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पद्मावती-धिणेन्द्र भी आए, प्रभु की िेवा में सचत लाए ।।१०।।

श्री पार्श्वनाथ चालीसा (अहिच्छत्र)


धिणेन्द्र ने फन फैलाया, प्रभु के सिि पि छत्र बनाया ।
शीश नवा अरिहं त को, सिद्धन कर
ूँ प्रणाम ।
पद्मावसत ने फन फैलाया, उि पि स्वामी को बैठाया ।।११।।
उपाध्याय आचायय का ले िु खकािी नाम। ।
कमयनाश प्रभु ज्ञान उपाया, िमोििण िे वेन्द्र िचाया ।
िवय िाधु औि ििस्वती, सिन-मंसिि िुखकाि ।
यही िगह ‘असहच्छत्र‘ कहाये , पात्रकेशिी िहाूँ पि आये
असहच्छत्र औि पार्श्य को, मन-मंसिि में धाि ।।
।।१२।।
पार्श्यनाथ िगत् -सहतकािी, हो स्वामी तुम व्रत के धािी ।
सशष्य पाूँ च िौ िंग सवद्वाना, सिनको िाने िकल िहाना ।
िुि-नि-अिुि किें तुम िेवा, तुम ही िब िे वन के िे वा ।।१।।
पार्श्यनाथ का िशयन पाया, िबने िैन-धिम अपनाया ।।१३।।
तुमिे किम-शत्रु भी हािा, तु म कीना िग का सनस्तािा ।
‘असहच्छत्र‘ श्री िुन्दि नगिी, िहाूँ िुखी थी पििा िगिी ।
अर्श्िैन के िाििु लािे , वामा की आूँ खों के तािे ।।२।।
िािा श्री विुपाल कहाये , वो इक सिन-मंसिि बनवाये ।।१४।।
काशी िी के स्वामी कहाये, िािी पििा मौि उडाये ।
प्रसतमा पि पासलश किवाया, फौिन इक समस्त्री बुलवाया ।
इक सिन िब समत्रों को लेके, िैि किन को वन में पहूँ चे ।।३।।
वह समस्तिी माूँ ि था खाता, इििे पासलश था सगि िाता
।।१५।।
हाथी पि किकि अम्बािी, इक िगंल में गइय िवािी ।

मुसन ने उिे उपाय बताया, पािि-िशयन-व्रत सिलवाया ।


एक तपस्वी िे ख वहाूँ पि, उििे बोले वचन िुनाकि ।।४।।
समस्त्री ने व्रत-पालन कीना, फौिन ही िं ग चढा नवीना ।।१६।।
तपिी! तुम क्ों पाप कमाते , इि लक्कड में िीव िलाते ।
गिि ितावन का सकस्सा है , इक माली का यों सलक्खा है ।
तपिी तभी कुिाल उठाया, उि लक्कड को चीि सगिाया
।।५।।
वह माली प्रसतमा को लेकि, झट छु प गया कुएूँ के अं िि
।।१७।।
सनकले नाग-नागनी कािे , मिने के थे सनकट सबचािे ।
उि पानी का असतशय-भािी, िू ि होय िािी बीमािी ।
िहम प्रभु के सिल में आया, तभी मंत्र-नवकाि िुनाया ।।६।।
िो असहच्छत्र हृिय िे ध्यावे , िो नि उत्तम-पिवी पावे ।।१८।।
मिकि वो पाताल सिधाये , पद्मावसत-धिणेन्द्र कहाये ।

पुत्र-िंपिा की बढती हो, पापों की इकिम घटती हो ।


तपिी मिकि िे व कहाया, नाम ‘कमठ’ ग्रन्ों में गाया ।।७।।
है तहिील आूँ वला भािी, स्टे शन पि समले िवािी ।।१९।।
एक िमय श्री पािि स्वामी, िाि छोडकि वन की ठानी ।
िामनगि इक ग्राम बिाबि, सििको िाने िब नािी-नि ।
तप किते थे ध्यान लगाये, इक-सिन ‘कमठ’ वहाूँ पि आये
।।८।।
चालीिे को ‘चंद्र’ बनाये , हाथ िोडकि शीश नवाये ।।२०।।
फौिन ही प्रभु को पसहचाना, बिला लेना सिल में ठाना ।
सनत चालीिसहं बाि, पाठ किे चालीि सिन ।
बहत असधक बारिश बििाइय , बािल गििे सबिली सगिाइय
खेय िुगंध अपाि, असहच्छत्र में आय के ।।
।।९।।
होय कुबेि-िमान, िन्म-िरिद्री होय िो ।
बहत असधक पत्थि बििाये, स्वामी तन को नहीं सहलाये ।
सििके नसहं िंतान, नाम-वंश िग में चले ।।

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