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Manasarovar1 by Premchand PDF
Manasarovar1 by Premchand PDF
मानसरोवर
भाग 1
ह द
िं ीकोश
www.hindikosh.in
Manasarovar – Part I
By Premchand
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has expired.
ह द
िं ीकोश
Hindikosh.in
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विषयसच
ू ी
अलग्योझा .................................................................................................... 4
ईदगा ....................................................................................................... 30
मााँ ............................................................................................................. 47
बेटोंवाली वविवा .......................................................................................... 68
शािंतत ......................................................................................................... 93
नशा ........................................................................................................ 111
स्वाममनी .................................................................................................. 121
ठाकुर का कुआाँ ......................................................................................... 141
झााँकी ....................................................................................................... 153
गुल्ली-डिंडा ................................................................................................ 162
ज्योतत ..................................................................................................... 172
हदल की रानी ........................................................................................... 188
धिक्कार ................................................................................................... 211
कायर....................................................................................................... 232
मशकार ..................................................................................................... 245
सुभागी ..................................................................................................... 263
अनभ
ु व .................................................................................................... 275
आखखरी ीला............................................................................................ 285
तावान...................................................................................................... 293
घासवाली .................................................................................................. 302
धगला ....................................................................................................... 318
रमसक सम्पादक........................................................................................ 332
मनोवत्ृ तत ................................................................................................. 341
अलग्योझा
पन्ना के चार बच्चे थे-तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ खचष और कमानेवाला
कोई न ीिं। रग्घू अब क्यों बात पछ
ू ने लगा? य मानी ु ई बात थी। अपनी स्त्री
लाएगा और अलग र े गा। स्त्री आकर और भी आग लगाएगी। पन्ना को चारों
ओर अिंिेरा ी हदखाई दे ता था: पर कुछ भी ो, व रग्घू की आसरै त बनकर घर
में र े गी। त्जस घर में उसने राज ककया, उसमें अब लौंडी न बनेगी। त्जस लौंडे
को अपना गुलाम समझा, उसका मुिं न ताकेगी। व सुन्दर थीिं, अवस्था अभी
कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी परू ी ब ार पर थी। क्या व कोई दस
ू रा
घर न ीिं कर सकती? य ीिं न ोगा, लोग ाँसेंगे। बला से! उसकी बबरादरी में क्या
ऐसा ोता न ीिं? ब्राह्मण, ठाकुर थोड़ी ी थी कक नाक कट जायगी। य तो उन् ी
ऊाँची जातों में ोता ै कक घर में चा े जो कुछ करो, बा र परदा ढका र े । व
तो सिंसार को हदखाकर दस
ू रा घर कर सकती ै , किर व रग्घू कक दबैल बनकर
क्यों र े ?
बड़ा लड़का केदार बोला-काकी, रग्घू दादा ने मारे मलए दो गाडड़यााँ बना दी ैं।
य दे ख, एक पर ू री पर लछमन और झुतनय ।ॉँ दादा
म और खुन्नू बैठेंगे, दस
दोनों गाडड़य ॉँ खीिंचेंगे।
खन्
ु नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खीिंचने लगा। चर-चर शोर ु आ मानो गाड़ी भी
इस खेल में लड़कों के साथ शरीक ै।
लछमन ने दस
ू री गाड़ी में बैठकर क ा-दादा, खीिंचो।
रग्घू ने झुतनय ॉँ को भी गाड़ी में बबठा हदया और गाड़ी खीिंचता ु आ दौड़ा। तीनों
लड़के तामलय ॉँ बजाने लगे। पन्ना चककत नेत्रों से य दृश्य दे ख र ी थी और
सोच र ी थी कक य व ी रग्घू ै या कोई और।
केदार-तीन सेर दि
ू दे ती ै काकी! खब
ू दि
ू पीऍगेिं ।
इतने में रग्घू भी अिंदर आ गया। पन्ना ने अव े लना की दृत्ष्ट से दे खकर पछ
ू ा-
क्यों रग्घू तम ॉँ
ु ने धगरिारी से कोई गाय म गी ै?
रग्घू-सब सोच मलया ै काकी! मेरी य मु र न ीिं ै । इसके पच्चीस रुपये ममल
र े ॉँ रुपये बतछया के मुजा दे दाँ ग
ैं, प च ू ा! बस, गाय अपनी ो जाएगी।
रग्घू-न ीिं काकी! व तुम् ारे गले में ब ु त अच्छी लगती ै । मदो को क्या, मु र
प नें या न प नें।
पााँच साल गुजर गए। रग्घू का-सा मे नती, ईमानदार, बात का िनी दस
ू रा ककसान
ग वॉँ में न था। पन्ना की इच्छा के बबना कोई काम न करता। उसकी उम्र अब
23 साल की ो गई थी। पन्ना बार-बार क ती, भइया, ब ू को बबदा करा लाओ।
कब तक नै में पड़ी र े गी? सब लोग मझ
ु ी को बदनाम करते ैं कक य ी ब ू को
न ीिं आने दे ती: मगर रग्घू टाल दे ता था। क ता कक अभी जल्दी क्या ै ? उसे
अपनी स्त्री के रिं ग-ढिं ग का कुछ पररचय दस
ू रों से ममल चुका था। ऐसी औरत को
घर में लाकर व ॉँ में बािा न ीिं डालना चा ता था।
अपनी श तत
‘तुम् ारे मलए जल्दी न ोगी, मेरे मलए तो जल्दी ै । मैं आज आदमी भेजती ू ाँ।’
‘तम्
ु ारी बला से। जब मैं उससे बोलाँ ग
ू ी ी न ीिं, तो क्या वा से लड़ेगी? रोहटय ॉँ
तो बना लेगी। मझ
ु से भीतर-बा र का सारा काम न ीिं ोता, मैं आज बुलाए लेती
ू ाँ।’
‘बल
ु ाना चा ती ो, बल
ु ा लो: मगर किर य न क ना कक य मे ररया को ठीक
न ीिं करता, उसका गल
ु ाम ो गया।’
‘न क ू ाँगी, जाकर दो साडड़यााँ और ममठाई ले आ।’
तीसरे हदन मुमलया मैके से आ गई। दरवाजे पर नगाड़े बजे, श नाइयों की मिुर
ध्वतन आकाश में गाँज
ू ने लगी। माँु -हदखावे की रस्म अदा ु ई। व इस मरुभूमम
में तनमषल जलिारा थी। गे ु ऑ िं रिं ग था, बड़ी-बड़ी नोकीली पलकें, कपोलों पर ल्की
सख
ु ी, ऑ िंखों में प्रबल आकर्षण। रग्घू उसे दे खते ी मिंत्रमग्ु ि ो गया।
मुमलया मैके से ी जली-भुनी आयी थी। मेरा शौ र छाती िाड़कर काम करे , और
पन्ना रानी बनी बैठी र े , उसके लड़े रईसजादे बने घम
ू ें । ममु लया से य बरदाश्त
न ोगा। व ककसी की गल
ु ामी न करे गी। अपने लड़के तो अपने ोते ी न ीिं,
भाई ककसके ोते ैं ? जब तक पर न ीिं तनकते ैं , रग्घू को घेरे ु ए ैं। ज्यों ी
जरा सयाने ु ए, पर झाड़कर तनकल जाऍगेिं , बात भी न पूछेंगे।
रग्घू-तो किर क्या करुाँ , तू ी बता? लड़के तो अभी घर का काम करने लायक भी
न ीिं ैं।
मुमलया-लड़के रावत के ैं , कुछ तुम् ारे न ीिं ैं। य ी पन्ना ै , जो तुम् ें दाने-दाने
को तरसाती थी। सब सन
ु चक
ु ी ूिं । मैं लौंडी बनकर न र ू ाँगी। रुपये-पैसे का मझ
ु े
ह साब न ीिं ममलता। न जाने तम
ु क्या लाते ो और व क्या करती ै । तम
ु
समझते ो, रुपये घर ी में तो ैं: मगर दे ख लेना, तुम् ें जो एक िूटी कौड़ी भी
ममले।
रग्घू-रुपये-पैसे तेरे ाथ में दे ने लगाँू तो दतु नया कया क े गी, य तो सोच।
ममु लया-दतु नया जो चा े , क े । दतु नया के ाथों बबकी न ीिं ू ाँ। दे ख लेना, भ डॉँ
लीपकर ाथ काला ी र े गा। किर तुम अपने भाइयों के मलए मरो, मै। क्यों
मरुाँ ?
रग्घू-ने कुछ जवाब न हदया। उसे त्जस बात का भय था, व इतनी जल्द मसर
आ पड़ी। अब अगर उसने ब ु त ततथो-थिंभो ककया, तो साल-छ:म ीने और काम
चलेगा। बस, आगे य डोंगा चलता नजर न ीिं आता। बकरे की म ॉँ कब तक खैर
मनाएगी?
पन्ना ने साड़ी उतारकर रख दी, न ाने न गयी। ममु लया का वार खाली गया।
कई हदन के बाद एक शाम को पन्ना िान रोपकर लौटी, अाँिेरा ो गया था।
हदन-भर की भख
ू ी थी। आशा थी, ब ू ने रोटी बना रखी ोगी: मगर दे खा तो य ॉँ
चल्
ू ा ठिं डा पड़ा ु आ था, और बच्चे मारे भख
ू के तड़प र े थे। ममु लया से
आह स्ता से पूछा-आज अभी चूल् ा न ीिं जला?
पन्ना-और ब ू ?
पन्ना ने उसी वक्त चूल् ा जलाया और खाना बनाने बैठ गई। आटा गाँि
ू ती थी
और रोती थी। क्या नसीब ै ? हदन-भर खेत में जली, घर आई तो चूल् े के सामने
जलना पड़ा।
केदार का चौद व ॉँ साल था। भाभी के रिं ग-ढिं ग दे खकर सारी त्स्थत समझ ् र ा
था। बोला-काकी, भाभी अब तुम् ारे साथ र ना न ीिं चा ती।
रग्घू ने आकर मुमलया से क ा-लड़के मेले जा र े ैं, सबों को दो-दो पैसे दे दो।
मुमलया ने तयोररय ॉँ चढ़ाकर क ा-पैसे घर में न ीिं ैं।
रग्घू-क ॉँ उठ गए? जरा सुनाँ,ू आज तयो ार के हदन लड़के मेला दे खने न जाऍगेिं ?
खूट
ाँ ी पर किंु जी ाथ पकड़ मलया और बोली-किंु जी मुझे दे दो, न ीिं तो ठीक न
ोगा। खाने-प ने को भी चाह ए, कागज-ककताब को भी चाह ए, उस पर मेला
दे खने को भी चाह ए। मारी कमाई इसमलए न ीिं ै कक दस
ू रे खाऍ िं और माँछ
ू ों
पर ताव दें ।
पन्ना ने रग्घू से क ा-भइया, पैसे क्या ोंगे! लड़के मेला दे खने न जाऍगेिं ।
रग्घू ने खझड़ककर क ा-मेला दे खने क्यों न जाऍगेिं ? सारा ग वॉँ जा र ा ै। मारे
ी लड़के न जाऍगेिं ?
रग्घू-अच्छा, तो माँग
ू ी दल लेना। कुछ खा-पी लेगी, तभी तो माँग
ू दल सकेगी।
मुमलया ने मसर से अिंचल खखसकाया और जरा समीप आकर बोली-मैं काम करने
से न ीिं डरती, न बैठे-बैठे खाना चा ती ू ाँ: मगर मुझ से ककसी की िौंस न ीिं
स ी जाती। तुम् ारी ी काकी घर का काम-काज करती ैं , तो अपने मलए करती
ैं, अपने बाल-बच्चों के मलए करती ैं। मुझ पर कुछ ए सान न ीिं करतीिं, किर
मझ
ु पर िौंस क्यों जमाती ैं? उन् ें अपने बच्चे प्यारे ोंगे , मझ
ु े तो तम्
ु ारा
आसरा ै । मैं अपनी ऑ िंखों से य न ीिं दे ख सकती कक सारा घर तो चैन करे ,
जरा-जरा-से बच्चे तो दि
ू पीऍ िं, और त्जसके बल-बूते पर ग ृ स्थी बनी ु ई ै, व
मट्ठे को तरसे। कोई उसका पछ
ू नेवाला न ो। जरा अपना मुिं तो दे खो, कैसी
सूरत तनकल आई ै । औरों के तो चार बरस में अपने पट्ठे तैयार ो जाऍगेिं । तुम
तो दस साल में खाट पर पड़ जाओगे। बैठ जाओ, खड़े क्यों ो? क्या मारकर
भागोगे? मैं तम् ॉँ लाँ ग
ु ें जबरदस्ती न ब ि ू ी, या मालककन का ु क्म न ीिं ै ? सच
क ू ाँ , तुम बड़े कठ-कलेजी ो। मैं जानती, ऐसे तनमोह ए से पाला पड़ेगा, तो इस
घर में भूल से न आती। आती भी तो मन न लगाती, मगर अब तो मन तुमसे
लग गया। घर भी जाऊाँ, तो मन य ॉँ ी र े गा और तम
ु जो ो, मेरी बात न ीिं
पछ
ू ते।
मुमलया की ये रसीली बातें रग्घू पर कोई असर न डाल सकीिं। व उसी रुखाई से
बोला-ममु लया, मझ
ु से य न ोगा। अलग ोने का ध्यान करते ी मेरा मन न
जाने कैसा ो जाता ै। य चोट मझ
ु से न स ी जाएगी।
मुमलया ने परर ास करके क ा-तो चूडड़य ॉँ प नकर अन्दर बैठो न! लाओ मैं माँछ
ू ें
लगा लिं।ू मैं तो समझती थी कक तम
ु में भी कुछ कल-बल ै । अब दे खती ू ाँ, तो
तनरे ममट्टी के लौंदे ो।
पन्ना दालान में खड़ी दोनों की बातचीत सुन न ीिं थी। अब उससे न र ा गया।
सामने आकर रग्घू से बोली-जब व अलग ोने पर तल
ु ी ुई ै , किर तम
ु क्यों
उसे जबरदस्ती ममलाए रखना चा ते ो? तम
ु उसे लेकर र ो, मारे भगवान ् ने
तनबा हदया, तो अब क्या डर? अब तो भगवान ् की दया से तीनों लड़के सयाने
ो गए ैं, अब कोई धचन्ता न ीिं।
पन्ना की बातें सुनकर मुमलया समझ गई कक अपने पौबार ैं। चटपट उठी, घर
में झाड़ू लगाई, चूल् ा जलाया और कुऍ िं से पानी लाने चली। उसकी टे क पूरी ो
गई थी।
ममु लया पानी लेकर गयी, खाना बनाया और रग्घू से बोली-जाओिं, न ा आओ, रोटी
तैयार ै।
रग्घू ने मानों सन
ु ा ी न ीिं। मसर पर ाथ रखकर द्वार की तरि ताकता र ा।
ममु लया ने किर न ीिं क ा। जाकर चल् ु ा हदया, रोहटय ॉँ उठाकर छीिंके पर रख
ू ा बझ
दीिं और माँु ॉँ
ढ ककर लेट र ी।
रग्घू ने झाँझ
ु लाकर क ा-काकी तू घर में र ने दे गी कक माँु में कामलख लगाकर
क ीिं तनकल जाऊाँ? खाना तो खाना ी ै , आज न खाऊाँगा, कल खाऊाँगा, लेककन
अभी मझ
ु से न खाया जाएगा। केदार क्या अभी मदरसे से न ीिं आया?
केदार ने पछ
ू ा-भइया को भी बल
ु ा लाँ ू न?
ॉँ न ीिं?
केदार-भइया ने भाभी को ड टा
मुमलया अपनी कोठरी में पड़ी सुन र ी थी। बा र आकर बोली-भइया ने तो न ीिं
ॉँ अब तुम आकर ड टों।
ड टा ॉँ
केदार के चे रे पर रिं ग उड़ गया। किर जबान न खोली। तीनों लड़कों ने खाना
खाया और बा र तनकले। लू चलने लगी थी। आम के बाग में ग वॉँ के लड़के-
लड़ककय ॉँ वा से धगरे ु ए आम चन
ु र े थे। केदार ने क ा-आज म भी आम
चन
ु ने चलें , खब
ू आम धगर र े ैं।
रग्घू-मुझे धचढ़ा मत। तेरे पीछे मैं भी बदनाम ो र ा ू ाँ। जब तू ककसी की ोकर
न ीिं र ना चा ती, तो दस
ू रे को क्या गरज ै , जो मेरी खुशामद करे ? जाकर काकी
से पछ
ू , लड़के आम चुनने गए ैं, उन् ें पकड़ लाऊाँ?
मुमलया अाँगूठा हदखाकर बोली-य जाता ै । तुम् ें सौ बार गरज ो, जाकर पूछो।
इतने में पन्ना भी भीतर से तनकल आयी। रग्घू ने पूछा-लड़के बगीचे में चले
गए काकी, लू चल र ी ै।
पन्ना-जब तुम् ें अपने मन से न ीिं जाना ै , तो किर मैं जाने को क्यों क ू ाँ? तुम् ें
रोकना ोता , तो रोक न दे त?े तुम् ारे सामने ी तो गए ोंगे?
रग्घू लड़कों को लेकर बाग से लौटा, तो दे खा मुमलया अभी तक झोंपड़े में खड़ी
ै । बोला-तू जाकर खा क्यों न ीिं लेती? मुझे तो इस बेला भख
ू न ीिं ै।
ममु लया ऐिंठकर बोली- ,ॉँ भख
ू क्यों लगेगी! भाइयों ने खाया, व तम्
ु ारे पेट में
प ु ाँच ी गया ोगा।
रात का भोजन भी उसने इसी तर ककया। भोजन क्या ककया, कसम परू ी की।
रात-भर उसका धचतत उद्ववग्न र ा। एक अज्ञात शिंका उसके मन पर छाई ु ई
थी, जेसे भोला म तो द्वार पर बैठा रो र ा ो। व कई बार चौंककर उठा। ऐसा
जान पड़ा, भोला उसकी ओर ततरस्कार की आाँखों से दे ख र ा ै।
व दोनों जन
ू भोजन करता था: पर जैसे शत्रु के घर। भोला की शोकमग्न मतू तष
ऑ िंखों से न उतरती थी। रात को उसे नीिंद न आती। व ग वॉँ में तनकलता, तो
इस तर माँु चुराए, मसर झुकाए मानो गो- तया की ो।
पााँच साल गुजर गए। रग्घू अब दो लड़कों का बाप था। आाँगन में दीवार खखिंच
ॉँ मलये गए थे। केदार
गई थी, खेतों में मेड़ें डाल दी गई थीिं और बैल -बतछए ब ि
की उम्र अब उन्नीस की ो गई थी। उसने पढ़ना छोड़ हदया था और खेती का
काम करता था। खन्
ु नू गाय चराता था। केवल लछमन अब तक मदरसे जाता
था। पन्ना और मुमलया दोनों एक-दस
ू रे की सूरत से जलती थीिं। मुमलया के दोनों
लड़के ब ु िा पन्ना ी के पास र ते। व ीिं उन् ें उबटन मलती, व ी काजल
लगाती, व ी गोद में मलये किरती: मगर मुमलया के मुिं से अनुग्र का एक शब्द
भी न तनकलता। न पन्ना ी इसकी इच्छुक थी। व जो कुछ करती तनव्याषज
भाव से करती थी। उसके दो-दो लड़के अब कमाऊ ो गए थे। लड़की खाना पका
लेती थी। व खद
ु ऊपर का काम-काज कर लेती। इसके ववरुद्ध रग्घू अपने घर
का अकेला था, व भी दब
ु ल
ष , अशक्त और जवानी में बूढ़ा। अभी आयु तीस वर्ष
से अधिक न थी, लेककन बाल खखचड़ी ॉँ
ो गए थे। कमर भी झुक चली थी। ख सी
ने जीणष कर रखा था। दे खकर दया आती थी। और खेती पसीने की वस्तु ै।
खेती की जैसी सेवा ोनी चाह ए, व उससे न ो पाती। किर अच्छी िसल क ॉँ
से आती? कुछ ऋण भी ो गया था। व धचिंता और भी मारे डालती थी। चाह ए
तो य था कक अब उसे कुछ आराम ममलता। इतने हदनों के तनरन्तर पररश्रम के
बाद मसर का बोझ कुछ ल्का ोता, लेककन मुमलया की स्वाथषपरता और
अदरू दमशषता ने ल राती ु ई खेती उजाड़ दी। अगर सब एक साथ र ते, तो व
अब तक पेन्शन पा जाता, मजे में द्वार पर बैठा ु आ नाररयल पीता। भाई काम
करते, व सला दे ता। म तो बना किरता। क ीिं ककसी के झगड़े चुकाता, क ीिं
सािु-सिंतों की सेवा करता: व अवसर ाथ से तनकल गया। अब तो धचिंता-भार
हदन-हदन बढ़ता जाता था।
आखखर उसे िीमा-िीमा ज्वर र ने लगा। हृदय-शूल, धचिंता, कड़ा पररश्रम और
अभाव का य ी पुरस्कार ै । प ले कुछ परवा न की। समझा आप ी आप
अच्छा ो जाएगा: मगर कमजोरी बढ़ने लगी, तो दवा की किक्र ु ई। त्जसने जो
बता हदया, खा मलया, डाक्टरों और वैद्यों के पास जाने की सामर्थयष क ?ॉँ और
सामर्थयष भी ोती, तो रुपये खचष कर दे ने के मसवा और नतीजा ी क्या था? जीणष
ज्वर की और्धि आराम और पुत्ष्टकारक भोजन ै। न व बसिंत-मालती का
सेवन कर सकता था और न आराम से बैठकर बलबिषक भोजन कर सकता था।
कमजोरी बढ़ती ी गई।
पन्ना को अवसर ममलता, तो व आकर उसे तसल्ली दे ती: लेककन उसके लड़के
अब रग्घू से बात भी न करते थे। दवा-दारु तो क्या करतें , उसका और मजाक
उड़ाते। भैया समझते थे कक म लोगों से अलग ोकर सोने और ईट रख लें गे।
भाभी भी समझती थीिं, सोने से लद जाऊाँगी। अब दे खें कौन पछ
ू ता ै ? मससक-
मससककर न मरें तो क दे ना। ब ु त ‘ ाय! ाय!’ भी अच्छी न ीिं ोती। आदमी
उतना काम करे , त्जतना ो सके। य न ीिं कक रुपये के मलए जान दे दे ।
केदार क ता-चल, मैं खूब समझता ू ाँ। भैया की जग मैं ोता, तो डिंडे से बात
करता। मजाक थी कक औरत यों त्जद करती। य सब भैया की चाल थी। सब
सिी-बिी बात थी।
एकाएक छोटे बच्चे का रोना सुनकर उसने उिर ताका, तो बड़ा लड़का उसे
चुमकारकर क र ा था-बैया तुप र ो, तुप र ो। िीरे -िीरे उसके मुिं पर ाथ
िेरता था और चुप कराने के मलए ववकल था। जब बच्चा ककसी तर न चुप न
ु आ तो व खद
ु उसके पास लेट गया और उसे छाती से लगाकर प्यार करने
लगा: मगर जब य प्रयतन भी सिल न ु आ, तो व रोने लगा।
उसी समय पन्ना दौड़ी आयी और छोटे बालक को गोद में उठाकर प्यार करती
ु ई बोली-लड़कों को मझ
ु े क्यों न दे आयी ब ू ? ाय! ाय! बेचारा िरती पर पड़ा
लोट र ा ै । जब मैं मर जाऊाँ तो जो चा े करना, अभी तो जीती ू ाँ, अलग ो
जाने से बच्चे तो न ीिं अलग ो गए।
ममु लया की आिंखों से ऑ िंसू जारी थे। पन्ना की बातों में आज सच्ची वेदना, सच्ची
सान्तवना, सच्ची धचन्ता भरी ु ई थी। मुमलया का मन कभी उसकी ओर इतना
आकवर्षत न ु आ था। त्जनसे उसे व्यिंग्य और प्रततकार का भय था, वे इतने
दयालु, इतने शुभेच्छु ो गए थे।
आज प ली बार उसे अपनी स्वाथषपरता पर लज्जा आई। प ली बार आतमा ने
अलग्योझे पर धिक्कारा।
मुमलया-मानेगी क्यों न ीिं अम्म ,ॉँ ऐसा सुन्दर कमाऊ, सुशील वर और क ॉँ ममला
जाता ै ? उस जनम का कोई सािु-म ातमा ै , न ीिं तो लड़ाई-झगड़े के डर से
कौन बबन ब्या ा र ता ै । क ॉँ र ती ै , मैं जाकर उसे मना लाऊाँगी।
पन्ना-बता दाँ ,ू व तू ी ै!
ॉँ गाली दे ती
मुमलया लजाकर बोली-तुम तो अम्म जी, ो।
पन्ना-गाली कैसी, दे वर ी तो ै!
ॉँ अरुण
वैिव्य के शौक से मरु झाया ु आ ममु लया का पीत वदन कमल की भ तत
ो उठा। दस वर्ो में जो कुछ खोया था, व इसी एक क्षण में मानों ब्याज के
साथ ममल गया। व ी लवण्य, व ी ववकास, व ीिं आकर्षण, व ीिं लोच।
***
ईदगाह
रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी ै । ककतना मनो र, ककतना सु ावना
प्रभाव ै । वक्ष
ृ ों पर अजीब ररयाली ै , खेतों में कुछ अजीब रौनक ै , आसमान
पर कुछ अजीब लामलमा ै । आज का सूयष दे खो, ककतना प्यारा, ककतना शीतल ै,
यानी सिंसार को ईद की बिाई दे र ा ै । ग विं में ककतनी लचल ै । ईदगा
जाने की तैयाररय ॉँ ो र ी ैं। ककसी के कुरते में बटन न ीिं ै , पड़ोस के घर में
सुई-िागा लेने दौड़ा जा र ा ै । ककसी के जूते कड़े ो गए ैं, उनमें तेल डालने
के मलए तेली के घर पर भागा जाता ै । जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें ।
ईदगा से लौटते-लौटते दोप र ो जाएगी। तीन कोस का पेदल रास्ता, किर
सैकड़ों आदममयों से ममलना-भें टना, दोप र के प ले लोटना असम्भव ै । लड़के
सबसे ज्यादा प्रसन्न ैं। ककसी ने एक रोजा रखा ै, व भी दोप र तक, ककसी ने
व भी न ीिं, लेककन ईदगा जाने की खश
ु ी उनके ह स्से की चीज ै । रोजे बड़े-
बूढ़ो के मलए ोंगे। इनके मलए तो ईद ै । रोज ईद का नाम रटते थे, आज व
आ गई। अब जल्दी पड़ी ै कक लोग ईदगा क्यों न ीिं चलते। इन् ें ग ृ स्थी
धचिंताओिं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के मलए दि
ू ओर शक्कर घर में ै या न ीिं,
इनकी बला से, ये तो सेवेयािं खाऍगेिं । व क्या जानें कक अब्बाजान क्यों बद वास
चौिरी कायमअली के घर दौड़े जा र े ैं। उन् ें क्या खबर कक चौिरी ऑ िंखें बदल
लें , तो य सारी ईद मु रष म ो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का िन
भरा ु आ ै । बार-बार जेब से अपना खजाना तनकालकर धगनते ैं और खुश
ोकर किर रख लेते ैं। म मूद धगनता ै , एक-दो, दस,-बार , उसके पास बार
पैसे ैं। मो नमसन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पिंद्र पैसे ैं। इन् ीिं अनधगनती
पैसों में अनधगनती चीजें लाऍगेंिं - खखलौने, ममठाइयािं, बबगुल, गें द और जाने क्या-
क्या।
मो मसन बोल-चलों, मनों आटा पीस डालती ैं। जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो ाथ
ॉँ
क पने लगें गे! सौकड़ों घड़े पानी रोज तनकालती ॉँ घड़े तो तेरी भैंस पी
ैं। प च
जाती ै । ककसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो ऑ िंखों तक अाँिेरी आ
जाए।
म मद
ू -लेककन दौड़तीिं तो न ीिं, उछल-कूद तो न ीिं सकतीिं।
मो मसन- ,ॉँ उछल-कूद तो न ीिं सकतीिं; लेककन उस हदन मेरी गाय खुल गई थी
और चौिरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्म ॉँ इतना तेज दौड़ी कक मैं उन् ें न पा
सका, सच।
ाममद-लोग उन् ें केसे खुश करते ोंगे? कोई मुझे य मिंतर बता दे तो एक
त्जन्न को खुश कर लाँ ।ू
आगे चले। य पुमलस लाइन ै । य ीिं सब कातनसहटबबल कवायद करते ैं। रै टन!
िाय िो! रात को बेचारे घूम-घूमकर प रा दे ते ैं, न ीिं चोररय ॉँ ो जाऍ।िं मो मसन
ने प्रततवाद ककया-य कातनसहटबबल प रा दे ते ें ? तभी तुम ब ु त जानते ों अजी
जरत, य चोरी करते ैं। श र के त्जतने चोर-डाकू ें , सब इनसे मु ल्ले में
जाकर ‘जागते र ो! जाते र ो!’ पक
ु ारते ें । तभी इन लोगों के पास इतने रूपये
आते ें । मेरे मामू एक थाने में कातनसहटबबल ें । बार रूपया म ीना पाते ें ,
लेककन पचास रूपये घर भेजते ें । अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कक
माम,ू आप इतने रूपये क ॉँ से पाते ैं? ाँसकर क ने लगे-बेटा, अल्ला दे ता ै।
किर आप ी बोले- म लोग चा ें तो एक हदन में लाखों मार लाऍ।िं म तो
इतना ी लेते ैं , त्जसमें अपनी बदनामी न ो और नौकरी न चली जाए।
ाममद ने पूछा-य लोग चोरी करवाते ैं , तो कोई इन् ें पकड़ता न ीिं?
मो मसन उसकी नादानी पर दया हदखाकर बोला..अरे , पागल! इन् ें कौन पकड़ेगा!
पकड़ने वाले तो य लोग खद
ु ैं, लेककन अल्ला , इन् ें सजा भी खब
ू दे ता ै।
राम का माल राम में जाता ै । थोड़े ी हदन ु ए, मामू के घर में आग लग
गई। सारी लेई-पाँज
ू ी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई हदन पेड़ के नीचे
सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! किर न जाने क ॉँ से एक सौ कजष लाए तो
बरतन-भ ड़ेॉँ आए।
अब बस्ती घनी ोने लगी। ईइगा जाने वालो की टोमलय ॉँ नजर आने लगी। एक
ॉँ पर सवार, कोई मोटर पर, सभी
से एक भड़कीले वस्त्र प ने ु ए। कोई इक्के-त गे
इत्र में बसे, सभी के हदलों में उमिंग। ग्रामीणों का य छोटा-सा दल अपनी
ववपन्नता से बेखबर, सन्तोर् ओर िैयष में मगन चला जा र ा था। बच्चों के मलए
नगर की सभी चीजें अनोखी थीिं। त्जस चीज की ओर ताकते, ताकते ी र जाते
और पीछे से आनष की आवाज ोने पर भी न चेतते। ाममद तो मोटर के नीचे
जाते-जाते बचा।
नमाज खतम ो गई। लोग आपस में गले ममल र े ैं। तब ममठाई और खखलौने
की दक
ू ान पर िावा ोता ै । ग्रामीणों का य दल इस ववर्य में बालकों से कम
उतसा ी न ीिं ै। य दे खो, ह ड
िं ोला ें एक पैसा दे कर चढ़ जाओ। कभी आसमान
पर जाते ु ए मालूम ोगें , कभी जमीन पर धगरते ु ए। य चखी ै , लकड़ी के
ाथी, घोड़े, ऊाँट, छड़ो में लटके ु ए ैं। एक पेसा दे कर बैठ जाओिं और पच्चीस
चक्करों का मजा लो। म मूद और मो मसन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर
ऊाँटो पर बैठते ें । ाममद दरू खड़ा ै । तीन ी पैसे तो उसके पास ैं। अपने
कोर् का एक तत ाई जरा-सा चक्कर खाने के मलए न ीिं दे सकता।
मो मसन क ता ॉँ
ै -मेरा मभश्ती रोज पानी दे जाएगा स झ-सबे रे
म मद
ू -और मेरा मसपा ी घर का प रा दे गा कोई चोर आएगा, तो िौरन बिंदक
ू से
िैर कर दे गा।
ाममद खखलौनों की तनिंदा करता ै -ममट्टी ी के तो ैं, धगरे तो चकनाचूर ो जाऍ िं,
लेककन ललचाई ु ई ऑ िंखों से खखलौनों को दे ख र ा ै और चा ता ै कक जरा
दे र के मलए उन् ें ाथ में ले सकता। उसके ाथ अनायास ी लपकते ें , लेककन
लड़के इतने तयागी न ीिं ोते ें , ववशेर्कर जब अभी नया शौक ै। ाममद
ललचता र जाता ै।
ाममद-ममठाई कौन बड़ी नेमत ै । ककताब में इसकी ककतनी बरु ाइय ॉँ मलखी ैं।
ाममद के साथी आगे बढ़ गए ैं। सबील पर सबके सब शबषत पी र े ैं। दे खो,
सब कतने लालची ैं। इतनी ममठाइय ॉँ लीिं, मुझे ककसी ने एक भी न दी। उस पर
क ते ै , मेरे साथ खेलो। मेरा य काम करों। अब अगर ककसी ने कोई काम
करने को क ा, तो पूछूाँगा। खाए ममठाइय ,ॉँ आप माँु सड़ेगा, िोड़े-िुत्न्सयााँ
तनकलें गी, आप ी जबान चटोरी ो जाएगी। तब घर से पैसे चुराऍगेिं और मार
खाऍगेिं । ककताब में झठ
ू ी बातें थोड़े ी मलखी ें । मेरी जबान क्यों खराब ोगी?
अम्म ॉँ धचमटा दे खते ी दौड़कर मेरे ाथ से ले लें गी और क ें गी-मेरा बच्चा
अम्म ॉँ के मलए धचमटा लाया ै । ककतना अच्छा लड़का ै । इन लोगों के खखलौने
पर कौन इन् ें दआ
ु ऍ िं दे गा? बड़ों का दआ
ु ऍ िं सीिे अल्ला के दरबार में प ु ाँचती ैं ,
और तुरिंत सुनी जाती ैं। मैं भी इनसे ममजाज क्यों स ू ाँ ? मैं गरीब स ी, ककसी से
ॉँ
कुछ म गने तो न ीिं जाते। आखखर अब्बाजान कभीिं न कभी आऍगेिं । अम्मा भी
ऑ िंएगी ी। किर इन लोगों से पछ
ू ू ाँ गा, ककतने खखलौने लोगे? एक-एक को टोकररयों
खखलौने दाँ ू और हदखा ू ाँ कक दोस्तों के साथ इस तर का सलूक ककया जात ै।
य न ीिं कक एक पैसे की रे वडड़य ॉँ लीिं, तो धचढ़ा-धचढ़ाकर खाने लगे। सबके सब
ाँसेंगे कक ाममद ने धचमटा मलया ै। ाँसें! मेरी बला से! उसने दक
ु ानदार से
पूछा-य धचमटा ककतने का ै?
दक
ु ानदार ने उसकी ओर दे खा और कोई आदमी साथ न दे खकर क ा-तुम् ारे
काम का न ीिं ै जी!
‘बबकाऊ ै कक न ीिं?’
‘ठीक-ठीक पााँच पैसे लगें गे, लेना ो लो, न ीिं चलते बनो।’
मो मसन ने ाँसकर क ा-य धचमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करे गा?
धचमटे ने सभी को मोह त कर मलया, अब पैसे ककसके पास िरे ैं ? किर मेले से
दरू तनकल आए ें , नौ कब के बज गए, िूप तेज ो र ी ै । घर प ुिं चने की
जल्दी ो र ी े । बाप से त्जद भी करें , तो धचमटा न ीिं ममल सकता। ाममद ै
बड़ा चालाक। इसीमलए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
मो मसन को एक नई चोट सझ
ू गई-तम्
ु ारे धचमटे का माँु रोज आग में जलेगा।
ॉँ
ाममद को कोई िड़कता ु आ जवाब न सूझा, तो उसने ि िली शुरू की-मेरा
धचमटा बावरचीखाने में न ी र े गा। वकील सा ब कुसी पर बैठेगें , तो जाकर उन् े
जमीन पर पटक दे गा और उनका कानून उनके पेट में डाल दे गा।
बात कुछ बनी न ी। खाल गाली-गलौज थी, लेककन कानून को पेट में डालनेवाली
बात छा गई। ऐसी छा गई कक तीनों सूरमा माँु ताकते र गए मानो कोई
िेलचा कानकौआ ककसी गिंडव
े ाले कनकौए को काट गया ो। कानून माँु से बा र
तनकलने वाली चीज े । उसको पेट के अन्दर डाल हदया जाना बेतक
ु ी-सी बात
ोने पर भी कुछ नयापन रखती े। ाममद ने मैदान मार मलया। उसका धचमटा
रूस्तमे-ह न्द े । अब इसमें मो मसन, म मूद नूरे, सम्मी ककसी को भी आपत्तत
न ीिं ो सकती।
म मद
ू और नरू े ने भी अपने-अपने खखलौने पेश ककए।
ाममद ने ारने वालों के आाँसू पोंछे -मैं तुम् े धचढ़ा र ा था, सच! य धचमटा
भला, इन खखलौनों की क्या बराबर करे गा, मालम
ू ोता ै , अब बोले, अब बोले।
म मद
ू -दआ
ु को मलये किरते ो। उल्टे मार न पड़े। अम्मााँ जरूर क ें गी कक मेले
में य ी ममट्टी के खखलौने ममले?
ाममद को स्वीकार करना पड़ा कक खखलौनों को दे खकर ककसी की मााँ इतनी खश
ु
न ोगी, त्जतनी दादी धचमटे को दे खकर ोंगी। तीन पैसों ी में तो उसे सब-कुछ
करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बबल्कुल जरूरत न थी।
किर अब तो धचमटा रूस्तमें -ह न्द े ओर सभी खखलौनों का बादशा ।
रास्ते में म मद
ू को भख
ू लगी। उसके बाप ने केले खाने को हदयें। म मन
ू ने
केवल ाममद को साझी बनाया। उसके अन्य ममत्र मुिं ताकते र गए। य उस
धचमटे का प्रसाद थािं।
ग्यार बजे ग वॉँ में लचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मो मसन की छोटी ब न
दौड़कर मभश्ती उसके ाथ से छीन मलया और मारे खुशी के जा उछली, तो ममय िं
मभश्ती नीचे आ र े और सुरलोक मसिारे । इस पर भाई-ब न में मार-पीट ु ई।
दानों खुब रोए। उसकी अम्म ॉँ य शोर सुनकर बबगड़ी और दोनों को ऊपर से
दो-दो च टेॉँ और लगाए।
म मद
ू को आज ज्ञात ु आ कक व अच्छा डाक्टर ै । उसको ऐसा मर म ममला
गया ै त्जससे व ॉँ को आनन-िानन जोड़ सकता
टूटी ट ग े । केवल गल
ू र का
दि
ू चाह ए। गूलर का दि
ू आता ै । टााँग जवाब दे दे ती ै । शल्य-कक्रया असिल
ु ई, तब उसकी दस
ू री टााँग भी तोड़ दी जाती ै । अब कम-से-कम एक जग
आराम से बैठ तो सकता ॉँ से तो न चल सकता था, न बैठ सकता
ै । एक ट ग
था। अब व मसपा ी सिंन्यासी ो गया ै । अपनी जग पर बै ठा-बैठा प रा दे ता
ै । कभी-कभी दे वता भी बन जाता ै । उसके मसर का झालरदार सािा खरु च
हदया गया ै । अब उसका त्जतना रूपािंतर चा ों, कर सकते ो। कभी-कभी तो
उससे बाट का काम भी मलया जाता ै।
बहु ढ़या का क्रोि तरु न्त स्ने में बदल गया, और स्ने भी व न ीिं, जो प्रगल्भ
ोता े और अपनी सारी कसक शब्दों में बबखेर दे ता ै। य मक
ू स्ने था, खब
ू
ठोस, रस और स्वाद से भरा ु आ। बच्चे में ककतना व्याग, ककतना सदभाव और
ककतना वववेक ै ! दस
ू रों को खखलौने लेते और ममठाई खाते दे खकर इसका मन
ककतना ललचाया ोगा? इतना जब्त इससे ु आ कैसे? व ॉँ भी इसे अपनी बुहढ़या
दादी की याद बनी र ी। अमीना का मन गदगद ो गया।
***
मााँ
ु आ। उसी का माँु दे ख-दे खकर करूणा ने य तीन साल काट हदए थे। व
सोचती-जब मैं बालक को उनके सामने ले जाऊाँगी, तो व ककतने प्रसन्न ोंगे!
