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Articles on Revisionism संशोधनवाद पर लेखों का संकलन
Articles on Revisionism संशोधनवाद पर लेखों का संकलन
Articles on Revisionism संशोधनवाद पर लेखों का संकलन
ं लन
संशोधनवाद के बारे में
8. बर्जु
ु आ चनु ावों और क़ानूनी संघर्षों के बारे में सर्वहारा
क्रान्तिकारी दृष्टिकोण - 76
9. गज़
ु रे दिनों की नाउम्मीदियों और आने वाले दिनों की
उम्मीदों के बारे में कुछ बातें - 80
भाकपा ने मार्च में बिहार की राजधानी पटना में और माकपा ने अप्रैल में
के रल के कोझिकोड में अपनी बीसवी ं कांग्रेस आयोजित की। के रल और पश्चिम
बं गाल में माकपा-नीत वाम मोर्चे की हार के बाद यह इन पार्टियो ं की पहली
कांग्रेस थी। भाकपा राष्ट्रीय बुर्जुआ राजनीति में माकपा का हाथ पकड़ कर ही
चल रही है इसलिए हम यहाँ भाकपा की कांग्रेस में पेश दस्तावेज़ों का विवेचन
करने की बजाय सीधे माकपा की कांग्रेस के दस्तावेज़ों का विवेचन करेंगे, जो
ज़्यादा बारीक और ख़तरनाक तरीके और भाषा में उसी सं शोधनवादी उद्देश्य
को आगे बढ़ाने का काम करते हैं, जिनपर आने वाले समय में भाकपा को भी
अमल करना है। माकपा की बीसवी ं कांग्रेस में पेश दस्तावेज़ों को पढ़कर जो
बात सबसे पहले दिमाग़ में आती है वह यह है कि पश्चिम बं गाल और के रल
में वाम मोर्चे की हार को बस एक तथ्य के रूप में पेश कर दिया गया है। कही ं
पर भी इन हारो ं के कारणो ं का कोई विस्तृत विश्लेषण नही ं पेश किया गया
है। माकपा के पश्चिम बं गाल के चुनावो ं में हार और उसके 34 वर्ष के शासन
के अन्त का प्रमुख कारण था बं गाल के मँ झोले और निचले मँ झोले किसानो ं
के विशालकाय वर्ग का माकपा से अलग हो जाना। यह वर्ग माकपा की भूमि
नीति और विस्थापन के मुद्दे पर नाराज़ था। सिगं ूर और नन्दीग्राम में माकपा की
सरकार ने जिस तरह से खुलेआम कारपोरेट पूँजी के पक्ष में भूमि अधिग्रहण
करने के लिए किसानो ं और ग्रामीण ग़रीबो ं का बर्बर दमन किया, उससे पूरे
राज्य में मँ झोले, निचले मँ झोले और ग़रीब किसानो,ं भूमिहीन मज़दूरो ं और
ग्रामीण ग़रीबो ं के वर्ग माकपा की सरकार से अलग हो गये। ग़ौरतलब है कि
माकपा ने अपना शासन आने के बाद ऑपरेशन बरगा के तहत बरगादारो ं
52 / भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद
(काश्तकार किसानो)ं के पूरे वर्ग को बड़े ज़मीदं ारो ं द्वारा ज़मीन से बेदख़ल
किये जाने से बचाया और उन्हें उत्पाद के उपयुक्त हिस्से का स्वामी बनाया।
1978 में शुरू हुआ यह भूमि सुधार 1980 के दशक के मध्य में समाप्त
हुआ। इसके समाप्त होने तक मँ झोले और निचले मँ झोले किसानो ं का एक
पूरा वर्ग तैयार हुआ जो पिछले चुनावो ं में हार तक माकपा का परम्परागत
सामाजिक आधार बना रहा। इनमें से कु छ किसान समय के साथ धनी किसानो ं
में तब्दील हो गये जो अभी भी माकपा का समर्थन करते हैं। लेकिन जो नीचे
रह गये या और नीचे चले गये वे भूतपूर्व माकपा सरकार की नवउदारवादी
नीतियो,ं कारपोरेट पूँजी के हाथ बिक जाने और भूमि अधिग्रहण के लिए
दमन-उत्पीड़न का सहारा लेने के चलते उससे कट गये। इसी पूरे वर्ग को
तृणमूल कांग्रेस ने नन्दीग्राम और सिगं ूर के आन्दोलन के दौरान समेटा, जिसमें
कि भाकपा (माओवादी) ने भी एक समर्थनकारी भूमिका निभायी। बहरहाल,
बीते चुनावो ं में माकपा की हार का सबसे बड़ा कारण इस विशालकाय वर्ग
का उससे कटना और नन्दीग्राम और सिगं ूर के आन्दोलनो ं के कारण शहरी
मध्यवर्ग और बुद्धिजीवियो ं के एक हिस्से में उसका अलग-थलग पड़ जाना था।
पश्चिम बं गाल में माकपा मज़दूरो ं के बीच भी लम्बे समय से अलग-थलग पड़ने
की प्रक्रिया में थी। यह पूरी प्रक्रिया बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुख्यमं त्रित्व काल में
असाधारण तेज़ी से बढ़ी। बुद्धदेव का हड़ताल-विरोधी, मज़दूर-विरोधी रवैया
माकपा को सं गठित मज़दूरो ं के भी एक अच्छे -ख़ासे हिस्से में हिकारत का पात्र
बना रहा था। असं गठित मज़दूरो ं के प्रति तो बुद्धदेव की सरकार का रवैया शुरू
से अन्त तक दमनकारी रहा ही था। ज्योति बसु के काल में भी यह प्रक्रिया
जारी थी, लेकिन बुद्धदेव ने इसे निपट नं गई के साथ आगे बढ़ाया। बुद्धदेव ने
अपने शासन के दौरान ही एक बार यहाँ तक कह दिया कि मज़दूरो ं को हड़ताल
नही ं करनी चाहिए क्योंकि इससे आर्थिक विकास और वृद्धि प्रभावित होती है!
आगे उन्होंने कहा कि वर्ग सं घर्ष का ज़माना अब लद गया है और मज़दूर वर्ग
को अब वर्ग सहयोग की नीति पर अमल करना चाहिए! हालाँकि, अभी हाल
ही में पश्चिम बं गाल में माकपा के राज्य सम्मेलन में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने
इन कथनो ं पर गोलमाल करने की कोशिश की, लेकिन इसके बावजूद इतिहास
सं शोधनवाद के असली चरित्र और मज़दूर वर्ग से उसकी घृणित ग़द्दारी के तौर
पर बुद्धदेव के इन कथनो ं को हमेशा याद रखेगा।
कु ल मिलाकर, कारपोरेट पूँजी की लूट को सुचारू बनाने के लिए भूतपूर्व
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद / 53
माकपा सरकार पश्चिम बं गाल में जिस तरह से नं गे तौर पर अपने पूँजीवादी
चरित्र को उजागर कर रही थी, उससे बहुसं ख्यक मज़दूर और ग़रीब और निम्न
मध्यम किसान आबादी में उसका अलग-थलग पड़ना लाजिमी था और इसी
के फलस्वरूप उसकी विधानसभा चुनावो ं में शर्मनाक पराजय हुई। लेकिन
ताज्जुब की बात यह है कि माकपा कांग्रेस में पास विचारधारात्मक मुद्दों पर
प्रस्ताव और राजनीतिक मुद्दों पर प्रस्ताव में इस हार के कारणो ं का कही ं कोई
विस्तृत मूल्यांकन नही ं है। बस तथ्यतः इस बात को कह दिया गया है कि ये
हारें पार्टी के लिए एक झटका थी ं और इनसे उबरने के लिए एक वाम जनवादी
विकल्प के निर्माण के लिए पार्टी को काम करना होगा!
कांग्रेस के पहले माकपा के सचिव प्रकाश करात ने एक बुर्जुआ इतिहासकार
रामचन्द्र गुहा के एक लेख का जवाब देते हुए कहा था कि नन्दीग्राम और सिगं ूर
में ग़लती पार्टी की भूमि नीति आदि की नही ं थी, बल्कि ग़लती बस यह थी कि
पार्टी ने एक ग़लत जगह का चुनाव कर लिया था। ‘कॉमरेड’ करात ने जनता
के ज्ञानचक्षु खोलते हुए यह खुलासा किया कि स्थानीय प्रतिनिधि निकायो ं के
स्तर पर इन सभी जगहो ं पर तृणमूल के लोग सत्तासीन थे। इसलिए नन्दीग्राम
और सिगं ूर में जो कु छ हुआ वह वास्तव में ममता बनर्जी की साजिश थी!
