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Faiz
Faiz
आज की रात
आज की रात ्ाज-ए-दद़ न छे ड़
दु ख ्े भरपर कदन तमाम हुए
और कल की खबर कक्े मालम
दोश-ओ-फदा़ की कमट चुकी हैं हुदद
हो न हो अब ्हर कक्े मालम
कजीं दगी हे च! ले ककन आज की रात
एजकदय्यत है मु मककन आज की रात
आज की रात ्ाज-ए-दद़ न छे ड़
अब न दोहरा फ्ाना-हा-ए-अलम
अपनी ककस्मत पे ्ोगवार न हो
कफक्र-ए-फदा़ उतार दे कदल ्े
उम्र-ए-रफ़्ता पे अश्क-बार न हो
अहद-ए-गम की कहकायतें मत पछ
हो चुकीीं ्ब कशकायतें मत पछ
आज की रात ्ाज-ए-दद़ न छे ड़
आज शब कोई नही ीं है
आज शब कदल के करीीं कोई नहीीं है
आाँ ख ्े दर कतकलस्मात के दर वा हैं कई
ख़्वाब-दर-ख़्वाब महल्लात के दर वा हैं कई
और मकीीं कोई नहीीं है ,
आज शब कदल के करीीं कोई नहीीं है
कोई नगमा, कोई खु शब, कोई काकफर-्रत
कोई उम्मीद, कोई आ् मु्ाकफर-्रत
कोई गम, कोई क्क, कोई शक, कोई यकीीं
कोई नहीीं है
आज शब कदल के करीीं कोई नहीीं है
तुम अगर हो, तो कमरे पा् हो या दर हो तुम
हर घड़ी ्ाया-गर-ए-खाकतर-ए-रीं जर हो तुम
और नहीीं हो तो कहीीं... कोई नहीीं, कोई नहीीं है
आज शब कदल के करीीं कोई नहीीं है
आफख़री ख़त
वो वक़्त कमरी जान बहुत दर नहीीं है
जब दद़ ्े रुक जाएाँ गी ्ब जीस्त की राहें
और हद ्े गुजर जाएगा अींदोह-ए-कनहानी
थक जाएाँ गी तर्ी हुई नाकाम कनगाहें
कछन जाएाँ गे मु झ ्े कमरे आाँ ् कमरी आहें
कछन जाएगी मु झ ्े कमरी बे-कार जवानी
शायद कमरी उल्फफत को बहुत याद करोगी
अपने कदल-ए-मा्म को नाशाद करोगी
आओगी कमरी गोर पे तुम अश्क बहाने
नौ-खे ज बहारोीं के ह्ीीं िल चढाने
आरज
मु झे मोजजोीं पे यकीीं नहीीं मगर आरज है कक जब कजा
मु झे बज़्म-ए-दहर ्े ले चले
तो किर एक बार ये इज़्न दे
कक लहद ्े लौट के आ ्काँ
कतरे दर पे आ के ्दा कर ाँ
तुझे गम-गु्ार की हो तलब तो कतरे हुजर में आ रहाँ
ये न हो तो ्ए-ए-रह-ए-अदम मैं किर एक बार रवाना हाँ
ऐ हबीब-ए-अम्बर-िस्त!
कक्ी के दस्त-ए-इनायत ने कुींज-ए-कजीं दााँ में
ककया है आज अजब कदल-नवाज बींद-ओ-बस्त
महक रही है फजा जु ल्फफ-ए-यार की ्रत
हवा है गमी-ए-खु शब ्े इ् तरह ्रमस्त
अभी अभी कोई गुजरा है गुल-बदन गोया
कहीीं करीब ्े, गे्-ब-दोश, गुींचा-ब-दस्त
कलए है ब-ए-ररफाकत अगर हवा-ए-चमन
तो लाख पहरे कबठाएाँ कफ् पे जु ल्म-परस्त
हमे शा ्ब्ज़ रहे गी वो शाख-ए-मे हर-ओ-वफा
कक कज् के ्ाथ बींधी है कदलोीं की फतह ओ कशकस्त
ये शे र-ए-हाकफज-ए-शीराज, ऐ ्बा! कहना
कमले जो तुझ ्े कहीीं वो हबीब-ए-अम्बर-दस्त
''खलल-पजीर बुअद हर कबना कक मय-बीनी
ब-जु ज कबना-ए-मोहब्बत कक खाली अज-खलल-अस्त''
ऐ रौशफनयोीं के शहर
्ब्ज़ा ्ब्ज़ा ्ख रही है िीकी जद़ दोपहर
दीवारोीं को चाट रहा है तन्हाई का जहर
दर उफुक तक घटती बढती उठती रहती है
कोहर की ्रत बे-रौनक ददों की गदली लहर
बस्ता है इ् कोहर के पीछे रौशकनयोीं का शहर
ऐ रौशकनयोीं के शहर
कौन कहे कक् ्म्त है तेरी रौशकनयोीं की राह
हर जाकनब बे-नर खड़ी है कहज्र की शहर-पनाह
थक कर हर ् बैठ रही है शौक की माीं द क्पाह
ऐ शाम मेहरबााँ हो
ऐ शाम मे हरबााँ हो
ऐ शाम-ए-शहरयारााँ
हम पे भी मे हरबााँ हो
दोजखी दोपहर क्तम की
बे-्बब क्तम की
दोपहर दद़ -ओ-गैज-ओ-गम की
बे-जबााँ दद़ -ओ-गैज-ओ-गम की
इ् दोजखी दोपहर के ताकजयाने
आज तन पर धनक की ्रत
कौ्-दर-कौ् बट गए हैं
जख़्म ्ब खु ल गए हैं
दाग जाना था छट गए हैं
कतरे तोशे में कुछ तो होगा
मरहम-ए-दद़ का दो-शाला
तन के उ् अींग पर उढा दे
दद़ ्ब ्े क्वा जहााँ हो
ऐ शाम मे हरबााँ हो
ऐ शाम-ए-शहरयारााँ
हम पे मे हरबााँ हो
अीं जाम
हैं लबरे ज आहोीं ्े ठीं डी हवाएाँ
उदा्ी में डबी हुई हैं घटाएाँ
मोहब्बत की दु कनया पे शाम आ चुकी है
क्यह-पोश हैं कजीं दगी की फजाएाँ
अश्गाबाि की शाम
जब ्रज ने जाते जाते
अश्गाबाद के नीले उफुक ्े
अपने ्ुनहरी जाम
में ढाली
्ुखी-ए-अव्वल-ए-शाम
और ये जाम
तुम्हारे ्ामने रख कर
तुम ्े क्या कलाम
कहा प्रणाम
उट्ठो
और अपने तन की ्ेज ्े उठ कर
इक शीरीीं पैगाम
्ब्त करो इ् शाम
कक्ी के नाम
कनार-ए-जाम
शायद तुम ये मान गईीं और तुम ने
अपने लब-ए-गुलफम
ककए इनआम
कक्ी के नाम
कनार-ए-जाम
या शायद
तुम अपने तन की ्ेज पे ्ज कर
थीीं याँ महव-ए-आराम
कक रस्ते तकते तकते
बुझ गई शम़् -ए-जाम
अश्गाबाद के नीले उफुक पर
गारत हो गई शाम
अगस्त-1952
रौशन कहीीं बहार के इमकााँ हुए तो हैं
गुलशन में चाक चींद गरे बााँ हुए तो हैं
अब भी कखजााँ का राज है ले ककन कहीीं कहीीं
गोशे रह-ए-चमन में गजल-ख़्वााँ हुए तो हैं
ठहरी हुई है शब की क्याही वहीीं मगर
कुच कुछ ्हर के रीं ग पर-अफ़शााँ हुए तो हैं
इन में लह जला हो हमारा कक जान ओ कदल
महकफल में कुछ चराग फरोजााँ हुए तो हैं
हााँ कज करो कुलाह कक ्ब कुछ लु टा के हम
अब बे-कनयाज-ए-गकद़ श-ए-दौरााँ हुए तो हैं
अहल-ए-कफ् की ्ुब्ह-ए-चमन में खुलेगी आाँ ख
बाद-ए-्बा ्े वअदा-ओ-पैमााँ हुए तो हैं
है दश्त अब भी दश्त मगर खन-ए-पा ्े 'फैज'
्ैराब चींद खार-ए-मु गीलााँ हुए तो हैं
अगस्त-1955
शहर में चाक-गरे बााँ हुए नापैद अब के
कोई करता ही नहीीं जब्त की ताकीद अब के
लु त्फफ कर ऐ कनगह-ए-यार कक गम वालोीं ने
ह्रत-ए-कदल की उठाई नहीीं तम्हीद अब के
चााँ द दे खा कतरी आाँ खोीं में न होींटोीं पे शफक
कमलती-जुलती है शब-ए-गम ्े कतरी दीद अब के
कदल दु खा है न वो पहला ्ा न जााँ तड़पी है
हम ही गाकफल थे कक आई ही नहीीं ईद अब के
किर ्े बुझ जाएाँ गी शमएाँ जो हवा तेज चली
ला के रक्खो ्र-ए-महकफल कोई खु शीद अब के
ब'अि-अज-वक़्त
कदल को एह्ा् ्े दो-चार न कर दे ना था
्ाज-ए-ख़्वाबीदा को बेदार न कर दे ना था
अपने मा्म तबस्सुम की फरावानी को
वु्अत-ए-दीद पे गुल-बार न कर दे ना था
शौक-ए-मजबर को ब् एक झलक कदखला कर
वाककफ-ए-लज़्ज़त-ए-तकरार न कर दे ना था
चश्म-ए-मु श्ताक की खामोश तमन्नाओीं को
यक-ब-यक माएल-ए-गुफ़्तार न कर दे ना था
जल्वा-ए-हुस्न को मस्तर ही रहने दे ते
ह्रत-ए-कदल को गुनहगार न कर दे ना था
बहार आई
बहार आई तो जै ्े यक-बार
लौट आए हैं किर अदम ्े
वो ख़्वाब ्ारे शबाब ्ारे
जो तेरे होींटोीं पे मर-कमटे थे
जो कमट के हर बार किर कजए थे
कनखर गए हैं गुलाब ्ारे
जो तेरी यादोीं ्े मुश्कब हैं
जो तेरे उश्शाक का लह हैं
उबल पड़े हैं अजाब ्ारे
मलाल-ए-अहवाल-ए-दोस्तााँ भी
खु मार-ए-आगोश-ए-मह-वशाीं भी
गुबार-ए-खाकतर के बाब ्ारे
कतरे हमारे
्वाल ्ारे जवाब ्ारे
बहार आई तो खु ल गए हैं
नए क्रे ्े कह्ाब ्ारे
ब-नोक-ए-शमशीर
मे रे आबा कक थे ना-महरम-ए-तौक-ओ-जीं जीर
वो मजामीीं जो अदा करता है अब मे रा कलम
नोक-ए-शमशीर पे कलखते थे ब-नोक-ए-शमशीर
रौशनाई ्े जो मैं करता हाँ कागज पे रकम
्ींग ओ ्हरा पे वो करते थे लह ्े तहरीर
भाई
आज ्े बारा बर् पहले बड़ा भाई कमरा
स्टाकलनग्राड की जीं गाह में काम आया था
मे री मााँ अब भी कलए किरती है पहल में ये गम
जब ्े अब तक है वही तन पे ररदा-ए-मातम
और इ् दु ख ्े कमरी आाँ ख का गोशा तर है
अब कमरी उम्र बड़े भाई ्े कुछ बढ कर है
ब्लै क-आउट
जब ्े बे-नर हुई हैं शमएाँ
खाक में ढाँ ढता किरता हाँ न जाने कक् जा
खो गई हैं कमरी दोनोीं आाँ खें
तुम जो वाककफ हो बताओ कोई पहचान कमरी
इ् तरह है कक हर इक रग में उतर आया है
मौज-दर-मौज कक्ी जहर का काकतल दररया
तेरा अरमान, कतरी याद कलए जान कमरी
जाने कक् मौज में गलतााँ है कहााँ कदल मे रा
