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सहर्ष स्वीकारा है

1. मुख पृष्ठ
२. विद्यार्थी का घोषणा पत्र
3. प्रमाणपत्र
4. विषय सूची
5. आभारोक्ति
6. संदभभ सूची
पररयोजना कायभ
शीषभक

सहर्ष स्वीकारा है

प्रस्तुत कताभ
विद्यार्थी का नाम
अनुक्रमां क
विद्यालय का नाम
हस्ताक्षर वनदे शक

वनदे शक का नाम

हस्ताक्षर वनदे शक
विद्यार्थी की घोर्णा पत्र
मैं ------------------------------------
-------------कक्षा -------
-------------------------------------
विद्यालय, एतद द्वारा यह घोषणा करता हूँ वक मेरे द्वारा,
-----------------के मार्भदशभन में ---------
------ भेजा र्या पररयोजना कायभ, मेरा मौवलक
कायभ है |

हस्ताक्षर
विद्यार्थी का नाम
अनुक्रमां क
विद्यालय का नाम
वदनां क
प्रमावणत वकया जाता है वक -----------------------------
------ नामक पररयोजना
ररपोर्भ .............................(नाम)
....................(कक्षा)......................
.....(विद्यालय)
.......................................द्वारा प्रस्तुत की
र्ई है , जो वक केंद्रीय माध्यवमक बोर्भ ,
कक्षा बारह वहन्दी केंवद्रक की िावषभक परीक्षा का अंश है | यह इनका
मौवलक कायभ है |

वदनां क
प्राचायभ

आतंररक परीक्षक बाहरी


परीक्षक
आभारोक्ति
 मैं श्री /
श्रीमती...............................
.......... प्राचायभ , केंद्रीय
विद्यालय........................ के प्रवत
आभार व्यि करता हूँ वजनके मार्भदशभन में यह
पररयोजना कायभ सफलतापूिभक संपन्न हो पाया |
 मैं श्री/श्रीमती
..............................,स्नातको
त्तर वशक्षक (वहन्दी) केंद्रीय विद्यालय
..................................
के प्रवत ह्रदय से आभार व्यि करता हूँ वजन्ोंने
विषय को समझाने और और उसे विस्तार दे ने में
मेरी कदम-कदम पर सहायता की |
मैं हर उस व्यक्ति के प्रवत आभार व्यि करता हूँ जो
प्रत्यक्ष /अप्रत्यक्ष रूप से इस पररयोजना कायभ को पूरा
करने में सहायक रहा है |

