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Sapnon ke se din (सपनों के-से िदन) Summary, Explanation, Question


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Sapnon ke se din Class 10 Hindi Sanchayan Bhag-2 Chapter 2 (सपनों के-से


िदन), Summary, Notes, Explanation, Questions Answers
Sapnon ke se din summary of CBSE Class 10 Hindi Sanchayan Bhag-2 lesson 2 along with meanings of difficult words. Given
here is the complete explanation of the lesson सपनों के-से िदन , all the exercises and Question and Answers given at the back of
the lesson.

यहाँ हम िहं दी क ा 10 "संचयन भाग-2" के पाठ-2 "सपनों के-से िदन" कहानी के पाठ- वेश, पाठ-सार, पाठ- ा ा, किठन-श ों के अथ और NCERT
की पु क के अनुसार ों के उ र, इन सभी के बारे म जानगे।

Sapnon ke se din Class 10 - सपनों के-से िदन Chapter 2


क ा 10 िहं दी - पाठ 2 (सपनों के-से िदन)

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Author Intro - लेखक प रचय (सपनों के-से िदन)


लेखक - गुरदयाल िसंह
ज - 10 जनवरी 1933

Chapter Introduction - पाठ वेश (सपनों के-से िदन)


बचपन म भले ही सभी सोचते हों की काश! हम बड़े होते तो िकतना अ ा होता। पर ु जब सच म बड़े हो जाते ह, तो उसी बचपन की यादों को याद कर-
करके खुश हो जाते ह। बचपन म ब त सी ऐसी बात होती ह जो उस समय समझ म नहीं आती ोंिक उस समय सोच का दायरा िसिमत होता है । और ऐसा
भी कई बार होता है िक जो बात बचपन म बुरी लगती है वही बात समझ आ जाने के बाद सही सािबत होती ह।

ी े े ी ो ि ैि ि े औ े ी े ि ो
ुत पाठ म भी लेखक अपने बचपन की यादों का िज कर रहा है िक िकस तरह से वह और उसके साथी ू ल के िदनों म
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म ी करते थे और वे अपने अ ापकों से िकतना डरते थे। बचपन म लेखक अपने अ ापक के वहार को नहीं समझ पाया
था उसी का वणन लेखक ने इस पाठ म िकया है । Your No1 source for Latest Entrance Exams, Admission info

See Video for Explanation and Summary of the Lesson

Sapnon Ke Se Din Summary - पाठ सार (सपनों के-से िदन)


लेखक कहता है िक उसके बचपन म उसके साथ खेलने वाले ब ों का हाल भी उसी की तरह होता था। सभी के पाँ व नंगे, फटी-मैली सी क ी और कई
जगह से फटे कुत , िजनके बटन टू टे ए होते थे और सभी के बाल िबखरे ए होते थे। जब सभी खेल कर, धूल से िलपटे ए, कई जगह से पाँ व म छाले िलए,
घुटने और टखने के बीच का टाँ ग के पीछे माँ स वाले भाग पर खून के ऊपर जमी ई रे त-िम ी से लथपथ िपंडिलयाँ ले कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की
माँ -बहन उन पर तरस नहीं खाती ब उ ा और ादा पीट दे तीं। कई ब ों के िपता तो इतने गु े वाले होते िक जब ब े को पीटना शु करते तो यह
भी ान नहीं रखते िक छोटे ब े के नाक-मुँह से ल बहने लगा है और ये भी नहीं पूछते िक उसे चोट कहाँ लगी है । पर ु इतनी बुरी िपटाई होने पर भी दू सरे
िदन सभी ब े िफर से खेलने के िलए चले आते। लेखक कहता है िक यह बात लेखक को तब समझ आई जब लेखक ू ल अ ापक बनने के िलए िश ण
ले रहा था। वहाँ लेखक ने ब ों के मन के िव ान का िवषय पढ़ा था।
लेखक कहता है िक कुछ प रवार के ब े तो ू ल ही नहीं जाते थे और जो कभी गए भी, पढाई म िच न होने के कारण िकसी िदन ब ा तालाब म फक
आए और उनके माँ -बाप ने भी उनको ू ल भेजने के िलए कोई जबरद ी नहीं की। यहाँ तक की राशन की दु कान वाला और जो िकसानों की फसलों को
खरीदते और बेचते ह वे भी अपने ब ों को ू ल भेजना ज री नहीं समझते थे। वे कहते थे िक जब उनका ब ा थोड़ा बड़ा हो जायगा तो पंडत घन ाम
दास से िहसाब-िकताब िलखने की पंजाबी ाचीन िलिप पढ़वाकर सीखा दगे और दु कान पर खाता िलखवाने लगा दगे।
लेखक कहता है िक बचपन म िकसी को भी ू ल के उस कमरे म बैठ कर पढ़ाई करना िकसी कैद से कम नहीं लगता था। बचपन म घास ादा हरी और
फूलों की सुगंध ब त ादा मन को लुभाने वाली लगती है । लेखक कहता है की उस समय ू ल की छोटी ा रयों म फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे
िजनम गुलाब, गदा और मोितया की दू ध-सी सफ़ेद किलयाँ भी आ करतीं थीं। ये किलयाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं िक लेखक और उनके साथी
चपरासी से छु प-छु पा कर कभी-कभी कुछ फूल तोड़ िलया करते थे। पर ु लेखक को अब यह याद नहीं िक िफर उन फूलों का वे ा करते थे। लेखक
कहता है िक शायद वे उन फूलों को या तो जेब म डाल लेते होंगे और माँ उसे धोने के समय िनकालकर बाहर फक दे ती होगी या लेखक और उनके साथी खुद
ही, ू ल से बाहर आते समय उ बकरी के मेमनों की तरह खा या 'चर' जाया करते होग।
लेखक कहता है िक उसके समय म ू लों म, साल के शु म एक-डे ढ़ महीना ही पढ़ाई आ करती थी, िफर डे ढ़-दो महीने की छु िटयाँ शु हो जाती थी।
हर साल ही छु िटयों म लेखक अपनी माँ के साथ अपनी नानी के घर चले जाता था। वहाँ नानी खूब दू ध-दहीं, म न खलाती, ब त ादा ार करती थी।
दोपहर तक तो लेखक और उनके साथी उस तालाब म नहाते िफर नानी से जो उनका जी करता वह माँ गकर खाने लगते। लेखक कहता है िक िजस साल वह
नानी के घर नहीं जा पाता था, उस साल लेखक अपने घर से दू र जो तालाब था वहाँ जाया करता था। लेखक और उसके साथी कपड़े उतार कर पानी म कूद
जाते, िफर पानी से िनकलकर भागते ए एक रे तीले टीले पर जाकर रे त के ऊपर लोटने लगते िफर गीले शरीर को गम रे त से खूब लथपथ करके िफर उसी
िकसी ऊँची जगह जाकर वहाँ से तालाब म छलाँ ग लगा दे ते थे। लेखक कहता है िक उसे यह याद नहीं है िक वे इस तरह दौड़ना, रे त म लोटना और िफर दौड़
कर तालाब म कूद जाने का िसलिसला पाँ च-दस बार करते थे या पं ह-बीस बार।
लेखक कहता है िक जैसे-जैसे उनकी छु ि यों के िदन ख़ होने लगते तो वे लोग िदन िगनने शु कर दे ते थे। डर के कारण लेखक और उसके साथी खेल-
कूद के साथ-साथ तालाब म नहाना भी भूल जाते। अ ापकों ने जो काम छु ि यों म करने के िलए िदया होता था, उसको कैसे करना है इस बारे म सोचने
लगते। काम न िकया होने के कारण ू ल म होने वाली िपटाई का डर अब और ादा बढ़ने लगता। लेखक बताता है िक उसके िकतने ही सहपाठी ऐसे भी
होते थे जो छु ि यों का काम करने के बजाय अ ापकों की िपटाई अिधक 'स ा सौदा' समझते। ऐसे समय म लेखक और उसके साथी का सबसे बड़ा 'नेता'
ओमा आ करता था। ओमा की बात, गािलयाँ और उसकी मार-िपटाई का ढं ग सभी से ब त अलग था। वह दे खने म भी सभी से ब त अलग था। उसका
मटके के िजतना बड़ा िसर था, जो उसके चार बािल (ढ़ाई फुट) के छोटे कद के शरीर पर ऐसा लगता था जैसे िब ी के ब े के माथे पर तरबूज रखा हो।
बड़े िसर पर ना रयल जैसी आँ खों वाला उसका चेहरा बंद रया के ब े जैसा और भी अजीब लगता था। जब भी लड़ाई होती थी तो वह अपने हाथ-पाँ व का

