Articles on Revisionism संशोधनवाद पर लेखों का संकलन

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लेखों का सक

ं लन
संशोधनवाद के बारे में

भारत की संसदीय वाम पार्टियों के


चरित्र के बारे में

त्रिपरु ा में माणिक सरकार की हार के


बारे में

एक नये क्रान्तिकारी विकल्‍प के बारे


में
परिचय
त्रिपुरा में माणिक सरकार की हार के बाद सिर्फ सीपीएम व सं सदीय वाम समर्थक ही
नही ं बल्कि कई उदारवादी भी शॉक में हैं। माणिक सरकार की सादगी के किस्‍से सुनाने
वाले अब जनता को ही कोस रहे हैं। कोई ईवीएम हैकिंग की बात कर रहा है तो कोई
कांग्रेस-भाजपा के आन्‍तरिक गठबं धन की। लेकिन मूल बात पर सबकी चुप्‍पी है।
इस लेख सं कलन में हम उसी समस्‍या पर चर्चा करेंगे। पहला लेख त्रिपुरा में हार के
कारणो ं की पड़ताल करता है। उसके बाद नकली कम्‍युनिज्‍म यानि सं शोधनवाद और
मार्क्सवाद के बीच के अन्‍तर को बताया गया है। तीसरा लेख भारतीय कम्‍युनिस्‍ट
आन्‍दोलन में सं शोधनवाद के इतिहास को बताता है। चौथा लेख ज्‍योति बसु की मृत्‍यु
के बाद लिखा गया था व उसमें तथाकथित सादगी के बजाय ज्‍योति बसु की राजनीति
की विस्‍तार से चर्चा की गयी है। उसके बाद के दो लेखो ं में सीपीएम की 20वी ं व
21वी ं कांग्रेस का विश्‍लेषण है। 'बुर्जुआ चुनावो ं और क़ानूनी सं घर्षों के बारे में सर्वहारा
क्रान्तिकारी दृष्टिकोण' लेनिन का लेख है और चुनाव के जं जाल में जनता को फं साकर
रखने वाले सं शोधनवादियो ं का भण्‍डाफोड़ करता है। सर्वहारा क्रान्ति की तैयारी से
लेकर समाजवादी सं क्रमण की लम्बी अवधि के दौरान सं शोधनवाद नये-नये रूपो ं में
लगातार क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन में घुसपैठ करता रहता है। मज़दूर आन्दोलन
में बुर्जुआ विचारधारा और राजनीति की यह घुसपैठ स्वाभाविक है। दश्म ु न सामने से
लड़कर जो काम नही ं कर पाता, वह घुसपैठियो ं और भितरघातियो ं के ज़रिये अंजाम
देता है। सं शोधनवाद के प्रभाव के विरुद्ध सतत सं घर्ष करने और उस पर जीत हासिल
किये बिना सर्वहारा क्रान्ति की सफलता असम्भव है। इसलिए सं शोधनवादी राजनीति
की पहचान बेहद ज़रूरी है। अंतिम लेख एक महत्‍वपूर्ण लेख है और आज के दौर में एक
नये क्रान्तिकारी विकल्‍प के निर्माण की समस्‍याओ ं पर चर्चा करता है।
भारत के कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन के कार्यकर्ताओ,ं समर्थको ं व हितेषियो ं से हमारा आग्रह
है कि इस लेख सं कलन को जरूर पढ़ें और खुले दिमाग से इस पर विचार करें। अगर
आप अपने विचार हमसे साझा करना चाहते हैं तो हमारे फे सबुक पेज पर कमेंट या
मैसेज करें।
धन्‍यवाद
इंकलाबी सलाम के साथ
प्रस्‍तुति - Uniting Working Class
फे सबुक पेज - https://www.facebook.com/unitingworkingclass/
व्‍हाटसएप्‍प नम्‍बर - 9892808704

2 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद


अनक्र
ु मणिका

ु ावों के नतीज़ों पर कुछ बातें - 5


1. त्रिपरु ा विधानसभा चन

2. संशोधनवाद और मार्क्सवाद : बनि


ु यादी फर्क - 13
3. भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद –
इतिहास के कुछ ज़रूरी और दिलचस्प तथ्य - 20

4. ज्योति बसु और संसदीय वामपन्थी राजनीति की आधी


सदी - 27

रे : मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी की


5. माकपा की 21वीं कांग्स
बेशर्म क़वायद - 42

6. माकपा की बीसवीं कांग्स रे में पेश विचारधारात्मक


प्रस्ताव : मार्क्सवाद को विकृत करने का गन्दा, नंगा
और बेशर्म संशोधनवादी दस्तावेज़ - 51

7. आपने ठीक फ़रमाया मख


ु ्यमन्त्री महोदय, बाल मजदूरी
को आप नहीं रोक सकते! - 72

8. बर्जु
ु आ चनु ावों और क़ानूनी संघर्षों के बारे में सर्वहारा
क्रान्तिकारी दृष्टिकोण - 76

9. गज़
ु रे दिनों की नाउम्मीदियों और आने वाले दिनों की
उम्मीदों के बारे में कुछ बातें - 80

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 3


ु ावों के नतीज़ों पर कुछ बातें
त्रिपरु ा विधानसभा चन
कविता कृ ष्‍णपल्‍लवी

त्रिपुरा विधान सभा चुनावो ं के नतीज़ो ं को लेकर खासकर वे लोग बहुत


सदमे में हैं, जिन्हें सं सदीय वाम से अभी भी काफी उम्मीदें हैं और जो लगातार
यह दिवास्वप्न देखते रहते हैं कि सं सदीय वाम की पार्टियां अब चेत जायेंगी, वे
अपनी शीतनिद्रा से जाग जायेंगी और या तो स्वयं एकजुट होकर, या कांग्रेस
के साथ मोर्चा बनाकर, या गैरकांग्रेसी बुर्जुआ दलो ं के साथ मोर्चा बनाकर
हिन्त्व
दु वादी फासिज्म की मोदी लहर को, कम से कम 2019 के लोकसभा
चुनावो ं तक तो पीछे धके ल ही देंगी।
त्रिपुरा के चुनावी नतीज़ो ं के ठोस विश्लेषण से पहले, ऐसे तमाम लोगो ं
से हम बार-बार कही गयी यह बात फिर से कहना चाहेंगे कि फासिज़्म की
वैचारिकी, उसके आर्थिक आधार, उसके उदभव और प्रभुत्व के कारणो ं तथा
इटली और जर्मनी में फासिस्ट दौर के इतिहास के बारे में प्रचुर मार्क्सवादी
साहित्य मौजूद है, उन्हें उसका अध्ययन करना चाहिए। फासिज़्म की लहर को
सं सदीय चुनावो ं में हराकर पीछे नही ं धके ला जा सकता। सत्ता में न होते हुए
भी यह अपना कहर जारी रखेगा, यह भारत में भी देखा जा चुका है। फासिज्म
सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी वित्तीय पूँजी का प्रतिनिधि और पूंजीवाद के सं कट
का पूंजीवादी विमोचक होता है और उसकी बुनियादी चारित्रिक विशिष्टता
यह होती है कि वह निम्न-बुर्जुआ वर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी आन्दोलन
होता है जिसे तृणमूल स्तर से एक कै डर-आधारित ढांचे वाला फासिस्ट सं गठन
सं गठित करता है। तृणमूल स्तर से, मज़दूर वर्ग, सभी मेहनतक़श वर्गों और
मध्य वर्ग के प्रगतिशील हिस्सों का एक रैडिकल सामाजिक आन्दोलन खडा
करके ही, और मज़दूरो ं की जुझारू लामबं दी के द्वारा ही इसे शिकस्त दिया जा
सकता है। दूसरी बात, बीसवी ं शताब्दी के मुकाबले आज की भिन्नता यह है
कि नवउदारवाद और पूंजीवाद के व्यवस्थागत सं कट के इस दौर में फासिज़्म-
विरोधी मोर्चे में बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा, यानी बुर्जुआ वर्ग की कोई भी
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 5
पार्टी भागीदार नही ं बनेगी। भारत के सं सदीय वाम का मूलतः वही ऐतिहासिक
अपराध है जो 1920 और 1930 के दशको ं में यूरोपीय सामाजिक जनवादी
पार्टियो ं ने किया था। पिछले छः-सात दशको ं से ये पार्टियां सं सदीय चुनावो ं
का टैक्टिकल इस्तेमाल करने की जगह सं सदीय राजनीति में डू बी रही हैं, मात्र
आर्थिक लडाइयां लड़ते हुए मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी राजनीतिक शिक्षा और
राजनीतिक सं घर्षों को पूरी तरह छोड़ चुकी हैं, तथा, तृणमूल स्तर से विभिन्न
जुझारू सामाजिक आन्दोलन खडा करके आम जनता की वर्ग चेतना और
वर्गीय एकजुटता को उन्नत करना तो इनके एजेंडा पर कभी रहा ही नही।ं
ऐसे में, नवउदारवाद के इस दौर में, सं सदीय वामपं थी पार्टियाँ यदि सं सदीय
राजनीति में भी हाशिये के हाशिये पर पहुँचती जा रही हैं तो इससे आश्चर्य और
दःु ख मिथ्या आशावाद के शिकार उन्हीं लोगो ं को होगा जो मार्क्स-एं गेल्स-
लेनिन-माओ के मार्क्सवाद और बर्नस्टीन-काउत्स्की-ख्रुश्चेव-देंग सियाओ-
पिगं के छद्म मार्क्सवाद में कोई अंतर करना ही नही ं जानते, यानी बकौल
लेनिन, वे मार्क्सवाद का क-ख-ग भी नही ं जानते, क्योंकि वे मार्क्सवाद और
सं शोधनवाद में कोई अंतर नही ं कर पाते।
विचार-विहीन भावुकता और आदर्शवाद का आलम यह है कि कु छ अच्छे -
भले पढ़े-लिखे लोग यह प्रलाप तक करने लगे हैं कि जनता अगर माणिक
सरकार जैसे सादगी और गरीबी में रहने वाले स्वच्छ छवि के व्यक्ति को किनारे
हटाकर भाजपा को सत्ता में ला सकती है, तो यह जनता है ही इस लायक
कि फासिस्टों का कोप-कहर झेलकर इसकी कीमत चुकाए।अरे भलेमानसो,
राजनीति में चीज़ें किसी पार्टी के नेता के सादे , भ्रष्टाचार-मुक्त जीवन से नही ं
बल्कि व्यक्ति और पार्टी की विचारधारा, राजनीति और नीतियो ं से तय होती
है। गाँधी और नेहरू काल के बहुतेरे कांग्रेसी नेता भी सादा जीवन बिताते थे।
आपातकाल का समर्थन करने वाले भाकपा नेता इन्द्रजीत गुप्ता भी बेहद सादा
जीवन बिताते थे। और पीछे चलें। प्रूधो,ं बाकु निनऔर वाइटलिगं भी बेहद
गरीबी का जीवन बिताते थे, और मार्तोव, मार्तीनोव जैसे तमाम मेन्शेविक नेता
भी भ्रष्टाचारी या अमीरी में जीने वाले लोग नही ं थे। यह उनकी राजनीति से
तय होता था कि वे क्रांतिकारी थे या मज़दूर वर्ग के दश्म ु न। यदि चीज़ें नेता के
जीने के तरीके से ही तय हो जाती ं तो तमाम राजनीति विज्ञान और राजनीतिक
अर्थशास्त्र को जानने की ज़रूरत ही क्या थी। भावुकतावादी मार्क्सवादी
मार्क्सवाद तो कु छ पढ़ते नही,ं बस 'कॉमन सेन्स लाजिक' लगाते रहते हैं। वे
6 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
कहते हैं अपने को मार्क्सवादी, पर होते हैं तोल्स्तोयपं थी। दूसरी बात, चुनाव में
अभी भी मोदी को चुनने के लिए जनता को कोसने वाले लोग बुर्जुआ चुनावो ं से
बहुत न्याय-निर्णय की उम्मीद रखते हैं, वे इन चुनावो ं में पूँजी की भूमिका और
फासिस्टों की घपलेबाजियो ं के रिकार्ड को भी नही ं जानते और इस बात को
नही ं समझ पाते कि जनता को कोई सही नेतत्व ृ यदि सही राजनीतिक चेतना
देकर मूल मुद्दों को सही ढंग से उसके सामने रेखांकित न करे, तो पूंजीवादी
सं कट के दौरो ं में वह सबसे आसानी से फासिस्टों के लोकरंजक नारो ं और
'फे टिश' और मिथ्या चेतना के प्रभाव में आ जाती है। कम से कम सामाजिक
जनवादियो ं और सं सदीय वामपं थियो ं द्वारा दिए जाने वाले विकल्प तो फासिस्टों
के लोकरंजक नारो ं के सामने काफी फीके लगते हैं, खासकर तब जब जनता
उन्हें लम्बे समय से देख और भुगत रही हो। वामपं थी बुद्धिजीवियो ं की एक
फितरत यह भी होती है कि वे हमेशा अपने को किनारे करके बात करते हैं,
अपनी भूमिका की कभी कोई चर्चा नही ं करते और जनता को कोसने का कोई
भी मौका नही ं छोड़ते। इन दख ु ी आत्माओ ं से क्या कहा जा सकता है सिवाय
इसके कि हो सके तो उन्हें अपने लिए नयी जनता चुन लेनी चाहिए।
त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकार और माणिक सरकार के बारे में बुर्जुआ
मीडिया में जो खबरें आती थी ं और सोशल मीडिया पर बीस साल से बिना
किसी गं भीर चुनौती के साफ-सुथरी सरकार चला रहे माणिक सरकार के बारे
में वामपं थी लोग जो कु छ लिखते रहते थे, उसमें त्रिपुरा की ज़मीनी हकीक़त
न के बराबर होती थी। इसीलिये वाम मोर्चे की इस क़दर बुरी पराजय से लोगो ं
को काफी सदमा लगा। त्रिपुरी समाज के अंतर्विरोधो ं की ज़मीनी सच्चाइयो ं
को जाने बिना वर्तमान चुनाव-परिणामो ं को ठीक से नही ं समझा जा सकता,
पर उनकी चर्चा से पहले कु छ और गौरतलब तथ्यों को हम सूत्रवत गिना
देना चाहते हैं। पिछले लगभग तीन दशको ं से उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों में
आर.एस.एस. अपना सघन नेटवर्क फै लाकर काम कर रहा है। उत्तर-पूर्व की
जनजातियो ं को हिदं त्वु की पहचान से जोड़ना, जनजातियो ं के आपसी टकरावो ं
को और कें द्र से जारी उनके टकराव को 'पहचान की राजनीति' का आधार
देकर उत्पीडित राष्ट्रीयताओ ं के सं घर्ष को वर्ग-सं घर्ष की राजनीति से दूर करना
और उन्हें फासिस्ट राजनीति से वैचारिक तौर पर करीब लाना -- यह सं घ की
रणनीति रही है, जो, रेडिकल सशस्त्र सं घर्षों के नेतत्व ृ के क्रमशः पतन और
विघटन से पैदा हुए निराशापूर्ण स्पेस में स्थान बनाकर अब धीरे-धीरे रंग भी
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 7
लाने लगी है। कांग्रेस के लम्बे शासन के दौरान इन इलाको ं की आबादी जिस
उपेक्षा और दमन का शिकार हुई, उसे भी सं घ और भाजपा ने खूब भुनाया।
2014 में कें द्र में सत्तारूढ़ होने के बाद भाजपा ने त्रिपुरा से वाम मोर्चे को
उखाड़ फें कने के प्रोजेक्ट पर विशेष तौर पर काम किया। सं घ के स्वयं सेवको ं के
अतिरिक्त बड़े पैमाने पर भाजपा कार्यकर्ताओ ं को वहाँ लगाया गया। माकपा
ृ को यह पता था, लेकिन जैसा सभी सं सदीय जड़वामनो ं के साथ होता
नेतत्व
है, सरकार चलाते-चलाते यह पार्टी कार्यकर्ता स्तर तक इतनी पलीद हो चुकी
है कि इसका कै डर ढांचा मात्र रस्मी, ढीला-पोला और काहिल होकर रह गया
है। दूसरी ओर बुर्जुआ दायरे में भी माकपा ने नीतिगत पं गुता का परिचय दिया
और त्रिपुरी जनजातियो ं के जिस असं तोष और असुरक्षा का भाजपा लाभ
उठा रही थी, उसके शमन के लिए कोई भी महत्वपूर्ण कदम नही ं उठाया। इन्हें
अपने आप पर कु छ ज्यादा भरोसा भी था, जिसके चलते इन्हें यह उम्मीद
ही नही ं थी कि प्रचं ड बहुमत से वाम मोर्चा सीधे 16 सीटो ं पर आ जायेगा
और 2 सीटो ं वाली भाजपा 'इं डीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा' ( आई.पी.
ऍफ़.टी. ) के साथ मोर्चा बनाकर 43 सीटें हासिल कर लेगी। कु छ लोगो ं को
इस बात पर भी आश्चर्य है कि भाजपा और माकपा के बीच मात्र दशमलव
3 प्रतिशत वोट प्रतिशत के अंतर पर सीटो ं में इतना अंतर कै से ? भाजपा के
अपने 43 प्रतिशत के साथ आई.पी.एफ़.टी. के 7.5 प्रतिशत को जोड़ दिया
जाये और माकपा के 42 प्रतिशत के साथ अन्य वाम दलो ं के वोट प्रतिशत
को जोड़ दिया जाये तो भी दोनो ं के बीच अंतर 6 प्रतिशत के आसपास है
और जनजाति-बहुल इलाको ं के अतिरिक्त पूरे राज्य में भी जनजाति आबादी
जिसतरह बिखरी हुई है, यदि उसने एकजुट होकर भाजपा गठबं धन को वोट
दिया तो सीटो ं का इतना अंतर हो सकता था। यह भी एक फै क्टर था कि सं घ
कार्यकर्ताओ ं ने घर-घर तक पहुँच बनाकर बूथ-मैनेजमेंट बहुत कु शल किया
था, जबकि वाम मोर्चा ने इस मामले में भी काहिली दिखाई थी। फासिस्टों के
चाल-चेहरा-चरित्र को देखते हुए ई.वी एम. घपले का उनके द्वारा सहारा लेने
से इनकार नही ं किया जा सकता, लेकिन इस ब्रम्हास्त्र का सेलेक्टिव इस्तेमाल
वे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के चुनावो ं में और 2019 के लोकसभा
चुनावो ं में करेंगे, इसकी सं भावना ज्यादा है। त्रिपुरा में तो परिस्थितियाँ वैसे भी
उनके पक्ष में थी।ं
तो अब आइये, ज़रा उन परिस्थितियो ं पर एक सरसरी नज़र दौड़ा ली जाए।
8 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
1947 के पहले त्रिपुरा ब्रिटिश शासन के मातहत एक रियासत था। 1949
में इसका भारत में विलय हो गया। इसका एक हिस्सा,टिप्पेरा जिला पूर्वी
पकिस्तान में शामिल हुआ। यूं तो बं गाली आबादी त्रिपुरा में पहले से रहती
थी, लेकिन विभाजन के समय तक बहुसं ख्या स्थानीय जनजातियो ं की ही
थी। विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर बं गाली शरणार्थी
आबादी त्रिपुरा में आकर बसी और स्थानीय जनजाति आबादी अल्पमत में
आ गयी। 1971 के बं गलादेश युद्ध के समय और उसके बाद भी बं गाली
शरणार्थी आबादी त्रिपुरा में आती रही। आज स्थिति यह है कि त्रिपुरा की कु ल
आबादी में मात्र 30 प्रतिशत जनजातीय आबादी रह गयी है। इस स्थिति के
चलते जनजातीय आबादी के भीतर असं तोष और असुरक्षा-बोध की भावना
1950 के दशक से ही पनपने लगी थी। यहाँ यह भी बता देना ज़रूरी है कि
1947 के पहले ही त्रिपुरा में कम्युनिस्ट रुझान की कई क्षेत्रीय पार्टियां मौजूद
थी ं जो स्थानीय राजशाही के विरुद्ध आदिवासी आबादी को सं गठित करती
थी।ं पर आज़ाद भारत में कम्युनिस्ट पार्टी ने इस स्थिति का कोई फ़ायदा नही ं
उठाया क्योंकि तेलंगाना सं घर्ष की पराजय के बाद पार्टी पूरे तरह से घुटने
टेककर सं सदमार्गी हो चुकी थी। विभाजन से त्रिपुरा का सबसे बड़ा नुकसान
हुआ --- उसका शेष भारत से भू-राजनीतिक अलगाव। तीन ओर से वह
बं गला देश (तत्कालीन पूर्वी पकिस्तान) से घिरा था। सिर्फ उत्तर-पूर्व और पूर्व
में असम और मेघालय की सीमाएं इससे लगती हैं जहां से दो राष्ट्रीय राजमार्ग
इसे शेष देश से जोड़ते हैं। लुम्डिग (असम) से एक छोटी रेललाइन त्रिपुरा में
जाती भी थी तो राजधानी अगरतला तक नही,ं बल्कि सिर्फ धर्मनगर तक।
इससे इस राज्य की उपेक्षा का अनुमान लगाया जा सकता है कि 2008-09
में पहली बार अगरतला तक रेललाइन पहुँची औए 2016 में उसे बड़ी लाइन
किया गया। विभाजन के बाद कोलकाता से अगरतला की दूरी 350 कि.मी.
से बढाकर 1700 कि.मी. हो गयी थी। ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए था
कि कें द्र की सरकार त्रिपुरा के आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान देती, पर हुआ
ठीक इसके उलटा। आज भी त्रिपुरा की स्थिति यह है कि वहाँ कोई भी बड़ा
उद्योग नही ं है। सिर्फ ईंट भट्ठे हैं, चाय के बागान हैं , कु छ रबर प्लान्टेशन है
और थोडा बांस पैदा किया जाता है। सिर्फ 27 प्रतिशत ही ज़मीन खेती लायक
है, जिसमें से 91 प्रतिशत पर धान की खेती होती है और वह भी पिछड़ी
किस्म की, शेष पर गन्ना, जूट, और दालो ं की फसल होती है। त्रिपुरा सरकार
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 9
के आंकड़ो ं के हिसाब से, उपभोग वितरण के पैमाने से राज्य की 55 प्रतिशत
ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करती है। विडम्बना यह है
कि 94 प्रतिशत साक्षर आबादी के साथ त्रिपुरा साक्षरता के मामले में पूरे देश
में पहला स्थान रखता है। ऐसे में बेरोज़गारी की समस्या की गं भीरता को सहज
ही समझा जा सकता है। स्थानीय जनजाति आबादी शिक्षा के मामले में पीछे
नही ं है, लेकिन नौकरियो ं में वह बं गाली आबादी से काफी पीछे है। जिस राज्य
में कु ल मिलाकर, वाम मोर्चा ने 30 वर्षों तक शासन किया हो, वहाँ की यह
स्थिति ढेर सारे सवाल तो खड़े ही करती है।
त्रिपुरा 1972 तक कें द्र-शासित क्षेत्र था। जनवरी,1972 में उसे मणिपुर
और मेघालय के साथ पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिला। राज्य बनाने के पहले से ही
स्थानीय जनजाति आबादी का अलगाव और असुरक्षा-बोध गं भीर असं तोष के
रूप में सुलगने लगा था। त्रिपुरा का एकमात्र भूमि सुधार क़ानून ' त्रिपुरा लैंड
रेवेन्यू एं ड लैंड रिफॉर्म्स एक्ट 1960' है, जिसके अनुसार आदिवासी आबादी
की ज़मीन गैर-आदिवासी नही ं खरीद सकता, लेकिन बड़े पैमाने पर इसका
उल्लं घन होता रहा और बेनामी हस्तांतरण होते रहे। एकबार 1978 में वाम
मोर्चा सरकार ने कोशिश की थी कि आदिवासियो ं की ज़मीन उन्हें वापस मिले,
लेकिन चुनावी राजनीति के चक्कर में बं गाली आबादी के दबाव में वह अपनी
मुहिम को दूर तक न ले जा सकी। जनजातियो ं के भीतर राष्ट्र्रीय उत्पीडन का
अहसास करने वाली एक और घटना 1965 में बांगला भाषा को सरकारी
कामकाज की भाषा बनाना थी। राज्य की आबादी की 30 प्रतिशत आदिवासी
आबादी 19 जनजातियो ं में बं टी हुई है, जिनमें से अधिकाँश कोकबरोक भाषा
बोलते हैं। पहलीबार 1979 में वाम मोर्चा की सरकार ने कोकबरोक भाषा को
औपचारिक मान्यता दी, पर इससे व्यावहारिक स्तर पर कोई विशेष फर्क नही ं
पडा। 1970 के दशक में आदिवासी और बं गाली आबादी के बीच टकरावो ं
की शुरुआत हो चुकी थी। 1980 में 'त्रिपुरा नेशनल वालं टियर्स' और 'आमरा
बं गाली' नामक सं गठनो ं के बीच के टकराव ने जातीय दंगे का रूप ले लिया,
जिसमें 1800 लोग मारे गए। इस असं तोष को नियं त्रित करने के लिए ही
1982 में 'त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद'् की स्थापना हुई,
जिसे 1985 में कु छ और अधिकार मिले। राज्य का 68 प्रतिशत क्षेत्र इन
परिषदो ं के तहत आता है और इन्हें सीमित प्रशासकीय, विधायी और न्यायिक
अधिकार मिले हुए हैं। इन्हें और अधिक स्वायत्तता और अधिकार देने की
10 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
मांग लगातार उठती रही है। त्रिपुरा में '77 तक कांग्रेस का शासन था, फिर
'78 से '88 तक और 1993 से 2018 तक वाम मोर्चे का शासन रहा। विधान
सभा की 60 में से एक तिहाई यानी 20 और लोकसभा की 2 में से एक
सीट आदिवासी आबादी के लिए आरक्षित है, लेकिन आदिवासी आबादी
की हमेशा यह शिकायत रही है कि सभी गैर-आदिवासी पार्टियां कु छ ऐसे
दब्बू और पिछलग्गू आदिवासी उम्मीदवार चुनती हैं, जिनकी कोई अपनी
आवाज़ ही नही ं होती है। 1990 के दशक में एन.एल.एफ़टी. और ए.टी.
टी.एफ़. जैसे सं गठनो ं ने सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत की। इन विद्रोही गुटो ं की
सरगर्मियां जब शीर्ष पर थी,ं तभी, यानी 16 फरवरी'97 को राज्य में आफ्सपा
लगा। जून'2013 में इसे 30 पुलिस थानो ं तक सीमित कर दिया गया और
मई,2015 में पूरीतरह हटा लिया गया।
त्रिपुरा की आदिवासी आबादी का असं तोष लम्बे समय से एक उच्च बिदं ु
पर पहुंचकर ठहरा हुआ है और पिछले दशक के सरकारी दमन के आगे
निरुपायता के अहसास ने एक ऐसी प्रतिक्रिया की मानसिकता पैदा की है,
जिसका फायदा आज फासिस्ट उठा रहे हैं। आदिवासी आबादी का आन्दोलन
आज अलगाववादी नही ं है। उसका एक उग्र हिस्सा है जो त्विप्रालैंड नामसे
अलग राज्य की मांग कर रहा है, इसकी नुमाइं दगी 'इं डीजेनस पीपुल्स फ्रंट
ऑफ़ त्रिपुरा' करता है, जिसने भाजपा से मोर्चा बनाकर इस चुनाव में 8 सीटें
हासिल की है। दूसरा एक नरम हिस्सा है जो आदिवासी स्वायत्त जिला परिषदो ं
की स्वायत्तता बढ़ने की और उन्हें 100 प्रतिशत डायरेक्ट फं डिगं की मांग
कर रहा है। इस धारा की नुमाइं दगी 'आई.एन.पी.टी.' नमक सं गठन मुख्यतः
करता है। अब वाम मोर्चे की विफलता को आसानी से समझा जा सकता है।
वाम मोर्चे ने सबसे लम्बे समय तक त्रिपुरा में शासन किया, लेकिन एक बुर्जुआ
सुधारवादी पार्टी बुर्जुआ जनवादी दायरे में रहते हुए आर्थिक विकास और
रोजगार-सृजन के लिए जितना कु छ कर सकती थी, उसने उतना भी नही ं
किया। भूमि सुधार को प्रभावी बनाकर आदिवासियो ं की ज़मीन की सुरक्षा के
लिए कोई भी प्रभावी कदम नही ं उठाये गए। स्वायत्त परिषदो ं के अधिकार और
स्वायत्तता बढ़ने की मांग को भी सिरे से खारिज किया जाता रहा। कोकबरोक
भाषा देखते-देखते मृतप्राय हो गयी। वाम मोर्चे ने भी अलगाववादी गुटो ं से
निपटने की लिए 'आफ्सपा' का ही सहारा लिया और उसे लम्बे समय तक
बनाये रखा। आदिवासियो ं के बीच उसकी छवि एक बं गाली पार्टी की बन
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 11
गयी।इस स्थिति का भाजपा ने भरपूर फायदा उठाया। उसने बं गाली और
आदिवासी आबादी में अलग-अलग ढंग से प्रचार किया। शहरी बं गाली मध्य
वर्ग को उसने साम्प्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद और विकास के लोकरंजक नारे पर
अपने साथ खडा किया, जबकि आदिवासी आबादी की हताशा का पूरा लाभ
उठाते हुए उसने उनके बीच पहचान की राजनीति को हवा दिया और भरपूर
तुष्टीकरण किया।
कु ल मिलाकर कहें कि सं सदीय वामपं थियो ं की लम्बी अकर्मण्यता,
यथास्थितिवाद और गलीज़ सामाजिक जनवादी राजनीति के कु कर्मों का ही
यह फल है कि आज त्रिपुरा में फासिस्टों को ऐसी सफलता मिली है। आप
नीतियो ं की बात छोड़कर माणिक सरकार की सादगी पर लहालोट होते रहिये
और वाम मोर्चे की असफलता पर छाती कू टते रहिये। जहांतक कांग्रेस की बात
है, तो उसे इस दर्गति
ु को प्राप्त होना ही था। त्रिपुरा में लम्बे समय से कांग्रेस
और भाजपा का अघोषित गं ठजोड़ था। अब भाजपा को प्रभावी विकल्प
बनाते देख यदि अधिकाँश कांग्रेसी उसीकी नैया में सवार हो गए, तो इसमें
आश्चर्य की कोई बात नही ं है।
बं गाल और पूरे देश की ही तरह त्रिपुरा में भी सं सदीय वाम राजनीति की ही
परिणतियाँ उजागर होकर सामने आयी हैं। यह बात एक बार फिर साफ़ हुई है
कि क्रांतिकारी वाम राजनीति के पुनरुत्थान के बिना और सभी मेहनतक़श वर्गों
का एक जुझारू सामाजिक आन्दोलन खडा किये बिना, और सडको ं पर मोर्चा
लेने की एक लम्बी तैयारी किये बिना फासिस्टों को पीछे कत्तई नही ं धके ला
जा सकता।

12 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद


संशोधनवाद और मार्क्सवाद : बनि
ु यादी फर्क
साथियो! असली और नकली कम्युनिज्म में फर्क
करना सीखो!

इतिहास में किसी भी नूतन सामाजिक व्यवस्था के जन्म में बल की भूमिका


बच्चा पैदा कराने वाली धाय माँ की होती है। प्रकृ ति हो या समाज, मौजूदा
स्थिति को बदलने के लिए बल लगाना अनिवार्य होता है। आदिम कम्यूनो ं के
ज़माने से लेकर आज तक का पूरा इतिहास वर्ग-सं घर्षों और क्रान्तियो ं का
इतिहास रहा है। वर्ग-सं घर्ष ही अब तक के इतिहास-विकास की मूल चालक
शक्ति रही है। वर्ग-सहयोग दो परस्पर विरोधी वर्गों के बीच के टकराव में,
किसी पराजित वर्ग की सर्वथा तात्कालिक बेबसी हो सकती है या पराजय के
दिनो ं का एक आभासी सत्य हो सकता है, लेकिन वह वर्गों की सामान्य प्रकृ ति
या किसी भी वर्ग-समाज का आम नियम नही ं हो सकता। किसी भी वर्ग-
समाज के बुनियादी आर्थिक नियम इसकी इजाज़त ही नही ं देत।े
अर्थव्यवस्था पर प्रभुत्व रखने वाले वर्ग का के न्द्रीय व सर्वोच्च राजनीतिक
सं गठन राज्यसत्ता होता है जिसका उद्देश्य विद्यमान सामाजिक आर्थिक
ढाँचे को बनाये रखना और दूसरे वर्गों के प्रतिरोध को कु चल देना होता है।
उत्पादन के साधनो ं पर निजी स्वामित्व पर आधारित समाज में राज्यसत्ता
सदैव सत्ताधारी शोषक वर्ग की तानाशाही का औज़ार होती है तथा शोषित
जनसाधारण के दमन के लिए एक विशेष शक्ति होती है, चाहे सरकार का
रूप कु छ भी हो।
जनवाद (या जनतन्त्र या डेमोक्रे सी) कोई वर्गमुक्त या समतामूलक
व्यवस्था नही ं होती, जैसाकि बुर्जुआ किताबो ं में बुर्जुआ जनवाद के बारे में
प्राय: लिखा जाता है। बुर्जुआ जनवाद अपने सार रूप में आम जनता पर
बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व होता है। यह मेहनतकशो ं और बुद्धिजीवियो ं को
इतनी ही आज़ादी देता है कि वे बाज़ार में अपनी शारीरिक श्रमशक्ति और
मानसिक श्रमशक्ति बेचकर जीवित रह सकें । इसके अतिरिक्त पँ जीवादी

