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दु ष्यंत कुमार

सूना घर
सूने घर में किस तरह सहे जूूँ मन िो।

पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आिर


अब हूँ सी िी लहरें िाूँ पी दीवारों पर
खिड़कियाूँ िुलीं अब कलये किसी आनन िो।

पर िोई आया गया न िोई बोला


िु द मैं ने ही घर िा दरवाजा िोला
आदतवश आवाजें दीं सूनेपन िो।

किर घर िी िामोशी भर आई मन में


चूकड़याूँ िनिती नहीं िहीं आूँ गन में
उच्छ्वास छोड़िर तािा शून्य गगन िो।

पूरा घर अूँकियारा, गुमसुम साए हैं


िमरे िे िोने पास खिसि आए हैं
सूने घर में किस तरह सहे जूूँ मन िो।

एक आशीर्ाा द
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

भावना िी गोद से उतर िर


जल्द पृथ्वी पर चलना सीिें ।

चाूँ द तारों सी अप्राप्य ऊचाूँ इयों िे कलये


रूठना मचलना सीिें।

हूँ सें
मु स्कुराएूँ
गाएूँ ।

हर दीये िी रोशनी दे ििर ललचायें


उूँ गली जलाएूँ ।
अपने पाूँ व पर िड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
सूर्ाास्त: एक इम्प्रेशन
सूरज जब
किरणों िे बीज-रत्न
िरती िे प्रां गण में
बोिर
हारा-थिा
स्वेद-युक्त
रक्त-वदन
कसन्धु िे किनारे
कनज थिन कमटाने िो
नए गीत पाने िो
आया,
तब कनमम म उस कसन्धु ने डु बो कदया,
ऊपर से लहरों िी अूँकियाली चादर ली ढाूँ प
और शान्त हो रहा।

लज्जा से अरुण हुई


तरुण कदशाओं ने
आवरण हटािर कनहारा दृश्य कनमम म यह!
क्रोि से कहमालय िे वंश-वकतमयों ने
मु ि-लाल िुछ उठाया
किर मौन कसर झुिाया
ज्ों – 'क्या मतलब?'
एि बार सहमी
ले िम्पन, रोमां च वायु
किर गकत से बही
जै से िुछ नहीं हुआ!

मैं तटस्थ था, लेकिन


ईश्वर िी शपथ!
सूरज िे साथ
हृदय डूब गया मे रा।
अनकगन क्षणों ति
स्तब्ध िड़ा रहा वहीं
क्षु ब्ध हृदय कलए।
औ' मैं स्वयं डूबने िो था
स्वयं डूब जाता मैं
यकद मु झिो कवश्वास यह न होता –-
'मैं िल किर दे िूूँगा यही सूयम
ज्ोकत-किरणों से भरा-पूरा
िरती िे उवमर-अनु वमर प्रां गण िो
जोतता-बोता हुआ,
हूँ सता, खु श होता हुआ।'

ईश्वर िी शपथ!
इस अूँिेरे में
उसी सूरज िे दशम न िे कलए
जी रहा हूँ मैं
िल से अब ति!

एक गुड़िर्ा की कई कठपुतडिर् ं में जान है

एि गुकड़या िी िई िठपुतकलयों में जान है

आज शायर यह तमाशा दे ििर है रान है

खास सड़िें बंद हैं तब से मरम्मत िे कलए

यह हमारे वक़्त िी सबसे सही पहचान है

एि बूढा आदमी है मुल्क़ में या यों िहो—

इस अूँिेरी िोठरी में एि रौशनदान है

मस्लहत—आमे ज़ होते हैं कसयासत िे ़दम

तू न समझेगा कसयासत, तू अभी नादान है

इस ़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सद़े आपिे

जब से आज़ादी कमली है मु ल्क़ में रमज़ान है

िल नु माइश में कमला वो चीथड़े पहने हुए

मैं ने पूछा नाम तो बोला कि कहन्दु स्तान है


मु झमें रहते हैं िरोड़ों लोग चुप िैसे रहूँ

हर ग़ज़ल अब सल्तनत िे नाम एि बयान है

र्े शफ़क़ शाम ह रही है अब

ये शफ़़ शाम हो रही है अब

और हर गाम हो रही है अब

कजस तबाही से लोग बचते थे

वो सरे आम हो रही है अब

अज़मते—मु ल्क इस कसयासत िे

हाथ नीलाम हो रही है अब

शब ग़नीमत थी, लोग िहते हैं

सुब्ह बदनाम हो रही है अब

जो किरन थी किसी दरीचे िी

मऱज़े बाम हो रही है अब

कतश्ना—लब तेरी िुसिुसाहट भी

एि पैग़ाम हो रही है अब

पक गई हैं आदतें बात ं से सर ह ग


ं ी नहीं

पि गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं


िोई हं गामा िरो ऐसे गुज़र होगी नहीं

इन कठठु रती उूँ गकलयों िो इस लपट पर सेंि लो

िूप अब घर िी किसी दीवार पर होगी नहीं

बूूँद टपिी थी मगर वो बूूँदो—बाररश और है

ऐसी बाररश िी िभी उनिो खबर होगी नहीं

आज मे रा साथ दो वैसे मु झे मालू म है

पत्थरों में चीख हकगमज़ िारगर होगी नहीं

आपिे टु िड़ों िे टु िड़े िर कदये जायेंगे पर

आपिी ताज़ीम में िोई िसर होगी नहीं

कसफ़म शायर दे िता है ़ह़हों िी अखस्लयत

हर किसी िे पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं

नज़र-नर्ाज़ नज़ारा बदि न जाए कहीं


नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए िहीं
जरा-सी बात है मुूँ ह से कनिल न जाए िहीं

वो दे िते है तो लगता है नींव कहलती है


मे रे बयान िो बंकदश कनगल न जाए िहीं

यों मु झिो खु द पे बहुत ऐतबार है ले किन


ये बिम आं च िे आगे कपघल न जाए िहीं

चले हवा तो किवाड़ों िो बंद िर ले ना


ये गरम राख शरारों में ढल न जाए िहीं

तमाम रात तेरे मै िदे में मय पी है


तमाम उम्र नशे में कनिल न जाए िहीं
िभी मचान पे चढने िी आरज़ू उभरी
िभी ये डर कि ये सीढी किसल न जाए िहीं

ये लोग होमो-हवन में यिीन रिते है


चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए िहीं

धमा
तेज़ी से एि ददम
मन में जागा
मैं ने पी कलया,
छोटी सी एि खु शी
अिरों में आई
मैं ने उसिो िैला कदया,
मु झिो सन्तोष हुआ
और लगा –-
हर छोटे िो
बड़ा िरना िमम है ।

आज सडक ं पर
आज सड़िों पर कलिे हैं सैिड़ों नारे न दे ि,
पर अन्धेरा दे ि तू आिाश िे तारे न दे ि ।

एि दररया है यहाूँ पर दू र ति िैला हुआ,


आज अपने बाज़ु ओं िो दे ि पतवारें न दे ि ।

अब यिीनन ठोस है िरती ह़ी़त िी तरह,


यह ह़ी़त दे ि ले किन खौफ़ िे मारे न दे ि ।

वे सहारे भी नहीं अब जं ग लड़नी है तुझे,


िट चुिे जो हाथ उन हाथों में तलवारें न दे ि ।

ये िुन्धलिा है नज़र िा तू महज़ मायूस है,


रोजनों िो दे ि दीवारों में दीवारें न दे ि ।

राख कितनी राख है , चारों तरि कबखरी हुई,


राख में कचनगाररयाूँ ही दे ि अंगारे न दे ि ।
बहुत सँभाि के रक्खी त पाएमाि हुई

बहुत सूँभाल िे रक्खी तो पाएमाल हुई

सड़ि पे िेंि दी तो कज़ं दगी कनहाल हुई

बड़ा लगाव है इस मोड़ िो कनगाहों से

कि सबसे पहले यहीं रौशनी हलाल हुई

िोई कनजात िी सूरत नहीं रही, न सही

मगर कनजात िी िोकशश तो एि कमसाल हुई

मे रे ज़े ह्न पे ज़माने िा वो दबाब पड़ा

जो एि स्लेट थी वो कज़ं दगी सवाल हुई

समु द्र और उठा, और उठा, और उठा

किसी िे वास्ते ये चाूँ दनी वबाल हुई

उन्हें पता भी नहीं है कि उनिे पाूँ वों से

वो खूूँ बहा है कि ये गदम भी गुलाल हुई

मे री ज़ु बान से कनिली तो कसफ़म नज़्म बनी

तुम्हारे हाथ में आई तो एि मशाल हुई

मेरी कुण्ठा
मे री िुंठा
रे शम िे िीड़ों सी
ताने -बाने बुनती
तड़प-तड़पिर
बाहर आने िो कसर िुनती,
स्वर से
शब्ों से
भावों से
औ' वीणा से िहती-सुनती,
गभम वती है
मे री िुंठा – िुूँवारी िुंती!

बाहर आने दू ूँ
तो लोि-लाज-मयाम दा
भीतर रहने दू ूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मे रा यह व्यखक्तत्व
कसमटने पर आमादा ।

तुिना
गडररए कितने सुिी हैं ।

न वे ऊूँचे दावे िरते हैं


न उनिो ले िर
एि दू सरे िो िोसते या लड़ते-मरते हैं ।
जबकि
जनता िी सेवा िरने िे भू िे
सारे दल भे कडयों से टू टते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब् सामने रिते हैं
जै से िुछ नहीं हुआ है
और सब िुछ हो जाएगा ।

जबकि
सारे दल
पानी िी तरह िन बहाते हैं ,
गडररए में ड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं
... भेडों िो बाड़े में िरने िे कलए
न सभाएूँ आयोकजत िरते हैं
न रै कलयाूँ ,
न िंठ िरीदते हैं, न हथे कलयाूँ ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों िा सूयम उगाते हैं ,
स्वेच्छा से
कजिर चाहते हैं , उिर
भे ड़ों िो हाूँ िे कलए जाते हैं ।

गडररए कितने सुिी हैं ।

र्ह क् ं
हर उभरी नस मलने िा अभ्यास
रुि रुििर चलने िा अभ्यास
छाया में थमने िी आदत
यह क्यों ?

जब दे िो कदल में एि जलन


उल्टे उल्टे से चाल-चलन
कसर से पाूँ वों ति क्षत-कवक्षत
यह क्यों ?

जीवन िे दशम न पर कदन-रात


पखित कवद्वानों जै सी बात
ले किन मूिों जै सी हरित
यह क्यों ?

डकसी क क्ा पता था इस अदा पर मर डमटें गे हम

किसी िो क्या पता था इस अदा पर मर कमटें गे हम

किसी िा हाथ उठ्ठा और अलिों ति चला आया

वो बरगश्ता थे िुछ हमसे उन्हें क्योंिर य़ीं आता

चलो अच्छा हुआ एहसास पलिों ति चला आया

जो हमिो ढू ूँ ढने कनिला तो किर वापस नहीं लौटा

तसव्वु र ऐसे ग़ैर—आबाद हलिों ति चला आया

लगन ऐसी िरी थी तीरगी आड़े नहीं आई

ये सपना सुब्ह िे हल्के िुूँिलिों ति चला आया


ह गई है पीर पर्ात
हो गई है पीर पवमत-सी कपघलनी चाकहए
इस कहमालय से िोई गंगा कनिलनी चाकहए

आज यह दीवार, परदों िी तरह कहलने लगी


शतम थी ले किन कि ये बुकनयाद कहलनी चाकहए

हर सड़ि पर, हर गली में, हर नगर, हर गाूँ व में


हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाकहए

कसिम हं गामा िड़ा िरना मेरा मिसद नहीं


मे री िोकशश है कि ये सूरत बदलनी चाकहए

मे रे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही


हो िहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाकहए

र्े ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

ये ज़ु बाूँ हमसे सी नहीं जाती

कज़न्दगी है कि जी नहीं जाती

इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं

कजनमें बस िर नमी नहीं जाती

दे खिए उस तरफ़ उजाला है

कजस तरफ़ रौशनी नहीं जाती

शाम िुछ पेड़ कगर गए वरना

बाम ति चाूँ दनी नहीं जाती


एि आदत-सी बन गई है तू

और आदत िभी नहीं जाती

मयिशो मय ज़रूर है ले किन

इतनी िड़वी कि पी नहीं जाती

मु झिो ईसा बना कदया तुमने

अब कशिायत भी िी नहीं जाती

घंडटर् ं की आर्ाज़ कान ं तक पहुं चती है


घंकटयों िी आवाज़ िानों ति पहुूँ चती है
एि नदी जै से दहानों ति पहुूँचती है

अब इसे क्या नाम दें , ये बेल दे िो तो


िल उगी थी आज शानों ति पहुूँ चती है

खिड़कियां , नाचीज़ गकलयों से मु खाकतब है


अब लपट शायद मिानों ति पहुूँ चती है

आकशयाने िो सजाओ तो समझ ले ना,


बरि िैसे आकशयानों ति पहुूँ चती है

तुम हमे शा बदहवासी में गुज़रते हो,


बात अपनों से कबगानों ति पहुूँ चती है

कसफ़म आं िें ही बची हैं चूँद चेहरों में


बेज़ुबां सूरत, जु बानों ति पहुूँ चती है

अब मु अज़न िी सदाएं िौन सुनता है


चीख-कचल्लाहट अज़ानों ति पहुूँ चती है

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आर्ेंगे


मे रे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल िी छाया में सुस्ताने आयेंगे
हौले -हौले पाूँ व कहलाओ जल सोया है छे डो मत
हम सब अपने -अपने दीपि यहीं कसराने आयेंगे

थोडी आूँ च बची रहने दो थोडा िुूँआ कनिलने दो


तुम दे िोगी इसी बहाने िई मुसाकिर आयेंगे

उनिो क्या मालू म कनरूकपत इस कसिता पर क्या बीती


वे आये तो यहाूँ शंि सीकपयाूँ उठाने आयेंगे

किर अतीत िे चक्रवात में दृकि न उलझा ले ना तुम


अनकगन झोंिे उन घटनाओं िो दोहराने आयेंगे

रह-रह आूँ िों में चुभती है पथ िी कनजमन दोपहरी


आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे

मे ले में भटिे होते तो िोई घर पहुूँ चा जाता


हम घर में भटिे हैं िैसे ठौर-कठिाने आयेंगे

हम क्यों बोलें इस आूँ िी में िई घरौंदे टू ट गये


इन असिल कनकमम कतयों िे शव िल पहचाने जयेंगे

हम इकतहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते हैं


अब जो िारायें पिडें गे इसी मुहाने आयेंगे

बाएँ से उ़िके दाईं डदशा क गरु़ि गर्ा

बाएूँ से उड़िे दाईं कदशा िो गरुड़ गया

िैसा शगुन हुआ है कि बरगद उिड़ गया

इन िूँडहरों में होंगी तेरी कससकियाूँ ज़रूर

इन िूँडहरों िी ओर सफ़र आप मु ड़ गया

बच्चे छलाूँ ग मार िे आगे कनिल गये

रे ले में िूँस िे बाप कबचारा कबछु ड़ गया

दु ि िो बहुत सहे ज िे रिना पड़ा हमें


सुि तो किसी िपूर िी कटकिया-सा उड़ गया

ले िर उमं ग संग चले थे हूँ सी—िु शी

पहुूँ चे नदी िे घाट तो मेला उजड़ गया

कजन आूँ सुओं िा सीिा तअल्लु ़ था पेट से

उन आूँ सुओं िे साथ तेरा नाम जु ड़ गया.

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अफ़वाह है या सच है ये िोई नही बोला

मैं ने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला

इन राहों िे पत्थर भी मानू स थे पाूँ वों से

पर मैं ने पुिारा तो िोई भी नहीं बोला

लगता है खु दाई में िुछ तेरा दखल भी है

इस बार कफ़ज़ाओं ने वो रं ग नहीं घोला

आकखर तो अूँिेरे िी जागीर नहीं हूँ मैं

इस राि में कपन्हा है अब भी वही शोला

सोचा कि तू सोचेगी ,तूने किसी शायर िी

दस्ति तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं िोला.

