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वेद में लिंग मंत्र - पण्डित परन्तप प्रेमशंकर – ण्सद्धपुर

वेदो नारायण: साक्षात् । वेद स्वयं नारायण का स्वरूप है । जाकी सहज स्वास श्रुण्त चारी ।
परमात्मा के ण्नश्वास से उनका प्रागट्य मानते है । भगवान वेदव्यास ने वेद को चार भागों में
ण्वभक्त कर ददया था, ण्जसके कारण उनका नाम वेदव्यास पडा और वेद ने ऋक् , यजु:, साम एवं
ऄथवव के रूप में चार स्वरूप धारण दकया। महाभारत में आसे आस प्रकार बताया गया है - ण्जन्होंने
ण्नज तप के बिं से वेद का चार भागों में ण्वस्तार कर िंोक में ‘व्यास’ की संज्ञा पायी और शरीर
के कृ ष्ण वणव होने के कारण कृ ष्ण कहिंाए । उन्होंने वेद को चार भाग में ण्वभक्त कर ऄपने चार
प्रमुख ण्शष्यों को वैददक संण्हताओं का ऄध्ययन कराया । वेदव्यासजी ने पैिं को ऋग्वेद,
वैशम्पायन को यजुवद े , जैण्मण्न को सामवेद और सुमन्तु को ऄथवववद े का सववप्रथम ऄध्ययन
कराया था। महाभारत-युद्ध के पश्चात् वेदव्यासजी ने तीन वषव के पररश्रम के बाद पंचम वेद
महाभारत की रचना की ण्जसे उन्होंने ऄपने पांचवे ण्शष्य िंोमहषवण को पढाया था। उन ऋण्षयों
ने भी ऄपने-ऄपने ण्शष्यों को वेद पढाकर गुरु-ण्शष्य परम्परा से वेदज्ञान को फै िंाया है ।
वैशंपायन एवं याज्ञवक्िंय को मतभेद होने से वैशंपायनजी ने ण्वद्या वापस मांगा तो, याज्ञवल्कय
ने वेद वण्मत दकया जो ऄन्य ण्शष्य ण्तण्तर ने ग्रहण कर ण्िंया और कृ ष्णयजुवद े की तैतरीय
शाखा बनी, तैतरीयोपण्नषद कृ ष्णयजुवेदीय है ।

वेद की ऋचाओं के प्रमुख तीन भाग है । पहिंी पुरोनुवाक्या (यज्ञ से पहिंे पढीजानेवािंी), दूसरी
याज्या (यज्ञ के समय उच्चररत) और तीसरी शस्या (यज्ञ के बाद की स्तुण्तयां) है । प्रायः यजन में
उपयुक्त मन्त्रों का ऄथव ण्जस देवता या उपचार के ण्िंए दकया गया हो, उसकी संगण्त नहीं
ण्मिंती, तथाण्प मन्त्रों की शण्क्तयों को ध्यानमें रखकर ऋण्षयों ने उसे कहां प्रयुक्त करना चाण्हए
उसका ण्नणवय दकया है - यज्ञादौ कमवडयनेन मन्त्रेणद े ं कमव तत्त्कतवव्यण्मत्येवं रूपेण यो
मन्त्रान्करोण्त व्यवस्थापयण्त स मन्त्रकृ त् - यज्ञादद कमो मे आस मन्त्र से आस कमव को करना
चाण्हए, ऐसी जो व्यवस्था करता है - ण्वण्नयोग करता है ।

आसी बातकी संगण्त मुडिकोपण्नषद में भी ण्मिंती हैं - तदेतत्सत्यं मन्त्रेषु करमाण्ण कवयो
यान्यपश्यंस्ताण्न त्रेतायां बहुधा सन्तताण्न । तान्यचरथ ण्नयतं सत्यकामा एषः वः पन्थाः सुकृतस्य
िंोके ।। क्रान्तदशी ऋण्षयोंने ण्जन कमोका (ण्जन) मन्त्रोंमें साक्षात्कार दकया था, वही यह सत्य है
। यहां त्रेतायां का ऄथव उपरोक्त तीन प्रकारकी ऋचा-मंत्रो को कवयः मन्त्रेषु याण्न कमावण्ण
ऄपश्यन् ऄतः मन्त्रोकी साथवकता जहां उण्चत िंगी वहां प्रयुक्त करनेका अदेश ददया ।

मन्त्र मात्र वेद का गद्य-पद्य ही नहीं है, स्वयं नारायण का स्वरूप है । ण्जसने उस परमात्मा को
अत्मसाद दकया है, वैसे मन्त्रदृष्टा ऋण्षयों की परम्परा को सन्मान करते हुए - उनका प्रयोग
करना चाण्हए । वेदकी उच्चारण परम्परा एवं वेद शाखानुकिं मन्त्रोचाचारण करना ही फिंदायी
रहता है ।

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