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प्रेमचिंद

मानसरोवर
भाग 1

ह द
िं ीकोश
www.hindikosh.in
Manasarovar – Part I

By Premchand

य पुस्तक प्रकाशनाधिकार मुक्त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि


समाप्त ो चुकी ैं।

This work is in the public domain in India because its term of copyright
has expired.

यूनीकोड सिंस्करण: सिंजय खत्री. 2012

Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012

आवरण धचत्र: ववककपीडडया (प्रेमचिंद, मानसरोवर झील)

Cover image: Wikipedia.org (Premchand, Manasarovar Lake).

ह द
िं ीकोश

Hindikosh.in

http://www.hindikosh.in
विषयसच
ू ी
अलग्योझा .................................................................................................... 4
ईदगा ....................................................................................................... 30
मााँ ............................................................................................................. 47
बेटोंवाली वविवा .......................................................................................... 68
शािंतत ......................................................................................................... 93
नशा ........................................................................................................ 111
स्वाममनी .................................................................................................. 121
ठाकुर का कुआाँ ......................................................................................... 141
झााँकी ....................................................................................................... 153
गुल्ली-डिंडा ................................................................................................ 162
ज्योतत ..................................................................................................... 172
हदल की रानी ........................................................................................... 188
धिक्कार ................................................................................................... 211
कायर....................................................................................................... 232
मशकार ..................................................................................................... 245
सुभागी ..................................................................................................... 263
अनभ
ु व .................................................................................................... 275
आखखरी ीला............................................................................................ 285
तावान...................................................................................................... 293
घासवाली .................................................................................................. 302
धगला ....................................................................................................... 318
रमसक सम्पादक........................................................................................ 332
मनोवत्ृ तत ................................................................................................. 341
अलग्योझा

भोला म तो ने प ली स्त्री के मर जाने बाद दस


ू री सगाई की, तो उसके लड़के
रग्घू के मलए बुरे हदन आ गए। रग्घू की उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी।
चैने से ग वॉँ में गल्
ु ली-डिंडा खेलता किरता था। म ॉँ के आते ी चक्की में जत
ु ना
पड़ा। पन्ना रुपवती स्त्री थी और रुप और गवष में चोली-दामन का नाता ै। व
अपने ाथों से कोई काम न करती। गोबर रग्घू तनकालता, बैलों को सानी रग्घू
दे ता। रग्घू ॉँ
ी जूठे बरतन म जता। भोला की ऑ िंखें कुछ ऐसी किरीिं कक उसे रग्घू
में सब बुराइय -ॉँ ी-बुराइय ॉँ नजर आतीिं। पन्ना की बातों को व प्राचीन
मयाषदानुसार ऑ िंखें बिंद करके मान लेता था। रग्घू की मशकायतों की जरा परवा
न करता। नतीजा य ु आ कक रग्घू ने मशकायत करना ी छोड़ हदया। ककसके
सामने रोए? बाप ी न ीिं, सारा ग वॉँ उसका दश्ु मन था। बड़ा त्जद्दी लड़का ै , पन्ना
को तो कुद समझता ी न ीिं: बेचारी उसका दल
ु ार करती ै , खखलाती-वपलाती ैं
य उसी का िल ै । दस
ू री औरत ोती, तो तनबा न ोता। व तो क ा, पन्ना
इतनी सीिी-सादी ै कक तनबा ोता जाता ै । सबल की मशकायतें सब सुनते ैं ,

ु ता! रग्घू का हृदय म ॉँ की ओर से हदन-हदन


तनबषल की िररयाद भी कोई न ीिं सन
िटता जाता था। य ािं तक कक आठ साठ गज
ु र गए और एक हदन भोला के
नाम भी मतृ यु का सन्दे श आ प ु ाँचा।

पन्ना के चार बच्चे थे-तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ खचष और कमानेवाला
कोई न ीिं। रग्घू अब क्यों बात पछ
ू ने लगा? य मानी ु ई बात थी। अपनी स्त्री
लाएगा और अलग र े गा। स्त्री आकर और भी आग लगाएगी। पन्ना को चारों
ओर अिंिेरा ी हदखाई दे ता था: पर कुछ भी ो, व रग्घू की आसरै त बनकर घर
में र े गी। त्जस घर में उसने राज ककया, उसमें अब लौंडी न बनेगी। त्जस लौंडे
को अपना गुलाम समझा, उसका मुिं न ताकेगी। व सुन्दर थीिं, अवस्था अभी
कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी परू ी ब ार पर थी। क्या व कोई दस
ू रा
घर न ीिं कर सकती? य ीिं न ोगा, लोग ाँसेंगे। बला से! उसकी बबरादरी में क्या
ऐसा ोता न ीिं? ब्राह्मण, ठाकुर थोड़ी ी थी कक नाक कट जायगी। य तो उन् ी
ऊाँची जातों में ोता ै कक घर में चा े जो कुछ करो, बा र परदा ढका र े । व
तो सिंसार को हदखाकर दस
ू रा घर कर सकती ै , किर व रग्घू कक दबैल बनकर
क्यों र े ?

भोला को मरे एक म ीना गज


ु र चक
ु ा था। सिंध्या ो गई थी। पन्ना इसी धचन्ता
में पड़ ु ई थी कक स सा उसे ख्याल आया, लड़के घर में न ीिं ैं। य बैलों के
लौटने की बेला ै , क ीिं कोई लड़का उनके नीचे न आ जाए। अब द्वार पर कौन
ै , जो उनकी दे खभाल करे गा? रग्घू को मेरे लड़के िूटी ऑ िंखों न ीिं भाते। कभी
ाँसकर न ीिं बोलता। घर से बा र तनकली, तो दे खा, रग्घू सामने झोपड़े में बैठा
ऊख की गाँडरे रया बना र ा ै , लड़के उसे घेरे खड़े ैं और छोटी लड़की उसकी
गदष न में ाथ डाले उसकी पीठ पर सवार ोने की चेष्टा कर र ी ै । पन्ना को
अपनी ऑ िंखों पर ववश्वास न आया। आज तो य नई बात ै । शायद दतु नया को
हदखाता ै कक मैं अपने भाइयों को ककतना चा ता ू ाँ और मन में छुरी रखी ु ई
ै । घात ममले तो जान ी ले ले! काला स पॉँ ॉँ कठोर स्वर में बोली-
ै , काला स प!
तुम सबके सब व ॉँ क्या करते ॉँ की बेला
ो? घर में आओ, स झ ै , गोरु आते
ोंगे।

रग्घू ने ववनीत नेत्रों से दे खकर क ा-मैं तो ूिं ी काकी, डर ककस बात का ै?

बड़ा लड़का केदार बोला-काकी, रग्घू दादा ने मारे मलए दो गाडड़यााँ बना दी ैं।
य दे ख, एक पर ू री पर लछमन और झुतनय ।ॉँ दादा
म और खुन्नू बैठेंगे, दस
दोनों गाडड़य ॉँ खीिंचेंगे।

य क कर व एक कोने से दो छोटी-छोटी गाडड़य ॉँ तनकाल लाया। चार-चार


पह ए लगे थे। बैठने के मलए तख्ते और रोक के मलए दोनों तरि बाजू थे।

पन्ना ने आश्चयष से पूछा-ये गाडड़य ॉँ ककसने बनाई?


केदार ने धचढ़कर क ा-रग्घू दादा ने बनाई ैं, और ककसने! भगत के घर से
बसल ॉँ लाए और चटपट बना दीिं। खब
ू ा और रुखानी म ग ू दौड़ती ैं काकी! बैठ
खुन्नू मैं खीिंचाँ।ू

खन्
ु नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खीिंचने लगा। चर-चर शोर ु आ मानो गाड़ी भी
इस खेल में लड़कों के साथ शरीक ै।

लछमन ने दस
ू री गाड़ी में बैठकर क ा-दादा, खीिंचो।

रग्घू ने झुतनय ॉँ को भी गाड़ी में बबठा हदया और गाड़ी खीिंचता ु आ दौड़ा। तीनों
लड़के तामलय ॉँ बजाने लगे। पन्ना चककत नेत्रों से य दृश्य दे ख र ी थी और
सोच र ी थी कक य व ी रग्घू ै या कोई और।

थोड़ी दे र के बाद दोनों गाडड़य ॉँ लौटीिं: लड़के घर में जाकर इस यानयात्रा के


अनुभव बयान करने लगे। ककतने खुश थे सब, मानों वाई ज ाज पर बैठ आये
ों।

खुन्नू ने क ा-काकी सब पेड़ दौड़ र े थे।

लछमन-और बतछय ॉँ कैसी भागीिं, सबकी सब दौड़ीिं!

केदार-काकी, रग्घू दादा दोनों गाडड़य ॉँ एक साथ खीिंच ले जाते ैं।

झुतनय ॉँ सबसे छोटी थी। उसकी व्यिंजना-शत्क्त उछल-कूद और नेत्रों तक पररममत


थी-तामलय ॉँ बजा-बजाकर नाच र ी थी।

खुन्नू-अब मारे घर गाय भी आ जाएगी काकी! रग्घू दादा ने धगरिारी से क ा


ै कक में एक गाय ला दो। धगरिारी बोला, कल लाऊाँगा।

केदार-तीन सेर दि
ू दे ती ै काकी! खब
ू दि
ू पीऍगेिं ।
इतने में रग्घू भी अिंदर आ गया। पन्ना ने अव े लना की दृत्ष्ट से दे खकर पछ
ू ा-
क्यों रग्घू तम ॉँ
ु ने धगरिारी से कोई गाय म गी ै?

रग्घू ने क्षमा-प्राथषना के भाव से क ा- ,ॉँ म गी


ॉँ तो ै, कल लाएगा।

पन्ना-रुपये ककसके घर से आऍगेिं , य भी सोचा ै?

रग्घू-सब सोच मलया ै काकी! मेरी य मु र न ीिं ै । इसके पच्चीस रुपये ममल
र े ॉँ रुपये बतछया के मुजा दे दाँ ग
ैं, प च ू ा! बस, गाय अपनी ो जाएगी।

पन्ना सन्नाटे में आ गई। अब उसका अववश्वासी मन भी रग्घू के प्रेम और


सज्जनता को अस्वीकार न कर सका। बोली-मु र को क्यों बेचे दे ते ो? गाय की
अभी कौन जल्दी ै ? ाथ में पैसे ो जाऍ,िं तो ले लेना। सूना-सूना गला अच्छा न
लगेगा। इतने हदनों गाय न ीिं र ी, तो क्या लड़के न ीिं त्जए?

रग्घू दाशषतनक भाव से बोला-बच्चों के खाने-पीने के य ी हदन ैं काकी! इस उम्र


में न खाया, तो किर क्या खाऍगेिं । मु र प नना मुझे अच्छा भी न ी मालूम
ोता। लोग समझते ोंगे कक बाप तो गया। इसे मु र प नने की सूझी ै।

भोला म तो गाय की धचिंता ी में चल बसे। न रुपये आए और न गाय ममली।


मजबूर थे। रग्घू ने य समस्या ककतनी सुगमता से ल कर दी। आज जीवन में
प ली बार पन्ना को रग्घू पर ववश्वास आया, बोली-जब ग ना ी बेचना ै , तो
अपनी मु र क्यों बेचोगे? मेरी ाँसुली ले लेना।

रग्घू-न ीिं काकी! व तुम् ारे गले में ब ु त अच्छी लगती ै । मदो को क्या, मु र
प नें या न प नें।

पन्ना-चल, मैं बढ़


ू ी ु ई। अब ाँ सल
ु ी प नकर क्या करना ै । तू अभी लड़का ै,
तेरा गला अच्छा न लगेगा?
रग्घू मस्
ु कराकर बोला-तम
ु अभी से कैसे बढ़
ू ी ो गई? ग वॉँ में ै कौन तम्
ु ारे
बराबर?

रग्घू की सरल आलोचना ने पन्ना को लत्ज्जत कर हदया। उसके रुखे-मुरछाए


मख
ु पर प्रसन्नता की लाली दौड़ गई।

पााँच साल गुजर गए। रग्घू का-सा मे नती, ईमानदार, बात का िनी दस
ू रा ककसान
ग वॉँ में न था। पन्ना की इच्छा के बबना कोई काम न करता। उसकी उम्र अब
23 साल की ो गई थी। पन्ना बार-बार क ती, भइया, ब ू को बबदा करा लाओ।
कब तक नै में पड़ी र े गी? सब लोग मझ
ु ी को बदनाम करते ैं कक य ी ब ू को
न ीिं आने दे ती: मगर रग्घू टाल दे ता था। क ता कक अभी जल्दी क्या ै ? उसे
अपनी स्त्री के रिं ग-ढिं ग का कुछ पररचय दस
ू रों से ममल चुका था। ऐसी औरत को
घर में लाकर व ॉँ में बािा न ीिं डालना चा ता था।
अपनी श तत

आखखर एक हदन पन्ना ने त्जद करके क ा-तो तुम न लाओगे?

‘क हदया कक अभी कोई जल्दी न ीिं।’

‘तुम् ारे मलए जल्दी न ोगी, मेरे मलए तो जल्दी ै । मैं आज आदमी भेजती ू ाँ।’

‘पछताओगी काकी, उसका ममजाज अच्छा न ीिं ै।’

‘तम्
ु ारी बला से। जब मैं उससे बोलाँ ग
ू ी ी न ीिं, तो क्या वा से लड़ेगी? रोहटय ॉँ
तो बना लेगी। मझ
ु से भीतर-बा र का सारा काम न ीिं ोता, मैं आज बुलाए लेती

ू ाँ।’

‘बल
ु ाना चा ती ो, बल
ु ा लो: मगर किर य न क ना कक य मे ररया को ठीक
न ीिं करता, उसका गल
ु ाम ो गया।’
‘न क ू ाँगी, जाकर दो साडड़यााँ और ममठाई ले आ।’

तीसरे हदन मुमलया मैके से आ गई। दरवाजे पर नगाड़े बजे, श नाइयों की मिुर
ध्वतन आकाश में गाँज
ू ने लगी। माँु -हदखावे की रस्म अदा ु ई। व इस मरुभूमम
में तनमषल जलिारा थी। गे ु ऑ िं रिं ग था, बड़ी-बड़ी नोकीली पलकें, कपोलों पर ल्की
सख
ु ी, ऑ िंखों में प्रबल आकर्षण। रग्घू उसे दे खते ी मिंत्रमग्ु ि ो गया।

प्रात:काल पानी का घड़ा लेकर चलती, तब उसका गे ु ऑ िं रिं ग प्रभात की सुन री


ककरणों से कुन्दन ो जाता, मानों उर्ा अपनी सारी सग
ु िंि, सारा ववकास और
उन्माद मलये मस्
ु कराती चली जाती ो।

मुमलया मैके से ी जली-भुनी आयी थी। मेरा शौ र छाती िाड़कर काम करे , और
पन्ना रानी बनी बैठी र े , उसके लड़े रईसजादे बने घम
ू ें । ममु लया से य बरदाश्त
न ोगा। व ककसी की गल
ु ामी न करे गी। अपने लड़के तो अपने ोते ी न ीिं,
भाई ककसके ोते ैं ? जब तक पर न ीिं तनकते ैं , रग्घू को घेरे ु ए ैं। ज्यों ी
जरा सयाने ु ए, पर झाड़कर तनकल जाऍगेिं , बात भी न पूछेंगे।

एक हदन उसने रग्घू से क ा-तम्


ु ें इस तर गल
ु ामी करनी ो, तो करो, मझ
ु से न
ोगी।

रग्घू-तो किर क्या करुाँ , तू ी बता? लड़के तो अभी घर का काम करने लायक भी
न ीिं ैं।

मुमलया-लड़के रावत के ैं , कुछ तुम् ारे न ीिं ैं। य ी पन्ना ै , जो तुम् ें दाने-दाने
को तरसाती थी। सब सन
ु चक
ु ी ूिं । मैं लौंडी बनकर न र ू ाँगी। रुपये-पैसे का मझ
ु े
ह साब न ीिं ममलता। न जाने तम
ु क्या लाते ो और व क्या करती ै । तम

समझते ो, रुपये घर ी में तो ैं: मगर दे ख लेना, तुम् ें जो एक िूटी कौड़ी भी
ममले।
रग्घू-रुपये-पैसे तेरे ाथ में दे ने लगाँू तो दतु नया कया क े गी, य तो सोच।

ममु लया-दतु नया जो चा े , क े । दतु नया के ाथों बबकी न ीिं ू ाँ। दे ख लेना, भ डॉँ
लीपकर ाथ काला ी र े गा। किर तुम अपने भाइयों के मलए मरो, मै। क्यों
मरुाँ ?

रग्घू-ने कुछ जवाब न हदया। उसे त्जस बात का भय था, व इतनी जल्द मसर
आ पड़ी। अब अगर उसने ब ु त ततथो-थिंभो ककया, तो साल-छ:म ीने और काम
चलेगा। बस, आगे य डोंगा चलता नजर न ीिं आता। बकरे की म ॉँ कब तक खैर
मनाएगी?

एक हदन पन्ना ने म ु ए का सुखावन डाला। बरसात शुरु ो गई थी। बखार में


अनाज गीला ो र ा था। मुमलया से बोली-ब ू , जरा दे खती र ना, मैं तालाब से
न ा आऊाँ?

मुमलया ने लापरवा ी से क ा-मुझे नीिंद आ र ी ै , तुम बैठकर दे खो। एक हदन न


न ाओगी तो क्या ोगा?

पन्ना ने साड़ी उतारकर रख दी, न ाने न गयी। ममु लया का वार खाली गया।

कई हदन के बाद एक शाम को पन्ना िान रोपकर लौटी, अाँिेरा ो गया था।
हदन-भर की भख
ू ी थी। आशा थी, ब ू ने रोटी बना रखी ोगी: मगर दे खा तो य ॉँ
चल्
ू ा ठिं डा पड़ा ु आ था, और बच्चे मारे भख
ू के तड़प र े थे। ममु लया से
आह स्ता से पूछा-आज अभी चूल् ा न ीिं जला?

केदार ने क ा-आज दोप र को भी चल्


ू ा न ीिं जला काकी! भाभी ने कुछ बनाया
ी न ीिं।

पन्ना-तो तुम लोगों ने खाया क्या?


केदार-कुछ न ीिं, रात की रोहटय ॉँ थीिं, खुन्नू और लछमन ने खायीिं। मैंने सततू खा
मलया।

पन्ना-और ब ू ?

केदार-व पड़ी सो र ै , कुछ न ीिं खाया।

पन्ना ने उसी वक्त चूल् ा जलाया और खाना बनाने बैठ गई। आटा गाँि
ू ती थी
और रोती थी। क्या नसीब ै ? हदन-भर खेत में जली, घर आई तो चूल् े के सामने
जलना पड़ा।

केदार का चौद व ॉँ साल था। भाभी के रिं ग-ढिं ग दे खकर सारी त्स्थत समझ ् र ा
था। बोला-काकी, भाभी अब तुम् ारे साथ र ना न ीिं चा ती।

पन्ना ने चौंककर पूछा-क्या कुछ क ती थी?

केदार-क ती कुछ न ीिं थी: मगर ै उसके मन में य ी बात। किर तम


ु क्यों न ीिं
उसे छोड़ दे तीिं? जैसे चा े र े , मारा भी भगवान ् ै ?

ॉँ से जीभ दबाकर क ा-चप


पन्ना ने द तों ु , मरे सामने ऐसी बात भल
ू कर भी न
क ना। रग्घू तम्
ु ारा भाई न ीिं, तम्
ु ारा बाप ै । ममु लया से कभी बोलोगे तो
समझ लेना, ज र खा लाँ ग
ू ी।

दश रे का तयौ ार आया। इस ग वॉँ से कोस-भर एक परु वे में मेला लगता था।


ग वॉँ के सब लड़के मेला दे खने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार

ु ई: मगर पैसे क ॉँ से आऍ िं? किंु जी तो मुमलया के पास थी।

रग्घू ने आकर मुमलया से क ा-लड़के मेले जा र े ैं, सबों को दो-दो पैसे दे दो।
मुमलया ने तयोररय ॉँ चढ़ाकर क ा-पैसे घर में न ीिं ैं।

रग्घू-अभी तो तेल न बबका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गए?

मुमलया- ,ॉँ उठ गए?

रग्घू-क ॉँ उठ गए? जरा सुनाँ,ू आज तयो ार के हदन लड़के मेला दे खने न जाऍगेिं ?

ममु लया-अपनी काकी से क ो, पैसे तनकालें , गाड़कर क्या करें गी?

खूट
ाँ ी पर किंु जी ाथ पकड़ मलया और बोली-किंु जी मुझे दे दो, न ीिं तो ठीक न
ोगा। खाने-प ने को भी चाह ए, कागज-ककताब को भी चाह ए, उस पर मेला
दे खने को भी चाह ए। मारी कमाई इसमलए न ीिं ै कक दस
ू रे खाऍ िं और माँछ
ू ों
पर ताव दें ।

पन्ना ने रग्घू से क ा-भइया, पैसे क्या ोंगे! लड़के मेला दे खने न जाऍगेिं ।
रग्घू ने खझड़ककर क ा-मेला दे खने क्यों न जाऍगेिं ? सारा ग वॉँ जा र ा ै। मारे
ी लड़के न जाऍगेिं ?

य क कर रग्घू ने अपना ाथ छुड़ा मलया और पैसे तनकालकर लड़कों को दे


हदये: मगर किंु जी जब ममु लया को दे ने लगा, तब उसने उसे आिंगन में िेंक हदया
और माँु लपेटकर लेट गई! लड़के मेला दे खने न गए।

इसके बाद दो हदन गज


ु र गए। ममु लया ने कुछ न ीिं खाया और पन्ना भी भख
ू ी
र ी रग्घू कभी इसे मनाता, कभी उसे:पर न य उठती, न व । आखखर रग्घू ने
ै रान ोकर मुमलया से पूछा-कुछ माँु से तो क , चा ती क्या ै?

ममु लया ने िरती को सम्बोधित करके क ा-मैं कुछ न ीिं चा ती, मझ


ु े मेरे घर
प ु ाँचा दो।
रग्घू-अच्छा उठ, बना-खा। प ु ाँचा दाँ ग
ू ा।

मुमलया ने रग्घू की ओर ऑ िंखें उठाई। रग्घू उसकी सूरत दे खकर डर गया। व


मािुयष, व मो कता, व लावण्य गायब ॉँ तनकल आए थे, ऑ िंखें
ो गया था। द त
िट गई थीिं और नथन
ु े िड़क र े थे। अिंगारे की-सी लाल ऑ िंखों से दे खकर
बोली-अच्छा, तो काकी ने य सला दी ै, य मिंत्र पढ़ाया ै ? तो य ॉँ ऐसी कच्चे
न ीिं ू ाँ। तुम दोनों की छाती पर माँग
ू दलाँ ग
ू ी। ो ककस िेर में ?

रग्घू-अच्छा, तो माँग
ू ी दल लेना। कुछ खा-पी लेगी, तभी तो माँग
ू दल सकेगी।

मुमलया-अब तो तभी माँु में पानी डालाँ ग


ू ी, जब घर अलग ो जाएगा। ब ु त झेल
चुकी, अब न ीिं झेला जाता।

रग्घू सन्नाटे में आ गया। एक हदन तक उसके माँु से आवाज ी न तनकली।


अलग ोने की उसने स्वप्न में भी कल्पना न की थी। उसने ग वॉँ में दो-चार
पररवारों को अलग ोते दे खा था। व खूब जानता था, रोटी के साथ लोगों के
हृदय भी अलग ो जाते ैं। अपने मेशा के मलए गैर ो जाते ैं। किर उनमें
व ी नाता र जाता ै , जो ग वॉँ के आदममयों में । रग्घू ने मन में ठान मलया था
कक इस ववपत्तत को घर में न आने दाँ ग
ू ा: मगर ोन ार के सामने उसकी एक न
चली। आ ! मेरे माँु में कामलख लगेगी, दतु नया य ी क े गी कक बाप के मर जाने
पर दस साल भी एक में तनबा न ो सका। किर ककससे अलग ो जाऊाँ ?
त्जनको गोद में खखलाया, त्जनको बच्चों की तर पाला, त्जनके मलए तर -तर के
कष्ठ झेले, उन् ीिं से अलग ो जाऊाँ? अपने प्यारों को घर से तनकाल बा र करुाँ ?
ॉँ
उसका गला िाँस गया। क पते ु ए स्वर में बोला-तू क्या चा ती ै कक मैं अपने
भाइयों से अलग ो जाऊाँ? भला सोच तो, क ीिं माँु हदखाने लायक र ू ाँगा?

ममु लया-तो मेरा इन लोगों के साथ तनबा न ोगा।

रग्घू-तो तू अलग ो जा। मुझे अपने साथ क्यों घसीटती ै?


मुमलया-तो मुझे क्या तुम् ारे घर में ममठाई ममलती ै ? मेरे मलए क्या सिंसार में
जग न ीिं ै?

रग्घू-तेरी जैसी मजी, ज ॉँ चा े र । मैं अपने घर वालों से अलग न ीिं ो सकता।


त्जस हदन इस घर में दो चूल् ें जलें गे, उस हदन मेरे कलेजे के दो टुकड़े ो
जाऍगेिं । मैं य चोट न ीिं स सकता। तुझे जो तकलीि ो, व मैं दरू कर
सकता ू ाँ। माल-असबाब की मालककन तू ै ी: अनाज-पानी तेरे ी ाथ ै , अब
र क्या गया ै ? अगर कुछ काम-ििंिा करना न ीिं चा ती, मत कर। भगवान ने
मझ
ु े समाई दी ोती, तो मैं तझ
ु े ततनका तक उठाने न दे ता। तेरे य सक
ु ु मार
ाथ-पािंव मे नत-मजदरू ी करने के मलए बनाए ी न ीिं गए ैं: मगर क्या करुाँ
अपना कुछ बस ी न ीिं ै । किर भी तेरा जी कोई काम करने को न चा े , मत
कर: मगर मुझसे अलग ोने को न क , तेरे पैरों पड़ता ू ाँ।

मुमलया ने मसर से अिंचल खखसकाया और जरा समीप आकर बोली-मैं काम करने
से न ीिं डरती, न बैठे-बैठे खाना चा ती ू ाँ: मगर मुझ से ककसी की िौंस न ीिं
स ी जाती। तुम् ारी ी काकी घर का काम-काज करती ैं , तो अपने मलए करती
ैं, अपने बाल-बच्चों के मलए करती ैं। मुझ पर कुछ ए सान न ीिं करतीिं, किर
मझ
ु पर िौंस क्यों जमाती ैं? उन् ें अपने बच्चे प्यारे ोंगे , मझ
ु े तो तम्
ु ारा
आसरा ै । मैं अपनी ऑ िंखों से य न ीिं दे ख सकती कक सारा घर तो चैन करे ,
जरा-जरा-से बच्चे तो दि
ू पीऍ िं, और त्जसके बल-बूते पर ग ृ स्थी बनी ु ई ै, व
मट्ठे को तरसे। कोई उसका पछ
ू नेवाला न ो। जरा अपना मुिं तो दे खो, कैसी
सूरत तनकल आई ै । औरों के तो चार बरस में अपने पट्ठे तैयार ो जाऍगेिं । तुम
तो दस साल में खाट पर पड़ जाओगे। बैठ जाओ, खड़े क्यों ो? क्या मारकर
भागोगे? मैं तम् ॉँ लाँ ग
ु ें जबरदस्ती न ब ि ू ी, या मालककन का ु क्म न ीिं ै ? सच
क ू ाँ , तुम बड़े कठ-कलेजी ो। मैं जानती, ऐसे तनमोह ए से पाला पड़ेगा, तो इस
घर में भूल से न आती। आती भी तो मन न लगाती, मगर अब तो मन तुमसे
लग गया। घर भी जाऊाँ, तो मन य ॉँ ी र े गा और तम
ु जो ो, मेरी बात न ीिं
पछ
ू ते।

मुमलया की ये रसीली बातें रग्घू पर कोई असर न डाल सकीिं। व उसी रुखाई से
बोला-ममु लया, मझ
ु से य न ोगा। अलग ोने का ध्यान करते ी मेरा मन न
जाने कैसा ो जाता ै। य चोट मझ
ु से न स ी जाएगी।

मुमलया ने परर ास करके क ा-तो चूडड़य ॉँ प नकर अन्दर बैठो न! लाओ मैं माँछ
ू ें
लगा लिं।ू मैं तो समझती थी कक तम
ु में भी कुछ कल-बल ै । अब दे खती ू ाँ, तो
तनरे ममट्टी के लौंदे ो।

पन्ना दालान में खड़ी दोनों की बातचीत सुन न ीिं थी। अब उससे न र ा गया।
सामने आकर रग्घू से बोली-जब व अलग ोने पर तल
ु ी ुई ै , किर तम
ु क्यों
उसे जबरदस्ती ममलाए रखना चा ते ो? तम
ु उसे लेकर र ो, मारे भगवान ् ने
तनबा हदया, तो अब क्या डर? अब तो भगवान ् की दया से तीनों लड़के सयाने
ो गए ैं, अब कोई धचन्ता न ीिं।

रग्घू ने ऑ िंसू-भरी ऑ िंखों से पन्ना को दे खकर क ा-काकी, तू भी पागल ो गई ै


क्या? जानती न ीिं, दो रोहटय ॉँ ोते ी दो मन ो जाते ैं।

पन्ना-जब व मानती ी न ीिं, तब तम


ु क्या करोगे? भगवान ् की मरजी ोगी, तो
कोई क्या करे गा? परालब्ि में त्जतने हदन एक साथ र ना मलखा था, उतने हदन
र े । अब उसकी य ी मरजी ै , तो य ी स ी। तुमने मेरे बाल-बच्चों के मलए जो
कुछ ककया, व भूल न ीिं सकती। तुमने इनके मसर ाथ न रखा ोता, तो आज
इनकी न जाने क्या गतत ोती: न जाने ककसके द्वार पर ठोकरें खातें ोते , न
ॉँ
जाने क -क ॉँ भीख म गते
ॉँ किरते। तुम् ारा जस मरते दम तक गाऊाँगी। अगर
मेरी खाल तम्
ु ारे जत
ू े बनाने के काम आते, तो खश
ु ी से दे दाँ ।ू चा े तम
ु से अलग
ो जाऊाँ, पर त्जस घड़ी पुकारोगे, कुतते की तर दौड़ी आऊाँगी। य भूलकर भी न
सोचना कक तुमसे अलग ोकर मैं तुम् ारा बुरा चेतूाँगी। त्जस हदन तुम् ारा
अनभल मेरे मन में आएगा, उसी हदन ववर् खाकर मर जाऊाँगी। भगवान ् करे , तम

दि
ू ों न ाओिं, पत
ू ों िलों! मरते दम तक य ी असीस मेरे रोऍ-रोऍ
िं िं से तनकलती
र े गी और अगर लड़के भी अपने बाप के ैं। तो मरते दम तक तुम् ारा पोस
मानेंगे।

य क कर पन्ना रोती ु ई व ॉँ से चली गई। रग्घू व ीिं मतू तष की तर बैठा र ा।


आसमान की ओर टकटकी लगी थी और ऑ िंखों से ऑ िंसू ब र े थे।

पन्ना की बातें सुनकर मुमलया समझ गई कक अपने पौबार ैं। चटपट उठी, घर
में झाड़ू लगाई, चूल् ा जलाया और कुऍ िं से पानी लाने चली। उसकी टे क पूरी ो
गई थी।

ग वॉँ में त्स्त्रयों के दो दल ोते ैं-एक ब ु ओिं का, दस


ू रा सासों का! ब ु ऍ िं सला
और स ानुभूतत के मलए अपने दल में जाती ैं, सासें अपने में । दोनों की पिंचायतें
अलग ोती ैं। मुमलया को कुऍ िं पर दो-तीन ब ु ऍ िं ममल गई। एक से पूछा-आज
तो तम्
ु ारी बहु ढ़या ब ु त रो-िो र ी थी।

मुमलया ने ववजय के गवष से क ा-इतने हदनों से घर की मालककन बनी ु ई ै,


राज-पाट छोड़ते ककसे अच्छा लगता ै ? ब न, मैं उनका बुरा न ीिं चा ती: लेककन
एक आदमी की कमाई में क ॉँ तक बरकत ोगी। मेरे भी तो य ी खाने-पीने,
प नने-ओढ़ने के हदन ैं। अभी उनके पीछे मरो, किर बाल-बच्चे ो जाऍ िं, उनके
पीछे मरो। सारी त्जन्दगी रोते ी कट जाएगी।

एक ब ू -बहु ढ़या य ी चा ती ै कक य सब जन्म-भर लौंडी बनी र ें । मोटा-झोटा


खाएिं और पड़ी र ें ।
दस
ू री ब ू -ककस भरोसे पर कोई मरे -अपने लड़के तो बात न ीिं पछ
ू ें पराए लड़कों
का क्या भरोसा? कल इनके ाथ-पैर ो जायेंगे, किर कौन पछ
ू ता ै ! अपनी-अपनी
मे ररयों का मुिं दे खेंगे। प ले ी से िटकार दे ना अच्छा ै , किर तो कोई कलक
न ोगा।

ममु लया पानी लेकर गयी, खाना बनाया और रग्घू से बोली-जाओिं, न ा आओ, रोटी
तैयार ै।

रग्घू ने मानों सन
ु ा ी न ीिं। मसर पर ाथ रखकर द्वार की तरि ताकता र ा।

मुमलया-क्या क ती ू ाँ , कुछ सुनाई दे ता ै , रोटी तैयार ै , जाओिं न ा आओ।

रग्घू-सुन तो र ा ू ाँ , क्या ब रा ू ाँ? रोटी तैयार ै तो जाकर खा ले। मुझे भूख


न ीिं ै।

ममु लया ने किर न ीिं क ा। जाकर चल् ु ा हदया, रोहटय ॉँ उठाकर छीिंके पर रख
ू ा बझ
दीिं और माँु ॉँ
ढ ककर लेट र ी।

जरा दे र में पन्ना आकर बोली-खाना तैयार ै , न ा-िोकर खा लो! ब ू भी भख


ू ी
ोगी।

रग्घू ने झाँझ
ु लाकर क ा-काकी तू घर में र ने दे गी कक माँु में कामलख लगाकर
क ीिं तनकल जाऊाँ? खाना तो खाना ी ै , आज न खाऊाँगा, कल खाऊाँगा, लेककन
अभी मझ
ु से न खाया जाएगा। केदार क्या अभी मदरसे से न ीिं आया?

पन्ना-अभी तो नीिं आया, आता ी ोगा।

पन्ना समझ गई कक जब तक व खाना बनाकर लड़कों को न खखलाएगी और


खुद न खाएगी रग्घू न खाएगा। इतना ी न ीिं, उसे रग्घू से लड़ाई करनी पड़ेगी,
उसे जली-कटी सुनानी पड़ेगी। उसे य हदखाना पड़ेगा कक मैं ी उससे अलग
ोना चा ती ू ाँ न ीिं तो व इसी धचन्ता में घल
ु -घल
ु कर प्राण दे दे गा। य
सोचकर उसने अलग चल्
ू ा जलाया और खाना बनाने लगी। इतने में केदार और
खुन्नू मदरसे से आ गए। पन्ना ने क ा-आओ बेटा, खा लो, रोटी तैयार ै।

केदार ने पछ
ू ा-भइया को भी बल
ु ा लाँ ू न?

पन्ना-तुम आकर खा लो। उसकी रोटी ब ू ने अलग बनाई ै।


खुन्नू-जाकर भइया से पूछ न आऊाँ?

पन्ना-जब उनका जी चा े गा, खाऍगेिं । तू बैठकर खा: तुझे इन बातों से क्या


मतलब? त्जसका जी चा े गा खाएगा, त्जसका जी न चा े गा, न खाएगा। जब व
और उसकी बीवी अलग र ने पर तुले ैं, तो कौन मनाए?

केदार-तो क्यों अम्माजी, क्या म अलग घर में र ें गे?

पन्ना-उनका जी चा े , एक घर में र ें , जी चा े ऑ िंगन में दीवार डाल लें ।

ॉँ सामने िूस की झोंपड़ी थी, व ीिं खाट पर पड़ा


खुन्नू ने दरवाजे पर आकर झ का,
रग्घू नाररयल पी र ा था।

खुन्नू- भइया तो अभी नाररयल मलये बैठे ैं।

पन्ना-जब जी चा े गा, खाऍगेिं ।

ॉँ न ीिं?
केदार-भइया ने भाभी को ड टा

मुमलया अपनी कोठरी में पड़ी सुन र ी थी। बा र आकर बोली-भइया ने तो न ीिं
ॉँ अब तुम आकर ड टों।
ड टा ॉँ

केदार के चे रे पर रिं ग उड़ गया। किर जबान न खोली। तीनों लड़कों ने खाना
खाया और बा र तनकले। लू चलने लगी थी। आम के बाग में ग वॉँ के लड़के-
लड़ककय ॉँ वा से धगरे ु ए आम चन
ु र े थे। केदार ने क ा-आज म भी आम
चन
ु ने चलें , खब
ू आम धगर र े ैं।

खुन्नू-दादा जो बैठे ैं?

लछमन-मैं न जाऊाँगा, दादा घुड़केंगे।

केदार-व तो अब अलग ो गए।

लक्षमन-तो अब मको कोई मारे गा, तब भी दादा न बोलें गे?

केदार-वा , तब क्यों न बोलें गे?

रग्घू ने तीनों लड़कों को दरवाजे पर खड़े दे खा: पर कुछ बोला न ीिं। प ले तो


व घर के बा र तनकलते ी उन् ें ड टॉँ बैठता था: पर आज व मूततष के समान
तनश्चल बैठा र ा। अब लड़कों को कुछ सा स ु आ। कुछ दरू और आगे बढ़े ।
रग्घू अब भी न बोला, कैसे बोले? व सोच र ा था, काकी ने लड़कों को खखला-
वपला हदया, मुझसे पूछा तक न ीिं। क्या उसकी ऑ िंखों पर भी परदा पड़ गया ै:
अगर मैंने लड़कों को पक
ु ारा और व न आयें तो? मैं उनकों मार-पीट तो न
सकाँू गा। लू में सब मारे -मारे किरें गे। क ीिं बीमार न पड़ जाऍ।िं उसका हदल
मसोसकर र जाता था, लेककन माँु से कुछ क न सकता था। लड़कों ने दे खा
कक य बबलकुल न ीिं बोलते, तो तनभषय ोकर चल पड़े।

स सा ममु लया ने आकर क ा-अब तो उठोगे कक अब भी न ीिं? त्जनके नाम पर


िाका कर र े ो, उन् ोंने मजे से लड़कों को खखलाया और आप खाया, अब
आराम से सो र ी ॉँ एक बार भी
ै । ‘मोर वपया बात न पूछें, मोर सु ाधगन न व।’
तो माँु से न िूटा कक चलो भइया, खा लो।
रग्घू को इस समय ममाषन्तक पीड़ा ो र थी। ममु लया के इन कठोर शब्दों ने
घाव पर नमक तछड़क हदया। द:ु खखत नेत्रों से दे खकर बोला-तेरी जो मजी थी, व ी
तो ु आ। अब जा, ढोल बजा!

ममु लया-न ीिं, तम्


ु ारे मलए थाली परोसे बैठी ै।

रग्घू-मुझे धचढ़ा मत। तेरे पीछे मैं भी बदनाम ो र ा ू ाँ। जब तू ककसी की ोकर
न ीिं र ना चा ती, तो दस
ू रे को क्या गरज ै , जो मेरी खुशामद करे ? जाकर काकी
से पछ
ू , लड़के आम चुनने गए ैं, उन् ें पकड़ लाऊाँ?

मुमलया अाँगूठा हदखाकर बोली-य जाता ै । तुम् ें सौ बार गरज ो, जाकर पूछो।

इतने में पन्ना भी भीतर से तनकल आयी। रग्घू ने पूछा-लड़के बगीचे में चले
गए काकी, लू चल र ी ै।

पन्ना-अब उनका कौन पछ


ु ततर ै ? बगीचे में जाऍ,िं पेड़ पर चढ़ें , पानी में डूबें। मैं
अकेली क्या-क्या करुाँ ?

रग्घू-जाकर पकड़ लाऊाँ?

पन्ना-जब तुम् ें अपने मन से न ीिं जाना ै , तो किर मैं जाने को क्यों क ू ाँ? तुम् ें
रोकना ोता , तो रोक न दे त?े तुम् ारे सामने ी तो गए ोंगे?

पन्ना की बात पूरी भी न ु ई थी कक रग्घू ने नाररयल कोने में रख हदया और


बाग की तरि चला।

रग्घू लड़कों को लेकर बाग से लौटा, तो दे खा मुमलया अभी तक झोंपड़े में खड़ी
ै । बोला-तू जाकर खा क्यों न ीिं लेती? मुझे तो इस बेला भख
ू न ीिं ै।
ममु लया ऐिंठकर बोली- ,ॉँ भख
ू क्यों लगेगी! भाइयों ने खाया, व तम्
ु ारे पेट में
प ु ाँच ी गया ोगा।

ॉँ पीसकर क ा-मुझे जला मत मुमलया, न ीिं अच्छा न


रग्घू ने द त ोगा। खाना
क ीिं भागा न ीिं जाता। एक बेला न खाऊाँगा, तो मर न जाउाँ गा! क्या तू समझती
ैं, घर में आज कोई बात ो गई ैं ? तन
ू े घर में चल्
ू ा न ीिं जलाया, मेरे कलेजे में
आग लगाई ै । मुझे घमिंड था कक और चा े कुछ ो जाए, पर मेरे घर में िूट
का रोग न आने पाएगा, पर तूने घमिंड चूर कर हदया। परालब्ि की बात ै।

ममु लया ततनककर बोली-सारा मो -छो तम्


ु ीिं को ै कक और ककसी को ै? मैं तो
ककसी को तुम् ारी तर बबसूरते न ीिं दे खती।

ॉँ खीिंचकर क ा-ममु लया, घाव पर नोन न तछड़क। तेरे


रग्घू ने ठिं डी स स ी कारन
मेरी पीठ में िल
ू लग र ी ै । मझ
ु े इस ग ृ स्थी का मो न ोगा, तो ककसे ोगा?
मैंने ी तो इसे मर-मर जोड़ा। त्जनको गोद में खेलाया, व ीिं अब मेरे पट्टीदार
ॉँ
ोंगे। त्जन बच्चों को मैं ड टता था, उन् ें आज कड़ी ऑ िंखों से भी न ीिं दे ख
सकता। मैं उनके भले के मलए भी कोई बात करुाँ , तो दतु नया य ी क े गी कक य
अपने भाइयों को लूटे लेता ै । जा मुझे छोड़ दे , अभी मुझसे कुछ न खाया
जाएगा।

मुमलया-मैं कसम रखा दाँ ग


ू ी, न ीिं चुपके से चले चलो।

रग्घू-दे ख, अब भी कुछ न ीिं बबगड़ा ै । अपना ठ छोड़ दे ।

ममु लया- मारा ी ल ू वपए, जो खाने न उठे ।

रग्घू ने कानों पर ाथ रखकर क ा-य तूने क्या ककया मुमलया? मैं तो उठ ी


र ा था। चल खा लाँ ।ू न ाने-िोने कौन जाए, लेककन इतनी क े दे ता ू ाँ कक चा े
चार की जग छ: रोहटय ॉँ खा जाऊाँ, चा े तू मझ
ु े घी के मटके ी में डुबा दे : पर
य दाग मेरे हदल से न ममटे गा।

मुमलया-दाग-साग सब ममट जाएगा। प ले सबको ऐसा ी लगता ै । दे खते न ीिं


ो, उिर कैसी चैन की विंशी बज र ी ै, व तो मना ी र ी थीिं कक ककसी तर
य सब अलग ो जाऍ।िं अब व ॉँ तो न ीिं
प ले की-सी च दी ै कक जो कुछ घर
में आवे, सब गायब! अब क्यों मारे साथ र ने लगीिं ?

रग्घू ने आ त स्वर में क ा-इसी बात का तो मझ


ु े गम ै । काकी ने मझ
ु े ऐसी
आशा न थी।

ूाँ -सा लगता था। जान पड़ता था, रोहटय ॉँ भूसी


रग्घू खाने बैठा, तो कौर ववर् के घट
की ैं। दाल पानी-सी लगती। पानी किंठ के नीचे न उतरता था, दि
ू की तरि
दे खा तक न ीिं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे ककसी वप्रयजन के श्राद्ध का
भोजन ो।

रात का भोजन भी उसने इसी तर ककया। भोजन क्या ककया, कसम परू ी की।
रात-भर उसका धचतत उद्ववग्न र ा। एक अज्ञात शिंका उसके मन पर छाई ु ई
थी, जेसे भोला म तो द्वार पर बैठा रो र ा ो। व कई बार चौंककर उठा। ऐसा
जान पड़ा, भोला उसकी ओर ततरस्कार की आाँखों से दे ख र ा ै।

व दोनों जन
ू भोजन करता था: पर जैसे शत्रु के घर। भोला की शोकमग्न मतू तष
ऑ िंखों से न उतरती थी। रात को उसे नीिंद न आती। व ग वॉँ में तनकलता, तो
इस तर माँु चुराए, मसर झुकाए मानो गो- तया की ो।

पााँच साल गुजर गए। रग्घू अब दो लड़कों का बाप था। आाँगन में दीवार खखिंच
ॉँ मलये गए थे। केदार
गई थी, खेतों में मेड़ें डाल दी गई थीिं और बैल -बतछए ब ि
की उम्र अब उन्नीस की ो गई थी। उसने पढ़ना छोड़ हदया था और खेती का
काम करता था। खन्
ु नू गाय चराता था। केवल लछमन अब तक मदरसे जाता
था। पन्ना और मुमलया दोनों एक-दस
ू रे की सूरत से जलती थीिं। मुमलया के दोनों
लड़के ब ु िा पन्ना ी के पास र ते। व ीिं उन् ें उबटन मलती, व ी काजल
लगाती, व ी गोद में मलये किरती: मगर मुमलया के मुिं से अनुग्र का एक शब्द
भी न तनकलता। न पन्ना ी इसकी इच्छुक थी। व जो कुछ करती तनव्याषज
भाव से करती थी। उसके दो-दो लड़के अब कमाऊ ो गए थे। लड़की खाना पका
लेती थी। व खद
ु ऊपर का काम-काज कर लेती। इसके ववरुद्ध रग्घू अपने घर
का अकेला था, व भी दब
ु ल
ष , अशक्त और जवानी में बूढ़ा। अभी आयु तीस वर्ष
से अधिक न थी, लेककन बाल खखचड़ी ॉँ
ो गए थे। कमर भी झुक चली थी। ख सी
ने जीणष कर रखा था। दे खकर दया आती थी। और खेती पसीने की वस्तु ै।
खेती की जैसी सेवा ोनी चाह ए, व उससे न ो पाती। किर अच्छी िसल क ॉँ
से आती? कुछ ऋण भी ो गया था। व धचिंता और भी मारे डालती थी। चाह ए
तो य था कक अब उसे कुछ आराम ममलता। इतने हदनों के तनरन्तर पररश्रम के
बाद मसर का बोझ कुछ ल्का ोता, लेककन मुमलया की स्वाथषपरता और
अदरू दमशषता ने ल राती ु ई खेती उजाड़ दी। अगर सब एक साथ र ते, तो व
अब तक पेन्शन पा जाता, मजे में द्वार पर बैठा ु आ नाररयल पीता। भाई काम
करते, व सला दे ता। म तो बना किरता। क ीिं ककसी के झगड़े चुकाता, क ीिं
सािु-सिंतों की सेवा करता: व अवसर ाथ से तनकल गया। अब तो धचिंता-भार
हदन-हदन बढ़ता जाता था।
आखखर उसे िीमा-िीमा ज्वर र ने लगा। हृदय-शूल, धचिंता, कड़ा पररश्रम और
अभाव का य ी पुरस्कार ै । प ले कुछ परवा न की। समझा आप ी आप
अच्छा ो जाएगा: मगर कमजोरी बढ़ने लगी, तो दवा की किक्र ु ई। त्जसने जो
बता हदया, खा मलया, डाक्टरों और वैद्यों के पास जाने की सामर्थयष क ?ॉँ और
सामर्थयष भी ोती, तो रुपये खचष कर दे ने के मसवा और नतीजा ी क्या था? जीणष
ज्वर की और्धि आराम और पुत्ष्टकारक भोजन ै। न व बसिंत-मालती का
सेवन कर सकता था और न आराम से बैठकर बलबिषक भोजन कर सकता था।
कमजोरी बढ़ती ी गई।
पन्ना को अवसर ममलता, तो व आकर उसे तसल्ली दे ती: लेककन उसके लड़के
अब रग्घू से बात भी न करते थे। दवा-दारु तो क्या करतें , उसका और मजाक
उड़ाते। भैया समझते थे कक म लोगों से अलग ोकर सोने और ईट रख लें गे।
भाभी भी समझती थीिं, सोने से लद जाऊाँगी। अब दे खें कौन पछ
ू ता ै ? मससक-
मससककर न मरें तो क दे ना। ब ु त ‘ ाय! ाय!’ भी अच्छी न ीिं ोती। आदमी
उतना काम करे , त्जतना ो सके। य न ीिं कक रुपये के मलए जान दे दे ।

पन्ना क ती-रग्घू बेचारे का कौन दोर् ै?

केदार क ता-चल, मैं खूब समझता ू ाँ। भैया की जग मैं ोता, तो डिंडे से बात
करता। मजाक थी कक औरत यों त्जद करती। य सब भैया की चाल थी। सब
सिी-बिी बात थी।

आखखर एक हदन रग्घू का हटमहटमाता ु आ जीवन-दीपक बझ


ु गया। मौत ने
सारी धचन्ताओिं का अिंत कर हदया।

अिंत समय उसने केदार को बल


ु ाया था: पर केदार को ऊख में पानी दे ना था।
डरा, क ीिं दवा के मलए न भेज दें । ब ाना बना हदया।

मुमलया का जीवन अिंिकारमय ो गया। त्जस भूमम पर उसने मनसूबों की दीवार


खड़ी की थी, व नीचे से खखसक गई थी। त्जस खूट
ाँ ें के बल पर व उछल र ी
थी, व ॉँ
उखड़ गया था। ग ववालों ने क ना शुरु ककया, ईश्वर ने कैसा ततकाल दिं ड
हदया। बेचारी मारे लाज के अपने दोनों बच्चों को मलये रोया करती। ग वॉँ में
ककसी को माँु हदखाने का सा स न ोता। प्रतयेक प्राणी उससे य क ता ु आ
मालम
ू ोता था-‘मारे घमण्ड के िरती पर प वॉँ न रखती थी: आखखर सजा ममल
गई कक न ीिं !’ अब इस घर में कैसे तनवाष ोगा? व ककसके स ारे र े गी?
ककसके बल पर खेती ोगी? बेचारा रग्घू बीमार था। दब
ु ल
ष था, पर जब तक जीता
र ा, अपना काम करता र ा। मारे कमजोरी के कभी-कभी मसर पकड़कर बैठ
जाता और जरा दम लेकर किर ाथ चलाने लगता था। सारी खेती त स-न स
ो र ी थी, उसे कौन सिंभालेगा? अनाज की ड ठेंॉँ खमल ान में पड़ी थीिं, ऊख अलग
सूख र ी थी। व अकेली क्या-क्या करे गी? किर मसिंचाई अकेले आदमी का तो
काम न ीिं। तीन-तीन मजदरू ों को क ॉँ से लाए! ग वॉँ में मजदरू थे ी ककतने।
आदममयों के मलए खीिंचा-तानी ो र ी थी। क्या करें , क्या न करे ।

इस तर तेर हदन बीत गए। कक्रया-कमष से छुट्टी ममली। दस


ू रे ी हदन सवेरे
ॉँ
मुमलया ने दोनों बालकों को गोद में उठाया और अनाज म ड़ने चली। खमल ान
में प ुिं चकर उसने एक को तो पेड़ के नीचे घास के नमष बबस्तर पर सुला हदया
और दस ॉँ
ू रे को व ीिं बैठाकर अनाज म ड़ने लगी। बैलों को ॉँ
कती थी और रोती
थी। क्या इसीमलए भगवान ् ने उसको जन्म हदया था? दे खते-दे खते क्या वे क्या
ॉँ गया था। व
ो गया? इन् ीिं हदनों वपछले साल भी अनाज म ड़ा रग्घू के मलए
लोटे में शरबत और मटर की घुघ
ाँ ी लेकर आई थी। आज कोई उसके आगे ै, न
पीछे : लेककन ककसी की लौंडी तो न ीिं ू ाँ! उसे अलग ोने का अब भी पछतावा न
था।

एकाएक छोटे बच्चे का रोना सुनकर उसने उिर ताका, तो बड़ा लड़का उसे
चुमकारकर क र ा था-बैया तुप र ो, तुप र ो। िीरे -िीरे उसके मुिं पर ाथ
िेरता था और चुप कराने के मलए ववकल था। जब बच्चा ककसी तर न चुप न

ु आ तो व खद
ु उसके पास लेट गया और उसे छाती से लगाकर प्यार करने
लगा: मगर जब य प्रयतन भी सिल न ु आ, तो व रोने लगा।

उसी समय पन्ना दौड़ी आयी और छोटे बालक को गोद में उठाकर प्यार करती

ु ई बोली-लड़कों को मझ
ु े क्यों न दे आयी ब ू ? ाय! ाय! बेचारा िरती पर पड़ा
लोट र ा ै । जब मैं मर जाऊाँ तो जो चा े करना, अभी तो जीती ू ाँ, अलग ो
जाने से बच्चे तो न ीिं अलग ो गए।

ु ें भी तो छुट्टी न ीिं थी अम्म ,ॉँ क्या करती?


ममु लया ने क ा-तम्
पन्ना-तो तुझे य ॉँ आने की ऐसी क्या जल्दी थी? ड ठ
ॉँ म ड़ॉँ न जाती। तीन-तीन

लड़के तो ैं , और ककसी हदन काम आऍगेिं ? केदार तो कल ॉँ


ी म ड़ने को क र ा
था: पर मैंने क ा, प ले ऊख में पानी दे लो, किर आज म ड़ना, माँड़ाई तो दस
हदन बाद भ ो सकती ै , ऊख की मसिंचाई न ु ई तो सख
ू जाएगी। कल से पानी
चढ़ा ु आ ै , परसों तक खेत परु जाएगा। तब माँड़ाई ो जाएगी। तझ
ु े ववश्वास न
आएगा, जब से भैया मरे ैं, केदार को बड़ी धचिंता ो गई ै । हदन में सौ-सौ बार
पूछता ै , भाभी ब ु त रोती तो न ीिं ैं? दे ख, लड़के भूखे तो न ीिं ैं। कोई लड़का
रोता ै , तो दौड़ा आता ै , दे ख अम्म ,ॉँ क्या ु आ, बच्चा क्यों रोता ै ? कल रोकर
बोला-अम्म ,ॉँ मैं जानता कक भैया इतनी जल्दी चले जाऍगेिं , तो उनकी कुछ सेवा
कर लेता। क ॉँ जगाए-जगाए उठता था, अब दे खती ो, प र रात से उठकर काम
में लग जाता ै । खन्
ु नू कल जरा-सा बोला, प ले म अपनी ऊख में पानी दे
ॉँ कक खुन्नू के माँु
लें गे, तब भैया की ऊख में दें गे। इस पर केदार ने ऐसा ड टा से
किर बात न तनकली। बोला, कैसी तुम् ारी और कैसी मारी ऊख? भैया ने त्जला
न मलया ोता, तो आज या तो मर गए ॉँ
ोते या क ीिं भीख म गते ोते। आज
तुम बड़े ऊखवाले बने ो! य उन् ीिं का पुन-परताप ै कक आज भले आदमी बने
बैठे ो। परसों रोटी खाने को बल
ु ाने गई, तो माँड़य
ै ा में बैठा रो र ा था। पछ
ू ा, क्यों
रोता ै ? तो बोला, अम्म ,ॉँ भैया इसी ‘अलग्योझ’ के दख
ु से मर गए, न ीिं अभी
उनकी उममर ी क्या थी! य उस वक्त न सूझा, न ीिं उनसे क्यों बबगाड़ करते?

य क कर पन्ना ने ममु लया की ओर सिंकेतपण


ू ष दृत्ष्ट से दे खकर क ा-तम्
ु ें व
अलग न र ने दे गा ब ू , क ता ै , भैया मारे मलए मर गए तो म भी उनके
बाल-बच्चों के मलए मर जाऍगेिं ।

ममु लया की आिंखों से ऑ िंसू जारी थे। पन्ना की बातों में आज सच्ची वेदना, सच्ची
सान्तवना, सच्ची धचन्ता भरी ु ई थी। मुमलया का मन कभी उसकी ओर इतना
आकवर्षत न ु आ था। त्जनसे उसे व्यिंग्य और प्रततकार का भय था, वे इतने
दयालु, इतने शुभेच्छु ो गए थे।
आज प ली बार उसे अपनी स्वाथषपरता पर लज्जा आई। प ली बार आतमा ने
अलग्योझे पर धिक्कारा।

ॉँ साल गुजर गए। पन्ना आज बूढ़ी


इस घटना को ु ए प च ो गई ै । केदार घर
का मामलक ै । ममु लया घर की मालककन ै । खन्
ु नू और लछमन के वववा ो
चक
ु े ॉँ
ैं: मगर केदार अभी तक क्व रा ै । क ता ैं- मैं वववा न करुाँ गा। कई
जग ों से बातचीत ु ई, कई सगाइय ॉँ आयीिं: पर उसे ामी न भरी। पन्ना ने
कम्पे लगाए, जाल िैलाए, पर व न िाँसा। क ता-औरतों से कौन सुख? मे ररया
घर में आयी और आदमी का ममजाज बदला। किर जो कुछ ै, व मे ररया ै।
ॉँ
म -बाप, भाई-बन्िु सब पराए ैं। जब भैया जैसे आदमी का ममजाज बदल गया,
तो किर दस
ू रों की क्या धगनती? दो लड़के भगवान ् के हदये ैं और क्या चाह ए।
बबना ब्या ककए दो बेटे ममल गए, इससे बढ़कर और क्या ोगा? त्जसे अपना
समझो, व अपना ै : त्जसे गैर समझो, व गैर ै।

एक हदन पन्ना ने क ा-तेरा विंश कैसे चलेगा?

केदार-मेरा विंश तो चल र ा ै । दोनों लड़कों को अपना ी समझता ूिं ।

पन्ना-समझने ी पर ै , तो तू मुमलया को भी अपनी मे ररया समझता ोगा?

केदार ने झेंपते ु ए क ा-तम


ु तो गाली दे ती ो अम्म !ॉँ

पन्ना-गाली कैसी, तेरी भाभी ी तो ै!

केदार-मेरे जेसे लट्ठ-गाँवार को व क्यों पूछने लगी!

पन्ना-तू करने को क , तो मैं उससे पछ


ू ू ाँ ?

केदार-न ीिं मेरी अम्म ,ॉँ क ीिं रोने-गाने न लगे।


पन्ना-तेरा मन ो, तो मैं बातों-बातों में उसके मन की था लाँ ू?

केदार-मैं न ीिं जानता, जो चा े कर।

पन्ना केदार के मन की बात समझ गई। लड़के का हदल मुमलया पर आया ु आ


ै : पर सिंकोच और भय के मारे कुछ न ीिं क ता।

उसी हदन उसने मुमलया से क ा-क्या करुाँ ब ू , मन की लालसा मन में ी र


जाती ै । केदार का घर भी बस जाता, तो मैं तनत्श्चन्त ो जाती।

मुमलया-व तो करने को ी न ीिं क ते।

पन्ना-क ता ै , ऐसी औरत ममले, जो घर में मेल से र े , तो कर लाँ ।ू

मुमलया-ऐसी औरत क ॉँ ममलेगी? क ीिं ढूाँढ़ो।

पन्ना-मैंने तो ढूाँढ़ मलया ै।

ममु लया-सच, ककस ग वॉँ की ै?

पन्ना-अभी न बताऊाँगी, मुदा य जानती ू ाँ कक उससे केदार की सगाई ो जाए,


तो घर बन जाए और केदार की त्जन्दगी भी सि
ु ल ो जाए। न जाने लड़की
मानेगी कक न ीिं।

मुमलया-मानेगी क्यों न ीिं अम्म ,ॉँ ऐसा सुन्दर कमाऊ, सुशील वर और क ॉँ ममला
जाता ै ? उस जनम का कोई सािु-म ातमा ै , न ीिं तो लड़ाई-झगड़े के डर से
कौन बबन ब्या ा र ता ै । क ॉँ र ती ै , मैं जाकर उसे मना लाऊाँगी।

पन्ना-तू चा े , तो उसे मना ले। तेरे ी ऊपर ै।


ममु लया-मैं आज ी चली जाऊाँगी, अम्मा, उसके पैरों पड़कर मना लाऊाँगी।

पन्ना-बता दाँ ,ू व तू ी ै!

ॉँ गाली दे ती
मुमलया लजाकर बोली-तुम तो अम्म जी, ो।

पन्ना-गाली कैसी, दे वर ी तो ै!

मुमलया-मुझ जैसी बुहढ़या को व क्यों पूछेंगे?

पन्ना-व ॉँ लगाए बैठा


तुझी पर द त ै । तेरे मसवा कोई और उसे भाती ी न ीिं।
डर के मारे क ता न ीिं: पर उसके मन की बात मैं जानती ू ाँ।

ॉँ अरुण
वैिव्य के शौक से मरु झाया ु आ ममु लया का पीत वदन कमल की भ तत
ो उठा। दस वर्ो में जो कुछ खोया था, व इसी एक क्षण में मानों ब्याज के
साथ ममल गया। व ी लवण्य, व ी ववकास, व ीिं आकर्षण, व ीिं लोच।

***
ईदगाह

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी ै । ककतना मनो र, ककतना सु ावना
प्रभाव ै । वक्ष
ृ ों पर अजीब ररयाली ै , खेतों में कुछ अजीब रौनक ै , आसमान
पर कुछ अजीब लामलमा ै । आज का सूयष दे खो, ककतना प्यारा, ककतना शीतल ै,
यानी सिंसार को ईद की बिाई दे र ा ै । ग विं में ककतनी लचल ै । ईदगा
जाने की तैयाररय ॉँ ो र ी ैं। ककसी के कुरते में बटन न ीिं ै , पड़ोस के घर में
सुई-िागा लेने दौड़ा जा र ा ै । ककसी के जूते कड़े ो गए ैं, उनमें तेल डालने
के मलए तेली के घर पर भागा जाता ै । जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें ।
ईदगा से लौटते-लौटते दोप र ो जाएगी। तीन कोस का पेदल रास्ता, किर
सैकड़ों आदममयों से ममलना-भें टना, दोप र के प ले लोटना असम्भव ै । लड़के
सबसे ज्यादा प्रसन्न ैं। ककसी ने एक रोजा रखा ै, व भी दोप र तक, ककसी ने
व भी न ीिं, लेककन ईदगा जाने की खश
ु ी उनके ह स्से की चीज ै । रोजे बड़े-
बूढ़ो के मलए ोंगे। इनके मलए तो ईद ै । रोज ईद का नाम रटते थे, आज व
आ गई। अब जल्दी पड़ी ै कक लोग ईदगा क्यों न ीिं चलते। इन् ें ग ृ स्थी
धचिंताओिं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के मलए दि
ू ओर शक्कर घर में ै या न ीिं,
इनकी बला से, ये तो सेवेयािं खाऍगेिं । व क्या जानें कक अब्बाजान क्यों बद वास
चौिरी कायमअली के घर दौड़े जा र े ैं। उन् ें क्या खबर कक चौिरी ऑ िंखें बदल
लें , तो य सारी ईद मु रष म ो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का िन
भरा ु आ ै । बार-बार जेब से अपना खजाना तनकालकर धगनते ैं और खुश
ोकर किर रख लेते ैं। म मूद धगनता ै , एक-दो, दस,-बार , उसके पास बार
पैसे ैं। मो नमसन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पिंद्र पैसे ैं। इन् ीिं अनधगनती
पैसों में अनधगनती चीजें लाऍगेंिं - खखलौने, ममठाइयािं, बबगुल, गें द और जाने क्या-
क्या।

और सबसे ज्यादा प्रसन्न ै ाममद। व ॉँ साल का गरीब सूरत, दब


चार-प च ु ला-
पतला लड़का, त्जसका बाप गत वर्ष ै जे की भें ट ो गया और म ॉँ न जाने क्यों
पीली ोती- ोती एक हदन मर गई। ककसी को पता क्या बीमारी ै । क ती तो
कौन सन
ु ने वाला था? हदल पर जो कुछ बीतती थी, व हदल में ी स ती थी
ओर जब न स ा गया,. तो सिंसार से ववदा ो गई। अब ाममद अपनी बढ़
ू ी दादी
अमीना की गोद में सोता ै और उतना ी प्रसन्न ै । उसके अब्बाजान रूपये
कमाने गए ैं। ब ु त-सी थैमलय ॉँ लेकर आऍगेिं । अम्मीजान अल्ल ा ममय ॉँ के घर
से उसके मलए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई ैं , इसमलए ाममद प्रसन्न ै।
आशा तो बड़ी चीज ै , और किर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का
पवषत बना लेती े। ाममद के प विं में जत
ू े न ीिं ैं, मसर परएक परु ानी-िरु ानी
टोपी ै , त्जसका गोटा काला पड़ गया ै , किर भी व प्रसन्न ै । जब उसके
अब्बाजान थैमलय ॉँ और अम्मीजान तनयमतें लेकर आऍगी,
िं तो व हदल से
अरमान तनकाल लेगा। तब दे खेगा, मो मसन, नूरे और सम्मी क ॉँ से उतने पैसे
तनकालें गे।

अभाधगन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो र ी ै । आज ईद का हदन, उसके घर


में दाना न ीिं! आज आबबद ोता, तो क्या इसी तर ईद आती ओर चली जाती!
इस अन्िकार और तनराशा में व डूबी जा र ी ै । ककसने बुलाया था इस
तनगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम न ीिं, लेककन ाममद! उसे ककसी के
मरने-जीने के क्या मतलब? उसके अन्दर प्रकाश ै , बा र आशा। ववपत्तत अपना
सारा दलबल लेकर आये, ाममद की आनिंद-भरी धचतबन उसका ववध्वसिं कर
दे गी।

ाममद भीतर जाकर दादी से क ता ु डरना न ीिं अम्म ,ॉँ मै सबसे प ले


ै -तम
आऊाँगा। बबल्कुल न डरना।

अमीना का हदल कचोट र ा ै । ग वॉँ के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा र े


ैं। ाममद का बाप अमीना के मसवा और कौन ै ! उसे केसे अकेले मेले जाने दे ?
उस भीड़-भाड़ से बच्चा क ीिं खो जाए तो क्या ो? न ीिं, अमीना उसे यों न जाने
दे गी। नन् ी-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाऍगेिं । जूते भी
तो न ीिं ैं। व थोड़ी-थोड़ी दरू पर उसे गोद में ले लेती, लेककन य ॉँ सेवैय ॉँ कोन
पकाएगा? पैसे ोते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती।
य ॉँ तो घिंटों चीजें जमा करते लगें गे। म गे
ॉँ का ी तो भरोसा ठ रा। उस हदन
ि ीमन के कपड़े मसले थे। आठ आने पेसे ममले थे। उस उठन्नी को ईमान की
तर बचाती चली आती थी इसी ईद के मलए लेककन कल ग्वालन मसर पर सवार
ो गई तो क्या करती? ाममद के मलए कुछ न ीिं े , तो दो पैसे का दि
ू तो
चाह ए ी। अब तो कुल दो आने पैसे बच र े ैं। तीन पैसे ाममद की जेब में ,
पािंच अमीना के बटुवें में । य ी तो बबसात ै और ईद का तयौ ार, अल्ला ी बेड़ा
पर लगाए। िोबन और नाइन ओर मे तरानी और चडु ड़ ाररन सभी तो आऍगी।
िं
सभी को सेवेय ॉँ चाह ए और थोड़ा ककसी को ऑ िंखों न ीिं लगता। ककस-ककस सें
माँु चुरायेगी? और माँु क्यों चुराए? साल-भर का तयों ार ैं। त्जन्दगी खैररयत से
र ें , उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ ै , बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें हदन
भी कट जाऍगेिं ।

ग वॉँ से मेला चला। ओर बच्चों के साथ ाममद भी जा र ा था। कभी सबके सब


दौड़कर आगे तनकल जाते। किर ककसी पेड़ के नीिंचे खड़े ोकर साथ वालों का
इिंतजार करते। य लोग क्यों इतना िीरे -िीरे चल र े ैं ? ाममद के पैरो में तो
जैसे पर लग गए ैं। व कभी थक सकता ै ? श र का दामन आ गया। सड़क
के दोनों ओर अमीरों के बगीचे ैं। पक्की चारदीवारी बनी ु ई ै । पेड़ो में आम
और लीधचय ॉँ लगी ु ई ैं। कभी-कभी कोई लड़का किंकड़ी उठाकर आम पर
तनशान लगाता े । माली अिंदर से गाली दे ता ु आ तनिंलता ै । लड़के व ााँ से एक
ॉँ पर
िल ग ैं। खूब ाँस र े ैं। माली को केसा उल्लू बनाया ै।

बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीिं। य अदालत ै, य कालेज ै, य क्लब घर ै।


इतने बड़े कालेज में ककतने लड़के पढ़ते ोंगे? सब लड़के न ीिं ैं जी! बड़े-बड़े
आदमी ैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी माँछ
ू े ैं। इतने बड़े ो गए, अभी तक पढ़ते जाते
ैं। न जाने कब तक पढ़ें गे ओर क्या करें गे इतना पढ़कर! ाममद के मदरसे में
दो-तीन बड़े-बड़े लड़के ें , बबल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते ैं, काम से जी
चुराने वाले। इस जग भी उसी तर के लोग ोंगे ओर क्या। क्लब-घर में जाद ू
ोता ै । सन
ु ा ै , य ॉँ मद
ु ो की खोपडड़यािं दौड़ती ैं। और बड़े-बड़े तमाशे ोते ें ,
पर ककसी को अिंदर न ीिं जाने दे त।े और व ॉँ शाम को सा ब लोग खेलते ैं।
बड़े-बड़े आदमी खेलते ें , माँछ
ू ो-दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती ैं , सच! मारी
अम्म ॉँ को य दे दो, क्या नाम ै , बैट, तो उसे पकड़ ी न सके। घुमाते ी लुढ़क
जाऍ।िं

म मूद ने क ा- मारी अम्मीजान का तो ॉँ


ाथ क पने लगे, अल्ला कसम।

मो मसन बोल-चलों, मनों आटा पीस डालती ैं। जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो ाथ
ॉँ
क पने लगें गे! सौकड़ों घड़े पानी रोज तनकालती ॉँ घड़े तो तेरी भैंस पी
ैं। प च
जाती ै । ककसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो ऑ िंखों तक अाँिेरी आ
जाए।

म मद
ू -लेककन दौड़तीिं तो न ीिं, उछल-कूद तो न ीिं सकतीिं।

मो मसन- ,ॉँ उछल-कूद तो न ीिं सकतीिं; लेककन उस हदन मेरी गाय खुल गई थी
और चौिरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्म ॉँ इतना तेज दौड़ी कक मैं उन् ें न पा
सका, सच।

आगे चले। लवाइयों की दक


ु ानें शुरू ु ई। आज खूब सजी ु ई थीिं। इतनी
ममठाइय ॉँ कौन खाता? दे खो न, एक-एक दक
ू ान पर मनों ोंगी। सन
ु ा ै , रात को
त्जन्नात आकर खरीद ले जाते ैं। अब्बा क ते थें कक आिी रात को एक आदमी
र दक
ू ान पर जाता ै और त्जतना माल बचा ोता ै, व तुलवा लेता ै और
सचमुच के रूपये दे ता ै , बबल्कुल ऐसे ी रूपये।

ाममद को यकीन न आया-ऐसे रूपये त्जन्नात को क ॉँ से ममल जाऍगी?