एक पल ठहरो कक उ् पार कक्ी दु कनया ्े
बक़ आए कमरी जाकनब यद-ए-बैजा ले कर
और कमरी आाँ खोीं के गुम-गश्ता गुहर
जाम-ए-जु ल्मत ्े क्यह-मस्त
नई आाँ खोीं के शब-ताब गुहर
लौटा दे
एक पल ठहरो कक दररया का कहीीं पाट लगे
और नया कदल मे रा
जहर में धुल के, फना हो के
कक्ी घाट लगे
किर पए-नज़्र नए दीदा ओ कदल ले के चलाँ
हुस्न की मदह कर
ाँ शौक का मजमन कलक्खाँ
बोल
बोल कक लब आजाद हैं तेरे
बोल जबााँ अब तक तेरी है
तेरा ्ुत्ााँ कजस्म है तेरा
बोल कक जााँ अब तक तेरी है
दे ख कक आहन-गर की दु कााँ में
तुींद हैं शोले ्ुख़ है आहन
खु लने लगे कुफ़लोीं के दहाने
िैला हर इक जीं जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
कजस्म ओ जबााँ की मौत ्े पहले
बोल कक ्च कजीं दा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
बु फनयाि कुछ तो हो
क-ए-क्तम की खामु शी आबाद कुछ तो हो
कुछ तो कहो क्तम-कशे फररयाद कुछ तो हो
बेदाद-गर ्े कशकवा-ए-बेदाद कुछ तो हो
बोलो कक शोर-ए-हश्र की ईजाद कुछ तो हो
िर-ए-उमीि के िरयजा-गर
किर िुरे रे बन के मे रे तन-बदन की धग़्ियााँ
शहर के दीवार-ओ-दर को रीं ग पहनाने लगीीं
किर कफ-आलदा जबानें मदह ओ जम की कुमकचयााँ
मे रे जे हन ओ गोश के जख़्मोीं पे बर्ाने लगीीं
िरीचा
गड़ी हैं ककतनी ्लीबें कमरे दरीचे में
हर एक अपने म्ीहा के खाँ का रीं ग कलए
हर एक वस्ल-ए-खु दा-वींद की उमीं ग कलए
िस्त-ए-तह-ए-सींग-आमिा
बेजार फजा दरपा-ए-आजार ्बा है
याँ है कक हर इक हमदम-ए-दे रीना खफा है
हााँ बादा-कशो आया है अब रीं ग पे मौ्म
अब ्ैर के काकबल रकवश-ए-आब-ओ-हवा है
उमडी है हर इक ्म्त ्े इल्जाम की बर्ात
छाई हुई हर दााँ ग मलामत की घटा है
वो चीज भरी है कक ्ुलगती है ्ुराही
हर का्ा-ए-मय जहर-ए-हलाहल ्े क्वा है
हााँ जाम उठाओ कक ब-याद-ए-लब-ए-शीरीीं
ये जहर तो यारोीं ने कई बार कपया है
इ् जज़्बा-ए-कदल की न ्जा है न जजा है
मक़्द-ए-रह-ए-शौक वफा है न जफा है
एह्ा्-ए-गम-ए-कदल जो गम-ए-कदल का क्ला है
उ् हुस्न का एह्ा् है जो तेरी अता है
हर ्ुब्ह-ए-गुकलस्तााँ है कतरा र-ए-बहारीीं
हर िल कतरी याद का नक़श-ए-कफ-ए-पा है
हर भीगी हुई रात कतरी जुल्फफ की शबनम
ढलता हुआ ्रज कतरे होींटोीं की फजा है
हर राह पहुाँ चती है कतरी चाह के दर तक
हर हफ़-ए-तमन्ना कतरे कदमोीं की ्दा है
ताजीर-ए-क्या्त है न गैरोीं की खता है
वो जु ल्म जो हम ने कदल-ए-वहशी पे ककया है
कजीं दान-ए-रह-ए-यार में पाबींद हुए हम
जीं जीर-ब-कफ है न कोई बींद-ए-बपा है
''मजबरी ओ दावा-ए-कगरफ़्तारी-ए-उलफत
दस्त-ए-तह-ए-्ींग-आमदा पैमान-ए-वफा है ''
ढाका से वापसी पर
हम कक ठहरे अजनबी इतनी मु दारातोीं के बा'द
किर बनें गे आश्ना ककतनी मुलाकातोीं के बा'द
कब नजर में आएगी बे-दाग ्ब्ज़े की बहार
खन के धब्बे धुलेंगे ककतनी बर्ातोीं के बा'द
थे बहुत बेदद़ लम्हे खत्म-ए-दद़ -ए-इश्क़ के
थीीं बहुत बे-मे हर ्ुब्हें मे हरबााँ रातोीं के बा'द
कदल तो चाहा पर कशकस्त-ए-कदल ने मोहलत ही न दी
कुछ कगले कशकवे भी कर ले ते मु नाजातोीं के बा'द
उन ्े जो कहने गए थे 'फैज' जााँ ्दके ककए
अन-कही ही रह गई वो बात ्ब बातोीं के बा'द
फिलिार िे खना
तफााँ ब-कदल है हर कोई कदलदार दे खना
गुल हो न जाए कमशअल-ए-रुख़्सार दे खना
आकतश ब-जााँ है हर कोई ्रकार दे खना
लौ दे उठे न तुरा़ -ए-तरा़ र दे खना
जज़्ब-ए-मु ्ाकफरान-ए-रह-ए-यार दे खना
्र दे खना, न ्ींग, न दीवार दे खना
क-ए-जफा में कहत-ए-खरीदार दे खना
हम आ गए तो गमी-ए-बाजार दे खना
उ् कदल-नवाज शहर के अतवार दे खना
बे इग़्िफात बोलना, बेजार दे खना
खाली हैं गरचे म्नद ओ कमम्बर, कनगाँ है खल्फक
रोअब-ए-कबा ओ है बत-ए-दस्तार दे खना
जब तक न्ीब था कतरा दीदार दे खना
कज् ्म्त दे खना, गुल-ओ-गुलजार दे खना
किर हम तमीज-ए-रोज-ओ-मह-ओ-्ाल कर ्कें
ऐ याद-ए-यार किर इधर इक बार दे खना
फिल-ए-मन मुसाफर्फर-ए-मन
कमरे कदल, कमरे मु ्ाकफर
हुआ किर ्े हुक्म ्ाकदर
कक वतन-बदर होीं हम तुम
दें गली गली ्दाएाँ
करें रुख नगर नगर, का
कक ्ुराग कोई पाएाँ
कक्ी यार-ए-नामा-बर का
हर इक अजनबी ्े पछें
जो पता था अपने घर का
्र-ए-क-ए-ना-शनायााँ
हमें कदन ्े रात करना
कभी इ् ्े बात करना
कभी उ् ्े बात करना
तुम्हें क्या कहाँ कक क्या है
शब-ए-गम बुरी बला है
हमें ये भी था गनीमत
जो कोई शु मार होता
हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता!
िो इश्क़
(1)
ताजा हैं अभी याद में ऐ ्ाकी-ए-गुलफाम
वो अक्स-ए-रुख-ए-यार ्े लहके हुए अय्याम
वो िल ्ी खुलती हुई दीदार की ्ाअत
वो कदल ्ा धड़कता हुआ उम्मीद का हीं गाम
(2)
चाहा है इ्ी रीं ग में लै ला-ए-वतन को
तड़पा है इ्ी तौर ्े कदल उ् की लगन में
ढाँ डी है याँही शौक ने आ्ाइश-ए-मीं कजल
रुख़्सार के खम में कभी काकुल की कशकन में
िु आ
आइए हाथ उठाएाँ हम भी
हम कजन्हें रस्म-ए-दु आ याद नहीीं
हम कजन्हें ्ोज-ए-मोहब्बत के क्वा
कोई बुत कई खु दा याद नहीीं
एक मींजर
बाम-ओ-दर खामुशी के बोझ ्े चर
आ्मानोीं ्े ज-ए-दद़ रवााँ
चााँ द का दु ख-भरा फ्ाना-ए-नर
शाह-राहोीं की खाक में गलतााँ
ख़्वाब-गाहोीं में नीम तारीकी
मु ज़्मकहल लय रुबाब-ए-हस्ती की
हल्के हल्के ्ुरोीं में नौहा-कुनााँ
एक रह-गु जर पर
वो कज् की दीद में लाखोीं म्ऱ तें कपन्हााँ
वो ह्न कज् की तमन्ना मैं जन्नतें कपन्हााँ
हजार कफत्ने तह-ए-पा-ए-नाज खाक-नशीीं
हर इक कनगाह खु मार-ए-शबाब ्े रीं गीीं
शबाब कज् ्े तखय्युल पे कबजकलयााँ बर्ें
वकार कज् की रफाकत को शोकखयााँ तर्ें
अदा-ए-लग़्ग़्जश-ए-पा पर कयामतें कुबाां
बयाज-रुख पे ्हर की ्बाहतें कुबाां
क्याह जु ल्फफोीं में वारफ़्ता कनकहतोीं का हुजम
तवील रातोीं की ख़्वाबीदा राहतोीं का हुजम
वो आाँ ख कज् के बनाव प खाकलक इतराए
जबान-ए-शे र को तारीफ करते शम़ आए
वो होींट फैज ्े कजन के बहार लाला-फरोश
बकहश्त ओ कौ्र ओ त्नीम ओ ्ल्बील ब-दोश
गुदाज कजस्म कबा कज् पे ्ज के नाज करे
दराज कद कज्े ्व़-ए-्ही नमाज करे
गरज वो हुस्न जो मोहताज-ए-वस्फफ-ओ-नाम नहीीं
वो ह्न कज् का त्व्वु र बशर का काम नहीीं
कक्ी जमाने में इ् रह-गुजर ्े गुजरा था
ब-्द गुरर ओ तजम्मुल इधर ्े गुजरा था
और अब ये राह-गुजर भी है कदल-फरे ब ओ ह्ीीं
है इ् की खाक में कैफ-ए-शराब-ओ-शे र मकीीं
हवा में शोखी-ए-रफ़्तार की अदाएाँ हैं
फजा में नमी-ए-गुफ़्तार की ्दाएाँ हैं
गरज वो हुस्न अब इ् रह का जु ज़्व-ए-मीं जर है
कनयाज-ए-इश्क़ को इक ्ज्दा-गह मयस्सर है
एक शहर-आशोब का आ़िाज
अब बज़्म-ए-्ुखन ्ोहबत-ए-लब-्ोख़्तगााँ है
अब हल्फका-ए-मय ताइफा-ए-बे-तलबााँ है
घर रकहए तो वीरानी-ए-कदल खाने को आवे
रह चकलए तो हर गाम पे गौगा-ए-्गााँ है
पैवींद-ए-रह-ए-कचा-ए-जर चश्म-ए-गजालााँ
पाबो्-ए-हव् अफ्र-ए-शमशाद-कदााँ है
यााँ अहल-ए-जु नाँ यक-ब-कदगर दस्त-ओ-कगरे बााँ
वााँ जै श-ए-हव् तेग-ब-कफ दरपा-ए-जााँ है
अब ्ाहब-ए-इीं ्ाफ है खु द ताकलब-ए-इीं ्ाफ
मोहर उ् की है मीजान ब-दस्त-ए-कदगरााँ है
हम ्हल-तलब कौन ्े फरहाद थे ले ककन
अब शहर में तेरे कोई हम ्ा भी कहााँ है
हम जीतेंगे
हक़्का हम इक कदन जीतेंगे
कद जाअल-हक़्को व जहकल-बाकतल
फम़ दा-ए-रब्ब-ए-अकबर
है जन्नत अपने पााँ व तले
और ्ाया-ए-रहमत ्र पर है
किर क्या डर है
हम जीतेंगे
हक़्का हम इक कदन जीतेंगे
कबल-आकखर इक कदन जीतेंगे
र्फश़-ए-नौमीिी-ए-िीिार
दे खने की तो कक्े ताब है ले ककन अब तक
जब भी उ् राह ्े गुजरो तो कक्ी दु ख की क्क