हािाते-डजस्म, सूरते—जाँ और भी ख़राब

हालाते कजस्म, सूरती—जाूँ और भी खराब

चारों तरफ़ खराब यहाूँ और भी खराब


नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे

होंठों पे आ रही है ज़ु बाूँ और भी खराब

पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी

कचमनी में घुट रहा है िुआूँ और भी खराब

मू रत सूँवारने से कबगड़ती चली गई

पहले से हो गया है जहाूँ और भी खराब

रौशन हुए चराग तो आूँ िें नहीं रहीं

अंिों िो रौशनी िा गुमाूँ और भी खराब

आगे कनिल गए हैं कघसटते हुए ़दम

राहों में रह गए हैं कनशाूँ और भी खराब

सोचा था उनिे दे श में मूँ हगी है कज़ं दगी

पर कज़ं दगी िा भाव वहाूँ और भी खराब

तीन द स्त
सब कबयाबान, सुनसान अूँिेरी राहों में
िं दिों िाइयों में
रे कगस्तानों में, चीि िराहों में
उजड़ी गकलयों में
थिी हुई सड़िों में , टू टी बाहों में
हर कगर जाने िी जगह
कबिर जाने िी आशं िाओं में
लोहे िी सख्त कशलाओं से
दृढ औ’ गकतमय
हम तीन दोस्त
रोशनी जगाते हुए अूँिेरी राहों पर
संगीत कबछाते हुए उदास िराहों पर
प्रेरणा-स्नेह उन कनबमल टू टी बाहों पर
कवजयी होने िो सारी आशं िाओं पर
पगडं डी गढते
आगे बढते जाते हैं
हम तीन दोस्त पाूँ वों में गकत-सत्वर बाूँ िे
आूँ िों में मं कजल िा कवश्वास अमर बाूँ िे।
XXXX
हम तीन दोस्त
आत्मा िे जै से तीन रूप,
अकवभाज्--कभन्न।
ठं डी, सम, अथवा गमम िूप--
ये त्रय प्रतीि
जीवन जीवन िा स्तर भे दिर
एिरूपता िो सटीि िर दे ते हैं ।
हम झुिते हैं
रुिते हैं चुिते हैं ले किन
हर हालत में उतर पर उतर दे ते हैं ।
XXXX
हम बंद पड़े तालों से डरते नहीं िभी
असिलताओं पर गुस्सा िरते नहीं िभी
ले किन कवपदाओं में कघर जाने वालों िो
आिे पथ से वापस किर जाने वालों िो
हम अपना यौवन अपनी बाूँ हें दे ते हैं
हम अपनी साूँ सें और कनगाहें दे ते हैं
दे िें--जो तम िे अंिड़ में कगर जाते हैं
वे सबसे पहले कदन िे दशम न पाते हैं ।
दे िें--कजनिी किस्मत पर किस्मत रोती है
मं कज़ल भी आकखरिार उन्हीं िी होती है ।
XXXX
कजस जगह भू लिर गीत न आया िरते हैं
उस जगह बैठ हम तीनों गाया िरते हैं
दे ने िे कलए सहारा कगरने वालों िो
सूने पथ पर आवारा किरने वालों िो
हम अपने शब्ों में समझाया िरते हैं
स्वर-संिेतों से उन्हें बताया िरते हैं --
‘तुम आज अगर रोते हो तो िल गा लोगे
तुम बोझ उठाते हो, तूफ़ान उठा लोगे
पहचानो िरती िरवट बदला िरती है
दे िो कि तुम्हारे पाूँ व तले भी िरती है ।’
XXXX
हम तीन दोस्त इस िरती िे संरक्षण में
हम तीन दोस्त जीकवत कमट्टी िे िण िण में
हर उस पथ पर मौजू द जहाूँ पग चलते हैं
तम भाग रहा दे पीठ दीप-नव जलते हैं
आूँ सू िेवल हमददी में ही ढलते हैं
सपने अनकगन कनमाम ण कलए ही पलते हैं ।

हम हर उस जगह जहाूँ पर मानव रोता है


अत्याचारों िा नं गा नतमन होता है
आस्तीनों िो ऊपर िर कनज मु ट्ठी ताने
बेिड़ि चले जाते हैं लड़ने मर जाने
हम जो दरार पड़ चुिी साूँ स से सीते हैं
हम मानवता िे कलए कजं दगी जीते हैं ।
XXXX
ये बाग़ बुज़ुगों ने आूँ सू औ’ श्रम दे िर
पाले से रक्षा िर पाला है ग़म दे िर
हर साल िोई इसिी भी फ़सलें ले िरीद
िोई लिड़ी, िोई पतों िा हो मु रीद
किस तरह गवारा हो सिता है यह हमिो
ये फ़सल नहीं कबि सिती है कनश्चय समझो।
...हम दे ि रहे हैं कचकड़यों िी लोलु प पाूँ िें
इस ओर लगीं बच्चों िी वे अनकगन आूँ िें
कजनिो रस अब ति कमला नहीं है एि बार
कजनिा बस अब ति चला नहीं है एि बार
हम उनिो िभी कनराश नहीं होने दें गे
जो होता आया अब न िभी होने दें गे।
XXXX
ओ नई चेतना िी प्रकतमाओं, िीर िरो
कदन दू र नहीं है वह कि लक्ष्य ति पहुूँ चेंगे
स्वर भू से ले िर आसमान ति गूूँजेगा
सूिी गकलयों में रस िे सोते िूटें गे।

हम अपने लाल रक्त िो कपघला रहे और


यह लाली िीरे िीरे बढती जाएगी
मानव िी मू कतम अभी कनकमम त जो िाकलि से
इस लाली िी परतों में मढती जाएगी
यह मौन
शीघ्र ही टू टे गा
जो उबल उबल सा पड़ता है मन िे भीतर
वह िूटे गा,
आता ही कनकश िे बाद
सुबह िा गायि है ,
तुम अपनी सब सुंदर अनु भूकत सूँजो रक्खो
वह बीज उगेगा ही
जो उगने लाय़ है ।
XXXX
हम तीन बीज
उगने िे कलए पड़े हैं हर चौराहे पर
जाने िब वषाम हो िब अंिुर िूट पड़े ,
हम तीन दोस्त घुटते हैं िेवल इसीकलए
इस ऊब घुटन से जाने िब सुर िूट पड़े ।

अफ़र्ाह है र्ा सच है र्े क ई नही ब िा


अफ़वाह है या सच है ये िोई नही बोला
मैं ने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला

इन राहों िे पत्थर भी मानू स थे पाूँ वों से


पर मैं ने पुिारा तो िोई भी नहीं बोला

लगता है खु दाई में िुछ तेरा दखल भी है


इस बार कफ़ज़ाओं ने वो रं ग नहीं घोला

आकखर तो अूँिेरे िी जागीर नहीं हूँ मैं


इस राि में कपन्हा है अब भी वही शोला

सोचा कि तू सोचेगी, तूने किसी शायर िी


दस्ति तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं िोला

डज़ंदगानी का क ई मक़सद नहीं है

कज़ं दगानी िा िोई म़सद नहीं है

एि भी ़द आज आदम़द नहीं है

राम जाने किस जगह होंगे ़बूतर

इस इमारत में िोई गुम्बद नहीं है

आपसे कमल िर हमें अक्सर लगा है

हुस्न में अब जज़्बा—ए—अमज़द नहीं है


पेड़—पौिे हैं बहुत बौने तुम्हारे

रास्तों में एि भी बरगद नहीं है

मै िदे िा रास्ता अब भी िुला है

कसफ़म आमद—रफ़्त ही ज़ायद नहीं

इस चमन िो दे ि िर किसने िहा था

एि पंछी भी यहाूँ शायद नहीं है .

आग जिती रहे
एि तीिी आूँ च ने
इस जन्म िा हर पल छु आ,
आता हुआ कदन छु आ
हाथों से गुजरता िल छु आ
हर बीज, अूँिुआ, पेड़-पौिा,
िूल-पती, िल छु आ
जो मु झे छूने चली
हर उस हवा िा आूँ चल छु आ
... प्रहर िोई भी नहीं बीता अछूता
आग िे संपिम से
कदवस, मासों और वषों िे िड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तिम से
एि चौथाई उमर
यों िौलते बीती कबना अविाश
सुि िहाूँ
यों भाप बन-बन िर चुिा,
रीता, भटिता
छानता आिाश
आह! िैसा िकठन
... िैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग िेवल भाग!
सुि नहीं यों िौलने में सुि नहीं िोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय िी प्रतीक्षा में है , जगेगी आप
ज्ों कि लहराती हुई ढिने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे , जलती रहे
कजं दगी यों ही िड़ाहों में उबलती रहे ।

तुम्हारे पाँ र् के नीचे क ई ज़मीन नहीं


तुम्हारे पाूँ व िे नीचे िोई ज़मीन नहीं
िमाल ये है कि किर भी तुम्हें य़ीन नहीं

मैं बेपनाह अूँिेरों िो सुब्ह िैसे िहूँ


मैं इन नज़ारों िा अूँिा तमाशबीन नहीं

तेरी ज़ु बान है झूठी ज्म्हहररयत िी तरह


तू एि ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्ही ं िो िा जाएूँ


अदीब यों तो कसयासी हैं पर िमीन नहीं

तुझे ़सम है खु दी िो बहुत हलाि न िर


तु इस मशीन िा पुज़ाम है तू मशीन नहीं

बहुत मशहर है आएूँ ज़रूर आप यहाूँ


ये मुल्क दे िने लाय़ तो है हसीन नहीं

ज़रा-सा तौर-तरी़ों में हे र-िेर िरो


तुम्हारे हाथ में िालर हो, आस्तीन नहीं

र्े ज शहतीर है पिक ं पे उठा ि र्ार


ये जो शहतीर है पलिों पे उठा लो यारो
अब िोई ऐसा तरीिा भी कनिालो यारो

ददे —कदल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुूँ चाएगा


इस ़बूतर िो ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में कलए बैठे हैं अपने कपंजरे


आज सैयाद िो महकफ़ल में बुला लो यारो

आज सीवन िो उिेड़ो तो ज़रा दे िेंगे


आज संदूि से वो खत तो कनिालो यारो
रहनु माओं िी अदाओं पे कफ़दा है दु कनया
इस बहिती हुई दु कनया िो सूँभालो यारो

िैसे आिाश में सूराख हो नहीं सिता


एि पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग िहते थे कि ये बात नहीं िहने िी


तुमने िह दी है तो िहने िी सज़ा लो यारो

मुक्तक
(१)
सूँभल सूँभल िे’ बहुत पाूँ व िर रहा हूँ मैं
पहाड़ी ढाल से जै से उतर रहा हूँ मैं
़दम ़दम पे मु झे टोिता है कदल ऐसे
गुनाह िोई बड़ा जै से िर रहा हूँ मैं ।

(२)
तरस रहा है मन िूलों िी नई गंि पाने िो
खिली िूप में, िु ली हवा में , गाने मु सिाने िो
तुम अपने कजस कतकमरपाश में मु झिो ़ैद किए हो
वह बंिन ही उिसाता है बाहर आ जाने िो।

(३)
गीत गािर चेतना िो वर कदया मैं ने
आूँ सुओं से ददम िो आदर कदया मैं ने
प्रीत मे री आत्मा िी भू ि थी, सहिर
कज़ं दगी िा कचत्र पूरा िर कदया मैं ने

(४)
जो िुछ भी कदया अनश्वर कदया मु झे
नीचे से ऊपर ति भर कदया मुझे
ये स्वर सिुचाते हैं ले किन तुमने
अपने ति ही सीकमत िर कदया मु झे।

शब्दार्थ :
कतकमरपाश = अंिेरे िा बंिन

र ज़ जब रात क बारह का गजर ह ता है

रोज़ जब रात िो बारह िा गजर होता है


यातनाओं िे अूँिेरे में सफ़र होता है

िोई रहने िी जगह है मे रे सपनों िे कलए

वो घरौंदा ही सही, कमट्टी िा भी घर होता है

कसर से सीने में िभी पेट से पाओं में िभी

इि जगह हो तो िहें ददम इिर होता है

ऐसा लगता है कि उड़िर भी िहाूँ पहुूँ चेंगे

हाथ में जब िोई टू टा हुआ पर होता है

सैर िे वास्ते सड़िों पे कनिल आते थे

अब तो आिाश से पथराव िा डर होता है

अब त पथ र्ही है
कजं दगी ने िर कलया स्वीिार,
अब तो पथ यही है |

अब उभरते ज्वार िा आवेग मखिम हो चला है,


एि हलिा सा िुंिलिा था िहीं, िम हो चला है,
यह कशला कपघले न कपघले , रास्ता नम हो चला है ,
क्यों िरू
ूँ आिाश िी मनु हार ,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, िां च िा घट है, किसी कदन िूट जाए,


एि मामू ली िहानी है , अिूरी छूट जाए,
एि समझौता हुआ था रौशनी से, टू ट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनु दार,
अब तो पथ यही है |

यह लड़ाई, जो िी अपने आप से मैंने लड़ी है ,


यह घुटन, यह यातना, िेवल किताबों में पढी है ,
यह पहाड़ी पाूँ व क्या चढते, इरादों ने चढी है ,
िल दरीचे ही बनें गे द्वार,
अब तो पथ यही है |

र् डनगाहें सिीब है

वो कनगाहें सलीब है

हम बहुत बदनसीब हैं

आइये आूँ ि मूूँ द लें

ये नज़ारे अजीब हैं

कज़न्दगी एि िे त है

और साूँ से जरीब हैं

कसलकसले खत्म हो गए

यार अब भी ऱीब है

हम िहीं िे नहीं रहे

घाट औ’ घर ़रीब हैं

आपने लौ छु ई नहीं

आप िैसे अदीब हैं

उफ़ नहीं िी उजड़ गए

लोग सचमु च ग़रीब हैं.

र्े धुएँ का एक घेरा डक मैं डजसमें रह रहा हँ

ये िुएूँ िा एि घेरा कि मैं कजसमें रह रहा हूँ

मु झे किस ़दर नया है , मैं जो ददम सह रहा हूँ


ये ज़मीन तप रही थी ये मिान तप रहे थे

तेरा इं तज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ

मैं कठठि गया था ले किन तेरे साथ—साथ था मैं

तू अगर नदी हुई तो मैं तेरी सतह रहा हूँ

तेरे सर पे िूप आई तो दरख़्त बन गया मैं

तेरी कज़न्दगी में अक्सर मैं िोई वजह रहा हूँ

िभी कदल में आरज़ू—सा, िभी मुूँ ह में बद् दु आ—सा

मु झे कजस तरह भी चाहा, मैं उसी तरह रहा हूँ

मे रे कदल पे हाथ रक्खो, मे री बेबसी िो समझो

मैं इिर से बन रहा हूँ, मैं इिर से ढह रहा हूँ

यहाूँ िौन दे िता है, यहाूँ िौन सोचता है

कि ये बात क्या हुई है ,जो मैं शे’र िह रहा हूँ

अगर ख़ुदा न करे सच र्े ख़्वाब ह जाए

अगर खु दा न िरे सच ये ख़्वाब हो जाए

तेरी सहर हो मे रा आफ़ताब हो जाए

हुज़ूर! आररज़ो-ओ-रुखसार क्या तमाम बदन

मे री सुनो तो मु जखस्सम गुलाब हो जाए

उठा िे िेंि दो खिड़िी से साग़र-ओ-मीना

ये कतशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए


वो बात कितनी भली है जो आप िरते हैं

सुनो तो सीने िी िड़िन रबाब हो जाए

बहुत ़रीब न आओ य़ीं नहीं होगा

ये आरज़ू भी अगर िामयाब हो जाए

ग़लत िहूँ तो मे री आ़बत कबगड़ती है

जो सच िहूँ तो खु दी बेऩाब हो जाए.

