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आले ख

ओमप्रकाश कश्यप
बहुजन चेतना का ननमाा ण और अजाक संघ

धानमाक यं त्रणाएं , एक साथ और एक ही समय में वास्तनवक यं त्रणाओं की अनिव्यक्ति तथा


उनके नवरुद्ध सं घर्ा हैं । धमा उत्पीनित प्राणी की आह, ननष्ठु र, हृदयहीन सं सार का हृदय,
आत्माहीन पररक्तथथनतय ं की आत्मा है । यह ल ग ं के नलए अफीम है । । । । मनुष्य ने धमा की
रचना की है , न नक धमा ने मनुष्य क बनाया है । ’
ᅳ कार्ल मार्क्ल

दु ननया में अने क धमा है , ले नकन अपने ही िीतर नजतनी आल चना नहं दू धमा क झेलनी पिती है , शायद ही नकसी
और धमा के साथ ऐसा ह । इसका कारण है नहं दुओं की जानत-व्यवथथा, ज मनु ष्य क जन्म के आधार पर
अननगनत खान ं में बां ट दे ती है । ऊंच-नीच क बढ़ावा दे ती है । मुट्ठी-िर ल ग ं क केंद्र में रखकर बाकी क
हानशये पर ढकेल दे ती है । ऐसा नहीं है नक इसकी आल चना नहीं हुई। गौतम बुद्ध से ले कर आज तक, जब से
जन्म हुआ है , तिी से उसके ऊपर उं गनलयां उठती रही है । जानत और जानत-िे द नमटाने के नलए आं द लन िी
चले हैं , बावजू द इसके उसे नमटाना चुनौतीपूणा रहा है । इसनलए नक नहं दू धमा का प्रमुख लािकताा ब्राह्मण, धमा के
साथ-साथ जानत के िी नशखर पर है , समाज में अनतररि रूप से प्रिावशाली है । वही नकसी न नकसी रूप में
जानत क बचाए रखता है। ल ग ं का नवश्वास जीतने के नलए किी-किार कुछ समझौते या सुधारवाद का
नदखावा करना पिे त बेनझझक करता है । मध्यकाल में संत रनवदास, कबीर, नानक आनद ने जानत के नाम पर
समाज के बंटवारे क चुनौती दी थी। उनीसवीं शताब्दी में केशवचंद सेन, स्वामी दयानं द, नववेकानं द आनद ने
जानत उन्मू लन की नदशा में गंिीरता से काम नकया। ले नकन उनका प्रिाव सीनमत और अल्पकानलक रहा।
उनीसवीं शताब्दी के बौक्तद्धक जागरण के दौरान, यह मानते हुए नक नबना धमा क चुनौती नदए जातीय िे दिाव से
मु क्ति असंिव है ᅳ फुले ने नहं दू धमा तथा उसक संरक्षण दे ने वाले ब्राह्मणवाद पर सीधा प्रहार नकया। उसके
बाद उसे बहुआयामी चुनौती डॉ। आं बेडकर, ई। वी। रामास्वामी पेररयार, स्वामी अछूतानं द, श्रीनारायण गुरु
आनद की ओर से नमली। इस बीच नबहार और पूवी उत्तर प्रदे श में ‘नत्रवेणी संघ’ ने नपछिी जानतय ं और अछूत ं
क संगनठत करना शु रू नकया। 1970 के आसपास ‘अजा क संघ’ ने जातीय श र्ण और धानमा क आडं बरवाद के
नवरुद्ध आवाज बुलंद की। आरं ि में उसका प्रिाव कानपुर और आसपास के क्षे त्र ं तक सीनमत था। नपछले
कुछ वर्ों से उसकी ल कनप्रयता में तेजी आई है । संचार-क्ां नत के इस दौर में सैकि ं युवा उससे जुि चुके हैं ।
इसके फलस्वरूप वह उत्तर प्रदे श की सीमाओं से ननकलकर नबहार, उिीसा जै से प्रां त ं में िी जगह बना रहा है ।

‘अजा क संघ’ की थथापना रामस्वरूप वमाा ने 1 जू न 1968 क की थी। उसके पीछे ‘नबहार का ले ननन’ कहे जाने
वाले बाबू जगदे वप्रसाद नसंह की प्रेरणा थी। आं द लन क आगे बढ़ाने का काम महाराज नसंह िारती, मं गलदे व
नवशारद जै से बुक्तद्धवादी चेतना से लै स ने ताओं ने नकया। थथापना के लगिग द महीने बाद बाबू जगदे वप्रसाद
नसंह िी ‘अजा क संघ’ से जुि गए। उन सिी का एकमात्र उद्दे श्य था, सामानजक न्याय की लिाई क नवस्तार
दे ना। ऊंच-नीच, छूआछूत, जात-पां त, तंत्र-मं त्र, िाग्यवाद, जन्म-पुनजान्म आनद के मकिजाल में फंसे दबे-
कुचले ल ग ं क , उनके चंगुल से बाहर लाना। फुले नहं दू धमा की नवकृनतय ं की ओर बहुत पहले इशारा कर चुके
थे । उसके बाद से ही उसमें सुधार के दावे नकए जा रहे थे । स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक समय ऐसा िी
आया जब दनलत ं और नपछि ं का ने ता कहलाने की ह ि-सी मची थी। उससे लगता था नक ल कतंत्र जातीय
वैर्म्य क नमलाने में सहायक ह गा। ले नकन ह एकदम उलटा रहा था। नजन ने ताओं पर संनवधान की रक्षा की
नजम्मेदारी थी, वे चुनाव ं में जानत और धमा के नाम पर व ट मां गते थे। पुर नहत ं के नदखावे और आडं बर में क ई
कमी नहीं आई थी। ऊपर से समाज के ननचले वगों पर ह ने वाले जानत-आधाररत हमले । उन् न
ं े साफ कर
नदया था नक नहं दू धमा के ने ता अपनी केंचुल से बाहर ननकलने क तैयार नहीं हैं । वे जानत और धमाां धता क स्वयं
नहीं छ िने वाले । ल ग ं क स्वयं उसके चंगुल से बाहर आना पिे गा। नपछले आं द लन ं से यह सीख िी नमली
थी नक जानत-मुि समाज के नलए धमा से मु क्ति आवश्यक है । मनुष्य का सबसे बिा धमा मनुष्यता है । नजय
और जीने द उसका आदशा है । मामला धानमा क ह या सामानजक, मनु ष्य यनद अपने नववेक से काम न ले त
उसके मनु ष्य ह ने का क ई अथा नहीं है।

रामस्वरूप वमाा का जन्म कानपुर(वतामान कानपुर दे हात) नजले के गौरीकरन गां व में नपछिी जानत के नकसान
पररवार में नदनां क 22 अगस्त 1923 क हुआ था। उनके नपता का नाम वंशग पाल और मां का नाम सुक्तखया दे वी
था। चार िाइय ं में सबसे छ टे रामस्वरूप वमाा की प्राथनमक नशक्षा कालपी और पुखरायां में हुई। हाईस्कूल
और इं टरमीनडएट परीक्षा पास करने के पश्चात उन् न
ं े इलाहाबाद नवश्वनवद्यालय में दाक्तखला ले नलया। वहां से
1949 में नहं दी में परास्नातक की नडग्री हानसल की। उसके बाद उन् न
ं े आगरा नवश्वनवद्यालय से कानू न की नडग्री
प्राप्त की। वे शु रू से ही मे धावी थे। हाईस्कूल और उससे ऊपर की सिी परीक्षाएं उन् न
ं े प्रथम श्रे णी में पास
की थीं।

छात्र जीवन से ही रामस्वरूप वमाा की रुनच राजनीनत में थी। बौक्तद्धक स्तर पर वे समाजवादी नवचारधारा के
ननरं तर करीब आ रहे थे । उनका संवेदनशील मन सामानजक ऊंच-नीच और िे दिाव क दे खकर आहत ह ता
था। ल नहया उनके आदशा थे। नफर िी छात्र जीवन में वे राजनीनत से दू री बनाए रहे। माता-नपता चाहते थे नक
उनका बेटा उच्चानधकारी बने। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए रामस्वरूप वमाा ने िारतीय प्रशासननक सेवा
की परीक्षाएं दीं और उत्तीणा हुए। उनकी मे धा और अध्ययनशीलता का अनु मान इससे िी लगाया जा सकता है
ं े इनतहास क चुना था और सवाा नधक अंक उसी में प्राप्त नकए थे , जबनक
नक प्रशासननक सेवा के नलए उन् न
परास्नातक स्तर पर इनतहास उनका नवर्य नहीं था। एक अच्छी नौकरी और िनवष्य की रूपरे खा बन चुकी थी,
ले नकन नौकरी के साथ बंध जाने का मन न हुआ। वे स्विाव से नवनम्र, मृ दुिार्ी तथा आकर्ा क व्यक्तित्व के
स्वामी थे। आत्मनवश्वास उनमें कूट-कूट कर िरा था। इसनलए प्रशासननक सेवा के नलए साक्षात्कार का बुलावा
आया त उन् न
ं े शानमल ह ने से इन्कार कर नदया।

