल लीिजये!


(१) चै क थम झाँक —
काम कोिट छिब याम शरीरा। नील कंज बािरद गंभीरा॥
(मा. १.१९९.१)
यह ह थम झाँक ।
हम तो हमारे राघवजू के, राघवजू हमारे है।
काम कोिट छिब याम शरीरा। नील कंज बािरद गंभीरा॥ राघवजू हमारे है।
हम तो हमारे राघवजूके राघवजू हमारे है।
थम महीनेक झाँक ह। भगवा का याम शरीर; इतना सु◌र, करोड़ कामदेव क शोभा
वहाँ िवराज रही ह! कौश याजीने नीली साड़ी धारणक ह, और रामजी बादलक समान ह।
गोदम िलया ह तो नील कंज बािरद गंभीरा (मा. १.१९९.१)। ऐसा लग रहा ह मानो नील
कमलपर ग भीर बादल िवराजमान हो रहा ह। यह थम मास चै म भगवा क झाँक ह।
(२) अब ि तीय मास वैशाखक झाँक —
अ न चरन पंकज नख जोती। कमल दलिन बैठे जनु मोती॥
(मा. १.१९९.२)
अब रामलला थोड़ बड़ हो रह ह। लाल चरण ह, नखक योित इतनी सु◌र ह जैसे
कमलक दल पर दस-दस मोती िवराज रह ह ! यह वैशाखक झाँक ह।
(३) अब रामलला और बड़ ह गे तीसर महीने ये म—
रेख कुिलश वज अंकुश सोहै। नूपुरधुिन सुिन मुिनमन मोहै॥
(मा. १.१९९.३)
कमल नह िदख रहा, चरण भी कमल जैसे ह; तो अलगसे कमल नह िदख रहा ह। और
तीन रखाएँ—कुिलश अथा व , वज अथा वजा, और अंकुश यानी बरछी—ये तीन
रखाएँ िदख रही ह। यह तीसर महीनेक शोभा ह। और थोड़ा-थोड़ा हाथ-चरण चलाने लगे ह।
ब े नह देखते हो तीन महीनेक चरण, पाँव उठाकर पटकते रहते ह! तो रामजीक नूपुरक
धुन सुनकर मुिनय का भी मन मोिहत हो जाता ह। विस जी भी चुपक-चुपक आकर सुनते ह।
रामलला िकतने सु◌र चरण चला रह ह! यह ह ये क झाँक ।
(४) अब आषाढ़क झाँक ह—
किट िकंिकनी उदर य रेखा। नािभ गभीर जान िजिह देखा॥
(मा. १.१९९.४)
किटम िकि णी ह। आषाढ़म ब त गम लगती ह तो व नह धारण कराया ह ठीक से,
ब त पतला। उदरपर तीन रखाएँ ह। नािभ इतनी ग भीर िक भई हम नह जानते! वह तो िजसने
देखा वो जाने! ाजीने देखा था, उ◌ से पूछ लीिजये िकतनी ग भीर नािभ ह!
(५) अब ावणक झाँक —
भुज िबशाल भूषन जुत भूरी। िहय हिरनख अित शोभा री॥
(मा. १.१९९.५)
१२१
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

यह ावणक झाँक ह। झूलक िलए रामललाको तैयार िकया ह माताजीने। िवशाल भुजाएँ,
बड़ सु◌र-सु◌र अल ार, दयपर बघनखा धारण कराया ह। िहय हिरनख अित शोभा
री—ब त सु◌र शोभा ह! नृिसंह भगवा ने ही अपने नख बघनखाक िलए दे िदये ह िक
माताजी! ये राघवजीको धारण करवाइये ‍ िक िहर यकिशपुका व ः थल िवदीण करनेसे मेर
नख खूनी हो गये थे। आज उ◌ को काटकर दे रहा । भगवा का बघनखा बना दीिजये। ह
ह र! मेरा सौभा य! नह तो िहय बघनख िलख देते, तो ‍ा िबगड़ जाता?
(६) अब भाद क शोभा—
उर मिनहार पिदक की शोभा। िब चरन देखत मन लोभा॥
(मा. १.१९९.६)
भगवा क दयपर मिणका हार, हीरा चमक रहा ह। पिदक माने हीरा। और विस जीक
चरण माताजीने रखवा िदए थे, िजससे नजर न लगे। तो िव चरण देखकर मन मु ध होता जा
रहा ह, ल ध हो रहा ह। ब त सु◌र!
(७) अब आया आि न मास, िजसको हम आजकल ‍ा बोलते ह? ार। इसक झाँक
देिखये—
कंबु कंठ अित िचबुक सुहाई। आनन अिमत मदनछिब छाई॥
(मा. १.१९९.७)
श क समान भगवा का गला ह, ब त सु◌र िचबुक (ठोढ़ी) ह, भगवा क ब त सु◌र
मुख। अब भु धीर-धीर मु कराने लगे ह। तो भगवा क मुखपर अनेक मदन अनेक कामदेव क
छिव छा गयी ह। आहाहा!
(८) अब आठव महीने काि कका वणन देिखये—अब यानसे सुिनये। ब त अ◌ा ह!
सातव महीनेम भगवा क दाँत िनकल आये ह, और आठव महीनेम अब िदखने लगे ह—
दुइ दुइ दशन अधर अ नारे। नासा ितलक कॊ बरनइ पारे॥
(मा. १.१९९.८)
भगवा ीक णक आठव महीनेम दाँत िनकल थे। िजस बालकक दाँत आठव महीनेम
िनकलते ह, वह मामाको खा जाता ह। परतु राघवजीक दाँत सातव महीनेम िनकल चुक थे,
अब दुइ दुइ दशन िदख रह ह चमाचम। लाल अधर, नासा भगवा क बड़ी सु◌र, ितलक
और माताजीने नजरक डरसे नाकपर भी थोड़ा ितलक लगा िदया ह तो—नासा ितलक कॊ
बरनइ पारे। अथवा भगवा क नािसकापर एक ितल ह, इतना सु◌र ितल िक उसका कौन
वणन करगा! ‍ा आन◌ हो रहा ह! नासा ितलक कॊ बरनइ पारे।
(९) अब आया मागशीष यािन अगहन—तो अगहनका ‍ा वणन कर रह हो? ब त सु◌र
ह!
सु र वन सुचा कपोला। अित ि य मधुर तोतरे बोला॥
(मा. १.१९९.९)
भगवा क वण बड़ सु◌र ह। नौ महीनेका बालक सु◌र होता ही ह। गो वामीजी कहते
ह िक नौव महीनेम रामजी बोलने लगे ह। बड़ा सु◌र व प—मईया, बाबा, भलत, ल◌मन,
१२२
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८

छ ुहन—ऐसे बोलते ह, गुलजी ऐसे बोलते ह। मागशीषम भगवा का इतना सु◌र यव थत


वणन तो हमने कह नह देखा।
(१०) अब पौषका महीना बड़ा सु◌र ह—अब भगवा क ने क बारम सुिनये—
नील कमल दॊउ नयन िबशाला। िबकट भृकुिट लटकिन बर भाला॥
(मा. १.१९९.१०)
यह चौपाई गीता ेसने नह दी ह, हमने दी ह और ब त ामािणक चौपाई ह। नील कमल
दॊउ नयन िबशाला, नीलकमलक समान भगवा क सु◌र ने ह, टढ़ी भ ह ह, और म◌क
पर लटकती ई घुँघराली लट क लटकन े ता क साथ सुशोिभत हो रही ह। यह भगवा क
पौषक झाँक ह।
(११) अब माघका दशन देिखये—
िच न कच कुंिचत गभुआरे। ब कार रिच मातु सँवारे॥
(मा. १.१९९.११)
भगवा क बाल ह, अभी इनका मु डन नह आ ह। मु डन तीसर वषम होगा। माँने ब त
सजाया ह, सु◌र-सु◌र फल पील-पील, लाल-लाल सु◌र पु प गु◌ेम बनाये ह और कशम
लगाये ह। तो भगवा क म◌कपर लटक रह ह ये गु◌े।
(१२) अब फा गुनका महीना—तो फा गुन और होलीका अवसर आने जा रहा ह। राघवक
भािभयाँ भी उनको िमलग । यिद राघव व धारण नह करगे तो ग रयायग —“ये तो नंगे ह
नंगे।” इसिलए शैशवाव थाम भी धारण करायी ह पीली झगुिलया—
पीत झगुिलया तनु पिहराई। जानु पािन िबचरिन मॊिह भाई॥
(मा. १.१९९.१२)
अब घुटन से, झगुिलया धारण करायी ह और वह चरणतक जा रही ह। कहते ह—जानु
पािन िबचरिन मॊिह भाई अब घुटन से चलना मुझे ब त भा रहा ह भगवा का।
प सकिह निह किह ुित शेषा। सो जानइ सपनॆ जेिह देखा॥
(मा. १.१९९.१३)
िजसने सपनेम भी देखा ह वही उस पको जानता ह। गो वामीजी संकत करते ह िक मने
आज ही राि म सपनेम ये बारह झाँिकयाँ देख । और ये मने जैसा देखा, वैसा िलख िदया।
॥ बोिलये गो वामीतुलसीदासजी महाराजक जय ॥
सुखसंदोह मोहपर यान िगरा गोतीत।
दंपित परम ेम बश कर िशशुचिरत पुनीत॥
(मा. १.१९९)
अ त आन◌ कर रह ह। माँ गोदम लती ह, अब अवधवासी भी गोदम ल रह ह। यहाँ एक
पि बड़ी सु◌र कही गयी। गो वामीजी कहते ह िक अर जीवो! भगवा तो कपा करनेको
तरस रह ह, पर हम ही अपनी चालाक नह छोड़ रह ह—
मन म बचन छािड़ चतुराई। भजत कृपा किरहै रघुराई॥
(मा. १.२००.६)
१२३
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

ब त आन◌ कर रह ह। अब इस कथाक िव ाम झाँक । आ गयी चै क रामनवमी और


भगवा का दूसरा ज मिदन और थम वषगाँठ। चार ओरसे बधाइयाँ, सभी लोग गा रह ह—
बधाई रघुराई ज मिदनकी तुमको। बधाई रघुराई ज मिदनकी तुमको॥
अिमत बार आये ज मिदन तु हारा। सदा हम मनाएँ ज मिदन तु हारा॥
बधाई चारों भाई ज मिदनकी तुमको। बधाई हो बधाई ज मिदनकी तुमको॥
एक बार जननी अ वाए। किर ंगार पलना पौढ़ाए॥
बधाई रघुराई ज मिदनकी तुमको॥
अ त आन◌ हो रहा ह। आज माताजीने भुको ान कराया, ार करक पलनेपर
पौढ़ाया—“राघव! आज आपका ज मिदन ह। आज आप एक वषक हो गये ह। आज र नाथको
भोग लगेगा। आज हम आपका अ ाशन करायगे।” भगवा को पौढ़ा िदया, पूजा क , नैवे
चढ़ाया; माताजी वयं चली गय देखने जहाँ भोजन बन रहा था। कसी यव था ह, सबको
भोजन कराना ह आज। छ पन करोड़ देिवयाँ और ततीस करोड़ देवता आयगे। इधर पट बंद
ए और राघवजी चल गये। िकवाड़ बंदका बंद! कहा—“ऐ र नाथ! ‍ा कर रह हो?”
र नाथजीने कहा—“तुम ‍ आ गये?” राघवजीने कहा—“तु हारा मि◌ क गड़बड़ हो गया
ह ‍ा? तुमको िकसने बुलाया?” र नाथजीने कहा—“तु हारी माँने।” राघवजीने कहा—
“तुमको मेरी माँने बुलाया ह और मुझको मेरी माँने ज माया ह, अिधकार िकसका ह बताओ?”
र नाथजीने कहा—“अ◌ा, ‍ा कर?” राघवजीने कहा—“छो जाओ र नाथ! छो जाओ
यार! छो जाओ। ज मिदन मेरा और (ससुर) भकोसोगे तुम? यह कसे चलगा? मुझे भोजन
करना ह, तु ह नह । ‍ा नाम ह तु हारा?” उ◌ ने कहा—“मेरा नाम ह र नाथ। तु हारा ‍ा
नाम ह?” भगवा ने कहा—“पहल mind your language. (अपनी भाषापर िवचार करो)।
मुझे तु हारा मत बोलो। म तो तु हार बापका भी बाप । तुम िव णु हो और तु हार बाप ह
महािव णु, म उनका भी बाप —रामजी । घबराओ मत! तु हारा बाप म। तुम िव णु हो,
म महािव णु ।” र नाथजीने कहा—“अ◌ा भाई। आप कौन?” भगवा ने कहा—“तु हारा
नाम र नाथ, तो मेरा नाम उछगनाथ।” र नाथजीने कहा—“अ◌ा! िकसने रखा?” भगवा
बोल—“मेरी माँने।” र नाथजीने कहा—“‍ा कहा?” भगवा ने कहा—
कब उछग कब बर पलना (खेले राम ललना)।
मातु दुलारइ किह ि य ललना (खेले राम ललना)॥
(मा. १.१९८.८)
“अ◌ा! तुम सो जाओ, म खाऊगा।” अर महाराज! ार भ कर िदया, सौ थाली पूरी कर
डाल । छोट-से बालक, बड़ सु◌र, खीर पा रह ह। अब हाथ छोटा ह तो थालीम पसर कर
बैठ गये ह। कटोरम खीर ह, झुककर पा रह ह। और आगेवाल बाल कटोरम डब गये। इतना
सु◌र लग रहा ह जैसे ग ाजीम यमुनाजीक धारा बह रही ह। माताजी आय , देखा—अर! ये
मेर राघव यहाँ कसे आ गये?—

१२४
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८

गइ जननी िशशु पह भयभीता। देखा बाल तहाँ पुिन सूता॥


इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मित म मोर िक आन िबशेषा॥
(मा. १.२०१.५, ७)
ह राम! यहाँ भी राघव वहाँ भी राघव!! अर राम!!!
राम ललना मेरे राघव ललना॥
आज मंिदरमें जीम रहे राम ललना॥
आज पलनेमें झूल रहे राम ललना॥
इहाँ मंिदरमें जीम रहे राम ललना॥
ऊँहा पलनेमें झूल रहे राम ललना॥
राम ललना मेरे राम ललना॥
मेरे मंिदरमें जीम रहे राम ललना॥
राम ललना मेरे राघव ललना॥
मेरे मंिदरमें जीम रहे राम ललना॥
आज पलनेमें झूल रहे राम ललना॥
देखा माताजीने। प ीस च र लगाये माताजीने। भगवा ने देखा ये तो थक गय ह, तो भु
हिस दी मधुर मुसुकानी (मा. १.२०१.८) मु कराये भगवा । और वह बदल गया बालक
प, अ त प देखा माताजीने—हरिषत महतारी मुिनमनहारी अ त प िनहारी (मा.
१.१९२.१)।
दॆखरावा मातिह िनज अ त प अखंड।
रोम रोम ित लागे कोिट कोिट ंड॥
(मा. १.२०१)
ह राम! एक-एक रोमम करोड़ -करोड़ ा ड िदखा िदए। छोटा-सा म ◌र इतना बड़ा हो
गया भगवा का। अनेक सूय, अनेक च◌मा, अनेक ा, अनेक िव णु, अनेक श र। देखा
िक माया हाथ जोड़कर खड़ी ह। जीवको देखा जो इसे नचाती ह, भि क दशन िकये जो उ◌
छोड़ती ह। अर राम! माताजी भयभीत, णाम िकया भगवा को। अर! जग क िपताको मने
अपना बेटा मान िलया! ह माँ! ‍ा होगा? अ◌म भगवा ने सोचा िक माताजी िव मत हो गय
ह, अतः िफर बालक बन गये। माताजीने कहा—“ऐसी लीला करक आपने मुझे ‍ सताया?”
भगवा ने कहा—“आपने थोड़ी गलती कर दी। आपका िववेक िशिथल हो रहा था। आपने
र नाथजीको मुझसे बड़ा मान िलया था। आपका यह म दूर करनेक िलए मने ऐसा िकया,
अ त प िदखाया। आपने ज मक समय देखा था पर इतना िव◌ृत नह देखा था—रोम-रोमम
ा ड। आपने तो कहा था—रोम रोम ित बेद कहै (मा. १.१९२ छ. ३)। मने कहा िक
जो वेद कहते ह वे स य कहते ह, झूठ निह बोलते वेद, यह देख लीिजये।” िफर माताजीको
भगवा ने ब त समझाया और कहा—“यह बात िकसीसे मत किहयेगा।” माताजीने कहा—“म
भी आपसे ाथना करती िक आजक प ा आपक यह माया मुझपर कभी न यापे।”

१२५
कथा ९ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प

रामकथा किल प ग भरनी। पुिन िबबेक पावक कह अरनी॥


(मा. १.३१.६)

कथा ९: पुिन िबबेक पावक कह अरनी (मा. १.३१.६)


अब नौव कथा। िवल ब तो हो गया पर थोड़ा-सा और सुिनये। अर! ‍ा िवल ब हो गया!
‍ा करगे आप जाकर? अब बाल-लीला। इस कथाक िलए कहते ह िक यह कथा िववेक
प अि क िलए अरणी ह। जैसे य म अरणीका म थन होता ह तब अि िनकलती ह; उसी
कार यहाँ भी य हो चुका ह, अरणीका म थन हो रहा ह। बड़-बड़ सं कार म य ह गे।
अ ाशन हो गया, अब चूड़ाकरन की गु जाई (मा. १.२०३.३)—गु देवने चूडाकरण
िकया। नाईको नह बुलाना पड़ा। कवल ित ा कर ली, बाल िसमट गये, मु डन हो गया।
ब त आन◌ आया। ब क साथ खेल रह ह भगवा —
भोजन करत बुलावत राजा। निह आवत तिज बालसमाजा॥
(मा. १.२०३.६)
नह आ रह ह। राजा बुला रह ह। कहा—“राजा होकर बुलाइयेगा तब म नह आऊगा।”
कौश या जब बोलन जाई। ठमुिक ठमुिक भु चलिह परायी॥
(मा. १.२०३.७)
कौश या गय बुलाने, कोसलानां रा ी कौश या, तो भगवा ने कहा—“रानी अपने
घरक रिहये; नह आऊगा।” पर जब रानीका अिभमान छटा—“नह ! नह !! म रानी नह
बेट! म तु हारी माँ ।” तब—
िनगम नेित िशव अंत न पावा। तािह धरइ जननी हिठ धावा॥
(मा. १.२०३.८)
वेद ने कहा हम पकड़गे। एक लाख वेदम◌ बालक बने, पकड़ना चाह पर नह पकड़
पाये। श रजीने कहा—“म पकडगा”, नह पकड़ पाये। श रजी िगर पड़, पूर शरीरक राख
आँगनम लग गयी, वही धूिर बन गयी, तब—
धूसर धूिर भरे तनु आये। भूपित िबहिस गोद बैठाये॥
(मा. १.२०३.९)
वयं तो धूसर अथा धूलसे भर भगवा ही ह, तो िफर धूिर भरे ‍ िलख िदया? इसका
अथ यह ह िक वयं तो धूलसे भर ही ह और माताजी जब पकड़ने लग तो उनपर भी दो-
तीन मु ी धूल डाल दी—धूिर भरे तनु। अब जब दोन को देखा महाराजने तो हसने लगे और
कहा—“‍ बेट? आज अपनी माताजीक साथ होली खेल ली तुमने?” गोदम बैठा िलया,
भोजन कराने लगे—
भोजन करत चपल िचत इत उत अवसर पाइ।
भािज चले िकलकत मुख दिध ओदन लपटाइ॥
(मा. १.२०३)

१२६
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ९

िकलक रह ह। जैसे ही मुखसे दही भात िगरा, वही जूठन भुशु डजीने पा ली—जूठन परइ
जॊ अिजर मह सो उठाइ किर खाउ (मा. ७.७५क)। अब बड़ हो रह ह।
बालचिरत अित सरल सुहाये। शारद शेष शंभु ुित गाये॥
(मा. १.२०४.१)
भुका बाल च रत ब त सु◌र ह। इसे सर वती, शेष, श र, और वेद ने गाया। सर वतीजी
प ी लकर आय , शेषजी पृ वीसे खिड़या लकर आये, पहल प ीपर उसीसे िलखते थे। श रजीने
चौदह सू का उ ारण कराया, ुितय ने देवनागरी िलिप बतायी। और भगवा का य ोपवीत
आ—
भये कुमार जबिह सब ाता। दी जनेऊ गु िपतु माता॥
(मा. १.२०४.३)
भगवा को य ोपवीत धारण कराया गया। य ोपवीतक नौ धागे, नौ देवता का एक-एक
धागेम आ ान होता ह—(१) ॐकार, (२) अि देव, (३) सप, (४) सोम, (५) जापित, (६)
िपतर, (७) वायु, (८) यम और (९) िव ेदेव का। नौ देवता क भगवा आ य ह। भगवा ने
य ोपवीत धारण िकया।
गु गृह गये पढ़न रघुराई। अलप काल िब ा सब आई॥
(मा. १.२०४.४)
यह ह—िब ा िबनु िबबेक उपजाये (मा. ३.२१.९)। पुिन िबबेक पावक कह अरनी
(मा. १.३१.६)। गु देवक यहाँ गये भगवा पढ़ने, थोड़ ही कालम सारी िव ाएँ आ गय िब ा
िबनय िनपुन गुनशीला (मा. १.२०४.६)। दी ा◌ समारोह आ, भगवा ने विस जीको
गु दि णा दी—“गु देव! जबतक भारतसे आत वादको समा नह कर दूँगा, तबतक म
धनुष नीचे नह रखूँगा—यही मेरी गु दि णा ह।” और भगवा पधार गये।
ब त सु◌र िदनचया ह। ातःकाल उठकर माता-िपता, गु देवको णाम करते ह। िजस
कार लोग सुखी रहते ह, ऐसा संयोग करते ह। वनम मृगया करते ह, जो शािपत लोग मृग बन
गये ह, उनको बाणसे मारकर साकतलोक भेज रह ह। इस कार नौव कथा पूण।
यापक अकल अनीह अज िनगुन नाम न प।
भगतहेतु नाना िविध करत चिर अनूप॥
(मा. १.२०५)
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो!
पवनपु हनुमा जीमहाराजक जय हो!
गो वामी तुलसीदासजीक जय हो!
जय-जय ीसीताराम!!!

१२७
प म पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
ीरामच रघुपु व राजवय
राजे राम रघुनायक राघवेश।
राजािधराज रघुन न रामभ
दासोऽहम भवतः शरणागतोऽि म॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
य य रघुनाथकीतनं त त कृतम का िल ।
वा पवािरपिरपूणलोचनं मा ितं नमत रा सा क ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय। पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी
तुलीदासजी महाराजक जय हो। ेमसे बोिलये ीसीताराम भगवा क जय हो।
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
तुलसी सीताराम कहो दय रािख िब वास।
कब िबगड़त ना सुने ( ी)सीतारामके दास॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

रामकथा सुंदर करतारी। संशय िबहग उड़ावनहारी॥


(मा. १.११४.१)
रामकथा किल प ग भरनी। पुिन िबबेक पावक कह अरनी॥
(मा. १.३१.६)
पुिन िबबेक पावक कह अरनी। भगवा क बाललीला-यु यह नौव कथा मा तीन
दोह म ह। बालका डक २०३से २०५—इन तीन दोह म और म यक कवल २५ चौपाइय म
अथा २८ पद म यह कथा कही गयी ह। यहाँ ‍ा िववेक देखा होगा आपने? कौन-सी घटना
घट रही ह, जो यह बता रही ह िक िववेक-पावकक िलए अरणी ह? जैसे अरणीका म थन
करनेसे य क अि देव कट होते ह, उसी कार इस कथाका िच◌न करनेसे हमार जीवनम
िववेक कट हो जाता ह। कौन-सा िच◌न? घटनाएँ तो ब त कम ह इस कथाम। पहली घटना
यही ह िक भगवा दशरथजीक अिजरम मण कर रह ह—
मन म बचन अगोचर जोई। दशरथ अिजर िबचर भु सोई॥
(मा. १.२०३.५)
अथा जो भु मनक अगोचर ह, मनक िवषय नह बन पाते, मनम ज दी नह आ पाते,
मम नह आ पाते, वचनम नह आते; वही भु आज दशरथजीक अिजर अथा आँगनम
िवचर रह ह। इसका अथ यही ह िक जब जीवनम िववेक आता ह, तो मोह चला जाता ह। तब
यि को भगवा क चरण म ेम हो जाता ह और जब ेम हो जाता ह तो यि को भगवा
िमल जाते ह—
होइ िबबेक मोह म भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
(मा. २.९३.५)
आज तीन माता को कोई मोह नह ह। दशरथजीको मोह नह , िववेक ही िववेक ह। और
भगवा मण कर रह ह दशरथजीक आगे आँगनम।
दूसरी घटना ब त अ◌ी ह—
भोजन करत बुलावत राजा। निह आवत तिज बालसमाजा॥
(मा. १.२०३.६)
च वत जी भोजन कर रह ह और भोजन करते समय भगवा रामको बुला रह ह। यहाँ
यही िववेक ह िक हमको येक समयम भगवा का मरण रखना चािहए। भोजनक समय भी
भगवा का मरण अव य करना चािहए। जब भगवा का मरण करगे तभी तो भोजन होगा
और भगवा का मरण नह करगे, तो खाना बन जायेगा; तब भोजन कहाँ रहा? राजा बुला
रह ह, और भगवा बालक-समाजको छोड़कर नह आ रह ह। यहाँ ‍ा िववेक ह? ‍
नह आये िपताजीक बात सुनकर भी? भगवा ने कहा—“यिद िपताजी बुलाते तो दौड़कर आ
जाता। परतु यिद राजा बुला रह ह, तो म तो राजािधराज ; म ‍ आऊ? नह आऊगा।”
और जब नह आये तब, कौश या जब बोलन जाई (मा. १.२०३.७)—कौश याजी बुलाने
गय , तो भी भगवा नह आये। ‍ नह आये? ‍ िक सं कतम कौश याका अथ होता ह—
कोशलानां रा ी कौश या अथा कोशलदेशक महारानीको कौश या कहते ह। कोशल य
१३०
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

पु ी कौश या वे एक राजाक बेटी ह। दि ण कोशलक बेटी ह, उ रकोशलक महारानी


ह। भगवा ने कहा—“राजपु ी और राजरानीक बुलानेसे म थोड़ ही आऊगा! नह आऊगा।
जाओ!” ठमुिक ठमुिक भु चलिह पराई (मा. १.२०३.७)। ठमुक-ठमुक—ठमुकना माने
होता ह क जाना, कते ह। रानी सोचती ह िक म पकड़ लगी, तो भाग जाते ह। इसिलए
भगवा को बुलाते समय िकसी पदका अिभमान नह रखना चािहए—यह यहाँ िववेक ह।
िनगम नेित िशव अंत न पावा (मा. १.२०३.८)—वेद िजनको नेित-नेित कहते ह, श रजी
िजनका अ◌ नह पाये; उ◌ को—तािह धरै जननी हिठ धावा (मा. १.२०३.८)। उ◌ को
हठपूवक पकड़नेक िलए आज माताजी दौड़ । यहाँ ब त िवल ण योग ह। जननीक साथ
धाई होना चािहए, ‍ िक जननी ीिल ह। पर धाई न िलखकर धावा िलख रह ह? इसका
ता◌य यह ह िक आज माताजीने पु षाथका योग िकया। ठीकसे साड़ी कसकर बाँधी और दौड़
पड़ िक म पकडगी दौड़कर। भगवा ने कहा—“दौड़कर पकड़ोगी?” त ावतोऽ यान येित
(ई.उ. ४) दौड़कर पकड़ने वाल से भगवा पकड़म नह आते। इसिलए भगवा को दौड़कर
मत पकड़ो। उनसे तेज कौन दौड़ सकता ह? पर जननी ह अब, न तो दि णकोशलक राजपु ी
ह और न उ रकोशलक रानी। अब तो वे माँ ह। जब माँ ह, तब भगवा वयं आ गये; पकड़म
तो नह आये।
धूसर धूिर भरे तनु आये। भूपित िबहिस गोद बैठाये॥
(मा. १.२०३.९)
भगवा माँक गोदम आ गये—“‍ दौड़ रह ह आप मेर िलए?” माँका िववेक जगा,
माँने भगवा क धूल प छी नह और उसी कार ल आय । वयं भी भगवा धूलम भर ह,
माताजीक ऊपर भी दो-तीन मु ी धूल फक दी। बालक तो बालक ही ह। धूसर माने होता ह
धूलसे भरा आ। िफर धूिर भरे तनुका ‍ा अथ ह? वयं तो धूलसे धूस रत ही ह, और
माताजीक तनको भी धूलसे भर िदया। माताजीने बुरा नह माना िक मेरी सु◌र-सु◌र साड़ी ग◌ी
कर दी। “कछ नह !” माताजी जानती ह िक यह तो मुझ कौश याको धूल िमल रही ह; इसी
धूलका एक कण अह याका उ ार करगा। इसिलए भूपित िबहिस गोद बैठाये। यह सब
िववेक-ही-िववेक ह। िववेक और ‍ा ह?
भोजन करत चपल िचत इत उत अवसर पाइ।
भािज चले िकलकत मुख दिध ओदन लपटाइ॥
(मा. १.२०३)
ब त िववेक ह। गोदम बैठा िलया भगवा को और च वत जी कौश याजीसे कछ बात
करने लगे—“देखती हो? रामललाने आज िकतना आन◌ कर िदया!” जब महारानीजीसे बात
करनेम वे य◌ हो गये तो, इत उत अवसर पाइ अथा इधर िपताजीक यहाँसे भी अवसर
िमल गया और उधर माताजीक यहाँसे भी अवसर िमल गया। तब भगवा भाग चल। इसका
अथ यह ह िक भगवा को ा करनेक बाद िकसी औरसे बातचीत नह करनी चािहए, नह तो
भगवा चल जायगे। यह भी एक िववेक ह।

१३१
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

भोजन करत चपल िचत इत उत अवसर पाइ।


भािज चले िकलकत मुख दिध ओदन लपटाइ॥
पुिन िबबेक पावक कह अरनी। ार भ ई िव ा। िववेक आता कहाँसे ह? िव ासे िववेक
आता ह। तो सोिचये! यह बात कौन कह रहा ह? रामच रतमानसजीक खलनाियका कह रही ह।
और खलनाियका कौन ह? खलनायकक प ीको खलनाियका नह कहते। वा◌वम जो नायक
और नाियकाक िबछड़नेम कारण बनती ह, उनक िवयोगम कारण बनती ह, उसे खलनाियका
कहते ह। म◌ोदरी खलनाियका नह ह, खलनाियका शूपणखा ह। तो शूपणखा कहती ह—
िब ा िबनु िबवेक उपजाये। म फल पढ़े िकये अ पाये॥
(मा. ३.२१.९)
िव ा तो िववेकको उ◌ करती ह। इसीिलए—
गु गृह गये पढ़न रघुराई। अलप काल िब ा सब आई॥
(मा. १.२०४.४)
गु देवक यहाँ भगवा राम उपवीतक प ा गये।
भये कुमार जबिह सब ाता। दी जनेऊ गु िपतु माता॥
(मा. १.२०४.३)
िववेकका िनयम ह िक िववेक तो उसीको िमलगा, जो वणा मपर िव ास करगा। जो चार
वण व चार आ म पर िव ास नह करता, उसे िववेक कहाँसे िमलगा? य ोपवीत धारण कर
िलया ह भगवा ने। कल हम बता रह थे न आपको िक य ोपवीत माने जनेऊ। इसे साधारण नह
समझना चािहए। नौ तागे होते ह य ोपवीतम और इसक त◌ु म मशः (१) णव (ॐकार),
(२) अि , (३) सप, (४) सोम (च◌मा), (५) जापित, (६) िपतर, (७) अिनल (वायु), (८)
यम, और (९) िव देवताका आ ान होता ह। इसम तीन थयाँ होती ह—(१) - थ, (२)
िव णु- थ और (३) - थ। िजसक तीन वर ह गे उसक जनेऊम तीन फर और िजनक
पाँच वर ह गे उनक पाँच फर। अब तो लोग िशखा-सू भी भूल गये, वर भी लोग नह
जानते ह। एक बार मने एक ब त बड़ कमका डीसे पूछा, पर उसको वर नह आता था। मेर
तीन वर ह। म अपनी बात तो आपको बता ही दूँ, आपको अ◌ा लगेगा। हमार विस गो ीय
ा ण भी पि मम ब त ह। मुझे यि गत विस गो पर ब त गौरव ह। म अपनी बात कह
रहा । आप लोग बुरा मत मानना। हमार ही यहाँ तो रामजी िव ाथ बनकर आये थे—
गु गृह गये पढ़न रघुराई। अलप काल िब ा सब आई॥
(मा. १.२०४.४)
यह ब त अ◌ी चौपाई ह रामायणजीक । जब म थम बार १९७१क ज मा मीको वामी
करपा ीजीसे िमला सं कत िव िव ालयम तब हमार िव िव ालयका नाम वाराणसेय सं कत
िव िव ालय था। इसक प ा इसका नाम बदलकर हो गया स पूणान◌ सं कत िव िव ालय।
करपा ी वामी येक ज मा मीको हमार िव िव ालयम आते थे भाषण करने। म अपने
समयका ब त अ◌ा छा था और अपने आदश गौरीश र सं कत महािव ालयसे उ रम यमा
पय◌ पढ़कर आया था। कठोर-से-कठोर सं कत म समझ लता था, परतु जब करपा ी वामीने
१३२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना

इतना सु◌र भाषण सं कतम िकया तो मने, मुझ-जैसे िव ाथ ने भी, मा ७५ ितशत समझा।
म झूठ नह बोलता। आजकलक लड़क वयंक िलए कह देते ह िक म शुकाचाय । म
‍ा बताऊ? एक लड़का मुझको ह र ारम िमला। ज मा य (भा.पु. १.१.१) पढ़ना उसको
आता नह था और बालशुकाचाय अपनेको िलखता था। िजनक आँख च ल ह , िभ -िभ
क या पर िजनक आँख जाय, वे आज बालशुकाचाय बन बैठ! सोिचये? तो म यह नह कह
रहा िक म ब त िव ा । मुझे कवल ७५ ितशत समझम आया, पर मेर मनम बात हो
गयी िक मुझे ऐसी तैयारी करनी ह िक मुझे शत- ितशत समझम आना चािहए। िफर तीन महीने
मने ब त कठोर प र म िकया, घनघोर प र म िकया। उसी िदन जब म करपा ीजीसे िमला,
उनक भाषणक प ा , तो वे बड़ स ए। उ◌ ने पूछा—“िकतना ितशत तुमने मेरा व य
समझा?” तो हमार सं कतक सभी िव ािथय मसे िकसीने कहा ५ ितशत, िकसीने कहा १०
ितशत। मने कहा—“आपका व य मने ७५ ितशत समझा।” “अर!” वे बोल—“तुम बड़
यो य हो बेट! अ◌ा, एक काम करो। रामायणक चौपाई कछ जानते हो?” मने कहा—“मने
पूरी क ठ थ कर ली महाराज। सात वषक अव थाम मने रामायणजी क ठ थ कर ली थी।”
कहा—“एक काम करो।
गु गृह गये पढ़न रघुराई। अलप काल िब ा सब आई॥
(मा. १.२०४.४)
इसीका संपुट लगाकर तुम अब ितिदन रामायणजीका एक नवाहपारायण करो। देखना िफर
यह चौपाई र ला देगी।” िफर मने दूसर िदनसे ार भ कर िदया और ३० अ ैल १९७६को
जब मने अ ◌म परी ा दे ली तो जाकर वामीजीको णाम िकया। उ◌ ने कहा—“अर! अब
तो हो गया, अब तो तुमने शा ी भी टॉप िकया, आचाय भी टॉप िकया, अब बंद कर दो।”
मने कहा—“नह ! थोड़ी देर और पढ़ने दीिजये। जबतक पी.एच.डी. न कर ल तबतक।”
उ◌ ने कहा—“अ◌ा, ठीक ह!” िफर १४ अ ूबर १९८१को जब मेरा पी.एच.डी.का viva
हो गया। तब उ◌ ने कहा—“अ◌ा! अब मत पढ़ना। नह तो झगड़ा हो जायेगा।” यह इतनी
मह वपूण चौपाई ह। मुझको तो यही लगता ह िक जो ितभा िमली ह, यह करपा ीजीक ेरणा,
गु जन का आशीवाद और इसी चौपाईसे रामायणजीक पाठ करनेका फल िमला मुझको।
गु गृह गये पढ़न रघुराई। अलप काल िब ा सब आई॥
(मा. १.२०४.४)
‍ा कर! तुम लोग पढ़ना ही नह चाहते, यथक ग प लगाओगे। अब आज पूछा मने—
प रािश नृप अिजर िबहारी (मा. ७.७७.८), तो इतना भी नह आया। म झूठ नह बोलगा,
मुझे उस समय ब त ोध आया। आँख लकर, बटन-जैसी, बैठ हो यार! ‍ नह आया, ‍
नह आता? इसका अथ ह िक तुम शा क िलए समिपत ही नह होना चाहते। िजस िकसी भी
िव ाथ को ितभावा बनना ह, वह इसी चौपाईसे कम-से-कम नवाहपारायण या मासपारायण
करना ार भ करो। देखो! र ला देगी! और ीकरपा ीजीका वचन झूठा नह जायेगा। ब त
अ◌े थे। म ब त गौरवसे कहने जा रहा िक बीसव सदीक उ राधम ीकरपा वामीजी
अिभनव श ाराचाय ही थे।

१३३
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

देिखये! यह बात सब लोग भूल जाओ और आजसे अपने मनसे िनकाल दो िक भगवा नह
िमलगे। आज भी भगवा िमलते ह। दूसरी बात भी अपने मनसे िनकाल दो िक पढ़ने-िलखनेका
स मान नह ह। आज भी िव ाका स मान ह और रहगा। हाँ! िड ीका स मान नह ह। िड ी
पाकर तुम आचाय बन जाओ। एक अ र सं कत बोलना तुमको नह आता। ‍ा कर लोगे
आचाय बनकर तुम? वही बस सेठ का ॐ गणानां वा गणपितं हवामहे (ऋ.वे. २.२३.१)
करते रहो और सेठ से अर-तूरक भाषा सुनते रहो और ‍ा करोगे? आजतक क थितम मने
िकसीक यहाँ कभी कमका ड नह िकया, िकसीक भंडारम भोजन नह िकया, ा म भोजन
नह िकया। कछ नह । ‍ िक मने पढ़ा अपने आन◌क िलए, पैसेक िलए नह पढ़ा था। नह
तो आप बताइये! यूिनविसटी टॉप करनेक बाद कोई ोफसर बने रह सकता ह ‍ा? परतु मने
नौकरी नह क । देिखये! पढ़नेका फल जीिवका नह ह, सं कतभाषाक अ ययनका फल ह
भगवा क ाि । जीवनम कभी िकसीको मने स यनारायण कथा नह सुनायी, िकसीसे चरण
नह धुलवाया। सब लोग यही सोचते ह िक बाबा ह, पढ़-िलखे ानी ह, इनसे पूजा कराओ,
कमका ड कराओ, ा कराओ। यह ा णका फल थोड़ ही ह! हमको गव ह अपनी
िव ापर! तो िम ो! आज भी िव ाका प रणाम िमलता ह। आज भी िव ाका स मान होता ह,
परतु उसक िलए पहल याग करना पड़ता ह। और पहलसे ही तुम सोचो िक हमको हर-हर
नोट िमलने लग, मोबाइल िमलने लगे, तब तो िव ा आने वाली नह । यह भी ब त िविच ह।
जाकी सहज ास ुित चारी। सो हिर पढ़ यह कौतुक भारी॥
िब ा िबनय िनपुन गुन शीला।
(मा. १.२०४.५–६)
भगवा पढ़कर आये। सविव ा त ातः (वा.रा. १.१.२०)। विस -िव िव ालयम
पढ़कर आये। भगवा सामा य िव ाथ नह ह, पी.एच.डी., डी.िलट., ... चकाचक, जो कछ
कहना चाहो कहो। एम.ए. कहो, एम.एस.सी.कहो, एम.एस.सी. (ए.जी.) कहो, एम.कॉम.
कहो, एम.सी.ए., एम.बी.ए. िजतना कहते बने उतना कहो। सबम जहाँ एम लगा होता ह
वहाँ मा टर होता ह—M.A. (Master of Arts), M.Sc. (Master of Science), M.Com.
(Master of Commerce) सबम एम ह। ‍ा बात करते ह!
दी ा◌ आ। विस जीको भगवा ने दि णा दे दी—“गु देव! म आपको वचन देता
िक जबतक भारतवषसे आत वादका सफाया नह हो जायेगा, तबतक म धनुष-बाण नीचे नह
रखूँगा।” इसीिलए बन मृगया िनत खेलिह जाई (मा. १.२०५.१)। मृगया खेलने ‍ जाते
थे? जानते थे िक िकसी भी वेषम आत वादी आये तो उसे खदेड़-खदेड़कर मारो, उसक घरम
घुसकर मारो, होगा जो कछ होना होगा। हम यही िनणय करने जा रह ह। हम १८ सैिनक क
बिलदानका उ र उधरक १८ हजार नरमु ड क बिलदानसे लगे। इस बार मेरी मोदीनगरक
कथाका कछ दूसरा ही आन◌ ह। पहल नव कथाका उपसंहार। मृग का उ ार करनेक िलए
उ◌ ढढते रहते थे रामजी—
जे मृग रामबान के मारे। ते तनु तिज सुरलोक िसधारे॥
(मा. १.२०५.३)

१३४
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १०

मांस खानेक िलए थोड़ वो िशकार करते थे—


न मांसं राघवो भु न चैव मधु सेवते
(वा.रा. ५.३६.४१)
अथा रघुवंशका कोई बालक मांसाहार नह करता और औषिधक पम भी ऍ कोहॉल
(alcohol) नह लता—न चैव मधु सेवते।
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु िपता आ या अनुसरहीं॥
(मा. १.२०५.४)
िम और ाता क साथ भोजन करते ह, माता-िपताक आ ाका पालन करते ह।
बेद पुरान सुनिह मन लाई। आपु कहिह अनुजन समुझाई॥
(मा. १.२०५.६)
आजकल पढ़नेक बाद ब ा नाि◌क बन जाता ह। और वे नाि◌क नह बन रह ह। इतनी
अ◌ी रामकथा! म ‍ा बताऊ! अब तो मनको िच◌ा हो रही ह िक मने यहाँ नौ िदनका
समय िदया, िकस कार पूरा क गा? इस कार—
यापक अकल अनीह अज िनगुन नाम न प।
भगतहेतु नानािविध करत चिर अनूप॥
(मा. १.२०५)

कथा १०: रामकथा किल कामद गाई (मा. १.३१.७)


मानसक तीस कथा क बात मने कही। गो वामीजीने मानसजीम तीस कथाएँ कही ह। अब
दशम कथा—
रामकथा किल कामद गाई। सुजन सजीविन मूिर सुहाई॥
(मा. १.३१.७)
ीरामकथा किलयुगम कामधेनु गायक समान ह। सुरिभ समु क म थनसे कट ई थी।
यह कथा भी वेद प समु क म थनसे कट हो रही ह। ऋ वेदका म◌ ह—
महाँ ऋिषदवजा देवजूतोऽ ाि स धुमणवं नृच ाः।
िव ािम ो यदवह सुदासमि यायत कुिशकेिभिर ः॥
(ऋ.वे. ३.५३.९)
इस वेदम◌से इस कथाका संब ध ह। िव ािम जी अब च वत जीक यहाँ आ रह ह। किल
कामद गाई (मा. १.३१.७)—यह कथा कामधेनु ह। गायक पास िकतने थन होते ह? गाय चार
थन से दूध देती ह। इस कथाक भी चार ख ड ह—(१) िव ािम जीका िवचार, (२) अवधजीम
वेश कर रामजीको माँगकर लकर आना, (३) च वत जीका ेम, और (४) िव ािम जीक
यहाँ रामजीका समपण और य क र ा।
यह सब चिरत कहा मैं गाई। आिगिल कथा सुन मन लाई॥
(मा. १.२०६.१)

१३५
कथा १० ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

कहते ह िक अगली कथा मन लगाकर सुिनयेगा। रावणने य क िव वंसक िलए अपने


आत वािदय को भेज रखा ह। पूरा भारत आत वादसे भर गया ह। दि णम इसने नािसकम
छावनी बनायी और वहाँ शूपणखाको ल टनट बना िदया। और इधर पूवम सार भारतको वशम
करक उ र देशक सीमाक पहल ब सरम छावनी बनायी, वहाँ ल टनट बनाया ताटकाको।
इधर योग-जपम बाधाएँ पड़ने लग । दशरथजी चार पु को दुलारनेम म◌ हो गये और जनकजी
चार बेिटय को दुलारनेम म◌ हो गये। थोड़ी-थोड़ी इनक उपे ा हो गयी। जब राजत◌क
उपे ा हो गयी, तो आत वाद बढ़ने लगा। तो िव ािम ने कहा—“‍ा क अब?”
िब ािम महामुिन यानी। बसिह िबिपन शुभ आ म जानी॥
तह जप ज य जोग मुिन करहीं। अित मारीच सुबा िह डरहीं॥
(मा. १.२०६.२–३)
ब त िच ◌त ए—
गािधतनय मन िचंता यापी। हिर िबनु मरिह न िनिशचर पापी॥
(मा. १.२०६.५)
गािधतनय माने गािधक बेट। िव ािम जीक मनम िच◌ा होने लगी—“‍ा िकया
जाए। ीह रक िबना ये पापी रा स नह मरगे।” तब मुिनवर मन की िबचारा (मा.
१.२०६.६)—तब िवचार िकया िक अर! िजस गाय ीजीक मने दशन िकये—ॐ भूभुवः वः
त सिवतुवरे यं भग देव य धीमिह िधयो यो नः चोदया , जो सिवतुः देव य वरे यं
भगः ह, जो सूयक देवता ह ... मने पहल िदन कह िदया था िक सिवतुःम संब ध ष ी ह
और देव यम भी संब ध ष ी ह। अतः जो सूयक भी देवता ह, ऐसे भगवा रामक उस वरे यं
भगःका हम यान कर, धीमिह माने यानम लाय। जो भगवा , जो सिवताक देवता ह, नः
िधयो यो चोदया वे हमारी बुि य को असुर कम से हटाकर स◌म को करनेक िलए े रत
कर। िच◌न िकया िक अर! वे तो अवतार ल चुक ह—
तब मुिनवर मन की िबचारा। भु अवतरॆउ हरन मिह भारा॥
(मा. १.२०६.६)
वे तो ीअवधम अवतार ल चुक ह। चलो िव ािम ! चलते ह!!—ऄिह िमस देखौं
भुपद जाई (मा. १.२०६.७)। म आपको कह रहा न िक मेरी पु◌क लीिजये, पर आप
लोग मान नह रह ह। ब त ामािणक सं करण ह मेरा! अब गीता ेसम िलखा ह—ए िमस
देखौं पद जाई (मा.गी. े.)। ‍ा ए िमस! इसी बहाने भगवा क चरण को जाकर देखूँ और
किर िबनती आनउ दॊउ भाई (मा. १.२०६.७)। यह कथा कामधेनु ह। अतः िजसने भी
मनोरथ िकया, उसक मनोरथ पूर ए—
ब िविध करत मनोरथ जात लािग निह बार।
किर म न सरजूसिलल गये भूपदरबार॥
(मा. १.२०६)
भगवा क पास आ गये। च वत जीने स मान िकया और पुिन चरनिन मेले सुत चारी
(मा. १.२०७.५) चार पु को चरण म डाल िदया। सब िमल गया िव ािम जी को, चार फल

१३६
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १०

िमल गये—(१) अथ—श ु लालको देखकर अथ िमला, (२) धम—ल मणजीको देखकर धम
िमला, (३) काम—भरतजीको िनहारकर सारी कामना क पूित हो गयी, और (४) मो —
रामच◌जीको िनहारकर मो का फल पूरा-पूरा िमल गया।
राम देिख मुिन देह िबसारी (मा. १.२०७.५)—एकटक िनिनमेष नयन से भुको िनहारने
लगे। च वत जीने कहा—“आपका आगमन िकसिलए आ ह—कॆिह कारन आगमन
तु हारा (मा. १.२०७.८)।” िव ािम जीने कहा िक राज ! असुर-समूह मुझे ब त सता
रह ह। म आया आपसे ...जाचन नृप तोही (मा. १.२०७.९) नृपको माँगने, नॄ पातीित
नृपः। म मनु य क र क ीरामको आपसे माँगने आया —
अनुज समेत दे रघुनाथा। िनिशचरबध मैं होब सनाथा॥
(मा. १.२०७.१०)
अनुज श द ल मणजीक िलए ढ ह। अनुज माने छोटा भाई होता ह, पर ल मणजीका
एक कारसे अनुज नाम ही पड़ गया। राज ! मुझे अनुज माने ल मणजीक सिहत रघुनाथजीको
दे दीिजये ‍ िक रा स का वध होनेसे म सनाथ हो जाऊगा, अभी अनाथ राज !
जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे।
जवन सब ओर झुकेला ऊ माथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
करतल सोहे लघु तीर औ धनुिहया। मुख लखी लाज रही शरद जुनिहया॥
जवन बीचवेमें छोड़ेला ऊ साथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
क णा समु राम भ सुखदाई। भरत लखन िरपुहन छोट भाई॥
जवन सब ओर पसरे ऊ हाथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
दशरथ पू य िपता कौश याजी माता। सीता जैसी धमप ी जन सुखदाता।
जवन शरणागतके पाले ना ऊ नाथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
रामच भगवा भु अ यामी। समरथ शि मान िगिरधरके वामी।
अनुज समेत दे रघुनाथा। िनिशचरबध मैं होब सनाथा॥
जवन रामके न भजे ऊ सनाथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
॥ बोिलये रघुनाथ भगवा क जय हो ॥
यह ह ीरामकथा! और बताओ तुम लोग को समझम आ रहा ह या नह ? बता देना!
समझम आये, ताली बजाना और न समझम आये तो संकोच छोड़कर कहना म िफर समझाऊगा।
परतु िनि त पसे इस कथाक कभी तुलना नह होगी। हाँ, यिद म ही कथा दोबारा कहने
आऊगा तो तुलना हो जाए।
िव ािम जीने रघुनाथजीको माँगा—अनुज समेत दे रघुनाथा। च वत जीने कहा—
“आप रघुनाथजीको ही ‍ माँग रह ह?” िव ािम बोल—“राज ! इससे पहल एक बात
कही गयी ह—”
ातकाल उिठ कै रघुनाथा। मातु िपता गु नाविह माथा॥
(मा. १.२०५.७)
“इनको इसिलए रघुनाथ कहा जाता ह िक ये ातः काल उठकर माता-िपता और गु को

१३७
कथा १० ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

णाम करते ह। राज ! मनुजी कहते ह—”


अिभवादनशील य िन यं वृ ोपसेिवनः।
च वािर त य वध े आयुिव ा यशोबल ॥
(म. मृ. २.१२१)
अथा जो माता-िपताको वभावतः णाम करते ह (बनावटी नह ), उनक आयु, िव ा,
यश, और बलक वृि होती ह।” कछ लोग होते ह िक एका◌म तो माता-िपताको एक कप
चाय भी नह देते और सबक सामने णाम करने चल जाते ह। आजक ब एँ होती ह। सासुको
तो एक घूँट पानीक िलए तरसा देती ह और पावतीजीक िसरपर लोटा टरकाती ह। जबिक शा
कहते ह िक ातःकाल जो ब अपनी सासुको ासे णाम कर लती ह, उसको करोड़
पावतीक पूजाका फल िमल जाता ह। तो हम लोग अपने माता-िपताका ‍ा स मान कर रह
ह आज? उनको वृ ा मम डाल िदया। हमको और देवता क पास जानेक आव यकता ह
ही नह । माता-िपता ही सवदेवमय ह। “राज ! मने देख ली इनक क डली। इनक आयुको
कोई नह न कर सकता, इनक िव ाको कोई नह न कर सकता, इनक बलको कोई नह
न कर सकता। इसिलए रघुनाथजीको दे दीिजये।” च वत जी याकल हो गये—“अर! ‍ा
क ? इनक िवक पम कछ व◌ु नह ह ‍ा?”
माँग भूिम धेनु धन कोषा। सबस देउ आजु सहरोषा॥
देह ान ते ि य कछ नाहीं। सॊउ मुिन देउ िनिमष ऄक माही॥
सब सुत ि य मॊिह ानकी ना । राम देत निह बनइ गॊसा ॥
(मा. १.२०८.३–५)
“महाराज! इनको छोड़कर तीन सुत, सब दे दूँगा।” यहाँ सहरोषाका अथ ह सहष। िकतनी
व◌ुएँ देनेक िलए कह िदया? नौ—(१) भूिम, (२) धेनु, (३) धन, (४) कोष, (५) देह, (६)
ाण, और (७–९) तीन सुत—ये ९ व◌ुएँ दे दूँगा, पर रामजीको नह दूँगा—राम देत निह बनइ
गॊसा ‍ िक दशम वमिस—उपिनष क अनुसार ये दशम ह। इ◌ नह दूँगा। इ◌ देनेपर
मेर ाण चल जायगे। यही ह च वत जीका ेम, यही ह रामकथा किल कामद गाई (मा.
१.३१.७)। सब कछ देनेक िलए कह िदया, पर राघवको म न दूँगा । “‍ नह दोगे?” इस
गीतको ब त ासे सुिनये। एक बार मने रवासाम अनु ान िकया था इ स िदनतक कवल
ना रयलका जल लकर। उस अनु ानम मने इस गीतक रचना क थी।
राघवको मैं न दूँगा मुिननाथ मरते-मरते॥
मेरे ाण ना रहेगे यह दान करते-करते॥
जलके िबना कदािच मछली शरीर धारे।
पर मैं न जी सकूँगा इनको िबना िनहारे॥
कौिशक िसहर रहे है मेरे अंग डरते-डरते।
राघवको मैं न दूँगा मुिननाथ मरते-मरते॥
कर य चौथेपनमें सुत चार मैंने पाया।
िपतु-मातु-पुरजनोंको रघुच ने िजलाया॥
१३८
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १०

लोचन चकोर त मय सुधापान करते-करते।


राघवको मैं न दूँगा मुिननाथ मरते-मरते॥
चलते िबलोक भुको होगा मशान कोसल।
मंगलभवनके जाते संभव कहाँ है मंगल॥
सींचें कृपाल त वर सब पात झरते-झरते।
राघवको मैं न दूँगा मुिननाथ मरते-मरते॥
लड़के है राम-लिछमन कैसे करे लड़ाई।
िगिरधर भुको देते बनता नहीं गुसा ॥
कह यों पड़े चरणमें गनीर झरते-झरते।
राघवको मैं न दूँगा मुिननाथ मरते-मरते॥
म अपने पु राघवको नह दूँगा, इतना यारा बालक कसे दे दूँ?—
कह िनिशचर अित घोर कठोरा। कह सुंदर सुत परम िकशोरा॥
सुिन नृपिगरा ेमरस सानी। दय हरष माना मुिन यानी॥
(मा. १.२०८.६–७)
िवल ण ◌ुित ह गो वामीजीक ! हम-आप िकसीसे छोटी व◌ु माँगने जाएँ और वह सीधा
दो टक उ र दे दे िक म नह दूँगा, तो ‍ा हम स ता होगी? िनि त पसे हम ोध आयेगा।
पर यहाँ िव ािम जी रा क िलए माँग रह ह और दशरथजीने दो टक उ र दे िदया—राम देत
निह बनइ गॊसा (मा. १.२०८.५)। नैव दा यािम राघव । राघवको नह दूँगा। िफर भी
िव ािम जीको ोध नह आ रहा ह, स ता हो रही ह—
सुिन नृपिगरा ेमरस सानी। दय हरष माना मुिन यानी॥
इसका ता◌य ‍ा ह? िव ािम जीको आज ब त बड़ी उपल ध ई। वे सोचते थे िक
‍ा इस राजप रवारम आ गये राघवजी! परतु आज जब देखा च वत जीका ेम, तब तो दाँत
तल अँगुली दबा ली—“ह राम! इतना ेम तो करोड़ बार ज म लकर भी योगी-मुिन-यित कर
ही नह सकगे, जो ेम च वत जीका ह!” च वत जी कह रह ह िक महष! आप मेर ाण
ल लीिजये, पर म राघवको नह दूँगा। इतना ेम! तो भगवा का तो वह ाक होगा, वे वह
कट ह गे जहाँ ेम होगा—
अग जगमय सब रिहत िबरागी। ेम ते भु गटइ िजिम आगी॥
(मा. १.१८५.७)
िनि त पसे आज म कहने जा रहा —“दशरथजीक गृह थी पर िवरि कोिट वा रये।”
िव ािम जी कहते ह—“ह च वत जी! अब म अपना प छोड़ रहा । म आपसे राघवजीको
माँगकर नह ल जाऊगा। य पूरा हो या न हो, मेरा य तो पूण हो गया। य का फल ह
भगवा का दशन। अ य लोग य क बाद य नारायणक दशन करते ह, मने तो य नारायणक
भी नारायणक दशन कर िलए। अब म नह जाऊगा। अब तो जैसे विस जीक िलए आपने किटया
बनवाई ह, वैसी ही एक किटया सरयूजीक िकनार बनवा दीिजये। म आपक पास आऊगा भी

१३९
कथा १० ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

नह । जब ातःकाल रामच◌जी ीसरयूजीम ान करने पधारगे, वह दूरसे िनहारकर अपनी


आँख को संतु कर िलया क गा।” यह ह रामकथा किल कामद गाई (मा. १.३१.७)।
ेमक सा ा दशन कर िलए च वत जीने।
तब विस ब िविध समुझावा। नृपसंदेह नाश कह पावा॥
(मा. १.२०८.८)
तब विस जीने ब त कारसे समझाया और महाराजका संदेह दूर हो गया—“आप िच◌ा
न क रये! ये तो भगवा ह महारा ! िव ािम जी कोई अित र व◌ु नह माँग रह ह। आपने
अपनी जो दूसरी तािलका ◌ुतक ह—”
माँग भूिम धेनु धन कोषा। सबस देउ आजु सहरोषा॥
देह ान ते ि य कछ नाहीं। सोउ मुिन देउ िनिमष एक माहीं॥
सब सुत ि य मोिह ान की ना । राम देत निह बनइ गोसा ॥
(मा. १.२०८.३–५)
“(१) भूिम—महाराज! ये भूिम नह माँग रह ह, ये तो भूिमभारहारीको माँग रह ह, (२)
धेनु—ये धेनु नह चाहते, पर धेनुक र कको चाहते ह, (३) धन—ये आपका धन नह चाहते
महाराज! आपने िव ािम को मुिन कहा न! तो रामजी मुिनय क धन ह—मुिन धन (मा.
१.१९८.२), अपना ही धन तो माँग रह ह, (४) कोष—ये आपका कोष नह चाहते। रामच◌जी
सव सभी स ुण क कोष ह, उनको चाहते ह। यहाँ सबस का अ वय उपरो चार अथा
भूिम, धेनु, धन, तथा कोषक साथ होगा। ता◌य यह िक ये आपक सव व भूिम नह चाहते ह,
ये आपक सव व धेनु नह चाहते ह, न ही ये आपका सव व धन चाहते ह, और सव व कोष
भी आपका नह चाहते ह महाराज! (५) देह —ये आपक देह नह चाहते, ये िचदान◌मय
देहको चाहते ह, िचदानंदमय देह तु हारी (मा. २.१२७.५), (६) ाण—ये आपक ाण नह
चाहते महाराज! ये िशवक ाणको चाहते ह, मुिनधन जनसरबस िशव ाना (मा. १.१९८.२)।
(७–९) सब सुत —ये सभी सुत को नह चाहते महाराज! ये तो चाहउ तुमिह समान सुत (मा.
१.१४९) दे दीिजये महाराज! तब विस ब िविध समुझावा (मा. १.२०८.८)—विस जीने
ब िविध समझाया। ये तो वह ह िव ािम ! आज ब त बड़ा ायि त कर रह ह। जब ये
महाराज ह र ◌क समय आये थे, तो उ◌ उनक प ीसे अलग कर िदया था। आज उस
पापका ायि रामच◌को सीतारानीसे िमलाकर करगे।”
“ठीक ह! दे दीिजये महाराज!” अित आदर दॊउ तनय बुलाये। (मा. १.२०८.९)—ब त
आदरसे दोन बालक को बुलाया। भगव ुि हो गयी न! दे िदया महाराज ने—“ये दोन बेट
मेर ाण ह, अब आप ही इनक िपता ह। जाओ बेटा! गु देव जो कह, वही करना।” कौश या
माता यहाँ आय , माताजीको णाम िकया। माता बोल —“मेर दूधक लाज रखना बेटा!” चल
पड़—
पु षिसंह दॊउ बीर हरिष चले मुिनभय हरन।
कृपािसंधु मितधीर अिखल िब कारन करन॥
(मा. १.२०८ख)
१४०
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १०

ये दोन पु ष-िसंह ह। वनम िसंह जाता ह तो डरता थोड़ ही ह? िसंह हािथय को फाड़कर
फक देता ह। आ रह ह भु। िव ािम जीको महािनिध िमल गयी। रामकथा किल कामद
गाई (रा.च.मा १.३१.७)। यह कथा सबको कछ न कछ देगी। ताटका दौड़ी।
चले जात मुिन दी दॆखाई। सुिन ताड़का ोध किर धाई॥
एकिह बान ान हिर ली ा।
(मा. १.२०९.५–६)
एक ही बाणम भगवा ने उसक ाण ल िलए। ाण तो िलए पर िदया ‍ा? दीन जािन
तॆिह िनज पद दी ा (मा. १.२०९.६)। बताओ कहाँ जाना चाहती हो ताटका? ताटकाने
कहा—“म एक बार अभी थोड़ा और आपको देखना चाहती , िफर बताऊगी म कहा जाना
चाहती ।”
तिनक मु कुराओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
तु हारी यह शोभा अनुपम िनराली। इसीसे मैं भर ल िवलोचनकी याली॥
तिनक पास आओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
िलए कंज हाथोंमें सायक धनुिहयाँ। पधारे है वनमें िबना ही पनिहया॥
तिनक छिव िदखाओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
नृपितके दुलारे कौश याके बारे। भु दास िगिरधर के नयनोंके तारे॥
तिनक ग चलाओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
तिनक मु कुराओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
ताटकाने देखा और भगवा को और कहा—“अब तो मुझे इ◌ चरण म थान दे दीिजये।”
एकिह बान ान हिर ली ा। दीन जािन तॆिह िनज पद दी ा॥
(मा. १.२०९.६)
रामकथा किल कामद गाई (मा. १.३१.७)। देिखये! वैक ठ तो सब जीव जाते ही
रहते ह, पर ताटकाको अपना पद माने चरण दे िदया। इसक प ा िव ािम जीने भगवा को
बला-अितबला िव ा दी, स पूण श समिपत िकये, क◌-मूल फल भोजन िदया। ातःकाल
भगवा ने कहा—
ात कहा मुिन सन रघुराई। िनभय ज य कर तुम जाई॥
(मा. १.२१०.१)
आप िनभ क होकर य क िजये। िनभ क होकर य करने लगे—
होम करन लागे मुिन झारी। आपु रहे मख की रखवारी॥
(मा. १.२१०.२)
मुिनलोग गाने लगे—
चतुिभ चतुिभ ा यां प िभरेव च।
यते च पुन ा यां त मै होमा मने नमः॥
(म.भा. १२.४७.४४)
पाँच कारसे होम करना ार भ िकया। पहल चतुिभः चार अ रसे—ॐ आ ावय
१४१
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

वाहा। चार अ र हो गये न! िफर चतुिभः—ॐ अ ु ौष —चार अ र हो गये।


ा यां—ॐ यज, प िभः—ये यजामहे, पुन ा यां—िफर दो अ र से वष , कछ लोग
वौष भी कहते ह।
होम करन लागे मुिन झारी। आपु रहे मख की रखवारी॥
सुिन मारीच िनशाचर कोही। लै सहाय धावा मुिन ोही॥
(मा. १.२१०.२–३)
मारीच दौड़ा। उसको िबना फरक बाणसे भगवा ने मार िदया। अ च◌ बाणसे फका
था भगवा ने, अतः व शर िबगड़कर बन गया ब सर। अब लोग जानते नह । ब सरसे
भगवा ने फका मारीचको और जाकर अ काक टापू मॉरीशसम िगरा वह। उसका पहलका
नाम मारीचशीष, अब िबगड़कर हो गया मॉरीशस। फक िदया उठाकर। देवता स होकर चार
ओरसे फल क बरसात करने लगे। पावक शर सुबा पुिन जारा (मा. १.२१०.५)—अपने
एक बाणसे सुबा को जला िदया और अनुज िनशाचर कटक सँघारा (मा. १.२१०.५)—शेष
रा सी सेनाका संहार ल मणजीने कर िदया।

कथा ११: सुजन सजीविन मूिर सुहाई (मा. १.३१.७)


अब यारहव कथा ब त िवल ण ह। भगवा ने आत वादको पूवसे समा कर िदया।
रामकथा किल कामद गाई। सुजन सजीविन मूिर सुहाई॥
(मा. १.३१.७)
ब त यव थत चचा कर रहा म। मुझे स ता ह िक ीरामकथाक साठ वष पूण हो रह
ह १४ जनवरीको। इतनी यव थत चचा कभी नह क होगी। इस बार कछ भगवा क इ◌ा
ह। सुजन सजीविन मूिर सुहाई (मा. १.३१.७)—गो वामीजी कहते ह िक यह कथा सुजन
माने भगवा क भ क िलए सजीविन मूिरक भूिमका िनभायेगी। जब यि मर रहा होता ह,
तो उसको संजीवनी बूटी दी जाती ह। यह कथा अह यो ारक अ त कथा ह।
य क र ाक प ा िव ािम ने कहा—“भगव ! अब आपको एक और य क र ा
करनी ह। जनकजी धनुय कर रह ह भगव । यहाँ तो कवल रावणक सैिनक आये थे िव
डालने, वहाँ तो वयं रावणक आनेक संभावना ह भगव ! इसिलए वहाँ भी आपको चलना
चािहए भु!”
धनुषज य सुिन रघुकुलनाथा। हरिष चले मुिनवरके साथा॥
आ म एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तह नाहीं॥
(मा. १.२१०.१०–११)
हमारी कथाक झाँक यही ह िक आज भगवा मागम एक आ म देख रह ह, यह एक
साधारण अथ ह। हमने बताया था िक एकक ारा ए माने िव णुम भी िजससे क माने सुख ह,
ए क सुखं य मा , अथा िव णुको भी िजससे सुखक ाि होती ह—ऐसे उन एक परमा मा
ीराघवे◌क ारा मागम आ म देखा गया।

१४२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

अब प यह ह िक गौतमजीने ाप िदया ह—
वातभ ा िनराहारा त य ी भ मशाियनी।
अ या सवभूतानामा मेऽि म विस यिस॥
(वा.रा. १.४८.३०)
गौतमने कहा ह—अह या वातभ ा—कवल वायुका आहार करक अथा अ य
आहार को न करती ; त य ी; भ मशाियनी, भ मशाियनी होकर—भ म माने राख होता
ह अथा अि िजसको जलाकर छोड़ दे उसे भ म कहते ह; तथा अ या सवभूताना
अथा सभी जीव से अ◌ य होकर यहाँ िनवास कर रही ह। तो ‍ा अह याजी भ मम शयन
कर रही थ ? इसका कछ और दूसरा अथ कहना चाहते ह। देिखये, सं कतम प थरको अ म
कहते ह। हमार उ र देश और म य देशम श का कोई ब त अिधक मह व नह ह, पर
हम लोग क यहाँ मह व ह। इस कार अ म माने प थर। और भासे यु अ मको भ म
कहगे तथा पृषोदरादीिन यथोपिद (पा.सू. ६.३.१०९) हमार यहाँ सं कतका एक सू
ह, उससे ताल य श को द◌ स बन गया और पर प हो गया। इस कार भ म से बन गया
भ म । इसका अथ हो गया काशसे यु िशलाम शयन करने वाली। भया यु ः यः पाषाणः
त म शेते त◌ीला इित भ मशाियनी । वा मीिकजी यह कह रह ह िक अह याक आ मा
एक काशवान िशलाम सो रही ह पर◌ु अ या सवभूताना उनको कोई देख नह रहा ह।
जब िकसीने नह देखा तो रामजीने कसे देख िलया?
आ म एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तह नाहीं॥
आ मको रामजीने कसे देख िलया? (१) इसक उ रम पहली बात यह ह िक गौतमजीने
कहा था—अ या सवभूताना । सवभूताना अथा ाजीक ारा रचे गये ािणय से तुम
अ◌ य रहोगी अथा सवभूत से अ◌ य रहोगी। पर◌ु भगवा तो स पूण भूत क आधार ह—
भूतानां भूतस मः (वा.रा. २.४४.१६)। वे सवभूत म नह आते। वो सवभूता मभूता मा ह,
इसिलए उनपर यह िनयम नह लगता।
(२) अब दूसरा उ र देिखये—सवभूताना श दम ब ीिह समास िकया ह और गौतम
कह रह ह िक उनको तुम नह िदखायी पड़ोगी, िजनम सभी भूत रहते ह सवािण भूतािन येषु ते
सवभूता◌ेषा अथा िजनम पृ वी, जल, तेज, वायु, और आकाश रहता ह, जो इन पाँच से
बना आ ह—
िछित जल पावक गगन समीरा। पंच रिचत अित अधम शरीरा॥
(मा. ४.११.६)
इन पाँच से िजसका शरीर बना आ ह, तुम उसको नह िदखायी पड़ोगी। हषक बात ह िक
हमार आपक शरीर म पाँच ह—पृ वी भी ह, जल भी ह, अि भी ह, वायु भी ह, और आकाश
भी ह; पर◌ु भगवा रामका शरीर इन पाँच भूत से ऊपर ह। इसिलए रामजीम यह िनयम नह
लगेगा। ‍ िक—

१४३
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

िब धेनु सुर संत िहत ली मनुज अवतार।


िनज इ ा िनिमत तनु माया गुन गो पार॥
(मा. १.१९२)
पहल इस पदका अथ समिझये। देिखये, िब धेनु सुर संत िहत ली मनुज अवतार
पि ब त मधुर ह। टीकाकार ने इस पि का सीधा-सा अथ िलखा ह िक भगवा ने अपनी
इ◌ासे शरीरका िनमाण िकया। िनज इ ा अथा वे◌ा और िनिमत माने िनमाण िकया;
पर यहाँ अनथ यह होगा िक िजसका िनमाण होता ह उसका नाश होता ह, यह शा त िनयम
ह। य ाय त दिन यं काय वा टव यह िस ा◌ ह। जो-जो काय ह वह अिन य होता
ह। काय व होनेसे घटव कहा ‍ िक जैसे घड़का िनमाण िकया गया तो फटगा ही, उसे कोई
नह रोक सकता। उसे तो फटना ह ही। यिद यह िस ा◌ ह िक िजसका िनमाण होता ह उसका
िवनाश होगा, तो वह िस ा◌ यहाँ ‍ नह लगेगा? ‍ िक यिद िनज इ ा िनिमत तनु
कहा गया तब तो ब त अनथ हो जायेगा ‍ िक गो वामीजी बार बार कह रह ह िक रामजी
तो िन य ह—
िनमम िनराकार िनरमोहा। िन य िनरजन सुख संदोहा॥
(मा. ७.७२.६)
अब इस पदाथका कसे लापन िकया जाए? हमार एक बड़ अ◌े प रकर ह और बड़
अ◌े मानसक रिसक ह, अिधव ा ह ीि वेणीश रजी पा डय। उनसे मेरी आज चचा हो
रही थी। उ◌ ने कहा—“गु जी, मानस-पीयूष पचास वष पहलका हो गया। अब ब त पुराना
पड़ गया।” तब उ◌ ने पूछा—“‍ा शा भी पुराना पड़ जाता ह?” मने कहा िक नह , शा
पुराने नह पड़ते; पर िच◌न िनर◌र िवकासवादी रहा ह, ासवादी िच◌न कभी नह रहा।
अब एक मानस-पीयूष नह , हजार मानस-पीयूष ल आओ। सबम यही अथ िलखा ह—िनज
इ ा िनिमत तनु अथा अपनी इ◌ासे भगवा ने अपने शरीरका िनमाण िकया।
(१) इसम पहला दोष म यह बता रहा िक िजसका िनमाण होता ह उसका नाश भी होता
ह। जैसे—
जात य िह ुवो मृ यु ुवं ज म मृत य च।
त मादपिरहायऽथ न वं शोिचतुमहिस॥
(भ.गी. २.२७)
यह अप रहाय अथ ह। भगवा भी इसका प रहार नह कर सकते। जो ज म लगा उसे मरना
ह और जो मरा ह उसे ज म लना ही ह। ज म वो नह लगा जो मरगा नह अथा जो तर जाए।
अब इसका कसे समाधान िकया जाए?
(२) दूसरा ह—िनज इ ा िनिमत तनु अपनी इ◌ासे भगवा ने शरीर बनाया। तो
यह ह िक भगवा क पास इ◌ा ही नह होती ‍ िक इ◌ािद धम बुि क ह और भगवा बुि
नह , बुि से पर ह। वा◌व म बुि से पर जीवा मा ह, जीवा मासे पर माया ह, और मायासे पर
परमा मा ह। वयं जीवा मा बुि से पर ह—

१४४
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

इि यािण परा या िरि ये यः पर मनः।


मनस ु परा बुि य बु ेः पर त ु सः॥
(भ.गी. ३.४२)
अब इतनी किठन कथा सुननेक िलए कौन आयेगा? िजसका ब त बड़ा सौभा य होगा,
वही आयेगा। यह कोई गड़ रय का गीत तो ह नह िक कोई चनई या िबरहा ह, और मुझे कोई
आव यकता भी नह ह। मुझे तो जनादनक सामने हीरो बनना ह, जनताक सामने हीरो बननेक
मुझे कोई आव यकता नह । जनताक सामने हीरो वह बनता ह, जो नंगा नाचता ह और मुझे
नंगा नाचना नह ह।
देिखये, इन दो दोष क प रहारक िलये पहला उ र यह ह िक यहाँ िनज इ ाका अथ
अपनी इ◌ा नह ह। यहाँ ष ी त◌ु ष करो—िनजानािम◌ा । भगवा क पास कोई इ◌ा नह ,
भगवा क जो िनजी भ ह उनक इ◌ासे भगवा क शरीरका िनमाण आ। यह ह—िनज
इ ा अथा िनज क इ◌ा। यहाँ अथ िनजी इ◌ा न होकर, िनज क इ◌ा अथा भगवा क
जो अपने ह; िजनको भगवा अपना मानते ह, उनक इ◌ा ह।
हम सम पु य पुंज जग थोरे। िजनिह राम जानत किर मोरे॥
(मा. २.२७४.८)
अयो यावासी कहते ह िक हमार समान संसारम ब त कम लोग ह गे, िजनको रामजी अपना
करक जानते ह। अवधी भाषा बोलनेवाल को भगवा अपना करक मानते ह। हम लोग अवधी
भाषाम बोलते ह तो याद आ जाती ह िक ऐसे ही हमार रामजी बोलते ह। हमार अवधम कोई
मिहला िमल और वो भौजाई लग रही हो, तो ‘भाभी’ न कहकर ‘पाँय लागी भौजी’ इस कार
कहते ह। इससे ता◌य यह ह िक इसी भाषाम भगवा भी िकसी न िकसीको ‘भौजी’ कहते ह गे।
िजसक साथ भगवा का जो संब ध हो, िजस भाषाम भगवा , पर , परमा मा बोल रह ह ; िजस
भाषाम, अकारण-क ण, क णा-व णालय, कोिट-कोिट-क◌प-दपदलन, वािभराम-रमणीय,
सौ◌य-सुषमा-सागर, क णािनधान, सि दान◌घन, पर , परमा मा, जगदी र बोल रह ह
उसम बोलनेसे िनि त भगवा क साथ तादा य होगा, इसम कोई स◌ेह नह ह।
इस कार िनज क इ◌ा अथा भगवा क अपने भ क इ◌ा। और पहल यहाँ िनिमत
तनु समझ ल। तनु श दक दो अथ होते ह—(क) एक तो तनु माने शरीर और (ख) तनु श दका
दूसरा अथ होता ह सू मता। जैसे हम कहते ह त व ी िजसका अथ ह सू म अथा पतल
शरीरवाली। सू मताका अथ करगे तो इसका अथ यह होगा िक य तो भगवा िवरा ह, पर
िनज इ ा िनिमत तनु—कौश याजीक इ◌ासे। िनजायाः कौश यायाः इ◌या िनिमतं तनु
सू मता येन । भगवा ने अपनी सू मता बना ली, िवरा से छोट बन गये, और छोटसे बालक बन
गये, यह ह िनज इ ा िनिमत तनु। शरीरको बनाया नह । अपनी माँ कौश याजीक इ◌ासे,
अपने भ जन क इ◌ासे िनिमत तन ह। िनज इ ा िनिमत तनु माया गुन गोपार।
अब करो िक उनका शरीर िकसका ह? तो कहते ह—

१४५
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

भगत भूिम भूसुर सुरिभ सुर िहत लािग कृपाल।


करत चिरत धिर मनुजतनु सुनत िमटिह जगजाल॥
(मा. २.९३)
ीभागवतजीम भी—
अ यािप देव वपुषो मदनु ह य वे ामय य न तु भूतमय य कोऽिप।
(भा.पु. १०.१४.२)
भगवा का शरीर वे◌ामय ह। भ क इ◌ासे कट होता ह, भूतमय नह ह। लगता ह
िक उसम पृ वी ह, पर भगवा क शरीरम माटी नह ह, लगता ह जल ह पर जल वहाँ िब कल
नह ह। न िम ी ह, न जल ह, न अि ह, न वायु ह, और न आकाश ह—इन सबसे वे ऊपर
ह।
िकसीने पूछा—“भगवा का ज म नवमीको ‍ होता ह?” हमने कहा िक नवमीको इसिलए
होता ह िक भगवा आठ कितय से पर ह तो नवानां पूणा नवमी; आठ जहाँ नह रह तो
नवमी हो जाती ह। भगवा (१) भूिम, (२) जल, (३) अि , (४) वायु, (५) आकाश, (६)
मन, (७) बुि , और (८) अहकार—इन आठ से ऊपर ह, वे िद य ह। इसिलए—अ या
सवभूताना ।
एक बात और बताऊ िक पूरा करण आप देख जाइये, कह ऐसा शरीर आपने देखा ह?
बड़ा-बड़ा सौ◌य आपने देखा होगा, सफद, लाल और काला सौ◌य भी आपने देखा, पर
कह िकसीने नीला सौ◌य (blue beauty) देखा? और यहाँ तो—
नील सरो ह नील मिन नील नीरधर याम।
लाजिह तन शोभा िनरिख कोिट कोिट शत काम॥
(मा. १.१४६)
जब आ श राचायजीने यह बात गीताभा यक भूिमकाम कही—भौम य णो
ा ण व य र णाथ देव ां वसुदेवादंशेन कृ णः िकल संबभूव (भ.गी.शा.भा.
उपो त)। मानो देहवा जैसे लगते ह। मानो उनका यह शरीर ऐ◌जािलक ह। और तो कोई नह
बोला उनसे। बड़ लोग से बोलना भी ठीक नह होता और वह भी अपने आचायसे कौन बोल?
पर◌ु िजस महापु षने भगवा क शरीरको अपनी आँख से िनहार िलया, एक ऐसा ही महापु ष
आ िजसने अ ारह बार छः-छः महीनेका अनु ान करनेक प ा , यामसु◌र, आन◌क◌,
मदनमोहन, जे◌न◌न क णच◌को अपनी आँख से िनहारा और वह व प िनहारकर जब
ा णने गीताक टीका िलखी और तब गीतागूढाथदीिपका टीकाक अ◌म िलखा—
वंशीिवभूिषतकरा वनीरदाभा ीता बराद णिब बफलाधरो ा ।
पूण ुसु रमुखादरिव ने ा ृ णा र िकमिप त वमह न जाने॥
तो उनसे लोग ने पूछा—“एक ओर आप वंशीिवभूिषतकरा िलख रह ह, नवनीरदाभा
िलख रह ह और आपक आचाय कहते ह िक देहवािनव तीयते देह ऐ◌जािलक ह।” तब
उ◌ ने कहा—“भगव◌ाद बड़ ह, चाह जो कछ िलख द। व◌ुत◌ु आकाशशरीर
(तै.उ. १.६.२), भगवा आकाश-शरीर ह।” ुितने आकाशशरीर कहकर ‍ा कहा होगा?