टोकती है कक वो दरवाजा खु ला है अब भी
और उ् ्ेहन में हर् याँही पहले की तरह
फश़ -ए-नौमीदी-ए-दीदार कबछा है अब भी
और कहीीं याद कक्ी कदल-जदा बच्े की तरह
हाथ िैलाए हुए बैठी है फररयाद-कुनााँ
गााँव की सड़क
ये दे ् मु फकल्-ओ-नादार कज-कुलाहोीं का
ये दे ् बे-जर-ओ-दीनार बादशाहोीं का
कक कज् की खाक में कुदरत है कीकमयाई की
ये नायबान-ए-खु दावींद-ए-अज़ का मस्कन
ये ने क पाक बुजुगों की रह का मदफन
जहााँ पे चााँ द क्तारोीं ने जुब्बा-्ाई की
न जाने ककतने जमानोीं ्े इ् का हर रस्ता
कम्ाल-ए-खाना-ए-बे-खानुमााँ था दरबस्ता
गीत
चलो किर ्े मुस्कुराएाँ
चलो किर ्े कदल जलाएाँ
जो गुजर गईीं हैं रातें
उन्हें किर जगा के लाएाँ
जो कब्र गईीं हैं बातें
उन्हें याद में बुलाएाँ
चलो किर ्े कदल लगाएाँ
चलो किर ्े मुस्कुराएाँ
कक्ी शह-नशी ीं पे झलकी
वो धनक कक्ी कबा की
कक्ी रग में क्म्ाई
वो क्क कक्ी अदा की
कोई हफ़-ए-बे-मु रव्वत
कक्ी कुींज-ए-लब ्े िटा
वो छनक के शीशा-ए-कदल
तह-ए-बाम किर ्े टटा
ये कमलन की ना कमलन की
ये लगन की और जलन की
जो ्ही हैं वारदातें
जो गुजर गईीं हैं रातें
जो कब्र गई हैं बातें
कोई उन की धुन बनाएाँ
कोई उन का गीत गाएाँ
चलो किर ्े मुस्कुराएाँ
चलो किर ्े कदल जलाएाँ
हम लोग
कदल के ऐवााँ में कलए गुल-शु दा शम़् ओीं की कतार
नर-ए-खु शीद ्े ्हमे हुए उकताए हुए
हुस्न-ए-महबब के ्य्याल त्व्वु र की तरह
अपनी तारीकी को भें चे हुए कलपटाए हुए
गायत-ए-्द-ओ-कजयााँ ्रत-ए-आगाज-ओ-मआल
वही बे-्द-ए-तजस्सु् वही बेकार ्वाल
मु ज़्मकहल ्ाअत-ए-इमरोज की बे-रीं गी ्े
याद-ए-माजी ्े गमीीं दहशत-ए-फदा़ ्े कनढाल
कतश्ना अफ़कार जो तस्कीन नहीीं पाते हैं
्ोख़्ता अश्क जो आाँ खोीं में नहीीं आते हैं
इक कड़ा दद़ कक जो गीत में ढलता ही नहीीं
कदल के तारीक कशगाफोीं ्े कनकलता ही नहीीं
और उलझी हुई मौहम ्ी दरबााँ की तलाश
दश्त ओ कजीं दााँ की हव् चाक-ए-कगरे बााँ की तलाश
हम तो मजबर थे इस फिल से
हम तो मजबर थे इ् कदल ्े कक कज् में हर दम
गकद़ श-ए-खाँ ्े वो कोहराम बपा रहता है
जै ्े ररीं दान-ए-बला-नोश जो कमल बैठें बहम
मय-कदे में ्फर-ए-जाम बपा रहता है
्ोज-ए-खाकतर को कमला जब भी ्हारा कोई
दाग-ए-कहरमान कोई, दद़ -ए-तमन्ना कोई
मरहम-ए-या् ्े माइल-ब-कशफा होने लगा
जख़्म-ए-उम्मीद कोई किर ्े हरा होने लगा
हम तो मजबर थे इ् कदल ्े कक कज् की कजद पर
हम ने उ् रात के माथे पे ्हर की तहरीर
कज् के दामन में अाँधेरे के क्वा कुछ भी न था
हम ने इ् दश्त को ठहरा कलया कफरदौ्-ए-नजीर
कज् में जुज ्नअत-ए-खन-ए-्र-ए-पा कुछ भी न था
कदल को ताबीर कोई और गवारा ही न थी
कुल्फफत-ए-जीस्त तो मींजर थी हर तौर मगर
राहत-ए-मग़ कक्ी तौर गवारा ही न थी
हम तो मजबर-ए-वर्फा हैं
तुझ को ककतनोीं का लह चाकहए ऐ अज़ -ए-वतन
जो कतरे आररज-ए-बे-रीं ग को गुलनार करें
ककतनी आहोीं ्े कले जा कतरा ठीं डा होगा
ककतने आाँ ् कतरे ्हराओीं को गुलजार करें
हसीना-ए-ख़्याल से
मु झे दे दे
र्ीले होींट मा्माना पेशानी ह्ीीं आाँ खें
कक मैं इक बार किर रीं गीकनयोीं में गक़ हो जाऊाँ!
कमरी हस्ती को तेरी इक नजर आगोश में ले ले
हमे शा के कलए इ् दाम में महफज हो जाऊाँ
कजया-ए-हुस्न ्े जु ल्मात-ए-दु कनया में न किर आऊाँ
गुकजश्ता ह्रतोीं के दाग मेरे कदल ्े धुल जाएाँ
मैं आने वाले गम की कफक्र ्े आजाद हो जाऊाँ
कमरे माजी ओ मु स्तककबल ्रा्र महव हो जाएाँ
मु झे वो इक नजर इक जावेदानी ्ी नजर दे दे
हाट़ -अटै क
दद़ इतना था कक उ् रात कदल-ए-वहशी ने
हर रग-ए-जााँ ्े उलझना चाहा
हर बुन-ए-म ्े टपकना चाहा
और कहीीं दर कतरे ्हन में गोया
पत्ता पत्ता कमरे अफ़्सुदा़ लह में धुल कर
हुस्न-ए-महताब ्े आजु दा़ नजर आने लगा
मे रे वीराना-ए-तन में गोया
्ारे दु खते हुए रे शोीं की तनाबें खु ल कर
क्लक्ला-वार पता दे ने लगीीं
रुख़्सत-ए-काकफला-ए-शौक की तय्यारी का
और जब याद की बुझती हुई शम़् ओीं में नजर आया कहीीं
एक पल आकखरी लम्हा कतरी कदलदारी का
दद़ इतना था कक उ् ्े भी गुजरना चाहा
हम ने चाहा भी मगर कदल न ठहरना चाहा
हुस्न और मौत
जो िल ्ारे गुकलस्तााँ में ्ब ्े अच्छा हो
फरोग-ए-नर हो कज् ्े फजा-ए-रीं गीीं में
कखजााँ के जौर-ओ-क्तम को न कज् ने दे खा हो
बहार ने कज्े खन-ए-कजगर ्े पाला हो
वो एक िल ्माता है चश्म-ए-गुलचीीं में
इधर न िे खो
इधर न दे खो कक जो बहादु र
कलम के या तेग के धनी थे
जो अज़्म-ओ-कहम्मत के मुद्दई थे
अब उन के हाथोीं में क्द़् क-ए-ईमााँ की
आजमदा पुरानी तलवार मुड़ गई है
जो कज-कुलह ्ाकहब-ए-हशम थे
जो अहल-ए-दस्तार मोहतरम थे
हव् के पुर-पेच रास्तोीं में
कुलह कक्ी ने कगरौ रख दी
कक्ी ने दस्तार बेच दी है
उधर भी दे खो
जो अपने रुखशााँ लह के दीनार
मु फ़्त बाजार में लु टा कर
नजर ्े ओझल हुए
और अपनी लहद में इ् वक़्त तक गनी हैं ,
उधर भी दे खो
जो हफ़-ए-हक की ्लीब पर अपना तन ्जा कर
जहााँ ्े रुख़्सत हुए
और अहल-ए-जहााँ में इ् वक़्त तक नबी हैं
इनफतहा-ए-कार
कपींदार के खगर को
नाकाम भी दे खोगे
आगाज ्े वाककफ हो
अींजाम भी दे खोगे
रगीनी-ए-दु कनया ्े
माय् ्ा हो जाना
दु खता हुआ कदल ले कर
तींहाई में खो जाना
इीं फतसाब
आज के नाम
और
आज के गम के नाम
आज का गम कक है कजीं दगी के भरे गुलक्तााँ ्े खफा
जद़ पत्तोीं का बन
जद़ पत्तोीं का बन जो कमरा दे ् है
दद़ की अींजुमन जो कमरा दे ् है
क्लरकोीं की अफ़्सुदा़ जानोीं के नाम
ककम़ -खु दा़ कदलोीं और जबानोीं के नाम
पोस्ट-मै नोीं के नाम
तााँ गे वालोीं का नाम
रे ल-बानोीं के नाम
कार-खानोीं के भके कजयालोीं के नाम
बादशाह-ए-जहााँ वाली-ए-मा-क्वा, नाएब-उल-अल्लाह कफल-अज़
दहकााँ के नाम
कज् के ढोरोीं को जाकलम हाँ का ले गए
कज् की बेटी को डाक उठा ले गए
हाथ भर खे त ्े एक अींगुश्त पटवार ने काट ली है
द्री माकलये के बहाने ्े ्रकार ने काट ली है
कज् की पग जोर वालोीं के पााँ व-तले
धग़्ियााँ हो गई है
उन दु खी माओीं के नाम
रात में कजन के बच्े कबलकते हैं और
नीींद की मार खाए हुए बाजु ओीं में ्ाँभलते नहीीं
दु ख बताते नहीीं
कमन्नतोीं जाररयोीं ्े बहलते नहीीं
उन ह्ीनाओीं के नाम
कजन की आाँ खोीं के गुल
कचलमनोीं और दरीचोीं की बेलोीं पे बे-कार ग़्खल ग़्खल के
मु रझा गए हैं
उन कबयाहताओीं के नाम
कजन के बदन
बे मोहब्बत ररया-कार ्ेजोीं पे ्ज ्ज के उक्ता गए हैं
बेवाओीं के नाम
कटकड़योीं और गकलयोीं मोहल्लोीं के नाम
कजन की नापाक खाशाक ्े चााँ द रातोीं
को आ आ के करता है अक्सर वज
कजन के ्ायोीं में करती है आह-ओ-बुका
आाँ चलोीं की कहना
चकड़योीं की खनक
काकुलोीं की महक
आरज-मीं द ्ीनोीं की अपने प्ीने में जु ल्फने की ब
उन अ्ीरोीं के नाम
कजन के ्ीनोीं में फदा़ के शब-ताब गौहर
जे ल-खानोीं की शोरीदा रातोीं की ्र्र में
जल जल के अींजुम-नुमा होगए हैं
आने वाले कदनोीं के ्फीरोीं के नाम
वो जो खुश्ब-ए-गुल की तरह
अपने पैगाम पर खु द कफदा होगए हैं
इीं फतजार
गुजर रहे हैं शब ओ रोज तुम नहीीं आतीीं
ररयाज-ए-जीस्त है आजु रदा-ए-बहार अभी
कमरे खयाल की दु कनया है ्ोगवार अभी
जो ह्रतें कतरे गम की कफील हैं प्यारी
अभी तलक कमरी तन्हाइयोीं में बस्ती हैं
तवील रातें अभी तक तवील हैं प्यारी
उदा् आाँ खें कतरी दीद को तर्ती हैं
बहार-ए-हुस्न पे पाबींदी-ए-जफा कब तक
ये आजमाइश-ए-्ब्र-ए-गुरेज-पा कब तक
क्म तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हाँ मैं