कवि पररचय
जीिन पररचय– प्रयोर्िादी काव्यधारा के प्रवतवनवध कवि
र्जानन माधि ‘मुक्तिबोध’ का जन्म मध्य प्रदे श के ग्वावलयर
वजले के श्योपुर नामक स्र्थान पर 1917 ई० में हुआ र्था। इनके
वपता पुवलस विभार् में र्थे । अत: वनरं तर होने िाले स्र्थानां तरण
के कारण इनकी पढाई वनयवमत ि व्यिक्तस्र्थत रूप से नहीं हो
पाई। 1954 ई. में इन्ोंने नार्पुर विश्वविद्यालय से एम०ए०
(वहं दी) करने के बाद राजनाद र्ाूँ ि के वर्ग्री कॉलेज में
अध्यापन कायभ आरं भ वकया। इन्ोंने अध्यापन, लेखन एिं
पत्रकाररता सभी क्षे त्रों में अपनी योग्यता, प्रवतभा एिं कायभक्षमता
का पररचय वदया। मुक्तिबोध को जीिनपयभत संघषभ करना पडा
और संघषभशीलता ने इन्ें वचंतनशील एिं जीिन को नए
दृविकोण से दे खने को प्रेररत वकया। 1964 ई० में यह महान
वचंतक, दाशभवनक, पत्रकार एिं सजर् लेखक तर्था कवि इस
संसार से चल बसा।
रचनाएँ - र्जानन माधि ‘मुक्तिबोध’ की रचनाएूँ वनम्नवलक्तखत
हैं
(i) कविता-संग्रह- चाूँ द का मुूँह र्े ढा है , भू री-भू री खाक-धूल।
(ii) कर्था-सावहत्य- काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता
आदमी।
(iii) आलोचना- कामायनी-एक पुनविभचार, नई कविता का
आत्मसंघषभ, नए सावहत्य का सौंदयभशास्त्र, समीक्षा की समस्याएूँ
एक सावहक्तत्यक की र्ायरी।
(iv) भारत-इवतहास और संस्कृवत।
काव्यगत विशेर्ताएँ - मुक्तिबोध प्रयोर्िादी काव्यधारा के
प्रमुख सूत्रधारों में र्थे । इनकी प्रवतभा का पररचय अज्ञेय द्वारा
संपावदत ‘तार सप्तक’ से वमलता है । उनकी कविता में वनवहत
मराठी संरचना से प्रभावित लंबे िाक्ों ने आम पाठक के वलए
कवठन बनाया, लेवकन उनमें भािनात्मक और विचारात्मक ऊजाभ
अर्ू र् र्थी, जैसे कोई नैसवर्भ क अंत:स्रोत हो जो कभी चुकता ही
नहीं, बक्ति लर्ातार अवधकावधक िेर् और तीव्रता के सार्थ
उमडता चला आता है । यह ऊजाभ अनेकानेक कल्पना-वचत्रों
और फैंर्े वसयों का आकार ग्रहण कर लेती है । इनकी
रचनात्मक ऊजाभ का एक बहुत बडा अंश आलोचनात्मक लेखन
और सावहत्य-सं बंधी वचंतन में सवक्रय रहे । ये पत्रकार भी र्थे ।
इन्ोंने राजनीवतक विषयों, अंतराभ िरीय पररदृश्य तर्था दे श की
आवर्थभ क समस्याओं पर लर्ातार वलखा है । कवि शमशेर बहादु र
वसंह ने इनकी कविता के बारे में वलखा है -
“…….. अद् भु त संकेतों से भरी, वजज्ञासाओं से अक्तस्र्थर, कभी दू र
से शोर मचाती, कभी कानों में चुपचाप राज की बातें कहती
चलती है , हमारी बातें हमको सुनाती है । हम अपने को एकदम
चवकत होकर दे खते हैं और पहले से अवधक पहचानने लर्ते
हैं ।”
भार्ा-शैली- इनकी भाषा उत्कृि है । भािों के अनुरूप
शब्द र्ढना और उसका पररष्कार करके उसे भाषा में प्रयुि
करना भाषा-सौंदयभ की अद् भु त विशेषता है । इन्ोंने तत्सम
शब्दों के सार्थ-सार्थ उदू भ , अरबी और फारसी के शब्दों का भी
प्रयोर् वकया है ।

कविता का प्रवतपादय एिं सार


प्रवतपादय- मुक्तिबोध की कविताएूँ आमतौर पर लंबी होती
हैं । इन्ोंने जो भी छोर्ी कविताएूँ वलखी हैं उनमें एक है
‘सहर्ष स्वीकारा है ‘ जो ‘भूरी-भूरी खाक-धूल‘ काव्य-संग्रह से
ली र्ई है । एक होता है -‘स्वीकारना’ और दू सरा होता है -
‘सहषभ स्वीकारना’ यानी खुशी-खुशी स्वीकार करना। यह
कविता जीिन के सब सुख-दु ख, संघषभ-अिसाद, उठा-पर्क को
सम्यक भाि से अंर्ीकार करने की प्रेरणा दे ती है । कवि को
जहाूँ से यह प्रेरणा वमली, कविता प्रेरणा के उस उत्स तक भी
हमको ले जाती है ।
उस विवशि व्यक्ति या सत्ता के इसी ‘सहजता’ के चलते
उसको स्वीकार वकया र्था-कुछ इस तरह स्वीकार वकया र्था वक
आज तक सामने नहीं भी है तो भी आस-पास उसके होने का
एहसास है -

मुस्काता चाूँ द ज्ों धरती पर रात-भर


मुझ पर त्यों तु म्हारा ही क्तखलता िह चेहरा है !

