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आज बाजार में पा-ब-जौलााँ चलो

चश्म-नम जान-ए-शोरीदा काफी नहीीं


तोहमत-ए-इश्क़-ए-पोशीदा काफी नहीीं
आज बाजार में पा-ब-जौलााँ चलो
दस्त-अफ़शााँ चलो मस्त ओ रक़्ााँ चलो
खाक-बर-्र चलो खाँ -ब-दामााँ चलो
राह तकता है ्ब शहर-ए-जानााँ चलो
हाककम-ए-शहर भी मजमा-ए-आम भी
तीर-ए-इल्जाम भी ्ींग-ए-दु श्नाम भी
्ुब्ह-ए-नाशाद भी रोज-ए-नाकाम भी
उन का दम-्ाज अपने क्वा कौन है
शहर-ए-जानााँ में अब बा-्फा कौन है
दस्त-ए-काकतल के शायााँ रहा कौन है

रख़्त-ए-कदल बााँ ध लो कदल-कफगारो चलो


किर हमीीं कत्ल हो आएाँ यारो चलो

आज इक हर्फ़ को फिर ढाँ डता फिरता है ख़याल


आज इक हफ़ को किर ढाँ डता किरता है खयाल
मध भरा हफ़ कोई जहर भरा हफ़ कोई
कदल-नशीीं हफ़ कोई कहर भरा हफ़ कोई
हफ़-ए-उल्फफत कोई कदलदार-ए-नजर हो जै ्े
कज् ्े कमलती है नजर बो्ा-ए-लब की ्रत
इतना रौशन कक ्र-ए-मौजा-ए-जर हो जै ्े
्ोहबत-ए-यार में आगाज-ए-तरब की ्रत
हफ़-ए-नफरत कोई शमशीर-ए-गजब हो जै ्े
ता-अबद शहर-ए-क्तम कज् ्े तबह हो जाएाँ
इतना तारीक कक शमशान की शब हो जै ्े
लब पे लाऊाँ तो कमरे होींट क्यह हो जाएाँ

आज हर ्ुर ्े हर इक राग का नाता टटा


ढाँ डती किरती है मु तररब को किर उ् की आवाज
जोकशश-ए-दद़ ्े मजनाँ के गरे बााँ की तरह
चाक-दर-चाक हुआ आज हर इक पदा़ -ए-्ाज
आज हर मौज-ए-हवा ्े है ्वाली कखल्फकत
ला कोई नग़्मा कोई ्ौत कतरी उम्र दराज
नौहा-ए-गम ही ्ही शोर-ए-शहादत ही ्ही
्र-ए-महशर ही ्ही बााँ ग-ए-कयामत ही ्ही

आज की रात
आज की रात ्ाज-ए-दद़ न छे ड़
दु ख ्े भरपर कदन तमाम हुए
और कल की खबर कक्े मालम
दोश-ओ-फदा़ की कमट चुकी हैं हुदद
हो न हो अब ्हर कक्े मालम
कजीं दगी हे च! ले ककन आज की रात
एजकदय्यत है मु मककन आज की रात
आज की रात ्ाज-ए-दद़ न छे ड़
अब न दोहरा फ्ाना-हा-ए-अलम
अपनी ककस्मत पे ्ोगवार न हो
कफक्र-ए-फदा़ उतार दे कदल ्े
उम्र-ए-रफ़्ता पे अश्क-बार न हो
अहद-ए-गम की कहकायतें मत पछ
हो चुकीीं ्ब कशकायतें मत पछ
आज की रात ्ाज-ए-दद़ न छे ड़

आज शब कोई नही ीं है
आज शब कदल के करीीं कोई नहीीं है
आाँ ख ्े दर कतकलस्मात के दर वा हैं कई
ख़्वाब-दर-ख़्वाब महल्लात के दर वा हैं कई
और मकीीं कोई नहीीं है ,
आज शब कदल के करीीं कोई नहीीं है
कोई नगमा, कोई खु शब, कोई काकफर-्रत
कोई उम्मीद, कोई आ् मु्ाकफर-्रत
कोई गम, कोई क्क, कोई शक, कोई यकीीं
कोई नहीीं है
आज शब कदल के करीीं कोई नहीीं है
तुम अगर हो, तो कमरे पा् हो या दर हो तुम
हर घड़ी ्ाया-गर-ए-खाकतर-ए-रीं जर हो तुम
और नहीीं हो तो कहीीं... कोई नहीीं, कोई नहीीं है
आज शब कदल के करीीं कोई नहीीं है

आफख़री ख़त
वो वक़्त कमरी जान बहुत दर नहीीं है
जब दद़ ्े रुक जाएाँ गी ्ब जीस्त की राहें
और हद ्े गुजर जाएगा अींदोह-ए-कनहानी
थक जाएाँ गी तर्ी हुई नाकाम कनगाहें
कछन जाएाँ गे मु झ ्े कमरे आाँ ् कमरी आहें
कछन जाएगी मु झ ्े कमरी बे-कार जवानी
शायद कमरी उल्फफत को बहुत याद करोगी
अपने कदल-ए-मा्म को नाशाद करोगी
आओगी कमरी गोर पे तुम अश्क बहाने
नौ-खे ज बहारोीं के ह्ीीं िल चढाने

शायद कमरी तुब़त को भी ठु करा के चलोगी


शायद कमरी बे-्द वफाओीं पे हाँ ्ोगी
इ् वज़् -ए-करम का भी तुम्हें पा् न होगा
ले ककन कदल-ए-नाकाम को एह्ा् न होगा

अल-ककस्सा मआल-ए-गम-ए-उल्फफत पे हाँ ्ो तुम


या अश्क बहाती रहो फररयाद करो तुम
माजी पे नदामत हो तुम्हें या कक म्ऱ त
खामोश पड़ा ्ोएगा वामाीं दा-ए-उल्फफत

आरज
मु झे मोजजोीं पे यकीीं नहीीं मगर आरज है कक जब कजा
मु झे बज़्म-ए-दहर ्े ले चले
तो किर एक बार ये इज़्न दे
कक लहद ्े लौट के आ ्काँ
कतरे दर पे आ के ्दा कर ाँ
तुझे गम-गु्ार की हो तलब तो कतरे हुजर में आ रहाँ
ये न हो तो ्ए-ए-रह-ए-अदम मैं किर एक बार रवाना हाँ

''आ जाओ अफ़्रीका'' Come Back Africa


आ जाओ ने ्ुन ली कतरे ढोल की तरीं ग
आ जाओ मस्त हो गई मे रे लह की ताल
''आ जाओ अफ़्रीका''

आ जाओ मैं ने धल ्े माथा उठा कलया


आ जाओ ने छील दी आाँ खोीं ्े गम की छाल
आ जाओ में ने दद़ ्े बाज छु ड़ा कलया
आ जाओ मैं ने नोच कदया बे-क्ी का जाल
''आ जाओ अफ़्रीका''

अफरीकी कखदमत प्ींदोीं का नारा


पींजे में हथकड़ी की कड़ी कबन गई है गुज़
गद़ न का तौक तोड़ के ढाली है मैं ने ढाल
''आ जाओ अफ़्रीका''

चलते हैं हर कछार में भालोीं के मग़ नै न


दु श्मन लह ्े रात की कालक हुई है लाल
''आ जाओ अफ़्रीका''

धरती धड़क रही है कमरे ्ाथ अफ़्रीका


दररया कथरक रहा है तो बन दे रहा है ताल
मैं अफ़्रीका हाँ धार कलया मैं ने तेरा रप
मैं त हाँ मे री चाल है तेरी बब्बर की चाल
''आ जाओ अफ़्रीका''
आओ बब्बर की चाल
''आ जाओ अफ़्रीका''

ऐ फिल-ए-बे ताब ठहर


तीरगी है कक उमीं डती ही चली आती है
शब की रग रग ्े लह िट रहा हो जै ्े
चल रही है कुछ इ् अींदाज ्े नब्ज़-ए-हस्ती
दोनोीं आलम का नशा टट रहा हो जै ्े
रात का गम़ लह और भी बह जाने दो
यही तारीकी तो है गाजा-ए-रुख्ार-ए-्हर
्ुब्ह होने ही को है ऐ कदल-ए-बेताब ठहर
अभी जीं जीर छनकती है प्-ए-पदा़ -ए-्ाज
मु तलक-उल-हुक्म है शीराजा-ए-अस्बाब अभी
्ागर-ए-नाब में आाँ ् भी ढलक जाते हैं
लग़्ग़्जश-ए-पा में है पाबींदी-ए-आदाब अभी
अपने दीवानोीं को दीवाना तो बन ले ने दो
अपने मय-खानोीं को मय-खाना तो बन ले ने दो
जल्द ये ्तवत-ए-अस्बाब भी उठ जाएगी
ये कगरााँ -बारी-ए-आदाब भी उठ जाएगी
ख़्वाह जीं जीर छनकती ही छनकती ही रहे

ऐ हबीब-ए-अम्बर-िस्त!
कक्ी के दस्त-ए-इनायत ने कुींज-ए-कजीं दााँ में
ककया है आज अजब कदल-नवाज बींद-ओ-बस्त
महक रही है फजा जु ल्फफ-ए-यार की ्रत
हवा है गमी-ए-खु शब ्े इ् तरह ्रमस्त
अभी अभी कोई गुजरा है गुल-बदन गोया
कहीीं करीब ्े, गे्-ब-दोश, गुींचा-ब-दस्त
कलए है ब-ए-ररफाकत अगर हवा-ए-चमन
तो लाख पहरे कबठाएाँ कफ् पे जु ल्म-परस्त
हमे शा ्ब्ज़ रहे गी वो शाख-ए-मे हर-ओ-वफा
कक कज् के ्ाथ बींधी है कदलोीं की फतह ओ कशकस्त
ये शे र-ए-हाकफज-ए-शीराज, ऐ ्बा! कहना
कमले जो तुझ ्े कहीीं वो हबीब-ए-अम्बर-दस्त
''खलल-पजीर बुअद हर कबना कक मय-बीनी
ब-जु ज कबना-ए-मोहब्बत कक खाली अज-खलल-अस्त''

ऐ रौशफनयोीं के शहर
्ब्ज़ा ्ब्ज़ा ्ख रही है िीकी जद़ दोपहर
दीवारोीं को चाट रहा है तन्हाई का जहर
दर उफुक तक घटती बढती उठती रहती है
कोहर की ्रत बे-रौनक ददों की गदली लहर
बस्ता है इ् कोहर के पीछे रौशकनयोीं का शहर

ऐ रौशकनयोीं के शहर
कौन कहे कक् ्म्त है तेरी रौशकनयोीं की राह
हर जाकनब बे-नर खड़ी है कहज्र की शहर-पनाह
थक कर हर ् बैठ रही है शौक की माीं द क्पाह

आज कमरा कदल कफक्र में है


ऐ रौशकनयोीं के शहर
शब-खाँ ्े मुाँ ह िेर न जाए अरमानोीं की रौ
खै र हो तेरी लैलाओीं की उन ्ब ्े कह दो
आज की शब जब कदए जलाएाँ ऊाँची रक्खें लौ

ऐ शाम मेहरबााँ हो
ऐ शाम मे हरबााँ हो
ऐ शाम-ए-शहरयारााँ
हम पे भी मे हरबााँ हो
दोजखी दोपहर क्तम की
बे-्बब क्तम की
दोपहर दद़ -ओ-गैज-ओ-गम की
बे-जबााँ दद़ -ओ-गैज-ओ-गम की
इ् दोजखी दोपहर के ताकजयाने
आज तन पर धनक की ्रत
कौ्-दर-कौ् बट गए हैं
जख़्म ्ब खु ल गए हैं
दाग जाना था छट गए हैं
कतरे तोशे में कुछ तो होगा
मरहम-ए-दद़ का दो-शाला
तन के उ् अींग पर उढा दे
दद़ ्ब ्े क्वा जहााँ हो
ऐ शाम मे हरबााँ हो
ऐ शाम-ए-शहरयारााँ
हम पे मे हरबााँ हो

दोजखी दश्त नफरतोीं के


बेदद़ नफरतोीं के
कककच़यााँ दीदा-ए-ह्द की
ख्-ओ-खाशाक रीं कजशोीं के
इतनी ्ुन्ान शाहराहें
इतनी गुींजान कत्ल-गाहें
कजन ्े आए हैं हम गुजर कर
आबला बन के हर कदम पर
याँ पााँ व कट गए हैं
रस्ते क्मट गए हैं
मखमलें अपने बादलोीं की
आज पााँ व-तले कबछा दे
शाफी-ए-कब़-ए-रह-रवााँ हो
ऐ शाम मे हरबााँ हो
ऐ मह-ए-शब-ए-कनगारााँ
ऐ रफीक-ए-कदल-कफगारााँ
इ् शाम हम-जबााँ हो
ऐ शाम मे हरबााँ हो
ऐ शाम मे हरबााँ हो
ऐ शाम-ए-शहरयारााँ
हम पे मे हरबााँ हो

अीं जाम
हैं लबरे ज आहोीं ्े ठीं डी हवाएाँ
उदा्ी में डबी हुई हैं घटाएाँ
मोहब्बत की दु कनया पे शाम आ चुकी है
क्यह-पोश हैं कजीं दगी की फजाएाँ

मचलती हैं ्ीने में लाख आरजु एाँ


तड़पती हैं आाँ खोीं में लाख इग़्िजाएाँ
तगाफुल की आगोश में ्ो रहे हैं
तुम्हारे क्तम और मे री वफाएाँ
मगर किर भी ऐ मे रे मा्म काकतल
तुम्हें प्यार करती हैं मे री दु आएाँ

अश्गाबाि की शाम
जब ्रज ने जाते जाते
अश्गाबाद के नीले उफुक ्े
अपने ्ुनहरी जाम
में ढाली
्ुखी-ए-अव्वल-ए-शाम
और ये जाम
तुम्हारे ्ामने रख कर
तुम ्े क्या कलाम
कहा प्रणाम
उट्ठो
और अपने तन की ्ेज ्े उठ कर
इक शीरीीं पैगाम
्ब्त करो इ् शाम
कक्ी के नाम
कनार-ए-जाम
शायद तुम ये मान गईीं और तुम ने
अपने लब-ए-गुलफम
ककए इनआम
कक्ी के नाम
कनार-ए-जाम
या शायद
तुम अपने तन की ्ेज पे ्ज कर
थीीं याँ महव-ए-आराम
कक रस्ते तकते तकते
बुझ गई शम़् -ए-जाम
अश्गाबाद के नीले उफुक पर
गारत हो गई शाम

अगस्त-1952
रौशन कहीीं बहार के इमकााँ हुए तो हैं
गुलशन में चाक चींद गरे बााँ हुए तो हैं
अब भी कखजााँ का राज है ले ककन कहीीं कहीीं
गोशे रह-ए-चमन में गजल-ख़्वााँ हुए तो हैं
ठहरी हुई है शब की क्याही वहीीं मगर
कुच कुछ ्हर के रीं ग पर-अफ़शााँ हुए तो हैं
इन में लह जला हो हमारा कक जान ओ कदल
महकफल में कुछ चराग फरोजााँ हुए तो हैं
हााँ कज करो कुलाह कक ्ब कुछ लु टा के हम
अब बे-कनयाज-ए-गकद़ श-ए-दौरााँ हुए तो हैं
अहल-ए-कफ् की ्ुब्ह-ए-चमन में खुलेगी आाँ ख
बाद-ए-्बा ्े वअदा-ओ-पैमााँ हुए तो हैं
है दश्त अब भी दश्त मगर खन-ए-पा ्े 'फैज'
्ैराब चींद खार-ए-मु गीलााँ हुए तो हैं

अगस्त-1955
शहर में चाक-गरे बााँ हुए नापैद अब के
कोई करता ही नहीीं जब्त की ताकीद अब के
लु त्फफ कर ऐ कनगह-ए-यार कक गम वालोीं ने
ह्रत-ए-कदल की उठाई नहीीं तम्हीद अब के
चााँ द दे खा कतरी आाँ खोीं में न होींटोीं पे शफक
कमलती-जुलती है शब-ए-गम ्े कतरी दीद अब के
कदल दु खा है न वो पहला ्ा न जााँ तड़पी है
हम ही गाकफल थे कक आई ही नहीीं ईद अब के
किर ्े बुझ जाएाँ गी शमएाँ जो हवा तेज चली
ला के रक्खो ्र-ए-महकफल कोई खु शीद अब के

ब'अि-अज-वक़्त
कदल को एह्ा् ्े दो-चार न कर दे ना था
्ाज-ए-ख़्वाबीदा को बेदार न कर दे ना था
अपने मा्म तबस्सुम की फरावानी को
वु्अत-ए-दीद पे गुल-बार न कर दे ना था
शौक-ए-मजबर को ब् एक झलक कदखला कर
वाककफ-ए-लज़्ज़त-ए-तकरार न कर दे ना था
चश्म-ए-मु श्ताक की खामोश तमन्नाओीं को
यक-ब-यक माएल-ए-गुफ़्तार न कर दे ना था
जल्वा-ए-हुस्न को मस्तर ही रहने दे ते
ह्रत-ए-कदल को गुनहगार न कर दे ना था

बहार आई
बहार आई तो जै ्े यक-बार
लौट आए हैं किर अदम ्े
वो ख़्वाब ्ारे शबाब ्ारे
जो तेरे होींटोीं पे मर-कमटे थे
जो कमट के हर बार किर कजए थे
कनखर गए हैं गुलाब ्ारे
जो तेरी यादोीं ्े मुश्कब हैं
जो तेरे उश्शाक का लह हैं
उबल पड़े हैं अजाब ्ारे
मलाल-ए-अहवाल-ए-दोस्तााँ भी
खु मार-ए-आगोश-ए-मह-वशाीं भी
गुबार-ए-खाकतर के बाब ्ारे
कतरे हमारे
्वाल ्ारे जवाब ्ारे
बहार आई तो खु ल गए हैं
नए क्रे ्े कह्ाब ्ारे

ब-नोक-ए-शमशीर
मे रे आबा कक थे ना-महरम-ए-तौक-ओ-जीं जीर
वो मजामीीं जो अदा करता है अब मे रा कलम
नोक-ए-शमशीर पे कलखते थे ब-नोक-ए-शमशीर
रौशनाई ्े जो मैं करता हाँ कागज पे रकम
्ींग ओ ्हरा पे वो करते थे लह ्े तहरीर

भाई
आज ्े बारा बर् पहले बड़ा भाई कमरा
स्टाकलनग्राड की जीं गाह में काम आया था
मे री मााँ अब भी कलए किरती है पहल में ये गम
जब ्े अब तक है वही तन पे ररदा-ए-मातम
और इ् दु ख ्े कमरी आाँ ख का गोशा तर है
अब कमरी उम्र बड़े भाई ्े कुछ बढ कर है

ब्लै क-आउट
जब ्े बे-नर हुई हैं शमएाँ
खाक में ढाँ ढता किरता हाँ न जाने कक् जा
खो गई हैं कमरी दोनोीं आाँ खें
तुम जो वाककफ हो बताओ कोई पहचान कमरी
इ् तरह है कक हर इक रग में उतर आया है
मौज-दर-मौज कक्ी जहर का काकतल दररया
तेरा अरमान, कतरी याद कलए जान कमरी
जाने कक् मौज में गलतााँ है कहााँ कदल मे रा
एक पल ठहरो कक उ् पार कक्ी दु कनया ्े
बक़ आए कमरी जाकनब यद-ए-बैजा ले कर
और कमरी आाँ खोीं के गुम-गश्ता गुहर
जाम-ए-जु ल्मत ्े क्यह-मस्त
नई आाँ खोीं के शब-ताब गुहर
लौटा दे
एक पल ठहरो कक दररया का कहीीं पाट लगे
और नया कदल मे रा
जहर में धुल के, फना हो के
कक्ी घाट लगे
किर पए-नज़्र नए दीदा ओ कदल ले के चलाँ
हुस्न की मदह कर
ाँ शौक का मजमन कलक्खाँ

बोल
बोल कक लब आजाद हैं तेरे
बोल जबााँ अब तक तेरी है
तेरा ्ुत्ााँ कजस्म है तेरा
बोल कक जााँ अब तक तेरी है
दे ख कक आहन-गर की दु कााँ में
तुींद हैं शोले ्ुख़ है आहन
खु लने लगे कुफ़लोीं के दहाने
िैला हर इक जीं जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
कजस्म ओ जबााँ की मौत ्े पहले
बोल कक ्च कजीं दा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

बु फनयाि कुछ तो हो
क-ए-क्तम की खामु शी आबाद कुछ तो हो
कुछ तो कहो क्तम-कशे फररयाद कुछ तो हो
बेदाद-गर ्े कशकवा-ए-बेदाद कुछ तो हो
बोलो कक शोर-ए-हश्र की ईजाद कुछ तो हो

मरने चले तो ्तवत-ए-काकतल का खौफ क्या


इतना तो हो कक बााँ धने पाए न दस्त ओ पा
मक़्तल में कुछ तो रीं ग जमे जश्न-ए-रक़् का
रीं गीीं लह ्े पींजा-ए-्य्याद कुछ तो हो
खाँ पर गवाह दामन-ए-जल्लाद कुछ तो हो
जब खाँ -बहा तलब करें बुकनयाद कुछ तो हो

गर तन नहीीं जबााँ ्ही आजाद कुछ तो हो


दु श्नाम नाला हाव-ह फररयाद कुछ तो हो
चीखे है दद़ ऐ कदल-ए-बबा़ द कुछ तो हो
बोलो कक शोर-ए-हश्र की ईजाद कुछ तो हो
बोलो कक रोज-ए-अदल की बुकनयाद कुछ तो हो

चींि रोज और फमरी जान


चींद रोज और कमरी जान फकत चींद ही रोज
जु ल्म की छााँ व में दम लेने पे मजबर हैं हम
और कुछ दे र क्तम ्ह लें तड़प लें रो लें
अपने अज्दाद की मीरा् है माजर हैं हम
कजस्म पर कैद है जज़्बात पे जीं जीरें हैं
कफक्र महब् है गुफ़्तार पे ताजीरें हैं
अपनी कहम्मत है कक हम किर भी कजए जाते हैं
कजीं दगी क्या कक्ी मु फकल् की कबा है कज् में
हर घड़ी दद़ के पैवींद लगे जाते हैं

ले ककन अब जु ल्म की मीआद के कदन थोड़े हैं


इक जरा ्ब्र कक फररयाद के कदन थोड़े हैं

अर्ा-ए-दहर की झुल्ी हुई वीरानी में


हम को रहना है पे याँही तो नहीीं रहना है
अजनबी हाथोीं का बे-नाम कगरााँ -बार क्तम
आज ्हना है हमे शा तो नहीीं ्हना है

ये कतरे हुस्न ्े कलपटी हुई आलाम की गद़


अपनी दो रोजा जवानी की कशकस्तोीं का शु मार
चााँ दनी रातोीं का बेकार दहकता हुआ दद़

कदल की बे-्द तड़प कजस्म की माय् पुकार


चींद रोज और कमरी जान फकत चींद ही रोज

'शोपी ीं' का नग़्मा बजता है


(2)
छलनी है अाँधेरे का ्ीना, बरखा के भाले बर्े हैं
दीवारोीं के आाँ ् हैं रवााँ , घर खामोशी में डबे हैं
पानी में नहाए हैं बटे
गकलयोीं में ह का िेरा है
'शोपीीं' का नग़्मा बजता है