पररनचत ं क उनका फैसला अजीब लगा। कुछ ने ट का िी। ले नकन पररवार क उनपर िर सा था। इस बीच
उनकी डॉ। राममन हर ल नहया और स शनलष्ट पाटी से नजदीनकयां बढ़ी थीं। सावाजननक जीवन की शु रुआत
के नलए उन् न
ं े अपने प्रेरणा पुरुर् क ही चुना। वे स शनलष्ट पाटी के सदस्य बनकर उनके आं द लन में शानमल
ह गए। 1957 में उन् न
ं े ‘स शनलस्ट पाटी’ के उम्मीदवार के रूप में कानपुर नजले के ि गनीपुर से, नवधान सिा
का चुनाव लिाय और मात्र 34 वर्ा की अवथथा में वे उत्तरप्रदे श नवधानसिा के सदस्य बन गए। यह उनके लं बे
सावाजननक जीवन का शु िारं ि था। उससे अगला चुनाव वे 1967 में ‘संयुि स शनलष्ट पाटी’ के नटकट पर जीते।
नगने -चुने ने ता ही ऐसे ह ते हैं , ज पहली ही बार में जनता के मनस् पर अपनी ईमानदारी की छाप छ ि जाते हैं ।
रामस्वरूप वमाा ऐसे ही ने ता थे । जनमानस पर उनकी पकि थी। ल नहया के ननधन के बाद पाटी ने ताओं से
उनके मतिे द उिरने लगे। 1969 का नवधान सिा चुनाव उन् न
ं े ननदा लीय उम्मीदवार के रूप में लिा और
ं े 1968 में ‘समाज दल’ नामक राजनीनतक पाटी की थथापना की
जीते। स्वतंत्र राह पकिने की चाहत में उन् न
थी। उद्दे श्य था, समाजवाद और मानवतावाद क राजनीनत में थथानपत करना। ल ग ं के बीच समाजवादी
नवचारधारा का प्रचार करना। उनका दू सरा लक्ष्य था, ब्राह्मणवाद के खात्मे के नलए अजाक संघ की वैचाररकी क
घर-घर पहुं चाना। गौरतलब है नक ‘समाज दल’ की थथापना से कुछ महीने पहले बाबू जगदे वप्रसाद नसंह ने 25
अगस्त 1967 क ‘श नर्त दल’ का गठन नकया था। द न ं राजनीनतक संगठन समानधमाा थे। क्ां नतकारी
नवचारधारा से लै स। ‘श नर्त दल’ के गठन पर बावू जगदे वप्रसाद नसंह ने ऐनतहानसक महत्त्व का, क्ां नतकारी
और लं बा िार्ण नदया था। उन् न
ं े कहा था—

‘नजस लिाई की बुननयाद आज मैं डालने जा रहा हूँ , वह लम्बी और कनठन ह गी।
चूंनक मै एक क्ां नतकारी पाटी का ननमाा ण कर रहा हूँ इसनलए इसमें आने -जाने वाल ं
की कमी नहीं रहे गी। परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं। इसमें पहली पीढ़ी के ल ग
मारे जायेंगे, दू सरी पीढ़ी के ल ग जे ल जायेंगे तथा तीसरी पीढ़ी के ल ग राज करें गे।
जीत अंतत गत्वा हमारी ही ह गी। ’

बाबू जगदे वप्रसाद नसंह और रामस्वरूप वमाा के नवचार काफी हद तक नमलते थे । द न ं व्यक्तिगत
महत्त्वाकां क्षाओं से मुि थे। आक्तखकार द न ं ने ताओं ने राजनीनतक एकजु टता नदखाने का ननणाय नलया। 7
अगस्त 1972 क ‘श नर्त दल’ और ‘समाजदल’ के नवलय के बाद ‘श नर्त समाज दल’ का जन्म हुआ। 1980
तथा 1989 के नवधानसिा चुनाव ं में वमाा जी ने ‘श नर्त समाज दल’ के सदस्य के रूप में नहस्सा नलया। द न ं
ं े शानदार जीतें हानसल कीं। 1991 में उन् न
बार उन् न ं े ‘श नर्त समाज दल’ के उम्मीदवार के रूप में छठी बार
नवधान सिा चुनाव ं में जीत हानसल की। रामस्वरूप वमाा पर क्षे त्र की जनता का पूरा िर सा था। वे एक के बाद
एक चुनाव जीतते जा रहे थे। राजनीनतक क्षे त्र में उनकी प्रनतष्ठा और मान-सम्मान था। ले नकन नसफा संसदीय
राजनीनत से उन्ें संत र् न था। इसनलए सनक्य राजनीनत के साथ जनां द लन ं में िी ननयनमत सनक्यता बनी हुई
थी।

िारतीय समाज के बिे नहस्से के नपछिे पन का मूल कारण है —धमा के नाम पर आडं बर। तरह-तरह के
कमा कां ड और रूनढ़यां । शताक्तब्दय ं से दबे-कुचले समाज क पंनडत और पुजारी तरह-तरह के बहाने बनाकर
लू टते रहते थे । ‘अजा क संघ’ के गठन का प्रमु ख उद्दे श्य ल ग ं क धमा के नाम नकए जा रहे छल-प्रपंच और
पाखं ड से मुक्ति नदलाना था। रामस्वरूप वमाा पर फुले , पेररयार और आं बेडकर का प्रिाव था। बाबू
जगदे वप्रसाद नसंह त उनके सहय गी और प्रेरणा-पुरुर् थे ही। उन नदन ं डॉ। आं बेडकर के प्रिाव से उत्तर
प्रदे श और नबहार के दनलत ं में िी चेतना का संचार हुआ था। स्वामी अछूतानं द के आं द लन का िी ल ग ं पर
प्रिाव था। जानत मु क्ति की मां ग तेज ह चुकी थी। दनलत अपने परं परागत पेश ,ं नजनके आधार पर उन्ें नीच
और गुलाम बनाया हुआ था, क छ िकर नए धंधे अपनाने क संकल्पबद्ध थे।
जानत मुक्ति के नलए पेशा-मु क्ति आं द लन की शु रुआत 1930 से ह चुकी थी। आगे चलकर अलीगढ़, आगरा,
कानपुर, उन्नाव, एटा, मे रठ जै से नजले , जहां चमार ं की संख्या काफी थी─उस आं द लन का केंद्र बन गए।
आं द लन का नारा था─‘मानव-मानव एक समान’। उन नदन ं गां व ं में मृ त पशु क उठाकर उनकी खाल
ननकालने का काम चमार जानत के ल ग करते थे। जबनक चमार क्तियां नवजात के घर जाकर नारा(नाल) काटने
का काम करती थीं। समाज के नलए द न ं ही काम बेहद आवश्यक थे । मगर उन्ें करने वाल ं क हे य दृनष्ट से
दे खा जाता था। अछूत मानकर उनसे नफरत की जाती थी। डॉ। आं बेडकर की प्रेरणा से 1950-60 के दशक
में उत्तर प्रदे श से ‘नारा-मवेशी आं द लन’ का सूत्रपात हुआ था। उसकी शु रुआत बनारस के पास, एक दनलत
अध्यापक ने की थी। चमार ं ने एकजु टता नदखाते हुए इन नतरष्कृत धंध ं क हाथ न लगाने का फैसला नकया था।
इससे दबंग जानतय ं में बेचैनी फैलना स्वािानवक था। आं द लन क र कने के नलए उनकी ओर से दनलत ं पर
हमले िी नकए गए। बावजू द इसके आं द लन ज र पकिता गया।

रामस्वरूप वमाा अपने संगठन और सहय नगय ं के साथ ‘नारा मवेशी आं द लन’ के साथ थे । जहां िी नारा-
मवेशी आं द लन के कायाक्म ह ते अपने समथा क ं के साथ उसमें सहिानगता करने पहुंच जाते थे । अछूत ं के
ं े ‘अछूत ं की समस्याएं और समाधान’
प्रनत अपमानजनक क्तथथनतय ं के बारे में जागरूकता फैलाने के नलए उन् न
तथा ‘ननरादर कैसे नमटे ’ जै सी पुक्तस्तकाओं की रचना िी की। उनमें जातीय आधार पर ह ने वाले श र्ण और
अछूत ं की दयनीय हालत के कारण ं पर नवचार नकया गया था। चमार ं द्वारा थ पे गए पेशे के बायकाट की
सवणा नहं दुओं में प्रनतनक्या ह ना अवश्यं िावी था। उनकी ओर से चमार ं पर हमले नकए गए। रामस्वरूप वमाा
ने प्रिानवत थथान ं पर जाकर न केवल पीनित ं क ढाढस बंधाने का काम नकया, अनपतु आं द लन में डटे रहने
का आवाह्न िी नकया। ‘अजाक संघ’ के नवचार ं क जन-जन तक पहुं चाने के नलए उन् न
ं े ‘अजा क साप्तानहक’
अखबार िी ननकाला। उसका मु ख्य उद्दे श्य ‘अजा क संघ’ के नवचार ं क जन-जन तक पहुं चाना था।