सार- कवि कहता है वक मेरे जीिन में जो कुछ भी है , िह


मुझे सहषभ स्वीकार है । मुझे जो कुछ भी वमला है , िह तुम्हारा
वदया हुआ है तर्था तुम्हें प्यारा है । मेरी र्िली र्रीबी, विचार-
िैभि, र्ंभीर अनुभि, दृढता, भािनाएूँ आवद सब पर तुम्हारा
प्रभाि है । तुम्हारे सार्थ मेरा न जाने कौन-सा नाता है वक मैं
वजतनी भी भािनाएूँ बाहर वनकालने का प्रयास करता हूँ , िे
भािनाएूँ उतनी ही अवधक उमडती रहती हैं । तुम्हारा चेहरा मेरी
ऊपरी धरती पर चाूँ द के समान अपनी कां वत वबखेरता रहता
है ।
कवि कहता है वक “मैं तुम्हारे प्रभाि से दू र जाना चाहता हूँ
क्ोंवक मैं भीतर से दु बभल पडने लर्ा हूँ । तुम्हीं मुझे दं र् दो
तावक मैं दवक्षण ध्रुि की अंधकारमयी अमािस्या की रावत्र के
अूँधेरों में लुप्त हो जाऊूँ। मैं तुम्हारे उजालेपन को अवधक
सहन नहीं कर पा रहा हूँ । तुम्हारी ममता की कोमलता भीतर
से चुभने-सी लर्ी है । मेरी आत्मा कमजोर पडने लर्ी है ।” िह
स्वयं को पाताली अूँधेरों की र्ु फाओं में लापता होने की बात
कहता है , वकंतु िहाूँ भी उसे वप्रयतम का सहारा है ।
व्याख्या एिं अर्थष ग्रहण संबंधी प्रश्न
वनम्नवलक्तखत काव्यांशों को ध्यानपूिषक पढ़कर सप्रसंग
व्याख्या कीवजए और नीचे वदए प्रश्नों के उत्तर दीवजए-

1.

वजंदर्ी में जो कुछ हैं , जो भी है


इसवलए वक जो कुछ भी मेरा हैं
िह तुम्हें प्यारा हैं ।
र्रबीली र्रीबी यह, ये र्ंभीर अनु भि सब
यह विचार-िैभि सब

द्वढता यह, भीतर की सररता यह अवभनि सब


मौवलक है , मौवलक है
इसवलए वक पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत हैं अपलक हैं -
संिेदन तुम्हारा हैं !! (पृष्ठ-30)
[CBSE (Delhi), 2009 (C), Sample Paper 2013, (Delhi) 2015]

शब्दार्थष – सहर्ष- खुशी के सार्थ। स्वीकारा- मन से


माना। गरबीली– स्वावभमावननी। गांभीर– र्हरा। अनुभि– व्यािहाररक
ज्ञान। विचार-िैभि– भरे -पूरे
विचार। दू ढ़ता– मजबूती। सररता– नदी। भीतर की सररता – भािनाओं की
नदी। अवभनि– नया। मौवलक– िास्तविक। जाग्रत– जार्ा हुआ। अयलक–
वनरं तर। संिेदन– अनुभूवत।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यां श हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में
संकवलत कविता ‘सहषभ स्वीकारा है ’ से उद् धृत है । इसके
रचवयता गजानन माधि ‘मुक्तिबोध’ हैं । इस कविता में कवि ने जीिन
में दु ख-सुख, संघषभ -अिसाद, उठा-पर्क को सम्यक भाि से अंर्ीकार
करने की प्रेरणा दी है ।
व्याख्या – कवि कहता है वक मेरी वजंदर्ी में जो कुछ है , जैसा भी है ,
उसे मैं खुशी से स्वीकार करता हूँ । इसवलए मेरा जो कुछ भी है , िह
उसको (माूँ या वप्रया) अच्छा लर्ता है । मेरी स्वावभमानयुि र्रीबी,
जीिन के र्ंभीर अनुभि, विचारों का िैभि, व्यक्तित्व की दृढता, मन में
बहती भािनाओं की नदी-ये सब मौवलक हैं तर्था नए हैं । इनकी
मौवलकता का कारण यह है वक मेरे जीिन में हर क्षण जो कुछ घर्ता
है , जो कुछ जाग्रत है , उपलक्ति है , िह सब कुछ तुम्हारी प्रेरणा से हुआ
है ।
विशेर्-

