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दुष्यंत कुमार
दुष्यंत कुमार
सूना घर
सूने घर में किस तरह सहे जूूँ मन िो।
एक आशीर्ाा द
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
हूँ सें
मु स्कुराएूँ
गाएूँ ।
ईश्वर िी शपथ!
इस अूँिेरे में
उसी सूरज िे दशम न िे कलए
जी रहा हूँ मैं
िल से अब ति!
और हर गाम हो रही है अब
वो सरे आम हो रही है अब
एि पैग़ाम हो रही है अब
धमा
तेज़ी से एि ददम
मन में जागा
मैं ने पी कलया,
छोटी सी एि खु शी
अिरों में आई
मैं ने उसिो िैला कदया,
मु झिो सन्तोष हुआ
और लगा –-
हर छोटे िो
बड़ा िरना िमम है ।
आज सडक ं पर
आज सड़िों पर कलिे हैं सैिड़ों नारे न दे ि,
पर अन्धेरा दे ि तू आिाश िे तारे न दे ि ।
मेरी कुण्ठा
मे री िुंठा
रे शम िे िीड़ों सी
ताने -बाने बुनती
तड़प-तड़पिर
बाहर आने िो कसर िुनती,
स्वर से
शब्ों से
भावों से
औ' वीणा से िहती-सुनती,
गभम वती है
मे री िुंठा – िुूँवारी िुंती!
बाहर आने दू ूँ
तो लोि-लाज-मयाम दा
भीतर रहने दू ूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मे रा यह व्यखक्तत्व
कसमटने पर आमादा ।
तुिना
गडररए कितने सुिी हैं ।
जबकि
सारे दल
पानी िी तरह िन बहाते हैं ,
गडररए में ड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं
... भेडों िो बाड़े में िरने िे कलए
न सभाएूँ आयोकजत िरते हैं
न रै कलयाूँ ,
न िंठ िरीदते हैं, न हथे कलयाूँ ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों िा सूयम उगाते हैं ,
स्वेच्छा से
कजिर चाहते हैं , उिर
भे ड़ों िो हाूँ िे कलए जाते हैं ।
र्ह क् ं
हर उभरी नस मलने िा अभ्यास
रुि रुििर चलने िा अभ्यास
छाया में थमने िी आदत
यह क्यों ?
=====================
तीन द स्त
सब कबयाबान, सुनसान अूँिेरी राहों में
िं दिों िाइयों में
रे कगस्तानों में, चीि िराहों में
उजड़ी गकलयों में
थिी हुई सड़िों में , टू टी बाहों में
हर कगर जाने िी जगह
कबिर जाने िी आशं िाओं में
लोहे िी सख्त कशलाओं से
दृढ औ’ गकतमय
हम तीन दोस्त
रोशनी जगाते हुए अूँिेरी राहों पर
संगीत कबछाते हुए उदास िराहों पर
प्रेरणा-स्नेह उन कनबमल टू टी बाहों पर
कवजयी होने िो सारी आशं िाओं पर
पगडं डी गढते
आगे बढते जाते हैं
हम तीन दोस्त पाूँ वों में गकत-सत्वर बाूँ िे
आूँ िों में मं कजल िा कवश्वास अमर बाूँ िे।
XXXX
हम तीन दोस्त
आत्मा िे जै से तीन रूप,
अकवभाज्--कभन्न।
ठं डी, सम, अथवा गमम िूप--
ये त्रय प्रतीि
जीवन जीवन िा स्तर भे दिर
एिरूपता िो सटीि िर दे ते हैं ।
हम झुिते हैं
रुिते हैं चुिते हैं ले किन
हर हालत में उतर पर उतर दे ते हैं ।
XXXX
हम बंद पड़े तालों से डरते नहीं िभी
असिलताओं पर गुस्सा िरते नहीं िभी
ले किन कवपदाओं में कघर जाने वालों िो
आिे पथ से वापस किर जाने वालों िो
हम अपना यौवन अपनी बाूँ हें दे ते हैं
हम अपनी साूँ सें और कनगाहें दे ते हैं
दे िें--जो तम िे अंिड़ में कगर जाते हैं
वे सबसे पहले कदन िे दशम न पाते हैं ।
दे िें--कजनिी किस्मत पर किस्मत रोती है
मं कज़ल भी आकखरिार उन्हीं िी होती है ।
XXXX
कजस जगह भू लिर गीत न आया िरते हैं
उस जगह बैठ हम तीनों गाया िरते हैं
दे ने िे कलए सहारा कगरने वालों िो
सूने पथ पर आवारा किरने वालों िो
हम अपने शब्ों में समझाया िरते हैं
स्वर-संिेतों से उन्हें बताया िरते हैं --
‘तुम आज अगर रोते हो तो िल गा लोगे
तुम बोझ उठाते हो, तूफ़ान उठा लोगे
पहचानो िरती िरवट बदला िरती है
दे िो कि तुम्हारे पाूँ व तले भी िरती है ।’
XXXX
हम तीन दोस्त इस िरती िे संरक्षण में
हम तीन दोस्त जीकवत कमट्टी िे िण िण में
हर उस पथ पर मौजू द जहाूँ पग चलते हैं
तम भाग रहा दे पीठ दीप-नव जलते हैं
आूँ सू िेवल हमददी में ही ढलते हैं
सपने अनकगन कनमाम ण कलए ही पलते हैं ।
एि भी ़द आज आदम़द नहीं है
आग जिती रहे
एि तीिी आूँ च ने
इस जन्म िा हर पल छु आ,
आता हुआ कदन छु आ
हाथों से गुजरता िल छु आ
हर बीज, अूँिुआ, पेड़-पौिा,
िूल-पती, िल छु आ
जो मु झे छूने चली
हर उस हवा िा आूँ चल छु आ
... प्रहर िोई भी नहीं बीता अछूता
आग िे संपिम से
कदवस, मासों और वषों िे िड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तिम से
एि चौथाई उमर
यों िौलते बीती कबना अविाश
सुि िहाूँ
यों भाप बन-बन िर चुिा,
रीता, भटिता
छानता आिाश
आह! िैसा िकठन
... िैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग िेवल भाग!