गलत था दावा-ए-्ब्र-ओ-शकेब आ जाओ
करार-ए-खाकतर-ए-बेताब थक गया हाँ मैं
इकबाल
आया हमारे दे ् में इक खु श-नवा फकीर
आया और अपनी धुन में गजल-ख़्वााँ गुजर गया
्ुन्ान राहें खल्फक ्े आबाद हो गईीं
वीरान मय-कदोीं का न्ीबा ्ाँवर गया
थीीं चींद ही कनगाहें जो उ् तक पहुाँ च ्कीीं
पर उ् का गीत ्ब के कदलोीं में उतर गया
अब दर जा चुका है वो शाह-ए-गदा-नु मा
और किर ्े अपने दे ् की राहें उदा् हैं
चींद इक को याद है कोई उ् की अदा-ए-खा्
दो इक कनगाहें चींद अजीजोीं के पा् हैं
पर उ् का गीत ्ब के कदलोीं में मु कीम है
और उ् के लय ्े ्ैकड़ोीं लज़्ज़त-शना् हैं
इश्क़-आबाि की शाम
जब ्रज ने जाते जाते
इश्क़-आबाद के नीले उफुक ्े
अपने ्ुनहरी जाम में ढाली
्ुखी-ए-अव्वल शाम
और ये जाम
तुम्हारे ्ामने रख कर
तुम ्े ककया कलाम
कहा प्रणाम
उठो
और अपने तन की ्ेज ्े उठ कर
इक शीरीीं पैगाम
्ब्त करो उ् शाम
कनार-ए-जाम
कक्ी के नाम
शायद तुम ये मान गईीं
और तुम ने
अपने लब-ए-गुलफाम
ककए अींजाम
कक्ी के नाम
कनार-ए-जाम
या शायद
तुम अपने तन की ्ेज पे ्ज कर
थीीं याँ महव-ए-आराम
कक रस्ता तकते तकते
बुझ गई शम-ए-जाम
इश्क़-आबाद के नीले उफुक पर
गारत हो गई शाम
जरस-ए-गु ल की सिा
इ् हव् में कक पुकारे जर्-ए-गुल की ्दा
दश्त-ओ-्हरा में ्बा किरती है याँ आवारा
कज् तरह किरते हैं हम अहल-ए-जु नाँ आवारा
जश्न का फिन
जु नाँ की याद मनाओ कक जश्न का कदन है
्लीब-ओ-दार ्जाओ कक जश्न का कदन है
तरब की बज़्म है बदलो कदलोीं के पैराहन
कजगर के चाक क्लाओ कक जश्न का कदन है
कहााँ जाओगे
और कुछ दे र में लु ट जाएगा हर बाम पे चााँ द
अक्स खो जाएाँ गे आईने तर् जाएाँ गे
अश़ के दीदा-ए-नमनाक ्े बारी-बारी
्ब क्तारे ्र-ए-खाशाक बर् जाएाँ गे
आ् के मारे थके हारे शकबस्तानोीं में
अपनी तन्हाई ्मे टेगा, कबछाएगा कोई
बेवफाई की घड़ी, तक़-ए-मदारात का वक़्त
इ् घड़ी अपने क्वा याद न आएगा कोई
तक़-ए-दु कनया का ्मााँ खत्म-ए-मु लाकात का वक़्त
इ् घड़ी ऐ कदल-ए-आवारा कहााँ जाओगे
इ् घड़ी कोई क्ी का भी नहीीं रहने दो
कोई इ् वक़्त कमले गा ही नहीीं रहने दो
और कमले गा भी इ् तौर कक पछताओगे
इ् घड़ी ऐ कदल-ए-आवारा कहााँ जाओगे
ख़ुशीि-ए-महशर की लौ
आज के कदन न पछो कमरे दोस्तो
दर ककतने हैं खु कशयााँ मनाने के कदन
खु ल के हाँ ्ने के कदन गीत गाने के कदन
प्यार करने के कदन कदल लगाने के कदन
ख़ुशा जमानत-ए-़िम
दयार-ए-यार कतरी जोकशश-ए-जु नाँ पे ्लाम
कमरे वतन कतरे दामान-ए-तार-तार की खै र
रह-ए-यकीीं कतरी अफशान-ए-खाक-ओ-खाँ पे ्लाम
कमरे चमन कतरे जख़्मोीं के लाला-जार की खै र
हर एक खाना-ए-वीरााँ की तीरगी पे ्लाम
हर एक खाक-ब्र, खानुमााँ -खराब की खैर
हर एक कुश्ता-ए-ना-हक की खामु शी पे ्लाम
हर एक दीदा-ए-पुर-नम की आब-ओ-ताब की खै र
रवााँ रहे ये ररवायत, खु शा जमानत-ए-गम
नशात-ए-खत्म-ए-गम-ए-काएनात ्े पहले
हर इक के ्ाथ रहे दौलत-ए-अमानत-ए-गम
कोई नजात न पाए नजात ्े पहले
्काँ कमले न कभी तेरे पा-कफगारोीं को
जमाल-ए-खन-ए-्र-ए-खार को नजर न लगे
अमााँ कमले न कहीीं तेरे जााँ -कन्ारोीं को
जलाल-ए-फक़-ए-्र-ए-दार को नजर न लगे
कुत्ते
ये गकलयोीं के आवारा बे-कार कुत्ते
कक बख़्ा गया कजन को जौक-ए-गदाई
जमाने की िटकार ्रमाया इन का
जहााँ भर की धुत्कार इन की कमाई
क्या करें
कमरी कतरी कनगाह में
जो लाख इीं कतजार हैं
जो मे रे तेरे तन-बदन में
लाख कदल-कफगार हैं
जो मे री तेरी उाँ गकलयोीं की बे-कह्ी ्े
्ब कलम नजार हैं
जो मे रे तेरे शहर की
हर इक गली में
मे रे तेरे नक़श-ए-पा के बे-कनशााँ मजार हैं
जो मे री तेरी रात के
क्तारे जख़्म जख़्म हैं
जो मे री तेरी ्ुब्ह के
गुलाब चाक चाक हैं
ये जख़्म ्ारे बे-दवा
ये चाक ्ारे बे-रफ
कक्ी पे राख चााँ द की
कक्ी पे ओ् का लह
ये है भी या नहीीं, बता
ये है , कक महज जाल है
कमरे तुम्हारे अींकबत-ए-वहम का बुना हुआ
जो है तो इ् का क्या करें
नहीीं है तो भी क्या करें
बता, बता,
बता, बता
लहू का सुरा़ि
कहीीं नहीीं है कहीीं भी नहीीं लह का ्ुराग
न दस्त-ओ-नाखुन-ए-काकतल न आस्तीीं पे कनशााँ
न ्ुखी-ए-लब-ए-खींजर न रीं ग-ए-नोक-ए-क्नााँ
न खाक पर कोई धब्बा न बाम पर कोई दाग
कहीीं नहीीं है कहीीं भी नहीीं लह का ्ुराग
न ्फ़-ए-कखदमत-ए-शाहााँ कक खाँ -बहा दे ते
न दीीं की नज़्र कक बैआना-ए-जजा दे ते
न रज़्म-गाह में बर्ा कक मो'तबर होता
कक्ी अलम पे रकम हो के मु श्तहर होता
पुकारता रहा बे-आ्रा यतीम लह
कक्ी को बहर-ए-्माअत न वक़्त था न कदमाग
न मु द्दई न शहादत कह्ाब पाक हुआ
ये खन-ए-खाक-नशीनााँ था ररज़्क-ए-खाक हुआ
लौह-ओ-कलम
हम परवररश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहें गे
जो कदल पे गुजरती है रकम करते रहें गे
लेफनन-ग्राड का गोररस्तान
्द़ क्लोीं पर
जद़ क्लोीं पर
ताजा गम़ लह की ्रत
गुलदस्तोीं के छीटीं े हैं
कतबे ्ब बे-नाम हैं ले ककन
हर इक िल पे नाम कलखा है
गाकफल ्ोने वाले का
याद में रोने वाले का
अपने फज़ ्े फाररग हो कर
अपने लह की तान के चादर
्ारे बेटे ख़्वाब में हैं
अपने गमोीं का हार कपरो कर
अम्मााँ अकेली जाग रही है
मिह [Husain Shaheed Sohraburthi had advocated the case of Rawalpindi \ "conspiracy" case.
They were presented this supplement on the end of the trial.]
(1)
क् तरह बयााँ हो कतरा पैराया-ए-तकरीर
गोया ्र-ए-बाकतल पे चमकने लगी शमशीर
वो जोर है इक लफ़्ज़ इधर नु त्फक ्े कनकला
वााँ ्ीना-ए-अग़्यार में पैवस्त हुए तीर
गमी भी है ठीं डक भी रवानी भी ्काँ भी
ता्ीर का क्या ककहए है ता्ीर ही ता्ीर
एजाज उ्ी का है कक अबा़ ब-ए-क्तम की
अब तक कोई अींजाम को पहुाँ ची नहीीं तदबीर
अतराफ-ए-वतन में हुआ हक बात का शोहरा
हर एक जगह मक्र-ओ-ररया की हुई तश्हीर
रौशन हुए उम्मीद ्े रुख अहल-ए-वफा के
पेशानी-ए-आदा पे क्याही हुई तहरीर
(2)
हुरऱ यत-ए-आदम की रह-ए-्ख़्त के रह-गीर
खाकतर में नहीीं लाते खयाल-ए-दम-ए-ताजीर
कुछ नीं ग नहीीं रीं ज-ए-अ्ीरी कक पुराना
मदा़ न-ए-्फा-केश ्े है ररशता-ए-जीं जीर
कब दबदबा-ए-जब्र ्े दबते हैं कक कजन के
ईमान ओ यकीीं कदल में ककए रहते हैं तनवीर
मालम है उन को कक ररहा होगी क्ी कदन
जाकलम के कगरााँ हाथ ्े मजलम की तकदीर
आकखर को ्र-अफराज हुआ करते हैं अहरार
आकखर को कगरा करती है हर जौर की तामीर
हर दौर में ्र होते हैं कस्र-ए-जम-ओ-दारा
हर अहद में दीवार-ए-क्तम होती है तस्फखीर
हर दौर में मलऊन शकावत है 'कशमर' की
हर अहद में म्ऊद है कुबा़ नी-ए-शब्बीर
(3)
करता है कलम अपने लब ओ नु त्फक की ततहीर
पहुाँ ची है ्र-ए-हरफ-ए-दु आ अब कमरी तहरीर
हर काम में बरकत हो हर इक कौल में कुव्वत
हर गाम पे हो मीं कजल-ए-मक़्द कदम-गीर
हर लहजा कतरा ताले -ए-इकबाल क्वा हो
हर लहजा मदद-गार हो तदबीर की तकदीर
हर बात हो मक़्बल, हर इक बोल हो बाला
कुछ और भी रौनक में बढे शोल-ए-तकरीर
हर कदन हो कतरा लुत्फफ-ए-जबााँ और कजयादा
अल्लाह करे जोर-ए-बयााँ और कजयादा
मींजर
आ्मााँ आज इक बहर-ए-पुर-शोर है
कज् में हर-् रवााँ बादलोीं के जहाज
उन के अश़े पे ककरनोीं के मस्तल हैं
बादबानोीं की पहने हुए फग़लें
नील में गुम्बदोीं के जजीरे कई
एक बाजी में म्रफ है हर कोई
वो अबाबील कोई नहाती हुई
कोई चील गोते में जाती हुई
कोई ताकत नहीीं इ् में जोर-आजमा
कोई बेड़ा नहीीं है कक्ी मुल्क का
इ् की तह में कोई आबदोजें नहीीं