मैं डजसे ओढ़ता-डबछाता हँ


मैं कजसे ओढता-कबछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपिो सुनाता हूँ

एि जं गल है तेरी आूँ िों में


मैं जहाूँ राह भू ल जाता हूँ

तू किसी रे ल-सी गुज़रती है


मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है


मैं अगर रौशनी में आता हूँ

एि बाज़ू उिड़ गया जबसे


और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

मैं तुझे भूलने िी िोकशश में


आज कितने ़रीब पाता हूँ

िौन ये फ़ासला कनभाएगा


मैं फ़ररश्ता हूँ सच बताता हूँ

अब डकसी क भी नज़र आती नहीं क ई दरार


अब किसी िो भी नज़र आती नहीं िोई दरार
घर िी हर दीवार पर कचपिे हैं इतने इश्तहार
आप बच िर चल सिें ऐसी िोई सूरत नहीं
रहगुज़र घेरे हुए मु दे िड़े हैं बेशुमार

रोज़ अिबारों में पढिर यह ख़्याल आया हमें


इस तरफ़ आती तो हम भी दे िते फ़स्ले—बहार

मैं बहुत िुछ सोचता रहता हूँ पर िहता नहीं


बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार

इस कसरे से उस कसरे ति सब शरीिे—जुमम हैं


आदमी या तो ज़मानत पर ररहा है या फ़रार

हालते—इन्सान पर बरहम न हों अहले —वतन


वो िहीं से कज़न्दगी भी माूँ ग लायेंगे उिार

रौऩे-जन्नत ज़रा भी मु झिो रास आई नहीं


मैं जहन्नुम में बहुत खु श था मेरे परवरकदगार

दस्तिों िा अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर


हर हथे ली खू न से तर और ज़्यादा बे़रार

िफ़्ज़ एहसास—से छाने िगे, र्े त हद है

लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है

लफ़्ज़ माने भी छु पाने लगे, ये तो हद है

आप दीवार उठाने िे कलए आए थे

आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है

खामु शी शोर से सुनते थे कि घबराती है

खामु शी शोर मचाने लगे, ये तो हद है

आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है

आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है

कजस्म पहरावों में छु प जाते थे, पहरावों में —


कजस्म नं गे नज़र आने लगे, ये तो हद है

लोग तहज़ीब—ओ—तमद् दु न िे सली़े सीिे

लोग रोते हुए गाने लगे, ये तो हद है

मापदण्ड बदि
मे री प्रगकत या अगकत िा
यह मापदि बदलो तुम,
जु ए िे पते-सा
मैं अभी अकनकश्चत हूँ ।
मु झ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं ,
िोपलें उग रही हैं,
पकतयाूँ झड़ रही हैं ,
मैं नया बनने िे कलए िराद पर चढ रहा हूँ ,
लड़ता हुआ
नई राह गढता हुआ आगे बढ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मे री साूँ सें उिड़ गईं,


मे रे बाज़ू टू ट गए,
मे रे चरणों में आूँ कियों िे समू ह ठहर गए,
मे रे अिरों पर तरं गािुल संगीत जम गया,
या मे रे माथे पर शमम िी लिीरें खिं च गईं,
तो मु झे पराकजत मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मे रे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मे री उम्मीदों िे सैकनिों िी पराकजत पंखक्तयाूँ
एि बार और
शखक्त आज़माने िो
िूल में िो जाने या िुछ हो जाने िो
मचल रही होंगी ।
एि और अवसर िी प्रतीक्षा में
मन िी ़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो ििोले तलु ओं मे दीि रहे हैं


ये मु झिो उिसाते हैं ।
कपिकलयों िी उभरी हुई नसें
मु झ पर व्यं ग्य िरती हैं ।
मुूँ ह पर पड़ी हुई यौवन िी झुररम याूँ
़सम दे ती हैं ।
िुछ हो अब, तय है –
मु झिो आशं िाओं पर ़ाबू पाना है ,
पत्थरों िे सीने में
प्रकतध्वकन जगाते हुए
पररकचत उन राहों में एि बार
कवजय-गीत गाते हुए जाना है –
कजनमें मैं हार चुिा हूँ ।

मे री प्रगकत या अगकत िा
यह मापदि बदलो तुम
मैं अभी अकनकश्चत हूँ ।

तूने र्े हरडसंगार डहिाकर बुरा डकर्ा


तूने ये हरकसंगार कहलािर बुरा किया
पां वों िी सब जमीन िो िूलों से ढं ि कलया

किससे िहें कि छत िी मुं डेरों से कगर पड़े


हमने ही खु द पतंग उड़ाई थी शौकिया

अब सब से पूछता हं बताओ तो िौन था


वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह कजया

मुूँ ह िो हथे कलयों में कछपाने िी बात है


हमने किसी अंगार िो होंठों से से छू कलया

घर से चले तो राह में आिर कठठि गये


पूरी हई रदीफ़ अिूरा है िाकफ़या

मैं भी तो अपनी बात कलिूं अपने हाथ से


मे रे सफ़े पे छोड़ दो थोड़ा सा हाकशया

इस कदल िी बात िर तो सभी ददम मत उं डेल


अब लोग टोिते है ग़ज़ल है कि मरकसया

उसे क्ा कहँ


किन्तु जो कतकमर-पान
औ' ज्ोकत-दान
िरता िरता बह गया
उसे क्या िहूँ
कि वह सस्पन्द नहीं था ?

और जो मन िी मू ि िराह
ज़ख़्म िी आह
िकठन कनवाम ह
व्यक्त िरता िरता रह गया
उसे क्या िहूँ
गीत िा छन्द नहीं था?

इनसे डमडिए
पाूँ वों से कसर ति जै से एि जनू न
बेतरतीबी से बढे हुए नाखू न

िुछ टे ढे-मे ढे बैंगे दाकग़ल पाूँ व


जै से िोई एटम से उजड़ा गाूँ व

टिने ज्ों कमले हुए रक्खे हों बाूँ स


कपिकलयाूँ कि जै से कहलती-डु लती िाूँ स

िुछ ऐसे लगते हैं घुटनों िे जोड़


जै से ऊबड़-िाबड़ राहों िे मोड़

गट्टों-सी जं घाएूँ कनष्प्राण मलीन


िकट, रीकतिाल िी सुकियों से भी क्षीण

छाती िे नाम महज़ हड्डी दस-बीस


कजस पर कगन-चुन िर बाल िड़े इक्कीस

पुट्ठे हों जै से सूि गए अमरूद


चुिता िरते-िरते जीवन िा सूद

बाूँ हें ढीली-ढाली ज्ों टू टी डाल


अूँगुकलयाूँ जै से सूिी हुई पुआल

छोटी-सी गरदन रं ग बेहद बदरं ग


हरवक़्त पसीने िा बदबू िा संग

कपचिी अकमयों से गाल लटे से िान


आूँ िें जै से तरिश िे िुट्टल बान
माथे पर कचन्ताओं िा एि समू ह
भौंहों पर बैठी हरदम यम िी रूह

कतनिों से उड़ते रहने वाले बाल


कवद् युत पररचाकलत मिनातीसी चाल

बैठे तो किर घण्ों जाते हैं बीत


सोचते प्यार िी रीत भकवष्य अतीत

कितने अजीब हैं इनिे भी व्यापार


इनसे कमकलए ये हैं दु ष्यन्त िुमार ।

ह ने िगी है डजस्म में जुंडबश त दे खिर्े

होने लगी है कजस्म में जुंकबश तो दे खिये

इस पर िटे पररं दे िी िोकशश तो दे खिये

गूूँगे कनिल पड़े हैं, ज़ु बाूँ िी तलाश में

सरिार िे कखलाफ़ ये साकज़श तो दे खिये

बरसात आ गई तो दरिने लगी ज़मीन

सूिा मचा रही है ये बाररश तो दे खिये

उनिी अपील है कि उन्हें हम मदद िरें

चािू िी पसकलयों से गुज़ाररश तो दे खिये

कजसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ

इस कजस्म िे कतकलस्म िी बंकदश तो दे खिये

ह िी की डठठ िी
दु ष्यंत कुमार टू धमथयुग संपादक

पत्थर नहीं हैं आप तो पसीकजए हुज़ूर ।


संपादिी िा ह़ तो अदा िीकजए हुज़ूर ।

अब कज़ं दगी िे साथ ज़माना बदल गया,


पाररश्रकमि भी थोड़ा बदल दीकजए हुज़ूर ।

िल मय़दे में चेि कदिाया था आपिा,


वे हूँ स िे बोले इससे ज़हर पीकजए हुज़ूर ।

शायर िो सौ रुपए तो कमलें जब ग़ज़ल छपे,


हम कज़न्दा रहें ऐसी जु गत िीकजए हुज़ूर ।

लो ह़ िी बात िी तो उिड़ने लगे हैं आप,


शी! होंठ कसल िे बैठ गए ,लीकजए हुजू र ।

धमथयुग सम्पादक टू दु ष्यंत कुमार


(िमम वीर भारती िा उतर ब़लम दु ष्यंत िुमार)

जब आपिा ग़ज़ल में हमें खत कमला हुज़ूर ।


पढते ही यि-ब-यि ये िले जा कहला हुज़ूर ।

ये "िमम युग" हमारा नहीं सबिा पत्र है,


हम घर िे आदमी हैं हमीं से कगला हुज़ूर ।

भोपाल इतना महूँ गा शहर तो नहीं िोई,


महूँ गी िा बाूँ िते हैं हवा में किला हुज़ूर ।

पाररश्रकमि िा क्या है बढा दें गे एि कदन,


पर तिम आपिा है बहुत कपलकपला हुज़ूर ।

शायर िो भू ि ने ही किया है यहाूँ अज़ीम,


हम तो जमा रहे थे यही कसलकसला हुज़ूर ।

धूप र्े अठिेडिर्ाँ हर र ज़ करती है

िूप ये अठिे कलयाूँ हर रोज़ िरती है

एि छाया सीकढयाूँ चढती—उतरती है

यह कदया चौरास्ते िा ओट में ले लो


आज आूँ िी गाूँ व से हो िर गुज़रती है

िुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में

मीत अब यह मन नहीं है एि िरती है

िौन शासन से िहे गा, िौन पूछेगा

एि कचकड़या इन िमािों से कसहरती है

मैं तुम्हें छू िर ज़रा—सा छे ड़ दे ता हूँ

और गीली पाूँ िुरी से ओस झरती है

तुम िहीं पर झील हो मैं एि नौिा हूँ

इस तरह िी िल्पना मन में उभरती है

अपाडहज व्यथा
अपाकहज व्यथा िो सहन िर रहा हूँ ,
तुम्हारी िहन थी, िहन िर रहा हूँ ।

ये दरवाज़ा िोलो तो िु लता नहीं है ,


इसे तोड़ने िा जतन िर रहा हूँ ।

अूँिेरे में िुछ कज़न्दगी होम िर दी,


उजाले में अब ये हवन िर रहा हूँ ।

वे सम्बन्ध अब ति बहस में टूँ गे हैं ,


कजन्हें रात-कदन स्मरण िर रहा हूँ ।

तुम्हारी थिन ने मु झे तोड़ डाला,


तुम्हें क्या पता क्या सहन िर रहा हूँ ।

मैं अहसास ति भर गया हूँ लबालब,


तेरे आूँ सुओं िो नमन िर रहा हूँ ।

समालोचिो िी दु आ है कि मैं किर,


सही शाम से आचमन िर रहा हूँ ।
गीत का जन्म
एि अन्धिार बरसाती रात में
बफ़ीले दरों-सी ठं डी खस्थकतयों में
अनायास दू ि िी मासूम झलि सा
हं सता, किलिाररयां भरता
एि गीत जन्मा
और
दे ह में उष्मा
खस्थकत संदभभ ॊं में रोशनी कबिेरता
सूने आिाशों में गूंज उठा :
-बच्चे िी तरह मे री उं गली पिड़ िर
मु झे सूरज िे सामने ला िड़ा किया ।

यह गीत
जो आज
चहचहाता है
अन्तवाम सी अहम से भी स्वागत पाता है
नदी िे किनारे या लावाररस सड़िों पर
कन:स्वन मै दानों में
या कि बन्द िमरों में
जहां िहीं भी जाता है
मरे हुए सपने सजाता है -
-बहुत कदनों तड़पा था अपने जनम िे कलये ।

टे पा सम्मेिन के डिए ग़ज़ि


याद आता है कि मैं हूँ शं िरन या मं िरन
आप रुकिेए फ़ाइलों में दे ि आता हूँ मैं

हैं ये कचंतामन अगर तो हैं ये नामों में भ्रकमत


इनिो दारु िी ज़रूरत है ये बतलाता हूँ मैं

मार िाने िी तकबयत हो तो भट्टाचायम िी


गुलगुली चेहरा उिारी मां ग िर लाता हूँ मैं

इनिा चेहरा है कि हुक्का है कि है गोबर-गणेश


किस िदर संजीदगी यह सबिो समझाता हूँ मैं

उस नई िकवता पे मरती ही नहीं हैं लड़कियाूँ


इसकलये इस अिाड़े में कनत गज़ल गाता हूँ मैं
िौन िहता है कनगम िो और कशव िो आदमी
ये बड़े शै तान मच्छर हैं ये समझाता हूँ मैं

ये सुमन उज्जैन िा है इसमें िु शबू ति नहीं


कदल कफ़दा है इसिी बदबू पर िसम िाता हूँ मैं

इससे ज्ादा कफ़तरती इससे हरामी आदमी


हो न हो दु कनया में पर उज्जै न में पाता हूँ मैं

पूछते हैं आप मु झसे उसिा हुकलया, उसिा हाल


भगवती शमाम िो िरिे फ़ोन बुलवाता हूँ मैं

वो अवंतीलाल अब िरती पे चलता ही नहीं


एि गुटवारे -सी उसिी शखख़्सयत पाता हूँ मैं

सबसे ज़्यादा िीमती चमचा हूँ मैं सरिार िा


नाम है मे रा बसंती, राव िहलाता हूँ मैं

प्यार से चाहे शरद िी मार लो हर एि गोट


वैसे वो शतरं ज िा माकहर है, बतलाता हूँ मैं

इस नदी की धार में ठं डी हर्ा आती त है


इस नदी िी िार में ठं डी हवा आती तो है,
नाव जजम र ही सही, लहरों से टिराती तो है ।

एि कचनगारी िही से ढू ूँ ढ लाओ दोस्तों,


इस कदए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एि िं डहर िे हृदय-सी, एि जं गली िूल-सी,


आदमी िी पीर गूंगी ही सही, गाती तो है ।

एि चादर साूँ झ ने सारे नगर पर डाल दी,


यह अंिेरे िी सड़ि उस भोर ति जाती तो है ।

कनवमचन मै दान में ले टी हुई है जो नदी,


पत्थरों से, ओट में जा-जािे बकतयाती तो है ।

दु ि नहीं िोई कि अब उपलखब्धयों िे नाम पर,


और िुछ हो या न हो, आिाश-सी छाती तो है
तुमने इस तािाब में र ह पक़िने के डिए

तुमने इस तालाब में रोह पिड़ने िे कलए

छोटी—छोटी मछकलयाूँ चारा बनािर िेंि दीं

हम ही िा ले ते सुबह िो भूि लगती है बहुत

तुमने बासी रोकटयाूँ नाहि उठा िर िेंि दीं

जाने िैसी उूँ गकलयाूँ हैं , जाने क्या अूँदाज़ हैं

तुमने पतों िो छु आ था जड़ कहला िर िेंि दी

इस अहाते िे अूँिेरे में िुआूँ—सा भर गया

तुमने जलती लिकड़याूँ शायद बुझा िर िेंि दीं

गां धीजी के जन्मडदन पर


मैं किर जनम लूं गा
किर मैं
इसी जगह आउं गा
उचटती कनगाहों िी भीड़ में
अभावों िे बीच
लोगों िी क्षत-कवक्षत पीठ सहलाऊूँगा
लूँ गड़ािर चलते हुए पावों िो
िंिा दू ूँ गा
कगरी हुई पद-मकदम त पराकजत कववशता िो
बाूँ हों में उठाऊूँगा ।

इस समू ह में
इन अनकगनत अचीन्ही आवाज़ों में
िैसा ददम है
िोई नहीं सुनता !
पर इन आवाजों िो
और इन िराहों िो
दु कनया सुने मैं ये चाहूँ गा ।
मे री तो आदत है
रोशनी जहाूँ भी हो
उसे िोज लाऊूँगा
िातरता, चुप्पी ् या चीिें,
या हारे हुओं िी िीज
जहाूँ भी कमले गी
उन्हें प्यार िे कसतार पर बजाऊूँगा ।

जीवन ने िई बार उिसािर


मु झे अनु लंघ्य सागरों में िेंिा है
अगन-भकट्ठयों में झोंिा है ,
मै ने वहाूँ भी
ज्ोकत िी मशाल प्राप्त िरने िे यत्न किये
बचने िे नहीं,
तो क्या इन टटिी बंदूिों से डर जाऊूँगा ?
तुम मु झिों दोषी ठहराओ
मै ने तुम्हारे सुनसान िा गला घोंटा है
पर मैं गाऊूँगा
चाहे इस प्राथम ना सभा में
तुम सब मु झपर गोकलयाूँ चलाओ
मैं मर जाऊूँगा
ले किन मैं िल किर जनम लूूँ गा
िल किर आऊूँगा ।

सूचना
िल माूँ ने यह िहा –-
कि उसिी शादी तय हो गई िहीं पर,
मैं मु सिाया वहाूँ मौन
रो कदया किन्तु िमरे में आिर
जै से दो दु कनया हों मु झिो
मे रा िमरा औ' मेरा घर ।

प्रेरणा के नाम
तुम्हें याद होगा कप्रय
जब तुमने आूँ ि िा इशारा किया था
तब
मैं ने हवाओं िी बागडोर मोड़ी थीं,
खाि में कमलाया था पहाड़ों िो,
शीष पर बनाया था एि नया आसमान,
जल िे बहावों िो मनचाही गकत दी थी....,
किंतु--वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था--
मे रा तो नहीं था कसफ़म!