1967—68 में उत्तर प्रदे श में ‘संयुि नवधायक दल’ की सरकार बनी त रामस्वरूप वमाा क नवत्तमं त्री का पद
सौंपा गया। उस पद पर रहते हुए उन् न
ं े ज बजट पेश नकया, उसने सिी क है रत में डाल नदया था। बजट में
20 कर ि लाि दशाा या गया था। उससे पहले मान्यता थी नक सरकार के बजट क लािकारी नदखाना असंिव
है । केवल बजट घाटे क ननयंनत्रत नकया जा सकता है । जहां घाटे क ननयंनत्रत रखना ही नवत्तमं त्री का कौशल ह ,
वहां लाि का बजट पेश करना बिी उपलक्ति जै सा था। केवल ईमानदार और नवशे र् प्रनतिाशाली मं त्री से,
नजसकी बजट ननमाा ण में सीधी सहिानगता ह ─ऐसी उम्मीद की जा सकती थी। बजट में नसंचाई, नशक्षा,
नचनकत्सा, सावाजननक ननमाा ण जै से ल क पकारी कायों हे तु, उससे नपछले वर्ा की तुलना में लगिग डे ढ़ गुनी
धनरानश आवंनटत की गई थी। कमा चाररय ं के महं गाई ित्ते में वृक्तद्ध का प्रस्ताव िी था। इस सब के बावजू द
बजट क लािकारी बना दे ना चमत्कार जै सा था। उस बजट की व्यापक सराहना हुई। रामस्वरूप वमाा की
नगनती एक नवचारशील ने ता के रूप में ह ने लगी। पत्रकार ं के साथ बातचीत के दौरान उनका कहना था नक
उद्य गपनत और व्यापारी लाि-हानन क दे खकर चुनते हैं । घाटा बढ़े त तुरंत अपना धंधा बदल ले ते है । ले नकन
नकसान नफा ह या नु कसान, नकसानी करना नहीं छ िता। बाढ़-सूखा झेलते हुए िी वह खे ती में लगा रहता है।
वह उन्ीं मद ं में खचा करता है , ज बेहद जरूरी ह ।ं ज उसकी उत्पादकता क बनाए रख सकें। इसनलए
नकसान से अच्छा अथा शािी क ई नहीं ह सकता। जानहर है , बजट तैयार करते समय सरकार के अनु त्पादक
खचों में कटौती की गई थी। क ई जमीन से जुिा ने ता ही ऐसा कठ र और दू रगामी ननणाय ले सकता था।
दे श में आनथा क आत्मननिारता की चचाा अकसर ह ती है । मगर बौक्तद्धक आत्मननिा रता क एकदम नबसरा नदया
जाता है । यह प्रवृनत्त आमजन के समाजानथा क श र्ण क थथायी बनाती है । समाज का नपछिा वगा नजसमें
नशल्पकार और मे हनतकश वगा शानमल हैं, अपने श्रम-कौशल से अजा न करते हैं । जब उसक खचा करने , लाि
उठाने की बारी आती है त पंडा, पुर नहत, व्यापारी, दु कानदार सब सनक्य ह जाते हैं । धमा के नाम पर, ईश्वर के
नाम पर, तरह-तरह के कमा कां ड ,ं आडं बर ,ं ब्याज और दान-दनक्षणा के नाम पर─वे उसकी मामूली आय का
बिा नहस्सा हिपकर ले जाते हैं । धमा मनु ष्य की बौक्तद्धक आत्मननिा रता, उसके वास्तनवक प्रब धीकरण में सबसे
बाधक है । ले नकन जब िी क ई उसकी ओर उं गली उठाता है , नवशेर्ानधकार प्राप्त वगा तुरंत परं परा की दु हाई
दे ने लगता है। इस मामले में नहं दू नवश्व-िर में इकलौते धमाा वलं बी हैं , ज पूवाज ं के ज्ञान पर अपनी पीठ ठ कते
हैं । कुछ न ह कर िी सबकुछ ह ने का भ्रम पाले रहते हैं । तका और बुक्तद्ध-नववेक की उपेक्षा करने के कारण
कूपमं डूकता की क्तथथनत में जीते हैं । ‘अजा क संघ’ कमे रे वगों का संगठन है। धमा या संप्रदाय न ह कर वह
मु ख्यतः जीवन-शै ली है , नजसमें आथथा से अनधक महत्त्व मानवीय नववेक क नदया जाता है । उसका आधार
नसद्धां त है नक श्रम का सम्मान और पारस्पररक सहय ग। ल ग पुर नहत ,ं पंनडत ं के बहकावे में आकर
आडं बरपूणा जीवन जीने के बजाय ज्ञान-नवज्ञान और तकाबुक्तद्ध क महत्त्व दें । गौतम बुद्ध ने कहा था─‘अप्पदीप
िव। ’ अपना दीपक आप बन । अजा क संघ िी ऐसी ही कामना करता है।

रामस्वरूप वमाा नवचार ं से पूरी तरह समाजवादी थे। अपने छात्र जीवन के दौरान ही वे डॉ। नरें द्र दे व और
ल नहया के नवचार ं से प्रिानवत थे । स्वयं ल नहया उनके व्यक्तित्व से प्रिानवत थे। उन्ें पाटी के नलए ऐसे ही
ईमानदार, नवचारशील और प्रनतिाशाली युवाओं की दरकार थी। इसनलए उनके राजनीनत में प्रवेश के ननणाय
का ल नहया ने खुले नदल से स्वागत नकया था। रामस्वरूप वमाा ने िी उन्ें ननराश नहीं नकया। राजनीनतक और
सामानजक आं द लन ं में नहस्सेदारी करते हुए उन् न
ं े महाराष्टर और दनक्षण िारत के कई राज् ं की यात्राएं कीं।
इस काम में उन्ें मं गलदे व नवशारद और महाराज नसंह िारती जै से वैज्ञाननक दृनष्टक ण वाले सहय गी प्राप्त हुए,
नजनकी समाजवाद के प्रनत ननष्ठा असंक्तद्धग्ध थी। नजनका सपना रूनढ़मु ि समाज का था। ज ब्राह्मणवाद क
िारतीय समाज की अने कानेक समस्याओं के नलए नजम्मेदार मानते थे । वे जानते थे नक शताक्तब्दय ं से जि
जमाए धमा और जानतवाद से एकाएक मु क्ति संिव नहीं है। परं तु ल कतंत्र और वैज्ञाननक स च की मदद से उन्ें
चुनौती दी सकती है ।

‘श नर्त दल’ के संथथापक बाबू जगदे वप्रसाद नसंह ‘अजाक संघ’ के माध्यम से नकए जा रहे कायों से बेहद
प्रिानवत थे । उनका मानना था का ब्राह्मणवाद के अनाचार ं से मु क्ति केवल ‘अजा क संघ’ द्वारा संिव है । बाबू
जगदे वप्रसाद नसंह और रामस्वरूप वमाा द न ं का नवश्वास था नक श्रम-केंनद्रत संस्कृनत मानववाद क बढ़ावा
दे गी। उसके माध्यम से ब्राह्मणवाद से मु क्ति सहज संिव ह सकेगी। ले नकन यह काम आसान नहीं है । क् नं क
शताक्तब्दय ं से सत्ता और संसाधन ं पर कुंडली मारकर बैठे ल ग इतनी आसानी से जगह खाली करने क तैयार न
हग ं े। उनके द्वारा फैलाए जा रहे अंधनवश्वास ं और धानमा क पाखंड ं से मु क्ति के नलए नशक्षा आवश्यक है ।
इसनलए उनकी मां ग थी नक दे श में सिी क नशक्षा के समान अवसर प्राप्त ह ।ं नवद्यालय ं का पाठ्यक्म ऐसा
बनाया जाए ज वैज्ञाननक स च और तकाबुक्तद्ध क बढ़ावा दे । नै नतक नशक्षा का आधार मानवीय संबंध ं क बनाया
जाए। सरकार क चानहए नक गरीब ं और समाज के नपछिे वगों क प्र त्साहन दे कर आगे लाए। रामस्वरूप
वमाा , बाबू जगदे वप्रसाद नसंह, महाराज नसंह िारती, बामसेफ के सहसंथथापक डी। के। खापडे , पेररयार ललई
नसंह यादव जै से ने ताओं के कारण दे श में मान नई सामानजक-राजनीनतक चेतना अंगिाई ले रही थी। ‘श नर्त
समाज दल’ का यह नारा उन नदन ं गली-गली गूंजता था—
दस का शासन नब्बे पर
नहीं चले गा, नहीं चले गा।
सौ में नब्बे श नर्त है,
नब्बे िाग हमारा है ।
धन-धरती और राजपाट में ,
नब्बे िाग हमारा है ।