उसे दे खकर प ले तो चककत ो जाऍगेिं , किर गोद में उठा लेंगे और क ें गे-करूणा,
तुमने य रतन दे कर मुझे तन ाल कर हदया। कैद के सारे कष्ट बालक की
तोतली बातों में भूल जाऍगेिं , उनकी एक सरल, पववत्र, मो क दृत्ष्ट दृदय की सारी
व्यवस्थाओिं को िो डालेगी। इस कल्पना का आन्नद लेकर व िूली न समाती
थी।
करूणा-छी! सूखकर कााँटा ो गए। क्या व ॉँ भरपेट भोजन न ीिं ममलात? तुम
क ते थे, राजनैततक आदममयों के साथ बड़ा अच्छा व्यव ार ककया जाता ै और
व तम्
ु ारे साथी क्या ो गए जो तम्
ु ें आठों प र घेरे र ते थे और तम्
ु ारे
पसीने की जग खून ब ाने को तैयार र ते थे?
करूणा बालक को मलये ु ए उठी और थाली में कुछ भोजन तनकलकर लाई।
आहदतय ने क्षुिापूणष, नेत्रों से थाली की ओर दे खा, मानो आज ब ु त हदनों के बाद
कोई खाने की चीज सामने आई ैं। जानता था कक कई हदनों के उपवास के बाद
और आरोग्य की इस गई-गज
ु री दशा में उसे जबान को काबू में रखना चाह ए
पर सब्र न कर सका, थाली पर टूट पड़ा और दे खते-दे खते थाली साि कर दी।
करूणा सशिंक ो गई। उसने दोबारा ककसी चीज के मलए न पूछा। थाली उठाकर
चली गई, पर उसका हदल क र ा था-इतना तो कभी न खाते थे।
करूणा बच्चे को कुछ खखला र ी थी, कक एकाएक कानों में आवाज आई-करूणा!
करूणा ने आकर पछ
ू ा-क्या तम
ु ने मझ
ु े पक
ु ारा ै?
िं जोर-जोर से चल र ी थी।
आहदतय का चे रा पीला पड़ गया था और स स ाथों
के स ारे व ी टाट पर लेट गए थे। करूणा उनकी य ालत दे खकर घबर गई।
बोली-जाकर ककसी वैद्य को बल
ु ा लाऊाँ?
आहदतय ने ाथ के इशारे से उसे मना करके क ा-व्यथष ै करूणा! अब तम
ु से
तछपाना व्यथष ै , मझ
ु े तपेहदक ो गया े । कई बार मरते-मरते बच गया ू ाँ। तम
ु
लोगों के दशषन बदे थे, इसमलए प्राण न तनकलते थे। दे खों वप्रये , रोओ मत।
आहदतय ने किर मसर ह लाया-न ीिं करूणा, केवल मेरे पास बैठी र ो। अब ककसी
से कोई आशा न ीिं ै । डाक्टरों ने जवाब दे हदया ै । मुझे तो य आश्चयष ै कक
य ॉँ प ु ाँ च कैसे गया। न जाने कौन दै वी शत्क्त मझ
ु े व ॉँ से खीिंच लाई।
कदाधचत ् य इस बझ
ु ते ु ए दीपक की अिंततम झलक थी। आ ! मैंने तम्
ु ारे
साथ बड़ा अन्याय ककया। इसका मुझे मेशा द:ु ख र े गा! मैं तुम् ें कोई आराम न
दे सका। तुम् ारे मलए कुछ न कर सका। केवल सो ाग का दाग लगाकर और
एक बालक के पालन का भार छोड़कर चला जा र ा ूिं । आ !
करूणा ने हृदय को दृढ़ करके क ा-तुम् ें क ीिं ददष तो न ीिं ै ? आग बना लाऊाँ?
कुछ बताते क्यों न ीिं?
आहदतय ने करवट बदलकर क ा-कुछ करने की जरूरत न ीिं वप्रये! क ीिं ददष न ीिं।
बस, ऐसा मालूम ो र ा े कक हदल बैठा जाता ै , जैसे पानी में डूबा जाता ू ाँ।
जीवन की लीला समाप्त ो र ी े । दीपक को बुझते ु ए दे ख र ा ू ाँ। क न ीिं
सकता, कब आवाज बन्द ो जाए। जो कुछ क ना ै, व क डालना चा ता ू ाँ ,
क्यों व लालसा ले जाऊाँ। मेरे एक प्रश्न का जवाब दोगी, पूछूाँ?
करूणा के मन की सारी दब
ु ल
ष ता, सारा शोक, सारी वेदना मानो लुप्त ो गई और
उनकी जग उस आतमबल काउदय ु आ, जो मतृ यु पर ाँसता ै और ववपत्तत के
सााँपों से खेलता ै । रतनजहटत मखमली म्यान में जैसे तेज तलवार तछपी र ती
ै , जल के कोमल प्रवा में जैसे असीम शत्क्त तछपी र ती ै , वैसे ी रमणी का
कोमल हृदय सा स और िैयष को अपनी गोद में तछपाए र ता ै । क्रोि जैसे
तलवार को बा र खीिंच लेता ै , ववज्ञान जैसे जल-शत्क्त का उदघाटन कर लेता
ै , वैसे ी प्रेम रमणी के सा स और िैयष को प्रदीप्त कर दे ता ै।
करूणा ने उल्लास के साथ क ा-य प्रश्न क्यों करते ो वप्रयतम? क्या मैंने
तुम् ारी उपेक्षा कभी की ैं? तुम् ारा जीवन दे वताओिं का-सा जीवन था, तन:स्वाथष,
तनमलषप्त और आदशष! ववघ्न-बािाओिं से तिंग आकर मैंने तम्
ु ें ककतनी ी बार
सिंसार की ओर खीिंचने की चेष्टा की ै ; पर उस समय भी मैं मन में जानती थी
कक मैं तुम् ें ऊाँचे आसन से धगरा र ी ूिं । अगर तुम माया-मो में िाँसे ोते, तो
कदाधचत ् मेरे मन को अधिक सिंतोर् ोता; लेककन मेरी आतमा को व गवष और
उल्लास न ोता, जो इस समय ो र ा ै । मैं अगर ककसी को बड़े-से-बड़ा
आशीवाद दे सकती ू ाँ, तो व य ी ोगा कक उसका जीवन तुम् ारे जैसा ो।
मभखाररन ने प्रकाश की तरि इशारा करके क ा-व तुम् ारा लड़का ै न। दे खो,
कटोरे में भूसा भरकर मेरी झोली में डाल गया ै । चुटकी-भर आटा था, व भी
ममट्टी में ममल गया। कोई इस तर दखु खयों को सताता ै ? सबके हदन एक-से
न ीिं र ते! आदमी को घिंमड न करना चाह ए।
करुणा ने उसे समझाने की चेष्टा करके क ा-शमष न ीिं आती, उल्टे और ऑ िंख
हदखाते ो।
करूणा-तम्
ु ें कुछ न दे ना था तो सीिे से क दे त;े जाओ। तम
ु ने य शरारत क्यों
की?
करूणा ने माँु िेरकर क ा-नीिंद न ीिं आई। तुम कैसे जग गए? प्यास तो न ी
लगी ै?
करूणा ने उसके मख
ु की ओर स्ने के नेत्रों से दे खा।
प्रकाश-मैंने आज बुहढ़या के साथ बड़ी नटखट की। मुझे क्षमा करो, किर कभी
ऐसी शरारत न करूाँगा।
य क कर रोने लगा। करूणा ने स्ने ाद्रष ोकर उसे गले लगा मलया और उसके
कपोलों का चम्
ु बन करके बोली-बेटा, मझ
ु े खश
ु करने के मलए य क र े ो या
तुम् ारे मन में सचमुच पछतावा ो र ा ै?
करूणा का हृदय मतवाला ो गया। ऐसा जान पड़ा, आहदतय सामने खड़े बच्चे को
आशीवाद दे र े ैं और क र े ैं, करूणा, क्षोभ मत कर, प्रकाश अपने वपता का
नाम रोशन करे गा। तेरी सिंपण
ू ष कामनााँ परू ी ो जाएाँगी।
लेककन प्रकाश के कमष और वचन में मेल न था और हदनों के साथ उसके चररत्र
का अिंग प्रतयक्ष ोता जाता था। ज ीन था ी, ववश्वववद्यालय से उसे वजीिे
ममलते थे, करूणा भी उसकी यथेष्ट स ायता करती थी, किर भी उसका खचष परू ा
न पड़ता था। व ममतव्ययता और सरल जीवन पर ववद्वतता से भरे ुए
व्याख्यान दे सकता था, पर उसका र न-स न िैशन के अिंिभक्तों से जौ-भर
घटकर न था। प्रदशषन की िुन उसे मेशा सवार र ती थी। उसके मन और बुवद्ध
में तनरिं तर द्वन्द्व ोता र ता था। मन जातत की ओर था, बुवद्ध अपनी ओर।
बवु द्ध मन को दबाए र ती थी। उसके सामने मन की एक न चलती थी। जातत-
सेवा ऊसर की खेती ै , व ॉँ बड़े-से-बड़ा उप ार जो ममल सकता ै, व ै गौरव
और यश; पर व भी स्थायी न ीिं, इतना अत्स्थर कक क्षण में जीवन-भर की
कमाई पर पानी किर सकता ै । अतएव उसका अन्त:करण अतनवायष वेग के
साथ ववलासमय जीवन की ओर झुकता था। य ािं तक कक िीरे -िीरे उसे तयाग
और तनग्र से घण
ृ ा ोने लगी। व दरु वस्था और दररद्रता को े य समझता था।
उसके हृदय न था, भाव न थे, केवल मत्स्तष्क था। मत्स्तष्क में ददष क ?ॉँ व ॉँ
तो तकष ैं, मनसूबे ैं।
मसन्ि में बाढ़ आई। जारों आदमी तबा ो गए। ववद्यालय ने व ॉँ एक सेवा
सममतत भेजी। प्रकाश के मन में द्विंद्व ोने लगा-जाऊाँ या न जाऊाँ? इतने हदनों
अगर व परीक्षा की तैयारी करे , तो प्रथम श्रेणी में पास ो। चलते समय उसने
बीमारी का ब ाना कर हदया। करूणा ने मलखा, तुम मसन्ि न गये, इसका मुझे
दख
ु ै । तुम बीमार र ते ु ए भी व ािं जा सकते थे। सममतत में धचककतसक भी
तो थे! प्रकाश ने पत्र का उततर न हदया।
उड़ीसा में अकाल पड़ा। प्रजा मत्क्खयों की तर मरने लगी। कािंग्रेस ने पीडड़तो के
मलए एक ममशन तैयार ककया। उन् ीिं हदनों ववद्यालयों ने इतत ास के छात्रों को
ऐतत ामसक खोज के मलए लिंका भेजने का तनश्चय ककया। करूणा ने प्रकाश को
मलखा-तम
ु उड़ीसा जाओ। ककन्तु प्रकाश लिंका जाने को लालातयत था। व कई
हदन इसी दवु विा में र ा। अिंत को सीलोन ने उड़ीसा पर ववजय पाई। करुणा ने
अबकी उसे कुछ न मलखा। चुपचाप रोती र ी।
सीलोन से लौटकर प्रकाश छुहट्टयों में घर गया। करुणा उससे खखिंची-खखिंची र ीिं।
प्रकाश मन में लत्ज्जत ु आ और सिंकल्प ककया कक अबकी कोई अवसर आया,
तो अम्म ॉँ को अवश्य प्रसन्न करूाँगा। य तनश्चय करके व ववद्यालय लौटा।
लेककन य ािं आते ी किर परीक्षा की किक्र सवार ो गई। य ॉँ तक कक परीक्षा
के हदन आ गए; मगर इम्त ान से िुरसत पाकर भी प्रकाश घर न गया।
ववद्यालय के एक अध्यापक काश्मीर सैर करने जा र े थे। प्रकाश उन् ीिं के साथ
काश्मीर चल खड़ा ु आ। जब परीक्षा-िल तनकला और प्रकाश प्रथम आया, तब
उसे घर की याद आई! उसने तुरन्त करूणा को पत्र मलखा और अपने आने की
सूचना दी। माता को प्रसन्न करने के मलए उसने दो-चार शब्द जातत-सेवा के
ववर्य में भी मलखे-अब मै आपकी आज्ञा का पालन करने को तैयार ू ाँ। मैंने
मशक्षा-सम्बन्िी कायष करने का तनश्चक ककया ैं इसी ववचार से में ने व ववमशष्ट
स्थान प्राप्त ककया ै। मारे नेता भी तो ववद्यालयों के आचायो ी का सम्मान
करते ें । अभी वक इन उपाधियों के मो से वे मक्
ु त न ीिं ु ए े। मारे नेता
भी योग्यता, सदतु सा , लगन का उतना सम्मान न ीिं करते, त्जतना उपाधियों का!
ॉँ भी न
अब मेरी इज्जत करें गे और त्जम्मेदारी को काम सौपें गें, जो प ले म गे
ममलता।
ववद्यालय खुलते ी प्रकाश के नाम रत्जस्रार का पत्र प ु ाँचा। उन् ोंने प्रकाश का
इिंग्लैंड जाकर ववद्याभ्यास करने के मलए सरकारी वजीिे की मिंजूरी की सूचना
दी थी। प्रकाश पत्र ाथ में मलये र्ष के उन्माद में जाकर म ॉँ से बोला-अम्म ,ॉँ
मुझे इिंग्लैंड जाकर पढ़ने के मलए सरकारी वजीिा ममल गया।
प्रकाश ने कुछ जवाब न हदया। उठकर बा र चला गया और तरु न्त रत्जस्रार को
इनकारी-पत्र मलख भेजा; मगर उसी क्षण से मानों उसके मसर पर ववपत्तत ने
आसन जमा मलया। ववरक्त और ववमन अपने कमरें में पड़ा र ता, न क ीिं घूमने
जाता, न ककसी से ममलता। माँु लटकाए भीतर आता और किर बा र चला जाता,
य ॉँ तक म ीना गुजर गया। न चे रे पर व लाली र ी, न व ओज; ऑ िंखें
अनाथों के मुख की भााँतत याचना से भरी ु ई, ओठ ाँसना भूल गए, मानों उन
इनकारी-पत्र के साथ उसकी सारी सजीवता, और चपलता, सारी सरलता बबदा ो
गई। करूणा उसके मनोभाव समझती थी और उसके शोक को भल
ु ाने की चेष्टा
करती थी, पर रूठे दे वता प्रसन्न न ोते थे।
प्रकाश ने रूखाई से जवाब हदया-अब क्या जाऊाँगा! इनकारी-खत मलख चुका। मेरे
मलए कोई अब तक बैठा थोड़े ी ोगा। कोई दस
ू रा लड़का चुन मलया ोगा और
किर करना ी क्या ै ? जब आपकी मजी ॉँ
ै कक ग व-ग वॉँ की खाक छानता किरूाँ,
तो व ी स ी।
प्रकाश ने झुिंझलाकर क ा-अब कुछ न ीिं ो सकता। लोग ाँसी उड़ाऍगेिं । मैंने तय
कर मलया ै कक जीवन को आपकी इच्छा के अनुकूल बनाऊाँगा।
‘लाचारी ै ।‘
ॉँ
प्रकाश सारी रात द्वार पर बैठा र ा। भ तत-भ ॉँ की शिंकाऍ िं मन में उठने लगीिं।
तत
उसे अब याद आया, चलते समय करूणा ककतनी उदास थी; उसकी आिंखे ककतनी
लाल थी। य बातें प्रकाश को उस समय क्यों न नजर आई? व क्यों स्वाथष में
अिंिा ो गया था?
श्रावण की अाँिेरी भयानक रात थी। आकाश में श्याम मेघमालाऍ िं, भीर्ण स्वप्न
ॉँ छाई ु ई थीिं। प्रकाश र -र कार आकाश की ओर दे खता था, मानो
की भ तत
करूणा उन् ीिं मेघमालाओिं में तछपी बैठी े । उसने तनश्चय ककया, सवेरा ोते ी
म ॉँ को खोजने चलाँ ग
ू ा और अगर....
करूणा-तम्
ु ारे रत्जस्रार के पास से लाई ू ाँ।
ु व ॉँ चली गई थी?’
‘क्या तम
‘मोटर ले ली थी।‘
प्रकाश एक क्षण तक मौन खड़ा र ा, किर किंु हठत स्वर में बोला-जब तुम् ारी
इच्छा न ीिं ै तो मुझे क्यों भेज र ी ो?
करूणा ने ववरक्त भाव से क ा-इसमलए कक तुम् ारी जाने की इच्छा ै । तुम् ारा
य ममलन वेश न ीिं दे खा जाता। अपने जीवन के बीस वर्ष तुम् ारी ह तकामना
पर अवपषत कर हदए; अब तुम् ारी म ततवाकािंक्षा की तया न ीिं कर सकती।
तम्
ु ारी यात्रा सिल ो, य ी मारी ाहदष क अमभलार्ा ै।
प्रकाश उसी हदन से यात्रा की तैयाररय ॉँ करने लगा। करूणा के पास जो कुछ था,
व सब खचष ो गया। कुछ ऋण भी लेना पड़ा। नए सूट बने, सूटकेस मलए गए।
प्रकाश अपनी िुन में मस्त था। कभी ककसी चीज की िरमाइश लेकर
आता, कभी ककसी चीज का।
जैसे ककसी लाश को बा र तनकालते समय सम्बत्न्ियों का िैयष छूट जाता ै , रूके
ु ए ऑ िंसू तनकल पड़ते ैं और शोक की तरिं गें उठने लगती ैं , व ी दशा करूणा
की ु ई। कलेजे में एक ा ाकार ु आ, त्जसने उसकी दब
ु ल
ष आतमा के एक-एक
अणु को किंपा हदया। मालूम ु आ, प वॉँ पानी में किसल गया ै और व ल रों में
ब ी जा र ी ै । उसके मख
ु से शोक या आशीवाद का एक शब्द भी न तनकला।
प्रकाश ने उसके चरण छुए, अश्रू-जल से माता के चरणों को पखारा, किर बा र
ॉँ खड़ी थी।
चला। करूणा पार्ाण मतू तष की भ तत
तब करूणा की समाधि टूटी। दे खा, सामने कोई न ीिं ै । घर में मतृ यु का-सा
सन्नाटा छाया ु आ ै , और मानो हृदय की गतत बन्द ो गई ै।
करूणा जीववत थी, पर सिंसार से उसका कोई नाता न था। उसका छोटा-सा
ॉँ
सिंसार, त्जसे उसने अपनी कल्पनाओिं के हृदय में रचा था, स्वप्न की भ तत
अनन्त में ववलीन ो गया था। त्जस प्रकाश को सामने दे खकर व जीवन की
अाँिेरी रात में भी हृदय में आशाओिं की सम्पत्तत मलये जी र ी थी, व बुझ गया
और सम्पत्तत लुट गई। अब न कोई आश्रय था और न उसकी जरूरत। त्जन
गउओिं को व दोनों वक्त अपने ाथों से दाना-चारा दे ती और स लाती थी, वे
अब खट
ूाँ े पर बाँिी तनराश नेत्रों से द्वार की ओर ताकती र ती थीिं। बछड़ो को
गले लगाकर पुचकारने वाला अब कोई न था, त्जसके मलए दि
ु द ु े , मुट्ठा तनकाले।
खानेवाला कौन था? करूणा ने अपने छोटे -से सिंसार को अपने ी अिंदर समेट
मलया था।
ककन्तु एक ी सप्ता में करूणा के जीवन ने किर रिं ग बदला। उसका छोटा-सा
सिंसार िैलते-िैलते ववश्वव्यापी ो गया। त्जस लिंगर ने नौका को तट से एक
ॉँ रखा था, व
केन्द्र पर ब ि उखड़ गया। अब नौका सागर के अशेर् ववस्तार में
भ्रमण करे गी, चा े व उद्दाम तरिं गों के वक्ष में ी क्यों न ववलीन ो जाए।
करूणा द्वार पर आ बैठती और मु ल्ले-भर के लड़कों को जमा करके दि
ू
वपलाती। दोप र तक मक्खन तनकालती और व मक्खन मु ल्ले के लड़के खाते।
ॉँ
किर भ तत-भ ॉँ के पकवान बनाती और कुततों को खखलाती। अब य ी उसका
तत
तनतय का तनयम ो गया। धचडड़य ,ॉँ कुतते, बबत्ल्लय ॉँ चीिंटे-चीहटय ॉँ सब अपने ो
गए। प्रेम का व द्वार अब ककसी के मलए बन्द न था। उस अिंगुल-भर जग में ,
जो प्रकाश के मलए भी कािी न थी, अब समस्त सिंसार समा गया था।
एक हदन प्रकाश का पत्र आया। करूणा ने उसे उठाकर िेंक हदया। किर थोड़ी दे र
के बाद उसे उठाकर िाड़ डाला और धचडड़यों को दाना चुगाने लगी; मगर जब
ॉँ
तनशा-योधगनी ने अपनी िूनी जलायी और वेदनाऍ िं उससे वरदान म गने के मलए
ववकल ो- ोकर चलीिं, तो करूणा की मनोवेदना भी सजग ो उठी-प्रकाश का पत्र
पढ़ने के मलए उसका मन व्याकुल ो उठा। उसने सोचा, प्रकाश मेरा कौन ै ? मेरा
उससे क्य प्रयोजन? ,ॉँ प्रकाश मेरा कौन ै ? ााँ, प्रकाश मेरा कौन ै ? हृदय ने
उततर हदया, प्रकाश तेरा सवषस्व ै, व तेरे उस अमर प्रेम की तनशानी ै , त्जससे
तू सदै व के मलए विंधचत ो गई। व तेरे प्राण ै , तेरे जीवन-दीपक का प्रकाश,
तेरी विंधचत कामनाओिं का मािुय,ष तेरे अश्रूजल में वव ार करने वाला करने वाला
िं स। करूणा उस पत्र के टुकड़ों को जमा करने लगी, माना उसके प्राण बबखर गये
ों। एक-एक टुकड़ा उसे अपने खोये ु ए प्रेम का एक पदधचन् -सा मालम
ू ोता
था। जब सारे पुरजे जमा ो गए, तो करूणा दीपक के सामने बैठकर उसे जोड़ने
लगी, जैसे कोई ववयोगी हृदय प्रेम के टूटे ु ए तारों को जोड़ र ा ो। ाय री
ममता! व अभाधगन सारी रात उन पुरजों को जोड़ने में लगी र ी। पत्र दोनों
ओर मलखा था, इसमलए पुरजों को ठीक स्थान पर रखना और भी कहठन था।
कोई शब्द, कोई वाक्य बीच में गायब ो जाता। उस एक टुकड़े को व किर
खोजने लगती। सारी रात बीत गई, पर पत्र अभी तक अपूणष था।
दोप र ु आ, करुणा ने मसर न उठाया। न भूख थीिं, न प्यास। किर सिंध्या ो गई।
पर व पत्र अभी तक अिरू ा था। पत्र का आशय समझ में आ र ा था-प्रकाश
का ज ाज क ीिं-से-क ीिं जा र ा ै । उसके हृदय में कुछ उठा ु आ ै । क्या उठा
ॉँ तीन हदन गज
इस भ तत ू र गए। सन्ध्या ो गई थी। तीन हदन की जागी ऑ िंखें
जरा झपक गई। करूणा ने दे खा, एक लम्बा-चौड़ा कमरा ै , उसमें मेजें और
कुमसषय ॉँ लगी ु ई ैं, बीच में ऊाँचे मिंच पर कोई आदमी बैठा ु आ ै । करूणा ने
ध्यान से दे खा, प्रकाश था।
एक क्षण में एक कैदी उसके सामने लाया गया, उसके ाथ-प वॉँ में जिंजीर थी,
कमर झुकी ु ई, य आहदतय थे।
करूणा की आिंखें खल
ु गई। ऑ िंसू ब ने लगे। उसने पत्र के टुकड़ों को किर समेट
मलया और उसे जलाकर राख कर डाला। राख की एक चुटकी के मसवा व ॉँ कुछ
न र ा, जो उसके हृदय में ववदीणष ककए डालती थी। इसी एक चुटकी राख में
उसका गुडड़योंवाला बचपन, उसका सिंतप्त यौवन और उसका तष्ृ णामय वैिव्य
सब समा गया।
प्रात:काल लोगों ने दे खा, पक्षी वपिंजड़े में उड़ चुका था! आहदतय का धचत्र अब भी
उसके शून्य हृदय से धचपटा ु आ था। भग्नहृदय पतत की स्ने -स्मतृ त में ववश्राम
कर र ा था और प्रकाश का ज ाज योरप चला जा र ा था।
***
बेटोंिाली विधिा
सिंध्या ो गई थी। पिंडडत को मरे आज बार वााँ हदन था। कल तेर ीिं ैं।
ब्रह्मभोज ोगा। बबरादरी के लोग तनमिंबत्रत ोंगे। उसी की तैयाररय ॉँ ो र ी थीिं।
िूलमती अपनी कोठरी में बैठी दे ख र ी थी, पल्लेदार बोरे में आटा लाकर रख
र े ैं। घी के हटन आ र ें ैं। शाक-भाजी के टोकरे , शक्कर की बोररय ,ॉँ द ी के
मटके चले आ र ें ैं। म ापात्र के मलए दान की चीजें लाई गईं-बतषन, कपड़े,
पलिंग, बबछावन, छाते, जूत,े छडड़य ,ॉँ लालटे नें आहद; ककन्तु िूलमती को कोई चीज
न ीिं हदखाई गई। तनयमानस
ु ार ये सब सामान उसके पास आने चाह ए थे। व
प्रतयेक वस्तु को दे खती उसे पसिंद करती, उसकी मात्रा में कमी-बेशी का िैसला
करती; तब इन चीजों को भिंडारे में रखा जाता। क्यों उसे हदखाने और उसकी राय
लेने की जरूरत न ीिं समझी गई? अच्छा व आटा तीन ी बोरा क्यों आया?
ॉँ बोरों के मलए क ा था। घी भी प च
उसने तो प च ॉँ ी कनस्तर ै । उसने तो दस
कनस्तर मिंगवाए थे। इसी तर शाक-भाजी, शक्कर, द ी आहद में भी कमी की
गई ोगी। ककसने उसके ु क्म में स्तक्षेप ककया? जब उसने एक बात तय कर
दी, तब ककसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार ै?
अपने ववचार में उसने कािी तम्बी कर दी थी। शायद इतनी कठोरता
अनावश्यक थी। उसे अपनी उग्रता पर खेद ु आ। लड़के ी तो ैं, समझे ोंगे
कुछ ककिायत करनी चाह ए। मुझसे इसमलए न पूछा ोगा कक अम्मा तो खुद
रे क काम में ककिायत करती ैं। अगर इन् ें मालूम ोता कक इस काम में मैं
ककिायत पसिंद न करूाँगी, तो कभी इन् ें मेरी उपेक्षा करने का सा स न ोता।
यद्यवप कामतानाथ अब भी उसी जग खड़ा था और उसकी भावभिंगी से ऐसा
ज्ञात ोता था कक इस आज्ञा का पालन करने के मलए व ब ु त उतसुक न ीिं, पर
िूलमती तनत्श्चिंत ोकर अपनी कोठरी में चली गयी। इतनी तम्बी पर भी
ककसी को अवज्ञा करने की सामर्थयष ो सकती ै , इसकी सिंभावना का ध्यान भी
उसे न आया।
‘ह साब-ककताब सब ो गया ै ।‘
‘ककसने ककया?’
‘अब मैं क्या जानाँू ककसने ककया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे ु क्म ममला, रूपये
लाकर दे दो, रूपये मलये जाती ू ाँ!’
िूलमती खून का घट
ूाँ पीकर र गई। इस वक्त बबगड़ने का अवसर न था। घर
में मे मान स्त्री-पुरूर् भरे ॉँ तो
ु ए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को ड टा,
लोग य ी क ें गे कक इनके घर में पिंडडतजी के मरते ी िूट पड़ गई। हदल पर
पतथर रखकर किर अपनी कोठरी में चली गयी। जब मे मान ववदा ो जायेंगे ,
तब व एक-एक की खबर लेगी। तब दे खेगी, कौन उसके सामने आता ै और
क्या क ता ै । इनकी सारी चौकड़ी भल
ु ा दे गी।
स सा शोर मचा, तरकाररयों में नमक न ीिं। बड़ी ब ू जल्दी-जल्दी नमक पीसने
लगी। िूलमती क्रोि के मारे ओ चबा र ी थी, पर इस अवसर पर माँु न खोल
सकती थी। बोरे -भर नमक वपसा और पततलों पर डाला गया। इतने में किर शोर
मचा-पानी गरम ै , ठिं डा पानी लाओ! ठिं डे पानी का कोई प्रबन्ि न था, बिष भी न
माँगाई गई। आदमी बाजार दौड़ाया गया, मगर बाजार में इतनी रात गए बिष
क ?ॉँ आदमी खाली ाथ लौट आया। मे मानों को व ी नल का गरम पानी पीना
पड़ा। िूलमती का बस चलता, तो लड़कों का माँु नोच लेती। ऐसी छीछालेदर
उसके घर में कभी न ु ई थी। उस पर सब मामलक बनने के मलए मरते ैं। बिष
जैसी जरूरी चीज माँगवाने की भी ककसी को सुधि न थी! सुधि क ॉँ से र े -जब
ककसी को गप लड़ाने से िुसषत न ममले। मे मान अपने हदल में क्या क ें गे कक
चले ैं बबरादरी को भोज दे ने और घर में बिष तक न ीिं!
अच्छा, किर य लचल क्यों मच गई? अरे , लोग पिंगत से उठे जा र े ैं। क्या
मामला ै?
मे मान उठ चुके थे। पततलों पर खाना ज्यों-का-तयों पड़ा ु आ था। चारों लड़के
ऑ िंगन में लत्ज्जत खड़े थे। एक दस
ू रे को इलजाम दे र ा था। बड़ी ब ू अपनी
दे वरातनयों पर बबगड़ र ी थी। दे वरातनय ॉँ सारा दोर् कुमद
ु के मसर डालती थी।
कुमुद खड़ी रो र ी थी। उसी वक्त िूलमती झल्लाई ु ई आकर बोली-माँु में
कामलख लगी कक न ीिं या अभी कुछ कसर बाकी ैं? डूब मरो, सब-के-सब जाकर
धचल्लू-भर पानी में ! श र में क ीिं माँु हदखाने लायक भी न ीिं र े ।
ककसी लड़के ने जवाब न हदया।
ु र ो अम्म ।ॉँ भल
बोला-अच्छा, अब चप ू ु ई, म सब मानते ैं , बड़ी भिंयकर भल
ू
ॉँ
कामतानाथ ने पतनी को ड टा-इसमें न कुमद
ु का कसरू ै , न तम्
ु ारा, न मेरा।
सिंयोग की बात ै । बदनामी भाग में मलखी थी, व ु ई। इतने बड़े भोज में एक-
एक मुट्ठी तरकारी कढ़ाव में न ीिं डाली जाती! टोकरे -के-टोकरे उड़ेल हदए जाते ैं।
कभी-कभी ऐसी दघ
ु ट
ष ना ोती ै । पर इसमें कैसी जग- ाँसाई और कैसी नक-
कटाई। तुम खामखा जले पर नमक तछड़कती ो!
कामता ाँसकर बोला-क्या पुराने जमाने की बातें करती ो अम्म ।ॉँ इन बातों से
िमष न ीिं जाता? य िमाषतमा लोग जो पततल पर से उठ गए ैं , इनमें से कौन
ै , जो भेड़-बकरी का मािंस न खाता ो? तालाब के कछुए और घोंघे तक तो ककसी
से बचते न ीिं। जरा-सी चहु या में क्या रखा था!
दो म ीने गुजर गए ैं। रात का समय ै । चारों भाई हदन के काम से छुट्टी
पाकर कमरे में बैठे गप-शप कर र े ैं। बड़ी ब ू भी र्ड्यिंत्र में शरीक ै । कुमद
ु
के वववा का प्रश्न तछड़ा ु आ ै।
कामतानाथ ने मसर ह लाते ु ए क ा—अजी, राम भजो, सेंत में कोई लेख छपता
न ीिं, रूपये कौन दे ता ै।
कामता ने जैसे अपने शब्द वापस मलये —तुम् ारी बात मैं न ीिं क ता भाई। तुम
तो थोड़ा-ब ु त मार लेते ो, लेककन सबको तो न ीिं ममलता।
सीतानाथ सबसे छोटा था। मसर झुकाए भाइयों की स्वाथष-भरी बातें सुन-सुनकर
कुछ क ने के मलए उतावला ो र ा था। अपना नाम सुनते ी बोला—मेरे वववा
की आप लोग धचन्ता न करें । मैं जब तक ककसी ििंिे में न लग जाऊाँगा, वववा
का नाम भी न लाँ ग
ू ा; और सच पतू छए तो मैं वववा करना ी न ीिं चा ता। दे श
को इस समय बालकों की जरूरत न ीिं , काम करने वालों की जरूरत ै । मेरे
ह स्से के रूपये आप कुमद
ु के वववा में खचष कर दें । सारी बातें तय ो जाने के
बाद य उधचत न ीिं ै कक पिंडडत मुरारीलाल से सम्बिंि तोड़ मलया जाए।
‘और शेर्?’
‘मरु ारीलाल से क ा जाए कक द े ज में कुछ कमी कर दें । वे इतने स्वाथाषन्ि न ीिं
ैं कक इस अवसर पर कुछ बल खाने को तैयार न ो जाऍ िं, अगर व तीन जार
में सिंतुष्ट ॉँ
ो जाएिं तो प च जार में वववा ो सकता ै।
दयानाथ बोल उठे -तो इसमें आप लोगों का क्या नुकसान ै ? मुझे तो इस बात से
खुशी ो र ी ै कक भला, ममे कोई तो तयाग करने योग्य ै । इन् ें ततकाल
रूपये की जरूरत न ीिं ै । सरकार से वजीिा पाते ी ैं। पास ोने पर क ीिं -न-
क ीिं जग ममल जाएगी। म लोगों की ालत तो ऐसी न ीिं ै।
ु आ तो बेशक मझ
ु े रूपये की जरूरत ोगी।
‘असभिंव तो मैं न ीिं समझता; लेककन कहठन अवश्य ै । वजीिे उन् ें ममलते ैं ,
त्जनके पास मसिाररशें ोती ैं, मुझे कौन पूछता ै ।‘
ु े य ॉँ तक मिंजरू
‘तो आप जैसा उधचत समझें। मझ ै कक चा े मैं ववलायत न
जाऊाँ; पर कुमुद अच्छे घर जाए।‘
‘य कानन
ू ी गोरखििंिे ैं। बीस जार में तो चार ह स्सेदार ों और दस जार
के ग ने अम्म ॉँ के पास र जाऍ।िं दे ख लेना, इन् ीिं के बल पर व कुमुद का
वववा मुरारी पिंडडत के घर करें गी।’
उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से न ीिं छोड़ सकता। व कपट-
नीतत में कुशल ै । कोई कौशल रचकर माता से सारे ग ने ले लेगा। उस वक्त
तक कुमुद के वववा की चचाष करके िूलमती को भड़काना उधचत न ीिं।
कामतानाथ ने मसर ह लाकर क ा—भाई, मैं इन चालों को पसिंद न ीिं करता।
कामता अववचमलत स्वर में बोले—ककतने ी के ों; मैं अनीतत में ाथ न ीिं
डालना चा ता।
‘और तम
ु सीता?’
‘अलग र ूिं गा।‘
िूलमती ने मसर पीटकर क ा—ऐसी बातें क्यों मलखते ो बेटा? जानते न ीिं ो,
आजकल मारे अहदन आए ु ए ैं। जमानत ककसी तर टल न ीिं सकती?
उमा ने माँु बनाया—उनका स्वभाव तो तुम जानती ो अम्मा, उन् ें रूपये प्राणों
से प्यारे ैं। इन् ें चा े कालापानी ी ो जाए, व एक पाई न दें गे।
दयानाथ ने समथषन ककया—मैंने तो उनसे इसका त्जक्र ी न ीिं ककया।
िूलमती ने लाचार ोकर क ा—तो किर जमानत का क्या प्रबन्ि करोगे ? मेरे
पास तो कुछ न ीिं ै। ,ॉँ मेरे ग ने ैं, इन् ें ले जाओ, क ीिं धगरों रखकर जमानत
दे दो। और आज से कान पकड़ो कक ककसी पत्र में एक शब्द भी न मलखोगे।
िूलमती छाती पीटते ु ए बोली—कैसी बातें माँु से तनकालते ो बेटा, मेरे जीते-जी
तम् ें कौन धगरफ्तार कर सकता ै ! उसका माँु झुलस दिं ग
ू ी। ग ने इसी हदन के
मलए ैं या और ककसी हदन के मलए! जब तुम् ीिं न र ोगे, तो ग ने लेकर क्या
आग में झोकाँू गीिं!
