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....विनय चालीसा...

मैं हूँ बु द्धि मवलन अवि श्रिा भद्धि विहीन..


कर
ूँ विनय कछु आपकी हूँ सभी विवि हीन...
जय जय नीम करोरी बाबा ।
कृपा करहु आिे सद्भािा ।।
कैसे मैं िि स्तुवि बखानूँ ।
नाम गाम कछु मैं नहीीं जानूँ ।।
जापै कृपा दृवि िुम करहु ।
रोक शोक दु ुःख दाररद हरहु ।।
िु म्हरो रप लोग नहीीं जानै ।
जापै कृपा करहु सोई मानै ।।
कररदे अरपन सब िन मन िन ।
पािै सु ख अलौवकक सोई जन ।।
दरस परस प्रभु जो िि करई ।
सु ख सीं पवि िाके घर भरई ।।
जय जय सींि भि सुखदायक ।
ररद्धि वसद्धि सब सम्पवि दायक ।।
िु म ही विष्णु राम श्री कृष्णा ।
विचरि पर्ण करि वहि िृष्णा ।।
जय जय जय जय श्री भगिींिा ।
िु म हो साक्षाि हनुमींिा ।।
कही विभीषर् ने जो बानी ।
परम सत्य करी अब मैं मानी ।।
वबनु हरी कृपा वमलवहीं नवहीं सींिा ।
सो करर कृपा करवहीं दु ुःख अींिा ।।
सोई भरोस मेरे उर आयो ।
जा वदन प्रभु दशणन मैं पायो ।।
जो सु वमरे िुमको उर माींही ।
िावक विपवि दर होई जाींही ।।
जय जय जय गुरुदे ि हमारे ।
सबवहीं भाीं वि हम भये िुम्हारे ।।
हम पर कृपा शीघ्र अब करह ।
परम शाीं वि दे दु ुःख सब हरह ।।
रोग शोक दु ुःख सब वमट जािैं ।
जपै राम रामवहीं को ध्यािै ।।
जा विवि होई परम कल्याना ।
सोई सोई आप दे हु िरदाना ।।
सबवहीं भाीं वि हरर ही को पजैं ।
राग द्वे ष द्वीं दन सौीं जझैं ।।
करैं सदा सींिन की सेिा ।
िु म सब वबवि सब लायक दे िा ।।
सब कछु दे हमको वनस्तारो ।
भि सागर से पार उिारो ।।
मैं प्रभु शरर् विहारी आयो ।
सब पुण्यन को फल है पायो ।।
जय जय जय गुरुदे ि िु म्हारी ।
बार बार जाऊूँ बवलहारी ।।
सिणत्र सदा घर घर की जानौ ।
रखो सखो ही वनि खानौीं ।।
बे ष िस्त्र है सादा ऐसे ।
जानें नवहीं कोउ साि जैसे ।।
ऐसी है प्रभु रहवन िुम्हारी ।
िार्ी सदा रहस्यमय भारी ।।
नाद्धस्तक ह आद्धस्तक ह्वै जािै ।
जब स्वामी चेटक वदखलािें ।।
सबही िमण वन के अनुयायी ।
िु म्हे मानािे सीस निाई ।।
नवहीं कोई स्वारथ नवहीं कोउ इच्छा ।
वििरर् कर दे उ भिन वभच्छा ।।
कही विवि प्रभु मैं िुम्हे मनाऊूँ ।
जासौ कृपा प्रसाद िि पाऊूँ ।।
सािु सु जन के िुम रखिारे ।
भिन के हो सदा सहारे ।।
दु िउ शरर् आन जब परई ।
परर् इच्छा उनकी करई ।।
यह सींिन को सहज सुभाऊ ।
सु वन आश्चयण करहूँ जवन काऊ ।।
ऐसी करहु आप अब दाया ।
वनमण ल होइ जाइ मन अरु काया ।।
िमण कमण में रवच होइ जािै ।
जो जन वनि िि स्तुवि गािै ।।
आिें सदगु न िापै भारी ।
सु ख सम्पवि सोई पािै सारी ।।
होई िास सब परर् कामा ।
अीं िकाल पािै विश्रामा ।।
चारर पदारथ है जग माीं ही ।
िब प्रसाद कछु दु रलभ नाहीीं ।।
त्रावह त्रावह मैं शरर् िुम्हारी ।
हरहु सकल मम विपदा भारी ।।
िन्य िन्य बड़-भाग हमारौ ।
पािा दरस परस िि न्यारौ ।।
कमण हीन बल बुद्धि विहीना ।
िि प्रसाद कछु विनिी कीना ।।
श्रिा के यह पुष्प कछु ,चरनन िरे िुम्हार ।
कृपा वसन्धु गुरुदे ि प्रभु,करर लीजै स्वीकार ।

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