Uttara Gita Hindi

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उत्तरा गीता

अध्याय I तत्तवास का ज्ञाता

१. हे केशव, मु झे उस ब्रह्म के ज्ञान में हहदायत दो, जो हिना एक दू सरे के, उपाधी (सीमा) के हिना, आकाशा
(अन्तररक्ष) से परे , समस्त पहवत्रता का स्त्रोत है , जो हक तकक से अप्राप्य है या अनु भूहत द्वारा अपररवतकनीय है ,
अनजाने और अज्ञात , जो जन्ोों और मौतोों से हिल्कुल मुक्त है .

२. हे केशव, मु झे उस ज्ञान का ज्ञान कराओ जो हनरपेक्ष है , जो शाश्वत शाों हत और पहवत्रता का एकमात्र हनवास है ,
वाद्य कारण और ब्रह्माों ड के भौहतक कारण है , हालाों हक स्वयों अकारण और सभी सम्बों धो से मु क्त है ।

३. मु झे िताओ, हे केशव, वो ज्ञान जो हक हर हदल में हनवास करता है , और जो ज्ञान के तथ्य और अपने आप में
जानने योग्य वस्तु को जोड़ता है ।

४. हे अरुण, जो पाों डु वोंश के हशखा-वस्त्र को धारण करते हैं , हे अजुक न, तुम सिसे िुद्धिमान हो, क्ोोंहक तुमने ने
मु झसे एक िार सिसे अहधक उदात्त और शानदार प्रश्न पूछा था - असीम तपद्धस्वयोों का ज्ञान कैसे प्राप्त करें
(अद्धस्तत्व के हसिाों त)। इसहलए हे अजुक न, मैं इस हवषय पर जो कुछ कहना चाहता हों , उसे ध्यानपूवकक सुनो।

५. उसे ब्रह्माों ड कहा जाता है , जो सभी इच्छाओों से रहहत है , और योग की हवधा से, ध्यान की उस द्धथथहत में िैठता
है हजसमें वह अपने स्वयों के मों त्र (प्रणव) को हम्सा (परमात्मन) के साथ आत्मसात करता है ।

६. मनु ष्य के हलए, अपनी सीमा के भीतर, हम्सा (मैं हूँ ) की प्राद्धप्त को सवोच्च ज्ञान माना जाता है । जो हक हम्सा
और गैर-हम्सा के िीच एक हनद्धिय साक्षी िना रहता है , वह कूटथथ चैतन्य (आत्मािुद्धि) के रूप में अक्षरा पुरुष
है । जि ज्ञाता इस अक्षरा पुरुष को अपने भीतर पाता है और दे खता है , तो वह इस दु हनया में जन् और मृ त्यु के
भहवष्य के सभी दु खोों से िच जाता है ।

७. काहकन शब्द का + अक + इन का यौहगक है । पहला शब्दाों श , का, हजसका अथक है खु शी, दू सरा, अक,
हजसका अथक है दु ख, और तीसरा, इन, रखने के हलए दशाक ता है ; इसहलए, जो सुख और दु ख के अहधकारी हैं ,
जीवा को काहकन या काकी कहा जाता है । हिर, शब्दाों श का के अोंत में स्वर, मू लप्रकृहत या ब्रह्माों ड के जीव रूप
के प्रहत जागरूक अहभव्यद्धक्त है ; इसहलए, जि यह गायि हो जाता है , तो केवल के ही रहता है , जो ब्रह्माों ड का
सिसे िड़ा अहवभाज्य आनों द है ।

८. वह जो कभी जागने और आराम करने के समय, अपने जीवन को अपने भीतर िनाए रखने में सक्षम होता है ,
वह एक हजार वषों में अपने जीवन की अवहध का हवस्तार कर सकते हैं ।
९. िहुत से प्रकट हुए आकाश की कल्पना करें , जो एक अहवभाहजत ब्रह्माों ड के रूप में एक मानहसक दृहिकोण
के दायरे में लाया जा सकता है, हिर आत्मान को उसमें हमला सकता है , और यह आपके स्वयों में ; ऐसा हकया
जाता है , जि आत्मान को आकाश के साथ िनाया जाता है , तो कुछ और न सोचें - जै से हक चाूँ द, तारे आहद।

१०. ब्रह्माों ड का ऐसा साधक, जैसा हक उसके मन को हदखाया गया है , और सभी उद्दे श्य ज्ञान को िोंद करने के
िाद, उसे अचूक ज्ञान का समथक न करना चाहहए, और एक अहवभाज्य ब्रह्माों ड के िारे में सोचना चाहहए, जो भीतर
और िाहर के आकाश में , जो नाक के अोंत में मौजू द है , और हजसमें जीवन-श्वास हवलीन हो जाती है ।

११. दोनोों नाहसका से मु क्त होकर, जहाूँ प्राण-वायु लुप्त हो जाती है , वहाूँ अपने मन को ठीक करो, हे पाथक और
परम-ईश्वर का ध्यान करो।

१२. हशव को वहाों जीवन की सभी सीमाओों से रहहत समझें, िेदाग़ ले हकन लों पट, हिना हदमाग या िुद्धि के।

१३. समाहध के सोंकेत जीवन की सभी सकारात्मक द्धथथहतयोों की उपेक्षा और सभी वस्तु हनष्ठ हवचारोों की पूणक
अधीनता है ।