उमानाथ ने मानो माता पर ए सान रखकर क ा—अब तो तुम् ारे मलए कोई
रास्ता न ीिं र ा दयानाथ। क्या रज ै , ले लो; मगर याद रखो, ज्यों ी ाथ में
रूपये आ जाऍ िं, ग ने छुड़ाने पड़ेंगे। सच क ते ैं, माततृ व दीघष तपस्या ै । माता
के मसवाय इतना स्ने और कौन कर सकता ै ? म बड़े अभागे ैं कक माता के
प्रतत त्जतनी श्रद्घा रखनी चाह ए, उसका शतािंश भी न ीिं रखते।
दोनों ने जैसे बड़े िमषसिंकट में पड़कर ग नों की वपटारी साँभाली और चलते बने।
माता वातसल्य-भरी ऑ िंखों से उनकी ओर दे ख र ी थी और उसकी सिंपण
ू ष आतमा
का आशीवाषद जैसे उन् ें अपनी गोद में समेट लेने के मलए व्याकुल ो र ा था।
आज कई म ीने के बाद उसके भग्न मात-ृ हृदय को अपना सवषस्व अपषण करके
जैसे आनन्द की ववभतू त ममली। उसकी स्वाममनी कल्पना इसी तयाग के मलए,
इसी आतमसमपषण के मलए जैसे कोई मागष ढूाँढ़ती र ती थी। अधिकार या लोभ
या ममता की व ॉँ गाँि तक न थी। तयाग ी उसका आनन्द और तयाग ी
उसका अधिकार ै । आज अपना खोया ु आ अधिकार पाकर अपनी मसरजी ु ई
प्रततमा पर अपने
प्राणों की भें ट करके व तन ाल ो गई।
तीन म ीने और गुजर गये। म ॉँ के ग नों पर ाथ साि करके चारों भाई उसकी
हदलजोई करने लगे थे। अपनी त्स्त्रयों को भी समझाते थे कक उसका हदल न
दख
ु ाऍ।िं अगर थोड़े-से मशष्टाचार से उसकी आतमा को शािंतत ममलती ै , तो इसमें
क्या ातन ै । चारों करते अपने मन की, पर माता से सला ले लेते या ऐसा
जाल िैलाते कक व सरला उनकी बातों में आ जाती और रे क काम में स मत
ो जाती। बाग को बेचना उसे ब ु त बुरा लगता था; लेककन चारों ने ऐसी माया
रची कक व उसे बेचते पर राजी ो गई, ककन्तु कुमुद के वववा के ववर्य में
मतैक्य न ो सका। म ॉँ पिं. परु ारीलाल पर जमी ु ई थी, लड़के दीनदयाल पर अड़े
ॉँ
िूलमती ने क ा—म -बाप की कमाई में बेटी का ह स्सा भी ै । तुम् ें सोल
जार का एक बाग ममला, पच्चीस जार का एक मकान। बीस जार नकद में
ॉँ
क्या प च जार भी कुमुद का ह स्सा न ीिं ै?
ॉँ
उमानाथ से सुिारा—प च जार क्यों, दस जार कह ए।
कामता ने भवें मसकोड़कर क ा—न ीिं, मैं पााँच जार ी क ू ाँगा; एक वववा में
ॉँ
पच जार खचष करने की मारी ै मसयत न ीिं ै।
िूलमती क्रोि—ववहृल रोकर बोली—भाड़ में जाए तुम् ारा कानून। मैं ऐसे कानून
को न ीिं जानती। तम्
ु ारे दादा ऐसे कोई िन्नासेठ न ीिं थे। मैंने ी पेट और तन
काटकर य ग ृ स्थी जोड़ी ै , न ीिं आज बैठने की छ ॉँ न ममलती! मेरे जीते-जी
तुम मेरे रूपये न ीिं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के वववा में दस-दस जार खचष
ककए ैं। व ी मैं कुमुद के वववा में भी खचष करूाँगी।
ॉँ
उमानाथ ने बड़े भाई को ड टा—आप खामख्वा अम्म ॉँ के माँु लगते ैं भाई
ु ारे य ॉँ कुमद
सा ब! मरु ारीलाल को पत्र मलख दीत्जए कक तम् ु का वववा न
ोगा। बस, छुट्टी ु ई। कायदा-कानन
ू तो जानतीिं न ीिं, व्यथष की ब स करती ैं।
िूलमती ने सिंयममत स्वर में क ी—अच्छा, क्या कानून ै , जरा मैं भी सुनाँ।ू
उमा शािंत त्स्थर स्वर में बोला— मारे ऋवर्यों ने, म ाराज मनु ने, और ककसने?
जरा दे र में िूलमती उठकर चली गयी। आज जीवन में प ली बार उसका
वातसल्य मग्न माततृ व अमभशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा। त्जस माततृ व को
उसने जीवन की ववभतू त समझा था, त्जसके चरणों पर व सदै व अपनी समस्त
अमभलार्ाओिं और कामनाओिं को अवपषत करके अपने को िन्य मानती थी, व ी
माततृ व आज उसे अत्ग्नकिंु ड-सा जान पड़ा, त्जसमें उसका जीवन जलकर भस्म ो
गया।
व बड़ी दे र तक माँु ढ पेॉँ अपनी दशा पर रोती र ी। सारी रात इसी आतम-वेदना
में कट गई। शरद् का प्रभाव डरता-डरता उर्ा की गोद से तनकला, जैसे कोई कैदी
तछपकर जेल से भाग आया ो। िूलमती अपने तनयम के ववरूद्ध आज लड़के ी
उठी, रात-भर मे उसका मानमसक पररवतषन ो चुका था। सारा घर सो र ा था
और व आिंगन में झाडू लगा र ी थी। रात-भर ओस में भीगी ु ई उसकी पक्की
ॉँ की तर
जमीन उसके निंगे पैरों में क टों चुभ र ी थी। पिंडडतजी उसे कभी इतने
सवेरे उठने न दे ते थे। शीत उसके मलए ब ु त ातनकारक था। पर अब व हदन
न ीिं र े । प्रकृतत उस को भी समय के साथ बदल दे ने का प्रयतन कर र ी थी।
झाडू से िुरसत पाकर उसने आग जलायी और चावल-दाल की किंकडड़य ॉँ चुनने
लगी। कुछ दे र में लड़के जागे। ब ु ऍ िं उठीिं। सभों ने बुहढ़या को सदी से मसकुड़े
िूलमती ने ककसी काम मे दखल न हदया। कुमुद को क्या हदया गया, मे मानों
का कैसा सतकार ककया गया, ककसके य ॉँ से नेवते में क्या आया, ककसी बात से
भी उसे सरोकार न था। उससे कोई सला भी ली गई तो य ी-बेटा, तम
ु लोग जो
करते ो, अच्छा ी करते ो। मुझसे क्या पूछते ो!
िूलमती के घाव पर जैसे मानो नमक पड़ गया। बोली-मेरे पास अब क्या ै
भैया, जो इसे मैं दग
ू ी? जाओ बेटी, भगवान ् तुम् ारा सो ाग अमर करें ।
कुमुद ववदा ो गई। िूलमती पछाड़ धगर पड़ी। जीवन की लालसा नष्ट ो गई।
सावन की झड़ी लगी ु ई थी। मलेररया िैल र ा था। आकाश में महटयाले बादल
थे, जमीन पर महटयाला पानी। आद्रष वायु शीत-ज्वर और श्वास का ववतरणा
करती किरती थी। घर की म री बीमार पड़ गई। िूलमती ने घर के सारे बरतन
ॉँ , पानी में भीग-भीगकर सारा काम ककया। किर आग जलायी और चूल् े पर
म जे
पतीमलय ॉँ चढ़ा दीिं। लड़कों को समय पर भोजन ममलना चाह ए। स सा उसे याद
आया, कामतानाथ नल का पानी न ीिं पीते। उसी वर्ाष में गिंगाजल लाने चली।
उमानाथ भी व ीिं बैठा ु आ था। उसके और्िालय में कुछ आमदनी न ोती थी,
इसमलए ब ु त धचत्न्तत था। भाई-भवाज की माँु दे खी करता र ता था। बोला—
जाने भी दो भैया! ब ु त हदनों ब ु ओिं पर राज कर चुकी ै , उसका प्रायत्श्चतत तो
करने दो।
गिंगा बढ़ी ु ई थी, जैसे समुद्र ो। क्षक्षततज के सामने के कूल से ममला ु आ था।
***
शाांति
स्वगीय दे वनाथ मेरे अमभन्न ममत्रों में थे। आज भी जब उनकी याद आती ै , तो
व रिं गरे मलयािं आिंखों में किर जाती ैं, और क ीिं एकािंत में जाकर जरा रो लेता
ूिं । मारे दे र रो लेता ूिं । मारे बीच में दो-ढाई सौ मील का अिंतर था। मैं
लखनऊ में था, व हदल्ली में; लेककन ऐसा शायद ी कोई म ीना जाता ो कक
म आपस में न ममल पाते ों। व स्वच्छन्द प्रकतत के ववनोदवप्रय, सहृदय, उदार
और ममत्रों पर प्राण दे नेवाला आदमी थे, त्जन् ोंने अपने और पराए में कभी भेद
न ीिं ककया। सिंसार क्या ै और य ािं लौककक व्यव ार का कैसा तनवाष ोता ै,
य उस व्यत्क्त ने कभी न जानने की चेष्टा की। उनकी जीवन में ऐसे कई
अवसर आए, जब उन् ें आगे के मलए ोमशयार ो जाना चाह ए था।
इस अवसर पर मझ
ु े य ब ु मूल्य अनभ
ु व ु आ कक जो लोग सेवा भाव रखते ैं
और जो स्वाथष-मसवद्ध को जीवन का लक्ष्य न ीिं बनाते, उनके पररवार को आड़
दे नेवालों की कमी न ीिं र ती। य कोई तनयम न ीिं ै , क्योंकक मैंने ऐसे लोगों को
भी दे खा ै , त्जन् ोंने जीवन में ब ु तों के साथ अच्छे
सलूक ककए; पर उनके पीछे उनके बाल-बच्चे की ककसी ने बात तक न पूछी।
लेककन चा े कुछ ो, दे वनाथ के ममत्रों ने प्रशिंसनीय औदायष से काम मलया और
गोपा के तनवाष के मलए स्थाई िन जमा करने का प्रस्ताव ककया। दो-एक
सज्जन जो रिं डुवे थे, उससे वववा करने को तैयार थे, ककिं तु गोपा ने भी उसी
स्वामभमान का पररचय हदया, जो म ारी दे ववयों का जौ र ै और इस प्रस्ताव को
अस्वीकार कर हदया। मकान ब ु त बडा था। उसका एक भाग ककराए पर उठा
हदया। इस तर उसको 50 रू म ावार ममलने लगे। व इतने में ी अपना
तनवाष कर लेगी। जो कुछ खचष था, व सन्
ु नी की जात से था। गोपा के मलए तो
जीवन में अब कोई अनुराग ी न था।
इसके एक म ीने बाद मुझे कारोबार के मसलमसले में ववदे श जाना पड़ा और व ािं
मेरे अनुमान से क ीिं अधिक—दो साल-लग गए। गोपा के पत्र बराबर जाते र ते
थे, त्जससे मालूम ोता था, वे आराम से ैं, कोई धचिंता की बात न ीिं ै । मुझे
पीछे ज्ञात ु आ कक गोपा ने मुझे भी गैर समझा और वास्तववक त्स्थतत तछपाती
र ी।
ववदे श से लौटकर मैं सीिा हदल्ली प ु ाँचा। द्वार पर प ुिं चते ी मझ
ु े भी रोना आ
गया। मतृ यु की प्रततध्वतन-सी छायी ु ई थी। त्जस कमरे में ममत्रों के जमघट
र ते थे उनके द्वार बिंद थे, मकडडयों ने चारों ओर जाले तान रखे थे। दे वनाथ के
साथ व श्री लुप्त ो गई थी। प ली नजर में मुझे तो ऐसा भ्रम ु आ कक
दे वनाथ द्वार पर खडे मेरी ओर दे खकर मुस्करा र े ैं। मैं ममर्थयावादी न ीिं ूिं
और आतमा की दै ह कता में मुझे सिंदे ै , लेककन उस वक्त एक बार मैं चौंक
जरूर पडा हृदय में एक कम्पन-सा उठा; लेककन दस
ू री नजर में प्रततमा ममट चक
ु ी
थी।
द्वार खुला। गोपा के मसवा खोलनेवाला ी कौन था। मैंने उसे दे खकर हदल थाम
मलया। उसे मेरे आने की सच
ू ना थी और मेरे स्वागत की प्रततक्षा में उसने नई
साड़ी प न ली थी और शायद बाल भी गिंथ
ु ा मलए थे; पर इन दो वर्ों के समय
ने उस पर जो आघात ककए थे, उन् ें क्या करती? नाररयों के जीवन में य व
अवस्था ै , जब रूप लावण्य अपने पूरे ववकास पर ोता ै , जब उसमें अल् ड़पन
चिंचलता और अमभमान की जग आकर्षण, मािुयष और रमसकता आ जाती ै;
लेककन गोपा का यौवन बीत चुका था उसके मुख पर झुररष यािं और ववर्ाद की
रे खाएिं अिंककत थीिं, त्जन् ें उसकी प्रयतनशील प्रसननता
् भी न ममटा सकती थी।
केशों पर सिेदी दौड़ चली थी और एक एक अिंग बूढा ो र ा था।
मैंने करूण स्वर में पूछा क्या तुम बीमार थीिं गोपा।
गोपा ने आिंसू पीकर क ा न ीिं तो, मुझे कभी मसर ददष भी न ीिं ु आ। ‘तो तुम् ारी
य क्या दशा ै ? बबल्कुल बूढी ो गई ो।’
‘तो जवानी लेकर करना ी क्या ै ? मेरी उम्र तो पैंतीस के ऊपर ो गई!
अब मालम
ू ु आ कक जो सज्जन इस मकान में ककराएदार ु ए थे, व थोडे हदनों
के बाद तबदील ोकर चले गए और तब से कोई दस
ू रा ककरायदार न आया। मेरे
हृदय में बरछी-सी चुभ गई। इतने हदनों इन बेचारों का तनवाष कैसे ु आ, य
कल्पना ी द:ु खद थी।
गोपा ने लत्ज्जत ोकर क ा न ीिं न ीिं य बात न ीिं ै । तुम् ें गैर समझाँग
ू ी तो
अपना ककसे समझाँग
ू ी? मैंने समझा परदे श में तम
ु खद
ु अपने झमेले में पडे ोगे,
तुम् ें क्यों सताऊाँ? ककसी न ककसी तर हदन कट ी गये। घर में और कुछ न
था, तो थोडे—से ग ने तो थे ी। अब सुनीता के वववा की धचिंता ै । प ले मैंने
सोचा था, इस मकान को तनकाल दिं ग
ू ी, बीस-बाइस जार ममल जाएाँगे। वववा भी
ो जाएगा और कुछ मेरे मलए बचा भी र े गा; लेककन बाद को मालूम ु आ कक
मकान प ले ी रे न ो चक
ु ा ै और सद
ू ममलाकर उस पर बीस जार ो गए
ैं। म ाजन ने इतनी ी दया क्या कम की, कक मुझे घर से तनकाल न हदया।
इिर से तो अब कोई आशा न ीिं ै। ब ु त ाथ पािंव जोड़ने पर सिंभव ै , म ाजन
से दो ढाई जार ममल जाए। इतने में क्या ोगा? इसी किक्र में घुली जा र ी ूिं ।
लेककन मैं भी इतनी मतलबी ूिं , न तुम् ें ाथ मुिं िोने को पानी हदया, न कुछ
जलपान लायी और अपना दख
ु ड़ा ले बैठी। अब आप कपडे उताररए और आराम
से बैहठए। कुछ खाने को लाऊाँ, खा लीत्जए, तब बातें ों। घर पर तो सब कुशल
ै?
‘मैं ककसी का गल
ु ाम न ीिं ूिं ।’
शीतकाल की सिंध्या दे खते ी दे खते दीपक जलाने लगी। सुन्नी लालटे न लेकर
कमरे में आयी। दो साल प ले की अबोि और कृशतनु बामलका रूपवती युवती
ो गई थी, त्जसकी र एक धचतवन, र एक बात उसकी गौरवशील प्रकतत का
पता दे र ी थी। त्जसे मैं गोद में उठाकर प्यार करता था, उसकी तरि आज
आिंखें न उठा सका और व जो मेरे गले से मलपटकर प्रसन्न ोती थी, आज मेरे
सामने खडी भी न र सकी। जैसे मुझसे वस्तु तछपाना चा ती ै , और जैसे मैं
उस वस्तु को तछपाने का अवसर दे र ा ूिं ।
उसने मसर झक
ु ाए ु ए जवाब हदया—दसवें में ूिं ।
मुझे गोपा की सरलता पर दया आयी; लेककन मैंने सोचा क्यों इसके मन में
ककसी के प्रतत अववश्वास उतपन्न करूिं। सिंभव ै मदारीलाल व न र े ों, धचत
का भावनाएिं बदलती भी र ती ैं।
मैंने अिष स मत ोकर क ा—मगर य तो सोचो, उनमें और तम
ु मे ककतना अिंतर
ै । शायद अपना सवषस्व अपषण करके भी उनका मिंु नीचा न कर सको।
दस
ू रे हदन प्रात: काल मैं मदारीलाल के पास गया और उनसे मेरी जो बातचीत
ये चार म ीने गोपा ने वववा की तैयाररयों में काटे । मैं म ीने में एक बार
अवश्य उससे ममल आता था; पर र बार खखन्न ोकर लौटता। गोपा ने अपनी
कुल मयाषदा का न जाने ककतना म ान आदशष अपने सामने रख मलया था।
पगली इस भ्रम में पड़ी ु ई थी कक उसका उतसा नगर में अपनी यादगार
छोड़ता जाएगा। य न जानती थी कक य ािं ऐसे तमाशे रोज ोते ैं और आये
हदन भुला हदए जाते ैं। शायद व सिंसार से य श्रेय लेना चा ती थी कक इस
गई—बीती दशा में भी, लुटा ु आ ाथी नौ लाख का ै । पग-पग पर उसे दे वनाथ
की याद आती। व ोते तो य काम यों न ोता, यों ोता, और तब रोती।
वपछली बार उसकी दशा दे खकर मुझसे र ा न गया। बोला—गोपा दे वी, अगर
मरना ी चा ती ो, तो वववा ो जाने के बाद मरो। मुझे भय ै कक तुम उसके
प ले ी न चल दो।
गोपा का मुरझाया ु आ मुख प्रमुहदत ो उठा। बोली उसकी धचिंता न करो भैया
वविवा की आयु ब ु त लिंबी ोती ै । तुमने सुना न ीिं, र डिं मरे न खिंड र ढ े ।
लेककन मेरी कामना य ी ै कक सन्
ु नी का हठकाना लगाकर मैं भी चल दिं ।ू अब
और जीकर क्या करूिंगी, सोचो। क्या करूिं, अगर ककसी तर का ववघ्न पड़ गया
तो ककसकी बदनामी ोगी। इन चार म ीनों में मुत्श्कल से घिंटा भर सोती ूिं गी।
नीिंद ी न ीिं आती, पर मेरा धचत प्रसन्न ै । मैं मरूिं या जीऊाँ मुझे य सिंतोर् तो
ोगा कक सुन्नी के मलए उसका बाप जो कर सकता था, व मैंने कर हदया।
मदारीलाल ने अपन सज्जनता हदखाय, तो मुझे भी तो अपनी नाक रखनी ै।
गोपा ने व्यधथत नेत्रों से मेर ओर दे खा। मेर य आलोचना उसे बुर लग। इन
हदनों उसे बात बात पर क्रोि आ जाता था। बोली भैया, तुम ये बातें न समझोगे।
तम्
ु ें न मािं बनने का अवसर ममला, न पत्तन बनने का। सन्
ु नी के वपता का
ककतना नाम था, ककतने आदमी उनके दम से जीते थे, क्या य तम
ु न ीिं जानते,
व पगड़ी मेरे ी मसर तो बिंिी ै । तुम् ें ववश्वास न आएगा नात्स्तक जो ठ रे ,
पर मैं तो उन् ें सदै व अपने अिंदर बैठा पाती ूिं, जो कुछ कर र े ैं व कर र े
ैं। मैं मिंदबुवद्ध स्त्री भला अकेली क् या कर दे ती। व ी मेरे स ायक ैं व ी मेरे
प्रकाश ै। य समझ लो कक य दे मेरी ै पर इसके अिंदर जो आतमा ै व
उनकी ै । जो कुछ ो र ा ै उनके पण्
ु य आदे श से ो र ा ै तम
ु उनके ममत्र
ो। तम
ु ने अपने सैकड़ों रूपये खचष ककए और इतना ै रान ो र े ो। मैं तो
उनकी स गाममनी ूिं , लोक में भी, परलोक में भी।
जन
ू में वववा ो गया। गोपा ने ब ु त कुछ हदया और अपनी ै मसयत से ब ु त
ज्यादा हदया, लेककन किर भी, उसे सिंतोर् न ु आ। आज सुन्नी के वपता ोते तो
न जाने क्या करते। बराबर रोती र ी।
जाड़ों में मैं किर हदल्ली गया। मैंने समझा कक अब गोपा सख
ु ी ोगी। लड़की का
घर और वर दोनों आदशष ैं। गोपा को इसके मसवा और क्या चाह ए। लेककन
सुख उसके भाग्य में ी न था।
मैंने क ा तम
ु ने उसके घर वालों से पता न ीिं लगाया।
मैंने गोपा को सािंतवना दी—मैं जाकर केदारनाथ से ममलूिंगा। दे खूिं तो, व ककस
रिं ग ढिं ग का आदमी ै।
गोपा ने ाथ जोडकर क ा—न ीिं भरे या, भूलकर भी न जाना; सुन्नी सुनेगी तो
प्राण ी दे दे गी। अमभमान की पुतली ी समझो उसे। रस्सी समझ लो, त्जसके
जल जाने पर भी बल न ीिं जाते। त्जन पैरों से उसे ठुकरा हदया ै , उन् ें व
कभी न स लाएगी। उसे अपना बनाकर कोई चा े तो लौंडी बना ले , लेककन
शासन तो उसने मेरा न स ा, दस
ू रों का क्या स े गी।
‘य बात क्या ै ? तुम लोगों में य क्या अनबन ै । गोपा दे वी प्राण हदये डालती
ैं। तुम खुद मरने की तैयारी कर र ी ो। कुछ तो ववचार से काम लो।’
‘लेककन...’
‘मैं सब सोच चक
ु ी और तय कर चक
ु ी। पशु को मनष्ु य बनाना मेरी शत्क्त से
बा र ै ।’
इसके बाद मेरे मलए अपना मिंु बिंद करने के मसवा और क्या र गया था?
‘सुन्नी तो कुशल से ै ।’
‘ ािं अच्छी तर ै ।’
‘और केदारनाथ?’
‘व भी अच्छी तर ैं।’
‘कुछ तो न ीिं।’
‘भाई सा ब, मैं तो लट
ु गया। लड़का भी गया, ब ू भी गयी, त्जन्दगी ी गारत ो
गई।’
मैं अथी के साथ ो मलया और व ािं से लौटा, तो रात के दस बज गये थे। मेरे
पािंव कािंप र े थे। मालूम न ीिं, य खबर पाकर गोपा की क्या दशा ोगी। प्राणािंत
न ो जाए, मुझे य ी भय ो र ा था। सुन्नी उसकी प्राण थी। उसकी जीवन का
केन्द्र थी। उस दखु खया के उद्यान में य ी पौिा बच र ा था। उसे व हृदय रक्त
से सीिंच-सीिंचकर पाल र ी थी। उसके वसिंत का सुन रा स्वप्न ी उसका जीवन
था उसमें कोपलें तनकलें गी, िूल खखलें गे, िल लगें गे, धचडड़या उसकी डाली पर
बैठकर अपने सु ाने राग गाएिंगी, ककन्तु आज तनष्ठुर तनयतत ने उस जीवन सत्र
ू
को उखाडकर िेंक हदया। और अब उसके जीवन का कोई आिार न था। व
बबन्द ु ी ममट गया था, त्जस पर जीवन की सारी रे खाएाँ आकर एकत्र ो जाती
थीिं।
हदल को दोनों ाथों से थामे, मैंने जिंजीर खटखटायी। गोपा एक लालटे न मलए
तनकली। मैंने गोपा के मुख पर एक नए आनिंद की झलक दे खी।
मैं ऊपर जाकर लेटा, तो मेरे हदल का बोझ ब ु त ल्का ो गया था, ककन्तु र -
र कर य सिंदे ो जाता था कक गोपा की य शािंतत उसकी अपार व्यथा का ी
रूप तो न ीिं ै?
***
नशा
ईश्वरी एक बडे जमीिंदार का लड़का था और मैं गरीब क्लकष था, त्जसके पास
मे नत-मजूरी के मसवा और कोई जायदाद न थी। म दोनों में परस्पर ब सें
ोती र ती थीिं। मैं जमीिंदारी की बुराई करता, उन् ें ह स
िं क पशु और खून चूसने
वाली जोंक और वक्ष
ृ ों की चोटी पर िूलने वाला बिंझा क ता। व जमीिंदारों का
पक्ष लेता, पर स्वभावत: उसका प लू कुछ कमजोर ोता था, क्योंकक उसके पास
जमीिंदारों के अनुकूल कोई दलील न थी। व क ता कक सभी मनुष्य बराबर न ीिं
ाते, छोटे -बडे मेशा ोते र ें गे। लचर दलील थी। ककसी मानर्
ु ीय या नैततक
तनयम से इस व्यवस्था का औधचतय मसद्ध करना कहठन था। मैं इस वाद-वववाद
की गमी-गमी में अक्सर तेज ो जाता और लगने वाली बात क जाता, लेककन
ईश्वरी ारकर भी मस्
ु कराता र ता था मैंने उसे कभी गमष ोते न ीिं दे खा। शायद
इसका कारण य था कक व अपने पक्ष की कमजोरी समझता था।
नौकरों से व सीिे मुिं बात न ीिं करता था। अमीरों में जो एक बेददी और
उद्दण्ता ोती ै , इसमें उसे भी प्रचरु भाग ममला था। नौकर ने बबस्तर लगाने में
जरा भी दे र की, दि
ू जरूरत से ज्यादा गमष या ठिं डा ु आ, साइककल अच्छी तर
साि न ीिं ु ई, तो व आपे से बा र ो जाता। सुस्ती या बदतमीजी उसे जरा भी
बरदाश्त न थी, पर दोस्तों से और ववशेर्कर मुझसे उसका व्यव ार सौ ादष और
नम्रता से भरा ु आ ोता था। शायद उसकी जग मैं ोता, तो मुझसे भी व ीिं
कठोरताएिं पैदा ो जातीिं, जो उसमें थीिं, क्योंकक मेरा लोकप्रेम मसद्धािंतों पर न ीिं ,
तनजी दशाओिं पर हटका ु आ था, लेककन व मेरी जग ोकर भी शायद अमीर
ी र ता, क्योंकक व प्रकृतत से ी ववलासी और ऐश्वयष-वप्रय था।
मैंने क ा-तो क्या तुम समझते ो कक मैं व ािं जाकर कुछ और ो जाऊिंगा?
सेकिंड क्लास तो क् या, मैंनें कभी इिंटर क्लास में भी सिर न ककया था। अब की
सेकिंड क्लास में सिर का सौभाग्य प्राइ ु आ। गाडी तो नौ बजे रात को आती
थी, पर यात्रा के र्ष में म शाम को स्टे शन जा प ुिं च।े कुछ दे र इिर-उिर सैर
करने के बाद ररिेशमें ट-रूम में जाकर म लोगों ने भेजन ककया। मेरी वेश-भूर्ा
और रिं ग-ढिं ग से पारखी खानसामों को य प चानने में दे र न लगी कक मामलक
कौन ै और वपछलग्गू कौन; लेककन न जाने क्यों मझ
ु े उनकी गस्
ु ताखी बरु ी लग
र ी थी। पैसे ईश्वरी की जेब से गए। शायद मेरे वपता को जो वेतन ममलता ै,
उससे ज्यादा इन खानसामों को इनाम-इकराम में ममल जाता ो। एक अठन्नी
तो चलते समय ईश्वरी ी ने दी। किर भी मैं उन सभों से उसी ततपरता और
ववनय की अपेक्षा करता था, त्जससे वे ईश्वरी की सेवा कर र े थे। क्यों ईश्वरी
के ु क्म पर सब-के-सब दौडते ैं, लेककन मैं कोई चीज मािंगता ूिं , तो उतना
उतसा न ीिं हदखाते! मुझे भोजन में कुछ स्वाद न ममला। य भेद मेरे ध्यान को
सम्पूणष रूप से अपनी ओर खीिंचे ु ए था।
‘तो क्या तुम समझते ो, य सब केवल इनाम के लालच से इतना अदब करते
ैं।
‘जी न ीिं, कदावपत न ीिं! तमीज और अदब तो इनके रक्त में ममल गया ै ।’
गाड़ी चली। डाक थी। प्रयास से चली तो प्रतापगढ जाकर रूकी। एक आदमी ने
मारा कमरा खोला। मैं तुरिंत धचल्ला उठा, दस
ू रा दरजा ै -सेकिंड क्लास ै।
उस मस
ु ाकिर ने डडब्बे के अन्दर आकर मेरी ओर एक ववधचत्र उपेक्षा की दृत्ष्ट से
दे खकर क ा—जी ािं, सेवक इतना समझता ै , और बीच वाले बथषडे पर बैठ गया।
मुझे ककतनी लज्जा आई, क न ीिं सकता।
भोर ोते- ोते म लोग मरु ादाबाद प ुिं च।े स्टे शन पर कई आदमी मारा स्वागत
करने के मलए खड़े थे। पािंच बेगार। बेगारों ने मारा लगेज उठाया। दोनों भद्र
पुरूर् पीछे -पीछे चले। एक मुसलमान था ररयासत अली, दस
ू रा ब्राह्मण था
राम रख। दोनों ने मेरी ओर पररधचत नेत्रों से दे खा, मानो क र े ैं , तम
ु कौवे
ोकर िं स के साथ कैसे?
ररयासत अली ने ईश्वरी से पूछा—य बाबू सा ब क्या आपके साथ पढ़ते ैं?
ररयासत अली ने अद्धषशिंका के स्वर में क ा—लेककन आप बड़े सादे मलबास में
र ते ैं।
मैं श सवार न ीिं ूिं । ,ॉँ लड़कपन में कई बार लद्दू घोड़ों पर सवार ु आ ूिं । य ािं
िं
दे खा तो दो कल -रास घोड़े मारे मलए तैयार खड़े थे। मेरी तो जान ी तनकल
गई। सवार तो ु आ, पर बोहटय िं क पिं र ीिं थीिं। मैंने चे रे पर मशकन न पड़ने
हदया। घोड़े को ईश्वरी के पीछे डाल हदया। खैररयत य ु ई कक ईश्वरी ने घोड़े
को तेज न ककया, वरना शायद मैं ाथ-प रॉँ तुड़वाकर लौटता। सिंभव ै , ईश्वरी ने
समझ मलया ो कक य ककतने पानी में ै।
ईश्वरी का घर क्या था, ककला था। इमामबाड़े का—सा िाटक, द्वार पर प रे दार
ट लता ु आ, नौकरों का कोई मससाब न ीिं, एक ाथी बॅंिा ु आ। ईश्वरी ने अपने
वपता, चाचा, ताऊ आहद सबसे मेरा पररचय कराया और उसी अततश्योत्क्त के
साथ। ऐसी िं त् क कुछ न पतू छए। नौकर-चाकर
वा ब िी ी न ीिं, घर के लोग भी
मेरा सम्मान करने लगे। दे ात के जमीिंदार, लाखों का मन
ु ािा, मगर पमु लस
कान्सटे बबल को अिसर समझने वाले। कई म ाशय तो मुझे ु जूर- ु जूर क ने
लगे!
मैं चारपाई पर लेटा ु आ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ी कभी ु आ ो कक
ककसी ने मेरे पािंव दबाए ों। मैं इसे अमीरों के चोचले , रईसों का गिापन और
बड़े आदममयों की मुटमरदी और जाने क्या-क्या क कर ईश्वरी का परर ास ककया
करता और आज मैं पोतड़ों का रईस बनने का स्वािंग भर र ा था।
इतने में दस बज गए। परु ानी सभ्यता के लोग थे। नयी रोशनी अभी केवल
प ाड़ की चोटी तक प ुिं च पायी थी। अिंदर से भोजन का बुलावा आया। म
स्नान करने चले। मैं में शा अपनी िोती खुद छािंट मलया करता ू ाँ ; मगर य ॉँ
मैंने ईश्वरी की ी भािंतत अपनी िोती भी छोड़ दी। अपने ाथों अपनी िोती
छािंटते शमष आ र ी थी। अिंदर भोजन करने चले। ोस्टल में जूते प ले मेज पर
जा डटते थे। य िं प विं िोना आवश्यक था। क ार पानी मलये खड़ा था। ईश्वरी ने
प विं बढ़ा हदए। क ार ने उसके प विं िोए। मैंने भी प विं बढ़ा हदए। क ार ने मेरे
प विं भी िोए। मेरा व ववचार न जाने क िं चला गया था।
कट जाता था। क ीिं नदी में बजरे पर सैर कर र े ैं, क ीिं मतछलयों या धचडडयों
का मशकार खेल र े ैं, क ीिं प लवानों की कुश्ती दे ख र े ैं , क ीिं शतरिं ज पर
जमें ैं। ईश्वरी खूब अिंडे माँगवाता और कमरे में ‘स्टोव’ पर आमलेट बनते।
नौकरों का एक जतथा मेशा घेरे र ता। अपने ॉँ
थ-प वॉँ ह लाने की कोई जरूरत
न ीिं। केवल जबान ह ला दे ना कािी ै । न ाने बैठो तो आदमी न लाने को
ात्जर, लेटो तो आदमी पिंखा झलने को खड़े।
म ातमा गािंिी का किंु वर चेला मश ू र था। भीतर से बा र तक मेरी िाक थी।
नाश्ते में जरा भी दे र न ोने पाए, क ीिं किंु वर सा ब नाराज न ो जाऍ िं; बबछावन
ठीक समय पर लग जाए, किंु वर सा ब के सोने का समय आ गया। मैं ईश्वरी से
भी ज्यादा नाजुक हदमाग बन गया था या बनने पर मजबूर ककया गया था।
ईश्वरी अपने ाथ से बबस्तर बबछाले लेककन किंु वर मे मान अपने ाथों कैसेट
अपना बबछावन बबछा सकते ैं! उनकी म ानता में बट्टा लग जाएगा।
एक हदन सचमुच य ी बात ो गई। ईश्वरी घर में था। शायद अपनी माता से
कुछ बातचीत करने में दे र ो गई। य िं दस बज गए। मेरी ऑ िंखें नीिंद से झपक
र ी थीिं, मगर बबस्तर कैसेट लगाऊिं? किंु वर जो ठ रा। कोई साढ़े ग्यार बजे म रा
आया। बड़ा मिंु लगा नौकर था। घर के ििंिों में मेरा बबस्तर लगाने की उसे
सधु ि ी न र ी। अब जो याद आई, तो भागा ु आ आया। मैंने ऐसी ड टॉँ बताई
कक उसने भी याद ककया ोगा।
गज
ु र ोता ै । मेरे य िं घिंटे-भर तनवाष न ॉँ
ो। ररयासत अली ने क पते ुए ाथों
से लैम्प जला हदया।
व ााँ एक ठाकुर अक्सर आया करता था। कुछ मनचला आदमी था, म ातमा गािंिी
का परम भक्त। मझ
ु े म ातमाजी का चेला समझकर मेरा बड़ा मल ाज करता था;
पर मझ
ु से कुछ पछ
ू ते सिंकोच करता था। एक हदन मझ
ु े अकेला दे खकर आया
और ाथ बािंिकर बोला—सरकार तो गािंिी बाबा के चेले ैं न? लोग क ते ैं कक
य सुराज ो जाएगा तो जमीिंदार न र ें गे।
मैं कुरसी पर प वॉँ लटकाए बैठा था। ठाकुर मेरे प वॉँ दबाने लगा। किर बोला—
आजकल जमीिंदार लोग बड़ा जल
ु म
ु करते ैं सरकार! में भी ु जरू , अपने इलाके
में थोड़ी-सी जमीन दे दें , तो चलकर व ीिं आपकी सेवा में र ें ।
मैंने क ा—अभी तो मेरा कोई अत्ख्तयार न ीिं ै भाई; लेककन ज्यों ी अत्ख्तयार
ममला, मैं सबसे प ले तम्
ु ें बल
ु ाऊिंगा। तम्
ु ें मोटर-ड़्राइवरी मसखा कर अपना
ड्राइवर बना लूिंगा।
सन
ु ा, उस हदन ठाकुर ने खब ू पीटा और ग विं
ू भिंग पी और अपनी स्त्री को खब
म ाजन से लड़ने पर तैयार ो गया।
मलया, मगर मुझे उसमें बैठना बुरा लग र ा था। आये थे आराम से लेटे-लेटे, जा
र े थे मसकुड़े ु ए। प लू बदलने की भी जग न थी।
कई आदमी पढ़े -मलखे भी थे! वे आपस में अिंगरे जी राज्य की तारीि करते जा
र े थे। एक म ाश्य बोले—ऐसा न्याय तो ककसी राज्य में न ीिं दे खा। छोटे -बड़े
सब बराबर। राजा भी ककसी पर अन्याय करे , तो अदालत उसकी गदष न दबा दे ती
ै।
दस
ू रे सज्जन ने समथषन ककया—अरे सा ब, आप खुद बादशा पर दावा कर
सकते ैं। अदालत में बादशा पर डडग्री ो जाती ै।
एक आदमी, त्जसकी पीठ पर बड़ा गट्ठर बाँिा था, कलकतते जा र ा था। क ीिं
गठरी रखने की जग ॉँ
न ममलती थी। पीठ पर ब िे ु ए था। इससे बेचैन ोकर
बार-बार द्वार पर खड़ा ो जाता। मैं द्वार के पास ी बैठा ु आ था। उसका
बार-बार आकर मेरे मिंु को अपनी गठरी से रगड़ना मझ
ु े ब ु त बरु ा लग र ा था।
एक तो वा यों ी कम थी, दस
ू रे उस गाँवार का आकर मेरे मुिं पर खड़ा ो
जाना, मानो मेरा गला दबाना था। मैं कुछ दे र तक जब्त ककए बैठा र ा। एकाएक
मुझे क्रोि आ गया। मैंने उसे पकड़कर पीछे ठे ल हदया और दो तमाचे जोर-जोर
से लगाए।
‘क्या कसरू ककया था बेचारे ने। गाड़ी में सााँस लेने की जग न ीिं, खखड़की पर
ॉँ लेने खड़ा
जरा स स ो गया, तो उस पर इतना क्रोि! अमीर ोकर क्या आदमी
अपनी इन्सातनयत बबल्कुल खो दे ता ै ।’
ईश्वरी ने अिंगरे जी मे क ा- What an idiot you are, Bir! और मेरा नशा अब कुछ-
कुछ उतरता ु आ मालूम ोता था।
***
स्िाममनी
रामप्यारी और रामदल
ु ारी दो सगी ब नें थीिं। दोनों का वववा मथुरा और बबरजू
दो सगे भाइयों से ु आ। दोनों ब नें नै र की तर ससुराल में भी प्रेम और
आनिंद से र ने लगीिं। मशवदास को पेन्शन ममली। हदन-भर द्वार पर गप-शप
करते। भरा-परू ा पररवार दे खकर प्रसन्न ोते और अधिकतर िमष-चचाष में लगे
र ते थे; लेककन दै वगतत से बड़ा लड़का बबरजू बबमार पड़ा और आज उसे मरे ुए
पिंद्र हदन बबत गए। आज कक्रया-कर से िुरसत ममली और मशवदास ने सच्चे
ॉँ किर जीवन सिंग्राम के मलए कमर कस ली। मन में उसे चा े
कमषवीर की भ तत
ककतना ी द:ु ख ु आ ो, उसे ककसी ने रोते न ीिं दे खा। आज अपनी ब ू को
दे खकर एक क्षण के मलए उसकी ऑ िंखें सजल ो गई; लेककन उसने मन को
सिंभाला और रूद्ध किंठ से उसे हदलासा दे ने लगा। कदाधचत ् उसने, सोचा था, घर
की सवाममनी
् बनकर वविवा के ऑ िंसू पुिंछ जाऍगेिं , कम-से-कम उसे इतना कहठन
पररश्रम न करना पड़ेगा, इसमलए उसने भिंडारे की किंु जी ब ू के सामने िेंक दी
थी। वैिव्य की व्यथा को स्वाममतव के गवष से दबा दे ना चा ता था।
रामप्यारी ने पल
ु ककत किंठ से क ा-कैसे ो सकता ै दादा, कक तम
ु मे नत-
मजदरू ी करो और मैं मालककन बनकर बैठूिं? काम ििंिे में लगी र ूिं गी, तो मन
बदला र े गा। बैठे-बैठे तो रोनो के मसवा और कुछ न ोगा।
ॉँ
रामप्यारी कभी-कभी द्वार की दरारों से भीतर झ कती थी, पर अिंिेरे में कुछ न
हदखाई दे ता। सारे घर के मलए व कोठरी ततमलस्म या र स्य था, त्जसके ववर्य
िं
में भ तत-भ िं की कल्पनाऍ िं ोती र ती थीिं। आज रामप्यारी को व
तत र स्य
खोलकर दे खने का अवसर ममल गया। उसे बा र का द्वार बन्द कर हदया, कक
कोई उसे भिंडार खोलते न दे ख ले, न ीिं सोचेगा, बेजरूरत उसने क्यों खोला, तब
िं
आकर क पते ुए ाथों से ताला खोला। उसकी छाती िड़क र ी थी कक कोई
द्वार न खटखटाने लगे। अन्दर प विं रखा तो उसे कुछ उसी प्रकार का, लेककन
उससे क ीिं तीव्र आनन्द ु आ, जो उसे अपने ग ने-कपड़े की वपटारी खोलने में
ोता था। मटकों में गुड़, शक्कर, गे ू ाँ, जौ आहद चीजें रखी ु ई थीिं। एक ककनारे
बड़े-बड़े बरतन िरे थे, जो शादी-ब्या के अवसर पर तनकाले जाते थे , या म गेिं
हदये जाते थे। एक आले पर मालगुजारी की रसीदें और लेन-दे न के पुरजे बॅंिे
ु ए रखे थे। कोठरी में एक ववभूतत-सी छायी थी, मानो लक्ष्मी अज्ञात रूप से
ववराज र ी ो। उस ववभतू त की छाया में रामप्यारी आि घण्टे तक बैठी अपनी
आतमा को तप्ृ त करती र ी। प्रततक्षण उसके हृदय पर ममतव का नशा-सा छाया
जा र ा था। जब व उस कोठरी से तनकली, तो उसके मन के सिंस्कार बदल गए
थे, मानो ककसी ने उस पर मिंत्र डाल हदया ो।
उसी समय द्वार पर ककसी ने आवाज दी। उसने तरु न्त भिंडारे का द्वार बन्द
ककया और जाकर सदर दरवाजा खोल हदया। दे खा तो पड़ोमसन झुतनया खड़ी ै
और एक रूपया उिार म गिं र ी ै।
झुतनया ने चककत ोकर क ा-ऐसा न क ो जीजी, बड़े गाढ़े में पड़कर आयी ूिं ,
न ीिं तम
ु जानती ो, मेरी आदत ऐसी न ीिं ै । बाकी एक एक रूपया दे ना ै।
प्यादा द्वार पर खड़ा बकझक कर र ा ै । रूपया दे दो, तो ककसी तर य
ववपत्तत टले। मैं आज के आठवें हदन आकर दे जाऊिंगी। ग विं में और कौन घर
ै, ज िं मािंगने जाऊिं?