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 13


समाज में जनता को जो भी आज़ादी और अधिकार हासिल हैं, उन्हें जनता
ने अपने लम्बे सं घर्षों और कु र्बानियो ं के द्वारा हासिल किया है। शेष जो भी है,
वह आज़ादी के नाम पर भ्रामक छल है। बुद्धिजीवियो ं के उस ऊपरी तबके को
ज्यादा सुख-सुविधा और आज़ादी हासिल होती है जो राजकाज और उत्पादन
के ढाँचे के प्रबन्धन की ज़िम्मेदारी उठाकर पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है।
ये ऊपरी तबके के पढ़े-लिखे लोग वास्तव में हुकू मती जमात के ही अंग बन
जाते हैं। भारत हो या अमेरिका, किसी भी पूँजीवादी जनवाद में, सेना-पुलिस
और ज़ोर-ज़बरदस्ती के अन्य साधन राज्यसत्ता के के न्द्रीय उपादान होते हैं।
बुर्जुआ चिन्तक-विचारक व्यवस्था को चलाने के नियम-कानून बनाते हैं और
नौकरशाही उन्हें अमल में लाती है। सरकारो ं की भूमिका महज़ पूँजीपतियो ं
की मैनेजिगं कमेटी की होती है। सं सद मात्र बहसबाज़ी का अड्डा होती है, मात्र
दिखाने के दाँत होती है। वास्तविक फै सले तो पूँजीपतियो ं के सभाकक्षों में लिये
जाते हैं। सरकारें और नौकरशाही उन्हें अमली जामा पहनाती हैं। पूँजी और
राजकीय बल के बूते सम्पन्न होने वाले पूँजीवादी सं सदीय चुनाव मात्र यह तय
करते हैं कि बुर्जुआ वर्ग की कौन-सी पार्टी अब बुर्जुआ वर्ग की मैनेजिगं कमेटी
के रूप में काम करेगी।
राज्य के सन्दर्भ में मज़दूर वर्ग का मुख्य कार्यभार बुर्जुआ राजकीय
कार्ययन्त्र – यानी राज्यसत्ता को चकनाचूर करके समाजवादी जनवाद के रूप
में एक नया राजकीय कार्ययन्त्र स्थापित करना होता है जो उत्पादन के साधनो ं
पर सार्वजनिक स्वामित्व कायम करता है और वर्ग-शोषण के ख़ात्मे की दिशा
में आगे कदम बढ़ाता है। समाजवादी जनवाद भी वर्गमुक्त नही ं होता। वह
सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व होता है। वह भी बल-प्रयोग का ही उपकरण
होता है, पर वह शोषक वर्गों की पूर्ववर्ती राज्यसत्ताओ ं से इन अर्थों में भिन्न
होता है कि वह सभी मेहनतकशो ं और विशाल आम जनता के हित में काम
करता है और अल्पसं ख्यक शोषक वर्गों के विरुद्ध बल का प्रयोग करता है।
समाजवादी सं क्रमण की लम्बी अवधि में आगे जब वर्गों और वर्ग-शोषण के
सभी रूपो ं का विलोप होगा तो सर्वहारा राज्यसत्ता का भी विलोपन होता चला
जायेगा।
मोटे तौर पर और सं क्षेप में, राज्य और क्रान्ति के बारे में मार्क्सवाद-
लेनिनवाद के यही बुनियादी सिध्दान्त हैं, जिनमें नकली कम्युनिस्ट तरह-तरह
से तोड़-मरोड़ किया करते हैं और इसलिए उन्हें सं शोधनवादी कहा जाता
14 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
है। लेनिन के अनुसार, सं शोधनवाद का मतलब होता है मार्क्सवादी ख़ोल में
पूँजीवादी अन्तर्वस्तु। सं शोधनवादी, किसी न किसी रूप में, कभी खुले तौर
पर तो कभी भ्रामक शब्दजाल रचते हुए, वर्ग-सं घर्ष के बुनियादी ऐतिहासिक
नियम को ख़ारिज करते हुए वर्ग-सहयोग की वकालत करते हैं, बल-प्रयोग
और राज्यसत्ता के ध्वं स की ऐतिहासिक शिक्षा को नकार देते हैं और क्रान्ति
के बजाय शान्तिपूर्ण सं क्रमण की वकालत करते हैं, या फिर क्रान्ति शब्द को
शान्तिपूर्ण सं क्रमण का पर्याय बना देते हैं। सं शोधनवादी इस सच्चाई को नकार
देते हैं कि इतिहास में कभी भी शोषक-शासक वर्गों ने अपनी मर्ज़ी से सत्ता
त्यागकर ख़ुद अपनी कब्र नही ं खोदी है और कभी भी उनका हृदय-परिवर्तन
नही ं हुआ है।
आमतौर पर सं शोधनवादियो ं का तर्क यह होता है कि बुर्जुआ जनवाद और
सार्विक मताधिकार ने वर्ग-सं घर्ष और बलात् सत्ता-परिवर्तन के मार्क्सवादी
सिध्दान्त को पुराना और अप्रासं गिक बना दिया है, पूँजीवादी विकास की
नयी प्रवृत्तियो ं ने पूँजीवादी समाज के अन्तरविरोधो ं की तीव्रता कम कर दी है
और अब पूँजीवादी जनवाद के मं चो-ं माध्यमो ं का इस्तेमाल करते हुए, यानी
सं सदीय चुनावो ं में बहुमत हासिल करके भी समाजवाद लाया जा सकता है।
ऐसे दक्षिणपन्थी अवसरवादी मार्क्स और एं गेल्स के जीवनकाल में भी मौजूद
थे, लेकिन इस प्रवृत्ति को आगे चलकर अधिक व्यवस्थित ढंग से बर्नस्टीन ने
और फिर काउत्स्की ने प्रस्तुत किया। लेनिन के समय में इन्हें सं शोधनवादी
कहा गया। लेनिन ने रूस के और समूचे यूरोप के सं शोधनवादियो ं के ख़िलाफ
अनथक समझौताविहीन सं घर्ष चलाया और सर्वहारा क्रान्ति के प्रति उनकी
ग़द्दारी को बेनकाब किया।
सभी प्रकार के सं शोधनवादी क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन के विभीषण,
जयचन्द और मीरजाफर होते हैं। वे मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ वर्ग के एजेण्ट
का काम करते हैं। वे पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा-पं क्ति का काम करते
हैं। ये मज़दूर वर्ग के सामने खड़े खुले दश्म ु न से भी अधिक ख़तरनाक होते
हैं। सं शोधनवादी पूँजीवादी सं सदीय राजनीति को ही व्यवस्था-परिवर्तन का
माध्यम तो मानते ही हैं, साथ ही मज़दूर वर्ग को राज्यसत्ता के ध्वं स के लक्ष्य
से दूर रखने के मकसद से, वे उनके बीच न तो क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार
करते हैं, न ही उनके राजनीतिक सं घर्षों को आगे विकसित करते हैं। राजनीति
के नाम पर बस वे चुनावी राजनीति करते हैं और मेहनतकश जनता का
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 15
इस्तेमाल मात्र वोट बैंक के रूप में करते हैं। ये पार्टियाँ और इनकी ट्रेडयूनियनें
प्राय: मज़दूरो ं को वेतन-भत्तो आदि की माँगो ं को लेकर चलने वाले आर्थिक
सं घर्षों में ही उलझाये रहती हैं और उनकी चेतना को पूँजीवादी व्यवस्था की
चौहद्दी में बाँधे रखती हैं। प्राय: सीधे-सीधे या घुमा-फिराकर ये यह तर्क देती
हैं कि आर्थिक सं घर्ष ही आगे बढ़कर राजनीतिक सं घर्ष में बदल जाता है।
इसके विपरीत सच्चा लेनिनवाद बताता है कि आर्थिक सं घर्ष इस व्यवस्था के
भीतर मज़दूर वर्ग को सं गठनबद्ध होकर अपनी माँगो ं के लिए लड़ना सिखाता
है, लेकिन वह स्वयं विकसित होकर राजनीतिक सं घर्ष नही ं बन जाता। मज़दूर
वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार और राजनीतिक सं घर्ष में उसे उतारने का
काम आर्थिक सं घर्षों के साथ-साथ शुरू से ही करना होता है। इस तरह अपने
राजनीतिक अधिकारो ं के लिए लड़ते हुए मज़दूर वर्ग बुर्जुआ राज्यसत्ता को
चकनाचूर करने के अपने ऐतिहासिक मिशन को समझता है और उस दिशा में
आगे बढ़ता है। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी सर्वहारा वर्ग के हरावल के
रूप में इस काम में नेतत्वृ कारी भूमिका निभाती है। सं शोधनवादी पार्टियाँ जन
सं घर्षों को मात्र आर्थिक सं घर्षों तक सीमित कर देती हैं और राजनीति के नाम
पर के वल वोट बैंक की राजनीति करती हैं।
क्रान्ति के लिए इस्पाती साँचे में ढली पार्टी की ज़रूरत और उसकी
कार्यप्रणाली आदि के बारे में लेनिन ने मार्क्सवादी सिध्दान्त को सुसंगत और
सांगोपांग रूप में विकसित किया। इन्हें सं गठन के लेनिनवादी उसूलो ं के रूप में
या बोल्शेविक सांगठनिक उसूलो ं के रूप में जाना जाता है। लेनिन का विचार
था कि शोषक वर्गों की सुसंगठित राज्यसत्ता से टकराने के लिए सर्वहारा वर्ग
की उतनी ही सुसंगठित इन्कलाबी शक्ति की ज़रूरत होती है। इसीलिए एक
क्रान्तिकारी पार्टी शुरू से ही इस बात की पूरी तैयारी रखती है कि वक्त पड़ने
पर वह दश्म ु न के हर हमले का सामना करके ख़ुद को बिखरने से बचा सके ,
अन्यथा जनता नेतत्व ृ विहीन हो जायेगी। ज़ाहिर है कि जिस पार्टी का लक्ष्य
इस व्यवस्था को नष्ट करने के लिए राज्यसत्ता से टकराना है, वह एकदम
खुले दरवाज़े से भर्ती करने वाली, चवन्निया मेम्बरी बाँटने वाली एक “जन
पार्टी” नही ं हो सकती। उसे बहुत छाँट-बीनकर क्रान्तिकारी भर्ती करनी होगी।
ऐसी पार्टी के वल तपे-तपाये, अनुशासित, कर्मठ कार्यकर्ताओ ं की ही पार्टी
हो सकती है, जिसके मेरुदण्ड के रूप में पेशेवर क्रान्तिकारियो ं (पूरावक्ती
सं गठनकर्ताओ-ं कार्यकर्ताओ)ं की टीम हो। लेनिन के नेतत्व ृ में बोल्शेविको ं
16 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
का मत था कि पार्टी सदस्यता के वल ऐक्टिविस्टों के स्तर तक, यानी पार्टी की
विचारधारा और लाइन को मानकर उसके किसी न किसी सं गठन में काम करने
वालो ं को ही दी जानी चाहिए, जबकि मार्तोव के नेतत्व ृ में मेंशेविको ं का कहना
था कि जो भी पार्टी की लाइन को स्वीकार करके सदस्यता शुल्क भर दे , उसे
सदस्यता दी जा सकती है। लेनिन का कहना था कि ऐसी ढीली-ढाली पार्टी एक
ृ नही ं दे सकती।
सं गठित दस्ते के रूप में सर्वहारा क्रान्ति को नेतत्व
लेनिन का कहना था कि एक सच्ची क्रान्तिकारी पार्टी पूँजीवादी जनवाद
की स्थितियो ं का लाभ तो उठायेगी, लेकिन अधिकतम पूँजीवादी जनवाद की
स्थिति में भी वह पूरी तरह से खुले ढाँचे वाली पार्टी नही ं हो सकती। इसका
मतलब होगा, अपने को बुर्जुआ वर्ग और उसकी राज्यसत्ता की मर्ज़ी पर छोड़
देना। अस्तित्व का सं कट पैदा होते ही कोई भी बुर्जुआ राज्यसत्ता बुर्जुआ
जनवाद को पूर्णत: निरस्त करके बर्बर दमनकारी बन जाती है और क्रान्ति को
कु चल डालने के लिए निर्णायक चोट सर्वहारा के हरावल दस्ते पर ही करती है।
एक सच्ची क्रान्तिकारी पार्टी तमाम खुले और कानूनी सं घर्षों में भागीदारी करते
हुए हर कठिनाई के लिए तैयार रहती है और अपना गुप्त ढाँचा अनिवार्यत:
बरकरार रखती है। परिस्थिति अनुसार वह सं घर्ष के उन रूपो ं को भी अवश्य
अपनाती है जो बुर्जुआ सं विधान और कानून को स्वीकार नही ं होते। आर-पार
की फै सलाकु न लड़ाई का लक्ष्य हर हमेशा उसके सामने होता है और शासक
वर्ग के साथ उसकी हर झड़प और हर लड़ाई उसी की तैयारी की कड़ी होती
है। बुर्जुआ सं सद और सं सदीय चुनावो ं के बारे में भी मार्क्सवाद का नज़रिया
बिल्कु ल साफ है। पर्याप्त आधार एवं ताकत वाली कोई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट
पार्टी अपने लक्ष्य एवं कार्यक्रम के प्रचार के लिए तथा बुर्जुआ व्यवस्था के
भण्डाफोड़ के लिए सं सदीय चुनावो ं और बुर्जुआ सं सद के मं च का इस्तेमाल
परिस्थिति अनुसार और आवश्यकतानुसार कर सकती है। ऐसे इस्तेमाल
को “टैक्टिकल” या कार्यनीतिक या रणकौशलात्मक इस्तेमाल कहा जाता
है। लेकिन सं सदीय मार्ग से, पूँजीवाद से समाजवाद में शान्तिपूर्ण सं क्रमण
असम्भव है। सं सदीय चुनाव किसी भी सूरत में सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति
(स्ट्रैटजी) नही ं हो सकता, के वल रणकौशल (टैक्टिक्स) के रूप में ही इसका
इस्तेमाल हो सकता है।
लेनिनवादी समझ के ठीक विपरीत, दनु िया की सभी सं शोधनवादी पार्टियाँ
चवन्निया मेम्बरी बाँटा करती हैं, उनका पूरा ढाँचा पूरी तरह खुला हुआ और
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 17
ढीला-पोला होता है। ज़ाहिर है कि जिन्हें क्रान्ति करनी ही न हो, वे पार्टियाँ ऐसा
ही करेंगी। मज़दूरो ं को धोखा देने के लिए वे क्रान्ति, समाजवाद, कम्युनिज्म
आदि शब्दों की जुगाली करती रहती हैं, लेकिन काम के नाम पर मज़दूरो ं को
के वल आर्थिक सं घर्षों में उलझाये रखती हैं, चुनाव लड़कर सं सदीय सुअरबाड़े
में जाकर लोट लगाने के लिए जुगत भिड़ाती रहती हैं, पूँजीवादी नीतियो ं के
रस्मी विरोध की कवायद करती हुई जनता को ठगती रहती हैं।
भारत में भी रंगे सियारो ं की ऐसी दर्जनो ं जमातें हैं, लेकिन इनमें भी भारत
की कम्युनिस्ट पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और भारत की
कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी, लिबरेशन) सर्वप्रमुख हैं। ये पार्टियाँ
नाम तो मार्क्स-एं गेल्स-लेनिन का लेती हैं, लेकिन इनके आराध्य हैं काउत्स्की,
मार्तोव, अल ब्राउडर, टीटो, ख्रुश्चेव और देंग सियाओ-पिगं जैसे सं शोधनवादी
सरगना। भाकपा और माकपा के नकली कम्युनिज्म का गन्दा चेहरा तो काफी
पहले ही नं गा हो चुका है, अब भाकपा (मा-ले) की कलई भी खुलती जा रही
है। सं शोधनवादी और अतिवामपन्थी दस्सा ु हसवादी भटकावो ं से लड़े बिना
भारत का मज़दूर वर्ग अपनी क्रान्तिकारी पार्टी नये सिरे से खड़ी करने के काम
को कत्तई अंजाम नही ं दे सकता। क्रान्तिकारी विचारधारा का मार्गदर्शन क्रान्ति
की सर्वोपरि शर्त है। इसलिए ज़रूरी है कि भारत का मज़दूर वर्ग असली और
नकली कम्युनिज्म के बीच फर्क करना सीखे। सं शोधनवाद को सही ढंग से
समझने के लिए, यूँ तो बहुत सारा मार्क्सवादी साहित्य मौजूद है, लेकिन मज़दूर
साथी ख़ासकर ‘राज्य और क्रान्ति’, ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की’,
‘महान बहस’ (सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के ख्रुश्चेवी सं शोधनवाद के विरुद्ध
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की बहस के दस्तावेज़) और राज्य एवं क्रान्ति के प्रश्न
पर चीनी सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के कु छ चुनिन्दा दस्तावेज़ो ं का अध्ययन
कर सकते हैं। बल्कि उन्हें ऐसा अवश्य ही करना चाहिए।
• सं शोधनवाद बुर्जुआ सुधारवाद का ही नया रूप है और क्रान्तिकारी
मज़दूर आन्दोलन में घुसपैठिये की भूमिका निभाने वाली दक्षिणपन्थी
अवसरवादी विचारधारा है।
• सं शोधनवाद द्वन्द्वात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद में तोड़-मरोड़
करता है तथा उसे नवकाण्टवाद से मिला देता है।
• सं शोधनवाद का मतलब है मार्क्सवाद के ख़ोल में पूँजीवादी राजनीति।
18 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
• वर्ग-सं घर्ष और क्रान्ति की जुगाली करते हुए भी सं शोधनवाद अलग-
अलग ढंग से (कभी खुले रूप में तो कभी घुमा-फिराकर, कपटपूर्वक)
वर्ग-सहयोग और शान्तिपूर्ण सं क्रमण के सिद्धान्त पर आचरण करता
है।
• सं शोधनवाद मज़दूर वर्ग की चेतना को मात्र आर्थिक सं घर्षों व
ट्रेडयूनियन के दायरे के भीतर क़ै द रखता है तथा उसे पूँजीवाद के नाश
के ऐतिहासिक मिशन की दिशा में ले जाने के बजाय उससे दूर हटाता
है।
• सं शोधनवाद पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पं क्ति के रूप में काम
करता है। यह जनाक्रोश के दबाव को रस्मी आन्दोलनो ं के ज़रिये कम
करने वाले व्यवस्था के सेफ्टीवॉल्व के रूप में काम करता है।
• सं शोधनवादी पार्टियो ं का मूल लक्ष्य चूँकि क्रान्ति नही ं होता, चूँकि
‘क्रान्ति-क्रान्ति’ का तोतारटन्त करते हुए इन्हें मात्र सं सदीय सुअरबाड़े
में लोट लगाना होता है और ट्रेडयूनियनो ं में मज़दूरो ं पर ही हुकू मत
गाँठना होता है, चूँकि पूँजीवादी सं विधान और क़ानून के प्रति इनकी
निष्ठा अटू ट होती है, इसलिए इनका चरित्र क्रान्तिकारी नही ं होता, ये
चवन्निया मेम्बरी वाले ढीले-पोले मण्डली जैसे होते हैं, इनका कोई गुप्त
ढाँचा नही ं होता, ये पूरी तरह से बुर्जुआ हुकू मत के रहमो-करम पर
जीने वाले टुकड़खोर होते हैं।

बिगुल में प्रकाशित

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 19


भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद
– इतिहास के कुछ ज़रूरी और दिलचस्प तथ्य

ऐसा नही ं है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का चरित्र शुरू से ही सं शोधनवादी


रहा हो। पार्टी की गम्भीर विचारधारात्मक कमज़ोरियो,ं और उनके चलते
बारम्बार होने वाली राजनीतिक गलतियो,ं और उनके चलते राष्ट्रीय आन्दोलन
पर अपना राजनीतिक वर्चस्व न कायम कर पाने के बावजूद, कम्युनिस्ट कतारो ं
ने साम्राज्यवाद-सामन्तवाद विरोधी सं घर्ष के दौरान बेमिसाल और अकू त
कु र्बानियाँ दी।ं कम्युनिस्ट पार्टी पर मज़दूरो ं और किसानो ं का पूरा भरोसा था।
1951 में तेलंगाना किसान सं घर्ष की पराजय के बाद का समय वह
ऐतिहासिक मुकाम था, जब, कहा जा सकता है कि भारत की कम्युनिस्ट
पार्टी का वर्ग-चरित्र गुणात्मक रूप से बदल गया और सर्वहारा वर्ग की पार्टी
होने के बजाय वह बुर्जुआ व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पं क्ति बन गयी। वह
कम्युनिस्ट नामधारी बुर्जुआ सुधारवादी पार्टी बन गयी। लेकिन ऐसा रातोरात
और अनायास नही ं हुआ। पार्टी अपने जन्मकाल से ही विचारधारात्मक रूप
से कमज़ोर थी और कभी दक्षिणपन्थी तो कभी “वामपन्थी” (ज्यादातर
दक्षिणपन्थी) भटकावो ं का शिकार होती रही।
1920 में ताशकन्द में एम.एन. राय व विदेश स्थित कु छ अन्य भारतीय
कम्युनिस्टों की पहल पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। लेकिन
देश के अलग-अलग हिस्सों में काम करने वाले कम्युनिस्ट ग्रुप मूलत: अलग-
अलग और स्वायत्त ढंग से काम करते रहे। पुन: 1925 में सत्यभक्त की
पहल पर कानपुर में अखिल भारतीय कम्युनिस्ट कांफ्रेंस में पार्टी की घोषणा
हुई, लेकिन उसके बाद भी एक एकीकृ त के न्द्रीय नेतत्व ृ के मातहत पार्टी का

सुगठित क्रान्तिकारी ढाँचा नही बन सका। कानपुर कांफ्रेंस तो लेनिनवादी
अर्थों में एक पार्टी कांग्रेस थी भी नही।ं बीसवी ं शताब्दी के तीसरे दशक में,
मज़दूरो ं और किसानो ं के प्रचण्ड आन्दोलनो,ं उनके बीच कम्युनिस्ट पार्टी की
व्यापक स्वीकार्यता एवं आधार, भगतसिहं जैसे मेधावी युवा क्रान्तिकारियो ं के
कम्युनिज्म की तरफ झक ु ाव और कांग्रेस की स्थिति (असहयोग आन्दोलन
20 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
की वापसी के बाद का और स्वराज पार्टी का दौर) ख़राब होने के बावजूद
कम्युनिस्ट पार्टी इस स्थिति का लाभ नही ं उठा सकी। यह अलग से विस्तृत
चर्चा का विषय है। मूल बात यह है कि विचारधारात्मक रूप से कमज़ोर एक
ढीली-ढाली पार्टी से यह अपेक्षा की ही नही ं जा सकती थी। 1933 में पहली
बार, कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल, ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी कम्युनिस्ट
पार्टी के आग्रहपूर्ण सुझावो-ं अपीलो ं के बाद, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का
एक स्वीकृत सुगठित ढाँचा बनाने की कोशिशो ं की शुरुआत हुई और एक
के न्द्रीय कमेटी का गठन हुआ। लेकिन वास्तव में उसके बाद भी पार्टी का
ढाँचा ढीला-ढाला ही बना रहा। पी.सी. जोशी के सेक्रेटरी होने के दौरान पार्टी
प्राय: दक्षिणपन्थी भटकाव का शिकार रही तो रणदिवे के नेतत्व ृ की छोटी-
सी अवधि अतिवामपन्थी भटकाव से ग्रस्त रही। पार्टी की विचारधारात्मक
कमज़ोरी का आलम यह था कि 1951 तक पार्टी के पास क्रान्ति का एक
व्यवस्थित कार्यक्रम तक नही ं था। 1951 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा
इस विडम्बना की ओर इं गित करने और आवश्यक सुझाव देने के बाद,
भारतीय पार्टी के प्रतिनिधिमण्डल ने एक नीति-निर्धारक वक्तव्य जारी किया
और फिर उसी आधार पर एक कार्यक्रम तैयार कर लिया गया। यानी तीस
वर्षों तक पार्टी अन्तरराष्ट्रीय नेतत्व
ृ द्वारा प्रस्तुत आम दिशा के आधार पर
राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की एक मोटी समझदारी के आधार पर ही काम करती
रही। रूस और चीन की पार्टियो ं की तरह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने
देश की ठोस परिस्थितियो ं का – उत्पादन-सम्बन्धों और अधिरचना का ठोस
अध्ययन-मूल्यांकन करके क्रान्ति का कार्यक्रम तय करने की कभी कोशिश
नही ं की। इसके पीछे पार्टी की विचारधारात्मक कमज़ोरी ही मूल कारण थी
और कार्यक्रम की सुसंगत समझ के अभाव के चलते पैदा हुए गतिरोध ने, फिर
अपनी पारी में, इस विचारधारात्मक कमज़ोरी को बढ़ाने का ही काम किया।
तेलंगाना किसान सं घर्ष की पराजय के बाद पार्टी नेतत्व ृ ने पूरी तरह से
बुर्जुआ वर्ग की सत्ता के प्रति आत्मसमर्पणवादी रुख अपनाया। 1952 के
पहले आम चुनाव में भागीदारी तक पार्टी पूरी तरह से सं शोधनवादी हो चुकी
थी। सं सदीय चुनावो ं में भागीदारी और अर्थवादी ढंग से मज़दूरो-ं किसानो ं
की माँगो ं को लेकर आन्दोलन – यही दो उसके रुटीनी काम रह गये थे।
पार्टी के रहे-सहे लेनिनवादी ढाँचे को भी विसर्जित कर दिया गया और इसे
पूरी तरह से खुले ढाँचे वाली और ट्रेडयूनियनो ं जैसी चवन्निया मेम्बरी वाली
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 21
पार्टी बना दिया गया। सोवियत सं घ में ख्रुश्चेवी सं शोधनवाद के हावी होने और
1956 की बीसवी ं कांग्रेस के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सं शोधनवाद
को अन्तरराष्ट्रीय प्रमाण पत्र भी मिल गया। 1958 में अमृतसर की विशेष
कांग्रेस में पार्टी सं विधान की प्रस्तावना से, सर्वसम्मति से, क्रान्तिकारी हिसं ा
की अवधारणा को निकाल बाहर करने के बाद पार्टी का सं शोधनवादी दीक्षा-
सं स्कार पूरा हो गया।
लेकिन अब पार्टी के सं शोधनवादी ही दो धड़ो ं में बँ ट गए। डांगे-अधिकारी-
राजेश्वर राव आदि के नेतत्व ृ वाले धड़े का कहना था कि कांग्रेस के भीतर
और बाहर के रूढ़िवादी बुर्जुआ वर्ग का विरोध करते हुए नेहरू के नेतत्व ृ में
प्रगतिशील राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि जनवादी क्रान्ति के
कार्यभारो ं को पूरा कर रहे हैं अत: कम्युनिस्ट पार्टी को उनका समर्थन करना
चाहिए, और इस काम के पूरा होने के बाद उसका दायित्व होगा सं सद के रास्ते
सत्ता में आकर समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देना। ये लोग राष्ट्रीय जनवादी
क्रान्ति की बात कर रहे थे, जबकि लोक जनवादी क्रान्ति की बात करने वाला
सुन्दरैया-गोपालन-नम्बूदिरिपाद आदि के नेतत्व ृ वाला दूसरा धड़ा कह रहा था
कि सत्तारूढ़ कांग्रेस साम्राज्यवाद से समझौते कर रही है और भूमि सुधार के
वायदे से मुकर रही है, अत: जनवादी क्रान्ति के कार्यभारो ं को पूरा करने के
लिए हमें बुर्जुआ वर्ग के रैडिकल हिस्सों को साथ लेकर सं घर्ष करना होगा।
दोनो ं ही धड़े जनवादी क्रान्ति की बात करते हुए, सत्तासीन बुर्जुआ वर्ग के
चरित्र का अलग-अलग आकलन करते हुए अलग-अलग कार्यकारी नतीजे
निकाल रहे थे लेकिन दोनो ं के वर्ग-चरित्र में कोई फर्क नही ं था। दोनो ं ही धड़े
सं सदीय मार्ग को मुख्य मार्ग के रूप में चुन चुके थे। दोनो ं बोल्शेविक सांगठनिक
उसूलो ं व ढाँचे का परित्याग कर चुके थे और काउत्स्की, मार्तोव और ख्रुश्चेव की
राह अपना चुके थे। फर्क सिर्फ यह था कि एक धड़ा सीधो उछलकर बुर्जुआ
वर्ग की गोद में बैठ जाना चाहता था, जबकि दूसरा विपक्षी सं सदीय पार्टी की
भूमिका निभाना चाहता था ताकि रैडिकल विरोध का तेवर दिखलाकर जनता
को ज्यादा दिनो ं तक ठगा जा सके । एक धड़ा अर्थवाद का पैरोकार था तो
दूसरा उसके बरक्स ज्यादा जुझारू अर्थवाद की बानगी पेश कर रहा था। देश
की परिस्थितियो ं के विश्लेषण और कार्यक्रम से सम्बन्धित मतभेदो-ं विवादो ं
का तो वैसे भी कोई मतलब नही ं था, क्योंकि यदि क्रान्ति करनी ही नही ं थी तो
कार्यक्रम को तो ‘कोल्ड स्टोरेज’ में ही रखे रहना था।
22 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
1964 में दोनो ं धड़े औपचारिक रूप से अलग हो गये। भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी (भाकपा) से अलग होने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)
के नेतत्वृ ने भाकपा को सं शोधनवादी बताया और कतारो ं की नज़रो ं में ख़ुद को
क्रान्तिकारी सिद्ध करने के लिए ख़ूब गरमागरम बातें की।ं लेकिन असलियत
यह थी कि माकपा भी एक सं शोधनवादी पार्टी ही थी और ज्यादा धूर्त और
कु टिल सं शोधनवादी पार्टी थी।
इस नयी सं शोधनवादी पार्टी की असलियत को उजागर करने के लिए के वल
कु छ तथ्य ही काफी होगं े। 1964 में गठित इस नयी पार्टी ने अमृतसर कांग्रेस
द्वारा पार्टी सं विधान में किये गये परिवर्तन को दरुु स्त करने की कोई कोशिश
नही ं की। शान्तिपूर्ण सं क्रमण की जगह क्रान्ति के मार्ग की खुली घोषणा
और सं सदीय चुनावो ं में भागीदारी को मात्र रणकौशल बताने की जगह इसने
“सं सदीय और सं सदेतर मार्ग” जैसी गोल-मोल भाषा का अपने कार्यक्रम में
इस्तेमाल किया जिसकी आवश्यकतानुसार मनमानी व्याख्या की जा सकती
थी। आर्थिक और राजनीतिक सं घर्षों के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में इसकी सोच
मूलत: लेनिनवादी न होकर सं घाधिपत्यवादियो ं एवं अर्थवादियो ं जैसी ही थी।
फर्क यह था कि इसके अर्थवाद का तेवर भाकपा के अर्थवाद के मुकाबले
अधिक जुझारू था। इसके असली चरित्र का सबसे स्पष्ट सं के तक यह था कि
भाकपा की ही तरह यह भी पूरी तरह से खुली पार्टी थी और सदस्यता के मानक
भाकपा से कु छ अधिक सख्त लगने के बावजूद (अब तो वह भी नही ं है) यह
भी चवन्निया मेम्बरी वाली ‘मास पार्टी’ ही थी।
ख्रुश्चेवी सं शोधनवाद के विरुद्ध चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का सं घर्ष 1957
से ही जारी था, जो 1963 में ‘महान बहस’ नाम से प्रसिद्ध खुली बहस के
रूप में फू ट पड़ा और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन औपचारिक रूप से
विभाजित हो गया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतत्व ृ ने पहले
तो इस बहस की कतारो ं को जानकारी ही नही ं दी। इस मायने में भाकपा नेतत्व ृ
की पोज़ीशन साफ थी। वह डंके की चोट पर ख्रुश्चेवी सं शोधनवाद के साथ
खड़ा था। महान बहस की जानकारी और दस्तावेज़ जब कतारो ं तक पहुँचने
लगे तो माकपा-नेतृत्व पोज़ीशन लेने को बाध्य हुआ। पोज़ीशन भी उसने
अजीबोगरीब ली। उसका कहना था कि सोवियत पार्टी का चरित्र सं शोधनवादी
है लेकिन राज्य और समाज का चरित्र समाजवादी है। साथ ही उसका यह भी
कहना था कि ख्रुश्चेवी सं शोधनवाद का विरोध करने वाली चीनी पार्टी “वाम”
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 23
सं कीर्णतावाद व दस्सा
ु हसवाद की शिकार है। अब यदि मान लें कि साठ के
दशक में सोवियत समाज अभी समाजवादी बना हुआ था, तो भी, यदि सत्ता
सं शोधनवादी पार्टी (यानी सारत: पूँजीवादी पार्टी) के हाथ में थी तो राज्य और
समाज का समाजवादी चरित्र कु छे क वर्षों से अधिक बना ही नही ं रह सकता
था। लेकिन माकपा अगले बीस-पच्चीस वर्षों तक (यानी सोवियत सं घ के
विघटन के समय तक) न के वल सोवियत सं घ को समाजवादी देश मानती
रही, बल्कि दूसरी ओर, धीरे-धीरे सोवियत पार्टी को सं शोधनवादी कहना भी
बन्द कर दिया। इसके विपरीत, माओ और चीन की पार्टी के प्रति उसका
रुख प्राय: चुप्पी का रहा। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की उसने या तो दबी
जुबान से आलोचना की, या फिर उसके प्रति चुप्पी का रुख अपनाया। चीन में
माओ की मृत्यु के बाद तो मानो इस पार्टी की बाँछें खिल उठी।ं वहाँ पूँजीवादी
पुनर्स्थापना के बाद देंग सियाओ-पिगं और उसके चेले-चाटियो ं ने समाजवादी
सं क्रमण विषयक माओ की नीतियो ं को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी और “चार
आधुनिकीकरणो”ं तथा उत्पादक शक्तियो ं के विकास के सिध्दान्त के नाम पर
वर्ग सहयोग की नीतियो ं पर अमल की शुरुआत की। दनु िया के सर्वहारा वर्ग
को ठगने के लिए उन्होंने पँ जीवादी पुनर्स्थापना की अपनी नीतियो ं को “बाज़ार
समाजवाद” का नाम दिया। लेकिन इस नकली समाजवाद का चरित्र आज
पूरी तरह बेनकाब हो चुका है। चीन में समाजवाद की सारी उपलब्धियाँ समाप्त
हो चुकी है। कम्यूनो ं का विघटन हो चुका है। खेती और उद्योग में समाजवाद
के राजकीय पूँजीवाद में रूपान्तरण के बाद अब निजीकरण और उदारीकरण
की मुहिम बेलगाम जारी है। अब यह के वल समय की बात है कि समाजवाद
का चोगं ा और नकली लाल झण्डा वहाँ कब धूल में फें क दिया जायेगा।
माकपा और भाकपा अपने असली चरित्र को ढँ कने के लिए आज चीन के
इसी “बाज़ार समाजवाद” के गुण गाती हैं। उदारीकरण और निजीकरण की
नीतियो ं के विरोध का जुबानी जमाख़र्च करते हुए ये पार्टियाँ वास्तव में इन्हीं की
पैरोकार बनी हुई हैं। बं गाल, के रल और त्रिपुरा में सत्तासीन रहते हुए वे इन्हीं
नीतियो ं को लागू करती हैं, लेकिन के न्द्र में वे इन नीतियो ं के विरोध की नौटंकी
करती हैं और भूमण्डलीकरण की बर्बरता को ढँ कने के लिए उसे मानवीय
चेहरा देने की, उसकी अन्धाधुन्ध रफ़्रतार को कम करने की और नेहरूकालीन
पब्लिक सेक्टर के ढाँचे को बनाये रखने की वकालत करती हैं। बस यही
इनका “समाजवाद” है! ये पार्टियाँ कम्युनिज्म के नाम पर मज़दूर वर्ग की
24 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
ऑंखो ं में धूल झोक ं कर उन्हें वर्ग-सं घर्ष के रास्ते से विमुख करती हैं, उन्हें
मात्र कु छ रियायतो ं की माँग करने और आर्थिक सं घर्षों तक सीमित रखती हैं,
सं सदीय राजनीति के प्रति उनके विभ्रमो ं को बनाये रखते हुए उनकी चेतना के
क्रान्तिकारीकरण को रोकने का काम करती हैं, तथा उनके आक्रोश के दबाव
को कम करने वाले ‘सेफ्टीवॉल्व’ का तथा पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा
पं क्ति का काम करती हैं।
आज साम्प्रदायिक फासीवाद का विरोध करने का बहाना बनाकर ये
सं शोधनवादी रंगे सियार कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबन्धन सरकार के
खम्भे बने हुए हैं। ये सं सदीय बातबहादरु भला और कर भी क्या सकते हैं?
फासीवाद का मुकाबला करने के लिए मेहनतकश जनता की जुझारू लामबन्दी
ही एकमात्र रास्ता हो सकती है, लेकिन वह तो इनके बूते की बात है ही नही।ं ये
तो बस सं सद में गत्तो की तलवारें भाँज सकते हैं, कभी कांग्रेस की पूँछ में कं घी
कर सकते हैं तो कभी तीसरे मोर्चे का घिसा रिकार्ड बजा सकते हैं।
शेर की खाल ओढ़े इन छद्म वामपन्थी गीदड़ो ं की जमात में भाकपा और
माकपा अके ले नही ं हैं। और भी कई नकली वामपन्थी छु टभैये हैं और कम्युनिस्ट
क्रान्तिकारी सं गठनो ं के बीच से निकलकर भाकपा (मा-ले) लिबरेशन को भी
इस जमात में शामिल हुए पच्चीस वर्षों से भी कु छ अधिक समय बीत चुका है।
1967 में नक्सलबाड़ी किसान उभार ने माकपा के भीतर मौजूद क्रान्तिकारी
कतारो ं में ज़बरदस्त आशा का सं चार किया था। सं शोधनवाद से निर्णायक
विच्छे द के बाद एक शानदार नयी शुरुआत हुई ही थी कि उसे “वामपन्थी”
दस्सा
ु हसवाद के राहु ने ग्रस लिया। भाकपा (मा-ले) इसी भटकाव के रास्ते
पर आगे बढ़ी और खण्ड-खण्ड विभाजन की त्रासदी का शिकार हुई। कु छ
क्रान्तिकारी सं गठनो ं ने क्रान्तिकारी जनदिशा की पोज़ीशन पर खड़े होकर
“वामपन्थी” दस्सा ु हसवाद का विरोध किया था, वे भी भारतीय समाज की
प्रकृ ति और क्रान्ति की मं ज़िल के बारे में अपनी ग़लत समझ के कारण जनता
के विभिन्न वर्गों की सही क्रान्तिकारी लामबन्दी कर पाने और वर्ग-सं घर्ष को
आगे बढ़ा पाने में विफल रहे। नतीजतन ठहराव का शिकार होकर कालान्तर
में वे भी बिखराव और सं शोधनवादी विचलन का शिकार हो गये। भाकपा
(मा-ले) (लिबरेशन) पच्चीस वर्षों पहले तक “वामपन्थी” दस्सा ु हसवादी
लाइन का शिकार था। पर उसके पिट जाने के बाद धीरे-धीरे रेंगते-घिसटते
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 25
आज दक्षिणपन्थी भटकाव के दूसरे छोर तक जा पहुंचा है और आज खाँटी
सं सदवाद की बानगी पेश कर रहा है।
भाकपा (माओवादी) आज “वामपन्थी” दस्सा ु हसवाद के भटकाव का
प्रतिनिधित्व कर रहा है और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु
को बदनाम कर रहा है। अन्य कई सारे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सं गठन हैं जो
अलग-अलग अंशो ं में सं शोधनवादी भटकावो-ं विच्युतियो ं के शिकार हैं और
भारतीय समाज के पूँजीवादी चरित्र की असलियत को समझने के बजाय
आज भी नई जनवादी क्रान्ति के चरखे पर “मार्क्सवादी” नरोदवाद का
सूत काते जा रहे हैं। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर आज लम्बे गतिरोध का
शिकार होकर विघटित होने के मुकाम तक जा पहुँचा है। हालाँकि आज भी
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी तत्तवो ं की सबसे बड़ी तादाद इसी धारा के सं गठनो ं में
मौजूद हैं, लेकिन इन सं गठनो ं को एकजुट करके आज एक सर्वभारतीय पार्टी
का पुनर्गठन एक असम्भवप्राय काम हो चुका है। अब नये सिरे से मार्क्सवाद-
लेनिनवाद की सुसंगत एवं गहरी समझ तथा भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम की
सही समझ के आधार पर एक क्रान्तिकारी पार्टी का नये सिरे से निर्माण करके
ही भारत में सर्वहारा क्रान्ति को अंजाम तक पहुँचाया जा सकता है।
इसके लिए हमें क्रान्ति की कतारो ं में नई भर्ती करनी होगी, उनकी क्रान्तिकारी
शिक्षा-दीक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण के काम को लगन और मेहनत से पूरा
करना होगा, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओ ं को सं शोधनवादियो ं और
अतिवामपन्थी कठमुल्लों का पुछल्ला बने रहने से मुक्त होने का आह्वान करना
होगा और इसके लिए उनके सामने क्रान्तिकारी जनदिशा की व्यावहारिक
मिसाल पेश करनी होगी। लेकिन इस काम को सार्थक ढंग से तभी अंजाम
दिया जा सकता है जबकि कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास से सबक लेकर
हम अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरी को दूर कर सकें और बोल्शेविक साँचे-
खाँचे में तपी-ढली पार्टी का ढाँचा खड़ा कर सकें । सं शोधनवादी भितरघातियो ं
के विरुद्ध निरन्तर समझौताहीन सं घर्ष के बिना तथा मज़दूर वर्ग के बीच इनकी
पहचान एकदम साफ किये बिना हम इस लक्ष्य में कदापि सफल नही ं हो
सकते। बेशक हमें अतिवामपन्थी भटकाव के विरुद्ध भी सतत सं घर्ष करना
होगा, लेकिन आज भी हमारी मुख्य लड़ाई सं शोधनवाद से ही है।
बिगुल में प्रकाशित

26 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद


ज्योति बसु (1914-2010) के निधन के अवसर पर
ज्योति बसु और संसदीय वामपन्थी
राजनीति की आधी सदी
 दीपायन बोस