ो ी ेि े ी ईि
योग नहीं करता था, वह अपने िसर से ही लड़ाई िकया करता था। (https://www.successcds.net/)
लेखक कहता है िक वह िजस ू ल म पढता था वह ू ल ब त छोटा था। उसम केवल छोटे -छोटे नौ कमरे थे, जो अं ेजी के अ र एच (H) की तरह बने ए
थे। दाईं ओर का पहला कमरा हे डमा र ी मदनमोहन शमा
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source for था। ू ल की ेयExams,
Latest Entrance र ( ाथना) के समय
Admission infoवह बाहर आते थे और सीधी पं यों म कद के
अनुसार खड़े लड़कों को दे खकर उनके गोरा चेहरे पर ख़ुशी साफ़ ही िदखाई दे ती थी। मा र ीतम चंद जो ू ल के 'पीटी' थे, वे लड़कों की पं यों के पीछे
खड़े -खड़े यह दे खते रहते थे िक कौन सा लड़का पं म ठीक से नहीं खड़ा है । उनकी धमकी भरी डाँ ट तथा लात-घु े के डर से लेखक और लेखक के
साथी पं के पहले और आखरी लड़के का ान रखते, सीधी पं म बने रहने की पूरी कोिशश करते थे। मा र ीतम चंद ब त ही स अ ापक थे।
पर ु हे डमा र शमा जी उनके िबलकुल उलट भाव के थे। वह पाँ चवीं और आठवीं क ा को अं ेजी यं पढ़ाया करते थे। िकसी को भी याद नहीं था िक
पाँ चवी क ा म कभी भी उ ोंने हे डमा र शमा जी को िकसी गलती के कारण िकसी को मारते या डाँ टते दे खा या सूना हो।
लेखक कहता है िक बचपन म ू ल जाना िबलकुल भी अ ा नहीं लगता था पर ु एक-दो कारणों के कारण कभी-कभी ू ल जाना अ ा भी लगने लगता
था। मा र ीतमिसंह जब परे ड करवाते और मुँह म सीटी ले कर ले -राइट की आवाज़ िनकालते ए माच करवाया करते थे। िफर जब वे राइट टन या ले
टान या अबाऊट टन कहते तो सभी िव ाथ अपने छोटे -छोटे जूतों की एिड़यों पर दाएँ -बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड
के साथ चलते जैसे वे सभी िव ाथ न हो कर, ब त मह पूण 'आदमी' हों, जैसे िकसी दे श का फौज़ी जवान होता है । ाउिटं ग करते ए कोई भी िव ाथ
कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँ ख हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसके सािथयों
को ऐसे लगने लगती जैसे उ ोंने िकसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत िलए हों।
लेखक कहता है िक हर साल जब वह अगली क ा म वेश करता तो उसे पुरानी पु क िमला करतीं थी। उसके ू ल के हे डमा र शमा जी एक धिन घर
के लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। हर साल अ ैल म जब पढ़ाई का नया साल आर होता था तो शमा जी उस लड़के की एक साल पुरानी
पु क लेखक के िलए ले आते थे। लेखक के घर म िकसी को भी पढ़ाई म कोई िच नहीं थी। यिद नयी िकताब लानी पड़तीं तो शायद इसी बहाने लेखक की
पढ़ाई तीसरी-चौथी क ा म ही छूट जाती।
लेखक कहता है िक जब लेखक ू ल म था तब दू सरे िव यु का समय था। लोगो को फ़ौज म भत करने के िलए जब कुछ अफसर गाँ व म आते तो उनके
साथ कुछ नौटं की वाले भी आया करते थे। वे रात को खुले मैदान म त ू लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादु री के िदखाकर फ़ौज म भत
होने के िलए आकिषत िकया करते थे। इ ीं सारी बातों की वजह से कुछ नौजवान फ़ौज म भरती होने के िलए तैयार भी हो जाया करते थे।
लेखक कहता है िक उ ोंने कभी भी मा र ीतमचंद को ू ल के समय म मु ु राते या हँ सते नहीं दे खा था। उनका छोटा कद, दु बला-पतला पर ु पु
शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यािन चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँ ख, खाकी वद , चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूत-ये सभी चीज़े ब ों
को भयभीत करने वाली होती थी। लेखक अपनी पूरी िज़ गी म उस िदन को कभी नहीं भूल पाया िजस िदन मा र ीतमचंद लेखक की चौथी क ा को
फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। अभी उ पढ़ते ए एक स ाह भी नहीं आ होगा िक ीतमचंद ने उ एक श प याद करने को कहा और आ ा दी िक कल
इसी घंटी म केवल जुबान के ारा ही सुनगे। दू सरे िदन मा र ीतमचंद ने बारी-बारी सबको सुनाने के िलए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मा र जी
ने गु े म िच ाकर सभी िव ाथ को कान पकड़कर पीठ ऊँची रखने को कहा। जब लेखक की क ा को सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले
शमा जी ू ल म नहीं थे। आते ही जो कुछ उ ोंने दे खा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था िक उ ोंने पीटी ीतमचंद की उस अस ता
एवं जंगलीपन को सहन नहीं िकया और वह भड़क गए थे। लेखक कहता है िक िजस िदन से हे डमा र शमा जी ने पीटी ीतमचंद को िनलंिबत िकया था उस
िदन के बाद यह पता होते ए भी िक पीटी ीतमचंद को जब तक नाभा से डायरे र 'बहाल' नहीं करग तब तक वह ू ल म कदम नहीं रख सकते, िफर भी
जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो लेखक की और उसकी क ा के सभी ब ों की छाती धक्-धक् करने लगती और लगता जैसे छाती फटने वाली हो।
लेखक कहता है िक कई स ाह तक पीटी मा र ू ल नहीं आए। लेखक और उसके सािथयों को पता चला िक बाज़ार म एक दू कान के ऊपर उ ोंने जो
छोटी-छोटी खड़िकयों वाला चौबारा (वह कमरा िजसम चारों और से खड़िकयाँ और दरवाज हों) िकराए पर ले रखा था, पीटी मा र वहीं आराम से रह रहे
थे। कुछ सातवीं-आठवीं के िव ाथ लेखक और उसके सािथयों को बताया करते थे िक उ िन ािसत होने की थोड़ी सी भी िचंता नहीं थी। िजस तरह वह
पहले आराम से िपंजरे म रखे दो तोतों को िदन म कई बार, िभगोकर रखे बादामों की िग रयों का िछलका उतारकर खलाते थे, वे आज भी उसी तरह से रह
रहे ह। लेखक और उसके सािथयों के िलए यह चम ार ही था िक जो ीतमचंद प ी या डं डे से मार-मारकर िव ािथयों की चमड़ी तक उधेड़ दे ते, वह अपने
तोतों से मीठी-मीठी बात कैसे कर लेते थे। लेखक यं म सोच रहा था िक ा तोतों को उनकी आग की तरह जलती, भूरी आँ खों से डर नहीं लगता होगा।
लेखक और उसके सािथयों की समझ म ऐसी बात तब नहीं आ पाती थीं, ोंिक तब वे ब त छोटे आ करते थे। वे तो बस पीटी मा र के इस प को एक
तरह से अद् भुत ही मानते थे।

Sapnon Ke Se Din Explanation - पाठ ा ा (सपनों के-से िदन)


मेरे साथ खेलने वाले सभी ब ों का हाल एक-सा होता। नंगे पाँ व, फटी-मैली सी क ी और टू टे
बटनों वाले कई जगह से फटे कुत और िबखरे बाल। जब लकड़ी के ढे र पर चढ़कर खेलते नीचे को
भागते तो गीरकर कई तो जाने कहाँ -कहाँ चोट खा लेते और पहले ही फाटे -पुराने कुत तार-तार हो
जाते। धूल भरे , कई जगह से िछले पाँ व, िपंडिलयाँ या ल के ऊपर जमी रे त-िम ी से लथपथ घुटने
ले कर जाते तो सभी की माँ -बहन उन पर तरस खाने की जगह और िपटाई करतीं। कइयों के बाप
बड़े गु ैल थे। पीटने लगते तो यह ान भी नहीं रखते िक छोटे ब े के नाक-मुँह से ल बहने
लगा है या उसके कहाँ चोट लगी है । पर ु इतनी बुरी िपटाई होने पर भी दू सरे िदन िफर खेलने चले
आते। (यह बात तब ठीक से समझ आई जब ू ल अ ापक बनने के िलए एक टे िनंग करने गया
और वहाँ बाल-मनोिव ान का िवषय पढ़ा। ऐसी बातों के बारे म तभी जान पाया िक ब ों को खेलना
ों इतना अ ा लगता है िक बुरी तरह िपटाई होने पर भी िफर खेलने चले आते ह।)

िपंडिलयाँ - घुटने और टखने के बीच का िपछला मां सल भाग


गु ैल - गु े वाला
टे िनंग - िश ण
बाल-मनोिव ान - ब ों के मन का िव ान या ान

लेखक कहता है िक उसके बचपन म उसके साथ खेलने वाले ब ों का हाल भी उसी की तरह होता था। लेखक के
कहने का अिभ ाय है की सभी के पाँ व नंगे होते थे, फटी-मैली सी क ी और कई जगह से फटे कुत पहने ए होते
थे, िजनके बटन टू टे ए होते थे और सभी के बाल िबखरे ए होते थे। जब खेल-खेल म लकड़ी के ढे र से िनचे उतरते
ए भागते, तो ब त से ब े अपने-आपको चोट लगा दे ते थे और जो कुरता पहले से ही फटा-पुराना होता था, वह
और ादा फट जाता था। जब सभी ब े िदन भर धूल म खेल कर और कई जगह चोट खाए ए खून के ऊपर जमी
ई रे त-िम ी से लथपथ िपंडिलयाँ (घुटने और टखने के बीच का टाँ ग के पीछे माँ स वाले भाग) ले कर अपने-अपने
घर जाते तो सभी की माँ -बहन उन पर तरस नहीं खाती ब उ ा और ादा पीट दे तीं। कई ब ों के िपता तो

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इतने गु े वाले होते िक जब ब े को पीटना शु करते तो यह भी ान नहीं रखते िक छोटे ब े के नाक-मुँह से ल बहने लगा है और
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ये भी नहीं पूछते िक उसे चोट कहाँ लगी है । पर ु इतनी बुरी िपटाई होने पर भी दू सरे िदन सभी ब े िफर से खेलने के िलए चले आते।
लेखक कहता है िक यह बात लेखक को तब समझ आई
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Admission ण ले रहा था। वहाँ लेखक ने
ब ों के मन के िव ान का िवषय पढ़ा था और तभी लेखक ऐसी बातों के बारे म जान पाया था िक इतनी बुरी पीटाई के बाद भी ब ों को
खेलना इतना ादा ों पसंद ह?
मेरे साथ खेलने वाले अिधकतर साथी हमारे जैसे ही प रवारों से आ करते थे। सारे मुह े म ब त प रवार तो, हमारी तरह आस-पास के
गाँ वों से ही आकर बसे थे। दो-तीन घर, साथ ही उजड़ी-सी गली म रहने वाले लोगों के थे। हमारी सभी की आदत भी कुछ िमलती-जुलती
थीं। उनम से अिधक तो ू ल जाते ही न थे, जो कभी गए भी, पढाई म िच न होने के कारण िकसी िदन ब ा तालाब म फक आए और
िफर ू ल गए ही नहीं, न ही माँ -बाप ने जबरद ी भेजा। यहाँ तक की परचूिनये, आढ़ितये भी अपने ब ों को ू ल भेजना ज री नहीं
समझते। कभी िकसी ू ल अ ापक से बात होती तो कहते-मा र जी हमने इसे ा तहसीलदार लगवाना है । थोड़ा बड़ा हो जाए तो पंडत घन ाम दास से
लंडे पढ़वा कर दू कान पर बिहयाँ िलखने लगा लगे। पंडत छह-आठ महीन म लंडे और मुनीमी का सभी काम सीखा दे गा। वहाँ तो अभी तक अिलफ़-बे िजम-
च भी नहीं सीख पाया।
परचूिनये – राशन की दु कान वाला
आढ़ितये - जो िकसानों की फसलों को खरीदते और बेचते ह
लंडे - िहसाब-िकताब िलखने की पंजाबी ाचीन िलिप
बिहयाँ - खाता
मुनीमी - दु कानदारी
लेखक कहता है िक बचपन म उसके साथ खेलने वाले उसके ादातर साथी उसी के प रवार की तरह के थे। लेखक का प रवार आसपास के गाँ व से आकर
उस गाँ व म बसा था और लेखक कहता है िक उसी के प रवार की तरह ब त से प रवार दू सरे गाँ व से आकर उस गाँ व म बसे थे। साथ ही दो-तीन घर उजड़ी-
सी गली म रहने वाले लोगों के थे। उन सभी की ब त सी आदत भी िमलती-जुलती थीं। उन प रवारों म से ब त के ब े तो ू ल ही नहीं जाते थे और जो कभी
गए भी, पढाई म िच न होने के कारण िकसी िदन ब ा तालाब म फक आए और िफर ू ल गए ही नहीं और उनके माँ -बाप ने भी उनको ू ल भेजने के
िलए कोई जबरद ी नहीं की। यहाँ तक की राशन की दु कान वाला और जो िकसानों की फसलों को खरीदते और बेचते ह वे भी अपने ब ों को ू ल भेजना
ज री नहीं समझते थे।