१४. यद्यहप ध्यानी का शरीर अभी और हिर ध्यान के समय कुछ अद्धथथर हो सकता है , हिर भी उसे हवचार करना
है हक परमात्मा अचल है । यह समाहध का सोंकेत है ।

१५. वह परमात्मा को मात्र के हिना मानता है , न तो मीटर में छोटा और न ही लों िा, स्वर या व्यों जन के साथ ध्वहन
रहहत, और हिोंदु से परे (हिन्दु या अनु स्वार), नाडा से परे , गले से उठने वाली आवाज़, और कलस से परे , या ध्वहन
के हवहभन्न चरण, वेदोों के वास्तहवक ज्ञाता हैं ।

१६. उन्ोोंने ज्ञान की सहायता से सवोच्च ज्ञान (हवज्ञान) प्राप्त कर हलया है और इस ज्ञान की वस्तु को अपने हदल
में थथान दे ना सीख हलया है , और इस प्रकार मन की शाों हत प्राप्त कर ली है , ऐसे व्यद्धक्त को आगे अभ्यास के हलए
हकसी योग की आवश्यकता नहीों होती है , और न ही कोई ध्यान। आगे की सोंकल्पना के हलए।

१७. शब्दाों श अम हजसके साथ वेद शु रू होते हैं , जो वेदोों के िीच में प्रकट होता है और हजसके साथ वेद समाप्त
होते हैं , अपने स्वयों के साथ प्राकृत को एकजु ट करता है , ले हकन जो इस प्राकृत से परे है जो प्रणव से सोंयुक्त है
वह महे श्वरा है ।

१८. जि तक कोई नदी के दू सरी ओर नहीों जाता ति तक एक नाव की जरूरत होती है , ले हकन जि एक आदमी
एक िार धारा को पार कर ले ता है , तो नाव को उसके उद्दे श्य की आवश्यकता नहीों होती है ।
१९. एक पहत के रूप में मकई को िाहर हनकालने के िाद भू सी को िेंक हदया जाता है , इसहलए एक िुद्धिमान
व्यद्धक्त पुस्तकोों का अध्ययन करने के िाद भी उनसे ज्ञान प्राप्त करता है ।

२०. जै से हक अोंधेरे कक्ष में एक इद्धच्छत वस्तु को खोजने के हलए प्रकाश आवश्यक है , ले हकन जि एक िार वस्तु
हमल जाती है तो प्रकाश को आवश्यक रूप से अलग रख हदया जाता है , इसहलए भी जि सवोच्च ज्ञान की वस्तु ,
माया के भ्रम से हछपी रहती है , एक िार हमल जाती है ज्ञान की मशाल, ज्ञान िाद में हनरथकक के रूप में अलग
रख हदया जाता है ।

२१. जै सा हक दू ध की जरूरत नहीों है एक व्यद्धक्त पहले से ही अमृ त के पेय के साथ तृप्त है , इसहलए वेदोों को भी
ऐसे व्यद्धक्त की जरूरत नहीों है, जो पहले से ही सवोच्च दे वता को जानता हो।

२२. तीन िार भाग्यशाली वह योहगन है हजसने इस प्रकार ज्ञान के अमृ त से अपनी प्यास िुझाई है ; इसहलए वह
हकसी कमक के हलए िाध्य नहीों है , क्ोोंहक वह तत्त्ोों का ज्ञाता हो गए थे ।

२३. वह जो अकथनीय प्रणव को एक िड़ी गोोंग की हनरों तर ध्वहन के रूप में जानता है या हवभाजन और
पृथक्करण के हिना तेल के एक अखों ड धागे की तरह, वेदोों के वास्तहवक अथक को समझ ले ता है ।

२४. वह जो अपने स्वयों के आत्मा को एक अरणी [लकड़ी का एक टु कड़ा जो हिसने पर आग पैदा करता है ] और
अन्य के रूप में प्रणव, और लगातार दोनोों को एक साथ रगड़ता है , वह िहुत जल्द हछपी हुई आग को दे खेगा
इस प्रकार िषक ण के द्वारा उत्पन्न होता है दो, यहाों तक हक वह अरनी की छाती में हछपी आग को भी सुलझाता है ।

२५. जि तक कोई व्यद्धक्त पहवत्रता की तुलना में उदात्त रूप से शु ि नहीों होता है , जो धुएूँ के रों ग की रोशनी की
तरह मु स्कराता है , तो उसे द्धथथर हवचारोों के साथ अपने हचोंतन को जारी रखना चाहहए।

२६. जीवत्मा, यद्यहप परमात्मा से दू र प्रतीत होता है , हिर भी यह िहुत करीि है ; और यद्यहप उसका शरीर है ,
हिर भी वह शरीर के हिना है ; जीवात्मा स्वयों शुि, सवकशद्धक्तमान और स्वयों स्पि है।

२७. यद्यहप यह स्पि रूप से शरीर में है , हिर भी यह शरीर में नहीों है ; यह शरीर के हकसी भी पररवतकन से
प्रभाहवत नहीों है , और न ही यह शरीर से सोंिोंहधत हकसी भी आनों द में भाग ले ता है , और न ही इसे शरीर को
िाों धने वाली हकसी भी चीज से िोंधे या वातानु कूहलत हकया जा सकता है ।