िं

मो मसन ने क ा-त्जन्नात को रूपये की क्या कमी? त्जस खजाने में चा ें चले


जाऍ।िं लो े के दरवाजे तक उन् ें न ीिं रोक सकते जनाब, आप ैं ककस िेर में !
ीरे -जवा रात तक उनके पास र ते ैं। त्जससे खश
ु ो गए, उसे टोकरों जवा रात
ॉँ ममनट में कलकतता प ु ाँच जाऍ।िं
दे हदए। अभी य ीिं बैठे ें , प च

ाममद ने किर पूछा-त्जन्नात ब ु त बड़े-बड़े ोते ैं?

मो मसन-एक-एक मसर आसमान के बराबर ोता ै जी! जमीन पर खड़ा ो जाए


तो उसका मसर आसमान से जा लगे, मगर चा े तो एक लोटे में घुस जाए।

ाममद-लोग उन् ें केसे खुश करते ोंगे? कोई मुझे य मिंतर बता दे तो एक
त्जन्न को खुश कर लाँ ।ू

मो मसन-अब य तो न जानता, लेककन चौिरी सा ब के काबू में ब ु त-से


त्जन्नात ैं। कोई चीज चोरी जाए चौिरी सा ब उसका पता लगा दें गे ओर चोर
का नाम बता दे गें। जुमराती का बछवा उस हदन खो गया था। तीन हदन ै रान

ु ए, क ीिं न ममला तब झख मारकर चौिरी के पास गए। चौिरी ने तुरन्त बता


हदया, मवेशीखाने में ै और व ीिं ममला। त्जन्नात आकर उन् ें सारे ज ान की
खबर दे जाते ैं।

अब उसकी समझ में आ गया कक चौिरी के पास क्यों इतना िन ै और क्यों


उनका इतना सम्मान ै।

आगे चले। य पुमलस लाइन ै । य ीिं सब कातनसहटबबल कवायद करते ैं। रै टन!
िाय िो! रात को बेचारे घूम-घूमकर प रा दे ते ैं, न ीिं चोररय ॉँ ो जाऍ।िं मो मसन
ने प्रततवाद ककया-य कातनसहटबबल प रा दे ते ें ? तभी तुम ब ु त जानते ों अजी
जरत, य चोरी करते ैं। श र के त्जतने चोर-डाकू ें , सब इनसे मु ल्ले में
जाकर ‘जागते र ो! जाते र ो!’ पक
ु ारते ें । तभी इन लोगों के पास इतने रूपये
आते ें । मेरे मामू एक थाने में कातनसहटबबल ें । बार रूपया म ीना पाते ें ,
लेककन पचास रूपये घर भेजते ें । अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कक
माम,ू आप इतने रूपये क ॉँ से पाते ैं? ाँसकर क ने लगे-बेटा, अल्ला दे ता ै।
किर आप ी बोले- म लोग चा ें तो एक हदन में लाखों मार लाऍ।िं म तो
इतना ी लेते ैं , त्जसमें अपनी बदनामी न ो और नौकरी न चली जाए।
ाममद ने पूछा-य लोग चोरी करवाते ैं , तो कोई इन् ें पकड़ता न ीिं?

मो मसन उसकी नादानी पर दया हदखाकर बोला..अरे , पागल! इन् ें कौन पकड़ेगा!
पकड़ने वाले तो य लोग खद
ु ैं, लेककन अल्ला , इन् ें सजा भी खब
ू दे ता ै।
राम का माल राम में जाता ै । थोड़े ी हदन ु ए, मामू के घर में आग लग
गई। सारी लेई-पाँज
ू ी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई हदन पेड़ के नीचे
सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! किर न जाने क ॉँ से एक सौ कजष लाए तो
बरतन-भ ड़ेॉँ आए।

ाममद-एक सौ तो पचास से ज्यादा ोते ै ?

‘क ॉँ पचास, क ॉँ एक सौ। पचास एक थैली-भर ोता ै । सौ तो दो थैमलयों में


भी न आऍ िं?

अब बस्ती घनी ोने लगी। ईइगा जाने वालो की टोमलय ॉँ नजर आने लगी। एक
ॉँ पर सवार, कोई मोटर पर, सभी
से एक भड़कीले वस्त्र प ने ु ए। कोई इक्के-त गे
इत्र में बसे, सभी के हदलों में उमिंग। ग्रामीणों का य छोटा-सा दल अपनी
ववपन्नता से बेखबर, सन्तोर् ओर िैयष में मगन चला जा र ा था। बच्चों के मलए
नगर की सभी चीजें अनोखी थीिं। त्जस चीज की ओर ताकते, ताकते ी र जाते
और पीछे से आनष की आवाज ोने पर भी न चेतते। ाममद तो मोटर के नीचे
जाते-जाते बचा।

स सा ईदगा नजर आई। ऊपर इमली के घने वक्ष


ृ ों की छाया े । नाचे पक्का
िशष ै , त्जस पर जाजम हढछा ु आ ै । और रोजेदारों की पिंत्क्तय ॉँ एक के पीछे
एक न जाने क ॉँ वक चली गई ैं, पक्की जगत के नीचे तक, ज ॉँ जाजम भी
न ीिं ै । नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े ो जाते ैं। आगे जग
न ीिं े । य ॉँ कोई िन और पद न ीिं दे खता। इस्लाम की तनगा में सब बराबर
ें । इन ग्रामीणों ने भी वजू ककया ओर वपछली पिंत्क्त में खड़े ो गए। ककतना
सन्
ु दर सिंचालन ै , ककतनी सन्
ु दर व्यवस्था! लाखों मसर एक साथ मसजदे में झक

जाते ैं, किर सबके सब एक साथ खड़े ो जाते ैं , एक साथ झुकते ें , और एक
साथ खड़े ो जाते ैं , एक साथ खड़े ो जाते ैं , एक साथ झुकते ें , और एक
साथ खड़े ो जाते ैं , कई बार य ी कक्रया ोती े , जैसे बबजली की लाखों बत्ततयााँ
एक साथ प्रदीप्त ों और एक साथ बुझ जाऍ िं, और य ी ग्रम चलता, र े । ककतना
अपव
ू ष दृश्य था, त्जसकी सामहू क कक्रयाऍ,िं ववस्तार और अनिंतता हृदय को श्रद्धा,
गवष और आतमानिंद से भर दे ती थीिं, मानों भ्राततृ व का एक सत्र
ू इन समस्त
आतमाओिं को एक लड़ी में वपरोए ु ए ैं।

नमाज खतम ो गई। लोग आपस में गले ममल र े ैं। तब ममठाई और खखलौने
की दक
ू ान पर िावा ोता ै । ग्रामीणों का य दल इस ववर्य में बालकों से कम
उतसा ी न ीिं ै। य दे खो, ह ड
िं ोला ें एक पैसा दे कर चढ़ जाओ। कभी आसमान
पर जाते ु ए मालूम ोगें , कभी जमीन पर धगरते ु ए। य चखी ै , लकड़ी के
ाथी, घोड़े, ऊाँट, छड़ो में लटके ु ए ैं। एक पेसा दे कर बैठ जाओिं और पच्चीस
चक्करों का मजा लो। म मूद और मो मसन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर
ऊाँटो पर बैठते ें । ाममद दरू खड़ा ै । तीन ी पैसे तो उसके पास ैं। अपने
कोर् का एक तत ाई जरा-सा चक्कर खाने के मलए न ीिं दे सकता।

सब चखखषयों से उतरते ैं। अब खखलौने लें गे। अिर दक


ू ानों की कतार लगी ु ई
ै । तर -तर के खखलौने ैं -मसपा ी और गज
ु ररया, राज ओर वकी, मभश्ती और
िोबबन और सािु। व ! कतते सुन्दर खखलोने ैं। अब बोला ी चा ते ैं। म मूद
मसपा ी लेता े , खाकी वदी और लाल पगड़ीवाला, किंिें पर बिंदक
ू रखे ु ए, मालूम
ोता े , अभी कवायद ककए चला आ र ा ै । मो मसन को मभश्ती पसिंद आया।
कमर झुकी ु ई ै , ऊपर मशक रखे ु ए ैं मशक का माँु एक ाथ से पकड़े ु ए
ै । ककतना प्रसन्न ै ! शायद कोई गीत गा र ा ै । बस, मशक से पानी अड़ेला ी
चा ता ै । नरू े को वकील से प्रेम े । कैसी ववद्वतता े उसके मख
ु पर! काला
चोगा, नीचे सिेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सन
ु री जिंजीर, एक
ाथ में कानन
ू का पौथा मलये ु ए। मालम
ू ोता ै , अभी ककसी अदालत से त्जर
या ब स ककए चले आ र े ै। य सब दो-दो पैसे के खखलौने ैं। ाममद के पास
कुल तीन पैसे ैं, इतने म ाँगे खखलौन व केसे ले? खखलौना क ीिं ाथ से छूट पड़े
तो चूर-चूर ो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रिं ग घुल जाए। ऐसे खखलौने लेकर
व क्या करे गा, ककस काम के!

मो मसन क ता ॉँ
ै -मेरा मभश्ती रोज पानी दे जाएगा स झ-सबे रे

म मद
ू -और मेरा मसपा ी घर का प रा दे गा कोई चोर आएगा, तो िौरन बिंदक
ू से
िैर कर दे गा।

नरू े -ओर मेरा वकील खब


ू मक
ु दमा लड़ेगा।

सम्मी-ओर मेरी िोबबन रोज कपड़े िोएगी।

ाममद खखलौनों की तनिंदा करता ै -ममट्टी ी के तो ैं, धगरे तो चकनाचूर ो जाऍ िं,
लेककन ललचाई ु ई ऑ िंखों से खखलौनों को दे ख र ा ै और चा ता ै कक जरा
दे र के मलए उन् ें ाथ में ले सकता। उसके ाथ अनायास ी लपकते ें , लेककन
लड़के इतने तयागी न ीिं ोते ें , ववशेर्कर जब अभी नया शौक ै। ाममद
ललचता र जाता ै।

खखलौने के बाद ममठाइयााँ आती ैं। ककसी ने रे व डड़य ॉँ ली ें , ककसी ने


गुलाबजामुन ककसी ने सो न लवा। मजे से खा र े ैं। ाममद बबरादरी से पथ
ृ क
ै । अभागे के पास तीन पैसे ैं। क्यों न ीिं कुछ लेकर खाता? ललचाई ऑ िंखों से
सबक ओर दे खता ै।

मो मसन क ता ै - ाममद रे वड़ी ले जा, ककतनी खुशबूदार ै!


ाममद को सिंदे ु आ, ये केवल क्रूर ववनोद ें मो मसन इतना उदार न ीिं ै,
लेककन य जानकर भी व उसके पास जाता ै । मो मसन दोने से एक रे वड़ी
तनकालकर ाममद की ओर बढ़ाता ै। ाममद ाथ िैलाता ै । मो मसन रे वड़ी
अपने माँु में रख लेता ै । म मूद नूरे ओर सम्मी खूब तामलय ॉँ बजा-बजाकर
ाँसते ैं। ाममद खखमसया जाता ै।

मो मसन-अच्छा, अबकी जरूर दें गे ाममद, अल्ला कसम, ले जा।

ाममद-रखे र ो। क्या मेरे पास पैसे न ीिं ै?

सम्मी-तीन ी पेसे तो ैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगें ?

म मूद- मसे गुलाबजामुन ले जाओ ाममद। मो ममन बदमाश ै।

ाममद-ममठाई कौन बड़ी नेमत ै । ककताब में इसकी ककतनी बरु ाइय ॉँ मलखी ैं।

मो मसन-लेककन हदन मे क र े ोगे कक ममले तो खा लें । अपने पैसे क्यों न ीिं


तनकालते?

म मूद-इस समझते ें , इसकी चालाकी। जब मारे सारे पैसे खचष ो जाऍगेिं , तो


में ललचा-ललचाकर खाएगा।

ममठाइयों के बाद कुछ दक


ू ानें लो े की चीजों की, कुछ धगलट और कुछ नकली
ग नों की। लड़कों के मलए य ॉँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते ैं,
ाममद लो े की दक
ु ान पर रूक जात े । कई धचमटे रखे ु ए थे। उसे ख्याल
आया, दादी के पास धचमटा न ीिं ै । तबे से रोहटय ॉँ उतारती ैं , तो ाथ जल
जाता ै । अगर व धचमटा ले जाकर दादी को दे दे तो व ककतना प्रसन्न ोगी!
किर उनकी ऊगमलय ॉँ कभी न जलें गी। घर में एक काम की चीज ो जाएगी।
खखलौने से क्या िायदा? व्यथष में पैसे खराब ोते ैं। जरा दे र ी तो खुशी ोती
ै । किर तो खखलौने को कोई ऑ िंख उठाकर न ीिं दे खता। य तो घर प ु ाँचते-
प ु ाँचते टूट-िूट बराबर ो जाऍगेिं । धचमटा ककतने काम की चीज ै । रोहटय ॉँ तवे
से उतार लो, चल् ॉँ
ू ें में सेंक लो। कोई आग म गने आये तो चटपट चल्
ू े से आग
तनकालकर उसे दे दो। अम्म ॉँ बेचारी को क ॉँ िुरसत े कक बाजार आऍ िं और
इतने पैसे ी क ॉँ ममलते ैं? रोज ाथ जला लेती ैं।

ाममद के साथी आगे बढ़ गए ैं। सबील पर सबके सब शबषत पी र े ैं। दे खो,
सब कतने लालची ैं। इतनी ममठाइय ॉँ लीिं, मुझे ककसी ने एक भी न दी। उस पर
क ते ै , मेरे साथ खेलो। मेरा य काम करों। अब अगर ककसी ने कोई काम
करने को क ा, तो पूछूाँगा। खाए ममठाइय ,ॉँ आप माँु सड़ेगा, िोड़े-िुत्न्सयााँ
तनकलें गी, आप ी जबान चटोरी ो जाएगी। तब घर से पैसे चुराऍगेिं और मार
खाऍगेिं । ककताब में झठ
ू ी बातें थोड़े ी मलखी ें । मेरी जबान क्यों खराब ोगी?
अम्म ॉँ धचमटा दे खते ी दौड़कर मेरे ाथ से ले लें गी और क ें गी-मेरा बच्चा
अम्म ॉँ के मलए धचमटा लाया ै । ककतना अच्छा लड़का ै । इन लोगों के खखलौने
पर कौन इन् ें दआ
ु ऍ िं दे गा? बड़ों का दआ
ु ऍ िं सीिे अल्ला के दरबार में प ु ाँचती ैं ,
और तुरिंत सुनी जाती ैं। मैं भी इनसे ममजाज क्यों स ू ाँ ? मैं गरीब स ी, ककसी से
ॉँ
कुछ म गने तो न ीिं जाते। आखखर अब्बाजान कभीिं न कभी आऍगेिं । अम्मा भी
ऑ िंएगी ी। किर इन लोगों से पछ
ू ू ाँ गा, ककतने खखलौने लोगे? एक-एक को टोकररयों
खखलौने दाँ ू और हदखा ू ाँ कक दोस्तों के साथ इस तर का सलूक ककया जात ै।
य न ीिं कक एक पैसे की रे वडड़य ॉँ लीिं, तो धचढ़ा-धचढ़ाकर खाने लगे। सबके सब
ाँसेंगे कक ाममद ने धचमटा मलया ै। ाँसें! मेरी बला से! उसने दक
ु ानदार से
पूछा-य धचमटा ककतने का ै?

दक
ु ानदार ने उसकी ओर दे खा और कोई आदमी साथ न दे खकर क ा-तुम् ारे
काम का न ीिं ै जी!

‘बबकाऊ ै कक न ीिं?’

‘बबकाऊ क्यों न ीिं ै ? और य ााँ क्यों लाद लाए ैं?’


तो बताते क्यों न ीिं, कै पैसे का ै ?’

‘छ: पैसे लगें गे।’

ाममद का हदल बैठ गया।

‘ठीक-ठीक पााँच पैसे लगें गे, लेना ो लो, न ीिं चलते बनो।’

ाममद ने कलेजा मजबूत करके क ा- तीन पैसे लोगे?

य क ता ु आ व ु ानदार की घुड़ककय ॉँ न सुने। लेककन


आगे बढ़ गया कक दक

ु ानदार ने घुड़ककय ॉँ न ीिं दी। बुलाकर धचमटा दे हदया।


दक ाममद ने उसे इस तर
किंिे पर रखा, मानों बिंदक
ू ै और शान से अकड़ता ु आ सिंधगयों के पास आया।
जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएाँ करते ैं!

मो मसन ने ाँसकर क ा-य धचमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करे गा?

ाममद ने धचमटे को जमीन पर पटकर क ा-जरा अपना मभश्ती जमीन पर धगरा


दो। सारी पसमलय ॉँ चूर-चूर ो जाऍ िं बचा की।
म मद
ू बोला-तो य धचमटा कोई खखलौना ै?

ाममद-खखलौना क्यों न ी ै ! अभी कन्िे पर रखा, बिंदक


ू ो गई। ाथ में ले
मलया, िकीरों का धचमटा ो गया। चा ू ाँ तो इससे मजीरे काकाम ले सकता ू ाँ।
एक धचमटा जमा दाँ ,ू तो तम
ु लोगों के सारे खखलौनों की जान तनकल जाए।
तम्
ु ारे खखलौने ककतना िं न ी कर
ी जोर लगाऍ,िं मेरे धचमटे का बाल भी ब का
सकतें मेरा ब ादरु शेर ै धचमटा।

सम्मी ने खाँजरी ली थी। प्रभाववत ोकर बोला-मेरी खाँजरी से बदलोगे? दो आने


की ै।
ाममद ने खाँजरी की ओर उपेक्षा से दे खा-मेरा धचमटा चा े तो तम्
ु ारी खॅजरी का
पेट िाड़ डाले। बस, एक चमड़े की खझल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा
पानी लग जाए तो खतम ो जाए। मेरा ब ादरु धचमटा आग में , पानी में , आाँिी
में , तूिान में बराबर डटा खड़ा र े गा।

धचमटे ने सभी को मोह त कर मलया, अब पैसे ककसके पास िरे ैं ? किर मेले से
दरू तनकल आए ें , नौ कब के बज गए, िूप तेज ो र ी ै । घर प ुिं चने की
जल्दी ो र ी े । बाप से त्जद भी करें , तो धचमटा न ीिं ममल सकता। ाममद ै
बड़ा चालाक। इसीमलए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।

अब बालकों के दो दल ो गए ैं। मो मसन, म मद, सम्मी और नूरे एक तरि ैं,


ाममद अकेला दस
ू री तरि। शास्त्रथष ो र ा ै । सम्मी तो वविमी ा गया! दस
ू रे
पक्ष से जा ममला, लेककन मो मसन, म मद
ू और नरू े भी ाममद से एक-एक, दो-दो
साल बड़े ोने पर भी ाममद के आघातों से आतिंककत ो उठे ैं। उसके पास
न्याय का बल ै और नीतत की शत्क्त। एक ओर ममट्टी ै , दस
ू री ओर लो ा, जो
इस वक्त अपने को िौलाद क र ा ै। व अजेय ै , घातक ै । अगर कोई शेर
आ जाए ममय ॉँ मभश्ती के छक्के छूट जाऍ,िं जो ममय ॉँ मसपा ी ममट्टी की बिंदक

छोड़कर भागे, वकील सा ब की नानी मर जाए, चोगे में मिंु तछपाकर जमीन पर
लेट जाऍ।िं मगर य धचमटा, य ब ादरु , य रूस्तमे-ह द
िं लपककर शेर की गरदन
पर सवार ो जाएगा और उसकी ऑ िंखे तनकाल लेगा।

मो मसन ने एड़ी-चोटी का जारे लगाकर क ा-अच्छा, पानी तो न ीिं भर सकता?

ाममद ने धचमटे को सीिा खड़ा करके क ा-मभश्ती को एक डािंट बताएगा, तो


दौड़ा ु आ पानी लाकर उसके द्वार पर तछड़कने लगेगा।

मो मसन परास्त ो गया, पर म मूद ने कुमुक प ु ाँचाई-अगर बचा पकड़ जाऍ िं तो


अदालम में बॅि-े बाँिे किरें गे। तब तो वकील सा ब के पैरों पड़ेगे।
ाममद इस प्रबल तकष का जवाब न दे सका। उसने पूछा- में पकड़ने कौने
आएगा?

नूरे ने अकड़कर क ा-य मसपा ी बिंदक


ू वाला।

ाममद ने माँु धचढ़ाकर क ा-य बेचारे म ब ादरु रूस्तमे-ह द


िं को पकड़ेगें!
अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती ो जाए। इसकी सरू त दे खकर दरू से भागें गे।
पकड़ेगें क्या बेचारे !

मो मसन को एक नई चोट सझ
ू गई-तम्
ु ारे धचमटे का माँु रोज आग में जलेगा।

उसने समझा था कक ाममद लाजवाब ो जाएगा, लेककन य बात न ु ई। ाममद


ने तुरिंत जवाब हदया-आग में ब ादरु ी कूदते ैं जनाब, तुम् ारे य वकील,
मसपा ी और मभश्ती लैडडयों की तर घर में घस
ु जाऍगेिं । आग में व काम ै,
जो य रूस्तमे-ह न्द ी कर सकता ै।

म मूद ने एक जोर लगाया-वकील सा ब कुरसी-मेज पर बैठेगे, तुम् ारा धचमटा


तो बाबरचीखाने में जमीन पर पड़ा र ने के मसवा और क्या कर सकता ै?

इस तकष ने सम्मी और नूरे को भी राजी कर हदया! ककतने हठकाने की बात क ी


े पट्ठे ने! धचमटा बावरचीखाने में पड़ा र ने के मसवा और क्या कर सकता ै?

ॉँ
ाममद को कोई िड़कता ु आ जवाब न सूझा, तो उसने ि िली शुरू की-मेरा
धचमटा बावरचीखाने में न ी र े गा। वकील सा ब कुसी पर बैठेगें , तो जाकर उन् े
जमीन पर पटक दे गा और उनका कानून उनके पेट में डाल दे गा।

बात कुछ बनी न ी। खाल गाली-गलौज थी, लेककन कानून को पेट में डालनेवाली
बात छा गई। ऐसी छा गई कक तीनों सूरमा माँु ताकते र गए मानो कोई
िेलचा कानकौआ ककसी गिंडव
े ाले कनकौए को काट गया ो। कानून माँु से बा र
तनकलने वाली चीज े । उसको पेट के अन्दर डाल हदया जाना बेतक
ु ी-सी बात
ोने पर भी कुछ नयापन रखती े। ाममद ने मैदान मार मलया। उसका धचमटा
रूस्तमे-ह न्द े । अब इसमें मो मसन, म मूद नूरे, सम्मी ककसी को भी आपत्तत
न ीिं ो सकती।

ववजेता को ारनेवालों से जो सतकार ममलना स्वाभववक ै, व ाममद को भी


ममल। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खचष ककए, पर कोई काम की चीज
न ले सके। ाममद ने तीन पैसे में रिं ग जमा मलया। सच ी तो ै , खखलौनों का
क्या भरोसा? टूट-िूट जाऍगी।
िं ाममद का धचमटा तो बना र े गा बरसों?

सिंधि की शते तय ोने लगीिं। मो मसन ने क ा-जरा अपना धचमटा दो, म भी


दे खें। तुम मारा मभश्ती लेकर दे खो।

म मद
ू और नरू े ने भी अपने-अपने खखलौने पेश ककए।

ाममद को इन शतो को मानने में कोई आपत्तत न थी। धचमटा बारी-बारी से


सबके ाथ में गया, और उनके खखलौने बारी-बारी से ाममद के ाथ में आए।
ककतने खब
ू सरू त खखलौने ैं।

ाममद ने ारने वालों के आाँसू पोंछे -मैं तुम् े धचढ़ा र ा था, सच! य धचमटा
भला, इन खखलौनों की क्या बराबर करे गा, मालम
ू ोता ै , अब बोले, अब बोले।

लेककन मो मसन की पाटी को इस हदलासे से सिंतोर् न ीिं ोता। धचमटे का


मसक्का खूब बैठ गया ै । धचपका ु आ हटकट अब पानी से न ीिं छूट र ा ै।

मो मसन-लेककन इन खखलौनों के मलए कोई में दआ


ु तो न दे गा?

म मद
ू -दआ
ु को मलये किरते ो। उल्टे मार न पड़े। अम्मााँ जरूर क ें गी कक मेले
में य ी ममट्टी के खखलौने ममले?
ाममद को स्वीकार करना पड़ा कक खखलौनों को दे खकर ककसी की मााँ इतनी खश

न ोगी, त्जतनी दादी धचमटे को दे खकर ोंगी। तीन पैसों ी में तो उसे सब-कुछ
करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बबल्कुल जरूरत न थी।
किर अब तो धचमटा रूस्तमें -ह न्द े ओर सभी खखलौनों का बादशा ।

रास्ते में म मद
ू को भख
ू लगी। उसके बाप ने केले खाने को हदयें। म मन
ू ने
केवल ाममद को साझी बनाया। उसके अन्य ममत्र मुिं ताकते र गए। य उस
धचमटे का प्रसाद थािं।

ग्यार बजे ग वॉँ में लचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मो मसन की छोटी ब न
दौड़कर मभश्ती उसके ाथ से छीन मलया और मारे खुशी के जा उछली, तो ममय िं
मभश्ती नीचे आ र े और सुरलोक मसिारे । इस पर भाई-ब न में मार-पीट ु ई।
दानों खुब रोए। उसकी अम्म ॉँ य शोर सुनकर बबगड़ी और दोनों को ऊपर से
दो-दो च टेॉँ और लगाए।

ममय ॉँ नूरे के वकील का अिंत उनके प्रततष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय ु आ।


वकील जमीन पर या ताक पर ो न ीिं बैठ सकता। उसकी मयाषदा का ववचार तो
करना ी ोगा। दीवार में खूहाँ टयााँ गाड़ी गई। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा
गया। पटरे पर कागज का कालीन बबदाया गया। वकील सा ब राजा भोज की
भााँतत मसिं ासन पर ववराजे। नरू े ने उन् ें पिंखा झलना शुरू ककया। अदालतों में
खर की टहट्टय ॉँ और बबजली के पिंखे र ते ें । क्या य ॉँ मामूली पिंखा भी न ो!
ॉँ का पिंखा आया ओर नूरे
कानून की गमी हदमाग पर चढ़ जाएगी कक न ीिं? ब स
वा करने लगें मालूम न ीिं, पिंखे की वा से या पिंखे की चोट से वकील सा ब
स्वगषलोक से मतृ युलोक में आ र े और उनका माटी का चोला माटी में ममल
गया! किर बड़े जोर-शोर से मातम ु आ और वकील सा ब की अत्स्थय़ााँ घरू े पर
डाल दी गई।
ू का मसपा ी। उसे चटपट ग वॉँ का प रा दे ने का चाजष ममल गया,
अब र ा म मद
लेककन पमु लस का मसपा ी कोई सािारण व्यत्क्त तो न ीिं, जो अपने पैरों चलें व
पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रिं ग के िटे -पुराने धचथड़े
बबछाए गए त्जसमें मसपा ी सा ब आराम से लेटे। नूरे ने य टोकरी उठाई और
अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई मसपा ी की तर
‘छोनेवाले, जागते ल ो’ पुकारते चलते ें । मगर रात तो अाँिेरी ोनी चाह ए, नूरे
को ठोकर लग जाती ै । टोकरी उसके ाथ से छूटकर धगर पड़ती ै और ममय ॉँ
मसपा ी अपनी बन्दक
ू मलये जमीन पर आ जाते ॉँ में
ैं और उनकी एक ट ग
ववकार आ जाता ै।

म मद
ू को आज ज्ञात ु आ कक व अच्छा डाक्टर ै । उसको ऐसा मर म ममला
गया ै त्जससे व ॉँ को आनन-िानन जोड़ सकता
टूटी ट ग े । केवल गल
ू र का
दि
ू चाह ए। गूलर का दि
ू आता ै । टााँग जवाब दे दे ती ै । शल्य-कक्रया असिल

ु ई, तब उसकी दस
ू री टााँग भी तोड़ दी जाती ै । अब कम-से-कम एक जग
आराम से बैठ तो सकता ॉँ से तो न चल सकता था, न बैठ सकता
ै । एक ट ग
था। अब व मसपा ी सिंन्यासी ो गया ै । अपनी जग पर बै ठा-बैठा प रा दे ता
ै । कभी-कभी दे वता भी बन जाता ै । उसके मसर का झालरदार सािा खरु च
हदया गया ै । अब उसका त्जतना रूपािंतर चा ों, कर सकते ो। कभी-कभी तो
उससे बाट का काम भी मलया जाता ै।

अब ममय ॉँ ाममद का ाल सतु नए। अमीना उसकी आवाज सन


ु ते ी दौड़ी और
उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। स सा उसके ाथ में धचमटा दे खकर व
चौंकी।

‘य धचमटा क ााँ था?’

‘मैंने मोल मलया ै ।’

‘कै पैसे में?’


‘तीन पैसे हदये।’

अमीना ने छाती पीट ली। य कैसा बेसमझ लड़का ै कक दोप र ु आ, कुछ


खाया न वपया। लाया क्या, धचमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न ममली,
जो य लो े का धचमटा उठा लाया?’

ु ारी उाँ गमलय ॉँ तवे से जल जाती थीिं, इसमलए


ाममद ने अपरािी-भाव से क ा-तम्
मैने इसे मलया।

बहु ढ़या का क्रोि तरु न्त स्ने में बदल गया, और स्ने भी व न ीिं, जो प्रगल्भ
ोता े और अपनी सारी कसक शब्दों में बबखेर दे ता ै। य मक
ू स्ने था, खब

ठोस, रस और स्वाद से भरा ु आ। बच्चे में ककतना व्याग, ककतना सदभाव और
ककतना वववेक ै ! दस
ू रों को खखलौने लेते और ममठाई खाते दे खकर इसका मन
ककतना ललचाया ोगा? इतना जब्त इससे ु आ कैसे? व ॉँ भी इसे अपनी बुहढ़या
दादी की याद बनी र ी। अमीना का मन गदगद ो गया।

और अब एक बड़ी ववधचत्र बात ु ई। ाममद कें इस धचमटे से भी ववधचत्र। बच्चे


ाममद ने बूढ़े ाममद का पाटष खेला था। बुहढ़या अमीना बामलका अमीना बन
गई। व रोने लगी। दामन िैलाकर ाममद को दआ
ु ऍ िं दे ती जाती थी और आाँसूिं
की बड़ी-बड़ी बिंद
ू े धगराती जाती थी। ाममद इसका र स्य क्या समझता!

***
मााँ

आज बन्दी छूटकर घर आ र ा ै । करुणा ने एक हदन प ले ी घर लीप-पोत


ॉँ रूपये जमा
रखा था। इन तीन वर्ो में उसने कहठन तपस्या करके जो दस-प च
कर रखे थे, व सब पतत के सतकार और स्वागत की तैयाररयों में खचष कर हदए।
पतत के मलए िोततयों का नया जोड़ा लाई थी, नए कुरते बनवाए थे, बच्चे के मलए
नए कोट और टोपी की आयोजना की थी। बार-बार बच्चे को गले लगाती ओर
प्रसन्न ॉँ उदय
ोती। अगर इस बच्चे ने सूयष की भ तत ोकर उसके अिंिेरे जीवन
को प्रदीप्त न कर हदया ोता, तो कदाधचत ् ठोकरों ने उसके जीवन का अन्त कर
हदया ोता। पतत के कारावास-दण्ड के तीन ी म ीने बाद इस बालक का जन्म

ु आ। उसी का माँु दे ख-दे खकर करूणा ने य तीन साल काट हदए थे। व
सोचती-जब मैं बालक को उनके सामने ले जाऊाँगी, तो व ककतने प्रसन्न ोंगे!
उसे दे खकर प ले तो चककत ो जाऍगेिं , किर गोद में उठा लेंगे और क ें गे-करूणा,
तुमने य रतन दे कर मुझे तन ाल कर हदया। कैद के सारे कष्ट बालक की
तोतली बातों में भूल जाऍगेिं , उनकी एक सरल, पववत्र, मो क दृत्ष्ट दृदय की सारी
व्यवस्थाओिं को िो डालेगी। इस कल्पना का आन्नद लेकर व िूली न समाती
थी।

व सोच र ी थी-आहदतय के साथ ब ु त-से आदमी ोंगे। त्जस समय व द्वार


पर प ु ाँचग
े े, 'जय-जयकार’ की ध्वतन से आकाश गाँज
ू उठे गा। व ककतना स्वगीय
दृश्य ोगा! उन आदममयों के बैठने के मलए करूणा ने एक िटा-सा टाट बबछा
हदया था, कुछ पान बना हदए थे ओर बार-बार आशामय नेत्रों से द्वार की ओर
ताकती थी। पतत की व सदृ
ु ढ़ उदार तेजपण
ू ष मद्र
ु ा बार-बार ऑ िंखों में किर जाती
थी। उनकी वे बातें बार-बार याद आती थीिं, जो चलते समय उनके मुख से
तनकलती थी, उनका व िैयष, व आतमबल, जो पुमलस के प्र ारों के सामने भी
अटल र ा था, व मुस्करा ट जो उस समय भी उनके अिरों पर खेल र ी थी;
व आतममभमान, जो उस समय भी उनके मुख से टपक र ा था, क्या करूणा के
हृदय से कभी ववस्मत
ृ ो सकता था! उसका स्मरण आते ी करुणा के तनस्तेज
मख
ु पर आतमगौरव की लामलमा छा गई। य ी व अवलम्ब था, त्जसने इन तीन
वर्ो की घोर यातनाओिं में भी उसके हृदय को आश्वासन हदया था। ककतनी ी
राते िाकों से गुजरीिं, ब ु िा घर में दीपक जलने की नौबत भी न आती थी, पर
दीनता के आाँसू कभी उसकी ऑ िंखों से न धगरे । आज उन सारी ववपत्ततयों का
अन्त ो जाएगा। पतत के प्रगाढ़ आमलिंगन में व सब कुछ ाँसकर झेल लेगी।
व अनिंत तनधि पाकर किर उसे कोई अमभलार्ा न र े गी।

गगन-पथ का धचरगामी लपका ु आ ववश्राम की ओर चला जाता था, ज ॉँ सिंध्या


ने सुन रा िशष सजाया था और उज्जवल पुष्पों की सेज बबछा रखी थी। उसी
समय करूणा को एक आदमी लाठी टे कता आता हदखाई हदया, मानो ककसी जीणष
मनष्ु य की वेदना-ध्वतन ॉँ
ो। पग-पग पर रूककर ख सने लगता थी। उसका मसर
झक
ु ा ु आ था, करणा उसका चे रा न दे ख सकती थी, लेककन चाल-ढाल से कोई
बूढ़ा आदमी मालूम ोता था; पर एक क्षण में जब व समीप आ गया, तो करूणा
प चान गई। व उसका प्यारा पतत ी था, ककन्तु शोक! उसकी सूरत ककतनी
बदल गई थी। व जवानी, व तेज, व चपलता, व सुगठन, सब प्रस्थान कर
चुका था। केवल ॉँ र
ड्डडयों का एक ढ चा गया था। न कोई सिंगी, न साथी, न
यार, न दोस्त। करूणा उसे प चानते ी बा र तनकल आयी, पर आमलिंगन की
कामना हृदय में दबाकर र गई। सारे मनसूबे िूल में ममल गए। सारा
मनोल्लास ऑ िंसुओिं के प्रवा में ब गया, ववलीन ो गया।

आहदतय ने घर में कदम रखते ी मस्


ु कराकर करूणा को दे खा। पर उस मस्
ु कान
में वेदना का एक सिंसार भरा ु आ थािं करूणा ऐसी मशधथल ो गई, मानो हृदय
का स्पिंदन रूक गया ो। व ॉँ
िटी ु ई आाँखों से स्वामी की ओर टकटकी ब िे
खड़ी थी, मानो उसे अपनी ऑखों पर अब भी ववश्वास न आता ो। स्वागत या
द:ु ख का एक शब्द भी उसके माँु से न तनकला। बालक भी गोद में बैठा ु आ
स मी ऑखें से इस किंकाल को दे ख र ा था और माता की गोद में धचपटा जाता
था।
आखखर उसने कातर स्वर में क ा-य तम्
ु ारी क्या दशा ै ? बबल्कुल प चाने न ीिं
जाते!

आहदतय ने उसकी धचन्ता को शािंत करने के मलए मुस्कराने की चेष्टा करके


क ा-कुछ न ीिं, जरा दब
ु ला ो गया ू ाँ। तम्
ु ारे ाथों का भोजन पाकर किर
स्वस्थ ो जाऊाँगा।

करूणा-छी! सूखकर कााँटा ो गए। क्या व ॉँ भरपेट भोजन न ीिं ममलात? तुम
क ते थे, राजनैततक आदममयों के साथ बड़ा अच्छा व्यव ार ककया जाता ै और
व तम्
ु ारे साथी क्या ो गए जो तम्
ु ें आठों प र घेरे र ते थे और तम्
ु ारे
पसीने की जग खून ब ाने को तैयार र ते थे?

आहदतय की तयोररयों पर बल पड़ गए। बोले-य बड़ा ी कटु अनभ


ु व ै करूणा!
मझ
ु े न मालम
ू था कक मेरे कैद ोते ी लोग मेरी ओर से यों ऑ िंखें िेर लें गे,
कोई बात भी न पूछेगा। राष्र के नाम पर ममटनेवालों का य ी पुरस्कार ै, य
मुझे न मालूम था। जनता अपने सेवकों को ब ु त जल्द भल
ू जाती ै, य तो में
जानता था, लेककन अपने स योगी ओर स ायक इतने बेविा ोते ैं , इसका मुझे
य प ला ी अनुभव ु आ। लेककन मुझे ककसी से मशकायत न ीिं। सेवा स्वयिं
अपना परु स्कार ैं। मेरी भल
ू थी कक मैं इसके मलए यश और नाम चा ता था।

करूणा-तो क्या व ााँ भोजन भी न ममलता था?

आहदतय-य न पूछो करूणा, बड़ी करूण कथा ै । बस, य ी गनीमत समझो कक


जीता लौट आया। तुम् ारे दशषन बदे थे, न ीिं कष्ट तो ऐसे-ऐसे उठाए कक अब
तक मुझे प्रस्थान कर जाना चाह ए था। मैं जरा लेटाँगा। खड़ा न ीिं र ा जाता।
हदन-भर में इतनी दरू आया ू ाँ ।

करूणा-चलकर कुछ खा लो, तो आराम से लेटो। (बालक को गोद में उठाकर)


बाबूजी ै बेटा, तुम् ारे बाबूजी। इनकी गोद में जाओ, तुम् े प्यार करें गे।
आहदतय ने ऑ िंसू-भरी ऑ िंखों से बालक को दे खा और उनका एक-एक रोम उनका
ततरस्कार करने लगा। अपनी जीणष दशा पर उन् ें कभी इतना द:ु ख न ु आ था।
ईश्वर की असीम दया से यहद उनकी दशा सिंभल जाती, तो व किर कभी
राष्रीय आन्दोलन के समीप न जाते। इस िूल-से बच्चे को यों सिंसार में लाकर
दररद्रता की आग में झोंकने का उन् ें क्या अधिकरा था? व अब लक्ष्मी की
उपासना करें गे और अपना क्षुद्र जीवन बच्चे के लालन-पालन के मलए अवपतष कर
दें गे। उन् ें इस समय ऐसा ज्ञात ु आ कक बालक उन् ें उपेक्षा की दृत्ष्ट से दे ख
र ा ै , मानो क र ा ै -‘मेरे साथ आपने कौन-सा कततषव्य-पालन ककया?’ उनकी
सारी कामना, सारा प्यार बालक को हृदय से लगा दे ने के मलए अिीर ो उठा, पर
ाथ िैल न सके। ाथों में शत्क्त ी न थी।

करूणा बालक को मलये ु ए उठी और थाली में कुछ भोजन तनकलकर लाई।
आहदतय ने क्षुिापूणष, नेत्रों से थाली की ओर दे खा, मानो आज ब ु त हदनों के बाद
कोई खाने की चीज सामने आई ैं। जानता था कक कई हदनों के उपवास के बाद
और आरोग्य की इस गई-गज
ु री दशा में उसे जबान को काबू में रखना चाह ए
पर सब्र न कर सका, थाली पर टूट पड़ा और दे खते-दे खते थाली साि कर दी।
करूणा सशिंक ो गई। उसने दोबारा ककसी चीज के मलए न पूछा। थाली उठाकर
चली गई, पर उसका हदल क र ा था-इतना तो कभी न खाते थे।

करूणा बच्चे को कुछ खखला र ी थी, कक एकाएक कानों में आवाज आई-करूणा!

करूणा ने आकर पछ
ू ा-क्या तम
ु ने मझ
ु े पक
ु ारा ै?

िं जोर-जोर से चल र ी थी।
आहदतय का चे रा पीला पड़ गया था और स स ाथों
के स ारे व ी टाट पर लेट गए थे। करूणा उनकी य ालत दे खकर घबर गई।
बोली-जाकर ककसी वैद्य को बल
ु ा लाऊाँ?
आहदतय ने ाथ के इशारे से उसे मना करके क ा-व्यथष ै करूणा! अब तम
ु से
तछपाना व्यथष ै , मझ
ु े तपेहदक ो गया े । कई बार मरते-मरते बच गया ू ाँ। तम

लोगों के दशषन बदे थे, इसमलए प्राण न तनकलते थे। दे खों वप्रये , रोओ मत।

करूणा ने मससककयों को दबाते ु ए क ा-मैं वैद्य को लेकर अभी आती ू ाँ।

आहदतय ने किर मसर ह लाया-न ीिं करूणा, केवल मेरे पास बैठी र ो। अब ककसी
से कोई आशा न ीिं ै । डाक्टरों ने जवाब दे हदया ै । मुझे तो य आश्चयष ै कक
य ॉँ प ु ाँ च कैसे गया। न जाने कौन दै वी शत्क्त मझ
ु े व ॉँ से खीिंच लाई।
कदाधचत ् य इस बझ
ु ते ु ए दीपक की अिंततम झलक थी। आ ! मैंने तम्
ु ारे
साथ बड़ा अन्याय ककया। इसका मुझे मेशा द:ु ख र े गा! मैं तुम् ें कोई आराम न
दे सका। तुम् ारे मलए कुछ न कर सका। केवल सो ाग का दाग लगाकर और
एक बालक के पालन का भार छोड़कर चला जा र ा ूिं । आ !

करूणा ने हृदय को दृढ़ करके क ा-तुम् ें क ीिं ददष तो न ीिं ै ? आग बना लाऊाँ?
कुछ बताते क्यों न ीिं?

आहदतय ने करवट बदलकर क ा-कुछ करने की जरूरत न ीिं वप्रये! क ीिं ददष न ीिं।
बस, ऐसा मालूम ो र ा े कक हदल बैठा जाता ै , जैसे पानी में डूबा जाता ू ाँ।
जीवन की लीला समाप्त ो र ी े । दीपक को बुझते ु ए दे ख र ा ू ाँ। क न ीिं
सकता, कब आवाज बन्द ो जाए। जो कुछ क ना ै, व क डालना चा ता ू ाँ ,
क्यों व लालसा ले जाऊाँ। मेरे एक प्रश्न का जवाब दोगी, पूछूाँ?

करूणा के मन की सारी दब
ु ल
ष ता, सारा शोक, सारी वेदना मानो लुप्त ो गई और
उनकी जग उस आतमबल काउदय ु आ, जो मतृ यु पर ाँसता ै और ववपत्तत के
सााँपों से खेलता ै । रतनजहटत मखमली म्यान में जैसे तेज तलवार तछपी र ती
ै , जल के कोमल प्रवा में जैसे असीम शत्क्त तछपी र ती ै , वैसे ी रमणी का
कोमल हृदय सा स और िैयष को अपनी गोद में तछपाए र ता ै । क्रोि जैसे
तलवार को बा र खीिंच लेता ै , ववज्ञान जैसे जल-शत्क्त का उदघाटन कर लेता
ै , वैसे ी प्रेम रमणी के सा स और िैयष को प्रदीप्त कर दे ता ै।

करूणा ने पतत के मसर पर ाथ रखते ु ए क ा-पूछते क्यों न ीिं प्यारे !

आहदतय ने करूणा के ाथों के कोमल स्पशष का अनुभव करते ु ए क ा-तुम् ारे


ववचार में मेरा जीवन कैसा था? बिाई के योग्य? दे खो, तुमने मुझसे कभी पदाष
न ीिं रखा। इस समय भी स्पष्ट क ना। तुम् ारे ववचार में मुझे अपने जीवन पर
ाँसना चाह ए या रोना चाह ए?

करूणा ने उल्लास के साथ क ा-य प्रश्न क्यों करते ो वप्रयतम? क्या मैंने
तुम् ारी उपेक्षा कभी की ैं? तुम् ारा जीवन दे वताओिं का-सा जीवन था, तन:स्वाथष,
तनमलषप्त और आदशष! ववघ्न-बािाओिं से तिंग आकर मैंने तम्
ु ें ककतनी ी बार
सिंसार की ओर खीिंचने की चेष्टा की ै ; पर उस समय भी मैं मन में जानती थी
कक मैं तुम् ें ऊाँचे आसन से धगरा र ी ूिं । अगर तुम माया-मो में िाँसे ोते, तो
कदाधचत ् मेरे मन को अधिक सिंतोर् ोता; लेककन मेरी आतमा को व गवष और
उल्लास न ोता, जो इस समय ो र ा ै । मैं अगर ककसी को बड़े-से-बड़ा
आशीवाद दे सकती ू ाँ, तो व य ी ोगा कक उसका जीवन तुम् ारे जैसा ो।

य क ते-क ते करूणा का आभा ीन मुखमिंडल जयोततमषय ो गया, मानो उसकी


आतमा हदव्य ो गई ो। आहदतय ने सगवष नेत्रों से करूणा को दे खकर क ा बस,
अब मुझे सिंतोर् ो गया, करूणा, इस बच्चे की ओर से मुझे कोई शिंका न ीिं ै , मैं
उसे इससे अधिक कुशल ाथों में न ीिं छोड़ सकता। मझ
ु े ववश्वास ै कक जीवन-
भर य ऊाँचा और पववत्र आदशष सदै व तुम् ारे सामने र े गा। अब मैं मरने को
तैयार ू ाँ।

सात वर्ष बीत गए।


बालक प्रकाश अब दस साल का रूपवान, बमलष्ठ, प्रसन्नमुख कुमार था, बल का
तेज, सा सी और मनस्वी। भय तो उसे छू भी न ीिं गया था। करूणा का सिंतप्त
हृदय उसे दे खकर शीतल ो जाता। सिंसार करूणा को अभाधगनी और दीन
समझे। व कभी भाग्य का रोना न ीिं रोती। उसने उन आभूर्णों को बेच डाला,
जो पतत के जीवन में उसे प्राणों से वप्रय थे, और उस िन से कुछ गायें और भैंसे
मोल ले लीिं। व कृर्क की बेटी थी, और गो-पालन उसके मलए कोई नया
व्यवसाय न था। इसी को उसने अपनी जीववका का सािन बनाया। ववशुद्ध दि

क ॉँ मयस्सर ोता ै ? सब दि
ू ाथों- ाथ बबक जाता। करूणा को प र रात से
प र रात तक काम में लगा र ना पड़ता, पर व प्रसन्न थी। उसके मुख पर
तनराशा या दीनता की छाया न ीिं , सिंकल्प और सा स का तेज ै । उसके एक-एक
अिंग से आतमगौरव की ज्योतत-सी तनकल र ी ै ; ऑ िंखों में एक हदव्य प्रकाश ै,
गिंभीर, अथा और असीम। सारी वेदनाऍ िं-वैिव्य का शोक और ववधि का तनमषम
प्र ार-सब उस प्रकाश की ग राई में ववलीन ो गया ै।

प्रकाश पर व जान दे ती ै । उसका आनिंद, उसकी अमभलार्ा, उसका सिंसार उसका


स्वगष सब प्रकाश पर न्यौछावर ै ; पर य मजाल न ीिं कक प्रकाश कोई शरारत
करे और करूणा ऑखें बिंद कर ले। न ीिं, व उसके चररत्र की बड़ी कठोरता से
दे ख-भाल करती ै। व प्रकाश की म ॉँ न ीिं, म -बाप
ॉँ दोनों ैं। उसके पुत्र-स्ने में
माता की ममता के साथ वपता की कठोरता भी ममली ु ई ै । पतत के अत्न्तम
शब्द अभी तक उसके कानों में गाँज
ू र े ैं। व आतमोल्लास, जो उनके चे रे पर
झलकने लगा था, व गवषमय लाली, जो उनकी ऑ िंखो में छा गई थी, अभी तक
उसकी ऑखों में किर र ी ै । तनरिं तर पतत-धचन्तन ने आहदतय को उसकी ऑ िंखों
में प्रतयक्ष कर हदया ै। व सदै व उनकी उपत्स्थतत का अनभ
ु व ककया करती ै।
उसे ऐसा जान पड़ता ै कक आहदतय की आतमा सदै व उसकी रक्षा करती र ती
ै । उसकी य ी ाहदष क अमभलार्ा ै कक प्रकाश जवान ोकर वपता का पथगामी
ो।
सिंध्या ॉँ
ो गई थी। एक मभखाररन द्वार पर आकर भीख म गने लगी। करूणा
उस समय गउओिं को पानी दे र ी थी। प्रकाश बा र खेल र ा था। बालक ी तो
ठ रा! शरारत सझ
ू ी। घर में गया और कटोरे में थोड़ा-सा भस
ू ा लेकर बा र
तनकला। मभखाररन ने अबकी झेली िैला दी। प्रकाश ने भस
ू ा उसकी झोली में
डाल हदया और जोर-जोर से तामलय ॉँ बजाता ु आ भागा।

मभखाररन ने अत्ग्नमय नेत्रों से दे खकर क ा-वा रे लाड़ले! मझ


ु से ाँसी करने
चला ॉँ
ै ! य ी म -बाप ने मसखाया ै ! तब तो खब
ू कुल का नाम जगाओगे!

करूणा उसकी बोली सुनकर बा र तनकल आयी और पूछा-क्या ै माता? ककसे


क र ी ो?

मभखाररन ने प्रकाश की तरि इशारा करके क ा-व तुम् ारा लड़का ै न। दे खो,
कटोरे में भूसा भरकर मेरी झोली में डाल गया ै । चुटकी-भर आटा था, व भी
ममट्टी में ममल गया। कोई इस तर दखु खयों को सताता ै ? सबके हदन एक-से
न ीिं र ते! आदमी को घिंमड न करना चाह ए।

करूणा ने कठोर स्वर में पुकारा-प्रकाश?

प्रकाश लत्ज्जत न ु आ। अमभमान से मसर उठाए ु ए आया और बोला-व मारे


ॉँ
घर भीख क्यों म गने आयी ै ? कुछ काम क्यों न ीिं करती?

करुणा ने उसे समझाने की चेष्टा करके क ा-शमष न ीिं आती, उल्टे और ऑ िंख
हदखाते ो।

प्रकाश-शमष क्यों आए? य ॉँ


क्यों रोज भीख म गने आती ै ? मारे य ॉँ क्या कोई
चीज मुफ्त आती ै?

करूणा-तम्
ु ें कुछ न दे ना था तो सीिे से क दे त;े जाओ। तम
ु ने य शरारत क्यों
की?

प्रकाश-उनकी आदत कैसे छूटती?


करूणा ने बबगड़कर क ा-तुम अब वपटोंगे मेरे ाथों।

प्रकाश-वपटूाँगा क्यों? आप जबरदस्ती पीटें गी? दस


ू रे मल्
ु कों में अगर कोई भीख
ॉँ , तो कैद कर मलया जाए। य
म गे न ीिं कक उल्टे मभखमिंगो को और श दी
जाए।

करूणा-जो अपिंग ै, व कैसे काम करे ?

प्रकाश-तो जाकर डूब मरे , त्जन्दा क्यों र ती ै?

करूणा तनरूततर ो गई। बुहढ़या को तो उसने आटा-दाल दे कर ववदा ककया, ककन्तु


प्रकाश का कुतकष उसके हृदय में िोड़े के समान टीसता र ा। उसने य िष्ृ टता,
य अववनय क ॉँ सीखी? रात को भी उसे बार-बार य ी ख्याल सताता र ा।

आिी रात के समीप एकाएक प्रकाश की नीिंद टूटी। लालटे न जल र ी ै और


करुणा बैठी रो र ी ै । उठ बैठा और बोला-अम्म ,ॉँ अभी तुम सोई न ीिं?

करूणा ने माँु िेरकर क ा-नीिंद न ीिं आई। तुम कैसे जग गए? प्यास तो न ी
लगी ै?

प्रकाश-न ी अम्म ,ॉँ न जाने क्यों ऑ िंख खल


ु गई-मझ
ु से आज बड़ा अपराि ु आ,
अम्म ॉँ !

करूणा ने उसके मख
ु की ओर स्ने के नेत्रों से दे खा।

प्रकाश-मैंने आज बुहढ़या के साथ बड़ी नटखट की। मुझे क्षमा करो, किर कभी
ऐसी शरारत न करूाँगा।
य क कर रोने लगा। करूणा ने स्ने ाद्रष ोकर उसे गले लगा मलया और उसके
कपोलों का चम्
ु बन करके बोली-बेटा, मझ
ु े खश
ु करने के मलए य क र े ो या
तुम् ारे मन में सचमुच पछतावा ो र ा ै?

प्रकाश ने मससकते ु ए क ा-न ीिं, अम्म ,ॉँ मझ


ु े हदल से अिसोस ो र ा ै । अबकी
व बहु ढ़या आएगी, तो में उसे ब ु त-से पैसे दाँ ग
ू ा।

करूणा का हृदय मतवाला ो गया। ऐसा जान पड़ा, आहदतय सामने खड़े बच्चे को
आशीवाद दे र े ैं और क र े ैं, करूणा, क्षोभ मत कर, प्रकाश अपने वपता का
नाम रोशन करे गा। तेरी सिंपण
ू ष कामनााँ परू ी ो जाएाँगी।

लेककन प्रकाश के कमष और वचन में मेल न था और हदनों के साथ उसके चररत्र
का अिंग प्रतयक्ष ोता जाता था। ज ीन था ी, ववश्वववद्यालय से उसे वजीिे
ममलते थे, करूणा भी उसकी यथेष्ट स ायता करती थी, किर भी उसका खचष परू ा
न पड़ता था। व ममतव्ययता और सरल जीवन पर ववद्वतता से भरे ुए
व्याख्यान दे सकता था, पर उसका र न-स न िैशन के अिंिभक्तों से जौ-भर
घटकर न था। प्रदशषन की िुन उसे मेशा सवार र ती थी। उसके मन और बुवद्ध
में तनरिं तर द्वन्द्व ोता र ता था। मन जातत की ओर था, बुवद्ध अपनी ओर।
बवु द्ध मन को दबाए र ती थी। उसके सामने मन की एक न चलती थी। जातत-
सेवा ऊसर की खेती ै , व ॉँ बड़े-से-बड़ा उप ार जो ममल सकता ै, व ै गौरव
और यश; पर व भी स्थायी न ीिं, इतना अत्स्थर कक क्षण में जीवन-भर की
कमाई पर पानी किर सकता ै । अतएव उसका अन्त:करण अतनवायष वेग के
साथ ववलासमय जीवन की ओर झुकता था। य ािं तक कक िीरे -िीरे उसे तयाग
और तनग्र से घण
ृ ा ोने लगी। व दरु वस्था और दररद्रता को े य समझता था।
उसके हृदय न था, भाव न थे, केवल मत्स्तष्क था। मत्स्तष्क में ददष क ?ॉँ व ॉँ
तो तकष ैं, मनसूबे ैं।
मसन्ि में बाढ़ आई। जारों आदमी तबा ो गए। ववद्यालय ने व ॉँ एक सेवा
सममतत भेजी। प्रकाश के मन में द्विंद्व ोने लगा-जाऊाँ या न जाऊाँ? इतने हदनों
अगर व परीक्षा की तैयारी करे , तो प्रथम श्रेणी में पास ो। चलते समय उसने
बीमारी का ब ाना कर हदया। करूणा ने मलखा, तुम मसन्ि न गये, इसका मुझे
दख
ु ै । तुम बीमार र ते ु ए भी व ािं जा सकते थे। सममतत में धचककतसक भी
तो थे! प्रकाश ने पत्र का उततर न हदया।

उड़ीसा में अकाल पड़ा। प्रजा मत्क्खयों की तर मरने लगी। कािंग्रेस ने पीडड़तो के
मलए एक ममशन तैयार ककया। उन् ीिं हदनों ववद्यालयों ने इतत ास के छात्रों को
ऐतत ामसक खोज के मलए लिंका भेजने का तनश्चय ककया। करूणा ने प्रकाश को
मलखा-तम
ु उड़ीसा जाओ। ककन्तु प्रकाश लिंका जाने को लालातयत था। व कई
हदन इसी दवु विा में र ा। अिंत को सीलोन ने उड़ीसा पर ववजय पाई। करुणा ने
अबकी उसे कुछ न मलखा। चुपचाप रोती र ी।

सीलोन से लौटकर प्रकाश छुहट्टयों में घर गया। करुणा उससे खखिंची-खखिंची र ीिं।
प्रकाश मन में लत्ज्जत ु आ और सिंकल्प ककया कक अबकी कोई अवसर आया,
तो अम्म ॉँ को अवश्य प्रसन्न करूाँगा। य तनश्चय करके व ववद्यालय लौटा।
लेककन य ािं आते ी किर परीक्षा की किक्र सवार ो गई। य ॉँ तक कक परीक्षा
के हदन आ गए; मगर इम्त ान से िुरसत पाकर भी प्रकाश घर न गया।
ववद्यालय के एक अध्यापक काश्मीर सैर करने जा र े थे। प्रकाश उन् ीिं के साथ
काश्मीर चल खड़ा ु आ। जब परीक्षा-िल तनकला और प्रकाश प्रथम आया, तब
उसे घर की याद आई! उसने तुरन्त करूणा को पत्र मलखा और अपने आने की
सूचना दी। माता को प्रसन्न करने के मलए उसने दो-चार शब्द जातत-सेवा के
ववर्य में भी मलखे-अब मै आपकी आज्ञा का पालन करने को तैयार ू ाँ। मैंने
मशक्षा-सम्बन्िी कायष करने का तनश्चक ककया ैं इसी ववचार से में ने व ववमशष्ट
स्थान प्राप्त ककया ै। मारे नेता भी तो ववद्यालयों के आचायो ी का सम्मान
करते ें । अभी वक इन उपाधियों के मो से वे मक्
ु त न ीिं ु ए े। मारे नेता
भी योग्यता, सदतु सा , लगन का उतना सम्मान न ीिं करते, त्जतना उपाधियों का!
ॉँ भी न
अब मेरी इज्जत करें गे और त्जम्मेदारी को काम सौपें गें, जो प ले म गे
ममलता।

करूणा की आस किर बाँिी।

ववद्यालय खुलते ी प्रकाश के नाम रत्जस्रार का पत्र प ु ाँचा। उन् ोंने प्रकाश का
इिंग्लैंड जाकर ववद्याभ्यास करने के मलए सरकारी वजीिे की मिंजूरी की सूचना
दी थी। प्रकाश पत्र ाथ में मलये र्ष के उन्माद में जाकर म ॉँ से बोला-अम्म ,ॉँ
मुझे इिंग्लैंड जाकर पढ़ने के मलए सरकारी वजीिा ममल गया।

करूणा ने उदासीन भाव से पछ


ू ा-तो तुम् ारा क्या इरादा ै?

प्रकाश-मेरा इरादा? ऐसा अवसर पाकर भला कौन छोड़ता ै!

करूणा-तुम तो स्वयिंसेवकों में भरती ोने जा र े थे ?

प्रकाश-तो आप समझती ैं , स्वयिंसेवक बन जाना ी जातत-सेवा ै ? मैं इिंग्लैंड से


आकर भी तो सेवा-कायष कर सकता ू ाँ और अम्म ,ॉँ सच पूछो, तो एक मत्जस्रे ट
अपने दे श का त्जतना उपकार कर सकता ै , उतना एक जार स्वयिंसेवक
ममलकर भी न ीिं कर सकते। मैं तो मसववल सववषस की परीक्षा में बैठूाँगा और
मुझे ववश्वास ै कक सिल ो जाऊाँगा।

करूणा ने चककत ोकर पूछा-तो क्या तुम मत्जस्रे ट ो जाओगे?


प्रकाश-सेवा-भाव रखनेवाला एक मत्जस्रे ट कािंग्रेस के एक जार सभापततयों से
ज्यादा उपकार कर सकता ै । अखबारों में उसकी लम्बी-लम्बी तारीिें न छपें गी,

ृ ाओिं पर तामलय ॉँ न बजेंगी, जनता उसके जुलूस की गाड़ी न खीिंचग


उसकी वक्तत े ी
और न ववद्यालयों के छात्र उसको अमभनिंदन-पत्र दें गे; पर सच्ची सेवा मत्जस्रे ट
ी कर सकता ै।

करूणा ने आपत्तत के भाव से क ा-लेककन य ी मत्जस्रे ट तो जातत के सेवकों


को सजाऍ िं दे ते ें , उन पर गोमलय ॉँ चलाते ैं?

प्रकाश-अगर मत्जस्रे ट के हृदय में परोपकार का भाव ै , तो व नरमी से व ी


काम करता ू रे गोमलय ॉँ चलाकर भी न ीिं कर सकते।
ै , जो दस

करूणा-मैं य न ीिं मानाँग


ू ी। सरकार अपने नौकरों को इतनी स्वािीनता न ीिं
दे ती। व एक नीतत बना दे ती ै और रएक सरकारी नौकर को उसका पालन
करना पड़ता ै । सरकार की प ली नीतत य ै कक व हदन-हदन अधिक
सिंगहठत और दृढ़ ों। इसके मलए स्वािीनता के भावों का दमन करना जरूरी ै;
अगर कोई मत्जस्रे ट इस नीतत के ववरूद्ध काम करता ै , तो व मत्जस्रे ट न
र े गा। व ह न्दस्
ु तानी था, त्जसने तुम् ारे बाबूजी को जरा-सी बात पर तीन साल
की सजा दे दी। इसी सजा ने उनके प्राण मलये बेटा, मेरी इतनी बात मानो।
सरकारी पदों पर न धगरो। मझ
ु े य मिंजूर ै कक तुम मोटा खाकर और मोटा
प नकर दे श की कुछ सेवा करो, इसके बदले कक तुम ाककम बन जाओ और
शान से जीवन बबताओ। य समझ लो कक त्जस हदन तुम ाककम की कुरसी पर
बैठोगे, उस हदन से तुम् ारा हदमाग ाककमों का-सा ो जाएगा। तुम य ी चा े गे
कक अिसरों में तुम् ारी नेकनामी और तरक्की ो। एक गाँवारू ममसाल लो।
ॉँ र ती
लड़की जब तक मैके में क्व री ै, व अपने को उसी घर की समझती ै,
लेककन त्जस हदन ससुराल चली जाती ै, व अपने घर को दस
ू रो का घर
समझने लगती ॉँ
ै । म -बाप, भाई-बिंद सब व ी र ते ैं , लेककन व घर अपना न ीिं
र ता। य ी दतु नया का दस्तूर ै।
प्रकाश ने खीझकर क ा-तो क्या आप य ी चा ती ैं कक मैं त्जिंदगी-भर चारों
तरि ठोकरें खाता किरूाँ?

करुणा कठोर नेत्रों से दे खकर बोली-अगर ठोकर खाकर आतमा स्वािीन र


सकती ै , तो मैं क ू ाँगी, ठोकर खाना अच्छा ै।

प्रकाश ने तनश्चयातमक भाव से पूछा-तो आपकी य ी इच्छा ै?

करूणा ने उसी स्वर में उततर हदया- ,ॉँ मेरी य ी इच्छा ै।

प्रकाश ने कुछ जवाब न हदया। उठकर बा र चला गया और तरु न्त रत्जस्रार को
इनकारी-पत्र मलख भेजा; मगर उसी क्षण से मानों उसके मसर पर ववपत्तत ने
आसन जमा मलया। ववरक्त और ववमन अपने कमरें में पड़ा र ता, न क ीिं घूमने
जाता, न ककसी से ममलता। माँु लटकाए भीतर आता और किर बा र चला जाता,
य ॉँ तक म ीना गुजर गया। न चे रे पर व लाली र ी, न व ओज; ऑ िंखें
अनाथों के मुख की भााँतत याचना से भरी ु ई, ओठ ाँसना भूल गए, मानों उन
इनकारी-पत्र के साथ उसकी सारी सजीवता, और चपलता, सारी सरलता बबदा ो
गई। करूणा उसके मनोभाव समझती थी और उसके शोक को भल
ु ाने की चेष्टा
करती थी, पर रूठे दे वता प्रसन्न न ोते थे।

आखखर एक हदन उसने प्रकाश से क ा-बेटा, अगर तम


ु ने ववलायत जाने की ठान
ी ली ै , तो चले जाओ। मना न करूाँगी। मझ
ु े खेद ै कक मैंने तम्
ु ें रोका। अगर
मैं जानती कक तुम् ें इतना आघात प ु ाँ चग
े ा, तो कभी न रोकती। मैंने तो केवल
इस ववचार से रोका था कक तुम् ें जातत-सेवा में मग्न दे खकर तुम् ारे बाबूजी की
आतमा प्रसन्न ोगी। उन् ोंने चलते समय य ी वसीयत की थी।

प्रकाश ने रूखाई से जवाब हदया-अब क्या जाऊाँगा! इनकारी-खत मलख चुका। मेरे
मलए कोई अब तक बैठा थोड़े ी ोगा। कोई दस
ू रा लड़का चुन मलया ोगा और
किर करना ी क्या ै ? जब आपकी मजी ॉँ
ै कक ग व-ग वॉँ की खाक छानता किरूाँ,
तो व ी स ी।

करूणा का गवष चूर-चूर ो गया। इस अनुमतत से उसने बािा का काम लेना


चा ा था; पर सिल न ु ई। बोली-अभी कोई न चन
ु ा गया ोगा। मलख दो, मैं
जाने को तैयार ूिं ।

प्रकाश ने झुिंझलाकर क ा-अब कुछ न ीिं ो सकता। लोग ाँसी उड़ाऍगेिं । मैंने तय
कर मलया ै कक जीवन को आपकी इच्छा के अनुकूल बनाऊाँगा।

करूणा-तुमने अगर शुद्ध मन से य इरादा ककया ोता, तो यों न र ते। तुम


मुझसे सतयाग्र कर र े ो; अगर मन को दबाकर, मुझे अपनी रा का कााँटा
समझकर तम
ु ने मेरी इच्छा पूरी भी की, तो क्या? मैं तो जब जानती कक तम्
ु ारे
मन में आप- ी-आप सेवा का भाव उतपन्न ोता। तम
ु आप ी रत्जस्रार सा ब
को पत्र मलख दो।

प्रकाश-अब मैं न ीिं मलख सकता।

‘तो इसी शोक में तने बैठे र ोगे?’