जै से कबजली िा खस्वच दबे


औ’ मशीन चल कनिले ,
वैसे ही मैं था बस,
मू ि...कववश...,
िमम शील इच्छा िे सम्मुि
पररचालि थे कजसिे तुम।

आज किर हवाएूँ प्रकतिूल चल कनिली हैं ,


शीष किर उठाए हैं पहाड़ों ने,
बखस्तयों िी ओर रुख किरा है बहावों िा,
िाला हुआ है व्योम,
किंतु मैं िरूूँ तो क्या?
मन िरता है --उठूूँ,
कदल बैठ जाता है,
पाूँ व चलते हैं
गकत पास नहीं आती है,
तपती इस िरती पर
लगता है समय बहुत कवश्वासघाती है ,
हौंसले , मरीज़ों िी तरह छटपटाते हैं ,
सपने सिलता िे
हाथ से िबूतरों िी तरह उड़ जाते हैं
क्योंकि मैं अिेला हूँ
और पररचालि वे अूँगुकलयाूँ नहीं हैं पास
कजनसे खस्वच दबे
ज्ोकत िैले या मशीन चले।

आज ये पहाड़!
ये बहाव!
ये हवा!
ये गगन!
मु झिो ही नहीं कसफ़म
सबिो चुनौती हैं ,
उनिो भी जगे हैं जो
सोए हुओं िो भी--
और कप्रय तुमिो भी
तुम जो अब बहुत दू र
बहुत दू र रहिर सताते हो!
नींद ने मे री तुम्हें व्योम ति िोजा है
दृकि ने किया है अवगाहन िण िण में
िकवताएूँ मे री वंदनवार हैं प्रतीक्षा िी
अब तुम आ जाओ कप्रय
मे री प्रकतष्ठा िा तुम्हें हवाला है!

परवा नहीं है मु झे ऐसे मु हीमों िी


शां त बैठ जाता बस--दे िते रहना
किर मैं अूँिेरे पर ता़त से वार िरू ूँ गा,
बहावों िे सामने सीना तानूूँ गा,
आूँ िी िी बागडोर
नामु राद हाथों में सौंपूूँगा।
दे िते रहना तुम,
मे रे शब्ों ने हार जाना नहीं सीिा
क्योंकि भावना इनिी माूँ है ,
इन्होंने बिरी िा दू ि नहीं कपया
ये कदल िे उस िोने में जन्में हैं
जहाूँ कसवाय ददम िे और िोई नहीं रहा।

िभी इन्हीं शब्ों ने


कज़न्दा किया था मु झे
कितनी बढी है इनिी शखक्त
अब दे िूूँगा
कितने मनुष्यों िो और कजला सिते हैं

एक कबूतर डचठ्ठी िे कर पहिी—पहिी बार उ़िा

एि िबूतर कचठ्ठी ले िर पहली—पहली बार उड़ा

मौसम एि गुलेल कलये था पट—से नीचे आन कगरा

बंजर िरती, झुलसे पौिे, कबिरे िाूँ टे तेज़ हवा

हमने घर बैठे—बैठे ही सारा मं ज़र दे ि किया

चट्टानों पर िड़ा हुआ तो छाप रह गई पाूँ वों िी

सोचो कितना बोझ उठा िर मैं इन राहों से गुज़रा


सहने िो हो गया इिठ्ठा इतना सारा दु ि मन में

िहने िो हो गया कि दे िो अब मैं तुझ िो भूल गया

िीरे — िीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में

इनिो क्या मालू म कि आगे चल िर इनिा क्या होगा

आज र्ीरान अपना घर दे िा

आज वीरान अपना घर दे िा

तो िई बार झाूँ ि िर दे िा

पाूँ व टू टे हुए नज़र आये

एि ठहरा हुआ सफ़र दे िा

होश में आ गए िई सपने

आज हमने वो िूँ डहर दे िा

रास्ता िाट िर गई कबल्ली

प्यार से रास्ता अगर दे िा

नाकलयों में हयात दे िी है

गाकलयों में बड़ा असर दे िा

उस पररं दे िो चोट आई तो

आपने एि-एि पर दे िा

हम िड़े थे कि ये ज़मी ं होगी

चल पड़ी तो इिर-उिर दे िा.


कौन र्हाँ आर्ा था
िौन यहाूँ आया था
िौन कदया बाल गया
सूनी घर-दे हरी में
ज्ोकत-सी उजाल गया

पूजा िी बेदी पर
गंगाजल भरा िलश
रक्खा था, पर झुि िर
िोई िौतुहलवश
बच्चों िी तरह हाथ
डाल िर िं गाल गया

आूँ िों में कतरा आया


सारा आिाश सहज
नए रं ग रूँ गा थिा-
हारा आिाश सहज
पूरा अखस्तत्व एि
गेंद-सा उछाल गया

अिरों में राग, आग


अनमनी कदशाओं में
पाश्वम में, प्रसंगों में
व्यखक्त में, कविाओं में
साूँ स में , कशराओं में
पारा-सा ढाल गया|

र् आदमी नहीं है मुकम्मि बर्ान है

वो आदमी नहीं है मु िम्मल बयान है

माथे पे उसिे चोट िा गहरा कनशान है

वे िर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू

मैं क्या बताऊूँ मे रा िहीं और ध्यान है


सामान िुछ नहीं है िटे हाल है मगर

झोले में उसिे पास िोई संकविान है

उस कसरकिरे िो यों नहीं बहला सिेंगे आप

वो आदमी नया है मगर साविान है

किसले जो इस जगह तो लुढिते चले गए

हमिो पता नहीं था कि इतना ढलान है

दे िे हैं हमने दौर िई अब खबर नहीं

पैरों तले ज़मीन है या आसमान है

वो आदमी कमला था मु झे उसिी बात से

ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है

कहाँ त तर् था चराग़ाँ हर एक घर के डिर्े


िहाूँ तो तय था चराग़ाूँ हर एि घर िे कलये
िहाूँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर िे कलये

यहाूँ दरख़्तों िे साये में िूप लगती है


चलो यहाूँ से चले और उम्र भर िे कलये

न हो ़मीज़ तो घुटनों से पेट ढि लें गे


ये लोग कितने मु नाकसब हैं इस सफ़र िे कलये

खु दा नहीं न सही आदमी िा ख़्वाब सही


िोई हसीन नज़ारा तो है नज़र िे कलये

वो मु तमइन हैं कि पत्थर कपघल नहीं सिता


मैं बे़रार हूँ आवाज़ में असर िे कलये

कजयें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर िे तले


मरें तो ग़ैर िी गकलयों में गुलमोहर िे कलये.
मत कह आकाश में क हरा घना है
मत िहो आिाश में िोहरा घना है ,
यह किसी िी व्यखक्तगत आलोचना है ।

सूयम हमने भी नहीं दे िा सुबह िा,


क्या िारोगे सूयम िा क्या दे िना है ।

हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्था,


शौि से डूबे कजसे भी डूबना है ।

दोस्तों अब मं च पर सुकविा नहीं है ,


आजिल ने पथ्य में सम्भावना है .

र्े सच है डक पाँ र् ं ने बहुत कष्ट उठाए

ये सच है कि पाूँ वों ने बहुत िि उठाए

पर पाूँ वों किसी तरह से राहों पे तो आए

हाथों में अंगारों िो कलए सोच रहा था

िोई मु झे अंगारों िी तासीर बताए

जै से किसी बच्चे िो खिलोने न कमले हों

किरता हूँ िई यादों िो सीने से लगाए

चट्टानों से पाूँ वों िो बचा िर नहीं चलते

सहमे हुए पाूँ वों से कलपट जाते हैं साए

यों पहले भी अपना—सा यहाूँ िुछ तो नहीं था

अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए.

बाढ़ की संभार्नाएँ सामने हैं


बाढ िी संभावनाएूँ सामने हैं ,
और नकदयों िे किनारे घर बने हैं ।

चीड़-वन में आूँ कियों िी बात मत िर,


इन दरख्तों िे बहुत नाज़ु ि तने हैं ।

इस तरह टू टे हुए चेहरे नहीं हैं ,


कजस तरह टू टे हुए ये आइने हैं ।

आपिे ़ालीन दे िेंगे किसी कदन,


इस समय तो पाूँ व िीचड़ में सने हैं ।

कजस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,


हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं ।

अब तड़पती-सी ग़ज़ल िोई सुनाए,


हमसफ़र ऊूँघे हुए हैं , अनमने हैं ।

डर्दा के बाद प्रतीक्षा

परदे हटािर िरीने से


रोशनदान िोलिर
िमरे िा िनीचर सजािर
और स्वागत िे शब्ों िो तोलिर
टि टिी बाूँ ििर बाहर दे िता हूँ
और दे िता रहता हूँ मैं ।

सड़िों पर िूप कचलकचलाती है


कचकड़या ति कदिायी नही दे ती
कपघले तारिोल में
हवा ति कचपि जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गमी िे कवषय में किसी से
एि शब् नही िहता हूँ मैं ।

कसफ़म िल्पनाओं से
सूिी और बंजर ज़मीन िो िरोंचता हूँ
जन्म कलया िरता है जो ऐसे हालात में
उनिे बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ ।

जाने डकस—डकसका ख़्याि आर्ा है

जाने किस—किसिा ख़्याल आया है

इस समं दर में उबाल आया है

एि बच्चा था हवा िा झोंिा

साफ़ पानी िो िं गाल आया है

एि ढे ला तो वहीं अटिा था

एि तू और उछाल आया है

िल तो कनिला था बहुत सज—िज िे

आज लौटा तो कनढाल आया है

ये नज़र है कि िोई मौसम है

ये सबा है कि वबाल आया है

इस अूँिेरे में कदया रिना था

तू उजाले में बाल आया है

हमने सोचा था जवाब आएगा


एि बेहदा सवाल आया है

कुंठा
मे री िुंठा
रे शम िे िीड़ों-सी
ताने -बाने बुनती,
तड़प तड़पिर
बाहर आने िो कसर िुनती,
स्वर से
शब्ों से
भावों से
औ' वीणा से िहती-सुनती,
गभम वती है
मे री िुंठा –- िुूँवारी िुंती!

बाहर आने दू ूँ
तो लोि-लाज मयाम दा
भीतर रहने दू ूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मे रा यह व्यखक्तत्व
कसमटने पर आमादा।

तुमक डनहरता हँ सुबह से ऋतम्बरा


तुमिो कनहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा

खरगोश बन िे दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब


किरता है चाूँ दनी में िोई सच डरा—डरा

पौिे झुलस गए हैं मगर एि बात है


मे री नज़र में अब भी चमन है हरा—भरा

लम्बी सुरंग-से है तेरी कज़न्दगी तो बोल


मैं कजस जगह िड़ा हूँ वहाूँ है िोई कसरा

माथे पे हाथ रि िे बहुत सोचते हो तुम


गंगा ़सम बताओ हमें िया है माजरा
डिर कर िेने द प्यार डप्रर्े
अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
िुछ शोि नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत कहत कहलता रहता


अंतरवीणा िा तार कप्रये ..

इच्छाएूँ मु झिो लू ट चुिी


आशाएं मु झसे छूट चुिी
सुि िी सुन्दर-सुन्दर लकड़याूँ
मे रे हाथों से टू ट चुिी

िो बैठा अपने हाथों ही


मैं अपना िोष अपार कप्रये
किर िर ले ने दो प्यार कप्रये ..

द प ज़
सद्यस्नात[1] तुम
जब आती हो
मु ि िुन्तलों[2] से ढूँ िा रहता है
बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब
राह से चाूँ द ग्रसा रहता है ।

पर जब तुम
िेश झटि दे ती हो अनायास
तारों-सी बूूँदें
कबिर जाती हैं आसपास
मु क्त हो जाता है चाूँ द
तब बहुत भला लगता है ।

अपनी प्रेडमका से
मु झे स्वीिार हैं वे हवाएूँ भी
जो तुम्हें शीत दे तीं
और मु झे जलाती हैं
किन्तु
इन हवाओं िो यह पता नहीं है
मु झमें ज्वालामु िी है
तुममें शीत िा कहमालय है
िूटा हूँ अने ि बार मैं,
पर तुम िभी नहीं कपघली हो,
अने ि अवसरों पर मे री आिृकतयाूँ बदलीं
पर तुम्हारे माथे िी कशिनें वैसी ही रहीं
तनी हुई.
तुम्हें ज़रूरत है उस हवा िी
जो गमम हो
और मु झे उसिी जो ठिी!
किर भी मु झे स्वीिार है यह पररखस्थकत
जो दु िाती है
किर भी स्वागत है हर उस सीढी िा
जो मु झे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है
िाश! इन हवाओं िो यह सब पता होता।
तुम जो चारों ओर
बफ़म िी ऊूँचाइयाूँ िड़ी किए बैठी हो
(लीन... समाकिस्थ)
भ्रम में हो।
अहम् है मु झमें भी
चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सिता हूँ
ले किन क्यों?
मु झे मालू म है
दीवारों िो
मे री आूँ च जा छु एगी िभी
और बफ़म कपघले गी
कपघले गी!
मैं ने दे िा है
(तुमने भी अनु भव किया होगा)
मै दानों में बहते हुए उन शान्त कनझमरों िो
जो िभी बफ़म िे बड़े -बड़े पवमत थे
ले किन कजन्हें सूरज िी गमी समतल पर ले आई.
दे िो ना!
मु झमें ही डूबा था सूयम िभी,
सूयोदय मु झमें ही होना है ,
मे री किरणों से भी बफ़म िो कपघलना है ,
इसी कलए िहता हूँ -
अिुलाती छाती से सट जाओ,
क्योंकि हमें कमलना है ।
एक खथथडत
हर घर में िानािूसी औ’ षडयंत्र,
हर महकफ़ल िे स्वर में कवद्रोही मं त्र,
क्या नारी क्या नर
क्या भू क्या अंबर
माूँ ग रहे हैं जीने िा वरदान,
सब बच्चे, सब कनबमल, सब बलवान,
सब जीवन सब प्राण,
सुबह दोपहर शाम।
‘अब क्या होगा राम?’

िुछ नहीं समझ में आते ऐसे राज़,


कजसिे दे िो अनजाने हैं अंदाज़,
दहि रहे हैं छं द,
बारूदों िी गंि
अूँगड़ाती सी उठती है हर द्वार,
टू ट रही है हथिकड़यों िी झंिार
आती बारं बार,
जै से सारे िारागारों िा िर िाम तमाम।
‘अब क्या होगा राम?’

परां गमुिी डप्रर्ा से


ओ परां गमु िी कप्रया!
िोरे िागज़ों िो रूँ गने बैठा हूँ
असत्य क्यों िहूँ गा
तुमने िुछ जादू िर कदया।

िु द से लड़ते
िु द िो तोड़ते हुए
कदन बीता िरते हैं ,
बदली हैं आिृकतयाूँ :
मे रे अखस्तत्व िी इिाई िो
तुमने ही
एि से अने ि िर कदया!

उूँ गकलयों में मोड़ िर लपेटे हुए


िुंतलों-से
मे रे कवश्वासों िी
रूपरे िा यही थी?

रह रहिर
मन में उमड़ते हुए
वात्याचक्रों िे बीच
एिािी
जीणम-शीणम पतों-से
नाचते-भटिते मे रे कनश्चय
क्या ऐसे थे ?

ज्ोकतषी िे आगे
िैले हुए हाथ-सी
प्रश्न पर प्रश्न पूछती हुई—
मे रे कज़ं दगी,
क्या यही थी?

नहीं....
नहीं थी यह गकत!
मे रे व्यखक्तत्व िी ऐसी अंिी पररणकत!!

कशलािं ड था मैं िभी,


ओ परां गमु िी कप्रया!
सच, इस समझौते ने बुरा किया,
बहुत बड़ा िक्का कदया है मु झे
िायर बनाया है ।

किर भी मैं क़स्मत िो


दोष नहीं दे ता हूँ,
घुलता हूँ िु श होिर,
चीखिर, उठािर हाथ
आत्म-वंचना िे इस दु गम पर िड़े होिर
तुमसे ही िहता हूँ—
मु झमें पूणमत्व प्राप्त िरती है
जीने िी िला;

िं ड िं ड होिर कजसने
जीवन-कवष कपया नहीं,
सुिमय, संपन्न मर गया जो जग में आिर
ररस-ररसिर कजया नहीं,
उसिी मौकलिता िा दं भ कनरा कमथ्या है
कनष्फल सारा िृकतत्व
उसने िुछ किया नहीं।

अनुरखक्त
जब जब श्लथ मस्ति उठाऊूँगा
इसी कवह्वलता से गाऊूँगा।

इस जन्म िी सीमा-रे िा से लेिर


बाल-रकव िे दू सरे उदय ति
हतप्रभ आूँ िों िे इसी दायरे में िीच
ं लाना
तुम्हें मैं बार बार चाहूँ गा!