२८. जै से हक िीज में तेल मौजूद है और पनीर में मक्खन, जैसा हक सुगोंध िूल में रहता है और िलोों में रस होता
है ; तो जीवात्मा, जो पूरे ब्रह्माों ड को मौजू द है , मानव शरीर में भी मौजू द है ।
२९. लकड़ी की छाती में हछपी हुई आग की तरह, और हवा की तरह जो पूरी असीम अकाशा, आत्मा, मानस की
गुिा में रहने वाले , अनदे खी और अप्रकट रूप से व्याप्त हो जाती है , अपने स्वयों के प्रेमी िन जाते हैं , और मानव
हृदय के आकाश में चलते हैं ।।

३०. यद्यहप जीवात्मा हृदय में िसता है , और हिर भी मन में उसका वास है ; और यद्यहप यह हृदय में द्धथथत है , यह
स्वयों मन से रहहत है । योहगन, जो अपने मन की मदद से अपने हदल में इस तरह के एक अहतमानव को दे खता है ,
उत्तरोत्तर एक हसि िन जाता है ।

३१. वह जो अपने मन को धारण करने में सक्षम हो गया है , पूरी तरह से और समथक न के हिना, और आकाश के
साथ जु ड़े हुए, और अचूक एक को पहचानने की, उसकी द्धथथहत को समाहध की द्धथथहत कहा जाता है ।

३२. यद्यहप हवा में रहते हुए, वह योग के अमृ त के पेय के साथ सोंतुि रहने के हलए प्रहतहदन समाहध का अभ्यास
करता है , जो हवध्वों सक को नि करने में सक्षम हो जाता है ।

३३. वह उस आत्मा का हचोंतन करता है जै सा हक ऊपर कोई चीज नहीों है , नीचे की कोई चीज नहीों है , िीच में
कोई चीज नहीों है , कोई भी चीज चौतरिा नहीों है , उसकी द्धथथहत को समाहध की द्धथथहत कहा जाता है ।

३४. जो योगी इस प्रकार आत्मतत्त् का अनाचार करता है , वह सभी पुण्य और कुल से मु क्त हो जाता है । अजुक न
ने पूछा:

३५. मु झे िताओ, हे केशव, योहगयोों को कैसे रों गहीन और हनराकार ब्राह्मण का ध्यान करना चाहहए, जि मन यह
जानने में असमथक होता है हक यह कभी नहीों दे खा है , और जि दे खा जा सकता है , तो यह सि भौहतक है , और
िलस्वरूप हवनाशकारी है ? श्री भगवान ने कहा:

३६. जो ऊपर से भरा हुआ है , नीचे से भरा हुआ है , िीच में भरा हुआ है और पूरे दौर में सवकगुण आत्मा है , और
जो इस प्रकार आत्मानु भूहत करता है , उसे समाहध की द्धथथहत में कहा गया है । अजुक न ने कहा:

३७. मु झे िताओ, हे केशव, योहगन को कैसे ध्यान का अभ्यास करना चाहहए, जि तू ने जो सलम्बा का वणकन
हकया है वह असत्य है और जो हनमक लम्बा है , वह नथने स को दशाक ता है ? श्री भगवान ने कहा

३८. वह जो अपने मन को शुि करता है , शु ि परमात्मा का हचोंतन करता है , और अपने स्व को एक हवशाल
अहवनाशी के रूप में प्रकट करता है , वह ब्रह्म को जानकर हनमक ल हो जाता है । अजुक न ने कहा:
३९. सभी पत्रोों में लों िी और छोटी मापीय ध्वहनयाूँ होती हैं , वे हिन्दू (अनु स्वार) से भी जु ड़ती हैं , और िाद में , जि
अलग होती हैं , तो खु द को नाडा में हवलीन कर ले ती हैं , ले हकन तत्पश्चात हवलय कहाूँ होता है ? श्री भगवान ने
कहा:

४०. प्रकाश की आवाज़ में मौजू द है ध्वहन और उस प्रकाश में मानस; वह थथान हजसमें मानस लु प्त हो जाता है ,
हवष्णु का सवोच्च पाद है ।

४१. अनजाने की ओर हनदे हशत, हजसमें प्राणवायु की ध्वहन, प्राण-वायु के कारण उच्च होती है , गायि हो जाती है ,
उस थथान को हवष्णु का परम पाद कहा जाता है । अजुक न ने कहा:

४२. मु झे िताओ, हे केशव, जि जीवन-श्वास पाों च तत्वोों के इस शरीर को छोड़ दे ता है , और स्वयों को पुन: कम
कर हदया जाता है , मनु ष्य के गुण और उपकार कहाूँ जाते हैं , और वे हकसके साथ जाते हैं ? श्री भगवान ने कहा:

४३. पुण्य और व्रत के पररणाम से उत्पन्न भाग्य, पाूँ च भावोों का सार - मन, पाूँ च इों हियाूँ और कमक के पाूँ च अोंगोों के
हनयोंहत्रत दे वता (कमक) - ये सि मन के अहों कार कारण से हैं जि तक जीव साथ है ति तक वह तत्त्ोों के ज्ञान से
अनहभज्ञ रहता है ।

४४. हे कृष्ण, जीव, समाहध की अवथथा में इस सोंसार की सभी गहतशील और गहतहीन वस्तुओों को छोड़ दे ता है ,
ले हकन ऐसा क्ा है जो जीव को छोड़ दे ता है ताहक जीवाहशप का नाम हटा हदया जाए? श्री भगवान ने कहा:

४५. प्राणवायु हमे शा मुों ह और नाहसका के िीच से गुजरती है ; आकाश पेय [अवशोहषत] प्राण; और इस प्रकार
जि प्राण एक िार अवशोहषत हो जाता है तो जीव इस सोंसार के अखाड़े में हिर से जीहवत नहीों होता है । अजुक न
ने कहा:

४६. पूरे ब्रह्माों ड को व्याप्त करने वाला आकाश भी इस उद्दे श्य की दु हनया को शाहमल करता है ; इसहलए, यह सि
कुछ में और िाहर दोनोों है । अि मु झे िताओ, हे कृष्ण, यह क्ा है जो इस आकाश से परे है ? श्री भगवान ने कहा:

४७. हे अजुक न, अकाश को शू न्य (हनरथक क) कहा जाता है क्ोोंहक इसका अथक है हकसी चीज़ की इच्छा या
अनु पद्धथथहत। इस आकाश में ध्वहन की हवशेषता है , ले हकन जो इसे ध्वहन की शद्धक्त दे ता है, हालाों हक यह ध्वहन
रहहत है , अज्ञात और अनजाना ब्रह्माों ड है ।

४८. योगी अपने भीतर के आत्मा को दे खते हैं ; ऐसा ति होता है जि वे सभी िाहरी इों हियोों को िोंद कर दे ते हैं ;
ऐसे व्यद्धक्त के हलए, जि वह अपना शरीर छोड़ता है , तो उसकी [हनचली] िुहद्द गुजर जाती है और िुि के जाने
के साथ ही उसकी िुद्धिमत्ता भी गायि हो जाती है । अजुक न ने पूछा:
४९. यह स्पि है हक अक्षरोों का उच्चारण दाों तोों, होोंठोों, तालु, कोंठ आहद के द्वारा हकया जाता है । इसहलए, उन्ें
अहवनाशी कैसे कहा जा सकता है , जि उनके चेहरे पर भी उनकी हवनाशकारीता स्पि है ? श्री भगवान ने कहा:

५०. उस पत्र को अहवनाशी कहा जाता है जो स्व-उच्चारण होता है , जो न तो स्वर है और न ही व्यों जन, जो
उच्चारण के आठ थथानोों से परे है , जो लों िे या छोटे उच्चारणोों के अधीन नहीों है , और जो पूरी तरह से व्यथक वणों से
रहहत है [ चार अक्षर शा, श, सा और हा]। अजुक न ने कहा:

५१. मु झे िताओ, हे कृष्ण, कैसे, अपनी िाहरी इों हियोों को िोंद करके और उस ब्रह्माों ड को जानकर जो सभी
पदाथों और सभी पदाथों में हछपा हुआ है , योहगयोों को हनवाक ण मु क्ती का एहसास होता है । श्री भगवान ने कहा:

५२. योगी अपने भीतर आत्मा दे खते हैं जि वे सभी इों हियोों को िोंद कर दे ते हैं ; ऐसे व्यद्धक्त के हलए जि शरीर
छोड़ते हैं , तो उसकी िुिी गुजरती है , और िुि के गुजरने के साथ उसका अज्ञान भी हमट जाता है ।

५३. जि तक हकसी व्यद्धक्त को ततवास का पता नहीों चलता है , ति तक उसके हलए िाहरी इों हियोों को िोंद करके
मन की एकाग्रता का अभ्यास करना आवश्यक है , ले हकन एक िार जि वह ततत्व का ज्ञान प्राप्त कर ले ता है , तो
वह खु द को सावकभौहमक आत्मा से पहचान ले ता है ।

५४. शरीर के नौ हछिोों में से ज्ञान का जल हनकलता है , और िलस्वरूप ब्रह्माों ड को ति तक नहीों जाना जा
सकता जि तक कोई ब्रह्माों ड के समान पहवत्र न हो जाए।

५५. शरीर अपने आप में अत्यहधक अशु ि है , ले हकन जो शरीर [जीवात्मा] को पहवत्र करता है ; वह जो इन दोनोों
की वास्तहवक प्रकृहत में अोंतर जानता है , खु द को पहवत्रता के सवाल से कभी परे शान नहीों करता है , हकसकी
शु िता के हलए उसे खोज करनी चाहहए?

अध्याय II नाड़ी और लोक

अजुक न ने पूछा:

१. मु झे िताओ, हे केशव, क्ा सिूत है जि एक, ब्रह्म को सवक व्यापी और सवकज्ञ परमेश्वरा के रूप में जानता है ,
खु द को इसके साथ एक मानता है ? केशव ने कहा:

२. पानी में पानी के रूप में , दू ध में दू ध और मक्खन में िृत के रूप में , इसहलए जीवात्मा और परमात्मा हिना
हकसी भे द या अोंतर के एक हो जाते हैं ।
३. वह जो अहवभाहजत ध्यान के साथ, शाश्वत द्वारा हनधाक ररत तरीके के अनु सार, परमात्मा के साथ जीवात्मा को
एकजु ट करने का प्रयास करता है , शास्त्रोों द्वारा हनधाक ररत तरीके के अनु सार, सवकव्यापी और सावकभौहमक प्रकाश
उसे हनयत समय में हदखाता है ।

