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Manas Katha PDF
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प िवभूषण जग ु रामान◌ाचाय
वामी रामभ ाचाय
ीरामचिरतमानस-कथा—मानसमें तीस कथाएँ
ीरामचिरतमानस-कथा
मानसमें तीस कथाएँ
वाचक
धमच वत महामहोपा याय किवकलर वाच पित प िवभूषण
महाकिव ीिच कटतुलसीपीठाधी र जग ु रामान◌ाचाय
वामी रामभ ाचाय
जीवन पय◌ कलािधपित
जग ु रामभ ाचाय िवकला िव िव ालय
िच कट
संपादन
डॉ. रामाधार शमा और िन यान िम
ISBN-13: 978-93-82253-05-1
ISBN-10: 93-82253-05-X
मु क
Nik & Nik Graphic
Sheetal Vishram, Opp. Kalyani Complex
Langer Toli Chauraha, Patna 800004, India
nikandnikgraphic@gmail.com
संकेता र-सूची
अ.को. अमरकोश
अ.रा. अ या म-रामायण
अ.शा. अिभ ानशाक◌ल
ई.उ. ई ा योपिनष
ऋ.वे. ऋ वेद
क. उ. कठोपिनष
क. किवतावली
का.िव.◌ो. काशीिव नाथा क◌ो
क.स. कमारस भव
गी. गीतावली
चा.नी. चाण नीित
त.सं. तकसं ह
तै.उ. तैि रीयोपिनष
दु.स. दुगास शती
दो. दोहावली
ना.भ.सू. ीनारदभि सू
नी.श. नीितशतक
प.पु. प पुराण
पा.सू. पािणनीय सू
पृ.रा. पृ वीराज-रासो
बृ.उ. बृहदार यकोपिनष
.सू. सू
भ.गी. ीम गव ीता
भ.गी.शा.भा. ीम गव ीता शांकरभा य
भ.पु. भिव य-पुराण
भ.मा. ीभ माल
भा.पा.सू. महाभा य पािणनीय सू
भा.पु. ीम ागवत-पुराण
म.भा. महाभारत गीता ेस सं करण
म. मृ. मनु मृित
मा. ीरामच रतमानस तुलसीपीठ सं करण
मा.गी. े. ीरामच रतमानस गीता ेस सं करण
मा.पु. माक डय-पुराण
मु.उ. मु डकोपिनष
र.वं. रघुवंश
रा.र.◌ो. ीरामर ा◌ो
रा.◌.◌ो. ीराम◌वराज◌ो
ल.िस.कौ. लघुिस ा◌कौमुदी
वा.रा. वा मीक य रामायण
िव.प. िवनयपि का
िव.पु. िव णुपुराण
वृ.र. वृ र ाकर
वै.सू. वैशेिषक-सू
श.◌ो. शत◌ो ी
िश.पु. िशवपुराण
िश.व. िशशुपालवध
शु.य.वे. शु यजुवद (मा य ◌नी संिहता)
े.उ. ेता तरोपिनष
स.दु. स ोक दुगा
सां.का. सां यका रका
सा. साकत महाका य
क.पु. क◌पुराण
ह.चा. ीहनुमा -चालीसा
ह.ना. हनुमा ाटक
िह. िहतोपदेश
vi
िवषय-सूची
संपादकीय ix
भूिमका १
थम पु प २१
ीरामच रतमानसम ३० कथाएँ ? . . . . . . . . . . . . . . . . २९
कथा १: िनज संदेह ... हरनी (मा. १.३१.४) . . . . . . . . . . . . . ३३
ि तीय पु प ४५
कथा २: िनज ... मोह ... हरनी (मा. १.३१.४) . . . . . . . . . . . . ४८
कथा ३: िनज ... म हरनी (मा. १.३१.४) . . . . . . . . . . . . . ५३
तृतीय पु प ७५
कथा ४: करउ कथा भव स रता तरनी (मा. १.३१.४) . . . . . . . . . . ८५
कथा ५: बुध िब ाम (मा. १.३१.५) . . . . . . . . . . . . . . . . ८६
कथा ६: सकल जन रजिन (मा. १.३१.५) . . . . . . . . . . . . . . ९३
कथा ७: रामकथा किल कलष िबभंजिन (मा. १.३१.५) . . . . . . . . . ९८
चतुथ पु प १०५
कथा ८: रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६) . . . . . . . . . . . १०९
कथा ९: पुिन िबबेक पावक कह अरनी (मा. १.३१.६) . . . . . . . . . . १२६
प म पु प १२९
कथा १०: रामकथा किल कामद गाई (मा. १.३१.७) . . . . . . . . . . १३५
कथा ११: सुजन सजीविन मू र सुहाई (मा. १.३१.७) . . . . . . . . . . १४२
कथा १२: सोइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८) . . . . . . . . . . १८८
ष पु प २०५
कथा १३: भय भंजिन (मा. १.३१.८) . . . . . . . . . . . . . . . . २०६
स म पु प २२९
कथा १४: म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८) . . . . . . . . . . . . . २२९
अ म पु प २४९
कथा १५: असुरसेन सम नरक िनकिदिन (मा. १.३१.९) . . . . . . . . . २४९
कथा १६: साधु िबबुध कल िहत िग रनंिदिन (मा. १.३१.९) . . . . . . . . २५५
कथा १७: संत समाज पयोिध रमा सी (मा. १.३१.१०) . . . . . . . . . . २५८
कथा १८: िव भार भर अचल छमा सी (मा. १.३१.१०) . . . . . . . . . २६१
कथा १९: जम गन मुँह मिस जग जुमना सी (मा. १.३१.११) . . . . . . . . २६२
कथा २०: जीवन मुकित हतु जनु कासी (मा. १.३१.११) . . . . . . . . . २६३
कथा २१: रामिह ि य पाविन तुलसी सी (मा. १.३१.१२) . . . . . . . . . २६७
कथा २२: तुलसीदास िहत िहय लसी सी (मा. १.३१.१२) . . . . . . . . २६९
कथा २३: िशवि य मेकल शैल सुता सी (मा. १.३१.१३) . . . . . . . . . २७१
कथा २४: सकल िसि (मा. १.३१.१३) . . . . . . . . . . . . . . . २७५
कथा २५: सुख (मा. १.३१.१३) . . . . . . . . . . . . . . . . . . २८०
कथा २६: संपित रासी (मा. १.३१.१३) . . . . . . . . . . . . . . . २८२
नवम पु प २८७
कथा २७: सदगुन सुरगन अंब अिदित सी (मा. १.३१.१४) . . . . . . . . २८८
कथा २८: रघुबर भगित (मा. १.३१.१४) . . . . . . . . . . . . . . . ३०३
कथा २९: ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४) . . . . . . . . . . . . . . ३०९
कथा ३०: रामकथा मंदािकनी (मा. १.३१) . . . . . . . . . . . . . . ३१२
viii
संपादकीय
अकारणक णाव णालय भगवा ीसीतारामजी ेहवश हम मानव शरीर दान करते ह।
िजनक िवषयम भ मालकारने किल कुिटल जीव िन ारिहत वा मीिक तुलसी भयो
(भ.मा. १२९) कहा, ऐसे किलपावनावतार गो वामी तुलसीदासजी महाराजक कालजयी कित
रामच रतमानसम यह घोषणा ह वयं रघुनाथजीक अथा जीव क नाथक । उ◌ ने आगे कहा
िक यह मानव शरीर ही भवसागरक िलए बेड़ा ह, भुक कपा ही अनुकलताक वायु ह, स ु
ही उस नौकाक अिवचल कणधार ह; ये सब ह तो दुलभ साज पर जीवने उनको सुलभ करक
पा िलया ह। जो मनु य इस सु◌र समाजको पाकर भी भवसागरको पार नह कर पाता वह
भुक ित कत ह और वह आ मह यारक गितको ा करता ह—
कब क किर क ना नरदेही। देत ईश िबनु हेतु सनेही॥
नरतनु भवबािरिध कह बेरो। स मुख म त अनु ह मेरो॥
करनधार सदगु ढ़ नावा। दुलभ साज सुलभ किर पावा॥
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत िनंदक मंदमित आ माहन गित जाइ॥
(मा. ७.४४.६–८, ७.४४)
जैसा िक गो वािमपादक ित ा ह नानापुराणिनगमागमस मत (मा. १ म. ो. ७),
यह भलीभाँित ◌ि गोचर होता ह। अब यह देिखये—
नृदेहमा ं सुलभं सुदुलभं वं सुक पं गु कणधार ।
मयानुकूलेन नभ वतेिरतं पुमा भवाि धं न तरे स आ महा॥
(भा.पु. ११.२०.१७)
अथा मनु य का शरीर सब फल का मूल ह और दुलभ होते ए भी सुलभतासे िमला ह।
भवसागर पार करनेक िलए यह सु◌ढ नौका ह। स ु ही इसक कणधार (कवट) ह। भगवा
कहते ह िक मेरी कपा पी अनुकल पवनसे यह नौका े रत अथा ल यक ओर अ सर भी
ह। इतना होनेपर भी जो मनु य इस संसार-सागर क पार नह करता वह आ मघाती ह।
अब देिखए, िकतनी ग भीर बातको िकतनी सहजतासे गो वामीजीने कहा ह। उसे समझना
होगा। पर कसे? उ र ऊपर ही िनिहत ह गु कणधार । तभी तो गु देव भगवा कहते
ह—य मानसे त मानसे, जो रामच रतमानसम नह ह वह भारतीय मानसम भी नह ह।
हम सब लोग का परम सौभा य ह िक मानसजीम िनिहत गूढाथको सहज पसे
सोदाहरण ◌ुत करनेक िलए हमार बीच पदवा माणपारावारीण िनगमागमपार◌ ा
किवतािककचूडामिण सार वतसावभौम प डत का ड परमहस प र ाजकाचाय ि द डी र
ीरामच रतमानस-कथा संपादक य
x
संपादक य ीरामच रतमानस-कथा
xi
भूिमका
॥ नमो राघवाय॥
भुषुि डभूते रया व तुल युश मानसराजहस ।
सौिमि सीतािचतपादप ं रामं भजे नीलपयोदकाि ॥
तुलसीिगिरस भूता ीरामाणवसंगता।
एषा ीमानसी ग ा पुनाित भुवन य ॥
सीताराम पदारिव मकर मधु त।
रामभ सुरधेनु शा िनगमागम स मत॥
ोक सोरठा छद िद य दोहा चौपाई।
तुलसीदास महेश मुिदत किव कोिकल गाई॥
रामभ िगिरधर गिदत म लमय पावन था।
ेमसिहत सादर सुनो रामचिरतमानस कथा॥
प रपूणतम परा◌र परमा मा भगवा ीसीतारामजीक अहतुक कपाने सम◌ भारतीय
मनीषाको पू ीभूत करक गो वामी तुलसीदासजीक पम अवतीण िकया और उ◌
लसी-हषवधन भु वा मीिकक अवतार गो वामी तुलसीदासजीक कालजयी रचना
ीरामच रतमानसजीक म लमयी कथाने स पूण िव को एक ऐसा सां कितक पा दान
िकया िक िजसका सह ा दय पय◌ आधम य वीकारता रहगा मानव समाज। स पूण वैिदक
वा≠यम गाय ी-म◌का एक अपूव अवदान रहा ह और सभी लोग यह कहते ह—गाय ीं
वेदमातर । अथा , गाय ी वेद क माँ ह। महिष वा मीिकजीने गाय ीक चौबीस अ र क
आधार पर वा मीिक-रामायणम चौबीस हजार म◌ क रचना क । वह म ार भ होता
ह—त सिवतुवरे यं भग देव य धीमिह िधयो यो नः चोदया । इस ि पदाक ार भसे
वरेिणय को मानकर चौबीस (२४) अ र हो जाते ह। पर◌ु, इस गणनाम या ितयाँ छट
जाती ह और यिद णवक साथ या ितय को जोड़ा जाए तो होते ह कल उनतीस अ र—
ॐ भूभुव वः त सिवतुवरेिणयं भग देव य धीमिह िधयो योनः चोदया । पर◌ु, इसक
प ा ॐ जोड़ देनेसे गाय ीक तीस अ र हो जाते ह, अथा ॐ भूभुव वः त सिवतुवरेिणयं
भग देव य धीमिह िधयो योनः चोदया ॐ। अतएव, कदािच गो वामी तुलसीदासजी
महाराजने िवचार िकया होगा िक पूवावतार अथा वा मीिकक पम गाय ीक चौबीस (२४)
अ र को ही याय िदया, पर◌ु इस बार या ित और णव सिहत गाय ीको याय देना होगा।
और ऐसा करने पर गाय ीक कल अ र क सं या तीस (३०) होगी। फलतः गो वामीजीने तीस
(३०) अ र क आधारपर रामच रतमानसम तीस (३०) कथाएँ िलख । और, यिद व थ मानससे
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका
गणना क जाए तो रामच रतमानसम तीस (३०) ही कथाएँ ह। इस योगक साथ गो वामीजीक
एक अवधारणा भी िनिहत ह िक येक महीनेम तीस (३०) ही िदन होते ह। अतः येक िदनक
क याणाथ गो वामीजीने एक-एक कथाका िनवचन िकया। इसीिलए रामच रतमानसम उ◌ ने
तीस (३०) कथाएँ कह , और उन तीस कथा का बड़ा ही मनोहर म ह। रामच रतमानसजीक
बालका डक इकतीसव दोहक चतुथ पि से एकतीसव दोह पय◌, अथा बारह पि य म,
गो वामीजीने ीरामकथा क सूची ◌ुत क ह। गो वामीजी ारा गायी गय कथाएँ ह इस
कार—
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
बुध िब ाम सकल जन रजिन। रामकथा किलकलष िबभंजिन॥
रामकथा किल प ग भरनी। पुिन िबबेक पावक कह अरनी॥
रामकथा किल कामद गाई। सुजन सजीविन मूिर सुहाई॥
सॊइ बसुधातल सुधातरिगिन। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन॥
असुरसेन सम नरक िनकंिदिन। साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन॥
संतसमाज पयोिध रमा सी। िव भार भर अचल छमा सी॥
जमगन मुँह मिस जग जुमना सी। जीवन मुि हेतु जनु कासी॥
रामिह ि य पाविन तुलसी सी। तुलसीदास िहत िहय लसी सी॥
िशवि य मेकल शैलसुता सी। सकल िसि सुख संपित रासी॥
सदगुन सुरगन अंब अिदित सी। रघुबरभगित ेम परिमित सी॥
रामकथा मंदािकनी िच कूट िचत चा ।
तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहा ॥
(मा. १.३१.४–१.३१)
यहाँ गो वामीजीने मका ब त ग भीरतापूवक िनवचन िकया ह। ार भ करते ह
ीरामच रतमानसम विणत तीस (३०) कथा क सूची अथा तािलका—(१) िनज संदेह हरनी
(२) िनज मोह भरनी (३) िनज म हरनी (४) करउ कथा भव सिरता तरनी (५) बुध
िब ाम (६) सकल जन रजिन (७) रामकथा किलकलष िबभंजिन (८) रामकथा किल
प ग भरनी (९) पुिन िबबेक पावक कह अरनी (१०) रामकथा किल कामद गाई
(११) सुजन सजीविन मूिर सुहाई (१२) सॊइ बसुधातल सुधातरिगिन (१३) भय भंजिन
(१४) म भेक भुजंिगिन (१५) असुरसेन सम नरक िनकंिदिन (१६) साधु िबबुध कुल
िहत िगिरनंिदिन (१७) संतसमाज पयोिध रमा सी (१८) िव भार भर अचल छमा सी
(१९) जमगन मुँह मिस जग जुमना सी (२०) जीवन मुि हेतु जनु कासी (२१) रामिह
ि य पाविन तुलसी सी (२२) तुलसीदास िहत िहय लसी सी (२३) िशवि य मेकल
शैलसुता सी (२४) सकल िसि (२५) सुख (२६) संपित रासी (२७) सदगुन सुरगन अंब
अिदित सी (२८) रघुबरभगित (२९) ेम परिमित सी (३०) रामकथा मंदािकनी िच कूट
िचत चा , तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहा ।
इस मम थम कथा ह—िनज संदेह हरनी (मा. १.३१.४), यही ह गो वामी
२
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा
३
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका
४
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा
५
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका
६
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा
कार रहना चािहए अथा साधारणीकरण मुझे वीकाय नह होगा। आप भगवा बनकर मुझे
कतक य कर।” भगवा ने ध य कर िदया। अतएव—सकल जन रजिन।
रामकथा किलकलष िबभंजिन (मा. १.३१.५)— ीरामकथा किलयुगक पाप को न
करती ह। यह सातव कथा ह। किलयुगक पाप ा ह—तामस ब त रजोगुन थोरा, किल
भाव िबरोध च ओरा (मा. ७.१०४.५)। यहाँ तमोगुण ब त ह, रजोगुण थोड़ा ह, और
चार ओरसे िवरोध ह। इसी िवड बनाको दूर करने क िलए भुका रामावतार हो रहा ह। यहाँ
तमोगुण और रजोगुण समा ए— ेता भइ कृतजुग कै करनी (मा. ७.२३.६) अथा ेताम
भी कतयुग, थम युग, आ गया। और, भगवा ीरामका अवतार आ—चर अ अचर
हरषजुत राम जनम सुखमूल (मा. १.१९०)। स यसंध भुक आनेसे सार पाप दूर हो गये।
अब कह पाप नह होगा। भगवा ीरामका नाम ही सार पाप को न कर देता ह—जासु नाम
पावक अघ तूला, सुिमरत सकल सुमंगल मूला (मा. २.२४८.२)। इसिलए—रामकथा
किलकलष िबभंजिन।
रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६)—किलयुग प सपको न करनेक िलए
भरणी न क भूिमकाम ह आठव ीरामकथा। यही भगवा का शेष-च रत ह। शेष-च रतम
किलयुगम सप नह रह जाता, वह समा हो जाता ह। जीव भगव मय हो जाता ह। रामकथा
किल प ग भरनी।
पुिन िबबेक पावक कह अरनी (मा. १. ३१.६)। नौव ीरामकथा िववेक प अरिणक
िलए अि क समान ह। यहाँ िववेकका ही तो योग हो रहा ह। भोजन करते ए दशरथजी
ीरामजीको बुला रह ह, पर उनक िम को नह बुला रह ह तो—निह आवत तिज बाल
समाजा (मा. १.२०३.६)। इसीिलए भगवा ीरामजी नह आये। यहाँ भी िववेक ह। भगवा को
अकल कभी नह बुलाना चािहए, उनको तो सायुध सप रकर बुलाना चािहए। इसी कार—
गु गृह गए पढ़न रघुराई, अलप काल िब ा सब आई (मा. १.२०४.४); यहाँ पढ़ने
जा रह ह। िव ाका फल ही ह िववेक—िव ा िबनु िबवेक उपजाये, म फल पढ़े िकए
अ पाये (मा. ३.२१.९)। ीित नय िबनु मद ते गुनी, नासिह बेिग नीित अिस सुनी
(मा. ३.२१.११)। िरपु ज पावक पाप भु अिह गिनय न छोट किर, अस किह िबिबध
िबलाप किर लागी रोदन करन (मा. ३.११)। अतः िववेक प अरिणक िलए यह कथा
अि क समान ह। सव िववेकका ही प रचय यहाँ भगवा ने िदया ह। अलप काल िब ा
सब आई—िव ाका आना ही िववेकका वा◌िवक ल य ह। इसिलए यह लीला िववेक प
अरिणक िलए पावकक समान ह।
और अब, भगवा क िववाहक कथा। इसिलए कहते ह—रामकथा किल कामद गाई
(मा. १.३१.७)। यह दसव कथा किलयुगम कामधेनुक समान ह। सब कछ दे देती ह। यही कथा
ह िव ािम क आगमनक कथा। िव ािम जी ीअवध पधार रह ह और दशरथजी िनःसंकोच
ीरामका दान कर रह ह। िनि त पसे यह कथा किलयुगम कामधेनु गायक समान ह। गायक
पास चार ◌न होते ह। इसी कार इस कथाम भी चार िवभाग कह गये ह—(१) ीराम दशन,
(२) ीरामक त वका िवमश, (३) ीरामका दान, और (४) पुनः ीरामक झाँक क धारणा।
७
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका
इसम भगवा ने तीन लोग का दमन (ताटका, मारीच, और सुबा ) करक िव ािम क र ा क
तथा आपु रहे मख की रखवारी (मा. १.२१०.२)। अतः वयं किलकामद गाई िस हो
गयी।
सुजन सजीविन मूिर सुहाई (मा. १.३१.७)—यही ह अह यो ारक यारहव कथा।
अह यो ारम भगवा ने एक स ीवनीको ◌ुत िकया और वह ह—रघुपित भगित सजीवन
मूरी (मा. ७.१२२.७)। भगवा क भि ही स ीवनी बूटी ह, भगवा ने उसीको कट कर
िदया। अह या ध य हो गयी। अह याने भगवा क चरण-कमलक रज चाही। भगवा ीरामने
िव ािम जीसे िज ासा क —“अह या मेरी चरण-रज चाहती ह?” िव ािम जीने कहा—
“आप गु ह—जग ु च शा त , तुरीयमेव केवल (मा. ३.४.९)। पर◌ु भु िपतु मातु
सु द गु वामी (मा. २.२९८.१), और गु होनेक कारण िश य तो गु देवक चरण-कमलक
रज चाहगा ही। ा आपि कर दी?” िव ािम जी और िव◌ारसे भगवा से कहते ह—
“आप गु ह। हमको आपक चरण-कमलक परागम सु िच ह—बंदउ गु पद पदुम परागा,
सु िच सुबास सरस अनुरागा (मा. १.१.१)। आपक चरणम सु िच ह और अह याक मनम
क िच ह। आपक चरणम सुबास ह और अह याक मनम कबास ह। आपक चरण सरस ह
और अह याका मन नीरस ह। आपक चरणम अनुराग ह और अह याक मनम हयराग ह।
इसिलए चरन कमल रज चाहती (मा. १.२१०)। भु! अिमय मूिरमय चूरन चा (मा.
१.१.२)—अह या ण हो चुक ह। अिमय मूिरमय—अमृतक जड़ी, जो सु◌र चूण ह, वह
माया और मोहका जो एक कारसे अ यासा मक स ब ध ह उसको यह दूर कर देती ह। शमन
सकल भव ज पिरवा (मा. १.१.२)—अह या ण ह और आपक चरण क धूिल सभी
रोग क प रवारको दूर कर देती ह। भु! इसिलए भी उसे आपक चरण-कमलक धूिल चािहए।
सुकृित शंभु तनु िबमल िबभूती (मा. १.१.३)—आप सवसमथ ह भु! अह या आपसे
अपे ा करती ह िक उसे पूण श र बना िदया जाए, आधा श र तो बन चुक ह। अह या
अपने िपता ाका कतृ व भी झुठलानेक िलए तैयार ह िक उसका जीवन वासना मक हो
चुका ह, अतः ण ह। श र तो बन गयी, आधा श र बनी। उसे पूरा श र बनना ह और
पूरा श र बननेक िलए आपक चरण क उसे िवभूित चािहए। अह याक जीवनम म ल नह
ह और आपक चरण क धूिल मंजुल मंगल मोद सूती (मा. १.१.३) ह अथा यह मधुर
म ल और स ता को ज म देने वाली ह। इसिलए भी अह याको आपक चरण-कमलक
रज चािहए। जन मन मंजु मुकुर मल हरनी (मा. १.१.४)—अह याका मन दपणक समान
ह और उसक मलको दूर करना होगा, पर कोमलतासे। यिद हठा हो गया तो उसका मनोभ
भी हो सकता ह। िकये ितलक गुनगन बश करनी (मा. १.१.४)—इसिलए उसको ितलकसे
िवभूिषत कर दीिजये, िजससे स पूण गुण-गण को वशम कर सक। ीगु पदनख मिनगन
जोती (मा. १.१.५)—अह याक मनम कोई योित नह ह इसिलए कोई िसि ा नह
हो रही ह। सुिमरत िद य ि िहय होती (मा. १.१.५)— भु! आपक चरणक नख प
मिणगण क योितक सुिमरनसे िद य ◌ि आती ह और अह याक पास िद य ◌ि नह ह,
अतः वह चरण-कमल रज चाहती ह। अब कपा क िजये भु! दलन मोह तम सो सु कासू
८
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा
(मा. १.१.६)—अह याक मनम जो मोह प अ धकार ह, उसको न कर दीिजये। बड़े भाग
उर आवइ जासू (मा. १.१.६)। उघरिह िबमल िबलोचन ही के (मा. १.१.७)—अह याक
पास ने का अभाव ह, इसक दयक ने खुलने चािहएँ। िमटिह दोष दुख भवरजनी के (मा.
१.१.७)—संसार-राि क दोषको िमटाना होगा। आप कपा करक अह याक संसारक दोषको
िमटा दीिजये। जथा सुअंजन अंिज ग साधक िस सुजान, कौतुक देखिह शैल बन
भूतल भूिर िनधान (मा. १.१)—अह याक जीवनम अ न चािहए और आपक चरण क
धूिल अ न ही तो ह। इस कार, सुजन सजीविन मूिर सुहाई अथा अह याजीक कथा
स न क िलए स ीवनी बूटी ह। अब कपा क िजये भु!”
अह यो ारक प ा , अब गो वामीजीक बारहव कथा ह—सॊइ बसुधातल सुधातरिगिन
(मा. १.३१.८)। यह िववाह कथा ह। अथा यह ीरामकथा पृ वी पम अमृत बनकर कट
ई। िमिथलाक या ाम भुने सव अमर व ही दान िकया। िकसीको ेह-सुधा दी, िकसीको
प-सुधा, िकसीको शील-सुधा, िकसीको सौ◌य-सुधा, िकसीको ऐ य-सुधा, और िकसीको
माधुय-सुधा। िक ब ना, भल राजा ने तो कह िदया िक ीराम-ल मण सुधाक सागर बनकर
आये ह—सुधा समु समीप िबहाई, मृगजल िनरिख मर कत धाई (मा. १.२४६.५)। ये
सुधाक सागर ह। िजतना हो सक, अमृत पी लो। िमिथलािनयाँ कहती ह—मरनशील िजिम पाव
िपयूषा, सुरत लहै जनम कर भूखा (मा. १.३३५.५) अथा भुका दशन मरणशीलक
िलए अमृत ाि क समान ह। सॊइ बसुधातल सुधातरिगिन। अह यो ारक प ा भुका
िमिथलाम गमन हो रहा ह। सव अमृतक ही वषा हो रही ह, जहाँ देखो वहाँ अमृत ही अमृत
ह। मरण-धमसे भुने सबको मु िकया ह।
राम सीय िशर सेंदुर देहीं। शोभा किह न जाित िबिध केहीं॥
अ न पराग जलज भिर नीके। शिशिह भूष अिह लोभ अमी के॥
(मा. १.३२५.८-९)
यहाँ अमृतक लोभसे सप कमलम भली कारसे लाल पराग भरकर च◌माको सुशोिभत
कर रहा ह। यहाँ सीताजीका मुख च◌मा ह। सोहत जनु जुग जलज सनाला, शिशिह सभीत
देत जयमाला (मा. १.२६४.७)। तो वहाँ ीरामच◌जीका मुख च◌मा ह—रामचं मुख चं
छिब लोचन चा चकोर, करत पान सादर सकल ेम मोद न थोर (मा. १.३२१)।
इसीिलए यहाँ चकोर क बड़ी लबी तािलका ह। सभी चकोर ही बने। िव ािम जी चकोर बन रह
ह—भये मगन देखत मुख शोभा, जनु चकोर पूरन शिश लोभा (मा. १.२०७.६)। वयं
िवदेहराज जनक चकोर बन रह ह—सहज िबराग प मन मोरा, थिकत होत िजिम चं
चकोरा (मा. १.२१६.३)। ीसीतामुखक ीरामच◌जी चकोर बने—अस किह िफिर िचतये
तॆिह ओरा, िसयमुख शिश भे नयन चकोरा (मा. १.२३०.३), एवं सीताजी वयं चकोरी
बन —अिधक सनेह देह भइ भोरी, शरदशिशिह जनु िचतव चकोरी (मा. १.२३२.६)।
सव चकोर क ही भरमार ह। िक ब ना, सीताजीक माता चकोरी बन —
तुलसी मुिदत मन जनकनगर जन
झाँकतीं झरोखें लागीं सोभा रानीं पावतीं।
९
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका
१०
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा
आ िक िजस कार पावतीजीने असुर क सेनाका संहार िकया, उसी कार यह कथा नरकका
संहार करती ह। यही ह जय◌िन ह कथा। जय◌ने नरक जैसा कक य िकया पर◌ु भुक
कपाने उसका समाधान कर िदया। जय◌पर भगवा ने ा का योग िकया। कनोपिनष म
पावतीजीने इ◌को का बोध कराया था। उसी कार इस कथाने इ◌-पु जय◌को का
बोध कराया—
नारद देखा िबकल जयंता। लािग दया कोमलिचत संता॥
पठवा तुरत राम पह ताही। कहॆिस पुकािर नतिहत पाही॥
(मा. ३.२.९-१०)
इसिलए यह जय◌-िन हक कथा प◌हव कथा ह।
साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन (मा. १.३१.९)। संत को आन◌ देनेक िलए सोलहव
ीरामकथा ग ाजीक समान ह। ग ाजीने चार थान को े बनाया—(१) ह र ार, (२)
याग, (३) काशी, और (४) ग ासागर। उसी कार इस स म यह कथा भी चार मुिनय क
यि वसे स ब होकर िवराजमान हो रही ह—(१) अि , (२) शरभ , (३) सुती ण, और
(४) अग◌य। अि से भट ह र ारक ग ा ह। भगवा शरभ से िमल रह ह, यही यागक ग ा
ह। यहाँ कामदेवक पाँच बाण का भ हो रहा ह और माियक प को छोड़कर शरभ जी
वैक ठ जा रह ह—अस किह जोग अिगिन तनु जारा, रामकृपा बैकुंठ िसधारा (मा.
३.९.१)। सुती णजीका जो दशन भगवा का हो रहा ह वह काशीक ग ा ह। और ग ासागर
क समान अग◌यजीसे िमलन ह। वहाँ ग ा सागरसे िमलती ह और यहाँ अग◌यजीका यि व
रामजीसे िमल रहा ह। ग ाजीने साठ हजार सगरपु का उ ार िकया। यहाँ अग◌यजीक योगसे
अनेकानेक ा ण का उ ार आ, वैिदक धमका उ ार आ। इसिलए, साधु िबबुध कुल
िहत िगिरनंिदिन—सा ा ग ाक समान।
अ त आन◌ हो रहा ह। संतसमाज पयोिध रमा सी, िव भार भर अचल छमा सी
(मा. १.३१.१०)। स हव ीरामकथा संत समाज प ीरसागरसे उ◌ ई ल मीजीक
समान ह। यही ह ल मण-गीताका करण। ल मण-गीताम भगवा ीरामने पाँच िस ा◌ का
िन पण िकया ह—(१) व व प, (२) पर व प, (३) उपाय व प, (४) फल व प, और
(५) िवरोिध व प। इसी कार जैसे यहाँ संत क समाज प ल मीजीका ाक समु -म थनसे
आ, उसी कार वेद प सागरका म थन कर ीरामकथा कट हो रही ह— पयोिनिध
मंदर ान संत सुर आिह, कथा सुधा मिथ काढ़िह भगित मधुरता जािह (मा. ७.१२०)।
िव भार भर अचल छमा सी (मा. १.३१.१०)—संसारक भारको धारण करनेक िलए
यह ीरामकथा अचल पृ वीक समान ह। यही स ह शूपणखाका जो अठारहव कथा ह।
अथा िजस कार िकसी भी कारसे पृ वी नह िडगती उसी कार इस कथाक नायक भगवा
ीराम शूपणखाक िकसी भी प से नह िडग रह ह, सु थर ह। पृ वीको शेषने धारण िकया
ह। इसी कार शूपणखाको िव िपत कर ल मणजीने चा रि क पर परा प पृ वीक र ा कर
ली।
और अब—जमगन मुँह मिस जग जुमना सी (मा. १.३१.११)। अथा यम-गण क मुखपर
११
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका
याही लगानेक िलए यह उ ीसव कथा यमुनाक समान ह। यही खरदूषण- स क कथा ह।
इ◌ ने इतना बड़ा पाप िकया था िक इनको यमराजक यहाँ जाना था, इनको नरक होता पर◌ु
ीरामकथाने यम-गण क मुखम कािलख लगाकर इ◌ सा ा िनवाण पद दे िदया—राम राम
किह तनु तजिह पाविह पद िनबान, किर उपाय िरपु मारेउ छन मह कृपािनधान (मा.
३.२०)। और स पूण रा स समाज साकत-लोकको ा हो गया। खर, दूषण, ि िशरा, और
उनक चौदह सह सैिनक को भगवा ने साकत लोक दे िदया—जमगन मुँह मिस जग जुमना
सी। वहाँ भी यमुना यमराजक बहन ह, पर◌ु उनक स पकम आकर भ गण यमराजसे छट
गये, इसी कार यहाँ भी भगवा ीरामक कथाक स पकम आकर, भगवा रामका गुणगान
कर रा स भी यमराजक ब धनसे छट गये।
जीवन मुि हेतु जनु कासी (मा. १.३१.११)। यह बीसव कथा ह। इसका ार भ
सीताजीक अि -िनवास करणसे होता ह। काशी महा मशान ह। वहाँ अि कभी बुझती नह ।
इसी कार यहाँ भी अि बुझ नह रही ह। िक ब ना, काशीम तो अि देव सबको जला डालते ह
पर यहाँ सीताजीको भगवा ने अि म िनवास िदया। अि ने सीताजीको भ म नह िकया िक—
नैनं िछ ि श ािण नैनं दहित पावकः, न चैनं ेदय ापो न शोषयित मा तः (भ.