१४६
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

आप लोग अ यथा मत मािनयेगा, भारतीय सं कितम होता यह ह िक जब कोई भी ब पहली


बार अपने पितक यहाँसे अपने पीहरको आती ह तो उसक सखी-सहिलयाँ, िभ -िभ बात उस
संब धम उससे पूछती ह। उसक सिखयाँ पूछती ह िक तु हार पित कसे ह? उनका कसा र
प ह? इसी कार ुितसे भी िकसीने पूछा—“तु हार पित कसे ह गे? सही-सही बता दो।” तब
ुितने कहा—आकाशशरीर । ुितने कहा—“तुमने आकाश देखा ह?” उसने कहा—
“िब कल देखा ह।” ुितने कहा—“जैसे आकाश नीला होता ह, उसी कार मेर पितका र
नीला ह; जैसे आकाश यापक होता ह, उसी कार मेर पितका शरीर यापक ह; जैसे आकाशम
पीली-पीली िबजली चमकती ह उसी कार मेर भुक ीिव हपर िव ु ािमिन- ुित-िविन◌क
पीता बर चमकता रहता ह; जैसे आकाशसे जल बरसता ह उसी कार मेर भुक ीिव हसे
क णाजल बरसता रहता ह।”
आकाशशरीर का ‍ा ता◌य ह? इसका ता◌य यह ह िक भगव◌ाद श राचायका
या यान पूणतः गलत ह। भगवा का शरीर होता ह पर इतना अ◌र ह िक हमारा शरीर िवकार
सिहत होता ह और परमा माका शरीर िवकार रिहत होता ह। इसीका समथन करते ए गो वामीजी
कहते ह—
िचदानंदमय देह तु हारी। िबगत िबकार जान अिधकारी॥
(मा. २.१२७.५)
गो वामीजीने कह िदया िक ये तो अिधकारी ही जानते ह। सूरदासजीने श राचायसे कह
िदया—“यह बताओ िक यिद भगवा क पास शरीर न होता तो तीन िदनतक कएँम िगर ए
मुझ जैसे अ धेको कौन िनकालता? तुम िनकालने आये थे या तु हारा बाप िनकालने आया
था? िदमाग ठीक नह ह तु हारा। ह ◌ बौ ! म सा ी , भगवा क पास शरीर
होता ह।” सूरदासजी कहते ह—“उनका शरीर मायावी नह होता।” इसी वृ◌ावनक गलीम
मण करते-करते सूरदासजी कएँम िगर पड़ते ह। सबने िनकालना चाहा तो कह िदया िक
अभी नह िनकलगा, जब मुझे िनकालने वाला आयेगा तब िनकलगा ‍ िक तुलसीदासजीक
ीरामच रतमानस बन चुक ह और उसम यह िलखा ह—यह चिरत जे गाविह हिर पद
पाविह ते न परिह भवकूपा (मा. १.१९२.४) भवकपसे िनकालने वाला आये, तब िनकलगा।
और आ गया भवकपसे िनकालने वाला वो िद य-िद य, भ य-भ य, न य-न य, मृदुल-मृदुल,
अ ण-अ ण, त ण-त ण, चरणकमल, म◌-म◌ मु करानसे उभर ए कपोल पर लटकती
काली-काली वो घुँघराली कोिट-कोिट रोल ब-कद ब-िनकर बको ल त करने वाली सु◌र-
सु◌र वो लट, और दािमिन- ुित-िविन◌क कोिट-कोिट वण िक क कमलम रीको भी
मि करने वाला वह म लमय पीता बर, और सु◌र-सु◌र कोिट-कोिट गुलाबक पंखुिड़य से
भी कोमल वो ीह◌कमलवाल भुने आकर हाथ बढ़ाया और सूरदासजीको बाहर िनकाला।
िकतना सु◌र अनुभव रहा होगा! भुने उनको िनकालकर थोड़ी दूरतक प चाया, िफर जाने
लगे तो सूरदासजीने पकड़ िलया हाथ। तब भुने हाथ झटकाया। सूरदासजीने कहा—“ठीक
ह, झटक दो—”

१४७
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

बाँह छड़ाये जात हो िनबल जािन के मोिह।


िहरदय ते जब जा गे सबल बदौंगो तोिह॥
“हम कमजोर और िनबल जानकर हमारा हाथ छड़ाकर चल जा रह हो ‍ िक म साधारण
जीवा मा , तु ह पकड़ नह पा रहा पर यिद तुम मेर दयसे चल जाओ तो म तुमको वीर
कह दूँ। पर◌ु तुम दयसे जा ही नह सकते ‍ िक ुित कहती ह—”
ा सुपणा सयुजा सखाया समानं वृ ं पिरष वजाते
(ऋ.वे. १.१६४.२०, मु.उ. ३.१.१)
“तुम सब कछ कर सकते हो पर वेदक मयादाका उ न नह कर सकते। जाकर देखो
तो छठीका दूध याद आ जायेगा, च ू! अर, हमको िनबल जानकर हमारा हाथ छड़ा रह हो?
जाकर देखो। ुितका अपमान करोगे तो हम तो कहगे िक तुम भगवा ही नह हो। जाओ अपने
घर बैठो। जाओ जापानम चल जाओ, जमनी जाओ, चीन जाओ, जाओ हॉ कॉ म, पाँच
मन सोनेका म ◌र बनवाओ। यहाँ तुम नह रह सकते! यहाँ तो वही भगवा रह सकता ह, जो
वेदक मयादाका पालन करता ह—”
अतुिलत मिहमा बेद की तुलसी िकएँ िबचार।
जो िनंदत िनंिदत भयो िबिदत बु अवतार॥
(दो. ४६४)
और एक बात समझ लो, तुलसीदासजीने कह िदया—“श राचाय ‍ा जान? म जानता
भगवा को। अर! तोतेक पम हनुमा जी महाराजने मेर पास आकर कहा था—”
िच कूटके घाट पर भइ स न की भीर।
तुलिसदास च न िघसें ितलक देत रघुबीर॥
यिद भगवा न होते, उनक पास हाथ नह होते तो तुलसीदासक माथेपर ितलक कौन
लगाता? तो जैसा िक ऊपर कहा िक भगवा राम भूिम, जल, अि , वायु, आकाश, मन, बुि ,
और अहकार—इन आठ भूत से ऊपर ह; वो िद य ह। ‍ा इतना सु◌र प पाँच भूत से
बनाया जा सकता ह?
(१) पृ वी—पृ वीक ‍ा बात क जाए, ‍ा सामा य पृ वी इस पको बनायेगी? िस
कर िदया पूर च र म िक पृ वीक बेटी ही उनक प ी बन —
बरबस रोिक िबलोचन बारी। धिर धीरज उर अविनकुमारी॥
(मा. २.६४.४)
पृ वीक बेटी ही उनक प ी ह, इसिलए वे पृ वी त वसे पर ह।
भूिम स सागर मेखला। एक भूप रघुपित कोसला॥
(मा. ७.२२.१)
दॆखरावा मातिह िनज अ त प अखंड।
रोम रोम ित लागे कोिट कोिट ंड॥
(मा. १.२०१)
‍ा बात करते हो! हमारा राघव कोई ऐसी व◌ु ह ‍ा। वही हीरो ह। My Raghava is
१४८
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

hero and others are zero. वही हीरो ह, और कोई हीरो नह हो सकता।
(२) जल—अब रही बात जल त व क । भगवा राम जल त वसे ऊपर ह। देिखये,
समु का िन ह िकसने िकया? समु िन हादीिन च े वीया यतः पर (भा.पु. १.३.२२)।
उनको कछ नह करना पड़ता।
स धानॆउ भु िबिशष कराला। उठी उदिध उर अंतर ाला॥
(मा. ५.५८.६)
समु का िन ह िकया, पहल तीन िदनतक िवनय क —
िबनय न मानत जलिध जड़ गये तीिन िदन बीित।
बोले राम सकोप तब भय िबनु होइ न ीित॥
(मा. ५.५७)
िफर तो राघवको ोध आया ‍ िक तीन िदनतक ाथना करनेपर समु नह माना। उसको
लगा िक रामजी हमसे अित र नह ह गे। समु य ततः ु ो रामो र ा लोचनः (वा.रा.
६.२१.१३)। राघवको ोध आया और कहा—“ल मण!”
चापमानय सौिम े शरां ाशीिवषोपमा ।
समु ं शोषिय यािम प ां या ु व माः॥
(वा.रा. ६.२१.२२)
“ल मण! लाओ मेरा धनुष-बाण।” ल मणने कहा—“सरकार मा कर दीिजये।” रामजीने
कहा—“‍ ?” ल मणजीने कहा—“ मा बड़नको चािहए छोटनको उ ात।” रामजीने
कहा—“चुप रहो ल मण! मा बड़नको चािहए छोटनको दस लात।” माक प रभाषाम
जब नपुंसकताका आभास हो जाए, तब मा नह करना चािहए। ल मणने कहा—“सरकार,
जो तोको काँटा बुवै तािह बोय तो फूल ।” रामजीने कहा—“नह ल मण! जो तोको काँटा
बुवै तािह बोय तू भाला, वो भी मूरख तो समझे िक पड़ा िकसीसे पाला। ल मण—”
मया िह समायु ं मामयं मकरालयः॥
असमथ िवजानाित िध मामी शे जने।
(वा.रा. ६.२०–२१)
लिछमन बान शरासन आनू। सोषौं बािरिध िबिशष कृशानू॥
(मा. ५.५८.१)
“मने जबतक मा िकया, समु ने मुझे असमथ माना। लाओ, अभी बाण लाओ!”
गो वामीजी कहते ह िक ल मणजीने इतनी ुत गितसे िदया िक मने देखा ही नह , सीधे
अस किह रघुपित चाप चढ़ावा (मा. ५.५८.५) ल मणजीने कहा—“म तो चाह ही रहा
था सरकार! आपने ही िवभीषणक नीित अपना ली। म तो कह ही रहा था—नाथ दैव कर
कवन भरोसा (मा. ५.५१.३)। पर आपने ही कहा िक अभी नया-नया किबनेट म आया ह;
गठब धनक सरकार चल रही ह, टट जायेगी तो गड़बड़ हो जायेगा। पर◌ु अ◌म मेरी नीित
ही सफल रही!” इस कार, भगवा राम जल त वसे भी ऊपर ह।
(३) अि —अब देिखये िक ीराम अि त वसे िकतने ऊपर ह! एक बार िकसीने मुझसे

१४९
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

िवनोद िकया और कहा—“सीताजीक रामजीने ल ाम अि परी ा क ; तो ‍ा रामजीक भी


अि परी ा ई थी?” मने कहा—“हाँ, रामजीक िमिथलाम ही अि परी ा ई थी!” उ◌ ने
पूछा—“कसे?” तो मने कहा िक देिखये, काम और रामम यही तो अ◌र ह। श र भगवा क
ने दोन ओर खुल रह ह—कामक सामने भी ने खुला था और रामजीक सामने भी। कामक
सामने तो कवल श रजीक तीसर ने का थोड़ा-सा कोना ही भर खुला था—
तब िशव तीसर नयन उघारा। िचतवत काम भयउ जिर छारा॥
(मा. १.८७.६)
उस तीसर ने क अि से काम जलकर खाक हो गया और वह भगवा श र िमिथलाम
प मुख बने और उनक जब एक मुखम तीन ने ह तो प मुख होनेसे उनक प◌ह (१५) ने
हो गये।
शंकर राम प अनुरागे। नयन पंचदश अित ि य लागे॥
(मा. १.३१७.२)
भगवा श र जब अनुर ए तो वे यह भूल गये िक प◌ह ने नह खोलने चािहए।
उनका तीसरा ने कभी नह खुलता, कवल दो ही ने खुलते ह। तीसरा ने खुल तो बस म ुल
ही म ुल, महा लय हो जाए। पर आज हमार भोल बाबा, भूल बाबा बन गये। भोला बाबा माने
िजसको देश, काल, प र थितका मरण न रह जाए। तो भोल बाबाक फटाफट प◌ह ने खुल
गये। प◌ह ने म पाँच ने सूयक, पाँच ने च◌क और पाँच ने अि क। अब आप बताइये
िक कामक ऊपर एक ने खोला था तो वह म ुल-म ुल हो गया, ऐसी-क -तैसी हो गयी उस
नालायक क , खाक हो गया बेचारा धूमकतु और हमार राघवक ऊपर प◌ह ने खुल—सूय
ने , च◌ ने और आ ेय-ने । दो बटा तीन (२/३) गम और एक बटा तीन (१/३) शीतलता।
सूयक वह गम िक िजसम स पातीक पंख जल गये थे और यहाँ हमारा राघव घोड़पर चमाचम
आभूषण से स त, मौ रया धारण िकये ए, चकाचक ह। राघवक मौ रया भी सामा य मौ रया
नह , वह िमिथलासे थोड़ ही आयी थी। वह तो अयो यासे बनकर आयी थी। बड़ी सु◌र मौ रया
ह, ये तो वही मिलिनयाँ वाली मौ रया ह—
मिलया जे सूतल ऊँची अटिरया हे।
मािलन सूतेली पुलवािर हे मिलिनयाँ, मािलन।
जागो जागो आहे मिलिनयाँ मिलया जगावे ले।
जागो मािलन भइलइ िभनुसार हे मिलिनयाँ।
जागो ... मिलया जे ... मािलन ...।
पूरा गीत नह कहना ह। मिलिनयाँको भु जगायगे, िफर चचा करगे। मिलिनयाँसे राघवजीने
यही कहा था िक मुझे आरसी मौ रया चािहए। आरसी मौर नह , वह आष श दका अप ंश
ह—ऋषीणािमयमाष । राघवजीने मिलिनयाँसे कहा—
बाबा घर आहे मिलिनयाँ, हमरौ सगुनवा उठे।
अरसी मौिरया रिच दे हे, मिलिनयाँ अरसी मौिरया रिच दे हे।
आजकलक लड़क का चेहरा देखो। मौ रयाम बड़ी-बड़ी लाइट लगी रहती ह ‍ िक उनक
१५०
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

चेहरपर अपना तो काश होता नह ह, कपोल खोपड़ी जैसा बैठा रहता ह धूमकतु का। सोचते
ह िक जब अ धकार ही अ धकार ह, तो थोड़ी लाइट कर देते ह। पर वहाँ तो अ धकार ह ही
नह । वो तो—
राम सि दान िदनेशा। निह तह मोह िनशा लवलेशा॥
सहज काश प भगवाना। निह तह पुिन िव ान िबहाना॥
(मा. १.११६.५–६)
एतावता, ये प◌ह ने भगवा क ऊपर खुल और आप आ य करगे िक िजस ने क कोनेने
कामको जला िदया था; ऐसे प◌ह ने , िजनसे अ ार बरसता था, उनसे जलधार बरसने लगी।
ऐसा लगता ह मानो यूिनवसल हीटरका यूज ही गड़बड़ हो गया। जहाँसे आग बरसी थी, पानी
बरसने लग गया। आ ेय ने से पानी बरस रहा ह—
राम प नख िशख सुभग बारिह बार िनहािर।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरािर॥
(मा. १.३१५)
जो अबतक लोचन अनल था, अब लोचन सजल हो गया। अि परी ा हो गयी। एतावता,
अि उसे नह जला सक । जब उसक िवभूितको अि नह जला सक तो उसे अि कसे
जलायेगी?
भगवा से अजुनने कहा—“जीवा माका िनवचन क रये।” भगवा ने कहा—“अजुन!
नैनं िछ ि श ािण नैनं दहित पावकः।
न चैनं ेदय ापो न शोषयित मा तः॥
(भ.गी. २.२३)
जब भगवा क िवभूित जीवा माक िलये कहा गया िक इसे श नह काट सकते, इसे
आग नह जला सकती, इसे जल नह गीला कर सकता, इसे वायु नह सुखा सकता तो जब
जीवा माको नह तो िफर—
परमातमा नर पा। होइिह रघुकुल भूषन भूपा॥
(मा. ७.४८.८)
वा मीिक रामायण म कहा गया—
य मेष महायोगी परमा मा सनातनः
(वा.रा. ६.१११.११)
उनका ऐसा यि व ह। इसिलए सु◌रका डम एक बार श र भगवा को पावतीजीपर
ोध आ गया। श रजी पित ह कोई हसबै ड तो ह नह , हसबै ड होते तो शायद ोध न
आता। हसते ए बै डको ‍ा ोध आयेगा? िपटाई होती रहती ह, बेचारा हसता रहता ह।
घरवाली बरसती रहती ह और पित ही-ही करक हसता रहता ह बेचारा! अर, वह पित कसा िक
एक बार िजसक भ ह चढ़नेपर प ी काँप न जाए। ये आजकलक लोग, नपुंसक, ही-ही करक
हसते रहते ह धूमकतु! पर◌ु श र भगवा ऐसे पित नह ह। वे ऐ यवा पित ह, वच वी पित
ह, महापु ष ह। जब ल ा जली तो पावतीजी थोड़ा दुःखी हो गय ।
१५१
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

िशवजीने कहा—“‍ दुःखी हो रही ह, हष होना चािहए।” पावतीजीने कहा—“सरकार!


यह बतलाइये िक पूरी ल ा हनुमा जीने जलायी पर हनुमा जी ‍ नह जल?” तब श र
भगवा को ोध आ गया और सीधे उनक बापको गाली दी—“हो तुम प थरक ही बेटी! इतना
भी तुमको ान नह ह।”
ताकर दूत अनल जॆिह िसिरजा। जरा न सो तॆिह कारन िगिरजा॥
(मा. ५.२६.७)
ताकर दूत, हनुमा जी उनक दूत ह; अनल जॆिह िसिरजा, िज◌ ने अि का िनमाण िकया
ह—मुखादि रजायत (शु.य.वे. ३१.१२)। पगली, इतना भी नह समझत , बड़ी आयी हो कथा
सुनने वाली।” जरा न सो तॆिह कारन—इसी कारणसे नह जला। श र भगवा बोल—
“िगिरजा! अर प थरक ही तो बेटी ठहर । तभी तो इतना सामा य ान (कॉमनसस) भी नह
ह।” सीधे ग रयाया भगवा ने उनक िपता को! हमार बुढ़ऊ कभी-कभी गु सा भी हो जाते
ह। “O daughter of mountains!! तुमको इतना भी ान नह ह।” यहाँ भवानी या उमा
िवशेषण नह िदया ‍ िक ोध आ गया उनको। इसका ता◌य यह ह िक जब भगवा क
दूतपर भी अि का िनय◌ण नह ह तो भगवा पर काहको िनय◌ण रहगा!
(४) वायु—वायुक ‍ा बात क , वायु तो भगवा का ास ही ह— वन िदशा दश बेद
बखानी, मा त ास िनगम िनज बानी (मा. ६.१५.४)। और वायुका पु तो उनक सेवाम
ही ह। हनुमा जी वायुक पु ह—अंजिन पु पवनसुत नामा (ह.चा. २), जात पवनसुत
देवन देखा, जानै चह बल बुि िवशेषा (मा. ५.२.१)। पवनक पु उनक सेवाम ह और
पवन भी उनक ित समिपत ह।
(५) आकाश—आकाशक बात तो िब कल छोड़ दो। आकाशक गित उ◌ ने कम क ।
आकाश यापक ह, उसक गित कोई कम नह कर पाता। िजतना ह उतना रहगा, पर◌ु अयो या
जाते समय कम िकया—
यथािवधो मे मनसोऽिभलाषः वतते प य तथा िवमान ॥
(र.वं. १३.१९)
चलत िबमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहै सब कोई॥
(मा. ६.११९.३)
आकाशको कम िकया भगवा ने और गो वामीजीने कहा—नभ शत कोिट सिरस
अवकाशा (मा. ७.९१.८), इसिलए भगवा पाँच महाभूत से पर ह। अब यिद भगवा
पाँच महाभूत से पर ह तो वो यिद अह याको देख तो कोई आपि नह —
आ म एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तह नाहीं॥
(मा. १.२१०.११)
राघवे◌जी अब अह याजीको देख रह ह, आ मको देख रह ह। वह िनजन ह। इन चार मसे
कोई नह ह—(१) खग—खग नह ह अथा खमाकाशं ग◌ित, खं ग◌ित ानी भ
भी वहाँ नह ह। (२) मृग —मृगयित इित मृगः, जो ढढता ह, अथा िज ासु, वह भी वहाँ नह
ह। (३) जीव—अथा अथाथ भी वहाँ नह ह। (४) जंतु—अथा आत भी वहाँ नह ह। ये
१५२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

चार ही नह ह। खग अथा ानवादी नह ह, मृग अथा कमवादी भी नह ह, जीव अथा


उपासक भी नह ह, और जंतु अथा दीन, कोई भी वहाँ नह ह। एकदम िनराि त ह वह
मिहला—खग मृग जीव जंतु तह नाहीं आज अह याका यि व िब कल अकला पड़ गया
ह और भगवा राम आज देख रह ह। ‍ िक भगवा खग भी नह ह, मृग भी नह ह, जीव
भी नह ह, और जंतु भी नह ह। सवभूत से ऊपर ह भगवा ! सवभूता मभूत थं सवाधार
सनातन (रा.◌.◌ो. ४६)।
अब राजीवलोचन भगवा रामने अह याको देखा। अ या
सवभूतानामा मेऽि म विस यिस। कोई नह देखेगा तुमको और िकसीने नह देखा।
पर देखा िकसने? ‍ा बात ह!—
पूछा मुिनिह िशला भु देखी। सकल कथा मुिन कही िबशेषी॥
(मा. १.२१०.१२)
एक बार िकसीने मुझसे पूछा—“गु जी, आप िच कटम ब त म◌ी लते ह ‍ ? और
िकसको सुनाते ह?” मने कहा िक म िच कटम अपनेको सुनाता और िकसीको नह सुनाता
। जो हमार अपने ह उनको और वयं को—आ माको और आ मीयको। िच कटम म अपनी
आ माको ही सुनाता ‍ िक उसको कभी कथा सुननेको नह िमलती और आ मीय को, जो
हमार ह, िजनको कछ उपासनासे लना देना ह। यह कथा उनक िलये नह ह जो भगवा से िवमुख
होकर इत◌तः मटरग ती करते ह। यहाँका िकतना बिढ़या, िकतना यारा वातावरण ह, लगता
ह पी जाओ इस वातावरणको! चार ओर स◌ बैठ मु करा रह ह, भगवती म◌ािकनी आन◌
कर रही ह, भगवा कामदे रक िशखर झूम रही ह और कामदे रपर बैठ ए ीसीतारामजी
िब कल आन◌म ह और एक-दूसरको िनहार रह ह। िकतना यारा वातावरण ह! यान
रिखये—पूछा मुिनिह िशला भु देखी। अबतक िव ािम जी भगवा रामको ल जा रह थे
पर आज कछ अ◌र पड़ा। हरिष चले मुिनबरके साथा (मा. १.२१०.१०)—यहाँतक तो ठीक
ह िक मुिनवरक साथ चल थे तो पीछ रह ह गे राम जी। जब रामजी पीछ ह और िव ािम जी
आगे ह, तो रामजीने अह याको कसे देख िलया?
इसम पहला उ र तो मने दे ही िदया। इसका रोचक उ र यह ह िक अब रामजी अह याजीका
उ ार करना चाहते ह। रामजीने सोचा िक म यिद सामने र गा, तभी क याण होगा ‍ िक—
जायमानं िह पु षं यं प ये मधुसूदनः।
साि वक ु स िव ेयो भवे मो े च िनि तः॥
(म.भा. १२.३४८.७३)
भगवा ने सोचा िक अह या तो जड़ हो गयी ह। ये मेरी चरण-रजको कसे चाहग ? तो पहल
देख ल। भगवा ने तीन काम िकये, यान रिखयेगा। ये तीन व◌ुएँ न क —(१) पाप—अपनी
◌ि से अह याक पापको न कर िदया। (२) ाप—अपनी चरणक धूिलसे अह याका ाप
न कर िदया। (३) ताप—अपने चरणका पश कर अह याका ताप न कर िदया। पाप, ाप,
और ताप तीन को न िकया, इसीिलए परसत पद पावन ... (मा. १.२११.१) इसम ि भ ी
छ◌ ह। तीन व◌ु का भ आ— याणां भ ानां समाहार भ ी। पापका भ , ापका

१५३
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

भ , और तापका भ ।
भगवा आज पापका भ कर रह ह देखकर। आज अह याको भगवा देख रह ह।
भगवा को देखनेका िकतना मह व ह! भी मने कहा था िक एक बार मुझे देख लीिजये—
स देवदेवो भगवा ती तां कलेवर याविददं िहनो यह ।
स हासा णलोचनो स मुखा बुजो यानपथ तुभुजः॥
(भा.पु. १.९.२४)
कहते ह—माधव, एक बार मुझे देख तो लो—तिनक हिस हेर न िकशोर। नारदजीकहते
ह—मामवलोकय प जलोचन (मा. ७.५१.१) एक बार मुझे देख लो और आज पूछा मुिनिह
िशला भु देखी। राघवजीने सोचा िक मुझे अह याका उ ार तो करना ही ह। अब रामजी
िव ािम जीपर भावी हो चुक ह। अब तो वो जैसे नाच नचायगे, िव ािम जी वैसे ही नाचगे।
राघवजीने कहा—“गु जी, विस गु जीने मुझे भूगोल पढ़ाया ह और म मानिच बनाना
जानता । ऐसा करते ह गु जी िक म आपको िमिथलाक न ेसे ल चलता ।” िव ािम जीने
कहा—“राघव, तुम पढ़ िलखे हो भैया! हम तो बाबा ह, उसी ढगसे ल चलो।” इसिलए अब
िव ािम जी पीछ और राघवे◌जी आगे ह। और क णा करक उसी रा◌ेसे ल जा रह ह जहाँ
अह याजी पड़ी ई ह, नह तो दूसरा रा◌ा भी तो हो सकता था। यही तो भगवा का वा स य
ह िक गृहते गमिन परिस पद पंकज घोर ाप ते तारी। गृहते गमिन अपने आप जा रह ह,
उसी रा◌ेसे ल जा रह ह। ल मणजीने कहा—“सरकार! एक बात मुझे समझम नह आयी िक
आपने चरण म पनह ‍ नह पहन , इसका ‍ा कारण ह?” रामजीने कहा—“चुप रहो।”
ल मणजीने कहा—“नह सरकार! इसका उ र तो बताइये।” रामजीने कहा—“पनही पहननेम
बड़ी हािन होगी ल मण। यिद पनही पहन लगा तो िमिथलाक पुरोिहतानीका ‍ा होगा? वे
तो मेर चरणक रज चाहती ह। पनही पहननेसे चरण-रज उ◌ नह िमल सकगी।” ल मणने
कहा—“सरकार! एक बात पूछ? आप अह याक उ ारम इतनी अिभ िच ‍ रख रह
ह?” रामजीने कहा—“मेरी माताका नाम बताओ तो ल मण!” ल मणजीने कहा—“सरकार!
आपक माताका नाम कौन नह जानता? कौश या अ बाजीको कौन नह जानता?” रामजीने
कहा—“ल मण, मेरी माताजीका नाम कौश या ह और इनका नाम अह या ह। ल मण, यिद
अह याका उ ार नह क गा तो मेरी माताक नामक अ ◌म ख ड या का अपमान हो जायेगा।
इसिलए मुझे अपनी माताक अ ◌म ख डका स मान करनेक िलए अह याका उ ार करना
ह।” ल मणजीने कहा—“आप ध य ह सरकार! अह याको रौरव िमलना चािहए और आप
गौरव दे रह ह।”
पूछा मुिनिह िशला भु देखी (मा. १.२१०.१२)। आप कर िक िशला भु देखी
भगवा ने िशलाको देखा, पर वे परनारीको देखते नह —जेिह सपने परनािर न हेरी (मा.
१.२३१.६)—तो कसे देख िलया? तो कहते ह िक िव ािम जीने कहा—“यह तो िशला ह।”
रामजीने कहा—“िशला ह, तो देहातम मेरी माताजीको कौिसला कहते ह। तो िशला श द
सुनकर मुझे माँ कौश या जी याद आ गयी।” अथवा, िशलाको भी देखा और िशला भु देखी
अथा िशलाक भुको भी देखा अथा गौतमको भी सामने खड़ ए देखा। उ ारका समय

१५४
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

जानकर गौतम भी आ गये थे।


पूछा मुिनिह। आज भगवा सव होते ए भी अ प क भाँित िव ािम जीसे पूछ रह
ह—“सरकार! हतु बताय िक ऐसा ‍ हो रहा ह?” यहाँ पूछनेक दो कारण ह—
(१) पहला कारण यह ह िक यहाँ भगवा अपनेको कट नह करना चाहते ह िक म
भगवा । उनको यही कट करना ह िक म दशरथजीका राजकमार, एक बालक , एक
ि य कमार , एक कमिन बालक ।
(२) दूसरा कारण यह ह िक जब िव ािम जीसे पूछगे तो िव ािम इनक कथा कहगे तो
उनक कथा कहते-कहते ही इनका आधा पाप दूर हो जायेगा। िव ािम जैसा महिष िजसक
चचा कर, तो वह ध य हो जायेगा। स◌ िजसक चचा करते ह, वह ध य हो ही जाता ह।
भगवा कहते ह िक पहल इनको स◌से अनु ह िदलवा ल ‍ िक स◌ िजसपर अनु ह करते
ह, वह ध य हो जाता ह।
एतावता, िव ािम जैसे परम भागवतसे अह याजीको अनुगृहीत बनवाना था भगवा को,
इसिलए उनसे पूछा। और िव ािम अह याक कथा ‍ कहने लगे? पापीक कथा तो
कभी नह कहनी चािहए—कथािप खल पापानामलम ेयसे यतः (िश.व. २.४०)। आज तो
पु या माक कथा कोई उतने ेमसे नह कहता, पापीक कथा अिधक ेमसे कहते ह। अ◌ी
चचा कभी नह आती। समाचार प म अ◌े समाचार तो ब त कम ही छपते ह, ग◌े समाचार
बार बार छपा करते ह। आज अ◌ी चचा करनेको कोई तैयार नह होता। जब दो लोग बैठगे
तो दूसर क िन◌ा करगे, आलोचना करगे। अ◌े-अ◌े लोग को हमने देखा ह। जब बैठगे तो
िकसी न िकसीक बुराई या िशकायत करते रहगे। पु ष तो करते ही ह, पर बिहन म यह िवशेष
आदत हमने देखी ह। म तो िनर◌र यह बात कहता िक कभी भी वै णवको िकसीक भी
िन◌ा नह करनी चािहए। जब हम, जहाँ भी बैठ तो—
जह तह नर रघुपित गुन गाविह। बैिठ परसपर इहइ िसखाविह॥
(मा. ७.३०.१)
देिखये दूसर क िन◌ा करनेसे ब त बड़ा पाप लगता ह। ग डजीने भुशु डजीसे पूछा िक
सबसे बड़ा धम ‍ा ह? तब भुशु डजीने कहा—
परम धम ुित िबिदत अिहसा। पर िनंदा सम अघ न िगरीसा॥
(मा. ७.१२१.२२)
अिहसा जैसा कोई धम नह और परिन◌ा जैसा कोई पाप नह । इसिलए यास करना चािहए
िक िकसीक बुराई न कर। एक बार एक बड़ अ◌े यि कह रह थे—ि यजनक या या
‍ा ह? ‍ा माण ह िक आप हमसे ेम करते ह? ‍ा हम िकसीको पया-पैसा दे द
तो हमारा ेम िस हो जायेगा? ‍ा हमारा ेम िकसीको िखलाने-िपलानेसे िस हो जायेगा?
कब मािणत होगा िक हम ब त ेम करते ह? ेमका स ा माण यह ह और ेमक स ी
प रभाषा यह ह िक िजसपर भी हम स ा ेम करते ह, उसको संसारसे हटाकर भगवा म
लगा द। िजसको हम दुलार करते ह, िजसको हम ेम करते ह, िजसपर हमारी ममता ह, उसे
भगवा म लगा द! यह िनयम होता ह िक जो िजस कितका होता ह, वह अपने ि य यि को

१५५
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

उसी कितम ल जाता ह, जैसे चोर अपने िम को चोरी ही िसखाता ह, शरारती अपने िम को
शरारत िसखायेगा। इसी कार एक वै णवको अपने ेमा पद यि को परमा माक ही चरण म
लगाना चािहए।
आज भगवा जानते ह, पर जानकर भी िव ािम जीसे ‍ कहलवा रह ह? पापीक कथा
नह कहनी चािहए, पर िव ािम जी ‍ कह रह ह? िव ािम जी भी यह जान गये ह िक अब
अह याजीम पाप नह रह गया ह। िजसको राजीवलोचनने अपने राजीवनयन से िनहार िलया,
वह तो अब िन पाप हो गया। अब तो—
सनमुख होइ जीव मॊिह जबहीं। जनम कोिट अघ नासिह तबहीं॥
(मा. ५.४४.२)
अह याजी भुक स मुख चली आयी ह और इसिलए उनम अब कोई पाप नह रह गया
और दूसरी बात यह भी ह िक राजीवलोचन भुने उनको िनहार िलया ह—
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे िचतये भु िजन भु हेरे॥
ते सब भये परमपद जोगू। भरतदरश मेटा भव रोगू॥
(मा. २.२१७.१–२)
तो (१) जे िचतये भु—िजनको भुने देखा वह भी पिव हो गये और (२) िजन भु
हेर—
े िज◌ ने भुको देखा वह भी पिव हो गये।
आज हमार एक ब त अ◌े ेही िम िवनोदम ही कह रह थे—“गु जी, गो वामीजीने
तो ब त सरल िलखा ह और आप उसे किठन कर डालते ह!” मने कहा िक ऐसा नह ह। म
किठन ‍ करने लगा? गो वामीजीने सरल िलखा ह यही समझना हमारी भूल ह। गो वामीजीने
सरल नह िलखा ह। गो वामीजीने सरल भाषाम िलखा ह, पर भा य सरल िब कल नह ह।
उनक तो ित ा ही यही ह—
नानापुराणिनगमागमस मतं य ामायणे िनगिदतं िचद यतोऽिप।
वा ःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषा िनब धमितम ुलमातनोित॥
(मा. १ म. ो. ७)
एक बार सूरदासजी महाराजसे अकबरने पूछा—“इस समय महाकिव कौन ह?”
सूरदासजीने कहा—“महाकिव तो म ।” अकबरने कहा—“इस समय सव े किवता िकसक
ह?” सूरदासजीने कहा—“मेरी।” अकबरने कहा—“तु हारा िदमाग तो नह खराब हो गया?”
सूरदासजीने पूछा—“‍ ?” अकबरने कहा—“िफर तुलसीदासजी कौन ह?” सूरदासजीने
कहा—“मेरा िदमाग तो नह खराब ह, पर तेरा िदमाग अव य खराब ह!” अकबरने
पूछा—“‍ ?” सूरदासजीने कहा—“बेवकफ, तुलसीदासजीको तुम किव मानते हो और
तुलसीदासजीक किवताको तुम किवता मानते हो? अर पगल, तुलसीदासजी किव नह , वे तो
ऋिष ह और उनक किवता नह ह वह म◌ ह म◌!”
अब आप ही बताइये िक म◌ सरल होता ह या किठन होता ह। म◌ उसे कहते ह िजसका
मनन िकया जाए, जो सीधे-सीधे न समझम आये। म◌का जबतक मनन नह करोगे, तबतक
समझम नह आयेगा। मनना ायते य मा मा म इतीयते, अथा जो मनन करनेसे जीवको
१५६
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

भवब धनसे छड़ाता ह, उसे म◌ कहते ह। ीरामच रतमानसजीका मनन करो, तब नमन अपने
आप हो जायेगा। गो वामीजी वयं कहते ह—
सुिन अवलोिक सुिचत चख चाही। भगित मोिर मित वािम सराही॥
(मा. १.२९.३)
कसे मनन कर? गो वामीजीने कहा िक सावधान! च मेक आँखसे िब कल समझम नह
आयेगा। इस च मेका कोई लाभ या योजन भी नह ह। राम- ेमका च मा लग जाए तब अ र
िदखायी पड़ जायेगा। इस च मेसे कछ नह होगा। इस च मेको लगाकर ोफसर बन जाओगे,
पर◌ु राम- ेमका च मा लग जाना चािहए।
अब यह आप देिखये! भगवा आन◌क◌ भु अह याको िनहार चुक—पूछा मुिनिह
(मा. १.२१०.१२)। ‍ा पूछा? िशला भु देखी। यहाँ देखी श द ‍ा यया◌ ह। िशलाको
देखकर भगवा ने पूछा। पहल देखा िफर पूछा। तो ह िक ‍ पूछा? एक िनयम ह। लोग
कहते ह िक वा मीक य रामायण म भगवा रामको भगवा नह माना गया। पर◌ु यिद ठीक-
ठीकसे िवचार िकया जाए तो ऐसा नह ह। पूरी वा मीक य रामायण पढ़नेका आपक पास
समय नह ह—और मुझे तो लगता ह िक पूरी वा मीक य रामायण पढ़नेक आव यकता
भी नह ह ‍ िक आप चौबीस हजार ोक कहाँतक पिढ़येगा? वो तो हम लोग क ऊपर
छोड़ दीिजये। पर◌ु मेरी राय मानकर, मेरा अनुरोध मानकर, मेरी िवनय मानकर, मेरी ाथना
मानकर, मेरी आ ा मानकर, मेरा आदेश मानकर, मेरा िनदश मानकर, और मेरा उपदेश मानकर
वा मीक य रामायण क अयो याका डक स हव सगका कवल चौदहवाँ ोक पढ़ लीिजये।
इसीम आपका जीवन चकाचक हो जायेगा। िकतना सु◌र ोक ह! कसे लोग यह कहते ह िक
वा मीक य रामायण म रामजीको भगवा नह माना गया ह? झाँक ब त मधुर ह! ीरामच◌जी
भु कनकभवनम ीसीताजीक साथ िवराजमान ह। वनवासका समय ह। ककयी अ बाजीने
सुम◌जीको भगवा रामको बुलाकर लानेको भेजा ह और भगवा ीराम सुम◌जीक साथ
मागम आ रह ह। उस समय एक बात भगवा वा मीिक ब त सु◌र कहते ह—
य रामं न प ये ु यं च रामो न प यित।
िनि तः सवलोकेषु वा माऽ येनं िवगहते॥
(वा. रा. २.१७.१४)
पूर भि िस ा◌का सार ह यह ोक। य रामं न प ये ु, यहाँपर स भावनाम िल
ह—शिक िल च (पा.सू. ३.३.१७२)। अब य रामं न प ये ु इसक िह◌ी होगी—जो
रामजीको नह देख सकता, यहाँ श‍ाथम िल लकार ह। जैसे आपको यह कहना ह िक
म अकल नह जा सकता। तो जबतक आप बोलगे िक अहमेकाक न ग◌ुं श ोिम —इतना
ल बा! तो उसक थानपर बोलगे—अहमेकाक न ग◌ेय । इसी कार यहाँ श‍ाथम िल
लकार ह। य रामं न प ये ु जो रामजीको नह देख सकता और यं च रामो न प यित और
िजसको भगवा राम नह देखते, वह िनि तः सवलोकेषु सार संसारम िन ◌त होता ह, सार
लोक म उसक िन◌ा होती ह और वा माऽ येनं िवगहते उसक आ मा भी उसे फटकारती ह
िक अर नीच! मानव शरीर पाकर भी तुम कौश याकमार राघवे◌ सरकारको नह देख पाये?
१५७
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

‍ा आव यकता ह तुमको जीने क ? तुम मर जाओ! जीवा मा कहती ह—


पग नूपुर औ प ची कर कंजिन मंजु बनी मिनमाल िहएँ।
नवनील कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकै नृप गोद िलएँ।
अरिबंदु सो आननु प मरदु अनंिदत लोचन भृंग िपएँ।
मनमो न ब यौ अस बालकु जौं तुलसी जगमें फल कौन िजएँ॥
(क. १.२)
इतना सु◌र बालक यिद मनम नह बसा तो बताइये जीनेका ‍ा फल ह? जग म रोटी
खानेक िलए जीना चािहए ‍ा? जग म भार बनकर जीनेसे ‍ा लाभ? और सं या बढ़ा रह
हो धूमकतु! जीनेका फल तो यही ह िक—
य रामं न प ये ु यं च रामो न प यित।
िनि तः सवलोकेषु वा माऽ येनं िवगहते॥
एक बात और बता रहा िक इन आँख से तुम रामजीको देखनेक आशा छोड़ दो, इन
आँख से रामजी नह िदख सकते, वो तो—
न तु मां श से मनेनैव वच ुषा।
िद यं ददािम ते च ुः प य मे योगमै र ॥
(भ.गी. ११.८)
उनक िलए तो—
मुकुर मिलन अ नयन िबहीना। राम प देखिह िकिम दीना॥
(मा. १.११५.४)
जब मुकुर अथा मन ही मिलन ह और ने िवहीन अथा ान िवहीन और वैरा य
िवहीन— ान िबराग नयन उरगारी (मा. ७.१२०.१४)—ह तो रामजीका प िकस कार
देख पायगे? पहल तो मन प मुकरसे िवषयक काई समा हो जाए—काई मुकुर िवषय मन
लागी (मा. ७.११५.१)। और यह कसे समा होगी? तो कहते ह— ीगु चरन सरोज रज
िनज मन मुकुर सुधािर (मा. २ म.दो. १)। यहाँ स ु नह ीगु कहा। ीगु यहाँपर
‍ कहा? इसक माने— ीम के य य स ीगु ः, ऐसे गु क चरण सरोजक धूिलसे मन
प मुकर सुधरगा, िजसक म◌कपर ी लगी ई हो।
और ितलक सब ऐसी तैसी रामान ी ठीक।
दूरसे ही िदख पड़ती यों रेलवेकी लीक॥
ीगु िजसक म◌कपर ी लगी ई हो। ीस दायानुमोिदतोगु ः ीगु ः—जो ी
स दायसे अनुमोिदत हो, वे ीगु ह। तो— ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
ऐसे गु क सरोज-रजसे मन प मुकर सुधर जायेगा। बरनउ रघुबर िबमल जस जो दायक
फल चािर (मा. २ म.दो. १)।
एतावता, िजसको रामजी देख लते ह, वह सार पाप से मु हो जाता ह, ध य हो जाता ह,
परमपदक यो य हो जाता ह। इसिलए िव ािम जी आज जानते ह िक अह याजीको रघुनाथजीने
िनहार िलया ह।
१५८
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

पूछा मुिनिह िशला भु देखी। सकल कथा मुिन कही िबशेषी॥


(मा. १.२१०.१२)
देिखये, अब िव ािम जीको ान हो गया िक अह या तो अब ब त पिव हो गयी ह।
आपको बताऊ िक जैसे भगवा क छः गुण ह, उसी कार भगवा क यशक भी छः गुण ह।
भगवा क छः गुण आप लोग जानते ह या नह ? िकसे भगवा कहते ह—
ऐ य य सम य धम य यशसः ि यः।
ानवैरा ययो ैव ष णां भग इतीरणा॥
(िव.पु. ६.५.७४)
उसको भगवा कहते ह, िजसम (१) सम ऐ य, (२) सम धम, (३) सम यश, (४)
सम ी, (५) सम ान, और (६) सम वैरा य िवराजमान रहता ह। तो िजस कार भगवा म
छः गुण ह, उसी कार भगवा क यशम भी छः गुण ह। कौनसे छः गुण ह, तो कहते ह—
गई बहोर गरीब िनवाजू। सरल सबल सािहब रघुराजू॥
(मा. १.१३.७)
देिखये, िवशेषता यह ह िक भगवा िजतनी भी लीला करगे, येक लीलाम आपको ये
छह िवशेषताएँ िमल जायग । (१) गई बहोर—यह भगवा क सबसे बड़ी िवशेषता ह। यह
गो वामीजीने भगवा का नया नाम रखा ह। िकसी श दकोशम यह नाम ह ‍ा—गई बहोर।
गजबका नाम रखा ह। ऐसन नाम र‍े चाही का? गई बहोर माने होता ह—गयी ई व◌ुको
लौटाकर ल आने वाल। (२) गरीब िनवाजू —गरीबको, दीनको नेवाजने अथा पुर कत करने
वाल। (३) सरल—ब त सीधे, सार य गुणसे यु और (४) सबल—अथा ब त बड़
बलवा , (५) सािहब—अथा वामी, और (६) रघुराजू —रघु माने जीव और राजू माने
िवराजमान होने वाल, अथा जीव क दय म िवराजमान होने वाल, जीव क दयको दी करने
वाल, कािशत करने वाल—ये भगवा क छः गुण ह।
यह बात म प पसे कह रहा िक ीरामच रतमानसजीम तीकवाद स भव ही नह
ह। िजनको अ रसे भट नह उनक िलये ‍ा ह, वे कछ भी कह। एक बात बता रहा िक
एक बड़ा अ◌ा यादव था बेचारा! वह अपनी ससुराल गया। पढ़ा-िलखा था नह । पहल यह
िनयम होता था िक जब भी कोई मेहमान आता था, उससे कोई धम थ पहल सुना जाता था।
सासू रानीने सोचा िक हमार दामाद ब त पढ़-िलखे ह, इनसे कछ सुनै चाही। अब सासजी
ल आय बड़क पोथ ी। कहने लग —“जरा सुनावा तो कछ।” और ई बचार एकउ अ◌र
पढ़-िलखे नह । लड़कपनम कवल क पढ़ रिहन। अब सोचने लगे—“हमारा क कह ढढनेसे
िमल जाए।” एक घ टतक पोथी उलटते रह। सासू रानीने सोचा िक कोई बिढ़या स ढढ रह
ह, बिढ़या स सुनावगे। ढढते-ढढते उनको एक घ टम क िमल गया और जब क िमला
तो लगे जोर-जोरसे रोने। सबने कहा—“‍ रो रह हो?” तो कहने लगे—“लड़कपनम मेरा
क इतना मोटा ताजा था, अब इतना दुबल काहको हो गया?” पहल लट-प ीपर एक क को
उ◌ ने मोटा-मोटा लगभग दस अंगुलक चौड़ानम िलखा था और इसम छपा था तो ब त छोटा।
अब लगे फट-फटकर रोने—“अर हमार क ! तू इतना दुबराय गयउ। काहका दुबराय गयउ
१५९
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

तू। तोह क दुबरवाइस। तोह खायेका नाह िमला।” तो िजनको अ रका इतना भी ान नह ,
उनको ‍ा बताया जाए?
यह िस ा◌ ह िक मानसम तीकवादक क पना उतना ही बड़ा पाप ह िजतना िक
गोह याका पाप होता ह। अब म माण देकर बात क गा। पहल म यह चचा कर ल िक तीक
होता कहाँपर ह? कहा जाता ह िक यह इसका तीक ह, जैसे िकसी बड़ वृ को देखकर कहा
िक ये हमार िपताजीक तीक ह। इसका अथ यह ह िक अनुपि थत उपि थितक पनं तीकः,
अथा अनुप थितम उप थितक क पनाको तीक कहते ह। जैसे हमार यहाँ अशोकका च
ह, जो हमारी अिहसाका तीक ह। यिद आप रामजीको ानका तीक मानगे तो इसका यह
अथ होगा िक पहल आप रामजीको अनुप थत कह रह ह अथा रामजी उप थत नह ह। तभी
तो ानका तीक बनेगा। अब आप बताइये िक ‍ा मानसक रामच◌जी अनुप थत ह। यिद
रामच◌जी अनुप थत ह, उप थत नह ह, तो राम यापक जग जाना (मा. १.११६.८)
और अग जगमय सब रिहत िबरागी, ेम तें भु गटइ िजिम आगी (मा. १.१८५.७)
कसे बनेगा। इसिलए िनि त यह ह िक रामजी ि कालम भी अनुप थत नह ह और जब वे
अनुप थत ही नह तो उनका तीक काहको होगा? अनुप थितम तीकक क पना क जाती
ह, उप थितम कभी तीकक क पना नह क जाती। आप कह िक हमको रामजी नह िदख
रह ह। अर भाई, आपको रामजी न िदख पर रामजी उप थत ह। कोई उ कह िक हमको
सूयनारायण नह िदख रह ह तो उसक कहनेसे ‍ा हम सूया य देना ब◌ कर दगे? अर! उस
धूमकतुको िदनम सूयनारायण नह िदखायी देते। सां यशा ने ऐसे आठ कारण बताये, जहाँ
उप थितम भी हम नह देख सकते—
अितदूरा सामी यािदि यघाता मनोऽनव थाना ।
सौ या वधानादिभभवा समानािभहारा ॥
(सां.का. १.५.७)
(१) अितदूरा —कोई व◌ु यिद ब त दूर हो, तो नह िदखती। अब जैसे यहाँ बैठ-बैठ
कोई कह िक हम उधर जानक क डक मैिथली गली देख, तो देख सकते ह ‍ा? इसिलए
नह देख सकते ‍ िक वह हमसे दूर ह। अब आप सोिचये िक वो हमको नह िदखायी पड़ी
तो ‍ा हम यह कहगे िक मैिथली गली नह ह। मैिथली गली ह, पर वह हम िदखायी नह पड़
रही ह।
(२) सामी या —अथा जो व◌ु अ यिधक िनकट होती ह, वह भी हमको नह िदखायी
पड़ती। जैसे हमको हमारी आँख नह िदखायी पड़त ‍ िक वो हमसे ब त िनकट ह।
(३) इि यघाता —इसका अथ ह िक इि◌य जब नह हो तो नह िदखायी पड़गा।
◌ि हीनको सामनेवाली व◌ु नह िदखायी पड़गी ‍ िक उसक पास दशनेि◌य नह ह।
(४) मनोऽनव थाना —हमारा मन ठीक न होनेपर भी व◌ु नह िदखायी पड़ती। कभी-
कभी आप देखते ह, जब हमारा मन ठीक न हो, तो सामने पड़ी व◌ु भी हमको समझम नह
आती। ‍ा वहाँ व◌ु नह ह? व◌ु तो ह, पर हमारी मनक थित ठीक न होनेसे हम िदखायी
नह देती।
१६०
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

(५) सौ या —अ य◌ सू म व◌ु भी हमको िदखायी नह देती। दूरबीनसे िदखायी दे


जाती ह।
(६) यवधाना — यवधानक कारण भी व◌ु हम नह िदखायी पड़ती, जैसे हमने आँखक
पास हाथ लगाकर यवधान कर िलया तो हम सामनेक व◌ु नह िदखायी पड़गी।
(७) अिभभवा — काशक कारण दब जानेपर भी व◌ु हम िदखायी नह पड़ती, जैसे
िदनम तार रहते ह पर िदखायी नह देते ‍ िक सूयनारायणक िकरण उ◌ ढक देती ह।
(८) समानािभहारा —समान आकारक व◌ु हो तो भी समझम नह आयेगी, जैसे पचास
सरस क दाने हाथम ल लो और एक दाना दूसर हाथसे लकर उसीम डाल दो, तो तुम उस
दानेको पहचान नह सकोगे।
एतावता, भगवा राम हमको यिद िदखलायी नह पड़ते, इसिलए हम उनका तीक मान
िक भगवा राम ानका तीक ह, सीताजी भि क तीक ह तो यह तो अपलाप ही होगा।
अर भैया र! वे तीक नह ह, व प कह दो तो अ◌ा लगेगा। न तीके न िह सः ( .सू.
४.१.४), तीकम कभी भगवा क उपासना नह होती। वयं वेद यासजीने सू म िस
िकया। एतावता, िस ा◌ यह ह िक भगवा राम कवल ेताम ही नह । भगवा राम (१) देश,
(२) काल, और (३) प र थित—तीन ब धन से िनरव ◌ ह। वे ेताम भी थे, ापरम भी
थे, अब भी ह, और प ा भी रहगे। भ िजस पम उ◌ जब बुलाता ह, वे उस पम उसे
िदखायी पड़ जाते ह। भ क भावनाक अनुसार ही आते ह। वही िच कट ह, कोई बदल नह
गया ह। उसी िच कटम तुलिसदास च न िघसें और ितलक देत रघुबीर छोट-से बालकक
पम राघवजी आये। तुलसीदासजी ितलक लगा रह थे। राघवजीने कहा—“बाबा, जरा हम भी
ितलक लगा ल।” अपने भी ितलक लगाया और तुलसीदासजीको ऊ वपु लगा िदया और
इतना बिढ़या ऊ वपु लगाया िक कभी िमटा ही नह , जीवन भर लगा रहा। मानो ितलक
करक रामजीने कह िदया—“म तुमको स◌कलका ितलक बना रहा ।” वही िच कट ह
िम ो, जो न कभी बदला ह और न कभी बदलगा। जब सब कछ वही ह, तो भगवा भी वही
ह। उसी िच कटम जब गो वामीजी गीतावली क रचना कर रह थे। गीतावली क रचनाम वे
इतना य◌ रहते थे िक उ◌ भोजन बनानेका समय ही नह िमलता था और िकसी भ डारम
जानेका उनका वभाव नह था। छोट-छोट बालकक पम रामजी और ल मणजी उनको रोटी
लाकर िखलाते थे। एक िदन गो वामीजीने उनसे कहा—“लाला, ये रोटी कहाँसे िमलती ह?
कौन बनाकर देता ह आपको?” जान तो गये ही थे िक इतनी अ◌ी, मनसे कोई रोटी बना ही
नह सकता। तो राघवजीने कहा—“बाबा, जब आप बिढ़या-बिढ़या पद सुनाते ह, तो उ◌ को
हम माता को सुना देते ह। माताएँ स होकर हमको रोटी दे देती ह और हम आपको िखला
देते ह।” तुलसीदासजीने कहा िक ये तो राघवजी ह। इस बार उ◌ ने इतना बिढ़या और ल बा
पद बनाया, िजसक आरोहम ही दो अ◌राएँ, और एक और भी अ◌रा बनाया, िजसको एक
बालक अकल नह गा सकता। बालक िकतना ऊचा ल जायेगा बेचारा! वो तो—
कनक रतन मिण पालना रच मन मार सुत हार।
िविवध िखलौना िकंिकणी लागे मंजुल मु ा हार॥

१६१
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

दशरथ न न राम लला।


जब यह पद सुनाया तुलसीदासजीने तो भगवा िववश हो गये और तब रामजी, ल मणजीको
भी ल आये। तब राम-ल मण दोन ने ही गो वामीजीको दशन िदये। इसका ता◌य यह ह िक
भगवा कभी अनुप थत नह होते। वे तो सव उप थत ह—
देश काल िदिश िबिदिश माहीं। कह सो कहाँ जहाँ भु नाहीं॥
(मा. १.१८५.६)
भगवा सव ह। वयं गीताजीम भगवा ब त अ◌ा कह रह ह। जब भगवा ने पहल
उपदेशका ार भ िकया तो पहल तो अजुनक िवषादका ख डन िकया—
अशो यान वशोच वं ावादां भाषसे।
गतासूनगतासूं नानुशोचि पि डताः॥
(भ.गी. २.११)
िफर कहा—
न वेवाह जातु नासं न वं नेमे जनािधपाः।
न चैव न भिव यामः सव वयमतः पर ॥
(भ.गी. २.१२)
भगवा ने कहा िक देखो यह स भव नह ह िक म पहल नह था, तुम पहल नह थे अथवा
ये लोग पहल नह थे। हम सब पहल भी थे और न वं नेमे जनािधपाः—और यह भी स भव
नह िक अब हम नह ह, हम सभी तो ह ही तथा यह भी नह िक न चैव न भिव यामः हम
सब बादम भी नह रहगे। जीवा माएँ भी रहगी, हम भी रहगे। अ◌र कवल इतना पड़ता ह िक
मेर शरीरम कभी प रवतन नह आता और जीवा माक शरीरम प रवतन आता जाता ह। मेरा
शरीर नह बदला करता और जीवा माक शरीर बदला करते ह। इसिलए जब यह ि कालस य
ह—पहल भी स य था, आज भी स य ह और प ा भी स य रहगा—तो तीकवादक क पना
िब कल िनमूल और अशा ीय ह। यह तीकवादक क पना तो िब कल धानक भूँसी जैसी
ह, िजसका कोई शा ीय आधार ही नह ह। सीधी-सी बात करो, अह याजीका उ ार पहल
भी हो रहा था, आज भी हो रहा ह, और प ा भी होता रहगा। जब रामजीने िव ािम जीसे
अह याजीक संब धम पूछा, तब िव ािम स ए—
पूछा मुिनिह िशला भु देखी। सकल कथा मुिन कही िबशेषी॥
(मा. १.२१०.१२)
िव ािम जीने कहा—राघव, आप सव होकर मुझसे पूछना चाहते ह तो आप सारी कथा
सुिनये। गौतमजी ब त बड़ महिष ह, जो ाजीक पु ह। उनक चयसे स◌ु होकर
वयं ाजीने अपने ारा िनमाणक गयी क या उ◌ दी और उसका उनक साथ िववाह
करवाया। उस क याका नाम था अह या। सं कतम ह य का अथ होता ह क प। न िव ते
ह यं य याः सा अह या, िजसक जीवनम कोई क पता नह ह—इतनी सु◌र िक देवता क
पि याँ भी उसक समान सु◌र नह —वह अह या ह। अ त सौ◌यवती क या थी। गौतमजी
अह याक साथ रह रह थे। संयोग बना और इ◌को गौतमक तप याम िव करना था। इ◌
१६२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

अह याक पपर मोिहत आ। इ◌ िकसी कार यह अवसर ढढ रहा था िक अह याको


सती वसे युत िकया जाए। संयोग बन गया और उ◌ ने च◌माको यह काम स पा। पहल
मुगा बोलनेपर ही लोग उठते थे, वह एक अलाम था हमारा, हम िह◌ु का। इसीिलए तो
हम लोग उसको ब त पिव मानते थे और इसीिलए उसको काटकर आज समा िकया जा
रहा ह। इ◌ने च◌मासे कहा—“तुम मुगा जैसा बोलकर कछ करो” और मुगा जैसा बोलकर
उ◌ ने गौतमजीको ज दीसे उठा िदया। तब गौतमक आ मसे चल जाने पर, गौतमक वेषम
ही इ◌ने उनक आ मम वेश िकया। अह याजी जान गय । ऐसा नह ह िक वे जान नह
पाय । इसीिलए अह याजीको अिधक द ड भोगना पड़ा। अह याजीने देखा और समझ भी
गय । इ◌ने कहा—“म वा◌वम गौतम नह । म तो तु हार सौ◌यका िभ ुक , गौतमक
वेषम आया ।” वा मीिक रामायण म एक वा‍ आया ह—
मुिनवेषं सह ा ं िव ाय रघुन न।
मितं चकार दुमधा देवराजकुतूहला ॥
(वा.रा. १.४८.१९)
अह याको कौतूहल हो रहा ह िक मेर सौ◌यका िभ ुक बनकर देवराज आ गया और
जानकर भी अह याने इ◌क ाथना वीकार कर ली। वा◌वम इ◌क ारा अह याका सती व
न आ और वे स इ। अह या कहती ह—कृताथाि म सुर े ग शी िमतः भो
(वा.रा. १.४८.२०) म ब त कताथ हो गयी । सोिचये आप! अह याने िकतनी बड़ी गलतीक
ह! जबिक अ ना जैसी पु ी उनक यहाँ ह, जो आगे चलकर हनुमानजीक माँ बनगी, और
शतान◌ जैसा उनक यहाँ पु ह। पर◌ु जीवका ‍ा वभाव होता ह! मनका कभी भरोसा नह
िकया जा सकता। कभी न कभी वह गलती कर बैठता ह। जो भजन नह करता, वो गलत करता
ह। गलितय से कवल भजन बचाता ह, भोजन करने वाला यि गलत करगा ही करगा। यही
आ, अह याने गलती क और अ◌म गौतमने देख िलया। च◌माको तो मृगचमसे मार िदया,
जो आज भी काला पड़ा ह और इ◌को ाप िदया—योिनल पट दु ा म सह भगवा भव
(अ.रा. १.५.२६) अथा एक सह गु ा -स प हो जाओ। इसक अन◌र जब गौतमजीने
अह याको देखा तो उ◌ ब त ोध आया। प पुराणम इसका वणन आया ह। ोधक कारण
पहल तो अह याको जला डाला। पूरा शरीर अह याका जल गया और गौतमने कहा—“अह ये!
तुमने मेर साथ िव ासघात िकया ह—शैली भव सुदुमते। जाओ! प थरक िशला बन जाओ!”
और अह या िशला बन गयी। इसपर भगवा वेद यास प पुराणम कहते ह—
शापद धा पुरा भ ा राम श ापराधतः।
अह या या िशला ज े शतिल ः कृतः वरा ॥
(प.पु.)
अह या शापसे जल गय । गौतमजीने अह याको जला िदया और िफर प थरक िशला
बनकर अह या ज म लती ह। गौतमजीने कहा—अह ये, म तु ह ाप देता —इह
वषसह ािण ब िन िनविस यिस (वा. रा. १.४८.२९)—ब त वष तक, पुराण म तो िलखा ह
िक दस हजार वष तक, पर इ◌ ने कहा नह -नह , अन◌-अन◌ सह वष तक इस आ मम

१६३
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

रहोगी—वातभ ा िनराहारा त य ी भ मशाियनी (वा. रा. १.४८.३०)। कवल तुमको


वायु पीकर रहना पड़गा, आहार तुमको नह िमलगा। भूख लगेगी पर भोजन नह िमलगा; यास
लगेगी, पानी मूसलाधार बरसेगा पर तु हार गलम पानी नह जायेगा। िकतना कठोर द ड ह
यह! ऐसे देवता क दस हजार वष तु ह भोगने पड़गे। भूखसे छटपटाओगी पर रोटीका एक
टकड़ा भी तु हार मुखम नह जायेगा, पानीक िलए तु हार ह ठ सूखगे, पानी बरसता रहगा पर
तु हार ह ठक अ◌र पानी नह जायेगा। इतना किठन ाप िकसीको िदया गया ह ‍ा? त य ी
भ मशाियनी गम लगेगी, लसे तु हारा शरीर जलता रहगा पर उसक िलये तुमको कोई ठ ड
उपकरण नह िमल पायगे, पेड़क छायातक तुमको नह िमलगी। सभी क का अनुभव तु ह
होगा पर क का समाधान तुमको नह िमलगा। लोग आयगे, ठोकर लगगी, जूत से लोग मारगे।
भल ही तु हारा प थरका शरीर हो; पर पीड़ाका अनुभव तुमको होगा। जूत क मार लगेगी, पर
तुम यह कह नह सकोगी िक तुम लोग मुझे ‍ मार रह हो? लोग थूकगे, िभ -िभ मल-मू
िवसजन करगे; पर तुम उसको धोनेका कोई उपाय नह कर सकोगी, तु हारा हाथ िब कल
चलगा ही नह , िब कल जड़ रहोगी। कड़ाकक ठ डीम तुमको ठ ड लगेगी, काँपती रहोगी पर
तुमको रजाई नह िमलगी। इतना किठन ाप गौतमजीने िदया। िव ािम जीने कहा िक महािशला
बनकर उ◌ ई ह सरकार! ह राघव! ह दीनानाथ! सकल कथा मुिन कही िबशेषी (मा.
१.२१०.१२) िव ािम जीने सारी कथा भगवा रामसे कही और कहा िक गौतमजीने एक वा‍
कहा था—अ या सवभूतानामा मेऽि म विस यिस (वा.रा. १.४८.३०)—तुमको कोई नह
देख सकगा। पर◌ु—
यदा वेत नं घोर रामो दशरथा मजः।
आगिम यित दुधष दा पूता भिव यिस॥
(वा.रा. १.४८.३१)
गौतमने कहा था िक तुमको और कोई तार नह सकता। तुम इतनी पितत हो चुक हो, इतना
बड़ा पाप तुम कर चुक हो िक इस पापको कवल राघवे◌ सरकार ही दूर कर सकते ह और
कोई दूर कर नह सकता। िकसी और अवतारम इतने बड़ पापको दूर करनेका साम य नह ह।
ीह र पाप दूर कर सकते ह, वो भी रामा यमीशं हिर (मा. १ म. ो. ६)। ीरामािभधान
ह र ही इस पापको दूर कर सकते ह। अतः घोर वनम दशरथन◌न दुधष ीराम आयगे—तदा
पूता भिव यिस—तब तुम पिव हो जाओगी। अब कसे पिव होगी? तो कहते ह—तदा
पूता भिव यिस। तनोित इित त । तेन तदा । तनोित गितिव◌ार करोित इित त । तेन तदा ।
अथा गित िव◌ार करने वाल भगवा रामक चरणारिव◌से पिव हो जाओगी, वा मीिक
रामायण म यह प कहा ह। तदा माने चरणेन । इसक प चलगे त तदौ तदः, तदं तदौ
तदः। तदा म तृतीया ह। भगवा रामक गितिव◌ार ीम रणारिव◌से पिव हो जाओगी—
तदा पूता भिव यिस। कवल भगवा रामक चरणकमल से तुम पिव हो सकती हो। उनक
चरणकमल ही तुमको पिव कर सकते ह, ‍ िक उनक चरणकमल सब लायक ह और तुम
नालायक हो और नालायकको तो सब लायक ही पिव कर सकते ह। पुिन मन बचन कम
रघुनायक, चरन कमल बंदउ सब लायक (मा. १.१८.९) भगवा क चरणकमल ही तु ह

१६४
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

पिव कर सकते ह और अ य िकसीम साम य नह ह। उनम ‍ साम य ह? तो बोल िक


इसिलए साम य ह ‍ िक उ◌ चरणकमल ने ऋ तु तरगा ग ाको कट िकया ह। ग ाजी
पापको न करती ह। यिद ग ाजी पापको न कर सकती ह तो ग ाजीको ज म देने वाल
वे चरण पापको न नह कर सकते ‍ा? इसिलए तदा पूता भिव यिस तब तुम पिव हो
जाओगी।
िव ािम जीने ब त िवन ताक साथ कहा—
गौतमनािर ापवश उपल देह धिर धीर।
चरन कमल रज चाहती कृपा कर रघुबीर॥
(मा. १.२१०)
आज गाय ीक म◌◌ ा भगवा से ाथना कर रह ह। त सिवतुवरे यं भग देव य धीमिह
िधयो यो नः चोदया देिखये, गाय ीक तीन चरण ह—(१) त सिवतुवरे य (२) भग
देव य धीमिह (३) िधयो यो नः चोदया । ‍ िक ऊँ तो णव ह और भूभुवः वः ये
तीन या ितयाँ ह। चरण इसक तीन ही ह। और ये ही ह चौबीस अ र—त सिवतुवरे यं भग
देव य धीमिह िधयो यो नः चोदया अबतक िव ािम जीने गाय ी म◌क दशन िकये थे,
आज गाय ी म◌ाथक दशन कर रह ह। इसका अथ ‍ा ह? सिवतुः देव य त रे यं भगः
धीमिह, यः नः िधयः चोदया —अ वय यही ह। सिवतुः देव य सबक ेरक देवािधदेव
परमा माक त रे यं भगः धीमिह उस े तेजका हम यान कर। यः माने जो परमा मा नः
िधयः हमारी बुि य को, चोदया माने गलत कम से हटाकर अ◌े कम क ओर े रत
कर।
यहाँ यह यान रिखये, चौबीस अ र ह इसक। त सिवतुवरे य । एक-एक-एक चरणम
गाय ीक आठ-आठ अ र होते ह। भग देव य धीमिह। िधयो यो नः चोदया —ये
देिखये, चौबीस अ र हो गये। वरेिणयं म जो लोग नह समझ पाते, वही लीप देते ह। और
म◌म ऐसे ही पढ़ा भी जाता ह। जैसे लोग कहते ह—भ तो हम लोग कहगे भदर । यह
हमार यहाँक पर परा ह। आजकलक िह पीकट धूमकतु लड़क, ये वेद ‍ा जान? इनको वेद
पढ़नेका अिधकार ही कहाँ ह? जबतक थ पड़ से गाल लाल नह होते, तबतक वेद नह आया
करते।
आज िव ािम जी देख रह ह िक अबतक तो सिवतुः देव य वरे यं भगः धीमिह, सूय
देवताक वर य भग, आज सूयकलक सूय रघुनाथजीक वर य भगका िव ािम जी यान कर
रह ह। अहा! ध य हो गया िव ािम जीका जीवन! आज रघुनाथजीको िनहार रह ह, सूयकलक
सूयको, और उनक उस वर य तेज को। वर य तेजको जानते हो? वा◌वम यह तेज आज
वर य ह। वर य माने वरणीय। आगे यह सीताजीक ारा वरणीय होगा और सीताजी इनका
वरण करगी, ‍ िक—
पूजा की अिधक अनुरागा। िनज अनु प सुभग वर माँगा॥
(मा. १.२२८.६)
वर यक आधारपर सीताजीने पावतीजीसे अपने अनु प और सु◌र यह वर माँगा—
१६५
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

िसया माँग रहीं अवधको राज सरजू नहाने को॥


रानी कौश या जैसी सासु िसया माँगें ससुर च वत महाराज। सरजू ...
िसया माँग रहीं अवधको राज सरजू नहाने को॥
देवर भरत लखन िरपुसूदन माँगें वामी राम रघुराज। सरजू ...
िसया माँग रहीं अवधको राज सरजू नहाने को॥
पूजा की अिधक अनुरागा िनज अनु प सुभग वर माँगा।
िसया माँग रहीं अवधको राज सरजू नहाने को॥
रामायण गानेको िसया माँगें माँगे तुलसीसे स समाज। सरजू ...
िसया माँग रहीं अवधको राज सरजू नहाने को॥
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥
व रतुं यो यं वर य । जो सीताजीक वरणक यो य ह त र यं तेजः। भगः माने तेजः; उस
भगका िव ािम जी यान कर रह ह। भग वरे यं िव ेशं रघुनाथं जग ु (रा.◌.◌ो.
२८)। उस वर य भगका िव ािम जी यान कर रह ह। गाय ीम चौबीस अ र ह और एक-एक
अ रपर महिष वा मीिकने एक-एक हजार ोक बनाये अथा चौबीस अ र क या याक
िलये महिष वा मीिकने चौबीस हजार ोक बनाये। यह चौबीसक सं या बड़ कामक ह।
हमार एक िदनम भी चौबीस घ ट होते ह। इसका अथ यह ह िक वह वर य भग, वह वरणीय
तेज, हमार जीवनक चौबीस घ ट हमारी सहायता करता ह। एक भी ण हमार िलये ऐसा नह
ह, जब रघुनाथजी हमारी सहायता न करते ह ।
हम देखते ह िक हम पैसे रखते ह तो लोग चुरा लते ह। तो पैसा तो लोग चुरा लगे। ‍ न
ऐसी व◌ु रख, िजसे कोई न चुरा सक। कोई िकतना भी चोरी करने आये, हमारा शा कौन
चुरायेगा? बताओ! यह तो—
न चौरहाय न च राजहाय न ातृभा यं न च भारकािर।
यये कृते वधत एव िन यं िव ाधनं सवधनं धान ॥
इस धनको भाई नह बाँट सकते, कोई नह बाँट सकता। हमार स दाय म, हमार ब तसे
गु भाई ह गे, पर कोई गु भाई इसको बाँट लगा ‍ा? इसे कोई चोर चुरा भी नह सकता
‍ िक यह एक लॉकरम पड़ी ई ह। एक चोर नह ; सबक बात छोड़ दीिजये, िव का सबसे
बड़ा चोर कौन ह? तो बोल िब िबलोचन चोर (मा. १.२४२) रामजी सबसे बड़ चोर ह।
और रामजी लोचन ही नह चुराते, वे तो लोचन सुखद िब िचत चोरा (मा. १.२१५.५)
िच को भी चुराते ह। सबसे बड़ चोर, भगवा राम ह। क णच◌ बेचार को तो कवल बदनाम
कर िदया गया—चौरा ग यं पु षं नमािम पर ईमानदारीसे जो चोरी िजसने क , उसको कोई
नह पहचान पाया और बड़ को कोई कहता नह ह। यह धन इतनी सु◌र अ मारीम रखा ह,
इतने अ◌े लॉकरम रखा ह िक वयं राघवे◌ भी चाह तो उसको नह चुरा सकते। इतना सु◌र
यि व ह यह और इसिलए एक ऐसा वर य तेज जो हमार चौबीस अ र गाय ीका ितपा
ह, चौबीस हजार वा मीिक रामायण क ोक का ितपा ह। और मु य अवतार भी चौबीस
होते ह—(१) सनकािद, (२) वाराह, (३) नर-नारायण, (४) नारद, (५) किपल, (६) द ा ेय,
१६६
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

(७) य , (८) ऋषभ, (९) पृथु, (१०) म य, (११) क◌प, (१२) ध व◌ र, (१३) मोिहनी,
(१४) नृिसंह, (१५) वामन, (१६) परशुराम, (१७) यास, (१८) राम, (१९) बलराम, (२०)
क ण, (२१) हस, (२२) हय ीव, (२३) बु , और (२४) क क अवतार।
एक बात और बताऊ िक सबसे बिढ़या और सबसे शु सोना कौन सा होता ह, जानते
हो? चौबीस करटका सोना सबसे शु होता ह। जैसे वणम जब चौबीस करट होते ह तब
वह शु होता ह, उसी कार चौबीस अवतारवाल शु परा◌र राम ह। आज कथा सुना
रहा । देखूँ, िकसको नह समझम आती ह। शु सि दान मय राम भानुकुल केतु (मा.
२.८७.१)—रामजी शु ह। जैसे शु सोना चौबीस करटका होता ह उसी कार भगवा
रामक शु चौबीस अवतार ह। इसिलए कहा जाता ह—
अवधधाम धामािधपित अवतारण पित राम।
सकल िसि ी जानकी दासनपित हनुमान॥
अतः आज िव ािम जी देख रह ह िक ये मेर सामने कौन खड़ा ह? यही तो गाय ीक
चौबीस अ र का अथ ह, यही वा मीक य रामायण क चौबीस हजार ोक का महाता◌य ह,
यही चौबीस अवतार का बीजभूत अवतारी ह। भगवा राम अवतार नह , अवतारी ह। भगवा
रामसे सब अवतार होते ह। एतावता, िव ािम जीने सोचा िक आज गाय ीक तीन चरण का
योग कर लता िधयो यो नः चोदया । गाय ीका योग होता ह बुि क शुि क िलये।
हमारी बुि अशु हो चुक ह। िव ा पिर माधीना बुि ः कमानुसािरणी। बुि क तीन
भेद गीताजीम कह गये—(१) सा वक , (२) राजसी, और (३) तामसी।
वृि ं च िनवृि ं च कायाकाय भयाभये।
ब धं मो ं च या वेि बुि ः सा पाथ साि वकी॥
(भ.गी. १८.३०)
सा वक बुि अब हमार पास नह रह गयी। हम वृि नह समझ पाते, िनवृि नह समझ
पाते, काय नह समझ पाते, अकाय नह समझ पाते, भयको नह समझते, अभयको नह समझते,
ब धन नह जानते, और मो नह जानते। आज हम अपने अनुशासनको ब धन मान बैठ ह।
िनि त हमारी बुि सा वक नह ह, अतः कहा—िधयो यो नः चोदया हमारी बुि को
भगवा चोिदत कर, े रत कर। बुर कम से हटाकर स◌म क िलये ेरणा द ‍ िक—
सुनु खगेश निह कछ ऋिषदूषन। उर ेरक रघुबंशिवभूषन॥
(मा. ७.११३.१)
दयक भगवा ेरक होते ह पर◌ु सबक दयक नह । एक बार िकसीने रामक ण
परमहसजीसे पूछा—“महाराज, भगवा तो सबक दयम रहते ह गे।” उ◌ ने कहा—“हाँ
रहते तो ह पर◌ु जो पु या मा होते ह, जो भगवा का भजन करते ह, उनक दयम रहने वाल
भगवा जागृत होते ह और जब यि गलत काम करता ह तो उसको हड़काते ह िक गलत
काम मत करो। पर◌ु जो भगवा का भजन नह करता, भगवा का नाम नह लता, भगवा क
पका िच◌न नह करता, भगवा क लीलाका िच◌न नह करता, भगवा क धामम नह
रहता; उसक दयक भगवा , उसी यि क पापक कमली ओढ़कर खराट भरकर सो जाते