अपने नवचार ं क जन-जन तक पहुं चाने के नलए रामस्वरूप वमाा ने ‘क्ां नत क् ं और कैसे’, ‘ब्राह्मणवाद की शव-
परीक्षा’, ‘अछूत समस्या और समाधान’, ‘ब्राह्मण मनहमा क् ं और कैसे?’, ‘मानवतावादी प्रश्न त्तरी’, ‘मनु स्मृनत राष्टर
का कलं क’, ‘ननरादर कैसे नमटे ’, ‘सृनष्ट और प्रलय’, ‘अम्बेडकर सानहत्य की जब्ती और बहाली’, जै सी महत्वपूणा
पुस्तक ं की रचना की। उनकी ले खन शैली सीधी-सहज और प्रहारक थी। ऐसी पुस्तक ं के नलए प्रकाशक
नमलना आसान न था। स उन् न
ं े उन्ें अपने ही खचा पर प्रकानशत नकया। जहां जरूरी समझा, पुस्तक क
मु फ्त नवतररत नकया गया। उत्तर प्रदे श की प्रमु ख िार्ा नहं दी है । रामस्वरूप वमाा स्वयं नहं दी के नवद्याथी रह
चुके थे । सरकार का कामकाज जनता की िार्ा में ह , इस तरह सहज-सरल ढं ग से ह नक साधारण से
साधारण व्यक्ति िी उसे समझ सके, यह स चते हुए उन् न
ं े नवत्तमं त्री रहते हुए, सनचवालय से अंग्रेजी
टाइपराइटर हटवाकर, नहं दी टाइपराटर लगवा नदए थे। उस वर्ा का बजट िी उन् न
ं े नहं दी में तैयार नकया था।
जनता क यह परचाने के नलए नक प्रशासन में कौन कहां पर है , उसके धन का नकतना नहस्सा प्रशासननक कायों
पर खचा ह ता है —बजट में छठा अध्याय नवशे र्रूप से ज िा गया था। उसमें प्रदे श के कमा चाररय ं और
अनधकाररय ं का नववरण था। उस पहल की सिी ने खू ब सराहना की थी।

1970 में उत्तर प्रदे श सरकार ने ललई नसंह की पुस्तक 'सम्मान के नलए धमा पररवतान करें ' पर र क लगा दी। यह
पुस्तक डॉ। आं बेडकर द्वारा जानत-प्रथा के नवरुद्ध नदए गए िार्ण ं संकलन थी। सरकार के ननणाय के नवरुद्ध
ललई नसंह यादव ने उच्च न्यायालय में अपील की। मामला इलाहाबाद हाई क टा में था। रामस्वरूप वमाा कानून
ं े मु कदमे में ललई नसंह यादव की मदद की। उसके फलस्वरूप 14 मई 1971 क
के नवद्याथी रह चुके थे । उन् न
उच्च न्यायालय ने पुस्तक से प्रनतबंध हटा ले ने का फैसला सुनाया।

रामस्वरूप वमाा ने लं बा, सनक्य और सारगनिा त जीवन नजया था। उन् न


ं े किी नहीं माना नक वे क ई नई क्ां नत
कर रहे हैं । नवशे र्कर अजाक संघ क ले कर, उनका कहना था नक वे केवल पहले से थथानपत नवचार ं क
ल कनहत में नए नसरे से सामने ला रहे हैं । उनके अनु सार पूवा थथानपत नवचारधाराओं क , ल कनहत क ध्यान में
रखकर, नए समय और संदिों के अनुरूप प्रस्तु त करना ही क्ां नत है । एक तरह से उनका यह नवश्वास सही िी
था। क् नं क महावीर और बुद्ध के पहले से ही आजीवक ं का एक बिा संप्रदाय था। उसके अनधकां श सदस्य
अपने श्रम-कौशल द्वारा आजीनवका कमाते थे । जीवन से िागने के बजाय उसका सम्मान करते थे । मध्यकाल
में कबीर और संत रनवदास ने िी अपना काम-धंधा करते हुए उपदे श नदए थे । प्रनसद्ध कहावत है नक ‘आदमी
जै सा खाता है , वैसा ही स चता है ’। तुलसी ने मं नदर में बैठकर, दू सर ं के श्रम त्पाद पर ‘रामचररतमानस’ की
रचना की थी। इसनलए महाकाव्य रचने के बावजू द वे रचनाकार का आत्मनवश्वास किी अनजा त नहीं कर पाए।
अपनी रचनाओं में तुलसी, दु ननया के कदानचत सबसे दीन कनव हैं । दू सरी ओर अपने श्रम के िर से जीवनयापन
करने वाले कबीर और रनवदास सानहत्य में बेहद मु खर हैं । जहां िी अनै नतकता और अनाचार नदखे , उनकी
ललकार दू र तक सुनाई पिती है ।
नवचार ं से कबीर, जीवन में बुक्तद्धवाद, तका और मानववाद क महत्त्व दे ने वाला, िारतीय राजनीनत वह फकीर,
19 अगस्त 1998 क हमसे नवदा ले गया।

अजा क संघ
िारतीय समाज के संदिा में जानत महज सामानजक समस्या नहीं है । उसका प्रिाव राजनीनतक और आनथा क
पक्ष ं पर िी प्रिाव पिता है । इसमें ज जानत के नशखर पर है , वह शु रू से आनथा क और राजनीनतक सत्ता का
लाि उठाता आया है । उसका पररणाम िीर्ण आनथा क नवर्मता के रूप में हमारे सामने है । ऊपर के तीन ं वगा
ज प्रत्यक्ष श्रम से दू र हैं , वे आनथा क, राजनीनतक और सामानजक सुख-सुनवधाओं, पद-प्रनतष्ठा का िरपूर लाि
उठाते हैं । उनके पास नवपुल अनधकार हैं । दू सरी ओर शू द्र और अनतशू द्र ज समाज के प्रमु ख उत्पादक वगा हैं ,
उन्ें उनके श्रम-लाि ं से वंनचत कर नदया गया है । उनकी संख्या दे श की कुल आबादी की तीन-चौथाई है। दे श
और समाज के नवकास की नजम्मेदारी उनके कंध ं पर है । ले नकन जब लाि के बंटवारे का समय आता है , दे श
की तीन-चौथाई से ज्ादा कमाई ऊपर के 25 प्रनतशत ल ग ं में बंट जाती है । िारतीय समाज में व्याप्त िीर्ण
आनथा क असमानता की यही वजह है । धमा और जानत का नवधान ल ग ं क िुलावे में रखने और यथाक्तथथनत
बनाए रखने के नलए है । इस तरह धमा और जानत से मुक्ति का मसला, केवल सामानजक स्वतंत्रता तक सीनमत
नहीं है , उसमें आनथा क स्वतंत्रता और राजनीनतक समानानधकार एवं सहिानगता की चाहत िी सक्तम्मनलत हैं ।

रामस्वरूप वमाा ने स्वयं कहते थे नक ‘अजा क संघ’ के पीछे क ई नई वैचाररकी नहीं थी। जै न ग्रंथ ‘िगवती सूत्र’
और बौद्ध नत्रनपटक में आजीवक नचंतक ं के बारे में आया है। हालां नक वहां उनकी उपक्तथथनत केवल उनके मत
के खं डन के नलए है । जैन और बौद्ध द न ं आजीवक नचंतक ं के प्रनत आल चनात्मक हैं । किी-किी लगता है
मान उनपर कटाक्ष कर रहे ह ।ं यह स्वािानवक था। समाज में पहले से जमे -जमाए आजीवक और ल कायत
नवचारधाराओं क चुनौती नदए नबना, नकसी नए धमा-संप्रदाय की थथापना संिव िी न थी। बौद्ध सानहत्य के
अनु सार आरं ि में आजीवक मक्खनल ग शाल के समथा क ं की संख्या गौतम बुद्ध के अनुयानयय ं से अनधक थी।
‘दीघननकाय’ में मक्खनल ग शाल और पूरण कस्सप क पूणा ज्ञानी, मत संथथापक, अने क ल ग ं का शास्ता, धमा -
गुरु, मत-संथथापक आनद माना है ।

बुद्धकालीन अथाव्यवथथा, नजसे आजीवक या ल कायतकालीन अथाव्यवथथा िी कहा जा सकता है —के बारे में
नवचार करें त उन नदन ं िारत का नवदे शी व्यापार नशखर पर था। ज उत्पादक वगा था, उसके अपने संगठन थे ।
उन संगठन ं का इतना प्रिाव था नक राजा क िी उनके कामकाज में हस्तक्षे प करने का अनधकार न था।
ब्राह्मण उन नदन ं िी समाज के नशखर पर थे । वे मानव-बक्तस्तय ं से दू र, यज्ञानद में नलप्त रहते थे । बनल हे तु पशु
तथा अन्य सनमधा जु टाने के नलए ही वे राजाओं और श्रे नष्ठय ं के संपका में आते थे । बदले में वे धानमा क कमा कां ड ं
का ने तृत्व करते तथा उनके बच्च ं क नशक्षा नदया करते थे । उनके अलावा एक वगा कारीगर ,ं नकसान ं और
नशल्पकार ं का था। ज अपने काम में लीन रहता था। उनमे से अनधकां श आजीवक संप्रदाय के मानने वाले थे।
आजीवक संप्रदाय अब िले ही लु प्त प्राय ह , परं तु तनमल िार्ा में नलक्तखत जैनग्रंथ ‘नीलकेसी’ के अनु सार
नजसका ले खनकाल 10वीं शताब्दी है , काशी में एक धनाढ्य सेठ रहता था, ज आजीवक संप्रदाय में नवश्वास
रखता था। आजीवक मू लतः प्रकृनतवादी नवचारधारा में नवश्वास रखते थे। श्रम-कौशल उनके नलए सब कुछ था।
यज्ञानद कमा कां ड तथा दे वताओं के नाम पर ह ने वाले आडं बर उन्ें स्वीकाया न थे । ‘अजा क संघ’ क हम िारत
की उसी आजीवक परं परा का आधुननक संस्करण मान सकते हैं ।