गी. २.२३)। काशीम ही आ मत वका िववेचन होता ह और आ मत वक िलए यही कहा जाता
ह। इसीिलए अि नह जलाती, श नह काटते, जल गीला नह करता, वायु नह सुखाता। ठीक
इसी आ मत वक आधारपर सीताजीको भगवा ने अि म िनवास िदया—तुम पावक मह कर
िनवासा, जब लिग करौं िनशाचरनाशा (मा. ३.२४.२) अथा जबतक म रा स का नाश
कर रहा तबतक आप अि म िनवास कर लीिजये। और सीताजी अि म वेश कर गय — भु
पद धिर िहय अनल समानी (मा. ३.२४.३)। पूण काशीका वणन! वहाँ भी महा मशान और
यहाँ भी। पर◌ु वहाँ मशानम मृतक जला और यहाँ अि म जाकर भी सीताजी नह जल ,
यह वैिश◌ ह। काशी प ोशा मका ह, यहाँ भी पाँच लोग को भगवा ने मुि दी—(१)
मारीचको, (२) जटायुको, (३) कब धको, (४) शबरीको, एवं (५) नारदको। मुि क शा ने
पाँच भेद कह—(१) सामी य मुि —इस कथाम भगवा ने मारीच जैसे रा सको सामी य मुि
दे दी। मारीच भुको दूर ल गया—ऄिह िविध भुिह गऄऊ लै दूरी (मा. ३.२७.१४), पर◌ु
भगवा मारीचको समीप ल आये। यही तो वैल य ह। िनज पद दी असुर कह दीनबंधु
रघुनाथ (मा. ३.२७)। (२) सा य मुि —जटायुको भगवा ने सा य मुि दी—गीध देह
तिज धिर हिर पा, भूषन ब पट पीत अनूपा (मा. ३.३४.१)। सा यका अथ होता ह
समान प। समान श द ति त सा यका वाचक होता ह। ीरामजीने जटायुको अपना
प नह िदया, अपने समान िव णुजीका प िदया—
गीध देह तिज धिर हिर पा। भूषन ब पट पीत अनूपा॥
याम गात िबशाल भुज चारी। अ ुित करत नयन भिर बारी॥
(मा. ३.३४.१-२)
(३) सालो मुि —कब धको भगवा ने सालो मुि दी। कब धने भगवा को अपनी
बा म जकड़ िलया। भगवा ीराम और ल मणने उसक भुजाएँ काट दी, उसको मारकर
१२
भूिमका ीरामच रतमानस-कथा
जलाया और तुर◌ उसे रा स योिनसे छटकारा िमला—रघुपितचरन कमल िशर नाई, गऄउ
गगन आपिन गित पाई (मा. ३.३६.४)। (४) साि मुि —शबरीको भगवा ने साि मुि
दी। साि का अथ होता ह सायु य, भगवा म लीन हो जाना। शबरीने भुको मातृ- ेम िदया,
चरणपखार, अपने आँचलक आसनपर बैठाया और क◌, मूल तथा फल िखलाये। भुने नवधा
भि दी। िफर शबरी योगाि म शरीर छोड़कर भुक चरण म लीन हो गय —तिज जोग पावक
देह हिर पद लीन भइ जह निह िफरे (मा. ३.३८.१४)। यही ह साि अथा सायु य मुि ।
(५) एक व मुि —नारदजीको भगवा ने एक व मुि दी। एक वका अथ भागवतक अनुसार
होता ह—एक वं स ब धः।
गो यः कामा या ंसो ेषा ै ादयो नृपाः।
स ब धा ृ णयः ेहा ूयं भ ा वयं िवभो॥
(भा.पु. ७.१.३०)
स ब धा ृ णयः, इसी स ब धक या या क —कामं ोधं भयं ेहमै ं सौ दमेव च
(भा.पु. १०.२९.१५)। तो, ऐ ं स ब ध (त य भावाथदीिपका), ऐसा ीधराचाय भी कहते
ह। अथा नारदजीको भगवा ने स ब ध-बोध कराकर एक व मुि दे दी। भगवा ने नारदजीसे
कहा िक तुमको सब कछ ा ह, पर एक प से अभी तुम अधूर हो। तुमको माँ नह िमली
िक तुम ाजीक गोदसे उ◌ ए हो—उ स ा ारदो ज े (भा.पु. ३.१२.२३), अतः
म तु ह स ब ध-बोध करा रहा । अब तुम मुझे माँ मान लो— वमेव माता च िपता वमेव ।
नारदक भगवा से यह पूछने पर िक जब वे उनक मायासे मोिहत होकर िववाह करना चाह तो
िववाह नह होने िदया तो भगवा ने कहा—
सुनु मुिन तोिह कहउ सहरोसा। भजिह जॆ मॊिह तिज सकल भरोसा॥
करउ सदा ितन कै रखवारी। िजिम बालक राखइ महतारी॥
(मा. ३.४५.४-५)
भगवा नारदक महतारी बन गये।
गह िशशु ब अनल अिह धाई। तेिह राखइ जननी अरगाई॥
ौढ़ भये तॆिह सुत पर माता। ीित करइ निह पािछिल बाता॥
(मा. ३.४५.६-७)
इसिलए, एक व मुि दी। काशीम राम-नामक धानता ह और इस कथाम भी नारदजीने
भगवा से यही वरदान माँगा िक भल ही आपक नाम अनेक ह पर राम-नाम सभी नाम से अिधक
होना चािहए—
ज िप भु के नाम अनेका। ुित कह अिधक एक ते एका॥
राम सकल नामन ते अिधका। होउ नाथ अघ खग गन बिधका॥
राका रजनी भगित तव राम नाम सॊइ सोम।
अपर नाम उडगन िबमल बस भगत उर योम॥
(मा. ३.४४.७-८, ३.४४)
िजस कार काशीम रामनामक धानता ह—काशी मरत जंतु अवलोकी, जासु नाम
१३
ीरामच रतमानस-कथा भूिमका
बल करउ िबशोकी (मा. १.११९.१) तथा जासु नाम बल श र काशी, देत सबिह सम
गित अिबनाशी (मा. ४.१०.४)—उसी कार भुक अनेक नाम से अिधक राम नाम हो—
ज िप भु के नाम अनेका। ुित कह अिधक एक ते एका॥
राम सकल नामन ते अिधका। होउ नाथ अघ खग गन बिधका॥
(मा. ३.४४.७-८)
पूण एकवाता ह। एतावता पूण काशीक भाँित यह कथा ह।
अब गो वामीजी िक क धाका डम तीन कथा का ◌ाव करते ह। रामिह ि य पाविन
तुलसी सी (मा. १.३.१२)। यह इ सव कथा ीरामजीको उतनी ि य ह, िजतनी तुलसी। यह
ीहनुमा जीक िमलनक कथा ह। ीहनुमा जी रामजीसे िमल रह ह। तुलसीको भगवा ने िशरपर
चढ़ाया और हनुमा जीको दयसे लगाया—तब रघुपित उठाइ उर लावा (मा. ४.३.६)। ेह
िकया। तुलसीपर भगवा का मधुर भाव ह और हनुमा जीपर वा स य भाव ह। बार-बार तुलसीजी
भगवा क चरणको पश करती रहती ह और इधर हनुमा जी भी— भु पिहचािन परेउ गिह
चरना, सो सुख उमा जाइ निह बरना (मा. ४.२.६) और अस किह परॆउ चरन अकुलाई,
िनज तनु गिट ीित उर छाई (मा. ४.३.५)। तुलसीक िबना भगवा स नह होते उसी
कार हनुमा जीक िबना रामजी स नह होते। तुलसीदास िहत िहय लसी सी (मा.
१.३१.१२)। यह बाईसव कथा तुलसीदासजीको इतनी ि य ह िजतनी िक उनक माँ लसी।
यह बािल-वधक कथा ह। अथा बािलको मारकर भुने िजस कार सु ीवक र ा क , उसी
कार किलयुगक पाप को न कर भु मेरी र ा करगे ही करगे। भुने सु ीवका प िलया,
बािलका नह । गो वामीजी कहते ह िक उसी कार भु हम जैसे िनबल का प लगे, सबल का
नह ।
िशवि य मेकल शैलसुता सी (मा. १.३१.१३)। िशवजीको यह तेईसव कथा उतनी ही
ि य ह िजतनी नमदाजी। नमदाजीक वाहम िशवजी डब जाते ह, उसी कार िक क धाका डक
उ राधक कथाम िशवजी डब जाते ह, त मय हो जाते ह िक िशवजीक ही व प हनुमा जी
महाराज अब मुि का लकर सीताजीका समाचार लने जा रह ह—
पाछे पवन तनय िसर नावा। जािन काज भु िनकट बोलावा॥
परसा शीष सरो ह पानी। करमुि का दी जन जानी॥
(मा. ४.२३.९-१०)
अथा जैसे नमदे र नमदाको नह छोड़ पाते, उनक धाराम डबते ह—बानरकटक उमा
मैं देखा, सो मूरख जॊ करन चहॆ लेखा (मा. ४.२२.१)। इतने िनकट हो गये! पावतीजी
कहती ह िक हनुमा जी ारा बुलाई गयी वानर-सेनाको मने देखा, वह मूख ह जो इसका
लखा-जोखा कर रहा ह! इसक गणना क ही नह जा सकती! यहाँ िशवजी डबे-डबे दीख
रह ह िक क धाका डक उ राधक कथाम, इसिलए—िशवि य मेकल शैलसुता सी (मा.
१.३१.१०)।
सकल िसि सुख संपित रासी (मा. १.३१.१३) सु◌रका डम तीन कथा का
◌ाव करते ह। सु◌रका डक पूवाधम चौबीसव सकल िसि कथाम हनुमा जीक आठ
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भूिमका ीरामच रतमानस-कथा
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ीरामच रतमानस-कथा भूिमका
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भूिमका ीरामच रतमानस-कथा
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भूिमका ीरामच रतमानस-कथा
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ीरामच रतमानस-कथा भूिमका
२०
थम पु प
॥ नमो राघवाय॥
गाइये गणपित जगवंदन। शंकरसुवन भवानीके नंदन॥
िसि सदन गजवदन िवनायक। कृपािसंधु सुंदर सब लायक॥
मोदकि य मुद मंगलदाता। िव ाबािरिध बुि िवधाता॥
मांगत तुलसीदास कर जोरे। बस रामिसय मानस मोरे॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
सीतारामगुण ामपु यार यिवहािरणौ ।
व े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
तुलसी सीताराम कहो दय रािख िब वास।
कब िबगड़त ना सुने ( ी)सीतारामके दास॥
प रपूणतम परा◌र परमा मा भगवा ीसीतारामजीक कपासे इस बारका मोदीनगरका यह
एक ऐितहािसक आयोजन ह। कथाएँ तो यहाँ ब त ई ह गी, पर इस कथाक दो िवशेषताएँ सुन
लीिजये। १४ जनवरी १९५७से अबतक मेरी एक हजार दो सौ पचास (१२५०) ीरामकथाएँ हो
चुक ह और अब एक हजार दो सौ इावनव (१२५१व ) ीरामकथा म करने जा रहा ।
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
२३
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
२४
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना
२७
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
रखना चािहए। वही कथा सबसे सफल होती ह, जो रा क सम याका समाधान करती ह। जो
रा क सम याका समाधान न कर, वो कथा ह ा? कथाएँ तो ब त होती ह, नाम मत लो
उनका; ऐसी-ऐसी कथाएँ होती ह। काद बरीक भी कथा ह, पर कौन उसे पढ़ता ह? दो-चार
लोग पढ़ते ह गे। य िप उसम कवल सू ह, पर रामकथा तो नह ह वो। कथाएँ तो ब त ह,
पटकथा लोग आये िदन िलखते रहते ह। िसनेमाम ितवष हजार पटकथाएँ िलखी जाती ह,
उनपर हजार चलिच बनते ह। उनसे ा लना देना? यिद ेमी- ेिमकाक कथाक बात करो
तो बताओ, लला-मजनू जैसी कथा कहाँ िमलगी आपको? पर ा यह कोई कथा ह, िजसम
रा क सम याका समाधान नह ? और गो वामीजी कह रह ह िक मेरी कथाम िवषयरस तो
िमलगा ही नह —
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न िबषय कथा रस नाना॥
तेिह कारन आवत िहय हारे। कामी काक बलाक िबचारे॥
(मा. १.३८.४–५)
गो वामीजी कह रह ह िक घ घे, भेक (मढक) और शैवाल—ये सब कचड़ मेर
रामच रतमानसम नह ह। यहाँ िवषयरसक कथाएँ नह ह। इसीिलए साधारण लोग तो यहाँ
आयगे नह । जो राम और रा म भेद नह मानता होगा, िनि त ही वह मेरी कथाका ोता और
पाठक बनेगा। और देिखये, तुलसीदासजी महाराजको इस रा क ित िकतनी पीड़ा ह। मुझे तो
लगता ह िक रामायणजी भी रा ायण ह। यह भारत-रा क संिहता ह। गो वामीजी अकबरक
शासनकालम जी रह थे और उ◌ ने जनताक िवपि का वणन किवतावलीम िकया। िकतना
शोषण हो रहा था उस समय जनताका! अब देिखये गो वामीजीक बात—
खेती न िकसानको िभखारीको न भीख बिल
बिनकको बिनज न चाकरको चाकरी।
जीिवकािबहीन लोग सी मान सोचबस
कहै ऄक एकन सों कहाँ जाई का करी॥
बेद पुरान कही लोक िबलोिकअत
साँकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दािरद-दसानन दबाई दुनी दीनबंधु
दुिरत-दहन देिख तुलसी हहा करी॥
(क. ७.९७)
“जनता हाहाकार कर रही ह, अब ा क ? िकसान खेती नह कर पा रहा ह। िभखारीको
भीख नह िमलती; जब िकसी दाताक पास व◌ु नह ह तो िभखारीको कसे भीख िमलगी?
यापारी ठीकसे यापार नह कर पा रहा ह। नौकर नौकरी नह कर पा रहा ह। िकसीको
कह जीिवका नह िमल रही ह। लोग एक-दूसरसे कह रह ह िक म कहाँ जाऊ, ा क ?”
तुलसीदासजी आगे कहते ह—“ह नाथ! वेद-पुराण भी कहते ह और लोकम देखा जाता ह िक
िवपि म आप सभीपर कपा करते ह। ह नाथ! यह रावण देिखये। आप तो रावणको मार चुक
ेताम, पर किलयुगम द र ता प रावणने सार संसारको दबाकर रख िदया ह। म हाहाकार कर
२८
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा ३० कथाएँ
रहा ।”
अब रामजीने कहा—“कोई बात नह । म आपक मुखसे रामच रतमानसक पम अवतार
लगा और सार रावण को समा कर दूँगा।” अब इतना उदाहरण देनेपर भी आपको यिद
तुलसीदासजीक तुलना समझम न आये, तो अब ा कह? भारतक सम या का सू ढढा
था गो वामीजीने। म तो इस सरकारसे क गा, पहल कहा भी ह। आज मोदीजीका भी ६७वाँ
ज मिदन ह। १९५०म उनका भी ज म आ, मेरा भी। मेरा १४ जनवरी और उनका १७ िसत बर
(आज) ह। आज ब त उ साह ह। म भगवा से ाथना करता िक मोदीजी िचरजीवी ह । आज
वे अपनी माँक पास गये थे। म उनसे क गा िक यिद तुम स े मातृभ हो, गांधीजीक भ
हो—िज◌ ने, रामच रतमानससे रघुपित राघव राजा राम सू िलया था—तो रामच रतमानसको
रा ीय- थ घोिषत करो। यही तु हारी गांधीजीक ित स ी ा िल होगी और तु हारी माताक
ित स ी भावा िल होगी। अ त थ ह यह! गो वामीजीको िकतनी पीड़ा ह इस देशक
ित। उनको एक सु◌र शासक चािहए। अतः वे िफर रामजीको बुला रह ह—“ह राघवे◌जी!
एक बार िफर आप इस देशको सँभािलये।” इसिलए रा क सम या क समाधानक िलए
गो वामीजीने रामच रतमानसजीक रचना क । िवष भर गया था इस देशम, पूरा देश िवषैला हो
गया था, अब अमृत चािहए। इसीिलए गो वामीजीने कहा—
वणानामथस ानां रसानां छ सामिप।
म लानां च क ारौ व े वाणीिवनायकौ॥
(मा. १ म. ो. १)
इस देशमसे िवष िनकालना ह, िवरोधका िवष िनकालना ह। अतः अमृतक बीजसे ार भ
करते ह। व अमृतका बीज ह, तो वणानांसे ार भ करते ह, और व पर िव ाम भी करगे—
द ि नो मानवाः। व से ार भ और व से ही िव ाम। देशम अमृतक धारा जो बहाये, ऐसी
रामकथा सुधा ह—
रामकथा शिश िकरन समाना। संत चकोर करिह जेिह पाना॥
(मा. १.४७.७)
हम भी अमृतक वषा कर रह ह। गो वामीजीने कहा—“भगव ! जब रावणने सभी वानर-
भाल को मार डाला था, तब आपने इ◌से अमृतक वषा करवायी थी—”
सुधाबृि भै दु दल ऊपर। िजये भाल किप निह रजनीचर॥
(मा. ६.११४.६)
रामजी बोल—“कोई बात नह । उस बार सुर◌ (इ◌)को मा यम बनाया था, इस बार
कवी◌ (तुलसीदासजी)को मा यम बनाकर, रामकथाक सुधावषा करवाकर सबको िजलाना
ह।” ब त मधुर ◌ुित ह गो वामीजीक !
२९
३० कथाएँ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
३०
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा ३० कथाएँ
ह िक ा ानी ह वे? इतना तो कम-से-कम उनको िववेक होना चािहए था, सूयनारायणको
मुँहम भर िलया—
जुग सह जोजनपर भानू। ली यो तािह मधुर फल जानू॥
(ह.चा. १८)
अथा जो इतने उपर सूयनारायण ह—युग (१२ हजार योजन) सह , अथा १२,०००,०००
योजन। चार युग (सं या और सं यांश)को िमलाकर सं या १२ हजार (देववष) हो जाती ह
[देख—एत ादशसाह ं देवानां युगमु यते (म. मृ. १.७१)पर मनुभा यम मेधाितिथ व
क कभ क टीका]। अ त ह िक हनुमा जी सूयनारायणको िनगल गये मधुर फल जानकर।
इसक दो उ र ह—(१) एक उ र यह ह िक हनुमा जी जानते ह िक सूयनारायणक म डलक
म यम सीतारामजी रहते ह। अतः मुँहम भर िलया और बस!—“ह सूयनारायण! आप अपने
म डलवाल सीतारामको मेर दयम िवराजमान करा दीिजये। िफर म आपको उगल देता ।”
और वही आ। सूयनारायण म डलसे सीताराम हनुमा जीक दयम आ गये और सूयनारायणको
हनुमा जीने उगल िदया—
जासु दय आगार बसिह राम शर चाप धर॥
(मा. १.१७)
कहाँ हनुमा जीने मूखता क ? उनको ब त ान ह।
(२) और अब कहा यह जाता ह िक NASAक वै ािनक ने सूयम डलसे िनगत तरग का
वरण कर उसक विनको रकॉड िकया तो पाया गया िक वह ॐक समान ह। ॐ भगवा राम
ही ह। अकार ह ल मणजी, उकार ह श ु जी, मकार ह भरतजी और अ मा ा ह रामजी—
धरे नाम गु दय िबचारी। बेद त व नृप तव सुत चारी॥
(मा. १.१९८.१)
इसिलए गाय ीम दो बात कही गय ह—(१) त सिवतुदव य वरे यं भग धीमिह—
सूयनारायणक देवताक े तेजका यान कर—जो सूयनारायणक देवता भगवा राम ह, तथा
(२) िधयो यो नः चोदया —हमारी बुि य को बुर काय से हटाकर अ◌े काय क िलए
े रत कर। इसी कार ीरामकथाक भी दो अंश ह। जब गो वामीजीसे पूछा गया—“आपक
ीरामकथाम ा कट ह?” तो वे कहते ह—
जदिप किबत रस एकउ नाहीं। राम ताप गट एिह माहीं॥
(मा. १.१०.७)
गो वामीजी कहते ह िक य िप मेर ीरामच रतमानसम किवताका एक भी रस नह ह,
इसम िवषयरसक चचा ही नह कर रहा । तो उठता ह—“िफर इतना बड़ा थ िलख
रह ह?” गो वामीजीने कहा—इसम तो रामजीका ताप कट ह—राम ताप गट
एिह माहीं (मा. १.१०.७)। तापका अथ ा होता ह?—तेज। त सिवतुवरे यं भग देव य
धीमिह अथा रामजीका भग कट ह, जो वर य यानी े ह; जो भूभुवः वः ॐ ह, ॐ
ह, सबका पालक ह, जो भूलोकम, भुवल क (अ◌ र -लोक)म, वल क ( वगलोक)म, त
यानी यापक, सव या ह, वह रामजीका भाव तीन लोक म या ह—
३१
३० कथाएँ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
३२
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १
े रत कर। ब वचन नः कहा गाय ीम? तीन कारक जीव होते ह—(१) िवषयी, (२)
साधक, (३) और िस । अतः सबक बुि य को े रत कर। भगवा तीन क बुि य को े रत
करते ह। िस क भी बुि को े रत करते ह, साधक क बुि को भी शु करते ह, और
िवषयीको तो शु करते ह ही—
िबषयी साधक िस सयाने। ि िबध जीव जग बेद बखाने॥
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभा बड़ आदर तासू॥
(मा. २.२७७.३–४)
तो गो वामीजीने कहा—“ऋिष वा मीिक! आपने कवल २४ अ र क या या क , ६
अ र छट गये।” ॐ भूः भुवः वः और अगला ॐ—ये ६ अ र छट गये। अतः २४ और
६ = ३०, ऐसी ३० कथाएँ गो वामीजीने कह । एक-एक अ रक या या क । गो वामीजीने
३० कथा क मा यमसे गाय ीजीक कल ३० अ र क या याको पूण कर िदया।
३३
कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
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कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
सीतारामजीक गुण ाम प वनम दो लोग िवहार करते ह—(१) कवी र—वा मीिकजी
और (२) कपी र—हनुमा जी। इन दोन का िव ान माने अनुभव िवशु ह, परमपिव ह। वो
मेरा गीत ह ना—
एक पी-पी करके गाता है एक गा-गा करके पीता है। २
इक जी-जी करके गाता है इक गा-गा करके जीता है॥ २
सं कतम वा मीिकको िपक कहते ह। ा कहते ह? िपक —व े वा मीिककोिकल
(रा.र.◌ो. ३४) और हनुमा जीको किप कहते ह। और दोन को देखो तो एक दूसरका उ टा
ह। िपकः का उ टा ा ह? किपः। और किपः का उ टा ा ह? िपकः। िपब कायित का
अथ ह—पीते-पीते गाता ह और काय िपबित —गाते-गाते पीता ह। एक भगवा क ऐ यका
गान करता ह, दूसरा भगवा क माधुयका गान करता ह। वा मीिकजी भगवा क माधुयका गान
करते ह, हनुमा जी भगवा क ऐ यका गान करते ह। पर सौ◌य दोन म रहता ह।
अब गो वामीजी सीताजीक ◌ुित करते ह—
उ वि थितसंहारकािरणीं ेशहािरणी ।
सव ेय करीं सीतां नतोऽह रामव भा ॥
(मा. १ म. ो. ५)
उ व थितसंहारा कारयित । सीताजी ा करती ह? (१) उ व-कािरणी —सीताजी
ाजीसे जीवक उ◌ि कराती ह। ाजीको शि देकर जीवक उ◌ि कराती ह,
(२) ि थित-कािरणी —सीताजी िव णुजीको शि देकर जीवका पालन कराती ह, (३)
संहार-कािरणी —सीताजी श रजीको शि देकर जीवका संहार कराती ह, और (४)
ेशहािरणी —सीताजी रामजीसे ाथना करक जीवका श हरवा लती ह। तो भ ने
कहा—“सीताजी चार लोग से चार काम करवा लती ह, वयं ा करती ह?” तो (५)
सव ेय करी —सीताजी जीवका क याण वयं करती ह। उपिनष म ेय और ेय दो बात
कह गय ह—(१) यिद ेय चािहए तो संसार िमलगा, (२) यिद ेय चािहए तो ीराघवे◌
सरकार िमलगे। सीताजी जीवको िकसीको नह स पत । कहती ह—“बेटा! तुमको यिद ेय
चािहए तो तुम रामजीक चरण म चलो। म तु हारी सहायता क गी।” तो सीताजी सवका,
सबका ेय करती ह। इसपर मेरा क तन ह न—
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण।
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण॥
सीता रानीके चरण, ब रानीके चरण।
सीता रानीके चरण, ब रानीके चरण॥
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण।
मन भूल मत जइयो, सीता रानीके चरण॥
सीता रानीके चरण, महारानीके चरण।
सीता रानीके चरण, महारानीके चरण।
३७
कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
गो वामीजी ित ा करते ह।
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(१) िनज संदेह हरनी—म यह जो कथा कह रहा , वह मेर स◌ेहको दूर कर रही ह।
(२) मोह हरनी—या व जीक जो कथा ह, वह मोहको दूर करगी। (३) म हरनी—
िशवजीक जो कथा ह, वह मको दूर करगी और (४) भव सिरता तरनी—भुशु डजीक
जो कथा ह, वह भव स रताक नाव ह।
गो वामीजीको एक ही स◌ेह ह। वे कहते ह—“म ीरामकथा कसे गाऊगा?” किव
ने—िनज बुिध बल भरोस मोिह नाहीं, ताते िबनय करउ सब पाहीं (मा. १.८.४) कहा।
उनको स◌ेह ह—“रामजीक िद य च र को म कसे कह सकगा?”
कह रघुपित के चिरत अपारा। कह मित मोिर िनरतसंसारा॥
(मा. १.१२.१०)
“कहाँ रामच◌जीक अपार-च र और कहाँ संसारम फसी मेरी बुि !” इसीिलए सार
िव को दूर करनेक िलए म लाचरण िकया। और आप जानते ह िक आजतक िकसी किवने
इतना बड़ा म लाचरण नह िकया। कोई कर! २० ोक कर िलया, ब त कर िलया।
काद बरीकारने भी २० ोक म म लाचरण िकया ह, तो भी उनक काद बरी पूरी नह ई।
इतना म लाचरण तो िकसीने िकया ही नह । अब ब तसे म लाचरणका फल िमला, इतना
चार भी आजतक िकसी थका आ नह िजतना रामच रतमानसका आ।
पाँच देवता क ाथना कर ली। गु देवक ाथनाक —“भगव ! आप कपा क िजये।”
संत क ाथना क और दु क ाथनाक िक तुमलोग िव मत डालना। दु ब त िव डालते
ह, िबना कारण। अ◌म कह िदया िक म संपूण संसारको सीताराममय जानता —सीयराममय
सब जग जानी (मा. १.८.२)। यहाँ मय यय आगत अथम आ ह। कहते ह िक संपूण
नारीवग सीताजीक पाससे आया, पु षवग रामजीक पाससे आया। अतः—
सीयराममय सब जग जानी। करउ नाम जोिर जुगपानी॥
(मा. १.८.२)
इतना बड़ा भ कौन होगा?
“ िलख रह ह आप ीरामकथा?” तो गो वामीजीने कहा—बात ऐसी ह िक आपने
इितहास तो पढ़ा होगा। नाल◌ा िव िव ालय और त िशला िव िव ालयक पु◌कालय म
जब िवधिमय ने आग लगायी तो छः महीने पय◌ आग जलती रही। सारी पु◌क जलकर खाक
हो गय , राख हो गय । यह तो कितपय पु◌क को ही हमार पूवज ा ण ने अपनी जांघ म
काट-काटकर िसलकर रखा। आज ा ण को ब त गािलयाँ दी जाती ह, ब त गािलयाँ; पर
आज यिद हमारा ा ण-समाज न होता तो कछ भी न बचता। ये तो अब ा ण बौरा गये
ह, और पि मी-उ र देशम तो ९९%से भी अिधक ा ण क क ध पर जनेऊ नह होता। ये
ल ण ठीक नह ह। हम िफर, एक बार िफर, अपने धमपर त◌र हो जाना चािहए। िफरसे ॐ
भूभुवः वः त सिवतुवरे यं भग देव य धीमिह िधयो यो नः चोदया ॐक गुंजार हो
जानी चािहए। तो देिखये, गो वामीजीने कहा—“िजतने थ जल गये ह, उन सबको म िफर
३९
कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
४०
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १
िपटवाया गया िक कौन मिहला गो वामीजीसे िमली थी। अ◌म वह मिहला दोपहरतक िमली।
उसने कहा—“म गो वामीजीसे िमली थी। मने उ◌ रामजीक शपथ दी थी, परतु म तो उनसे
कहना भूल गयी। भगव ! मुझे मा कर।” लोग ने कहा—“चल मूख! चल अब तो कह दो
गो वामीजीसे।” नारी सरयूजीक तटपर गयी और बोली—“बाबाजी! मुझसे भूल हो गयी। अब
आप बाहर िनकल आइये।” तो गो वामीजीने कहा—“बड़ी कपा क आपने, इस बहाने सरयूम
खड़ रहनेका सौभा य मुझे िमला।” इतने रामभ थे। इतनी रामनामम िन ा िकसक होगी?
सीतारामजीक तथा सबक व◌नाक गो वामीजीने। चार ाता क व◌ना, हनुमा जीक
व◌ना, सीतारामजीक व◌ना। िकसीने पूछा—“जब चार ाता क और सीताजीक व◌ना
कर ली, तो शेष तीन ब ने—(१) मा डवीजीने, (२) उिमलाजीने, (३) ुितक ितजीने—ा
िबगाड़ा था? उनक व◌ना नह क आपने?” तो गो वामीजीने कहा िक भई! मने इनक
भी व◌नाक ह; वह , सीताजीक व◌नाम—
जनकसुता जगजनिन जानकी। अितशय ि य क ना िनधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउ। जासु कृपा िनरमल मित पावउ॥
(मा. १.१८.७–८)
देिखये! यहाँ चार िवशेषण िदए गये ह—जनकसुता, जगजनिन, जानकी, अितशय ि य
क ना िनधान की।
(१) जनकसुता—इसम जनकसुता श दका जो योग िकया ह गो वामीजीने—मांडवी
ुतकीरित उरिमला कुअँिर लई हकािर कै (मा. १.३२५.१२)—ये मा डवीजी ह, जनक
वंशक राजा कशकतु (कश वज)क बेटी ह। तो मा डवी जनकसुता ह।
(२) जगजनिन— ुितक ितजी श ु लालजीक प ी ह, ये जगजनिन अथा जग क माता
ह।
(३) जानकी—उिमलाजी जनकजीक गो म कट (उ◌ ) ई ह, अतः जानकी ह।
(४) अितशय ि य क ना िनधान की—और सीताजी पृ वीसे कट ई ह; इसिलए
यवहारसे न तो वे जनकजीक पु ी ह न ही कछ। वे तो अितशय ि य क ना िनधानक ह,
वे तो रामजीको ब त ि य ह—
मन जािह राँचेउ िमिलिह सो बर सहज सु र साँवरो।
क ना िनधान सुजान शील सनेह जानत रावरो॥
(मा. १.२३६.९)
इसिलए चार क व◌ना गो वामीजीने कर ली। जनकसुतासे मा डवीजी, जगजनिनसे
ुितक ितजी, जानकीसे उिमलाजी, और अितशय ि य क ना िनधान की कहनेसे
सीताजीक । तो, नाम-व◌ना—ब त उ ल, ब त िवमल चचा। “ा धानता ह आपक
कथाम?” गो वामीजी कहते ह—मेरी कथाम भगवा क वभावक धानता ह—
भु त तर किप डारपर ते िकए आपु समान।
तुलसी क न रामसे सािहब शीलिनधान॥
(मा. १.२९क)
४१
कथा १ ीरामच रतमानस-कथा थम पु प
४२
थम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १
राम ितलक िहत मंगल साजा। परब जोग जनु जुरेउ समाजा॥
काई कुमित कैकयी केरी। परी जासु फल िबपित घनेरी॥
(मा. १.४१.७–८)
ीराम-राज-ितलक क िलए ीअयो याम जो म ल सजाये गये—वे ही ानक िलए पव
ह, ककयीक कमित—काई ह और उसको न करनेक िलए भरतजीका च र ही जप-य
ह। गो वामीजीने कहा िक मेरी किवताम छह ऋतुएँ ह—(१) हेम — ीश र-पावतीजीका
िववाह; (२) िशिशर— ीरामजीक ज मो सवका वणन; (३) वस — ीसीतारामजीक
िववाहका वणन; (४) ी म— ीरामजीक वनवासका वणन; (५) वषा—राम-रावण यु
वणन; तथा (६) शर —रामरा यका सुख और िवशेष नीितक बड़ाई ही सु◌र शर ऋतु ह।
एतावता—
मित अनुहािर सुबािर गुन गन गिन मन अ वाइ।
सुिमिर भवानी शंकरिह कह किब कथा सुहाइ॥
अब रघुपितपद पंक ह िहय धिर पाइ साद।
कहउ जुगल मुिनवय कर िमलन सुभग संबाद॥
(मा. १.४३ क-ख)
िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो! अब मोह हरनी कथाक चचा कल।
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(मा. १.३१.४)
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
बोिलये रामच◌ भगवा क जय हो!
पवनपु हनुमा जीक जय हो!
गो वामीजी तुलसीदास महाराजक जय हो!
॥ जय जय ीसीताराम ॥
४३
ि तीय पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
ीरामच रघुपु व राजवय
राजे राम रघुनायक राघवेश।
राजािधराज रघुन न रामभ
दासोऽहम भवतः शरणागतोऽि म॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
य य रघुनाथकीतनं त त कृतम का िल ।
वा पवािरपिरपूणलोचनं मा ितं नमत रा सा क ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय। पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी
तुलीदासजी महाराजक जय हो। ेमसे बोिलये ीसीताराम भगवा क जय हो।
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
तुलसी सीताराम कहो दय रािख िब वास।
कब िबगड़त ना सुने ( ी)सीतारामके दास॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
४६
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना
४७
कथा २ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
४८
ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २
भर ाजजी तप वी ह—
तापस शम दम दया िनधाना। परमारथपथ परम सुजाना॥
(मा. १.४४.२)
माघम क पवास होता ह, जब सूयनारायण मकरपर आते ह। यहाँ गो वामीजी संिहता कह
रह ह िक व ाको इतना वत◌ नह होना चािहए, जो वैिदक-मयादाका ही उ न कर बैठ।
कहते ह िक देिखये! व ाको ा-ा कहना चािहए इसक एक आचार-संिहता ह—
िन पन धरमिबिध बरनिह त विबभाग।
कहिह भगित भगवंत कै संजुत यान िबराग॥
(मा. १.४४)
कह तो िदया गो वामीजीने। अब इतनेपर भी कोई न माने; यिद भीड़ जुटाना ही व ाका
ल य बन जाए, तो ठीक ह, उसे हम व ा नह , बकता कहगे। गो वामीजीने इस एक
दोहम संपूण वैिदक-भारतीय-सं कितक या या कर डाली। वैिदक-भारतीय-सं कित ा ह?
िकन-िकन िवषय पर चचाक जा सकती ह? िन पन— का िन पण होना चािहए,
वह अपने-अपने सं दायक अनुसार व ा कर; अ ैत, िविश ा ैत, िवशु ा ैत, ैत, ैता ैत,
अिच◌भेदाभेद आिद। अब कौन कर रहा ह। धरमिबिध—धमक िविधक चचा मीमांसाक
अनुसार। बरनिह त व िबभाग—त वक िवभागक चचा सां य, योग, वैशेिषक, और
यायक अनुसार। कहिह भगित भगवंत कै संजुत यान िबराग— ान और वैरा यसे यु
भगवा क भि का वणन। और वैसी चचा क , तो सात का ड का िवषय कह रह ह—(१)
बालका ड— िन पण, (२) अयो याका ड—धमिविध/मीमांसा, (३) अर यका ड—
सां य, (४) िकि क धाका ड—योग, (५) सु रका ड—वैशेिषक, (६) यु का ड वा
ल ाका ड— याय और (७) उ रका ड— ान, वैरा य सिहत भगवा क भि —यह ह
या या।
अब तो बाल यास बन गये ह लोग। अनुिचत नह मानना चािहए, पर ऐसे-ऐसे लड़क
कथा कहते ह जो वयं रामायण कभी पढ़ नह । िजनको रामः रामौ रामाः—पूरा श द प भी
नह आता होगा। सोिचये! अर ा बाल यास? बालशुक ए थे, कवल एक ही थे वे। अब
बाल यास कौन बनेगा? वे तो बालक कभी नह रह, ज म लते ही वे युवक बनकर बद रका म
चल गये, तो कहाँ वो बाल यास रह? िक यि जब कथाको पैसेका साधन बना लगा,
जब कथा हरी-हरी नोटका साधन बन जायेगी, तो ह रका साधन तो नह बनेगी।
क पवासम ब त अ◌ा स संग होता ह।
एक बार भिर मकर नहाये। सब मुनीश आ मिन िसधाये॥
(मा. १.४५.३)
संपूण मकराक-पय◌ ान िकया। सभी ऋिष अपने-अपने आ म आ गये, परतु
या व जी महाराजको भर ाजजीने चरण पकड़कर रोक िलया—भर ाज राखे पद टेकी
(मा. १.४५.३), पूजा क और कहा—“भगव ! मुझे एक संशय ह—नाथ एक संशय बड़
मोरे (मा. १.४५.७)। मुझे डर भी लग रहा ह, लाज भी लग रही ह। वा मीिकजीका म िश य
४९
कथा २ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
करते ह िक ये हमारी सेवा करगा। और म िनरपे भावसे पाल रहा सोलह वष से हजार
लड़क को और मने अपे ा ही नह क िक कछ दगे ये। आपको तो अपने बेटसे अपे ा होगी
िक इसक ब आयेगी, सेवा करगी, भल ही ब डड मार। पर हमारा तो ही नह उठता।
इतने ब को हमने research करायी, पर िकसी Research Scholar से एक घूँट पानीतक
नह िपया—यह मेरा रकॉड ह अपना। िम ो! म यह िनवेदन करने जा रहा िक ीरामकथाका
ा यि व ह! देिखये—
महामोह मिहषेश िबशाला। रामकथा कािलका कराला॥
(मा. १.४७.६)
जबतक ीरामकथाको हम साधन मानते रहगे, तबतक हमारा क याण नह होगा।
ीरामकथा साधन नह ह, यह तो हमार स◌म का फल ह।
ीम ागवतम म आपको ल चल रहा , जहाँ नारदजी वेद यासजीसे कहते ह—अर
वेद यास!