इस तरह के विश्लेषण के बारे कु छ कहना अपना मज़ाक उड़वाने जैसा ही
होगा! वैसे, करात महोदय को यह भी बताना चाहिए कि अगर नन्दीग्राम
और सिगं ूर में माकपा ने बस जगह का चुनाव ग़लत किया था और उसकी
नीति बिल्कु ल दरुु स्त थी तो नन्दीग्राम और सिगं ूर के मुद्दे के बाद पार्टी ने इस
मुद्दे पर माफ़ी क्यों माँगी थी और ग़लती का स्वीकार क्यों किया था? माकपा
ने तो पश्चिम बं गाल में पं चायत चुनावो ं के पहले नाराज़ किसानो ं को मनाने के
लिए यहाँ तक एलान कर दिया था कि वह जल्दी ही ऑपरेशन बरगा-2 शुरू
करेगी! लेकिन जाहिर है कि ऐसे फ़रेबो ं के चक्कर में जनता नही ं पड़ने वाली
थी। नतीजतन, उसने पहले माकपा को पं चायत चुनावो ं में धूल चटायी और
उसके बाद विधानसभा चुनावो ं में भी उसकी तबीयत हरी कर दी! अब जाहिर
है कि माकपा अपनी कांग्रेस में इस पूरे अपमानजनक प्रकरण पर विश्लेषण
रखती भी तो क्या? अगर ऐसा करने का वह प्रयास भी करती तो प्रकाश
करात, सीताराम येचुरी आदि को अपने ही मुँह पर इतने तमाचे जड़ने पड़ते
कि माकपा के काडर गिनती भूल जाते! इसलिए जाहिर है कि मूल और ठोस
मुद्दों का विश्लेषण करने के बजाय माकपा के नेतत्व ृ ने कांग्रेस में पेश किये गये
54 / भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद
अपने विचारधारात्मक प्रस्ताव में बड़ी-बड़ी विचारधारात्मक तोपें दगाई हैं!
पूरे प्रस्ताव की भाषा को खूब गर्म रखा गया है, और मार्क्सवाद-लेनिनवाद,
लेनिन, माओ आदि का इतना नाम लिया गया कि माकपा के ईमानदार काडरो ं
को लगे कि पार्टी नेतत्व
ृ शायद क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की तरफ़ लौट रहा है!
लेकिन प्रस्ताव का अन्त होते-होते, ऐसी सभी महान आशाओ ं का भी दख ु द
अन्त हो जाता है। प्रस्ताव का अन्त होते-होते माकपा अपनी सं शोधनवादी
काऊत्स्कीपंथी ग़द्दारी की भाषा पर वापस लौट आती है। यह देखना दिलचस्प
होगा कि माकपा ने अपने प्रस्तावो ं में किस कलात्मक चतुराई के साथ ढोगं -
पाखण्ड किया है और मज़दूर वर्ग से अपनी ग़द्दारी को सारी कारीगरी के
बावजूद वह ढँ कने में कामयाब नही ं हो पायी है।
माकपा ने कोझिकोड कांग्रेस में जो विचारधारात्मक प्रस्ताव पेश किया है
वह करीब 54 पेज लम्बा है! इसकी प्रस्तावना के दूसरे बिन्दु में ही माकपा
ने समाजवाद की अपनी समझदारी को नं गा कर दिया है। प्रस्तावना के बिन्दु
1-2 में माकपा की 1992 में हुई चौदहवी ं कांग्रेस की याद दिलायी गयी
है और बताया गया है कि 1990 में सोवियत सं घ में समाजवाद के पतन
के बाद विश्व भर में वर्ग शक्ति सन्तुलन साम्राज्यवाद के पक्ष में झक ु गया!
इसका अर्थ है कि माकपा 1953 में स्तालिन की मृत्यु और 1956 में सोवियत
सं घ की कम्युनिस्ट पार्टी की सं शोधनवादी बीसवी ं कांग्रेस के बाद के पूरे दौर
को भी समाजवाद का दौर मानती है। इस पूरे दौर में सोवियत सं घ को वह
साम्राज्यवादी देश के रूप में नही ं देखती है! जबकि 1956 से 1990 के पूरे
दौर में सोवियत सं घ सं युक्त राज्य अमेरिका के साथ साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा
में उलझा हुआ था। पूर्वी यूरोप से लेकर अफगानिस्तान और अफ्रीका के
कई देशो ं में सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत सं घ ने दज़र्नों बार नग्न रूप
में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप किया। स्तालिन के बाद के दौर में सोवियत सं घ
में पूँजीवाद के वापस लौट आने की सच्चाई को माकपा नज़रन्दाज़ कर देती
है। 1956 के बाद ख्रुश्चेव ने शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व (यानी, दनु िया भर में
सोवियत सं घ के ‘समाजवाद’ और सं युक्त राज्य अमेरिका की चौधराहट में
पूँजीवाद के शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व), शान्तिपूर्ण सं क्रमण (यानी, सर्वहारा
क्रान्ति के बिना ही शान्तिपूर्ण और सं सदीय रास्ते से समाजवाद के स्थापित
होने) और शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता का सं शोधनवादी सिद्धान्त प्रतिपादित
किया। इसके साथ ही सोवियत सं घ की सं शोधनवादी पार्टी ने मार्क्सवाद के
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद / 55
बुनियादी सिद्धान्तों से अपना नाता तोड़ लिया, लेनिन के राज्य और क्रान्ति
की थीसिस को नकार दिया और मज़दूर वर्ग के साथ ऐतिहासिक ग़द्दारी को
सैद्धान्तिक जामा पहना दिया। माओ के नेतत्व ृ में चीन की पार्टी ने सोवियत
सं घ की सं शोधनवादी पार्टी के साथ ‘महान बहस’ के दौरान सोवियत पार्टी की
ग़द्दारी और मार्क्सवाद से उसके प्रस्थान को उजागर किया और दिखलाया कि
सोवियत सं घ की पार्टी अब एक पूँजीवादी पार्टी बन चुकी है। लेकिन माकपा
को इस पूरे प्रकरण के बारे में अपने पूरे विचारधारात्मक दस्तावेज़ में कु छ भी
नही ं कहना है। और कहे भी क्यों! माकपा तो शुरू से ही ख्रश्चेवपं थी ही रही है।
इसलिए मार्क्सवादी शब्दावली में की गयी अपनी तमाम लफ्फाजी के बावजूद
उसका मज़दूर वर्ग-विरोधी चरित्र उजागर हो ही जाता है। लेकिन बेशर्मी की
इन्तहाँ तो तब हो जाती है जब माकपा इस दस्तावेज़ में यह दावा करती है कि
वह भाकपा के सं शोधनवाद से सं घर्ष करते हुए ही पैदा हुई थी! अगर वह
1990 तक सोवियत सं घ को समाजवादी मानती है, तो कोई भी यह सोचने
को मजबूर हो जाता है कि आखि़ र भाकपा किस तरह से सं शोधनवादी है, और
माकपा क्यों सं शोधनवादी नही ं है!
इसके बाद बिन्दु 1-5 में माकपा नेतत्व
ृ कहता है कि 1968 में उसने वामपं थी
दस्सा
ु हसवाद का सामना किया। निश्चित रूप से, यहाँ इशारा नक्सलबाड़ी
विद्रोह की तरफ़ है। निश्चित रूप से, नक्सलबाड़ी विद्रोह वामपं थी दस्सा
ु हसवाद
का शिकार हो गया। लेकिन माकपा नेतत्व ृ यह बात गोल कर जाता है कि
नक्सलबाड़ी विद्रोह वास्तव में एक क्रान्तिकारी किसान विद्रोह के रूप में शुरू
हुआ था! माकपा नेतत्व ृ यह सच्चाई भी छिपा जाता है कि इस आन्दोलन
के वामपं थी दस्सा
ु हसवाद के गड्ढे में जाने के बावजूद इसका एक प्रमुख मुद्दा
माकपा के सं शोधनवाद का नकार करना था। माकपा का नेतत्व ृ यह सच्चाई
भी निगल जाता है कि माकपा के भीतर ही एक अन्तर्पार्टी सं शोधनवाद-
विरोधी समिति अस्तित्व में आयी थी और देश के अन्य हिस्सों में भी माकपा
के भीतर से ही ऐसी क्रान्तिकारी राजनीतिक धाराएँ पैदा हुईं जो चारू मजुमदार
ु हसवाद के पक्ष में नही ं खड़ी हुईं, लेकिन उन्होंने माकपा के
के वामपं थी दस्सा
सं शोधनवाद को भी नकार दिया। इन धाराओ ं की भारतीय क्रान्ति की मं जिल
की समझदारी पर हम सवाल खड़ा कर सकते हैं, लेकिन कोई यह नही ं कह
सकता कि उन्होंने माकपा की ग़द्दारी से अपने आपको अलग नही ं किया।
यह सारे तथ्य छिपाते हुए माकपा नेतत्व ृ इस दस्तावेज़ में भाकपा के रूप में
56 / भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद
सं शोधनवाद और नक्सलबाड़ी आन्दोलन के रूप में ‘वामपं थी’ दस्सा ु हसवाद
के खि़ लाफ़ ‘सं घर्ष’ करने के लिए नं गई भरे पाखण्ड के साथ अपना गाल
बजाता है और यह दावा करता है (बिन्दु 1-7) कि अपनी सही लाइन के
कारण ही माकपा देश की सबसे बड़ी वामपं थी पार्टी बन गयी! यानी कि बड़े
होने को सही होने के प्रमाण के रूप में पेश किया गया है। अगर बड़ा होना सही
होने की निशानी है तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक सं घ को सही क्यों न मान लिया जाय?