इक गम-गीीं लड़की के चेहरे पर चााँ द की जदी छाई है


जो बफ़ कगरी थी इ् पे लह के छीटीं ोीं की रुशनाई है
खाँ का हर दाग दमकता है
'शोपीीं' का नग़्मा बजता है

कुछ आजादी के मतवाले , जााँ कफ पे कलए मै दााँ में गए


हर-् दु श्मन का नगा़ था, कुछ बच कनकले , कुछ खे त रहे
आलम में उन का शोहरा है
'शोपीीं' का नग़्मा बजता है

इक कीं ज को ्ग़्खयााँ छोड़ गईीं आकाश की नीली राहोीं में


वो याद में तन्हा रोती थी, कलपटाए अपनी बाहोाँ में
इक शाहीीं उ् पर झपटा है
'शोपीीं' का नग़्मा बजता है

गम ने ्ााँ चे में ढाला है


इक बाप के पत्थर चेहरे को
मु दा़ बेटे के माथे को
इक मााँ ने रो कर चमा है
'शोपीीं' का नग़्मा बजता है

किर िलोीं की रुत लौट आई


और चाहने वालोीं की गद़ न में झले डाले बाहोाँ ने
किर झरने नाचे छन छन छन
अब बादल है न बरखा है
'शोपीीं' का नग़्मा बजता है

िाफ़िस्तानी ख़ातन और शाएर बे टा


उ् ने जब बोलना न ्ीखा था
उ् की हर बात मैं ्मझती थी
अब वो शाएर बना है नाम-ए-खु दा
ले ककन अफ्ो् कोई बात उ् की
मे रे पल्ले जरा नहीीं पड़ती

िि़ आएगा िबे पााँव


और कुछ दे र में जब किर कमरे तन्हा कदल को
कफक्र आ ले गी कक तन्हाई का क्या चारा करे
दद़ आएगा दबे पााँ व कलए ्ुख़ चराग
वो जो इक दद़ धड़कता है कहीीं कदल ्े परे

शोला-ए-दद़ जो पहल में लपक उट्ठेगा


कदल की दीवार पे हर नक़श दमक उट्ठेगा
हल्फका-ए-जु ल्फफ कहीीं गोशा-ए-रुख़्सार कहीीं
कहज्र का दश्त कहीीं गुलशन-ए-दीदार कहीीं
लु त्फफ की बात कहीीं प्यार का इकरार कहीीं

कदल ्े किर होगी कमरी बात कक ऐ कदल ऐ कदल


ये जो महबब बना है कतरी तन्हाई का
ये तो मे हमााँ है घड़ी-भर का चला जाएगा
उ् ्े कब तेरी मु ्ीबत का मु दावा होगा

मु श्तइल हो के अभी उट्ठेंगे वहशी ्ाए


ये चला जाएगा रह जाएाँ गे बाकी ्ाए
रात-भर कजन ्े कतरा खन-खराबा होगा
जीं ग ठहरी है कोई खे ल नहीीं है ऐ कदल
दु श्मन-ए-जााँ हैं ्भी ्ारे के ्ारे काकतल
ये कड़ी रात भी ये ्ाए भी तन्हाई भी
दद़ और जीं ग में कुछ मेल नहीीं है ऐ कदल
लाओ ्ुल्गाओ कोई जोश-ए-गजब का अाँगार
तैश की आकतश-ए-जरा़ र कहााँ है लाओ
वो दहकता हुआ गुलजार कहााँ है लाओ
कज् में गमी भी है हरकत भी तवानाई भी

हो न हो अपने कबीले का भी कोई लश्कर


मुीं तकजर होगा अींधेरे की फ्ीलोीं के उधर
उन को शोलोीं के रजज अपना पता तो दें गे
खै र हम तक वो न पहुाँ चे भी ्दा तो दें गे
दर ककतनी है अभी ्ुब्ह बता तो दें गे

िर-ए-उमीि के िरयजा-गर
किर िुरे रे बन के मे रे तन-बदन की धग़्ियााँ
शहर के दीवार-ओ-दर को रीं ग पहनाने लगीीं
किर कफ-आलदा जबानें मदह ओ जम की कुमकचयााँ
मे रे जे हन ओ गोश के जख़्मोीं पे बर्ाने लगीीं

किर कनकल आए हवस्नाकोीं के रक़्ााँ ताइफे


दद़ मींद-ए-इश्क़ पर ढट़् ढे लगाने के कलए
किर दु हल करने लगे तशहीर-ए-इखला्-ओ-वफा
कुश्ता-ए-क्दक-ओ-्फा का कदल जलाने के कलए

हम कक हैं कब ्े दर-ए-उम्मीद के दरयजा-गर


ये घड़ी गुजरी तो किर दस्त-ए-तलब िैलाएाँ गे
कचा ओ बाजार ्े किर चुन के रे जा रे जा ख़्वाब
हम याँही पहले की ्रत जोड़ने लग जाएाँ गे

िरीचा
गड़ी हैं ककतनी ्लीबें कमरे दरीचे में
हर एक अपने म्ीहा के खाँ का रीं ग कलए
हर एक वस्ल-ए-खु दा-वींद की उमीं ग कलए

कक्ी पे करते हैं अब्र-ए-बहार को कुबाां


कक्ी पे कत्ल मह-ए-ताबनाक करते हैं
कक्ी पे होती है ्रमस्त शाख-्ार-ए-दो-नीम
कक्ी पे बाद-ए-्बा को हलाक करते हैं

हर आए कदन ये खु दावींदगान-ए-मे हर-ओ-जमाल


लह में गक़ कमरे गम-कदे में आते हैं
और आए कदन कमरी नजरोीं के ्ामने उन के
शहीद कजस्म ्लामत उठाए जाते हैं

िस्त-ए-तह-ए-सींग-आमिा
बेजार फजा दरपा-ए-आजार ्बा है
याँ है कक हर इक हमदम-ए-दे रीना खफा है
हााँ बादा-कशो आया है अब रीं ग पे मौ्म
अब ्ैर के काकबल रकवश-ए-आब-ओ-हवा है
उमडी है हर इक ्म्त ्े इल्जाम की बर्ात
छाई हुई हर दााँ ग मलामत की घटा है
वो चीज भरी है कक ्ुलगती है ्ुराही
हर का्ा-ए-मय जहर-ए-हलाहल ्े क्वा है
हााँ जाम उठाओ कक ब-याद-ए-लब-ए-शीरीीं
ये जहर तो यारोीं ने कई बार कपया है
इ् जज़्बा-ए-कदल की न ्जा है न जजा है
मक़्द-ए-रह-ए-शौक वफा है न जफा है
एह्ा्-ए-गम-ए-कदल जो गम-ए-कदल का क्ला है
उ् हुस्न का एह्ा् है जो तेरी अता है
हर ्ुब्ह-ए-गुकलस्तााँ है कतरा र-ए-बहारीीं
हर िल कतरी याद का नक़श-ए-कफ-ए-पा है
हर भीगी हुई रात कतरी जुल्फफ की शबनम
ढलता हुआ ्रज कतरे होींटोीं की फजा है
हर राह पहुाँ चती है कतरी चाह के दर तक
हर हफ़-ए-तमन्ना कतरे कदमोीं की ्दा है
ताजीर-ए-क्या्त है न गैरोीं की खता है
वो जु ल्म जो हम ने कदल-ए-वहशी पे ककया है
कजीं दान-ए-रह-ए-यार में पाबींद हुए हम
जीं जीर-ब-कफ है न कोई बींद-ए-बपा है
''मजबरी ओ दावा-ए-कगरफ़्तारी-ए-उलफत
दस्त-ए-तह-ए-्ींग-आमदा पैमान-ए-वफा है ''

ढाका से वापसी पर
हम कक ठहरे अजनबी इतनी मु दारातोीं के बा'द
किर बनें गे आश्ना ककतनी मुलाकातोीं के बा'द
कब नजर में आएगी बे-दाग ्ब्ज़े की बहार
खन के धब्बे धुलेंगे ककतनी बर्ातोीं के बा'द
थे बहुत बेदद़ लम्हे खत्म-ए-दद़ -ए-इश्क़ के
थीीं बहुत बे-मे हर ्ुब्हें मे हरबााँ रातोीं के बा'द
कदल तो चाहा पर कशकस्त-ए-कदल ने मोहलत ही न दी
कुछ कगले कशकवे भी कर ले ते मु नाजातोीं के बा'द
उन ्े जो कहने गए थे 'फैज' जााँ ्दके ककए
अन-कही ही रह गई वो बात ्ब बातोीं के बा'द

फिलिार िे खना
तफााँ ब-कदल है हर कोई कदलदार दे खना
गुल हो न जाए कमशअल-ए-रुख़्सार दे खना
आकतश ब-जााँ है हर कोई ्रकार दे खना
लौ दे उठे न तुरा़ -ए-तरा़ र दे खना
जज़्ब-ए-मु ्ाकफरान-ए-रह-ए-यार दे खना
्र दे खना, न ्ींग, न दीवार दे खना
क-ए-जफा में कहत-ए-खरीदार दे खना
हम आ गए तो गमी-ए-बाजार दे खना
उ् कदल-नवाज शहर के अतवार दे खना
बे इग़्िफात बोलना, बेजार दे खना
खाली हैं गरचे म्नद ओ कमम्बर, कनगाँ है खल्फक
रोअब-ए-कबा ओ है बत-ए-दस्तार दे खना
जब तक न्ीब था कतरा दीदार दे खना
कज् ्म्त दे खना, गुल-ओ-गुलजार दे खना
किर हम तमीज-ए-रोज-ओ-मह-ओ-्ाल कर ्कें
ऐ याद-ए-यार किर इधर इक बार दे खना

फिल-ए-मन मुसाफर्फर-ए-मन
कमरे कदल, कमरे मु ्ाकफर
हुआ किर ्े हुक्म ्ाकदर
कक वतन-बदर होीं हम तुम
दें गली गली ्दाएाँ
करें रुख नगर नगर, का
कक ्ुराग कोई पाएाँ
कक्ी यार-ए-नामा-बर का
हर इक अजनबी ्े पछें
जो पता था अपने घर का
्र-ए-क-ए-ना-शनायााँ
हमें कदन ्े रात करना
कभी इ् ्े बात करना
कभी उ् ्े बात करना
तुम्हें क्या कहाँ कक क्या है
शब-ए-गम बुरी बला है
हमें ये भी था गनीमत
जो कोई शु मार होता
हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता!

िो इश्क़
(1)
ताजा हैं अभी याद में ऐ ्ाकी-ए-गुलफाम
वो अक्स-ए-रुख-ए-यार ्े लहके हुए अय्याम
वो िल ्ी खुलती हुई दीदार की ्ाअत
वो कदल ्ा धड़कता हुआ उम्मीद का हीं गाम

उम्मीद कक लौ जागा गम-ए-कदल का न्ीबा


लो शौक की तर्ी हुई शब हो गई आकखर
लो डब गए दद़ के बे-ख़्वाब क्तारे
अब चमकेगा बे-्ब्र कनगाहोीं का मु कद्दर

इ् बाम ्े कनकले गा कतरे हुस्न का खु शीद


इ् कुींज ्े िटे गी ककरन रीं ग-ए-कहना की
इ् दर ्े बहे गा कतरी रफ़्तार का ्ीमाब
उ् राह पे िैले गी शफक तेरी कबा की

किर दे खे हैं वो कहज्र के तपते हुए कदन भी


जब कफक्र-ए-कदल-ओ-जााँ में फुगााँ भल गई है
हर शब वो क्यह बोझ कक कदल बैठ गया है
हर ्ुब्ह की लौ तीर ्ी ्ीने में लगी है

तींहाई में क्या क्या न तुझे याद ककया है


क्या क्या न कदल-ए-जार ने ढाँ डी हैं पनाहें
आाँ खोीं ्े लगाया है कभी दस्त-ए-्बा को
डाली हैं कभी गद़ न-ए-महताब में बाहें

(2)
चाहा है इ्ी रीं ग में लै ला-ए-वतन को
तड़पा है इ्ी तौर ्े कदल उ् की लगन में
ढाँ डी है याँही शौक ने आ्ाइश-ए-मीं कजल
रुख़्सार के खम में कभी काकुल की कशकन में

उ् जान-ए-जहााँ को भी याँही कल्ब-ओ-नजर ने


हाँ ् हाँ ् के ्दा दी कभी रो रो के पुकारा
परे ककए ्ब हफ़-ए-तमन्ना के तकाजे
हर दद़ को उजयाला हर इक गम को ्ाँवारा

वाप् नहीीं िेरा कोई फरमान जु नाँ का


तन्हा नहीीं लौटी कभी आवाज जर् की
खै ररय्यत-ए-जााँ राहत-ए-तन ्ेह़्हत-ए-दामााँ
्ब भल गईीं मग़्स्लहतें अहल-ए-हव् की

इ् राह में जो ्ब पे गुजरती है वो गुजरी


तन्हा प्-ए-कजीं दााँ कभी रुस्वा ्र-ए-बाजार
गरजे हैं बहुत शै ख ्र-ए-गोशा-ए-कमम्बर
कड़के हैं बहुत अहल-ए-हकम बर-्र-ए-दरबार

छोड़ा नहीीं गैरोीं ने कोई नावक-ए-दु श्नाम


छटी नहीीं अपनोीं ्े कोई तज़ -ए-मलामत
उ् इश्क़ न उ् इश्क़ पे नाकदम है मगर कदल
हर दाग है इ् कदल में ब-जु ज-दाग-ए-नदामत

िु आ
आइए हाथ उठाएाँ हम भी
हम कजन्हें रस्म-ए-दु आ याद नहीीं
हम कजन्हें ्ोज-ए-मोहब्बत के क्वा
कोई बुत कई खु दा याद नहीीं

आइए अज़ गुजारें कक कनगार-ए-हस्ती


जहर-ए-इमरोज में शीरीनी-ए-फदा़ भर दे
वो कजन्हें ताब-ए-कगरााँ -बारी-ए-अय्याम नहीीं
उन की पलकोीं पे शब ओ रोज को हल्का कर दे

कजन की आाँ खोीं को रुख-ए-्ुब्ह का यारा भी नहीीं


उन की रातोीं में कोई शम़्अ मु नव्वर कर दे
कजन के कदमोीं को कक्ी रह का ्हारा भी नहीीं
उन की नजरोीं पे कोई राह उजागर कर दे

कजन का दीीं पैरवी-ए-ककज़्ब-ओ-ररया है उन को


कहम्मत-ए-कुफ़्र कमले जु रअत-ए-तहकीक कमले
कजन के ्र मुीं तकजर-ए-तेग-ए-जफा हैं उन को
दस्त-ए-काकतल को झटक दे ने की तौफीक कमले

इश्क़ का क्ऱ -ए-कनहााँ जान-ए-तपााँ है कज् ्े


आज इकरार करें और तकपश कमट जाए
हफ़-ए-हक कदल में खटकता है जो कााँ टे की तरह
आज इजहार करें और खकलश कमट जाए

एक मींजर
बाम-ओ-दर खामुशी के बोझ ्े चर
आ्मानोीं ्े ज-ए-दद़ रवााँ
चााँ द का दु ख-भरा फ्ाना-ए-नर
शाह-राहोीं की खाक में गलतााँ
ख़्वाब-गाहोीं में नीम तारीकी
मु ज़्मकहल लय रुबाब-ए-हस्ती की
हल्के हल्के ्ुरोीं में नौहा-कुनााँ

एक नग़्मा करबला-ए-बै रुत के फलए


बैरत कनगार-ए-बज़्म-ए-जहााँ
बैरत बदील-ए-बाग-ए-कजनााँ
बच्ोीं की हाँ ्ती आाँ खोीं के
जो आइने चकना-चर हुए
अब उन के क्तारोीं की लौ ्े
इ् शहर की रातें रौशन हैं
और रख़्ााँ है अज़ -ए-लबनााँ
बैरत कनगार-ए-बज़्म-ए-जहााँ
जो चेहरे लह के गाजे की
जीनत ्े क्वा पुर-नर हुए
अब उन के रीं गीीं परतव ्े
इ् शहर की गकलयााँ रौशन हैं
और ताबााँ है अज़ -ए-लबनााँ
बैरत कनगार-ए-बज़्म-ए-जहााँ
हर वीरााँ घर, हर एक खींडर
हम पाया-ए-कस्र-ए-दारा है
हर गाजी रश्क-ए-अस्कींदर
हर दु ख़्तर हम-्र-ए-लै ला है
ये शहर अजल ्े काएम है
ये शहर अबद तक दाइम है
बैरत कनगार-ए-बज़्म-ए-जहााँ
बैरत बदील-ए-बाग-ए-कजनााँ

एक रह-गु जर पर
वो कज् की दीद में लाखोीं म्ऱ तें कपन्हााँ
वो ह्न कज् की तमन्ना मैं जन्नतें कपन्हााँ
हजार कफत्ने तह-ए-पा-ए-नाज खाक-नशीीं
हर इक कनगाह खु मार-ए-शबाब ्े रीं गीीं
शबाब कज् ्े तखय्युल पे कबजकलयााँ बर्ें
वकार कज् की रफाकत को शोकखयााँ तर्ें
अदा-ए-लग़्ग़्जश-ए-पा पर कयामतें कुबाां
बयाज-रुख पे ्हर की ्बाहतें कुबाां
क्याह जु ल्फफोीं में वारफ़्ता कनकहतोीं का हुजम
तवील रातोीं की ख़्वाबीदा राहतोीं का हुजम
वो आाँ ख कज् के बनाव प खाकलक इतराए
जबान-ए-शे र को तारीफ करते शम़ आए
वो होींट फैज ्े कजन के बहार लाला-फरोश
बकहश्त ओ कौ्र ओ त्नीम ओ ्ल्बील ब-दोश
गुदाज कजस्म कबा कज् पे ्ज के नाज करे
दराज कद कज्े ्व़-ए-्ही नमाज करे
गरज वो हुस्न जो मोहताज-ए-वस्फफ-ओ-नाम नहीीं
वो ह्न कज् का त्व्वु र बशर का काम नहीीं
कक्ी जमाने में इ् रह-गुजर ्े गुजरा था
ब-्द गुरर ओ तजम्मुल इधर ्े गुजरा था
और अब ये राह-गुजर भी है कदल-फरे ब ओ ह्ीीं
है इ् की खाक में कैफ-ए-शराब-ओ-शे र मकीीं
हवा में शोखी-ए-रफ़्तार की अदाएाँ हैं
फजा में नमी-ए-गुफ़्तार की ्दाएाँ हैं
गरज वो हुस्न अब इ् रह का जु ज़्व-ए-मीं जर है
कनयाज-ए-इश्क़ को इक ्ज्दा-गह मयस्सर है

एक शहर-आशोब का आ़िाज
अब बज़्म-ए-्ुखन ्ोहबत-ए-लब-्ोख़्तगााँ है
अब हल्फका-ए-मय ताइफा-ए-बे-तलबााँ है
घर रकहए तो वीरानी-ए-कदल खाने को आवे
रह चकलए तो हर गाम पे गौगा-ए-्गााँ है
पैवींद-ए-रह-ए-कचा-ए-जर चश्म-ए-गजालााँ
पाबो्-ए-हव् अफ्र-ए-शमशाद-कदााँ है
यााँ अहल-ए-जु नाँ यक-ब-कदगर दस्त-ओ-कगरे बााँ
वााँ जै श-ए-हव् तेग-ब-कफ दरपा-ए-जााँ है
अब ्ाहब-ए-इीं ्ाफ है खु द ताकलब-ए-इीं ्ाफ
मोहर उ् की है मीजान ब-दस्त-ए-कदगरााँ है
हम ्हल-तलब कौन ्े फरहाद थे ले ककन
अब शहर में तेरे कोई हम ्ा भी कहााँ है

एक तराना मुजाफहिीन-ए-फर्फफलस्तीन के फलए


हम जीतेंगे
हक़्का हम इक कदन जीतेंगे
कबल-आकखर इक कदन जीतेंगे
क्या खौफ जी-यलगार-ए-आदा
है ्ीना क्पर हर गाजी का
क्या खौफ जी-यररश-ए-जैश-ए-कजा
्फ-बस्ता हैं अरवाहुश्शु हदा
डर काहे का

हम जीतेंगे
हक़्का हम इक कदन जीतेंगे
कद जाअल-हक़्को व जहकल-बाकतल
फम़ दा-ए-रब्ब-ए-अकबर
है जन्नत अपने पााँ व तले
और ्ाया-ए-रहमत ्र पर है
किर क्या डर है

हम जीतेंगे
हक़्का हम इक कदन जीतेंगे
कबल-आकखर इक कदन जीतेंगे

िलस्तीनी बच्चे के फलए लोरी


(2)
मत रो बच्े
रो रो के अभी
तेरी अम्मी की आाँ ख लगी है
मत रो बच्े
कुछ ही पहले
तेरे अब्बा ने
अपने गम ्े रुख़्सत ली है
मत रो बच्े
तेरा भाई
अपने ख़्वाब की कततली पीछे
दर कहीीं परदे ् गया है
मत रो बच्े
तेरी बाजी का
डोला पराए दे ् गया है
मत रो बच्े
तेरे आाँ गन में
मु दा़ ्रज नहला के गए हैं
चींद्रमा दफना के गए हैं
मत रो बच्े
अम्मी, अब्बा, बाजी, भाई
चााँ द और ्रज
त गर रोएगा तो ये ्ब
और भी तुझ को रुलवाएेेेींगे
त मु स्काएगा तो शायद
्ारे इक कदन भे ् बदल कर
तुझ ्े खे लने लौट आएाँ गे

र्फलस्तीनी शोहिा जो परिे स में काम आए


(1)
मैं जहााँ पर भी गया अज़ -ए-वतन
तेरी तजलील के दागोीं की जलन कदल में कलए
तेरी हुम़ त के चरागोीं की लगन कदल में कलए
तेरी उल्फफत कतरी यादोीं की क्क ्ाथ गई
तेरे नारीं ज शगफोीं की महक ्ाथ गई
्ारे अन-दे खे रफीकोीं का कजलौ ्ाथ रहा
ककतने हाथोीं ्े हम-आगोश कमरा हाथ रहा
दर परदे ् की बे-मे हर गुजरगाहोीं में
अजनबी शहर की बेनाम-ओ-कनशााँ राहोीं में
कज् जमीीं पर भी ग़्खला मे रे लह का परचम
लहलहाता है वहााँ अज़ -ए-कफकलस्तीीं का अलम
तेरे आदा ने ककया एक कफकलस्तीीं बबा़ द
मे रे जख़्मोीं ने ककए ककतने कफकलस्तीीं आबाद

र्फश़-ए-नौमीिी-ए-िीिार
दे खने की तो कक्े ताब है ले ककन अब तक
जब भी उ् राह ्े गुजरो तो कक्ी दु ख की क्क
टोकती है कक वो दरवाजा खु ला है अब भी
और उ् ्ेहन में हर् याँही पहले की तरह
फश़ -ए-नौमीदी-ए-दीदार कबछा है अब भी
और कहीीं याद कक्ी कदल-जदा बच्े की तरह
हाथ िैलाए हुए बैठी है फररयाद-कुनााँ

