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हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा पररचय!

मै शंकर का वि क्रोधानल कर सकता जगती क्षार–क्षार।


डमरू की वि प्रलय–ध्वहन हूँ , हजसमे नचता भीषण संिार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मै दु गाा का उन्मत्त िास।
मै यम की प्रलयं कर पुकार, जलते मरघट का धुूँआधार।
हिर अंतरतम की ज्वाला से जगती मे आग लगा दू ूँ मैं।
यहद धधक उठे जल, थल, अंबर, जड चेतन तो कैसा हवस्मय?
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा पररचय!

मै अखिल हवश्व का गुरु मिान् , दे ता हवद्या का अमरदान।


मैने हदिलाया मुखिमागा, मैने हसिलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योहत प्रिर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठिर?
मेरा स्वणाभ मे घिर–घिर, सागर के जल मे छिर–छिर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सोराभ्मय।
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा पररचय!

मैने छाती का लह हपला, पाले हवदे श के क्षुहधत लाल।


मुझको मानव में भेद निी, मेरा अन्तस्थल वर हवशाल।
जग से ठु कराए लोगों को लो मेरे घर का िुला द्वार।
अपना सब कुछ हूँ लुटा चुका, हिर भी अक्षय िै धनागार।
मेरा िीरा पाकर ज्योहतत परकीयों का वि राजमुकुट।
यहद इन चरणों पर झुक जाए कल वि हकरीट तो क्या हवस्मय?
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा पररचय!

िोकर स्वतन्त्र मैने कब चािा िै कर लूूँ सब को गुलाम?


मैने तो सदा हसिाया िै करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल–राम के नामों पर कब मैने अत्याचार हकया?
कब दु हनया को हिन्दू करने घर–घर मे नरसंिार हकया?
कोई बतलाए काबुल मे जाकर हकतनी मखिद तोडी?
भूभाग निीं, शत–शत मानव के हृदय जीतने का हनश्चय।
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा पररचय!

मै एक हबन्दु पररपूणा हसन्धु िै यि मेरा हिन्दु समाज।


मेरा इसका संबन्ध अमर, मैं व्यखि और यि िै समाज।
इससे मैने पाया तन–मन, इससे मैने पाया जीवन।
मेरा तो बस कताव्य यिी, कर दू सब कुछ इसके अपाण।
मै तो समाज की थाहत हूँ , मै तो समाज का हं सेवक।
मै तो समहि के हलए व्यहि का कर सकता बहलदान अभय।
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा पररचय!

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