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7/29/2019 ीगोिव दामोदर ो एवं भ िब मंगल - Aaradhika.

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ीगोिव दामोदर ो एवं भ िब मंगल


By Archana Agarwal - November 2, 2016

क वृ सम है सदा क णामय ह रनाम।


चाह िकये दे ता मुकित, ेम िकये जधाम।।

भगवान का नाम िकतना पावन है , उसम िकतनी शा , कैसी श और िकतनी काम दता है , यह कोई नहीं बतला
सकता। अथाह की थाह कौन ले सकता है । िजसके माहा का ान बु से परे है , उसका वाणी से वणन कैसे हो
सकता है ?

एक साधु से िकसी ने पूछा–’महाराज! नाम लेने से ा होता है ?’ साधु ने उ र िदया–’ ा होता है ? नाम से ा नहीं
होता? िजस माया ने जगत् को मोिहत कर रखा है , अ ानी बना रखा है , नाम के भाव से वह माया भी मोिहत हो जाती
है , अपना भाव खो दे ती है । चाहने से कहीं ब त अिधक ा होता है । मनु का चाहना-पाना दोनों िमट जाते ह।

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ीगोिव दामोदर ो म् की रचना ीिब मंगल ठाकुर ारा की गयी है िज ‘ ीलीलाशुक’ कहा जाता है ।
यह ो ७१ ोकों का है िक ु यहां इसके कुछ चिलत ोक ही िह ी अनुवाद सिहत िदए जा रहे ह।

ीिब मंगल : प रचय

सिदयों पहले िब मंगल नामक ा ण के मन को िच ामिण वे ा पी ठिगनी माया ने ऐसा आस िकया िक वह


अपने िपता की मृ ु पर भी नहीं आया। गां व वालों ने उसे धर-पकड़कर िपता का ा कराया। शाम होते ही
िब मंगल लोगों की कैद से छूटकर घनघोर बा रश म कोई नौका न िमलने से मुद को पकड़कर नदी पार कर और
काले नाग को र ी समझकर दीवार फां दकर िच ामिण वे ा के घर प ं चा। िच ामिण िजस कार प की रानी थी
उसी कार संगीत की भी ानी थी। संगीत ने उसे भगवान के सौ य आिद गुणों व लीलाओं से प रिचत करा िदया था।
आज ा ण युवक के इस अध:पतन से अ िधक िथत होकर वह रोने लगी और उसके पैरों पर िगरकर बोली–’तुम
ा ण हो िक ु मुझसे भी ादा िगर गए हो। भगवान से ेम करके तुम मुझे और अपने को बचाओ। भगवान तो
सौ य-माधुय आिद के िस ु ह, उन िस ु के एक िब दु के िकसी एक कतरे म सारी दु िनया की सु रता, मृदुता और
मधुरता है । तुम उधर बढ़ो और मेरा तथा अपना भी क ाण करो। याद रखना, अब वे ा समझकर मेरे घर म कभी
कदम मत रखना।’ िब मंगल ने अपने पितत पूव सं ारों को िमटाने के िलए बेल के पेड़ के कां टे से अपनी आं ख
फोड़ लीं।

िच ामिण के वचन सुनकर िब मंगल के दय म भगव ेम का बीज ु िटत आ और वह चल िदया उस


ीकृ ेम पी अमृतिस ु म डु बकी लगाने। उसने ऐसा सरस गीत गाया िक लाखों को तार िदया। िब मंगल के वे
रस आज भी हम रसािस कर रहे ह। िब मंगल ने िच ामिण को अपना गु माना और अपने ‘कृ कणामृत’
का मंगलाचरण ‘िच ामिणजयित’ से िकया।

बालकृ का ान

करारिव े न पदारिव ं मुखारिव े िविनवेशय म्।


वट प पुटे शयानं बालं मुकु ं मनसा रािम।।

िज ोंने अपने करकमल से चरणकमल को पकड़ कर उसके अंगूठे को अपने मुखकमल म डाल रखा है और जो
वटवृ के एक पणपुट (प े के दोने) पर शयन कर रहे ह, ऐसे बाल मुकु का म मन से रण करता ँ ।

ीगोिव दामोदर ो म्

ीकृ गोिव हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव।


िज े िपव ामृतमेतदे व गोिव दामोदर माधवेित।।

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7/29/2019 ीगोिव दामोदर ो एवं भ िब मंगल - Aaradhika.com