प्यारी टस से मस न ु ई।
प्यारी ने क ा-न दॉँ का पानी सड़ गया ै । मुन्नी भूसे में मुिं न ीिं डालती। दे खते
न ीिं ो, कोस-भर पर खड़ी ै।
कोई रूग्ण और धचिंततत तथा ममलन वेर् में ै , तो व प्यारी ै ; किर भी सारा घर
उससे जलता ै। य िं तक कक बूढ़े मशवदास भी कभी-कभी उसकी बदगोई करते
ैं। ककसी को प र रात र े उठना अच्छा न ीिं लगता। मे नत से सभी जी चरु ाते
ैं। किर भी य सब मानते ैं कक प्यारी न ो, तो घर का काम न चले। और
तो और, दोनों ब नों में भी अब उतना अपनापन न ीिं।
दल
ु ारी लड़ने को तैयार ोकर आयी थी। बोली-तेरे ाथ मिं का े को कभी रूपये
आऍगेिं और का े को कड़े बनें गे। जोड़-तोड़ रखने में मजा आता ै न?
ुआ ै , कक मैं सबसे ज्यादा खा-प न लेती ू ाँ। मेरा अनन्त कब का टूटा पड़ा ै।
दल
ु ारी-तुम न खाओ-न प नो, जस तो पाती ो। य िं खाने-प नने के मसवा और
क्या ै ? मैं तुम् ारा ह साब-ककताब न ीिं जानती, मेरे कड़े आज बनने को भेज दो।
दल
ु ारी ने उद्दिंडता के साथ क ा-मझ
ु े इससे कोई मतलब न ीिं। मैं तो कड़े चा ती
ू ाँ।
सिंध्या ो गई थी। दल
ु ारी और मथुरा ाट से लौटे । प्यारी ने नये कड़े दल
ु ारी को
हदये। दल
ु ारी तन ाल ो गई। चटपट कड़े प ले और दौड़ी ु ई बरौठे में जाकर
मथरु ा को हदखाने लगी। प्यारी बरौठे के द्वार पर तछपी खड़ी य दृश्य दे खने
लगी। उसकी ऑ िंखें सजल ो गईं। दल
ु ारी उससे कुल तीन ी साल तो छोटी ै!
पर दोनों में ककतना अिंतर ै । उसकी ऑ िंखें मानों उस दृश्य पर जम गईं, दम्पतत
का व सरल आनिंद, उनका प्रेमामलिंगन, उनकी मुग्ि मुद्रा-प्यारी की टकटकी-सी
बाँि गई, य ॉँ तक तक दीपक के िुि
ाँ ले प्रकाश में वे दोनों उसकी नजरों से
गायब ो गए और अपने ी अतीत जीवन की एक लीला ऑ िंखों के सामने बार-
बार नए-नए रूप में आने लगी।
प्यारी की समाधि टूट गई। ऑ िंसू पोंछती ु ई भिंडारे में पैसा लेने चली गई।
दल
ु ारी को लड़का ु आ, तो प्यारी ने िूम से जन्मोतसव मनाने का प्रस्ताव ककया।
मशवदास ने ववरोि ककया-क्या िायदा? जब भगवान ् की दया से सगाई-ब्या के
हदन आऍगेिं , तो िम
ू -िाम कर लेना।
िम
ू -िाम से जन्मोतसव मनाया गया। बार ी के हदन सारी बबरादरी का भोज
िं ऑ िंगन में एक टाट
ु आ। लोग खा-पीकर चले गये, प्यारी हदन-भर की थकी-म दी
का टुकड़ा बबछाकर कमर सीिी करने लगी। ऑ िंखें झपक गई। मथुरा उसी वक्त
घर में आया। नवजात पुत्र को दे खने के मलए उसका धचतत व्याकुल ो र ा था।
दल
ु ारी सौर-ग ृ से तनकल चुकी थी। गभाषवस्था में उसकी दे क्षीण ो गई थी,
मुिं भी उतर गया था, पर आज स्वस्थता की लामलमा मुख पर छाई ु ई थी।
सौर के सिंयम और पौत्ष्टटक भोजन ने दे को धचकना कर हदया था। मथरु ा
उसे ऑ िंगन में दे खते ी समीप आ गया और एक बार प्यारी की ओर ताककर
उसके तनद्रामग्न ोने का तनश्चय करके उसने मशशु को गोद में ले मलया और
उसका मिंु चूमने लगा।
ु ारी ने बालक को गोद में धचपटाकर क ा- ,िं क्यों न ीिं। तुम् ीिं ने तो नौ म ीने
दल
पेट में रखा ॉँ
ै । स सत तो मेरी ु ई, बाप क लाने के मलए तम
ु कूद पड़े।
मथुरा-मेरा लड़का न ोता, तो मेरी सूरत का क्यों ोता। चे रा-मो रा, रिं ग-रूप सब
मेरा ी-सा ै कक न ीिं?
दल
ु ारी-इससे क्या ोता ै । बीज बतनये के घर से आता ै । खेत ककसान का
ोता ै । उपज बतनये की न ीिं ोती, ककसान की ोती ै।
मथुरा-बातों में तुमसे कोई न जीतेगा। मेरा लड़का बड़ा ो जाएगा, तो मैं द्वार
पर बैठकर मजे से ु क्का वपया करूिंगा।
दल
ु ारी-मेरा लड़का पढ़े -मलखेगा, कोई बड़ा ु द्दा पाएगा। तम्
ु ारी तर हदल-भर बैल
के पीछे न चलेगा। मालककन का क ना ै , कल एक पालना बनवा दें ।
दल
ु ारी—य म ारानी जीने दें गी?
मथरु ा-मझ
ु े तो बेचारी पर दया आती ै । उसके कौन बैठा ु आ ै ? मीिं लोगों के
मलए मरती ै । भैया ोते, तो अब तक दो-तीन बच्चों की म िं ो गई ोती।
करने में कुशल ोते थे, इसमलए प्यारी को अब हदन में दो-चार चक्कर ार के
भी लगाना पड़ता। क ने को अब व अब भी मालककन थी, पर वास्तव में घर-
भर की सेववका थी। मजूर भी उससे तयोररय ॉँ बदलते, जमीिंदार का प्यादा भी उसी
पर िौंस जमाता। भोजन में ककिायत करनी पड़ती; लड़कों को तो जीतनी बार
म गेिं , उतनी बार कुछ-न-कुछ चाह ए। दल
ु ारी तो लड़कौरी थी, उसे भरपूर भोजन
चाह ए। मथुरा घर का सरदार था, उसके इस अधिकार को कौन छीन सकता था?
मजरू भला क्यों ररयायत करने लगे थे। सारी कसर प्यारी पर तनकलती थी।
व ी एक िालतू चीज थी; अगर आिा पेट खाए, तो ककसी को ातन न ो सकती
थी। तीस वर्ष की अवस्था में उसके बाल पक गए, कमर झक
ु गई, ऑ िंखों की
जोत कम ो गई; मगर व प्रसन्न थी। स्वाममतव का गौरव इन सारे जख्मों पर
मर म का काम करता था।
प्यारी य प्रस्ताव सुनकर अवाक् र गई। उनका मुिं ताकने लगी। इसके प ले
इस तर की बातचीत कभी न ु ई थी। य िन
ु कैसेट सवार ो गई? उसे सिंदे
प्यारी ने क ा-ऐसी ी िं
ै तो तुम चले जाआ, बाल-बच्चों को क -क िं ब िेिं
वपरोगे।
दल
ु ारी बोली-य कैसे ो सकता ै ब न, य िं दे ात में लड़के पढ़े -मलखेंगे। बच्चों
रे ल खा जाएगी। परदे श में अकेले त्जतना खरचा ोगा, उतने में सारा घर आराम
से र े गा।
प्यारी बोली-तो मैं ी य िं र कर क्या करूिंगी। मुझे भी लेते चलो।
दल
ु ारी उसे साथ ले चलने को तेयार न थी। कुछ हदन का आनिंद उठाना चा ती
थी, अगर परदे श में भी य बिंिन र ा, तो जाने से िायदा ी क्या। बोली-ब न,
तुम चलतीिं तो क्या बात थी, लेककन वपर य िं का कारोबार तो चौपट ो जाएगा।
तुम तो कुछ-न-कुछ दे खभाल करती ी र ोगी।
ववदाई का हदन प्यारी के मलए परीक्षा का हदन था। उसके जी में आता था क ीिं
चली जाए, त्जसमें व दृश्य दे खना न पड़े। ािं। घड़ी-भर में य घर सूना ो
जाएगा। व हदन-भर घर में अकेली पड़ी र े गी। ककससे ॅंसेगी-बोलेगी। य
सोचकर उसका हृदय क पिं जाता था। ज्यों-ज्यों समय तनकट आता था, उसकी
वतृ तयािं मशधथल ोती जातीिं थीिं।व कोई काम करते-करते जैसे खो जाती थी और
अपलक नेत्रों से ककसी वस्तु को ताकने लगती। कभी अवसर पाकर एकािंत में
जाकर थोड़ा-सा रो आती थी। मन को समझा र ी थी, व लोग अपने ोते तो
क्या इस तर चले जाते। य तो मानने का नाता ै , ककसी पर कोई जबरदस्ती
ै । दस
ू रों के मलए ककतना ी मरो, तो भी अपने न ीिं ोते। पानी तेल में ककतना
ी ममले, वपर भी अलग ी र े गा।
बच्चे नए-नए कुरते प ने, नवाब बने घूत र े थे। प्यारी उन् ें प्यार करने के मलए
गोद लेना चा ती, तो रोने का-सा मुिं बनाकर छुड़ाकर भाग जाते। व क्या
जानती थी कक ऐसे अवसर पर ब ु िा अपने बच्चे भी तनष्ठुर ो जाते ैं।
दस बजते-बजते द्वार पर बैलगाड़ी आ गई। लउ़के प ले ी से उस पर जा बैठे।
ग विं के ककतने स्त्री-परू
ु र् ममलने आये। प्यारी को इस समय उनका आना बरु ा
लग र ा था। व दल
ु ारी से थोड़ी दे र एकािंत गले ममलकर रोना चा ती थी, मथुरा
से ाथ जोड़कर क ना चा ती थी, में री खोज-खबर लेते र ना, तुम् ारे मसवा में रा
सिंसार में कौन ै , लेककन इस भम्भड़ में उसको इन बातों का मौका न ममला।
मथुरा और दल
ु ारी दोनों गाड़ी में जा बैठे और प्यारी द्वार पर रोती खड़ी र
गई। व इतनी ववहृवल थी कक ग विं के बा र तक प ुिं चाने की भी उसे सधु ि न
र ी।
िीरे -िीरे क्षोभ का वेग कम ु आ। जीवन में व्यापार ोने लगे। अब खेती का
सारा भार प्यारी पर था। लोगों ने सला दी, एक ल तोड़ दो और खेतों को उठा
दो, पर प्यारी का गवष यों ढोल बजाकर अपनी पराजय सवीकार न करना था।
सारे काम पूवव
ष त ् चलने लगे। उिर मथुरा के धचट्ठी-पत्री न भेजने से उसके
अमभमान को और भी उततेजना ममली। व समझता ै , मैं उसके आसरे बैठी ुिं ,
उसके धचट्ठी भेजने से मझ
ु े कोई तनधि न ममल जाती। उसे अगर मेरी धचन्ता
न ीिं ै , तो मैं कब उसकी परवा करती ूिं ।
घर में तो अब ववशेर् काम र ा न ीिं, प्यारी सारे हदन खेती-बारी के कामों में
लगी र ती। खरबज
ू े बोए थे। व खब
ू िले और खब
ू बबके। प ले सारा दि
ू घर
में खचष ो जाता था, अब बबकने लगा। प्यारी की मनोवत्ृ ततयों में ी एक ववधचत्र
पररवतषन आ गया। व िं
अब साि कपड़े प नती, म ग-चोटी की ओर से भी उतनी
उदासीन न थी। आभूर्णों में भी रूधच ु ई। रूपये ाथ में आते ी उसने अपने
धगरवी ग ने छुड़ाए और भोजन भी सिंयम से करने लगी। सागर प ले खेतों को
सीिंचकर खद
ु खाली ो जाता था। अब तनकास की नामलय िं बन्द ो गई थीिं।
सागर में पानी जमा ोने लगा और उसमें ल्की- ल्की ल रें भी थीिं, खखले ुए
कमल भी थे।
जोखू अब कुछ हदनों से काम में मन लगाने लगा था। जब तक मामलक उसके
मसर पर सवार र ते थे, व ीले-ब ाने करता था। अब सब-कुछ उसके ाथ में
था। प्यारी सारे हदन ार में थोड़ी ी र सकती थी, इसमलए अब उसमें
त्जम्मेदारी आ गई थी।
प्यारी उसकी सरलता पर ॅंसकर बोली-अरे , तो मैं तुझे कुछ क थोड़ी र ी ूिं ,
पागल। मैं तो क ती ूिं कक जान रखकर काम कर। क ीिं बबमार पड़ गया, तो
लेने के दे ने पड़ जाऍगेिं ।
जोखू-कौन बीमार पड़ जाएगा, मै? बीस साल में कभी मसर तक तो दख
ु ा न ीिं,
आगे की न ीिं जानता। क ो रात-भर काम करता र ूिं ।
प्यारी-मैं क्या जानूिं, तुम् ीिं अिंतरे हदन बैठे र ते थे, और पूछा जाता था तो क ते
थे-जुर आ गया था, पेट में दरद था।
जोखू-तुम ब ु त करोगी, दो बेर चली जाओगी। सारे हदन तुम व ॉँ बैठी न ीिं र
सकतीिं।
जोखू ने अपने ववशाल किंिे पर िावड़ा रखते ु ए क ा-जब सबका ोगा, तो मेरा
भी ोगा। सबका डूब जाएगा, तो मेरा भी डूब जाएगा। में क्यों ककसी से पीछे
ॉँ बीघा से कम न ीिं रोपा जाता था, बबरजू भैया ने
र ू ाँ ? बाबा के जमाने में प च
उसमें एक-दो बीघे और बढ़ा हदए। मथरु ा ने भी थोड़ा-ब ु त र साल रोजा, तो मैं
ॉँ बीघे से कम न लागाऊाँगा।
क्या सबसे गया-बीता ू ाँ ? में प च
‘मै अकेला उन दानों के बराबर खाता ू ाँ। दोनों के बराबर काम क्यों न करूाँगा?
‘चल, झठ
ू ा क ीिं का। क ते थे, दो सेर खाता ू ाँ, चार सेर खाता ू ाँ। आि सेर में
र गए।‘
‘तुम् ारी बला से, मैं ी लकान ू ाँगा न? य दे ककस हदन काम आएगी।‘
प्यारी ने ववनोद करते ु ए पूछा-क ना क्या े , में तुमसे पूछती ू ाँ, अपनी सगाई
क्यों न ी कर लेते? अकेल मरती ू ाँ। तब एक से दो ो जाऊाँगी।
जोखू शरमाता ु आ बोला-तुमने किर व ी बेबात की बात छे ड़ दी, मालककन!
ककससे सगाई कर लाँ ू य ?ॉँ ऐसी मे ररया लेकर क्या करूाँगा, जो ग नों के मलए
मेरी जान खाती र े ।
जोखू-में क ने लगाँग
ू ा, तो बबगड़ जाओगी।
जोखू-मैं चा ता ू ाँ कक व तम्
ु ारी तर ो, ऐसी गिंभीर ो, ऐसी ी बातचीत में
चतरु ो, ऐसा ी अच्छा पकाती ो, ऐसी ी ककिायती ो, ऐसी ी ाँसमख
ु ो।
बस, ऐसी औरत ममलेगी, तो करूाँगा, न ीिं इसी तर पड़ा र ू ाँगा।
प्यारी का मख
ु लज्जा से आरकत ो गया। उसने पीछे टकर क ा-तम
ु बड़े
नटखट ो! ाँसी- ाँसी में सब कुछ क गए।
***
ठाकुर का कुआाँ
जोखू ने लोटा मुिं से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई। गिंगी से बोला-य
कैसा पानी ै ? मारे बास के वपया न ीिं जाता। गला सूखा जा र ा ै और तू
सडा पानी वपलाए दे ती ै !
गिंगी प्रततहदन शाम पानी भर मलया करती थी। कुआिं दरू था, बार-बार जाना
मुत्श्कल था। कल व पानी लायी, तो उसमें बू बबलकुल न थी, आज पानी में
बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। जरुर कोई जानवर कुएिं
में धगरकर मर गया ोगा, मगर दस
ू रा पानी आवे क ािं से?
न ीिं ै।
जोखू कई हदन से बीमार ैं। कुछ दे र तक तो प्यास रोके चुप पड़ा र ा, किर
बोला-अब तो मारे प्यास के र ा न ीिं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बिंद करके पी
लिंू।
गिंगी ने पानी न हदया। खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी,
परिं तु य न जानती थी कक पानी को उबाल दे ने से उसकी खराबी जाती र ती
ैं। बोली-य पानी कैसे वपयोंगे ? न जाने कौन जानवर मरा ैं। कुऍ से मै दस
ू रा
पानी लाए दे ती ू ाँ।
‘ ाथ-पािंव तड़
ु वा आएगी और कुछ न ोगा। बैठ चप
ु के से। ब्रा म्ण दे वता
आशीवाषद दें गे, ठाकुर लाठी मारे गें, सा ू जी एक पािंच लेगें। गराबी का ददष कौन
समझता ैं ! म तो मर भी जाते ै , तो कोई दआ ॉँ
ु र पर झ कनें न ीिं आता, किंिा
दे ना तो बड़ी बात ै । ऐसे लोग कुएाँ से पानी भरने दें गें ?’
इन शब्दों में कड़वा सतय था। गिंगी क्या जवाब दे ती, ककन्तु उसने व बदबूदार
पानी पीने को न हदया।
रात के नौ बजे थे। थके-म देॉँ मजदरू तो सो चुके थें, ठाकुर के दरवाजे पर दस-
ॉँ बेकिक्रे जमा थें मैदान में। ब ादरु ी का तो न जमाना र ा
पच ै , न मौका।
कानन
ू ी ब ादरु ी की बातें ो र ी थीिं। ककतनी ोमशयारी से ठाकुर ने थानेदार को
एक खास मक
ु दमे की नकल ले आए। नात्जर और मो ततममम, सभी क ते थें ,
ॉँ
नकल न ीिं ममल सकती। कोई पचास म गता, कोई सौ। य बे-पैसे-कौड़ी नकल
उड़ा दी। काम करने ढ़ग चाह ए।
कुप्पी की िि
ुाँ ली रोशनी कुऍ िं पर आ र ी थी। गिंगी जगत की आड़ मे बैठी मौके
का इिंतजार करने लगी। इस कुाँए का पानी सारा ग विं पीता ैं। ककसी के मलए
रोका न ीिं, मसिष ये बदनसीब न ीिं भर सकते।
‘खान खाने चले और ु क्म ु आ कक ताजा पानी भर लाओिं। घड़े के मलए पैसे
न ीिं ै ।’
गिंगी के ाथ रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा िड़ाम से पानी में धगरा और
कई क्षण तक पानी में ह लकोरे की आवाजें सुनाई दे ती र ीिं।
***
पूस की राि
ल्कू ने आकर स्त्री से क ा-स ना आया ै । लाओिं, जो रुपये रखे ैं , उसे दे दाँ ,ू
ककसी तर गला तो छूटे ।
मुन्नी झाड़ू लगा र ी थी। पीछे किरकर बोली-तीन ी रुपये ैं, दे दोगे तो कम्मल
क ॉँ से आवेगा? माघ-पूस की रात ार में कैसे कटे गी ? उससे क दो, िसल पर
दे दें गें। अभी न ीिं।
ल्कू एक क्षण अतनमशचत दशा में खड़ा र ा। पूस मसर पर आ गया, कम्बल के
बबना ार मे रात को व ककसी तर सो न ीिं सकता। मगर स ना मानेगा न ीिं ,
घुड़ककयााँ जमावेगा, गामलय िं दे गा। बला से जाड़ों मे मरें गे, बला तो मसर से टल
जाएगी। य सोचता ु आ व अपना भारी-भरकम डील मलए ु ए (जो उसके नाम
को झूठ मसध्द करता था ) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला-दे
दे , गला तो छूटे ।कम्मल के मलए कोई दस
ू रा उपाय सोचाँगा।
पूस की अाँिेरी रात ! आकाश पर तारे भी हठठुरते ु ए मालूम ोते थे। ल्कू
अपने खेत के ककनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे ब स के खटाले पर
अपनी परु ानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा क प र ा था। खाट के नीचे उसका सिंगी
कुतता जबरा पेट मे माँु डाले सदी से काँू -काँू कर र ा था। दो मे से एक को भी
नीिंद न ीिं आ र ी थी।
ल्कू ने घट
ु तनयों कों गरदन में धचपकाते ु ए क ा-क्यों जबरा, जाड़ा लगता ै?
जबरा ने पड़े-पड़े दम
ु ह लायी और अपनी काँू -काँू को दीघष बनाता ु आ क ा-कल से
मत आना मेरे साथ, न ीिं तो ठिं डे ो जाओगे। यी रािंड पछुआ न जाने क ााँ से
बरि मलए आ र ी ैं। उठूाँ, किर एक धचलम भरूाँ। ककसी तर रात तो कटे !
आठ धचलम तो पी चक
ु ा। य खेती का मजा ैं ! और एक भगवान ऐसे पड़े ैं ,
त्जनके पास जाड़ा आए तो गरमी से घबड़ाकर भागे। मोटे -मोटे गददे , मल ाि,
कम्बल। मजाल ै , जाड़े का गुजर ो जाए। जकदीर की खूबी ! मजूरी म करें ,
मजा दस
ू रे लूटें !
ल्कू ने धचलम पीते ु ए क ा-वपएगा धचलम, जाड़ा तो क्या जाता ैं, ॉँ जरा, मन
बदल जाता ै।
धचलम पीकर ल्कू किर लेटा और तनश्चय करके लेटा कक चा े कुछ ो अबकी
सो जाऊाँगा, पर एक ी क्षण में उसके हृदय में कम्पन ोने लगा। कभी इस
ॉँ उसकी छाती को
करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा ककसी वपशाच की भ तत
दबाए ु ए था।
ल्कू ने क ा-अब तो न ीिं र ा जाता जबरू। चलो बगीचे में पत्ततयों बटोरकर
तापें । ट टे ो जाऍगेिं , तो किर आकर सोऍगेंिं । अभी तो ब ु त रात ै।
बगीचे में खब
ू अाँिेरा छाया ु आ था और अिंिकार में तनदष य पवन पत्ततयों को
कुचलता ु आ चला जाता था। वक्ष
ृ ों से ओस की बाँद
ू े टप-टप नीचे टपक र ी थीिं।
जबरा को क ीिं जमीन पर एक डडी पड़ी ममल गई थी। उसे धचिंचोड़ र ा था।
ल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप र ा था। एक क्षण में उसने दो र उताकर
बगल में दबा ली, दोनों प विं िैला हदए, मानों ठिं ड को ललकार र ा ो, तेरे जी में
आए सो कर। ठिं ड की असीम शत्क्त पर ववजय पाकर व ववजय-गवष को हृदय
में तछपा न सकता था।
‘प ले से य उपाय न सझ
ू ा, न ीिं इतनी ठिं ड क्यों खातें ।’
जब्बर ने पाँछ
ू ह लायी।
अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें । दे खें, कौन तनकल जाता ै । अगर
जल गए बचा, तो मैं दवा न करूाँगा।
मन्
ु नी से कल न क दे ना, न ीिं लड़ाई करे गी।
पत्ततय ॉँ जल चुकी थीिं। बगीचे में किर अाँिेरा छा गया था। राख के नीचे कुछ-
कुछ आग बाकी थी, जो वा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक
क्षण में किर ऑ िंखे बन्द कर लेती थी !
उसने हदल में क ा-न ीिं, जबरा के ोते कोई जानवर खेत में न ीिं आ सकता।
नोच ी डाले। मझ
ु े भ्रम ो र ा ै । क !ॉँ अब तो कुछ न ीिं सन
ु ाई दे ता। मझ
ु े भी
कैसा िोखा ु आ!
जबरा भाँक
ू ता र ा। उसके पास न आया।
जबरा अपना गला िाड़ डालता था, नील गाये खेत का सिाया ककए डालती थीिं
और ल्कू गमष राख के पास शािंत बैठा ु आ था। अकमषण्यता ने रत्स्सयों की
भ तत उसे चारों तरि से जकड़ रखा था।
दोनों किर खेत के ड डॉँ पर आयें। दे खा सारा खेत रौदािं पड़ा ु आ ै और जबरा
मॅड़य
ै ा के नीचे धचत लेटा ै , मानो प्राण ी न ों। दोनों खेत की दशा दे ख र े थें।
मन्
ु नी के मख
ु पर उदासी छायी थी, पर ल्कू प्रसन्न था।
कई हदन से घर में कल मचा ु आ था। मााँ अलग माँु िुलाए बैठी थीिं, स्त्री
अलग। घर की वायु में जैसे ववर् भरा ु आ था। रात को भोजन न ीिं बना, हदन
को मैंने स्टोव पर खखचड़ी डाली: पार खाया ककसी ने न ीिं। बच्चों को भी आज
भख
ू न थी। छोटी लड़की कभी मेरे पास आकर खड़ी ो जाती, कभी माता के
पास, कभी दादी के पास: पर क ीिं उसके मलए प्यार की बातें न थीिं। कोई उसे
गोद में न उठाता था, मानों उसने भी अपराि ककया ो, लड़का शाम को स्कूल से
आया। ककसी ने उसे कुछ खाने को न हदया, न उससे बोला, न कुछ पूछा। दोनों
बरामदे में मन मारे बैठे ु ए थे और शायद सोच र े थे-घर में आज क्यों लोगों
के हृदय उनसे इतने किर गए ैं। भाई-बह न हदन में ककतनी बार लड़ते ैं, रोनी-
पीटना भी कई बार ो जाता ै : पर ऐसा कभी न ीिं ोता कक घर में खाना न
पके या कोई ककसी से बोले न ीिं। य कैसा झगड़ा ै कक चौबीस घिंटे गज
ु र जाने
पर भी शािंत न ीिं ोता, य शायद उनकी समझ में न आता था।
पतनी ने माँु िुलाकर क ा-जला क्यों न ीिं लेत।े तुम् ारे ाथ न ीिं ैं?
मेरी दे में आग लग गई। बोला-तो क्या जब तुम् ारे चरण न ीिं आये थे, तब
घर में धचवराग न जलते थे?
मैंने डािंटा-अच्छा चप
ु र ो, ब ु त बढ़ो न ीिं।
‘क्यों चप
ु र ू ाँ ? अगर एक क ोगे, तो दो सन
ु ोगे।‘
2
स सा मेरे ममत्र पिंडडत जयदे वजी ने द्वार पर पक
ु ारा-अरे , आज य अाँिेरा क्यों
कर रखा ै जी? कुछ सझ
ू ती ी न ीिं। क ॉँ ो?
ॉँ
मगर प च ी ममनट में किर ककसी के पैरो की आ ट ममली और अबकी टाचष के
तीव्र प्रकाश से मेरा सारा कमरा भर उठा। जयदे व ने मझ
ु े बैठे दे खकर कुतू ल से
पूछा-तु क ॉँ गये थे जी? घिंटों चीखा, ककसी ने जवाब तक न हदया। य आज
क्या मामला ै ? धचराग क्यों न ीिं जले?
ॉँ दे खने चलते
‘खैर चलो, क ीिं झ की ॉँ बनी
ो? सेठ घूरेमल के मिंहदर में ऐसी झ की
ै कक दे खते ी बनता ै । ऐसे -ऐसे शीशे और बबजली के सामान सजाए ैं कक
ऑ िंखें झपक उठती ैं। मसिं ासन के ठीक सामने ऐसा िौ ारा लगाया ै कक उसमें
से गुलाबजल की ि ारें तनकलती ैं। मेरा तो चोला मस्त ो गया। सीिे तुम् ारे
पास दौड़ा चला आ र ा ू ाँ। ब ु त झाँककय ॉँ दे खी ोंगी तम
ु ने, लेककन य और ी
चीज ै । आलम िटा पड़ता ै । सन
ु ते ैं हदल्ली से कोई चतरु कारीगर आया ै।
उसी की य करामात ै ।’
मैंने उदासीन भाव से क ा-मेरी तो जाने की इच्दा न ीिं ै भाई! मसर में जोर का
ददष ै।
‘तम
ु तो यार, ब ु त हदक करते ो। इसी मारे मैं चप
ु चाप पड़ा था कक ककसी तर
य बला टले: लेककन तम
ु मसर पर सवार ो गए। क ा हदया-मैं न जाऊाँगा।
मुझ पर ववजय पाने का मेरे ममत्रों को ब ुिं त आसान नुस्खा ैं यों ाथा-पाई,
िीिंगा-मुश्ती, िौल-िप्पे में ककसी से पीछे र ने वाला न ीिं ू ाँ लेककन ककसी ने मुझे
गुदगुदाया और परास्त ु आ। किर मेरी कुछ न ीिं चलती। मैं ाथ जोड़ने लगता
3
सेठ घरू े लाल उन आदममयों में ैं, त्जनका प्रात: को नाम ले लो, तो हदन-भर
भोजन न ममले। उनके मक्खीचस
ू पने की सैकड़ों ी दिं तकथाऍ िं नगर में प्रचमलत
ैं। क ते ैं , एक बार मारवाड़ का एक मभखारी उनके द्वार पर डट गया कक
मभक्षा लेकर ी जाऊाँगा। सेठजी भी अड़ गए कक मभक्षा न दाँ ग
ू ा, चा े कुछ ो।
मारवाड़ी उन् ीिं के दे श का था। कुछ दे र तो उनके पूवज
ष ों का बखान करता र ा,
किर उनकी तनिंदा करने लगा, अिंत में द्वार पर लेट र ा। सेठजी ने रतती-भर
परवा न की। मभक्षुक भी अपनी िन
ु का पक्का था। सारा हदन द्वार पर बे-
दाना-पानी पड़ा र ा और अिंत में व ी मर गया। तब सेठ जी पसीजे और उसकी
कक्रया इतनी िूम-िाम से की कक ब ु त कम ककसी ने की ोगी। मभक्षुक का
सतयाग्र सेठजी ने के मलए वरदान ो गया। उनके अन्त:करण में भत्क्त का
जैसे स्रोत खुल गया। अपनी सारी सम्पत्तत िमाषथष अपषण कर दी।
म लोग ठाकुरदारे में प ु ाँच:े तो दशषकों की भीड़ लगी ु ई थी। किंिे से किंिा
तछलता था। आने और जाने के मागष अलग थे, किर में आि घिंटे के बाद भीतर
जाने का अवसर ममला। जयदे व सजावट दे ख-दे खकर लोट-पोट ु ए जाते थे, पर
मुझे ऐसा मालम
ू ोता था कक इस बनावट और सजावट के मेले में कृष्ण की
आतमा क ीिं खो गई ै । उनकी व रतनजहटत, बबजली से जगमगाती मतू तष
दे खकर मेरे मन में ग्लातन उतपन्न ु ई। इस रुप में भी प्रेम का तनवास ो
सकता ै ? मैंने तो रतनों में दपष और अ िं कार ी भरा दे खा ै । मुझे उस वक्त
य ी याद न र ी, कक य एक करोड़पतत सेठ का मिंहदर ै और िनी मनुष्य िन
में लोटने वाले ईश्वर ी की कल्पना कर सकता ै । िनी ईश्वर में ी उसकी
श्रद्धा ो सकती ै । त्जसके पास िन न ीिं, व उसकी दया का पात्र ो सकता ै,
श्रद्धा का कदावप न ीिं।
मत्न्दर में जयदे व को सभी जानते ैं। उन् ें तो सभी जग सभी जानते ैं।
मिंहदन के ऑ िंगन में सिंगीत-मिंडली बैठी ु ई थी। केलकर जी अपने गिंिवष-
ववद्यालय के मशष्यों के साथ तम्बरू ा मलये बैठे थे। पखावज, मसतार, सरोद, वीणा
और जाने कौन-कौन बाजे, त्जनके नाम भी मैं न ीिं जानता, उनके मशष्यों के पास
थे। कोई गत बजाने की तैयारी ो र ी थी। जयदे व को दे खते ी केलकर जी ने
पक ु ै ल में जा बैठा। एक क्षण में गत शुरु ु ई। सम ॉँ बाँि गया।
ु ारा! मै भी ति
शत्रु-भाव जैसे मन से ममट गया था। त्जन-त्जन प्राखणयों से मेरा बैर-भाव था,
त्जनसे गाली-गलौज, मार-पीट मक
ु दमाबाजी सब कुछ ो चक
ु ी थी, व सभी जेसे
मेरे गले में मलपट-मलपटकर ाँ स र े थे। किर ववद्या (पतनी) की मूततष मेरे
सामनरे आ खड़ी ु ई-व मूततष त्जसे दस साल प ले मैंने दे खा था-उन ऑ िंखों में
व ी ववकल कम्पन था, व ीिं सिंहदग्ि ववश्वास, कपोलों पर व ी लज्जा-लामलमा,
जैसे प्रेम सरोवर से तनकला ु आ कोई कमल पुष्प ो। व ी अनुराग, व ी आवेश,
व ी याचना-भरी उतसक
ु ता, त्जसमें मैंने उस न भल
ू ने वाली रात को उसका
स्वागत ककया था, एक बार किर मरे हृदय में जाग उठी। मिुर स्मतृ तयों का जैसे
स्रोत-सा खुल गया। जी ऐसा तडृपा कक इसी समय जाकर ववद्या के चरणों पर
मसर रगड़कर रोऊाँ और रोते-रोते बेसुि ो जाऊाँ। मेरी ऑ िंखें सजल ो गई। मेरे
माँु से जो कटु शब्द तनकले थे, व सब जैसे ी हृदय में गड़ने लगे। इसी दशा
में , जैसे ममतामयी माता ने आकर मुझे गोद में उठा मलया। बालपन में त्जस
वातसल्य का आनिंद उठाने की मझ
ु में शत्क्त न थीिं, व आनिंद आज मैंन उठाया।
गाना बन्द ो गया। सब लोग उठ-उठकर जाने लगे। मैं कल्पना-सागर में ी
डूबा र ा।
ववलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब ै कक उसके सामान म ाँगे ोते ैं। जब तक
कम-से-कम एक सैंकड़ा न खचष कीत्जए, खखलाडड़यों में शुमार ी न ीिं ो पाता।
य ॉँ गुल्ली-डिंडा ै कक बना रष -किटकरी के चोखा रिं ग दे ता ै ; पर म अाँगरे जी
चीजों के पीछे ऐसे दीवाने ो र े ैं कक अपनी सभी चीजों से अरूधच ो गई।
स्कूलों में रे क लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की िीस ली जाती
ै । ककसी को य न ीिं सूझता कक भारतीय खेल खखलाऍ िं, जो बबना दाम-कौड़ी के
खेले जाते ैं। अाँगरे जी खेल उनके मलए ैं , त्जनके पास िन ै । गरीब लड़कों के
मसर क्यों य व्यसन मढ़ते ो? ठीक ै , गुल्ली से ऑ िंख िूट जाने का भय र ता
ॉँ टूट जाने का भय
ै , तो क्या कक्रकेट से मसर िूट जाने, ततल्ली िट जाने, ट ग
न ीिं र ता! अगर मारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना ु आ ै , तो मारे
कई दोस्त ऐसे भी ैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। य अपनी-अपनी रूधच
ै । मुझे गुल्ली की सब खेलों से अच्छी लगती ै और बचपन की मीठी स्मतृ तयों
में गल्
ु ली ी सबसे मीठी ै।
मेरे मजोमलयों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा
ु ला, बिंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली उाँ गमलय ,ॉँ बिंदरों की-सी
ोगा। दब
चपलता, व ी झल्ला ट। गुल्ली कैसी ी ो, पर इस तर लपकता था, जैसे
तछपकली कीड़ों पर लपकती ॉँ
ै । मालूम न ीिं, उसके म -बाप थे या न ीिं, क ॉँ र ता
था, क्या खाता था; पर था मारे गल्
ु ली-कल्ब का चैत्म्पयन। त्जसकी तरि व आ
जाए, उसकी जीत तनत्श्चत थी। म सब उसे दरू से आते दे ख, उसका दौड़कर
स्वागत करते थे और अपना गोइय ॉँ बना लेते थे।
एक हदन मैं और गया दो ी खेल र े थे। व पदा र ा था। मैं पद र ा था,
मगर कुछ ववधचत्र बात ै कक पदाने में म हदन-भर मस्त र सकते ै ; पदना
एक ममनट का भी अखरता ै । मैंने गला छुड़ाने के मलए सब चालें चलीिं, जो ऐसे
अवसर पर शास्त्र-ववह त न ोने पर भी क्षम्य ैं, लेककन गया अपना द वॉँ मलए
बगैर मेरा वपिंड न छोड़ता था।
मैं घर की ओर भागा। अननुय-ववनय का कोई असर न ु आ था।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ मलया और डिंडा तानकर बोला-मेरा द वॉँ दे कर जाओ।
पदाया तो बड़े ब ादरु बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते ो।
‘घर कैसे जाओगे; कोई हदल्लगी ै । द वॉँ हदया ै , द वॉँ लें गे।‘
ॉँ
‘अमरूद तुमने हदया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे म गने न गया था।‘
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर ै । आखखर मैंने ककसी स्वाथष से ी उसे अमरूद
खखलाया ोगा। कौन तन:स्वाथष ककसी के साथ सलूक करता ै । मभक्षा तक तो
स्वाथष के मलए दे ते ु से द वॉँ लेने
ैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो किर उसे मझ
का क्या अधिकार ै ? ररश्वत दे कर तो लोग खन
ू पचा जाते ैं, य मेरा अमरूद
यों ी ॉँ
जम कर जाएगा? अमरूद पैसे के प चवाले थे, जो गया के बाप को भी
नसीब न ोंगे। य सरासर अन्याय था।
पीठ पर डिंडा जमा हदया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर
सका। मैंने तुरन्त ऑ िंसू पोंछ डाले, डिंडे की चोट भूल गया और ाँसता ु आ घर जा
प ु ाँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के ाथों वपट गया, य
मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम आ; लेककन घर में ककसी से मशकायत
न की।
उन् ीिं हदनों वपताजी का व ॉँ से तबादला ो गया। नई दतु नया दे खने की खुशी में
ऐसा िूला कक अपने मजोमलयों से बबछुड़ जाने का बबलकुल द:ु ख न ु आ।
वपताजी द:ु खी थे। व बड़ी आमदनी की जग ॉँ भी द:ु खी थीिं य ॉँ
थी। अम्म जी
सब चीज सस्ती थीिं, और मु ल्ले की त्स्त्रयों से घराव-सा ो गया था, लेककन मैं
सारे खुशी के िूला न समाता था। लड़कों में जीट उड़ा र ा था, व ॉँ ऐसे घर थोड़े
ी ोते ैं। ऐसे-ऐसे ऊाँचे घर ैं कक आसमान से बातें करते ैं। व ॉँ के अाँगरे जी
स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे , तो उसे जे ल ो जाए। मेरे ममत्रों की िैली
बीस साल गुजर गए। मैंने इिंजीतनयरी पास की और उसी त्जले का दौरा करता
स सा एक खल
ु ी जग में मैंने दो-तीन लड़कों को गल्
ु ली-डिंडा खेलते दे खा। एक
क्षण के मलए मैं अपने का बबल्कुल भूल गया। भूल गया कक मैं एक ऊाँचा
अिसर ू ाँ , सा बी ठाठ में , रौब और अधिकार के आवरण में जाकर एक लड़के से
पूछा-क्यों बेटे, य ॉँ कोई गया नाम का आदमी र ता ै?