(i) कवि अपनी हर उपलक्ति का श्रेय उसको (माूँ या वप्रया) दे ता है ।


(ii) संबोधन शैली है ।
(iii) ‘मौवलक है ’ की आिृवत्त प्रभािी बन पडी है ।
(iv) ‘विचार-िैभि’ और ‘भीतर की सररता’ में रूपक अलंकार तर्था
‘पल-पल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलं कार है ।
(v) ‘सहषभ स्वीकारा’, ‘र्रबीली र्रीबी’, ‘विचार-िैभि’ में अनुप्रास
अलंकार की छर्ा है ।
(vi) खडी बोली है ।
(vi) काव्य की रचना मुिक छं द में है , वजसमें ‘र्रबीली’, ‘र्ंभीर’
आवद विशेषणों का सुंदर प्रयोर् है ।

प्रश्न

(क) कवि जीिन की प्रत्यक पररक्तस्र्थवत को सहषभ स्वीकार क्ों करता


हैं ?
(ख) र्रीबी के वलए प्रयुि विशेषण का औवचत्य और सौंदयभ स्पि
कीवजए।
(ग) कवि वकन्ें निीन और मौवलक मानता है तर्था क्ों?
(घ) ‘जो कुछ भी मरा हैं िह तुम्हें प्यारा हैं ’—इस कर्थन का आशय
स्पि कीवजए।

उत्तर-(क) कवि को अपने जीिन की हर उपलक्ति ि क्तस्र्थवत इसवलए


सहषभ स्वीकार है क्ोंवक यह सब कुछ उसकी माूँ या प्रेयसी को वप्रय
लर्ता है ; क्ोंवक उसे कवि की हर उपलक्ति पसंद है ।
(ख) र्रीबी के वलए प्रयुि विशेषण है -र्रबीली। इसका औवचत्य यह
है वक कवि इस दशा में भी अंपना स्वावभमान बनाए हुए है । िह
र्रीबी को बोझ न मानकर उस क्तस्र्थवत में भी प्रसन्नता महसूस कर रहा
है ।
(ग) कवि स्वावभमानयुि र्रीबी, जीिन के र्ंभीर अनु भि, िैचाररक
वचंतन, व्यक्तित्व की दृढता और अंत:करण की भािनाओं को मौवलक
मानता है । इसका कारण यह है वक ये सब उसके यर्थार्थभ के प्रवतफल
हैं और इन पर वकसी का प्रभाि नहीं है ।
(घ) ‘जो कुछ भी मेरा है िह तुम्हें प्यारा है ’-कर्थन का आशय यह है
वक कवि के पास जो कुछ उपलक्तियाूँ हैं िह उसे (अभीि मवहला)
को वप्रय हैं । इन उपलक्तियों में िह अपनी वप्रयतता (माूँ या वप्रया) का
समर्थभन महसूस करता है ।

2.