४. जि ज्ञान प्राप्त करके, ज्ञाता स्वयों ही ज्ञान की वस्तु िन जाता है , तो वह अपने ज्ञान के आधार पर खु द को सभी
िोंधनोों से मु क्त कर ले ता है , और उसे योग या ध्यान के अहधक अभ्यास की आवश्यकता नहीों होती है ।

५. वह हजस में ज्ञान की ज्योहत हमे शा चमकती रहती है , उसकी िुद्धि लगातार ब्राह्मण पर हटकी हुई है , और
सवोच्च ज्ञान की अहि के साथ वह कमों के िोंधन को जलाने में सक्षम है ।

६. तत्त्ोों का ऐसा ज्ञाता, परमात्मा की प्राद्धप्त के माध्यम से जो हनष्कलों क अकाशा के रूप में शु ि है और एक
क्षण के हिना, हकसी भी उपाहध के हिना परम स्व में रहता है , जै से जल में प्रवेश जल करता है ।

७. आत्मा आकाश की तरह सुषमा है और इसहलए इसे आों खोों से नहीों दे खा जा सकता है , और न ही आों तररक
आत्मान जो वायु की तरह है , ले हकन वह जो हनमक लम्बा समाहध द्वारा अपने भीतर की आत्मा को ठीक करने में
सक्षम हो गया है , और अपनी िाहरी इों हियोों को हनदे हशत करना सीख गया है , वह आत्मा और अोंतमक न की एकता
को जान सकता है ।

८. जहाों पर भी एक ज्ञानी की मृ त्यु हो सकती है , और हजस हकसी भी द्धथथहत में उसकी मृत्यु हो सकती है , वह
अपने शरीर को छोड़ने के समय आत्मा के साथ एक हो जाता है , यहाूँ तक हक जि ितकन टू ट जाता है , तो ितकन में
आकाश अपने माता-हपता के साथ एक हो जाता है , भले ही कहाों या कैसे टू टा हो।

९. सचेत साक्षीभाव और अचेतन अज्ञान के दु गुने अनु भव से जाहनए हक जो आत्मा पूरे शरीर को व्याप्त करता है ,
वह चेतना की तीन अवथथाओों से परे है - जाग्रत, स्वप्न और स्वप्नहीन हनिा।

१०. वह जो एक ही हिोंदु (हिोंदु) पर एक पल के हलए अपने मन के साथ रहने में सक्षम हो गया है वह अपने हपछले
सौ जन्ोों के पापोों से खु द को मु क्त करता है ।

११. दाहहनी ओर हपोंगला नदी िैली हुई है जो आग के एक महान चक्र की तरह चमकदार है ; पुण्य के इस उत्पाद
को दे वास (दे वयान) का वाहन कहा जाता है ।

१२. िाईों ओर ईडा िैली हुई है , हजसमें से नदी की चमक चोंिमा की हडस्क या वृत्त की तरह तुलनात्मक रूप से
कम है ; यह िायीों नाहसका की श्वास के साथ रहता है , और इसे हपहत्रस (हपतृयन) का वाहन कहा जाता है ।
१३. वीना या िीन की रीढ़ की तरह, कई जोड़ोों के साथ हड्डी का लों िा जाल जो सीट से ठीक एक इों सान के हसर
तक िैला होता है उसे मे रुदों ड (रीढ़ की हड्डी) कहा जाता है ।

१४. एक हमनट का छे द या हछि होता है जो मू लाधार से हसर तक इस मे रुदों ड से होकर गुजरता है ; यह इस छे द


के माध्यम से होता है हक एक नाडी गुजरती है हजसे योगी ब्राह्मणाहद या सुषुम्ना कहते हैं ।

१५. सुषुम्ना एक महीन तोंहत्रका है जो इडा और हपोंगला के िीच से गुजरती है ; इस सुषुम्ना से सभी ज्ञाननाहद [सोंवेदी
नाहड़याूँ ] अपना जन् ले ते हैं । इसहलए इसे ज्ञाननाड़ी कहा जाता है ।

१६. सूयक, चोंिमा और अन्य दे वता, भू र, भु वः आहद के चौदह लोकोों, दस दीक्षाओों [हदशा], पूवक, पहश्चम, आहद, पहवत्र
थथान, सात महासागर, हहमालय और अन्य पवकत, जम्बू के सात द्वीप, आहद, सात पहवत्र नहदयाूँ , गोंगा इत्याहद, चार
वेद, सभी पहवत्र दशक न, सोलह स्वर और चौिीस व्योंजन, गायत्री और अन्य पहवत्र मोंत्र, अठारह पुराण और सभी
उपपुराणोों में शाहमल हैं , तीन गन, महात्मा, सभी जीवोों की जड़, जीव और उनका आत्मान, दस श्वास, पूरी दु हनया,
वास्तव में , इन सभी से हमलकर, सुषुम्ना में हवद्यमान है ।

१७. चूोंहक सुषुम्ना से कई नाहड़याूँ िूटी हैं , सभी जीवोों की आों तररक आत्मा के हलए ग्रहण हकया है , और भौहतक
शरीर की सभी हदशाओों में िैला हुआ है , इसहलए इसे एक हवशाल पेड़ की तरह माना जाता है । इस पेड़ की
प्रत्येक शाखा पर प्राणवायु की सहायता से अकेले तत्त्ाज्ञानी चल पाते हैं ।