इदं िह पुंस पसः ुत य वा ि व य सू य च बुि द योः।
अिव युतोऽथः किविभिन िपतो यदु म ोकगुणानुवणन ॥
(भा.पु. १.५.२२)
कहते ह—पुंसः तपसः ुत य ि व य सू य बुि द योः इदमेव फल किविभः
उ म ोकगुणानुवणन अिव युतोऽथः िन िपतः। महापु ष ने संपूण स◌म का यही
एकमा फल बताया ह िक भगवा क गुणगण का अनुकलतासे हम वणन करते रह। आपने
मुझे देखा होगा। िजस समय म ितलक आिद करक ... कोई ब त मेक-अप तो नह करता;
आजकल तो व ा, हाय .. हाय ... हाय! मेक-अप करनेक िलए लोग को बुलाते ह। भल ही
भगवा उनका चेहरा गोबर-गणेश जैसे बनाये ह ; भल चेहर पर पौने बारह बज रह ह इनक,
पूरा मेक-अप करते ह। एक बार िकसी व ाक उ ाटनम मुझे जाना था। म तो तैयार था और
वह व ा तैयार ही नह । मने कहा—“कहाँ?” बोल—“गु जी अभी मेक-अप कर रह ह।”
अब आयगे धीर-धीर! अर पगल! इस मेक-अपसे कोई लाभ नह होगा। ीरामकथाक िलए
आ या मक मेक-अपक आव यकता होती ह—
केयूरािण न भूषयि पु षं हारा न च ो ला
न ानं न िवलेपनं न कुसुमं नाल ता मूधजाः।
वा येका समल रोित पु षं या सं कृता धायते
ीय े खल भूषणािन सततं वा भूषणं भूषण ॥
(नी.श.)
सु◌र हार यि को सुशोिभत नह करते। ये पु ष को सुशोिभत नह करते, मिहला को
करते ह। यह बिहन क िलए ार ह, तु हार िलए नह । िवलपन नह , पु प नह , अलकत बाल
नह , तो यि को सुशोिभत कौन करता ह? वा येका समल रोित पु ष —जो सं कारवती
वाणी होती ह, वही यि को स य अलकत कर डालती ह। आज हमार जीवनम वाणीक
सं कार कहाँ ह? ीय े खल भूषणािन—सभी आभूषण न हो जाते ह। िनर◌रका आभूषण
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ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३
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कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
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ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३
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कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
“मेरी चौपाई यामा गौ ह।” कौन गौ ह? यामा गौ। कोई कह—“गायको न दो और दूध
िमल जाए”, यह संभव ह ा? आप बताओ। अर! गौको यारसे पुचकारो और िखलाओ-
िपलाओ। बछड़ा गायक थनम मुँह मार, तब दूध देगी। इसी कार गो वामीजीक वाणी काली
गाय ह। उसको जब हम दुलारगे, तब न चौपाई सु◌र-सु◌र भाव हमको बतायेगी। वह हमारी
कोई नौकर तो नह ह। गाय ब त िविच होती ह। उसको ेम दो, तो दूधसे पूरी बा टी भर देती
ह और अगर िचढ़ा दो तो इतना बिढ़या लात मारती ह िक ऐसी-तैसी हो जाती ह, दाँत ही टट
जाते ह। गायक मार ब त किठन होती ह; भस उतना नह मारती ह, मूख। गौमाता िफर सीधा
लात चलाती ह, और वह मुखपर लगे तो एकौ दाँत बचनेक थित नह बनती। तो भईया!
हमार पास तो यामा गौ ह, ब त ेमसे हम पालते ह, देशी गाय ह हमारी। और उनको अपनी
भि का चारा िखलाते रहते ह और वो हम दूध देती रहती ह।
अब यह देिखये! िशवजी इतने स ए। “भगवा क उपर कामदेवक पाँच बाण का
भाव नह पड़ पाया—यह बात कहाँसे िस होगी?”
जय सि दानंद जग पावन। अस किह चले मनोज नसावन॥
यहाँ जो पाँच संबोधन िदये भगवा ीरामको—(१) ह स , (२) ह िच , (३) ह आन◌,
(४) ह जगपावन, (५) ह मनोज नसावन जय! अस किह चले। अब यिद आप यह अथ
नह क रयेगा तब चौपाई लगेगी नह । अभी तो श रजीने कामदेवको नह जलाया ह न। तो
जब कामदेवको नह जलाया तो िफर कसे मनोज नसावन कह रह ह गो वामीजी? कोई
गो वामीजीको पागल क ेने काट रखा ह ा? इतना तो उनको ान ह न िक अभी संगम
काम-दहन नह आ ह, इसीिलए िशवजीक िलए मनोज नसावन श द कहा ही नह जा
सकता। अतः—
जय सि दानंद जग पावन। अस किह चले मनोज नसावन॥
ह भु! आपक जय हो। ह राघवे◌! ह मेर भु!!
हे राम तु हारी जय जय हो। हे राम तु हारी जय जय हो॥
िजतकाम तु हारी जय जय हो। भु राम तु हारी जय जय हो॥
हे राम तु हारी जय जय हो। भु राम तु हारी जय जय हो॥
सब लोग गाइये। हमार मोदीनगरवाल पूछगे—“आप गवा रह ह हमसे?” तो ा
कर, आप ही बताइये? हम तो रावण नह ह िक हम आपको लाय, हम तो गवायगे। और
आपका लाभ ा ह? जानते ह? हम आपको वचन देकर जा रह ह—यिद मेर साथ आज इस
कथाम गा लगे न, तो एक वषक मेरी गारटी! एक वषतक तो आपक घरम रोनेका संग ही
नह आयेगा और एक वष यिद बीत जाए तो िफर मेर साथ गा लीिजयेगा, िफर renew करवा
लीिजयेगा। आप गा नह रह ह; मुझे ब त ोध आ रहा ह, थुथुरने करनेका मन कर रहा ह।
िफरसे गाइये! पहल म गाऊ, िफर आप गाइयेगा।
ीराम तु हारी जय जय हो। ीराम तु हारी जय जय हो॥
आ काम तु हारी जय जय हो। आ काम तु हारी जय जय हो॥
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ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३
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कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
(७) दा य —िशवजी सतीजीसे कहते ह—“धीर मुिनजन िजनक सदैव सेवा करते रहते
ह, वे ही याग-वीरता, दया-वीरता, िव ा-वीरता, परा म-वीरता, और धम-वीरता से उपलि त
रघुवीर भु ीराम मेर इ देव ह—”
सोइ मम इ देव रघुबीरा। सेवत जािह सदा मुिन धीरा॥
(मा. १.५१.८)
(८) स य —
मुिन धीर जोगी िस संतत िबमल मन जॆिह यावहीं।
किह नेित िनगम पुरान आगम जासु कीरित गावहीं॥
सॊइ राम यापक भुवन िनकाय पित माया धनी।
अवतरॆउ अपने भगत िहत िनज तं िनत रघुकुलमनी॥
(मा. १.५९.९)
(९) आ मिनवेदन —
अस किह लगे जपन हिरनामा।
(मा. १.५२.८)
पूरी नवधा भि ही िशवजीम आ गयी।
अब सतीजीको म हो रहा ह। उसी मको संदेह कहगे, पर ह वह म—सती सो
दशा शंभु कै देखी (मा. १.५०.५) संदेह हो गया—“अर! ये तो जग ◌ ह श रजी!
जगदी र ह!! देवता, मनु य सभी उ◌ णाम करते ह। ितन नृपसुतिह की पर नामा
(मा. १.५०.७)—इ◌ ने राजपु को णाम कर िलया।” किह सि दानंद — थमानुवाद कर
रही ह—स , िच , आन◌ और जगपावनका अनुवाद िकया पर , और मनोज नसावनका
अनुवाद िकया धामा। किह सि दानंद पर धामा (मा. १.५०.७) और
भये मगन छिब तासु िबलोकी।
(मा. १.५०.८)
सतीजीने भगवा क ित एक-दो संदेह नह िकये, १५ संदेह िकये, १५ कारसे म िकये
और ब त तीखा य◌ िकया—“िशव! ये यथक १५ ने रखे हो, तुम १५ ने वाल होकर भी
ने हीन हो चुक हो।”
जॊ यापक िबरज अज अकल अनीह अभेद।
सो िक देह धिर होइ नर जािह न जानत बेद॥
(मा. १.५०)
सतीजीने िशवजीक िदये पाँच िवशेषण —(१) स , (२) िच , (३) आन , (४)
जगपावन, (५) मनोज नसावन (मा. १.५०.३)पर म िकया। (६) ितन नृपसुतिह की
परनामा (मा. १.५०.७)— णामपर म िकया। (७) भये मगन छिब तासु िबलोकी (मा.
१.५०.८)—िशव भगवा क छिवपर म ए, उसपर म िकया। और—
जॊ यापक िबरज अज अकल अनीह अभेद।
सो िक देह धिर होइ नर जािह न जानत बेद॥
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कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
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ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३
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कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
रहा ह जब नाियका िबछड़ गयी ह। नाियकाक िवयोगम भगवा ीराम याकल ह। वे हमको
आपको बता रह ह िक नाियकापर िकतना ेम ह रामजी को। सीताजीक अित र िकसी
दूसरी मिहलाको सामा य ◌ि से भी भु नह देख रह ह। इसिलए रामच रतमानस इसका नाम
ह—राम य चिरतािन मानसेषु येन त —िजनक कपासे हमार मनम रामजी, हमार मानस म,
रामजीक च र उतर आते ह। ल मणजीसे राघवे◌जीने कहा—“नह ल मण! ये मेरी परीि का
ह, म भारतीय छा । भारतीय छा परी कको गु व मानता ह। म इ◌ णाम क गा, इ◌
द ड नह देना ह।” तुर◌ भुने—जोिर पािन भु की नामू (मा. १.५३.७) हाथ जोड़कर
णाम िकया—“माताजी! दा ायणीजी णाम।” वेशप िदखाया—िपता समेत ली िनज
नामू (मा. १.५३.७)—“म दशरथपु राम आपको णाम करता ।” अर! परी ा हो चुक !
परनारीको माँक समान देखा, णाम िकया और आगे ानक परी ा। च र क परी ा हो चुक ,
अब चिलये ानक परी ा। म आपको पहचानता —
कहॆउ बहोिर कहाँ बृषकेतू। िबिपन अकेिल िफर कॆिह हेतू॥
(मा. १.५३.८)
श रजी कहाँ ह? अथा म आपको जान गया िक आप सतीजी ह, पर यह बताइये िक
आपने श रजीका साथ छोड़ िदया? िव ासको अलग कर िदया आपने?—
िबनु िब ास भगित निह तॆिह िबनु विह न राम।
रामकृपा िबनु सपनॆ जीव न लह िब ाम॥
(मा. ७.९०क)
अब आपको िव ाम नह िमलगा, िफरती रहगी आप। भि आपक पास आयी नह , मेरी
कपा आपपर हो नह रही ह; म आपको णाम कर रहा । सतीजी भयभीत हो गय —राम
बचन मृदु गूढ़ सुिन उपजा अित संकोच (मा. १.५३)। कोमल वचन तो ह ही पर गूढ ह,
ब त अथ िछपे ह यहाँ। सतीजीसे भगवा राम ब त सार कर रह ह—
मूल धमतरोिववेकजलधेः पूण ुमान दं
वैरा या बुजभा कर घघन वा ापह तापह ।
मोहा भोधरपूगपाटनिवधौ वःस भवं श र
व े कुल कल शमनं ीरामभूपि य ॥
(मा. ३ म. ो. १)
यहाँ रामजीने सतीजीसे यारह िकये—
(१) मूल धमतरोः—अर! कहॆउ बहोिर कहाँ बृषकेतू (मा. १.५३.८)। श रजी धमक
मूल ह—मूल धमतरोः, उनक प ी होकर आज आप इतना बड़ा अधम कर रही ह? ह
राम! ये गूढ वचन?—राम बचन मृदु गूढ़ सुिन ... (मा. १.५३)।
(२) िववेकजलधेः पूण ु —श रजी िववेक सागरक च◌मा ह, िववेक सागरको
उ िसत करनेक िलए शर क पूिणमाक च◌मा ह, उनक प ीम इतना बड़ा अिववेक कसे
आया? कहाँ बृषकेतू !
(३) आन द —श रजी सबको आन◌ देते ह, आज उ◌ क प ी मेर च र ान◌पर
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ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३
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ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३
जग क िपता हो चुक। और आगे चलकर पावतीजी कहगी—िब नाथ मम नाथ पुरारी (मा.
१.१०७.७)।”
तो इस कारसे िशवजीको व◌न िकया। श रजीने स मुख आसन दे िदया। इधर िपता
द जीका य हो रहा ह। द जीने सतीजीको नह बुलाया ह। िशवजीक मना करनेपर भी सतीजी
जा रही ह। और वा◌वम तो वे जानकर जा रही ह—“य म ही म अपना शरीर छोड़ दूँगी अि
म, और शरीर छोड़कर अि म िनवास कर रह सीताजीसे मा माँग लगी िक ह सीते! अपराध
मने िकया ह, आप मुझे मा क िजये।”
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
मैंने जाना नहीं, पहचाना नहीं
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
मोह म काननमें भटक भटक के
सीतारामको भी पहचाना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
राम कथा गा-गा करके
िवमल िववेक उर आना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
ि भुवनगु िशव ब त समझाये
उनका उपदेश मैंने माना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
माता कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
आपका ही प धिरके करी मैं परी ा
भि अनुराग उर ठाना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
िगिरधर वािमनी माकी पु ी सीता
दु सती पु ीको भूलाना नहीं।
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
अपनी कुपु ीको भूलाना नहीं
सीते कीजे मा मैंने जाना नहीं॥
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ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३
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कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
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ि तीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३
बेचार। इतने भयभीत जीजाको देखकर! जीजाजी नम◌े! अर जीजाजीको देखो साँप, िब◌ू,
मु डमाला! ब को तो डरसे सुसू होने लगा। माताएँ िकवाड़ बंद करक तैयारी कर रही थ ,
ब ने िकवाड़ खड़खड़ाये। माताएँ पूछ —“ा बात ह?” ब ने कहा—“अर!! िकवाड़
तो खोलो।” िकवाड़ खुला। माताएँ बोल —“अर! पायजामा कसे गड़बड़ हो गया?” ब ने
कहा—“ा कर, यह दु हा इतना ही भयंकर ह!”
बर बौराह बरद असवारा। याल कपाल िबभूषन छारा॥
तन छार याल कपाल भूषन नगन जिटल भयंकरा॥
(मा. १.९५.८–९)
“कोई बात नह बेटा! ये श रजी ह।” भगवा बारात लकर आये जनवासेम, मैनाजी
आरती उतारने चल —िबकट बेष िह जब देखा (मा. १.९६.४)। को देखा तो भयभीत
हो गय , भाग उठ और भवनम जा बैठ । आरती फक दी, भयभीत हो गय , ा कर? उ◌ ने
कहा िक कछ भी हो म पावतीका िशवसे िववाह नह क गी—घर जाउ अपजस होउ जग
जीवत िबबाह न हौं करौं (मा. १.९६.९)।
भोजपुरीका यह गीत देिखये—
ज म भरी धेरीया कुमारी मोरी रइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै।
ज म भरी धेरीया कुमारी मोरी रइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
वेस िवकराल मुंडमाल लपटाए बा भूतवा िपसचवा बरितया ले आऐ बा।
इ ें देिख बेटी िबन मारे मर जइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
सीसपर गंगा सिस कंठमें गरल बा उरवामें सोहे सखी इनके मुंड मलवा।
इ ें देिख बेटी मोरी ाण तज देइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
साँपके जनेऊ सोहे साँपकी लगोटीयाँ अंगमें रमाए बाटै मुदाके भूितयाँ।
इ ें देखी बेटी मोरी कुँएनामें िगिरहे ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
बैल पे सवार बाटे बउरिह मुरितया जोिगनी जमाित लेही ेत कै बरितया।
रामभ ाचाय कैसे गीितयाँ सुनइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
ज म भरी धेरीया कुंवारी मोरी रइहै ब बावरेके संग मोरी गौरा नहीं जइहै॥
अब मैनाजीको पावतीजीने समझाया िक नह , जो मेर भा यम होगा वो होगा। सब लोग रोये।
अ◌म नारदजीने सबको समझाया, सब लोग स ए और िद य िववाह आ। िशवजीने आज
पावतीजीका पािण हण िकया—पािन हन जब की महेशा, िहय हरषे तब सकल सुरेशा
(मा. १.१०१.३) वैिदक म◌ो ारण ए। दहज िमला, सब श रजीने लौटा िदया; कवल
पावतीजीको लकर साथ चल। इसका अथ यह ह िक गो वामीजी ार भसे ही दहज थाक
िवरोधी ह। काि कयजीका ज म आ, गणपित ज मे और भगवती पावतीजी अब िशवजीसे
कथा सुननेको उप थत और बोल —
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(मा. १.३१.४)
अब कल चार कथाएँ आपको सुनायी जाएँग । सातव कथा ीरामज मक कथा ह। चिलये।
७३
कथा ३ ीरामच रतमानस-कथा ि तीय पु प
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तृतीय पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
य य रघुनाथकीतनं त त कृतम का िल ।
वा पवािरपिरपूणलोचनं मा ितं नमत रा सा क ॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी तुलीदासक जय हो।
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
तुलसी सीताराम कहो दय रािख िब वास।
कब िबगड़त ना सुने ( ी)सीतारामके दास॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
रामकथा सुंदर करतारी। संशय िबहग उड़ावनहारी॥
(मा. १.११४.१)
प रपूणतम परा◌र परमा मा भगवा ीसीतारामजीक कपासे मोदीनगरम, ीराघव-सेवा-
सिमितक त वावधानम, समायोिजत अपनी १२५१व रामकथाक तृतीय स म आप सभी बिहन -
भाइय का म ब त-ब त वागत करता । जैसा िक आप सुन रह ह, गो वामीजीक ित ा ह
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
७६
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना
७७
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
(१) तुम पुिन राम राम िदन राती, सादर जप अनँग आराती, राम सॊ अवध नृपित
सुत सोई (मा. १.१०८.७–८)—िजनको आप जपते रहते ह, वे रामजी कौन ह? वे राम ा
वही अवधनरश क पु ह?
(२) की अज अगुन अलख गित कोई (मा. १.१०८.८)—यिद अवधनृपितपु वही
ीरामजी ह; तो अलख, अगुण, अज मा कोई और भी ह ा?
(३) जौ नृपतनय त िकिम नािरिबरह मित भोिर (मा. १.१०८)—यिद पर
परमा मा रामजी दशरथपु बने, तो कसे? उनक बुि नारीक िवरहम कसे याकल हो
गयी? उनका च र देखकर और मिहमा सुनकर मेरी बुि िमत हो रही ह— मित बुि
अित मोिर (मा. १.१०८)। म हरनी (मा. १.३१.४) कथा ह यह।
(४) जौ अनीह यापक िबभु कोऊ, कह बुझाइ नाथ मॊिह सोऊ (मा. १.१०९.१)—
यिद राम अनीह, यापक, िवभु ह; तो यह समझाकर बताइये।
ये चार अ या मक िकये। िफर आठ कथासे संब धत िकये—
(५) थम सॊ कारन कह िबचारी, िनगुन सगुन बपु धारी (मा. १.११०.४)—वह
कौन सा कारण ह िक िनगुण ने सगुण शरीर धारण िकया?
(६) पुिन भु कह राम अवतारा, बालचिरत पुिन कह उदारा (मा. १.११०.५)—हम
रामजीका अवतार सुनाइये, उनक उदार बाल च र सुनाइये।
(७) कह जथा जानकी िबवाही (मा. १.११०.६)—िजस कारसे ीसीतारामजीका
िववाह आ, वह सुनाइये।
(८) राज तजा सो दूषन काही (मा. १.११०.६)—भगवा ने रा यको छोड़ा, इसम िकसका
दोष ह?
(९) बन बिस की े चिरत अपारा (मा. १.११०.७)—भगवा ने वनम रहकर कौनसे
अपार च र िकये?
(१०) कह नाथ िजिम रावन मारा (मा. १.११०.७)—भगवा ने रावणको कसे मारा?
(११) राज बैिठ की ीं ब लीला, सकल कह शंकर शुभशीला (मा. १.११०.८)—
भगवा ने रा यिसंहासनपर बैठकर जो अनेक लीलाएँ क , उ◌ सुनाइये।
(१२) ब िर कह क नायतन की जॊ अचरज राम, जा सिहत रघुबंशमिन िकिम
गवने िनज धाम (मा. १.११०)। इस दोहपर लोग बड़ा संशय करते ह। पावतीजी कह रही ह—
“मुझे सबसे बड़ा आ य यह ह िक भगवा ने ल ा-िवजयक प ा संपूण वानरी जाको अपने
पु पक-िवमानपर कसे बैठा िलया और सबको पु पकसे लकर अयो याजी गये?” और कहा
जाता ह िक पु पक-िवमानका िनयम ह िक िकतने ही लोग को बैठाओ, िफर भी पु पक-िवमानक
एक सीट र ही रहती ह। ये बारह हो गये।
(१३) पुिन भु कह सॊ त व बखानी, जॆिह िब यान मगन मुिन यानी (मा.
१.१११.१)—वह रामत व किहये, िजसक िव ान (अनुभव)म ानी मुिन म रहते ह। यहाँ
िब यानका अथ ह अनुभव।
(१४) भगित यान िब यान िबरागा, पुिन सब बरन सिहत िबभागा (मा.
७८
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा ◌ावना
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◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
ह—“थोड़ी-सी दही-भातवाली लार टपका दीिजये। दो चार कण मुझे िमल जाएँ तो मेर मुखका
कड़वापन चला जाए।” टपका दी लार तो िशवजीने चाट ली और मुखका कड़वापन चला
गया—तो हरिष सुधा सम िगरा उचारी (मा. १.११२.५)। और पावतीजी वीकारती भी यही
ह—
नाथ तवानन शिश वत कथा सुधा रघुबीर।
वन पुटिन मन पान किर निह अघात मितधीर॥
(मा. ७.५२.ख)
अभी तो आगे कहगी—
शिश कर सम सुिन िगरा तु हारी।
(मा. १.१२०.१)
“भगव ! आपक मुखच◌से िनझ रत होती ई रघुवीरजीक कथासुधाको वन पुटिन
कान पी दोन से पीता आ मेरा मन अघा नह रहा ह।” लोग कहते ह िक देवता क सुधापानक
प ा पावतीजी आय , तो उनको अमृत नह िमला। “पर देवताओ! मुझे तो वह अमृत िमल
गया, िजस अमृतको पीकर भुशु डजी स ाईस क प से अमर ह, मर नह । तुम तो एक म व◌र
प ा नह रहोगे।”
िशवजीने कथा ार भक और पावतीजीक ब त शंसा क —ध य ध य िगिरराजकुमारी
(मा. १.११२.६)। आप ध य ह पावतीजी! आपने तो ीरामकथा-ग ाक संब धम पूछा। अबतक
तो मेर िसरपर ग ा बहती थी, अब लगता ह िक आप यह कहना चाहती ह िक िसरवाली ग ासे
कोई लाभ नह होगा, अब आप अपने मुखसे ीरामकथा-ग ा बहाइये—
पूँिछ रघुपित कथा संगा। सकल लोक जस पाविन गंगा॥
(मा. १.११२.७)
आदरसे सुिनये पावतीजी! म मत क िजये। अगुण-सगुणम कोई भेद नह होता—
अस िनज दय िबचािर तजु संशय भजु रामपद।
सुनु िगिरराज कुमािर म तम रिब कर बचन मम॥
(मा. १.११५)
िशवजी बार-बार कह रह ह—पावती! रामजीको समझनेका यास करो। मेर मतम िनगुण-
सगुणम कोई भेद नह ह—
अगुन अ प अलख अज जोई। भगत ेम बश सगुन सॊ होई॥
(मा. १.११६.२)
पु ष िस काशिनिध गट परावर नाथ।
रघुकुलमिन मम वािम सॊइ किह िशव नायउ माथ॥
(मा. १.११६)
इस संगको रामायण-सं दायम िशवगीता भी कहा जाता ह। पावती! भगवा राम
सि दान◌ िदनेश ह—
८१
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
(२) सुनइ िबनु काना—रामजी िबना कानक सुन सकते ह। ताराक राजमहलम बािल और
ताराका जो संवाद हो रहा था उसे सुन िलया।
(३) कर िबनु करम करइ िबिध नाना—रामजी िबना हाथसे बड़-बड़ कम कर लते ह।
रामजीने श रजीक धनुषपर हाथ नह लगाया था। िकसीने नह देखा था—
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़े। का न लखा देख सब ठाढ़े॥
(मा. १.२६१.७)
िफर भी धनुष तोड़ा—तेिह छन राम म य धनु तोड़ा (मा. १.२६१.८) यह कसे तोड़ा?
कर िबनु करम करइ िबिध नाना।
(४) आनन रिहत सकल रस भोगी—मुख नह चलाया पर भर ाजजीक यहाँ जो भी
सु◌र-सु◌र पदाथ ऋि -िसि ने कट िकये, वह सब भगवा पा गये। और अवधम भी
माताजीने देखा तो सो रह ह—किर ंगार पलना पौढ़ाए (मा. १.२०१.१)। सोते ए भी
वहाँ—भोजन करत देख सुत जाई (मा. १.२०१.४)—सकड़ थािलय क ऐसी-तैसी कर
डाली।
(५) िबनु बानी ब ा—आगे जब हनुमा जी सीताजीको संदेश कह रह ह, तो वाणी ह
हनुमा जीक और बोल रह ह रामच◌जी। नह तो हनुमा जी सीताजीको ि या कहगे ा?—
त व ेम कर मम अ तोरा। जानत ि या एक मन मोरा॥
(मा. ५.१५.६–७)
ा हनुमा जी ऐसा वा बोलगे? हनुमा जी चुप हो गये—अस किह किप गदगद भयउ
(मा. ५.१४) ग दका अथ होता ह वाणीका क जाना। वे तो चुप हो गये, भरे िबलोचन
नीर (मा. ५.१४)। तब वर ह जैसे म बोल रहा माईकसे, तो हनुमा जीक वाणी माईकक
भूिमका िनभा रही ह। माईकको थोड़ कछ समझम आ रहा ह िक म ा बोल रहा ; तभी
तो—
राम कहॆउ िबयोग तव सीता। मो कह सकल भये िबपरीता॥
नव त िकसलय मन कृशानू। काल िनशा सम िनिश शिश भानू॥
कुबलयिबिपन कुंतबन सिरसा। बािरद त तेल जनु बिरसा॥
जे िहत रहे करत तॆइ पीरा। उरग ास सम ि िबध समीरा॥
कहॆ ते कछ दुख घिट होई। कािह कहौं यॆह जान न कोई॥
त व ेम कर मम अ तोरा। जानत ि या एक मन मोरा॥
(मा. ५.१५.१–६)
यहाँ िबनु बानी ब ा ह।
(६) बड़ जोगी—रामजी ब त बड़ योगी ह। वषण-पवतपर अ ारह प वानर से िमलना
ह, समय नह ह। अतः िजतने वानर थे, उतने प बना िलये भगवा ने और कहते ह—
अस किप एक न सेना माहीं। राम कुशल जॆिह पूछी नाहीं॥
(मा. ४.२२.३)
ऐसा कोई वानर ही नह ह, िजससे रामजीने कशल नह पूछी। इसी कार अयो याजीम
८३
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
लौटनेपर—
अिमत प गटे तॆिह काला। जथाजोग िमलॆ सबिह कृपाला॥
(मा. ७.६.५)
(७) तन िबनु परस—रामजी शरीरक िबना भी पश कर सकते ह। सुती णजीको दयम
पश कर िलया और सुती णजी इतने पुलिकत ए िक जैसे कटहलका फल हो। कटहलक
फलम देखो, िकतना बिढ़या काँटा होता ह। अर! एक यि ने िवनोद िकया—“हरा-हरा काँटा;
बूझो तो बूझो नह तो नाक-कान काटा।” तो,
मुिन मग माझ अचल हॊइ बैसा। पुलक शरीर पनसफल जैसा॥
(मा. ३.१०.१५)
(८) नयन िबनु देखा—आँखका योग िकये िबना भगवा देख रह ह। ल ाम बैठ ह और
भरतजीपर ◌ि ह। िवभीषणसे कह िदया िक ज दी क िजये, मुझे पु पकसे ीअवध प चाइये—
दशा भरत की सुिमिर मोिह िनिमष क प सम जात॥
(मा. ६.११६क)
म देख रहा , ा क ? अर!
बीते अविध जाउ जौ िजयत न पावउ बीर।
(मा. ६.११६ग)
यह ह नयन िबनु देखा।
(९) हइ ान िबनु बास अशेषा—भर ाजजीक आ मम ऋि -िसि से कट क
चंदन बिनतािदक भोगा (मा. २.२१५.८)। माला, च◌न सब लोग ने भोगे पर भरतजीको
कछ भी अनुभव नह आ और सारी सुग ध िबना नाकक रामजीने ल ली। इस कार ब त
सु◌र कथा सुनायी। पावतीजीका म दूर हो गया। और संकत देिखये—
िनज संदेह मोह म हरनी। करउ कथा भव सिरता तरनी॥
(मा. १.३१.४)
ायः मेरा वभाव ह िक कोई भी बात म िबना माणक कहना नह वीकारता, मुझे अ◌ा
नह लगता। पूरा सब समझा िदया। मुझे अपनेपर अहकार नह ह पर गौरव अव य ह। म ब त
स अपने जीवनम और म भगवा को कभी-कभी िचढ़ाता । आन◌ लता िक भगव !
आपने मेर कम का फल मुझे िदया ह। कोई छट नह दी आपने। कोई कम रह ह गे, आँख
बंद हो गय । परतु मने इन बंद आँख वाली अव थाम िजतना काम िकया ह भगव ! आपक
आँखवाल करोड़ बेट नह कर पायगे। अब देिखये! यह अहकार नह ह। बापक सामने भीख
माँगने नह जाना चािहए, ब क अ◌ा कम करक पुर कार लने जाना चािहए। तो म तो भुसे
पुर कार लने जाता , भीख नह माँगता उनसे।
तीसरी कथा म हरनी ह। पावतीजी! राम सॊ परमातमा भवानी (मा. १.११९.५)—
रामजी परमा मा ह, वहाँ भी आपने म कर िलया—तह म अित अिबिहत तव बानी (मा.
१.११९.५)।
८४
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ४
८५
कथा ५ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
“मने भी हसका शरीर धारण करक वहाँ रहकर ब त िदनतक एक आवृि ीरामकथा
सुनी। देिखये! पढ़ाना अलग होता ह, सुनाना अलग होता ह। और जो यि पढ़ा भी सक
और सुना भी सक, वह ब त अ◌ा माना जाता ह। तो मने उ◌ से सुनानेक िविध सीखी, तब
पावतीजीको सुनायी। वह जाइये।”
ग डजी भुशु डजीक पास आये। भुशु डजीने देखा िक ग डजी चौरासी लाख योिनय म
भटकते-भटकते डब गये थे। इसीिलए ग डजीक चौरासी लाख योिनय को न करनेक िलए
भुशु डजीने ीरामकथाक ब त िद य चौरासी संग सुनाये। तो यह—भव सिरता तरनी (मा.
१.३१.४)।
भुशु डजी कह भी रह ह—
िबरित िबबेक भगित ढ़ करनी। मोह नदी कह सु र तरनी॥
(मा. ७.१५.७)
आन◌ कर िदया। यह ह चौथी कथा ह। िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो।
सुनु शुभ कथा भवािन रामचिरतमानस िबमल।
कहा भुशुंिड बखािन सुना िबहग नायक ग ड॥
सो संबाद उदार जॆिह िबिध भा आगे कहब।
सुन राम अवतार चिरत परम सुंदर अनघ॥
(मा. १.१२०ख–ग)
मने भी आपको चार कथाएँ सुना द ।
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तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ५
८७
कथा ५ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
८९
कथा ५ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
९०
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ५
वादु! सु वादु मातः।” अतः सं कतम बोलनेसे भगवा का िनयम नह टटा। गहॆिस जाइ मुिन
चरन तब किह सुिठ आरत बैन (मा. १.१२६)। नारदजीका त टट तो गया, पर िवकार नह
आया। उनको झूठा अहकार हो गया िक उ◌ ने कामको जीत िलया। िक श रजीको तो
ोध आ गया था, इ◌ ोध नह आया, जबिक सब र ा भगवा नेक थी। श रजीक पास
गये, बताया। श रजीने कहा—“ऐसी गलती अब दोबारा मत करना। भगवा िव णुको यह
बात मत बताना।” पर ा! वो तो तरगम थे। जाकर िव णु भगवा को भी बता िदया िक मने
कामदेवको जीत िलया। और इतना अहकार ह िक भगवा क आसनपर उ◌ क साथ जाकर
बैठ गये। अब लो! यह कहा िक भगवा तो गृह थ ह, म तो िवर । िवर क मनम यह
बात कभी-कभी अिधक आती ह िक म िवर । अर! िवर हो तो ा आ? ा गृह थ
बुरा होता ह? कभी-कभी ऐसे गृह थ हमने देखे ह जो इतना भजन करते ह जो िवर कभी कर
ही नह सकता। यह सब भेद नह रखना चािहए। चाह गृह थ हो चाह िवर हो, मु य बात
यह ह िक वो भगवा क ित अनुर हो। जो भगवा क ित अनुर नह ह, वह िवर भी ह
तो दो कौड़ीका ह—
तुलसी जो पे राम सो नहीं साँिचलो ेह।
मुंड मुंडाए बाद ही भांड भये तज गेह॥
हमने ब त-से गृह थ को चार बजे उठकर भजन करते देखा ह और िवर जो सात-सात
बजेतक पसर कर सोता रहगा तो ा होगा? बताइये! यहाँ तो भजन धान ह, कोई भी हो।
नारदजीको इतना अहकार हो गया िक बैठे आसन ऋिषिह समेता (मा. १.१२८.५)। भगवा ने
कहा—“अ◌ा!” िफर भगवा ने अपनी मायाक ेरणा कर दी—“दे दो एक बार बाबाको
साद।” मागम ही वैक ठसे भी सु◌र मायाका नगर रच डाला। अपनी मायाको िव मोिहनी
कमारी बना िदया, शीलिनिधक क या। और नारदजी देखे। अर! उनका वैरा य टटा, सब कछ
न हो गया। अब नारदजीक पास कछ भी शेष नह बचा।
करौं जाइ सॊइ जतन िबचारी। जॆिह कार मॊिह बरै कुमारी॥
(मा. १.१३१.७)
क याक ल ण देखे तो बुि दूिषत होनेक कारण उनक ल ण का उ टा अथ ल िलया।
देखा भगवा क माया को। अर! बड़ी सु◌र ह माया! बड़ी अ त ह माया! मायाक हाथक
ल ण देखे और मनम िवचार करने लगे—
जो ऄिह बरइ अमर सॊइ होई। समरभूिम तॆिह जीत न कोई॥
सेविह सकल चराचर ताही। बरइ शीलिनिध क या जाही॥
(मा. १.१३१.३–४)
पर उसका अथ दूसरा था—शीलिनिधक क या उसे वरण करगी जो अमर होगा। यह उसक
वरणक यो यता ह, वरणका प रणाम नह ह। शीलिनिधक क या उसका वरण करगी जो यु म
अजेय होगा, जो चराचर सबका से य होगा—यह ह मूल अथ। पर नारदजीक बुि म िवकार
आ गया ह, अतः वे कह रह ह—“नह ! नह !! जो पु ष इसका वरण करगा, वह अमर हो
जायेगा, वह यु म िवजयी होगा। जो पु ष इसका वरण करगा, वह चराचरका से य होगा।”
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कथा ५ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
अब नारदजीक मनम आया िक मुझे िकसी कार यह क या िमलनी चािहए। पर कसे िमलगी?