अगर कभी कोई ू ल का अ ापक उ समझाने की कोिशश करता तो वे अ ापक को यह कह कर चुप करवा दे ते िक उ
अपने ब ों को पढ़ा-िलखा कर कोई तहसीलदार तो बनाना नहीं है । जब उनका ब ा थोड़ा बड़ा हो जायगा तो पंडत घन ाम
दास से िहसाब-िकताब िलखने की पंजाबी ाचीन िलिप पढ़वाकर सीखा दगे और दू कान पर खाता िलखवाने लगा दगे। पंडत छह-
आठ महीन म िहसाब-िकताब िलखने की पंजाबी ाचीन िलिप और दु कानदारी का सभी काम सीखा
दे गा। वैसे भी ू ल म अभी तक अिलफ़-बे िजम-च (उदू भाषा की वणमाला ) भी नहीं सीख पाया
है । ऐसा उ र िमलने पर अ ापक कुछ नहीं बोल पता था।
हमारे आधे से अिधक साथी राज थान या ह रयाणा से आकर मंडी म ापार या दु कानदारी करने
आए प रवारों से थे। जब ब त छोटे थे तो उनकी बोली कम समझ पाते। उनके कुछ श सुनकर
हँ सी आने लगती। पर ु खेलते ही सभी एक दू सरे की बात खूब अ ी तरह समझ लेते।
पता भी नहीं चला िक लोको अनुसार 'एह खेडण दे िदन चार' कैसे, कब बीत गए। (हम म से
कोई भी ऐसा न था जो ू ल के कमरे म बैठकर पढ़ने को 'कैद' न समझता हो।) कुछ अपने माँ -
बाप के साथ जैसा भी था, काम करने लगे।
लोको - लोगों के ारा कही गयी उ /बात
खेडण - खेलने के
लेखक कहता है िक उसके बचपन के ादातर साथी राज थान या ह रयाणा से आकर मंडी म ापार या दु कानदारी करने
आए प रवारों से थे। जब लेखक छोटा था तो उनकी बातों को ब त कम समझ पाता था और उनके कुछ श ों को सुन कर तो
लेखक को हँ सी आ जाती थी। पर ु जब सभी खेलना शु करते तो सभी एक-दू सरे की बातों को ब त अ े से समझ लेते थे।
लेखक कहता है िक उसे पता भी नहीं चला िक बचपन के वो िदन कब बीत गए। लोगों के ारा कही गयी उ /बात लेखक को
हमेशा याद आती िक 'खेलने के िदन चार ही होते ह'। लेखक कहता है िक बचपन म िकसी को भी ू ल के उस कमरे म बैठ
कर पढ़ाई करना िकसी कैद से कम नहीं लगता था। बड़े हो कर लेखक के कई साथी अपने माँ -बाप के काम को ही आगे बढ़ाने
म लग गए।
बचपन म घास अिधक हरी और फूलों की सुगंध अिधक मनमोहक लगती है । यह श शायद आधी शती पहले िकसी पु क म
पढ़े थे, पर ु आज तक याद है । याद रहने का कारण यही है िक यह वा बचपन की भावनाओं, सोच-समझ के अनुकूल
होगा। पर ु ू ल के अंदर जाने से रा े के दोनों ओर जो अिलयार के बड़े ढं ग से कटे -छाँ टे झाड़ उगे थे (िज हम डं िडयाँ कहा करते) उनके नीम के प ों
जैसे प ों की महक आज तक भी आँ ख मूँद कर महसूस कर सकता ँ । उन िदनों ू ल की छोटी ा रयों म फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे िजनम
गुलाब, गदा और मोितया की दू ध-सी सफ़ेद किलयाँ भी आ करतीं। ये किलयाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं िक हम चंदू चपड़ासी से आँ ख बचाकर
कभी-कभार एक-दो तोड़ िलया करते। उनकी ब त तेज़ सुगंध आज भी महसूस कर पता ँ ,

पर ु यह याद नहीं िक उ तोड़कर, कुछ दे र सूँघकर िफर ा िकया करते। (शायद जेब म डाल लेते, माँ उसे धोने के समय
िनकालकर बाहर फक दे ती या हम ही, ू ल से बाहर आते उ बकरी के मेमनों की भाँ ित 'चर' जाया करते। )
अिलयार - गली की तरह का लंबा सीधा रा ा
चपड़ासी - चपरासी `
लेखक कहता है िक बचपन म घास ादा हरी और फूलों की सुगंध ब त ादा मन को
लुभाने वाली लगती है । ये श लेखक ने शायद आधी सदी पहले िकसी िकताब म पढ़े
होंगे, पर ु लेखक को आज भी ये पं याद है । इसका एक कारण यह हो सकता है िक ये
पं बचपन की भावनाओं और ब ों की सोच-समझ के अनुकूल है । लेखक कहता है िक
ू ल के अंदर जाने वाले रा े के दोनों ओर गली की तरह के ल े सीधे रा े म बड़े ढं ग
से कटे -छाँ टे झाड़ उगे थे िज लेखक और उनके साथी डं िडयाँ कहा करते थे। उनसे नीम
के प ों की तरह महक आती थी, जो आज भी लेखक अपनी आँ खों को बंद करके महसूस
कर सकता है । लेखक कहता है की उस समय ू ल की छोटी ा रयों म फूल भी कई
े े ेि औ ोि ी ी े ि ँ ी ी ी े ि ँ ी औ ो ी ीि
तरह के उगाए जाते थे िजनम गुलाब, गदा और मोितया की दू ध-सी सफ़ेद किलयाँ भी आ करतीं थीं। ये किलयाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं िक
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लेखक और उनके साथी चपरासी से छु प-छु पा कर कभी-कभी कुछ फूल तोड़ िलया करते थे। उनकी ब त तेज़ सुगंध लेखक आज भी महसूस कर सकता है ।
पर ु लेखक को अब यह याद नहीं िक उन फूलोंYour
को तोड़कर, कुछforदेLatest
No1 source र सूँघकर िफर उन
Entrance फूलोंAdmission
Exams, का वे ाinfo
करते थे।

लेखक कहता है िक शायद वे उन फूलों को या तो जेब म डाल लेते होंगे और माँ उसे धोने के समय िनकालकर बाहर फक दे ती
होगी या लेखक और उनके साथी खुद ही, ू ल से बाहर आते समय उ बकरी के मेमनों की तरह खा या 'चर' जाया करते
होग।
जब अगली ेणी म दा खल होते तो एक ओर तो ब त बड़े , सयाने होने के एहसास से उ ािहत भी होते, पर ु दू सरी ओर नयी,
पुरानी कािपयों-िकताबों से जाने कैसी बास आती िक उ ीं मा रों के डर से काँ पने लगते जो िपछली ेणी म पढ़ा चुके होते।
तब ू ल म, शु साल म एक-डे ढ़ महीना पढ़ाई आ करती, िफर डे ढ़-दो महीने की छु िटयाँ शु हो जाया करतीं। अब तक
जो बात अ ी तरह याद है वह छु िटयों के पहले और आखरी िदनों का फक था। पहले दो तीन स ाह तो खूब खेल कूद आ
करती। हर साल ही माँ के साथ निनहाल चले जाते। वहाँ नानी खूब दू ध-दहीं, म न खलाती, ब त ार करती। छोटा सा
िपछड़ा गाँ व था पर ु तालाब हमारी मंडी के तालाब िजतना ही बड़ा था। दोपहर तक तो उस तालाब म नहाते िफर नानी से जो जी म आता माँ गकर खाने
लगते। नानी हमारे बोलने के ढं ग या कम खाने के कारण ब त खुश होती। अपने पोतों को हमारी तरह बोलने और खाने-पीने को कहती।
े णी - क ा
सयाने - समझदार
निनहाल - नानी के घर
िपछड़ा - जो उ ित न कर सका हो।

लेखक कहता है िक जब वे एक क ा से दू सरी क ा म शािमल होते तो एक ओर तो लगता की वे


ब त बड़े और समझदार हो गए ह, पर ु वहीं दू सरी ओर नयी-पुरानी कािपयों-िकताबों से न जाने
कैसी बास आती िक उ ीं मा रों के डर से काँ पने लगते जो िपछली क ा म पढ़ा चुके होते थे।
लेखक कहता है िक उसके समय म ू लों म, साल के शु म एक-डे ढ़
महीना ही पढ़ाई आ करती थी, िफर डे ढ़-दो महीने की छु िटयाँ शु हो
जाती थी। लेखक को जो बात अब तक अ ी तरह से याद है , वह छु िटयों
के पहले और आखरी िदनों का फक है । लेखक कहता है िक पहले के दो
तीन स ाह तो खूब खेल कूद म बीतते थे। हर साल ही छु िटयों म लेखक
अपनी माँ के साथ अपनी नानी के घर चले जाता था। वहाँ नानी खूब दू ध-
दहीं, म न खलाती, ब त ादा ार करती थी। लेखक की नानी का
जहाँ घर था, वह छोटा सा गाँ व था जो िवकास की ि से काफ़ी पीछे रह गया था। पर ु वहाँ पर भी उतना ही बड़ा तालाब था िजतना बड़ा लेखक की मंडी म
था। दोपहर तक तो लेखक और उनके साथी उस तालाब म नहाते िफर नानी से जो उनका जी करता वह माँ गकर खाने लगते। लेखक की नानी लेखक के
बोलने के ढं ग या कम खाने के कारण ब त खुश होती थी। अपने पोतों को लेखक की तरह बोलने और खाने-पीने को कहती।
िजस साल निनहाल न जा पाते, उस साल भी अपने घर से थोड़ा बाहर तालाब पर चले जाते। कपड़े उतार पानी म कूद जाते और कुछ
समय बाद, भागते ए एक रे तीले टीले पर जाकर, रे त के ऊपर लेटने लगते। गीले शरीर को गम रे त से खूब लथपथ के उसी तरह
भागते, िकसी ऊँची जगह से तालाब म छलाँ ग लगा दे ते। रे त को गंदले पानी से साफ़ कर िफर टीले की ओर भाग जाते। याद नहीं की
ऐसा, पाँ च-दस बार करते या पं ह-बीस बार। कई बार तालाब म कूदकर ऐसे हाथ-पाँ व िहलाने लगते जैसे ब त अ े तैराक हों।
पर ु एक-दो को छोड़, मेरे िकसी साथी को तैरना नहीं आता था। कुछ तो हाथ-पाँ व िहलाते ए गहरे पानी म चले जाते तो दू सरे उ
बाहर आने के िलए िकसी भस के सींग या दु म पकड़कर बाहर आने की सलाह दे ते। उ ढाँ ढ़स बँधाते। कूदते समय मुँह म गंदला
पानी भर जाता तो बुरी तरह खाँ सते। कई बार ऐसा लगता िक साँ स कने वाली है पर ु हाय-हाय करते िकसी न िकसी तरह तालाब के िकनारे प ँ च जाते।

गंदले - गंदा, मटमैला


दु म - पूँछ
सलाह - िवचार-िवमश,परामश
ढाँ ढ़स - धीरज िदलाना, हौसला दे ना

लेखक कहता है िक िजस साल वह नानी के घर नहीं जा पाता था, उस साल लेखक अपने घर से दू र जो तालाब था, वहाँ जाया करता
था। लेखक और उसके साथी कपड़े उतार कर पानी म कूद जाया करते थे, थोड़े समय बाद पानी से िनकलकर भागते ए एक रे तीले
टीले पर जाकर रे त के ऊपर लोटने लगते थे। गीले शरीर को गम रे त से खूब लथपथ करके िफर उसी तरह भागते थे। िकसी ऊँची जगह जाकर वहाँ से तालाब
म छलाँ ग लगा दे ते थे। जैसे ही उनके शरीर से िलपटी रे त तालाब के उस गंदे पानी से साफ़ हो जाती, वे िफर से उसी टीले की ओर भागते। लेखक कहता है
िक उसे यह याद नहीं है िक वे इस तरह दौड़ना, रे त म लोटना और िफर दौड़ कर तालाब म कूद जाने का िसलिसला पाँ च-दस बार करते थे या पं ह-बीस
बार। कई बार तालाब म कूदकर ऐसे हाथ-पाँ व िहलाने लगते जैसे उ ब त अ े से तैरना आता हो। पर ु एक-दो को छोड़, लेखक के िकसी साथी को
तैरना नहीं आता था। कुछ तो हाथ-पाँ व िहलाते ए गहरे पानी म चले जाते तो दू सरे उ बाहर आने के िलए सलाह दे ते िक ऐसा मानो जैसे िकसी भस के सींग
या पूँछ पकड़ रखी हो। उनका हौसला बढ़ाते। कूदते समय मुँह म गंदला पानी भर जाता तो बुरी तरह खाँ स कर उसे बाहर िनकालने का यास करते थे। कई
बार ऐसा लगता िक साँ स कने वाली है पर ु हाय-हाय करके िकसी न िकसी तरह तालाब के िकनारे तक प ँ च ही जाते थे।
िफर छु िटयाँ िबतने लगतीं तो िदन िगनने लगते। ेक िदन डर बढ़ता चला जाता। खेल-कूद और तालाब म नहाना भी भूलने लगता।
मा रों ने जो छु ि यों म करने के िलए काम िदया होता उसका िहसाब लगाने लगते। जैसे िहसाब के मा र जी दो सौ से काम सवाल
कभी न बताते। मन म िहसाब लगाते िक यिद दस सवाल रोज़ िनकाले तो बीस िदन म पुरे हो जाएं गे। जब ऐसा सोचना शु करते तो
छु ि यों का एक महीना बाकी आ करता। एक-एक िदन िगनते दस िदन खेल-कूद म और बीत जाते। ू ल की िपटाई का डर और
बढ़ने लगता। पर ु डर भुलाने के िलए सोचते िक दस की ा बात, सवाल तो पं ह भी रोज़ आसानी से िनकाले जा सकते ह। जब
ऐसा िहसाब लगाने लगते तो छु ि याँ कम होते-होते जैसे भागने लगतीं िदन ब त छोटे लगने लगते। ऐसा मालूम होता जैसे सूरज भाग
कर दोपहरी म ही िछप जाता हो। जैसे-जैसे िदन 'छोटे ' होने लगते ू ल का भय बढ़ने लगता। हमारे िकतने ही सहपाठी ऐसे भी होते
जो छु ि यों का काम करने के बजाय मा रों की िपटाई अिधक 'स ा सौदा' समझते। हम जो िपटाई से ब त डरा करते, उन 'बहादु रों' की भाँ ित ही सोचने
लगते। ऐसे समय हमारा सबसे बड़ा 'नेता' ओमा आ करता।