सुि नहीं यों िौलने में सुि नहीं िोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय िी प्रतीक्षा में है , जगेगी आप
ज्ों कि लहराती हुई ढिने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे , जलती रहे
कजं दगी यों ही िड़ाहों में उबलती रहे ।
मुक्तक
(१)
सूँभल सूँभल िे’ बहुत पाूँ व िर रहा हूँ मैं
पहाड़ी ढाल से जै से उतर रहा हूँ मैं
़दम ़दम पे मु झे टोिता है कदल ऐसे
गुनाह िोई बड़ा जै से िर रहा हूँ मैं ।
(२)
तरस रहा है मन िूलों िी नई गंि पाने िो
खिली िूप में, िु ली हवा में , गाने मु सिाने िो
तुम अपने कजस कतकमरपाश में मु झिो ़ैद किए हो
वह बंिन ही उिसाता है बाहर आ जाने िो।
(३)
गीत गािर चेतना िो वर कदया मैं ने
आूँ सुओं से ददम िो आदर कदया मैं ने
प्रीत मे री आत्मा िी भू ि थी, सहिर
कज़ं दगी िा कचत्र पूरा िर कदया मैं ने
(४)
जो िुछ भी कदया अनश्वर कदया मु झे
नीचे से ऊपर ति भर कदया मुझे
ये स्वर सिुचाते हैं ले किन तुमने
अपने ति ही सीकमत िर कदया मु झे।
शब्दार्थ :
कतकमरपाश = अंिेरे िा बंिन
अब त पथ र्ही है
कजं दगी ने िर कलया स्वीिार,
अब तो पथ यही है |
र् डनगाहें सिीब है
वो कनगाहें सलीब है
कज़न्दगी एि िे त है
कसलकसले खत्म हो गए
यार अब भी ऱीब है
आपने लौ छु ई नहीं
मापदण्ड बदि
मे री प्रगकत या अगकत िा
यह मापदि बदलो तुम,
जु ए िे पते-सा
मैं अभी अकनकश्चत हूँ ।
मु झ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं ,
िोपलें उग रही हैं,
पकतयाूँ झड़ रही हैं ,
मैं नया बनने िे कलए िराद पर चढ रहा हूँ ,
लड़ता हुआ
नई राह गढता हुआ आगे बढ रहा हूँ ।
मे री प्रगकत या अगकत िा
यह मापदि बदलो तुम
मैं अभी अकनकश्चत हूँ ।
और जो मन िी मू ि िराह
ज़ख़्म िी आह
िकठन कनवाम ह
व्यक्त िरता िरता रह गया
उसे क्या िहूँ
गीत िा छन्द नहीं था?
इनसे डमडिए
पाूँ वों से कसर ति जै से एि जनू न
बेतरतीबी से बढे हुए नाखू न
ह िी की डठठ िी
दु ष्यंत कुमार टू धमथयुग संपादक
अपाडहज व्यथा
अपाकहज व्यथा िो सहन िर रहा हूँ ,
तुम्हारी िहन थी, िहन िर रहा हूँ ।
यह गीत
जो आज
चहचहाता है
अन्तवाम सी अहम से भी स्वागत पाता है
नदी िे किनारे या लावाररस सड़िों पर
कन:स्वन मै दानों में
या कि बन्द िमरों में
जहां िहीं भी जाता है
मरे हुए सपने सजाता है -
-बहुत कदनों तड़पा था अपने जनम िे कलये ।
इस समू ह में
इन अनकगनत अचीन्ही आवाज़ों में
िैसा ददम है
िोई नहीं सुनता !
पर इन आवाजों िो
और इन िराहों िो
दु कनया सुने मैं ये चाहूँ गा ।
मे री तो आदत है
रोशनी जहाूँ भी हो
उसे िोज लाऊूँगा
िातरता, चुप्पी ् या चीिें,
या हारे हुओं िी िीज
जहाूँ भी कमले गी
उन्हें प्यार िे कसतार पर बजाऊूँगा ।
सूचना
िल माूँ ने यह िहा –-
कि उसिी शादी तय हो गई िहीं पर,
मैं मु सिाया वहाूँ मौन
रो कदया किन्तु िमरे में आिर
जै से दो दु कनया हों मु झिो
मे रा िमरा औ' मेरा घर ।
प्रेरणा के नाम
तुम्हें याद होगा कप्रय
जब तुमने आूँ ि िा इशारा किया था
तब
मैं ने हवाओं िी बागडोर मोड़ी थीं,
खाि में कमलाया था पहाड़ों िो,
शीष पर बनाया था एि नया आसमान,
जल िे बहावों िो मनचाही गकत दी थी....,
किंतु--वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था--
मे रा तो नहीं था कसफ़म!
आज ये पहाड़!
ये बहाव!
ये हवा!
ये गगन!
