कर ूँ विनय कछु आपकी हूँ सभी विवि हीन... जय जय नीम करोरी बाबा । कृपा करहु आिे सद्भािा ।। कैसे मैं िि स्तुवि बखानूँ । नाम गाम कछु मैं नहीीं जानूँ ।। जापै कृपा दृवि िुम करहु । रोक शोक दु ुःख दाररद हरहु ।। िु म्हरो रप लोग नहीीं जानै । जापै कृपा करहु सोई मानै ।। कररदे अरपन सब िन मन िन । पािै सु ख अलौवकक सोई जन ।। दरस परस प्रभु जो िि करई । सु ख सीं पवि िाके घर भरई ।। जय जय सींि भि सुखदायक । ररद्धि वसद्धि सब सम्पवि दायक ।। िु म ही विष्णु राम श्री कृष्णा । विचरि पर्ण करि वहि िृष्णा ।। जय जय जय जय श्री भगिींिा । िु म हो साक्षाि हनुमींिा ।। कही विभीषर् ने जो बानी । परम सत्य करी अब मैं मानी ।। वबनु हरी कृपा वमलवहीं नवहीं सींिा । सो करर कृपा करवहीं दु ुःख अींिा ।। सोई भरोस मेरे उर आयो । जा वदन प्रभु दशणन मैं पायो ।। जो सु वमरे िुमको उर माींही । िावक विपवि दर होई जाींही ।। जय जय जय गुरुदे ि हमारे । सबवहीं भाीं वि हम भये िुम्हारे ।। हम पर कृपा शीघ्र अब करह । परम शाीं वि दे दु ुःख सब हरह ।। रोग शोक दु ुःख सब वमट जािैं । जपै राम रामवहीं को ध्यािै ।। जा विवि होई परम कल्याना । सोई सोई आप दे हु िरदाना ।। सबवहीं भाीं वि हरर ही को पजैं । राग द्वे ष द्वीं दन सौीं जझैं ।। करैं सदा सींिन की सेिा । िु म सब वबवि सब लायक दे िा ।। सब कछु दे हमको वनस्तारो । भि सागर से पार उिारो ।। मैं प्रभु शरर् विहारी आयो । सब पुण्यन को फल है पायो ।। जय जय जय गुरुदे ि िु म्हारी । बार बार जाऊूँ बवलहारी ।। सिणत्र सदा घर घर की जानौ । रखो सखो ही वनि खानौीं ।। बे ष िस्त्र है सादा ऐसे । जानें नवहीं कोउ साि जैसे ।। ऐसी है प्रभु रहवन िुम्हारी । िार्ी सदा रहस्यमय भारी ।। नाद्धस्तक ह आद्धस्तक ह्वै जािै । जब स्वामी चेटक वदखलािें ।। सबही िमण वन के अनुयायी । िु म्हे मानािे सीस निाई ।। नवहीं कोई स्वारथ नवहीं कोउ इच्छा । वििरर् कर दे उ भिन वभच्छा ।। कही विवि प्रभु मैं िुम्हे मनाऊूँ । जासौ कृपा प्रसाद िि पाऊूँ ।। सािु सु जन के िुम रखिारे । भिन के हो सदा सहारे ।। दु िउ शरर् आन जब परई । परर् इच्छा उनकी करई ।। यह सींिन को सहज सुभाऊ । सु वन आश्चयण करहूँ जवन काऊ ।। ऐसी करहु आप अब दाया । वनमण ल होइ जाइ मन अरु काया ।। िमण कमण में रवच होइ जािै । जो जन वनि िि स्तुवि गािै ।। आिें सदगु न िापै भारी । सु ख सम्पवि सोई पािै सारी ।। होई िास सब परर् कामा । अीं िकाल पािै विश्रामा ।। चारर पदारथ है जग माीं ही । िब प्रसाद कछु दु रलभ नाहीीं ।। त्रावह त्रावह मैं शरर् िुम्हारी । हरहु सकल मम विपदा भारी ।। िन्य िन्य बड़-भाग हमारौ । पािा दरस परस िि न्यारौ ।। कमण हीन बल बुद्धि विहीना । िि प्रसाद कछु विनिी कीना ।। श्रिा के यह पुष्प कछु ,चरनन िरे िुम्हार । कृपा वसन्धु गुरुदे ि प्रभु,करर लीजै स्वीकार ।