‘अजा क संघ’ मानवीय नववेक क महत्त्व दे कर, तका और बुक्तद्धवाद में यकीन रखता है । धमा या दै वी शक्ति के
नाम पर थ पा गया, कुछ िी उसे स्वीकार नहीं है । धमा और उसके समथान से पनपा जानतवाद, आदमी-आदमी
के बीच िे द करना नसखाता है । अजा क संघ का नवश्वास है नक प्रकृनत सिी के साथ समान व्यवहार करती है।
इसनलए जन्म के आधार पर नकसी क छ टा-बिा नहीं माना जा सकता। वह जानत, वणा, क्षे त्रीयता आनद नकसी
िी प्रकार के कृनत्रम नविाजन क नकारता है । सिी मनुष्य बराबर हैं । इसनलए सबके अनधकार िी बराबर हैं ।
जन्म के आधार पर नकसी क छ टा, बिा अथवा नवशेर्ानधकार संपन्न नहीं बताया जा सकता। जानतयां मनुष्य
द्वारा नननमा त हैं। उन्ें प्राकृनतक संरचना के रूप में मनहमा-मं नडत करना, मनु ष्य और मनु ष्यता द न ं का
अपमान करना है । उसका मानना है नक ब्राह्मणवाद की नवकृनतय ं और अनाचार ं का समाधान केवल
मानवतावाद द्वारा संिव है । ‘अजा क संघ’ जानत, धमा , वणा, संप्रदाय के िे दिाव से रनहत ऐसे समाज की
पररकल्पना करता है , नजसमें सिी बराबर ह ।ं सिी क समान आजादी, सुख, शां नत एवं समृ क्तद्ध के अवसर प्राप्त
ह ।ं उसका एक बहुप्रचनलत नारा है —
‘मानववाद की क्ा पहचान,
ब्राह्मण, िं गी एक समान।

अजा क संघ के नसद्धां त

अजा क संघ के नसद्धां त केवल नसद्धां त नहीं, वे उसके कायाक्म िी हैं । इस तरह वह क ई नया संप्रदाय न ह कर
मानवीयता, बुक्तद्धपरकता और सौहाद्रा के साथ जीवन जीने की एक शै ली है । नफर िी उसके मु ख्य नसद्धां त ं
/कायाक्म ं क ननम्ननलक्तखत वगों में बां टा जा सकता है —

ब्राह्मणवाद का खंडन

ब्राह्मणवाद जन्म के आधार पर दू सर ं पर अपना आनथा क, सामानजक, सां स्कृनतक और राजनीनतक वचास्व बनाए
रखने की राजनीनत है । उसकी आधार मान्यता है नक कुछ ल ग जन्म से ही नवशे र् ह ते हैं । इसके समथा क, ज
इसका लािकारी वगा िी हैं , ईश्वर क सवोपरर मानकर दावा करते हैं नक ईश्वर ने उन्ें नवशेर् अनु कंपा और
अनधकार ं के साथ धरती पर िे जा है । चूंनक नशक्षा का समस्त कार बार उन्ीं के हाथ ं में रहता है , इसनलए उनमें
ने तृत्व की य ग्यता ह ती है, नजसे वे अपना जन्मजात गुण बताते है । हालां नक हर युग में उनके नवर धी हुए हैं ,
नजससे कई बार उन्ें ने पथ्य में जाना पिा है। ऐसे अवसर ं पर नवर नधय ं के साथ समझौता करके जै से-तैसे खुद
क बचाए रखना उनका चाररनत्रक गुण रहा है । नद्व-जन्म के नसद्धां त पर नवश्वास रखना, जनेऊ धारण करना,
िाग्यवाद आनद ब्राह्मणवाद के शतरं जी म हरे हैं , नजनके आधार पर वह शताक्तब्दय ं से ल ग ं क िरमाता आया
है । ‘अजा क संघ’ ब्राह्मणवाद के सिी प्रतीक ं यथा पुजारी, यज्ञानद कमा कां ड, िाग्य, नद्वजीकरण की परं परा आनद
का खं डन करते हैं । वह मानता है नक मनु ष्य क उन सिी रीनत-ररवाज ं और मान्यताओं क हत त्सानहत करना
चानहए, ज समाजानथा क असमानता और श र्ण क बढ़ावा दे ती हैं । उन्ें ननयनतबद्ध बताती हैं । ‘अजा क संघ’ के
अनु यायी नववाह, सगाई आनद अवसर ं पर ब्राह्मण पुर नहत की उपक्तथथनत क अनावश्यक और गैर-वानजब मानते
हैं । उनके नलए नववाह धानमाक बंधन न ह कर एक समझौता मात्र है , नजसे पनत-पत्नी एक-दू सरे के सुख, संत र्,
संतान और समृ क्तद्ध के नलए अपनाते हैं । ‘अजा क संघ’ मूनता-पूजा, दहे ज, जनेऊ संस्कार, नववाह में नफजू लखची
के साथ-साथ मृ त्युि ज, श्राद्ध आनद का िी नवर ध करता है । वह इनक ब्राह्मणवाद का र्ड्यं त्र मानता है । सिी
मनु ष्य समान हैं । ब्राह्मण क पायलागन कहकर चरण-वंदना करना एक तरह से उसकी सामानजक सवोच्चता
क स्वीकार करता है । अजा क संघ इसका नवर ध करता है ।

जानत-व्यवथथा क थथायी रूप दे ने के नलए ब्राह्मणी नवधान में शू द्र ं और अछूत ं क बराबर में बैठने की आजादी
नहीं थी। उसे जमीन पर बैठने क कहा जाता था। ‘अजा क संघ’ इसका नवर ध करता है । धमा की रचना
सामानजक स्तरीकरण क मान्य ठहराती है । इसनलए ऐसे नकसी िी धानमा क रीनत-ररवाज ज समाज में िे दिाव
फैलाता ह , आदमी क छ टे -बिे , ऊंच-नीच में बां टता ह —का ‘अजा क संघ’ नवर ध करता है । धमा मनुष्य की
आध्याक्तत्मक चेतना से जु िा मसला है । हर व्यक्ति जीवन और सृनष्ट की उत्पनत्त के कारण की ख ज या उसमें
नवश्वास रखने क स्वतंत्र है । ‘अजा क संघ’ के अनु सार माता-नपता के धमा क उसकी संतान पर लाद दे ने की
परं परा, उसके स्वनववेक और चयन के अनधकार का नवर ध करती है । इसनलए वह जन्म के आधार पर धमा
ननधाा ररत करने की परं परा का िी नवर ध करता है ।

आमतौर पर मान नलया जाता है नक धमा नै नतकता क संबल दे ता है । वही उसका आधार है । वास्तव में है
नबलकुल उलटा। मनुष्यता के आदशा सवोपरर हैं । क् नं क मनु ष्य ने समाजीकरण के लं बे अनु िव के बाद
उनका चयन नकया है । इसनलए प्रत्येक धमा अपनी थथानीय आवश्यकताओं के अनु सार उन्ें अपनी आचार-
संनहता से ज िता है । दु ननया में धमों और संप्रदाय ं की संख्या दजा न ं में है । परं तु उनकी आचार-संनहता लगिग
एक समान है । वही आदशा समाज के थथानयत्व, नवकास तथा एकीकरण के नलए आवश्यक हैं । मानव-मू ल् ं
क बनाए रखने के नलए नकसी िी धमा की बैशाखी की आवश्यकता नहीं है । नै नतकता क सवोपरर मानते हुए
‘अजा क संघ’ मानवधमा का समथा न करता है , ज और कुछ नहीं बक्ति मानव समाज द्वारा सबकी बेहतरी के
नलए चुने गए आदशों का लेखा है ।

मनु ष्य के नववेकीकरण के नलए नशक्षा अननवाया है । ब्राह्मणवादी नशक्षा का स्वरूप सामानजक िे दिाव क बढ़ाने
वाला रहा है । संघ की मान्यता है नक िारतीय संनवधान सवासमानता और स्वतंत्रता का समथा क है , इसनलए
पर क्ष रूप में वह धमा का नवर ध करता है । इसनलए उसकी मां ग थी नक ब्राह्मणवाद क आश्रय दे ने वाले सिी
नवचार और परं पराएं यथा पुनजा न्म, िाग्यवाद, जानत-प्रथा, जानत और वणाा धाररत िे दिाव, चमत्कारपूणा कहाननय ं
क बच्च ं के पाठ्यक्म से दू र रखना चानहए। उसके थथान पर वैज्ञाननक चेतना से युि ऐसी नशक्षा क बढ़ावा
दे ना चानहए ज मनु ष्य क अंधनवश्वास, पाखं ड, िाग्यवाद, तंत्रमं त्र आनद से मु क्ति नदला सके। चूंनक सिी मनु ष्य
एक समान हैं । स्वतंत्रता और समानता पर सिी का समानानधकार है , इस आधार पर वह छूआछूत का नवर ध
करता है । वह सिी के नलए समान नशक्षा और अवसर ं का समथा क है ।