मु झिो ही नहीं कसफ़म
सबिो चुनौती हैं ,
उनिो भी जगे हैं जो
सोए हुओं िो भी--
और कप्रय तुमिो भी
तुम जो अब बहुत दू र
बहुत दू र रहिर सताते हो!
नींद ने मे री तुम्हें व्योम ति िोजा है
दृकि ने किया है अवगाहन िण िण में
िकवताएूँ मे री वंदनवार हैं प्रतीक्षा िी
अब तुम आ जाओ कप्रय
मे री प्रकतष्ठा िा तुम्हें हवाला है!
आज र्ीरान अपना घर दे िा
आज वीरान अपना घर दे िा
तो िई बार झाूँ ि िर दे िा
उस पररं दे िो चोट आई तो
आपने एि-एि पर दे िा
पूजा िी बेदी पर
गंगाजल भरा िलश
रक्खा था, पर झुि िर
िोई िौतुहलवश
बच्चों िी तरह हाथ
डाल िर िं गाल गया
कसफ़म िल्पनाओं से
सूिी और बंजर ज़मीन िो िरोंचता हूँ
जन्म कलया िरता है जो ऐसे हालात में
उनिे बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ ।
एि ढे ला तो वहीं अटिा था
एि तू और उछाल आया है
कुंठा
मे री िुंठा
रे शम िे िीड़ों-सी
ताने -बाने बुनती,
तड़प तड़पिर
बाहर आने िो कसर िुनती,
स्वर से
शब्ों से
भावों से
औ' वीणा से िहती-सुनती,
गभम वती है
मे री िुंठा –- िुूँवारी िुंती!
बाहर आने दू ूँ
तो लोि-लाज मयाम दा
भीतर रहने दू ूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मे रा यह व्यखक्तत्व
कसमटने पर आमादा।
द प ज़
सद्यस्नात[1] तुम
जब आती हो
मु ि िुन्तलों[2] से ढूँ िा रहता है
बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब
राह से चाूँ द ग्रसा रहता है ।
पर जब तुम
िेश झटि दे ती हो अनायास
तारों-सी बूूँदें
कबिर जाती हैं आसपास
मु क्त हो जाता है चाूँ द
तब बहुत भला लगता है ।
अपनी प्रेडमका से
मु झे स्वीिार हैं वे हवाएूँ भी
जो तुम्हें शीत दे तीं
और मु झे जलाती हैं
किन्तु
इन हवाओं िो यह पता नहीं है
मु झमें ज्वालामु िी है
तुममें शीत िा कहमालय है
िूटा हूँ अने ि बार मैं,
पर तुम िभी नहीं कपघली हो,
अने ि अवसरों पर मे री आिृकतयाूँ बदलीं
पर तुम्हारे माथे िी कशिनें वैसी ही रहीं
तनी हुई.
तुम्हें ज़रूरत है उस हवा िी
जो गमम हो
और मु झे उसिी जो ठिी!
किर भी मु झे स्वीिार है यह पररखस्थकत
जो दु िाती है
किर भी स्वागत है हर उस सीढी िा
जो मु झे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है
िाश! इन हवाओं िो यह सब पता होता।
तुम जो चारों ओर
बफ़म िी ऊूँचाइयाूँ िड़ी किए बैठी हो
(लीन... समाकिस्थ)
भ्रम में हो।
अहम् है मु झमें भी
चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सिता हूँ
ले किन क्यों?
मु झे मालू म है
दीवारों िो
मे री आूँ च जा छु एगी िभी
और बफ़म कपघले गी
कपघले गी!
मैं ने दे िा है
(तुमने भी अनु भव किया होगा)
मै दानों में बहते हुए उन शान्त कनझमरों िो
जो िभी बफ़म िे बड़े -बड़े पवमत थे
ले किन कजन्हें सूरज िी गमी समतल पर ले आई.
दे िो ना!
मु झमें ही डूबा था सूयम िभी,
सूयोदय मु झमें ही होना है ,
मे री किरणों से भी बफ़म िो कपघलना है ,
इसी कलए िहता हूँ -
अिुलाती छाती से सट जाओ,
क्योंकि हमें कमलना है ।
एक खथथडत
हर घर में िानािूसी औ’ षडयंत्र,
हर महकफ़ल िे स्वर में कवद्रोही मं त्र,
क्या नारी क्या नर
क्या भू क्या अंबर
माूँ ग रहे हैं जीने िा वरदान,
सब बच्चे, सब कनबमल, सब बलवान,
सब जीवन सब प्राण,
सुबह दोपहर शाम।
‘अब क्या होगा राम?’
िु द से लड़ते
िु द िो तोड़ते हुए
कदन बीता िरते हैं ,
बदली हैं आिृकतयाूँ :
मे रे अखस्तत्व िी इिाई िो
तुमने ही
एि से अने ि िर कदया!
रह रहिर
मन में उमड़ते हुए
वात्याचक्रों िे बीच
एिािी
जीणम-शीणम पतों-से
नाचते-भटिते मे रे कनश्चय
क्या ऐसे थे ?
ज्ोकतषी िे आगे
िैले हुए हाथ-सी
प्रश्न पर प्रश्न पूछती हुई—
मे रे कज़ं दगी,
क्या यही थी?
नहीं....
नहीं थी यह गकत!
मे रे व्यखक्तत्व िी ऐसी अंिी पररणकत!!