िहसाब के मा र जी - गिणत के अ ापक


दोपहरी - िदन म ही
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लेखक कहता है िक जैसे-जैसे उनकी छु ि यों के िदन ख़ होने लगते तो वे लोग िदन िगनने शु कर दे ते थे। हर िदन के ख़ होते-
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होते उनका डर भी बढ़ने लगता था। डर के कारण लेखक और उसके साथी खेल-कूद के साथ-साथ तालाब म नहाना भी भूल जाते।
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अ ापकों ने जो काम छु ि यों म करने के िलए िदया होता था, उसको कैसे करना है - इस बारे म सोचने
लगते। जैसे- गिणत के अ ापक हमेशा छु ि यों म दो सौ से कम नहीं दे ते थे। मन म सोचने लगते िक
अगर एक िदन म दस सवालों को भी करे तो भी उनका सारा काम ख़ हो जाएगा। जब लेखक और उसके
साथी ऐसा सोचना शु करते तब तक छु ि यों का िसफ एक ही महीना बचा होता। एक-एक िदन िगनते-
िगनते खेलकूद म दस िदन और बीत जाते। काम न िकया होने के कारण ू ल म
होने वाली िपटाई का डर अब और ादा बढ़ने लगता। िफर वे सभी अपना डर
भगाने के िलए सोचते िक दस ा, पं ह सवाल भी आसानी से एक िदन म िकए जा
सकते ह। जब ऐसा सोचने लगते तो ऐसा लगने लगता जैसे छु ि याँ कम होते-होते
भाग रही हों। िदन ब त छोटे लगने लगते थे। ऐसा लगता था जैसे सूरज भाग कर
िदन म ही िछप जाता हो। जैसे-जैसे िदन 'छोटे ' होने लगते अथात छु ि याँ ख़ होने
लगती डर और ादा बढ़ने लगता। लेखक बताता है िक उसके िकतने ही सहपाठी
ऐसे भी होते थे जो छु ि यों का काम करने के बजाय अ ापकों की िपटाई अिधक 'स ा सौदा' समझते। लेखक और उसके साथी जो िपटाई से ब त डरा
करते, उन 'बहादु रों' की भाँ ित ही सोचने लगते। ऐसे समय म लेखक और उसके साथी का सबसे बड़ा 'नेता' ओमा आ करता था।

हम सभी उसके बारे म सोचते ही हमारे म उन जैसा कौन था। कभी भी उस जैसा दू सरा लड़का नहीं ढू ँ ढ़ पाते थे। उसकी बात, गािलयाँ , मार िपटाई का ढं ग
अलग था ही, उसकी श -सूरत भी सबसे अलग थी। हाँ ड़ी िजतना बड़ा िसर, उसके िठगने चार बािल के शरीर पर ऐसा लगता जैसे िब ी के ब े के माथे
पर तरबूज रखा हो। इतने बड़े िसर म ना रयल-की-सी आँ खों वाला बंद रया के ब े जैसा चेहरा और भी अजीब लगता। लड़ाई वह हाथ-पाँ व नहीं, िसर से
िकया करता। जब साँ ड़ की भाँ ित फुँकारता, िसर झुका कर िकसी के पेट या छाती म मार दे ता तो उससे दु गुने-ितगुने शरीर वाले लड़के भी पीड़ा से िच ाने
लगते। हम डर लगता िक िकसी की छाती की पसली ही न तोड़ डाले। उसके िसर की ट र का नाम हमने 'रे ल-ब ा' रखा आ था-रे ल के (कोयले से चलने
वाले) इं जन की भाँ ित बड़ा और भयंकर ही तो था।

हाँ ड़ी - मटका
िठगने - छोटे कद का
बािल - िब ा
लेखक कहता है िक वह और उसके साथी ओमा के बारे म सोचते िक उसकी तरह उन सब के बीच और कौन था। लेखक और उसके
साथी कभी उसकी तरह दू सरा लड़का नहीं ढू ँ ढ पाए। ओमा की बात, गािलयाँ और उसकी मार-िपटाई का ढं ग सभी से ब त अलग
था। वह दे खने म भी सभी से ब त अलग था। उसका मटके के िजतना बड़ा िसर था, जो उसके चार बािल (ढ़ाई फुट) के छोटे कद
के शरीर पर ऐसा लगता था जैसे िब ी के ब े के माथे पर तरबूज रखा हो। बड़े िसर पर ना रयल जैसी आँ खों वाला उसका चेहरा
बंद रया के ब े जैसा और भी अजीब लगता था।
जब भी लड़ाई होती थी तो वह अपने हाथ-पाँ व का योग नहीं करता था, वह अपने िसर से ही लड़ाई िकया
करता था। जब वह िकसी साँ ड़ की तरह गरजता और अपने िसर को झुका कर िकसी के पेट या छाती म मार
दे ता तो उससे दु गुने-ितगुने शारी रक बल वाले लड़के भी दद से िच ाने लगते थे। लेखक और उसके साथी
डर जाते थे िक कहीं वह िकसी की छाती की पसली ही न तोड़ डाले। उसके िसर की ट र का नाम लेखक
और उसके सािथयों ने 'रे ल-ब ा' रखा आ था ोंिक उसके िसर की वह ट र रे ल के कोयले से चलने
वाले इं जन की तरह ही भयानक होती थी।
हमारा ू ल ब त छोटा था-केवल छोटे -छोटे नौ कमरे थे जो अं ेजी के अ र एच (H) की भाँ ित बने थे। दाईं ओर पहला कमरा हे डमा र ी मदनमोहन शमा
जी का था िजसके दरवाजे के आगे हमेशा िचक लटकी रहती। ू ल की ेयर ( ाथना) के समय वह बाहर आते और सीधी कतारों म कद के अनुसार खड़े
लड़कों को दे ख उनका गोरा चेहरा खल उठता। सारे अ ापक, लड़कों की तरह ही कतार बाँ धकर उनके पीछे खड़े होते। केवल मा र ीतम चंद 'पीटी'
लड़कों की कतारों के पीछे खड़े -खड़े यह दे खते थे िक कौन सा लड़का कतार म ठीक नहीं खड़ा। उनकी घुड़की तथा ठु ों के भय से हम सभी कतार के पहले
और आखरी लड़के का ान रखते, सीधे कतार म बने रहने का य करते। सीधी कतार के साथ-साथ हम यह भी ान रखना पड़ता था िक आगे पीछे खड़े
लड़कों के बीच की दु री भी एक सी हो। सभी लड़के उस 'पीटी' से ब त डरते थे ोंिक उन िजतना स अ ापक न कभी िकसी ने दे खा, न सुना था। यिद
कोई लड़का अपना िसर भी इधर-उधर िहला लेता या पाँ व से दू सरी िपंडली खुजलाने लगता तो वह उसकी और बाघ की तरह झपट पड़ते और 'खाल खींचने'
के मुहावरे को करके िदखा दे ते।
कतार - पं
घुड़की - धमकी भरी डाँ ट
ठु ों - लात-घु े
खाल उधेड़ना - कड़ा दं ड दे ना, ब त अिधक मारना-पीटना
लेखक कहता है िक वह िजस ू ल म पढता था वह ू ल ब त छोटा था। उसम केवल छोटे -छोटे नौ कमरे थे, जो अं ेजी के अ र
एच (H) की तरह बने ए थे। दाईं ओर का पहला कमरा हे डमा र ी मदनमोहन शमा जी का था िजसके दरवाजे के आगे हमेशा
िचटकनी लटकी रहती थी। ू ल की ेयर ( ाथना) के समय वह बाहर आते थे और सीधी पं यों म कद के अनुसार खड़े लड़कों
को दे खकर उनके गोरा चेहरे पर ख़ुशी साफ़ ही िदखाई दे ती थी। सारे अ ापक, लड़कों की तरह ही कतार बाँ धकर उनके पीछे खड़े
हो जाते थे। केवल मा र ीतम चंद जो ू ल के 'पीटी' थे, वे लड़कों की पं यों के पीछे खड़े -खड़े यह दे खते रहते थे िक कौन सा
लड़का पं म ठीक से नहीं खड़ा है । उनकी धमकी भरी डाँ ट तथा लात-घु े के डर से लेखक और लेखक के साथी पं के पहले और आखरी लड़के का
ान रखते, सीधी पं म बने रहने की पूरी कोिशश करते थे।
सीधी पं के साथ-साथ लेखक और लेखक के सािथयों को यह भी ान रखना पड़ता था िक आगे पीछे खड़े लड़कों के बीच की दु री
भी एक समान होनी चािहए। सभी लड़के उस 'पीटी' से ब त डरते थे ोंिक उन िजतना स अ ापक न कभी िकसी ने दे खा था
और न सुना था। यिद कोई लड़का अपना िसर भी इधर-उधर िहला लेता या पाँ व से दू सरे पाँ व की िपंडली (घुटने और टखने के बीच
का टाँ ग के पीछे माँ स वाले भाग को) खुजलाने लगता तो वह उसकी ओर बाघ की तरह झपट पड़ते और 'खाल खींचने' (कड़ा दं ड
दे ना, ब त अिधक मारना-पीटना) के मुहावरे को सामने करके िदखा दे ते।
पर ु हे डमा र शमा जी उसके िबलकुल उलट भाव के थे। वह पाँ चवीं और आठवीं ेणी को अं ेजी यं पढ़ाया करते थे। हमारे म से िकसी को भी याद
न था िक पाँ चवी ेणी म कभी भी उ , िकसी गलती के कारण िकसी की 'चमड़ी उधेड़ते' दे खा या सूना हो। (चमड़ी उधेड़ना हमारे िलए िबलकुल ऐसा श

