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इतने इनकार ककये हैं उसने

उसका इक़रार भी कूडा करकट

इतना महं गा है अरब का पानी

अब मेरी कार भी कूडा करकट

स्वार्थ सपन में खो जाने से त्यागी होना अच्छा है

कदम कदम पर समझौते से बागी होना अच्छा है

#मुक्तक

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र्क गए तो र्कन छोड के जा सकते हो

तु म मुझे वाक़यतन छोड के जा सकते हो

हम दरख़्ों को कहां आता है कहजरत करना

तु म पररं दे हो वतन छोड के जा सकते हो

तु मसे बातों में कुछ इस दजाथ मगन होता हं

मुझको बातों में मगन छोड के जा सकते हो

ऐसे आ सकते हो जैसे कोई खुशबू आए

और जाने को घुटन छोड के जा सकते हो


वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है

मार्े पे उस के चोट का गहरा कनशान है

वो कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तुगू

मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है

सामान कुछ नहीं है फटे -हाल है मगर

झोले में उस के पास कोई संकवधान है

उस सर-कफरे को यूँ नहीं बहला सकेंगे आप

वो आदमी नया है मगर सावधान है

कफस्ले जो उस जगह तो लु ढ़कते चले गए

दे खे हैं हम ने दौर कई अब खबर नहीं

पावँ तले ज़मीन है या आसमान है

वो आदमी कमला र्ा मुझे उस की बात से

ऐसा लगा कक वो भी बहुत बे-ज़बान है

मत कहो आकाश में कोहरा घना है ...

यह ककसी की व्यक्तक्तगत आलोचना है ।

सूयथ हमने भी नहीं दे खा सुबह का,

क्या कारोगे सूयथ का क्या दे खना है ।

हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्र्ा,

दोस्ों अब मंच पर सुकवधा नहीं है ,

आजकल नेपथ्य में सम्भावना है


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ककस तरह जमा कीकजए अब अपने आप को

काग़ज़ कबखर रहे हैं पुरानी ककताब के

धूप में कनकलो घटाओं में नहा कर दे खो

कज़ं दगी क्या है ककताबों को हटा कर दे खो

वाकक़ये तो अनकगनत हैं मेरी कज़ं दग़ी के

सोच रही हं ककताब कलखूं या कहसाब कलखूं

****

ग़ुम होते हैं जहाँ ज़हानत होती है

दु कनया में हर शय की कीमत होती है

अकसर वो कहते हैं वो बस मेरे हैं

अकसर क्यों कहते हैं है रत होती है

तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते र्े

अब कमलते हैं जब भी फुसथत होती है

अपनी महबूबा में अपनी माँ दे खें

कबन माँ के लडकों की कफतरत होती है

इक कश्ती में एक क़दम ही रखते हैं।

कुछ लोगों की ऐसी आदत होती है

***
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तु म्हें

मेरे कमरे में ककताबों के कसवा कुछ भी नहीं

इन ककताबों ने बडा ज़ु ल्म ककया है मुझ पर

इन में इक रम्जज़ है कजस रम्जज़ का मारा हुआ ज़े हन

तु म जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे

मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के कसवा कुछ भी नहीं

मुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकता

कज़ं दगी में कभी आराम नहीं पा सकता

*****

हमें भी आता है मुस्कुराना, मगर ककसे मुस्कुरा के दे खें

भला लगेगा ये शहर अल्वी, चलो इसे दू र जा के दे खें

*****

कहाकनयाँ कलखने लगा हँ अब मैं

शायररयों में अब तुम समाते ही नहीं

इधर उधर के सुनाए हज़ार अफ़्साने

कदलों की बात सुनाने का हौसला न हुआ

याद उसे भी एक अधूरा अफ़्साना तो होगा

कल रस्े में उस ने हम को पहचाना तो होगा


एक र्ा शख़्स ज़माना र्ा कक दीवाना बना

एक अफ़्साना र्ा अफ़्साने से अफ़्साना बना

****

एक तालाब-सी भर जाती है हर बाररश में

मैं समझता हँ ये खाई नहीं जाने वाली

आज सडकों पे चले आओ तो कदल बहले गा

चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली

कहाँ तो तय र्ा कचराग़ाँ हर एक घर के कलए

कहाँ कचराग़ मयस्सर नहीं शहर के कलए

यहाँ दरख़्ों के साये में धूप लगती है

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के कलए

वो मुतमइन हैं कक पत्थर कपघल नहीं सकता

मैं बेक़रार हँ आवाज़ में असर के कलए

कजएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गकलयों में गुलमोहर के कलए