ज्योति बसु नही ं रहे। विगत 17 जनवरी 2010 को 96 वर्ष का लम्बा


जीवन जीने के बाद कलकत्ता के एक अस्पताल में उन्होंने अन्तिम साँस ली।
निधन के दिन से लेकर अन्तिम यात्रा (उन्होंने अपना शरीर मेडिकल रिसर्च के
लिए दान कर दिया था) तक बुर्जुआ राजनीतिक हलको ं में उन्हें उसी सम्मान
के साथ याद किया गया और श्रध्दांजलि दी गयी, जितना सम्मान आजादी के
बाद देश के शीर्षस्थ बुर्जुआ नेताओ ं को दिया जाता रहा है।
माकपा, भाकपा, आर.एस.पी., फॉरवर्ड ब्लॉक आदि रंग-बिरंगी चुनावी
वामपन्थी पार्टियो ं के नेताओ ं के अतिरिक्त प्रधानमन्त्री और सोनिया गाँधी
से लेकर सभी बुर्जुआ दलो ं के नेताओ ं ने कलकत्ता पहुँचकर ज्योति बसु को
श्रध्दांजलि दी। कई पूँजीपतियो ं ने बं गाल में पूँजी लगाने में उनके सहयोग
को भावविह्नल होकर याद किया। टाटा, बिड़ला, जैन आदि सभी छोटे-बड़े
पूँजीपति घरानो ं के छोटे-बड़े अंग्रेजी-हिन्दी अख़बारो ं ने उनकी भूरि-भूरि
प्रशं सा करते हुए स्मृति लेख लिखे। कु छ टुटपूँजिया टिप्पणीकारो ं ने आश्चर्य
प्रकट किया कि इतना भलेमानस आदमी कम्युनिस्ट क्यों और कै से था? किसी
ने लिखा कि वे भले आदमी पहले थे और कम्युनिस्ट बाद में। समझदार
बुर्जुआ टिप्पणीकारो ं ने ऐसी बातें नही ं की। वे जानते हैं कि ज्योति बसु जैसे
सं सदीय कम्युनिस्टों की इस व्यवस्था को कितनी ज़रूरत होती है! यदि उनके
ऊपर ”कम्युनिस्ट” का लेबल ही नही ं रहेगा, तो वे पूँजीवादी व्यवस्था के लिए
उतने उपयोगी भी नही ं रहे जायेंगे।
ज्योति बसु बेशक सं सदीय वामपन्थ के महारथी थे। वे एक कु शल राजनेता
और प्रशासक थे। सं सदीय वामपन्थी बुर्जुआ जनवादी व्यवस्था की दूसरी
सुरक्षा-पं क्ति की भूमिका निभाता है। वह कथनी और करनी से मजदूर वर्ग को
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 27
इस बात का कायल करता है कि चुनाव जीतकर दबाव बनाकर तथा हड़तालो ं
एवं आन्दोलनो ं के द्वारा वेतन आदि सुविधाएँ क्रमश: बढ़ाते जाते हुए मजदूर
वर्ग अपनी ख़ुशहाली हासिल कर सकता है, अत: आज की दनु िया में बलपूर्वक
राज्यक्रान्ति करने की,यानी बुर्जुआ राज्यसत्ता का धवं स करके सर्वहारा
राज्यसत्ता कायम करने की कोई आवश्यकता ही नही ं है। पैबन्दसाजी से ही
काम चल जायेगा। शान्तिपूर्ण सं क्रमण से समाजवाद आ जायेगा। वे मजदूर
वर्ग को सलाह देते हैं कि वे मन लगाकर उत्पादन बढ़ायें, उत्पादन बढ़ेगा, तो
पूँजीपति उनकी तनख्वाहें भी कु छ बढ़ा देंगे। बर्नस्टीन, काउत्स्की, टीटो, अल
ब्राउडर, ख्रुश्चेव, देंग सियाओ-पिगं – सं शोधनवाद के सभी दिग्गजो ं की
भाषाएँ भले अलग-अलग रही हो,ं  लेकिन उनकी नसीहतो ं का निचोड़ यही रहा
है – वर्ग-सं घर्ष नही ं वर्ग सहयोग, क्रान्ति नही ं सुधार और शान्तिपूर्ण बदलाव।
इसीलिए लेनिन ने सं शोधनवाद को पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पं क्ति
की सं ज्ञा दी थी। इस दूसरी सुरक्षा पं क्ति के ज्योति बसु जैसे कद्दावर सेनानी
की मृत्यु पर पूँजीवादी व्यवस्था के अग्रणी पं क्ति के थिक ं टैंको ं और नेताओ ं
का शोक विह्नल होना स्वाभाविक था।
ज्योति बसु एक ‘भद्रलोक’ (जेण्टलमैन) कम्युनिस्ट थे –
शालीन, नफीस, सुसंस्कृ त। वे क्रान्ति और सं घर्ष की वे बातें नही ं करते
थे, जो खाते-पीते ”जेण्टलमैन”सुधारवादी मध्यवर्ग को भाती नही।ं ज्योति
बसु की जीवन-शैली, कार्य-शैली उनकी राजनीति के सर्वथा अनुरूप थी।
इसलिए ”सामाजिक अशान्ति” से भयाकु ल रहने वाले मध्यवर्ग के उन लोगो ं को
और (आदतो ं एवं जीवनशैली में मध्यवर्ग बन चुके) सफे दपोश कु लीन मजदूरो ं
को वे काफी भाते थे। जो दयालु, करुणामय और”शान्तिप्रिय” मध्यवर्गीय
भलेमानस पूँजीवादी व्यवस्था को आमूल रूप से बदल डालने के  ”ख़तरनाक
और जोखिम भरे झं झट” से दूर रहकर इसी व्यवस्था को सुधारकर ग़रीब-
ग़ुरबा की ज़िन्दगी में भी बेहतरी लाने के भ्रम में जीते हैं और ऐसा भ्रम पैदा
करते हैं, जो लोग पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली के क्षुद्र रहस्य और पूँजीवादी
राजनीतिक तन्त्र के अपरिवर्तनीय वर्ग-चरित्र को समझे बिना यह सोचते रहते
हैं कि यदि नेता भ्रष्टाचारी न हो ं और नौकरशाही-लालफीताशाही न हो तो
सबकु छ ठीक हो जायेगा, ऐसे भोले-भाले, नेकनीयत मध्यवर्ग के लोगो ं को
भी ज्योति बसु, नम्बूदिरिपाद, सुन्दरैया जैसे व्यक्तित्व बहुत भाते हैं। यह भी
सामाजिक जनवाद या सं शोधनवादी राजनीति की एक सफलता है।
28 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
ज्योति बसु सादगी भरा, लेकिन उच्च मध्यवर्गीय कु लीन जीवन जीते
थे, लेकिन उनपर भ्रष्टाचार का आरोप नही ं लगाया जा सकता। उनसे भी
अधिक सादा जीवन माकपा के गोपालन, सुन्दरैया, नम्बूदिरिपाद, हरेकृष्ण
कोन्नार, प्रमोद दासगुप्ता जैसे नेताओ ं का था। पर बुनियादी सवाल किसी नेता
के सादगी और ईमानदारी भरे निजी जीवन का नही ं है। बुनियादी सवाल
यह भी नही ं है कि वह नेता समाजवाद और कम्युनिज्म की बातें करता है।
बुनियादी सवाल यह है कि क्या समाजवाद और कम्युनिज्म की उसकी बातो ं
का वैज्ञानिक आधार है, क्या उसकी नीतियाँ एवं व्यवहार अमली तौर पर
मजदूर वर्ग को उसकी मुक्ति की निर्णायक लड़ाई की दिशा में आगे बढ़ाते
हैं? सादा जीवन गाँधी का भी था और अपने बुर्जुआ मानवतावादी सिध्दान्तों
पर उनकी निजी निष्ठा पर भी सन्देह नही ं किया जा सकता। उनके मानवतावादी
यूटोपिया ने करोड़ों आम जनो ं को जागृत-सक्रिय किया, लेकिन उस यूटोपिया
को अमल में लाने की हर प्रकार की कोशिश की अन्तिम परिणति पूँजीवादी
सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की स्थापना के रूप में ही सामने आनी थी। कहने का
मतलब यह कि बुनियादी प्रश्न किसी के ईमानदार नैतिक जीवन और उसकी
यूटोपियाई निजी निष्ठाओ ं का नही,ं  बल्कि उसकी विचारधारात्मक-राजनीतिक
वर्ग-अवस्थिति का होता है। एक सच्चा और ईमानदार व्यक्ति यदि बुर्जुआ
राजनीति के दायरे में ही काम करता है, तो वह वस्तुगत रूप से बुर्जुआ वर्ग
की ही सेवा करेगा और उसकी अच्छी छवि बुर्जुआ व्यवस्था के प्रति लोगो ं का
विभ्रम मजबूत बनाने में मददगार ही बनेगी। लेकिन चूँकि हमारे सामाजिक
व्यवहार से ही हमारी चेतना निर्मित-अनुकूलित होती है, इसलिए एक ग़लत
राजनीति को वस्तुगत तौर पर लागू करने वाले लोग कालान्तर में सचेतन तौर
पर भी ग़लत हो जाते हैं और निजी जीवन के स्तर पर भी ढोगं -पाखण्ड, झठू -
फरेब और भ्रष्टाचार से लबरेज हो जाते हैं। सं शोधनवादी पार्टियो ं के बहुतेरे
पुराने नेता व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्ट-पतित नही,ं  बल्कि भद्र नागरिक थे। आज
यह बात नही ं कही जा सकती। इन पार्टियो ं में ऊपर यदि भ्रष्ट-पतित लोगो ं की
भरमार है, तो नीचे कतारो ं में गली के गुण्डे-लफं गे तक घुस गये हैं। इनका
यह सामाजिक चारित्रिक पतन सामाजिक जनवाद/सं शोधनवाद/सं सदीय
वामपन्थ के क्रमिक राजनीतिक पतन-विघटन की ही एक परिणति है, एक
अभिव्यक्ति है और एक प्रतिबिम्ब है। सोवियत सं घ और पूर्वी यूरोप के देशो ं में
नकली समाजवाद का झण्डा (ख्रुश्चेव काल से सोवियत सं घ ही सं शोधनवादियो ं
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 29
का मक्का था) 1990 में गिर गया। फिर चीन में 1976 में माओ की मृत्यु
के बाद देंगपन्थी सं शोधनवाद की जो सत्ता कायम हुई थी, उसका ”बाजार
समाजवाद” अब सरेबाजार अलफ नं गा खड़ा अपनी पूँजीवादी असलियत
की नुमाइश कर रहा है। ऐसी सूरत में, दनु िया भर की रंग-बिरंगी ख्रुश्चेवी
सं शोधनवादी पार्टियो ं ने ज्यादा खुले तौर पर पूँजीवादी सं सदीय राजनीति
और अर्थवादी राजनीति की चौहद्दी को स्वीकार कर लिया है। अब उनका
बात-व्यवहार एकदम खुले तौर पर (सारतत्व तो पहले से ही एक था) वैसा
ही हो गया है जैसा कि 1910 के दशक में मार्क्सवाद से विपथगमन करने
वाली काउत्सकीपन्थी सामाजिक जनवादी पार्टियो ं का रहा है। यूरोप से लेकर
कई लातिन अमेरिकी देशो ं तक में लेबर पार्टियो ं और सोशलिस्ट पार्टियो ं का
आचरण दक्षिणपन्थी बुर्जुआ पार्टियो ं जैसा हो गया है तथा ख्रुश्चेवी कम्युनिस्ट
पार्टियो ं का आचरण लेबर और सोशलिस्ट पार्टियो ं जैसा हो गया है। भारत में
कु छ पुराने समाजवादी फासिस्ट भाजपा के साथ गाँठ जोड़ सरकारें चला रहे
हैं, कु छ धनी किसानो-ं कु लको ं की राजनीति कर रहे हैं तो कु छ अलग-अलग
बुर्जुआ पार्टियो ं में घुल-मिल गये हैं। जो ख्रुश्चेवी और देंगपन्थी सं शोधनवादी
पार्टियाँ हैं, वे भूमण्डलीकरण की पूरी राजनीति एवं अर्थनीति को स्वीकारते
हुए बस उसे कु छ ”मानवीय चेहरा” देने की बात करती हैं तथा सरपट
उदारीकरण-निजीकरण की राह में कु छ स्पीड-ब्रेकर्स लगाने की बात करती
हैं, ताकि मेहनतकश अवाम का पूँजीवादी व्यवस्था और सं सदीय राजनीति के
प्रति भरम बने रहे तथा निर्बाध उदारीकरण-निजीकरण की भयं कर सामाजिक
परिणतियाँ (बेशुमार छँ टनी, बेरोजगारी, विस्थापन, मजदूरो ं के रहे-सहे
अधिकारो ं एवं सामाजिक सुरक्षा का भी अपहरण, धनी-ग़रीब की बढ़ती
खाई आदि) किसी क्रान्तिकारी तूफान के उभार के लिए जरूरी सामाजिक
दबाव न पैदा कर दें। इस तरह, अपनी छद्म वामपन्थी जुमलेबाजी को छोड़
देने और बुर्जुआ चेहरे से नकाब थोड़ा हटा देने के बावजूद, पूरी दनु िया की
ही तरह, भारत की सं शोधनवादी वामपन्थी पार्टियाँ अभी भी इस व्यवस्था
की वफादार सुरक्षा पं क्ति की, सामाजिक ताप पर ठण्डा पानी डालते रहने
वाले पुफहारे की तथा जनाक्रोश के दाब को कम करने वाले सेफ्टीवॉल्व की
भूमिका अत्यन्त कु शलतापूर्वक निभा रही हैं। उनके  ”कम्युनिज्म” को लेकर
जनता को कोई भ्रम नही ं रह गया है और इस मायने में उनकी एक भूमिका
(भ्रमोत्पादक की भूमिका) तो समाप्त हो चुकी है, लेकिन ”वाम” सुधारवादी
30 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
राजनीतिक शक्ति के रूप में पूँजीवाद की दूसरी सुरक्षा-पं क्ति के रूप में उनकी
भूमिका अभी भी कायम है। नवउदारवाद की राजनीतिक चौहद्दी को कमोबेश
खुलकर स्वीकारने के बाद, उनका सामाजिक आधार और वोटबैंक सिकु ड़ता
जा रहा है, पर पूँजीवाद के लिए उनकी उपयोगिता अभी भी कायम है। किसी
सशक्त, एकजुट क्रान्तिकारी विकल्प की अनुपस्थिति से आम जनता में जो
निराशा है, उसके कारण वह सोचती है कि चलो, तबतक सं सदीय वामपन्थी
जो भी दो-चार आने की राहत दिला देते हैं, वही सही, क्योंकि क्रान्ति तो अभी
काफी दूर की बात है (या कि अब सम्भव नही ं है)। यानी आज भी सं शोधनवाद
जनता को अपने ऊपर पूँजीवाद को शासन करने की स्वीकृति देने के लिए
तैयार करने का कार्य करता रहता है। इसे ही राजनीतिक वर्चस्व को स्वीकार
करना कहते हैं।
ज्योति बसु इसी सं शोधनवादी वाम राजनीति के एक महारथी थे। उनके
जाने का दख ु उनके सं सदीय वामपन्थी साथी-सँ घातियो ं को तो है ही, पूँजीवाद
के कट्टर हिमायतियो,ं  बुर्जुआ थिकं टैंको ं और रणनीतिकारो ं को भी है और
सुधारवादी मानस वाले मध्यवर्गीय प्रगतिशीलो ं को भी। ज्योति बसु पुरानी पीढ़ी
के सं शोधनवादी थे। बुध्ददेव, सीताराम येचुरी, नीलोत्पल बसु और विजयन
मार्का नये जमाने वालो ं के मुकाबले वे ज्यादा खाँटी और पुराने ”कम्युनिस्टी” रंग
ढंग वाले दिखते थे। पहले कभी गोपालन, सुन्दरैया, प्रमोद दासगुप्त, जैसो ं के
मुकाबले ज्योति बसु ही ”मॉडर्न” माने जाते थे। मज़ाक में लोग उन्हें ”पार्टी का
उत्तम कु मार” भी कहते थे। ज्योति बसु सं सदीय वामपन्थ की अधोमुखी यात्रा
के कई दौरो ं के साक्षी थे। तीन दशक पहले तक पार्टी में उन्हें सिध्दान्तकार
और सं गठनकर्ता का दर्जा, देश स्तर पर तो दूर, बं गाल स्तर पर भी हासिल नही ं
था। बासवपुनैया, प्रमोद दासगुप्त, सुन्दरैया आदि की यह छवि थी। ज्योति
बसु चुनावी राजनीति के स्टार थे, एक दक्ष राजनेता (स्टेट्समैन), कू टनीतिज्ञ
(डिप्लोमैट) और प्रशासक थे। पं जाब के  ”जत्थेदार कॉमरेड” हरकिशन सिहं
सुरजीत घनघोर व्यवहारवादी (प्रैग्मेटिक) और जोड़तोड़ में माहिर-तिकड़मी
राजनीतिज्ञ थे।
ज्योति बसु का जन्म 1914 में बं गाल के एक उच्च मध्यवर्गीय कु लीन परिवार
में हुआ था। 1935 में वे बैरिस्टरी की पढ़ाई करने लं दन गये। इस दौरान
वे प्राय: लं दन स्कू ल ऑफ इकोनॉमिक्स जाकर प्रख्यात सामाजिक जनवादी
विद्वान हेराल्ड लास्की के भाषण सुनते थे। लास्की के विचारो ं ने ही उनके भीतर
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 31
समाजवादी रुझान पैदा किया। 1937 में वे राष्ट्रवादी छात्रों के साथ ‘इण्डिया
लीग’ और ‘लं दन मजलिस’ सं स्थाओ ं में सक्रिय रहे। नेहरू, सुभाष और
अन्य भारतीय नेताओ ं को लेबर पार्टी के नेताओ ं और समाजवादी नेताओ ं से
मिलवाने का काम भी उन्होंने किया। इसी बीच 1939 में वे रजनी पाम दत्त के
सम्पर्क में आये, जो ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के एक शीर्ष नेता थे। कम्युनिस्ट
इण्टरनेशनल की भारत और उपनिवेश- विषयक नीतियो ं की व्याख्या करते
हुए वे भारत और ब्रिटेन के पार्टी मुखपत्रों में लेख लिखा करते थे और प्राय:
उनमें अपनी ओर से कु छ सं शोधनवादी छौकं -बघार लगा दिया करते थे।
वे एक अभिजात कम्युनिस्ट थे, जिनकी सं शोधनवादी रुझानें उस समय भी
थी,ं  जब ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी का रंग अभी बदला नही ं था। बाद में
सं शोधनवाद की ओर पार्टी को धके लने में उनकी अग्रणी भूमिका रही थी।
तो ऐसे व्यक्ति थे ज्योति बसु के राजनीतिक पथप्रदर्शक। दरअसल अपनी
पीढ़ी के बहुतेरे उच्च मध्यवर्गीय युवाओ ं की तरह ज्योति बसु भी एक रैडिकल
राष्ट्रवादी थे जिन्हें समाजवाद के नारे आकृ ष्ट तो करते थे, लेकिन कम्युनिज्म
की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को वे कभी भी आत्मसात नही ं कर पाये। चूँकि
कम्युनिस्ट पार्टी भी उस समय अभी समाजवाद के लिए नही,ं  बल्कि राष्ट्रीय
मुक्ति के लिए और जनवादी क्रान्ति के लिए लड़ रही थी, इसलिए बहुतेरे ऐसे
रैडिकल जनवादी राष्ट्रवादी युवा उस समय पार्टी में शामिल हो रहे थे, जिन्हें
कांग्रेस की समझौतापरस्ती की राजनीति रास नही ं आ रही थी। बहरहाल, युवा
ज्योति बाबू में तब नौजवानी का जोश, कु र्बानी का जज्बा और आदर्शवाद की
भावना तो थी ही। स्वदेश-वापसी के बाद, वकालत करने के बजाय उन्होंने
पेशेवर क्रान्तिकारी का जीवन चुना और मजदूरो ं के बीच काम करने लगे।
ग़ौरतलब है कि यह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का वह दौर था जब पी.सी.
जोशी के नेतत्व ृ में दक्षिणपन्थी भटकाव पार्टी पर हावी था। 1941 में ज्योति
बसु ने बं गाल-असम रेलवे के मजदूरो ं के बीच काम किया और उनके यूनियन
सेक्रेटरी भी रहे। कु छ समय तक उन्होंने बं दरगाह और गोदी मजदूरो ं के बीच
भी काम किया।
कम्युनिस्ट पार्टी कानूनी घोषित की जाने के बाद 1943 में जब उसकी
पहली कांग्रेस हुई तो उसमें ज्योति बसु प्रान्तीय सं गठनकर्ता चुने गये। फिर
चौथे राज्य सम्मेलन में उन्हें राज्य कमेटी में चुना गया। 1946 से देश एक ऐसे
सं क्रमण काल से गुजरने लगा था, जिसमें प्रचुर क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ निहित
32 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
थी।ं नौसेना विद्रोह, देशव्यापी मजदूर हड़तालें, तेलंगाना-तेभागा-पुनप्रा
वायलार के किसान सं घर्ष – इन ऐतिहासिक घटनाओ ं ने अगले तीन-चार वर्षों
के दौरान पूरे देश को हिला रखा था। अपनी विचारधारात्मक कमजोरी, नेतत्व ृ
में एकजुटता के अभाव और ढीले-ढाले सांगठनिक ढाँचे के कारण पार्टी इस
निर्णायक घड़ी में पहल अपने हाथ में लेने में पूरी तरह विफल रही (ऐसे अवसर
वह पहले भी गँ वा चुकी थी)। राष्ट्रीय आन्दोलन को नेतत्व ृ देने वाला बुर्जुआ
वर्ग जनता की आकांक्षाओ ं के साथ विश्वासघात करते हुए साम्राज्यवादियो ं
के साथ समझौते के साथ बुर्जुआ शासन की पूर्वपीठिका तैयार कर रहा था।
बेशुमार साम्प्रदायिक ख़ून-ख़राबे के बाद देश का विभाजन हो रहा था। ऐसी
राजनीतिक आजादी मिल रही थी जो अधूरी और खण्डित थी। साम्राज्यवाद
से निर्णायक विच्छे द के बजाय उसके आर्थिक हितो ं की सुरक्षा की गारण्टी दी
जा रही थी। रैडिकल भूमि सुधार के मामले में भी कांग्रेस के विश्वासघात के
सं के त मिल चुके थे। सार्विक मताधिकार के आधार पर चुने जाने के बजाय
महज 12 फीसदी आबादी द्वारा चुनी गयी सं विधान सभा अत्यन्त सीमित
जनवादी अधिकार देने वाला (और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें भी छीन लेने के
इन्तजामो ं से लैस) वाग्जालो ं से भरा सं विधान बना रही थी।
इस सं क्रमण काल में कम्युनिस्ट पार्टी कन्फ्यूज थी, अनिर्णय का शिकार
थी। रही-सही कसर रणदिवे की ”वामपन्थी” दस्सा ु हसवादी लाइन ने पूरी कर
दी। नेहरू की भेजी हुई भारतीय फौजो ं ने तेलंगाना किसान सं घर्ष को कु चल
दिया। लम्बी कमजोरियो ं और भूल-ग़लतियो ं के सिलसिले ने पार्टी को उसकी
तार्किक परिणति तक पहुँचा दिया। तेलंगाना पराजय के बाद पार्टी पूरी तरह
से सं शोधनवादी हो गयी। चुनावी वामपन्थ का जमाना आ गया। ज्योति बसु
इस दौरान क्या कर रहे थे! किसान सं घर्षों और जुझारू मजदूर आन्दोलन
को क्रान्तिकारी दिशा देने की किसी कोशिश के बजाय, पार्टी के निर्णय का
पालन करते हुए उन्होंने 1946 की प्रान्तीय विधायिका का चुनाव लड़ा, रेलवे
कांस्टीच्युएंसी से (सीमित मताधिकार के आधार पर), और विजयी रहे। उसी
वर्ष भीषण साम्प्रदायिक दंगो ं के दौरान गाँधीजी जब बं गाल गये तो ज्योति
बसु उनसे मिले और उनकी सलाह से एक शान्ति कमेटी बनायी और शान्ति
मार्च निकाला। तेलंगाना किसान सं घर्ष को लेकर पार्टी में जो कई लाइनो ं
का सं घर्ष था, उसमें उनकी कोई भूमिका नही ं थी। 1952 में जब पहले आम
चुनाव हुए, तब वे बं गाल विधानसभा के सदस्य चुने गये और विधान चन्द्र
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 33
राय की कांग्रेसी सरकार के शासनकाल के दौरान विपक्ष के नेता रहे। तबसे
लेकर, सन् 2000 तक, 1972-77 की समयावधि को छोड़कर ज्योति बसु
लगातार बं गाल की विधानसभा के लिए चुने जाते रहे। सं सदीय राजनीति ही
आधी शताब्दी तक उनका कार्यक्षेत्र बनी रही। 1951 में वे पार्टी के बांग्ला
मुखपत्र’स्वाधीनता’ के सम्पादक-मण्डल के अध्यक्ष चुने गये। 1953 में वे
राज्य कमेटी के सचिव चुने गये। 1954 की मदरु ै पार्टी कांग्रेस में वे के न्द्रीय
कमेटी में और फिर पालघाट कांग्रेस में सेक्रेटेरियट में चुने गये। 1958 में
अमृतसर की जिस विशेष कांग्रेस ने सोवियत पार्टी की बीसवी ं कांग्रेस की ख्रुश्चेवी
सं शोधनवादी लाइन को सर्वसम्मति से स्वीकार किया था, उसी कांग्रेस में ज्योति
बसु राष्ट्रीय परिषद में चुने गये थे। 1964 में जब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का
भाकपा और माकपा में विभाजन हुआ, तो यह सं शोधनवाद और क्रान्तिकारी
कम्युनिज्म के बीच का विभाजन नही ं था। वह विभाजन वस्तुत: सं शोधनवाद
और नवसं शोधनवाद के बीच था, नरमपन्थी सं सदीय वामपन्थ और गरमपन्थी
सं सदीय वामपन्थ के बीच था, अर्थवाद और जुझारू अर्थवाद के बीच था।
डांगे-राजेश्वर राव गुट (भाकपा) ख्रुश्चेवी सं शोधनवाद का पूर्ण समर्थक था
और नेहरूवादी ”समाजवाद” को प्रगतिशील राष्ट्रीय बुर्जुआ की नीति मानकर
कांग्रेस का पुछल्ला बनने को तैयार था। विरोधी गुट (माकपा) ज्यादा शातिर
सं शोधनवादी था। माकपा नेतृत्व ख्रुश्चेवी सं शोधनवाद की आलोचना करता
था, लेकिन साथ ही चीन की पार्टी को भी अतिवाद का शिकार मानता था।
सत्तारूढ़ सोवियत पार्टी को वह सं शोधनवादी, लेकिन राज्य को समाजवादी
मानता था। इस तर्क से कालान्तर में राज्य का समाजवादी चरित्र भी समाप्त
हो जाना चाहिए था, पर इसके उलट, माकपा ने कु छ ही वर्षों बाद सोवियत
पार्टी को भी बिरादर पार्टी मानना शुरू कर दिया। माकपा नेतत्व ृ नेहरू सरकार
को साम्राज्यवाद का जूनियर पार्टनर बन चुके इजारेदार पूँजीपति वर्ग का
प्रतिनिधि मानकर उनके विरुद्ध राष्ट्रीय सं युक्त मोर्चा बनाकर सं घर्ष करने की
बात करता था।
माकपा का चरित्र हालाँकि उसकी सं सदीय राजनीति ने बाद में एकदम नं गा
कर दिया, लेकिन 1964 में अपने गरम तेवर दिखाकर क्रान्तिकारी कतारो ं के
बड़े हिस्से को अपने साथ लेने में वह सफल हो गयी। पार्टी सं गठन के लेनिनवादी
उसूलो ं के हिसाब से देखें तो माकपा का सं शोधनवादी चरित्र 1964 से ही
एकदम साफ था। 1951 से जारी पार्टी के एकदम खुले, कानूनी, सं सदीय
34 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
चरित्र और कार्यप्रणाली को माकपा ने यथावत् जारी रखा। पार्टी सदस्यता
की प्रकृ ति रूस के मेंशेविको ं से भी गयी-गुजरी थी। अमृतसर कांग्रेस में पार्टी
सं विधान में किये गये बदलाव को 1964 में यथावत् कायम रखा गया। पार्टी
के लोक जनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम के हिसाब से दीर्घकालिक लोकयुद्ध ही
क्रान्ति का मार्ग हो सकता था, पर इसके उल्लेख से बचकर पार्टी कार्यक्रम में
छलपूर्ण भाषा में ”सं सदीय और ग़ैर-सं सदीय रास्ते” का उल्लेख किया गया।
कोई भी क्रान्तिकारी पार्टी बुर्जुआ सं सदीय चुनावो ं का महज रणकौशल के रूप
में इस्तेमाल करती है। सं सदीय मार्ग को ग़ैर-सं सदीय मार्ग के समकक्ष रखना
अपने आप में सं शोधनवाद है। 1967 में और 1969 में माकपा यही कहती
थी कि वह सं सद-विधानसभा का इस्तेमाल रणकौशल (टैक्टिक्स) के रूप
में ही करती है। लेकिन 33 वर्षों तक बुर्जुआ व्यवस्था के अन्तर्गत बं गाल में
शासन करते हुए (इनमें से 23 वर्षों तक ज्योति बसु के मुख्यमन्त्रित्व में) उसने
बुर्जुआ नीतियो ं को भरपूर वफादारी के साथ लागू किया है और वर्ग सं घर्ष की
तैयारी के लिए चुनावो ं के टैक्टिकल इस्तेमाल के बजाय हर जनान्दोलन को
कु चलने के लिए राज्यतन्त्र का बर्बर इस्तेमाल किया है। ज्योति बसु को इस
साफगोई के लिए सराहा जाना चाहिए कि 1977 से 1990 के बीच दो-तीन
बार उन्होंने कहा था कि ‘हम पूँजीवाद के अन्दर एक राज्य में सरकार चला
रहे हैं, समाजवाद नही ं ला रहे हैं।’ माकपा पिछले दो-तीन दशको ं से चुनाव
के ’टैक्टिकल इस्तेमाल’ वाला जुमला भूले से भी नही ं दहु राती। अब वह न
के वल ख्रुश्चेवी शान्तिपूर्ण सं क्रमण के सिध्दान्त को पूरी तरह से मौन स्वीकृति दे
चुकी है और उसके और भाकपा के बीच व्यवहारत: कोई अन्तर नही ं रह गया
है, बल्कि उसका आचरण एक निहायत भ्रष्ट एवं पतित सामाजिक जनवादी
पार्टी जैसा ही है। भ्रष्टाचार का दीमक उसमें अन्दर तक पैठ चुका है (हालाँकि
अन्य बुर्जुआ पार्टियो ं से फिर भी काफी कम है) और बं गाल में राज्य मशीनरी
के साथ माकपाई गुण्डा-े ं मस्तानो ं के समानान्तर तन्त्र की मौजूदगी ने सोशल
फासिस्ट दमन का माहौल बना रखा है।
जब माकपा-भाकपा का बँ टवारा हो रहा था तो कु छ मध्यमार्गी भी थे
जो बीच में डोल रहे थे। फिर इनमें से कु छ भाकपा में गये कु छ माकपा में।
जैसे, भूपेश गुप्त भाकपा में गये, ज्योति बसु माकपा में। ज्योति बसु शुरू से
ही एक घुटे-घुटाये सं सदीय वामपन्थी थे। 1967 में नक्सलबाड़ी किसान
उभार के बाद एक नये धा्रुवीकरण की शुरुआत हुई। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 35
कतारें भारी तादाद में माकपा से निकलकर नक्सलबाड़ी के झण्डे तले इकट्ठा
होने लगी।ं नक्सलबाड़ी पहले एक क्रान्तिकारी जनसं घर्ष के रूप में पूफटा
लेकिन 1969 आते-आते उसपर चारु मजुमदार की ”वामपन्थी” आतं कवादी
लाइन हावी हो गयी और फिर इसी लाइन पर भाकपा (मा.ले.) का निर्माण
हुआ। जो लोग आतं कवादी लाइन के विरोधी थे, वे भी राष्ट्रीय परिस्थितियो ं
और कार्यक्रम की ग़लत समझ के कारण कोई क्रान्तिकारी विकल्प नही ं दे सके
और यह पूरी धारा बिखराव का शिकार हो गयी। लेकिन 1967-68 में तो
नक्सलबाड़ी उभार ने माकपा के सामने अस्तित्व का सं कट खड़ा कर दिया था।
1967 में बं गाल में सं युक्त मोर्चे की जो सरकार बनी थी, उसमें माकपा
शामिल थी। ज्योति बसु उप-मुख्यमन्त्री तथा वित्त और परिवहन के मन्त्री थे।
माकपा ने सरकार से बाहर आकर नक्सलबाड़ी किसान उभार को समर्थन देने
के बजाय, पहले तो वहाँ के स्थानीय पार्टी नेताओ ं एवं कतारो ं को समझाने-
बुझाने का प्रयास किया। फिर सभी को पार्टी से बाहर किया गया और राज्य की
सशस्त्र पुलिस मशीनरी और (राज्य सरकार की अनुमति से) के न्द्रीय सशस्त्र
बलो ं का इस्तेमाल करके नक्सलबाड़ी आन्दोलन को बेरहमी से कु चल दिया
गया। इसमें ज्योति बसु की उप-मुख्यमन्त्री के रूप में अहम भूमिका थी। इस
समय तक आन्दोलन पूरे देश में फै ल चुका था। हर राज्य में माकपा टू ट रही
थी। मा-ले पार्टी के गठन की प्रक्रिया शुरू हो रही थी। माकपा नेतत्व ृ ने सभी
नक्सलबाड़ी समर्थको ं को पार्टी से निकाल बाहर किया। 1969 में प. बं गाल
में पुन: सं युक्त मोर्चे की जो सरकार बनी, उसमें भी ज्योति बसु उप-मुख्यमन्त्री
थे और साथ ही गृह, पुलिस और सामान्य प्रशासन विभाग भी उन्हीं के पास
था। इस समय नक्सलबाड़ी तो कु चला जा चुका था, पर बं गाल के कई इलाके
धधक रहे थे। ”वामपन्थी” आतं कवादी कार्रवाइयाँ भी शुरू हो चुकी थी।ं
ज्योति बसु ने इस बार प्रतिरोध को कु चलने के लिए पुलिस मशीनरी का बर्बर
और बेधड़क इस्तेमाल किया। 1972 के चुनावो ं में जबर्दस्त धाँधली के बाद
बं गाल में कांग्रेस की सरकार बनी। सिध्दार्थ शं कर रे मुख्यमन्त्री बने। पूरे देश में
तो आपातकाल जून 1975 में लगा, लेकिन बं गाल में नक्सलवादियो ं के दमन
के नाम पर यन्त्रणा, फर्जी मुठभेड़ों के जरिये फासिस्ट पुलिस राज्य सिध्दार्थ
शं कर रे ने 1972 में ही कायम कर दिया था। माकपा ने1972 से 1977 तक
विधानसभा का बहिष्कार किया। 1977 में आपातकाल हटने के बाद के न्द्र में
जनता पार्टी शासन स्थापित हुआ और बं गाल में वाम मोर्चे का शासन कायम
36 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
हुआ जो आज तक जारी है। ज्योति बसु मुख्यमन्त्री बने और 2000 तक इस
पद पर रहते हुए एक कीर्तिमान स्थापित किया। यह इतिहास का स्मरणीय
तथ्य है कि सिध्दार्थ शं कर रे के शासनकाल के पहले, गृह एवं पुलिस मन्त्रालय
सँ भालते हुए नक्सलवाद के दमन के नाम पर पुलिस राज्य कायम करने का
काम ज्योति बसु ने भी किया था।
1977 में ज्योति बसु ने जब बं गाल का मुख्यमं त्रित्व सँ भाला उस समय
उनके सामने नक्सलबाड़ी की चुनौती नही ं थी। लेकिन नक्सलबाड़ी की
एक नसीहत सामने थी, जिसपर सभी बुर्जुआ अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और
सं शोधनवादी सहमत थे। सबकी कमोबेश एक ही राय थी और वह यह कि
यदि नक्सलबाड़ी जैसे विस्फोटो ं से और उसके  ”सम्भावित” भयावह नतीजो ं
से बचना है तो बुर्जुआ भूमि सुधारो ं की गति थोड़ी और तेज करनी होगी।
ज्योति बसु ने इसी काम को ‘आपरेशन बर्गा’ के रूप में अंजाम दिया।
आज माकपाई झाल-करताल लेकर ‘ऑपरेशन बर्गा’ का कीर्तन करते
हैं। ‘ऑपरेशन बर्गा’ कोई क्रान्तिकारी भूमि सुधार नही ं था। वह ”ऊपर से
किया गया,” प्रशियाई टाइप, स्तॉलिपिन सुधार टाइप, मरियल बुर्जुआ भूमि
सुधार कार्यक्रम था, जिसने आंशिक तौर पर भूमि के मालिकाने के सवाल को
हल करके बं गाल की खेती में क्रमिक पूँजीवादी विकास की जमीन तैयार की
और वहाँ कु लको-ं पूँजीवादी किसानो ं के पैदा होने का आधार बनाया। ऐसे
भूमि सुधार बहुतेरे अन्य प्रान्तों में हो चुके थे। बं गाल पीछे छू टा हुआ था।
यदि रैडिकल चरित्र की ही बात की जाये तो छठे दशक के शुरू में ही, अपने
पहले शासनकाल के दौरान शेख़ अब्ल् दु ला ने जम्मू-कश्मीर में ज्यादा रैडिकल
बुर्जुआ भूमि-सुधार कार्यक्रम लागू किया था।
1977 तक भारत का पूँजीवाद काफी मजबूत हो चुका था और कृ षि के
पूँजीवादीकरण की प्रक्रिया को तेज करके , रहे-सहे अर्ध्द-सामन्ती अवशेषो ं
को समाप्त करके एक व्यापक राष्ट्रीय बाजार का निर्माण करना उसकी जरूरत
थी। ज्योति बसु ने ‘ऑपरेशन बर्गा’ के द्वारा पूँजीवादी भूमि-सुधार के इसी
कार्यक्रम को कु शलतापूर्वक लागू किया और भारतीय पूँजीवाद की ऐतिहासिक
सेवा की। ‘ऑपरेशन बर्गा’ ने काश्तकार किसानो ं को आंशिक मालिकाना हक
देकर पूँजीवादी खेती के विकास के साथ ही इन नये छोटे-बड़े मालिक किसानो ं
में माकपा का नया सामाजिक आधार और वोट बैंक तैयार किया। गाँवो ं में
जो बड़े मालिक किसानो ं का ताकतवर हिस्सा पैदा हुआ, उसे राजनीतिक सत्ता
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 37
में (आर्थिक ताकत के अनुरूप) भागीदारी भी चाहिए थी। यह उसे एक ओर
माकपा पार्टी तन्त्र के स्थानीय मनसबदार के रूप में हासिल हुआ (बं गाल में
माकपा की पार्टी मशीनरी प्रशासन मशीनरी के साथ मिलकर काम करती है)
और दूसरी ओर पं चायती राज ने उसे लूटने-खाने और शासन करने का मौका
दिया। पूँजीवादी पं चायती राज का ‘ट्रेण्ड-सेटर’ प्रयोग वास्तव में ज्योति बसु
ने किया था जिसे राजीव गाँधी शासन काल के दौरान कांग्रेस ने अपना लिया
था (हालाँकि उतने प्रभावी ढंग वह इसे लागू नही ं कर पायी)।
बं गाल के गाँवो ं में पूँजीवादी विकास का सिलसिला जब कु छ और आगे बढ़ा
तो जो छोटे मालिक किसान पूँजीवादी शोषण का शिकार हो रहे थे, उनका
धीरे-धीरे माकपा व वाम मोर्चा से मोहभं ग होने लगा। माकपा के स्थानीय
कार्यकर्ताओ ं (जो प्राय: नवधनिक कु लक या ग्रामीण मध्यवर्ग के लोग थे) की
गुण्डागर्दी और भ्रष्टाचार ने इसमें विशेष भूमिका निभायी। उधर नवधनिक
कु लको ं का एक हिस्सा भी लूट के माल और स्थानीय सत्ता के बँ टवारे के बढ़ते
अन्तरविरोधो ं के चलते माकपा से दूर हटा। गाँवो ं में इन्हीं के बीच तृणमूल
कांग्रेस ने (और कही-ं कही ं कांग्रेस ने भी) अपना नया वोट बैंक तैयार किया
है।
वर्ष 1977 में ज्योति बसु के नेतत्व ृ में वाम मोर्चा सरकार की विभिन्न
सुधारवादी कार्रवाइयो ं ने नगरो-ं महानगरो ं में मध्य वर्ग को विशेष तौर पर
अपनी ओर खीचं ा। सं गठित मजदूरो ं को भी शुरू में कु छ आर्थिक लाभ मिले।
सबसे बड़ी बात यह थी सिध्दार्थ शं कर रे के काले आतं क राज को भूलने और
कांग्रेस को माफ करने के लिए मध्यवर्ग और मजदूर कत्तई तैयार नही ं थे। यही
कारण था कि जब ज्योति बसु सरकार के बुर्जुआ सुधारो ं का ‘स्कोप’ समाप्त
हो गया, शासन-प्रशासन में बढ़ता भ्रष्टाचार साफ दीखने लगा और माकपा
के स्थानीय नेताओ ं की दादागिरी भी बढ़ने लगी, तब भी बं गाल की जनता –
विशेषकर शहरी मध्य वर्ग और औद्योगिक मजदूर उसे मजबूरी का विकल्प
मानते रहे। बं गाल के शहरो ं में जनवादी चेतना अधिक रही है और सिध्दार्थ
शं कर रे के शासनकाल को याद करके बं गाल की जनता सोचती रही कि
जनवादी अधिकारो ं के नजरिये से माकपा शासन को बनाये रखना उसकी
विवशता है।
इस बीच ज्योति बसु, माकपा और वाम मोर्चे का सामाजिक जनवादी चरित्र
38 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
ज्यादा से ज्यादा नं गा होता चला गया। भद्रपुरुष ज्योति बाबू बार-बार मजदूरो ं
को हड़तालो ं से दूर रहने और उत्पादन बढ़ाने की राय देने लगे, जबकि मजदूरो ं
की हालत लगातार बद से बदतर होती जा रही थी। ज्योति बसु विदेशी पूँजी
को आमन्त्रित करने के लिए बार-बार पश्चिमी देशो ं की यात्रा पर निकलने लगे
(कभी छु ट्टियाँ बिताने तो कभी आर्थिक-तकनीकी मदद के लिए 1990 तक
रूस और पूर्वी यूरोप तो जाते ही रहते थे)। देशी पूँजीपतियो ं को पूँजी-निवेश
के लिए पलक-पाँवड़े बिछाकर आमन्त्रित किया जाने लगा। देश के तमाम बड़े
पूँजीपति (विदेशी कम्पनियाँ भी) पूँजी निवेश के लिए बं गाल के परिवेश को
अनुकूल बताने लगे। दिक्कत अब उन्हें हड़तालो ं से नही ं थी, बल्कि माकपा के
उन ट्रेड यूनियन क्षत्रपो ं से थी जो मजदूरो ं से वसूली करने के साथ ही मालिको ं
से भी कभी-कभी कु छ ज्यादा दबाव बनाकर वसूली करने लगते थे।
जब 1991 से नरसिहं राव की सरकार ने उदारीकरण-निजीकरण की
नीतियो ं की शुरुआत की तो माकपा देश स्तर पर तो उसका विरोध कर रही
थी, लेकिन बं गाल में ज्योति बसु की सरकार उन्हीं नीतियो ं को लागू कर रही
थी। चीन का ”बाज़ार समाजवाद” माकपा को नवउदारवादी लहर में बहने का
तर्क दे रहा था, दूसरी ओर उदारीकरण-लहर को कु छ ”मानवीय चेहरा” देने
मात्र की सिफारिश करते हुए माकपा ‘सेफ्टी वॉल्व’ का और पैबन्दसाजी का
अपना पुराना सामाजिक जनवादी दायित्व भी निभा रही थी। गत् शताब्दी के
अन्तिम दशक के उत्तरार्ध्द तक माकपा की नीतियो ं से मजदूर वर्ग और शहरी
निम्न मध्यवर्ग को अब आंशिक सुधार की भी उम्मीद नही ं रह गयी थी। पूँजी
निवेश से रोजगार पैदा होने की उम्मीदें मिट्टी में मिल चुकी थी।ं कलकत्ता के
औद्योगिक मजदूरो ं की स्थिति अन्य औद्योगिक के न्द्रों से भी बदतर थी।
माकपा ने मुहल्ले-मुहल्ले तक, मजदूर बस्तियो ं से लेकर दर्गाु पूजा समितियो ं
तक अपने मस्तान नुमा कार्यकर्ताओ ं का ऐसा नेटवर्क तैयार कर लिया था कि
अस्पताल में भरती होने से लेकर स्कू ल में एडमिशन तक का काम उनके बिना
नही ं हो सकता था। माकपा प्रभुत्व वाली मजदूर यूनियनो ं और छात्र यूनियनो ं
के प्रभाव क्षेत्र में राजनीतिक पैठ की किसी कोशिश को गुण्डागर्दी से दबा दिया
जाता था। इसी प्रकार का माफिया तन्त्र गाँवो ं में पार्टी दफ्तरो ं और पं चायती
राज सं स्थाओ ं के इर्द-गिर्द निर्मित हो चुका था। यह सब कु छ ज्योति बसु के
ही शासनकाल के दौरान हुआ था। इसके बावजूद विशेषकर पिछले दो या
तीन चुनावो ं में वाममोर्चा यदि जीता तो उसका मुख्य कारण था सी.पी.एम.
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 39
के पार्टी माफिया तन्त्र का आतं ककारी, प्रभावी नेटवर्क और किसी कारगर
बुर्जुआ चुनावी विकल्प का अभाव। तृणमूल ने एक हद तक स्वयं वैसा ही
नेटवर्क खड़ा करके (लोहे को लोहे से काटने की नीति अपनाकर), गाँवो ं में
मालिक किसानो ं के प्रतिस्पर्ध्दी गुटो ं और माकपा से निराश ग़रीब किसानो ं
को साथ लेकर तथा कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर जब प्रभावी चुनौती पेश
की है तो प्रबुद्ध शहरी मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा भी इधर आकृ ष्ट हुआ है।
सिगं ूर और नन्दीग्राम ने माकपा की मिट्टी और अधिक पलीद करने का काम
किया है। चुनावी राजनीति के दायरे में पहली बार माकपा के सितारे गर्दिश
में नजर आ रहे हैं। इस दायरे के बाहर क्रान्तिकारी विकल्प की तलाश करते
हुए मेहनतकश ग्रामीण आबादी का सबसे तबाह हिस्सा और रैडिकल शहरी
युवाओ ं का एक हिस्सा ”वामपन्थी” दस्सा ु हसवादी राजनीति की ओर मुड़ा
है। तीसरी ओर, औद्योगिक मजदूरो ं और रैडिकल छात्रों-युवाओ ं का एक
हिस्सा क्रान्तिकारी जन राजनीति की नयी दिशा और नये रूपो ं के सन्धान की
ओर उन्मुख हुआ है। बं गाल की राजनीति आज एक मोड़ पर खड़ी है। आगे
बदला हुआ परिदृश्य चाहे जैसा भी हो, इतना तय है कि माकपा के  ”सुनहरे
दिन” अब बीत चुके हैं।
सच पूछें, तो इस पराभव की शुरुआत तो ज्योति बसु के शासन काल के
दौरान ही हो चुकी थी। यूँ तो स्वास्थ्य कारणो ं से 2000 में उन्होंने मुख्यमन्त्री
पद छोड़ा था, लेकिन इज्ज़त बचाकर निकल लेने के लिए, ससम्मान मं च से
विदा होने के लिए, उन्होंने बिल्कु ल सही समय का चुनाव किया था। व्यक्तिगत
तौर पर एक कसक रह गयी थी – 1996 में वी.पी. सिहं द्वारा प्रस्ताव रखने
के बावजूद माकपा ने उन्हें देश का प्रधानमन्त्री बनने से रोक दिया था। इसके
पहले 1989 में भी अरुण नेहरू और चन्द्रशेखर ने वी.पी. सिहं की जगह
उन्हें प्रधानमन्त्री बनने का प्रस्ताव रखा था, पर तब वे खुद ही नही ं चाहते
थे। 1996 में उनका कै ल्कु लेशन यह था कि यदि वे प्रधानमन्त्री बन जायेंगे तो
अन्य बुर्जुआ पार्टियाँ बहुत दिनो ं तक तो सरकार चलने नही ं देंगी। इस तरह
मरने से पहले प्रधानमन्त्री बनने की उनकी निजी साध भी पूरी हो जायेगी और
सत्ताच्युत होने के बाद यह कहकर ”शहीद” बनने का मौका मिल जायेगा कि
जनहित की नीतियाँ लागू करते ही साम्राज्यवादियो-ं पूँजीपतियो ं और बुर्जुआ
पार्टियो ं ने उनकी सरकार गिरा दी। पार्टी में प्रकाश करात के हावी गुट का
कै ल्कु लेशन यह था कि के न्द्र स्तर पर यदि दो-ढाई वर्षों तक भी सरकार चलती
40 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
रही तो नवउदारवादी नीतियो ं को लागू करने के चलते माकपा की लँ गोटी उतर
जायेगी और बची-खुची इज्ज़त भी नीलाम हो जायेगी। अब इनमें से कौन
ज्यादा सही सोच रहा था, यह अटकल लगाना हमारा काम नही ं है। जो भी
हो, पूँजीवादी सं सदीय जनवाद की इतनी सेवा करने के बावजूद ज्योति बसु
को यदि प्रधानमन्त्री बनने की साध लिये-लिये इस दनु िया से जाना पड़ा, यदि
अपने ही ”कामरेडो”ं  ने किये-दिये पर पानी फे र दिया, तो वे कर भी क्या
सकते थे! ज्यादा से ज्यादा भड़ास निकाल सकते थे और 1996 के पार्टी के
निर्णय को ”ऐतिहासिक भूल” बताकर उन्होंने यही किया था।
ज्योति बसु प्रधानमन्त्री भले ही नही ं बन सके , उन्हें उनके अवदानो ं
के लिए न के वल अपने सं सदीय वामपन्थी साथियो ं से, बल्कि बुर्जुआ
नेताओ,ं  विचारको ं और बुध्दिजीवियो ं से तथा बुर्जुआ मीडिया से भरपूर
सम्मान मिला। उनके निधन पर सभी ने शोकविह्नल होकर उन्हें याद किया।
क्रान्तिकारी उथल-पुथल के तूफानो ं से डरने वाले, भलेमानस मध्यवर्ग के
बहुतेरे शान्तिवादी, पैबन्दवादी, करुणामय हृदय वाले बुध्दिजीवियो ं ने भी
पुरानी पीढ़ी के इस सं सदीय वामपन्थी महारथी को भावुक होकर श्रध्दांजलि
दी।
 
बिगुल, जनवरी-फरवरी 2010

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 41


माकपा की 21वीं कांग्स रे
संशोधनवाद के मलकुण्ड में और भी गहराई से
उतरकर मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी की बेशर्म क़वायद
आनन्द