कदल ये कहता है कहीीं और चले जाएाँ जहााँ


कोई दरवाजा अब् वा हो, न बे-कार कोई
याद फररयाद का कश्कोल कलए बैठी हो
महरम-ए-ह्रत-ए-दीदार हो दीवार कोई
न कोई ्ाया-ए-गुल कहजरत-ए-गुल ्े वीरााँ

ये भी कर दे खा है ्ौ बार कक जब राहोीं में


दे ् परदे ् की बे-महर गुजरगाहोीं में
काकफले कामत ओ रुख़्सार ओ लब ओ गे् के
पदा़ -ए-चश्म पे याँ उतरे हैं बे-्रत-ओ-रीं ग
कज् तरह बींद दरीचोीं पे कगरे बाररश-ए-्ींग

और कदल कहता है हर बार चलो लौट चलो


इ् ्े पहले कक वहााँ जाएाँ तो ये दु ख भी न हो
ये कनशानी कक वो दरवाजा खु ला है अब भी
और उ् ्ेहन में हर् याँही पहले की तरह
फश़ -ए-नौमीदी-ए-दीदार कबछा है अब भी

गााँव की सड़क
ये दे ् मु फकल्-ओ-नादार कज-कुलाहोीं का
ये दे ् बे-जर-ओ-दीनार बादशाहोीं का
कक कज् की खाक में कुदरत है कीकमयाई की
ये नायबान-ए-खु दावींद-ए-अज़ का मस्कन
ये ने क पाक बुजुगों की रह का मदफन
जहााँ पे चााँ द क्तारोीं ने जुब्बा-्ाई की
न जाने ककतने जमानोीं ्े इ् का हर रस्ता
कम्ाल-ए-खाना-ए-बे-खानुमााँ था दरबस्ता

खु शा कक आज ब-फज़्ल-ए-खु दा वो कदन आया


कक दस्त-ए-गैब ने इ् घर की दर-कुशाई की

चुने गए हैं ्भी खार इ् की राहोीं ्े


्ुनी गई है कबल-आकखर बरहना-पाई की

़िम न कर, ़िम न कर


दद़ थम जाएगा गम न कर, गम न कर
यार लौट आएाँ गे, कदल ठहर जाएगा, गम न कर, गम न कर
जख़्म भर जाएगा
गम न कर, गम न कर
कदन कनकल आएगा
गम न कर, गम न कर
अब्र खु ल जाएगा, रात ढल जाएगी
गम न कर, गम न कर
रुत बदल जाएगी
गम न कर, गम न कर

गीत
चलो किर ्े मुस्कुराएाँ
चलो किर ्े कदल जलाएाँ
जो गुजर गईीं हैं रातें
उन्हें किर जगा के लाएाँ
जो कब्र गईीं हैं बातें
उन्हें याद में बुलाएाँ
चलो किर ्े कदल लगाएाँ
चलो किर ्े मुस्कुराएाँ
कक्ी शह-नशी ीं पे झलकी
वो धनक कक्ी कबा की
कक्ी रग में क्म्ाई
वो क्क कक्ी अदा की
कोई हफ़-ए-बे-मु रव्वत
कक्ी कुींज-ए-लब ्े िटा
वो छनक के शीशा-ए-कदल
तह-ए-बाम किर ्े टटा
ये कमलन की ना कमलन की
ये लगन की और जलन की
जो ्ही हैं वारदातें
जो गुजर गईीं हैं रातें
जो कब्र गई हैं बातें
कोई उन की धुन बनाएाँ
कोई उन का गीत गाएाँ
चलो किर ्े मुस्कुराएाँ
चलो किर ्े कदल जलाएाँ

़िु बार-ए-ख़ाफतर-ए-महफर्फल ठहर जाए


कहीीं तो कारवान-ए-दद़ की मीं कजल ठहर जाए
ककनारे आ लगे उम्र-ए-रवााँ या कदल ठहर जाए

अमााँ कै्ी कक मौज-ए-खाँ अभी ्र ्े नहीीं गुजरी


गुजर जाए तो शायद बाज-ए-काकतल ठहर जाए

कोई दम बादबान-ए-कश्ती-ए-्हबा को तह रक्खो


जरा ठहरो गुबार-ए-खाकतर-ए-महकफल ठहर जाए

खु म-ए-्ाकी में जुज जहर-ए-हलाहल कुछ नहीीं बाकी


जो हो महकफल में इ् इकराम के काकबल ठहर जाए

हमारी खामु शी ब् कदल ्े लब तक एक वक़्फा है


ये तफााँ है जो पल भर बर-लब-ए-्ाकहल ठहर जाए

कनगाह-ए-मुीं तकजर कब तक करे गी आईना-बींदी


कहीीं तो दश्त-ए-गम में यार का महकमल ठहर जाए

हम जो तारीक राहोीं में मारे गए


तेरे होींटोीं के िलोीं की चाहत में हम
दार की खु श्क टहनी पे वारे गए
तेरे हातोीं की शम़् ओीं की ह्रत में हम
नीम-तारीक राहोीं में मारे गए

्कलयोीं पर हमारे लबोीं ्े परे


तेरे होींटोीं की लाली लपकती रही
तेरी जु ल्फफोीं की मस्ती बर्ती रही
तेरे हाथोीं की चााँ दी दमकती रही

जब घुली तेरी राहोीं में शाम-ए-क्तम


हम चले आए लाए जहााँ तक कदम
लब पे हफ़-ए-गजल कदल में ककींदील-ए-गम
अपना गम था गवाही कतरे हुस्न की
दे ख काएम रहे इ् गवाही पे हम
हम जो तारीक राहोीं पे मारे गए

ना-र्ाई अगर अपनी तकदीर थी


तेरी उल्फफत तो अपनी ही तदबीर थी
कक् को कशकवा है गर शौक के क्लक्ले
कहज्र की कत्ल-गाहोीं ्े ्ब जा कमले

कत्ल-गाहोीं ्े चुन कर हमारे अलम


और कनकलें गे उश्शाक के काकफले
कजन की राह-ए-तलब ्े हमारे कदम
मु ख़्त्र कर चले दद़ के फा्ले
कर चले कजन की खाकतर जहााँ गीर हम
जााँ गाँवा कर कतरी कदलबरी का भरम
हम जो तारीक राहोीं में मारे गए

हम लोग
कदल के ऐवााँ में कलए गुल-शु दा शम़् ओीं की कतार
नर-ए-खु शीद ्े ्हमे हुए उकताए हुए
हुस्न-ए-महबब के ्य्याल त्व्वु र की तरह
अपनी तारीकी को भें चे हुए कलपटाए हुए

गायत-ए-्द-ओ-कजयााँ ्रत-ए-आगाज-ओ-मआल
वही बे-्द-ए-तजस्सु् वही बेकार ्वाल
मु ज़्मकहल ्ाअत-ए-इमरोज की बे-रीं गी ्े
याद-ए-माजी ्े गमीीं दहशत-ए-फदा़ ्े कनढाल
कतश्ना अफ़कार जो तस्कीन नहीीं पाते हैं
्ोख़्ता अश्क जो आाँ खोीं में नहीीं आते हैं
इक कड़ा दद़ कक जो गीत में ढलता ही नहीीं
कदल के तारीक कशगाफोीं ्े कनकलता ही नहीीं
और उलझी हुई मौहम ्ी दरबााँ की तलाश
दश्त ओ कजीं दााँ की हव् चाक-ए-कगरे बााँ की तलाश

हम तो मजबर थे इस फिल से
हम तो मजबर थे इ् कदल ्े कक कज् में हर दम
गकद़ श-ए-खाँ ्े वो कोहराम बपा रहता है
जै ्े ररीं दान-ए-बला-नोश जो कमल बैठें बहम
मय-कदे में ्फर-ए-जाम बपा रहता है
्ोज-ए-खाकतर को कमला जब भी ्हारा कोई
दाग-ए-कहरमान कोई, दद़ -ए-तमन्ना कोई
मरहम-ए-या् ्े माइल-ब-कशफा होने लगा
जख़्म-ए-उम्मीद कोई किर ्े हरा होने लगा
हम तो मजबर थे इ् कदल ्े कक कज् की कजद पर
हम ने उ् रात के माथे पे ्हर की तहरीर
कज् के दामन में अाँधेरे के क्वा कुछ भी न था
हम ने इ् दश्त को ठहरा कलया कफरदौ्-ए-नजीर
कज् में जुज ्नअत-ए-खन-ए-्र-ए-पा कुछ भी न था
कदल को ताबीर कोई और गवारा ही न थी
कुल्फफत-ए-जीस्त तो मींजर थी हर तौर मगर
राहत-ए-मग़ कक्ी तौर गवारा ही न थी

हम तो मजबर-ए-वर्फा हैं
तुझ को ककतनोीं का लह चाकहए ऐ अज़ -ए-वतन
जो कतरे आररज-ए-बे-रीं ग को गुलनार करें
ककतनी आहोीं ्े कले जा कतरा ठीं डा होगा
ककतने आाँ ् कतरे ्हराओीं को गुलजार करें

तेरे ऐवानोीं में पुज़े हुए पैमााँ ककतने


ककतने वादे जो न आ्दा-ए-इकरार हुए
ककतनी आाँ खोीं को नजर खा गई बद-ख़्वाहोीं की
ख़्वाब ककतने कतरी शह-राहोीं में ्ींग्ार हुए

''बला-कशान-ए-मोहब्बत पे जो हुआ ्ो हुआ


जो मु झ पे गुजरी मत उ् ्े कहो, हुआ ्ो हुआ
मबादा हो कोई जाकलम कतरा गरे बााँ -गीर
लह के दाग त दामन ्े धो, हुआ ्ो हुआ''

हम तो मजबर-ए-वफा हैं मगर ऐ जान-ए-जहााँ


अपने उश्शाक ्े ऐ्े भी कोई करता है
तेरी महकफल को खु दा रक्खे अबद तक काएम
हम तो मे हमााँ हैं घड़ी भर के हमारा क्या है

हसीना-ए-ख़्याल से
मु झे दे दे
र्ीले होींट मा्माना पेशानी ह्ीीं आाँ खें
कक मैं इक बार किर रीं गीकनयोीं में गक़ हो जाऊाँ!
कमरी हस्ती को तेरी इक नजर आगोश में ले ले
हमे शा के कलए इ् दाम में महफज हो जाऊाँ
कजया-ए-हुस्न ्े जु ल्मात-ए-दु कनया में न किर आऊाँ
गुकजश्ता ह्रतोीं के दाग मेरे कदल ्े धुल जाएाँ
मैं आने वाले गम की कफक्र ्े आजाद हो जाऊाँ
कमरे माजी ओ मु स्तककबल ्रा्र महव हो जाएाँ
मु झे वो इक नजर इक जावेदानी ्ी नजर दे दे

हजर करो फमरे तन से


्जे तो कै्े ्जे कत्ल-ए-आम का मे ला
कक्े लु भाएगा मे रे लह का वावैला
कमरे नजार बदन में लह ही ककतना है
चराग हो कोई रौशन न कोई जाम भरे
न इ् ्े आग ही भड़के न उ् ्े प्या् बुझे
कमरे कफगार बदन में लह ही ककतना है
मगर वो जहर-ए-हलाहल भरा है न् न् में
कज्े भी छे दो हर इक बाँद कहर-ए-अफई है
हर इक कशीद है ्कदयोीं के दद़ ओ ह्रत की
हर इक में मोहर-ब-लब गैज ओ गम की गमी है
हजर करो कमरे तन ्े ये ्म का दररया है
हजर करो कक कमरा तन वो चोब-ए-्हरा है
कज्े जलाओ तो ्ेहन-ए-चमन में दहकेंगे
बजाए-्व़-ओ-्मन मे री हकियोीं के बबल
इ्े कबखे रा तो दश्त-ओ-दमन में कबखरे गी
बजाए-मु श्क-ए-्बा मे री जान-ए-जार की धल
हजर करो कक कमरा कदल लह का प्या्ा है

हाट़ -अटै क
दद़ इतना था कक उ् रात कदल-ए-वहशी ने
हर रग-ए-जााँ ्े उलझना चाहा
हर बुन-ए-म ्े टपकना चाहा
और कहीीं दर कतरे ्हन में गोया
पत्ता पत्ता कमरे अफ़्सुदा़ लह में धुल कर
हुस्न-ए-महताब ्े आजु दा़ नजर आने लगा
मे रे वीराना-ए-तन में गोया
्ारे दु खते हुए रे शोीं की तनाबें खु ल कर
क्लक्ला-वार पता दे ने लगीीं
रुख़्सत-ए-काकफला-ए-शौक की तय्यारी का
और जब याद की बुझती हुई शम़् ओीं में नजर आया कहीीं
एक पल आकखरी लम्हा कतरी कदलदारी का
दद़ इतना था कक उ् ्े भी गुजरना चाहा
हम ने चाहा भी मगर कदल न ठहरना चाहा

फहज्र की राख और फवसाल के िल


आज किर दद़ -ओ-गम के धागे में
हम कपरो कर कतरे खयाल के िल
तक़-ए-उल्फफत के दश्त ्े चुन कर
आश्नाई के माह ओ ्ाल के िल
तेरी दहलीज पर ्जा आए
किर कतरी याद पर चढा आए
बााँ ध कर आरज के पल्ले में
कहज्र की राख और कव्ाल के िल

हुस्न और मौत
जो िल ्ारे गुकलस्तााँ में ्ब ्े अच्छा हो
फरोग-ए-नर हो कज् ्े फजा-ए-रीं गीीं में
कखजााँ के जौर-ओ-क्तम को न कज् ने दे खा हो
बहार ने कज्े खन-ए-कजगर ्े पाला हो
वो एक िल ्माता है चश्म-ए-गुलचीीं में

हजार िलोीं ्े आबाद बाग-ए-हस्ती है


अजल की आाँ ख फकत एक को तर्ती है
कई कदलोीं की उमीदोीं का जो ्हारा हो
फजा-ए-दहर की आलदगी ्े बाला हो
जहााँ में आ के अभी कज् ने कुछ न दे खा हो
न कहत-ए-ऐश-ओ-म्ऱ त न, गम की अजा़ नी
कनार-ए-रहमत-ए-हक में उ्े ्ुलाती है
्ुकत-ए-शब में फररश्तोीं की मक़्या-ख़्वानी
तवाफ करने को ्ुब्ह-ए-बहार आती है
्बा चढाने को जन्नत के िल लाती है

इधर न िे खो
इधर न दे खो कक जो बहादु र
कलम के या तेग के धनी थे
जो अज़्म-ओ-कहम्मत के मुद्दई थे
अब उन के हाथोीं में क्द़् क-ए-ईमााँ की
आजमदा पुरानी तलवार मुड़ गई है
जो कज-कुलह ्ाकहब-ए-हशम थे
जो अहल-ए-दस्तार मोहतरम थे
हव् के पुर-पेच रास्तोीं में
कुलह कक्ी ने कगरौ रख दी
कक्ी ने दस्तार बेच दी है
उधर भी दे खो
जो अपने रुखशााँ लह के दीनार
मु फ़्त बाजार में लु टा कर
नजर ्े ओझल हुए
और अपनी लहद में इ् वक़्त तक गनी हैं ,
उधर भी दे खो
जो हफ़-ए-हक की ्लीब पर अपना तन ्जा कर
जहााँ ्े रुख़्सत हुए
और अहल-ए-जहााँ में इ् वक़्त तक नबी हैं

ईरानी तलबा के नाम


ये कौन ्खी हैं
कजन के लह की
अशरकफयााँ छन-छन, छन-छन,
धरती के पैहम प्या्े
कश्कोल में ढलती जाती हैं
कश्कोल को भरती हैं
ये कौन जवााँ हैं अज़ -ए-अजम
ये लख-लु ट
कजन के कजस्मोीं की
भरपर जवानी का कुींदन
याँ खाक में रे जा रे जा है
याँ कचा कचा कबखरा है
ऐ अज़ -ए-अजम, ऐ अज़ -ए-अजम!
क्याँ नोच के हाँ ् हाँ ् िेंक कदए
उन आाँ खोीं ने अपने नीलम
उन होींटोीं ने अपने मजाां
उन हाथोीं की ''बे-कल चााँ दी
कक् काम आई कक् हाथ लगी''

ऐ पछने वाले परदे ्ी


ये कतफ़ल ओ जवााँ
उ् नर के नौ-र् मोती हैं
उ् आग की कच्ी ककलयााँ हैं
कज् मीठे नर और कड़वी आग
्े जु ल्म की अींधी रात में िटा
्ुब्ह-ए-बगावत का गुलशन
और ्ुब्ह हुई मन-मन, तन-तन,
उन कजस्मोीं का चााँ दी ्ोना
उन चेहरोीं के नीलम, मजाां ,
जग-मग जग-मग रुखशाीं रुखशाीं
जो दे खना चाहे परदे ्ी
पा् आए दे खे जी भर कर
ये जीस्त की रानी का झमर
ये अम्न की दे वी का कींगन!

इनफतहा-ए-कार
कपींदार के खगर को
नाकाम भी दे खोगे
आगाज ्े वाककफ हो
अींजाम भी दे खोगे

रगीनी-ए-दु कनया ्े
माय् ्ा हो जाना
दु खता हुआ कदल ले कर
तींहाई में खो जाना

तर्ी हुई नजरोीं को


ह्रत ्े झुका ले ना
फररयाद के टु कड़ोीं को
आहोीं में छु पा लेना

रातोीं की खमोशी में


छु प कर कभी रो ले ना
मजबर जवानी के
मल्ब् को धो लेना
जज़्बात की वु्अत को
्ज्दोीं ्े ब्ा ले ना
भली हुई यादोीं को
्ीने ्े लगा लेना

इीं फतसाब
आज के नाम
और
आज के गम के नाम
आज का गम कक है कजीं दगी के भरे गुलक्तााँ ्े खफा
जद़ पत्तोीं का बन
जद़ पत्तोीं का बन जो कमरा दे ् है
दद़ की अींजुमन जो कमरा दे ् है
क्लरकोीं की अफ़्सुदा़ जानोीं के नाम
ककम़ -खु दा़ कदलोीं और जबानोीं के नाम
पोस्ट-मै नोीं के नाम
तााँ गे वालोीं का नाम
रे ल-बानोीं के नाम
कार-खानोीं के भके कजयालोीं के नाम
बादशाह-ए-जहााँ वाली-ए-मा-क्वा, नाएब-उल-अल्लाह कफल-अज़
दहकााँ के नाम
कज् के ढोरोीं को जाकलम हाँ का ले गए
कज् की बेटी को डाक उठा ले गए
हाथ भर खे त ्े एक अींगुश्त पटवार ने काट ली है
द्री माकलये के बहाने ्े ्रकार ने काट ली है
कज् की पग जोर वालोीं के पााँ व-तले
धग़्ियााँ हो गई है
उन दु खी माओीं के नाम
रात में कजन के बच्े कबलकते हैं और
नीींद की मार खाए हुए बाजु ओीं में ्ाँभलते नहीीं
दु ख बताते नहीीं
कमन्नतोीं जाररयोीं ्े बहलते नहीीं

उन ह्ीनाओीं के नाम
कजन की आाँ खोीं के गुल
कचलमनोीं और दरीचोीं की बेलोीं पे बे-कार ग़्खल ग़्खल के
मु रझा गए हैं
उन कबयाहताओीं के नाम
कजन के बदन
बे मोहब्बत ररया-कार ्ेजोीं पे ्ज ्ज के उक्ता गए हैं
बेवाओीं के नाम
कटकड़योीं और गकलयोीं मोहल्लोीं के नाम
कजन की नापाक खाशाक ्े चााँ द रातोीं
को आ आ के करता है अक्सर वज
कजन के ्ायोीं में करती है आह-ओ-बुका
आाँ चलोीं की कहना
चकड़योीं की खनक
काकुलोीं की महक
आरज-मीं द ्ीनोीं की अपने प्ीने में जु ल्फने की ब

पढने वालोीं के नाम


वो जो अ्हाब-ए-तब्ल-ओ-अलम
के दरोीं पर ककताब और कलम
का तकाजा कलए हाथ िैलाए
वो मा्म जो भोले -पन में
वहााँ अपने नन्हे चरागोीं में लौ की लगन
ले के पहुाँ चे जहााँ
बट रहे थे घटा-टोप बे-अींत रातोीं के ्ाए

उन अ्ीरोीं के नाम
कजन के ्ीनोीं में फदा़ के शब-ताब गौहर
जे ल-खानोीं की शोरीदा रातोीं की ्र्र में
जल जल के अींजुम-नुमा होगए हैं
आने वाले कदनोीं के ्फीरोीं के नाम
वो जो खुश्ब-ए-गुल की तरह
अपने पैगाम पर खु द कफदा होगए हैं

इीं फतजार
गुजर रहे हैं शब ओ रोज तुम नहीीं आतीीं
ररयाज-ए-जीस्त है आजु रदा-ए-बहार अभी
कमरे खयाल की दु कनया है ्ोगवार अभी
जो ह्रतें कतरे गम की कफील हैं प्यारी
अभी तलक कमरी तन्हाइयोीं में बस्ती हैं
तवील रातें अभी तक तवील हैं प्यारी
उदा् आाँ खें कतरी दीद को तर्ती हैं
बहार-ए-हुस्न पे पाबींदी-ए-जफा कब तक
ये आजमाइश-ए-्ब्र-ए-गुरेज-पा कब तक
क्म तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हाँ मैं
गलत था दावा-ए-्ब्र-ओ-शकेब आ जाओ
करार-ए-खाकतर-ए-बेताब थक गया हाँ मैं
इकबाल
आया हमारे दे ् में इक खु श-नवा फकीर
आया और अपनी धुन में गजल-ख़्वााँ गुजर गया
्ुन्ान राहें खल्फक ्े आबाद हो गईीं
वीरान मय-कदोीं का न्ीबा ्ाँवर गया
थीीं चींद ही कनगाहें जो उ् तक पहुाँ च ्कीीं
पर उ् का गीत ्ब के कदलोीं में उतर गया
अब दर जा चुका है वो शाह-ए-गदा-नु मा
और किर ्े अपने दे ् की राहें उदा् हैं
चींद इक को याद है कोई उ् की अदा-ए-खा्
दो इक कनगाहें चींद अजीजोीं के पा् हैं
पर उ् का गीत ्ब के कदलोीं में मु कीम है
और उ् के लय ्े ्ैकड़ोीं लज़्ज़त-शना् हैं

इ् गीत के तमाम महाक्न हैं ला-जवाल


इ् का वफर इ् का खरोश इ् का ्ोज-ओ-्ाज
ये गीत कमस्ल-ए-शोला-ए-जव्वाला तुींद-ओ-तेज
इ् की लपक ्े बाद-ए-फना का कजगर गुदाज
जै ्े चराग वहशत-ए-्र-्र ्े बे-खतर
या शम-ए-बज़्म ्ुब्ह की आमद ्े बे-खबर