‘ ,ॉँ ै तो।‘
ॉँ
लड़का दौड़ता ु आ गया और एक क्षण में एक प च ाथ काले दे व को साथ मलए
आता हदखाई हदया। मैं दरू से ी प चान गया। उसकी ओर लपकना चा ता था
कक उसके गले मलपट जाऊाँ, पर कुछ सोचकर र गया। बोला-क ो गया, मुझे
प चानते ो?
‘ब ु त मजे में । तम
ु अपनी क ा।‘
‘मतई तो मर गया, दग
ु ाष और मो न दोनों डाककया ो गए ैं। आप?’
‘आओ, आज म-तुम खेलें। तुम पदाना, म पदें गे। तुम् ारा एक द वॉँ मारे ऊपर
ै। व आज ले लो।‘
गया झेंपता ु आ बोला-मैं आपको याद करता जूर, ककस लायक ू ाँ। भाग में
आपके साथ कुछ हदन खेलना बदा था; न ीिं मेरी क्या धगनती?
मैंने कुछ उदास ोकर क ा-लेककन मुझे तो बराबर, तुम् ारी याद आती थी।
तुम् ारा व डिंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद ै न?
इतनी दे र में म बस्ती से कोई तीन मील तनकल आये। चारों तरि सन्नाटा ै।
पत्श्चम ओर कोसों तक भीमताल िैला ु आ ै , ज ॉँ आकर म ककसी समय
कमल पष्ु प तोड़ ले जाते थे और उसके झम
ू क बनाकर कानों में डाल लेते थे।
जेठ की सिंध्या केसर में डूबी चली आ र ी ै । मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया
और एक ट नी काट लाया। चटपट गुल्ली-डिंडा बन गया। खेल शुरू ो गया। मैंने
गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से तनकल गई। उसने
ाथ लपकाया, जैसे मछली पकड़ र ा ो। गुल्ली उसके पीछे जाकर धगरी। य
व ी गया ै , त्जसके थों में गल्
ु ली जैसे आप ी आकर बैठ जाती थी। व दा ने-
बाऍ िं क ीिं ो, गल्
ु ली उसकी थेली में ी प ू ाँचती थी। जैसे गत्ु ल्लयों पर वशीकरण
डाल दे ता ो। नयी गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली,
सपाट गुल्ली सभी उससे ममल जाती थी। जैसे उसके ाथों में कोई चुम्बक ो,
गुत्ल्लयों को खीिंच लेता ो; लेककन आज गुल्ली को उससे व प्रेम न ीिं र ा। किर
तो मैंने पदाना शुरू ककया। मैं तर -तर ॉँ
की ि िमलय ॉँ कर र ा था। अभ्यास की
ॉँ
आि घिंटे पदाने के बाद एक गुल्ली डिंडे में आ लगी। मैंने ि िली की-गुल्ली डिंडे
में न ीिं लगी। बबल्कुल पास से गई; लेककन लगी न ीिं।
‘न लगी ोगी।‘
‘न ीिं भैया, तम
ु भला बेईमानी करोगे?’
बचपन में मजाल था कक मैं ऐसा घपला करके जीता बचता! य ी गया गदष न पर
चढ़ बैठता, लेककन आज मैं उसे ककतनी आसानी से िोखा हदए चला जाता था।
गिा ै ! सारी बातें भल
ू गया।
मेरे मख
ु से य वाक्य उस समय कैसे तनकला, इसका मझ
ु े खद
ु आश्चयष ै । इस
सतय को झठ
ु लाना वैसा ी था, जैसे हदन को रात बताना। म दोनों ने गल्
ु ली
को डिंडे में जोर से लगते दे खा था; लेककन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर मलया।
‘ ,ॉँ ककसी ईंट में ी लगी ोगी। डिंडे में लगती तो इतनी आवाज न आती।‘
ॉँ
मैंने किर पदाना शुरू कर हदया; लेककन इतनी प्रतयक्ष ि िली कर लेने के बाद
गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी; इसीमलए जब तीसरी बार गुल्ली डिंडे
में लगी, तो मैंने बड़ी
उदारता से द वॉँ दे ना तय कर मलया।
मैंने सोचा, कल ब ु त-सा समय ोगा, य न जाने ककतनी दे र पदाए, इसमलए इसी
वक्त मुआमला साि कर लेना अच्छा ोगा।
‘गल्
ु ली सझ
ू ग
े ी न ीिं।‘
गया ने पदाना शुरू ककया; पर उसे अब बबलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार
ट डॉँ लगाने का इरादा ककया; पर दोनों ी बार ु च गया। एक ममतनट से कम में
व द वॉँ खो बैठा।
मैंने अपनी हृदय की ववशालता का पररश्च हदया।
‘तम्
ु ारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते न ीिं?’
ज्योति
उसी मु ल्ले में उसकी बबरादरी में , ककतनी ी औरतें थीिं, जो उससे जेठी ोने पर
भी ग ने झमकाकर, आाँखों में काजल लगाकर, मााँग में सेंदरु की मोटी-सी रे खा
डालकर मानो उसे जलाया करती थीिं, इसमलए अब उनमें से कोई वविवा ो
जाती, तो बट
ू ी को खश
ु ी ोती और य सारी जलन व लड़कों पर तनकालती,
ववशेर्कर मो न पर। व शायद सारे सिंसार की त्स्त्रयों को अपने ी रूप में
दे खना चा ती थी। कुतसा में उसे ववशेर् आनिंद ममलता था। उसकी विंधचत लालसा,
जल न पाकर ओस चाट लेने में ी सिंतुष्ट ोती थी; किर य कैसे सिंभव था कक
व मो न के ववर्य में कुछ सुने और पेट में डाल ले। ज्यों ी मो न सिंध्या समय
दि
ू बेचकर घर आया बट
ू ी ने क ा-दे खती ू ाँ , तू अब सााँड़ बनने पर उतारू ो गया
ै।
मो न ने ववद्रो का भाव िारण ककया-अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान मााँगे
तो क्या करता ? क ता कक पैसे दे , तो लाऊाँगा ? अपनी िोती राँ गने को दी, उससे
राँ गाई मािंगता ?
‘मु ल्ले में एक तू ी िन्नासेठ ै ! और ककसी से उसने क्यों न क ा?’
बूटी जल उठी। उसे बुहढ़या क दे ना उसकी सारी सािना पर पानी िेर दे ना था।
बुढ़ापे में उन सािनों का म ततव ी क्या ? त्जस तयाग-कल्पना के बल पर व
त्स्त्रयों के सामने मसर उठाकर चलती थी, उस पर इतना कुठाराघात ! इन् ीिं लड़कों
के पीछे उसने अपनी जवानी िूल में ममला दी। उसके आदमी को मरे आज पााँच
साल ु ए। तब उसकी चढ़ती जवानी थी। तीन बच्चे भगवान ् ने उसके गले मढ़
हदए, न ीिं अभी व ै कै हदन की। चा ती तो आज व भी ओठ लाल ककए, पााँव
में म ावर लगाए, अनवट-बबछुए प ने मटकती किरती। य सब कुछ उसने इन
लड़कों के कारण तयाग हदया और आज मो न उसे बुहढ़या क ता ै ! रुवपया
उसके सामने खड़ी कर दी जाए, तो चुह या-सी लगे। किर भी व जवान ै , आ ैर
बूटी बुहढ़या ै!
बोली- ााँ और क्या। मेरे मलए तो अब िटे चीथड़े प नने के हदन ैं । जब तेरा
बाप मरा तो मैं रुवपया से दो ी चार साल बड़ी थी। उस वक्त कोई घर लेती
तो, तुम लोगों का क ीिं पता न लगता। गली-गली भीख मााँगते किरते। लेककन मैं
क दे ती ू ाँ, अगर तू किर उससे बोला तो या तो तू ी घर में र े गा या मैं ी
र ू ाँगी।
‘कैसी बात ?’
‘सगाई की।’
मो न ने व्यधथत किंठ में क ा,अम्मााँ, ईश्वर के मलए चुप र ो। क्यों अपना पानी
आप खो र ी ो। मैंने तो समझा था, चार हदन में मैना अपने घर चली जाएगी,
तम
ु अकेली पड़ जाओगी। इसमलए उसे लाने की बात सोच र ा था। अगर तम्
ु ें
बुरा लगता ै तो जाने दो।
‘मझ
ु पर तझ
ु े इतना सन्दे ै ?’
‘ ााँ !’
उन कोमाल उिं गमलयों के स्पशष में क्या मसद्तघ थी, कौन जाने। मो न की सारी
आतमा उन्मतत ो उठी। उसके प्राण मानो बा र तनकलकर रुवपया के चरणों में
समवपषत ो जाने के मलए उछल पड़े। दे वी वरदान के मलए सामने खड़ी ै । सारा
ववश्व जैसे नाच र ा ै । उसे मालम
ू ु आ जैसे उसका शरीर लप्ु त ो गया ै,
केवल व एक मिुर स्वर की भााँतत ववश्व की गोद में धचपटा ु आ उसके साथ
नतृ य कर र ा ै।
मो न बोला- ााँ, जरा नीिंद आ गई थी रूपा। तुम इस वक्त क्या करने आयीिं? क ीिं
अम्मा दे ख लें , तो मझ
ु े मार ी डालें ।
‘क्या क ती थीिं?’
‘अब उनकी बात क्या क ू ाँ रूपा? व ककसी का खाना-प नना न ीिं दे ख सकतीिं।
अब मझ
ु े तम
ु से दरू र ना पड़ेगा।’
मेरा जी तो न मानेगा।’
‘तम
ु मेरे पास एक बार रोज आया करो। बस, और मैं कुछ न ीिं चा ती।’
‘मेरा बस ोता, तो तम
ु को अपने परान में रख लेता।’
मो न दस
ू रे हदन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनिंद का सागर-सा भरा ु आ
था। व सो न को बराबर डााँटता र ता था। सो न आलसी था। घर के काम-ििंिे
में जी न लगाता था। मो न को दे खते ी व साबुन तछपाकर भाग जाने का
अवसर खोजने लगा।
सो न ने पगह या मो न को दे कर किर पछ
ू ा-तम्
ु ारे मलए धचलम रख लाऊाँ ?
जीवन में आज प ली बार सो न ने भाई के प्रतत ऐसा सद्भाव प्रकट ककया था।
इसमें क्या र स्य ै, य मो न की समझ में न ीिं आया। बोला-आग ो तो रख
आओ।
मैना मसर के बाल खेले आाँगन में बैठी घरौंदा बना र ी थी। मो न को दे खते ी
उसने घरौंदा बबगाड़ हदया और अिंचल से बाल तछपाकर रसोईिर में बरतन उठाने
चली।
मैना का रुआिंसा चे रा खखल उठा। प्रेम के शब्द में ककतना जाद ू ै ! माँु से
तनकलते ी जैसे सग
ु िंि िैल गई। त्जसने सन
ु ा, उसका हृदय खखल उठा। ज ााँ भय
था, व ााँ ववश्वास चमक उठा। ज ााँ कटुता थी, व ााँ अपनापा छलक पड़ा। चारों
ओर चेतनता दौड़ गई। क ीिं आलस्य न ीिं , क ीिं खखन्नता न ीिं। मो न का हृदय
आज प्रेम से भरा ु आ ै । उसमें सग
ु िंि का ववकर्षण ो र ा ै।
मैना घरौंदा बनाने बैठ गई।
मैना का मन आकाश में उड़ने लगा। जब भैया पानी मााँगे, तो व लोटे को राख
से खब
ू चमाचम करके पानी ले जाएगी।
‘अम्मााँ पैसे न ीिं दे तीिं। गुड्डा तो ठीक ो गया ै । टीका कैसे भेजाँू?’
उसी वक्त बट
ू ी गोबर का झााँवा मलये आ प ुिं ची। मो न को खड़े दे खकर कठोर
स्वर में बोली-अभी तक मटरगस्ती ी ो र ी ै । भैंस कब द ु ी जाएगी?
आज बट
ू ी को मो न ने ववद्रो -भरा जवाब न हदया। जैसे उसके मन में मािय
ु ष
का कोई सोता-सा खल
ु गया ो। माता को गोबर का बोझ मलये दे खकर उसने
झााँवा उसके मसर से उतार मलया।
‘तुम इतना भारी बोझ क्यों उठा लेती ो, मुझे क्यों न ीिं बुजला लेतीिं?’
‘और दि
ू कौन द ु े गा ?’
‘व भी मैं करूाँगा !’
आज मो न बाजार से दि
ू प ु ाँचाकर लौटा, तो पान, कतथा, सुपारी, एक छोटा-सा
पानदान और थोड़ी-सी ममठाई लाया। बूटी बबगड़कर बोली-आज पैसे क ीिं िालतू
ममल गए थे क्या ? इस तर उड़ावेगा तो कै हदन तनबा ोगा?
‘मैंने तो एक पैसा भी न ीिं उड़ाया अम्मााँ। प ले मैं समझता था, तम
ु पान खातीिं
ी न ीिं।
‘ ााँ, और क्या! त्जसके दो-दो जवान बेटे ों, क्या व इतना शौक भी न करे ?’
बट
ू ी के सख
ू े कठोर हृदय में क ीिं से कुछ ररयाली तनकल आई, एक नन् ी-सी
कोंपल थी; उसके अिंदर ककतना रस था। उसने मैना और सो न को एक-एक
ममठाई दे दी और एक मो न को दे ने लगी।
‘तुम् ें खाते दे खकर मुझे जो आनिंद ममलता ै । उसमें ममठास से ज्यादा स्वाद ै ।’
कल बूटी ने साि क हदया ोता, मेरी रस्सी गााँव-भर के मलए न ीिं ै । रस्सी टूट
गई ै तो बनवा लो। आज उसने ितनया को रस्सी तनकालकर प्रसन्न मुख से दे
दी और सद्भाव से पूछा-लड़के के दस्त बिंद ु ए कक न ीिं ितनया ?
‘अब क्या जाने काकी, कौन जाने ककसी की आाँख िूटी ो?’
‘त्जसने चुमकारकर बुलाया, झट उसकी गोद में चला जाता ै । ऐसा ाँसता ै कक
तम
ु से क्या क ू ाँ!’
ितनया पानी लेकर आयी, तो बूटी उसके साथ बच्चे को दे खने चली।
‘रुवपया!’
‘तू उसके गुन अभी न ीिं जानती ितनया। पान के मलए पैसे क ााँ से आते ैं ?
ककनारदार साडड़यााँ क ााँ से आती ैं ?’
‘मैं इन बातो में न ीिं पड़ती काकी! किर शौक-मसिंगार करने को ककसका जी न ीिं
चा ता ? खाने-प नने की य ी तो उममर ै ।’
‘तुम इतनी भलीमानस ो, और य ााँ लोग क ते थे, व बबना गाली के बात न ीिं
करती। मारे डर के तम्
ु ारे पास न आयी।’
बूटी मुस्कारायी।
आज रुवपया बट
ू ी को बड़ी सन्
ु दर लगी। ठीक तो ै , अभी शौक-मसिंगार न करे गी
तो कब करे गी? शौक-मसिंगार इसमलए बुरा लगता ै कक ऐसे आदमी अपने भोग-
ववलास में मस्त र ते ैं। ककसी के घर में आग लग जाए, उनसे मतलब न ीिं।
उनका काम तो खाली दस
ू रों को ररझाना ै । जैसे अपने रूप की दक
ू ान सजाए,
रा -चलतों को बुलाती ों कक जरा इस दक
ू ान की सैर भी करते जाइए। ऐसे
उपकारी प्राखणयों का मसिंगार बरु ा न ीिं लगता। न ीिं, बत्ल्क और अच्छा लगता ै।
इससे मालम
ू ोता ै कक इसका रूप त्जतना सन्
ु दर ै , उतना ी मन भी सन्
ु दर
ै ; किर कौन न ीिं चा ता कक लोग उनके रूप की बखान करें । ककसे दस
ू रों की
आाँखों में छुप जाने की लालसा न ीिं ोती ? बूटी का यौवन कब का ववदा ो
चुका; किर भी य लालसा उसे बनी ु ई ै । कोई उसे रस-भरी आाँखों से दे ख लेता
ै , तो उसका मन ककतना प्रसन्न ो जाता ै । जमीन पर पााँव न ीिं पड़ते। किर
रूपा तो अभी जवान ै।
बूटी ने मीठे ततरस्कार से क ा-चल, मैं तेरी मााँ की सौत बनकर जाऊाँगी ?
त्जस वीर तुकों के प्रखर प्रताप से ईसाई दतु नया कौप र ी थी , उन् ीिं का रक्त
आज कुस्तुनतुतनया की गमलयों में ब र ा ै । व ी कुस्तुनतुतनया जो सौ साल
प ले तुको के आिंतक से रा त ो र ा था, आज उनके गमष रक्त से अपना
कलेजा ठण्डा कर र ा ै । और तुकस सेनापतत एक लाख मसपाह यों के साथ तैमूरी
तेज के सामने अपनी ककस्मत का िैसला सुनने के मलए खडा ै।
तम
ु क ते ो, खद
ु ा ने तम्
ु ें ऐश करने के मलए पैदा ककया ै। मैं क ता ू , य
कुि ै । खुदा ने इनसान
् को बन्दगी के मलए पैदा ककया ै और इसके खखलाि
जो कोई कुछ करता ै, व कावपर ै , ज न्नुमी रसूलेपाक मारी त्जन्दगी को
पाक करने के मलए, में सच्चा इन्सान बनाने के मलए आये थे, में रा की
तालीम दे ने न ीिं। तैमूर दतु नया को इस कुि से पाक कर दे ने का बीडा उठा चुका
ै । रसल
ू ेपाक के कदमों की कसम, मैं बेर म न ीिं ू जामलम न ीिं ू , खख
ू ार न ीिं
ू , लेककन कुि की सजा मेरे ईमान में मौत के मसवा कुछ न ीिं ै।
उसने तातारी मसप सालार की तरि काततल नजरों से दे खा और ततक्षण एक
दे व-सा आदमी तलवार सौतकर यजदानी के मसर पर आ प ु चा। तातारी सेना भी
मलवारें खीच-खीचकर तुकस सेना पर टूट पडी और दम-के-दम में ककतनी ी लाशें
जमीन पर िडकने लगीिं।
स सा व ी रूपवान यव
ु क, जो यजदानी के पीछे खडा था, आगे बढकर तैमरू के
सामने आया और जैसे मौत को अपनी दोनों बिी ु ई मुहटठयों में मसलता ु आ
बोला-ऐ अपने को मुसलमान क ने वाले बादशा । क्या य ी व इस्लाम की य ी
तालीम ै कक तू उन ब ादरु ों का इस बेददी से खून ब ाए, त्जन् ोनें इसके मसवा
कोई गुना न ीिं ककया कक अपने खलीिा और मुल्कों की ह मायत की?
चारों तरि सन्नाटा छा गया। एक युवक, त्जसकी अभी मसें भी न भीगी थी;
तैमूर जैसे तेजस्वी बादशा का इतने खुले ु ए शब्दों में ततरस्कार करे और
उसकी जबान तालू से खखचवा ली जाए। सभी स्तत्म्भत ो र े थे और तैमूर
सम्मोह त-सा बैठा , उस यव
ु क की ओर ताक र ा था।
युवक ने तातारी मसपाह यों की तरि, त्जनके चे रों पर कुतू लमय प्रोतसा न
झलक र ा था, दे खा और बोला-तू इन मुसलमानों को कावपर क ता ै और
समझाता ै कक तू इन् ें कतल करके खद
ु ा और इस्लाम की खखदमत कर र ा ै ?
मैं तुमसे पूछता ू , अगर व लोग जो खुदा के मसवा और ककसी के सामने
मसजदा न ीिं करतें , जो रसूलेपाक को अपना र बर समझते ैं , मुसलमान न ीिं ै
तो कौन मुसलमान ैं ?मैं क ता ू , म कावपर स ी लेककन तेरे तो ैं क्या
इस्लाम जिंजीरों में बिंिे ु ए कैहदयों के कतल की इजाजत दे ता ै खुदाने अगर
तूझे ताकत दी ै , अख्त् तयार हदया ै तो क्या इसीमलए कक तू खुदा के बन्दों
का खन
ू ब ाए क्या गन
ु ा गारों को कतल करके तू उन् ें सीिे रास्ते पर ले
जाएगा। तूने ककतनी बे रमी से सततर जार ब ादरु तुको को िोखा दे कर सुरिंग
से उडवा हदया और उनके मासम
ू बच्चों और तनपराि त्स्त्रयों को अनाथ कर
हदया, तूझे कुछ अनुमान ै । क्या य ी कारनामे ै , त्जन पर तू अपने मुसलमान
ोने का गवष करता ै । क्या इसी कतल, खन
ू और ब ते दररया में अपने घोडों के
सम
ु न ीिं मभगोए ैं, बल्त् क इस्लाम को जड से खोदकर पेक हदया ै। य वीर
तूको का ी आतमोतसगष ै , त्जसने यूरोप में इस्लाम की तौ ीद िैलाई। आज
सोवपया के धगरजे में तूझे अल्ला -अकबर की सदा सुनाई दे र ी ै , सारा यूरोप
इस्लाम का स्वागत करने को तैयार ै । क्या य कारनामे इसी लायक ैं कक
उनका य इनाम ममले। इस खयाल को हदल से तनकाल दे कक तू खूरेजी से
इस्लाम की खखदमत कर र ा ै । एक हदन तझ
ू े भी परवरहदगार के सामने कमो
का जवाब दे ना पडेगा और तेरा कोई उज्र न सन
ु ा जाएगा, क्योंकक अगर तझ
ू में
अब भी नेक और बद की कमीज बाकी ै , तो अपने हदल से पूछ। तूने य
त्ज ाद खुदा की रा में ककया या अपनी ववस के मलए और मैं जानता ू , तूझे
जसे जवाब ममलेगा, व तेरी गदष न शमष से झुका दे गा।
खलीिा अभी मसर झुकाए ी थी की यजदानी ने कापते ु ए शब्दों में अजष की-
ज ापना , य गुलाम का लडका ै । इसके हदमाग में कुछ वपतूर ै । ु जूर इसकी
गुस्ताखखयों को मुआि करें । मैं उसकी सजा झेलने को तैयार ू ाँ।
तैमूर ने उसे खीचकर अपनी बगल के तख्त पर बबठा हदया और अपने सेनापतत
को ु क्म हदया, सारे तुकष कैदी छोड हदये जाए उनके धथयार वापस कर हदये
जाए और जो माल लट
ू ा गया ै, व मसपाह यों में बराबर बाट हदया जाए।
वजीर तो इिर इस ु क्म की तामील करने लगा, उिर तैमूर बीब का ाथ पकडे
ु ए अपने खीमें में गया और दोनों मे मानों की दावत का प्रबन्ि करने लगा।
और जब भोजन समाप्त ो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथा रो-रोकर
क सुनाई, जो आहद से अिंत तक ममधश्रत पशुता और बबषरता के कतयों से भरी
अिंत में उसने बीब से क ा- मेरे जवान दोस्त अब मेरा बेडा आप ी पार लगा
सकते ैं। आपने रा हदखाई ै तो मिंत्जल पर प ु चाइए। मेरी बादशा त को अब
आप ी सिंभाल सकते ैं। मूझे अब मालूम ो गया कक मैं उसे तबा ी के रास्ते
पर मलए जाता था। मेरी आपसे य ी इल्तमास (प्राथषना) ै कक आप उसकी
वजारत कबूल करें । दे खखए , खुदा के मलए इन्कार न कीत्जएगा, वरना मैं क ीिं का
न ीिं र ू गा।
यजदानी ने अरज की- ु जूर इतनी कदरदानी िरमाते ैं, तो आपकी इनायत ै,
लेककन अभी इस लडके की उम्र ी क्या ै । वजारत की खखदमत य क्या अिंजाम
दे सकेगा। अभी तो इसकी तालीम के हदन ै।
बीब यजदानी का लडका न ीिं लडकी थी। उसका नाम उम्मतुल बीब था। त्जस
वक्त यजदानी और उसकी पतनी मस
ु लमान ु ए, तो लडकी की उम्र कुल बार
साल की थी, पर प्रकतत ने उसे बद
ु ी और प्रततभा के साथ ववचार-स्वातिंस्य भी
प्रदान ककया था। व जब तक सतयासतय की परीक्षा न कर लेती, कोई बात
स्वीकार न करती। मािं-बाप के िमष-पररवतषन से उसे अशािंतत तो ु ई, पर जब तक
इस्लाम की दीक्षा न ले सकती थी। मािं-बाप भी उस पर ककसी तर का दबाब न
डालना चा ते थे। जैसे उन् ें अपने िमष को बदल दे ने का अधिकार ै , वैसे ी उसे
अपने िमष पर आरूढ र ने का भी अधिकार ै । लडकी को सिंतोर् ु आ, लेककन
उसने इस्लाम और जरथुश्त िमष-दोनों ी का तुलनातमक अध्ययन आरिं भ ककया
और पूरे दो साल के अन्वेर्ण और परीक्षण के बाद उसने भी इस्लाम की दीक्षा
ले ली। माता-वपता िूले न समाए। लड़की उनके दबाव से मस
ु लमान न ीिं ु ई ै,
बल्त् क स्वेच्छा से, स्वाध्याय से और ईमान से। दो साल तक उन् ें जो शिंका घेरे
र ती थी , व ममट गई।
यजदानी के कोई पत्र
ु न था और उस यग
ु में जब कक आदमी की तलवार ी
सबसे बड़ी अदालत थी, पत्र
ु का न र ना सिंसार का सबसे बड़ा दभ
ु ाषग्य था।
यजदानी बेटे का अरमान बेटी से पूरा करने लगा। लड़कों ी की भातत उसकी
मशक्षा-दीक्षा ोने लगी। व बालकों के से कपड़े प नती, घोड़े पर सवार ोती,
शस्त्र-वविा सीखती और अपने बाप के साथ अक्सर खलीिा बायजीद के म लों
में जाती और राजकुमारी के साथ मशकार खेलने जाती। इसके साथ ी व दशषन,
काव्य, ववज्ञान और अध्यातम का भी अभ्यास करती थी। य ािं तक कक सोल वें
वर्ष में व िौजी वविालय में दाखखल ो गई और दो साल के अन्दर व ा की
सबसे ऊची परीक्षा पारा करके िौज में नौकर ो गई। शस्त्र-वविा और सेना-
सिंचालन कला में इतनी तनपुण थी और खलीिा बायजीद उसके चररत्र से इतना
प्रसन्न था कक प ले ी प ल उसे एक जारी मन्सब ममल गया।
ऐसी युवती के चा नेवालों की क्या कमी। उसके साथ के ककतने ी अिसर, राज
पररवार के के ककतश्ने ी युवक उस पर प्राण दे ते थे , पर कोई उसकी नजरों में
न जाचता था। तनतय ी तनका के पैगाम आते थे , पर व मेशा इिंकार कर
दे ती थी। वैवाह क जीवन ी से उसे अरूधच थी। कक युवततयािं ककतने अरमानों से
व्या कर लायी जाती ैं और वपर ककतने तनरादर से म लों में बन्द कर दी
जाती ै । उनका भाग्य पुरूर्ों की दया के अिीन ै।
यिवप एक युवती का पुरूर् वेर् में र ना, युवकों से ममलना-जुलने , समाज में
आलोचना का ववर्य था, पर यजदानी और उसकी स्त्री दोनों ी को उसके सतीतव
पर ववश्वास था, बीब के व्यव ार और आचार में उन् ें कोई ऐसी बात नजर न
आती थी, त्जससे उष्न् ें ककसी तर की शिंका ोती। यौवन की आिी और
लालसाओिं के तूिान में व चौबीस वर्ो की वीरबाला अपने दय की सम्पतत
मलए अटल और अजेय खड़ी थी , मानों सभी युवक उसके सगे भाई ैं।
कुस्तुनततु नया में ककतनी खमु शयािं मनाई गई, वीब का ककतना सम्मान और
स्वागत ु आ, उसे ककतनी बिाईयािं ममली, य सब मलखने की बात न ीिं श र
तवा ु आ जाता था। सिंभव था आज उसके म लों और बाजारों से आग की
लपटें तनकलती ोतीिं। राज्य और नगर को उस कल्पनातीत ववपतत से बचानेवाला
आदमी ककतने आदर, प्रेम श्रद्वा और उल्लास का पात्र ोगा, इसकी तो कल्पना
भी न ीिं की जा सकती। उस पर ककतने िूलों और ककतश्ने लाल-जवा रों की वर्ाष
ु ई इसका अनम
ु ान तो कोई कवव ी कर सकता ै और नगर की मह लाए दय
के अक्षय भिंडार से असीसें तनकाल-तनकालकर उस पर लुटाती थी और गवष से
िूली ु ई उसका मु िं तन ारकर अपने को िन्य मानती थी। उसने दे ववयों का
मस्तक ऊचा कर हदया।
रात को तैमूर के प्रस्ताव पर ववचार ोने लगा। सामने गदे दार कुसी पर यजदानी
था- सौभ्य, ववशाल और तेजस्वी। उसकी दाह नी तरि सकी पतनी थी, ईरानी
मलबास में , आिंखों में दया और ववश्वास की ज्योतत भरे ु ए। बायीिं तरि उम्मुतुल
बीब थी, जो इस समय रमणी-वेर् में मोह नी बनी ु ई थी, ब्र चयष के तेज से
दीप्त।
इसी तर स्त्री-परू
ु र् बड़ी दे र तक ऊचिं -नीच सझ
ु ाते और तर -तर की शिंकाए
करते र ें लेककन बीब मौन सािे बैठी ु ई थी। यजदानी ने समझा , बीब भी
उनसे स मत ै । इनकार की सूचना दे ने के मलए ी थी कक बीब ने पूछा - आप
तैमूर से क्या क ें गे।
य ी जो य ा तय ु आ।
माता ने छाती पर ाथ रखकर क ा- य क्या गजब करती ै बेटी। सोच दतु नया
क्या क े गी।
यजदानी ने खुश ोकर बेटी को गले लगा मलया। उसकी स्त्री इतनी जल्द
आश्वस्त न ो सकी। व ककसी तर बेटी को अकेली न छोड़ेगी। उसके साथ
व जाएगी।
कई म ीने गुजर गए। युवक बीब तैमूर का वजीर ै , लेककन वास्तव में व ी
बादशा ै । तैमूर उसी की आखों से दे खता ै , उसी के कानों से सुनता ै और
उसी की अक्ल से सोचता ै। व चा ता ै , बीब आठों प र उसके पास
र े ।उसके सामीप्य में उसे स्वगष का-सा सख
ु ममलता ै । समरकिंद में एक प्राणी
भी ऐसा न ीिं, जो उससे जलता ो। उसके बताषव ने सभी को मग्ु ि कर मलया ै,
क्योंकक व इन्साि से जै-भर भी कदम न ीिं टाता। जो लोग उसके ाथों
चलती ु ई न्याय की चक्की में वपस जातें ै , वे भी उससे सदभाव ी रखते ै ,
क्योकक व न्याय को जरूरत से ज्यादा कटु न ीिं ोने दे ता।
तैमूर को जैसे कोई रतन ममल गया। उसे अपनी मनतुष्त् ट का आभास ु आ।
आदमी का सबसे बड़ा दश्ु मन गरूर ै इस वाक्य को मन- ी-मन दो रा कर उसने
क ा-तम
ु मेरे काबू में कभी न आओगें बीब। तम
ु व परिं द ो, जो आसमान में
ी उड़ सकता ै । उसे सोने के वपिंजड़े में भी रखना चा ो तो िड़िड़ाता र े गा।
खैर खुदा ावपज।
तैमूर मुस्कराया-मेरी जान की तुम् ारी जान के मुकाबले में कोई कीकत न ीिं ै
बीब।वपर मैने तो कभी जान की परवा न की। मैने दतु नया में कतल और लूट
के मसवा और क्या यादगार छोड़ी। मेरे मर जाने पर दतु नया मेरे नाम को रोएगी
न ी, यकीन मानों। मेरे जैसे लट
ु े रे मेशा पैदा ाते र े गें , लेककन खद
ु ा न करें ,
तम्
ु ारे दश्ु मनों को कुछ ो गया, तो य सल्तश्नत खाक में ममल जाएगी, और
तब मुझे भी सीने में खिंजन चुभा लेने के मसवा और कोई रास्ता न र े गा। मै
न ीिं क सकता बाब तुमसे मैने ककतना पाया। काश, दस-पाच साल प ले तुम
मुझे ममल जाते, तो तैमूर तवारीख में इतना रूमसया न ोता। आज अगर जरूरत
पड़े, तो मैं अपने जैसे सौ तैमरू ों को तम्
ु ारे ऊपर तनसार कर द।ू य ी समझ लो
कक मेरी रू को अपने साथ मलये जा र े ो। आज मै तम
ु से क ता ू बीब कक
मुझे तुमसे इश्क ै इसे मै अब जान पाया ूिं । मगर इसमें क्या बराई ै कक मै
भी तुम् ारें साथ चलू।
त्जस वक्त बीब िौज के साथ चला, तो सारा समरकिंद उसके साथ था और
तैमरू आखों पर रूमाल रखें , अपने तख्त पर ऐसा मसर झक
ु ाए बैठा था, मानों
कोई पक्षी आ त ो गया ो।
बीब को य ा आज दस
ू रा हदन ै पर इस समस्या को कैसे ल करे ।
दस
ू रे हदन बीब ने प्रात काल डिंके की चोट ऐलान कराया- जत्जया माि ककया
गया, शराब और घण्टों पर कोई कैद न ीिं ै।
मस
ु लमानों में त लका पड़ गया। य कुप्र ै , रामपरस्त ै । अमीन तैमरू ने
त्जस इस्लाम को अपने खन
ू से सीचािं , उसकी जड़ उन् ीिं के वजीर बीब पाशा
के ाथों खुद र ी ै , पासा पलट गया। शा ी िौज मुसलमानों से जा ममल। बीब
ने इस्तखर के ककले में पना ली। मुसलमानों की ताकत शा ी िौज के ममल
जाने से ब ुिं त बढ़ गई थी। उन् ोनें ककला घेर मलया और य समझकर कक बीब
ने तैमूर से बगावत की ै , तैमूर के पास इसकी सूचना दे ने और पररत्स्थतत
समझाने के मलए कामसद भेजा।
आिी रात गुजर चुकी थी। तैमूर को दो हदनों से इस्तखर की कोई खबर न
ममली थी। तर -तर की शिंकाए ो र ी थी। मन में पछतावा ो र ा था कक उसने
क्यों बीब को अकेला जाने हदया। माना कक व बड़ा नीततकुशल ै , पर बगावत
क ीिं जोर पकड़ गयी तो मट
ु टी -भर आदममयों से व क्या कर सकेगा।और
बगावत यकीनन जोर पकड़ेगी। व ा के ईसाई बला के सरकश ै । जब उन् ें
मालम ोगा कक तैमूर की तलवार में जगिं लग गया और उसे अब म लों की
त्जन्दगीिं पसन्द ै , तो उनकी ह म्मत दन
ू ी ो जाएगी। बीब क ीिं दश्ू मनों से तघर
गया, तो बड़ा गजब ो जाएगा।
तैमूर ने तयोररयािं चढ़ाकर पूछा- क्या खबर लाया ै । तीन हदन के बाद आया भी
तो इतनी रात गए।
ााँ खुदाविंद।
ककसने।
वजीर सा ब ने।
ू ाँ।
ू ाँ।
ू ाँ।
तो मै क्या करू।
कामसद तबद्
ु वव -सा खड़ा ी था कक बा र खतरे का बबगल
ु बज उठा और िौजें
ककसी समर-यात्रा की तैयारी करने लगी।
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तीसरे हदन तैमरू इस्तखर प ु चा, तो ककले का मु ासरा उठ चक
ु ा था। ककले की
तोपों ने उसका स्वागत ककया। बीब ने समझा, तैमरू ईसाईयों को सजा दे ने आ
र ा ै । ईसाइयों के ाथ-पाव िूले ु ए थे , मगर बीब मुकाबले के मलए तैयार
था। ईसाइयों के स्वप्न की रक्षा में यहद जान भी जाए, तो कोई गम न ी। इस
मुआमले पर ककसी तर का समझौता न ीिं ो सकता। तैमूर अगर तलवार से
काम लेना चा ता ै ,तो उसका जवाब तलवार से हदया जाएगा।
मगर य क्या बात ै । शा ी िौज सिेद झिंडा हदखा र ी ै । तैमूर लड़ने न ीिं
सुल करने आया ै । उसका स्वागत दस
ू री तर का ोगा। ईसाई सरदारों को
साथ मलए बीब ककले के बा र तनकला। तैमूर अकेला घोड़े पर सवार चला आ
र ा था। बीब घोड़े से उतरकर आदाब बजा लाया। तैमरू घोड़े से उतर पड़ा और
बीब का माथा चम
ू मलया और बोला-मैं सब सन
ु चक
ु ा ू बीब। तम
ु ने ब ु त
अच्छा ककया और व ी ककया जो तुम् ारे मसवा दस
ू रा न ीिं कर सकता था। मुझे
जत्जया लेने का या ईसाईयों से मज बी क छीनने का कोई मजाज न था। मै
आज दरबार करके इन बातों की तसदीक कर दग
ू ा और तब मै एक ऐसी तजवीज
बताऊगा ख ् जो कई हदन से मेरे जे न में आ र ी ै और मुझे उम्मीद ै कक
तम
ु उसे मिंजरू कर लोगें । मिंजरू करना पड़ेगा।
बीब के चे रे का रिं ग उड़ गया था। क ीिं कीकत खुल तो न ीिं गई। व क्या
तजवीज ै , उसके मन में खलबली पड़ गई।
बेशक-बेशक। तम
ु में िररश्तों का हदल ै ,तो शेरों की ह म्मत भी ै , लेककन
अिसोस य ी ै कक तुमने य गुमान ी क्यों ककया कक तैमूर तुम् ारे िैसले को
मिंसूख कर सकता ै। य तुम् ारी जात ै , त्जसने तुझे बतलाया ै कक सल्तनश्त
ककसी आदमी की जायदाद न ी बल्त् क एक ऐसा दरख्त ै , त्जसकी रे क शाख
और पती एक-सी खुराक पाती ै।
दोनों ककले में दाखखल ु ए। सरू ज डूब चूका था। आन-की-बान में दरबार लग
गया और उसमें तैमूर ने ईसाइयों के िाममषक अधिकारों को स्वीकार ककया।
चारों तरि से आवाज आई- खुदा मारे शा िं शा की उम्र दराज करे ।
मै तो आपका गल
ु ाम ू ।
न ी तुम मेरे मामलक ो, मेरी त्जन्दगी की रोशनी ो, तुमसे मैने त्जतना िैज
पाया ै , उसका अिंदाजा न ीिं कर सकता। मैने अब तक सल्तनत को अपनी
त्जन्दगी की सबसे प्यारी चीज समझा था। इसके मलए मैने व सब कुछ ककया
जो मुझे न करना चाह ए था। अपनों के खून से भी इन ाथों को दागदार ककया
गैरों के खून से भी। मेरा काम अब खतम ो चुका। मैने बुतनयाद जमा दी इस पर
म ल बनाना तुम् ारा काम ै । मेरी य ी इल्तजा ै कक आज से तुम इस
बादशा त के अमीन ो जाओ, मेरी त्जन्दगी में भी और मरने के बाद भी।
बीब ने आकाश में उड़ते ु ए क ा- इतना बड़ा बोझ। मेरे किंिे इतने मजबूत
न ी ै।
तैमूर ने दीन आग्र के स्वर में क ा- न ी मेरे प्यारे दोस्त, मेरी य इल्तजा
माननी पड़ेगी।
मै जानता था।
कब से।
तम्
ु ीिं ने मसखाया। शायद मेरे मसवा य ा ककसी को य बात मालम
ू न ी।
***
धधक्कार
इिंद्रनाथ ने गदगद स्वर में क ा-तुम् ारे पैरों पड़ता ूिं मानी, खोल दो।
इन्द्रनाथ की आिंखे सजल ो गईं। मानी की बातों में ककतना कठोर सतय भ्िंरा
गोकुल ने पछ
ू ा-अगर तम्
ु ारे घरवाले आवपत करें तो ?