अजा क संघ का मानना है नक दां पत्य जीवन की नींव पनत-पत्नी की परस्पर सहमनत पर रखी जानी चानहए।
उसके नलए दहे ज, नफजूलखची, नदखावे और तिक-ििक के नलए क ई थथान नहीं है । नववाह के समय पनत-
पत्नी नलक्तखत सहमनत और शतें यनद आवश्यक ह ,ं त तय की जा सकती हैं । नववाह समार ह साधारण, कम से
कम ल ग ं की उपक्तथथनत में संपन्न ह ने चानहए, तानक अमीर-गरीब का अंतर जाता रहे। समाज में क ई िी
उसके आधार पर स्वयं क हीन न समझे। ब्राह्मणवादी संस्कार मनु ष्य के जीवन से लेकर मृ त्यु तक पीछा नहीं
छ िते। और उनके माध्यम से मनु ष्य ब्राह्मण ं के चंगुल में फंसा रहता है । ‘अजा क संघ’ जन्म से ले कर मृ त्यु तक
सिी ऐसे संस्कार ं का नवर ध करता है नजसमें ब्राह्मण या वगा-नवशे र् क सामान्य से अनधक अहनमयत दी जाती
ह । नहं दुओं के अनधकां श त्य हार ं जै से दीपावली, दशहरा, ह ली आनद के साथ क ई न क ई नमथ जुिा हुआ है ।
पवा-त्य हार ं की अपनी प्रासंनगकता है , वे समाज की एकरसता और मे ल-ज ल बनाए रखने के नलए आवश्यक
माने जाते हैं । ‘अजा क संघ’ क पवा-उत्सव आनद से आपनत्त नहीं है। परं तु वह उन सिी क नमथ ं क
अनावश्यक मानता है नजनसे नकसी िी प्रकार की अनधिौनतक सत्ता का नाम जु िा है । वह त्य हार ं के रूप में
ऐसे मानवीय चलन की कामना करता है , नजससे ल ग आपस में नमलें और बराबरी का संदेश जाए। ह ली,
दीवाली, दशहरा जै से त्य हार समाज में गैर-बराबरी क प सते हैं , इसनलए अजा क संघ इनका बनहष्कार करता
है । वह मुक्तिम ं की ईद ओर ईसाइय ं के नक्समस क िी ऐसा ही त्य हार मानता है । इनके बजाए वह नजन 14
मानवतावादी त्य हार ं क महत्त्व दे ता है , उनमें गणतंत्र नदवस, आं बेडकर जयंती, बुद्ध जयंती, स्वतंत्रता नदवस,
नबरसा मुं डा और पेररयार रामास्वामी की पुण्यनतनथयां शानमल हैं ।

‘अजा क संघ’ मानववाद में नवश्वास रखता है । उसके अनुसार मानववाद या मानवतावाद वह नवचारधारा है ज
मनु ष्य मात्र के नलए समानता, स्वतंत्रता, सुख, समृ क्तद्ध और नवकास के समान अवसर उपलि कराती ह ।
समानता से उसका आशय उठने -बैठने , ब लने , खान-पान, पहनावे, अनिव्यक्ति के अनधकार आनद में नकसी िी
प्रकार के िे दिाव के ननर्े ध से है । इसका आदशा है नक मनु ष्य क दू सर ं के साथ वही व्यवहार करना चानहए,
जै सा वह अपने प्रनत चाहता है । प्रत्येक मनु ष्य का अहं -ब ध प्रबल ह ता है । ि जन, वि, आवास आनद की पूनता
के साथ-साथ प्रत्येक मनु ष्य समाज में अपने नलए मान-सम्मान की कामना करता है । ले नकन सम्मान का स्तर
जन्म के आधार पर तय नहीं नकया जा सकता। उसका आधार मनुष्य की य ग्यता, बुक्तद्ध-नववेक, साहस,
सहृदयता, सद्भाव आनद ह ना चानहए। इसके नलए आवश्यक है नक प्रत्येक मनु ष्य जानत-धमा की मयाा दाओं से
ननकलकर एक-दू सरे का सम्मान करें तथा उनके जीवन-लक्ष्य ं में प्राक्तप्त के प्रनत सहायक ह ।ं

नशक्षा मनुष्य का न केवल प्रब धीकरण करती है , अपनतु उसे समाज में जीने के य ग्य िी बनाती है । इसनलए
आवश्यक है नक सिी नागररक ं क नशक्षा के समान अवसर प्राप्त ह -ं उसमें नकसी िी प्रकार का िे दिाव न ह ।
अजा क संघ का प्रचनलत नारा है —‘चपरासी ह या राष्टरपनत की संतान, सबक नशक्षा एक सामान’। नशक्षा हे तु ऐसे
पाठ्यक्म का ननधाा रण करना चानहए ज मनु ष्य के नववेकीकरण में सहायक ह । उसे अंधनवश्वास ं से बाहर
ननकालकर रूनढ़ मुि करे । मनु ष्य की उत्पादन क्षमता क बढ़ाए तथा तका-सामथ्या का नवस्तार करे । पुनजान्म
और िाग्य जै सी धारणाएं मनुष्य की उत्पादकता क प्रिानवत करती हैं । उसके स च क नवकृत करती हैं ।
‘अजा क संघ’ उनका बनहष्कार करता है । एक समय था जब उसका नारा—‘पुनजा न्म और िाग्यवाद, इनसे जन्मा
ब्राह्मणवाद’ गली-गली गूंजा करता था।

‘अजा क संघ’ का अनिप्राय है , मे हनतकश ल ग ं का संगठन। इसमें नकसान, मजू दर, नशल्पकार, तकनीनशयन
आनद वे सिी ल ग सक्तम्मनलत हैं ज अपने श्रम-कौशल के आधार पर जीनवक पाजान करते हैं । वह बौक्तद्धक श्रम
और शारीररक श्रम में िे द नहीं करता। अनपतु वह शारीररक श्रम क बौक्तद्धक श्रम से ऊंचा मानता है । उसका
मानना है नक बौक्तद्धक श्रम उत्पादन में सहायक त ह सकता है , ले नकन वह स्वयं उत्पादन नहीं कर सकता।
दू सरी ओर शारीररक श्रम द्वारा मनु ष्य अपनी जरूरत के लायक कुछ िी उत्पानदत कर सकता है । इसनलए वह
बौक्तद्धक श्रम की अपेक्षा श्रे ष्ठतर है । बौक्तद्धक श्रम करने वाले प्रायः अपनी क्तथथनत का लाि उठाकर समाज में
अनु कूल क्तथथनतय ं का सृजन कर ले ते हैं । इससे वह वगा ज शारीररक श्रम में नलप्तय और समाज का प्रमुख
उत्पादक वगा िी है -के साथ अन्याय बढ़ता जाता है । िारतीय वणा-व्यवथथा का स्वरूप कुछ ऐसा है नक इसमें
शारीररक श्रम करने वाले क न केवल सबसे नीचे माना गया है , अनपतु उसे मानव नचत मान-सम्मान और सुख से
िी वंनचत रखा जाता है । ‘अजा क संघ’ के अनु सार दू सर ं के श्रम पर जीना निक्षावृनत्त जैसा है । ब्राह्मण आरं ि से
ही दू सर ं के श्रम पर जीता आया है । दू सरी ओर सफाई करने वाला सबसे ननकृष्ट काम करता है । उसे ऐसे
काम का उनचत मे हनताना त दू र अपेनक्षत मान-सम्मान िी नहीं नमल पाता। खु द क श्रम से बचाए रखने के
नलए ही ब्राह्मण ं ने जानतप्रथा की रचना की है । इसनलए नकसी िी रूप में ब्राह्मणवाद का बनहष्कार, व्यक्ति और
समाज द न ं के नहत में है । ‘अजा क संघ’ श्रम क उसका वास्तनवक सम्मान नदए जाने का समथा क है । इसके
नलए वह जानत-प्रथा क गैरजरूरी, िे द-िाव क जन्म दे नी वाली अमानवीय प्रथा मानता है । ‘अजा क संघ’ संपूणा
सामानजक समानता, नजसमें लैंनगक समानता िी सक्तम्मनलत है, का समथा न करता है ।