‘लाचारी ै ।‘

करूणा ने और कुछ न क ा। जरा दे र में प्रकाश ने दे खा कक व क ीिं जा र ी


ै ; मगर व कुछ बोला न ीिं। करूणा के मलए बा र आना-जाना कोई असािारण
बात न थी; लेककन जब सिंध्या ो गई और करुणा न आयी, तो प्रकाश को धचन्ता
ोने लगी। अम्मा क ॉँ गयीिं? य प्रश्न बार-बार उसके मन में उठने लगा।

ॉँ
प्रकाश सारी रात द्वार पर बैठा र ा। भ तत-भ ॉँ की शिंकाऍ िं मन में उठने लगीिं।
तत
उसे अब याद आया, चलते समय करूणा ककतनी उदास थी; उसकी आिंखे ककतनी
लाल थी। य बातें प्रकाश को उस समय क्यों न नजर आई? व क्यों स्वाथष में
अिंिा ो गया था?

,ॉँ अब प्रकाश को याद आया-माता ने साि-सुथरे कपड़े प ने थे। उनके ाथ में


छतरी भी थी। तो क्या व क ीिं ब ु त दरू गयी ैं ? ककससे पछ
ू े ? अतनष्ट के भय
से प्रकाश रोने लगा।

श्रावण की अाँिेरी भयानक रात थी। आकाश में श्याम मेघमालाऍ िं, भीर्ण स्वप्न
ॉँ छाई ु ई थीिं। प्रकाश र -र कार आकाश की ओर दे खता था, मानो
की भ तत
करूणा उन् ीिं मेघमालाओिं में तछपी बैठी े । उसने तनश्चय ककया, सवेरा ोते ी
म ॉँ को खोजने चलाँ ग
ू ा और अगर....

ककसी ने द्वार खटखटाया। प्रकाश ने दौड़कर खोल, तो दे खा, करूणा खड़ी ै।


उसका मख
ु -मिंडल इतना खोया ु आ, इतना करूण था, जैसे आज ी उसका सो ाग
उठ गया ै , जैसे सिंसार में अब उसके मलए कुछ न ीिं र ा, जैसे व नदी के
ककनारे खड़ी अपनी लदी ु ई नाव को डूबते दे ख र ी ै और कुछ कर न ीिं
सकती।

प्रकाश ने अिीर ोकर पूछा-अम्म ॉँ क ॉँ चली गई थीिं? ब ु त दे र लगाई?

करूणा ने भमू म की ओर ताकते ु ए जवाब हदया-एक काम से गई थी। दे र ो


गई।

य क ते ु ए उसने प्रकाश के सामने एक बिंद मलिािा िेंक हदया। प्रकाश ने


उतसक
ु ोकर मलिािा उठा मलया। ऊपर ी ववद्यालय की मु र थी। तरु न्त ी
मलिािा खोलकर पढ़ा। लकी-सी लामलमा चे रे पर दौड़ गयी। पछ
ू ा-य तम्
ु ें
क ॉँ ममल गया अम्मा?

करूणा-तम्
ु ारे रत्जस्रार के पास से लाई ू ाँ।
ु व ॉँ चली गई थी?’
‘क्या तम

‘और क्या करती।‘

‘कल तो गाड़ी का समय न था?’

‘मोटर ले ली थी।‘

प्रकाश एक क्षण तक मौन खड़ा र ा, किर किंु हठत स्वर में बोला-जब तुम् ारी
इच्छा न ीिं ै तो मुझे क्यों भेज र ी ो?

करूणा ने ववरक्त भाव से क ा-इसमलए कक तुम् ारी जाने की इच्छा ै । तुम् ारा
य ममलन वेश न ीिं दे खा जाता। अपने जीवन के बीस वर्ष तुम् ारी ह तकामना
पर अवपषत कर हदए; अब तुम् ारी म ततवाकािंक्षा की तया न ीिं कर सकती।
तम्
ु ारी यात्रा सिल ो, य ी मारी ाहदष क अमभलार्ा ै।

करूणा का किंठ रूाँि गया और कुछ न क सकी।

प्रकाश उसी हदन से यात्रा की तैयाररय ॉँ करने लगा। करूणा के पास जो कुछ था,
व सब खचष ो गया। कुछ ऋण भी लेना पड़ा। नए सूट बने, सूटकेस मलए गए।
प्रकाश अपनी िुन में मस्त था। कभी ककसी चीज की िरमाइश लेकर
आता, कभी ककसी चीज का।

करूणा इस एक सप्ता में इतनी दब


ु ल
ष ो गयी ै , उसके बालों पर ककतनी
सिेदी आ गयी ै , चे रे पर ककतनी झुररष य ॉँ पड़ गई ैं, य उसे कुछ न नजर
आता। उसकी ऑ िंखों में इिंगलैंड के दृश्य समाये ु ए थे। म ततवाकािंक्षा ऑ िंखों पर
परदा डाल दे ती ै।
प्रस्थान का हदन आया। आज कई हदनों के बाद िप
ू तनकली थी। करूणा स्वामी
के परु ाने कपड़ों को बा र तनकाल र ी थी। उनकी गाढ़े की चादरें , खद्दर के कुरते,
पाजामें और मल ाि अभी तक सन्दक
ू में सिंधचत थे। प्रततवर्ष वे िूप में सुखाये
जाते और झाड़-पोंछकर रख हदये जाते थे। करूणा ने आज किर उन कपड़ो को
तनकाला, मगर सुखाकर रखने के मलए न ीिं गरीबों में ब टॉँ दे ने के मलए। व आज
पतत से नाराज ै। व लुहटया, डोर और घड़ी, जो आहदतय की धचरसिंधगनी थीिं
और त्जनकी बीस वर्ष से करूणा ने उपासना की थी, आज तनकालकर ऑ िंगन में
िेंक दी गई; व झोली जो बरसों आहदतय के कन्िों पर आरूढ़ र चक
ु ी थी, आप
कूड़े में डाल दी गई; व धचत्र त्जसके सामने बीस वर्ष से करूणा मसर झुकाती
थी, आज व ी तनदष यता से भूमम पर डाल हदया गया। पतत का कोई स्मतृ त-धचन्
व अब अपने घर में न ीिं रखना चा ती। उसका अन्त:करण शोक और तनराशा
से ववदीणष ो गया ै और पतत के मसवा व ककस पर क्रोि उतारे ? कौन उसका
अपना ैं? व ककससे अपनी व्यथा क े ? ककसे अपनी छाती चीरकर हदखाए? व
ोते तो क्या आप प्रकाश दासता की जिंजीर गले में डालकर िूला न समाता? उसे
कौन समझाए कक आहदतय भी इस अवसर पर पछताने के मसवा और कुछ न
कर सकते।

प्रकाश के ममत्रों ने आज उसे ववदाई का भोज हदया था। व ॉँ से व सिंध्या समय


कई ममत्रों के साथ मोटर पर लौटा। सिर का सामान मोटर पर रख हदया गया,
तब व अन्दर आकर म ॉँ से बोला-अम्मा, जाता ू ाँ। बम्बई प ू ाँचकर पत्र मलखग
ूाँ ा।
तुम् ें मेरी कसम, रोना मत और मेरे खतों का जवाब बराबर दे ना।

जैसे ककसी लाश को बा र तनकालते समय सम्बत्न्ियों का िैयष छूट जाता ै , रूके

ु ए ऑ िंसू तनकल पड़ते ैं और शोक की तरिं गें उठने लगती ैं , व ी दशा करूणा
की ु ई। कलेजे में एक ा ाकार ु आ, त्जसने उसकी दब
ु ल
ष आतमा के एक-एक
अणु को किंपा हदया। मालूम ु आ, प वॉँ पानी में किसल गया ै और व ल रों में
ब ी जा र ी ै । उसके मख
ु से शोक या आशीवाद का एक शब्द भी न तनकला।
प्रकाश ने उसके चरण छुए, अश्रू-जल से माता के चरणों को पखारा, किर बा र
ॉँ खड़ी थी।
चला। करूणा पार्ाण मतू तष की भ तत

स सा ग्वाले ने आकर क ा-ब ू जी, भइया चले गए। ब ु त रोते थे।

तब करूणा की समाधि टूटी। दे खा, सामने कोई न ीिं ै । घर में मतृ यु का-सा
सन्नाटा छाया ु आ ै , और मानो हृदय की गतत बन्द ो गई ै।

स सा करूणा की दृत्ष्ट ऊपर उठ गई। उसने दे खा कक आहदतय अपनी गोद में


प्रकाश की तनजीव दे मलए खड़े ो र े ैं। करूणा पछाड़ खाकर धगर पड़ी।

करूणा जीववत थी, पर सिंसार से उसका कोई नाता न था। उसका छोटा-सा
ॉँ
सिंसार, त्जसे उसने अपनी कल्पनाओिं के हृदय में रचा था, स्वप्न की भ तत
अनन्त में ववलीन ो गया था। त्जस प्रकाश को सामने दे खकर व जीवन की
अाँिेरी रात में भी हृदय में आशाओिं की सम्पत्तत मलये जी र ी थी, व बुझ गया
और सम्पत्तत लुट गई। अब न कोई आश्रय था और न उसकी जरूरत। त्जन
गउओिं को व दोनों वक्त अपने ाथों से दाना-चारा दे ती और स लाती थी, वे
अब खट
ूाँ े पर बाँिी तनराश नेत्रों से द्वार की ओर ताकती र ती थीिं। बछड़ो को
गले लगाकर पुचकारने वाला अब कोई न था, त्जसके मलए दि
ु द ु े , मुट्ठा तनकाले।
खानेवाला कौन था? करूणा ने अपने छोटे -से सिंसार को अपने ी अिंदर समेट
मलया था।

ककन्तु एक ी सप्ता में करूणा के जीवन ने किर रिं ग बदला। उसका छोटा-सा
सिंसार िैलते-िैलते ववश्वव्यापी ो गया। त्जस लिंगर ने नौका को तट से एक
ॉँ रखा था, व
केन्द्र पर ब ि उखड़ गया। अब नौका सागर के अशेर् ववस्तार में
भ्रमण करे गी, चा े व उद्दाम तरिं गों के वक्ष में ी क्यों न ववलीन ो जाए।
करूणा द्वार पर आ बैठती और मु ल्ले-भर के लड़कों को जमा करके दि

वपलाती। दोप र तक मक्खन तनकालती और व मक्खन मु ल्ले के लड़के खाते।
ॉँ
किर भ तत-भ ॉँ के पकवान बनाती और कुततों को खखलाती। अब य ी उसका
तत
तनतय का तनयम ो गया। धचडड़य ,ॉँ कुतते, बबत्ल्लय ॉँ चीिंटे-चीहटय ॉँ सब अपने ो
गए। प्रेम का व द्वार अब ककसी के मलए बन्द न था। उस अिंगुल-भर जग में ,
जो प्रकाश के मलए भी कािी न थी, अब समस्त सिंसार समा गया था।

एक हदन प्रकाश का पत्र आया। करूणा ने उसे उठाकर िेंक हदया। किर थोड़ी दे र
के बाद उसे उठाकर िाड़ डाला और धचडड़यों को दाना चुगाने लगी; मगर जब
ॉँ
तनशा-योधगनी ने अपनी िूनी जलायी और वेदनाऍ िं उससे वरदान म गने के मलए
ववकल ो- ोकर चलीिं, तो करूणा की मनोवेदना भी सजग ो उठी-प्रकाश का पत्र
पढ़ने के मलए उसका मन व्याकुल ो उठा। उसने सोचा, प्रकाश मेरा कौन ै ? मेरा
उससे क्य प्रयोजन? ,ॉँ प्रकाश मेरा कौन ै ? ााँ, प्रकाश मेरा कौन ै ? हृदय ने
उततर हदया, प्रकाश तेरा सवषस्व ै, व तेरे उस अमर प्रेम की तनशानी ै , त्जससे
तू सदै व के मलए विंधचत ो गई। व तेरे प्राण ै , तेरे जीवन-दीपक का प्रकाश,
तेरी विंधचत कामनाओिं का मािुय,ष तेरे अश्रूजल में वव ार करने वाला करने वाला
िं स। करूणा उस पत्र के टुकड़ों को जमा करने लगी, माना उसके प्राण बबखर गये
ों। एक-एक टुकड़ा उसे अपने खोये ु ए प्रेम का एक पदधचन् -सा मालम
ू ोता
था। जब सारे पुरजे जमा ो गए, तो करूणा दीपक के सामने बैठकर उसे जोड़ने
लगी, जैसे कोई ववयोगी हृदय प्रेम के टूटे ु ए तारों को जोड़ र ा ो। ाय री
ममता! व अभाधगन सारी रात उन पुरजों को जोड़ने में लगी र ी। पत्र दोनों
ओर मलखा था, इसमलए पुरजों को ठीक स्थान पर रखना और भी कहठन था।
कोई शब्द, कोई वाक्य बीच में गायब ो जाता। उस एक टुकड़े को व किर
खोजने लगती। सारी रात बीत गई, पर पत्र अभी तक अपूणष था।

हदन चढ़ आया, मु ल्ले के लौंड़े मक्खन और दि


ू की चा में एकत्र ो गए, कुततों
ओर बबत्ल्लयों का आगमन ु आ, धचडड़य ॉँ आ-आकर आिंगन में िुदकने लगीिं, कोई
ओखली पर बैठी, कोई तल
ु सी के चौतरे पर, पर करूणा को मसर उठाने तक की
िुरसत न ीिं।

दोप र ु आ, करुणा ने मसर न उठाया। न भूख थीिं, न प्यास। किर सिंध्या ो गई।
पर व पत्र अभी तक अिरू ा था। पत्र का आशय समझ में आ र ा था-प्रकाश
का ज ाज क ीिं-से-क ीिं जा र ा ै । उसके हृदय में कुछ उठा ु आ ै । क्या उठा

ुआ ै, य करुणा न सोच सकी? करूणा पुत्र की लेखनी से तनकले ु ए एक-एक


शब्द को पढ़ना और उसे हृदय पर अिंककत कर लेना चा ती थी।

ॉँ तीन हदन गज
इस भ तत ू र गए। सन्ध्या ो गई थी। तीन हदन की जागी ऑ िंखें
जरा झपक गई। करूणा ने दे खा, एक लम्बा-चौड़ा कमरा ै , उसमें मेजें और
कुमसषय ॉँ लगी ु ई ैं, बीच में ऊाँचे मिंच पर कोई आदमी बैठा ु आ ै । करूणा ने
ध्यान से दे खा, प्रकाश था।

एक क्षण में एक कैदी उसके सामने लाया गया, उसके ाथ-प वॉँ में जिंजीर थी,
कमर झुकी ु ई, य आहदतय थे।

करूणा की आिंखें खल
ु गई। ऑ िंसू ब ने लगे। उसने पत्र के टुकड़ों को किर समेट
मलया और उसे जलाकर राख कर डाला। राख की एक चुटकी के मसवा व ॉँ कुछ
न र ा, जो उसके हृदय में ववदीणष ककए डालती थी। इसी एक चुटकी राख में
उसका गुडड़योंवाला बचपन, उसका सिंतप्त यौवन और उसका तष्ृ णामय वैिव्य
सब समा गया।

प्रात:काल लोगों ने दे खा, पक्षी वपिंजड़े में उड़ चुका था! आहदतय का धचत्र अब भी
उसके शून्य हृदय से धचपटा ु आ था। भग्नहृदय पतत की स्ने -स्मतृ त में ववश्राम
कर र ा था और प्रकाश का ज ाज योरप चला जा र ा था।

***
बेटोंिाली विधिा

पिंडडत अयोध्यानाथ का दे ान्त ु आ तो सबने क ा, ईश्वर आदमी की ऐसी ी


मौत दे । चार जवान बेटे थे, एक लड़की। चारों लड़कों के वववा ो चुके थे, केवल
ॉँ थी। सम्पत्तत भी कािी छोड़ी थी। एक पक्का मकान, दो बगीचे,
लड़की क्व री
कई जार के ग ने और बीस जार नकद। वविवा िूलमती को शोक तो ु आ
और कई हदन तक बे ाल पड़ी र ी, लेककन जवान बेटों को सामने दे खकर उसे
ढाढ़स ु आ। चारों लड़के एक-से-एक सुशील, चारों ब ु ऍ िं एक-से-एक बढ़कर
आज्ञाकाररणी। जब व रात को लेटती, तो चारों बारी-बारी से उसके प वॉँ दबातीिं;
व ॉँ
स्नान करके उठती, तो उसकी साड़ी छ टती। सारा घर उसके इशारे पर चलता
था। बड़ा लड़का कामता एक दफ्तर में 50 रु. पर नौकर था, छोटा उमानाथ
डाक्टरी पास कर चक
ु ा था और क ीिं और्िालय खोलने की किक्र में था, तीसरा
दयानाथ बी. ए. में िेल ो गया था और पबत्रकाओिं में लेख मलखकर कुछ-न-कुछ
कमा लेता था, चौथा सीतानाथ चारों में सबसे कुशाग्र बुवद्ध और ोन ार था और
अबकी साल बी. ए. प्रथम श्रेणी में पास करके एम. ए. की तैयारी में लगा ु आ
था। ककसी लड़के में व दव्ु यषसन, व छै लापन, व लुटाऊपन न था, जो माता-
वपता को जलाता और कुल-मयाषदा को डुबाता ै । िूलमती घर मालककन थी।
गोकक किंु त्जय ॉँ बड़ी ब ू के पास र ती थीिं – बहु ढ़या में व अधिकार-प्रेम न था, जो
वद्ध
ृ जनों को कटु और कल शील बना हदया करता ै ; ककन्तु उसकी इच्छा के
बबना कोई बालक ममठाई तक न माँगा सकता था।

सिंध्या ो गई थी। पिंडडत को मरे आज बार वााँ हदन था। कल तेर ीिं ैं।
ब्रह्मभोज ोगा। बबरादरी के लोग तनमिंबत्रत ोंगे। उसी की तैयाररय ॉँ ो र ी थीिं।
िूलमती अपनी कोठरी में बैठी दे ख र ी थी, पल्लेदार बोरे में आटा लाकर रख
र े ैं। घी के हटन आ र ें ैं। शाक-भाजी के टोकरे , शक्कर की बोररय ,ॉँ द ी के
मटके चले आ र ें ैं। म ापात्र के मलए दान की चीजें लाई गईं-बतषन, कपड़े,
पलिंग, बबछावन, छाते, जूत,े छडड़य ,ॉँ लालटे नें आहद; ककन्तु िूलमती को कोई चीज
न ीिं हदखाई गई। तनयमानस
ु ार ये सब सामान उसके पास आने चाह ए थे। व
प्रतयेक वस्तु को दे खती उसे पसिंद करती, उसकी मात्रा में कमी-बेशी का िैसला
करती; तब इन चीजों को भिंडारे में रखा जाता। क्यों उसे हदखाने और उसकी राय
लेने की जरूरत न ीिं समझी गई? अच्छा व आटा तीन ी बोरा क्यों आया?
ॉँ बोरों के मलए क ा था। घी भी प च
उसने तो प च ॉँ ी कनस्तर ै । उसने तो दस
कनस्तर मिंगवाए थे। इसी तर शाक-भाजी, शक्कर, द ी आहद में भी कमी की
गई ोगी। ककसने उसके ु क्म में स्तक्षेप ककया? जब उसने एक बात तय कर
दी, तब ककसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार ै?

आज चालीस वर्ों से घर के प्रतयेक मामले में िूलमती की बात सवषमान्य थी।


उसने सौ क ा तो सौ खचष ककए गए, एक क ा तो एक। ककसी ने मीन-मेख न
की। य ॉँ तक कक पिं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के ववरूद्ध कुछ न करते थे;
पर आज उसकी ऑ िंखों के सामने प्रतयक्ष रूप से उसके ु क्म की उपेक्षा की जा
र ी ै ! इसे व क्योंकर स्वीकार कर सकती?

कुछ दे र तक तो व जब्त ककए बैठी र ी; पर अिंत में न र ा गया। स्वायतत


शासन उसका स्वभाव ो गया था। व क्रोि में भरी ु ई आयी और कामतानाथ
से बोली-क्या आटा तीन ॉँ बोरों के मलए क ा था। और
ी बोरे लाये? मैंने तो प च
ॉँ
घी भी प च ी हटन माँगवाया! तुम् ें याद ै , मैंने दस कनस्तर क ा था? ककिायत
को मैं बुरा न ीिं समझती; लेककन त्जसने य कुऑ िं खोदा, उसी की आतमा पानी
को तरसे, य ककतनी लज्जा की बात ै!

कामतानाथ ने क्षमा-याचना न की, अपनी भूल भी स्वीकार न की, लत्ज्जत भी


न ीिं ु आ। एक ममनट तो ववद्रो ी भाव से खड़ा र ा, किर बोला- म लोगों की
सला तीन ॉँ हटन घी कािी था। इसी
ी बोरों की ु ई और तीन बोरे के मलए प च
ह साब से और चीजें भी कम कर दी गई ैं।

िूलमती उग्र ोकर बोली-ककसकी राय से आटा कम ककया गया?

‘ म लोगों की राय से।‘


‘तो मेरी राय कोई चीज न ीिं ै ?’

‘ ै क्यों न ीिं; लेककन अपना ातन-लाभ तो म समझते ैं?’

िूलमती क्की-बक्की ोकर उसका माँु ताकने लगी। इस वाक्य का आशय


उसकी समझ में न आया। अपना ातन-लाभ! अपने घर में ातन-लाभ की
त्जम्मेदार व आप ै । दस
ू रों को, चा े वे उसके पेट के जन्मे पत्र
ु ी क्यों न ों,
उसके कामों में स्तक्षेप करने का क्या अधिकार? य लौंडा तो इस हढठाई से
जवाब दे र ा ै , मानो घर उसी का ै , उसी ने मर-मरकर ग ृ स्थी जोड़ी ै , मैं तो
गैर ू ाँ! जरा इसकी े कड़ी तो दे खो।

उसने तमतमाए ु ए मुख से क ा मेरे ातन-लाभ के त्जम्मेदार तुम न ीिं ो। मुझे


अत्ख्तयार ै , जो उधचत समझाँू, व ॉँ
करूाँ। अभी जाकर दो बोरे आटा और प च
हटन घी और लाओ और आगे के मलए खबरदार, जो ककसी ने मेरी बात काटी।

अपने ववचार में उसने कािी तम्बी कर दी थी। शायद इतनी कठोरता
अनावश्यक थी। उसे अपनी उग्रता पर खेद ु आ। लड़के ी तो ैं, समझे ोंगे
कुछ ककिायत करनी चाह ए। मुझसे इसमलए न पूछा ोगा कक अम्मा तो खुद
रे क काम में ककिायत करती ैं। अगर इन् ें मालूम ोता कक इस काम में मैं
ककिायत पसिंद न करूाँगी, तो कभी इन् ें मेरी उपेक्षा करने का सा स न ोता।
यद्यवप कामतानाथ अब भी उसी जग खड़ा था और उसकी भावभिंगी से ऐसा
ज्ञात ोता था कक इस आज्ञा का पालन करने के मलए व ब ु त उतसुक न ीिं, पर
िूलमती तनत्श्चिंत ोकर अपनी कोठरी में चली गयी। इतनी तम्बी पर भी
ककसी को अवज्ञा करने की सामर्थयष ो सकती ै , इसकी सिंभावना का ध्यान भी
उसे न आया।

पर ज्यों-ज्यों समय बीतने लगा, उस पर य कीकत खुलने लगी कक इस घर में


अब उसकी व ै मसयत न ीिं र ी, जो दस-बार हदन प ले थी। सम्बिंधियों के
य ॉँ के नेवते में शक्कर, ममठाई, द ी, अचार आहद आ र े थे। बड़ी ब ू इन
वस्तओ
ु िं को स्वाममनी-भाव से साँभाल-साँभालकर रख र ी थी। कोई भी उससे
पूछने न ीिं आता। बबरादरी के लोग जो कुछ पूछते ैं, कामतानाथ से या बड़ी ब ू
से। कामतानाथ क ॉँ का बड़ा इिंतजामकार ै , रात-हदन भिंग वपये पड़ा र ता ैं
ककसी तर रो-िोकर दफ्तर चला जाता ै । उसमें भी म ीने में पिंद्र नागों से
कम न ीिं ोते। व तो क ो, सा ब पिंडडतजी का मल ाज करता ै , न ीिं अब तक
कभी का तनकाल दे ता। और बड़ी ब ू जैसी िू ड़ औरत भला इन सब बातों को
क्या समझेगी! अपने कपड़े-लतते तक तो जतन से रख न ीिं सकती, चली ै
ग ृ स्थी चलाने! भद ोगी और क्या। सब ममलकर कुल की नाक कटवाऍगेिं ।
वक्त पर कोई-न-कोई चीज कम ो जायेगी। इन कामों के मलए बड़ा अनुभव
चाह ए। कोई चीज तो इतनी बन जाएगी कक मारी-मारी किरे गा। कोई चीज
इतनी कम बनेगी कक ककसी पततल पर प ू ाँ चग
े ी, ककसी पर न ीिं। आखखर इन
सबों को ो क्या गया ै ! अच्छा, ब ू ततजोरी क्यों खोल र ी ै? व मेरी आज्ञा
के बबना ततजोरी खोलनेवाली कौन ोती ै ? किंु जी उसके पास ै अवश्य; लेककन
जब तक मैं रूपये न तनकलवाऊाँ, ततजोरी न ीिं खुलती। आज तो इस तर खोल
र ी ै , मानो मैं कुछ ू ाँ ी न ीिं। य मुझसे न बदाषश्त ोगा!

व झमककर उठी और ब ू के पास जाकर कठोर स्वर में बोली-ततजोरी क्यों


खोलती ो ब ू , मैंने तो खोलने को न ीिं क ा?

बड़ी ब ू ने तनस्सिंकोच भाव से उततर हदया-बाजार से सामान आया ै , तो दाम न


हदया जाएगा।

‘कौन चीज ककस भाव में आई ै और ककतनी आई ै, य मुझे कुछ न ीिं


मालम
ू ! जब तक ह साब-ककताब न ो जाए, रूपये कैसे हदये जाऍ िं?’

‘ह साब-ककताब सब ो गया ै ।‘

‘ककसने ककया?’
‘अब मैं क्या जानाँू ककसने ककया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे ु क्म ममला, रूपये
लाकर दे दो, रूपये मलये जाती ू ाँ!’

िूलमती खून का घट
ूाँ पीकर र गई। इस वक्त बबगड़ने का अवसर न था। घर
में मे मान स्त्री-पुरूर् भरे ॉँ तो
ु ए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को ड टा,
लोग य ी क ें गे कक इनके घर में पिंडडतजी के मरते ी िूट पड़ गई। हदल पर
पतथर रखकर किर अपनी कोठरी में चली गयी। जब मे मान ववदा ो जायेंगे ,
तब व एक-एक की खबर लेगी। तब दे खेगी, कौन उसके सामने आता ै और
क्या क ता ै । इनकी सारी चौकड़ी भल
ु ा दे गी।

ककन्तु कोठरी के एकािंत में भी व तनत्श्चन्त न बैठी थी। सारी पररत्स्थतत को


धगद्घ दृत्ष्ट से दे ख र ी थी, क ॉँ सतकार का कौन-सा तनयम भिंग ोता ै , क ॉँ
मयाषदाओिं की उपेक्षा की जाती ै । भोज आरम्भ ो गया। सारी बबरादरी एक
साथ पिंगत में बैठा दी गई। ऑ िंगन में मुत्श्कल से दो सौ आदमी बैठ सकते ैं।
ॉँ सौ आदमी इतनी-सी जग
ये प च में कैसे बैठ जायेंगे? क्या आदमी के ऊपर
आदमी बबठाए जायेंगे? दो पिंगतों में लोग बबठाए जाते तो क्या बुराई ो जाती?
य ी तो ोता ै कक बार बजे की जग भोज दो बजे समाप्त ोता; मगर य ॉँ
तो सबको सोने की जल्दी पड़ी ु ई ै । ककसी तर य बला मसर से टले और
चैन से सोएिं! लोग ककतने सटकर बैठे ु ए ैं कक ककसी को ह लने की भी जग
न ीिं। पततल एक-पर-एक रखे ु ए ैं। पूररयािं ठिं डी ॉँ
ो गईं। लोग गरम-गरम म ग
र ें ैं। मैदे की पूररयााँ ठिं डी ोकर धचमड़ी ो जाती ैं। इन् ें कौन खाएगा? रसोइए
को कढ़ाव पर से न जाने क्यों उठा हदया गया? य ी सब बातें नाक काटने की
ैं।

स सा शोर मचा, तरकाररयों में नमक न ीिं। बड़ी ब ू जल्दी-जल्दी नमक पीसने
लगी। िूलमती क्रोि के मारे ओ चबा र ी थी, पर इस अवसर पर माँु न खोल
सकती थी। बोरे -भर नमक वपसा और पततलों पर डाला गया। इतने में किर शोर
मचा-पानी गरम ै , ठिं डा पानी लाओ! ठिं डे पानी का कोई प्रबन्ि न था, बिष भी न
माँगाई गई। आदमी बाजार दौड़ाया गया, मगर बाजार में इतनी रात गए बिष
क ?ॉँ आदमी खाली ाथ लौट आया। मे मानों को व ी नल का गरम पानी पीना
पड़ा। िूलमती का बस चलता, तो लड़कों का माँु नोच लेती। ऐसी छीछालेदर
उसके घर में कभी न ु ई थी। उस पर सब मामलक बनने के मलए मरते ैं। बिष
जैसी जरूरी चीज माँगवाने की भी ककसी को सुधि न थी! सुधि क ॉँ से र े -जब
ककसी को गप लड़ाने से िुसषत न ममले। मे मान अपने हदल में क्या क ें गे कक
चले ैं बबरादरी को भोज दे ने और घर में बिष तक न ीिं!

अच्छा, किर य लचल क्यों मच गई? अरे , लोग पिंगत से उठे जा र े ैं। क्या
मामला ै?

िूलमती उदासीन न र सकी। कोठरी से तनकलकर बरामदे में आयी और


कामतानाथ से पूछा-क्या बात ो गई लल्ला? लोग उठे क्यों जा र े ैं ? कामता ने
कोई जवाब न हदया। व ॉँ से खखसक गया। िूलमती झाँझ
ु लाकर र गई। स सा
क ाररन ममल गई। िूलमती ने उससे भी य प्रश्न ककया। मालम
ू ु आ, ककसी के
शोरबे में मरी ु ई चहु या तनकल आई। िूलमती धचत्रमलखखत-सी व ीिं खड़ी र
गई। भीतर ऐसा उबाल उठा कक दीवार से मसर टकरा ले! अभागे भोज का प्रबन्ि
करने चले थे। इस िू ड़पन की कोई द ै , ककतने आदममयों का िमष सतयानाश
ो गया! किर पिंगत क्यों न उठ जाए? ऑ िंखों से दे खकर अपना िमष कौन
गॅवाएगा? ा! सारा ककया-िरा ममट्टी में ममल गया। सैकड़ों रूपये पर पानी किर
गया! बदनामी ु ई व अलग।

मे मान उठ चुके थे। पततलों पर खाना ज्यों-का-तयों पड़ा ु आ था। चारों लड़के
ऑ िंगन में लत्ज्जत खड़े थे। एक दस
ू रे को इलजाम दे र ा था। बड़ी ब ू अपनी
दे वरातनयों पर बबगड़ र ी थी। दे वरातनय ॉँ सारा दोर् कुमद
ु के मसर डालती थी।
कुमुद खड़ी रो र ी थी। उसी वक्त िूलमती झल्लाई ु ई आकर बोली-माँु में
कामलख लगी कक न ीिं या अभी कुछ कसर बाकी ैं? डूब मरो, सब-के-सब जाकर
धचल्लू-भर पानी में ! श र में क ीिं माँु हदखाने लायक भी न ीिं र े ।
ककसी लड़के ने जवाब न हदया।

िूलमती और भी प्रचिंड ोकर बोली-तुम लोगों को क्या? ककसी को शमष- या तो ै


न ीिं। आतमा तो उनकी रो र ी ै , त्जन् ोंने अपनी त्जन्दगी घर की मरजाद
बनाने में खराब कर दी। उनकी पववत्र आतमा को तम
ु ने यों कलिंककत ककया? श र
में थड़
ु ी-थुड़ी ो र ी ै । अब कोई तम्
ु ारे द्वार पर पेशाब करने तो आएगा न ीिं!

कामतानाथ कुछ दे र तक तो चुपचाप खड़ा सुनता र ा। आखखर झुिंझला कर

ु र ो अम्म ।ॉँ भल
बोला-अच्छा, अब चप ू ु ई, म सब मानते ैं , बड़ी भिंयकर भल

ु ई, लेककन अब क्या उसके मलए घर के प्राखणयों को लाल-कर डालोगी? सभी से


भूलें ोती ैं। आदमी पछताकर र जाता ै । ककसी की जान तो न ीिं मारी
जाती?

बड़ी ब ू ने अपनी सिाई दी- म क्या जानते थे कक बीबी (कुमद


ु ) से इतना-सा
काम भी न ोगा। इन् ें चाह ए था कक दे खकर तरकारी कढ़ाव में डालतीिं। टोकरी
उठाकर कढ़ाव मे डाल दी! मारा क्या दोर्!

ॉँ
कामतानाथ ने पतनी को ड टा-इसमें न कुमद
ु का कसरू ै , न तम्
ु ारा, न मेरा।
सिंयोग की बात ै । बदनामी भाग में मलखी थी, व ु ई। इतने बड़े भोज में एक-
एक मुट्ठी तरकारी कढ़ाव में न ीिं डाली जाती! टोकरे -के-टोकरे उड़ेल हदए जाते ैं।
कभी-कभी ऐसी दघ
ु ट
ष ना ोती ै । पर इसमें कैसी जग- ाँसाई और कैसी नक-
कटाई। तुम खामखा जले पर नमक तछड़कती ो!

िूलमती ने दािंत पीसकर क ा-शरमाते तो न ीिं, उलटे और बे याई की बातें करते


ो।

कामतानाथ ने तन:सिंकोच ोकर क ा-शरमाऊाँ क्यों, ककसी की चोरी की ैं? चीनी


में चीिंटे और आटे में घुन, य न ीिं दे खे जाते। प ले मारी तनगा न पड़ी, बस,
य ीिं बात बबगड़ गई। न ीिं, चप
ु के से चहु या तनकालकर िेंक दे त।े ककसी को खबर
भी न ोती।

िूलमती ने चककत ोकर क ा-क्या क ता ै , मरी चुह या खखलाकर सबका िमष


बबगाड़ दे ता?

कामता ाँसकर बोला-क्या पुराने जमाने की बातें करती ो अम्म ।ॉँ इन बातों से
िमष न ीिं जाता? य िमाषतमा लोग जो पततल पर से उठ गए ैं , इनमें से कौन
ै , जो भेड़-बकरी का मािंस न खाता ो? तालाब के कछुए और घोंघे तक तो ककसी
से बचते न ीिं। जरा-सी चहु या में क्या रखा था!

िूलमती को ऐसा प्रतीत ु आ कक अब प्रलय आने में ब ु त दे र न ीिं ै । जब पढे -


मलखे आदममयों के मन मे ऐसे अिाममषक भाव आने लगे , तो किर िमष की
भगवान ी रक्षा करें । अपना-सा मिंु लेकर चली गयी।

दो म ीने गुजर गए ैं। रात का समय ै । चारों भाई हदन के काम से छुट्टी
पाकर कमरे में बैठे गप-शप कर र े ैं। बड़ी ब ू भी र्ड्यिंत्र में शरीक ै । कुमद

के वववा का प्रश्न तछड़ा ु आ ै।

कामतानाथ ने मसनद पर टे क लगाते ु ए क ा-दादा की बात दादा के साथ गई।


पिंडडत ववद्वान ् भी ैं और कुलीन भी ोंगे। लेककन जो आदमी अपनी ववद्या
और कुलीनता को रूपयों पर बेचे, व नीच ै । ऐसे नीच आदमी के लड़के से म
कुमुद का वववा ॉँ
सेंत में भी न करें गे, प च जार तो दरू की बात ै । उसे बताओ
िता और ककसी दस
ू रे वर की तलाश करो। मारे पास कुल बीस जार ी तो ैं।
ॉँ
एक-एक के ह स्से में प च-प ॉँ
च जार आते ॉँ
ैं। प च जार द े ज में दे दें , और
ॉँ
पच जार नेग-न्योछावर, बाजे-गाजे में उड़ा दें , तो किर मारी बधिया ी बैठ
जाएगी।
उमानाथ बोले-मझ
ु े अपना और्िालय खोलने के मलए कम-से-कम पााँच जार की
जरूरत ै । मैं अपने ह स्से में से एक पाई भी न ीिं दे सकता। किर खल
ु ते ी
आमदनी तो ोगी न ीिं। कम-से-कम साल-भर घर से खाना पड़ेगा।

दयानाथ एक समाचार-पत्र दे ख र े थे। ऑ िंखों से ऐनक उतारते ु ए बोले-मेरा


ववचार भी एक पत्र तनकालने का ै । प्रेस और पत्र में कम-से-कम दस जार का
ॉँ
कैवपटल चाह ए। प च जार मेरे र ें गे तो कोई-न-कोई साझेदार भी ममल जाएगा।
पत्रों में लेख मलखकर मेरा तनवाष न ीिं ो सकता।

कामतानाथ ने मसर ह लाते ु ए क ा—अजी, राम भजो, सेंत में कोई लेख छपता
न ीिं, रूपये कौन दे ता ै।

दयानाथ ने प्रततवाद ककया—न ीिं, य बात तो न ीिं ै । मैं तो क ीिं भी बबना


पेशगी परु स्कार मलये न ीिं मलखता।

कामता ने जैसे अपने शब्द वापस मलये —तुम् ारी बात मैं न ीिं क ता भाई। तुम
तो थोड़ा-ब ु त मार लेते ो, लेककन सबको तो न ीिं ममलता।

बड़ी ब ू ने श्रद्घा भाव ने क ा—कन्या भग्यवान ् ो तो दररद्र घर में भी सुखी


र सकती ै । अभागी ो, तो राजा के घर में भी रोएगी। य सब नसीबों का
खेल ै।

कामतानाथ ने स्त्री की ओर प्रशिंसा-भाव से दे खा-किर इसी साल में सीता का


वववा भी तो करना ै।

सीतानाथ सबसे छोटा था। मसर झुकाए भाइयों की स्वाथष-भरी बातें सुन-सुनकर
कुछ क ने के मलए उतावला ो र ा था। अपना नाम सुनते ी बोला—मेरे वववा
की आप लोग धचन्ता न करें । मैं जब तक ककसी ििंिे में न लग जाऊाँगा, वववा
का नाम भी न लाँ ग
ू ा; और सच पतू छए तो मैं वववा करना ी न ीिं चा ता। दे श
को इस समय बालकों की जरूरत न ीिं , काम करने वालों की जरूरत ै । मेरे
ह स्से के रूपये आप कुमद
ु के वववा में खचष कर दें । सारी बातें तय ो जाने के
बाद य उधचत न ीिं ै कक पिंडडत मुरारीलाल से सम्बिंि तोड़ मलया जाए।

उमा ने तीव्र स्वर में क ा—दस जार क ॉँ से आऍगेिं ?

सीता ने डरते ु ए क ा—मैं तो अपने ह स्से के रूपये दे ने को क ता ू ाँ।

‘और शेर्?’

‘मरु ारीलाल से क ा जाए कक द े ज में कुछ कमी कर दें । वे इतने स्वाथाषन्ि न ीिं
ैं कक इस अवसर पर कुछ बल खाने को तैयार न ो जाऍ िं, अगर व तीन जार
में सिंतुष्ट ॉँ
ो जाएिं तो प च जार में वववा ो सकता ै।

उमा ने कामतानाथ से क ा—सन


ु ते ैं भाई सा ब, इसकी बातें ।

दयानाथ बोल उठे -तो इसमें आप लोगों का क्या नुकसान ै ? मुझे तो इस बात से
खुशी ो र ी ै कक भला, ममे कोई तो तयाग करने योग्य ै । इन् ें ततकाल
रूपये की जरूरत न ीिं ै । सरकार से वजीिा पाते ी ैं। पास ोने पर क ीिं -न-
क ीिं जग ममल जाएगी। म लोगों की ालत तो ऐसी न ीिं ै।

कामतानाथ ने दरू दमशषता का पररचय हदया—नुकसान की एक ी क ी। ममें से


एक को कष्ट ो तो क्या और लोग बैठे दे खेंगे? य अभी लड़के ैं , इन् ें क्या
मालम
ू , समय पर एक रूपया एक लाख का काम करता ै । कौन जानता ै , कल
इन् ें ववलायत जाकर पढ़ने के मलए सरकारी वजीिा ममल जाए या मसववल
ॉँ
सववषस में आ जाऍ।िं उस वक्त सिर की तैयाररयों में चार-प च जार लग
जाएाँगे। तब ककसके सामने ाथ िैलाते किरें गे ? मैं य न ीिं चा ता कक द े ज के
पीछे इनकी त्जन्दगी नष्ट ो जाए।
इस तकष ने सीतानाथ को भी तोड़ मलया। सकुचाता ु आ बोला— ,ॉँ यहद ऐसा

ु आ तो बेशक मझ
ु े रूपये की जरूरत ोगी।

‘क्या ऐसा ोना असिंभव ै ?’

‘असभिंव तो मैं न ीिं समझता; लेककन कहठन अवश्य ै । वजीिे उन् ें ममलते ैं ,
त्जनके पास मसिाररशें ोती ैं, मुझे कौन पूछता ै ।‘

‘कभी-कभी मसिाररशें िरी र जाती ैं और बबना मसिाररश वाले बाजी मार ले


जाते ैं।’

ु े य ॉँ तक मिंजरू
‘तो आप जैसा उधचत समझें। मझ ै कक चा े मैं ववलायत न
जाऊाँ; पर कुमुद अच्छे घर जाए।‘

कामतानाथ ने तनष्ठा—भाव से क ा—अच्छा घर द े ज दे ने ी से न ीिं ममलता


भैया! जैसा तम्
ु ारी भाभी ने क ा, य नसीबों का खेल ै । मैं तो चा ता ू ाँ कक
मुरारीलाल को जवाब दे हदया जाए और कोई ऐसा घर खोजा जाए, जो थोड़े में
राजी ो जाए। इस वववा में मैं एक जार से ज्यादा न ीिं खचष कर सकता।
पिंडडत दीनदयाल कैसे ैं ?

उमा ने प्रसन्न ोकर क ा—ब ु त अच्छे । एम.ए., बी.ए. न स ी, यजमानों से


अच्छी आमदनी ै।

दयानाथ ने आपत्तत की—अम्म ॉँ से भी पछ


ू तो लेना चाह ए।
कामतानाथ को इसकी कोई जरूरत न मालूम ु ई। बोले-उनकी तो जैसे बुवद्ध ी
भ्रष्ट ो गई। व ी पुराने युग की बातें ! मुरारीलाल के नाम पर उिार खाए बैठी
ैं। य न ीिं समझतीिं कक व जमाना न ीिं र ा। उनको तो बस, कुमुद मुरारी
पिंडडत के घर जाए, चा े म लोग तबा ो जाऍ।िं
उमा ने एक शिंका उपत्स्थत की—अम्म ॉँ अपने सब ग ने कुमद
ु को दे दें गी, दे ख
लीत्जएगा।

कामतानाथ का स्वाथष नीतत से ववद्रो न कर सका। बोले -ग नों पर उनका पूरा


अधिकार ै। य उनका स्त्रीिन ै । त्जसे चा ें , दे सकती ैं।

उमा ने क ा—स्त्रीिन ै तो क्या व उसे लुटा दें गी। आखखर व भी तो दादा ी


की कमाई ै।

‘ककसी की कमाई ो। स्त्रीिन पर उनका पूरा अधिकार ै !’

‘य कानन
ू ी गोरखििंिे ैं। बीस जार में तो चार ह स्सेदार ों और दस जार
के ग ने अम्म ॉँ के पास र जाऍ।िं दे ख लेना, इन् ीिं के बल पर व कुमुद का
वववा मुरारी पिंडडत के घर करें गी।’

उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से न ीिं छोड़ सकता। व कपट-
नीतत में कुशल ै । कोई कौशल रचकर माता से सारे ग ने ले लेगा। उस वक्त
तक कुमुद के वववा की चचाष करके िूलमती को भड़काना उधचत न ीिं।
कामतानाथ ने मसर ह लाकर क ा—भाई, मैं इन चालों को पसिंद न ीिं करता।

उमानाथ ने खखमसयाकर क ा—ग ने दस जार से कम के न ोंगे।

कामता अववचमलत स्वर में बोले—ककतने ी के ों; मैं अनीतत में ाथ न ीिं
डालना चा ता।

‘तो आप अलग बैहठए। ािं, बीच में भािंजी न माररएगा।‘

‘मैं अलग र ूिं गा।‘

‘और तम
ु सीता?’
‘अलग र ूिं गा।‘

लेककन जब दयानाथ से य ी प्रश्न ककया गया, तो व उमानाथ से स योग करने


को तैयार ो गया। दस जार में ढ़ाई जार तो उसके ोंगे ी। इतनी बड़ी रकम
के मलए यहद कुछ कौशल भी करना पड़े तो क्षम्य ै।

िूलमती रात को भोजन करके लेटी थी कक उमा और दया उसके पास जा कर


बैठ गए। दोनों ऐसा माँु बनाए ु ए थे, मानो कोई भरी ववपत्तत आ पड़ी ै।
िूलमती ने सशिंक ोकर पछ
ू ा—तम
ु दोनों घबड़ाए ु ए मालम
ू ोते ो?

उमा ने मसर खुजलाते ु ए क ा—समाचार-पत्रों में लेख मलखना बड़े जोखखम का


काम ै अम्मा! ककतना ी बचकर मलखो, लेककन क ीिं-न-क ीिं पकड़ ो ी जाती
ॉँ
ै । दयानाथ ने एक लेख मलखा था। उस पर प च ॉँ गई
जार की जमानत म गी
ै । अगर कल तक जमा न कर दी गई, तो धगरफ्तार ो जाऍगेिं और दस साल
की सजा ठुक जाएगी।

िूलमती ने मसर पीटकर क ा—ऐसी बातें क्यों मलखते ो बेटा? जानते न ीिं ो,
आजकल मारे अहदन आए ु ए ैं। जमानत ककसी तर टल न ीिं सकती?

दयानाथ ने अपरािी—भाव से उततर हदया—मैंने तो अम्मा, ऐसी कोई बात न ीिं


मलखी थी; लेककन ककस्मत को क्या करूाँ। ाककम त्जला इतना कड़ा ै कक जरा
भी ररयायत न ीिं करता। मैंने त्जतनी दौंड़-िप
ू ो सकती थी, व सब कर ली।

‘तो तुमने कामता से रूपये का प्रबन्ि करने को न ीिं क ा?’

उमा ने माँु बनाया—उनका स्वभाव तो तुम जानती ो अम्मा, उन् ें रूपये प्राणों
से प्यारे ैं। इन् ें चा े कालापानी ी ो जाए, व एक पाई न दें गे।
दयानाथ ने समथषन ककया—मैंने तो उनसे इसका त्जक्र ी न ीिं ककया।

िूलमती ने चारपाई से उठते ु ए क ा—चलो, मैं क ती ू ाँ , दे गा कैसे न ीिं? रूपये


इसी हदन के मलए ोते ैं कक गाड़कर रखने के मलए?

उमानाथ ने माता को रोककर क ा-न ीिं अम्मा, उनसे कुछ न क ो। रूपये तो न


दें गे, उल्टे और ाय- ाय मचाऍगेिं । उनको अपनी नौकरी की खैररयत मनानी ै,
इन् ें घर में र ने भी न दें गे। अफ़सरों में जाकर खबर दे दें तो आश्चयष न ीिं।

िूलमती ने लाचार ोकर क ा—तो किर जमानत का क्या प्रबन्ि करोगे ? मेरे
पास तो कुछ न ीिं ै। ,ॉँ मेरे ग ने ैं, इन् ें ले जाओ, क ीिं धगरों रखकर जमानत
दे दो। और आज से कान पकड़ो कक ककसी पत्र में एक शब्द भी न मलखोगे।

दयानाथ कानों पर ाथ रखकर बोला—य तो न ीिं ो सकता अम्मा, कक तुम् ारे


ॉँ साल की कैद
जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊाँ। दस-प च ी तो ोगी, झेल
लाँ ग
ू ा। य ीिं बैठा-बैठा क्या कर र ा ू ाँ!

िूलमती छाती पीटते ु ए बोली—कैसी बातें माँु से तनकालते ो बेटा, मेरे जीते-जी
तम् ें कौन धगरफ्तार कर सकता ै ! उसका माँु झुलस दिं ग
ू ी। ग ने इसी हदन के
मलए ैं या और ककसी हदन के मलए! जब तुम् ीिं न र ोगे, तो ग ने लेकर क्या
आग में झोकाँू गीिं!

उसने वपटारी लाकर उसके सामने रख दी।

दया ने उमा की ओर जैसे िररयाद की ऑ िंखों से दे खा और बोला—आपकी क्या


राय ै भाई सा ब? इसी मारे मैं क ता था, अम्मा को बताने की जरूरत न ीिं।
जेल ी तो ो जाती या और कुछ?

उमा ने जैसे मसिाररश करते ु ए क ा—य कैसे ो सकता था कक इतनी बड़ी


वारदात ो जाती और अम्मा को खबर न ोती। मुझसे य न ीिं ो सकता था
कक सन
ु कर पेट में डाल लेता; मगर अब करना क्या चाह ए, य मैं खद
ु तनणषय
न ीिं कर सकता। न तो य ी अच्छा लगता ै कक तम
ु जेल जाओ और न य ी
अच्छा लगता ै कक अम्म ॉँ के ग ने धगरों रखे जाऍ।िं

िूलमती ने व्यधथत किंठ से पछ


ू ा—क्या तम
ु समझते ो, मझ
ु े ग ने तम
ु से ज्यादा
प्यारे ैं? मैं तो
प्राण तक तुम् ारे ऊपर न्योछावर कर दाँ ,ू ग नों की बबसात ी क्या ै।

दया ने दृढ़ता से क ा—अम्मा, तम्


ु ारे ग ने तो न लाँ ग
ू ा, चा े मझ
ु पर कुछ ी
क्यों न आ पड़े। जब आज तक तम्
ु ारी कुछ सेवा न कर सका, तो ककस माँु से
तुम् ारे ग ने उठा ले जाऊाँ? मुझ जैसे कपूत को तो तुम् ारी कोख से जन्म ी न
लेना चाह ए था। सदा तुम् ें कष्ट ी दे ता र ा।

िूलमती ने भी उतनी ी दृढ़ता से क ा-अगर यों न लोगे, तो मैं खद


ु जाकर इन् ें
धगरों रख दाँ ग
ू ी और खुद ाककम त्जला के पास जाकर जमानत जमा कर
आऊाँगी; अगर इच्छा ो तो य परीक्षा भी ले लो। ऑ िंखें बिंद ो जाने के बाद
क्या ोगा, भगवान ् जानें, लेककन जब तक जीती ू ाँ तुम् ारी ओर कोई ततरछी
आिंखों से दे ख न ीिं सकता।

उमानाथ ने मानो माता पर ए सान रखकर क ा—अब तो तुम् ारे मलए कोई
रास्ता न ीिं र ा दयानाथ। क्या रज ै , ले लो; मगर याद रखो, ज्यों ी ाथ में
रूपये आ जाऍ िं, ग ने छुड़ाने पड़ेंगे। सच क ते ैं, माततृ व दीघष तपस्या ै । माता
के मसवाय इतना स्ने और कौन कर सकता ै ? म बड़े अभागे ैं कक माता के
प्रतत त्जतनी श्रद्घा रखनी चाह ए, उसका शतािंश भी न ीिं रखते।

दोनों ने जैसे बड़े िमषसिंकट में पड़कर ग नों की वपटारी साँभाली और चलते बने।
माता वातसल्य-भरी ऑ िंखों से उनकी ओर दे ख र ी थी और उसकी सिंपण
ू ष आतमा
का आशीवाषद जैसे उन् ें अपनी गोद में समेट लेने के मलए व्याकुल ो र ा था।
आज कई म ीने के बाद उसके भग्न मात-ृ हृदय को अपना सवषस्व अपषण करके
जैसे आनन्द की ववभतू त ममली। उसकी स्वाममनी कल्पना इसी तयाग के मलए,
इसी आतमसमपषण के मलए जैसे कोई मागष ढूाँढ़ती र ती थी। अधिकार या लोभ
या ममता की व ॉँ गाँि तक न थी। तयाग ी उसका आनन्द और तयाग ी
उसका अधिकार ै । आज अपना खोया ु आ अधिकार पाकर अपनी मसरजी ु ई
प्रततमा पर अपने
प्राणों की भें ट करके व तन ाल ो गई।

तीन म ीने और गुजर गये। म ॉँ के ग नों पर ाथ साि करके चारों भाई उसकी
हदलजोई करने लगे थे। अपनी त्स्त्रयों को भी समझाते थे कक उसका हदल न
दख
ु ाऍ।िं अगर थोड़े-से मशष्टाचार से उसकी आतमा को शािंतत ममलती ै , तो इसमें
क्या ातन ै । चारों करते अपने मन की, पर माता से सला ले लेते या ऐसा
जाल िैलाते कक व सरला उनकी बातों में आ जाती और रे क काम में स मत
ो जाती। बाग को बेचना उसे ब ु त बुरा लगता था; लेककन चारों ने ऐसी माया
रची कक व उसे बेचते पर राजी ो गई, ककन्तु कुमुद के वववा के ववर्य में
मतैक्य न ो सका। म ॉँ पिं. परु ारीलाल पर जमी ु ई थी, लड़के दीनदयाल पर अड़े

ु ए थे। एक हदन आपस में कल ो गई।

ॉँ
िूलमती ने क ा—म -बाप की कमाई में बेटी का ह स्सा भी ै । तुम् ें सोल
जार का एक बाग ममला, पच्चीस जार का एक मकान। बीस जार नकद में
ॉँ
क्या प च जार भी कुमुद का ह स्सा न ीिं ै?

कामता ने नम्रता से क ा—अम्म ,ॉँ कुमुद आपकी लड़की ै , तो मारी ब न ै।


आप दो-चार साल में प्रस्थान कर जाऍगी;
िं पर मार और उसका ब ु त हदनों तक
सम्बन्ि र े गा। तब म यथाशत्क्त कोई ऐसी बात न करें गे , त्जससे उसका
अमिंगल ो; लेककन ह स्से की बात क ती ो, तो कुमद
ु का ह स्सा कुछ न ीिं।
दादा जीववत थे, तब और बात थी। व उसके वववा में त्जतना चा ते, खचष
करते। कोई उनका ाथ न पकड़ सकता था; लेककन अब तो में एक-एक पैसे की
ककिायत करनी पड़ेगी। जो काम जार में ॉँ
ो जाए, उसके मलए प च जार खचष
करना क ॉँ की बवु द्धमानी ै?

ॉँ
उमानाथ से सुिारा—प च जार क्यों, दस जार कह ए।

कामता ने भवें मसकोड़कर क ा—न ीिं, मैं पााँच जार ी क ू ाँगा; एक वववा में
ॉँ
पच जार खचष करने की मारी ै मसयत न ीिं ै।

िूलमती ने त्जद पकड़कर क ा—वववा तो मुरारीलाल के पुत्र से ी ॉँ


ोगा, प च
जार खचष ो, चा े दस जार। मेरे पतत की कमाई ै । मैंने मर-मरकर जोड़ा ै।
अपनी इच्छा से खचष करूाँगी। तुम् ीिं ने मेरी कोख से न ीिं जन्म मलया ै । कुमुद
भी उसी कोख से आयी ै । मेरी ऑ िंखों में तुम सब बराबर ो। मैं ककसी से कुछ
ॉँ
म गती न ीिं। तम
ु बैठे तमाशा दे खो, मैं सब—कुछ कर लाँ ग
ू ी। बीस ॉँ
जार में प च
जार कुमद
ु का ै।

कामतानाथ को अब कड़वे सतय की शरण लेने के मसवा और मागष न र ा।


बोला-अम्मा, तम
ु बरबस बात बढ़ाती ो। त्जन रूपयों को तम
ु अपना समझती
ो, व तम्
ु ारे न ीिं ैं; तम
ु मारी अनम
ु तत के बबना उनमें से कुछ न ीिं खचष कर
सकती।

िूलमती को जैसे सपष ने डस मलया—क्या क ा! किर तो क ना! मैं अपने ी


सिंचे रूपये अपनी इच्छा से न ीिं खचष कर सकती?

‘व रूपये तुम् ारे न ीिं र े , मारे ो गए।‘

‘तुम् ारे ोंगे; लेककन मेरे मरने के पीछे ।‘

‘न ीिं, दादा के मरते ी मारे ो गए!’


उमानाथ ने बे याई से क ा—अम्मा, कानन
ू —कायदा तो जानतीिं न ीिं, ना क
उछलती ैं।

िूलमती क्रोि—ववहृल रोकर बोली—भाड़ में जाए तुम् ारा कानून। मैं ऐसे कानून
को न ीिं जानती। तम्
ु ारे दादा ऐसे कोई िन्नासेठ न ीिं थे। मैंने ी पेट और तन
काटकर य ग ृ स्थी जोड़ी ै , न ीिं आज बैठने की छ ॉँ न ममलती! मेरे जीते-जी
तुम मेरे रूपये न ीिं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के वववा में दस-दस जार खचष
ककए ैं। व ी मैं कुमुद के वववा में भी खचष करूाँगी।

कामतानाथ भी गमष पड़ा—आपको कुछ भी खचष करने का अधिकार न ीिं ै।

ॉँ
उमानाथ ने बड़े भाई को ड टा—आप खामख्वा अम्म ॉँ के माँु लगते ैं भाई

ु ारे य ॉँ कुमद
सा ब! मरु ारीलाल को पत्र मलख दीत्जए कक तम् ु का वववा न
ोगा। बस, छुट्टी ु ई। कायदा-कानन
ू तो जानतीिं न ीिं, व्यथष की ब स करती ैं।

िूलमती ने सिंयममत स्वर में क ी—अच्छा, क्या कानून ै , जरा मैं भी सुनाँ।ू

उमा ने तनरी भाव से क ा—कानून य ी ै कक बाप के मरने के बाद जायदाद


बेटों की ो जाती ै । म ॉँ का क केवल रोटी-कपड़े का ै।

िूलमती ने तड़पकर पूछा— ककसने य कानून बनाया ै?

उमा शािंत त्स्थर स्वर में बोला— मारे ऋवर्यों ने, म ाराज मनु ने, और ककसने?

िूलमती एक क्षण अवाक् र कर आ त किंठ से बोली—तो इस घर में मैं तुम् ारे


टुकड़ों पर पड़ी ु ई ू ाँ ?

उमानाथ ने न्यायािीश की तनमषमता से क ा—तुम जैसा समझो।


िूलमती की सिंपण
ू ष आतमा मानो इस वज्रपात से चीतकार करने लगी। उसके मख

ॉँ य
से जलती ु ई धचगािंररयों की भ तत शब्द तनकल पड़े—मैंने घर बनवाया, मैंने
सिंपत्तत जोड़ी, मैंने तुम् ें जन्म हदया, पाला और आज मैं इस घर में गैर ू ाँ ? मनु
का य ी कानून ै ? और तुम उसी कानून पर चलना चा ते ो? अच्छी बात ै।
अपना घर-द्वार लो। मुझे तुम् ारी आधश्रता बनकर र ता स्वीकार न ीिं। इससे
क ीिं अच्छा ै कक मर जाऊाँ। वा रे अिंिेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ी उसकी
छ ॉँ में खड़ी ो सकती; अगर य ी कानन
ू ै , तो इसमें आग लग जाए।

चारों युवक पर माता के इस क्रोि और आिंतक का कोई असर न ु आ। कानून


ॉँ का उन पर क्या असर
का िौलादी कवच उनकी रक्षा कर र ा था। इन क टों ो
सकता था?

जरा दे र में िूलमती उठकर चली गयी। आज जीवन में प ली बार उसका
वातसल्य मग्न माततृ व अमभशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा। त्जस माततृ व को
उसने जीवन की ववभतू त समझा था, त्जसके चरणों पर व सदै व अपनी समस्त
अमभलार्ाओिं और कामनाओिं को अवपषत करके अपने को िन्य मानती थी, व ी
माततृ व आज उसे अत्ग्नकिंु ड-सा जान पड़ा, त्जसमें उसका जीवन जलकर भस्म ो
गया।

सिंध्या ो गई थी। द्वार पर नीम का वक्ष


ृ मसर झुकाए, तनस्तब्ि खड़ा था, मानो
सिंसार की गतत पर क्षुब्ि ो र ा ो। अस्ताचल की ओर प्रकाश और जीवन का
दे वता िूलवती के माततृ व ॉँ अपनी धचता में जल र ा था।
ी की भ तत

िूलमती अपने कमरे में जाकर लेटी, तो उसे मालम


ू ु आ, उसकी कमर टूट गई
ै । पतत के मरते ी अपने पेट के लड़के उसके शत्रु ो जायेंगे, उसको स्वप्न में
भी अनुमान न था। त्जन लड़कों को उसने अपना हृदय-रक्त वपला-वपलाकर
पाला, व ी आज उसके हृदय पर यों आघात कर र े ैं! अब व ॉँ
घर उसे क टों
की सेज ो र ा था। ज ॉँ उसकी कुछ कद्र न ीिं, कुछ धगनती न ीिं, व ॉँ अनाथों
की भािंतत पड़ी रोहटय ॉँ खाए, य उसकी अमभमानी प्रकृतत के मलए असह्य था।

पर उपाय ी क्या था? व लड़कों से अलग ोकर र े भी तो नाक ककसकी


कटे गी! सिंसार उसे थक
ू े तो क्या, और लड़कों को थक
ू े तो क्या; बदमानी तो उसी
की ै । दतु नया य ी तो क े गी कक चार जवान बेटों के ोते बुहढ़या अलग पड़ी ु ई
मजूरी करके पेट पाल र ी ै ! त्जन् ें उसने मेशा नीच समझा, व ी उस पर
ाँसेंगे। न ीिं, व अपमान इस अनादर से क ीिं ज्यादा हृदयववदारक था। अब
अपना और घर का परदा ढका रखने में ी कुशल ै। ााँ, अब उसे अपने को नई
पररत्स्थततयों के अनक
ु ू ल बनाना पड़ेगा। समय बदल गया ै । अब तक स्वाममनी
बनकर र ी, अब लौंडी बनकर र ना पड़ेगा। ईश्वर की य ी इच्छा ै । अपने बेटों
की बातें और लातें गैरों ककी बातों और लातों की अपेक्षा किर भी गनीमत ैं।

व बड़ी दे र तक माँु ढ पेॉँ अपनी दशा पर रोती र ी। सारी रात इसी आतम-वेदना
में कट गई। शरद् का प्रभाव डरता-डरता उर्ा की गोद से तनकला, जैसे कोई कैदी
तछपकर जेल से भाग आया ो। िूलमती अपने तनयम के ववरूद्ध आज लड़के ी
उठी, रात-भर मे उसका मानमसक पररवतषन ो चुका था। सारा घर सो र ा था
और व आिंगन में झाडू लगा र ी थी। रात-भर ओस में भीगी ु ई उसकी पक्की
ॉँ की तर
जमीन उसके निंगे पैरों में क टों चुभ र ी थी। पिंडडतजी उसे कभी इतने
सवेरे उठने न दे ते थे। शीत उसके मलए ब ु त ातनकारक था। पर अब व हदन
न ीिं र े । प्रकृतत उस को भी समय के साथ बदल दे ने का प्रयतन कर र ी थी।
झाडू से िुरसत पाकर उसने आग जलायी और चावल-दाल की किंकडड़य ॉँ चुनने
लगी। कुछ दे र में लड़के जागे। ब ु ऍ िं उठीिं। सभों ने बुहढ़या को सदी से मसकुड़े

ु ए काम करते दे खा; पर ककसी ने य न क ा कक अम्म ,ॉँ क्यों लकान ोती ो?


शायद सब-के-सब बुहढ़या के इस मान-मदष न पर प्रसन्न थे।
आज से िूलमती का य ी तनयम ो गया कक जी तोड़कर घर का काम करना
और अिंतरिं ग नीतत से अलग र ना। उसके मख
ु पर जो एक आतमगौरव झलकता
र ता था, उसकी जग अब ग री वेदना छायी ु ई नजर आती थी। ज ािं बबजली
जलती थी, व ािं अब तेल का हदया हटमहटमा र ा था, त्जसे बुझा दे ने के मलए वा
का एक लका-सा झोंका कािी ै।

मुरारीलाल को इनकारी-पत्र मलखने की बात पक्की ो चुकी थी। दस


ू रे हदन पत्र
मलख हदया गया। दीनदयाल से कुमुद का वववा तनत्श्चत ो गया। दीनदयाल
की उम्र चालीस से कुछ अधिक थी, मयाषदा में भी कुछ े ठे थे, पर रोटी-दाल से
खुश थे। बबना ककसी ठ राव के वववा करने पर राजी ो गए। ततधथ तनयत ु ई,
बारात आयी, वववा ु आ और कुमद
ु बबदा कर दी गई िूलमती के हदल पर क्या
गज
ु र र ी थी, इसे कौन जान सकता ै ; पर चारों भाई ब ु त प्रसन्न थे, मानो
ॉँ तनकल गया
उनके हृदय का क टा ो। ऊाँचे कुल की कन्या, माँु कैसे खोलती?
भाग्य में सुख भोगना मलखा ोगा, सुख भोगेगी; दख
ु भोगना मलखा ोगा, दख

झेलेगी। रर-इच्छा बेकसों का अिंततम अवलम्ब ै । घरवालों ने त्जससे वववा कर
हदया, उसमें जार ऐब ों, तो भी व उसका उपास्य, उसका स्वामी ै । प्रततरोि
उसकी कल्पना से परे था।

िूलमती ने ककसी काम मे दखल न हदया। कुमुद को क्या हदया गया, मे मानों
का कैसा सतकार ककया गया, ककसके य ॉँ से नेवते में क्या आया, ककसी बात से
भी उसे सरोकार न था। उससे कोई सला भी ली गई तो य ी-बेटा, तम
ु लोग जो
करते ो, अच्छा ी करते ो। मुझसे क्या पूछते ो!