अगर बड़ा होना ही सही होना है तो काऊत्स्की के नेतत्व ृ में जर्मन सामाजिक
जनवादी पार्टी को भी माकपा को खुले तौर पर सही मानना चाहिए, जो कि
क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के पैदा होने के बाद भी सबसे बड़ी ‘वामपं थी’
पार्टी बनी रही! माकपा का टुच्चा तर्क आपके सामने है!
इसके बाद अगले खण्ड (‘विश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवाद की
कार्यप्रणाली’) में यह दस्तावेज़ सं शोधनवादी दोगलेपन के सारे कीर्तिमान
ध्वस्त करते हुए यह दावा करता है कि साम्राज्यवाद के बारे में लेनिन का
सिद्धान्त अभी भी सही है (बिन्दु 2-4)! लेकिन इसके बाद वह जो सिद्धान्त
प्रतिपादित करता है वह वास्तव में काऊत्स्की का अतिसाम्राज्यवाद का
लेनिनवाद-विरोधी सिद्धान्त है! माकपा नेतृत्व बिन्दु 2-6 में कहता है कि आज
के दौर में वैश्विक वित्तीय पूँजी ने प्रतिस्पर्द्धा को कम कर दिया है और वह किसी
एक राष्ट्र-राज्य के हितो ं के लिए नही ं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद के लिए
काम करती है। यानी कि साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और विश्व के पुनर्विभाजन
के लिए साम्राज्यवादी युद्ध की स्थिति नही ं है; जाहिर है, इसलिए लेनिन ने जिस
रूप में क्रान्तिकारी परिस्थिति पैदा होने की उम्मीद की थी, वह अब नही ं हो
सकता है; इससे क्या नतीजा निकलता है? इससे यह नतीजा निकलता है कि
अब बल प्रयोग के साथ सर्वहारा क्रान्ति सफल नही ं हो सकती और शान्तिपूर्ण
तरीके से ही समाजवाद की स्थापना के बारे में सोचा जा सकता है! यही तो
काऊत्स्की की थीसिस थी! लेकिन इसे लेनिन के मत्थे मढ़ दिया गया है! अन्त
में, बिन्दु 2-10 में बस इतना जोड़ दिया गया है कि साम्राज्यवादी विश्व फिर से
प्रतिस्पर्द्धा में पड़ सकता है, लेकिन यह भी कह दिया गया है कि यह प्रतिस्पर्द्धा
सिर्फ मुद्रा युद्धों का रूप लेगी। यह सच है कि साम्राज्यवाद के भूमण्डलीकरण
की मं जिल में विश्व युद्ध जैसी स्थिति के पैदा होने की उम्मीद कम है। लेकिन
यह भी सच है, और इसके समकालीन विश्व में ही प्रमाण मौजूद हैं, कि
साम्राज्यवाद के मुद्रा युद्ध क्षेत्रीय और महाद्वीपीय साम्राज्यवादी युद्धों का रूप
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद / 57
लेंगे! क्या माकपा नेतत्व
ृ भूल गया है कि सद्दाम हुसैन पर अमेरिका के हमले
का कारण जनसं हार के हथियार नही ं थे, बल्कि सद्दाम हुसैन द्वारा अपने विदेशी
मुद्रा भण्डार का वैविध्यीकरण था? क्या हम भूल गये कि इराक़ को जिस बात
की सज़ा दी गयी वह यह थी कि उसने अमेरिका की डावाँडोल अर्थव्यवस्था के
खि़ लाफ़ एक कदम उठा लिया था? क्या प्रकाश करात को याद नही ं कि इराक़
में जो साम्राज्यवादी हमला हुआ उसका वास्तविक कारण मुद्रा युद्ध ही था?
लेकिन माकपा को तो किसी भी तरह काऊत्स्की की अतिसाम्राज्यवादी थीसिस
पर लेनिन का नाम चिपका कर अपने सं शोधनवाद को सही साबित करना है।
इसलिए, इस किस्म की राजनीतिक नटगीरी करना उसकी मजबूरी है!
इसके बाद माकपा का विचारधारात्मक दस्तावेज़ मार्क्सवादी राजनीतिक
अर्थशास्त्र की एक पैरोडी तैयार करता है! बिन्दु 2-13 में हमें बताया जाता
है कि नवउदारवादी की नीति में विकासशील देशो ं में छोटे और मँ झोले
उद्योग-धन्धे तबाह होते हैं और विकसित देशो ं में भी आउटसोर्सिंग के जरिये
विऔद्योगिकीकरण होता है! अब यह तो प्रकाश करात ही बता सकते हैं कि
औद्योगिक उत्पादन हो कहाँ रहा है! विकसित देशो ं में भी उद्योग तबाह हो रहे
हैं और विकासशील देशो ं में भी उद्योग तबाह हो रहे हैं। आखि़ र विकसित देश
आउटसोर्सिंग करके उद्योग को भेज कहाँ रहे हैं? करात महोदय के अनुसार
शायद चाँद पर! विकासशील देशो ं का पूँजीपति वर्ग अपनी स्वायत्तता खोकर
लगातार विश्व साम्राज्यवाद का पार्टनर बनता जा रहा है (बिन्दु 2-15)! इसका
माकपाई विकल्प क्या है? नेहरू के दौर में जिस तरह से देश के पूँजीपति वर्ग
ने अपनी फ्स्वायत्तताय् बरकरार रखी थी, वैसे ही अभी भी रखी जानी चाहिए!
माकपा उस दौर को लेकर भावुक हो जाती है! साफ़ है, माकपा की समझदारी
यहाँ पर एक राज्य इज़ारेदार पूँजीवाद और कल्याणवाद की हिमायत करने की
है। लेकिन अफ़सोस की वह दौर अब लौट नही ं सकता; वह भारतीय पूँजीवाद
के विकास का एक ख़ास दौर था, और उस प्रकार की सापेक्षिक ‘स्वायत्तता’
की भारत के पूँजीपति वर्ग को भूमण्डलीकरण के दौर में ज़रूरत नही ं है। बल्कि
कहना चाहिए कि पूरे विश्व में किसी भी देश के पूँजीपति वर्ग को अब इसकी
ज़रूरत नही ं है। लेकिन माकपा उस दौर के बीत जाने पर अपने आँसुओ ं को
रोक नही ं पा रही है!
इसके बाद बिन्दु 2-16 में माकपा कहती है कि भूमण्डलीकरण के इस
दौर में साम्राज्यवादी पूँजी ने ‘आदिम’ सं चय की प्रक्रिया नये सिरे से शुरू
58 / भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद
कर दी है जिसके तहत 1950 से लेकर 1990 के बीच आज़ाद हुए देशो ं में
किसानो,ं जनजातियो ं और ग़रीब मेहनतकश आबादी को उसकी जगह-ज़मीन
से उजाड़ा जा रहा है। साम्राज्यवादी पूँजी देशी पूँजीपति वर्ग के साथ मिलकर
दनु िया के उन कोनो ं में प्रविष्ट हो रही है, जहाँ अभी तक उसकी मौजूदगी नही ं
थी, या कम थी। यह बात तो सच है! लेकिन ऐसे में माकपा से पूछना होगा कि
यही काम तो वह भी नन्दीग्राम और सिगं ूर में कर रही थी! इसके बारे में उसका
क्या ख़्याल है? अगर वह काम कांग्रेस और भाजपा की सरकारें करें तो ग़लत
है, लेकिन अगर माकपा की सरकार करे तो सही है! जाहिर है, कि माकपा का
दोगलापन उसके विचारधारात्मक दस्तावेज़ में ही बार-बार निकलकर सामने
आ जा रहा है! माकपा नेतत्व ृ आगे हमारा ज्ञानवर्द्धन करते हुए कहता है कि
आदिम सं चय की इस प्रक्रिया के कारण पूँजीवादी राज्य ज़्यादा से ज़्यादा ग़ैर-
जनवादी होता जा रहा है; कानून बनाने की पूरी जनवादी प्रक्रिया को कमज़ोर
किया जा रहा है और उस पर से जनता का नियन्त्रण ख़त्म हो गया है! क्या
माकपा का यह विश्वास है कि भारत के सं सद के सुअरबाड़े में जो कानून बनाने
की प्रक्रिया चलती है, उस पर जनता का कोई नियं त्रण है? क्या माकपा यह
मानती है कि सिगं ूर और नन्दीग्राम के दौरान माकपा की सरकार ने जो कु छ
किया वह दमनकारी, उत्पीड़नकारी और ग़ैर-जनवादी नही ं था? क्या उस पूरी
प्रक्रिया में माकपा की सरकार जनता की आकांक्षाओ ं के अनुसार चल रही
थी? क्या जनता का उस पर कोई नियं त्रण था? स्पष्ट है, कि यहाँ भी माकपा
नेतत्व
ृ एक सैद्धान्तिक लफ्फाजी कर रहा है। एक जगह तो यह लफ्फाजी
यहाँ तक पहुँच जाती है जिसमें माकपा नेतत्व ृ ग़लती से यह मान बैठता है कि
बुर्जुआ राज्य वास्तव में बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही हो सकता है! लेकिन फिर
भी माकपा का मानना है कि सं सद में बहुमत के जरिये इस राज्य सत्ता पर
सर्वहारा वर्ग काबिज़ हो सकता है! ऐसा विचारधारात्मक द्रविड़ प्राणायाम तो
प्रकाश करात और सीताराम येचुरी जैसे लोग ही कर सकते हैं!