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था जैसे हमारे 'सरकारी िमिडल ू ल' का नाम) अिधक से अिधक वह गु े म ब त ज (https://www.successcds.net/)
ी-ज ी आँ ख झपकाते, अपने ल े हाथ की उलटी अँगुिलयों से एक
'चपत' मार दे ते और मेरे जैसे सबसे कमजोर शरीर वाले भी िसर झुकाकर मुँह नीचा िकए हँ स दे ते। वह चपत तो जैसे हम भाई भीखे
की नमकीन पापड़ी जैसी मजेदार लगती जो तब पैYour से की शायद
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जाया करती।
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चपत - चाँ टा
लेखक कहता है िक मा र ीतम चंद जो ू ल के 'पीटी' थे वे ब त ही स अ ापक थे। पर ु हे डमा र
शमा जी उनके िबलकुल उलट भाव के थे। वह पाँ चवीं और आठवीं क ा को अं ेजी यं पढ़ाया करते थे।
लेखक और लेखक के सािथयों म से िकसी को भी याद नहीं था िक पाँ चवी क ा म कभी भी उ ोंने
हे डमा र शमा जी को िकसी गलती के कारण िकसी को मारते या डाँ टते दे खा या सूना हो। (चमड़ी उधेड़ना
लेखक और लेखक के सािथयों के िलए िबलकुल ऐसा श था जैसे उनके 'सरकारी िमिडल ू ल' का नाम)
अिधक से अिधक हे डमा र शमा जी गु े म ब त ज ी-ज ी आँ ख झपकाते थे और अपने ल े हाथ की
उलटी अँगुिलयों से एक चाँ टा मार दे ते थे और लेखक के जैसे सबसे कमजोर शरीर वाले भी िसर झुकाकर मुँह
नीचा िकए हँ स दे ते थे। वह चाँ टा तो जैसे लेखक और लेखक के सािथयों को भाई भीखे की नमकीन पापड़ी जैसा मजेदार लगता था जो लेखक के बचपन के
समय म एक पैसे की शायद दो आ जाती थी।
पर ु तब भी ू ल हमारे िलए ऐसी जगह न थी जहाँ ख़ुशी से भागे जाएँ । पहली क ी ेणी से लेकर चौथी ेणी तक, केवल पाँ च-सात लड़कों को छोड़ हम
सभी रोते िच ाते ही ू ल जाया करते।
पर ु कभी-कभी ऐसी सभी थितयों के रहते ू ल अ ा भी लगने लगता। जब ाउिटं ग का अ ास करवाते समय पीटी साहब नीली-पीली झंिडयाँ हाथों म
पकड़ा कर वन टू ी कहते, झंिडयाँ ऊपर-िनचे, दाएँ -बाएँ करवाते तो हवा म लहराती और फड़फड़ाती झंिडयों के साथ खाकी विदयों तथा गले म दोरं गे
माल लटकाए अ ास िकया करते।
दोरं गे - दो रं ग के
लेखक कहता है िक उसके बचपन म भी ू ल सभी के िलए ऐसी जगह नहीं थी जहाँ ख़ुशी से भाग कर जाया जाए। पहली क ी
क ा से लेकर चौथी क ा तक, केवल पाँ च-सात लड़के ही थे जो ख़ुशी-ख़ुशी ू ल जाते होंगे बािक सभी रोते िच ाते ही ू ल जाया
करते थे।
िफर भी लेखक कहता है िक कभी-कभी कुछ ऐसी थितयाँ भी होती थी जहाँ ब ों को ू ल अ ा भी लगने लगता था। वह थितयाँ
बनती थी जब ू ल म ाउिटं ग का अ ास करवाते समय पीटी साहब सभी ब ो
के हाथों म नीली-पीली झंिडयाँ पकड़ा कर वन टू ी कहते और ब े भी झंिडयाँ
ऊपर-िनचे, दाएँ -बाएँ िहलाते िजससे झंिडयाँ हवा म लहराती और फड़फड़ाती।
झंिडयों के साथ खाकी विदयों तथा गले म दो रं ग के माल लटकाए सभी ब े ब त
ख़ुशी से अ ास िकया करते थे।
हम कोई गलती न करते तो अपनी चमकीली आँ ख हलके से झपकाते कहते-शाबाश।
वैल िबिगन अगेन-वन, टू , ी, ी, टू , वन! उनकी एक शाबाश ऐसे लगने लगती जैसे
हमने िकसी फ़ौज के सभी तमगे जीत िलए हों। कभी यही शाबाश, सभी मा रों की ओर से, हमारी सभी कािपयों पर साल भर की िलखी 'गु ों' (गुड का
ब वचन) से अिधक मू वान लगने लगती। कभी ऐसा भी लगता िक कई साल की स मेहनत से ा की पढ़ाई से भी पीटी साहब के िडसी न म रह कर
ा की 'गुडिवल' ब त बड़ी थी। पर ु यह भी एहसास रहता िक जैसे गु ारे का भाई जी कथा करते समय बताया करता िक सितगुर के भय से ही ेम
जागता है , ऐसे यह ही पीटी साहब के ित हमारी ेम की भावना जग जाती। (यह ऐसा भी है िक आपको रोज फटकारने वाला कोई 'अपना' यिद साल भर के
बाद एक बार 'शाबाश' कह द तो यहचम ार-सा लगने लगता है -हमारी दशा भी कुछ ऐसी आ करती।)
तमगा - पदक, मैडल
िडसी न - अनुशासन
गुडिवल - साख, ाित
सितगुर - सतगु
फटकारना - डाँ टना
लेखक कहता है िक यिद ाउिटं ग करते ए कोई भी िव ाथ कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी
चमकीली आँ ख हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। और वैल िबिगन अगेन अथात दु बारा करने के
िलए कहते ए-वन, टू , ी, ी, टू , वन! करते जाते और ब े भी ख़ुशी-ख़ुशी उनका कहना मानते।

लेखक कहता है िक उनकी एक शाबाश लेखक और उसके सािथयों को ऐसे लगने लगती
जैसे उ ोंने िकसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत िलए हों। दू सरे मा रों की ओर से
जब कभी लेखक और उसके सािथयों को कािपयों पर साल भर की मेहनत के िलए 'गु ों'
(गुड का ब वचन) िदया जाता, उससे कहीं अिधक पीटी साहब का शाबाश मू वान लगता
था। कभी-कभी लेखक और उसके सािथयों को ऐसा भी लगता था िक कई साल की स
मेहनत से जो पढ़ाई उ ोंने ा की थी, पीटी साहब के अनुशासन म रह कर ा की
'गुडिवल' का रॉब या घमंड उससे ब त बड़ा था। पर ु लेखक और उसके सािथयों को यह भी एहसास रहता था िक जैसे गु ारे का भाई जी कथा करते
समय बताया करता है िक सतगु के भय से ही ेम जागता है , इसी तरह लेखक और उसके सािथयों की पीटी साहब के ित ेम की भावना जग जाती थी।
लेखक कहता है िक यह ऐसा भी है िक आपको रोज डाँ टने वाला कोई 'अपना' यिद साल भर के बाद एक बार 'शाबाश' कह द तो यह िकसी चम ार-से कम
नहीं लगता है -लेखक और उसके सािथयों की दशा भी कुछ ऐसी आ करती थी।
हर वष अगली ेणी म वेश करते समय मुझे पुरानी पु क िमला करतीं। हमारे हे डमा र शमा जी एक लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। वे
धना लोग थे। उनका लड़का मुझसे एक-दो साल बड़ा होने के कारण मेरे से एक ेणी आगे रहा। हर साल अ ैल म जब पढ़ाई का नया साल आर होता
तो शमा जी उसकी एक साल पुरानी पु क ले आते। हमारे घर म िकसी को भी पढ़ाई म िदलच ी न थी। यिद नयी िकताब लानी पड़तीं (जो तब एक-दो
पये म आ जाया करतीं) तो शायद इसी बहाने पढ़ाई तीसरी-चौथी ेणी म ही छूट जाती। कोई सात साल ू ल म रहा तो एक कारण पुरानी िकताब िमल
जाना भी था। कािपयों, पिसलों, हो र या ाही-दवात म भी मु ल से एक-दो पये साल भर म खच आ करते। पर ु उस जमाने म एक पया भी
ब त बड़ी 'रकम' आ करती थी। एक पये म एक सेर घी आया करता और दो पये की एक मन (चालीस सेर) गंदम। इसी कारण, खाते-पीते घरों के
लड़के ही ू ल जाया करते। हमारे दो प रवारों म म अकेला लड़का था जो ू ल जाने लगा था।
धना - अिधक धन वाले
िदलच ी - िच
रकम - स ित, दौलत

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लेखक कहता है िक हर साल जब वह अगली क ा म वेश करता तो उसे पुरानी पु क(https://www.successcds.net/)
िमला करतीं थी। उसके ू ल के हे डमा र शमा जी एक लड़के को
उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। वे ब त धनी लोग थे। उनका लड़का लेखक से एक-दो साल बड़ा होने के कारण लेखक से एक क ा आगे
पढ़ता था। हर साल अ ैल म जब पढ़ाई का नया साल Your आर होताfor
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तो शमा जी उसExams,
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की एक साल infoपु रानी पु क ले खक के िलए ले

आते थे। लेखक के घर म िकसी को भी पढ़ाई म कोई िच नहीं थी। यिद नयी िकताब लानी पड़तीं (जो लेखक के समय म केवल एक-दो पये
म आ जाया करतीं थी) तो शायद इसी बहाने लेखक की पढ़ाई तीसरी-चौथी क ा म ही छूट जाती। लेखक लगभग सात साल ू ल म रहा तो
उसका एक कारण लेखक को पुरानी िकताब िमल जाना भी था। कािपयों, पिसलों, हो र या ाही-दवात म भी मु ल से साल भर म एक-दो पये ही खच
आ करते थे। पर ु उस जमाने म एक पया भी ब त बड़ी स ित या दौलत आ करती थी। एक पये म एक सेर घी आया करता था
और दो पये म तो एक मन यािन चालीस सेर गंदम आ जाते थे। यही कारण था की उस समय केवल खाते-पीते घरों के लड़के ही ू ल
जाया करते थे। लेखक के दोनों प रवारों म लेखक ही अकेला लड़का था जो ू ल जाने लगा था।
पर ु िकसी भी नयी ेणी म जाने का ऐसा चाव कभी भी महसूस नहीं आ िजसका िज़ कुछ लड़के िकया करते।
अज़ीब बात थी िक मुझे नयी कािपयों और पुरानी पु कों म से ऐसी गंध आने लगती िक मन ब त उदास होने लगता
था। इसका ठीक-ठीक कारण तो कभी समझ म नहीं आया पर ु िजतनी भी मनोिव ान की जानकारी है , उस अ िच
का कारण यही समझ म आया िक आगे की ेणी की कुछ मु ल पढ़ाई और नए मा रों की मार-पीट का भय ही
कहीं भीतर जमकर बैठ गया था। सभी तो नए न होते थे पर ु दो-तीन हर साल ही वह होते जोिक छोटी ेणी म नहीं
पढ़ाते थे। कुछ ऐसी भी भावना थी िक अिधक अ ापक एक साल म ऐसी अपे ा करने लगते िक जैसे हम
'हरफनमौला' हो गए हों। यिद उनकी आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ तो जैसे 'चमड़ी उधेड़ दे ने को तैयार रहते' इ ी कुछ कारणों से केवल िकताबों-
कािपयों की गंध से ही नहीं, बाहर के बड़े गेट से दस-पं ह गज दू र ू ल के कमरों तक रा े के दोनों ओर जो अिलआर के झाड़ उगे थे उनकी गंध भी मन
उदास कर िदया करती।
चाव - शौक, इ ा
िज़ - चचा
हरफनमौला - सवगुण स , हर े म आगे रहे वाला
लेखक कहता है िक उसे कभी भी िकसी भी नयी क ा म जाने की ऐसी कोई इ ा कभी भी महसूस नहीं ई िजसकी चचा कुछ लड़के
िकया करते थे। अज़ीब बात लेखक को यह लगाती थी िक उसे नयी कािपयों और पुरानी पु कों म से ऐसी गंध आने लगती थी िक
उसका मन ब त उदास होने लगता था। इसका ठीक-ठीक कारण तो लेखक को कभी समझ म नहीं आया पर ु लेखक को िजतनी भी
मनोिव ान की जानकारी है , उस अ िच का कारण उसे यही समझ म आया िक आगे की क ा की कुछ मु ल पढ़ाई और नए मा रों
की मार-पीट का डर ही लेखक के कहीं भीतर जमकर बैठ गया था। सभी अ ापक तो नए नहीं होते थे पर ु दो-तीन हर साल ही वह
होते जोिक छोटी क ा म नहीं पढ़ाते थे। लेखक के मन म कुछ ऐसी भी भावना थी िक अिधक अ ापक एक साल म ऐसी उ ीद करने लगते थे िक जैसे
लेखक और उसके साथी सवगुण
स या हर े म आगे रहने वाले हो गए हों। यिद लेखक और उसके साथी उन अ ापकों की आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ
अ ापक तो हमेशा ही िव ािथयों की 'चमड़ी उधेड़ दे ने को तैयार रहते' थे। इ ी कुछ कारणों से केवल िकताबों-कािपयों की गंध से ही
नहीं ब बाहर के बड़े गेट से दस-पं ह गज दू र ू ल के कमरों तक रा े के दोनों ओर जो बरामदे म झाड़ उगे थे, िजसकी गंध
लेखक को ब त अ ी लगती थी पर ु अब उनकी गंध भी लेखक का मन उदास कर िदया करती थी।
पर ु ू ल एक-दो कारणों से अ ा भी लगने लगा था। मा र ीतमचंद जब हम ाउटों को परे ड करवाते तो ले -राइट की
आवाज़ या मुँह म ली ि सल से माच कराया करते। िफर राइट टन या ले टान या अबाऊट टन कहने पर छोटे -छोटे बूटों की एिड़यों
पर दाएँ -बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर बूटों की ठक-ठक करते अकड़कर चलते तो लगता जैसे हम िव ाथ नहीं, ब त मह पूण 'आदमी' हों-फौज़ी जवान।