१८. इस मानव शरीर में िहत्तर हज़ार नाहड़याूँ मौजू द हैं जो वायु में प्रवेश के हलए पयाक प्त थथान रखती हैं ; योगी
अकेले ही अपने योगकमक के गुण से इन नाहड़योों के वास्तहवक स्वरूप से पररहचत हो जाते हैं ।

१९. शरीर के नौ पोटक लोों को िोंद कर दे ना, और नाहड़योों के स्रोत और प्रकृहत से पररहचत होना, जो भावना के कई
अोंगोों की सीटोों को ऊपर और नीचे खीोंचते हैं , जीव, सहायता के साथ िेहतर ज्ञान की द्धथथहत में िढ़ते हैं जीवन की
साों स, मोक्ष को प्राप्त करता है ।

२०. सुषुम्ना के िाईों ओर और नाक के हिोंदु के पास, अमरावती नामक इों िलोक मौजू द है ; और आों खोों में मौजू द
चमकदार गोले को अहिलोक के नाम से जाना जाता है ।

२१. दाहहने कान के पास यमलोक है जो सामायमनी के नाम से जाना जाता है , और इसके हकनारे पर नै रीतलोक
के नाम से पुकारे जाने वाले नैरी दे व के गोले मौजू द हैं ।
२२. पहश्चम में और पीठ में द्धथथत, वरुण का गोला मौजू द है जो हवभावरी के नाम से जाना जाता है ; और कान के
हकनारे पर गोंधवती के रूप में जाना जाता है , जो वायु का आसन है ।

२३. सुषुम्ना के उत्तर की ओर, गले से िाएों कान तक, और पुष्पवती के नाम से ज्ञात कुिेर के गोले में चोंिलोक
मौजू द है ।

२४. िायीों आूँ ख में और ईशान की हदशा में हशवलोक हवद्यमान है , हजसे मनोमनी के नाम से जाना जाता है ;
ब्रह्मपुरी जो हसर में मौजू द है , उसे मानव शरीर में सूक्ष्म जगत के रूप में माना जाना चाहहए, क्ोोंहक यह
जनाननाडी सुषुम्ना की जड़ और उत्पहत्त है , इसहलए मनोमय जगत, हजसे मन की दु हनया कहा जाता है ।

२५. प्रलय के समय भयानक अहि की तरह, अनन्त पैर के तल पर रहता है ; वही सि-शु ि शाश्वत ऊपर, नीचे,
मध्य में , अोंदर और िाहर [शरीर] दोनोों को आशीवाक द दे ते हैं ।

२६. हनचले हहस्से या पैर के एकमात्र भाग को अटाला कहा जाता है ; ऊपरी भाग या शीषक को हवटाला कहा जाता
है ; पैर और पैर के िीच के जोड़ के ऊपरी हहस्से को हनटाला और िुटने को सुटाला कहा जाता है ।

२७. जाों ि के हनचले हहस्से को महाटाला कहा जाता है ; इसके ऊपरी हहस्से को रासटाला कहा जाता है , और
लोईन को तालाटाला कहा जाता है । इस तरह मानव शरीर में मौजू द सात पटाला को जानना सही है ।

२८. पटाला में जहाूँ नाग कुोंडल में रहते हैं , और नाहभ के नीचे, वह जगह भोहजों ि के नाम से जानी जाती है। जलते
हुए नरक और प्रलयकाल की अहि जै सी भयानक जगह को महापटाला कहा जाता है ; इस क्षे त्र में , अनन्त, हजसे
जीवा के नाम से जाना जाता है , वृत्त की तरह चक्करदार कुोंडल में खु द को प्रदहशक त करता है ।

२९. भू रलोक नाहभ में हवद्यमान है , िगल में भु वस मौजू द है , जिहक स्वगकलोक सूयक, चोंिमा और हसतारोों के साथ,
हृदय में िसता है ।

३०. योहगयोों को सात लोकोों, सूयक, चोंिमा, मों गल, िुध, िृहस्पहत, शु क्र, शहन और असोंख्य अन्य लोकोों, जै से ध्रुव
और इतने पर, हृदय की कल्पना करके पूणक आनों द हमलता है ।

३१. हृदय में महरलोक िसता है , जनलोका गले में मौजू द है , दो भौोंहोों के िीच तपरलोक, जिहक हसर में
सत्ववलोक हवद्यमान है ।

३२. यह ब्रह्माों ड स्वयों जल में िुल जाता है , जल अहि से सूख जाता है , वायु अहि को हनगल जाती है और आकाश
वायु को िारी-िारी से पीता है ।
३३. ले हकन अकाश अपने आप में मन को आत्मसात कर लेता है , मन िुिी में , िुिी अहों कार में , अहनकार हचत्त
शतरों ज।

३४. जो योगी मु झे एक मन से मैं वह हों ’के रूप में हचोंतन करते हैं , वे सौ हमहलयन कल्प के दौरान एकहत्रत पापोों
से िच जाते हैं ।

३५. हजस प्रकार ितकन के टू टने पर ितकन के आकाश को महाकशा में अवशोहषत हकया जाता है , उसी प्रकार
अज्ञान के नि होने पर अज्ञान-रूपी जीवात्मा भी परमात्मा में लीन हो जाता है।