अगले खण्ड (‘नवउदारवादी विश्वीकरण की अवहनीयता और पूँजीवादी
सं कट’) में माकपा नेतत्व ृ फरमाता है कि पूँजीवाद को सुधारा नही ं जा सकता
क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था की वास्तविक बुराई पूँजीवादी उत्पादन के तरीके
में ही मौजूद होती है! लेकिन साथ ही माकपा के अनुसार जनवादी कार्यभार
और समाजवाद की स्थापना शान्तिपूर्ण तरीके से ही होनी चाहिए! अब आप
खुद फै सला करें कि ऐसा कै से हो सकता है! लेनिन ने बताया था कि सर्वहारा
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद / 59
वर्ग बुर्जुआ सत्ता पर कब्ज़ा नही ं करता बल्कि उसका ध्वं स करता है। बुर्जुआ
सत्ता पर सं सद में बहुमत के जरिये कब्ज़ा करके कभी भी सर्वहारा सत्ता की
स्थापना नही ं हो सकती, क्योंकि बुर्जुआ राज्यसत्ता को सुधारा नही ं जा सकता
और उसका वर्ग चरित्र सर्वहारा नही ं बनाया जा सकता। यहाँ आप माकपा की
कलाबाज़ी को देख सकते हैं! तर्क को स्वीकार किया गया है कि पूँजीवाद को
सुधारा नही ं जा सकता, लेकिन उसके नतीजे को नकार दिया गया है, यानी कि,
इस असुधारणीयता के चलते ही सर्वहारा वर्ग को पूँजीपति वर्ग की राज्य सत्ता
को चकनाचूर कर अपनी क्रान्तिकारी सर्वहारा सत्ता की स्थापना करनी होगी!
माकपा नेतत्वृ की ‘बहादरु ी’ की उस समय दाद देनी पड़ती है जब बिन्दु 3-1
में कहता है कि हमें इस सामाजिक जनवादी झठू को नकार देना चाहिए कि
पूँजीवाद को सुधारा जा सकता है! लेकिन तब दिमाग़ में यह भी सवाल पैदा
होता है कि माकपा स्वयं हमेशा इसी बात का नुस्ख़ा तो सुझाती है कि पूँजीवादी
राज्य अगर कल्याणकारी नीतियो ं अपना ले, अगर वह घरेलू माँग को बढ़ाकर
रोज़गार पैदा करे, और अगर वह अल्पउपभोग को समाप्त कर दे तो सबकु छ
ठीक हो जायेगा! अब इसे सुधारवाद न कहा जाय तो क्या कहा जाय? इसका
जवाब भी करात व येचुरी जैसे नट ही दे सकते हैं! बिन्दु 3-4 व 3-5 में अपने
सुधारवाद को माकपा खोलकर रख देती है। हमें बताया जाता है कि पूँजीवाद
मानव सं साधनो ं में निवेश न करके तकनोलॉजी में निवेश करता है जिससे कि
बेरोज़गारी पैदा होती है, अल्पउपभोग होता है, जनता की क्रय क्षमता घटती है
और सं कट पैदा होता है। यानी कि सवाल निवेश के स्थान का है न कि उत्पादन
के साधनो ं के सामूहिक मालिकाने का। ऐसा पूँजीवाद जिसमें राज्य के हाथ में
बड़े पैमाने के उद्योग हो ं और वह कल्याणकारी नीतियो ं में निवेश करता हो और
जनता के लिए रोज़गार पैदा करके क्रय क्षमता का व्यापक विस्तार करता हो,
वह अगर उत्पादन के साधनो ं के मालिकाने को सामूहिक न करे, राजनीतिक
निर्णय लेने की प्रक्रिया मज़दूर वर्ग के हाथ न सौपं े, वह अगर उत्पादन से लेकर
वितरण तक मज़दूर वर्ग का नियं त्रण न भी स्थापित करे तो वह स्वीकार्य है! पर
यह मार्क्सवाद तो नही ं है! यह तो हॉब्सन के अल्पउपभोगवाद और काऊत्स्की
के सामाजिक-जनवादी की लस्सी है! माकपा बताती है कि अगर इस लस्सी
को पिया जाय तो पूँजीवाद अपने सं कट से मुक्त हो सकता है! इसलिए वास्तव
में माकपा जो कर रही है, वह एक सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति सुझाना नही ं
है, बल्कि एक बेहतर, सुधरे हुए, कल्याणकारी और राज्य इज़ारेदार पूँजीवाद
60 / भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद
का मॉडल सुझाना है, जिसे माकपा जैसा मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी करने वाले
सामाजिक जनवादियो,ं काऊत्स्कीपंथियो ं का गिरोह ही लागू करवा सकता है!
हालाँकि, पूँजीवाद की नैसर्गिक गति का दबाव कु छ ऐसा होता है कि ऐसा कोई
मॉडल कभी लागू हो ही नही ं सकता। यही तो कारण था कि माकपा को भी
पश्चिम बं गाल में अपने शासन के दौरान कल्याणवाद छोड़कर नवउदारवाद
की शरण में जाना पड़ा!
इसके बाद माकपा नेतत्वृ इस मज़ाकिया विचारधारात्मक प्रस्ताव के बिन्दु
3-10 से 3-16 में हमारा ज्ञानवर्द्धन करते हुए बताता है कि पूँजीवाद सं कटग्रस्त
होने के बावजूद अपने आप नही ं पलट सकता और उसे पलटने के लिए मज़दूर
वर्ग को राजनीतिक रूप से सं गठित होकर एक मज़बूत आत्मगत शक्ति का
निर्माण करना होगा! सही बात है! लेकिन कै से? माकपा इतिहास द्वारा
सौपं ी गयी इस महती जिम्मेदारी को कै से निभा रही है? सं सदवाद, अर्थवाद,
ट्रेडयूनियनवाद और सुधारवाद से! सं गठित मज़दूरो ं के बीच आर्थिक सं घर्ष के
गोल चक्कर में घूमते हुए, और असं गठित मज़दूर वर्ग को राम भरोसे छोड़कर!
और जब माकपा पूँजीवाद को ‘पलटने’ की बात करती है, तो आप मुश्किल
से अपनी हँ सी रोक पाते हैं! अभी तो हमें बताया गया था कि पूँजीवाद को
बदल जनवाद और समाजवाद की स्थापना के लिए शान्तिपूर्ण तरीके अपनाए
जाएँ गे! फिर से उलटना-पलटना कहाँ से आ गया! बाद में बात समझ में
आयी! वह इसलिए कि माकपा के काडरो ं में जो ईमानदार बचे हैं, उन्हें भी
भ्रम में बनाए रखना है! विश्वविद्यालय कै म्पसो ं आदि में जो परिवर्तनकामी
नौजवान और छात्र पकड़ में आते हैं, उन्हें भी तो बेवकू फ़ बनाना है! अगर
मज़दूर मार्क्सवाद के सम्पर्क में आकर पार्टी के सं शोधनवाद पर सवाल खड़े
करने लगें, तो उन्हें चुप कराने के लिए भी तो कु छ शब्द चाहिए! इसीलिए इस
विचारधारात्मक प्रस्ताव में मार्क्स, लेनिन, माओ आदि का नाम लेकर काफ़ी
तोपें छोड़ी गयी हैं! लेकिन, अगर आप पूरा दस्तावेज़ पढ़ें तो पता चलता है
कि ये सब नौटंकी था!