जब कुमुद के मलए द्वार पर डोली आ गई और कुमुद म ॉँ के गले मलपटकर रोने


लगी, तो व बेटी को अपनी कोठरी में ले गयी और जो कुछ सौ पचास रूपये
और दो-चार मामूली ग ने उसके पास बच र े थे, बेटी की अिंचल में डालकर
बोली—बेटी, मेरी तो मन की मन में र गई, न ीिं तो क्या आज तुम् ारा वववा
इस तर ोता और तुम इस तर ववदा की जातीिं!
आज तक िूलमती ने अपने ग नों की बात ककसी से न क ी थी। लड़कों ने
उसके साथ जो कपट-व्यव ार ककया था, इसे चा े अब तक न समझी ो, लेककन
इतना जानती थी कक ग ने किर न ममलें गे और मनोमामलन्य बढ़ने के मसवा
कुछ ाथ न लगेगा; लेककन इस अवसर पर उसे अपनी सिाई दे ने की जरूरत
मालूम ु ई। कुमुद य भाव मन मे लेकर जाए कक अम्मािं ने अपने ग ने ब ु ओिं
के मलए रख छोड़े, इसे व ककसी तर न स सकती थी, इसमलए व उसे अपनी
कोठरी में ले गयी थी। लेककन कुमद
ु को प ले ी इस कौशल की टो ममल
चक
ु ी थी; उसने ग ने और रूपये ऑ िंचल से तनकालकर माता के चरणों में रख
हदए और बोली-अम्मा, मेरे मलए तुम् ारा आशीवाषद लाखों रूपयों के बराबर ै।
तुम इन चीजों को अपने पास रखो। न जाने अभी तुम् ें ककन ववपत्ततयों को
सामना करना पड़े।

िूलमती कुछ क ना ी चा ती थी कक उमानाथ ने आकर क ा—क्या कर र ी ै


कुमुद? चल, जल्दी कर। साइत टली जाती ै। व लोग ाय- ाय कर र े ैं , किर
तो दो-चार म ीने में आएगी ी, जो कुछ लेना-दे ना ो, ले लेना।

िूलमती के घाव पर जैसे मानो नमक पड़ गया। बोली-मेरे पास अब क्या ै
भैया, जो इसे मैं दग
ू ी? जाओ बेटी, भगवान ् तुम् ारा सो ाग अमर करें ।

कुमुद ववदा ो गई। िूलमती पछाड़ धगर पड़ी। जीवन की लालसा नष्ट ो गई।

एक साल बीत गया।

िूलमती का कमरा घर में सब कमरों से बड़ा और वादार था। कई म ीनों से


उसने बड़ी ब ू के मलए खाली कर हदया था और खुद एक छोटी-सी कोठरी में
र ने लगी, जैसे कोई मभखाररन ो। बेटों और ब ु ओिं से अब उसे जरा भी स्ने न
था, व अब घर की लौंडी थी। घर के ककसी प्राणी, ककसी वस्तु, ककसी प्रसिंग से
उसे प्रयोजन न था। व केवल इसमलए जीती थी कक मौत न आती थी। सख
ु या
द:ु ख का अब उसे लेशमात्र भी ज्ञान न था।

उमानाथ का और्िालय खुला, ममत्रों की दावत ु ई, नाच-तमाशा ु आ। दयानाथ


का प्रेस खल
ु ा, किर जलसा ु आ। सीतानाथ को वजीिा ममला और ववलायत गया,
किर उतसव ु आ। कामतानाथ के बड़े लड़के का यज्ञोपवीत सिंस्कार ु आ, किर
िूम-िाम ु ई; लेककन िूलमती के मुख पर आनिंद की छाया तक न आई!
कामताप्रसाद टाइिाइड में म ीने-भर बीमार र ा और मरकर उठा। दयानाथ ने
अबकी अपने पत्र का प्रचार बढ़ाने के मलए वास्तव में एक आपत्ततजनक लेख
मलखा और छ: म ीने की सजा पायी। उमानाथ ने एक िौजदारी के मामले में
ररश्वत लेकर गलत ररपोटष मलखी और उसकी सनद छीन ली गई; पर िूलमती के
चे रे पर रिं ज की परछाईं तक न पड़ी। उसके जीवन में अब कोई आशा, कोई
हदलचस्पी, कोई धचन्ता न थी। बस, पशुओिं की तर काम करना और खाना, य ी
उसकी त्जन्दगी के दो काम थे। जानवर मारने से काम करता ै ; पर खाता ै
मन से। िूलमती बेक े काम करती थी; पर खाती थी ववर् के कौर की तर ।
म ीनों मसर में तेल न पड़ता, म ीनों कपड़े न िुलते, कुछ परवा न ीिं।
चेतनाशून्य ो गई थी।

सावन की झड़ी लगी ु ई थी। मलेररया िैल र ा था। आकाश में महटयाले बादल
थे, जमीन पर महटयाला पानी। आद्रष वायु शीत-ज्वर और श्वास का ववतरणा
करती किरती थी। घर की म री बीमार पड़ गई। िूलमती ने घर के सारे बरतन
ॉँ , पानी में भीग-भीगकर सारा काम ककया। किर आग जलायी और चूल् े पर
म जे
पतीमलय ॉँ चढ़ा दीिं। लड़कों को समय पर भोजन ममलना चाह ए। स सा उसे याद
आया, कामतानाथ नल का पानी न ीिं पीते। उसी वर्ाष में गिंगाजल लाने चली।

कामतानाथ ने पलिंग पर लेटे-लेटे क ा-र ने दो अम्मा, मैं पानी भर लाऊाँगा, आज


म री खूब बैठ र ी।
िूलमती ने महटयाले आकाश की ओर दे खकर क ा—तम
ु भीग जाओगे बेटा, सदी
ो जायगी।

कामतानाथ बोले—तुम भी तो भीग र ी ो। क ीिं बीमार न पड़ जाओ।

िूलमती तनमषम भाव से बोली—मैं बीमार न पडूाँगी। मुझे भगवान ् ने अमर कर


हदया ै।

उमानाथ भी व ीिं बैठा ु आ था। उसके और्िालय में कुछ आमदनी न ोती थी,
इसमलए ब ु त धचत्न्तत था। भाई-भवाज की माँु दे खी करता र ता था। बोला—
जाने भी दो भैया! ब ु त हदनों ब ु ओिं पर राज कर चुकी ै , उसका प्रायत्श्चतत तो
करने दो।

गिंगा बढ़ी ु ई थी, जैसे समुद्र ो। क्षक्षततज के सामने के कूल से ममला ु आ था।

ृ ों की केवल िुनधगय ॉँ पानी के ऊपर र


ककनारों के वक्ष गई थीिं। घाट ऊपर तक
पानी में डूब गए थे। िूलमती कलसा मलये नीचे उतरी, पानी भरा और ऊपर जा
र ी थी कक प वॉँ किसला। साँभल न सकी। पानी में धगर पड़ी। पल-भर ाथ-पााँव
चलाये, किर ल रें उसे नीचे खीिंच ले गईं। ककनारे पर दो-चार पिंडे धचल्लाए-‘अरे
दौड़ो, बुहढ़या डूबी जाती ै ।’ दो-चार आदमी दौड़े भी लेककन िूलमती ल रों में
समा गई थी, उन बल खाती ु ई ल रों में , त्जन् ें दे खकर ी हृदय क पॉँ उठता
था।

एक ने पूछा—य कौन बुहढ़या थी?

‘अरे , व ी पिंडडत अयोध्यानाथ की वविवा ै ।‘

‘अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे?’

‘ ॉँ थे तो, पर इसके भाग्य में ठोकर खाना मलखा था।‘


‘उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े ैं और सब कमाते ैं ?’

‘ ,ॉँ सब ैं भाई; मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु ै !’

***
शाांति

स्वगीय दे वनाथ मेरे अमभन्न ममत्रों में थे। आज भी जब उनकी याद आती ै , तो
व रिं गरे मलयािं आिंखों में किर जाती ैं, और क ीिं एकािंत में जाकर जरा रो लेता

ूिं । मारे दे र रो लेता ूिं । मारे बीच में दो-ढाई सौ मील का अिंतर था। मैं
लखनऊ में था, व हदल्ली में; लेककन ऐसा शायद ी कोई म ीना जाता ो कक
म आपस में न ममल पाते ों। व स्वच्छन्द प्रकतत के ववनोदवप्रय, सहृदय, उदार
और ममत्रों पर प्राण दे नेवाला आदमी थे, त्जन् ोंने अपने और पराए में कभी भेद
न ीिं ककया। सिंसार क्या ै और य ािं लौककक व्यव ार का कैसा तनवाष ोता ै,
य उस व्यत्क्त ने कभी न जानने की चेष्टा की। उनकी जीवन में ऐसे कई
अवसर आए, जब उन् ें आगे के मलए ोमशयार ो जाना चाह ए था।

ममत्रों ने उनकी तनष्कपटता से अनुधचत लाभ उठाया, और कई बार उन् ें लत्ज्जत


भी ोना पडा; लेककन उस भले आदमी ने जीवन से कोई सबक लेने की कसम
खा ली थी। उनके व्यव ार ज्यों के तयों र े — ‘जैसे भोलानाथ त्जए, वैसे ी
भोलानाथ मरे , त्जस दतु नया में व र ते थे व तनराली दतु नया थी, त्जसमें सिंदे ,
चालाकी और कपट के मलए स्थान न था— सब अपने थे, कोई गैर न था। मैंने
बार-बार उन् ें सचेत करना चा ा, पर इसका पररणाम आशा के ववरूद्ध ु आ। मुझे
कभी-कभी धचिंता ोती थी कक उन् ोंने इसे बिंद न ककया, तो नतीजा क्या ोगा?
लेककन ववडिंबना य थी कक उनकी स्त्री गोपा भी कुछ उसी सािंचे में ढली ु ई थी।
मारी दे ववयों में जो एक चातुरी ोती ै , जो सदै व ऐसे उडाऊ पुरूर्ों की
असाविातनयों पर ‘ब्रेक का काम करती ै , उससे व विंधचत थी। य ािं तक कक
वस्त्राभर्
ू ण में भी उसे ववशेर् रूधच न थी। अतएव जब मझ
ु े दे वनाथ के
स्वगाषरो ण का समाचार ममला और मैं भागा ु आ हदल्ली गया, तो घर में बरतन
भािंडे और मकान के मसवा और कोई सिंपतत न थी। और अभी उनकी उम्र ी
क्या थी, जो सिंचय की धचिंता करते चालीस भी तो पूरे न ु ए थे। यों तो लड़पन
उनके स्वभाव में ी था; लेककन इस उम्र में प्राय: सभी लोग कुछ बेकिक र ते
ैं। प ले एक लड़की ु ई थी, इसके बाद दो लड़के ु ए। दोनों लड़के तो बचपन में
ी दगा दे गए थे। लड़की बच र ी थी, और य ी इस नाटक का सबसे करूण
दश्य था। त्जस तर का इनका जीवन था उसको दे खते इस छोटे से पररवार के
मलए दो सौ रूपये म ीने की जरूरत थी। दो-तीन साल में लड़की का वववा भी
करना ोगा। कैसे क्या ोगा, मेरी बुवद्ध कुछ काम न करती थी।

इस अवसर पर मझ
ु े य ब ु मूल्य अनभ
ु व ु आ कक जो लोग सेवा भाव रखते ैं
और जो स्वाथष-मसवद्ध को जीवन का लक्ष्य न ीिं बनाते, उनके पररवार को आड़
दे नेवालों की कमी न ीिं र ती। य कोई तनयम न ीिं ै , क्योंकक मैंने ऐसे लोगों को
भी दे खा ै , त्जन् ोंने जीवन में ब ु तों के साथ अच्छे
सलूक ककए; पर उनके पीछे उनके बाल-बच्चे की ककसी ने बात तक न पूछी।
लेककन चा े कुछ ो, दे वनाथ के ममत्रों ने प्रशिंसनीय औदायष से काम मलया और
गोपा के तनवाष के मलए स्थाई िन जमा करने का प्रस्ताव ककया। दो-एक
सज्जन जो रिं डुवे थे, उससे वववा करने को तैयार थे, ककिं तु गोपा ने भी उसी
स्वामभमान का पररचय हदया, जो म ारी दे ववयों का जौ र ै और इस प्रस्ताव को
अस्वीकार कर हदया। मकान ब ु त बडा था। उसका एक भाग ककराए पर उठा
हदया। इस तर उसको 50 रू म ावार ममलने लगे। व इतने में ी अपना
तनवाष कर लेगी। जो कुछ खचष था, व सन्
ु नी की जात से था। गोपा के मलए तो
जीवन में अब कोई अनुराग ी न था।

इसके एक म ीने बाद मुझे कारोबार के मसलमसले में ववदे श जाना पड़ा और व ािं
मेरे अनुमान से क ीिं अधिक—दो साल-लग गए। गोपा के पत्र बराबर जाते र ते
थे, त्जससे मालूम ोता था, वे आराम से ैं, कोई धचिंता की बात न ीिं ै । मुझे
पीछे ज्ञात ु आ कक गोपा ने मुझे भी गैर समझा और वास्तववक त्स्थतत तछपाती
र ी।
ववदे श से लौटकर मैं सीिा हदल्ली प ु ाँचा। द्वार पर प ुिं चते ी मझ
ु े भी रोना आ
गया। मतृ यु की प्रततध्वतन-सी छायी ु ई थी। त्जस कमरे में ममत्रों के जमघट
र ते थे उनके द्वार बिंद थे, मकडडयों ने चारों ओर जाले तान रखे थे। दे वनाथ के
साथ व श्री लुप्त ो गई थी। प ली नजर में मुझे तो ऐसा भ्रम ु आ कक
दे वनाथ द्वार पर खडे मेरी ओर दे खकर मुस्करा र े ैं। मैं ममर्थयावादी न ीिं ूिं
और आतमा की दै ह कता में मुझे सिंदे ै , लेककन उस वक्त एक बार मैं चौंक
जरूर पडा हृदय में एक कम्पन-सा उठा; लेककन दस
ू री नजर में प्रततमा ममट चक
ु ी
थी।

द्वार खुला। गोपा के मसवा खोलनेवाला ी कौन था। मैंने उसे दे खकर हदल थाम
मलया। उसे मेरे आने की सच
ू ना थी और मेरे स्वागत की प्रततक्षा में उसने नई
साड़ी प न ली थी और शायद बाल भी गिंथ
ु ा मलए थे; पर इन दो वर्ों के समय
ने उस पर जो आघात ककए थे, उन् ें क्या करती? नाररयों के जीवन में य व
अवस्था ै , जब रूप लावण्य अपने पूरे ववकास पर ोता ै , जब उसमें अल् ड़पन
चिंचलता और अमभमान की जग आकर्षण, मािुयष और रमसकता आ जाती ै;
लेककन गोपा का यौवन बीत चुका था उसके मुख पर झुररष यािं और ववर्ाद की
रे खाएिं अिंककत थीिं, त्जन् ें उसकी प्रयतनशील प्रसननता
् भी न ममटा सकती थी।
केशों पर सिेदी दौड़ चली थी और एक एक अिंग बूढा ो र ा था।

मैंने करूण स्वर में पूछा क्या तुम बीमार थीिं गोपा।

गोपा ने आिंसू पीकर क ा न ीिं तो, मुझे कभी मसर ददष भी न ीिं ु आ। ‘तो तुम् ारी
य क्या दशा ै ? बबल्कुल बूढी ो गई ो।’

‘तो जवानी लेकर करना ी क्या ै ? मेरी उम्र तो पैंतीस के ऊपर ो गई!

‘पैंतीस की उम्र तो ब ु त न ीिं ोती।’


‘ ााँ उनके मलए जो ब ु त हदन जीना चा ते ै । मैं तो चा ती ूिं त्जतनी जल्द ो
सके, जीवन का अिंत ो जाए। बस सन्
ु न के ब्या की धचिंता ै । इससे छुटटी
पाऊाँ; मुझे त्जन्दगी की परवा न र े गी।’

अब मालम
ू ु आ कक जो सज्जन इस मकान में ककराएदार ु ए थे, व थोडे हदनों
के बाद तबदील ोकर चले गए और तब से कोई दस
ू रा ककरायदार न आया। मेरे
हृदय में बरछी-सी चुभ गई। इतने हदनों इन बेचारों का तनवाष कैसे ु आ, य
कल्पना ी द:ु खद थी।

मैंने ववरक्त मन से क ा—लेककन तम


ु ने मझ
ु े सच
ू ना क्यों न दी? क्या मैं
बबलकुल गैर ू ाँ?

गोपा ने लत्ज्जत ोकर क ा न ीिं न ीिं य बात न ीिं ै । तुम् ें गैर समझाँग
ू ी तो
अपना ककसे समझाँग
ू ी? मैंने समझा परदे श में तम
ु खद
ु अपने झमेले में पडे ोगे,
तुम् ें क्यों सताऊाँ? ककसी न ककसी तर हदन कट ी गये। घर में और कुछ न
था, तो थोडे—से ग ने तो थे ी। अब सुनीता के वववा की धचिंता ै । प ले मैंने
सोचा था, इस मकान को तनकाल दिं ग
ू ी, बीस-बाइस जार ममल जाएाँगे। वववा भी
ो जाएगा और कुछ मेरे मलए बचा भी र े गा; लेककन बाद को मालूम ु आ कक
मकान प ले ी रे न ो चक
ु ा ै और सद
ू ममलाकर उस पर बीस जार ो गए
ैं। म ाजन ने इतनी ी दया क्या कम की, कक मुझे घर से तनकाल न हदया।
इिर से तो अब कोई आशा न ीिं ै। ब ु त ाथ पािंव जोड़ने पर सिंभव ै , म ाजन
से दो ढाई जार ममल जाए। इतने में क्या ोगा? इसी किक्र में घुली जा र ी ूिं ।
लेककन मैं भी इतनी मतलबी ूिं , न तुम् ें ाथ मुिं िोने को पानी हदया, न कुछ
जलपान लायी और अपना दख
ु ड़ा ले बैठी। अब आप कपडे उताररए और आराम
से बैहठए। कुछ खाने को लाऊाँ, खा लीत्जए, तब बातें ों। घर पर तो सब कुशल
ै?

मैंने क ा—मैं तो सीिे बम्बई से य ािं आ र ा ूिं । घर क ािं गया।


गोपा ने मझ
ु े ततरस्कार—भरी आिंखों से दे खा, पर उस ततरस्कार की आड़ में
घतनष्ठ आतमीयता बैठी झािंक र ी थी। मझ
ु े ऐसा जान पड़ा, उसके मख
ु की
झुररष या ममट गई ैं। पीछे मुख पर ल्की—सी लाली दौड़ गई। उसने क ा—
इसका िल य ोगा कक तुम् ारी दे वीजी तुम् ें कभी य ािं न आने दें गी।

‘मैं ककसी का गल
ु ाम न ीिं ूिं ।’

‘ककसी को अपना गुलाम बनाने के मलए प ले खुद भी उसका गुलाम बनना


पडता ै ।’

शीतकाल की सिंध्या दे खते ी दे खते दीपक जलाने लगी। सुन्नी लालटे न लेकर
कमरे में आयी। दो साल प ले की अबोि और कृशतनु बामलका रूपवती युवती
ो गई थी, त्जसकी र एक धचतवन, र एक बात उसकी गौरवशील प्रकतत का
पता दे र ी थी। त्जसे मैं गोद में उठाकर प्यार करता था, उसकी तरि आज
आिंखें न उठा सका और व जो मेरे गले से मलपटकर प्रसन्न ोती थी, आज मेरे
सामने खडी भी न र सकी। जैसे मुझसे वस्तु तछपाना चा ती ै , और जैसे मैं
उस वस्तु को तछपाने का अवसर दे र ा ूिं ।

मैंने पूछा—अब तुम ककस दरजे में प ु ाँची सुन्नी?

उसने मसर झक
ु ाए ु ए जवाब हदया—दसवें में ूिं ।

‘घर का भ कुछ काम-काज करती ो।

‘अम्मा जब करने भी दें ।’

गोपा बोली—मैं न ीिं करने दे ती या खद


ु ककसी काम के नगीच न ीिं जाती?

सुन्नी मुिं िेरकर िं सती ु ई चली गई। मािं की दल


ु ारी लडकी थी। त्जस हदन व
ग स्थी का काम करती, उस हदन शायद गोपा रो रोकर आिंखें िोड लेती। व
खद
ु लड़की को कोई काम न करने दे ती थी, मगर सबसे मशकायत करती थी कक
व कोई काम न ीिं करती। य मशकायत भी उसके प्यार का ी एक कररश्मा
था। मारी मयाषदा मारे बाद भी जीववत र ती ै।

मैं तो भोजन करके लेटा, तो गोपा ने किर सन्


ु नी के वववा की तैयाररयों की
चचाष छे ड दी। इसके मसवा उसके पास और बात ी क्या थी। लडके तो ब ु त
ममलते ैं, लेककन कुछ ै मसयत भी तो ो। लडकी को य सोचने का अवसर क्यों
ममले कक दादा ोते ु ए तो शायद मेरे मलए इससे अच्छा घर वर ढूिंढते। किर
गोपा ने डरते डरते लाला मदारीलाल के लड़के का त्जक्र ककया।

मैंने चककत ोकर उसकी तरि दे खा। मदारीलाल प ले इिंजीतनयर थे , अब पें शन


पाते थे। लाखों रूपया जमा कर मलए थे, पर अब तक उनके लोभ की भूख न
बुझी थी। गोपा ने घर भी व छािंटा, ज ािं उसकी रसाई कहठन थी।

मैंने आपतत की—मदारीलाल तो बड़ा दज


ु न
ष मनुष्य ै।

गोपा ने दािंतों तले जीभ दबाकर क ा—अरे न ीिं भैया, तम


ु ने उन् ें प चाना न
ोगा। मेरे उपर बड़े दयालु ैं। कभी-कभी आकर कुशल— समाचार पछ
ू जाते ैं।
लड़का ऐसा ोन ार ै कक मैं तुमसे क्या क ूिं । किर उनके य ािं कमी ककस बात
की ै? य ठीक ै कक प ले व खूब ररश्वत लेते थे; लेककन य ािं िमाषतमा कौन
ै ? कौन अवसर पाकर छोड़ दे ता ै ? मदारीलाल ने तो य ािं तक क हदया कक
व मुझसे द े ज न ीिं चा ते, केवल कन्या चा ते ैं। सुन्नी उनके मन में बैठ गई
ै।

मुझे गोपा की सरलता पर दया आयी; लेककन मैंने सोचा क्यों इसके मन में
ककसी के प्रतत अववश्वास उतपन्न करूिं। सिंभव ै मदारीलाल व न र े ों, धचत
का भावनाएिं बदलती भी र ती ैं।
मैंने अिष स मत ोकर क ा—मगर य तो सोचो, उनमें और तम
ु मे ककतना अिंतर
ै । शायद अपना सवषस्व अपषण करके भी उनका मिंु नीचा न कर सको।

लेककन गोपा के मन में बात जम गई थी। सुन्नी को व ऐसे घर में चा ती थी,


ज ािं व रानी बरकर र े ।

दस
ू रे हदन प्रात: काल मैं मदारीलाल के पास गया और उनसे मेरी जो बातचीत

ु ई, उसने मुझे मुग्ि कर हदया। ककसी समय व लोभी र े ोंगे , इस समय तो


मैंने उन् ें ब ु त ी सहृदय उदार और ववनयशील पाया। बोले भाई सा ब, मैं
दे वनाथ जी से पररधचत ूिं । आदममयों में रतन थे। उनकी लड़की मेरे घर आये ,
य मेरा सौभाग्य ै । आप उनकी मािं से क दें , मदारीलाल उनसे ककसी चीज की
इच्छा न ीिं रखता। ईश्वर का हदया ु आ मेरे घर में सब कुछ ै , मैं उन् ें जेरबार
न ीिं करना चा ता।
3

ये चार म ीने गोपा ने वववा की तैयाररयों में काटे । मैं म ीने में एक बार
अवश्य उससे ममल आता था; पर र बार खखन्न ोकर लौटता। गोपा ने अपनी
कुल मयाषदा का न जाने ककतना म ान आदशष अपने सामने रख मलया था।
पगली इस भ्रम में पड़ी ु ई थी कक उसका उतसा नगर में अपनी यादगार
छोड़ता जाएगा। य न जानती थी कक य ािं ऐसे तमाशे रोज ोते ैं और आये
हदन भुला हदए जाते ैं। शायद व सिंसार से य श्रेय लेना चा ती थी कक इस
गई—बीती दशा में भी, लुटा ु आ ाथी नौ लाख का ै । पग-पग पर उसे दे वनाथ
की याद आती। व ोते तो य काम यों न ोता, यों ोता, और तब रोती।

मदारीलाल सज्जन ैं, य सतय ै , लेककन गोपा का अपनी कन्या के प्रतत भी


कुछ िमष ै । कौन उसके दस पािंच लड़ककयािं बैठी ु ई ैं। व तो हदल खोलकर
अरमान तनकालेगी! सन्
ु नी के मलए उसने त्जतने ग ने और जोड़े बनवाए थे, उन् ें
दे खकर मुझे आश्चयष ोता था। जब दे खो कुछ-न-कुछ सी र ी ै , कभी सुनारों की
दक
ु ान पर बैठी ु ई ै , कभी मे मानों के आदर-सतकार का आयोजन कर र ी ै।
मु ल्ले में ऐसा बबरला ी कोई सम्पन्न मनष्ु य ोगा, त्जससे उसने कुछ कजष न
मलया ो। व इसे कजष समझती थी, पर दे ने वाले दान समझकर दे ते थे। सारा
मु ल्ला उसका स ायक था। सुन्नी अब मु ल्ले की लड़की थी। गोपा की इज्जत
सबकी इज्जत ै और गोपा के मलए तो नीिंद और आराम राम था। ददष से मसर
िटा जा र ा ै , आिी रात ो गई मगर व बैठी कुछ-न-कुछ सी र ी ै , या इस
कोठी का िान उस कोठी कर र ी ै । ककतनी वातसल्य से भरी अकािंक्षा थी, जो
कक दे खने वालों में श्रद्धा उतपन्न कर दे ती थी।

अकेली औरत और व भी आिी जान की। क्या क्या करे । जो काम दस


ू रों पर
छोड दे ती ै , उसी में कुछ न कुछ कसर र जाती ै , पर उसकी ह म्मत ै कक
ककसी तर ार न ीिं मानती।

वपछली बार उसकी दशा दे खकर मुझसे र ा न गया। बोला—गोपा दे वी, अगर
मरना ी चा ती ो, तो वववा ो जाने के बाद मरो। मुझे भय ै कक तुम उसके
प ले ी न चल दो।

गोपा का मुरझाया ु आ मुख प्रमुहदत ो उठा। बोली उसकी धचिंता न करो भैया
वविवा की आयु ब ु त लिंबी ोती ै । तुमने सुना न ीिं, र डिं मरे न खिंड र ढ े ।
लेककन मेरी कामना य ी ै कक सन्
ु नी का हठकाना लगाकर मैं भी चल दिं ।ू अब
और जीकर क्या करूिंगी, सोचो। क्या करूिं, अगर ककसी तर का ववघ्न पड़ गया
तो ककसकी बदनामी ोगी। इन चार म ीनों में मुत्श्कल से घिंटा भर सोती ूिं गी।
नीिंद ी न ीिं आती, पर मेरा धचत प्रसन्न ै । मैं मरूिं या जीऊाँ मुझे य सिंतोर् तो
ोगा कक सुन्नी के मलए उसका बाप जो कर सकता था, व मैंने कर हदया।
मदारीलाल ने अपन सज्जनता हदखाय, तो मुझे भी तो अपनी नाक रखनी ै।

एक दे वी ने आकर क ा ब न, जरा चलकर दे ख चाशनी ठीक ो गई ै या न ीिं।


गोपा उसके साथ चाशनी की परीक्षा करने गयीिं और एक क्षण के बाद आकर
बोली जी चा ता ै , मसर पीट लूिं। तुमसे जरा बात करने लगी, उिर चाशनी इतनी
कडी ो गई कक लडडू दोंतों से लडेंगे। ककससे क्या क ूिं ।
मैने धचढ़कर क ा तुम व्यथष का झिंझट कर र ी ो। क्यों न ीिं ककसी लवाई को
बुलाकर ममठाइयािं का ठे का दे दे ती। किर तुम् ारे य ािं मे मान ी ककतने आएिंगे ,
त्जनके मलए य तूमार बािंि र ी ो। दस पािंच की ममठाई उनके मलए ब ु त
ोगी।

गोपा ने व्यधथत नेत्रों से मेर ओर दे खा। मेर य आलोचना उसे बुर लग। इन
हदनों उसे बात बात पर क्रोि आ जाता था। बोली भैया, तुम ये बातें न समझोगे।
तम्
ु ें न मािं बनने का अवसर ममला, न पत्तन बनने का। सन्
ु नी के वपता का
ककतना नाम था, ककतने आदमी उनके दम से जीते थे, क्या य तम
ु न ीिं जानते,
व पगड़ी मेरे ी मसर तो बिंिी ै । तुम् ें ववश्वास न आएगा नात्स्तक जो ठ रे ,
पर मैं तो उन् ें सदै व अपने अिंदर बैठा पाती ूिं, जो कुछ कर र े ैं व कर र े
ैं। मैं मिंदबुवद्ध स्त्री भला अकेली क् या कर दे ती। व ी मेरे स ायक ैं व ी मेरे
प्रकाश ै। य समझ लो कक य दे मेरी ै पर इसके अिंदर जो आतमा ै व
उनकी ै । जो कुछ ो र ा ै उनके पण्
ु य आदे श से ो र ा ै तम
ु उनके ममत्र
ो। तम
ु ने अपने सैकड़ों रूपये खचष ककए और इतना ै रान ो र े ो। मैं तो
उनकी स गाममनी ूिं , लोक में भी, परलोक में भी।

मैं अपना सा मु लेकर र गया।

जन
ू में वववा ो गया। गोपा ने ब ु त कुछ हदया और अपनी ै मसयत से ब ु त
ज्यादा हदया, लेककन किर भी, उसे सिंतोर् न ु आ। आज सुन्नी के वपता ोते तो
न जाने क्या करते। बराबर रोती र ी।
जाड़ों में मैं किर हदल्ली गया। मैंने समझा कक अब गोपा सख
ु ी ोगी। लड़की का
घर और वर दोनों आदशष ैं। गोपा को इसके मसवा और क्या चाह ए। लेककन
सुख उसके भाग्य में ी न था।

अभी कपडे भी न उतारने पाया था कक उसने अपना दख


ु डा शुरू—कर हदया भैया,
घर द्वार सब अच्छा ै , सास-ससरु भी अच्छे ैं, लेककन जमाई तनकम्मा तनकला।
सुन्नी बेचारी रो-रोकर हदन काट र ी ै । तुम उसे दे खो, तो प चान न सको।
उसकी परछाई मात्र र गई ै । अभी कई हदन ु ए, आयी ु ई थी, उसकी दशा
दे खकर छाती िटती थी। जैसे जीवन में अपना पथ खो बैठी ो। न तन बदन
की सुि ै न कपड़े-लते की। मेरी सुन्नी की दग
ु त
ष ोगी, य तो स्वप्न में भी न
सोचा था। बबल्कुल गम
ु सम
ु ो गई ै । ककतना पछ
ू ा बेटी तम
ु से व क्यों न ीिं
बोलता ककस बात पर नाराज ै , लेककन कुछ जवाब ी न ीिं दे ती। बस, आिंखों से
आिंसू ब ते ैं, मेरी सुन्न कुएिं में धगर गई।

मैंने क ा तम
ु ने उसके घर वालों से पता न ीिं लगाया।

‘लगाया क्यों न ीिं भैया, सब ाल मालूम ो गया। लौंडा चा ता ै , मैं चा े त्जस


रा जाऊाँ, सुन्नी मेरी पूरा करती र े । सुन्नी भला इसे क्यों स ने लगी? उसे तो
तम
ु जानते ो, ककतनी अमभमानी ै। व उन त्स्त्रयों में न ीिं ै , जो पतत को
दे वता समझती ै और उसका दव्ु यषव ार स ती र ती ै । उसने सदै व दल
ु ार और
प्यार पाया ै । बाप भी उस पर जान दे ता था। मैं आिंख की पुतली समझती थी।
पतत ममला छै ला, जो आिी आिी रात तक मारा मारा किरता ै। दोनों में क्या
बात ु ई य कौन जान सकता ै , लेककन दोनों में कोई गािंठ पड़ गई ै। न
सुन्नी की परवा करता ै , न सुन्न उसकी परवा करती ै , मगर व तो अपने
रिं ग में मस्त ै , सन्
ु न प्राण हदये दे ती ै । उसके मलए सन्
ु नी की जग मन्
ु नी ै,
सुन्न के मलए उसकी अपेक्षा ै और रूदन ै।’

मैंने क ा—लेककन तुमने सुन्नी को समझाया न ीिं। उस लौंडे का क्या बबगडेगा?


इसकी तो त्जन्दगी खराब ो जाएगी।
गोपा की आिंखों में आिंसू भर आए, बोली—भैया-ककस हदल से समझाऊाँ? सुन्नी को
दे खकर तो मेरी छाती िटने लगती ै । बस य ी जी चा ता ै कक इसे अपने
कलेजे में ऐसे रख ल,ूिं कक इसे कोई कड़ी आिंख से दे ख भी न सके। सुन्नी िू ड़
ोती, कटु भावर्णी ोती, आरामतलब ोती, तो समझती भी। क्या य समझाऊाँ
कक तेरा पतत गली गली माँु काला करता किरे , किर भी तू उसकी पज
ू ा ककया
कर? मैं तो खुद य अपमान न स सकती। स्त्री पुरूर् में वववा की प ली शतष
य ै कक दोनों सोल ों आने एक-दस
ू रे के ो जाएिं। ऐसे पुरूर् तो कम ैं, जो
स्त्री को जौ-भर ववचमलत ोते दे खकर शािंत र सकें, पर ऐसी त्स्त्रयािं ब ु त ैं, जो
पतत को स्वच्छिं द समझती ैं। सुन्न उन त्स्त्रयों में न ीिं ै। व अगर
आतमसमपषण करती ै तो आतमसमपषण चा ती भी ै , और यहद पतत में य
बात न ु ई, तो व उसमें कोई सिंपकष न रखेगी, चा े उसका सारा जीवन रोते कट
जाए।

य क कर गोपा भीतर गई और एक मसिंगारदान लाकर उसके अिंदर के आभर्


ू ण
हदखाती ु ई बोली सन्
ु नी इसे अब की य ीिं छोड़ गई। इसीमलए आयी थी। ये वे
ग ने ैं जो मैंने न जाने ककतना कष्ट स कर बनवाए थे। इसके पीछे म ीनों
मारी मारी किरी थी। यों क ो कक भीख मािंगकर जमा ककये थे। सुन्नी अब
इसकी ओर आिंख उठाकर भी न ीिं दे खती! प ने तो ककसके मलए? मसिंगार करे तो
ककस पर? पािंच सिंदक
ू कपडों के हदए थे। कपडे सीते-सीते मेरी आिंखें िूट गई।
य सब कपडे उठाती लायी। इन चीजों से उसे घण
ृ ा ो गई ै । बस, कलाई में
दो चूडडयािं और एक उजली साड़ी; य ी उसका मसिंगार ै।

मैंने गोपा को सािंतवना दी—मैं जाकर केदारनाथ से ममलूिंगा। दे खूिं तो, व ककस
रिं ग ढिं ग का आदमी ै।

गोपा ने ाथ जोडकर क ा—न ीिं भरे या, भूलकर भी न जाना; सुन्नी सुनेगी तो
प्राण ी दे दे गी। अमभमान की पुतली ी समझो उसे। रस्सी समझ लो, त्जसके
जल जाने पर भी बल न ीिं जाते। त्जन पैरों से उसे ठुकरा हदया ै , उन् ें व
कभी न स लाएगी। उसे अपना बनाकर कोई चा े तो लौंडी बना ले , लेककन
शासन तो उसने मेरा न स ा, दस
ू रों का क्या स े गी।

मैंने गोपा से उस वक्त कुछ न क ा, लेककन अवसर पाते ी लाला मदारीलाल से


ममला। मैं र स्य का पता लगाना चा ता था। सिंयोग से वपता और पत्र
ु , दोंनों ी
एक जग पर ममल गए। मझ
ु े दे खते ी केदार ने इस तर झक
ु कर मेरे चरण
छुए कक मैं उसकी शालीनता पर मुग्ि ो गया। तुरिंत भीतर गया और चाय,
मुरब्बा और ममठाइयािं लाया। इतना सौम्य, इतना सुशील, इतना ववनम्र युवक मैंने
न दे खा था। य भावना ी न ो सकती थी कक इसके भीतर और बा र में कोई
अिंतर ो सकता ै । जब तक र ा मसर झुकाए बैठा र ा। उच्छृिंखलता तो उसे छू
भी न ीिं गई थी।

जब केदार टे तनस खेलने गया, तो मैंने मदारीलाल से क ा केदार बाबू तो ब ु त


सच्चररत्र जान पडते ैं , किर स्त्री पुरूर् में इतना मनोमामलन्य क्यों ो गया ै।

मदारीलाल ने एक क्षण ववचार करके क ा इसका कारण इसके मसवा और क्या


बताऊाँ कक दोनों अपने मााँ-बाप के लाड़ले ैं, और प्यार लड़कों को अपने मन का
बना दे ता ै । मेरा सारा जीवन सिंघर्ष में कटा। अब जाकर जरा शािंतत ममली ै।
भोग-ववलास का कभी अवसर ी न ममला। हदन भर पररश्रम करता था, सिंध्या
को पडकर सो जाता था। स्वास्र्थय भी अच्छा न था, इसमलए बार-बार य धचिंता
सवार र ती थी कक सिंचय कर लूिं। ऐसा न ो कक मेरे पीछे बाल बच्चे भीख
मािंगते किरे । नतीजा य ु आ कक इन म ाशय को मुफ्त का िन ममला। सनक
सवार ो गई। शराब उडने लगी। किर ड्रामा खेलने का शौक ु आ। िन की कमी
थी ी न ीिं, उस पर मााँ-बाप अकेले बेटे। उनकी प्रसन्नता ी मारे जीवन को
स्वगष था। पढ़ना-मलखना तो दरू र ा, ववलास की इच्छा बढ़ती गई। रिं ग और
ग रा ु आ, अपने जीवन का ड्रामा खेलने लगे। मैंने य रिं ग दे खा तो मुझे धचिंता

ु ई। सोचा, ब्या कर दिं ,ू ठीक ो जाएगा। गोपा दे वी का पैगाम आया, तो मैंने


तुरिंत स्वीकार कर मलया। मैं सन्
ु नी को दे ख चक
ु ा था। सोचा, ऐसा रूपवती पतनी
पाकर इनका मन त्स्थर ो जाएगा, पर व भी लाड़ली लड़की थी— ठीली, अबोि,
आदशषवाहदनी। सह ष्णत
ु ा तो उसने सीखी ी न थी। समझौते का जीवन में क्या
मूल्य ै , इसक उसे खबर ी न ीिं। लो ा लो े से लड़ गया। व अभन से
परात्जत करना चा ती ै या उपेक्षा से, य ी र स्य ै । और सा ब मैं तो ब ू को
ी अधिक दोर्ी समझता ूिं । लड़के प्राय मनचले ोते ैं। लड़ककयािं स्वाभाव से
ी सुशील ोती ैं और अपनी त्जम्मेदारी समझती ैं। उसमें ये गुण ैं न ीिं।
डोंगा कैसे पार ोगा ईश्वर ी जाने।

स सा सुन्नी अिंदर से आ गई। बबल्कुल अपने धचत्र की रे खा सी, मानो मनो र


सिंगीत की प्रततध्वतन ो। किंु दन तपकर भस्म ो गया था। ममटी ु ई आशाओिं का
इससे अच्छा धचत्र न ीिं ो सकता। उला ना दे ती ु ई बोली—आप जानें कब से
बैठे ु ए ैं, मझ
ु े खबर तक न ीिं और शायद आप बा र ी बा र चले भी जाते?

मैंने आिंसुओिं के वेग को रोकते ु ए क ा न ीिं सुन्नी, य कैसे ो सकता था


तम्
ु ारे पास आ ी र ा था कक तम
ु स्वयिं आ गई।

मदारीलाल कमरे के बा र अपनी कार की सिाई करने लगे। शायद मझ


ु े सन्
ु नी
से बात करने का अवसर दे ना चा ते थे।

सुन्नी ने पूछा—अम्मािं तो अच्छी तर ैं?

‘ ािं अच्छी ैं। तम


ु ने अपनी य क्या गत बना रखी ै।’

‘मैं अच्छी तर से ूिं ।’

‘य बात क्या ै ? तुम लोगों में य क्या अनबन ै । गोपा दे वी प्राण हदये डालती
ैं। तुम खुद मरने की तैयारी कर र ी ो। कुछ तो ववचार से काम लो।’

सुन्नी के माथे पर बल पड़ गए—आपने ना क य ववर्य छे ड़ हदया चाचा जी!


मैंने तो य सोचकर अपने मन को समझा मलया कक मैं अभाधगन ूिं । बस,
उसका तनवारण मेरे बत
ू े से बा र ै । मैं उस जीवन से मतृ यु को क ीिं अच्छा
समझती ूिं , ज ािं अपनी कदर न ो। मैं व्रत के बदले में व्रत चा ती ूिं । जीवन
का कोई दस
ू रा रूप मेरी समझ में न ीिं आता। इस ववर्य में ककसी तर का
समझौता करना मेरे मलए असिंभव ै । नतीजे मी मैं परवा न ीिं करती।

‘लेककन...’

‘न ीिं चाचाजी, इस ववर्य में अब कुछ न कह ए, न ीिं तो मैं चली जाऊाँगी।’

‘आखखर सोचो तो...’

‘मैं सब सोच चक
ु ी और तय कर चक
ु ी। पशु को मनष्ु य बनाना मेरी शत्क्त से
बा र ै ।’

इसके बाद मेरे मलए अपना मिंु बिंद करने के मसवा और क्या र गया था?

मई का म ीना था। मैं मिंसरू गया ु आ था कक गोपा का तार प ु चा तरु िं त आओ,


जरूरी काम ै । मैं घबरा तो गया लेककन इतना तनत्श्चत था कक कोई दघ
ु ट
ष ना
न ीिं ु ई ै । दस
ू रे हदन हदल्ली जा प ु चा। गोपा मेरे सामने आकर खड़ी ो गई,
तनस्पिंद, मूक, तनष्प्राण, जैसे तपेहदक की रोगी ो।

‘मैंने पूछा कुशल तो ै, मैं तो घबरा उठा।‘

‘उसने बुझी ु ई आिंखों से दे खा और बोल सच।’

‘सुन्नी तो कुशल से ै ।’
‘ ािं अच्छी तर ै ।’

‘और केदारनाथ?’

‘व भी अच्छी तर ैं।’

‘तो किर माजरा क्या ै ?’

‘कुछ तो न ीिं।’

‘तुमने तार हदया और क ती ो कुछ तो न ीिं।’

‘हदल तो घबरा र ा था, इससे तम्


ु ें बल
ु ा मलया। सन्
ु नी को ककसी तर समझाकर
य ािं लाना ै । मैं तो सब कुछ करके ार गई।’

‘क्या इिर कोई नई बात ो गई।’

‘नयी तो न ीिं ै , लेककन एक तर में नयी ी समझो, केदार एक ऐक्रे स के साथ


क ीिं भाग गया। एक सप्ता से उसका क ीिं पता न ीिं ै । सुन्नी से क गया
ै —जब तक तुम र ोगी घर में न ीिं आऊाँगा। सारा घर सुन्नी का शत्रु ो र ा ै,
लेककन व व ािं से टलने का नाम न ीिं लेता। सन
ु ा ै केदार अपने बाप के
दस्तखत बनाकर कई जार रूपये बैंक से ले गया ै।

‘तुम सुन्नी से ममली थीिं?’

‘ ािं, तीन हदन से बराबर जा र ी ूिं ।’

‘व न ीिं आना चा ती, तो र ने क्यों न ीिं दे ती।’

‘व ािं घुट घुटकर मर जाएगी।’


‘मैं उन् ीिं पैरों लाला मदारीलाल के घर चला। ालािंकक मैं जानता था कक सन्
ु नी
ककसी तर न आएगी, मगर व ािं प ु चा तो दे खा कु राम मचा ु आ ै । मेरा
कलेजा िक से र गया। व ािं तो अथी सज र ी थी। मु ल्ले के सैकड़ों आदमी
जमा थे। घर में से ‘ ाय! ाय!’ की क्रिंदन-ध्वतन आ र ी थी। य सुन्नी का शव
था।

मदारीलाल मुझे दे खते ी मुझसे उन्मत की भािंतत मलपट गए और बोले:

‘भाई सा ब, मैं तो लट
ु गया। लड़का भी गया, ब ू भी गयी, त्जन्दगी ी गारत ो
गई।’

मालूम ु आ कक जब से केदार गायब ो गया था, सुन्नी और भी ज्यादा उदास


र ने लगी थी। उसने उसी हदन अपनी चडू डयािं तोड़ डाली थीिं और मािंग का मसिंदरू
पोंछ डाला था। सास ने जब आपत्तत की, तो उनको अपशब्द क े । मदारीलाल ने
समझाना चा ा तो उन् ें भी जली-कटी सुनायी। ऐसा अनुमान ोता था—उन्माद
ो गया ै । लोगों ने उससे बोलना छोड़ हदया था। आज प्रात:काल यमुना स्नान
करने गयी। अिंिेरा था, सारा घर सो र ा था, ककसी को न ीिं जगाया। जब हदन
चढ़ गया और ब ू घर में न ममली, तो उसकी तलाश ोने लगी। दोप र को पता
लगा कक यमन
ु ा गयी ै । लोग उिर भागे। व ािं उसकी लाश ममली। पमु लस आयी,
शव की परीक्षा ु ई। अब जाकर शव ममला ै । मैं कलेजा थामकर बैठ गया।
ाय, अभी थोडे हदन प ले जो सुन्दरी पालकी पर सवार ोकर आयी थी, आज
व चार के किंिे पर जा र ी ै!

मैं अथी के साथ ो मलया और व ािं से लौटा, तो रात के दस बज गये थे। मेरे
पािंव कािंप र े थे। मालूम न ीिं, य खबर पाकर गोपा की क्या दशा ोगी। प्राणािंत
न ो जाए, मुझे य ी भय ो र ा था। सुन्नी उसकी प्राण थी। उसकी जीवन का
केन्द्र थी। उस दखु खया के उद्यान में य ी पौिा बच र ा था। उसे व हृदय रक्त
से सीिंच-सीिंचकर पाल र ी थी। उसके वसिंत का सुन रा स्वप्न ी उसका जीवन
था उसमें कोपलें तनकलें गी, िूल खखलें गे, िल लगें गे, धचडड़या उसकी डाली पर
बैठकर अपने सु ाने राग गाएिंगी, ककन्तु आज तनष्ठुर तनयतत ने उस जीवन सत्र

को उखाडकर िेंक हदया। और अब उसके जीवन का कोई आिार न था। व
बबन्द ु ी ममट गया था, त्जस पर जीवन की सारी रे खाएाँ आकर एकत्र ो जाती
थीिं।

हदल को दोनों ाथों से थामे, मैंने जिंजीर खटखटायी। गोपा एक लालटे न मलए
तनकली। मैंने गोपा के मुख पर एक नए आनिंद की झलक दे खी।

मेरी शोक मद्र


ु ा दे खकर उसने मातव
ृ त ् प्रेम से मेरा ाथ पकड तलया और बोली
आज तो तम्
ु ारा सारा हदन रोते ी कटा; अथी के साथ ब ु त से आदमी र े
ोंगे। मेरे जी में भी आया कक चलकर सुन्नी के अिंततम दशषन कर लूिं। लेककन
मैंने सोचा, जब सुन्न ी न र ी, तो उसकी लाश में क्या रखा ै ! न गयी।

मैं ववस्मय से गोपा का मु ाँ दे खने लगा। तो इसे य शोक-समाचार ममल चक


ु ा
ै । किर भी व शािंतत और अववचल िैय!ष बोला अच्छा-ककया, न गयी रोना ी तो
था।

‘ ािं, और क्या? रोयी य ािं भी, लेककन तम


ु से सचव क ती ूिं , हदल से न ीिं रोयी। न
जाने कैसे आिंसू तनकल आए। मुझे तो सुन्नी की मौत से प्रसन्नता ु ई। दखु खया
अपनी मान मयाषदा मलए सिंसार से ववदा ो गई, न ीिं तो न जाने क्या क्या
दे खना पड़ता। इसमलए और भी प्रसन्न ूिं कक उसने अपनी आन तनभा दी। स्त्री
के जीवन में प्यार न ममले तो उसका अिंत ो जाना ी अच्छा। तुमने सुन्नी की
मद्र
ु ा दे खी थी? लोग क ते ैं , ऐसा जान पड़ता था—मस्
ु करा र ी ै । मेरी सन्
ु नी
सचमुच दे वी थी। भैया, आदमी इसमलए थोडे ी जीना चा ता ै कक रोता र े ।
जब मालूम ो गया कक जीवन में द:ु ख के मसवा कुछ न ीिं ै , तो आदमी जीकर
क्या करे । ककसमलए त्जए? खाने और सोने और मर जाने के मलए? य मैं न ीिं
चा ती कक मुझे सुन्नी की याद न आएगी और मैं उसे याद करके रोऊाँगी न ीिं।
लेककन व शोक के आिंसू न ोंगे। ब ादरु बेटे की मािं उसकी वीरगतत पर प्रसन्न
ोती ै । सन्
ु नी की मौत मे क्या कुछ कम गौरव ै ? मैं आिंसू ब ाकर उस गौरव
का अनादर कैसे करूिं? व जानती ै , और चा े सारा सिंसार उसकी तनिंदा करे ,
उसकी माता सरा ना ी करे गी। उसकी आतमा से य आनिंद भी छीन ल?िंू लेककन
अब रात ज्यादा ो गई ै । ऊपर जाकर सो र ो। मैंने तुम् ारी चारपाई बबछा दी
ै , मगर दे खे, अकेले पडे-पडे रोना न ीिं। सुन्नी ने व ी ककया, जो उसे करना
चाह ए था। उसके वपता ोते, तो आज सुन्नी की प्रततमा बनाकर पूजते।’

मैं ऊपर जाकर लेटा, तो मेरे हदल का बोझ ब ु त ल्का ो गया था, ककन्तु र -
र कर य सिंदे ो जाता था कक गोपा की य शािंतत उसकी अपार व्यथा का ी
रूप तो न ीिं ै?

***
नशा

ईश्वरी एक बडे जमीिंदार का लड़का था और मैं गरीब क्लकष था, त्जसके पास
मे नत-मजूरी के मसवा और कोई जायदाद न थी। म दोनों में परस्पर ब सें
ोती र ती थीिं। मैं जमीिंदारी की बुराई करता, उन् ें ह स
िं क पशु और खून चूसने
वाली जोंक और वक्ष
ृ ों की चोटी पर िूलने वाला बिंझा क ता। व जमीिंदारों का
पक्ष लेता, पर स्वभावत: उसका प लू कुछ कमजोर ोता था, क्योंकक उसके पास
जमीिंदारों के अनुकूल कोई दलील न थी। व क ता कक सभी मनुष्य बराबर न ीिं
ाते, छोटे -बडे मेशा ोते र ें गे। लचर दलील थी। ककसी मानर्
ु ीय या नैततक
तनयम से इस व्यवस्था का औधचतय मसद्ध करना कहठन था। मैं इस वाद-वववाद
की गमी-गमी में अक्सर तेज ो जाता और लगने वाली बात क जाता, लेककन
ईश्वरी ारकर भी मस्
ु कराता र ता था मैंने उसे कभी गमष ोते न ीिं दे खा। शायद
इसका कारण य था कक व अपने पक्ष की कमजोरी समझता था।

नौकरों से व सीिे मुिं बात न ीिं करता था। अमीरों में जो एक बेददी और
उद्दण्ता ोती ै , इसमें उसे भी प्रचरु भाग ममला था। नौकर ने बबस्तर लगाने में
जरा भी दे र की, दि
ू जरूरत से ज्यादा गमष या ठिं डा ु आ, साइककल अच्छी तर
साि न ीिं ु ई, तो व आपे से बा र ो जाता। सुस्ती या बदतमीजी उसे जरा भी
बरदाश्त न थी, पर दोस्तों से और ववशेर्कर मुझसे उसका व्यव ार सौ ादष और
नम्रता से भरा ु आ ोता था। शायद उसकी जग मैं ोता, तो मुझसे भी व ीिं
कठोरताएिं पैदा ो जातीिं, जो उसमें थीिं, क्योंकक मेरा लोकप्रेम मसद्धािंतों पर न ीिं ,
तनजी दशाओिं पर हटका ु आ था, लेककन व मेरी जग ोकर भी शायद अमीर
ी र ता, क्योंकक व प्रकृतत से ी ववलासी और ऐश्वयष-वप्रय था।

अबकी दश रे की छुहट्टयों में मैंने तनश्चय ककया कक घर न जाऊिंगा। मेरे पास


ककराए के मलए रूपये न थे और न घरवालों को तकलीि दे ना चा ता था। मैं
जानता ूिं , वे मझ
ु े जो कुछ दे ते ैं, व उनकी ै मसयत से ब ु त ज्यादा ै , उसके
साथ ी परीक्षा का ख्याल था। अभी ब ु त कुछ पढना ै , बोडडषग ाउस में भूत
की तर अकेले पड़े र ने को भी जी न चा ता था। इसमलए जब ईश्वरी ने मझ
ु े
अपने घर का नेवता हदया, तो मैं बबना आग्र के राजी ो गया। ईश्वरी के साथ
परीक्षा की तैयारी खूब ो जाएगी। व अमीर ोकर भी मे नती और ज ीन ै।

उसने उसके साथ ी क ा-लेककन भाई, एक बात का ख्याल रखना। व िं अगर

जमीिंदारों की तनिंदा की, तो मआ


ु ममला बबगड. जाएगा और मेरे घरवालों को बरु ा
लगेगा। व लोग तो आसाममयों पर इसी दावे से शासन करते ैं कक ईश्वर ने
असाममयों को उनकी सेवा के मलए ी पैदा ककया ै । असामी में कोई मौमलक
भेद न ीिं ै , तो जमीिंदारों का क ीिं पता न लगे।

मैंने क ा-तो क्या तुम समझते ो कक मैं व ािं जाकर कुछ और ो जाऊिंगा?

‘ ,िं मैं तो य ी समझता ूिं ।

‘तुम गलत समझते ो।‘

ईश्वरी ने इसका कोई जवाब न हदया। कदाधचत ् उसने इस मुआमले को मरे


वववेक पर छोड़ हदया। और ब ु त अच्छा ककया। अगर व अपनी बात पर अड़ता,
तो मैं भी त्जद पकड़ लेता।

सेकिंड क्लास तो क् या, मैंनें कभी इिंटर क्लास में भी सिर न ककया था। अब की
सेकिंड क्लास में सिर का सौभाग्य प्राइ ु आ। गाडी तो नौ बजे रात को आती
थी, पर यात्रा के र्ष में म शाम को स्टे शन जा प ुिं च।े कुछ दे र इिर-उिर सैर
करने के बाद ररिेशमें ट-रूम में जाकर म लोगों ने भेजन ककया। मेरी वेश-भूर्ा
और रिं ग-ढिं ग से पारखी खानसामों को य प चानने में दे र न लगी कक मामलक
कौन ै और वपछलग्गू कौन; लेककन न जाने क्यों मझ
ु े उनकी गस्
ु ताखी बरु ी लग
र ी थी। पैसे ईश्वरी की जेब से गए। शायद मेरे वपता को जो वेतन ममलता ै,
उससे ज्यादा इन खानसामों को इनाम-इकराम में ममल जाता ो। एक अठन्नी
तो चलते समय ईश्वरी ी ने दी। किर भी मैं उन सभों से उसी ततपरता और
ववनय की अपेक्षा करता था, त्जससे वे ईश्वरी की सेवा कर र े थे। क्यों ईश्वरी
के ु क्म पर सब-के-सब दौडते ैं, लेककन मैं कोई चीज मािंगता ूिं , तो उतना
उतसा न ीिं हदखाते! मुझे भोजन में कुछ स्वाद न ममला। य भेद मेरे ध्यान को
सम्पूणष रूप से अपनी ओर खीिंचे ु ए था।

गाडी आयी, म दोनो सवार ु ए। खानसामों ने ईश्वरी को सलाम ककया। मेरी


ओर दे खा भी न ीिं।

ईश्वरी ने क ा—ककतने तमीजदार ैं ये सब? एक मारे नौकर ैं कक कोई काम


करने का ढिं ग न ीिं।

मैंने खट्टे मन से क ा—इसी तर अगर तम


ु अपने नौकरों को भी आठ आने
रोज इनाम हदया करो, तो शायद इनसे ज्यादा तमीजदार ो जाएिं।

‘तो क्या तुम समझते ो, य सब केवल इनाम के लालच से इतना अदब करते
ैं।

‘जी न ीिं, कदावपत न ीिं! तमीज और अदब तो इनके रक्त में ममल गया ै ।’

गाड़ी चली। डाक थी। प्रयास से चली तो प्रतापगढ जाकर रूकी। एक आदमी ने
मारा कमरा खोला। मैं तुरिंत धचल्ला उठा, दस
ू रा दरजा ै -सेकिंड क्लास ै।

उस मस
ु ाकिर ने डडब्बे के अन्दर आकर मेरी ओर एक ववधचत्र उपेक्षा की दृत्ष्ट से
दे खकर क ा—जी ािं, सेवक इतना समझता ै , और बीच वाले बथषडे पर बैठ गया।
मुझे ककतनी लज्जा आई, क न ीिं सकता।

भोर ोते- ोते म लोग मरु ादाबाद प ुिं च।े स्टे शन पर कई आदमी मारा स्वागत
करने के मलए खड़े थे। पािंच बेगार। बेगारों ने मारा लगेज उठाया। दोनों भद्र
पुरूर् पीछे -पीछे चले। एक मुसलमान था ररयासत अली, दस
ू रा ब्राह्मण था
राम रख। दोनों ने मेरी ओर पररधचत नेत्रों से दे खा, मानो क र े ैं , तम
ु कौवे
ोकर िं स के साथ कैसे?

ररयासत अली ने ईश्वरी से पूछा—य बाबू सा ब क्या आपके साथ पढ़ते ैं?

ईश्वरी ने जवाब हदया— ,ॉँ साथ पढ़ते भी ैं और साथ र ते भी ैं। यों कह ए


कक आप ी की बदौलत मैं इला ाबाद पड़ा ु आ ूिं , न ीिं कब का लखनऊ चला
आया ोता। अब की मैं इन् ें घसीट लाया। इनके घर से कई तार आ चुके थे,
मगर मैंने इनकारी-जवाब हदलवा हदए। आखखरी तार तो अजेंट था, त्जसकी िीस
चार आने प्रतत शब्द ै , पर य ािं से उनका भी जवाब इनकारी ी था।

दोनों सज्जनों ने मेरी ओर चककत नेत्रों से दे खा। आतिंककत ो जाने की चेष्टा


करते जान पड़े।

ररयासत अली ने अद्धषशिंका के स्वर में क ा—लेककन आप बड़े सादे मलबास में
र ते ैं।

ईश्वरी ने शिंका तनवारण की—म ातमा गािंिी के भक्त ैं सा ब। खद्दर के मसवा


कुछ प ने ी न ीिं। पुराने सारे कपड़े जला डाले। यों क ा कक राजा ैं। ढाई लाख
सालाना की ररयासत ै , पर आपकी सूरत दे खो तो मालूम ोता ै , अभी
अनाथालय से पकड़कर आये ैं।

राम रख बोले—अमीरों का ऐसा सवभाव


् ब ु त कम दे खने में आता ै । कोई भ पिं
ी न ीिं सकता।
ॉँ
ररयासत अली ने समथषन ककया—आपने म ाराजा च गली को दे खा िं
ोता तो द तों
तले उिं गली दबाते। एक गाढ़े की ममजषई और चमरौंिे जत
ू े प ने बाजारों में घम
ू ा
करते थे। सुनते ैं, एक बार बेगार में पकड़े गए थे और उन् ीिं ने दस लाख से
कालेज खोल हदया।
मैं मन में कटा जा र ा था; पर न जाने क्या बात थी कक य सिेद झठ
ू उस
वक्त मझ
ु े ास्यास्पद न जान पड़ा। उसके प्रतयेक वाक्य के साथ मानों मैं उस
कत्ल्पत वैभव के समीपतर आता जाता था।

मैं श सवार न ीिं ूिं । ,ॉँ लड़कपन में कई बार लद्दू घोड़ों पर सवार ु आ ूिं । य ािं
िं
दे खा तो दो कल -रास घोड़े मारे मलए तैयार खड़े थे। मेरी तो जान ी तनकल
गई। सवार तो ु आ, पर बोहटय िं क पिं र ीिं थीिं। मैंने चे रे पर मशकन न पड़ने
हदया। घोड़े को ईश्वरी के पीछे डाल हदया। खैररयत य ु ई कक ईश्वरी ने घोड़े
को तेज न ककया, वरना शायद मैं ाथ-प रॉँ तुड़वाकर लौटता। सिंभव ै , ईश्वरी ने
समझ मलया ो कक य ककतने पानी में ै।

ईश्वरी का घर क्या था, ककला था। इमामबाड़े का—सा िाटक, द्वार पर प रे दार
ट लता ु आ, नौकरों का कोई मससाब न ीिं, एक ाथी बॅंिा ु आ। ईश्वरी ने अपने
वपता, चाचा, ताऊ आहद सबसे मेरा पररचय कराया और उसी अततश्योत्क्त के
साथ। ऐसी िं त् क कुछ न पतू छए। नौकर-चाकर
वा ब िी ी न ीिं, घर के लोग भी
मेरा सम्मान करने लगे। दे ात के जमीिंदार, लाखों का मन
ु ािा, मगर पमु लस
कान्सटे बबल को अिसर समझने वाले। कई म ाशय तो मुझे ु जूर- ु जूर क ने
लगे!

जब जरा एकान्त ु आ, तौ मैंने ईश्वरी से क ा—तम


ु बड़े शैतान ो यार, मेरी
ममट्टी क्यों पलीद कर र े ो?

ईश्वरी ने दृढ़ मस्


ु कान के साथ क ा—इन गिों के सामने य ी चाल जरूरी थी,
वरना सीिे माँु बोलते भी न ीिं।
जरा दे र के बाद नाई मारे पािंव दबाने आया। किंु वर लोग स्टे शन से आये ैं , थक
गए ोंगे। ईश्वरी ने मेरी ओर इशारा करके क ा—प ले किंु वर सा ब के पािंव
दबा।

मैं चारपाई पर लेटा ु आ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ी कभी ु आ ो कक
ककसी ने मेरे पािंव दबाए ों। मैं इसे अमीरों के चोचले , रईसों का गिापन और
बड़े आदममयों की मुटमरदी और जाने क्या-क्या क कर ईश्वरी का परर ास ककया
करता और आज मैं पोतड़ों का रईस बनने का स्वािंग भर र ा था।

इतने में दस बज गए। परु ानी सभ्यता के लोग थे। नयी रोशनी अभी केवल
प ाड़ की चोटी तक प ुिं च पायी थी। अिंदर से भोजन का बुलावा आया। म
स्नान करने चले। मैं में शा अपनी िोती खुद छािंट मलया करता ू ाँ ; मगर य ॉँ
मैंने ईश्वरी की ी भािंतत अपनी िोती भी छोड़ दी। अपने ाथों अपनी िोती
छािंटते शमष आ र ी थी। अिंदर भोजन करने चले। ोस्टल में जूते प ले मेज पर
जा डटते थे। य िं प विं िोना आवश्यक था। क ार पानी मलये खड़ा था। ईश्वरी ने

प विं बढ़ा हदए। क ार ने उसके प विं िोए। मैंने भी प विं बढ़ा हदए। क ार ने मेरे
प विं भी िोए। मेरा व ववचार न जाने क िं चला गया था।

सोचा था, व ॉँ दे ात में एकाग्र ोकर खब


ू पढ़ें गे, पर य िं सारा हदन सैर-सपाटे में

कट जाता था। क ीिं नदी में बजरे पर सैर कर र े ैं, क ीिं मतछलयों या धचडडयों
का मशकार खेल र े ैं, क ीिं प लवानों की कुश्ती दे ख र े ैं , क ीिं शतरिं ज पर
जमें ैं। ईश्वरी खूब अिंडे माँगवाता और कमरे में ‘स्टोव’ पर आमलेट बनते।
नौकरों का एक जतथा मेशा घेरे र ता। अपने ॉँ
थ-प वॉँ ह लाने की कोई जरूरत
न ीिं। केवल जबान ह ला दे ना कािी ै । न ाने बैठो तो आदमी न लाने को
ात्जर, लेटो तो आदमी पिंखा झलने को खड़े।
म ातमा गािंिी का किंु वर चेला मश ू र था। भीतर से बा र तक मेरी िाक थी।
नाश्ते में जरा भी दे र न ोने पाए, क ीिं किंु वर सा ब नाराज न ो जाऍ िं; बबछावन
ठीक समय पर लग जाए, किंु वर सा ब के सोने का समय आ गया। मैं ईश्वरी से
भी ज्यादा नाजुक हदमाग बन गया था या बनने पर मजबूर ककया गया था।
ईश्वरी अपने ाथ से बबस्तर बबछाले लेककन किंु वर मे मान अपने ाथों कैसेट
अपना बबछावन बबछा सकते ैं! उनकी म ानता में बट्टा लग जाएगा।

एक हदन सचमुच य ी बात ो गई। ईश्वरी घर में था। शायद अपनी माता से
कुछ बातचीत करने में दे र ो गई। य िं दस बज गए। मेरी ऑ िंखें नीिंद से झपक

र ी थीिं, मगर बबस्तर कैसेट लगाऊिं? किंु वर जो ठ रा। कोई साढ़े ग्यार बजे म रा
आया। बड़ा मिंु लगा नौकर था। घर के ििंिों में मेरा बबस्तर लगाने की उसे
सधु ि ी न र ी। अब जो याद आई, तो भागा ु आ आया। मैंने ऐसी ड टॉँ बताई
कक उसने भी याद ककया ोगा।

ईश्वरी मेरी ड टॉँ सन


ु कर बा र तनकल आया और बोला—तम
ु ने ब ु त अच्छा
ककया। य सब रामखोर इसी व्यव ार के योग्य ैं।

इसी तर ईश्वरी एक हदन एक जग दावत में गया ु आ था। शाम ो गई,


मगर लैम्प मेज पर रखा ु आ था। हदयासलाई भी थी, लेककन ईश्वरी खद
ु कभी
लैम्प न ीिं जलाता था। किर किंु वर सा ब कैसे जलाऍ?िं मैं झुिंझला र ा था।
समाचार-पत्र आया रखा ु आ था। जी उिर लगा ु आ था, पर लैम्प नदारद।
दै वयोग से उसी वक्त मुिंशी ररयासत अली आ तनकले। मैं उन् ीिं पर उबल पड़ा,
ऐसी िटकार बताई कक बेचारा उल्लू ो गया— तुम लोगों को इतनी किक्र भी
न ीिं कक लैम्प तो जलवा दो! मालूम न ीिं, ऐसे कामचोर आदममयों का य िं कैसे

गज
ु र ोता ै । मेरे य िं घिंटे-भर तनवाष न ॉँ
ो। ररयासत अली ने क पते ुए ाथों
से लैम्प जला हदया।

व ााँ एक ठाकुर अक्सर आया करता था। कुछ मनचला आदमी था, म ातमा गािंिी
का परम भक्त। मझ
ु े म ातमाजी का चेला समझकर मेरा बड़ा मल ाज करता था;
पर मझ
ु से कुछ पछ
ू ते सिंकोच करता था। एक हदन मझ
ु े अकेला दे खकर आया
और ाथ बािंिकर बोला—सरकार तो गािंिी बाबा के चेले ैं न? लोग क ते ैं कक
य सुराज ो जाएगा तो जमीिंदार न र ें गे।

मैंने शान जमाई—जमीिंदारों के र ने की जरूरत ी क्या ै? य लोग गरीबों का


खन
ू चस
ू ने के मसवा और क्या करते ै ?

ठाकुर ने वपर पूछा—तो क्यों, सरकार, सब जमीिंदारों की जमीन छीन ली जाएगी।


मैंनें क ा-ब ु त-से लोग तो खश
ु ी से दे दें गे। जो लोग खश
ु ी से न दें गे, उनकी
जमीन छीननी ी पड़ेगी। म लोग तो तैयार बैठे ु ए ैं। ज्यों ी स्वराज्य ु आ,
अपने इलाके असाममयों के नाम ह बा कर दें गे।

मैं कुरसी पर प वॉँ लटकाए बैठा था। ठाकुर मेरे प वॉँ दबाने लगा। किर बोला—
आजकल जमीिंदार लोग बड़ा जल
ु म
ु करते ैं सरकार! में भी ु जरू , अपने इलाके
में थोड़ी-सी जमीन दे दें , तो चलकर व ीिं आपकी सेवा में र ें ।

मैंने क ा—अभी तो मेरा कोई अत्ख्तयार न ीिं ै भाई; लेककन ज्यों ी अत्ख्तयार
ममला, मैं सबसे प ले तम्
ु ें बल
ु ाऊिंगा। तम्
ु ें मोटर-ड़्राइवरी मसखा कर अपना
ड्राइवर बना लूिंगा।

सन
ु ा, उस हदन ठाकुर ने खब ू पीटा और ग विं
ू भिंग पी और अपनी स्त्री को खब
म ाजन से लड़ने पर तैयार ो गया।

छुट्टी इस तर तमाम ु ई और म किर प्रयाग चले। ग वॉँ के ब ु त-से लोग म


लोगों को प ुिं चाने आये। ठाकुर तो मारे साथ स्टे शन तक आया। मैनें भी अपना
पाटष खब
ू सिाई से खेला और अपनी कुबेरोधचत ववनय और दे वतव की मु र
रे क हृदय पर लगा दी। जी तो चा ता था, रे क नौकर को अच्छा इनाम दाँ ,ू
लेककन व सामर्थयष क ॉँ थी? वापसी हटकट था ी, केवल गाड़ी में बैठना था; पर
गाड़ी गायी तो ठसाठस भरी ु ई। दग ू ा की छुहट्टय िं भोगकर सभी लोग लौट
ु ाषपज
र े थे। सेकिंड क्लास में ततल रखने की जग न ीिं। इिंटरव्यू क्लास की ालत
उससे भी बदतर। य आखखरी गाड़ी थी। ककसी तर रूक न सकते थे। बड़ी
मुत्श्कल से तीसरे दरजे में जग ममली। मारे ऐश्वयष ने व िं अपना रिं ग जमा

मलया, मगर मुझे उसमें बैठना बुरा लग र ा था। आये थे आराम से लेटे-लेटे, जा
र े थे मसकुड़े ु ए। प लू बदलने की भी जग न थी।

कई आदमी पढ़े -मलखे भी थे! वे आपस में अिंगरे जी राज्य की तारीि करते जा
र े थे। एक म ाश्य बोले—ऐसा न्याय तो ककसी राज्य में न ीिं दे खा। छोटे -बड़े
सब बराबर। राजा भी ककसी पर अन्याय करे , तो अदालत उसकी गदष न दबा दे ती
ै।

दस
ू रे सज्जन ने समथषन ककया—अरे सा ब, आप खुद बादशा पर दावा कर
सकते ैं। अदालत में बादशा पर डडग्री ो जाती ै।

एक आदमी, त्जसकी पीठ पर बड़ा गट्ठर बाँिा था, कलकतते जा र ा था। क ीिं
गठरी रखने की जग ॉँ
न ममलती थी। पीठ पर ब िे ु ए था। इससे बेचैन ोकर
बार-बार द्वार पर खड़ा ो जाता। मैं द्वार के पास ी बैठा ु आ था। उसका
बार-बार आकर मेरे मिंु को अपनी गठरी से रगड़ना मझ
ु े ब ु त बरु ा लग र ा था।
एक तो वा यों ी कम थी, दस
ू रे उस गाँवार का आकर मेरे मुिं पर खड़ा ो
जाना, मानो मेरा गला दबाना था। मैं कुछ दे र तक जब्त ककए बैठा र ा। एकाएक
मुझे क्रोि आ गया। मैंने उसे पकड़कर पीछे ठे ल हदया और दो तमाचे जोर-जोर
से लगाए।

उसनें ऑ िंखें तनकालकर क ा—क्यों मारते ो बाबूजी, मने भी ककराया हदया ै!