िं ड िं ड होिर कजसने
जीवन-कवष कपया नहीं,
सुिमय, संपन्न मर गया जो जग में आिर
ररस-ररसिर कजया नहीं,
उसिी मौकलिता िा दं भ कनरा कमथ्या है
कनष्फल सारा िृकतत्व
उसने िुछ किया नहीं।
अनुरखक्त
जब जब श्लथ मस्ति उठाऊूँगा
इसी कवह्वलता से गाऊूँगा।
ओ मेरी डजंदगी
मैं जो अनवरत
तुम्हारा हाथ पिड़े
स्त्री-परायण पकत सा
इस वन िी पगडं कडयों पर
भू लता-भटिता आगे बढता जा रहा हूँ,
सो इसकलए नहीं
कि मु झे दै वी चमत्कारों पर कवश्वास है,
या तुम्हारे कबना मैं अपूणम हूँ ,
बखल्क इसकलए कि मैं पुरुष हूँ
और तुम चाहे परं परा से बूँिी मे री पत्नी न हो,
पर एि ऐसी शतम ज़रूर है,
जो मु झे संस्कारों से प्राप्त हुई,
कि मैं तुम्हें छोड़ नहीं सिता।
पहले
जब पहला सपना टू टा था,
तब मे रे हाथ िी पिड़
तुम्हें ढीली महसूस हुई होगी।
सच,
वही तुम्हारे कबलगाव िा मु िाम हो सिता था।
पर उसिे बाद तो
िुछ टू टने िी इतनी आवाज़ें हुईं
कि आज ति उन्हें सुनता रहता हूँ ।
आवाज़ें और िुछ नहीं सुनने दे तीं!
तुम जो हर घड़ी िी साकथन हो,
तुमझे झूठ क्या बोलूूँ ?
िु द तुम्हारा स्पंदन अनुभव किए भी
मु झे अरसा गुजर गया!
ले किन तुम्हारे हाथों िो हाथों में कलए
मैं उस समय ति चलूूँ गा
जब ति उूँ गकलयाूँ गलिर न कगर जाएूँ ।
तुम किर भी अपनी हो,
वह किर भी ग़ैर थी जो छूट गई;
और उसिे सामने िभी मैं
यह प्रगट न होने दू ूँ गा
कि मे री उूँ गकलयाूँ दग़ाबाज़ हैं,
या मे री पिड़ िमज़ोर है ,
मैं चाहे िलम पिड़ूूँ या िलाई।
मैं और मेरा दु ि
दु ि : किसी कचकड़या िे अभी जन्मे बच्चे सा
किंतु सुि : तमं चे िी गोली जैसा
मु झिो लगा है ।
आप ही बताएूँ
िभी आप ने चलती हुई गोली िो चलते,
या अभी जन्मे बच्चे िो उड़ते हुए दे िा है ?
शब् ं की पुकार
एि बार किर
हारी हुई शब्-सेना ने
मे री िकवता िो आवाज़ लगाई—
“ओ माूँ ! हमें सूँवारो।
थिे हुए हम
कबिरे -कबिरे क्षीण हो गए,
िई परत आ गईं िूल िी,
िुूँिला सा अखस्तत्व पड़ गया,
संज्ञाएूँ िो चुिे...!
ले किन किर भी
अंश तुम्हारे ही हैं
तुमसे पृथि िहाूँ हैं ?
अलग-अलग अिरों में घुटते
अलग-अलग हम क्या हैं ?
(िंिर, पत्थर, राजमागम पर!)
ठोिर िाते हुए जनों िी
उम्र गुज़र जाएगी,
हसरत मर जाएगी यह—
‘िाश हम किसी नींव में िाम आ सिे होते,
हम पर भी उठ पाती बड़ी इमारत।’
ओ िकवता माूँ !
लो हमिो अब
किसी गीत में गूूँथो
नश्वरता िे तट से पार उतारो
और उबारो—
एिरूप शं िलाबि िर
अिमम ण्यता िी दलदल से।
आत्मसात होने िो तुममें
आतुर हैं हम
क्योंकि तुम्हीं वह नींव
इमारत िी बुकनयाद पड़े गी कजस पर।
शब् नामिारी
सारे िे सारे युवि, प्रौढ औ’ बालि,
एि तुम्हारे इं कगत िी िर रहे प्रतीक्षा,
चाहे कजिर मोड़ दो
िोई उज़र नहीं है —
ऊूँची-नीची राहों में
या उन गकलयों में
जहाूँ िुशी िा गुज़र नहीं है —;
ले किन मं कज़ल ति पहुूँ चा दो, ओ िकवता माूँ !
किसी छं द में बाूँ ि
कवजय िा िवच कपन्हा दो, ओ िकवता माूँ !
िूल-िूसररत
हम कि तुम्हारे ही बालि हैं
हमें कनहारो!
अंि कबठाओ,
पंखक्त सजाओ, ओ िकवता माूँ !”
एि बार किर
िुछ कवश्वासों ने िरवट ली,
सूने आूँ गन में िुछ स्वर कशशुओं से दौड़े ,
जाग उठी चेतनता सोई;
होने लगे िड़े वे सारे आहत सपने
कजन्हें िरा पर कबछा गया था झोंिा िोई!
डदखिजर् का अश्व
“—आह, ओ नादान बच्चो!
कदखिजय िा अश्व है यह,
गले में इसिे बूँिा है जो सुनहला-पत्र
मत िोलो,
छोड़ दो इसिो।
आज हैं िकटबि हम सब
िावड़े लाठी सूँभाले।
िृष्ण, अजुम न इिर आएूँ
हम उन्हें आने न दें गे।
अश्व ले जाने न दें गे।”
पररणडत
आत्मकसि थीं तुम िभी!