बिन्दु 4-1 से 4-4 तक हमें साम्राज्यवाद के हौव्वे से डराया जाता है।
बताया जाता है कि आज साम्राज्यवाद बेहद आक्रामक हो गया है। हर सं कट
के बाद कोई विकल्प न होने के कारण यह और अधिक शक्तिशाली होकर
उभरता है और अपने शोषण को और अधिक सघन बना देता है। साम्राज्यवाद
आज हर जगह हस्तक्षेप कर रहा है। जिन देशो ं ने नवउदारवाद को और
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद / 61
वाशिगं टन सहमति को ठु करा दिया वह जनवाद का दश्म ु न बना दिया जाता है
और फिर वहाँ जनवाद स्थापित करने के नाम पर साम्राज्यवाद हस्तक्षेप करता
है और मनमुआफिक तरीके से सत्ता परिवर्तन कर देता है। यह सच है कि आज
साम्राज्यवाद अपने हितो ं पर ख़तरा पैदा होने पर हस्तक्षेप करता है। लेकिन
साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के तीखे होने के साथ विश्व साम्राज्यवाद के चौधरी
अमेरिका को जगह-जगह समझौते करने पड़ रहे हैं, सत्ता में हिस्सेदारी देनी
पड़ रही है और अब वह उतने मनमुआफिक तरीके से सत्ता परिवर्तन भी नही ं
कर पा रहा है। इराक़ और अफगानिस्तान के विनाशकारी अनुभव के बाद
कही ं भी हस्तक्षेप करने से पहले अमेरिका को बीस बार सोचना पड़ रहा है। यह
हस्तक्षेप करने की जिम्मेदारी भी वह अन्य ताक़तो ं के साथ साझा करना चाहता
है। मिसाल के तौर पर, लीबिया में हस्तक्षेप करने और फिर लूट का माल
लपेटने में यूरोपीय ताक़तो ं का हाथ ऊपर रहा। उसी तरह सीरिया में हस्तक्षेप
करने की भी अमेरिका हिम्मत नही ं जुटा पा रहा है। अरब जनउभार के दौरान
जब जनविद्रोह के कारण अमेरिका-समर्थित सत्ताएँ पलट दी गयी ं तो भी
अमेरिका ने हस्तक्षेप करने का ख़तरा उठाने की बजाय नयी सत्ताओ ं को अपने
हितो ं के अनुसार सहयोजित करने का प्रयास किया। स्पष्ट है कि साम्राज्यवाद
हमेशा से ज़्यादा कमज़ोर और डावाँडोल स्थिति में है। आगे माकपा स्वयं यह
बात मानती है और बिन्दु 4-5 में कहती है कि कई क्षेत्रीय शक्तियो ं जैसे कि
तुर्की और सीरिया के उभार के कारण साम्राज्यवादी अन्तरविरोध बढ़े हैं। आप
देख सकते हैं कि माकपा नेतत्व ृ बुनियादी मार्क्सवादी विश्लेषण भी भूल गया
है। वह कही ं कु छ कहता है, तो कही ं कु छ! ऐसे अन्तरविरोधो ं से पूरा दस्तावेज़
भरा हुआ है।
पाँचवा खण्ड (‘सं क्रमण का दौर और आज का पूँजीवाद’) में भी माकपा
ने अपने सं शोधनवादी कचरे को नायाब तरीके से फै लाने की कोशिशें की हैं।
बिन्दु 5-1 और 5-2 में हमारे ज्ञानचक्षु खोलते हुए करात-येचुरी एण्ड कम्पनी
कहती है कि 1992 में उनकी पार्टी ने कहा था कि 1990 में सोवियत सं घ
में समाजवाद का पतन समाजवाद की विचारधारा का पतन नही ं है। आगे
हमें समाजवाद के शुरुआती प्रयोगो ं की समस्या बतायी जाती है! यह समस्या
माकपा के मुताबिक इस तथ्य में निहित थी कि शुरुआती दौर में सर्वहारा
क्रान्तियाँ उन देशो ं में हुईं जहाँ उत्पादक शक्तियाँ ज़्यादा उन्नत नही ं थी!ं और
ये क्रान्तियाँ उन्नत पूँजीवादी देशो ं में नही ं हुई थी ं इसलिए इनसे पूँजीवाद की
62 / भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद
सेहत पर ज़्यादा असर नही ं पड़ा और पूँजीवाद विज्ञान और तकनोलॉजी में
विकास करते हुए अपना विस्तार करता रहा! यह भी विचित्र तर्क है! यह
त्रात्स्की के तर्क से मेल खाता है, जिसके अनुसार पिछड़े हुए देशो ं में यदि
क्रान्तियाँ होगं ी तो भी उनमें समाजवाद का निर्माण तब तक नही ं किया जा
सके गा, जब तक कि उन्नत देशो ं में क्रान्तियाँ न हो जायें। इसलिए माकपा के
अनुसार सोवियत सं घ में समाजवाद के असफल होने का एक कारण यह भी
था कि वहाँ उत्पादक शक्तियो ं का पर्याप्त विकास नही ं हुआ था। एक तो यह
बात तार्किक तौर पर ग़लत है और दूसरी बात यह कि यह तथ्यतः भी ग़लत
है। सोवियत सं घ 1950 के दशक तक दनु िया की दूसरी सबसे बड़ी औद्योगिक
शक्ति बन चुका था और सैन्य और वैज्ञानिक मामलो ं में वह कई अर्थों में
अमेरिका से भी आगे था। बिन्दु 5-3 और 5-4 में हमें बताया जाता है कि
सोवियत समाजवादी प्रयोग में यह ग़लती हो गयी कि लेनिन की इस चेतावनी
को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया कि पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो सकती है।
1960 में चीनी पार्टी द्वारा साम्राज्यवाद के तत्काल ध्वं स की थीसिस को भी
समाजवाद के पतन का एक कारण बताया गया है। लेकिन यह नही ं बताया
गया है कि पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हुई कब थी? लेकिन पूरे मामले का सार
माकपा यह बताती है कि समाजवाद के पतन का सबसे बड़ा कारण था कि वह
पर्याप्त तेज़ी के साथ उत्पादक शक्तियो ं का विकास नही ं कर पाया। इसलिए
ृ यह सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि 21वी ं सदी
बिन्दु 5-10 में माकपा नेतत्व
के समाजवाद को उत्पादक शक्तियो ं के विकास की गति के मामले में पूँजीवाद
को पीछे छोड़ना पड़ेगा। इस बात से माकपा कहाँ जाना चाहती है, यह आगे
स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन पहले यह स्पष्ट कर दिया जाये कि यह भी एक किस्म
का अर्थवाद है जो समाजवाद का अर्थ सिर्फ उत्पादक शक्तियो ं का विकास
समझता है। इस सिद्धान्त के अनुसार समाजवाद की पूँजीवाद पर श्रेष्ठता इस
वजह से नही ं है कि समाजवाद एक समानतामूलक, न्यायपूर्ण और अधिक
मानवीय व्यवस्था है। इस सं शोधनवादी अर्थवाद के अनुसार समाजवाद की
श्रेष्ठता के वल उत्पादक शक्तियो ं के पूँजीवाद से अधिक तेज़ विकास के द्वारा
ही सिद्ध हो सकती है। सोवियत सं घ में समाजवाद ने जनता को बेहतर जीवन,
रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य मुहैया कराया और यही वह प्रधान कारण था
जिसके कारण सोवियत सं घ ने पूँजीवादी विश्व पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की।
निश्चित रूप से सोवियत सं घ ने दनु िया के किसी भी देश से ज्यादा तेज़ रफ्तार
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद / 63
से उत्पादक शक्तियो ं का विकास किया। लेकिन सोवियत सं घ की श्रेष्ठता का
प्रमुख कारण यह नही ं था। उल्टे सोवियत सं घ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना की
पृष्ठभूमि तैयार करने में सोवियत पार्टी की इस भूल की एक भूमिका थी कि
उसने भी एक ग़लत समझदारी के चलते उत्पादक शक्तियो ं के विकास पर
ज़्यादा और उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को जारी रखने पर
कम ज़ोर दिया। इसलिए माकपा का पूरा तर्क ही वास्तव में सं शोधनवादी
अर्थवाद का एक जीता-जागता उदाहरण है। वास्तव में, माकपा अपने इस
तर्क से चीन के देंगपं थी ‘बाज़ार समाजवाद’ को सही ठहराना चाहती है। यह
पवित्र काम माकपा अगले खण्ड में अंजाम देती है। लेकिन दस्तावेज़ के पाँचवे
खण्ड के आखि़ री हिस्से में माकपा समाजवाद की अपनी समझदारी पेश करती
है और कहती है कि समाजवाद के तहत सम्पत्ति के विभिन्न रूपो ं (जिसमें निजी