गाल तो िपचक ए ह, बाल सब ेत हो गये ह, य लगानेपर भी काल नह ह गे। तब
सोचा—“चलो! भगवा से प माँग लता ।” अब भगवा से कहा—“भगव ! आप अपना
प मुझे दे दीिजये।” भगवा ने पूछा—“ ?” नारदजी बोल—आन भाँित निह पावौं ओही
(मा. १.१३२.६)। भगवा ने पूछा—“िकसे?” नारदजी क याका नाम नह ल रह ह, कह रह
ह—“उसे।” भगवा ने कहा—“अर बाबा! अभी िववाह नह आ, तबतक घरवाली बना िलया
तुमने? अब सब कछ न हो गया, चला गया सब कछ। गरीब हो गये। सरलक अपे ा किटल
ए। सबल नह , िनबल हो गये। वामी नह , दास हो गये कािमनीक। राजा नह , रक हो गये।”
तब रामजीने कहा—“कोई बात नह ! िव णुजी आपने तो इ◌ द ड िदया पर म सुधा गा।”
तो भगवा ने सोचा िक ा क । तब िव णुजीको हटाकर रामजीने वयं भूिमका सँभाली और
इनको वानरका प दे िदया। वानरका प िदया? िक आगे चलकर हनुमा जी वानर
बनगे। तो वा◌वम हनुमा जीका चेहरा दे िदया। यिद हनुमा जीका चेहरा इनको िमल जायेगा
तो ये मायाक च रसे बच जायगे, यह सबसे बड़ी बात ह। इसिलए—
मुिन िहत कारन कृपािनधाना। दी कु प न जाइ बखाना॥
(मा. १.१३३.७)
आहाहा! िकसीने नह देखा। सो व प नृपक या देखा (मा. १.१३४.७), राजकमारीने
देख िलया और कहा भगव ! आपने बचा िलया इनको, नह तो आज तो इनक ऐसी-तैसी
होती ही। इनको हनुमा जीका प िमल गया इसिलए मायाने इ◌ नह देखा, भूलकर भी नह
देखा। सब कछ िमल गया नारदजीको अब। नारदजीने देखा िक भगवा मायाको ल गये, तो
याकल हो गये। गण ने कहा—“अपना मुख शीशेम तो देखो।” जलम देखा—पुिन जल
दीख प िनज पावा (मा. १.१३६.१)—िमल गया प, सब कछ िमल गया। अ◌म नारदजी
भगवा नारायणको शाप देने चल। भगवा नारायण तो थे नह , रामजी थे वहाँ। संग रमा सॊइ
राजकुमारी (मा. १.१३६.४)—साथम सीताजी, सॊइ राजकुमारी’ वही मायावाली सीताजी,
िजनका योग अभी करगे अर यका डम। भगवा ने पूछा—“कहाँ जा रह हो?” नारदजीने
ाप दे िदया—“ठीक ह! आपने राजाका शरीर धारण करक मुझे ठगा, आपको वही शरीर
िमल।” भगवा ने कहा—“कोई बात नह ।” नारदजीने कहा—“मेरा अपकार िकया—आप
नारी िवयोगम दुःखी ह गे।” भगवा ने कहा—“कोई बात नह ! िववाह तो हो ही जायेगा मेरा।”
नारदजीने इ◌ यह नह कहा िक जैसे तुमने मेरा िववाह नह होने िदया, तु हारा िववाह भी न
हो। पर कहा—“आपने मेरी आकित वानरक क , वही वानर आपक सहायता करगे।”
किप आकृित तुम की हमारी।
किरहै कीस सहाय तु हारी॥
(मा. १.१३७.७)
आन◌ हो गया। भगवा ने माया दूर कर दी और एक साथ छः यश का योग िकया—(५)
गई बहोर (मा. १.१३.७)—उनका गया आ चय िमल गया, (६) गरीब िनवाजू (मा.
१.१३.७)—उ◌ स मान िदया भगवा ने, (७) सरल (मा. १.१३.७)—सरलता बरती, किटल
९२
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ६
मायाको दूर कर िदया, (८) सबल (मा. १.१३.७)—मुिनको बलवा बना िदया, गण को
शाप देकर उ◌ रा स बनाया, (९) सािहब (मा. १.१३.७)—सेवकक र ा कर ली, (१०)
रघुराजू (मा. १.१३.७)—मुिनको रक बननेसे रोक िदया। बोिलये भ व सल भगवा क जय
हो!
बुध िब ाम सकल जन रजिन। रामकथा किल कलष िबभंजिन॥
(मा. १.३१.५)
गण को वरदान िदया नारदजीने िक तु हार कारण भगवा का अवतार होगा। इस कार
प म कथाक या या कर दी।
॥ बोिलये भ व सल भगवा क जय ॥
९३
कथा ६ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
९४
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ६
९५
कथा ६ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
९६
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ६
(१) सॊइ सुख —मुझे वही सुख अथा अपने िनजी भ जैसा सुख दीिजये, (२) सॊइ
गित—भ जैसी गित दीिजये, (३) सॊइ भगित—भ जैसी भि दीिजये, (४) सॊइ िनज
चरन सने —भ जैसा अपने चरण म ेम दीिजये, (५) सॊइ िबबेक —भ जैसा िववेक
दीिजये, (६) सॊइ रहिन—भ जैसी रहनी अथा यवहार दीिजये।
भगवा स ! और कहा—
मातु िबबेक अलौिकक तोरे। कब न िमिटिह अनु ह मोरे॥
(मा. १.१५१.३)
“माँ! आपका अलौिकक िववेक ह, ध य कर िदया!” मनुजीने कहा िक मुझे दो वरदान
और चािहए—
सुत िबषियक तव पद रित होऊ। मोिह बड़ मूढ़ कहै िकन कोऊ॥
(मा. १.१५१.५)
“ह भगव ! आपक चरण म मुझे पु िवषयक ेम हो।” यहाँ एक बात ब त ग भीर ह जो
यान देनी चािहए। आगे चलकर मनुजी दशरथक पम ज म िलये? इसीिलए िक यहाँक
करणम मनुजीने भगवा से दस वरदान माँगे थे। इसको यानसे सुनते ह। दस वरदान माँगे।
अब देखते जाइये—
जो व प बश िशव मन माहीं। जॆिह कारन मुिन जतन कराहीं॥
जो भुशुि ड मन मानस हसा। सगुन अगुन जॆिह िनगम शंसा॥
देखिह हम सॊ प भिर लोचन। कृपा कर नतारितमोचन॥
(मा. १.१४६.४–६)
यहाँ पर देखिह हम सॊ प भिर लोचनका अ वय उपरो चार अ ािलय से होगा।
अथा , जो व प बश िशव मन माहीं, देखिह हम सॊ प भिर लोचन, जेिह कारन
मुिन जतन कराहीं, देखिह हम सॊ प भिर लोचन। इ यािद। कारा◌रसे यहाँ चार वरदान
माँगे गये—
(१) जो व प बश िशव मन माहीं—आपका जो व प िशवजीक मनम िनवास करता
ह, हम उस पका ने भरकर दशन कर ऐसी कपा कर।
(२) जॆिह कारन मुिन जतन कराहीं—िजसक िलए मुिनजन य करते रहते ह (िक हमार
दयम बस), हम उस पका ने भरकर दशन कर ऐसी कपा कर।
(३) जो भुशुि ड मन मानस हसा—जो काकभुशु डजीक मन प मानस-सरोवरका हस
ह, हम उस पका ने भरकर दशन कर ऐसी कपा कर।
(४) सगुन अगुन जॆिह िनगम शंसा—सगुण और िनगुणक पम िजसक वेद ने
शंसाक ह, हम उस पका ने भरकर दशन कर ऐसी कपा कर। चार व प क दशन
करने क िलए चार वरदान माँगे, इसिलए अगल दोह (मा. १.१४६)म चार उपमाएँ दी गय —
(क) नील सरो ह, (ख) नील मिन, (ग) नील नीरधर याम, (घ) लाजिह तन शोभा
िनरिख कोिट कोिट शत काम—ये चार वरदान।
९७
कथा ७ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
९८
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ७
९९
कथा ७ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
१०१
कथा ७ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
१०२
तृतीय पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ७
१०३
कथा ७ ीरामच रतमानस-कथा तृतीय पु प
१०४
चतुथ पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
मनोजवं मा ततु यवेगं िजतेि यं बुि मतां विर ।
वाता मजं वानरयूथमु यं ीरामदूतं िशरसा नमािम॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय।
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
रामकथा सुंदर करतारी। संशय िबहग उड़ावनहारी॥
(मा. १.११४.१)
रामकथा किल प ग भरनी। पुिन िबबेक पावक कह अरनी॥
(मा. १.३१.६)
॥ ीसीताराम भगवा क जय ॥
प रपूणतम परा◌र परमा मा मयादा-पु षो म जग पता परमे र पर भगवा
ीसीतारामजीक कपासे मोदीनगरम, ीराघव-सेवा-सिमितक त वावधानम समायोिजत, अपनी
१२५१व रामकथाक चतुथ स म समवेत सभी ब धु -बा धिवय का म दयसे ब त वागत
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प
गो वामीजी कर रह ह—
कुपथ कुतरक कुचािल किल कपट दंभ पाखंड।
दहन राम गुन ाम िजिम इधन अनल चंड॥
(मा. १.३२क)
गो वामीजी कहते ह िक किलयुगने कहा िक म सात दोष से ािणय को िततर-िबतर क गा।
(१) कुपथ—वेदिव माग, (२) कुतरक—वेदिव तक करना, (३) कुचािल—बुरी चाल
चलना, (४) किल—सबसे झगड़ा करना, (५) कपट, (६) दंभ —जैसे ह वैसे नह , उसक
िवपरीत अपनेको ◌ुत करना, और (७) पाखंड —िवधमका आचरण करना। ये सात दोष
किलयुगक ह। इन सात दोष को भगवा ीरामक गुण ाम उसी कार जला डालते ह, जैसे
च ड अि इ धनको जला डालती ह। तो रामजीने ज म िलया सातव कथाम। यह कथा सात
दोष को न करगी।
बुध िब ाम सकल जन रजिन। रामकथा किल कलष िबभंजिन॥
(मा. १.३१.५)
रावणक अ याचारसे ◌ ई गो पधा रणी पृ वीजीने ाजीक सम आकर अपनी
यथा कही, तब ाजी श रजीक पास आये। िशवजीने कहा िक भगवा तो ेमसे कट होते
ह— ेम ते गट होिह मैं जाना (मा. १.१८५.५)। तब ाजीने जय जय सुरनायक जन
सुखदायक नतपाल भगवंता (मा. १.१८६.१)—ब त सु◌र ◌वन ह रामायणजीका—
भगवा रामक ◌ुितक और भगवा रामने आकाशवाणी क । यान रिखये—किल कलष
िबभंजिन (मा. १.३१.५)। इसीिलए आकाशवाणीम भगवा ीराम सात ही पि याँ पढ़ रह ह
और दोहा भी ब त यारा ह। सुनकर नाच उठगे, ब त-ब त यारा दोहा ह। देिखये!—
जिन डरप मुिन िस सुरेशा। तुमिह लािग धिरहउ नरबेशा॥
(मा. १.१८७.१)
यहाँसे ार भ करते ह भगवा और,
हिरहउ सकल भूिम ग आई। िनभय हो देव समुदाई॥
(मा. १.१८७.७)
यहाँ ीरघुनाथजीने सात ही पि याँ पढ़ी ह और वे सूचना दे रह ह िक तु ह हम सात
दोष से मु करगे। यह कथा सात दोष से मु करगी—
(१) कुपथ—यह पि कपथसे मु करगी—
जिन डरप मुिन िस सुरेशा। तुमिह लािग धिरहउ नरबेशा॥
(मा. १.१८७.१)
(२) कुतरक—यह पि कतकसे मु करगी—
अंशन सिहत मनुज अवतारा। लैहउ िदनकर बंश उदारा॥
(मा. १.१८७.२)
(३) कुचािल—यह पि कचािलसे मु करगी—
१०७
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प
१०९
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प
१११
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प
११२
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८
बृंद बृंद िमिल चलीं लगाई। सहज िसंगार िकये उिठ धाई॥
कनक कलश मंगल भिर थारा। गावत पैठिह भूप दुआरा॥
(मा. १.१९४.३–४)
समूहक समूह ीअवधक माताएँ वाभािवक ार िकये ए दौड़ । १२ बजे कौन ार
करगा? वणका कलश, म ल-थाल िलए गाते-गाते वेश कर रही ह।
किर आरित नॆवछाविर करहीं। बार बार िशशु चरनिन परहीं॥
(मा. १.१९४.५)
आरती कर रही ह राघवजीक और बार-बार भगवा क चरण को देख रही ह—
िहमकर बदन िनहािरके लोचन फल लीजै।
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
कौश याके लालकी सखी आरती कीजै॥
याम शरीर सुहावना तनु भूषण राजै।
वण सुभग मनभावना कल कुंडल भाजै।
तन-मन-धन सब वािरके जीवन सुख लीजै॥
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
खंजन कमल िवलोकना लिख मुिनमन मोहे।
अ ण अधर भवमोचना िवधु-आनन सोहे।
मु किन मधुर स हािरके सब पातक छीजै॥
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
कमल करन कंकन लसै बघनाह उर राजै।
मु ामाल दय बसै िझंगुली तन साजै।
नख िसख सुभग सँवािरके मन ेम पसीजै॥
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
िवधु मुखकमल िनहािरके लोचन भर लीजै।
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
बालक प अनूप है मानव तनुधारी।
रघुकुल सुकृत व प है नृप-अिजरिबहारी।
िगिरधर भु मनुहािरके जीवन रस लीजै।
कौश याके लालकी शुभ आरती कीजै॥
आज भगवा क आरती कर रह ह माताएँ।
सबस दान दी सब का । जॆिह पावा राखा निह ता ॥
(मा. १.१९४.७)
रामकथा किल प ग भरनी (मा. १.३१.६)—यह ीरामकथा दस िदशा से किलको
समा कर रही ह। इसीिलए यहाँ दस दोह कह गये ह। हमार जीवनक दस इि◌य म जो
किलकाल ह, उसको यह कथा न करगी। चार ओर बधाइयाँ बज रही ह—
११३
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प
११५
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प
११६
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८
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कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प
११९
कथा ८ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प
१२०
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८
यह ावणक झाँक ह। झूलक िलए रामललाको तैयार िकया ह माताजीने। िवशाल भुजाएँ,
बड़ सु◌र-सु◌र अल ार, दयपर बघनखा धारण कराया ह। िहय हिरनख अित शोभा
री—ब त सु◌र शोभा ह! नृिसंह भगवा ने ही अपने नख बघनखाक िलए दे िदये ह िक
माताजी! ये राघवजीको धारण करवाइये िक िहर यकिशपुका व ः थल िवदीण करनेसे मेर
नख खूनी हो गये थे। आज उ◌ को काटकर दे रहा । भगवा का बघनखा बना दीिजये। ह
ह र! मेरा सौभा य! नह तो िहय बघनख िलख देते, तो ा िबगड़ जाता?
(६) अब भाद क शोभा—
उर मिनहार पिदक की शोभा। िब चरन देखत मन लोभा॥
(मा. १.१९९.६)
भगवा क दयपर मिणका हार, हीरा चमक रहा ह। पिदक माने हीरा। और विस जीक
चरण माताजीने रखवा िदए थे, िजससे नजर न लगे। तो िव चरण देखकर मन मु ध होता जा
रहा ह, ल ध हो रहा ह। ब त सु◌र!
(७) अब आया आि न मास, िजसको हम आजकल ा बोलते ह? ार। इसक झाँक
देिखये—
कंबु कंठ अित िचबुक सुहाई। आनन अिमत मदनछिब छाई॥
(मा. १.१९९.७)
श क समान भगवा का गला ह, ब त सु◌र िचबुक (ठोढ़ी) ह, भगवा क ब त सु◌र
मुख। अब भु धीर-धीर मु कराने लगे ह। तो भगवा क मुखपर अनेक मदन अनेक कामदेव क
छिव छा गयी ह। आहाहा!
(८) अब आठव महीने काि कका वणन देिखये—अब यानसे सुिनये। ब त अ◌ा ह!
सातव महीनेम भगवा क दाँत िनकल आये ह, और आठव महीनेम अब िदखने लगे ह—
दुइ दुइ दशन अधर अ नारे। नासा ितलक कॊ बरनइ पारे॥
(मा. १.१९९.८)
भगवा ीक णक आठव महीनेम दाँत िनकल थे। िजस बालकक दाँत आठव महीनेम
िनकलते ह, वह मामाको खा जाता ह। परतु राघवजीक दाँत सातव महीनेम िनकल चुक थे,
अब दुइ दुइ दशन िदख रह ह चमाचम। लाल अधर, नासा भगवा क बड़ी सु◌र, ितलक
और माताजीने नजरक डरसे नाकपर भी थोड़ा ितलक लगा िदया ह तो—नासा ितलक कॊ
बरनइ पारे। अथवा भगवा क नािसकापर एक ितल ह, इतना सु◌र ितल िक उसका कौन
वणन करगा! ा आन◌ हो रहा ह! नासा ितलक कॊ बरनइ पारे।
(९) अब आया मागशीष यािन अगहन—तो अगहनका ा वणन कर रह हो? ब त सु◌र
ह!
सु र वन सुचा कपोला। अित ि य मधुर तोतरे बोला॥
(मा. १.१९९.९)
भगवा क वण बड़ सु◌र ह। नौ महीनेका बालक सु◌र होता ही ह। गो वामीजी कहते
ह िक नौव महीनेम रामजी बोलने लगे ह। बड़ा सु◌र व प—मईया, बाबा, भलत, ल◌मन,
१२२
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८
१२४
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ८
१२५
कथा ९ ीरामच रतमानस-कथा चतुथ पु प
१२६
चतुथ पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ९
िकलक रह ह। जैसे ही मुखसे दही भात िगरा, वही जूठन भुशु डजीने पा ली—जूठन परइ
जॊ अिजर मह सो उठाइ किर खाउ (मा. ७.७५क)। अब बड़ हो रह ह।
बालचिरत अित सरल सुहाये। शारद शेष शंभु ुित गाये॥
(मा. १.२०४.१)
भुका बाल च रत ब त सु◌र ह। इसे सर वती, शेष, श र, और वेद ने गाया। सर वतीजी
प ी लकर आय , शेषजी पृ वीसे खिड़या लकर आये, पहल प ीपर उसीसे िलखते थे। श रजीने
चौदह सू का उ ारण कराया, ुितय ने देवनागरी िलिप बतायी। और भगवा का य ोपवीत
आ—
भये कुमार जबिह सब ाता। दी जनेऊ गु िपतु माता॥
(मा. १.२०४.३)
भगवा को य ोपवीत धारण कराया गया। य ोपवीतक नौ धागे, नौ देवता का एक-एक
धागेम आ ान होता ह—(१) ॐकार, (२) अि देव, (३) सप, (४) सोम, (५) जापित, (६)
िपतर, (७) वायु, (८) यम और (९) िव ेदेव का। नौ देवता क भगवा आ य ह। भगवा ने
य ोपवीत धारण िकया।
गु गृह गये पढ़न रघुराई। अलप काल िब ा सब आई॥
(मा. १.२०४.४)
यह ह—िब ा िबनु िबबेक उपजाये (मा. ३.२१.९)। पुिन िबबेक पावक कह अरनी
(मा. १.३१.६)। गु देवक यहाँ गये भगवा पढ़ने, थोड़ ही कालम सारी िव ाएँ आ गय िब ा
िबनय िनपुन गुनशीला (मा. १.२०४.६)। दी ा◌ समारोह आ, भगवा ने विस जीको
गु दि णा दी—“गु देव! जबतक भारतसे आत वादको समा नह कर दूँगा, तबतक म
धनुष नीचे नह रखूँगा—यही मेरी गु दि णा ह।” और भगवा पधार गये।
ब त सु◌र िदनचया ह। ातःकाल उठकर माता-िपता, गु देवको णाम करते ह। िजस
कार लोग सुखी रहते ह, ऐसा संयोग करते ह। वनम मृगया करते ह, जो शािपत लोग मृग बन
गये ह, उनको बाणसे मारकर साकतलोक भेज रह ह। इस कार नौव कथा पूण।
यापक अकल अनीह अज िनगुन नाम न प।
भगतहेतु नाना िविध करत चिर अनूप॥
(मा. १.२०५)
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय हो!
पवनपु हनुमा जीमहाराजक जय हो!
गो वामी तुलसीदासजीक जय हो!
जय-जय ीसीताराम!!!
१२७
प म पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
ीरामच रघुपु व राजवय
राजे राम रघुनायक राघवेश।
राजािधराज रघुन न रामभ
दासोऽहम भवतः शरणागतोऽि म॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
य य रघुनाथकीतनं त त कृतम का िल ।
वा पवािरपिरपूणलोचनं मा ितं नमत रा सा क ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय। पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी
तुलीदासजी महाराजक जय हो। ेमसे बोिलये ीसीताराम भगवा क जय हो।
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
॥ सीताराम जय सीताराम, सीताराम जय सीताराम ॥
तुलसी सीताराम कहो दय रािख िब वास।
कब िबगड़त ना सुने ( ी)सीतारामके दास॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
१३१
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
इतना सु◌र भाषण सं कतम िकया तो मने, मुझ-जैसे िव ाथ ने भी, मा ७५ ितशत समझा।
म झूठ नह बोलता। आजकलक लड़क वयंक िलए कह देते ह िक म शुकाचाय । म
ा बताऊ? एक लड़का मुझको ह र ारम िमला। ज मा य (भा.पु. १.१.१) पढ़ना उसको
आता नह था और बालशुकाचाय अपनेको िलखता था। िजनक आँख च ल ह , िभ -िभ
क या पर िजनक आँख जाय, वे आज बालशुकाचाय बन बैठ! सोिचये? तो म यह नह कह
रहा िक म ब त िव ा । मुझे कवल ७५ ितशत समझम आया, पर मेर मनम बात हो
गयी िक मुझे ऐसी तैयारी करनी ह िक मुझे शत- ितशत समझम आना चािहए। िफर तीन महीने
मने ब त कठोर प र म िकया, घनघोर प र म िकया। उसी िदन जब म करपा ीजीसे िमला,
उनक भाषणक प ा , तो वे बड़ स ए। उ◌ ने पूछा—“िकतना ितशत तुमने मेरा व य
समझा?” तो हमार सं कतक सभी िव ािथय मसे िकसीने कहा ५ ितशत, िकसीने कहा १०
ितशत। मने कहा—“आपका व य मने ७५ ितशत समझा।” “अर!” वे बोल—“तुम बड़
यो य हो बेट! अ◌ा, एक काम करो। रामायणक चौपाई कछ जानते हो?” मने कहा—“मने
पूरी क ठ थ कर ली महाराज। सात वषक अव थाम मने रामायणजी क ठ थ कर ली थी।”
कहा—“एक काम करो।
गु गृह गये पढ़न रघुराई। अलप काल िब ा सब आई॥
(मा. १.२०४.४)
इसीका संपुट लगाकर तुम अब ितिदन रामायणजीका एक नवाहपारायण करो। देखना िफर
यह चौपाई र ला देगी।” िफर मने दूसर िदनसे ार भ कर िदया और ३० अ ैल १९७६को
जब मने अ ◌म परी ा दे ली तो जाकर वामीजीको णाम िकया। उ◌ ने कहा—“अर! अब
तो हो गया, अब तो तुमने शा ी भी टॉप िकया, आचाय भी टॉप िकया, अब बंद कर दो।”
मने कहा—“नह ! थोड़ी देर और पढ़ने दीिजये। जबतक पी.एच.डी. न कर ल तबतक।”
उ◌ ने कहा—“अ◌ा, ठीक ह!” िफर १४ अ ूबर १९८१को जब मेरा पी.एच.डी.का viva
हो गया। तब उ◌ ने कहा—“अ◌ा! अब मत पढ़ना। नह तो झगड़ा हो जायेगा।” यह इतनी
मह वपूण चौपाई ह। मुझको तो यही लगता ह िक जो ितभा िमली ह, यह करपा ीजीक ेरणा,
गु जन का आशीवाद और इसी चौपाईसे रामायणजीक पाठ करनेका फल िमला मुझको।
गु गृह गये पढ़न रघुराई। अलप काल िब ा सब आई॥
(मा. १.२०४.४)
ा कर! तुम लोग पढ़ना ही नह चाहते, यथक ग प लगाओगे। अब आज पूछा मने—
प रािश नृप अिजर िबहारी (मा. ७.७७.८), तो इतना भी नह आया। म झूठ नह बोलगा,
मुझे उस समय ब त ोध आया। आँख लकर, बटन-जैसी, बैठ हो यार! नह आया,
नह आता? इसका अथ ह िक तुम शा क िलए समिपत ही नह होना चाहते। िजस िकसी भी
िव ाथ को ितभावा बनना ह, वह इसी चौपाईसे कम-से-कम नवाहपारायण या मासपारायण
करना ार भ करो। देखो! र ला देगी! और ीकरपा ीजीका वचन झूठा नह जायेगा। ब त
अ◌े थे। म ब त गौरवसे कहने जा रहा िक बीसव सदीक उ राधम ीकरपा वामीजी
अिभनव श ाराचाय ही थे।
१३३
◌ावना ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
देिखये! यह बात सब लोग भूल जाओ और आजसे अपने मनसे िनकाल दो िक भगवा नह
िमलगे। आज भी भगवा िमलते ह। दूसरी बात भी अपने मनसे िनकाल दो िक पढ़ने-िलखनेका
स मान नह ह। आज भी िव ाका स मान ह और रहगा। हाँ! िड ीका स मान नह ह। िड ी
पाकर तुम आचाय बन जाओ। एक अ र सं कत बोलना तुमको नह आता। ा कर लोगे
आचाय बनकर तुम? वही बस सेठ का ॐ गणानां वा गणपितं हवामहे (ऋ.वे. २.२३.१)
करते रहो और सेठ से अर-तूरक भाषा सुनते रहो और ा करोगे? आजतक क थितम मने
िकसीक यहाँ कभी कमका ड नह िकया, िकसीक भंडारम भोजन नह िकया, ा म भोजन
नह िकया। कछ नह । िक मने पढ़ा अपने आन◌क िलए, पैसेक िलए नह पढ़ा था। नह
तो आप बताइये! यूिनविसटी टॉप करनेक बाद कोई ोफसर बने रह सकता ह ा? परतु मने
नौकरी नह क । देिखये! पढ़नेका फल जीिवका नह ह, सं कतभाषाक अ ययनका फल ह
भगवा क ाि । जीवनम कभी िकसीको मने स यनारायण कथा नह सुनायी, िकसीसे चरण
नह धुलवाया। सब लोग यही सोचते ह िक बाबा ह, पढ़-िलखे ानी ह, इनसे पूजा कराओ,
कमका ड कराओ, ा कराओ। यह ा णका फल थोड़ ही ह! हमको गव ह अपनी
िव ापर! तो िम ो! आज भी िव ाका प रणाम िमलता ह। आज भी िव ाका स मान होता ह,
परतु उसक िलए पहल याग करना पड़ता ह। और पहलसे ही तुम सोचो िक हमको हर-हर
नोट िमलने लग, मोबाइल िमलने लगे, तब तो िव ा आने वाली नह । यह भी ब त िविच ह।
जाकी सहज ास ुित चारी। सो हिर पढ़ यह कौतुक भारी॥
िब ा िबनय िनपुन गुन शीला।
(मा. १.२०४.५–६)
भगवा पढ़कर आये। सविव ा त ातः (वा.रा. १.१.२०)। विस -िव िव ालयम
पढ़कर आये। भगवा सामा य िव ाथ नह ह, पी.एच.डी., डी.िलट., ... चकाचक, जो कछ
कहना चाहो कहो। एम.ए. कहो, एम.एस.सी.कहो, एम.एस.सी. (ए.जी.) कहो, एम.कॉम.
कहो, एम.सी.ए., एम.बी.ए. िजतना कहते बने उतना कहो। सबम जहाँ एम लगा होता ह
वहाँ मा टर होता ह—M.A. (Master of Arts), M.Sc. (Master of Science), M.Com.
(Master of Commerce) सबम एम ह। ा बात करते ह!
दी ा◌ आ। विस जीको भगवा ने दि णा दे दी—“गु देव! म आपको वचन देता
िक जबतक भारतवषसे आत वादका सफाया नह हो जायेगा, तबतक म धनुष-बाण नीचे नह
रखूँगा।” इसीिलए बन मृगया िनत खेलिह जाई (मा. १.२०५.१)। मृगया खेलने जाते
थे? जानते थे िक िकसी भी वेषम आत वादी आये तो उसे खदेड़-खदेड़कर मारो, उसक घरम
घुसकर मारो, होगा जो कछ होना होगा। हम यही िनणय करने जा रह ह। हम १८ सैिनक क
बिलदानका उ र उधरक १८ हजार नरमु ड क बिलदानसे लगे। इस बार मेरी मोदीनगरक
कथाका कछ दूसरा ही आन◌ ह। पहल नव कथाका उपसंहार। मृग का उ ार करनेक िलए
उ◌ ढढते रहते थे रामजी—
जे मृग रामबान के मारे। ते तनु तिज सुरलोक िसधारे॥
(मा. १.२०५.३)
१३४
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १०
१३५
कथा १० ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
१३६
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १०
िमल गये—(१) अथ—श ु लालको देखकर अथ िमला, (२) धम—ल मणजीको देखकर धम
िमला, (३) काम—भरतजीको िनहारकर सारी कामना क पूित हो गयी, और (४) मो —
रामच◌जीको िनहारकर मो का फल पूरा-पूरा िमल गया।
राम देिख मुिन देह िबसारी (मा. १.२०७.५)—एकटक िनिनमेष नयन से भुको िनहारने
लगे। च वत जीने कहा—“आपका आगमन िकसिलए आ ह—कॆिह कारन आगमन
तु हारा (मा. १.२०७.८)।” िव ािम जीने कहा िक राज ! असुर-समूह मुझे ब त सता
रह ह। म आया आपसे ...जाचन नृप तोही (मा. १.२०७.९) नृपको माँगने, नॄ पातीित
नृपः। म मनु य क र क ीरामको आपसे माँगने आया —
अनुज समेत दे रघुनाथा। िनिशचरबध मैं होब सनाथा॥
(मा. १.२०७.१०)
अनुज श द ल मणजीक िलए ढ ह। अनुज माने छोटा भाई होता ह, पर ल मणजीका
एक कारसे अनुज नाम ही पड़ गया। राज ! मुझे अनुज माने ल मणजीक सिहत रघुनाथजीको
दे दीिजये िक रा स का वध होनेसे म सनाथ हो जाऊगा, अभी अनाथ राज !
जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे।
जवन सब ओर झुकेला ऊ माथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
करतल सोहे लघु तीर औ धनुिहया। मुख लखी लाज रही शरद जुनिहया॥
जवन बीचवेमें छोड़ेला ऊ साथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
क णा समु राम भ सुखदाई। भरत लखन िरपुहन छोट भाई॥
जवन सब ओर पसरे ऊ हाथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
दशरथ पू य िपता कौश याजी माता। सीता जैसी धमप ी जन सुखदाता।
जवन शरणागतके पाले ना ऊ नाथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
रामच भगवा भु अ यामी। समरथ शि मान िगिरधरके वामी।
अनुज समेत दे रघुनाथा। िनिशचरबध मैं होब सनाथा॥
जवन रामके न भजे ऊ सनाथ कैसे। जेकर नाथ रघुनाथ ऊ अनाथ कैसे॥
॥ बोिलये रघुनाथ भगवा क जय हो ॥
यह ह ीरामकथा! और बताओ तुम लोग को समझम आ रहा ह या नह ? बता देना!
समझम आये, ताली बजाना और न समझम आये तो संकोच छोड़कर कहना म िफर समझाऊगा।
परतु िनि त पसे इस कथाक कभी तुलना नह होगी। हाँ, यिद म ही कथा दोबारा कहने
आऊगा तो तुलना हो जाए।
िव ािम जीने रघुनाथजीको माँगा—अनुज समेत दे रघुनाथा। च वत जीने कहा—
“आप रघुनाथजीको ही माँग रह ह?” िव ािम बोल—“राज ! इससे पहल एक बात
कही गयी ह—”
ातकाल उिठ कै रघुनाथा। मातु िपता गु नाविह माथा॥
(मा. १.२०५.७)
“इनको इसिलए रघुनाथ कहा जाता ह िक ये ातः काल उठकर माता-िपता और गु को
१३७
कथा १० ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
१३९
कथा १० ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
ये दोन पु ष-िसंह ह। वनम िसंह जाता ह तो डरता थोड़ ही ह? िसंह हािथय को फाड़कर
फक देता ह। आ रह ह भु। िव ािम जीको महािनिध िमल गयी। रामकथा किल कामद
गाई (रा.च.मा १.३१.७)। यह कथा सबको कछ न कछ देगी। ताटका दौड़ी।
चले जात मुिन दी दॆखाई। सुिन ताड़का ोध किर धाई॥
एकिह बान ान हिर ली ा।
(मा. १.२०९.५–६)
एक ही बाणम भगवा ने उसक ाण ल िलए। ाण तो िलए पर िदया ा? दीन जािन
तॆिह िनज पद दी ा (मा. १.२०९.६)। बताओ कहाँ जाना चाहती हो ताटका? ताटकाने
कहा—“म एक बार अभी थोड़ा और आपको देखना चाहती , िफर बताऊगी म कहा जाना
चाहती ।”
तिनक मु कुराओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
तु हारी यह शोभा अनुपम िनराली। इसीसे मैं भर ल िवलोचनकी याली॥
तिनक पास आओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
िलए कंज हाथोंमें सायक धनुिहयाँ। पधारे है वनमें िबना ही पनिहया॥
तिनक छिव िदखाओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
नृपितके दुलारे कौश याके बारे। भु दास िगिरधर के नयनोंके तारे॥
तिनक ग चलाओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
तिनक मु कुराओ राम शुभे ा यही है। अभी हमनेजी भरके देखा नहीं है॥
ताटकाने देखा और भगवा को और कहा—“अब तो मुझे इ◌ चरण म थान दे दीिजये।”
एकिह बान ान हिर ली ा। दीन जािन तॆिह िनज पद दी ा॥
(मा. १.२०९.६)
रामकथा किल कामद गाई (मा. १.३१.७)। देिखये! वैक ठ तो सब जीव जाते ही
रहते ह, पर ताटकाको अपना पद माने चरण दे िदया। इसक प ा िव ािम जीने भगवा को
बला-अितबला िव ा दी, स पूण श समिपत िकये, क◌-मूल फल भोजन िदया। ातःकाल
भगवा ने कहा—
ात कहा मुिन सन रघुराई। िनभय ज य कर तुम जाई॥
(मा. १.२१०.१)
आप िनभ क होकर य क िजये। िनभ क होकर य करने लगे—
होम करन लागे मुिन झारी। आपु रहे मख की रखवारी॥
(मा. १.२१०.२)
मुिनलोग गाने लगे—
चतुिभ चतुिभ ा यां प िभरेव च।
यते च पुन ा यां त मै होमा मने नमः॥
(म.भा. १२.४७.४४)
पाँच कारसे होम करना ार भ िकया। पहल चतुिभः चार अ रसे—ॐ आ ावय
१४१
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
१४२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
अब प यह ह िक गौतमजीने ाप िदया ह—
वातभ ा िनराहारा त य ी भ मशाियनी।
अ या सवभूतानामा मेऽि म विस यिस॥
(वा.रा. १.४८.३०)
गौतमने कहा ह—अह या वातभ ा—कवल वायुका आहार करक अथा अ य
आहार को न करती ; त य ी; भ मशाियनी, भ मशाियनी होकर—भ म माने राख होता
ह अथा अि िजसको जलाकर छोड़ दे उसे भ म कहते ह; तथा अ या सवभूताना
अथा सभी जीव से अ◌ य होकर यहाँ िनवास कर रही ह। तो ा अह याजी भ मम शयन
कर रही थ ? इसका कछ और दूसरा अथ कहना चाहते ह। देिखये, सं कतम प थरको अ म
कहते ह। हमार उ र देश और म य देशम श का कोई ब त अिधक मह व नह ह, पर
हम लोग क यहाँ मह व ह। इस कार अ म माने प थर। और भासे यु अ मको भ म
कहगे तथा पृषोदरादीिन यथोपिद (पा.सू. ६.३.१०९) हमार यहाँ सं कतका एक सू
ह, उससे ताल य श को द◌ स बन गया और पर प हो गया। इस कार भ म से बन गया
भ म । इसका अथ हो गया काशसे यु िशलाम शयन करने वाली। भया यु ः यः पाषाणः
त म शेते त◌ीला इित भ मशाियनी । वा मीिकजी यह कह रह ह िक अह याक आ मा
एक काशवान िशलाम सो रही ह पर◌ु अ या सवभूताना उनको कोई देख नह रहा ह।
जब िकसीने नह देखा तो रामजीने कसे देख िलया?