ि सल - सीटी
बूट - जूते
अकड़ - घम
लेखक कहता है िक बचपन म ू ल जाना िबलकुल भी अ ा नहीं लगता था पर ु एक-दो कारणों के कारण कभी-कभी ू ल जाना अ ा भी लगने लगता
था। मा र ीतमिसंह जो लेखक के ू ल के पीटी थे, वे लेखक और उसके सािथयों को परे ड करवाते और मुँह म सीटी ले कर ले -राइट की आवाज़
िनकालते ए माच करवाया करते थे।
िफर जब वे राइट टन या ले टान या अबाऊट टन कहते तो सभी िव ाथ अपने छोटे -छोटे जूतों की एिड़यों पर दाएँ -बाएँ या एकदम
पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी िव ाथ न हो कर, ब त मह पूण 'आदमी' हों, जैसे
िकसी दे श का फौज़ी जवान होता है , अथात लेखक कहना चाहता है िक सभी िव ाथ अपने-आप को फौजी समझते थे।
दू सरे िव यु का समय था, पर ु हमारी नाभा रयासत का राजा अं ेजों ने 1923 म िगर ार कर िलया था और तिमलनाडु म
कोडाएकेनाल म ही, जंग शु होने से पहले उसका दे हां त हो गया था। उस राजा का बेटा, कहते थे अभी िवलायत म पढ़ रहा था।
इसिलए हमारे दे सी रयासत म भी अं ेज की ही चलती थी िफर भी राजा के न रहते, अं ेज हमारी रयासत के गाँ वों से 'जबरन' भरती
नहीं कर पाया था। लोगो को फ़ौज म भत करने के िलए जब कुछ अफसर आते तो उनके साथ कुछ नौटं की वाले भी आ करते। वे रात को खुले मैदान म
शािमयाने लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादु री के िदखाकर आकिषत िकया करते। उनका एक गाना अभी भी याद है । कुछ मसखरे अज़ीब
सी विदयाँ पहने और अ े , बड़े फ़ौजी बूट पहने गाया करते-
भरती हो जा रे रं ग ट
भरती हो जा रे ......
अठे िमले स टू टे लीतर
उठै िमलदे बूट,
भरती हो जा रे ,
हो जा रे रं ग ट।
अठे पहन सै फटे पुराणे
उठै िमलगे सूट
भरती हो जा रे ,
हो जा रे रं ग ट।
इ ीं बातों से आकिषत हो कुछ नौजवान भरती के िलए तैयार हो जाया करते।
कभी-कभी हम भी महसूस होता िक हम भी फौजी जवानों से कम नहीं। धोबी की धुली वद और पािलश िकए बूट और जुराबों को पहने जब हम ाउिटं ग

ी े े ो ौ ी ी
की परे ड करते तो लगता हम फौजी ही ह। (https://www.successcds.net/)
िवलायत - दे श
शािमयाना - त ू Your No1 source for Latest Entrance Exams, Admission info

मसखरे - िवदू षक या हँ सी-मजाक करने वाले


रं ग ट - सेना या पुिलस आिद म नया भत होने वाला िसपाही
अठे - यहाँ
लीतर - फटे -पुराने ख ाहाल जूते
उठै - वहाँ
लेखक कहता है िक जब लेखक ू ल म था तब दू सरे िव यु का समय था, पर ु नाभा रयासत के राजा को अं ेजों ने 1923 म
िगर ार कर िलया था और तिमलनाडु म कोडाएकेनाल म ही, जंग शु होने से पहले उसका दे हां त हो गया था। जब राजा का दे हां त
आ, उस समय सभी कहते थे िक उस राजा का बेटा उस समय दे श म पढ़ रहा था। इसिलए लेखक की दे सी रयासत को भी अं ेजी
सरकार ही चलाती थी िफर भी राजा के न रहते, अं ेजी सरकार लेखक की रयासत के गाँ वों से ज़ोर-ज़बरद ी िकसी को भी फ़ौज म
भरती नहीं कर पायी थी। लोगो को फ़ौज म भत करने के िलए जब कुछ अफसर गाँ व म आते तो उनके साथ कुछ नौटं की वाले भी आया
करते थे। वे रात को खुले मैदान म त ू लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादु री के िदखाकर फ़ौज म भत होने के िलए आकिषत िकया करते
थे। उनका एक गाना अभी भी लेखक को याद है । कुछ हँ सी-मजाक करने वाले अज़ीब सी विदयाँ पहनकर और अ े , बड़े फ़ौजी बूट पहनकर गाना
गाया करते थे-
वे सेना या पुिलस आिद म नए लोगों को भरती करवाने के िलए कहते थे िक यहाँ पर उ िसफ फटे -पुराने ख ाहाल जूते ही िमलगे,
वहाँ ब त बिढ़या जूते िमलगे। ादा सोच मत भरती हो जाओ।
यहाँ पर फाटे -पुराने कपड़े ही पहनने को िमलगे और वहाँ तो सूट िमलेगा इसिलए ादा मत सोच ज ी से फ़ौज म भत हो जाओ।
इ ीं सारी बातों की वजह से कुछ नौजवान फ़ौज म भरती होने के िलए तैयार भी हो जाया करते थे।

लेखक कहता है िक कभी-कभी उ भी लगता िक वे सब भी फौजी जवानों से कम नहीं ह। जब वे धोबी ारा धोई गई वद और पािलश
िकए चमकते जूते और जुराबों को पहनकर ाउिटं ग की परे ड करते तो लगता िक वे भी फौजी ही ह।
मा र ीतमचंद को ू ल के समय म कभी भी हमने मु ु राते या हँ सते न दे खा था। उनका िठगना कद, दु बला-पतला पर ु गठीला
शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँ ख, खाकी वद , चमड़े के चौड़े पंजों वाले बूट-सभी कुछ ही भयभीत करने वाला
आ करता। उनके बूटों की ऊँची एिड़यों के िनचे भी खु रयाँ लगी रहतीं, जैसे ताँ गे के घोड़े के पैरों म लगी रहती है । अगले िह े म, पंजों के िनचे मोठे िसरों
वाले कील ठु के होते। यिद वह स जगह पर भी चलते तो खु रयों और िकलों के िनशान वहाँ भी िदखाई दे ते। हम ान से दे खते, इतने बड़े और भारी-भारी
बूट पहनने के बावजूद उनके टखनों म कहीं मोच तक नहीं आती थी। (उनको दे ख कर हम यिद घरवालों से बूटों की माँ ग करते तो माँ -बाप यही कहते िक
टखने टे ढ़े हो जाएँ गे, सारी उमर सीधे न चलने पाओगे।)
िठगना - छोटा
गठीला - पु

लेखक कहता ह िक उ ोंने कभी भी मा र ीतमचंद को ू ल के समय म मु ु राते या हँ सते नहीं दे खा था। उनका छोटा कद,
दु बला-पतला पर ु पु शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यािन चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँ ख, खाकी वद ,
चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूत-ये सभी चीज़े ब ों की भयभीत करने वाली होती थी। उनके जूतों की ऊँचीएिड़यों के िनचे भी उसी तरह
की खु रयाँ लगी रहतीं थी, जैसे ताँ गे के घोड़े के पैरों म लगी रहती है । अगले िह े म, पंजों के िनचे मोठे िसरों वाले कील ठु के होते थे।
यिद मा र ीतमचंद स जगह पर भी चलते तो खु रयों और िकलों के िनशान वहाँ भी िदखाई दे ते थे। लेखक और उसके साथी उन
िनशानों को ान से दे खते और सोचते िक इतने बड़े और भारी-भारी जूते पहनने के बावजूद भी मा र ीतमचंद के टखनों (िपंडली एवं
एड़ी के बीच की दोनों ओर उभरी ह ी) म मोच कैसे नहीं आती थी। ये सब दे ख कर लेखक और उसके साथी यिद घरवालों से वैसे ही जूतों की माँ ग करते तो
माँ -बाप यही कहते िक टखने टे ढ़े हो जाएँ गे और िफर सारी उमर सीधे नहीं चल पाओगे।
मा र ीतमचंद से हमारा डरना तो ाभािवक था, पर ु हम उनसे नफ़रत भी करते थे। कारण तो उसका मारपीट था। हम सभी को
(जो मेरी उमर के ह) वह िदन नहीं भूल पाया िजस िदन वह हम चौथी ेणी म फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। हम उदू का तो तीसरी ेणी तक
अ ा अ ास हो गया था पर ु फ़ारसी तो अं ेजी से भी मु ल थी। अभी हम पढ़ते एक स ाह भी न आ होगा िक ीतमचंद ने हम
एक श प याद करने को कहा और आदे श िदया िक कल इसी घंटी म ज़बानी सुनगे। हम सभी घर लौटकर, रात दे र तक उसी
श प को बार-बार याद करते रहे पर ु केवल दो-तीन ही लड़के थे िज आधी या कुछ अिधक श प याद हो पाया। दू सरे िदन
बारी-बारी सबको सुनाने के िलए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। तभी मा र जी गुराए-सभी कान पकड़ो।
हमने झुककर टाँ गों के पीछे से बाँ ह िनकालकर कान पकड़े तो वह गु े से चीखे-पीठ ऊँची करो।
ाभािवक - ाकृितक
आदे श - आ ा
ज़बानी - केवल जुबान के ारा
गुराए - गु े म िच ाना
लेखक कहता ह िक मा र ीतमचंद से सभी ब ों का डरना तो ाकृितक था, पर ु सभी ब े उनसे नफ़रत भी करते थे। इसका
कारण लेखक बताता है िक वे ब ों को मारते-पीटते थे िजस कारण ब े उनसे नफरत करते थे। लेखक अपनी पूरी िज़ गी म उस िदन
को कभी नहीं भूल पाया िजस िदन मा र ीतमचंद लेखक की चौथी क ा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। लेखक कहता है िक उसकी क ा
को उदू का तो तीसरी क ा तक अ ा अ ास हो गया था पर ु उन सभी को फ़ारसी तो अं ेजी से भी मु ल लगने लगी थी। अभी
मा र ीतमचंद को लेखक की क ा को पढ़ते ए एक स ाह भी नहीं आ होगा िक ीतमचंद ने उ एक श प याद करने को
कहा और आ ा दी िक कल इसी घंटी म केवल जुबान के ारा ही सुनगे। सभी िव ाथ घर लौटकर, रात दे र तक उसी श प को
बार-बार याद करते रहे पर ु केवल दो-तीन ही लड़के थे, िज आधी या कुछ अिधक श प याद हो पाया था। दू सरे िदन मा र ीतमचंद ने बारी-बारी
सबको सुनाने के िलए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मा र जी गु े म िच ाए िक सभी िव ाथ अपने-अपने कान पकड़ो। सभी ने झुककर टाँ गों के
पीछे से बाँ ह िनकालकर कान पकड़े तो वह िफर से गु े से चीखे िक सभी अपनी पीठ ऊँची रख।
पीठ ऊँची करके कान पकड़ने से, तीन-चार िमनट म ही टाँ गों म जलन होने लगती थी। मेरे जैसे कमज़ोर तो टाँ गों के थकने से कान पकडे ए ही िगर पड़ते।
जब तक मेरी और हरबंस की बारी आई तब तक हे डमा र शमा जी अपने द र म आ चुके थे। जब हम सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले
शमा जी, ू ल की पूरब की ओर बने सरकारी ह ताल म डा र कपलाश से िमलने गए थे। वह द र के सामने की ओर चले आए। आते ही जो कुछ
उ ोंने दे खा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था िक वह पीटी ीतमचंद की उस बबरता को सहन नहीं कर पाए। वह उ ेिजत हो गए थे।