सुि िा होता स्खलन


दु ि िा नहीं,
अिर पुष्प होते होंगे—
गंि-हीन, कनष्प्रभाव, छूछे ....िोिले....अश्रु नहीं;
गेय मे रा रहे गा यही गवम;
युग-युगां तरों ति मैं तो
इन्हीं शब्ों में िराहूँ गा।
िैसे बतलाऊूँ तुम्हें प्राण!
छूटा हूँ तुमसे तो क्या?
वाण छोड़ा हुआ
भटिा नहीं िरता!
लगूूँगा किसी तट तो—
िहीं तो िचोटू ूँ गा!
ठहरू ूँ गा जहाूँ भी—प्रकतध्वकन जगाऊूँगा।

तुम्हें मैं बार बार चाहूँ गा!

कैद पररं दे का बर्ान


तुमिो अचरज है --मैं जीकवत हूँ !
उनिो अचरज है --मैं जीकवत हूँ !
मु झिो अचरज है --मैं जीकवत हूँ !

ले किन मैं इसीकलए जीकवत नहीं हूँ --


मु झे मृ त्यु से दु राव था,
यह जीवन जीने िा चाव था,
या िुछ मिु-स्मृकतयाूँ जीवन-मरण िे कहंडोले पर
संतुलन सािे रहीं,
कमथ्या िी िच्ची-सूती डोररयाूँ
साूँ सों िो जीवन से बाूँ िे रहीं;
नहीं--
नहीं!
ऐसा नहीं!!

बखल्क मैं कजं दा हूँ


क्योंकि मैं कपंजड़े में ़ैद वह पररं दा हूँ --
जो िभी स्वतंत्र रहा है
कजसिो सत्य िे अकतररक्त, और िुछ कदिा नहीं,
तोते िी तरह कजसने
तकनि खिड़िी िु लते ही
आूँ िें बचािर, भाग जाना सीिा नहीं;
अब मैं कजयूूँगा
और यूूँ ही कजयूूँगा,
मु झमें प्रेरणा नई या बल आए न आए,
शू लों िी शय्या पर पड़ा पड़ा िसिूूँ
एि पल िो भी िल आए न आए,
नई सूचना िा मौर बाूँ िे हुए
चेतना ये, होिर सिल आए न आए,
पर मैं कजयूूँगा नई फ़सल िे कलए
िभी ये नई फ़सल आए न आए :

हाूँ ! कजस कदन कपंजड़े िी


सलािें मोड़ लूूँ गा मैं,
उस कदन सहषम
जीणम दे ह छोड़ दू ूँ गा मैं !

ओ मेरी डजंदगी
मैं जो अनवरत
तुम्हारा हाथ पिड़े
स्त्री-परायण पकत सा
इस वन िी पगडं कडयों पर
भू लता-भटिता आगे बढता जा रहा हूँ,
सो इसकलए नहीं
कि मु झे दै वी चमत्कारों पर कवश्वास है,
या तुम्हारे कबना मैं अपूणम हूँ ,
बखल्क इसकलए कि मैं पुरुष हूँ
और तुम चाहे परं परा से बूँिी मे री पत्नी न हो,
पर एि ऐसी शतम ज़रूर है,
जो मु झे संस्कारों से प्राप्त हुई,
कि मैं तुम्हें छोड़ नहीं सिता।

पहले
जब पहला सपना टू टा था,
तब मे रे हाथ िी पिड़
तुम्हें ढीली महसूस हुई होगी।
सच,
वही तुम्हारे कबलगाव िा मु िाम हो सिता था।
पर उसिे बाद तो
िुछ टू टने िी इतनी आवाज़ें हुईं
कि आज ति उन्हें सुनता रहता हूँ ।
आवाज़ें और िुछ नहीं सुनने दे तीं!
तुम जो हर घड़ी िी साकथन हो,
तुमझे झूठ क्या बोलूूँ ?
िु द तुम्हारा स्पंदन अनुभव किए भी
मु झे अरसा गुजर गया!
ले किन तुम्हारे हाथों िो हाथों में कलए
मैं उस समय ति चलूूँ गा
जब ति उूँ गकलयाूँ गलिर न कगर जाएूँ ।
तुम किर भी अपनी हो,
वह किर भी ग़ैर थी जो छूट गई;
और उसिे सामने िभी मैं
यह प्रगट न होने दू ूँ गा
कि मे री उूँ गकलयाूँ दग़ाबाज़ हैं,
या मे री पिड़ िमज़ोर है ,
मैं चाहे िलम पिड़ूूँ या िलाई।

मगर ओ मे री कजं दगी!


मु झे यह तो बता
तू मु झे क्यों कनभा रही है ?
मे रे साथ चलते हुए
क्या तुझे िभी ये अहसास होता है
कि तू अिेली नहीं?

मैं और मेरा दु ि
दु ि : किसी कचकड़या िे अभी जन्मे बच्चे सा
किंतु सुि : तमं चे िी गोली जैसा
मु झिो लगा है ।
आप ही बताएूँ
िभी आप ने चलती हुई गोली िो चलते,
या अभी जन्मे बच्चे िो उड़ते हुए दे िा है ?

शब् ं की पुकार
एि बार किर
हारी हुई शब्-सेना ने
मे री िकवता िो आवाज़ लगाई—
“ओ माूँ ! हमें सूँवारो।

थिे हुए हम
कबिरे -कबिरे क्षीण हो गए,
िई परत आ गईं िूल िी,
िुूँिला सा अखस्तत्व पड़ गया,
संज्ञाएूँ िो चुिे...!

ले किन किर भी
अंश तुम्हारे ही हैं
तुमसे पृथि िहाूँ हैं ?
अलग-अलग अिरों में घुटते
अलग-अलग हम क्या हैं ?
(िंिर, पत्थर, राजमागम पर!)
ठोिर िाते हुए जनों िी
उम्र गुज़र जाएगी,
हसरत मर जाएगी यह—
‘िाश हम किसी नींव में िाम आ सिे होते,
हम पर भी उठ पाती बड़ी इमारत।’

ओ िकवता माूँ !
लो हमिो अब
किसी गीत में गूूँथो
नश्वरता िे तट से पार उतारो
और उबारो—
एिरूप शं िलाबि िर
अिमम ण्यता िी दलदल से।
आत्मसात होने िो तुममें
आतुर हैं हम
क्योंकि तुम्हीं वह नींव
इमारत िी बुकनयाद पड़े गी कजस पर।
शब् नामिारी
सारे िे सारे युवि, प्रौढ औ’ बालि,
एि तुम्हारे इं कगत िी िर रहे प्रतीक्षा,
चाहे कजिर मोड़ दो
िोई उज़र नहीं है —
ऊूँची-नीची राहों में
या उन गकलयों में
जहाूँ िुशी िा गुज़र नहीं है —;
ले किन मं कज़ल ति पहुूँ चा दो, ओ िकवता माूँ !
किसी छं द में बाूँ ि
कवजय िा िवच कपन्हा दो, ओ िकवता माूँ !

िूल-िूसररत
हम कि तुम्हारे ही बालि हैं
हमें कनहारो!
अंि कबठाओ,
पंखक्त सजाओ, ओ िकवता माूँ !”

एि बार किर
िुछ कवश्वासों ने िरवट ली,
सूने आूँ गन में िुछ स्वर कशशुओं से दौड़े ,
जाग उठी चेतनता सोई;
होने लगे िड़े वे सारे आहत सपने
कजन्हें िरा पर कबछा गया था झोंिा िोई!

डदखिजर् का अश्व
“—आह, ओ नादान बच्चो!
कदखिजय िा अश्व है यह,
गले में इसिे बूँिा है जो सुनहला-पत्र
मत िोलो,
छोड़ दो इसिो।

कबना-समझे, कबना-बूझे, पिड़ लाए


मूूँ ज िी इन रखस्सयों में बाूँ ििर
क्यों जिड़ लाए?
क्या िरोगे?

िनु िाम री, भीम औ’ सहदे व


या िु द िमम राज निुल वगैरा
साज सेना
अभी अपने गाूँ व में आ जाएूँ गे,
महाभारत िा बने गा िेंद्र यह,
हाकथयों से
और अश्वों िे िु रों से,
िूल में कमल जाएूँ गे ये घर,
अनकगन लाल
ग्रास होंगे िाल िे,
मृ त्यु िामोशी कबछा दे गी,
भरी पूरी फ़सल सा यह गाूँ व
सब वीरान होगा।

आह! इसिा िरोगे क्या?


छोड़ दो!
बाग इसिी किसी अनजानी कदशा में मोड़ दो।
क्या नहीं मालू म तुमिो
आप ही भगवान उनिे सारथी हैं ?”

“—नहीं, बापू, नहीं!


इसे िैसे छोड़ दें हम?
इसे िैसे छोड़ सिते हैं !!
हम कि जो ढोते रहे हैं कज़ं दगी िा बोझ अब ति
पीठ पर इसिी चढें गे,
हवा िाएूँ गे,
गाकड़यों में इसे जोतेंगे,
लादिर बोरे उपज िे
बेचने बाज़ार जाएूँ गे।

हम कि इसिो नई ताज़ी घास दें गे


घूमने िो हरा सब मै दान दें गे।
प्यार दें गे, मान दें गे;
हम कि इसिो रोिने िे कलए अपने प्राण दें गे।

अस्तबल में बूँिा यह कनवाम ि प्राणी!


उस ‘चमे ली’ गाय िे बछड़े सरीिा
आज बंिनहीन होिर
यहाूँ कितना रम गया है !

यह कि जै से यहीं जन्मा हो, पला हो।

आज हैं िकटबि हम सब
िावड़े लाठी सूँभाले।
िृष्ण, अजुम न इिर आएूँ
हम उन्हें आने न दें गे।
अश्व ले जाने न दें गे।”

डदन डनकिने से पहिे


“मनु ष्यों जै सी
पकक्षयों िी चीिें और िराहें गूूँज रही हैं ,
टीन िे िनस्तरों िी बस्ती में
हृदय िी शक्ल जै सी अूँगीकठयों से
िुआूँ कनिलने लगा है ,
आटा पीसने िी चखक्कयाूँ
जनता िे सखम्मकलत नारों िी सी आवाज़ में
गड़गड़ाने लगी हैं ,
सुनो प्यारे ! मे रा कदल बैठ रहा है !”

“अपने िो सूँभालो कमत्र!


अभी ये िराहें और तीिी,
ये िुआूँ और िड़ुआ,
ये गड़गड़ाहट और तेज़ होगी,
मगर इनसे भयभीत होने िी ज़रूरत नहीं,
कदन कनिलने से पहले ऐसा ही हुआ िरता है।”

पररणडत
आत्मकसि थीं तुम िभी!
स्वयं में समोने िो भकवष्यत् िे स्वप्न
नयनों से वेगवान सुषमा उमड़ती थी,
आश्वस्त अंतस िी प्रकतज्ञा िी तरह
तन से कस्नग्ध मां सलता िूट पड़ती थी
कजसमें रस था:

पर अब तो
बच्चों ने जै से
चािू से िोद िोद िर
कविृत िर कदया हो किसी आम िे तने िो
गोंद पाने िे कलए:

सपनों िे उद्वे लन
बचपन िे िेल बनिर रह गए;
शु ष्क सररता िा अंतहीन मरुथल!
खस्थर....कनयत.....पूवम कनिाम ररत सा जीवन-क्रम
तोष-असंतोष-हीन,

शब् गए
िेवल अिर रह गए;
सुि-दु ि िी पररकि हुई सीकमत
गीले -सूिे ईंिन ति,
अनु भूकतयों िा िमम ठ ओज बना
राूँ िना-खिलाना
यौवन िे झनझनाते स्वरों िी पररणकत
लोररयाूँ गुनगुनाना
(मु न्ने िो चुपाने िे कलए!)

किसी प्रेम-पत्र सदृश


आज वह भकवष्यत्!
फ़शम पर टु िड़ों में कबिरा पड़ा है
क्षत-कवक्षत!

र्ासना का ज्वार
क्या भरोसा
लहर िब आए?
किनारे डूब जाएूँ ?
तोड़िर सारे कनयंत्रण
इस अगम गकतशील जल िी िार—
िब डु बोदे क्षीण जजम र यान?
(मैं कजसे संयम बताता हूँ )

आह! ये क्षण!
ये चढे तूफ़ान िे क्षण!
क्षु द्र इस व्यखक्तत्व िो मथ डालने वाले
नए कनमाम ण िे क्षण!
यही तो हैं —
मैं कि कजनमें
लु टा, िोया, िड़ा िाली हाथ रह जाता,
तुम्हारी ओर अपलि तािता सा!

यह तुम्हारी सहज स्वाभाकवि सरल मुस्कान


़ैद इनमें कबलकबलाते अनकगनत तूफ़ान
इसे रोिो प्राण!...
अपना यान मु झिो बहुत प्यारा है !
पर सदा तूफ़ान िे सामने हारा है !

एक पत्र का अंश
मु झे कलिना
वह नदी जो बही थी इस ओर!
कछन्न िरती चेतना िे राि िे स्तू प,
क्या अब भी वहीं है ?
बह रही है ?
—या गई है सूि वह
पािर समय िी िूप?

प्राण! िौतूहल बड़ा है ,


मु झे कलिना,
श्वाूँ स दे िर िाद
परती िड़ी िरती चीर
वृक्ष जो हमने उगाया था नदी िे तीर
क्या अब भी िड़ा है ?
—या बहा िर ले गई उसिो नदी िी िार
अपने साथ, परली पार?

गीत तेरा
गीत तेरा मन िूँपाता है ।
शखक्त मे री आजमाता है ।

न गा यह गीत,
जै से सपम िी आूँ िें
कि कजनिा मौन सम्मोहन
सभी िो बाूँ ि ले ता है ,
कि तेरी तान जै से एि जादू सी
मु झे बेहोश िरती है ,
कि तेरे शब्
कजनमें हबह तस्वीर
मे री कज़ं दगी िी ही उतरती है;
न गा यह कज़ं दगी मे री न गा,
प्राण िा सूना भवन हर स्वर गुूँजाता है,
न गा यह गीत मेरी लहररयों में ज्वार आता है ।

हमारे बीच िा व्यविान िम लगने लगा


मैं सोचती अनजान तेरी राकगनी में
ददम मे रे हृदय िा जगने लगा;
भावना िी मिुर स्वकप्नल राह--
‘इिली नहीं हूँ मैं आह!’
सोचती हूँ जब, तभी मन िीर िोता है,
कि िहती हूँ न जाने क्या
कि क्या िुछ अथम होता है ?
न जाने ददम इतना किस तरह मन झेल पाता है ?
न जाने किस तरह िा गीत यौवन तड़िड़ाता है ?
न गा यह गीत मु झिो दू र िी ंचे कलए जाता है ।

गीत तेरा मन िूँपाता है ।


हृदय मेरा हार जाता है ।

जभी त
नफ़रत औ’ भे द-भाव
िेवल मनु ष्यों ति सीकमत नहीं रह गया है अब।
मैं ने महसूस किया है
मे रे घर में ही
कबजली िा सुंदर औ’ भड़िदार लट् टू—
िुरसी िे टू टे हुए बेंत पर,
िस्ता कतपाई पर,
िटे हुए कबस्तर पर, कछन्न चारपाई पर,
िुम्हलाए बच्चों पर,
अिनं गी बीवी पर—
रोज़ व्यं ग्य िरता है,
जै से वह िोई ‘कमल-ओनर’ हो।

जभी तो—मे रे नसों में यह िून िौल उट्ठा है,


बंकिम हुईं हैं भौंह,
मैं ने िुछ तेज़ सा िहा है ;
यों मु झे क्या पड़ी थी
जो अपनी ़लम िो िड् ग बनाता मैं ?

म म का घ ़िा
मै ने यह मोम िा घोड़ा,
बड़े जतन से जोड़ा,
रक्त िी बूूँदों से पालिर
सपनों में ढालिर
बड़ा किया,
किर इसमें प्यास और स्पंदन
गायन और क्रंदन
सब िुछ भर कदया,
औ’ जब कवश्वास हो गया पूरा
अपने सृजन पर,
तब इसे लािर
आूँ गन में िड़ा किया!

माूँ ने दे िा—कबगड़ी ं;
बाबूजी गरम हुए;
किंतु समय गुजरा...
किर नरम हुए।
सोचा होगा—लड़िा है ,
ऐसे ही स्वाूँ ग रचा िरता है ।

मु झे भरोसा था मे रा है,
मे रे िाम आएगा।
कबगड़ी बनाएगा।
किंतु यह घोड़ा।
िायर था थोड़ा,
लोगों िो दे ििर कबदिा, चौंिा,
मैं ने बड़ी मुखिल से रोिा।

और किर हुआ यह
समय गुज़रा, वषम बीते,
सोच िर मन में —हारे या जीते,
मै ने यह मोम िा घोड़ा,
तुम्हें बुलाने िो
अकि िी कदशाओं िो छोड़ा।

किंतु जै से ये बढा
इसिी पीठ पर पड़ा
आिर
लपलपाती लपटों िा िोड़ा,
तब कपघल गया घोड़ा
और मोम मे रे सब सपनों पर िैल गया!