मैंने उठकर दो-तीन तमाचे और जड़ हदए।

गाड़ी में तूिान आ गया। चारों ओर से मुझ पर बौछार पड़ने लगी।


‘अगर इतने नाजुक ममजाज ो, तो अव्वल दजे में क्यों न ीिं बैठे।’

‘कोई बड़ा आदमी ोगा, तो अपने घर का ोगा। मझ


ु े इस तर मारते तो हदखा
दे ता।’

‘क्या कसरू ककया था बेचारे ने। गाड़ी में सााँस लेने की जग न ीिं, खखड़की पर
ॉँ लेने खड़ा
जरा स स ो गया, तो उस पर इतना क्रोि! अमीर ोकर क्या आदमी
अपनी इन्सातनयत बबल्कुल खो दे ता ै ।’

‘य भी अिंगरे जी राज ै , त्जसका आप बखान कर र े थे। ’

एक ग्रामीण बोला—दफ्तर म िं घुस पावत न ीिं, उस पै इतता ममजाज।

ईश्वरी ने अिंगरे जी मे क ा- What an idiot you are, Bir! और मेरा नशा अब कुछ-
कुछ उतरता ु आ मालूम ोता था।

***
स्िाममनी

मशवदास ने भिंडारे की किंु जी अपनी ब ू रामप्यारी के सामने िेंककर अपनी बूढ़ी


ऑ िंखों में ऑ िंसू भरकर क ा-ब ू , आज से धगरस्ती की दे खभाल तुम् ारे ऊपर ै।
मेरा सुख भगवान ् से न ीिं दे खा गया, न ीिं तो क्या जवान बेटे को यों छीन लेत!े
उसका काम करने वाला तो कोई चाह ए। एक ल तोड़ दिं ,ू तो गज
ु ारा न ोगा।
मेरे ी कुकरम से भगवान ् का य कोप आया ै , और मैं ी अपने माथे पर उसे
लूिंगा। बबरजू का ल अब मैं ी सिंभालाँ ग
ू ा। अब घर दे ख-रे ख करने वाला, िरने-
उठाने वाला तुम् ारे मसवा दस
ू रा कौन ै ? रोओ मत बेटा, भगवान ् की जो इच्छा
थी, व ु आ; और जो इच्छा ोगी व ोगा। मारा-तुम् ारा क्या बस ै ? मेरे
जीते-जी तुम् ें कोई टे ढ़ी ऑ िंख से दे ख भी न सकेगा। तुम ककसी बात का सोच
मत ककया करो। बबरजू गया, तो अभी बैठा ी ु आ ूिं ।

रामप्यारी और रामदल
ु ारी दो सगी ब नें थीिं। दोनों का वववा मथुरा और बबरजू
दो सगे भाइयों से ु आ। दोनों ब नें नै र की तर ससुराल में भी प्रेम और
आनिंद से र ने लगीिं। मशवदास को पेन्शन ममली। हदन-भर द्वार पर गप-शप
करते। भरा-परू ा पररवार दे खकर प्रसन्न ोते और अधिकतर िमष-चचाष में लगे
र ते थे; लेककन दै वगतत से बड़ा लड़का बबरजू बबमार पड़ा और आज उसे मरे ुए
पिंद्र हदन बबत गए। आज कक्रया-कर से िुरसत ममली और मशवदास ने सच्चे
ॉँ किर जीवन सिंग्राम के मलए कमर कस ली। मन में उसे चा े
कमषवीर की भ तत
ककतना ी द:ु ख ु आ ो, उसे ककसी ने रोते न ीिं दे खा। आज अपनी ब ू को
दे खकर एक क्षण के मलए उसकी ऑ िंखें सजल ो गई; लेककन उसने मन को
सिंभाला और रूद्ध किंठ से उसे हदलासा दे ने लगा। कदाधचत ् उसने, सोचा था, घर
की सवाममनी
् बनकर वविवा के ऑ िंसू पुिंछ जाऍगेिं , कम-से-कम उसे इतना कहठन
पररश्रम न करना पड़ेगा, इसमलए उसने भिंडारे की किंु जी ब ू के सामने िेंक दी
थी। वैिव्य की व्यथा को स्वाममतव के गवष से दबा दे ना चा ता था।
रामप्यारी ने पल
ु ककत किंठ से क ा-कैसे ो सकता ै दादा, कक तम
ु मे नत-
मजदरू ी करो और मैं मालककन बनकर बैठूिं? काम ििंिे में लगी र ूिं गी, तो मन
बदला र े गा। बैठे-बैठे तो रोनो के मसवा और कुछ न ोगा।

मशवदास ने समझाया-बेटा, दै वगतत में तो ककसी का बस न ीिं, रोने-िोने से


लकानी के मसवा और क्या ाथ आएगा? घर में भी तो बीसों काम ैं। कोई
सािु-सन्त आ जाऍ िं, कोई प ु ना ी आ प ुिं चे, तो उनके सेवा-सतकार के मलए
ककसी को घर पर र ना ी पड़ेगा।

ब ू ने ब ु त-से ीले ककए, पर मशवदास ने एक न सन


ु ी।

मशवदास के बा र चले जाने पर रामप्यारी ने किंु जी उठायी, तो उसे मन में अपूवष


गौरव और उततरदातयतव का अनभ
ु व ु आ। जरा दे र के मलए पतत-ववयोग का
द:ु ख उसे भल
ू गया। उसकी छोटी ब न और दे वर दोनों काम करने गये ु ए थे।
मशवदास बा र था। घर बबलकुल खाली था। इस वक्त व तनत्श्चत ोकर भिंडारे
को खोल सकती ै । उसमें क्या-क्या सामान ै , क्या-क्या ववभूतत ै, य दे खने के
मलए उसका मन लालातयत ो उठा। इस घर में व कभी न आयी थी। जब
कभी ककसी को कुछ दे ना या ककसी से कुछ लेना ोता था, तभी मशवदास आकर
इस कोठरी को खोला करता था। किर उसे बन्दकर व ताली अपनी कमर में
रख लेता था।

ॉँ
रामप्यारी कभी-कभी द्वार की दरारों से भीतर झ कती थी, पर अिंिेरे में कुछ न
हदखाई दे ता। सारे घर के मलए व कोठरी ततमलस्म या र स्य था, त्जसके ववर्य
िं
में भ तत-भ िं की कल्पनाऍ िं ोती र ती थीिं। आज रामप्यारी को व
तत र स्य
खोलकर दे खने का अवसर ममल गया। उसे बा र का द्वार बन्द कर हदया, कक
कोई उसे भिंडार खोलते न दे ख ले, न ीिं सोचेगा, बेजरूरत उसने क्यों खोला, तब
िं
आकर क पते ुए ाथों से ताला खोला। उसकी छाती िड़क र ी थी कक कोई
द्वार न खटखटाने लगे। अन्दर प विं रखा तो उसे कुछ उसी प्रकार का, लेककन
उससे क ीिं तीव्र आनन्द ु आ, जो उसे अपने ग ने-कपड़े की वपटारी खोलने में
ोता था। मटकों में गुड़, शक्कर, गे ू ाँ, जौ आहद चीजें रखी ु ई थीिं। एक ककनारे
बड़े-बड़े बरतन िरे थे, जो शादी-ब्या के अवसर पर तनकाले जाते थे , या म गेिं
हदये जाते थे। एक आले पर मालगुजारी की रसीदें और लेन-दे न के पुरजे बॅंिे

ु ए रखे थे। कोठरी में एक ववभूतत-सी छायी थी, मानो लक्ष्मी अज्ञात रूप से
ववराज र ी ो। उस ववभतू त की छाया में रामप्यारी आि घण्टे तक बैठी अपनी
आतमा को तप्ृ त करती र ी। प्रततक्षण उसके हृदय पर ममतव का नशा-सा छाया
जा र ा था। जब व उस कोठरी से तनकली, तो उसके मन के सिंस्कार बदल गए
थे, मानो ककसी ने उस पर मिंत्र डाल हदया ो।

उसी समय द्वार पर ककसी ने आवाज दी। उसने तरु न्त भिंडारे का द्वार बन्द
ककया और जाकर सदर दरवाजा खोल हदया। दे खा तो पड़ोमसन झुतनया खड़ी ै
और एक रूपया उिार म गिं र ी ै।

रामप्यारी ने रूखाई से क ा-अभी तो एक पैसा घर में न ीिं ै जीजी, कक्रया-कमष


में सब खरच ो गया।

झतु नया चकरा गई। चौिरी के घर में इस समय एक रूपया भी न ीिं ै, य


ववश्वास करने की बात न थी। त्जसके य िं सैकड़ों का लेन-दे न ै, व सब कुछ
कक्रया-कमष में न ीिं खचष कर सकता। अगर मशवदास ने क ाना ककया ोता, तो
उसे आश्चयष न ोता। पयारी
् तो अपने सरल स्वभाव के मलए गााँव में मश ू र
थी। अकसर मशवदास की ऑ िंखें बचाकर पड़ोमसयों को इत्च्छत वस्तुऍ िं दे हदया
करती थी। अभी कल ी उसने जानकी को सेर-भर दि
ू हदया। य िं तक कक

अपने ग ने तक म गेिं दे दे ती थी। कृपण मशवदास के घर में ऐसी सखरच ब ू


का आना ग विं वाले अपने सौभाग्य की बात समझते थे।

झुतनया ने चककत ोकर क ा-ऐसा न क ो जीजी, बड़े गाढ़े में पड़कर आयी ूिं ,
न ीिं तम
ु जानती ो, मेरी आदत ऐसी न ीिं ै । बाकी एक एक रूपया दे ना ै।
प्यादा द्वार पर खड़ा बकझक कर र ा ै । रूपया दे दो, तो ककसी तर य
ववपत्तत टले। मैं आज के आठवें हदन आकर दे जाऊिंगी। ग विं में और कौन घर
ै, ज िं मािंगने जाऊिं?

प्यारी टस से मस न ु ई।

उसके जाते ॉँ के मलए रसोई-पानी का इिंतजाम करने लगी। प ले


ी प्यारी स झ
चावल-दाल बबनना अपाढ़ लगता था और रसोई में जाना तो सूली पर चढ़ने से
िं
कम न था। कुछ दे र ब नों में झ व-झ विं ोती, तब मशवदास आकर क ते, क्या
आज रसोई न बनेगी, तो दो में एक एक उठती और मोटे -मोटे हटक्कड़ लगाकर
रख दे ती, मानो बैलों का राततब ो। आज प्यारी तन-मन से रसोई के प्रबिंि में
लगी ु ई ै । अब व घर की स्वाममनी ै।

तब उसने बा र तनकलकर दे खा, ककतना कूड़ा-करकट पड़ा ु आ ै ! बढ़


ु ऊ हदन-भर
मक्खी मारा करते ैं। इतना भी न ीिं ोता कक जरा झाड़ू ी लगा दें । अब क्या
इनसे इतना भी न ोगा? द्वार धचकना ोना चाह ए कक दे खकर आदमी का मन
प्रसन्न ो जाए। य न ीिं कक उबकाई आने लगे। अभी क दाँ ,ू तो ततनक उठें ।
अच्छा, मुन्नी नीिंद से अलग क्यों खड़ी ै?

उसने मुन्नी के पास जाकर न दॉँ में झ का।


ॉँ दग
ु न्
ष ि आ र ी थी। ठीक! मालूम
ोता ै , म ीनों से पानी ी न ीिं बदला गया। इस तर तो गाय र चुकी। अपना
पेट भर मलया, छुट्टी ु ई, और ककसी से क्या मतलब? ,िं सबको अच्छा लगता ै।
दादा द्वार पर बैठे धचलम पी र े ैं , व भी तीन कौड़ी का। खाने को डेढ़ सेर;
काम करते नानी मरती ै । आज आता ै तो पूछती ू ाँ , न दॉँ में पानी क्यों न ीिं
बदला। र ना ो, र े या जाए। आदमी ब ु त ममलें गे। चारों ओर तो लोग मारे -मारे
किर र े ैं।

आखखर उससे न र ा गया। घड़ा उठाकर पानी लाने चली।


मशवदास ने पक
ु ारा-पानी क्या ोगा ब ू ाँ ? इसमें पानी भरा ु आ ै।

प्यारी ने क ा-न दॉँ का पानी सड़ गया ै । मुन्नी भूसे में मुिं न ीिं डालती। दे खते
न ीिं ो, कोस-भर पर खड़ी ै।

मशवदास माममषक भाव से मुस्कराए और आकर ब ू के ाथ से घड़ा ले मलया।

कई म ीने बीत गए। प्यारी के अधिकार मे आते ी उस घर मे जैसे वसिंत आ


गया। भीतर-बा र ज िं दे खखए, ककसी तनपुण प्रबिंिक के स्तकौशल, सुववचार और
सुरूधच के धचन् हदखते थे। प्यारी ने ग ृ यिंत्र की ऐसी चाभी कस दी थी कक सभी
पुरजे ठीक-ठाक चलने लगे थे। भोजन प ले से अच्छा ममलता ै और समय पर
ममलता ै । दि
ू ज्यादा ोता ै , घी ज्यादा ोता ै , और काम ज्यादा ोता ै।
प्यारी न खद
ु ववश्राम लेती ै , न दस
ू रों को ववश्राम लेने दे ती ै । घर में ऐसी
बरकत आ गई िं घर
ै कक जो चीज म गो, ी में तनकल आती ै । आदमी से
लेकर जानवर तक सभी स्वस्थ हदखाई दे ते ैं। अब व प ले की-सी दशा न ीिं
ै कक कोई धचथड़े लपेटे घूम र ा ै , ककसी को ग ने की िुन सवार ै। िं अगर

कोई रूग्ण और धचिंततत तथा ममलन वेर् में ै , तो व प्यारी ै ; किर भी सारा घर
उससे जलता ै। य िं तक कक बूढ़े मशवदास भी कभी-कभी उसकी बदगोई करते

ैं। ककसी को प र रात र े उठना अच्छा न ीिं लगता। मे नत से सभी जी चरु ाते
ैं। किर भी य सब मानते ैं कक प्यारी न ो, तो घर का काम न चले। और
तो और, दोनों ब नों में भी अब उतना अपनापन न ीिं।

प्रात:काल का समय था। दल


ु ारी ने ाथों के कड़े लाकर प्यारी के सामने पटक
हदये और भन्
ु नाई ु ई बोली-लेकर इसे भी भण्डारे में बिंद कर दे ।
प्यारी ने कड़े उठा मलये और कोमल स्वर से क ा-क तो हदया, ाथ में रूपये
आने दे , बनवा दिं ग
ू ी। अभी ऐसा तघस न ीिं गया ै कक आज ी उतारकर िेंक
हदया जाए।

दल
ु ारी लड़ने को तैयार ोकर आयी थी। बोली-तेरे ाथ मिं का े को कभी रूपये
आऍगेिं और का े को कड़े बनें गे। जोड़-तोड़ रखने में मजा आता ै न?

प्यारी ने ॅंसकर क ा-जोड-तोड़ रखती ू ाँ तो तेरे मलए कक मेरे कोई और बैठा

ुआ ै , कक मैं सबसे ज्यादा खा-प न लेती ू ाँ। मेरा अनन्त कब का टूटा पड़ा ै।

दल
ु ारी-तुम न खाओ-न प नो, जस तो पाती ो। य िं खाने-प नने के मसवा और

क्या ै ? मैं तुम् ारा ह साब-ककताब न ीिं जानती, मेरे कड़े आज बनने को भेज दो।

प्यारी ने सरल ववनोद के भाव से पूछा-रूपये न ों, तो क ॉँ से लाऊिं?

दल
ु ारी ने उद्दिंडता के साथ क ा-मझ
ु े इससे कोई मतलब न ीिं। मैं तो कड़े चा ती

ू ाँ।

इसी तर घर के सब आदमी अपने-अपने अवसर पर प्यारी को दो-चार खोटी-


खरी सन
ु ा जाते थे, और व गरीब सबकी िौंस ाँसकर स ती थी। स्वाममनी का
य िमष ै कक सबकी िौंस सुन ले और करे व ीिं, त्जसमें घर का कल्याण ो!
स्वाममतव के कवच पर िौंस, ताने, िमकी ककसी का असर न ोता। उसकी
स्वाममनी की कल्पना इन आघातों से और भी स्वस्थ ोती थी। व ग ृ स्थी की
सिंचामलका ै । सभी अपने-अपने द:ु ख उसी के सामने रोते ैं, पर जो कुछ व
करती ै, व ी ोता ै । इतना उसे प्रसन्न करने के मलए कािी था। ग वॉँ में
प्यारी की सरा ना ोती थी। अभी उम्र ी क्या ै , लेककन सारे घर को साँभाले

ुए ै । चा ती तो सगाई करके चैन से र ती। इस घर के पीछे अपने को ममटाए


दे ती ै । कभी ककसी से ाँसती-बोलती भी न ीिं, जैसे काया पलट ो गई।
कई हदन बाद दल
ु ारी के कड़े बनकर आ गए। प्यारी खद
ु सन
ु ार के घर दौड़-दौड़
गई।

सिंध्या ो गई थी। दल
ु ारी और मथुरा ाट से लौटे । प्यारी ने नये कड़े दल
ु ारी को
हदये। दल
ु ारी तन ाल ो गई। चटपट कड़े प ले और दौड़ी ु ई बरौठे में जाकर
मथरु ा को हदखाने लगी। प्यारी बरौठे के द्वार पर तछपी खड़ी य दृश्य दे खने
लगी। उसकी ऑ िंखें सजल ो गईं। दल
ु ारी उससे कुल तीन ी साल तो छोटी ै!
पर दोनों में ककतना अिंतर ै । उसकी ऑ िंखें मानों उस दृश्य पर जम गईं, दम्पतत
का व सरल आनिंद, उनका प्रेमामलिंगन, उनकी मुग्ि मुद्रा-प्यारी की टकटकी-सी
बाँि गई, य ॉँ तक तक दीपक के िुि
ाँ ले प्रकाश में वे दोनों उसकी नजरों से
गायब ो गए और अपने ी अतीत जीवन की एक लीला ऑ िंखों के सामने बार-
बार नए-नए रूप में आने लगी।

स सा मशवदास ने पुकारा-बड़ी ब ू ! एक पैसा दो। तमाखू मॅंगवाऊिं।

प्यारी की समाधि टूट गई। ऑ िंसू पोंछती ु ई भिंडारे में पैसा लेने चली गई।

एक-एक करके प्यारी के ग ने उसके ाथ से तनकलते जाते थे। व चा ती थी,


मेरा घर ग विं में सबसे सम्पन्न समझा जाए, और इस म तवाकािंक्षा का मूल्य
दे ना पड़ता था। कभी घर की मरम्मत के मलए और कभी बैलों की नयी गोई
खरीदने के मलए, कभी नातेदारों के व्यव ारों के मलए, कभी बैलों का नयी गोई
खरीदने के मलए, कभी नातेदारों के व्यव ारों के मलए, कभी बबमारों की दवा-दारू
के मलए रूपये की जरूरत पड़ती र ती थी, और जब ब ु त कतरब्योंत करने पर
भी काम न चलता तो व अपनी कोई-न-कोई चीज तनकाल दे ती। और चीज एक
बार ाथ से तनकलकर किर न लौटती थी। व चा ती, तो इनमें से ककतने ी
खचों को टाल जाती; पर ज िं इज्जत की बात आ पड़ती थी, व हदल खोलकर
खचष करती। अगर ग विं में े ठी ो गई, तो क्या बात र ी! लोग उसी का नाम तो
िरें गे। दल
ु ारी के पास भी ग ने थे। दो-एक चीजें मथुरा के पास भी थीिं, लेककन
प्यारी उनकी चीजें न छूती। उनके खाने-प नने के हदन ैं। वे इस जिंजाल में
क्यों िॅंसें!

दल
ु ारी को लड़का ु आ, तो प्यारी ने िूम से जन्मोतसव मनाने का प्रस्ताव ककया।
मशवदास ने ववरोि ककया-क्या िायदा? जब भगवान ् की दया से सगाई-ब्या के
हदन आऍगेिं , तो िम
ू -िाम कर लेना।

प्यारी का ौसलों से भरा हदल भला क्यों मानता! बोली-कैसी बात क ते ो


दादा? प लौठे लड़के के मलए भी िम
ू -िाम न ु ई तो कब ोगी? मन तो न ीिं
मानता। किर दतु नया क्या क े गी? नाम बड़े, दशषन थोड़े। मैं तुमसे कुछ न ीिं
िं
म गती। अपना सारा सरिं जाम कर लूिंगी।

‘ग नों के माथे जाएगी, और क्या!’ मशवदास ने धचिंततत ोकर क ा-इस तर एक


हदन िागा भी न बचेगा। ककतना समझाया, बेटा, भाई-भौजाई ककसी के न ीिं ोते।
अपने पास दो चीजें र ें गी, तो सब मुिं जो ें गे; न ीिं कोई सीिे बात भी न करे गा।

प्यारी ने ऐसा मिंु बनाया, मानो व ऐसी बढ़


ू ी बातें ब ु त सन
ु चक
ु ी ै , और
बोली-जो अपने ैं, वे भी न पछ
ू ें , तो भी अपने ी र ते ैं। में रा िरम में रे साथ
ै , उनका िरम उनके साथ ै । मर जाऊाँगी तो क्या छाती पर लाद ले जाऊिंगी?

िम
ू -िाम से जन्मोतसव मनाया गया। बार ी के हदन सारी बबरादरी का भोज
िं ऑ िंगन में एक टाट
ु आ। लोग खा-पीकर चले गये, प्यारी हदन-भर की थकी-म दी
का टुकड़ा बबछाकर कमर सीिी करने लगी। ऑ िंखें झपक गई। मथुरा उसी वक्त
घर में आया। नवजात पुत्र को दे खने के मलए उसका धचतत व्याकुल ो र ा था।
दल
ु ारी सौर-ग ृ से तनकल चुकी थी। गभाषवस्था में उसकी दे क्षीण ो गई थी,
मुिं भी उतर गया था, पर आज स्वस्थता की लामलमा मुख पर छाई ु ई थी।
सौर के सिंयम और पौत्ष्टटक भोजन ने दे को धचकना कर हदया था। मथरु ा
उसे ऑ िंगन में दे खते ी समीप आ गया और एक बार प्यारी की ओर ताककर
उसके तनद्रामग्न ोने का तनश्चय करके उसने मशशु को गोद में ले मलया और
उसका मिंु चूमने लगा।

आ ट पाकर प्यारी की ऑ िंखें खुल गई; पर उसने लीिंद का ब ाना ककया और


अिखल
ु ी ऑ िंखों से य आनन्द-कक्रड़ा दे खने लगी। माता और वपता दोनों बारी-
बारी से बालक को चम
ू ते, गले लगाते और उसके मख
ु को तन ारते थे। ककतना
स्वगीय आनन्द था! प्यारी की तवृ र्त लालसा एक क्षण के मलए स्वाममनी को
भूल गई। जैसे लगाम मुखबद्ध बोझ से लदा ु आ, िं
कने वाले के चाबुक से
पीडडत, दौड़ते-दौड़ते बेदम तुरिंग ह नह नाने की आवाज सुनकर कनौततय िं खड़ी
कर लेता ै और पररत्स्थतत को भूलकर एक दबी ु ई ह नह ना ट से उसका
जवाब दे ता ै , कुछ व ी दशा प्यारी की ु ई। उसका माततृ व की जो वपिंजरे में
बन्छ, मक
ू , तनश्चेष्ट पड़ा ु आ र्थज्ञा, समीप से आनेवाली माततृ व की च कार
सुनकर जैसे जाग पड़ा और धचनताओिं के उस वपिंजरे से तनकलने के मलए पिंख
िड़िड़ाने लगा।

मथरु ा ने क ा-य मेरा लड़का ै।

ु ारी ने बालक को गोद में धचपटाकर क ा- ,िं क्यों न ीिं। तुम् ीिं ने तो नौ म ीने
दल
पेट में रखा ॉँ
ै । स सत तो मेरी ु ई, बाप क लाने के मलए तम
ु कूद पड़े।

मथुरा-मेरा लड़का न ोता, तो मेरी सूरत का क्यों ोता। चे रा-मो रा, रिं ग-रूप सब
मेरा ी-सा ै कक न ीिं?

दल
ु ारी-इससे क्या ोता ै । बीज बतनये के घर से आता ै । खेत ककसान का
ोता ै । उपज बतनये की न ीिं ोती, ककसान की ोती ै।

मथुरा-बातों में तुमसे कोई न जीतेगा। मेरा लड़का बड़ा ो जाएगा, तो मैं द्वार
पर बैठकर मजे से ु क्का वपया करूिंगा।
दल
ु ारी-मेरा लड़का पढ़े -मलखेगा, कोई बड़ा ु द्दा पाएगा। तम्
ु ारी तर हदल-भर बैल
के पीछे न चलेगा। मालककन का क ना ै , कल एक पालना बनवा दें ।

मथुरा-अब ब ु त सबेरे न उठा करना और छाती िाड़कर काम भी न करना।

दल
ु ारी—य म ारानी जीने दें गी?

मथरु ा-मझ
ु े तो बेचारी पर दया आती ै । उसके कौन बैठा ु आ ै ? मीिं लोगों के
मलए मरती ै । भैया ोते, तो अब तक दो-तीन बच्चों की म िं ो गई ोती।

प्यारी के किंठ में ऑ िंसओ


ु िं का ऐसा वेग उठा कक उसे रोकने में सारी दे क पिं
उठी। अपना विंधचत जीवन उसे मरूस्थल-सा लगा, त्जसकी सख
ू ी रे त पर व रा-
भरा बाग लगाने की तनष्िल चेष्टा कर र ी थी।

कुछ हदनों के बाद मशवदतत भी मर गया। उिर दल


ु ारी के दो बच्चे और ु ए।
व भी अधिकतर बच्चों के लालन-पालन में व्यस्त र ने लगी। खेती का काम
मजदरू ों पर आ पड़ा। मथुरा मजदरू तो अच्छा था, सिंचालक अच्छा न था। उसे
स्वतिंत्र रूप से काम लेने का कभी अवसर न ममला। खुद प ले भाई की तनगरानी
में काम करता र ा। बाद को बाप की तनगरानी के काम करने लगा। खेती का
तार भी न जानता था। व ी मजूर उसके य िं हटकते थे, जो मे नत न ीिं, खुशामद

करने में कुशल ोते थे, इसमलए प्यारी को अब हदन में दो-चार चक्कर ार के
भी लगाना पड़ता। क ने को अब व अब भी मालककन थी, पर वास्तव में घर-
भर की सेववका थी। मजूर भी उससे तयोररय ॉँ बदलते, जमीिंदार का प्यादा भी उसी
पर िौंस जमाता। भोजन में ककिायत करनी पड़ती; लड़कों को तो जीतनी बार
म गेिं , उतनी बार कुछ-न-कुछ चाह ए। दल
ु ारी तो लड़कौरी थी, उसे भरपूर भोजन
चाह ए। मथुरा घर का सरदार था, उसके इस अधिकार को कौन छीन सकता था?
मजरू भला क्यों ररयायत करने लगे थे। सारी कसर प्यारी पर तनकलती थी।
व ी एक िालतू चीज थी; अगर आिा पेट खाए, तो ककसी को ातन न ो सकती
थी। तीस वर्ष की अवस्था में उसके बाल पक गए, कमर झक
ु गई, ऑ िंखों की
जोत कम ो गई; मगर व प्रसन्न थी। स्वाममतव का गौरव इन सारे जख्मों पर
मर म का काम करता था।

एक हदन मथरु ा ने क ा-भाभी, अब तो क ीिं परदे श जाने का जी ोता ै। य िं तो

कमाई में बरकत न ीिं। ककसी तर पेट की रोटी चल जाती ै। व भी रो-िोकर।


कई आदमी पूरब से आये ैं। वे क ते ैं , व िं दो-तीन रूपये रोज की मजदरू ी ो
जाती ै । चार-प चिं साल भी र गया, तो मालामाल ो जाऊिंगा। अब आगे लड़के-
बाले ु ए, इनके मलए कुछ तो करना ी चाह ए।
दल
ु ारी ने समथषन ककया- ाथ में चार पैसे ोंगे, लड़कों को पढ़ाऍगेिं -मलखाऍगेिं ।
मारी तो ककसी तर कट गई, लड़कों को तो आदमी बनाना ै।

प्यारी य प्रस्ताव सुनकर अवाक् र गई। उनका मुिं ताकने लगी। इसके प ले
इस तर की बातचीत कभी न ु ई थी। य िन
ु कैसेट सवार ो गई? उसे सिंदे

ु आ, शायद मेरे कारण य भावना उतपन्न ु ई। बोली-मैं तो जाने को न क ू ाँगी,


आगे जैसी इच्छा ो। लड़कों को पढ़ाने-मलखाने के मलए य ािं भी तो मदरसा ै।
किर क्या तनतय य ी हदन बने र ें गे। दो-तीन साल भी खेती बन गई, तो सब
कुछ ो जाएगा।

मथुरा-इतने हदन खेती करते ो गए, जब अब तक न बनी, तो अब क्या बन


जाएगी! इस तर एक हदन चल दें गे, मन-की-मन में र जाएगी। किर अब
पौरूख भी तो थक र ा ै द्य य खेती कौन सिंभालेगा। लड़कों को मैं चक्की में
जोतर उनकी त्जन्दगी न ीिं खराब करना चा ता।

प्यारी ने ऑ िंखों में ऑ िंसू लाकर क ा-भैया, घर पर जब तक आिी ममले, सारी के


मलए न िावना चाह ए, अगर मेरी ओर से कोई बात ो, तो अपना घर-बार अपने
ाथ में करो, मुझे एक टुकड़ा दे दे ना, पड़ी र ूिं गी।
मथरु ा आद्रष किंठ ोकर बोला- भाभी, य तम
ु क्या क ती ो। तम्
ु ारे ी सॅंभाले
य घर अब तक चला ै , न ीिं रसातल में चला गया ोता। इस धगरस्ती के पीछे
तुमने अपने को ममटटी में ममला हदया, अपनी दे घुला डाली। मैं अिंिा न ीिं ूिं ।
सब कुछ समझता ुिं । म लोगों को जाने दो। भगवान ने चा ा, तो घर वपर
सिंभल जायगा। तुम् ारे मलए म बराबर खरच-बरच भेजते र ें गे।

प्यारी ने क ा-ऐसी ी िं
ै तो तुम चले जाआ, बाल-बच्चों को क -क िं ब िेिं

वपरोगे।

दल
ु ारी बोली-य कैसे ो सकता ै ब न, य िं दे ात में लड़के पढ़े -मलखेंगे। बच्चों

के बबना इनका जी भी व िं न लगेगा। दौड-दौड़कर घर आऍ िंगे और सारी कमाई

रे ल खा जाएगी। परदे श में अकेले त्जतना खरचा ोगा, उतने में सारा घर आराम
से र े गा।
प्यारी बोली-तो मैं ी य िं र कर क्या करूिंगी। मुझे भी लेते चलो।

दल
ु ारी उसे साथ ले चलने को तेयार न थी। कुछ हदन का आनिंद उठाना चा ती
थी, अगर परदे श में भी य बिंिन र ा, तो जाने से िायदा ी क्या। बोली-ब न,
तुम चलतीिं तो क्या बात थी, लेककन वपर य िं का कारोबार तो चौपट ो जाएगा।
तुम तो कुछ-न-कुछ दे खभाल करती ी र ोगी।

प्रस्थापन की ततधथ के एक हदन प ले ी रामप्यारी ने रात-भर जागकर लुआ


और पूररय िं पकायीिं। जब से इस घर में आयी, कभी एक हदन के मलए अकेले
र ने का अवसर न ीिं आया। दोनों ब नें सदा साथ र ीिं। आज उस भयिंकर
अवसर को सामने आते दे खकर प्यारी का हदल बैठा जाता था। व दे खती थी,
मथुरा प्रसन्न ै , बाल-वन्ृ द यात्रा के आनिंद में खाना-पीना तक भूले ु ए ैं, तो
उसके जी में आता, व िं तनद्षवन्द र े , मो
भी इसी भ तत और ममता को पैरों से
कुचल डाले, ककन्तु व ममता त्जस खाद्य को खा-खाकर पली थी, उसे अपने
सामने से टाए जाते दे खकर क्षुब्ि ोने से न रूकती थी, दल
ु ारी तो इस तर
तनश्त् चिंत ोकर बैठी थी, मानो कोई मेला दे खने जा र ी ै । नई-नई चीजों को
दे खने, नई दतु नया में ववचरने की उतसुक्ता ने उसे कक्रयाशून्य-सा कर हदया था।
प्यारी के मसरे सारे प्रबिंि का भार था। िोबी के घर सेसब कपड़े आए ैं , या न ीिं,
कौन-कौन-से बरतन साथ जाऍगेिं , सिर-खचष के मलए ककतने रूपये की जरूरत
िं आ र ी थी, दस
ोगी। एक बच्चे को ख सी ू रे को कई हदन से दस्त आ र े थे,
उन दोनों की और्धियों को पीसना-कूटना आहद सैकड़ों ी काम व्यस्त ककए ु ए
थे। लड़कौरी न ोकर भी व बच्चों के लालन-पोर्ण में दल
ु ारी से कुशल थी।
‘दे खो, बच्चों को ब ु त मारना-पीटना मत। मारने से बच्चे त्जद्दी या बे या ो
जाते ैं। बच्चों के साथ आदमी को बच्चा बन जाना पड़ता ै । जो तम
ु चा ो कक
म आराम से पड़े र ें और बच्चे चुपचाप बैठे र ें , ाथ-पैर न ह लाऍ िं, तो य ो
न ीिं सकता। बच्चे तो स्वभाव के चिंचल ोते ैं। उन् ें ककसी-न-ककसी काम में
िॅंसाए रखो। िेले का खखलौना जार घुड़ककयों से बढ़कर ोता ै । ‘ दल
ु ारी इन
उपदे शों को इस तर बेमन ोकर सुनती थी, मानों कोई सनककर बक र ा ो।

ववदाई का हदन प्यारी के मलए परीक्षा का हदन था। उसके जी में आता था क ीिं
चली जाए, त्जसमें व दृश्य दे खना न पड़े। ािं। घड़ी-भर में य घर सूना ो
जाएगा। व हदन-भर घर में अकेली पड़ी र े गी। ककससे ॅंसेगी-बोलेगी। य
सोचकर उसका हृदय क पिं जाता था। ज्यों-ज्यों समय तनकट आता था, उसकी
वतृ तयािं मशधथल ोती जातीिं थीिं।व कोई काम करते-करते जैसे खो जाती थी और
अपलक नेत्रों से ककसी वस्तु को ताकने लगती। कभी अवसर पाकर एकािंत में
जाकर थोड़ा-सा रो आती थी। मन को समझा र ी थी, व लोग अपने ोते तो
क्या इस तर चले जाते। य तो मानने का नाता ै , ककसी पर कोई जबरदस्ती
ै । दस
ू रों के मलए ककतना ी मरो, तो भी अपने न ीिं ोते। पानी तेल में ककतना
ी ममले, वपर भी अलग ी र े गा।

बच्चे नए-नए कुरते प ने, नवाब बने घूत र े थे। प्यारी उन् ें प्यार करने के मलए
गोद लेना चा ती, तो रोने का-सा मुिं बनाकर छुड़ाकर भाग जाते। व क्या
जानती थी कक ऐसे अवसर पर ब ु िा अपने बच्चे भी तनष्ठुर ो जाते ैं।
दस बजते-बजते द्वार पर बैलगाड़ी आ गई। लउ़के प ले ी से उस पर जा बैठे।
ग विं के ककतने स्त्री-परू
ु र् ममलने आये। प्यारी को इस समय उनका आना बरु ा
लग र ा था। व दल
ु ारी से थोड़ी दे र एकािंत गले ममलकर रोना चा ती थी, मथुरा
से ाथ जोड़कर क ना चा ती थी, में री खोज-खबर लेते र ना, तुम् ारे मसवा में रा
सिंसार में कौन ै , लेककन इस भम्भड़ में उसको इन बातों का मौका न ममला।
मथुरा और दल
ु ारी दोनों गाड़ी में जा बैठे और प्यारी द्वार पर रोती खड़ी र
गई। व इतनी ववहृवल थी कक ग विं के बा र तक प ुिं चाने की भी उसे सधु ि न
र ी।

कई हदन तक प्यारी मूतछष त भी पड़ी र ी। न घर से तनकली, न चुल् ा जलाया, न


ाथ-मिंु िोया। उसका लवा ा जोखू बार-बार आकर क ता ‘मालककन, उठो, मिंु -
ाथ िाओ, कुछ खाओ-वपयो। कब तक इस तर पड़ी र ोगी। इस तर की
तसल्ली ग विं की और स्त् त्रय िं भी दे ती थीिं। पर उनकी तसल्ली में एक प्रकार
की ईष्याष का भाव तछपा ु आ जान पड़ता था।

जोखू के स्वर में सच्ची स ानभ


ु तू त झलकती थी। जोखू कामचोर, बातन
ू ी और
िं
नशेबाज था। प्यारी उसे बराबर ड टती र ती थी। दो-एक बार उसे तनकाल भी
चुकी थी। पर मथुरा के आग्र से वपर रख मलया था। आज भी जोखू की
स ानुभूतत-भरी बातें सुनकर प्यारी झुिंझलाती, य काम करने क्यों न ीिं जाता।
य िं मेरे पीछे क्यों पड़ा ु आ ै , मगर उसे खझड़क दे ने को जी न चा ता था। उसे
उस समय स ानभ ू थी। िल क टेिं दार वक्ष
ु तू त की भख ृ से भी ममलें तो क्या उन् ें
छोड़ हदया जाता ै।

िीरे -िीरे क्षोभ का वेग कम ु आ। जीवन में व्यापार ोने लगे। अब खेती का
सारा भार प्यारी पर था। लोगों ने सला दी, एक ल तोड़ दो और खेतों को उठा
दो, पर प्यारी का गवष यों ढोल बजाकर अपनी पराजय सवीकार न करना था।
सारे काम पूवव
ष त ् चलने लगे। उिर मथुरा के धचट्ठी-पत्री न भेजने से उसके
अमभमान को और भी उततेजना ममली। व समझता ै , मैं उसके आसरे बैठी ुिं ,
उसके धचट्ठी भेजने से मझ
ु े कोई तनधि न ममल जाती। उसे अगर मेरी धचन्ता
न ीिं ै , तो मैं कब उसकी परवा करती ूिं ।

घर में तो अब ववशेर् काम र ा न ीिं, प्यारी सारे हदन खेती-बारी के कामों में
लगी र ती। खरबज
ू े बोए थे। व खब
ू िले और खब
ू बबके। प ले सारा दि
ू घर
में खचष ो जाता था, अब बबकने लगा। प्यारी की मनोवत्ृ ततयों में ी एक ववधचत्र
पररवतषन आ गया। व िं
अब साि कपड़े प नती, म ग-चोटी की ओर से भी उतनी
उदासीन न थी। आभूर्णों में भी रूधच ु ई। रूपये ाथ में आते ी उसने अपने
धगरवी ग ने छुड़ाए और भोजन भी सिंयम से करने लगी। सागर प ले खेतों को
सीिंचकर खद
ु खाली ो जाता था। अब तनकास की नामलय िं बन्द ो गई थीिं।
सागर में पानी जमा ोने लगा और उसमें ल्की- ल्की ल रें भी थीिं, खखले ुए
कमल भी थे।

एक हदन जोखू ार से लौटा, तो अिंिेरा ो गया था। प्यारी ने पछ


ू ा- अब तक
व िं क्या करता र ा?

जोखू ने क ा-चार क्याररय िं बच र ी थी। मैनें सोचा, दस मोट और खीिंच दिं ।ू कल


का झिंझट कौन रखे?

जोखू अब कुछ हदनों से काम में मन लगाने लगा था। जब तक मामलक उसके
मसर पर सवार र ते थे, व ीले-ब ाने करता था। अब सब-कुछ उसके ाथ में
था। प्यारी सारे हदन ार में थोड़ी ी र सकती थी, इसमलए अब उसमें
त्जम्मेदारी आ गई थी।

प्यारी ने लोटे का पानी रखते ु ए क ा-अच्छा, ाथ मूिं िो डालो। आदमी जान


रखकर काम करता ै , ाय- ाय करने से कुछ न ीिं ोता। खेत आज न ोते, कल
ोते, क्या जल्दी थी।
जोखू ने समझा, प्यारी बबगड़ र ी ै । उसने तो अपनी समझ में कारगज
ु ारी की
थी और समझा ा था, तारीि ोगी। य िं आलोचना ु ई। धचढ़कर बोला-मालककन,

दा ने-बायें दोनो ओर चलती ो। जो बात न ीिं समझती ो, उसमें क्यों कूदती


ो? कल के मलए तो उिं चवा के खेत पड़े सूख र े ैं। आज बड़ी मुसककल से कुऑ िं
खालीद ु आ। सवेरे मैं प ूिं चता, तो कोई और आकर न छें क लेता? किर अठवारे
तक र दे खनी पड़ती। तक तक तो सारी उख बबदा ो जाती।

प्यारी उसकी सरलता पर ॅंसकर बोली-अरे , तो मैं तुझे कुछ क थोड़ी र ी ूिं ,
पागल। मैं तो क ती ूिं कक जान रखकर काम कर। क ीिं बबमार पड़ गया, तो
लेने के दे ने पड़ जाऍगेिं ।

जोखू-कौन बीमार पड़ जाएगा, मै? बीस साल में कभी मसर तक तो दख
ु ा न ीिं,
आगे की न ीिं जानता। क ो रात-भर काम करता र ूिं ।

प्यारी-मैं क्या जानूिं, तुम् ीिं अिंतरे हदन बैठे र ते थे, और पूछा जाता था तो क ते
थे-जुर आ गया था, पेट में दरद था।

जोखू झेंपता ु आ बोला- व बातें जब थीिं, जब मामलक लोग चा ते थे कक इसे


पीस डालें । अब तो जानता ूिं, मेरे ी माथे ैं। मैं न करूिंगा तो सब चौपट ो
जाएगा।
प्यारी-मै क्या दे ख-भाल न ीिं करती?

जोखू-तुम ब ु त करोगी, दो बेर चली जाओगी। सारे हदन तुम व ॉँ बैठी न ीिं र
सकतीिं।

प्यारी को उसके तनष्कपट व्यव ार ने मग्ु ि कर हदया। बोली-तो इतनी रात गए


चूल् ा जलाओगे। कोई सगाई क्यों न ी कर लेते?
जोखू ने माँु िोते ु ए क ा-तम
ु भी खब
ू क ती ो मालककन! अपने पेट-भर को
तो ोता न ीिं, सगाई कर लाँ !ू सवा सेर खाता ू ाँ एक जन
ू परू ा सवा सेर! दोनों
जून के मलए दो सेर चाह ए।

प्यारी-अच्छा, आज मेरी रसोई में खाओ, दे खूाँ ककतना खाते ो?

जोखू ने पुलककत ोकर क ा- न ीिं मालककन, तुम बनाते-बनाते थक जाओगी। ,ॉँ


आि-आि सेर के दो रोटा बनाकर खखला दों, तो खा लाँ ।ू मैं तो य ी करता ू ाँ।
बस, आटा सानकर दो मलट बनाता ू ाँ ओर उपले पर सेंक लेता ू ाँ। कभी मठे से,
कभी नमक से, कभी प्याज से खा लेता ू ाँ ओर आकर पड़ र ता ू ाँ।

प्यारी-मैं तुम् े आज िूलके खखलाऊाँगी।

जोखू-तब तो सारी रात खाते ी बीत जाएगी।

प्यारी-बको मत, चटपट आकर बैठ जाओ।

जोखू-जरा बैलों को सानी-पानी दे ता जाऊाँ तो बैठूाँ।

जोखू और प्यारी में ठनी ु ई थी।

प्यारी ने क ा-में क ती ूिं , िान रोपने की कोई जरूरत न ी। झड़ी लग जाए, तो


खेत ड़ब जाए। बखाष बन्द ो जाए, तो खेत सूख जाए। जुआर, बाजरा, सन, अर र
सब तो ें , िान न स ी।

जोखू ने अपने ववशाल किंिे पर िावड़ा रखते ु ए क ा-जब सबका ोगा, तो मेरा
भी ोगा। सबका डूब जाएगा, तो मेरा भी डूब जाएगा। में क्यों ककसी से पीछे
ॉँ बीघा से कम न ीिं रोपा जाता था, बबरजू भैया ने
र ू ाँ ? बाबा के जमाने में प च
उसमें एक-दो बीघे और बढ़ा हदए। मथरु ा ने भी थोड़ा-ब ु त र साल रोजा, तो मैं
ॉँ बीघे से कम न लागाऊाँगा।
क्या सबसे गया-बीता ू ाँ ? में प च

‘तब घर में दो जवान काम करने वाले थे।‘

‘मै अकेला उन दानों के बराबर खाता ू ाँ। दोनों के बराबर काम क्यों न करूाँगा?

‘चल, झठ
ू ा क ीिं का। क ते थे, दो सेर खाता ू ाँ, चार सेर खाता ू ाँ। आि सेर में
र गए।‘

‘एक हदन तौला तब मालम


ू ो।‘

‘तौला ै । बड़े खानेवाले! मै क े दे ती ू ाँ िान न रोपों मजूर ममलें गे न ीिं, अकेल


लकान ोना पड़ेगा।

‘तुम् ारी बला से, मैं ी लकान ू ाँगा न? य दे ककस हदन काम आएगी।‘

प्यारी ने उसके किंिे पर से िावड़ा ले मलया और बोली-तम


ु प र रात से प र
रात तक ताल में र ोगे, अकेले मेरा जी ऊबेगा।

जोखू को ऊबने का अनभ


ु व न था। कोई काम न ो, तो आदमी पड़ कर सो र े ।
जी क्यों ऊबे? बोला-जीऊबे तो सो र नािं मैं घर र ू ाँगा तब तो और जी ऊबेगा। मैं
खाली बेठता ू ाँ तो बार-बार खाने की सूझती े । बातों में दें र ो र ी ै ओर
बादल तघरे आते ैं।

प्यारी ने क ा-अच्छा, कल से जाना, आज बैठो।

जोखू ने माने बिंिन में पड़कर क ा-अच्छा, बैठ गया, क ो क्या क ती ो?

प्यारी ने ववनोद करते ु ए पूछा-क ना क्या े , में तुमसे पूछती ू ाँ, अपनी सगाई
क्यों न ी कर लेते? अकेल मरती ू ाँ। तब एक से दो ो जाऊाँगी।
जोखू शरमाता ु आ बोला-तुमने किर व ी बेबात की बात छे ड़ दी, मालककन!
ककससे सगाई कर लाँ ू य ?ॉँ ऐसी मे ररया लेकर क्या करूाँगा, जो ग नों के मलए
मेरी जान खाती र े ।

प्यारी-य तो तुमने बड़ी कड़ी शतष लगाई। ऐसी औरत क ॉँ ममलेगी, जो ग ने भी


न चा े ?

जोखू-य में थोड़े ी क ता ू ाँ कक व ग ने न चा े , मेरी जान न खाए। तुमने


तो कभी ग नों के मलए ठ न ककया, बत्ल्क अपने सारे ग ने दस
ू रों के ऊपर
लगा हदए।

प्यारी के कपोलों पर ल्का-सा रिं ग आ गया। बोली-अच्छा, ओर क्या च ते ो?

जोखू-में क ने लगाँग
ू ा, तो बबगड़ जाओगी।

प्यारी की ऑ िंखों में लज्जा की एक रे खा नजर आई, बोली-बबगड़ने की बात


क ोगे, तो जरूर बबगडूाँगी।

जोखू-तो में न क ू ाँगा।

प्यारी ने उसे पीछे की ओर ठे लते ु ए क ा-क ोगे कैसे न ीिं, मैं क ला के


छोड़ूाँगी।

जोखू-मैं चा ता ू ाँ कक व तम्
ु ारी तर ो, ऐसी गिंभीर ो, ऐसी ी बातचीत में
चतरु ो, ऐसा ी अच्छा पकाती ो, ऐसी ी ककिायती ो, ऐसी ी ाँसमख
ु ो।
बस, ऐसी औरत ममलेगी, तो करूाँगा, न ीिं इसी तर पड़ा र ू ाँगा।

प्यारी का मख
ु लज्जा से आरकत ो गया। उसने पीछे टकर क ा-तम
ु बड़े
नटखट ो! ाँसी- ाँसी में सब कुछ क गए।
***
ठाकुर का कुआाँ

जोखू ने लोटा मुिं से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई। गिंगी से बोला-य
कैसा पानी ै ? मारे बास के वपया न ीिं जाता। गला सूखा जा र ा ै और तू
सडा पानी वपलाए दे ती ै !

गिंगी प्रततहदन शाम पानी भर मलया करती थी। कुआिं दरू था, बार-बार जाना
मुत्श्कल था। कल व पानी लायी, तो उसमें बू बबलकुल न थी, आज पानी में
बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। जरुर कोई जानवर कुएिं
में धगरकर मर गया ोगा, मगर दस
ू रा पानी आवे क ािं से?

ठाकुर के किंु ए पर कौन चढ़नें दे गा ? दरू से लोग ड टॉँ बताऍगे। सा ू का कुऑ िं


ग वॉँ के उस मसरे पर ै , परन्तु व िं कौन पानी भरने दे गा ? कोई कुऑ िं ग वॉँ में

न ीिं ै।

जोखू कई हदन से बीमार ैं। कुछ दे र तक तो प्यास रोके चुप पड़ा र ा, किर
बोला-अब तो मारे प्यास के र ा न ीिं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बिंद करके पी
लिंू।

गिंगी ने पानी न हदया। खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी,
परिं तु य न जानती थी कक पानी को उबाल दे ने से उसकी खराबी जाती र ती
ैं। बोली-य पानी कैसे वपयोंगे ? न जाने कौन जानवर मरा ैं। कुऍ से मै दस
ू रा
पानी लाए दे ती ू ाँ।

जोखू ने आश्चयष से उसकी ओर दे खा-पानी क से लाएगी ?

ठाकुर और सा ू के दो कुऍ िं तो ैं। क्यो एक लोटा पानी न भरन दें गे?

‘ ाथ-पािंव तड़
ु वा आएगी और कुछ न ोगा। बैठ चप
ु के से। ब्रा म्ण दे वता
आशीवाषद दें गे, ठाकुर लाठी मारे गें, सा ू जी एक पािंच लेगें। गराबी का ददष कौन
समझता ैं ! म तो मर भी जाते ै , तो कोई दआ ॉँ
ु र पर झ कनें न ीिं आता, किंिा
दे ना तो बड़ी बात ै । ऐसे लोग कुएाँ से पानी भरने दें गें ?’

इन शब्दों में कड़वा सतय था। गिंगी क्या जवाब दे ती, ककन्तु उसने व बदबूदार
पानी पीने को न हदया।

रात के नौ बजे थे। थके-म देॉँ मजदरू तो सो चुके थें, ठाकुर के दरवाजे पर दस-
ॉँ बेकिक्रे जमा थें मैदान में। ब ादरु ी का तो न जमाना र ा
पच ै , न मौका।
कानन
ू ी ब ादरु ी की बातें ो र ी थीिं। ककतनी ोमशयारी से ठाकुर ने थानेदार को
एक खास मक
ु दमे की नकल ले आए। नात्जर और मो ततममम, सभी क ते थें ,
ॉँ
नकल न ीिं ममल सकती। कोई पचास म गता, कोई सौ। य बे-पैसे-कौड़ी नकल
उड़ा दी। काम करने ढ़ग चाह ए।

इसी समय गिंगी कुऍ से पानी लेने प ु ाँची।

कुप्पी की िि
ुाँ ली रोशनी कुऍ िं पर आ र ी थी। गिंगी जगत की आड़ मे बैठी मौके
का इिंतजार करने लगी। इस कुाँए का पानी सारा ग विं पीता ैं। ककसी के मलए
रोका न ीिं, मसिष ये बदनसीब न ीिं भर सकते।

गिंगी का ववद्रो ी हदल ररवाजी पाबिंहदयों और मजबूररयों पर चोटें करने लगा- म


क्यों नीच ैं और ये लोग क्यों ऊचें ैं ? इसमलए ककये लोग गले में तागा डाल
लेते ैं ? य तो त्जतने ै , एक-से-एक छॅ टे ैं। चोरी ये करें , जाल-िरे ब ये करें ,
झूठे मुकदमे ये करें । अभी इस ठाकुर ने तो उस हदन बेचारे गड़ररए की भेड़ चुरा
ली थी और बाद मे मारकर खा गया। इन् ीिं पिंडडत के घर में तो बार ों मास
जुआ ोता ै । य ी सा ू जी तो घी में तेल ममलाकर बेचते ै । काम करा लेते ैं,
मजूरी दे ते नानी मरती ै । ककस-ककस बात मे मसे ऊाँचे ैं, म गली-गली
धचल्लाते न ीिं कक म ऊाँचे ै , म ऊाँचे। कभी ग वॉँ में आ जाती ू ाँ, तो रस-भरी
आाँख से दे खने लगते ैं। जैसे सबकी छाती पर स पॉँ लोटने लगता ै , परिं तु घमिंड
य कक म ऊाँचे ैं!

कुऍ िं पर ककसी के आने की आ ट ु ई। गिंगी की छाती िक-िक करने लगी। क ीिं


दे ख ले तो गजब ो जाए। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसाने घड़ा और रस्सी
उठा ली और झक
ु कर चलती ु ई एक वक्ष
ृ के अाँिरे साए मे जा खड़ी ु ई। कब
इन लोगों को दया आती ै ककसी पर ! बेचारे म गू को इतना मारा कक म ीनो
ल ू थूकता र ा। इसीमलए तो कक उसने बेगार न दी थी। इस पर ये लोग ऊाँचे
बनते ैं ?

कुऍ िं पर त्स्त्रयााँ पानी भरने आयी थी। इनमें बात ो र ी थीिं।

‘खान खाने चले और ु क्म ु आ कक ताजा पानी भर लाओिं। घड़े के मलए पैसे
न ीिं ै ।’

म लोगों को आराम से बैठे दे खकर जैसे मरदों को जलन ोती ैं ।’

‘ ााँ, य तो न ु आ कक कलमसया उठाकर भर लाते। बस, ु कुम चला हदया कक


ताजा पानी लाओ, जैसे म लौंडडयााँ ी तो ैं। ’

‘लौडडिंय ॉँ न ीिं तो और क्या ो तुम? रोटी-कपड़ा न ीिं पातीिं ? दस-पााँच रुपये भी


छीन-झपटकर ले ी लेती ो। और लौडडय िं कैसी ोती ैं!’

‘मत लजाओिं, दीदी! तछन-भर आराम करने को ती तरसकर र जाता ै । इतना


काम ककसी दस
ू रे के घर कर दे ती, तो इससे क ीिं आराम से र ती। ऊपर से व
ए सान मानता ! य िं काम करते-करते मर जाओिं, पर ककसी का माँु ी सीिा
न ीिं ोता।’

दोनों पानी भरकर चली गई, तो गिंगी वक्ष


ृ की छाया से तनकली और कुऍ िं की
जगत के पास आयी। बेकिक्रे चले गऐ थें। ठाकुर भी दरवाजा बिंदर कर अिंदर
ऑ िंगन में सोने जा र े थें। गिंगी ने क्षखणक सख
ु की स स ली। ककसी तर मैदान
तो साि ु आ। अमत
ृ चरु ा लाने के मलए जो राजकुमार ककसी जमाने में गया था,
व भी शायद इतनी साविानी के साथ और समझ ्-बूझकर न गया ो। गिंगी दबे
प वॉँ कुऍ िं की जगत पर चढ़ी, ववजय का ऐसा अनुभव उसे प ले कभी न ु आ।

उसने रस्सी का ििंदा घड़े में डाला। दाऍ-बाऍ


िं िं चौकनी दृष्टी से दे खा जैसे कोई
मसपा ी रात को शत्रु के ककले में सूराख कर र ा ो। अगर इस समय व पकड़
ली गई, तो किर उसके मलए मािी या ररयायत की रतती-भर उम्मीद न ीिं। अिंत
मे दे वताओिं को याद करके उसने कलेजा मजबूत ककया और घड़ा कुऍ िं में डाल
हदया।

घड़े ने पानी में गोता लगाया, ब ु त ी आह स्ता। जरा-सी आवाज न ु ई। गिंगी


ने दो-चार ाथ जल्दी-जल्दी मारे ।घड़ा कुऍ िं के माँु तक आ प ु ाँचा। कोई बड़ा
श जोर प लवान भी इतनी तेजी से न खीिंसच सकता था।

गिंगी झुकी कक घड़े को पकड़कर जगत पर रखें कक एकाएक ठाकुर सा ब का


दरवाजा खुल गया। शेर का माँु इससे अधिक भयानक न ोगा।

गिंगी के ाथ रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा िड़ाम से पानी में धगरा और
कई क्षण तक पानी में ह लकोरे की आवाजें सुनाई दे ती र ीिं।

ठाकुर कौन ै , कौन ै ? पक


ु ारते ु ए कुऍ िं की तरि जा र े थें और गिंगी जगत
से कूदकर भागी जा र ी थी।

घर प ु ाँ चकर दे खा कक लोटा मिंु से लगाए व ी मैला गिंदा पानी र ा ै।

***
पूस की राि

ल्कू ने आकर स्त्री से क ा-स ना आया ै । लाओिं, जो रुपये रखे ैं , उसे दे दाँ ,ू
ककसी तर गला तो छूटे ।

मुन्नी झाड़ू लगा र ी थी। पीछे किरकर बोली-तीन ी रुपये ैं, दे दोगे तो कम्मल
क ॉँ से आवेगा? माघ-पूस की रात ार में कैसे कटे गी ? उससे क दो, िसल पर
दे दें गें। अभी न ीिं।

ल्कू एक क्षण अतनमशचत दशा में खड़ा र ा। पूस मसर पर आ गया, कम्बल के
बबना ार मे रात को व ककसी तर सो न ीिं सकता। मगर स ना मानेगा न ीिं ,
घुड़ककयााँ जमावेगा, गामलय िं दे गा। बला से जाड़ों मे मरें गे, बला तो मसर से टल
जाएगी। य सोचता ु आ व अपना भारी-भरकम डील मलए ु ए (जो उसके नाम
को झूठ मसध्द करता था ) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला-दे
दे , गला तो छूटे ।कम्मल के मलए कोई दस
ू रा उपाय सोचाँगा।

मुन्नी उसके पास से दरू ट गई और ऑ िंखें तरे रती ु ई बोली-कर चुके दस


ू रा
उपाय! जरा सुनाँू तो कौन-सा उपाय करोगे ? कोई खैरात दे दे गा कम्मल ? न
जान ककतनी बाकी ै , जों ककसी तर चक
ु ने ी न ीिं आती। मैं क ती ूिं , तम
ु क्यों
न ीिं खेती छोड़ दे ते ? मर-मर काम करों, उपज ो तो बाकी दे दो, चलो छुटटी ु ई।
बाकी चुकाने के मलए ी तो मारा जनम ु आ ैं। पेट के मलए मजूरी करों। ऐसी
खेती से बाज आयें। मैं रुपयें न दाँ ग
ू ी, न दाँ ग
ू ी।

ल्कू उदास ोकर बोला-तो क्या गाली खाऊाँ ?

मुन्नी ने तड़पकर क ा-गाली क्यों दे गा, क्या उसका राज ै ?

मगर य क ने के साथ ् ी उसकी तनी ु ई भौ ें ढ़ीली पड़ गई। ल्कू के उस


वाक्य में जो कठोर सतय था, व ॉँ उसे घरू र ा
मानो एक भीर्ण जिंतु की भ तत
था।

उसने जाकर आले पर से रुपये तनकाले और लाकर ल्कू के ाथ पर रख हदए।


किर बोली-तम
ु छोड़ दो अबकी से खेती। मजरू ी में सख
ु से एक रोटी तो खाने को
ममलेगी। ककसी की िौंस तो न र े गी। अच्छी खेती ै ! मजरू ी करके लाओिं, व
भी उसी में झोंक दो, उस पर िौंस।

ल्कू न रुपयें मलये और इस तर बा र चला, मानो अपना हृदय तनकालकर दे ने


जा र ा ों। उसने मजरू ी से एक-एक पैसा काट-काटकर तीन रुपये कम्बल के
मलए जमा ककए थें। व आज तनकले जा र े थे। एक-एक पग के साथ उसका
मस्तक पानी दीनता के भार से दबा जा र ा था।

पूस की अाँिेरी रात ! आकाश पर तारे भी हठठुरते ु ए मालूम ोते थे। ल्कू
अपने खेत के ककनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे ब स के खटाले पर
अपनी परु ानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा क प र ा था। खाट के नीचे उसका सिंगी
कुतता जबरा पेट मे माँु डाले सदी से काँू -काँू कर र ा था। दो मे से एक को भी
नीिंद न ीिं आ र ी थी।

ल्कू ने घट
ु तनयों कों गरदन में धचपकाते ु ए क ा-क्यों जबरा, जाड़ा लगता ै?

ु ल पर लेट र , तो य ॉँ क्या लेने आये थें ? अब खाओिं


क ता तो था, घर में पआ
ठिं ड, मै क्या करूाँ ? जानते थें, मै। य ॉँ लुआ-पूरी खाने आ र ा ू ाँ , दोड़े-दौड़े आगे -
आगे चले आये। अब रोओ नानी के नाम को।

जबरा ने पड़े-पड़े दम
ु ह लायी और अपनी काँू -काँू को दीघष बनाता ु आ क ा-कल से
मत आना मेरे साथ, न ीिं तो ठिं डे ो जाओगे। यी रािंड पछुआ न जाने क ााँ से
बरि मलए आ र ी ैं। उठूाँ, किर एक धचलम भरूाँ। ककसी तर रात तो कटे !
आठ धचलम तो पी चक
ु ा। य खेती का मजा ैं ! और एक भगवान ऐसे पड़े ैं ,
त्जनके पास जाड़ा आए तो गरमी से घबड़ाकर भागे। मोटे -मोटे गददे , मल ाि,
कम्बल। मजाल ै , जाड़े का गुजर ो जाए। जकदीर की खूबी ! मजूरी म करें ,
मजा दस
ू रे लूटें !

ल्कू उठा, गड्ढ़े मे से जरा-सी आग तनकालकर धचलम भरी। जबरा भी उठ बैठा।

ल्कू ने धचलम पीते ु ए क ा-वपएगा धचलम, जाड़ा तो क्या जाता ैं, ॉँ जरा, मन

बदल जाता ै।

जबरा ने उनके माँु की ओर प्रेम से छलकता ु ई ऑ िंखों से दे खा।

ल्कू-आज और जाड़ा खा ले। कल से मैं य ााँ पुआल बबछा दाँ ग


ू ा। उसी में घुसकर
बैठना, तब जाड़ा न लगेगा।

जबरा ने अपने पिंजो उसकी घट


ु तनयों पर रख हदए और उसके माँु के पास अपना
माँु ले गया। ल्कू को उसकी गमष स स लगी।

धचलम पीकर ल्कू किर लेटा और तनश्चय करके लेटा कक चा े कुछ ो अबकी
सो जाऊाँगा, पर एक ी क्षण में उसके हृदय में कम्पन ोने लगा। कभी इस
ॉँ उसकी छाती को
करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा ककसी वपशाच की भ तत
दबाए ु ए था।

जब ककसी तर न र ा गया, उसने जबरा को िीरे से उठाया और उसक मसर को


थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला मलया। कुतते की दे से जाने कैसी दग
ु ि
ं आ
र ी थी, पर व उसे अपनी गोद मे धचपटाए ु ए ऐसे सुख का अनुभव कर र ा
था, जो इिर म ीनों से उसे न ममला था। जबरा शायद य समझ र ा था कक
स्वगष य ीिं ै , और ल्कू की पववत्र आतमा में तो उस कुतते के प्रतत घण
ृ ा की गिंि
तक न ,थी। अपने ककसी अमभन्न ममत्र या भाई को भी व इतनी ी ततपरता से
गले लगाता। व अपनी दीनता से आ त न था, त्जसने आज उसे इस दशा
कोप ुिं चा हदया। न ीिं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आतमा के सब द्वार खोल
हदए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक र ा था।

स सा जबरा ने ककसी जानवर की आ ट पाई। इस ववशेर् आतमीयता ने उसमे


एक नई स्िूततष पैदा कर र ी थी, जो वा के ठिं डें झोकों को तच्
ु छ समझती थी।
व झपटकर उठा और छपरी से बा र आकर भाँक
ू ने लगा। ल्कू ने उसे कई बार
चुमकारकर बुलाया, पर व उसके पास न आया। ार मे चारों तरि दौड़-दौड़कर
भाँक
ू ता र ा। एक क्षण के मलए आ भी जाता, तो तुरिंत ी किर दौड़ता। कततषव्य
उसके हृदय में अरमान की भााँतत ी उछल र ा था।

एक घिंटा और गुजर गया। रात ने शीत को वा से ििकाना शुरु ककया।

ल्कू उठ बैठा और दोनों घट


ु नों को छाती से ममलाकर मसर को उसमें तछपा
मलया, किर भी ठिं ड कम न ु ई, ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया ैं,
िमतनयों मे रक्त की जग ह म ब र ीिं ै । उसने झुककर आकाश की ओर
दे खा, अभी ककतनी रात बाकी ै ! सप्तवर्ष अभी आकाश में आिे भी न ीिं चढ़े ।
ऊपर आ जाऍगेिं तब क ीिं सबेरा ोगा। अभी प र से ऊपर रात ैं।

ल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था। पतझड़


शुरु ो गई थी। बाग में पत्ततयो को ढे र लगा ु आ था। ल्कू ने सोच, चलकर
पत्ततयों बटोरूाँ और उन् ें जलाकर खूब तापाँू। रात को कोई मुझें पत्ततयों बटारते
दे ख तो समझे, कोई भत
ू ै । कौन जाने, कोई जानवर ी तछपा बैठा ो, मगर अब
तो बैठे न ीिं र जाता।

उसने पास के अर र के खेत मे जाकर कई पौिें उखाड़ मलए और उनका एक


झाड़ू बनाकर ाथ में सल
ु गता ु आ उपला मलये बगीचे की तरि चला। जबरा ने
उसे आते दे खा, पास आया और दम
ु ह लाने लगा।

ल्कू ने क ा-अब तो न ीिं र ा जाता जबरू। चलो बगीचे में पत्ततयों बटोरकर
तापें । ट टे ो जाऍगेिं , तो किर आकर सोऍगेंिं । अभी तो ब ु त रात ै।

जबरा ने कूाँ-कूाँ करें स मतत प्रकट की और आगे बगीचे की ओर चला।

बगीचे में खब
ू अाँिेरा छाया ु आ था और अिंिकार में तनदष य पवन पत्ततयों को
कुचलता ु आ चला जाता था। वक्ष
ृ ों से ओस की बाँद
ू े टप-टप नीचे टपक र ी थीिं।

एकाएक एक झोंका मे ाँदी के िूलों की खश


ू बू मलए ु ए आया।

ल्कू ने क ा-कैसी अच्छी म क आई जबरू ! तुम् ारी नाक में भी तो सुगिंि आ


र ी ैं ?

