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शतपर्विका से प्राप्त होने वाला

सामार्िक र् िंतन

ग्रन्थ- आधुर्नक सिंस्कृत सार्हत्य


भाग- ‘ख’ गद्यकाव्य एविं रूपक
इकाई 1 – शतपर्विका
र नाकार – अर्भराि रािेन्द्र
‘र्मश्र’

भूर्मका
अभिराज चन्द्र भिश्र आधु भिक संस्कृत
साभित्य िें 21व ं शताब्द के िूधधन्य
भवद्वाि,कभव,संस्कृत ग तकार और
िाटककार िैं । इिका जन्म 2 जिवर
1943 को उत्तर प्रदे श िें हुआ। इिक
लेखि िे साभित्य क िर भवधा को छु आ
चािे वो खण्डकाव्य िो,ििाकाव्य िो,
एकां क िो या भिर भिबन्ध,किाि , आभद ि
क्ों ि िो। भिश्र ज िे िर प्रकार से
संस्कृत साभित्य को सिृद्ध भकया िै ।
प्रस्तुत सिालेख का भवषय वस्तु इन् ं के
द्वारा प्रण त लघुकथा संग्रि ‘इक्षुगंधा’ क
एक कथा ‘शतपभवधका’ से गृि त िै ।
अपि इस कथा के िाध्यि से इन्ोंिे
सिाज िें व्याप्त पुत्र और पुत्र के िध्य
िोिे वाले िेदिाव पर प्रकाश डाला िै ।
इस कथा का संभक्षप्त सार यों िैं -

रािलाल िािक व्यक्ति पुत्र प्राक्तप्त क


काििा रखता िै भकंतु इस उपक्रि िें
उसके घर िें लगातार सात कन्याओं का
जन्म िो जाता िै भजन्ें दे खकर रािलाल
को असिाय वेदिा िोत । वि बारम्बार
अपिे िाग्य को कोसता भक क्ों इि
सबको उसके िालपट्ट पर भलख भदया।
उसक इस िािभसकता के चलते उसक
कोई कन्या उसके सिक्ष उपक्तथथत िि ं
िोत थ केवल उसक पत्न सौिाग्यवत
ि उसक आवश्यकताएं पूणध करत । एक
भदि सौिाग्यवत के घर पर ि िोिे के
कारण उसक बड़ बे ट रिा उसक सेवा
सुश्रूषा करत िै भजससे रािलाल का हृदय
पररवतधि िोता िै और वि ग्लाभि और
पश्चाताप से िर जाता िै । वि पुभत्रयों के
िित्त्व को जाि जाता िै तथा अपिे
पररवार के साििे अपि िूल स्व कारता
िै और इस के साथ कथा का अंत िोता
िै ।
शतपर्विका का सामार्िक र् िंतन- प्रस्तुत
कथा शतपभवधका िें लेखक िे सभदयों से
चल आ रि पुत्र-पुत्र के िध्य िोिे वाले
िेदिाव िािक कुर भत पर कुठाराघात
भकया िै । इस कुर भत के चलते हुए जािे
भकति ि योग्य कन्याओं को अन्याय,
कुंठा, अकारण रोष आभद का साििा
करिा पड़ा िै । कथा के िुख्य पात्रों िें से
एक रािलाल ि इस ििोभवकार से
ग्रभसत िै । कुलद पक क चाि िें वि
अपि पुभत्रयों को उिके अभधकार से
वंभचत रखता िै और अपि पत्न क
बिि का पुत्र गोद ले लेता िै । वि गोद
भलया पुत्र ि अभि िें घृत का काि
करता िै । सिय आिे पर उसक पुत्र ि
उसके काि आत िैं । अपिे भपता से
भतरस्कृत िोिे के उपरां त ि उसक बड़
बेट पुत्र उसक प्यास बुझािे के भलए
पाि लात िै , उसके िाथ पैर दबात िै ,
िाभलश करत िै और यि भसद्ध करत िै
भक यभद अवसर भिले तो पुभत्रयां ि पुत्रों
से कि िि ं अभपतु बढ़कर ि िैं । यि
रािलाल क पुत्र क सेवा का ि
चित्कार िोता िै भक रािलाल का हृदय
पररवतधि िोता िै और वि अपि िूल
स्व कार करता िै । वस्तुतः रािलाल िर
उस भपता और सिाज का दपधण िै जिााँ
कन्याओं को कितर आं का जाता िै भकंतु
रािलाल क िां भत ि सिाज के प्रत्येक
वगध को ये सिझिे क आवश्यकता िै भक
एक पुत्र एक पुत्र के ि तुल्य िोत िै ।
जब दोिों को ि ईश्वर िे बिाया िै और
दोिों ि क उत्पभत्त भपता के व यध से हुई
िै और इसके साथ साथ दोिों क ि
आवश्यकता इस भवश्व, सिाज को िै तो
पुत्र का िूल्य पुत्र से कि कैसे िो
सकता िै । लेखक िे शतपभवधका के
िाध्यि से यि प्रश्न सिाज के साििे रखा
िै और यि इस कथा का भवचारण य
भबंदु ि िै भजस पर भचंति करिा सिाज
के प्रत्येक व्यक्ति का कतधव्य िै ।

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