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द र - कायालय, ऑिफस (https://www.successcds.net/)
बबरता - अस ता एवं जंगलीपन
जब मा र जी ने सभी िव ािथयों को अपने-अपनेYour
कानNo1पकड़ने और
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े िलए कहाinfo
तो लेखक कहता है िक पीठ
ऊँची करके कान पकड़ने से, तीन-चार िमनट म ही टाँ गों म जलन होने लगती थी। लेखक के जैसे कमज़ोर ब े तो टाँ गों के थकने से
कान पकडे ए ही िगर पड़ते थे। लेखक कहता है िक जब तक उसकी और हरबंस की बारी आई तब तक हे डमा र शमा जी अपने
कायालय म आ चुके थे। जब लेखक की क ा को सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शमा जी ू ल की पूरब की ओर बने
सरकारी ह ताल म डा र कपलाश से िमलने गए थे। जब वे लौटे तो वह कायालय के सामने की ओर चले आए। आते ही जो कुछ उ ोंने दे खा वह सहन
नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था िक उ ोंने पीटी ीतमचंद की उस अस ता एवं जंगलीपन को दे खा था। उ ोंने सहन नहीं िकया और वह
भड़क गए थे।
ाट आर यू डूईंग, इज इट दा वे टू पिनश दा ू डट् स ऑफ फोथ ास? ाप इट ऐट व ।
हम तब अं ेजी नहीं आती थी, ोंिक उस समय पाँ चवी ेणी से अं ेजी पढ़ानी शु की जाती थी। पर ु हमारे ू ल के सातवीं-आठवीं ेणी के लड़कों ने
बताया था िक शमा जी ने कहा था- ा करते ह? ा चौथी ेणी को सजा दे ने का यह ढं ग है ? इसे फ़ौरन बंद करो।
शमा जी गु े से काँ पते बरामदे से ही अपने द र म चले गए थे।
िफर जब ीतमचंद कई िदन ू ल नहीं आए तो यह बात सभी मा रों की जुबान पर थी िक हे डमा र शमा जी ने उ मुअ ल करके अपनी ओर से आदे श
िलखकर मंजूरी के िलए हमारी रयासत की राजधानी, नाभा भेज िदया है । वहाँ हरजीलाल नाम के 'महकमाए-तालीम'के डायरे र थे िजनसे ऐसे आदे श की
मंजूरी आव क थी।
मुअ ल - िनलंिबत या िनकाल दे ना
मंजूरी - ीकृित
महकमाए-तालीम - िश ा िवभाग

लेखक कहता है िक पीटी ीतमचंद की उस अस ता एवं जंगलीपन को दे ख कर हे डमा रर शमा जी भड़क कर कहने लगे िक ाट
आर यू डूईंग, इज इट दा वे टू पिनश दा ू डट् स ऑफ फोथ ास? ाप इट ऐट व । लेखक कहता है िक उस समय उसकी क ा
को समझ नहीं आया िक हे डमा र शमा जी ा कह रहे ह ोंिक तब उ अं ेजी नहीं आती थी, ोंिक उस समय पाँ चवी ेणी से
अं ेजी पढ़ानी शु की जाती थी। पर ु लेखक के ू ल के सातवीं-आठवीं ेणी के लड़कों ने बताया था िक शमा जी ने कहा था- ा
करते ह? ा चौथी ेणी को सजा दे ने का यह ढं ग है ? इसे फ़ौरन बंद करो। इतना कह कर शमा जी गु े से काँ पते ए बरामदे से ही
अपने कायालय म चले गए थे।
िफर जब इस घटना के बाद ीतमचंद कई िदन ू ल नहीं आए तो यह बात सभी मा रों की जुबान पर थी िक हे डमा र शमा जी ने उ िनलंिबत करके
अपनी ओर से आदे श िलखकर ीकृित के िलए लेखक की रयासत की राजधानी, नाभा भेज िदया है । वहाँ हरजीलाल नाम के िश ा िवभाग के डायरे र थे
िजनसे ऐसे आदे श की ीकृित आव क थी। ऐसी ीकृित िमल जाने के बाद पीटी ीतमचंद को हमेशा के िलए ू ल से िनकाल िदया जाने था।
उस िदन के बाद यह पता होते ए भी िक पीटी ीतमचंद को जब तक नाभा से डायरे र 'बहाल' नहीं करग तब तक वह ू ल म
कदम नहीं रख सकते, जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो हमारी छाती धक्-धक् करती फटने को आती। पर ु जब तक शमा जी यं
या मा र नौह रया रामजी कमरे म फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, हमारे चेहरे मुरझाए रहते।
बहाल - पूव थित म ा
लेखक कहता है िक िजस िदन से हे डमा र शमा जी ने पीटी ीतमचंद को िनलंिबत िकया था उस िदन के बाद यह पता होते ए भी िक
पीटी ीतमचंद को जब तक नाभा से डायरे र 'बहाल' नहीं करग तब तक वह ू ल म कदम नहीं रख सकते, िफर भी जब भी फ़ारसी
की घंटी बजती तो लेखक की और उसकी क ा के सभी ब ों की छाती धक्-धक् करने लगती और लगता जैसे छाती फटने वाली हो।
पर ु जब तक शमा जी यं या मा र नौह रया रामजी कमरे म फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, तब तक तो सभी ब ों के चेहरे मुरझाए ही
रहते थे।
िफर कई स ाह तक पीटी मा र ू ल नहीं आए। पता चला िक बाज़ार म एक दू कान के ऊपर उ ोंने जो छोटी-छोटी खड़िकयों
वाला चौबारा िकराए पर ले रखा था, वहीँ आराम से रह रहे थे। कुछ सातवीं-आठवीं के िव ाथ हम बताया करते िक उ मुअ ल होने की रित भर भी िचंता
नहीं थी। पहले की ही तरह आराम से िपंजरे म रखे दो तोतों को िदन म कई बार, िभगोकर रखे बादामों की िग रयों का िछलका उतारकर उ खलाते उनसे
बात करते रहते ह। उनके वे तोते हमने भी कई बार दे ख थे। (हम उन लड़कों के साथ उनके चौबारे म गए थे जो लड़के पीटी साहब के आदे श पर उनके घर
म काम करने जाया करते) पर ु हमारे िलए यह चम ार ही था िक जो ीतमचंद िब ा मार-मारकर हमारी चमड़ी तक उधेड़ दे ते वह अपने तोतों से मीठी-
मीठी बात कैसे कर लेते थे? ा तोतों को उनकी दहकती, भूरी आँ खों से भय नहीं लगता था।
हमारी समझ म ऐसी बात तब नहीं आ पाती थीं, बस एक तरह इ अलौिकक ही मानते थे।
चौबारा - वह कमरा िजसम चारों और से खड़िकयाँ और दरवाज हों
रित भर - थोड़ी सी भी
िब ा - प ी या डं डा
अलौिकक - अद् भुत या अपूव
लेखक कहता है िक कई स ाह तक पीटी मा र ू ल नहीं आए। लेखक और उसके सािथयों को पता चला िक बाज़ार म एक दू कान
के ऊपर उ ोंने जो छोटी-छोटी खड़िकयों वाला चौबारा (वह कमरा िजसम चारों और से खड़िकयाँ और दरवाज हों) िकराए पर ले रखा
था, पीटी मा र वहीं आराम से रह रहे थे। कुछ सातवीं-आठवीं के िव ाथ लेखक और उसके सािथयों को बताया करते थे िक उ
िन ािसत होने की थोड़ी सी भी िचंता नहीं थी। िजस तरह वह पहले आराम से िपंजरे म रखे दो तोतों को िदन म कई बार, िभगोकर रखे
बादामों की िग रयों का िछलका उतारकर खलाते थे, वे आज भी उसी तरह आराम से िपंजरे म रखे उन दो तोतों को िदन म कई बार,
िभगोकर रखे बादामों की िग रयों का िछलका उतारकर खलाते और उनसे बात करते रहते ह। उनके वे तोते लेखक और उसके सािथयों
ने भी कई बार दे ख थे जब लेखक और उसके साथी उन लड़कों के साथ पीटी मा र के चौबारे म गए थे जो लड़के पीटी साहब के आदे श पर उनके घर म
काम करने जाया करते थे ।पर ु लेखक और उसके सािथयों के िलए यह चम ार ही था िक जो ीतमचंद प ी या डं डे से मार-मारकर िव ािथयों की चमड़ी
तक उधेड़ दे ते, वह अपने तोतों से मीठी-मीठी बात कैसे कर लेते थे? लेखक यं म सोच रहा था िक ा तोतों को उनकी आग की तरह जलती, भूरी आँ खों
से डर नहीं लगता होगा? लेखक और उसके सािथयों की समझ म ऐसी बात तब नहीं आ पाती थीं, ोंिक तब वे ब त छोटे आ करते थे। वे तो बस पीटी
मा र के इस प को एक तरह से अद् भुत ही मानते थे।

Sapnon Ke Se Din Question Answers - उ र


1 - कोई भी भाषा आपसी वहार म बाधा नहीं बनती-पाठ के िकस अंश से यह िस होता है ?
ोई ी ी ी ी े े ी ेि ो ै े े
उ र - कोई भी भाषा आपसी वहार म बाधा नहीं बनती। यह बात लेखक के बचपन की(https://www.successcds.net/)
एक घटना से िस होता है -लेखक के बचपन
के ादातर साथी राज थान या ह रयाणा से आकर मंडी म ापार या दु कानदारी करने आए प रवारों से थे। जब लेखक छोटा था तो
उनकी बातों को ब त कम ही समझ पाता था औरYour उनके कुsource
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info थी। पर ु जब सभी