स्वयं में समोने िो भकवष्यत् िे स्वप्न
नयनों से वेगवान सुषमा उमड़ती थी,
आश्वस्त अंतस िी प्रकतज्ञा िी तरह
तन से कस्नग्ध मां सलता िूट पड़ती थी
कजसमें रस था:
पर अब तो
बच्चों ने जै से
चािू से िोद िोद िर
कविृत िर कदया हो किसी आम िे तने िो
गोंद पाने िे कलए:
सपनों िे उद्वे लन
बचपन िे िेल बनिर रह गए;
शु ष्क सररता िा अंतहीन मरुथल!
खस्थर....कनयत.....पूवम कनिाम ररत सा जीवन-क्रम
तोष-असंतोष-हीन,
शब् गए
िेवल अिर रह गए;
सुि-दु ि िी पररकि हुई सीकमत
गीले -सूिे ईंिन ति,
अनु भूकतयों िा िमम ठ ओज बना
राूँ िना-खिलाना
यौवन िे झनझनाते स्वरों िी पररणकत
लोररयाूँ गुनगुनाना
(मु न्ने िो चुपाने िे कलए!)
र्ासना का ज्वार
क्या भरोसा
लहर िब आए?
किनारे डूब जाएूँ ?
तोड़िर सारे कनयंत्रण
इस अगम गकतशील जल िी िार—
िब डु बोदे क्षीण जजम र यान?
(मैं कजसे संयम बताता हूँ )
आह! ये क्षण!
ये चढे तूफ़ान िे क्षण!
क्षु द्र इस व्यखक्तत्व िो मथ डालने वाले
नए कनमाम ण िे क्षण!
यही तो हैं —
मैं कि कजनमें
लु टा, िोया, िड़ा िाली हाथ रह जाता,
तुम्हारी ओर अपलि तािता सा!
एक पत्र का अंश
मु झे कलिना
वह नदी जो बही थी इस ओर!
कछन्न िरती चेतना िे राि िे स्तू प,
क्या अब भी वहीं है ?
बह रही है ?
—या गई है सूि वह
पािर समय िी िूप?
गीत तेरा
गीत तेरा मन िूँपाता है ।
शखक्त मे री आजमाता है ।
न गा यह गीत,
जै से सपम िी आूँ िें
कि कजनिा मौन सम्मोहन
सभी िो बाूँ ि ले ता है ,
कि तेरी तान जै से एि जादू सी
मु झे बेहोश िरती है ,
कि तेरे शब्
कजनमें हबह तस्वीर
मे री कज़ं दगी िी ही उतरती है;
न गा यह कज़ं दगी मे री न गा,
प्राण िा सूना भवन हर स्वर गुूँजाता है,
न गा यह गीत मेरी लहररयों में ज्वार आता है ।
जभी त
नफ़रत औ’ भे द-भाव
िेवल मनु ष्यों ति सीकमत नहीं रह गया है अब।
मैं ने महसूस किया है
मे रे घर में ही
कबजली िा सुंदर औ’ भड़िदार लट् टू—
िुरसी िे टू टे हुए बेंत पर,
िस्ता कतपाई पर,
िटे हुए कबस्तर पर, कछन्न चारपाई पर,
िुम्हलाए बच्चों पर,
अिनं गी बीवी पर—
रोज़ व्यं ग्य िरता है,
जै से वह िोई ‘कमल-ओनर’ हो।
म म का घ ़िा
मै ने यह मोम िा घोड़ा,
बड़े जतन से जोड़ा,
रक्त िी बूूँदों से पालिर
सपनों में ढालिर
बड़ा किया,
किर इसमें प्यास और स्पंदन
गायन और क्रंदन
सब िुछ भर कदया,
औ’ जब कवश्वास हो गया पूरा
अपने सृजन पर,
तब इसे लािर
आूँ गन में िड़ा किया!
माूँ ने दे िा—कबगड़ी ं;
बाबूजी गरम हुए;
किंतु समय गुजरा...
किर नरम हुए।
सोचा होगा—लड़िा है ,
ऐसे ही स्वाूँ ग रचा िरता है ।
मु झे भरोसा था मे रा है,
मे रे िाम आएगा।
कबगड़ी बनाएगा।
किंतु यह घोड़ा।
िायर था थोड़ा,
लोगों िो दे ििर कबदिा, चौंिा,
मैं ने बड़ी मुखिल से रोिा।
और किर हुआ यह
समय गुज़रा, वषम बीते,
सोच िर मन में —हारे या जीते,
मै ने यह मोम िा घोड़ा,
तुम्हें बुलाने िो
अकि िी कदशाओं िो छोड़ा।
किंतु जै से ये बढा
इसिी पीठ पर पड़ा
आिर
लपलपाती लपटों िा िोड़ा,
तब कपघल गया घोड़ा
और मोम मे रे सब सपनों पर िैल गया!
मंत्र हँ
मं त्र हूँ तुम्हारे अिरों में मैं!
एि बूूँद आूँ सू में पढिर िेंिो मु झिो
ऊसर मै दानों पर
िे तों िकलहानों पर
िाली चट्टानों पर....।
मं त्र हूँ तुम्हारे अिरों में मैं
अडभव्यखक्त का प्रश्न
प्रश्न अकभव्यखक्त िा है ,
कमत्र!
किसी ममम स्पशी शब् से
या कक्रया से,
मे रे भावों, अभावों िो भे दो
प्रेरणा दो!