१६७
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

ह।” इसका अथ यह ह िक भगवा को जगाना होगा। भगवा गीत गानेसे तो जगगे नह िक


“ भु आप जगो संसार जगे।” एक स दाय ऐसा भी चला, पर◌ु ऐसे भगवा नह जगगे।
उनक ेमसे आराधना करनी होगी, उनका नाम लना होगा, यास करक बुर कम नह करने
ह गे। कथाका फल यही ह िक बुर कम मत करो, अ◌े कम करो, ितिदन कोई न कोई बुरी
आदत छोड़ो। एक-एक बुरी आदत छोड़नेका यास करो तो तीन सौ पसठ िदनम िकतनी ही
बुरी आदत छट जायग । जब गु जीक चरण म आओ तो िनि त कर लो िक कछ दि णा देनी
ह, खाली हाथ कभी नह जाना चािहए। तो, कौन सी दि णा दोगे? पैसा दोगे? उनको और
कछ मत दो, कवल कोई ग◌ी आदत छोड़ दो और वही उनको दि णाम दे दो।
िधयो यो नः चोदया । यह अह या ‍ा ह? यह तीक नह व प ह। जीवा माक
बुि ही अह या ह। और अह या प ी ह महिष गौतमक । और बुि जीवा माक प ी ह। इ◌
कौन ह? इ◌ कम का देवता ह। इ◌क आनेसे गड़बड़ ‍ा ई? इ◌ने अह याका सती व
भ कसे िकया? बुि आ मासे अलग कब होती ह? जब बुि म वासना आ जाती ह, तब
बुि आ मासे अलग हो जाती ह। इसिलए िवभीषणजी कहते ह—
उर कछ थम बासना रही। भुपद ीित सिरत सो बही॥
(मा. ५.४९.६)
“ह राघवे◌, मेर दयम पहल कछ वासना थी, पर◌ु वो आपक ेमक स रताम बह
गयी— भुपद ीित सिरत सो बही। भुक ीचरणकमलक ीित-स रताम वो बह गयी।”
अ◌ा अब आपको वासनाका अथ समझाऊ िक वासना कहते िकसे ह? देखो, सीधी-सी बात
ह िक एक डिलयाम गुलाबक फल रख दो और थोड़ी देर बाद उन फल को िनकाल लो। तब
देखोगे िक डिलयाम फल तो नह ह, पर फलक बास उसम ह और यही ह वासना। ग◌ी
व◌ु हो या अ◌ी व◌ु। दुग धत व◌ुक जो दुग ध होगी, वह भी वासना ह और सुग धत
व◌ुक सुग ध भी वासना ह। कछ ऐसी भी व◌ुएँ होती ह जो जानेक प ा भी अपनी बास
छोड़ जाती ह, उसम दुग धत पदाथ तो ब तसे ऐसे होते ह। इस कार, वासनाका सीधा सा
अथ ह िक भोगे ए िवषय को याद करना। भु िवषयाणां मृितवासना—भोगे ए िवषय क
मृित करना ही वासना ह। इसीिलए, सबको सुधारना सरल होता ह पर बु को सुधारना ब त
किठन होता ह ‍ िक उनको भोगे ए िवषय क मृित आती रहती ह। अब भोग भोगनेक
मता नह ह, पर भोग याद आते रहते ह। िकसी रटायड ऑिफसरको आप देिखये, आन◌ आ
जायेगा और िब कल मेरी या या समझम आ जायेगी। जबतक सेवाम थे, चकाचक घूस िलया
और रटायर होनेक बाद घूस तो िमलनी नह ह और बेट ब ने भी कह िदया ह—“पापाजी,
आप पधार जाएँ। लट खाली कर दीिजये।” तब पापाजी हम लोग क िसरक भार बन जाते
ह। आ म म, वृ ा म म आते ह। जबतक व थ थे, तबतक तो बेट ब क सेवाम रह और
अब वृ ा मम आकर आन◌ कर रह ह। पहल तो घूस लकर जनताका खून िपया और जब
बु हो गये, आ म म आये, तो हम लोग का खून पीते ह माने उनको तो पीना ही पीना ह।
आप आ य करगे, कभी-कभी बु को म इतना अ ील गाना सुनते देखता िक मुझे ही शरम
आ जाती ह, पर उ◌ शरम नह आती। बड़ा आ य लगता ह। वो तो कहते ह—“भर फागुन

१६८
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

बुढ़ऊ देवर लाग।” इसिलए वृ को समझाना ब त किठन ह। एक तो उनका पूवा ह होता ह।


वो जो समझ चुक, वही ठीक ह और शेष सब ठीक नह ह। उनको बदलक भावना होती ह,
ितशोध होता ह। उनम माद भी होता ह और उनम िति या भी रहती ह। ऐसा मत समझो
िक हम वृ क िन◌ा कर रह ह, हम भी वृ ह गे। अब तो ार भ हो ही गया ह, तो ह गे
ही। एक बात बताऊ िक वृ ताम गृह थ और स◌म इतना ही अ◌र ह िक गृह थ बु ा होता
ह तो उसका अपमान होता ह और जब स◌ बु ा होता ह तो उसका स मान होता ह। हम तो
य - य बु ह गे, य - य हमारी जवानी उमगेगी, चकाचक रहगा। एतावता, हमार मानसम
एक पाठ ह, य िप गीता ेसम इसे नह िदया गया ह। बाँदाक बड़ी सु◌र श दावलीका योग
इसम िकया गया ह—
की ेिस किठन पढ़ाइ कुपाठ। िजिम न नवइ िफिर उकिठ कुकाठ॥
(मा. २.२०.४)
उकठा आ ककाठ नह झुकगा। इसिलए देिखये, जब गृह थ बु ा होता ह, तो िवषय क
िनवृ होनेपर उसे प ाताप होता ह और जब स◌ बु होते ह तो िवषय क िनवृ होनेपर और
सुखी होते ह िक कमसे कम अब और भजन करनेका समय िमलगा। गृह थ भोजन छटनेपर
तलफलाता ह और स◌ भोजन छटनेपर झूम जाता ह। सामा य यि तब दुःखी होता ह, जब
उसे भोजन ठीकसे नह िमलता। जब भोजनम वाद नह आता तो साधारण यि दुःखी होता ह
और जब भजनम वाद नह आता तो हम स◌ लोग दुःखी होते ह। साधारण यि को भोजनका
वाद चािहए और हम लोग को भजनका वाद चािहए। वासना आती कहाँसे ह? वासना आती
ह कमसे। इ◌ कमक देवता ह। जब बुि म वासना आ जाती ह, तब बुि को जीवा मा ाप दे
देती ह। जब हमारी बुि उपासनाको छोड़कर वासनाका िच◌न करती ह, जब राघवे◌जीक
चरणारिव◌को छोड़कर अपने पूव भोगे ए िवषय का बुि िच◌न करने लगती ह, जब माला
हाथम ह और बुि िच◌न कर रही ह समोसे और पकौड़ीका, या माला हाथम ह और बुि
सोच रही ह िक पहल हम कसे थे? पहल हमारी कसे गृह थी चलती थी? इस कारसे बुि
जब सोचने लगती ह तो जीवा मा उसको ाप देती ह। िजस कार आज अह या इ◌से दूिषत
ई, उसी कार बुि कमसे दूिषत ई। जब बुि ः कमानुसािरणी—बुि कमका अनुसरण
करगी—तब हो जायेगी और जब बुि कमका िच◌न न करक का िच◌न करगी,
तो क याण होगा। अह याम गड़बड़ यही थी। जबतक अह या इ◌का िच◌न करती रही,
तबतक उसे ाप िमलता रहा और जब इ◌का िच◌न छोड़कर कोसल◌का िच◌न कर िलया,
तो अह या ध य हो गयी। उसी कार हमारी बुि सकाम कमका िच◌न करती ह। इ◌का
िच◌न करना तब अ◌ा ह जब वह िन काम हो और जब इ◌ सकाम आ और अह याने
िच◌न िकया, तब उसका पतन हो गया। उसी कार जब हम सकाम कमका िच◌न करगे
तब हमारा पतन होगा और जब हम िन काम कमका िच◌न करगे तो हमारा क याण होगा।
आशा ह आप अब ठीक-ठीक समझ रह ह गे। इसका ता◌य यह ह िक हम कोई भी योजना
जब बना रह ह तो उस योजनाक पीछ यिद हमने अपने नामका िच◌न िकया िक इसम हमारा
नाम होना चािहए, हमारी छिव होनी चािहए, हमारी ित ा होनी चािहए, हमार अहकारका पोषण

१६९
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

होना चािहए, तब आप कम नह कर सकगे, तब बुि अव य होगी और उसे होना


भी चािहए। होना माने अपने मागसे िगरना। बुि माग ‍ा ह? देखो बताऊ। हमार शा ने
कहा ह िक बुि वादी मत बनो, बुि योगी बनो। जब जीव भगवा का िच◌न करता ह, तब
उसे भगवा बुि योग देते ह—
तेषां सततयु ानां भजतां ीितपूवक ।
ददािम बुि योगं तं येन मामुपयाि ते॥
(भ.गी. १०.१०)
भगवा कहते ह िक म उ◌ बुि योग देता जो हमारा भजन करते ह। त सिवतुवरे यं
भग देव य धीमिह जब उस वर य तेजका यान करगे, तब हम बुि योग िमलगा—िधयो
यो नः चोदया ।
अह याको िशला ‍ होना पड़ा? जड़ता ‍ आयी? अह याम जड़ता इसिलए आयी
‍ िक अह याने कमका अनुगमन िकया, का अनुगमन नह िकया। और, जब कमका
अनुगमन िकया तो िनि त उसम वासना आयी। जब वासना आयी तो भोगक इ◌ा जगी और
भोगक इ◌ा जगते ही अह या पितत हो गयी, अथा हो गयी। िफर जीवा मा प गौतमने
उसको ाप दे िदया—“जाओ तु हारा पतन होगा और रामजीक चरणकमलक पशसे तुम पिव
होगी।” रामजीक चरणकमलक पशका ‍ा अथ ह? जब हमारी बुि क वृि म परमा मा
आ जाते ह, तब हमार मनका रजोगुण चला जाता ह और इस रजोगुणक पाँच दोष ह—(१)
लोभ, (२) वृि , (३) आर भ, (४) कम क असमता और (५) पृहा—लोभः वृि रार भः
कमणामशमः पृहा, रज येतािन जाय े िववृ े भरतषभ (भ.गी. १४.१२) जब हमार
जीवनम रजोगुण आता ह तो हमको लोभ होता ह और सबसे दु ह यह लोभ—लोभः पाप य
कारण (िह. २७) काम इतना र नह ह, वह भी बुढ़ाई अव थाम समा हो जाता ह।
ोध इतना नालायक नह ह, वह भी समा हो जाता ह। पर लोभ तो य - य बुढ़ाई आती
ह, य - य और जवान होता ह। शरीर बूढ़ा होता ह तो लालच और जवान होता ह। लोग पैसा
बचा-बचाकर रखते ह। एक यि ने पूछा िक गु जी आप नोट नह िगनते? तो मने कहा िक म
‍ िगनूँ नोट? िजतना समय मेरा पया िगननेम लगेगा, उतने समयम हम भगवा का नाम िगना
करगे। इस कार, जब जीवनम रजोगुण आता ह, तब लोभ बढ़ जाता ह। तब भगव संब धी
कम को छोड़कर िभ कम म हमारी वृि बढ़ती ह। तब हम सकाम कमका आर भण करते
ह। तब कम म असमता और पृहा आती ह। यहाँ तो—
ना या पृहा रघुपते दयेऽ मदीये स यं वदािम च भवानिखला रा मा
(मा. ५. म. ो. २)
एक बार तुलसीदासजी महाराजको ब त भूख लगी और तब उ◌ ने रामजीका दरवाजा
खटखटाया। रामजी आये और पूछा—“कबसे तुम दरवाजा खटखटा रह हो?” तुलसीदासजीने
कहा— ार हौं भोर ही को आजु (िव.प. २१९.१)। “आज म सबेरसे ही आपक दरवाजेपर
खड़ा ।” रामजीने कहा—“‍ खड़ हो?” तो कहा—रटत िरिरहा आिर और न कौर ही
तें काजु, ार हौं ... (िव.प. २१९.१)। तुलसीदासजीने कहा—“म ‍ा क ? कवल एक
१७०
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

रोटीका टकड़ा मुझे चािहए।” रामजीने कहा—“तु हारा पेट भरा नह ह ‍ा?” तुलसीदासजीने
कहा—नह ! जनमको भूखो िभखारी हौं गरीबिनवाजु (िव.प. २१९.५)। जबसे ज म िलया
मेरी माताजी मर गय , िपताजीने मुझे छोड़ िदया, फक िदया। मेरा कभी कछ नह आ।
मातु िपता जग जाइ त यो िविध न िलखी कछ भाल भलाई।
नीच िनरादर भाजन कादर कूकर टकन लािग ललाई।
राम सुभाव सु यो तुलसी भु सों क ो बारक पेट खलाई।
वारथको परमारथको रघुनाथ सो सािहब खोिर न लाई॥
(क. ७.५७)
रामजीने कहा—“‍ा खाओगे? बताओ। पूड़ी खीर खाओगे या समोसा? पकौड़ी खाओगे
या रसगु ा? राजभोग खाओगे?” तुलसीदासजीने कहा—“नह , यह सब नह खाना।” रामजीने
कहा—“बताओ िफर ‍ा खाओगे?” तुलसीदासजीने कहा—पेट भिर तुलिसिह जॆंवाइय
(िव.प. २१९.५) पेट भरकर िखला दीिजये सरकार! रामजीने कहा—“िखला तो रहा , खाओ
न!” तुलसीदासजीने कहा—“नह सरकार, यह आज खाऊगा तो कल िफर आपका िसर दद
बन जाऊगा। ऐसी व◌ु िखलाइये िक जो एक बार खाऊ और िफर कभी भूख न लगे। हमारा
भी झंझट समा हो और आपका भी। दुहाई सरकार क ।” भगवा ने कहा—“ह! ये ‍ा कह
रह हो?” तब तुलसीदासजीने कहा—“एक बार सरकार मोह िखयाय दो, मोरौ झंझट खतम
होय और तु हरौ झंझट खतम होय जाए। खवाय दे एक बार सरकार! म तुमसे बार-बार किह
रह ह ।”
रामजीने कहा—“‍ ?” तुलसीदासजीने कहा—“सरकार! ये भोजन खायगे तो िफर भूख
लगेगी, ‍ िक—
िनत िरतवत ितिदन भरत िजिम चुवना क डाल।
किह न जाइ अित अजब गित पेट गजब च डाल॥
पेटका हाल तो चुवना क डालक भाँित ह। जैसे का डाल—पानीक टक —लीक करती
हो तो सुबहको भर दो तो शामको िफर जय ीसीताराम, वही हाल हमार नालायक पेटका ह।
िकतना ही पूड़ी खीर िखलाओ पर सुबह िफर खाली।” तुलसीदासजीने कहा—“सरकार! ऐसी
चीज िखलाओ िक िफर कभी भूख न लगे—पेट भिर तुलिसिह जॆंवाइय। “‍ा िखलाऊ,
बताओ तो सही,” तो कहते ह—पेट भिर तुलिसिह जॆंवाइय भगित-सुधा सुनाजु (िव.प.
२१९.५)। अथा भि प, भजन प भोजन करवा दीिजये, चकाचक हो जाए। ेमका
रसगु ा िखला दीिजये िफर म कभी आपक आगे नह आऊगा सरकार! आऊ तो सरकार,
कोड़ से मार-मारकर मेरी खाल िनकलवा दीिजयेगा सरकार!” रामजीने कहा—“खाओगे तो
कछ दि णा भी लोगे?” तुलसीदासजीने कहा—“हाँ, सरकार! जब स◌को िजमायगे तो
भ डारक कछ दि णा तो देना ही पड़गी, सरकार! िबना दि णाक थोड़ ही जायगे। िच कटक
साधु ह, िबना दि णाक झगड़ा हो जायेगा सरकार!” रामजीने कहा—“अ◌ा। ‍ा दि णा
लोगे? सही बता दो।” तुलसीदासजीने कहा—ना या पृहा रघुपते दयेऽ मदीये स यं वदािम
च भवानिखला रा मा (मा. ५ म. ो. २) मेर दयम और कोई पृहा नह ह। भगवा ने

१७१
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

कहा—“झूठ बोल रह हो।” तो तुलसीदासजीने कहा—“नह ! स यं वदािम—सच कह रहा


।” भगवा ने कहा—“‍ा माण ह?” तो कहा—च भवा “आप ही माण ह िक म झूठ
बोल रहा या सही बोल रहा ।” भगवा ने कहा—“यह तो गजबका साधु ह, मुझसे ही माण
पूछता ह।” उ◌ ने कहा—“म ‍ बताऊ?” तब तुलसीदासजीने कहा—अिखला रा मा
“आप सबक दयम रहते ह। आप बताइये िक म झूठ बोल रहा या सच बोल रहा ।”
भगवा ने कहा—“हाँ, ठीक बोल रह हो!” “तो ठीक ह—भि ं य रघुपु व िनभरां
मे—ह रघुपु व, मुझे िनभरा भि दीिजये। िनगतः भरः य याः—आप अपने चरण म ऐसा ेम
दीिजये िजसक वाहम संसारका सारा भार बह जाए।” रामजीने कहा—“अ◌ा, यह तो तु हारा
भोजन हो गया, अब दि णा बताओ।” तुलसीदासजीने कहा—“सरकार आप दगे?” रामजीने
कहा—“हाँ, देनी तो पड़गी ‍ िक िबना दि णाक भोजन पूरा नह होता ह।” तब तुलसीदासजीने
कहा—कामािददोषरिहतं कु मानसं च—“मेर मनको कामािद दोष से रिहत कर दीिजये, यह
दि णा ह।” रामजीने कहा—“यह तो भि क आनेसे हो ही गया।” तुलसीदासजीने कहा—“ह
सरकार! तो जो म ीरामच रतमानसक रचना कर रहा , उसको कामािद दोष से रिहत कर
दीिजये। देिखये, मेर मुखसे रामच रतमानसम कामािदका वणन न हो जाए! यहाँ हमने आपको
मानस श दक दो अथ बताये। एक मानस माने मन और दूसरा मानस माने ीरामच रतमानस ।
“मेर ीरामच रतमानसको कामािद दोष से रिहत कर दीिजये सरकार! कह किवताक तरगम
िकसीका नखिशख वणन करने लग जाऊ सरकार! ‍ िक सु◌रका डम वा मीिकजीने चार-
चार सग म रा िसय का वणन िकया ह, तो मुझे बचाइये सरकार! दुहाई सरकार क !” रामजीने
कहा—“ठीक ह, बचा लगे।” और बचा ही िलया। जब हनुमा जी गयउ दशाननमि र माहीं
(मा. ५.५.६), तो तुलसीदासजीने बस यही िलखा िक अित िबिच किह जात सॊ नाहीं
(मा. ५.५.६)। अब जाओ वा मीिक रामायण म देखो, हम नह जानते। शयन िकए देखा
किप तेही (मा. ५.५.)। अब वहाँ भािमिनय का नख-िशख वणन िकया ह, पर यहाँ चौपाईको
पूरा कर िदया—मंिदर मह न दीख बैदेही (मा. ५.५.७)। आगे िलखा—
भवन एक पुिन दीख सुहावा। हिरमि र तह िभ बनावा॥
(मा. ५.५.८)
मने यह िनवेदन िकया िक बुि का पतन तब होता ह जब वह सकाम कमका पीछा करती
ह, सकाम कमसे जुड़ती ह। जैसे अह याका पतन तब आ, जब वह सकाम इ◌क साथ जुड़ी।
इतना यान रखो िक जब कमम भोगक वासना हो, तब उससे कभी नह जुड़ना चािहए। जब
बुभु ा हो तब नह जुड़ना चािहए; जब मुमु ा हो तब जुड़ना चािहए। वही इ◌ जब रामजीक
िववाहम आये तो—
रामिह िचतव सुरेश सुजाना। गौतम ाप परम िहत माना॥
(मा. १.३१७.६)
इ◌ कोई ब त खराब नह ह। वही इ◌ रावणक वधक िलये अपना रथ भेज रहा ह—
सुरपित िनज रथ तुरत पठावा। हरष सिहत मातिल लै आवा॥
चंचल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गितधारी॥

१७२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

तेजपुंज रथ िद य अनूपा। िबहिस चढ़े कोसलपुरभूपा॥


(मा. ६.८९.२–४)
वही इ◌ तो ह, िजसक स पकसे अह या दूिषत हो रही ह और इसी इ◌क रथपर चढ़कर
रामजी भूिषत हो रह ह। इसका कारण यह ह िक अह याका दुभा य यह ह िक इ◌ जब उसक
सामने आता ह तो उसको वासना समिपत कर रहा ह और रामजीका सौभा य यह ह िक वहाँ जब
इ◌ आता ह तो उ◌ उपासना समिपत कर रहा ह। ीरामक सामने इ◌ उपासक बनकर आया
और अह याक सामने इ◌ भोगी बनकर आया। अह याक सामने इ◌ बुभु ु और रामजीक
सामने इ◌ मुमु ु ह। मुमु ुव शरणमह प े ( े.उ. ६.१८)।
देिखये, ‍ा िद य ◌ य ह। ीरामक यहाँ इ◌ िदनम आता ह और अह याक यहाँ राि म
आता ह। यह बात यान रिखये िक ा -मु तम इ◌ नह आया ‍ िक ा -मु तम इ◌ आ
ही नह सकता। ा -मु त का िच◌न करनेका मु त ह। उस समय जब का मु त
आया तो गौतमजी जगे और ग ाजी चल गये। िवषय ब त ग भीर और अ◌ा ह तथा उससे
हमको-आपको िश ा भी िमलगी। ा मू तम दोन जग रह ह, अह या भी जग रही ह और
गौतम भी जग रह ह। पर◌ु गौतमको पापहा रणी ग ा िमल और अह याको ग ा नह ब क
कमनाशा िमल गयी। इसका ‍ा कारण ह? इसका कारण यह ह िक जो जागे सो पावे और
जो सोवे सो खोवे । अह याक गलती इतनी ह िक अह या ा -मु तम सोती रही। इसिलए,
हम और आप जब ा -मु तम सोयगे तो हमारा सवनाश होगा और जब हम ा -मु तम
जगकर भगवा का भजन करगे तो हमारा िवकास भी होगा। यिद अह या िब◌रसे उठ करक
भगव जन करती, तो ऐसा कदािप न होता। आज इ◌ अह याक पास ‍ आ गया? इ◌का
अह याक पास आनेका साहस ‍ हो गया? ‍ िक यहाँ अह याक गलती ह। प ीको पितका
अनुगमन करना चािहए। अह या वाइफ़ (wife) नह ह। वाइफ़ और प ीम ब त अ◌र होता
ह। पतना ायते य मा मा ी युदीयते—पितको पतनसे जो बचाती ह उसे प ी कहते ह।
अह याको चािहए था िक जब गौतमजी नहाने जा रह थे, तो उसको उनक पीछ-पीछ जाना
चािहए था। उनका कम डल लकर जाना चािहए, सेवा करनी चािहए थी। अह या अपने धमसे
युत ई। इ◌ने देख िलया िक अब धमप ी नह रह गयी ह, नह तो इ◌ ‍ जाता अह याक
पास? अनसूयाक पास ‍ नह गया इ◌? और िकसीक पास ‍ नह गया इ◌ ‍ िक
अह या आधुिनक ी (modern lady)क भाँित हो गयी। उसने सोचा िक पित तो जा रह ह,
चलो थोड़ा सो लते ह। इतनी रातको कौन उठ! जब अह या सोयी, तो इ◌क ारा उसका
पतन कर िदया गया। गौतम जब ा मु तम जगे तो ग ाजी गये और ये ग ाजी रामायणक
अनुसार कौन ह?
रामभगित जह सुरसिरधारा। सरसइ िवचार चारा॥
(मा. १.२.८)
तो—
पूछा मुिनिह िशला भु देखी। सकल कथा मुिन कही िबशेषी॥
(मा. १.२१०.१२)

१७३
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

यह कौन सा बाबा िशलाक पास हाथ जोड़कर खड़ा ह? तब िव ािम जीने कहा इसक
कथा सुनो—सकल कथा मुिन कही िबशेषी। िव ािम जीने कहा—इसका नाम ह अह या।
पिततका अथ होता ह िगरा आ। देिखये, सब िगरनेको पितत नह कहते। उसको पितत कहते
ह, जो जहाँसे िगरा हो वहाँ पुनः न जा सक। जैसे पेड़से जो प ा िगरता ह, वह उसम जुड़ता
ह ‍ा? कभी नह जुड़ पाता। अह या पितत माने िगरी ई तो ह ही, पर पितता प युः इता
अथा अपने पितसे भी दूर चली गयी ह—पित + इता। अह याजीक जीवनम कोई स भावना
ही नह ह िक वह अपने पित गौतमजीसे िफर िमल सकगी, ‍ िक—शु ि सव पापािन
योिन ा न शु ित अथा , सभी पाप का ायि त हो जाता ह पर िजसका शरीर अपिव
हो जाता ह, वह कभी शु नह होता। सभी पाप शु हो सकते ह पर यिद कोई ी परपितसे
ेम करती ह तो वह शु नह हो सकती; कोई पु ष यिद परप ीसे ेम करता ह तो वह
शु नह हो सकता। उसका कोई ायि नह हो पाता। पर◌ु भगवा तो अस भवको भी
स भव करते ह। जो िकसीसे स भव न हो और जो कोई न कर सक, वो करने वालका
नाम ही तो भगवा ह। इसीिलए तो उ◌ भगवा कहते ह—भगव वं नाम एकधमाव ेदेन
एकसंसगाव ेदेन एककालाव ेदेन सकलिव धमा यताव ेदक व । एक साथ,
एक संब धसे, एकािधकरणताव◌ेदेन, एक थानपर, एक ही समय जहाँ सार-सार िव धम
रह जाय उ◌ को तो भगवा कहते ह।
अह या पवती ह। इ◌ने गौतमका वेष बनाया और अह याजीसे णयक याचना क ।
अह याजीक गलती यह ह िक वे जान तो गय थ िक इ◌ ह यह—
मुिनवेशं सह ा ं िव ाय रघुन न।
मितं चकार दुमधा देवराजकुतूहला ॥
(वा.रा. १.४८.१९)
अह याने जान-बूझकर इ◌से ेम िकया। उनको लगा िक मेरा इतना अ त सौ◌य ह िक
वगका देवराज भी इस सौ◌यका िपपासु हो गया। अह याने इ◌का णय- ◌ाव वीकार कर
िलया। िफर गौतमजीने अह याजीको पहल ोधम भ म िकया, िफर प थरक िशला बनायी,
कहा—“जाइये! दस हजार वषतक आपक आ मा इस िशलाम रहगी। आपको यास लगेगी,
पर एक घूँट पानी नह िमलगा। भूख लगेगी, पर एक अ आपक मुखम नह जायेगा। ठ ड
लगेगी, पर एक सूत भी क बलका आपको नह िमलगा और बरसातम छातेका एक टकड़ा भी
नह िमलगा। गम होगी, पर एक भी वायुका झ का आपको नह िमलगा।” ब त किठन शाप
िदया। गो वामीजी मानसम कहते ह—
गौतमनारी ापबश उपलदेह धिर धीर।
चरनकमल रज चाहती कृपा कर रघुबीर॥
(मा. १.२१०)
ापबश उपलदेह कह रह ह िव ािम जी। ‍ा गो वामी तुलसीदासजी महाराज याकरण
नह जानते थे? शाप कहनेम ‍ा िबगड़ जा रहा था? ाप ‍ कहा? देिखये, शाप और ापम
अ◌र ह। शाप माने िकसीको गाली देना—शपित। और ाप— ा पाक माने ऐसा द ड देना

१७४
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

जो कमक प रपाकक पम सामने आ जाए। इ◌ ने ाप िदया ह, शाप नह । ा पाक अथा


अपने ोधक अि म गौतमने अह याको पका िदया ह। ापक कारण इनको उपल देह िमला।
यहाँ य ना ह िक सरकार, ाप तो दोन को िमला, िव णुको भी तथा अह याको भी। और दोन
ही प थर बने। पर सरकार, दोन क करमका फर ह। िव णु जब प थर बने तो उनको शाल ाम
िशला बना िलया गया, सोनेक स पुटम उनक पूजा होती ह; पर अह या जब प थर बन तो
उनका इतना बड़ा अपमान हो रहा ह। यहाँ य◌ ह िक िव णुको अनु ह इसिलए िमला ‍ िक
वे आपक अंश ह और आपक कारण शाल ामक पूजा हो गयी। वे आपसे जुड़, इसिलए प थर
बननेपर भी उ◌ सोनेक स पुटम रखा जाता ह तथा तुलसी चढ़ती रहती ह। जो पु षो मसे
जुड़ उसको इतना बड़ा स मान! और अह या गौतमसे अलग तो इनको इतना बड़ा द ड!
इतना जब राघवजीने सुना तो उनक आँख म आँसू आ गये। तब िव ािम जीने कहा िक
राघव! आप दुःखी ‍ हो रह ह? भगव ! आप अधीर मत होइये। ह धीर रघुबीर! यहाँ धीर
रघुबीरका िवशेषण ह। ह धीर िशरोमिण भु! गौतमक नारी ापवश होकर—उपलदेह धिर—
प थरका शरीर धारणकर—चरनकमल रज चाहती—आपक चरणकमलक रज चाहत ह।
धीर िवशेषण गौतम नारी (अह या)क िलए नह ह, भगवा ीरामक िलए ह। उ◌ ने कहा िक
आप तो धीर ह। अह याक दुःखसे िवत न ह । उसक उ ारक बात सोच। सरकार! आज
आपको अपने पिततपावन व गुणक योग करनेका वा◌िवक अवसर िमला ह। आज आप
पिततपावन बनगे भगव !
गौतमनारी ापबश उपलदेह धिर धीर।
चरनकमल रज चाहती कृपा कर रघुबीर॥
कृपा कर रघुबीर—आज थम बार िव ािम जी भगवा रामको रघुवीर कह रह ह,
‍ िक पाँच वीरताएँ िजसम ह , वही उस कलका वीर होता ह। और ये पाँच वीरताएँ—
यागवीरो दयावीरो िव ावीरो िवच णः।
दानवीरो रणवीरो प ैते वीरल णाः॥
आपम ह। भगव ुणदपणकार ने कहा िक रामजीको इसीिलए रघुवीर कहा जाता ह ‍ िक
उनम पाँच वीरताएँ ह। ये यागम वीर ह ‍ िक इतना बड़ा यागी नह देखा—
यागी भी देखे महा यागी भी देखे।
मेरे राम जैसा कोई यागी न देखा मेरे राम जैसा॥
सुर दुलभ तज राज िपताका कानन िकसको भाया।
केवट कोल िकरात जनोंको िकसने गले लगाया।
यागी भी देखे महा यागी भी देखे।
मेरे राम जैसा कोई यागी न देखा मेरे राम जैसा॥
राजे भी देखे महाराजे भी देखे।
मेरे राम जैसा कोई राजा न देखा मेरे राम जैसा॥
दीनदयाल उदार िशरोमिण कौन भगत-भयहारी।
पदपंकज रज परिस अह या कौन देवने तारी।

१७५
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

देवता भी देखे महादेवता भी देखे।


मेरे राम जैसा कोई देवता न देखा मेरे राम जैसा॥
बोिलये भ व सल भगवा क जय।
म यह िनवेदन कर रहा था—
गौतमनारी ापबश उपलदेह धिर धीर।
चरनकमल रज चाहती कृपा कर रघुबीर॥
ह सरकार! आपम पाँच वीरताएँ ह—आप (१) यागवीर, (२) दयावीर, (३) िव ावीर,
(४) परा मवीर और (५) धमवीर ह।
(१) यागवीर—आप जैसा यागी नह । वा मीिकजीने कहा—धनदेनसम यागे स ये धम
इवापरः (वा.रा. १.१.१९) जो लोग नह जानते वे तो यही कहगे—धनदेन सम यागे अथा
भगवा यागम कबेरक समान ह। िजतना कबेर दान करते ह, उतना ही भगवा करते ह। तो
हमने कहा िक ऐसा थोड़ ही ह। ऐसी या या करोगे धूमकतु! अर कबेर तो द र हो चुक
थे, रावणने सब लट िलया था। पर हमार रामज मम अयो याम िजतना बँटा, अयो याम िजतनी
उनक यौछावर ई, उसी यौछावरको लकर कबेरका बक िफर चलने लगा, और वे चकाचक
हो गये, नह तो वे तो िदवािलया हो गये थे। राम िनछावर लेनको सब होिह िभखारी, ब िर
देत ितिम देिखये मान धनधारी। कबेर कहाँ सदावत बन बैठ? पहल अपना भोजन कर
लते, तब दान देते। िफर धनदेन सम यागेका ‍ा अथ ह? तो भैया, यहाँ धनदेन म तृतीया
नह ह। धनदेनसमः एक श द ह। धनद य कुबेर य इनः वामी इित धनदेनः श रः और
धनदेनः श र एव समो य य स धनदेनसमः, दानम कवल श र भगवा रामजीक कछ
समता कर सकते ह और कोई नह कर सकता। धनदका इन माने वामी अथा श र ही
िजनक कछ समानता कर सकते ह, और कोई नह कर सकता ह। यहाँपर ब ीिह आ ह।
इतना बड़ा दानी कौन होगा भला सरकार! आप ब त बड़ यागी ह। भुशु डजीको यही तो
स◌ेह आ था—
िकलकत मोिह धरन जब धाविह। चलौं भािग तब पूप देखाविह॥
(मा. ७.७७.१०)
भगवा पकड़ने दौड़ते ह और जब म भागता तो मालपुआ िदखाते ह िक आओ यार!
चकाचक पालपुआ िमलगा। भुशु डजी खाना चाहते ह पर रामजी नह देते। तब भुशु डजी
कहते ह—“ये कसे भगवा ? रामजीतो ब त बड़ दानी ह और ये तो छोटा-सा मालपुआ भी
नह देते।” ाकृत िशशु इव लीला देिख भयउ मॊिह मोह (मा. ७.७७ख)। भगवा ने
कहा—“मेर दानम कोई कमी नह , पर एक सम या ह। धमसंकट ह िक तुम योिनतः कौआ
नह हो, तुम ज मना ा ण हो। ापक कारण तु हारा शरीर कौएका ह पर हो तुम ज मना
ा ण और मने ि य कलम ज म िलया ह। इसिलए ि य कमार होकर ा णको कसे
जूठन दूँ? यह मेरा धमसंकट ह।” इसिलए जब वे चरण पकड़ने जाते ह तो भगवा भाग
जाते ह—“अभी तुम ा ण हो और म ि य । यिद चरण छआऊगा तो वणा म यव था
टट जायेगी। चातुव य मया सृ (भ.गी. ४.१३)—चातुव यक यव था मने क ह।”
१७६
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

भुशु डजीने कहा—“मुझे तो दोन ही करना ह आपक चरण भी छने ह और आपक जूठन
भी लनी ह।” भगवा ने कहा—“िफर तो तु ह ि य बनना पड़गा।” “एक बार ाप िदया
था तो कौआ बना, अब कसे ि य बनूँ?” भगवा ने कहा—“इसका एक उपाय ह। ि य
बननेक प रभाषा ह िक जो ि यक पेटसे ज म लगा, वह ि य हो जायेगा।” भुशु डजीने
कहा—“ ाणी कहाँसे पाऊ?” तो भगवा ने कहा—“चलो तु हार िलये म ही माता बन जाता
।” वमेव माता च िपता वमेव —भगवा ही माता, भगवा ही िपता ह। “जैसे मैयाक पेटसे
बालक ज म लता ह, वैसे ही तु हार िलये म माता बन जाता ।” िबहसत तुरत गयउ मुख
माहीं (मा. ७.८२.२)—भुशु डजी भगवा क मुखम और िफर पेटम चल गये। दो घड़ीतक
पेटम रह और िफर िनकल आये। भगवा ने कहा—“अब तुम ि य हो गये। अब तुम मेरी
जूठन खा सकते हो और अब मेर चरण छओ।”
बोिलये भ व सल भगवा क जय।
मेर इस कथनसे कोई यह अथ न लगाये िक जग ु ा णवादी ह। म ा णवादी कदािप
नह , पर◌ु पहल म ा ण िफर चाह जो कछ र । ा ण माने ‍ा होता ह?
वेदमधीते त ातीय इित ा णः िजसक वंश पर पराम वेदका अ ययन हो, उसको ा ण
कहते ह। वैिदक अ ययन हमार र म वािहत हो रहा ह।
एतावता, म यह िनवेदन कर रहा था िक कृपा कर रघुबीर (मा. १.२१०) आप जैसा
कोई यागी नह हो सकता सरकार! आप सबसे बड़ यागी ह। आपक बापने आपक ज मपर
गजदान िकया—
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दी े नृप नानािविध चीरा॥
(मा. १.१९६.८)
और ये तो चरनकमल रज चाहती। यहाँपर यह एक य◌ ह िक आपक बाप तो गजका
दान करते रह और आप उनक कलम ज म लकर इतने कजूस िक ा णीको रज भी नह दे रह
ह? भगवा ने कहा—“महाराज! आप एक बात बताइये िक अह या मेर चरणकमलक रज
‍ चाह रही ह?” िव ािम जीने कहा—“इसका बड़ा सटीक उ र ह िक अह या अब समझ
गयी ह िक उनक पतनका कारण ‍ा ह? उनको अब पूण बोध हो गया ह।” यह हम और
आपको प हो गया ह िक जब भी बुि सकाम कमम फसती ह तो उसका पतन हो जाता ह।
इ◌ और कछ नह ह, सकाम कम ही तो ह। सकाम कमका एक प ही इ◌ हो गया। और
काम उ◌ होता कहाँसे ह? कामक बापका नाम ह रजोगुण। ीम गव ीताक तृतीय अ यायक
उ राधम अजुनने एक बड़ी सु◌र िज ासा क और उस िज ासाम भगवा को वा णय कहा।
वृि णः पा डवच योः मेिदनीम िलखा ह। “ह वा णय!” वृ णाः पा डवा◌ेषामयं वा णयः।
“ह पा डव क िहतैषी! एक बात बताइये—”
अथ केन यु ोऽयं पापं चरित पू षः।
अिन िप वा णय बलािदव िनयोिजतः॥
(भ.गी. ३.३६)
लगता ह िक बलपूवक िकसीक ारा लगाये जानेपर यि पाप करता ह, तो िकससे े रत
१७७
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

होता ह? ‍ा पापक ेरणा आप देते ह? ‍ा आप पाप करवाते ह?”


भगवा ने कहा—“मुझे बदनाम मत करो। म आगे चलकर पाँचव अ यायम क गा—”
नाद े क यिच ापं न चैव सुकृतं िवभुः।
अ ानेनावृतं ानं तेन मु ि ज वः॥
(भ.गी. ५.१५)
“म िकसीका पाप हण नह करता, म िकसीका पु य हण नह करता।”
ज िप सम निह राग न रोषू। गहिह न पाप पु य गुन दोषू॥
(मा. २.२१९.३)
“िफर कौन पाप करवाता ह?” तब भगवा ने कहा—काम एष ोध एष
रजोगुणसमु वः (भ.गी. ३.३७)। “रजोगुणसे उ◌ आ यह काम ही पाप करवाता ह।”
अह या समझ गयी ह िक मने इतना बड़ा जो पाप िकया ह, इसका कारण ह काम। इस
कामका मेर मनम ज म इसिलए आ ह िक मुझम रजोगुण आ गया ह। इसी रजोगुणने मेर
अ◌र कामको ज म िदया और इसीने पाप करवाया अथा पाप रजोगुणका नाती या पोता
(पौ ) ह। अतः अह या जानती ह िक काँटसे काँटको िनकाला जाता ह, लोहसे लोहको काटा
जाता ह, िवषक औषिध िवष ही बनती ह—िवष य िवषमौषध । इसिलए अपने रजोगुणको
िनकालनेक िलये मुझे िकसी रजको ही खोजना पड़गा। अह या अपने रजोगुणको न करनेक
िलए आपक चरणकमलक रजोरािश चाहती ह—चरन कमल रज चाहती कृपा कर रघुबीर
(मा. १.२१०)।
एक बार रहीमजीसे अकबरने िवनोद िकया। िवनोदम ायशः अकबर िह◌ू धमको अपमािनत
करनेक ही सोचा करता था। बीरबल तो उनको ब त अ◌ा-अ◌ा उ र देते थे, वे तो आन◌
ही करवा देते थे। बीरबलक उ रसे तो बेचार अकबर हरान रह जाते थे, मुँहक खानी पड़ती थी।
एक बार उसने बीरबलसे पूछा—“बताओ दुिनयाम िकतने वर होते ह?” बीरबलने सहजतासे
कहा—“दो वर तो हमने सुने ह—सीतावर और राधावर।” अकबरने कहा—“‍ा अकबर नह
सुने हो?” बीरबलने कहा—“यिद ऐसे ही बर क िगरती करोगे तो ‘गोबर’ भी तो सुना ह।”
इस कार बीरबल तो बड़ सु◌र-सु◌र उ र देकर आन◌ कर देते थे। पर रहीम ऐसा नह कर
सकते थे ‍ िक वे अकबरक सेनापित थे; य िप रहीमजी िह◌ू धमक ित ब त आकिषत
थे। एक बार अकबरने कहा—“रहीम, देखो िह◌ू लोग िकतने मूख होते ह िक इतने अिश
जानवर हाथीको उ◌ ने थम पू य बना डाला। अर धूमकतुको चाह िकतना नहलाओ-धुलाओ,
सूँड़से िम ी भरकर पूर शरीरको ग◌ा कर लता ह। इस मूखक लोग गणपित जैसी पूजा करते
ह। ारचारपर पहल इसक गणपित जैसी पूजा करते ह। ारचारपर पहल इसका टीका होता ह
और यह मूख ण भरम पूर शरीरको धूलसे भर देता ह।” रहीमने कहा—“महाराज, िह◌ु का
दशन ब त ग भीर ह, इसको आप नह समझ पायगे।”
अकबरने कहा—
धूिर धरत िनज सीसपर क रहीम केिह काज।
तब रहीमजीने कहा—
१७८
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

जॆिह रज मुिन पतनी तरीं सॊइ ढढत गजराज॥


“आप नह समझ पाये महाराज! गजराज अपने म◌कपर इसिलए धूल फक रहा ह ‍ िक
वह सोचता ह िक भारतम वो धूल कह न कह होगी, िजस धूलका पश कर अह याजी
तर गय । एक बार वही कण मुझे भी िमल जाता तो म भी तर जाता! अतः अपने तरनेक
िलये, अपना उ ार करनेक िलए वह उसी धूलक खोजम अपने िसरपर धूल फकता रहता ह।
अभीतक भल सफल नह आ, पर उसका उ े य ब त सु◌र ह। इसीिलए उसको थम पू य
माना जाता ह।” एतावता, िव ािम जीने कहा—“सरकार! कृपा कर रघुबीर।”
(२) दयावीर—“आप दयाम भी वीर ह। अह याका दुःख देखकर आप दुःखी भी हो गये
तो दया क िजये सरकार! अपनी दयालताका प रचय दीिजये और इसका पाप दूर क िजये।”
(३) िव ावीर—िव ावीरो िवच णः—“सरकार आप िव ावीर भी ह और इसपर
अिव ा आ गयी ह।” अिव या मृ युं ती वा िव याऽमृतम ुते (ई.उ. ११)। “सरकार
इसी लीलाम मने आपको दोन क साथ देखा। अिव ा भी देखी और िव ा भी देखी। ताटकाको
आपने मारा वो सा ा अिव ा थी। ताटकाको मारकर आपने मेरा मरण-भय भी छड़ा िदया और
मेरी िव ा लकर मुझे अमृत पीनेका अिधकारी बना डाला”—िब ािनिध कह िब ा दी ीं
(मा. १.२०९.७)। “तो ह सरकार! आप अपनी िव ासे अह याक अिव ा हर लीिजये।”
कृपा कर रघुबीर। “सरकार! इसम पाँच अिव ाएँ आ गयी ह—इसम तम भी ह, तािम
भी ह, अ धतािम भी ह, मोह भी ह और महामोह भी ह। अतः इसपर कपा क रये सरकार!”
िव ािम जीने कहा—“सरकार! आपक चरण कमलक रज साधारण नह ह। यह परािव ा
ह, यह िव ा ह और यह िव ा जब अह याक िसरपर पड़गी तो इसक अिव ा समा
हो जायेगी।”
(४) परा मवीर—“आप परा मम महावीर ह सरकार—परा ममहावीरः। इतना बड़ा
परा मी कोई नह हो सकता। अपने हाथसे सुबा और ताड़काको मारा। यिद आपक हाथ
इतना बड़ा काय कर सकते ह तो आपक चरण भी तो कछ काम करगे। सरकार आप अपने
चरणकमलसे अह याका क याण क िजये।” भगवा थोड़ी देरतक चुप रह िफर बोल—“कसे
क याण क ? यह तो िशला ह और यिद म िशलापर चरण रखूँगा तो हो सकता ह िक
मेर चरण को पीड़ा हो?” िव ािम जीने कहा—“हम आपक चरण क बारम जानते ह। हमने
आपक चरण म चार रखाएँ देखी ह—”
सि ये गवत रणारिव ं व ा श वजसरो हला छना ।
उ ु र िवलस खच वाल यो ािभराहतमह ृदया धकार ॥
(भा.पु. ३.२८.२१)
“ भो! आपक चरण म व क रखा ह और आप गीताम कहते ह िक आयुधानामह
व (भ.गी. १०.२८) आयुध म व आप ह। अतः आप आज परा म िदखाइये और
अह याक पाप िशलाको समा कर दीिजये। इस िशलाको इ◌का व तो समा कर नह
सकता ‍ िक इ◌क ही ककमसे यह िशला बनी ह। इसिलए ह सरकार, आज एक काम
क रये िक अपने चरणकमलका पश करक, अपने चरणक अँगूठम बनी ई व क रखासे
१७९
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

अह याक पाप-िशलाको चूर-चूर कर दीिजये।” कृपा, कर यहाँपर पाँच अ र ह।


(५) धमवीर—“पाँचव बात सरकार आप धमवीर भी ह। इतना बड़ा धािमक कोई नह हो
सकता। मनुजी कहते ह िक कोई धमको आहत करता ह तो धम उसको मार डालता ह, यिद कोई
धमक र ा करता ह तो धम उसक र ा करता ह—धम एव हतो हि धम र ित रि तः
(म. मृ. ८.१५)। दयाक समान कोई धम नह हो सकता, आप दया क िजये। ब त बड़ा धम
होगा सरकार!” भगवा ने कहा—“और ‍ा धम क ?” िव ािम जीने कहा—“सरकार! ये
गौतमक धमप ी ह और गौतमने धमक एक या या क ह—यतोऽ युदयिनः ेयि सि ः
स धमः (वै.सू. १.१.२) अथा धम उसे कहते ह िजससे अ युदय भी हो और िनः ेयस भी।
धम उसे कहते ह िजससे संसारम सुख िमल और अ◌म परलोक िमल जाए; िजससे दोन लोक
बन जाएँ। िजससे गृह थी भी बने और िवरि भी बने। कछ लोग तो जब मेहरा लात मारती
ह, तब बाबा बन जाते ह और कछ लोग बाबा बननेक बाद भी घरका मोह नह छोड़ पाते।
वा◌वम धम वह ह, िजसका दोन चकाचक हो। जब यि गृह थ रह तो उसक मयादाका
पालन कर और जब वह िवर हो जाए तो उसक मयादाका पालन कर। दोन लोक म जो
सम वय करता ह, वही धम होता ह। सरकार! अह याको अब दोन ही चािहए—अ युदय भी
चािहए और िनः ेय भी चािहए।” इसिलए—कृपा कर रघुबीर।
“ह सरकार! आप रघुवीर ह न! ये तो चरनकमल रज चाहती।” यहाँ एक िवनोद कर रह
ह और कहते ह—“सरकार! आगे चलकर आपका िववाह होने वाला ह। अभी आपने संहार
िकया ह, रा स को मारा ह तो हो सकता ह कछ पाप लगा हो। आप एक पु य कर दीिजये।
िनयम यह ह िक जो जैसा करता ह, उसे वैसा ही िमल जाता ह। सरकार! अह या हजार
वष से गौतमसे िबछड़ी ई ह तो िबछड़ी ई प ीको यिद आप उनक पितसे िमला दगे तो जो
आप यारह वषसे सीताजीसे िबछड़ ए ह साकतलोक से। इस पु यसे सीताजी आपको िमल
जायगी। इसिलए—कृपा कर रघुबीर। शा का िनयम ह िक जो िकसीको भोजन िखलाता
ह, उसे भोजन िमल जाता ह। तो सरकार आप िबछड़ को िमला दीिजये, आप भी सीताजीसे
िबछड़ ए ह, तुर◌ फल िमलगा—साँझे देय सकार पावे, पूत भतारक आगे आवे । सरकार
देर नह लगेगी। मानो िवनोद कर रह ह िक आज आप िबछड़ी ई अह याको गौतमसे िमला
दीिजये, कल ही आपको िबछड़ी ई सीताजी िमल जायग ।”
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥
िकतना क ण ◌ य ह यहाँ का! “ह रघुवीर, अब आप कपा क िजये। आप रघुवीर ह।”
रघुवीर माने ‍ा होता ह? सं कतम रघु माने होता ह जीव। ल ि पापपु यािन ये ते
रघवः—जो पाप और पु यका ल न करते ह उ◌ रघु कहते ह। रघुवीर म रघु माने तो हो गया
जीव। इसम िव उपसग लगा ह और ई धातुका अथ ह ेरणा अथा रघू िवशेषेण ईरयित इित
रघुवीरः—अथा जो जीव को िविश ेरणा देते ह। “इसिलए इसपर आप कपा कर।” इसपर
महिष वा मीिकने एक ब त सु◌र वा‍ कहा और लगता यह ह िक वा मीक य रामायण म
पहली बार भगव वका योग भगवा क िलये िकया गया ह, ब त मधुर ह।

१८०
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

तदाग महातेज आ मं पु यकमणः।


तारयैनां महाभागामह यां देव िपणी ॥
(वा.रा. १.४९.११)
अथा भगवा रामसे िव ािम जी कह रह ह—तदाग महातेज । यहाँ स बोधन ह
महातेज —मह ेजो य य स महातेजाः, त स बु ौ ह महातेज । ह महातेज वन। तदाग
पु यकमा गौतमक आ मम आइये। भगवा कहते ह—“वहाँ ‍ा क ?” तो िव ािम जीने
कहा—तारयैना । एनां तारय, इसको ता रये! कसे कहते ह िक वा मीक य रामायण म भगवा
रामको नह माना गया? ‍ा मनु य िकसीको तार सकता ह? ‍ा जीव िकसीको तार
सकता ह? एक बात कहनेम म ब त अिधक स हो रहा और म कोई प पात भी नह कर
रहा िक पूर म◌ म िकसी म◌क साथ तारक नह जुड़ता—चाह वह शैव हो, गाणप य हो,
शा हो, या चाह सौर हो। इसका उ र िकसीक पास नह ह, पर◌ु हमार यहाँ उ र भारतम
अनपढ़ मिहलासे भी पूिछयेगा तो वह कहगी िक हमको राम-तारक म◌ िमला ह। तारक माने
होता ह तारने वाला और तारने वाल कवल भगवा राम ह। अतः कहते ह—तारयैना ।
िकतना अ◌ा वा‍! ह नाथ, इसको आप तार दीिजये—एनां तारय । यह पितत हो चुक
ह, नरकम जा रही ह अतः इसको ता रये सरकार! यहाँ तारय कहा ह पावय नह कहा।
तारय माने संसार-सागरसे इसको पार कर दीिजये। “यह पापक सागरम पड़ी ह सरकार!”
भगवा कहते ह—“‍ ?” तो कहते ह—महाभागा । यहाँ महाभागा श द ब त मधुर
ह। भगवा पूछ सकते ह—“इनको म ‍ ता ?” कहते ह—नह , यह ह—महाभागा ।
यहाँ महाभागा का पहला अथ ह—मह अभागं य याः—यह ब त अभािगनी ह, अतः
इसे तारना पड़गा सरकार! और दूसरा अथ तो और भी अ◌ा ह—महीयते इित महा िजनक
पूजाक जाती ह, उन सीताजीको महा कहते ह; अथवा—मही अि◌ माता अ याः इित महा —
मही िजसक माता ह उसको महा कहते ह। अश आिद यो अ (पा.सू. ५.२ १२७) और
य येित च (पा.सू. ६.४.१४७)से लोप कर िदया तो बन गया महा । ऐसी पृ वी-क या सीता।
तां महां सीतां भजते इित महाभागा, तां महाभागा । ऐसी पृ वी-क या सीताजीका जो भजन
करती ह, वह महाभागा ह। यह सीताजीका भजन करती ह सरकार! जब पितसे ितर कत ई
तो यह िनर◌र सीताजीक अ ा रका जप करती ह— ीसीता शरणं मम। ीसीता शरणं
मम। इित नवीना या या। मही पृ वी माता अि◌ अ याः इित महा अथा महीतनया तां महां
पृ वीपु सीतां भजते इित महाभागा । ये सीताजीका भजन करती ह सरकार, इसिलए तारयैनां
महाभागा ।
देिखये, अब आपको िस ा◌ समझाऊ िक सीताजीका भजन करने वालका तो क याण
होगा ही होगा। उपासनाक िस ा◌ पर जब चचा करते ह तो हमार सामने दो-तीन रह य बड़
प आते ह। हमार सामने रावणका भी इितहास ह और शूपणखाका भी इितहास ह। रावण
सीताजीको चाहता ह और शूपणखा चाहती ह रामजीको और इधर अयो यावासी चाहते ह
सीताजीको और िमिथलावाल चाहते ह रामजीको। पर अब आप देिखये िक इन दोन म अ◌र
‍ा ह? अयो यावासी सीताजीको चाहते ह तो सीताजी उनक घरक ब रानी बनकर आ गय

१८१
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

और अयो यावािसय ने ललकार कर कहा—


आज मुिदत अवध नर नािर सजनी।
चारों ब में िसया सुकुमािर सजनी॥
‍ा कारण ह िक अयो याको सीताजी िमल और सीताजीको तो अयो यावासी भी चाहते ह
और रावण भी चाहता ह। कहाँ तो अयो याम सीताजी ब रानी बनकर चली आय और वहाँ—
कालराित िनिशचर कुल केरी। तॆिह सीता पर ीित घनेरी॥
(मा. ५.४०.८)
और ऐसा भी नह ह। यिद सीताजीको अयो यावासी णाम करते ह तो रावण भी णाम
करता ह, ऐसा कछ नह ह, जैसे—
आवत देिख बराितन सीता। परािश सब भाँित पुनीता॥
(मा. १.३२३.२)
िक◌ु—
सबिह मनिह मन िकये नामा। देिख राम भयॆ पूरनकामा॥
(मा. १.३२३.३)
यिद बराितय ने भी णाम िकया तो रावणने भी णाम िकया। यिद बराितय ने मनम णाम
िकया तो रावणने भी मनम णाम िकया। यिद सबिह मनिह मन िकए नामा तो रावणने मन
मह चरन बंिद सुख माना (मा. ३.३०.८) िफर ‍ा कारण ह, बराितय क ही भाँित रावणने
भी सीताजीको चाहा पर◌ु अयो याको िकतना सौभा य िमला िक यही सीता अयो याक िलए
म लराि बनकर आय और यही सीता रावणक िलए कालराि बन । प रणामम भेद ‍
आ रहा ह? ‍ा आपने कभी इसपर िवचार िकया? सीताजीम कोई अ◌र नह पड़ा ह। उधर
देिखये, िमिथलावाल भी रामजीको चाहते ह; िमिथलािनयाँ भी रामजीको चाहती ह और शूपणखा
भी रामजीको चाहती ह। ठीक ह तुलसीकत रामायणम िमिथलािनय क मनम रामजीक ित मधुर
भाव नह ह, पर◌ु अ य थ म उनका मधुर भाव ह—
अन याही फूली िफरे याही मींजत हाथ।
गौनेकी मौनी भइ प देिख रघुनाथ॥
िमिथलावाल अपने संब धी लगते ह, इसिलए ब त पो टमॉटम करना अ◌ा नह लगता।
पर कर ‍ा; उनक करतूत ही ऐसी ह तो कहना ही पड़ता ह! िजतनी अन याही थ , सब फली
िफर रही थ । ‍ा मेक-अप करक िक हम वीकार लगे! पर हमार राघवने सबको अँगूठा
िदखा िदया और याही मींजत हाथ—िजनका याह हो गया वे तो हाथ मलती रह जाती ह िक
अब तो नह वीकारगे, पर शायद वीकार ही ल। और िजनका ि रागमन हो गया, गौनेवाली,
वे तो चुप ही रह गय ; कछ कहने यो य ही नह रह गय । जो कछ था सब चौपट ही हो गया।
सारी िमिथलाक ना रयाँ भगवा रामको चाहती ह। सब सखी भावम आन◌ करती ह। सौ◌य
वे भी चाहती ह और सौ◌य शूपणखा भी चाहती ह। िमिथलाक ना रयाँ भगवा रामको चाहती
ह तो भगवा रामने काला◌रम उ◌ गोपी बनाया। भगवा ने कहा—“रामावतारम तो कोई
बात ही न करो, एकनारी त म।” इसिलए म कभी-कभी िवनोद करता िक—

१८२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

राधा को िरझाना खेल भी है, (िक ु) सीताको मनाना खेल नहीं।


िगिरवर को उठाना खेल भी है, िगिरधरको उठाना खेल नहीं॥
आल ा रक वा‍ ह। क◌ैया! यिद तुम िग रवरको उठा सकते हो तो हमार राघव तो
िग रधर को भी उठा लते ह। इसिलए राधाजीको मनाना सरल ह। भगवा जानते ह—“राधाजी
ठगी तो दूसरी आ जायेगी। कह लिलता िमलगी, कह िवशाखा िमलगी पर सीताजीको मनाना
ब त किठन ह।” रामजी यह बात जानते ह िक यिद सीताजी ठ जायगी तो िफर कोई िवक प
ही नह बचेगा। राघवक िलये सीताक अित र कोई िवक प नह । राधाका िवक प ह, पर
सीताका कोई िवक प नह । सीताजी िनिवक प ह। देिखये, िमिथलािनयाँ भी रामजीको चाहती
ह और शूपणखा भी चाहती ह पर िमिथलािनयाँ तो कमसे कम गोपी बन । पर शूपणखाक
नाक कटी और रावणका िसर कटा। िमिथलािनय क नाक ऊची ई और अयो यावािसय का
िसर ऊचा आ। इसका ‍ा कारण ह? इसका एक ही कारण ह िक अयो यावासी सीताजीको
चाहते ह, पर◌ु वे सीताजीको रामजीक मा यमसे चाहते ह और रावणने यही गलतीक ह िक
रावण सीताजीको चाहता ह पर रामजीका मा यम नह लता, इसीिलए उसका सवनाश हो गया।
यिद सीताजीक चरण म ेम चािहए तो रामजीको मा यम बनाना पड़गा। और यिद रामजीक
चरण म ेम चािहए तो सीताजीको अनुकल करना पड़गा। जबतक सीताजी कपा नह करग
तबतक रामजीक कपा जीवको ा नह होगी—यह िस ा◌ ह। देिखये, रावणने सीताजीको
चाहा पर रामजीको मा यम नह बनाया, उनसे िवरोध करक रावणने सीताजीको चाहा, तो
उसका सवनाश हो गया। और अयो यावासी रामजीका िवरोध करक नह , युत रामजीको
अपना बालक बनाकर, रामजीक कपासे, सीताजीक ाि मानते ह, इसीिलए उ◌ सीताजी
िमल गय । िमिथलावासी रामजीको िकशोरीजीक कपासे चाहते ह। वे तो कहते ह—लाडली
कृपासे पइलौं ऐसन मेहमान हे।
सीताजीक कपासे रामजी िमलते ह। िमिथलािनय ने सीताजीक कपाको मा यम बनाया
और कहा—“ह जनकन ◌नीजी! आप हम रामजीको िदला दीिजये। आप कपा कर दीिजये,
िजससे हम रामजी ा हो जाएँ!” और शूपणखाने यही गलती क िक सीताजीको खाने दौड़ी,
सीताजीक कपाका उसने सहारा नह िलया, इसिलए शूपणखाक नाक-कान कट गये और
िमिथलािनय क नाक ऊची हो गयी। इसिलए यहाँ भी तारयैनां महाभागामह यां देव िपणी
(वा.रा. १.४९.११) इसको तारना पड़गा ‍ िक ये हमारी सीताजीका भजन कर रही ह। देिखये,
हम लोग ीवै णव ह। हम तो सीताजीक मा यमसे भगवा को चाहते ह ‍ िक जबतक
सीताजीक कपा नह होगी, तबतक जीव रामजीको ा कर ही नह सकता। सीताजी पु षकार
ह। घटक ह सीताजी। और जीवक बीच संब ध कराने वाली ह—यह िस ा◌ ह। इसिलए
हम पहल सीता िफर राम कहते ह और जहाँ कवल राम कहते ह, वहाँ भी सीताजी रहती ह।
रकारा ाघवो ेयो मकारा मणः वरा ।
तयोः संयोजनाथाय सीता आकार उ यते॥
र + आ + म = राम। र माने राम, आ माने सीताजी और म माने ल मण। तो राम और
ल मणक बीचम सीताजी आ कारक पम िवराजती ह।

१८३
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

उभय बीच िसय सोहित कैसी। जीव िबच माया जैसी॥


(मा. २.१२३.२)
रामायणजीम बारह बार ी श दका योग ह। इसपर िफर कभी चचा क गा, अभी नह ।
यह अर यका ड का योग ह। ीराम और ील मणक बीचम सीताजी कसी सु◌र लग
रही ह? तो कहते ह— जीव िबच माया जैसी—जैसे और जीवक बीचम माया।
माया माने भगव◌पा। माया कृपायां लीलायां मूला ाने छले तथा माया माने भगवा क
कपा। जैसे और जीवक बीचम भगवा क कपा सु◌र लगती ह, उसी कार ीराम और
ील मणजीक बीचम सीताजी शोिभत होती ह।
देिखये, होनहार िबरवानके होत चीकने पात—जो होनहार होते ह, उनका ार भसे
ल ण पता चल जाता ह। भगवा क भ का यि व तो बचपनसे िनखरता ह। हम लोग को
इतना सं कार ह। म पूरी चचा नह क गा। आप लोग वणया ा म पढ़ लीिजयेगा िक मुझको
तो आठ वषक अव थाम पूरी रामायण क ठ थ हो गयी। तो बताओ ये ‍ा ह? भगवा
को कछ कराना होगा, भगवा क ही कपा होगी। जब भगवा क कथाम मन न लगे तो जानो
िक अभी हमारा पाप शेष ह। अभी ब त भोगना पड़गा। एतावता, भगवा क कपाक सबसे
बड़ी भूिमका यही ह िक वह जीवको परमा मापर आकिषत कर दे और परमा माको जीवपर
िवत कर दे, िपघला दे। कपा तो माँका काम करती ह। माँ बेटसे कहती ह िक िपताका आदर
करो और िपतासे कहती ह िक बेटको यार करो। बेटको स◌ारक ेरणा देती ह और िपताको
यारक ेरणा देती ह, यह ह भूिमका माँक । माँ वयं भल ही बेटको मार दे, पर पापाजी मार द
तो महाभारत हो जायेगा। एक थ पड़ िपताजी मारक देख तो यही कहगी—“तुम कौन होते हो
मारने वाल?” माँ चाह िजतना मार ल, पर िपता नह मार सकता। माँका अपना एक यि व
ह। िपता का, बेचारका, कोई यि व नह । बेटपर दस बटा यारह (१०/११) अिधकार तो
माताका होता ह और एक बटा यारह (१/११) अिधकार पापाजीका होता ह। बेचार का ‍ा
होगा? माने िक पापा बेचार क दुदशा देखो! मुझे तो ब त दया आती ह। िदन भर खट बेचार,
को क बैल जैसे काम कर, पैसा भी द और अिधकारको जब चैलज करो तो ुित कहगी िक
तु हारा कवल १/११ अिधकार ह—िपतुदशगुणा माता गौरवेणाितिर यते।
आज हमार यहाँ लोग बराबर वकालत कर रह ह िक मिहला को बराबरीका अिधकार
दो। अर! ‍ा बराबरीका अिधकार द, हम तो पहल ही दस गुना अिधक अिधकार देकर बैठ
ह। एतावता, गो वामीजीने ब त गरजकर कहा—
िसया वािमनी है मलिकन हमारी िफकर हमें काहे की॥
जाके ससुर नृपित ीदशरथ सासू कौश या महतारी।
िफकर हमें काहे की िसया वािमनी है मलिकन हमारी ...॥
देवर भरत लखन िरपुसूदन जाके वामी राम धनुधारी।
िफकर हमें काहे की िसया वािमनी है मलिकन हमारी ...॥
ऋि िसि चरणनकी दासी हनुमत है ेमके भ डारी।
िफकर हमें काहे की िसया वािमनी है मलिकन हमारी ...॥

१८४
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

तुलसीदास किलजुगका किरहै रािख लेहै जनकदुलारी।


िफकर हमें काहे की िसया वािमनी है मलिकन हमारी ...॥
ब रानी है मलिकन हमारी िफकर हमें काहेकी ही।
िफकर हमें काहे की, िफकर हमें काहे की॥
॥ बोिलये जनकन ◌नीजूक जय ॥
इसिलए, राजराजे री, ि पुरसु◌री, िन य-िनक े री, ीिच कट-िवहा रणी, उ व- थित-
संहार-का रणी, सकल- श-हा रणी ीरामच◌-मुखच◌-चा -च ल-च ु कोरी ीिमिथलश-
िकशोरी जनकन ◌नी, जग ननी, जनकतनया, जनकािधराजक या, परमवदा या, धरिणध या,
धा रणी, शैर वजी, िमिथलािधराज-क ित-वैजय◌ी, सा ा च ल-चाकिच‍-चिकती-
कतावलोचक-लोचन-िनचया, प रकिलत-राम ेम णया, ीम मा मनो मधु त-परमहस-
प र ाजकाचाय-िनकर ब-कद ब-चोचु यमान- ीम रणारिव◌ा, भगवती जनकन ◌नी यिद
हमारी सा ा पु षकार पम िवराजमान ह तो हमको कछ सोचनेक आव यकता नह
होती। अतः—तारयैनां महाभागामह यां देव िपणी (वा.रा. १.४९.११)। राघव! एनां
तारय । इनको ता रये! िकतना सु◌र वा‍ ह! ह राघवजी, इसको ता रये! यहाँ टीकाकार तो
देव िपणी माने देवताक समान पवाली कहते ह पर यिद वह देवताक समान पवाली
ह ही तो िफर उसको तारनेक आव यकता ही ‍ा ह? इसिलए, यहाँ टीकाकार क गलत
या या ह। यहाँपर देव स बोधन भगवा राम का ह िक ह देव! ह सि दान◌ आन◌घन
सरकार! एनां महाभागां िपणीमह यां तारय —इस िपणी अह याको ता रये। िपणी माने
‍ा? ‍ा पवतीको तारा जायेगा? अह या पवती नह ह, िफर यहाँ पवतीका ‍ा अथ
करोगे? यहाँ याकरणका सहारा लना पड़गा। यहाँपर इिन यय िन◌ाक अथ म ह—
भूमिन ा शंसासु िन ययोगेऽितशाियने।
संसगऽि िवव ायां भवि मतुबादयः॥
(भा.पा.सू. ५.२.९४)
िपणी माने िन ◌तं पं य याः सा िपणी । इसका प िन ◌त हो गया ह सरकार! यह ह
याकरण और यह ह वा मीिक रामायण ! िनिन पं दयेन पावती ि येषु सौभा यफला
िह चा ता (क.स. ५.१)। पक िन◌ा तब होती ह, जब उसका पित उससे स नह होता।
पावतीजीने अपने पक िन◌ा क । दु हन वही जो िपया मन भाये —दु हन वही होती ह, जो
पितको सु◌र लगे। पितको ही जब सु◌र नह लग रही तो िफर दु हन कसी? इसिलए—
तथा सम ं दहता मनोभवं िपनािकना भ मनोरथा सती।
िनिन पं दयेन पावती ि येषु सौभा यफला िह चा ता॥
(क.स. ५.१)
“अपने सामने कामदेवको जलाते ए (तथा सम ं दहता मनोभव ) िशवजीक ारा
(िपनािकना) जब पावतीका मनोरथ भ कर िदया गया (भ मनोरथा) तब पावतीने अपने
पक िन◌ा दयसे क (िनिन पं दयेन पावती)। िध ार ह मेर पको, िजससे मेर
ाणधन भु नह स ए! (ि येषु सौभा यफला िह चा ता) सु◌रता जो होती ह वो

१८५
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

ि येषु सौभा यफला अथा यिद सु◌रताका मू या न पित कर ल तब सु◌रता, सु◌रता


होती ह।”
इसिलए, ह सरकार! अह याजीका प तो ह पर िन ◌त प ह। इस पसे ‍ा लाभ,
िजस पसे अह याका च र ही न कर िदया गया। एतावता—
गौतमनारी ापबश उपलदेह धिर धीर।
चरनकमल रज चाहती कृपा कर रघुबीर॥
(मा. १.२१०)
ह सरकार! भ क िन◌ा नह होनी चािहए। अब कपा क िजये। तारयैना इनको तार
दीिजये सरकार!
अब भु अपने भु व का योग कर रह ह। आहा! इतना ेम ‍ ? थमतः तो िक ये
जनकपुर क पुरोिहतानी ह, इसिलए मेरी माँ ह। और ि तीयतः, जो सबसे मुख ह, यह ह िक
एकसंबि धक ानमपरसंबि धनं मारयित—एक संब धी का ान दूसर संब धी का मरण
करा देता ह। अह या मेरी माताक समान ह। मेरी माताक नामक समान इनका भी नाम ह। मेरी
माताका नाम ह कौश या और इनका नाम ह अह या, तो मेरी माताक नामका अ ◌म ख ड
इनसे जुड़ा ह। अतः इनका अपयश होगा तो मेरी माँक नामका अपमान हो जायेगा। इसिलए
िशला समा कर दीिजये। सुजन सजीविन मूिर सुहाई (मा. १.३१.७)। अह याजीने संतका
आ य िलया। क याण हो गया। िव ािम जीने कह िदया िक कपा क िजये। धनुष-बाण िलए
ए रामजीको देखा—देखत रघुनायक जनसुखदायक (मा. १.२११.१)। सामने आ गय —
सनमुख हॊइ कर जोिर रही (मा. १.२११.१)। सामने ‍ आ गय ? इसिलए िक इसी बाणसे
मेरी छातीपर हार कर दीिजये। पर रामजीने कहा—“नह , यह धनुष-बाण इसिलए चढ़ाया ह
िक आज मने आपको पहलक अपे ा करोड़ गुनी सु◌री कर िदया ह। अब यिद इ◌क ◌ि
आपपर पड़गी, तो रावणका वध तो प ा होगा इ◌का वध अभी कर दूँगा। जो कछ होगा,
होगा।” सनमुख हॊइ कर जोिर रही (मा. १.२११.१)। सामने जब आय अह याजी, तो उनक
करोड़ ज म क पाप दूर हो गये—सनमुख होइ जीव मॊिह जबहीं, ज म कोिट अघ नासिह
तबहीं (मा. ५.४४.२)। ेमम अधीर हो गय , शरीर पुलिकत हो गया, भगवा क चरण म िलपट
गय —
अितशय बड़ भागी चरनन लागी जुगल नयन जलधार बही॥
परसत पद पावन शोकनसावन गट भई तपपुंज सही।
(मा. १.२११.१)
जुगल नयन जलधार बही (मा. १.२११.१)—(१) अह याजीक दोन आँख से आँसू बहने
लगे। (२) जुगल माने अह याजी और गौतमजी दोन क आँख से आँसू बहने लगे। गौतमजी
इसिलए रोने लगे िक मने ाप देनेम कोई संकोच नह िकया और भगव ! आपने अनु ह
करनेम कोई संकोच नह िकया। यही तो सामा य पित और रघुपितम अ◌र होता ह। (३)
अह याजीक भी आँख से आँसू बह गये और रामजी भी रोने लगे—“माँ! भूल हो गयी मुझसे।
भूलसे आपक िसरपर मेर चरण चल गये। माँ! मा क िजयेगा।” (४) अह याजी भगवा क

१८६
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११

चरण म िलपट गय और रामजी तथा ल मणजीक आँख से आँसू बहने लगे।


धीरज मन की ा भु कह ची ा रघुपित कृपा भगित पाई।
(मा. १.२११.२)
आहाहा! िमल गयी भि ।
रघुपितभगित सजीवन मूरी। अनूपान ा मित पूरी॥
(मा. ७.१२२.७)
सुजन सजीविन मूिर सुहाई (मा. १.३१.७)। यह कथा ब त ऐितहािसक ह िम ो! अतः
चिलये! रघुपित कृपा भगित पाई (मा. १.२११.२)। मन िनमल हो गया, वाणी िनमल हो
गयी। अह याजी बोल —...... पािह पािह शरनिह आई (मा. १.२११.२)। ह भगव ! मेरी
भी र ा क िजये और मेर पितक भी र ा क िजये। ल मणजीने कहा—“आपक इतने र पित!
माना िक द ड िदया जाता ह, पर ऐसा द ड कोई नह देता। इतने र पित ये! िफर भी इनक
र ाक िलए आप ाथना कर रही ह?” अह याने कहा—“हाँ सरकार, यिद मेर पित मुझे ाप
न िदए होते तो आप मुझे कसे िमलते? बताइये? यिद नारायणक कहनेसे श रजीने िवष पीया
तो उ◌ बालच◌ िमल गये और मने अपने पितक ापका िवष िपया तो मुझे रामच◌ पूणच◌
िमल गये—”
मुिन ाप जॊ दी ा अित भल की ा परम अनु ह मैं माना।
देखॆउ भिर लोचन हिर भवमोचन इहइ लाभ शंकर जाना॥
िबनती भु मोरी मैं मितभोरी नाथ न माँगउ बर आना।
पद पदुम परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥
(मा. १.२११.३)
ध य कर िदया! ब त सु◌र करण ह! सुजन सजीविन मूिर सुहाई (मा. १.३१.७)
भगव ! आपक चरणकमलका जो पराग ह, उसम जो ेम प मकरद ह, मेरा मन उसका पान
कर।” भगवा ने कहा—“चिलये ग ा नहा लीिजये।” कहा—“नह ! आप ग ा नहाने जाइये,
म ‍ जाऊ? अर! िजन चरण से ग ाजी कट ह, वे आपक चरण जब मेर िसरपर पड़
गये तो म ग ाजी नहाने ‍ जाऊ भैया?”
जेिह पद सुरसिरता परम पुनीता गट भ िशव शीश धरी।
सोई पद पंकज जॆिह पूजत अज मम िसर धरॆउ कृपाल हिर॥
ऄिह भाँित िसधारी गौतमनारी बार बार हिरचरन परी।
जो अित मन भावा सो वर पावा गइ पितलोक अनंद भरी॥
(मा. १.२११.४)
आहा! इस कार ऄिह भाँित िसधारी (मा. १.२११.४)—देिखये! यहाँ बताऊ आपको।
यहाँ हम लोग मम ह। ऄिह भाँित िसधारीका अथ यिद िकया जाए—इस कार चली गयी तो
िफर आगे जो गइ पितलोक .. (मा. १.२११.४) कह रह ह। तो एक ही बातको दो ि या से
‍ कहगे गो वामीजी? इसिलए ऄिह भाँित िसधारी अथा इस कारसे गौतमजीक प ी
िस हो गय । िसधारी माने िस हो गय । भगवा ने सार पाप न कर िदए अह याजीक।
१८७
कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

भगवा को बार-बार णाम करक जो अित मन भावा सो वर पावा (मा. १.२११.४) जो


उनको ब त अ◌ा लगा ऐसा वरदान ा िकया अथवा वर पावा—वर माने पित। भगवा से
अह याजीने कहा—म हो गयी १६ वषक और इनक अव था लग रही ह ९० वषक ; लोग
मेरी हसी उड़ायगे, थोड़ा कम क िजये। भगवा ने कहा—ठीक ह ८० वषका? अह याजीने
कहा—नह ! थोड़ा कम। ७० वष? अह याजीने कहा—थोड़ा और कम। ६० वष? जब साठा
तब पाठा! अह याजीने कहा—थोड़ा और कम। ५० वष? अह याजीने कहा—नह ! अभी
दाँत िहल रह ह। ४०? अह याजीने कहा—नह ! और कम। ३०? अह याजीने कहा—और
कम। २०? अह याजीने कहा—अब ठीक ह। म १६ क , ये २० क। अब चकाचक जोड़ी ह।
हा! हा!! हा!!!
जो अित मन भावा सो वर पावा गइ पितलोक अनंद भरी॥
सुजन सजीविन मूिर सुहाई (मा. १.३१.७)। देिखये! रामायणजी और महाभारतजीक
कथाम ब त अ◌र ह। एक ही बात कहकर ज दी चलता । रामायणम भी और महाभारतम
भी इ◌ने दो मिहला से ेम िकया। एक मिहलासे रामायणम इ◌ने ेम िकया, स पक िकया
और एक मिहलासे महाभारतम भी संपक िकया। आपको यान आ ही गया होगा उस मिहला
का। पर महाभारतक मिहलाको द ड नह िमला और रामायणक मिहलाको द ड िमला। और
अ◌र आ गया। रामायणक मिहलाको भगवा ने अपनी माँ माना और महाभारतक मिहलाको
भगवा ने अपनी बुआ माना। अब आप समझ गये ह गे िक वे कौन सी मिहला ह? क◌ी।
क◌ीसे भी इ◌का स पक आ था। रामायणक मिहलाम तो ब क गभाधान नह आ पर
वहाँ (अथा महाभारतम) अजुन जैसा परम भागवत कट होता ह। इसका उ र यह ह—
(१) पहली बात। रामायणकाल एक ब त च र धान काल ह, वहाँ िकसी कारक माका
कोई अवसर नह ह। पर◌ु महाभारतकालम सब चल जाता ह। जब एक ही प ी पाँच पितय क
प ी बन सकती ह, ौपदी, तो वहाँ तो चलता ह। पर यहाँ नह चलता।
(२) और दूसरी बात। रामायणकालम अह याका जो संपक ह, वह वासना मक ह। और
महाभारतकालम क◌ीजीका जो संपक ह, वह उपासना मक ह। इ◌क संपकसे, आशीवादसे,
उनको अजुन जैसा पु चािहए और वहाँ पित पा डका अनुमोदन ह, इसिलए सब ठीक ह।

कथा १२: सोइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८)


अब बारहव कथा—सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८)। गो वामीजी कहते ह
िक यह कथा तो इस वसुधातलपर, इस भूम डलपर, सुधा तरिगनी ह; अमृतक नदीक समान
ह। वाह! ‍ा बात ह! अमृतक तरिगनी माने नदी—सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा.
१.३१.८)। यह कथा १५१ दोह म ह, बालका डक २१२व दोहक पहली चौपाईसे ार भ होती ह
और ३६१व दोहक सोरठतक जाती ह। चले राम लिछमन मुिन संगा (मा. १.२१२.१)—यहाँसे
ार भ ई। और—