इन्द्रनाथ न प्रसन्न ोकर क ा-मैं अपने घरवालों को इतना मुखष न ीिं समझता
कक इस ववर्य में आपतत करें , लेककन वे आपतत करें भी तो मैं अपनी ककस्मत
अपने ाथ में ी रखना पसिंद करता ूिं । मेरे बड़ों को मझ
ु पर अनेकों अधिकार ैं।
ब ु त-सी बातों में मैं उनकी इच्छा को कानन
ू समझता ूिं , लेककन त्जस बात को मैं
अपनी आतमा के ववकास के मलए शुभ समझता ूिं, उसमें मैं ककसी से दबना न ीिं
चा ता। मैं इस गवष का आनन्द
उठाना चा ता ूिं कक मैं स्वयिं अपने जीवन का तनमाषता ूिं ।
गोकुल ने क ा-घुस आने दो, मैं तुम् ारी जग ोता, तो चोरों से ममलकर चोरी
करवा दे ता। मुझे इसी वक्त इन्द्रनाथ से ममलना ै । मैंने उससे आज ममलने का
वचन हदया ै -दे खो सिंकोच मत करना, जो बात पूछ र ा ूिं , उसका लल्द उतर
दे ना। दे र ोगी तो व घबराएगा। इन्द्रनाथ को तुमसे प्रेम ै, य तुम जानती ो
न ?
मानी ने मिंु िेरकर क -य ी बात क ने के मलए मझ
ु े बल
ु ाया था ? मैं कुछ न ीिं
जानती।
मानी उसी वक्त व ािं आ गई, गोकुल ने उसकी ओर कनखखयों से ताका। मानी
लज्जा से गड़ गई। भागने का रास्ता न ममला।
गोकुल की मािं ने क ा-चली क्यों न ीिं जाती, क्या व ािं कोई प ाड़ खोदना ै?
तािंगा कुछ दरु तनकल गया तो उसने गोकुल से क ा-भैया, मेरा जी न जाने कैस
ोर ा ै । घर चलो, तुम् ारे पैर पड़ती।
मानी-अम्म तुम् ें घर में घुसने न दें गी। मेरे कारण तुम् ें भी खझड़ककय ममलें गी।
िं प ुिं च गया। इिंद्रनाथ की माता ववचारशील मह ला थीिं। उन् ोंन आकर विू
त गा
को उतारा और भीतर ले गयीिं।
माता ने ककवाड़ खोलते ु ए क ा-इतनी रात तक क्या करने लगे ? उसे भी क्यों
न लेते आये ? कल सवेरे चौका-बतषन कौन करे गा ?
एक सप्ता बीत गया पर गोकुल का क ीिं पता न ीिं। इिंद्रनाथ को बम्बई में एक
जग ममल गई थी। व व ािं चला गया था। व ािं र ने का प्रबिंि करके व
अपनी माता को तार दे गा और तब सास और ब ू चली जाऍगी। विंशीिर को
प ले सिंदे ु आ कक गोकुल इिंद्रनाथ के घर तछपा ोगा, पर जब व ािं पता न चला
तो उन् ोंने सारे श र में खोज-पछ
ू शुरू की। त्जतन ममलने वाले, ममत्र, स्ने ी,
सम्बन्िी थे, सभी के घर गये, पर सब जग से साि जवाब पाया। हदन-भर दौड़-
िूप कर शाम को घर आते, तो स्त्री के आड़े ाथों लेते-और कोसो लड़के को, पानी
पी-पीकर कोसो। न जाने तुम् ें कभी बवद्ध
ु आयेगी भी या न ीिं। गयी थी चुड़ल
ै ,
जाने दे ती। एक बोझ मसर से टला। एक म री रख लो, काम चल जाएगा। जब
व न थी, तो घर क्या भख
ू ों मरता था ? वविवाओिं के पन
ु ववषवा चारों ओर तो ो
र े ैं, य कोई अन ोनी बात न ीिं ै। मारे बस की बात ोती, तो वविवा-वववा
के पक्षपाततयों को दे श से तनकाल दे ते, शाप दे कर जला दे त,े लेककन य मारे बस
की बात न ीिं। किर तुमसे इतनी भी न ो सका कक मुझसे तो पूछ लेतीिं। मैं जो
उधचत समझता, करता। क्या तुमने समझा था, मैं दप्तर से लौटकर आऊिंगा ी
न ीिं, व ीिं अतयेवर्ट ो जाएगी ? बस, लड़के पर टूट पड़ी। अब रोओ, खूब हदल
खोलकर।
सिंध्या ो गई थी। विंशीिर स्त्री को िटकारें सुनाकर द्वार पर उद्वेग की दशा में
ट ल र े थे। र -र कर मानी पर क्रोि आता था। इसी राक्षसी के कसरण मेरे
घर का सवषनाश ु आ। न जाने ककस बरु ी साइत में आयी कक घर को ममटाकर
छोड़ा। व न आयी ोती, तो आज क्यों य बुरे हदन दे खने पड़ते। ककतना
ोन ार, ककतना प्रततभाशाली लड़का था। न जाने क ािं गया ?
बहु ढया ने क ा-व जो बाबू ु सनेगिंज में र ते ैं , जो बम्बई में नौकर ैं, उन् ीिं की
ब ु ने भेजा ै।
विंशीिर ने कमरे में जाकर लैम्प जलाया और पत्र पढ़ने लगे। मानी का खत था
मलखा था।
‘पूज्य चाचाजी,
मझ
ु े य सन
ु कर अतयन्त द:ु ख ु आ कक गोकुल भैया क ीिं चले गए और अब
तक उनका पता न ीिं ै । मैं ी इसका कारण ूिं । य कलिंक मेरे ी मख
ु पर
लगना था व भी लग गया। मेरे कारण आपको इतना शोक ु आ, इसका मुझे
ब ु त द:ु ख ै , मगर भैया आएिंगे अवश्य, इसका मुझे ववश्वास ै । मैं भी नौ बजे
वाली गाड़ी से बम्बई जा र ी ूिं । मुझझे जो कुछ अपराि ु आ ै , उसे क्षमा
कीत्जएगा और चाची से मेरा प्रणाम कह एगा। मेरी ईश्वर से य ी प्राथषना ै कक
शीघ्र ी गोकुल भैया सकुशल घर लौट आयें। ईश्वर की अच्छा ु ई तो भैया के
वववा में आपके चरणों के दशषन करूिंगी।’
बम्बई मेल प्लेटिामष पर खड़ा था। मुसाकिरों में भगदड़ मची ु ई थी। खोमचे
वालों की चीख-पुकार से कान पड़ी आवाज न सुनाई दे ती थी। गाड़ी छूटने में
थोड़ी ी दे र थी मानी और उसकी सास एक जनाने कमरे में बैठी ु ई थी। मानी
सजल नेत्रों से सामने ताक र ी थी। अतीत चा े दख
ु :द ी क्यों न ो, उसकी
स्मततय मिुर ोती ैं। मानी आज बुरे हदनों को स्मरण करके द:ु खी ो र ी थी।
गोकुल से अब न जाने कब भेंट ोगी। चाचाजी आ जाते तो उनके दशषन कर
लेती। कभी-कभी बबगड़ते थे तो क्या, उसके भले ी के मलए तो डािंटते थे। व
आवें गे न ीिं। अब तो गाड़ी छूटने में थोड़ी ी दे र ै । कैसे आऍ, समाज में लचल
न मच जाएगी। भगवान की इच्छा ोगी, तो अबकी जब य आऊिंगी, तो जरूर
उनके दशषन करूिंगी।
गाड़ी चली तो माता ने क ा-ऐसा बेशमष आदमी न ीिं दे खा। मुझे तो ऐसा क्रोि
आ र ा था कक उसका मुिं नोच लूिं।
मानी ने किर भी मुिं न खोला। शायद उसे कुछ सुनाई ी न हदया था। शायद
उसे अपने अमसततव का ज्ञान भी न था। व टकटकी लगाए खखड़की की ओर
ताक र ी थी। उस अिंिकार में जाने क्या सझ
ू र ा था।
10
उसका दय िक-िक करने लगा। ऊपर के बथष पर नजर डाली, पेशाबखान में
दे खा, बेंचों के नीचे दे खा, ब ू क ीिं न थी। तब व द्वार पर आकर खड़ी ो गई।
ब ू का क्या ु आ, य द्वार ककसने खोला ? कोई गाड़ी में तो न ीिं आया। उसका
जी घबराने लगा। उसने ककवाड़ बन्द कर हदया और जोर-जोर से रोने लगी।
ककससे पूछे ? डाकगाड़ी अब न जाने ककतनी दे र में रूकेगी। क ती थी, ब ू ,
मरदानी गाड़ी में बैठें। मेरा क ना न माना। क ने लगी, अम्माजी, आपको सोने
की तकलीि ोगी। य ी आराम दे गई।
11
रवववार का हदन था। सिंध्या समय इिंद्रनाथ दो-तीन ममत्रों के साथ अपने घर की
छत पर बैठा ु आ था। आपस में ास-परर ास ो र ा था। मानी का आगमन
इस परर ास का ववर्य था।
दस
ू रे ममत्र बोल-इतनी आजादी तो भला क्या र े गी ?
इिंद्रनाथ-इतनी क्या, इसका शतािंश भी न र े गी। अगर तुम रोज मसनेमा दे खकर
बार बजे लौटना चा ते ो, नौ बजे सोकर उठना चा ते ो और दफ्तर से चार
बजे लौटकर ताश खेलना चा ते ो, तो तम्
ु ें वववा करने से कोई सख
ु न ोगा।
और जो र म ीने सट
ू बनवाते ो, तब शायद साल-भर भी न बनवा सको।
‘ ,ॉँ मेल से। मेरे साथ चलकर उन् ें ररसीव करोगे न?’
‘य भी पछ
ू ने की बात ै । अब घर कौन जाता ै , मगर कल दावत खखलानी
पड़ेगी।’
तार में मलखा था-मानी गाड़ी से कूद पड़ी। उसकी लाश लालपरु से तीन मील पर
पाई गई। मैं लालपुर में ू ाँ, तुरिंत आओ।
एक ममत्र ने क ा-ककसी शत्रु ने झठ
ू ी खबर न भेज दी ो?
बम्बई से नौ बजे को गाड़ी छू, टूटती थी। दोनों ने चटपट बबस्तर आहद बााँिकर
तैयार कर हदया। एक ने बबस्तर उठाया, दस
ू रे ने रिं क। इिंद्रनाथ ने चटपट कपड़े
प ने और स्टे शन चले। तनराशा आगे थी, आशा रोती ु ई पीछे ।
12
एक सप्ता गुजर गया था। लाला विंशीिर दफ्तर से आकर द्वार पर बैठे ी थे
कक इिंद्रनाथ ने आकर प्रणाम ककया। विंशीिर उसे दे खकर चौंक पड़े, उसके
अनपेक्षक्षत आगमन पर न ीिं, उसकी ववकृत दशा पर, मानो तीतराग शोक सामने
खड़ा ो, मानो कोई हृदय से तनकली ु ई आ मूततषमान ् ो गई ों
विंशीिर ने पछ
ू ा-तम
ु तो बम्बई चले गए थे न?
व अिंदर गया तो माता ने उसे मसर से प वॉँ तक दे खा-तुम बीमार थे क्या भैया?
इिंद्रनाथ ने ाँसकर क ा-जी ,ॉँ अब व बड़े सुख से ैं। सिंसार के बिंिनों से छूट
गई।
इिंद्रनाथ ने मस्
ु काते ु ए क ा-क्या करता! माताजी का तार बम्बई में ममला कक
मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दें हदए। व लालपुर में पड़ी ु ई थी, दौड़ा ु आ
आया। व ीिं दा -कक्रया कीिं आज घर चला आया। अब मेरा अपराि क्षमा कीत्जए।
व और कुछ न क सका। ऑ िंसओ
ु के वेग ने गला बिंद कर हदयािं जेब से एक
पत्र तनकालकर माता के सामने रखता ु आ बोला-उसके सिंदक
ू में य ी पत्र ममला
ै।
‘स्वामी,
***
कायर
केशव ने उग्र भाव से पूछा - 'तो तुम भी उन् ीिं पुरानी रूहढ़यों की गुलाम ो?'
रात को भोजन करके प्रेमा जब अपनी मााँ के साथ लेटी, तो उसकी आाँखों में नीिंद
न थी। केशव ने उसे एक ऐसी बात क दी थी, जो चिंचल पानी में पड़ने वाली
छाया की तर उसके हदल पर छायी ु ई थी। प्रततक्षण उसका रूप बदलता था।
व उसे त्स्थर न कर सकती थी। माता से इस ववर्य में कुछ क े तो कैसे?
लज्जा माँु बिंद कर दे ती थी। उसने सोचा, अगर केशव के साथ मेरा वववा न
ु आ, तो उस समय मेरा कतषव्य क्या ोगा! अगर केशव ने कुछ उद्दिंडता कर डाली
तो मेरे मलए सिंसार में किर क्या र जायेगा, लेककन मेरा बस ी क्या ैं ? इन
भााँतत-भााँतत के ववचारों में एक बात जो उसके मन में तनत्श्चत ु ई, व य थी
कक केशव के मसवा व और ककसी से वववा न करे गी।
उसकी माता ने पूछा- 'क्या तुझे अब तक नीिंद न आयी? मैने तुझसे ककतनी बार
क ा कक थोड़ा-ब ु त घर का काम-काज ककया कर; लेककन तुझे ककताबों से िुरसत
न ी ममलती। चार हदन में तू पराये घर जायेगी, कौन जाने, कैसा घर ममले! अगर
कुछ काम करने की आदत न र ी, तो कैसे तनबा ोगा?'
माता ने मस्
ु कराकर क ा - 'लड़ककयों के मलए य ी तो सबसे बड़ी ववपत्तत ै,
बेटी। मााँ-बाप की गोद में पलकर ज्यों ी सयानी ु ई, दस
ू रों की ो जाती ै।
अगर अच्छा प्राणी ममल गया, तो जीवन आराम से कट गया, न ीिं रो-रोकर हदन
काटने पड़ते ै । सब कुछ भाग्य मे अिीन ै । अपनी बबरादरी नें तो मुझे कोई
घर न ीिं भाता। क ीिं लड़ककयों का आदर न ी लेककन करना तो बबरादरी में ी
पड़ेगा। न जाने, य जात-पााँत का बिंिन कब टूटे गा?'
प्रेमा डरते-डरते बोली- 'क ीिं-क ीिं तो बबरादरी के बा र भी वववा ोने लगे ै ।'
किर उसने अपने आप- ी-आप ी उस प्रश्न का जवाब भी हदया- अगर दो-चार
जग ऐसा भी ो गया, तो उससे क्या ोता ै?
य क ते ु ए उन् ोंने अपनी मेज की दराज खोली और मखमली चौखटों में जड़ी
बूढ़े वपता ने ऐसी भूममका बााँिी थी कक प्रेमा उनका आशय समझ न सके; लेककन
प्रेमा भााँप गयी। उसका मन तीर की भााँतत लक्षय पर जा प ु ाँचा। उसने बबना
तस्वीर की ओर दे खे ी क ा- न ीिं, मैने तो उसका नाम न ीिं सन
ु ा।
प्रेमा ने रुखाई से जवाब हदया- ोगा, मगर मैं तो इस परीक्षा का कोई म ततव
न ी समझती। मैं तो समझती ू ाँ, जो लोग इस परीक्षा में बैठते ैं , वे परले मसरे
के स्वाथी ोते ैं। आखखर उनका उद्देश्य इसके मसवा और क्या ोता ैं कक अपने
गरीब, तनिषन, दमलत भाईयों पर शासन करें और खब
ू िन-सिंचय करें । य तो
जीवन का कोई ऊाँचा उद्देश्य न ीिं ैं।
इस आपत्तत में जलन थी, अन्याय था, तनदष यता थी। वपताजी ने समझा था, प्रेमा
व बखान सन
ु कर लट्टू ो जायेगी। य जबान सन
ु कर तीखे स्वर में बोले- तू तो
ऐसी बात कर र ी ैं, जैसे तेरे मलए िन और अधिकार का कोई मूल्य ी न ीिं।
प्रेमा ने हढठाई से क ा- ााँ, मैं तो इसका मल्
ू य न ीिं समझती; मैं तो आदमी में
तयाग दे खती ू ाँ। मैं ऐसे यव
ु कों को जानती ू ाँ , त्जन् ें य पर जबदष स्ती भी हदया
जाय, तो स्वीकार न करें गे।
शायद ककसी दस
ू रे अवसर पर यो शब्द सन
ु कर प्रेमा लज्जा से मसर झक
ु ा लेती;
पर इस समय की दशा उस मसपा ी की-सी थी, त्जसके पीछे ग री खाई ो। आगे
बढ़ने के मसवा इसके मलए और कोई मागष न था। अपने आवेश को सिंयम से
दबाती ु ई, आाँखों में ववद्रो भरे , व अपने कमरे में गयी और केशव के कई धचत्रों
में से व धचत्र चुनकर लायी, जो उसकी तनगा में सबसे खराब था और वपता के
सामने रख हदया। बढ़
ू े वपताजी ने धचत्र को उपेक्षा के भाव से दे खना चा ा, लेककन
प ली दृत्ष्ट में उसने उन् ें आकवर्षत कर मलया। ऊाँचा कद था औक दब
ु ल
ष ोने
पर भी उसका गठन, स्वास्र्थय और सिंयम का पररचय दे र ा था। मुख पर प्रततभा
का तेज न था; पर ववचारशीलता कुछ ऐसा प्रततबबम्ब था, जो उसके प्रतत मन में
ववश्वास पैदा करता था।
उन् ोंने कठोर स्वर में क ा- आज से क लेज जाना बन्द कर दो। अगर मशक्षा
कुल-मयाषदा को डूबाना ी मसखाती ै , तो व कु-मशक्षा ैं।
लालाजी ने घर में आकर पतनी को एकािंत में बुलाया और बोले- ज ााँ तक मुझे
मालूम ु आ ैं, केशव ब ु त ी सुशील और प्रततभाशाली युवक ै । मै तो समझता
वद्ध
ृ ा ने क्षुब्ि ोकर क ा- जब तुम् ारी य ी इच्छा ै , तो मझ
ु से क्या पूछते ो?
लेककन मैं क े दे ती ू ाँ कक मैं इस वववा के नजदीक न जाऊाँगी, न कभी इस
छोकरी का माँु दे खग
ूाँ ी। समझ लाँ ग
ू ी, जैसे और सब लड़के मर गये, वैसे य भी
मर गयी।
'क्यों न ी उस लड़के से वववा कर दे ते, उसमे बुराई क्या ैं? दो साल में मसववल
सववषस पास करके आ जायेगा। केशव के पास क्या रखा ैं ? ब ु त ोगा, ककसी
दफ्तर में क्लकष ो जायेगा।'
बढ़
ू े पिंडड़तजी जमीन पर पााँव पटकते ु ए गरज उठे - आप क्या क ते ैं , सा ब!
आपको शमष न ी आती? म ब्राह्मण ैं ब्राह्मणों में भी कुलीन। ब्राह्मण ककतने
ी पततत ो गये ों, इतने मयाषदाशून्य न ीिं ु ए ैं कक बतनए-बक्कालों की लड़की
से वववा करते किरें ! त्जस हदन कुलीन ब्राह्मणों में लड़ककयााँ न र ें गी, उस हदन
य समस्या उपत्स्थत ो सकती ैं। मैन क ता ू ाँ , आपको मुझसे य बात क ने
का सा स कैसे ु आ?
बूढ़े बाबूजी त्जतना ी दबते थे, उतना ी पिंडड़तजी बबगड़ते थे। य ााँ तक कक
लालाजी अपना अपमान ज्यादा न स सकें और अपनी तकदीर को कोसते ु ए
चले गये।
उसी वक्त केशव क लेज से आया। पिंडड़तजी ने तुरन्त उसे बुलाकर कठोर किंठ से
क ा- मैं सन
ु ा ैं, तम
ु ने ककसी बतनए की लड़की से अपना वववा करने का
तनश्चय कर मलया ैं। य खबर क ााँ तक स ी ैं ?
'ककसी ने क ा। मैं पूछता ू ाँ, य बात ठीक ै , या न ीिं? अगर ठीक ैं, और तुमने
मारी मयाषदा को डुबाना तनश्चय कर मलया ैं , तो तुम् ारे मलए मारे घर में कोई
स्थान न ीिं ैं। तुम् ें मेरी कमाई का एक िेला भी न ीिं ममलेगा। मेरे पास जो
कुछ ै, व मेरी कमाई ैं। मझ
ु े अत्ख्तयार ैं कक मै उसे त्जसे चा ू ाँ दे दाँ ।ू तम
ु
य अनीतत करके मेरे घर में कदम न ीिं रख सकते। '
केशव वपता के स्वभाव से पररधचत था। प्रेमा से उसे प्रेम था, व गुप्त रूप से
प्रेमा से वववा कर लेना चा ता था। बाप तो मेशा न र ें गे। माता के स्ने पर
उसे ववश्वास था। उस प्रेम की तरिं ग में व सारे कष्टों को झेलने के मलए तैयार
मालूम ोता था; लेककन जैसे कोई कायर मसपा ी बन्दक
ू के सामने जाकर ह म्मत
खो बैठता ैं और कदम पीछे टा लेता ैं , व ी दशा केशव की ु ई। व सािारण
युवकों की तर मसद्धािंतों के मलए बड़े-बड़े तकष कर सकता था, जबान से उनमें
अपनी भत्क्त की दो ाई दे सकता था; लेककन यातनाएाँ झेलने की सामर्थयष उसनें
न थी। अगर व अपनी त्जद्द पर अड़ा और वपता ने भी अपनी टे क रखी, तो
उसका क ााँ हठकाना लगेगा? उसका सारा जीवन ी नष्ट ो जायेगा।
दस
ू रे हदन प्रेमा ने केशव के नाम य पत्र मलखा:-
'वप्रय केशव!
तुम् ारी,
प्रेमा।
प्रातुःकाल केशव का जवाब आया। प्रेमा ने कााँपते ु ए ाथों से पत्र लेकर पढ़ा।
पत्र ाथ से धगर गया। ऐसा जान पड़ा, मानो उसके दे का रक्त त्स्थर ो गया
ो, मलखा था:
माता ने पछ
ू ा- क्या केशव का पत्र ैं?
प्रेमा ने भूमम की ओर ताकते ु ए क ा- ााँ, उनकी तबीयत अच्छी न ीिं ैं। इसके
मसवा व और क्या क ें ? केशव की तनष्ठुरता और बेविाई का समाचार क कर
लत्ज्जत ोने का सा स उसनें न था।
मगर सवेरा ु आ, तो उसके कमरें में उसकी लाश पड़ी ु ई थी। प्रभात की सुन री
ककरणें उसके पीले मुख को जीवन की आभा प्रदान कर र ीिं थी!
***
मशकार
रानी वसि
ु ा ने गम्भीर ववनोद के भाव से क ा- क्यों, व क े गा न ीिं, तू मेरे बीच
में बोलनेवाली कौन ैं? मेरी जो इच्छा ोगी, व करूाँगा। तू अपना रोटी-कपड़ा
मझ
ु से मलया कर। तझ
ु े मेरी दस
ू री बातों से क्या मतलब? मैं तेरा गल
ु ाम न ी ू ाँ।
वसि
ु ा ने उसी गम्भीर भाव से किर पछ
ू ा- अगर व तझ
ु े बबठाकर खखलाता, तब
तो उसकी िौंस स ती?
मुतनया जैसे लड़ने पर उतारू ो गयी। बोली- बैठाकर कोई क्या खखलायेगा,
सरकार? मदष बा र काम करता ैं, तो म भी घर में काम करती ैं , कक घर के
काम में कुछ लगता ी न ीिं? बा र के काम से तो रात को छुट्टी ममल जाती ैं।
घर के काम से तो रात को भी छुट्टी न ी ममलती। पुरुर् य चा े कक मुझे घर
में बैठाकर आप सैर-सपाटा करे , तो मुझसे तो न स ा जाय। य क ती ु ई
मतु नया राजकुमार को मलये ु ए बा र चली गयी।
वसि
ु ा को इस घर में आये पााँच वर्ष ो गये। प ले उसने अपने भाग्य को
सरा ा था। माता-वपता के छोटे -से कच्चे आनन्द ीन घर को छोड़कर व एक
ववशाल म ल में आयी थी, ज ााँ सम्पत्तत उसके पैरों को चूमती ु ई जान पड़ती
थी। उस समय सम्पत्तत ी उसकी आाँखों में सब कुछ थीिं। पतत-प्रेम गौण-सी
वस्तु थी; पर उसका लोभी मन सम्पत्तत पर सन्तुष्ट न र सका; पतत-प्रेम के
मलए ाथ िैलाने लगा। कुछ हदनों में उसे मालम
ू ु आ, मझ
ु े प्रेम-रतन भी ममल
गया; पर थोड़े ी हदनों में य भ्रम जाता र ा। कुाँवर गजराजमसिं रूपवान थे,
उदार थे, बलवान थे, मशक्षक्षत थे, ववनोदवप्रय थे, और प्रेम का अमभनय करना जानते
थे; पर उनके जीवन में प्रेम से कत्म्पत ोनेवाला तार न था। वसुिा का खखला
वसि
ु ा बड़ी दे र तक बैठी उदास आाँखों से य दृश्य दे खती र ी। किर टे मलिोन
पर आकर उसने ररयासत के मैनेजर से पछ
ू ा- काँु वर सा ब का कोई पत्र आया?
'उन दोनों सा बों के पास मेशा मोटरें भेजी जाती र ीिं ैं , इसमलए मैने भेज दीिं।
अब आप ु क्म दे र ी ैं, तो माँगवा लाँ ग
ू ा।'
वसुिा नें िोन से आकर सिर का सामान ठीक करना शुरू ककया। उसने उसी
आवेश में आकर अपना भाग्य-तनणषय करने का तनश्चय कर मलया था। पररतयक्ता
की भााँतत पड़ी र कर व जीवन समाप्त न करना चा ती थी। व कुाँवर सा ब से
क े गी, अगर आप य समझते ैं कक मैं आपकी सम्पत्तत कौ लौड़ी बनकर र ू ाँ,
तो य मझ
ु से न ोगा। आपकी सम्पत्तत आपको मब
ु ारक! मेरा अधिकार आपकी
सम्पत्तत पर न ीिं, आपके ऊपर ैं। अगर आप मझ
ु से जौ-भर टना चा ते ैं , तो
मै आपसे ाथ-भर ट जाऊाँगी। इस तर की ककतनी ी ववराग-भरी बातें उसके
मन में बगूलों की भााँतत उठ र ी थीिं।
वसुिा ने ववरक्त स्वर में क ा- बढ़ जायेगा, बढ़ जाय; मुझसे इसकी धचन्ता न ी
ैं।
वद्ध
ृ ड क्टर परदा उठाकर अन्दर आ गया और वसि
ु ा की ओर ताकता ु आ
बोला- लाइए, मैं टे म्परे चर ले लाँ ।ू अगर टे म्परे चर बढ़ा ोगा, तो मैं आपको
रधगज न जाने दाँ ग
ू ा।
'टे म्परे टर लेने की जरूरत न ीिं। मेरा इरादा पक्का ो गया ैं।'
ड क्टर ने दो-एक बार और आग्र ककया, किर ववस्मय से मसर ह लाता चला
गया।
ु ई, घर लौट चलाँ ।ू जब उन् ें मेरी रतती भर परवा न ीिं ैं तो मैं ी क्यों उनकी
किक्र में प्राण दाँ ?ू जी चा े आयें, या न आये; लेककन एक बार पतत से ममलकर
उनसे खरी-खरी बात करने के प्रलोभन को व न रोक सकी। सारी दे थककर
चूर-चूर ो र ी थी, ज्वर भी ो आया था, मसर पीड़ा से िटा पड़ता था; पर व
सिंकल्प से सारी बािाओिं को दबाये आगे बढ़ती जाती थी! य ााँ तक कक जब व
दस रात को जिंगल के उस डाक-बाँगले में प ु ाँची, तो उसे तन-बदन की सुधि न
थी, जोर का ज्वार चढ़ा ु आ था।
शोिर की आवाज सन
ु ते ी काँु वर सा ब तनकल आये और पूछा- तम
ु य ााँ कैसे
आये जी? सब कुशल तो ैं?
कुाँवर सा ब ने व ीिं खड़े, कठोर स्वर में पूछा- तो तुम उन् ें वापस क्यों न ले
गये? क्या तुम् ें मालूम न ी था, कक य ााँ कोई वैद्य- कीम न ी ैं ?
कुाँवर सा ब ने डााँटा- चुप र ो जी, बातें न बनाओ! तुमने समझा ोगा, मशकार का
ब ार दे खेंगे और पड़े-पड़े सोयेंगे। तुमने वापस चलने को क ा ी न ोगा।
शोिर- व मुझे डााँटती थी ु जूर!
'तम
ु ने क ा था?'
'मैने क ा तो न ी ु जूर?'
'बस तो चुप र ो। मैं तुमको खूब प चानता ू ाँ। तुम् ें मोटर लेकर इसी वक़्त
लौटना पड़ेगा। और कौन-कौन साथ ैं?'
कुाँवर सा ब ने कोमल किंठ से क ााँ- ााँ जी, और क्या। इतने आदमी ैं, ककसी को
साथ न मलया। आराम से रे लगाड़ी से आ सकती थीिं। य ााँ से मोटर भेज दी
जाती। मन ी तो ैं। ककतने जोर का बुखार ैं कक ाथ न ीिं रखा जाता। जरा-सा
पानी गमष करो औऱ दे खो, कुछ खाने को बना लो।
वसि
ु ा का ज्वर इक्कीस हदन तक न उतरा। घर के ड क्टर आये। दोनों बालक,
मुतनया, नौकर-चाकर, सभी आ गये। जिंगल में मिंगल ो गया।
वसि
ु ा खाट पर पड़े-पड़े, कुाँवर सा ब की शुश्रर्
ु ा में आलौककक आनन्द और
सन्तोर् ककया करती। व दोप र हदन चढ़े तक सोने के आदी थे , ककतने सवेरे
उठते, उसके पर्थय और आराम की जरा-जरा-सी बातों का ककतना खयाल रखते।
जरा दे र के मलए स्नान और भोजन करने जाते, और किर आकर बैठ जाते। एक
तपस्या-सी कर र े थे। उनका स्वास्र्थय बबगड़ता जाता था, चे रे पर व स्वास्र्थय
की लाली न थी। कुछ व्यस्त-से र ते थे।
एक हदन वसुिा ने क ा- आजकल तुम मशकार खेलेने क्यों न ीिं जाते? मैं तो
मशकार खेलने आयी थी; मगर न जाने ककस बुरी साइत से चली कक तुम् ें इतनी
तपस्या करनी पड़ गयी। अब मैं बबल्कुल अच्छी ू ाँ। जरा आयीने में अपनी सरू त
तो दे खो!
कुाँवर सा ब को इतने हदनों मशकार का कभी ध्यान ी न आया था। इसकी चचाष
ी न थी। मशकाररयों का आना-जाना, ममलना-जल
ु ना बन्द था। एक बार साथ के
एक मशकारी ने ककसी शेर का त्जक्र ककया था। काँु वर सा ब नें उसकी ओर कुछ
ऐसी कड़वी आाँखों से दे खा कक व सूख-सा गया। वसुिा के पास बैठने, उससे बातें
करने, उसका मन ब लाने, दवा और पर्थय बनाने में उन् ें आनन्द ममलता था।
उनका भोग-ववलास, जीवन के इस कठोर व्रत में जैसे बुझ गया। वसुिा की एक
थेली पर अाँगुमलयों से रे खा खीिंचने में मग्न थे। मशकार की बात ककसी औऱ के
माँु से सन
ु ी ोती, तो किर उन् ीिं आग्नेय नेत्रों से दे खते। वसि
ु ा के माँु से य
चचाष सन
ु कर उन् ें दुःु ख ु आ। व उन् ें इतना मशकार का आसक्त समझती ैं!
अमर्ष भरे स्वर से बोले- ााँ, मशकार खेलने का इससे अच्छा और कौन अवसर
ममलेगा।
तो फ़े लाये गये। कुाँवर सा ब एक-एक चीज तनकालकर हदखाने लगे। वसुिा के
चे रे पर र्ष की ऐसी लाली फ्तों से न हदखी थी, जैसे कोई बालक तमाशा
दे खकर मग्न ो र ा ैं। बीमारी के बाद म बच्चों की तर त्जद्दी, उतने ी
आतरु , उतने ी सरल ो जाते ैं। त्जन ककताबों में कभी मन न लगा ो, व
बीमारी के बाद पढ़ी जाती ैं। वसुिा जैसे उल्लास की गोद में खेलने लगी। शेरों
की खालें थी, बाघों की, मग
ृ ों की, शूकरों की। वसुिा र खाल को नयी उमिंग से
दे खती, जैसे बायस्कोप के एक धचत्र के बाद दस
ू रा आ र ा ो, कुाँवर सा ब एक-
एक तो फ़े का इतत ास सन
ु ाने लगे। य जानवर कैसे मारा गया, उसके मारने में
क्या-क्या बािाएाँ पड़ी, क्या-क्या उपाय करने पड़े, प ले क ााँ गोली लगी आहद।
वसुिा रे क कथा आाँखें िाड़-िाड़कर सुन र ी थी। इतनी सजीवता, स्िूततष, आनन्द
उसे आज तक ककसी कववता, सिंगीत या आमोद में भी न ममला था। सबसे सुन्दर
एक मसिं की खाल थी। य ीिं उसने छााँटी!
कुाँवर सा ब की य सबसे ब ु मूल्य वस्तु थी। इसे अपने कमरे में लटकाने को
रखे ु ए थे। बोले- तुम बाघम्बरों में से कोई ले लो। य तो कोई अच्छी चीज
न ीिं ैंय़
'तो तम
ु मझ
ु े चकमा क्यों दे ते थे?'
'अच्छा खाओ मेरे मसर की कसम, कक य सबसे सुन्दर खाल न ीिं ैं? '
त्जस हदन उसने प ली धचडड़या मारी, कुाँवर सा ब र्ष से उछल पड़े। नौकरों को
इनाम हदये गये ; ब्राह्मणों को दान हदया गया। इस आनन्द की शुभ स्मतृ त में
उस पक्षी की ममी बनाकर रखी गयी।
वसुिा के जीवन में अब एक नया उतसा , एक नया उल्लास, एक नयी आशा थी।
प ले की भााँतत उसका विंधचत हृदय अशुभ कल्पनाओिं से त्रस्त न था। अब उसमें
ववश्वास था, बल था, अनरु ाग था।
'तो किर दस
ू री गोली चलेगी। तीनों बन्दक
ू े तो भरी तैयार रखी ैं। तुम् ारा जी
घबड़ाता तो न ीिं?'