इस वक़्त तो याँ लगता है


इ् वक़्त तो याँ लगता है अब कुछ भी नहीीं है
महताब न ्रज, न अाँधेरा न ्वेरा
आाँ खोीं के दरीचोीं पे कक्ी हुस्न की कचलमन
और कदल की पनाहोीं में कक्ी दद़ का डे रा
मु मककन है कोई वहम था, मु मककन है ्ुना हो
गकलयोीं में कक्ी चाप का इक आकखरी िेरा
शाखोीं में खयालोीं के घने पेड़ की शायद
अब आ के करे गा न कोई ख़्वाब ब्ेरा
इक बैर न इक मे हर न इक रब्त न ररश्ता
तेरा कोई अपना, न पराया कोई मे रा

माना कक ये ्ुन्ान घड़ी ्ख़्त घड़ी है


ले ककन कमरे कदल ये तो फकत इक ही घड़ी है
कहम्मत करो जीने को तो इक उम्र पड़ी है

इश्क़ अपने मुजररमोीं को पा-ब-जौलााँ ले चला


दार की रग़्स्सयोीं के गुल-बींद गद़ न में पहने हुए
गाने वाले हर इक रोज गाते रहे
पायलें बेकड़योीं की बजाते हुए
नाचने वाले धमें मचाते रहे
हम न इ् ्फ में थे और न उ् ्फ में थे
रास्ते में खड़े उन को तकते रहे
रश्क करते रहे
और चुप चाप आाँ ् बहाते रहे

लौट कर आ के दे खा तो िलोीं का रीं ग


जो कभी ्ुख़ था जद़ ही जद़ है
अपना पहल टटोला तो ऐ्ा लगा
कदल जहााँ था वहााँ दद़ ही दद़ है
गुल में कभी तौक का वाकहमा
कभी पााँ व में रक़्-ए-जीं जीर
और किर एक कदन इश्क़ उन्हीीं की तरह
र्न-दर-गुल पा-ब-जौलााँ हमें
उ्ी काकफले में कशााँ ले चला

इश्क़-आबाि की शाम
जब ्रज ने जाते जाते
इश्क़-आबाद के नीले उफुक ्े
अपने ्ुनहरी जाम में ढाली
्ुखी-ए-अव्वल शाम
और ये जाम
तुम्हारे ्ामने रख कर
तुम ्े ककया कलाम
कहा प्रणाम
उठो
और अपने तन की ्ेज ्े उठ कर
इक शीरीीं पैगाम
्ब्त करो उ् शाम
कनार-ए-जाम
कक्ी के नाम
शायद तुम ये मान गईीं
और तुम ने
अपने लब-ए-गुलफाम
ककए अींजाम
कक्ी के नाम
कनार-ए-जाम
या शायद
तुम अपने तन की ्ेज पे ्ज कर
थीीं याँ महव-ए-आराम
कक रस्ता तकते तकते
बुझ गई शम-ए-जाम
इश्क़-आबाद के नीले उफुक पर
गारत हो गई शाम

जब तेरी समुींिर आाँ खोीं में


ये धप ककनारा शाम ढले
कमलते हैं दोनोीं वक़्त जहााँ
जो रात न कदन जो आज न कल
पल-भर को अमर पल भर में धुआाँ
इ् धप ककनारे पल-दो-पल
होींटोीं की लपक
बााँ होीं की छनक
ये मे ल हमारा झट न ्च
क्याँ रार करो क्याँ दोश धरो
कक् कारन झटी बात करो
जब तेरी ्मुीं दर आाँ खोीं में
इ् शाम का ्रज डबेगा
्ुख ्ोएाँ गे घर दर वाले
और राही अपनी रह ले गा

जरस-ए-गु ल की सिा
इ् हव् में कक पुकारे जर्-ए-गुल की ्दा
दश्त-ओ-्हरा में ्बा किरती है याँ आवारा
कज् तरह किरते हैं हम अहल-ए-जु नाँ आवारा

हम पे वारफ़्तगी-ए-होश की तोहमत न धरो


हम कक रुम्माज-ए-रुमज-ए-गम-ए-कपन्हानी हैं
अपनी गद़ न पे भी है ररश्ता-फगन खाकतर-ए-दोस्त
हम भी शौक-ए-रह-ए-कदलदार के कजीं दानी हैं

जब भी अबर-ए-दर-ए-यार ने इरशाद ककया


कज् बयाबााँ में भी हम होींगे चले आएाँ गे
दर खु ला दे खा तो शायद तुम्हें किर दे ख ्कें
बींद होगा तो ्दा दे के चले जाएाँ गे

जश्न का फिन
जु नाँ की याद मनाओ कक जश्न का कदन है
्लीब-ओ-दार ्जाओ कक जश्न का कदन है
तरब की बज़्म है बदलो कदलोीं के पैराहन
कजगर के चाक क्लाओ कक जश्न का कदन है

तुनुक-कमजाज है ्ाकी न रीं ग-ए-मय दे खो


भरे जो शीशा चढाओ कक जश्न का कदन है

तमीज-ए-रहबर-ओ-रहजन करो न आज के कदन


हर इक ्े हाथ कमलाओ कक जश्न का कदन है

है इीं कतजार-ए-मलामत में ना्ेहोीं का हुजम


नजर ्ाँभाल के जाओ कक जश्न का कदन है

वो शोररश-ए-गम-ए-कदल कज् के लय नहीीं कोई


गजल की धन में ्ुनाओ कक जश्न का कदन है

फजस रोज कजा आएगी


कक् तरह आएगी कज् रोज कजा आएगी
शायद इ् तरह कक कज् तौर कभी अव्वल-ए-शब
बे-तलब पहले -पहल मह़ मत-ए-बो्ा-ए-लब
कज् ्े खु लने लगें हर ्म्त कतकलस्मात के दर
और कहीीं दर ्े अींजान गुलाबोीं की बहार
यक-ब-यक ्ीना-ए-महताब को तड़पाने लगे
शायद इ् तरह कक कज् तौर कभी आकखर-ए-शब
नीम-वा ककलयोीं ्े ्र्ब्ज़ ्हर
यक-ब-यक हुजरा-ए-महबब में लहराने लगे
और खामोश दरीचोीं ्े ब-हीं गाम-ए-रहील
झनझनाते हुए तारोीं की ्दा आने लगे

कक् तरह आएगी कज् रोज कजा आएगी


शायद इ् तरह कक कज् तौर तह-ए-नोक-ए-क्नााँ
कोई रग वाकहमा-ए-दद़ ्े कचल्लाने लगे
और कज़्ज़ाक-ए-क्नााँ -दस्त का धुाँदला ्ाया
अज-करााँ -ता-ब-करााँ दहर पे मीं डलाने लगे
कक् तरह आएगी कज् रोज कजा आएगी
ख़्वाह काकतल की तरह आए कक महबब-क्फत
कदल ्े ब् होगी यही हफ़-ए-कवदाअ की ्रत
कलल्लाकहल-हम्द ब-अनजाम-ए-कदल-ए-कदल-जदगााँ
कलमा-ए-शु क्र ब-नाम-ए-लब-ए-शीरीीं-दहनााँ

जो मेरा तुम्हारा ररश्ता है


मैं क्या कलखाँ कक जो मे रा तुम्हारा ररश्ता है
वो आकशकी की जबााँ में कहीीं भी दज़ नहीीं
कलखा गया है बहुत लु तफ-ए-वस्ल ओ दद़ -ए-कफराक
मगर ये कैकफयत अपनी रकम नहीीं है कहीीं
ये अपना इशक-ए-हम-आगोश कज् में कहज्र ओ कव्ाल
ये अपना दद़ कक है कब ्े हमदम-ए-मह-ओ-्ाल
इ् इश्क़-ए-खा् को हर एक ्े छु पाए हुए
''गुजर गया है जमाना गले लगाए हुए''

कहााँ जाओगे
और कुछ दे र में लु ट जाएगा हर बाम पे चााँ द
अक्स खो जाएाँ गे आईने तर् जाएाँ गे
अश़ के दीदा-ए-नमनाक ्े बारी-बारी
्ब क्तारे ्र-ए-खाशाक बर् जाएाँ गे
आ् के मारे थके हारे शकबस्तानोीं में
अपनी तन्हाई ्मे टेगा, कबछाएगा कोई
बेवफाई की घड़ी, तक़-ए-मदारात का वक़्त
इ् घड़ी अपने क्वा याद न आएगा कोई
तक़-ए-दु कनया का ्मााँ खत्म-ए-मु लाकात का वक़्त
इ् घड़ी ऐ कदल-ए-आवारा कहााँ जाओगे
इ् घड़ी कोई क्ी का भी नहीीं रहने दो
कोई इ् वक़्त कमले गा ही नहीीं रहने दो
और कमले गा भी इ् तौर कक पछताओगे
इ् घड़ी ऐ कदल-ए-आवारा कहााँ जाओगे

और कुछ दे र ठहर जाओ कक किर नश्तर-ए-्ुब्ह


जख़्म की तरह हर इक आाँ ख को बेदार करे
और हर कुश्ता-ए-वामााँ दगी-ए-आकखर-ए-शब
भल कर ्ाअत-ए-दरमाीं दगी-ए-आकखर-ए-शब दरमाीं दगी आकखर शब
जान पहचान मुलाकात पे इ्रार करे

ख़त्म हुई बाररश-ए-सींग


ना-गहााँ आज कमरे तार-ए-नजर ्े कट कर
टु कड़े टु कड़े हुए आफाक पे खु शीद ओ कमर
अब कक्ी ्म्त अींधेरा न उजाला होगा
बुझ गई कदल की तरह राह-ए-वफा मे रे बाद
दोस्तो काकफला-ए-दद़ का अब क्या होगा
अब कोई और करे परवररश-ए-गुलशन-ए-गम
दोस्तो खत्म हुई दीदा-ए-तर की शबनम
थम गया शोर-ए-जु नाँ खत्म हुई बाररश-ए-्ींग
खाक-ए-रह आज कलए है लब-ए-कदलदार का रीं ग
क-ए-जानााँ में खु ला मे रे लह का परचम
दे ग़्खए दे ते हैं कक् कक् को ्दा मे रे बाद
'कौन होता है हरीफ-ए-मय-ए-मद़ -अफगन-ए-इश्क़'
'है मु कऱ र लब-ए-्ाकी पे ्ला मे रे बाद'

ख़ुिा वो वक़्त न लाए


खु दा वो वक़्त न लाए कक ्ोगवार हो त
्काँ की नीींद तुझे भी हराम हो जाए
कतरी म्ऱ त-ए-पैहम तमाम हो जाए
कतरी हयात तुझे तल्फख जाम हो जाए
गमोीं ्े आईना-ए-कदल गुदाज हो तेरा
हुजम-ए-या् ्े बेताब हो के रह जाए
वुफर-ए-दद़ ्े ्ीमाब होके रह जाए
कतरा शबाब फकत ख़्वाब हो के रह जाए
गुरर-ए-हुस्न ्रापा कनयाज हो तेरा
तवील रातोीं में त भी करार को तर्े
कतरी कनगाह कक्ी गम-गु्ार को तर्े
कखजााँ -र्ीदा तमन्ना बहार को तर्े
कोई जबीीं न कतरे ्ींग-ए-आस्तााँ पे झुके
कक कजीं ्-ए-इज्जज-ओ-अकीदत ्े तुझ को शाद करे
फरे ब-ए-वादा-ए-फदा़ पे ए'कतमाद करे
खु दा वो वक़्त न लाए कक तुझ को याद आए
वो कदल कक तेरे कलए बे-करार अब भी है
वो आाँ ख कज् को कतरा इीं कतजार अब भी है

ख़ुशीि-ए-महशर की लौ
आज के कदन न पछो कमरे दोस्तो
दर ककतने हैं खु कशयााँ मनाने के कदन
खु ल के हाँ ्ने के कदन गीत गाने के कदन
प्यार करने के कदन कदल लगाने के कदन

आज के कदन न पछो कमरे दोस्तो


जख़्म ककतने अभी बख़्त-ए-कबग़्स्मल में हैं
दश्त ककतने अभी राह-ए-मीं कजल में हैं
तीर ककतने अभी दस्त-ए-काकतल में हैं

आज का कदन जु बाँ है कमरे दोस्तो


आज के कदन तो याँ है कमरे दोस्तो
जै ्े दद़ -ओ-अलम के पुराने कनशााँ
्ब चले ्-ए-कदल कारवााँ कारवााँ
हाथ ्ीने पे रक्खो तो हर उस्तु खााँ
्े उठे नाला-ए-अल-अमााँ अल-अमााँ

आज के कदन न पछो कमरे दोस्तो


कब तुम्हारे लह के दरीदा अलम
फक़-ए-खु शीद-ए-महशर पे होींगे रकम
अज-करााँ ता-करााँ कब तुम्हारे कदम
ले के उट्ठेगा वो बहर-ए-खाँ यम ब यम
कज् में धुल जाएगा आज के कदन का गम

्ारे दद़ -ओ-अलम ्ारे जौर-ओ-क्तम


दर ककतनी है खु शीद-ए-महशर की लौ
आज के कदन न पछो कमरे दोस्तो

ख़ुशा जमानत-ए-़िम
दयार-ए-यार कतरी जोकशश-ए-जु नाँ पे ्लाम
कमरे वतन कतरे दामान-ए-तार-तार की खै र
रह-ए-यकीीं कतरी अफशान-ए-खाक-ओ-खाँ पे ्लाम
कमरे चमन कतरे जख़्मोीं के लाला-जार की खै र
हर एक खाना-ए-वीरााँ की तीरगी पे ्लाम
हर एक खाक-ब्र, खानुमााँ -खराब की खैर
हर एक कुश्ता-ए-ना-हक की खामु शी पे ्लाम
हर एक दीदा-ए-पुर-नम की आब-ओ-ताब की खै र
रवााँ रहे ये ररवायत, खु शा जमानत-ए-गम
नशात-ए-खत्म-ए-गम-ए-काएनात ्े पहले
हर इक के ्ाथ रहे दौलत-ए-अमानत-ए-गम
कोई नजात न पाए नजात ्े पहले
्काँ कमले न कभी तेरे पा-कफगारोीं को
जमाल-ए-खन-ए-्र-ए-खार को नजर न लगे
अमााँ कमले न कहीीं तेरे जााँ -कन्ारोीं को
जलाल-ए-फक़-ए-्र-ए-दार को नजर न लगे

कोई आफशक फकसी महबबा से!


गुलशन-ए-याद में गर आज दम-ए-बाद-ए-्बा
किर ्े चाहे कक गुल-अफशााँ हो तो हो जाने दो
उम्र-ए-रफ़्ता के कक्ी ताक पे कब्रा हुआ दद़
किर ्े चाहे कक फरोजााँ हो तो हो जाने दो
जै ्े बेगाने ्े अब कमलते हो वै्े ही ्ही
आओ दो चार घड़ी मेरे मुकाकबल बैठो
गरचे कमल-बैठेंगे हम तुम तो मु लाकात के ब'अद
अपना एह्ा्-ए-कजयााँ और कजयादा होगा
हम-्ुखन होींगे जो हम दोनोीं तो हर बात के बीच
अन-कही बात का मौहम ्ा पदा़ होगा
कोई इकरार न मैं याद कदलाऊाँगा तुम्हें
कोई मजमन वफा का न जफा का होगा
गद़ -ए-अय्याम की तहरीर को धोने के कलए
तुम ्े गोया होीं दम-ए-दीद जो मे री पलकें
तुम जो चाहो तो ्ुनो और जो न चाहो न ्ुनो
और जो हफ़ करें मु झ ्े गुरेजााँ आाँ खें
तुम जो चाहो तो कहो और जो न चाहो न कहो

कोई आफशक फकसी महबबा से!


याद की राहगुजर कज् पे इ्ी ्रत ्े
मु द्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते चलते
खत्म हो जाए जो दो चार कदम और चलो
मोड़ पड़ता है जहााँ दश्त-ए-फरामोशी का
कज् ्े आगे न कोई मैं हाँ न कोई तुम हो
्ााँ ् थामे हैं कनगाहें कक न जाने कक् दम
तुम पलट आओ गुजर जाओ या मु ड़ कर दे खो
गरचे वाककफ हैं कनगाहें कक ये ्ब धोका है
गर कहीीं तुम ्े हम-आगोश हुई किर ्े नजर
िट कनकले गी वहााँ और कोई राहगुजर
किर इ्ी तरह जहााँ होगा मु काकबल पैहम
्ाया-ए-जु ल्फफ का और जुग़्म्बश-ए-बाज का ्फर

द्री बात भी झटी है कक कदल जानता है


यााँ कोई मोड़ कोई दश्त कोई घात नहीीं
कज् के पद़े में कमरा माह-ए-रवााँ डब ्के
तुम ्े चलती रहे ये राह, याँही अच्छा है
तुम ने मु ड़ कर भी न दे खा तो कोई बात नहीीं

कुछ इश्क़ फकया कुछ काम फकया


वो लोग बहुत खु श-ककस्मत थे
जो इश्क़ को काम ्मझते थे
या काम ्े आकशकी करते थे
हम जीते-जी म्रफ रहे
कुछ इश्क़ ककया कुछ काम ककया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ ्े काम उलझता रहा
किर आकखर तींग आ कर हम ने
दोनोीं को अधरा छोड़ कदया

कुत्ते
ये गकलयोीं के आवारा बे-कार कुत्ते
कक बख़्ा गया कजन को जौक-ए-गदाई
जमाने की िटकार ्रमाया इन का
जहााँ भर की धुत्कार इन की कमाई

न आराम शब को न राहत ्वेरे


गलाजत में घर नाकलयोीं में ब्ेरे
जो कबगड़ें तो इक द्रे को लड़ा दो
जरा एक रोटी का टु कड़ा कदखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फाकोीं ्े उकता के मर जाने वाले
मजलम मख़्लक गर ्र उठाए
तो इीं ्ान ्ब ्र-कशी भल जाए
ये चाहें तो दु कनया को अपना बना लें
ये आकाओीं की हकियााँ तक चबा लें
कोई इन को एह्ा्-ए-कजल्लत कदला दे
कोई इन की ्ोई हुई दु म कहला दे

क्या करें
कमरी कतरी कनगाह में
जो लाख इीं कतजार हैं
जो मे रे तेरे तन-बदन में
लाख कदल-कफगार हैं
जो मे री तेरी उाँ गकलयोीं की बे-कह्ी ्े
्ब कलम नजार हैं
जो मे रे तेरे शहर की
हर इक गली में
मे रे तेरे नक़श-ए-पा के बे-कनशााँ मजार हैं
जो मे री तेरी रात के
क्तारे जख़्म जख़्म हैं
जो मे री तेरी ्ुब्ह के
गुलाब चाक चाक हैं
ये जख़्म ्ारे बे-दवा
ये चाक ्ारे बे-रफ
कक्ी पे राख चााँ द की
कक्ी पे ओ् का लह
ये है भी या नहीीं, बता
ये है , कक महज जाल है
कमरे तुम्हारे अींकबत-ए-वहम का बुना हुआ
जो है तो इ् का क्या करें
नहीीं है तो भी क्या करें
बता, बता,
बता, बता

लाओ तो कत्ल-नामा फमरा


्ुनने को भीड़ है ्र-ए-महशर लगी हुई
तोहमत तुम्हारे इश्क़ की हम पर लगी हुई
ररीं दोीं के दम ्े आकतश-ए-मय के बगैर भी
है मय-कदे में आग बराबर लगी हुई
आबाद कर के शहर-ए-खमोशााँ हर एक ्
कक् खोज में है तेग-ए-क्तम-गर लगी हुई
आकखर को आज अपने लह पर हुई तमाम
बाजी कमयान-ए-काकतल-ओ-खीं जर लगी हुई
''लाओ तो कत्ल-नामा कमरा मैं भी दे ख लाँ
कक् कक् की मोहर है ्र-ए-महजर लगी हुई''

लहू का सुरा़ि
कहीीं नहीीं है कहीीं भी नहीीं लह का ्ुराग
न दस्त-ओ-नाखुन-ए-काकतल न आस्तीीं पे कनशााँ
न ्ुखी-ए-लब-ए-खींजर न रीं ग-ए-नोक-ए-क्नााँ
न खाक पर कोई धब्बा न बाम पर कोई दाग
कहीीं नहीीं है कहीीं भी नहीीं लह का ्ुराग
न ्फ़-ए-कखदमत-ए-शाहााँ कक खाँ -बहा दे ते
न दीीं की नज़्र कक बैआना-ए-जजा दे ते
न रज़्म-गाह में बर्ा कक मो'तबर होता
कक्ी अलम पे रकम हो के मु श्तहर होता
पुकारता रहा बे-आ्रा यतीम लह
कक्ी को बहर-ए-्माअत न वक़्त था न कदमाग
न मु द्दई न शहादत कह्ाब पाक हुआ
ये खन-ए-खाक-नशीनााँ था ररज़्क-ए-खाक हुआ

लौह-ओ-कलम
हम परवररश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहें गे
जो कदल पे गुजरती है रकम करते रहें गे

अ्बाब-ए-गम-ए-इश्क़ बहम करते रहें गे


वीरानी-ए-दौरााँ पे करम करते रहें गे
हााँ तल्फखी-ए-अय्याम अभी और बढे गी
हााँ अहल-ए-क्तम मश्क़-ए-क्तम करते रहें गे

मीं जर ये तल्फखी ये क्तम हम को गवारा


दम है तो मु दावा-ए-अलम करते रहें गे

मय-खाना ्लामत है तो हम ्ुखी-मय ्े


तजईन-ए-दर-ओ-बाम-ए-हरम करते रहें गे

बाकी है लह कदल में तो हर अश्क ्े पैदा


रीं ग-ए-लब-ओ-रुख़्सार-ए-्नम करते रहें गे

इक तज़ -ए-तगाफुल है ्ो वो उन को मु बारक


इक अज़ -ए-तमन्ना है ्ो हम करते रहें गे

लेफनन-ग्राड का गोररस्तान
्द़ क्लोीं पर
जद़ क्लोीं पर
ताजा गम़ लह की ्रत
गुलदस्तोीं के छीटीं े हैं
कतबे ्ब बे-नाम हैं ले ककन
हर इक िल पे नाम कलखा है
गाकफल ्ोने वाले का
याद में रोने वाले का
अपने फज़ ्े फाररग हो कर
अपने लह की तान के चादर
्ारे बेटे ख़्वाब में हैं
अपने गमोीं का हार कपरो कर
अम्मााँ अकेली जाग रही है

मिह [Husain Shaheed Sohraburthi had advocated the case of Rawalpindi \ "conspiracy" case.
They were presented this supplement on the end of the trial.]
(1)
क् तरह बयााँ हो कतरा पैराया-ए-तकरीर
गोया ्र-ए-बाकतल पे चमकने लगी शमशीर
वो जोर है इक लफ़्ज़ इधर नु त्फक ्े कनकला
वााँ ्ीना-ए-अग़्यार में पैवस्त हुए तीर
गमी भी है ठीं डक भी रवानी भी ्काँ भी
ता्ीर का क्या ककहए है ता्ीर ही ता्ीर
एजाज उ्ी का है कक अबा़ ब-ए-क्तम की
अब तक कोई अींजाम को पहुाँ ची नहीीं तदबीर
अतराफ-ए-वतन में हुआ हक बात का शोहरा
हर एक जगह मक्र-ओ-ररया की हुई तश्हीर
रौशन हुए उम्मीद ्े रुख अहल-ए-वफा के
पेशानी-ए-आदा पे क्याही हुई तहरीर