जाने क्ा ररश्ता हैं , जाने क्ा नाता हैं


वजतना भी ऊूँडे लता हूँ भर-भर वफर आता हैं
वदल में क्ा झरना है ?
मीठे पानी का सोता हैं

भीतर िह, ऊपर तुम


मुसकता चाूँ द ज्ों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही क्तखलता िह चेहरा हैं ! (पृष्ठ-30)
[CBSE (Outside), 2011 (C) 2012) ]

शब्दार्थष-ररश्ता– रि संबंध। नाता– संबंध। ऊँडे लना- बाहर


वनकालना। सोता–झरना।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यां श हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकवलत
कविता ‘सहर्ष स्वीकारा है ’ से उद् धृत है । इसके रचवयता गजानन
माधि ‘मुक्तिबध’ हैं । इस कविता में कवि ने जीिन में दु ख-सुख
संघषभ -अिसाद, उठा-पर्क सम्यक भाि से अंर्ीकार करने की प्रेरणा
दी है ।
व्याख्या- कवि कहता है वक तुम्हारे सार्थ न जाने कौन-सा संबंध है या
न जाने कैसा नाता है वक मैं अपने भीतर समाये हुए तुम्हारे स्नेह रूपी
जल को वजतना बाहर वनकालता हूँ , िह वफर-वफर चारों ओर से
वसमर्कर चला आता है और मेरे हृदय में भर जाता है । ऐसा लर्ता
है मानो वदल में कोई झरना बह रहा है । िह स्नेह मीठे पानी के स्रोत
के समान है जो मेरे अंतमभन को तृप्त करता रहता है । इधर मन में
प्रेम है और उधर तुम्हारा चाूँ द जैसा मुस्कराता हुआ चे हरा अपने
अद् भुत सौंदयभ के प्रकाश से मुझे नहलाता रहता है । कवि का
आं तररक ि बाहय जर्त-दोनों उसी स्नेह से युि स्वरूप से संचावलत
होते हैं ।
विशेर्-

(i) कवि अपने वप्रय के स्नेह से पूणभत: आच्छावदत है ।


(ii) ‘वदल में क्ा झरना है ’ में प्रश्न अलंकार है ।
(iii) ‘भर-भर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है ,’वजतना भी उूँ डेलता हूँ
भर-भर वफर आता है ’ में विरोधाभास अलंकार है , ‘मीठे पानी का
सोता है ’ में रूपक अलंकार है , वप्रय के मुख की चाूँ द के सार्थ
समानता के कारण उपमा अलंकार है ।
(iv) मुिक छं द है ।
(v) खडी बोली युि भाषा में लाक्षवणकता है ।

प्रश्न

(क) कवि अपने उस वप्रय सबधी के सार्थ अपने संबध कैसे बताता हैं ?
(ख) कवि अपने वदल की तुलना वकससे करता है तर्था क्ों?
(ग) कवि वप्रय को अपने जीिन में वकस प्रकार अनुभि करता है ?
(घ) कवि ने वप्रय की तुलना वकससे की है और क्ों ?

उत्तर-

(क) कवि का अपने उस वप्रय के सार्थ र्हरा संबंध है । उसके स्नेह से


िह अंदर ि बाहर से पूणभत: आच्छावदत है और उसका स्नेह उसे
वभर्ोता रहता है ।
(ख) कवि अपने वदल की तुलना मीठे पानी के झरने से करता है ।
िह इसमें से वजतना भी प्रेम बाहर ऊूँडे लता है , उतना ही यह वफर
भर जाता है ।
(ग) कवि वप्रय को अपने जीिन पर इस प्रकार आच्छावदत अनुभि
करता है जैसे धरती पर सदा चाूँ द मुस्कराता रहता है । कवि के जीिन
पर सदा उसके वप्रय का मुस्कराता हुआ चेहरा जर्मर्ाता रहता है ।
(घ) कवि ने अपने वप्रय की तुलना चाूँ द से इसवलए की है क्ोंवक
वजस प्रकार आकाश में हूँ सता चाूँ द अपने प्रकाश से पू िभक नाहता
रहाता है ।उस प्रकरकिक अपने वप्रय का मुस्कराता चेहरा अपने
अद् भुत सौंदयभ से नहलाता रहता हैं ।

3.