वसि
ु ा ने उसकी रक्षा के मलए दोनों ाथों का घेरा बनाते ु ए क ा- व ााँ से ट
जाओ। ऐसा न ो, झपट पड़े।
कुाँवर सा ब ने ाँसकर क ा- शेर कब का ठिं ड़ा ो गया। व बरामदे में पड़ा ैं।
ऐसे डील-डौल का, और इसना भयिंतक शेर मैने न ी दे खा।
कुाँवर- बबल्कुल न ी। तुम कूद क्यों पड़ी? पैरों में बड़ी चोट आयी ोगी। तुम कैसे
बचीिं, य आश्चयष ैं। मैं तो इतनी ऊाँचाई से कभी न कूद सकता।
वसि
ु ा ने चककत ोकर क ा- मैं! मैं क ााँ कूदी? शेर मचान पर आया, इतना याद
ैं। इसके बाद क्या ु ए, मुझे कुछ याद न ीिं।
कुाँवर को भी ववस्मय ु आ- वा ! तम
ु ने उस पर दो गोमलयााँ चलायीिं। जब व
नीचे धगरा, तो तम
ु भी कूद पड़ी और उसके माँु में ररवाल्वर की नली ठूाँस दी, बस
ठिं डा ो गया। बड़ा बे या जानवर था। अगर तम
ु चक
ू जाती, तो व नीचे आते
ी मझ
ु पर जरूर चोट करता। मेरे पास तो छुरी भी न थी। बन्दक
ू ाथ से
छूटकर दस
ू री तरि धगर गयी थी। अाँिेरे में कुछ सुझाई न दे ता था। तुम् ारे ी
प्रसाद से इस वक़्त मैं य ााँ खड़ा ू ाँ। तुमने मुझे प्राणदान हदया।
दस
ू रे हदन प्रातुःकाल य ााँ से कूच ु आ।
जो घर वसुिा को िाड़े खाता था, उसमें आज जाकर ऐसा आनन्द आया, जैसे
ककसी बबछुड़े ममत्र से ममली ो। रे क वस्तु उसका स्वागत करती ु ई मालम
ू
ोती थी। त्जन नौकरों और लौंडड़यों से व म ीनों से सीिे माँु न बोली थी, उनसे
व आज ाँस- ाँसकर कुशल पूछती और गले ममलती थी, जैसे अपनी वपछली
रुखाइयों की पटौती कर र ी ो।
सिंध्या का सय
ू ,ष आकाश के स्वणष-सागर में अपनी नौका खेता ु आ चला जा र ा
ैं। वसुिा खखड़की के सामने कुरसी पर बैठकर सामने का दृश्य दे खने लगी। उस
दृश्य में आज जीवन था, ववकास था, उन्माद था। केवट का व सूना झोंपड़ा भी
आज ककतना सु ावना लग र ा था। प्रकृतत में मो नी भरी ु ई थी।
उसी वक़्त कुाँवर सा ब आकर बोले- अच्छा, पूजा करने जा र ी ो। मैं भी व ााँ
जा र ा था। मैंने एक मनौती मान रखी ैं।
और सभ
ु ागी क्या सोच र ी थी? उसके पास कोठरी-भर रुपये ोते, तो व उन् ें
तछपाकर रख दे ती। किर एक हदन चुपके से बाजार चलीिं जाती और अम्मााँ के
मलए अच्छे -अच्छे कपड़े लाती; दादा, जब बाकी मााँगने आते, तो चट रुपये
तनकालकर दे दे ती, अम्मााँ-दादा ककतने खुश ोते!
2
जब सुभागी जवान ु ई तो लोग तुलसी म तो पर दबाव डालने लगे कक लड़की
का क ीिं घर कर दो। जवान लड़की का यो किरना ठीक न ीिं। जब मारी बबरादरी
में इसकी कोई तनन्दा न ीिं ैं, तो क्यों सोच-ववचार करते ो?
सभ
ु ागी ने मसर झक
ु ाकर क ा- 'चाचा, मैं तम्
ु ारी बात समझ र ी ू ाँस लेककन मेरा
मन घर करने को न ीिं क ता। मझ
ु े आराम की धचन्ता न ीिं ैं। मैं सब कुछ
झेलने को तैयार ू ाँ। और जो काम तुम क ो, व मसर आाँखों के बल करूाँगी; मगर
घर बसाने की मुझसे न क ो। जब मेरी चाल-कुचाल दे खना, तो मेरा मसर काट
लेना। अगर सच्चे बाप की बेटी ू ाँगी, तो बात की भी पक्की ू ाँगी। किर लज्जा
रखनेवाले भगवान ् ैं, मेरी क्या स्ती ैं कक अभी कुछ क ू ाँ।'
उजड्ड राम बोला- 'तुम अगर सोचती ो कक भैया कमाएाँगे और मैं बैठी मौज
करूाँगी, तो इस भरोसे न र ना। य ााँ ककसी ने जन्म-भर का ठे का न ीिं मलया ैं!'
रामू की दल्
ु न रामू से भी दो अाँगुल ऊाँची थी। मटककर बोली- मने ककसी का
कजष थोड़े ी खाया ैं कक जन्म-भर बैठे भरा करें । य ााँ तो खाने को भी म ीन
चाह ए, प नने को भी म ीन चाह ए, य मारे बत
ू े की बात न ीिं ैं।
सुभागी ने गवष से भरे ु ए स्वर में क ा- भाभी, मैंने तो तुम् ारा आसरा भी न ीिं
ककया और भगवान ् ने चा ा तो कभी करूाँगी भी न ीिं। तम
ु अपनी दे खो, मेरी
धचन्ता न करो।
रामू की दल्
ू न को जब मालम
ू ो गया कक सभ
ु ागी घर न करे गी, तो और भी
उसके मसर ो गयी। मेशा एक-न-एक खच
ु ड़ लगाए र ती। उसे रुलाने में जैसे
उसको मजा आता था। व बेचारी प र रात से उठकर कूटने-पीसने में लग जाती,
चौका-बरतन करती, गोबर पाथती, किर खेत में काम करने चली जाती। दोप र को
आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खखलाती। रात में कभी मााँ के मसर में
तेल डालती, कभी उसकी दे दबाती। तुलसी धचलम के भक्त थे। उन् ें बार-बार
धचलम वपलाती। ज ााँ तक बस चलता, मााँ-बाप को कोई काम न करने दे ती। ााँ,
भाई को न रोकती। सोचती, य तो जवान आदमी ैं; य न काम करें गे, तो
ग ृ स्थी कैसे चलेगी।
सुभागी ने तो कुछ जवाब न हदया। बात बढ़ जाने का भय था। मगर उसके मााँ-
बाप बैठे सुन र े थे। म तो से न र ा गया। बोले- क्या ैं रामू, उस गरीबन से
क्यों लड़ते ो?
रामू पास आकर बोला- तुम बीच में क्यों कूद पड़े, मैं तो उसको क ता था।
तुलसी- जब तक मैं जीता ू ाँ, तुम उसे कुछ न ी क सकते। मेरे पीछे जो चा े
करना। बेचारी का घर में र ना मुत्श्कल कर हदया।
रामू- आपको बेटी ब ु त प्यारी ैं, तो उसे गले बााँिकर रखखए। मुझसे तो स ा
न ी जाता।
तुलसी- अच्छी बात ैं। अगर तुम् ारी य ी मरजी ैं, तो य ीिं ोगा। मैं कल गााँव
के आदममयों को बुलाकर बाँटवारा कर दग
ू ा। तुम चा े छूट जावो, सुभागी न ी छूट
सकती।
रात को तुलसी लेटे तो व पुरानी बात याद आयी, जब रामू के जन्मोतसव में
उन् ोंने रुपये कजष लेकर जलसा ककया था, और सभ
ु ागी पैदा ु ई, तो घर में रुपये
र ते ु ए भी उन् ोंने एक कौड़ी न खचष की। पुत्र को रतन समझा था, पुत्री को पूवष
जन्म के पापों का दिं ड। व रतन ककतना कठोर तनकला और व दिं ड ककतना
मगलमय।
दस
ू रे हदन म तो में गााँव के आदममयों का जमा करके क ा- पिंचो, अब रामू को
और मेरा एक में तनबा न ी ोता। मै चा ता ु ाँ कक तुम लोग इन्साि से जो
कुछ मुझे दे दो, व लेकर अलग ो जाऊाँ। रात-हदन की ककचककच अच्छी न ी ैं।
गााँव के मुख्तार बाबू सजनमसिं बड़े सज्जन पुरुर् थे। उन् ोंने रामू को बुलाकर
क ा- क्यों जी, तुम अपने मााँ-बाप से अलग र ना चा ते ो? तुम् ें शमष न ीिं आती
कक औरत के क ने से मााँ-बाप को अलग ककये दे ते ो? राम! राम!
रामू- सा ब, एक में मेरा इनके साथ तनबा न ोगा। बस, मैं और कुछ न ीिं
जानता।
य क ता ु आ रामू व ााँ से चलता बना।
तल
ु सी ने क ा- बेटी, म तझ
ु े न छोड़ेगो, चा े सिंसार छूट जाय! रामू का मैं माँु
न ीिं दे खना चा ता, उसके साथ तो र ना दरू र ा।
रामू की दल्
ू न बोली- तम
ु ककसी का माँु न ीिं दे खना चा ते, तो म भी तम्
ु ारी
पज
ू ा करने को व्याकुल न ी ैं।
गााँव में ज ााँ दे खो, सबके माँु से सुभागी की तारीि। लड़की न ी, दे वी ैं, दो
मरदों का काम करती ैं, उस पर भी मााँ-बाप की सेवा भी ककये जाती ैं।
सजनमसिं तो क ते, य उस जन्म की दे वी ैं।
मगर शायद म तो को य सख
ु ब ु त हदन तक भोगना न मलखा था।
सुभागी के प ले रामू बोल उठा- ु आ क्या ैं, अभी कोई मरे थोड़े ी जाते ैं।
सुभागी ने किर उससे कुछ न क ा, सीिे सजनमसिं के पास गयी। उसके जाने के
बाद रामू ाँसकर स्त्री से बोला- बत्रयाचररत्र इसी को क ते ैं।
स्त्री- इसमें बत्रयाचररत्र की कौन-सी बात ैं? चले क्यों न ीिं जाते?
रामू- मैं न ी जाने का। जैसे उसे लेकर अलग ु ए थे, वैसे उसे लेकर र े । मर भी
जाएाँ तो न जाऊाँ।
स्त्री- न ीिं जी, य अच्छी बात न ी ैं। चलो, दे ख आयें। कुछ भी ो, बाप ी तो
ैं। किर गााँव में कौन-सा माँु हदखाओगे?
सजनमसिं - रामू को बल
ु ाकर लाता ू ाँ। उससे जो भल
ू -चक
ू ुई ो, क्षमा कर दो।
म तो- न ीिं भैया। उस पापी तयारे का माँु मैं न ीिं दे खना चा ता। इसके बाद
गोदान की तैयाररयााँ ोने लगी।
लक्ष्मी ने दा -कक्रया की। इन थोड़े से हदनों में सुभागी ने न जाने कैसे रुपये जमा
कर मलये थे कक जब तेर वीिं का सामान आने लगा, तो गााँववालों की आाँखे खुल
गयी। बरतन, कपड़े, घी, शक्कर, सभी सामान इिरात से जमा ो गये। रामू दे ख-
दे खकर जलता था और सुभागी उसे जलाने के मलए सबको य सामान हदखाती
थी।
लक्ष्मी ने क ा- बेटी, घर दे खकर खचष करो। अब कोई कमानेवाला न ीिं बैठा ैं।
आप ी कुआ खोदना और पानी पीना ैं।
लक्ष्मी चप
ु ो गयी। तेर वीिं के हदन आठ गााँव के ब्राह्मणों का भोज ु आ। चारो
तरि वा -वा मच गयी।
वपछने प र का समय था; लोग भोजन करके चले गये थे। लक्ष्मी थककर सो
गयी थी। केवल सुभागी बची ु ई चीजें उठा-उठाकर र ी थी कक ठाकुर सजनमसिं
ने आकर क ा- अब तम
ु भी आराम करो बेटी। सवेरे य सब ठीक कर लेना।
सुभागी ने क ा- अभी थकी न ीिं ू ाँ दादा! आपने जोड़़ मलया, कुल ककतने रुपये
उठे ?
'तुमसे तो मैं मााँगता न ीिं। म तो मेरे ममत्र और भाई थे। उनके साथ कुछ मेरा
तो भी िमष ैं।'
'आपकी य ी दया क्या कम ैं कक आपने मेरे ऊपर इतना ववश्वास ककया, मुझे
कौन 300 रुपये दे दे ता।'
लक्ष्मी उन त्स्त्रयों में थी, त्जनके मलए पतत-ववयोग जीवन-स्रोत का बन्द ो जाना
ैं। पचास वर्ष के धचर स वास के बाद अब य एकान्त जीवन उसके मलए प ाड़
ो गया। उसे अब ज्ञात ु आ कक मेरी बुवद्ध, मेरा बल, मेरी स्मतृ त, मानो सबसे मैं
विंधचत ो गयी।
उसने ककतनी बार ईश्वर से ववनती की थी, मुझे स्वामी के सामने उठा लेना;
मगर उसने य ववनती स्वीकार न की। मौत पर अपना काबू न ीिं, तो जीवन पर
भी काबू न ीिं ैं?
गााँव में और ककस िुरसत थी कक दौड-िूप करता। सजनमसिं दोनों वक़्त आते,
लक्ष्मी को दे खते, दवा वपलाते, सुभागी को समझाते और चले जाते; मगर लक्ष्मी
का दशा बबगड़ती जाती थी। य ााँ तक की पन्द्र वें हदन व भी सिंसार से मसिार
गयी। अत्न्तम समय रामू आया और उसके पैर छूना चा ता था; पर लक्ष्मी ने
उसे ऐसी खझझकी दी कक व उसके समीप न जा सका। सुभागी को उसने
आशीवाषद हदया- तुम् ारी जैसी बेटी पाकर तर गयी। मेरा कक्रया-कमष तुम् ीिं करना।
मेरी भगवान ् से य ी अरजी ैं कक उस जन्म में भी तुम मेरी कोख पववत्र करो।
अब चारों ओर से सगाई के पैगाम आने लगे। सभी उसके मलए माँु िैलाये ुए
थे। त्जसके घर सभ
ु ागी जायेगी, उसके भाग्य किर जायेंगे। सभ
ु ागी य ी जवाब
दे ती- अभी व हदन न ीिं आया।
त्जस हदन सभ
ु ागी ने आखखरी ककश्त चक
ु ायी, उस हदन उसकी खश
ु ी का हठकाना
न था। आज उसके जीवन का कठोर व्रत पूरा ो गया।
सभ
ु ागी ने कृतज्ञ भाव से दे खकर क ा- दादा, आपकी बात न मानाँग
ू ी तो ककसकी
बात मानाँग
ू ी? मेरा रोयााँ-रोयााँ आपका गुलाम ैं।
सजनमसिं - दे खो इनकार न करना, न ीिं, मैं किर तुम् ें अपना माँु न हदखाऊाँगा।
सभ
ु ागी- क्या आज्ञा ैं ?
सजनमसिं - मेरी इच्छा ै कक तुम मेरी ब ू बनकर मेरे घर को पववत्र करो। मै
जााँत-पााँत का कायल ू ाँ, मगर तुमने मेरे सारे बन्िन तोड़ हदए। मेरा लड़का
तम्
ु ारे नाम का पज
ु ारी ैं। तम
ु ने उसे बार ा दे खा। बोलो, मिंजरू करती ो?
सुभागी- मैं तो आपको अपना वपता समझती ू ाँ। आप जो कुछ करें गे, मेरे भले के
मलए करें गें! आपके ु क्म को कैसे इनकार कर सकती ू ाँ।
***
अनुभि
2
दस
ू रे हदन मैंने दो तार हदये- एक वपताजी को, दस
ू रा ससरु जी को। ससरु जी पें शन
पाते थे। वपताजी जिंगल के म कमें में अच्छे पद पर थे; पर सारा हदन गु र
गया, तार का जवाब नदारद! दस
ू रे हदन भी कोई जवाब न ीिं। तीसरे हदन दोनों
म ाशय के पत्र आये। दोनों ामें से बा र थे। ससुरजी ने मलखा- आशा थी, तुम
लोग बुढ़ापे में मेरा पालन करोगे। तुमने उस आशा पर पानी िेर हदया। क्या
अब चा ती ो, मैं मभक्षा मााँग?ू मैं सरकार से पेंशन पाता ू ाँ। तुम् ें आश्रय दे कर मैं
अपनी पें शन से ाथ न ी िो सकता। वपताजी के शब्द इतने कठोर न थे ; पर
भाव लगभग ऐसा ी था। इसी साल उन् ें ग्रेड ममलनेवाला था। व मझ
ु े बल
ु ायेंगे,
तो सम्भव ैं, ग्रेड से विंधचत ोना पड़े। ााँ, व मेरी स ायता मौखखक रूप से करने
को तैयार थे। मैने दोनो पत्र िाड़कर िेक हदये और किर उन् ें कोई पत्र न
मलखा। ा स्वाथष! तेरी माया ककतनी प्रबल ै । अपना ी वपता, केवल स्वाथष में
बािा पड़ने के भय से, लड़को की तरि से इतना तनदष य गो जाय? अपना ी ससुर
, अपनी ी ब ू की ओर से इतना उदासीन ो जाय! मगर अभी मेरी उम्र ी क्या
ै ? अभी तो सारी दतु नया दे खने को पड़ी ै।
अब तक मैं अपने ववर्य में तनत्श्चिंत थी; लेककन अब य नयी धचिंता सवार ु ई।
इस तनजषन घर में , तनरािार, तनराश्रय, कैसे र ू ाँगी; मगर जाऊाँगी क ााँ! अगर कोई
मदष ोती, तो कािंग्रेस के आश्रय में चली जाती या कोई मजदरू ी कर लेती। मेरे
पैरो में नारीतव की बेडड़यााँ पड़ी ु ई थी। अपनी रक्षा की इतनी धचिंता न थी,
त्जतनी अपने नारीतव की रक्षा की। अपनी जान की किक न थी; पर नारीतव की
ओर ककसी की आाँख भी न उठनी चाह ए।
ककसी की आ ट पाकर मैने नीचे दे खा। दो आदमी खड़े थे। जी में आया, पूछूाँ,
तुम कौन ो। य ााँ क्यों खड़े ो? मगर किर ख्याल आया, मुझे य पूछने का क्या
क़? आम रास्ता ैं। त्जसका जी चा े , खड़ा ो।
ककसी ने पक
ु ारा। मेरे रोये खड़े ो गये। मैने द्वार से कान लगाया। कोई मेरी
किंु डी खटखटा र ा था। कलेजा िक् -िक् करने लगा। व ी दोनो बदमाश ोगे।
क्यों किंु डी खडखड़ा र े ैं? मुझसे क्या काम ैं? मुझे झाँुझला ट आ गयी। मैने
द्वार न खोला और छज्जे पर खड़ी ोकर जोर से बोली- कौन किंु ड़ी खड़खड़ा र ा
ैं?
आवाज सुनकर मेरी शिंका शािंत ो गयी। ककतना ढारस ो गया! य बाबू
ज्ञानचन्द थे। मेरे पतत के ममत्रों में इनसे ज्यादा सज्जन दस
ू रा न ी ैं। मैने नीचे
जाकर द्वार खोल हदया। दे खो तो एक स्त्री भी थी। व ममसेज ज्ञानचन्द थी।
य मुझसे बड़ी थी। प ले-प ले मेरे घर आयी थी। मैंने उनके चरण-स्पशष ककये!
मारे य ााँ ममत्रता मदो तक र ती ैं , औरतों तक न ी जाने पाती।
दोनो जने ऊपर आये। ज्ञानबाबू एक स्कूल में मास्टर ैं। बड़े उदार, ववद्वान,
तनष्कपट; पर आज मुझे मालम
ू ु आ कक उनकी पथ-प्रदमशषका उनकी स्त्री ैं। व
दो रे बदन की प्रततभाशाली मह ला थी। चे रे पर ऐसा रौब था, मानो कोई रानी
ो। मसर से पााँव तक ग नों से लदी ु ई। मुख सुन्दर न ोने पर भी आकर्षक
था। शायद मैं उन् ें क ीिं और दे खती, तो माँु िेर लेती। गवष की सजीव प्रततमा
थीिं; पर बा र त्जतनी कठोर, भीतर उतनी ी दयालु।
'घर कोई पत्र मलखा?' - य प्रश्न उन् ोंने कुछ ह चकते ु ए ककया।
'तो किर?'
दे वीजी ने तीक्षण स्वर में क ा- ााँ, ोगा तो अवश्य। तुम दोनो जून-दो-तीन पाव
आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, मसर में दो-तीन आने का
तेल डालोगी। य क्या थोडा कष्ट ैं।
मैने ऐसी सहृदय, उदार, मीठी बातें करनेवाली स्त्री न ी दे खी। मैं उनकी छोटी
ब न ोती, तो भी शायद इससे अच्छी तर न रखतीिं। धचन्ता या क्रोि को तो
जैसे उन् ोंने जीत मलया ो। सदै व उनके मुख पर मिुर ववनोद खेला करता था।
कोई लड़का-बाला न था, पर मैं उन् ें कभी दुःु खी न ीिं दे खा। ऊपर के काम मलए
एक लौंडा रख मलया था। भीतर का सारा काम खुद करती। इतना कम खाकर
और इतनी मे नत करके व कैसे इतनी हृष्ट-पष्ु ट थीिं, मै न ी क ती सकती।
ववश्राम तो जैसे उनके भाग्य ी में न ीिं मलखा था। जेठ की दोप री में भी न
लेटती थीिं। ााँ, मुझे कुछ न करने दे ती, उसपर जब दे खो, कुछ खखलाने को मसर
पर सवार। मुझे य ााँ बस य ीिं एक तकलीि थी।
मगर आठ ी हदन गज
ु रे थे कक एक हदन मैने उन् ीिं दोनो खकु ियों को नीचे बैठा
दे खा। मेरा माथा ठनका। य अभागे य ााँ भी मेरे पीछे पड़े ैं। मैने तरु न्त
ब नजी से क ा- वे दोनों बदमाश य ााँ भी माँडरा र े ैं।
मगर मेरी दाल में मक्खीिं पड़ गयी। बार-बार छज्जे पर जाकर उन् ें ट लते दे ख
आती। य सब क्यों मेरे पीछे पड़े ु ए ैं ? आखखर मैं नौकरशा ी का क्या बबगाड़
सकती ू ाँ। मेरी सामर्थयष ी क्या ैं? क्या य सब इस तर मुझे य ााँ से भगाने
पर तुले ु ए ैं? इससे उन् ें क्या ममलेगा? य ी तो कक मै मारी-मारी किरूाँ! ककतनी
नीची तबीयत ैं।
एक फ्ता और गुजर गया। खुकिया ने वपिंड न छोड़ा। मेरे प्राण सूखते जाते थे।
ऐसी दशा में य ााँ र ना मुझे अनुधचत मालूम ोता था; पर दे वीजी से कुछ न
क सकती थी।
एक हदन ज्ञानबाबू आये, तो घबराये ु ए थे। मैं बरामदे में थी। परवल छील र ी
थी। ज्ञानबाबू ने कमरे में जाकर दे वीजी को इशारे से बुलाया।
'बेकसूर?'
'अब तम
ु से क्या क ू ाँ।'
'किर व ी पदाष। मैं क चुकी, य मेरी ब न ैं। मैं इससे कोई पदाष न ी रखना
चा ती।'
दे वीजी ने जैसे प े ली बझ
ू कर क ा- अच्छा! समझ गयी। कुछ खकु ियों का झगड़ा
ोगा। पुमलस ने तुम् ारे वप्रिंमसपल से मशकायत की ोगी।
ज्ञान बाबू ने इतनी आसानी से अपनी प े ली का बूझा जाना स्वीकार न ककया।
दे वीजी ने उन् ें आड़े ाथों मलया- त्जस प्रश्न का एक ी जवाब ो, उसमें सोच-
ववचार कैसा?
रात-भर मुझे नीिंद न ीिं आयी। बाप और ससुर त्जसका माँु न ीिं दे खना चा ते,
उसका य आदर! रा की मभखाररन का य सम्मान! दे वी, तू सचमुच दे वी ैं।
दस
ू रे हदन ज्ञान बाबू चले, तो दे वी ने किर क ा- िैसला करके घर आना। य न
ो कक सोचकर जवाब दे ने की जरूरत पड़े।
दे वी ने ास्य-भाव से क ा- क चक
ु ी; या कुछ और भी क ना ैं?
'अच्छा, बता तेरे वप्रयतम क्यों जेल गये? इसमलए तो कक स्वयिंसेवकों का सतकार
ककया था। स्वयिंसेवक कौन ैं ? वे मारी सेना के वीर ैं, जो मारी लड़ाईयााँ लड़
र े ैं। स्वयिंसेवकों के भी तो बाल-बच्चे ोंगे, मााँ-बाप ोगें , व भी तो कोई
कारोबार करते ोंगिं; पर दे श की लड़ाई के मलए, उन् ोंने सब कुछ तयाग हदया ैं।
ऐसे वीरों का सतकार करने के मलए, जो आदमी जेल में डाल हदया जाय, उसकी
स्त्री के दशषनों से भी आतमा पववत्र ोती ैं। मैं तझ
ु पर ए सान न ीिं कर र ीिं ू ाँ ,
तू मुझ पर ए सान कर र ी ैं।'
ज्ञान बाबू ने अकड़कर क ा- जीत! मैने इस्तीिा दे हदया, तो चक्कर में आ गया।
उसी वक़्त त्जला- ाककम के पास गया। व ााँ न जाने मोटर पर बैठकर दोनों में
क्या बातें ु ई। लौटकर मुझसे बोला- आप पोमलहटकल जलसों में तो न ी जाते?
मैने क ा- कभी भल
ू कर भी न ीिं।
'तो में आपसे कुछ न ी क ना ैं। मैं आपका इस्तीिा वापस करता ू ाँ।'
दे वीजी ने मझ
ु े गले से लगा मलया।
***
आखिरी हीला
क्योंकक धचत्र का दस
ू रा पक्ष भी तो दे खता ू ाँ। एक पक्ष त्जतना ी मो क और
आकर्षक ैं, दस
ू रा उतना ी हृदयववदारक और भयिंकर। शाम ु ई और आप
बदनसीब बच्चे को गोद में मलये तेल या ईिन की दक
ु ान पर खड़े ैं। अाँिेरा ु आ
और आप आटे की पोटली बगल में दबाये ु ए गमलयों में यों कदम बढ़ाये ुए
तनकल जाते ैं, मानो चोरी की ैं। सूयष तनकला और बालकों को गोद में मलये
ोम्योपैथ ड क्टर की दक
ु ान में टूटी कुसी पर आरूढ़ ैं। ककसी खोमचेवाले की
रसीली आवा सन
ु कर बालक ने गगनभेदी ववलाप आरम्भ ककया औऱ आपके
प्राण सूखे। ऐसे बापों को भी दे खा ैं जो दफ़्तर से लौटते ु ए पैसे-दो पैसे की
माँग
ू िली या रे वडड़यााँ लेकर लज्जास्पद शीध्रता के साथ माँु में रखते चले जाते ैं
कक घर प ु ाँ चते-प ु ाँचते बालकों के आक्रमण से प ले ी य पदाथष समाप्त ो
जाय। ककतना तनराशाजनक ोता ै य दृश्य, जब दे खता ू ाँ कक मेले में बच्चा
ककसी खखलौने की दक
ु ान के सामने मचल र ा ैं और वपता म ोदय ऋवर्यों की-
सी ववद्वता के साथ उनकी क्षणभिंगरु ता का राग आलाप र े ैं।
लेककन इिर कुछ हदनों से श्रीमतीजी ने अववश्रािंत रूप से आग्र करना शुऱू ककया
ै कक मुझे बुला लो। प ले जब छुहट्टयों में जाता था, तो मेरा केवल 'क ााँ चलोगी'
क दे ना उनकी धचततशात्न्त के मलए कािी ोता था, किर मैंने 'झिंझट ैं' क कर
तसल्ली दे नी शुरू की। इसके बाद ग ृ स्थ-जीवन की असुवविाओिं से डराया, ककन्तु
अब कुछ हदनों से उनका अववश्वास बढ़ता जाता ैं। अब मैने छुहट्टयों में भी
उनके आग्र के भय से घर जाना बन्द कर हदया ैं कक क ीिं व मेरे साथ न
चल खड़ी ो और नाना प्रकार के ब ानों से उन् ें आशिंककत करता र ता ू ाँ।
मुझे ववश्वास था कक श्रीमतीजी किर य ााँ आने का नाम न लें गी। मगर य मेरा
भ्रम था। उनके आग्र पूवव
ष त ् ोते र े !
तब मैंने दस
ू रा ब ाना सोचा। श र बीमाररयों के अड्डे ैं। र एक खाने -पीने की
चीज में ववर् की शिंका, दि
ू में ववर्, िलों में ववर्, शाक-भाजी में ववर्, वा में ववर्,
पानी में ववर्। य ााँ मनष्ु य का जीवन पानी का लकीर ैं। त्जसे आज दे खो, व
कल गायब। अच्छे -खासे बैठे ैं, हृदय की गतत बन्द ो गयी। घर से सैर को
तनकले, मोटर से टकराकर सुरपुर की रा ली। अगर शाम को सािंगोपािंग घर आ
जाय, तो उसे भाग्यवान समझो। मच्छर की आवाज कान में आयी, हदल बैठा;
मक्खी नजर आयी और ाथ-पााँव िूले। चू ा बबल से तनकला और जान तनकल
गयी। त्जिर दे खखए, यमराज की अमलदारी ैं। अगर मोटर और राम से बचकर
आ गये, तो मच्छर और मक्खी के मशकार ु ए। बस, य ी समझ लो कक मौत
रदम मसर पर खेलती र ती ैं। रात-भर मच्छरों से लड़ता ू ाँ , हदन-भर मत्क्खयों
से। नन् ीिं-सी जान को ककन-ककन दश्ु मनों से बचाऊाँ। सााँस भी मुत्श्कल से लेता ू ाँ
कक क ीिं क्षय के कीटाणु िेिड़े में न प ु ाँच जायाँ।
मैने समझा कक मारा य ब ाना तनशाने पर बैठेगा। ऐसे घर में कौन रमणी
र ना पसन्द करे गी, जो ममत्रों पर ी अवपषत ो गया ो। ककन्तु मुझे किर भ्रम
आखखर मझ
ु े पााँचवााँ ब ाना करना पड़ा। य खोंचेवालों के ववर्य में था।
अभी बबस्तर से उठने की नौबत न ीिं आयी कक कानों में ववधचत्र आवाजें आने
लगीिं। काबल
ु के मीनार के तनमाषण के समय भी ऐसी तनरथषक आवाजें न आयी
ोंगी। य खोंचेवालों की शब्द-क्रीड़ा ैं। उधचत तो य था, य खोंचेवाले ढोल-
माँजीरे के साथ लोगों को अपनी चीजों की ओर आकवर्षत करते; मगर इन औिंिी
अक्लवालों को य क ााँ सूझती ैं। ऐसे पैशाधचक स्वर तनकालते ैं कक
सुननेवालों के रोएाँ खड़े ो जाते ैं। बच्चे मााँ की गोद में धचपट जाते ैं। मैं भी
रात को अक्सर चौंक पड़ता ू ाँ । एक हदन तो मेरे पड़ोस में एक दघ
ु ट
ष ना ो गयी।
ग्यार बजे थे। कोई मह ला बच्चे को दि
ू वपलाने उठी थी। एकाएक ककसी
खोंचेवाले की भयिंकर ध्वतन कानों में आयी, तो चीख मारकर धचल्ला उठी और
किर बे ोश ो गयी। म ीनों की दवा-दारू के बाद अच्छी ु ई। अब रात को कानों
में रुई डालकर सोती ैं। ऐसे कारण नगरों में तनतय ी र ते ैं। मेरे ी ममत्रों में
कई ऐसे ैं , जो अपनी त्स्त्रयों को घर में लाये मगर बेचाररयााँ दस
ू रे ी हदन इन
आवाजों से भयभीत ोकर लौट गयीिं।
श्रीमती ने इसके जवाब में मलखा- तुम समझते ो, मैं खोंमवालों की आवाजों से
डर जाऊाँगी। य ााँ गीदड़ो का ौवाना और उल्लूओिं का चीखना सुनकर तो डरती
न ीिं, खोंमेवालों से क्या डरूाँगी।
मालूम न ी, इस पत्र में मुझसे क्या गलती ु ई कक तीसरे हदन पतनीजी एक बूढ़े
क ार के साथ मेरा पता पूछती ु ई अपने तीनो बच्चों को मलये एक असाध्या
रोग का भााँतत आ डटी।
अच्छा, तो अब र स्य खुला। मैने मसर पीट मलया। क्या जानता था, तमाचा अपने
ी माँु पर पड़ेगा!
***
िािान
छकौड़ीलाल ने दक
ु ान खोली और कपड़े के थानों को तनकाल-तनकाल रखने लगा
कक एक मह ला, दो स्वयिंसेवकों के साथ उसकी दक
ू ान को छिं कने आ प ु ाँ चीिं।
छकौड़ी के प्राण तनकल गये।
छकौड़ी ने वास्तव में कल कािंग्रेस की सील तोड़ डाली थी। य ततरस्कार सुनकर
उसने मसर नीचा कर मलया। उसके पास कोई सिाई न थी, जवाब न था। उसकी
दक
ु ान ब ु त छोटी थी। ठे ली पर कपड़े लगाकर बेचा करता था। य ी जीववका थी।
इसी पर वद्ध
ृ ा माता, रोधगणी स्त्री और पााँच बेटे-बेहटयों का तनवाष ोता था। जब
स्वराज्य-सिंग्राम तछड़ा और सभी बजाज ववलायती कपड़ो पर मु रें लगवाने लगे,
तो उसने भी मु र लगवा ली। दस-पााँच थान स्वदे शी कपड़ो के उिार लाकर
दक
ु ान पर रख मलए; पर कपड़ों का मेल न था, इसमलए बबक्री कम ोती थी। कोई
भूला-भटका ग्रा क आ जाता, तो रुपये-आठ आने बबक्री ो जाती। हदन-भर दक
ू ान
में तपस्या-सी करके प र रात को लौट जाता था।
ग ृ स्थी का खचष इस बबक्री से क्या चलता! कुछ हदन कजष-वजष लेकर काम
चलाया, किर ग ने बेचने की नौबत आयी। य ााँ तक कक अब घर में कोई ऐसी
चीज न बची, त्जससे दो-चार म ीने पेट का भूत मसर से टाला जाता। उिर स्त्री
का रोग असाध्य ोता जाता था। बबना ककसी कुशल ड क्टर को हदखाये काम न
चल सकता था। इसी धचन्ता में डूब-उतरा र ा था कक ववलायती कपड़े का एक
ग्रा क ममल गया, जो एक मश्ु त दस रुपये का माल लेना चा ता था। इस
प्रलोभन को व रोक न सका।
अब ड क्टर को कैसे ले जाय। स्त्री से परदा रखता? उसने जाकर साफ़-साफ़ सारा
वतृ तािंत क सुनाया और ड क्टर को बुलाने चला।
2
छकौड़ी ने मह ला के मलए अिंदर से लो े की एक टूटी, बेरिंग कुसी तनकाली और
लपककर उसके मलए पान लाया। जब पान खाकर कुसी पर बैठी, तो उसनें
अपराि के मलए क्षमा मााँगी। बोला- ब नजी, बेसक मुझसे य अपराि ु आ ैं,
लेककन मैने मजबूर ोकर मु र तोड़ी। अबकी मुझे मुआिी दीत्जए। किर ऐसी
खता न ोगी।
दस
ू रे हदन प्रातुःकाल बायकाट-कमेटी ने एक स्वयिंसेवक द्वारा उसे सूचना दे दी
कक कमेटी ने उस पर 101रू. का दिं ड हदया ैं।
'तुम् ारे क ने से क ो, चला जाऊाँ, मगर व ााँ ठठोली के मसवा और कुछ न ोगा।'
'जी ााँ!'
अम्बा एक क्षण अतनत्श्चत दशा में खड़ी छकौड़ी का माँु दे खती र ी, किर िीरे से
खाट पर बैठ गयी। उसकी उततेजना ग रे ववचार में पररणत ो गयी। कािंग्रेस की
और अपनी त्जम्मेदारी का ख्याल आ गया। प्रिानजी के कथन ककतने सतय थे ,
य उससे तछपा न र ा।
'रुपये क ााँ से आवें गे? भोजन के मलए तो हठकाना ी न ीिं, दिं ड क ााँ से दें ?'
***
घासिाली
मुमलया री- री घास का गट्ठा लेकर आयी, तो उसका गे ु ाँआ रिं ग कुछ तमतमाया
सिंघर्ष की गरमी में चोट की व्यथा न ी ोती, पीछे से टीस ोने लगती ैं।
मुमलया जब कुछ दरू तनकल गयी, तो क्रोि और भय तथा अपनी बेबसी का
अनुभव करके उसकी आाँखों में आाँसू भर आये। उसने कुछ दे र जब्त ककया, किर
मससक-मससक रोने लगी। अगर व इतनी गरीब न ोती, तो ककसी की मजाल थी
कक इस तर उसका अपमान करता! व रोती जाती थी और घास तछलती जाती
थी। अगर उससे क दे , तो व इस ठाकुर के खन
ू का प्यासा ो जायेगा। कि न
जाने क्या ो! इस ख्याल से उसके रोएाँ खड़े ो गये। इसीमलए उसने म ावीर के
प्रश्नों का कोई उततर न हदया।
दस
ू रे हदन ममु लया घास के मलए न गयी। सास ने पछ
ू ा- तू क्यों न ी जाती और
सब तो चली गयीिं?
द्वार पर नीम के दरख्त के साये में म ावीर खड़ा, घोड़े को मल र ा था। उसने
मुमलया को रोनी सूरत बनाये जाते दे खा, पर कुछ बोल न सका। उसका बस
चलता, तो मुमलया को कलेजे में बबठा लेता, आाँखों में तछपा लेता, लेककन घोड़े का
पेट भी तो भरना जरूरी था। घास मोल लेकर खखलाये, तो बार आने रोज से कम
न पड़े। ऐसी मजदरू ी ी कौन ोती ै । मुत्श्कल से डेढ़-दो रुपये ममलते ै, व भी
कभी ममले, कभी न ममले। जब से सतयानाशी लाररयााँ चलने लगी ै , इक्केवालों
की बधिया बैठ गयी ैं। कोई सेंत भी न ीिं पछ
ू ता। म ाजन से डेढ़ सौ रुपये
उिार लेकर इक्का और घोड़ा खरीदा था, मगर लाररयो के आगे इक्के को कौन
पूछता ै ? म ाजन का सूद भी तो न प ु ाँच सकता था! मूल का क ना ी क्या।
ऊपरी मन से बोला- न मन ो, तो र ने दे , दे खी जायेगी।
मुमलया की छाती िक् से ो गयी। जी में आया, भाग जाय, झाबा उलट दे और
खाली झाबा लेकर चली जाय, पर चैनमसिं ने कई गज के िासले से ी रुककर
क ा- डर मत, डर मत! भगवान ् जानता ै , मैं तम
ु से कुछ न बोलाँ ग
ू ा। त्जतनी
घास चा े तछल ले, मेरा ी खेत ैं।
चैनमसिं ने आश्वासन हदया- छीलती क्यों न ीिं? मैं तुझसे कुछ क ता थोड़ा ी ू ाँ।
य ीिं रोज चली आया कर, मै छील हदया करूाँगा।
ममु लया चप
ु चाप सन
ु ती र ी, किर मसर नीचा करे भोलेपन से बोली- तो तम
ु क्या
करने को क ते ो?