यह जो नीला
ज़हरीला घुूँआ भीतर उठ रहा है ,
यह जो जै से मे री आत्मा िा गला घुट रहा है,
यह जो सद्य-जात कशशु सा
िुछ छटपटा रहा है,
यह क्या है ?
क्या है कमत्र,
मे रे भीतर झाूँ ििर दे िो।
छे दो! मयाम दा िी इस लौह-चादर िो,
मु झे ढूँ ि बैठी जो,
उठने मुस्कराने नहीं दे ती,
दु कनयाूँ में आने नहीं दे ती।
मू ि!
असहाय!!
अकभव्यखक्त हीन!!
मैं जो िकव हूँ ,
भावों-अभावों िे पाटों में पड़ा हुआ
एिािी दाने -सा
िब ति जीता रहूँ गा?
िब ति िमरे िे बाहर पड़े हुए गदम खोरे -सा
जीवन िा यह क्रम चले गा?
िब ति कज़ं गदी िी गदम पीता रहूँ गा?
दीर्ार
दीवार, दरारें पड़ती जाती हैं इसमें
दीवार, दरारें बढती जाती हैं इसमें
तुम कितना प्लास्टर औ’ सीमेंट लगाओगे
िब ति इं जीकनयरों िी दवा कपलाओगे
कगरने वाला क्षण दो क्षण में कगर जाता है ,
दीवार भला िब ति रह पाएगी रकक्षत
यह पानी नभ से नहीं िरा से आता है ।
आत्म-र्जाना
अब हम इस पथ पर िभी नहीं आएूँ गे।
तुम अपने घर िे पीछे
कजन ऊूँची ऊूँची दीवारों िे नीचे
कमलती थीं, उनिे साए
अब ति मु झ पर मूँ डलाए,
अब िभी न मूँडलाएूँ गें।
दु ि ने कझझि िोल दी
वे कबनबोले अक्षर
जो मन िी अकभलाषाओं िो रूप न दे िर
अिरों में ही घुट जाते थे
अब गूूँजेंगे, िकवता िहलाएूँ गें,
पर हम इस पथ पर िभी नहीं आएूँ गें।
एक मनखथथडत का डच
मानसरोवर िी
गहराइयों में बैठे
हं सों ने पाूँ िें दीं िोल
पुनस्मारण
आह-सी िूल उड़ रही है आज
चाह-सा िाकफ़ला िड़ा है िहीं
और सामान सारा बेतरतीब
ददम -सा कबन-बूँिे पड़ा है िहीं
िि-सा िुछ अटि गया होगा
मन-सा राहें भटि गया होगा
आज तारों तले कबचारे िो
िाटनी ही पड़े गी सारी रात
xxx
बात पर आ गई है बात
सत्य
दू र ति िैली हुई है कजं दगी िी राह
ये नहीं तो और िोई वृक्ष दे गा छाूँ ह
गुलमु हर, इस साल खिल पाए नहीं तो क्या!
सत्य, यकद तुम मु झे कमल पाए नहीं तो क्या!
क्षमा
"आह!
मे रा पाप-प्यासा तन
किसी अनजान, अनचाहे , अिथ-से बंिनों में
बूँि गया चुपचाप
मे रा प्यार पावन
हो गया कितना अपावन आज!
आह! मन िी ग्लाकन िा यह िूम्र
मे री घुट रही आवाज़!
िैसे पी सिा
कवष से भरे वे घूूँट...?
जूँ गली िूल सी सुिुमार औ’ कनष्पाप
मे री आत्मा पर बोझ बढता जा रहा है प्राण!
मु झिो त्राण दो...
दो...त्राण...."
कागज़ की ड डं गर्ाँ
यह समं दर है ।
यहाूँ जल है बहुत गहरा।
यहाूँ हर एि िा दम िूल आता है ।
यहाूँ पर तैरने िी चेिा भी व्यथम लगती है ।
िल अगर िोई
हमारी डोंकगयों िो ढू ूँ ढना चाहे ....
.........................?
पर जाने क् ं
माना इस बस्ती में िुआूँ है
िाई है,
िं दि है ,
िुआूँ है ;
पर जाने क्यों?
िभी िभी िुआूँ पीने िो भी मन िरता है ;
िाई-िं दिों में जीने िो भी मन िरता है;
यह भी मन िरता है —
यहीं िहीं झर जाएूँ ,
यहीं किसी भूिे िो दे ह-दान िर जाएूँ
यहीं किसी नं गे िो िाल िीच ं िर दे दें
प्यासे िो रक्त आूँ ि मींच मींच िर दे दें
सब उलीच िर दे दें
यहीं िहीं—!
माना यहाूँ िुआूँ है
िाई है, िं दि है , िुआूँ है ,
पर जाने क्यों?
मार्ा
दू ि िे िटोरे सा चाूँ द उग आया।
बालिों सरीिा यह मन ललचाया।
(आह री माया!
इतना िहाूँ है मे रे पास सरमाया?
जीवन गूँवाया!)
संडधथथि
साूँ झ।
दो कदशाओं से
दो गाकड़याूँ आईं
रुिीं।
‘यह िौन
दे िा िुछ कझझि संिोच से
पर मौन।
चल पड़ी किर टर े न।
मु ि पर सद्यकनकमम त झुररम याूँ
स्पि सी हो गईं दोनों और दु ि िी।
िड़िड़ाते रह गए स्वर पीत अिरों में ।
व्यग्र उत्कंठा सभी िुछ जानने िी,
पूछने िी घुट गई।
आूँ सू भरी नयनों िी अिृकतम िोर,
दोनों ओर:
दे िा दू र ति चुपचाप, रोिे साूँ स,
ले किन आ गया व्यविान बन
सहसा कक्षकतज िा क्षोर--
मानव-शखक्त िे सीमान िा आभास,
और कदन बुझ गया।
सूचना
िल माूँ ने यह िहा –-
कि उसिी शादी तय हो गई िहीं पर,
मैं मु सिाया वहाूँ मौन
रो कदया किन्तु िमरे में आिर
जै से दो दु कनया हों मु झिो
मे रा िमरा औ' मेरा घर ।
समर्
नहीं!