आ म एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तह नाहीं॥
आ मको रामजीने कसे देख िलया? (१) इसक उ रम पहली बात यह ह िक गौतमजीने
कहा था—अ या सवभूताना । सवभूताना अथा ाजीक ारा रचे गये ािणय से तुम
अ◌ य रहोगी अथा सवभूत से अ◌ य रहोगी। पर◌ु भगवा तो स पूण भूत क आधार ह—
भूतानां भूतस मः (वा.रा. २.४४.१६)। वे सवभूत म नह आते। वो सवभूता मभूता मा ह,
इसिलए उनपर यह िनयम नह लगता।
(२) अब दूसरा उ र देिखये—सवभूताना श दम ब ीिह समास िकया ह और गौतम
कह रह ह िक उनको तुम नह िदखायी पड़ोगी, िजनम सभी भूत रहते ह सवािण भूतािन येषु ते
सवभूता◌ेषा अथा िजनम पृ वी, जल, तेज, वायु, और आकाश रहता ह, जो इन पाँच से
बना आ ह—
िछित जल पावक गगन समीरा। पंच रिचत अित अधम शरीरा॥
(मा. ४.११.६)
इन पाँच से िजसका शरीर बना आ ह, तुम उसको नह िदखायी पड़ोगी। हषक बात ह िक
हमार आपक शरीर म पाँच ह—पृ वी भी ह, जल भी ह, अि भी ह, वायु भी ह, और आकाश
भी ह; पर◌ु भगवा रामका शरीर इन पाँच भूत से ऊपर ह। इसिलए रामजीम यह िनयम नह
लगेगा। िक—
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
hero and others are zero. वही हीरो ह, और कोई हीरो नह हो सकता।
(२) जल—अब रही बात जल त व क । भगवा राम जल त वसे ऊपर ह। देिखये,
समु का िन ह िकसने िकया? समु िन हादीिन च े वीया यतः पर (भा.पु. १.३.२२)।
उनको कछ नह करना पड़ता।
स धानॆउ भु िबिशष कराला। उठी उदिध उर अंतर ाला॥
(मा. ५.५८.६)
समु का िन ह िकया, पहल तीन िदनतक िवनय क —
िबनय न मानत जलिध जड़ गये तीिन िदन बीित।
बोले राम सकोप तब भय िबनु होइ न ीित॥
(मा. ५.५७)
िफर तो राघवको ोध आया िक तीन िदनतक ाथना करनेपर समु नह माना। उसको
लगा िक रामजी हमसे अित र नह ह गे। समु य ततः ु ो रामो र ा लोचनः (वा.रा.
६.२१.१३)। राघवको ोध आया और कहा—“ल मण!”
चापमानय सौिम े शरां ाशीिवषोपमा ।
समु ं शोषिय यािम प ां या ु व माः॥
(वा.रा. ६.२१.२२)
“ल मण! लाओ मेरा धनुष-बाण।” ल मणने कहा—“सरकार मा कर दीिजये।” रामजीने
कहा—“ ?” ल मणजीने कहा—“ मा बड़नको चािहए छोटनको उ ात।” रामजीने
कहा—“चुप रहो ल मण! मा बड़नको चािहए छोटनको दस लात।” माक प रभाषाम
जब नपुंसकताका आभास हो जाए, तब मा नह करना चािहए। ल मणने कहा—“सरकार,
जो तोको काँटा बुवै तािह बोय तो फूल ।” रामजीने कहा—“नह ल मण! जो तोको काँटा
बुवै तािह बोय तू भाला, वो भी मूरख तो समझे िक पड़ा िकसीसे पाला। ल मण—”
मया िह समायु ं मामयं मकरालयः॥
असमथ िवजानाित िध मामी शे जने।
(वा.रा. ६.२०–२१)
लिछमन बान शरासन आनू। सोषौं बािरिध िबिशष कृशानू॥
(मा. ५.५८.१)
“मने जबतक मा िकया, समु ने मुझे असमथ माना। लाओ, अभी बाण लाओ!”
गो वामीजी कहते ह िक ल मणजीने इतनी ुत गितसे िदया िक मने देखा ही नह , सीधे
अस किह रघुपित चाप चढ़ावा (मा. ५.५८.५) ल मणजीने कहा—“म तो चाह ही रहा
था सरकार! आपने ही िवभीषणक नीित अपना ली। म तो कह ही रहा था—नाथ दैव कर
कवन भरोसा (मा. ५.५१.३)। पर आपने ही कहा िक अभी नया-नया किबनेट म आया ह;
गठब धनक सरकार चल रही ह, टट जायेगी तो गड़बड़ हो जायेगा। पर◌ु अ◌म मेरी नीित
ही सफल रही!” इस कार, भगवा राम जल त वसे भी ऊपर ह।
(३) अि —अब देिखये िक ीराम अि त वसे िकतने ऊपर ह! एक बार िकसीने मुझसे
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
चेहरपर अपना तो काश होता नह ह, कपोल खोपड़ी जैसा बैठा रहता ह धूमकतु का। सोचते
ह िक जब अ धकार ही अ धकार ह, तो थोड़ी लाइट कर देते ह। पर वहाँ तो अ धकार ह ही
नह । वो तो—
राम सि दान िदनेशा। निह तह मोह िनशा लवलेशा॥
सहज काश प भगवाना। निह तह पुिन िव ान िबहाना॥
(मा. १.११६.५–६)
एतावता, ये प◌ह ने भगवा क ऊपर खुल और आप आ य करगे िक िजस ने क कोनेने
कामको जला िदया था; ऐसे प◌ह ने , िजनसे अ ार बरसता था, उनसे जलधार बरसने लगी।
ऐसा लगता ह मानो यूिनवसल हीटरका यूज ही गड़बड़ हो गया। जहाँसे आग बरसी थी, पानी
बरसने लग गया। आ ेय ने से पानी बरस रहा ह—
राम प नख िशख सुभग बारिह बार िनहािर।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरािर॥
(मा. १.३१५)
जो अबतक लोचन अनल था, अब लोचन सजल हो गया। अि परी ा हो गयी। एतावता,
अि उसे नह जला सक । जब उसक िवभूितको अि नह जला सक तो उसे अि कसे
जलायेगी?
भगवा से अजुनने कहा—“जीवा माका िनवचन क रये।” भगवा ने कहा—“अजुन!
नैनं िछ ि श ािण नैनं दहित पावकः।
न चैनं ेदय ापो न शोषयित मा तः॥
(भ.गी. २.२३)
जब भगवा क िवभूित जीवा माक िलये कहा गया िक इसे श नह काट सकते, इसे
आग नह जला सकती, इसे जल नह गीला कर सकता, इसे वायु नह सुखा सकता तो जब
जीवा माको नह तो िफर—
परमातमा नर पा। होइिह रघुकुल भूषन भूपा॥
(मा. ७.४८.८)
वा मीिक रामायण म कहा गया—
य मेष महायोगी परमा मा सनातनः
(वा.रा. ६.१११.११)
उनका ऐसा यि व ह। इसिलए सु◌रका डम एक बार श र भगवा को पावतीजीपर
ोध आ गया। श रजी पित ह कोई हसबै ड तो ह नह , हसबै ड होते तो शायद ोध न
आता। हसते ए बै डको ा ोध आयेगा? िपटाई होती रहती ह, बेचारा हसता रहता ह।
घरवाली बरसती रहती ह और पित ही-ही करक हसता रहता ह बेचारा! अर, वह पित कसा िक
एक बार िजसक भ ह चढ़नेपर प ी काँप न जाए। ये आजकलक लोग, नपुंसक, ही-ही करक
हसते रहते ह धूमकतु! पर◌ु श र भगवा ऐसे पित नह ह। वे ऐ यवा पित ह, वच वी पित
ह, महापु ष ह। जब ल ा जली तो पावतीजी थोड़ा दुःखी हो गय ।
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
भ , और तापका भ ।
भगवा आज पापका भ कर रह ह देखकर। आज अह याको भगवा देख रह ह।
भगवा को देखनेका िकतना मह व ह! भी मने कहा था िक एक बार मुझे देख लीिजये—
स देवदेवो भगवा ती तां कलेवर याविददं िहनो यह ।
स हासा णलोचनो स मुखा बुजो यानपथ तुभुजः॥
(भा.पु. १.९.२४)
कहते ह—माधव, एक बार मुझे देख तो लो—तिनक हिस हेर न िकशोर। नारदजीकहते
ह—मामवलोकय प जलोचन (मा. ७.५१.१) एक बार मुझे देख लो और आज पूछा मुिनिह
िशला भु देखी। राघवजीने सोचा िक मुझे अह याका उ ार तो करना ही ह। अब रामजी
िव ािम जीपर भावी हो चुक ह। अब तो वो जैसे नाच नचायगे, िव ािम जी वैसे ही नाचगे।
राघवजीने कहा—“गु जी, विस गु जीने मुझे भूगोल पढ़ाया ह और म मानिच बनाना
जानता । ऐसा करते ह गु जी िक म आपको िमिथलाक न ेसे ल चलता ।” िव ािम जीने
कहा—“राघव, तुम पढ़ िलखे हो भैया! हम तो बाबा ह, उसी ढगसे ल चलो।” इसिलए अब
िव ािम जी पीछ और राघवे◌जी आगे ह। और क णा करक उसी रा◌ेसे ल जा रह ह जहाँ
अह याजी पड़ी ई ह, नह तो दूसरा रा◌ा भी तो हो सकता था। यही तो भगवा का वा स य
ह िक गृहते गमिन परिस पद पंकज घोर ाप ते तारी। गृहते गमिन अपने आप जा रह ह,
उसी रा◌ेसे ल जा रह ह। ल मणजीने कहा—“सरकार! एक बात मुझे समझम नह आयी िक
आपने चरण म पनह नह पहन , इसका ा कारण ह?” रामजीने कहा—“चुप रहो।”
ल मणजीने कहा—“नह सरकार! इसका उ र तो बताइये।” रामजीने कहा—“पनही पहननेम
बड़ी हािन होगी ल मण। यिद पनही पहन लगा तो िमिथलाक पुरोिहतानीका ा होगा? वे
तो मेर चरणक रज चाहती ह। पनही पहननेसे चरण-रज उ◌ नह िमल सकगी।” ल मणने
कहा—“सरकार! एक बात पूछ? आप अह याक उ ारम इतनी अिभ िच रख रह
ह?” रामजीने कहा—“मेरी माताका नाम बताओ तो ल मण!” ल मणजीने कहा—“सरकार!
आपक माताका नाम कौन नह जानता? कौश या अ बाजीको कौन नह जानता?” रामजीने
कहा—“ल मण, मेरी माताजीका नाम कौश या ह और इनका नाम अह या ह। ल मण, यिद
अह याका उ ार नह क गा तो मेरी माताक नामक अ ◌म ख ड या का अपमान हो जायेगा।
इसिलए मुझे अपनी माताक अ ◌म ख डका स मान करनेक िलए अह याका उ ार करना
ह।” ल मणजीने कहा—“आप ध य ह सरकार! अह याको रौरव िमलना चािहए और आप
गौरव दे रह ह।”
पूछा मुिनिह िशला भु देखी (मा. १.२१०.१२)। आप कर िक िशला भु देखी
भगवा ने िशलाको देखा, पर वे परनारीको देखते नह —जेिह सपने परनािर न हेरी (मा.
१.२३१.६)—तो कसे देख िलया? तो कहते ह िक िव ािम जीने कहा—“यह तो िशला ह।”
रामजीने कहा—“िशला ह, तो देहातम मेरी माताजीको कौिसला कहते ह। तो िशला श द
सुनकर मुझे माँ कौश या जी याद आ गयी।” अथवा, िशलाको भी देखा और िशला भु देखी
अथा िशलाक भुको भी देखा अथा गौतमको भी सामने खड़ ए देखा। उ ारका समय
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
उसी कितम ल जाता ह, जैसे चोर अपने िम को चोरी ही िसखाता ह, शरारती अपने िम को
शरारत िसखायेगा। इसी कार एक वै णवको अपने ेमा पद यि को परमा माक ही चरण म
लगाना चािहए।
आज भगवा जानते ह, पर जानकर भी िव ािम जीसे कहलवा रह ह? पापीक कथा
नह कहनी चािहए, पर िव ािम जी कह रह ह? िव ािम जी भी यह जान गये ह िक अब
अह याजीम पाप नह रह गया ह। िजसको राजीवलोचनने अपने राजीवनयन से िनहार िलया,
वह तो अब िन पाप हो गया। अब तो—
सनमुख होइ जीव मॊिह जबहीं। जनम कोिट अघ नासिह तबहीं॥
(मा. ५.४४.२)
अह याजी भुक स मुख चली आयी ह और इसिलए उनम अब कोई पाप नह रह गया
और दूसरी बात यह भी ह िक राजीवलोचन भुने उनको िनहार िलया ह—
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे िचतये भु िजन भु हेरे॥
ते सब भये परमपद जोगू। भरतदरश मेटा भव रोगू॥
(मा. २.२१७.१–२)
तो (१) जे िचतये भु—िजनको भुने देखा वह भी पिव हो गये और (२) िजन भु
हेर—
े िज◌ ने भुको देखा वह भी पिव हो गये।
आज हमार एक ब त अ◌े ेही िम िवनोदम ही कह रह थे—“गु जी, गो वामीजीने
तो ब त सरल िलखा ह और आप उसे किठन कर डालते ह!” मने कहा िक ऐसा नह ह। म
किठन करने लगा? गो वामीजीने सरल िलखा ह यही समझना हमारी भूल ह। गो वामीजीने
सरल नह िलखा ह। गो वामीजीने सरल भाषाम िलखा ह, पर भा य सरल िब कल नह ह।
उनक तो ित ा ही यही ह—
नानापुराणिनगमागमस मतं य ामायणे िनगिदतं िचद यतोऽिप।
वा ःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषा िनब धमितम ुलमातनोित॥
(मा. १ म. ो. ७)
एक बार सूरदासजी महाराजसे अकबरने पूछा—“इस समय महाकिव कौन ह?”
सूरदासजीने कहा—“महाकिव तो म ।” अकबरने कहा—“इस समय सव े किवता िकसक
ह?” सूरदासजीने कहा—“मेरी।” अकबरने कहा—“तु हारा िदमाग तो नह खराब हो गया?”
सूरदासजीने पूछा—“ ?” अकबरने कहा—“िफर तुलसीदासजी कौन ह?” सूरदासजीने
कहा—“मेरा िदमाग तो नह खराब ह, पर तेरा िदमाग अव य खराब ह!” अकबरने
पूछा—“ ?” सूरदासजीने कहा—“बेवकफ, तुलसीदासजीको तुम किव मानते हो और
तुलसीदासजीक किवताको तुम किवता मानते हो? अर पगल, तुलसीदासजी किव नह , वे तो
ऋिष ह और उनक किवता नह ह वह म◌ ह म◌!”
अब आप ही बताइये िक म◌ सरल होता ह या किठन होता ह। म◌ उसे कहते ह िजसका
मनन िकया जाए, जो सीधे-सीधे न समझम आये। म◌का जबतक मनन नह करोगे, तबतक
समझम नह आयेगा। मनना ायते य मा मा म इतीयते, अथा जो मनन करनेसे जीवको
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
भवब धनसे छड़ाता ह, उसे म◌ कहते ह। ीरामच रतमानसजीका मनन करो, तब नमन अपने
आप हो जायेगा। गो वामीजी वयं कहते ह—
सुिन अवलोिक सुिचत चख चाही। भगित मोिर मित वािम सराही॥
(मा. १.२९.३)
कसे मनन कर? गो वामीजीने कहा िक सावधान! च मेक आँखसे िब कल समझम नह
आयेगा। इस च मेका कोई लाभ या योजन भी नह ह। राम- ेमका च मा लग जाए तब अ र
िदखायी पड़ जायेगा। इस च मेसे कछ नह होगा। इस च मेको लगाकर ोफसर बन जाओगे,
पर◌ु राम- ेमका च मा लग जाना चािहए।
अब यह आप देिखये! भगवा आन◌क◌ भु अह याको िनहार चुक—पूछा मुिनिह
(मा. १.२१०.१२)। ा पूछा? िशला भु देखी। यहाँ देखी श द ा यया◌ ह। िशलाको
देखकर भगवा ने पूछा। पहल देखा िफर पूछा। तो ह िक पूछा? एक िनयम ह। लोग
कहते ह िक वा मीक य रामायण म भगवा रामको भगवा नह माना गया। पर◌ु यिद ठीक-
ठीकसे िवचार िकया जाए तो ऐसा नह ह। पूरी वा मीक य रामायण पढ़नेका आपक पास
समय नह ह—और मुझे तो लगता ह िक पूरी वा मीक य रामायण पढ़नेक आव यकता
भी नह ह िक आप चौबीस हजार ोक कहाँतक पिढ़येगा? वो तो हम लोग क ऊपर
छोड़ दीिजये। पर◌ु मेरी राय मानकर, मेरा अनुरोध मानकर, मेरी िवनय मानकर, मेरी ाथना
मानकर, मेरी आ ा मानकर, मेरा आदेश मानकर, मेरा िनदश मानकर, और मेरा उपदेश मानकर
वा मीक य रामायण क अयो याका डक स हव सगका कवल चौदहवाँ ोक पढ़ लीिजये।
इसीम आपका जीवन चकाचक हो जायेगा। िकतना सु◌र ोक ह! कसे लोग यह कहते ह िक
वा मीक य रामायण म रामजीको भगवा नह माना गया ह? झाँक ब त मधुर ह! ीरामच◌जी
भु कनकभवनम ीसीताजीक साथ िवराजमान ह। वनवासका समय ह। ककयी अ बाजीने
सुम◌जीको भगवा रामको बुलाकर लानेको भेजा ह और भगवा ीराम सुम◌जीक साथ
मागम आ रह ह। उस समय एक बात भगवा वा मीिक ब त सु◌र कहते ह—
य रामं न प ये ु यं च रामो न प यित।
िनि तः सवलोकेषु वा माऽ येनं िवगहते॥
(वा. रा. २.१७.१४)
पूर भि िस ा◌का सार ह यह ोक। य रामं न प ये ु, यहाँपर स भावनाम िल
ह—शिक िल च (पा.सू. ३.३.१७२)। अब य रामं न प ये ु इसक िह◌ी होगी—जो
रामजीको नह देख सकता, यहाँ शाथम िल लकार ह। जैसे आपको यह कहना ह िक
म अकल नह जा सकता। तो जबतक आप बोलगे िक अहमेकाक न ग◌ुं श ोिम —इतना
ल बा! तो उसक थानपर बोलगे—अहमेकाक न ग◌ेय । इसी कार यहाँ शाथम िल
लकार ह। य रामं न प ये ु जो रामजीको नह देख सकता और यं च रामो न प यित और
िजसको भगवा राम नह देखते, वह िनि तः सवलोकेषु सार संसारम िन ◌त होता ह, सार
लोक म उसक िन◌ा होती ह और वा माऽ येनं िवगहते उसक आ मा भी उसे फटकारती ह
िक अर नीच! मानव शरीर पाकर भी तुम कौश याकमार राघवे◌ सरकारको नह देख पाये?
१५७
कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
तू। तोह क दुबरवाइस। तोह खायेका नाह िमला।” तो िजनको अ रका इतना भी ान नह ,
उनको ा बताया जाए?
यह िस ा◌ ह िक मानसम तीकवादक क पना उतना ही बड़ा पाप ह िजतना िक
गोह याका पाप होता ह। अब म माण देकर बात क गा। पहल म यह चचा कर ल िक तीक
होता कहाँपर ह? कहा जाता ह िक यह इसका तीक ह, जैसे िकसी बड़ वृ को देखकर कहा
िक ये हमार िपताजीक तीक ह। इसका अथ यह ह िक अनुपि थत उपि थितक पनं तीकः,
अथा अनुप थितम उप थितक क पनाको तीक कहते ह। जैसे हमार यहाँ अशोकका च
ह, जो हमारी अिहसाका तीक ह। यिद आप रामजीको ानका तीक मानगे तो इसका यह
अथ होगा िक पहल आप रामजीको अनुप थत कह रह ह अथा रामजी उप थत नह ह। तभी
तो ानका तीक बनेगा। अब आप बताइये िक ा मानसक रामच◌जी अनुप थत ह। यिद
रामच◌जी अनुप थत ह, उप थत नह ह, तो राम यापक जग जाना (मा. १.११६.८)
और अग जगमय सब रिहत िबरागी, ेम तें भु गटइ िजिम आगी (मा. १.१८५.७)
कसे बनेगा। इसिलए िनि त यह ह िक रामजी ि कालम भी अनुप थत नह ह और जब वे
अनुप थत ही नह तो उनका तीक काहको होगा? अनुप थितम तीकक क पना क जाती
ह, उप थितम कभी तीकक क पना नह क जाती। आप कह िक हमको रामजी नह िदख
रह ह। अर भाई, आपको रामजी न िदख पर रामजी उप थत ह। कोई उ कह िक हमको
सूयनारायण नह िदख रह ह तो उसक कहनेसे ा हम सूया य देना ब◌ कर दगे? अर! उस
धूमकतुको िदनम सूयनारायण नह िदखायी देते। सां यशा ने ऐसे आठ कारण बताये, जहाँ
उप थितम भी हम नह देख सकते—
अितदूरा सामी यािदि यघाता मनोऽनव थाना ।
सौ या वधानादिभभवा समानािभहारा ॥
(सां.का. १.५.७)
(१) अितदूरा —कोई व◌ु यिद ब त दूर हो, तो नह िदखती। अब जैसे यहाँ बैठ-बैठ
कोई कह िक हम उधर जानक क डक मैिथली गली देख, तो देख सकते ह ा? इसिलए
नह देख सकते िक वह हमसे दूर ह। अब आप सोिचये िक वो हमको नह िदखायी पड़ी
तो ा हम यह कहगे िक मैिथली गली नह ह। मैिथली गली ह, पर वह हम िदखायी नह पड़
रही ह।
(२) सामी या —अथा जो व◌ु अ यिधक िनकट होती ह, वह भी हमको नह िदखायी
पड़ती। जैसे हमको हमारी आँख नह िदखायी पड़त िक वो हमसे ब त िनकट ह।
(३) इि यघाता —इसका अथ ह िक इि◌य जब नह हो तो नह िदखायी पड़गा।
◌ि हीनको सामनेवाली व◌ु नह िदखायी पड़गी िक उसक पास दशनेि◌य नह ह।
(४) मनोऽनव थाना —हमारा मन ठीक न होनेपर भी व◌ु नह िदखायी पड़ती। कभी-
कभी आप देखते ह, जब हमारा मन ठीक न हो, तो सामने पड़ी व◌ु भी हमको समझम नह
आती। ा वहाँ व◌ु नह ह? व◌ु तो ह, पर हमारी मनक थित ठीक न होनेसे हम िदखायी
नह देती।
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
(७) य , (८) ऋषभ, (९) पृथु, (१०) म य, (११) क◌प, (१२) ध व◌ र, (१३) मोिहनी,
(१४) नृिसंह, (१५) वामन, (१६) परशुराम, (१७) यास, (१८) राम, (१९) बलराम, (२०)
क ण, (२१) हस, (२२) हय ीव, (२३) बु , और (२४) क क अवतार।
एक बात और बताऊ िक सबसे बिढ़या और सबसे शु सोना कौन सा होता ह, जानते
हो? चौबीस करटका सोना सबसे शु होता ह। जैसे वणम जब चौबीस करट होते ह तब
वह शु होता ह, उसी कार चौबीस अवतारवाल शु परा◌र राम ह। आज कथा सुना
रहा । देखूँ, िकसको नह समझम आती ह। शु सि दान मय राम भानुकुल केतु (मा.
२.८७.१)—रामजी शु ह। जैसे शु सोना चौबीस करटका होता ह उसी कार भगवा
रामक शु चौबीस अवतार ह। इसिलए कहा जाता ह—
अवधधाम धामािधपित अवतारण पित राम।
सकल िसि ी जानकी दासनपित हनुमान॥
अतः आज िव ािम जी देख रह ह िक ये मेर सामने कौन खड़ा ह? यही तो गाय ीक
चौबीस अ र का अथ ह, यही वा मीक य रामायण क चौबीस हजार ोक का महाता◌य ह,
यही चौबीस अवतार का बीजभूत अवतारी ह। भगवा राम अवतार नह , अवतारी ह। भगवा
रामसे सब अवतार होते ह। एतावता, िव ािम जीने सोचा िक आज गाय ीक तीन चरण का
योग कर लता िधयो यो नः चोदया । गाय ीका योग होता ह बुि क शुि क िलये।
हमारी बुि अशु हो चुक ह। िव ा पिर माधीना बुि ः कमानुसािरणी। बुि क तीन
भेद गीताजीम कह गये—(१) सा वक , (२) राजसी, और (३) तामसी।
वृि ं च िनवृि ं च कायाकाय भयाभये।
ब धं मो ं च या वेि बुि ः सा पाथ साि वकी॥
(भ.गी. १८.३०)
सा वक बुि अब हमार पास नह रह गयी। हम वृि नह समझ पाते, िनवृि नह समझ
पाते, काय नह समझ पाते, अकाय नह समझ पाते, भयको नह समझते, अभयको नह समझते,
ब धन नह जानते, और मो नह जानते। आज हम अपने अनुशासनको ब धन मान बैठ ह।
िनि त हमारी बुि सा वक नह ह, अतः कहा—िधयो यो नः चोदया हमारी बुि को
भगवा चोिदत कर, े रत कर। बुर कम से हटाकर स◌म क िलये ेरणा द िक—
सुनु खगेश निह कछ ऋिषदूषन। उर ेरक रघुबंशिवभूषन॥
(मा. ७.११३.१)
दयक भगवा ेरक होते ह पर◌ु सबक दयक नह । एक बार िकसीने रामक ण
परमहसजीसे पूछा—“महाराज, भगवा तो सबक दयम रहते ह गे।” उ◌ ने कहा—“हाँ
रहते तो ह पर◌ु जो पु या मा होते ह, जो भगवा का भजन करते ह, उनक दयम रहने वाल
भगवा जागृत होते ह और जब यि गलत काम करता ह तो उसको हड़काते ह िक गलत
काम मत करो। पर◌ु जो भगवा का भजन नह करता, भगवा का नाम नह लता, भगवा क
पका िच◌न नह करता, भगवा क लीलाका िच◌न नह करता, भगवा क धामम नह
रहता; उसक दयक भगवा , उसी यि क पापक कमली ओढ़कर खराट भरकर सो जाते
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
रोटीका टकड़ा मुझे चािहए।” रामजीने कहा—“तु हारा पेट भरा नह ह ा?” तुलसीदासजीने
कहा—नह ! जनमको भूखो िभखारी हौं गरीबिनवाजु (िव.प. २१९.५)। जबसे ज म िलया
मेरी माताजी मर गय , िपताजीने मुझे छोड़ िदया, फक िदया। मेरा कभी कछ नह आ।
मातु िपता जग जाइ त यो िविध न िलखी कछ भाल भलाई।
नीच िनरादर भाजन कादर कूकर टकन लािग ललाई।
राम सुभाव सु यो तुलसी भु सों क ो बारक पेट खलाई।
वारथको परमारथको रघुनाथ सो सािहब खोिर न लाई॥
(क. ७.५७)
रामजीने कहा—“ा खाओगे? बताओ। पूड़ी खीर खाओगे या समोसा? पकौड़ी खाओगे
या रसगु ा? राजभोग खाओगे?” तुलसीदासजीने कहा—“नह , यह सब नह खाना।” रामजीने
कहा—“बताओ िफर ा खाओगे?” तुलसीदासजीने कहा—पेट भिर तुलिसिह जॆंवाइय
(िव.प. २१९.५) पेट भरकर िखला दीिजये सरकार! रामजीने कहा—“िखला तो रहा , खाओ
न!” तुलसीदासजीने कहा—“नह सरकार, यह आज खाऊगा तो कल िफर आपका िसर दद
बन जाऊगा। ऐसी व◌ु िखलाइये िक जो एक बार खाऊ और िफर कभी भूख न लगे। हमारा
भी झंझट समा हो और आपका भी। दुहाई सरकार क ।” भगवा ने कहा—“ह! ये ा कह
रह हो?” तब तुलसीदासजीने कहा—“एक बार सरकार मोह िखयाय दो, मोरौ झंझट खतम
होय और तु हरौ झंझट खतम होय जाए। खवाय दे एक बार सरकार! म तुमसे बार-बार किह
रह ह ।”
रामजीने कहा—“ ?” तुलसीदासजीने कहा—“सरकार! ये भोजन खायगे तो िफर भूख
लगेगी, िक—
िनत िरतवत ितिदन भरत िजिम चुवना क डाल।
किह न जाइ अित अजब गित पेट गजब च डाल॥
पेटका हाल तो चुवना क डालक भाँित ह। जैसे का डाल—पानीक टक —लीक करती
हो तो सुबहको भर दो तो शामको िफर जय ीसीताराम, वही हाल हमार नालायक पेटका ह।
िकतना ही पूड़ी खीर िखलाओ पर सुबह िफर खाली।” तुलसीदासजीने कहा—“सरकार! ऐसी
चीज िखलाओ िक िफर कभी भूख न लगे—पेट भिर तुलिसिह जॆंवाइय। “ा िखलाऊ,
बताओ तो सही,” तो कहते ह—पेट भिर तुलिसिह जॆंवाइय भगित-सुधा सुनाजु (िव.प.
२१९.५)। अथा भि प, भजन प भोजन करवा दीिजये, चकाचक हो जाए। ेमका
रसगु ा िखला दीिजये िफर म कभी आपक आगे नह आऊगा सरकार! आऊ तो सरकार,
कोड़ से मार-मारकर मेरी खाल िनकलवा दीिजयेगा सरकार!” रामजीने कहा—“खाओगे तो
कछ दि णा भी लोगे?” तुलसीदासजीने कहा—“हाँ, सरकार! जब स◌को िजमायगे तो
भ डारक कछ दि णा तो देना ही पड़गी, सरकार! िबना दि णाक थोड़ ही जायगे। िच कटक
साधु ह, िबना दि णाक झगड़ा हो जायेगा सरकार!” रामजीने कहा—“अ◌ा। ा दि णा
लोगे? सही बता दो।” तुलसीदासजीने कहा—ना या पृहा रघुपते दयेऽ मदीये स यं वदािम
च भवानिखला रा मा (मा. ५ म. ो. २) मेर दयम और कोई पृहा नह ह। भगवा ने
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
यह कौन सा बाबा िशलाक पास हाथ जोड़कर खड़ा ह? तब िव ािम जीने कहा इसक
कथा सुनो—सकल कथा मुिन कही िबशेषी। िव ािम जीने कहा—इसका नाम ह अह या।
पिततका अथ होता ह िगरा आ। देिखये, सब िगरनेको पितत नह कहते। उसको पितत कहते
ह, जो जहाँसे िगरा हो वहाँ पुनः न जा सक। जैसे पेड़से जो प ा िगरता ह, वह उसम जुड़ता
ह ा? कभी नह जुड़ पाता। अह या पितत माने िगरी ई तो ह ही, पर पितता प युः इता
अथा अपने पितसे भी दूर चली गयी ह—पित + इता। अह याजीक जीवनम कोई स भावना
ही नह ह िक वह अपने पित गौतमजीसे िफर िमल सकगी, िक—शु ि सव पापािन
योिन ा न शु ित अथा , सभी पाप का ायि त हो जाता ह पर िजसका शरीर अपिव
हो जाता ह, वह कभी शु नह होता। सभी पाप शु हो सकते ह पर यिद कोई ी परपितसे
ेम करती ह तो वह शु नह हो सकती; कोई पु ष यिद परप ीसे ेम करता ह तो वह
शु नह हो सकता। उसका कोई ायि नह हो पाता। पर◌ु भगवा तो अस भवको भी
स भव करते ह। जो िकसीसे स भव न हो और जो कोई न कर सक, वो करने वालका
नाम ही तो भगवा ह। इसीिलए तो उ◌ भगवा कहते ह—भगव वं नाम एकधमाव ेदेन
एकसंसगाव ेदेन एककालाव ेदेन सकलिव धमा यताव ेदक व । एक साथ,
एक संब धसे, एकािधकरणताव◌ेदेन, एक थानपर, एक ही समय जहाँ सार-सार िव धम
रह जाय उ◌ को तो भगवा कहते ह।
अह या पवती ह। इ◌ने गौतमका वेष बनाया और अह याजीसे णयक याचना क ।
अह याजीक गलती यह ह िक वे जान तो गय थ िक इ◌ ह यह—
मुिनवेशं सह ा ं िव ाय रघुन न।
मितं चकार दुमधा देवराजकुतूहला ॥
(वा.रा. १.४८.१९)
अह याने जान-बूझकर इ◌से ेम िकया। उनको लगा िक मेरा इतना अ त सौ◌य ह िक
वगका देवराज भी इस सौ◌यका िपपासु हो गया। अह याने इ◌का णय- ◌ाव वीकार कर
िलया। िफर गौतमजीने अह याजीको पहल ोधम भ म िकया, िफर प थरक िशला बनायी,
कहा—“जाइये! दस हजार वषतक आपक आ मा इस िशलाम रहगी। आपको यास लगेगी,
पर एक घूँट पानी नह िमलगा। भूख लगेगी, पर एक अ आपक मुखम नह जायेगा। ठ ड
लगेगी, पर एक सूत भी क बलका आपको नह िमलगा और बरसातम छातेका एक टकड़ा भी
नह िमलगा। गम होगी, पर एक भी वायुका झ का आपको नह िमलगा।” ब त किठन शाप
िदया। गो वामीजी मानसम कहते ह—
गौतमनारी ापबश उपलदेह धिर धीर।
चरनकमल रज चाहती कृपा कर रघुबीर॥
(मा. १.२१०)
ापबश उपलदेह कह रह ह िव ािम जी। ा गो वामी तुलसीदासजी महाराज याकरण
नह जानते थे? शाप कहनेम ा िबगड़ जा रहा था? ाप कहा? देिखये, शाप और ापम
अ◌र ह। शाप माने िकसीको गाली देना—शपित। और ाप— ा पाक माने ऐसा द ड देना
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
भुशु डजीने कहा—“मुझे तो दोन ही करना ह आपक चरण भी छने ह और आपक जूठन
भी लनी ह।” भगवा ने कहा—“िफर तो तु ह ि य बनना पड़गा।” “एक बार ाप िदया
था तो कौआ बना, अब कसे ि य बनूँ?” भगवा ने कहा—“इसका एक उपाय ह। ि य
बननेक प रभाषा ह िक जो ि यक पेटसे ज म लगा, वह ि य हो जायेगा।” भुशु डजीने
कहा—“ ाणी कहाँसे पाऊ?” तो भगवा ने कहा—“चलो तु हार िलये म ही माता बन जाता
।” वमेव माता च िपता वमेव —भगवा ही माता, भगवा ही िपता ह। “जैसे मैयाक पेटसे
बालक ज म लता ह, वैसे ही तु हार िलये म माता बन जाता ।” िबहसत तुरत गयउ मुख
माहीं (मा. ७.८२.२)—भुशु डजी भगवा क मुखम और िफर पेटम चल गये। दो घड़ीतक
पेटम रह और िफर िनकल आये। भगवा ने कहा—“अब तुम ि य हो गये। अब तुम मेरी
जूठन खा सकते हो और अब मेर चरण छओ।”
बोिलये भ व सल भगवा क जय।
मेर इस कथनसे कोई यह अथ न लगाये िक जग ु ा णवादी ह। म ा णवादी कदािप
नह , पर◌ु पहल म ा ण िफर चाह जो कछ र । ा ण माने ा होता ह?