जबरा को क ीिं जमीन पर एक डडी पड़ी ममल गई थी। उसे धचिंचोड़ र ा था।

ल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्ततयों बठारने लगा। जरा दे र में


पत्ततयों का ढे र लग गया था। ाथ हठठुरे जाते थें। नगें पािंव गले जाते थें। और
व पत्ततयों का प ाड़ खड़ा कर र ा था। इसी अलाव में व ठिं ड को जलाकर
भस्म कर दे गा।

थोड़ी दे र में अलावा जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वक्ष


ृ की पत्ततयों को छू-
छूकर भागने लगी। उस अत्स्थर प्रकाश में बगीचे के ववशाल वक्ष
ृ ऐसे मालूम ोते
थें, मानो उस अथा अिंिकार को अपने मसरों पर साँभाले ुए ों। अन्िकार के उस
अनिंत सागर मे य प्रकाश एक नौका के समान ह लता, मचलता ु आ जान पड़ता
था।

ल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप र ा था। एक क्षण में उसने दो र उताकर
बगल में दबा ली, दोनों प विं िैला हदए, मानों ठिं ड को ललकार र ा ो, तेरे जी में
आए सो कर। ठिं ड की असीम शत्क्त पर ववजय पाकर व ववजय-गवष को हृदय
में तछपा न सकता था।

उसने जबरा से क ा-क्यों जब्बर, अब ठिं ड न ीिं लग र ी ै ?

जब्बर ने कूाँ-कूाँ करके मानो क ा-अब क्या ठिं ड लगती ी र े गी ?

‘प ले से य उपाय न सझ
ू ा, न ीिं इतनी ठिं ड क्यों खातें ।’

जब्बर ने पाँछ
ू ह लायी।

अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें । दे खें, कौन तनकल जाता ै । अगर
जल गए बचा, तो मैं दवा न करूाँगा।

जब्बर ने उस अत्ग्न-रामश की ओर कातर नेत्रों से दे खा !

मन्
ु नी से कल न क दे ना, न ीिं लड़ाई करे गी।

य क ता ु आ व उछला और उस अलाव के ऊपर से साि तनकल गया। पैरों


में जरा लपट लगी, पर व कोई बात न थी। जबरा आग के धगदष घूमकर उसके
पास आ खड़ा ु आ।

ल्कू ने क ा-चलो-चलों इसकी स ी न ीिं ! ऊपर से कूदकर आओ। व किर कूदा


और अलाव के इस पार आ गया।

पत्ततय ॉँ जल चुकी थीिं। बगीचे में किर अाँिेरा छा गया था। राख के नीचे कुछ-
कुछ आग बाकी थी, जो वा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक
क्षण में किर ऑ िंखे बन्द कर लेती थी !

ल्कू ने किर चादर ओढ़ ली और गमष राख के पास बैठा ु आ एक गीत


गुनगुनाने लगा। उसके बदन में गमी आ गई थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती
थी, उसे आलस्य दबाए लेता था।

जबरा जोर से भाँक


ू कर खेत की ओर भागा। ल्कू को ऐसा मालूम ु आ कक
जानवरों का एक झुण्ड खेत में आया ै । शायद नीलगायों का झुण्ड था। उनके
कूदने-दौड़ने की आवाजें साि कान में आ र ी थी। किर ऐसा मालम
ू ु आ कक
खेत में चर र ीिं ै । उनके चबाने की आवाज चर-चर सन
ु ाई दे ने लगी।

उसने हदल में क ा-न ीिं, जबरा के ोते कोई जानवर खेत में न ीिं आ सकता।
नोच ी डाले। मझ
ु े भ्रम ो र ा ै । क !ॉँ अब तो कुछ न ीिं सन
ु ाई दे ता। मझ
ु े भी
कैसा िोखा ु आ!

उसने जोर से आवाज लगायी-जबरा, जबरा।

जबरा भाँक
ू ता र ा। उसके पास न आया।

किर खेत के चरे जाने की आ ट ममली। अब व अपने को िोखा न दे सका।


उसे अपनी जग से ह लना ज र लग र ा था। कैसा दाँ दाया ु आ बैठा था। इस
जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। व अपनी
जग से न ह ला।

उसने जोर से आवाज लगायी-ह लो! ह लो! ह लो!

जबरा किर भाँक


ू उठा। जानवर खेत चर र े थें। िसल तैयार ैं। कैसी अच्छी
खेती थी, पर ये दष्ु ट जानवर उसका सवषनाश ककए डालते ै।

ल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक वा कस


ऐसा ठिं डा, चभ
ु ने वाला, बबच्छू के डिंक का-सा झोंका लगा कक व किर बझ
ु ते ु ए
अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरे दकर अपनी ठिं डी दे को गमाषने लगा।

जबरा अपना गला िाड़ डालता था, नील गाये खेत का सिाया ककए डालती थीिं
और ल्कू गमष राख के पास शािंत बैठा ु आ था। अकमषण्यता ने रत्स्सयों की
भ तत उसे चारों तरि से जकड़ रखा था।

उसी राख के पस गमष जमीन परद व ी चादर ओढ़ कर सो गया।

सबेरे जब उसकी नीिंद खुली, तब चारों तरि िूप िैली गई थी और मुन्नी की


र ी थी-क्या आज सोते ी र ोगें ? तुम य आकर रम गए और उिर सारा खेत
चौपट ो गया।

ल्कू न उठकर क ा-क्या तू खेत से ोकर आ र ी ै ?

ु नी बोली- ,ॉँ सारे खेत कासतयनाश


मन् ो गया। भला, ऐसा भी कोई सोता ै।
तुम् ारे य माँड़य
ै ा डालने से क्या ु आ ?

ल्कू ने ब ाना ककया-मैं मरते-मरते बचा, तझ


ु े अपने खेत की पड़ी ैं। पेट में ऐसा
दरद ु आ, ऐसा दरद ु आ कक मै न ीिं जानता ू ाँ !

दोनों किर खेत के ड डॉँ पर आयें। दे खा सारा खेत रौदािं पड़ा ु आ ै और जबरा
मॅड़य
ै ा के नीचे धचत लेटा ै , मानो प्राण ी न ों। दोनों खेत की दशा दे ख र े थें।
मन्
ु नी के मख
ु पर उदासी छायी थी, पर ल्कू प्रसन्न था।

मुन्नी ने धचिंततत ोकर क ा-अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।

ल्कू ने प्रसन्न मुख से क ा-रात को ठिं ड में य सोना तो न पड़ेगा।


***
झााँकी

कई हदन से घर में कल मचा ु आ था। मााँ अलग माँु िुलाए बैठी थीिं, स्त्री
अलग। घर की वायु में जैसे ववर् भरा ु आ था। रात को भोजन न ीिं बना, हदन
को मैंने स्टोव पर खखचड़ी डाली: पार खाया ककसी ने न ीिं। बच्चों को भी आज
भख
ू न थी। छोटी लड़की कभी मेरे पास आकर खड़ी ो जाती, कभी माता के
पास, कभी दादी के पास: पर क ीिं उसके मलए प्यार की बातें न थीिं। कोई उसे
गोद में न उठाता था, मानों उसने भी अपराि ककया ो, लड़का शाम को स्कूल से
आया। ककसी ने उसे कुछ खाने को न हदया, न उससे बोला, न कुछ पूछा। दोनों
बरामदे में मन मारे बैठे ु ए थे और शायद सोच र े थे-घर में आज क्यों लोगों
के हृदय उनसे इतने किर गए ैं। भाई-बह न हदन में ककतनी बार लड़ते ैं, रोनी-
पीटना भी कई बार ो जाता ै : पर ऐसा कभी न ीिं ोता कक घर में खाना न
पके या कोई ककसी से बोले न ीिं। य कैसा झगड़ा ै कक चौबीस घिंटे गज
ु र जाने
पर भी शािंत न ीिं ोता, य शायद उनकी समझ में न आता था।

झगड़े की जड़ कुछ न थी। अम्म ॉँ ने मेरी ब न के घर तीजा भेजन के मलए


त्जन सामानों की सच
ू ी मलखायी, व पतनीजी को घर की त्स्थतत दे खते ु ए
अधिक मालूम ु ई। अम्म ॉँ खुद समझदार ैं। उन् ोंने थोड़ी-ब ु त काट-छ टॉँ कर
दी थी: लेककन पतनीजी के ववचार से और काट-छ टॉँ ॉँ
ोनी चाह ए थी। प च
साह ड़यों की जग तीन र ें , तो क्या बुराई ै । खखलौने इतने क्या ोंगे, इतनी
ममठाई की क्या जरुरत! उनका क ा था-जब रोजगार में कुछ ममलता न ीिं,
दै तनरक कायो में खीिंच-तान करनी पड़ती ै , दि
ू -घी के बजट में तकलीि ो गई,
तो किर तीजे में क्यों इतनी उदारता की जाए? प ले घर में हदया जलाकर तब
मसत्जद में जलाते ैं।य न ीिं कक मसत्जद में तो हदया जला दें और घर अाँिेरा
पड़ा र े । इसी बात पर सास-ब ू में तकरार ो गई, किर शाखें िूट तनकलीिं। बात
क ॉँ से क ॉँ जा प ु ाँची, गड़े ु ए मुदे उखाड़े गए। अन्योत्क्तयों की बारी आई,
व्यिंग्य का दौर शुरु ु आ और मौनालिंकार पर समाप्त ो गया।
मैं बड़े सिंकट में था। अगर अम्म ॉँ की तरि से कुछ क ता ू ाँ , तो पतनीजी रोना-
िोना शुरु करती ैं, अपने नसीबों को कोसने लगती ैं: पतनी की-सी क ता ू ाँ तो
जनमुरीद की उपाधि ममलती ै । इसमलए बारी-बारी से दोनों पक्षों का समथषन
करता जाता था: पर स्वाथषवश मेरी स ानुभूतत पतनी के साथ ी थी। खुल कर
अम्म ॉँ से कुछ न क ा सकता थ: पर हदल में समझ र ा था कक ज्यादती इन् ीिं
की ै । दक
ू ान का य ाल ै कक कभी-कभी बो नी भी न ीिं ोती। असाममयों से
टका वसल
ू न ीिं ोता, तो इन परु ानी लकीरों को पीटकर क्यों अपनी जान सिंकट
में डाली जाए!

बार-बार इस ग ृ स्थी के जिंजाल पर तबीयत झाँुझलाती थी। घर में तीन तो प्राणी


ैं और उनमें भी प्रेम भाव न ीिं! ऐसी ग ृ स्थी में तो आग लगा दे नी चाह ए।
कभी-कभी ऐसी सनक सवार ो जाती थी कक सबको छोड़छाड़कर क ीिं भाग
जाऊाँ। जब अपने मसर पड़ेगा, तब इनको ोश आएगा: तब मालूम ोगा कक
ग ृ स्थी कैसे चलती ै । क्या जानता था कक य ववपत्तत झेलनी पड़ेगी न ीिं
वववा का नाम ी न लेता। तर -तर के कुत्तसत भाव मन में आ र े थे। कोई
बात न ीिं, अम्म ॉँ मुझे परे शान करना चा ती ैं। ब ू उनके प वॉँ न ीिं दबाती, उनके
मसर में तेल न ीिं डालती, तो इसमें मेरा क्या दोर्? मैंने उसे मना तो न ीिं कर
हदया ै ! मुझे तो सच्चा आनिंद ोगा, यहद सास-ब ू में इतना प्रेम ो जाए:
लेककन य मेरे वश की बात न ीिं कक दोनों में प्रेम डाल दाँ ।ू अगर अम्म ॉँ ने
अपनी सास की साड़ी िोई ै , उनके प वॉँ दबाए ैं, उनकी घुड़ककय ॉँ खाई ैं, तो
आज व पुराना ह साब ब ू से क्यों चुकाना चा ती ैं ? उन् ें क्यों न ीिं हदखाई
दे ता कक अब समय बदल गया ै ? ब ु ऍ िं अब भयवश सास की गुलामी न ीिं
करतीिं। प्रेम से चा े उनके मसर के बाल नोच लो, लेककन जो रोब हदखाकर उन
पर शासन करना चा ो, तो व हदन लद गए।

सारे श र में जन्माष्टमी का उतसव ो र ा था। मेरे घर में सिंग्राम तछड़ा ु आ


था। सिंध्या ो गई थी: पर घर अिंिेरा पड़ा था। मन ू मसयत छायी ु ई थी। मझ
ु े
अपनी पतनी पर क्रोि आया। लड़ती ो, लड़ो: लेककन घर में अाँिेरा क्यों न रखा
ै ? जाकर क ा-क्या आज घर में धचराग न जलें गे?

पतनी ने माँु िुलाकर क ा-जला क्यों न ीिं लेत।े तुम् ारे ाथ न ीिं ैं?

मेरी दे में आग लग गई। बोला-तो क्या जब तुम् ारे चरण न ीिं आये थे, तब
घर में धचवराग न जलते थे?

अम्म ॉँ ने आग को वा दी-न ीिं, तब सब लोग अाँिेरे ी में पड़े र ते थे।

पतनीजी को अम्म ॉँ की इस हटप्पणी ने जामें के बा र कर हदया। बोलीिं-जलाते


ोंगे ममट्टी की कुप्पी! लालटे न तो मैंने न ीिं दे खी। मझ
ु े इस घर में आये दस
साल ो गए।

मैंने डािंटा-अच्छा चप
ु र ो, ब ु त बढ़ो न ीिं।

‘ओ ो! तुम तो ऐसा ड टॉँ र े ो, जेसे मुझे मोल लाए ो?’

‘मैं क ती ू ाँ , चुप र ो!’

‘क्यों चप
ु र ू ाँ ? अगर एक क ोगे, तो दो सन
ु ोगे।‘

‘इसी सका नाम पततव्रत ै ?’

‘जैसा परास्त ोकर बा र चला आया, और अाँिेरी कोठरी में बैठा ु आ, उस


मन ू स घड़ी को कोसने लगा। जब इस कुलच्छनी से मेरा वववा ु आ था। इस
ॉँ मेरे नेत्रों के सामने
अिंिकार में भी दस साल का जीवन मसनेमा-धचत्रों की भ तत
दौड़ गया। उसमें क ीिं प्रकाश की झलक न थी, क ीिं स्ने की मद
ृ त
ु ा न थी।

2
स सा मेरे ममत्र पिंडडत जयदे वजी ने द्वार पर पक
ु ारा-अरे , आज य अाँिेरा क्यों
कर रखा ै जी? कुछ सझ
ू ती ी न ीिं। क ॉँ ो?

मैंने कोई जवाब न हदया। सोचा, य आज क ॉँ से आकर मसर पर सवार ो


गए।

जयदे व से किर पुकारा-अरे , क ॉँ ो भाई? बोलते क्यों न ीिं? कोई घर में ै या


न ीिं?

क ीिं से कोई जवाब न ममला।

जयदे व ने द्वार को इतनी जोर से झाँझोड़ा कक मझ


ु े भय ु आ, क ीिं दरवाजा
चौखट-बाजू समेत धगर न पड़े। किर भी मैं बोला न ीिं। उनका आना खल र ा
था।

ॉँ ली। बारे शैतान टला, न ीिं घिंटों मसर


जयदे व चले गये। मैंने आराम की स स
खाता।

ॉँ
मगर प च ी ममनट में किर ककसी के पैरो की आ ट ममली और अबकी टाचष के
तीव्र प्रकाश से मेरा सारा कमरा भर उठा। जयदे व ने मझ
ु े बैठे दे खकर कुतू ल से
पूछा-तु क ॉँ गये थे जी? घिंटों चीखा, ककसी ने जवाब तक न हदया। य आज
क्या मामला ै ? धचराग क्यों न ीिं जले?

मैंने ब ाना ककया-क्या जानें , मेरे मसर में ददष था, दक


ू ान से आकर लेते, तो नीिंद
आ गई

‘और सोए तो घोड़ा बेचकर, मद


ु ो से शतष लगाकर?’

‘ ॉँ यार, नीिंद आ गई।’


‘मगर घर में धचराग तो जलाना चाह ए था या उसका रररें चमें ट कर हदया?’

‘आज घर में लोग व्रत से ैं न। ाथ न खाली ोगा।’

ॉँ दे खने चलते
‘खैर चलो, क ीिं झ की ॉँ बनी
ो? सेठ घूरेमल के मिंहदर में ऐसी झ की
ै कक दे खते ी बनता ै । ऐसे -ऐसे शीशे और बबजली के सामान सजाए ैं कक
ऑ िंखें झपक उठती ैं। मसिं ासन के ठीक सामने ऐसा िौ ारा लगाया ै कक उसमें
से गुलाबजल की ि ारें तनकलती ैं। मेरा तो चोला मस्त ो गया। सीिे तुम् ारे
पास दौड़ा चला आ र ा ू ाँ। ब ु त झाँककय ॉँ दे खी ोंगी तम
ु ने, लेककन य और ी
चीज ै । आलम िटा पड़ता ै । सन
ु ते ैं हदल्ली से कोई चतरु कारीगर आया ै।
उसी की य करामात ै ।’
मैंने उदासीन भाव से क ा-मेरी तो जाने की इच्दा न ीिं ै भाई! मसर में जोर का
ददष ै।

‘तब तो जरुर चलो। ददष भाग न जाए तो क ना।’

‘तम
ु तो यार, ब ु त हदक करते ो। इसी मारे मैं चप
ु चाप पड़ा था कक ककसी तर
य बला टले: लेककन तम
ु मसर पर सवार ो गए। क ा हदया-मैं न जाऊाँगा।

‘और मैंने क हदया-मैं जरुर ल जाऊाँगा।’

मुझ पर ववजय पाने का मेरे ममत्रों को ब ुिं त आसान नुस्खा ैं यों ाथा-पाई,
िीिंगा-मुश्ती, िौल-िप्पे में ककसी से पीछे र ने वाला न ीिं ू ाँ लेककन ककसी ने मुझे
गुदगुदाया और परास्त ु आ। किर मेरी कुछ न ीिं चलती। मैं ाथ जोड़ने लगता

ू ाँ तघतघयाने लगता ू ाँ और कभी-कभी रोने भी लगता ू ाँ। जयदे व ने व ी नस्


ु खा
आजमाया और उसकी जीत ो गई। सिंधि की व ी शतष ठ री कक मैं चप
ु के से
ॉँ दे खने चला चलाँ ।ू
झ की

3
सेठ घरू े लाल उन आदममयों में ैं, त्जनका प्रात: को नाम ले लो, तो हदन-भर
भोजन न ममले। उनके मक्खीचस
ू पने की सैकड़ों ी दिं तकथाऍ िं नगर में प्रचमलत
ैं। क ते ैं , एक बार मारवाड़ का एक मभखारी उनके द्वार पर डट गया कक
मभक्षा लेकर ी जाऊाँगा। सेठजी भी अड़ गए कक मभक्षा न दाँ ग
ू ा, चा े कुछ ो।
मारवाड़ी उन् ीिं के दे श का था। कुछ दे र तो उनके पूवज
ष ों का बखान करता र ा,
किर उनकी तनिंदा करने लगा, अिंत में द्वार पर लेट र ा। सेठजी ने रतती-भर
परवा न की। मभक्षुक भी अपनी िन
ु का पक्का था। सारा हदन द्वार पर बे-
दाना-पानी पड़ा र ा और अिंत में व ी मर गया। तब सेठ जी पसीजे और उसकी
कक्रया इतनी िूम-िाम से की कक ब ु त कम ककसी ने की ोगी। मभक्षुक का
सतयाग्र सेठजी ने के मलए वरदान ो गया। उनके अन्त:करण में भत्क्त का
जैसे स्रोत खुल गया। अपनी सारी सम्पत्तत िमाषथष अपषण कर दी।

म लोग ठाकुरदारे में प ु ाँच:े तो दशषकों की भीड़ लगी ु ई थी। किंिे से किंिा
तछलता था। आने और जाने के मागष अलग थे, किर में आि घिंटे के बाद भीतर
जाने का अवसर ममला। जयदे व सजावट दे ख-दे खकर लोट-पोट ु ए जाते थे, पर
मुझे ऐसा मालम
ू ोता था कक इस बनावट और सजावट के मेले में कृष्ण की
आतमा क ीिं खो गई ै । उनकी व रतनजहटत, बबजली से जगमगाती मतू तष
दे खकर मेरे मन में ग्लातन उतपन्न ु ई। इस रुप में भी प्रेम का तनवास ो
सकता ै ? मैंने तो रतनों में दपष और अ िं कार ी भरा दे खा ै । मुझे उस वक्त
य ी याद न र ी, कक य एक करोड़पतत सेठ का मिंहदर ै और िनी मनुष्य िन
में लोटने वाले ईश्वर ी की कल्पना कर सकता ै । िनी ईश्वर में ी उसकी
श्रद्धा ो सकती ै । त्जसके पास िन न ीिं, व उसकी दया का पात्र ो सकता ै,
श्रद्धा का कदावप न ीिं।

मत्न्दर में जयदे व को सभी जानते ैं। उन् ें तो सभी जग सभी जानते ैं।
मिंहदन के ऑ िंगन में सिंगीत-मिंडली बैठी ु ई थी। केलकर जी अपने गिंिवष-
ववद्यालय के मशष्यों के साथ तम्बरू ा मलये बैठे थे। पखावज, मसतार, सरोद, वीणा
और जाने कौन-कौन बाजे, त्जनके नाम भी मैं न ीिं जानता, उनके मशष्यों के पास
थे। कोई गत बजाने की तैयारी ो र ी थी। जयदे व को दे खते ी केलकर जी ने
पक ु ै ल में जा बैठा। एक क्षण में गत शुरु ु ई। सम ॉँ बाँि गया।
ु ारा! मै भी ति

ज ॉँ इतना शोर-गुल था कक तोप की आवाज भी न सुनाई दे ती, व ॉँ जैसे मािुयष


के उस प्रवा ने सब ककसी को अपने में डुबा मलया। जो ज ॉँ था, व ीिं मिंत्र मग्ु ि-
सा खड़ा था। मेरी कल्पना कभी इतनी सधचत्र और सिंजीव न थी। मेरे सामने न
व ी बबजली का चका-चौंि थी, न व रतनों की जगमगा ट, न व भौततक
ववभूततयों का समारो । मेरे सामने व ी यमुना का तट था, गुल्म-लताओिं का
घूघ
ाँ ट माँु पर डाले ु ए। व ी मोह नी गउऍ िं थीिं, व ी गोवपयों की जल-क्रीड़ा, व ीिं
ॉँ
विंशी की मिुर ध्वतन, व ी शीतल च दनी और व ीिं प्यारा नन्दककशोर! त्जसके
मख
ु -छवव में प्रेम और वातसल्य की ज्योतत थी, त्जसके दशषनों ी से हृदय तनमषल
ो जाते थे।

मैं इसी आनन्द-ववस्मत


ृ की दशा में था कक किंसटष बन्द ो गया और आचायष
केलकर के एक ककशोर मशष्य ने िरु पद अलापना शुरु ककया। कलाकारों की
आदत ै कक शब्दों को कुछ इस तर तोड़-मरोड़ दे ते ैं कक अधिकािंश सन
ु नेवालों
की समझ में न ीिं आता कक क्या गा र े ैं। इस गीत का एक शब्द भी मेरी
समझ में न आया: लेककन कण्ठ-स्वर में कुछ ऐसा मादकता भरा लामलतय था
कक प्रतयेक स्वर मुझे रोमािंधचत कर दे ता था। किंठ-स्वसर में इतनी जाद ू शत्क्त
ै , इसका मुझे आज कुछ अनुभव ु आ। मन में एक नए सिंसार की सत्ृ ष्ट ोने
लगी, ज ााँ आनन्द- ी-आनन्द ै , प्रेम- ी-प्रेम, तयाग- ी-तयाग। ऐसा जान पड़ा, द:ु ख
केवल धचतत की एक वत्ृ तत ै , सतय ै केवल आनन्द। एक स्वच्छ, करुणा-भरी
कोमलता, जैसे मन को मसोसने लगी। ऐसी भावना मन में उठी कक व ॉँ त्जतने
सज्जन बैठे ु ए थे, सब मेरे अपने ैं , अमभन्न ैं। किर अतीत के गभष से मेरे
भाई की स्मतृ त-मूततष तनकल आई।
मेरा छोटा भाई ब ु त हदन ु ए, मझ
ु से लड़कर, घर की जमा-जथा लेकर रिं गन
ू भाग
गया था, और व ीिं उसका दे ान्त ो गया था। उसके पाशववक व्यव ारों को याद
करके मैं उन्मतत ो उठता था। उसे जीता पा जाता तो शयद उसका खून पी
जाता, पर इस समय स्मतृ त-मूततष को दे खकर मेरा मन जैसे मुखररत ो उठा। उसे
आमलिंगन करने के मलए व्याकुल ो गया। उसने मेरे साथ, मेरी स्त्री के साथ,
माता के साथ ्, मेरे बच्चे के साथ ्, जो-जो कटु, नीच और घण
ृ ास्पद व्यव ार ककये
थे, व सब मझ
ु े गए। मन में केवल य ी भावना थी-मेरा भैया ककतना द:ु खी ै।
मझ
ु े इस भाई के प्रतत कभी इतनी ममता न ु ई थी, किर तो मन की व दशा
ो गई, त्जसे वव व्लता क सकते ै !

शत्रु-भाव जैसे मन से ममट गया था। त्जन-त्जन प्राखणयों से मेरा बैर-भाव था,
त्जनसे गाली-गलौज, मार-पीट मक
ु दमाबाजी सब कुछ ो चक
ु ी थी, व सभी जेसे
मेरे गले में मलपट-मलपटकर ाँ स र े थे। किर ववद्या (पतनी) की मूततष मेरे
सामनरे आ खड़ी ु ई-व मूततष त्जसे दस साल प ले मैंने दे खा था-उन ऑ िंखों में
व ी ववकल कम्पन था, व ीिं सिंहदग्ि ववश्वास, कपोलों पर व ी लज्जा-लामलमा,
जैसे प्रेम सरोवर से तनकला ु आ कोई कमल पुष्प ो। व ी अनुराग, व ी आवेश,
व ी याचना-भरी उतसक
ु ता, त्जसमें मैंने उस न भल
ू ने वाली रात को उसका
स्वागत ककया था, एक बार किर मरे हृदय में जाग उठी। मिुर स्मतृ तयों का जैसे
स्रोत-सा खुल गया। जी ऐसा तडृपा कक इसी समय जाकर ववद्या के चरणों पर
मसर रगड़कर रोऊाँ और रोते-रोते बेसुि ो जाऊाँ। मेरी ऑ िंखें सजल ो गई। मेरे
माँु से जो कटु शब्द तनकले थे, व सब जैसे ी हृदय में गड़ने लगे। इसी दशा
में , जैसे ममतामयी माता ने आकर मुझे गोद में उठा मलया। बालपन में त्जस
वातसल्य का आनिंद उठाने की मझ
ु में शत्क्त न थीिं, व आनिंद आज मैंन उठाया।

गाना बन्द ो गया। सब लोग उठ-उठकर जाने लगे। मैं कल्पना-सागर में ी
डूबा र ा।

स सा जयदे व ने पुकारा-चलते ो, या बैठे ी र ोगे?


***
गुल्ली-डांडा

मारे अाँग्रेजी दोस्त मानें या न मानें मैं तो य ी क ू ाँगा कक गुल्ली-डिंडा सब खेलों


का राजा ै । अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डिंडा खेलते दे खता ू ाँ, तो जी लोट-पोट
ो जाता ै कक इनके साथ जाकर खेलने लगाँ।ू न लान की जरूरत, न कोटष की, न
नेट की, न थापी की। मजे से ककसी पेड़ से एक ट नी काट ली, गुल्ली बना ली,
और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू ो गया।

ववलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब ै कक उसके सामान म ाँगे ोते ैं। जब तक
कम-से-कम एक सैंकड़ा न खचष कीत्जए, खखलाडड़यों में शुमार ी न ीिं ो पाता।
य ॉँ गुल्ली-डिंडा ै कक बना रष -किटकरी के चोखा रिं ग दे ता ै ; पर म अाँगरे जी
चीजों के पीछे ऐसे दीवाने ो र े ैं कक अपनी सभी चीजों से अरूधच ो गई।
स्कूलों में रे क लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की िीस ली जाती
ै । ककसी को य न ीिं सूझता कक भारतीय खेल खखलाऍ िं, जो बबना दाम-कौड़ी के
खेले जाते ैं। अाँगरे जी खेल उनके मलए ैं , त्जनके पास िन ै । गरीब लड़कों के
मसर क्यों य व्यसन मढ़ते ो? ठीक ै , गुल्ली से ऑ िंख िूट जाने का भय र ता
ॉँ टूट जाने का भय
ै , तो क्या कक्रकेट से मसर िूट जाने, ततल्ली िट जाने, ट ग
न ीिं र ता! अगर मारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना ु आ ै , तो मारे
कई दोस्त ऐसे भी ैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। य अपनी-अपनी रूधच
ै । मुझे गुल्ली की सब खेलों से अच्छी लगती ै और बचपन की मीठी स्मतृ तयों
में गल्
ु ली ी सबसे मीठी ै।

व प्रात:काल घर से तनकल जाना, व पेड़ पर चढ़कर ट तनय ॉँ काटना और


गुल्ली-डिंडे बनाना, व उतसा , व खखलाडड़यों के जमघटे , व पदना और पदाना,
व लड़ाई-झगड़े, व सरल स्वभाव, त्जससे छूत ्-अछूत, अमीर-गरीब का बबल्कुल
भेद न र ता था, त्जसमें अमीराना चोचलों की, प्रदशषन की, अमभमान की गुिंजाइश
ी न थी, य उसी वक्त भूलेगा जब .... जब ...। घरवाले बबगड़ र े ैं , वपताजी
चौके पर बैठे वेग से रोहटयों पर अपना क्रोि उतार र े ैं , अम्मााँ की दौड़ केवल
द्वार तक ै , लेककन उनकी ववचार-िारा में मेरा अिंिकारमय भववष्य टूटी ु ई
नौका की तर डगमगा र ा ै ; और मैं ू ाँ कक पदाने में मस्त ू ाँ, न न ाने की
सुधि ै , न खाने की। गुल्ली ै तो जरा-सी, पर उसमें दतु नया-भर की ममठाइयों की
ममठास और तमाशों का आनिंद भरा ु आ ै।

मेरे मजोमलयों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा

ु ला, बिंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली उाँ गमलय ,ॉँ बिंदरों की-सी
ोगा। दब
चपलता, व ी झल्ला ट। गुल्ली कैसी ी ो, पर इस तर लपकता था, जैसे
तछपकली कीड़ों पर लपकती ॉँ
ै । मालूम न ीिं, उसके म -बाप थे या न ीिं, क ॉँ र ता
था, क्या खाता था; पर था मारे गल्
ु ली-कल्ब का चैत्म्पयन। त्जसकी तरि व आ
जाए, उसकी जीत तनत्श्चत थी। म सब उसे दरू से आते दे ख, उसका दौड़कर
स्वागत करते थे और अपना गोइय ॉँ बना लेते थे।
एक हदन मैं और गया दो ी खेल र े थे। व पदा र ा था। मैं पद र ा था,
मगर कुछ ववधचत्र बात ै कक पदाने में म हदन-भर मस्त र सकते ै ; पदना
एक ममनट का भी अखरता ै । मैंने गला छुड़ाने के मलए सब चालें चलीिं, जो ऐसे
अवसर पर शास्त्र-ववह त न ोने पर भी क्षम्य ैं, लेककन गया अपना द वॉँ मलए
बगैर मेरा वपिंड न छोड़ता था।
मैं घर की ओर भागा। अननुय-ववनय का कोई असर न ु आ था।

गया ने मुझे दौड़कर पकड़ मलया और डिंडा तानकर बोला-मेरा द वॉँ दे कर जाओ।
पदाया तो बड़े ब ादरु बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते ो।

‘तुम हदन-भर पदाओ तो मैं हदन-भर पदता र ाँ?’

‘ ,ॉँ तुम् ें हदन-भर पदना पड़ेगा।‘

‘न खाने जाऊाँ, न पीने जाऊाँ?’


‘ !ॉँ मेरा द वॉँ हदये बबना क ीिं न ीिं जा सकते।‘

‘मैं तुम् ारा गुलाम ू ाँ?’

‘ ,ॉँ मेरे गुलाम ो।‘

‘मैं घर जाता ू ाँ, दे खूाँ मेरा क्या कर लेते ो!’

‘घर कैसे जाओगे; कोई हदल्लगी ै । द वॉँ हदया ै , द वॉँ लें गे।‘

‘अच्छा, कल मैंने अमरूद खखलाया था। व लौटा दो।

‘व तो पेट में चला गया।‘

‘तनकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?’

ॉँ
‘अमरूद तुमने हदया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे म गने न गया था।‘

‘जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं द वॉँ न दाँ ग


ू ा।‘

मैं समझता था, न्याय मेरी ओर ै । आखखर मैंने ककसी स्वाथष से ी उसे अमरूद
खखलाया ोगा। कौन तन:स्वाथष ककसी के साथ सलूक करता ै । मभक्षा तक तो
स्वाथष के मलए दे ते ु से द वॉँ लेने
ैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो किर उसे मझ
का क्या अधिकार ै ? ररश्वत दे कर तो लोग खन
ू पचा जाते ैं, य मेरा अमरूद
यों ी ॉँ
जम कर जाएगा? अमरूद पैसे के प चवाले थे, जो गया के बाप को भी
नसीब न ोंगे। य सरासर अन्याय था।

ु े अपनी ओर खीिंचते ु ए क ा-मेरा द वॉँ दे कर जाओ, अमरूद-समरूद


गया ने मझ
मैं न ीिं जानता।

मुझे न्याय का बल था। व अन्याय पर डटा ु आ था। मैं ाथ छुड़ाकर भागना


चा ता था। व मझ
ु े जाने न दे ता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी,
ॉँ जमा हदया। मैंने उसे द त
और गाली- ी न ीिं, एक च टा ॉँ काट मलया। उसने मेरी

पीठ पर डिंडा जमा हदया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर
सका। मैंने तुरन्त ऑ िंसू पोंछ डाले, डिंडे की चोट भूल गया और ाँसता ु आ घर जा
प ु ाँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के ाथों वपट गया, य
मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम आ; लेककन घर में ककसी से मशकायत
न की।

उन् ीिं हदनों वपताजी का व ॉँ से तबादला ो गया। नई दतु नया दे खने की खुशी में
ऐसा िूला कक अपने मजोमलयों से बबछुड़ जाने का बबलकुल द:ु ख न ु आ।
वपताजी द:ु खी थे। व बड़ी आमदनी की जग ॉँ भी द:ु खी थीिं य ॉँ
थी। अम्म जी
सब चीज सस्ती थीिं, और मु ल्ले की त्स्त्रयों से घराव-सा ो गया था, लेककन मैं
सारे खुशी के िूला न समाता था। लड़कों में जीट उड़ा र ा था, व ॉँ ऐसे घर थोड़े
ी ोते ैं। ऐसे-ऐसे ऊाँचे घर ैं कक आसमान से बातें करते ैं। व ॉँ के अाँगरे जी
स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे , तो उसे जे ल ो जाए। मेरे ममत्रों की िैली

ु ई ऑ िंखे और चककत मुद्रा बतला र ी थी कक मैं उनकी तनगा में ककतना


स्पद्षघा ो र ी थी! मानो क र े थे -तु भागवान ो भाई, जाओ। में तो इसी
ऊजड़ ग्राम में जीना भी ै और मरना भी।

बीस साल गुजर गए। मैंने इिंजीतनयरी पास की और उसी त्जले का दौरा करता

ु आ उसी कस्बे में प ाँचा और डाकबाँगले में ठ रा। उस स्थान को दे खते ी


इतनी मिुर बाल-स्मतृ तय ॉँ हृदय में जाग उठीिं कक मैंने छड़ी उठाई और क्स्बे की
ॉँ बचपन के उन क्रीड़ा-
सैर करने तनकला। ऑ िंखें ककसी प्यासे पधथक की भ तत
स्थलों को दे खने के मलए व्याकुल ो र ी थीिं; पर उस पररधचत नाम के मसवा व ॉँ
और कुछ पररधचत न था। ज ॉँ खाँड र था, व ॉँ पक्के मकान खड़े थे। ज ॉँ बरगद
का पुराना पेड़ था, व ॉँ अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान की काया पलट ो गई
थी। अगर उसके नाम और त्स्थतत का ज्ञान न ोता, तो मैं उसे प चान भी न
सकता। बचपन की सिंधचत और अमर स्मतृ तय ॉँ ब ॉँ े खोले अपने उन परु ाने ममत्रों
से गले ममलने को अिीर ो र ी थीिं; मगर व दतु नया बदल गई थी। ऐसा जी
ोता था कक उस िरती से मलपटकर रोऊाँ और क ू ाँ, तुम मुझे भूल गईं! मैं तो अब
भी तुम् ारा व ी रूप दे खना चा ता ू ाँ।

स सा एक खल
ु ी जग में मैंने दो-तीन लड़कों को गल्
ु ली-डिंडा खेलते दे खा। एक
क्षण के मलए मैं अपने का बबल्कुल भूल गया। भूल गया कक मैं एक ऊाँचा
अिसर ू ाँ , सा बी ठाठ में , रौब और अधिकार के आवरण में जाकर एक लड़के से
पूछा-क्यों बेटे, य ॉँ कोई गया नाम का आदमी र ता ै?

एक लड़के ने गुल्ली-डिंडा समेटकर स मे ु ए स्वर में क ा-कौन गया? गया


चमार?

मैंने यों ी क ा- -ॉँ ॉँ व ी। गया नाम का कोई आदमी ै तो? शायद व ी ो।

‘ ,ॉँ ै तो।‘

‘जरा उसे बुला सकते ो?’

ॉँ
लड़का दौड़ता ु आ गया और एक क्षण में एक प च ाथ काले दे व को साथ मलए
आता हदखाई हदया। मैं दरू से ी प चान गया। उसकी ओर लपकना चा ता था
कक उसके गले मलपट जाऊाँ, पर कुछ सोचकर र गया। बोला-क ो गया, मुझे
प चानते ो?

गया ने झुककर सलाम ककया- ॉँ मामलक, भला प चानाँग


ू ा क्यों न ीिं! आप मजे में
ो?

‘ब ु त मजे में । तम
ु अपनी क ा।‘

‘डडप्टी सा ब का साईस ू ाँ।‘


ु ाष सब क ॉँ ैं? कुछ खबर
‘मतई, मो न, दग ै?

‘मतई तो मर गया, दग
ु ाष और मो न दोनों डाककया ो गए ैं। आप?’

‘मैं तो त्जले का इिंजीतनयर ू ाँ।‘

‘सरकार तो प ले ी बड़े ज ीन थे?

‘अब कभी गल्


ु ली-डिंडा खेलते ो?’

गया ने मेरी ओर प्रश्न-भरी ऑ िंखों से दे खा-अब गुल्ली-डिंडा क्या खेलाँ ग


ू ा सरकार,
अब तो ििंिे से छुट्टी न ीिं ममलती।

‘आओ, आज म-तुम खेलें। तुम पदाना, म पदें गे। तुम् ारा एक द वॉँ मारे ऊपर
ै। व आज ले लो।‘

गया बड़ी मुत्श्कल से राजी ु आ। व ठ रा टके का मजदरू , मैं एक बड़ा अिसर।


मारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप र ा था। लेककन मुझे भी कुछ कम
झेंप न थी; इसमलए न ीिं कक मैं गया के साथ खेलने जा र ा था, बत्ल्क इसमलए
कक लोग इस खेल को अजब
ू ा समझकर इसका तमाशा बना लें गे और अच्छी-
खासी भीड़ लग जाएगी। उस भीड़ में व आनिंद क ॉँ र े गा, पर खेले बगैर तो
र ा न ीिं जाता। आखखर तनश्चय ु आ कक दोनों जने बस्ती से ब ु त दरू खेलेंगे
और बचपन की उस ममठाई को खूब रस ले-लेकर खाऍगेिं । मैं गया को लेकर
डाकबाँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक
कुल् ाड़ी ले ली। मैं गिंभीर भाव िारण ककए ु ए था, लेककन गया इसे अभी तक
मजाक ी समझ र ा था। किर भी उसके मख
ु पर उतसक
ु ता या आनिंद का कोई
धचह्न न था। शायद व म दोनों में जो अिंतर ो गया था, य ी सोचने में मगन
था।
मैंने पछ
ू ा-तम्
ु ें कभी मारी याद आती थी गया? सच क ना।

गया झेंपता ु आ बोला-मैं आपको याद करता जूर, ककस लायक ू ाँ। भाग में
आपके साथ कुछ हदन खेलना बदा था; न ीिं मेरी क्या धगनती?

मैंने कुछ उदास ोकर क ा-लेककन मुझे तो बराबर, तुम् ारी याद आती थी।
तुम् ारा व डिंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद ै न?

गया ने पछताते ु ए क ा-व लड़कपन था सरकार, उसकी याद न हदलाओ।

‘वा ! व मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद ै । तम्


ु ारे उस डिंडे में जो रस
था, व तो अब न आदर-सम्मान में पाता ू ाँ, न िन में ।‘

इतनी दे र में म बस्ती से कोई तीन मील तनकल आये। चारों तरि सन्नाटा ै।
पत्श्चम ओर कोसों तक भीमताल िैला ु आ ै , ज ॉँ आकर म ककसी समय
कमल पष्ु प तोड़ ले जाते थे और उसके झम
ू क बनाकर कानों में डाल लेते थे।
जेठ की सिंध्या केसर में डूबी चली आ र ी ै । मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया
और एक ट नी काट लाया। चटपट गुल्ली-डिंडा बन गया। खेल शुरू ो गया। मैंने
गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से तनकल गई। उसने
ाथ लपकाया, जैसे मछली पकड़ र ा ो। गुल्ली उसके पीछे जाकर धगरी। य
व ी गया ै , त्जसके थों में गल्
ु ली जैसे आप ी आकर बैठ जाती थी। व दा ने-
बाऍ िं क ीिं ो, गल्
ु ली उसकी थेली में ी प ू ाँचती थी। जैसे गत्ु ल्लयों पर वशीकरण
डाल दे ता ो। नयी गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली,
सपाट गुल्ली सभी उससे ममल जाती थी। जैसे उसके ाथों में कोई चुम्बक ो,
गुत्ल्लयों को खीिंच लेता ो; लेककन आज गुल्ली को उससे व प्रेम न ीिं र ा। किर
तो मैंने पदाना शुरू ककया। मैं तर -तर ॉँ
की ि िमलय ॉँ कर र ा था। अभ्यास की

कसर बेईमानी से परू ी कर र ा था। ु च जाने पर भी डिंडा खुले जाता था।


ॉँ शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाह ए थी। गुल्ली पर ओछी चोट
ाल कक
पड़ती और व जरा दरू पर धगर पड़ती, तो मैं झपटकर उसे खुद उठा लेता और
दोबारा ट ड़ॉँ लगाता। गया य सारी बे-कायदधगय ॉँ दे ख र ा था; पर कुछ न
बोलता था, जैसे उसे व सब कायदे -कानन
ू भल
ू गए। उसका तनशाना ककतना
अचूक था। गुल्ली उसके ाथ से तनकलकर टन से डिंडे से आकर लगती थी। उसके
ाथ से छूटकर उसका काम था डिंडे से टकरा जाना, लेककन आज व गुल्ली डिंडे
में लगती ी न ीिं! कभी दाह ने जाती ै , कभी बाऍ,िं कभी आगे, कभी पीछे ।

ॉँ
आि घिंटे पदाने के बाद एक गुल्ली डिंडे में आ लगी। मैंने ि िली की-गुल्ली डिंडे
में न ीिं लगी। बबल्कुल पास से गई; लेककन लगी न ीिं।

गया ने ककसी प्रकार का असिंतोर् प्रकट न ीिं ककया।

‘न लगी ोगी।‘

‘डिंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता?’

‘न ीिं भैया, तम
ु भला बेईमानी करोगे?’

बचपन में मजाल था कक मैं ऐसा घपला करके जीता बचता! य ी गया गदष न पर
चढ़ बैठता, लेककन आज मैं उसे ककतनी आसानी से िोखा हदए चला जाता था।
गिा ै ! सारी बातें भल
ू गया।

स सा गुल्ली किर डिंडे से लगी और इतनी जोर से लगी, जैसे बन्दक


ू छूटी ो।
इस प्रमाण के सामने अब ककसी तर की िािंिली करने का सा स मझ
ु े इस
वक्त भी न ो सका,
लेककन क्यों न एक बार सबको झूठ बताने की चेष्टा करूाँ? मेरा रज की क्या
ै । मान गया तो वा -वा , न ीिं दो-चार ाथ पदना ी तो पड़ेगा। अाँिेरा का

ू ा। किर कौन द वॉँ दे ने आता


ब ाना करके जल्दी से छुड़ा लाँ ग ै।

गया ने ववजय के उल्लास में क ा-लग गई, लग गई। टन से बोली।


मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके क ा-तम
ु ने लगते दे खा? मैंने तो न ीिं दे खा।

‘टन से बोली ै सरकार!’

‘और जो ककसी ईंट से टकरा गई ो?

मेरे मख
ु से य वाक्य उस समय कैसे तनकला, इसका मझ
ु े खद
ु आश्चयष ै । इस
सतय को झठ
ु लाना वैसा ी था, जैसे हदन को रात बताना। म दोनों ने गल्
ु ली
को डिंडे में जोर से लगते दे खा था; लेककन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर मलया।

‘ ,ॉँ ककसी ईंट में ी लगी ोगी। डिंडे में लगती तो इतनी आवाज न आती।‘

ॉँ
मैंने किर पदाना शुरू कर हदया; लेककन इतनी प्रतयक्ष ि िली कर लेने के बाद
गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी; इसीमलए जब तीसरी बार गुल्ली डिंडे
में लगी, तो मैंने बड़ी
उदारता से द वॉँ दे ना तय कर मलया।

गया ने क ा-अब तो अाँिेरा ो गया ै भैया, कल पर रखो।

मैंने सोचा, कल ब ु त-सा समय ोगा, य न जाने ककतनी दे र पदाए, इसमलए इसी
वक्त मुआमला साि कर लेना अच्छा ोगा।

‘न ीिं, न ीिं। अभी ब ु त उजाला ै । तुम अपना द वॉँ ले लो।‘

‘गल्
ु ली सझ
ू ग
े ी न ीिं।‘

‘कुछ परवा न ीिं।‘

गया ने पदाना शुरू ककया; पर उसे अब बबलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार
ट डॉँ लगाने का इरादा ककया; पर दोनों ी बार ु च गया। एक ममतनट से कम में
व द वॉँ खो बैठा।
मैंने अपनी हृदय की ववशालता का पररश्च हदया।

‘एक द वॉँ और खेल लो। तुम तो प ले ी ाथ में ु च गए।‘

‘न ीिं भैया, अब अाँिेरा ो गया।‘

‘तम्
ु ारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते न ीिं?’

‘खेलने का समय क ॉँ ममलता ै भैया!’

म दोनों मोटर पर जा बैठे और धचराग जलते-जलते पड़ाव पर प ु ाँच गए। गया


चलते-चलते बोला-कल य ॉँ गुल्ली-डिंडा ोगा। सभी पुराने खखलाड़ी खेलेंगे। तुम भी
आओगे? जब तुम् ें िुरसत ो, तभी खखलाडड़यों को बुलाऊाँ।

मैंने शाम का समय हदया और दस


ू रे हदन मैच दे खने गया। कोई दस-दस
आदममयों की मिंडली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी तनकले! अधिकािंश युवक थे,
त्जन् ें मैं प चान न सका। खेल शुरू ु आ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा दे खने
लगा। आज गया का खेल, उसका नैपुण्य दे खकर मैं चककत ो गया। ट ड़ॉँ लगाता,
तो गल्
ु ली आसमान से बातें करती। कल की-सी व खझझक, व ह चककचा ट, व
बेहदली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसेन प्रौढ़ता प्राप्त कर ली
थी। क ीिं कल इसने मुझे इस तर पदाया ोता, तो मैं जरूर रोने लगता। उसके
डिंडे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी।

पदने वालों में एक यव ॉँ


ु क ने कुछ ि िली की। उसने अपने ववचार में गल्
ु ली
लपक ली थी। गया का क ना था-गुल्ली जमीन मे लगकर उछली थी। इस पर
दोनों में ताल ठोकने की नौबत आई ै । युवक दब गया। गया का तमतमाया

ु आ चे रा दे खकर डर गया। अगर व दब न जाता, तो जरूर मार-पीट ो जाती।

मैं खेल में न था; पर दस


ू रों के इस खेल में मुझे व ी लड़कपन का आनन्द आ
र ा था, जब म सब कुछ भूलकर खेल में मस्त ो जाते थे। अब मुझे मालूम
ु आ कक कल गया ने मेरे साथ खेला न ीिं, केवल खेलने का ब ाना ककया। उसने
मझ ॉँ
ु े दया का पात्र समझा। मैंने ि िली की, बेईमानी की, पर उसे जरा भी क्रोि न
आया। इसमलए कक व खेल न र ा था, मुझे खेला र ा था, मेरा मन रख र ा था।
व मुझे पदाकर मेरा कचूमर न ीिं तनकालना चा ता था। मैं अब अिसर ू ाँ। य
अिसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गई ै । मैं अब उसका मल ाज पा
सकता ू ाँ , अदब पा सकता ू ाँ , सा चयष न ीिं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका
समकक्ष था। य पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया योग्य ू ाँ। व मझ
ु े अपना
जोड़ न ीिं समझता। व बड़ा ो गया ै , मैं छोटा ो गया ू ाँ।
***

ज्योति

वविवा ो जाने के बाद बूटी का स्वभाव ब ु त कटु ो गया था। जब ब ु त जी


जलता तो अपने मत
ृ पतत को कोसती-आप तो मसिार गए, मेरे मलए य जिंजाल
छोड़ गए। जब इतनी जल्दी जाना था, तो ब्या न जाने ककसमलए ककया। घर में
ॉँ न ीिं, चले थे ब्या
भूनी भ ग करने ! व चा ती तो दस
ू ररी सगाई कर लेती।
अ ीरों में इसका ररवाज ै । दे खने-सन
ु ने में भी बरु ी न थी। दो-एक आदमी तैयार
भी थे, लेककन बट
ू ी पततव्रता क लाने के मो को न छोड़ सकी। और य सारा
क्रोि उतरता था, बड़े लड़के मो न पर, जो अब सोल साल का था। सो न अभी
छोटा था और मैना लड़की थी। ये दोनों अभी ककसी लायक न थे। अगर य
तीनों न ोते, तो बूटी को क्यों इतना कष्ट ोता। त्जसका थोड़ा-सा काम कर
दे ती, व ी रोटी-कपड़ा दे दे ता। जब चा ती ककसी के मसर बैठ जाती। अब अगर
व क ीिं बैठ जाए, तो लोग य ी क ें गे कक तीन-तीन बच्चों के ोते इसे य क्या
सझ
ू ी।

मो न भरसक उसका भार ल्का करने की चेष्टा करता। गायों-भैसों की सानी-


पानी, द ु ना-मथना य सब कर लेता, लेककन बट
ू ी का माँु सीिा न ोता था। व
रोज एक-न-एक खच
ु ड़ तनकालती र ती और मो न ने भी उसकी घड़
ु ककयों की
परवा करना छोड़ हदया था। पतत उसके मसर ग ृ स्थी का य भार पटककर क्यों
चला गया, उसे य ी धगला था। बेचारी का सवषनाश ी कर हदया। न खाने का सख

ममला, न प नने-ओढ़ने का, न और ककसी बात का। इस घर में क्या आयी, मानो
भट्टी में पड़ गई। उसकी वैिव्य-सािना और अतप्ृ त भोग-लालसा में सदै व
द्वन्द्व-सा मचा र ता था और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मद
ृ त
ु ा
जलकर भस्म ॉँ
ो गई थी। पतत के पीछे और कुछ न ीिं तो बूटी के पास चार-प च
सौ के ग ने थे, लेककन एक-एक करके सब उसके ाथ से तनकल गए।

उसी मु ल्ले में उसकी बबरादरी में , ककतनी ी औरतें थीिं, जो उससे जेठी ोने पर
भी ग ने झमकाकर, आाँखों में काजल लगाकर, मााँग में सेंदरु की मोटी-सी रे खा
डालकर मानो उसे जलाया करती थीिं, इसमलए अब उनमें से कोई वविवा ो
जाती, तो बट
ू ी को खश
ु ी ोती और य सारी जलन व लड़कों पर तनकालती,
ववशेर्कर मो न पर। व शायद सारे सिंसार की त्स्त्रयों को अपने ी रूप में
दे खना चा ती थी। कुतसा में उसे ववशेर् आनिंद ममलता था। उसकी विंधचत लालसा,
जल न पाकर ओस चाट लेने में ी सिंतुष्ट ोती थी; किर य कैसे सिंभव था कक
व मो न के ववर्य में कुछ सुने और पेट में डाल ले। ज्यों ी मो न सिंध्या समय
दि
ू बेचकर घर आया बट
ू ी ने क ा-दे खती ू ाँ , तू अब सााँड़ बनने पर उतारू ो गया
ै।

मो न ने प्रश्न के भाव से दे खा-कैसा सााँड़! बात क्या ै ?

‘तू रूवपया से तछप-तछपकर न ीिं ाँसता-बोलता? उस पर क ता ै कैसा सााँड़? तुझे


लाज न ीिं आती? घर में पैसे-पैसे की तिंगी ै और व ााँ उसके मलए पान लाये जाते
ैं, कपड़े राँ गाए जाते ै ।’

मो न ने ववद्रो का भाव िारण ककया-अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान मााँगे
तो क्या करता ? क ता कक पैसे दे , तो लाऊाँगा ? अपनी िोती राँ गने को दी, उससे
राँ गाई मािंगता ?
‘मु ल्ले में एक तू ी िन्नासेठ ै ! और ककसी से उसने क्यों न क ा?’

‘य व जाने, मैं क्या बताऊाँ।’

‘तुझे अब छै ला बनने की सूझती ै । घर में भी कभी एक पैसे का पान लाया?’

‘य ााँ पान ककसके मलए लाता ?’

‘क्या तेरे मलखे घर में सब मर गए ?’

‘मैं न जानता था, तुम पान खाना चा ती ो।’

‘सिंसार में एक रुवपया ी पान खाने जोग ै ?’

‘शौक-मसिंगार की भी तो उममर ोती ै ।’

बूटी जल उठी। उसे बुहढ़या क दे ना उसकी सारी सािना पर पानी िेर दे ना था।
बुढ़ापे में उन सािनों का म ततव ी क्या ? त्जस तयाग-कल्पना के बल पर व
त्स्त्रयों के सामने मसर उठाकर चलती थी, उस पर इतना कुठाराघात ! इन् ीिं लड़कों
के पीछे उसने अपनी जवानी िूल में ममला दी। उसके आदमी को मरे आज पााँच
साल ु ए। तब उसकी चढ़ती जवानी थी। तीन बच्चे भगवान ् ने उसके गले मढ़
हदए, न ीिं अभी व ै कै हदन की। चा ती तो आज व भी ओठ लाल ककए, पााँव
में म ावर लगाए, अनवट-बबछुए प ने मटकती किरती। य सब कुछ उसने इन
लड़कों के कारण तयाग हदया और आज मो न उसे बुहढ़या क ता ै ! रुवपया
उसके सामने खड़ी कर दी जाए, तो चुह या-सी लगे। किर भी व जवान ै , आ ैर
बूटी बुहढ़या ै!

बोली- ााँ और क्या। मेरे मलए तो अब िटे चीथड़े प नने के हदन ैं । जब तेरा
बाप मरा तो मैं रुवपया से दो ी चार साल बड़ी थी। उस वक्त कोई घर लेती
तो, तुम लोगों का क ीिं पता न लगता। गली-गली भीख मााँगते किरते। लेककन मैं
क दे ती ू ाँ, अगर तू किर उससे बोला तो या तो तू ी घर में र े गा या मैं ी
र ू ाँगी।

मो न ने डरते-डरते क ा-मैं उसे बात दे चुका ू ाँ अम्मा!

‘कैसी बात ?’

‘सगाई की।’

‘अगर रुवपया मेरे घर में आयी तो झाडू मारकर तनकाल दाँ ग


ू ी। य सब उसकी
मााँ की माया ै। व कुटनी मेरे लड़के को मझ
ु से छीने लेती ै । रााँड़ से इतना भी
न ीिं दे खा जाता। चा ती ै कक उसे सौत बनाकर छाती पर बैठा दे ।’

मो न ने व्यधथत किंठ में क ा,अम्मााँ, ईश्वर के मलए चुप र ो। क्यों अपना पानी
आप खो र ी ो। मैंने तो समझा था, चार हदन में मैना अपने घर चली जाएगी,
तम
ु अकेली पड़ जाओगी। इसमलए उसे लाने की बात सोच र ा था। अगर तम्
ु ें
बुरा लगता ै तो जाने दो।

‘तू आज से य ीिं आाँगन में सोया कर।’

‘और गायें-भैंसें बा र पड़ी र ें गी ?’

‘पड़ी र ने दे , कोई डाका न ीिं पड़ा जाता।’

‘मझ
ु पर तझ
ु े इतना सन्दे ै ?’

‘ ााँ !’

‘तो मैं य ााँ न सोऊाँगा।’

‘तो तनकल जा घर से।’


‘ ााँ, तेरी य ी इच्छा ै तो तनकल जाऊाँगा।’

मैना ने भोजन पकाया। मो न ने क ा-मझ


ु े भख
ू न ीिं ै ! बट
ू ी उसे मनाने न
आयी। मो न का युवक-हृदय माता के इस कठोर शासन को ककसी तर स्वीकार
न ीिं कर सकता। उसका घर ै , ले ले। अपने मलए व कोई दस
ू रा हठकाना ढूाँढ़
तनकालेगा। रुवपया ने उसके रूखे जीवन में एक त्स्नग्िता भर ी दी थी। जब व
एक अव्यक्त कामना से चिंचल ो र ा था, जीवन कुछ सूना-सूना लगता था,
रुवपया ने नव वसिंत की भााँतत आकर उसे पल्लववत कर हदया। मो न को जीवन
में एक मीठा स्वाद ममलने लगा। कोई काम करना ोता, पर ध्यान रुवपया की
ओर लगा र ता। सोचता, उसे क्या, दे दे कक व प्रसन्न ो जाए! अब व कौन
माँु लेकर उसके पास जाए ? क्या उससे क े कक अम्मााँ ने मुझे तुझसे ममलने को
मना ककया ै ? अभी कल ी तो बरगद के नीचे दोनों में केसी-कैसी बातें ु ई थीिं।
मो न ने क ा था, रूपा तुम इतनी सुन्दर ो, तुम् ारे सौ गा क तनकल आएाँगे।
मेरे घर में तम्
ु ारे मलए क्या रखा ै ? इस पर रुवपया ने जो जवाब हदया था, व
तो सिंगीत की तर अब भी उसके प्राण में बसा ु आ था-मैं तो तम
ु को चा ती ू ाँ
मो न, अकेले तुमको। परगने के चौिरी ो जाव, तब भी मो न ो; मजूरी करो, तब
भी मो न ो। उसी रुवपया से आज व जाकर क े -मुझे अब तुमसे कोई सरोकार
न ीिं ै!

न ीिं, य न ीिं ो सकता। उसे घर की परवा न ीिं ै। व रुवपनया के साथ मााँ


से अलग र े गा। इस जग न स ी, ककसी दस
ू रे मु ल्ले में स ी। इस वक्त भी
रुवपया उसकी रा दे ख र ी ोगी। कैसे अच्छे बीड़े लगाती ै । क ीिं अम्मािं सुन
पावें कक व रात को रुवपया के द्वार पर गया था, तो परान ी दे दें । दे दें परान!
अपने भाग तो न ीिं बखानतीिं कक ऐसी दे वी ब ू ममली जाती ै । न जाने क्यों
रुवपया से इतना धचढ़ती ै। व जरा पान खा लेती ै , जरा साड़ी राँ गकर प नती
ै । बस, य ी तो।

चडू ड़यों की झिंकार सन


ु ाई दी। रुवपनया आ र ी ै! ा; व ी ै।
रुवपया उसके मसर ाने आकर बोली-सो गए क्या मो न ? घड़ी-भर से तुम् ारी रा
दे ख र ी ू ाँ। आये क्यों न ीिं ?

मो न नीिंद का मक्कर ककए पड़ा र ा।

रुवपया ने उसका मसर ह लाकर किर क ा-क्या सो गए मो न ?

उन कोमाल उिं गमलयों के स्पशष में क्या मसद्तघ थी, कौन जाने। मो न की सारी
आतमा उन्मतत ो उठी। उसके प्राण मानो बा र तनकलकर रुवपया के चरणों में
समवपषत ो जाने के मलए उछल पड़े। दे वी वरदान के मलए सामने खड़ी ै । सारा
ववश्व जैसे नाच र ा ै । उसे मालम
ू ु आ जैसे उसका शरीर लप्ु त ो गया ै,
केवल व एक मिुर स्वर की भााँतत ववश्व की गोद में धचपटा ु आ उसके साथ
नतृ य कर र ा ै।

रुवपया ने क ा-अभी से सो गए क्या जी ?

मो न बोला- ााँ, जरा नीिंद आ गई थी रूपा। तुम इस वक्त क्या करने आयीिं? क ीिं
अम्मा दे ख लें , तो मझ
ु े मार ी डालें ।

‘तुम आज आये क्यों न ीिं?’

‘आज अम्मााँ से लड़ाई ो गई।’

‘क्या क ती थीिं?’

‘क ती थीिं, रुवपया से बोलेगा तो मैं परान दे दाँ ग


ू ी।’

‘तुमने पूछा न ीिं, रुवपया से क्यों धचढ़ती ो ?’

‘अब उनकी बात क्या क ू ाँ रूपा? व ककसी का खाना-प नना न ीिं दे ख सकतीिं।
अब मझ
ु े तम
ु से दरू र ना पड़ेगा।’

मेरा जी तो न मानेगा।’

‘ऐसी बात करोगी, तो मैं तुम् ें लेकर भाग जाऊाँगा।’

‘तम
ु मेरे पास एक बार रोज आया करो। बस, और मैं कुछ न ीिं चा ती।’

‘और अम्मााँ जो बबगड़ेंगी।’

‘तो मैं समझ गई। तुम मुझे प्यार न ीिं करते।

‘मेरा बस ोता, तो तम
ु को अपने परान में रख लेता।’

इसी समय घर के ककवाड़ खटके। रुवपया भाग गई।

मो न दस
ू रे हदन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनिंद का सागर-सा भरा ु आ
था। व सो न को बराबर डााँटता र ता था। सो न आलसी था। घर के काम-ििंिे
में जी न लगाता था। मो न को दे खते ी व साबुन तछपाकर भाग जाने का
अवसर खोजने लगा।

मो न ने मुस्कराकर क ा-िोती ब ु त मैली ो गई ै सो न ? िोबी को क्यों न ीिं


दे त?े

सो न को इन शब्दों में स्ने की गिंि आई।

‘िोबबन पैसे मााँगती ै ।’

‘तो पैसे अम्मााँ से क्यों न ीिं मााँग लेते ?’


‘अम्मााँ कौन पैसे हदये दे ती ै ?’

‘तो मुझसे ले लो!’

य क कर उसने एक इकन्नी उसकी ओर िेंक दी। सो न प्रसन्न ो गया। भाई


और माता दोनों ी उसे धिक्कारते र ते थे। ब ु त हदनों बाद आज उसे स्ने की
मिुरता का स्वाद ममला। इकन्नी उठा ली और िोती को व ीिं छोड़कर गाय को
खोलकर ले चल।

मो न ने क ा-र ने दो, मैं इसे मलये जाता ू ाँ।

सो न ने पगह या मो न को दे कर किर पछ
ू ा-तम्
ु ारे मलए धचलम रख लाऊाँ ?

जीवन में आज प ली बार सो न ने भाई के प्रतत ऐसा सद्भाव प्रकट ककया था।
इसमें क्या र स्य ै, य मो न की समझ में न ीिं आया। बोला-आग ो तो रख
आओ।

मैना मसर के बाल खेले आाँगन में बैठी घरौंदा बना र ी थी। मो न को दे खते ी
उसने घरौंदा बबगाड़ हदया और अिंचल से बाल तछपाकर रसोईिर में बरतन उठाने
चली।

मो न ने पूछा-क्या खेल र ी थी मैना ?

मैना डरी ु ई बोली-कुछ न ीिं तो।

‘तू तो ब ु त अच्छे घरौंदे बनाती ै । जरा बना, दे ख।ूाँ ’

मैना का रुआिंसा चे रा खखल उठा। प्रेम के शब्द में ककतना जाद ू ै ! माँु से
तनकलते ी जैसे सग
ु िंि िैल गई। त्जसने सन
ु ा, उसका हृदय खखल उठा। ज ााँ भय
था, व ााँ ववश्वास चमक उठा। ज ााँ कटुता थी, व ााँ अपनापा छलक पड़ा। चारों
ओर चेतनता दौड़ गई। क ीिं आलस्य न ीिं , क ीिं खखन्नता न ीिं। मो न का हृदय
आज प्रेम से भरा ु आ ै । उसमें सग
ु िंि का ववकर्षण ो र ा ै।
मैना घरौंदा बनाने बैठ गई।

मो न ने उसके उलझे ु ए बालों को सल


ु झाते ु ए क ा-तेरी गडु ड़या का ब्या कब
ोगा मैना, नेवता दे , कुछ ममठाई खाने को ममले।

मैना का मन आकाश में उड़ने लगा। जब भैया पानी मााँगे, तो व लोटे को राख
से खब
ू चमाचम करके पानी ले जाएगी।

‘अम्मााँ पैसे न ीिं दे तीिं। गुड्डा तो ठीक ो गया ै । टीका कैसे भेजाँू?’

‘ककतने पैसे लेगी ?’

‘एक पैसे के बतासे लाँ ग


ू ी और एक पैसे का रिं ग। जोड़े तो राँ गे जाएाँगे कक न ीिं?’

‘तो दो पैसे में तेरा काम चल जाएगा?’

‘ ााँ, दो पैसे दे दो भैया, तो मेरी गुडड़या का ब्या िूमिाम से ो जाए।’

मो न ने दो पैसे ाथ में लेकर मैना को हदखाए। मैना लपकी, मो न ने ाथ


ऊपर उठाया, मैना ने ाथ पकड़कर नीचे खीिंचना शुरू ककया। मो न ने उसे गोद
में उठा मलया। मैना ने पैसे ले मलये और नीचे उतरकर नाचने लगी। किर अपनी
स े मलयों को वववा का नेवता दे ने के मलए भागी।

उसी वक्त बट
ू ी गोबर का झााँवा मलये आ प ुिं ची। मो न को खड़े दे खकर कठोर
स्वर में बोली-अभी तक मटरगस्ती ी ो र ी ै । भैंस कब द ु ी जाएगी?

आज बट
ू ी को मो न ने ववद्रो -भरा जवाब न हदया। जैसे उसके मन में मािय
ु ष
का कोई सोता-सा खल
ु गया ो। माता को गोबर का बोझ मलये दे खकर उसने
झााँवा उसके मसर से उतार मलया।

बूटी ने क ा-र ने दे , र ने दे , जाकर भैंस द ु , मैं तो गोबर मलये जाती ू ाँ।

‘तुम इतना भारी बोझ क्यों उठा लेती ो, मुझे क्यों न ीिं बुजला लेतीिं?’

माता का हृदय वातसल्य से गदगद ो उठा।

‘तू जा अपना काम दे खिं मेरे पीछे क्यों पड़ता ै !’

‘गोबर तनकालने का काम मेरा ै ।’

‘और दि
ू कौन द ु े गा ?’

‘व भी मैं करूाँगा !’

‘तू इतना बड़ा जोिा ै कक सारे काम कर लेगा !’

‘त्जतना क ता ू ाँ , उतना कर लाँ ग


ू ा।’

‘तो मैं क्या करूाँगी ?’

‘तुम लड़कों से काम लो, जो तुम् ारा िमष ै ।’

‘मेरी सुनता ै कोई?’

आज मो न बाजार से दि
ू प ु ाँचाकर लौटा, तो पान, कतथा, सुपारी, एक छोटा-सा
पानदान और थोड़ी-सी ममठाई लाया। बूटी बबगड़कर बोली-आज पैसे क ीिं िालतू
ममल गए थे क्या ? इस तर उड़ावेगा तो कै हदन तनबा ोगा?
‘मैंने तो एक पैसा भी न ीिं उड़ाया अम्मााँ। प ले मैं समझता था, तम
ु पान खातीिं
ी न ीिं।

‘तो अब मैं पान खाऊाँगी !’

‘ ााँ, और क्या! त्जसके दो-दो जवान बेटे ों, क्या व इतना शौक भी न करे ?’