१८८
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२

िसय रघुबीर िबबाह जे स ेम गाविह सुनिह।


ितन कह सदा उछाह मंगलायतन रामजश॥
(मा. १.३६१)
यहाँतक जाती ह। ब त अ त कथा ह यह। यह अमृतक नदी ह। आहा! और यह बात
बालका डक अ ◌म करणम ३३५व दोहक ५व पि म िमिथलाक सखी भी बोलती ह—
मरनशील िजिम पाव िपयूषा। सुरत लहै जनम कर भूखा॥
(मा. १.३३५.५)
यह ह थ! इसिलए म कहता िक रामायण लकर बैठो! और कोई बात थोड़ ही ह।
मुझे तो आता ही ह थ, पर मुझे तु हार मनम यह संग बैठाना ह। भगवा का दशन उसी
कारका ह, जैसे मरणशीलको अमृत िमल जाए, मरने वालको अमृत िमल जाए—
मरनशील िजिम पाव िपयूषा। सुरत लहै जनम कर भूखा॥
पाव नारकी हिरपद जैसे। इन कर दरशन हम कह तैसे॥
(मा. १.३३५.५–६)
देिखये! क ठ थीकरण वही ह न, जो समयपर उठ जाए। समयपर नह उठा तो िफर ‍ा
क ठ थ करना, बताओ?
पु क था तु या िव ा परह गतं धन ।
कायकाले समु े न सा िव ा न त न ॥
तो मरनशील िजिम पाव िपयूषा (मा. १.३३५.५)। सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा.
१.३१.८)। अमृत सबको िमल रहा ह। देिखये! बताऊ। अमृतका अथ उस अमृतसे नह ह
जो सागरसे िनकला ह, यहाँ अमृतका अथ ह भगव◌ेमामृत और मो —सोऽमृत वाय क पते
(भ.गी. २.१५)। सभी लोग मर रह ह। रामजीने आज सबको अमृत िदया। अ◌ा बताओ!
नव ह म रिवसे लकर कतु पय◌ कोई ऐसा ह ह जो अमृतक वषा करता ह? च◌। और
आज भगवा राम च◌ बनकर िमिथलाम आ रह ह—
राम प राकेश िनहारी। बढ़त बीिच पुलकावली भारी॥
(मा. १.२६२.३)
आज भगवा आन◌ कर रह ह। सूयक भी भूिमकाम आयगे धनुष तोड़नेक िलए, परतु
वैसे च◌माक भूिमकाम ही भगवा राम रहगे। िव ािम से यह भूिमका ार भ कर दी ह।
िव ािम ने देखा—
भये मगन देखत मुखशोभा। जनु चकोर पूरन शिश लोभा॥
(मा. १.२०७.६)
आहाहा! आज िव ािम जी भी चकोर बने, उनको अमृत चािहए। सॊइ बसुधातल सुधा
तरिगिन (मा. १.३१.८)।
अब देिखये! िमिथलाम भगवा राम पधार रह ह, आहाहा! सब लोग आ गये देखनेक
िलए। अब दूसरा अमृत िकसको िपलाया जाए? िव ािम जीको तो िपला िदया। अब िकसको
पीना ह? अब जनकजीको बुढ़ौतीम अमृत िमल जाए तो चकाचक हो जायेगा। जनकजी! िपयो
१८९
कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

अमृत! िव ािम जीने कहा िक म लाया अमृत! िपयो! कौन पी रहा ह? जनकजीका तन?
नह नह मन—
सहज िबराग प मन मोरा। थिकत होत िजिम चं चकोरा॥
(मा. १.२१६.३)
जनकजीको अमृत िमल गया। उनक मनने अमृत पी िलया—
पुिन पुिन भुिह िचतव नरना । पुलक गात उर अिधक उछा ॥
(मा. १.२१७.५)
सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८)। अहो! जनकजी नहा रह ह, पी रह ह—
ेम मगन मन जािन नृप किर िबबेक धिर धीर।
बोलॆउ मुिनपद नाइ िशर गदगद िगरा गभीर॥
(मा. १.२१५)
आहाहा! पूरी सभा नहा रही ह। यहाँ कमला, िवमला ये निदयाँ ह; पर अमृतक धारा यहाँ
नह बहती। अमृतक धारा तो अवधम बहती ह, जब रामजी ज म लते ह। चौपाई उठाओ—
बन कुसुिमत िगिर गन मिनयारा। विह सकल सिरताऽमृतधारा॥
(मा. १.१९१.४)
बेटा! पढ़ लो चकाचक ह अभी मेरा समय ह बिढ़या! जबतक अ◌मुख नह होता, तबतक
पढ़ लो। अभी तुम लोग पढ़ सकते हो। बूढ़ को ‍ा बताऊ, इनक थोड़ी-सी चाल ढल गयी
ह। इनको तो सुना रहा और िव ािथय को पढ़ा रहा ।
अमृतक धारा बही, जब ज म ही आ ह। और सुिनये! अ◌ा बताओ, साधारणतः नदी
कहाँ समाती ह? सीधी-सी बात ह, सारी निदयाँ सागरम समाती ह। रामच◌जी िमिथलाम पधार
तो सभी राजा ने देखा। तो जो अ◌े राजा थे, उ◌ ने कहा—“यार! तुम लोग मूख हो। ये
रामच◌जी कौन ह जानते हो?” “कौन ह?” उ◌ ने कहा—“ये सुधाक सागर ह, सुधाक
समु ह—”
सुधासमु समीप िबहाई। मृगजल िनरिख मर कत धाई॥
(मा. १.२४६.५)
ये रामच◌जी सुधाक सागर ह। जब सुधाक समु ही िमिथलाम आ रह ह, तो सुधाक
तरिगनी नह बनेगी तो िकसक बनेगी? सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८)। यह
कथा सुधाक तरिगनी ह।
अ◌ा आज सुना रहा िम ो! समु क एक िवड बना ह िक समु बेचारा सबको तो
पानी िपलाता ह, पर वयं नह पी पाता। कहाँ पीता ह? अ◌ा! परतु यह सुधा तरिगिन इतनी
अ◌ी ह िक गो वामीजीने कहा िक इसम तो सुधाक समु रामजीको भी अमृत पीना पड़गा।
इनको भी हम अमृत िपलायगे तभी हम संतोष होगा। चिलये, देखते ह! िमिथलाम भगवा आ
रह ह—
मुिन पद कमल बंिद दॊउ ाता। चले लोकलोचन सुखदाता॥
(मा. १.२१९.१)
१९०
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२

आन◌ हो रहा ह।
रामजी प नवा अइले िमिथला नगिरया हे॥
सुिन धाय नर नारी धाम काम सब िबसारी।
दरस लागी भीर भारी जनकपुर डगिरया हे॥
रामजी प नवा अइले िमिथला नगिरया हे॥
चल सखी देिख ले लोचनको लाभ ये ।
प सुधा भरी ले नयनकी गगिरया हे॥
रामजी प नवा अइले िमिथला नगिरया हे॥
िगिरधर भु िनहारी सबस बारी बारी।
िबकी िबनु मोल सब जनकपुर गुजिरया हे
रामजी प नवा अइले िमिथला नगिरया हे॥

जुबती भवन झरोखिन लागी। िनरखिह राम प अनुरागी॥


(मा. १.२२०.४)
युवितयाँ भवनक िखड़िकय म लग-लगकर रामजीको िनहार रही ह। किवतावली रामायणम
गो वामीजी कहते ह—
तुलसी मुिदत मन जनकनगर जन
झाँकतीं झरोखें लागीं सोभा रानीं पावतीं।
मन चकोरीं चा बैठीं िनज िनज नीड
चंदकी िकिरन पीवैं पलकौ न लावतीं॥
(क. १.१३)
आज ये सारी चको रयाँ पी रही ह अमृत ‍ िक—सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा.
१.३१.८)।
रामजीने कहा—“म सबको अमृत तो िपलाता । म अमृत व प भी । परतु मुझको
भी तो अमृत पीनेका मन करता ह।” कहा—“िब कल ठीक। चिलये िमिथलाक फलवारीम
आपको अमृत िपलायगे चकाचक।” अब गु देवक पूजाक िलए फल उतारने ह। अर भैया!
साठ हजार तो चेल ह उनक मु टड सब लोग; िकसीको भेज देते! पर काहको भेजगे बबुआ?
वयं अमृत पीना ह न! तो गु देवसे ‍ा बात बना ली! गु देवने कहा—“मेर बड़ चेल ह,
चल जायगे।” अर कहा—“नह , भगव ! ने तो आपके सु र प िवलोकत जीवनको
फल लैहे—आँख आपको देखकर फल ल लग । आनन पाई साद मोिदत कान कलान
सुनई हरसैहे—मुख आपका साद पा जायगे और कान आपक बात सुनकर स ह गे। माथ
सनाथ तबै मुिननाथ जो आपके पायन पे परी जइहे—और म◌क तब सनाथ ह गे, जब
आपक चरण म पड़ जायगे। पर महाराज! आिन िबना दल फूलनके मुिननाथके हाथ कहाँ
सुख पइहे— भु जबतक फल नह लायगे, तबतक इन हाथ को कहाँ सुख िमलगा?”
“अ◌ा! यह बात ह। ठीक ह। तब जाइये।” भु फल लने आ रह ह—
१९१
कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

च िदिश िचतइ पूँिछ मालीगन। लगे लेन दल फूल मुिदत मन॥


(मा. १.२२८.१)
आन◌ कर िदया! चार ओर िनहार रह ह िक सीताजी कहाँ-से आयग । मालीगन मा
आलीगण, माक आिलय अथा सीताजीक सिखय से पूछा—“आपक वािमनीजी िकतनी
देरम पधारग ?” आय हाय! उ◌ ने कहा—“बस-बस अब पधारने वाली ह भगव ।” स
होकर दल फूल (मा. १.२२८.१) लने लगे। आ गय सीताजी—तॆिह अवसर सीता तह आई
(मा. १.२२८.२)। पूजा क , पावतीजीक म ◌रम वरदान माँगा। इधर एक सखी िसयसंग
िबहाई (मा. १.२२८.७), एक सखी सीताजीका साथ छोड़कर फलवारी देखने गयी थी—
एक सखी िसयसंग िबहाई। गयी रही देखन फुलवाई॥
(मा. १.२२८.७)
आन◌ कर िदया! एक सखी माने ‍ा? वह सखी और कोई नह थी, पावतीजी ही थ ।
भगवा रामका नाम ह एक। यहाँ एक श द सं यावाची नह ह। देिखये, एक श द ल
स मीक ह। अकारो वासुदेवः—भगवा िव णुको अ कहते ह। अ का प रामक तरह चलता
ह और जब रामक स मी बनाओगे, तो बन जायेगा—रामे । इसी कार अ क स मी बनाओगे,
तो बन जायेगा ए । सं ाम स मीका लोप नह होता जैसे—वनेचर । इस कार—ए िव णौ क
सुखं य मा स एकः। एक माने िव णुको भी िजससे सुख िमलता ह, उसे एक कहते ह।
यहाँ क ठकालः क भाँित समास आ ह। अमूधम का वा ादकामे (पा.सू. ६.३.९) तो
हलद ा स याः सं ाया (पा.सू. ६.३.९)। तो यहाँ ए म अ का आरोप कर लना चािहए,
तो वा बन जायेगा। यपदेिशव ावसे अ ी अ म दोन एक हो जायगे। ए िव णोः अ ◌
क सुखं य मा । एक माने भगवा राम और एकक सखा कौन? श रजी—सेवक वािम
सखा िसय पीके (मा. १.१५.४)। और स युः ी । सखाक प ीको ‍ा बोलते ह? सखी ।
पपुंयोगादा याया (पा.सू. ४.१.४७) ह यहाँ। सीताजीको समाचार िदया सखीने—
देखन बाग कुअँर दोउ आये। बय िकशोर सब भाँित सुहाये॥
(मा. १.२२९.१)
चिलये सीताजी! उनक दशन िकये जाएँ—अविस देिखयिह देखन जोगू (मा.
१.२२९.६)। पर रामजीने बाजी मार ली। अमृत तो दोन को पीना ह, सीताजीको भी अमृत
पीना ह और रामजीको भी अमृत पीना ह। यास दोन को लगी ह, पर बाजी रामजी मार रह ह—
कंकन िकंिकिन नूपुर धुिन सुिन। कहत लखन सन राम दय गुिन॥
(मा. १.२३०.१)
भगवा देख रह ह—
अस किह िफिर िचतये तॆिह ओरा। िसयमुख शिश भयॆ नयन चकोरा॥
(मा. १.२३०.३)
ऐसी तरिगनी ह िक सुधाका समु भी सुधा पी रहा ह—िसयमुख शिश भयॆ नयन चकोरा।
सब चकोर ही चकोर हो रह ह—

१९२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२

भये िबलोचन चा अचंचल। मन सकुिच िनिम तजे गंचल॥


देिख सीयशोभा सुख पावा। दय सराहत बचन न आवा॥
(मा. १.२३०.४–५)
अ त आन◌ हो गया! भगवा कहते ह िक मुझे लोभ ह—
जासु िबलोिक अलौिकक शोभा। सहज पुनीत मोर मन लोभा॥
(मा. १.२३१.३)
यहाँ लोभा ह, छोभा (मा.गी. े.) नह ।
करत बतकही अनुज सन मन िसय प लॊभान।
मुख सरोज मकरद छिब करइ मधुप इव पान॥
(मा. १.२३१)
आन◌ कर िदया! अब इतनी सु◌र तरिगनी िक सीताजी भी अब सुधापान कर रही ह—
अिधक सनेह देह भइ भोरी। शरदशिशिह जनु िचतव चकोरी॥
(मा. १.२३२.६)
शरदक च◌माको मानो चकोरी देख रही ह। चकोरी अमृत पीती ह, पी िलया, आन◌
हो गया। सिखय ने िपया—देिख भानुकुलभूषनिह िबसरा सिखन अपान (मा. १.२३३)।
आन◌ हो रहा ह।
िफर सीताजी पावतीजीक भवनम आय और उनसे कहा िक देिखये! आप तो मुझे रामजीको
दे ही दीिजये—
की ॆउ गट न कारन तेही। अस किह चरन गहे बैदेही॥
(मा. १.२३६.४)
इतना कहते ही चरण पकड़ िलए वैदेहीजीने, और बोल —बैदेही अथा वै—िन येन,
देिह—मुझे रामजीको दे दीिजये, दे दीिजये। िबनय ेमबश भ भवानी (मा. १.२३६.५)—
पावतीजी िवनय और ेमक वशम हो गय । खसी माल (मा. १.२३६.५)—पावतीजीने माला
उठायी, सीताजीको माला पहनाना चाहती थ , पर सीताजीक दयम रामजीको देखा—“अर! ये
तो गड़बड़ा जायेगा। एक बार सीताजीका वेष बना िलया था तो िशवजीने मुझे छोड़ िदया था।
अब यह माला सीताजीको पहनाऊगी तो यिद सीताजीक माला ीरामजीक गलम चली जायेगी,
तो श रजी मुझे सवदाक िलए छोड़ ही दगे।” इसिलए सीताजीक गलम माला न पहनाकर खसी
माल (मा. १.२३६.५) पावतीजीने अपने हाथ से माला नीचे िगरा दी और मूरित मुसुकानी
(मा. १.२३६.५)। पावतीजीक यह चतुरता देखकर जो रामजीक मूित सीताजीक दयम ह,
चली रािख उर यामल मूरित (मा. १.२३५.१), वह मु काई—“वाह पावती! अब तुम चतुर
हो गयी हो।” तब पावतीजीने आशीवाद िदया—
मन जािह राँचॆउ िमिलिह सो वर सहज सु र साँवरो।
क नािनधान सुजान शील सनेह जानत रावरो॥

१९३
कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

यॆिह भाँित गौिर अशीष सुिन िसय सिहत िहय हरषीं अलीं।
तुलसी भवािनिह पूिज पुिन पुिन मुिदत मन मंिदर चलीं॥
(मा. १.२३६.९)
सीताजी भी म ◌रसे चल और रामच◌जी भी गु समीप गवने दॊउ भाई (मा.
१.२३७.१)। रामजीने सब कछ बता िदया—“गु देव! ऐसा-ऐसा हो गया।” सुमन पाइ मुिन
पूजा की ी (मा. १.२३७.३)—(१) सुमन अथा सु◌र पु प पाकर मुिनने पूजा क और (२)
सुमन अथा रामजीका सु◌र मन देखकर भी पूजा क । पुिन अशीष दु भाइन दी ी (मा.
१.२३७.३)—बेटा! तुम हमको सुमन िदये हो। म तुमको सु◌र फल दे रहा —
सुफल मनोरथ हो तु हारे। राम लखन सुिन भये सुखारे॥
(मा. १.२३७.४)
तु हार मनोरथ सफल हो जायगे।
आ रह ह सब लोग वयंवर म। देिखये! िमिथलावािसय ने तो भगवा का प देखा, सबने
अमृत पी िलया। पर राजा लोग? ये अमृत नह पी सक ‍ िक इनको तो हारना ही ह। धनुभ क
घोषणा क गयी। सब राजा शि का योग करने लगे। परतु—
डगइ न शंभुशरासन कैसे। कामीबचन सतीमन जैसे॥
(मा. १.२५१.२)
आहाहा! जनकजीने तो कह िदया िक तुम लोग से धनुष नह टटगा, तुम अपनी-अपनी
आशा छोड़कर चल जाओ—तज आस िनज िनज गृह जा (मा. १.२५२.४)। यिद म
जानता िक पृ वी वीर से िवहीन ह तो ित ा करक हसीका पा न बनता। ‍ा क , यिद
ित ा करक छोड़ दूँगा तो सुकत अथा पु य चला जायेगा—सुकृत जाइ जौ पन पिरहरऊँ
(मा. १.२५२.५) और जब सुकत चला जायेगा तो हमारी सीताजी ही िछप जायग ‍ िक—
जनक सुकृत मूरित बैदेही (मा. १.३१०.१)। इसिलए सभाक िवसजनक घोषणा नह कर
सकते। सभाक िवसजनक घोषणाका अिधकार अ य को होता ह और अ य िव ािम जी
ह। उनक घोषणाक िबना जनकजी िवसजनक घोषणा कसे करगे, यह अवैध ह। ल मणजीक
ोधपर पृ वी डगमगा गयी। ल मणजीने कहा—“यिद आपक आ ा हो तो इस ा डको
गदक भाँित उठा ल। पटक दूँगा इसको क े घड़क समान दूसर ा डम। आपक रोम-रोमम
करोड़ -करोड़ ा ड ह। एक ा डक िलये आपसे आ ा ल लगा। पटक दूँगा इसको।
म सुमे पवतको मूलीक भाँित तोड़ सकता । पर जनकजी ित ाम संशोधन कर िक यिद
म धनुष तो ँगा तो भी सीताजीका िववाह भगवा रामसे ही होगा, ‍ िक थम ◌ि म मने
सीताजीको माँ मान िलया ह।” सीताजी ब त स , कहा—“ल मण! यिद तुमने थम
◌ि म मुझे माँ मान िलया ह, तो मने भी थम ◌ि म तु ह बेटा मान िलया ह और म वचन देती
िक मेर यहाँ लव-कश आयगे तो भी लव-कशक अपे ा सह गुनी वा स य- ेम तु ह पर
मेरा होगा।” ल मणजीको रामजीने बैठाया। ल मणजीने कहा—“जनकजीने आपका अपमान
िकया ह।” रामजीने कहा—“कहाँ अपमान िकया ह?” “उ◌ ने बीर िबहीन मही मैं जानी
(मा. १.२५२.३) कहा।” रामजीने कहा—“पागल! अर बीर िबहीन कहा, रघुबीर िबहीन
१९४
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२

तो नह कहा।” तब ल मणजी स । सब लोग आकल- याकल हो रह ह। रामजीने—


गु िह नाम मनिह मन की ा। अित लाघव उठाइ धनु ली ा॥
(मा. १.२६१.५)
अ यंत शी तासे धनुषको उठाया—
तॆिह छन राम म य धनु तोरा। भरे भुवन धुिन घोर कठोरा॥
(मा. १.२६१.८)
उसी ण म य धनुषको तोड़ा। ब त घनघोर वर आ—
भरॆ भुवन घोर कठोर रव रिब बािज तिज मारग चले।
िच रिह िद गज डोल मिह अिह कोल कूरम कलमले॥
सुर असुर मुिन कर कान दी े सकल िबकल िबचारहीं।
कोदंड खंडॆउ राम तुलसी जयित बचन उचारहीं॥
(मा. १.२६१.९)
बोिलये राजा रामच◌ भगवा क जय हो! और—
शंकर चाप जहाज सागर रघुबर बा बल।
बूड़ सॊ सकल समाज चढ़ा जॊ थमिह मोहबश॥
(मा. १.२६१)
इस नदीम सब अमृत पी रह ह, नहा भी रह ह। नदीका गुण होता ह िक आप वहाँ नहा भी
सकते ह और नदीका जल भी पी सकते ह। समु म नहा सकते ह, पर जल नह पी सकते। तो
सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८)।
अब देिखये! िमिथलाक लोग क साथ-साथ अब ल मणजीको भी अमृत पीनेका मन हो
गया। अब आज ल मणजी भी पी रह ह—
रामिह लखन िबलोकत कैसे। शिशिह चकोरिकशोरक जैसे॥
(मा. १.२६३.७)
आन◌ कर िदया, ब त आन◌ आया! अब ल मणजी अमृत पी रह ह। सीताजी ीरामजीक
गलम जयमाला पधरा रही ह—
सोहत जनु जुग जलज सनाला। शिशिह सभीत देत जयमाला॥
गाविह छिब अवलोिक सहेली। िसय जयमाल राम उर मेली॥
(मा. १.२६४.७–८)
आन◌ हो गया! जय जयकार हो गयी।
रघुबर उर जयमाल देिख देव बरषिह सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु िबलोिक रिब कुमुदगन॥
(मा. १.२६४)
अब यानसे सुिनये! परशुराम जैसा यि , िजनक गु देव श रजी ह और श रजीका
भोजन ‍ा ह? िवष। जब गु बाबा िवषका भोजन करते ह तो चेलको कहाँसे अमृत िमलगा?
अतः ये भी िवष ही उगलते ह। पर इनको भी अमृत पीना ह। आये, रामजीपर पहली ◌ि पड़ी।

१९५
कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

जय! जय!!—
रामिह िचतइ रहे थिक लोचन। प अपार मार मद मोचन॥
(मा. १.२६९.८)
आहाहा! आन◌ कर िदया— प अपार मार मद मोचन।
बड़ी िविच चचा ई। जैसे महाभारतम गीताजीक १८ अ याय ह, उसी कार रामायणजीम
परशुराम-ल मण संवादक १८ दोह। संपूण ीम गव ीताका सारांश यहाँ ◌ुत हो रहा ह।
िफर कभी चचा क गा। ध य-ध य कर िदया बातचीत करते-करते! अ◌म—
राम रमापित कर धनु ले । खैंच िमटै मोर संदे ॥
(मा. १.२८४.७)
ल लीिजये धनुष; और—
देत चाप आपुिह चिढ़ गयऊ। परशुराम मन िबसमय भयऊ॥
(मा. १.२८४.८)
अहो! अहो!! ेमामृत िमल गया—
जाना राम भाव तब पुलक फुि त गात।
जोिर पािन बोले बचन दय न ेम समात॥
(मा. १.२८४)
आन◌ कर िदया। जय जयकार। नौ बार जय-जयकार िकया।
जय रघुबंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥
(मा. १.२८५.१)
देिखये! सबसे अिधक अमृत परशुरामजीने िपया। इस अमृतने परशुरामजीको िचरजीवी कर
िदया। हमार यहाँ सात िचरजीिवय म परशुरामजीका भी नाम ह—
अ थामा बिल यासो हनुमां िवभीषणः।
कृपः परशुराम स ैते िचरजीिवनः॥
अब िववाहका ार भ आ। ल -पि का और ितलक लकर िमिथलाक दूत अयो या आये।
अयो याम ितलक भगवा का चढ़ाया और कहा माता ने—
ितलकवाले सभी बड़े चोर िनकले, रामच मुखच के चकोर िनकले॥
िनमल सनेहसे कृपालको लभाया, पर परमा मा पा न बनाया।
शु भाव भि रसमें िवभोर िनकले, रामच मुखच के चकोर िनकले॥
ितलकवाले सभी बड़े चोर िनकले, रामच मुखच के चकोर िनकले॥
आन◌ कर िदया। दूत पि का लाये और अपनी भाषाम बोल। कहा िक राज —
हम तो पाित लेके आईल बानी पार से जनक-दरबारसे हो॥
राजा जनककी सु र धीया उनकर नाम बाटे सीया।
उनकर िववाह होइहै कौश या कुमार से जनक-दरबारसे हो॥
हम तो पाित लेके आईल बानी पार से जनक-दरबारसे हो॥

१९६
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२

सीय वयंवर जनक रचाये देस देसके भूपित आये।


धनुिह तोिर न पाये बैभव बलके िवचार से जनक-दरबारसे हो॥
हम तो पाित लेके आईल बानी पार से जनक-दरबारसे हो॥
तहवाँ राम धनुिहयाँ तोरे राजन केर घम डको तोरे।
चौदह भुवन भरल राघव जय-जयकार से जनक-दरबारसे हो॥
हम तो पाित लेके आईल बानी पार से जनक-दरबारसे हो॥
राजन िमिथला चिलिह बरितयाँ रामके देख जुड़ाई छितया।
िगिरधर गीत गइहै मंजुल मंगल चार से जनक-दरबारसे हो॥
हम तो पाित लेके आईल बानी पार से जनक-दरबारसे हो॥
ीसीताराम भगवा क जय हो!
बारात चली, जनकपुर आयी। जनकजीने सु◌र जनवासा िदया और िववाहक ितिथ
िनि तक गयी—
मंगलमूल लगनिदन आवा। िहमऋतु अगहन मास सुहावा॥
(मा. १.३१२.५)
आन◌ हो गया। रामजीक िववाहम जनकजीक ारपर पाँच देवता आ रह ह—(१) िशवजी,
(२) िव णुजी, (३) ाजी, (४) काि कयजी और (५) इ◌जी। िशवजीने कहा—“आज मुझे
भी अमृत पीना ह, िवष पीकर अब ऊब गया ।” तो यह—सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन
(मा. १.३१.८)।
राम प नख िशख सुभग बारिह बार िनहािर।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरािर॥
(मा. १.३१५)
जनकजीक ारपर अवधक बारात आ गयी। रामजी सु◌र घोड़पर तीन भाइय क साथ ह।
सासुएँ प रछन कर रही ह, िनहार रही ह भगवा को। अब गो वामीजीने कहा—सुधा तरिगिन
(मा. १.३१.८) इतनी बल हो गयी ह िक अब एक साथ सबको िपला देते ह अमृत। कौन
बार-बार झंझट कर! एक साथ सबको! आहाहा!!! ३२१व दोहम—
रामचं मुख चं छिब लोचन चा चकोर।
करत पान सादर सकल ेम मोद न थोर॥
(मा. १.३२१)
अब सभी घराती-बराती छकाछक पी रह ह चकाचक। ‍ िक—सॊइ बसुधातल सुधा
तरिगिन (मा. १.३१.८)। िववाह स प हो रहा ह। एक म डपम सीतारामजी िवराज गये।
यॆिह िबिध सीय मंडपिह आई। मुिदत शांित पढ़िह मुिनराई॥
(मा. १.३२३.७)
शा ◌ पाठ हो रहा ह—
ॐ ौः शाि र िर ं शाि ः पृिथवी शाि रापः शाि रोषधयः शाि वन पतयः
शाि िव ेदेवाः शाि शाि ः सव शाि ः शाि रेव शाि ः सा मा शाि रेिध॥
१९७
कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

ॐ शाि ः शाि ः शाि ः॥


गौरी-गणपितक पूजा और हवन हो रहा ह। जनकजीक वाम िदशाम सुनयनाजी िवराज रही
ह—जनक बाम िदिश सोह सुनयना (मा. १.३२४.४)—जनकजीक वाम िदशाम सुनयना
सोह रही ह, िहमिगिर संग बनी जनु मयना (मा. १.३२४.४)। यहाँ यह ह िक िववाह
आिद अ◌े शुभ काय म प ी कभी पितक बाय भागम नह बैठती। िनयम ह यानसे सुिनयेगा।
प ी पितक दाय भागम ही बैठती ह इन काय म—सवषु धमकायषु प ी ित ित दि णे
और यहाँ कहते ह—जनक बाम िदिश सोह सुनयना (मा. १.३२४.४)। अब यह थ कसे
लगाया जाए? यही तो आन◌ ह! तो हमने कहा िक बात ऐसी ह—ईशान कोण आप जानते ह
िकसको कहते ह सं कतम? हमार यहाँ दस िदशाएँ ह। उसमसे भगवा राम आज पूवक ओर
मुख करक बैठ ह, जनकजी पि मक ओर मुख करक बैठ ह। पि मसे दाय ओर पड़ता ह
ईशान कोण। तो जनक बाम िदिश—वाम माने श रजी, उनक िदशा ईशान कोण ह, उसम
सुनयनाजी बैठी ई ह। यह ह यहाँका ता◌य। क यादान हो रहा ह—
इयं सीता मम सुता सहधमचरी तव॥
ती चैनां भ ं ते पािणं गृ ी व पािणना।
(वा.रा. १.७३.२६–२७)
सुखमूल दूलह देिख दंपित पुलक तनु ल यो िहयो।
किर लोक बेद िबधान क यादान नृपभूषन िकयो॥
(मा. १.३२४.११)
क यादान आ। थब धन आ और भाँवरी होने लगी। अ त भाँवरी हो रही ह—
राघव िसय संग देत भँविरया हे।
भँविरया भँविरया भँविरया हे, राघव िसय संग ...॥
मँडवाके बीच राजे दुलहा दुलिहनी।
जनु नभ रोिहणी अँजोिरया हे, राघव िसय संग ...॥
कनक कलश कर करत पिर मा।
सोहे जैसे जलद िबजुिरया हे, राघव िसय संग ...॥
आगे आगे दु ही दु हा पाछे पाछे सोहे।
नील त कनक बलिरया हे, राघव िसय संग ...॥
जोरी लसै गाँिठ जोिर सीताकी चुनिरया।
रामजूकी िपयरी िपछौिरया हे, राघव िसय संग ...॥
लोचनके लाभ लटे िसगरे बरितया।
अिलगन लिख तृन तोिरया हे, राघव िसय संग ...॥
इतिह विस मुिन उतिह शतान ।
वेदम पढ़ै दोउ ओिरया हे, राघव िसय संग ...॥
भाँविर िवधान किर कर लै िसंदुरवा।
िसया माँग भरत साँविरया हए, राघव िसय संग ...॥
१९८
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२

िगिरधर िनरिख हरिष यह जोिरया।


िगरा लिख भई बाबिरया हे, राघव िसय संग ...॥
िसंदूरदान हो रहा ह। अब सुिनये! सबने अमृत पी िलया ह, पर इतनी सु◌र अमृतक यह
नदी ह िक रामजीक भुजाको भी अमृत पीनेका मन हो गया। अब ‍ा िकया जाए? कहा चलो,
रामजीक भुजा बन गयी सप, सीताजीका मुखम डल ह च◌मा, िसंदूरसे भरा आ करतल ह
कमल। अब कमलसे च◌माको सुशोिभत िकया सपने, तो च◌माने अमृत दे िदया—
अ न पराग जलज भिर नीके। शिशिह भूष अिह लोभ अमी के॥
(मा. १.३२५.९)
सबको अमृत िमल गया। और सीताजीका िववाह रामजी से, मा डवीजीका िववाह भरतजीसे,
उिमलाजीका िववाह ल मणजीसे, और ुितक ितजीका िववाह श ु जीसे हो गया।
जिस रघुबीर याह िबिध बरनी। सकल कुअँर याहे तॆिह करनी॥
(मा. १.३२६.१)
रामजीका िजस कारसे िववाह आ, उसी कार िजतने अिववािहत लोग थे, सबका िववाह
िमिथलाम हो गया। चकाचक हो गया! आन◌ हो गया! और भोजन—
जेंवत देिह मधुर धुिन गारी। लै लै नाम पु ष अ नारी॥
(मा. १.३२९.६)
िद य आन◌ हो गया! इस संगपर नौगिछयाक परमहसजी एक बात कहते थे िक
ितिदन िमिथलाक मिहलाएँ गारी गाती थ , पर ल मणजी चुप रहते थे। एक िदन ल मणजीने
कहा—“राघवजी! मुझे धनुष-बाण उठानेका मन करता ह। ये हमारी माँ बहनको गारी देती
ह।” रामजीने कहा—“ससुराल ह। होने दे!” कहा—“नह ! एक बार आपको ऐसी लीला
करनी पड़गी िक इ◌ का हिथयार इ◌ को मार।” राघवजीने कहा—“ठीक ह।” अबक बार
भोजन ार भ आ। िमिथलावाली माताएँ बैठ गय अ ािलकापर गारी गानेक िलए। ल मणजीने
कहा—“लीला क िजये!” रामजीने मुखम डल ऊपर िकया और मु कराये। य मु कराये य
िमिथलािनयाँ िब कल पागल हो गय । अब ‍ा आ? तो एक छ◌ बोलते थे परमहसजी—
काली क हाल सुनो सजनी मड़ए ग ो अित कौतुक भारी।
जेंवत जानी बरात सबै अवधेश ल यो िमिथलेश अटारी।
रामको प िनहारतही सुधी भूल गयीं िजत गाविन हारी।
तो ‍ा िकया? अबतक दशरथजीका नाम लकर गा रही थ —ऊचे चौतर बैठ राजा दशरथ
कर अपने बिहनी क मोल । अब भूल गय —
भूल गयीं अवधेशको नाम वे
और
देन लगीं िमिथलेशको गारी॥
अब जनकजीको ही गारी देने लग —
ऊँचे चौतरे बैठे जनकराम करे अपनी बिहनी क मोल।
कमला क मांगे पाई दो पाई और िवमला क मोल अनमोल॥
१९९
कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

तूती बोलन दे।


अर! आन◌ हो गया और दशरथजी हसने लगे।
समय सुहाविन गािर िबराजा। हसत राउ सुिन सिहत समाजा॥
(मा. १.३२९.७)
अर! बुलाया जनकजीको—“अर समधीजी! ये गानेवािलय को िकरायेपर ल आये ह ‍ा
आप? अर! यह तो आपका हिथयार आप ही पर वार कर रहा ह।” उ◌ ने कहा—“अरी
मूखाओ! समधीजीको ग रयाना चािहए, हम ‍ ग रया रही हो?” तो उन लोग ने कहा—“‍ा
कर, जब रामजीको देखकर आप अपना वेदा◌ भूल गये तो हम भी अपना िस ा◌ भूल गये।”
बोिलये युगल सरकारक जय हो!
बारातक िवदा होनेका समय आ गया। सीताजी एका◌म रो रही ह। बहनो, ब त यानसे
सुिनये। सीताजी एका◌म रो रही ह। जनकजीने देखा, कहा—“बेटी! आप रो ‍ रही ह?”
पूछा—
िकधौं बेटी कहे तोहे कटक बचन कोउ, िकधौं दो तोरे दाइज थोर रे।
िकधौं बेटी तोर क साजन अवगुन काहे िगरावत लोर रे॥
आप रो ‍ रही हो बेटी बताओ? ‍ा तुमको िकसीने कठोर वचन कह िदया? ‍ा हमने
दहज कम दे िदया? ‍ा हमने तुमको अ◌ा वर नह िदया?” तब सीताजीने एक बात कही
िम ो िजससे सभीक आँख म आँसू आ जायगे—
नहीं कोउ बाबा रे कटक वचन कहे नहीं मोर दाइज थोर रे।
“पर म पूछ रही ।” “‍ा पूछ रही हो?”
बेटा औ बेटी दोनों एक कोिख ज मल काहे बेटा घर बेटी दूर रे।
“यह बताइये िक एक ही माँ-बापक कोखसे बेटा-बेटी ज म लते ह, पर बाप बेटको घर
‍ रख लता ह और बेटीको दूर ‍ कर देता ह?” इस का उ र जनकजी नह दे पाये।
और कहते ह—
सीयको गोदमें रािख िबदेहजू भावमें आपको खोवन लागे।
बारिह बार दुलारी कुमारीिह आँसुन ते मुँह धोवन लागे।
चूिमके वूिमके भावमें झूिमके ान िवराग िबगोवन लागे।
भूल गई सब ान कथा किह जानकी जानकी रोवन लागे।
जनकजी वयं जानक ! जानक !! कहकर रोने लगे—
सीय िबलोिक धीरता भागी। रहे कहावत परम िबरागी॥
(मा. १.३३८.५)
भूल गये! मि◌य ने समझाया। बेटीको तो भेजना ही पड़ता ह! ‍ा करगे? अथ िह क या
परकीय एव (अ.शा. ४.२२)। वा◌वम इतना ेम जनकजी सीताजीसे करते ह, अयो याक
लोग जानते ह िक वहाँ उ◌ ने एक नगर ही छोटा-सा बसा िदया था—जनकौरा । इतना ेम
करते ह सीताजीको। अयो याम बारात आ गयी।

२००
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२

बीच बीच बर बास किर मगलोगन सुख देत।


अवध समीप पुनीत िदन प ची आइ जनेत॥
(मा. १.३४३)
बारातक आगवानी करनेक िलए सार अयो यावासी तैयार ह। तीन माता ने आरती उतारी।
अर! अमृत वषा हो रही ह, सब लोग आन◌ ल रह ह। सु◌र िसंहासनपर वर-वधु को बैठाया
गया। पूजा क —
लोकरीित जननीं करिह वर दुलिहिन सकुचािह।
मोद िबनोद िबलोिक बड़ राम मनिह मुसुकािह॥
(मा. १.३५०ख)
िद य आन◌ हो रहा ह िम ो! अ◌ा संब ध ह! एक ओर दशरथ-कौश याजी ह, दूसरी
ओर जनक-सुनयनाजी ह। एक ओर रामजी, दूसरी ओर सीताजी। एक ओर राम, ल मण,
भरत, श ु और दूसरी ओर सीता, मा डवी, उिमला, ुितक ित। संब ध ब त अ◌ा ह। दोन
राज-प रवार! एक ओर भि का ावधान, दूसरी ओर ानका। अ◌ा संब ध! िववाहक सारी
रीितयाँ पूणक गय । िव ािम जी व विस जी क पूजा क ।
नेग माँिग मुिननायक ली ा। आिशरबाद ब त िबिध दी ा॥
उर धिर रामिह सीय समेता। हरिष की गु गमन िनकेता॥
(मा. १.३५३.२–३)
उ◌ ने नेगम माँग िलया िक बस सीतारामजीको हम िनर◌र िनहारते रह, इ◌ िनर◌र दुलारते
रह।
चार पु को माता ने शयन कराया। अ◌म कौश याजीने कहा—
सकल अमानुष करम तु हारे। केवल कौिशक कृपा सुधारे॥
(मा. १.३५७.६)
आपक सभी कम अमानुष ह, परतु कौिशकको तो कवल आपक कपाने सुधार िदया—
केवल कौिशक कृपा सुधारे (मा. १.३५७.६)। आन◌ हो गया! ब त िदनतक िव ािम जी
ीअवधम रह और िवदा ली तो चार बात का मरण कर रह ह—
राम प भूपित भगित याह उछाह अनंद।
जात सराहत मनिह मन मुिदत गािधकुलचंद॥
(मा. १.३६०)
(१) राम प—सीतारामजीक पक शंसा, (२) भूपित भगित—दोन राजा क
भि क शंसा, (३) याह उछाह—िववाहका उ साह, और (४) याह अनंद —िववाहका
आन◌।
इस कार गो वामीजी कहते ह िक हमने अपनी वाणीको पिव करनेक िलए यह यश
कहा—
िनज िगरा पाविन करन कारन रामजश तुलसी क ो।
रघुबीरचिरत अपार बािरिध पार किब कौनें ल ो।
२०१
कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प

उपबीत याह उछाह मंगल सुिन जॆ सादर गावहीं।


बैदेिह राम साद ते जन सबदा सुख पावहीं॥
(मा. १.३६१.९)
िसय रघुबीर िबवाह जे स ेम गाविह सुनिह।
ितन कह सदा उछाह मंगलायतन रामयश॥
(मा. १.३६१)
इस कार सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८)।
देिखये! यह रामच रतमानसक १२व कथा ह, इसिलए इस िववाहम १२ शकन आये थे—
(१) चारा चाष बाम िदिश लेई, मन सकल मंगल किह देई (मा. १.३०३.२)—
नीलक ठने बाय ओर दशन िदया।
(२) दािहन काग सुखेत सुहावा (मा. १.३०३.३)—काकभुशु डजीने दाय ओर दशन
िदये।
(३) नकुल दरस सब का पावा (मा. १.३०३.३)—नेवलने दशन िदया।
(४) सानुकूल बह ि िबध बयारी (मा. १.३०३.४)—सु◌र शीतल, म◌, सुग धत वायु
बही।
(५) सघट सबाल आव बर नारी (मा. १.३०३.४)—सु◌र बालक और घड़क साथ
सु◌र नारीक दशन हो रह ह।
(६) लोवा िफिर िफिर दरस दॆखावा (मा. १.३०३.५)—लोमड़ी िदखायी दी।
(७) सुरभी सनमुख िशशुिह िपयावा (मा. १.३०३.५)—बछड़को दूध िपलाती ई गायक
दशन ए।
(८) मृगमाला िफिर दािहिन आई, मंगलगन जनु दी दॆखाई (मा. १.३०३.६)—दाय
ओर िहरण क दशन ए।
(९) छेमकरी कह छेम िबशेषी (मा. १.३०३.७)—छेमकरी अथा लाल र क चील
िदखी।
(१०) यामा बाम सुत पर देखी (मा. १.३०३.७)—बाय ओर वृ पर यामा कोिकला
िदखायी दी।
(११) सनमुख आयउ दिध अ मीना (मा. १.३०३.८)—सामने दही और मछली िदख ।
(१२) कर पु क दुइ िब बीना (मा. १.३०३.८) हाथम पु◌क िलये ए दो कशल
वेदपाठी ा ण चारी िदखे।
१२ शकन, १२व वषम िववाह, िववाहक प ा १२ वषतक ीअवधम िनवास, सब कछ
बारह-बारह!
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥
अब आप आरतीम आ जाइये! आरतीम म ही गीत गा रहा —
राम दु हाकी जय सीता दुि हनकी जय।
बोलो िमिथला अयो याकी जय जय जय॥

२०२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२

चारों दू हाकी जय चारों दुि हनकी जय।


बोलो िमिथला अयो याकी जय जय जय॥
चारों च ाकी जय चारों चँिदनकी जय।
बोलो घराती बारातीकी जय जय जय॥
चारों ब ाकी जय चारों ब ीकी जय।
बोलो दशरथ जनकजूकी जय जय जय॥
चारों दु हाकी जय चारों दुि हनकी जय।
बोलो कौश या सुनयनाकी जय जय जय॥
राम दु हाकी जय सीता दुि हनकी जय।
बोलो िमिथला अयो याकी जय जय जय॥
बोला ोता और व ाकी जय जय जय।
बोलो गायक और वादककी जय जय जय॥
बोलो युगल सरकारक जय हो! युगल दरबारक जय हो! युगल प रकरक जय हो! युगल
लीलाक जय हो! युगल धामक जय हो! युगल नामक जय हो! िमिथलाक मेहमानक जय
हो! म ुल मु कानक जय हो! जय जय ीसीताराम!!

२०३
ष पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
य य रघुनाथकीतनं त त कृतम का िल ।
वा पवािरपिरपूणलोचनं मा ितं नमत रा सा क ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन॥
(मा. १.३१.८)
प रपूणतम परमा मा भगवा पर परमे र मयादा-पु षो म ीसीतारामजीक कपासे,
इस मोदीनगरम ीराघव-सेवा-सिमित ारा समायोिजत मेरी १२५१व रामकथाक ष स म सभी
बा धिवय और बा धव का मेरी ओरसे ब त-ब त वागत ह।
तो िम ो! देखो, आपको बताऊ, चार दोष क कारण ा णको यमराज मारना चाहते ह।
ा णम चार दोष नह होने चािहए—
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

अन यासेन वेदानामाचार य च वजना ।


आल याद दोषा मृ युिव ाि घांसित॥
(म. मृ. ५.४)
(१) अन यासेन वेदाना —यिद ा ण शा का अ यास नह करता, तो यमराज उसको
मारनेक इ◌ा करते ह।
(२) आचार य च वजना —यिद ा ण आचारहीन हो जाता ह, तब भी भगवा उसे
मारनेक इ◌ा करते ह।
(३) आल या —यिद ा ण साधु आलसी हो जाए। म तो ४ बजे उठता , ११ बजे
सोता और यिद अलाम-घड़ी मेरी बात नह मानती तो उसे पटक देता । आल य नह होना
चािहए ा ण-साधुम।
(४) अ दोषा च—अ दोष नह होना चािहए। भोजनम ब त संयम होना चािहए।
मृ युिव ाि घांसित।
तो िम ो! बड़ी सु◌र चचा पाँच िदन से आप सुन ही रह ह। एक बात और! जो नये
आये ह। देिखये आप लोग जानते ह िक रामच रतमानसम ३० कथाएँ ह। ३० िदन क मसे
गो वामीजीने यव थाक ह। यह िकसी व ाको भी पता नह मेर अित र । आजकल म तो
कोई करता ही नह ह। उसमसे आज हम १३व कथाक या या ार भ कर रह ह। १२व कथा
मेरी पूण हो चुक ह, अब अयो याका डका म ह। ब त ग भीरतासे सुिनये! शेर-शायरी,
चुटकल-क वाली नह सुनाऊगा। मुझे आती भी नह । जब ीरामज मभूिमका बयान हो रहा था,
तो उसक संब धम मने उ यायालय (High Court) को शपथप (affidavit) िदया था
िक म भारतक येक भाषाम बोल सकता , कवल उदूको छोड़कर। उदू नह आती, उसक
साधारण श द को भी म नह जानता। म ‍ा क ? हो सकता ह िक मेर कमम न िलखी हो।
भारतक सभी भाषाएँ जानता , अं ेजी ब त अ◌ी बोलता , और च भी बोलता । परतु
यही एक भाषा ह, जो मेर भा यम नह ह। ब े कछ बोलते ह तो भी म समझ नह पाता।
एक िदन िकसीने कहा—“आप यक न मािनए।” यक न ‍ा होता ह भैया! म नह जानता। तो
आइये! ब त अ◌ी चचा ह।

कथा १३: भय भंजिन (मा. १.३१.८)


अयो याका डम कवल दो कथाएँ ह—१३ और १४। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा.
१.३१.८)। १३व कथाका नाम ह—भय भंजिन और १४व कथाका नाम ह— म भेक
भुजंिगिन। गो वामीजीने रामच रतमानसजीक बालका डक ३१व दोहक चौथी पि िनज
संदेह मोह म हरनी (मा. १.३१.४) से ार भ करक दोह तुलसी सुभग सनेह बन िसय
रघुबीर िबहा (मा. १.३१) पय◌ ३० कथा क पूरी सूची दी ह। तो १३व कथा भय
भंजिन ह। सब लोग गाइये—

२०६
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

भय भंजिन म भेक भुजंिगिन।


(मा. १.३१.८)
देिखये! अयो याका डक कथाक दो िवभाग ह—(१) अयो याका डक ार भसे १४२व
दोहक चौथी पि तक थम कथा और (२) इसक प ा १४२व दोहक ५व पि से ३२५व
दोह पय◌ ि तीय कथा। देिखये! अयो याका डक एक ब त बड़ी िवशेषता ह। यहाँ येक
दोहा ८ चौपाइय से ब ह, अथा अयो याका डक येक दोह म ८ चौपाइयाँ ह। और येक
२५व दोहपर छ◌ ह। तथा येक २५व दोहक प ा वत छ◌क साथ एक सोरठा। जहाँ १२६
पर छ◌ आया ह वहाँ स ह तापसका। इसका व यिवषयसे कोई साम य नह ह। इसिलए
अयो याका डक ११०व दोहक ७व पि से १११व दोहक ६ठी पि पय◌ अंश ेपक माना
जाता ह। िन कषतः अयो याका डम ३२५ दोह, येक २५ दोहपर छ◌ एवं सोरठा तथा येक
दोहम ८–८ चौपाइयाँ ह।
वामा च िवभाित भूधरसुता देवापगा म के
भाले बालिवधुगले च गरल य योरिस यालरा ।
सोऽयं भूितिवभूषणः सुरवरः सवािधपः सवदा
शवः सवगतः िशवः शिशिनभः ीश रः पातु मा ॥
(मा. २ म. ो. १)
वामा च िवभाित भूधरसुता देवापगा म के। अब देिखये! गीता ेसािद कितपय
सं करण म जो पाठ आया ह वह ह—य या च िवभाित भूधरसुता देवापगा म के। और
भी ऐसे अनेक थल ह जहाँ पाठम अशुि याँ ह, िजनका िनराकरण हमने अपने तुलसीपीठ
सं करणम िकया ह। पर कछ िद ा◌ लोग ने इसका िवरोध यह कहते ए िकया िक यह धािमक
भावना को आहत करती ह और माननीय इलाहाबाद उ यायालयक लखनऊ पीठम वाद
लाया गया। पर◌ु माननीय यायालयने मेर ारा स पािदत ीरामच रतमानसजीम लगाये गये
सभी आरोप को मनगढ़त पाते ए १९ मई २०११ को यािचका खा रज कर दी थी और साथ
ही उ◌ बीस हजार पये जुमाना आ और माननीय यायालयने यह भी आदेश िदया िक अब
कभी िवरोध करगे तो गैरजमानती वॉरट और ीक णज मभूिमक दशन हो जायगे। अब यह पर
देिखये! इ◌ ने अपनी मूखताका ‍ा नंगा प रचय िदया! अयो याका डक म लाचरणका यह
संकत—य या च िवभाित भूधरसुता देवापगा म के (मा.गी. े.)। थोड़ी-सी िकसीको
बुि हो तो ‍ा अयो याका ड-जैसे वैरा यपूण का डम ऐसा वा‍ तुलसीदासजी िलखगे?—
य या च िवभाित भूधरसुता अथा िजनक गोदम पावतीजी िवराज रही ह। तुलसीदासजी
तो वैसे ही बड़ मयािदत ह, कहते ह—जगत मातु िपतु शंभु भवानी, तॆिह ंगार न कहउ
बखानी (मा. १.१०३.४)। सदा शंभु अरधंग िनवािसिन (मा. १.९८.३)।
आप बताइये! हमार तुलसीदासजी जो िशव-पावतीको जग क िपता-माता कह रह ह,
कािलदास जैसे घिटया नह ह। सं कतक िव ा दुःखी न ह ! बड़ अ◌े-अ◌े लोग यहाँ बैठ
ह। यहाँ सं कतक श भुनाथ झा आिद बड़ धुरधर लोग ह। पर कािलदासने िकतना िव ासघात
िकया। एक ओर तो िलखा—जगतः िपतरौ व े पावतीपरमे रौ (र.वं. १.१) और दूसरी ओर
२०७
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

कमारस भव का आठवाँ सग इतना अ ील िलखा िक सामा य यि अपनी बेटी-बिहन क


सामने इसका वाचन भी नह कर सकता, इतना ग◌ा िलखा। अर कािलदास! यिद यही करना
था ककम, तो िकसी ाकितक नायक-नाियकाक संब धम कर लते। कहा तो यहाँतक जाता ह
िक पावतीजीने उनको ोध करक ाप िदया िक तुम कोढ़ी हो जाओगे। कािलदासको कोढ़ हो
गया। िफर जब रामपरक रघुवंश महाका य िलखा, तब कोढ़ समा आ उनका।
तो देिखये! वणनक एक सीमा होती ह और जनता सबका लखा-जोखा चुका देती ह।
इसका फल आप जानते ह, ‍ा आ? आज तुलसीदासजीको कौन नह जानता? हाँ! कितपय
िव ािभमानी सं कत लोग भल न जानते ह । िकतु म भी तो सं कत िम ो! ऐसा नह
ह। श भुनाथजी! आजक िदना पय◌ मने सं कतम १२२ पु◌क िलखी ह और २९ पु◌क
िह◌ीम िलखी ह। परतु सं कतका यह फल थोड़ ही ह! सं कत म तो सं कार होने चािहए।
गो वामीजी य या नह िलख सकते। इसका ाचीन ितका पाठ ह, जो हमने िदया ह—
वामा च िवभाित भूधरसुता देवापगा म के
भाले बालिवधुगले च गरल य योरिस यालरा ।
सोऽयं भूितिवभूषणः सुरवरः सवािधपः सवदा
शवः सवगतः िशवः शिशिनभः ीश रः पातु मा ॥
ब त अ◌ा वणन ह! गो वामीजी कहते ह िक य य वामा भूधरसुता िवभाित। अ
माने िवभाग। िजनक वामभागम पवतराजपु ी पावतीजी िवराज रही ह—बाम भाग आसन हर
दी ा (मा. १.१०७.३)। य य म के देवापगा—िजनक म◌कपर देवनदी भगवती ग ाजी
िवराज रही ह, य य भाले बालिवधुः—िजनक ललाटपर बाल (अथा ि तीयाका) च◌मा
िवराज रह ह, य य गले गरल—िजनक क ठम हालाहल िवष ह, य योरिस यालरा —
िजसक व थलपर सपराज िवराज रह ह, भूितिवभूषणः—भ म ही िजनका अल ार ह,
सुरवरः—जो देवता म े ह अथवा सुरे यः वरािण य मा अथा देवता को िजनसे
वरदान िमल ह, सवािधपः—सबक अिधप अथा वामी, शवः— णाित पापािन नाशयित इित
शवः अथा सभी पाप को न करने वाल, सवगतः—सव यापी, िशवः—क याणमय अथवा
शेते मशाने यः स िशवः अथा मशानम शयन करने वाल, शिशिनभः—च◌माक समान
धवल ेत, ीश रः—ि या अनुगृहीतः श रः अथा ीजीक ारा अनुगृिहत श रजी, मां
पातु—मेरी र ा कर। तुलसीदासजी महाराजको भी डर लग रहा ह िक इतनी क णकथा म कह
रहा । कह वणन करते-करते मेर ही दयक गित न क जाए तो म ‍ा क गा? अतः ह
श रजी! आप मेरी र ा कर।
अब यहाँ एक बड़ी नयी बात! आप लोग यहाँ बैठ ह, आि◌क ह, िह◌ू ह। देिखये! सभी
िशविल तो ठीक ह, परतु हमार भारतवषम १२ ऐसे थान ह िशवजीक ादश योितिल ,
िजनक ब त मह ा और मिहमा ह। इस ोकम गो वामीजीने बारह योितिल क ◌ुितक
ह, इतना सु◌र ोक ह यह। एक ही ोकम आपको बारह योितिल क दशन हो जायगे।
वे ादश योितिल ह—

२०८
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

सौरा े सोमनाथं च ीशैले मि काजुन ।


उ िय यां महाकालमो ारे परमे र ॥
पर यां वै नाथं च डािक यां भीमश र ।
सेतुब धे तु रामेशं नागेशं दा कावने॥
वाराण यां तु िव ेशं य बकं गौतमीतटे।
िहमालये तु केदार घु मेशं च िशवालये॥
एतािन योितिल ािन सायं ातः पठे रः।
स ज मकृतं पापं मरणेन िवन यित॥
(िश.पु. ३.४२.२–४)
(१) सौरा म सोमनाथजी, (२) आ देशम ीशैलपवतपर ीमि काजुनजी, (३) उ ैनम
महाकाल, (४) कार े म परमे र। ओ ारममल र अशु पाठ ह। उ◌ का ◌वन
कािलदासने िकया—जगतः िपतरौ व े पावतीपरमे रौ (र.वं. १.१)। (५) परली (महारा )म
वै नाथ और (६) डािकनी (महारा )म भीमश र और (७) सेतुब धम रामे र, (८) ारकाजीक
पास दा कावनम नागे र, (९) वाराणसीम काशीिव नाथ, (१०) िफर महारा म नािसकम
य बक र, (११) िहमालयम कदारनाथजी, और (१२) िशवालयम घु मे र—ये िशवजीक
बारह योितिल ह।
तुलसीदासजी महाराजने इतना काम िकया ह िक हम उनका ऋण कभी नह चुका सकते।
गो वामीजीने कवल कथावाचक को ही रोटी नह दी, उ◌ ने संपूण भारतीय-समाजको रोटी दी
ह। जब नाल◌ा िव िव ालय और त िशला िव िव ालयम िवधिमय ने आग लगाई, सारी
पु◌क जलकर खाक हो गय , तब भगवा ने वा मीिकजीको ही तुलसीदासजीक पम ◌ुत
िकया और कहा—“िच◌ा मत करो िह◌ुओ! िजतनी पु◌क जल गय ह, सारी पु◌क क
िस ा◌ को एक रामच रतमानसम उपिनब करक िफर भारतको भट दे देते ह।” कवल
रामच रतमानस ठीकसे पढ़ लो। और अपने िलए पढ़ो, जनताक िलए मत पढ़ो। मने अपने िलए
पढ़ा। अभी म अपने िलए सुना रहा , तु हार िलए थोड़ ही सुना रहा । एक व ाने मेर िलए
य◌ िकया िक जग ु जी तो कवल अपना अ यास करते ह, सुनाते थोड़ ही ह। हमने कहा िक
यही करते ह, चलो! कौन गलती करते ह? तुम शेर-शायरी, क वाली, फहड़-िप रक गान का
अ यास करते हो; जहाँ न लोक न परलोक। पर म तो कम से कम भारतीयशा का अ यास
करता । कौन-सा पाप करता ? तो देिखये! अब म यास क गा िक एक ही ोकम
आपको १२ योितिल क दशन हो जाएँ। चिलये, तैयार हो जाइये! म अिनवाय नह ह जैसा
वहाँ िलखा ह, पर हो जायगे बारह योितिल क दशन। और मक कोई आव यकता भी
नह ह, पर ार भ तो सोमनाथसे होना चािहए।
वामा च िवभाित भूधरसुता देवापगा म के
भाले बालिवधुगले च गरल य योरिस यालरा ।
सोऽयं भूितिवभूषणः सुरवरः सवािधपः सवदा
शवः सवगतः िशवः शिशिनभः ीश रः पातु मा ॥
२०९
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

(१) वामा च िवभाित भूधरसुता—जब च◌माको द ने ाप िदया, तो च◌माको


राजय मा (टीबी) हो गयी। च◌मा ीण होने लगे। तब बृह पितजीने कहा—“जाओ
भास े म, वह िशवजीक आराधना करो। ब त पाप िकये हो। भगवा कपा करगे।” तब
च◌माने वहाँ िशवजीक आराधना क । िशवजी स ए। सोम माने च◌मा होता ह। तो
च◌माने अपने ही नामसे थम योितिल (सोमे र)क थापना क । वह पर िशवजी दािहनी
ओर िवराज रह ह और पावतीजी उनक वाम भागम िवराज रही ह। वह वे भगवा रामका नाम
जप कर रह ह। यह थम योितिल ह—सौरा े सोमनाथं च।
(२) देवापगा म के—तुलसीदासजीने कहा िक सोमनाथजीक प ा िव नाथ आना
चािहए। वाराण यां तु िव ेश । िव नाथजीक म◌कपर ग ाजी िवराज रही ह। ब त
अ त योितिल ह यह भगवा का। इतने रामभ ह िशवजी िक—
काशी मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउ िबशोकी॥
(मा. १.११९.१)
काशीम जब कोई मरता ह, तो मरते समय उसक दािहने कानम श रजी रामम◌का उपदेश
करते ह। अतः कोई भी मर, िकतना भी पापी ‍ न हो, यिद काशीम मरगा तो—
आकर चािर जीव जग अहहीं। काशी मरत परम पद लहहीं॥
(मा. १.४६.४)
जासु नाम बल शंकर काशी। देत सबिह सम गित अिवनाशी॥
(मा. ४.१०.४)
रामनाम सबको सुनाते रहते ह अिवनाशी िशवजी। खड़ाऊ पहनकर आते ह, रामनाम सुनाते
ह। इसीसे िस हो जाता ह िक राम-नाम सबपर भारी ह। क ण भगवा से भी श रजीका यु
होता ह ऊषा-अिन यु क करणम; पर रामजीको इतना ेम करते ह िक वयं हनुमा जीका
अवतार लकर रामजीक सेवा वीकारी िशवजीने। इसपर मेरी पु◌क ह—हर ते भे हनुमान ।
देिखये। इतना ेम करते ह। म अपनी िनबलता भी कह रहा आपसे। जब यह देखा िक
शत संिहता क बीसव अ यायम िशवपुराण कार वयं कह रह ह िक श रजी रामजीक सेवा
करनेक िलए हनुमा बने; तब हमने कहा िक बस, अब चकाचक ह। तबसे म ब त स मान
करता िशवपुराण का। म िकसीसे कोई समझौता नह करता भाई! सब कछ करो, पर
रामजीक िवषयम कछ कहा तो िफर देख लना। देवता म राम, फल म आम और सि◌य म
आल—इनका कोई िवक प नह ह। कोई िवक प ह ‍ा? िकतनी भी सु◌र स◌ी बना दो,
पर आलक िबना सब कछ सूना। और इन तीन क कोई िनंदा करता ह, तो म ब त िचढ़ता भी
। रामक िनंदा मत करो, आमक िनंदा मत करो, और आलक भी िनंदा मत करो। तो, ध य
ह िव नाथ! वे घूमते रहते ह काशीक गिलय म। कहते ह—
पेयं पेयं वणपुटके रामनामािभरामं
येयं येयं मनिस सततं तारकं प ।
जप प कृितिवकृतौ ािणनां कणमूले
वी यां वी यामटित जिटलः कोऽिप काशीिनवासी॥

२१०
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

जब यि मरने लगता ह काशीम, तो भगवा िशव जाकर उसक कानम यही कहते
ह—“अर पागल! इन कान क दोन से रामनामामृतका पान करते रहो! करते रहो!! मनम
और िकसीका यान मत करो। रामजीका सु◌र यारा- यारा म ुल-म ुल, िद य-िद य, भ य-
भ य, यारा- यारा, नील मेघक समान सु◌र-सा िव ह, उभरा आ कपोल चमाचम, घुँघराली
अलक, िनद ष ने , मधुर-मधुर मु करानेसे चमचम चमकती दो-दो दंतुिलयाँ, सु◌र-सा
ऊ वपु ितलक, हाथम धनुष-बाण—िकतना यारा भुका प ह! एक बार मनम यान
करनेसे जीवनक सार पाप चल जाते ह—इतने सु◌र ह भु।” रावणने वयं कहा था—“ऐसा
प हमने संसारम कभी नह देखा। म पापी , यह स य ह। पर जब-जब म रामजीक पका
यान करता , तब-तब संसारक सारी मिहलाएँ मुझे माता-जैसी िदखती ह।” ऐसा व प ‍ा
िकसीको िमलगा?
म तो भुसे पूछ रहा िक भु! सही बताना—
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
िज ें छ भी न सकी दु माया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
त ण तमाल जलद सम शोभा, कोिट मनोभव मन लिख लोभा॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
िशव सनकािद समािध लगाये, आप कट भये िबिध न बनाये॥
अिमत गंगा सिरस िवमल काया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
नीरज नयन कृपामृत वृि , परनारी पाई न िजसकी ि ॥
िजसने सीताजीके मनको चुराया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
मृदु मुसुकािन सरो ह आनन, जो न मुरझाया िनरख कर कानन॥
अधर प व जनोंको ललचाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
किट िनषंग कर धनु शर सोहे, पीत बसन सुर मुिन मन मोहे॥
लखन हनुमत के िच को लभाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
िजसको यानमें पाकर रावण, परम अपावन हो गया पावन॥
रामभ ाचाय मनको रमाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
रानी कौश या तु हे कटाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
मेरी कथा यानसे सुनोगे तो राघवक दशन तो हो ही जायगे। पर ठीकसे सुनो तब! Ego से
मत सुनना, अहकारसे मत सुनो। सामने बैठनेपर ब त आन◌ आता ह। सामने सीधा व ाका
मुख िदखता ह न! इधरसे ‍ा देखोगे तुम? इधर तु हारा ego तु हार साथ रहगा िक हम म पर
बैठ ह, हम बड़ ह। पर यहाँ तो चकाचक ह। Ego जबतक रहगा, तबतक गोिवंद नह आयेगा।

२११
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

Ego देखकर गोिवंद कहते ह—“ल तू अपना ego सँभाल, I go म जाता बाहर!” यहाँ तो
चकाचक आन◌ ह। तो अब कतमनुसरामः, जहाँ छोड़ा था। तो िम ो!—
(१) वामा च िवभाित भूधरसुता—यह ह थम योितिल सोमनाथ—सौरा े
सोमनाथं च।
(२) देवापगा म के—गो वामीजीने ि तीय योितिल िव नाथको कहा, िजनक
म◌कपर ग ाजी ह। परम रामभ ह िशवजी। कहते ह—
ग ातरगरमणीयजटाकलापं गौरीिनर रिवभूिषतवामभाग ।
नारायणि यमन मदापहार वाराणसीपुरपितं भज िव नाथ ॥
(का.िव.◌ो. १)
देवापगा म के यह ि तीय िशविल िव नाथ ह—वाराण यां तु िव ेश ।
(३) भाले बालिवधुः—म◌कपर बालच◌मा धारण करक काि कयजीको मनानेक िलए
भगवा ीशैल आये। गणपितका िववाह हो गया, काि कयका नह आ। अतः काि कयजी
ठकर चल गये ौ पवतपर। उनको मनानेक िलए िशव-पावती ीशैल ीमि काजुन बनकर
आये। भाले बालिवधुः—म◌कपर बाल च◌मा—यह तृतीय योितिल ह मि काजुन—
ीशैले मि काजुन ।
(४) गले च गरल —गलम िवष। यह चतुथ योितिल ह उ ैनक महाकाल—
उ िय यां महाकाल । गलम िवष ह, िफर भी उनक मृ यु नह , ‍ िक महाकाल ह
वे। इन महाकालको तुलसीदासजीने चतुथ योितिल कहा।
(५) य योरिस यालरा —प म योितिल वे कह रह ह नागे र—नागेशं दा कावने।
दा का नामक िशवभ ा रा सीक र ा करनेक िलए भगवा नागे र बने—य योरिस
यालरा ।
(६) सोऽयं भूितिवभूषणः—िवभूित ही िजनका आभूषण ह। पर यां वै नाथ —ये
वै नाथजी िब कल मशानम ह। मने दशन िकये ह। मने वयं बारह योितिल क दशन
िकये ह। परली जाइये महारा म। पूर मशानक बीचम िशवजीका यह म ◌र ह। कसी भगवा क
लीला ह िक वहाँ मृतक जलते ह, पर उनक दुग ध नह आती। और भगवा का आन◌ ह।
िवभूित ही उनका आभूषण ह। रावण िशवजीको ल ा ल जाना चाहता था पर िशवजीका मन
नह था। भारतको छोड़कर कहाँ जायगे? रावणने कहा—“म आपको ल चलगा।” िशवजीने
कहा—“ल चलो! पर जहाँ मुझे थािपत कर दोगे, वहाँसे म हटगा नह ।” संयोगसे जब ये यहाँ
आये, िशवजीने रावणको लघुश ाका वेग उप थत कर िदया और वयं एक वै नाथ बन गये।
रावणको लघुश ा लगी। उसने कहा—“भगव ! यह िशविल आप िलए रह। म जबतक
सुसू करक आता , तब मुझे दे दीिजयेगा।” ठीक ह। और भगवा तो भगवा ! लघुश ाक
धारा बढ़ा दी। दस िमनट बीती, बीस, तीस...िफर? अर! ‍ा क, अर! एक घ टा तो सुसू
करता रहगा मूख। सुसू बंद ही नह हो रहा। तब िशवजीको आया ोध—“तेरी ऐसी-क -तैसी
बेईमान! कबतक तू सुसू करता रहगा?” िशवजीने तुर◌ पटक िदया। वह पर भगवा वै नाथ
िवराज गये—सोऽयं भूितिवभूषणः।
२१२
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

(७) सुरवरः—सुर को िजनसे वरदान िमला। जब िव याचल बढ़ने लगा और उसने ित ा


क िक म सूयनारायणक म डलको ढक दूँगा। देवता भयभीत ए। अग◌यजी महाराज आये।
अग◌यजीको िव याचलने सा ा द डव क । अग◌यजीने कहा—“बस अ◌े! ऐसे ही
लट रहो। जब म आऊगा, तब उठना।” उसने कहा—“‍ा क ? मुझे कछ पूजनका आधार
दीिजये।” उसी समय सब लोग क ाथना पर िशवजीका ाक आ और कार रम
परमे र योितिल क थापना ई। कार रम परमे र िवराज गये—ओ ारे परमे र ।
वागथािवव संपृ ौ वागथ ितप ये।
जगतः िपतरौ व े पावतीपरमे रौ॥
(र.वं. १.१)
(८) सवािधपः सवदा—कदार र भगवा सबक अिधपित ह अतः िहमालयक उ
िशखरपर िवराजमान होकर नर-नारायणक पर पराक र ा कर रह ह। अतः—िहमालये तु
केदार ।
(९) शवः—भगवा भीमश रने डािकनी े म स पूण असुर का संहार िकया। शवः
श दका अथ ही यह ह— णाित इित शवः, अथा जो सबका संहार करते ह। डािक यां
भीमश रः।
(१०) सवगतः—श र भगवा अपने तीन ने से ि लोक को या िकये ए ह, अतः
य बकं गौतमीतटे।
(११) िशवः—िशवालय नामक सरोवरम कट होकर घु मे र िशवजीने सुदेहा ारा मार
गये घु माक पु को जीिवत िकया था, अतः घु मेशं च िशवालये।
(१२) शिशिनभः—यहाँ यह जन ुित कही जाती ह िक भगवा ीरामने हनुमा जीको
िशविल लानेक िलए काशी भेजा। ई रीय लीलाक कारण हनुमा जीको िशविल लानेम
िवल ब आ। इधर थापनाका शुभ मु त समा हो रहा था। ीिशवजीक इ◌ासे भगवा
ीरामने मु त-मयादाक र ा करते ए एक बालका-रािश िनिमत धवल िशविल क थापना
कर दी, जो च◌माक समान ेत और सु◌र ह। यही ह भगवा रामे र योितिल । प ा
हनुमा जी िशविल लकर काशीसे आये। उ◌ ने बालका-रािश िनिमत योितिल को हटाने का
ब त यास िकया पर वह टस-से-मस नह हो सका। अतः सेतुब धे तु रामेशं। ऐसे शिशिनभ
रामे र योितिल क जय!
श ेण रि ते रा े शा िच ा वतते—जब श से रा क र ा हो जाती ह, तब
यि का शा म मन लगता ह। आज ‍ा कारण ह िक हमारा पड़ोसी देश इस समय उसी
कार काँप रहा ह, जैसे िसंहको देखकर बकरी काँपती ह? ‍ िक हमारी सेना, हमारी थल
सेनाका िव म जोड़ नह ह। और भारत भारत ह। हम शा ◌ चाहते ह, पर नपुंसक वाली शा ◌
नह , ब क शा ◌ नह ! भगवा वा मीक य रामायण म कहते ह—
मया िह समायु ं मामयं मकरालयः॥
असमथ िवजानाित िध मामी शे जने।
(वा.रा. ६.२०–२१)
२१३
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

यिद कोई माको कायरता समझ ल, िनबलता समझ ल, तब मा कभी नह करनी चिहए।
हमारा सै यबल ब त ही सु यव थत ह। हमार पास पारमा वक व नािभक य श भी ह। हमार
ेपा (Brahmos) ही पया ह पूर िवधम देशको समा करनेक िलए। और हमारी सेना
जानती ह िक कब साद देना चािहए। तो िम ो! ऐसी कोई बात नह ह। यही बात रामजीक
साथ ह। रामजीक समयसे हमारी िवदेशनीित यही ह। हम पहल यास करते ह िक समझौता
हो जाए। िवभीषणने समझाया, ि जटाने समझाया, मा यवा ने समझाया, हनुमा जीने समझाया,
और अ दजीने समझाया। जब नह समझा, तो ‍ा िवक प ह? तब तो वही िवक प ह, जो
होना चािहए। वही ह—बोले राम सकोप तब भय िबनु होइ न ीित (मा. ५.५७)। तो आज
सबको डर लग रहा ह। म थराको सबसे पहल डर लगा और उसने ककयीसे कह िदया—
क ू िबनतिह दी दुख तुमिह कौिसला देब।
भरत बंिदगृह सेइहै लखन रामके नेब॥
(मा. २.१९)
“यिद रामजी राजा बनगे, तो भरतजीको कारागारम डाल िदया जायेगा। ल मणजी युवराज
ह गे।” पर ऐसा नह आ ‍ िक भय भंजिन (मा. १.३१.८)। रामजी राजा बने तो ‍ा
भरतजी कारागारम आये? नह —
भरतािद अनुज िबभीषनांगद हनुमदािद समेत ते।
गहॆ छ चामर यजन धनु अिस चम शि िबराजते॥
(मा. ७.१२.९)
माता ककयीको भय हो गया—
सभय रािन कह कहिस िकन कुशल राम मिहपाल।
लखन भरत िरपुदमन सुिन भा कुबरी उर साल॥
(मा. २.१३)
रानी भयभीत हो गय िक बताओ—(१) रामजी, (२) च वत जी, (३) ल मण, (४) भरत,
(५) श ु कशलसे ह? पाँचक कशल पूछी। यह भय भी इस भय भंजिन (मा. १.३१.८)
कथाने दूर िकया। (१) च वत जीका शरीर भल छटा परतु वे नरक नह गये, सकशल इ◌पुरम
िवराजे और ल ाक यु क प ा िफर आ गये—तेिह अवसर दसरथ तह आये (मा.
६.११२.१)। (२) रामजी कशलसे ह। (३) भरत, (४) ल मण व (५) श ु कशलसे ह।
दशरथजीने ककयीसे कहा—
सुबस बिसिह िफिर अवध सुहाई। सब गुन धाम राम भुताई॥
किरहै भाइ सकल सॆवकाई। होइिह ित पुर रामबड़ाई॥
(मा. २.३६.३–४)
भय भंजिन (मा. १.३१.८) सर वतीजीको भय ह िक ‍ा होगा? भगवा ने कहा—“कछ
नह होगा, आपका स मान होगा।” अतः—
आिगल काज िबचािर बहोरी। किरहै चाह कुशल किब मोरी॥
(मा. २.१२.७)

२१४
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

ककयीजीको म थराने बहकाया, अनथ तो हो गया। ककयीजी कोपभवनम पधार ।


ककयीजीका कोपभवनम जाना सुनकर च वत जीको भय हो गया—
कोपभवन सुिन सकुचॆउ राऊ। भयबश अग ड़ परइ न पाऊ॥
(मा. २.२५.१)
च वत जीको भय हो गया—“‍ा होगा? ‍ा करगी ककयी?” भगवा रामने कहा—
“िपताजी! अब िनि ◌ रिहये। वनम मेरा ब त बड़ा क याण होगा।” च वत जी—“‍ ?”
भगवा रामने कहा—“िपताजी! यहाँ रहता तो अथ िमलता। वनम र गा तो अथ, धम, काम
व मो —चार मुझे िमलगे।”
मुिनगन िमलन िबशेष बन सबिह भाँित िहत मोर।
तॆिह मह िपतु आयसु ब िर स मत जननी तोर॥
(मा. २.४१)
(१) मो —मुिनगन िमलन िबशेष बन सबिह भाँित िहत मोर (मा. २.४१) मुिनगण से
िमलन होगा, अथा मुिनय से और अपने गण से िमलन होगा। यही मो ह।
(२) धम—तेिह मह िपतु आयसु ब िर (मा. २.४१) अथा िपताजीक आ ाका पालन।
यह धम ह ‍ िक—िपतु आयसु सब धरमक टीका (मा. २.५५.८)
(३) अथ—स मत जननी तोर (मा. २.४१)
(४) काम—भरत ानि य पाविह राजू (मा. २.४२.१)—यही कामना (काम) ह।
भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। देखते जाइये! सार संसारको भय ह।
भूप मनोरथ सुभग बन सुख सुिबहग समाज।
िभि िन िजिम छाड़न चहित बचन भयंकर बाज॥
(मा. २.२८)
ककयी माताजी आज वरदान माँग रही ह।
(१) पहला वरदान—
सुन ानि य भावत जी का। दे एक वर भरतिह टीका॥
(मा. २.२९.१)
भरतजीको टीका दे िदया जाए। सर वतीजी कहलवा रही ह, अतः संदभसे यह नह कहा
िक रघुकलका टीका दे िदया जाए, राजा बनाया जाए। अब िकसका राजा बनाया जाए, वह तो
भगवा जान। रघुकलका राजा थोड़ बनाया जायेगा, आज भरतजीको पूर भ का राजा बनाना
ह। दे एक वर भरतिह टीका—कवल यह कहा। कहाँका टीका? यह नह कहा। यिद
रघुकलक टीकक बात होती, तब तो फस जाते। ककयी यही समझ रही ह, पर सर वती ऐसा
नह कह रही ह।
(२) दूसरा वरदान ब त अ◌ा माँगा। यहाँ ल मणजी भी डर रह ह और सीताजी भी डर रही
ह। ल मणजीने सर वतीजीसे कह िदया—“देख लना! यिद रामजीक वनगमनम मेरा नाम नह
आता तो प रणाम ‍ा ह गे। समझ लना, घ ट दूँगा तु हार हसका गला।” सीताजीने कहा—
“ब त ल -पूड़ी मेर साथ खाई हो िमिथलाम चकाचक।” दोन डर रह ह, पर भय भंजिन
२१५
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

(मा. १.३१.८)।
कथाका म देिखये आप। यिद तुलसीदासजी महाराज कथाको यव थत िलख सकते ह,
तो तुलसीपीठाधी र कथाको यव थत कह भी सकते ह। और देिखये मोदीनगरवालो! िफर
कह रहा िक जहाँ समझम न आये, वहाँ बताना िक गु जी! मुझे यह समझम नह आ रहा।
म यास क गा िक सब समझम आये पर िच यह रखना, घरम नह । माताओ! ऐसा नह !
ब त-सी मिहलाएँ आती ह तो वेटर बुनती रहती ह (यहाँ तो नह बुन रही ह)। मने कहा िक
इसी कथाम वेटर तैयार करोगी। पूरा िच यह रखो। बेटा-बेटी सबक िच◌ा छोड़ो, सब
रघुनाथजी सँभाल दगे तु हार। और पु षलोग भी सारी बदमाशी छोड़कर कथाम बैठा करो।
ल मणजी और सीताजी—दोन डर रह ह। दोन सर वतीजीसे कह रह ह—“मेरा नाम आ
जाना चािहए रामजीक सेवाम। नह तो ककयीजी कहगी िक मने तो कवल एक रामजीको ही
वनवास िदया था, ये दोन कसे जा रह ह?” इससे अब ऐसा योग यहाँ होगा िक दोन का नाम
आ जायेगा रामजीक साथ—
तापस बेष िबशेष उदासी। चौदह बिरस राम बनबासी॥
(मा. २.२९.३)
आन◌ कर िदया! अब सुिनये! मने लोहा मान िलया िक गो वामी तुलसीदासजी-जैसा
यव थत कोई नह िलख सकता। इस कथाको देखकर लगता ह िक इतनी यव थत चचाक
िलए कसी यव थाक होगी ा णने। कािलदास कहते ह िक म ब त यव थत िलखता ,
पर उनसे करोड़ गुना अिधक यव थत िलखते ह गो वामीजी।
तो पहल ल मणजीको अभय करगी यह भय भंजिन (मा. १.३१.८) कथा। इसी चौपाईम
ल मणजीका और सीताजीका दोन का क याण होना ह। चौपाई यानसे देिखये—तापस बेष
िबशेष उदासी। म समझानेका यास कर रहा । मन मेर पास रिखये, इधर-उधर मत देिखये।
ककयीजीसे सर वतीजीने िवशेषण िदलवाया—तापस बेष रामजीको तापस वेष कहा। पर
ल मणजी बोल िक पहल मेरा नाम आना चािहए। अतः कहा—िबशेष । ‍ा कह िदया?
िबशेष । िवशेष माने ‍ा होता ह? सं कतम शेष श दक तीन अथ कह जाते ह—शेषः
सपऽविश े च शेषः पिरकरे तथा अथा (१) शेष माने शेषनाग। (२) शेष माने दूसरा
अविश , जो काटनेपर बच जाए। १७म ४का भाग िदया, बाहर गया ४ और शेष बचा १—यह
ह शेष। (३) और तीसरा शेष माने ‍ा होता ह? सेवक। सेवकको भी सं कतम शेष कहते ह।
तो िवशेषम कह िदया शेष। िवशेष अथा —
(१) िविश ः िवभूषणं शेषः य य । शेषनाग िजनक श या ह—ऐसे ीरशायी िव णुजी ही
ल मणजी बन गये ह। वे रामजीक सेवाम रहगे—िवशेष ।
(२) िविश ः शेषः—परशुरामजीक फरसेसे जो नह कट वह ल मणजी भी शेष ह, रामजीक
सेवाम रहगे।
(३) िविश ः शेषः सेवकः य य एक िविश सेवक रामजीक सेवाम रह सकते ह, वे रहगे
ल मणजी।
समझ गये आप लोग? यहाँ शेषक तीन अथ ह। तो ल मणजी सेवाम आ गये। ल मणजीका