(2)
हुरऱ यत-ए-आदम की रह-ए-्ख़्त के रह-गीर
खाकतर में नहीीं लाते खयाल-ए-दम-ए-ताजीर
कुछ नीं ग नहीीं रीं ज-ए-अ्ीरी कक पुराना
मदा़ न-ए-्फा-केश ्े है ररशता-ए-जीं जीर
कब दबदबा-ए-जब्र ्े दबते हैं कक कजन के
ईमान ओ यकीीं कदल में ककए रहते हैं तनवीर
मालम है उन को कक ररहा होगी क्ी कदन
जाकलम के कगरााँ हाथ ्े मजलम की तकदीर
आकखर को ्र-अफराज हुआ करते हैं अहरार
आकखर को कगरा करती है हर जौर की तामीर
हर दौर में ्र होते हैं कस्र-ए-जम-ओ-दारा
हर अहद में दीवार-ए-क्तम होती है तस्फखीर
हर दौर में मलऊन शकावत है 'कशमर' की
हर अहद में म्ऊद है कुबा़ नी-ए-शब्बीर

(3)
करता है कलम अपने लब ओ नु त्फक की ततहीर
पहुाँ ची है ्र-ए-हरफ-ए-दु आ अब कमरी तहरीर
हर काम में बरकत हो हर इक कौल में कुव्वत
हर गाम पे हो मीं कजल-ए-मक़्द कदम-गीर
हर लहजा कतरा ताले -ए-इकबाल क्वा हो
हर लहजा मदद-गार हो तदबीर की तकदीर
हर बात हो मक़्बल, हर इक बोल हो बाला
कुछ और भी रौनक में बढे शोल-ए-तकरीर
हर कदन हो कतरा लुत्फफ-ए-जबााँ और कजयादा
अल्लाह करे जोर-ए-बयााँ और कजयादा

मैं तेरे सपने िे खाँ


बरखा बर्े छत पर मैं तेरे ्पने दे खाँ
बफ़ कगरे पब़त पर मैं तेरे ्पने दे खाँ
्ुब्ह की नील-परी मैं तेरे ्पने दे खाँ
कोयल धम मचाए मैं तेरे ्पने दे खाँ
आए और उड़ जाए मैं तेरे ्पने दे खाँ
बागोीं में पत्ते महकें मैं तेरे ्पने दे खाँ
शबनम के मोती दहकें मैं तेरे ्पने दे खाँ
इ् प्यार में कोई धोका है
त नार नहीीं कुछ और है शय
वना़ क्याँ हर एक ्मय
मैं तेरे ्पने दे खाँ

मेजर-इसहाक की याि में


लो तुम भी गए हम ने तो ्मझा था कक तुम ने
बााँ धा था कोई यारोीं ्े पैमान-ए-वफा और
ये अहद कक ता-उम्र रवााँ ्ाथ रहोगे
रस्ते में कबछड़ जाएाँ गे जब अहल-ए-्फा और
हम ्मझे थे ्य्याद का तरकश हुआ खाली
बाकी था मगर उ् में अभी तीर-ए-कजा और
हर खार रह-ए-दश्त-ए-वतन का है ्वाली
कब दे ग़्खए आता है कोई आबला-पा और
आने में तअम्मुल था अगर रोज-ए-जजा को
अच्छा था ठहर जाते अगर तुम भी जरा और

मींजर
आ्मााँ आज इक बहर-ए-पुर-शोर है
कज् में हर-् रवााँ बादलोीं के जहाज
उन के अश़े पे ककरनोीं के मस्तल हैं
बादबानोीं की पहने हुए फग़लें
नील में गुम्बदोीं के जजीरे कई
एक बाजी में म्रफ है हर कोई
वो अबाबील कोई नहाती हुई
कोई चील गोते में जाती हुई
कोई ताकत नहीीं इ् में जोर-आजमा
कोई बेड़ा नहीीं है कक्ी मुल्क का
इ् की तह में कोई आबदोजें नहीीं
कोई रॉकेट नहीीं कोई तोपें नहीीं
याँ तो ्ारे अनाक्र हैं यााँ जोर में
अम्न ककतना है इ् बहर-ए-पुर-शोर में

मींजर
रह-गुजर, ्ाए, शजर, मीं कजल-ओ-दर, हल्का-ए-बाम
बाम पर ्ीना-ए-महताब खु ला, आकहस्ता
कज् तरह खोले कोई बींद-ए-कबा, आकहस्ता
हल्का-ए-बाम तले , ्ायोीं का ठहरा हुआ नील
नील की झील
झील में चुपके ्े तैरा, कक्ी पत्ते का हबाब
एक पल तैरा, चला, िट गया, आकहस्ता
बहुत आकहस्ता, बहुत हल्का, खु नुक-रीं ग शराब
मे रे शीशे में ढला, आकहस्ता
शीशा-ओ-जाम, ्ुराही, कतरे हाथोीं के गुलाब
कज् तरह दर कक्ी ख़्वाब का नक़श
आप ही आप बना और कमटा आकहस्ता

कदल ने दोहराया कोई हफ़-ए-वफा, आकहस्ता


तुम ने कहा, ''आकहस्ता''
चााँ द ने झुक के कहा
''और जरा आकहस्ता''

मग़ -ए-सोज-ए-मोहब्बत
आओ कक मग़-ए-्ोज-ए-मोहब्बत मनाएाँ हम
आओ कक हुस्न-ए-माह ्े कदल को जलाएाँ हम
खु श हाँ कफराक-ए-कामत-ओ-रुख़्सार-ए-यार ्े
्व़-ओ-गुल-ओ-्मन ्े नजर को ्ताएाँ हम
वीरानी-ए-हयात को वीरान-तर करें
ले ना्ेह आज तेरा कहा मान जाएाँ हम
किर ओट ले के दामन-ए-अब्र-ए-बहार की
कदल को मनाएाँ हम कभी आाँ ् बहाएाँ हम
्ुलझाएाँ बे-कदली ्े ये उलझे हुए ्वाल
वााँ जाएाँ या न जाएाँ न जाएाँ कक जाएाँ हम
किर कदल को पा्-ए-जब्त की तल्फकीन कर चुकें
और इग़्म्तहान-ए-जब्त ्े किर जी चुराईीं हम
आओ कक आज खत्म हुई दास्तान-ए-इश्क़
अब खत्म-ए-आकशकी के फ्ाने ्ुनाएाँ हम

मरफसए
1
दर जा कर करीब हो कजतने
हम ्े कब तुम करीब थे इतने
अब न आओगे तुम न जाओगे
वस्ल-ए-कहज्रााँ बहम हुए ककतने
2
चााँ द कनकले कक्ी जाकनब कतरी जे बाई का
रीं ग बदले कक्ी ्रत शब-ए-तन्हाई का
दौलत-ए-लब ्े किर ऐ खु ्रव-ए-शीरीीं-दहनााँ
आज अजाां हो कोई हफ़ शना्ाई का
गमी-ए-रश्क ्े हर अींजुमन-ए-गुल-बदनााँ
तग़्ज़्करा छे ड़े कतरी पैरहन-आराई का
्ेहन-ए-गुलशन में कभी ऐ शह-ए-शमशाद-कदााँ
किर नजर आए ्लीका कतरी रानाई का
एक बार और म्ीहा-ए-कदल-ए-कदल-जदगााँ
कोई वा'दा कोई इकरार म्ीहाई का
्ाज-ओ-्ामान बहम पहुाँचा है रुस्वाई का
3
कब तक कदल की खै र मनाएाँ कब तक रह कदखलाओगे
कब तक चैन की मोहलत दोगे कब तक याद न आओगे
बीता दीद उम्मीद का मौ्म खाक उड़ती है आाँ खोीं में
कब भे जोगे दद़ का बादल कब बरखा बर्ाओगे
अहद-ए-वफा या तक़-ए-मोहब्बत जो चाहो ्ो आप करो
अपने ब् की बात ही क्या है हम ्े क्या मनवाओगे
कक् ने वस्ल का ्रज दे खा कक् पर कहज्र की रात ढली
गे्ुओीं वाले कौन थे क्या थे उन को क्या जतलाओगे
'फैज' कदलोीं के भाग में है घर भरना भी लु ट जाना भी
तुम इ् हुस्न के लु त्फफ-ओ-करम पर ककतने कदन इतराओगे

मौज-ए-सुख़न
गुल हुई जाती है अफ़्सुदा़ ्ुलगती हुई शाम
धुल के कनकले गी अभी चश्मा-ए-महताब ्े रात
और मु श्ताक कनगाहोीं की ्ुनी जाएगी
और उन हाथोीं ्े म् होींगे ये तर्े हुए हात
उन का आाँ चल है कक रुख़्सार कक पैराहन है
कुछ तो है कज् ्े हुई जाती है कचलमन रीं गीीं
जाने उ् जु ल्फफ की मौहम घनी छााँ व में
कटमकटमाता है वो आवेजा अभी तक कक नहीीं
आज किर हुस्न-ए-कदल-आरा की वही धज होगी
वही ख़्वाबीदा ्ी आाँ खें वही काजल की लकीर
रीं ग-ए-रुख़्सार पे हल्का ्ा वो गाजे का गुबार
्ींदली हाथ पे धुींदली ्ी कहना की तहरीर
अपने अफ़कार की अशआर की दु कनया है यही
जान-ए-मजमाँ है यही शाकहद-ए-मअ'नी है यही
आज तक ्ुख़ ओ क्यह ्कदयोीं के ्ाए के तले
आदम ओ हव्वा की औलाद पे क्या गुजरी है ?
मौत और जीस्त की रोजाना ्फ-आराई में
हम पे क्या गुजरे गी अज्दाद पे क्या गुजरी है ?
इन दमकते हुए शहरोीं की फरावााँ मख़्लक
क्याँ फकत मरने की ह्रत में कजया करती है
ये ह्ीीं खे त िटा पड़ता है जौबन कजन का!
कक् कलए इन में फकत भक उगा करती है
ये हर इक ्म्त पुर-अ्रार कड़ी दीवारें
जल-बुझे कजन में हजारोीं की जवानी के चराग
ये हर इक गाम पे उन ख़्वाबोीं की मक़्तल-गाहें
कजन के परतव ्े चरागााँ हैं हजारोीं के कदमाग
ये भी हैं ऐ्े कई और भी मजमाँ होींगे
ले ककन उ् शोख के आकहस्ता ्े खु लते हुए होींट
हाए उ् कजस्म के कम्बख़्त कदल-आवेज खु तत
आप ही ककहए कहीीं ऐ्े भी अफ़्साँ होींगे

अपना मौज-ए-्ुखन उन के क्वा और नहीीं


तब़्अ-ए-शाएर का वतन उन के क्वा और नहीीं

मेरे फमलने वाले


वो दर खु ला मे रे गम-कदे का
वो आ गए मे रे कमलने वाले
वो आ गई शाम अपनी राहोीं में
फश़ -ए-अफ़्सुद़गी कबछाने
वो आ गई रात चााँ द तारोीं को
अपनी आजु द़गी ्ुनाने
वो ्ुब्ह आई दमकते नश्तर ्े
याद के जख़्म को मनाने
वो दोपहर आई, आस्तीीं में
छु पाए शोलोीं के ताकजयाने
ये आए ्ब मे रे कमलने वाले
कक कजन ्े कदन रात वास्ता है
पे कौन कब आया, कब गया है
कनगाह ओ कदल को खबर कहााँ है
खयाल ्-ए-वतन रवााँ है
्मुीं दरोीं की अयाल थामे
हजार वहम-ओ-गुमााँ ्ाँभाले
कई तरह के ्वाल थामे

मेरे निीम!
खयाल ओ शेर की दु कनया में जान थी कजन ्े
फजा-ए-कफक्र-ओ-अमल अग़वान थी कजन ्े
वो कजन के नर ्े शादाब थे मह-ओ-अींजुम
जु नन-ए-इश्क़ की कहम्मत जवान थी कजन ्े
वो आरजु एाँ कहााँ ्ो गई हैं मे रे नदीम?
वो ना-्ुबर कनगाहें , वो मुीं तकजर राहें
वो पा्-ए-जब्त ्े कदल में दबी हुई आहें
वो इीं कतजार की रातें, तवील तीरा-ओ-तार
वो नीम-ख़्वाब, शकबस्तााँ वो मखमलीीं बाहें
कहाकनयााँ थीीं कहीीं खो गई हैं मे रे नदीम
मचल रहा है रग-ए-कजीं दगी में खन-ए-बहार
उलझ रहे हैं पुराने गमोीं ्े रह के तार
चलो कक चल के चरागााँ करें दयार-ए-हबीब
हैं इीं कतजार में अगली मोहब्बतोीं के मजार
मोहब्बतें जो फना हो गई हैं मे रे नदीम!

मेरे िि़ को जो जबााँ फमले


कमरा दद़ नगमा-ए-बे-्दा
कमरी जात जरा़ -ए-बे-कनशााँ
मे रे दद़ को जो जबााँ कमले
मु झे अपना नाम-ओ-कनशााँ कमले
मे री जात का जो कनशााँ कमले
मु झे राज-ए-नज़्म-ए-जहााँ कमले
जो मु झे ये राज-ए-कनहााँ कमले
कमरी खामु शी को बयााँ कमले
मु झे काएनात की ्रवरी
मु झे दौलत-ए-दो-जहााँ कमले

फमरे हमिम फमरे िोस्त!


गर मु झे इ् का यकीीं हो कमरे हमदम कमरे दोस्त
गर मु झे इ् का यकीीं हो कक कतरे कदल की थकन
कतरी आाँ खोीं की उदा्ी तेरे ्ीने की जलन
मे री कदल-जई कमरे प्यार ्े कमट जाएगी
गर कमरा हफ़-ए-त्ल्ली वो दवा हो कज् ्े
जी उठे किर कतरा उजड़ा हुआ बे-नर कदमाग
तेरी पेशानी ्े ढल जाएाँ ये तजलील के दाग
तेरी बीमार जवानी को कशफा हो जाए
गर मु झे इ् का यकीीं हो कमरे हमदम मरे दोस्त
रोज ओ शब शाम ओ ्हर मैं तुझे बहलाता रहाँ
मैं तुझे गीत ्ुनाता रहाँ हल्के शीरीीं
आबशारोीं के बहारोीं के चमन-जारोीं के गीत
आमद-ए-्ुब्ह के, महताब के, ्य्यारोीं के गीत
तुझ ्े मैं हुस्न-ओ-मोहब्बत की कहकायात कहाँ
कै्े मगरर ह्ीनाओीं के बरफाब ्े कजस्म
गम़ हाथोीं की हरारत में कपघल जाते हैं
कै्े इक चेहरे के ठहरे हुए मान् नु कश
दे खते दे खते यक-लख़्त बदल जाते हैं
कक् तरह आररज-ए-महबब का शफ़्फाफ कबलोर
यक-ब-यक बादा-ए-अहमर ्े दहक जाता है
कै्े गुलचीीं के कलए झुकती है खु द शाख-ए-गुलाब
कक् तरह रात का ऐवान महक जाता है
याँही गाता रहाँ गाता रहाँ तेरी खाकतर
गीत बुनता रहाँ बैठा रहाँ तेरी खाकतर
पर कमरे गीत कतरे दु ख का मु दावा ही नहीीं
नग़्मा जरा़ ह नहीीं मकन्-ओ-गम ख़्वार ्ही
गीत नश्तर तो नहीीं मरहम-ए-आजार ्ही
तेरे आजार का चारा नहीीं नश्तर के क्वा
और ये ्फ़्फाक म्ीहा कमरे कब्ज़े में नहीीं
इ् जहााँ के कक्ी जी-रह के कब्ज़े में नहीीं
हााँ मगर तेरे क्वा तेरे क्वा तेरे क्वा

फमरी जााँ अब भी अपना हुस्न वापस िेर िे मुझ को


कमरी जााँ अब भी अपना हुस्न वाप् िेर दे मु झ को
अभी तक कदल में तेरे इश्क़ की ककींदील रौशन है
कतरे जल्वोीं ्े बज़्म-ए-कजींदगी जन्नत-ब-दामन है
कमरी रह अब भी तन्हाई में तुझ को याद करती है
हर इक तार-ए-नफ् में आरज बेदार है अब भी
हर इक बे-रीं ग ्ाअत मुीं तकजर है तेरी आमद की
कनगाहें कबछ रही हैं रास्ता जर-कार है अब भी
मगर जान-ए-हजीीं ्दमे ्हे गी आकखरश कब तक
कतरी बे-मे हररयोीं पर जान दे गी आकखरश कब तक
कतरी आवाज में ्ोई हुई शीरीकनयााँ आकखर
कमरे कदल की फ्ुदा़ खल्वतोीं में जा न पाएाँ गी
ये अश्कोीं की फरावानी ्े धुाँदलाई हुई आाँ खें
कतरी रानाइयोीं की तमकनत को भल जाएाँ गी
पुकारें गे तुझे तो लब कोई लज़्ज़त न पाएाँ गे
गुल में तेरी उल्फफत के तराने ्ख जाएाँ गे
मबादा याद-हा-ए-अहद-ए-माजी महव हो जाएाँ
ये पारीना फ्ाने मौज-हा-ए-गम में खो जाएाँ
कमरे कदल की तहोीं ्े तेरी ्रत धुल के बह जाए
हरीम-ए-इश्क़ की शम-ए-दरख़्ााँ बुझ के रह जाए
मबादा अजनबी दु कनया की जु ल्मत घेर ले तुझ को
कमरी जााँ अब भी अपना हुस्न वाप् िेर दे मु झ को
मोरी अज़ सुनो
मोरी अज़ ्ुनो दस्त-गीर पीर
माई री कहाँ का्े मैं
अपने कजया की पीर
नय्या बााँ धो रे
बााँ धो रे कनार-ए-दररया
मोरे मीं कदर अब क्याँ नहीीं आए

इ् ्रत ्े
अज़ ्ुनाते
दद़ बताते
नय्या खे ते
कमन्नत करते
रस्ता तकते
ककतनी ्कदयााँ बीत गई हैं
अब जा कर ये भे द खु ला है
कज् को तुम ने अज़ गुजारी
जो था हाथ पकड़ने वाला
कज् जा लागी नाव तुम्हारी
कज् ्े दु ख का दार मााँ गा
तोरे मीं कदर में जो नहीीं आया
वो तो तुम्हीीं थे
वो तो तुम्हीीं थे

मुझ से पहली सी मोहब्बत फमरी महबब न मााँग


Nizami: “Dil-e-bufro-khatm, jaan-e-khareedun” (“I have sold my heart and bought a soul”)
मु झ ्े पहली ्ी मोहब्बत कमरी महबब न मााँ ग
मैं ने ्मझा था कक त है तो दरख़्ााँ है हयात
तेरा गम है तो गम-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी ्रत ्े है आलम में बहारोीं को ्बात
तेरी आाँ खोीं के क्वा दु कनया में रक्खा क्या है
त जो कमल जाए तो तकदीर कनगाँ हो जाए
याँ न था मैं ने फकत चाहा था याँ हो जाए
और भी दु ख हैं जमाने में मोहब्बत के क्वा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के क्वा

अन-कगनत ्कदयोीं के तारीक बहीमाना कतकलस्म


रे शम ओ अतल् ओ कमखाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा कबकते हुए कचा-ओ-बाजार में कजस्म
खाक में लुथड़े हुए खन में नहलाए हुए
कजस्म कनकले हुए अमराज के तन्नरोीं ्े
पीप बहती हुई गलते हुए ना्रोीं ्े
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजे
अब भी कदलकश है कतरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दु ख हैं जमाने में मोहब्बत के क्वा


राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के क्वा
मु झ ्े पहली ्ी मोहब्बत कमरी महबब न मााँ ग

मुलाकात
ये रात उ् दद़ का शजर है
जो मु झ ्े तुझ ्े अजीम-तर है
अजीम-तर है कक इ् की शाखोीं
में लाख कमशअल-ब-कफ क्तारोीं
के कारवााँ घर के खो गए हैं
हजार महताब इ् के ्ाए
में अपना ्ब नर रो गए हैं

ये रात उ् दद़ का शजर है


जो मु झ ्े तुझ ्े अजीम-तर है
मगर इ्ी रात के शजर ्े
ये चींद लम्होीं के जद़ पत्ते

कगरे हैं और तेरे गे्ुओीं में


उलझ के गुलनार हो गए हैं
इ्ी की शबनम ्े खामु शी के
ये चींद कतरे कतरी जबीीं पर
बर् के हीरे कपरो गए हैं
2
बहुत क्यह है ये रात ले ककन
इ्ी क्याही में रनु मा है
वो नहर-ए-खाँ जो कमरी ्दा है
इ्ी के ्ाए में नर गर है
वो मौज-ए-जर जो कतरी नजर है

वो गम जो इ् वक़्त तेरी बााँ होीं


के गुलक्तााँ में ्ुलग रहा है
वो गम जो इ् रात का ्मर है
कुछ और तप जाए अपनी आहोीं
की आाँ च में तो यही शरर है

हर इक क्यह शाख की कमााँ ्े


कजगर में टटे हैं तीर कजतने
कजगर ्े नोचे हैं और हर इक
का हम ने तेशा बना कलया है
3
अलम-न्ीबोीं कजगर-कफगारोीं
की ्ुब्ह अफ़लाक पर नहीीं है
जहााँ पे हम तुम खड़े हैं दोनोीं
्हर का रौशन उफुक यहीीं है
यहीीं पे गम के शरार ग़्खल कर
शफक का गुलजार बन गए हैं
यहीीं पे काकतल दु खोीं के तेशे
कतार अींदर कतार ककरनोीं
के आकतशीीं हार बन गए हैं
ये गम जो इ् रात ने कदया है
ये गम ्हर का यकीीं बना है
यकीीं जो गम ्े करीम-तर है
्हर जो शब ्े अजीम-तर है

मुलाकात फमरी
1
्ारी दीवार क्यह हो गई ता-हलका-ए-दाम
रास्ते बुझ गए रुख़्सत हुए रहगीर तमाम
अपनी तींहाई ्े गोया हुई किर रात कमरी
हो न हो आज किर आई है मु लाकात कमरी
इक हथे ली पे कहना एक हथे ली पे लह
इक नजर जहर कलए एक नजर में दार
दे र ्े मीं कजल-ए-कदल में कोई आया न गया
िुक़त-ए-दद़ में बे-आब हुआ तख़्ता-ए-दाग
कक् ्े ककहए कक भरे रीं ग ्े जख़्मोीं के अयाग
और किर खु द ही चली आई मु लाकात कमरी
आश्ना मौत जो दु श्मन भी है गम-ख़्वार भी है
वो जो हम लोगोीं की काकतल भी है कदलदार भी है

नौहा
मु झ को कशकवा है कमरे भाई कक तुम जाते हुए
ले गए ्ाथ कमरी उम्र-ए-गुकजश्ता की ककताब
इ् में तो मे री बहुत कीमती तस्वीरें थीीं
इ् में बचपन था कमरा और कमरा अहद-ए-शबाब
इ् के बदले मु झे तुम दे गए जाते जाते
अपने गम का ये दमकता हुआ खाँ -रीं ग गुलाब
क्या कराँ भाई ये एजाज में क्याँ-कर पहनाँ
मु झ ्े ले लो कमरी ्ब चाक कमी्ोीं का कह्ाब
आकखरी बार है लो मान लो इक ये भी ्वाल
आज तक तुम ्े मैं लौटा नहीीं माय्-ए-जवाब
आ के ले जाओ तुम अपना ये दमकता हुआ िल
मु झ को लौटा दो कमरी उम्र-ए-गुकजश्ता की ककताब

नज़्म
्ुनो कक शायद ये नर-ए-्ैकल
है उ् ्हीफे का हफ़-ए-अव्वल
जो हर क्-ओ-नाक्-ए-जमी ीं पर
कदल-ए-गदायान-ए-अजमईीं पर
उतर रहा है फलक ्े अब के
्ुनो कक इ् हफ़-ए-लम-यजल के
हमीीं तुम्हीीं बींदगान-ए-बे-ब्
अलीम भी हैं खबीर भी हैं
्ुनो कक हम बे-जबान-ओ-बेक्
बशीर भी हैं नजीर भी हैं
हर इक ऊलु ल-अम्र को ्दा दो
कक अपनी फद़ -ए-अमल ्ाँभाले
उठे गा जब कजस्म-ए-्रफरोशााँ
पड़ें गे दार-ओ-र्न के लाले
कोई न होगा कक जो बचा ले
जजा ्जा ्ब यहीीं पे होगी
यहीीं अजाब-ओ-्वाब होगा
यहीीं पे रोज-ए-कह्ाब होगा

नज़्म
तीरगी जाल है और भाला है नर
इक कशकारी है कदन इक कशकारी है रात
जग ्मुीं दर है कज् में ककनारे ्े दर
मछकलयोीं की तरह इब्न-ए-आदम की जात
जग ्मुीं दर है ्ाकहल पे हैं माही-गीर
जाल थामे कोई कोई भाला कलए
मे री बारी कब आएगी क्या जाकनए
कदन के भाले ्े मु झ को करें गे कशकार
रात के जाल में या करें गे अ्ीर?