पश्चिम बं गाल तथा के रल के विधानसभा चुनावो ं एवं पिछले लोकसभा


चुनाव में मुँह की खाने के बाद गम्भीर राजनीतिक-सांगठनिक सं कट के गुज़र
रही सं शोधनवादी (यानी मज़दूर वर्ग की ग़द्दार) भारत की कम्युनिस्ट पार्टी
(मार्क्सवादी) (सं क्षेप में माकपा) ने 14 से 19 अप्रैल के बीच विशाखापट्टनम
में अपनी 21वी ं कांग्रेस आयोजित की। मार्क्सवादी विज्ञान की रोशनी में
नीतियो-ं रणनीतियो ं की पड़ताल करने की बजाय अनुभववादी तरीक़े से
विश्लेषण करने वाले भोले और भावुक वामपन्थियो ं एवं प्रगतिशीलो ं ने इस
कांग्रेस से भी उम्मीदें टिका ली ं कि इसके बाद माकपा के बीते हुए दिन लौट
आयेंगे और एक बार फिर वह भारतीय राजनीति के पटल पर तथाकथित वाम
धुरी की नेतत्वृ कारी शक्ति बनकर उभरेगी। पार्टी ने अपने आपको “लाल”
दिखाने के लिए कांग्रेस के आयोजन स्थल को झण्डों व प्रतीको ं के ज़रिये लाल
रंग से सराबोर कर दिया था। लेकिन कांग्रेस के दौरान पारित प्रस्तावो-ं रिपोर्टों
एवं नये नेतत्व ृ को विचारधारा की कसौटी पर परखने पर हम पाते हैं कि
आयोजन स्थल पर लाल रंग के प्रतीक तो बस छलावा थे, असल में इस कांग्रेस
के बाद तो माकपा सं शोधनवाद के मलकु ण्ड में पहले से भी अधिक गहराई में
उतरती दिख रही है और मज़दूर वर्ग से अपनी ग़द्दारी का ज़्यादा से ज़्यादा नं गे
तौर पर मुज़ाहिरा कर रही है।
कांग्रेस के दौरान पारित राजनीतिक-रणकौशलात्मक (पॉलिटिकल-
टैक्टिकल) लाइन पर समीक्षा रिपोर्ट पर एक नज़र दौड़ाने भर से यह स्पष्ट हो
जाता है कि आने वाले दिनो ं में माकपा मज़दूर वर्ग से ऐतिहासिक विश्वासघात
के पुराने कीर्तिमानो ं को ध्वस्त करने की पूरी तैयारी कर चुकी है। यह रिपोर्ट
पिछले ढाई दशको ं के दौरान पार्टी की राजनीतिक-रणकौशलात्मक लाइन की
आलोचनात्मक पड़ताल करने का दावा करती है ताकि आगे के लिए कारगर
42 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
राजनीतिक-रणकौशलात्मक लाइन तैयार की जा सके । लेकिन इसमें समीक्षा
के नाम पर खानापूर्ति ही दिखती है और सं सद के सुअरबाड़े में अपने खोये हुए
कोने को हासिल करके उसमें लोट लगाने की व्यग्रता छिपाये नही ं छिपती। इस
रिपोर्ट के बिन्दु 5 में बताया गया है कि राजनीतिक-रणकौशलात्मक लाइन वह
रणकौशल (टैक्टिक्स) होता है जिसे हम जनता की जनवादी क्रान्ति के अपने
रणनीतिक लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किसी परिस्थिति विशेष में अपनाते हैं।
इसी बिन्दु में हमें बताया गया है कि इस लाइन के ज़रिये पार्टी बुर्जुआ-भूस्वामी
पार्टियो ं के बरक्स एक वाम और जनवादी विकल्प प्रस्तुत कर अपने रणनीतिक
लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहती है। वैसे तो जिस समाज में उत्पादन सम्बन्धों में
कई दशको ं पहले ही पूँजीवादी रूपान्तरण हो गया हो वहाँ जनता की जनवादी
क्रान्ति का रणनीतिक लक्ष्य भी तर्क की कसौटी पर खरा नही ं उतरता, लेकिन
उत्पादन प्रणाली की बहस में न भी उतरें तो भी समीक्षा रिपोर्ट में जो बात कही
गयी है वह सच्चाई से मेल नही ं खाती। सच तो यह है कि अपने जन्मकाल से
ही माकपा ने बुर्जुआ चुनाव में हिस्सा लेने को रणकौशल के रूप में नही ं बल्कि
अपनी मुख्य रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया है जो किसी भी सं शोधनवादी
पार्टी की ख़ासियत होती है। समीक्षा रिपोर्ट में रणकौशल के रूप में जो बातें
कही गयी हैं, वे दरअसल माकपा की रणनीति का हिस्सा हैं। अब माकपा
सीधे-सीधे यह बात कह नही ं सकती क्योंकि तब उसको कम्युनिस्ट पार्टी का
अपना चोला उतार फें कना होगा। इसलिए हर घाघ सं शोधनवादी पार्टी की
तरह माकपा बड़ी ही निर्लज्जता के साथ अपनी रणनीति को रणकौशल के रूप
में प्रस्तुत करती है।
समीक्षा रिपोर्ट के बिन्दु 6 में पार्टी अपनी पीठ थपथपाते हुए बताती है कि
किस तरह से 13वी ं कांग्रेस और उसके बाद की कांग्रेसो ं में पारित राजनीतिक-
रणकौशलात्मक लाइन ने पार्टी को राजीव गाँधी की सरकार और उसके बाद
नरसिम्हाराव की सरकार को पराजित करने में मदद की। यही नही ं उसकी
मदद से ही पार्टी 1996 में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए ग़ैर-
कांग्रेसी शक्तियो ं को लामबन्द करने में सफल रही। 2004 में भाजपा नीत
एनडीए गठबन्धन को पराजित करने में इस लाइन ने दिशा दी। इसके अलावा
कई क़ानूनो ं को पास करवाने में भी इसकी भूमिका रही। रिपोर्ट में पार्टी ने
बुर्जुआ पार्टियो ं के सत्ता में आने और जाने की सामान्य बात को कु छ इस
प्रकार बयान किया है मानो इस चुनावी गटरगं गा में नागनाथ को हटाकर
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 43
सांपनाथ को लाने से सर्वहारा वर्ग की ज़िन्दगी बेहतर हो गयी हो। सर्वहारा
वर्ग के इन ग़द्दारो ं से पूछा जाना चाहिए कि राजीव गाँधी की सरकार को
हटाकर वीपी सिहं और चन्द्रशेखर की सरकार, नरसिम्हाराव की सरकार को
हटाकर देवगौड़ा और गुजराल की सरकार और एनडीए की सरकार हटाकर
यूपीए की सरकार बनवाने में भूमिका अदा करके इन्होंने सर्वहारा वर्ग का क्या
भला किया? ग़ौरतलब है कि पिछले ढाई दशको ं में जितनी भी सरकारें आयी ं
सबने नवउदारवादी नीतियो ं को आगे ही बढ़ाया जिसकी वजह से इस देश के
मज़दूरो ं की ज़िन्दगी बद से बदतर हुई है। रिपोर्ट में नवउदारवादी हमले पर
ख़ूब आँसू बहाये हैं, लेकिन नवउदारवाद की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में इस
सं शोधनवादी पार्टी की तिकड़मो,ं बुर्जुआ पार्टियो ं के साथ इनकी गलबहियो ं
और पश्चिम बं गाल एवं के रल में इनकी करतूतो ं की क्या भूमिका रही इसको
लेकर कही ं भी आत्मालोचना नही ं की गयी है। ख़ैर जिस पार्टी को सं शोधनवाद
के रास्ते पर ही ते़ज़ी से आगे बढ़ते जाना ही अपनी रणनीति बना ली हो उससे
यह उम्मीद करना भी बेमानी होगा कि वह अपनी आत्मालोचना रखेगी।
रिपोर्ट के बिन्दु 7 में पार्टी ने इस बात को लेकर अपने मुँहमियाँ मिट्ठू बनने
की हास्यास्पद कोशिश की है कि 1991 से लेकर अब तक नवउदारवादी
नीतियो ं के खि़ लाफ़ एकजुट प्रतिरोध खड़ा करने के मक़सद से अखिल भारतीय
स्तर की 15 आम हड़तालें हो चुकी हैं। हर कोई जानता है कि जिस तरीक़े से
हर तीन साल में ये पार्टी अपनी कांग्रेस करने की रस्मी क़वायद करती है उसी
तरीक़े से हर दूसरे साल दिखावे के लिए एक देशव्यापी हड़ताल आयोजित
करने की रस्मअदायगी भी करती है जिसमें देश के अलग-अलग हिस्सों में
पार्टी के कार्यकर्ता दक ु ानो ं और अन्य प्रतिष्ठानो ं को ज़बरन बन्द करवाते हैं,
जन्तर-मन्तर पर पार्टी के बड़े नेता कु छ गरमागरम भाषण देते हैं और मीडिया
में दिखाने के गिरफ्तारी की नौटंकी करते हैं, पुलिस की बस में बैठकर फोटो
सेशन करवाते हैं और थोड़ी देर बसयात्रा कराने के बाद मीडिया का कै मरा
हटते ही पुलिस उन्हें रिहा कर देती है। यह नौटंकी इतनी बार हो चुकी है कि
राजनीतिक रूप से सजग कोई भी व्यक्ति जानता है कि इसमें क्या-क्या होने
वाला है। इसी नौटंकी को मज़दूर वर्ग के ये ग़द्दार देशव्यापी आम हड़ताल का
नाम देते हैं और बेशर्मी से अपनी समीक्षा रिपोर्ट में इसको उपलब्धि के रूप में
प्रस्तुत करते हैं।
उसके बाद के कई बिन्ओ दु ं में समीक्षा रिपोर्ट वामपन्थी और जनवादी मोर्चे
44 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
की अवधारणा के बारे में हमारा ज्ञानवर्धन करती है। बिन्दु 14 में रिपोर्ट यह
स्वीकार करती है कि इस अवधारणा को प्रस्तुत किये जाने के साढ़े तीन दशक
बीतने के बाद भी अखिल भारतीय स्तर पर कोई वामपन्थी और जनवादी
मोर्चा नही ं बन पाया है। इस नं गी सच्चाई को तो हर कोई जानता है कि यह
मोर्चा नही ं बन पाया है। किसी अवधारणा को प्रस्तुत किये जाने के साढ़े तीन
दशक बाद आयी समीक्षा रिपोर्ट से तो लोग यह अपेक्षा करते हैं कि वह इस
बात पर रोशनी डाले कि यह अवधारणा कहाँ तक वास्तविकता से मेल खाती
है और इसके लागू न होने पाने के क्या कारण रहे।
आगे के बिन्ओ दु ं में रिपोर्ट इस विफलता के कारण बताते हुए कहती है कि
तात्कालिक परिस्थितियो ं की वजह से पार्टी ने वामपन्थी और लोकतान्त्रिक
मोर्चे के अपने रणकौशलात्मक लक्ष्य को छोड़ दिया और वह प्रचारात्मक
नारा बनकर रह गया। उसकी बजाय वामपन्थी, जनवादी और धर्मनिरपेक्ष
गठबन्धन उसका अन्तरिम नारा बन गया। कालान्तर में चुनाव विशेष के लिए
चुनावी तालमेल हेतु धर्मनिरपेक्ष पूँजीवादी पार्टियो ं को जुटाना उसकी पहली
प्राथमिकता बन गयी। दूसरे चरण के रूप में सं युक्त आन्दोलन व सं घर्षों के
ज़रिये साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर आधारित तीसरे विकल्प का निर्माण करना
था और वामपन्थी-जनवादी मोर्चे के निर्माण का लक्ष्य तीसरे चरण पर खिसक
गया। माकपा तात्कालिक ठोस परिस्थितियो ं का कितना भी हवाला दे ले,
विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन का इतिहास हमें बताता है कि सं शोधनवाद की
फिसलनभरी ढलान पर जो भी पार्टी पहला क़दम रखती है उसका पतन तय
होता है और सभी सं शोधनवादी पार्टियाँ अपने पतन को छिपाने के लिए बदली
हुई तात्कालिक परिस्थितियो ं का ही हवाला देती हैं। सच तो यह है कि साढ़े
तीन दशक पहले जब माकपा ने वामपन्थी-जनवादी मोर्चे की अवधारणा रखी
थी उस वक़् त भी वह सं सदीय राजनीति की चौहद्दी के बाहर नही ं सोचती थी।
जो भी पार्टी बुर्जुआ सं सदीय राजनीति को के न्द्र में रखकर अपनी रणनीति
और रणकौशल के बारे में फ़ै सले लेगी, उसका हश्र वही होगा जो माकपा का
हुआ। लेकिन समीक्षा रिपोर्ट में कही ं भी पार्टी ने अपनी इस मूल ग़लती को
नही ं स्वीकारा है, आखि़ र वो स्वीकार भी क्यों करती, उसे तो इस फिसलनभरी
ढलान पर अभी और आगे जाना है!
समीक्षा रिपोर्ट के बिन्दु 22 में कहा गया है कि तीसरे विकल्प को खड़ा
करने में मशगूल रहने की वजह से पार्टी की स्वतन्त्र ताक़त नही ं बढ़ पायी
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 45
जिसकी वजह से भी धर्मनिरपेक्ष बुर्जुआ दल उसकी ओर आकर्षित नही ं हो
पाये। आगे बहुत अफ़सोस जताते हुए रिपोर्ट कहती है कि पिछले लोकसभा
चुनाव में क्षेत्रीय बुर्जुआ दल भी उसके साथ विभिन्न राज्यों में चुनावी गठबन्धन
बनाने को तैयार नही ं हुए। क्षेत्रीय बुर्जुआ दलो ं द्वारा भी घास न दिये जाने
पर अफ़सोस जताने वाले इन सं सदीय जड़वामनो ं को बताया जाना चाहिए
कि दनु िया के हर मुल्क में सं शोधनवादियो ं की यही गत होती है। वे दावा तो
यह करते हैं कि वे बुर्जुआ दलो ं से गँ ठजोड़ को वामपन्थ को मज़बूत बनाने के
लिए रणकौशल के रूप में इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वास्तव में होता यह है
कि बुर्जुआ दल उन्हें अपना मोहरा बनाते हैं और काम निकलने के बाद उन्हें
दूध में से मक्खी की तरह निकाल फें कते हैं। रिपोर्ट में आगे क्षेत्रीय दलो ं से
नाराज़गी जताते हुए उनके बुर्जुआ चरित्र और उनकी अवसरवादिता का ब्योरा
दिया गया है। मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी का दावा करने वाले इन लाल तोतो ं
से पूछा जाना चाहिए कि क्या पहले उनके साथ गलबहियाँ करते वक़् त उन्हें
उनके चरित्र के बारे में नही ं पता था? हद की बात तो यह है कि उनके चरित्र
के बारे में बयान करने के बावजूद भविष्य में उनके साथ चुनावी तालमेल और
गँ ठजोड़ बनाने का विकल्प अभी भी खुला रखा गया है। बिन्दु 30 में साफ़
कहा गया है कि भविष्य में बुर्जुआ दलो ं के आपसी अन्तरविरोध फिर से उभर
सकते हैं। रिपोर्ट में विशेष रूप से रेखांकित किया गया है कि ऐसी परिस्थिति
में पार्टी को लचीला रुख़ अपनाना होगा। यानी एक बार फिर से इन्हीं बुर्जुआ
दलो ं का पिछलग्गू बनने की पटकथा लिखी जा चुकी है।
रिपोर्ट में पार्टी ने अपने कु छ छोटे कु कर्मों को तो दबी जबान से स्वीकार
किया है लेकिन अपने बड़े कु कर्मों पर चुप्पी साध ली है। मसलन पार्टी ने
स्वीकार किया है कि 1996-98 के दौरान तत्कालीन सं युक्त मोर्चा सरकार
को बनाये रखने के लिए उसकी नवउदारवादी नीतियो ं की अनदेखी करना एक
ग़लती थी, लेकिन पूरी रिपोर्ट में कही ं भी बेलागलपेट यह बात नही ं स्वीकार
की है कि पश्चिम बं गाल में उसकी सरकार ने स्वयं नवउदारवादी नीतियो ं को
निहायत ही बेशर्मी से लागू किया जिसकी वजह से उसका जनाधार ख़त्म
हुआ। बिन्दु 38 में दबी जबान में बस इतना कहा गया है कि नन्दीग्राम में
भूमि अधिग्रहण को पूरे देश ने कॉरपोरेट के नवउदारवादी एजेण्डे के हिस्से के
रूप में देखा और भविष्य में पश्चिम बं गाल सरकार द्वारा लिए गये फ़ै सलो ं की
आलोचनात्मक पड़ताल करनी होगी। कु ल मिलाकर पार्टी के कहने का आशय
46 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
यह है कि उसकी मं शा तो कॉरपोरेट को फ़ायदा पहुँचाने की नही ं थी, लेकिन
लोगो ं ने उसको ग़लत समझा। सं सद के सुअरबाड़े में लोट लगाने को आतुर
इन सं सदीय खिलन्दड़ो ं को कोई बताने वाला नही ं है कि उस घटना के इतने
साल बीतने के बाद भी उन्हें अपने फ़ै सलो ं के आलोचनात्मक विश्लेषण करने
के लिए समय नही ं मिला तो जनता इन्तज़ार थोड़े ही करेगी, उसने तो ख़ुद की
पड़ताल करके अपना फ़ै सला सुना दिया है।
रिपोर्ट के बिन्दु 47 में सं सदवाद की परिभाषा देते हुए बताया गया है कि
सं सदवाद एक सुधारवादी दृष्टिकोण है जो पार्टी की गतिविधियो ं को चुनावी
दायरे में सीमित रखता है और यह भ्रम पैदा करता है कि के वल चुनाव लड़कर
ही पार्टी की बढ़त सुनिश्चित की जा सकती है। यह जनान्दोलनो ं को सं गठित
करने, पार्टी के निर्माण एवं विचारधारात्मक सं घर्ष की अनदेखी की दिशा में
ले जाता है। यदि माकपा अपनी ही बतायी गयी इस परिभाषा को ईमानदारी
से ख़ुद पर लागू करने का साहस करती तो इस रिपोर्ट में उसने स्वीकार किया
होता कि वह ख़ुद एक सं सदवादी पार्टी है। लेकिन सं शोधनवादी गीदड़ो ं से
क्रान्तिकारी साहस की अपेक्षा करना बेवक़ूफ़ी होगी।
माकपा अपने सं शोधनवादी चरित्र को छिपाने की कितनी भी कोशिश
करे, उसके ख़ुद के दस्तावेज़ उसके सं शोधनवादी चरित्र को उजागर कर देते
हैं। मसलन सं सदवाद की परिभाषा देने के बाद रिपोर्ट के बिन्दु 47 में आगे
जोड़ा गया है कि पार्टी को सं सदीय और सं सदेतर कामो ं को एक साथ किये
जाने की आवश्यकता है। पार्टी के सं सदीय कामो ं के साथ सं सदेतर कामो ं को
जोड़कर अपने सं शोधनवादी चरित्र को छिपाने की भरपूर कोशिश की है।
लेकिन सं सदेतर कामो ं को सं सदीय कामो ं के समतुल्य रखना अपनेआप में
सं शोधनवाद की निशानी है। कम्युनिज़्म का सिर्फ़ बुनियादी ज्ञान रखने वाला
व्यक्ति भी यह जानता है कि एक कम्युनिस्ट पार्टी सं सदेतर कामो ं को ही
अपनी मुख्य रणनीति मानती है और सं सदीय काम कभी भी सं सदेतर कामो ं
के समतुल्य नही ं हो सकते।
माकपा की 21वी ं कांग्रेस में पारित राजनीतिक प्रस्ताव भी उसके
सं शोधनवादी चरित्र को उघाड़कर रख देता है। मज़दूर वर्ग से अपनी ग़द्दारी को
छिपाने-ढाँकने के लिए इस प्रस्ताव में कु छ अन्य देशो ं में वामपन्थ की बढ़त का
गर्वपूर्वक हवाला दिया है। मसलन यूनान में सिरिज़ा की जीत को नवउदारवाद
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 47
के खि़ लाफ़ एक बड़ी जीत बताया गया है, जबकि इस कांग्रेस के पहले ही
सिरिज़ा द्वारा नवउदारवाद के सामने घुटने टेकने की ख़बरें आ चुकी थी।ं इसी
तरह स्पेन में पोदेमॉस नामक नयी पार्टी के उभार की भी ख़ूब तारीफ़ की गयी
है। ग़ौरतलब है कि विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु के लिहाज़ से पोदेमॉस काफ़ी
कु छ भारत की आम आदमी पार्टी से मिलती-जुलती है। वैसे इसमें आश्चर्य की
कोई बात नही ं है। आम आदमी पार्टी को लेकर भी माकपा काफ़ी उत्साहित
दिख रही है और उससे काफ़ी कु छ सीखने की बातें कर चुकी है।
राजनीतिक प्रस्ताव में पार्टी ने लातिन अमेरिकी देशो ं में वामपन्थ की बढ़त
को विशेष रूप से रेखांकित किया है। ग़ौरतलब है कि लातिन अमेरिकी देशो ं
में जो वामपन्थी पार्टियाँ शासन कर रही हैं उन्होंने अधिक से अधिक एक
कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य का निर्माण किया है। कोई कम्युनिस्ट पार्टी ऐसे
कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य को समाजवाद के मॉडल की तरह प्रस्तुत करके
बल्ले-बल्ले करे तो इससे उसका ख़ुद का चरित्र उजागर हो जाता है। यही
नही ं माकपा ने इस प्रस्ताव में चीन को एक समाजवादी देशो ं की श्रेणी में शीर्ष
का दर्ज़ा दिया है। ग़ौरतलब है कि माकपा सोवियत सं घ को 1991 में उसके
विघटन से पहले तक समाजवादी मानती आयी थी। उसी तर्क से वह चीन को
आज भी समाजवादी मानती है और तब तक मानती रहेगी जब तक कि वहाँ
शासन करने वाली पार्टी अपने आपको कम्युनिस्ट पार्टी कहती रहेगी। यानी
माकपा उत्पादन सम्बन्धों के आधार पर नही ं बल्कि शासन करने वाली पार्टी
के नामकरण के आधार पर किसी देश को समाजवादी मानती है। तो यह है
इस पार्टी का वैचारिक स्तर! वैसे इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नही ं है। एक
सं शोधनवादी पार्टी से इससे ज़्यादा वैचारिक परिपक्वता की उम्मीद करनी भी
नही ं चाहिए।
अपने राजनीतिक प्रस्ताव में पार्टी ने वामपन्थी-जनवादी मोर्चा बनाने की
अपने भावी योजना के लिए कार्यक्रम की जो रूपरेखा दी है वह कल्याणकारी
राज्य का वही कीन्सियाई नुस्ख़ा है जिसे वह अपने जन्मकाल से ही दोहराती
आयी है। यानी ढाक के वही तीन पात। पार्टी को अभी भी इस सच्चाई को
हलक़ से उतारना मुश्किल हो रहा है कि कल्याणकारी राज्य का दौर समाप्त
हो चुका है। लेकिन ‘जब तक बौद्धभिक्षु रहेंगे तब तक घण्टा हिलायेंगे’ की
तर्ज़ पर जब तक इन सं शोधनवादी लाल तोतो ं का अस्तित्व रहेगा, तब तक ये
कीन्सियाई नुस्खों का घण्टा हिलाकर लोगो ं में भ्रम पैदा करते रहेंगे। गनीमत यह
48 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
है कि पूरी दनु िया के पैमाने पर कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य बनाने के कीन्सियाई
नुस्खे इतिहास की चीज़ बन चुके हैं। माकपा के नये महासचिव सीताराम येचुरी
अपने साक्षात्कारो ं में कहते आये हैं कि मार्क्सवाद ठोस परिस्थितियो ं को ठोस
विश्लेषण करना सिखाता है। अब कोई उन्हें यह बताये कि ठोस परिस्थितियो ं
का ठोस विश्लेषण तो यह बता रहा है कि माकपा बहुत तेज़ ़ ी से इतिहास
की कचरापेटी की ओर बढ़ती जा रही है। हाँ यह ज़रूर है कि इतिहास की
कचरापेटी के हवाले होने से पहले चुनावी तराजू में पलड़ा भारी करने के लिए
बटखरे के रूप में बुर्जुआ दलो ं के लिए उसकी भूमिका बनी रहेगी।
क्या सीताराम माकपा को मझधार से बाहर निकाल पायेंगे?
माकपा की 21वी ं कांग्रेस के दौरान पार्टी में नेतत्व
ृ -परिवर्तन ने मीडिया की
सुर्खियाँ बटोरी।ं महासचिव चुने जाने के बाद सीताराम येचुरी ने एक अंग्रेज़ी
टीवी चैनल के कार्यक्रम में यह बताने के लिए कि उन्हें धर्म से कोई परहेज़
नही ं है, गर्व से कहा कि मेरा तो नाम ही सीताराम है! माकपा के समर्थक और
भलेमानस भोले वामपन्थी यह उम्मीद लगाये बैठे हैं कि सीताराम पार्टी को
मझधार से बाहर निकालेंगे और उसका बेड़ा पार करेंगे। लेकिन इन महानुभाव
के पुराने ट्रैकरिकॉर्ड पर एक नज़र दौड़ाने से तो यह बात उभरकर आती है कि
इस मझधार से निकालना तो दूर उसे इस मझधार तक लाने में उनकी कम
भूमिका नही ं रही है। बुर्जुआ मीडिया सीताराम येचुरी का बखान करते हुए
बताता है कि वे बहुत ‘प्रैग्मैटिस्ट’ (दनु ियादार) और ‘फ्लेक्सिबल’ (लचीले)
किस्म के नेता हैं। उनके बारे में यह प्रसिद्ध है कि वे इतने मिलनसार हैं कि
उनके मित्र हर पार्टी में मौजूद हैं। ऐसे दनु ियादार, लचीले और मिलनसार
व्यक्ति से तो बस यही उम्मीद की जा सकती है कि उसके नेतत्व ृ में उन भोले
वामपन्थियो ं के भ्रम भी टू ट जायेंगे जो माकपा को अभी तक सं शोधनवादी
नही ं मानते। माकपा के भीतर येचुरी का आधार पश्चिम बं गाल प्रदेश इकाई में
सर्वाधिक है जिसके मार्गदर्शन में ही नन्दीग्राम और सिगं ूर की घटनाएँ अंजाम
दी गयी थी।ं ग़ौरतलब है कि पार्टी की राजनीतिक-रणकौशलात्मक लाइन की
जो समीक्षा रिपोर्ट 21वी ं कांग्रेस में पारित की गयी उसकी तैयारी के दौरान
अक्टूबर 2014 में बुलायी गयी पार्टी के पोलित ब्यूरो की एक बैठक में येचुरी
ने एक असहमति नोट रखा था जिसमें उनका मानना था कि ऐसी किसी समीक्षा
की ज़रूरत ही नही ं है क्योंकि गड़बड़ी पार्टी की राजनीतिक- रणकौशलात्मक
लाइन में नही ं बल्कि नेतत्व
ृ द्वारा उसको लागू करने के तरीक़े में रही है। यानी
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 49
कि समीक्षा रिपोर्ट में पार्टी द्वारा दबी जबान में जो नाममात्र आत्मालोचना की
गयी है उससे भी येचुरी इत्तेफ़ाक नही ं रखते। ग़ौरतलब है कि येचुरी माकपा
के सापेक्षतः नरम सं शोधनवादी खेमे से आते हैं जो नवउदारवादी नीतियो ं के
प्रति अधिक उदार हैं और जिसको हिन्त्व दु वादी भाजपा को सत्ता में आने से
रोकने के नाम पर कांग्रेस से भी गलबहियाँ करने से भी कोई परहेज़ नही ं है।
ग़ौरतलब है कि 2004 में यूपीए सरकार बनवाने में इन महानुभाव की बड़ी
भूमिका थी। नवउदारवाद के एक्शनमैन चिदम्बरम के साथ मिलकर इन्हीं
जनाब ने तथाकथित न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार किया था। याद करने की
बात यह भी है कि 1996 में माकपा के भीतर प्रकाश करात की सापेक्षतः
गरम सं शोधनवादी लाइन के दबाव में जब ज्योति बसु प्रधानमन्त्री नही ं बन
पाये थे तो करात के विरोध करने वालो ं में हरकिशन सिहं सुरजीत और ज्योति
बसु के साथ येचुरी भी शामिल थे। वे सुरजीत के योग्य शिष्य माने जाते हैं जो
चुनावी राजनीति की तिकड़मो ं और सरकारें बनाने-गिराने में इतने माहिर थे
कि बुर्जुआ मीडिया भी उन्हें भारतीय राजनीति के चाणक्य कहकर तारीफ़
करते नही ं अघाता था। वैसे देखा जाये तो सं शोधनवादियो ं के बीच शुरू से ही
सापेक्षतः नरम सं शोधनवाद और सापेक्षतः गरम सं शोधनवाद की नुमाइन्दगी
करने वाले दो खेमे मौजूद रहे हैं। साठ के दशक में अविभाजित भाकपा
के भीतर डांगे-राजेश्वर राव गुट नरमपन्थी था और वासवपुनैया-सुन्दरैया-
गोपालन -नम्बूदिरीपाद-रणदिवे का धड़ा सापेक्षतः गरमपन्थी सं शोधनवादी
था। माकपा बनने के बाद सुन्दरैया- गोपालन-वासवपुनैया-प्रमोद दासगुप्ता
का गुट गरमदली था जबकि सुरजीत-बसु का गुट नरमदली था। इस प्रकार
हम पाते हैं कि सीताराम दरअसल नरमपन्थी सं शोधनवाद के नये अवतार
हैं जो माकपा को सं शोधनवाद के मझधार में और गहराई तक डुबोने की
क्षमताओ ं से लैस हैं। इसका एक मुजाहरा हाल में भूमि अधिग्रहण बिल के
मामले में दिखा जब येचुरी सोनिया गाँधी के पिछलग्गू बनकर राष्ट्रपति भवन
में विपक्ष के सं युक्त मार्चे के मार्च में शामिल हुए। येचुरी के ‘लचीले’ और
‘मिलनसार’ व्यक्तित्व को देखते हुए बिना किसी जोखिम के यह भविष्यवाणी
की जा सकती है कि आने वाले दिनो ं में सं युक्त मोर्चा बनाने के ऐसे और भी
हास्यास्पद नज़ारे देखने को मिलेंगे। 
मज़दूर बिगुल, मई 2015

50 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद


रे में पेश विचारधारात्मक प्रस्ताव
माकपा की बीसवीं कांग्स
मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी और मार्क्सवाद को विकृत
करने का गन्दा, नंगा और बेशर्म संशोधनवादी
दस्तावेज़
अभिनव
हाल ही में देश की दो सबसे बड़ी सं सदीय वामपं थी पार्टियो ं ने अपनी
कांग्रेस आयोजित की। हालाँकि, मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी कर चुकी इन पार्टियो ं
की कांग्रेस पर चर्चा करने का कोई ख़ास मतलब नही ं बनता है, मगर फिर
भी हम कु छ कारणो ं से इन पार्टियो ं की कांग्रेस की चर्चा करेंगे। इसका एक
कारण यह है कि सं गठित मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा अभी भी इनके प्रभाव
में है। हालाँकि, सं गठित मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा
सहयोजित किया जा चुका है, मगर फिर भी एक विचारणीय हिस्से ने अभी
भी अपने सर्वहारा वर्ग चरित्र की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को नही ं खोया है।
दूसरा कारण यह है कि असं गठित मज़दूरो ं की विशाल बहुसं ख्या में भी तमाम
मज़दूर साथी ऐसे हैं जो इन सं सदीय वामपं थियो ं को लेकर भ्रम में हैं, या उन्हें
औरो ं से बेहतर मानते हैं। हम उनके सामने भी इन सं सदीय वामपं थियो ं और
विशेषकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के असली चरित्र को साफ़
करना चाहते हैं। तीसरा कारण यह है कि देश के करोड़ों-करोड़ मज़दूरो ं के
पास एक व्यापक क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन के रूप में कोई विकल्प मौजूद नही ं
है और इसलिए किसी भी औद्योगिक विवाद के पैदा होने पर वे माकपा की
सीटू या भाकपा की एटक की शरण में जाने को मजबूर हो जाते हैं। वैसे तो
सं शोधनवादियो ं की ये ट्रेड यूनियनें मज़दूरो ं के सं घर्ष के साथ बार-बार ग़द्दारी
करती हैं, या फिर मज़दूरो ं को दो-चार आना दिलाकर कु छ कमीशन वसूलती
हैं और अपनी कमाई करती हैं, लेकिन यह सब जानते हुए भी चूँकि मज़दूरो ं
के पास और कोई विकल्प नही ं होता इसलिए वे इन्हीं ट्रेड यूनियनो ं के पास
जाने को मजबूर होते हैं। विकल्पहीनता की इस स्थिति के कारण सीटू और
एटक जैसी धन्धेबाज़ ट्रेड यूनियनो ं ने भारत के ट्रेड यूनियन आन्दोलन में अभी
भी अपनी विचारणीय पकड़ बना रखी है। इस विकल्पहीनता का एक कारण
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 51
यह भी है कि तमाम मार्क्सवादी-लेनिनवादी सं गठनो ं के पास मज़दूर वर्ग के
आन्दोलन की कोई स्पष्ट कार्यदिशा ही मौजूद नही ं है और उनकी ज़्यादा ताक़त
धनी और मँ झोले किसानो ं की माँगो ं के लिए लड़ने में ख़र्च हो जाती है। अगर
कही ं मज़दूरो ं के बीच उनकी थोड़ी-बहुत मौजूदगी है भी तो वे उसी अर्थवाद
और ट्रेडयूनियनवाद पर ज़्यादा गर्म, जुझारू और समझौताविहीन तरीके से
अमल करते हैं, जिस पर कोई भी बुर्जुआ या सं शोधनवादी यूनियन करती है।
ऐसे में, हम मज़दूरो ं के बीच माकपा की बीसवी ं पार्टी कांग्रेस में पास किये गये
विचारधारात्मक प्रस्ताव के आलोचनात्मक विवेचन के जरिये उसके असली
ग़द्दार चरित्र को बेनक़ाब करेंगे।