सम्पत्ति भी शामिल है) को जारी रखा जाना चाहिए। राजकीय सम्पत्ति के
साथ निजी सम्पत्ति को जारी रखना चाहिए। स्पष्ट है कि माकपा यहाँ सामूहिक
सम्पत्ति पर बल नही ं देती। आज हम जानते हैं कि पूँजीपति वर्ग बिना निजी
सम्पत्ति के भी अस्तित्वमान रह सकता है। वह राज्य के अधिकारियो ं के रूप
में राजकीय सम्पत्ति का न्यासी बन सकता है। इस राजकीय सम्पत्ति पर जनता
का कोई नियं त्रण नही ं होता है। वह राजकीय पूँजीपति वर्ग के नियं त्रण में होती
है। पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध के वल पूँजी और सम्पत्ति के मालिकाने में निहित
नही ं होते हैं बल्कि सामाजिक अधिशेष नियोजन की पूरी प्रक्रिया पर नियं त्रण
और श्रम विभाजन के रूप में भी अस्तित्वमान रहते हैं। इसका अर्थ यह है कि
अगर कानूनी तौर पर निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा कर भी दिया जाय तो पूँजीपति
वर्ग राज्य और सत्ताधारी पार्टी में कुं जीभूत स्थानो ं पर आसीन होकर शासन
चला सकता है, वह भी बिना निजी सम्पत्ति के । जैसा कि आज चीन में हो रहा
है। अर्थव्यवस्था का करीब 60 फीसदी हिस्सा अभी भी राज्य के नियं त्रण में है।
77 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद के लिए अभी भी राजकीय उद्यम जिम्मेदार हैं।
लेकिन यह राज्य सर्वहारा वर्ग के हाथ में नही ं है, बल्कि कम्युनिस्ट-नामधारी
पूँजीवादी पार्टी के हाथ में है और उसके अधिकारी, पदधारी पूँजीपति वर्ग की
सेवा करते हैं। अब तो चीन की सं शोधनवादी पार्टी ने पूँजीपतियो ं को पार्टी की
सदस्यता भी देना शुरू कर दिया है। जाहिर है कि राज्य से लेकर पार्टी तक में
निजी पूँजीपतियो ं की पहुँच बढ़ती जा रही है। तो एक तरफ़ मज़दूर वर्ग पर
सामाजिक फासीवादी नियं त्रण और विज्ञान और तकनोलॉजी में नवोन्मेष के
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जरिये चीन अपनी वृद्धि दर को लगातार 7-8 प्रतिशत के ऊपर रखने में सफ़ल
हुआ है; अमेरिका के लिए चीन एक साम्राज्यवादी चुनौती के रूप में उभरा है
और विश्व चौधराहट में अमेरिका उसे कु छ हिस्सेदारी देने के लिए विवश भी
हुआ है, लेकिन यह सारी तरक्की चीन में समाजवादी सं स्थाओ,ं सम्बन्धों और
मूल्यों के ध्वं स और मज़दूर वर्ग को फिर से, और पहले से भी ज़्यादा भयं कर
रूप में उजरती गुलाम बनाने की कीमत पर हुआ है। तो उत्पादक शक्तियो ं का
तो विकास हो रहा है लेकिन समाजवाद को नष्ट करके ! लेकिन माकपा के लिए
यह 21वी ं सदी के समाजवाद का एक सम्भावित मॉडल है! हो भी क्यों नही!ं
पश्चिम बं गाल में बुद्धदेव अपने चीनी गुरुओ ं के देंगपं थ पर ही तो अमल करने
की कोशिश कर रहा था!
छठवें खण्ड (‘समाजवादी देशो ं में घटना विकास’) में माकपा ने खुलकर
चीन के ‘बाज़ार समाजवाद’ का समर्थन किया है। माकपा ने एक बार फिर
सं शोधनवादियो ं के पाप को लेनिन और माओ के सिर मढ़ने का प्रयास किया
है। पहले तो दस्तावेज़ में हमें बताया जाता है कि भूमण्डलीकरण के दौर में
विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ समेकन समाजवादी देशो ं की मजबूरी है!
यह भी बताया गया है कि इस समेकन के कारण मौजूदा समाजवादी देशो ं में
(यानी कि नामधारी समाजवादी देशो ं में) असमानता, ग़रीबी, बेरोज़गारी और
भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। माकपा आगे बताती है कि इन देशो ं की उसकी सहोदरा
ग़द्दार सं शोधनवादी पार्टियो ं ने इन पहलुओ ं पर ग़ौर किया है और ज़रूरी कदम
भी उठाये हैं। माकपा इन कदमो ं को सही ठहराने के लिए बताती है कि 21वी ं
सदी में अलग-अलग देशो ं की ठोस परिस्थितियो ं के मुताबिक अलग-अलग
तरीके से समाजवाद का निर्माण होगा। लेकिन माकपा 21वी ं सदी की ‘भिन्न’
परिस्थितियो ं जिस ‘भिन्न’ प्रकार का ‘समाजवाद’ बनाना चाहती है, उसमें
कु छ भी समाजवादी बचा ही नही ं है। वह बिना पूँजीवादी जनवाद के बर्बर
और नं गे किस्म का पूँजीवाद होगा, जैसा कि चीन में है! माकपा बिन्दु 6-4
बताती है आज चीन में जो चीज़ लागू हो रही है वह लेनिन के नेतत्व ृ में
सोवितय सं घ में लागू हुई ‘नई आर्थिक नीतियो’ं जैसा है जिसमें लेनिन ने
निजी सम्पत्ति को बरकरार रखा था, बाज़ार को अपेक्षाकृत खुला हाथ दिया
था, निजी व्यापारियो ं को खुला हाथ दिया था और पूँजीवादी नीतियो ं को लागू
करते हुए पहले उत्पादक शक्तियो ं का उस हद तक विकास करने की नीति
अपनायी थी जिसके बाद समाजवाद का निर्माण शुरू किया जा सके ! एक
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद / 65
तो माकपा सोवियत सं घ में 1921 में लागू की गयी नयी आर्थिक नीतियो ं के
बारे में झठू बोल रही है और लोगो ं को बेवकू फ़ बनाने की कोशिश कर रही
है, ताकि वे चीन में जो कु छ हो रहा है उसे समाजवाद समझें। 1921 में जब
रूस में क्रान्ति के बाद से जारी गृह युद्ध समाप्त हुआ तो लेनिन ने इस बात का
अहसास किया कि सोवियत सं घ में अगर क्रान्ति की रक्षा करनी है तो मज़दूर-
किसान सं श्रय को बचाना होगा, जिसे लेनिन स्मिच्का कहते थे। लेनिन का स्पष्ट
मानना था कि सोवियत सं घ में मज़दूर अल्पसं ख्या में हैं और मज़दूर सत्ता
ग़रीब और मँ झोले किसानो ं के सहयोग के बिना टिक नही ं सकती है। सर्वहारा
सत्ता के व्यापक सामाजिक आधार के लिए फिलहाल किसानो ं को ज़मीन
का निजी मालिकाना देना पड़ेगा, उन्हें अपने माल के अधिशेष को बाज़ार में
व्यापारियो ं के हाथ बेचने की आज़ादी देनी होगी, बाज़ार की ताक़तो ं को थोड़ा
खुला हाथ देना पड़ेगा। लेकिन यह लेनिन के लिए चयन का मसला नही ं था,
बल्कि मजबूरी थी। लेनिन ने कहा था कि देश की 87 फीसदी आबादी ग्रामीण
है और मुख्य रूप से कृ षि में सं लग्न है। सर्वहारा सत्ता तुरन्त जबरन खेती का
सामूहिकीकरण नही ं शुरू कर सकती। इसलिए हमें सबसे पहले भूमिहीन और
ग़रीब किसानो ं को सामूहिकीकरण पर सहमत करना होगा, वे इसके लिए
सबसे जल्दी तैयार होगं े। उसके बाद मँ झोले किसानो ं को भी ज़ोर-ज़बर्दस्ती से
बचते हुए समझाना होगा और सामूहिकीकरण पर लाना होगा। अगर ऐसा न
किया गया तो कु लक उन्हें अपने पक्ष में कर लेंगे और सोवियत सत्ता के लिए
अस्तित्व का सं कट पैदा हो जायेगा। लेनिन ने कहा कि नयी आर्थिक नीतियाँ
वास्तव में रणनीतिक तौर पर कदम पीछे हटाने जैसा है, और आने वाले चार-
पाँच वर्षों तक हमें उन्हें जारी रखना होगा। यह सोवियत सत्ता को मोहलत
देगा कि वह गाँव की बहुसं ख्यक आबादी को जीत ले और फिर कु लको ं से
ज़मीनें ज़ब्त करते हुए सामूहिक खेती की स्थापना करे। इस तरह हम देख
सकते हैं कि जिस नयी आर्थिक नीति की माकपा बात कर रही है, वह रूसी
पार्टी ने विशेष परिस्थिति में मजबूरी के चलते लागू की थी और उस समय
भी सभी उद्योगो ं का सामूहिकीकरण या राजकीयकरण कर दिया गया था।
उसका मकसद उत्पादक शक्तियो ं के विकास के लिए पूँजीवादी तौर-तरीको ं
का तब तक इस्तेमाल करना नही ं था, जब तक कि समाजवाद के निर्माण योग्य