२१६
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

भय समा हो गया।
॥ बोलो लखनलालक जय ॥
सीताजीने कहा—“मेरा नाम कब आयेगा?” सर वतीजीने कहा—उदासी (मा. २.२९.३)।
‍ा कहा? उदासी। सं कतम उ का अथ होता ह उ◌ । उ◌ माने ‍ा होता ह? सव े ।
उदासी अथा रामजीक साथ एक उ◌ ा दासी भी रह सकती ह। उ◌ ‍ कहा? और
याँ सेवा करत तो वे िनक ा दािसयाँ होती ह, पर प ी जब पितक सेवा करती ह तो वह
उ◌ ा दासी होती ह। दोन का क याण हो गया चकाचक! भय भंजिन (मा. १.३१.८)।
दोन ल मणजी और सीताजीका भय दूर िकया।
च वत जीका भय दूर िकया इस कथाने। अब च वत जीने ब त समझाया, पर ककयी
नह मानी। सुम◌ आ रह ह। सुम◌ने देखा िक राजभवन भयंकर लग रहा ह—
गयॆ सुमं तब राउर माहीं। देिख भयानक जात डॆराहीं॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मान िबपित िबषाद बसेरा॥
(मा. २.३८.३–४)
मानो खाना चाहता ह यह। सिचव सभीत सकइ निह पूँछी (मा. २.३८.८)—सुम◌जी
डर रह ह। यह भय भंजिन (मा. १.३१.८) लीला सुम◌को भी िनभय करगी। सुम◌जी जब
वनवासक िलए भुको छोड़ने जा रह ह, तब रामजीने कहा—नह भगव ! आप िनभय रिहये—
िपतुपद गिह किह कोिट नित िबनय करब कर जोिर।
िचंता कविन बात कइ तात किरय जिन मोिर॥
(मा. २.९५)
आ ा हो गयी। राघवजीने कहा—“िपताजी! आप िच◌ा न कर, यह म लका समय ह—”
मंगल समय सनेहबश सोच पिरहिरय तात।
आयसु देइय हरिष िहय किह पुलके भुगात॥
(मा. २.४५)
“िपताजी! आप िनभय हो जाइये। म वनवास जाऊगा, पर आपको म नरकम नह पड़ने
दूँगा ‍ िक आपने मेरी शपथ लकर ित ाक ह। आप ित ा छोड़ दगे तो आपको नरक
होगा। और पु का अथ होता ह—पु माने नरक होता ह, माने छड़ाने वाला। म आपका पु
। जो िपताको नरकसे छड़ा दे, उसीको तो पु कहते ह। जो बेटा शराब पीता ह, ककम करता
ह, वह अपने बापको नरकम ही तो डालता ह, और ‍ा करता ह? शराब पीना, जुआ खेलना,
िकसी परायी नारीपर ◌ि डालना—इन ककम से िपताको नरक होता ह। इसिलए पु को ऐसा
कभी नह करना चािहए जो िपताको नरकम डाल।” रामजी कहते ह—“िपताजी! ये भयंकर
पाप ह जीवनम।” आज ‍ा कारण ह िक हमार भारतम बला◌ार (rape) बढ़ते जा रह ह?
हम तो धानम◌ीजीसे माँग करगे िक कवल द ड नह ! बला◌ा रय को तो ाणद डसे नीचे
कोई द ड ही नह होना चािहए। तो िम ो! जीवनम हमको सु◌र आचरण करने चािहए, िजससे
िपताका यश बढ़।

२१७
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

ध य जनम जगतीतल तासू। िपतिह मोद चिरत सुिन जासू॥


(मा. २.४६.१)
उसीका जीवन ध य ह िजसक च र को सुनकर िपताको मोद हो।
चािर पदारथ करतल ताके। ि य िपतु मातु ान सम जाके॥
(मा. २.४६.२)
इसिलए बालकको चािहए िक िजतना हो सक, वैिदक धमका पालन कर, वणा मम िव ास
रखे, च र को सँभालकर रखे, आँख को सँभालकर रख और परायी नारीपर ◌ि न जाये। और
बेिटय को भी यह िनयम िनभाना चािहए। बेटी तो दोन कल को पिव करती ह—पुि पिब
िकये कुल दोऊ (मा. २.२८७.२)। आज लविजहादक नामपर िकतना अनथ िकया जा रहा
ह हमार यहाँ! याद रिखये, मेरी कथा तबतक पूण नह होगी, जबतक उसम रा ीय यथाका
स म ण नह होगा। म ाथना क गा अपनी क या से िक आप ब त भावुकताम मत बिहये।
अपने च र को सँभालकर रिखये। हमारी मयादाको रिखय बेिटय ! हम कत ह गे आपक!
हम नह चाहते िक हमारी िह◌ू क या पर ये दु , िवधम अपनी क◌ि डाल और हमारी िह◌ू
क या को अपनी वासनाक बिल चढ़ा द, यह हम नह चाहते। आपपर ब त दािय व ह।
तो भगवा िपताको अभय कर रह ह। ीकौश याजी भयभीत —
सहिम सूिख सुिन शीतिल बानी। िजिम जवास परॆ पावस पानी॥
(मा. २.५४.२)
भयभीत हो गय —नयन सजल तन थर थर काँपी (मा. २.५४.४)। भगवा ने पूछा—
“अर! आप डर ‍ रह ह माँ?”
िपता दी मॊिह कानन राजू। जह सब भाँित मोर बड़ काजू॥
(मा. २.५३.६)
श दावली देिखये—जिन सनेहबश डरपिस भोरे (मा. २.५३.८)। माताजी डर रही ह।
आनँद अ ब अनु ह तोरे (मा. २.५३.८), “िपताजीने मुझे कानन राजू काननका रा य िदया
ह।” कानन कहा, िविपन नह कहा, वन नह कहा। कानन अथा क सुखमानने य य, िजस
देशक मुखम डलम सुख ह, भय नह ह। “अब मत ड रए—जिन सनेहबश डरपिस भोरे
(मा. २.५३.८)।” माताजीको अभय कर िदया, ‍ िक भय भंजिन (मा. १.३१.८)। पूर
िवषयको समझते जाइये!
सीताजी ‍ डरग ? रामजीने डरवाना चाहा, पर सीताजी नह डर । सीताजी वनवास जाना
चाहती ह, पर रामजीने कहा—
डरपिह धीर गहनसुिध आये। मृगलोचिन तुम भी सुभाये॥
(मा. २.६३.४)
“आप तो वभावसे भी ह।” सीताजीने कहा—“िकसने कह िदया िक म भी ? कब
आपने मेरी भी ता देखी?” सीताजीने िवनोदम कहा—“ भु! बड़ साहब! िजस धनुषको आपने
तोड़ा था न, उसी श र-धनुषको म बचपनम पचास बार घसीटकर खेलती थी ितिदन। म
भी कसे?” ब त िद य आन◌ ह यहाँका! सीताजीने रामजीक येक प का ख डन िकया।
२१८
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

रामजीने कहा—आयसु मोर सासु सॆवकाई (मा. २.६१.४) यािन सासुक सेवा करना यह मेरी
आ ा ह; सादर सासु ससुर पदपूजा (मा. २.६१.५)। सीताजीने कहा—“सासु कहते िकसे
ह? पहल आप यह बता दीिजये। सासु-ससुरक भी आप या या बता दीिजये, िफर म आपको
उ र दूँगी।” रामजीने कहा—“पितक माताको सासु कहते ह और पितक िपताको ससुर कहते
ह।” सीताजीने कहा—“िब कल ठीक! तो आपक माताजी ‍ा कह रही थ , आपको मरण
ह?”
िपतु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरो ह सेवी॥
(मा. २.५६.३)
सीताजी कहती ह—“आपसे ही तो माताजी कह रही थ िक आजसे वनदेव आपक िपता ह
और वनदेवी आपक माता ह। अब यहाँ तो कोई मेरा सास-ससुर नह ह, तो यहाँ रहकर ‍ा
क गी म? बताइये! इसिलए मुझे वनम जाना ह, ‍ िक—”
बनदेबी बनदेव उदारा। किरहै सासु ससुर सम सारा॥
(मा. २.६६.१)
लीिजये! आज मुझे लगता ह िक रामजी भी िकसीक पाल पड़ गये। अबतक ये अपनेको
ब त बुि मा मानते थे। भई देखो! म तो ब रानीका प लता । यह सभी लोग जानते ह
िक रामजी मेर बेट ह और सीताजी मेरी ब रानी ह। म संसारक ब क िच◌ा नह करता।
ये णभ र ब एँ मेरा ‍ा करगी भाई साहब! हमार पास तो एक ही ब ह—
जनक-नृप-नंिदनी सीता, ब रानी हमारी है।
जनक-नृप-नंिदनी सीता, ब रानी हमारी है।
णत-कुल-चंिदनी सीता, ब रानी हमारी है।
जनक-कुल-चंिदनी सीता, ब रानी हमारी है।
म संसारम मिहला को ब कहता । ब रानीतो कवल एक ही ह सीताजी। तो रामजीने
कहा—सुमुिख मातु िहत राखउ तोही (मा. २.६१.८), आपको माताजीक िलए रख रहा
। घरम रिहये न! सीताजीने कहा—“यह घर हो, तब तो र ! अब तो आजसे घर ही नह
रहगा, यह तो मशान बन रहा ह—घर मसान पिरजन जनु भूता (मा. २.८३.७)। ह रामजी !
इसिलए म यहाँ नह र गी।” रामजीने कहा—“ऐसा ह िक वनम काँट चुभगे आपको। बड़-बड़
काँट!”
कुश कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेिह िबनु पद ाना॥
(मा. २.६२.५)
सीताजीने कहा—“ये काँट औरको चुभ सकते ह, मुझे नह चुभगे।” “‍ ?” “इसिलए
िक म भूिमसे उ◌ और ये भी भूिमसे उ◌ ए ह, इसिलए ये मेर भैया ह। तो भाई कभी
बहनका खून नह पीता।”
अब आप सोिचये, िकतना रस ह रामकथाम! सोच लीिजये आप, ऐसा रस कह िमलगा
आपको? बताइये! रामजीने कहा—“भूिमपर सोना होगा, व कल धारण करना होगा, कद-मूल
फल भोजन िमलगा।” तो सीताजीने कहा—“‍ा आपि ह? अर! भूिमपर शयन मुझे चािहए।
२१९
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

अर! म तो तरस गयी अपनी माँक गोदम बैठनेक िलए। िमिथलाम सुनयना माताने गोदम ल
िलया, आपक यहाँ माता कौश याजीने—”
पलग पीठ तिज गोद िहडोरा। िसय न दी पगु अविन कठोरा॥
(मा. २.५९.५)
“और िजसने ज माया, वो पृ वी मैया बेचारी तरसी मुझे अपनी गोदम लनेक िलए। तो
कमसे कम चौदह वष तो म अपनी मैयाक गोदम र गी। मेरा जीवन ध य हो जायेगा। भूिम
शयन व कल बसन (मा. २.६२) और यह व कल ‍ा ह? वृ क छाल ही तो व कल
ह और वृ मेर भैया ह, तो भाईक दी ई साड़ी बहन ब त गवसे धारण करती ह। अशन
कंद फल मूल (मा. २.६२)—यह मेरा सौभा य ह िक अपनी माँका िदया आ साद पाऊगी।
लागइ अित पहार कर पानी (मा. २.६३.२), पहाड़का पानी मुझे नह लगेगा। पहाड़ मेर भाई
ह, तो ‍ा भाई अपनी बहनको िवषैला पानी िपलायेगा?” रामजीक एक-एक प का सीताजी
ख डन कर रही ह, आज आन◌ कर िदया! रामजीने कहा—िनिशचर िनकर नािर नर चोरा
(मा. २.६३.३)। सीताजीने कहा—“नह , ये मुझे नह चुरा सकते ‍ िक म भी चोरक प ी
—सु र यामल गौर तनु िब िबलोचन चोर (मा. १.२४२)—आप िव िवलोचन चोर
ह, तो चोर चोर मौसेर भाई! कोई बात नह ।” हा! हा!! हा!!! रामजीने कहा—
डरपिह धीर गहन सुिध आये। मृगलोचिन तुम भी सुभाए॥
(मा. २.६३.४)
सीताजीने कहा—“सुिनये! सुिनये!! म िसंहक प ी न! जब आप धनुष तोड़ने जा रह
थे मटकते ए, तो कसे लग रह थे?—
ठाढ़ भये उिठ सहज सुहाये। ठविन जुबा मृगराज लजाये॥
(मा. १.२५४.८)
िसंहक समान आप जा रह थे। इसिलए मने आपसे िववाह िकया। म िसंहक प ी , तो
िसंहक प ी िकसीसे डरती ह ‍ा? यह बताइये।
को भु सँग मॊिह िचतविनहारा। िसंघबधुिह िजिम शशक िसआरा॥
(मा. २.६७.७)
अर! आपक साथ र गी तो कोई आँख नह उठा सकता मेर सामने। समझ लीिजये!”
आन◌ कर िदया सीताजीने।
सीताजी बोल —“म नह थकगी—
मॊिह मग चलत न होइिह हारी। िछन िछन चरन सरोज िनहारी॥
(मा. २.६७.१)
भु! एक बात बताइये! म िवनोद नह कर रही , सही कह रही । उसी फलवारीम म आयी
थी?” रामजीने कहा—“हाँ।” सीताजीने कहा—“म घूम रही थी?” रामजीने कहा—“जी।”
सीताजीने कहा—“उसी फलवारीम आप भी पधार थे?” “रामजीने कहा—“जी।” सीताजीने
कहा—“मुझको एक भी बूँद पसीना नह आया, पर आपको?—भाल ितलक मिबंदु सुहाये

२२०
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

(मा. १.२३३.३)—आपको पसीना आ गया था। तो यह बताइये िक थकान आपको लगती


ह िक मुझको लगती ह? मुझे िनरथक बदनाम कर रखा ह आपने।” हाय! हाय!! आन◌
कर िदया! तब रामजीने कहा—“भैया! म आपसे हार गया भगवती। अब वन चलो। पर
तुम यो य नह हो।” सीताजीने पूछा—“‍ यो य नह ?” रामजीने कहा—“‍ िक आप
हसगािमनी ह—हसगमिन तुम निह बन जोगू (मा. २.६३.५)।” सीताजीने पूछा—“अ◌ा
यह बताइये िक यह माणप मुझे िकसने िदया?” राघवजीने कहा िक मेरी माँने—डाबर जोग
िक हसकुमारी (मा. २.६०.५)। सीताजीने कहा—“तो आपको भी मेरी माँने माणप िदया
ह िक आप बालहस ह—बाल मराल िक मंदर लेहीं (मा. १.२५६.४)। जब बालहस जा
सकता ह वनम, तो बालहिसनी ‍ नह जायेगी? यह बताइये!” आन◌ कर िदया! कोई प
ही नह बच रहा। आज ‍ा हो गया ह ब रानीजीको! आज आन◌ ह! तब रामजीने अपना
प लौटा िलया और बोल चिलये। सीताजी िनभय ह ‍ िक भय भंजिन ... (मा. १.३१.८)।
एक-एक िब◌ुपर यान देते जाइये और म िब◌ु सिहत चचा कर रहा ।
अब ल मणजीको समाचार िमला िक रामजी सीताजीक साथ वनको पधार रह ह, तो वे भी
थोड़ा-सा डर, याकुल िबलख बदन उिठ धाये (मा. २.७०.१)—“ह भगव ! ‍ा होगा?
रघुनाथजी मुझे ‍ा कहगे?” देखा रामजी ने—“अर ल मण! ‍ा कह रह हो?” ल मणजीने
कहा—“यही िक म ‍ा क ?” रामजीने कहा—“तुम यह रहो न, सेवा करो सबक ।” ब त
याकल हो गये ल मणजी। दौड़कर चरण पकड़ िलये और बोल—“नह महाराज, मुझे न
छोड़ा जाए। संसारक सार संब ध मेर आपसे जुड़ ह।” रामजीने देख िलया िक ल मणजी डर
रह ह। दोहा पिढ़ए न—
क नािसंधु सुबंधुके सुिन मृदु बचन िबनीत।
समुझाये उर लाइ भु जािन सनेह सभीत॥
(मा. २.७२)
आगेक पि ‍ा ह? जािन सनेह सभीत। यह देिखये भय भंजिन ... (मा. १.३१.८)।
भगवा ने ल मणजीको दयसे लगाकर समझाया—“आप िच◌ा न कर।” ल मणजीने कहा—
“िच◌ाक बात नह ह। म िशशु , आपक ेमम पला आ । मराल म। हसका ब ा
सुमे पवत नह उठा सकता। भगव ! मेरी मता नह ह।” तब रामजीने उ◌ िनभय कर
िदया—
माँग िबदा मातु सन जाई। आव बेिग चल बन भाई॥
(मा. २.७३.१)
ल मणजीसे कहा—“आप जाइये! माँसे िवदा माँग आइये।” ल मणजीने कहा—“म पहल
ही कह चुका —गु िपतु मातु न जानउ का (मा. २.७२.४)।” रामजीने कहा—“अर
पगल! म तु ह तु हारी माँक यहाँ नह भेज रहा । म तु ह अपनी छोटी माँक पास भेज रहा ।
जाओ! उनसे िवदा माँगो।” ल मणजीनेपूछा—“आप नह जायगे?” रामजी बोल—“नह -नह ,
म नह जाऊगा। मुझे भी भय लग रहा ह िक सुिम ाजी मेर तप वी वेषको देखकर कह यह न
कह द िक दोन समान ह ककयी और म। यिद सौतेली माँक अिधकारसे ककयी तु ह वनवास

२२१
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

दे रही ह, तो उसी सौतेली माँक अिधकारसे म ककयीक आदेशको चुनौती देती । म िनर◌
कर रही । और जब दोन क आदेश टकरायगे तो रावण-वधक लीला कसे होगी? बताओ!
इसिलए तुम जाओ और मेरी ओरसे माताजीसे िवदा माँग आओ। जाकर मेरा एक संदेश कह
देना ल मण—
किह दीजो सुिम ासे जाकरके अब राघव कानन जा रहा है।
अित धीर धुरधर वीर ती पन ेम औ नेम िनभा रहा है।
जननी तव ेम सरोवरमें सुत बारिह बार नहा रहा है।
िगिरधर ईश तु हारे ही स मुख आवनमें सकुचा रहा है।
जाकर कह देना।” ल मणजी आ रह ह। माँसे पूरी बात कही। ल मणजीको िफर थोड़ा-सा
डर लगा—माँगत िबदा सभय सकुचाहीं (मा. २.७३.८)। श द को देिखये! भय भंजिन।
मने कहा न िक इस बार म आपको ीरामकथाक यव था ही समझाने आया । ऐसा यव थत
ब ध हमने और कह तो नह देखा।
ल मणजी डर रह ह। सुिम ा माताजीने सुना तो—गयी सहिम सुिन बचन कठोरा (मा.
२.७३.६)—वे भी डर गय और मृगी देिख दव जनु च ओरा (मा. २.७३.६)। पर◌ु धैय
धारण िकया। धीरज धरेउ कुअवसर जानी (मा. २.७४.१)। ‍ िक—भय भंजिन। माताजीने
कहा—“बेट!”
तात तु हािर मातु बैदेही। िपता राम सब भाँित सनेही॥
(मा. २.७४.२)
“बेट! जब राघवजीने यह कहा िक तुम माँक पास जाओ, उसी समय तुम कह देते िक
नह सीताजी मेरी माँ ह और आप मेर िपताजी ह।” ल मणजीने कहा—“यह सब तो कहा। पर
उ◌ ने मुझे मेरी माँक पास नह भेजा, उ◌ ने मुझे अपनी माँक पास भेजा ह।” तब सुिम ाजीने
कहा—“ठीक ह, यिद वे मेर सामने आनेसे सकचा रह ह तो म भी उनक सामने जानेम सुकचा
रही ल मण! तुम जाओ, राघवजी एवं सीताजीक सेवा करना—
उपदेश यह जॆिह तात तुमते राम िसय सुख पावहीं।
िपतु मातु ि य पिरवार पुर सुख सुरित बन िबसरावहीं॥
तुलसी सुतिह िसख देइ आयसु दी पुिन आिशष दई।
रित होउ अिबरल अमल िसय रघुबीर पद िनत िनत नई॥
(मा. २.७५.९)
बेट! मेरा यही उपदेश ह िक तुम वही करना िजससे सीतारामजी तुमसे स रह।”
ल मणजी िफर थोड़ा-सा डर िक कह उिमलाजी न रोक ल, पर उिमलाजी ‍ रोकग —
मातु चरन िसर नाइ चले तुरत शंिकत दय (मा. २.७५)। श ा कर रह ह, पर उिमलाजीने
कहा िक नह म नह रोकगी—
मेरे मानसके हिरण आज वनचारी।
मैं रोक न लगी तु हे तजो भय भारी॥
(सा.)
२२२
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

उिमलाजीने नह रोका ‍ िक—भय भंजिन (मा. १.३१.८)। ीरामजी, ल मणजी और


सीताजी; तीन व कल व धारण िकये ए दशरथजीक पास आये। ीरामजीने िपताजीसे
कहा—
तात िकये ि य ेम मादू। जग जश जाइ होइ अपबादू॥
(मा. २.७७.४)
ि यक ित ेमम यिद माद आ तो अनथ हो जायेगा िपता ी!
सिज बन साज समाज सब बिनता बंधु समेत।
बंिद िब गु चरन भु चलॆ किर सबिह अचेत॥
(मा. २.७९)
‍ा ◌ य ह! सबको अचेत कर िदया, नह तो मर जाते। विस जीक यहाँ आकर खड़
ए। दशरथजीक रा यकालम िव म◌ालय रामजीक पास ही था—गु सन किह बरषाशन
दी े (मा. २.८०.३)। सब ा ण क िलए स पा बरषाशन। चौदह वषका बजट बनाकर दे
िदया एक साथ और पूरी यव था कर दी िक जबतक म वनवाससे नह लौटगा, तबतक मेर ही
धनसे अयो याक ा ण भोजन करते रहगे। दासी-दास सबको स प िदया। चल पड़। ल ाम
अपशकन ए, अवधम शोक ह, वगम हष-िवषाद दोन । इधर राघवजीक चल जानेक प ा
च वत जीक मू◌ा जगी और वे बोल—“रामजी चल गये, पर मेर ाण नह जा रह ह। सुम◌
रथ लकर जाओ।” सुम◌जी रथ लकर जा रह ह। रथपर भुको बैठाया। इधर अयो याक लोग
सब पीछ-पीछ चल पड़—
सिह न सके रघुबर िबरहागी। चले लोग सब याकुल भागी॥
(मा. २.८४.४)
बालक बृ िबहाइ गृह लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर िनवास िकय थम िदवस रघुनाथ॥
(मा. २.८४)
तमसाक िकनार भगवा थम िदवस िव ाम कर रह ह। उ◌ ने सोचा िक
अयो यावािसय का ‍ा क ? देवता क मायाने अयो यावािसय को थोड़ा सुला िदया िक
वनम इनका जाना ठीक नह रहगा। भु सुम◌से कहते ह—“चुपकसे रथ ल चलो—खोज
मािर रथ हाँक ताता (मा. २.८५.८), िच नह िदखने चािहए।”
वेरपुर आये। िनषादराज गुह भुक िम ह, उनसे िमल। भुने कद-मूल फलाहार
िकया। शयन कर रह ह रामजी और सीताजी। ल मणजी जाग रह ह। िनषादराजजीको ब त
श आ—“अर! ककयी माताने ‍ा कर िदया! भुको वनवास? ये दुःख सहने यो य
ह ‍ा?” ल मणजीने कहा—“‍ा कह रह ह आप? कोई िकसीको सुख-दुःख नह देता,
सबको अपने कमफल भोगने पड़ते ह।” िनषादने पूछा—“तो रामजीने कौन सा कम िकया, जो
उनको भोगना पड़ रहा ह?” ल मणजीने कहा—“तो पहल ये बताइये िक रामजी भोग कहाँ
रह ह? आपको म हो रहा ह िक रामजी भोग रह ह।” िनषादने पूछा—“इसका माण?”
ल मणजीने कहा—“अर! माण यह ह िक यिद रामजीको थोड़ा-सा भी दुःख होता तो इतने

२२३
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

खराट भरकर सोते ‍ा? यह बताइये!” इसिलए—


सखा परम परमारथ ए । मन म बचन रामपद ने ॥
(मा. २.९३.६)
ब त सु◌र चचा ई। कवट ब त यानसे यह संवाद सुन रहा था। इधर भगवा रामने
ल मणजीक साथ िसरपर जटा बनायी और वान थ िनयम धारण िकया। सुम◌जीक आँख म
आँसू भर आये। रामजीने उ◌ ब त समझाया—“आप जाइये! िपताजीको मेरा यह संदेश
किहयेगा िक मेरी िच◌ा न कर।” सीताजीने भी कहा िक मेर सास-ससुरको मेरी ओरसे णाम
किहयेगा, म स तथा मुझे िकसी कारका डर नह ह।
ाननाथ ि य देवर साथा। बीरधुरीन धरे धनु भाथा॥
(मा. २.९९.१)
अब सुिनये! यह से िनभयताका ार भ हो रहा ह—भय भंजिन (मा. १.३१.८)। रामजीने
कह िदया िक अब िकसीको डरनेक आव यकता नह ह। म अभय , अभयदान करने आया
। चिलये देख! सबसे थम उदाहरण कवटका।
बरबस राम सुमं पठाए। सुरसिर तीर आपु तब आये॥
(मा. २.१००.२)
भु ग ाजीक िकनार उप थत ह और कवट नावपर बैठा ह। भगवा कवटको बुला रह
ह—कवट! कवट!!
आवहो आवहो आवहो आवहो।
आवहो मोरी नावके िखवैया, िजिन बार लगावा केवट भैया॥
यह हमारी शु अवधी भाषा ह—
हम दो बंधु अवधसे आये, िपता वचन ते िबिपन िसधाए।
हमरे साथ बैठे कोमल लगैया, िजिन बार लगावा केवट भैया॥
गंगा नदी बहे अिबरल धारा, जल अघाद अित दूर िकनारा।
अब पवन चलत पुरबैया, िजिन बार लगावा केवट भैया॥
आवहो आवहो आवहो आवहो।
आवहो मोरी नावके िखवैया, िजिन बार लगावा केवट भैया॥
शोक िवकल सब पुर नर नारी, हमरे िवयोगमें अिधक दुखारी।
हमरे पास नहीं नाव औ िखवैया, िजिन बार लगावा केवट भैया॥
कवट बोला—“‍ा क ?” रामजीने कहा—
गंगा नदीसे पार उतारो, िगिरधर - भुको दयमें धारो।
तु हे लौिटके देब उतरैया, िजिन बार लगावा केवट भैया॥
आवहो आवहो आवहो आवहो।
आवहो मोरी नावके िखवैया, िजिन बार लगावा केवट भैया॥
आहा! आहा!! बोिलये भ व सल भगवा क जय!
कवटने कहा—

२२४
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

माँगी नाव न केवट आना। कहइ तु हार मरम मैं जाना॥


(मा. २.१००.३)
“म आपका मम जानता ।” “अ◌ा! ‍ा मम जानते हो?” कवटने कहा—“सबका
उ ार हो रहा ह। आपने बचपनम खगका, भुशु डजीका उ ार िकया। िफर मृगका उ ार
िकया—जे मृग राम बानके मारे (मा. १.२०५.३)। याध जैसे र वभाववाल ताड़का,
मारीच-सुबा का उ ार िकया, पाषाण अह याजीका उ ार िकया। अब मेरी बारी ह। अब आप
नावका उ ार कर रह ह। तो भगव ! नावका उ ार तो प ा होगा, अभी मेरा िनपटा दीिजये।
‍ िक आपक चरण- पश करक जब िशला सु◌री नारी बन गयी तो यह नाव तो बड़ी कोमल
ह। मागम उलट जायेगी, लट जायेगी—तरिनउ मुिनघरनी होइ जाई (मा. २.१००.६)। आप
तो नह डबगे, पर मेरी जीिवका चली जायेगी।” इसिलए—
जौ भु पार अविस गा चह । मॊिह पद पदुम पखारन कह ॥
(मा. २.१००.८)
यिद आप माग अव य पार होना चाहते ह, तो मुझे चरण कमल धोनेक आ ा दीिजये।
भगवा ने कहा—“िफर।” भु—पद पदुम धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं (मा.
२.१००.९)। सही कह रहा , झूठ नह बोल रहा —
मॊिह राम राउिर आन दशरथ शपथ सब साँची कहौं।
ब तीर मार लखन पै जब लिग न पायँ पखािरहौं।
तब लिग न तुलसीदास नाथ कृपाल पार उतािरहौं॥
(मा. २.१००.९)
रामजी हसे। यहाँ ब त अ◌ा सोरठा ह—
सुिन केवटके बैन ेम लपेटे अटपटे।
िबहसे क ना ऐन िचतइ जानकी लखन तन॥
(मा. २.१००)
िबहसे क ना ऐन—भगवा हसे। ‍ हसे? भगवा कह रह ह—“सुनो सीते! मेर
चरण क सेवाक िलए आपने पीहर छोड़ा, ससुराल छोड़ा और ल मणने मेरी चरणसेवाक िलए
महतारी छोड़ी और नारी छोड़ी। िफर भी सेवा नह िमली। और कवटने कछ भी नह छोड़ा,
िफर भी आज दोन चरण क सेवा पा रहा ह। यह बताइये िक आपका याग भारी पड़ रहा ह
या कवटका अनुराग भारी पड़ रहा ह? बताइये!” िचतइ जानकी लखन तन—दोन सीताजी
और ल मणजीक ओर देखकर भगवा हसे। आन◌ कर िदया!
दोन ओर भगवा ने एक और कारणसे देखा। भगवा को लगा—“कवट िनभय ह। कह
सीताजीको ोध आ जाए तो सीताजी वगसे नाव मँगवा लग । जब मेरी बारातक सेवा वे
ऋि -िसि से करवा सकती ह तो यिद वगसे नाव आ जायेगी तब तो बेचार कवटक जीिवका
खतरम पड़ जायेगी। और ल मणजी कह ोधम आकर कह द िक ग ाजी! थोड़ी देर सूख
जाइये हम पैदल चल जायगे, तो कवटपर कपा कसे होगी।” इसिलए िचतइ जानकी लखन

२२५
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

तन—दोन सीताजी और ल मणजीक ओर इस आशय से देखा िक तुम लोग कछ भी मत


बोलो! लीला देखते रहो, मूक दशक रहो। इसिलए दोन जन क ओर देखा। िफर बुलाया
कवटको और कहा—“अ◌ा भैया! वही करो िजससे तु हारी नाव न जाये—
कृपािसंधु बोले मुसुकाई। सॊइ क जॆिह तव नाव न जाई॥
(मा. २.१०१.१)
शी मेर चरण पखारो, िवल ब हो रहा ह।” “ठीक ह सरकार! पर यिद ये दोन रोक,
तब?” “अर नह ! केवट राम रजायसु पावा (मा. २.१०१.६)—यह म राजा ा दे रहा
। अब कसे ये लोग रोकगे?” कवटने कहा—“अ◌ा! आप राजा कबसे बने भगव ?”
भगवा ने कहा—“जबसे तुमने कहा। तु ह तो कह रह थे—सब पिरवार मेरो यािह लािग
राजा जू (क. २.८)।” रामजी आन◌म मुिदत हो गये।
केवट राम रजायसु पावा। पािन कठवता भिर लइ आवा॥
अित आन उमिग अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥
(मा. २.१०१.६–७)
कौन चरण धो रहा ह? बोल—अनुरागा। आज भगवा का ेम ही कवट बन गया ह, वही
चरण धो रहा ह।
बरिष सुमन सुर सकल िसहाहीं। यॆिह सम पु यपुंज कॊउ नाहीं॥
(मा. २.१०१.८)
देवता फल क वषा कर रह ह, जय-जयकार कर रह ह, आन◌ हो गया, इतना बड़ा
पु यपु कोई ह ही नह आज।
पद पखािर जल पान किर आपु सिहत पिरवार।
िपतर पार किर भुिह पुिन मुिदत गयॆउ लइ पार॥
(मा. २.१०१)
चार काय िकये कवटने—(१) आपु सिहत पिरवार पद पखािर, (२) आपु सिहत पिरवार
जल पान किर, (३) आपु सिहत पिरवार िपतर पार किर, (४) आपु सिहत पिरवार भुिह
पुिन मुिदत गयउ लै पार। ये चार काम िकये प रवार सिहत। कवटने कहा—“सरकार!
एक बार चरण और धुलवा लीिजये।” भगवा ने कहा—“‍ ?” कवटने कहा—“अर!
आज हमार िपतर का ा करना ह भगव ! िपतर प चल रहा ह। भगव ! मुझे ा
करना ह।” धुलवाये भगवा ने और उसी चरणामृतसे—अनेन भगव◌ादोदकन अ म ृ माता
अ म मातामहः अ म ◌तामहः अ म◌िपतामहः अ म ◌तरो ीय◌ां तृ य◌ा । आन◌ कर
िदया! सब लोग साकत चल गये—
पद पखािर जल पान किर आपु सिहत पिरवार।
िपतर पार किर भुिह पुिन मुिदत गयॆउ लै पार॥
(मा. २.१०१)
आन◌ कर िदया!

२२६
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३

उतिर ठाढ़ भये सुरसिर रेता। सीय राम गुह लखन समेता॥
केवट उतिर दंडवत की ा। भुिह सकुच यॆिह निह कछ दी ा॥
(मा. २.१०२.१–२)
वयं भु खड़ ए। कवटने उतरकर द डव क । “‍ भैया?” कवटने कहा—“म
जानता िक जो आपको द डव कर लता ह, उसे द ड नह िमला करते भगव ! इसिलए
द डव कर ली।” “अर! इसे मने कछ नह िदया”—
केवट उतिर दंडवत की ा। भुिह सकुच यॆिह निह कछ दी ा॥
िपयिहय की िसय जानिनहारी। मिनमुदरी मन मुिदत उतारी॥
(मा. २.१०२.२–३)
आहाहा! भगवती जान गय िक भुको संकोच हो रहा ह। स तासे चूड़ामिण भी उतार
ली और मुि का भी; कहा—“ल मणक उतराईम कवटको चूड़ामिण दे दूँगी और अपनी
उतराईम मुि का दे दूँगी।” भगवा ने कहा—“उतराई लो।” कहॆउ कृपाल ले उतराई (मा.
२.१०२.४)। कवटने चरण पकड़ िलए—केवट चरन गहे अकुलाई (मा. २.१०२.४) और
बोला—“उतराई ही तो ल रहा । चूँिक यह चूड़ामिण सीताजीक िनजी संपि नह ह और
मुि का भी उनक िनजी संपि नह ह। सीताजीक िनजी संपि ह आपक वाम चरण और
ल मणजीक िनजी संपि ह आपका दािहना चरण। यही उतराई म ल रहा और ‍ा चािहए।
नाथ आजु मैं काह न पावा (मा. २.१०२.५)—सब कछ तो मुझे िमल गया भगव । कछ नह
चािहए—अब कछ नाथ न चािहय मोरे (मा. २.१०२.७)।” आन◌ कर िदया! भगवा ने
अभय कर िदया—भय भंजिन (मा. १.३१.८)।
याग आये, भर ाजजीक दशन िकये। भर ाजजीने कहा—“सरकार! आपक दशनसे सब
कछ िमल गया मुझे।” सब लोग वनपथम आन◌ कर रह ह। सबको आन◌ देते ए आ रह
ह। वटवृ क नीचे क। भय भंजिन। ामवधुएँ भी िनभय हो गयी ह, सीताजीक पास आती
ह और कहती ह िक ये करोड़ कामदेव को ल त करने वाल तु हार कौन ह?—
कोिट मनोज लजाविनहारे। सुमुिख कह को आिह तु हारे॥
(मा. २.११७.१)
सीताजीने बताया—
खंजन मंजु ितरीछे नयनिन। िनज पित कहॆउ ितनिह िसय सयनिन॥
(मा. २.११७.७)
ग द हो गय । वा मीिकजीक आ मम आये और वा मीिकजीने भगवा को चौदह थान
बताये रहनेक। िच कट आ गये और देवता ने कोल-िकरात क वेषम आकर कटी बनायी।
भगवा िच कट आ गये ह, यह समाचार सुनकर ऋिष-मुिन आये—
िच कूट रघुनंदन छाये। समाचार सुिन सुिन मुिन आये॥
(मा. २.१३४.५)
स मान करक भु ने उ◌ िवदा िकया—जथाजोग सनमािन भु, िबदा िकये मुिनबृंद
(मा. २.१३४)। कोल-िकरात प क दोन म क◌-मूल, फल भर-भरकर दौड़ ए आये, भुने

२२७
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प

ि य वचन कहकर सबको स कर िदया, सब आन◌ कर िदया। सब ेमसे िनभय हो


गये—भय भंजिन। सीतारामजी ल मणजीक सिहत स होकर िच कटम रह रह ह—
राम लखन सीता सिहत सोहत परनिनकेत।
िजिम बासव बस अमरपुर शची जयंत समेत॥
(मा. २.१४१)
यॆिह िविध भु बन बसिह सुखारी। खग मृग सुर तापस िहतकारी॥
(मा. २.१४२.३)
इस कार तेरहव कथा भय भंजिन (मा. १.३१.८) स प ई।
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो!
पवनपु हनुमा जी महाराजक जय हो!
गो वामीजी तुलसीदास महाराजक जय हो!
॥ जय जय ीसीताराम ॥

२२८
स म पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
सीतारामगुण ामपु यार यिवहािरणौ ।
व े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी तुलीदासजी महाराजक जय हो।
जय िसयारामा भरत ि य रामा। जय िसयारामा भरत ि य रामा॥
भरत ि य रामा लखन ि य रामा। जय िसयारामा भरत ि य रामा॥
सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन॥
जय िसयारामा भरत ि य रामा। जय िसयारामा भरत ि य रामा॥
ीसीताराम भगवा क जय हो! भावते भरतलालजीक जय हो!!
प रपूणतम परा◌र परमा मा, जगि य◌ा, जगदेथकनाथ, जगदाधार, जगदिध ान,
जग मोहन, जग ाथ, जगदीश, भगवा , परमारा य ीसीतारामजीक कपासे, मोदीनगरम राघव-
सेवा-सिमित ारा समायोिजत, मेरी १२५१व ऐितहािसक रामकथाक स म स म आप सभी
बा धिवय और ब धु का म ब त-ब त वागत करता ।
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

कथा १४: म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)


आजक जो कथा ह, उसक संब धम योिगराज जनकजीका वा‍ यात य ह। योिगराज जनकजी
िच कटम अपनी धमप ी सुनयनाजीसे कह रह ह—
सावधान सुनु सुमुिख सुलोचिन। भरतकथा भवबंध िबमोचिन॥
(मा. २.२८८.३)
“ह सुमुिख! तुमने भरतजीक चचा क । ह सुलोचिन! तुमने भरतजीक छिवको िनहारा ह।
अतः इस कथाको सावधान होकर सुनो, अवधानक साथ सुनो।” अवधान माने एका ता और
सावधान अथा अवधानेन सिहत एका ताक साथ सुनो। भरतजीक कथा भवब धको न
कर देती ह—भरतकथा भवबंध िबमोचिन (मा. २.२८८.३)। और इसी कथाको यहाँ तीस
कथा क मम गो वामीजी कहते ह— म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। यह म प
मढकको िनगलनेक िलए सिपणीक समान ह। मढक िच ाता रहता ह और साँिपन मढकको
िनगल जाती ह। इसी कार यिद जीवनम भरतलालजीक कथा आ जाए, तो हमको-आपको
भगवा क ित म नह रह जायेगा और यही म हमको संसारम ल आता ह—तब भवमूल
भेद म नासा (मा. ७.११८.२)। भेदका जो हम म हो गया ह, वह न हो जाता ह।
भेद मका अथ ‍ा ह? एक बात बताऊ! म कारण नह जान पा रहा , पर न जाने
‍ मोदीनगरक इस कथाम मेरा मन ब त लग रहा ह! देिखये भेद मका अथ यह ह िक
हम वै णवलोग व पतः तो अभेद वीकारते नह , व पसे हम भगवा से अलग ह। भगवा
परमा मा ह और हम जीवा मा। इतना समझ लना चािहए िक जीवा मा कभी परमा मा नह बन
सकता। अ ैतवादी यही कहते ह िक जीवा मा परमा मा ह, पर हमने कहा िक ऐसा नह ह
‍ िक ुित उसका िवरोध कर रही ह—
िन यो िन यानां चेतन ेतनानामेको ब नां यो िवदधाित कामा ।
(क. उ. २.२.१३)
जीवा मा अणु ह। अणु होकर चेतन ह जीवा मा, छोटा-सा ह और परमा मा यापक होकर
चेतन ह—अणु वे स ेतन वं जीवा म वं, यापक वे स ेतन वं परमा म व । परमा मा
यापक होकर चेतन ह और जीवा मा अणु होकर चेतन ह। जीवा माका नाम ह े । ‍ा
नाम ह? याद रिखये े — े ं चािप मां िवि सव े ेषु भारत (भ.गी. १३.२) और
परमा माका नाम ह सव । परमा मा सब कछ जानते ह, सभी शरीर क बात जानते ह, जीवा मा
कवल अपने शरीरको जानता ह—इदं शरीर कौ ेय े िम यिभधीयते (भ.गी. १३.१)।
इसिलए जीवा मा परमा माका भ ह। यायशा म प कहा गया ह— ानािधकरणमा मा
(त.सं.)। अ भ ने जब इसक टीका िलखी, तो कहा—समवायसंब धेन िन य ानवानी रः
अथा समवाय-संब धसे िन य ानवा ई र ह। भगवा का ान कभी ढकता नह , जीवका
ान मायासे ढक जाता ह—
यान अखंड एक सीताबर। माया ब य जीव सचराचर॥
(मा. ७.७८.४)

२३०
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४

रामायणजीक चौपाइय को गानेसे समािध लग जाती ह िम ो! जो अभागे ह उ◌ न समािध


लगे। उनको तो िप रक गीत म समािध लगती ह। उ◌ क वािलय म, शेर-शायरीम, िफ म म,
फहड़ गीत म समािध लगती ह। वे अभागे ह। ‍ा करगे?—
सुन उमा ते लोग अभागी। हिर तिज होिह िबषय अनुरागी॥
(मा. ३.३५.३)
इसिलए मुझको तो चौपाई गानेम समािध लगती ह, आन◌ आ जाता ह। आपको भी लगेगी,
िच◌ा मत करो माताओ। करपा ी वामीजीका मेरठम भी एक आ म ह धमसंघवाला। ब त
चार िकया धमका, झूठ नह कहना चािहए। सीधे ब त थे करपा ी वामी। कछ लोग ने उनसे
सं था बनवा दी, थोड़ा राजनैितक हो गया नह तो, इतने अ◌े थे वे िक कभी-कभी लगता था
िक वयं भगव◌ाद आ शंकराचायजी ही करपा ीजीक पम आ गये। ब त अ◌े थे, पर
गलती सबसे होती ह। हो गयी! ब त अ◌े थे। तो करपा ी वामी एक बात कहते थे िक
वैिदक-लोग को वेदपारायण करनेसे िजतना पु य िमलता ह, उतना ही पु य रामच रतमानसको
स वर गानेसे िमल जाता ह। तो वेद तो बिहन पढ़ नह सकत । अब तो ठीक ह, जो कछ
ह। और सभीको वेद पढ़नेका अिधकार नह होता। रामायणजी सब गाओ चकाचक! बैठकर
गाओ, उठकर गाओ, लटकर गाओ, घूमकर गाओ, नहाकर गाओ, िबना नहाकर गाओ—जैसे
भी गाओ, क याण ही क याण ह। ीरामायणजीको ब त ेमसे गाना चािहए।
देिखये! हम यह कह रह ह िक हमलोग व पतः तो परमा माका अभेद नह मानते, पर◌ु
संब ध-िनब धना एकता हम मानते ह। संब धसे हम परमा मासे अिभ ह और व पसे िभ ह।
संब धसे अिभ होनेका ‍ा अथ ह? जैसे वा मीक यरामायणम आया न—रामसु ीवयोरै ं
दे येवं समजायत (वा.रा. ५.३३.४९) अथा इस कार राम और सु ीवक एकता हो गयी।
एकता माने संब ध हो गया। तो हम भगवा क सेवक ह और भगवा हमार वामी ह—यही
हमारा संब ध ह।
एक बात आज ब त ग भीरतासे सुिनये। िफर तो नाचने-गाने वाल व ा िमल ही जायगे,
आपको सुनायगे। पर जो म सुना रहा , उसे सुिनये! हम कौन ह? हम भगवा क सेवक ह
और भगवा हमार वामी ह। ये रामजीक सखा कह रह ह और िकतना सु◌र कह रह ह।
सेवक हम वामी िसयना । होउ नात यह ओरिनबा ॥
(मा. २.२४.६)
इतनी सु◌र पि ह।
जॆिह जॆिह जोिन करम बश महीं। तह तह ईश देउ यह हमहीं॥
(मा. २.२४.५)
ह भगव ! हम िजस-िजस योिनम जाय, इतना दे दीिजये िक सेवक हम वामी िसयना
(मा. २.२४.६) यािन हम भगवा क सेवक रह और सीतापित भगवा राम हमार वामी। होउ
नात यह ओरिनबा (मा. २.२४.६) यह जो हमारा नाता (संब ध) ह, सेवक-से य भाव,
जबतक हम जीते रह तबतक इसका िनवहण होता रह।

२३१
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

सेवक हम वामी िसयना । होउ नात यह ओरिनबा ॥


(मा. २.२४.६)
तो देिखये, संब ध-िनब धना एकताम जब भेद म हो जाता ह, तब हम संसारम पड़
जायगे। जब हमको यह म हो जायेगा िक हम रामजीक नह ह, रामजी हमार नह ह, तब
हमारी प ी, हमारा पित, हमारा बेटा, हमारी बेटी, हमारा घर- ार, हमार इ , हमार िम , हमारा
धन, हमारी संपि —जब यि संसारम हमारा-हमारा करने लगेगा—तब उसे संसारम पड़ना
ह। तब भव मूल भेद म (मा. ७.११८.२)—तब भेद म होगा। यही भेदका म ह। संसारम
भगवदित र -संब धक क पना ही भेद म ह, और हम कर रह ह। हम-हम करक मरते जा
रह ह—
हम-हम किर धन-धाम सँवारे अंत चले उिठ रीते॥
(िव.प. १९८.२)
तो यह भरतजीक कथा इसी मको न करती ह—भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा.
१.३१.८)। यह बताती ह िक अर! ये संसारक संब ध यवहारमा ह और यवहार कभी भी
अ या मक साथ जुड़ नह पाता। यवहार झूठा होता ह, िवचारक साथ इसका सम वय नह हो
पाता। यह तो कवल भरतजीका ऐसा यवहार ह जो झूठा नह ह, स य ह। उनका तो ‍ा कहा
जाए, उनका तो आचार भी स य ह, िवचार भी स य ह और यवहार भी स य ह—
सुिन भूपाल भरत यवहा । सोन सुगंध सुधा शिशसा ॥
(मा. २.२८८.१)
अ य तो दो कारका यवहार रहता ह, संसारका यवहार अलग और भगवा का अलग।
पर यहाँ दो नह ह। यहाँ तो ‍ा भगवा क कपा ह! यहाँ तो संसारम िकसी संबंधक क पना ही
नह क गयी, इसिलए भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। देिखये! गो वामीजीने
कहा िक संसारम दस कारक संब ध होते ह। और जो भी संब ध ह गे, उनका इ◌ म समाहार
हो जायेगा। सु◌रका डम भगवा राम िवभीषणसे ब त अ◌ा कहते ह—
जननी जनक बंधु सुत दारा। तन धन भवन सु द पिरवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनिह बाँध बिर डोरी॥
(मा. ५.४८.४–५)
(१) जननी—माताका संब ध, (२) जनक—िपताका संब ध, (३) बंधु—भाई और बिहनका
संब ध, (४) सुत —पु और पु ीका संब ध, (५) दारा—पु षक िलए प ीका संब ध
और ीक िलए पितका संब ध, (६) तन—शरीरका संब ध, (७) धन—संपि का संब ध,
(८) भवन—घरका संब ध, (९) सु द—िम का संब ध, और (१०) पिरवार—कट बका
संब ध—ये ही तो दस संब ध होते ह। इ◌ दस संब ध क क पनाम जीव मर रहा ह बेचारा!
इ◌ दस संब ध म जुड़ा रहता ह और दशरथन◌नसे दूर रहता ह। और कोई यारहवाँ संब ध
हो तो बताओ भाई! ये ही दस संब ध ह संसारक। भगवा कहते ह िक इन सबक ममताक
र सीको इक ी करक बिढ़या डोरी बटकर, इसी डोरीसे अपने मनको मेर चरण म बाँध दो।
तो भगवा कहते ह—“ममताएँ इक ी करो।” भरतजीने कहा—“‍ा इक ी करनी ह? जब
२३२
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४

इनपर हमारी ममता ही नह , तो इक ी करनेक बात कहाँसे आयी?” भरतजीको िकसीसे ममता
ही नह ह—न मातासे, न िपतासे, न ब धुसे, न पु से, न प ीसे, न शरीरसे, न धनसे, न भवनसे,
न िम से और न प रवारसे। अ त यि ह ये! इसिलए ‍ा बताऊ आपको। वयं गीताक
व ा भगवा चिकत हो गये, तो अब सबक बात ‍ा कर? भगवा ने कहा—
चतुिवधा भज े मां जनाः सुकृितनोऽजुन।
आ िज ासुरथाथ ानी च भरतषभ॥
(भ.गी. ७.१६)
भगवा कहते ह िक चार कारक मेर भ मुझे भजते ह—(१) आ , (२) िज ासु, (३)
अथाथ , (४) ानी—जो मशः (१) काम, (२) धम, (३) अथ, (४) मो मुझसे ही चाहते ह।
भरतजीने कहा—“ भु! ऐसे भी तो लोग ह जो आपसे न अथ चाहते ह, न धम चाहते ह, न
कामना चाहते ह, न मो चाहते ह। तो उनको आप ‍ा कहगे?” तो भगवा फसे। भगवा ने
कहा—“ऐसा ह िक ये चार तो मेरा भजन करते ह। परतु जो इनसे ऊपर ह—वे मेरा भजन कर
या न कर, म उनका भजन करता ।” तो—
भरत सिरस को रामसनेही। जग जप राम राम जप जेही॥
(मा. २.२१८.८)
‍ा बात ह! चतुिवधा भज े मा —िक◌ु एतदित र ? एतदित र मह भजे। ानी
च भरतषभ—भरतजीका नाम ल िलया। भरतेषु ऋषभः भरतषभः और भरतः ऋषभः य य
स भरतषभः त । क णावतारम जा नाएँ अथ-धम-काम-मो —कछ नह चाहत और
रामावतारम भरतजी अथ-धम-काम-मो —कछ नह चाहते। ी जा नाएँ तो यहाँतक कहती
ह िक म अपने शरीरक सँभाल नह क गी। अब तो मने आपको अपना शरीर स प िदया, अब
इसक सँभाल आप क िजये। ी जा नाएँ भगवा से कहती ह—
िच ं सुखेन भवताप तं गृहेषु यि िवश युत कराविप गृ कृ ये।
पादौ पदं न चलत व पादमूला ामः कथं जमथो करवाम िकं वा॥
(भा.पु. १०.२९.३४)
भु! हम तो कछ नह जानत । ह मोहन! वे तो कहती ह—
लट उरझी सुरझा जा रे मोहन हाथ मेरे मेंहदी लगी है॥
रासमें मेरी बेसर िगर गई अपने हाथ पिहरा जा रे मोहन ...॥
रासमें मेरो कुंडल िगर गयो अपने हाथ पहना जा रे मोहन ...॥
रासमें मेरो कंगन िगर गयो अपने हाथ पहना जा रे मोहन ...॥
रासमें मेरो नूपुर िगर गयो अपने हाथ पहरा जा रे मोहन ...॥
रासमें मेरी चुनरी िगर गई अपने हाथ ओढ़ा जा रे मोहन ...॥
मीराके भु िगिरधर नागर िबगरी बात बना जा रे मोहन ...॥
लट उरझी सुरझा जा रे लट उरझी सुरझा जा रे मोहन ...॥
हाथ मेर महदी लगी हका ता◌य ‍ा ह? यह महदी मने आपक िलए लगायी ह, अतः
इस हाथका म अपने िलए उपयोग नह क गी। अब तो आप जान और आपका काम जाने।
२३३
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

हमने यह पचरगी चोला आपक चरण म स प िदया ह। जो उपयोग आप करना चाह, वह कर।
इतना सु◌र गीत ह यह! एक बार मने गाया यह गीत तो एक लड़का था, हमारा ही प रिचत
था, उसको महाभाव आ गया। वह बालक १५ िदन तक पागल बना रहा। ब त अ◌ा गीत ह।
लट उरझी सुरझा जा रे मोहन हाथ मेरे मेंहदी लगी है।
तो भरतजीक कथाका यही सारांश ह िक उ◌ ने संसारक यवहार क कभी क पना ही
नह क । जनकजी कहते ह िक सुनयना! यह लड़का इतना पागल ह िक इसने वाथ और
परमाथक कभी िच◌ा ही नह क —
परमारथ वारथ सुख सारे। भरत न सपनॆ मन िनहारे॥
साधन िसि रामपग नॆ । मोिह लिख परत भरतमत ए ॥
(मा. २.२८९.७–८)
ऐसा यि कभी देखा गया ‍ा जो िक परमाथ भी नह जानता वाथ भी नह जानता!
‍ ? देिखये कथाएँ तो मने ब तक ह, पर इस कथाका अपना कछ िवल ण अि◌ व ह।
अ त करण ह यहाँका! सुम◌जी पछतावा करते-करते ीअवध आ रह ह। च वत जीको
संदेश िदया िक अब रघुनाथजी ीअवध नह लौटगे चौदह वष पय◌। यान दीिजयेगा—
भरतजीका दशरथजीसे ब त स संग होता था। यह कछ लोग का वग था ीअवधम। ीअवधम
तीन साधक थे—(१) भरतजी, (२) दशरथजी, और (३) जानक जी। इन तीन का अपना
एक अलग यि व था। कई बार भरतजीने ीदशरजथजीसे कहा—“िपता ी! आप मुझे
ीराम ेमक दी ा दे दीिजये।” तो दशरथजीने कहा—“पागल! म राम ेमक दी ा दूँ? हम
लोग का यह सौभा य ह िक ीराम आराधनाक थम आचाया ( थम जग ु ) जग ननी
सीताजी जनकन ◌नी बनकर हमार अवधक बड़ी ब रानी बन गयी ह। उ◌ क चरण म णाम
करक उ◌ से ीराम ेमक दी ा ल लना।” ये लोग परम उपासक ह सीतारामजी क। भगवा
ीरामक गूढ ेमक एक पर परा (सं दाय) ह—जनकजी, जानक जी, भरतजी, और दशरथजी।
(१) जनकजीका गूढ ेम—
नवउ पिरजन सिहत िबदे । जािह रामपद गूढ़ सने ॥
जोग भोग मह राखॆउ गोई। राम िबलोकत गटॆउ सोई॥
(मा. १.१७.१–२)
(२) जानक जीका गूढ ेम—ऐसा ही गूढ ेम जानक जीका ह—
तन सँकोच मन परम उछा । गूढ़ ेम लिख परइ न का ॥
(मा. १.२६४.३)
(३) भरतजीका गूढ ेम—कौश या माताजी कहती ह—
गूढ़ सनेह भरतमन माहीं। रहे नीक मॊिह लागत नाहीं॥
(मा. २.२८४.४)
(४) दशरथजीका गूढ ेम—

२३४
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४

बंदउ अवधभुआल स य ेम जॆिह रामपद।


िबछरत दीनदयाल ि य तनु तृन इव पिरहरॆउ॥
(मा. १.१६)
यह ेिमय का एक वग ह। स य राम ेमी ीदशरथ मेरा एक थ ह। उसे पिढ़ये, िव य
क◌पर िमल जायेगा। ेिमय क अपनी लीला ह। च वत जीने जब सुम◌जीसे सुना िक अब
रघुनाथजी लौटकर नह आयगे, तब सोचा—“‍ा कर? चौदह वष तक कौन ती ा करगा?
नह , छः िदन ही मेर िलए पहाड़ हो गये। अब मुझे नह रहना।” कह िदया—
हा रघुनंदन ानिपरीते। तुम िबनु िजयत ब त िदन बीते॥
(मा. २.१५५.७)
आपक िबना जीते ब त िदन बीत गये। राम कहकर अयो या धाम छोड़ा, राम कहकर
अयो याका धन छोड़ िदया, राम कहकर अयो याक धरणी छोड़ दी।
राम राम किह राम किह राम राम किह राम।
तनु पिरहिर रघुबरिबरह राउ गयॆउ सुरधाम॥
(मा. २.१५५)
ध य हो गये च वत ! िजवन मरन फल दशरथ पावा (मा. २.१५६.१)। यान रिखये
िक च वत जीक मृ युने भरतजीको ब त आहत िकया। म कह चुका िक ये एक वगक लोग
ह। ीअवधम ीराम ेमक तीक तीन लोग रहते थे—च वत दशरथजी महाराज, भरतजी
महाराज और भगवती सीताजी। लग यह रहा ह िक आज भरत भैया पूणतया अकल पड़ गये ह।
िपताजीका शरीर छटा तो वे इ◌लोक चल गये और भगवती सीताजी ीिच कट पधार गय ।
अब ीअवधम अकल भरतजी ह। तो कछ भी हो, जब यि अकला होता ह तो छटपटाता ही
ह। निनहालसे बुलाया गया भरतजीको। ककयीजीसे च वत जी संसारक बात करते थे, परतु
कौश या माताजीक साथ उनका स संग होता था। और बार-बार यह बात कौश याजी कहगी
सुनयनाजीसे—
जानउ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मॊिह कहॆउ महीपा॥
(मा. २.२८३.५)
यही पि संकत कर रही ह िक कौश या भगवतीजीक साथ महाराजका भगवदीय स संग
होता ह। दोन भगव चा करते ह। कौश याजीक सम कह िदया—“बड़ी महारानीजी! यह
भरत िनर◌र कलका दीपक बना रहगा—जानउ सदा भरत कुलदीपा (मा. २.२८३.५)।
रामजी तो अ थायी कल दीपक ह—रघुकुलदीपिह चलॆउ िलवाई (मा. २.३९.६), गयॆउ
जहाँ िदनकर कुल टीका (मा. २.३९.५), िफर तो वह मिण बनगे—रघुकुलमिन दशरथके
जाए (मा. १.२१६.८)। पर भरत एकरसम दीपक ही रहगे।” दीपक सभी कम का सा ी होता
ह। जबतक कम चलता ह, तबतक दीपक जलता ह— य ं दीपं दशयािम। यह भगवा क
पूजाका बारहवाँ उपकरण ह, दीपक बारहव पूजा ह।

२३५
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

च मा मनसो जात ोः सूय अजायत।


ो ा ायु ाण मुखादि रजायत॥
(शु.य.वे. ३१.१२)
अ त ह यह! और दीपकक सबसे बड़ी बात होती ह—संसारम भी हमार यहाँ अब तो
िबजली आने लगी ह, पर अभी भी ब तसे गाँव म िबजली नह होती। जब सूयनारायणक दशन
न ह और च◌मा भी न हो—उस समय अमाव याक रातम दीपकक भूिमका ब त बड़ी हो
जाती ह। आज अयो याजीम अमाव याक रात आ गयी ह ‍ िक रामच◌जी चौदह वष क
िलए वनम, िच कट, पधार गये ह और िपताजी सूयनारायण अनवसर अ◌ हो चुक ह, अब
भरतजीक भूिमका ह—जानउ सदा भरत कुलदीपा (मा. २.२८३.५)।
अब म देिखये, कसे मको यह कथा दूर करगी! मका यहाँ अथ ह, याद रिखये—भेद
म (मा. ७.११८.२) संसारक संब धका जो भेद ह, यही म ह। और यह म भेक भुजंिगिन
(मा. १.३१.८) कथा ह। एक-एक करक अब देखते जाइये िक ‍ा दस ममताएँ भरतजीको
छ सक ? म थराने बताया—“भरत आ रह ह।”
सिज आरती मुिदत उिठ धाई। ारॆिह भेंिट भवन लॆइ आई॥
(मा. २.१५९.३)
ककयी माताजी बड़ ेमसे आरती सजाकर ल आय । यहाँ ब त अ◌ा वा‍ ह! देिखये!
आरतीक नह , पर ारॆिह भेंिट भवन लॆइ आई। इसका अथ ‍ा ह? इसका अथ यह
ह िक आरती लकर वयं दौड़ । राजरानी ह, पर दािसय ने भी आज उनका साथ नह िदया।
मा डवीजीने भी सहयोग नह िकया। आरती सजायी, स होकर दौड़ , तो दौड़ते समय ही
आरती बुझ गयी। तो आरती तो कर नह पाय । अतः ारॆिह भेंिट भवन लॆइ आई (मा.
२.१५९.३)। ारपर ही िमल और कहा—“चलो! पहल भवनम चलो, गु देवने बुलाया ह
तुमको। ान आिद कर लो, तब न गु देवसे िमलोगे!” तो ल आय । अब यह से ार भ होता ह
भरतजीक यि वका िद दशन। एक-एक करक देिखये! एक ही बार गो वामीजीने यह बात
कही िक भरतजीका च र एक य ह—शमन अिमत उतपात सब भरतचिरत जप जाग
(मा. १.४१)। य म हवन होता ह, दस कारक सिमधा का हवन। इसको हम दशा कहते
ह। आज भरतजीक च र म िकसका हवन होगा? भरतजी िकसका हवन करगे? जो जननी
जनक बंधु सुत दारा, तन धन भवन सु द पिरवारा (मा. ५.४८.४)क दस ममताएँ ह,
उ◌ को सिमधा बनाकर भरतजी हवन करगे। अब एक-एक करण देखते जाइये!
पहल भरतजीने मा डवीजीसे पूछा—
क कह तात कहाँ सब माता। कह िसय राम लखन ि य ाता॥
(मा. २.१५९.८)
क —इस कारका स बोधन यि अपनी प ीसे ही कर सकता ह। “कहो! िपताजी
कहाँ ह? सभी माताएँ कहाँ ह? अर! हमारी आचाया सीता भाभी माँ कहाँ ह? ीराम-ल मण
दोन भाई कहाँ ह?” मा डवीजीने कोई उ र नह िदया। तब ककयीजीने कहा—“अर! वे तो
वनवास चल गये—सीताजी आपक भाभी, राम-ल मणजी। मने सब बात बना डाली। म थराने
२३६
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४

मेरी सहायता क । पर एक काय ाजीने बीचम िबगाड़ िदया िक—भूपित सुरपित पुर पगु
धारॆउ (मा. २.१६०.२)—अब च वत जी सदाक िलए इ◌लोक चल गये, शरीर छोड़कर
चल गये।” भरतजी बड़ याकल हो गये, िगर पड़ पृ वीपर। िफर पूछा—“कसे आ?” सब
बताया। अब यह िवरहक अि जली और पहली ममताका हवन भरतजी अब कर रह ह।
वाहा! आहाहा!! कह िदया िक अर माताजी—
जौ पै कु िच रही अिस तोही। जनमत काहे न मारेिस मोही॥
(मा. २.१६१.७)
मुझे मार डाल होत ।
पेड़ कािट तैं पालउ सींचा। मीन िजयन िनित बािर उलीचा॥
(मा. २.१६१.८)
कर िदया हवन।
हसबंश दशरथ जनक राम लखन से भाइ।
जननी तू जननी भई िबिध सन कछ न बसाइ॥
(मा. २.१६१)
तुम तो अपनी माताक समान हो गय । तु हारी माताने जैसे पितको मारनेका ष ं रचा,
पर वे तो नह मर, परतु मेर िपताजी तो मर ही गये—िबिध सन कछ न बसाइ (मा. २.१६१)।
हवन कर रहा माताक ममताका! आजक प ा जीवन भर आपसे म सामने बात नह
क गा—
कैकेयी जौलों िजयित रही।
तौलों बात मातुसों मुँह भिर, भरत न भूिल कही॥
(गी. ७.३७)
जो हिस सो हिस मुँह मिस लाई। आँिख ओट उिठ बैठिह जाई॥
(मा. २.१६२.८)
बस! पहली ममताका हवन कर िदया—मातृ ममतां जुहोिम ीरामाय वाहा। भय भंजिन
म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। पहली ममताका हवन हो गया।
अब उसी समय म थरा आयी। श ु जीने म थराको द डत िकया, और िफर कौश या
पिह गे दॊउ भाई (मा. २.१६३.८)—कौश याजीक पास आये। आहा! बोल—मातु तात
कह दे देखाई (मा. २.१६४.३)—माताजी! िपताजीको िदखा दीिजये न! कौश याजीने
कहा—“‍ा िदखा दूँ? यह अमाव याक राि ह और अमाव याक राि को पूव िदशाक पास
न च◌मा रहते ह और न सूय। म ाची , पर क ‍ा? पूिणमाक ाची नह , आज म
अमाव याक ाची ।” और यह िपताजीक वा◌िवक यि वक चचा क माताजीने—
िपतु आयसु भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
िबसमय हरष न दय कछ पिहरे बलकल चीर॥
(मा. २.१६५)
कौश या माताजीने कह िदया—“बेटा! म आपको ‍ा बताऊ? मुझे तो अपना ेम देखकर
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कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

ल ा नह लग रही ह—
मॊिह न लाज िनज नेह िनहारी। राम सिरस सुत मैं महतारी॥
(मा. २.१६६.७)
लोग कहते ह िक माता िपतासे अिधक कोमल होती ह, पर च वत जीने आज इस बातको
उलट िदया। आज माता कठोर िनकली और िपता ही कोमल िनकल। म तो जी रही —
िजयइ मरइ भल भूपित जाना। मोर दय शत कुिलश समाना॥
(मा. २.१६६.८)
च वत जीने अपना पु ेम मािणत कर िदया और उ◌ ने अपने यि वको मुझसे भारी
कर िदया। चल गये च वत जी, बेटा!” आज यह भरतजी िपताजीक ममताका भी हवन कर
रह ह, ा करक। िपताजीको मुखाि दी। हवन कर िदया और आज राजसभाम कह भी
िदया—
नािहन डर िबगिरिह परलोकू। िपत मरन कर मोिह न शोकू॥
(मा. २.२११.५)
ि तीय हवन कर िदया। आहा! चिकत ह लोग! जननी जनक बंधु सुत दारा (मा.
५.४८.४)। ब त अ त य ह—भरतचिरत जप जाग (मा. १.४१)।
अयो याका रा य चलानेक बात आयी। सब लोग क मनम एक कारक िनराशा ह, एक
कारका ह। सभी लोग यही कह रह ह—
रिजया कौन अब चलावे भैया भरत के िबना।
भैया भरत के िबना भावते भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
छ भंग कोसलपुर छाया दश िदिश दुसह अँधेरा।
हाहाकार मचा ि भुवन में िवपत दस िदिश घेरा।
िदयना कौन अब बरावे भैया भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
राम िबरह में याकुल रोवे मातु सिचव गु नारी।
छाती पीट कौश या िबलखे शोक मगन महतारी।
धीरज कौन अब धरावे भैया भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
शुक सािरका िपंजरा में िबलपें खग मृग जािह न जोए।
भूिम पछारी मारी हय िहन से आँसुन ते मुँह धोए।
रिजया कौन अब बचावे भैया भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
ातृ ेम पिरिमत की सीमा कौन भगित दरसावे।
रामभ ाचाय के मन म थल में कौन ेम बरसावे।
रिहया कौन अब िदखावे भैया भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
आहाहा!! ीअवधक रा यका ◌ाव हो रहा ह। विस जीने कर िदया ◌ाव—“बेट!
तु ह रा य करना चािहए। आज रामजी नह ह, वनम ह। च वत जी चल गये। तुम सँभालो।”
भरतजी ने कहा—“गु देव! यह रा य मुझसे नह सँभलगा।” विस जीने पूछा—“‍ ?”
भरतजी बोल—“यह तो िसंहासन ह। िसंहासन िसंहसे सँभलता ह, हससे नह सँभलता। म तो

२३८
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४

हस —भरत हस रिबबंश तड़ागा (मा. २.२३२.६)। यह तो िसंहसे सँभलगा गु देव! हससे


नह । यह रा य मेर बसका नह ह।” विस जीने पूछा—“तो ‍ा तु हार िपता ीने गलती क
बेटा? तुमसे नह सँभलगा! तु हार िपताजीको तो िववेक होना चािहए था—राय राजपद तुम
कह दी ा (मा. २.१७४.३) उ◌ ने तो तुमको रा यपद िदया ह।” भरतजी ने कहा—“गु देव!
समझने का फर ह। िपताजीने मुझे राजपद िदया ह। राजपदका अथ होता ह—राजा का चरण।
तो मेर िपताजीने मुझे राजा रामजीका चरण सेवाक िलए िदया ह—राय राजपद तुम कह दी ा
(मा. २.१७४.३)।” अ त आन◌ हो रहा ह!
गु देव! मेर िपताजीका संकत ह िक राजपदम त◌ु ष समास और ब ीिह समास दोन
कर लना। यिद िमल जाए तो सेवाक िलए राजाका पद, रामजीका चरण लना, ‍ िक रामजी
राजा ह। यिद न िमल तो वहाँ ब ीिह कर लना—रा ः पदं य म अथा जहाँ राजाका चरण
िवराजता ह, ऐसी पादुका सेवाक िलए लकर चल आना बेटा!” यह िकतना सु◌र प ह!
देख रह ह आप? और आपको लगता भी होगा िक रामायणजी देखनेम सरल ह, पर किठन
भी ब त ह। “तो गु देव! मेरी िववशता ह। आप बताइये! जब यि राजा बनता ह, तो पूरा
प रवार साथ होता ह न। आज मुझे कसे राजा बनाया जा रहा ह? म पूछता गु देव! पूवका
राजा वतमानक राजाको राजितलक करता ह। आज बताय आप मेरा ितलक करने वाला यहाँ
कौन ह?
िपतु सुरपुर िसय राम बन करन कह मॊिह राज।
ऄिह ते जान मोर िहत कै आपन बड़ काज॥
(मा. २.१७७)
कौन मेरा ितलक करने आया? यिद आज म राजा बन जाऊगा गु देव! तो रावणम और
मुझम ‍ा अ◌र रह जायेगा? बताइये! ल ाम रावणका भी िकसीने राजितलक नह िकया,
वह वयंभू राजा बन गया। यही प र थित यिद अब मेरी हो गयी तो गु देव! रावणम और
मुझम अ◌र ‍ा रह जायेगा? बताइये तो!”
पूरी सभा चुप ह िक भरतजीका प ब त उिचत ह। भरतजीने कहा—“गु देव! यह
िसंहासन म िच कट ल चलगा। यह िसंहका आसन ह और आज राम प िसंह वनम ह। म
वहाँ यह िसंहासन ल चलता । यिद रामजी बैठ जायगे, तो बैठ जायगे। नह बैठगे तो रामजीक
पादुका िसंहासनपर िबठाऊगा, पर म नह बैठगा।” वा◌वम िकतना सु◌र कहा भरतजीने!
“गु देव! आप बताइये! माताजी! आप सब लोग मुझे राजा बनाना चाहते ह, पर यह नह
जानते—
मोिह राज हिठ दॆइहउ जबहीं। रसा रसातल जाइिह तबहीं॥
(मा. २.१७९.२)
मुझे यिद रा य दीिजयेगा न तो पृ वी रसातलको चली जायेगी, ‍ िक इस िसंहासनपर जो
बैठा उसने यहाँक िलए कछ न कछ दान िकया। जब भगीरथ इस िसंहासनपर बैठ, तो ग ाजीको
ल आये। और जब दशरथजी इस िसंहासनपर बैठ, तो रामजीको कट कर िदया। यह बताइये
िक म िकस मुखसे इस िसंहासनपर बैठ? दशरथजी तो रामजीको लाये तब िसंहासनपर बैठ,
२३९
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

यहाँ तो म रामजीको वनवास भेज रहा । मेर कारण रामजी वनवास चल गये, अब कौन-सा
मुँह लकर इस िसंहासनपर बैठ? बताइये!”
मोिह राज हिठ दॆइहउ जबहीं। रसा रसातल जाइिह तबहीं॥
आहाहा!! ऐसा भाई आजतक नह िमला। पा डव भी भाई-भाई ह, ब त ेम ह। पर◌ु
युिधि रजीको कोसने म अजुन और भीमने िकसी कारका संकोच नह िकया। भीमसेनने
ौपदीजीक चीरहरणक समय ही कह िदया—“सहदेव! आग ल आओ। म युिधि रक हाथको
जला देता ।” और अजुनने कणवधक करणम कह िदया। वे तो तलवार लकर मारने चल
गये युिधि रको, परतु क ण भगवा ने बचा िलया। पर यहाँ तो ‍ा आन◌ ह! इतना िवमल
च र ! भरतजीने कहा—“यिद आप लोग मेर दयक जलनको ठडी करना चाहते ह, शा◌
करना चाहते ह तो—
आपिन दा न दीनता कहउ सबिह िशर नाइ।
देखे िबनु रघुनाथपद िजय कै जरिन न जाइ॥
(मा. २.१८२)
मेर दयम ब त ताप ह।” आज यहाँ अयो या छोड़नेका अथ ह िक भरतजीने दस
ममता को छोड़ िदया—माताक ममता, िपताक ममता, ब धु ल मण-श ु क ममता, बिहन
शा◌ाक ममता छोड़ दी। पु -पु ीक समान यारी जाक ममता छोड़ दी। दारा मा डवीजीक
ममता छोड़ दी। चचातक नह क , चल पड़। बस कह िदया िक गु देव और पुरवािसयो! अब
तो—
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में रामजी िबराजें। राम में रम जाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में सीताजी बसत है। िसय दरश पाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में लखनजी लसत है। लखन दरश पाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में म ािकनी बहत है। म ािकनी नहाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में कामदिगिर िबराजें। पिर मा लगाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में िगिरधर भु रमत है। राम दरश पाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
भरतजीने सब कछ छोड़ िदया—
जननी जनक बंधु सुत दारा। तन धन भवन सु द पिरवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनिह बाँध बिर डोरी॥
(मा. ५.४८.४)
२४०
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४

(१) जननी—भरतजीने माताक ममता छोड़ी—आँिख ओट उिठ बैठिह जाई (मा.