मंत्र हँ
मं त्र हूँ तुम्हारे अिरों में मैं!
एि बूूँद आूँ सू में पढिर िेंिो मु झिो
ऊसर मै दानों पर
िे तों िकलहानों पर
िाली चट्टानों पर....।
मं त्र हूँ तुम्हारे अिरों में मैं

आज अगर चुप हूँ


िूल भरी बाूँ सुरी सरीिा स्वरहीन, मौन;
तो मैं नहीं
तुम ही हो उतरदायी इसिे।
तुमने ही मु झे िभी
ध्यान से कनहारा नहीं,
छु आ या पुिारा नहीं,
कछद्रों में िूूँि नहीं दी तुमने,
तुमने ही वषों से
अपनी पीड़ाओं िो, क्रंदन िो,
मू ि, भावहीन, बने रहने िी स्वीिृकत दी;
मु झिो भी कववश किया
तुमने अकभव्यखक्तहीन होिर िु द!

ले किन मैं अब भी गा सिता हूँ


अब भी यकद
होठों पर रि लो तुम
दे िर मु झिो अपनी आत्मा
सुि-दु ि सहने दो,
मे रे स्वर िो अपने भावों िी सकलला में
अपनी िुंठाओं िी िारा में बहने दो।

प्राणहीन है वैसे तेरा तन


तुमिो ही पािर पूणमत्व प्राप्त िरता है ,
मु झिो पहचानो तुम
पृथि नहीं सता है !
--तुम ही हो जो मे रे माध्यम से
कवकवि रूप िर िर प्रकतिकलत हुआ िरते हो!

मु झिो उच्चररत िरो


चाहे कजन भावों में गढिर!
मं त्र हूँ तुम्हारे अिरों में मैं
िेंिो मु झिो एि बूूँद आूँ सू में पढिर!
स्वप्न और पररखथथडतर्ाँ
कसगरे ट िे बादलों िा घेरा
बीच में कजसिे वह स्वप्न कचत्र मे रा—
कजसमें उग रहा सवेरा साूँ स लेता है ,
कछन्न िर जाते हैं कनमम म हवाओं िे झोंिे;
आह! है िोई माई िा लाल?
जो इन्हें रोिे,
सामने आिर सीना ठोंिे।

अडभव्यखक्त का प्रश्न
प्रश्न अकभव्यखक्त िा है ,
कमत्र!
किसी ममम स्पशी शब् से
या कक्रया से,
मे रे भावों, अभावों िो भे दो
प्रेरणा दो!

यह जो नीला
ज़हरीला घुूँआ भीतर उठ रहा है ,
यह जो जै से मे री आत्मा िा गला घुट रहा है,
यह जो सद्य-जात कशशु सा
िुछ छटपटा रहा है,
यह क्या है ?
क्या है कमत्र,
मे रे भीतर झाूँ ििर दे िो।
छे दो! मयाम दा िी इस लौह-चादर िो,
मु झे ढूँ ि बैठी जो,
उठने मुस्कराने नहीं दे ती,
दु कनयाूँ में आने नहीं दे ती।

मैं जो समु द्र-सा


सैिड़ों सीकपयों िो कछपाए बैठा हूँ ,
सैिड़ों लाल मोती िपाए बैठा हुूँ ,
कितना कववश हूँ!
कमत्र, मे रे हृदय िा यह मंथन
यह सुरों और असुरों िा द्वन्द्व
िब चुिेगा?
िब जागेगी शं िर िी गरल पान िरने वाली िरुणा?
िब मु झे ह़ कमले गा
इस मं थन िे िल िो प्रगट िरने िा?

मू ि!
असहाय!!
अकभव्यखक्त हीन!!
मैं जो िकव हूँ ,
भावों-अभावों िे पाटों में पड़ा हुआ
एिािी दाने -सा
िब ति जीता रहूँ गा?
िब ति िमरे िे बाहर पड़े हुए गदम खोरे -सा
जीवन िा यह क्रम चले गा?
िब ति कज़ं गदी िी गदम पीता रहूँ गा?

प्रश्न अकभव्यखक्त िा है कमत्र!


ऐसा िरो िुछ
जो मेरे मन में िुलबुलाता है
बाहर आ जाए!
भीतर शां कत छा जाए!

दीर्ार
दीवार, दरारें पड़ती जाती हैं इसमें
दीवार, दरारें बढती जाती हैं इसमें
तुम कितना प्लास्टर औ’ सीमेंट लगाओगे
िब ति इं जीकनयरों िी दवा कपलाओगे
कगरने वाला क्षण दो क्षण में कगर जाता है ,
दीवार भला िब ति रह पाएगी रकक्षत
यह पानी नभ से नहीं िरा से आता है ।

आत्म-र्जाना
अब हम इस पथ पर िभी नहीं आएूँ गे।
तुम अपने घर िे पीछे
कजन ऊूँची ऊूँची दीवारों िे नीचे
कमलती थीं, उनिे साए
अब ति मु झ पर मूँ डलाए,
अब िभी न मूँडलाएूँ गें।

दु ि ने कझझि िोल दी
वे कबनबोले अक्षर
जो मन िी अकभलाषाओं िो रूप न दे िर
अिरों में ही घुट जाते थे
अब गूूँजेंगे, िकवता िहलाएूँ गें,
पर हम इस पथ पर िभी नहीं आएूँ गें।

एक मनखथथडत का डच
मानसरोवर िी
गहराइयों में बैठे
हं सों ने पाूँ िें दीं िोल

शां त, मू ि अंबर में


हलचल मच गई
गूूँज उठे त्रस्त कवकवि-बोल

शीष कटिा हाथों पर


आूँ ि झपीं, शं िा से
बोिहीन हृदय उठा डोल।

पुनस्मारण
आह-सी िूल उड़ रही है आज
चाह-सा िाकफ़ला िड़ा है िहीं
और सामान सारा बेतरतीब
ददम -सा कबन-बूँिे पड़ा है िहीं
िि-सा िुछ अटि गया होगा
मन-सा राहें भटि गया होगा
आज तारों तले कबचारे िो
िाटनी ही पड़े गी सारी रात
xxx
बात पर आ गई है बात

स्वप्न थे तेरे प्यार िे सब िेल


स्वप्न िी िुछ नहीं कबसात िहीं
मैं सुबह जो गया बगीचे में
बदहवास होिे जो नसीम बही
पात पर एि बूूँद थी, ढलिी,
आूँ ि मे री मगर नहीं छलिी
हाूँ , कवदाई तमाम रात आई—
याद रह रह िे’ िूँपिूँपाया गात
xxx
बात पर आ गई है बात

सत्य
दू र ति िैली हुई है कजं दगी िी राह
ये नहीं तो और िोई वृक्ष दे गा छाूँ ह
गुलमु हर, इस साल खिल पाए नहीं तो क्या!
सत्य, यकद तुम मु झे कमल पाए नहीं तो क्या!

क्षमा
"आह!
मे रा पाप-प्यासा तन
किसी अनजान, अनचाहे , अिथ-से बंिनों में
बूँि गया चुपचाप
मे रा प्यार पावन
हो गया कितना अपावन आज!
आह! मन िी ग्लाकन िा यह िूम्र
मे री घुट रही आवाज़!
िैसे पी सिा
कवष से भरे वे घूूँट...?
जूँ गली िूल सी सुिुमार औ’ कनष्पाप
मे री आत्मा पर बोझ बढता जा रहा है प्राण!
मु झिो त्राण दो...
दो...त्राण...."

और आगे िह सिा िुछ भी न मैं


टू टे -कससिते अश्रु भीगे बोल में
सब बह गए स्वर कहचकियों िे साथ
औ’ अिूरी रह गई अपराि िी वह बात
जो इि रात....।
बा़ी रहे स्वप्न भी
मू ि तलु ओं में कचपििर रह गए।
और किर
बाहें उठीं दो कबजकलयों सी
नमम तलु ओं से सटा मुि-नम
आया वक्ष पर उद् भ्रान्त;
हल्की सी ‘टपाऽटप’ ध्वकन
कससकियाूँ
और किर सब शां त....
नीरव.....शां त.......।

कागज़ की ड डं गर्ाँ
यह समं दर है ।
यहाूँ जल है बहुत गहरा।
यहाूँ हर एि िा दम िूल आता है ।
यहाूँ पर तैरने िी चेिा भी व्यथम लगती है ।

हम जो स्वयं िो तैराि िहते हैं ,


किनारों िी पररकि से िब गए आगे?
इसी इकतवृत में हम घूमते हैं,
चूमते हैं पर िभी क्या छोर तट िा?
(किंतु यह तट और है )

समं दर है कि अपने गीत गाए जा रहा है ,


पर हमें फ़ुरसत िहाूँ जो सुन सिें िुछ!
क्योंकि अपने स्वाथम िी
संिुकचत सीमा में बंिे हम,
दे ि-सुन पाते नहीं हैं
और िा दु ि
और िा सुि।

वस्तु तः हम हैं नहीं तैराि,


िु द िो छल रहे हैं ,
क्योंकि चारों ओर से तैराि रहता है सजग।

हम हैं नाव िागज़ िी!


कजन्हें दो-चार क्षण उन्मत लहरों पर
मचलते दे िते हैं सब,
हमें वह तट नहीं कमलता
(कि पाना चाकहए जो,)
न उसिो िोजते हैं हम।
तकनि सा तैरिर
तैराि िु द िो मान ले ते हैं,
कि गलिर अंततोगत्वा
वहाूँ उस ओर
कमलता है समं दर से जहाूँ नीलाभ नभ,
नीला िुआूँ उठता जहाूँ ,
हम जा पहुूँ चते हैं ;
(मगर यह भी नहीं है ठीि से मालू म।)

िल अगर िोई
हमारी डोंकगयों िो ढू ूँ ढना चाहे ....
.........................?

पर जाने क् ं
माना इस बस्ती में िुआूँ है
िाई है,
िं दि है ,
िुआूँ है ;
पर जाने क्यों?
िभी िभी िुआूँ पीने िो भी मन िरता है ;
िाई-िं दिों में जीने िो भी मन िरता है;
यह भी मन िरता है —
यहीं िहीं झर जाएूँ ,
यहीं किसी भूिे िो दे ह-दान िर जाएूँ
यहीं किसी नं गे िो िाल िीच ं िर दे दें
प्यासे िो रक्त आूँ ि मींच मींच िर दे दें
सब उलीच िर दे दें
यहीं िहीं—!
माना यहाूँ िुआूँ है
िाई है, िं दि है , िुआूँ है ,
पर जाने क्यों?

मार्ा
दू ि िे िटोरे सा चाूँ द उग आया।
बालिों सरीिा यह मन ललचाया।
(आह री माया!
इतना िहाूँ है मे रे पास सरमाया?
जीवन गूँवाया!)

संडधथथि
साूँ झ।
दो कदशाओं से
दो गाकड़याूँ आईं
रुिीं।
‘यह िौन
दे िा िुछ कझझि संिोच से
पर मौन।

‘तुमुल िोलाहल भरा यह संकिस्थल िन्य!’


दोनों एि दू जे िे हृदय िी िड़िनों िो
सुन रहे थे शां त,
जै से ऐंद्रजाकलि-चेतना िे लोि में
उद् भ्रान्त।

चल पड़ी किर टर े न।
मु ि पर सद्यकनकमम त झुररम याूँ
स्पि सी हो गईं दोनों और दु ि िी।
िड़िड़ाते रह गए स्वर पीत अिरों में ।
व्यग्र उत्कंठा सभी िुछ जानने िी,
पूछने िी घुट गई।
आूँ सू भरी नयनों िी अिृकतम िोर,
दोनों ओर:
दे िा दू र ति चुपचाप, रोिे साूँ स,
ले किन आ गया व्यविान बन
सहसा कक्षकतज िा क्षोर--
मानव-शखक्त िे सीमान िा आभास,
और कदन बुझ गया।

सूचना
िल माूँ ने यह िहा –-
कि उसिी शादी तय हो गई िहीं पर,
मैं मु सिाया वहाूँ मौन
रो कदया किन्तु िमरे में आिर
जै से दो दु कनया हों मु झिो
मे रा िमरा औ' मेरा घर ।

समर्
नहीं!
अभी रहने दो!
अभी यह पुिार मत उठाओ!
नगर ऐसे नहीं हैं शू न्य! शब्हीन!
भू ला भटिा िोई स्वर
अब भी उठता है --आता है!
कनस्वन हवा में तैर जाता है !

रोशनी भी है िहीं?
मखिम सी लौ अभी बुझी नहीं,
नभ में एि तारा कटमकटमाता है !

अभी और सब्र िरो!


जल नहीं, रहने दो!
अभी यह पुिार मत उठाओ!
अभी एि बूूँद बािी है !
सोतों में पहली सी िार प्रवहमान है !
िहीं िहीं मानसून उड़ते हैं !
और हररयाली भी कदिाई दे जाती है !
ऐसा नहीं है बन्धु!
सब िहीं सूिा हो!

गंि नहीं:
शखक्त नहीं:
तप नहीं:
त्याग नहीं:
िुछ नहीं--
न हो बन्धु! रहने दो
अभी यह पुिार मत उठाओ!
और िि सहो।
िसलें यकद पीली हो रही हैं तो होने दो
बच्चे यकद प्यासे रो रहे हैं तो रोने दो
भट्टी सी िरती िी छाती सुलगने दो
मन िे अलावों में और आग जगने दो
िायम िा िारण कसिम इच्छा नहीं होती...!
िल िे हे तु िृषि भू कम िूप में कनरोता है
हर एि बदली यूूँही नहीं बरस जाती है !
बखल्क समय होता है !

आँ धी और आग
अब ति ग्रह िुछ कबगड़े कबगड़े से थे इस मं गल तारे पर
नई सुबह िी नई रोशनी हावी होगी अूँकियारे पर
उलझ गया था िहीं हवा िा आूँ चल अब जो छूट गया है
एि परत से ज्ादा राख नहीं है युग िे अंगारे पर।
अनुभर्-दान
"िूँ डहरों सी भावशू न्य आूँ िें
नभ से किसी कनयंता िी बाट जोहती हैं ।
बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं;
टू टी हुई कजं दगी
आूँ गन में दीवार से पीठ लगाए िड़ी है ;
िटी हुई पतंगों से हम सब
छत िी मुूँ डेरों पर पड़े हैं।"

बस! बस!! बहुत सुन कलया है ।


नया नहीं है ये सब मैंने भी किया है ।
अब वे कदन चले गए,
बालबुखि िे वे िच्चे कदन भले गए।
आज हूँ सी आती है !

व्यखक्त िो आूँ िों में


़ैद िर लेने िी आदत पर,
रूप िो बाहों में भर लेने िी िल्पना पर,
हूँ सने -रोने िी बातों पर,
कपछली बातों पर,
आज हूँ सी आती है !

तुम सबिी ऐसी बातें सुनने पर


रुई िे तकियों में कसर िुनने पर,
अपने हृदयों िो भि घोकषत िर दे ने िी आदत पर,
गीतों से िाकपयाूँ भर दे ने िी आदत पर,
आज हूँ सी आती है !

इस सबसे ददम अगर कमटता


तो रुई िा भाव तेज हो जाता।
तकियों िे कगलाफ़ों िो िपड़े नहीं कमलते।
भि हृदयों िी दवा दजी कसलते।
गीतों से गकलयाूँ ठस जातीं।

ले किन,
िहाूँ वह उदासी अभी कमट पाई!
गकलयों में सूनापन अब भी पहरा दे ता है,
पर अभी वह घड़ी िहाूँ आई!

चाूँ द िो दे ििर िाूँ पो


तारों से घबराओ
भला िहीं यूूँ भी ददम घटता है!
मन िी िमज़ोरी में बहिर
िड़े िड़े कगर जाओ
िु ली हवा में न आओ
भला िहीं यूूँ भी पथ िटता है !

झुिी हुई पीठ,


टू टी हुई बाहों वाले बालि-बाकलिाओं सुनो!
िु ली हवा में िे लो।
चाूँ द िो चमिने दो, हूँ सने दो
दे िो तो
ज्ोकत िे िब्ों िो कमलाती हुई
रे िा आ रही है ,
िकलयों में नए नए रं ग खिल रहे हैं ,
भौरों ने नए गीत छे ड़े हैं ,
आग बाग-बागीचे, गकलयाूँ िू बसूरत हैं ।
उठो तुम भी
हूँ सी िी ़ीमत पहचानो
हवाएूँ कनराश न लौटें ।

उदास बालि बाकलिाओं सुनो!


समय िे सामने सीना तानो,
झुिी हुई पीठ
टू टी हुई बाहों वाले बालिों आओ
मे री बात मानो।

उबाि
गाओ...!
िाई किनारे से लग जाए
अपने अखस्तत्व िी शु ि चेतना जग जाए
जल में
ऐसा उबाल लाओ...!