उत्पादक शक्तियाँ विकसित न हो जायें; बल्कि उसका मकसद था तब तक
भूमि के निजी मालिकाने और बाज़ार की ताक़तो ं को छू ट देना जब तक कि
66 / भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद
सोवियत सत्ता अपने सामाजिक आधार का गाँवो ं में विस्तार न कर ले। ऊपर
से माकपा तथ्यों के साथ बलात्कार करते हुए यह सिद्ध करने की कोशिश कर
रही है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इस समय वही नीतियाँ लागू कर रही है
जो लेनिन के नेतत्वृ में नयी आर्थिक नीतियो ं के तहत 1921 से लागू की गयी
थी!ं चीन की सं शोधनवादी पार्टी इस समय सामाजिक फासीवादी नियं त्रण
का इस्तेमाल करके बर्बर और नग्न तरीके से किसानो ं को तबाहो-बरबाद कर
रही है, मज़दूरो ं का दमन कर रही है और पूरी मेहनतकश आबादी को उसने
पूँजी की नं गी तानाशाही के नीचे दबा दिया है। न तो उसने किसानो ं के भले
के लिए कु छ किया है और न ही उसने सभी उद्योगो ं का राजकीयकरण या
सामूहिकीकरण किया है। उल्टे जितने उद्योग माओ के समय में मज़दूरो ं के
कम्यूनो ं के हाथ थे, देंगपं थी सं शोधनवादियो ं ने उन सभी कम्यूनो ं को भं ग कर
उन्हें निजी या राजकीय पूँजीपतियो ं के हाथो ं सौपं दिया है, और मज़दूरो ं से
इन उद्योगो ं में फासीवादी आतं क स्थापित करके काम कराया जाता है। अब
माकपा इन दोनो ं विपरीत चीज़ों में क्यों समांतर स्थापित कर रही है, इसका
कारण समझा जा सकता है। माकपा का मानना है कि चीनी पार्टी भी पूँजीवादी
तौर-तरीको ं का इस्तेमाल कर उत्पादक शक्तियो ं का विकास उस हद तक कर
रही है कि फिर समाजवाद का निर्माण किया जा सके ! चीनी पार्टी के दस्तावेज़
को उद्धृत करते हुए माकपा बताती है कि चीन अभी आने वाले 100 साल
तक इसी मं जिल में रहेगा! वाह! यानी, 100 सालो ं तक चीनी पार्टी ने अपने
पूँजीवादी तौर-तरीको ं को लागू कराने का बीमा करा लिया है! और माकपा
इसे एकदम सही मानती है! यह है माकपा का असली पूँजीवादी चरित्र! यानी,
जपते रहो ‘समाजवाद-समाजवाद’ और लागू करो नं गे किस्म का पूँजीवाद!
गज़ब तो तब हो जाता है जब माकपा इस पूरी नीति को मार्क्स और एं गेल्स की
नीति बताती है, जिन्होंने कहा था कि समाजवाद का विकास नीचे से होता है!
अब मार्क्स और एं गेल्स ने सपने में भी नही ं सोचा होगा, कि उनके कथन की
ऐसी व्याख्या भी हो सकती है! लेकिन अभी मानवता ने प्रकाश करात और
सीताराम येचुरी जैसे बेशर्म और घाघ सं शोधनवादी नही ं पैदा किये थे!
बिन्दु 6-8 में माकपा बताती है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का ‘बाज़ार
समाजवाद’ बिल्कु ल सही है क्योंकि समाजवाद के तहत तो माल उत्पादन
होगा ही, और अगर माल उत्पादन होगा तो बाज़ार भी रहेगा ही! यह भी
मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के साथ बेहूदी किस्म की ज़ोर-
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद / 67
ज़बर्दस्ती है। निश्चित रूप से, समाजवाद के दौरान पूँजीवादी श्रम विभाजन
मौजूद रहता है और इसलिए वस्तुओ ं का विनिमय होता है। चूँकि वस्तुओ ं का
विनिमय होता है इसलिए उनका अस्तित्व महज़ वस्तुओ ं के रूप में नही ं बल्कि
माल के रूप में होता है। लेकिन इसका अर्थ यह नही ं है कि माल उत्पादन को
बढ़ावा दिया जाता है और बाज़ार को प्रोत्साहित किया जाता है। उल्टे सर्वहारा
सत्ता लगातार मानसिक और शारीरिक श्रम, शहर और गाँव और उद्योग और
कृ षि के बीच के अन्तर को ख़त्म करते हुए पूँजीवादी श्रम विभाजन और
बुर्जुआ अधिकारो ं का ख़ात्मा करती है और माल उत्पादन को नियं त्रित करते
हुए, समाजवादी उत्पादक शक्तियो ं और उत्पादन सम्बन्धों को बढ़ावा देते
हुए लगातार साम्यवाद की ओर सं क्रमण को सम्भव बनाती है। दूसरी बात,
समाजवादी समाज के ही उन्नत मं जिलो ं में विनिमय को चलाने के लिए बाज़ार
और मुद्रा की ज़रूरत समाप्त हो जाती है। विनिमय की पूरी प्रक्रिया को राज्य
चलाता है और बाज़ार की ज़रूरत ही समाप्त हो जाती है। इसलिए यहाँ भी
माकपा का घाघ नेतत्व ृ जानबूझकर समझदारी दिखलाने की कोशिश कर
रहा है। त्रसदी यह है कि हमारे देश में मार्क्सवादी भी मार्क्सवाद नही ं पढ़ते
और सं शोधनवादी उनसे ज़्यादा मार्क्सवाद पढ़ते हैं। नतीजा यह होता है कि
माकपा जैसी ग़द्दार और घाघ पार्टियो ं की ग़द्दारी को वे पकड़ ही नही ं पाते।
वास्तव में, जब नन्दीग्राम और सिगं ूर के समय किसान प्रश्न पर एक बहस शुरू
हुई थी तो माकपा के बुद्धिजीवी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टियो ं के अधकचरे
बुद्धिजीवियो ं पर हावी हो गये थे, और वह भी मार्क्सवाद को विकृ त करके और
ग़लत-सलत तर्क और तथ्य देते हुए!
आगे इसी खण्ड में माकपा हमें बताती है कि चीन में एक विशेष किस्म का
समाजवाद निर्मित हो रहा है। इसकी सफलता के लिए हमें जीडीपी, जीएनपी
और प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी के आँकड़े बताये जाते हैं। लेकिन इन
पैमानो ं पर तो भारत भी अपनी तरक्की दिखला सकता है! लेकिन उस तरक्की
की चीर-फाड़ माकपा के टट्टू बुद्धिजीवी दहाड़-दहाड़कर करते हैं। लेकिन चीन
में अमीर-ग़रीब के बीच की बढ़ती खाई (ऊपर के 10 प्रतिशत और नीचे
के 10 प्रतिशत के बीच में आय का फर्क 22 गुना है!), बेरोज़गारी, ग़रीबी,
वेश्यावृत्ति के आधार पर वे चीन के विकास के पूँजीवादी असमान विकास
होने की कभी बात नही ं करते! जबकि भारत इस मामले में तो चीन का चेला
है! यहाँ पर नवउदारवादी नीतियो ं को लागू करने में जिस मॉडल की बार-
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बार बात की जाती है, वह चीनी मॉडल है! लेकिन माकपा इन सब चीज़ों को
नज़रअन्दाज़ करते हुए, अपने मनमुआफिक नतीजे निकालती है ताकि उसके
सं शोधनवाद को तुष्ट और पुष्ट किया जा सके ! माकपा बस अन्त में इतना कह
देती है कि चीन में कु छ दिक्कतें हैं और चीन की पार्टी में पूँजीपतियो ं की भर्ती
से भी दिक्कतें बढ़ रही हैं। लेकिन माकपा का चीन के सं शोधनवादी गुरुओ ं पर
पूरा भरोसा है और उसका मानना है कि चीन की पार्टी अन्ततः ‘चीनी किस्म
का समाजवाद’ बनाकर ही मानेगी! निश्चित रूप से! माकपा एक अच्छे शिष्य
की तरह खड़िया और स्लेट लेकर चीन की तरफ देखती हुई खड़ी है! बस बात
यह है कि इन सं शोधनवादी, मज़दूर वर्ग की पीठ में छु रा भोक ं ने वाले, ग़द्दार
गुरू-चेला से मज़दूर वर्ग को कु छ नही ं मिलने वाला और उसे इन ढोगि ं यो-ं
पाखण्डियो ं से बचकर रहना होगा।
आगे वियतनाम, क्यूबा और उत्तर कोरिया के ‘समाजवाद’ का उदाहरण
देते हुए माकपा नेतृत्व इस बात को पुष्ट करने का प्रयास करता है कि 21वी ं
सदी में समाजवाद को विशेष तरीके से ही बनाना होगा, जिसमें निजी सम्पत्ति,
बाज़ार, शोषण, दमन, उत्पीड़न सबकु छ होगा! अब ऐसे समाजवाद का सपना
तो मार्क्स, एं गेल्स, लेनिन, स्तालिन या माओ किसी ने भी नही ं देखा था! इस
समाजवाद में समाजवादी बचा क्या है? इसमें मज़दूर वर्ग का बचा क्या है?