भाकपा ने मार्च में बिहार की राजधानी पटना में और माकपा ने अप्रैल में
के रल के कोझिकोड में अपनी बीसवी ं कांग्रेस आयोजित की। के रल और पश्चिम
बं गाल में माकपा-नीत वाम मोर्चे की हार के बाद यह इन पार्टियो ं की पहली
कांग्रेस थी। भाकपा राष्ट्रीय बुर्जुआ राजनीति में माकपा का हाथ पकड़ कर ही
चल रही है इसलिए हम यहाँ भाकपा की कांग्रेस में पेश दस्तावेज़ों का विवेचन
करने की बजाय सीधे माकपा की कांग्रेस के दस्तावेज़ों का विवेचन करेंगे, जो
ज़्यादा बारीक और ख़तरनाक तरीके और भाषा में उसी सं शोधनवादी उद्देश्य
को आगे बढ़ाने का काम करते हैं, जिनपर आने वाले समय में भाकपा को भी
अमल करना है। माकपा की बीसवी ं कांग्रेस में पेश दस्तावेज़ों को पढ़कर जो
बात सबसे पहले दिमाग़ में आती है वह यह है कि पश्चिम बं गाल और के रल
में वाम मोर्चे की हार को बस एक तथ्य के रूप में पेश कर दिया गया है। कही ं
पर भी इन हारो ं के कारणो ं का कोई विस्तृत विश्लेषण नही ं पेश किया गया
है। माकपा के पश्चिम बं गाल के चुनावो ं में हार और उसके 34 वर्ष के शासन
के अन्त का प्रमुख कारण था बं गाल के मँ झोले और निचले मँ झोले किसानो ं
के विशालकाय वर्ग का माकपा से अलग हो जाना। यह वर्ग माकपा की भूमि
नीति और विस्थापन के मुद्दे पर नाराज़ था। सिगं ूर और नन्दीग्राम में माकपा की
सरकार ने जिस तरह से खुलेआम कारपोरेट पूँजी के पक्ष में भूमि अधिग्रहण
करने के लिए किसानो ं और ग्रामीण ग़रीबो ं का बर्बर दमन किया, उससे पूरे
राज्य में मँ झोले, निचले मँ झोले और ग़रीब किसानो,ं भूमिहीन मज़दूरो ं और
ग्रामीण ग़रीबो ं के वर्ग माकपा की सरकार से अलग हो गये। ग़ौरतलब है कि
माकपा ने अपना शासन आने के बाद ऑपरेशन बरगा के तहत बरगादारो ं
52 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
(काश्तकार किसानो)ं के पूरे वर्ग को बड़े ज़मीदं ारो ं द्वारा ज़मीन से बेदख़ल
किये जाने से बचाया और उन्हें उत्पाद के उपयुक्त हिस्से का स्वामी बनाया।
1978 में शुरू हुआ यह भूमि सुधार 1980 के दशक के मध्य में समाप्त
हुआ। इसके समाप्त होने तक मँ झोले और निचले मँ झोले किसानो ं का एक
पूरा वर्ग तैयार हुआ जो पिछले चुनावो ं में हार तक माकपा का परम्परागत
सामाजिक आधार बना रहा। इनमें से कु छ किसान समय के साथ धनी किसानो ं
में तब्दील हो गये जो अभी भी माकपा का समर्थन करते हैं। लेकिन जो नीचे
रह गये या और नीचे चले गये वे भूतपूर्व माकपा सरकार की नवउदारवादी
नीतियो,ं कारपोरेट पूँजी के हाथ बिक जाने और भूमि अधिग्रहण के लिए
दमन-उत्पीड़न का सहारा लेने के चलते उससे कट गये। इसी पूरे वर्ग को
तृणमूल कांग्रेस ने नन्दीग्राम और सिगं ूर के आन्दोलन के दौरान समेटा, जिसमें
कि भाकपा (माओवादी) ने भी एक समर्थनकारी भूमिका निभायी। बहरहाल,
बीते चुनावो ं में माकपा की हार का सबसे बड़ा कारण इस विशालकाय वर्ग
का उससे कटना और नन्दीग्राम और सिगं ूर के आन्दोलनो ं के कारण शहरी
मध्यवर्ग और बुद्धिजीवियो ं के एक हिस्से में उसका अलग-थलग पड़ जाना था।
पश्चिम बं गाल में माकपा मज़दूरो ं के बीच भी लम्बे समय से अलग-थलग पड़ने
की प्रक्रिया में थी। यह पूरी प्रक्रिया बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुख्यमं त्रित्व काल में
असाधारण तेज़ी से बढ़ी। बुद्धदेव का हड़ताल-विरोधी, मज़दूर-विरोधी रवैया
माकपा को सं गठित मज़दूरो ं के भी एक अच्छे -ख़ासे हिस्से में हिकारत का पात्र
बना रहा था। असं गठित मज़दूरो ं के प्रति तो बुद्धदेव की सरकार का रवैया शुरू
से अन्त तक दमनकारी रहा ही था। ज्योति बसु के काल में भी यह प्रक्रिया
जारी थी, लेकिन बुद्धदेव ने इसे निपट नं गई के साथ आगे बढ़ाया। बुद्धदेव ने
अपने शासन के दौरान ही एक बार यहाँ तक कह दिया कि मज़दूरो ं को हड़ताल
नही ं करनी चाहिए क्योंकि इससे आर्थिक विकास और वृद्धि प्रभावित होती है!
आगे उन्होंने कहा कि वर्ग सं घर्ष का ज़माना अब लद गया है और मज़दूर वर्ग
को अब वर्ग सहयोग की नीति पर अमल करना चाहिए! हालाँकि, अभी हाल
ही में पश्चिम बं गाल में माकपा के राज्य सम्मेलन में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने
इन कथनो ं पर गोलमाल करने की कोशिश की, लेकिन इसके बावजूद इतिहास
सं शोधनवाद के असली चरित्र और मज़दूर वर्ग से उसकी घृणित ग़द्दारी के तौर
पर बुद्धदेव के इन कथनो ं को हमेशा याद रखेगा।
कु ल मिलाकर, कारपोरेट पूँजी की लूट को सुचारू बनाने के लिए भूतपूर्व
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 53
माकपा सरकार पश्चिम बं गाल में जिस तरह से नं गे तौर पर अपने पूँजीवादी
चरित्र को उजागर कर रही थी, उससे बहुसं ख्यक मज़दूर और ग़रीब और निम्न
मध्यम किसान आबादी में उसका अलग-थलग पड़ना लाजिमी था और इसी
के फलस्वरूप उसकी विधानसभा चुनावो ं में शर्मनाक पराजय हुई। लेकिन
ताज्जुब की बात यह है कि माकपा कांग्रेस में पास विचारधारात्मक मुद्दों पर
प्रस्ताव और राजनीतिक मुद्दों पर प्रस्ताव में इस हार के कारणो ं का कही ं कोई
विस्तृत मूल्यांकन नही ं है। बस तथ्यतः इस बात को कह दिया गया है कि ये
हारें पार्टी के लिए एक झटका थी ं और इनसे उबरने के लिए एक वाम जनवादी
विकल्प के निर्माण के लिए पार्टी को काम करना होगा!
कांग्रेस के पहले माकपा के सचिव प्रकाश करात ने एक बुर्जुआ इतिहासकार
रामचन्द्र गुहा के एक लेख का जवाब देते हुए कहा था कि नन्दीग्राम और सिगं ूर
में ग़लती पार्टी की भूमि नीति आदि की नही ं थी, बल्कि ग़लती बस यह थी कि
पार्टी ने एक ग़लत जगह का चुनाव कर लिया था। ‘कॉमरेड’ करात ने जनता
के ज्ञानचक्षु खोलते हुए यह खुलासा किया कि स्थानीय प्रतिनिधि निकायो ं के
स्तर पर इन सभी जगहो ं पर तृणमूल के लोग सत्तासीन थे। इसलिए नन्दीग्राम
और सिगं ूर में जो कु छ हुआ वह वास्तव में ममता बनर्जी की साजिश थी!
इस तरह के विश्लेषण के बारे कु छ कहना अपना मज़ाक उड़वाने जैसा ही
होगा! वैसे, करात महोदय को यह भी बताना चाहिए कि अगर नन्दीग्राम
और सिगं ूर में माकपा ने बस जगह का चुनाव ग़लत किया था और उसकी
नीति बिल्कु ल दरुु स्त थी तो नन्दीग्राम और सिगं ूर के मुद्दे के बाद पार्टी ने इस
मुद्दे पर माफ़ी क्यों माँगी थी और ग़लती का स्वीकार क्यों किया था? माकपा
ने तो पश्चिम बं गाल में पं चायत चुनावो ं के पहले नाराज़ किसानो ं को मनाने के
लिए यहाँ तक एलान कर दिया था कि वह जल्दी ही ऑपरेशन बरगा-2 शुरू
करेगी! लेकिन जाहिर है कि ऐसे फ़रेबो ं के चक्कर में जनता नही ं पड़ने वाली
थी। नतीजतन, उसने पहले माकपा को पं चायत चुनावो ं में धूल चटायी और
उसके बाद विधानसभा चुनावो ं में भी उसकी तबीयत हरी कर दी! अब जाहिर
है कि माकपा अपनी कांग्रेस में इस पूरे अपमानजनक प्रकरण पर विश्लेषण
रखती भी तो क्या? अगर ऐसा करने का वह प्रयास भी करती तो प्रकाश
करात, सीताराम येचुरी आदि को अपने ही मुँह पर इतने तमाचे जड़ने पड़ते
कि माकपा के काडर गिनती भूल जाते! इसलिए जाहिर है कि मूल और ठोस
मुद्दों का विश्लेषण करने के बजाय माकपा के नेतत्व ृ ने कांग्रेस में पेश किये गये
54 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
अपने विचारधारात्मक प्रस्ताव में बड़ी-बड़ी विचारधारात्मक तोपें दगाई हैं!
पूरे प्रस्ताव की भाषा को खूब गर्म रखा गया है, और मार्क्सवाद-लेनिनवाद,
लेनिन, माओ आदि का इतना नाम लिया गया कि माकपा के ईमानदार काडरो ं
को लगे कि पार्टी नेतत्व
ृ शायद क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की तरफ़ लौट रहा है!
लेकिन प्रस्ताव का अन्त होते-होते, ऐसी सभी महान आशाओ ं का भी दख ु द
अन्त हो जाता है। प्रस्ताव का अन्त होते-होते माकपा अपनी सं शोधनवादी
काऊत्स्कीपंथी ग़द्दारी की भाषा पर वापस लौट आती है। यह देखना दिलचस्प
होगा कि माकपा ने अपने प्रस्तावो ं में किस कलात्मक चतुराई के साथ ढोगं -
पाखण्ड किया है और मज़दूर वर्ग से अपनी ग़द्दारी को सारी कारीगरी के
बावजूद वह ढँ कने में कामयाब नही ं हो पायी है।
माकपा ने कोझिकोड कांग्रेस में जो विचारधारात्मक प्रस्ताव पेश किया है
वह करीब 54 पेज लम्बा है! इसकी प्रस्तावना के दूसरे बिन्दु में ही माकपा
ने समाजवाद की अपनी समझदारी को नं गा कर दिया है। प्रस्तावना के बिन्दु
1-2 में माकपा की 1992 में हुई चौदहवी ं कांग्रेस की याद दिलायी गयी
है और बताया गया है कि 1990 में सोवियत सं घ में समाजवाद के पतन
के बाद विश्व भर में वर्ग शक्ति सन्तुलन साम्राज्यवाद के पक्ष में झक ु गया!
इसका अर्थ है कि माकपा 1953 में स्तालिन की मृत्यु और 1956 में सोवियत
सं घ की कम्युनिस्ट पार्टी की सं शोधनवादी बीसवी ं कांग्रेस के बाद के पूरे दौर
को भी समाजवाद का दौर मानती है। इस पूरे दौर में सोवियत सं घ को वह
साम्राज्यवादी देश के रूप में नही ं देखती है! जबकि 1956 से 1990 के पूरे
दौर में सोवियत सं घ सं युक्त राज्य अमेरिका के साथ साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा
में उलझा हुआ था। पूर्वी यूरोप से लेकर अफगानिस्तान और अफ्रीका के
कई देशो ं में सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत सं घ ने दज़र्नों बार नग्न रूप
में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप किया। स्तालिन के बाद के दौर में सोवियत सं घ
में पूँजीवाद के वापस लौट आने की सच्चाई को माकपा नज़रन्दाज़ कर देती
है। 1956 के बाद ख्रुश्चेव ने शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व (यानी, दनु िया भर में
सोवियत सं घ के ‘समाजवाद’ और सं युक्त राज्य अमेरिका की चौधराहट में
पूँजीवाद के शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व), शान्तिपूर्ण सं क्रमण (यानी, सर्वहारा
क्रान्ति के बिना ही शान्तिपूर्ण और सं सदीय रास्ते से समाजवाद के स्थापित
होने) और शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता का सं शोधनवादी सिद्धान्त प्रतिपादित
किया। इसके साथ ही सोवियत सं घ की सं शोधनवादी पार्टी ने मार्क्सवाद के
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 55
बुनियादी सिद्धान्तों से अपना नाता तोड़ लिया, लेनिन के राज्य और क्रान्ति
की थीसिस को नकार दिया और मज़दूर वर्ग के साथ ऐतिहासिक ग़द्दारी को
सैद्धान्तिक जामा पहना दिया। माओ के नेतत्व ृ में चीन की पार्टी ने सोवियत
सं घ की सं शोधनवादी पार्टी के साथ ‘महान बहस’ के दौरान सोवियत पार्टी की
ग़द्दारी और मार्क्सवाद से उसके प्रस्थान को उजागर किया और दिखलाया कि
सोवियत सं घ की पार्टी अब एक पूँजीवादी पार्टी बन चुकी है। लेकिन माकपा
को इस पूरे प्रकरण के बारे में अपने पूरे विचारधारात्मक दस्तावेज़ में कु छ भी
नही ं कहना है। और कहे भी क्यों! माकपा तो शुरू से ही ख्रश्चेवपं थी ही रही है।
इसलिए मार्क्सवादी शब्दावली में की गयी अपनी तमाम लफ्फाजी के बावजूद
उसका मज़दूर वर्ग-विरोधी चरित्र उजागर हो ही जाता है। लेकिन बेशर्मी की
इन्तहाँ तो तब हो जाती है जब माकपा इस दस्तावेज़ में यह दावा करती है कि
वह भाकपा के सं शोधनवाद से सं घर्ष करते हुए ही पैदा हुई थी! अगर वह
1990 तक सोवियत सं घ को समाजवादी मानती है, तो कोई भी यह सोचने
को मजबूर हो जाता है कि आखि़ र भाकपा किस तरह से सं शोधनवादी है, और
माकपा क्यों सं शोधनवादी नही ं है!
इसके बाद बिन्दु 1-5 में माकपा नेतत्व
ृ कहता है कि 1968 में उसने वामपं थी
दस्सा
ु हसवाद का सामना किया। निश्चित रूप से, यहाँ इशारा नक्सलबाड़ी
विद्रोह की तरफ़ है। निश्चित रूप से, नक्सलबाड़ी विद्रोह वामपं थी दस्सा
ु हसवाद
का शिकार हो गया। लेकिन माकपा नेतत्व ृ यह बात गोल कर जाता है कि
नक्सलबाड़ी विद्रोह वास्तव में एक क्रान्तिकारी किसान विद्रोह के रूप में शुरू
हुआ था! माकपा नेतत्व ृ यह सच्चाई भी छिपा जाता है कि इस आन्दोलन
के वामपं थी दस्सा
ु हसवाद के गड्ढे में जाने के बावजूद इसका एक प्रमुख मुद्दा
माकपा के सं शोधनवाद का नकार करना था। माकपा का नेतत्व ृ यह सच्चाई
भी निगल जाता है कि माकपा के भीतर ही एक अन्तर्पार्टी सं शोधनवाद-
विरोधी समिति अस्तित्व में आयी थी और देश के अन्य हिस्सों में भी माकपा
के भीतर से ही ऐसी क्रान्तिकारी राजनीतिक धाराएँ पैदा हुईं जो चारू मजुमदार
ु हसवाद के पक्ष में नही ं खड़ी हुईं, लेकिन उन्होंने माकपा के
के वामपं थी दस्सा
सं शोधनवाद को भी नकार दिया। इन धाराओ ं की भारतीय क्रान्ति की मं जिल
की समझदारी पर हम सवाल खड़ा कर सकते हैं, लेकिन कोई यह नही ं कह
सकता कि उन्होंने माकपा की ग़द्दारी से अपने आपको अलग नही ं किया।
यह सारे तथ्य छिपाते हुए माकपा नेतत्व ृ इस दस्तावेज़ में भाकपा के रूप में
56 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
सं शोधनवाद और नक्सलबाड़ी आन्दोलन के रूप में ‘वामपं थी’ दस्सा ु हसवाद
के खि़ लाफ़ ‘सं घर्ष’ करने के लिए नं गई भरे पाखण्ड के साथ अपना गाल
बजाता है और यह दावा करता है (बिन्दु 1-7) कि अपनी सही लाइन के
कारण ही माकपा देश की सबसे बड़ी वामपं थी पार्टी बन गयी! यानी कि बड़े
होने को सही होने के प्रमाण के रूप में पेश किया गया है। अगर बड़ा होना सही
होने की निशानी है तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक सं घ को सही क्यों न मान लिया जाय?
अगर बड़ा होना ही सही होना है तो काऊत्स्की के नेतत्व ृ में जर्मन सामाजिक
जनवादी पार्टी को भी माकपा को खुले तौर पर सही मानना चाहिए, जो कि
क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के पैदा होने के बाद भी सबसे बड़ी ‘वामपं थी’
पार्टी बनी रही! माकपा का टुच्चा तर्क आपके सामने है!
इसके बाद अगले खण्ड (‘विश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवाद की
कार्यप्रणाली’) में यह दस्तावेज़ सं शोधनवादी दोगलेपन के सारे कीर्तिमान
ध्वस्त करते हुए यह दावा करता है कि साम्राज्यवाद के बारे में लेनिन का
सिद्धान्त अभी भी सही है (बिन्दु 2-4)! लेकिन इसके बाद वह जो सिद्धान्त
प्रतिपादित करता है वह वास्तव में काऊत्स्की का अतिसाम्राज्यवाद का
लेनिनवाद-विरोधी सिद्धान्त है! माकपा नेतृत्व बिन्दु 2-6 में कहता है कि आज
के दौर में वैश्विक वित्तीय पूँजी ने प्रतिस्पर्द्धा को कम कर दिया है और वह किसी
एक राष्ट्र-राज्य के हितो ं के लिए नही ं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद के लिए
काम करती है। यानी कि साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और विश्व के पुनर्विभाजन
के लिए साम्राज्यवादी युद्ध की स्थिति नही ं है; जाहिर है, इसलिए लेनिन ने जिस
रूप में क्रान्तिकारी परिस्थिति पैदा होने की उम्मीद की थी, वह अब नही ं हो
सकता है; इससे क्या नतीजा निकलता है? इससे यह नतीजा निकलता है कि
अब बल प्रयोग के साथ सर्वहारा क्रान्ति सफल नही ं हो सकती और शान्तिपूर्ण
तरीके से ही समाजवाद की स्थापना के बारे में सोचा जा सकता है! यही तो
काऊत्स्की की थीसिस थी! लेकिन इसे लेनिन के मत्थे मढ़ दिया गया है! अन्त
में, बिन्दु 2-10 में बस इतना जोड़ दिया गया है कि साम्राज्यवादी विश्व फिर से
प्रतिस्पर्द्धा में पड़ सकता है, लेकिन यह भी कह दिया गया है कि यह प्रतिस्पर्द्धा
सिर्फ मुद्रा युद्धों का रूप लेगी। यह सच है कि साम्राज्यवाद के भूमण्डलीकरण
की मं जिल में विश्व युद्ध जैसी स्थिति के पैदा होने की उम्मीद कम है। लेकिन
यह भी सच है, और इसके समकालीन विश्व में ही प्रमाण मौजूद हैं, कि
साम्राज्यवाद के मुद्रा युद्ध क्षेत्रीय और महाद्वीपीय साम्राज्यवादी युद्धों का रूप
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 57
लेंगे! क्या माकपा नेतत्व
ृ भूल गया है कि सद्दाम हुसैन पर अमेरिका के हमले
का कारण जनसं हार के हथियार नही ं थे, बल्कि सद्दाम हुसैन द्वारा अपने विदेशी
मुद्रा भण्डार का वैविध्यीकरण था? क्या हम भूल गये कि इराक़ को जिस बात
की सज़ा दी गयी वह यह थी कि उसने अमेरिका की डावाँडोल अर्थव्यवस्था के
खि़ लाफ़ एक कदम उठा लिया था? क्या प्रकाश करात को याद नही ं कि इराक़
में जो साम्राज्यवादी हमला हुआ उसका वास्तविक कारण मुद्रा युद्ध ही था?
लेकिन माकपा को तो किसी भी तरह काऊत्स्की की अतिसाम्राज्यवादी थीसिस
पर लेनिन का नाम चिपका कर अपने सं शोधनवाद को सही साबित करना है।
इसलिए, इस किस्म की राजनीतिक नटगीरी करना उसकी मजबूरी है!
इसके बाद माकपा का विचारधारात्मक दस्तावेज़ मार्क्सवादी राजनीतिक
अर्थशास्त्र की एक पैरोडी तैयार करता है! बिन्दु 2-13 में हमें बताया जाता
है कि नवउदारवादी की नीति में विकासशील देशो ं में छोटे और मँ झोले
उद्योग-धन्धे तबाह होते हैं और विकसित देशो ं में भी आउटसोर्सिंग के जरिये
विऔद्योगिकीकरण होता है! अब यह तो प्रकाश करात ही बता सकते हैं कि
औद्योगिक उत्पादन हो कहाँ रहा है! विकसित देशो ं में भी उद्योग तबाह हो रहे
हैं और विकासशील देशो ं में भी उद्योग तबाह हो रहे हैं। आखि़ र विकसित देश
आउटसोर्सिंग करके उद्योग को भेज कहाँ रहे हैं? करात महोदय के अनुसार
शायद चाँद पर! विकासशील देशो ं का पूँजीपति वर्ग अपनी स्वायत्तता खोकर
लगातार विश्व साम्राज्यवाद का पार्टनर बनता जा रहा है (बिन्दु 2-15)! इसका
माकपाई विकल्प क्या है? नेहरू के दौर में जिस तरह से देश के पूँजीपति वर्ग
ने अपनी फ्स्वायत्तताय् बरकरार रखी थी, वैसे ही अभी भी रखी जानी चाहिए!
माकपा उस दौर को लेकर भावुक हो जाती है! साफ़ है, माकपा की समझदारी
यहाँ पर एक राज्य इज़ारेदार पूँजीवाद और कल्याणवाद की हिमायत करने की
है। लेकिन अफ़सोस की वह दौर अब लौट नही ं सकता; वह भारतीय पूँजीवाद
के विकास का एक ख़ास दौर था, और उस प्रकार की सापेक्षिक ‘स्वायत्तता’
की भारत के पूँजीपति वर्ग को भूमण्डलीकरण के दौर में ज़रूरत नही ं है। बल्कि
कहना चाहिए कि पूरे विश्व में किसी भी देश के पूँजीपति वर्ग को अब इसकी
ज़रूरत नही ं है। लेकिन माकपा उस दौर के बीत जाने पर अपने आँसुओ ं को
रोक नही ं पा रही है!
इसके बाद बिन्दु 2-16 में माकपा कहती है कि भूमण्डलीकरण के इस
दौर में साम्राज्यवादी पूँजी ने ‘आदिम’ सं चय की प्रक्रिया नये सिरे से शुरू
58 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
कर दी है जिसके तहत 1950 से लेकर 1990 के बीच आज़ाद हुए देशो ं में
किसानो,ं जनजातियो ं और ग़रीब मेहनतकश आबादी को उसकी जगह-ज़मीन
से उजाड़ा जा रहा है। साम्राज्यवादी पूँजी देशी पूँजीपति वर्ग के साथ मिलकर
दनु िया के उन कोनो ं में प्रविष्ट हो रही है, जहाँ अभी तक उसकी मौजूदगी नही ं
थी, या कम थी। यह बात तो सच है! लेकिन ऐसे में माकपा से पूछना होगा कि
यही काम तो वह भी नन्दीग्राम और सिगं ूर में कर रही थी! इसके बारे में उसका
क्या ख़्याल है? अगर वह काम कांग्रेस और भाजपा की सरकारें करें तो ग़लत
है, लेकिन अगर माकपा की सरकार करे तो सही है! जाहिर है, कि माकपा का
दोगलापन उसके विचारधारात्मक दस्तावेज़ में ही बार-बार निकलकर सामने
आ जा रहा है! माकपा नेतत्व ृ आगे हमारा ज्ञानवर्द्धन करते हुए कहता है कि
आदिम सं चय की इस प्रक्रिया के कारण पूँजीवादी राज्य ज़्यादा से ज़्यादा ग़ैर-
जनवादी होता जा रहा है; कानून बनाने की पूरी जनवादी प्रक्रिया को कमज़ोर
किया जा रहा है और उस पर से जनता का नियन्त्रण ख़त्म हो गया है! क्या
माकपा का यह विश्वास है कि भारत के सं सद के सुअरबाड़े में जो कानून बनाने
की प्रक्रिया चलती है, उस पर जनता का कोई नियं त्रण है? क्या माकपा यह
मानती है कि सिगं ूर और नन्दीग्राम के दौरान माकपा की सरकार ने जो कु छ
किया वह दमनकारी, उत्पीड़नकारी और ग़ैर-जनवादी नही ं था? क्या उस पूरी
प्रक्रिया में माकपा की सरकार जनता की आकांक्षाओ ं के अनुसार चल रही
थी? क्या जनता का उस पर कोई नियं त्रण था? स्पष्ट है, कि यहाँ भी माकपा
नेतत्व
ृ एक सैद्धान्तिक लफ्फाजी कर रहा है। एक जगह तो यह लफ्फाजी
यहाँ तक पहुँच जाती है जिसमें माकपा नेतत्व ृ ग़लती से यह मान बैठता है कि
बुर्जुआ राज्य वास्तव में बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही हो सकता है! लेकिन फिर
भी माकपा का मानना है कि सं सद में बहुमत के जरिये इस राज्य सत्ता पर
सर्वहारा वर्ग काबिज़ हो सकता है! ऐसा विचारधारात्मक द्रविड़ प्राणायाम तो
प्रकाश करात और सीताराम येचुरी जैसे लोग ही कर सकते हैं!
अगले खण्ड (‘नवउदारवादी विश्वीकरण की अवहनीयता और पूँजीवादी
सं कट’) में माकपा नेतत्व ृ फरमाता है कि पूँजीवाद को सुधारा नही ं जा सकता
क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था की वास्तविक बुराई पूँजीवादी उत्पादन के तरीके
में ही मौजूद होती है! लेकिन साथ ही माकपा के अनुसार जनवादी कार्यभार
और समाजवाद की स्थापना शान्तिपूर्ण तरीके से ही होनी चाहिए! अब आप
खुद फै सला करें कि ऐसा कै से हो सकता है! लेनिन ने बताया था कि सर्वहारा
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 59
वर्ग बुर्जुआ सत्ता पर कब्ज़ा नही ं करता बल्कि उसका ध्वं स करता है। बुर्जुआ
सत्ता पर सं सद में बहुमत के जरिये कब्ज़ा करके कभी भी सर्वहारा सत्ता की
स्थापना नही ं हो सकती, क्योंकि बुर्जुआ राज्यसत्ता को सुधारा नही ं जा सकता
और उसका वर्ग चरित्र सर्वहारा नही ं बनाया जा सकता। यहाँ आप माकपा की
कलाबाज़ी को देख सकते हैं! तर्क को स्वीकार किया गया है कि पूँजीवाद को
सुधारा नही ं जा सकता, लेकिन उसके नतीजे को नकार दिया गया है, यानी कि,
इस असुधारणीयता के चलते ही सर्वहारा वर्ग को पूँजीपति वर्ग की राज्य सत्ता
को चकनाचूर कर अपनी क्रान्तिकारी सर्वहारा सत्ता की स्थापना करनी होगी!
माकपा नेतत्वृ की ‘बहादरु ी’ की उस समय दाद देनी पड़ती है जब बिन्दु 3-1
में कहता है कि हमें इस सामाजिक जनवादी झठू को नकार देना चाहिए कि
पूँजीवाद को सुधारा जा सकता है! लेकिन तब दिमाग़ में यह भी सवाल पैदा
होता है कि माकपा स्वयं हमेशा इसी बात का नुस्ख़ा तो सुझाती है कि पूँजीवादी
राज्य अगर कल्याणकारी नीतियो ं अपना ले, अगर वह घरेलू माँग को बढ़ाकर
रोज़गार पैदा करे, और अगर वह अल्पउपभोग को समाप्त कर दे तो सबकु छ
ठीक हो जायेगा! अब इसे सुधारवाद न कहा जाय तो क्या कहा जाय? इसका
जवाब भी करात व येचुरी जैसे नट ही दे सकते हैं! बिन्दु 3-4 व 3-5 में अपने
सुधारवाद को माकपा खोलकर रख देती है। हमें बताया जाता है कि पूँजीवाद
मानव सं साधनो ं में निवेश न करके तकनोलॉजी में निवेश करता है जिससे कि
बेरोज़गारी पैदा होती है, अल्पउपभोग होता है, जनता की क्रय क्षमता घटती है
और सं कट पैदा होता है। यानी कि सवाल निवेश के स्थान का है न कि उत्पादन
के साधनो ं के सामूहिक मालिकाने का। ऐसा पूँजीवाद जिसमें राज्य के हाथ में
बड़े पैमाने के उद्योग हो ं और वह कल्याणकारी नीतियो ं में निवेश करता हो और
जनता के लिए रोज़गार पैदा करके क्रय क्षमता का व्यापक विस्तार करता हो,
वह अगर उत्पादन के साधनो ं के मालिकाने को सामूहिक न करे, राजनीतिक
निर्णय लेने की प्रक्रिया मज़दूर वर्ग के हाथ न सौपं े, वह अगर उत्पादन से लेकर
वितरण तक मज़दूर वर्ग का नियं त्रण न भी स्थापित करे तो वह स्वीकार्य है! पर
यह मार्क्सवाद तो नही ं है! यह तो हॉब्सन के अल्पउपभोगवाद और काऊत्स्की
के सामाजिक-जनवादी की लस्सी है! माकपा बताती है कि अगर इस लस्सी
को पिया जाय तो पूँजीवाद अपने सं कट से मुक्त हो सकता है! इसलिए वास्तव
में माकपा जो कर रही है, वह एक सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति सुझाना नही ं
है, बल्कि एक बेहतर, सुधरे हुए, कल्याणकारी और राज्य इज़ारेदार पूँजीवाद
60 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
का मॉडल सुझाना है, जिसे माकपा जैसा मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी करने वाले
सामाजिक जनवादियो,ं काऊत्स्कीपंथियो ं का गिरोह ही लागू करवा सकता है!
हालाँकि, पूँजीवाद की नैसर्गिक गति का दबाव कु छ ऐसा होता है कि ऐसा कोई
मॉडल कभी लागू हो ही नही ं सकता। यही तो कारण था कि माकपा को भी
पश्चिम बं गाल में अपने शासन के दौरान कल्याणवाद छोड़कर नवउदारवाद
की शरण में जाना पड़ा!
इसके बाद माकपा नेतत्वृ इस मज़ाकिया विचारधारात्मक प्रस्ताव के बिन्दु
3-10 से 3-16 में हमारा ज्ञानवर्द्धन करते हुए बताता है कि पूँजीवाद सं कटग्रस्त
होने के बावजूद अपने आप नही ं पलट सकता और उसे पलटने के लिए मज़दूर
वर्ग को राजनीतिक रूप से सं गठित होकर एक मज़बूत आत्मगत शक्ति का
निर्माण करना होगा! सही बात है! लेकिन कै से? माकपा इतिहास द्वारा
सौपं ी गयी इस महती जिम्मेदारी को कै से निभा रही है? सं सदवाद, अर्थवाद,
ट्रेडयूनियनवाद और सुधारवाद से! सं गठित मज़दूरो ं के बीच आर्थिक सं घर्ष के
गोल चक्कर में घूमते हुए, और असं गठित मज़दूर वर्ग को राम भरोसे छोड़कर!
और जब माकपा पूँजीवाद को ‘पलटने’ की बात करती है, तो आप मुश्किल
से अपनी हँ सी रोक पाते हैं! अभी तो हमें बताया गया था कि पूँजीवाद को
बदल जनवाद और समाजवाद की स्थापना के लिए शान्तिपूर्ण तरीके अपनाए
जाएँ गे! फिर से उलटना-पलटना कहाँ से आ गया! बाद में बात समझ में
आयी! वह इसलिए कि माकपा के काडरो ं में जो ईमानदार बचे हैं, उन्हें भी
भ्रम में बनाए रखना है! विश्वविद्यालय कै म्पसो ं आदि में जो परिवर्तनकामी
नौजवान और छात्र पकड़ में आते हैं, उन्हें भी तो बेवकू फ़ बनाना है! अगर
मज़दूर मार्क्सवाद के सम्पर्क में आकर पार्टी के सं शोधनवाद पर सवाल खड़े
करने लगें, तो उन्हें चुप कराने के लिए भी तो कु छ शब्द चाहिए! इसीलिए इस
विचारधारात्मक प्रस्ताव में मार्क्स, लेनिन, माओ आदि का नाम लेकर काफ़ी
तोपें छोड़ी गयी हैं! लेकिन, अगर आप पूरा दस्तावेज़ पढ़ें तो पता चलता है
कि ये सब नौटंकी था!
बिन्दु 4-1 से 4-4 तक हमें साम्राज्यवाद के हौव्वे से डराया जाता है।
बताया जाता है कि आज साम्राज्यवाद बेहद आक्रामक हो गया है। हर सं कट
के बाद कोई विकल्प न होने के कारण यह और अधिक शक्तिशाली होकर
उभरता है और अपने शोषण को और अधिक सघन बना देता है। साम्राज्यवाद
आज हर जगह हस्तक्षेप कर रहा है। जिन देशो ं ने नवउदारवाद को और
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 61
वाशिगं टन सहमति को ठु करा दिया वह जनवाद का दश्म ु न बना दिया जाता है
और फिर वहाँ जनवाद स्थापित करने के नाम पर साम्राज्यवाद हस्तक्षेप करता
है और मनमुआफिक तरीके से सत्ता परिवर्तन कर देता है। यह सच है कि आज
साम्राज्यवाद अपने हितो ं पर ख़तरा पैदा होने पर हस्तक्षेप करता है। लेकिन
साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के तीखे होने के साथ विश्व साम्राज्यवाद के चौधरी
अमेरिका को जगह-जगह समझौते करने पड़ रहे हैं, सत्ता में हिस्सेदारी देनी
पड़ रही है और अब वह उतने मनमुआफिक तरीके से सत्ता परिवर्तन भी नही ं
कर पा रहा है। इराक़ और अफगानिस्तान के विनाशकारी अनुभव के बाद
कही ं भी हस्तक्षेप करने से पहले अमेरिका को बीस बार सोचना पड़ रहा है। यह
हस्तक्षेप करने की जिम्मेदारी भी वह अन्य ताक़तो ं के साथ साझा करना चाहता
है। मिसाल के तौर पर, लीबिया में हस्तक्षेप करने और फिर लूट का माल
लपेटने में यूरोपीय ताक़तो ं का हाथ ऊपर रहा। उसी तरह सीरिया में हस्तक्षेप
करने की भी अमेरिका हिम्मत नही ं जुटा पा रहा है। अरब जनउभार के दौरान
जब जनविद्रोह के कारण अमेरिका-समर्थित सत्ताएँ पलट दी गयी ं तो भी
अमेरिका ने हस्तक्षेप करने का ख़तरा उठाने की बजाय नयी सत्ताओ ं को अपने
हितो ं के अनुसार सहयोजित करने का प्रयास किया। स्पष्ट है कि साम्राज्यवाद
हमेशा से ज़्यादा कमज़ोर और डावाँडोल स्थिति में है। आगे माकपा स्वयं यह
बात मानती है और बिन्दु 4-5 में कहती है कि कई क्षेत्रीय शक्तियो ं जैसे कि
तुर्की और सीरिया के उभार के कारण साम्राज्यवादी अन्तरविरोध बढ़े हैं। आप
देख सकते हैं कि माकपा नेतत्व ृ बुनियादी मार्क्सवादी विश्लेषण भी भूल गया
है। वह कही ं कु छ कहता है, तो कही ं कु छ! ऐसे अन्तरविरोधो ं से पूरा दस्तावेज़
भरा हुआ है।
पाँचवा खण्ड (‘सं क्रमण का दौर और आज का पूँजीवाद’) में भी माकपा
ने अपने सं शोधनवादी कचरे को नायाब तरीके से फै लाने की कोशिशें की हैं।
बिन्दु 5-1 और 5-2 में हमारे ज्ञानचक्षु खोलते हुए करात-येचुरी एण्ड कम्पनी
कहती है कि 1992 में उनकी पार्टी ने कहा था कि 1990 में सोवियत सं घ
में समाजवाद का पतन समाजवाद की विचारधारा का पतन नही ं है। आगे
हमें समाजवाद के शुरुआती प्रयोगो ं की समस्या बतायी जाती है! यह समस्या
माकपा के मुताबिक इस तथ्य में निहित थी कि शुरुआती दौर में सर्वहारा
क्रान्तियाँ उन देशो ं में हुईं जहाँ उत्पादक शक्तियाँ ज़्यादा उन्नत नही ं थी!ं और
ये क्रान्तियाँ उन्नत पूँजीवादी देशो ं में नही ं हुई थी ं इसलिए इनसे पूँजीवाद की
62 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
सेहत पर ज़्यादा असर नही ं पड़ा और पूँजीवाद विज्ञान और तकनोलॉजी में
विकास करते हुए अपना विस्तार करता रहा! यह भी विचित्र तर्क है! यह
त्रात्स्की के तर्क से मेल खाता है, जिसके अनुसार पिछड़े हुए देशो ं में यदि
क्रान्तियाँ होगं ी तो भी उनमें समाजवाद का निर्माण तब तक नही ं किया जा
सके गा, जब तक कि उन्नत देशो ं में क्रान्तियाँ न हो जायें। इसलिए माकपा के
अनुसार सोवियत सं घ में समाजवाद के असफल होने का एक कारण यह भी
था कि वहाँ उत्पादक शक्तियो ं का पर्याप्त विकास नही ं हुआ था। एक तो यह
बात तार्किक तौर पर ग़लत है और दूसरी बात यह कि यह तथ्यतः भी ग़लत
है। सोवियत सं घ 1950 के दशक तक दनु िया की दूसरी सबसे बड़ी औद्योगिक
शक्ति बन चुका था और सैन्य और वैज्ञानिक मामलो ं में वह कई अर्थों में
अमेरिका से भी आगे था। बिन्दु 5-3 और 5-4 में हमें बताया जाता है कि
सोवियत समाजवादी प्रयोग में यह ग़लती हो गयी कि लेनिन की इस चेतावनी
को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया कि पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो सकती है।
1960 में चीनी पार्टी द्वारा साम्राज्यवाद के तत्काल ध्वं स की थीसिस को भी
समाजवाद के पतन का एक कारण बताया गया है। लेकिन यह नही ं बताया
गया है कि पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हुई कब थी? लेकिन पूरे मामले का सार
माकपा यह बताती है कि समाजवाद के पतन का सबसे बड़ा कारण था कि वह
पर्याप्त तेज़ी के साथ उत्पादक शक्तियो ं का विकास नही ं कर पाया। इसलिए
ृ यह सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि 21वी ं सदी
बिन्दु 5-10 में माकपा नेतत्व
के समाजवाद को उत्पादक शक्तियो ं के विकास की गति के मामले में पूँजीवाद
को पीछे छोड़ना पड़ेगा। इस बात से माकपा कहाँ जाना चाहती है, यह आगे
स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन पहले यह स्पष्ट कर दिया जाये कि यह भी एक किस्म
का अर्थवाद है जो समाजवाद का अर्थ सिर्फ उत्पादक शक्तियो ं का विकास
समझता है। इस सिद्धान्त के अनुसार समाजवाद की पूँजीवाद पर श्रेष्ठता इस
वजह से नही ं है कि समाजवाद एक समानतामूलक, न्यायपूर्ण और अधिक
मानवीय व्यवस्था है। इस सं शोधनवादी अर्थवाद के अनुसार समाजवाद की
श्रेष्ठता के वल उत्पादक शक्तियो ं के पूँजीवाद से अधिक तेज़ विकास के द्वारा
ही सिद्ध हो सकती है। सोवियत सं घ में समाजवाद ने जनता को बेहतर जीवन,
रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य मुहैया कराया और यही वह प्रधान कारण था
जिसके कारण सोवियत सं घ ने पूँजीवादी विश्व पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की।
निश्चित रूप से सोवियत सं घ ने दनु िया के किसी भी देश से ज्यादा तेज़ रफ्तार
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 63
से उत्पादक शक्तियो ं का विकास किया। लेकिन सोवियत सं घ की श्रेष्ठता का
प्रमुख कारण यह नही ं था। उल्टे सोवियत सं घ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना की
पृष्ठभूमि तैयार करने में सोवियत पार्टी की इस भूल की एक भूमिका थी कि
उसने भी एक ग़लत समझदारी के चलते उत्पादक शक्तियो ं के विकास पर
ज़्यादा और उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को जारी रखने पर
कम ज़ोर दिया। इसलिए माकपा का पूरा तर्क ही वास्तव में सं शोधनवादी
अर्थवाद का एक जीता-जागता उदाहरण है। वास्तव में, माकपा अपने इस
तर्क से चीन के देंगपं थी ‘बाज़ार समाजवाद’ को सही ठहराना चाहती है। यह
पवित्र काम माकपा अगले खण्ड में अंजाम देती है। लेकिन दस्तावेज़ के पाँचवे
खण्ड के आखि़ री हिस्से में माकपा समाजवाद की अपनी समझदारी पेश करती
है और कहती है कि समाजवाद के तहत सम्पत्ति के विभिन्न रूपो ं (जिसमें निजी
सम्पत्ति भी शामिल है) को जारी रखा जाना चाहिए। राजकीय सम्पत्ति के
साथ निजी सम्पत्ति को जारी रखना चाहिए। स्पष्ट है कि माकपा यहाँ सामूहिक
सम्पत्ति पर बल नही ं देती। आज हम जानते हैं कि पूँजीपति वर्ग बिना निजी
सम्पत्ति के भी अस्तित्वमान रह सकता है। वह राज्य के अधिकारियो ं के रूप
में राजकीय सम्पत्ति का न्यासी बन सकता है। इस राजकीय सम्पत्ति पर जनता
का कोई नियं त्रण नही ं होता है। वह राजकीय पूँजीपति वर्ग के नियं त्रण में होती
है। पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध के वल पूँजी और सम्पत्ति के मालिकाने में निहित
नही ं होते हैं बल्कि सामाजिक अधिशेष नियोजन की पूरी प्रक्रिया पर नियं त्रण
और श्रम विभाजन के रूप में भी अस्तित्वमान रहते हैं। इसका अर्थ यह है कि
अगर कानूनी तौर पर निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा कर भी दिया जाय तो पूँजीपति
वर्ग राज्य और सत्ताधारी पार्टी में कुं जीभूत स्थानो ं पर आसीन होकर शासन
चला सकता है, वह भी बिना निजी सम्पत्ति के । जैसा कि आज चीन में हो रहा
है। अर्थव्यवस्था का करीब 60 फीसदी हिस्सा अभी भी राज्य के नियं त्रण में है।
77 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद के लिए अभी भी राजकीय उद्यम जिम्मेदार हैं।
लेकिन यह राज्य सर्वहारा वर्ग के हाथ में नही ं है, बल्कि कम्युनिस्ट-नामधारी
पूँजीवादी पार्टी के हाथ में है और उसके अधिकारी, पदधारी पूँजीपति वर्ग की
सेवा करते हैं। अब तो चीन की सं शोधनवादी पार्टी ने पूँजीपतियो ं को पार्टी की
सदस्यता भी देना शुरू कर दिया है। जाहिर है कि राज्य से लेकर पार्टी तक में
निजी पूँजीपतियो ं की पहुँच बढ़ती जा रही है। तो एक तरफ़ मज़दूर वर्ग पर
सामाजिक फासीवादी नियं त्रण और विज्ञान और तकनोलॉजी में नवोन्मेष के
64 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
जरिये चीन अपनी वृद्धि दर को लगातार 7-8 प्रतिशत के ऊपर रखने में सफ़ल
हुआ है; अमेरिका के लिए चीन एक साम्राज्यवादी चुनौती के रूप में उभरा है
और विश्व चौधराहट में अमेरिका उसे कु छ हिस्सेदारी देने के लिए विवश भी
हुआ है, लेकिन यह सारी तरक्की चीन में समाजवादी सं स्थाओ,ं सम्बन्धों और
मूल्यों के ध्वं स और मज़दूर वर्ग को फिर से, और पहले से भी ज़्यादा भयं कर
रूप में उजरती गुलाम बनाने की कीमत पर हुआ है। तो उत्पादक शक्तियो ं का
तो विकास हो रहा है लेकिन समाजवाद को नष्ट करके ! लेकिन माकपा के लिए
यह 21वी ं सदी के समाजवाद का एक सम्भावित मॉडल है! हो भी क्यों नही!ं
पश्चिम बं गाल में बुद्धदेव अपने चीनी गुरुओ ं के देंगपं थ पर ही तो अमल करने
की कोशिश कर रहा था!
छठवें खण्ड (‘समाजवादी देशो ं में घटना विकास’) में माकपा ने खुलकर
चीन के ‘बाज़ार समाजवाद’ का समर्थन किया है। माकपा ने एक बार फिर
सं शोधनवादियो ं के पाप को लेनिन और माओ के सिर मढ़ने का प्रयास किया
है। पहले तो दस्तावेज़ में हमें बताया जाता है कि भूमण्डलीकरण के दौर में
विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ समेकन समाजवादी देशो ं की मजबूरी है!
यह भी बताया गया है कि इस समेकन के कारण मौजूदा समाजवादी देशो ं में
(यानी कि नामधारी समाजवादी देशो ं में) असमानता, ग़रीबी, बेरोज़गारी और
भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। माकपा आगे बताती है कि इन देशो ं की उसकी सहोदरा
ग़द्दार सं शोधनवादी पार्टियो ं ने इन पहलुओ ं पर ग़ौर किया है और ज़रूरी कदम
भी उठाये हैं। माकपा इन कदमो ं को सही ठहराने के लिए बताती है कि 21वी ं
सदी में अलग-अलग देशो ं की ठोस परिस्थितियो ं के मुताबिक अलग-अलग
तरीके से समाजवाद का निर्माण होगा। लेकिन माकपा 21वी ं सदी की ‘भिन्न’
परिस्थितियो ं जिस ‘भिन्न’ प्रकार का ‘समाजवाद’ बनाना चाहती है, उसमें
कु छ भी समाजवादी बचा ही नही ं है। वह बिना पूँजीवादी जनवाद के बर्बर
और नं गे किस्म का पूँजीवाद होगा, जैसा कि चीन में है! माकपा बिन्दु 6-4
बताती है आज चीन में जो चीज़ लागू हो रही है वह लेनिन के नेतत्व ृ में
सोवितय सं घ में लागू हुई ‘नई आर्थिक नीतियो’ं जैसा है जिसमें लेनिन ने
निजी सम्पत्ति को बरकरार रखा था, बाज़ार को अपेक्षाकृत खुला हाथ दिया
था, निजी व्यापारियो ं को खुला हाथ दिया था और पूँजीवादी नीतियो ं को लागू
करते हुए पहले उत्पादक शक्तियो ं का उस हद तक विकास करने की नीति
अपनायी थी जिसके बाद समाजवाद का निर्माण शुरू किया जा सके ! एक
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 65
तो माकपा सोवियत सं घ में 1921 में लागू की गयी नयी आर्थिक नीतियो ं के
बारे में झठू बोल रही है और लोगो ं को बेवकू फ़ बनाने की कोशिश कर रही
है, ताकि वे चीन में जो कु छ हो रहा है उसे समाजवाद समझें। 1921 में जब
रूस में क्रान्ति के बाद से जारी गृह युद्ध समाप्त हुआ तो लेनिन ने इस बात का
अहसास किया कि सोवियत सं घ में अगर क्रान्ति की रक्षा करनी है तो मज़दूर-
किसान सं श्रय को बचाना होगा, जिसे लेनिन स्मिच्का कहते थे। लेनिन का स्पष्ट
मानना था कि सोवियत सं घ में मज़दूर अल्पसं ख्या में हैं और मज़दूर सत्ता
ग़रीब और मँ झोले किसानो ं के सहयोग के बिना टिक नही ं सकती है। सर्वहारा
सत्ता के व्यापक सामाजिक आधार के लिए फिलहाल किसानो ं को ज़मीन
का निजी मालिकाना देना पड़ेगा, उन्हें अपने माल के अधिशेष को बाज़ार में
व्यापारियो ं के हाथ बेचने की आज़ादी देनी होगी, बाज़ार की ताक़तो ं को थोड़ा
खुला हाथ देना पड़ेगा। लेकिन यह लेनिन के लिए चयन का मसला नही ं था,
बल्कि मजबूरी थी। लेनिन ने कहा था कि देश की 87 फीसदी आबादी ग्रामीण
है और मुख्य रूप से कृ षि में सं लग्न है। सर्वहारा सत्ता तुरन्त जबरन खेती का
सामूहिकीकरण नही ं शुरू कर सकती। इसलिए हमें सबसे पहले भूमिहीन और
ग़रीब किसानो ं को सामूहिकीकरण पर सहमत करना होगा, वे इसके लिए
सबसे जल्दी तैयार होगं े। उसके बाद मँ झोले किसानो ं को भी ज़ोर-ज़बर्दस्ती से
बचते हुए समझाना होगा और सामूहिकीकरण पर लाना होगा। अगर ऐसा न
किया गया तो कु लक उन्हें अपने पक्ष में कर लेंगे और सोवियत सत्ता के लिए
अस्तित्व का सं कट पैदा हो जायेगा। लेनिन ने कहा कि नयी आर्थिक नीतियाँ
वास्तव में रणनीतिक तौर पर कदम पीछे हटाने जैसा है, और आने वाले चार-
पाँच वर्षों तक हमें उन्हें जारी रखना होगा। यह सोवियत सत्ता को मोहलत
देगा कि वह गाँव की बहुसं ख्यक आबादी को जीत ले और फिर कु लको ं से
ज़मीनें ज़ब्त करते हुए सामूहिक खेती की स्थापना करे। इस तरह हम देख
सकते हैं कि जिस नयी आर्थिक नीति की माकपा बात कर रही है, वह रूसी
पार्टी ने विशेष परिस्थिति में मजबूरी के चलते लागू की थी और उस समय
भी सभी उद्योगो ं का सामूहिकीकरण या राजकीयकरण कर दिया गया था।
उसका मकसद उत्पादक शक्तियो ं के विकास के लिए पूँजीवादी तौर-तरीको ं
का तब तक इस्तेमाल करना नही ं था, जब तक कि समाजवाद के निर्माण योग्य
उत्पादक शक्तियाँ विकसित न हो जायें; बल्कि उसका मकसद था तब तक
भूमि के निजी मालिकाने और बाज़ार की ताक़तो ं को छू ट देना जब तक कि
66 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
सोवियत सत्ता अपने सामाजिक आधार का गाँवो ं में विस्तार न कर ले। ऊपर
से माकपा तथ्यों के साथ बलात्कार करते हुए यह सिद्ध करने की कोशिश कर
रही है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इस समय वही नीतियाँ लागू कर रही है
जो लेनिन के नेतत्वृ में नयी आर्थिक नीतियो ं के तहत 1921 से लागू की गयी
थी!ं चीन की सं शोधनवादी पार्टी इस समय सामाजिक फासीवादी नियं त्रण
का इस्तेमाल करके बर्बर और नग्न तरीके से किसानो ं को तबाहो-बरबाद कर
रही है, मज़दूरो ं का दमन कर रही है और पूरी मेहनतकश आबादी को उसने
पूँजी की नं गी तानाशाही के नीचे दबा दिया है। न तो उसने किसानो ं के भले
के लिए कु छ किया है और न ही उसने सभी उद्योगो ं का राजकीयकरण या
सामूहिकीकरण किया है। उल्टे जितने उद्योग माओ के समय में मज़दूरो ं के
कम्यूनो ं के हाथ थे, देंगपं थी सं शोधनवादियो ं ने उन सभी कम्यूनो ं को भं ग कर
उन्हें निजी या राजकीय पूँजीपतियो ं के हाथो ं सौपं दिया है, और मज़दूरो ं से
इन उद्योगो ं में फासीवादी आतं क स्थापित करके काम कराया जाता है। अब
माकपा इन दोनो ं विपरीत चीज़ों में क्यों समांतर स्थापित कर रही है, इसका
कारण समझा जा सकता है। माकपा का मानना है कि चीनी पार्टी भी पूँजीवादी
तौर-तरीको ं का इस्तेमाल कर उत्पादक शक्तियो ं का विकास उस हद तक कर
रही है कि फिर समाजवाद का निर्माण किया जा सके ! चीनी पार्टी के दस्तावेज़
को उद्धृत करते हुए माकपा बताती है कि चीन अभी आने वाले 100 साल
तक इसी मं जिल में रहेगा! वाह! यानी, 100 सालो ं तक चीनी पार्टी ने अपने
पूँजीवादी तौर-तरीको ं को लागू कराने का बीमा करा लिया है! और माकपा
इसे एकदम सही मानती है! यह है माकपा का असली पूँजीवादी चरित्र! यानी,
जपते रहो ‘समाजवाद-समाजवाद’ और लागू करो नं गे किस्म का पूँजीवाद!
गज़ब तो तब हो जाता है जब माकपा इस पूरी नीति को मार्क्स और एं गेल्स की
नीति बताती है, जिन्होंने कहा था कि समाजवाद का विकास नीचे से होता है!
अब मार्क्स और एं गेल्स ने सपने में भी नही ं सोचा होगा, कि उनके कथन की
ऐसी व्याख्या भी हो सकती है! लेकिन अभी मानवता ने प्रकाश करात और
सीताराम येचुरी जैसे बेशर्म और घाघ सं शोधनवादी नही ं पैदा किये थे!
बिन्दु 6-8 में माकपा बताती है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का ‘बाज़ार
समाजवाद’ बिल्कु ल सही है क्योंकि समाजवाद के तहत तो माल उत्पादन
होगा ही, और अगर माल उत्पादन होगा तो बाज़ार भी रहेगा ही! यह भी
मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के साथ बेहूदी किस्म की ज़ोर-
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 67
ज़बर्दस्ती है। निश्चित रूप से, समाजवाद के दौरान पूँजीवादी श्रम विभाजन
मौजूद रहता है और इसलिए वस्तुओ ं का विनिमय होता है। चूँकि वस्तुओ ं का
विनिमय होता है इसलिए उनका अस्तित्व महज़ वस्तुओ ं के रूप में नही ं बल्कि
माल के रूप में होता है। लेकिन इसका अर्थ यह नही ं है कि माल उत्पादन को
बढ़ावा दिया जाता है और बाज़ार को प्रोत्साहित किया जाता है। उल्टे सर्वहारा
सत्ता लगातार मानसिक और शारीरिक श्रम, शहर और गाँव और उद्योग और
कृ षि के बीच के अन्तर को ख़त्म करते हुए पूँजीवादी श्रम विभाजन और
बुर्जुआ अधिकारो ं का ख़ात्मा करती है और माल उत्पादन को नियं त्रित करते
हुए, समाजवादी उत्पादक शक्तियो ं और उत्पादन सम्बन्धों को बढ़ावा देते
हुए लगातार साम्यवाद की ओर सं क्रमण को सम्भव बनाती है। दूसरी बात,
समाजवादी समाज के ही उन्नत मं जिलो ं में विनिमय को चलाने के लिए बाज़ार
और मुद्रा की ज़रूरत समाप्त हो जाती है। विनिमय की पूरी प्रक्रिया को राज्य
चलाता है और बाज़ार की ज़रूरत ही समाप्त हो जाती है। इसलिए यहाँ भी
माकपा का घाघ नेतत्व ृ जानबूझकर समझदारी दिखलाने की कोशिश कर
रहा है। त्रसदी यह है कि हमारे देश में मार्क्सवादी भी मार्क्सवाद नही ं पढ़ते
और सं शोधनवादी उनसे ज़्यादा मार्क्सवाद पढ़ते हैं। नतीजा यह होता है कि
माकपा जैसी ग़द्दार और घाघ पार्टियो ं की ग़द्दारी को वे पकड़ ही नही ं पाते।
वास्तव में, जब नन्दीग्राम और सिगं ूर के समय किसान प्रश्न पर एक बहस शुरू
हुई थी तो माकपा के बुद्धिजीवी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टियो ं के अधकचरे
बुद्धिजीवियो ं पर हावी हो गये थे, और वह भी मार्क्सवाद को विकृ त करके और
ग़लत-सलत तर्क और तथ्य देते हुए!
आगे इसी खण्ड में माकपा हमें बताती है कि चीन में एक विशेष किस्म का
समाजवाद निर्मित हो रहा है। इसकी सफलता के लिए हमें जीडीपी, जीएनपी
और प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी के आँकड़े बताये जाते हैं। लेकिन इन
पैमानो ं पर तो भारत भी अपनी तरक्की दिखला सकता है! लेकिन उस तरक्की
की चीर-फाड़ माकपा के टट्टू बुद्धिजीवी दहाड़-दहाड़कर करते हैं। लेकिन चीन
में अमीर-ग़रीब के बीच की बढ़ती खाई (ऊपर के 10 प्रतिशत और नीचे
के 10 प्रतिशत के बीच में आय का फर्क 22 गुना है!), बेरोज़गारी, ग़रीबी,
वेश्यावृत्ति के आधार पर वे चीन के विकास के पूँजीवादी असमान विकास
होने की कभी बात नही ं करते! जबकि भारत इस मामले में तो चीन का चेला
है! यहाँ पर नवउदारवादी नीतियो ं को लागू करने में जिस मॉडल की बार-
68 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
बार बात की जाती है, वह चीनी मॉडल है! लेकिन माकपा इन सब चीज़ों को
नज़रअन्दाज़ करते हुए, अपने मनमुआफिक नतीजे निकालती है ताकि उसके
सं शोधनवाद को तुष्ट और पुष्ट किया जा सके ! माकपा बस अन्त में इतना कह
देती है कि चीन में कु छ दिक्कतें हैं और चीन की पार्टी में पूँजीपतियो ं की भर्ती
से भी दिक्कतें बढ़ रही हैं। लेकिन माकपा का चीन के सं शोधनवादी गुरुओ ं पर
पूरा भरोसा है और उसका मानना है कि चीन की पार्टी अन्ततः ‘चीनी किस्म
का समाजवाद’ बनाकर ही मानेगी! निश्चित रूप से! माकपा एक अच्छे शिष्य
की तरह खड़िया और स्लेट लेकर चीन की तरफ देखती हुई खड़ी है! बस बात
यह है कि इन सं शोधनवादी, मज़दूर वर्ग की पीठ में छु रा भोक ं ने वाले, ग़द्दार
गुरू-चेला से मज़दूर वर्ग को कु छ नही ं मिलने वाला और उसे इन ढोगि ं यो-ं
पाखण्डियो ं से बचकर रहना होगा।
आगे वियतनाम, क्यूबा और उत्तर कोरिया के ‘समाजवाद’ का उदाहरण
देते हुए माकपा नेतृत्व इस बात को पुष्ट करने का प्रयास करता है कि 21वी ं
सदी में समाजवाद को विशेष तरीके से ही बनाना होगा, जिसमें निजी सम्पत्ति,
बाज़ार, शोषण, दमन, उत्पीड़न सबकु छ होगा! अब ऐसे समाजवाद का सपना
तो मार्क्स, एं गेल्स, लेनिन, स्तालिन या माओ किसी ने भी नही ं देखा था! इस
समाजवाद में समाजवादी बचा क्या है? इसमें मज़दूर वर्ग का बचा क्या है?
जाहिर है कु छ नही!ं क्यों? क्योंकि माकपा का लक्ष्य समाजवाद तक जाना
है ही नही!ं उसका मकसद समाजवाद का नाम लेते हुए पूँजीवाद की ही रक्षा
करना, उसे बरकरार रखना और उसकी उम्र बढ़ाना है! यही तो सं शोधनवाद
की भूमिका होती है!
सातवें खण्ड में माकपा ने लातिनी अमेरिका में जारी बोलिवारियन विकल्प
के प्रयोगो ं का गुणगान किया है। माकपा का मानना है कि वेनेजएु ला में शावेज़,
बोलीविया में इवो मोरालेस आदि की सत्ताएँ पूँजीवाद के भीतर रहते हुए ही
साम्राज्यवाद और नवउदारवाद का एक विकल्प दे रही हैं! इस विकल्प पर
माकपा नेतत्व ृ फिदा है! क्योंकि इनमें कु छ भी समाजवादी नही ं है। इन प्रयोगो ं
को जनता का समर्थन प्राप्त है जिसके दो कारण हैं। एक है साम्राज्यवाद से
लातिनी जनता की नफ़रत और दूसरा कारण है कि इन सत्ताओ ं द्वारा फिलहाल
आपसी सहयोग और तेल अधिशेष के बूते कल्याणकारी नीतियाँ लागू करना
जिसके कारण पहले की सैन्य जुण्टाओ ं के शासन की तुलना में जनता की
शिक्षा, चिकित्सा, रिहायश आदि तक पहुँच बहुत बढ़ गयी है। लेकिन ऐसी
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 69
सत्ताएँ हमेशा नही ं टिकी रह सकती।ं या तो वहाँ चीज़ें समाजवाद की ओर
जाएँ गी, या फिर खुले, नं गे नवउदारवादी पूँजीवाद की तरपफ़। अगर उन्हें
समाजवाद की तरफ़ जाना होगा तो उन्हें बलपूर्वक सम्पन्न की गयी ं और मज़दूर
ृ में सम्पन्न की गयी ं मज़दूर क्रान्तियो ं
वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतत्व
के जरिये ही जाना होगा! कोई प्रबुद्ध जनवादी शासक, जैसे कि शावेज़, अपने
सुधारो ं के जरिये समाजवाद की स्थापना नही ं कर सकता! क्रान्ति का प्रश्न पूरी
राज्य सत्ता का प्रश्न है, और सर्वहारा क्रान्ति बुर्जुआ राज्यसत्ता के ध्वं स के
जरिये ही सम्पन्न हो सकती है। सं सदीय रास्ते से अगर कोई प्रगतिशील ताक़त
सत्ता में आती है और समाजवादी नीतियाँ लागू करने की प्रक्रिया को एक हद
से आगे बढ़ाती है तो उसका वही हश्र होता है जो चिली में 1973 में सल्वादोर
अयेन्दे का हुआ था, जहाँ साम्राज्यवादी सहयोग से सेना ने अयेन्दे का तख़्ता
पलट कर दिया था। और शावेज़ तो मार्क्सवादी भी नही ं है। लेकिन माकपा
इन सं क्रमणकालीन सत्ताओ ं को एक विकल्प के तौर पर पेश करती हैं क्योंकि
इनमें वे सभी गुण हैं जो समाजवादी क्रान्ति से बचने के लिए सं शोधनवादी
सुझाते हैं – यानी, राज्य कल्याणवाद और राज्य इज़ारेदार पूँजीवाद!
आठवें खं ड (‘भारतीय परिस्थितियो ं में समाजवाद’) में माकपा नेतत्व ृ हमें
बताता है कि भारत में अभी जनता की जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को मज़दूर
वर्ग के नेतत्व
ृ में सम्पन्न किया जाना है; इसके लिए मज़दूर वर्ग का सं गठित
होना होगा। इसके बाद माकपा बताती है कि यह काम सं सदीय और सं सदेतर
जरियो ं से किया जायेगा! मज़दूर और किसान वर्ग का सं श्रय स्थापित किया
जायेगा! ये सारी बकवास करने बाद हमें भारतीय समाजवाद की ख़ासियत
बताई जाती है, जो माकपा शान्तिपूर्ण तरीके से सं सद के जरिये स्थापित करने
के बाद लागू करेगी। इसमें पहली चीज़ है खाद्य सुरक्षा, पूर्ण रोज़गार, शिक्षा,
रिहायश और स्वास्थ्य सुविधाओ ं तक सार्वभौमिक पहुँच। इन सबसे जनता
के जीवन स्तर में बढ़ोत्तरी की जायेगी और समाज के परिधिगत हिस्सों को
आगे लाया जायेगा। दूसरी बात जो माकपा कहती है, वह उसके ख्रुश्चेवपं थ को
नं गा कर देती है। इस समाजवाद में मज़दूर वर्ग की तानाशाही नही ं होगी; यह
पूरी जनता की सत्ता होगी, जो नागरिको ं को वास्तविक नागरिक व जनवादी
अधिकार देगी! यानी, पूरी जनता खुद को ही अधिकार देगी! इसी से इस
धोखाधड़ी का पर्दाफाश हो जाता है। निश्चित रूप से, अगर इसमें मज़दूर वर्ग
की तानाशाही नही ं होगी, तो वह पूँजीपति वर्ग की तानाशाही होगी! इसके बाद,
70 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
माकपा एक सूची पेश करती है जिसके अनुसार उसकी समाजवादी व्यवस्था में
जातिवाद, साम्प्रदायिकता का अन्त हो जायेगा, वगैरह-वगैरह! और अन्त में,
माकपा बताती है कि भारतीय समाजवाद में कई प्रकार की सम्पत्तियाँ होगं ी,
जिसमें कि निजी सम्पत्ति भी शामिल है, और इसके बाद माकपा वही ं बकवास
करती है जो वह चीनी किस्म के समाजवाद को सही ठहराने के लिए कर चुकी
थी! इस तरह से ‘चीनी’, ‘भारतीय’, ‘लातिन अमेरिकी’ किस्मों के समाजवाद
के नाम पर समाजवाद की क्रान्तिकारी सारवस्तु का ही अपहरण कर लिया
जाता है। माकपा एक ऐसे किस्म के समाजवाद की बात करती है, जिसमें से
समाज ग़ायब है और पूँजी का बोलबाला है!
दस्तावेज़ के अन्त में माकपा ने फिर से कु छ ‘विचारधारात्मक तोपें’ छोड़ी
हैं, जैसे कि मार्क्सवाद प्रासं गिक है, उत्तरआधुनिकतावाद ग़लत है, सामाजिक
जनवाद ग़लत है (!?) वगैरह! लेकिन आप भी अब तक इस पूरे दस्तावेज़ का
असली इरादा समझ गये होगं े। इसका मकसद था मार्क्सवाद और समाजवाद
का नाम लेते हुए मार्क्सवाद और समाजवाद के सिद्धान्त को विकृ त कर डालना,
उसकी क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को नष्ट कर डालना, और नं गे और बेशर्म किस्म
के सं शोधनवाद को मार्क्सवाद का नाम देना! लेकिन इन सभी प्रयासो ं के
बावजूद अगर माकपा के इस दस्तावेज़ को कोई आम व्यक्ति भी पं क्तियो ं के
बीच ध्यान देते हुए पढ़े तो माकपा की मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी, उसका पूँजीपति
वर्ग के हाथो ं बिकना, उसका बेहूदे किस्म का सं शोधनवाद और ‘भारतीय
किस्म के समाजवाद’ के नाम पर भारतीय किस्म के पूँजीवाद के लक्ष्य को
प्राप्त करने का उसका शर्मनाक इरादा निपट नं गा हो जाता है! इस दस्तावेज़
में माकपा के घाघ सं शोधनवादी सड़क पर निपट नं गे भाग चले हैं। मज़दूर वर्ग
के इन ग़द्दारो ं की असलियत को हमें हर जगह बेनक़ाब करना होगा! ये हमारे
सबसे ख़तरनाक दश्म ु न हैं। इन्हें नेस्तनाबूद किये बग़ैर देश में मज़दूर वर्ग का
क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन आगे नही ं बढ़ पायेगा!
 