सत्य बतिाना
सत्य बतलाना
तुमने उन्हें क्यों नहीं रोिा?
क्यों नहीं बताई राह?
क्या उनिा किसी दे शद्रोही से वादा था?
क्या उनिी आूँ िों में घृणा िा इरादा था?
क्या उनिे माथे पर द्वे ष-भाव ज्ादा था?
क्या उनमें िोई ऐसा था जो िायर हो?

या उनिे िटे वस्त्र तुमिो भरमा गए?


पाूँ वों िी कबवाई से तुम िोिा िा गए?
जो उनिो ऐसा ग़लत रास्ता सुझा गए।
जो वे िता िा गए।
सत्य बतलाना तुमने, उन्हें क्यों नहीं रोिा?
क्यों नहीं बताई राह?
वे जो हमसे पहले इन राहों पर आए थे,
वे जो पसीने से दू ि से नहाए थे,
वे जो सचाई िा झंडा उठाए थे ,
वे जो लौटे तो पराकजत िहाए थे ,
क्या वे पराए थे ?
सत्य बतलाना तुमने, उन्हें क्यों नहीं रोिा?
क्यों नहीं बताई राह?

सत्यान्वेषी
िेकनल आवतों िे मध्य
अजगरों से कघरा हुआ
कवष-बुझी िुंिारें
सुनता-सहता,
अगम, नीलवणी,
इस जल िे िाकलयादाह में
दहता,
सुनो, िृष्ण हूँ मैं,
भू ल से साकथयों ने
इिर िेंि दी थी जो गेंद
उसे लेने आया हूँ
[आया था
आऊूँगा]
ले िर ही जाऊूँगा।

नई पढ़ी का गीत
जो मरुस्थल आज अश्रु कभगो रहे हैं ,
भावना िे बीज कजस पर बो रहे हैं ,
कसफ़म मृ ग-छलना नहीं वह चमचमाती रे त!
क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन?
सूयम िी पहली किरन पहचानता है िौन?
अथम िल लें गे हमारे आज िे संिेत।

तुम न मानो शब् िोई है न नामु मकिन


िल उगेंगे चाूँ द-तारे , िल उगेगा कदन,
िल फ़सल दें गे समय िो, यही ‘बंजर िे त’।

सूर्ा का स्वागत (कडर्ता)


आूँ गन में िाई है ,
दीवारें कचिनीं हैं, िाली हैं,
िूप से चढा नहीं जाता है ,
ओ भाई सूरज! मैं क्या िरू ूँ ?
मे रा नसीबा ही ऐसा है !

िु ली हुई खिड़िी दे ििर


तुम तो चले आए,
पर मैं अूँिेरे िा आदी,
अिमम ण्य...कनराश...
तुम्हारे आने िा िो चुिा था कवश्वास।

पर तुम आए हो--स्वागत है !
स्वागत!...घर िी इन िाली दीवारों पर!
और िहाूँ ?
हाूँ , मे रे बच्चे ने
िे ल िे ल में ही यहाूँ िाई िु रच दी थी
आओ--यहाूँ बैठो,
और मु झे मे रे अभद्र सत्कार िे कलए क्षमा िरो।
दे िो! मे रा बच्चा
तुम्हारा स्वागत िरना सीि रहा है ।

आज

अक्षरों िे इस कनकवड़ वन में भटितीं


ये हजारों लेिनी इकतहास िा पथ िोजती हैं
...क्राखन्त !...कितना हूँ सो चाहे
किन्तु ये जन सभी पागल नहीं।
रास्तों पर िड़े हैं पीड़ा भरी अनु गूूँज सुनते
शीश िुनते कविलता िी चीख पर जो िान
स्वर-लय िोजते हैं
ये सभी आदे श-बाकित नहीं।

इस कविल वातावरण में


जो कि लगता है िहीं पर िुछ महि-सी है
भावना हो...सवेरा हो...
या प्रतीकक्षत पकक्षयों िे गान-
किन्तु िुछ है;
गन्ध-वाकसत वेकणयों िा इन्तज़ार नहीं।

यह प्रतीक्षा : यह कविलता : यह पररखस्थकत :


हो न इसिा िहीं भी उल्लेि चाहे
िाद-सी इकतहास में बस िाम आये
पर समय िो अथम दे ती जा रही है

दृष्टान्त

वह चक्रव्यू ह भी कबिर गया


कजसमें कघरिर अकभमन्यु समझता था खु द िो।
आक्रामि सारे चले गये
आक्रमण िहीं से नहीं हुआ
बस मैं ही दु कनम वार तम िी चादर-जै सा
अपने कनखिय जीवन िे ऊपर िैला हूँ ।
बस मैं ही एिािी इस युि-स्थल िे बीच िड़ा हूँ ।

यह अकभमन्यु न बन पाने िा क्लेश !


यह उससे भी िहीं अकिि क्षत-कवक्षत सब पररवेश !!
उस युि-स्थल से भी ज़्यादा भयप्रद...रौरव
मे रा हृदय-प्रदे श !!!

इकतहासों में नहीं कलिा जायेगा।


ओ इस तम में कछपी हुई िौरव सेनाओ !
आओ ! हर िोिे से मु झे लील लो,
मे रे जीवन िो दृिान्त बनाओ;
नये महाभारत िा व्यू ह वरू
ूँ मैं ।
िुखित शस्त्र भले हों हाथों में
ले किन लड़ता हुआ मरू
ूँ मैं ।

आग जिती रहे

एि तीिी आूँ च ने
इस जन्म िा हर पल छु आ,
आता हुआ कदन छु आ
हाथों से गुज़रता िल छु आ
हर बीज, अूँिुआ, पेड़-पौिा,
िूल-पती, िल छु आ
जो मु झे छूने चली
हर उस हवा िा आूँ चल छु आ !
...प्रहर िोई भी नहीं बीता अछूता
आग िे सम्पिम से
कदवस, मासों और वषों िे िड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तिम से।
एि चौथाई उमर
यों िौलते बीती कबना अविाश
सुि िहाूँ
यों भाप बन-बनिर चुिा,
रीता,
भटिता-
छानता आिाश !
आह ! िैसा िकठन
...िैसा पोच मे रा भाग !
आग, चारों ओर मे रे
आग िेवल भाग !
सुि नहीं यों िौलने में सुि नहीं िोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी-;
वह, समय िी प्रतीक्षा में है , जगेगी आप
ज्ों कि लहराती हुई ढिनें उठाती भाप !

अभी तो यह आग जलती रहे , जलती रहे ,


कज़न्दगी यों ही िड़ाहों में उबलती रहे।

सूिे िूि : उदास डचराग़

आज लौटते घर दफ़्तर से पथ में िकब्रस्तान कदिा


िूल जहाूँ सूिे कबिरे थे और’ कचराग़ टू टे -िूटे
यों ही उत्सु िता से मैं ने थोड़े िूल बटोर कलये
िौतूहलवश एि कचराग़ उठाया औ’ संग ले आया

थोड़ा-सा जी दु िा, कि दे िो, कितने प्यारे थे ये िूल


कितनी भीनी, कितनी प्यारी होगी इनिी गन्ध िभी,
सोचा, ये कचराग़ कजसने भी यहाूँ जलािर रक्खे थे
उनिे मन में होगी कितनी गहरी पीड़ा स्नेह-पगी
तभी आ गयी गन्ध न जाने िैसे सूिे िूलों से
घर िे बच्चे ‘िूल-िूल’ कचल्लाते आये मु झ ति भाग,
मैं क्या िहता आखिर उस ह़ ले नेवाली पीढी से
दे ने पड़े कववश होिर वे सूिे िूल, उदास कचराग़

साँ स ं की पररडध
जै से अन्धिार में
एि दीपि िी लौ
और उसिे वृत में िरवट बदलता-सा
पीला अूँिेरा।
वैसे ही
तुम्हारी गोल बाूँ हों िे दायरे में
मु स्करा उठता है
दु कनया में सबसे उदास जीवन मे रा।
अक्सर सोचा िरता हूँ
इतनी ही क्यों न हुई
आयु िी पररकि और साूँ सों िा घेरा।

अनुकूि र्ातार्रण
उड़ते हुए गगन में
पररन्दों िा शोर
दरों में, घाकटयों में
ज़मीन पर
हर ओर...

एि नन्हा-सा गीत
आओ
इस शोरोगुल में
हम-तुम बुनें,
और िेंि दें हवा में उसिो
ताकि सब सुने,
और शान्त हों हृदय वे
जो उिनते हैं
और लोग सोचें
अपने मन में कवचारें
ऐसे भी वातावरण में गीत बनते हैं ।

एक र्ात्रा-संस्मरण

बढती ही गयी टर े न महाशून्य में अक्षत


यात्री मैं लक्ष्यहीन
यात्री मैं संज्ञाहत।

छूटते गये पीछे


गाूँ वों पर गाूँ व
और नगरों पर नगर
बाग़ों पर बाग़
और िूलों िे ढे र
हरे -भरे िे त औ’ तड़ाग
पीले मै दान
सभी छूटते गये पीछे ...

लगता था
िट जायेगा अब यह सारा पथ
बस यों ही िड़े -िड़े
कडब्े िे दरवाज़े पिड़े -पिड़े ।

बढती ही गयी टर े न आगे


और आगे-
राह में वही क्षण
किर बार-बार जागे
किर वही कवदाई िी बेला
औ’ मैं किर यात्रा में-
लोगों िे बावजू द
अथम शून्य आूँ िों से दे िता हुआ तुमिो
रह गया अिेला।

बढती ही गयी टर े न
िि-िि िि-िि िरती
मु झे लगा जै से मैं
अन्धिार िा यात्री
किर मे री आूँ िों में गहराया अन्धिार
बाहर से भीतर ति भर आया अन्धिार।

कौन-सा पथ

तुम्हारे आभार िी कलकप में प्रिाकशत


हर डगर िे प्रश्न हैं मे रे कलए पठनीय
िौन-सा पथ िकठन है ...?
मु झिो बताओ
मैं चलूूँ गा।

िौन-सा सुनसान तुमिो िोचता है


िहो, बढिर उसे पी लूूँ
या अिर पर शं ि-सा रि िूूँि दू ूँ
तुम्हारे कवश्वास िा जय-घोष
मे रे साहकसि स्वर में मु िर है ।
तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपि सरीिा
मु झे बतलाओ
िौन-सी कदकश में अूँिेरा अकिि गहरा है !

आर्ाज़ ं के घेरे
आवाज़ें ...
स्थू ल रूप िरिर जो
गकलयों, सड़िों में मूँ डलाती हैं,
़ीमती िपड़ों िे कजस्मों से टिराती हैं ,
मोटरों िे आगे कबछ जाती हैं ,
दू िानों िो दे िती ललचाती हैं,
प्रश्न कचह्न बनिर अनायास आगे आ जाती हैं -
आवाज़ें !
आवाज़ें , आवाज़ें !!

कमत्रों !
मे रे व्यखक्तत्व
और मु झ-जै से अनकगन व्यखक्तत्वों िा क्या मतलब ?
मैं जो जीता हूँ

भूडमका / सार्े में धूप


मैं स्वीकार करता हूँ …

—कि ग़ज़लों िो भू कमिा िी ज़रूरत नहीं होनी चाकहए; ले किन,एि िैकफ़यत इनिी भाषा िे बारे में ज़रूरी है.
िुछ उदू म —दाूँ दोस्तों ने िुछ उदू म शब्ों िे प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनिा िहना है कि शब् ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’
होता है , ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है .

—कि मैं उदू म नहीं जानता, ले किन इन शब्ों िा प्रयोग यहाूँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझिर किया गया है . यह िोई
मु खिल िाम नहीं था कि ’शहर’ िी जगह ‘नगर’ कलििर इस दोष से मुखक्त पा लूूँ ,किंतु मैं ने उदू म शब्ों िो उस
रूप में इस्ते माल किया है ,कजस रूप में वे कहन्दी में घुल—कमल गये हैं . उदू म िा ‘शह्र’ कहन्दी में ‘शहर’ कलिा और बोला
जाता है ;ठीि उसी तरह जै से कहन्दी िा ‘ब्राह्मण’ उदू म में ‘कबरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है .

—कि उदू म और कहन्दी अपने—अपने कसंहासन से उतरिर जब आम आदमी िे बीच आती हैं तो उनमें फ़़म िर
पाना बड़ा मु खिल होता है. मेरी नीयत और िोकशश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं िो ज़्यादा से ज़्यादा ़रीब
ला सिूूँ. इसकलए ये ग़ज़लें उस भाषा में कलिी गई हैं कजसे मैं बोलता हूँ .
—कि ग़ज़ल िी कविा बहुत पुरानी,किंतु कविा है ,कजसमें बड़े —बड़े उदू म महारकथयों ने िाव्य—रचना िी है . कहन्दी में
भी महािकव कनराला से ले िर आज िे गीतिारों और नये िकवयों ति अने ि िकवयों ने इस कविा िो आज़माया है.
परं तु अपनी सामथ्यम और सीमाओं िो जानने िे बावजू द इस कविा में उतरते हुए मु झे संिोच तो है ,पर उतना नहीं
कजतना होना चाकहए था. शायद इसिा िारण यह है कि पत्र—पकत्रिाओं में इस संग्रह िी िुछ ग़ज़लें पढिर और
सुनिर कवकभन्न वादों, रुकचयों और वगों िी सृजनशील प्रकतभाओं ने अपने पत्रों, मं तव्यों एवं कटप्पकणयों से मु झे एि
सुिद आत्म—कवश्वास कदया है. इस नाते मैं उन सबिा अत्यंत आभारी हूँ .

…और िम्लेश्वर ! वह इस अफ़साने में न होता तो यह कसलकसला यहाूँ ति न आ पाता. मैं तो—

हाथों में अंगारों िो कलए सोच रहा था,

िोई मु झे अंगारों िी तासीर बताए.

—दु ष्यन्त कुमार


गाता हूँ
मे रे जीने , गाने
िकव िहलाने िा क्या मतलब ?
जब मैं आवाज़ों िे घेरे में
पापों िी छायाओं िे बीच
आत्मा पर बोझा-सा लादे हूँ;

कहाँ त तर् था डचराग़ाँ हर एक घर के डिए


िहाूँ तो तय था कचराग़ाूँ हर एि घर िे कलए
िहाूँ कचराग़ मयस्सर नहीं शहर िे कलए

यहाूँ दरखतों िे साये में िूप लगती है


चलो यहाूँ से चलें और उम्र भर िे कलए

न हो िमीज़ तो पाूँ ओं से पेट ढूँ ि लें गे


ये लोग कितने मु नाकसब हैं इस सफ़र िे कलए

खु दा नहीं न सही आदमी िा ख़्वाब सही


िोई हसीन नज़ारा तो है नज़र िे कलए

वो मु तमइन हैं कि पत्थर कपघल नहीं सिता


मैं बे़रार हूँ आवाज़ में असर िे कलए

तेरा कनज़ाम है कसल दे ज़ु बान शायर िी


ये एहकतयात ज़रूरी है इस बहर िे कलए
कजएूँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर िे तले
मरें तो ग़ैर िी गकलयों में गुलमोहर िे कलए

कैसे मंज़र सामने आने िगे हैं


िैसे मं ज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग कचल्लाने लगे हैं

अब तो इस तालाब िा पानी बदल दो


ये िूँवल िे िूल िुम्हलाने लगे हैं

वो सलीबों िे ़रीब आए तो हमिो


़ायदे -़ानू न समझाने लगे हैं

एि ़कब्रस्तान में घर कमल रहा है


कजसमें तहखानों में तहखाने लगे हैं

मछकलयों में िलबली है अब सफ़ीने


उस तरफ़ जाने से ़तराने लगे हैं

मौलवी से डाूँ ट िा िर अहले-म़तब


किर उसी आयत िो दोहराने लगे हैं

अब नई तहज़ीब िे पेशे-नज़र हम
आदमी िो भू ल िर िाने लगे हैं

र्े सारा डजस्म झुक कर ब झ से दु हरा हुआ ह गा


ये सारा कजस्म झुि िर बोझ से दु हरा हुआ होगा[1]
मैं सजदे में नहीं था आपिो िोिा हुआ होगा

यहाूँ ति आते-आते सूि जाती हैं िई नकदयाूँ


मु झे मालू म है पानी िहाूँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत िी आहट नहीं सुनते


वो सब िे सब परीशाूँ हैं वहाूँ पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन िर तो लगता है


कि इं सानों िे जं गल में िोई हाूँ िा हुआ होगा

िई फ़ा़े[2] कबता िर मर गया जो उसिे बारे में


वो सब िहते हैं अब, ऐसा नहीं,ऐसा हुआ होगा
यहाूँ तो कसफ़म गूूँगे और बहरे लोग बसते हैं
खु दा जाने वहाूँ पर किस तरह जलसा[3] हुआ होगा