बट
ू ी के सख
ू े कठोर हृदय में क ीिं से कुछ ररयाली तनकल आई, एक नन् ी-सी
कोंपल थी; उसके अिंदर ककतना रस था। उसने मैना और सो न को एक-एक
ममठाई दे दी और एक मो न को दे ने लगी।

‘ममठाई तो लड़कों के मलए लाया था अम्मााँ।’

‘और तू तो बूढ़ा ो गया, क्यों ?’

‘इन लड़कों क सामने तो बूढ़ा ी ू ाँ।’

‘लेककन मेरे सामने तो लड़का ी ै ।’

मो न ने ममठाई ले ली। मैना ने ममठाई पाते ी गप से माँु में डाल ली थी। व


केवल ममठाई का स्वाद जीभ पर छोड़कर कब की गायब ो चक
ु ी थी। मो न को
ललचाई आाँखों से दे खने लगी। मो न ने आिा लड्डू तोड़कर मैना को दे हदया।
एक ममठाई दोने में बची थी। बूटी ने उसे मो न की तरि बढ़ाकर क ा-लाया भी
तो इतनी-सी ममठाई। य ले ले।

मो न ने आिी ममठाई माँु में डालकर क ा-व तम्


ु ारा ह स्सा ै अम्मा।

‘तुम् ें खाते दे खकर मुझे जो आनिंद ममलता ै । उसमें ममठास से ज्यादा स्वाद ै ।’

उसने आिी ममठाई सो न और आिी मो न को दे दी; किर पानदान खोलकर


दे खने लगी। आज जीवन में प ली बार उसे य सौभाग्य प्राप्त ु आ। िन्य भाग
कक पतत के राज में त्जस ववभतू त के मलए तरसती र ी, व लड़के के राज में
ममली। पानदान में कई कुत्ल् यााँ ैं। और दे खो, दो छोटी-छोटी धचमधचयााँ भी ैं ;
ऊपर कड़ा लगा ु आ ै , ज ााँ चा ो, लटकाकर ले जाओ। ऊपर की तश्तरी में पान
रखे जाएाँगे।

ज्यों ी मो न बा र चला गया, उसने पानदान को मााँज-िोकर उसमें चन


ू ा, कतथा
भरा, सुपारी काटी, पान को मभगोकर तश्तरी में रखा। तब एक बीड़ा लगाकर
खाया। उस बीड़े के रस ने जैसे उसके वैिव्य की कटुता को त्स्नग्ि कर हदया।
मन की प्रसन्नता व्यव ार में उदारता बन जाती ै । अब व घर में न ीिं बैठ
सकती। उसका मन इतना ग रा न ीिं कक इतनी बड़ी ववभूतत उसमें जाकर गुम ो
जाए। एक परु ाना आईना पड़ा ु आ था। उसने उसमें माँु दे खा। ओठों पर लाली
ै । माँु लाल करने के मलए उसने थोड़े ी पान खाया ै।

ितनया ने आकर क ा-काकी, ततनक रस्सी दे दो, मेरी रस्सी टूट गई ै।

कल बूटी ने साि क हदया ोता, मेरी रस्सी गााँव-भर के मलए न ीिं ै । रस्सी टूट
गई ै तो बनवा लो। आज उसने ितनया को रस्सी तनकालकर प्रसन्न मुख से दे
दी और सद्भाव से पूछा-लड़के के दस्त बिंद ु ए कक न ीिं ितनया ?

ितनया ने उदास मन से क ा-न ीिं काकी, आज तो हदन-भर दस्त आए। जाने


दााँत आ र े ैं।

‘पानी भर ले तो चल जरा दे खू,ाँ दााँत ी ैं कक कुछ और िसाद ै । ककसी की


नजर-वजर तो न ीिं लगी ?’

‘अब क्या जाने काकी, कौन जाने ककसी की आाँख िूटी ो?’

‘चोंचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर र ता ै।’

‘त्जसने चुमकारकर बुलाया, झट उसकी गोद में चला जाता ै । ऐसा ाँसता ै कक
तम
ु से क्या क ू ाँ!’

‘कभी-कभी मााँ की नजर भी लग जाया करती ै।’

‘ऐ नौज काकी, भला कोई अपने लड़के को नजर लगाएगा!’

‘य ी तो तू समझती न ीिं। नजर आप ी लग जाती ै ।’

ितनया पानी लेकर आयी, तो बूटी उसके साथ बच्चे को दे खने चली।

‘तू अकेली ै । आजकल घर के काम-ििंिे में बड़ा अिंडस ोता ोगा।’

‘न ीिं काकी, रुवपया आ जाती ै , घर का कुछ काम कर दे ती ै , न ीिं अकेले तो


मेरी मरन ो जाती।’

बूटी को आश्चयष ु आ। रुवपया को उसने केवल तततली समझ रखा था।

‘रुवपया!’

‘ ााँ काकी, बेचारी बड़ी सीिी ै । झाडू लगा दे ती ै , चौका-बरतन कर दे ती ै , लड़के


को साँभालती ै । गाढ़े समय कौन, ककसी की बात पूछता ै काकी !’

‘उसे तो अपने ममस्सी-काजल से छुट्टी न ममलती ोगी।’

‘य तो अपनी-अपनी रुधच ै काकी! मुझे तो इस ममस्सी-काजल वाली ने


त्जतना स ारा हदया, उतना ककसी भत्क्तन ने न हदया। बेचारी रात-भर जागती
र ी। मैंने कुछ दे तो न ीिं हदया। ााँ, जब तक जीऊाँगी, उसका जस गाऊाँगी।’

‘तू उसके गुन अभी न ीिं जानती ितनया। पान के मलए पैसे क ााँ से आते ैं ?
ककनारदार साडड़यााँ क ााँ से आती ैं ?’
‘मैं इन बातो में न ीिं पड़ती काकी! किर शौक-मसिंगार करने को ककसका जी न ीिं
चा ता ? खाने-प नने की य ी तो उममर ै ।’

ितनया ने बच्चे को खटोले पर सुला हदया। बूटी ने बच्चे के मसर पर ाथ रखा,


पेट में िीरे -िीरे उाँ गली गड़ाकर दे खा। नाभी पर ीिंग का लेप करने को क ा।
रुवपया बेतनया लाकर उसे झलने लगी।

बूटी ने क ा-ला बेतनया मुझे दे दे ।

‘मैं डुला दाँ ग


ू ी तो क्या छोटी ो जाऊाँगी ?’

‘तू हदन-भर य ााँ काम-ििंिा करती ै । थक गई ोगी।’

‘तुम इतनी भलीमानस ो, और य ााँ लोग क ते थे, व बबना गाली के बात न ीिं
करती। मारे डर के तम्
ु ारे पास न आयी।’

बूटी मुस्कारायी।

‘लोग झूठ तो न ीिं क ते।’

‘मैं आाँखों की दे खी मानाँू कक कानों की सन


ु ी ?’
क तो दी ोगी। दस
ू री लड़की ोती, तो मेरी ओर से मिंु िेर लेती। मझ
ु े जलाती,
मुझसे ऐिंठती। इसे तो जैसे कुछ मालूम ी न ो। ो सकता े कक मो न ने
इससे कुछ क ा ी न ो। ााँ, य ी बात ै।

आज रुवपया बट
ू ी को बड़ी सन्
ु दर लगी। ठीक तो ै , अभी शौक-मसिंगार न करे गी
तो कब करे गी? शौक-मसिंगार इसमलए बुरा लगता ै कक ऐसे आदमी अपने भोग-
ववलास में मस्त र ते ैं। ककसी के घर में आग लग जाए, उनसे मतलब न ीिं।
उनका काम तो खाली दस
ू रों को ररझाना ै । जैसे अपने रूप की दक
ू ान सजाए,
रा -चलतों को बुलाती ों कक जरा इस दक
ू ान की सैर भी करते जाइए। ऐसे
उपकारी प्राखणयों का मसिंगार बरु ा न ीिं लगता। न ीिं, बत्ल्क और अच्छा लगता ै।
इससे मालम
ू ोता ै कक इसका रूप त्जतना सन्
ु दर ै , उतना ी मन भी सन्
ु दर
ै ; किर कौन न ीिं चा ता कक लोग उनके रूप की बखान करें । ककसे दस
ू रों की
आाँखों में छुप जाने की लालसा न ीिं ोती ? बूटी का यौवन कब का ववदा ो
चुका; किर भी य लालसा उसे बनी ु ई ै । कोई उसे रस-भरी आाँखों से दे ख लेता
ै , तो उसका मन ककतना प्रसन्न ो जाता ै । जमीन पर पााँव न ीिं पड़ते। किर
रूपा तो अभी जवान ै।

उस हदन से रूपा प्राय: दो-एक बार तनतय बूटी के घर आती। बूटी ने मो न से


आग्र करके उसके मलए अच्छी-सी साड़ी माँगवा दी। अगर रूपा कभी बबना
काजल लगाए या बेरिंगी साड़ी प ने आ जाती, तो बट
ू ी क ती-ब ू -बेहटयों को य
जोधगया भेस अच्छा न ीिं लगता। य भेस तो म जैसी बहू ढ़यों के मलए ै।

रूपा ने एक हदन क ा-तुम बूढ़ी का े से ो गई अम्मााँ! लोगों को इशारा ममल


जाए, तो भौंरों की तर तम्
ु ारे द्वार पर िरना दे ने लगें ।

बूटी ने मीठे ततरस्कार से क ा-चल, मैं तेरी मााँ की सौत बनकर जाऊाँगी ?

‘अम्मााँ तो बूढ़ी ो गई।’

‘तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे ैं ?’

‘ ााँ ऐसा, बड़ी अच्छी ममट्टी ै उनकी।’

बूटी ने उसकी ओर रस-भरी आाँखों से ददे खकर पूछा-अच्छा बता, मो न से तेरा


ब्या कर दाँ ू ?

रूपा लजा गई। मख


ु पर गल
ु ाब की आभा दौड़ गई।
आज मो न दि
ू बेचकर लौटा तो बट
ू ी ने क ा-कुछ रुपये-पैसे जट
ु ा, मैं रूपा से
तेरी बातचीत कर र ी ू ाँ।
***
ददल की रानी

त्जस वीर तुकों के प्रखर प्रताप से ईसाई दतु नया कौप र ी थी , उन् ीिं का रक्त
आज कुस्तुनतुतनया की गमलयों में ब र ा ै । व ी कुस्तुनतुतनया जो सौ साल
प ले तुको के आिंतक से रा त ो र ा था, आज उनके गमष रक्त से अपना
कलेजा ठण्डा कर र ा ै । और तुकस सेनापतत एक लाख मसपाह यों के साथ तैमूरी
तेज के सामने अपनी ककस्मत का िैसला सुनने के मलए खडा ै।

तैमुर ने ववजय से भरी आखें उठाई और सेनापतत यजदानी की ओर दे ख कर


मसिं के समान गरजा-क्या चा तें ो त्जन्दगी या मौत

यजदानी ने गवष से मसर उठाकार क ा’- इज्जत की त्जन्दगी ममले तो त्जन्दगी,


वरना मौत।

तैमूर का क्रोि प्रचिंण्ड ो उठा उसने बडे-बडे अमभमातनयों का मसर तनचा कर


हदया था। य जबाब इस अवसर पर सुनने की उसे ताव न थी। इन एक लाख
आदममयों की जान उसकी मुठठी में ै । इन् ें व एक क्षण में मसल सकता ै।
उस पर इतना अभ्त् मान। इज्जत की त्जदन्गी। इसका य ी तो अथष ैं कक
गरीबों का जीवन अमीरों के भोग-ववलास पर बमलदान ककया जाए व ी शराब की
मजत्जसें, व ी अरमीतनया और काि की पररया। न ी, तैमरू ने खलीिा बायजीद
का घमिंड इसमलए न ीिं तोडा ै कक तुको को वपर उसी मदािंि स्वािीनता में
इस्लाम का नाम डुबाने को छोड दे । तब उसे इतना रक्त ब ाने की क्या जरूरत
थी। मानव-रक्त का प्रवा सिंगीत का प्रवा न ीिं, रस का प्रवा न ीिं-एक बीभतस
दश्य ै , त्जसे दे खकर आखें मु िेर लेती ैं दश्य मसर झुका लेता ै । तैमूर
ह स
िं क पशु न ीिं ै , जो य दश्य दे खने के मलए अपने जीवन की बाजी लगा दे ।
व अपने शब्दों में धिक्कार भरकर बोला-त्जसे तम
ु इज्जत की त्जन्दगी क ते
ो, व गुना और ज न्नुम की त्जन्दगी ै।
यजदानी को तैमुर से दया या क्षमा की आशा न थी। उसकी या उसके योद्वाओिं
की जान ककसी तर न ीिं बच सकती। वपर य क्यों दबें और क्यों न जान पर
खेलकर तैमूर के प्रतत उसके मन में जो घणा ै , उसे प्रकट कर दें ? उसके एक
बार कातर नेत्रों से उस रूपवान यव
ु क की ओर दे खा, जो उसके पीछे खडा, जैसे
अपनी जवानी की लगाम खीिंच र ा था। सान पर चढे ु ए, इस्पात के समान
उसके अिंग-अिंग से अतुल कोध्र की धचनगाररयों तनकल र ीिं थी। यजदानी ने
उसकी सूरत दे खी और जैसे अपनी खीिंची ु ई तलवार म्यान में कर ली और खून
के घूट पीकर बोला-ज ापना इस वक्त ित मिंद ैं लेककन अपराि क्षमा ो तो
क द ू कक अपने जीवन के ववर्य में तुको को तातररयों से उपदे श लेने की
जरूरत न ीिं। पर ज ा खद
ु ा ने नेमतों की वर्ाष की ो, व ा उन नेमतों का भोग न
करना नाशुक्री ै । अगर तलवार ी सभ्यता की सनद ोती, तो गाल कौम रोमनों
से क ीिं ज्यादा सभ्य ोती।

तैमरू जोर से सा और उसके मसपाह यों ने तलवारों पर ाथ रख मलए। तैमरू


का ठ ाका मौत का ठ ाका था या धगरनेवाला वज्र का तडाका।

तातारवाले पशु ैं क्यों ?

मैं य न ीिं क ता।

तम
ु क ते ो, खद
ु ा ने तम्
ु ें ऐश करने के मलए पैदा ककया ै। मैं क ता ू , य
कुि ै । खुदा ने इनसान
् को बन्दगी के मलए पैदा ककया ै और इसके खखलाि
जो कोई कुछ करता ै, व कावपर ै , ज न्नुमी रसूलेपाक मारी त्जन्दगी को
पाक करने के मलए, में सच्चा इन्सान बनाने के मलए आये थे, में रा की
तालीम दे ने न ीिं। तैमूर दतु नया को इस कुि से पाक कर दे ने का बीडा उठा चुका
ै । रसल
ू ेपाक के कदमों की कसम, मैं बेर म न ीिं ू जामलम न ीिं ू , खख
ू ार न ीिं

ू , लेककन कुि की सजा मेरे ईमान में मौत के मसवा कुछ न ीिं ै।
उसने तातारी मसप सालार की तरि काततल नजरों से दे खा और ततक्षण एक
दे व-सा आदमी तलवार सौतकर यजदानी के मसर पर आ प ु चा। तातारी सेना भी
मलवारें खीच-खीचकर तुकस सेना पर टूट पडी और दम-के-दम में ककतनी ी लाशें
जमीन पर िडकने लगीिं।

स सा व ी रूपवान यव
ु क, जो यजदानी के पीछे खडा था, आगे बढकर तैमरू के
सामने आया और जैसे मौत को अपनी दोनों बिी ु ई मुहटठयों में मसलता ु आ
बोला-ऐ अपने को मुसलमान क ने वाले बादशा । क्या य ी व इस्लाम की य ी
तालीम ै कक तू उन ब ादरु ों का इस बेददी से खून ब ाए, त्जन् ोनें इसके मसवा
कोई गुना न ीिं ककया कक अपने खलीिा और मुल्कों की ह मायत की?

चारों तरि सन्नाटा छा गया। एक युवक, त्जसकी अभी मसें भी न भीगी थी;
तैमूर जैसे तेजस्वी बादशा का इतने खुले ु ए शब्दों में ततरस्कार करे और
उसकी जबान तालू से खखचवा ली जाए। सभी स्तत्म्भत ो र े थे और तैमूर
सम्मोह त-सा बैठा , उस यव
ु क की ओर ताक र ा था।

युवक ने तातारी मसपाह यों की तरि, त्जनके चे रों पर कुतू लमय प्रोतसा न
झलक र ा था, दे खा और बोला-तू इन मुसलमानों को कावपर क ता ै और
समझाता ै कक तू इन् ें कतल करके खद
ु ा और इस्लाम की खखदमत कर र ा ै ?
मैं तुमसे पूछता ू , अगर व लोग जो खुदा के मसवा और ककसी के सामने
मसजदा न ीिं करतें , जो रसूलेपाक को अपना र बर समझते ैं , मुसलमान न ीिं ै
तो कौन मुसलमान ैं ?मैं क ता ू , म कावपर स ी लेककन तेरे तो ैं क्या
इस्लाम जिंजीरों में बिंिे ु ए कैहदयों के कतल की इजाजत दे ता ै खुदाने अगर
तूझे ताकत दी ै , अख्त् तयार हदया ै तो क्या इसीमलए कक तू खुदा के बन्दों
का खन
ू ब ाए क्या गन
ु ा गारों को कतल करके तू उन् ें सीिे रास्ते पर ले
जाएगा। तूने ककतनी बे रमी से सततर जार ब ादरु तुको को िोखा दे कर सुरिंग
से उडवा हदया और उनके मासम
ू बच्चों और तनपराि त्स्त्रयों को अनाथ कर
हदया, तूझे कुछ अनुमान ै । क्या य ी कारनामे ै , त्जन पर तू अपने मुसलमान
ोने का गवष करता ै । क्या इसी कतल, खन
ू और ब ते दररया में अपने घोडों के
सम
ु न ीिं मभगोए ैं, बल्त् क इस्लाम को जड से खोदकर पेक हदया ै। य वीर
तूको का ी आतमोतसगष ै , त्जसने यूरोप में इस्लाम की तौ ीद िैलाई। आज
सोवपया के धगरजे में तूझे अल्ला -अकबर की सदा सुनाई दे र ी ै , सारा यूरोप
इस्लाम का स्वागत करने को तैयार ै । क्या य कारनामे इसी लायक ैं कक
उनका य इनाम ममले। इस खयाल को हदल से तनकाल दे कक तू खूरेजी से
इस्लाम की खखदमत कर र ा ै । एक हदन तझ
ू े भी परवरहदगार के सामने कमो
का जवाब दे ना पडेगा और तेरा कोई उज्र न सन
ु ा जाएगा, क्योंकक अगर तझ
ू में
अब भी नेक और बद की कमीज बाकी ै , तो अपने हदल से पूछ। तूने य
त्ज ाद खुदा की रा में ककया या अपनी ववस के मलए और मैं जानता ू , तूझे
जसे जवाब ममलेगा, व तेरी गदष न शमष से झुका दे गा।

खलीिा अभी मसर झुकाए ी थी की यजदानी ने कापते ु ए शब्दों में अजष की-
ज ापना , य गुलाम का लडका ै । इसके हदमाग में कुछ वपतूर ै । ु जूर इसकी
गुस्ताखखयों को मुआि करें । मैं उसकी सजा झेलने को तैयार ू ाँ।

तैमूर उस युवक के चे रे की तरि स्त् थर नेत्रों से दे ख र ा था। आप जीवन में


प ली बार उसे तनभीक शब्दों के सुनने का अवसर ममला। उसके सामने बडे-बडे
सेनापततयों, मिंबत्रयों और बादशा ों की जबान न खुलती थी। व जो कुछ क ता
था, व ी कानून था, ककसी को उसमें चू करने की ताकत न थी। उसका खुशामदों
ने उसकी अ म्मन्यता को आसमान पर चढा हदया था। उसे ववश्वास ो गया था
कक खुदा ने इस्लाम को जगाने और सुिारने के मलए ी उसे दतु नया में भेजा ै।
उसने पैगम्बरी का दावा तो न ीिं ककया, पर उसके मन में य भावना दढ ो गई
थी, इसमलए जब आज एक युवक ने प्राणों का मो छोडकर उसकी कीततष का
परदा खोल हदया, तो उसकी चेतना जैसे जाग उठी। उसके मन में क्रोि और ह स
िं ा
की जग ऋद्वा का उदय ु आ। उसकी आिंखों का एक इशारा इस युवक की
त्जन्दगी का धचराग गल
ु कर सकता था। उसकी सिंसार ववजतयनी शक्त् त के
सामने य दि
ु मु ा बालक मानो अपने नन् े -नन् े ाथों से समुद्र के प्रवा को
रोकने के मलए खडा ो। ककतना ास्यास्पद सा स था उसके साथ ी ककतना
आतमववश्वास से भरा ु आ। तैमरू को ऐसा जान पडा कक इस तन तथे बालक के
सामने व ककतना तनबषल ै । मनुष्य मे ऐसे सा स का एक ी स्त्रोत ो सकता
ै और व सतय पर अटल ववश्वास ै । उसकी आतमा दौडकर उस युवक के
दामन में धचपट जाने के मलए अिीर ो गई। व दाशषतनक न था, जो सतय में
शिंका करता ै व सरल सैतनक था, जो असतय को भी ववश्वास के साथ सतय
बना दे ता ै।

यजदानी ने उसी स्वर में क ा-ज ापना , इसकी बदजबानी का खयाल न


िरमावें ।

तैमूर ने तुरिंत तख्त से उठकर यजदानी को गले से लगा मलया और बोला-काश,


ऐसी गुस्ताखखयों और बदजबातनयों के सुनने का प ने इततिाक ोता, तो आज
इतने बेगन
ु ा ों का खन
ू मेरी गदष न पर न ोता। मझ
ू े इस जबान में ककसी िररश्ते
की रू का जलवा नजर आता ै , जो मझ
ू जैसे गम
ु रा ों को सच्चा रास्ता हदखाने
के मलए भेजी गई ै । मेरे दोस्त, तम
ु खश
ु नसीब ो कक ऐस िररश्ता मसित बेटे
के बाप ो। क्या मैं उसका नाम पूछ सकता ू ाँ।

यजदानी प ले आतशपरस्त था, पीछे मस


ु लमान ो गया था , पर अभी तक
कभी-कभी उसके मन में शिंकाए उठती र ती थीिं कक उसने क्यों इस्लाम कबूल
ककया। जो कैदी िासी के तख्ते पर खडा सख
ू ा जा र ा था कक एक क्षण में रस्सी
उसकी गदष न में पडेगी और व लटकता र जाएगा, उसे जैसे ककसी िररश्ते ने
गोद में ले मलया। व गदगद किंठ से बोला-उसे बीबी क ते ैं।

तैमूर ने युवक के सामने जाकर उसका ाथ पकड़ मलया और उसे ऑ िंखों से


लगाता ु आ बोला-मेरे जवान दोस्त, तुम सचमुच खुदा के बीब ो, मैं व
गुना गार ू , त्जसने अपनी ज ालत में मेशा अपने गुना ों को सवाब समझा,
इसमलए कक मुझसे क ा जाता था, तेरी जात बेऐब ै । आज मूझे य मालूम ु आ
कक मेरे ाथों इस्लाम को ककतना नक
ु सान प ु चा। आज से मैं तम्
ु ारा ी दामन
पकडता ू । तम्
ु ीिं मेरे खखज्र, तुम् ी में रे र नम
ु ा ो। मझ
ु े यकीन ो गया कक
तम्
ु ारें ी वसीले से मैं खद
ु ा की दरगा तक प ु च सकता ॅ।

य क ते ु ए उसने युवक के चे रे पर नजर डाली, तो उस पर शमष की लाली


छायी ु ई थी। उस कठोरता की जग मिुर सिंकोच झलक र ा था।

युवक ने मसर झुकाकर क ा- य ु जूर की कदरदानी ै , वरना मेरी क्या स्ती ै ।

तैमूर ने उसे खीचकर अपनी बगल के तख्त पर बबठा हदया और अपने सेनापतत
को ु क्म हदया, सारे तुकष कैदी छोड हदये जाए उनके धथयार वापस कर हदये
जाए और जो माल लट
ू ा गया ै, व मसपाह यों में बराबर बाट हदया जाए।

वजीर तो इिर इस ु क्म की तामील करने लगा, उिर तैमूर बीब का ाथ पकडे

ु ए अपने खीमें में गया और दोनों मे मानों की दावत का प्रबन्ि करने लगा।
और जब भोजन समाप्त ो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथा रो-रोकर
क सुनाई, जो आहद से अिंत तक ममधश्रत पशुता और बबषरता के कतयों से भरी

ु ई थी। और उसने य सब कुछ इस भ्रम में ककया कक व ईश्वरीय आदे श का


पालन कर र ा ै। व खद
ु ा को कौन मु हदखाएगा। रोते-रोते ह चककया बि
गई।

अिंत में उसने बीब से क ा- मेरे जवान दोस्त अब मेरा बेडा आप ी पार लगा
सकते ैं। आपने रा हदखाई ै तो मिंत्जल पर प ु चाइए। मेरी बादशा त को अब
आप ी सिंभाल सकते ैं। मूझे अब मालूम ो गया कक मैं उसे तबा ी के रास्ते
पर मलए जाता था। मेरी आपसे य ी इल्तमास (प्राथषना) ै कक आप उसकी
वजारत कबूल करें । दे खखए , खुदा के मलए इन्कार न कीत्जएगा, वरना मैं क ीिं का
न ीिं र ू गा।

यजदानी ने अरज की- ु जूर इतनी कदरदानी िरमाते ैं, तो आपकी इनायत ै,
लेककन अभी इस लडके की उम्र ी क्या ै । वजारत की खखदमत य क्या अिंजाम
दे सकेगा। अभी तो इसकी तालीम के हदन ै।

इिर से इनकार ोता र ा और उिर तैमूर आग्र करता र ा। यजदानी इनकार


तो कर र े थे, पर छाती िूली जाती थी। मूसा आग लेने गये थे, पैगम्बरी ममल
गई। क ा मौत के मु में जा र े थे, वजारत ममल गई, लेककन य शिंका भी थी
कक ऐसे अस्त् थर धचिंत का क्या हठकाना आज खश
ु ु ए, वजारत दे ने को तैयार ै,
कल नाराज ो गए तो जान की खैररयत न ी। उन् ें बीब की मलयाकत पर
भरोसा था, वपर भी जी डरता था कक वीराने दे श में न जाने कैसी पडे, कैसी न
पडे। दरबारवालों में र्डयिंत्र ोते ी र ते ैं। बीब नेक ै , समझदार ै , अवसर
प चानता ै ; लेककन व तजरबा क ा से लाएगा, जो उम्र ी से आता ै।
उन् ोंने इस प्रश्न पर ववचार करने के मलए एक हदन की मु लत मािंगी और
रूखसत ु ए।

बीब यजदानी का लडका न ीिं लडकी थी। उसका नाम उम्मतुल बीब था। त्जस
वक्त यजदानी और उसकी पतनी मस
ु लमान ु ए, तो लडकी की उम्र कुल बार
साल की थी, पर प्रकतत ने उसे बद
ु ी और प्रततभा के साथ ववचार-स्वातिंस्य भी
प्रदान ककया था। व जब तक सतयासतय की परीक्षा न कर लेती, कोई बात
स्वीकार न करती। मािं-बाप के िमष-पररवतषन से उसे अशािंतत तो ु ई, पर जब तक
इस्लाम की दीक्षा न ले सकती थी। मािं-बाप भी उस पर ककसी तर का दबाब न
डालना चा ते थे। जैसे उन् ें अपने िमष को बदल दे ने का अधिकार ै , वैसे ी उसे
अपने िमष पर आरूढ र ने का भी अधिकार ै । लडकी को सिंतोर् ु आ, लेककन
उसने इस्लाम और जरथुश्त िमष-दोनों ी का तुलनातमक अध्ययन आरिं भ ककया
और पूरे दो साल के अन्वेर्ण और परीक्षण के बाद उसने भी इस्लाम की दीक्षा
ले ली। माता-वपता िूले न समाए। लड़की उनके दबाव से मस
ु लमान न ीिं ु ई ै,
बल्त् क स्वेच्छा से, स्वाध्याय से और ईमान से। दो साल तक उन् ें जो शिंका घेरे
र ती थी , व ममट गई।
यजदानी के कोई पत्र
ु न था और उस यग
ु में जब कक आदमी की तलवार ी
सबसे बड़ी अदालत थी, पत्र
ु का न र ना सिंसार का सबसे बड़ा दभ
ु ाषग्य था।
यजदानी बेटे का अरमान बेटी से पूरा करने लगा। लड़कों ी की भातत उसकी
मशक्षा-दीक्षा ोने लगी। व बालकों के से कपड़े प नती, घोड़े पर सवार ोती,
शस्त्र-वविा सीखती और अपने बाप के साथ अक्सर खलीिा बायजीद के म लों
में जाती और राजकुमारी के साथ मशकार खेलने जाती। इसके साथ ी व दशषन,
काव्य, ववज्ञान और अध्यातम का भी अभ्यास करती थी। य ािं तक कक सोल वें
वर्ष में व िौजी वविालय में दाखखल ो गई और दो साल के अन्दर व ा की
सबसे ऊची परीक्षा पारा करके िौज में नौकर ो गई। शस्त्र-वविा और सेना-
सिंचालन कला में इतनी तनपुण थी और खलीिा बायजीद उसके चररत्र से इतना
प्रसन्न था कक प ले ी प ल उसे एक जारी मन्सब ममल गया।

ऐसी युवती के चा नेवालों की क्या कमी। उसके साथ के ककतने ी अिसर, राज
पररवार के के ककतश्ने ी युवक उस पर प्राण दे ते थे , पर कोई उसकी नजरों में
न जाचता था। तनतय ी तनका के पैगाम आते थे , पर व मेशा इिंकार कर
दे ती थी। वैवाह क जीवन ी से उसे अरूधच थी। कक युवततयािं ककतने अरमानों से
व्या कर लायी जाती ैं और वपर ककतने तनरादर से म लों में बन्द कर दी
जाती ै । उनका भाग्य पुरूर्ों की दया के अिीन ै।

अक्सर ऊचे घरानों की मह लाओिं से उसको ममलने-जुलने का अवसर ममलता था।


उनके मख
ु से उनकी करूण कथा सन
ु कर व वैवाह क परािीनता से और भी
िणा करने लगती थी। और यजदानी उसकी स्वािीनता में बबलकुल बािा न दे ता
था। लड़की स्वािीन ै , उसकी इच्छा ो, वववा करे या क्वारी र े , व अपनी-आप
मुखतार ै । उसके पास पैगाम आते, तो व साि जवाब दे दे ता - मैं इस बार में
कुछ न ीिं जानता, इसका िैसला व ी करे गी।

यिवप एक युवती का पुरूर् वेर् में र ना, युवकों से ममलना-जुलने , समाज में
आलोचना का ववर्य था, पर यजदानी और उसकी स्त्री दोनों ी को उसके सतीतव
पर ववश्वास था, बीब के व्यव ार और आचार में उन् ें कोई ऐसी बात नजर न
आती थी, त्जससे उष्न् ें ककसी तर की शिंका ोती। यौवन की आिी और
लालसाओिं के तूिान में व चौबीस वर्ो की वीरबाला अपने दय की सम्पतत
मलए अटल और अजेय खड़ी थी , मानों सभी युवक उसके सगे भाई ैं।

कुस्तुनततु नया में ककतनी खमु शयािं मनाई गई, वीब का ककतना सम्मान और
स्वागत ु आ, उसे ककतनी बिाईयािं ममली, य सब मलखने की बात न ीिं श र
तवा ु आ जाता था। सिंभव था आज उसके म लों और बाजारों से आग की
लपटें तनकलती ोतीिं। राज्य और नगर को उस कल्पनातीत ववपतत से बचानेवाला
आदमी ककतने आदर, प्रेम श्रद्वा और उल्लास का पात्र ोगा, इसकी तो कल्पना
भी न ीिं की जा सकती। उस पर ककतने िूलों और ककतश्ने लाल-जवा रों की वर्ाष

ु ई इसका अनम
ु ान तो कोई कवव ी कर सकता ै और नगर की मह लाए दय
के अक्षय भिंडार से असीसें तनकाल-तनकालकर उस पर लुटाती थी और गवष से
िूली ु ई उसका मु िं तन ारकर अपने को िन्य मानती थी। उसने दे ववयों का
मस्तक ऊचा कर हदया।

रात को तैमूर के प्रस्ताव पर ववचार ोने लगा। सामने गदे दार कुसी पर यजदानी
था- सौभ्य, ववशाल और तेजस्वी। उसकी दाह नी तरि सकी पतनी थी, ईरानी
मलबास में , आिंखों में दया और ववश्वास की ज्योतत भरे ु ए। बायीिं तरि उम्मुतुल
बीब थी, जो इस समय रमणी-वेर् में मोह नी बनी ु ई थी, ब्र चयष के तेज से
दीप्त।

यजदानी ने प्रस्ताव का ववरोि करते ु ए क ा - मै अपनी तरि से कुछ न ीिं


क ना चा ता , लेककन यहद मुझे सला दें का अधिकार ै , तो मैं स्पष्ट क ता ूिं
कक तम्
ु ें इस प्रस्ताव को कभी स्वीकार न करना चाह ए , तैमरू से य बात ब ु त
हदन तक तछपी न ीिं र सकती कक तुम क्या ो। उस वक्त क्या पररत्स्थतत ोगी
, मैं न ीिं क ता। और य ािं इस ववर्य में जो कुछ टीकाए ोगी, व तुम मुझसे
ज्यादा जानती ो। य ा मै मौजद
ू था और कुतसा को मु न खोलने दे ता था पर
व ा तम
ु अकेली र ोगी और कुतसा को मनमाने, आरोप करने का अवसर ममलता
र े गा।

उसकी पतनी सवे् च्छा को इतना म तव न दे ना चा ती थी। बोली - मैने सन


ु ा ै,
तैमरू तनगा ों का अच्छा आदमी न ीिं ै । मै ककसी तर तझ
ु े न जाने दग
ू ीिं। कोई
बात ो जाए तो सारी दतु नया िं से। यों ी सनेवाले क्या कम ैं।

इसी तर स्त्री-परू
ु र् बड़ी दे र तक ऊचिं -नीच सझ
ु ाते और तर -तर की शिंकाए
करते र ें लेककन बीब मौन सािे बैठी ु ई थी। यजदानी ने समझा , बीब भी
उनसे स मत ै । इनकार की सूचना दे ने के मलए ी थी कक बीब ने पूछा - आप
तैमूर से क्या क ें गे।

य ी जो य ा तय ु आ।

मैने तो अभी कुछ न ीिं क ा,

मैने तो समझा , तुम भी मसे स मत ो।

जी न ी। आप उनसे जाकर क दे मै स्वीकार करती ू ।

माता ने छाती पर ाथ रखकर क ा- य क्या गजब करती ै बेटी। सोच दतु नया
क्या क े गी।

यजदानी भी मसर थामकर बैठ गए , मानो दय में गोली लग गई ो। मुिं से


एक शब्द भी न तनकला।

बीब तयोररयों पर बल डालकर बोली-अम्मीजान , मै आपके ु क्म से जौ-भर भी


मु न ीिं िेरना चा ती। आपकों पूरा अख्त् तयार ै , मुझे जाने दें या न दें लेककन
खल्क की खखदमत का ऐसा मौका शायद मुझे त्जिंदगी में वपर न ममलें । इस मौके
को ाथ से खो दे ने का अिसोस मझ
ु े उम्र - भर र े गा। मझ
ु े यकीन ै कक
अमीन तैमरू को मैं अपनी हदयानत, बेगरजी और सच्ची विादारी से इन्सान बना
सकती ै और शायद उसके ाथों खुदा के बिंदो का खून इतनी कसरत से न ब े ।
व हदलेर ै , मगर बेर म न ीिं। कोई हदलेर आदमी बेर म न ीिं ो सकता। उसने
अब तक जो कुछ ककया ै , मज ब के अिंिे जोश में ककया ै । आज खुदा ने मुझे
व मौका हदया ै कक मै उसे हदखा द ू कक मज ब खखदमत का नाम ै , लूट और
कतल का न ीिं। अपने बारे में मझ
ु े मत
ु लक अिंदेशा न ीिं ै । मै अपनी ह िाजत
आप कर सकती ू ाँ। मझ
ु े दावा ै कक उपने िजष को नेकनीयती से अदा करके मै
दश्ु मनों की जुबान भी बन्द कर सकती ू , और मान लीत्जए मुझे नाकामी भी ो,
तो क्या सचाई और क के मलए कुबाषन ो जाना त्जन्दगीिं की सबसे शानदार
ित न ीिं ै । अब तक मैने त्जस उसूल पर त्जन्दगी बसर की ै , उसने मुझे
िोखा न ीिं हदया और उसी के िैज से आज मुझे य दजाष ामसल ु आ ै , जो
बड़े-बड़ो के मलए त्जन्दगी का ख्वाब ै । मेरे आजमाए ु ए दोस्त मझ
ु े कभी िोखा
न ीिं दे सकते। तैमूर पर मेरी कीकत खुल भी जाए, तो क्या खौि। मेरी तलवार
मेरी ह िाजत कर सकती ै । शादी पर मेरे ख्याल आपको मालूम ै । अगर मूझे
कोई ऐसा आदमी ममलेगा, त्जसे मेरी रू कबूल करती ो, त्जसकी जात अपनी
स्ती खोकर मै अपनी रू को ऊचािं उठा सकिंू , तो मैं उसके कदमों पर धगरकर
अपने को उसकी नजर कर दग
ू ीिं।

यजदानी ने खुश ोकर बेटी को गले लगा मलया। उसकी स्त्री इतनी जल्द
आश्वस्त न ो सकी। व ककसी तर बेटी को अकेली न छोड़ेगी। उसके साथ
व जाएगी।

कई म ीने गुजर गए। युवक बीब तैमूर का वजीर ै , लेककन वास्तव में व ी
बादशा ै । तैमूर उसी की आखों से दे खता ै , उसी के कानों से सुनता ै और
उसी की अक्ल से सोचता ै। व चा ता ै , बीब आठों प र उसके पास
र े ।उसके सामीप्य में उसे स्वगष का-सा सख
ु ममलता ै । समरकिंद में एक प्राणी
भी ऐसा न ीिं, जो उससे जलता ो। उसके बताषव ने सभी को मग्ु ि कर मलया ै,
क्योंकक व इन्साि से जै-भर भी कदम न ीिं टाता। जो लोग उसके ाथों
चलती ु ई न्याय की चक्की में वपस जातें ै , वे भी उससे सदभाव ी रखते ै ,
क्योकक व न्याय को जरूरत से ज्यादा कटु न ीिं ोने दे ता।

सिंध्या ो गई थी। राज्य कमषचारी जा चक


ु े थे। शमादान में मोम की बततयों जल
र ी थी। अगर की सुगििं से सारा दीवानखाना म क र ा था। बीब उठने ी को
था कक चोबदार ने खबर दी- ु जूर ज ापना तशरीि ला र े ै।

बीब इस खबर से कुछ प्रसन्न न ीिं ु आ। अनय


् मिंबत्रयों की भाततिं व तैमरू की
सो बत का भूखा न ीिं ै। व मेशा तैमूर से दरू र ने की चेष्टा करता ै । ऐसा
शायद ी कभी ु आ ो कक उसने शा ी दस्तरखान पर भोजन ककया ो। तैमूर
की मजमलसों में भी व कभी शरीक न ीिं ोता। उसे जब शािंतत ममलतत ै , तब
एिंकात में अपनी माता के पास बैठकर हदन-भर का माजरा उससे क ता ै और
व उस पर अपनी पिंसद की मु र लगा दे ती ै।

उसने द्वार पर जाकर तैमूर का स्वागत ककया। तैमूर ने मसनद पर बैठते ु ए


क ा- मुझे ताज्जब
ु ोता ै कक तुम इस जवानी में जाह दों की-सी त्जिंदगी कैसे
बसर करते ो बीब। खद
ु ा ने तम्
ु ें व ु स्न हदया ै कक सीन-से- सीन
नाजनीन भी तुम् ारी माशूक बनकर अपने को खुश्नसीब समझेगी। मालूम न ीिं
तुम् ें खबर ै या न ी, जब तुम अपने मुश्की घोड़े पर सवार ोकर तनकलते ो
तो समरकिंद की खखड़ककयों पर जारों आखें तुम् ारी एक झलक दे खने के मलए
मुिंतत्जर बैठी र ती ै , पर तुम् ें ककसी तरि आखें उठाते न ीिं दे खा। मेरा खुदा
गवा ै , मै ककतना चा ता ू कक तुम् ारें कदमों के नक्श पर चलू। मैं चा ता ू
जैसे तम
ु दतु नया में र कर भी दतु नया से अलग र ते ो , वैसे मैं भी र ूिं लेककन
मेरे पास न व हदल ै न व हदमाग। मैं मेशा अपने-आप पर, सारी दतु नया
पर दात पीसता र ता ू । जैसे मुझे रदम खून की प्यास लगी र ती ै , तुम
बुझने न ीिं दे तें , और य जानते ु ए भी कक तुम जो कुछ करते ो, उससे बे तर
कोई दस
ू रा न ीिं कर सकता , मैं अपने गस्
ु से को काबू में न ीिं कर सकता। तम

त्जिर से तनकलते ो, मु ब्बत और रोशनी िैला दे ते ो। त्जसकों तम्
ु ारा दश्ु मन
ोना चाह ए , व तुम् ारा दोस्त ै । मैं त्जिर से तनकलता निरत और शुब ा
िैलाता ु आ तनकलता ू । त्जसे मेरा दोस्त ोना चाह ए व भी मेरा दश्ु मन ै।
दतु नया में बस एक ी जग ै , ज ा मुझे आवपयत ममलती ै । अगर तुम मुझे
समझते ो, य ताज और तख्त मेरे रािंस्ते के रोड़े ै , तो खुदा की कसम , मैं
आज इन पर लात मार दिं ।ू मै आज तम्
ु ारे पास य ी दरख्वास्त लेकर आया ू
कक तम
ु मझ
ु े व रास्ता हदखाओ , त्जससे मै सच्ची खश
ु ी पा सकू। मै चा ता ू ाँ ,
तुम इसी म ल में र ों ताकक मै तुमसे सच्ची त्जिंदगी का सबक सीखूिं।

बीब का दय िक से ो उठा। क ीिं अमीन पर नारीतव का र स्य खल


ु तों न ीिं
गया। उसकी समझ में न आया कक उसे क्या जवाब दे । उसका कोमल दय
तैमूर की इस करूण आतमग्लातन पर द्रववत ो गया। त्जसके नाम से दतु नया
कापती ै , व उसके सामने एक दयनीय प्राथी बना ु आ उसके प्रकाश की मभक्षा
मािंग र ा ै । तैमूर की उस कठोर ववकत शुष्क ह स
िं ातमक मुद्रा में उसे एक
स्त् नग्ि मिुर ज्योतत हदखाई दी, मानो उसका जागत वववेक भीतर से झाकिं र ा
ो। उसे अपना जीवन, त्जसमें ऊपर की स्िूततष ी न र ी थी, इस वविल उिोग
के सामने तुच्छ जान पड़ा।

उसने मुग्ि किंठ से क ा- जूर इस गुलाम की इतनी कद्र करते ै , य मेरी


खश
ु नसीबी ै , लेककन मेरा शा ी म ल में र ना मन
ु ामसब न ीिं।

तैमूर ने पूछा -क्यों

इसमलए कक ज ा दौलत ज्यादा ोती ै , व ा डाके पड़ते ैं और ज ा कद्र ज्यादा


ोती ै , व ा दश्ु मन भी ज्यादा ोते ै ।

तुम् ारी भी कोई दश्ु मन ो सकता ै।


मै खद
ु अपना दश्ु मन ो जाउ गा। आदमी का सबसे बड़ा दश्ु मन गरूर ै।

तैमूर को जैसे कोई रतन ममल गया। उसे अपनी मनतुष्त् ट का आभास ु आ।
आदमी का सबसे बड़ा दश्ु मन गरूर ै इस वाक्य को मन- ी-मन दो रा कर उसने
क ा-तम
ु मेरे काबू में कभी न आओगें बीब। तम
ु व परिं द ो, जो आसमान में
ी उड़ सकता ै । उसे सोने के वपिंजड़े में भी रखना चा ो तो िड़िड़ाता र े गा।
खैर खुदा ावपज।

य तरु िं त अपने म ल की ओर चला, मानो उस रतन को सरु क्षक्षत स्थान में रख


दे ना चा ता ो। य वाक्य प ली बार उसने न सन
ु ा था पर आज इससे जो
ज्ञान, जो आदे श जो सतप्रेरणा उसे ममली, उसे ममली, व कभी न ममली थी।

इस्तखर के इलाके से बगावत की खबर आयी ै। बीब को शिंका ै कक तैमरू


व ा प ु चकर क ीिं कतलेआम न कर दे । व शाततिंमय उपायों से इस ववद्रो को
ठिं डा करके तैमूर को हदखाना चा ता ै कक सदभावना में ककतनी शक्त् त ै । तैमूर
उसे इस मुह म पर न ीिं भेजना चा ता लेककन बीब के आग्र के सामने बेबस
ै । बीब को जब और कोई युक्त् त न सूझी तो उसने क ा- गुलाम के र ते ु ए

ु जूर अपनी जान खतरे में डालें य न ीिं ो सकता।

तैमूर मुस्कराया-मेरी जान की तुम् ारी जान के मुकाबले में कोई कीकत न ीिं ै
बीब।वपर मैने तो कभी जान की परवा न की। मैने दतु नया में कतल और लूट
के मसवा और क्या यादगार छोड़ी। मेरे मर जाने पर दतु नया मेरे नाम को रोएगी
न ी, यकीन मानों। मेरे जैसे लट
ु े रे मेशा पैदा ाते र े गें , लेककन खद
ु ा न करें ,
तम्
ु ारे दश्ु मनों को कुछ ो गया, तो य सल्तश्नत खाक में ममल जाएगी, और
तब मुझे भी सीने में खिंजन चुभा लेने के मसवा और कोई रास्ता न र े गा। मै
न ीिं क सकता बाब तुमसे मैने ककतना पाया। काश, दस-पाच साल प ले तुम
मुझे ममल जाते, तो तैमूर तवारीख में इतना रूमसया न ोता। आज अगर जरूरत
पड़े, तो मैं अपने जैसे सौ तैमरू ों को तम्
ु ारे ऊपर तनसार कर द।ू य ी समझ लो
कक मेरी रू को अपने साथ मलये जा र े ो। आज मै तम
ु से क ता ू बीब कक
मुझे तुमसे इश्क ै इसे मै अब जान पाया ूिं । मगर इसमें क्या बराई ै कक मै
भी तुम् ारें साथ चलू।

बीब ने िड़कते ु ए दय से क ा- अगर मैं आपकी जरूरत समझग


ू ा तो इतला
दग
ू ािं।

तैमरू के दाढ़ी पर ाथ रखकर क ा जैसी-तम्


ु ारी मजी लेककन रोजाना कामसद
भेजते र ना, वरना शायद मैं बेचैन ोकर चला जाऊ।

तैमूर ने ककतनी मु ब्बत से बीब के सिर की तैयाररयािं की। तर -तर के


आराम और तकल्लुिी की चीजें उसके मलए जमा की। उस कोह स्तान में य
चीजें क ा ममलेगी। व ऐसा सिंलग्न था, मानों माता अपनी लड़की को ससरु ाल
भेज र ी ो।

त्जस वक्त बीब िौज के साथ चला, तो सारा समरकिंद उसके साथ था और
तैमरू आखों पर रूमाल रखें , अपने तख्त पर ऐसा मसर झक
ु ाए बैठा था, मानों
कोई पक्षी आ त ो गया ो।

इस्तखर अरमनी ईसाईयों का इलाका था, मस


ु लमानों ने उन् ें परास्त करके व ािं
अपना अधिकार जमा मलया था और ऐसे तनयम बना हदए थे , त्जससे ईसाइयों
को पग-पग अपनी परािीनता का स्मरण ोता र ता था। प ला तनयम जत्जये
का था, जो रे क ईसाई को दे ना पड़ता था, त्जससे मुसलमान मुक्त थे। दस
ू रा
तनयम य था कक धगजों में घिंटा न बजे। तीसरा तनयम का कक्रयातमक ववरोि
ककया और जब मुसलमान अधिकाररयों ने शस्त्र-बल से काम लेना चा ा, तो
ईसाइयों ने बगावत कर दी, मस
ु लमान सब
ू ेदार को कैद कर मलया और ककले पर
सलीबी झिंडा उड़ने लगा।

बीब को य ा आज दस
ू रा हदन ै पर इस समस्या को कैसे ल करे ।

उसका उदार दय क ता था, ईसाइयों पर इन बिंिनों का कोई अथष न ीिं। रे क


िमष का समान रूप से आदर ोना चाह ए , लेककन मुसलमान इन कैदो को टा
दे ने पर कभी राजी न ोगें । और य लोग मान भी जाए तो तैमूर क्यों मानने
लगा। उसके िाममकष ववचारों में कुछ उदारता आई ै , वपर भी व इन कैदों को
उठाना कभी मिंजरू न करे गा, लेककन क्या व ईसाइयों को सजा दे कक वे अपनी
िाममषक स्वािीनता के मलए लड़ र े ै। त्जसे व सतय समझता ै, उसकी तया
कैसे करे । न ीिं, उसे सतय का पालन करना ोगा, चा े इसका नतीजा कुछ भी ो।
अमीन समझेगें मै जरूरत से ज्यादा बढ़ा जा र ा ू । कोई मुजायका न ी।

दस
ू रे हदन बीब ने प्रात काल डिंके की चोट ऐलान कराया- जत्जया माि ककया
गया, शराब और घण्टों पर कोई कैद न ीिं ै।

मस
ु लमानों में त लका पड़ गया। य कुप्र ै , रामपरस्त ै । अमीन तैमरू ने
त्जस इस्लाम को अपने खन
ू से सीचािं , उसकी जड़ उन् ीिं के वजीर बीब पाशा
के ाथों खुद र ी ै , पासा पलट गया। शा ी िौज मुसलमानों से जा ममल। बीब
ने इस्तखर के ककले में पना ली। मुसलमानों की ताकत शा ी िौज के ममल
जाने से ब ुिं त बढ़ गई थी। उन् ोनें ककला घेर मलया और य समझकर कक बीब
ने तैमूर से बगावत की ै , तैमूर के पास इसकी सूचना दे ने और पररत्स्थतत
समझाने के मलए कामसद भेजा।

आिी रात गुजर चुकी थी। तैमूर को दो हदनों से इस्तखर की कोई खबर न
ममली थी। तर -तर की शिंकाए ो र ी थी। मन में पछतावा ो र ा था कक उसने
क्यों बीब को अकेला जाने हदया। माना कक व बड़ा नीततकुशल ै , पर बगावत
क ीिं जोर पकड़ गयी तो मट
ु टी -भर आदममयों से व क्या कर सकेगा।और
बगावत यकीनन जोर पकड़ेगी। व ा के ईसाई बला के सरकश ै । जब उन् ें
मालम ोगा कक तैमूर की तलवार में जगिं लग गया और उसे अब म लों की
त्जन्दगीिं पसन्द ै , तो उनकी ह म्मत दन
ू ी ो जाएगी। बीब क ीिं दश्ू मनों से तघर
गया, तो बड़ा गजब ो जाएगा।

उसने अपने जानू पर ाथ मारा और प लू बदलकर अपने ऊपर झुझलाया। व


इतना पस्वह म्मत क्यों ो गया। क्या उसका तेज और शौयष उससे ववदा ो
गया। त्जसका नाम सुनकर दश्ु मन में कम्पन पड़ जाता था, व आज अपना मु
तछपाकर म लो में बैठा ु आ ै । दतु नया की आखों में इसका य ी अथष ो सकता
ै कक तैमरू अब मैदान का शेर न ीिं , कामलन का शेर ो गया। बीब िररश्ता ै,
जो इन्सान की बरु ाइयों से वाककि न ीिं। जो र म और सािहदली और बेगरजी
का दे वता ै , व क्या जाने इन्सान ककतना शैतान ो सकता ै । अमन के हदनों
में तो ये बातें कौम और मुल्क को तरक्की के रास्त पर ले जाती ै पर जिंग में
, जबकक शैतानी जोश का तूपान उठता ै इन खुमशयों की गुजाइिंश न ी। उस
वक्त तो उसी की जीत ोती ै , जो इन्सानी खून का रिं ग खेले, खेतों -खमल ानों
को जलाएिं , जगलों को बसाए और बस्त् तयों को वीरान करे । अमन का कानन

जिंग के कानून से जूदा ै।

स सा चौककदार ने इस्तखर से एक कामसद के आने की खबर दी। कामसद ने


जमीन चम
ू ी और एक ककनारें अदब से खड़ा ो गया। तैमरू का रोब ऐसा छा
गया कक जो कुछ क ने आया था, व भूल गया।

तैमूर ने तयोररयािं चढ़ाकर पूछा- क्या खबर लाया ै । तीन हदन के बाद आया भी
तो इतनी रात गए।

कामसद ने वपर जमीन चूमी और बोला- खुदाविंद वजीर सा ब ने जत्जया मुआि


कर हदया।
तैमरू गरज उठा- क्या क ता ै , जत्जया माि कर हदया।

ााँ खुदाविंद।

ककसने।

वजीर सा ब ने।

ककसके ु क्म से।

अपने ु क्म से ु जूर।

ू ाँ।

और ु जूर , शराब का भी ु क्म ो गया ै।

ू ाँ।

धगरजों में घिंटों बजाने का भी ु क्म ो गया ै।

ू ाँ।

और खुदाविंद ईसाइयों से ममलकर मुसलमानों पर मला कर हदया।

तो मै क्या करू।

ु जूर मारे मामलक ै । अगर मारी कुछ मदद न ु ई तो व ा एक मुसलमान


भी त्जन्दा न बचेगा।

बीब पाशा इस वक्त क ााँ ै।

इस्तखर के ककले में ु जरू ।


और मुसलमान क्या कर र े ै।

मने ईसाइयों को ककले में घेर मलया ै।

उन् ीिं के साथ बीब को भी।

ााँ ु जूर , व ु जूर से बागी ो गए।

और इसमलए मेरे वपादार इस्लाम के खाहदमों ने उन् ें कैद कर रखा ै । मम


ु ककन
ै , मेरे प ु चते-प ु चते उन् ें कतल भी कर दें । बदजात, दरू ो जा मेरे सामने से।
मुसलमान समझते ै , बीब मेरा नौकर ै और मै उसका आका ूिं । य गलत ै ,
झूठ ै । इस सल्तनत का मामलक बीब ै , तैमूर उसका अदना गुलाम ै । उसके
िैसले में तैमूर दस्तिंदाजी न ीिं कर सकता। बेशक जत्जया मआ
ु ि ोना चाह ए।
मझ
ु े मजाज न ीिं कक दस
ू रे मज ब वालों से उनके ईमान का तावान ल।ू कोई
मजाज न ीिं ै , अगर मस्त् जद में अजान ोती ै , तो कलीसा में घिंटा क्यों बजे।
घिंटे की आवाज में कुि न ीिं ै । कावपर व ै , जा दस
ू रों का क छीन ले जो
गरीबों को सताए, दगाबाज ो, खुदगरज ो। कावपर व न ी, जो ममटटी या पतथर
क एक टुकड़े में खुदा का नूर दे खता ो, जो नहदयों और प ाड़ों मे, दरख्तों और
झाडडयों
़ में खुदा का जलवा पाता ो। य मसे और तुझसे ज्यादा खुदापरस्त ै,
जो मस्त् दज में खद
ु ा को बिंद न ीिं समझता ी कुि ै। म सब खद
ु ा के बदें ै,
सब। बस जा और उन बागी मस
ु लमानों से क दे , अगर िौरन मु ासरा न उठा
मलया गया, तो तैमूर कयामत की तर आ प ु चेगा।

कामसद तबद्
ु वव -सा खड़ा ी था कक बा र खतरे का बबगल
ु बज उठा और िौजें
ककसी समर-यात्रा की तैयारी करने लगी।

8
तीसरे हदन तैमरू इस्तखर प ु चा, तो ककले का मु ासरा उठ चक
ु ा था। ककले की
तोपों ने उसका स्वागत ककया। बीब ने समझा, तैमरू ईसाईयों को सजा दे ने आ
र ा ै । ईसाइयों के ाथ-पाव िूले ु ए थे , मगर बीब मुकाबले के मलए तैयार
था। ईसाइयों के स्वप्न की रक्षा में यहद जान भी जाए, तो कोई गम न ी। इस
मुआमले पर ककसी तर का समझौता न ीिं ो सकता। तैमूर अगर तलवार से
काम लेना चा ता ै ,तो उसका जवाब तलवार से हदया जाएगा।

मगर य क्या बात ै । शा ी िौज सिेद झिंडा हदखा र ी ै । तैमूर लड़ने न ीिं
सुल करने आया ै । उसका स्वागत दस
ू री तर का ोगा। ईसाई सरदारों को
साथ मलए बीब ककले के बा र तनकला। तैमूर अकेला घोड़े पर सवार चला आ
र ा था। बीब घोड़े से उतरकर आदाब बजा लाया। तैमरू घोड़े से उतर पड़ा और
बीब का माथा चम
ू मलया और बोला-मैं सब सन
ु चक
ु ा ू बीब। तम
ु ने ब ु त
अच्छा ककया और व ी ककया जो तुम् ारे मसवा दस
ू रा न ीिं कर सकता था। मुझे
जत्जया लेने का या ईसाईयों से मज बी क छीनने का कोई मजाज न था। मै
आज दरबार करके इन बातों की तसदीक कर दग
ू ा और तब मै एक ऐसी तजवीज
बताऊगा ख ् जो कई हदन से मेरे जे न में आ र ी ै और मुझे उम्मीद ै कक
तम
ु उसे मिंजरू कर लोगें । मिंजरू करना पड़ेगा।

बीब के चे रे का रिं ग उड़ गया था। क ीिं कीकत खुल तो न ीिं गई। व क्या
तजवीज ै , उसके मन में खलबली पड़ गई।

तैमूर ने मूस्कराकर पूछा- तुम मुझसे लड़ने को तैयार थे।

बीब ने शरमाते ु ए क ा- क के सामने अमीन तैमूर की भी कोई कीकत


न ी।

बेशक-बेशक। तम
ु में िररश्तों का हदल ै ,तो शेरों की ह म्मत भी ै , लेककन
अिसोस य ी ै कक तुमने य गुमान ी क्यों ककया कक तैमूर तुम् ारे िैसले को
मिंसूख कर सकता ै। य तुम् ारी जात ै , त्जसने तुझे बतलाया ै कक सल्तनश्त
ककसी आदमी की जायदाद न ी बल्त् क एक ऐसा दरख्त ै , त्जसकी रे क शाख
और पती एक-सी खुराक पाती ै।
दोनों ककले में दाखखल ु ए। सरू ज डूब चूका था। आन-की-बान में दरबार लग
गया और उसमें तैमूर ने ईसाइयों के िाममषक अधिकारों को स्वीकार ककया।
चारों तरि से आवाज आई- खुदा मारे शा िं शा की उम्र दराज करे ।

तैमूर ने उसी मसलमसले में क ा-दोस्तों , मैं इस दआ


ु का कदार न ीिं ू ाँ। जो
चीज मैने आपसे जबरन ली थी, उसे आपको वालस दे कर मै दआ
ु का काम न ीिं
कर र ा ू । इससे क ी ज्यादा मुनामसब य ै कक आप मुझे लानत दे कक मैने
इतने हदनों तक से आवाज आई-मर बा। मर बा।

दोस्तों उन को के साथ-साथ मैं आपकी सल्तश्नत भी आपको वापस करता ू


क्योंकक खुदा की तनगा में सभी इन्सान बराबर ै और ककसी कौम या शख्स
को दस
ू री कौम पर ु कूमत करने का अख्त् तयार न ीिं ै । आज से आप अपने
बादशा ै । मझ
ु े उम्मीद ै कक आप भी मस्
ु त् लम आजादी को उसके जायज
को से म रूम न करे गें। मगर कभी ऐसा मौका आए कक कोई जाबबर कौम
आपकी आजादी छीनने की कोमशश करे , तो तैमूर आपकी मदद करने को मेशा
तैयार र े गा।

ककले में जश्न खतम ो चक


ु ा ै । उमरा और ु क्काम रूखसत ो चक
ु े ै । दीवाने
खास में मसिष तैमूर और बीब र गए ै। बीब के मुख पर आज त्स्मत ास्य
की व छटा ै ,जो सदै व गिंभीरता के नीचे दबी र ती थी। आज उसके कपोंलो पर
जो लाली, आखों में जो नशा, अिंगों में जो चिंचलता ै, व और कभी नजर न आई
थी। व कई बार तैमूर से शोखखया कर चुका ै , कई बार िं सी कर चुका ै,
उसकी यव
ु ती चेतना, पद और अधिकार को भल
ू कर च कती वपरती ै।

स सा तैमूर ने क ा- बीब, मैने आज तक तुम् ारी रे क बात मानी ै । अब मै


तम
ु से य मजवीज करता ू त्जसका मैने त्जक्र ककया था, उसे तम्
ु ें कबल
ू करना
पड़ेगा।

बीब ने िड़कते ु ए दय से मसर झुकाकर क ा- िरमाइए।

प ले वायदा करो कक तुम कबल


ू करोगें ।

मै तो आपका गल
ु ाम ू ।

न ी तुम मेरे मामलक ो, मेरी त्जन्दगी की रोशनी ो, तुमसे मैने त्जतना िैज
पाया ै , उसका अिंदाजा न ीिं कर सकता। मैने अब तक सल्तनत को अपनी
त्जन्दगी की सबसे प्यारी चीज समझा था। इसके मलए मैने व सब कुछ ककया
जो मुझे न करना चाह ए था। अपनों के खून से भी इन ाथों को दागदार ककया
गैरों के खून से भी। मेरा काम अब खतम ो चुका। मैने बुतनयाद जमा दी इस पर
म ल बनाना तुम् ारा काम ै । मेरी य ी इल्तजा ै कक आज से तुम इस
बादशा त के अमीन ो जाओ, मेरी त्जन्दगी में भी और मरने के बाद भी।

बीब ने आकाश में उड़ते ु ए क ा- इतना बड़ा बोझ। मेरे किंिे इतने मजबूत
न ी ै।

तैमूर ने दीन आग्र के स्वर में क ा- न ी मेरे प्यारे दोस्त, मेरी य इल्तजा
माननी पड़ेगी।

बीब की आखों में सी थी, अिरों पर सिंकोच। उसने आह स्ता से क ा- मिंजरू ै ।

तैमूर ने प्रिुल्त् लत स्वर में क ा - खुदा तुम् ें सलामत रखे।

लेककन अगर आपको मालूम ो जाए कक बीब एक कच्ची अक्ल की क्वारी


बामलका ै तो।
तो व मेरी बादशा त के साथ मेरे हदल की भी रानी ो जाएगी।

आपको बबलकुल ताज्जुब न ीिं ु आ।

मै जानता था।

कब से।

जब तुमने प ली बार अपने जामलम आखों से मुझें दे खा।

मगर आपने तछपाया खूब।

तम्
ु ीिं ने मसखाया। शायद मेरे मसवा य ा ककसी को य बात मालम
ू न ी।

आपने कैसे प चान मलया।

तैमूर ने मतवाली आखों से दे खकर क ा- य न बताऊगा।

य ी बीब तैमूर की बेगम मीदों के नाम से मश ू र ै।

***
धधक्कार

अनाथ और वविवा मानी के मलए जीवन में अब रोने के मसवा दस


ू रा अवलम्ब न
था। व पािंच वर्ष की थी, जब वपता का दे ािंत ो गया। माता ने ककसी तर
उसका पालन ककया। सोल वर्ष की अवस्था मकिं मु ल्लेवालों की मदद से उसका
वववा भी ो गया पर साल के अिंदर ी माता और पतत दोनों ववदा ो गए। इस
ववपतत में उसे उपने चचा विंशीिर के मसवा और कोई न र न आया, जो उसे
आश्रय दे ता। विंशीिर ने अब तक जो व्यव ार ककया था, उससे य आशा न ो
सकती थी कक व ािं व शािंतत के साथ र सकेगी पर व सब कुछ स ने और
सब कुछ करने को तैयार थी। व गाली, खझड़की, मारपीट सब स लेगी, कोई उस
पर सिंदे तो न करे गा, उस पर ममर्थया लािंछन तो न लगेगा, शो दों और लुच्चों से
तो उसकी रक्षा ोगी। विंशीिर को कुल मयाषदा की कुछ धचन्ता ु ई। मानी की
वाचना को अस्वीकार न कर सके।

लेककन दो चार म ीने में ी मानी को मालूम ो गया कक इस घर में ब ु त हदनों


तक उसका तनबा न ोगा। व घर का सारा काम करती, इशारों पर नाचती,
सबको खुश रखने की कोमशश करती पर न जाने क्यों चचा और चची दोनों उससे
जलते र ते। उसके आते ी म री अलग कर दी गई। न लाने-िुलाने के मलए
एक लौंडा था उसे भी जवाब दे हदया गया पर मानी से इतना उबार ोने पर भी
चचा और चची न जाने क्यों उससे मुिं िुलाए र ते। कभी चचा घुड़ककयािं जमाते,
कभी चची कोसती, य ािं तक कक उसकी चचेरी ब न लमलता भी बात-बात पर
उसे गामलयािं दे ती। घर-भर में केवल उसक चचेरे भाई गोकुल ी को उससे
स ानुभूतत थी। उसी की बातों में कुछ स्ने का पररचय ममलता था। व उपनी
माता का स्वभाव जानता था। अगर व उसे समझाने की चेष्टा करता, या
खल्
ु लमखल्
ु ला मानी का पक्ष लेता, तो मानी को एक घड़ी घर में र ना कहठन ो
जाता, इसमलए उसकी स ानुभुतत मानी ी को हदलासा दे ने तक र जाती थी। व
क ता-ब न, मझ
ु े क ीिं नौकर ो जाने दो, त् िर तम्
ु ारे कष्टों का अिंत ो
जाएगा। तब दे खिंग
ू ा, कौन तम्
ु ें ततरछी आिंखों से दे खता ै । जब तक पढ़ता ूिं ,
तभी तक तुम् ारे बुरे हदन ैं। मानी य स्ने में डूबी ु ई बात सुनकर पुलककत
ो जाती और उसका रोआिं-रोआिं गोकुल को आशीवाषद दे ने लगता।

आज लमलता का वववा ै । सबेरे से ी मे मानों का आना शुरू ो गया ै।


ग नों की झनकार से घर गूिंज र ा ै । मानी भी मे मानों को दे ख-दे खकर खुश
ो र ी ै । उसकी दे पर कोई आभूर्ण न ीिं ै और न ठसे सुन्दर कपड़े ी हदए
गए ैं, त् िर भी उसका मुख प्रसन्न ै।

आिी रात ो गई थी। वववा का मु ू तष तनकट आ गया था। जनवासे से प नावे


की चीजें आईं। सभी औरतें उतसुक ो- ोकर उन चीजों को दे खने लगीिं। लमलता
को आभूर्ण पह नाए जाने लगे। मानी के दय में बड़ी इच्छा ु ई कक जाकर विू
को दे ख।े अभी कल जो बामलका थी, उसे आज विू वेश में दे खने की इच्छा न
रोक सकी। व मस्
ु काती ु ई कमरे में घस
ु ी। स सा उसकी चची ने खझड़ककर
क ा-तझ
ु े य ािं ककसने बल
ु ाया था, तनकल जा य ािं से।

मानी ने बड़ी-बड़ी यातनाएिं स ी थीिं, पर आज की व खझड़की उसके दय में


बाण की तर चभ
ु गई। उसका मन उसे धिक्कारने लगा। ‘तेरे तछछोरे पन का
य ी परु स्कार ै । य ािं सु ाधगनों के बीच में तेरे आने की क्या जरूरत थी ‘ व
खखमसयाई ु ई कमरे से तनकली और एकािंत में बैठकर रोने के मलए ऊपर जाने
लगी। स सा जीने पर उसी इिंद्रनाथ से मुठभेड़ ो गई। इिंद्रनाथ गोकुल का
स पाठी और परम ममत्र था व भी न्यैते में आया ु आ था। इस वक्त गोकुल
को खोजने के मलए ऊपर आया था। मानी को व दो-बार दे ख चुका था और य
भी जानता था कक य ािं बड़ा दव्ु यषव ार ककया जाता ै । चची की बातों की भनक
उसके कान में भी पड़ गई थी। मानी को ऊर जाते दे खकर व उसके धचत का
भाव समझ गया और उसे सािंतवना दे ने के मलए ऊपर आया, मगर दरवाजा भीतर
से बिंद था। उसने ककवाड़ की दरार से भीतर झािंका। मानी मेज के पास खड़ी रो
र ी थी।

उसने िीरे से क ा-मानी, द्वार खोल दो।

मानी उसकी आवाज सन


ु कर कोने में तछप गई और गम्भीर स्वर में बोली-क्या
काम ै ?