नज़्म
तह-ब-तह कदल की कुदरत
मे री आाँ खोीं में उमाँड आई तो कुछ चारा न था
चारा-गर की मान ली
और मैं ने गद़ -आलद आाँ खोीं को लह ्े धो कलया
मैं ने गद़ -आलद आाँ खोीं को लह ्े धो कलया
और अब हर शक्ल-ओ-्रत
आलम-ए-मौजद की हर एक शय
मे री आाँ खोीं के लह ्े इ् तरह हम-रीं ग है
खु शीद का कुींदन लह
महताब की चााँ दी लह
्ुब्होीं का हाँ ्ना भी लह
रातोीं का रोना भी लह
हर शजर मीनार-ए-खाँ हर िल खनीीं-दीदा है
हर नजर इक तार-ए-खाँ हर अक्स खाँ -बालीदा है
मौज-ए-खाँ जब तक रवााँ रहती है उ् का ्ुख़ रीं ग
जज़्बा-ए-शौक-ए-शहादत दद़ , गैज ओ गम का रीं ग
और थम जाए तो कजला कर
फकत नफरत का शब मौत का
हर इक रीं ग के मातम का रीं ग
चारा-गर ऐ्ा न होने दे
कहीीं ्े ला कोई ्ैलाब-ए-अश्क
आब-ए-वुज
कज् में धुल जाएाँ तो शायद धुल ्के
मे री आाँ खोीं मे री गद़ -आलद आाँ खोीं का लह

नज़्र-ए-मौलाना हसरत-मुहानी
मर जाएाँ गे जाकलम की कहमायत न करें गे
अहरार कभी तक़-ए-ररवायत न करें गे

क्या कुछ न कमला है जो कभी तुझ ्े कमले गा


अब तेरे न कमलने की कशकायत न करें गे

शब बीत गई है तो गुजर जाएगा कदन भी


हर लहजा जो गुजरी वो कहकायत न करें गे

ये फक़्र कदल-ए-जार का एवजाना बहुत है


शाही नहीीं मााँ गेंगे कवलायत न करें गे

हम शै ख न लीडर न मु ्ाकहब न ्हाफी


जो खु द नहीीं करते वो कहदायत न करें गे

फनसार मैं फतरी गफलयोीं के


कन्ार मैं कतरी गकलयोीं के ऐ वतन कक जहााँ
चली है रस्म कक कोई न ्र उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को कनकले
नजर चुरा के चले कजस्म ओ जााँ बचा के चले
है अहल-ए-कदल के कलए अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कक ्ींग-ओ-कखश्त मु कय्यद हैं और ्ग आजाद

बहुत है जु ल्म के दस्त-ए-बहाना-ज के कलए


जो चींद अहल-ए-जु नाँ तेरे नाम-ले वा हैं
बने हैं अहल-ए-हव् मु द्दई भी मुीं क्फ भी
कक्े वकील करें कक् ्े मुीं क्फी चाहें
मगर गुजारने वालोीं के कदन गुजरते हैं
कतरे कफराक में याँ ्ुब्ह ओ शाम करते हैं

बुझा जो रौजन-ए-कजीं दााँ तो कदल ये ्मझा है


कक तेरी मााँ ग क्तारोीं ्े भर गई होगी
चमक उठे हैं ्लाक्ल तो हम ने जाना है
कक अब ्हर कतरे रुख पर कबखर गई होगी
गरज त्व्वु र-ए-शाम-ओ-्हर में जीते हैं
कगरफ़्त-ए-्ाया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं

याँही हमे शा उलझती रही है जु ल्म ्े खल्फक


न उन की रस्म नई है न अपनी रीत नई
याँही हमे शा ग़्खलाए हैं हम ने आग में िल
न उन की हार नई है न अपनी जीत नई
इ्ी ्बब ्े फलक का कगला नहीीं करते
कतरे कफराक में हम कदल बुरा नहीीं करते

गर आज तुझ ्े जु दा हैं तो कल बहम होींगे


ये रात भर की जु दाई तो कोई बात नहीीं
गर आज औज पे है ताला-ए-रकीब तो क्या
ये चार कदन की खु दाई तो कोई बात नहीीं
जो तुझ ्े अहद-ए-वफा उस्तु वार रखते हैं
इलाज-ए-गकद़ श-ए-लैल-ओ-नहार रखते हैं

नु सख़ा-ए-उल्फर्फत मेरा
गर कक्ी तौर हर इक उल्फफत-ए-जानााँ का खयाल
शे र में ढल के ्ना-ए-रुख-ए-जानााँ न बने
किर तो याँ हो कक कमरे शेर-ओ-्ुखन का दफ़्तर
तल में तल-ए-शब-ए-कहज्र का अफ़्साना बने
है बहुत कतश्ना मगर नु स्फखा-ए-उल्फफत मे रा
इ् ्बब ्े कक हर इक लम्हा-ए-फु़्त मे रा
कदल ये कहता है कक हो कुब़त-ए-जानााँ में ब्र

पााँव से लहू को धो डालो


हम क्या करते कक् रह चलते
हर राह में कााँ टे कबखरे थे
इन ररश्तोीं के जो छट गए
इन ्कदयोीं के यारानोीं के
जो इक इक कर के टट गए
कज् राह चले कज् ्म्त गए
याँ पााँ व लहलु हान हुए
्ब दे खने वाले कहते थे
ये कै्ी रीत रचाई है
ये मे हींदी क्याँ लगाई है
वो कहते थे क्याँ कहत-ए-वफा
का नाहक चचा़ करते हो
पााँ व ्े लह को धो डालो!
ये राहें जब अट जाएाँ गी
्ौ रस्ते इन ्े िटें गे
तुम कदल को ्ाँभालो कज् में अभी
्ौ तरह के नश्तर टटें गे

तुम फमरे पास रहो


तुम कमरे पा् रहो
कमरे काकतल, कमरे कदलदार कमरे पा् रहो
कज् घड़ी रात चले ,
आ्मानोीं का लह पी के क्यह रात चले
मरहम-ए-मु श्क कलए, नश्तर-ए-अल्मा् कलए
बैन करती हुई हाँ ्ती हुई, गाती कनकले
दद़ के का्नी पाजे ब बजाती कनकले
कज् घड़ी ्ीनोीं में डबे हुए कदल
आस्तीनोीं में कनहााँ हाथोीं की रह तकने लगे
आ् कलए
और बच्ोीं के कबलकने की तरह कुलकुल-ए-मय
बहर-ए-ना-्दगी मचले तो मनाए न मने
जब कोई बात बनाए न बने
जब न कोई बात चले
जब घड़ी रात चले
कज् घड़ी मातमी ्ुन्ान क्यह रात चले
पा् रहो
कमरे काकतल, कमरे कदलदार कमरे पा् रहो

पै ररस
कदन ढला कचा ओ बाजार में ्फ-बस्ता हुईीं
जद़ -र रौशकनयााँ
उन में हर एक के कश्कोल ्े बर्ें ररम-कझम
इ् भरे शहर की ना्दकगयााँ
दर प्-मीं जर-ए-अफ़लाक में धुाँदलाने लगे
अज़्मत-ए-रफ़्ता के कनशााँ
पेश-ए-मीं जर में
कक्ी ्ाया-ए-दीवार ्े कलपटा हुआ ्ाया कोई
द्रे ्ाए की मौहम ्ी उम्मीद कलए
रोज-मरा़ की तरह
जे र-ए-लब
शरह-ए-बेददी-ए-अय्याम की तम्हीद कलए
और कोई अजनबी
इन रौशकनयोीं ्ायोीं ्े कतराता हुआ
अपने बे-ख़्वाब शकबस्तााँ की तरफ जाता हुआ

िल मुरझा गए सारे
िल मु रझा गए हैं ्ारे
थमते नहीीं हैं आ्मााँ के आाँ ्
शमएाँ बे-नर हो गई हैं
आईने चर हो गए हैं
्ाज ्ब बज के खो गए हैं
पायलें बज के ्ो गई हैं
और इन बादलोीं के पीछे
दर इ् रात का दु लारा
दद़ का क्तारा
कटमकटमा रहा है
झनझना रहा है
मु स्कुरा रहा है

कैि-ए-तन्हाई
दर आफाक पे लहराई कोई नर की लहर
ख़्वाब ही ख़्वाब में बेदार हुआ दद़ का शहर
ख़्वाब ही ख़्वाब में बेताब नजर होने लगी
अदम-आबाद-ए-जु दाई में ्हर होने लगी
का्ा-ए-कदल में भरी अपनी ्ुबही मैं ने
घोल कर तलखी-ए-दीरोज में इमरोज का जहर
दर आफाक पे लहराई कोई नर की लहर
आाँ ख ्े दर कक्ी ्ुब्ह की तम्हीद कलए
कोई नग़्मा, कोई खु शब, कोई काकफर ्रत
बे-खबर गुजरी, परे शानी-ए-उम्मीद कलए
घोल कर तलखी-ए-दीरोज में इमरोज का जहर
ह्रत-ए-रोज-ए-मु लाकात रकम की मैं ने
दे ् परदे ् के यारान-ए-कदह-ख़्वार के नाम
हुस्न-ए-आफाक, जमाल-ए-लब-ओ-रुख़्सार के नाम

रीं ग है फिल का फमरे


तुम न आए थे तो हर इक चीज वही थी कक जो है
आ्मााँ हद्द-ए-नजर राहगुजर राहगुजर शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय राहगुजर रीं ग-ए-फलक
रीं ग है कदल का कमरे खन-ए-कजगर होने तक
चम्पई रीं ग कभी राहत-ए-दीदार का रीं ग
्ुरमई रीं ग कक है ्ाअत-ए-बेजार का रीं ग
जद़ पत्तोीं का ख्-ओ-खार का रीं ग
्ुख़ िलोीं का दहकते हुए गुलजार का रीं ग
जहर का रीं ग लह रीं ग शब-ए-तार का रीं ग
आ्मााँ राहगुजर शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन कोई दु खती हुई रग
कोई हर लहजा बदलता हुआ आईना है

अब जो आए हो तो ठहरो कक कोई रीं ग कोई रुत कोई शय


एक जगह पर ठहरे
किर ्े इक बार हर इक चीज वही हो कक जो है
आ्मााँ हद्द-ए-नजर राहगुजर राहगुजर शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय

रकीब से!
आ कक वाबस्ता हैं उ् हुस्न की यादें तुझ ्े
कज् ने इ् कदल को परी-खाना बना रक्खा था
कज् की उल्फफत में भु ला रक्खी थी दु कनया हम ने
दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था

आश्ना हैं कतरे कदमोीं ्े वो राहें कजन पर


उ् की मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवााँ गुजरे हैं कजन ्े उ्ी रानाई के
कज् की इन आाँ खोीं ने बे-्द इबादत की है

तुझ ्े खे ली हैं वो महबब हवाएाँ कजन में


उ् के मल्ब् की अफ़्सुदा़ महक बाकी है
तुझ पे बर्ा है उ्ी बाम ्े महताब का नर
कज् में बीती हुई रातोीं की क्क बाकी है

त ने दे खी है वो पेशानी वो रुख़्सार वो होींट


कजीं दगी कजन के त्व्वु र में लु टा दी हम ने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई ्ाकहर आाँ खें
तुझ को मालम है क्याँ उम्र गाँवा दी हम ने

हम पे मु श्तरका हैं एह्ान गम-ए-उल्फफत के


इतने एह्ान कक कगनवाऊाँ तो कगनवा न ्काँ
हम ने इ् इश्क़ में क्या खोया है क्या ्ीखा है
जु ज कतरे और को ्मझाऊाँ तो ्मझा न ्काँ

आकजजी ्ीखी गरीबोीं की कहमायत ्ीखी


या्-ओ-कहरमान के दु ख-दद़ के मअ'नी ्ीखे
जे र-दस्तोीं के म्ाइब को ्मझना ्ीखा
्द़ आहोीं के रुख-ए-जद़ के मअ'नी ्ीखे

जब कहीीं बैठ के रोते हैं वो बेक् कजन के


अश्क आाँ खोीं में कबलकते हुए ्ो जाते हैं
ना-तवानोीं के कनवालोीं पे झपटते हैं उकाब
बाज तोले हुए मीं डलाते हुए आते हैं

जब कभी कबकता है बाजार में मजदर का गोश्त


शाह-राहोीं पे गरीबोीं का लह बहता है
आग ्ी ्ीने में रह रह के उबलती है न पछ
अपने कदल पर मु झे काब ही नहीीं रहता है

साल-फगरह
शाएर का जशन-ए-्ालकगरह है शराब ला
मीं ्ब कखताब रुत्फबा उन्हें क्या नहीीं कमला
ब् नक़् है तो इतना कक मम्दह ने कोई
कमस्रा कक्ी ककताब के शायााँ नहीीं कलखा

सर्फर नामा
1
पेककींग
याँ गुमााँ होता है बाज हैं कमरे ्ाथ करोड़
और आफाक की हद तक कमरे तन की हद है
कदल कमरा कोह ओ दमन दश्त ओ चमन की हद है
मे रे की्े में है रातोीं का क्यह-फाम जलाल
मे रे हाथोीं में है ्ुब्होीं की एनान-ए-गुलगाँ
मे री आगोश में पलती है खु दाई ्ारी
मे रे मक़दर में है मोकजजा-ए-कुन-फयकीं

2
क्ींककयाीं ग
अब कोई तब्ल बजे गा न कोई शाह-्वार
्ुब्ह-दम मौत की वादी को रवाना होगा!
अब कोई जीं ग न होगी न कभी रात गए
खन की आग को अश्कोीं ्े बुझाना होगा

कोई कदल धड़केगा शब भर न कक्ी आाँ गन में


वहम मनह् पररीं दे की तरह आएगा
्हम खाँ -ख़्वार दररीं दे की तरह आएगा
अब कोई जीं ग न होगी मय-ओ-्ागर लाओ
खाँ लु टाना न कभी अश्क बहाना न होगा
्ाककया! रक़् कोई रक़्-ए-्बा की ्रत
मु तररबा! कोई गजल रीं ग-ए-कहना की ्रत

'सज्जाि-जहीर' के नाम
न अब हम ्ाथ ्ैर-ए-गुल करें गे
न अब कमल कर ्र-ए-मक़्तल चलें गे
हदी्-ए-कदल-बरााँ बाहम करें गे
न खन-ए-कदल ्े शरह-ए-गम करें गे
न लै ला-ए-्ुखन की दोस्त-दारी
न गम-हा-ए-वतन पर अश्क-बारी
्ुनेंगे नग़्मा-ए-जींजीर कमल कर
न शब भर कमल के छलकाएाँ गे ्ागर
ब-नाम-ए-शाकहद-ए-नाजुक-खयालााँ
ब-याद-ए-मस्ती-ए-चश्म-ए-गजालााँ
ब-नाम-ए-इग़्म्ब्ात-ए-बज़्म-ए-ररीं दााँ
ब-याद-ए-कुल्फफत-ए-अय्याम-ए-कजीं दााँ
्बा और उ् का अींदाज-ए-तकल्लु म
्हर और उ् का आगाज-ए-तबस्सुम
फजा में एक हाला ्ा जहााँ है
यही तो म्नद-ए-पीर-ए-मु गााँ है
्हर-गह अब उ्ी के नाम ्ाकी
करें इत्माम-ए-दौर जाम ्ाकी
कब्ात-ए-बादा-ओ-मीना उठा लो
बढा दो शम-ए-महकफल बज़्म वालो
कपयो अब एक जाम-ए-अल-कवदाई
कपयो और पी के ्ागर तोड़ डालो

सर-ए-वािी-ए-सीना
किर बक़ फरोजााँ है ्र-ए-वादी-ए-्ीना
किर रीं ग पे है शोला-ए-रुख़्सार-ए-हकीकत
पैगाम-ए-अजल दावत-ए-दीदार-ए-हकीकत
ऐ दीदा-ए-बीना
अब वक़्त है दीदार का दम है कक नहीीं है
अब काकतल-ए-जााँ चारा-गर-ए-कुल्फफत-ए-गम है
गुलजार-ए-इरम परतव-ए-्हरा-ए-अदम है
कपींदार-ए-जु नाँ
हौ्ला-ए-राह-ए-अदम है कक नहीीं है
किर बक़ फरोजााँ है ्र-ए-वादी-ए-्ीना, ऐ दीदा-ए-बीना
किर कदल को मु ्फ़्फा करो, इ् लौह पे शायद
माबैन-ए-मन-ओ-त नया पैमााँ कोई उतरे
अब रस्म-ए-क्तम कहकमत-ए-खा्ान-ए-जमीीं है
ताईद-ए-क्तम मस्लहत-ए-मु फ़्ती-ए-दीीं है
अब ्कदयोीं के इकरार-ए-इताअत को बदलने
लाकजम है कक इीं कार का फरमााँ कोई उतरे

शाएर लोग
हर इक दौर में हर जमाने में हम
जहर पीते रहे , गीत गाते रहे
जान दे ते रहे कजीं दगी के कलए
्ाअत-ए-वस्ल की ्रखु शी के कलए
दीन ओ दु कनया की दौलत लु टाते रहे
फक्र-ओ-फाका का तोशा ्ाँभाले हुए
जो भी रस्ता चुना उ् पे चलते रहे
माल वाले हकारत ्े तकते रहे
तअन करते रहे हाथ मलते रहे
हम ने उन पर ककया हफ़-ए-हक ्ींग-जन
कजन की है बत ्े दु कनया लरजती रही
कजन पे आाँ ् बहाने को कोई न था
अपनी आाँ ख उन के गम में बर्ती रही
्ब ्े ओझल हुए हुक्म-ए-हाककम पे हम
कैद-खाने ्हे , ताकजयाने ्हे
लोग ्ुनते रहे ्ाज-ए-कदल की ्दा
अपने नग़्मे ्लाखोीं ्े छन्ते रहे
खाँ -चकााँ दहर का खाँ -चकााँ आईना
दु ख-भरी खल्फक का दु ख-भरा कदल हैं हम
तब़्अ-ए-शाएर है जीं गाह-ए-अद़् ल-ओ-क्तम
मुीं क्फ-ए-खै र-ओ-शर हक़्क-ओ-बाकतल हैं हम

शाह-राह
एक अफ़्सुदा़ शाह-राह है दराज
दर उफुक पर नजर जमाए हुए
्द़ कमट्टी पे अपने ्ीने के
्ुम़गीीं हुस्न को कबछाए हुए

कज् तरह कोई गम-जदा औरत


अपने वीरााँ -कदे में मह्व-ए-खयाल
वस्ल-ए-महबब के त्व्वु र में
म-ब-म चर उज़्व उज़्व कनढाल

शाम
इ् तरह है कक हर इक पेड़ कोई मीं कदर है
कोई उजड़ा हुआ, बे-नर पुराना मीं कदर
ढाँ ढता है जो खराबी के बहाने कब ्े
चाक-ए-हर-बाम हर इक दर का दम-ए-आकखर है
आ्मााँ कोई पुरोकहत है जो हर बाम-तले
कजस्म पर राख मले माथे पे क्न्दर मले
्र-कनगाँ बैठा है चुप-चाप न जाने कब ्े
इ् तरह है कक प्-ए-पदा़ कोई ्ाकहर है
कज् ने आफाक पे िैलाया है याँ ्ेहर का दाम
दामन-ए-वक़्त ्े पैवस्त है याँ दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अाँधेरा होगा
अब कभी रात ढले गी न ्वेरा होगा

आ्मााँ आ् कलए है कक ये जाद टटे


चुप की जीं जीर कटे , वक़्त का दामन छटे
दे कोई ्ींख दु हाई कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई ्ााँ वली घाँघट खोले

शहर-ए-यारााँ
आ्मााँ की गोद में दम तोड़ता है कतफ़ल-ए-अब्र
जम रहा है अब्र के होींटोीं पे खाँ -आलद कफ
बुझते बुझते बुझ गई है अश़ के हुजरोीं में आग
धीरे धीरे कबछ रही है मातमी तारोीं की ्फ
ऐ ्बा शायद कतरे हम-राह ये खाँ -नाक शाम
्र झुकाए जा रही है शहर-ए-यारााँ की तरफ
शहर-ए-यारााँ कज् में इ् दम ढाँ ढती किरती है मौत
शे र-कदल बाीं कोीं में अपने तीर-ओ-नश्तर के हदफ
इक तरफ बजती हैं जोश-ए-जीस्त की शहनाइयााँ
इक तरफ कचींघाड़ते हैं अहरमन के तब्ल-ओ-दफ
जा के कहना ऐ ्बा ब'अद-अज-्लाम-ए-दोस्ती
आज शब कज् दम गुजर हो शहर-ए-यारााँ की तरफ
दश्त-ए-शब में इ् घड़ी चुप-चाप है शायद रवााँ
्ाकी-ए-्ुब्ह-ए-तरब नग़्मा-ब-लब ्ागर-ब-कफ
वो पहुाँ च जाए तो होगी किर ्े बरपा अींजुमन
और तरतीब-ए-मकाम-ओ-मीं ्ब-ओ-जाह-ओ-शरफ

शीशोीं का मसीहा कोई नही ीं


मोती हो कक शीशा जाम कक दु र
जो टट गया ्ो टट गया
कब अश्कोीं ्े जु ड़ ्कता है
जो टट गया ्ो छट गया