दार्लननक समस्याएं और मानववादी प्रश्नोत्तरी

जब िी क ई व्यक्ति नई राह चलना चाहता है , उसके रास्ते क ले कर तरह-तरह के प्रश्न उठने लगते हैं । किी-
किी केवल नदखावे के नलए। किी-किी नई राह की खानमय ं क पकिने का श्रे य ले ने की क नशश में । ऐसे
प्रश्न या नजज्ञासाएं सदै व बेकार नहीं ह तीं। थथानपत नवचारधाराओं के बीच नए नवचार, धमा या संप्रदाय की महत्ता
दशाा ने के नलए िी कई बार उन प्रश्न ं का उत्तर दे ना आवश्यक ह जाता है । हालां नक कई बार ऐसे सवाल िी
सामने आ जाते हैं नजनका उस संगठन के मु ख्य उद्दे श्य ं से क ई करीबी संबंध नहीं ह ता। ‘अजा क संघ’ के
संथथापक रामस्वरूप वमाा के आगे िी कुछ ऐसे ही प्रश्न थे । जै से ‘अजा क संघ’ की जीवन, सृनष्ट और समाज क
ले कर क्ा दृनष्ट है ? जीवन की उत्पनत्त कैसे हुई? ‘अजा क संघ’ का मू ल उद्दे श्य रचनात्मक कायाक्म ं के जररए
समाज में व्याप्त कुरीनतय ं से संघर्ा करना था। दशा न की जनटल समस्याओं का समाधान उसका उद्दे श्य नहीं
था। समस्या थी नक इन प्रश्न ं क टालने पर संघ के प्रनत ल ग ं की गंिीरता में कमी आ सकती है । ऐसे
आध्याक्तत्मक नकस्म के प्रश्न ं के कुछ ‘मानववादी प्रश्न त्तरी’ में नदए गए हैं ।

यह पूछने पर नक मानव शरीर की क्ा आवश्यकताएं हैं , उत्तर नमलता है —‘शुद्ध वायु, जल, पौनष्ठक ि जन और
स्वास्थ्य। ’ अगला प्रश्न था, ‘क्ा मन िी शरीर की तरह ही पदाथा है ? उत्तर नमला, ‘प्रत्येक पदाथा दृश्यमान है ।
उसका क ई क ई रूप, स्पष्ट दे हाकृनत ह ती है । सृनष्ट का प्रत्येक पदाथा नकसी न नकसी रूप में गनतमान है ।
गनत के नलए पदाथा का ह ना आवश्यक है । इसी तरह मन के नलए िी शरीर की उपक्तथथनत अननवाया है । ’ आशय
था नक दे ह मन का आधार है । नबना पहले के दू सरा असंिव है । आगे वे कहते हैं नक मन की यनद क ई गनत है
त उसे दे ह की ऊजाा ही संिव बनाती है । गनत पदाथा का गुण है । इस आधार पर पदाथा स्वयं चैतन्य है । इसे
हम वेदां त का प्रनतनचंतन कह सकते हैं । वेदां नतय ं के अनु सार सृनष्ट की समस्त गनतशीलता का स्र त परमात्मा
है । जबनक िौनतकवानदय ं के नलए चेतना सृनष्ट का नवनशष्ट गुण है । वही उसके कण-कण में समायी ह ती है ।
सिी पदाथा चैतन्य हैं । दू सरी ओर नवज्ञान कहता है , प्रकृनत की प्रत्येक वस्तु छ टे -छ टे कण ं से नमलकर बनी है ।
वे सदै व गनतमान रहते हैं । नई ख जें बताती हैं नक परमाणु के िीतर िी अत्यंत छ टे -छ टे कण रहते हैं । नन्े -
नन्े ऊजाा नपंड, वे कहीं ठहरते नहीं। सदै व गनतमान रहते हैं । स चेतना सृनष्ट के हर पदाथा में है । यही चेतना
जब जीवन में ढल जाती है त पदाथा जीव बन जाता है । नजनमें जीवन नहीं है , वह केवल पदाथा रहता है ।

नफर ननजीव पदाथा और जै नवक पदाथा में कैसे अंतर नकया जाए? ‘अजा क संघ’ की दाशा ननकी के अनु सार,
‘ननजीव पदाथा वह ह ता है नजसकी गनतशीलता बाहरी कारण ं द्वारा ननयंनत्रत ह ती है । उसपर स्वयं पदाथा का
क ई ननयंत्रण नहीं ह ता। प्रकृनत ने जै सा उसे बनाया है , वैसा बने रहना, उसकी ननयनत है । इसनलए गनतमान
रहकर िी वह अपनी प्रकृनत में क्तथथर ह ता है । इसनलए उसे ननजीव पदाथा कहा जाता है। जीव पदाथा वे हैं ज
कम या ज्ादा अपनी गनतय ं पर ननयंत्रण रखने का गुण रखते हैं । समय के साथ इस गुण में बदलाव ह ता रहता
है । ननजीव पदाथा में अपेक्षाकृत जिता बनी रहती है। ‘अजा क संघ’ के अनु सार जीव वह है ज अपने अंदर
ऊजाा का उत्पादन, उत्पानदत ऊजाा की मदद से आवश्यक अणुओं का उत्पादन और प्रजनन कर सके। ये गुण
मनु ष्य में िी हैं , इसनलए मनुष्य स्वयं एक जीव है। लेनकन प्रकृनत का नहस्सा ह ने के कारण है वह पदाथा ही है।
हम उसे जै नवक पदाथा िी कह सकते हैं , ज नववेक से काम ले ना, अपने अनु िव ं और ज्ञान क स्मृनत के माध्यम
से सहे जना जानता है ।

सृनष्ट की रचना और नवनाश नजतना नवज्ञान का नवर्य है उतना ही दशा नशाि का िी नवर्य है । असे से
दाशा ननक और वैज्ञाननक इसपर चचाा करते आए हैं । आथथावानदय ं के अनु सार सृनष्ट की रचना का एकमात्र
स्र त और कताा ईश्वर है । वही सृनष्ट क बनाता नमटाता रहता है । परमात्मा या ईश्वर क्ा है , इसके बारे में हर धमा
ने अपनी-अपनी धारणाएं गढ़ रखी हैं । वे धमा इसनलए हैं क् नं क उनकी धारणाओं में आसानी से बदलाव नहीं
ह ता। पीढ़ी दर पीढ़ी ल ग उनपर नवश्वास करते रहते हैं। िौनतकवादी या नवज्ञानवादी की दृनष्ट में परमात्मा जै से
नमथ के नलए क ई जगह नहीं है । प्रकृनत स्वयं ही अपना परमात्मा है । वही खु द क बनाती और नमटाती है ।
प्रकृनत सनातन है। उसकी आं तररक और बाहरी हलचल ं से जीवन बनता और नमटता रहता है । यह सृनष्ट के
प्रनत िौनतकवादी दृनष्टक ण है । नजसकी नवशे र्ता है नक वह जि नहीं है । कल क यनद नवज्ञान जीवन की
उत्पनत्त के बारे में नए ननष्कर्ा तक पहुं चता है त प्रकृनतवादी क अपना ननणाय में संश धन करते में दे र न लगेगी।

अजा क संघ तका और नववेक बुक्तद्ध पर ज र दे ता है । नववेकबुक्तद्ध और कुछ नहीं, तकासंगत स चने की कला और
सामथ्र्य है । नजस तरह चेतना पदाथा का गुण है, वैसे ही नववेक बुक्तद्ध मनु ष्य का गुण है । त क्ा जानवर ं में िी
बुक्तद्ध ह ती है ? इसका उत्तर नकारात्मक है । यह थथानपत तथ्य है नक धरती पर मनु ष्य अकेला नववेकशील प्राणी
है । ले नकन िू ख लगने पर ि जन त पशु िी मां गते हैं । प्यास लगने पर वे पानी की ओर चल पिते हैं । नफर
मनु ष्य और शे र् प्रानणय ं की बुक्तद्ध में क्ा अंतर है । ‘अजाक संघ’ ने बुक्तद्ध क सहज बुक्तद्ध और नववेक बुक्तद्ध में
बां टा है । सहज बुक्तद्ध वह है त शरीर की मू ल-िू त आवश्यकताओं द्वारा संचानलत ह ती है । िू ख लगने पर नन्ा
नशशु र ने लगता है। वह िूख के बारे में नहीं जानता। र ने का अथा िी नहीं जानता। ले नकन अपने अनु िव से
वह इतना समझ चुका ह ता है नक उसका र ना सुनकर ‘मां ’ उसे ि जन दे ने चली आएगी। यह उसकी सहज
बुक्तद्ध है । मनु ष्य क छ िकर सिी रें गने वाले प्राणी ज उिने में असमथा ह ते हैं, तैरने का हुनर उन्ें सहज-बुक्तद्ध
से प्राप्त ह ता है । धीरे -धीरे नबना बताए िी मनु ष्य यह समझ ले ता है नक नदी में हाथ-पां व मारने से शरीर
गनतमान ह ने लगता है । इसी क तैरना कहा जाता है ।

सहज बुक्तद्ध के नलए बाहरी मदद आवश्यक नहीं है । प्राणी अकेला ही उसमें ननपुण ह जाता है । जबनक अच्छे -
बुरे पर नवचार करते हुए समु नचत ननणाय ले ना नववेक बुक्तद्ध है । मनु ष्य जानवर से इसनलए श्रे ष्ठ है क् नं क उसके
पास नववेक ह ता है । अपने अच्छे -बुरे का ननणाय कर उसके अनु सार कदम आगे बढ़ा सकता है । जानवर ं में
इसका अिाव ह ता है । ऐसा मनु ष्य नजसके पास कुदरती नववेक बुक्तद्ध है , अगर उसका प्रय ग न करे त वह
जानवर ं से बदतर ही माना जाएगा। बावजू द इसके नकसी िी क्तथथनत में मनु ष्य जानवर नहीं बन सकता। क् नं क
मनु ष्य ह ने के कारण नववेक बुक्तद्ध उसक बाकी जानवर ं से, नजनके पास केवल सहज बुक्तद्ध है , अलग करती है।
नफर ऐसा क्ा है ? नजससे मनु ष्य की रक्षा और उन्ननत ह ? क ई िी व्यक्ति अपनी रक्षा के साथ अपने वां नछत
जीवन लक्ष्य ं िी प्राप्त कर सके? इसका उत्तर है , मनुष्य नववेक वुक्तद्ध के प्रय ग द्वारा अपनी ओर दू सर ं की रक्षा
एवं उन्ननत कर सकता है । मनुष्य का यही गुण बाकी प्रानणय ं से उसे अलग कर दे ता है ।