२.१६२.८)।
(२) जनक—भरतजीने िपताक ममता छोड़ी—िपत मरन कर मोिह न शोकू (मा.
२.२११.५)।
(३) बंधु—भरतजीने बंधुक ममता छोड़ी—जाउ राम पिह आयसु दे (मा. २.१७८.७)।
(४) सुत —भरतजीने पु क जैसी जाक ममता छोड़ दी—सौंिप नगर शुिच सेवकन
सादर सबिह चलाइ (मा. २.१८७)।
(५) दारा—भरतजीने प ीक ममता छोड़ दी—सुिमिर राम िसय चरन तब चले भरत
दोउ भाइ (मा. २.१८७)।
(६) तन—भरतजीने तनक भी ममता छोड़ी दी—सानुज भरत पयादेिह जाहीं (मा.
२.१८८.२)।
(७) धन—भरतजीने धनक ममता छोड़ दी—संपित सब रघुपित कै आही (मा.
२.१८६.३)। यह मेरी स पि नह ह, रघुपित क स पि ह यह।
(८) भवन—भरतजीने भवनक ममता छोड़ दी—चले िच कूटिह भरत (मा. २.२७१)।
(९) सु द—सु क ममता छोड़ दी—कवल साथ िनषादको लकर चल रह ह।
(१०) पिरवारा—प रवारक ममता छोड़ दी—अब तो कवल सीतारामजी...
भरत चले िच कूट, हो रामा! राम को मनाने।
राम को मनाने, माता सीता को िरझाने॥
भरत चले िच कूट, हो रामा! राम को मनाने।
भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। अर! वयं रामजीक िम िनषादराजको
म हो गया। कारन कवन भरत बन जाहीं (मा. २.१८९.३)—ये भरतजी वनम ‍ जा रह
ह? उनक मका कारण ‍ा ह? वनम जाना था तो अकल जाते, इतनी बड़ी सेना लकर ‍
जा रह ह?—
जौ पै िजय न होित कुिटलाई। तौ कत ली संग कटकाई॥
(मा. २.१८९.४)
म हो रहा ह िक रामजीको यु म मारने जा रह ह। िनषादराज भी नह समझ पाये गूढ़
सनेह भरत मन माहीं (मा. २.२८४.४)। ‍ िलये जा रह ह? भरतजी सोच रह ह िक जैसे
म तड़प रहा भगवा क िलए, उसी कार ये अवधवासी भी तो तड़प रह ह गे। उनका भी
तो दय ह िक नह ? म रामजीक दशन क गा तो हमार अवधवासी भी दशन करगे। सबको
आन◌ आ जाए। और ग भीरता देिखये िम ! आ मव सवभूतेषु यः प यित सः पि डतः
(िह. १.१४)। अवधवासी तो ठीक ह—माताजी, पुरजन, प रजन, गु जन, सबक पि याँ, ब े।
पर पशु क ित भी भरतजीको ेम ह। ये हाथी, घोड़, बैल सबको रामजीक ित ेम ह।
भगवा क चार घोड़, छटकावाला घोड़ा उनका बलाहकवा (उसका नाम ह बलाहक ), वह
ब त ि य ह रामजीको। माताजीने कह िदया—“भैया! और कोई जाये, चाह ना जाये, पर यह
जो छटका घोड़ा ह राघवजीका इसको तो ल चलो, नह तो थोड़ ही िदनम इसक ाण चल

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कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

जायगे। यह ब त याकल ह। कछ खाता-पीता नह ह, सतत रोता रहता ह। दुबला-पतला हो


गया ह।”
राघौ एक बार िफिर आवौ।
ए बर बािज िबलोिक आपने, ब रो बनिह िसधावौ॥
राघौ एक बार िफिर आवौ।
(गी. २.८७)
आप लोग हमार यहाँ सेवाम देखे ह गे। हमार यहाँ जो राघवजीक सेवा होती ह, वहाँपर
उनका घोड़ा भी ह बलाहक। ब त ि य ह भगवा को! तो ये सब जा रह ह। कोतल संग
जािह डोिरआएँ (मा. २.२०३.४)—इनको भरतजी िलए जा रह ह र सीम। इनपर चढ़ नह
रह ह। सेवक ने कहा—“घोड़पर चिढ़येगा?“ भरतजीने कहा—“चुप! यह रामजीका घोड़ा ह।
जैसे रामजी पू य ह मेर िलए, वैसे इनका घोड़ा भी पू य ह। इसपर म सवारी क गा? इसक
तो म पूजा क गा। सवारी क गा?” सोिचये ‍ा यि ह! “मुझे तो यह उिचत होगा िक
िसर भिर जाउ उिचत अस मोरा (मा. २.२०३.७)—जहाँ रामजीक चरण चल, वहाँ मेर िसर
चल।” िफर कहा—“यह भी उिचत नह ह। ‍ िक िसर रखूँगा तो रामजीक चरणिच िमट
जायगे, इसिलए सब ते सेवक धरम कठोरा (मा. २.२०३.७)।”
यागम आ रह ह भरतजी। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। एक कार
क परी ा ह। यागराजने कहा—“‍ा जा रह हो! दे देता तुमको अथ, धम, काम, मो ।”
भरतजीने कहा—“मुझे मत बहकाइये यागराज! ये नह चािहए मुझे। ‍ा क गा लकर?”
“तो ‍ा चािहए?”
अरथ न धरम न काम िच गित न चहउ िनरबान।
जनम जनम रित रामपद यह बरदान न आन॥
(मा. २.२०४)
अथ चािहए न धम काम चािहए कौश या कुमार मुझे राम चािहए॥
स यसंध दयािसंधु वीर तधारी चािहए िच कूट काननिबहारी॥
म ािकनी लिलत ललाम चािहए कौश या कुमार मुझे राम चािहए॥
आ काम पूणकाम राम मुझे चािहए आ माराम घन याम राम मुझे चािहए॥
पर भवभय िवराम चािहए कौश या कुमार मुझे राम चािहए॥
नील सरो ह याम राम मुझे चािहए इ नीलमिण याम राम मुझे चािहए॥
जानकी जीवन पूणकाम चािहए कौश या कुमार मुझे राम चािहए॥
कोिट म मथािभराम राम मुझे चािहए लोक लोचनािभराम राम मुझे चािहए॥
रामभ ाचाय को अिभराम चािहए कौश या कुमार मुझे राम चािहए॥
देिखये! आज तीन परी ा ल रह ह—
(१) ोध—िनषादक आ मणम ोधने परी ा ली। िनषादने पूर आ मणक बात कर दी
थी, पर भरतजीको ोध नह आया।
(२) लोभ— यागने लोभ देकर चार पदाथ क बात कह डाली, पर लोभ नह आया मनम।
२४२
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४

और
(३) काम—भर ाजजीने क चंदन बिनतािदक भोगा (मा. २.२१५.८)—सभी अ सराएँ
उप थत कर द , पर काम नह आया।
ये िविच ही यि ह वा◌वम! कोई अ योि नह समझनी चािहए। तीन भाइय क यहाँ
एक-एक मिहला आयी—
(१) रामजी—रामजीक यहाँ ताटका आयी, उसका वध रामजीने िकया।
(२) श ु जी—इनक यहाँ म थरा आयी, उसक कमर उ◌ ने तोड़ी।
(३) ल मणजी—इनक यहाँ शूपणखा आयी, उसक नाक उ◌ ने काटी।
पर भरतजीक यहाँ कोई ऐसी मिहला आयी ही नह । कोई मिहला आयी ‍ा? बताइये आप
लोग! कोई नह आयी। इसिलए भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। यह यि
‍ा बताया जाए, म वयं आ यचिकत ।
(१) अथ—अयो याम अथ छोड़ िदया। ह न? छोड़ िदया—
अवध राज सुरराज िसहाई। दशरथ धन सुिन धनद लजाई॥
(मा. २.३२४.६)
(२) धम—यहाँ धम छोड़ा—माँगउ भीख यािग िनज धरमू (मा. २.२०४.७)।
(३) काम—भर ाज आ मम काम छोड़ा, सारी ऋि -िसि याँ छोड़ द — क चंदन
बिनतािदक भोगा (मा. २.२१५.८)। और
(४) मो —िच कटम जाकर मो दा अयो या भी छोड़ दी—कानन करउ जनम भिर
बासू (मा. २.२५६.८)।
अरथ अवध छो ो मो ो मुख जगत ते राम के चरण धन मन को रमायो है।
धम याग त यो परम धरम भ यो रघुपित ेम के याग में नहायो है।
भर ाज आ म में काम के साधन तिज जािग राित भर रामगुणगण गायो है।
िच कूट जाई मो दाियनी अयो या तिज ताते रामभ ाचाय भरत अपनायो है॥
सब कछ छोड़ िदया। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन।
‍ा बताय आपको! िच कट आ रह ह, सबको म ही म तो हो रहा ह—(१) िनषादको
म, (२) यागको म, (३) भर ाजको म—“देखता िक ‍ा होता ह?” ऋि -िसि
बुला ल । (४) इ◌को म—जब भरतजीक दशन मा से सभी जड़-चेतन साकतलोक जाने
लगे, तब इ◌को म हो गया। इ◌ने कहा—“गु देव! अब तो गड़बड हो जायेगा, ये तो
सब साकत चल जा रह ह। ‍ा होगा अब?” गु देवने कहा—“कोई बात नह !” इ◌ने
कहा—“ यवधान डािलए।” गु देवने कहा—“नह ! भरत रामजीक िमलनम कोई यवधान
नह डाल सकता। तुम मनम भी मत लाना, नह तो ब त बुरा हो जायेगा। और जब भगवा
राम बुरा मान लगे तो तु हारी सारी स पि धूलम िमल जायेगी। ये तो रामजीक ेमी ह—
भरत सिरस को रामसनेही। जग जप राम राम जप जेही॥
(मा. २.२१८.८)
इतना बड़ा कोई रामभ होगा? ‍ा कह रह हो?” अ◌म इ◌का म दूर आ—भय

२४३
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। आजकलक लोग ने भुअंिगिन (मा.गी. े.) श द
छापा ह। यहाँ भुअंिगिन श द नह , भुजंिगिन ह—भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा.
१.३१.८)। अब देिखये! भरतजी िच कट प च रह ह। (५) ल मणजीको म—सबक बात
तो छोड़ ही दीिजये, ल मणजीको ही म हो गया। इस संगक या या मने भावाथबोिधनी म
क ह, वह पढ़ लीिजयेगा। सामा य लोग यह कहते ह िक ल मणजी भरतजीको मारनेक िलए
कह रह ह पर ऐसा नह ह। वहाँक चौपाइय को समझनेम हम भूल करते ह। ल मणजीको म
अव य ह, पर म इतना अिधक नह िक वे मयादा तोड़ द। आजतक तो लोग ये कहते रह
िक ल मण जानते ह िक रामजीको मारने भरतजी आ रह ह—
कोिट कार कलिप कुिटलाई। आये दल बटोिर दॊउ भाई॥
(मा. २.२२८.६)
पर◌ु ऐसा नह ह। वहाँक चौपाईम ल मणजीको म यह ह िक भरतजी भावुकताम आ
रह ह, अयो याजीक िबना कोई यव था िकये। और जब अयो याम सुर ाक कोई यव था
नह ह, तो कह भरत-श ु क अनुप थितम अयो यापर रावणने आ मण कर िदया तब ‍ा
होगा? तब रामजीसे ल मणजीने कहा—“भगव ! भल भरतजीने भूल कर दी ह, पर उसका
प रमाजन म क गा। यिद क भकण-रावण आ रह ह, तो ह रघुनाथजी! आपक चरण क
शपथ! म देखते-देखते क भकण-रावणको आज ही मार डालगा—”
तैंसॆिह भरतिह सेन समेता। सानुज िनदिर िनपातउ खेता॥
(मा. २.२३०.७)
यहाँ इसका अथ ‍ा ह? श ु -भरतजीको िनदिर, माने पीछ, उनको पीछ करक म
रावण-क भकणका वध क गा। यह यहाँका अथ ह। मुझे िच◌ा ह—
कोिट कार कलिप कुिटलाई। आये दल बटोिर दॊउ भाई॥
(मा. २.२२८.६)
रामजीको वनवासम देखकर और भरतजीको िवरहम याकल देखकर यिद दोन भाई रावण-
क भकण दल बटोरकर आये ह, तो आज ही जो कछ हो जाए हो जाए। जो कौश याजीका
हरण िकया था रावणने, उसका सब लोग को ोध ह ही, उस ोधको आज ही म कट
कर दूँगा— गट करउ िरस पािछल आजू (मा. २.२३०.५)। जो कछ होगा, हो जायेगा।
वहाँ पूरा करण यही ह। कहा—नह , जग बौराइ राज पद पाये (मा. २.२२८.८)—जग
बौरा जाता ह; राजपद पाकर पागल हो जाता ह। भरतजीने यहाँ थोड़ी असावधानी बरती ह,
उस असावधानीका लाभ उठा िलया ह रावणने। भगव ! भरत हमिह उपचार न थोरा (मा.
२.२२९.७)—हमम और भरतम कोई औपचा रकता थोड़ ही ह। यह यहाँका अथ ह। हम लोग
भाई-भाई ह। यिद भरतने भूल कर दी तो म सुधा गा। म उनका छोटा भाई , म सुधा गा।
आ ा दीिजये—
आजु रामसेवक जश लेऊँ। भरतिह समरिसखावन देऊँ॥
(मा. २.२३०.३)

२४४
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४

आज म रामजीका सेवक होनेका यश लगा। भरतजीसे क गा िक भैया! ऐसी गलती आपको


नह करनी चािहए थी। अभी अयो या छोड़कर िच कट आपको नह आना चािहए था। यह
िश ा दूँगा भरतजीको म!
रामिनरादर कर फल पाई। सोव समर सेज दॊउ भाई॥
(मा. २.२३०.४)
रामजीक िनरादरका फल पाकर दोन भाई रावण और क भकण यु क श यापर सोयगे।
जो कछ हो जाए, हो जाए, सीताहरणका करण ही नह आयेगा।
अित सरोष माखे लखन लिख सुिन सपथ मान।
सभय लोक सब लोकपित चाहत भभिर भगान॥
(मा. २.२३०)
ल मणजीक वचन सुनकर सारा संसार भयभीत हो गया। रामजीने कहा—“नह । ल मण!
भरतजीको राजमद नह हो सकता, वे अयो याक यव था करक आये ह। और ल मण!
जबतक भरतजीक यव था रहगी, अयो यापर रावण आँख भी नह उठा सकगा।” जैसे आज
पािक◌ानका करण ह। बार-बार धमक देता ह। जानता नह िक हमार पास ऐसा िवमान ह
जो ३७०० िकलोमीटर दूर मार कर सकता ह। िद ीसे इ लामाबाद ब त दूर नह ह, सात-आठ
सौ िकलोमीटर होगा। हमार पास ऐसा िवमान ह बेटा िक ३७०० िकलोमीटरतक, नमो राघवाय,
गोिव◌ाय नमो नमः, कर सकता ह।
तो ल मणजीको रामजीने समझाया—नह ! नह !! नह !!!—
भरतिह होइ न राजमद िबिध हिर हर पद पाइ।
कब िक काँजीसीकरिन छीरिसंधु िबनसाइ॥
(मा. २.२३१)
देिखये! रामायणजीको ब त मयादासे पढ़ना चािहए। ल मणजीने कहा—“भूल हो गयी।”
रामजीने कहा—“कोई बात नह ! इसका ायि त यह ह िक म एक हवन कर रहा । तुम मुझे
भरतजीक आनेका समाचार दे देना। देखते रहो!”
भरतजी आये—
पािह नाथ किह पािह गॊसा । भूतल परे लकुट की ना ॥
(मा. २.२४०.२)
ल मणजीने समाचार िदया—
बचन स ेम लखन पिहचाने। करत नाम भरत िजय जाने॥
(मा. २.२४०.३)
समाचार िदया राघवजीको कहा—
कहत स ेम नाइ मिह माथा। भरत नाम करत रघुनाथा॥
(मा. २.२४०.७)
रामको समाचार िदया।

२४५
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

उठे राम सुिन ेम अधीरा। क पट क िनषंग धनु तीरा॥


(मा. २.२४०.८)
आज भगवा जब उठ तो भगवा क पीता बरने कहा—“पहल म णाम क गा।”
भगवा क पीता बरने, दुप ने णाम िकया, भूिमपर द डव क । तरकसने भगवा को छोड़कर
द डव कर ली फटाफट। धनुषने कहा—“म एक णक िलए अलग हो रहा , िफर आपक
हाथम आ जाऊगा।” भगवा क धनुषने द डव कर ली। भगवा क बाण ने द डव कर ली—
क पट क िनषंग धनु तीरा (मा. २.२४०.८)। चार ने मानो कहा—“भगव ! हम इसिलए
द डव कर रह ह ‍ िक भरतजीम चार गुण ह भि क—
(१) आत—आत भ भी भरतजी ह। इतना आत कोई हो नह सकता—रहत न आरत के
िचत चेतू (मा. २.२६९.४)।
(२) िज ासु—िज ासु भ क गुण भी भरतजीम ह। सबसे िज ासा करते ह—
िमलिह िकरात कोल बनबासी। बैखानस बट जती उदासी॥
किर नाम पूँछिह जॆिह तेही। कॆिह बन लखन राम बैदेही॥
(मा. २.२२४.४–५)
सबसे पूछते ह िक रामजी कहाँ ह?
(३) अथाथ —अथाथ इतना कोई हो नह सकता। अयो याका अथ छोड़ा, पर रामजीक
चरणक अंक अथा चरणिच को ब त बड़ा धन मान िलया—
हरषिह िनरिख रामपद अंका। मान पारस पायउ रका॥
(मा. २.२३८.३)
(४) ानी—और ानी इतना कोई हो नह सकता। ानी स पूण ब धन को छोड़ देता ह।
भरतजीने चार पु षाथ क ब धनका याग कर िदया—अरथ न धरम न काम िच गित न
चहउ िनरबान (मा. २.२०४)।
तो भरतजीम चार भि क गुण ह, इसिलए इन चार ने उ◌ णाम िकया—(१) पट—
भरतजीको आत भ समझकर भगवा क पीता बरने णाम िकया, (२) िनषंग —भरतजीको
िज ासु भ समझकर भगवा क तरकसने णाम िकया, (३) धनु—भरतजीको अथाथ भ
समझकर भगवा क धनुषने णाम िकया, और (४) तीरा—भरतजीको ानी भ समझकर
भगवा क बाणने णाम िकया। क पट क िनषंग धनु तीरा (मा. २.२४०.८)। आन◌
कर िदया! (१) भरतजीने अथ छोड़ा, इसिलए पीता बरने णाम कर िलया। (२) भरतजीने
धम छोड़ा, इसिलए तरकसने णाम िकया। (३) भरतजीने काम छोड़ा, इसिलए धनुषने णाम
िकया। (४) और भरतजीने मो छोड़ा, इसिलए बाण ने णाम कर िलया। ‍ा बात ह! जब
िनवाण छोड़ िदया तो बाण को तो णाम करना ही चािहए! क पट क िनषंग धनु तीरा
(मा. २.२४०.८)। अ त!
बरबस िलये उठाइ उर लाए कृपािनधान।
भरत राम की िमलिन लिख िबसरा सबिह अपान॥
(मा. २.२४०)
२४६
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४

देवता फल क वषा करने लगे। जय! जय!! अ त ेम! सब लोग िमल। सबको म ह
िक रामच◌जी ‍ा करगे? िकसक बात मानगे? अवध चलगे या नह ? राम गमन िबिध
अवध िक नाहीं (मा. २.२५२.८)। यह म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८) कथा दूर करगी
म। भरतजीने कहा—“सरकार! ऐसा उपाय कर िदया जाए िक दोन बात हो जाएँ—आप
यहाँ भी रह लीिजये और अवधम भी रह लीिजये।” ऐसा कसे िकया जाए? बड़ी ल बी-ल बी
चचाएँ । चार प भरतजीने िदये—
(१) सानुज पठइय मोिह बन कीिजय सबिह सनाथ (मा. २.२६८)—या तो म श ु क
साथ वन चला जाता , आप अयो या चल जाइये। अथवा;
(२) नत फेिरयिह बंधु दॊउ नाथ चलौं मैं साथ (मा. २.२६८)—श ु -ल मणको
अयो या भेज दीिजये, म आपक साथ वन चल। अथवा;
(३) नत जािह बन तीिनउ भाई, ब िरय सीय सिहत रघुराई (मा. २.२६९.१)—हम
तीन भाई वन चल जाते ह, आप सीताजी सिहत अयो याजी लौट जाइये। अथवा;
(४) जॆिह िबिध भु स मन होई, क नासागर कीिजय सोई (मा. २.२६९.२)—जैसे
आप स हो सक, वही कर लीिजये।
समाधान नह बना, अभी मक थित बनी ह। सबको म ह िक ‍ा करना चािहए? एक
प आया िक भरतजी वनम रह ल और ल मणजी अवध लौट जाएँ, पर यह प देवता को
अनुकल नह ह। ‍ िक ल मणजी यिद वनम नह जायगे तो मेघनादका वध कसे होगा? अतः
यह प देवता को अनुकल नह आ रहा ह। जनकजीने भी कहा—“म ल मणजीको नह
कह सकता िक तुम अवध चलो। एक बार थोड़ी-सी बात मेर मुखसे िनकल गयी—बीर िबहीन
मही मैं जानी (मा. १.२५२.३), तो भूचाल कर िदया—डगमगािन मिह िद गज डोले (मा.
१.२५४.१)।” तब देवता ने सर वतीजीसे कहा—“िकसी कार आप ही भरतजीक बुि फर
दीिजये और भरतजी यह कह द िक ठीक ह! ल मणजी आपक साथ चल जायगे; म जाता
अयो या।” सर वतीजीने भी मना कर िदया—“मेरसे नह होगा।” अ◌म भरतजीने ही कहा—
“ भु! आज आप मुझे आ ा दीिजये, यह मेरी िच ह।” तो भगवा ने कह िदया—“यिद आ ा
क बात ह, तो म आ ा दे रहा िक तुम चौदह वष पय◌ अयो याम जाकर अयो याजीका
पालन करो! यही मेरी आ ा ह।” जय-जयकार आ! देवता ने स तासे क पवृ क पु प
बरसाये—सुर वारथी सरािह कुल बरषत सुरत फूल (मा. २.३०८)। जय! जय!!
पर◌ु अभी भरतजीको एक म ह। सबका म तो दूर हो गया, पर भरतजीको म ह िक
म अपने ाण क र ा चौदह वष कसे क गा? तब—
भु किर कृपा पाँवरी दी ीं। सादर भरत शीष धिर ली ी॥
(मा. २.३१६.४)
भगवा ने पाँवरी दे दी। भु किर कृपा पाँवरी दी ीं अथवा कपा भु पाँवरी क र दी◌
अथा भगवा क कपाने रामजीको ही पादुका बनाकर भरतजीको दे िदया। भगवा क कपाने
ही दािहनी पादुकाम रामावतार और वाम पादुकाम सीताजीका अवतार िकया और भरतजीको दे
िदया। इस कार अब दोन काय हो गये। भगवा एक ◌ि से िच कटम रह रह ह और दूसरी
२४७
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प

◌ि से अयो या चल गये। बोिलये पादुकािबहारी सरकारक जय हो!


पादुका लकर भरतजी पधार और िसंघासन भु पादुका बैठारे िन पािध (मा. २.३२३)।
िसंहासनपर िवराजमान कर इस कार ितिदन पादुकाजीक पूजा करते ह भरतजी—
िनत पूजत भु पाँवरी ीित न दय समाित।
माँिग माँिग आयसु करत राज काज ब भाँित॥
(मा. २.३२५)
जय हो! और अब भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)।
इस कार—
िसय राम ेम िपयूष पूरन होत जनम न भरत को।
मुिनमन अगम जम िनयम शम दम िबषम त आचरत को।
दुख दाह दािरद दंभ दूषन सुजश िमस अपहरत को।
किलकाल तुलसी से शठिन हिठ रामसनमुख करत को॥
(मा. २.३२६.९)
भरतचिरत किर नेम तुलसी जे सादर सुनिह।
सीयराम पद ेम अविश होइ भवरस िबरित॥
(मा. २.३२६)
जय िसयारामा भरत ि य रामा। जय िसयारामा भरत ि य रामा॥
जय िसयारामा भरत ि य रामा। जय िसयारामा भरत ि य रामा॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो!
भावते भरतभ क जय हो!
पवनपु हनुमा जी महाराजजीक जय हो!
॥ जय जय ीसीताराम ॥

२४८
अ म पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
सीतारामगुण ामपु यार यिवहािरणौ ।
व े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥
रामपादा रोल बं कवीनां स ु भु ।
गु वािमतुलसीदासं या णतोऽ यह ॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी तुलसीदासजी महाराजक जय हो॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
असुरसेन सम नरक िनकंिदिन। साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन॥
(मा. १.३१.९)
प रपूणतम परा◌र परमा मा, परमे र, परमारा य, मयादा-पु षो म, भगवा
ीसीतारामजीक कपासे, मोदीनगरम राघव-सेवा-सिमितक त वावधानम समायोिजत, मेरी
१२५१व रामकथाक अ म स म आप सभी बा धिवय और ब धु का म ब त-ब त वागत
करता । आप सुनते आ रह ह, इस बार मने ित ा क ह िक मानसजीम जो तीस कथाएँ ह,
उनम-से येकक कछ-न-कछ या या सुनाऊगा। अब दो िदनका समय मेर पास ह—आज
और कल।
कथा १५ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

कथा १५: असुरसेन सम नरक िनकंिदिन (मा. १.३१.९)


तो चिलये अब पं हव कथाक ओर।
असुरसेन सम नरक िनकंिदिन। साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन॥
(मा. १.३१.९)
देिखये! यहाँ ेष ह। िगिरनंिदिन श दका योग एक बार िकया ह गो वामीजीने। पर
उसक दो अथ ह—(१) एक तो िगिरनंिदिन माने पावतीजी, वे िग रक नंिदनी ह और (२)
दूसरा िगिरनंिदिन माने ग ाजी। तो यहाँ पहल पावतीजी असुरसेन सम नरक िनकंिदिन और
अब साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन ीरामजीक कथा—
असुरसेन सम नरक िनकंिदिन। साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन॥
िजस कार महाकािलका पावतीजी असुर क सेनाका िवनाश करती ह, उसी कार यह
ीरामकथा नरकको न करती ह। िकतना अ◌ा कहा िक ीरामकथा सुनने और कहनेसे
नरक हो ही नह सकता! परतु इसम न तो कोई िमलावट होनी चािहए और न बनावट होनी
चािहए। िजतनी सहजतासे म कह रहा , मुझे हष ह िक अ या म-चैनलपर कह रहा , उतनी
ही अ◌ी िति या आ रही ह। सं कार-आिद चैनल पर भी मेरी कथा सा रत होती ह, पर इस
कथाको लोग ब त ही पसंद कर रह ह, वीकार कर रह ह, अ◌ा मान रह ह। कोई बनावट
नह !
तो देिखये! पं हव कथा ‍ा ह? ीभरतजी अब िच कटसे अवधको पधार चुक ह
और भगवा राम वनम, ीिच कटपवतपर, सीताजीक साथ िवहार कर रह ह। और यह
देिखये—यह महारास ह भगवा का। रिसकजन तो कहते ह िक भगवा रामजीने सीताजीक
सिहत ीिच कटम साढ़ िन यानव रास िकये। सौवाँ महारास चल रहा था, उसीको जय◌ने
िवि त िकया था। तो आधा पूरा हो गया और आधेम छट गया। वही आधा महारास वृ◌ावनम
िकया भगवा ीक णने, िजसक बड़ी चचा होती रहती ह। साढ़ िन यानव रास तो िच कटम
ही ए।
आज आपको अपने मनक बात बताऊ! िव म तीथ तो ब त ह, परतु म ब त िन ा और
ग भीरतासे कह रहा िक ीिच कट-जैसा तीथ आज भी िव म नह ह। आपको एक बात
बताऊ। आज भी िज◌ साधना करनी ह, उ◌ िच कटजी चािहए। हाँ, भंडारक िलए चाह जहाँ
चल जाओ! म िकसी तीथक िनंदा नह कर रहा , पर थित आपको बताऊ ‍ िक मने
तो िच कटको ब त िनकटतासे देखा ह। नौ बार हमने दूधपर रहकर छः-छः महीनेका अनु ान
(पयो त) िकया िच कटम और एक बार तो नौ महीनेका अनु ान िकया; कल दस नौ बार
हो गये। युवाव था थी तो कादमिग रक प र मा क । आज भी ातःकाल तीन बजेसे छः
बजेतकक बीचम हम तुलसीपीठम जब बैठते ह, तो प पसे सीताजीक पायलक झंकार
सुनायी पड़ती ह। आज भी भगवा रामक , ल मणजीक धनुष-बाणक खड़खड़ाहट, सीताजीक
कश झाड़नेक श द ... और एक प ी वषाकालम आता ह, िम ो! इतना सु◌र सीताराम
कहता ह िक िजतना हम कह ही नह सकते। संत क ित ा ह िक सीतारामजीक दशन चािहए

२५०
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १५

तो िच कटम ही ह गे। अ यम ह गे िक नह —यह कोई गारटी नह ह, पर वहाँ तो ह गे ही। रोटी


तोड़ना हो तो कह भी तोड़ लते ह।
म अपनी बात क ! ह र ारम भी मेरा आ म ह। वहाँ रहकर ब त काम िकया हमने। पर
मेर दयसे पूछा जाए—ह र ारम आ म ह, िफर भी ‍ नह वहाँ चातुमा य करता? म इतने
ल बे समयतक कह नह रह सकता िच कटको छोड़कर। वहाँ तो छः-छः महीने रह जाऊ,
मनम कोई ऊब नह होती, अ य िव ता हो जाती ह। िच कटक कण-कणम ीसीतारामजीका
ेम छलकता ह। िम ो! यह ताली बजानेक बात नह ह, यह साधनाक बात ह। भगवा क
ब त बड़ी कपा ह िक किलकालने सार तीथ को न िकया, पर िच कटपर उसका कोई भाव
नह पड़ा। हम लोग साधुसमाजम भी कहते ह, हमारा टकसाल जो ह, ीअवध हमारी धमशाला
ह, परतु सुख-िवलास तो हमारा िच कट ह।
तो वहाँ भगवा ने महारास िकया। ९९ महारास हो गये। १००व महारासम सीताजीको भगवा
राम सजा रह ह—
एक बार चुिन कुसुम सुहाये। िनज कर भूषन राम बनाये॥
(मा. ३.१.३)
एक बार अथा यहाँ म ९९व बारक घटना नह कह रहा , १००व बारक घटना ह यह।
अपने हाथसे सु◌र पु प को चुनकर चुिन कुसुम सुहाये। िकतना सु◌र वणन ह! भगवा
मानसजीम दो बार पु प ल रह ह—(१) ीिमिथलाम—च िदिश िचतइ पूँिछ मालीगन (मा.
१.२२८.१) और (२) ीिच कटम—एक बार चुिन कुसुम सुहाये (मा. ३.१.३)।
मोदीनगरवालो! मेर साथ चौपाई गाया करो! आपको चौपाई गानेका अ यास नह ह।
चौपाई गानी चािहए। यह ह चौपाई। चौपाई गाओ, चार व◌ुएँ िमल जायग —अथ भी िमलगा,
धम भी िमलगा, कामना क पूित भी होगी, मो भी िमलगा चकाचक! पर गाओ तब न! ेमसे
गाओ। एक बार चुिन कुसुम सुहाये (मा. ३.१.३)—सु◌र-सु◌र पु प को चुना भगवा ने और
िनज कर भूषन राम बनाये अपने हाथ से आभूषण बनाये। ‍ा आन◌ ह! जो ीराम वयं
तीन लोक क भूषण ह—तुलिसदास भु ि भुवनभूषन (मा. ७.३५.९), िज◌ िमिथलाक
दूत िव का िवभूषण कहते ह—िब िबभूषन दोउ (मा. १.२९१), िज◌ सखी सूयकलका
भूषण कहती ह—देिख भानुकुलभूषनिह (मा. १.२३३), वे यिद वयं अपने हाथ से आभूषण
बनाय तो िकतने सु◌र बनगे।
अथवा िनज कर भूषन राम बनाये अथा अपनेको ही आभूषण बना िलया भगवा ने।
भगवा राम वयं ही सीताजीक कान क क डल, सीताजीक माथेक िबंिदया, सीताजीक हाथ क
कगन और सीताजीक गलका हार बन गये। और, सीतिह पिहराये भु सादर (मा. ३.१.४)।
हमारी माता को जलन न हो जाए! इतना ेम कोई पित अपनी प ीसे कर ही नह सकता।
यहाँ सादर श द ब त मह वपूण ह। प ीको भु आदर दे रह ह। िम ो, आदर िकसको देते
ह—बड़को या छोटको? बड़को। अथा आज रामच◌जीने सीताजीको अपनेसे बड़ा मान
िलया। मनुक वह पि मरण कर ली—य नाय ु पू य े रम े त देवताः (म. मृ.
३.५६) अथा जहाँ नारीक पूजा होती ह, वहाँ देवता रम जाते ह। भगवा ने कहा—“भगवती!
२५१
कथा १५ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

आप शि ह। आज आपका आ ान कर रहा । रा स का वध करना ह, वह िबना शि क


सहायताक संभव नह ह। ह शि ! जग जाओ! मुझे भारतको आत वादसे रिहत करना ह।”
यह तुंग िहमाचल िकसका है।
िहमिगिरकी च ानें कहतीं, िजसमें पौ ष हो उसका है।
ह महाशि ! जग जाओ! िकतना सु◌र ह!
इसिलए—
सीतिह पिहराये भु सादर। बैठे फिटकिशला परमाधर॥
(मा. ३.१.४)
बैठे फिटक िसला पर सुंदर (मा.गी. े.)—यह पाठ अशु ह। आज गो वामीजीने
भगवा को परमाधर कहा, ‍ िक आज भु परम शोभाको धारण कर रह ह। और परमाधर—
परमः अधरः य य —अधर कवल रामजीका परमपू य ह, िजसका सीताजीक अित र िकसीने
पान नह िकया। इसिलए भी भगवा को परमाधर कह रह ह। जय◌को संदेह हो गया—“अर!
ये कौन-से भगवा अपनी प ीको इतना सजा रह ह? ये भगवा नह हो सकते। ये तो कोई
रिसक राजकमार ह।” इसिलए जय◌ने कौवेका वेष बनाया और सीताजीक चरणम च च मार
दी—सीता चरन चोंच हित भागा (मा. ३.१.७)।
लोग का आरोप ह िक रामच रतमानसम नारीका अपमान आ। पर मेरी ाथना ह िक यिद
रामच रतमानसम नारीका अपमान आ होता तो रामायण कवल अयो याका डतक रह जाती।
यह अर यका डसे उ रका ड पय◌ लीला, नारीक स मानक ही लीला ह। यहाँ एक बात
और समझ लनी ह। अ य िकसी धमम, नारीको बीबी कहा जाता ह, कह नारीको बेबी बोला
जाता ह; पर िह◌ूधमम नारीको देवी बोला जाता ह। इसका अथ होना चािहए िक हम िजतना
नारीका स मान करते ह, इतना कोई कर ही नह सकता। हमार यहाँ जब पढ़ते-िलखते ह, तब
डॉ र बनते ह। पवन िसंघल साहब पढ़, तो डॉ र बने। भल ै स छोड़ चुक ह, पर डॉ र
तो ह ही! पर इनक प ी िबना पढ़-िलखे डॉ राईन बन गय । लोग पढ़कर मा टर बनते ह
और घरवाली िबना पढ़ मा टराईन बन जाती ह। हमार यहाँ नारीका िकतना स मान ह। ा ण
पढ़ता-िलखता ह ब त! अब तो ठीक ह! जो ब त पढ़-िलखे होते ह, वे प डत बनते ह।
प डत चार कारक होते ह—
गृहेषु पि डताः केिच ेिच ामेषु पि डताः।
सभासु पि डताः केिच ेिच ि डतपि डताः॥
अथा , (१) कछ लोग घरम प डत बने रहते ह, (२) कछ लोग गाँवक प डत होते ह, (३)
कछ लोग सभाम प डत होते ह, और (४) कछ ही लोग होते ह, जो प डत क भी प डत होते
ह। तो प डतजी िकतना म करते ह तब प डत बनते ह और उनक प ी कछ नह करती,
प डतक साथ िववाह हो गया तो प डतानी बन गयी। अर! एक प डतक प ीने मुझसे
कहा—“जग ु जी! आप जानते ह? सुिनये। िजतना प डतक पतराम, उतना प डतानीक
अँचराम।”
तो हमार-जैसा नारीका स मान कोई नह कर सकता! हमको चुनौती नह देनी चािहए। म,
२५२
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १५

मेरा व य ऐसा नह ह! म चुनौती दे रहा , challenge कर रहा । और धम म तो नारीको


कवल production क factory बना िदया गया, ब े पैदा करनेक factory; २५–२५ ब े
पैदा करते ह एक-एकसे, ‍ िक वह औरत होती ह औरत! हमार यहाँ ऐसा नह ह। यहाँ तो—
एकेनािप सुपु ेण िसंही विपित िनभया
(चा.नी.)
एक सु◌र बालकने ज म िलया, हमार यहाँ ब ा पैदा नह िकया जाता, हमार यहाँ पु का
ज म होता ह। एक सु◌र पु को ज म देकर िसंिहनी म◌ीम सोती ह और ब त-से ब को
िबया करक भी गधी डड ही खाती ह—सहैव दशिभः पु ैः भार वहित रासभी (चा.नी.)।
उस मिहलाका ‍ा होता होगा, जो २५–२५ ब े पैदा करती ह धूमकतु! नूरजहाँसे शाहजहाँने
१४–१४ ब े पैदा िकये। ‍ा िमला? शाहजहाँको ‍ा िमला? वृ ाव थाम जेल िमली। एक
अ खानेको िववश आ शाहजहाँ! हमार यहाँ रामजीको कट करक कौश याजीको ‍ा
नह िमला! औरगजेबक मजारपर आज भी क े मूतते ह और हमार रामजीक म ◌रम आज
भी अन◌ लोग क आँसू क अिभषेक होते ह। ीअयो याका राम म ◌र हमारी आ थाका
तीक ह। राम म ◌र हमारा था, हमारा ह, और हमारा ही रहगा।
रहेगे न तारे न चंदा रहेगा, पर राम मि र हमारा हमारा रहेगा।
‍ ? िकतना तोड़ोगे? मेरा व य राजनैितक नह ह, पर धमको राजनीितसे अलग नह
िकया जा सकता। धम पित और राजनीित प ी ह। पितको प ीसे कसे अलग करगे? धम नह
रहगा तो राजनीित िवधवा हो जायेगी और यिद राजनीित नह रहगी, तो धम िवधुर हो जायेगा।
म ब त बलपूवक कह रहा । कोई ब का चंदा-मामा नह ह मेरा व य।
एक बात आपको बताय। एक िदन मुलायम िसंहका एक व य आया था, मुझे ब त
पीड़ा ई। उ◌ ने कहा—“१९९०म जो गोलीका ड आ था, उसम मने १६ लोग को मरवाया
था। देशक सेवाक िलए म ३०० लोग को भी मरवा सकता था।” तो म कहने जा रहा —
“महोदय! १६ लोग का यह बिलदान यथ नह गया और आपक देखते-देखते ६ िदस बर
१९९२को हमने भारतमाताक माथेपर लगा आ जो कल था, अयो याक राम म ◌रपर बने
गलत ढाँचाको हमने सदा-सदाक िलए सरयू मैयाम वािहत कर िदया। और आप कछ भी
नह कर पाये महोदय! और इतना िच◌ा मत क रये! हम तो मरकर अमर होना जानते ह।
थोड़ी हमारी भूल थी, अब आप मारकर देिखये िकसीको! हमने राम म ◌र तो बना िलया ह,
कवल जीण ार होना ह, वह भी होगा। ६ िदस बर २०१८तक हम राम म ◌र बनाकर आपको
िदखाएँगे। और महोदय! भगवा कर, तबतक आप िब◌रपर लट-लटकर कलच-कलचकर
जीते रह, स तासे न जीय।”
तो देिखये! एक ह िक ‍ रामजीपर हम इतना ेम करते ह? इसिलए िक हमने इतना
नारीका स मान करते ए िकसीको देखा ही नह , जैसा रामजीको देखा ह। आप लोग अ यथा
मत लीिजयेगा। म भगवा क णका भी ब त भ , परतु जब समी ा होगी तो क गा ही।
क गा। और बुरा मत मािनयेगा, िफर कह रहा । यिद बुरा मानगे, भी तो मेरा ‍ा िबगड़गा?
पर क गा अव य! देिखये, क णभगवा ेम करना जानते ह, परतु संब धक र ा करना उनक
२५३
कथा १५ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

वशका नह ह। गोिपय से भगवा ने ेम िकया और गोिपय ने सव व लटा िदया भगवा क िलए।


पर आप बताइये! मथुरा जानेक प ा कौन-सी सुर ाक यव था क ण भगवा ने गोिपय क
क ? ‍ा बताऊ आपको! भास े म, भगवा क गोलोकम वेश होनेक प ा , भगवा क
वधू को गोपाल ने लट िलया! यह ‍ा ह! बोलो क◌ैया, मुझे उ र चािहए। और सीताजीक
परछाईका कवल रावणने अपमान िकया, तो रघुनाथजीने रावणक करोड़ िसर को काट-काटकर
उसक र से भूिमका अिभषेक करक कह िदया—“देखो पृ वी! तु हारी बेटीका म िकतना
स मान करता ! देख लो!” इसीिलए, रामजीका एक ब त बड़ा वभाव ह, आपको बताऊ!
िजससे रामजी संब ध बनाते ह, उसका िनवहण करते ह—
तुलसी अपने राम को भजन करो िनरसंक।
आिद अंत िनरबािहहै जैसे नौ को अंक॥
सीताजीका वनवास नह आ था, यह तो लोग ने भगवा रामक च र को बदनाम िकया।
इसपर भी म चचा कभी क गा। देिखये! जय◌ने सीताजीक चरणम च च मारी। भगवा रामने
कहा—“अ◌ा! वह पित कसा, जो अपनी प ीक स मानक र ा न कर? वह तो ब ह।”
स कक धनुषपर ा का रामजीने संधान िकया, सींक धनुष सायक संधाना (मा. ३.१.८)।
िब धेनु सुर संत िहत ली मनुज अवतार (मा. १.१९२)—भगवा ने देवता क िलए
मनु यका अवतार िलया ह, पर जब देवता ही मानवताका खून पीने लग जाएँ, तब िफर ‍ा ह?
ेिरत मं सर धावा (मा. ३.२.१)— ा का योग कर िदया। जय◌ सार लोक म
मण करता रहा, कह भी जय◌को िठकाना नह िमला, शरण नह िमली। तब—नारद देखा
िबकल जयंता (मा. ३.२.९)। नारदजीने जय◌को िवकल देखा, दया आयी। कहा—“जाओ
रामजीक पास!” जय◌ने कहा—“कसे? ब त बड़ा अपराध िकया ह।” नारदजीने कहा—तुम
समझे नह रघुनाथजीको! तुमसे अिधक अपराध तो मने िकया था जय◌! तुम तो उनक प ीक
चरणम कवल च च मार हो, म तो उ◌ क प ीसे िववाह करने जा रहा था; िफर भी भुने मुझे
मा कर िदया। ह जय◌!—
उनकी क णा में कोई कमी है नहीं, पा ता में हमारी कमी रह गयी।
उनकी ममता में कोई कमी है नहीं, पु ता में हमारी कमी रह गयी॥
मुझे नह अनुकल आता िक भगवा क णक धमपि य को गोपाल लट और भगवा चुप
होकर देख! म झूठ नह बोलता। भगवा मुझे द ड द, म द ड सहनेको तैयार । घोर द ड दे
द। इस मेर व यपर भगवा किपत होकर सुदशनच भी मुझपर चलाय, िसर देनेको म तैयार
। पर मुझे यह बात उनक अनुकल नह आ रही ह। अर! िज◌ ने आपक िलए जीवन िदया,
उनक र ाक यव था तो आपको करनी ही चािहए थी; उनक यव था करनी थी आपको।
अब आप ‍ा समझते हो आप जानो, मुझे अनुकल नह लगा।
और राघवजी? पहली बात तो हम सीताजीका वनवास मानते ही नह । और जो सीताजीका
वनवास मानते ह, वहाँ भी रामजीने अ याय नह िकया ह। सीताजीको वा मीिकजीक आ मम
प चवाया उ◌ ने, ‍ िक वे जानते थे वहाँ उनक र ा हो जायेगी और वहाँ लव-कशक
यव था होगी। सोऽह िचर नसखा जनक य रा ः—वा मीिकजी जनकजीक िम ह, उस

२५४
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १६

प म भी रामजी ठीक ह। य िप यह घटना, सीताजीका वनवास, म नह मानता।


म यह िनवेदन करने जा रहा िक रघुनाथजीक सबसे बड़ी िवशेषता यही ह िक िजससे
जैसा संब ध जोड़ा, उसको रघुनाथजीने िनभाया। अब देख लीिजये! जय◌ आया, रामजीक
चरण पकड़ िलए। भुने िवनोद िकया। यह ब त पुराना भाव ह आचाय का, मुझे भी ब त
अ◌ा लगता ह। ीकरपा ी वामीजी भी यही भाव कहते थे। अ◌ा लगता ह! भुने िवनोद
िकया—“‍ जय◌! यिद तुमको मेर पास आना ही था, तो इतनी दूर भागे ‍ ?” सीताजीने
धीर-से बता िदया। जय◌ने कहा—“आपका भाव देखने दूर चला गया था, ‍ िक भाव
तो दूरसे िदखता ह।” भगवा ने कहा—“जब दूर चल गये थे, तो साल यहाँ आये ‍ ?”
जय◌को भगवा साला मानते ह। नारदजीने बता िदया था—“जय◌! कह देना म नारदजीका
िश य और सीताजी भी नारदजीक िश या ह, तो दोन गु भाई-बिहन हो गये।” इसिलए
जय◌ने रामजीको जीजा ही कहा था—“जीजाजी णाम !” तो सीताजीने कहा—“जब यह
आपको जीजाजी कह रहा ह, तो जीजाको देखकर तो जीने का मन करता ह, मारगे कसे आप
बताइये।” तो भगवा ने यही कहा—“साल! यिद आना ही था तो गये ‍ ?” तो जय◌ने
कहा—“आपका भाव देखने चला गया था।” भगवा ने कहा—“अ◌ा ठीक ह छोट साल!
यह बताओ िक यिद मेर पास ही आना था तो पहल ‍ गये? िफर मेर पास ‍ आये, दूर ही
रह जाते?” जय◌ने कहा—“ भु! जीजाजी! आपका वभाव देखने आपक पास चला आया
‍ िक वभाव िनकटसे ही तो िदखता ह।” तो भगवा ने जय◌को बचा िलया।
असुरसेन सम नरक िनकंिदिन। साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन॥
(मा. १.३१.९)
थम िगिरनंिदिन पावतीजी। पं हव कथा पावतीजीक समान ह, जहाँ उिचत द डिवधान
िकया जाता ह। आन◌ कर िदया! और पावतीजी इस घटनासे स भी ब त —जय◌ कह
रहा ह। ब त स । ार भम—
उमा राम गुन गूढ़ पंिडत मुिन पाविह िबरित।
पाविह मोह िबमूढ़ जे हिर िबमुख न धम रित॥
(मा. ३ म.सो. १)
िफर,
सुिन कृपाल अित आरत बानी। एकनयन किर तजा भवानी॥
(मा. ३.२.१४)
जय◌-िन ह भगवतीजीको ब त भाता ह और उ◌ लग गया—“हाँ, भुने एक भारतीय
नारीका िकतना स मान िकया! िजसने उ◌ सब कछ स प िदया, उसका स मान तो उ◌ करना
ही ह।”

२५५
कथा १६ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

कथा १६: साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन (मा. १.३१.९)


और अब साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन (मा. १.३१.९)—साधु प देवताकलको आनंिदत
करनेक िलए ि तीय िगिरनंिदिन। देिखये! जनकजी िच कटम कहते ह िक ग ाजीने तो तीन
थल ह र ार, याग और ग ासागरको बड़ा बनाया, परतु हमारी मैिथलीक इस क ितनदीने
तो अनेक साधुसमाजको बड़ा बना िदया—
गंग अविन थल तीिन बड़ेरे। यॆिह िकयॆ साधुसमाज घनेरे॥
(मा. २.२८७.४)
ग ाजीने चार थान को मिहमामंिडत िकया। (१) ह र ारको—यिद ग ा न ह , तो ह र ारको
कौन पूछ? ह र ारम रहकर ग ा न नहाओ तो लगता ह, कछ नह िकया। (२) यागको, (३)
काशीको, और (४) ग ासागरको। चार थान को ग ाजीने बड़ पन िदया और इस कथाम भी
रामच◌जी चार मुिनय से िमलगे—(१) अि जीसे, (२) शरभ जीसे, (३) सुती णजीसे, और
(४) अग◌यजीसे। यहाँ (१) अि दशन—यह ह र ार ह, (२) शरभ दशन—यह याग
ह, (३) सुती णदशन—यह काशी ह, और (४) अग यदशन—यह ग ासागर ह। यह ह
रामकथा देखो! साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन (मा. १.३१.९)।
(१) अि दशन-ह र ार—
१२ वष िवराजमान होकर िच कटसे चल भु। अि जीक दशन िकये और अि जीने १२
छ◌ म ही भगवा क ◌ुित क । इसीसे िस हो जाता ह िक िच कटम १२ वष पय◌ भगवा
रह। वैसे तो िच कूट सब िदन बसत भु िसय लखन समेत (दो. ४)। पर नमािम
भ व सल (मा. ३.४.२)—यहाँ १२ छ◌ ह। इस छ◌का नाम जानते हो? ब त अ◌ा
नाम ह। ‍ा नाम ह? मािणका छ◌—
नमािम भ व सल । कृपालशीलकोमल ॥
भजािम ते पदांबुज । अकािमनां वधामद ॥
िनकाम यामसुंदर । भवा बुनाथमंदर ॥
फु कंजलोचन । मदािददोषमोचन ॥
(मा. ३.४.२)
कोई तुमसे पूछ, ‍ा माण ह िक बारह वष भगवा िच कटम रह, तो यही छ◌ बता
देना िक यिद बारह वष न रह होते िच कटम, तो बारह छ◌ गो वामीजी ‍ िलखते? ११
कर देते, १० कर देते, १३ या १४ भी कर सकते थे। तो िच कटसे थान करते समय १२ वष
पय◌ जो भगवा िच कटम रह, उसी क कत ताम मािणका छ◌ िलखकर गो वामीजीने
िस कर िदया िक अि जी भगवा क ादशवष य लीलाका मरण कर रह ह। ब त सु◌र
छ◌ ह यह! अनसूयासे पाित यका उपदेश ह र ार क समान ह—तो यह ह र ार ह।
गंग अविन थल तीिन बड़ेरे। यॆिह िकयॆ साधु समाजघनेरे॥
अनसूयाजीसे पित तका उपदेश सुना सीताजीने। सुनु सीता तव नाम सुिमिर नािर पित त
करिह (मा. ३.५ख) ‍ा बात कहती ह! सीताजीका नाम मरण करक ना रयाँ पित तका

२५६
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १६

आचरण करती ह। तुमिह ानि य राम कहेउ कथा संसार िहत (मा. ३.५ख)—माताजीने
सीताजीको पित तका उपदेश िदया और कहा यह तो मने सार संसारक िलए कहा ह िक नारीका
एक ही धम ह, एक ही त ह, एक ही िनयम ह—
एकइ धम एक त नेमा। काय बचन मन पितपद ेमा॥
(मा. ३.५.१०)
इस चौपाईका जो लोग अथ नह जानते, वे कछ नाटक करते ह। वे कहते ह िक गो वामीजी
कहते ह पितक चरणम ेम कर, भगवा का भजन मत कर। कवल मेर जूतेक पॉिलश (polish)
करती रह! पर ऐसा नह ह। पितपद ेमाका अथ ह पित िजन चरण क पूजा करते ह, ऐसे
भगवा ीरामक चरण म ेम करना—यही नारीका धम ह। पदका अथ र क होता ह—पदं
यविसत ाण थानल माि व ुषु (अ.को. ३.३.५३८)। पितक जो र क ह भगवा , उनक
चरणम ेम करना। रामजीक चरणम ेम करना ही पित ता नारीका त, िनयम और धम ह—
एकइ धम एक त नेमा। काय बचन मन पितपद ेमा॥
(मा. ३.५.१०)
अि जीसे िमलकर चल। भगवा ने मागम िवराधका वध िकया। िवराधका वध िकया, तो
संत स हो गये—
िमला असुर िबराध मग जाता। आवतहीं रघुबीर िनपाता॥
(मा. ३.७.६)
(२) शरभ दशन- याग—
शरभ जीसे िमल—साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन (मा. १.३१.९)। ब त अ◌ा!
न सौ गंगा नेक सरभंगा—एक बार शरभ क डम नहा लीिजये, तो सौ ग ा नहानेका फल
िमल जाता ह। तो इतने रामजीक भ ! कहा—“सरकार! म ाजीक धाम जा रहा था। उसी
समय कोई वा मीक य रामायण कह रहा था। उसम िलखा था—िवराधं रा सं ह वा शरभ
ददश ह (वा.रा. १.१.३३) अथा िवराधको मारकर भगवा शरभ का दशन करगे। इतना मने
सुना तो ाजीसे पूछा भी नह , म उनक िवमानसे कद पड़ा और अपनी किटयाम आ गया
और ाजीसे कहा—“चुप! म तु हार लोक नह जाऊगा। रामजी मेरी किटयाम आय और म
लोक जाऊ? पर मेरी किटयाम आ रहा ह, म ाक लोकम जाऊ? ाक लोकक
ऐसी क तैसी! नह जाऊगा—”
जात रहॆउ िबरिच के धामा। सुनॆउ वन बन ऐहै रामा॥
(मा. ३.८.२)
मने सुना िक रामजी वनम आयगे तो िचतवत पंथ रहॆउ िदन राती (मा. ३.८.३)। तबसे म
आपक राह जोहता रहा।” शरभ ध य ह! कासीं िबिध बिस तनु तजें हिठ तनु तजें याग
(दो. १४) यागम हठसे शरीर छोड़नेसे भी मुि हो जाती ह और इसीिलए शरभ ने िचता रची
और बैठ गये। भगवा से कह िदया—“म इसीिलए बैठ रहा िक जीिवत अि समािध लगा।
मेर ारा शरीर छोड़नेपर आप मुझे मुखाि दीिजये। म स हो जाऊगा। आह! कोई भी यि
आपक मुखाि का आन◌ नह ल सका, म लगा।” तो भगवा ने मुखाि दी और अस किह
२५७
कथा १७ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

जोग अिगिन तनु जारा (मा. ३.९.१)।


(३) सुती णदशन-काशी—
साठ हजार सगरपु क अ थय का उ ार ग ाजीने िकया, यहाँ तो करोड़ ा ण को
रा स ने खाकर बबाद कर िदया ह।
अि थसमूह देिख रघुराया। पूँछी मुिनन लािग अित दाया॥
(मा. ३.९.६)
‍ा बात ह महिष? िनिशचरिनकर सकल मुिन खाये (मा. ३.९.८)। आँसू आ गये
भगवा क, ित ा क । यह काशीका भावमय ◌ य ह। काशीम अ थ वाहसे मुि होती ह।
भगवा ने ित ा क और बन गये भगवा —
िनिशचरहीन करउ मही भुज उठाइ पन की ।
सकल मुिनन के आ मिन जाइ जाइ सुख दी ॥
(मा. ३.९)
यह काशीक ग ा ह। आन◌ कर िदया! सुती णसे िमल रह ह। परम रामभ सुती ण
आगमनका समाचार सुना, तो दौड़कर आये—
भु आगमन वन सुिन पावा। करत मनोरथ आतुर धावा॥
(मा. ३.१०.३)
काशीम श रजी रामनाम लकर नाचते ह, यहाँ सुती णजी भी नाच रह ह—
कब क िफिर पाछे पुिन जाई। कब क नृ य करइ गुन गाई॥
(मा. ३.१०.१२)
कट हो गये भगवा —
अितशय ीित देिख रघुबीरा। गटे दय हरन भवभीरा॥
(मा. ३.१०.१४)
सुती णजीको भगवा ने अभी वरदान िदया।
(४) अग◌यदशन-ग ासागर—
अब अग◌यजीसे भगवा िमल रह ह, यह ग ासागर ह। जैसे ग ाजी सागरसे िमल रही
ह, इसी कार अग◌यजीक भि ग ा राम पी सागरसे िमल रही ह। आन◌ कर िदया! भु
अग य कर संग (मा. ७.६५)। सगर पु का यह उ ार आ और यहाँ भी भगवा कह रह
ह—
अब सो मं दे भु मोही। जॆिह कार मारौं मुिन ोही॥
(मा. ३.१३.३)
आन◌ कर िदया भगवा ने! अ त आन◌ ह!

कथा १७: संत समाज पयोिध रमा सी (मा. १.३१.१०)


अब—

२५८
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १७

संतसमाज पयोिध रमा सी। िव भार भर अचल छमा सी॥


(मा. १.३१.१०)
यह रामायणक स हव कथा ह। ीरामकथा कसी ह? तो उ र ह—यह ल मीजीक समान
ह, जो संत समाज प ीरसागरसे कट होती ह। ब त अ त! भगवा जटायुजीसे िमल रह ह।
प वटीम किटया बनायी—गोदावरी समीप भु रहे परन गृह छाइ (मा. ३.१३)। िच कटम
किटया बनाने आ गये थे देवता—कोल िकरात बेष सब आये (मा. २.१३३.७) पर यहाँ नह
आये, ‍ िक यहाँ खर-दूषण रहते ह, ब त डरते ह देवता। देवता नह आये, तो ल मणजीने
वयं कटी बना ली।
यह पर ल मणजीने अथप क पूछा, जो साधुसमाजक िनिध ह। पाँच व◌ुएँ हम जाननी
ह—
ा य य णो पं ा ु यगा मनः।
ा युपायं फल चैव तथा ाि िवरोिध च॥
(१) व व प— व माने जीव, उसका ‍ा व प ह। (२) पर व प—पर माने
परमा मा, उसका ‍ा व प ह। (३) उपाय व प—उपाय माने परमा मासे िमलने का
उपाय। (४) फल व प—फल माने परमा मासे िमलनेका जो फल िमलगा, उसका ‍ा
व प ह। और (५) िवरोिध व प—िवरोधी माने परमा मासे हम कौन िमलने नह दे रहा
ह। ल मणजीने भगवा से पाँच िकये—
कह यान िबराग अ माया। कह सॊ भगित कर जेिह दाया॥
(मा. ३.१४.८)
ई र जीविह भेद भु सकल कह समुझाइ।
जाते होइ चरनरित शोक मोह म जाइ॥
(मा. ३.१४)
(१) कह यान िबराग, कह सॊ भगित कर जेिह दाया—परमा माक ाि क
उपायका व प पूछा, (२) अ माया—िवरोधीका व प पूछा, (३) ई र—परमा माका
व प पूछा, (४) जीविह भेद —जीवका व प पूछा, (५) जाते होइ चरनरित शोक मोह
म जाइ—फलका व प पूछा।
हाँ! तो भगवा ने ल मणजीक अथप किवषयक िज ासाका समाधान िकया—
(१) िवरोिध व प—पहल िवरोिध व प कहा,
मैं अ मोर तोर तैं माया। जॆिह बश की े जीव िनकाया॥
(मा. ३.१५.२)
“यह म , यह मेरा ह, माने ये तू ये तेरा,” भगवा से अित र संसारक संब ध क क पना
ही माया ह। लोग मुझसे यही कहते ह—“गु जी! यह मेरा बेटा आया। ये मेर ससुर ...” अर
यार! तुम मेर-मेर कबतक करते रहोगे? यह बताओ! ये मेर ससुर, यह मेरी सास, यह मेर पित,
यह मेरी बेटी ... यहाँ तो ब त लोग मुझे यही कहते रहते ह। मेर कान पक गये सुनते-सुनते!
हमार यहाँ भी मेरा-मेरा करोगे? हम तो यह कहगे तुमसे—

२५९
कथा १७ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

तू रामशरणमें जा मत कर तू मेरा मेरा।


तू राममें मनको रमा मत कर तू मेरा मेरा॥
पित प ी और संपि बेटे नाते जगके झूठे।
स े है नाते रघुवरके ये ही िन य अनूठे।
तू राममें िच को लगा मत कर तू मेरा मेरा॥
तू रामशरणमें जा मत कर तू मेरा मेरा।
तू राममें मनको रमा मत कर तू मेरा मेरा॥
कभी-कभी िविश (special) लोग बात करते ह, तो मेर मनको बड़ी पीड़ा होती ह। चाह
वह आयोजक ह , चाह कोई ह िक मेर, मेर। अर! ‍ा मेर-मेर? मर रह हो यार! अर! मेर
तो रामजी ह—
मेरे-मेरे कहकर मरता कोई नहीं है तेरा।
झूठे संब धी सब जगके यही मोहका फेरा।
तू राम शरण में जा मत कर तू मेरा मेरा॥
िजनको तू अपना कहता है वे है सभी पराए।
वाथके साथी है जगके कोई काम न आये।
तू राम शरण में जा मत कर तू मेरा मेरा॥
जबतक तेरे पास य है तबतक सभी है तेरे।
अंत समयमें जूते मारे िगिरधर भु ही तेरे।
तू रामको अपना बना मत कर तो मेरा मेरा॥
रामकी शरण में जा मत कर तू मेरा मेरा॥
अर! ‍ा बताऊ? म इस िविश (special) धारणासे ब त दुःखी हो जाता । यि को
इतना वाथा ध नह होना चािहए। हमारा वाथ ‍ा ह?—
वारथ साँच जीव कह एहा। मन म बचन रामपद नेहा॥
(मा. ७.९६.१)
मनसे, वाणीसे, कमसे रामजीक चरणम ेम करना—यही जीवक मनका वाथ ह, यही
वचनका वाथ ह, यही कमका वाथ ह, तो इसिलए—
संतसमाज पयोिध रमा सी। िव भार भर अचल छमा सी॥
(मा. १.३१.१०)
(२) व व प—माया ईश न आपु कह जान किहय सो जीव (मा. ३.१५)।
(३) पर व प—बंध मो द सब पर माया ेरक शीव (मा. ३.१५)।
(४) उपाय व प—
धम ते िबरित जोग ते याना। यान मो द बेद बखाना॥
जाते बेिग वउ मैं भाई। सो मम भगित भगत सुखदाई॥
(मा. ३.१६.१–२)
(५) फल व प—
२६०
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १८

बचन कम मन मोिर गित भजन करिह िन काम।


ितन के दय कमल मह करउ सदा िब ाम॥
(मा. ३.१६)

कथा १८: िव भार भर अचल छमा सी (मा. १.३१.१०)


यह १८व कथा इतनी सु◌र कथा ह िक िव क भारको धारण करने वाली पृ वीक समान ह।
कौन कथा ह? यही कथा ह िक जब शूपणखा रामक पास आ रही ह। शूपणखा रावणक बिहन
ह। एक बार प वटीम मण करते-करते आयी।
पंचबटी सो गइ ऄक बारा। देिख िबकल भइ जुगल कुमारा॥
(मा. ३.१७.४)
रामजी और ल मणजीको देखकर िवकल हो गयी। गो वामीजीने कहा िक ‍ ऐसा आ?
तो कहा—
ाता िपता पु उरगारी। पु ष मनोहर िनरखत नारी॥
होइ िबकल सक मनिह न रोकी। िजिम रिबमिन व रिबिह िबलोकी॥
(मा. ३.१७.५–६)
इन चौपाइय का अथ थोड़ा यानसे सुन। म चाहता िक आपको रामायणजीक चौपाइय का
अथ समझम आये। आप रामायणजीक चौपाइय से परीिचत हो जाइये! मेरी यही तो भूिमका
होनी चािहए िक भारतका ब ा-ब ा रामायणजीक चौपाइय से प रिचत हो जाए।
ग डजीने भुशु डजीसे पूछा—“(१) शूपणखा राम-ल मणपर ‍ मोिहत हो गयी और (२)
राम-ल मण शूपणखापर ‍ मोिहत नह ए?—ये दो ह।” इ◌ दोन का उ र दे
रह ह—“ह ग ड! चाह भाई हो या िपता हो या पु हो, यिद नारी इनम दो बात देखने लगती
ह—पु ष व और सु◌रता; तो बिहन भाईपर मोिहत हो जायेगी, बेटी िपतापर मोिहत हो जायेगी
और माता भी बेटपर मोिहत हो जायेगी—िनयम ह यह। इसी कार यिद भाई, िपता या पु
नारीम मनोहरता देखेगा और भोगका साधन देखेगा, तो भाई बिहनपर मोिहत हो जायेगा, िपता
पु ीपर मोिहत हो जायेगा, पु मातापर मोिहत हो जायेगा। िकतना सु◌र कह रह ह।”
तो गो वामीजीका िकतना सु◌र करण ह! बिहनको भाईक सु◌रता नह देखनी चािहए,
उसम पु ष व नह देखना चािहए। पु ीको िपताम िपताका सौ◌य नह ..., वे तो िपता ह,
पया ह। भाई-भाई होता ह, वह सु◌र हो या क प हो। माताको पु क सु◌रता नह देखनी
चािहए। “‍ा छः फ ट का ह, ‍ा गोरा-िच ा सा ह!”—यह तुमको कहनेका अिधकार नह
ह। यह उसक प ी कह, तुम कौन होती हो कहने वाली? पाप हो जायेगा। उसी कार भाईको
अपनी बिहनक सु◌रता नह देखनी चािहए, बिहन तो बिहन, उसक चरण क ओर िनहारो।
िपताको बेटीक सु◌रता नह देखनी चािहए, नह तो उसक मनम वासना आयेगी। पु को माता
का सौ◌य नह देखना चािहए, कवल मातृ व देखना चािहए। तो ाता, िपता और पु नारीका
मनोहर व और नारी व न देख और नारी ाता, िपता और पु म मनोहर व व पु ष व न देखे—

२६१
कथा १९ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

यह यहाँका ता◌य ह। तो शूपणखाने भगवा राम-ल मणम पु ष व देख िलया और मनोहरता


देख ली, इससे वह मोिहत हो गयी। राम-ल मणजीने उसम मनोहर व और नारी व नह देखा,
इसिलए वे मोिहत नह ए—
ाता िपता पु उरगारी। पु ष मनोहर िनरखत नारी॥
होइ िबकल सक मनिह न रोकी। िजिम रिबमिन व रिबिह िबलोकी॥
कौश याजी रामजीको देखती ह, पर ‍ा नह देखत ? रावणका वध करनेक प ा भी
रामजीको माताजीने देखा, तो ‍ा उ◌ ने उनका पु ष व देखा िक सु◌रता देखी?—
कौश या पुिन पुिन रघुबीरिह। िचतवित कृपािस धु रनधीरिह॥
दय िबचारित बारिह बारा। कवन भाँित लकापित मारा॥
अित सुकुमार जुगल मॆरॆ बारे। िनिशचर सुभट महाबल भारे॥
(मा. ७.७.६–८)
शूपणखा मोिहत ई और कहा—“राजकमार! म तुमसे िववाह करना चाहती ।” भगवा ने
कहा—“नह ।” सीतिह िचतइ कही भु बाता (मा. ३.१७.११) सीताजीक ओर देखा और
बोल—“मेर पास तो प ी ह, म तु ह ‍ देखना चा ? अहइ कुमार मोर लघु ाता (मा.
३.१७.११)—मेर छोट भाई कमार ह। झूठ नह बोला, कमार ह। क सतः मारः येन स कमारः—
िजनक सु◌रताने कामदेवको भी क सत कर िदया ह, उन कमारसे बात करो। देखा जायेगा!
जो कछ होगा, होगा।” ल मणजीने भी अ वीकार कर िदया, तब वह सीताजीको खाने दौड़ी
तो रामजीने उसको िव िपत कराया। तो िव भार भर अचल छमा सी (मा. १.३१.१०)।
यह च र इतना सु◌र ह िक रामजी चलायमान नह ए। पृ वीक समान अचल रही ह कथा।
इसीिलए तो पृ वीपु ी सीताजी, रामजीक इस कथापर बिलहार हो गय ।

कथा १९: जम गन मुँह मिस जग जुमना सी (मा. १.३१.११)


अब ब त सु◌र चचा—जमगन मुँह मिस जग जुमना सी (मा. १.३१.११)। कहते ह िक यह
कथा यमराजक गण क मुखम कािलख लगानेक िलए यमुनाजीक समान ह। इसका ता◌य ह िक
एक तो यम क गण और दूसरा जम गण। करोड़ यमराज क समान भयंकर खर-दूषण-ि िशरा
रामजीपर आ मण कर रह ह। राघवजीने ल मणजीसे कहा—“अपनी भाभीको तुम गुफाम ल
जाओ, ‍ िक इनक उप थितम म रा स को मार नह सकगा।” ीरामने भी तैयारी कर ली।
खर-दूषणने एक ◌ाव भेजा—
ज िप भिगनी की कु पा। बध लायक निह पु ष अनूपा॥
(मा. ३.१९.५)
“कह दो! सीताजीको लौटा द—दे तुरत िनज नािर दुराई (मा. ३.१९.६) िजस नारीको
गुफा म छपा रखा ह, दे द और चल जाएँ।” ीरामने कहा—“मुझे कोई समझौता नह करना।
हम लोग तो ि य ह; जो ललकारता ह, उससे यु करगे। जो कछ होगा, होगा।” भयंकर
यु चला। खर-दूषण रावण-जैसे बलवा ह—खर दूषन मॊिह सम बलवंता (मा. ३.२३.२)।

२६२
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २०

एक-साथ करोड़ अ -श छोड़ जा रह ह। ये मरते ह और िफर जीिवत हो जाते ह। मर-मरकर


जीिवत हो रह ह। सुर डरत चौदह सहस िनिशचर देिख इक कोसल धनी (मा. ३.२०.१२)।
देवता डर, तो भगवा ने गांधवा का योग िकया। सबको रामजी ही िदखायी पड़ने लगे। सबक
◌ि म रामजी आ गये, सब एक-दूसरको राम समझकर मारने लगे। रामजीको धनुष-बाण उठाना
नह पड़ा, अपने आप ही ससुर मार-मारकर मर गये, कट गये—किर उपाय िरपु मारेउ छन
मह कृपािनधान (मा. ३.२०क)। सबक मुखपर भगवा ने कािलख लगा दी, सबको मुि दे
दी। देवता स ए, चार ओरसे फल क वषा होने लगी। जय हो!
जब रघुनाथ समर िरपु जीते। सुर नर मुिन सब के भय बीते॥
तब लिछमन सीतिह लै आये। भुपद परत हरिष उर लाये॥
(मा. ३.२१.१–२)

कथा २०: जीवन मुकुित हेतु जनु कासी (मा. १.३१.११)


ीरामच रतमानसक २०व कथा जीवन-मुि हतु काशी ह, अथा यह जीवनको उसी कार
मुि देती ह जैसे भगवती काशी। ता◌य यह िक काशीम पाँच कोश ह। इसीसे प ोशा मका
काशी कहा जाता ह। इसी कार इस बीसव कथा म भी पाँच लोग को मुि िमली ह—
(१) मारीच, (२) जटायु, (३) कब ध, (४) माता शबरी, एवं (५) नारदजी। ीम ागवतजीक
तृतीय क धक उनतीसव अ यायक १३व ोकम भगवा किपलजीने अपनी माता देव ितजीसे
मुि क पाँच भेद कह ह—
सालो साि सामी यसा यैक वम युत ।
दीयमानं न गृ ि िवना म सेवनं जनाः॥
अथा भ लोग मेर ारा दी जाती ई सालो‍ मुि , साि मुि , सामी य मुि , सा य
मुि , तथा सायु य मुि को भी हण नह करते। इसका ता◌य यह ह िक भागवतकारने पाँच
मुि याँ मानी ह और संयोग तथा सौभा य यह ह िक बीसव कथाम इन पाँच मुि य क िनदशन
हो जाते ह।
(१) मारीच—खरदूषणक वधक प ा शूपणखाने रावणको भगवा ीरामक वीरताका
समाचार िदया और रावणने भी अपनी बहनक अपमानका ितशोध लने का िनणय िलया। इधर
भगवा ीरामने सीताजीको अनु ा दी िक वे जबतक वे रा स का नाश कर रह ह तबतक वे
अि म िनवास कर—
तुम पावक मह कर िनवासा। जब लिग करउ िनशाचरनाशा॥
(मा. ३.२४.२)
सीताजीने वही िकया, अि म िनवास कर िलया। मायाक सीताजीने भगवा ीरामक
लीलाम अ भूिमका िनभायी। मुि का थम भेद ह सालो‍। पर यहाँ ऐसा म नह रखा
गया। भगवा ीरामने मारीचको सामी य मुि दी। मारीच रावणक अनुरोधपर माया-मृग बना।
भगवा क चरण क ित इतनी मधुर मनोरथ िकये िक उ◌ मनोरथ क माहा यसे मारीच वण-

२६३
कथा २० ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

मृग बन गया—
मन अित हरष जनाव न तेही। आजु देिखहउ परम सनेही॥
(मा. ३.२६.८)
तॆिह बन िनकट दशानन गऄऊ। तब मारीच कपट मृग भऄऊ॥
अित िबिच कछ बरिन न जाई। कनकदेह मिनरिचत बनाई॥
(मा. ३.२७.२–३)
मारीच वण-मृग बना। माया सीता आ मम ह। वण मृगको देखकर सीताजीने ीरामसे
उसक वध का अनुरोध िकया—
स यसंध भु बिध किर एही। आन चम कहित बैदेही॥
(मा. ३.२७.६)
इसका वध कर चम ल आय। अथा िनकटताका संकत िदया, मारीचको आपक िनकट
होना चािहये और भुने वही िकया। माया मृगका भुने अनुधावन िकया और मारीचको मारा—
तब तिक राम किठन शर मारा। धरिन परॆउ किर घोर पुकारा॥
(मा. ३.२७.१५)
मारीचने पहल ल मणजीका नाम िलया। िफर भगवा ीरामका मरण िकया—
लिछमन कर थमिह लै नामा। पाछे सुिमरॆिस मन मह रामा॥
ान तजत गटॆिस िनज देही। सुिमरॆिस राम सिहत बैदेही॥
(मा. ३.२७.१६–१७)
भगवा ीराम और सीताजीक सं मरणक माहा यसे मारीचको भगवा क सामी य मुि
िमली—
िबपुल सुमन सुर बरषिह गाविह भु गुन गाथ।
िनज पद दी असुर कह दीनबंधु रघुनाथ॥
(मा. ३.२७)
मारीच सामी य मुि पाकर ध य आ।
(२) जटायु—इधर मायाका कपट सं यासी बनकर रावण सीताजीक पास आया। उसक
अनुरोधसे सीताजी ल मणजीक ारा बनायी ई धनुषक रखाको लांघकर बाहर आय और
सीताजीका रावणने हरण िकया। सीताजी िवलाप कर रह थ । कोई उनका र क नह था।
अ◌तोग वा, सीताजीक र ा का भार जटायुने सँभाला और दािय वपूण यु म रावणको कछ
ण क िलए मू ◌त कर िदया। एक द ड पय◌ मू ◌त रहने क प ा रावणने जटायुक पंख
काट िदये—
काटॆिस पंख परा खग धरनी। सुिमिर राम किर अदभुत करनी॥
(मा. ३.३१.२२)
इधर सीताजीका अ वेषण करते ए भगवा ीराम जटायुक पास प च गये। भुने जटायुको
त-िव त देखा। जटायुक धू र भुने अपनी जटा से झाड़ी—

२६४
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २०

दीन मिलन अधीन हो अंग िबहग पय ि ित िख दुखारी।


राघव दीन दयाल कृपाल को देिख दुखी क णा भई भारी॥
गीध को गोद में रािख कृपािनिध नयन सरो ह में भरे वारी।
बार ही बार सुधारत पंख जटायु की धूर जटान सों झारी॥
जटायु मु कराये। भुने उनसे उनका मु करानेका कारण पूछा। जटायुने कहा—“ भु! जब
ाजीने मेरा नाम जटायु रखा तब मुझे आ य आ और हसी आयी िक जटायु नाम का ‍ा
ता◌य हो सकता ह? पर भु! आज जीवनक अ ◌म णम मुझे जटायु श दका अथ समझम
आ गया। जब आप परम भु मयादा-पु षो म ीराम मेरी धूिल अपनी जटा से झाड़ रह
ह और मने समझ िलया—राम य जटायामायुः य य सः जटायुः, अथा रामजीक जटा म
िजसक आयु ह, वह जटायु ह। (काशी ह न, थोड़ा वैदु य ह।) भु! म ध य हो गया। आप
मेर पु ह और सीताजी पु वधू। यिद आप मेरी अ ◌म इ◌ा पूण करना चाहते ह तो मेरी एक
ही इ◌ा ह। िजस रावणने मेरी पु वधू सीताका कश पकड़कर अपमान िकया, िजन भुजा से
उसने सीताजीको घसीटा, उन बीस भुजा को काटकर मेरी िबरादरीको मेरा वािषक ा का
भोजन करवाइयेगा- यही मेरी अ ◌म इ◌ा ह।” जटायुको भगवा ने सा य मुि दी। जटायु
गीधका शरीर छोड़कर भगवा क चतुभुज पको ा कर िलये—
गीध देह तिज धिर हिर पा। भूषन ब पट पीत अनूपा॥
याम गात िबशाल भुज चारी। अ ुित करत नयन भिर बारी॥
(मा. ३.३४.१–२)
गीधराजको सा य मुि िमली। भुक समान प अथा वै णव प िमला ‍ िक राम-
प तो िकसीको िदया नह जा सकता। अतः गीधराजको भगवा ने वै णव प दान कर
सा य मुि दे दी—
अिबरल भगित माँिग वर गीध गऄउ हिरधाम।
तॆिह की ि या जथोिचत िनज कर की ी राम॥
(मा. ३.३४)
(३) कब ध—अब तृतीय मुि भगवा ीरामने कब धको दी। कब धने ीराम और
ल मणको अपनी योजन पय◌ ल बी भुजा म जकड़ िलया। भु ीरामने कब धक भुजाएँ
काट द । उसको नीचे िगराया और जला िदया— वं िनह य माहाबा ददाह वगत सः
(वा.रा. १.१.५६) और उस ग धवको भगवा ने सालो‍ मुि दे दी—
रघुपितचरन कमल िशर नाई। गऄउ गगन आपिन गित पाई॥
(मा. ३.३६.४)
ता◌य यह ह िक कब धको सालो‍ मुि दे दी।
(४) शबरी—और अब भगवा ीराम शबरीक पास आये। शबरीने भुको िनहारा और
भाव-िव ल हो गय । उ◌ उनका बेटा िमल गया—

२६५
कथा २० ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

शबरी देिख राम गृह आये। मुिन के बचन समुिझ िजय भाये॥
याम गौर सुंदर दोउ भाई। शबरी परी चरन लपटाई॥
(मा. ३.३६.६, ८)
भगवा ीरामक चरण म शबरीजी िलपट गय । उ◌ अपने आ मम ल आय । अपने
आँचलका आसन बनाकर भुको िवराजमान कराया और—
कंद मूल फल सुरस अित िदये राम कह आिन।
ेम सिहत भु खाये बारबार बखािन॥
(मा. ३.३६)
यहाँ खाये पदका दोन ओर अ वय होगा, अथा कंद मूल खाये अित सुरस फल राम
कह आिन िदये और बारबार बखािन ेम सिहत खाये। अथा शबरीजीने चख-चखकर
सु◌र-सु◌र वादयु बेर भगवा को िखलाया और भुने भी बारबार शंसा करक शबरीक
फल खाये। भु शबरीक फल खा रह ह, ेमसे पा रह ह। देवता पु प क वषा कर रह ह। इस
अव थाका वणन रामरसायन म रिसक िबहारीजी ब त ही मनो का य-पाठ कर रह ह—
बेर बेर बेर लै सराहै बेर बेर ब
रिसक िबहारी देत बंधु कह फेर फेर।
चािख चािख भाषैं यह वा ते महान मीठो
ले तौ लखन यौं बखानत है हेर हेर।
बेर बेर देवै बेर शबरी सुबेर बेर
तोऊ रघुबीर बेर बेर ितिह टेर टेर।
बेर जिन लावो बेर बेर जिन लावो बेर
बेर जिन लावो बेर लावो कहै बेर बेर॥
ध य हो गय शबरीजी। पूण हो गया उनका अिभयान और भगवा ीरामने शबरीजीको
सायु य मुि दे दी, अथा शबरीजी भगवा क चरण म लीन हो गय —तिज जोगपावक देह
हिरपद लीन भइ जह निह िफरे (मा. ३.३८.१४)। शबरीक प र थितय का वणन करते ए
संत ने ‍ा ही सु◌र दोहा िलखा ह—
याह न की ों शबिर पित दशन नहीं की ।
शबरी पु वती भयी भु गोदी भिर दी ॥
शबरी पु वती हो गय । इस कार शबरीजीको सायु य मुि िमली।
(५) नारदजी—भगवा आगे बढ़, प पा सरोवरक पास आये। बैठ ह। नारदजी आ गये।
जैसा िक हम बता रह ह िक काशीम रामनामक ब त मिहमा ह। जीवन मुकुित हेतु जनु
कासी (मा. १.३१.११)। रामनामक बलपर ही श रजी सबको समान पसे दशन देते ह।
नारदजीने भी कहा—“भगव ! मेरी भी इ◌ा ह िक रामनाम स पूण नाम से अिधक हो जाए।”
मेरा तो आप लोग को एक सुझाव ह िक रामनामका जप अिधक करना चािहए। रामनाम मत
छोड़ो। रामनामका जप करना चािहए, ब त लाभ होता ह। नारदने कहा—“म एक संशयसे
बंधा आ । आपने अपनी मायाक ेरणासे मुझे मोिहत िकया। म िववाह करना चाहता था,
२६६
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २१

आपने नह करने िदया।” भगवा ने कहा—“हाँ! तु ह ब त क होता नारद! ‍ िक िववाह


तुम वासनाक कारण कर रह थे।” तो कहा—“भगव ! आपने मुझे बचा तो िलया, पर मेरी
हसी ब त उड़वायी।” भगवा ने कहा—“जब बालक सु◌र होता ह, तो माँ उसको नजरका
टीका लगा देती ह। तो मने एक टीका लगा िदया तुमको।” तो नारदजी भी इस मसे मु ए।
पाँच-पाँच लोग को मुि दी।
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय हो ॥

कथा २१: रामिह ि य पाविन तुलसी सी (मा. १.३१.१२)


अब इ सव कथा; ब त अ◌ी कथा ह—
रामिह ि य पाविन तुलसी सी। तुलसीदास िहत िहय लसी सी॥
(मा. १.३१.१२)
यह रामायणजीक इ सव कथा रामजीको तुलसीजीक समान ि य ह। जैसे शाल ाम पम
भु तुलसीको शीशपर धारण करते ह, इसी कार इस कथाको अपने शीशपर चढ़ा रखा ह।
यह कथा ह हनुमा जीक िमलनक कथा। बोिलये वीर बजरग बलीक जय हो!
आज शिनवार है महावीर का वार है।
ऐसे ीहनुमानजी को बार-बार नम कार है॥
आज शिनवार है महावीर का वार है।
ऐसे ीहनुमानजी को बार-बार नम कार है॥
अ त आन◌ हो रहा ह! रामिह ि य पाविन तुलसी सी (मा. १.३१.१२)। रामजी आगे
चल रह ह—
आगे चले ब िर रघुराया। ऋ यमूक पबत िनयराया॥
(मा. ४.१.१)
रामच◌जी आगे चल रह ह। राघवजी और ल मणजीको देखकर सु ीवजी डर। सु ीवजीने
कहा—“ये हमको मारने आ रह ह ‍ा? हनुमा जी आप पता लगाइये।” अब हनुमा जी आ
रह ह। ब त अ◌ा लगेगा! यह कथा रामजीको ब त ि य ह, जैसे तुलसी मैया शाल ामको
ि य ह। हनुमा जी आये, णाम िकया, पाँच िकये हनुमा जीने—
(१) को तुम यामल गौर शरीरा, छ ी प िफर बन बीरा (मा. ४.१.७)—आप
दोन यामल, गौर शरीर वाल कौन ह जो ि य पम इस वनम मण कर रह ह?
(२) किठन भूिम कोमल पद गामी, कवन हेतु िबचर बन वामी (मा. ४.१.८)—इस
किठन भूिमपर कोमल चरण से चलने वाल आप दोन िकस कारणसे वनम िवचरण कर रह ह?
(३) मृदुल मनोहर सुंदर गाता, सहत दुसह बन आतप बाता, की तुम तीिन देव मह
कोऊ (मा. ४.१.९–१०)—आप दोन वनम असहनीय धूप और कठोर वायु सहन कर रह ह।
‍ा आप दोन ा, िव णु और िशव नामक तीन देव मसे कोई ह?
(४) नर नारायण की तुम दोऊ (मा. ४.१.१०)—‍ा आप दोन नर-नारायण ह?