तुम नाहक टु कड़े चुन चुन कर


दामन में छु पाए बैठे हो
शीशोीं का म्ीहा कोई नहीीं
क्या आ् लगाए बैठे हो

शायद कक इन्हीीं टु कड़ोीं में कहीीं


वो ्ागर-ए-कदल है कज् में कभी
्द-नाज ्े उतरा करती थी
्हबा-ए-गम-ए-जानााँ की परी

किर दु कनया वालोीं ने तुम ्े


ये ्ागर ले कर िोड़ कदया
जो मय थी बहा दी कमट्टी में
मे हमान का शहपर तोड़ कदया

ये रीं गीीं रे जे हैं शायद


उन शोख कबलोरीीं ्पनोीं के
तुम मस्त जवानी में कजन ्े
खल्वत को ्जाया करते थे

नादारी दफ़्तर भक और गम
उन ्पनोीं ्े टकराते रहे
बे-रहम था चौमु ख पथराओ
ये कााँ च के ढााँ चे क्या करते

या शायद इन जरों में कहीीं


मोती है तुम्हारी इज़्ज़त का
वो कज् ्े तुम्हारे इज्जज पे भी
शमशाद-कदोीं ने रश्क ककया

इ् माल की धुन में किरते थे


ताकजर भी बहुत रहजन भी कई
है चोर-नगर यााँ मु फकल् की
गर जान बची तो आन गई

ये ्ागर शीशे लाल-ओ-गुहर


्ाकलम होीं तो कीमत पाते हैं
याँ टु कड़े टु कड़े होीं तो फकत
चुभते हैं लह रुलवाते हैं

तुम नाहक शीशे चुन चुन कर


दामन में छु पाए बैठे हो
शीशोीं का म्ीहा कोई नहीीं
क्या आ् लगाए बैठे हो

यादोीं के कगरे बानोीं के रफ


पर कदल की गुजर कब होती है
इक बकखया उधेड़ा एक क्या
याँ उम्र ब्र कब होती है

इ् कार-गह-ए-हस्ती में जहााँ


ये ्ागर शीशे ढलते हैं
हर शय का बदल कमल ्कता है
्ब दामन पुर हो ्कते हैं

जो हाथ बढे यावर है यहााँ


जो आाँ ख उठे वो बख़्तावर
यााँ धन-दौलत का अींत नहीीं
होीं घात में डाक लाख मगर

कब लट-झपट ्े हस्ती की
दकानें खाली होती हैं
यााँ परबत-परबत हीरे हैं
यााँ ्ागर ्ागर मोती हैं

कुछ लोग हैं जो इ् दौलत पर


पद़े लटकाते किरते हैं
हर पब़त को हर ्ागर को
नीलाम चढाते किरते हैं

कुछ वो भी हैं जो लड़ कभड़ कर


ये पद़े नोच कगराते हैं
हस्ती के उठाई-गीरोीं की
हर चाल उलझाए जाते हैं

इन दोनोीं में रन पड़ता है


कनत बस्ती-बस्ती नगर-नगर
हर बस्ते घर के ्ीने में
हर चलती राह के माथे पर

ये कालक भरते किरते हैं


वो जोत जगाते रहते हैं
ये आग लगाते किरते हैं
वो आग बुझाते रहते हैं

्ब ्ागर शीशे लाल-ओ-गुहर


इ् बाजी में बद जाते हैं
उट्ठो ्ब खाली हाथोीं को
इ् रन ्े बुलावे आते हैं

शोर-ए-बरबत-ओ-नय
पहली आवाज
अब ्ई का इमकााँ और नहीीं पवा़ ज का मजमाँ हो भी चुका
तारोीं पे कमीं दें िेंक चुके महताब पे शब-खाँ हो भी चुका
अब और कक्ी फदा़ के कलए उन आाँ खोीं ्े क्या पैमााँ कीजे
कक् ख़्वाब के झटे अफ़्साँ ्े तस्कीन-ए-कदल-ए-नादााँ कीजे
शीरीनी-ए-लब खु शब-ए-दहन अब शौक का उनवााँ कोई नहीीं
शादाबी-ए-कदल तफरीह-ए-नजर अब जीस्त का दरमााँ कोई नहीीं
जीने के फ्ाने रहने दो अब इन में उलझ कर क्या लें गे
इक मौत का धींदा बाकी है जब चाहें गे कनप्टा लें गे
ये तेरा कफन वो मे रा कफन ये मे री लहद वो तेरी है

द्री आवाज
हस्ती की मता-ए-बे-पायााँ जागीर कतरी है न मे री है
इ् बज़्म में अपनी कमशअल-ए-कदल कबग़्स्मल है तो क्या रख़्ााँ है तो क्या
ये बज़्म चरागााँ रहती है इक ताक अगर वीरााँ है तो क्या
अफ़्सुदा़ हैं गर अय्याम कतरे बदला नहीीं मस्लक-ए-शाम-ओ-्हर
ठहरे नहीीं मौ्म-ए-गुल के कदम काएम है जमाल-ए-शम्स-ओ-कमर
आबाद है वादी-ए-काकुल-ओ-लब शादाब-ओ-ह्ीीं गुलगश्त-ए-नजर
मक़्म है लज़्ज़त-ए-दद़ -ए-कजगर मौजद है नेमत-ए-दीदा-ए-तर
इ् दीदा-ए-तर का शु क्र करो इ् जौक-ए-नजर का शु क्र करो
इ् शाम ओ ्हर का शुक्र करो इन शम्स ओ कमर का शु क्र करो

पहली आवाज
गर है यही मस्लक-ए-शम्स-ओ-कमर इन शम्स-ओ-कमर का क्या होगा
रानाई-ए-शब का क्या होगा अींदाज-ए-्हर का क्या होगा
जब खन-ए-कजगर बफा़ ब बना जब आाँ खें आहन-पोश हुईीं
इ् दीदा-ए-तर का क्या होगा इ् जौक-ए-नजर का क्या होगा
जब शे र के खे मे राख हुए नग़्मोीं की तनाबें टट गईीं
ये ्ाज कहााँ ्र िोड़ें गे इ् ग़्क्लक-ए-गुहर का क्या होगा
जब कुींज-ए-कफ् मस्कन ठहरा और जै ब-ओ-गरे बााँ तौक-ओ-र्न
आए कक न आए मौ्म-ए-गुल इ् दद़ -ए-कजगर का क्या होगा

द्री आवाज
ये हाथ ्लामत हैं जब तक इ् खाँ में हरारत है जब तक
इ् कदल में ्दाकत है जब तक इ् नु त्फक में ताकत है जब तक
इन तौक-ओ-्लाक्ल को हम तुम क्खलाएाँ गे शोररश-ए-बरबत-ओ-नय
वो शोररश कज् के आगे जु बाँ हाँ गामा-ए-तब्ल-ए-कै्र-ओ-कै
आजाद हैं अपने कफक्र ओ अमल भरपर खजीना कहम्मत का
इक उमर है अपनी हर ्ाअत इमरोज है अपना हर फदा़
ये शाम-ओ-्हर ये शम्स-ओ-कमर ये अख़्तर-ओ-कौकब अपने हैं
ये लौह-ओ-कलम ये तब्ल-ओ-अलम ये माल-ओ-हशम ्ब अपने हैं

शोररश-ए-जींजीर फबस्मिल्लाह
हुई किर इमकतहान-ए-इशक की तदबीर कबग़्स्मल्लाह
हर इक जाकनब मचा कुहराम-ए-दार-ओ-गीर कबग़्स्मल्लाह
गली-कचोीं में कबखरी शोररश-ए-जीं जीर कबग़्स्मल्लाह
दर-ए-कजीं दााँ पे बुलवाए गए किर ्े जु नाँ वाले
दरीदा दामनोीं वाले परे शााँ गे्ुओीं वाले
जहााँ में दद़ -ए-कदल की किर हुई तौकीर कबग़्स्मल्लाह
हुई किर इमकतहान-ए-इशक की तदबीर कबग़्स्मल्लाह
कगनो ्ब दाग कदल के ह्रतें शौकें कनगाहोीं की
्र-ए-दररया परग़्स्तश हो रही है किर गुनाहोीं की
करो यारो शु मार-ए-नाला-ए-शब-गीर कबग़्स्मल्लाह
क्तम की दास्तााँ कुश्ता कदलोीं का माजरा ककहए
जो जे र-ए-लब न कहते थे वो ्ब कुछ बरमला ककहए
मु क्र है मोहतक्ब राज-ए-शहीदान-ए-वफा ककहए
लगी है हफ़-ए-ना-गुफ़्ता पे अब ताजीर अल्लाह
्र-ए-मक़्तल चलो बे-जहमत-ए-तक्ीर कबग़्स्मल्लाह
हुई किर इमकतहान-ए-इशक की तदबीर कबग़्स्मल्लाह

फसपाही का मफस़या
उट्ठो अब माटी ्े उट्ठो
जागो मे रे लाल
अब जागो मे रे लाल
तुमरी ्ेज जवान कारन
दे खो आई रे न अाँधयारन
नीले शाल दो-शाले ले कर
कजन में इन दु ग़्खयन अग़्खयन ने
ढे र ककए हैं इतने मोती
इतने मोती कजन की ज्योकत
दान ्े तुमरा
जग जग लागा
नाम चमकने
उट्ठो अब माटी ्े उट्ठो
जागो मे रे लाल
अब जागो मे रे लाल
घर घर कबखरा भोर का कुींदन
घोर-अाँधेरा अपना आाँ गन
जाने कब ्े राह तके हैं
बाली दु ल्हकनया, बााँ के वीरन
्ना तुमरा राज पड़ा है
दे खो ककतना काज पड़ा है
बैरी कबराजे राज-क्ींघा्न
तुम माटी में लाल
उट्ठो अब माटी ्े उट्ठो, जागो मे रे लाल
हट न करो माटी ्े उट्ठो, जागो मे रे लाल
अब जागो मे रे लाल

फसयासी लीडर के नाम


्ाल-हा-्ाल ये बे-आ्रा जकड़े हुए हाथ
रात के ्ख़्त ओ क्यह ्ीने मैं पैवस्त रहे
कज् तरह कतनका ्मुीं दर ्े हो ्रगम़ -ए-्तेज
कज् तरह तीतरी कोह्ार पे यलगार करे
और अब रात के ्ींगीन ओ क्यह ्ीने में
इतने घाव हैं कक कज् ्म्त नजर जाती है
जा-ब-जा नर नय इक जाल ्ा बुन रखा है
दर ्े ्ुब्ह की धड़कन की ्दा आती है
तेरा ्रमाया कतरी आ् यही हाथ तो हैं
और कुछ भी तो नहीीं पा् यही हाथ तो हैं
तुझ को मीं जर नहीीं गलब-ए-जु ल्मत ले ककन
तुझ को मीं जर है ये हाथ कलम हो जाएाँ
और मकश्रक की कमीीं-गह में धड़कता हुआ कदन
रात की आहनी मय्यत के तले दब जाए!

सोच
क्याँ मे रा कदल शाद नहीीं है
क्याँ खामोश रहा करता हाँ
छोड़ो मे री राम-कहानी
मैं जै ्ा भी हाँ अच्छा हाँ

मे रा कदल गम-गीीं है तो क्या


गम-गीीं ये दु कनया है ्ारी
ये दु ख तेरा है न मे रा
हम ्ब की जागीर है कपयारी

त गर मे री भी हो जाए
दु कनया के गम याँही रहें गे
पाप के िींदे जु ल्म के बींधन
अपने कहे ्े कट न ्केंगे

गम हर हालत में मोहकलक है


अपना हो या और कक्ी का
रोना-धोना जी को जलाना
याँ भी हमारा याँ भी हमारा

क्याँ न जहााँ का गम अपना लें


ब'अद में ्ब तदबीरें ्ोचें
ब'अद में ्ुख के ्पने दे खें
्पनोीं की ताबीरें ्ोचें

बे-कफकरे धन-दौलत वाले


ये आकखर क्याँ खुश रहते हैं
इन का ्ुख आप् में बााँ टें
ये भी आकखर हम जै ्े हैं
हम ने माना जीं ग कड़ी है
्र िटें गे खन बहे गा
खन में गम भी बह जाएाँ गे
हम न रहें गम भी न रहेगा

सोचने िो
इक जरा ्ोचने दो
इ् खयाबााँ में
जो इ् लहजा बयाबााँ भी नहीीं
कौन ्ी शाख में िल आए थे ्ब ्े पहले
कौन बे-रीं ग हुई रीं ज-ओ-तअब ्े पहले
और अब ्े पहले
कक् घड़ी कौन ्े मौ्म में यहााँ
खन का कहत पड़ा
गुल की शह-रग पे कड़ा
वक़्त पड़ा
्ोचने दो
्ोचने दो
इक जरा ्ोचने दो
ये भरा शहर जो अब वादी-ए-वीरााँ भी नहीीं
इ् में कक् वक़्त कहााँ
आग लगी थी पहले
इ् के ्फ-बस्ता दरीचोीं में ्े कक् में अव्वल
जह हुई ्ुख़ शु आओीं की कमााँ
कक् जगह जोत जगी थी पहले
्ोचने दो
हम ्े उ् दे ् का तुम नाम ओ कनशााँ पछते हो
कज् की तारीख न जु गराकफया अब याद आए
और याद आए तो महब-ए-गुकजश्ता याद आए
र-ब-र आने ्े जी घबराए
हााँ मगर जै ्े कोई
ऐ्े महबब या महबबा का कदल रखने को
आ कनकलता है कभी रात कबताने के कलए
हम अब उ् उम्र को आ पहुाँ चे हैं जब हम भी याँही
कदल ्े कमल आते हैं ब् रस्म कनभाने के कलए
कदल की क्या पछते हो
्ोचने दो

सुब्ह-ए-आजािी (अगस्त-47)
ये दाग दाग उजाला ये शब-गजीदा ्हर
वो इीं कतजार था कज् का ये वो ्हर तो नहीीं
ये वो ्हर तो नहीीं कज् की आरज ले कर
चले थे यार कक कमल जाएगी कहीीं न कहीीं
फलक के दश्त में तारोीं की आकखरी मीं कजल
कहीीं तो होगा शब-ए-्ुस्त-मौज का ्ाकहल
कहीीं तो जा के रुकेगा ्फीना-ए-गम कदल
जवााँ लह की पुर-अ्रार शाह-राहोीं ्े
चले जो यार तो दामन पे ककतने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-्ब्र ख़्वाब-गाहोीं ्े
पुकारती रहीीं बाहें बदन बुलाते रहे
बहुत अजीज थी ले ककन रुख-ए-्हर की लगन
बहुत करीीं था ह्ीनान-ए-नर का दामन
्ुबुक ्ुबुक थी तमन्ना दबी दबी थी थकन

्ुना है हो भी चुका है कफराक-ए-जु ल्मत-ओ-नर


्ुना है हो भी चुका है कव्ाल-ए-मीं कजल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दद़ का दस्तर
नशात-ए-वस्ल हलाल ओ अजाब-ए-कहज्र हराम
कजगर की आग नजर की उमीं ग कदल की जलन
कक्ी पे चारा-ए-कहज्रााँ का कुछ अ्र ही नहीीं
कहााँ ्े आई कनगार-ए-्बा ककधर को गई
अभी चराग-ए-्र-ए-रह को कुछ खबर ही नहीीं
अभी कगरानी-ए-शब में कमी नहीीं आई
नजात-ए-दीदा-ओ-कदल की घड़ी नहीीं आई
चले -चलो कक वो मीं कजल अभी नहीीं आई

सुरूि
मौत अपनी न अमल अपना न जीना अपना
खो गया शोररश-ए-गीती में करीना अपना
नाखु दा दर हवा तेज, करीीं काम-ए-नहीं ग
वक़्त है िेंक दे लहरोीं में ्फीना अपना
अर्ा-ए-दहर के हीं गामे तह-ए-खाब ्ही
गम़ रख आकतश-ए-पैकार ्े ्ीना अपना
्ाककया रीं ज न कर जाग उठे गी महकफल
और कुछ दे र उठा रखते हैं पीना अपना
बेश-कीमत हैं ये गम-हा-ए-महब्बत मत भल
जु ल्मत-ए-या् को मत ्ौींप खजीना अपना

सुरुि-ए-शबाना
नीम-शब चााँ द खु द-फरामोशी
महकफल-ए-हस्त-ओ-बद वीरााँ है
पैकर-ए-इग़्िजा है खामोशी
बज़्म-ए-अींजुम फ्ुदा़ -्ामााँ है
आबशार-ए-्ुकत जारी है
चार-् बे-खु दी ्ी तारी है
कजीं दगी जु जव-ए-ख़्वाब है गोया
्ारी दु कनया ्राब है गोया
्ो रही है घने दरख़्तोीं पर!
चााँ दनी की थकी हुई आवाज
कहकशााँ नीम-वा कनगाहोीं ्े
कह रही है हदी्-ए-शौक-ए-कनयाज
्ाज-ए-कदल के खमोश तारोीं ्े
छन रहा है खु मार-ए-कैफ-आगीीं
आरज ख़्वाब तेरा र-ए-ह्ीीं

सुरुि-ए-शबाना
गम है इक कैफ में फजाए-हयात
खामु शी ्ज्दा-ए-कनयाज में है
हुस्न-ए-मा्म ख़्वाब-ए-नाज में है
ऐ कक त रीं ग-ओ-ब का तफााँ है
ऐ कक त जल्वा-गर बहार में है
कजीं दगी तेरे इग़्ख़्तयार में है
िल लाखोीं बर् नहीीं रहते
दो घड़ी और है बहार-ए-शबाब
आ कक कुछ कदल की ्ुन ्ुना लें हम
आ मोहब्बत के गीत गा लें हम
मे री तन्हाइयोीं पे शाम रहे ?
ह्रत-ए-दीद ना-तमाम रहे ?
कदल में बेताब है ्दा-ए-हयात
आाँ ख गौहर कन्ार करती है
आ्मााँ पर उदा् हैं तारे
चााँ दनी इीं कतजार करती है
आ कक थोड़ा ्ा प्यार कर लें हम
कजीं दगी जर-कनगार कर लें हम

तह-ए-नु जम
तह-ए-नु जम, कहीीं चााँ दनी के दामन में
हुजम-ए-शौक ्े इक कदल है बे-करार अभी
खु मार-ए-ख़्वाब ्े लबरे ज अहमरीीं आाँ खें
्फेद रुख पे परे शान अम्बरीीं आाँ खें
छलक रही है जवानी हर इक बुन-ए-म ्े
रवााँ हो बग़-ए-गुल-ए-तर ्े जै ्े ्ैल-ए-शमीम
कजया-ए-मह में दमकता है रीं ग-ए-पैराहन
अदा-ए-इज्जज ्े आाँ चल उड़ा रही है न्ीम
दराज कद की लचक ्े गुदाज पैदा है
अदा-ए-नाज ्े रीं ग-ए-कनयाज पैदा है
उदा् आाँ खोीं में खामोश इग़्िजाएाँ हैं
कदल-ए-हजीीं में कई जााँ -ब-लब दु आएाँ हैं
तह-ए-नु जम कहीीं चााँ दनी के दामन में
कक्ी का हुस्न है म्रफ-ए-इीं कतजार अभी
कहीीं खयाल के आबाद-कदा़ गुलशन में
है एक गुल कक है ना-वाककफ-ए-बहार अभी

तन्हाई
किर कोई आया कदल-ए-जार नहीीं कोई नहीीं
राह-रौ होगा कहीीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात कबखरने लगा तारोीं का गुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानोीं में ख़्वाबीदा चराग
्ो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुजार
अजनबी खाक ने धुाँदला कदए कदमोीं के ्ुराग
गुल करो शमएाँ बढा दो मय ओ मीना ओ अयाग
अपने बे-ख़्वाब ककवाड़ोीं को मु कफ़्फल कर लो
अब यहााँ कोई नहीीं कोई नहीीं आएगा

तराना
दरबार-ए-वतन में जब इक कदन ्ब जाने वाले जाएाँ गे
कुछ अपनी ्जा को पहुाँ चेंगे, कुछ अपनी जजा ले जाएाँ गे

ऐ खाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त करीब आ पहुाँ चा है


जब तख़्त कगराए जाएाँ गे जब ताज उछाले जाएाँ गे

अब टट कगरें गी जीं जीरें अब कजीं दानोीं की खै र नहीीं


जो दररया झम के उट्ठे हैं कतनकोीं ्े न टाले जाएाँ गे

कटते भी चलो, बढते भी चलो, बाज भी बहुत हैं ्र भी बहुत


चलते भी चलो कक अब डे रे मीं कजल ही पे डाले जाएाँ गे

ऐ जु ल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक


कुछ हश्र तो उन ्े उट्ठेगा कुछ दर तो नाले जाएाँ गे

तौक-ओ-िार का मौसम
रकवश-रकवश है वही इीं कतजार का मौ्म
नहीीं है कोई भी मौ्म बहार का मौ्म

कगरााँ है कदल पे गम-ए-रोजगार का मौ्म


है आजमाइश-ए-हुस्न-ए-कनगार का मौ्म

खु शा नजारा-ए-रुख्ार-ए-यार की ्ाअत
खु शा करार-ए-कदल-ए-बे-करार का मौ्म

हदी्-ए-बादा-ओ-्ाकी नहीीं तो कक् म्रफ


कखराम-ए-अब्र-ए-्र-ए-कोह्ार का मौ्म

न्ीब-ए-्ोहबत-ए-यारााँ नहीीं तो क्या कीजे


ये रक़्-ए-्ाया-ए-्व़-ओ-कचनार का मौ्म

ये कदल के दाग तो दु खते थे याँ भी पर कम कम


कुछ अब के और है कहज्रान-ए-यार का मौ्म

यही जु नाँ का यही तौक-ओ-दार का मौ्म


यही है जब्र यही इग़्ख़्तयार का मौ्म

कफ् है ब् में तुम्हारे तुम्हारे ब् में नहीीं


चमन में आकतश-ए-गुल के कनखार का मौ्म

्बा की मस्त-कखरामी तह-ए-कमीं द नहीीं


अ्ीर-ए-दाम नहीीं है बहार का मौ्म

बला ्े हम ने न दे खा तो और दे खेंगे
फरोग-ए-गुलशन ओ ्ौत-ए-हजार का मौ्म

तीन आवाजें
जाकलम
जश्न है मातम-ए-उम्मीद का आओ लोगो
मग़-ए-अम्बोह का त्यौहार मनाओ लोगो
अदम-आबाद को आबाद ककया है मैं ने
तुम को कदन रात ्े आजाद ककया है मैं ने
जल्वा-ए-्ुब्ह ्े क्या मााँ गते हो
कबस्तर-ए-ख़्वाब ्े क्या चाहते हो
्ारी आाँ खोीं को तह-ए-तेग ककया है मैं ने
्ारे ख़्वाबोीं का गला घाँट कदया है मैं ने
अब न लहकेगी कक्ी शाख पे िलोीं की कहना
फस्ल-ए-गुल आएगी नमरद के अाँगार कलए
अब न बर्ात में बर्ेगी गुहर की बरखा
अब्र आएगा ख्-ओ-खार के अम्बार कलए
मे रा मस्लक भी नया राह-ए-तरीकत भी नई
मे रे कानाँ भी नए मे री शरीअत भी नई
अब फकीहान-ए-हरम दस्त-ए-्नम चमें गे
्व़-कद कमट्टी के बौनोीं के कदम चमें गे
फश़ पर आज दर-ए-क्दक-ओ-्फा बींद हुआ
अश़ पर आज हर इक बाब-ए-दु आ बींद हुआ

मजलम
रात छाई तो हर इक दद़ के धारे छटे
्ुब्ह िटी तो हर इक जख़्म के टााँ के टटे
दोपहर आई तो हर रग ने लह बर्ाया
कदन ढला खौफ का इफरीत मु काकबल आया
या खु दा ये कमरी गदा़ न-ए-शब-ओ-रोज-ओ-्हर
ये कमरी उम्र का बे-मीं कजल ओ आराम ्फर
क्या यही कुछ कमरी ककस्मत में कलखा है त ने
हर म्ऱ त ्े मु झे आक ककया है त ने
वो ये कहते हैं त खु श-नद हर इक जु ल्म ्े है
वो ये कहते हैं हर इक जु ल्म कतरे हुक्म ्े है
गर ये ्च है तो कतरे अद़् ल ्े इीं कार कराँ ?
उन की मानाँ कक कतरी जात का इकरार कर ाँ ?