कोई रॉकेट नहीीं कोई तोपें नहीीं
याँ तो ्ारे अनाक्र हैं यााँ जोर में
अम्न ककतना है इ् बहर-ए-पुर-शोर में
मींजर
रह-गुजर, ्ाए, शजर, मीं कजल-ओ-दर, हल्का-ए-बाम
बाम पर ्ीना-ए-महताब खु ला, आकहस्ता
कज् तरह खोले कोई बींद-ए-कबा, आकहस्ता
हल्का-ए-बाम तले , ्ायोीं का ठहरा हुआ नील
नील की झील
झील में चुपके ्े तैरा, कक्ी पत्ते का हबाब
एक पल तैरा, चला, िट गया, आकहस्ता
बहुत आकहस्ता, बहुत हल्का, खु नुक-रीं ग शराब
मे रे शीशे में ढला, आकहस्ता
शीशा-ओ-जाम, ्ुराही, कतरे हाथोीं के गुलाब
कज् तरह दर कक्ी ख़्वाब का नक़श
आप ही आप बना और कमटा आकहस्ता
मग़ -ए-सोज-ए-मोहब्बत
आओ कक मग़-ए-्ोज-ए-मोहब्बत मनाएाँ हम
आओ कक हुस्न-ए-माह ्े कदल को जलाएाँ हम
खु श हाँ कफराक-ए-कामत-ओ-रुख़्सार-ए-यार ्े
्व़-ओ-गुल-ओ-्मन ्े नजर को ्ताएाँ हम
वीरानी-ए-हयात को वीरान-तर करें
ले ना्ेह आज तेरा कहा मान जाएाँ हम
किर ओट ले के दामन-ए-अब्र-ए-बहार की
कदल को मनाएाँ हम कभी आाँ ् बहाएाँ हम
्ुलझाएाँ बे-कदली ्े ये उलझे हुए ्वाल
वााँ जाएाँ या न जाएाँ न जाएाँ कक जाएाँ हम
किर कदल को पा्-ए-जब्त की तल्फकीन कर चुकें
और इग़्म्तहान-ए-जब्त ्े किर जी चुराईीं हम
आओ कक आज खत्म हुई दास्तान-ए-इश्क़
अब खत्म-ए-आकशकी के फ्ाने ्ुनाएाँ हम
मरफसए
1
दर जा कर करीब हो कजतने
हम ्े कब तुम करीब थे इतने
अब न आओगे तुम न जाओगे
वस्ल-ए-कहज्रााँ बहम हुए ककतने
2
चााँ द कनकले कक्ी जाकनब कतरी जे बाई का
रीं ग बदले कक्ी ्रत शब-ए-तन्हाई का
दौलत-ए-लब ्े किर ऐ खु ्रव-ए-शीरीीं-दहनााँ
आज अजाां हो कोई हफ़ शना्ाई का
गमी-ए-रश्क ्े हर अींजुमन-ए-गुल-बदनााँ
तग़्ज़्करा छे ड़े कतरी पैरहन-आराई का
्ेहन-ए-गुलशन में कभी ऐ शह-ए-शमशाद-कदााँ
किर नजर आए ्लीका कतरी रानाई का
एक बार और म्ीहा-ए-कदल-ए-कदल-जदगााँ
कोई वा'दा कोई इकरार म्ीहाई का
्ाज-ओ-्ामान बहम पहुाँचा है रुस्वाई का
3
कब तक कदल की खै र मनाएाँ कब तक रह कदखलाओगे
कब तक चैन की मोहलत दोगे कब तक याद न आओगे
बीता दीद उम्मीद का मौ्म खाक उड़ती है आाँ खोीं में
कब भे जोगे दद़ का बादल कब बरखा बर्ाओगे
अहद-ए-वफा या तक़-ए-मोहब्बत जो चाहो ्ो आप करो
अपने ब् की बात ही क्या है हम ्े क्या मनवाओगे
कक् ने वस्ल का ्रज दे खा कक् पर कहज्र की रात ढली
गे्ुओीं वाले कौन थे क्या थे उन को क्या जतलाओगे
'फैज' कदलोीं के भाग में है घर भरना भी लु ट जाना भी
तुम इ् हुस्न के लु त्फफ-ओ-करम पर ककतने कदन इतराओगे
मौज-ए-सुख़न
गुल हुई जाती है अफ़्सुदा़ ्ुलगती हुई शाम
धुल के कनकले गी अभी चश्मा-ए-महताब ्े रात
और मु श्ताक कनगाहोीं की ्ुनी जाएगी
और उन हाथोीं ्े म् होींगे ये तर्े हुए हात
उन का आाँ चल है कक रुख़्सार कक पैराहन है
कुछ तो है कज् ्े हुई जाती है कचलमन रीं गीीं
जाने उ् जु ल्फफ की मौहम घनी छााँ व में
कटमकटमाता है वो आवेजा अभी तक कक नहीीं
आज किर हुस्न-ए-कदल-आरा की वही धज होगी
वही ख़्वाबीदा ्ी आाँ खें वही काजल की लकीर
रीं ग-ए-रुख़्सार पे हल्का ्ा वो गाजे का गुबार
्ींदली हाथ पे धुींदली ्ी कहना की तहरीर
अपने अफ़कार की अशआर की दु कनया है यही
जान-ए-मजमाँ है यही शाकहद-ए-मअ'नी है यही
आज तक ्ुख़ ओ क्यह ्कदयोीं के ्ाए के तले
आदम ओ हव्वा की औलाद पे क्या गुजरी है ?
मौत और जीस्त की रोजाना ्फ-आराई में
हम पे क्या गुजरे गी अज्दाद पे क्या गुजरी है ?
इन दमकते हुए शहरोीं की फरावााँ मख़्लक
क्याँ फकत मरने की ह्रत में कजया करती है
ये ह्ीीं खे त िटा पड़ता है जौबन कजन का!
कक् कलए इन में फकत भक उगा करती है
ये हर इक ्म्त पुर-अ्रार कड़ी दीवारें
जल-बुझे कजन में हजारोीं की जवानी के चराग
ये हर इक गाम पे उन ख़्वाबोीं की मक़्तल-गाहें
कजन के परतव ्े चरागााँ हैं हजारोीं के कदमाग
ये भी हैं ऐ्े कई और भी मजमाँ होींगे
ले ककन उ् शोख के आकहस्ता ्े खु लते हुए होींट
हाए उ् कजस्म के कम्बख़्त कदल-आवेज खु तत
आप ही ककहए कहीीं ऐ्े भी अफ़्साँ होींगे
मेरे निीम!
खयाल ओ शेर की दु कनया में जान थी कजन ्े
फजा-ए-कफक्र-ओ-अमल अग़वान थी कजन ्े
वो कजन के नर ्े शादाब थे मह-ओ-अींजुम
जु नन-ए-इश्क़ की कहम्मत जवान थी कजन ्े
वो आरजु एाँ कहााँ ्ो गई हैं मे रे नदीम?
वो ना-्ुबर कनगाहें , वो मुीं तकजर राहें
वो पा्-ए-जब्त ्े कदल में दबी हुई आहें
वो इीं कतजार की रातें, तवील तीरा-ओ-तार
वो नीम-ख़्वाब, शकबस्तााँ वो मखमलीीं बाहें
कहाकनयााँ थीीं कहीीं खो गई हैं मे रे नदीम
मचल रहा है रग-ए-कजीं दगी में खन-ए-बहार
उलझ रहे हैं पुराने गमोीं ्े रह के तार
चलो कक चल के चरागााँ करें दयार-ए-हबीब
हैं इीं कतजार में अगली मोहब्बतोीं के मजार
मोहब्बतें जो फना हो गई हैं मे रे नदीम!
इ् ्रत ्े
अज़ ्ुनाते
दद़ बताते
नय्या खे ते
कमन्नत करते
रस्ता तकते
ककतनी ्कदयााँ बीत गई हैं
अब जा कर ये भे द खु ला है
कज् को तुम ने अज़ गुजारी
जो था हाथ पकड़ने वाला
कज् जा लागी नाव तुम्हारी
कज् ्े दु ख का दार मााँ गा
तोरे मीं कदर में जो नहीीं आया
वो तो तुम्हीीं थे
वो तो तुम्हीीं थे
मुलाकात
ये रात उ् दद़ का शजर है
जो मु झ ्े तुझ ्े अजीम-तर है
अजीम-तर है कक इ् की शाखोीं
में लाख कमशअल-ब-कफ क्तारोीं
के कारवााँ घर के खो गए हैं
हजार महताब इ् के ्ाए
में अपना ्ब नर रो गए हैं
मुलाकात फमरी
1
्ारी दीवार क्यह हो गई ता-हलका-ए-दाम
रास्ते बुझ गए रुख़्सत हुए रहगीर तमाम
अपनी तींहाई ्े गोया हुई किर रात कमरी
हो न हो आज किर आई है मु लाकात कमरी
इक हथे ली पे कहना एक हथे ली पे लह
इक नजर जहर कलए एक नजर में दार
दे र ्े मीं कजल-ए-कदल में कोई आया न गया
िुक़त-ए-दद़ में बे-आब हुआ तख़्ता-ए-दाग
कक् ्े ककहए कक भरे रीं ग ्े जख़्मोीं के अयाग
और किर खु द ही चली आई मु लाकात कमरी
आश्ना मौत जो दु श्मन भी है गम-ख़्वार भी है
वो जो हम लोगोीं की काकतल भी है कदलदार भी है
नौहा
मु झ को कशकवा है कमरे भाई कक तुम जाते हुए
ले गए ्ाथ कमरी उम्र-ए-गुकजश्ता की ककताब
इ् में तो मे री बहुत कीमती तस्वीरें थीीं
इ् में बचपन था कमरा और कमरा अहद-ए-शबाब
इ् के बदले मु झे तुम दे गए जाते जाते
अपने गम का ये दमकता हुआ खाँ -रीं ग गुलाब
क्या कराँ भाई ये एजाज में क्याँ-कर पहनाँ
मु झ ्े ले लो कमरी ्ब चाक कमी्ोीं का कह्ाब
आकखरी बार है लो मान लो इक ये भी ्वाल
आज तक तुम ्े मैं लौटा नहीीं माय्-ए-जवाब
आ के ले जाओ तुम अपना ये दमकता हुआ िल
मु झ को लौटा दो कमरी उम्र-ए-गुकजश्ता की ककताब
नज़्म
्ुनो कक शायद ये नर-ए-्ैकल
है उ् ्हीफे का हफ़-ए-अव्वल
जो हर क्-ओ-नाक्-ए-जमी ीं पर
कदल-ए-गदायान-ए-अजमईीं पर
उतर रहा है फलक ्े अब के
्ुनो कक इ् हफ़-ए-लम-यजल के
हमीीं तुम्हीीं बींदगान-ए-बे-ब्
अलीम भी हैं खबीर भी हैं
्ुनो कक हम बे-जबान-ओ-बेक्
बशीर भी हैं नजीर भी हैं
हर इक ऊलु ल-अम्र को ्दा दो
कक अपनी फद़ -ए-अमल ्ाँभाले
उठे गा जब कजस्म-ए-्रफरोशााँ
पड़ें गे दार-ओ-र्न के लाले
कोई न होगा कक जो बचा ले
जजा ्जा ्ब यहीीं पे होगी
यहीीं अजाब-ओ-्वाब होगा
यहीीं पे रोज-ए-कह्ाब होगा
नज़्म
तीरगी जाल है और भाला है नर
इक कशकारी है कदन इक कशकारी है रात
जग ्मुीं दर है कज् में ककनारे ्े दर
मछकलयोीं की तरह इब्न-ए-आदम की जात
जग ्मुीं दर है ्ाकहल पे हैं माही-गीर
जाल थामे कोई कोई भाला कलए
मे री बारी कब आएगी क्या जाकनए
कदन के भाले ्े मु झ को करें गे कशकार
रात के जाल में या करें गे अ्ीर?