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 71


आपने ठीक फ़रमाया मख
ु ्यमन्त्री महोदय, बाल
मजदूरी को आप नहीं रोक सकते!
मीनाक्षी

बं गाल के “सं वेदनशील” मुख्यमन्त्री बुध्ददेव भट्टाचार्य बाल श्रम पर रोक


लगाने के पक्षधर नही ं हैं! जहाँ 14 वर्ष की आयु से कम के बच्चों को मजदूरी
कराये जाने को लेकर दनु ियाभर में हो-हल्ला (दिखावे के लिए ही सही!)
मचाया जा रहा हो, वही ं मजदूरो ं के पैरोकार का खोल ओढ़े भट्टाचार्य जी
मजदूरो ं की एक सभा में कहते हैं कि वे बच्चों को मजदूरी करने से इसलिए
नही ं रोक सकते, क्योंकि अपने परिवारो ं में आमदनी बढ़ाने में वे मददगार
होते हैं और इसलिए भी ताकि वे काम करते हुए पढ़ाई भी कर सकें । मजदूरो ं
के बच्चों को श्रम का पाठ पढ़ाने वाले बुध्ददेव भट्टाचार्य को सं शोधनवादी
वामपन्थी माकपा के अध्ययन चक्रों और शिविरो ं में मार्क्सवादी अर्थशास्त्र के
सिध्दान्त का लगाया घोटं ा थोड़ा बहुत याद तो होगा ही। जाहिरा तौर पर उन्हें
इस बात की जानकारी है कि मुनाफे पर टिकी इस आदमख़ोर व्यवस्था में बाल
श्रम को ख़तम ही नही ं किया जा सकता। पूँजीवाद की जिन्दगी की शर्त ही यही
है कि वह सस्ते से सस्ता श्रम निचोड़ता रहे और उसे मुनाफे में ढालता जाये।
आज भूमण्डलीकरण और वैश्विक मन्दी के दौर में तो मुनाफे की दर लगातार
नीचे जा रही है और मुनाफे की दर को कायम रखने के लिए आदमख़ोर पूँजी
एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशो ं में सस्ते श्रम
की तलाश में अपनी पहुँच को और गहरा बना रही है और वहाँ भी ख़ासतौर पर
स्त्रियो ं और बच्चों का शोषण सबसे भयं कर तरीके से कर रही है क्योंकि उनका
श्रम इन देशो ं में मौजूद सस्ते श्रम में भी सबसे सस्ता है।
ऐसे में स्पष्ट है कि सं सदीय वामपन्थियो ं के सरदारो ं में से एक बुध्ददेव
भट्टाचार्य पूँजीवादी व्यवस्था के विकल्प की बात नही ं करेंगे; वे एक समाजवादी
व्यवस्था की बात नही ं करेंगे जिसमें मजदूर परिवारो ं के बच्चों के लिए अपना
हाड़ गलाना जिन्दा रहने की एक पूर्वशर्त न हो। यह सच है कि आज देशभर
में मजदूरो ं की जो स्थिति है उसमें तमाम स्वयं सेवी सं गठनो ं के बाल श्रम को
72 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
रोकने के उपदेशो ं का उनके ऊपर कोई फर्क नही ं पड़ने वाला। एक आम ग़रीब
मजदूर यह जानता है कि काम करना वाकई उसके बच्चे के लिए जीने की शर्त
है। पूँजीवाद के इस घृणित सत्य को मजदूर वर्ग के ग़द्दार सं सदीय वामपन्थी
बुध्ददेव भट्टाचार्य छिपाने की कोशिश भी नही ं करते, क्योंकि वह जानते हैं कि
इसका कोई लाभ नही ं है। उल्टे वह इसे एक अपरिहार्य, मान्य और स्वीकार्य
यथार्थ के रूप में पेश करते हुए कहते हैं कि काम करके बाल मजदूर पढ़ भी
सकते हैं! वाह! पूँजीवाद की चाकरी करते हुए कोई बेशर्म कु तर्कों के कीचड़-
कु ण्ड में इस कदर भी लोट लगा सकता है, यह हमने कभी नही ं सोचा था!
लेकिन आश्चर्य की कोई बात होनी भी नही ं चाहिए। पूँजीवाद के सबसे दूरदर्शी
पहरेदार की भूमिका में भारत के सं सदीय वामपन्थियो ं ने दनु िया के अन्य देशो ं
के सं सदीय वामपन्थियो ं के मुकाबले हमेशा ही अधिक कु शलता और बेशर्मी
का परिचय दिया है। जब किसी घिनौने सच को आपको बदलना न हो तो उसे
एक आम सच की तरह बना दीजिये; यही काम बुध्ददेव ने किया है। पूँजीवाद
की तो वे गोद में बैठ चुके हैं, इसलिए पूँजीवाद का धवं स कर मजदूरो ं की सत्ता
स्थापित करने की तो वे बात करेंगे नही;ं और पूँजीवाद के जीवित रहते बाल
श्रम ख़त्म किया नही ं जा सकता; इसलिए सबसे अच्छा यही होगा कि बाल
श्रम को आम सत्य बना दिया जाये जो स्वीकार्य और मान्य हो! बल्कि उसके
सकारात्मक पहलू (?) की बात की जाये, जैसेकि यह कि बाल श्रम करते हुए
बाल मजदूर पढ़ भी सकते हैं! पूँजीवाद के दूरदर्शी सेवक बुध्ददेव ने यही
करना चाहा है।
स्वयं अन्तरराष्ट्रीय श्रम सं गठन का कहना है (जो वास्तव में महज रिपोर्ट
जारी करने वाली और सुझाव देने वाली एक सं स्था ही है) कि पूरी दनु िया में
ख़तरनाक कामो ं में लगे बाल मजदूरो ं की सं ख्या 24 करोड़ 60 लाख है और
उसमें भी सर्वाधिक जोखिम वाले काम जिसमें बच्चों को शारीरिक क्षति पहुँचने
की सबसे अधिक सम्भावना रहती है, उसमें लगे बच्चों की सं ख्या 18 करोड़ है।
एशिया में समूचे श्रमबल का 22 फीसद हिस्सा बच्चों के श्रम का होता है और
भारत में बाल मजदूरो ं की सं ख्या लगभग 4 करोड़ है। जबकि घरो ं में नौकरो ं
के रूप में काम करने वाले बच्चों की सही सं ख्या के बारे में कोई जानकारी
उपलब्धा नही ं है। ख़ुद बुध्ददेव भट्टाचार्य सरकार की 2101 की अपनी विकास
योजना रिपोर्ट में यह माना गया है कि उनके अपने प्रान्त में बाल श्रमिको ं की
सं ख्या लगभग 8 लाख 57 हजार है। यह सं ख्या जाहिर है, बढ़ती ही जायेगी।
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 73
पूँजी का चाबुक मध्यवर्ग के जिस निचले एक हिस्से को हमेशा मजदूर
वर्ग की कतारो ं में ढके लता रहा है, खेती में घुसपैठ करके गाँव के जिन ग़रीबो ं
को अपनी जगह से उजाड़कर शहर में ला पटकता रहा है, उससे श्रम की
उपलब्धाता अत्यन्त सुगम हो गयी है। बदहाली और भुखमरी से अपने परिवार
को बचाने में जब उसकी हाड़तोड़ मेहनत से भी कमाई पूरी नही ं पड़ती तो उसे
अपने बच्चों और अपने घर की स्त्रियो ं को भी पूँजीपतियो ं के मुनाफे की भट्टी
में झोक ं ने के लिए मजबूर होना पड़ता है, ताकि कम से कम वे जीवित तो रह
सकें । भला कौन माँ-बाप अपने बच्चों को मौत के मुँह में जाता देखना चाहता
है? समाजवाद के खोल में पूँजीवादी व्यवस्था का लादी ढोने वाला ख्रुश्चेव और
देंग श्याओ पिगं का यह सच्चा अनुयायी बुध्ददेव बच्चों के इसी श्रम को उनके
परिवार को मिलने वाला सहयोग कहता है।
दरअसल बाल मजदूरी की समस्या कोई नयी परिघटना नही ं है जो आज
के दौर में पैदा हुई हो। पूँजीवादी वैभव का पूरा अम्बार ही बच्चों और स्त्रियो ं
के ख़ून-पसीने से लिथड़ा हुआ है, उसका एक बड़ा हिस्सा उनके सस्ते श्रम से
तैयार किया गया है। पूँजीवादी होड़ के चलते पूँजीपतियो ं के अधिक से अधिक
मुनाफा बढ़ाते जाने का प्रश्न उनकी जिन्दगी और मौत का प्रश्न होता है। उनका
मुनाफा चूँकि मजदूरो ं के श्रम से पैदा होता है, इसलिए होड़ में टिके रहने और
उसके लिए ज्यादा मुनाफा पैदा करने की जरूरत से वे श्रम की उत्पादकता
को लगातार बढ़ाते रहने की घात में लगे रहते हैं। यह दो तरीको ं से बढ़ायी जा
सकती है। उन्नत यन्त्र और तकनोलॉजी का इस्तेमाल करके , जिसमें समय-
समय पर निवेश कर पूँजीपति मजदूर की उत्पादकता बढ़ाकर अपने मुनाफे में
बढ़ोतरी करता है। दूसरा तरीका है यन्त्र और तकनोलॉजी में कोई सुधार किये
बिना श्रम को और सस्ती दर पर ख़रीदना या काम के घण्टे बढ़ा देना या दोनो ं
को एक ही साथ अंजाम देकर पूँजीपति अपने मुनाफे की दर बढ़ाता है।
भूमण्डलीकरण की रफ्तार पकड़ती गति ने माल उत्पादन की पूरी प्रक्रिया
को कई हिस्से में तोड़कर छोटी-छोटी औद्योगिक इकाइयो ं या कारख़ानो ं में
बिखरा दिया है और विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना पूरी मुस्तैदी से करता
जा रहा है जहाँ न कोई श्रम कानून लागू है और न कोई सामाजिक सुविधा।
सस्ते से सस्ता श्रम ख़रीदने की सबसे मुफीद जगह! पूँजीपति अपनी मशीनो ं
और तकनीक का आधुनिकीकरण करने की जगह इन छोटे-छोटे कारख़ानो ं में
बेहद सस्ती दरो ं पर मजदूरो ं का श्रम ख़रीदते हैं, जाहिर है श्रम की इस मण्डी
74 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
में बच्चों के श्रम की सबसे नीची बोली लगती है। इसलिए उत्पादन बढ़ाकर
मुनाफा बढ़ाने का यह दूसरा तरीका बाल मजदूरी का कभी ख़ात्मा नही ं होने
देगा चाहे जितनी चिल्ल-पो ं मचा ली जाये। यूँ भी सस्ता श्रम निचोड़ने की
जरूरत मन्दी के दौर से गुजर रहे इन पूँजीपतियो ं को आज पहले से कही ं
अधिक है। स्थिर पूँजी (मशीनें, तकनोलॉजी) में बग़ैर निवेश किये वे सस्ती
से सस्ती दर पर श्रम ख़रीदकर ही अपने मुनाफे की गिरती दर पर काबू रख
सकते हैं।
मार्क्सवाद के अपने ज्ञान का पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा में इस्तेमाल करने
वाला मजदूर वर्ग का यह ग़द्दार बुध्ददेव भट्टाचार्य और उसकी पार्टी माकपा
पूँजी की इस आर्थिक व्यवस्था से अच्छी तरह वाकिफ हैं। वे जानते हैं कि
जो व्यवस्था बेरोजगारो ं की विशाल फौज में हर साल इजाफा करती जायेगी,
जिसमें ऐश्वर्यी मीनारो ं के इर्द-गिर्द दरिद्रता का सागर पसरता जायेगा और
जहाँ शिक्षा का हक सिर्फ उसके ख़रीदारो ं को हासिल हो सके गा, उसी व्यवस्था
के भीतर से लगातार बाल मजदूरो ं की कतारें भी निकलती रहेंगी। इसलिए
सीधो-सीधो यह कहने के बजाय कि बाल मजदूरी तो चलती रहेगी, उन्होंने
बात को जरा तरल बनाकर कहा कि बच्चों को मजदूरी से आख़िर रोका कै से
जाये, क्योंकि वे बिचारे तो अपने परिवार की आमदनी में एक हिस्सा योगदान
करते हैं! ऐसी धूर्तता की उम्मीद बुध्ददेव जैसो ं से ही की जा सकती है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 75