मुमलया ने मसर उठाकर उसकी ओर दे खा। उशकी लज्जा न जाने क ााँ गायब ो
गयी। चुभते ु ए शब्दों में बोली- तुमसे एक बात क ू ाँ, बुरा तो न मानोगे? तुम् ारा
वववा ो गया या न ीिं?
ममु लया- इसमलए न, कक जानते ो, मैं कुछ कर न ीिं सकती। जाकर ककसी
खतरानी के चरणों पर मसर रक्खों, तो मालम
ू ो कक चरणों पर मसर रखनें का
क्या िल ममलता ैं! किर, य मसर तुम् ारी गदष न पर न र े गा।
चैनमसिं मारे शमष के जमीन में गड़ा जाता था। उसका माँु ऐसा सख
ू गया था,
मानो म ीनों की बीमारी से उठा ो। माँु से बात न तनकलती थी। मुमलया इतनी
वाक्पटु ै , इसका उसे गुमान न था।
ममु लया किर बोली- मैं भी रोज बाजार जाती ू ाँ। बड़े-बड़े घरों का ाल जानती ू ाँ।
मुझे ककसी बड़े घर का नाम बता दो, त्जसमें कोई साईस, कोई कोचवान, कोई
क ार, कोई पिंड़ा, कोई म ाराज न घुसा बैठा ो ?य सब बड़े घर की लीला ैं।
और वे औरतें जो कुछ करती ैं, ठीक करती ैं। उनके घरवाले भी तो चमाररनों
और क ाररनों पर जान दे ते किरते ैं। लेना-दे ना बराबर ो जाता ैं। बेचारे गरीब
आदममयों के मलए य बातें क ााँ? मेरे आदमी के मलए सिंसार में जो कुछ ैं, मैं ू ाँ।
व ककसी दस
ू री म ररया की और आाँख उठाकर भी न ीिं दे खता। सिंयोग का बात
ैं कक मैं ततनक सन्
ु दर ू ाँ , लेककन काली-कलट
ू ी भी ोती, तब भी व मझ
ु े इसी
तर रखतास इसका मझ
ु े ववश्वास ैं। मैं चमाररन ोकर भी इतनी नीच न ीिं ू ाँ
कक ववश्वास का बदला खोट से दाँ ।ू ााँ, व अपने मन की करने लगे, मेरी छाती
पर माँग
ू दलने लगे, तो मै भी उसकी छाती पर माँग
ू दलाँ ग
ू ी। तुम मेरे रूप के ी
दीवाने ो न? आज मुझे माता तनकल जाये, कानी ो जाऊाँ, तो मेरी ओर ताकोगे
भी न ीिं। बोलो, झूठ क ती ू ाँ ?
ममु लया ने उसी गवष से भरे ु ए स्वर में क ा- लेककन मेरी एक न ीिं, दोनो आाँखें
िूट जाएाँ, तब भी व मुझे इसी तर रखेगा। मुझे उठावेगा, बैठावेगा, खखलावेगा।
तुम चा ते ो, मैं ऐसे आदमी के साथ कपट करूाँ? जाओ, अब मुझे कभी न छे ड़ना,
न ी अच्छा न ोगा!
चैनमसिं उस हदन से दस
ू रा ी आदमी ो गया। गुस्सा उसकी नाक पर र ता
था, बात-बात पर मजदरू ों के गामलयााँ दे ना, डााँटना और पीटना उसकी आदत थी।
आसामी थरथर कााँपते थे। मजदरू उसे आते दे खकर अपने काम में चुस्त ो जाते
थे। पर ज्यों ी उसने पीठ िेरी और उन् ोंने धचलम पीना शुरू ककया। सब हदल में
उससे जलते थे, उसे गामलयााँ दे ते थे, मगर उस हदन से चैनमसिं इतना दयालु,
गिंभीर, इतना स नशील ो गया कक लोगों को आश्चयष ोता था।
कई हदन गज
ु र गये। एक हदन सिंध्या समय चैनमसिं खेत दे खने गया। परु चल
र ा था। उसने दे खा कक एक जग नाली टूट गयी ैं और सारा पानी ब ा चला
जाता ैं। क्याररयों में पानी बबल्कुल न ीिं प ु ाँचता, मगर क्यारी बनानेवाली बुहढ़या
चुपचाप बैठी ैं। उसे जरा भी किक्र न ी ै कक पानी क्यों न ीिं आता ैं। प ले
य दशा दे खकर चैनमसिं आपे से बा र ो जाता। उस औरत की उस हदन की
पूरी मजूरी काट लेता और पुर चलानेवालों को घुड़ककयााँ जमाता, पर आज उसे
क्रोि न ी आया। उसने ममट्टी लेकर नाली बााँि दी और खेत में जाकर बहु ढ़या से
बोला- तू य ााँ बैठी ैं और पानी ब ा जा र ा ैं।
बुहढ़या घबराकर बोली- अभी खुल गया ोगा राजा। मैं अभी जाकर बन्द ककये
दे ती ू ाँ।
बुहढ़या गद्-गद् ोकर बोली- आजकल तो खाली ी बैठे ैं भैया, क ीिं काम न ीिं
लगता।
दस
ू रा- मैंने तो समझा, आज कच्चा ी खा जायाँगे।
दस
ू रा- अब खब
ू हदल लगाकर काम करें गे।
तीसरा- और क्या! जब उन् ोंने मारे ऊपर छोड़ हदया, तो मारा भी िरम ैं कक
कोई कसर न छोड़े।
एक हदन चैनमसिं को ककसी काम से कच री जाना था। पााँच मील का सिर था।
यों तो बराबर अपने घोड़े पर जाया करता था, पर आज िूप बड़ी तेज ो र ी थी,
सोचा इक्के पर चला चलाँ ।ू म ावीर को क ला भेजा, मुझे भी लेते जाना। कोई नौ
बजे म ावीर ने पुकारा। चैनमसिं तैयार बैठा था। झटपट इक्के पर बैठ गया, मगर
घोड़ा इतना दब
ु ल
ष ो र ा था, इक्के को गद्दी इतनी मैली और िटी ु ई, सारा
सामान इतना रद्दी कक चैनमसिं को उसपर बैठते शमष आयी! पूछा- य सामान
क्यों बबगड़ा ु आ ैं म ावीर? तम्
ु ारा घोड़ा तो इतना दब
ु ल
ष , कभी न था। आजकल
सवाररयााँ कम ैं क्या?
म ावीर ने क ा- न ीिं मामलक, सवाररयााँ का े न ी ैं , मगर लारी के सामने इक्के
को कौन पूछता ैं? क ााँ दो, ढाई, तीन की मजूरी करके घर लौटता था, क ााँ अब
बीस आने भी न ी ममलते? क्या जानवर को खखलाऊाँ, क्या आप खाऊाँ? बड़ी
ववपत्तत में पड़ा ू ाँ। सोचता ू ाँ , इक्का-घोड़ा बेच-बाचकर आप लोगों की मजरू ी कर
लाँ ू, पर कोई ग्रा क न ी लगता। ज्यादा न ी तो बार आने तो घोड़े को चाह ए,
घास ऊपर से। अब अपना ी पेट न ीिं चलता, जानवर को कौन पूछे।
म ावीर मसर झुकाकर बोला- खेती के मलए बड़ा पौरुख चाह ए मामलक, मैने तो
य ी सोचा कक कोई ग्रा क लग जाए, तो इक्के को औने-पौने तनकाल द,ू किर घास
छीलकर बाजार ले जाया करूाँ। आजकल सास-पतो ू दोनो घास छीलती ैं, तब
जाकर दो-चार आने पैसे नसीब ोते ैं।
चैनमसिं ने पछ
ू ा- तो बहु ढ़या बाजार जाती ोगी?
म ावीर लजाता ु आ बोला- न ीिं भैया, व इतनी दरू क ााँ चल सकती ैं।
घरवाली चली जाती ैं। दोप र तक घास छीलती ैं , तीसरे प र बाजार जाती ैं।
व ााँ से घड़ी रात गये लौटती ैं। लकान ो जाती ैं भैया, मगर क्या करूाँ,
तकदीर से क्या जोर!
कोई चार बजे चैनमसिं कच री से िुरसत पाकर बा र तनकले। ाते में पान की
दक
ु ान थी, जरा और आगे बढ़कर एक घना बरगद का पेड़ था। उसकी छााँ में
बीसों ी तािंगे, इक्के, किटनें खड़ी थी। घोड़े खोल हदये गये थे। वकीलों, मख्
ु तारो
और अिसरों की सवाररयााँ य ीिं खडी र ती थी। चैनमसिं ने पानी वपया, पान
खाया और सोचने लगा, कोई लारी ममल जाय तो जरा श र चला जाऊाँ कक उसकी
तनगा एक घासवाली पर गयी। मसर पर घास का झाबा रखे साईसों से मोल-
भाव कर र ी थी। चैनमसिं का हृदय उछल पड़ा- य तो मुमलया ैं! बनी-ठनी,
एक गुलाबी साड़ी प ने कोचवानों से मोल-भाव कर र ी थी। कई कोचवान जमा
ो गये थे। कोई हदल्लगी करता था, कोई घरू ता था, कोई ाँसता था।
मुमलया ने उन्माद पैदा करनेवाली आाँखों से दे खकर क ा- छुः आने पर लेना ैं,
तो सामने घमसयाररनें बैठी ैं , जोऔ दो-चार पैसे कम में पा जाओगे, मेरी घास तो
बार आने में जायेगी?
एक तााँगेवाले ने, जो गुलाबी पगड़ी बााँिे ु ए था, क ा- बुढई के माँु में भी पानी
भर आया, अब मुमलया का े को ककसी की ओर दे खेगी!
एकाएक ममु लया घास का झाबा मलये उस किटन के पीछे दौड़ी। किटन में
अिंगरे जी िैशन के जवान वकील सा ब बैठे ैं। उन् ोने पायदान के पास घास
रखवा ली, जेब से कुछ तनकालकर मुमलया को हदया। मुमलया मुस्काई। दोनों में
कुछ बाते ु ई, जो चैनमसिं न सुन सके।
पानवाला बोला- कैसी बीमारी! आि घिंटे से य ााँ खड़े ो जैसे कोई मुदाष खड़ा ो।
सारी कच री खाली ो गयी, सब दक
ु ाने बन्द ो गयीिं, मे तर तक झाड़ ू लगाकर
चल हदये, तम्
ु ें कुछ खबर न ु ई? य बरु ी बीमारी ,ैं जल्दी दवा कर डालो।
चैनमसिं ने जरा दे र बाद क ा- मेरी एक सला ैं। तुम मुझसे एक रुपया रोज
मलया करो। बस, जब मैं बुलाऊाँ, तो इक्का लेकर चले आया करो। तब तो तुम् ारी
घरवाली को घास लेकर बाजार न आना पड़ेगा। बोलो, मिंजूर ू ाँ ?
चैनमसिं ने बात काटकर क ा- न ीिं, मैं तुमसे बेगार न ीिं लेना चा ता। तुम मुझसे
एक रुपया रोज ले जाया करो। घास लेकर घरवाली को बाजार मत भेजा करो।
तुम् ारी आबरू मेरी आबरू ैं। और भी रुपये-पैसे का जब काम लगे, बेखटक चले
आया करो। ााँ, दे खो, मुमलया से इस बात की भूलकर भी चचाष न करना। क्या
िायदा!
दोनो एक क्षण चप
ु खड़े र े । ककसी को कोई बात न सझ
ू ती थी। एकाएक ममु लया
ने मस्
ु कराकर क ा- य ीिं तम
ु ने मेरी बााँ पकड़ी थी।
मुमलया गद्-गद् किंठ से बोली- उसे क्यों भूल जाऊाँ? उसी बााँ ग े की लाज तो
तनभा र े ो! गरीबी आदमी से जो चा े करावे। तुमने मुझे बचा मलया।
पवन के मसिंचे ु ए खेतों में ववश्राम करने जा र ा था, सूयष तनशा की गोद में
ववश्राम करने जा र ा था, और इस ममलन प्रकाश में चैनमसिं मुमलया की ववलीन
ोती ु ई रे खा को खड़ा दे ख र ा था।
***
धगला
जीवन का बड़ा भाग इसी घर में गुजर गया, पर कभी आराम न नसीब ु आ।
मेरे पतत सिंसार की दृत्ष्ट में बड़े सज्जन, बड़े मशष्ट, बड़े उदार, बड़े सौम्य ोंगे,
लेककन त्जस पर गुजरती ैं, व ी जानता ैं। सिंसार को तो उन लोगों की प्रशिंसा
करने में आनन्द आता ैं , जो अपने घर को भाड़ में झोंक र े ों, गैरों के पीछे
अपना सवषनाश ककये डालते ों। जो प्राणी घरवालों के मलए मरता ैं , उसकी
प्रशिंसा सिंसारवाले न ीिं करते। व तो उनकी दृत्ष्ट में स्वाथी ैं , कृपण ैं, सिंकीणष
हृदय ैं, आचार-भ्रष्ट ैं। इसी तर जो लोग बा रवालों के मलए मरते ैं, उनकी
प्रशिंसा घरवाले क्यों करने लगे! अब इन् ीिं को दे खो, सारे हदन मुझे जलाया करते
ैं। मैं परदा न ीिं करती, लेककन सौदे -सुलि के मलए बाजार जाना बुरा मालूम
ोता ैं। और इनका य ाल ैं कक चीज माँगवाओ, तो ऐसी दक
ू ान से लायेंगे,
ज ााँ कोई ग्रा क भल
ू कर भी न जाता ो। ऐसी दक
ू ानों पर न तो चीज अच्छी
ममलती ैं, न तौल ठीक ोती ैं , न दाम ी उधचत ोते ैं। य दोर् न ोते, तो
दक
ू ान बदनाम ी क्यों ोती, पर इन् ें ऐसी ी गयी-बीती दक
ू ानों से चीजें लाने
का मर ैं। बार-बार क हदया, सा ब, ककसी चलती ु ई दक
ू ान से सौदे लाया
करो। व ााँ माल अधिक खपता ैं, इसमलए ताजा माल आता ैं , पर इनकी तो
टुटपाँत्ू जयों से बनती ैं, और वे इन् ें उलटे छूरे से माँड
ू ते ैं। गे ू ाँ लायेंगे, तो सारे
बाजार से खराब, घन
ु ा ु आ, चावल ऐसा मोटा कक बैल भी न पछ
ू े , दाल में कराई
और किंकड़ भरे ु ए। मनों लकड़ी जला डालो, क्या मजाल कक गले। घी लायेंगे, तो
आिों-आि तेल या सोल ों आने कोकोजेम और दरअसल घी भी एक छटााँक कम!
तेल लायेंगे तो ममलावट, बालों में डालो तो धचपट जायें, पर दाम दे आयेंगे शुद्ध
आाँवले के तेल का! ककसी चलती ु ई नामी दक
ू ान पर जाते इन् ें जैसे डर लगता
ैं। शायद ऊाँची दक
ू ान और िीका पकवान के कायल ैं। मेरा अनम
ु ान तो य ैं
कक नीची दक
ू ान पर ी सड़े पकवान ममलते ैं।
एक हदन की बात ो, तो बदाषश्त कर ली जाय, रोज-रोज का टिं टा न ीिं स ा
जाता। मैं पछ
ू ती ू ाँ, आखखर आप टुटपाँत्ू जयों की दक
ू ान पर जाते क्यों ो? क्या
उनके पालन-पोर्ण का ठे का तुम् ीिं ने मलया ैं? आप िरमाते ैं दे खकर सब-के-
सब बुलाने लगते ैं! वा , मुझे क्या क ना ैं! ककतनी दरू की बात ैं? जरा इन् ें
बुला मलया और खुशामद के दो-चार शब्द सुना हदये, थोड़ी स्तुतत कर दी, बस,
आपका ममजाज आसमान पर जा प ू ाँचा। किर इन् ें सुधि न ी र ती कक य
कूड़ा-करकट बााँि र ा ैं कक क्या। पछ
ू ती ू ाँ, तम
ु उस रास्ते से जाते ी क्यों ो?
क्यों ककसी दस
ू रे रास्ते से न ीिं जाते? ऐसे उठाईगीरों को माँु ी क्यों लगाते ो?
इसका जवाब न ी। एक चुप सौ बािाओिं को राती ैं।
ुई ैं और रके चीज करीने से रखी ु ई ैं। गदष -गुबार का नाम न ीिं। मै चककत
ोकर दे खने लगी। आप ाँसकर बोले- दे खती क्या ो! आज घूरे ने बड़े सबेरे
उठकर झाडू लगायी ैं। मैने समझा हदया। तम
ु ढिं ग से बताती न ीिं, उलटे डााँटने
लगती ो।
म ाशय हदल में समझते ोंगे , मैं ककतना ववनीत, ककतना परोपकारी ू ाँ। शायद
इन् ें इन बातों का गवष ो। मैं इन् ें परोपकारी न ी समझती, न ववनीत ी
समझती ू ाँ। य जड़ता ैं, सीिी-सादी तनरी ता। त्जस मे तर को आपने अपना
कोट हदया, उसे मैने कई बार रात को शराब के नशे में मस्त झूमते दे खा ैं और
आपको हदखा भी हदया ैं। तो किर दस
ू रों की वववेक ीनता की परु ौती म क्यों
करें ? अगर आप ववनीत और परोपकारी ोते, तो घरवालों के प्रतत भी तो आपके
मन में कुछ उदारता ोती, या सारी उदारता बा रवालों के मलए सुरक्षक्षत ैं?
घरवालों को उसका अल्पािंश भी न ममलना चाह ए? मेरी इतनी अवस्था बीत गयी,
पर इस भले आदमी ने कभी अपने ाथ से मुझे एक उप ार भी न हदया। बेशक
मैं जो चीज बाजार से माँगवाऊाँ, उसे लाने में इन् ें जरा भी आपत्तत न ीिं, बबल्कुल
उज्र न ी, मगर रुपये मैं दे दाँ ,ू य शतष ैं। इन् ें खद
ु कभी य उमिंग न ी ोती।
य मैं मानती ू ाँ कक बेचारे अपने मलए भी कुछ न ीिं लाते। मै जो कुछ माँगवा दाँ ,ू
उसी पर सन्तुष्ट ो जाते ैं, मगर आखखर आदमी कभी-कभी शौक की चीजें
चा ता ी ैं। अन्य पुरुर्ों को दे खती ू ाँ , स्त्री के मलए तर -तर के ग ने, भााँतत-
भााँतत के कपड़े, शौंक-मसिंगार की वस्तुएाँ लाते र ते ैं। य ााँ व्यव ार का तनर्ेि ैं।
बच्चों के मलए भी ममठाइयााँ, खखलौने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये
ो। शपथ-सी खा ली ैं। इसमलए मैं इन् ें कृपण क ू ाँगी, अरमसक क ू ाँगी, हृदय-
शून्य क ू ाँगी, उदार न ी क सकती। दस
ू रों के साथ इनका जो सेवा-भाव ैं, उसका
कारण ैं, इनका यश-लोभ और व्याव ाररक अज्ञानता। आपके ववनय का य ाल
ैं, कक त्जस दफ्तर में आप नौकर ैं , उसके ककसी अधिकारी से आपका मेल-जोल
न ीिं। अिसरो को सलाम करना तो आपकी नीतत के ववरूद्ध ैं , नजर या डाली तो
दरू की बात ैं। और-तो-और, कभी ककसी अिसर के घर न ीिं जाते। इसका
खाममयाजा आप न उठायें, तो कौन उठाये? औरों को ररआयती छुहट्टयााँ ममलती ैं,
आपको कोई पछ
ू ता भी न ीिं, ात्जरी में पााँच ममनट की दे र ो जाय, तो जवाब
पूछा जाता ैं। बेचारे जी तोड़कर काम करते ैं, कोई बड़ा कहठन काम आ जाता
ैं, तो इन् ीिं के मसर मढ़ा जाता ैं, इन् ें जरा भी आपत्तत न ीिं। दफ्तर में इन् ें
'तघस्सू, वपस्स'ू आहद उपाधियााँ ममली ैं, मगर पड़ाव ककतना ी बड़ा मारे , इनके
भाग्य में व ी सूखी घास मलखी ैं। य ववनय न ीिं ैं! स्वािीन मनोवत्ृ तत भी
न ीिं ैं, मैं तो इसे समय-चातरु ी का अभाव क ती ू ाँ , व्याव ाररक ज्ञान की क्षतत
क ती ू ाँ। आखखर कोई अिसर आपसे प्रसन्न क्यो ो? इसमलए कक आप बड़े
मे नती ैं? दतु नया का काम मरु ौवत और रवादारी से चलता ैं। अगर म ककसी
से खखिंचे र ें , तो कोई कारण न ीिं कक व मसे खखिंचा र े । किर, जब मन में क्षोभ
ोता ैं, तो व दफ्तरी व्यव ारों में भी प्रकट ो गी जाता ैं। जो मात त
अिसर को प्रसन्न रखने की चेष्टा करता ैं , त्जसकी जात से अिसर को कोई
क्यत्क्तगत उपकार ोता ैं , त्जस पर व ववश्वास कर सकता ैं, उसका मल ाज
व स्वभावतुः करता ैं। ऐसे मसराधगयों से क्यों ककसी को स ानुभूतत ोने लगी?
अिसर भी तो मनुष्य ैं। उनके हृदय में जो सम्मान और ववमशष्टता की कामना
ैं, व क ााँ से पूरी ो? जब अिीनस्थ कमषचारी ी उससे किरिं ट र ें , तो क्या उसके
अिसर उसे सलाम करने आयेंगे? आपने ज ााँ नौकरी की, व ााँ से तनकाले गये या
कायाषधिक्य के कारण छोड़ बैठे।
मैं उनका क्रोि उततेत्जत करने के ववचार से क ती ू ाँ - आकर बैठा तो ैं, जाकर
पूछते क्यों न ीिं? पूछकर ार गयी, क ााँ गया था, कुछ बोलता ी न ीिं।
लड़का थर-थर कााँपता ु आ आकर आाँगन में खड़ो ो जाता ैं। दोनों बत्च्चयााँ
घर में तछप जाती ैं कक कोई बड़ा भयिंकर कािंड ोने वाला ैं। छोटा बच्चा
खखड़की से चू े की तर झााँक र ा ैं। आप क्रोि से बौखलाए ु ए ैं! ाथ में
छड़ी ैं ी, मैं भी य क्रोिोन्मतत आकृतत दे खकर पछताने लगती ू ाँ कक क ााँ से
मशकायत की। आप लड़के के पास जाते ै , मगर छड़ी जमाने के बदले आह स्ते
से उसे किंिे पर ाथ रखकर बनावटी क्रोि से क ते ैं - तुम क ााँ गये थे जी?
मना ककया जाता ैं, मानते न ीिं ो। खबरदार, जो अब कभी इतनी दे र ोगी?
आदमी शाम को अपने घर चला आता ैं या मटरगश्ती करता ैं ?
मैं पराभूत ो जाती ू ाँ- तुम तो जैसे डर गये। भला, दो-चार तमाचे तो लगाये
ोते! इसी तर लड़के शेर ो जाते ैं।
आप िरमाते ैं - तुमने सुना न ीिं, मैने ककतने जोर से डााँटा! बच्चू की जान ी
तनकल गयी ोगी। दे ख लेना, जो किर कभी दे र से आये।
'तम
ु ने मेरी डााँट सन
ु ी न ीिं?'
'क्या क ना ैं, आपकी डााँट का! लोगों के कान ब रे ो गये । लाओ, तुम् ारा गला
स ला दाँ ।ू '
- कामाक्षी
शमाषजी को र बार इस कववता में एक नया रस ममलता था। उन् ोंने उसी क्षण
कामाक्षी दे वी के नाम य पत्र मलखा-
'आपकी कववता पढ़कर, मैं क न ीिं सकता, मेरे धचतत की क्या दशा ु ई। हृदय में
एक ऐसी तष्ृ णा जाग उठी ैं, जो मझ
ु े भस्म ककये डालती ैं। न ी जानता, इसे
कैसे शान्त करूाँ? बस य ी आशा ैं कक इसको शीतल करनेवाली सि
ु ा भी व ीिं
ममलेगी, ज ााँ से य तष्ृ णा ममली ैं। मन पतिंग की भााँतत जिंजीर तड़
ु ाकर भाग
जाना चा ता ैं। त्जस हृदय से य भाव तनकले ैं , उसमें प्रेम का ककतना अक्षय
भिंडार ैं, उस प्रेम का, जो अपने को समवपषत कर दे ने में ी आनन्द पाता ैं। मैं
आपसे सतय क ता ू ाँ कक, ऐसी कववता मैने आज तक न ी सुनी थी और इसने
मेरे अन्दर जो तूिान उठा हदया ैं, व मेरी वविुर शािंतत को तछन्न-मभन्न ककये
डालता ैं। आपने एक गरीब की िूस की झोपड़ी में आग दी ैं, लेककन मन य
स्वीकार न ी करता कक व केवल ववनोद-क्रीड़ा ैं। इन शब्दों में मझ
ु े एक ऐसा
हृदय तछपा ु आ ज्ञात ोता ैं, त्जसने प्रेम की वेदना स ी ैं , जो लालसा की आग
से तपा ैं। मैं इसे परम सौभाग्य समझाँूगा, यहद आपके दशषनों का सौभाग्य पर
सका। य कुहटया अनुराग की भें ट के मलए आपका स्वागत करने को तड़प र ी
ैं।'
तीसरे हदन ी उततर आ गया। कामाक्षी ने बड़े भावुकतापूणष शब्दों में कृतज्ञता
प्रकट की थी और अपने आने की ततधथ बतायी थी।
ठीक साढ़े नौ बजे चपरासी ने आकर काडष हदया। मलखा था- कामाक्षी।
शमाषजी को ऐसा जान पड़ा, जैसे उनका रक्त-प्रवा रुक गया ैं, नाड़ी टूटी जा र ी
ैं। उस चुड़ल
ै के साथ र कर तो जीवन ी नरक ो जायेगा। चली ै कववता
करने, और कववता भी कैसी? अश्लीलता में डूबी ु ई। अश्लीलता तो ैं ी। बबल्कुल
सड़ी ु ई, गिंदी। एक सुन्दरी युवती की कलम से व कववता काम-बाण थी। इस
डायन की कलम से तो व परनाले की कीचड़ ैं। मै क ता ू ाँ , इसे ऐसी कववता
मलखने का अधिकार ी क्या ैं ? व क्यों ऐसी कववता मलखती ैं? क्यों न ी ककसी
कोने में बैठकर राम-भजन करती? आप पूछती ैं- मुझे छोड़कर भाग सकोगे? मैं
क ता ू ाँ , आपके पास कोई आयेगा ी क्यों? दरू से ी दे खकर न लम्बा ो
जायेगा। कववता क्या ैं, त्जसका न मसर ैं, न पैर, मात्राओिं तक का तो इसे ज्ञान
न ीिं ैं। और कववता करती ैं ? कववता अगर इस काया में तनवास कर सकती ैं,
तो किर गिा भी गा सकता ैं! ऊाँट भी नाच सकता ैं! इस रााँड़ को इतना भी
न ीिं मालूम कक कववता करने के मलए रूप और यौवन चाह ए, नजाकत चाह ए।
भूतनी-सी तो आपकी सूरत ैं, रात को कोई दे ख ले, तो डर जाय और आप
उततेजक कववता मलखती ैं! कोई ककतना ी क्षुिातुर ो, तो क्या गोबर खा लेगा?
और चुड़ल
ै इतना बड़ा पोथा लेती आयी ैं। इसमें में व ी परनाले का गिंदा कीचड़
ोगा!
उस मोटी पुस्तक की ओर दे खते ु ए बोले- न ीिं, न ीिं, मैं आपको कष्ट न ीिं दे ना
चा ता। व ऐसी कोई बात न ी ैं! दो-चार हदन के ववश्राम से ठीक ो जायेगा।
आपकी स े ली आपकी प्रतीक्षा करती ोंगी।
उसने अनम
ु तत की प्रततक्षा न की। तरु न्त पोथा खोलकर एक कववता सन
ु ाने
लगा। शमाषजी को ऐसा मालूम ोने लगा, जैसे कोई मभगो-मभगोकर जूते मार र ा
ैं। कई बार उन् ें मतली आ गयी, जैसे एक जार गिे कानों के पास खड़े अपना
स्वर अलाप र े ो। कामाक्षी के स्वर में कोयल का मािुयष था। पर शमाषजी को
इस समय व भी अवप्रय लग र ा था। मसर में सचमुच ददष ोने लगा। य गिी
टलेगी भी, य यों ी बैठी मसर खाती र ें गी? इसे मेरे चे रे से भी मेरे मनोभावों
का ज्ञान न ीिं ो र ा ैं! उस पर आप कववता करने चली ैं ? इस माँु से म ादे वी
या सुभद्राकुमारी की कववताएाँ भी घण
ृ ा ी उतपन्न करें गी।
'खेद ैं, कल मझ
ु े जरा प्रयाग जाना ैं।'
किर मैनेजर को बल
ु ाकर क ा- कामाक्षी की कववता न ी जायेंगी।
'बड़ी दे र ोगी।'
' ोने दीत्जए। व कववता न ी जायेगी।'
***
मनोित्ृ ति
एक सुन्दर युवती, प्रातुःकाल गााँिी पाकष में बबल्लौर के बेंच पर ग री नीिंद में
सोयी पायी जाय, य चौंका दे नेवाली बात ै । सुन्दररयााँ पाकों में वा खाने आती
ैं, ाँसती ैं, दौड़ती ैं , िूल-पौिों से खेलती ैं, ककसी का इिर ध्यान न ीिं जाता,
लेककन कोई यव
ु ती रववश के ककनारे वाले बेंच पर बेखबर सोये, व बबल्कुल
गैरमामल
ू ी बात ैं, अपनी ओर बलपव
ू क
ष आकवर्षत करनेवाली। रववश पर ककतने
आदमी च लकदमी कर र े ैं , बूढ़े भी, जवान भी, सभी एक क्षण के मलए व ीिं
हठठक जाते ैं , एक न र व दृश्य दे खते ैं और तब चले जाते ैं। युवक-वन्ृ द
र स्य-भाव से मुस्काते ु ए, वद्ध
ृ -जन धचन्ताभाव से मसर ह लाते ु ए और युवततयााँ
लज्जा में आाँखें नीची ककये ु ए।
विंसत और ामशम तनकर और बतनयान प नें निंगे पााँव दौड़कर र े ैं। बड़े हदन
की छुहट्टयों में ओमलत्म्पयन रे स ोनेवाले ैं, दोनों उसी की तैयारी कर र े ै । दोनों
इस स्थल पर प ु ाँचकर रूक जाते ैं और दबी आाँखों से युवती को दे खकर आपस
में ख्याल दौड़ाने लगते ैं।
'ब ु त-सी ऐसी बातें ैं, त्जनमें कुलविु और वेश्या, दोनों एक व्यव ार करती ैं।
कोई वेश्या मामल
ू ी तौर पर सड़क पर सोना न ीिं चा ती।'
'आटष का सबसे सुन्दर रूप तछपाव ैं, हदखाव न ी। वेश्या इस र स्य को खूब
समझती ैं।'
' ो सकता ैं, मगर केवल य ााँ सो जाना, य प्रमाखणत न ीिं करता कक य वेश्या
ैं। इसकी मााँग में मसन्दरू ैं।'
'वेश्याएाँ अवसर पड़ने पर सौभाग्यवती बन जाती ैं। रात भर प्याले के दौर चले
ोंगे। काम-क्रीड़ाएाँ ुई ोंगी। अवसाद के कारण, ठिं डक पाकर सो गयी ोगी।'
'य ीिं खड़े-खड़े कववयों की-सी बातें करोगे, जरा व ााँ तक चलते क्यों न ीिं? केवल
खड़े र ना, पाश तो मैं डालाँ ग
ू ा।'
'कुल-विू पाकष में आकर सोये, तो इसके मसवा कोई अथष न ीिं कक व आकवर्षत
करना चा ती ैं और य वेश्या मनोवत्ृ तत ैं।'
'आजकल की यव
ु ततयााँ भी तो िारवडष ोने लगी ैं।'
' ााँ, लेककन ैं कुल-विु। कुल-विू से ककसी तर की बातचीत करना मैं बे ू दगी
समझता ू ाँ।'
दो वद्ध
ृ पुरुर् िीरें -िीरें मीन की ओर ताकते आ र े ैं। मानो खोई जवानी ढूाँढ
र े ों। एक की कमर झक
ु ी, बाल काले, शरीर स्थल
ू , दस
ू रे के बाल पके ु ए, पर
कमर सीिी, इक रा शरीर। दोनों के दााँत टूटे , पर नक़ली लगाए, दोनों की आाँखों
पर ऐनक। मोटे म ाशय वक़ील ै , छर रे म ोदय ड क्टर।
'सुना, युवततयों को दतु नया में त्जस ची से सबसे ज्यादा नफ़रत ैं , व बूढ़े मदष
ैं।'
'मैं इसका कायल न ीिं। पुरुर् को ौ र उसकी जवानी न ीिं, उसका शत्क्त-
सम्पन्न ोना ैं। ककतने ी बूढ़े जवानों से ज्यादा से ज्यादा कडड़यल ोते ैं।
मुझे तो आये हदन इसके त ुरबे ोते ैं। मै ी अपने को ककसी जवान से कम
न ीिं समझता।'
'य सब स ीिं ैं, पर बूढ़ों का हदल कम ोर ो जाता ैं। अगर य बात न ोती,
तो इस रमणी को इस तर दे खकर म लोग यों न चले जाते। मैं तो आाँखों भर
दे ख भी न सका। डर लग र ा था कक क ीिं उसकी आाँखें खल
ु जायें और व मझ
ु े
ताकते दे ख लें , तो हदल में क्या समझे।'
'अजी र ने भी दो।'
'आप इस युवती से मेरी बात पक्की करा दें । मैं तैयार ू ाँ।'
'अथाषत ्?'
'अथाषत ्, य कक कभी-कभी मैं भी आपके घर आकर अपनी आाँखें ठिं ड़ी कर मलया
करुाँ गा।'
'मैं तो समझता ू ाँ, य भी ड क्टरों नें लूटने का एक लटका तनकाला ैं। सच।'
'अरे सा ब, इस रमणी के स्पशष में जवानी ैं, आप ैं ककस िेर में । उसके एक-
एक अिंग में , एक-एक मुस्कान में , एक-एक ववलास में जवानी भरी ु ई। न सौ
मिंकी ग्लैंड़, न एक रमणी का बा ु पाश।'
'व इस तर सोयी ै , इसमलए कक लोग उसके रूप को, उसके अिंग-ववन्यास को,
उसके बबखरे ु ए केशों को, उसकी खुली ु ई गदष न को दे खे और अपनी छाती पीटें ।
इस तर चले जाना, उसके साथ अन्याय ैं। व बल
ु ा र ी ैं और आप भागे जा
र े ैं।'
'बबल्कुल ठीक। मुझे तो ऐसी औरतों से साबबका पड़ चुका ैं, जो रमसक बूढों को
खोजा करती ैं। जवान तो तछछोरे , उच्छृिंखल, अत्स्थर और गवीले ोते ैं। वे प्रेम
के बदले कुछ चा ते ैं। य ााँ तनुःस्वाथष भाव से आतम-समपषण करते ैं।'
'मगर एक बात याद रखखए, क ीिं उसका कोई जवान प्रेमी ममल गया, तो?'
' ााँ, थी, मगर जब अपने लड़के दश्ु मनी पर कमर बााँि,े तो क्या ो? मेरा लड़का
यशविंत तो बन्दक
ू हदखाने लगा। य जमाने की खूबी ैं!'
अक्तब
ू र की िप
ू तेज ो चली थी। दोनो ममत्र तनकल गये।
दो दे ववयााँ- एक वद्ध
ृ ा, दस
ू री नवयौवना, पाकष के िाटक पर मोटर से उतरी और
पाकष में वा खाने आयी। उनकी तनगा भी उस नीिंद की मारी युवती पर पड़ी।
वद्ध
ृ ा ने क ा- बड़ी बेशमष ै ।
'बे याई ैं। मैं परदा न ीिं चा ती, पुरुर्ों की गुलामी न ी चा ती, लेककन औरतों में
जो गौरवशीलता और सलज्जता ैं , उसे न ीिं छोड़ती। मैं ककसी युवती को सड़क
पर मसगरे ट पीते दे खती ू ाँ, तो मेरे बदन में आग लग जाती ैं। उसी तर आिी
का जम्िर भी मझ
ु े न ी सो ाता। क्या अपने िमष की लाज छोड़ दे ने ी से
साबबत ोगा कक म ब ु त िारवडष ैं ? पुरुर् अपनी छाती या पीठ खोले तो न ीिं
घूमते?'
'इसी बात पर बाईजी, जब मैं आपको आड़े ाथों लेती ू ाँ , तो आप बबगड़ने लगती
ैं। पुरुर् स्वािीन ैं। व हदल में समझता ै कक मै स्वािीन ू ाँ। व स्वािीनता
का स्वााँग न ीिं भरता। स्त्री अपने हदल में समझती र ती ै कक व स्वािीन न ीिं
ैं, इसमलए व अपनी स्वािीनता को ढोंग करती ैं। जो बलवान ैं, वे अकड़ते
न ीिं। जो दब
ु ल
ष ैं, व ी अकड़ करती ैं। क्या आप उन् ें अपने आाँसू पोंछने के
मलए इतना अधिकार भी न ी दे ना चा ती?'
'स्त्री ी पुरुर् के आकर्षण की किक़ क्यों करें ? पुरुर् क्यों स्त्री से पदाष न ीिं
करता।'
'रात ककतनी गमी थी बाईजी। ठिं ड़क पाकर बेचारी की आाँखें लग गयी ैं। '
मीनू यव
ु ती के पास जाकर उसका ाथ पकड़कर ह लाती ैं - य ााँ क्यों सो र ी ो
दे वीजी, इतना हदन चढ़ आया, उठकर घर जाओ।
युवती आाँखें खोल दे ती ैं- ओ ो, इतना हदन चढ़ आया? क्या मैं सो गयी थी?
मेरे मसर में चक्कर आ जाया करता ैं। मैने समझा शायद वा से कुछ लाभ
ो। य ााँ आयी; पर ऐसा चक्कर आया कक मैं इस बेंच पर बैठ गयी, किर मझ
ु े
ोश न र ा। अब भी मैं खड़ी न ीिं ो सकती। मालूम ोता ैं , मैं धगर पड़ूाँगी।
ब ु त दवा की; पर कोई फ़ायदा न ी ोता। आप ड क्टर श्याम नाथ को आप
जानती ोगी, व मेरे सुसर ैं।
'सच! लेककन मझ
ु े प चान कैसे सकते ैं? अभी मेरा गौना न ी ु आ ैं।'
'अच्छा! लेककन मझ
ु े उन् ोंने दे खा क ााँ ैं?'
'तो मै दौड़कर ड क्टर को खबर दे दाँ ।ू '
***