चलो, अब यादगारों िी अूँिेरी िोठरी िोलें


िम-अज-िम एि वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा

इस नदी की धार से ठं डी हर्ा आती त है


इस नदी िी िार से ठं डी हवा आती तो है
नाव जजम र ही सही, लहरों से टिराती तो है

एि कचंगारी िहीं से ढू ूँ ढ लाओ दोस्तो


इस कदये में तेल से भीगी हुई बाती तो है

एि िूँ डहर िे हृदय-सी,एि जं गली िूल-सी


आदमी िी पीर गूूँगी ही सही, गाती तो है

एि चादर साूँ झ ने सारे नगर पर डाल दी


यह अूँिेरे िी सड़ि उस भोर ति जाती तो है

कनवमसन मै दान में ले टी हुई है जो नदी


पत्थरों से ओट में जा-जा िे बकतयाती तो है

दु ि नहीं िोई कि अब उपलखब्धयों िे नाम पर


और िुछ हो या न हो, आिाश-सी छाती तो है

दे ि, दहिीज़ से काई नहीं जाने र्ािी


दे ि, दहलीज़ से िाई नहीं जाने वाली
ये खतरनाि सचाई नहीं जाने वाली

कितना अच्छा है कि साूँ सों िी हवा लगती है


आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली

एि तालाब-सी भर जाती है हर बाररश में


मैं समझता हूँ ये िाई नहीं जाने वाली

चीख कनिली तो है होंठों से मगर मिम है


बंद िमरों िो सुनाई नहीं जाने वाली

तू परे शान है , तू परे शान न हो


इन खु दाओं िी खु दाई नहीं जाने वाली

आज सड़िों पे चले आओ तो कदल बहले गा


चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली

िँडहर बचे हुए हैं , इमारत नहीं रही


िूँ डहर बचे हुए हैं , इमारत नहीं रही
अच्छा हुआ कि सर पे िोई छत नहीं रही

िैसी मशालें ले िे चले तीरगी में आप


जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही

हमने तमाम उम्र अिेले सफ़र किया


हम पर किसी खु दा िी इनायत नहीं रही

मे रे चमन में िोई नशे मन नहीं रहा


या यूूँ िहो कि ब़म िी दहशत नहीं रही

हमिो पता नहीं था हमें अब पता चला


इस मुल्क में हमारी ह़ूमत नहीं रही

िुछ दोस्तों से वैसे मराकसम नहीं रहे


िुछ दु श्मनों से वैसी अदावत नहीं रही

कहम्मत से सच िहो तो बुरा मानते हैं लोग


रो—रो िे बात िहने िी आदत नहीं रही

सीने में कज़न्दगी िे अलामात हैं अभी


गो कज़न्दगी िी िोई ज़रूरत नहीं रही

पररन्दे अब भी पर त िे हुए हैं


पररन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
हवा में सनसनी घोले हुए हैं

तुम्हीं िमज़ोर पड़ते जा रहे हो


तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं

ग़ज़ब है सच िो सच िहते नहीं वो


़ुरान—ओ—उपकनषद् िोले हुए हैं
मज़ारों से दु आएूँ माूँ गते हो
अ़ीदे किस ़दर पोले हुए हैं

हमारे हाथ तो िाटे गए थे


हमारे पाूँ व भी छोले हुए हैं

िभी किश्ती, िभी बतख, िभी जल


कसयासत िे िई चोले हुए हैं

हमारा ़द कसमट िर कमट गया है


हमारे पैरहन झोले हुए हैं

चढाता किर रहा हूँ जो चढावे


तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं

अपाडहज व्यथा क र्हन कर रहा हँ


अपाकहज व्यथा िो वहन िर रहा हूँ
तुम्हारी िहन थी, िहन िर रहा हूँ

ये दरवाज़ा िोलें तो िु लता नहीं है


इसे तोड़ने िा जतन िर रहा हूँ

अूँिेरे में िुछ कज़न्दगी होम िर दी


उजाले में अब ये हवन िर रहा हूँ

वे संबंि अब ति बहस में टूँ गे हैं


कजन्हें रात-कदन स्मरण िर रहा हूँ

मैं अहसास ति भर गया हूँ लबालब


तेरे आूँ सुओं िो नमन िर रहा हूँ

समालोचिों िी दु आ है कि मैं किर


सही शाम से आचमन िर रहा हूँ

भूि है त सब्र कर
भू ि है तो सब्र िर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजिल कदल्ली में है ज़े र-ए-बहस ये मु दद् आ ।

मौत ने तो िर दबोचा एि चीते कि तरह


कज़ं दगी ने जब छु आ तो फ़ासला रििर छु आ ।
कगड़कगड़ाने िा यहां िोई असर होता नही
पेट भरिर गाकलयां दो, आह भरिर बददु आ ।

क्या वज़ह है प्यास ज्ादा तेज़ लगती है यहाूँ


लोग िहते हैं कि पहले इस जगह पर था िुूँआ ।

आप दस्ताने पहनिर छू रहे हैं आग िो


आप िे भी खू न िा रं ग हो गया है साूँ वला ।

इस अंगीठी ति गली से िुछ हवा आने तो दो


जब तलि खिलते नहीं ये िोयले दें गे िुूँआ ।

दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रं जीदा न हो


उनिे हाथों में है कपंजरा, उनिे कपंजरे में सुआ ।

इस शहर मे वो िोई बारात हो या वारदात


अब किसी भी बात पर िुलती नहीं हैं खिड़कियाूँ ।

र्े रौशनी है हक़ीक़त में एक छि, ि ग


ये रौशनी है ह़ी़त में एि छल, लोगो
कि जै से जल में झलिता हुआ महल, लोगो

दरख़्त हैं तो पररन्दे नज़र नहीं आते


जो मुस्तह़ हैं वही ह़ से बेदखल, लोगो

वो घर में मे ज़ पे िोहनी कटिाये बैठी है


थमी हुई है वहीं उम्र आजिल ,लोगो

किसी भी ़ौम िी तारीख िे उजाले में


तुम्हारे कदन हैं किसी रात िी निल ,लोगो

तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना


किसी िी नींद में पड़ता रहा खलल, लोगो

ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं


हर आदमी मु झे लगता है हम शिल, लोगो

कदिे जो पाूँ व िे ताज़ा कनशान सहरा में


तो याद आए हैं तालाब िे िूँवल, लोगो
वे िह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर
मैं सुन रहा हूँ हर इि कसम्त से ग़ज़ल, लोगो.

कहीं पे धूप
िहीं पे िूप िी चादर कबछा िे बैठ गए
िहीं पे शाम कसरहाने लगा िे बैठ गए ।

जले जो रे त में तलवे तो हमने ये दे िा


बहुत से लोग वहीं छटपटा िे बैठ गए ।

िड़े हुए थे अलावों िी आं च ले ने िो


सब अपनी अपनी हथेली जला िे बैठ गए ।

दु िानदार तो मेले में लु ट गए यारों


तमाशबीन दु िानें लगा िे बैठ गए ।

लह लु हान नज़ारों िा कज़क्र आया तो


शरीि लोग उठे दू र जा िे बैठ गए ।

ये सोच िर कि दरख्तों में छां व होती है


यहाूँ बबूल िे साए में आिे बैठ गए ।

आज स़िक ं पर डििे हैं सैंक़ि ं नारे न दे ि


आज सड़िों पर कलिे हैं सैंिड़ों नारे न दे ि
घर अूँिेरा दे ि तू आिाश िे तारे न दे ि

एि दररया है यहाूँ पर दू र ति िैला हुआ


आज अपने बाजु ओं िो दे ि पतवारें न दे ि

अब य़ीनन ठोस है िरती ह़ी़त िी तरह


यह ह़ी़त दे ि, लेकिन खौफ़ िे मारे न दे ि

वे सहारे भी नहीं अब जं ग लड़नी है तुझे


िट चुिे जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न दे ि

कदल िो बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़


रोज़ सपने दे ि, ले किन इस ़दर प्यारे न दे ि

ये िुूँिलिा है नज़र िा,तू महज़ मायूस है


रोज़नों िो दे ि,दीवारों में दीवारें न दे ि
राि, कितनी राि है चारों तरफ़ कबिरी हुई
राि में कचंगाररयाूँ ही दे ि, अूँगारे न दे ि.

मरना िगा रहे गा र्हाँ जी त िीडजए

मरना लगा रहे गा यहाूँ जी तो लीकजए

ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा—सी तो लीकजए

अब ररन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो

महकफ़ल से उठ कलए हैं नमाज़ी तो लीकजए

पतों से चाहते हो बजें साज़ िी तरह

पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीकजए

खामोश रह िे तुमने हमारे सवाल पर

िर दी है शहर भर में मुनादी तो लीकजए

ये रौशनी िा ददम , ये कसरहन ,ये आरज़ू,

ये चीज़ कज़न्दगी में नहीं थी तो लीकजए

किरता है िैसे—िैसे सवालों िे साथ वो

उस आदमी िी जामातलाशी तो लीकजए.

पुराने प़ि गर्े डर, िेंक द तुम भी

पुराने पड़ गये डर, िेंि दो तुम भी

ये िचरा आज बाहर िेंि दो तुम भी

लपट आने लगी है अब हवाओं में

ओसारे और छप्पर िेंि दो तुम भी


यहाूँ मासूम सपने जी नहीं पाते

इन्हें िुंिुम लगा िर िेंि दो तुम भी

तुम्हें भी इस बहाने याद िर लेंगे

इिर दो—चार पत्थर िेंि दो तुम भी

ये मू रत बोल सिती है अगर चाहो

अगर िुछ बोल िुछ स्वर िेंि दो तुम भी

किसी संवेदना िे िाम आएूँ गे

यहाूँ टू टे हुए पर िेंि दो तुम भी.

मत कह , आकाश में कुहरा घना है

मत िहो, आिाश में िुहरा घना है ,


यह किसी िी व्यखक्तगत आलोचना है ।

सूयम हमने भी नहीं दे िा सुबह से,


क्या िरोगे, सूयम िा क्या दे िना है ।

इस सड़ि पर इस ़दर िीचड़ कबछी है,


हर किसी िा पाूँ व घुटनों ति सना है ।

पक्ष औ' प्रकतपक्ष संसद में मुिर हैं ,


बात इतनी है कि िोई पुल बना है

रक्त वषों से नसों में िौलता है ,


आप िहते हैं क्षकणि उते जना है ।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौि से डूबे कजसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मं च पर सुकविा नहीं है ,


आजिल ने पथ्य में संभावना है ।

चां दनी छत पे चि रही ह गी

चां दनी छत पे चल रही होगी


अब अिेली टहल रही होगी

किर मे रा कज़क्र आ गया होगा


बफ़म-सी वो कपघल रही होगी

िल िा सपना बहुत सुहाना था


ये उदासी न िल रही होगी

सोचता हूँ कि बंद िमरे में


एि शमअ-सी जल रही होगी

तेरे गहनों सी िनिनाती थी


बाजरे िी फ़सल रही होगी

कजन हवाओं ने तुझ िो दु लराया


उन में मे री ग़ज़ल रही होगी

इस रास्ते के नाम डिि एक शाम और


इस रास्ते िे नाम कलिो एि शाम और

या इसमें रौशनी िा िरो इन्तज़ाम और

आूँ िी में कसफ़म हम ही उिड़ िर नहीं कगरे


हमसे जु ड़ा हुआ था िोई एि नाम और

मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है

अब गुल खिला रहा है तुम्हारा कनज़ाम और

घुटनों पे रि िे हाथ िड़े थे नमाज़ में

आ—जा रहे थे लोग ज़ेह्न में तमाम और

हमने भी पहली बार चिी तो बुरी लगी

िड़वी तुम्हें लगेगी मगर एि जाम और

है राूँ थे अपने अक्स पे घर िे तमाम लोग

शीशा चटख गया तो हुआ एि िाम और

उनिा िहीं जहाूँ में कठिाना नहीं रहा

हमिो तो कमल गया है अदब में मु िाम और.

ह गई है पीर पर्ात-सी डपघिनी चाडहए

हो गई है पीर पवमत-सी कपघलनी चाकहए,


इस कहमालय से िोई गंगा कनिलनी चाकहए।

आज यह दीवार, परदों िी तरह कहलने लगी,


शतम ले किन थी कि ये बुकनयाद कहलनी चाकहए।

हर सड़ि पर, हर गली में, हर नगर, हर गाूँ व में,


हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाकहए।
कसिम हं गामा िड़ा िरना मे रा मिसद नहीं,
मे री िोकशश है कि ये सूरत बदलनी चाकहए।

मे रे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,


हो िहीं भी आग, ले किन आग जलनी चाकहए।

आज स़िक ं पर

आज सड़िों पर कलिे हैं सैिड़ों नारे न दे ि,


घ्रर अंिेरा दे ि तू आिाश िे तारे न दे ि।

एि दररया है यहां पर दू र ति िैला हुआ,


आज अपने बाज़ु ओं िो दे ि पतवारें न दे ि।

अब यिीनन ठोस है िरती हिीित िी तरह,


यह ह़ी़त दे ि ले किन िौफ़ िे मारे न दे ि।

वे सहारे भी नहीं अब जं ग लड़नी है तुझे,


िट चुिे जो हाथ उन हाथों में तलवारें न दे ि।

ये िुंिलिा है नज़र िा तू महज़ मायूस है ,


रोजनों िो दे ि दीवारों में दीवारें न दे ि।

राि कितनी राि है , चारों तरि कबिरी हुई,


राि में कचनगाररयां ही दे ि अंगारे न दे ि।

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँ गे

मे रे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएूँ गे

मे रे बाद तुम्हें ये मे री याद कदलाने आएूँ गे

हौले —हौले पाूँ व कहलाओ,जल सोया है छे ड़ो मत


हम सब अपने —अपने दीपि यहीं कसराने आएूँ गे

थोड़ी आूँ च बची रहने दो, थोड़ा िुआूँ कनिलने दो

िल दे िोगी िई मु साकफ़र इसी बहाने आएूँ गे

उनिो क्या मालू म कवरूकपत इस कसिता पर क्या बीती

वे आये तो यहाूँ शंि-सीकपयाूँ उठाने आएूँ गे

रह—रह आूँ िों में चुभती है पथ िी कनजम न दोपहरी

आगे और बढें तो शायद दृश्य सुहाने आएूँ गे

मे ले में भटिे होते तो िोई घर पहुूँ चा जाता

हम घर में भटिे हैं िैसे ठौर-कठिाने आएूँ गे

हम क्या बोलें इस आूँ िी में िई घरौंदे टू ट गए

इन असिल कनकमम कतयों िे शव िल पहचाने जाएूँ गे.

एक जन्मडदन पर
एि घकनष्ठ-सा कदन
आज
एि अजनबी िी तरह
पास से कनिल गया

एि और सोते सा सूि गया!


टू ट गया एि और बाजू सा!
एि घकनष्ठ सा कदन-
कजसे मैं चुंबनों से रचिर
और िई साथम ि प्रसंगों ति
तुम ति आ सिता था!
मैं कजसिो होठों पर रििर गा सिता था
स्वरों में नहीं पिड़ आया
गरम-गरम बालू-सा किसल गया!
मटमै ली चादर-सी
कबछी रही सड़िें
और खाली पलं ग-सा शहर!

मे री आूँ िों में --दे िते-दे िते


कबना किसी आहट िे,
कपछली दशाब्ी िा
िैले िर बदल गया!!

तुझे कैसे भूि जाऊँ


अब उम्र िी ढलान उतरते हुए मु झे
आती है तेरी याद‚ तुझे िैसे भूल जाऊूँ।

गहरा गये हैं िू ब िुंिलिे कनगाह में


गो राहरौ नहीं हैं िहीं‚ किर भी राह में –
लगते हैं चंद साए उभरते हुए मु झे
आती है तेरी याद‚ तुझे िैसे भूल जाऊूँ।

िैले हुए सवाल सा‚ सड़िों िा जाल है ‚


ये सड़ि है उजाड़‚ या मे रा खयाल है ‚
सामाने –सफ़र बाूँ िते–िरते हुए मु झे
आती है तेरी याद‚ तुझे िैसे भूल जाऊूँ।

किर पवमतों िे पास कबछा झील िा पलं ग


होिर कनढाल‚ शाम बजाती है जलतरं ग‚
इन रास्तों से तनहा गुज़रते हुए मु झे
आती है तेरी याद‚ तुझे िैसे भूल जाऊूँ।

उन कनलकसलों िी टीस अभी ति है घाव में


थोड़ी–सी आं च और बची है अलाव में ‚
सजदा किसी पड़ाव में िरते हुए मु झे
आती है तेरी याद‚ तुझे िैसे भूल जाऊूँ।

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