जाहिर है कु छ नही!ं क्यों? क्योंकि माकपा का लक्ष्य समाजवाद तक जाना
है ही नही!ं उसका मकसद समाजवाद का नाम लेते हुए पूँजीवाद की ही रक्षा
करना, उसे बरकरार रखना और उसकी उम्र बढ़ाना है! यही तो सं शोधनवाद
की भूमिका होती है!
सातवें खण्ड में माकपा ने लातिनी अमेरिका में जारी बोलिवारियन विकल्प
के प्रयोगो ं का गुणगान किया है। माकपा का मानना है कि वेनेजएु ला में शावेज़,
बोलीविया में इवो मोरालेस आदि की सत्ताएँ पूँजीवाद के भीतर रहते हुए ही
साम्राज्यवाद और नवउदारवाद का एक विकल्प दे रही हैं! इस विकल्प पर
माकपा नेतत्व ृ फिदा है! क्योंकि इनमें कु छ भी समाजवादी नही ं है। इन प्रयोगो ं
को जनता का समर्थन प्राप्त है जिसके दो कारण हैं। एक है साम्राज्यवाद से
लातिनी जनता की नफ़रत और दूसरा कारण है कि इन सत्ताओ ं द्वारा फिलहाल
आपसी सहयोग और तेल अधिशेष के बूते कल्याणकारी नीतियाँ लागू करना
जिसके कारण पहले की सैन्य जुण्टाओ ं के शासन की तुलना में जनता की
शिक्षा, चिकित्सा, रिहायश आदि तक पहुँच बहुत बढ़ गयी है। लेकिन ऐसी
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद / 69
सत्ताएँ हमेशा नही ं टिकी रह सकती।ं या तो वहाँ चीज़ें समाजवाद की ओर
जाएँ गी, या फिर खुले, नं गे नवउदारवादी पूँजीवाद की तरपफ़। अगर उन्हें
समाजवाद की तरफ़ जाना होगा तो उन्हें बलपूर्वक सम्पन्न की गयी ं और मज़दूर
ृ में सम्पन्न की गयी ं मज़दूर क्रान्तियो ं
वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतत्व
के जरिये ही जाना होगा! कोई प्रबुद्ध जनवादी शासक, जैसे कि शावेज़, अपने
सुधारो ं के जरिये समाजवाद की स्थापना नही ं कर सकता! क्रान्ति का प्रश्न पूरी
राज्य सत्ता का प्रश्न है, और सर्वहारा क्रान्ति बुर्जुआ राज्यसत्ता के ध्वं स के
जरिये ही सम्पन्न हो सकती है। सं सदीय रास्ते से अगर कोई प्रगतिशील ताक़त
सत्ता में आती है और समाजवादी नीतियाँ लागू करने की प्रक्रिया को एक हद
से आगे बढ़ाती है तो उसका वही हश्र होता है जो चिली में 1973 में सल्वादोर
अयेन्दे का हुआ था, जहाँ साम्राज्यवादी सहयोग से सेना ने अयेन्दे का तख़्ता
पलट कर दिया था। और शावेज़ तो मार्क्सवादी भी नही ं है। लेकिन माकपा
इन सं क्रमणकालीन सत्ताओ ं को एक विकल्प के तौर पर पेश करती हैं क्योंकि
इनमें वे सभी गुण हैं जो समाजवादी क्रान्ति से बचने के लिए सं शोधनवादी
सुझाते हैं – यानी, राज्य कल्याणवाद और राज्य इज़ारेदार पूँजीवाद!
आठवें खं ड (‘भारतीय परिस्थितियो ं में समाजवाद’) में माकपा नेतत्व ृ हमें
बताता है कि भारत में अभी जनता की जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को मज़दूर
वर्ग के नेतत्व
ृ में सम्पन्न किया जाना है; इसके लिए मज़दूर वर्ग का सं गठित
होना होगा। इसके बाद माकपा बताती है कि यह काम सं सदीय और सं सदेतर
जरियो ं से किया जायेगा! मज़दूर और किसान वर्ग का सं श्रय स्थापित किया
जायेगा! ये सारी बकवास करने बाद हमें भारतीय समाजवाद की ख़ासियत
बताई जाती है, जो माकपा शान्तिपूर्ण तरीके से सं सद के जरिये स्थापित करने
के बाद लागू करेगी। इसमें पहली चीज़ है खाद्य सुरक्षा, पूर्ण रोज़गार, शिक्षा,
रिहायश और स्वास्थ्य सुविधाओ ं तक सार्वभौमिक पहुँच। इन सबसे जनता
के जीवन स्तर में बढ़ोत्तरी की जायेगी और समाज के परिधिगत हिस्सों को
आगे लाया जायेगा। दूसरी बात जो माकपा कहती है, वह उसके ख्रुश्चेवपं थ को
नं गा कर देती है। इस समाजवाद में मज़दूर वर्ग की तानाशाही नही ं होगी; यह
पूरी जनता की सत्ता होगी, जो नागरिको ं को वास्तविक नागरिक व जनवादी
अधिकार देगी! यानी, पूरी जनता खुद को ही अधिकार देगी! इसी से इस
धोखाधड़ी का पर्दाफाश हो जाता है। निश्चित रूप से, अगर इसमें मज़दूर वर्ग
की तानाशाही नही ं होगी, तो वह पूँजीपति वर्ग की तानाशाही होगी! इसके बाद,
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माकपा एक सूची पेश करती है जिसके अनुसार उसकी समाजवादी व्यवस्था में
जातिवाद, साम्प्रदायिकता का अन्त हो जायेगा, वगैरह-वगैरह! और अन्त में,
माकपा बताती है कि भारतीय समाजवाद में कई प्रकार की सम्पत्तियाँ होगं ी,
जिसमें कि निजी सम्पत्ति भी शामिल है, और इसके बाद माकपा वही ं बकवास
करती है जो वह चीनी किस्म के समाजवाद को सही ठहराने के लिए कर चुकी
थी! इस तरह से ‘चीनी’, ‘भारतीय’, ‘लातिन अमेरिकी’ किस्मों के समाजवाद
के नाम पर समाजवाद की क्रान्तिकारी सारवस्तु का ही अपहरण कर लिया
जाता है। माकपा एक ऐसे किस्म के समाजवाद की बात करती है, जिसमें से
समाज ग़ायब है और पूँजी का बोलबाला है!
दस्तावेज़ के अन्त में माकपा ने फिर से कु छ ‘विचारधारात्मक तोपें’ छोड़ी
हैं, जैसे कि मार्क्सवाद प्रासं गिक है, उत्तरआधुनिकतावाद ग़लत है, सामाजिक
जनवाद ग़लत है (!?) वगैरह! लेकिन आप भी अब तक इस पूरे दस्तावेज़ का
असली इरादा समझ गये होगं े। इसका मकसद था मार्क्सवाद और समाजवाद
का नाम लेते हुए मार्क्सवाद और समाजवाद के सिद्धान्त को विकृ त कर डालना,
उसकी क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को नष्ट कर डालना, और नं गे और बेशर्म किस्म
के सं शोधनवाद को मार्क्सवाद का नाम देना! लेकिन इन सभी प्रयासो ं के
बावजूद अगर माकपा के इस दस्तावेज़ को कोई आम व्यक्ति भी पं क्तियो ं के
बीच ध्यान देते हुए पढ़े तो माकपा की मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी, उसका पूँजीपति
वर्ग के हाथो ं बिकना, उसका बेहूदे किस्म का सं शोधनवाद और ‘भारतीय
किस्म के समाजवाद’ के नाम पर भारतीय किस्म के पूँजीवाद के लक्ष्य को
प्राप्त करने का उसका शर्मनाक इरादा निपट नं गा हो जाता है! इस दस्तावेज़
में माकपा के घाघ सं शोधनवादी सड़क पर निपट नं गे भाग चले हैं। मज़दूर वर्ग
के इन ग़द्दारो ं की असलियत को हमें हर जगह बेनक़ाब करना होगा! ये हमारे
सबसे ख़तरनाक दश्म ु न हैं। इन्हें नेस्तनाबूद किये बग़ैर देश में मज़दूर वर्ग का
क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन आगे नही ं बढ़ पायेगा!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012