वेदमधीते त ातीय इित ा णः िजसक वंश पर पराम वेदका अ ययन हो, उसको ा ण
कहते ह। वैिदक अ ययन हमार र म वािहत हो रहा ह।
एतावता, म यह िनवेदन कर रहा था िक कृपा कर रघुबीर (मा. १.२१०) आप जैसा
कोई यागी नह हो सकता सरकार! आप सबसे बड़ यागी ह। आपक बापने आपक ज मपर
गजदान िकया—
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दी े नृप नानािविध चीरा॥
(मा. १.१९६.८)
और ये तो चरनकमल रज चाहती। यहाँपर यह एक य◌ ह िक आपक बाप तो गजका
दान करते रह और आप उनक कलम ज म लकर इतने कजूस िक ा णीको रज भी नह दे रह
ह? भगवा ने कहा—“महाराज! आप एक बात बताइये िक अह या मेर चरणकमलक रज
चाह रही ह?” िव ािम जीने कहा—“इसका बड़ा सटीक उ र ह िक अह या अब समझ
गयी ह िक उनक पतनका कारण ा ह? उनको अब पूण बोध हो गया ह।” यह हम और
आपको प हो गया ह िक जब भी बुि सकाम कमम फसती ह तो उसका पतन हो जाता ह।
इ◌ और कछ नह ह, सकाम कम ही तो ह। सकाम कमका एक प ही इ◌ हो गया। और
काम उ◌ होता कहाँसे ह? कामक बापका नाम ह रजोगुण। ीम गव ीताक तृतीय अ यायक
उ राधम अजुनने एक बड़ी सु◌र िज ासा क और उस िज ासाम भगवा को वा णय कहा।
वृि णः पा डवच योः मेिदनीम िलखा ह। “ह वा णय!” वृ णाः पा डवा◌ेषामयं वा णयः।
“ह पा डव क िहतैषी! एक बात बताइये—”
अथ केन यु ोऽयं पापं चरित पू षः।
अिन िप वा णय बलािदव िनयोिजतः॥
(भ.गी. ३.३६)
लगता ह िक बलपूवक िकसीक ारा लगाये जानेपर यि पाप करता ह, तो िकससे े रत
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
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कथा ११ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ११
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२
अमृत! िव ािम जीने कहा िक म लाया अमृत! िपयो! कौन पी रहा ह? जनकजीका तन?
नह नह मन—
सहज िबराग प मन मोरा। थिकत होत िजिम चं चकोरा॥
(मा. १.२१६.३)
जनकजीको अमृत िमल गया। उनक मनने अमृत पी िलया—
पुिन पुिन भुिह िचतव नरना । पुलक गात उर अिधक उछा ॥
(मा. १.२१७.५)
सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८)। अहो! जनकजी नहा रह ह, पी रह ह—
ेम मगन मन जािन नृप किर िबबेक धिर धीर।
बोलॆउ मुिनपद नाइ िशर गदगद िगरा गभीर॥
(मा. १.२१५)
आहाहा! पूरी सभा नहा रही ह। यहाँ कमला, िवमला ये निदयाँ ह; पर अमृतक धारा यहाँ
नह बहती। अमृतक धारा तो अवधम बहती ह, जब रामजी ज म लते ह। चौपाई उठाओ—
बन कुसुिमत िगिर गन मिनयारा। विह सकल सिरताऽमृतधारा॥
(मा. १.१९१.४)
बेटा! पढ़ लो चकाचक ह अभी मेरा समय ह बिढ़या! जबतक अ◌मुख नह होता, तबतक
पढ़ लो। अभी तुम लोग पढ़ सकते हो। बूढ़ को ा बताऊ, इनक थोड़ी-सी चाल ढल गयी
ह। इनको तो सुना रहा और िव ािथय को पढ़ा रहा ।
अमृतक धारा बही, जब ज म ही आ ह। और सुिनये! अ◌ा बताओ, साधारणतः नदी
कहाँ समाती ह? सीधी-सी बात ह, सारी निदयाँ सागरम समाती ह। रामच◌जी िमिथलाम पधार
तो सभी राजा ने देखा। तो जो अ◌े राजा थे, उ◌ ने कहा—“यार! तुम लोग मूख हो। ये
रामच◌जी कौन ह जानते हो?” “कौन ह?” उ◌ ने कहा—“ये सुधाक सागर ह, सुधाक
समु ह—”
सुधासमु समीप िबहाई। मृगजल िनरिख मर कत धाई॥
(मा. १.२४६.५)
ये रामच◌जी सुधाक सागर ह। जब सुधाक समु ही िमिथलाम आ रह ह, तो सुधाक
तरिगनी नह बनेगी तो िकसक बनेगी? सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन (मा. १.३१.८)। यह
कथा सुधाक तरिगनी ह।
अ◌ा आज सुना रहा िम ो! समु क एक िवड बना ह िक समु बेचारा सबको तो
पानी िपलाता ह, पर वयं नह पी पाता। कहाँ पीता ह? अ◌ा! परतु यह सुधा तरिगिन इतनी
अ◌ी ह िक गो वामीजीने कहा िक इसम तो सुधाक समु रामजीको भी अमृत पीना पड़गा।
इनको भी हम अमृत िपलायगे तभी हम संतोष होगा। चिलये, देखते ह! िमिथलाम भगवा आ
रह ह—
मुिन पद कमल बंिद दॊउ ाता। चले लोकलोचन सुखदाता॥
(मा. १.२१९.१)
१९०
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२
आन◌ हो रहा ह।
रामजी प नवा अइले िमिथला नगिरया हे॥
सुिन धाय नर नारी धाम काम सब िबसारी।
दरस लागी भीर भारी जनकपुर डगिरया हे॥
रामजी प नवा अइले िमिथला नगिरया हे॥
चल सखी देिख ले लोचनको लाभ ये ।
प सुधा भरी ले नयनकी गगिरया हे॥
रामजी प नवा अइले िमिथला नगिरया हे॥
िगिरधर भु िनहारी सबस बारी बारी।
िबकी िबनु मोल सब जनकपुर गुजिरया हे
रामजी प नवा अइले िमिथला नगिरया हे॥
१९२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२
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कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
यॆिह भाँित गौिर अशीष सुिन िसय सिहत िहय हरषीं अलीं।
तुलसी भवािनिह पूिज पुिन पुिन मुिदत मन मंिदर चलीं॥
(मा. १.२३६.९)
सीताजी भी म ◌रसे चल और रामच◌जी भी गु समीप गवने दॊउ भाई (मा.
१.२३७.१)। रामजीने सब कछ बता िदया—“गु देव! ऐसा-ऐसा हो गया।” सुमन पाइ मुिन
पूजा की ी (मा. १.२३७.३)—(१) सुमन अथा सु◌र पु प पाकर मुिनने पूजा क और (२)
सुमन अथा रामजीका सु◌र मन देखकर भी पूजा क । पुिन अशीष दु भाइन दी ी (मा.
१.२३७.३)—बेटा! तुम हमको सुमन िदये हो। म तुमको सु◌र फल दे रहा —
सुफल मनोरथ हो तु हारे। राम लखन सुिन भये सुखारे॥
(मा. १.२३७.४)
तु हार मनोरथ सफल हो जायगे।
आ रह ह सब लोग वयंवर म। देिखये! िमिथलावािसय ने तो भगवा का प देखा, सबने
अमृत पी िलया। पर राजा लोग? ये अमृत नह पी सक िक इनको तो हारना ही ह। धनुभ क
घोषणा क गयी। सब राजा शि का योग करने लगे। परतु—
डगइ न शंभुशरासन कैसे। कामीबचन सतीमन जैसे॥
(मा. १.२५१.२)
आहाहा! जनकजीने तो कह िदया िक तुम लोग से धनुष नह टटगा, तुम अपनी-अपनी
आशा छोड़कर चल जाओ—तज आस िनज िनज गृह जा (मा. १.२५२.४)। यिद म
जानता िक पृ वी वीर से िवहीन ह तो ित ा करक हसीका पा न बनता। ा क , यिद
ित ा करक छोड़ दूँगा तो सुकत अथा पु य चला जायेगा—सुकृत जाइ जौ पन पिरहरऊँ
(मा. १.२५२.५) और जब सुकत चला जायेगा तो हमारी सीताजी ही िछप जायग िक—
जनक सुकृत मूरित बैदेही (मा. १.३१०.१)। इसिलए सभाक िवसजनक घोषणा नह कर
सकते। सभाक िवसजनक घोषणाका अिधकार अ य को होता ह और अ य िव ािम जी
ह। उनक घोषणाक िबना जनकजी िवसजनक घोषणा कसे करगे, यह अवैध ह। ल मणजीक
ोधपर पृ वी डगमगा गयी। ल मणजीने कहा—“यिद आपक आ ा हो तो इस ा डको
गदक भाँित उठा ल। पटक दूँगा इसको क े घड़क समान दूसर ा डम। आपक रोम-रोमम
करोड़ -करोड़ ा ड ह। एक ा डक िलये आपसे आ ा ल लगा। पटक दूँगा इसको।
म सुमे पवतको मूलीक भाँित तोड़ सकता । पर जनकजी ित ाम संशोधन कर िक यिद
म धनुष तो ँगा तो भी सीताजीका िववाह भगवा रामसे ही होगा, िक थम ◌ि म मने
सीताजीको माँ मान िलया ह।” सीताजी ब त स , कहा—“ल मण! यिद तुमने थम
◌ि म मुझे माँ मान िलया ह, तो मने भी थम ◌ि म तु ह बेटा मान िलया ह और म वचन देती
िक मेर यहाँ लव-कश आयगे तो भी लव-कशक अपे ा सह गुनी वा स य- ेम तु ह पर
मेरा होगा।” ल मणजीको रामजीने बैठाया। ल मणजीने कहा—“जनकजीने आपका अपमान
िकया ह।” रामजीने कहा—“कहाँ अपमान िकया ह?” “उ◌ ने बीर िबहीन मही मैं जानी
(मा. १.२५२.३) कहा।” रामजीने कहा—“पागल! अर बीर िबहीन कहा, रघुबीर िबहीन
१९४
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२
१९५
कथा १२ ीरामच रतमानस-कथा प म पु प
जय! जय!!—
रामिह िचतइ रहे थिक लोचन। प अपार मार मद मोचन॥
(मा. १.२६९.८)
आहाहा! आन◌ कर िदया— प अपार मार मद मोचन।
बड़ी िविच चचा ई। जैसे महाभारतम गीताजीक १८ अ याय ह, उसी कार रामायणजीम
परशुराम-ल मण संवादक १८ दोह। संपूण ीम गव ीताका सारांश यहाँ ◌ुत हो रहा ह।
िफर कभी चचा क गा। ध य-ध य कर िदया बातचीत करते-करते! अ◌म—
राम रमापित कर धनु ले । खैंच िमटै मोर संदे ॥
(मा. १.२८४.७)
ल लीिजये धनुष; और—
देत चाप आपुिह चिढ़ गयऊ। परशुराम मन िबसमय भयऊ॥
(मा. १.२८४.८)
अहो! अहो!! ेमामृत िमल गया—
जाना राम भाव तब पुलक फुि त गात।
जोिर पािन बोले बचन दय न ेम समात॥
(मा. १.२८४)
आन◌ कर िदया। जय जयकार। नौ बार जय-जयकार िकया।
जय रघुबंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥
(मा. १.२८५.१)
देिखये! सबसे अिधक अमृत परशुरामजीने िपया। इस अमृतने परशुरामजीको िचरजीवी कर
िदया। हमार यहाँ सात िचरजीिवय म परशुरामजीका भी नाम ह—
अ थामा बिल यासो हनुमां िवभीषणः।
कृपः परशुराम स ैते िचरजीिवनः॥
अब िववाहका ार भ आ। ल -पि का और ितलक लकर िमिथलाक दूत अयो या आये।
अयो याम ितलक भगवा का चढ़ाया और कहा माता ने—
ितलकवाले सभी बड़े चोर िनकले, रामच मुखच के चकोर िनकले॥
िनमल सनेहसे कृपालको लभाया, पर परमा मा पा न बनाया।
शु भाव भि रसमें िवभोर िनकले, रामच मुखच के चकोर िनकले॥
ितलकवाले सभी बड़े चोर िनकले, रामच मुखच के चकोर िनकले॥
आन◌ कर िदया। दूत पि का लाये और अपनी भाषाम बोल। कहा िक राज —
हम तो पाित लेके आईल बानी पार से जनक-दरबारसे हो॥
राजा जनककी सु र धीया उनकर नाम बाटे सीया।
उनकर िववाह होइहै कौश या कुमार से जनक-दरबारसे हो॥
हम तो पाित लेके आईल बानी पार से जनक-दरबारसे हो॥
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प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२
२००
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२
२०२
प म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १२
२०३
ष पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
य य रघुनाथकीतनं त त कृतम का िल ।
वा पवािरपिरपूणलोचनं मा ितं नमत रा सा क ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन॥
(मा. १.३१.८)
प रपूणतम परमा मा भगवा पर परमे र मयादा-पु षो म ीसीतारामजीक कपासे,
इस मोदीनगरम ीराघव-सेवा-सिमित ारा समायोिजत मेरी १२५१व रामकथाक ष स म सभी
बा धिवय और बा धव का मेरी ओरसे ब त-ब त वागत ह।
तो िम ो! देखो, आपको बताऊ, चार दोष क कारण ा णको यमराज मारना चाहते ह।
ा णम चार दोष नह होने चािहए—
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प
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ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
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ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
२१०
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
जब यि मरने लगता ह काशीम, तो भगवा िशव जाकर उसक कानम यही कहते
ह—“अर पागल! इन कान क दोन से रामनामामृतका पान करते रहो! करते रहो!! मनम
और िकसीका यान मत करो। रामजीका सु◌र यारा- यारा म ुल-म ुल, िद य-िद य, भ य-
भ य, यारा- यारा, नील मेघक समान सु◌र-सा िव ह, उभरा आ कपोल चमाचम, घुँघराली
अलक, िनद ष ने , मधुर-मधुर मु करानेसे चमचम चमकती दो-दो दंतुिलयाँ, सु◌र-सा
ऊ वपु ितलक, हाथम धनुष-बाण—िकतना यारा भुका प ह! एक बार मनम यान
करनेसे जीवनक सार पाप चल जाते ह—इतने सु◌र ह भु।” रावणने वयं कहा था—“ऐसा
प हमने संसारम कभी नह देखा। म पापी , यह स य ह। पर जब-जब म रामजीक पका
यान करता , तब-तब संसारक सारी मिहलाएँ मुझे माता-जैसी िदखती ह।” ऐसा व प ा
िकसीको िमलगा?
म तो भुसे पूछ रहा िक भु! सही बताना—
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
िज ें छ भी न सकी दु माया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
त ण तमाल जलद सम शोभा, कोिट मनोभव मन लिख लोभा॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
िशव सनकािद समािध लगाये, आप कट भये िबिध न बनाये॥
अिमत गंगा सिरस िवमल काया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
नीरज नयन कृपामृत वृि , परनारी पाई न िजसकी ि ॥
िजसने सीताजीके मनको चुराया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
मृदु मुसुकािन सरो ह आनन, जो न मुरझाया िनरख कर कानन॥
अधर प व जनोंको ललचाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
किट िनषंग कर धनु शर सोहे, पीत बसन सुर मुिन मन मोहे॥
लखन हनुमत के िच को लभाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
िजसको यानमें पाकर रावण, परम अपावन हो गया पावन॥
रामभ ाचाय मनको रमाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
ऐसा सुंदर व प कहाँ पाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
रानी कौश या तु हे कटाया, राघवजी तु हे ऐसा िकसने बनाया॥
मेरी कथा यानसे सुनोगे तो राघवक दशन तो हो ही जायगे। पर ठीकसे सुनो तब! Ego से
मत सुनना, अहकारसे मत सुनो। सामने बैठनेपर ब त आन◌ आता ह। सामने सीधा व ाका
मुख िदखता ह न! इधरसे ा देखोगे तुम? इधर तु हारा ego तु हार साथ रहगा िक हम म पर
बैठ ह, हम बड़ ह। पर यहाँ तो चकाचक ह। Ego जबतक रहगा, तबतक गोिवंद नह आयेगा।
२११
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प
Ego देखकर गोिवंद कहते ह—“ल तू अपना ego सँभाल, I go म जाता बाहर!” यहाँ तो
चकाचक आन◌ ह। तो अब कतमनुसरामः, जहाँ छोड़ा था। तो िम ो!—
(१) वामा च िवभाित भूधरसुता—यह ह थम योितिल सोमनाथ—सौरा े
सोमनाथं च।
(२) देवापगा म के—गो वामीजीने ि तीय योितिल िव नाथको कहा, िजनक
म◌कपर ग ाजी ह। परम रामभ ह िशवजी। कहते ह—
ग ातरगरमणीयजटाकलापं गौरीिनर रिवभूिषतवामभाग ।
नारायणि यमन मदापहार वाराणसीपुरपितं भज िव नाथ ॥
(का.िव.◌ो. १)
देवापगा म के यह ि तीय िशविल िव नाथ ह—वाराण यां तु िव ेश ।
(३) भाले बालिवधुः—म◌कपर बालच◌मा धारण करक काि कयजीको मनानेक िलए
भगवा ीशैल आये। गणपितका िववाह हो गया, काि कयका नह आ। अतः काि कयजी
ठकर चल गये ौ पवतपर। उनको मनानेक िलए िशव-पावती ीशैल ीमि काजुन बनकर
आये। भाले बालिवधुः—म◌कपर बाल च◌मा—यह तृतीय योितिल ह मि काजुन—
ीशैले मि काजुन ।
(४) गले च गरल —गलम िवष। यह चतुथ योितिल ह उ ैनक महाकाल—
उ िय यां महाकाल । गलम िवष ह, िफर भी उनक मृ यु नह , िक महाकाल ह
वे। इन महाकालको तुलसीदासजीने चतुथ योितिल कहा।
(५) य योरिस यालरा —प म योितिल वे कह रह ह नागे र—नागेशं दा कावने।
दा का नामक िशवभ ा रा सीक र ा करनेक िलए भगवा नागे र बने—य योरिस
यालरा ।
(६) सोऽयं भूितिवभूषणः—िवभूित ही िजनका आभूषण ह। पर यां वै नाथ —ये
वै नाथजी िब कल मशानम ह। मने दशन िकये ह। मने वयं बारह योितिल क दशन
िकये ह। परली जाइये महारा म। पूर मशानक बीचम िशवजीका यह म ◌र ह। कसी भगवा क
लीला ह िक वहाँ मृतक जलते ह, पर उनक दुग ध नह आती। और भगवा का आन◌ ह।
िवभूित ही उनका आभूषण ह। रावण िशवजीको ल ा ल जाना चाहता था पर िशवजीका मन
नह था। भारतको छोड़कर कहाँ जायगे? रावणने कहा—“म आपको ल चलगा।” िशवजीने
कहा—“ल चलो! पर जहाँ मुझे थािपत कर दोगे, वहाँसे म हटगा नह ।” संयोगसे जब ये यहाँ
आये, िशवजीने रावणको लघुश ाका वेग उप थत कर िदया और वयं एक वै नाथ बन गये।
रावणको लघुश ा लगी। उसने कहा—“भगव ! यह िशविल आप िलए रह। म जबतक
सुसू करक आता , तब मुझे दे दीिजयेगा।” ठीक ह। और भगवा तो भगवा ! लघुश ाक
धारा बढ़ा दी। दस िमनट बीती, बीस, तीस...िफर? अर! ा क, अर! एक घ टा तो सुसू
करता रहगा मूख। सुसू बंद ही नह हो रहा। तब िशवजीको आया ोध—“तेरी ऐसी-क -तैसी
बेईमान! कबतक तू सुसू करता रहगा?” िशवजीने तुर◌ पटक िदया। वह पर भगवा वै नाथ
िवराज गये—सोऽयं भूितिवभूषणः।
२१२
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
यिद कोई माको कायरता समझ ल, िनबलता समझ ल, तब मा कभी नह करनी चिहए।
हमारा सै यबल ब त ही सु यव थत ह। हमार पास पारमा वक व नािभक य श भी ह। हमार
ेपा (Brahmos) ही पया ह पूर िवधम देशको समा करनेक िलए। और हमारी सेना
जानती ह िक कब साद देना चािहए। तो िम ो! ऐसी कोई बात नह ह। यही बात रामजीक
साथ ह। रामजीक समयसे हमारी िवदेशनीित यही ह। हम पहल यास करते ह िक समझौता
हो जाए। िवभीषणने समझाया, ि जटाने समझाया, मा यवा ने समझाया, हनुमा जीने समझाया,
और अ दजीने समझाया। जब नह समझा, तो ा िवक प ह? तब तो वही िवक प ह, जो
होना चािहए। वही ह—बोले राम सकोप तब भय िबनु होइ न ीित (मा. ५.५७)। तो आज
सबको डर लग रहा ह। म थराको सबसे पहल डर लगा और उसने ककयीसे कह िदया—
क ू िबनतिह दी दुख तुमिह कौिसला देब।
भरत बंिदगृह सेइहै लखन रामके नेब॥
(मा. २.१९)
“यिद रामजी राजा बनगे, तो भरतजीको कारागारम डाल िदया जायेगा। ल मणजी युवराज
ह गे।” पर ऐसा नह आ िक भय भंजिन (मा. १.३१.८)। रामजी राजा बने तो ा
भरतजी कारागारम आये? नह —
भरतािद अनुज िबभीषनांगद हनुमदािद समेत ते।
गहॆ छ चामर यजन धनु अिस चम शि िबराजते॥
(मा. ७.१२.९)
माता ककयीको भय हो गया—
सभय रािन कह कहिस िकन कुशल राम मिहपाल।
लखन भरत िरपुदमन सुिन भा कुबरी उर साल॥
(मा. २.१३)
रानी भयभीत हो गय िक बताओ—(१) रामजी, (२) च वत जी, (३) ल मण, (४) भरत,
(५) श ु कशलसे ह? पाँचक कशल पूछी। यह भय भी इस भय भंजिन (मा. १.३१.८)
कथाने दूर िकया। (१) च वत जीका शरीर भल छटा परतु वे नरक नह गये, सकशल इ◌पुरम
िवराजे और ल ाक यु क प ा िफर आ गये—तेिह अवसर दसरथ तह आये (मा.
६.११२.१)। (२) रामजी कशलसे ह। (३) भरत, (४) ल मण व (५) श ु कशलसे ह।
दशरथजीने ककयीसे कहा—
सुबस बिसिह िफिर अवध सुहाई। सब गुन धाम राम भुताई॥
किरहै भाइ सकल सॆवकाई। होइिह ित पुर रामबड़ाई॥
(मा. २.३६.३–४)
भय भंजिन (मा. १.३१.८) सर वतीजीको भय ह िक ा होगा? भगवा ने कहा—“कछ
नह होगा, आपका स मान होगा।” अतः—
आिगल काज िबचािर बहोरी। किरहै चाह कुशल किब मोरी॥
(मा. २.१२.७)
२१४
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
(मा. १.३१.८)।
कथाका म देिखये आप। यिद तुलसीदासजी महाराज कथाको यव थत िलख सकते ह,
तो तुलसीपीठाधी र कथाको यव थत कह भी सकते ह। और देिखये मोदीनगरवालो! िफर
कह रहा िक जहाँ समझम न आये, वहाँ बताना िक गु जी! मुझे यह समझम नह आ रहा।
म यास क गा िक सब समझम आये पर िच यह रखना, घरम नह । माताओ! ऐसा नह !
ब त-सी मिहलाएँ आती ह तो वेटर बुनती रहती ह (यहाँ तो नह बुन रही ह)। मने कहा िक
इसी कथाम वेटर तैयार करोगी। पूरा िच यह रखो। बेटा-बेटी सबक िच◌ा छोड़ो, सब
रघुनाथजी सँभाल दगे तु हार। और पु षलोग भी सारी बदमाशी छोड़कर कथाम बैठा करो।
ल मणजी और सीताजी—दोन डर रह ह। दोन सर वतीजीसे कह रह ह—“मेरा नाम आ
जाना चािहए रामजीक सेवाम। नह तो ककयीजी कहगी िक मने तो कवल एक रामजीको ही
वनवास िदया था, ये दोन कसे जा रह ह?” इससे अब ऐसा योग यहाँ होगा िक दोन का नाम
आ जायेगा रामजीक साथ—
तापस बेष िबशेष उदासी। चौदह बिरस राम बनबासी॥
(मा. २.२९.३)
आन◌ कर िदया! अब सुिनये! मने लोहा मान िलया िक गो वामी तुलसीदासजी-जैसा
यव थत कोई नह िलख सकता। इस कथाको देखकर लगता ह िक इतनी यव थत चचाक
िलए कसी यव थाक होगी ा णने। कािलदास कहते ह िक म ब त यव थत िलखता ,
पर उनसे करोड़ गुना अिधक यव थत िलखते ह गो वामीजी।
तो पहल ल मणजीको अभय करगी यह भय भंजिन (मा. १.३१.८) कथा। इसी चौपाईम
ल मणजीका और सीताजीका दोन का क याण होना ह। चौपाई यानसे देिखये—तापस बेष
िबशेष उदासी। म समझानेका यास कर रहा । मन मेर पास रिखये, इधर-उधर मत देिखये।
ककयीजीसे सर वतीजीने िवशेषण िदलवाया—तापस बेष रामजीको तापस वेष कहा। पर
ल मणजी बोल िक पहल मेरा नाम आना चािहए। अतः कहा—िबशेष । ा कह िदया?
िबशेष । िवशेष माने ा होता ह? सं कतम शेष श दक तीन अथ कह जाते ह—शेषः
सपऽविश े च शेषः पिरकरे तथा अथा (१) शेष माने शेषनाग। (२) शेष माने दूसरा
अविश , जो काटनेपर बच जाए। १७म ४का भाग िदया, बाहर गया ४ और शेष बचा १—यह
ह शेष। (३) और तीसरा शेष माने ा होता ह? सेवक। सेवकको भी सं कतम शेष कहते ह।
तो िवशेषम कह िदया शेष। िवशेष अथा —
(१) िविश ः िवभूषणं शेषः य य । शेषनाग िजनक श या ह—ऐसे ीरशायी िव णुजी ही
ल मणजी बन गये ह। वे रामजीक सेवाम रहगे—िवशेष ।
(२) िविश ः शेषः—परशुरामजीक फरसेसे जो नह कट वह ल मणजी भी शेष ह, रामजीक
सेवाम रहगे।
(३) िविश ः शेषः सेवकः य य एक िविश सेवक रामजीक सेवाम रह सकते ह, वे रहगे
ल मणजी।
समझ गये आप लोग? यहाँ शेषक तीन अथ ह। तो ल मणजी सेवाम आ गये। ल मणजीका
२१६
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
भय समा हो गया।
॥ बोलो लखनलालक जय ॥
सीताजीने कहा—“मेरा नाम कब आयेगा?” सर वतीजीने कहा—उदासी (मा. २.२९.३)।
ा कहा? उदासी। सं कतम उ का अथ होता ह उ◌ । उ◌ माने ा होता ह? सव े ।
उदासी अथा रामजीक साथ एक उ◌ ा दासी भी रह सकती ह। उ◌ कहा? और
याँ सेवा करत तो वे िनक ा दािसयाँ होती ह, पर प ी जब पितक सेवा करती ह तो वह
उ◌ ा दासी होती ह। दोन का क याण हो गया चकाचक! भय भंजिन (मा. १.३१.८)।
दोन ल मणजी और सीताजीका भय दूर िकया।
च वत जीका भय दूर िकया इस कथाने। अब च वत जीने ब त समझाया, पर ककयी
नह मानी। सुम◌ आ रह ह। सुम◌ने देखा िक राजभवन भयंकर लग रहा ह—
गयॆ सुमं तब राउर माहीं। देिख भयानक जात डॆराहीं॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मान िबपित िबषाद बसेरा॥
(मा. २.३८.३–४)
मानो खाना चाहता ह यह। सिचव सभीत सकइ निह पूँछी (मा. २.३८.८)—सुम◌जी
डर रह ह। यह भय भंजिन (मा. १.३१.८) लीला सुम◌को भी िनभय करगी। सुम◌जी जब
वनवासक िलए भुको छोड़ने जा रह ह, तब रामजीने कहा—नह भगव ! आप िनभय रिहये—
िपतुपद गिह किह कोिट नित िबनय करब कर जोिर।
िचंता कविन बात कइ तात किरय जिन मोिर॥
(मा. २.९५)
आ ा हो गयी। राघवजीने कहा—“िपताजी! आप िच◌ा न कर, यह म लका समय ह—”
मंगल समय सनेहबश सोच पिरहिरय तात।
आयसु देइय हरिष िहय किह पुलके भुगात॥
(मा. २.४५)
“िपताजी! आप िनभय हो जाइये। म वनवास जाऊगा, पर आपको म नरकम नह पड़ने
दूँगा िक आपने मेरी शपथ लकर ित ाक ह। आप ित ा छोड़ दगे तो आपको नरक
होगा। और पु का अथ होता ह—पु माने नरक होता ह, माने छड़ाने वाला। म आपका पु
। जो िपताको नरकसे छड़ा दे, उसीको तो पु कहते ह। जो बेटा शराब पीता ह, ककम करता
ह, वह अपने बापको नरकम ही तो डालता ह, और ा करता ह? शराब पीना, जुआ खेलना,
िकसी परायी नारीपर ◌ि डालना—इन ककम से िपताको नरक होता ह। इसिलए पु को ऐसा
कभी नह करना चािहए जो िपताको नरकम डाल।” रामजी कहते ह—“िपताजी! ये भयंकर
पाप ह जीवनम।” आज ा कारण ह िक हमार भारतम बला◌ार (rape) बढ़ते जा रह ह?
हम तो धानम◌ीजीसे माँग करगे िक कवल द ड नह ! बला◌ा रय को तो ाणद डसे नीचे
कोई द ड ही नह होना चािहए। तो िम ो! जीवनम हमको सु◌र आचरण करने चािहए, िजससे
िपताका यश बढ़।
२१७
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प
रामजीने कहा—आयसु मोर सासु सॆवकाई (मा. २.६१.४) यािन सासुक सेवा करना यह मेरी
आ ा ह; सादर सासु ससुर पदपूजा (मा. २.६१.५)। सीताजीने कहा—“सासु कहते िकसे
ह? पहल आप यह बता दीिजये। सासु-ससुरक भी आप या या बता दीिजये, िफर म आपको
उ र दूँगी।” रामजीने कहा—“पितक माताको सासु कहते ह और पितक िपताको ससुर कहते
ह।” सीताजीने कहा—“िब कल ठीक! तो आपक माताजी ा कह रही थ , आपको मरण
ह?”
िपतु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरो ह सेवी॥
(मा. २.५६.३)
सीताजी कहती ह—“आपसे ही तो माताजी कह रही थ िक आजसे वनदेव आपक िपता ह
और वनदेवी आपक माता ह। अब यहाँ तो कोई मेरा सास-ससुर नह ह, तो यहाँ रहकर ा
क गी म? बताइये! इसिलए मुझे वनम जाना ह, िक—”
बनदेबी बनदेव उदारा। किरहै सासु ससुर सम सारा॥
(मा. २.६६.१)
लीिजये! आज मुझे लगता ह िक रामजी भी िकसीक पाल पड़ गये। अबतक ये अपनेको
ब त बुि मा मानते थे। भई देखो! म तो ब रानीका प लता । यह सभी लोग जानते ह
िक रामजी मेर बेट ह और सीताजी मेरी ब रानी ह। म संसारक ब क िच◌ा नह करता।
ये णभ र ब एँ मेरा ा करगी भाई साहब! हमार पास तो एक ही ब ह—
जनक-नृप-नंिदनी सीता, ब रानी हमारी है।
जनक-नृप-नंिदनी सीता, ब रानी हमारी है।
णत-कुल-चंिदनी सीता, ब रानी हमारी है।
जनक-कुल-चंिदनी सीता, ब रानी हमारी है।
म संसारम मिहला को ब कहता । ब रानीतो कवल एक ही ह सीताजी। तो रामजीने
कहा—सुमुिख मातु िहत राखउ तोही (मा. २.६१.८), आपको माताजीक िलए रख रहा
। घरम रिहये न! सीताजीने कहा—“यह घर हो, तब तो र ! अब तो आजसे घर ही नह
रहगा, यह तो मशान बन रहा ह—घर मसान पिरजन जनु भूता (मा. २.८३.७)। ह रामजी !
इसिलए म यहाँ नह र गी।” रामजीने कहा—“ऐसा ह िक वनम काँट चुभगे आपको। बड़-बड़
काँट!”
कुश कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेिह िबनु पद ाना॥
(मा. २.६२.५)
सीताजीने कहा—“ये काँट औरको चुभ सकते ह, मुझे नह चुभगे।” “ ?” “इसिलए
िक म भूिमसे उ◌ और ये भी भूिमसे उ◌ ए ह, इसिलए ये मेर भैया ह। तो भाई कभी
बहनका खून नह पीता।”
अब आप सोिचये, िकतना रस ह रामकथाम! सोच लीिजये आप, ऐसा रस कह िमलगा
आपको? बताइये! रामजीने कहा—“भूिमपर सोना होगा, व कल धारण करना होगा, कद-मूल
फल भोजन िमलगा।” तो सीताजीने कहा—“ा आपि ह? अर! भूिमपर शयन मुझे चािहए।
२१९
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प
अर! म तो तरस गयी अपनी माँक गोदम बैठनेक िलए। िमिथलाम सुनयना माताने गोदम ल
िलया, आपक यहाँ माता कौश याजीने—”
पलग पीठ तिज गोद िहडोरा। िसय न दी पगु अविन कठोरा॥
(मा. २.५९.५)
“और िजसने ज माया, वो पृ वी मैया बेचारी तरसी मुझे अपनी गोदम लनेक िलए। तो
कमसे कम चौदह वष तो म अपनी मैयाक गोदम र गी। मेरा जीवन ध य हो जायेगा। भूिम
शयन व कल बसन (मा. २.६२) और यह व कल ा ह? वृ क छाल ही तो व कल
ह और वृ मेर भैया ह, तो भाईक दी ई साड़ी बहन ब त गवसे धारण करती ह। अशन
कंद फल मूल (मा. २.६२)—यह मेरा सौभा य ह िक अपनी माँका िदया आ साद पाऊगी।
लागइ अित पहार कर पानी (मा. २.६३.२), पहाड़का पानी मुझे नह लगेगा। पहाड़ मेर भाई
ह, तो ा भाई अपनी बहनको िवषैला पानी िपलायेगा?” रामजीक एक-एक प का सीताजी
ख डन कर रही ह, आज आन◌ कर िदया! रामजीने कहा—िनिशचर िनकर नािर नर चोरा
(मा. २.६३.३)। सीताजीने कहा—“नह , ये मुझे नह चुरा सकते िक म भी चोरक प ी
—सु र यामल गौर तनु िब िबलोचन चोर (मा. १.२४२)—आप िव िवलोचन चोर
ह, तो चोर चोर मौसेर भाई! कोई बात नह ।” हा! हा!! हा!!! रामजीने कहा—
डरपिह धीर गहन सुिध आये। मृगलोचिन तुम भी सुभाए॥
(मा. २.६३.४)
सीताजीने कहा—“सुिनये! सुिनये!! म िसंहक प ी न! जब आप धनुष तोड़ने जा रह
थे मटकते ए, तो कसे लग रह थे?—
ठाढ़ भये उिठ सहज सुहाये। ठविन जुबा मृगराज लजाये॥
(मा. १.२५४.८)
िसंहक समान आप जा रह थे। इसिलए मने आपसे िववाह िकया। म िसंहक प ी , तो
िसंहक प ी िकसीसे डरती ह ा? यह बताइये।
को भु सँग मॊिह िचतविनहारा। िसंघबधुिह िजिम शशक िसआरा॥
(मा. २.६७.७)
अर! आपक साथ र गी तो कोई आँख नह उठा सकता मेर सामने। समझ लीिजये!”