खेलना शु करते तो सभी एक-दू सरे की बातों को ब त अ े से समझ लेते थे। उनका वहार एक दू सरे के िलए एक जैसा ही रहता
था।

2 - पीटी साहब की 'शाबाश' फ़ौज के तमगों-सी ों लगती थी? कीिजए।

उ र - मा र ीतम चंद जो ू ल के 'पीटी' थे, वे लड़कों की पं यों के पीछे खड़े -खड़े यह दे खते रहते थे िक कौन सा लड़का पं म ठीक से नहीं खड़ा
है । सभी लड़के उस 'पीटी' से ब त डरते थे ोंिक उन िजतना स अ ापक न कभी िकसी ने दे खा था और न सुना था। यिद कोई लड़का अपना िसर भी
इधर-उधर िहला लेता या पाँ व से दू सरे पाँ व की िपंडली खुजलाने लगता, तो वह उसकी ओर बाघ की तरह झपट पड़ते और 'खाल खींचने' (कड़ा दं ड दे ना,
ब त अिधक मारना-पीटना) के मुहावरे को सामने करके िदखा दे ते। यही कारण था िक जब ू ल म ाउिटं ग का अ ास करते ए कोई भी िव ाथ कोई
गलती न करता, तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँ ख हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसके सािथयों को
ऐसे लगने लगती जैसे उ ोंने िकसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत िलए हों।

3 - नयी ेणी म जाने और नयी कािपयों और पुरानी िकताबों से आती िवशेष गंध से लेखक का बालमन ों उदास हो उठता था?
उ र - हर साल जब लेखक अगली क ा म वेश करता तो उसे पुरानी पु क िमला करतीं थी। उसके ू ल के हे डमा र शमा जी एक ब त धनी लड़के
को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। हर साल अ ैल म जब पढ़ाई का नया साल आर होता था तो शमा जी उस लड़के की एक साल पुरानी पु क लेखक
के िलए ले आते थे। उसे नयी कािपयों और पुरानी पु कों म से ऐसी गंध आने लगती थी िक उसका मन ब त उदास होने लगता था। आगे की क ा की कुछ
मु ल पढ़ाई और नए मा रों की मार-पीट का डर और अ ापक की ये उ ीद करना िक जैसे बड़ी क ा के साथ-साथ लेखक सवगुण स या हर े
म आगे रहे वाला हो गया हो। यिद लेखक और उसके साथी उन अ ापकों की आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ अ ापक तो हमेशा ही िव ािथयों की
'चमड़ी उधेड़ दे ने को तैयार रहते' थे।

4- ाउट परे ड करते समय लेखक अपने को मह पूण 'आदमी' फ़ौजी जवान ों समझने लगता है ?
उ र - जब लेखक धोबी ारा धोई गई वद और पािलश िकए चमकते जूते और जुराबों को पहनकर ाउिटं ग की परे ड करते तो लगता िक वे भी फौजी ही
ह। मा र ीतमिसंह जो लेखक के ू ल के पीटी थे, वे लेखक और उसके सािथयों को परे ड करवाते और मुँह म सीटी ले कर ले -राइट की आवाज़
िनकालते ए माच करवाया करते थे। िफर जब वे राइट टन या ले टान या अबाऊट टन कहते तो सभी िव ाथ अपने छोटे -छोटे जूतों की एिड़यों पर दाएँ -
बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी िव ाथ न हो कर, ब त मह पूण 'आदमी' हों, जैसे िकसी
दे श का फौज़ी जवान होता है , अथात लेखक कहना चाहता है िक सभी िव ाथ अपने-आप को फौजी समझते थे।

5 - हे डमा र शमा जी ने पीटी साहब को ों मुअतल कर िदया?


उ र - मा र ीतमचंद लेखक की चौथी क ा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। अभी मा र ीतमचंद को लेखक की क ा को पढ़ते ए एक स ाह भी नहीं आ
होगा िक ीतमचंद ने उ एक श प याद करने को कहा और आ ा दी िक कल इसी घंटी म केवल जुबान के ारा ही सुनगे। दू सरे िदन मा र ीतमचंद
ने बारी-बारी सबको सुनाने के िलए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मा र जी ने गु े म िच ाकर सभी िव ािथयों को कान पकड़कर पीठ ऊँची रखने
को कहा। जब लेखक की क ा को सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शमा जी ू ल म नहीं थे। आते ही जो कुछ उ ोंने दे खा वह सहन नहीं कर
पाए। शायद यह पहला अवसर था िक उ ोंने पीटी ीतमचंद की उस अस ता एवं जंगलीपन को सहन नहीं िकया और वह भड़क गए थे। यही कारण था िक
हे डमा र शमा जी ने पीटी साहब को मुअतल कर िदया।

6 - लेखक के अनुसार उ ू ल से भागे जाने की जगह न लगने पर भी कब और ों उ ू ल जाना अ ा लगने लगा?

उ र - बचपन म लेखक को ू ल जाना िबलकुल भी अ ा नहीं लगता था पर ु जब मा र ीतमिसंह मुँह म सीटी ले कर ले -राइट की आवाज़ िनकालते
ए माच करवाया करते थे और सभी िव ाथ अपने छोटे -छोटे जूतों की एिड़यों पर दाएँ -बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड
के साथ चलते जैसे वे सभी िव ाथ न हो कर, ब त मह पूण 'आदमी' हों, जैसे िकसी दे श का फौज़ी जवान होता है । ाउिटं ग करते ए कोई भी िव ाथ
कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँ ख हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसके सािथयों
को ऐसे लगने लगती जैसे उ ोंने िकसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत िलए हों। यह शाबाशी लेखक को उसे दू सरे अ ापकों से िमलने वाले 'गु ों' से भी
ादा अ ा लगता था। यही कारण था िक बाद म लेखक को ू ल जाना अ ा लगने लगा।

7 - लेखक अपने छा जीवन म ू ल से छु िटयों म िमले काम को पूरा करने के िलए ा- ा योजनाएँ बनाया करता था और उसे पूरा न कर पाने की
थित म िकसकी भाँ ित 'बहादु र' बनने की क ना िकया करता था?

उ र - जैसे-जैसे लेखक की छु ि यों के िदन ख़ होने लगते तो वह िदन िगनने शु कर दे ता था। हर िदन के ख़ होते-होते उसका डर भी बढ़ने लगता था।
अ ापकों ने जो काम छु ि यों म करने के िलए िदया होता था, उसको कैसे करना है और एक िदन म िकतना काम करना है यह सोचना शु कर दे ता। जब
लेखक ऐसा सोचना शु करता तब तक छु ि यों का िसफ एक ही महीना बचा होता। एक-एक िदन िगनते-िगनते खेलकूद म दस िदन और बीत जाते। िफर
वह अपना डर भगाने के िलए सोचता िक दस ा, पं ह सवाल भी आसानी से एक िदन म िकए जा सकते ह। जब ऐसा सोचने लगता तो ऐसा लगने लगता
जैसे छु ि याँ कम होते-होते भाग रही हों। िदन ब त छोटे लगने लगते थे। लेखक ओमा की तरह जो िठगने और बिल कद का उदं ड लड़का था उसी की तरह
बनने की कोिशश करता ोंिक वह छु ि यों का काम करने के बजाय अ ापकों की िपटाई अिधक 'स ा सौदा' समझता था। और काम न िकया होने के
कारण लेखक भी उसी की तरह 'बहादु र' बनने की क ना करने लगता।

8 - पाठ म विणत घटनाओं के आधार पर पीटी सर की चा रि क िवशेषताओं पर काश डािलए।

े े ी ी ी ो े े ँ े ी े े ि ि ी े े ी े
उ र - लेखक ने कभी भी मा र ीतमचंद को ू ल के समय म मु ु राते या हँ सते नहीं(https://www.successcds.net/)
दे खा था। उनके िजतना स अ ापक िकसी ने पहले नहीं दे खा
था। उनका छोटा कद, दु बला-पतला पर ु पु शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यािन चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँ ख, खाकी वद ,
चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूत-ये सभी चीज़े ब ों को भयभीत
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Latest थी। उनक े जूतों Admission
Exams, की ऊँची एिड़यों
info के िनचे भी खु रयाँ लगी रहतीं थी। अगले

िह े म, पंजों के िनचे मोटे िसरों वाले कील ठु के होते थे। वे अनुशासन ि य थे यिद कोई िव ाथ उनकी बात नहीं मानता तो वे उसकी खाल खींचने के िलए
हमेशा तैयार रहते थे। वे ब त ािभमानी भी थे ोंिक जब हे डमा र शमा ने उ िनलंिबत कर के िनकाला तो वे िगड़िगड़ाए नहीं, चुपचाप चले गए और
पहले की ही तरह आराम से रह रहे थे।

9 - िव ािथयों को अनुशासन म रखने के िलए पाठ म अपनाई गई यु यों और वतमान म ीकृत मा ताओं के स म अपने िवचार कट कीिजए।

उ र - िव ािथयों को अनुशासन म रखने के िलए पाठ म िजन यु यों को अपनाया गया है उसम मारना-पीटना और कठोर दं ड दे ना शािमल ह। इन कारणों
की वजह से ब त से ब े ू ल नहीं जाते थे। पर ु वतमान म इस तरह मारना-पीटना और कठोर दं ड दे ना िबलकुल मना है । आजकल के अ ापकों को
िसखाया जाता है िक ब ों की भावनाओं को समझा जाए, उसने यिद कोई गलत काम िकया है तो यह दे खा जाए िक उसने ऐसा ों िकया है । उसे उसकी
गलितयों के िलए दं ड न दे कर, गलती का एहसास करवाया जाए। तभी ब े ू ल जाने से डरगे नहीं ब ख़ुशी-ख़ुशी ू ल जाएँ गे।

11 - ायः अिभभावक ब ों को खेल-कूद म ादा िच लेने पर रोकते ह और समय बबाद न करने की नसीहत दे ते ह। बताइए -
(क) खेल आपके िलए ों ज री है ?
उ र - खेल िजतना मनोरं जक होता है उससे कही अिधक सेहत के िलए आव क होता है । कहा भी जाता है िक ' थ तन म ही थ मन का वास होता
है ।' ब ों का तन िजतना अिधक तंदु होगा, उनका िदमाग उतना ही अिधक तेज़ होगा। खेल-खेल म ब ों को नैितक मू ों का ान भी होता है जैसे-
साथ-साथ खेल कर भाईचारे की भावना का िवकास होता है , समूह म खेलने से सामािजक भावना बढ़ती है और साथ-ही-साथ ित धा की भावना का भी
िवकास होता है ।
(ख) आप कौन से ऐसे िनयम-कायदों को अपनाएँ गे िजनसे अिभभावकों को आपके खेल पर आपि न हो?

उ र - िजतना खेल जीवन म ज री है , उतने ही ज री जीवन म ब त से काय होते ह जैसे- पढाई आिद। यिद खेल ा के िलए आव क है , तो पढाई भी
आपके जीवन म कामयाबी के िलए ब त आव क है । यिद हम अपने खेल के साथ-साथ अपने जीवन के अ काय को भी उसी लगन के साथ पूरा करते
जाएँ िजस लगन के साथ हम अपने खेल को खेलते ह तो अिभभावकों को कभी भी खेल से कोई आपि नहीं होगी।

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