*****

कसफथ कबजली ही तो गई है , कजं दगी का असल इं म्तेहान र्ोडे है

गमी पेलेगी सबको, यहां पर कसफथ मेरा मकान र्ोडे है


-आहत तं दूरी

अच्छा खासा बैठे बैठे गुम हो जाता हँ

अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तु म हो जाता हँ

अपनी आदत कक सब से सब कह दें

शहर का है कमज़ाज सन्नाटा

अभी कफर रहा हँ मैं आप-अपनी तलाश में

अभी मुझ से मेरा कमज़ाज ही नहीं कमल रहा

मैं उस से झूट भी बोलूँ तो मुझ से सच बोले

कमरे कमज़ाज के सब मौसमों का सार्ी हो

बदला बदला कमज़ाज है उस का

उस की बातों में चाशनी कम है

बात हमारी अब कुछ यूं होती है

मैं कुछ कहता हं , वो कुछ कहती है

नफरते हैं इश्क़ के सफर में बहुत

कुछ मैं सहता हं , कुछ वो सहती है

बनाएं गे जो मोहब्बतों में इश्क़ का महल हम


कुछ सपने मैं संजोता हं , कुछ सपने वो संजोती है

कलखकर जो खत में अंत हमारी मोहब्बत का

पढ़ कुछ मैं तडपता हं , पढ़ कुछ वो तडपती है

भर जाएगी ये गगरी, जो है र्ोडी सी खाली

कुछ इश्क़ इसमें मैं उडे लता हं , कुछ इश्क़ वो उडे लती है

न जाने क्या ककशश है शक्तक्तनगर ते रे शकबस्ां * में

कक हम शामे-अवध, सुब्हे -बनारस छोड आये हैं ।

कभी अश्ों के तारे आस की पलकों से टू टे हैं

कभी उम्मीद के दामन में मोती जगमगाए हैं ।

मगर कफर भी हमारा आलमे-कमहर-ओ-वफा यह है

कक तु झको लखनऊ की तरह सीने से लगाए हैं ।

आए क्या क्या याद नज़र जब पडती इन दालानों पर

उस का काग़ज़ कचपका दे ना घर के रौशन-दानों पर

सस्े दामों ले तो आते ले ककन कदल र्ा भर आया

जाने ककस का नाम खुदा र्ा पीतल के गुल-दानों पर

कज़ं दगी तुझ को भुलाया है बहुत कदन हम ने

वक़्त ख़्वाबों में गँवाया है बहुत कदन हम ने


दू र मुझसे हो गया बचपन मगर

मुझमें बच्चे सा मचलता कौन है

मेरे कदल के ककसी कोने में, एक मासूम सा बच्चा

बडों की दे ख कर दु कनया, बडा होने से डरता है

पूछ लेते वो बस कमज़ाज मेरा

ककतना आसान र्ा इलाज मेरा

अब ककसी से भी कशकायत न रही

जाने ककस ककस से कगला र्ा पहले

इरादे बाँ धता हँ सोचता हँ तोड दे ता हँ

कहीं ऐसा न हो जाए कहीं ऐसा न हो जाए

इश्क़ कफर इश्क़ है कजस रूप में कजस भेस में हो

इशरत-ए-वस्ल बने या ग़म-ए-कहज्ाँ हो जाए

मुझे नींद की तलब नहीं,

पर रातों को जागना अच्छा लगता है ।

मुझे नहीं मालूम वो मेरी ककस्मत में है या नहीं,

पर उसे खुदा से माँ गना अच्छा लगता है ।

जाने मुझे हक है या नहीं,


पर उसकी परवाह करना अच्छा लगता है ।

उसे प्यार करना सही है या नहीं,

पर इस एहसास में जीना अच्छा लगता है ।

कभी हम सार् होंगे या नहीं,

पर ये ख्वाब दे खना अच्छा लगता है ।

वो मेरा है या नहीं,

पर उसे अपना कहना अच्छा लगता है ।

राम प्रसाद कबक्तस्मल की ये पंक्तक्तयां आजादी की लडाई का हैं दस्ावेज...

मुलाकजम हमको मत ककहये, बडा अफसोस होता है ,

पलट दे ते हैं हम मौजे -हवाकदस अपनी जुरथत से,

कक हमने आं कधयों में भी कचराग अक्सर जलाये हैं।

कां कतकारी शहीद, शायर, ले खक राम प्रसाद कबक्तस्मल की ये ऐकतहाकसक पंक्तक्तयां


अपने आप में आजादी की लडाई का संपूर्थ दस्ावेज हैं । 'काकोरी काण्ड' का
मुकदमा लखनऊ में चल रहा र्ा। पक्तण्डत जगतनारायर् 'मुल्ला' सरकारी वकील
के सार् उदू थ के शायर भी र्े । पंकडत जवाहर लाल नेहरू के साले भी र्े।

कबक्तस्मल जी से उनके कुछ मतभेद र्े कजसका लाभ अंग्रेजों ने उठाया और


'मुल्ला' जी को सरकारी वकील बनाकर राम प्रसाद कबक्तस्मल के क्तखलाफ हकर्यार
की तरह इस्ेमाल ककया। 'मुल्ला' जी ने बहस के दौरान कबक्तस्मल और उनके
साकर्यों को सजा कदलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी।

इसी उत्साह में अकभयुक्तों के कलये "मुलकजम" की जगह "मुलाकजम" शब्द बोल
कदया। कफर क्या र्ा, पक्तण्डत राम प्रसाद 'कबक्तस्मल' के अंदर का शायर जाग
गया क्योंकक 'मुलाकजम' का मतलब नौकर होता है , उन्होंने तपाक से मुल्ला जी
पर कफकरा कसते हुए या यूं कहें कक पुरजोर कवरोध करते हुए ये शे र कहा-
"मुलाकजम हमको मत ककहये, बडा अफसोस होता है "...उनका संदेश साफ
र्ा कक राजनीकतक बंकदयों के कलए 'मुलाकजम' शब्द की जगह 'मुलकजम' का
इस्ेमाल ही होना चाकहए। कबक्तस्मल जी चूंकक उदू थ के कवद्वान र्े इसकलए अपने
क्ां कतकारी एहसासों को शायरी-ग़ज़ल की ज़ु बान में कलमबंद ककया।

कमरा खयाल भी घुँगरू पहन के नाचेगा

अगर खयाल को ते रा खयाल आ जाए

खयाल कजस का र्ा मुझे खयाल में कमला मुझे

सवाल का जवाब भी सवाल में कमला मुझे

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