नज़्म
तह-ब-तह कदल की कुदरत
मे री आाँ खोीं में उमाँड आई तो कुछ चारा न था
चारा-गर की मान ली
और मैं ने गद़ -आलद आाँ खोीं को लह ्े धो कलया
मैं ने गद़ -आलद आाँ खोीं को लह ्े धो कलया
और अब हर शक्ल-ओ-्रत
आलम-ए-मौजद की हर एक शय
मे री आाँ खोीं के लह ्े इ् तरह हम-रीं ग है
खु शीद का कुींदन लह
महताब की चााँ दी लह
्ुब्होीं का हाँ ्ना भी लह
रातोीं का रोना भी लह
हर शजर मीनार-ए-खाँ हर िल खनीीं-दीदा है
हर नजर इक तार-ए-खाँ हर अक्स खाँ -बालीदा है
मौज-ए-खाँ जब तक रवााँ रहती है उ् का ्ुख़ रीं ग
जज़्बा-ए-शौक-ए-शहादत दद़ , गैज ओ गम का रीं ग
और थम जाए तो कजला कर
फकत नफरत का शब मौत का
हर इक रीं ग के मातम का रीं ग
चारा-गर ऐ्ा न होने दे
कहीीं ्े ला कोई ्ैलाब-ए-अश्क
आब-ए-वुज
कज् में धुल जाएाँ तो शायद धुल ्के
मे री आाँ खोीं मे री गद़ -आलद आाँ खोीं का लह
नज़्र-ए-मौलाना हसरत-मुहानी
मर जाएाँ गे जाकलम की कहमायत न करें गे
अहरार कभी तक़-ए-ररवायत न करें गे
नु सख़ा-ए-उल्फर्फत मेरा
गर कक्ी तौर हर इक उल्फफत-ए-जानााँ का खयाल
शे र में ढल के ्ना-ए-रुख-ए-जानााँ न बने
किर तो याँ हो कक कमरे शेर-ओ-्ुखन का दफ़्तर
तल में तल-ए-शब-ए-कहज्र का अफ़्साना बने
है बहुत कतश्ना मगर नु स्फखा-ए-उल्फफत मे रा
इ् ्बब ्े कक हर इक लम्हा-ए-फु़्त मे रा
कदल ये कहता है कक हो कुब़त-ए-जानााँ में ब्र
पै ररस
कदन ढला कचा ओ बाजार में ्फ-बस्ता हुईीं
जद़ -र रौशकनयााँ
उन में हर एक के कश्कोल ्े बर्ें ररम-कझम
इ् भरे शहर की ना्दकगयााँ
दर प्-मीं जर-ए-अफ़लाक में धुाँदलाने लगे
अज़्मत-ए-रफ़्ता के कनशााँ
पेश-ए-मीं जर में
कक्ी ्ाया-ए-दीवार ्े कलपटा हुआ ्ाया कोई
द्रे ्ाए की मौहम ्ी उम्मीद कलए
रोज-मरा़ की तरह
जे र-ए-लब
शरह-ए-बेददी-ए-अय्याम की तम्हीद कलए
और कोई अजनबी
इन रौशकनयोीं ्ायोीं ्े कतराता हुआ
अपने बे-ख़्वाब शकबस्तााँ की तरफ जाता हुआ
िल मुरझा गए सारे
िल मु रझा गए हैं ्ारे
थमते नहीीं हैं आ्मााँ के आाँ ्
शमएाँ बे-नर हो गई हैं
आईने चर हो गए हैं
्ाज ्ब बज के खो गए हैं
पायलें बज के ्ो गई हैं
और इन बादलोीं के पीछे
दर इ् रात का दु लारा
दद़ का क्तारा
कटमकटमा रहा है
झनझना रहा है
मु स्कुरा रहा है
कैि-ए-तन्हाई
दर आफाक पे लहराई कोई नर की लहर
ख़्वाब ही ख़्वाब में बेदार हुआ दद़ का शहर
ख़्वाब ही ख़्वाब में बेताब नजर होने लगी
अदम-आबाद-ए-जु दाई में ्हर होने लगी
का्ा-ए-कदल में भरी अपनी ्ुबही मैं ने
घोल कर तलखी-ए-दीरोज में इमरोज का जहर
दर आफाक पे लहराई कोई नर की लहर
आाँ ख ्े दर कक्ी ्ुब्ह की तम्हीद कलए
कोई नग़्मा, कोई खु शब, कोई काकफर ्रत
बे-खबर गुजरी, परे शानी-ए-उम्मीद कलए
घोल कर तलखी-ए-दीरोज में इमरोज का जहर
ह्रत-ए-रोज-ए-मु लाकात रकम की मैं ने
दे ् परदे ् के यारान-ए-कदह-ख़्वार के नाम
हुस्न-ए-आफाक, जमाल-ए-लब-ओ-रुख़्सार के नाम
रकीब से!
आ कक वाबस्ता हैं उ् हुस्न की यादें तुझ ्े
कज् ने इ् कदल को परी-खाना बना रक्खा था
कज् की उल्फफत में भु ला रक्खी थी दु कनया हम ने
दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था
साल-फगरह
शाएर का जशन-ए-्ालकगरह है शराब ला
मीं ्ब कखताब रुत्फबा उन्हें क्या नहीीं कमला
ब् नक़् है तो इतना कक मम्दह ने कोई
कमस्रा कक्ी ककताब के शायााँ नहीीं कलखा
सर्फर नामा
1
पेककींग
याँ गुमााँ होता है बाज हैं कमरे ्ाथ करोड़
और आफाक की हद तक कमरे तन की हद है
कदल कमरा कोह ओ दमन दश्त ओ चमन की हद है
मे रे की्े में है रातोीं का क्यह-फाम जलाल
मे रे हाथोीं में है ्ुब्होीं की एनान-ए-गुलगाँ
मे री आगोश में पलती है खु दाई ्ारी
मे रे मक़दर में है मोकजजा-ए-कुन-फयकीं
2
क्ींककयाीं ग
अब कोई तब्ल बजे गा न कोई शाह-्वार
्ुब्ह-दम मौत की वादी को रवाना होगा!
अब कोई जीं ग न होगी न कभी रात गए
खन की आग को अश्कोीं ्े बुझाना होगा
'सज्जाि-जहीर' के नाम
न अब हम ्ाथ ्ैर-ए-गुल करें गे
न अब कमल कर ्र-ए-मक़्तल चलें गे
हदी्-ए-कदल-बरााँ बाहम करें गे
न खन-ए-कदल ्े शरह-ए-गम करें गे
न लै ला-ए-्ुखन की दोस्त-दारी
न गम-हा-ए-वतन पर अश्क-बारी
्ुनेंगे नग़्मा-ए-जींजीर कमल कर
न शब भर कमल के छलकाएाँ गे ्ागर
ब-नाम-ए-शाकहद-ए-नाजुक-खयालााँ
ब-याद-ए-मस्ती-ए-चश्म-ए-गजालााँ
ब-नाम-ए-इग़्म्ब्ात-ए-बज़्म-ए-ररीं दााँ
ब-याद-ए-कुल्फफत-ए-अय्याम-ए-कजीं दााँ
्बा और उ् का अींदाज-ए-तकल्लु म
्हर और उ् का आगाज-ए-तबस्सुम
फजा में एक हाला ्ा जहााँ है
यही तो म्नद-ए-पीर-ए-मु गााँ है
्हर-गह अब उ्ी के नाम ्ाकी
करें इत्माम-ए-दौर जाम ्ाकी
कब्ात-ए-बादा-ओ-मीना उठा लो
बढा दो शम-ए-महकफल बज़्म वालो
कपयो अब एक जाम-ए-अल-कवदाई
कपयो और पी के ्ागर तोड़ डालो
सर-ए-वािी-ए-सीना
किर बक़ फरोजााँ है ्र-ए-वादी-ए-्ीना
किर रीं ग पे है शोला-ए-रुख़्सार-ए-हकीकत
पैगाम-ए-अजल दावत-ए-दीदार-ए-हकीकत
ऐ दीदा-ए-बीना
अब वक़्त है दीदार का दम है कक नहीीं है
अब काकतल-ए-जााँ चारा-गर-ए-कुल्फफत-ए-गम है
गुलजार-ए-इरम परतव-ए-्हरा-ए-अदम है
कपींदार-ए-जु नाँ
हौ्ला-ए-राह-ए-अदम है कक नहीीं है
किर बक़ फरोजााँ है ्र-ए-वादी-ए-्ीना, ऐ दीदा-ए-बीना
किर कदल को मु ्फ़्फा करो, इ् लौह पे शायद
माबैन-ए-मन-ओ-त नया पैमााँ कोई उतरे
अब रस्म-ए-क्तम कहकमत-ए-खा्ान-ए-जमीीं है
ताईद-ए-क्तम मस्लहत-ए-मु फ़्ती-ए-दीीं है
अब ्कदयोीं के इकरार-ए-इताअत को बदलने
लाकजम है कक इीं कार का फरमााँ कोई उतरे
शाएर लोग
हर इक दौर में हर जमाने में हम
जहर पीते रहे , गीत गाते रहे
जान दे ते रहे कजीं दगी के कलए
्ाअत-ए-वस्ल की ्रखु शी के कलए
दीन ओ दु कनया की दौलत लु टाते रहे
फक्र-ओ-फाका का तोशा ्ाँभाले हुए
जो भी रस्ता चुना उ् पे चलते रहे
माल वाले हकारत ्े तकते रहे
तअन करते रहे हाथ मलते रहे
हम ने उन पर ककया हफ़-ए-हक ्ींग-जन
कजन की है बत ्े दु कनया लरजती रही
कजन पे आाँ ् बहाने को कोई न था
अपनी आाँ ख उन के गम में बर्ती रही
्ब ्े ओझल हुए हुक्म-ए-हाककम पे हम
कैद-खाने ्हे , ताकजयाने ्हे
लोग ्ुनते रहे ्ाज-ए-कदल की ्दा
अपने नग़्मे ्लाखोीं ्े छन्ते रहे
खाँ -चकााँ दहर का खाँ -चकााँ आईना
दु ख-भरी खल्फक का दु ख-भरा कदल हैं हम
तब़्अ-ए-शाएर है जीं गाह-ए-अद़् ल-ओ-क्तम
मुीं क्फ-ए-खै र-ओ-शर हक़्क-ओ-बाकतल हैं हम
शाह-राह
एक अफ़्सुदा़ शाह-राह है दराज
दर उफुक पर नजर जमाए हुए
्द़ कमट्टी पे अपने ्ीने के
्ुम़गीीं हुस्न को कबछाए हुए
शाम
इ् तरह है कक हर इक पेड़ कोई मीं कदर है
कोई उजड़ा हुआ, बे-नर पुराना मीं कदर
ढाँ ढता है जो खराबी के बहाने कब ्े
चाक-ए-हर-बाम हर इक दर का दम-ए-आकखर है
आ्मााँ कोई पुरोकहत है जो हर बाम-तले
कजस्म पर राख मले माथे पे क्न्दर मले
्र-कनगाँ बैठा है चुप-चाप न जाने कब ्े
इ् तरह है कक प्-ए-पदा़ कोई ्ाकहर है
कज् ने आफाक पे िैलाया है याँ ्ेहर का दाम
दामन-ए-वक़्त ्े पैवस्त है याँ दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अाँधेरा होगा
अब कभी रात ढले गी न ्वेरा होगा
शहर-ए-यारााँ
आ्मााँ की गोद में दम तोड़ता है कतफ़ल-ए-अब्र
जम रहा है अब्र के होींटोीं पे खाँ -आलद कफ
बुझते बुझते बुझ गई है अश़ के हुजरोीं में आग
धीरे धीरे कबछ रही है मातमी तारोीं की ्फ
ऐ ्बा शायद कतरे हम-राह ये खाँ -नाक शाम
्र झुकाए जा रही है शहर-ए-यारााँ की तरफ
शहर-ए-यारााँ कज् में इ् दम ढाँ ढती किरती है मौत
शे र-कदल बाीं कोीं में अपने तीर-ओ-नश्तर के हदफ
इक तरफ बजती हैं जोश-ए-जीस्त की शहनाइयााँ
इक तरफ कचींघाड़ते हैं अहरमन के तब्ल-ओ-दफ
जा के कहना ऐ ्बा ब'अद-अज-्लाम-ए-दोस्ती
आज शब कज् दम गुजर हो शहर-ए-यारााँ की तरफ
दश्त-ए-शब में इ् घड़ी चुप-चाप है शायद रवााँ