२६७
कथा २१ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

(५) जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार, की तुम अिखल भुवन पित ली मनुज
अवतार (मा. ४.१)—‍ा भगवा ीराम ह, िज◌ ने जीव को भवसागरसे तारनेक िलए और
पृ वीका भार हरण करनेक िलए ीअवधम मनु य पम अवतार िलया ह?
रामजीने बताया—
कोसलेश दशरथ के जाये। हम िपतु बचन मािन बन आये॥
नाम राम लिछमन दोउ भाई। संग नािर सुकुमािर सुहाई॥
इहाँ हरी िनिशचर बैदेही। िब िफरिह हम खोजत तेही॥
(मा. ४.२.२–४)
यहाँ सीताजीको एक रा सने चुरा िलया ह, हम ढढ रह ह। भगवा ने बताया िक देखो!
यहाँ हम चार लोग को ढढ रह ह—(१.व २.) हरी—ह रः हरी हरयः। ह र हरी हरी ।
हरी—ि वचन ह, अथा यहाँ हम दो वानर को ढढ रह ह; दो ह र माने—(क) सु ीव और
(ख) हनुमा (३) िनिशचर—एक रा स िवभीषणको ढढ रह ह, (४) बैदेही—सीताजीको
ढढ रह ह।
आपन चिरत कहा हम गाई। कह िब िनज कथा बुझाई॥
(मा. ४.२.५)
हनुमा जीने कहा—“मने आपको पहचान िलया।”
भु पिहचािन परॆउ गिह चरना। सो सुख उमा जाइ निह बरना॥
(मा. ४.२.६)
चरणपर पड़ गये। रामिह ि य पाविन तुलसी सी (मा. १.३१.१२) तुलसीजी भी भगवा क
चरणपर पड़ती ह, हनुमा जी भी पड़ गये। भगवा ने दयसे लगा िलया—तब रघुपित उठाइ
उर लावा (मा. ४.३.६)। हनुमा जी कट हो गये और कहा—भगव ! आप सु ीवसे िम ता
कर लीिजये—तेिह सन नाथ मय ी कीजै (मा. ४.४.३)। आन◌ कर िदया! रामिह ि य
पाविन तुलसी सी तुलसी शाल ामजीक िसरपर बैठती ह, पर यहाँ थोड़ा अ◌र ह। इस कथाम
हनुमा जी रामजीक िसरपर नह बैठ रह ह, ब क रामजीको ही हनुमा जी अपनी पीठपर बैठा
रह ह—
यॆिह िविध सकल कथा समुझाई। िलए दुऔ जन पीिठ चढ़ाई॥
(मा. ४.४.५)
आहाहाहाहा! हनुमा जी ला रह ह। रामिह ि य पाविन तुलसी सी (मा. १.३१.१२)।
‍ ? आज हनुमा जीने सु ीवजीक रामजीसे िम ता करायी—तब हनुमंत उभय िदिश कै
सब कथा सुनाइ (मा. ४.४)। एक बात और! िम ता आपने ब त देखी ह गी, पर ऐसी
िम ता कभी नह देखी होगी। अि को सा ी देकर िम ता करना! यह तो पित और प ीका
जैसे वैिदक िववाह होता ह, अि क फर िदये जाते ह, इसी कार—पावक साखी देइ किर
जोरी ीित ढ़ाई (मा. ४.४)। हनुमा जी म◌ बोल रह ह—“तुम दोन जने अि क प र मा
करो।” “‍ कर?” “सीताजी अि म िनवास कर रही ह। और सु ीव! तु हारी और रामजीक
िम ताम सीताजी सा ी रहगी।” म◌ पढ़ा—

२६८
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २२

ॐ ा सुपणा सयुजा सखाया समानं वृ ं पिरष वजाते।


तयोर यः िप पल वा यन यो अिभचाकशीित॥
(ऋ.वे. १.१६४.२०)
आन◌ कर िदया भगवा ने—पावक साखी देइ किर जोरी ीित ढ़ाई (मा. ४.४)।
ग द हो गया पूरा वातावरण! ध य ध य हो गया!! दोन जने प र मा कर रह ह, हनुमा जी
म◌ पढ़ रह ह; जय-जयकार हो रही ह। बोिलये भ व सल भगवा क जय! चकार स यं
रामेण ीत ैवाि साि क (वा.रा. १.१.६१)। इस कार—रामिह ि य पाविन तुलसी
सी (मा. १.३१.१२)।

कथा २२: तुलसीदास िहत िहय लसी सी (मा. १.३१.१२)


अब बाईसव कथा—तुलसीदास िहत िहय लसी सी (मा. १.३१.१२)। देिखये! गो वामीजी
कह रह ह िक मेर दयक िहतक िलए तो यह कथा मेरी माता लसीक समान ह। रामायणम
एक ही बार अपनी माताजीका नाम िलया गो वामीजीने बालका डक ३१व दोहक बारहव
पि म। बोिलये लसीहषवधन तुलसीदास महाराजक जय हो!
भगवा रामक िम ता हो गयी। सु ीवने रघुनाथजीको पूरी बात बतायी। रामच◌जी अब
प ल रह ह सु ीवका। तुलसीदासजी कह रह ह िक इसी कार रामच◌जीने मेरा भी प
िलया ह, अतः—तुलसीदास िहत िहय लसी सी। यहाँ एक बात ब त आव यक ह। आप
सभी जानते ह िक मेरा वभाव ह कछ नया सोचनेका। पुराना सब कछ ठीक ही ह—ऐसा म
कभी नह मानता। अतः कछ नया सोचनेका मेरा अ यास पहलसे ह। और इतना समझानेक
प ा भी धारावािहक (serial) वाल मूख अपने ही मनक करते ह। मने बार बार कहा िक
सीताजीका दूसरा वनवास नह आ था। िफर भी मूख लोग धारावािहक (serial) म िदखा देते
ह, तो इन लोग को द ड भी िमलता ह। मने कहा ह िक रामजीने बािलको िछपकर नह मारा,
यही मेरा प ह। आप रामलीलाम भी देखते ह गे िक रामजी िछपकर मार रह ह। और अब
गाँठ बाँध लीिजये िक रामजीने बािलको िछपकर नह मारा। ‍ िछपकर मारगे? बताइये, ‍
मारगे? तो लोग कहते ह िक बािलको वरदान था िक जो भी सामने आयेगा श ु, उसका आधा
बल बािलको िमल जायेगा। पहली बात, यह वरदान बािलको नह था। हमने िकसी पुराणम नह
देखा, लोग झूठ बोलते ह। यिद मान लो इ◌ क बात तो भी यह रामजीपर नह घटगा ‍ िक
आप आधा िकसका कर सकते ह? िजसक पूरका हमको आपको ान हो। अब रामजीक
बलका तो हमको ान ही नह —बलम मेयमनािदमजम य मेकमगोचर (मा. ३.३४.४)
अिमत बल! तो जब हमको ान ही नह ह िक िकतना लीटर ह, िकतना मीटर ह, िकतना
िकलो ाम ह, तो उसका आधा करगे कसे? बताइये? इसिलए झूठ बोलते ह लोग। रामजीने
बािलको िछपकर नह मारा। बािलने रामजीको ललकारा था। सु ीवको नीचे िगरा िदया और
छातीपर चढ़ गया, तो कहा िक बताओ सु ीव! जो तु हारा र क हो, अब वो आ जाय। तब
रामजी आ गये—

२६९
कथा २२ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

पुिन नाना िविध भई लराई। िबटप ओट देखिह रघुराई॥


(मा. ४.८.८)
त य यातलघोषेण ाः प रथे राः (वा.रा. ४.१६.३४)। भगवा ने धनुषक टकार
क । सभी प ी डर गये, मृग डर गये। रामजीने बािलसे आँख िमलाय । बािलक दशरथजीक
समान अव था देख कहा—“काका! राम! राम!!” रामजीने काका कहा। बािलने कहा—
“यु क रये।” रामजीने कहा—“देिखये! ‍ा आपसे यु क ? आपको िजतना अ -श
छोड़ते बने, सब मुझपर छोड़ दीिजये। यिद म सबका ितकार कर सका तब तो ठीक ह,
नह तो आप मुझे मार डािलयेगा।” बािलने रामजीपर ब त अ -श छोड़—ि ा वृ ा
समािव य िवपुला िशला था (वा.रा. ४.१९.१२)। बड़-बड़ वृ छोड़, सब रामजीने
काट िदए बाण से। बड़ी-बड़ी िशलाएँ फक , सब रामजीने काट द । रामजीने कहा—“काका!
ह काका! अबतक आपने अ -श छोड़ ह। अब मेर कवल एक बाणका हार सह लीिजये,
म दूसरा नह मा गा। यिद मेर एक हारम आप मर गये, तब तो कोई बात नह । नह तो
महादेव क शपथ! म आपपर दूसरा बाण नह छोडगा। एक ही बाण छोडगा बस!” बािल
एक शर मारेउ (मा. ६.३६)—एक ही बाण ख चकर मारा रामच◌जीने और बािल धड़ामसे
मू ◌त होकर िगर पड़ा। बािलने कहा—“आपने मुझे याधक भाँित िनदयतासे मारा।” भगवा ने
कहा—“यह ‍ा? मारनेम कोई िनदयता और दयाका होता ह ‍ा? तुम जब मुझे मार रह
थे, तो तुमने कोई दया क थी ‍ा? जब तुमने मुझे अपना भतीजा नह माना, तो म तु ह काका
‍ मानूँ? तब रामजीने कहा—
अनुजबधू भिगनी सुतनारी। सुनु शठ क या सम ए चारी॥
इनिह कु ि िबलोकइ जोई। तािह बधे कछ पाप न होई॥
(मा. ४.९.७–८)
भगवा ने कहा—ह काका!—“(१) अनुजबधू —छोट भाईक प ी, (२) भिगनी—बिहन,
(३) सुतनारी—पु क प ी और (४) भिगनी सुतनारी— ेष म बिहनक पु क प ी माने
भांजेक ब । अब िगिनये! हो गये न चार! ये चार क याक समान होती ह। छोट भाई क
प ी, बिहन, पु वधू और भांजेक क ब —इनको जो बुरी ◌ि से देख लता ह, उसको मारनेम
कोई भी पाप नह लगता। और तुमने तो जो िकया वो जानते ही हो, िकतना अनथ हो गया?”
भगवा ने कहा—“बािल! इ◌ चार अपराध क कारण म रावणको भी मा गा।” बािलने
कहा—“‍ मारोगे?” भगवा ने कहा—“(१) अनुजबधू —राजाक ◌ि से रावण मेरा बड़ा
भाई ह। म छोटा भाई , तो सीताजी अनुज वधू भी ह, (२) भिगनी—दूसरी ◌ि से सीताजी
रावणक छोटी बिहन क समान ह, (३) सुतनारी—तीसरी ◌ि से म अव थाम रावणक बेटक
समान , तो सीताजी रावणक पु वधूक समान ह, और (४) भिगनी सुतनारी—चौथी ◌ि से
कौश याजी रावणक बिहनक समान ह और उनक पु क (मेरी) प ी ह सीताजी, तो भांजेक
ब क समान ह। सीताजीको रावण हर कर लाया ह। तो तुमको भी द ड िदया, अब तु हार िम
रावणको भी साद देना मेर िलए अिनवाय हो गया ह। बेटा! िच◌ा मत करो।” अ◌म बािलने
कहा—“एक बार मेरी ओर देख लीिजये।”

२७०
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २३

अब नाथ किर क ना िबलोक दे जो वर माँगऊँ।


जॆिह जोिन ज मौं कमबश तह रामपद अनुरागऊँ॥
(मा. ४.१०.७)
बािलने शरीर छोड़ा और इधर भगवा ने आ ा दी सु ीवको; उसका दाह सं कार करनेक ।
ल मणजीसे कहा—जाओ! सु ीवको राजा बनाओ!—
लिछमन तुरत बुलाये पुरजन िब समाज।
राज दी सु ीव कह अंगद कह जुबराज॥
(मा. ४.११)
अ दको भगवा ने युवराज बनाया।
उमा राम सम िहत जग माहीं। सुत िपतु मातु बंधु भु नाहीं॥
(मा. ४.१२.१)
भगवा ने सु ीवसे कहा—“तुम अपने नगर जाओ, म अब वषण पवतपर जाऊगा।”
तुलसीदास िहत िहय लसी सी (मा. १.३१.१२)।

कथा २३: िशवि य मेकल शैल सुता सी (मा. १.३१.१३)


अब िशवि य मेकल शैल सुता सी (मा. १.३१.१३)—यह तेईसव कथा ह रामायणजीक ।
िशवजीको इतनी ि य ह यह कथा, िजतनी मेकल पवतक पु ी नमदाजी। नमदाजी िशवजीको
ब त ि य ह। नमदाम िशवजी डबे रहते ह। माता मानते ह। और, नमदाक येक प थरम
िशवजीका िनवास होता ह। इतने डबे रहते ह िशवजी नमदाम। इसी कार इस कथाम भी
िशवजी ब त म रहते ह। रामजी चातुमास कर रह ह। पूरा वणन िकया, चार दोह म वणन
ह—वरनन बषा शरद अ ... (मा. ७.६६)। वषा ऋतु और शर का वणन। बरषा िबगत
शरद ऋतु आई (मा. ४.१६.१)। वषा, शर क प ा रामजीने कहा—“ल मण! शर ऋतु
आ गयी, सीताजीका समाचार नह िमला।” जैसे नमदाम धारा; भगवा रामक ोधक धारा
देिखये! “सु ीव भी मेरी सुध भूल गये ल मण!”
जॆिह सायक मारा मैं बािल। तेिह शर हतउ मूढ़ कह काली॥
(मा. ४.१८.५)
यह पि ब त मािमक ह और आजतक लोग इसका अथ नह लगा पाये ह। साधारण
अथ यह ह िक रामजी कहते ह िक िजस बाण से मने बािलको मारा, कल उसी बाणसे मूख
सु ीवको मा गा! पर आप बताइये िक ‍ा यह उिचत ह? ‍ा मयादा-पु षो म ीराम ऐसा
कर सकते ह? जब रामजीने अि को सा ी करक िम ता क ह, ‍ा भगवा राम उसको
मारने क बात करगे? और यिद नह करगे तो इस पि का अथ कसे लगेगा? तेिह शर हतौं
मूढ़ कह काली। इस पि का अथ लगानेम सार टीकाकार मौन ह, पर मेरा यहाँ बड़ा मधुर
िनवेदन ह िक हमार यहाँ याकरण म यय तीन अथ म होता ह—(१) कताम, (२) कमम
और (३) भावम। यहाँ मूढ़ श दम यय भाव म आ ह। यहाँ मूढ़ का अथ ह—मूढता,

२७१
कथा २३ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

जैसे हिसत माने हसना, उसी कार मूढ माने मोह। भगवा राम कह रह ह—“ल मण! िजस
बाणसे मने बािलको मारा, यिद कल सु ीव नह आते तो उसी बाणसे सु ीवक दयम बैठ ए
मोहको मार डालगा, सु ीव को नह मा गा।” यहाँ यय भाव अथ म ह—नपुंसके भावे
ः (पा.सू. ३.३.११४)। लोग कहते ह िक सं कत क आव यकता नह ह, िबना सं कत क
रामच रतमानस का अथ लगेगा कसे? रामजीक बाण कौन ह?—हनुमा जी। तुर◌ हनुमा जी
सि य हो गये—
इहाँ पवनसुत दय िबचारा। रामकाज सु ीव िबसारा॥
(मा. ४.१९.१)
नमदाक मरणसे सप न हो जाता ह— ािह मां सपसंकटा । और यह कथा सु ीवक
मनम जो काम प सप ह—काम-भुजंग डसत जब जाहीं, िबषय-नींब कट लगत न ताहीं
(िव.प. १२७.३), उसका नाश करती ह।
ल मणजीने धनुष-बाण उठा िलए—“अभी जाता सु ीवक पास।” भगवा ने कहा—
“उनको मा रयेगा नह , भय िदखाकर ल आइये! मेर िम ह वे।” इधर हनुमा जी आकर
सु ीवजीको समझाये। सु ीवजी भयभीत ए, और कहा—“हनुमा जी! अब ‍ा होगा?”
“ठीक ह! करता समाधान।” सभी दूत भेजकर वानर को बुलवा िलया। इधर ल मणजी आ
गये नगरम बोल—“नगरको जला दूँगा।” अ दजी आये, अ दजीसे कछ नह बोल ल मणजी।
सु ीवजीने कहा—“हनुमा जी! आप जाइये, ताराजीको साथ ल जाइये।” ताराजीको साथ ल
गये।
देिखये! जो लोग दु होते ह न, सव उ◌ दु ता ही िदखती ह। जो िजस कितका होता
ह, उसको उसी कारक भाव िदखते ह। जो िवषयक क ड़ ह (कामी लोग), उनको सव यही
िदखता ह। लोग सु ीव, िवभीषणको कामी मानते ह। इसपर मेरा एक थ ह, देिखये—सु ीव
क कचाल और िवभीषण क करतूत । सु ीवजीने ताराजीको कभी अपनी भो या नह बनाया
और न ही िवभीषणजीने म◌ोदरीको अपनी भो या बनाया। यान रिखये, ये सब िछछली बात
ह। जो रामजीक भ ह, ऐसी गलती करगे? और तारा सा ा —सीताजीक नामक अ ◌म
ता और रामक नामका ार भ रा—तारा ह। इस कार जो कहते ह, मेरा बस चल तो म ‍ा
क उनको? आप लोग बताइये। यिद ताराजी दूिषत होत , तो हनुमा जीक साथ ल मणजीक
पास जात ?—
तारा सिहत जाइ हनुमाना। चरन बंिद भु सुजश बखाना॥
(मा. ४.२०.४)
ितिदन चौपाई पढ़ा क िजये रामायणजीक ! हनुमा जी तो इतने कठोर ह! इसिलए म
कहता िक म ◌रम कोई मिहला उ◌ छये नह । कहा जाता ह िक यिद म ◌रम कोई मिहला
हनुमा जीक िव हको छ दे तो २१ िदनतक वे कछ भी नह लते—जलपान भी नह । इसिलए
नह छना चािहए। तो ताराक साथ कसे जाते हनुमा जी? और यिद सु ीवजीका पलग दूिषत
होता तो ल मणजीको सु ीवजीक पलगपर िबठाया जाता ‍ा?—

२७२
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २३

किर िबनती मंिदर लइ आये। चरन पखािर पलग बैठाये॥


(मा. ४.२०.५)
जो कह, उसको थुथुरो। जो कछ होगा, होगा। पु ष कह तो पु ष लोग चाँटा मारो और
मिहला कह तो हमारी मिहलाएँ पया ह, थुथुर द। अर! रामजीक भ ऐसी गलती करगे?
ल मणजीको समझाया। ल मणजी सु ीवजीको साथ लकर रामजीक पास आये। इस कथाम
इतने डबते ह िशवजी, मने बताया न िक जैसे नमदाम डबते ह। कह रह ह—“ह पावतीजी!
वानर क १८ प सेनाको मने देखा—”
बानरकटक उमा मैं देखा। सॊ मूरख जो करन चहॆ लेखा॥
(मा. ४.२२.१)
इतने डबते ह िशवजी। वह मूख ह, जो इनका लखा कर ल। िकतने ह? १८ प तो
रावणक म◌ीने कहा। ये अन◌ ह और इनको देखकर भगवा रामने अन◌ प बना िलये—
अिच म य मन मूित (भा.पु. १०.४०.७)। येक वानरसे िमल, सबसे समाचार पूछा।
सब लोग चल पड़। हनुमा जीको रामजीने िनकट बुलाया—
पाछे पवनतनय िसर नावा। जािन काज भु िनकट बुलावा॥
(मा. ४.२३.९)
कहा—हो महावीर! ह महावीर!! अर! तिन ह े आवा!!!
अंजनी के बारे हो दुलारे पवन देवता के।
सुन महावीर बलवान तिन हे े आवा॥
तुहइ िबटवा होईजा हमरी लाज के बचैया हो।
अंजनी के न न सुजान तिन हे े आवा॥ सुन महावीर ...
कंचन बरन चमके िपयिर शरीिरया।
इ धनुष जैसे लपकी ललकी लगुिरया।
तोहे बबुआ होइ जा सीता ाण के रखैया हो।
संकट मोचन हनुमान तिन हे े आवा॥ सुन महावीर ...
देिखये अब! भुने हनुमा जीको मुि का दी—
परसा शीष सरो ह पानी। करमुि का दी जन जानी॥
(मा. ४.२३.१०)
हनुमा जी महाराज चल पड़, मुि काको मुखम ल िलया। िशवि य मेकल शैल सुता
सी (मा. १.३१.१३)—जैसे नमदाम शाल ामक िशला डबी रहती ह, उसी कार हनुमा जीने
मुखम मुि का भर ली ह। गुफाम आये, वयं भाने सबको फल िखलाये, कहा—“आँख बंद
कर लो! चल जाओगे।” आँख बंद क , माता वयं भाजीने सबको तपोबलसे सागरक तटपर
भेज िदया। स◌जन तो कहते ह िक यही वयं भा रामजीसे िववाह करना चाहती ह। रामजीने
कहा—“अभी िववाह नह क गा, एकनारी त । आप चिलये, ज मूम पवतपर वै णो देवी
बनकर तप या क रये! किलयुगम जब क क अवतार होगा, तब आप प ावती बनकर मेरी
प ी बन जाइयेगा। वह वै णो देवी ह, ये ज मूवाली वै णो देवी!” इतनी शु यही एक देवी
२७३
कथा २३ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

ह, जहाँ िब कल शु वै णव! जहाँ मिदरा-मांसका कोई योग होता नह । शु वै णो देवी!


तो वानर िच ◌त ह िक ‍ा िकया जाए?—
इहाँ िबचारिह किप मन माहीं। बीती अविध काज कछ नाहीं॥
(मा. ४.२६.१)
वानर आमरण अनशनपर बैठ ह। स पातीने कहा—“ये सब मरगे, सबको खा जाऊगा म।”
अ दने कहा—अर! तुम हमारी मृ यु मना रह हो? ध य थे जटायु! िज◌ ने रामजीक कायम
अपना शरीर छोड़ िदया—
कह अंगद िबचािर मन माहीं। ध य जटायू सम कोउ नाहीं॥
रामकाज कारन तनु यागी। हिर पुर गऄउ परम बड़भागी॥
(मा. ४.२७.७–८)
स पातीने कहा—“कौन हो भाई, जो मेर भाई का नाम ल रह हो?” आया स पाती, सबने
अपना प रचय बताया। “अर! ठीक ह। मुझे ल चलो सागर तटपर, म अपने भाईका ा
कर ल। िफर बताता ।” जटायुजीका ा िकया। रामजी पहल कर ही चुक ह, अब िफर।
कहा—“यह देखो ि कट पवतक ऊपर ल ा! वह अशोक वािटका ह। वहाँ सीताजी बैठकर
िच◌ा कर रही ह। पर उनको वही देख सकता ह, जो एक छलांगम सागर को लाँघ जाए।”
तब सबने अपना-अपना मन बता िदया, पर पार जानेक िलए संशय बना रहा—१०, २०,
३०, ४०, ५०, ६०, ७०, ८०, ९०तक। अ दने कहा—“१०० योजन जा सकता , पर आनेम
संदेह ह।” जा बव◌जीने कहा—“यही काम कर सकते ह, इ◌ ने अपना त नह तोड़ा।”
तब हनुमा जीको ललकारा—अ नान◌वधन! ‍ा कर रह हो?—
कहइ रीछपित सुनु हनुमाना। का चुप सािध रहॆउ बलवाना॥
पवनतनय बल पवन समाना। बुिध िबबेक िब यान िनधाना॥
कवन सॊ काज किठन जग माहीं। जो निह होइ तात तुम पाहीं॥
(मा. ४.३०.३–५)
तुम वयंको भूल गये? ह अ नान◌वधन! आप श रजी ह, आपका अवतार रामजीक
कायक िलए आ ह—
राम काज लिग तव अवतारा। सुिन किप भयउ पबताकारा॥
(मा. ४.३०.६)
हनुमा जी....
जय यितबलो रामो ल मण महाबलः।
राजा जयित सु ीवो राघवेणािभपािलतः॥
दासोऽह कोसले य राम याि कमणः।
हनुमा ुसै यानां िनह ा मा ता मजः॥
न रावणसह ं मे यु े ितबल भवे ।
िशलािभ ु हरतः पादपै सह शः॥

२७४
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २४

अदिय वा पुरीं ल ामिभवा च मैिथली ।


समृ ाथ गिम यािम िमषतां सवर सा ॥
(वा.रा. ५.४१.६–९)
रावणको मसल दूँगा, आ ा हो जाए! अयुतं योजनानां तु गिम यामीित मे मितः (वा.रा.
४.६६.२४) इसी वेगसे म दस हजार योजन जा सकता । मसल दूँगा रावणको। सहायक क
सिहत रावणको मारकर ि कटको उखाड कर यहाँ लाऊगा, चूर कर दूँगा पवत को, न च दूँगा
मेघमालाको, सागरको सोख लगा। आ ा हो जाए।
इतना कर तात तुम जाई। सीतिह देिख कह सुिध आई॥
(मा. ४.३०.११)
जैसे नमदाका वेग होता ह, उसी कार इस कथाम हनुमा जीका वेग—हर हर हर हर।
आन◌ हो रहा ह! िशवि य मेकल शैल सुता सी (मा. १.३१.१३)।

कथा २४: सकल िसि (मा. १.३१.१३)


देिखये! अब हम सु◌रका डक चचा कर रह ह—सकल िसि सुख संपित रासी (मा.
१.३१.१३)। सु◌रका डम तीन कथाएँ ह—२४व , २५व और २६व । पूवम सु◌रका डक
ार भसे लकर ३२तक—सकल िसि ... (मा. १.३१.१३)। सु◌रका डम थम च र
हनुमा जीका ह और इस च र म आठ िसि य का वणन ह। और आप जानते ही ह िक
सु◌रका डम आठ बार सुंदर श दका योग भी आ ह। आज एक मिहलाको मने देखा। वे
सु◌रका डका अथ पढ़ती थ , चौपाई नह । मने कहा—“नह ! नह !! अथ पढ़ो या न पढ़ो,
सु◌रका डक चौपाइय को पढ़नेसे सार काम बन जायगे। कोई काम िबगड़ ही नह सकता
सु◌रका ड पढ़नेसे।” ितिदन सु◌रका डका पाठ करना चािहए। इसम हनुमा जीक आठ
च र ह—
अतुिलतबलधामं वणशैलाभदेह दनुजवनकृशानुं ािननाम ग य ।
सकलगुणिनधानं वानराणामधीशं रघुपितवरदूतं वातजातं नमािम॥
(मा. ५ म. ो. ३)
आठ च र ह हनुमा जीक! अब आइये, देिखये हनुमा जीक आठ िसि य का योग!
आठ िसि याँ बतायी जाती ह—
अिणमा गिरमा चैव मिहमा लिघमा तथा।
ाि ः ाका यमीिश वं विश वं चा िस यः॥
(अ.को. १.१.३५क)
अथा (१) अिणमा, (२) ग रमा, (३) मिहमा, (४) लिघमा, (५) ाि , (६) ाका य, (७)
ईिश व, (८) विश व। हनुमा जी आठ िसि य का आज योग करगे ‍ िक—
अ िसि नव िनिध के दाता। अस वर दी जानकी माता॥
(ह.चा. ३१)
२७५
कथा २४ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

(१) अिणमा—अिणमा अथा ह कापन। हनुमा जी महाराज इतने ह क ह िक कदकर


चढ़ गये—
िसंधु तीर ऄक भूधर सुंदर। कौतुक कूिद चढ़ॆउ ता ऊपर॥
बार बार रघुबीर सँभारी। तरकॆउ पवनतनय बल भारी॥
(मा. ५.१.५–६)
(२) मिहमा—इतने महान िक—
जॆिह िगिर चरन देइ हनुमंता। चलॆउ सो गा पाताल तुरता॥
(मा. ५.१.७)
इतने भारी ह हनुमा जी िक िजस पवतपर चरण देकर चल, वह तुर◌ पाताल चला गया।
(३) लिघमा—अब लिघमा देिखये—
िजिम अमोघ रघुपित कर बाना। एही भाँित चलेउ हनुमाना॥
(मा. ५.१.८)
सरसे आगे चल। मैनाकने रोका। हनुमा जीने कहा—राम काज की े िबनु मोिह कहाँ
िब ाम (मा. ५.१)। सुरसाने कहा—“म तु ह खाऊगी।” हनुमा जीने कहा—“रामजीका काम
कर ल, िफर खा लना।” सुरसाने कहा—“नह ! मेर पास कहाँ समय ह? म अभी खाऊगी।”
हनुमा जीने कहा—“अ◌ा! खाओ िफर!” अब मिहमा िफर देिखये! उसने एक योजनका मुँह
फलाया, हनुमा जीने दो योजन कर िदया। जैसे-जैसे उसने सोलह योजनका िकया, हनुमा जी
ब ीस योजनक बन गये। पूरा करते-करते अ◌म उसने सौ योजनका मुख बनाया—शत जोजन
तॆिह आनन की ा (मा. ५.२.१०)। अब हनुमा जीने लिघमा िसि का योग िकया—अित
लघु प पवनसुत ली ा (मा. ५.२.१०)। आन◌ कर िदया! अिणमासे चढ़ और मिहमासे
िब कल चल पड़, पातालम पवतको भेज िदया और मिहमाक ही बलपर िभ -िभ प बनाते
गये—सौ योजनका मुँह। तब अित लघु प (मा. ५.२.१०) लिघमा हो गयी। अब मुखसे
बाहर आ गये और सुरसासे आशीवाद िलया।
िनिशचिर एक िसंधु मह रहई। किर माया नभ के खग गहई॥
(मा. ५.३.१)
अभी लिघमा ही चल रही ह। इतने लघु िक िसंिहकाक पेटम चल गये और भीतर जाकर
नाखूनसे िसंिहकाको फाड़कर फक िदया।
शैल िबशाल देिख एक आगे। तापर कूिद चढ़ेउ भय यागे॥
(मा. ५.३.८)
चढ़ गये और देखा रावणका िवशाल वैभव! अभी लिघमा ही चल रही ह—
पुर रखवारे देिख ब किप मन की िबचार।
अित लघु प धरौं िनिश नगर करौं पैसार॥
(मा. ५.३)
छोटा-सा प बनाया—मशक समान प किप धरी (मा. ५.४.१)। लि नी रोक रही
ह—“ऐ! कहाँ जा रहा ह? मेरा मम नह जानता? ल ाक चोर को खाती म।” हनुमा जीने
२७६
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २४

कहा—“चबौनो! यिद ल ाक चोर खाती हो तो सबसे बड़ा चोर तो रावण ह। उसे ‍ नह


खा िलया?”
(४) गिरमा—इतने गु िक मुिठका एक तािह किप हनी (मा. ५.४.४)। एक मु ा
ख चकर लगाया तो च र आ गया लि नी महारानीको, खूनक धारा बह चली। अब बोली—
तात मोर अित पु य ब ता। देखेउ नयन राम कर दूता॥
(मा. ५.४.८)
(५) ाि —
अित लघु प धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुिमिर भगवाना॥
(मा. ५.५.४)
नगरम वेश िकया। सव ढढ रह ह, सीताजी नह िमल रही ह। ‍ा कर अब? मंिदर
मंिदर ित किर शोधा (मा. ५.५.५)—सोचा िक म ◌रम ह गी सीताजी! येक म ◌रको
ढढा। रावणक महलक पास म ◌र बना था। वहाँ देखा तो रावण था, आया तो था महाकालक
पूजा करने और शराब पीकर सो गया था वह । तब अ◌म एक वै णव म ◌र िदखा, जहाँ
धनुष-बाण िचि त थे, तुलसीक िबरवे लगे थे। “अर! यहाँ तो ठीक ह! यहाँ सीताजी अव य
िमल जायग । यिद नह िमलग , तो कोई न कोई पता तो िमलगा।” अ◌म िवभीषण जगे, राम
राम राम राम कहा। “अर! ये तो वै णव ह! अब तो मेरा काम बना बनाया ह।” हनुमा जीने
ा णका प बनाया और बुलाया—“सीताराम!” हम लोग बुलाते ह—“ऐ! सीताराम!” तो
लोग आ जाते ह। अभी यह पर परा रामान◌ स दायम ह। गु जन क बात अभी भी िश य लोग
मानते ह। तो हनुमा जीने बुलाया और िवभीषण बाहर आ गये। िवभीषणने कहा—“अ◌ा!
भगव आप ह कौन? आप कोई न कोई भगवा क भ ह ‍ िक आपको देखकर मेर मनम
रामजीका ेम बढ़ता जा रहा ह—”
की तुम हिर दासन मह कोई। मोरे दय ीित अित होई॥
की तुम राम दीन अनुरागी। आऄ मोिह करन बड़भागी॥
(मा. ५.६.७–८)
तब हनुमा जीने स पूण रामकथा सुनायी। िकतना सु◌र िवषय ह! सोचो! चार बज रह
ह ातःक। िकसीने मुँह भी नह धोया ह। िवभीषण भी जग गये ह। रामनामसे पिव हो गये
ह, ानक कोई आव यकता नह । स पूण रामकथा वह सुनायी हनुमा जीने। ग द हो गये
िवभीषणजी—सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुिमिर गुन ाम (मा. ५.६)। जुगल
माने—(१) रामकथा भी सुनी और (२) कथावाचकका नाम भी सुना। तो िवभीषणजीने कहा—
“यह बताइये हनुमा जी! ‍ा मुझपर रामजी कपा करगे?” हनुमा जीने कहा—“र पागल!
कपा न करते, तो कसे दशन देनेक यव था करते?” िवभीषणने कहा—“अर! म ही अपना
वा‍ वापस ल रहा , लौटा रहा । कपा क , तभी तो आपने मुझे दशन िदया ह।” दोन क
चचा चलती रही। पुिन सब कथा िबभीषन कही (मा. ५.८.३)—हनुमा जीने रामजीक कथा
सुनायी तो िवभीषणजीने सीताजीक कथा सुनायी। दोन कथावाचक िमल गये और दोन ने एक
संिध कर ली। हनुमा जीने कहा—िवभीषण! अभी म भी अधूरा और तुम भी अधूर हो।
२७७
कथा २४ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

तनक हम अधूरे तनक तुम अधूरे। आज दोनों बनै पूरे पूरे॥


िबना माता के हमारे नैन बरसते रहे।
िबना िपता के तु हारे नैन तरसते रहे।
तनक हम अधूरे तनक तुम अधूरे। आज दोनों बनै पूरे पूरे॥
तुम तो माताजी के दशन करा दो हमें।
मैं तो िपताजी के दशन करा दूँ तु हे।
तनक हम हो अधूरे तनक तुम हो अधूरे। आज दोनों बनै पूरे पूरे॥
आन◌ कर िदया हनुमा जीने! यही—तु हरो मं िबभीषन माना (ह.चा. १७)। यही
म◌ ह। हनुमा जीने कहा—“एक काम करो! तुम मुझे माताजीक दशन करा दो, और म
तु ह िपताजीक दशन करा दूँगा। दोन चकाचक हो जायगे।” तब जुगुित िबभीषन सकल
सुनाई (मा. ५.८.५), िवभीषणने बता िदया—“ऐसा क िजये िक आप मेरा प बनाकर जाइये!
अशोक वािटकाम दो ही पु ष जा सकते ह, या तो म जाऊ या रावण जाये। आप मेरा प
बनाइये! सब आपको राम-राम कहगे, आप भी राम-राम कहते जाइयेगा।” हनुमा जीने कहा—
“ठीक ह!” धिर सॊइ प ... (मा. ५.८.६)—सॊइ अथा िवभीषणका ही प बनाकर
हनुमा जी गये और सीताजीक दशन हो गये। बोिलये वीर बजरगबलीक जय!
(६) ाका य—रावणने सीताजीको ब त सताया। सीताजीको ोध आया, उ◌ ने कहा—
तृन धिर ओट कहित बैदेही। सुिमिर अवधपित परम सनेही॥
(मा. ५.९.६)
आहा! सीताजीने कहा—“रावण! उस बार तु हार कलका नाश करना था, इसिलए म
ल मणजीक रखाको लाँघकर बाहर आ गयी थी। अब आज बेटा यिद तुमम शि ह तो म
तु हार और अपने बीचम एक ितनका रख रही । यिद तुम इसे लाँघकर आ जाओ मुझे छनेक
िलए, तो म वचन देती िक म तु हारी बात मान लगी। आकर िदखाओ!” अब रावण उस
ितनकको कसे लाँघ सकता ह? कछ नह आ। “बस यही? जब तुम एक ितनकको नह लाँघ
सकते मूख! तो तुम िकस बलपर मुझे अपनी प ी बनाना चाहते हो?” रावणने कहा—“म मार
डालगा।” “‍ा मार डालोगे?”
चं हास ह मम पिरतापा। रघुपित िबरह अनल संतापा॥
(मा. ५.१०.५)
“ह च◌माक समान मु कराने वाल भु रामजी! कबतक मु कराइयेगा? अब इसको मार
डािलये, ब त हो चुका! शीतल िनिश तव अिस वर धारा (मा. ५.१०.६)—ह रावणक
तलवार! तुम ही मार डालो, रावणका िसर काटो। मूख! सो भुज कंठ िक तव अिस घोरा
(मा. ५.१०.४)। अर! िजन रामच◌जीने मेर गलम हाथ डाला, ‍ा तु हारी तलवार मुझे काट
सकती ह? चुप!” अ◌म ि जटाजीने रा िसय को समझाया—“अनथ मत करो! सपनेम
हमने देखा िक एक वानरने ल ा जला दी ह और रा स को मार डाला ह। रावण नंगा गधेपर
बैठा-बैठा चला जा रहा ह दि ण िदशा म।” सीताजी ब त िच ◌त ह। सबसे आग माँग रही
ह। तबतक हनुमा जी महाराजने मुि का िगरा दी—

२७८
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २४

किप किर दय िबचार दी मुि का डािर तब।


जनु अशोक अंगार दी हरिष उिठ कर गहेउ॥
(मा. ५.१२)
हनुमा जी आये, सारी चचा क । हनुमा जीने कहा—“म अभी आपको ल जा सकता ।”
सीताजीने कहा—“तुम तो ब त छोट हो!”
मोरे दय परम संदेहा। सुिन किप गट की िनज देहा॥
(मा. ५.१६.७)
तब हनुमा जीने शरीरको कट िकया—
कनकभूधराकार शरीरा। समर भयंकर अितबल बीरा॥
सीता मन भरोस तब भऄउ। पुिन लघु प पवनसुत लऄऊ॥
(मा. ५.१६.८–९)
आन◌ कर िदया! अर! ाका य! शरीर बड़ा आ, और सीताजीने तो आशीवाद से
हनुमा जीक झोली भर दी—
आिशष दी रामि य जाना। हो तात बल शील िनधाना॥
अजर अमर गुनिनिध सुत हो । कर ब त रघुनायक छो ॥
किरिह कृपा भु अस सुिन काना। िनभर ेम मगन हनुमाना॥
(मा. ५.१७.२–४)
हनुमा जीने कहा—
अब कृतकृ य भऄउ मैं माता। आिशष तव अमोघ िब याता॥
(मा. ५.१७.६)
(७) ईिश व—ई इित ईिश ईिशनो भावः ईिश वं शासन । अर राम! राम!! शासन!
हनुमा जीने रावणक अशोक वािटकाम वेश िकया—
िव मान देखत दसानन को कानन सो
तहस-नहस िकयो साहसी समीर के॥
(क. ५.२)
हनुमा जीने अशोक वािटका उजाड़ डाली, अ कमारको मारा। यह ईिश व ही तो ह।
मेघनादने ा का योग िकया। कोई अ◌र नह , लीला हो गयी। उसने नागपाशम बाँधा, तो
ा चला गया। अब हनुमा जी िफर व थ! हनुमा जीने कहा—“तुमने गलती क ह। म
रावणसे क ?” मेघनाद िगड़िगड़ाया—“नह ! पापासे मत किहयेगा! जो किहए, वो क ।”
हनुमा जीने कहा—“तो ठीक ह! तुम गधे हो, गधे मजदूरी करो! मुझको ल चलो उठाकर।” ल
आया रावणक सभाम! हनुमा जी आन◌ कर रह ह! ईिश व अथा सबपर शासन करना। नह
डर हनुमा जी और उपदेश िकया। रावणने मृ युद डक घोषणा क । िवभीषणने मना िकया—
“नह ! नह ! नह !!” रावणने कहा—“ठीक ह! इसक पूँछ जला दी जाए।” पूँछ? इसीपर
तो पावतीजीको और ोध आया और जला दी पूँछसे ल ा—

२७९
कथा २५ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

उलिट पलिट लका सब जारी। कूिद परा पुिन िसंधु मझारी॥


(मा. ५.२६.८)
आहाहा!
पूँछ बुझाइ खोइ म धिर लघु प बहोिर।
जनकसुता के आगे ठाढ़ भऄउ कर जोिर॥
(मा. ५.२६)
आन◌!
“माँ! मुझे िच िदया जाए।” माँने चूड़ामिण िच दे िदया—चूड़ामिन उतािर तब दऄउ
(मा. ५.२७.२)।
(८) विश व—आ रह ह हनुमा जी लकर चूड़ामिण! सार वानर स , सु ीव तो ब त
स ! थोड़ा-सा भी अिभमान नह िदख रहा ह। यही विश व ह। राघवजीने कहा भी—रावण
ारा पािलत ल ाको आपने जलाया कसे? क किप रावनपािलत लका, कॆिह िविध दहॆउ
दुग अित बंका (मा. ५.३३.५)। हनुमा जीने कहा िक भगव !
नािघ िसंधु हाटकपुर जारा। िनिशचरगन बिध िबिपन उजारा॥
सो सब तव ताप रघुराई। नाथ न कछ मोरी भुताई॥
(मा. ५.३३.८–९)
“मेरी कोई भुता नह ह महाराज! मने थोड़ ही जलाई ह!” “िफर कसे जली ल ा?”
“(१) ल ा जलाई आपने, (२) ल ा जलाई सीताजीक प रतापने, (३) ल ा जलाई ा ण क
ापने, (४) ल ा जलाई रावणक पापने, और (५) ल ा जलाई मेर बापने।”
यह—सकल िसि (मा. १.३१.१३)।

कथा २५: सुख (मा. १.३१.१३)


सकल िसि सुख संपित रासी म सकल िसि क प ा अब देिखये सुख (मा. १.३१.१३)।
किप उठाइ भु दय लगावा (मा. ५.३३.४) हनुमा जीको िकतना बड़ा सुख िमल गया!
दयसे लगा िलया हनुमा जीको रामजीने। कहा—बेटा! तुमसे म उऋण ही नह —
सुनु सुत तोिह उिरन मैं नाहीं। देखेउ किर िबचािर मन माहीं॥
(मा. ५.३२.७)
यह देिखये सुख!
सुिन भुबचन िबलोिक मुख दय हरिष हनुमंत।
चरन परॆउ ेमाकुल ािह ािह भगवंत॥
(मा. ५.३२)
चरण पर पड़ गये। बस थोड़ी देर और कथा चलने दीिजये जो कछ ह चकाचक!
बार बार भु चहत उठावा। ेममगन तॆिह उठब न भावा॥
(मा. ५.३३.१)

२८०
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २५

उठ नह रह ह। दयसे लगाया भगवा ने, इतना आन◌!


भु पद पंकज किप के शीशा। सुिमिर सो दशा मगन गौरीशा॥
(मा. ५.३३.२)
यहाँ भु कर पंकज (मा.गी. े.) नह ह। श रजी ही डब गये इतना सुख! भगवा ने
हनुमा जीको वरदान िदया—
नाथ भगित तव अित सुखदाियिन। दे कृपा किर सो अनपायिन॥
सुिन भु परम सरल किपबानी। एवम ु तब कहॆउ भवानी॥
(मा. ५.३४.३–४)
एवम◌ु! िद य सुख िमल गया।
यॆह संबाद जासु उर आवा। रघुपितचरन भगित सॊइ पावा॥
(मा. ५.३४.६)
यह ह—सकल िसि सुख संपित रासी (मा. १.३१.१३)।
सुखी मीन जे नीर अगाधा। िजिम हिरशरन न एकउ बाधा॥
(मा. ४.१७.१)
भगवा ने िवजय या ा क —
हरिष राम तब की पयाना। सगुन भये सुंदर शुभ नाना॥
(मा. ५.३५.४)
देवता ने पु प क वषा क । सु◌र शकन हो गये। रामजीने याण िकया। आन◌ आ गया!
इधर रावणक सैिनक सश रह रह ह—उहाँ िनशाचर रहिह सशंका (मा. ५.३६.१)।
तो हमार बाबा कहते थे—“यहाँ सशंकाका अथ ह िक जबसे हनुमा जी ल ा जलाकर गये
ह, तबसे हनुमा जीका परा म याद करक रा स सुसू करते ही रहते ह, कभी इनका सुसू ब◌
नह आ। सशंका! इनको ब मू ताक बीमारी हो गयी।” हा! हा! हा!!! म◌ोदरी समझाती
ह रावणको। िवभीषणने, मा यवा ने सभीने समझाया, पर कहाँ समझना था।
अस किह की ॆिस चरन हारा (मा. ५.४१.६) रावणने िवभीषणको लात मारी। िवभीषण
कहते ह—
राम स यसंक प भु सभा कालबश तोिर।
मैं रघुबीरशरन अब जाउ दे जिन खोिर॥
(मा. ५.४१)
चल पड़ िवभीषणजी! संक प कर रह ह। आहा! छः संक प िकये—
(१) जे पद परिस तरी ऋिषनारी (मा. ५.४२.६)— भु ीरामजीक िजन ीचरण का
पश करक ऋिषप ी अह याजी भवसागरसे तर गय ,
(२) दंडक कानन पावनकारी (मा. ५.४२.६)—जो ीचरण द डकवनको पावन करने
वाल ह,
(३) जे पद जनकसुता उर लाये (मा. ५.४२.७)—िजन ीचरण को अपने दयम धारण
करक जनकन ◌नी ीसीताने अि म और मायामयी ीसीताने अशोक वािटकाम िनवास िकया,
२८१
कथा २६ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

(४) कपट कुरग संग धर धाये (मा. ५.४२.७)—जो ीचरण कपटमृगक साथ
द डकवनक पृ वीपर दौड़,
(५) हर उर सर सरोज पद जेई, अहोभा य मैं दॆिखहउ तेई (मा. ५.४२.८)—जो
ीचरण िशवजीक दय प तालाबक कमल ह,
(६) िजन पायन की पादुका भरत रहे मन लाइ, ते पद आजु िबलोिकहउ इन नयनिन
अब जाइ (मा. ५.४२)—िजन ीचरण क पादुकाम मन लगाकर ीभरत चौदह वष से
न ◌ ामम रह रह ह, आज म जाकर उ◌ ीचरण को इ◌ ने से देखूँगा।
आहा! छः संक प िकये, छः ही कारसे िवभीषणको सुख िमला। सुख िमलता ही जा रहा
ह, आन◌ हो रहा ह! एिह िबिध करत स ेम िबचारा (मा. ५.४३.१)। रामजीको देखा,
रामजी आन◌ दे रह ह—
दूिरिह ते देखे ौ ाता। नयनानंद दान के दाता॥
(मा. ५.४५.२)
सकल िसि सुख संपित रासी (मा. १.३१.१३)। ध य ध य हो गये िवभीषण!
वन सुजस सुिन आयउ भु भंजन भव भीर।
ािह ािह आरित हरन शरन सुखद रघुबीर॥
(मा. ५.४५)
सकल िसि सुख संपित रासी (मा. १.३१.१३)। आन◌ कर िदया! उठा िलया भगवा ने
और दयसे लगा िलया। तीन ताप न हो गये—
तुम कृपाल जापर अनुकूला। तािह न याप ि िबध भवशूला॥
(मा. ५.४७.६)
चकाचक हो गया, आन◌ कर िदया! भगवा ने दयसे लगा िलया।

कथा २६: संपित रासी (मा. १.३१.१३)


अब संपित रासी (मा. १.३१.१३)। भगवा ने ल मणसे कहा िक ल मण! समु का जल ल
आइये—
जदिप सखा तव इ ा नाहीं। मोर दरस अमोघ जग माहीं॥
अस किह राम ितलक तॆिह सारा। सुमनबृि नभ भई अपारा॥
(मा. ५.४९.९–१०)
आह! ितलक कर िदया। सुमन बृि नभ भई अपारा (मा. ५.४९.१०)। अर! अपार
पु प क बरसात! आन◌ हो रहा ह—
जो संपित िशव रावनिह दीि िदये दश माथ।
सॊइ संपदा िबभीषण सकुिच दीि रघुनाथ॥
(मा. ५.४९ख)
रघुनाथजी अभी भी संकोच कर रह ह िक मने तो कछ भी नह िदया। जबिक संक प मा से

२८२
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २६

िवभीषणजीको ल ा दे दी। भगवा ने कहा—“अभी जलते ही रहने दो ल ाको, जब िवभीषण


राजा बनगे, तब सब चकाचक हो जायेगा।” यह संक प करक दे दी। इसिलए संपदा कह रह
ह।
अब यह ◌ाव ह िक सागरको कसे लाँघा जाए? सुनु कपीश लकापित बीरा
(मा. ५.५०.५) रामजीने तीन लोग से पूछा—(१) कपीश—कपीश माने सु ीवजीसे, (२)
लकापित—ल ापित माने िवभीषणजीसे और (३) बीरा—बीर कहते ह भाईको, अपने भाई
ल मणजीसे पूछा। सु ीव तो कछ नह बोल। िवभीषणजी बोल—िबनय किरय सागर सन
जाई (मा. ५.५०.८) ये सागर आपक कलगु ह। गु माने े , आपक कलक े ह
भु!— भु तु हार कुलगु जलिध किहिह उपाय िबचािर (मा. ५.५०)। सगरसे उ◌
होनेक कारण पूवज ह। पर ल मणजीको यह प अ◌ा नह लगा—मं न यह लिछमन मन
भावा (मा. ५.५१.२)। “अर ‍ा महाराज! नाथ दैव कर कवन भरोसा (मा. ५.५१.३)।”
भगवा ने कहा—“चुप! चुप!! सब तु हारी बात हो जायेगी। अभी चुप रहो!” भगवा तो समझ
गये—सुनत िबहिस बोले रघुबीरा, ऐसेिह करब धर मन धीरा (मा. ५.५१.५)। बोल िक
िच◌ा मत करो भैया! ऐसा ही क गा। सागरसे िवनय करनेक िलए बैठ। रावणने अपने दूत को
भेजा था। उन दूत ने जब देखा, तो वे भगवा क शंसा करने लगे। श ुदूत समझकर वानर उ◌
पकड़कर ल आये और नाक-कान काटने लगे। तो दूत ने कहा—“जो हमार नाक-कान काट,
उसे रामजीक शपथ!” तब ल मणजीने कहा—“अर छोड़ो यार! नाक-कान काटकर दूतसे
‍ा बदला लना? अर! नाक-कान काटनेका मन ह तो मने रावणक बिहनक नाक-कान काट।
तुम रावणक भाई क भकणक काट लना। चलो!” छोड़ िदया। रावणक दूत जाकर समाचार
देते ह। रावणको ल मणजीक पि का िदखायी। रावणने कहा—“अर! ‍ा बात करते ह!
ये तो तप वय का वा वलास ह।” शुकने समझाया तो रावणने छातीम लात मारी। शुकको
अग◌यका ाप था, अतः रा स बना था। िफर शुक मुिन बन गया। इधर—
िबनय न मानत जलिध जड़ गये तीिन िदन बीित।
बोले राम सकोप तब भय िबनु होइ न ीित॥
लिछमन बान शरासन आनू। सोषौं बािरिध िबिशष कृशानू॥
(मा. ५.५७, ५.५८.१)
“ल मण! लाओ मेर धनुष-बाण! म सागरको सोख लता ।” “नह सरकार!” “ल मण!
‍ा बताऊ? मेर सात योग िवफल हो गये—
शठ सन िबनय कुिटल सन ीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती॥
ममतारत सन यान कहानी। अितलोभी सन िबरित बखानी॥
ोिधिह शम कािमिह हिरकथा। ऊसर बीज बए फल जथा॥
(मा. ५.५८.२–४)
(१) शठ सन िबनय—यह शठ ह, मेरी िवनय िवफल हो गयी, (२) कुिटल सन ीती—
समु किटल ह, मेरा ीत- ◌ाव िवफल हो गया, (३) सहज कृपन सन सुंदर नीती—यह
कपण ह, मेरी नीित िवफल हो गयी, (४) ममतारत सन यान कहानी—यह ममतारत ह, मेरी

२८३
कथा २६ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प

ानक कहानी िवफल हो गयी, (५) अितलोभी सन िबरित बखानी—यह अ य◌ लोभी ह,


मेरा वैरा य िवफल हो गया, (६) ोिधिह शम—यह ोधी ह, मेरा शा ◌का संदेश िवफल हो
गया, (७) कािमिह हिरकथा—यह कामी ह, अतः ीह र प म मने जो कथा सुनायी वह भी
िवफल हो गयी। लाओ—अस किह रघुपित चाप चढ़ावा, यह मन लिछमन के मन भावा
(मा. ५.५८.५)। धनुषपर बाण चढ़ाया—
संधानॆउ भु िबिशष कराला। उठी उदिध उर अंतर ाला॥
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलिनिध जब जाने॥
(मा. ५.५८.६–७)
सकल िसि सुख संपित रासी (मा. १.३१.१३)। यह संपि देिखये—
कनकथार भिर मिनगन नाना। िब प आयउ तिज माना॥
(मा. ५.५८.८)
समु ा णक पम वणक थालम मिणगण ल आया। पािह मां पािह मा करने लगा—
सभय िसंधु गिह पद भु केरे (मा. ५.५९.१)। “अर! ठीक ह।” कहा—“भगव ! आप
मुझे मत मा रयेगा।” िब कल ठीक ह! कहा िक अ◌ा—जॆिह िबिध उतरै किप कटक तात
सो कह उपाइ (मा. ५.५९)—“आप उपाय बताइये। कोई बात नह !” कहा िक महाराज!
‍ा बताऊ?—
ढोल गवाँर शू पशु नारी। ये सब ताड़न के अिधकारी॥
(मा. ५.५९.६)
यहाँ िन◌ा नह ह। ताडनं िश ण । ताड़न माने िश ा। इनको िश ा देनी चािहए— भु
भल की मोिह िसख दी ी (मा. ५.५९.५)। ताड़न माने िश ण। (१) ढोल—वा क
िवशारद को, (२) गवाँर —गँवार अथा िवषयभोगम िल ािणय को, (३) शू —शू को
अथा जो ाणी िच◌ासे अस◌ुिलत हो जाते ह, (४) पशु—पशु को, (५) नारी—अिशि त
नारीको—इनको िश ा देनी चािहए, पढ़ाना चािहए। गो वामीजीने पहली बार यह अिभयान
चलाया िक यिद समाजको व थ बनाना ह तो नारीक िश ा अिनवाय ह।
तो समु ने कहा—“नल-नील बड़ अ◌े ह, इनक पशसे ये प थर तैर जायगे, म सहायता
क गा।” पर एक उपाय उसने नह बताया िक प थर तैरगे तो, पर एक-दूसरसे सटगे कसे?
कहा—“यह काम तो हनुमा जीका ह, हनुमा जी जानते ह।” सारी चचा उसने बतायी—“इस
बाणको मेर उ र तटतक फक दीिजये करलक पास। दु लोग रहते ह।” फक िदया, सब दु
आसुरी शि समा ई।
िनज भवन गवनॆउ िसंधु ीरघुपितिह यॆह मत भाऄउ।
यॆह चिरत किलमल हर जथामित दास तुलसी गाऄउ॥
सुखभवन संशयशमन दमन िबषाद रघुपित गुन गना।
तिज सकल आस भरोस गाविह सुनिह संतत शठ मना॥

२८४
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २६

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।


सादर सुनिह तॆ तरिह भव िसंधु िबना जलयान॥
(मा. ५.६०.९, ५.६०)
इस कार छ बीस कथाएँ मने आपक सेवाम उप थत कर द ।
सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा । सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा ॥
सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा । सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा ॥
िसयावर रामच◌ भगवानक जय!
पवनपु हनुमा जी महाराजक जय हो!
गो वामीजी तुलसीदास महाराजक जय हो!
आजक आन◌क जय हो!

२८५
नवम पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
सीतारामगुण ामपु यार यिवहािरणौ ।
व े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा । सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा ॥
सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा । सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा ॥
सदगुन सुरगन अंब अिदित सी। रघुबरभगित ेम परिमित सी॥
(मा. १.३१.१४)
प रपूणतम परा◌र परमा मा, परमारा य, परमे र, भगवा ीसीतारामजीक कपासे,
मोदीनगरम ीराघव-सेवा-सिमितक त वावधानम समायोिजत, मेरी १२५१व ीरामकथाक
नवम स म आप सभीका ब त-ब त वागत। आठ िदन से आप सुन रह ह िक गो वामी
तुलसीदासजीने रामच रतमानसजीम तीस िदन क मक आधारपर ही मा तीस कथाएँ िलखी
ह। ‍ िक महीनेम तीस ही िदन होते ह और यि को तीस िदन रामकथा चािहए, इसिलए
गो वामीजीने तीस ही कथाएँ िलख । य िप यह स य ह िक यह त य मेर अित र िकसी
व ाको याद नह रहा।
कथाएँ तो संसारम ब त ह। न जाने िकतनी कथाएँ आय और चली गय । िकतु, उ री ुवसे
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

लकर दि णी ुव पय◌ िजतना स मान ीरामकथाका आ, आज अ ाविध उतना स मान


िकसी कथाका नह आ। ‍ा कारण ह? कारण ह िक यह सुननेम लग रही ह रामकथा, परतु
वा◌वम यह रा क संिहता ह। और आप जानते ह िक जबतक रा क यथाका समाधान सू
नह ा होता, तबतक रामकथा कसी? रा क येक सम याका समाधान ीरामच रतमानसम
ह। मेरा यास होगा समाधान क ओर। यही बात कह रहा था िक म एक ऐसा व ा िजसने
ीरामकथा और ीक णकथाका एक भी पैसा अपने िलए नह िलया। यह तो कवल वदीयं
व ु गोिव तु यमेव समपये। आज हम २७व कथाक ओर चल रह ह। २६ कथाएँ आप
सुन चुक ह। यु का डम एक ही कथा ह—२७व कथा। २७व कथाम पूरा यु का ड संपूण
हो जाता ह। उ रका डम ३ कथाएँ ह।
म ब त मधुर ह। (१) बालका ड—१२ कथाएँ, (२) अयो याका ड—मा २ कथाएँ,
(३) अर यका ड—६ कथाएँ, (४) िकि क धाका ड—३ कथाएँ, (५) सु रका ड—
इसम भी ३ कथाएँ, (६) यु का ड—अब आप तो ल ाका ड कहते ह, हम यु का ड कह
रह ह; पुरानी ितम यु का ड ही िलखा ह—१ कथा और (७) उ रका ड—३ कथाएँ। यह
ह ३० कथा का म।

कथा २७: सदगुन सुरगन अंब अिदित सी (मा. १.३१.१४)


तो चलते ह यु का डक कथाम—
सदगुन सुरगन अंब अिदित सी। रघुबरभगित ेम परिमित सी॥
मोदीनगरवालो! मुझे दि णा तो देनी पड़गी आपको। मेरी एक ही दि णा ह िक आप सब
लोग रामच रतमानसजीक पाठका अ यास क िजये। देशक यही माँग ह तथा हम भी यास करगे
िक २०१८तक रामच रतमानसजीको रा ीय थ घोिषत िकया जाए; तभी सारी सम या का
समाधान िमल पायेगा। व◌ुतः हमारा यास ह िक
(१) रामचिरतमानस—रा ीय थ घोिषत हो,
(२) गौ माता—रा क धरोहर घोिषत ह ,
(३) ग ामाता—रा क रा ीयनदी घोिषत ह , तथा
(४) िह ी भाषा—संसदक ारा रा भाषा घोिषत हो।
इतना सु◌र थ मने जीवनम कभी देखा नह । परतु यह भी कहना अिनवाय ह िक िजतना
यारा यह थ ह, उतने ही ेमसे व ा ने िवकत भी िकया ह। पढ़ते-िलखते तो ह नह व ा।
सदगुन सुरगन अंब अिदित सी (मा. १.३१.१४)—गो वामीजी कहते ह िक िजस कार
अिदितजीने बारह पु को ज म िदया, उसी कार ीरामकथा स ुण प सुरगण क , देवगण क ,
माँ अिदितक समान ह। जैसे अिदित बारह पु को ज म देती ह, उसी कार यु का डक कथा
बारह स ुण को ज म देती ह। आइये! उ◌ पर िवचार करगे। अिदितक बारह पु —

२८८
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७

िवव वानयमा पूषा व ाथ सिवतो भगः।


धाता िवधाता व णो िम ः श उ मः॥
(भा.पु. ६.६.३९)
(१) िवव वा , (२) अयमा, (३) पूषा, (४) व ा, (५) सिवता, (६) भग, (७) धाता, (८)
िवधाता, (९) व ण, (१०) िम , (११) श अथा इ◌, एवं (१२) उ म अथा उपे◌
(भगवा वामन)—ये अिदितक बारह पु ह। इ◌ को आिद य कहते ह। गो वामीजी कहते ह
िक जैसे अिदितजी बारह पु क माँ बन , उसी कार यु का डक यह कथा बारह स ुण को
ज म देती ह। कौन? हम लोग तो जानते ह िक यह राम-रावण-यु क कथा ह! ह भी, पर
वा◌वम यह ब त मह वपूण कथा ह। िकन स ुण को ज म देती ह यह? सु◌रका डम भगवा
राम वयं इन बारह स ुण क चचा करते ह िवभीषणक सम —
जो नर होइ चराचर ोही। आवइ सभय शरन तिक मोही॥
तिज मद मोह कपट छल नाना। करउ स तॆिह साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तन धन भवन सु द पिरवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनिह बाँध बिर डोरी॥
समदरशी इ ा कछ नाहीं। हरष शोक भय निह मन माहीं॥
(मा. ५.४८.२–६)
सगुन उपासक परिहत िनरत नीित ढ़ नेम।
ते नर ान समान मम िजन के ि जपद ेम॥
(मा. ५.४८)
(१) आवइ सभय—भगवा कहते ह िक भल ही चर-अचर सबका ोही हो तो पहली
शत ह िक यिद संसारक इस प से भयभीत होकर; (२) शरन तिक मोही—एकमा जो मेरी
शरणम आ जाता ह; (३) तिज मद मोह कपट छल नाना—वह भी मद, मोह, कपट, अनेक
छल को छोड़कर; (४) जननी जनक बंधु सुत दारा, तन धन भवन सु द पिरवारा—ये
जो दस ममताएँ ह, सब कै ममता ताग बटोरी सबक ममताक र सय को इक ी करक,
मम पद मनिह बाँध बिर डोरी उसी ही र सीसे अपने मनको मेर चरण म बाँध देता ह; (५)
समदरशी—िजसक सम◌ि होती ह; (६) इ ा कछ नाहीं—जो सभी इ◌ा से पर हो
जाता ह; (७) हरष शोक भय निह मन माहीं—हष, शोक, भयसे जो रिहत ह; (८) सगुन
उपासक—सगुण उपासक; (९) परिहत िनरत—परिहतम जो िनरत रहता ह; (१०) नीित
ढ़—नीितपूण जीव िबताता ह; (११) नेम —जो िनयिमत जीवन िबताता ह; और (१२) ते नर
ान समान मम िजन के ि जपद ेम —और िजनको वैिदक ा ण क चरण म ेम ह। ये
बारह स ुण ह और इ◌ बारह स ुण क यु का डम चचा क गयी। और ये बारह स ुण
िकसक पास ह? िवभीषणजीक पास—सुनु लकेश सकल गुन तोरे (मा. ५.४९.१)। इसीिलए
यु का डक ार भसे लकर िव ामपय◌ िवभीषणजी ही िवभीषणजी छाये ए ह। सदगुन
सुरगन अंब अिदित सी.... (मा. १.३१.१४)।
अब देिखये रा क सम या क समाधान हतु रामच रतमानसक १२ सू —

२८९
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

(१) सहयोग—यु का डका ार भ हो रहा ह। गो वामीजी कहते ह—


लव िनमेष परमाणु जुग बरष कलप शर चंड।
भजिस न मन तॆिह राम कह काल जासु कोदंड॥
(मा. ६ म.दो. १)
युग िजनक लव िनमेषक (काल-मापक इकाई िजसम लव ८ सेक डका सौवाँ िह सा तथा
िनमेष १६ सेक डका सौवाँ िह सा ह) समान ह, क प िजनका वष ह, िजनका बाण ब त
भयंकर ह—शर चंड । अथवा (१) लव-िनमेष, (२) परमाणु, (३) युग, (४) वष, (५) क प—
ये ही पाँच िजनक बाण ह। ‍ा बात ह! और काल जासु कोदंड और काल ही िजनका धनुष
ह—ऐसे रामजीका तुम भजन ‍ नह करते?
समु का वचन सुनकर भगवा रामने कहा—“अब सेतुक रचना क जाए।” जा बवा ने
कहा—आपका नाम सेतु ही सेतु ह भगव ! उसपर चढ़कर लोग भवसागर पार कर लते ह—
नाथ नाम तव सेतु नर चिढ़ भवसागर तरिह।
(मा. ६ म.सो. २)
देिखये! ब त रोचक करण ह। यहाँ संकत ह िक जो संघीय पर पराम िव ास करते
ह, उ◌ िनि त जानना चािहए िक कोई भी बड़ा-से-बड़ा यि बड़-से-बड़ काय को प रणाम
तब देता ह, जब येक यि उससे जुड़ जाता ह। देिखये! ीसीताजीका हरण हो चुका ह
आप सब जानते ह, परतु यहाँ सीताजीका हरण कोई सामा य घटना नह ह। सीताजीको येक
यि ने उस समय कवल रामजीक प ी नह माना। यह भारतीय सं कित ह। यह भारतमाताक
अख ड-सं भुता ह। और जब कोई िवदेशी आ ा◌ा भारतमाताक अख ड-सं भुताका अपमान
करनेक िलए उता हो जाता ह, तो येक भारतीय इक ा होकर उस अपमानका बदला लता
ह। देिखये! आज भगवा राम कवल एक राजा नह ह। येक भारतीयने सोच िलया ह िक
भगवा राम भारतमाताक एक अजेय यो ा, सपूत ह। यहाँतक िक सामा य प ी जटायुने भी
रामजीका साथ िदया। सोिचये! संपूण वानर व भाल जाित इक ी ई और रामजीसे न तो कोई
भोजन माँगा, न फल खाया, और न ही कोई हिथयार माँगा। संपूण भारतसे वानर-भाल इक
ए और िकसीक सहायता नह ली। उनसे हिथयार नह माँगा, वृ और पवत क सहायतासे
उ◌ को श बनाकर यु िकया। एक कारक लहर थी। उस लहरका सबने सदुपयोग िकया।
सबने तय कर िलया था िक हम भारतमाताक अपमानका बदला लना ही ह।
इसी कार आज, जैसे रामजीको इतना सहयोग िमला था, जैसे रामजीको इतना support
िमला; उसी कार भारतक एक अरब ब ीस करोड़ जनता यिद मोदीजीका support कर द,
तो वह िदन दूर नह जब िव क न ेसे पािक◌ानका नाम िमट जायेगा। आज सू ा मक चचा
म कर रहा । अब तो रामजी जैसा support चािहए। आप बताइये! यहाँ थोड़ा-सा हम करते
ह, तो अपना उ सीधा करने लगते ह। थोड़ी-सी सेवा क , दो-चार बार जेल गये, तो हम MLA
बनना अिनवाय, हम MLA बना दीिजये। MLA माने—वहाँ म ल, यहाँ ल, वहाँ भी ल। ‍ा
होगा? कसे होगा? हमार िच कट आनेसे पहल एक यि ने कहा—“आप कह दीिजये तो

२९०
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७

हम िटकट िमल जाए!” मने कहा—“‍ ?” तो उसने कहा—“मेर ऊपर कज ब त ह।” तो


मने कहा—“तो कज उतारनेक िलए तुम MLA बनना चाहते हो? म तो कभी नह क गा।”
आज खुलकर कह रहा , जो कछ कहना था मुझे। ब त लोग ने थोड़ा-सा काम िकया तो ब त
बड़ा लाभ ल िलया। पर हमने जब िव िव ालय बनाया [जबिक सेवाएँ िकतनी क , यह सभी
जानते ह], तब हमने उ र देश सरकारसे भूिम नह माँगी। भूिम खरीदकर हमने िव िव ालय
बनाया।
तो देिखये! यिद सेवक कछ चाहगा, तो सेवा नह होगी। आप बताओ! वानर ने कछ चाहा
‍ा? कौन-सा रा य बेचार ने चाहा? कछ नह चाहा भगवा से! एक अंगुल व भी नह
चाहा भगवा रामसे! यि ब त अपे ाएँ करने लगता ह, तब तो िनि त ही रा क उपे ा
करगा ही करगा।
(२) िव ास—िम ो! अब देिखये सेतु बनानेक प रक पना। रामजी चाहते तो अपने
बाण से सेतु नह बना सकते थे? सक सर एक शोिष शत सागर (मा. ५.५६.२)—रामजीका
एक बाण सकड़ सागर को सुखा सकता था। ‍ा कारण था, ‍ िच ◌त थे भगवा राम
िक कसे िकया जाए? इसिलए िक इस कायम छोट-से-छोट यि क भागीदारी सुिनि त होनी
चािहए और येक यि यह सोचे िक मने भी इसम सहयोग िकया ह—यही रामजीक नीित
ह। भारतक येक ा◌से प थर मँगाया गया। जैसे हमने ीरामज मभूिमक िलए िशलाएँ इक ी
क ह, उसी कार येक ा◌से प थर मँगाया गया। सेतु बनानेक िलए सबका मानिसक
सहयोग चािहए। प थर का सहयोग चािहए, हम समु म पुल बनाने जा रह ह।
आपने कथा सुनी होगी। रामायणम तो देखी नह हमने, पर संत-पर पराम सुनी ह। सभी
सहयोग कर रह ह रामजीका। ‍ा समझकर? ‍ा रामजीक प ीको छड़ाना चाहते ह? नह !
सब जानते ह िक रामका अथ ‍ा ह? रा माने रा और म का अथ ह म ल—रामजी रा क
म ल ह। और सभी जानते ह िक सीताजी भारतक अख ड-सं भुता ह। तो रामजीक प ी नह ,
भारतक अख ड-सं भुताको स मानक सिहत यावितत करनेक िलए सभीने सहयोग िदया।
एक आ य देिखये िक एक छोटी-सी िगलहरी भी सहयोग कर रही ह। जाती ह सागरम, अपने
शरीरको गीला करती ह, िफर बालम लोटकर अपने शरीरसे बाल लाती ह और सेतुपर िगरा
देती ह। उससे ‍ा होगा? आप बताइये! परतु भगवा रामने भावना देखी िक िगलहरीका भी
इतना बड़ा सहयोग। भगवा रामने देखा िक िगलहरी इतना सहयोग कर रही ह। इतने स
ए भगवा राम िक िगलहरीक पीठपर अपनी अंगुिलयाँ फर द । आज भी िगलहरीक पीठपर
भगवा रामक तीन ऊगिलय क िनशान प िदखते ह। म ब त भाषण पर िव ास नह करता,
पर िस ा◌ पर िव ास करता । सबसे थम सू ह यु का डम—सहयोग! सबका सहयोग।
देिख सेतु अित सुंदर रचना। िबहिस कृपािनिध बोले बचना॥
(मा. ६.२.२)
इतना सु◌र सेतु भगवा रामने देखा। सबका सहयोग िमला, तो सहयोगपर िव ास भी करना
चािहए। हम सबपर िव ास भी करना होगा। तब भगवा रामने कहा िक यहाँ मुझे रामे र क
थापना करनी ह—

२९१
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

किरहउ इहाँ शंभु थापना। मोरे दय परम कलपना॥


(मा. ६.२.४)
म श रजीक यहाँ थापना क गा। श रजीक थापना क तो ‍ा? अभी मेरी कथा
तो य पूण हो गयी। अभी एक ऐसे स न, जो ग ो ीसे जल ल गये थे रामे र , उ◌ ने
मुझे भी जल िदया। कथाका य हो रहा ह इस समय। रामे र क भगवा रामने थापना
क —यह दूसरा स ुण ह। पहल स ुणका ‍ा नाम बताया मने? सहयोग, सबका सहयोग।
दूसर स ुणका ‍ा नाम ह? िव ास—
भवानीश रौ व े ािव ास िपणौ।
या यां िवना न प यि िस ाः वा ः थमी र ॥
(मा. १.मं ोक. २)
(३) सम वय—हनुमा जीक कधेपर नह चढ़। कछ नह ! पैदल चल रह ह और जब भु
पैदल चल रह ह, तो सारी वानरी-सेना पैदल चल पड़ी—
सेतुबंध भइ भीर अित किप नभपंथ उड़ािह।
अपर जलचरन ऊपर चिढ़ चिढ़ पारिह जािह॥
(मा. ६.४)
भगवा ने तीन कारक सेतु बनाये—(क) कम-सेतु—यह सेतु बनाया नल-नीलक ारा,
(ख) ान-सेतु—यह सेतु बनाया आकाशम, और (ग) उपासना-सेतु—यह सेतु बनाया जलचर
ारा। जलचर खड़ हो गये िक हम सहायता करगे। यह देिखये सहायता! जलचर ने भी कहा
िक रावण अब द डनीय ह। इसी कार कवल मोदीजीसे नह ; यिद येक भारतवासीका मन
बन जाए िक पािक◌ानको द ड देना ह, तो द ड िमलकर रहगा उसको। पर हमार यहाँ तो
जयच◌ भी ह! ‍ा क रयेगा? उस बार रामच◌जी थे, पर जयच◌ नह था। पृ वीराज
चौहानक समयम एक ही जयच◌ था, आज लाख जयच◌ ज म ल चुक ह हमार यहाँ। ‍ा
कर?
एक ब त बड़ नेताने हम बुलाया था, जब अयो याम चौरासी कोस प र माक बात चल
रही थी। म वयं जेलम था, आप जानते ह गे। उसी समय उ र देश-सरकारक मु यम◌ीक
िपताने मुझे बुलाया और कहा—“आप लोग पािक◌ानक पीछ ‍ पड़ ह? चीनक पीछ ‍
नह पड़ते?” हमने कहा—“महोदय! आपक िनल ताक सीमा हो गयी। जो १९४७से लकर
अबतक हमारा खून पीता आ रहा ह, उसपर इतना ेम? अर!” उ◌ ने तो अपना बयान दे
डाला—“रामज मभूिमक करणम मने १६को मरवाया था और मेरा बस चलता, और यिद
कछ होता तो ३००को मरवा देता।” हमने कहा िक आप ई र नह ह। उसीका फल देखा
आपने? १६का बिलदान बेकार नह गया। ६ िदस बर १९९२को, जो कभी नह आ.....। म
तो सौभा यशाली ! जो ◌ य तुलसीदासजीको देखनेको नह िमला, सूरदासजीको देखनेको
नह िमला, वह हम िमल गया। ११ बजकर ४५ िमनटसे अपरा ४ बजकर ४७ िमनटतक
भगवा का एक अवतार आ था—कायसेवकावतार! कारसेवक का अवतार। हम लोग तो
सा ी ह। संपूण कित राममय थी। जो बड़ी-बड़ी छड़ बुलडोज़रसे नह तोड़ी जा सक रही
२९२
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७