बर्जु
ु आ चन ु ावों और क़ानूनी संघर्षों के बारे में
सर्वहारा क्रान्तिकारी दृष्टिकोण
व्ला.इ. लेनिन
जो बदमाश हैं या मूर्ख हैं, वे ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पहले
पूँजीपति वर्ग के जुए के नीचे, उजरती ग़ुलामी के जुए के नीचे होनेवाले चुनावो ं
में बहुमत प्राप्त करना है और तभी उसे सत्ता हाथ में लेनी है। यह हद दर्जे की
बेवकू फी या पाखण्ड है, यह वर्ग-सं घर्ष तथा क्रान्ति का स्थान पुरानी व्यवस्था
के अन्तर्गत तथा पुरानी सत्ता के रहते हुए चुनावो ं को देना है।
सर्वहारा अपने वर्ग-सं घर्ष को चलाता है और हड़ताल शुरू करने के लिए
चुनावो ं का इन्तज़ार नही ं करता, हालाँकि हड़ताल की पूर्ण सफलता के लिए
मेहनतकश जनता के बहुमत की (और फलत: आबादी के बहुमत की) हमदर्दी
हासिल करना ज़रूरी है। सर्वहारा (पूँजीपति वर्ग की निगरानी में और उसकी
ग़ुलामी के तहत होनेवाले) प्रारम्भिक चुनावो ं का इन्तज़ार किये बिना अपने
वर्ग-सं घर्ष को चलाता है और पूँजीपति वर्ग का तख्ता उलट देता है। सर्वहारा
को बख़ूबी मालूम है कि उसकी क्रान्ति की सफलता के लिए, पूँजीपति वर्ग का
तख्ता सफलतापूर्वक उलट देने के लिए यह बिल्कु ल ज़रूरी है कि मेहनतकश
जनता के बहुमत (और फलत: आबादी के बहुमत) की हमदर्दी उसके साथ
हो।
सं सदीय कू ढ़मगज़ और आज के लुई ब्लां, यह निश्चय करने के लिए कि
उन्हें मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति प्राप्त है या नही,ं निरपेक्ष रूप
से चुनावो ं का “आग्रह” करते हैं, उन चुनावो ं का, जो निश्चित रूप से पूँजीपति
वर्ग की निगरानी में होते हैं। परन्तु यह दृष्टिकोण उन लोगो ं का दृष्टिकोण है, जो
जीवन्मृत हैं, कोरी पण्डिताऊ बुद्धि रखनेवाले हैं या धूर्त्त प्रवं चक हैं।
वास्तविक जीवन तथा वास्तविक क्रान्तियो ं के इतिहास से पता चलता है कि
अक्सर “मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति” किसी भी चुनाव द्वारा
सिद्ध नही ं की जा सकती (उन चुनावो ं का तो कहना ही क्या, जो शोषको ं की
निगरानी में, शोषको ं तथा शोषितो ं की “समानता” को बनाये हुए होते हैं!)।
अक्सर “मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति” चुनावो ं द्वारा बिल्कु ल
76 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
ही सिद्ध नही ं होती, बल्कि किसी एक पार्टी के विकास द्वारा सोवियतो ं में उस
पार्टी के प्रतिनिधित्व की वृद्धि द्वारा अथवा किसी ऐसी हड़ताल की सफलता
द्वारा, जिसने किसी कारण अत्यधिक महत्व प्राप्त कर लिया हो, अथवा गृहयुद्ध
में प्राप्त की जानेवाली सफलताओ ं आदि, आदि द्वारा सिद्ध होती है।
उदाहरण के लिए, हमारी क्रान्ति के इतिहास ने प्रत्यक्ष कर दिया है कि
उराल तथा साइबेरिया के विशाल भूखण्डों में सर्वहारा अधिनायकत्व के प्रति
मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति का पता चुनावो ं के जरिये नही ं
चला, बल्कि उस प्रदेश में ज़ारशाही जनरल कोल्चाक के शासन के वर्ष भर के
अनुभव से चला। प्रसं गवश, कोल्चाक का शासन भी शीदेमान और काउत्स्की
जैसे लोगो ं (रूसी में वे “मेन्शेविक” तथा “समाजवादी-क्रान्तिकारी”, सं विधान
सभा के समर्थक कहे जाते हैं) के “सं श्रय” से शुरू हुआ, ठीक उसी तरह जैसे
इस घड़ी जर्मनी में गाअज़े और शीदेमान के अनुयायी अपने “सं श्रय” द्वारा
फॉन गोल्त्स या लुडेनडोपर्फ के सत्तारूढ़ होने के लिए रास्ता साफ़ कर रहे हैं,
उनकी इस सत्ता को एक ऐसा लिबास पहना रहे हैं कि वह प्रतिष्ठित दिखाई पड़े।
चलते-चलते यह भी कह देना चाहिए कि मन्त्रिमण्डल में गाअज़े और शीदेमान
का सं श्रय टू ट चुका है, परन्तु समाजवाद के इन द्रोहियो ं का राजनीतिक सं श्रय
अभी भी क़ायम है। प्रमाण : काउत्स्की की किताबें, Vorwarts में स्टाम्पफर
के लेख तथा अपने “एकीकरण” के बारे में काउत्स्की और शीदेमान के लेख,
आदि।
जब तक मेहनतकश जनता का विशाल बहुमत अपने हरावल को  सर्वहारा
को  अपनी सहानुभूति और समर्थन न दे , सर्वहारा क्रान्ति असम्भव है। परन्तु
यह सहानुभूति और यह समर्थन एकदम से प्रगट नही ं होते और न ही वे चुनाव
द्वारा निश्चित होते हैं। वे दीर्घ, कठोर, विकट वर्ग-सं घर्ष के दौरान प्राप्त किये
जाते हैं। मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति तथा समर्थन के लिए
सर्वहारा जो वर्ग-सं घर्ष चलाता है, वह सर्वहारा द्वारा राजनीतिक सत्ता पर
अधिकार होने के साथ समाप्त नही ं हो जाता। सत्ता पर अधिकार होने के बाद
भी यह सं घर्ष चलता रहता है, परन्तु अन्य रूपो ं में। रूसी क्रान्ति में परिस्थितियाँ
सर्वहारा वर्ग के लिए (उसके अधिनायकत्व के लिए उसके सघर्ष में) असाधारण
रूप में अनुकूल थी,ं क्योंकि सर्वहारा क्रान्ति ऐसे समय हुई, जब पूरी जनता
के हाथ मे हथियार थे और जब पूरा किसान वर्ग सामाजिक-विश्वासघातियो,ं
मेन्शेविको ं और समाजवादी-क्रान्तिकारियो ं की “काउत्स्कीवादी” नीति से बुरी
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 77
तरह खीझकर ज़मीन्दारो ं के शासन को उलट देना चाहता था।
लेकिन रूस में भी, जहाँ सर्वहारा क्रान्ति के समय परिस्थितियाँ असाधारण
रूप से अनुकूल थी,ं जहाँ समूचे सर्वहारा वर्ग, समूची सेना और समूचे किसान
वर्ग की अद्तभु एकता तुरन्त हासिल हो गयी थी, वहाँ भी सर्वहारा वर्ग को
अपना अधिनायकत्व बरतते हुए महीनो ं और बरसो ं तक मेहतनकश जनता
के बहुमत की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त करने के लिए सं घर्ष करना पड़ा।
दो साल के बाद यह सं घर्ष लगभग समाप्त हो गया है, लेकिन अभी पूरी
तरह सर्वहारा के हक़ में समाप्त नही ं हुआ है। दो सालो ं में हमने उराल और
साइबेरिया समेत रूस के मज़दूरो ं और श्रमजीवी किसानो ं के विशाल बहुमत
की पूर्ण सहानुभूति और समर्थन प्राप्त कर लिया है, परन्तु अभी तक हमने
उक्रइना में (शोषक किसानो ं से भिन्न) श्रमजीवी किसानो ं के बहुमत का पूर्ण
समर्थन और सहानुभूति प्राप्त नही ं की है। हम एन्टेन्ट की सैनिक शक्ति द्वारा
कु चले जा सकते हैं, (परन्तु कु चले जायेंगे नही)ं , लेकिन रूस के अन्दर अब
हमें मेहनतकश जनता के इतने प्रबल बहुमत की इतनी पक्की सहानुभूति प्राप्त
है कि सं सार में आज तक इतना अधिक जनवादी राज्य और कोई नही ं हुआ
है, जितना हमारा राज्य है।
सत्तारूढ़ होने के लिए सर्वहारा सं घर्ष के इस जटिल, कठिन तथा सुदीर्घ
इतिहास की ओर, जिसमें सं घर्ष के रूपो ं का असाधारण वैविध्य दिखाई देता
है और जिसमें आकस्मिक परिवर्तनो,ं मोड़ो ं और सं घर्ष के एक रूप से दूसरे
में रूपान्तरण की असामान्य रूप से भरमार है, थोड़ा-सा ध्यान देने से ही उन
लोगो ं की ग़लती प्रत्यक्ष हो जाती है, जो पूँजीवादी सं सद, प्रतिक्रियावादी
ट्रेड-यूनियनो,ं ज़ारशाही अथवा शीदेमान शॉप स्टीवर्ड्स समितियो ं या मज़दूर
परिषदो,ं इत्यादि, इत्यादि में भाग लेने की “मनाही” करना चाहते हैं। यह
ग़लती इसलिए होती है कि मज़दूर वर्ग के सर्वथा ईमानदार, निष्ठापूर्ण तथा
साहसपूर्ण क्रान्तिकारी लोग क्रान्तिकारी अनुभव से सम्पन्न नही ं हैं और इसलिए
कार्ल लीब्कनेख्त और रोज़ा लुक्ज़ेमबुर्ग एक बार नही,ं हज़ार बार सही थे,
जब जनवरी, 1919 में उन्होंने इस ग़लती को समझा और उसकी ओर इशारा
किया, मगर फिर भी सर्वहारा क्रान्तिकारियो ं के साथ रहने का फै सला किया,
गोकि ये क्रान्तिकारी उस छोटे-से सवाल के बारे में ग़लती पर थे, बजाय इसके
कि समाजवाद के द्रोहियो,ं शीदेमान और काउत्स्की जैसे लोगो ं के पक्ष में जाते,
जिन्होंने पूँजीवादी सं सद में भाग लेने के प्रश्न पर ग़लती नही ं की थी, परन्तु जो
78 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
समाजवादी नही ं रह गये थे और कू पमण्डूक जनवादी तथा पूँजीपति वर्ग के
साथी-सं घाती हो गये थे।
फिर भी ग़लती तो ग़लती ही है और उसकी आलोचना करना तथा उसके
सुधार के लिए सं घर्ष करना ज़रूरी है।
समाजवाद के साथ ग़द्दारी करने वालो ं के ख़िलापफ़, शीदेमान तथा काउत्स्की
जैसे लोगो ं के ख़िलाफ निर्मम रूप से सं घर्ष करना आवश्यक है, परन्तु यह सं घर्ष
पूँजीवादी सं सदो,ं प्रतिक्रियावादी ट्रेड-यूनियनो,ं इत्यादि में भाग लेने या न लेने
के प्रश्न पर नही ं होना चाहिए। इस प्रश्न को लेकर सं घर्ष करना स्पष्ट ही एक
ग़लती होगी, और उससे भी बड़ी ग़लती होगी मार्क्सवाद के विचारो ं तथा उसकी
व्यावहारिक नीति (एक शक्तिशाली, के न्द्रीकृ त राजनीतिक पार्टी) को छोड़कर
सं घाधिपत्यवाद के विचारो ं तथा व्यवहार को ग्रहण करना। पूँजीवादी सं सदो ं में
प्रतिक्रियावादी ट्रेड-यूनियनो ं में और उन “मज़दूर परिषदो”ं में जिन्हें शीदेमान
के अनुयायियो ं ने विरूपित और नि:सत्व कर दिया है, पार्टी की शिरक़त के लिए
काम करना ज़रूरी है, यह ज़रूरी है कि जहाँ भी मज़दूर मौजूद हैं, जहाँ भी
मज़दूर से बात की जा सके , और मेहनतकश जन समुदायो ं का प्रभावित किया
जा सके , वहाँ पार्टी मौजूद हो। क़ानूनी और गैरक़ानूनी काम को बहरसूरत
मिलाना होगा और ग़ैरक़ानूनी पार्टी को अपने मज़दूर सं गठनो ं द्वारा क़ानूनी
कार्रवाइयो ं पर सतत, व्यवस्थित तथा कठोर नियन्त्रण रखना होगा। यह कोई
आसान काम नही ं है, परन्तु सामान्य: सर्वहारा क्रान्ति “आसान” कामो ं से या
सं घर्ष के “आसान” तरीक़ों से परिचित नही ं है और न हो ही सकती है।
इस मुश्किल काम को हर हाल में पूरा करना होगा। शीदेमान और काउत्स्की
के गिरोह और हममें अन्तर इतना ही नही ं है (न ही वह मुख्य अन्तर है) कि वे
सशस्त्र विद्रोह की आवश्यकता को ही नही ं मानते और हम मानते हैं। मुख्य
और बुनियादी अन्तर यह है कि सभी कार्यक्षेत्रों में (पूँजीवादी सं सदो,ं ट्रेड-
यूनियनो,ं सहकारी समितियो,ं पत्रकारिता-कार्य, आदि में) वे एक असं गत,
अवसरवादी नीति का, यहाँ तक कि खुल्लमखुल्ला दग़ाबाज़ी और ग़द्दारी की
नीति का अनुसरण करते हैं।
‘मज़दूर आन्दोलन में जड़सूत्रवाद और सं कीर्णतावाद का विरोध’
नामक सं कलन (प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1986) में सं कलित ‘इतालवी,
फ़्रांसीसी और जर्मन कम्युनिस्टों को अभिवादन’ शीर्षक निबन्ध-अंश से।
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 79
गज़
ु रे दिनों की नाउम्मीदियों और आने वाले दिनों
की उम्मीदों के बारे में कुछ बातें
समस्याओ ं, चनु ौतियों और ज़िम्मेदारियों के बारे में
कुछ बातें
सम्पादक मण्डल, मजदूर बिगुल
प्रतिक्रिया की विश्वव्यापी लहर के वस्तुगत और मनोगत कारण और इस
गतिरोध से उबरने का रास्ता
गुजरे कई वर्षों की ही तरह पिछले वर्ष का भी बैलेन्सशीट इसी कड़वी–
नं गी सच्चाई की तसदीक करता है कि शोषण–दमन और उत्पीड़न की ताकतें
प्रतिरोध की ताकतो ं पर हावी रही हैं। पूँजीवादी शोषण–दमन का तं त्र और
अधिक सं गठित हुआ है, जबकि प्रतिरोध अभी भी असं गठित है, स्वयं स्फूर्त
है तथा बिखरा हुआ है। गतिरोध और निराशा का माहौल है। तो फिर वे कोने
कहाँ हैं, जहाँ से उम्मीद की किरणें फू टती हैं ? वे ऊँ चाइयाँ कहाँ हैं, जहाँ से नये
क्रान्तिकारी भविष्य के क्षितिज दिखते हैं ? निश्चय ही, यह इतिहास का अन्त
नही ं है। सभ्यता की पूरी विकास यात्रा, सहस्राब्दियो ं से जारी वर्ग सं घर्ष वर्तमान
पूँजीवादी असभ्यता के अनाचार–अत्याचार में ही समाप्त होने नही ं जा रही है।
विश्व ऐतिहासिक स्तर पर सर्वहारा वर्ग और समाजवादी क्रान्तियो ं की पराजय
के बाद, विश्व–शक्ति–सं तुलन विगत लगभग तीन दशको ं से पूँजीवाद के पक्ष
में बना हुआ है। क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी बनी हुई है।
पूँजी और श्रम के अन्तरविरोध के बीच पूँजी का पहलू प्रधान बना हुआ है।
और विश्व पूँजीवाद के तमाम अन्दरूनी असाध्य अन्तरविरोधो ं और ढाँचागत
सं कट के बावजूद, सर्वहारा क्रान्ति की हरावल ताकतो ं की वर्तमान स्थिति को
देखते हुए, यही कहा जा सकता है कि पूरी दनु िया में यहाँ–वहाँ हो  रहे और
बढ़ते जा रहे जन सं घर्षों के विस्फोटो ं के बावजूद, अभी एक लम्बे समय तक
शायद यही स्थिति बनी रहे, क्योंकि स्वयं स्फूर्त सं घर्ष यथास्थिति को नही ं बदल
सकते। उसे के वल सं गठित नेतत्व ृ वाली सचेतन क्रान्तियाँ ही बदल सकती हैं।
साम्राज्यवाद के वर्तमान दौर में, श्रम और पूँजी के स्पष्टतम–तीव्रतम ध्रुवीकरण
के वर्तमान दौर में, के वल मार्क्सवादी विज्ञान के मार्गदर्शन में काम करने वाली
80 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के नेतत्वृ में सं गठित जन सं घर्ष ही विश्व
पैमाने के अन्तरविरोध के प्रधान पहलू को फै सलाकु न ढंग से बदल सकते हैं।
वस्तुगत परिस्थितियो ं की दृष्टि से, साम्राज्यवाद–पूँजीवाद विरोधी नयी सर्वहारा
क्रान्तियो ं की सर्वाधिक उर्वर और सं भावनासम्पन्न ज़मीन एशिया, अफ्रीका,
लातिन अमेरिका के उन पिछड़े पूँजीवादी देशो ं में है जहाँ प्राक्पूँजीवादी
उत्पादन–सम्बन्ध मूलत: और मुख्यत: टू ट चुके हैं और अवशेष–मात्र के रूप
में मौजूद हैं, जहाँ पूँजीवादी उत्पादन–सम्बन्ध का वर्चस्व स्थापित हो चुका है,
जहाँ की अर्थव्यवस्था विविधीकृ त है, जहाँ बुनियादी एवं अवरचनागत उद्योगो ं
सहित औद्योगिक उत्पादन का भारी विकास हुआ है तथा औद्योगिक सर्वहारा
वर्ग की भारी आबादी अस्तित्व में आ चुकी है, जहाँ गाँवो ं में पूँजी की व्यापक
पैठ के साथ ही ग्रामीण सर्वहारा–अर्द्धसर्वहारा आबादी की भी एक भारी सं ख्या
पैदा हो चुकी है, जहाँ पूँजीवादी सामाजिक–सांस्कृतिक तं त्र के विकास के
चलते सर्वहारा क्रान्ति के सहयोगी शिक्षित निम्न मध्यवर्ग और क्रान्तिकारी
बुद्धिजीवी समुदाय का प्रचुर विकास हुआ है तथा जहाँ कु शल मज़दूरो ं एवं
तकनीशियनो–ं वैज्ञानिको ं के साथ ही विज्ञान–तकनोलॉजी के स्वतं त्र विकास
के लिए ज़रूरी मानव–उपादान मौजूद हैं। ऐसे अगली कतार के क्रान्तिकारी
सम्भावनासम्पन्न देशो ं में ब्राज़ील, अर्जेण्टीना, मेक्सिको, चीले, द– अफ्रीका,
नाइज़ीरिया, मिस्त्र, ईरान, तुर्की, इण्डोनेशिया, मलयेशिया, फिलीप्पींस आदि
के साथ ही भारत भी शामिल है। (चीन, पूर्व सोवियत सं घ के कु छ घटक देशो,ं
और कु छ पूर्वी यूरोपीय देशो ं में भी नई क्रान्तियो ं की परिस्थितियाँ तेज़ी से
तैयार हो रही हैं, जहाँ की जनता कभी समाजवादी क्रान्ति के प्रयोगो,ं परिणामो ं
को देख चुकी है, पर इन देशो ं की स्थिति कु छ भिन्न है जो अलग से चर्चा का
विषय है)।
समस्या यह है कि तीसरी दनु िया के जिन देशो ं में साम्राज्यवाद–पूँजीवाद
विरोधी नयी क्रान्तियो ं की ज़मीन तैयार है या हो रही है, वहाँ क्रान्तिकारी
कम्युनिस्ट शक्तियाँ बिखरी हुई हैं। वे देश स्तर की एक पार्टी के रूप में सं गठित
नही ं हैं और व्यापक जनता के बीच उनका आधार भी देशव्यापी नही ं है।
इसका एक वस्तुगत कारण यह ज़रूर है कि सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के
बीच जारी विश्व ऐतिहासिक महासमर के पहले चक्र की समाप्ति और इसके
दूसरे, निर्णायक चक्र की शुरुआत के बीच के अन्तराल में, प्रतिक्रिया की सभी
शक्तियो ं ने क्रान्तिकारी शक्तियो ं को पीछे धके लने–कु चलने के लिए अपनी
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 81
सारी शक्ति झोक ं दी है। अतीत की क्रान्तियो ं का शासक वर्गों ने भी समाहार
किया है। हर देश की पूँजीवादी राज्यसत्ता अपने सामाजिक अवलम्बों के
विकास के लिए पहले की अपेक्षा बहुत अधिक कु शलता से काम कर रही
है और इसमें साम्राज्यवादी देशो ं और अन्तरराष्ट्रीय एजेन्सियो ं से भी भरपूर
सहायता मिल रही है। साथ ही, आज सिनेमा, टी.वी., और प्रिण्ट मीडिया सहित
समस्त सं चार माध्यमो ं का अभूतपूर्व प्रभावी इस्तेमाल पूँजीवादी सं स्कृति एवं
विचारो ं के प्रचार–प्रसार के लिए, व्यापक जन समुदाय की दिमाग़ी गुलामी को
लगातार खाद–पानी देने के लिए तथा कम्युनिज़्म, विगत सर्वहारा क्रान्तियो,ं
उनके नेताओ ं और समाजवादी प्रयोगो ं के बारे में भाँति–भाँति के सफे द झठू ो ं
का प्रचार करके उन्हें कलं कित–लांछित करने के लिए, विश्व–स्तर पर किया
जा रहा है। इस ऐतिहासिक अन्तराल की वस्तुगत स्थिति का एक अहम पहलू
यह भी है कि इसी दौरान विश्व पूँजीवाद की सं रचना एवं कार्य–प्रणाली में
कु छ ऐसे महत्वपूर्ण बदलाव आये हैं, जिन्हें समझे बिना इक्कीसवी ं शताब्दी
की नयी सर्वहारा क्रान्तियो ं की रणनीति एवं आम रणकौशल की कोई समझ
बनाई ही नही ं जा सकती। इन वैश्विक बदलावो ं को समझकर विश्व सर्वहारा
क्रान्ति की नयी आम दिशा निर्धारित करने के लिए आज न तो विश्व सर्वहारा
का मार्क्स–एं गेल्स–लेनिन–माओ जैसा कोई मान्य नेतृत्व है, न ही सोवियत
सं घ और चीन जैसा कोई समाजवादी देश और वहाँ की अनुभवी पार्टियो ं
जैसी कोई पार्टी है और न ही इण्टरनेशनल जैसा दनु िया भर की पार्टियो ं
का कोई अन्तरराष्ट्रीय मं च है। ऐसी स्थिति में विश्व पूँजीवाद की कार्यप्रणाली
में, और साथ ही दनु िया के अधिकांश क्रान्तिकारी सम्भावनासम्पन्न देशो ं की
राज्यसत्ताओ ं एवं सामाजिक–आर्थिक सं रचनाओ ं में आये बदलावो ं को जान–
समझकर क्रान्ति की मं ज़िल और मार्ग को जानने–समझने का काम इन देशो ं
के छोटे–छोटे ग्रुपो–ं सं गठनो ं में बँ टे–बिखरे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सं गठनो ं
को ही करना है। जो कम्युनिस्ट पार्टियाँ सं शोधनवादी होकर सं सद–मार्ग का
राही बन चुकी हैं, वे क्रान्ति मार्ग पर कदापि वापस नही ं लौट सकती।ं वे
पतित होकर बुर्जुआ पार्टियाँ बन चुकी हैं, जिनका काम समाजवाद का मुखौटा
लगाकर मेहनतकश जनता को धोखा देना है और पूँजीवादी व्यवस्था की
दूसरी सुरक्षा–पं क्ति की भूमिका निभानी है। विपरीततम वस्तुगत स्थितियो ं से
जूझकर अक्तूबर क्रान्तिकारी ताकतें ही कर सकती हैं जो शान्तिपूर्ण सं क्रमण
के हर सिद्धान्त का और सं शोधनवाद के हर रूप का विरोध करती हैं, जो
82 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
वर्ग–सं घर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व के सिद्धान्त को, बुर्जुआ राज्यसत्ता को
बलपूर्वक चकनाचूर करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना के सिद्धान्त को तथा
पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने के लिए समाजवादी समाज में सर्वहारा वर्ग
को सर्वतोमुखी अधिनायकत्व के अन्तर्गत नये–पुराने बुर्जुआ तत्वों, बुर्जुआ
अधिकारो ं और बुर्जुआ विचारो ं के विरुद्ध सतत् वर्ग सं घर्ष चलाने के उस सिद्धान्त
को स्वीकार करती हैं जो माओ के नेतत्व ृ में चीन में सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति
(1966–76) के दौरान प्रतिपादित किया गया। लेकिन कम्युनिज़्म के इन
क्रान्तिकारी सिद्धान्तों को स्वीकारने वाले कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सं गठन अपनी
तमाम ईमानदारी, बहादरु ी और कु र्बानी के बावजूद और दनु िया के अधिकांश
देशो ं में अपनी सक्रिय मौजूदगी के बावजूद, फिलहाल विचारधारात्मक रूप
से काफ़ी कमज़ोर हैं। माओ के महान अवदानो ं को वैज्ञानिक भाव के बजाय
वे भक्ति भाव से स्वीकार करते हैं। इसी कठमुल्लावाद के चलते वे क्रान्ति
के कार्यक्रम के प्रश्न को भी प्राय: विचारधारा का प्रश्न बना देते हैं और माओ
के विचारधारात्मक अवदानो ं को स्वीकारते हुए इस सीमा तक चले जाते हैं
कि ऐसा मानने लगते हैं कि चूँकि माओ और चीन की पार्टी ने अपने समय
में तीसरी दनु िया के देशो ं में साम्राज्यवाद–सामन्तवाद विरोधी नवजनवादी
क्रान्ति की बात कही थी, इसलिए हमें वैसा ही करना होगा। इससे अलग
सोचना ही वे मार्क्सवाद से विचलन मानते हैं। ये कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सं गठन
जीवन की ठोस सच्चाई को सिद्धान्तों के साँचे में फिट करने की कोशिश करते
रहते हैं। यही कठमुल्लावाद है। इसी कठमुल्लावाद के चलते, साम्राज्यवाद
की बुनियादी प्रकृ ति को समझकर आज उसकी कार्यप्रणाली एवं सं रचना में
आये बदलावो ं को समझने के बजाय अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सं गठन
साम्राज्यवाद को हूबहू वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा वह लेनिन के समय
में था। वे राष्ट्रीय–औपनिवेशिक प्रश्न की समाप्ति के यथार्थ को, परजीवी,
अनुत्पादक वित्तीय पूँजी के भारी विस्तार एवं निर्णायक वर्चस्व के यथार्थ
को, राष्ट्रपारीय निगमो ं के बदलते चरित्र एवं कार्यप्रणाली और वित्तीय पूँजी
के भूमण्डलीकरण के यथार्थ को, पूँजीवादी उत्पादन–पद्धति में आये अहम
बदलावो ं के यथार्थ को, भूतपूर्व उपनिवेशो ं में प्राक् पूँजीवादी सम्बन्धों की
जगह पूँजीवादी उत्पादन–सम्बन्धों की प्रधानता तथा क्रान्ति के रणनीतिक
सं श्रय (वर्गों के सं युक्त मोर्चे) में परिवर्तन के यथार्थ को समझने की कोशिश
करने के बजाय उनकी अनदेखी करते हैं। ऐसे में उनके क्रान्तिकारी सामाजिक
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 83
प्रयोग मज़दूर वर्ग और सर्वहारा क्रान्ति के अन्य मित्र वर्गों को लामबं द करने
के बजाय प्राय: लकीर की फकीरी और रुटीनी कवायद बनकर रह जाते हैं और
कभी–कभी तो शासक वर्गों का कोई हिस्सा अपने आपसी सं घर्षों में उनका
इस्तेमाल भी कर लेता है। इस कठमुल्लावाद के चलते सामाजिक प्रयोगो ं की
विफलता ने एक लम्बे गतिरोध और व्यापक मेहनतकश जनता से अलगाव की
स्थिति पैदा की है। इस स्थिति में, दनु िया के सभी अग्रणी क्रान्तिकारी सम्भावना
वाले देशो ं में न के वल देश स्तर की एकीकृ त कम्युनिस्ट पार्टी के गठन का काम
लम्बित पड़ा हुआ है, बल्कि, कठमुल्लावाद और गतिरोध की लम्बी अवधि
दक्षिणपं थी और “वामपं थी” अवसरवाद के विचारधारात्मक विचलनो ं को
जन्म दे रही है। ने.क.पा. (माओवादी) के नेतृत्व में नेपाल की विजयोन्मुख
जनवादी क्रान्ति का उदाहरण देते हुए दनु िया के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर
में हावी कठमुल्लावादी सोच जोर–शोर से यह साबित करने की कोशिश
करती है कि अभी भी तीसरी दनु िया के देशो ं में नवजनवादी क्रान्ति की धारा
ही विश्व सर्वहारा क्रान्ति की मुख्य धारा और मुख्य कड़ी बनी हुई है। हम
नेपाल के माओवादी क्रान्तिकारियो ं को (कु छ अहम विचारधारात्मक मतभेदो,ं
आपत्तियो ं एवं आशं काओ ं के बावजूद) हार्दिक इं कलाबी सलामी देते हैं,
लेकिन साथ ही, विनम्रतापूर्वक यह कहना चाहते हैं कि नेपाल की विजयोन्मुख
क्रान्ति इक्कीसवी ं सदी में होने वाली बीसवी ं सदी की क्रान्ति है। यह इतिहास का
एक ‘बैकलॉग’ है। यह इक्कीसवी ं सदी की प्रवृत्ति–निर्धारक व मार्ग–निरूपक
क्रान्ति नही ं है। नेपाल दनु िया के उन थोड़े से पिछड़े देशो ं में से एक है, जहाँ
बहुत कम औद्योगिक विकास हुआ है और जहाँ प्राक् –पूँजीवादी भूमि सम्बन्ध
मुख्यत: मौजूद हैं। भारत, ब्राज़ील, अर्जेण्टीना, दक्षिण अफ्रीका आदि की ही
नही ं बल्कि पाकिस्तान, श्रीलं का और बांग्लादेश जैसे देशो ं की स्थिति भी नेपाल
से काफ़ी भिन्न है। आज तीसरी दनु िया के अधिकांश देशो ं में प्राक्पूँजीवादी
भूमि सम्बन्ध मूलत: और मुख्यत: नष्ट हो चुके हैं। वहाँ पूँजीवादी विकास
मुख्य प्रवृत्ति बन चुकी है। इन देशो ं का पूँजीपति वर्ग सत्तासीन होने के बाद
साम्राज्यवादी देशो ं के पूँजीपतियो ं का कनिष्ठ साझेदार बन चुका है। इन देशो ं
की बुर्जुआ राज्यसत्ताएँ देशी पूँजीपति वर्ग के साथ ही साम्राज्यवादी शोषण
का भी उपकरण बनी हुई हैं। इन देशो ं में साम्राज्यवाद–पूँजीवाद विरोधी,
नयी समाजवादी क्रान्ति की स्थिति उत्पन्न हुई है और ऐसा विश्व पूँजीवाद के
इतिहास के नये दौर की एक नयी विशिष्टता है। इस नयी ऐतिहासिक परिघटना
84 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
की अनदेखी आज दनु िया के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर की मुख्य समस्या
है। जबतक यह समस्या हल नही ं होगी, तबतक विश्व सर्वहारा क्रान्ति की नयी
लहर आगे की ओर गतिमान नही ं हो सकती।
भारत में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर – गतिरोध से विघटन तक की
यात्रा के आवश्यक सबक : आन्दोलन की विचारधारात्मक–राजनीतिक
समस्याओं–कमज़ोरियों का एक सं क्षिप्त विश्लेषण एवं समाहार तथा नयी
समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम और पार्टी निर्माण के कार्यभार के बारे में
कु छ बुनियादी बातें
भारत में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के ठहराव–बिखराव की वर्तमान
स्थिति को भी हमें इसी वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखना–समझना होगा। गतिरोध के
कारणो ं को सही–सटीक ढंग से समझे बिना उसे तोड़ा नही ं जा सकता।
नक्सलबाड़ी का ऐतिहासिक किसान उभार भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन
के इतिहास का एक मोड़ बिन्दु था। क्रान्तिकारी कतारो ं ने भाकपा और माकपा
के सं शोधनवादी नेतृत्व से निर्णायक विच्छे द करके एक नई सर्वभारतीय
क्रान्तिकारी पार्टी के गठन की दिशा में आगे कदम बढ़ाये। लेकिन इस
प्रक्रिया के अंजाम तक पहुँचने के पहले ही नये नेतत्व ृ की विचारधारात्मक
अपरिपक्वता के कारण जल्दी ही पेण्डुलम दूसरे छोर पर जा पहुँचा और
नवोदित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रमुख हिस्सा “वामपं थी”
दस्सा
ु हसवाद के दलदल में जा धँ सा। 1970 में “वामपं थी” दस्सा ु हसवाद
के इसी भटकाव के साथ भा.क.पा. (मा.ले.) अस्तित्व में आई। “वामपं थी”
दस्सा
ु हसवाद की पहुँच पद्धति लाजिमी तौर पर हर मामले में कठमुल्लावादी
होती है। इसी कठमुल्लावाद के चलते भा.क.पा. (मा.ले.) के नेतत्व ृ ने अपने
देश की ठोस परिस्थितियो ं के ठोस विश्लेषण के आधार पर 1947 के बाद
भारतीय समाज के विकास की दिशा, उत्पादन–सम्बन्ध और भारतीय शासक
वर्ग एवं राज्यसत्ता के चरित्र के सही–सटीक विश्लेषण के आधार पर भारतीय
क्रान्ति का कार्यक्रम तय करने के बजाय, चीनी क्रान्ति के कार्यक्रम की कार्बन
कापी कर लेने का सुगम–सुविधाजनक रास्ता चुना। मा.ले. आन्दोलन की
जिस उपधारा ने “वामपं थी” दस्सा ु हसवाद का विरोध करते हुए क्रान्तिकारी
जनदिशा के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर की, उसने भी कार्यक्रम के प्रश्न पर
कठमुल्लावादी रवैया अपनाया और भारतीय समाज में पूँजीवादी विकास की
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सच्चाई की अनदेखी करते हुए नवजनवादी क्रान्ति का ही कार्यक्रम अपनाया।
भा.क.पा. (मा.ले.) में फू ट–दर–फू ट की जो प्रक्रिया 1971 में शुरू
हुई, वह आज तक जारी है। बीच–बीच में एकता–प्रयास भी होते रहे और
हर एकता कई फू टो ं को जन्म देती रही। भा.क.पा. (मा.ले.) के “वामपं थी
दस्सा
ु हसवाद” का विरोध करने वाली धारा भी कार्यक्रम की गलत समझदारी
के चलते गतिरोध का शिकार हो गयी और फू ट–दर–फू ट एवं विघटन की
प्रक्रिया से अपने को बचा नही ं पायी। जिन सं गठनो ं ने आतं कवादी लाइन से
साहसिक निर्णायक विच्छे द के बजाय इं च–इं च करके अवसरवादी ढंग से
उससे पीछा छु ड़ाने की कोशिश की, वे सभी आज दक्षिणपं थी अवसरवाद
के दलदल में धँ से हुए हैं। तबसे लेकर आजतक छत्तीस वर्षों का समय गुजर
चुका है। लम्बे ठहराव ने पूरे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर को आज विघटन
के मुकाम तक ला पहुँचाया है। कु छ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सं गठन सं सदीय
मार्ग के राही बनकर भूतपूर्व कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी बन चुके हैं। शेष ऐसे हैं जो
क्रान्ति और वर्ग–सं घर्ष की दहु ाई देते हुए राजनीतिक–सांगठनिक व्यवहार के
धरातल पर ग़लीज सामाजिक–जनवादी आचरण कर रहे हैं तथा अर्थवाद–
ट्रेडयूनियनवाद की गटर–गं गा में गोते लगा रहे हैं, अपने आपको माओवादी
कहने वाले “वामपं थी” दस्सा ु हसवादी अपनी राह पर अब इतना आगे, और
मार्क्सवाद से इतनी दूर जा चुके हैं कि उनकी वापसी सम्भव नही ं दिखती।
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन यदि विचारधारात्मक कमज़ोरी और
अधकचरेपन का शिकार नही ं होता तो भारतीय समाज के पूँजीवादी रूपान्तरण
की प्रक्रिया को गत शताब्दी के सातवें–आठवें दशक में ही समझकर
समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम के नतीजे़ तक पहुँच सकता था। और अब तो
भारतीय समाज का पूँजीवादी चरित्र इतना स्पष्ट हो चुका है कि कठमुल्लेपन
से मुक्त कोई नौसिखुआ मार्क्सवादी भी इसे देख–समझ सकता है। गाँवो ं के
छोटे और मँ झोले किसान आज अपनी ज़मीन के मालिक ख़ुद हैं और सामन्ती
लगान और उत्पीड़न नही,ं बल्कि पूँजी की मार उनको लगातार जगह–ज़मीन
से उजाड़कर दर–ब–दर कर रही है। किसान आबादी के विभेदीकरण और
सर्वहाराकरण की प्रक्रिया एकदम स्पष्ट है। सालाना लाखो ं छोटे और निम्न
मध्यम किसान उजड़कर सर्वहारा की कतारो ं में शामिल हो रहे हैं। धनी और
उच्च मध्यम किसान बाज़ार के लिए पैदा कर रहे हैं और खेतो ं में भाड़े के
मज़दूर लगाकर अधिशेष निचोड़ रहे हैं। गाँवो ं में अनेकश: नये रास्तों और
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तरीको ं से वित्तीय पूँजी की पैठ बढ़ी है और देश के सुदूरवर्ती हिस्से भी एक
राष्ट्रीय बाज़ार की चौहद्दी के भीतर आ गये हैं। गाँव के धनी और खुशहाल
मध्यम किसान आज क्रान्तिकारी भूमि–सुधार के लिए नही ं बल्कि निचोड़े
जाने वाले अधिशेष में अपनी भागीदारी बढ़ाने को लेकर आन्दोलन करते
हैं। कृ षि–लागत कम करने और कृ षि–उत्पादो ं के लाभकारी मूल्यों की माँग
की यही अन्तर्वस्तु है, इसे मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का एक सामान्य
विद्यार्थी भी समझ सकता है। देश के पुराने औद्योगिक के न्द्रों को पीछे छोड़ते
हुए आज सुदूरवर्ती कोनो ं तक लाखो ं की आबादी वाले नये–नये औद्योगिक
के न्द्र विकसित हो गये हैं। यातायात–सं चार के साधनो ं का विगत तीन दशको ं
के दौरान अभूतपूर्व तीव्र गति से विकास हुआ है। आँखें खोल देने के लिए
मात्र यह एक तथ्य ही काफ़ी है कि पूरे देश के सं गठित–असं गठित, ग्रामीण व
शहरी सर्वहारा की आबादी आज पचास करोड़ के आसपास पहुँच रही है और
इसमें यदि अर्द्धसर्वहाराओ ं की आबादी भी जोड़ दी जाये तो यह सं ख्या कु ल
आबादी के आधे को भी पार कर जायेगी। यह किसी प्राकृ तिक अर्थव्यवस्था
या अर्द्धसामन्ती उत्पादन–सम्बन्धों के दायरे में कत्तई सम्भव नही ं हो सकता
था। आज का भारत न के वल क्रान्तिपूर्व चीन से सर्वथा भिन्न है, बल्कि वह
1917 के रूस से भी कई गुना अधिक पूँजीवादी है। आज के भारत में के वल
पूँजीवाद–विरोधी समाजवादी क्रान्ति की बात ही सोची जा सकती है। जहाँ
तक साम्राज्यवाद का प्रश्न है, भारत जैसे सभी उत्तर–औपनिवेशिक, पिछड़े
पूँजीवादी देश साम्राज्यवादी शोषण और लूट के शिकार हैं। हम आज भी
साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं, लेकिन साम्राज्यवादी शोषण की प्रकृ ति
आज उपनिवेशो ं और नवउपनिवेशो ं के दौर से सर्वथा भिन्न है। भारतीय
पूँजीपति वर्ग आज देशी बाज़ार पर अपना निर्णायक वर्चस्व स्थापित करने
के लिए राज्यसत्ता पर कब्जा की लड़ाई नही ं लड़ रहा है। राज्यसत्ता पर तो
वह 1947 से ही काबिज है। अब उसकी मुख्य लड़ाई देश की मेहनतकश
आबादी और आम जनता के विरुद्ध है लेकिन उद्योगो ं और बाज़ार के विकास
के लिए उसे पूँजी और तकनोलॉजी की दरकार है, इसके लिए ज़रूरी है कि वह
साम्राज्यवादियो ं के साथ समझौता करे और उन्हें भी लूटने का मौक़ा दे। साथ
ही, उसे अपने उत्पादित माल के लिए तथा तकनोलॉजी, तेल व अन्य ज़रूरतो ं
के लिए विश्व बाज़ार की भी ज़रूरत है। यह ज़रूरत भी उसे विश्व बाज़ार के
चैधरियो ं के आगे झक ु ने के लिए विवश करती है। अपनी इन्हीं ज़रूरतो ं और
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विवशताओ ं के चलते भारतीय पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद के सामने झक ु कर
समझौते करता है और उनके साथ मिलकर भारतीय जनता का शोषण करता
है। ऐसा करते हुए वह साम्राज्यवादियो ं से निचोड़े गये कु ल अधिशेष में अपनी
भागीदारी बढ़ाने को लेकर मोलतोल भी करता है और दबाव भी बनाता है,
लेकिन उसकी यह लड़ाई राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई नही ं बल्कि बड़े लुटेरो ं से
अपना हिस्सा बढ़ाने की छोटे लुटेरे की लड़ाई मात्र है। अपनी इस लड़ाई में
भारतीय पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवादी लुटेरो ं की आपसी होड़ का भी यथासम्भव
लाभ उठाने की कोशिश करता है। आज़ादी के बाद के तीन दशको ं तक,
जनता से पाई–पाई निचोड़कर, समाजवाद के नाम पर राजकीय पूँजीवाद
का ढाँचा खड़ा करके उसने साम्राज्यवादी दबाव का एक हद तक मुकशबला
किया। लेकिन देशी निजी पूँजी की ताकत बढ़ने के साथ ही, निजीकरण की
प्रक्रिया की शुरुआत हुई और फिर एक–दूसरे से आगे निकलने की होड़ में
अलग–अलग पूँजीपतियो ं ने विदेशी कम्पनियो ं से पूँजी और तकनोलॉजी
लेने के लिए सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया। इसके चलते उदारीकरण
की प्रक्रिया तेज हुई। निजीकरण–उदारीकरण के इस नये दौर में भारतीय
अर्थव्यवस्था पर साम्राज्यवादी पूँजी का दबाव बहुत अधिक बढ़ा है, लेकिन
इसका मतलब यह कदापि नही ं कि उपनिवेशवाद की वापसी हो रही है। ऐसा
सोचना भारतीय पूँजीपति वर्ग की स्थिति और शक्ति को नही ं समझ पाने का
नतीज़ा है। भारतीय पूँजीपति वर्ग विश्व पैमाने के अधिशेष विनियोजन में
साम्राज्यवादी शक्तियो ं के कनिष्ठ साझीदारो ं की पं गत में बैठकर इस देश की
राज्यसत्ता पर काबिज बना हुआ है और उसकी राज्यसत्ता साम्राज्यवादी हितो ं
की रक्षा के लिए भी वचनबद्ध है। साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए पूँजीपति वर्ग
का कोई भी हिस्सा अब जनता के अन्य वर्गों का रणनीतिक सहयोगी नही ं
बन सकता। यानी साम्राज्यवाद–विरोध का प्रश्न आज राष्ट्रीय मुक्ति का प्रश्न
न रहकर देशी पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के विरुद्ध सं घर्ष का ही
एक अविभाज्य अंग बन गया है। भारत जैसे भूतपूर्व उपनिवेशो ं में आज एक
सर्वथा नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति की- साम्राज्यवाद–पूँजीवाद विरोधी
क्रान्ति की स्थिति उत्पन्न हुई है। इस नयी स्थिति को समझे बिना भारतीय
जनता की मुक्ति के उपक्रम को एक कदम भी आगे नही ं बढ़ाया जा सकता।
लेकिन ऐसा करने के बजाय, भारत के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी
सं गठन आज कर क्या रहे हैं ? कु छ तो ऐसे छोटे–छोटे सं गठन हैं जो कोई
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भी व्यावहारिक कार्रवाई करने के बजाय साल भर में मुखपत्र के एकाध अंक
निकालकर और कु छ सं गोष्ठी–सम्मेलन करके बस अपने ज़िन्दा होने का
प्रमाण पेश करते रहते हैं। उनकी तो चर्चा ही बेकार है। कु छ ऐसे हैं जो देश की
पचास करोड़ सर्वहारा आबादी को छोड़कर मालिक किसानो ं की लागत मूल्य
कम करने और लाभकारी मूल्य तय करने की माँग को लेकर आन्दोलनो ं में लगे
रहते हैं और व्यवहारत: सर्वहारा वर्ग के ही हितो ं पर कु ठाराघात करते हुए, छोटे
और मँ झोले मालिक किसानो ं को भी धनी किसानो ं के आन्दोलनो ं का पुछल्ला
बनाकर नरोदवाद के विकृ त भारतीय सं स्करण प्रस्तुत करते रहते हैं। ये लोग
वस्तुत: कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नही ं बल्कि “मार्क्सवादी” नरोदवादी हैं। कृ षि
और कृ षि से जुड़े उद्योगो ं की भारी ग्रामीण सर्वहारा आबादी को सं गठित करने
तथा राजनीतिक प्रचार एवं आन्दोलन के द्वारा गाँव के ग़रीबो ं व छोटे किसानो ं
को समाजवाद के झण्डे तले सं गठित करने की कोशिशें  कोई सं गठन नही ं
कर रहा है। इसके बजाय, यहाँ–वहाँ, सर्वोदयियो ं की तरह, भूमिहीनो ं के बीच
पट्टा–वितरण जैसी माँग उठाकर कु छ सं गठन ग्रामीण सर्वहारा में ज़मीन के
निजी मालिकाने की भूख पैदा करके उन्हें समाजवाद के झण्डे के खिलाफ़
खड़ा करने का प्रतिगामी काम ही कर रहे हैं। औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के बीच
किसी भी मा.ले. सं गठन की कोई प्रभावी पैठ–पकड़ आजतक नही ं बन पायी
है। कु छ सं गठन औद्योगिक सर्वहारा वर्ग में काम करने के नाम पर के वल
मज़दूर वर्ग के कारख़ाना–के न्द्रित आर्थिक सं घर्षों तक ही अपने को सीमित
रखे हुए हैं और अर्थवाद–ट्रेडयूनियनवाद की घिनौनी बानगी पेश कर रहे हैं।
मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार कार्य, उनके बीच से पार्टी–भरती और
राजनीतिक माँगो ं के इर्द–गिर्द व्यापक मज़दूर आबादी को लामबं द करने
का काम उनके एजेण्डे पर है ही नही।ं मज़दूर वर्ग के बीच जन–कार्य और
पार्टी कार्य विषयक लेनिन की शिक्षाओ ं के एकदम उलट, ये सं गठन मेंशेविको ं
से भी कई गुना अधिक घटिया सामाजिक जनवादी आचरण कर रहे हैं।
भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम की ग़लत समझ के कारण, भारत का कम्युनिस्ट
क्रान्तिकारी आन्दोलन शासक वर्गों की आपसी मोल–तोल में, वस्तुगत तौर
पर, बटखरे के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। जब कु छ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी
सं गठन जोर–शोर से कृ षि–लागत कम करने और लाभकारी मूल्य की लड़ाई
लड़ते हैं तो पूँजीपति वर्ग के साथ मोल–तोल में धनी किसानो ं के हाथो ं बटखरे
के रूप में इस्तेमाल हो जाते हैं। जब वे साम्राज्यवाद का विरोध करते हुए राष्ट्रीय
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 89
मुक्ति का नारा देते हैं तो साम्राज्यवादियो ं और भारतीय पूँजीपतियो ं के आपसी
बाँट–बखरे में भारतीय पूँजीपतियो ं के बटखरे के रूप में इस्तेमाल हो जाते हैं।
कु छ सं गठन किताबी फार्मूले की तरह समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम
को स्वीकार करते हैं, लेकिन इनमें से कु छ अपनी गैर बोल्शेविक सांगठनिक
कार्यशैली के कारण जनदिशा को लागू कर पाने में पूरी तरह से विफल रहे हैं
और निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवाद का शिकार होकर आज एक मठ या सम्प्रदाय में
तबदील हो चुके हैं। दूसरे कु छ ऐसे हैं जो मज़दूर वर्ग में काम करने के नाम पर
के वल अर्थवादी और लोकरंजकतावादी आन्दोलनपं थी कवायद करते रहते
हैं। भूमि–प्रश्न पर इनकी समझ के दिवालियेपन का आलम यह है कि कृ षि के
लागत मूल्य को घटाने की माँग को ये समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम की एक
रणनीतिक माँग मानते हैं।
अपने–आप को माओवादी कहने वाले जो “वामपं थी” दस्सा ु हसवादी देश