आन◌ कर िदया सीताजीने।
सीताजी बोल —“म नह थकगी—
मॊिह मग चलत न होइिह हारी। िछन िछन चरन सरोज िनहारी॥
(मा. २.६७.१)
भु! एक बात बताइये! म िवनोद नह कर रही , सही कह रही । उसी फलवारीम म आयी
थी?” रामजीने कहा—“हाँ।” सीताजीने कहा—“म घूम रही थी?” रामजीने कहा—“जी।”
सीताजीने कहा—“उसी फलवारीम आप भी पधार थे?” “रामजीने कहा—“जी।” सीताजीने
कहा—“मुझको एक भी बूँद पसीना नह आया, पर आपको?—भाल ितलक मिबंदु सुहाये
२२०
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
२२१
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प
दे रही ह, तो उसी सौतेली माँक अिधकारसे म ककयीक आदेशको चुनौती देती । म िनर◌
कर रही । और जब दोन क आदेश टकरायगे तो रावण-वधक लीला कसे होगी? बताओ!
इसिलए तुम जाओ और मेरी ओरसे माताजीसे िवदा माँग आओ। जाकर मेरा एक संदेश कह
देना ल मण—
किह दीजो सुिम ासे जाकरके अब राघव कानन जा रहा है।
अित धीर धुरधर वीर ती पन ेम औ नेम िनभा रहा है।
जननी तव ेम सरोवरमें सुत बारिह बार नहा रहा है।
िगिरधर ईश तु हारे ही स मुख आवनमें सकुचा रहा है।
जाकर कह देना।” ल मणजी आ रह ह। माँसे पूरी बात कही। ल मणजीको िफर थोड़ा-सा
डर लगा—माँगत िबदा सभय सकुचाहीं (मा. २.७३.८)। श द को देिखये! भय भंजिन।
मने कहा न िक इस बार म आपको ीरामकथाक यव था ही समझाने आया । ऐसा यव थत
ब ध हमने और कह तो नह देखा।
ल मणजी डर रह ह। सुिम ा माताजीने सुना तो—गयी सहिम सुिन बचन कठोरा (मा.
२.७३.६)—वे भी डर गय और मृगी देिख दव जनु च ओरा (मा. २.७३.६)। पर◌ु धैय
धारण िकया। धीरज धरेउ कुअवसर जानी (मा. २.७४.१)। िक—भय भंजिन। माताजीने
कहा—“बेट!”
तात तु हािर मातु बैदेही। िपता राम सब भाँित सनेही॥
(मा. २.७४.२)
“बेट! जब राघवजीने यह कहा िक तुम माँक पास जाओ, उसी समय तुम कह देते िक
नह सीताजी मेरी माँ ह और आप मेर िपताजी ह।” ल मणजीने कहा—“यह सब तो कहा। पर
उ◌ ने मुझे मेरी माँक पास नह भेजा, उ◌ ने मुझे अपनी माँक पास भेजा ह।” तब सुिम ाजीने
कहा—“ठीक ह, यिद वे मेर सामने आनेसे सकचा रह ह तो म भी उनक सामने जानेम सुकचा
रही ल मण! तुम जाओ, राघवजी एवं सीताजीक सेवा करना—
उपदेश यह जॆिह तात तुमते राम िसय सुख पावहीं।
िपतु मातु ि य पिरवार पुर सुख सुरित बन िबसरावहीं॥
तुलसी सुतिह िसख देइ आयसु दी पुिन आिशष दई।
रित होउ अिबरल अमल िसय रघुबीर पद िनत िनत नई॥
(मा. २.७५.९)
बेट! मेरा यही उपदेश ह िक तुम वही करना िजससे सीतारामजी तुमसे स रह।”
ल मणजी िफर थोड़ा-सा डर िक कह उिमलाजी न रोक ल, पर उिमलाजी रोकग —
मातु चरन िसर नाइ चले तुरत शंिकत दय (मा. २.७५)। श ा कर रह ह, पर उिमलाजीने
कहा िक नह म नह रोकगी—
मेरे मानसके हिरण आज वनचारी।
मैं रोक न लगी तु हे तजो भय भारी॥
(सा.)
२२२
ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
२२३
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प
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ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
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कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प
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ष पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १३
उतिर ठाढ़ भये सुरसिर रेता। सीय राम गुह लखन समेता॥
केवट उतिर दंडवत की ा। भुिह सकुच यॆिह निह कछ दी ा॥
(मा. २.१०२.१–२)
वयं भु खड़ ए। कवटने उतरकर द डव क । “ भैया?” कवटने कहा—“म
जानता िक जो आपको द डव कर लता ह, उसे द ड नह िमला करते भगव ! इसिलए
द डव कर ली।” “अर! इसे मने कछ नह िदया”—
केवट उतिर दंडवत की ा। भुिह सकुच यॆिह निह कछ दी ा॥
िपयिहय की िसय जानिनहारी। मिनमुदरी मन मुिदत उतारी॥
(मा. २.१०२.२–३)
आहाहा! भगवती जान गय िक भुको संकोच हो रहा ह। स तासे चूड़ामिण भी उतार
ली और मुि का भी; कहा—“ल मणक उतराईम कवटको चूड़ामिण दे दूँगी और अपनी
उतराईम मुि का दे दूँगी।” भगवा ने कहा—“उतराई लो।” कहॆउ कृपाल ले उतराई (मा.
२.१०२.४)। कवटने चरण पकड़ िलए—केवट चरन गहे अकुलाई (मा. २.१०२.४) और
बोला—“उतराई ही तो ल रहा । चूँिक यह चूड़ामिण सीताजीक िनजी संपि नह ह और
मुि का भी उनक िनजी संपि नह ह। सीताजीक िनजी संपि ह आपक वाम चरण और
ल मणजीक िनजी संपि ह आपका दािहना चरण। यही उतराई म ल रहा और ा चािहए।
नाथ आजु मैं काह न पावा (मा. २.१०२.५)—सब कछ तो मुझे िमल गया भगव । कछ नह
चािहए—अब कछ नाथ न चािहय मोरे (मा. २.१०२.७)।” आन◌ कर िदया! भगवा ने
अभय कर िदया—भय भंजिन (मा. १.३१.८)।
याग आये, भर ाजजीक दशन िकये। भर ाजजीने कहा—“सरकार! आपक दशनसे सब
कछ िमल गया मुझे।” सब लोग वनपथम आन◌ कर रह ह। सबको आन◌ देते ए आ रह
ह। वटवृ क नीचे क। भय भंजिन। ामवधुएँ भी िनभय हो गयी ह, सीताजीक पास आती
ह और कहती ह िक ये करोड़ कामदेव को ल त करने वाल तु हार कौन ह?—
कोिट मनोज लजाविनहारे। सुमुिख कह को आिह तु हारे॥
(मा. २.११७.१)
सीताजीने बताया—
खंजन मंजु ितरीछे नयनिन। िनज पित कहॆउ ितनिह िसय सयनिन॥
(मा. २.११७.७)
ग द हो गय । वा मीिकजीक आ मम आये और वा मीिकजीने भगवा को चौदह थान
बताये रहनेक। िच कट आ गये और देवता ने कोल-िकरात क वेषम आकर कटी बनायी।
भगवा िच कट आ गये ह, यह समाचार सुनकर ऋिष-मुिन आये—
िच कूट रघुनंदन छाये। समाचार सुिन सुिन मुिन आये॥
(मा. २.१३४.५)
स मान करक भु ने उ◌ िवदा िकया—जथाजोग सनमािन भु, िबदा िकये मुिनबृंद
(मा. २.१३४)। कोल-िकरात प क दोन म क◌-मूल, फल भर-भरकर दौड़ ए आये, भुने
२२७
कथा १३ ीरामच रतमानस-कथा ष पु प
२२८
स म पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
सीतारामगुण ामपु यार यिवहािरणौ ।
व े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी तुलीदासजी महाराजक जय हो।
जय िसयारामा भरत ि य रामा। जय िसयारामा भरत ि य रामा॥
भरत ि य रामा लखन ि य रामा। जय िसयारामा भरत ि य रामा॥
सॊइ बसुधातल सुधा तरिगिन। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन॥
जय िसयारामा भरत ि य रामा। जय िसयारामा भरत ि य रामा॥
ीसीताराम भगवा क जय हो! भावते भरतलालजीक जय हो!!
प रपूणतम परा◌र परमा मा, जगि य◌ा, जगदेथकनाथ, जगदाधार, जगदिध ान,
जग मोहन, जग ाथ, जगदीश, भगवा , परमारा य ीसीतारामजीक कपासे, मोदीनगरम राघव-
सेवा-सिमित ारा समायोिजत, मेरी १२५१व ऐितहािसक रामकथाक स म स म आप सभी
बा धिवय और ब धु का म ब त-ब त वागत करता ।
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प
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स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४
२३१
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प
इनपर हमारी ममता ही नह , तो इक ी करनेक बात कहाँसे आयी?” भरतजीको िकसीसे ममता
ही नह ह—न मातासे, न िपतासे, न ब धुसे, न पु से, न प ीसे, न शरीरसे, न धनसे, न भवनसे,
न िम से और न प रवारसे। अ त यि ह ये! इसिलए ा बताऊ आपको। वयं गीताक
व ा भगवा चिकत हो गये, तो अब सबक बात ा कर? भगवा ने कहा—
चतुिवधा भज े मां जनाः सुकृितनोऽजुन।
आ िज ासुरथाथ ानी च भरतषभ॥
(भ.गी. ७.१६)
भगवा कहते ह िक चार कारक मेर भ मुझे भजते ह—(१) आ , (२) िज ासु, (३)
अथाथ , (४) ानी—जो मशः (१) काम, (२) धम, (३) अथ, (४) मो मुझसे ही चाहते ह।
भरतजीने कहा—“ भु! ऐसे भी तो लोग ह जो आपसे न अथ चाहते ह, न धम चाहते ह, न
कामना चाहते ह, न मो चाहते ह। तो उनको आप ा कहगे?” तो भगवा फसे। भगवा ने
कहा—“ऐसा ह िक ये चार तो मेरा भजन करते ह। परतु जो इनसे ऊपर ह—वे मेरा भजन कर
या न कर, म उनका भजन करता ।” तो—
भरत सिरस को रामसनेही। जग जप राम राम जप जेही॥
(मा. २.२१८.८)
ा बात ह! चतुिवधा भज े मा —िक◌ु एतदित र ? एतदित र मह भजे। ानी
च भरतषभ—भरतजीका नाम ल िलया। भरतेषु ऋषभः भरतषभः और भरतः ऋषभः य य
स भरतषभः त । क णावतारम जा नाएँ अथ-धम-काम-मो —कछ नह चाहत और
रामावतारम भरतजी अथ-धम-काम-मो —कछ नह चाहते। ी जा नाएँ तो यहाँतक कहती
ह िक म अपने शरीरक सँभाल नह क गी। अब तो मने आपको अपना शरीर स प िदया, अब
इसक सँभाल आप क िजये। ी जा नाएँ भगवा से कहती ह—
िच ं सुखेन भवताप तं गृहेषु यि िवश युत कराविप गृ कृ ये।
पादौ पदं न चलत व पादमूला ामः कथं जमथो करवाम िकं वा॥
(भा.पु. १०.२९.३४)
भु! हम तो कछ नह जानत । ह मोहन! वे तो कहती ह—
लट उरझी सुरझा जा रे मोहन हाथ मेरे मेंहदी लगी है॥
रासमें मेरी बेसर िगर गई अपने हाथ पिहरा जा रे मोहन ...॥
रासमें मेरो कुंडल िगर गयो अपने हाथ पहना जा रे मोहन ...॥
रासमें मेरो कंगन िगर गयो अपने हाथ पहना जा रे मोहन ...॥
रासमें मेरो नूपुर िगर गयो अपने हाथ पहरा जा रे मोहन ...॥
रासमें मेरी चुनरी िगर गई अपने हाथ ओढ़ा जा रे मोहन ...॥
मीराके भु िगिरधर नागर िबगरी बात बना जा रे मोहन ...॥
लट उरझी सुरझा जा रे लट उरझी सुरझा जा रे मोहन ...॥
हाथ मेर महदी लगी हका ता◌य ा ह? यह महदी मने आपक िलए लगायी ह, अतः
इस हाथका म अपने िलए उपयोग नह क गी। अब तो आप जान और आपका काम जाने।
२३३
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प
हमने यह पचरगी चोला आपक चरण म स प िदया ह। जो उपयोग आप करना चाह, वह कर।
इतना सु◌र गीत ह यह! एक बार मने गाया यह गीत तो एक लड़का था, हमारा ही प रिचत
था, उसको महाभाव आ गया। वह बालक १५ िदन तक पागल बना रहा। ब त अ◌ा गीत ह।
लट उरझी सुरझा जा रे मोहन हाथ मेरे मेंहदी लगी है।
तो भरतजीक कथाका यही सारांश ह िक उ◌ ने संसारक यवहार क कभी क पना ही
नह क । जनकजी कहते ह िक सुनयना! यह लड़का इतना पागल ह िक इसने वाथ और
परमाथक कभी िच◌ा ही नह क —
परमारथ वारथ सुख सारे। भरत न सपनॆ मन िनहारे॥
साधन िसि रामपग नॆ । मोिह लिख परत भरतमत ए ॥
(मा. २.२८९.७–८)
ऐसा यि कभी देखा गया ा जो िक परमाथ भी नह जानता वाथ भी नह जानता!
? देिखये कथाएँ तो मने ब तक ह, पर इस कथाका अपना कछ िवल ण अि◌ व ह।
अ त करण ह यहाँका! सुम◌जी पछतावा करते-करते ीअवध आ रह ह। च वत जीको
संदेश िदया िक अब रघुनाथजी ीअवध नह लौटगे चौदह वष पय◌। यान दीिजयेगा—
भरतजीका दशरथजीसे ब त स संग होता था। यह कछ लोग का वग था ीअवधम। ीअवधम
तीन साधक थे—(१) भरतजी, (२) दशरथजी, और (३) जानक जी। इन तीन का अपना
एक अलग यि व था। कई बार भरतजीने ीदशरजथजीसे कहा—“िपता ी! आप मुझे
ीराम ेमक दी ा दे दीिजये।” तो दशरथजीने कहा—“पागल! म राम ेमक दी ा दूँ? हम
लोग का यह सौभा य ह िक ीराम आराधनाक थम आचाया ( थम जग ु ) जग ननी
सीताजी जनकन ◌नी बनकर हमार अवधक बड़ी ब रानी बन गयी ह। उ◌ क चरण म णाम
करक उ◌ से ीराम ेमक दी ा ल लना।” ये लोग परम उपासक ह सीतारामजी क। भगवा
ीरामक गूढ ेमक एक पर परा (सं दाय) ह—जनकजी, जानक जी, भरतजी, और दशरथजी।
(१) जनकजीका गूढ ेम—
नवउ पिरजन सिहत िबदे । जािह रामपद गूढ़ सने ॥
जोग भोग मह राखॆउ गोई। राम िबलोकत गटॆउ सोई॥
(मा. १.१७.१–२)
(२) जानक जीका गूढ ेम—ऐसा ही गूढ ेम जानक जीका ह—
तन सँकोच मन परम उछा । गूढ़ ेम लिख परइ न का ॥
(मा. १.२६४.३)
(३) भरतजीका गूढ ेम—कौश या माताजी कहती ह—
गूढ़ सनेह भरतमन माहीं। रहे नीक मॊिह लागत नाहीं॥
(मा. २.२८४.४)
(४) दशरथजीका गूढ ेम—
२३४
स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४
२३५
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प
मेरी सहायता क । पर एक काय ाजीने बीचम िबगाड़ िदया िक—भूपित सुरपित पुर पगु
धारॆउ (मा. २.१६०.२)—अब च वत जी सदाक िलए इ◌लोक चल गये, शरीर छोड़कर
चल गये।” भरतजी बड़ याकल हो गये, िगर पड़ पृ वीपर। िफर पूछा—“कसे आ?” सब
बताया। अब यह िवरहक अि जली और पहली ममताका हवन भरतजी अब कर रह ह।
वाहा! आहाहा!! कह िदया िक अर माताजी—
जौ पै कु िच रही अिस तोही। जनमत काहे न मारेिस मोही॥
(मा. २.१६१.७)
मुझे मार डाल होत ।
पेड़ कािट तैं पालउ सींचा। मीन िजयन िनित बािर उलीचा॥
(मा. २.१६१.८)
कर िदया हवन।
हसबंश दशरथ जनक राम लखन से भाइ।
जननी तू जननी भई िबिध सन कछ न बसाइ॥
(मा. २.१६१)
तुम तो अपनी माताक समान हो गय । तु हारी माताने जैसे पितको मारनेका ष ं रचा,
पर वे तो नह मर, परतु मेर िपताजी तो मर ही गये—िबिध सन कछ न बसाइ (मा. २.१६१)।
हवन कर रहा माताक ममताका! आजक प ा जीवन भर आपसे म सामने बात नह
क गा—
कैकेयी जौलों िजयित रही।
तौलों बात मातुसों मुँह भिर, भरत न भूिल कही॥
(गी. ७.३७)
जो हिस सो हिस मुँह मिस लाई। आँिख ओट उिठ बैठिह जाई॥
(मा. २.१६२.८)
बस! पहली ममताका हवन कर िदया—मातृ ममतां जुहोिम ीरामाय वाहा। भय भंजिन
म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। पहली ममताका हवन हो गया।
अब उसी समय म थरा आयी। श ु जीने म थराको द डत िकया, और िफर कौश या
पिह गे दॊउ भाई (मा. २.१६३.८)—कौश याजीक पास आये। आहा! बोल—मातु तात
कह दे देखाई (मा. २.१६४.३)—माताजी! िपताजीको िदखा दीिजये न! कौश याजीने
कहा—“ा िदखा दूँ? यह अमाव याक राि ह और अमाव याक राि को पूव िदशाक पास
न च◌मा रहते ह और न सूय। म ाची , पर क ा? पूिणमाक ाची नह , आज म
अमाव याक ाची ।” और यह िपताजीक वा◌िवक यि वक चचा क माताजीने—
िपतु आयसु भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
िबसमय हरष न दय कछ पिहरे बलकल चीर॥
(मा. २.१६५)
कौश या माताजीने कह िदया—“बेटा! म आपको ा बताऊ? मुझे तो अपना ेम देखकर
२३७
कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प
ल ा नह लग रही ह—
मॊिह न लाज िनज नेह िनहारी। राम सिरस सुत मैं महतारी॥
(मा. २.१६६.७)
लोग कहते ह िक माता िपतासे अिधक कोमल होती ह, पर च वत जीने आज इस बातको
उलट िदया। आज माता कठोर िनकली और िपता ही कोमल िनकल। म तो जी रही —
िजयइ मरइ भल भूपित जाना। मोर दय शत कुिलश समाना॥
(मा. २.१६६.८)
च वत जीने अपना पु ेम मािणत कर िदया और उ◌ ने अपने यि वको मुझसे भारी
कर िदया। चल गये च वत जी, बेटा!” आज यह भरतजी िपताजीक ममताका भी हवन कर
रह ह, ा करक। िपताजीको मुखाि दी। हवन कर िदया और आज राजसभाम कह भी
िदया—
नािहन डर िबगिरिह परलोकू। िपत मरन कर मोिह न शोकू॥
(मा. २.२११.५)
ि तीय हवन कर िदया। आहा! चिकत ह लोग! जननी जनक बंधु सुत दारा (मा.
५.४८.४)। ब त अ त य ह—भरतचिरत जप जाग (मा. १.४१)।
अयो याका रा य चलानेक बात आयी। सब लोग क मनम एक कारक िनराशा ह, एक
कारका ह। सभी लोग यही कह रह ह—
रिजया कौन अब चलावे भैया भरत के िबना।
भैया भरत के िबना भावते भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
छ भंग कोसलपुर छाया दश िदिश दुसह अँधेरा।
हाहाकार मचा ि भुवन में िवपत दस िदिश घेरा।
िदयना कौन अब बरावे भैया भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
राम िबरह में याकुल रोवे मातु सिचव गु नारी।
छाती पीट कौश या िबलखे शोक मगन महतारी।
धीरज कौन अब धरावे भैया भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
शुक सािरका िपंजरा में िबलपें खग मृग जािह न जोए।
भूिम पछारी मारी हय िहन से आँसुन ते मुँह धोए।
रिजया कौन अब बचावे भैया भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
ातृ ेम पिरिमत की सीमा कौन भगित दरसावे।
रामभ ाचाय के मन म थल में कौन ेम बरसावे।
रिहया कौन अब िदखावे भैया भरत के िबना॥ रिजया कौन ...
आहाहा!! ीअवधक रा यका ◌ाव हो रहा ह। विस जीने कर िदया ◌ाव—“बेट!
तु ह रा य करना चािहए। आज रामजी नह ह, वनम ह। च वत जी चल गये। तुम सँभालो।”
भरतजी ने कहा—“गु देव! यह रा य मुझसे नह सँभलगा।” विस जीने पूछा—“ ?”
भरतजी बोल—“यह तो िसंहासन ह। िसंहासन िसंहसे सँभलता ह, हससे नह सँभलता। म तो
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स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४
यहाँ तो म रामजीको वनवास भेज रहा । मेर कारण रामजी वनवास चल गये, अब कौन-सा
मुँह लकर इस िसंहासनपर बैठ? बताइये!”
मोिह राज हिठ दॆइहउ जबहीं। रसा रसातल जाइिह तबहीं॥
आहाहा!! ऐसा भाई आजतक नह िमला। पा डव भी भाई-भाई ह, ब त ेम ह। पर◌ु
युिधि रजीको कोसने म अजुन और भीमने िकसी कारका संकोच नह िकया। भीमसेनने
ौपदीजीक चीरहरणक समय ही कह िदया—“सहदेव! आग ल आओ। म युिधि रक हाथको
जला देता ।” और अजुनने कणवधक करणम कह िदया। वे तो तलवार लकर मारने चल
गये युिधि रको, परतु क ण भगवा ने बचा िलया। पर यहाँ तो ा आन◌ ह! इतना िवमल
च र ! भरतजीने कहा—“यिद आप लोग मेर दयक जलनको ठडी करना चाहते ह, शा◌
करना चाहते ह तो—
आपिन दा न दीनता कहउ सबिह िशर नाइ।
देखे िबनु रघुनाथपद िजय कै जरिन न जाइ॥
(मा. २.१८२)
मेर दयम ब त ताप ह।” आज यहाँ अयो या छोड़नेका अथ ह िक भरतजीने दस
ममता को छोड़ िदया—माताक ममता, िपताक ममता, ब धु ल मण-श ु क ममता, बिहन
शा◌ाक ममता छोड़ दी। पु -पु ीक समान यारी जाक ममता छोड़ दी। दारा मा डवीजीक
ममता छोड़ दी। चचातक नह क , चल पड़। बस कह िदया िक गु देव और पुरवािसयो! अब
तो—
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में रामजी िबराजें। राम में रम जाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में सीताजी बसत है। िसय दरश पाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में लखनजी लसत है। लखन दरश पाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में म ािकनी बहत है। म ािकनी नहाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में कामदिगिर िबराजें। पिर मा लगाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
िच कूट में िगिरधर भु रमत है। राम दरश पाने को जी चाहता है॥
िच कूट जाने को जी चाहता है।
भरतजीने सब कछ छोड़ िदया—
जननी जनक बंधु सुत दारा। तन धन भवन सु द पिरवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनिह बाँध बिर डोरी॥
(मा. ५.४८.४)
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स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४
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कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प
और
(३) काम—भर ाजजीने क चंदन बिनतािदक भोगा (मा. २.२१५.८)—सभी अ सराएँ
उप थत कर द , पर काम नह आया।
ये िविच ही यि ह वा◌वम! कोई अ योि नह समझनी चािहए। तीन भाइय क यहाँ
एक-एक मिहला आयी—
(१) रामजी—रामजीक यहाँ ताटका आयी, उसका वध रामजीने िकया।
(२) श ु जी—इनक यहाँ म थरा आयी, उसक कमर उ◌ ने तोड़ी।
(३) ल मणजी—इनक यहाँ शूपणखा आयी, उसक नाक उ◌ ने काटी।
पर भरतजीक यहाँ कोई ऐसी मिहला आयी ही नह । कोई मिहला आयी ा? बताइये आप
लोग! कोई नह आयी। इसिलए भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। यह यि
ा बताया जाए, म वयं आ यचिकत ।
(१) अथ—अयो याम अथ छोड़ िदया। ह न? छोड़ िदया—
अवध राज सुरराज िसहाई। दशरथ धन सुिन धनद लजाई॥
(मा. २.३२४.६)
(२) धम—यहाँ धम छोड़ा—माँगउ भीख यािग िनज धरमू (मा. २.२०४.७)।
(३) काम—भर ाज आ मम काम छोड़ा, सारी ऋि -िसि याँ छोड़ द — क चंदन
बिनतािदक भोगा (मा. २.२१५.८)। और
(४) मो —िच कटम जाकर मो दा अयो या भी छोड़ दी—कानन करउ जनम भिर
बासू (मा. २.२५६.८)।
अरथ अवध छो ो मो ो मुख जगत ते राम के चरण धन मन को रमायो है।
धम याग त यो परम धरम भ यो रघुपित ेम के याग में नहायो है।
भर ाज आ म में काम के साधन तिज जािग राित भर रामगुणगण गायो है।
िच कूट जाई मो दाियनी अयो या तिज ताते रामभ ाचाय भरत अपनायो है॥
सब कछ छोड़ िदया। भय भंजिन म भेक भुजंिगिन।
ा बताय आपको! िच कट आ रह ह, सबको म ही म तो हो रहा ह—(१) िनषादको
म, (२) यागको म, (३) भर ाजको म—“देखता िक ा होता ह?” ऋि -िसि
बुला ल । (४) इ◌को म—जब भरतजीक दशन मा से सभी जड़-चेतन साकतलोक जाने
लगे, तब इ◌को म हो गया। इ◌ने कहा—“गु देव! अब तो गड़बड हो जायेगा, ये तो
सब साकत चल जा रह ह। ा होगा अब?” गु देवने कहा—“कोई बात नह !” इ◌ने
कहा—“ यवधान डािलए।” गु देवने कहा—“नह ! भरत रामजीक िमलनम कोई यवधान
नह डाल सकता। तुम मनम भी मत लाना, नह तो ब त बुरा हो जायेगा। और जब भगवा
राम बुरा मान लगे तो तु हारी सारी स पि धूलम िमल जायेगी। ये तो रामजीक ेमी ह—
भरत सिरस को रामसनेही। जग जप राम राम जप जेही॥
(मा. २.२१८.८)
इतना बड़ा कोई रामभ होगा? ा कह रह हो?” अ◌म इ◌का म दूर आ—भय
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कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प
भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८)। आजकलक लोग ने भुअंिगिन (मा.गी. े.) श द
छापा ह। यहाँ भुअंिगिन श द नह , भुजंिगिन ह—भय भंजिन म भेक भुजंिगिन (मा.
१.३१.८)। अब देिखये! भरतजी िच कट प च रह ह। (५) ल मणजीको म—सबक बात
तो छोड़ ही दीिजये, ल मणजीको ही म हो गया। इस संगक या या मने भावाथबोिधनी म
क ह, वह पढ़ लीिजयेगा। सामा य लोग यह कहते ह िक ल मणजी भरतजीको मारनेक िलए
कह रह ह पर ऐसा नह ह। वहाँक चौपाइय को समझनेम हम भूल करते ह। ल मणजीको म
अव य ह, पर म इतना अिधक नह िक वे मयादा तोड़ द। आजतक तो लोग ये कहते रह
िक ल मण जानते ह िक रामजीको मारने भरतजी आ रह ह—
कोिट कार कलिप कुिटलाई। आये दल बटोिर दॊउ भाई॥
(मा. २.२२८.६)
पर◌ु ऐसा नह ह। वहाँक चौपाईम ल मणजीको म यह ह िक भरतजी भावुकताम आ
रह ह, अयो याजीक िबना कोई यव था िकये। और जब अयो याम सुर ाक कोई यव था
नह ह, तो कह भरत-श ु क अनुप थितम अयो यापर रावणने आ मण कर िदया तब ा
होगा? तब रामजीसे ल मणजीने कहा—“भगव ! भल भरतजीने भूल कर दी ह, पर उसका
प रमाजन म क गा। यिद क भकण-रावण आ रह ह, तो ह रघुनाथजी! आपक चरण क
शपथ! म देखते-देखते क भकण-रावणको आज ही मार डालगा—”
तैंसॆिह भरतिह सेन समेता। सानुज िनदिर िनपातउ खेता॥
(मा. २.२३०.७)
यहाँ इसका अथ ा ह? श ु -भरतजीको िनदिर, माने पीछ, उनको पीछ करक म
रावण-क भकणका वध क गा। यह यहाँका अथ ह। मुझे िच◌ा ह—
कोिट कार कलिप कुिटलाई। आये दल बटोिर दॊउ भाई॥
(मा. २.२२८.६)
रामजीको वनवासम देखकर और भरतजीको िवरहम याकल देखकर यिद दोन भाई रावण-
क भकण दल बटोरकर आये ह, तो आज ही जो कछ हो जाए हो जाए। जो कौश याजीका
हरण िकया था रावणने, उसका सब लोग को ोध ह ही, उस ोधको आज ही म कट
कर दूँगा— गट करउ िरस पािछल आजू (मा. २.२३०.५)। जो कछ होगा, हो जायेगा।
वहाँ पूरा करण यही ह। कहा—नह , जग बौराइ राज पद पाये (मा. २.२२८.८)—जग
बौरा जाता ह; राजपद पाकर पागल हो जाता ह। भरतजीने यहाँ थोड़ी असावधानी बरती ह,
उस असावधानीका लाभ उठा िलया ह रावणने। भगव ! भरत हमिह उपचार न थोरा (मा.
२.२२९.७)—हमम और भरतम कोई औपचा रकता थोड़ ही ह। यह यहाँका अथ ह। हम लोग
भाई-भाई ह। यिद भरतने भूल कर दी तो म सुधा गा। म उनका छोटा भाई , म सुधा गा।
आ ा दीिजये—
आजु रामसेवक जश लेऊँ। भरतिह समरिसखावन देऊँ॥
(मा. २.२३०.३)
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स म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १४
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कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प
देवता फल क वषा करने लगे। जय! जय!! अ त ेम! सब लोग िमल। सबको म ह
िक रामच◌जी ा करगे? िकसक बात मानगे? अवध चलगे या नह ? राम गमन िबिध
अवध िक नाहीं (मा. २.२५२.८)। यह म भेक भुजंिगिन (मा. १.३१.८) कथा दूर करगी
म। भरतजीने कहा—“सरकार! ऐसा उपाय कर िदया जाए िक दोन बात हो जाएँ—आप
यहाँ भी रह लीिजये और अवधम भी रह लीिजये।” ऐसा कसे िकया जाए? बड़ी ल बी-ल बी
चचाएँ । चार प भरतजीने िदये—
(१) सानुज पठइय मोिह बन कीिजय सबिह सनाथ (मा. २.२६८)—या तो म श ु क
साथ वन चला जाता , आप अयो या चल जाइये। अथवा;
(२) नत फेिरयिह बंधु दॊउ नाथ चलौं मैं साथ (मा. २.२६८)—श ु -ल मणको
अयो या भेज दीिजये, म आपक साथ वन चल। अथवा;
(३) नत जािह बन तीिनउ भाई, ब िरय सीय सिहत रघुराई (मा. २.२६९.१)—हम
तीन भाई वन चल जाते ह, आप सीताजी सिहत अयो याजी लौट जाइये। अथवा;
(४) जॆिह िबिध भु स मन होई, क नासागर कीिजय सोई (मा. २.२६९.२)—जैसे
आप स हो सक, वही कर लीिजये।
समाधान नह बना, अभी मक थित बनी ह। सबको म ह िक ा करना चािहए? एक
प आया िक भरतजी वनम रह ल और ल मणजी अवध लौट जाएँ, पर यह प देवता को
अनुकल नह ह। िक ल मणजी यिद वनम नह जायगे तो मेघनादका वध कसे होगा? अतः
यह प देवता को अनुकल नह आ रहा ह। जनकजीने भी कहा—“म ल मणजीको नह
कह सकता िक तुम अवध चलो। एक बार थोड़ी-सी बात मेर मुखसे िनकल गयी—बीर िबहीन
मही मैं जानी (मा. १.२५२.३), तो भूचाल कर िदया—डगमगािन मिह िद गज डोले (मा.
१.२५४.१)।” तब देवता ने सर वतीजीसे कहा—“िकसी कार आप ही भरतजीक बुि फर
दीिजये और भरतजी यह कह द िक ठीक ह! ल मणजी आपक साथ चल जायगे; म जाता
अयो या।” सर वतीजीने भी मना कर िदया—“मेरसे नह होगा।” अ◌म भरतजीने ही कहा—
“ भु! आज आप मुझे आ ा दीिजये, यह मेरी िच ह।” तो भगवा ने कह िदया—“यिद आ ा
क बात ह, तो म आ ा दे रहा िक तुम चौदह वष पय◌ अयो याम जाकर अयो याजीका
पालन करो! यही मेरी आ ा ह।” जय-जयकार आ! देवता ने स तासे क पवृ क पु प
बरसाये—सुर वारथी सरािह कुल बरषत सुरत फूल (मा. २.३०८)। जय! जय!!
पर◌ु अभी भरतजीको एक म ह। सबका म तो दूर हो गया, पर भरतजीको म ह िक
म अपने ाण क र ा चौदह वष कसे क गा? तब—
भु किर कृपा पाँवरी दी ीं। सादर भरत शीष धिर ली ी॥
(मा. २.३१६.४)
भगवा ने पाँवरी दे दी। भु किर कृपा पाँवरी दी ीं अथवा कपा भु पाँवरी क र दी◌
अथा भगवा क कपाने रामजीको ही पादुका बनाकर भरतजीको दे िदया। भगवा क कपाने
ही दािहनी पादुकाम रामावतार और वाम पादुकाम सीताजीका अवतार िकया और भरतजीको दे
िदया। इस कार अब दोन काय हो गये। भगवा एक ◌ि से िच कटम रह रह ह और दूसरी
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कथा १४ ीरामच रतमानस-कथा स म पु प
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अ म पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
सीतारामगुण ामपु यार यिवहािरणौ ।
व े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥
रामपादा रोल बं कवीनां स ु भु ।
गु वािमतुलसीदासं या णतोऽ यह ॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
िसयावर रामच◌ भगवा क जय।
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
पवनसुत हनुमा जी महाराजक जय हो। गो वामी तुलसीदासजी महाराजक जय हो॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
॥ सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा सीताराम हनुमा ॥
असुरसेन सम नरक िनकंिदिन। साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन॥
(मा. १.३१.९)
प रपूणतम परा◌र परमा मा, परमे र, परमारा य, मयादा-पु षो म, भगवा
ीसीतारामजीक कपासे, मोदीनगरम राघव-सेवा-सिमितक त वावधानम समायोिजत, मेरी
१२५१व रामकथाक अ म स म आप सभी बा धिवय और ब धु का म ब त-ब त वागत
करता । आप सुनते आ रह ह, इस बार मने ित ा क ह िक मानसजीम जो तीस कथाएँ ह,
उनम-से येकक कछ-न-कछ या या सुनाऊगा। अब दो िदनका समय मेर पास ह—आज
और कल।
कथा १५ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
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अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १५
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अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १६
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कथा १६ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
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अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १६
आचरण करती ह। तुमिह ानि य राम कहेउ कथा संसार िहत (मा. ३.५ख)—माताजीने
सीताजीको पित तका उपदेश िदया और कहा यह तो मने सार संसारक िलए कहा ह िक नारीका
एक ही धम ह, एक ही त ह, एक ही िनयम ह—
एकइ धम एक त नेमा। काय बचन मन पितपद ेमा॥
(मा. ३.५.१०)
इस चौपाईका जो लोग अथ नह जानते, वे कछ नाटक करते ह। वे कहते ह िक गो वामीजी
कहते ह पितक चरणम ेम कर, भगवा का भजन मत कर। कवल मेर जूतेक पॉिलश (polish)
करती रह! पर ऐसा नह ह। पितपद ेमाका अथ ह पित िजन चरण क पूजा करते ह, ऐसे
भगवा ीरामक चरण म ेम करना—यही नारीका धम ह। पदका अथ र क होता ह—पदं
यविसत ाण थानल माि व ुषु (अ.को. ३.३.५३८)। पितक जो र क ह भगवा , उनक
चरणम ेम करना। रामजीक चरणम ेम करना ही पित ता नारीका त, िनयम और धम ह—
एकइ धम एक त नेमा। काय बचन मन पितपद ेमा॥
(मा. ३.५.१०)
अि जीसे िमलकर चल। भगवा ने मागम िवराधका वध िकया। िवराधका वध िकया, तो
संत स हो गये—
िमला असुर िबराध मग जाता। आवतहीं रघुबीर िनपाता॥
(मा. ३.७.६)
(२) शरभ दशन- याग—
शरभ जीसे िमल—साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन (मा. १.३१.९)। ब त अ◌ा!