सचमुच मुझे दं र् दो वक भूलूूँ मैं भूलूूँ मैं


तुम्हें भूल जाने की
दवक्षण ध्रुिी अं धकार-अमािस्या
शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पा लूूँ मैं
झेलूूँ मैं, उसी में नहा लूूँ मैं
इसवलए वक तुमसे ही पररिेवर्त आच्छावदत
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता हैं ।
नहीं सहा जाता है । [CBSE (Delhi & Outside), 2010, 2011]
ममता के बदल की माूँ र्राती कोमलता
भीतर वपरती है
कमज़ोर और अक्षम अब हो र्ई है आत्मा यह
छर्पर्ाती छाती को भवित व्यता र्राती है
बहलाती – सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नहीं होती है ! (पृष्ठ-30-
31)

शब्दार्थष- दं ड– सजा। दविण ध्रुिी अं धकार- दवक्षण ध्रुि पर छाने िाला


र्हरा औधेरा। अमािस्या- चंद्रमाविहीन काली रात। अंतर- हृदय,
अंत:करण। पररिेवित- चारों ओर से वघरा हुआ। आच्छावदत- छाया
हुआ, ढका हुआ। रमणीय- मनोरम। उजेला-प्रकाश। ममता- अपनापन,
स्नेह। माँडराती- छाई हुई। वपराता- ददभ
करना। अिम- अशि। भवितव्यता- भविष्य की आशं का। बहलाती- मन
को प्रसन्न करती। सहलाती- ददभ को कम करती
हुई। आत्मीयता- अपनापन।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यां श हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकवलत
कविता ‘सहर्ष स्वीकारा है ’ से उद् धृत है । इसके रचवयता गजानन
माधि ‘मुक्तिबध’ हैं । इस कविता में कवि ने जीिन में दु ख-सुख
संघषभ -अिसाद, उठा-पर्क सम्यक भाि से अंर्ीकार करने की प्रेरणा
दी है ।
व्याख्या- कवि अपने वप्रय स्वरूपा को भूलना चाहता है । िह चाहता है
वक वप्रय उसे भूलने का दं र् दे । िह इस दं र् को भी सहषभ स्वीकार
करने के वलए तैयार है । वप्रय को भूलने का अंधकार कवि के वलए
दवक्षणी ध्रुि पर होने िाली छह मास की रावत्र के समान होर्ा। िह
उस अंधकार में लीन हो जाना चाहता है । िह उस अंधकार को अपने
शरीर, हृदय पर झे लना चाहता है । इसका कारण यह है वक वप्रय के
स्नेह के उजाले ने उसे घेर वलया है । यह उजाला अब उसके वलए
असहनीय हो र्या है । वप्रय की ममता या स्ने ह रूपी बादल की
कोमलता सदै ि उसके भीतर मैंर्राती रहती है । यही कोमल ममता
उसके हृदय को पीडा पहुूँ चाती है । इसके कारण उसकी आत्मा बहुत
कमजोर और असमर्थभ हो र्ई है । उसे भविष्य में होने िाली अनहोनी
से र्र लर्ने लर्ा है । उसे भीतर-ही-भीतर यह र्र लर्ने लर्ा है वक
कभी उसे अपनी वप्रयतमा (माूँ या वप्रया) प्रभाि से अलर् होना पडा
तो िह अपना अक्तस्तत्व कैसे बचाए रख सकेर्ा। अब उसे उसका
बहलाना, सहलाना और रह-रहकर अपनापन जताना सहन नहीं होता।
िह आत्मवनभभर बनना चाहता है ।
विशेर्-