के सुदूर आदिवासी अंचलो में निहायत पिछड़ी चेतना वाली जनता के बीच
“मुक्तक्षेत्र” बनाने का दावा करते हैं और लाल सेना की सशस्त्र कार्रवाई
के नाम पर कु छ आतं कवादी कार्रवाईयाँ करते रहते हैं, वे भी देश के अन्य
विकसित हिस्सों में पूरी तरह से “मार्क्सवादी” नरोदवादी आचरण करते हुए
मालिक किसानो ं की लागत मूल्य–लाभकारी मूल्य की माँगो ं पर छिटपुट
आन्दोलन करते रहते हैं और यहाँ–वहाँ कु छ औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरो ं के
बीच काम के नाम पर जुझारू अर्थवाद की विकृ त बानगी प्रस्तुत करते रहते हैं।
निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि तीन दशको ं से भी अधिक समय
से, एक ग़लत कार्यक्रम पर अमल की आधी–अधूरी कोशिशो ं और एक गै़ र
बोल्शेविक सांगठनिक कार्यशैली पर अमल ने भारत के अधिकांश कम्युनिस्ट
क्रान्तिकारी सं गठनो ं के पहले से ही कमज़ोर विचारधारात्मक आधार को लगातार
ज्यादा से ज्यादा कमज़ोर बनाया है और उनके भटकावो ं को क्रान्तिकारी चरित्र
के क्षरण–विघटन के मुकाम तक ला पहुँचाया है। अधिकांश सं गठनो ं के नेतृत्व
राजनीतिक अवसरवाद का शिकार हैं। वे सर्वभारतीय पार्टी खड़ी करने के प्रश्न
पर सं जीदा नही ं हैं और बौद्ध भिक्षुओ ं की तरह रुटीनी कामो ं का घण्टा बजाते
हुए वक़् त काट रहे हैं। यदि ऐसा नही ं होता तो वे ज़रूर सोचते कि छत्तीस वर्षों
से जारी ठहराव और बिखराव के कारण सर्वथा बुनियादी हैं। यदि ऐसा नही ं
होता तो जूते के हिसाब से पैर काटने के बजाय वे भारतीय समाज के पूँजीवादी
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रूपान्तरण का अध्ययन करके कार्यक्रम के प्रश्न पर सही नतीजे़ तक पहुँचने की
कोशिश ज़रूर करते और कठदलीली या उपेक्षा का रवैया अपनाने के बजाय
समाजवादी क्रान्ति की मं ज़िल के पक्ष में दिये जाने वाले तर्कों पर सं जीदगी से
विचार ज़रूर करते। बहरहाल, के न्द्रीय प्रश्न आज कार्यक्रम के प्रश्न पर मतभेद
का रह ही नही ं गया है। अब मूल प्रश्न विचारधारा का हो गया है। ज्यादातर
सं गठनो ं ने बोल्शेविक सांगठनिक उसूलो ं और कार्यप्रणाली को तिलांजलि दे दी
है, उनका आचरण एकदम खुली सामाजिक जनवादी पार्टियो ं जैसा ही है तथा
पेशेवर क्रान्तिकारी या पार्टी सदस्य के उनके पैमाने बेहद ढीले–ढाले हैं। यदि
कोई सं गठन विचारधारात्मक कमज़ोरी के कारण लम्बे समय तक सर्वहारा वर्ग
के बीच काम ही नही ं करेगा, या फिर लम्बे समय तक अर्थवादी ढंग से काम
करेगा तो कालान्तर में विच्युति भटकाव का और फिर भटकाव विचारधारा
से प्रस्थान का रूप ले ही लेगा और वह सं गठन लाजिमी तौर पर सं शोधनवाद
के गड्ढे में जा गिरेगा। यदि कोई सं गठन कार्यक्रम की अपनी ग़लत समझ के
कारण लम्बे समय तक मालिक किसानो ं की माँगो ं के लिए लड़ता हुआ परोक्षत:
सर्वहारा वर्ग के हितो ं के विरुद्ध खड़ा होता रहेगा तो कालान्तर में वह एक ऐसा
नरोदवादी बन ही जायेगा, जिसके ऊपर बस मार्क्सवादी का लेबल भर चिपका
हुआ होगा। यानी, विचारधारात्मक कमज़ोरी के चलते भारत के कम्युनिस्ट
क्रान्तिकारी भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम की सही समझ तक नही ं पहुँच सके
और अब, लम्बे समय तक ग़लत कार्यक्रम के आधार पर राजनीतिक व्यवहार
ने उन्हें विचारधारा का ही परित्याग करने के मुकाम तक ला पहुँचाया है। किसी
भी यथार्थवादी व्यक्ति को अब इस खोखली आशा का परित्याग कर देना
चाहिए कि मा.ले. शिविर के घटक सं गठनो ं के बीच राजनीतिक वाद–विवाद
और अनुभवो ं के आदान–प्रदान के आधार पर एकता क़ायम हो जायेगी और
सर्वहारा वर्ग की एक सर्वभारतीय क्रान्तिकारी पार्टी अस्तित्व में आ जायेगी।
जो छत्तीस वर्षों में नही ं हो सका, वह अब नही ं हो सकता। यदि होना ही होता
तो यह गत शताब्दी के सातवें या आठवें दशक तक ही हो गया होता। अब
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर की इन सं रचनाओ ं को यदि किसी चमत्कार से
एक साथ मिला भी दिया जाये तो देश स्तर की एक बोल्शेविक पार्टी की सं रचना
नही ं बल्कि एक ढीली–ढाली मेंशेविक पार्टी जैसी सं रचना ही तैयार होगी। और
सबसे प्रमुख बात तो यह है कि इन सं गठनो ं के अवसरवादी नेतत्व ृ से अब यह
उम्मीद पालना ही व्यर्थ है। जहाँ तक जुनूनी आतं कवादी धारा की बात है तो
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 91
उनकी दस्सा ु हसवादी रणनीति दर्गु म जं गल–पहाड़ो ं और बेहद पिछड़े क्षेत्रों के
बाहर लागू ही नही ं हो पायेगी और अन्य क्षेत्रों में वे कु लको ं की माँग उठाते हुए
नरोदवादी अमल करते रहेंगे, मज़दूरो ं के बीच अर्थवाद करते रहेंगे और शहरो ं
में बुद्धिजीवियो ं का तुष्टीकरण करते हुए उनका दमु छल्ला बनकर सामाजिक
जनवादी आचरण करते रहेंगे। इस सतमेल खिचड़ी की हाँड़ी बहुत देर आँच
पर चढ़ी नही ं रह सकती। कालान्तर में, इस धारा का विघटन अवश्यम्भावी है।
इससे छिटकी कु छ धाराएँ भा.क.पा. (मा.ले.) (लिबरेशन) की ही तरह सीधे
सं शोधनवाद का रास्ता पकड़ सकती हैं और मुमकिन है कि कोई एक या कु छ
धड़े “वामपं थी” दस्सा ु हसवाद के परचम को उठाये हुए इस या उस सुदूर कोने
में अपना अस्तित्व बनाये रखें या फिर शहरी आतं कवाद का रास्ता पकड़ लें।
भारत में पूँजीवादी विकास जिस बर्बरता के साथ मध्यवर्ग के निचले हिस्सों को
भी पीस और निचोड़ रहा है, उसके चलते, खासकर निम्न मध्यवर्ग से, विद्रोही
युवाओ ं का एक हिस्सा आत्मघाती उतावलेपन के साथ, व्यापक मेहनतकश
जनता को जागृत व लामबं द किये बिना, स्वयं अपने साहस और आतं क एवं
षड्यंत्र की रणनीति के सहारे आनन–फानन में क्रान्ति कर देने के लिए मैदान
में उतरता रहेगा। निम्न पूँजीवादी क्रान्तिवाद की यह प्रवृत्ति लातिन अमेरिका
से लेकर यूरोप तक के सापेक्षत: पिछड़े पूँजीवादी देशो ं में एक आम प्रवृत्ति के
रूप में मौजूद है। विश्व सर्वहारा आन्दोलन के उद्भव से लेकर युवावस्था तक,
यूरोप में (और रूस में भी) कम्युनिस्ट धारा की पूर्ववर्ती एवं सहवर्ती धारा के
रूप में निम्नपूँजीवादी क्रान्तिवाद की यह प्रवृत्ति मौजूद थी और मज़दूरो ं के एक
अच्छे –खासे हिस्से पर इनका भी प्रभाव मौजूद था। आश्चर्य नही ं कि आने वाले
दिनो ं में भारत में भी क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन के साथ–साथ मध्यवर्गीय
क्रान्तिवाद की एक या विविध धाराएँ मौजूद रहें और (कोलम्बिया या अन्य
कई लातिन अमेरिकी देशो ं के सशस्त्र ग्रुपो ं की तरह) उनमें से कई अपने
को मार्क्सवादी या माओवादी भी कहते रहें। लेकिन समय बीतने के साथ ही
मार्क्सवाद के साथ उनका दूर का रिश्ता भी बना नही ं रह पायेगा।
जहाँ तक कतारो ं की बात है, यह सही है कि आज भी क्रान्तिकारी कतारें
मुख्यत: मा.ले. सं गठनो ं के तहत ही सं गठित हैं। पर गैर बोल्शेविक ढाँचो ं वाले
मा.ले. सं गठनो ं में उन्हें मार्क्सवादी विज्ञान से शिक्षित नही ं किया गया है और
स्वतं त्र पहलकदमी के साहस व निर्णय लेने की क्षमता का भी उनमें अभाव है।
विभिन्न सं गठनो ं में समय काटते हुए उनकी कार्यशैली भी सामाजिक जनवादी
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प्रदूषण का शिकार हो रही है और निराशा का दीमक उनके भीतर भी पैठा
हुआ है। उनके राजनीतिक–सांगठनिक जीवन के व्यवहार ने उन्हें स्वतं त्र एवं
निर्णय लेने की क्षमता से लैस वह साहसिक चेतना और समझ नही ं दी है कि
वे महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की सच्ची माओवादी स्पिरिट में ‘विद्रोह
न्यायसं गत है’ के नारे पर अमल करते हुए अवसरवादी नेतृत्व के विरुद्ध विद्रोह
कर दें और अपनी पहल पर कोई नयी शुरुआत कर सकें । लेकिन जो कतारें
सैद्धान्तिक मतभेदो ं और विवादो ं की जटिलताओ ं को नही ं समझ पाती हैं,
उनके सामने यदि कोई सही लाइन व्यवहार में, निरूतरता और सुसंगति के
साथ, लागू होती और आगे बढ़ती दिखाई देती है तो फिर निर्णय तक पहुँचने
में वे ज़रा भी देर नही ं करती।ं आगे भी ऐसा ही होगा।
इतिहास और वर्तमान के इसी विश्लेषण–आकलन के आधार पर हमारा
यह मानना है कि भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का जो चरण नक्सलबाड़ी
से शुरू हुआ था, वह कमोबेश गत शताब्दी के नवें दशक तक ही समाप्त हो
चुका था। हमें आज के समय को उस दौर की निरंतरता के रूप में नही,ं बल्कि
उसके उत्तरवर्ती दौर के रूप में देखना होगा, यानी निरंतरता और परिवर्तन
के ऐतिहासिक द्वंद्व में आज हमारा ज़ोर परिवर्तन के पहलू पर होना चाहिए।
निस्सं देह नक्सलबाड़ी और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन की विरासत को
हम स्वीकार करते हैं और उसके साथ एक आलोचनात्मक सम्बन्ध निरंतर
बनाये रखते हैं, लेकिन हमारे लिए वह अतीत की विरासत है, हमारा वर्तमान
नही ं है। आज भावी भारतीय सर्वहारा क्रान्ति का हरावल दस्ता इस अतीत
की राजनीतिक सं रचनाओ ं को जोड़–मिलाकर सं घटित नही ं किया जा सकता
क्योंकि ये राजनीतिक सं रचनाएँ अपनी बोल्शेविक स्पिरिट और चरित्र, मुख्य
रूप से, ज्यादातर मामलो ं में, खो चुकी हैं। यानी एक एकीकृ त पार्टी बनाने की
प्रक्रिया का प्रधान पहलू आज बदल चुका है। आज कार्यक्रम व नीति विषयक
मतभेदो ं को हल करके विभिन्न क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट सं गठनो ं के ढाँचो ं को एक
एकीकृ त पार्टी के ढाँचे में विलीन कर देने का सवाल ही नही ं रह गया है, बल्कि
प्रधान प्रश्न क्रान्तिकारी बोल्शेविक उसूलो ं एवं चरित्र वाले सं गठन का ढाँचा नये
सिरे से बनाने का प्रश्न बन गया है। यानी क्लासिकीय लेनिनवादी शब्दावली में
कहें तो, प्रधान पहलू पार्टी–गठन का नही ं बल्कि पार्टी–निर्माण का है। जिसे
अबतक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर कहा जाता रहा है, वह, मूलत: और
मुख्यत: विघटित हो चुका है। अब इस शिविर के नेतृत्व से ‘पॉलिमिक्स’ के
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 93
जरिए पार्टी–पुनर्गठन की अपेक्षा नही ं की जा सकती। बेशक़ जनमानस को
प्रभावित करने वाले किसी भी विचार की आलोचना और उसके साथ बहस
का काम तो होता ही रहता है और इससे क्रान्तिकारी कतारो ं की वैचारिक–
राजनीतिक शिक्षा भी होती रहती है, लेकिन ऐसी राजनीतिक बहसो ं का लक्ष्य
आज किसी सं गठन के साथ एकता बनाना नही ं हो सकता। हम आज ऐसी
अपेक्षा नही ं कर सकते।
सांगठनिक–राजनीतिक कार्य–योजना की आम दिशा और हमारे कार्यभार
हमें, सारे भ्रमो ं से मुक्त होकर, पार्टी–निर्माण के काम को साहसपूर्वक
हाथ में लेना होगा। हमें नयी समाजवादी क्रान्ति के परचम को उठाकर,
भारतीय सर्वहारा वर्ग के सभी हिस्सों के बीच उन साहसी क्रान्तिकारियो ं की
टीम को लेकर जाना होगा, जिन्होंने अब तक धारा के विरुद्ध जूझते हुए अपने
बोल्शेविक साहस को खरा सिद्ध किया है। हमें सभी दिशाओ ं में, जनता के
सभी हिस्सों के बीच जाना होगा और क्रान्तिकारी प्रोपेगैण्डा एवं एजिटेशन
की घनीभूत, जुझारू और निरंतर कार्रवाई चलाते हुए उन्नत चेतना के युवाओ ं
के बीच से पेशेवर क्रान्तिकारी सं गठनकर्ताओ ं की भरती पर, फिलहाल विशेष
ज़ोर देना होगा, क्योंकि सक्षम सं गठनकर्ताओ ं की बेहद कमी है और देश के
लाखो ं मेहनतकश और मध्यवर्गीय युवाओ ं के बीच आज क्रान्तिकारी भरती
की प्रचुर सं भावनाएँ मौजूद हैं और आने वाले दिनो ं में ये सं भावनाएँ बढ़ती ही
चली जायेंगी।
हमें समूचे सर्वहारा वर्ग को ही सं गठित करना होगा, लेकिन शुरुआती दौर में
ग्रामीण सर्वहारा के बजाय हमें औद्योगिक सर्वहारा वर्ग पर के न्द्रित करना होगा
और उसमें भी पहले हमें, स्थायी नौकरी, बेहतर वेतन और बेहतर जीवन वाले
सापेक्षत: सफ़े दपोश मज़दूरो ं की छोटी सी आबादी के बजाय झग् ु गी बस्तियो ं में
रसातल का जीवन जीने और अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाली उस बहुसं ख्यक,
असं गठित सर्वहारा आबादी पर के न्द्रित करना होगा जो अपनी उन्नत चेतना
और बड़े आधुनिक उद्योगो ं में काम करने के बावजूद, दिहाड़ी, अस्थायी या
ठे का मज़दूर के रूप में पचास–साठ रुपये की दिहाड़ी पर दस–दस, बारह–
बारह घण्टे तक काम करती है और जिसे कोई भी सुविधा या सामाजिक
सुरक्षा हासिल नही ं होती। यह आबादी कु ल औद्योगिक सर्वहारा आबादी के
80 फीसदी के आसपास है। ग्रामीण और शहरी, कु ल सर्वहारा आबादी में
94 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
असं गठित मज़दूरो ं की सं ख्या 95 प्रतिशत के आसपास है। ये असं गठित
मज़दूर छोटे–छोटे वर्क शापो ं में उन्नीसवी ं शताब्दी में काम करने वाले यूरोपीय
मज़दूरो ं के समान असं गठित नही ं हैं। ये प्राय: उन्नत तकनोलॉजी वाले आधुनिक
कारख़ानो ं में काम करते हैं और उन्नत पूँजीवादी उत्पादन–सम्बन्धों में उजरती
गुलाम के रूप में भागीदारी के चलते इनकी चेतना अत्यधिक उन्नत है। ये
असं गठित मात्र इसलिए हैं कि इनकी नौकरी स्थायी नही ं होती और प्राय: ये
सफे़ दपोश मज़दूरो ं की तरह सं शोधनवादी और बुर्जुआ पार्टियो ं के नेतत्व
ृ वाली
यूनियनो ं में सं गठित नही ं हैं। इनके बीच काम करने की सबसे बड़ी समस्या
है, इनके काम के घण्टे और लगातार सिर पर टँ गी रोजगार–असुरक्षा की
तलवार। पर यह कोई असाध्य समस्या नही ं है। हमें भूलना नही ं चाहिए कि
यूरोप में जब मज़दूरो ं के बीच उन्नीसवी ं शताब्दी में ट्रेड यूनियन कार्यों और
राजनीतिक कार्यों की शुरुआत हुई थी तो वे लगभग ऐसी ही स्थिति में जी
रहे थे। इस आबादी का सकारात्मक पहलू यह है कि किसी एक मालिक के
कारख़ाने में काम नही ं करने के कारण इनकी चेतना उस भटकाव से मुक्त
होती है, जिसे लेनिन ने “पेशागत सं कु चित वृत्ति” का नाम दिया था। काम
के घण्टों को कम करने, ठे का–प्रथा समाप्त करने, रोजगार गारण्टी व अन्य
सामाजिक सुरक्षा की माँग ही इनकी बुनियादी माँग है। अत: इनकी लड़ाई की
प्रकृ ति पहले दिन से ही मुख्यत: राजनीतिक होगी। वह किसी एक पूँजीपति के
बजाए मुख्यत: समूचे पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के विरुद्ध के न्द्रित
होगी। इन्हें सं गठित करने की प्रक्रिया कठिन और लम्बी अवश्य होगी, लेकिन
एकबार यह प्रक्रिया यदि आगे बढ़ गयी तो मज़दूर आन्दोलन में अर्थवादी
भटकाव की ज़मीन भी काफ़ी कमज़ोर होगी और राजनीतिक सं घर्षों में मज़दूर
वर्ग की लामबं दी का रास्ता अधिक आसान हो जायेगा।
कारख़ाना गेटो ं की प्रचार कार्रवाई और कारखाना–के न्द्रित आन्दोलनो ं
के जरिए मज़दूर वर्ग के इस हिस्से से घनिष्ठ एकता बना पाना सम्भव नही ं
होगा। इसके लिए क्रान्तिकारी प्रचारको–ं सं गठनकर्ताओ ं को मज़दूर बस्तियो ं
में पैठना–फै लना होगा, वहाँ विविध प्रकार की सं स्थाएँ और अड्डे विकसित
करने होगं े और व्यापक मज़दूर आबादी के बीच विविध रचनात्मक कार्य करते
हुए रोजमर्रे के जीवन से जुड़े प्रश्नों, जैसे आवास, पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा
आदि के प्रश्नों पर, आन्दोलनात्मक कार्रवाइयाँ सं गठित करनी होगं ी। इसके
बाद काम के घण्टे, ठे का प्रथा, रोजगार–सुरक्षा जैसे प्रश्नों पर इलाकाई पैमाने
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 95
पर आन्दोलन खड़ा करने की दिशा में कदम–ब–कदम आगे बढ़ना होगा।
मज़दूर वर्ग को सं गठित करने का मतलब यदि कोई के वल ट्रेड यूनियन
कार्य समझता है तो यह एक ट्रेड यूनियनवादी समझ है। बेशक़, ट्रेड यूनियनें
मज़दूर वर्ग के लिए वर्ग सं घर्ष की प्राथमिक पाठशाला होती हैं, लेकिन ट्रेड
यूनियन कार्रवाइयो ं से अपने आप पार्टी कार्य सं गठित नही ं हो जाता। मज़दूरो ं
को ट्रेड यूनियनो ं में सं गठित करने और उनके रोज़मर्रे के सं घर्षों को सं गठित
करने के प्रयासो ं के साथ–साथ हमें उनके बीच राजनीतिक प्रचार का काम –
समाजवाद के प्रचार का काम, मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के प्रचार
का काम शुरू कर देना होगा। मज़दूर आंदोलन में वैज्ञानिक समाजवाद की
विचारधारा के वल ऐसे सचेतन प्रयासो ं से ही डाली और स्थापित की जा सकती
है। इस काम में मज़दूर वर्ग के एक राजनीतिक अखबार की भूमिका सबसे
अहम होगी। ऐसा अखबार राजनीतिक प्रचारक–सं गठनकर्ता–आंदोलनकर्ता
के हाथो ं में पहुँचकर स्वयं एक प्रचारक–सं गठनकर्ता–आंदोलनकर्ता बन
जायेगा तथा मज़दूरो ं के बीच से पार्टी–भरती और मज़दूरो ं की क्रान्तिकारी
राजनीतिक शिक्षा का प्रमुख साधन बन जायेगा। ऐसे अखबार के मज़दूर
रिपोर्टरो–ं एजेण्टों–वितरको ं का एक पूरा नेटवर्क खड़ा किया जा सकता है,
उसके लिए मज़दूरो ं से नियमित सहयोग जुटाने वाली टोलियाँ बनाई जा सकती
हैं और अख़बार के नियमित जागरूक पाठको ं को तथा मज़दूर रिपोर्टरो–ं
एजेण्टों को लेकर जगह–जगह मज़दूरो ं के मार्क्सवादी अध्ययन–मण्डल
सं गठित किये जा सकते हैं। इस प्रक्रिया में मज़दूरो ं के बीच से पार्टी–भरती
और राजनीतिक शिक्षा के काम को आगे बढ़ाकर हमें पार्टी–निर्माण के काम
को आगे बढ़ाना होगा।
इस तरह मज़दूरो ं के बीच से पार्टी–सं गठनकर्ताओ ं और कार्यकर्ताओ ं की
भरती और तैयारी के बाद ही ट्रेड–यूनियन कार्य को आगे की मं ज़िल में ले
जाया जा सकता है तथा उसे अर्थवाद–ट्रेडयूनियनवाद से मुक्त रखते हुए
क्रान्तिकारी लाइन पर क़ायम रखने की एक बुनियादी गारण्टी हासिल की
जा सकती है। साथ ही, ऐसा करके ही, किसी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पार्टी के
कम्पोज़ीशन में मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आये पेशेवर क्रान्तिकारी व ऐक्टिविस्ट
साथियो ं के मुकाबले मज़दूर पृष्ठभूमि के साथियो ं का अनुपात क्रमश: ज़्यादा से
ज़्यादा बढ़ाया जा सकता है, पार्टी के क्रान्तिकारी सर्वहारा हिरावल चरित्र को
ज़्यादा से ज़्यादा मजबूत बनाया जा सकता है, पार्टी के भीतर विजातीय तत्वों
96 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
और लाइनो ं के खिलाफ़ नीचे से निगरानी का माहौल तैयार किया जा सकता
है और इनकी ज़मीन कमज़ोर की जा सकती है। इसके साथ ही कम्युनिस्ट
सं गठनकर्ताओ ं को व्यापक मज़दूर आबादी के बीच तरह–तरह की सं स्थाएँ
जनदर्गु के स्तम्भों के रूप में खड़ी करनी होगं ी और व्यापक सार्वजनिक मं च
सं गठित करने होगं े। ये सं स्थाएं और ये मं च न के वल वर्ग के हिरावल दस्ते
को वर्ग के साथ मजबूती से जोड़ने का काम करेंगे, बल्कि इनके नेतत्व ृ और
सं चालन के जरिए आम मेहनतकश राजकाज और समाज के ढाँचे को चलाने
का प्रशिक्षण भी लेंगे तथा अभ्यास भी करेंगे। इसे जनता की वैकल्पिक
सत्ता के भ्रूण के रूप में देखा जा सकता है, जिन्हें शुरुआती दौर से ही हमें
सचेतन रूप से विकसित करना होगा। भविष्य में इनके अमली रूप किस रूप
में सामने आयेंगे, यह हम आज नही ं बता सकते, लेकिन क्रान्तिकारी लोक
स्वराज्य पं चायत के रूप में हम वैकल्पिक लोक सत्ता के सचेतन विकास की
इसी अवधारणा को प्रस्तुत करना चाहते हैं। अक्तूबर क्रान्ति के पूर्व सोवियतो ं
का विकास स्वयं स्फूर्त ढंग से (सबसे पहले 1905–07 की क्रान्ति के दौरान)
हुआ था, जिसे बोल्शेविको ं ने सर्वहारा सत्ता का के न्द्रीय ऑर्गन बना दिया। अब
इक्कीसवी ं शताब्दी में, भारत के सर्वहारा क्रान्तिकारियो ं को नयी समाजवादी
क्रान्ति की तैयारी करते हुए मेहनतकश वर्गों की वैकल्पिक क्रान्तिकारी सत्ता
को सचेतन रूप से विकसित करना होगा और ऐसा शुरुआती दौर से ही करना
होगा। यह एक विस्तृत चर्चा का विषय है, लेकिन यहाँ इतना बता देना ज़रूरी
है कि आज की दनु िया में मजबूत सामाजिक अवलं बो ं वाली किसी बुर्जुआ
राज्यसत्ता को आम बग़ावत के द्वारा चकनाचूर करने के लिए “वर्गों के बीच
लम्बा अवस्थितिगत युद्ध” अवश्यम्भावी होगा और इस “युद्ध” में सर्वहारा वर्ग
और मेहनतकश जनता के ऐसे जनदर्गों ु की अपरिहार्यत: महत्वपूर्ण भूमिका
होगी। साथ ही, जनता की वैकल्पिक सत्ता के निर्माण की प्रक्रिया को सचेतन
रूप से आगे बढ़ाकर ही, क्रान्ति के बाद सर्वहारा जनवाद के आधार को व्यापक
बनाया जा सकता है और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लिए सचेष्ट बुर्जुआ तत्वों
के विरुद्ध सतत् सं घर्ष अधिक प्रभावी, निर्मम निर्णायक और समझौताहीन ढंग
से चलाया जा सकता है। स्पष्ट है कि नयी समाजवादी क्रान्ति की सोच से जुड़ी
वैकल्पिक सत्ता के सचेतन निर्माण की अवधारणा के पीछे सर्वहारा सांस्कृतिक
क्रान्ति की शिक्षाओ ं की अहम भूमिका है।
जहाँ तक औद्योगिक मज़दूर वर्ग के बीच ट्रेड यूनियन कार्यों की बात है,
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 97
हमें कारख़ाना–के न्द्रित यूनियनो ं में काम करने और उनपर अपनी राजनीति
का वर्चस्व स्थापित करने के हर अनुकूल अवसर का इस्तेमाल करना चाहिए,
लेकिन हमारा ज़ोर (असं गठित मज़दूर आबादी को मुख्य लक्ष्य बनाने के नाते)
मुख्य तौर पर, यदि ताकत जुट जाये तो, इलाकाई पैमाने पर मज़दूरो ं की यूनियनें
सं गठित करने पर होना चाहिए। आज इसके लिए वस्तुगत परिस्थितियाँ, पहले
हमेशा से अधिक अनुकूल हैं।
आज की मं ज़िल में, आगे के कार्यभारो ं की चर्चा हम सं क्षेप में आम दिशा के
रूप में ही कर सकते हैं। अपने विकास की आगे की मं जिल में, कोई कम्युनिस्ट
क्रान्तिकारी सं गठन या सर्वभारतीय पार्टी औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के बाद
दूसरी प्राथमिकता में अपना काम गाँवो ं की विशाल सर्वहारा अर्द्धसर्वहारा
आबादी पर के न्द्रित करेगी। उसका काम गाँव के ग़रीबो ं में ज़मीन की भूख
पैदा करना नही ं बल्कि उन्हें यह बतलाना होगा कि ज़मीन के किसी छोटे
टुकड़े का मालिकाना न तो उनकी समस्याओ ं का समाधान है, न ही पूँजी
की मार से वे उसे बचा ही सकते हैं। के वल समाजवाद के अन्तर्गत भूमि का
सामुदायिक व राजकीय स्वामित्व ही उनकी समस्या का समाधान हो सकता है
और उनकी आज़ादी एवं समानता की, उनके जनवादी अधिकारो ं की एकमात्र
गारण्टी हो सकता है। हमें उनके राजनीतिक सं घर्षों को बुर्जुआ राज्यसत्ता के
विरुद्ध के न्द्रित करना होगा और मज़दूरी के सवाल पर उनके आर्थिक सं घर्ष को
गाँव के पूँजीवादी भूस्वामियो ं व कृ षि–आधारित उद्योगो ं के मालिको ं के विरुद्ध
के न्द्रित करना होगा। पूँजी की मार से त्रस्त छोटे और निम्न मध्यम मालिक
किसानो ं को भी हमें लगातार यह बताना होगा कि पूँजीवादी समाज में जगह–
ज़मीन से उजड़कर सर्वहारा की कतारो ं में शामिल होना उनकी नियति है, कि
लागत मूल्य और लाभकारी मूल्य की लड़ाई से उन्हें कु छ भी हासिल नही ं होगा
और उनके सामने एकमात्र रास्ता यही है कि वे सर्वहारा वर्ग के साथ मिलकर
साम्राज्यवाद, पूँजीवाद और धनी किसानो ं की सत्ता के विरुद्ध, समाजवाद के
लिए सं घर्ष करें। इसके ऊपर मँ झोले मालिक किसानो ं का जो मध्यवर्ती सं स्तर
है, उसे पूँजी और श्रम के बीच की लड़ाई में तटस्थ या निष्क्रिय बनाने की हर
चन्द कोशिश करनी होगी, पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध के न्द्रित उसकी माँगो ं
को पूरा समर्थन देना होगा, ऐसी माँगो ं पर उनके आन्दोलन (जनता के अन्य
वर्गों के साथ साझा आन्दोलन) सं गठित करने होगं े तथा बड़े मालिक किसानो ं
के आन्दोलनो ं से उन्हें अलग करने की हर सम्भव कोशिश करनी होगी।
98 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
इसके बाद कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियो ं का अगला लक्ष्य शहरो ं में सेवाक्षेत्र
और वाणिज्य से जुड़े सर्वहारा वर्ग को उनके आर्थिक और राजनीतिक माँगो ं
पर सं गठित करना होगा। शहरी मध्यवर्ग का एक छोटा–सा ऊपरी हिस्सा आज
समृद्धि और विलासिता के शिखर पर बैठा हुआ है और पूँजीवादी व्यवस्था का
सर्वाधिक विश्वस्त स्तम्भ की भूमिका निभा रहा है। उसका मध्यवर्ती सं स्तर
बस जैसे–तैसे अपने अस्तित्व को बनाये हुए है, समृद्धि के सपने पाले हुए
कभी वह ऊपर की ओर देखता है, तो कभी मोहभं ग की स्थिति में व्यवस्था–
विरोध की बातें करता है। शेष निम्न मध्यवर्ग की एक भारी आबादी है जो पूँजी
की मार से त्रस्त है और रोज़मर्रे की ज़रूरतो ं भी मुश्किल से ही जुटाती हुई
लगातार तमाम अनिश्चितताओ ं के बीच जी रही है। इस तबके के युवाओ ं के
सामने बेरोज़गारी की विकराल समस्या मुँह बाये खड़ी है। लगातार क्रान्तिकारी
प्रचार की कार्रवाई के द्वारा कम्युनिज़्म के प्रति इसके पूर्वाग्रहो ं और भ्रान्तियो ं
को तोड़कर इसे समाजवाद के पक्ष में खड़ा किया जा सकता है। रोजगार
और बुनियादी नागरिक माँगो ं पर मध्यवर्ग के इस हिस्से को सं गठित करके
क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट इसे सर्वहारा वर्ग के साथ मोर्चे में साथ ला सकते हैं।
भारतीय सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता शहरो ं और गाँवो ं की सर्वहारा
आबादी को सं गठित करने के साथ ही तीन वर्गों का रणनीतिक सं युक्त मोर्चा
(गाँवो ं शहरो ं की सर्वहारा आबादी, छोटे मालिक किसानो ं सहित गाँवो–ं शहरो ं
की अर्द्धसर्वहारा आबादी तथा उनके ढुलमुल दोस्त के रूप में मध्यम किसान
एवं गाँवो–ं शहरो ं का मध्यवर्ग) क़ायम करके ही नयी समाजवादी क्रान्ति को
– साम्राज्यवाद–पूँजीवाद विरोधी क्रान्ति को सफल बना सकता है। पूँजीवादी
भूस्वामी–फार्मर–कु लक और सभी छोटे–बड़े पूँजीपति आज क्रान्ति के
ु नो ं की श्रेणी में आते हैं। के वल नयी समाजवादी क्रान्ति का रास्ता ही आज
दश्म
भारतीय जनता की मुक्ति का रास्ता हो सकता है। इसके कार्यक्रम को अमल
में लाने वाली सर्वहारा वर्ग की पार्टी के निर्माण की दिशा में आगे कदम बढ़ाकर
ही आज के गतिरोध को तोड़ा जा सकता है। दूसरा कोई भी रास्ता नही ं है।
नयी शुरुआत कहाँ से करें और प्राथमिकताओं एवं ज़ोर का निर्धारण
किस प्रकार और किस रूप में करें ?
सर्वहारा के हिरावल दस्ते के फिर से निर्माण की प्रक्रिया आज, अभी
प्रारम्भिक अवस्था में है, बस शुरुआत करने भर की स्थिति में है। ऐसी स्थिति में
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 99
सभी मोर्चों पर सभी कामो ं को एक साथ हाथ में कत्तई नही ं लिया जा सकता।
आज का महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि शुरुआत कहाँ से करें और हमारे कामो ं की
प्राथमिकता क्या हो ?
पार्टी–निर्माण के काम को आज का प्रमुख काम मानते हुए, सबसे पहले यह
ज़रूरी है कि हम चन्द एक चुने हुए औद्योगिक के न्द्रों में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग
के बीच अपनी मुख्य एवं सर्वाधिक ताक़त के न्द्रित करें। वहाँ मज़दूरो ं के जीवन
के साथ एकरूप होकर क्रान्तिकारी सं गठनकर्ताओ ं को ठोस परिस्थितियो ं के
हर पहलू की जाँच पड़ताल एवं अध्ययन करना होगा, मज़दूर आबादी के
बीच तरह–तरह की सं स्थाएँ बनाकर रचनात्मक कार्य करने होगं े, ताकत एवं
अनुकूल अवसर के हिसाब से मज़दूरो ं के रोज़मर्रे के आर्थिक एवं राजनीतिक
सं घर्षों में भागीदारी करते हुए उनके बीच व्यवहार के धरातल पर क्रान्तिकारी
वाम राजनीति का प्राधिकार स्थापित करना होगा और इसके साथ–साथ
राजनीतिक शिक्षा एवं प्रचार की कार्रवाइयाँ विशेष ज़ोर देकर सं गठित करना
होगा। यह ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग के बीच से पार्टी–भरती और उस नयी
भरती की राजनीतिक शिक्षा एवं सांगठनिक–राजनीतिक कार्यों में उसके
मार्गदर्शन के लिए मज़दूर वर्ग का एक ऐसा राजनीतिक अख़बार नियमित रूप
से प्रकाशित किया जाये तो मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन और समाजवाद
का सीधे प्रचार करते हुए मज़दूरो ं के शिक्षक, प्रचारक और सं गठनकर्ता की
भूमिका निभाये। ऐसा अख़बार पार्टी–निर्माण के प्रमुख उपकरण की भूमिका
निभायेगा।
लेकिन इतने कामो ं को अंजाम देने के लिए तथा एक छोटे से पार्टी
सं गठन के ज़रूरी बुनियादी पार्टी कामो ं को करने के लिए भी आज सक्षम
सं गठनकर्ताओ ं की भारी कमी है। इसलिए, आज की फ़ौरी ज़रूरत यह है कि
असरदार ढंग से शुरुआत करने के लिए, जल्दी से जल्दी कु छ सक्षम पेशेवर
सं गठनकर्ताओ ं की भरती हो, चाहे वह मध्य वर्ग से हो या मज़दूर वर्ग से। इस
फ़ौरी ज़रूरत के लिए उचित और व्यावहारिक यही होगा कि मज़दूर वर्ग के
बीच प्रचार, शिक्षा एवं आन्दोलन की कार्रवाई को ‘लो प्रोफाइल’ पर जारी
रखते हुए, शुरू के कु छ वर्षों के दौरान मध्यवर्गीय शिक्षित युवाओ ं और छात्रों
के मोर्चे पर क्रान्तिकारी भरती को कमान में रखते हुए, कामो ं पर सबसे अधिक
ज़ोर दिया जाये और फिर सक्षम पेशेवर क्रान्तिकारी सं गठनकर्ताओ ं की एक
नयी टीम जुटाकर मज़दूरो ं के बीच कामो ं पर ज़ोर को मुख्य बना दिया जाये।
100 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
पेशेवर क्रान्तिकारियो ं की भरती मज़दूरो ं के बीच से भी होगी और वही ं भावी
क्रान्तिकारी पार्टी की के न्द्रीय शक्ति होगी, लेकिन भारतीय सर्वहारा वर्ग की
वर्तमान स्थिति को देखते हुए, उसमें थोड़ा लम्बा समय लगेगा। इसलिए, कम
समय में शुरुआती ताकत जुटाने के लिए प्रारम्भ के कु छ वर्षों के दौरान शिक्षित
मध्य वर्ग के उन्नत और जुझारू तत्वों की पार्टी–भरती पर ज़्यादा बल देना ही
आज की परिस्थितियो ं में एक सही कदम होगा। फिर ताकत बढ़ते जाने के
साथ ही हमें प्राथमिकता–क्रम से उन वर्गों के बीच और उन मोर्चों पर अपने
कामो ं का विस्तार करते जाना होगा, जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है।
लेकिन पार्टी–निर्माण के काम की इस प्रारम्भिक अवस्था में भी, बुनियादी
विचारधारात्मक कार्यभारो ं की उपेक्षा नही ं की जा सकती या उन्हें टाला नही ं
जा सकता। विपर्यय और पूँजीवादी पुनरुत्थान के वर्तमान अन्धकारमय दौर में
पूरी दनु िया की बुर्जुआ मीडिया और बुर्जुआ राजनीतिक साहित्य ने समाजवाद
के बारे में तरह–तरह के कु त्सा प्रचार करके विगत सर्वहारा क्रान्तियो ं की
तमाम विस्मयकारी उपलब्धियो ं को झठू के अम्बार तले ढँ क दिया है। आज
की युवा पीढ़ी सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान और विगत सर्वहारा क्रान्तियो ं की
वास्तविकताओ ं से सर्वथा अपरिचित है। उसे यह बताने की ज़रूरत है कि
मार्क्सवाद के सिद्धान्त क्या कहते हैं और इन सिद्धान्तों को अमल में लाते
हुए बीसवी ं शताब्दी की सर्वहारा क्रान्तियो ं ने क्या उपलब्धियाँ हासिल की।ं
उन्हें यह बताना होगा कि सर्वहारा क्रान्तियो ं के प्रथम सं स्करणो ं की पराजय
कोई अप्रत्याशित बात नही ं थी और फिर उनके नये सं स्करणो ं का सृजन और
विश्व पूँजीवाद की पराजय भी अवश्यम्भावी है। उन्हें यह बताना होगा कि
विगत क्रान्तियो ं ने पराजय के बावजूद, पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने का
उपाय भी बताया है और इस सन्दर्भ में चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति
की शिक्षाओ ं का युगान्तरकारी महत्व है। आज के सर्वहारा वर्ग की नयी पीढ़ी
को इतिहास की इन्हीं शिक्षाओ ं से परिचित कराने के कार्यभार को हम नये
सर्वहारा पुनर्जागरण का नाम देते हैं। लेकिन इक्कीसवी ं सदी की सर्वहारा
क्रान्तियाँ हू ब हू बीसवी ं सदी की सर्वहारा क्रान्तियो ं के नक़् शेक़दम पर नही ं
चलेंगी। ये अपनी महान पूर्वज क्रान्तियो ं से ज़रूरी बुनियादी शिक्षाएँ लेंगी
और फिर इस विरासत के साथ, वर्तमान परिस्थितियो ं का अध्ययन करके ,
पूँजी की सत्ता को निर्णायक शिकस्त देने की रणनीति एवं आम रणकौशल
विकसित करेंगी। यह प्रक्रिया गहन सामाजिक प्रयोग, उनके सैद्धान्तिक
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 101
समाहार, गम्भीर शोध–अध्ययन, वाद–विवाद, विचार–विमर्श और फिर नई
सर्वहारा क्रान्तियो ं की प्रकृ ति, स्वरूप एवं रास्ते से सर्वहारा वर्ग और क्रान्तिकारी
जनसमुदाय को परिचित कराने की प्रक्रिया होगी। इन्हीं कार्यभारो ं को हम नये
सर्वहारा प्रबोधन के कार्यभार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। मार्क्सवादी दर्शन को
सर्वतोमुखी नयी समृद्धि तो भावी नयी समाजवादी क्रान्तियाँ ही प्रदान करेंगी,
लेकिन यह प्रक्रिया नये सर्वहारा प्रबोधन के कार्यभारो ं को अंजाम देने के साथ
ही शुरू हो जायेगी। नये सर्वहारा पुनर्जागरण और नये सर्वहारा प्रबोधन के
कार्यभार विश्व–ऐतिहासिक विपर्यय के वर्तमान दौर में, तथा विश्व पूँजीवाद की
प्रकृ ति एवं कार्यप्रणाली का अध्ययन करके श्रम और पूँजी के बीच के विश्व–
ऐतिहासिक महासमर के अगले चक्र में पूँजी की शक्तियो ं की अन्तिम रूप से
पराजय को सुनिश्चित बनाने की सर्वतोमुखी तैयारियो ं के कठिन चुनौतीपूर्ण दौर
में, सर्वहारा वर्ग के अनिवार्य कार्यभार हैं जिन्हें सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता
अपनी सचेतन कार्रवाइयो ं के द्वारा नेतत्व ृ प्रदान करेगा। ये कार्यभार पार्टी–

निर्माण के कार्यभारो के साथ अविभाज्यत: जुड़े हुए हैं और पाटी–निर्माण
के प्रारम्भिक चरण से ही इन्हें हाथ में लेना ही होगा, चाहे हमारे ऊपर अन्य
आवश्यक राजनीतिक–सांगठनिक कामो ं का बोझ कितना भी अधिक क्यों न
हो! इन कार्यभारो ं को पूरा करने वाला नेतत्व ृ ही नयी समाजवादी क्रान्ति की
लाइन को आगे बढ़ाने के लिए सैद्धान्तिक अध्ययन और ठोस सामाजिक–
आर्थिक–राजनीतिक परिस्थितियो ं के अध्ययन के कामो ं को सफलतापूर्वक
आगे बढ़ा पायेगा।
एक नयी लाइन जैसे–जैसे सुनिश्चित शक़् ल अख्तियार करती जाती है,
वैसे–वैसे कार्यकर्ता निर्णायक होते चले जाते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया अपने आप
घटित नही ं होती। एक सही लाइन के नतीजे़ तक पहुँचने के बाद सांगठनिक
कार्यों पर विशेष ज़ोर बढ़ा देना पड़ता है। तभी जाकर कतारें निर्णायक ढंग
से प्रभावी हो पाती हैं। लाइन के विकास के सं दर्भ में अभी काफी कु छ किया
जाना है, लेकिन नयी समाजवादी क्रान्ति की आम दिशा और आम स्वरूप
आज हमारे सामने है। इसलिए, अब समय आ गया है कि सांगठनिक कार्यों
पर हम विशेष ज़ोर दें। सबसे पहले ज़रूरी है कि तमाम विजातीय तत्वों और
तमाम ढुलमुलयक़ीनो ं को तमाम कायरो–ं निठल्लों और तमाम अवसरवादियो ं
को छाँट–बीनकर बाहर फें क दिया जाये। कू ड़ा–करकट की सफ़ाई लोहे के
हाथो ं से करनी होगी और बोल्शेविक परम्परा को महान सर्वहारा सांस्कृतिक
102 / भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद
क्रान्ति की शिक्षाओ ं के आलोक में आगे बढ़ाते हुए जनवादी के न्द्रीयता पर
आधारित इस्पाती सांगठनिक ढाँचे का निर्माण करना होगा। पार्टी–निर्माण के
वर्तमान दौर की अन्तर्वस्तु के हिसाब से सांगठनिक ढाँचा खड़ा करना ही आज
पार्टी–गठन का कार्यभार है, जिसकी उपेक्षा कदापि नही ं की जा सकती।
नयी समाजवादी क्रान्ति के तूफ़ान को निमं त्रण दो! सर्वहारा के हिरावलों
से अपेक्षा है स्वतं त्र वैज्ञानिक विवेक की और धारा के विरुद्ध तैरने के
साहस की!
इतिहास में पहले भी कई बार ऐसा देखा गया है कि राजनीतिक पटल पर
शासक वर्गों के आपसी सं घर्ष ही सक्रिय और मुखर दिखते हैं तथा शासक
वर्गों और शासित वर्गों के बीच के अन्तरविरोध नेपथ्य के नीम अँधरे े में धके ल
दिये जाते हैं। ऐसा तब होता है जब क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर
हावी होती है, ऐतिहासिक प्रगति की शक्तियो ं पर गतिरोध और विपर्यय की
शक्तियाँ हावी होती हैं। हमारा समय विपर्यय और प्रतिक्रिया का ऐसा ही
अँधरे ा समय है। और यह अँधरे ा पहले के ऐसे ही कालखण्डों की तुलना में
बहुत अधिक गहरा है, क्योंकि यह श्रम और पूँजी के बीच के विश्व ऐतिहासिक
महासमर के दो चक्रों के बीच का ऐसा अन्तराल है, जब पहला चक्र श्रम
की शक्तियो ं के पराजय के साथ समाप्त हुआ है और दूसरा चक्र अभी शुरू
नही ं हो सका है। विश्व–पूँजीवाद के ढाँचागत असाध्य सं कट, उसकी चरम
परजीविता, साम्राज्यवादी लुटेरो ं की फिर से गहराती प्रतिस्पर्द्धा, पूरी दनु िया के
विभिन्न हिस्सों में साम्राज्यवादी बर्बरता और पूँजीवादी लूट–खसोट के विरुद्ध
जनसमुदाय की लगातार बढ़ती नफ़रत और इस कठिन समय में क्रान्तिकारी
सर्वहारा नेतत्व
ृ के अभाव के बावजूद दनु िया के किसी न किसी कोने में भड़कते
रहने वाले जन सं घर्षों का सिलसिला यह स्पष्ट सं के त दे रहे हैं कि आने वाले
समय में विश्व पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ा जाने वाला युद्ध निर्णायक होगा। श्रम
और पूँजी के बीच विश्व ऐतिहासिक महासमर का अगला चक्र निर्णायक
होगा क्योंकि अपनी जड़ता की शक्ति ये जीवित विश्व पूँजीवाद में अब इतनी
जीवन शक्ति नही ं बची है कि अक्तूबर क्रान्ति के नये सं स्करणो ं द्वारा पराजित
होने के बाद वह फिर विश्वस्तर पर उठ खड़ा हो और दनु िया को विश्वव्यापी
विपर्यय का एक और दौर देखना पड़े। इक्कीसवी ं सदी की सर्वहारा क्रान्तियो ं
के ऊपर पूँजीवाद के पूरे युग को इतिहास की कचरा–पेटी के हवाले करने

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में संशोधनवाद / 103


की ज़िम्मेदारी है। साथ ही, ये क्रान्तियाँ के वल पाँच सौ वर्षों की आयु वाले
पूँजीवाद के विरुद्ध ही नही,ं बल्कि पाँच हज़ार वर्षों की आयु वाले समूचे वर्ग
समाज के विरुद्ध निर्णायक क्रान्तियाँ होगं ी, क्योंकि पूँजीवाद के बाद मानव
सभ्यता के अगले युग के वल समाजवादी सं क्रमण और कम्युनिज़्म के युग ही
हो सकते हैं – समाज–विकास की गतिकी का ऐतिहासिक–वैज्ञानिक अध्ययन
यही बताता है।
इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नही ं कि भावी क्रान्तियो ं को रोकने
के लिए विश्व–पूँजीवाद आज अपनी समस्त आत्मिक–भौतिक शक्ति का
व्यापकतम, सूक्ष्मतम और कु शलतम इस्तेमाल कर रहा है। इसमें कोई
आश्चर्य की बात नही ं कि विश्व ऐतिहासिक महासमर के निर्णायक चक्र के
पहले, प्रतिक्रिया और विपर्यय का अँधरे ा इतना गहरा है और गतिरोध का यह
कालखण्ड भी पहले के ऐसे ही कालखण्डों की अपेक्षा बहुत अधिक लम्बा है।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नही ं कि पूरी दनु िया में नई सर्वहारा क्रान्तियो ं की
हिरावल शक्तियाँ अभी भी ठहराव और बिखराव की शिकार हैं। यह सबकु छ
इसलिए है कि हम युग–परिवर्तन के अबतक के सबसे प्रचण्ड झं झावाती समय
की पूर्वबेला में जी रहे हैं।
यह एक ऐसा समय है जब इतिहास का एजेण्डा तय करने की ताक़त शासक
वर्गों के हाथो ं में है। कल इतिहास का एजेण्डा तय करने की कमान सर्वहारा
वर्ग के हाथो ं में होगी। यह एक ऐसा समय है जब शताब्दियो ं के समय में चन्द
दिनो ं के काम पूरे होते हैं, यानी इतिहास की गति इतनी मद्धम होती है कि
गतिहीनता का आभास होता है। लेकिन इसके बाद एक ऐसा समय आना ही
है जब शताब्दियो ं के काम चन्द दिनो ं में अंजाम दिये जायेंगे।
लेकिन गतिरोध के इस दौर की सच्चाइयो ं को समझने का यह मतलब
नही ं कि हम इतमीनान और आराम के साथ काम करें। हमें अनवरत उद्विग्न
आत्मा के साथ काम करना होगा, जान लड़ाकर काम करना होगा। के वल
वस्तुगत परिस्थितियो ं से प्रभावित होना इं कलाबियो ं की फितरत नही।ं वे
मनोगत उपादानो ं से वस्तुगत सीमाओ ं को सिकोड़ने–तोड़ने के उद्यम को कभी
नही ं छोड़ते। अपनी कम ताकत को हमेशा कम करके ही नही ं आँका जाना
चाहिए। अतीत की क्रान्तियाँ बताती हैं कि एक बार यदि सही राजनीतिक
लाइन के निष्कर्ष तक पहुँच जाया जाये और सही सांगठनिक लाइन के आधार
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पर सांगठनिक काम करके उस राजनीतिक लाइन को अमल में लाने वाली
क्रान्तिकारी कतारो ं की शक्ति को लाभबं द कर दिया जाये तो बहुत कम समय
में हालात को उलट–पुलटकर विस्मयकारी परिणाम हासिल किये जा सकते
हैं। हमें धारा के एकदम विरुद्ध तैरना है। इसलिए, हमें विचारधारा पर अडिग
रहना होगा, नये प्रयोगो ं के वैज्ञानिक साहस में रत्ती भर कमी नही ं आने देनी
होगी, जी–जान से जुटकर पार्टी–निर्माण के काम को अंजाम देना होगा और
वर्षों के काम को चन्द दिनो ं में पूरा करने का जज़्बा, हर हाल में कठिन से
कठिन स्थितियो ं में भी बनाये रखना होगा।
 
बिगुल, दिसम्बर 2006-जनवरी 2007

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