न सौ गंगा नेक सरभंगा—एक बार शरभ क डम नहा लीिजये, तो सौ ग ा नहानेका फल
िमल जाता ह। तो इतने रामजीक भ ! कहा—“सरकार! म ाजीक धाम जा रहा था। उसी
समय कोई वा मीक य रामायण कह रहा था। उसम िलखा था—िवराधं रा सं ह वा शरभ
ददश ह (वा.रा. १.१.३३) अथा िवराधको मारकर भगवा शरभ का दशन करगे। इतना मने
सुना तो ाजीसे पूछा भी नह , म उनक िवमानसे कद पड़ा और अपनी किटयाम आ गया
और ाजीसे कहा—“चुप! म तु हार लोक नह जाऊगा। रामजी मेरी किटयाम आय और म
लोक जाऊ? पर मेरी किटयाम आ रहा ह, म ाक लोकम जाऊ? ाक लोकक
ऐसी क तैसी! नह जाऊगा—”
जात रहॆउ िबरिच के धामा। सुनॆउ वन बन ऐहै रामा॥
(मा. ३.८.२)
मने सुना िक रामजी वनम आयगे तो िचतवत पंथ रहॆउ िदन राती (मा. ३.८.३)। तबसे म
आपक राह जोहता रहा।” शरभ ध य ह! कासीं िबिध बिस तनु तजें हिठ तनु तजें याग
(दो. १४) यागम हठसे शरीर छोड़नेसे भी मुि हो जाती ह और इसीिलए शरभ ने िचता रची
और बैठ गये। भगवा से कह िदया—“म इसीिलए बैठ रहा िक जीिवत अि समािध लगा।
मेर ारा शरीर छोड़नेपर आप मुझे मुखाि दीिजये। म स हो जाऊगा। आह! कोई भी यि
आपक मुखाि का आन◌ नह ल सका, म लगा।” तो भगवा ने मुखाि दी और अस किह
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कथा १७ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
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अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा १७
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कथा १७ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
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कथा १९ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
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अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २०
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कथा २० ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
मृग बन गया—
मन अित हरष जनाव न तेही। आजु देिखहउ परम सनेही॥
(मा. ३.२६.८)
तॆिह बन िनकट दशानन गऄऊ। तब मारीच कपट मृग भऄऊ॥
अित िबिच कछ बरिन न जाई। कनकदेह मिनरिचत बनाई॥
(मा. ३.२७.२–३)
मारीच वण-मृग बना। माया सीता आ मम ह। वण मृगको देखकर सीताजीने ीरामसे
उसक वध का अनुरोध िकया—
स यसंध भु बिध किर एही। आन चम कहित बैदेही॥
(मा. ३.२७.६)
इसका वध कर चम ल आय। अथा िनकटताका संकत िदया, मारीचको आपक िनकट
होना चािहये और भुने वही िकया। माया मृगका भुने अनुधावन िकया और मारीचको मारा—
तब तिक राम किठन शर मारा। धरिन परॆउ किर घोर पुकारा॥
(मा. ३.२७.१५)
मारीचने पहल ल मणजीका नाम िलया। िफर भगवा ीरामका मरण िकया—
लिछमन कर थमिह लै नामा। पाछे सुिमरॆिस मन मह रामा॥
ान तजत गटॆिस िनज देही। सुिमरॆिस राम सिहत बैदेही॥
(मा. ३.२७.१६–१७)
भगवा ीराम और सीताजीक सं मरणक माहा यसे मारीचको भगवा क सामी य मुि
िमली—
िबपुल सुमन सुर बरषिह गाविह भु गुन गाथ।
िनज पद दी असुर कह दीनबंधु रघुनाथ॥
(मा. ३.२७)
मारीच सामी य मुि पाकर ध य आ।
(२) जटायु—इधर मायाका कपट सं यासी बनकर रावण सीताजीक पास आया। उसक
अनुरोधसे सीताजी ल मणजीक ारा बनायी ई धनुषक रखाको लांघकर बाहर आय और
सीताजीका रावणने हरण िकया। सीताजी िवलाप कर रह थ । कोई उनका र क नह था।
अ◌तोग वा, सीताजीक र ा का भार जटायुने सँभाला और दािय वपूण यु म रावणको कछ
ण क िलए मू ◌त कर िदया। एक द ड पय◌ मू ◌त रहने क प ा रावणने जटायुक पंख
काट िदये—
काटॆिस पंख परा खग धरनी। सुिमिर राम किर अदभुत करनी॥
(मा. ३.३१.२२)
इधर सीताजीका अ वेषण करते ए भगवा ीराम जटायुक पास प च गये। भुने जटायुको
त-िव त देखा। जटायुक धू र भुने अपनी जटा से झाड़ी—
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अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २०
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कथा २० ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
शबरी देिख राम गृह आये। मुिन के बचन समुिझ िजय भाये॥
याम गौर सुंदर दोउ भाई। शबरी परी चरन लपटाई॥
(मा. ३.३६.६, ८)
भगवा ीरामक चरण म शबरीजी िलपट गय । उ◌ अपने आ मम ल आय । अपने
आँचलका आसन बनाकर भुको िवराजमान कराया और—
कंद मूल फल सुरस अित िदये राम कह आिन।
ेम सिहत भु खाये बारबार बखािन॥
(मा. ३.३६)
यहाँ खाये पदका दोन ओर अ वय होगा, अथा कंद मूल खाये अित सुरस फल राम
कह आिन िदये और बारबार बखािन ेम सिहत खाये। अथा शबरीजीने चख-चखकर
सु◌र-सु◌र वादयु बेर भगवा को िखलाया और भुने भी बारबार शंसा करक शबरीक
फल खाये। भु शबरीक फल खा रह ह, ेमसे पा रह ह। देवता पु प क वषा कर रह ह। इस
अव थाका वणन रामरसायन म रिसक िबहारीजी ब त ही मनो का य-पाठ कर रह ह—
बेर बेर बेर लै सराहै बेर बेर ब
रिसक िबहारी देत बंधु कह फेर फेर।
चािख चािख भाषैं यह वा ते महान मीठो
ले तौ लखन यौं बखानत है हेर हेर।
बेर बेर देवै बेर शबरी सुबेर बेर
तोऊ रघुबीर बेर बेर ितिह टेर टेर।
बेर जिन लावो बेर बेर जिन लावो बेर
बेर जिन लावो बेर लावो कहै बेर बेर॥
ध य हो गय शबरीजी। पूण हो गया उनका अिभयान और भगवा ीरामने शबरीजीको
सायु य मुि दे दी, अथा शबरीजी भगवा क चरण म लीन हो गय —तिज जोगपावक देह
हिरपद लीन भइ जह निह िफरे (मा. ३.३८.१४)। शबरीक प र थितय का वणन करते ए
संत ने ा ही सु◌र दोहा िलखा ह—
याह न की ों शबिर पित दशन नहीं की ।
शबरी पु वती भयी भु गोदी भिर दी ॥
शबरी पु वती हो गय । इस कार शबरीजीको सायु य मुि िमली।
(५) नारदजी—भगवा आगे बढ़, प पा सरोवरक पास आये। बैठ ह। नारदजी आ गये।
जैसा िक हम बता रह ह िक काशीम रामनामक ब त मिहमा ह। जीवन मुकुित हेतु जनु
कासी (मा. १.३१.११)। रामनामक बलपर ही श रजी सबको समान पसे दशन देते ह।
नारदजीने भी कहा—“भगव ! मेरी भी इ◌ा ह िक रामनाम स पूण नाम से अिधक हो जाए।”
मेरा तो आप लोग को एक सुझाव ह िक रामनामका जप अिधक करना चािहए। रामनाम मत
छोड़ो। रामनामका जप करना चािहए, ब त लाभ होता ह। नारदने कहा—“म एक संशयसे
बंधा आ । आपने अपनी मायाक ेरणासे मुझे मोिहत िकया। म िववाह करना चाहता था,
२६६
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २१
२६७
कथा २१ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
(५) जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार, की तुम अिखल भुवन पित ली मनुज
अवतार (मा. ४.१)—ा भगवा ीराम ह, िज◌ ने जीव को भवसागरसे तारनेक िलए और
पृ वीका भार हरण करनेक िलए ीअवधम मनु य पम अवतार िलया ह?
रामजीने बताया—
कोसलेश दशरथ के जाये। हम िपतु बचन मािन बन आये॥
नाम राम लिछमन दोउ भाई। संग नािर सुकुमािर सुहाई॥
इहाँ हरी िनिशचर बैदेही। िब िफरिह हम खोजत तेही॥
(मा. ४.२.२–४)
यहाँ सीताजीको एक रा सने चुरा िलया ह, हम ढढ रह ह। भगवा ने बताया िक देखो!
यहाँ हम चार लोग को ढढ रह ह—(१.व २.) हरी—ह रः हरी हरयः। ह र हरी हरी ।
हरी—ि वचन ह, अथा यहाँ हम दो वानर को ढढ रह ह; दो ह र माने—(क) सु ीव और
(ख) हनुमा (३) िनिशचर—एक रा स िवभीषणको ढढ रह ह, (४) बैदेही—सीताजीको
ढढ रह ह।
आपन चिरत कहा हम गाई। कह िब िनज कथा बुझाई॥
(मा. ४.२.५)
हनुमा जीने कहा—“मने आपको पहचान िलया।”
भु पिहचािन परॆउ गिह चरना। सो सुख उमा जाइ निह बरना॥
(मा. ४.२.६)
चरणपर पड़ गये। रामिह ि य पाविन तुलसी सी (मा. १.३१.१२) तुलसीजी भी भगवा क
चरणपर पड़ती ह, हनुमा जी भी पड़ गये। भगवा ने दयसे लगा िलया—तब रघुपित उठाइ
उर लावा (मा. ४.३.६)। हनुमा जी कट हो गये और कहा—भगव ! आप सु ीवसे िम ता
कर लीिजये—तेिह सन नाथ मय ी कीजै (मा. ४.४.३)। आन◌ कर िदया! रामिह ि य
पाविन तुलसी सी तुलसी शाल ामजीक िसरपर बैठती ह, पर यहाँ थोड़ा अ◌र ह। इस कथाम
हनुमा जी रामजीक िसरपर नह बैठ रह ह, ब क रामजीको ही हनुमा जी अपनी पीठपर बैठा
रह ह—
यॆिह िविध सकल कथा समुझाई। िलए दुऔ जन पीिठ चढ़ाई॥
(मा. ४.४.५)
आहाहाहाहा! हनुमा जी ला रह ह। रामिह ि य पाविन तुलसी सी (मा. १.३१.१२)।
? आज हनुमा जीने सु ीवजीक रामजीसे िम ता करायी—तब हनुमंत उभय िदिश कै
सब कथा सुनाइ (मा. ४.४)। एक बात और! िम ता आपने ब त देखी ह गी, पर ऐसी
िम ता कभी नह देखी होगी। अि को सा ी देकर िम ता करना! यह तो पित और प ीका
जैसे वैिदक िववाह होता ह, अि क फर िदये जाते ह, इसी कार—पावक साखी देइ किर
जोरी ीित ढ़ाई (मा. ४.४)। हनुमा जी म◌ बोल रह ह—“तुम दोन जने अि क प र मा
करो।” “ कर?” “सीताजी अि म िनवास कर रही ह। और सु ीव! तु हारी और रामजीक
िम ताम सीताजी सा ी रहगी।” म◌ पढ़ा—
२६८
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २२
२६९
कथा २२ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
२७०
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २३
२७१
कथा २३ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
जैसे हिसत माने हसना, उसी कार मूढ माने मोह। भगवा राम कह रह ह—“ल मण! िजस
बाणसे मने बािलको मारा, यिद कल सु ीव नह आते तो उसी बाणसे सु ीवक दयम बैठ ए
मोहको मार डालगा, सु ीव को नह मा गा।” यहाँ यय भाव अथ म ह—नपुंसके भावे
ः (पा.सू. ३.३.११४)। लोग कहते ह िक सं कत क आव यकता नह ह, िबना सं कत क
रामच रतमानस का अथ लगेगा कसे? रामजीक बाण कौन ह?—हनुमा जी। तुर◌ हनुमा जी
सि य हो गये—
इहाँ पवनसुत दय िबचारा। रामकाज सु ीव िबसारा॥
(मा. ४.१९.१)
नमदाक मरणसे सप न हो जाता ह— ािह मां सपसंकटा । और यह कथा सु ीवक
मनम जो काम प सप ह—काम-भुजंग डसत जब जाहीं, िबषय-नींब कट लगत न ताहीं
(िव.प. १२७.३), उसका नाश करती ह।
ल मणजीने धनुष-बाण उठा िलए—“अभी जाता सु ीवक पास।” भगवा ने कहा—
“उनको मा रयेगा नह , भय िदखाकर ल आइये! मेर िम ह वे।” इधर हनुमा जी आकर
सु ीवजीको समझाये। सु ीवजी भयभीत ए, और कहा—“हनुमा जी! अब ा होगा?”
“ठीक ह! करता समाधान।” सभी दूत भेजकर वानर को बुलवा िलया। इधर ल मणजी आ
गये नगरम बोल—“नगरको जला दूँगा।” अ दजी आये, अ दजीसे कछ नह बोल ल मणजी।
सु ीवजीने कहा—“हनुमा जी! आप जाइये, ताराजीको साथ ल जाइये।” ताराजीको साथ ल
गये।
देिखये! जो लोग दु होते ह न, सव उ◌ दु ता ही िदखती ह। जो िजस कितका होता
ह, उसको उसी कारक भाव िदखते ह। जो िवषयक क ड़ ह (कामी लोग), उनको सव यही
िदखता ह। लोग सु ीव, िवभीषणको कामी मानते ह। इसपर मेरा एक थ ह, देिखये—सु ीव
क कचाल और िवभीषण क करतूत । सु ीवजीने ताराजीको कभी अपनी भो या नह बनाया
और न ही िवभीषणजीने म◌ोदरीको अपनी भो या बनाया। यान रिखये, ये सब िछछली बात
ह। जो रामजीक भ ह, ऐसी गलती करगे? और तारा सा ा —सीताजीक नामक अ ◌म
ता और रामक नामका ार भ रा—तारा ह। इस कार जो कहते ह, मेरा बस चल तो म ा
क उनको? आप लोग बताइये। यिद ताराजी दूिषत होत , तो हनुमा जीक साथ ल मणजीक
पास जात ?—
तारा सिहत जाइ हनुमाना। चरन बंिद भु सुजश बखाना॥
(मा. ४.२०.४)
ितिदन चौपाई पढ़ा क िजये रामायणजीक ! हनुमा जी तो इतने कठोर ह! इसिलए म
कहता िक म ◌रम कोई मिहला उ◌ छये नह । कहा जाता ह िक यिद म ◌रम कोई मिहला
हनुमा जीक िव हको छ दे तो २१ िदनतक वे कछ भी नह लते—जलपान भी नह । इसिलए
नह छना चािहए। तो ताराक साथ कसे जाते हनुमा जी? और यिद सु ीवजीका पलग दूिषत
होता तो ल मणजीको सु ीवजीक पलगपर िबठाया जाता ा?—
२७२
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २३
२७४
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २४
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अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २४
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कथा २५ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
२८०
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २५
(४) कपट कुरग संग धर धाये (मा. ५.४२.७)—जो ीचरण कपटमृगक साथ
द डकवनक पृ वीपर दौड़,
(५) हर उर सर सरोज पद जेई, अहोभा य मैं दॆिखहउ तेई (मा. ५.४२.८)—जो
ीचरण िशवजीक दय प तालाबक कमल ह,
(६) िजन पायन की पादुका भरत रहे मन लाइ, ते पद आजु िबलोिकहउ इन नयनिन
अब जाइ (मा. ५.४२)—िजन ीचरण क पादुकाम मन लगाकर ीभरत चौदह वष से
न ◌ ामम रह रह ह, आज म जाकर उ◌ ीचरण को इ◌ ने से देखूँगा।
आहा! छः संक प िकये, छः ही कारसे िवभीषणको सुख िमला। सुख िमलता ही जा रहा
ह, आन◌ हो रहा ह! एिह िबिध करत स ेम िबचारा (मा. ५.४३.१)। रामजीको देखा,
रामजी आन◌ दे रह ह—
दूिरिह ते देखे ौ ाता। नयनानंद दान के दाता॥
(मा. ५.४५.२)
सकल िसि सुख संपित रासी (मा. १.३१.१३)। ध य ध य हो गये िवभीषण!
वन सुजस सुिन आयउ भु भंजन भव भीर।
ािह ािह आरित हरन शरन सुखद रघुबीर॥
(मा. ५.४५)
सकल िसि सुख संपित रासी (मा. १.३१.१३)। आन◌ कर िदया! उठा िलया भगवा ने
और दयसे लगा िलया। तीन ताप न हो गये—
तुम कृपाल जापर अनुकूला। तािह न याप ि िबध भवशूला॥
(मा. ५.४७.६)
चकाचक हो गया, आन◌ कर िदया! भगवा ने दयसे लगा िलया।
२८२
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २६
२८३
कथा २६ ीरामच रतमानस-कथा अ म पु प
२८४
अ म पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २६
२८५
नवम पु प
॥ नमो राघवाय॥
क याणानां िनधानं किलमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं य मुमु ोः सपिद परपद ा ये ि थत य।
िव ाम थानमेकं किववरवचसां जीवनं स नानां
बीजं धम ुम य भवतु भवतां भूतये रामनाम॥
नीला बुज यामलकोमला सीतासमारोिपतवामभाग ।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघुवंशनाथ ॥
सीतारामगुण ामपु यार यिवहािरणौ ।
व े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥
जयित किवकुमुदच ो लसीहषवधन ुलसी।
सुजनचकोरकद बो य िवताकौमुदीं िपबित॥
( ी)सीतानाथसमार भां ( ी)रामान ायम यमा ।
अ मदाचायपय ां व े ( ी)गु पर परा ॥
ीगु चरन सरोज रज िनज मन मुकुर सुधािर।
बरनउ रघुबर-िबमल-जस जो दायक फल चािर॥
( ी)रामचिरतमानस िबमल कथा करौं िचत चाइ।
आसन आइ िवरािजये ( ी)पवनपु हरषाइ॥
सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा । सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा ॥
सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा । सीताराम हनुमा , सीताराम हनुमा ॥
सदगुन सुरगन अंब अिदित सी। रघुबरभगित ेम परिमित सी॥
(मा. १.३१.१४)
प रपूणतम परा◌र परमा मा, परमारा य, परमे र, भगवा ीसीतारामजीक कपासे,
मोदीनगरम ीराघव-सेवा-सिमितक त वावधानम समायोिजत, मेरी १२५१व ीरामकथाक
नवम स म आप सभीका ब त-ब त वागत। आठ िदन से आप सुन रह ह िक गो वामी
तुलसीदासजीने रामच रतमानसजीम तीस िदन क मक आधारपर ही मा तीस कथाएँ िलखी
ह। िक महीनेम तीस ही िदन होते ह और यि को तीस िदन रामकथा चािहए, इसिलए
गो वामीजीने तीस ही कथाएँ िलख । य िप यह स य ह िक यह त य मेर अित र िकसी
व ाको याद नह रहा।
कथाएँ तो संसारम ब त ह। न जाने िकतनी कथाएँ आय और चली गय । िकतु, उ री ुवसे
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
२८८
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७
२८९
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
२९०
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७
२९१
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
थ , उ◌ को हमार बालक ने ऐसे तोड़ा जैसे कोई मूली तोड़ देता ह। तो देिखये! हमने कहा
िक इसीका फल ह िम ! जो तुमने िनह थ पर गोली चलाय । तुम कभी धानम◌ी बन ही नह
सकोगे। द ड तुमको िमला।
िम ो! ३ सू आपने देखे। सभी वानर क साथ रामच◌जी चल रह ह—
सेतुबंध भइ भीर अित किप नभ पंथ उड़ािह।
अपर जलचरन ऊपर चिढ़ चिढ़ पारिह जािह॥
(मा. ६.४)
संग वं संवद वं सं वो मनांिस जानता ।
देवा भागं यथा पूव स ानाना उपासते॥
(ऋ.वे. १०.१९१.२)
एक साथ चलो। सबको साथ लकर चलो। एक साथ, एक वरम बोलो। एक वरम, एक
िच◌न करो। एक साथ भोजन करो सब। अलग-अलग नह ! संघे शि ः कलौ युगे—रामजीने
देखा। यह तीसरा सू ह। सदगुन सुरगन अंब अिदित सी (मा. १.३१.१४)।
(४) ित ाकी ढ़ता—चौथा स ुण देिखये! ीराम सुबेलपवतपर िव ाम कर रह ह।
अपनी ित ाका िकतना यान ह उनको! रावणको मारनेक बात िवभीषणक सामने कही। आज
जब रावणका छ -मुकट देखा, तो रामजीने िवनोद िकया—“वषा हो रही ह ा? ये बादल
कहाँसे?” िवभीषणने कहा—“ये बादल नह ह, यह रावणका मेघडबर छ ह। यह िबजली
नह , म◌ोदरीक कणफल ह। यह बादलका गजन नह ताल-मृद बज रह ह।” रामजीने
कहा—“जो बात कही, वह स य करक िदखाऊगा। देख लना!” लट-लट एक बाण धनुषपर
चढ़ाया और—
छ मुकुट ताटक तब हते एकही बान।
सब के देखत मिह परे मरम न कोऊ जान॥
(मा. ६.१३क)
एक ही बाणम छ -मुकट-ताट -आिद सब काट िदए। भगवा रामने सबको िव ासम ल
िलया। यह चौथा सू ह िक अपनी ित ापर ◌ढ़ रहकर शासकको सबको िव ासम लना
चािहए।
(५) स मान—अब पाँचवाँ सू देिखये। अ दको रावणक यहाँ भेज रह ह, यह उनक
कटनैितक सफलता ह। भगवा रामने रावणक यहाँ िकसको भेजा? सोचो कौन ह? िजसक
िपताका अभी-अभी वध िकया ह। बािलका अभी-अभी वध िकया ह भगवा रामने और बािलक
बेट अ दको रावणक यहाँ भेज रह ह। यह देिखये! अथा पाँचवा सू ह िक येक यि को
अपने सहयोगीको स मान देना चािहए, सबका स मान करना चािहए। आज यही तो होती ह
गड़बड़! अपने कायकता को लोग स मािनत नह करते। और भाजपाक भी एक सबसे
बड़ी िनबलता यही ह िक वह अपने कायकता का स मान नह करती। और रामजी अपने
सहयोगीको स मान देते ह। जबतक अपने कायकता का स मान नह करोगे, तो कौन तु हारा
साथ देगा? रामजीने िकया स मान। अ दजीको बुलाया और कहा—
२९३
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
२९४
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७
संघारा (मा. ६.४८.४)। समपण देिखये अब! मेघनादने यह घोषणा क —“आज (१) राम
(२) ल मण, (३) नल (४) नील, (५) ि िवद (६) सु ीव, (७) अ द, और (८) हनुमान; इन
आठ क देखते-देखते ातृ ोही िवभीषणको म मार डालगा।” सभी वानर मू ◌त हो गये िम ो!
मेघनादने सबको मू ◌त िकया और वयं रामजीसे यु करने लगा। ल मणजीने कहा—
“अ◌ा नह लग रहा ह भगव ! इससे म यु क गा। यह मांसाहारी ह, म फलाहारी ।
मेघनाद यिभचारी ह, म चारी । मेघनादने इ◌को जीता, मने इि◌य को जीता। मेघनादक
माता म◌ोदरी ह, मेरी माता मैिथली ह। मेघनादका िपता रावण ह और मेर िपताक समान
आप ह राघव!” यु िकया ल मणजीने। िम ो! ा यु ह! इतना सु◌र यु ! मेघनादने
कहा—“अब तो म मर ही रहा , अब वीरघाितनी-शि का योग क गा।” य वीरघाितनी
शि छोड़ी—
बीरघाितनी छािड़िस साँगी। तेजपुंज लिछमन उर लागी॥
(मा. ६.५४.७)
अब यह समपण देिखये! वीरघाितनी-शि का योग मेघनादने िकया और िकया था वह
योग िवभीषणपर। गीतावली म कहगे—
लागित साँिग िबभीषन ही पर सीपर आपु भए है
(गी. ६.५)
मेघनादने िवभीषणपर शि का योग िकया था, पर ल मणजीको लगा। यिद आज िवभीषण
मर जायगे, तो भगवा रामक यशम कल क कािलमा लग जायेगी। और भगवा राम एक रा
ह, रा क अ य नह ! भगवा वयं भारत ह। अतः ल मणने कहा—“भल म मर जाऊ, पर
मेर रहते मेर देशका वािभमान नह िगरना चािहए।” इसिलए िम ो! िवभीषणको ल मणजीने
पीछ धकला और वयं वीरघाितनी-शि को अपनी छातीम ल िलया। यह ह समपण! इतना
बड़ा समपण! यही सातवाँ सू ह समपण! सातवाँ स ुण ह समपण! वीरघाितनी लगनेसे
ल मणजीक छातीक चार टकड़ हो गये, ल मणजी मू ◌त होकर िगर पड़।
(८) ातृ ेम —अब आठवाँ स ुण ह ातृ ेम। भगवा राम पूछते ह—“ल मण कहाँ ह?”
तभी—तब लिग लै आयउ हनुमाना (मा. ६.५५.६)। हनुमा जी ल आये। राघवजी दुःखी हो
गये। ह राम!
िगिर कानन जैहै साखामृग हौं पुिन अनुज-सँघाती।
ैहै कहा िबभीषनकी गित रही सोच भिर छाती॥
(गी. ६.७)
रामजी फट-फटकर रो रह ह आज! मरण िकतना ह? रामजी कहते ह िक सबका तो कोई
न कोई ठाँव ह, पर िवभीषणका ा होगा?—
तुम तो चले सुरलोक सहोदर मेरे हो ाण तु हीं संग जईहै।
पित देवरकी यह देिख दशा तब सीत िसंधुकी गोद समईहै।
२९५
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
२९७
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
२९८
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २७
२९९
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
३०१
कथा २७ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
३०३
कथा २८ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
इधर—
रहा एक िदन अविध कर अित आरत पुर लोग।
जह तह सोचिह नािर नर कृशतनु रामिबयोग॥
(मा. ७ म.दो. १)
ब त अ◌ा का ड ह!
अब अठाईसव कथा रघुबरभगित (मा. १.३१.१४), यह रामजीक भि क प रिमित ह—
रघुबरभगित ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४)। ब त आन◌ कर रह ह रामजी! रामजीक
भि क सीमा ह अठाईसव कथा। भरतजी बैठ ह—
रहा एक िदन अविध अधारा। समुझत मन दुख भऄउ अपारा॥
(मा. ७.१.१)
भु नह आये?—कारन कवन नाथ निह आऄउ (मा. ७.१.२)। रघुवरक भि क
सीमा कही? इसिलए िक कहा जाता ह िक जा नाएँ भि क आचाया ह। तुलसीदासजीने
कहा िक जा नाय भि क आचाया तो ह, पर◌ु ोधम उ◌ ने भी भगवा को कपटी
कह िदया। िकसने कहा? जा ना ने। देिखये—कुहक नो मनः ोभयि िह (भा.पु.
१०.३१.१०), िकतव योिषतः क यजेि िश (भा.पु. १०.३१.१६)। जा ना ने ीक णको
िकतव कह िदया, पर◌ु यहाँ तो भरतजी रामजीको कभी कपटी नह कह रह ह। वे तो कहते
ह—
कपटी कुिटल मोिह भु ची ा। ता ते नाथ संग निह ली ा॥
(मा. ७.१.४)
इसिलए रघुबरभगित ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४)। रामजीक भ क प रमित, ऐसी
भि कह देखी नह ! वहाँ तो भगवा अविध बढ़ाते रह, गोिपयाँ मानती रह । सौ वष िबता
िदये अविध बढ़ाते-बढ़ाते—
घर से घन याम गये किहके हम आवेंगे ज में परसों।
परसों ही देखत बाँट गयी ज नारी के बीत गये बरसों।
बरसों पुिन भेंट नहीं अज अब तो ज नाथ गये कर सों।
ज नारी बेचारी िवचार करे कब आवेंगे कु ा घर सों॥
वहाँ तो भगवा अविध बढ़ाते रह और गोिपयाँ सहन करती रह । यहाँ तो भरतजीने कहा
िक यिद चौदह वषसे एक ण भी आगे गया और आप नह लौट; तो आपक चरण क शपथ!
म तो म गा ही, सभी प रजन भी मर जायगे—
तुलसी बीते अविध थम िदन जो रघुबीर न ऐहौ।
तौ भु-चरन-सरोज-सपथ जीवत पिरजनिह न पैहौ॥
(गी. २.७६)
यह देिखये! इसिलए रामजीको वयं डर लगा और इसिलए पु पक ल आये िक ज दी मुझे
प चना ह। और पु पकसे भी जब काम न बना, कह रातम ही भरतजीक ाण न चल जाय,
३०४
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २८
३०६
नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २८
किप तव दरस सकल दुख बीते। िमले आजु मॊिह राम िपरीते॥
(मा. ७.२.११)
आपक दशनसे सकल दुख —यहाँ ष ी त◌ु ष समास ह—सकल दुख, सभीक दुःख
बीत गये। तो हनुमा जी! एक बात बताइये। आज इतना तो म जान गया िक मुझे भु अपना
भाई मानते ह। ा मुझे कभी भु अपने दासक भाँित मरण करते ह? हनुमा जीने चरण
पकड़ िलए। कसा मरण करते ह, यह तो भगवा ही जान—
भरत अिमत मिहमा सुनु रानी। जानिह राम न सकिह बखानी॥
(मा. २.२८९.२)
रघुबरभगित ेम परिमित सी (मा. १.३१.१४)। भरतजी कोशलपुर आये, सबको
समाचार सुनाया। गु देवको समाचार सुनाया। माताएँ दौड़ । भरतजीने सबको समाचार िदया।
अयो यावासी चल पड़ भुक अगवानी करनेक िलए—
दिध दुबा रोचन फल फूला। नव तुलसीदल मंगलमूला॥
भिर भिर हेमथार िलय भािमिन। गावत चिल सब िसंधुरगािमिन॥
(मा. ७.३.५–६)
माताएँ चल पड़ झूमकर! ब तक चढ़ीं अटािरन िनरखिह गगन िबमान (मा.
७.३ख)—ब तक ब त माताएँ अथवा ब एँ अ ािलका पर चढ़कर पु पक िवमानको िनहार
रही ह, देिख मधुर सुर हरिषत करिह सुमंगल गान (मा. ७.३ख) और गा रही ह—
होनी होके रहती टाले नहीं टलती।
एक िदन आ था वनवास आज देखो राजितलक है॥
िजसके माथे जटामुकट का य सभी ने देखा हो।
उसके माथेपर िबलसेगी आज ितलक की रेखा।
होनी होके रहती टाले नहीं टलती।
एक िदन आ था वनवास आज देखो राजितलक है॥
चलो चले सब िमलके देखें आज अवध रजधानी।
िगरधर भु राघव है राजा ीसीता महारानी।
होनी होके रहती टाले नहीं टलती।
एक िदन आ था वनवास आज देखो राजितलक है॥
॥ बोिलये राजारामच◌ भगवा क जय ॥
िवमान उतरा, गु देवको भगवा ने णाम िकया—धाइ गहे गु चरन सरो ह (मा.
७.५.३)। आज धनुष-बाण नीचे रख िदया—
बामदेव बिश मुिननायक। देखे भु मिह धिर धनु सायक॥
(मा. ७.५.२)
ित ा क थी—“जबतक आत वाद समा नह हो जायेगा, तबतक धनुष-बाण नीचे नह
रखूँगा।” आज भारतका आत वाद समा हो गया, खदेड़-खदेड़कर मारा भगवा ने। अब हमारी
सेनाको भी चािहए िक इ◌ खदेड़-खदेड़कर इनक घरम घुसकर मारो।
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कथा २८ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
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कथा २९ ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
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नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा २९
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कथा ३० ीरामच रतमानस-कथा नवम पु प
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नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३०
लटाया।
हरन सकल म भु म पाई। गये जहाँ शीतल अवँराई॥
(मा. ७.५०.५)
सभी टीकाकार भी यही कहते ह, हम भी यही कहते थे िक भगवा शीतल अँवराईम गये।
पर कहाँ गये? यह गो वामीजीने नह िलखा। मुझे जैसा लगता ह, दोहावलीम आगे कहगे—
िच कूट सब िदन बसत भु िसय लखन समेत।
राम नाम जप जापकिह तुलसी अिभमत देत॥
(दो. ४)
देिखये िच कटम भगवा िनर◌र रहते ह। इसका अथ ा ह? भगवा शीतल अँवराईम
गये, अयो यासे बाहर गये—पुिन कृपाल पुर बाहेर गयऊ (मा. ७.५०.३)। अयो यासे जब
गये, तो कहाँ गये? मुझे लगता ह िक िच कटम ही भगवा आये। बोिलये िच कटिबहारी-
िबहा रणीजूक जय! इसिलए रामकथा मंदािकनी िच कूट िचत चा (मा. १.३१)।
िच कटक शीतल अँवराईम भगवा आये। वहाँ अँवराई ह—
नाथ देिखयिह िबटप िबशाला। पाकिर जंबु रसाल तमाला॥
(मा. २.२३७.२)
िच कटम रह। अब भरत दी िनज बसन डसाई (मा. ७.५०.६)। वहाँ भगवा को
बैठानेक िलए भरतजीने अपना व िबछा िदया और बैठे भु सेविह सब भाई (मा. ७.५०.६)।
ल मणजी, भरतजी, श ु जी सब लोग ह, सीताजी धरतीम नह समाय । सब झूठ बोलते ह
लोग! और मा तसुत तब मा त करई (मा. ७.५०.७)—हनुमानधारावाल हनुमा जी आ गये
और वे मा त करई—पंखा झल रह ह। पुलक बपुष लोचन जल भरई (मा. ७.५०.७)।
तब—
हनूमान सम निह बड़भागी। निह कॊउ रामचरन अनुरागी॥
िगिरजा जासु ीित सॆवकाई। बार बार भु िनज मुख गाई॥
(मा. ७.५०.८–९)
हनुमा जीक समान कोई बड़भागी नह ! हनुमानधाराम िवराज रह ह हनुमा जी, रामजीको
पंखा झल रह ह। यह पूरा ◌ य िच कटका ह।
तॆिह अवसर मुिन नारद आये करतल बीन।
गावन लागे राम कल कीरित सदा नवीन॥
(मा. ७.५०)
नारदजी आये और भगवा ीरामक मधुर क ितका गान करते ए बोल—
मामवलोकय पंकजलोचन। कृपािबलोकिन सोचिबमोचन॥
(मा. ७.५१.१)
अ त आन◌ हो रहा ह! सीताजीक सिहत रामच◌जी िवहार कर रह ह ेहवनम। इसीसे
िस कर िदया िक जो लोग कहते ह िक अयो याक मोदवनम; उ◌ भी गो वामीजीने कहा
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नवम पु प ीरामच रतमानस-कथा कथा ३०
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ीसीतारामजीकी आरती
॥ नमो राघवाय॥
धमच वत महामहोपा याय महाकिव किवकलर न ीिच कटतुलसीपीठाधी र
प िवभूषण जग ु रामान◌ाचाय वामी रामभ ाचायजी महाराज ारा णीत
भगवा ीसीतारामजीक आरती
`300 `३००
ISBN 978-93-82253-05-1
ज.रा.िव.िव.
www.jrhu.com 9 789382 253051