्ाकी-ए-्ुब्ह-ए-तरब नग़्मा-ब-लब ्ागर-ब-कफ
वो पहुाँ च जाए तो होगी किर ्े बरपा अींजुमन
और तरतीब-ए-मकाम-ओ-मीं ्ब-ओ-जाह-ओ-शरफ
नादारी दफ़्तर भक और गम
उन ्पनोीं ्े टकराते रहे
बे-रहम था चौमु ख पथराओ
ये कााँ च के ढााँ चे क्या करते
कब लट-झपट ्े हस्ती की
दकानें खाली होती हैं
यााँ परबत-परबत हीरे हैं
यााँ ्ागर ्ागर मोती हैं
शोर-ए-बरबत-ओ-नय
पहली आवाज
अब ्ई का इमकााँ और नहीीं पवा़ ज का मजमाँ हो भी चुका
तारोीं पे कमीं दें िेंक चुके महताब पे शब-खाँ हो भी चुका
अब और कक्ी फदा़ के कलए उन आाँ खोीं ्े क्या पैमााँ कीजे
कक् ख़्वाब के झटे अफ़्साँ ्े तस्कीन-ए-कदल-ए-नादााँ कीजे
शीरीनी-ए-लब खु शब-ए-दहन अब शौक का उनवााँ कोई नहीीं
शादाबी-ए-कदल तफरीह-ए-नजर अब जीस्त का दरमााँ कोई नहीीं
जीने के फ्ाने रहने दो अब इन में उलझ कर क्या लें गे
इक मौत का धींदा बाकी है जब चाहें गे कनप्टा लें गे
ये तेरा कफन वो मे रा कफन ये मे री लहद वो तेरी है
द्री आवाज
हस्ती की मता-ए-बे-पायााँ जागीर कतरी है न मे री है
इ् बज़्म में अपनी कमशअल-ए-कदल कबग़्स्मल है तो क्या रख़्ााँ है तो क्या
ये बज़्म चरागााँ रहती है इक ताक अगर वीरााँ है तो क्या
अफ़्सुदा़ हैं गर अय्याम कतरे बदला नहीीं मस्लक-ए-शाम-ओ-्हर
ठहरे नहीीं मौ्म-ए-गुल के कदम काएम है जमाल-ए-शम्स-ओ-कमर
आबाद है वादी-ए-काकुल-ओ-लब शादाब-ओ-ह्ीीं गुलगश्त-ए-नजर
मक़्म है लज़्ज़त-ए-दद़ -ए-कजगर मौजद है नेमत-ए-दीदा-ए-तर
इ् दीदा-ए-तर का शु क्र करो इ् जौक-ए-नजर का शु क्र करो
इ् शाम ओ ्हर का शुक्र करो इन शम्स ओ कमर का शु क्र करो
पहली आवाज
गर है यही मस्लक-ए-शम्स-ओ-कमर इन शम्स-ओ-कमर का क्या होगा
रानाई-ए-शब का क्या होगा अींदाज-ए-्हर का क्या होगा
जब खन-ए-कजगर बफा़ ब बना जब आाँ खें आहन-पोश हुईीं
इ् दीदा-ए-तर का क्या होगा इ् जौक-ए-नजर का क्या होगा
जब शे र के खे मे राख हुए नग़्मोीं की तनाबें टट गईीं
ये ्ाज कहााँ ्र िोड़ें गे इ् ग़्क्लक-ए-गुहर का क्या होगा
जब कुींज-ए-कफ् मस्कन ठहरा और जै ब-ओ-गरे बााँ तौक-ओ-र्न
आए कक न आए मौ्म-ए-गुल इ् दद़ -ए-कजगर का क्या होगा
द्री आवाज
ये हाथ ्लामत हैं जब तक इ् खाँ में हरारत है जब तक
इ् कदल में ्दाकत है जब तक इ् नु त्फक में ताकत है जब तक
इन तौक-ओ-्लाक्ल को हम तुम क्खलाएाँ गे शोररश-ए-बरबत-ओ-नय
वो शोररश कज् के आगे जु बाँ हाँ गामा-ए-तब्ल-ए-कै्र-ओ-कै
आजाद हैं अपने कफक्र ओ अमल भरपर खजीना कहम्मत का
इक उमर है अपनी हर ्ाअत इमरोज है अपना हर फदा़
ये शाम-ओ-्हर ये शम्स-ओ-कमर ये अख़्तर-ओ-कौकब अपने हैं
ये लौह-ओ-कलम ये तब्ल-ओ-अलम ये माल-ओ-हशम ्ब अपने हैं
शोररश-ए-जींजीर फबस्मिल्लाह
हुई किर इमकतहान-ए-इशक की तदबीर कबग़्स्मल्लाह
हर इक जाकनब मचा कुहराम-ए-दार-ओ-गीर कबग़्स्मल्लाह
गली-कचोीं में कबखरी शोररश-ए-जीं जीर कबग़्स्मल्लाह
दर-ए-कजीं दााँ पे बुलवाए गए किर ्े जु नाँ वाले
दरीदा दामनोीं वाले परे शााँ गे्ुओीं वाले
जहााँ में दद़ -ए-कदल की किर हुई तौकीर कबग़्स्मल्लाह
हुई किर इमकतहान-ए-इशक की तदबीर कबग़्स्मल्लाह
कगनो ्ब दाग कदल के ह्रतें शौकें कनगाहोीं की
्र-ए-दररया परग़्स्तश हो रही है किर गुनाहोीं की
करो यारो शु मार-ए-नाला-ए-शब-गीर कबग़्स्मल्लाह
क्तम की दास्तााँ कुश्ता कदलोीं का माजरा ककहए
जो जे र-ए-लब न कहते थे वो ्ब कुछ बरमला ककहए
मु क्र है मोहतक्ब राज-ए-शहीदान-ए-वफा ककहए
लगी है हफ़-ए-ना-गुफ़्ता पे अब ताजीर अल्लाह
्र-ए-मक़्तल चलो बे-जहमत-ए-तक्ीर कबग़्स्मल्लाह
हुई किर इमकतहान-ए-इशक की तदबीर कबग़्स्मल्लाह
फसपाही का मफस़या
उट्ठो अब माटी ्े उट्ठो
जागो मे रे लाल
अब जागो मे रे लाल
तुमरी ्ेज जवान कारन
दे खो आई रे न अाँधयारन
नीले शाल दो-शाले ले कर
कजन में इन दु ग़्खयन अग़्खयन ने
ढे र ककए हैं इतने मोती
इतने मोती कजन की ज्योकत
दान ्े तुमरा
जग जग लागा
नाम चमकने
उट्ठो अब माटी ्े उट्ठो
जागो मे रे लाल
अब जागो मे रे लाल
घर घर कबखरा भोर का कुींदन
घोर-अाँधेरा अपना आाँ गन
जाने कब ्े राह तके हैं
बाली दु ल्हकनया, बााँ के वीरन
्ना तुमरा राज पड़ा है
दे खो ककतना काज पड़ा है
बैरी कबराजे राज-क्ींघा्न
तुम माटी में लाल
उट्ठो अब माटी ्े उट्ठो, जागो मे रे लाल
हट न करो माटी ्े उट्ठो, जागो मे रे लाल
अब जागो मे रे लाल
सोच
क्याँ मे रा कदल शाद नहीीं है
क्याँ खामोश रहा करता हाँ
छोड़ो मे री राम-कहानी
मैं जै ्ा भी हाँ अच्छा हाँ
त गर मे री भी हो जाए
दु कनया के गम याँही रहें गे
पाप के िींदे जु ल्म के बींधन
अपने कहे ्े कट न ्केंगे
सोचने िो
इक जरा ्ोचने दो
इ् खयाबााँ में
जो इ् लहजा बयाबााँ भी नहीीं
कौन ्ी शाख में िल आए थे ्ब ्े पहले
कौन बे-रीं ग हुई रीं ज-ओ-तअब ्े पहले
और अब ्े पहले
कक् घड़ी कौन ्े मौ्म में यहााँ
खन का कहत पड़ा
गुल की शह-रग पे कड़ा
वक़्त पड़ा
्ोचने दो
्ोचने दो
इक जरा ्ोचने दो
ये भरा शहर जो अब वादी-ए-वीरााँ भी नहीीं
इ् में कक् वक़्त कहााँ
आग लगी थी पहले
इ् के ्फ-बस्ता दरीचोीं में ्े कक् में अव्वल
जह हुई ्ुख़ शु आओीं की कमााँ
कक् जगह जोत जगी थी पहले
्ोचने दो
हम ्े उ् दे ् का तुम नाम ओ कनशााँ पछते हो
कज् की तारीख न जु गराकफया अब याद आए
और याद आए तो महब-ए-गुकजश्ता याद आए
र-ब-र आने ्े जी घबराए
हााँ मगर जै ्े कोई
ऐ्े महबब या महबबा का कदल रखने को
आ कनकलता है कभी रात कबताने के कलए
हम अब उ् उम्र को आ पहुाँ चे हैं जब हम भी याँही
कदल ्े कमल आते हैं ब् रस्म कनभाने के कलए
कदल की क्या पछते हो
्ोचने दो
सुब्ह-ए-आजािी (अगस्त-47)
ये दाग दाग उजाला ये शब-गजीदा ्हर
वो इीं कतजार था कज् का ये वो ्हर तो नहीीं
ये वो ्हर तो नहीीं कज् की आरज ले कर
चले थे यार कक कमल जाएगी कहीीं न कहीीं
फलक के दश्त में तारोीं की आकखरी मीं कजल
कहीीं तो होगा शब-ए-्ुस्त-मौज का ्ाकहल
कहीीं तो जा के रुकेगा ्फीना-ए-गम कदल
जवााँ लह की पुर-अ्रार शाह-राहोीं ्े
चले जो यार तो दामन पे ककतने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-्ब्र ख़्वाब-गाहोीं ्े
पुकारती रहीीं बाहें बदन बुलाते रहे
बहुत अजीज थी ले ककन रुख-ए-्हर की लगन
बहुत करीीं था ह्ीनान-ए-नर का दामन
्ुबुक ्ुबुक थी तमन्ना दबी दबी थी थकन
सुरूि
मौत अपनी न अमल अपना न जीना अपना
खो गया शोररश-ए-गीती में करीना अपना
नाखु दा दर हवा तेज, करीीं काम-ए-नहीं ग
वक़्त है िेंक दे लहरोीं में ्फीना अपना
अर्ा-ए-दहर के हीं गामे तह-ए-खाब ्ही
गम़ रख आकतश-ए-पैकार ्े ्ीना अपना
्ाककया रीं ज न कर जाग उठे गी महकफल
और कुछ दे र उठा रखते हैं पीना अपना
बेश-कीमत हैं ये गम-हा-ए-महब्बत मत भल
जु ल्मत-ए-या् को मत ्ौींप खजीना अपना
सुरुि-ए-शबाना
नीम-शब चााँ द खु द-फरामोशी
महकफल-ए-हस्त-ओ-बद वीरााँ है
पैकर-ए-इग़्िजा है खामोशी
बज़्म-ए-अींजुम फ्ुदा़ -्ामााँ है
आबशार-ए-्ुकत जारी है
चार-् बे-खु दी ्ी तारी है
कजीं दगी जु जव-ए-ख़्वाब है गोया
्ारी दु कनया ्राब है गोया
्ो रही है घने दरख़्तोीं पर!
चााँ दनी की थकी हुई आवाज
कहकशााँ नीम-वा कनगाहोीं ्े
कह रही है हदी्-ए-शौक-ए-कनयाज
्ाज-ए-कदल के खमोश तारोीं ्े
छन रहा है खु मार-ए-कैफ-आगीीं
आरज ख़्वाब तेरा र-ए-ह्ीीं
सुरुि-ए-शबाना
गम है इक कैफ में फजाए-हयात
खामु शी ्ज्दा-ए-कनयाज में है
हुस्न-ए-मा्म ख़्वाब-ए-नाज में है
ऐ कक त रीं ग-ओ-ब का तफााँ है
ऐ कक त जल्वा-गर बहार में है
कजीं दगी तेरे इग़्ख़्तयार में है
िल लाखोीं बर् नहीीं रहते
दो घड़ी और है बहार-ए-शबाब
आ कक कुछ कदल की ्ुन ्ुना लें हम
आ मोहब्बत के गीत गा लें हम
मे री तन्हाइयोीं पे शाम रहे ?
ह्रत-ए-दीद ना-तमाम रहे ?