३६. वह जो तत्त्ोों का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो गया है जै से हक जीवात्मा को परमात्मा में समाहहत कर हलया
जाता है , यहाूँ तक की ितकन के आकाश को महाकाश में समाहहत कर हलया जाता है , हनस्सोंदेह अज्ञान की
श्रृों खला से मु क्त हो जाता है , और सवोच्च ज्ञान और ज्ञान के प्रकाश के क्षे त्र में चला जाता है ।

३७. यहद मनु ष्य एक हज़ार वषों तक तपस्या और िोर तपस्या करता है , केवल एक पैर पर खड़ा होकर, वह
ध्यान (ज्ञानयोग) द्वारा प्राप्त लाभ के एक-सोलहवें हहस्से का एहसास नहीों कर सकता है ।

३८. जि तक कोई तत्तवास के ज्ञान को प्राप्त नहीों करता है , ति तक उसे सभी अच्छे कायों को ध्यानपूवकक करना
चाहहए, शरीर और मन की पहवत्रता का पालन करना चाहहए, धाहमक क िहलदान करना चाहहए और पहवत्र थथानोों
पर जाकर अनु भव और ज्ञान प्राप्त करना चाहहए।

३९. हजस समय शरीर पीछे और आगे की ओर झुकता है , वह ब्राह्मण जो यह मानने में हहचहकचाता है हक वह
ब्राह्मण है , वह महान सूक्ष्म आत्मा को समझने में हविल रहता है , भले ही वह चारोों वेदोों के साथ वाताक लाप करता
हो।

४०. हालाूँ हक गाय अलग-अलग रों गोों की हो सकती हैं , ले हकन उनके दू ध का रों ग एक है और एक ही है , यहाूँ तक
हक जीव के मामले में , शरीर अलग हदख सकते हैं , ले हकन आत्मा एक और सभी में एक ही है ।

४१. भोजन, नीोंद, भय और यौन इच्छा, आदमी पशु के समान है ; यह केवल ज्ञान का जोड़ है जो उसे एक आदमी
िनाता है ; यहद हाों , तो, वह इस से रहहत है ले हकन वह एक जानवर के िरािर है ।

४२. सुिह में आदमी जीवन की आवश्यकताओों को पूरा करता है , हदन के िीच में वह अपने पेट को भोजन से
भरता है , शाम को वह अपनी यौन इच्छा के तृष्णा को सोंतुि करता है और िाद में गहरी नीोंद में हगर जाता है -
ऐसा ही जानवरोों के साथ भी होता है ।
४३. सौ करोड़ जीव और हजारोों नदहिन्द लगातार नि हो जाते हैं और अद्धखल पहवत्रता में लीन हो जाते हैं ।

४४. इसहलए, यह हवश्वास हक "मैं ब्राह्मण हों " महान आत्माओों (महात्माओों) के हलए मु द्धक्त (मोक्ष) का एकमात्र
कारण माना जाता है ।

४५. दो शब्द क्रमशः जीवोों को िाूँ धते हैं और मु क्त करते हैं : मैं ‘ और ‘मे रा‘ का दृढ़ हवश्वास तेजी पकड़ता है और
जीवा को नीचे िाों ध दे ता है , और उसी की अनु पद्धथथहत या चाहत उसे सभी िोंधनोों से मु क्त करती है ।

४६. जि मन सभी इच्छाओों और जु नून से मुक्त हो जाता है, तभी द्वै त का हवचार समाप्त हो जाता है ।। जि अद्वै त
की उस द्धथथहत का अहसास होता है [सभी में एक और एक में सभी], वहाूँ ब्राह्मण का परम पाद हनवास करता है ।

४७. जि एक भू खा व्यद्धक्त व्यथक में अपनी ऊजाक व्यथक करता है , जि वह हवा से प्रहार करता है , इसी तरह वेदोों
और अन्य शास्त्रोों के पाठक भी अपना समय और ऊजाक ििाक द करते हैं , यहद अपने अध्ययन के िावजू द, वह
महसूस करने में हविल रहता है हक “मैं ब्राह्मण हों ।"

अध्याय III अहम् ब्रह्मास्मि

१. शास्त्र असोंख्य हैं , और उनके वास्तहवक अथक को समझने में भी लों िा समय लगता है ; जीवन छोटा है , लेहकन
िाधाएों कई हैं ; इसहलए, िुद्धिमान को केवल एक हों स (हम्सा) के रूप में वास्तहवक अथक लेना चाहहए चूूँहक वही
दू ध को दू हधया पानी से अलग करता है ।

२. पुराण, भारतम, वेद, हवहभन्न अन्य शास्त्र, पत्नी, िच्चे और पररवार, योग के अभ्यास के मागक में इतनी सारी
िाधाएूँ हैं ।

३. तू अपने अनु भव से सभी को जानना चाहता है - हक यह ज्ञान है , और यह जानने योग्य है — ति तू शस्त्रोों का


अोंत जानने में असिल हो जाएगा, भले ही तेरी आयु एक हजार वषक से अहधक हो।

४. जीवन को िहुत ही अहववाहहत दे खना, केवल अहवनाशी सत (अद्धस्तत्व) को जानना चाहते हैं ; पुस्तकोों के
अनावश्यक पढ़ने को छोड़ दें , और सत्य की पूजा करें ।
५. इस दु हनया में मौजू द सभी खू िसूरत वस्तु ओों में से अहधकाों श का उद्दे श्य या तो जीभ को खु श करना है या यौन
सुख दे ना है । तू दोनोों के सुख को त्याग सकता है ; हिर इस दु हनया की जरूरत ही कहाों है?