(i) कवि अत्यवधक मोह से अलर् होना चाहता है ।


(ii) संबोधन शैली है ।
(iii) खडी बोली में सशि अवभव्यक्ति है , वजसमें तत्सम शब्दों की
बहुलता है ।
(iv) अंधकार-अमािस्या वनराशा के प्रतीक हैं ।
(v) ‘ममता के बादल’, ‘दवक्षण ध्रुि अं धकार-अमािस्या’ में रूपक
अलंकार,’छर्पर्ाती छाती’ में अनुप्रास अलंकार, तर्था ‘बहलाती-
सहलाती’ में स्वर मैत्री अलंकार है ।
(vi) कोमलता ि आत्मीयता का मानिीकरण वकया र्या है ।
(vii) ‘सहा नहीं जाता है ’ की पुनरुक्ति से ददभ की र्हराई का पता
चलता है ।
प्रश्न:(क) कवि क्ा दं र् चाहता हैं और क्ों ?
(ख) कवि अपने जीिन में क्ा चाहता है ?
(ग) कवि को क्ा सहन नहीं होता?
(घ) कवि की आत्मा कैसे हो र्ई है तर्था क्ों ?

उत्तर-

(क) कवि अपनी वप्रयतमा (सबसे प्यारी स्त्री)को भूलने का दं र् चाहता


है क्ोंवक उसके अत्यवधक स्नेह के कारण उसकी आत्मा कमजोर हो
र्ई है । उसका अपराधबोध से दबा मन यह प्रेम सहन नहीं कर पा
रहा है । उसका मन आत्मग्लावन से भर उठता है ।
(ख) कवि चाहता है वक उसके जीिन में अमािस्या और दवक्षणी ध्रुि
के समान र्हरा अंधकार छा जाए। िस्तुत: िह अपने वप्रय को भूलना
चाहता है तर्था उसके विस्मरण को शरीर, मुख और हृदय में बसाकर
उसमें र्ूब जाना चाहता है ।
(ग) कवि की वप्रयतमा (यानी सबसे वप्रय स्त्री) के स्नेह का उजाला
अत्यंत रमणीय है । कवि का व्यक्तित्व चारों ओर से उसके स्नेह से वघर
र्या है । इस अद् भुत, वनश्छल और उज्ज्वल प्रेम के प्रकाश को उसका
मन सहन नहीं कर पा रहा है ।
(घ) कवि की आत्मा अत्यंत कमजोर हो र्ई है क्ोंवक िह अपनी
प्यारी स्त्री के अत्यवधक स्नेह के कारण परावश्रत हो र्या है । यह स्नेह
उसके मन को अंदर-ही-अंदर पीवडत कर रहा है । दु ख से छर्पर्ाता
वकसी अनहोनी की कल्पना मात्र से ही उसका मन काूँप उठता है ।

4.
सचमुच मुझे दं र् दो वक हो जाऊूँ
पाताली अूँधेरे की र्ुहाओं में वििरों में
धुएूँ के बादलों में
वबलकुल मैं लापता
लापता वक िहाूँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है !!
इसवलए वक जो कुछ भी मेरा है
या मेरा जो होता-सा लर्ता हैं , होता-सा संभि हैं
सभी िह तुम्हारे ही कारण के कायों का घेरा है , कायों का िैभि है
अब तक तो वजंदर्ी में जो कुछ र्था, जो कुछ है
सहषभ स्वीकार है
इसवलए वक जो कुछ भी मेरा है
िह तुम्हें प्यारा हैं । (पृष्ठ-32)