अभी रहने दो!
अभी यह पुिार मत उठाओ!
नगर ऐसे नहीं हैं शू न्य! शब्हीन!
भू ला भटिा िोई स्वर
अब भी उठता है --आता है!
कनस्वन हवा में तैर जाता है !
रोशनी भी है िहीं?
मखिम सी लौ अभी बुझी नहीं,
नभ में एि तारा कटमकटमाता है !
गंि नहीं:
शखक्त नहीं:
तप नहीं:
त्याग नहीं:
िुछ नहीं--
न हो बन्धु! रहने दो
अभी यह पुिार मत उठाओ!
और िि सहो।
िसलें यकद पीली हो रही हैं तो होने दो
बच्चे यकद प्यासे रो रहे हैं तो रोने दो
भट्टी सी िरती िी छाती सुलगने दो
मन िे अलावों में और आग जगने दो
िायम िा िारण कसिम इच्छा नहीं होती...!
िल िे हे तु िृषि भू कम िूप में कनरोता है
हर एि बदली यूूँही नहीं बरस जाती है !
बखल्क समय होता है !
आँ धी और आग
अब ति ग्रह िुछ कबगड़े कबगड़े से थे इस मं गल तारे पर
नई सुबह िी नई रोशनी हावी होगी अूँकियारे पर
उलझ गया था िहीं हवा िा आूँ चल अब जो छूट गया है
एि परत से ज्ादा राख नहीं है युग िे अंगारे पर।
अनुभर्-दान
"िूँ डहरों सी भावशू न्य आूँ िें
नभ से किसी कनयंता िी बाट जोहती हैं ।
बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं;
टू टी हुई कजं दगी
आूँ गन में दीवार से पीठ लगाए िड़ी है ;
िटी हुई पतंगों से हम सब
छत िी मुूँ डेरों पर पड़े हैं।"
ले किन,
िहाूँ वह उदासी अभी कमट पाई!
गकलयों में सूनापन अब भी पहरा दे ता है,
पर अभी वह घड़ी िहाूँ आई!
उबाि
गाओ...!
िाई किनारे से लग जाए
अपने अखस्तत्व िी शु ि चेतना जग जाए
जल में
ऐसा उबाल लाओ...!
सत्य बतिाना
सत्य बतलाना
तुमने उन्हें क्यों नहीं रोिा?
क्यों नहीं बताई राह?
क्या उनिा किसी दे शद्रोही से वादा था?
क्या उनिी आूँ िों में घृणा िा इरादा था?
क्या उनिे माथे पर द्वे ष-भाव ज्ादा था?
क्या उनमें िोई ऐसा था जो िायर हो?
सत्यान्वेषी
िेकनल आवतों िे मध्य
अजगरों से कघरा हुआ
कवष-बुझी िुंिारें
सुनता-सहता,
अगम, नीलवणी,
इस जल िे िाकलयादाह में
दहता,
सुनो, िृष्ण हूँ मैं,
भू ल से साकथयों ने
इिर िेंि दी थी जो गेंद
उसे लेने आया हूँ
[आया था
आऊूँगा]
ले िर ही जाऊूँगा।
नई पढ़ी का गीत
जो मरुस्थल आज अश्रु कभगो रहे हैं ,
भावना िे बीज कजस पर बो रहे हैं ,
कसफ़म मृ ग-छलना नहीं वह चमचमाती रे त!
क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन?
सूयम िी पहली किरन पहचानता है िौन?
अथम िल लें गे हमारे आज िे संिेत।
पर तुम आए हो--स्वागत है !
स्वागत!...घर िी इन िाली दीवारों पर!
और िहाूँ ?
हाूँ , मे रे बच्चे ने
िे ल िे ल में ही यहाूँ िाई िु रच दी थी
आओ--यहाूँ बैठो,
और मु झे मे रे अभद्र सत्कार िे कलए क्षमा िरो।
दे िो! मे रा बच्चा
तुम्हारा स्वागत िरना सीि रहा है ।
आज
दृष्टान्त
आग जिती रहे
एि तीिी आूँ च ने
इस जन्म िा हर पल छु आ,
आता हुआ कदन छु आ
हाथों से गुज़रता िल छु आ
हर बीज, अूँिुआ, पेड़-पौिा,
िूल-पती, िल छु आ
जो मु झे छूने चली
हर उस हवा िा आूँ चल छु आ !
...प्रहर िोई भी नहीं बीता अछूता
आग िे सम्पिम से
कदवस, मासों और वषों िे िड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तिम से।
एि चौथाई उमर
यों िौलते बीती कबना अविाश
सुि िहाूँ
यों भाप बन-बनिर चुिा,
रीता,
भटिता-
छानता आिाश !
आह ! िैसा िकठन
...िैसा पोच मे रा भाग !
आग, चारों ओर मे रे
आग िेवल भाग !
सुि नहीं यों िौलने में सुि नहीं िोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी-;
वह, समय िी प्रतीक्षा में है , जगेगी आप
ज्ों कि लहराती हुई ढिनें उठाती भाप !