६. पहवत्र नहदयाूँ , आद्धखरकार, ले हकन पानी हैं , और हजन मू हतकयोों की पूजा की जाती है , वे पत्थर, धातु या पृथ्वी के
अलावा और कुछ नहीों हैं । योगी न तो पूवक में जाते हैं और न ही िाद में पूजा करते हैं , क्ोोंहक उनके भीतर सभी
पहवत्र थथान और सभी मू हतकयोों का सोंश्लेषण मौजू द है ।

७. आग (अहि) दो िार पैदा होने वाले दे वता हैं हजन्ें िहलदान हदया जाता है ; ऋहष अपने भीतर के आत्मा को
अपना ईश्वर कहते हैं । जि भी कम िुद्धिमान अपनी मू हतकयोों की पूजा करते हैं , योगी ब्राह्मण को हर जगह, अहि
में , अपने भीतर, मू हतकयोों में और चारोों ओर समान रूप से दे खते हैं ।

८. जै से एक अोंधा आदमी सूरज को नहीों दे ख सकता, हालाों हक यह पूरी दु हनया को रोशन करता है , वैसे ही
आध्याद्धत्मक रूप से अोंधे भी उस सवकव्यापी शाश्वत शाों हत का अनु भव नहीों कर सकते जो पूरे ब्रह्माों ड को समाहहत
करता है ।

९. जहाूँ मन जाता है , वह वहाूँ परमात्मा को दे खता है क्ोोंहक सभी और सि कुछ एक ही ब्रह्माों ड से भरा हुआ है ।

१०. जै सा हक चमकीला आकाश अपने सभी रूपोों, नामोों और रों गोों के साथ दे खा जा सकता है , वैसे ही वह जो इस
हवचार को महसूस करने में सक्षम है हक "मैं ब्रह्माों ड हूँ " - सभी रूपोों, नामोों और रों गोों के िावजू द - अकेले शाश्वत
परमात्मा को दे खने में सक्षम हैं ।

११. योहगन, ध्यान करते हुए, "मैं सोंपूणक ब्रह्माों ड हूँ " की पुहि करनी चाहहए; इस तरीके से वह परम आनों द, ज्ञान के
ने त्र के साथ परम आनों द के हनवास को दे खेंगे। जि तक वह अकाश पर हवचार करता है और उसके साथ अपनी
पहचान करता है , ति तक वह अकाशा की तरह सवक-व्याप्त परमात्मा को भी, मोक्ष के द्वार से शद्धक्तशाली और
सूक्ष्म पृष्ठभू हम के रूप में मानता है , हनवाक ण का पूणक-पूणक हनवास। अनन्त परमात्मा मनु ष्य में ज्ञान की हकरण के
रूप में , सभी जीवोों के हृदय में िसते हैं ; इस परमात्मा को उन योहगहनयोों के ब्रह्मात्मा के रूप में जाना जाना
चाहहए, जो परमात्मा को जानते हैं ।

१२. वह जो पूरे ब्रह्माों ड के साथ खु द को पहचानने में सक्षम हो गया है - एक ब्रह्माों ड के रूप में - हर आदमी के
खाने की इच्छा और सभी प्रकार के सामानोों को वस्तु-हवहनमय करने से िचना चाहहए।

१३. जहाूँ योगी एक क्षण या आधा क्षण भी रुकते हैं , वह थथान कुरुक्षे त्र, प्रयाग और नै हमषारण्य की तरह पहवत्र हो
जाता है , क्ोोंहक एक क्षण के हलए भी आध्याद्धत्मकता का हवचार एक हजार हमहलयन से अहधक िहलदानोों पर
अहधक प्रभाव डालता है ।
१४. जो योगी इस ब्रह्माों ड को कुछ भी नहीों मानते है , वह ब्रह्माों ड एक िार पुण्य और कुल दोनोों को नि कर दे ता
है , और िलस्वरूप उसके हलए न तो कोई हमत्र होता है और न ही शत्रु , सुख और दु ःख, लाभ और न ही हाहन,
अच्छा या िुरा, सम्मान और न ही अपमान न दोष; ये सि उसके हलए एक जै से हो जाते हैं ।

१५. जि एक छे द वाला लिादा हजसमें सौ छे द होते हैं , तो वह गमी की गमी और सदी की ठों ड को दू र रखने में
सक्षम होता है ,, तो उस व्यद्धक्त के हलए धन और सोंपहत्त की आवश्यकता क्ा है हजसका हदल केशव की पूजा के
हलए समहपकत है ?

१६. हे अजुक न, योहगन को अपने रखरखाव के िारे में हचोंता नहीों करनी चाहहए, न ही हचोंता करनी चाहहए। यहद,
हालाों हक, इस तरह के एक हवचार की आवश्यकता है , तो उसे हभक्षा के हलए भीख माूँ गने के हलए िस अपने
शरीर को िनाए रखना चाहहए, और दान के कपड़ोों से खु द को ठों ड से िचाना चाहहए। उसके हलए हीरे और
पत्थर, हरी सद्धियाूँ और चावल, और इस दु हनया में अन्य सभी वस्तु एूँ समान मूल्य की हैं ।

१७. हे अजुक न, वह जो भौहतक वस्तु ओों का लोभ नहीों करता, वह इस सोंसार में हिर कभी जन् नहीों ले ता।

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