थ , उ◌ को हमार बालक ने ऐसे तोड़ा जैसे कोई मूली तोड़ देता ह। तो देिखये! हमने कहा
िक इसीका फल ह िम ! जो तुमने िनह थ पर गोली चलाय । तुम कभी धानम◌ी बन ही नह
सकोगे। द ड तुमको िमला।
िम ो! ३ सू आपने देखे। सभी वानर क साथ रामच◌जी चल रह ह—
सेतुबंध भइ भीर अित किप नभ पंथ उड़ािह।
अपर जलचरन ऊपर चिढ़ चिढ़ पारिह जािह॥
(मा. ६.४)
संग वं संवद वं सं वो मनांिस जानता ।
देवा भागं यथा पूव स ानाना उपासते॥
(ऋ.वे. १०.१९१.२)
एक साथ चलो। सबको साथ लकर चलो। एक साथ, एक वरम बोलो। एक वरम, एक
िच◌न करो। एक साथ भोजन करो सब। अलग-अलग नह ! संघे शि ः कलौ युगे—रामजीने
देखा। यह तीसरा सू ह। सदगुन सुरगन अंब अिदित सी (मा. १.३१.१४)।
(४) ित ाकी ढ़ता—चौथा स ुण देिखये! ीराम सुबेलपवतपर िव ाम कर रह ह।
अपनी ित ाका िकतना यान ह उनको! रावणको मारनेक बात िवभीषणक सामने कही। आज
जब रावणका छ -मुकट देखा, तो रामजीने िवनोद िकया—“वषा हो रही ह ‍ा? ये बादल
कहाँसे?” िवभीषणने कहा—“ये बादल नह ह, यह रावणका मेघडबर छ ह। यह िबजली
नह , म◌ोदरीक कणफल ह। यह बादलका गजन नह ताल-मृद बज रह ह।” रामजीने
कहा—“जो बात कही, वह स य करक िदखाऊगा। देख लना!” लट-लट एक बाण धनुषपर
चढ़ाया और—
छ मुकुट ताटक तब हते एकही बान।
सब के देखत मिह परे मरम न कोऊ जान॥
(मा. ६.१३क)
एक ही बाणम छ -मुकट-ताट -आिद सब काट िदए। भगवा रामने सबको िव ासम ल
िलया। यह चौथा सू ह िक अपनी ित ापर ◌ढ़ रहकर शासकको सबको िव ासम लना
चािहए।
(५) स मान—अब पाँचवाँ सू देिखये। अ दको रावणक यहाँ भेज रह ह, यह उनक
कटनैितक सफलता ह। भगवा रामने रावणक यहाँ िकसको भेजा? सोचो कौन ह? िजसक
िपताका अभी-अभी वध िकया ह। बािलका अभी-अभी वध िकया ह भगवा रामने और बािलक
बेट अ दको रावणक यहाँ भेज रह ह। यह देिखये! अथा पाँचवा सू ह िक येक यि को
अपने सहयोगीको स मान देना चािहए, सबका स मान करना चािहए। आज यही तो होती ह
गड़बड़! अपने कायकता को लोग स मािनत नह करते। और भाजपाक भी एक सबसे
बड़ी िनबलता यही ह िक वह अपने कायकता का स मान नह करती। और रामजी अपने
सहयोगीको स मान देते ह। जबतक अपने कायकता का स मान नह करोगे, तो कौन तु हारा
साथ देगा? रामजीने िकया स मान। अ दजीको बुलाया और कहा—

२९३
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

काज हमार तासु िहत होई। िरपु सन करॆ बतकही सोई॥


(मा. ६.१७.८)
आन◌ कर िदया रघुनाथजीने! ‍ा आन◌ कर िदया? अ द रामजीक हो गये। िनयम
ह िक सामा य यि को जब कोई बड़ा यि स मािनत करता ह, तो वह समिपत हो जाता
ह। और इतना स मान? रावणने बड़ी भेदनीित अपनाई—“अर अ द! तु हार िपताका िजसने
वध कर िदया, उसका प लकर तुम आये हो?” पर रावणक भेद नीित यहाँ नह चली।
अ दजीने कह िदया—“कछ भी हो! रामजीने स यका प िलया। मेर िपताजी गलत मागपर
थे। वे द डनीय थे, इसिलए द ड िदया रामजीने। म रामजीका प लगा।” इतना सु◌र प
िलया रामजीका िक ‍ा कह! पूर अ द-रावण संवादका आप करण देिखये! एक ही
बात ह। रावण कहता ह—“रामजी मनु य ह।” और अ दजी कहते ह—“रामजीका आकार
मनु यका ह, पर वे ई र ह।” वही हाल आ, जैसे अकबरने बीरबल से पूछा—“‍ बीरबल!
वर िकतने होते ह?” तो बीरबलने कहा िक दो वर हमने सुने ह—“सीतावर और राधावर।”
अकबरने कहा—“तुम बेवकफ हो!“ बीरबलने पूछा- “‍ ?” अकबरने कहा -“अकबरको
नह सुने हो?” तो बीरबलने कहा—“यिद ऐसे वरक िगनती क जाय, तो हमने गोबरको भी
सुना ह।” ह न ठीक उसी कार। रावण बार-बार कहता ह—“राम एक मनु य ह” और अ द
कहते ह—“नह ! आकार मनु यका ह, पर वे परमा मा ह।”
(६) वािभमान—और छठा सू ह वािभमान। एक राजदूतको अपने देशक ित िकतना
वािभमान होना चािहए? यह देिखये! छठ सू का नाम ह— वािभमान। अ दने कहा िक
रावण!—
जौ मम चरन सकिस शठ टारी। िफिरिह रामसीता मैं हारी॥
(मा. ६.३४.९)
यहाँ मैं श द ि तीयाक अथम ह। य ययो ब ल (पा.सू. ३.१.८५) सू से यहाँपर
य यय आ। अ दजीने कहा—यिद तुम मेर चरणको िडगा सकोगे तो—यह नह कहा िक
ीराम लौट जायगे और ीसीता को म हार जाऊगा। िफिरिह राम सीता मैं हारी अथा तब
रामच◌जी और सीताजी तो लौट जायगे और म अपनी हार मान लगा। यहाँ मानसपीयूष ने जो
जहर बोया, वह अ◌ा नह । मानसपीयूष कारने िलख िदया टीकाम—“अ द कह रह ह िक
सीताजीको म हार जाऊगा।” अर! अ द कौन होते ह सीताजीको हारने वाल? रा ा य क
प ीको राजदूत कसे हारगा? िफिरिह रामसीता—एक वा‍ ह, मैं हारी दूसरा वा‍।
राम-सीताजी लौट जायगे और म अपनी हार मान लगा। पूरी सेना रावणक प◌ हो गयी, परतु
अ दजीका चरण एक ितलभर भी टससे मस नह आ। यह रा का वािभमान देिखये! सदगुन
सुरगन अंब अिदित सी (मा. १.३१.१४)। अ दका इतना सु◌र नेतृ व आज मुझे अ◌ा
लगा।
(७) समपण—अब सातवाँ सू ह समपण। यह सातवाँ स ुण ह। सहयोग, िव ास,
सम वय, ित ाक ◌ढ़ता, स मान, वािभमान, और सातवाँ सू ‍ा होगा? समपण। राम-
रावण-यु ार भ हो गया। वानर-भाल रामजीक ित समिपत ह और आधा कटक किपन

२९४
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७

संघारा (मा. ६.४८.४)। समपण देिखये अब! मेघनादने यह घोषणा क —“आज (१) राम
(२) ल मण, (३) नल (४) नील, (५) ि िवद (६) सु ीव, (७) अ द, और (८) हनुमान; इन
आठ क देखते-देखते ातृ ोही िवभीषणको म मार डालगा।” सभी वानर मू ◌त हो गये िम ो!
मेघनादने सबको मू ◌त िकया और वयं रामजीसे यु करने लगा। ल मणजीने कहा—
“अ◌ा नह लग रहा ह भगव ! इससे म यु क गा। यह मांसाहारी ह, म फलाहारी ।
मेघनाद यिभचारी ह, म चारी । मेघनादने इ◌को जीता, मने इि◌य को जीता। मेघनादक
माता म◌ोदरी ह, मेरी माता मैिथली ह। मेघनादका िपता रावण ह और मेर िपताक समान
आप ह राघव!” यु िकया ल मणजीने। िम ो! ‍ा यु ह! इतना सु◌र यु ! मेघनादने
कहा—“अब तो म मर ही रहा , अब वीरघाितनी-शि का योग क गा।” य वीरघाितनी
शि छोड़ी—
बीरघाितनी छािड़िस साँगी। तेजपुंज लिछमन उर लागी॥
(मा. ६.५४.७)
अब यह समपण देिखये! वीरघाितनी-शि का योग मेघनादने िकया और िकया था वह
योग िवभीषणपर। गीतावली म कहगे—
लागित साँिग िबभीषन ही पर सीपर आपु भए है
(गी. ६.५)
मेघनादने िवभीषणपर शि का योग िकया था, पर ल मणजीको लगा। यिद आज िवभीषण
मर जायगे, तो भगवा रामक यशम कल क कािलमा लग जायेगी। और भगवा राम एक रा
ह, रा क अ य नह ! भगवा वयं भारत ह। अतः ल मणने कहा—“भल म मर जाऊ, पर
मेर रहते मेर देशका वािभमान नह िगरना चािहए।” इसिलए िम ो! िवभीषणको ल मणजीने
पीछ धकला और वयं वीरघाितनी-शि को अपनी छातीम ल िलया। यह ह समपण! इतना
बड़ा समपण! यही सातवाँ सू ह समपण! सातवाँ स ुण ह समपण! वीरघाितनी लगनेसे
ल मणजीक छातीक चार टकड़ हो गये, ल मणजी मू ◌त होकर िगर पड़।
(८) ातृ ेम —अब आठवाँ स ुण ह ातृ ेम। भगवा राम पूछते ह—“ल मण कहाँ ह?”
तभी—तब लिग लै आयउ हनुमाना (मा. ६.५५.६)। हनुमा जी ल आये। राघवजी दुःखी हो
गये। ह राम!
िगिर कानन जैहै साखामृग हौं पुिन अनुज-सँघाती।
ैहै कहा िबभीषनकी गित रही सोच भिर छाती॥
(गी. ६.७)
रामजी फट-फटकर रो रह ह आज! मरण िकतना ह? रामजी कहते ह िक सबका तो कोई
न कोई ठाँव ह, पर िवभीषणका ‍ा होगा?—
तुम तो चले सुरलोक सहोदर मेरे हो ाण तु हीं संग जईहै।
पित देवरकी यह देिख दशा तब सीत िसंधुकी गोद समईहै।

२९५
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

िजतने रहे भाल किप दलमें उ ुँ वन कुंजन जाई िछपईहै।


तुलसी यह सोच बिस उरमें केकरे गृह भ िवभीषण जईहै॥
(९) शरणागत पर िन ा—रामजीक शरणागतपर िन ा ह िक हमने िवभीषणको शरणम
िलया ह। यह हमारा आदश ह। कछ लोग कहते ह िक चीनक हम श ु ‍ बने? ‍ िक दलाई
लामाको हमने शरण म िलया, यह हमारा आदश ह। आज भी बलच नेता कह रह ह िक हमको
शरणम िलया जाए, हम िवचार कर रह ह। रामजीक शरणागतपर िन ा देख िक िवभीषणका
‍ा होगा? यह नौवाँ सू ह।
सदगुन सुरगन अंब अिदित सी। रघुबरभगित ेम परिमित सी॥
(मा. १.३१.१४)
(१०) रा भि —दसवाँ स ुण ह रा भि । अब सुिनये ‍ा बात ह! हनुमा जी रावणक
वै सुषेणको ल आये ह—
जामवंत कह बैद सुषेना। लका रहइ को पठइय लेना॥
धिर लघु प गऄउ हनुमंता। आनॆउ भवन समेत तुरता॥
(मा. ६.५५.७–८)
इसका अथ आपने समझा? सुषेणको ल ासे ‍ लाये? सदगु बैद बचन िब ासा
(मा. ७.१२२.६)—सुषेण कौन ह? दाशिनक भाषाम स ु ह। और ल ा ‍ा ह? वृि -
गृह थीका च र! जबतक गु गृह थीक च रम रहगा, तबतक वह िश यक औषिध नह कर
सकता—यह िस ा◌ ह। ‍ िक यिद गृह थ गु होगा, तो तुमम और उसम अ◌र ‍ा ह?
बताओ! तुम भी ब ा पैदा कर रह हो, वह भी कर रहा ह। तुमसे थोड़ा अलग होना चािहए
िक नह ? इसिलए जबतक ल ाम रह सुषेण, तबतक औषिध नह कर सक और रावणक यहाँ
िकसीक औषिध नह कर पाये। इतने लोग मर, पर औषिध नह कर पाये। इसिलए हनुमा जी
इनको यहाँ ल आये। और गृह थीक क चड़म फसे यि को भगवा क ओर ल कौन जाता ह?
बताओ! संत ल जाते ह संत। इसीिलए भवनक सिहत ल आये हनुमा जी और जब रामजीक
शरणम आ गये और ल मणजीक औषिध कर दी चकाचक—कहा नाम िगिर औषधी जा
पवनसुत लेन (मा. ६.५५)।
(११) िवशु कथा— यारहवाँ स ुण ह िवशु कथा। यह देिखये! हनुमा जी जा रह
ह। कालनेिमने उनको रोकना चाहा। देिखये! इतना यान रखना चािहए िक कथावाचक तो
ब त ह, पर यान रह िक हम िकससे कथा सुन रह ह? शुकाचायसे अथवा कालनेिमसे?
कालनेिमक ‍ा पहचान ह? जब व ा ीरामकथा- ीक णकथाको छोड़कर संसारक कथा
कहने लग जाए, जान लो िक यह कालनेिम ह। अब बताइये! हनुमा जी कालनेिमसे कथा सुन
रह ह पर—माँगा जल तॆिह दी कमंडल (मा. ६.५७.७)। अब बताइये! व ासे कोई पानी
पीनेक िलए कहता ह ‍ा? व ासे कोई पानी नह माँगता, पर हनुमा जीने कालनेिमसे पानी
माँगा—“अ◌ा बाबा! कथा बंद करो, थोड़ा पानी िपलाओ।” लओ! ‍ा हनुमा जीको यह
ान नह ह िक व ाको इस कार अपमािनत नह करना चािहए? ान ह पर हनुमा जीने देख
िलया िक यह व ा नह ह, यह ISIS का agent ह। कसे?
२९६
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७

होत महा रन रावन रामिह (मा. ६.५७.५)—ये लो! कालनेिमने कहा—“रावण-राम


का यु !” हनुमा जीने सोचा िक बस! बस!! हो गया! यह या तो ISI का या ISIS का
agent ह! अर! व ा पहल रामजीका नाम लता ह, रावणका नाम थोड़ ही लता ह? यह
तो रामजीका नाम बादम ल रहा ह। बदमाश ह यह! “बस बाबा! अब कथा ब◌ करो और
पानी िपलाओ।” बिढ़या ोता कालनेिमको िमला! इतना यान रिखये िक यिद व ा ीराम-
क णकथाको छोड़कर यथक बात करने लग जाए, तो उसी समय उसक कथा ब◌ करवा
देनी चािहए—माँगा जल तेिह दी कमंडल (मा. ६.५७.७)। यही यारहवाँ स ुण ह। हम
कथा रामजीक सुननी ह, हम शेर-शायरी, चुटकला-क वाली सुनने थोड़ आये ह! अ सराने बता
िदया—मुिन न होई यह िनिशचर घोरा (मा. ६.५८.२)। हनुमा जीने मार डाला कालनेिमको।
देखा भरत िबशाल अित िनिशचर मन अनुमािन।
िबनु फर सायक मारॆउ चाप वन लिग तािन॥
(मा. ६.५८)
भरतजीक बाणसे हनुमा जी ीअयो याक धरतीपर िगर पड़। भगवा ने लीला रची थी
िक द डव हो जाए अयो याको, अतः द डव करवा दी। हनुमा जी इसीिलए िवजयी बनगे
‍ िक अयो याक माटी इनक शरीरको लग रही ह। भरतजीने समाचार सुना—“यह ‍ा हो
रहा ह? भरतजीने कहा—च मम सायक शैल समेता (मा. ६.६०.६)—आप मेर बाणपर
बैठ जाओ! म आपको भुक यहाँ भेज रहा ।” हनुमा जीने कहा—“नह ! रामजी आपक
बड़ भाई ह। म रामजीका बाण —
िजिम अमोघ रघुपित कर बाना। एही भाँित चलेउ हनुमाना॥
(रा.च.मा. ५.१.८)
और यह आपका बाण ह, अतः यह मेरा छोटा भाई ह। बड़ा भाई छोट भाईक गोदम नह
बैठता, इसिलए नह बैठगा।” और कह िदया—
तव ताप उर रािख गोसा । जैहों राम बान की ना ॥
(मा. ६.६०.९)
यह चौपाई गीता ेसने नह िलखी ह। मने ढढकर अपने संपादनम िलखी ह। रामजी ब त
दुःखी ह और कहते ह—
िनज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम ान अधारा॥
(मा. ६.६१.१४)
यहाँ संदेह नह करना चािहए। एकोऽ याथ धाने च थमे केवले तथा अथा एक क
ब त अथ होते ह—(१) एक माने दूसरा, (२) एक माने धान, (३) एक माने थम, (४) एक
माने एकमा । तो यहाँ एकका तीसरा अथ िलया— थम। एक कुमारा अथा “ह ल मण!
तुम अपनी माताक थम बेटे हो। म उ◌ ‍ा उ र दूँगा?” हनुमा जी महाराज आ गये। ‍ा
रा भि ह हनुमा जीक ! आन◌ कर िदया!
(१२) धम—अब एक ही गुण ह, जो ब त मह वपूण ह। बारहवाँ स ुण ह धम। पूर सं ामको

२९७
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

देिखये! भगवा राम क भकणका वध कर रह ह। रामजीका घनघोर यु क भकणसे हो रहा


ह। सार वानर को क भकणने न और मू ◌त िकया। रामजीसे यु हो रहा ह क भकणका।
रामजी ान व प ह और क भकण अहकार व प ह। अहकार सबको खा जाता ह, परतु
रामजीने क भकणका वध िकया—
तब भु कोिप ती शर ली ा। धर ते िभ तासु िसर की ा॥
(मा. ६.७१.४)
जय-जयकार हो गयी। क भकणका वध आ। देवता स ए, पु प क वषा क ।
॥ बोिलये समरिवजयी राजा रामच◌ भगवा क जय हो ॥
ब त अ◌ा िस ा◌ ह यहाँ! मेघनादने भगवा रामको नागपाशम बाँधा। मेघनादको लगा
िक सप रामजीको डसगे, पर सप लोग डस ही नह रह ह रामजीको। मेघनादने कहा—“मूख !
तुम रामजीको डस ‍ नह रह हो?” सप ने कहा—“इसिलए नह डस रह ह, ‍ िक हम
लोग सप ह और सपको मिण ि य होती ह।” ‍ा ि य होती ह? मिण! और रामच◌जी कौन
ह?
रघुकुलमिन दशरथ के जाये। मम िहत लािग नरेश पठाये॥
(मा. १.२१६.८)
यह ह रामायणजी! रामजी रघुवंशक मिण ह। तो सपको तो मिण ि य होती ही ह, इसिलए
रामजीको साँप नह डस रह ह। ‍ा आन◌ हो रहा ह! यही तो रामायणजीका अपना एक
आन◌ ह! सप ने मेघनादसे कहा—“जो अपनी माँक बात नह मानता, उसे भोगना पड़ता ह।
तु हारी माँने कहा था िक रामजीसे संिध कर लो, पर तुम नह माने। तु हारा नाश होगा। और
हमारी माँने कहा िक ह सप ! जब रामजीको िनहाकर हमने अपना जहर उगल िदया, उनको
नह डसा, तो अब तुमको भी नह डसना ह—”
िजनिह िनरिख मग साँिपिन बीछी। तजिह िबषम िबष तामस तीछी॥
(मा. २.२६२.८)
आन◌ कर िदया! मेघनादका ल मणजीसे यु हो रहा ह। ाजीने मेघनादको वरदान
िदया ह िक जो बारह वष िन ा-नारी-भोजनका याग करगा, वही मेघनादको मार सकता ह। और
ल मणजीक चौदह वष बीत गये ह। मेघनादका वध िकया ल मणजीने। देवता ब त स ए।
◌ुित करने लगे—जय अनंत जय जगदाधारा (मा. ६.७७.४)। जय-जयकार होने लगी। अब
देिखये! हम आपको बता चुक ह िक बारहवाँ जो स ुण ह, ब त अ त ह। बारहवाँ स ुण ह
धम।
सदगुन सुरगन अंब अिदित सी। रघुबरभगित ेम परिमित सी॥
(मा. १.३१.१४)
अ त आन◌! रावण रथी ह, रामच◌जी िवरथ ह—रावन रथी िबरथ रघुबीरा (मा.
६.८०.१)। िवभीषणजी अधीर हो गये—“अर राम! ‍ा होगा?”
नाथ न रथ निह तनु पद ाना। कॆिह िबिध जीतब िरपु बलवाना॥
(मा. ६.८०.३)

२९८
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७

“इसको अब कसे जीत पायगे भु?” तब रामजीने कहा—जेिह जय होइ सो यंदन


आना (मा. ६.८०.४)। “िजससे रावणको जीता जा सकगा, वह दूसरा रथ ह।” िवभीषणजीने
पूछा िक कौन-सा रथ ह भु? तो कहा—
सखा धममय अस रथ जाके। जीतन कह न कत िरपु ताके॥
(मा. ६.८०.११)
रामजीका धमरथ ह, रावणका अधमरथ ह। धम माने ‍ा होता ह? बताओ! यह चचा
करनी ब त आव यक ह। धम माने ‍ा ह? घ टी बजा देना धम ह? कछ लोग म ◌रम
लोग क जेब भी काटते ह और घ टी भी बजा देते ह। कछ लोग सायंकाल दो-दो बोतल
चढ़ा लते ह और सबेर बगुलाभगत बनकर म ◌रम आ जाते ह भगवा क दशन करनेक िलए।
यह धम नह ह। ‍ा ह धम? जो हम कत य िमल ह—चाह रा से िमल ह , चाह समाजसे,
चाह प रवारसे, चाह अपने शरीरसे, चाह वणसे, चाह आ मसे—अपने कत य का िन ापूवक
िनवहन करना ही सबसे बड़ा धम ह। म तो यही मानता । िजस िदन काम करते-करते पूजाका
समय न िमल, जान लो िक उस िदन भगवा क सही पूजा ई ह। म भी ब त काम करता ।
ब तसे ऐसे िदन आ जाते ह िक भगवा क पूजाका समय नह िमलता। तब तु हारी बुआजीसे
कहता िक आप जरा भगवा क सेवा कर लीिजये! धम यही ह— वकमणा तम य य
िसि ं िव ित मानवः (भ.गी. १८.४६)। भगवा क गुलाबक फलसे पूजा मत करो, यह तो
सूख जायेगा। कमलसे पूजा मत करो! यह सब गड़बड़ ह। अपने कमसे भगवा क पूजा करनी
चािहए। इतना सु◌र कम कर िक परमा मा भी झूम जाएँ िक बेटा! ब त अ◌ा काम िकया
तुमने।
राम-रावण यु ब त घनघोर चला। सीताजी ब त िच ◌त ह िक रावण मर ही नह रहा ह।
तब िवभीषणने रामजीको बताया—
नाभीकुंड सुधा बस याके। नाथ िजयत रावन बल ताके॥
(मा. ६.१०२.५)
गीता ेसका पाठ ह—नािभकुंड िपयूष बस याके (मा.गी. े.), हमार पाठम नाभीकुंड
सुधा बस याके ह। इसक नािभक डम अमृत ह। भगवा ने दस बाण से रावणक िसर काट
िदये, बीस बाण से बीस भुजाएँ काट द , एक बाणसे रावणक नािभक डका अमृत सोख िलया।
रावण भूिमपर िगर पड़ा। जय-जयकार हो गयी।
डोली भूिम िगरत दशकंधर। छिभत िसंधु सिर िद गज भूधर॥
(मा. ६.१०३.५)
जय-जयकार हो रही ह चार ओर भगवा रामक । अधमका वध हो गया, अ यायका वध
हो गया, कदाचारका वध हो गया, अ याचारका वध हो गया। सब देवता जय-जयकार कर रह
ह—
जय कृपाकंद मुकुंद ं हरन शरन सुख द भो।
खलदल िबदारन परम कारन का नीक सदा िबभो॥
(मा. ६.१०३.१२)

२९९
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

जय-जयकार हो रही ह। भुने िवभीषणको रा यािभिष िकया। और सीताजीको ल आये


हनुमा जी तथा िवभीषणजी। “मायाक सीता ह ये!”—भगवा ने कहा, तॆिह कारन क नायतन
कहे कछक दुबाद (मा. ६.१०८)। सीताजीक अि परी ा नह हो रही ह, उनका अि से
यावतन हो रहा ह। सीताजीको भगवा राम अि से लौटा रह ह। अर यका डम कहा था—
तुम पावक मह कर िनवासा (मा. ३.२४.२)—आप अि म िनवास क िजये। आज समय
पूण हो गया! अब वही भगवा ीसू पढ़ रह ह—
िहर यवणा हिरणीं सुवणरजत जा ।
च ां िहर मयीं ल मीं जातवेदो म आवह॥
(ऋ.वे. ीसू १)
पं ह म◌ भगवा रामने पढ़—“ह अि देव! मेरी गृहल मीको आवह माने लौटा दीिजये!”
‍ लौटा द? ‍ िक अि क शरणम सीताजी ह, इसिलए लौटानेक िलए कह िदया। मायाक
सीताजी अि म चली गय और वा◌िवक सीताजी खेल रही ह अि क ाला म। म◌कपर
एक बूँद भी पसीना नह ह—
ीखंड सम पावक बेश िकयो सुिमिर भु मैिथली।
(मा. ६.१०९.९)
सीताजीक साड़ीका एक सूत भी नह जल रहा ह। कह झलका भी नह पड़ा। नैनं िछ ि
श ािण नैनं दहित पावकः (भ.गी. २.२३) अि कसे जलायेगी? सीताजी परमा मात व ह।
िजिम छीरसागर इिदरा रामिह समप आिन सो॥
(मा. ६.१०९.१०)
जय-जयकार हो रही ह, देवता स हो रह ह। ब त आन◌ हो गया! देवता ने पु प क
वषा क । जनकन ◌नी सीता महारानीजूक जय! अ त आन◌ हो गया! परी ा नह क
उनक ! देवता तथा ाजीने भी भगवा क ◌ुित क । दशरथजी महाराज आये—
तॆिह अवसर दशरथ तह आये। तनय िबलोिक नयन जल छाये॥
(मा. ६.११२.१)
ब त आन◌ आ रहा ह! इ◌ने ◌ुित क और कहा—“आ ा! मुझे कोई सेवा दीिजये!”
यही तो देिखये! इसीिलए रामजी ि य ह? ‍ा कारण ह िक आज नेता को रामजी नह पच
रह ह? इतना बड़ा मातृभूिमभ कोई आजतक आ ही नह ! ल मणजीने कहा िक कितपय
िदन ल ाम िव ाम कर िलया जाय। राघवजीने कहा चुप—
अिप वणमयी ल ा न मे ल मण रोचते।
जननी ज मभूिम वगादिप गिरयसी॥
भल सोनेक ल ा ह, पर मुझे अ◌ी नह लग रही ह। िनयम यह ह िक माँ और मातृभूिम—
ये वगसे भी े होती ह। िकतना रा भ ! इतना घोर यु आ, अयो यासे कछ नह िलया।
और अयो याका कोई िसपाही नह मरा। छोटा-सा वानर मर रहा ह, भगवा ने कहा िक अमृत
वषा करो इ◌! इ◌ने अमृत वषा कर दी और सारक सार जीिवत हो गये! जाओ! यह ह
रा क ित कत ता! महाभारतम भगवा ने अपने भांजे अिभम युको भी नह िजलाया। कोई
३००
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७

नह बचा। कवल छः लोग बचे पा डव म! महाभारतम कोई नह बचा और रामायणम कोई


नह मरा, यह ह रामजीका यि व! सार वानर-भाल—
सुधाबृि भै दु दल ऊपर। िजये भाल किप निह रजनीचर॥
(मा. ६.११४.६)
आन◌ कर िदया भगवा ने!
िवभीषणने कहा—“यह सब स पि वानर को दे दीिजये!” भगवा ने कहा—“नह ! नह !
तोर कोश गृह मोर सब स य बचन सुनु ात।
दशा भरत की सुिमिर मोिह िनिमष क प सम जात॥
(मा. ६.११६क)
मुझे मेरी अयो या ज दी भेजो! मेर भरतजी ाण देनेको उ त हो रह ह। अविध बीतनेपर
जाऊगा, तो म जीते ही नह पाऊगा अपने भैयाको।” सबको पु पकपर बैठा िलया। देिखये,
आज आये िदन दुघटनाएँ होती ह। िनितन गडकरी बोलते रहते ह िक हलमेट पहनकर रिखये।
गाड़ी चलाते समय मोबाइल मत देिखये। िनयम का पालन क िजये। पर उनको यह भी कहना
चािहए, म तो यह क गा िक, जब भी आप या ा क िजये इस एक चौपाईको यारह बार पढ़
लीिजये; कभी आपका accident नह होगा—
चलत िबमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सब कोई॥
(मा. ६.११९.३)
पु पक िवमानक िसंहासनपर भगवा आ ढ हो रह ह। वानर-भाल स ह, सबको बैठा
िलया। यही ह— जा सिहत रघुबंशमिन िकिम गवने िनज धाम (मा. १.११०)। सार वानर-
भाल को अपने िवमानपर भुने बैठा िलया। आ रह ह। बारह स ुण कट ए, आपने देखा।
और इधर भी इन वानर म बारह स ुण ह—
जो नर होइ चराचर ोही। आवइ सभय शरन तिक मोही॥
तिज मद मोह कपट छल नाना। करउ स तॆिह साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तन धन भवन सु द पिरवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनिह बाँध बिर डोरी॥
समदरशी इ ा कछ नाहीं। हरष शोक भय निह मन माहीं॥
अस स न मम उर बस कैसे। लोभी दय बसइ धनु जैसे॥
तुम सािरखे संत ि य मोरे। धरउ देह निह आन िनहोरे॥
सगुन उपासक परिहत िनरत नीित ढ़ नेम।
ते नर ान समान मम िजन के ि जपद ेम॥
(मा. ५.४८.२–८, ५.४८)
(१) आवइ सभय (२) शरन तिक मोही—ये भी भगवा क शरणम आये ह; (३) तिज
मद मोह कपट छल नाना—ये भी मद, मोह, कपट, छल छोड़ चुक ह; (४) जननी जनक
बंधु सुत दारा, तन धन भवन सु द पिरवारा—ये दस ममताएँ छोड़कर, सब कै ममता
ताग बटोरी, मम पद मनिह बाँध बिर डोरी—अपने मनको भगवा म बाँध चुक ह; (५)

३०१
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

समदरशी—ये भी समदश ह; (६) इ ा कछ नाहीं—इ◌ कोई इ◌ा नह ; (७) हरष शोक


भय निह मन माहीं—हष, शोक, भय नह ह इनम; (८) सगुन उपासक—सार वानर सगुण
क उपासक ह; (९) परिहत िनरत—परिहतम लगे ह, इनको ‍ा लना-देना बेचार को;
(१०) नीित ढ़—◌ढ़ नीित ह, रावण भी इ◌ िवचिलत नह कर पाया; (११) नेम —अपने
िनयमक प ह; (१२) ते नर ान समान मम िजन के ि जपद ेम —रामजीम समपण तो
समपण, ि ज-पद- ेम, ा ण क ित भी ेम ह इनको। बोिलये भ व सल भगवा क जय
हो!
इस कार पु पक िवमान आ रहा ह। रामजी सीताजीको यु भूिम िदखा रह ह—“सीते!
देखो—”
कह रघुबीर देखु रन सीता। लिछमन इहाँ ह यो इ जीता॥
(मा. ६.११९.९)
“यह देखो! यहाँ मेघनादको ल मणजीने मारा।”
हनूमान अंगद के मारे। रनमिह परे िनशाचर भारे॥
(मा. ६.११९.१०)
“ये देखो बड़-बड़ रा स पड़ ह। इ◌ हनुमा जी और अ दजीने मार डाला। ये नह जी
पाये अमृतवषासे।” तो सीताजी सोचती ह—“आपने ‍ा िकया?” आजकल होता ह न िक
लोग भल ही बाजारम लात खाय पर प ीक सामने सा ा ई र ही बने रहते ह। पर रामजी
िकतने अ◌े ह! रावण-क भकणको मारा ह रामजीने, पर अपना नाम नह िलया—
कुंभकरन रावन ौ भाई। इहाँ हते सुर मुिन दुखदाई॥
(मा. ६.११९.११)
यहाँ देवता, मुिनय क श ु क भकण-रावण हते अथा मारे गये। िकसने मारा? यह
भुने नह कहा। यह देिखये यि व! इहाँ सेतु बाँ यो अ थापॆउ िशव सुख धाम (मा.
६.११९क)। िवमान द डकवनम आया। िच कट उतरा—सकल ऋिषन सन पाइ अशीशा,
िच कूट आये जगदीशा (मा. ६.१२०.३) हम लोग जब कामदिग रक प र मा करते ह तो
जहाँ िवमान उतरा था भगवा का, वहाँ थोड़ी देर क जाते ह। यह िनयम ह कामदिग रक
प र माका।
आहाहा! यमुनाजीक दशन िकये। ग ाजी िदख । राघवजीने कहा—“सीते! णाम करो।”
राम कहा नाम क सीता (मा. ६.१२०.६)। “ओह देखो! ि वेणी! वो मेरी अयो या!
आहाहा!” भगवा ने णाम िकया और किपन सिहत िब न कह दान िबिबध िविध दी
(मा. ६.१२०ख)। तो दान कहाँसे िमला होगा? वही जो समु ने िदया था—
कनकथार भिर मिनगन नाना। िब प आयउ तिज माना॥
(मा. ५.५८.८)
वही दान दे िदया। हनुमा जीसे कहा—“तुम ज दी ा णका वेश धारण करक अयो या
जाओ।” हनुमा जी ा णका वेश धारण करक अयो या आ रह ह। भर ाजसे िमल भगवा ।
िवमान उतरा, सीताजीने ग ाजीक पूजा क —तब सीता पूजी सुरसरी (मा. ६.१२१.८)।
३०२
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २८

िनषादसे भगवा िमल। यह यु का ड स प !


समरिबजय रघुबीर के चिरत जॆ सुनिह सुजान।
िबजय िबबेक िबभूित िनत ितनिह देिह भगवा ॥
(मा. ६.१२१क)
िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो!
अब उ रका ड! ब त अ◌ा का ड ह!

कथा २८: रघुबर भगित (मा. १.३१.१४)


केकीक ठाभनील सुरवरिवलसि पादा िच ं
शोभा ं पीतव ं सरिसजनयनं सवदा सु स ।
पाणौ नाराचचापं किपिनकरयुतं ब धुना से यमानं
नौमी ं जानकीशं रघुवरमिनशं पु पका ढराम ॥
(मा. ७ म. ो. १)
यहाँका वणन ब त अ◌ा ह! भगवा कसे ह? नील वणक—केकीक ठाभनील अथा ,
मोरक क ठक समान भगवा नील ह। िकतना सु◌र कहा! िववाहकालम कहा—केिक कंठ
दुित यामल अंगा (मा. १.३१६.१) और यहाँ कह रह ह केकीक ठाभनील। ऐसा ‍ ?
देिखये! मोरका गला हमने देखा ह। बचपनम हमार यहाँ मोर नाचते थे। एक मोर ब त प रिचत
था हमारा, वह मेरी गोदम आकर बैठ जाता था। उसक गलक िवशेषता यह होती ह िक नीला
तो होता ह मोरका गला, पर◌ु नीलक साथ लाल-लाल बु◌िकयाँ भी उसक गलम िदखायी
पड़ती ह। ह न! यह बात ‍ कही? कहा िक िववाहकालम तो भगवा नील वण क ह ही,
पर लाल-लाल महावर िदखायी पड़ रहा ह, इसिलए मोरक गलक समान ह। िफर यहाँ लाल
‍ा ह? रावणको जो भगवा राम ने मारा ह, तो रावणक खूनक छ टसे भगवा का शरीर
थोड़ा-थोड़ा लाल हो गया ह—
शोिनत-छीट छटािन जटे तुलसी भु सोहै महा छिब छटीं।
मानो मर त-सैल िबसाल में फैिल चलीं बर बीरब टीं॥
(क. ६.५१)
अ त आन◌ हो रहा ह! तो यहाँ छ ट ‍ पड़? भगवा राम ब त कपाल ह। भगवा ने
िवचार िकया—“रावणका कछ िवसिजत िकया जाए यागम। अ थ-िवसजन नह कर सकते
‍ िक पु पक िवमान मृतकको नह ढोता, उसका िनयम ह।” तो भगवा ने सोचा—“और लोग
तो यागम अ थ-िवसजन करते ह, म ऐसी लीला क गा िक रावणक अ थ-िवसजन नह ,
म यागम रावणका र िवसजन क गा।” इसिलए ऐसा बाण मारा िक रावणक र क छ ट
भगवा रामक शरीरपर िवराज रह ह। रावणवधक समयसे भगवा रामने ान नह िकया ह,
सीधे पु पक िवमानम बैठ गये थे। अब यागम ान करगे, तो रावणका र िवसजन हो गया।
केकीक ठाभनील।

३०३
कथा २८ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

इधर—
रहा एक िदन अविध कर अित आरत पुर लोग।
जह तह सोचिह नािर नर कृशतनु रामिबयोग॥
(मा. ७ म.दो. १)
ब त अ◌ा का ड ह!
अब अठाईसव कथा रघुबरभगित (मा. १.३१.१४), यह रामजीक भि क प रिमित ह—
रघुबरभगित ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४)। ब त आन◌ कर रह ह रामजी! रामजीक
भि क सीमा ह अठाईसव कथा। भरतजी बैठ ह—
रहा एक िदन अविध अधारा। समुझत मन दुख भऄउ अपारा॥
(मा. ७.१.१)
भु ‍ नह आये?—कारन कवन नाथ निह आऄउ (मा. ७.१.२)। रघुवरक भि क
सीमा ‍ कही? इसिलए िक कहा जाता ह िक जा नाएँ भि क आचाया ह। तुलसीदासजीने
कहा िक जा नाय भि क आचाया तो ह, पर◌ु ोधम उ◌ ने भी भगवा को कपटी
कह िदया। िकसने कहा? जा ना ने। देिखये—कुहक नो मनः ोभयि िह (भा.पु.
१०.३१.१०), िकतव योिषतः क यजेि िश (भा.पु. १०.३१.१६)। जा ना ने ीक णको
िकतव कह िदया, पर◌ु यहाँ तो भरतजी रामजीको कभी कपटी नह कह रह ह। वे तो कहते
ह—
कपटी कुिटल मोिह भु ची ा। ता ते नाथ संग निह ली ा॥
(मा. ७.१.४)
इसिलए रघुबरभगित ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४)। रामजीक भ क प रमित, ऐसी
भि कह देखी नह ! वहाँ तो भगवा अविध बढ़ाते रह, गोिपयाँ मानती रह । सौ वष िबता
िदये अविध बढ़ाते-बढ़ाते—
घर से घन याम गये किहके हम आवेंगे ज में परसों।
परसों ही देखत बाँट गयी ज नारी के बीत गये बरसों।
बरसों पुिन भेंट नहीं अज अब तो ज नाथ गये कर सों।
ज नारी बेचारी िवचार करे कब आवेंगे कु ा घर सों॥
वहाँ तो भगवा अविध बढ़ाते रह और गोिपयाँ सहन करती रह । यहाँ तो भरतजीने कहा
िक यिद चौदह वषसे एक ण भी आगे गया और आप नह लौट; तो आपक चरण क शपथ!
म तो म गा ही, सभी प रजन भी मर जायगे—
तुलसी बीते अविध थम िदन जो रघुबीर न ऐहौ।
तौ भु-चरन-सरोज-सपथ जीवत पिरजनिह न पैहौ॥
(गी. २.७६)
यह देिखये! इसिलए रामजीको वयं डर लगा और इसिलए पु पक ल आये िक ज दी मुझे
प चना ह। और पु पकसे भी जब काम न बना, कह रातम ही भरतजीक ाण न चल जाय,

३०४
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २८

तो हनुमा जीको भेज िदया िक ज दी जाओ—


भु हनुमंतिह कहा बुझाई। धिर बट प अवधपुर जाई॥
भरतिह कुशल हमािर सुनाऄ । समाचार लै तुम चिल आऄ ॥
(मा. ६.१२१.१–२)
यह देखो! भरतजी याकल ह। अ य थ म िलखा ह िक जलनेक िलए िचता लगा ली,
कवल वेश करना अवशेष ह।
जौ करनी समुझैं भु मोरी। निह िन ार कलप शत कोरी॥
(मा. ७.१.५)
“‍ा क ? मने हनुमा जीको बाणसे िव कर िदया था, कह भगवा इसीपर तो
नह हो गये?” कह िदया हमारी भोजपुरीम—
जानी कुिटल िबसरा गइले का भईया नहीं अइले॥
हमरा के कपटी कुिटल पिहचनले।
तॆिह ते वन में िवलमा गइले का भईया नहीं अइले।
जानी कुिटल िबसरा गइले का भईया नहीं अइले॥
मा ित की म क पे बाण हम मरली।
तेहीं अपराध िबसरा गइले का भईया नहीं अइले।
जानी कुिटल िबसरा गइले का भईया नहीं अइले॥
एक िदन बचल अविध के अधरवा।
का भ वृ में लभा गइले का भईया नहीं अइले।
जानी कुिटल िबसरा गइले का भईया नहीं अइले॥
भईया भरत की बिलहार भि ।
रामभ ाचाय के भुला गइले का भईया नहीं अइले।
जानी कुिटल िबसरा गइले का भईया नहीं अइले॥
इसी समय
रामिबरह बारीश मह भरत मगनमन होत।
िब प धिर पवनसुत आइ गयउ जनु पोत॥
(मा. ७.१क)
सागर मह (मा.गी. े.) नह बारीस मह! आगे िमलगा बूड़त िबरह बारीश कृपािनधान
मॊिह कर गिह िलयो (मा. ७.५.१०)।
डब ही रह ह भरतजी िक तबतक हनुमा जी महाराज ा णका वेष बनाकर आ गये। देखा
हनुमा जीने—
बैठे देिख कुशासन जटामुकुट कृशगात।
राम राम रघुपित जपत वत नयन जलजात॥
(मा. ७.१ख)
हनुमा जीने भरतजीको कशासनपर देखा, राम राम राम राम जप रह ह, आँख से आँसू बह
३०५
कथा २८ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

रह ह—देखत हनूमान अित हरषॆउ (मा. ७.२.१)। हनुमा जी ब त स ए—पुलक गात


लोचन जल बरषॆउ (मा. ७.२.१), आँख से जल बरस गया। जाकर बोल कानम—ह भैया!
जासु िबरह सोच िदन राती (मा. ७.२.३)—िजनक िवरहम रात-िदन आप शोक करते रहते
ह, िजनक गुण-गणक पि य का िनर◌र रटन करते रहते ह, वे ही—
रघुकुलितलक सुजन सुखदाता। आऄउ कुशल देव मुिन ाता॥
(मा. ७.२.४)
वे भगवा राम रघुकलक ितलक भु, कौश याक सामने जब जा रह थे—रघुकुलितलक
जोिर दॊउ हाथा (मा. २.५२.१)। वही रघुकुल ितलक सुजन सुखदाता (मा. ७.२.४)
रामच◌जी सकशल आ गये ह।
िरपु रन जीित सुजश सुर गावत। सीता अनुज सिहत भु आवत॥
(मा. ७.२.५)
भरतजीने कहा—“मने समझा नह ! पहल तो आपने कहा िक रामजी आ गये। िफर कहा िक
रामजी आ रह ह। ऐसा ‍ ?“ हनुमा जीने कहा—“म समझाता । आज रामजी दो िवमान से
आ रह ह, दो प धारण करक—(१) एक तो पु पक िवमानसे आ रह ह, सीताजी और ल मण
सिहत और (२) दूसर मेर दयक िवमानपर अकल आ रह ह। तो मेर दयवाल रामजी आ गये
और पु पकवाल रामजी आ रह ह।” ‍ा आन◌!
मने बार-बार कहा न िक म रामायणजीको जीता , म कहता नह कभी कथा। I live
Ramayana, I never speak about Ramayana. No. म तो जीता रामायणजीको,
कहता नह ।
तो भरतजीने कहा—“आप कौन ह?” हनुमा जीने अपना नाम बताया। पूर हनुम र को
रखांिकत एक ही पि करती ह, ब त अ◌ी—उ रका डक ि तीय दोहक ११व पि ! जय!
जय!! (एक भ यहाँ हमको िमल। हनुमा जीका च र कहते ह। हमने कहा िक यार! ब त
अ त च र ह हनुमा जीका!) कहते ह—
किप तव दरस सकल दुख बीते। िमले आजु मॊिह राम िपरीते॥
(मा. ७.२.११)
ब त अ◌ी पि ह रामायणजीक ! ब त अ◌ी पि ह। भरतजी कहते ह िक ह हनुमा जी!
किप—कममृतं िपबतीित किपः—आप तो मेर अ◌रामजीक च र ामृतका पान करते रहते ह।
ह हनुमा जी! (१) आपक दशनसे सकल दुख बीते सभी दुःख चल गये, और (२) सकल
दुख बीते सभीक दुःख चल गये। आज मुझे यार रामच◌जी िमल गये—िमले आजु मोिह
राम िपरीते (मा. ७.२.११)। सभीक दुःख चल गये, िजसने आपक दशन िकये—(१) आपक
दशनसे रामजीक दुःख चल गये, (२) आपक दशनसे ल मणजीक दुःख चल गये, (३) आपक
दशनसे सु ीवजीक दुःख चल गये, (४) आपक दशनसे पूर वानर क दुःख चल गये, (५)
आपक दशनसे सीताजीक दुःख चल गये, और (६) आपक दशनसे आज मेर दुःख भी चल
गये—

३०६
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २८

किप तव दरस सकल दुख बीते। िमले आजु मॊिह राम िपरीते॥
(मा. ७.२.११)
आपक दशनसे सकल दुख —यहाँ ष ी त◌ु ष समास ह—सकल दुख, सभीक दुःख
बीत गये। तो हनुमा जी! एक बात बताइये। आज इतना तो म जान गया िक मुझे भु अपना
भाई मानते ह। ‍ा मुझे कभी भु अपने दासक भाँित मरण करते ह? हनुमा जीने चरण
पकड़ िलए। कसा मरण करते ह, यह तो भगवा ही जान—
भरत अिमत मिहमा सुनु रानी। जानिह राम न सकिह बखानी॥
(मा. २.२८९.२)
रघुबरभगित ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४)। भरतजी कोशलपुर आये, सबको
समाचार सुनाया। गु देवको समाचार सुनाया। माताएँ दौड़ । भरतजीने सबको समाचार िदया।
अयो यावासी चल पड़ भुक अगवानी करनेक िलए—
दिध दुबा रोचन फल फूला। नव तुलसीदल मंगलमूला॥
भिर भिर हेमथार िलय भािमिन। गावत चिल सब िसंधुरगािमिन॥
(मा. ७.३.५–६)
माताएँ चल पड़ झूमकर! ब तक चढ़ीं अटािरन िनरखिह गगन िबमान (मा.
७.३ख)—ब तक ब त माताएँ अथवा ब एँ अ ािलका पर चढ़कर पु पक िवमानको िनहार
रही ह, देिख मधुर सुर हरिषत करिह सुमंगल गान (मा. ७.३ख) और गा रही ह—
होनी होके रहती टाले नहीं टलती।
एक िदन आ था वनवास आज देखो राजितलक है॥
िजसके माथे जटामुकट का य सभी ने देखा हो।
उसके माथेपर िबलसेगी आज ितलक की रेखा।
होनी होके रहती टाले नहीं टलती।
एक िदन आ था वनवास आज देखो राजितलक है॥
चलो चले सब िमलके देखें आज अवध रजधानी।
िगरधर भु राघव है राजा ीसीता महारानी।
होनी होके रहती टाले नहीं टलती।
एक िदन आ था वनवास आज देखो राजितलक है॥
॥ बोिलये राजारामच◌ भगवा क जय ॥
िवमान उतरा, गु देवको भगवा ने णाम िकया—धाइ गहे गु चरन सरो ह (मा.
७.५.३)। आज धनुष-बाण नीचे रख िदया—
बामदेव बिश मुिननायक। देखे भु मिह धिर धनु सायक॥
(मा. ७.५.२)
ित ा क थी—“जबतक आत वाद समा नह हो जायेगा, तबतक धनुष-बाण नीचे नह
रखूँगा।” आज भारतका आत वाद समा हो गया, खदेड़-खदेड़कर मारा भगवा ने। अब हमारी
सेनाको भी चािहए िक इ◌ खदेड़-खदेड़कर इनक घरम घुसकर मारो।
३०७
कथा २८ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

तो भरतजी िमल—गहे भरत पुिन भुपद पंकज (मा. ७.५.६)। उठ नह रह ह। भगवा ने


बलका योग करक उठाया। आँख से आँसू बह रह ह—राजीव लोचन वत जल तनु लिलत
पुलकाविल बनी (मा. ७.५.९)। दयसे लगाकर िमल। श ु को िमल। ल मणजी और भरत
िमल, श ु जी और ल मणजी िमल। दोन भाइय ने सीताजीको णाम िकया। सीताचरन भरत
िसर नावा (मा. ७.६.२)—सीताजीक चरण म श ु क सिहत भरतजीने णाम िकया। सार
अयो यावासी िमलना चाहते ह। अब भगवा ने अनेक प बना िलये और एक णम सार
अयो यावािसय से िमल िलये—
अिमत प गटे तॆिह काला। जथाजोग िमलॆ सबिह कृपाला॥
(मा. ७.६.५)
रामजी, ल मणजी और सीताजी माता से िमल। सब लोग आन◌ कर रह ह। सु◌र
शोभाया ा िनकल रही ह। अब न ◌ ामसे ीअवध आ गये और वहाँ विस जीने ा ण से
कहा—“देिखये! अब आप लोग अनुशासन दीिजये िजससे िक रामचं बैठिह िसंघासन (मा.
७.१०.५), रामजी राजा तो ह ही! ये िसंहासनपर बैठ जाएँ।” ा ण ने कह िदया—
अब मुिनवर िबलब निह कीजै। महाराज कह ितलक करीजै॥
(मा. ७.१०.८)
विस जी ब त स हो रह ह—
भु िबलोिक मुिनमन अनुरागा। तुरत िद य िसंहासन माँगा॥
(मा. ७.१२.१)
िद य िसंहासनका अथ यह ह िक अयो याक िसंहासनपर तो पादुकाजी िवराज ही रही ह,
इसिलए साकतलोकसे भगवा का िद य िसंहासन मँगवाया।
रिब सम तेज सॊ बरिन न जाई। बैठे राम ि जन िसर नाई॥
(मा. ७.१२.२)
सूयक समान तेज वी िसंहासन! जनकसुता समेत रघुराई (मा. ७.१२.३), सीताजीक
समेत बैठ गये भगवा ! ब त आन◌ हो रहा ह!
रामं र िकरीटकु डलयुतं केयूरहाराि वतं
सीतालकृतवामभागममल िसंहासन थं िवभु ।
सु ीवािदहरी रैः सुरगणैः संसे यमानं सदा
िव ािम पराशरािदमुिनिभः सं ूयमानं भु ॥
(रा.◌.◌ो. ९७)
िसंहासनपर िवराज रह ह। सीताजी वाम भागम िवराज रही ह। ब त सु◌र झाँक ह
भगवा क ! थम ितलक बिस मुिन की ा (मा. ७.१२.५)—विस जीने ितलक िकया।
मेरी एक ित ा ह िक जबतक अयो याका रामम ◌र पूण पसे नह बन जाता, तबतक मेरी
कथाम राम रा यािभषेकका उ सव नह होगा। भगवा हमारी ित ा पूरी कर! अव था बड़ी
हो रही ह। कमसे कम ३२–३३ वषतक १०८ कथा म तो रामजीका रा यािभषेक हो ही जाए!
चकाचक आन◌ आ जाए! भगवा ज दी कर! यह मनोरथ पूरा हो! सीताजीक सिहत
३०८
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २९

ीरामच◌जी िवराजमान हो रह ह और—


भरतािद अनुज िबभीषनांगद हनुमदािद समेत ते।
गहॆ छ चामर यजन धनु अिस चम शि िबराजते॥
(मा. ७.१२.९)
(१) छ —भरतजीने छ िलया ह हाथम, (२) चामर—ल मणजी चँवर िलये ह हाथम,
(३) यजन—श ु जी यजन माने पंखा िलये डला रह ह, (४) धनु—िवभीषणजी धनुष िलये
ह, (५) अिस—अ दजी तलवार, (६) चम—हनुमा जी ढाल, और (७) शि —सु ीवजी
शि । सब सेवाम लगे ए ह। जय-जयकार हो रही ह। विस जीने ितलक िकया और िफर
सबने ितलक िकया। जय-जयकार हो रही ह। देवता पु प क वषा कर रह ह। बोिलये राजा
रामच◌ भगवा क जय! और सभी ◌ुित करक पधार। वेद ने भगवा क ◌ुित क । वेद ने
देखा िक अर! द डकवनक काँट अभी आपने िनकाल नह ?—
वज कुिलश अंकुश कंज जुत बन िफरत कंटक िकन लहे।
पद कंज ंद मुकुंद राम रमेश िन य भजामहे॥
(मा. ७.१३.४)
िशवजीने ◌ुित क और कहा िक आप दोन महारानी महाराजा बैठ ह तो पद सरोज
अनपायनी भि सदा सतसंग (मा. ७.१४क)—सीताजीसे युगलसरकारक चरण म भि
माँगी और रामजीसे सदा स संग माँगा। सब यव थत हो गये। छः महीने बीत गये, पर
वानर जाना नह चाहते। भगवा ने सबको बुलाया और कहा—अब गृह जा सखा सब (मा.
७.१६)। सब लोग चल पड़। अ दजी नह जाना चाहते। अ दजीने ब त ाथना क । भगवा ने
कहा—“नह ! अब तु ह भी जाना चािहए।” िनज उर माला बसन मिन बािलतनय पिहराइ
(मा. ७.१८ख)। सब लोग चल पड़। तब सु ीवजीक चरण म हनुमा जीने णाम िकया और
िवनय क —“सरकार!—
िदन दश किर रघुपितपद सेवा। पुिन तव चरन देिखहउ देवा॥
(मा. ७.१९.८)
दस िदन भगवा क सेवा करक िफर आ जाऊगा।” “अर! नह ! नह !! आप िनर◌र
यह रह। आप वहाँ मत आइये ‍ िक भगवा ने सखा को भेजा ह। आप तो उनक बेट ह,
आपको थोड़ ही भेजा ह भगवा ने।” यहाँतक रघुबरभगित (मा. १.३१.१४)।

कथा २९: ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४)


अब उनतीसव कथा— ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४)। रामजी राजिसंहासनपर िवराज गये।
ेमक प रिमित देिखये!—
राम राज बैठे ैलोका। हरिषत भए गये सब शोका॥
(मा. ७.२०.७)
कोई िकसीसे बैर नह करता ह, िकसीक अ प मृ यु नह हो रही ह, सभी सु◌र ह, कोई

३०९
कथा २९ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

ण नह ह, कोई द र नह ह, कोई दुःखी नह ह। ब त आन◌ हो रहा ह! हाथी और िसंह


एक साथ एक घाटपर पानी पीते ह। कोई िकसीको नह छड़ता ह।
सिस संप सदा रह धरनी। ेता भइ कृतजुग कै करनी॥
(मा. ७.२३.६)
ेताम कतजुग आ गया ह। चकाचक आन◌ हो गया! धमक चार चरण िवराजमान ह।
ब त आन◌ आ गया!
सीता वनवास नहीं। अब यहाँ एक बात ब त आव यक ह, इसको म कहना भी चाहता
। एक अपवाद ह। और सभी serials म िदखाया भी जा रहा ह। इस बार िसया क राम म
भी िदखाया। अि म परीि त होनेक प ा भी सीताजीका दूसरा वनवास िकस आधारपर िदया
गया? यह ह। यहाँ मेरा ब त िवन तापूवक उ र ह िक सीताजीका ि तीय वनवास नह
आ था। इसपर दो-चार तक म आपको सुनाता । सुिनये! बोिलये सीता महारानीजूक जय!
अब ग भीरतासे सुन।
(१) मूलरामायणम सीताजीका दूसरा वनवास नह —देिखये! ीरामकथाका सबसे थम
थ ह वा मीिक रामायण । वा मीिक रामायण म थम सग ह मूल रामायण। मूल रामायणम
जो िवषय कहा गया, उसीका महिष वा मीिकजीने िव◌ार िकया। यही न! नारदजी भी कहते
ह—वृ ं कथय धीर य यथा ते नारदा ुत (वा.रा. १.२.३१)। जैसा तुमने नारदजीसे
सुना ह, उसी कारका च र कहना। सौभा य और संयोगसे मूल रामायणम सीताजीक दूसर
वनवासक चचा नह ह। इसीसे िनि त हो जाता ह िक सीताजीक दूसर वनवासक कथा कवल
का पिनक ह और रामजीको अपमािनत करनेक िलए कही गयी ह।
(२) महाभारतम सीताजीका दूसरा वनवास नह —दूसरा िस ा◌ यह ह िक य भारते
त भारते—जो महाभारतम नह कहा गया, वो भारतवषम घटा ही नह । महाभारतम चार बार
रामकथा कही गयी पर उनमसे एक बार भी सीताजीक वनवासक कथा नह कही गयी। इसिलए
भी िनि त ह िक सीताजीका वनवास नह आ।
(३) अि देवक आ ा और रामजीका ण —तीसरी बात देिखये! अि से सीताजी जब
लौट , तो अि देवने भगवा रामसे कहा िक म आपको आ ा देता —अहमा ापयािम ते
(वा.रा. ६.११८.१०) इनको कभी भी कछ मत किहयेगा। तो जब अि ने आ ा दे दी, अि क
कपा से भगवा का ज म आ; तो अि क आ ाका रामजी उ न ‍ करगे? िफर रामजी
भी अि देवक सम ित ा कर चुक ह िक तीन लोक म सीताक पिव ता मािणत हो चुक
ह, अब म सीताको कभी भी नह छो ँगा—
अन या िह मया सीता भा करेण भा यथा॥
िवशु ा ि षु लोकेषु मैिथली जनका मजा।
न िवहातुं मया श ा कीितरा मवता यथा॥
(वा. रा. ६.११८.१९–२०)
(४) सीताजी क अि परी ा का सम◌ लोक ारा दशन —चौथी बात! जब सीताजी
अि जीम खेल रही थ —द शु ां महाभागां िवश ीं ताशन (वा.रा. ६.११६.३३), तो

३१०
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २९

तीन लोक क लोग इस ◌ यको देख रह थे—सीतां कृ ा यो लोकाः पु यामा या तीिमव


(वा.रा. ६.११६.३४)—सार चैनल पर जीवंत सारण (live telecast) चल रहा था। तो जब
सब लोग देख रह थे, तो ‍ा अयो यावाल ने नह देखा होगा? िफर ‍ अिव ास?
(५) रा यािभषेकक दस सह वष प ा वनवास ‍ ? पाँचव बात देिखये! रामजीक
संब धम दस हजार वषतक कोई कछ नह बोला, वा मीिक रामायण म वणन ह। दस हजार
वष बीतनेक प ा मूख धोबीको ऐसी खुराफात ‍ सूझी?
(६) अयो याक येक नारी पित ता —छठी बात कहते ह िक धोबीसे िबना पूछ चली
गयी थी उसक प ी। जबिक वा मीिक रामायण म वणन ह िक रामरा यम अयो याक येक
नारी पित ता ह—नाय ािवधवा िन यं भिव यि पित ताः (वा.रा. १.१.७२), तो िबना
पूछ कसे चली जायेगी वो?
(७) यु का डक अ◌म फल ुित —वा मीिक रामायण क यु का डक अ◌म ही
वा मीिक रामायण क पूरी फल ुित कही गयी ह िक जो इसे पढ़गा, उसे ये-ये लाभ ा
ह गे। फल ुित थक समाि म होती ह। तो जब वा मीिक रामायण क फल ुित यु का डक
अ◌म कह ही दी गयी, तो िफर उ रका ड काहका भाई?
(८) सीताजीक वण-मूित म ाण- ित ा कसे?—एक आ य सुिनये! लोग कहते ह िक
रामजीने सोनेक सीताजीक मूित बनवायी और ाण- ित ा करक य िकया। अ◌ा! आप
बताओ िक ाण- ित ा िकसक होती ह? जो मर जाता ह। यिद सीताजी वनवासम ह, तो उनक
ाण- ित ा सोनेक सीताम कसे क गयी? इसका कौन उ र देगा? सोिचये!
एक गुणा नामक जैन किव था। उसने ब कहा म रामच◌जीपर तीन छ◌ रचकर यह
कपोल क पना जोड़ी और उसीको ेमे◌ने बृह◌था म बढ़ाया तथा पूरा उ रका ड वा मीिक
रामायण म ेपकक पम जोड़ िदया। ये सब बात िनराधार ह। सीताजी िनर◌र रामजीक साथ
ह।
कोिटन बािजमेध भु की े। दान अनेक ि जन कह दी े॥
(मा. ७.२४.१)
पित अनुकूल सदा रह सीता (मा. ७.२४.३)। सीताजी िनर◌र रामजीक साथ रहती ह।
तो कहा—“हो सकता ह फोटो हो?” तो कहा नह —
जानित कृपािसंधु भुताई। सेवित चरन कमल मन लाई॥
(मा. ७.२४.४)
यह देिखये! इसिलए—
कौश यािद सासु गृह माहीं। सेवइ सबिह मान मद नाहीं॥
(मा. ७.२४.८)
अतः—
दुइ सुत सुंदर सीता जाये। लव कुश बेद पुरानन गाये॥
(मा. ७.२५.६)
सीताजीक यहाँ दो पु कट ए—लव-कश। कुश लव नह , लव कुश ।

३११
कथा ३० ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

इस कार सीताजी ीअवधम िवराजती ह हमारी। अवधम ही लव-कशका ज म आ।


अवधम ही भरतजी और मा डवीजीक यहाँ त -पु कलका ज म आ। ीअवधम ही ल मणजी
और उिमलाजीसे च◌कतु और अ दका ज म आ। और अवधम ही श ु जी और
ुितक ितजीसे सुबा और श ुघातीका ज म आ।
अनुजन संजुत भोजन करहीं। देिख सकल जननी सुख भरहीं॥
(मा. ७.२६.३)
आन◌ करते ह! अनुजन संजुत —(१) अनुजन अथा छोट भाइय क सिहत, (२) अनुजन
अथा अनुकल भ हनुमा जीक सिहत, (३) अनुजन अथा अपने अनुकल आठ बेट क
सिहत, भगवा भोजन करते ह। एक साथ तेरह थािलयाँ लगायी जाती ह—चार भाई, आठ बेट
और हनुमा जी। सभी माताएँ स होती ह। रघुबरभगित ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४)।

कथा ३०: रामकथा मंदािकनी (मा. १.३१)


अब सुिनये तीसव कथा। आपक साथ मने म िकया। अब तीसव कथा—
रामकथा मंदािकनी िच कूट िचत चा ।
तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहा ॥
(मा. १.३१)
ीरामजीक कथा म◌ािकनीक समान ह, िच िच कट ह, ेम ही वन ह—जहाँ
सीतारामजीका िवहार हो रहा ह। इसीसे िस हो रहा ह िक रामजी अयो या छोड़कर कह
जाते नह । रामजी िनर◌र सशरीर ह। सभीका ा होता ह, रामजीका कभी ा नह होता
‍ िक उ◌ ने शरीर छोड़ा ही नह , तो ा काहको होगा? देिखये! अब ३२व दोहसे
५१व दोहतक रामकथा म◌ािकनी ह—अि ि या िनज तपबल आनी (मा. २.१३२.५)।
म◌ािकनीक घाट पर ऋिष आते ह—अि आिद मुिनवर ब बसहीं (मा. २.१३२.७) और
यहाँ भी। जािन समय सनकािदक आये (मा. ७.३२.३)। अब सनकािदकजी आ गये, तेज पुंज
गुन शील सुहाए (मा. ७.३२.३)। आहाहा! चार भाई सनक, सन◌न, सनातन, सन◌मारको
भगवा ने आते देखा, द डव क —
देिख राम मुिन आवत हरिष दंडवत की ।
वागत पूँिछ पीत पट भु बैठन कह दी ॥
(मा. ७.३२)
भगवा ने अपना पीता बर िबछा िदया! उ◌ ने भगवा को िनहारा। आहाहा! ब त िद य
◌ुित क —जय इिदरा रमन जय भूधर (मा. ७.३४.४)। इ ◌ माने ल मीजी। उनको—इ ◌ं
ल म राित —उनको जो कट कर इ ◌रा माने सीताजी, उनक रमण— भु। ◌ुित क । अ य◌
अभी वरदान पाकर गये।
भरतजी रामजीसे स संग कर रह ह। संत-असंत का ल ण पूछा। भगवा ने बताया। आन◌
कर िदया!

३१२
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३०

िनंदा अ ुित उभय सम ममता मम पद कंज।


ते स न मम ानि य गुनमंिदर सुखपुंज॥
(मा. ७.३८)
अ त आन◌ कर िदया! संत-असंत का ल ण बताया। और अब एक बार भगवा ने
स पूण जाको बुलाया, गु देव भी आये। भगवा ने कहा—“देिखये, यह कोई अनीित नह ह,
कोई हठ नह ह। आप हमारी बात सुिनये, जो मन हो क रयेगा—”
जौ अनीित कछ भाषौं भाई। तौ मोिह बरज भय िबसराई॥
(मा. ७.४३.६)
भगवा कहते ह िक देखो! यह मानव शरीर बड़ भा यसे िमला ह, सुरदुलभ ह यह! यह
साधनका धाम ह! मो का ार ह! बड़ी कपासे भगवा देते ह इसको! ८४ लाख योिनय म
जीव मण करता ह। कभी कपा करक भगवा यह मानव शरीर दे देते ह! इसिलए यह
भवसागरका बेड़ा ह। मेरी कपा अनुकल वायु ह और स ु देव ही िखवैया ह—
करनधार स ु ढ़ नावा। दुलभ साज सुलभ किर पावा॥
(मा. ७.४४.८)
इतना सु◌र साज पाकर भी इस भवसागरसे कोई न तर, तो उसे आ मह याका पाप लगेगा।
भगवा कहते ह—देखो, अ◌म मेरी भि ही सब कछ ह, पर—
औरउ एक गुपुत मत सबिह कहउ कर जोिर।
शंकरभजन िबना नर भगित न पावइ मोिर॥
(मा. ७.४५)
इस दोहको ठीकसे समझ! भगवा कहते ह—शंकर भजन क िबना मेरी भि कोई
नह पा सकता। इसका अथ ‍ा ह? श रका भजन नह । यहाँ म यमपदलोपी समास ह—
श रसमभजन अथा जैसे श रजी मेरा भजन करते ह। जो श रजीक जैसा मेरा भजन नह
करगा, उसे मेरी भि कभी भी नह िमलगी—यह इसका अथ ह। जैसे श रजी कछ भी नह
चाहते पर भजन करते ह, उसी कार जो कछ भी नह चाहकर मेरा भजन करगा, उसे मेरी भि
िमलगी। सब ग द ए। जैसािक मने कहा म◌ािकनीक पास ऋिषगण आते ह—अि ि या
िनज तपबल आनी (मा. २.१३२.५)। स िष आते ह म◌ािकनीम ान करने—स षय ु
धृतहेमकु भाः, उसी कार आज विस जी आ रह ह। भगवा ने चरणोदक िलया। विस जीने
कहा—भगव ! पौरोिह य कम म नह करना चाहता था। पर ाजीने कहा िक ीराम आपक
यहाँ आयगे रघुकलम। उनका पौरोिह य करक तुम ध य हो जाना। तो भु! अब तो इन
चरणकमल क भि दीिजये—
नाथ एक वर मागउ राम कृपा किर दे ।
ज म ज म भुपद कमल कब घटै जिन ने ॥
(मा. ७.४९)
ब त सु◌र ◌ य ह! रामकथा मंदािकनी (मा. १.३१)। अब एक ऐसी बात क गा िजसे
पहल तो आप नह मानगे, पर धीर-धीर आपको अ◌ा लगेगा। भगवा ने सबको सब कछ
३१३
कथा ३० ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प

लटाया।
हरन सकल म भु म पाई। गये जहाँ शीतल अवँराई॥
(मा. ७.५०.५)
सभी टीकाकार भी यही कहते ह, हम भी यही कहते थे िक भगवा शीतल अँवराईम गये।
पर कहाँ गये? यह गो वामीजीने नह िलखा। मुझे जैसा लगता ह, दोहावलीम आगे कहगे—
िच कूट सब िदन बसत भु िसय लखन समेत।
राम नाम जप जापकिह तुलसी अिभमत देत॥
(दो. ४)
देिखये िच कटम भगवा िनर◌र रहते ह। इसका अथ ‍ा ह? भगवा शीतल अँवराईम
गये, अयो यासे बाहर गये—पुिन कृपाल पुर बाहेर गयऊ (मा. ७.५०.३)। अयो यासे जब
गये, तो कहाँ गये? मुझे लगता ह िक िच कटम ही भगवा आये। बोिलये िच कटिबहारी-
िबहा रणीजूक जय! इसिलए रामकथा मंदािकनी िच कूट िचत चा (मा. १.३१)।
िच कटक शीतल अँवराईम भगवा आये। वहाँ अँवराई ह—
नाथ देिखयिह िबटप िबशाला। पाकिर जंबु रसाल तमाला॥
(मा. २.२३७.२)
िच कटम रह। अब भरत दी िनज बसन डसाई (मा. ७.५०.६)। वहाँ भगवा को
बैठानेक िलए भरतजीने अपना व िबछा िदया और बैठे भु सेविह सब भाई (मा. ७.५०.६)।
ल मणजी, भरतजी, श ु जी सब लोग ह, सीताजी धरतीम नह समाय । सब झूठ बोलते ह
लोग! और मा तसुत तब मा त करई (मा. ७.५०.७)—हनुमानधारावाल हनुमा जी आ गये
और वे मा त करई—पंखा झल रह ह। पुलक बपुष लोचन जल भरई (मा. ७.५०.७)।
तब—
हनूमान सम निह बड़भागी। निह कॊउ रामचरन अनुरागी॥
िगिरजा जासु ीित सॆवकाई। बार बार भु िनज मुख गाई॥
(मा. ७.५०.८–९)
हनुमा जीक समान कोई बड़भागी नह ! हनुमानधाराम िवराज रह ह हनुमा जी, रामजीको
पंखा झल रह ह। यह पूरा ◌ य िच कटका ह।
तॆिह अवसर मुिन नारद आये करतल बीन।
गावन लागे राम कल कीरित सदा नवीन॥
(मा. ७.५०)
नारदजी आये और भगवा ीरामक मधुर क ितका गान करते ए बोल—
मामवलोकय पंकजलोचन। कृपािबलोकिन सोचिबमोचन॥
(मा. ७.५१.१)
अ त आन◌ हो रहा ह! सीताजीक सिहत रामच◌जी िवहार कर रह ह ेहवनम। इसीसे
िस कर िदया िक जो लोग कहते ह िक अयो याक मोदवनम; उ◌ भी गो वामीजीने कहा

३१४
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३०

िक नह ! तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहा (मा. १.३१)।


ेम सिहत मुिन नारद बरिन राम गुन ाम।
शोभािसंधु दय धिर गये जहाँ िबिधधाम॥
(मा. ७.५१)
नारदजी चल गये। भगवा ने कहा िक म तो िच कटम ही र गा। म िच कटको कभी नह
छोड़ सकता—
िच कूट सब िदन बसत भु िसय लखन समेत।
राम नाम जप जापकिह तुलसी अिभमत देत॥
(दो. ४)
इसक प ा तो प रिश भाग ह, जो हम बालका डम आपको सुना चुक ह भुशु डजीक
कथा। ीरामकथा कवल तीन बात कहती ह—(१) बचपनको बु करो, (२) यौवनको शु
करो, और (३) वृ ाव थाको िस करो।
मंगल भवन अमंगल हारी। वउ सो दशरथ अिजर िबहारी॥
(मा. १.११२.४)
इस कार ीसीताराम भगवा क कपासे मोदीनगरम समायोिजत ीराघव सेवा सिमितक
त वावधानम ायोिजत अपनी १२५१व ीरामकथाम मने रामच रतमानसक तीस कथा क
संि िववरिणका सुनायी। म कथाका िवसजन नह कर रहा ।
कथा िन य चलती रहे सुन वीर हनुमान।
राम लखन सीता सिहत सदा कर क यान॥
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुिन आध।
तुलसी संगत साधु की हरे कोिट अपराध॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो!
पवनपु हनुमा जी महाराजक जय हो!
गो वामीतुलसीदासजी महाराजक जय हो!
जग ु वामी ीमदा रामान◌ाचाय भगवा क जय हो!
धमक जय हो! अधमका नाश हो!
ािणय म स ावना हो! िव का क याण हो!
गौ माता, ग ा माता, भारत-माताक जय हो!
॥ जय जय ीसीताराम ॥

३१५
ीसीतारामजीकी आरती
॥ नमो राघवाय॥
धमच वत महामहोपा याय महाकिव किवकलर न ीिच कटतुलसीपीठाधी र
प िवभूषण जग ु रामान◌ाचाय वामी रामभ ाचायजी महाराज ारा णीत
भगवा ीसीतारामजीक आरती

व े ीरामं ( भु) व े ीराम ।


मुिनजनमनोऽिभरामं नवमेघ याम ॥ जय राम जय ीराम॥
पूण िन कामं पूिरतजनकाम । ( भु) पूिरतजनकाम ।
िनजजनशोकिवरामं ीिडतशतकाम ॥ जय राम जय ीराम॥
त णतमालमनोहर रघुवर दनुजारे। ( भु) रघुवर दनुजारे।
तूणशरासनशरधर दीनं पािह हरे॥ जय राम जय ीराम॥
समरिनहतदशक धर सेवकभयहािर । ( भु) सेवकभयहािर ।
भवपाथोिनिधम र द डकवनचािर ॥ जय राम जय ीराम॥
िवधुमुखजलजिवलोचन पीता बरधािर । ( भु) पीता बरधािर ।
कोसलपुरजनर न हनुम सुखकािर ॥ जय राम जय ीराम॥
भरतचकोरिनशेशं िरपुसूदनब धु । ( भु) िरपुसूदनब धु ।
शरणागतसुरधेनुं नौिम कृपािस धु ॥ जय राम जय ीराम॥
जय जय भुवनिवमोहन जय क णािस धो। ( भु) जय क णािस धो।
जय सीतावर सु र जय ल मणब धो॥ जय राम जय ीराम॥
दशय िनजमुखकमल भवसागरसेतो। ( भु) भवसागरसेतो।
हर िगिरधर भवभार िदनकरकुलकेतो॥ जय राम जय ीराम॥
व े ीरामं ( भु) व े ीराम ।
मुिनजनमनोऽिभरामं नवमेघ याम ॥ जय राम जय ीराम॥
ीरामचिरतमानसजीकी आरती
॥ नमो राघवाय॥
धमच वत महामहोपा याय महाकिव किवकलर न ीिच कटतुलसीपीठाधी र
प िवभूषण जग ु रामान◌ाचाय वामी रामभ ाचायजी महाराज ारा णीत
भगवा ीरामच रतमानसजीक आरती

आरती ीम मानस की रामिसय कीित सुधा रस की॥


जो श र िहयमें गटानी।
भुशुि ड मनमें लसानी।
लसी मुिन या व बानी।
ीतुलसीदास कहे स लास सुकिवत िवलास।
नदी रघुनाथ िवमल जस की आरती ीम मानस की॥
िबरित बर भि ान दाता।
सुखद परलोक लोक ाता।
पढ़त मन मधुकर हरषाता।
स सोपान भि प थान सुवेद पुरान।
शा इितहास समंजस की आरती ीम मानस की॥
सोरठा दोहा चौपाई।
छ रचना अित मन भाई।
िवरिच वर तुलिसदास गाई।
गायें नर नार होत भवपार िमटे दुःख भार।
हरे मन कटता ककश की आरती ीम मानस की॥
लिलत यह राम कथा गंगा।
सुनत भवभीित होत भंगा।
बस िहय हनुमत ीरगा।
रामको प थको भूप हरै तम कूप।
िजवनधन िगिरधर सबस की आरती ीम मानस की॥
प िवभूषण जग ु रामान◌ाचाय वामी रामभ ाचाय भारतक यात िव ा , िश ािव ,
ब भाषािव , महाकिव, भा यकार, दाशिनक, रचनाकार, संगीतकार, वचनकार, कथाकार, व धमगु
ह। वे िच कट- थत ीतुलसीपीठक सं थापक एवं अ य और जग ु रामभ ाचाय िवकला
िव िव ालयक सं थापक एवं आजीवन कलािधपित ह। वामी रामभ ाचाय दो मासक आयुसे
ाच ु होते ए भी २२ भाषा क ाता, अनेक भाषा म आशुकिव, और शतािधक थ क रचियता
ह। उनक रचना म चार महाका य (दो सं कत और दो िह◌ीम), रामच रतमानसपर िह◌ी टीका,
अ ा यायीपर ग और प म सं कत वृि याँ, और थान यीपर ( सू , भगव ीता, और धान
उपिनषद पर) सं कत और िह◌ी भा य मुख ह। वे तुलसीदासपर भारतक मूध य िवशेष म िगने जाते
ह और रामच रतमानसक एक ामािणक सं करणक संपादक ह।
◌ुत थ वामी रामभ ाचायक १२५१व ऐितहािसक रामकथाका पु◌काकार प ह।
ीरामचिरतमानस-कथा—मानसमें तीस कथाएँ शीषक वाली इस रामकथाका आयोजन िसत बर
२०१६म मोदीनगर, मेरठ (उ र देश) म आ था।

`300 `३००
ISBN 978-93-82253-05-1

ज.रा.िव.िव.
www.jrhu.com 9 789382 253051

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