हे िज े ! तू ‘ ीकृ ! गोिव ! हरे ! मुरा र ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव ! तथा गोिव ! दामोदर ! माधव !’–इस
नामामृत का ही िनर र ेमपूवक पान करती रह।

िव े तुकामा खलगोपक ा मुरा रपादािपतिच वृि :।


द ािदकं मोहवशादवोचद् गोिव दामोदर माधवेित।।

िजनकी िच वृि मुरा र के चरणकमलों म लगी ई है , वे सभी गोपक ाएं दू ध-दही बेचने की इ ा से घर से चलीं।
उनका मन तो मुरा र के पास था; अत: ेमवश सुध-बुध भूल जाने के कारण ‘दही लो दही’ इसके थान पर जोर-जोर
से ‘गोिव ! दामोदर ! माधव !’ आिद पुकारने लगीं।

गृहे गृहे गोपवधूकद ा: सव िमिल ा समवा योगम्।


पु ािन नामािन पठ िन ं गोिव दामोदर माधवेित।।

ज के ेक घर म गोपां गनाएं एक होने का अवसर पाने पर झुंड-की-झुंड आपस म िमलकर उन मनमोहन माधव
के ‘गोिव , दामोदर, माधव’ इन पिव नामों को िन पढ़ा करती ह।

सुखं शयाना िनलये िनजेऽिप नामािन िव ो: वद म ा:।


ते िनि तं त यतां ज गोिव दामोदर माधवेित।।

अपने घर म ही सुख से श ा पर शयन करते ए भी जो लोग ‘हे गोिव ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन िव ुभगवान
के पिव नामों को िनर र कहते रहते ह, वे िन य ही भगवान की त यता ा कर लेते ह।

िज े सदै वं भज सु रािण नामािन कृ मनोहरािण।


सम भ ाितिवनाशनािन गोिव दामोदर माधवेित।।

हे िज े ! तू सदा ही ीकृ च के ‘हे गोिव ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन मनोहर मंजुल नामों को, जो भ ों के
सम संकटों की िनवृि करने वाले ह, भजती रह।

सुखावसाने इदमेव सारं दु :खावसाने इदमेव ेयम्।


दे हावसाने इदमेव जा ं गोिव दामोदर माधवेित।।

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7/29/2019 ीगोिव दामोदर ो एवं भ िब मंगल - Aaradhika.com

सुख के अंत म यही सार है , दु :ख के अंत म यही गाने यो है और शरीर का अंत होने के समय भी यही म जपने
यो है , कौन-सा म ? यही िक ‘हे गोिव ! हे दामोदर ! हे माधव !’

िज े रस े मधुर ि या ं स ं िहतं ां परमं वदािम।


आवणयेथा मधुरा रािण गोिव दामोदर माधवेित।।

हे रसों को चखने वाली िज े ! तुझे मीठी चीज ब त अिधक ारी लगती है , इसिलए म तेरे िहत की एक ब त ही
सु र और स ी बात बताता ँ । तू िनर र ‘हे गोिव ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन मधुर मंजुल नामों की आवृि
िकया कर।

ामेव याचे मम दे िह िज े समागते द धरे कृता े।


व मेवं मधुरं सुभ ा गोिव दामोदर माधवेित।।

हे िज े ! म तुझी से एक िभ ा मां गता ँ , तू ही मुझे दे । वह यह िक जब द पािण यमराज इस शरीर का अ करने


आव तो बड़े ही ेम से ग द् र म ‘हे गोिव ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन मंजुल नामों का उ ारण करती रहना।

ीकृ राधावर गोकुलेश गोपाल गोवधननाथ िव ो।


िज े िपव ामृतमेतदे व गोिव दामोदर माधवेित।।

हे िज े ! तू ‘ ीकृ ! राधारमण ! जराज ! गोपाल ! गोवधन ! नाथ ! िव ो ! गोिव ! दामोदर ! माधव !’–इस
नामामृत का िनर र पान करती रह।

ो पाठ से लाभ

िवपि के समय ाभ पूवक इस ो का पाठ िकया जाए तो मनु के सारे दु :ख यं भगवान हर लेते ह।
भगवान ीकृ के इस ो का िन पाठ करने से भगवान साधक के िच म वेश कर िवराजने लगते ह िजससे
उसके सम क ष धुल जाते ह, िच व अ :करण पी दपण हो जाता है और जो आन ामृत दान करने
के साथ मनु को मो भी दान करता है ।

एक बार ‘कृ ’ नाम ही हर लेता है िजतने पाप।


नही ं जीव की श , कर सके वह जीवन म उतने पाप।। (चैत च रत)

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