शब्दार्थष–पाताली आँ धेरा- धरती की र्हराई में पाई जाने िाली


धुंध। गुहा- र्ुफा। वििर- वबल। लापता- र्ायब। कारण- मूल
प्रेरणा। घेरा- फैलाि। िैभि-समृद्ध।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यां श हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2‘ में
संकवलत कविता ‘सहर्ष स्वीकारा है ’ से उद् धृत है । इसके
रचवयता गजानन माधि ‘मुक्तिबोध’ हैं । इस कविता में कवि ने जीिन
में दु ख-सुख, संघषभ -अिसाद, उठा-पर्क सम्यक भाि से अंर्ीकार करने
की प्रेरणा दी है ।
व्याख्या- कवि कहता है वक मैं अपनी वप्रयतमा (सबसे प्यारी स्त्री) के
स्नेह से दू र होना चाहता हूँ । िह उसी से दं र् की याचना करता है ।
िह ऐसा दं र् चाहता है वक वप्रयतमा के न होने से िह पाताल की
अूँधेरी र्ुफाओं ि सुरंर्ों में खो जाए। ऐसी जर्हों पर स्वयं का
अक्तस्तत्व भी अनु भि नहीं होता या वफर िह धुएूँ के बादलों के समान
र्हन अंधकार में लापता हो जाए जो उसके न होने से बना हो। ऐसी
जर्हों पर भी उसे अपने सिाभ वधक वप्रय स्त्री का ही सहारा है । उसके
जीिन में जो कुछ भी है या जो कुछ उसे अपना-सा लर्ता है , िह
सब उसके कारण है । उसकी सत्ता, क्तस्र्थवतयाूँ भविष्य की उन्नवत या
अिनवत की सभी संभािनाएूँ वप्रयतमा के कारण हैं । कवि का हषभ -
विषाद, उन्नवत-अिनवत सदा उससे ही संबंवधत हैं । कवि ने हर सुख-
दु ख, सफलता-असफलता को प्रसन्नतापूिभक इसवलए स्वीकार वकया है
क्ोंवक वप्रयतमा ने उन सबको अपना माना है । िे कवि के जीिन से
पूरी तरह जुडी हुई हैं ।
विशेर्-

(i) कवि ने अपने व्यक्तित्व के वनमाभण में वप्रयतमा के योर्दान को


स्वीकार वकया है ।
(ii) ‘पाताली औधेरे’ ि ‘धुएूँ के बादल’ आवद उपमान विस्मृवत के वलए
प्रयुि हुए हैं ।
(iii) ‘दं र् दो’ में अनुप्रास अलंकार है ।
(iv) ‘लापता वक . सहारा है !’ में विरोधाभास अलंकार है ।
(v) काव्यां श में खडी बोली का प्रयोर् है ।
(vi) मुिक छं द है ।

प्रश्न:(क) कवि दर् पाने की इच्छा क्ों रखता हैं ?


(ख) कवि दर्-स्वरूप कहाूँ जाना चाहता हैं और क्ों?
(ग) वप्रयतमा के बारे में कवि क्ा अनुभि करता है ?
(घ) कवि को जीिन की हर दशा सहषभ क्ों स्वीकार है ?

उत्तर-

(क) कवि अपनी वप्रयतमा के वबना अकेला रहना सीखना चाहता है ।


िह र्ुमनामी के अूँधेरे में खोना चाहता है । वप्रया के अत्यवधक
स्नेह ने कवि को भीतर से कमजोर बना वदया है । कवि स्वयं
को अपनी वप्रयतमा का दोषी मानता है , अत: िह दं र् पाना
चाहता है ।
(ख) कवि दं र् स्वरूप र्हन अं धकार िाली र्ुफाओं, सुरंर्ों या
धुएूँ के बादलों में वछप जाना चाहता है । इससे िह अपनी
वप्रयतमा से दू र रह पाएर्ा और अकेला रहना सीख सकेर्ा।
(ग) कवि को अपनी वप्रयतमा के बारे में यह अनुभि है वक
उसके जीिन की हर र्वतविवध पर उसका प्रभाि है । उसके
जीिन में जो कुछ घवर्त होने िाला है , उन सब पर उसकी
वप्रयतमा की अदृश्य छाया है ।
(घ) कवि ने अपने जीिन के सुख-दु ख, सफलताएूँ -असफलताएूँ
सभी कुछ खुशी-खुशी अपनाया है क्ोंवक ये उसकी वप्रयतमा
को अच्छे लर्ते हैं और उन्ें अस्वीकार करना कवि के वलए
असंभि है ।

सन्दभभ सूची
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