साँ स ं की पररडध
जै से अन्धिार में
एि दीपि िी लौ
और उसिे वृत में िरवट बदलता-सा
पीला अूँिेरा।
वैसे ही
तुम्हारी गोल बाूँ हों िे दायरे में
मु स्करा उठता है
दु कनया में सबसे उदास जीवन मे रा।
अक्सर सोचा िरता हूँ
इतनी ही क्यों न हुई
आयु िी पररकि और साूँ सों िा घेरा।
अनुकूि र्ातार्रण
उड़ते हुए गगन में
पररन्दों िा शोर
दरों में, घाकटयों में
ज़मीन पर
हर ओर...
एि नन्हा-सा गीत
आओ
इस शोरोगुल में
हम-तुम बुनें,
और िेंि दें हवा में उसिो
ताकि सब सुने,
और शान्त हों हृदय वे
जो उिनते हैं
और लोग सोचें
अपने मन में कवचारें
ऐसे भी वातावरण में गीत बनते हैं ।
एक र्ात्रा-संस्मरण
लगता था
िट जायेगा अब यह सारा पथ
बस यों ही िड़े -िड़े
कडब्े िे दरवाज़े पिड़े -पिड़े ।
बढती ही गयी टर े न
िि-िि िि-िि िरती
मु झे लगा जै से मैं
अन्धिार िा यात्री
किर मे री आूँ िों में गहराया अन्धिार
बाहर से भीतर ति भर आया अन्धिार।
कौन-सा पथ
आर्ाज़ ं के घेरे
आवाज़ें ...
स्थू ल रूप िरिर जो
गकलयों, सड़िों में मूँ डलाती हैं,
़ीमती िपड़ों िे कजस्मों से टिराती हैं ,
मोटरों िे आगे कबछ जाती हैं ,
दू िानों िो दे िती ललचाती हैं,
प्रश्न कचह्न बनिर अनायास आगे आ जाती हैं -
आवाज़ें !
आवाज़ें , आवाज़ें !!
कमत्रों !
मे रे व्यखक्तत्व
और मु झ-जै से अनकगन व्यखक्तत्वों िा क्या मतलब ?
मैं जो जीता हूँ
—कि ग़ज़लों िो भू कमिा िी ज़रूरत नहीं होनी चाकहए; ले किन,एि िैकफ़यत इनिी भाषा िे बारे में ज़रूरी है.
िुछ उदू म —दाूँ दोस्तों ने िुछ उदू म शब्ों िे प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनिा िहना है कि शब् ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’
होता है , ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है .
—कि मैं उदू म नहीं जानता, ले किन इन शब्ों िा प्रयोग यहाूँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझिर किया गया है . यह िोई
मु खिल िाम नहीं था कि ’शहर’ िी जगह ‘नगर’ कलििर इस दोष से मुखक्त पा लूूँ ,किंतु मैं ने उदू म शब्ों िो उस
रूप में इस्ते माल किया है ,कजस रूप में वे कहन्दी में घुल—कमल गये हैं . उदू म िा ‘शह्र’ कहन्दी में ‘शहर’ कलिा और बोला
जाता है ;ठीि उसी तरह जै से कहन्दी िा ‘ब्राह्मण’ उदू म में ‘कबरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है .
—कि उदू म और कहन्दी अपने—अपने कसंहासन से उतरिर जब आम आदमी िे बीच आती हैं तो उनमें फ़़म िर
पाना बड़ा मु खिल होता है. मेरी नीयत और िोकशश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं िो ज़्यादा से ज़्यादा ़रीब
ला सिूूँ. इसकलए ये ग़ज़लें उस भाषा में कलिी गई हैं कजसे मैं बोलता हूँ .
—कि ग़ज़ल िी कविा बहुत पुरानी,किंतु कविा है ,कजसमें बड़े —बड़े उदू म महारकथयों ने िाव्य—रचना िी है . कहन्दी में
भी महािकव कनराला से ले िर आज िे गीतिारों और नये िकवयों ति अने ि िकवयों ने इस कविा िो आज़माया है.
परं तु अपनी सामथ्यम और सीमाओं िो जानने िे बावजू द इस कविा में उतरते हुए मु झे संिोच तो है ,पर उतना नहीं
कजतना होना चाकहए था. शायद इसिा िारण यह है कि पत्र—पकत्रिाओं में इस संग्रह िी िुछ ग़ज़लें पढिर और
सुनिर कवकभन्न वादों, रुकचयों और वगों िी सृजनशील प्रकतभाओं ने अपने पत्रों, मं तव्यों एवं कटप्पकणयों से मु झे एि
सुिद आत्म—कवश्वास कदया है. इस नाते मैं उन सबिा अत्यंत आभारी हूँ .
…और िम्लेश्वर ! वह इस अफ़साने में न होता तो यह कसलकसला यहाूँ ति न आ पाता. मैं तो—
अब नई तहज़ीब िे पेशे-नज़र हम
आदमी िो भू ल िर िाने लगे हैं
भूि है त सब्र कर
भू ि है तो सब्र िर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजिल कदल्ली में है ज़े र-ए-बहस ये मु दद् आ ।
कहीं पे धूप
िहीं पे िूप िी चादर कबछा िे बैठ गए
िहीं पे शाम कसरहाने लगा िे बैठ गए ।
आज स़िक ं पर
एक जन्मडदन पर
एि घकनष्ठ-सा कदन
आज
एि अजनबी िी तरह
पास से कनिल गया