कनदा-ए-गैब
हर इक ऊकलल-अमर को ्दा दो
कक अपनी फद़ -ए-अमल ्ाँभाले
उठे गा जब जम़् -ए-्रफरोशााँ
पड़ें गे दार-ओ-र्न के लाले
कोई न होगा कक जो बचा ले
जजा ्जा ्ब यहीीं पे होगी
यहीीं अजाब ओ ्वाब होगा
यहीीं ्े उट्ठेगा शोर-ए-महशर
यहीीं पे रोज-ए-कह्ाब होगा

तीन मींजर
त्व्वु र
शोकखयााँ मु ज़्तर-कनगाह-ए-दीदा-ए-्रशार में
इशरतें ख़्वाबीदा रीं ग-ए-गाजा-ए-रुख्ार में
्ुख़ होींटोीं पर तबस्सुम की कजयाएाँ कज् तरह
या्मन के िल डबे होीं मय-ए-गुलनार में

्ामना
छनती हुई नजरोीं ्े जज़्बात की दु कनयाएाँ
बे-ख़्वाकबयााँ अफ़्साने महताब तमन्नाएाँ
कुछ उलझी हुई बातें कुछ बहके हुए नग़्मे
कुछ अश्क जो आाँ खोीं ्े बे-वज्जह छलक जाएाँ

रुख़्सत
फ्ुदा़ रुख लबोीं पर इक कनयाज आमेज खामोशी
तबस्सुम मु ज़्मकहल था मरमरीीं हाथोीं में लकज़श थी
वो कै्ी बे-क्ी थी तेरी पुर-तमकीीं कनगाहोीं में
वो क्या दु ख था कतरी ्हमी हुई खामोश आहोीं में

तुम अपनी करनी कर गुजरो


अब क्याँ उ् कदन का कजक्र करो
जब कदल टु कड़े हो जाएगा
और ्ारे गम कमट जाएाँ गे
जो कुछ पाया खो जाएगा
जो कमल न ्का वो पाएाँ गे
ये कदन तो वही पहला कदन है
जो पहला कदन था चाहत का
हम कज् की तमन्ना करते रहे
और कज् ्े हर दम डरते रहे
ये कदन तो कई बार आया
्ौ बार ब्े और उजड़ गए
्ौ बार लु टे और भर पाया

अब क्याँ उ् कदन का कजक्र करो


जब कदल टु कड़े हो जाएगा
और ्ारे गम कमट जाएाँ गे
तुम खौफ-ओ-खतर ्े दर-गुजरो
जो होना है ्ो होना है
गर हाँ ्ना है तो हाँ ्ना है
गर रोना है तो रोना है
तुम अपनी करनी कर गुजरो
जो होगा दे खा जाएगा

तुम ही कहो क्या करना है


जब दु ख की नकदया में हम ने
जीवन की नाव डाली थी
था ककतना क्-बल बााँ होीं में
लोह में ककतनी लाली थी
याँ लगता था दो हाथ लगे
और नाव परम पार लगी
ऐ्ा न हुआ, हर धारे में
कुछ अन-दे खी मींजधारें थीीं
कुछ मााँ झी थे अींजान बहुत
कुछ बे-परखी पतवारें थीीं
अब जो भी चाहो छान करो
अब कजतने चाहो दोश धरो
नकदया तो वही है , नाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
अब कै्े पार उतरना है
जब अपनी छाती में हम ने
इ् दे ् के घाव दे खे थे
था वेदोीं पर कवश्वाश बहुत
और याद बहुत ्े नु स्फखे थे
याँ लगता था ब् कुछ कदन में
्ारी कबपता कट जाएगी
और ्ब घाव भर जाएाँ गे
ऐ्ा न हुआ कक रोग अपने
कुछ इतने ढे र पुराने थे
वेद इन की टोह को पा न ्के
और टोटके ्ब बे-कार गए
अब जो भी चाहो छान करो
अब कजतने चाहो दोश धरो
छाती तो वही है , घाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
ये घाव कै्े भरना है

तुम ये कहते हो अब कोई चारा नही ीं


तुम ये कहते हो वो जीं ग हो भी चुकी!
कज् में रक्खा नहीीं है कक्ी ने कदम
कोई उतरा न मै दााँ में दु श्मन न हम
कोई ्फ बन न पाई, न कोई अलम
मुीं तकशर दोस्तोीं को ्दा दे ्का
अजनबी दु श्मनोीं का पता दे ्का
तुम ये कहते हो वो जीं ग हो भी चुकी!
कज् में रक्खा नहीीं हम ने अब तक कदम
तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीीं
कजस्म खस्ता है , हाथोीं में यारा नहीीं

अपने ब् का नहीीं बार-ए-्ींग-ए-क्तम


बार-ए-्ींग-ए-क्तम, बार-ए-कोह्ार-ए-गम
कज् को छ कर ्भी इक तरफ हो गए
बात की बात में जी-शरफ हो गए

दोस्तो, क-ए-जानााँ की ना-मे हरबााँ


खाक पर अपने रौशन लह की बहार
अब न आएगी क्या? अब खु लेगा न क्या
उ् कफ-ए-नाजनीीं पर कोई लाला-जार?
इ् हजीीं खामुशी में न लौटे गा क्या
शोर-ए-आवाज-ए-हक, नारा-ए-गीर-ओ-दार
शौक का इग़्म्तहााँ जो हुआ ्ो हुआ
कजस्म-ओ-जााँ का कजयााँ जो हुआ ्ो हुआ
्द ्े पेशतर है कजयााँ और भी
दोस्तो, मातम-ए-कजस्म-ओ-जााँ और भी
और भी तल्फख-तर इग़्म्तहााँ और भी

तुम्हारे हुस्न के नाम


्लाम कलखता है शाएर तुम्हारे हुस्न के नाम
कबखर गया जो कभी रीं ग-ए-पैरहन ्र-ए-बाम
कनखर गई है कभी ्ुब्ह दोपहर कभी शाम
कहीीं जो कामत-ए-जे बा पे ्ज गई है कबा
चमन में ्व़-ओ-्नोबर ्ाँवर गए हैं तमाम
बनी कब्ात-ए-गजल जब डु बो कलए कदल ने
तुम्हारे ्ाया-ए-रुख्ार-ओ-लब में ्ागर-ओ-जाम
्लाम कलखता है शाएर तुम्हारे हुस्न के नाम
तुम्हारे हाथ पे है ताकबश-ए-कहना जब तक
जहााँ में बाकी है कदलदारी-ए-उर्-ए-्ुखन
तुम्हारा हुस्न जवााँ है तो मेहरबााँ है फलक
तुम्हारा दम है तो दम-्ाज है हवा-ए-वतन
अगरचे तींग हैं औकात ्ख़्त हैं आलाम
तुम्हारी याद ्े शीरीीं है तल्फखी-ए-अय्याम
्लाम कलखता है शाएर तुम्हारे हुस्न के नाम

तुक़ शाएर नाफजम-फहकमत के अफ़्कार


जीने के कलए मरना
ये कै्ी ्आदत है
मरने के कलए जीना
ये कै्ी कहमाकत है

अकेले कजयो एक शमशाद-तन की तरह


और कमल कर कजयो
एक बन की तरह

हम ने उम्मीद के ्हारे पर
टट कर याँ ही कजीं दगी की है
कज् तरह तुम ्े आकशकी की है

टटी जहााँ जहााँ पे कमींि


रहा न कुछ भी जमाने में जब नजर को प्ींद
कतरी नजर ्े ककया ररश्ता-ए-नजर पैवींद

कतरे जमाल ्े हर ्ुब्ह पर वज लाकजम


हर एक शब कतरे दर पर ्ुजद की पाबींद

नहीीं रहा हरम-ए-कदल में इक ्नम बाकतल


कतरे खयाल के लात-ओ-मनात की ्ौगींद

कम्ाल-ए-जीना-ए-मीं कजल ब-कार-ए-शौक आया


हर इक मकाम कक टटी जहााँ जहााँ पे कमीं द

कखजााँ तमाम हुई कक् कह्ाब में कलग़्खए


बहार-ए-गुल में जो पहुाँ चे हैं शाख-ए-गुल को गजीं द

दरीदा-कदल है कोई शहर में हमारी तरह


कोई दु रीदा-दहन शै ख-ए-शहर के माकनीं द

कशआर की जो मु दारात-ए-कामत-ए-जानााँ
ककया है 'फैज' दर-ए-कदल दर-ए-फलक ्े बुलींद

उमीि-ए-सहर की बात सुनो


कजगर-दरीदा हाँ चाक-ए-कजगर की बात ्ुनो
अलम-र्ीदा हाँ दामान-ए-तर की बात ्ुनो
जबााँ -बुरीदा हाँ जख़्म-ए-गुल ्े हफ़ करो
कशकस्ता-पा हाँ मलाल-ए-्फर की बात ्ुनो
मु ्ाकफर-ए-रह-ए-्हरा-ए-जु ल्मत-ए-शब ्े
अब इग़्िफात-ए-कनगार-ए-्हर की बात ्ुनो
्हर की बात उमीद-ए-्हर की बात ्ुनो
व-यबका-वज्ह-ओ-रस्मब्बक
हम दे खेंगे
लाकजम है कक हम भी दे खेंगे
वो कदन कक कज् का वादा है
जो लौह-ए-अजल में कलख्खा है
जब जु ल्म-ओ-क्तम के कोह-ए-कगरााँ
रई की तरह उड़ जाएाँ गे
हम महकमोीं के पााँ व-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के ्र-ऊपर
जब कबजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अज़ -ए-खु दा के काबे ्े
्ब बुत उठवाए जाएाँ गे
हम अहल-ए-्फा मरदद-ए-हरम
म्नद पे कबठाए जाएाँ गे
्ब ताज उछाले जाएाँ गे
्ब तख़्त कगराए जाएाँ गे
ब् नाम रहे गा अल्लाह का
जो गाएब भी है हाकजर भी
जो मीं जर भी है नाकजर भी
उट्ठेगा अनल-हक का नारा
जो मैं भी हाँ और तुम भी हो

और राज करे गी खल्फक-ए-खु दा


जो मैं भी हाँ और तुम भी हो

याि
दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहााँ लजाां हैं
तेरी आवाज के ्ाए कतरे होींटोीं के ्राब
दश्त-ए-तन्हाई में दरी के ख् ओ खाक तले
ग़्खल रहे हैं कतरे पहल के ्मन और गुलाब

उठ रही है कहीीं कुब़त ्े कतरी ्ााँ ् की आाँ च


अपनी खु शब में ्ुलगती हुई मद्धम मद्धम
दर उफुक पार चमकती हुई कतरा कतरा
कगर रही है कतरी कदलदार नजर की शबनम

इ् कदर प्यार ्े ऐ जान-ए-जहााँ रक्खा है


कदल के रुख़्सार पे इ् वक़्त कतरी याद ने हात
याँ गुमााँ होता है गरचे है अभी ्ुब्ह-ए-कफराक
ढल गया कहज्र का कदन आ भी गई वस्ल की रात

यार अग़्यार हो गए हैं


यार अग़्यार हो गए हैं
और अग़्यार मु क्र हैं कक वो ्ब
यार-ए-गार हो गए हैं
अब कोई नदीम-ए-बा-्फा नहीीं है
्ब ररीं द शराब-ख़्वार हो गए हैं

यास
बरबत-ए-कदल के तार टट गए
हैं जमीीं-बो् राहतोीं के महल
कमट गए ककस्सा-हा-ए-कफक्र-ओ-अमल!
बज़्म-ए-हस्ती के जाम िट गए
कछन गया कैफ-ए-कौ्र-अेो-त्नीम
जहमत-ए-कगया़ -ओ-बुका बे-्द
कशकवा-ए-बख़्त-ए-ना-र्ा बे-्द
हो चुका खत्म रहमतोीं का नु जल
बींद है मु द्दतोीं ्े बाब-ए-कुबल
बे-कनयाज-ए-दु आ है रब्ब-ए-करीम
बुझ गई शम़् -ए-आरज-ए-जमील
याद बाकी है बे-क्ी की दलील
इग़्न्तजार-ए-फुजल रहने दे
राज-ए-उल्फफत कनबाहने वाले
बार-ए-गम ्े कराहने वाले
काकवश-ए-बे-हु्ल रहने दे

यहााँ से शहर को िे खो
यहााँ ्े शहर को दे खो तो हल्फका-दर-हल्फका
ग़्खींची है जेल की ्रत हर एक ्म्त फ्ील
हर एक राहगुजर गकद़ श-ए-अ्ीरााँ है
न ्ींग-ए-मील न मींकजल न मु ग़्ख़्ल्ी कक ्बील

जो कोई तेज चले रह तो पछता है खयाल


कक टोकने कोई ललकार क्याँ नहीीं आई
जो कोई हाथ कहलाए तो वहम को है ्वाल
कोई छनक कोई झींकार क्याँ नहीीं आई

यहााँ ्े शहर को दे खो तो ्ारी कखल्फकत में


न कोई ्ाहब-ए-तमकीीं न कोई वाली-ए-होश
हर एक मद़ -ए-जवााँ मु जररम-ए-र्न-ब-गुल
हर इक ह्ीन-ए-राना, कनीज-ए-हल्फका-बगोश

जो ्ाए दर चरागोीं के कगद़ लजाां हैं


न जाने महकफल-ए-गम है कक बज़्म-ए-जाम-ओ-्ुब
जो रीं ग हर दर-ओ-दीवार पर परे शााँ हैं
यहााँ ्े कुछ नहीीं खुलता ये िल हैं कक लह

ये र्फस्ल उमीिोीं की हमिम


्ब काट दो
कबग़्स्मल पौदोीं को
बे-आब क््कते मत छोड़ो
्ब नोच लो
बेकल िलोीं को
शाखोीं पे कबलकते मत छोड़ो

ये फस्ल उमीदोीं की हमदम


इ् बार भी गारत जाएगी
्ब मे हनत ्ुब्होीं शामोीं की
अब के भी अकारत जाएगी
खे ती के कोनोीं-खु दरोीं में
किर अपने लह की खाद भरो
किर कमट्टी ्ीींचो अश्कोीं ्े
किर अगली रुत की कफक्र करो

किर अगली रुत की कफक्र करो


जब किर इक बार उजड़ना है
इक फस्ल पकी तो भरपाया
जब तक तो यही कुछ करना है

ये कस ियार-ए-अिम में
नहीीं है याँ तो नहीीं है कक अब नहीीं पैदा
क्ी के हुस्न में शमशीर-ए-आफ़्ताब का हुस्न
कनगाह कज् ्े कमलाओ तो आाँ ख दु खने लगे
कक्ी अदा में अदा-ए-कखराम-ए-बाद-ए-्बा
कज्े खयाल में लाओ तो कदल ्ुलगने लगे
नहीीं है याँ तो नहीीं है कक अब नहीीं बाकी
जहााँ में बज़्म-गह-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का मे ला
कबना-ए-लु त्फफ-ओ-मोहब्बत, ररवाज-ए-मे हर-ओ-वफा
ये क् दयार-ए-अदम में मु कीम हैं हम तुम
जहााँ पे मु ज़्दा-ए-दीदार-ए-हुस्न-ए-यार तो क्या
नवेद-ए-आमद-ए-रोज-ए-जजा नहीीं आती
ये कक् खु मार-कदे में नदीम हैं हम तुम
जहााँ पे शोररश-ए-ररीं दान-ए-मय-गु्ार तो क्या
कशकस्त-ए-शीशा-ए-कदल की ्दा नहीीं आती

ये मातम-ए-वक़्त की घड़ी है
ठहर गई आ्मााँ की नकदया
वो जा लगी है उफक ककनारे
उदा् रीं गोीं की चााँ द नय्या
उतर गए ्ाकहल-ए-जमी ीं पर
्भी खवय्या
तमाम तारे
उखड़ गई ्ााँ ् पकत्तयोीं की
चली गईीं ऊाँघ में हवाएाँ
गजर बजा हुक्म-ए-खामु शी का
तो चुप में गुम हो गईीं ्दाएाँ
्हर की गोरी की छाकतयोीं ्े
ढलक गई तीरगी की चादर
और इ् बजाए
कबखर गए उ् के तन-बदन पर
कनरा् तन्हाइयोीं के ्ाए
और उ् को कुछ भी खबर नहीीं है
कक्ी को कुछ भी खबर नहीीं है
कक्ी को कुछ भी खबर नहीीं है
कक कदन ढले शहर ्े कनकल कर
ककधर को जाने का रुख ककया था
न कोई जादा, न कोई मीं कजल
कक्ी मु ्ाकफर को
अब कदमाग-ए-्फर नहीीं है
ये वक़्त जीं जीर-ए-रोज-ओ-शब की
कहीीं ्े टोटी हुई कड़ी है
ये मातम-ए-वक़्त की घड़ी है

ये वक़्त आए तो बे-इरादा
कभी कभी मैं भी दे खता हाँ
उतार कर जात का लबादा
कहीीं क्याही मलामतोीं की
कहें पे गुल-बटे उल्फफतोीं के
कहें लकीरें हैं आाँ ्ुओीं की
कहें पे खन-ए-कजगर के धब्बे
ये चाक है पींजा-ए-अद का
ये मोहर है यार-ए-मे हरबााँ की
ये लअ'ल लब-हा-ए-मह-कवशााँ के
ये मह़ मत शै ख-ए-बद-जबााँ की

ये जामा-ए-रोज-ओ-शब-गजीदा
मु झे ये पैराहन-ए-दरीदा
अजीज भी, ना-प्ींद भी है
कभी ये फरमान-ए-जोश-ए-वहशत
कक नोच कर इ् को िेंक डालो
कभी ये इ्रार-ए-हफ़-ए-उल्फफत
कक चम कर किर गले लगा लो

फजींिााँ की एक शाम
शाम के पेच-ओ-खम क्तारोीं ्े
जीना जीना उतर रही है रात
याँ ्बा पा् ्े गुजरती है
जै ्े कह दी कक्ी ने प्यार की बात
्ेहन-ए-कजीं दााँ के बे-वतन अश्जार
्र-कनगाँ महव हैं बनाने में
दामन-ए-आ्मााँ पे नक़श-ओ-कनगार
शाना-ए-बाम पर दमकता है
मे हरबााँ चााँ दनी का दस्त-ए-जमील
खाक में घुल गई है आब-ए-नु जम
नर में घुल गया है अश़ का नील
्ब्ज़ गोशोीं में नील-गाँ ्ाए
लहलहाते हैं कज् तरह कदल में
मौज-ए-दद़ -ए-कफराक-ए-यार आए

कदल ्े पैहम खयाल कहता है


इतनी शीरीीं है कजीं दगी इ् पल
जु ल्म का जहर घोलने वाले
कामरााँ हो ्केंगे आज न कल
जल्वा-गाह-ए-कव्ाल की शमएाँ
वो बुझा भी चुके अगर तो क्या
चााँ द को गुल करें तो हम जानें

फजींिााँ की एक सुब्ह
रात बाकी थी अभी जब ्र-ए-बालीीं आ कर
चााँ द ने मु झ ्े कहा 'जाग ्हर आई है
जाग इ् शब जो मय-ए-ख़्वाब कतरा कहस्सा थी
जाम के लब ्े तह-ए-जाम उतर आई है '
अक्स-ए-जानााँ को कवदा कर के उठी मे री नजर
शब के ठहरे हुए पानी की क्यह चादर पर

जा-ब-जा रक़् में आने लगे चााँ दी के भाँ वर


चााँ द के हाथ ्े तारोीं के काँवल कगर कगर कर
डबते तैरते मु रझाते रहे ग़्खलते रहे
रात और ्ुब्ह बहुत दे र गले कमलते रहे

्ेह-ए-कजीं दााँ में रफीकोीं के ्ुनहरे चेहरे


्तह-ए-जु ल्मत ्े दमकते हुए उभरे कम कम
नीींद की ओ् ने उन चेहरोीं ्े धो डाला था
दे ् का दद़ कफराक-रुख-ए-महबब का गम

दर नौबत हुई किरने लगे बे-जार कदम


जद़ फाकोीं के ्ताए हुए पहरे वाले
अहल-ए-कजीं दााँ के गजबनाक खरोशााँ नाले
कजन की बाहोाँ में किरा करते हैं बाहें डाले

लज़्ज़त-ए-ख़्वाब ्े मखमर हवाएाँ जागीीं


जे ल की जहर-भरी चर ्दाएाँ जागीीं
दर दरवाजा खु ला कोई कोई बींद हुआ
दर मचली कोई जीं जीर मचल के रोई
दर उतरा कक्ी ताले के कजगर में खींजर

्र पटकने लगा रह रह के दरीचा कोई


गोया किर ख़्वाब ्े बेदार हुए दु श्मन-ए-जााँ
्ींग-ओ-िौलाद ्े ढाले हुए जन्नात-ए-कगरााँ
कजन के चींगुल में शब ओ रोज हैं फररयाद-कुनााँ
मे रे बेकार शब ओ रोज की नाजु क पररयााँ
अपने शहपर की रह दे ख रही हैं ये अ्ीर
कज् के तरकश में हैं उम्मीद के जलते हुए तीर

फजींिगी
मलक-ए-शहर-ए-कजीं दगी तेरा
शु क्र कक् तौर ्े अदा कीजे
दौलत-ए-कदल का कुछ शुमार नहीीं
तींग-दस्ती का क्या कगला कीजे

जो कतरे हुस्न के फकीर हुए


उन को तशवीश-ए-रोजगार कहााँ ?
दद़ बेचेंगे गीत गाएाँ गे
इ् ्े खु श-बख़्त कारोबार कहााँ ?

जाम छलका तो जम गई महकफल


कमन्नत-ए-लु त्फफ-ए-गम-गु्ार कक्े?
अश्क टपका तो ग़्खल गया गुलशन
रीं ज-ए-कम-जफी-ए-बहार कक्े?

खु श-नशीीं हैं कक चश्म ओ कदल की मु राद


दै र में है न खानकाह में है
हम कहााँ ककस्मत आजमाने जाएाँ
हर ्नम अपनी बारगाह में है

कौन ऐ्ा गनी है कज् ्े कोई


नक़द-ए-शम्स-ओ-कमर की बात करे
कज् को शौक-ए-नबद़ हो हम ्े
जाए त्खीर-ए-कायनात करे

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