नफर मन और बुक्तद्ध में क्ा अंतर है ? कहीं ऐसा त नहीं नजसे नववेक-बुक्तद्ध कहा गया है , वह मन की गनतशीलता
का ही पररचायक ह । अजाक संघ की दाशा ननकी के अनुसार मन की प्रत्येक क्तथथनत नववेक क जन्म दे ती है।
अगर नववेक कुंनठत ह , आदमी जानबूझकर उससे काम ले ना बंद कर दे , या बहकावे में आकर नववेक के
नवपरीत जाने लगे त दु बुाक्तद्ध पैदा ह ती है , ज व्यक्ति क कु-मागा की ओर ले जाती है। नववेकशीलता की क्षमता
सिी मनु ष्य ं में बराबर ह ती है । व्यक्ति अपने नववेक सामथ्र्य का उपय ग कर दाशा ननक, वैज्ञाननक, िारवाहक,
डाॅक्टर, वकील आनद कुछ िी बन सकता है । इसनलए वह बाकी प्रानणय ं से श्रे ष्ठ है । जानवर नजनके पास
केवल सहज-बुक्तद्ध है , वे अपना स्वािानवक जीवन त जी सकते हैं , नववेक के अिाव में प्रगनत नहीं कर सकते।

आवश्यक नहीं नक प्रत्येक दशा न के पास हर उत्तर का जवाब ह । ऐसी कामना िी नहीं करनी चानहए। यह िी
संिव नहीं नक नकसी दाशा ननक संप्रदाय की प्रत्येक मान्यता हमें आश्वस्त करे । इस मायने में बुद्ध सचमु च
ं े शताक्तब्दय ं से उलझे हुए सवाल ं क टाल नदया था। ईश्वर है या नहीं? आत्मा का अक्तस्तत्व
समझदार थे। उन् न
क्ा है ? सृनष्ट का जन्म कैसे हुआ? प्रलय कैसे और क्ा ह ती है ? बुद्ध ने इन प्रश्न ं का क ई उत्तर नहीं नदया। जब
जीवन की समस्याएं ही इतनी अनधक हैं त ज दृश्यमान नहीं है , ज मनु ष्य के बस से बाहर है , उसके बारे में
नचंता क् ं की जाए? ले नकन नजज्ञासा त नजज्ञासा है । सृनष्ट कैसे जन्मी? प्रलय कैसे ह ती है ? ये सब सवाल किी न
किी त मनुष्य के नदमाग में आते ही हैं । रामस्वरूप वमाा का दृनष्टक ण नवज्ञानवादी था। वे नवज्ञान की छां ह में
ही इन प्रश्न ं का समाधान ख जते हैं । उनके अनु सार पदाथा अपनी अंतश्चे तना के कारण, गनत के कारण जब
अंतररक्ष में फैलने लगता है त सृनष्ट ह ती है । और अपने ही आं तररक बल के कारण, गुरुत्वाकर्ा ण के कारण
जब नसकुिने लगता है त प्रलय आ जाती है ।

आवश्यक नहीं नक जीवन और सृनष्ट की उत्पनत्त से जु िा ये प्रश्न और उनके व्यावहाररक उत्तर आपक आश्वस्त ही
करं ॅे। रामस्वरूप वमाा का उद्दे श्य क ई धानमा क या दाशा ननक मत या संप्रदाय चलाना नहीं था। नजन ल ग ं ने
इन सवाल ं की ख ज में सहòॅाक्तब्दयां लगा दीं, उनके मत का क्ा हुआ। खु द क सबसे पुराना, सनातन कहने
वाला नहं दू धमा ही सबसे ज्ादा कुरीनतय ं का वाहक बना हुआ है । इसनलए आवश्यक नहीं नक हर नए मत
संप्रदाय के पास जीवन और सृनष्ट से जु िे सिी प्रश्न ं का उत्तर ह । हमने पहले िी कहा है नक ‘अजा क संघ’ क
धानमा क संप्रदाय न ह कर महज जीवन शै ली है । मनुष्य पर मनु ष्य के िर से क , आपसी सहय ग क बढ़ावा दे ने
वाली जीवन-शैली। यही मानवधमा है । ज मनु ष्य और उसके कताव्य ं के बीच आत्मा, परमात्मा, पाप, पुण्य,
धमा -अधमा क ले आते हैं, वे दरअसल आदमी क िरमाए रखकर अपना उल्लू सीधा करने का काम करते हैं।
असली मजहब इं साननयत है । इसका उद्दे श्य है नवकास के रास्ते में सिी क बराबरी पर लाना। ‘अजा क संघ’ में
जातीयता का बंधन नहीं है । अजा क यानी कमे री (श्रमशील) कौम, ज पसीना बहाकर आजीनवका कमाता है —
वह अजा क है । ज दू सरे के श्रम पर जीता है , वह ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का प र्क है । सनातन नवचारधारा के
उलट अजा क केवल द संस्कार ं क मानते हैं —नववाह और मृ त्यु संस्कार। शादी के नलए लिका-लिकी संघ
की पहले से तय प्रनतज्ञा क द हराते हैं और एक-दू सरे क वरमाला पहनाकर शादी के बंधन में बंध जाते हैं ।
मृ त्यु के बाद अंनतम संस्कार मु खानि या दफनाना त ह ता है । इसके 5 या 7 नदन बाद नदवंगत की याद में एक
श कसिा ह ती है, ज सामाजीकरण की आवश्यकता है । बाकी कमा कां ड ं के नलए उनके यहां क ई थथान नहीं
है ।

बहुजन चेतना का ननमााण और अजा क संघ

मनु ष्य क धमा क् ं चानहए? नकसनलए चानहए? धमा है त क्ा ईश्वर िी आवश्यक है ? क्ा बगैर ईश्वर के धमा चल
नहीं सकता? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं , ज आरं ि से ही मानवीय सर कार ं का नहस्सा रहे हैं । इसी के साथ एक और
िी सवाल है ? क्ा दनलत और बहुजन के नलए िी धमा उतना ही अपररहाया है , नजतना वह ब्राह्मण के नलए है?
इस प्रश्न का तुरंता जवाब यह ह सकता है नक ईश्वर जात-पात का िे द नहीं करता। उसकी ननगाह में सिी
बराबर हैं । हालां नक व्यवहार में यह बात सच नहीं बैठती। धानमा क व्यवथथाएं ब्राह्मण और अछूत के नलए अलग-
अलग हैं । ब्राह्मण धमा का प्रमु ख कताा है । जबनक अछूत क ईश्वर का सानन्नध्य त दू र, मं नदर की सीनढ़यां चढ़ने
तक का अनधकार प्राप्त नहीं है । इसनलए धमा और ईश्वर का चररत्र वैसा नहीं है, जै सा उसके बारे में दावा नकया
जाता है । द न ं सीधे-सीधे अल कतां नत्रक सत्ताएं हैं। वहां ब्राह्मण ज धमा सत्ता के केंद्र में है , सबसे शक्तिशाली
है । उसके अनधकार िी उतने ही अनधक हैं । सत्ता से दू री के साथ अनधकार और शक्तियां कमज र पिती जाती
हैं । अछूत और आनदवासी वहां हानशये के ल ग हैं ज शक्ति और अनधकार द न ं से नवपन्न हैं ।

अजा क संघ समानता, स्वतंत्रता और ल कतंत्र का समथा क है । वह जन्माधाररत िे दिाव क नहीं मानता। बहुजन
कमे रे वगों का समू ह है , ज समाज के प्रमु ख उत्पादक और जीवनी शक्ति हैं । अजाक संघ बौक्तद्धक श्रम और
शारीररक श्रम क बराबर मानता है । वह श्रम के आधार पर नकसी िी प्रकार के िे दिाव के नवरुद्ध है। वह
नशक्षा, र जगार तथा संसाधन ं में सिी की समान िागीदारी का समथा क है । वह मानवीय नववेक का समथा क है ।
ऐसे धमा नजसकी नींव क रे नवश्वास पर नटकी ह ती है का वह बनहष्कार करता है । इसके थथान पर वह मानवधमा
की बात करता है , नजसके अनु सार जन्म के आधार पर न क ई छ टा ह ता है , न बिा। कुल नमलाकर ‘अजा क
संघ’ ठीक वैसे ही समाज की कामना करता है , ज बहुजन समाज का सपना है । इसनलए बहुजन समाज उससे
आवश्यकतानु सार प्रेरणा ले सकता है ।

ओमप्रकाश कश्यप

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