कदल में बेताब है ्दा-ए-हयात
आाँ ख गौहर कन्ार करती है
आ्मााँ पर उदा् हैं तारे
चााँ दनी इीं कतजार करती है
आ कक थोड़ा ्ा प्यार कर लें हम
कजीं दगी जर-कनगार कर लें हम
तह-ए-नु जम
तह-ए-नु जम, कहीीं चााँ दनी के दामन में
हुजम-ए-शौक ्े इक कदल है बे-करार अभी
खु मार-ए-ख़्वाब ्े लबरे ज अहमरीीं आाँ खें
्फेद रुख पे परे शान अम्बरीीं आाँ खें
छलक रही है जवानी हर इक बुन-ए-म ्े
रवााँ हो बग़-ए-गुल-ए-तर ्े जै ्े ्ैल-ए-शमीम
कजया-ए-मह में दमकता है रीं ग-ए-पैराहन
अदा-ए-इज्जज ्े आाँ चल उड़ा रही है न्ीम
दराज कद की लचक ्े गुदाज पैदा है
अदा-ए-नाज ्े रीं ग-ए-कनयाज पैदा है
उदा् आाँ खोीं में खामोश इग़्िजाएाँ हैं
कदल-ए-हजीीं में कई जााँ -ब-लब दु आएाँ हैं
तह-ए-नु जम कहीीं चााँ दनी के दामन में
कक्ी का हुस्न है म्रफ-ए-इीं कतजार अभी
कहीीं खयाल के आबाद-कदा़ गुलशन में
है एक गुल कक है ना-वाककफ-ए-बहार अभी
तन्हाई
किर कोई आया कदल-ए-जार नहीीं कोई नहीीं
राह-रौ होगा कहीीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात कबखरने लगा तारोीं का गुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानोीं में ख़्वाबीदा चराग
्ो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुजार
अजनबी खाक ने धुाँदला कदए कदमोीं के ्ुराग
गुल करो शमएाँ बढा दो मय ओ मीना ओ अयाग
अपने बे-ख़्वाब ककवाड़ोीं को मु कफ़्फल कर लो
अब यहााँ कोई नहीीं कोई नहीीं आएगा
तराना
दरबार-ए-वतन में जब इक कदन ्ब जाने वाले जाएाँ गे
कुछ अपनी ्जा को पहुाँ चेंगे, कुछ अपनी जजा ले जाएाँ गे
तौक-ओ-िार का मौसम
रकवश-रकवश है वही इीं कतजार का मौ्म
नहीीं है कोई भी मौ्म बहार का मौ्म
खु शा नजारा-ए-रुख्ार-ए-यार की ्ाअत
खु शा करार-ए-कदल-ए-बे-करार का मौ्म
बला ्े हम ने न दे खा तो और दे खेंगे
फरोग-ए-गुलशन ओ ्ौत-ए-हजार का मौ्म
तीन आवाजें
जाकलम
जश्न है मातम-ए-उम्मीद का आओ लोगो
मग़-ए-अम्बोह का त्यौहार मनाओ लोगो
अदम-आबाद को आबाद ककया है मैं ने
तुम को कदन रात ्े आजाद ककया है मैं ने
जल्वा-ए-्ुब्ह ्े क्या मााँ गते हो
कबस्तर-ए-ख़्वाब ्े क्या चाहते हो
्ारी आाँ खोीं को तह-ए-तेग ककया है मैं ने
्ारे ख़्वाबोीं का गला घाँट कदया है मैं ने
अब न लहकेगी कक्ी शाख पे िलोीं की कहना
फस्ल-ए-गुल आएगी नमरद के अाँगार कलए
अब न बर्ात में बर्ेगी गुहर की बरखा
अब्र आएगा ख्-ओ-खार के अम्बार कलए
मे रा मस्लक भी नया राह-ए-तरीकत भी नई
मे रे कानाँ भी नए मे री शरीअत भी नई
अब फकीहान-ए-हरम दस्त-ए-्नम चमें गे
्व़-कद कमट्टी के बौनोीं के कदम चमें गे
फश़ पर आज दर-ए-क्दक-ओ-्फा बींद हुआ
अश़ पर आज हर इक बाब-ए-दु आ बींद हुआ
मजलम
रात छाई तो हर इक दद़ के धारे छटे
्ुब्ह िटी तो हर इक जख़्म के टााँ के टटे
दोपहर आई तो हर रग ने लह बर्ाया
कदन ढला खौफ का इफरीत मु काकबल आया
या खु दा ये कमरी गदा़ न-ए-शब-ओ-रोज-ओ-्हर
ये कमरी उम्र का बे-मीं कजल ओ आराम ्फर
क्या यही कुछ कमरी ककस्मत में कलखा है त ने
हर म्ऱ त ्े मु झे आक ककया है त ने
वो ये कहते हैं त खु श-नद हर इक जु ल्म ्े है
वो ये कहते हैं हर इक जु ल्म कतरे हुक्म ्े है
गर ये ्च है तो कतरे अद़् ल ्े इीं कार कराँ ?
उन की मानाँ कक कतरी जात का इकरार कर ाँ ?
कनदा-ए-गैब
हर इक ऊकलल-अमर को ्दा दो
कक अपनी फद़ -ए-अमल ्ाँभाले
उठे गा जब जम़् -ए-्रफरोशााँ
पड़ें गे दार-ओ-र्न के लाले
कोई न होगा कक जो बचा ले
जजा ्जा ्ब यहीीं पे होगी
यहीीं अजाब ओ ्वाब होगा
यहीीं ्े उट्ठेगा शोर-ए-महशर
यहीीं पे रोज-ए-कह्ाब होगा
तीन मींजर
त्व्वु र
शोकखयााँ मु ज़्तर-कनगाह-ए-दीदा-ए-्रशार में
इशरतें ख़्वाबीदा रीं ग-ए-गाजा-ए-रुख्ार में
्ुख़ होींटोीं पर तबस्सुम की कजयाएाँ कज् तरह
या्मन के िल डबे होीं मय-ए-गुलनार में
्ामना
छनती हुई नजरोीं ्े जज़्बात की दु कनयाएाँ
बे-ख़्वाकबयााँ अफ़्साने महताब तमन्नाएाँ
कुछ उलझी हुई बातें कुछ बहके हुए नग़्मे
कुछ अश्क जो आाँ खोीं ्े बे-वज्जह छलक जाएाँ
रुख़्सत
फ्ुदा़ रुख लबोीं पर इक कनयाज आमेज खामोशी
तबस्सुम मु ज़्मकहल था मरमरीीं हाथोीं में लकज़श थी
वो कै्ी बे-क्ी थी तेरी पुर-तमकीीं कनगाहोीं में
वो क्या दु ख था कतरी ्हमी हुई खामोश आहोीं में
हम ने उम्मीद के ्हारे पर
टट कर याँ ही कजीं दगी की है
कज् तरह तुम ्े आकशकी की है
कशआर की जो मु दारात-ए-कामत-ए-जानााँ
ककया है 'फैज' दर-ए-कदल दर-ए-फलक ्े बुलींद
याि
दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहााँ लजाां हैं
तेरी आवाज के ्ाए कतरे होींटोीं के ्राब
दश्त-ए-तन्हाई में दरी के ख् ओ खाक तले
ग़्खल रहे हैं कतरे पहल के ्मन और गुलाब
यास
बरबत-ए-कदल के तार टट गए
हैं जमीीं-बो् राहतोीं के महल
कमट गए ककस्सा-हा-ए-कफक्र-ओ-अमल!
बज़्म-ए-हस्ती के जाम िट गए
कछन गया कैफ-ए-कौ्र-अेो-त्नीम
जहमत-ए-कगया़ -ओ-बुका बे-्द
कशकवा-ए-बख़्त-ए-ना-र्ा बे-्द
हो चुका खत्म रहमतोीं का नु जल
बींद है मु द्दतोीं ्े बाब-ए-कुबल
बे-कनयाज-ए-दु आ है रब्ब-ए-करीम
बुझ गई शम़् -ए-आरज-ए-जमील
याद बाकी है बे-क्ी की दलील
इग़्न्तजार-ए-फुजल रहने दे
राज-ए-उल्फफत कनबाहने वाले
बार-ए-गम ्े कराहने वाले
काकवश-ए-बे-हु्ल रहने दे
यहााँ से शहर को िे खो
यहााँ ्े शहर को दे खो तो हल्फका-दर-हल्फका
ग़्खींची है जेल की ्रत हर एक ्म्त फ्ील
हर एक राहगुजर गकद़ श-ए-अ्ीरााँ है
न ्ींग-ए-मील न मींकजल न मु ग़्ख़्ल्ी कक ्बील
ये कस ियार-ए-अिम में
नहीीं है याँ तो नहीीं है कक अब नहीीं पैदा
क्ी के हुस्न में शमशीर-ए-आफ़्ताब का हुस्न
कनगाह कज् ्े कमलाओ तो आाँ ख दु खने लगे
कक्ी अदा में अदा-ए-कखराम-ए-बाद-ए-्बा
कज्े खयाल में लाओ तो कदल ्ुलगने लगे
नहीीं है याँ तो नहीीं है कक अब नहीीं बाकी
जहााँ में बज़्म-गह-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का मे ला
कबना-ए-लु त्फफ-ओ-मोहब्बत, ररवाज-ए-मे हर-ओ-वफा
ये क् दयार-ए-अदम में मु कीम हैं हम तुम
जहााँ पे मु ज़्दा-ए-दीदार-ए-हुस्न-ए-यार तो क्या
नवेद-ए-आमद-ए-रोज-ए-जजा नहीीं आती
ये कक् खु मार-कदे में नदीम हैं हम तुम
जहााँ पे शोररश-ए-ररीं दान-ए-मय-गु्ार तो क्या
कशकस्त-ए-शीशा-ए-कदल की ्दा नहीीं आती
ये मातम-ए-वक़्त की घड़ी है
ठहर गई आ्मााँ की नकदया
वो जा लगी है उफक ककनारे
उदा् रीं गोीं की चााँ द नय्या
उतर गए ्ाकहल-ए-जमी ीं पर
्भी खवय्या
तमाम तारे
उखड़ गई ्ााँ ् पकत्तयोीं की
चली गईीं ऊाँघ में हवाएाँ
गजर बजा हुक्म-ए-खामु शी का
तो चुप में गुम हो गईीं ्दाएाँ
्हर की गोरी की छाकतयोीं ्े
ढलक गई तीरगी की चादर
और इ् बजाए
कबखर गए उ् के तन-बदन पर
कनरा् तन्हाइयोीं के ्ाए
और उ् को कुछ भी खबर नहीीं है
कक्ी को कुछ भी खबर नहीीं है
कक्ी को कुछ भी खबर नहीीं है
कक कदन ढले शहर ्े कनकल कर
ककधर को जाने का रुख ककया था
न कोई जादा, न कोई मीं कजल
कक्ी मु ्ाकफर को
अब कदमाग-ए-्फर नहीीं है
ये वक़्त जीं जीर-ए-रोज-ओ-शब की
कहीीं ्े टोटी हुई कड़ी है
ये मातम-ए-वक़्त की घड़ी है
ये वक़्त आए तो बे-इरादा
कभी कभी मैं भी दे खता हाँ
उतार कर जात का लबादा
कहीीं क्याही मलामतोीं की
कहें पे गुल-बटे उल्फफतोीं के
कहें लकीरें हैं आाँ ्ुओीं की
कहें पे खन-ए-कजगर के धब्बे
ये चाक है पींजा-ए-अद का
ये मोहर है यार-ए-मे हरबााँ की
ये लअ'ल लब-हा-ए-मह-कवशााँ के
ये मह़ मत शै ख-ए-बद-जबााँ की
ये जामा-ए-रोज-ओ-शब-गजीदा
मु झे ये पैराहन-ए-दरीदा
अजीज भी, ना-प्ींद भी है
कभी ये फरमान-ए-जोश-ए-वहशत
कक नोच कर इ् को िेंक डालो
कभी ये इ्रार-ए-हफ़-ए-उल्फफत
कक चम कर किर गले लगा लो
फजींिााँ की एक शाम
शाम के पेच-ओ-खम क्तारोीं ्े
जीना जीना उतर रही है रात
याँ ्बा पा् ्े गुजरती है
जै ्े कह दी कक्ी ने प्यार की बात
्ेहन-ए-कजीं दााँ के बे-वतन अश्जार
्र-कनगाँ महव हैं बनाने में
दामन-ए-आ्मााँ पे नक़श-ओ-कनगार
शाना-ए-बाम पर दमकता है
मे हरबााँ चााँ दनी का दस्त-ए-जमील
खाक में घुल गई है आब-ए-नु जम
नर में घुल गया है अश़ का नील
्ब्ज़ गोशोीं में नील-गाँ ्ाए
लहलहाते हैं कज् तरह कदल में
मौज-ए-दद़ -ए-कफराक-ए-यार आए
फजींिााँ की एक सुब्ह
रात बाकी थी अभी जब ्र-ए-बालीीं आ कर
चााँ द ने मु झ ्े कहा 'जाग ्हर आई है
जाग इ् शब जो मय-ए-ख़्वाब कतरा कहस्सा थी
जाम के लब ्े तह-ए-जाम उतर आई है '
अक्स-ए-जानााँ को कवदा कर के उठी मे री नजर
शब के ठहरे हुए पानी की क्यह चादर पर
फजींिगी
मलक-ए-शहर-ए-कजीं दगी तेरा
शु क्र कक् तौर ्े अदा कीजे
दौलत-ए-कदल का कुछ शुमार नहीीं
तींग-दस्ती का क्या कगला कीजे