इिंद्रनाथ ने गदगद स्वर में क ा-तुम् ारे पैरों पड़ता ूिं मानी, खोल दो।

य स्ने में डूबा ु आ ु आ ववनय मानी के मलए अभत


ू पव
ू ष था। इस तनदष य सिंसार
में कोई उससे ऐसे ववनती भी कर सकता ै , इसकी उसने स्वप्न में भी कल्पना
न की थी। मानी ने कािंपते ु ए ाथों से द्वारा खोल हदया। इिंद्रनाथ झपटकर
कमरे में घुसा, दे खा कक छत से पुखे के कड़े से एक रस्सी लटक र ी ै । उसका
दय कािंप उठा। उसने तुरन्त जेब से चाकू तनकालकर रस्सी काट दी और बोला-
क्या करने जा र ी थीिं मानी ? जानती ो, इस अपराि का क्या दिं ड ै ?

मानी ने गदष न झुकाकर क ा-इस दिं ड से कोई और दिं ड कठोर ो सकता ै ?


त्जसकी सूरत से लोगों का घणा ै , उसे मरने के मलए भी अगर कठोर दिं ड हदया
जाए, तो मैं य ी क ूिं गी कक ईश्वर के दरबार में न्याय का नाम भी न ीिं ै।

इन्द्रनाथ की आिंखे सजल ो गईं। मानी की बातों में ककतना कठोर सतय भ्िंरा

ु आ था। बोला-सदा ये हदन न ीिं र ें गे मानी। अगर तुम य समझ र ी ो कक


सिंसार में तुम् ारा कोई न ीिं ै , तो य तुम् ार भ्रम ै । सिंसार में कम-से-कम एक
मनष्ु य ऐसा ै , त्जसे तम्
ु ारे प्राण आने प्राणों से भी प्यारे ैं।

स सा गोकुल आता ु आ हदखाई हदया। मानी कमरे से तनकल गई 1 इन्द्रनाथ


के शब्दों से उसके मन में एक तूिान-सा उठा हदया। उसका क्या आशय ै, य
उसकी समझ में न आया। त् िर भी आज उसे अपना जीवन सार्थकष मालक
ू ो
र ा था। उसके अन्िकारमय जीवन में एक प्रकाश का उदय ो गया था।

इन्द्रनाथ को व ािं बैठे और मानी को कमरे से जाते दे खकर गोकुल को कुछ


खटक गया। उसकी तयोररयािं बदल गईं। कठोर स्वर में बोला-तम
ु य ािं कब आये
?

इद्रिं नाथ ने अववचमलत भाव से क ा-तम्


ु ीिं को खोजता ु आ य ािं आया था। तम

य ािं न ममले तो नीचे लौटा जा र ा था, अगर चला गया ोता तो इस वक्त तम्
ु ें
य कमरा बन्द ममलता और पिंखे के कड़े में एक लाश लटकती ु ई नजर आती।
गोकुल ने समझा, य अपने अपराि के तछपाने के मलए कोई ब ाना तनकाल र ा
ै । तीव्र किंठ से बोला-तुम य ववश्वासघात करोगे, मुझे ऐसी आशा न थी।

इन्द्रनाथ का चे रा लाल ो गया। व आवेश में आकार खड़ा ो गया और


बोला-न मुझे य आशा थी कक तुम मुझ पर इतना बड़ा लािंछन रख दोगे। मुझे
ने मालुम था कक तुम मुझे इतना नीच और कुहटल समझते ो। मानी तुम् ारे
मलए ततरस्कार की वस्तु ो, मेरे मलए व श्रद्धा की वस्तु ै और र े गी। मझ
ु े
तम्
ु ारे सामने अनी सिाई दे ने की जरूरत न ीिं ै , लेककन मानी केरे मलए उससे
क ीिं पववत्र ै , त्जतनी तुम समझते ो। मैं न ीिं चा ता था कक इस वक्त तुमसे
उससे ये बातें क ूिं । इसके मलए और अनूकूल पररस्थततयों की रा दे ख र ा था,
लेककन मुआमला आ पड़ने परक ना ी पड़ र ा ै । मैं य तो जानता था कक
मानी का तुम् ारे घर में कोई आदर न ीिं, लेककन तुम लोग उसे इतना नीच और
तयाज्य समझते ो, य कक आज तम्
ु ारी माताजी की बातें सन
ु कर मालम
ू ु आ।
केवल इतनी-सी बात के मलए व चढ़ावे के ग ने दे खने चली गयी थी, तम्
ु ारी
माता ने उसे इस बुरी तर खझड़का, जैसे कोई कुतते को भी न मभड़केगा। तुम
क ोगे, इसमें मैं क्या करूिं, मैं कर ी क्या सकता ूिं। त्जस घर में एक अनाथ स्त्री
पर इतना अतयाचार ो, उस घर का पानी पीना भी राम ै । अगर तम
ु ने अपनी
माता को प ले ी हदन समझा हदया ोता, तो आज य नौबत न आती। तम

इस इलजाम से न ीिं बच सकते। तुम् ारे घर में आज उतसव ै , मैं तुम् ारे माता-
वपता से कुछ न ीिं बातचीत न ीिं कर सकता, लेककन तुमसे क ने में सिंकोच न ीिं
े कक मानी को को मैं अपनी जीवन स चरी बनाकर अपने को िन्य समझूिंगा।
मैंने समझा था, उपना कोई हठकाना करके तब य प्रस्ताव करूिंगा पर मुझे भय
ै कक और ववलम्ब करने में शायद मानी से ाथ िोना पड़े, इसमलए तम्
ु ें और
तम्
ु ारें घर वालों को धचन्ता से मक्
ु त करने के मलए मैं आज ी य प्रस्ताव ककए
दे ता ूिं ।

गोकुल के दय में इिंद्रनाथा के प्रतत ऐसी श्रद्धा कभी न ु ई थी। उस पर ऐसा


सन्दे करके व ब ुत ी लज्जत ु आ। उसने य अनभ
ु व भी ककया कक माता
के भय से मैं मानी के ववर्य में तटस्थ र कर कायरता का दोर्ी ु आ ूिं । य
केवल कायरता थी और कुछ न ीिं। कुछ झेंपता ु आ बोला-अगर अम्मािं ने मानी
को इस बात पर खझड़का तो व उनकी मूखत
ष ा ै । मैं उनसे अवसर ममलते ी
पूछूाँगा।
इन्द्रनाथ-अब पछ
ू ने-पाछने का समय तनकल गया। मैं चा ता ूिं कक तम
ु मानी से
इस ववर्य में सला करके मुझे बतला दो। मैं न ीिं चा ता कक अब व य ािं
क्षण-भर भी र े । मुझे आज मालूम ु आ कक व गववषणी प्रकतत की स्त्री ै और
सच पूछो तो मैं उसके स्वभाव पर मुग्ि ो गया ूिं । ऐसी स्त्री अतयाचार न ीिं
स सकती।

गोकुल ने डरते-डरते क ा-लेककन तुम् ें मालूम ै, व वविवा ै ?

जब म ककसी के ाथों अपना असािारण ह त ोते दे खते ैं , तो म अपनी


सारी बुराइयों उसके सामने खोलकर रख दे ते ैं। म उसे हदखाना चा ते ैं कक
म आपकी इस कपा के सवषथा योग्य न ीिं ै।

इन्द्रनाथ ने मुस्कराकर क ा-जानता ूिं सन


ु चक
ु ा ूिं और इसीमलए तम्
ु ारे बाबज
ू ी
से कुछ क ने का मझ
ु े अब तक सा स न ीिं ु आ। लेककन न जानता तो भी
इसका मेरे तनश्चय पर कोई अवसर न पड़ता। मानी वविवा ी न ीिं, अछूत ो,
उससे भी गयी-बीती अगर कुछ अगर कुछ ो सकती ै, व भी ो, किर भी मेरे
मलए व रमणी-रतन ै। म छोटे -छोटे कामों के मलए तजुबेकार आदमी खोजते
ैं, त्जसके साथ में जीवन-यात्रा करनी ै , उसमें तजुबे का ोना ऐब समझते ैं।
मैं न्याय का गला घोटनेवालो में न ीिं। ववपतत से बढ़कर तजुबाष मसखाने वालो
कोई ववद्वालय आज तक न ी खल
ु ा। त्जसने इस ववद्वालय में डडग्री ले ली,
उसके ाथों में म ोकर जीवन की बागडोर दे सकते ैं । ककसी रमणी का वविा
ोना मेरी आिंखों में दोर् न ीिं, गुण ै।

गोकुल ने पछ
ू ा-अगर तम्
ु ारे घरवाले आवपत करें तो ?

इन्द्रनाथ न प्रसन्न ोकर क ा-मैं अपने घरवालों को इतना मुखष न ीिं समझता
कक इस ववर्य में आपतत करें , लेककन वे आपतत करें भी तो मैं अपनी ककस्मत
अपने ाथ में ी रखना पसिंद करता ूिं । मेरे बड़ों को मझ
ु पर अनेकों अधिकार ैं।
ब ु त-सी बातों में मैं उनकी इच्छा को कानन
ू समझता ूिं , लेककन त्जस बात को मैं
अपनी आतमा के ववकास के मलए शुभ समझता ूिं, उसमें मैं ककसी से दबना न ीिं
चा ता। मैं इस गवष का आनन्द
उठाना चा ता ूिं कक मैं स्वयिं अपने जीवन का तनमाषता ूिं ।

गोकुल ने कुछ शिंककत ोकर क ा-और मानी न मिंजूर करे ।

इन्द्रनाथ को य शिंका बबलकुल तनमषल जान पड़ी। बोले-तम


ु इस समय बच्चों
की-सी बात कर र े ो गोकुल। य मानी ु ई बात ै मानी आसनी से मिंजूर न
करे गी। व इस घर में ठोकरे , खझड़ककय िं स े गीण ् गामलय िं सुनेगी, पर इसी घर में
र े गी। युगों के सिंस्कारों को ममटा दे ना आसन न ीिं ै , लेककन में उसका राजी
करना पड़गा। उसके मन से सिंधचत सिंस्कारों को तनकालना पड़ेगा। में वविवाओिं
के पुनववषवा के पक्ष में न ीिं ू ाँ। मेरा ख्याल ै कक पततव्रत का य अलौककक
आदशष सिंसार का अमल्
ू य रतन ै और में ब ु त सोच-समझकर उस पर आघात
करना चाह ए, लेककन मानी के ववर्य में य बात न ीिं उठती। प्रेम और भत्क्त
नाम से न ीिं, व्यत्क्त से ोती ै । त्जस परू
ु र् से उसने सरू त भी नीिं दे खी, उससे
उसे प्रेम न ीिं ो सकता। केवल रस्म की बात ै । इस आडम्बर की, इस हदखावे
की, में परवा न करनी चाह ए। दे खो, शायद कोई तुम् ें बुला र ा ै । मैं भी जा
र ा ूिं । दो-तीन हदन में किर ममलूिंगा, मगर ऐसा न ो कक तुम सिंकोच में पड़कर
सोचते-ववचारते र जाओ और हदन तनकलते चले जाएिं।

गोकुल ने उसके गले में ाथ डालकर क ा-मैं परसों खुद ी आऊिंगा।

बारात ववदा ो गई थी। मे मान भी रूखसत ो गए। रात के नौ बज गए थे।


वववा के बाद की नीिंद मश ू र ै । घर के सभी लोग सरे शाम से सो र े थे। कोई
चरपाई पर, कोई तख्त पर, कोई जमीन पर, त्जसे ज ािं जग ममल गई, व ीिं सो
र ा था। केवल मानी घर की दे खभाल कर र ी थी और ऊपर गोकुल अपने कमरे
में बैठा ु आ समाचार पढ़ र ा था।

स सा गोकुल ने पुकारा-मानी, एक ग्लास ठिं डा पानी तो लाना, प्यास लगी ै।

मानी पानी लेकर ऊपर गई और मेज पर पानी रखकर लौटना ी चा ती थी कक


गोकुल ने क ा-जरा ठ रो मानी, तुमसे कुछ क ना ै।
मानी ने क ा-अभी िुरसत न ीिं ै भाई, सारा घर सो र ा ै । क ीिं कोई घुस आए
तो लोटा-थाली भी न बचे।

गोकुल ने क ा-घुस आने दो, मैं तुम् ारी जग ोता, तो चोरों से ममलकर चोरी
करवा दे ता। मुझे इसी वक्त इन्द्रनाथ से ममलना ै । मैंने उससे आज ममलने का
वचन हदया ै -दे खो सिंकोच मत करना, जो बात पूछ र ा ूिं , उसका लल्द उतर
दे ना। दे र ोगी तो व घबराएगा। इन्द्रनाथ को तुमसे प्रेम ै, य तुम जानती ो
न ?
मानी ने मिंु िेरकर क -य ी बात क ने के मलए मझ
ु े बल
ु ाया था ? मैं कुछ न ीिं
जानती।

गोकुल-खैर, य व जाने या तुम जानो। व तुमसे वववा करना चा ता ै।


वैहदक रीतत से वववा ोगा। तम्
ु ें स्वीकार ै ?

मानी की गदष न शमष से झुक गई। व कुछ जवाब न दे सकी।

गोकुल ने किर क ा-दादा और अम्मािं से य बात न ीिं क ी गई, इसका कारण


तुम जानती ी ो। व तुम् ें घुड़ककयािं दे -दे कर जला-जलाकर चा े मार डालें , पर
वववा करने की सम्मतत कभी न दें गे। इससे उनकी नाक कट जाऐगी, इसमलए
अब इसका तनणषय तुम् ारे ी ऊपर ै । मैं तो समझता ूिं , तुम् ें स्वीकार कर लेना
चाह ए। इिंद्रनाथ तम
ु से प्रेम करता ी ैं, यों भी तनष्कलिंक चररत्र आदमी और बला
का हदलेर ै 1 भय तो उसे छू ी न ीिं गया। तम्
ु ें सख
ु ी दे खकर मझ
ु े सच्चा
आन्नद ोगा।

मानी के दय में एक वेग उठ र ा था, मगर मिंु से आवाज न तनकली।

गोकुल ने अब खीझकर क ा-दे खो मानी, य चुप र ने का समय न ीिं ै । क्या


सोचती ो ?मानी ने कािंपते स्वर में क ा- ािं।

गोकुल के दय का बोझ ल्का ो गया। मुस्काने लगा। मानी शमष के मारे व ा


भाग गई।

शाम को गोकुल ने अपनी मािं से क ा-अम्मा, इिंद्रनाथ के घर आज कोइ उतसव


ै । उसकी माता अकेली घबड़ा र ी थी कक कैसे सब काम ोगा, मैंने क ा, मैं
मानी को कल भेज दिं ग
ू ा। तम्
ु ारी आज्ञा ो, तो मानी का प ुिं चा दाँ ।ू कल-परसों
तक चली आयेगी।

मानी उसी वक्त व ािं आ गई, गोकुल ने उसकी ओर कनखखयों से ताका। मानी
लज्जा से गड़ गई। भागने का रास्ता न ममला।

मािं ने क ा-मुझसे क्या पूछती ो, व जाय, ले जाओ।

गोकुल ने मानी से क ा-कपड़े प नकर तैयार ो जाओ, तम्


ु ें इिंद्रनाथ के घर
चलना ै।

मानी ने आपत्तत की-मेरा जी अच्छा न ीिं ै , मैं न जाऊिंगी।

गोकुल की मािं ने क ा-चली क्यों न ीिं जाती, क्या व ािं कोई प ाड़ खोदना ै?

मानी एक सिेद साड़ी प नकर तािंगे पर बैठी, तो उसका दय कािंप र ा था और


बार-बार आिंखों में आिंसू भर आते थे। उकसा दय बैठा जाता था, मानों नदी में
डुबन जा र ी ो।

तािंगा कुछ दरु तनकल गया तो उसने गोकुल से क ा-भैया, मेरा जी न जाने कैस
ोर ा ै । घर चलो, तुम् ारे पैर पड़ती।

गोकुल ने क ा-तू पागल ै । व ािं सब लोग तेरी रा दे ख र े ैं और तू क ती ै


लौट चलो।

मानी-मेरा मन क ता ै , कोई अतनष्ट ोने वाला ै।

गोकुल-और मेरा मन क ता ै तू रानी बनने जा र ी ै।

मानी-दस-पािंच हदन ठ र क्यों न ीिं जाते ? क दे ना, मानी बीमार ै।

गोकुल-पागलों की-सी बातें न करो।


मानी-लोग ककतना- िं सेंगे।

गोकुल-मैं शुभ कायष कें ककसी की ॅसी की परवा न ीिं करता।

मानी-अम्म तुम् ें घर में घुसने न दें गी। मेरे कारण तुम् ें भी खझड़ककय ममलें गी।

गोकुल-इसकी कोई परवा न ीिं ै । उसकी तो य आदत ी ै।

िं प ुिं च गया। इिंद्रनाथ की माता ववचारशील मह ला थीिं। उन् ोंन आकर विू
त गा
को उतारा और भीतर ले गयीिं।

गोकुल व ािं से घर चला तो ग्यार बज र े थे। एक ओर तो शुभ कायष के पूरा


करने का आनिंद था, दस
ू री ओर भय था कक कल मानी न जाएगी, तो लोगों को
क्या जवाब दिं ग
ू ा। उसने तनश्चय ककया, चलकर साि-साि क दिं ।ू तछपाना व्यथष
ै । आज न ीिं कल, कल न ीिं परसों तो सब-कुछ क ना ी पड़ेगा। आज ी क्यों
न क दिं ।ू

य तनश्चय करके घर में दाखखल ु आ।

माता ने ककवाड़ खोलते ु ए क ा-इतनी रात तक क्या करने लगे ? उसे भी क्यों
न लेते आये ? कल सवेरे चौका-बतषन कौन करे गा ?

गोकुल ने मसर झुकाकर क ा-व तो अब शायद लोटकर न आये अम्मा, उसके


व ीिं र ने का प्रबिंि ो गया ै।

माता ने आिंखे िाड़कर क ा-क्या बकता ै , भला व व ािं कैसे र े गी?

गोकुल-इिंद्रनाथ से उसका वववा ो गया ै।


माता मानो आकाश से धगर पड़ी। उन् ें कुछ सुि न र ी कक में रे मुिं से क्या
तनकल र ा ै , कुलािंगार, भड़वा, रामजादा, न जाने क्या-क्या क ा। य ािं तक कक
गोकुल का िैयष चरमसीमा का उल्लिंघन कर गया। उसका मुिं लाल ो गया,
तयोररय चढ़ गई, बोला-अम्मा, बस करो। अब, मझ
ु में इससे ज्यादा सन
ु ने की
सामर्थयष न ीिं ै । अगर मैंन कोई अनधु चत कमष ककया ोता, तो अपकी जतू तयािं
खकार भी मसर न उठाता, मगर मैंने कोई अनुधचत कमष न ीिं ककया। मैंने व ी
ककया जो ऐसी दशा में में रा कतषव्य था और जो र एक भले आदमी का करना
चाह ए। तुम मूखाष ो, तुम् ें न ीिं मालूम कक समय की क्या प्रगतत। इसीमलए अब
तक मैनें िैयष के साथ ् तुम् ारी गामलय सुनी। तुमने, और मुझे द:ु ख के साथ
क ना पड़ता ै कक वपताजी ने भी, मानी के जीवन का नारकीय बना रखा था।
तम
ु ने उसे ऐसी-ऐसी ताड़नाऍ दीिं, जो कोई अपने शत्रु को भी न दे गा। इसीमलए न
कक व तुम् ारी आधश्रत थी ? इसी मलए न कक व अनाधथन थी ? अब व
तुम् ारी गामलय खाने न आएगी। त्जस हदन तुम् ारे घर वववा का उतसव ोर ा
था, तुम् ारे ी एक कठोर वाक्य से आ त ोकर व आतम तया करने जा र ी
थी। इिंद्रनाथ उस समय ऊपर न प ुिं च जाते तो आज म, तुम, सारा घर वालात
में बैठा ोता।

माता ने आिंखे मटकाकर क ा-आ ा। ककतने सपूत बेटे ो तुम, कक सारे घर को


सिंकट से बचा मलया। क्यों न ो ? अभी ब न की बारी ै । कुछ हदन में मुझे ले
जाकर ककसी के गले में बािंि आना। किर तम्
ु ारी चािंदी ो जायेगी। य रोजगार
सबसे अच्छा ै । पढ़ मलखकर क्या करोगे ?

गोकुल ममष-वेदना से ततलममला उठा। व्यधथत किंठ से बोला-ईश्वर न करे कक कोई


बालक तम
ु जैसी माता के गभष से जन्म ले। तम्
ु ारा मिंु दे खना भी पाप ै ।

य क ता ु आ व घर से तनकल पड़ा और उन्मततों की तर एक तरि चल


खड़ा ु आ। जोर से झोंके चल र े थे, पर उसे ऐसा मालूम ो र ा था कक स स
लेने के मलए वा न ीिं ै।
7

एक सप्ता बीत गया पर गोकुल का क ीिं पता न ीिं। इिंद्रनाथ को बम्बई में एक
जग ममल गई थी। व व ािं चला गया था। व ािं र ने का प्रबिंि करके व
अपनी माता को तार दे गा और तब सास और ब ू चली जाऍगी। विंशीिर को
प ले सिंदे ु आ कक गोकुल इिंद्रनाथ के घर तछपा ोगा, पर जब व ािं पता न चला
तो उन् ोंने सारे श र में खोज-पछ
ू शुरू की। त्जतन ममलने वाले, ममत्र, स्ने ी,
सम्बन्िी थे, सभी के घर गये, पर सब जग से साि जवाब पाया। हदन-भर दौड़-
िूप कर शाम को घर आते, तो स्त्री के आड़े ाथों लेते-और कोसो लड़के को, पानी
पी-पीकर कोसो। न जाने तुम् ें कभी बवद्ध
ु आयेगी भी या न ीिं। गयी थी चुड़ल
ै ,
जाने दे ती। एक बोझ मसर से टला। एक म री रख लो, काम चल जाएगा। जब
व न थी, तो घर क्या भख
ू ों मरता था ? वविवाओिं के पन
ु ववषवा चारों ओर तो ो
र े ैं, य कोई अन ोनी बात न ीिं ै। मारे बस की बात ोती, तो वविवा-वववा
के पक्षपाततयों को दे श से तनकाल दे ते, शाप दे कर जला दे त,े लेककन य मारे बस
की बात न ीिं। किर तुमसे इतनी भी न ो सका कक मुझसे तो पूछ लेतीिं। मैं जो
उधचत समझता, करता। क्या तुमने समझा था, मैं दप्तर से लौटकर आऊिंगा ी
न ीिं, व ीिं अतयेवर्ट ो जाएगी ? बस, लड़के पर टूट पड़ी। अब रोओ, खूब हदल
खोलकर।

सिंध्या ो गई थी। विंशीिर स्त्री को िटकारें सुनाकर द्वार पर उद्वेग की दशा में
ट ल र े थे। र -र कर मानी पर क्रोि आता था। इसी राक्षसी के कसरण मेरे
घर का सवषनाश ु आ। न जाने ककस बरु ी साइत में आयी कक घर को ममटाकर
छोड़ा। व न आयी ोती, तो आज क्यों य बुरे हदन दे खने पड़ते। ककतना
ोन ार, ककतना प्रततभाशाली लड़का था। न जाने क ािं गया ?

एकाएक एक बहु ढया उनके समीप आयी और बोली-बाबू सा ब, य खत लायी ूिं ,


ले लीत्जए।
विंशीिर ने लपककर बहु ढया के ाथ से पत्र ले मलया, उनकी छाती आशा से िक-
िक करने लगी। गोकुल ने शायद य पत्र मलखा ोगा। अिंिेरे में कुछ ने सझ
ु ा।
पूछा-क से आयी ै ?

बहु ढया ने क ा-व जो बाबू ु सनेगिंज में र ते ैं , जो बम्बई में नौकर ैं, उन् ीिं की
ब ु ने भेजा ै।

विंशीिर ने कमरे में जाकर लैम्प जलाया और पत्र पढ़ने लगे। मानी का खत था
मलखा था।

‘पूज्य चाचाजी,

आभाधगनी मानी का प्रणाम स्वीकार कीत्जए।

मझ
ु े य सन
ु कर अतयन्त द:ु ख ु आ कक गोकुल भैया क ीिं चले गए और अब
तक उनका पता न ीिं ै । मैं ी इसका कारण ूिं । य कलिंक मेरे ी मख
ु पर
लगना था व भी लग गया। मेरे कारण आपको इतना शोक ु आ, इसका मुझे
ब ु त द:ु ख ै , मगर भैया आएिंगे अवश्य, इसका मुझे ववश्वास ै । मैं भी नौ बजे
वाली गाड़ी से बम्बई जा र ी ूिं । मुझझे जो कुछ अपराि ु आ ै , उसे क्षमा
कीत्जएगा और चाची से मेरा प्रणाम कह एगा। मेरी ईश्वर से य ी प्राथषना ै कक
शीघ्र ी गोकुल भैया सकुशल घर लौट आयें। ईश्वर की अच्छा ु ई तो भैया के
वववा में आपके चरणों के दशषन करूिंगी।’

विंशीिर न पत्र को िाड़कर पुजे-पुजे कर डाला। घड़ी में दे खा तो आठ बज र े थे।


तरु न्त कपड़े प ने, सड़क पर आकर एक्का ककया और स्टे शन चले।

बम्बई मेल प्लेटिामष पर खड़ा था। मुसाकिरों में भगदड़ मची ु ई थी। खोमचे
वालों की चीख-पुकार से कान पड़ी आवाज न सुनाई दे ती थी। गाड़ी छूटने में
थोड़ी ी दे र थी मानी और उसकी सास एक जनाने कमरे में बैठी ु ई थी। मानी
सजल नेत्रों से सामने ताक र ी थी। अतीत चा े दख
ु :द ी क्यों न ो, उसकी
स्मततय मिुर ोती ैं। मानी आज बुरे हदनों को स्मरण करके द:ु खी ो र ी थी।
गोकुल से अब न जाने कब भेंट ोगी। चाचाजी आ जाते तो उनके दशषन कर
लेती। कभी-कभी बबगड़ते थे तो क्या, उसके भले ी के मलए तो डािंटते थे। व
आवें गे न ीिं। अब तो गाड़ी छूटने में थोड़ी ी दे र ै । कैसे आऍ, समाज में लचल
न मच जाएगी। भगवान की इच्छा ोगी, तो अबकी जब य आऊिंगी, तो जरूर
उनके दशषन करूिंगी।

एकाएक उसने लाला विंशीिर को आते दे खा। व गाड़ी से तनकलकर बा र खड़ी


ो गई और चाचाजी की ओर बढ़ी। चरणों पर धगरना चा ती थी कक व पीछे ट
गए और ऑखे तनकालकर बोले-मझ
ु े मत छू, दरू र , अभधगनी क ीिं की। मिंु की
कामलख लगाकर मुझे पत्र मलखती ै । तुझे मौत न ीिं आती। तूने मेरे कुल का
सवषनाश कर हदया। आज तक गोकुल का पता न ीिं ै । तेरे कारण व घर से
तनकला और तू अभी तक मेरी छाती पर मूिंग दलने को बैठी ै । तेरे मलए क्या
गिंगा में पानी न ीिं ै ? मैं तुझे कुलटा, ऐसी रजाई समझता, तो प ले हदन तेरा
गला घोंट दे ता। अब मझ
ु े अपनी भत्क्त हदखलाने चली ै । तेरे जैसी पावपष्ठाओिं
का मरना ी अच्छा ै , पर्थ
ृ वी का बोझ कम ो जाएगा।
प्लेटिामष पर सैकड़ो आदममयों की भीड़ लग गई थी और विंशीिर तनलषज्ज भाव
से गामलयों की बौछार कर र े थे। ककसी की समझ में न आता था, क्या माजरा
ै , पर मन से सब लाला को धिक्कार र े थे।

मानी पार्ाण-मूततष के सामान खड़ी थी, मानो व ीिं जम गई ो। उसका सारा


अमभमान चूर-चूर ो गया। ऐसा जी चा ता था, िरती िट जाए और मैं समा
जाऊिं, कोई वज्र धगरकर उसके जीवन-अिम जीवन-का अन्त कर दे । इतने
आदममयों के सामने उसका पानी उतर गया। उसी आिंखों से पानी की एक बूिंद भी
न तनकला। दय में ऑसू न थे। उसकी जग एक दावनल-सा द क र ा था, जो
मानो वेग से मत्स्तष्क की ओर बढ़ता चला जाता था। सिंसार में कौन जीवन
इतना अिम ोगा।

सास ने पुकारा-ब ू , अन्दर आ जाओ।

गाड़ी चली तो माता ने क ा-ऐसा बेशमष आदमी न ीिं दे खा। मुझे तो ऐसा क्रोि
आ र ा था कक उसका मुिं नोच लूिं।

मानी ने मसर ऊपर न उठाया।

माता किर बोली-न जाने इन सडडयलों को बुवद्ध कब आएगी, अब तो मरने के


हदन भी आ गए। पछ
ू ो, तेरा लड़का भाग तो म क्या करें ; अगर ऐसे पापी ने ोते
तो य वज्र क्यों धगरता।

मानी ने किर भी मुिं न खोला। शायद उसे कुछ सुनाई ी न हदया था। शायद
उसे अपने अमसततव का ज्ञान भी न था। व टकटकी लगाए खखड़की की ओर
ताक र ी थी। उस अिंिकार में जाने क्या सझ
ू र ा था।

कानपुर आया। माता ने पूछ-बेटी, कुछ खाओगी ? थोड़ी-सी ममठाई खा लो; दस


कब के बज गए।

मानी ने क ा-अभी तो भूख न ीिं ै अम्मा, किर खा लूिंगी।

माताजी सोई। मानी भी लेटी; पर चचा की व सूरत आिंखों के सामने खड़ी थी


और उनकी बातें कानों में गूिंज र ी थीिं-आ , मैं इतनी नीच ूिं , ऐसी पततत, कक मेरे
मर जाने से पर्थवी का भार ल्का ो जाएगा ? क्या क ा था, तू अपने म -बाप की
बेटी ै तो किर मुिं मत हदखाना। न हदखाऊिंगी, त्जस मुिं पर ऐसी कामलमा लगी

ुई ै , उसे ककसी को हदखाने की इच्छा भी न ीिं ै।

गाड़ी अिंिकार को चीरती चली जा र ी थी। मानी ने अपना टिं क खोला और


अपने आभर्ण तनकालकर उसमें रख हदए। किर इिंद्रनाथ का धचत्र तनकालकर उसे
दे र तक दे खती र ी। उसकी आखों से गवष की एक झलक-सी हदखाई दी। उसने
तसवीर रख दी और आप- ी-आप बोली-न ीिं-न ीिं, मैं तुम् ारे जीवने को कलिंककत
न ीिं कर सकती। तुम दे वतुल्य ो, तुमन मुझ पर दया की ै । मैं अपने पूवष
सिंस्कारों का प्रायत्श्चत कर र ी थी। तुमने मुझे उठाकर दय से लगा मलया;
लेककन मैं तुम् ें कलिंककत न करूिंगी। तुमने मुझसे प्रेम ै । तुम मेरे मलए अनादर,
अपमान, तनन्दा सब स लोगे; पर मैं तम्
ु ारे जीवन का भार न बनिंग
ू ी।
गाड़ी अिंिकार को चीरती चली जा र ी थी। मानो आकाश की ओर इतनी दे र
तक दे खती र ी कक सारे तारे अदय ो गए और उस अन्िकार में उसे अपनी
माता का स्वरूप हदखाई हदया-ऐसा प्रतयक्ष कक उसने चौंककर आिंखें बन्द कर लीिं।

10

न जाने ककतनी रात गज


ु र चुकी थी। दरवाजा खल
ु ने की आ ट से माता जी की
आिंखें खुल गईं। गाड़ी तेजी से चलती जा र ी थी; मगर ब ू का पता न था व
आखें मलकर उठ बैठी और पुकारा-ब ू । ब ू । कोई जवाब न ममला।

उसका दय िक-िक करने लगा। ऊपर के बथष पर नजर डाली, पेशाबखान में
दे खा, बेंचों के नीचे दे खा, ब ू क ीिं न थी। तब व द्वार पर आकर खड़ी ो गई।
ब ू का क्या ु आ, य द्वार ककसने खोला ? कोई गाड़ी में तो न ीिं आया। उसका
जी घबराने लगा। उसने ककवाड़ बन्द कर हदया और जोर-जोर से रोने लगी।
ककससे पूछे ? डाकगाड़ी अब न जाने ककतनी दे र में रूकेगी। क ती थी, ब ू ,
मरदानी गाड़ी में बैठें। मेरा क ना न माना। क ने लगी, अम्माजी, आपको सोने
की तकलीि ोगी। य ी आराम दे गई।

स सा उसे खतरे की जिंजीर याद आई। उसने जोर-जोर से कई बार जिंजीर


खीिंची। कई ममनट के बाद गाड़ी रूकी। गाडष आया। पड़ोस के कमरे से दो-चार
आदमी और भी आये। किर लोगों ने सारा कमरा तलाश ककया। ककया नीचे तख्ते
को ध्यान से दे खा। रक्त का कोई धचन् न था। असबाब की ज च की। बबस्तर,
सिंदक
ू , सिंदक
ु ची, बरतन सब मौजद
ू थे। ताले भी सबसे बिंद थे। कोई चीज गायब
न थी। अगर बा र से कोई आदमी आता, तो चलती गाड़ी से जाता क ? एक
स्त्री को लेकर गाड़ी से कूद असम्भव था। सब लोग इन लक्षणों से इसी नतीजे
पर प ु चे कक मानी द्वार खोलकर बा र झाकने लगी ोगी और मुहठया ाथ से
छूट जाने के कारण धगर पड़ी ोगी। गाडष भला आदमी था। उसने नीचे उतरकर
एक मील तक सड़क के दोनों तरि तलाश ककया। मानी को कोई तनशान न
ममला। रात को इससे ज्यादा और क्या ककया जा सकता था ? माताजी को कुछ
लोग आग्र पव
ू क
ष एक मरदाने डब्बे में ले गए। य तनश्चय ु आ कक माताजी
अगले स्टे शन पर उतर पड़े और सबेरे इिर-उिर दरू तक दे ख-भाल की जाए।

ववपत्तत में म परमख


ु पेक्षी ो जाते ैं। माताजी कभी इसका मिंु दे खती, कभी
उसका। उसकी याचना से भरी ु ई आिंखें मानो सबसे क र ी थीिं-कोई मेरी
बच्ची को खोज क्यों न ीिं लाता ? ाय, अभी तो बेचारी की चुिंदरी भी न ीिं मैली

ु ई। कैसे-कैसे सािों और अरमानों से भरी पतत के पास जा र ी थी। कोई उस


दष्ु ट विंशीिर से जाकर क ता क्यों न ीिं-ले तेरी मनोमभलार्ा पूरी ो गई- जो तू
चा ता था, व पूरा ो गया। क्या अब भी तेरी छाती न ीिं जुडाती।

वुद्धा बैठी रो र ी थी और गाड़ी अिंिकार को चीरती चली जाती थी।

11

रवववार का हदन था। सिंध्या समय इिंद्रनाथ दो-तीन ममत्रों के साथ अपने घर की
छत पर बैठा ु आ था। आपस में ास-परर ास ो र ा था। मानी का आगमन
इस परर ास का ववर्य था।

एक ममत्र बोले-क् यों इिंद्र, तम


ु ने तो वैवाह क जीवन का कुछ अनभ
ु व ककया ै , में
क्या सला दे ते ो ? बनाए क ीिं घोसला, या यों ी डामलयों पर बैठे-बैठे हदन काटें
? पत्र-पबत्रकाओिं को दे खकर तो य ी मालूम ोता ै कक वैवाह क जीवन और नरक
में कुछ थोड़ा ी-सा अिंतर ै।
इिंद्रनाथ ने मुसकराकर
् क ा-य तो तकदीर का खेल ै , भाई, सोल ों आना
तकदीर का। अगर एक दशा में वैवाह क जीवन नरकतुल्य ै , तो दस
ू री दशा में
वगष में कम न ीिं।

दस
ू रे ममत्र बोल-इतनी आजादी तो भला क्या र े गी ?
इिंद्रनाथ-इतनी क्या, इसका शतािंश भी न र े गी। अगर तुम रोज मसनेमा दे खकर
बार बजे लौटना चा ते ो, नौ बजे सोकर उठना चा ते ो और दफ्तर से चार
बजे लौटकर ताश खेलना चा ते ो, तो तम्
ु ें वववा करने से कोई सख
ु न ोगा।
और जो र म ीने सट
ू बनवाते ो, तब शायद साल-भर भी न बनवा सको।

‘श्रीमतीजी, तो आज रात की गाड़ी से आ र ी ैं ?’

‘ ,ॉँ मेल से। मेरे साथ चलकर उन् ें ररसीव करोगे न?’

‘य भी पछ
ू ने की बात ै । अब घर कौन जाता ै , मगर कल दावत खखलानी
पड़ेगी।’

स मा तार के चपरासी ने आकर इिंद्रनाथ के ाथ में तार का मलिािा रख हदया।

इिंद्रनाथ का चे रा खखल उठा। झट तार खोलकर पढ़ने लगा। एक बार पढ़ते ी


उसका हृदय िक ो गया, सााँस रूक गई, मसर घूमने लगा। ऑ िंखों की रोशनी लुप्त
ो गई, जैसे ववश्व पर काला परदा पड़ गया ों उसने तार को ममत्रों के सामने
िेंक हदया ओर दोनों ाथों से माँु ॉँ
ढ पकर िूट-िूटकर रोने लगा। दोनों ममत्रों ने
घबड़ाकर तार उठा मलया और उसे पढ़ते ी तबुवद्ध-से ो दीवार की ओर ताकने
लगे। क्या सोच र े थे ओर क्या ो गया।

तार में मलखा था-मानी गाड़ी से कूद पड़ी। उसकी लाश लालपरु से तीन मील पर
पाई गई। मैं लालपुर में ू ाँ, तुरिंत आओ।
एक ममत्र ने क ा-ककसी शत्रु ने झठ
ू ी खबर न भेज दी ो?

ू रे ममत्र ने बोले- ,ॉँ कभी-कभी लोग ऐसी शरारतें करते ें ।


दस

इिंद्रनाथ ने शून्य नेत्रों से उनकी ओर दे खा, पर माँु से कुछ बोले न ीिं।

कई ममनट तीनों आदमी तनवाषक् तनस्पिंद बैठे र े । एकाएक इिंद्रनाथ खड़े ो गए


और बोले-मैं इस गाड़ी से जाऊिंगा।

बम्बई से नौ बजे को गाड़ी छू, टूटती थी। दोनों ने चटपट बबस्तर आहद बााँिकर
तैयार कर हदया। एक ने बबस्तर उठाया, दस
ू रे ने रिं क। इिंद्रनाथ ने चटपट कपड़े
प ने और स्टे शन चले। तनराशा आगे थी, आशा रोती ु ई पीछे ।

12

एक सप्ता गुजर गया था। लाला विंशीिर दफ्तर से आकर द्वार पर बैठे ी थे
कक इिंद्रनाथ ने आकर प्रणाम ककया। विंशीिर उसे दे खकर चौंक पड़े, उसके
अनपेक्षक्षत आगमन पर न ीिं, उसकी ववकृत दशा पर, मानो तीतराग शोक सामने
खड़ा ो, मानो कोई हृदय से तनकली ु ई आ मूततषमान ् ो गई ों

विंशीिर ने पछ
ू ा-तम
ु तो बम्बई चले गए थे न?

इिंद्रनाथ ने जवाब हदया-जी ,ॉँ आज ी आया ू ाँ।

विंशीिर ने तीखे स्वर में क ा-गोकुल को तो तुम ले बीते! आये? तुमसे क ॉँ


उसकी भें ट ु ई? क्या बम्बई चला गया था?

‘जी न ीिं, कल मैं गाड़ी से उतरा तो स्टे शन पर ममल गए।‘

‘तो जाकर लावी लाओ न, जो ककया अच्छा ककया।‘


य क ते ु ए व घर में दौड़े। एक क्षण में गोकुल की माता ने उसे उिं दर
बल
ु ाया।

व अिंदर गया तो माता ने उसे मसर से प वॉँ तक दे खा-तुम बीमार थे क्या भैया?

इिंद्रनाथ ने ाथ-माँु िोते ु ए का -मैंने तो क ा था, चलो, लेककन डर के मारे न ीिं


आते।

‘और था क ॉँ इतने हदन?’

‘क ते थे, दे ातों में घम


ू ता र ा।’

‘तो क्या तुम अकेले बम्बई से आये ो?’

‘जी न ीिं, अम्म ॉँ भी आयी ैं।’

गोकुल की माता ने कुछ सकुचाकर पछ


ू ा- मानी तो अच्छी तर ै?

इिंद्रनाथ ने ाँसकर क ा-जी ,ॉँ अब व बड़े सुख से ैं। सिंसार के बिंिनों से छूट
गई।

माता ने अववश्वास करके क ा-जी ,ॉँ अब व बड़े सुख से ै । सिंसार के बिंिनों से


छूट गई।

माता ने अववश्वास करके क ा-चल, नटखट काँ ी का! बेचारी को कोस र ा ै,


मगर जल्दी बम्बई से लौट क्यों आये?

इिंद्रनाथ ने मस्
ु काते ु ए क ा-क्या करता! माताजी का तार बम्बई में ममला कक
मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दें हदए। व लालपुर में पड़ी ु ई थी, दौड़ा ु आ
आया। व ीिं दा -कक्रया कीिं आज घर चला आया। अब मेरा अपराि क्षमा कीत्जए।
व और कुछ न क सका। ऑ िंसओ
ु के वेग ने गला बिंद कर हदयािं जेब से एक
पत्र तनकालकर माता के सामने रखता ु आ बोला-उसके सिंदक
ू में य ी पत्र ममला
ै।

गोकुल की माता कई ममतट तक ममाष त-सी बैठी जमीन की ओर ताकती र ी!


शोक और उससे अधिक पश्चाताप ने मसर को दबा रखा था। किर पत्र उठाकर
पढ़ने लगी-

‘स्वामी,

जब य पत्र आपके ाथों में प ु ाँचग


े ा, तब तक में इस सिंसार से ववदा ो जाऊाँगी।
मैं बड़ी अभाधगन ू ाँ। मेरे मलए सिंसार में स्थान न ीिं े । आपको भी मेरे कारण
क्लेश और तनन्दा ी ममलेगी। मैने सोचकर दे खा ओर य ी तनश्चय ककया कक मेरे
मलए मरना ी अच्छा े । मझ
ु पर आपने जो दया की थी, उसके मलए आपको
क्या प्रततदान करूाँ? जीवन में मैंने कभी ककसी वस्तु की इच्छा न ीिं की, परन्तु
मुझे द:ु ख ै कक आपके चरणों पर मसर रखकर न मर सकी। मेरी अिंततम याचना
ै कक मेरे मलए आप शोक न कीत्जएगा। ईश्वर आपको सदा सुखी रखे।’

माताजी ने पत्र रख हदया और ऑ िंखों से ऑ िंसू ब ने लगे। बरामदे में विंशीिर


तनस्पिंद खड़े थे और जैसे मानी लज्जानत उनके सामने खड़ी थी।

***
कायर

युवक का नाम केशव था, युवती का नाम प्रेमा। दोंनो एक ी क लेज के और


एक ी क्लास के ववद्याथी थे। केशव नये ववचारों का युवक था, जात-पााँत के
बन्िनों का ववरोिी। प्रेमा पुराने सिंस्कारों की कायल थी, पुरानी मयाषदाओिं और
प्रथाओिं में पूरा ववश्वास रखनेवाली; लेककन किर भी दोनों में गाढ़ा प्रेम ो गया था
और बात सारे क लेज में मश ु र थी। केशव ब्राह्मण ोकर भी वैश्य-कन्या प्रेमा
से वववा करके अपना जीवन साथषक करना चा ता था। उसे अपने माता-वपता
की परवा न थी। कुल-मयाषदा का ववचार भी उसे स्वााँग लगता था। उसके मलए
सतय कोई वस्तु थी तो प्रेमा, ककन्तु प्रेमा के मलए माता-वपता और कुल-पररवार के
आदे श के ववरूद्ध एक कदम बढाना भी असम्भव था।

सिंध्या का समय ै । ववक्टोररया पाकष के एक तनजषन स्थान में दोनों आमने-सामने


ररयाली पर बैठे ु ए ै । सैर करने वाले एक-एक करके ववदा ो गये ककन्तु ये
दोनों अभी व ीिं बैठे ु ए ैं। उनमें एक ऐसा प्रसिंग तछड़ा
़ ु आ ै , जो ककसी तर
समाप्त न ीिं ोता ै।

केशव ने झुिंझलाकर क ा - इसका य अथष ैं कक तुम् ें मेरी परवा न ीिं ैं।

प्रेमा ने शान्त करने की चेष्टा करके क ा - 'तम


ु मेरे साथ अन्याय कर र े ो,
केशव! लेककन मैं इस ववर्य को माता-वपता के सामने कैसे छे ड़ूाँ, य मेरी समझ
में न ी आता। वे लोग पुरानी रूहढ़यों के भक्त ैं। मेरी तरि से कोई ऐसी बात
सुनकर उनके मन में जो-जो शिंकाएाँ ोंगी उनकी कल्पना कर सकते ो?'

केशव ने उग्र भाव से पूछा - 'तो तुम भी उन् ीिं पुरानी रूहढ़यों की गुलाम ो?'

प्रेमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आाँखों से मद


ृ ु स्ने भरकर क ा - 'न ीिं, मैं उनकी गुलाम
न ीिं ू ाँ , लेककन माता-वपता की इच्छा मेरे मलए और सब चीजों से अधिक मान्य
ैं।'

'तुम् ारा व्यत्क्ततव कुछ न ी ैं?'

'ऐसा ी समझ लो।'

'मैं तो समझता था कक वे ढकोसले मख


ू ों के मलए ी ै ; लेककन अब मालम
ू ुआ
की तुम जैसी ववदवु र्यााँ भी उनकी पूजा करती ैं। जब मैं तुम् ारे मलए सिंसार को
छोड़ने के मलए तैयार ू ाँ , तो मैं तुमसे भी य ी आशा करता ू ाँ।'

प्रेमा ने मन में सोचा, मेरा अपनी दे पर क्या अधिकार ै । त्जन माता-वपता ने


अपने रक्त से मेरी सत्ृ ष्ट की ै और अपने स्ने से मुझे पाला ैं, उनकी मर ी
के खखलाफ़ कोई काम करने का मुझे कोई क़ न ी।

उसने दीनता के साथ केशव से क ा - क्या प्रेम स्त्री और परु


ु र् के रूप ी में र
सकता ैं, मैत्री के रूप में न ीिं? मैं तो प्रेम को आतमा का बन्िन समझती ू ाँ।

केशव ने कठोर भाव से क ा - 'इन दाशषतनक ववचारों से तम


ु मझ
ु े पागल कर
दोगी, प्रेमा! बस, इतना ी समझ लो कक मैं तनराश ोकर त्जन्दा न ी र सकता।
मैं प्रतयक्षवादी ू ाँ और कल्पनाओिं के सिंसार में अप्रतयझ का आनन्द उठाना मेरे
मलए असम्भव ैं।'

य क कर, उसने प्रेमा का ाथ पकड़कर, अपनी ओर खीिंचने की चेष्टा की। प्रे मा


ने झटके से ाथ छुड़ा मलया और बोली - न ीिं केशव, मैं क चुकी ू ाँ कक मैं
स्वतिंत्र न ी ू ाँ। तुम मुझसे व ची न मााँगो, त्जस पर मेरा कोई अधिकार न ीिं
ैं।

केशव ने अगर प्रेमा ने कठोर शब्द न क े ोते, तो भी उसे इतना दुःु ख न ु आ


ोता। एक क्षण व मन मारे बैठा र ा, किर उठकर तनराशा भरे स्वर में बोला -
'जैसी तम्
ु ारी इच्छा!' और आह स्ता-आह स्ता कदम उठाता ु आ व ााँ से चला
गया! प्रेमा अब भी व ीिं बैठी आाँसू ब ाती र ी।

रात को भोजन करके प्रेमा जब अपनी मााँ के साथ लेटी, तो उसकी आाँखों में नीिंद
न थी। केशव ने उसे एक ऐसी बात क दी थी, जो चिंचल पानी में पड़ने वाली
छाया की तर उसके हदल पर छायी ु ई थी। प्रततक्षण उसका रूप बदलता था।
व उसे त्स्थर न कर सकती थी। माता से इस ववर्य में कुछ क े तो कैसे?
लज्जा माँु बिंद कर दे ती थी। उसने सोचा, अगर केशव के साथ मेरा वववा न

ु आ, तो उस समय मेरा कतषव्य क्या ोगा! अगर केशव ने कुछ उद्दिंडता कर डाली
तो मेरे मलए सिंसार में किर क्या र जायेगा, लेककन मेरा बस ी क्या ैं ? इन
भााँतत-भााँतत के ववचारों में एक बात जो उसके मन में तनत्श्चत ु ई, व य थी
कक केशव के मसवा व और ककसी से वववा न करे गी।

उसकी माता ने पूछा- 'क्या तुझे अब तक नीिंद न आयी? मैने तुझसे ककतनी बार
क ा कक थोड़ा-ब ु त घर का काम-काज ककया कर; लेककन तुझे ककताबों से िुरसत
न ी ममलती। चार हदन में तू पराये घर जायेगी, कौन जाने, कैसा घर ममले! अगर
कुछ काम करने की आदत न र ी, तो कैसे तनबा ोगा?'

प्रेमा ने भोलेपन से क ा - 'मैं पराये घर जाऊाँगी ी क्यों?'

माता ने मस्
ु कराकर क ा - 'लड़ककयों के मलए य ी तो सबसे बड़ी ववपत्तत ै,
बेटी। मााँ-बाप की गोद में पलकर ज्यों ी सयानी ु ई, दस
ू रों की ो जाती ै।
अगर अच्छा प्राणी ममल गया, तो जीवन आराम से कट गया, न ीिं रो-रोकर हदन
काटने पड़ते ै । सब कुछ भाग्य मे अिीन ै । अपनी बबरादरी नें तो मुझे कोई
घर न ीिं भाता। क ीिं लड़ककयों का आदर न ी लेककन करना तो बबरादरी में ी
पड़ेगा। न जाने, य जात-पााँत का बिंिन कब टूटे गा?'
प्रेमा डरते-डरते बोली- 'क ीिं-क ीिं तो बबरादरी के बा र भी वववा ोने लगे ै ।'

उसने क ने को क हदया; लेककन उसका हृदय कााँप र ा था कक माताजी कुछ


भााँप न जायाँ।

माता ने ववस्मय के साथ पूछा-'क्या ह न्दओ


ू िं में ऐसा ु आ ै ?'

किर उसने अपने आप- ी-आप ी उस प्रश्न का जवाब भी हदया- अगर दो-चार
जग ऐसा भी ो गया, तो उससे क्या ोता ै?

प्रेमा ने इसका कुछ जवाब न हदया। भय ु आ कक माता क ीिं उसका आशय न


समझ जायाँ। उसका भववष्य एक अाँिेरी खाई की तर उसके सामने माँु खोले
खड़ा था, मानो उसे तनगल जायेगा।

उसे न जाने कब नीिंद आ गयी।

प्रातुःकाल प्रेमा सोकर उठी, तो उसके मन में एक ववधचत्र सा स का उदय ो


गया था। सभी म ततवपूणष िैसले म आकत्स्मक रूप से कर मलया करते ै,
मानो कोई दे वी शत्क्त में उनकी ओर खीिंच ले जाती ैं ; व ी ालत प्रेमा की थी।
कल तक व माता-वपता के तनणषय को मान्य समझती थी; पर सिंकट को सामने
दे खकर उसमें उस वायु की ह म्मत पैदा ो गयी थी, त्जसके सामने कोई पवषत
आ गया ो। व ीिं मद वायु प्रबल वेग से पवषत के मस्तक पर चढ़ जाती ै और
उसे कुचलती ु ई दस
ू री तरि जा प ु ाँचती ै । प्रेमा मन में सोच र ी थी- माना,
य दे माता-वपता की ैं ककन्तु आतमा को जो कुछ भुगतनी पड़ेगा, व इसी दे
से तो भग
ु तना पड़ेगा। अब व उस ववर्य में सिंकोच करना अनधु चत ी न ी,
घातक समझ र ी थी। अपने जीवन को क्यों एक झठ
ू े सम्मान पर बमलदान करें ?
उसने सोचा, वववा का आिार अगर प्रेम न ो, तो व तो दे का ववक्रय ैं।
आतमसमपषण क्या बबना प्रेम के भी ो सकता ैं? इस कल्पना ी से कक न जाने
ककस अपररधचत यव
ु क से उसका ब्या ो जायेगा, उसका हृदय ववद्रो कर उठा।

व अभी नाश्ता करके कुछ पढ़ने जा र ी थी कक उसके वपता ने प्यार से पुकारा


- मैं कल तुम् ारे वप्रिंमसपल के पास गया था, वे तुम् ारी बड़ी तारीफ़ कर र े थे।

प्रेमा ने सरल भाव से क ा - आप तो यों ी क ा करते ैं।

'न ीिं, सच।'

य क ते ु ए उन् ोंने अपनी मेज की दराज खोली और मखमली चौखटों में जड़ी

ु ई एक तस्वीर तनकालकर उसे हदखाते ु ए बोले - य लड़का आयी. सी. एस. के


इम्त ान में प्रथम आया ैं। इसका नाम तो तम
ु ने सन
ु ा ोगा?

बूढ़े वपता ने ऐसी भूममका बााँिी थी कक प्रेमा उनका आशय समझ न सके; लेककन
प्रेमा भााँप गयी। उसका मन तीर की भााँतत लक्षय पर जा प ु ाँचा। उसने बबना
तस्वीर की ओर दे खे ी क ा- न ीिं, मैने तो उसका नाम न ीिं सन
ु ा।

वपता ने बनाबटी आश्चयष से क ा- क्या? तुमने उसका नाम ी न ीिं सुना? आज


के दै तनक-पत्र में उसका धचत्र और जीवन-वतृ तान्त छपा ैं।

प्रेमा ने रुखाई से जवाब हदया- ोगा, मगर मैं तो इस परीक्षा का कोई म ततव
न ी समझती। मैं तो समझती ू ाँ, जो लोग इस परीक्षा में बैठते ैं , वे परले मसरे
के स्वाथी ोते ैं। आखखर उनका उद्देश्य इसके मसवा और क्या ोता ैं कक अपने
गरीब, तनिषन, दमलत भाईयों पर शासन करें और खब
ू िन-सिंचय करें । य तो
जीवन का कोई ऊाँचा उद्देश्य न ीिं ैं।

इस आपत्तत में जलन थी, अन्याय था, तनदष यता थी। वपताजी ने समझा था, प्रेमा
व बखान सन
ु कर लट्टू ो जायेगी। य जबान सन
ु कर तीखे स्वर में बोले- तू तो
ऐसी बात कर र ी ैं, जैसे तेरे मलए िन और अधिकार का कोई मूल्य ी न ीिं।
प्रेमा ने हढठाई से क ा- ााँ, मैं तो इसका मल्
ू य न ीिं समझती; मैं तो आदमी में
तयाग दे खती ू ाँ। मैं ऐसे यव
ु कों को जानती ू ाँ , त्जन् ें य पर जबदष स्ती भी हदया
जाय, तो स्वीकार न करें गे।

वपता ने उप ास के ढिं ग से क ा- य तो आज मैंने नयी बात सन


ु ी। मै तो
दे खता ू ाँ कक छोटी-छोटी नौकररयों के मलए लोग मारे -मारे किरते ै । मै जरा उस
लड़के की सूरत दे खना चा ता ू ाँ , त्जसमें इतना तयाग ो। मैं तो उसकी पूजा
करूाँगा।

शायद ककसी दस
ू रे अवसर पर यो शब्द सन
ु कर प्रेमा लज्जा से मसर झक
ु ा लेती;
पर इस समय की दशा उस मसपा ी की-सी थी, त्जसके पीछे ग री खाई ो। आगे
बढ़ने के मसवा इसके मलए और कोई मागष न था। अपने आवेश को सिंयम से
दबाती ु ई, आाँखों में ववद्रो भरे , व अपने कमरे में गयी और केशव के कई धचत्रों
में से व धचत्र चुनकर लायी, जो उसकी तनगा में सबसे खराब था और वपता के
सामने रख हदया। बढ़
ू े वपताजी ने धचत्र को उपेक्षा के भाव से दे खना चा ा, लेककन
प ली दृत्ष्ट में उसने उन् ें आकवर्षत कर मलया। ऊाँचा कद था औक दब
ु ल
ष ोने
पर भी उसका गठन, स्वास्र्थय और सिंयम का पररचय दे र ा था। मुख पर प्रततभा
का तेज न था; पर ववचारशीलता कुछ ऐसा प्रततबबम्ब था, जो उसके प्रतत मन में
ववश्वास पैदा करता था।

उन् ोंने धचत्र को दे खते ु ए पूछा- य ककसका धचत्र ैं ?

प्रेमा ने सिंकोच से मसर झक


ु ाकर क ा- य मेरे ी क्लास में पढ़ते ै ।

'अपनी ी बबरादरी का ैं?'

प्रेमा का मुखमुद्रा िूममल ो गयी। इसी प्रश्न के उततर पर उसकी ककस्मत का


िैसला ो जायेगा। उसके मन में पछतावा ु आ कक व्यथष में इस धचत्र को य ााँ
लायी। उसमें एक क्षण के मलए जो ढृढता आयी थी, व इस पैने प्रश्न के सामने
कातर ो उठी। दबी ु ई आवाज में बोली- 'जी न ीिं, व ब्राह्मण ैं।' और य
क ने के साथ ी व क्षुब्ि ोकर कमरे से बा र तनकल गयी; मानो य ााँ की
वायु में उसका गला घुटा जा र ा ो और दीवार की आड़ में खड़ी ोकर रोने
लगी।

लालाजी को तो प ले ऐसा क्रोि आया कक प्रेमा के बल


ु ाकर साि-साि क दे कक
य असम्भव ैं। वे उसी गुस्से में दरवाजे तक आये; लेककन प्रेमा को रोते दे खकर
नम्र ो गये। इस युवक के प्रतत प्रेमा के मन में क्या भाव थे? य उनसे तछपा न
र ा। वे स्त्री-मशक्षा के पूरे समथषक थे; लेककन इसके साथ ी कुल-मयाषदा का रक्षा
भी करना चा ते थे। अपनी ी जातत के सुयोग्य वर के मलए अपना सवषस्व
अपषण कर सकते थे, लेककन उस क्षेत्र के बा र कुलीन-से-कुलीन और योग्य-से-
योग्य वर की कल्पना भी उनके मलए असह्य थी। इससे बड़ा अपमान वे सोच ी
न सकते थे।

उन् ोंने कठोर स्वर में क ा- आज से क लेज जाना बन्द कर दो। अगर मशक्षा
कुल-मयाषदा को डूबाना ी मसखाती ै , तो व कु-मशक्षा ैं।

प्रेमा ने कातर किंठ से क ा- परीक्षा तो समीप आ गयी ैं।

लालाजी ने ढृढता से क ा- आने दो।

और किर अपने कमरे में जाकर ववचारों में डूब गये।

छुः म ीने गुजर गये।

लालाजी ने घर में आकर पतनी को एकािंत में बुलाया और बोले- ज ााँ तक मुझे
मालूम ु आ ैं, केशव ब ु त ी सुशील और प्रततभाशाली युवक ै । मै तो समझता

ु ाँ , प्रेमा इस शोक में घुल-घुलकर प्राण दे दे गी। तुमने भी समझया, मैने भी


समझाया, दस
ू रों ने भी समझाया; पर उस पर कोई असर न ी न ीिं ोता। ऐसी
दशा में मारे मलए क्या उपाय ैं?

उनकी पतनी ने धचिंततत भाव से क ा- कर तो दोगे; लेककन र ोगे क ााँ? न-जाने


क ााँ से य कुलच्छनी मेरी कोख में आयी?

लालाजी ने भाँवे मसकोड़कर ततरस्कार के साथ क ा- य तो जार दिा सुन


चुका; लेककन कुल-मयाषदा के नाम को क ााँ तक रोयें। धचडड़या का पर खोलकर
य आशा करना, कक तम्
ु ारे आाँगन में ी िुदकती र े गी, भ्रम ैं। मैने इस प्रश्न
पर ठिं ड़े हदल से ववचार ककया ै और इस नतीजे पर प ु ाँ चा ू ाँ कक में इस
आपद्धमष को स्वीकार कर लेना ी चाह ए। कुल-मयाषदा के नाम पर मै प्रेमा की
तया न ी कर सकता। दतु नया ाँसती ो, ाँसे; मगर व जमाना ब ु त जल्द
आनेवाला ैं, जब ये सभी बिंिन टूट जायेंगे। आज भी सैकड़ो वववा जात-पााँत के
बिंिनों को तोड़कर ो चुके ैं। अगर वववा का उद्देश्य स्त्री और पुरुर् का सुखमय
जीवन ै , तो म प्रेमा की उपेक्षा न ी कर सकते।

वद्ध
ृ ा ने क्षुब्ि ोकर क ा- जब तुम् ारी य ी इच्छा ै , तो मझ
ु से क्या पूछते ो?
लेककन मैं क े दे ती ू ाँ कक मैं इस वववा के नजदीक न जाऊाँगी, न कभी इस
छोकरी का माँु दे खग
ूाँ ी। समझ लाँ ग
ू ी, जैसे और सब लड़के मर गये, वैसे य भी
मर गयी।

'तो किर आखखर तुम क्या करने को क ती ो?'

'क्यों न ी उस लड़के से वववा कर दे ते, उसमे बुराई क्या ैं? दो साल में मसववल
सववषस पास करके आ जायेगा। केशव के पास क्या रखा ैं ? ब ु त ोगा, ककसी
दफ्तर में क्लकष ो जायेगा।'

'और अगर प्रेमा प्राण- तया कर ले, तो?'


'तो कर ले, तम
ु तो उसे और श दे ते ो। जब उसे मारी परवा न ीिं, तो म
उसके मलए अपने नाम को क्यों कलिंककत करें ? प्राण तया करना कोई खेल न ी ैं।
य सब िमकी ैं। मन घोड़ा ैं , जब तक उसे लगान न दो, तो पुट्ठे पर ाथ न
रखने दे गा। जब उसके मन का य ाल ै , तो कौन क े , व केशव के साथ ी
त्जन्दगी-भर तनबा करे गी। त्जस तर आज उससे प्रेम ैं , उसी तर कल दस
ू रे
से ो सकता ैं। तो क्या पतते पर अपना मािंस बबकवाना चा ते ो?'

लालाजी ने स्त्री को प्रश्नसूचक दृत्ष्ट से दे खकर क ा- और अगर व कल खुद


जाकर केशव से वववा कर ले, तो तुम क्या कर लोगी? किर तुम् ारी ककतनी
इज्जत र जायेगी! चा े व सिंकोचवश या म लोगो के मल ा से यो ी बैठी
र े , पर यहद त्जद पर कमर बााँि ले, तो म-तम
ु कुछ न ी कर सकते।

इस समस्या का ऐसा भीर्ण अिंत भी ो सकती ै, य इस वद्ध


ृ ा के ध्यान में भी
न आया था। य प्रश्न बम के गोले की तर उसके मत्स्तष्क पर धगरा। एक
क्षण तक व अवाक् बैठी र गयी, मानो इस आघात ने उसकी बवु द्ध की ित्ज्जयााँ
उड़ा दी ो। किर पराभत
ू ोकर बोली- तु ्म् ें अनोखी ी कल्पनाएाँ सझ
ू ती ैं! मैने
तो आज तक कभी भी न ीिं सुना कक ककसी कुलीन कन्या नें अपनी इच्छा से
वववा ककया ैं।

'तुमने न सुना ो; लेककन मैने सुना ै , और दे खा ै कक ऐसा ोना ब ु त सम्भव


ैं।'

'त्जस हदन ऐसा ोगा, उस हदन तम


ु मझ
ु े जीती न दे खोगे।'

'मै य न ी क ता कक ऐसा ोगा ी; लेककन ोना सम्भव ै ।'

'तो जब ऐसा ोना ै , तो इससे तो य ी अच्छा ैं कक मीिं इसका प्रबन्ि करें ।


जब नाक ी कट र ी ैं, तो तेज छुरी से क्यो न कटे । कल केशव को बुलाकर
दे खो, क्या क ता ैं।'
5

केशव के वपता सरकारी पेंशनर थे, ममजाज के धचड़धचड़े और कृपण। िमष के


आडम्बरों में ी उनके धचतत को शात्न्त ममलती थी। कल्पनाशत्क्त का अभाव
था। ककसी के मनोभावों का सम्मान न कर सकते थे। वे अब भी उस सिंसार में
र ते थे, त्जसमें उन् ोंने अपने बचपन और जवानी के हदन काटे थे। नवयग
ु की
बढ़ती ल र को वे सवषनाश क ते थे और कम-से-कम अपने घर को दोनों ाथो
और पैरों का जोर लगाकर उससे बचाये रखना चा ते थे ; इसमलए जब एक हदन
प्रेमा के वपता उनके पास प ु ाँ चे और केशव से प्रेमा के वववा का प्रस्ताव ककया,
तो बूढ़े पिंडड़तजी अपने आपे में न र सके। िुि
ाँ ली आाँखें िाड़कर बोले- आप भिंग
तो न ी खा गये ैं? इस तर का सम्बन्ि और चा े जो कुछ ो, वववा न ीिं ैं।
मालम
ू ोता ैं, आपको भी नये जमाने की वा लग गयी।

बूढ़े बाबूजी ने नम्रता से क ा- मै खुद ऐसा सम्बन्ि पसन्द न ी करता। इस


ववर्य में मेरे ववचार व ीिं ै , जो आपके; पर बात ऐसी आ पड़ी ैं कक मुझे वववश
ोकर आपकी सेवा में आना पड़ा। आजकल के लड़के और लड़ककयााँ ककतने
स्वेच्छाचारी ो गये ैं , य तो आप जानते ी ैं। म बढ़
ू े लोगों के मलए अब
अपने मसद्धािंतों की रक्षा करना कहठन ो गया ैं। मुझे भय ैं कक क ीिं ये दोनों
तनराश ोकर अपनी जान पर न खेल जायाँ।

बढ़
ू े पिंडड़तजी जमीन पर पााँव पटकते ु ए गरज उठे - आप क्या क ते ैं , सा ब!
आपको शमष न ी आती? म ब्राह्मण ैं ब्राह्मणों में भी कुलीन। ब्राह्मण ककतने
ी पततत ो गये ों, इतने मयाषदाशून्य न ीिं ु ए ैं कक बतनए-बक्कालों की लड़की
से वववा करते किरें ! त्जस हदन कुलीन ब्राह्मणों में लड़ककयााँ न र ें गी, उस हदन
य समस्या उपत्स्थत ो सकती ैं। मैन क ता ू ाँ , आपको मुझसे य बात क ने
का सा स कैसे ु आ?

बूढ़े बाबूजी त्जतना ी दबते थे, उतना ी पिंडड़तजी बबगड़ते थे। य ााँ तक कक
लालाजी अपना अपमान ज्यादा न स सकें और अपनी तकदीर को कोसते ु ए
चले गये।

उसी वक्त केशव क लेज से आया। पिंडड़तजी ने तुरन्त उसे बुलाकर कठोर किंठ से
क ा- मैं सन
ु ा ैं, तम
ु ने ककसी बतनए की लड़की से अपना वववा करने का
तनश्चय कर मलया ैं। य खबर क ााँ तक स ी ैं ?

केशव ने अनजान बनकर पूछा- आपसे ककसने क ा?

'ककसी ने क ा। मैं पूछता ू ाँ, य बात ठीक ै , या न ीिं? अगर ठीक ैं, और तुमने
मारी मयाषदा को डुबाना तनश्चय कर मलया ैं , तो तुम् ारे मलए मारे घर में कोई
स्थान न ीिं ैं। तुम् ें मेरी कमाई का एक िेला भी न ीिं ममलेगा। मेरे पास जो
कुछ ै, व मेरी कमाई ैं। मझ
ु े अत्ख्तयार ैं कक मै उसे त्जसे चा ू ाँ दे दाँ ।ू तम

य अनीतत करके मेरे घर में कदम न ीिं रख सकते। '

केशव वपता के स्वभाव से पररधचत था। प्रेमा से उसे प्रेम था, व गुप्त रूप से
प्रेमा से वववा कर लेना चा ता था। बाप तो मेशा न र ें गे। माता के स्ने पर
उसे ववश्वास था। उस प्रेम की तरिं ग में व सारे कष्टों को झेलने के मलए तैयार
मालूम ोता था; लेककन जैसे कोई कायर मसपा ी बन्दक
ू के सामने जाकर ह म्मत
खो बैठता ैं और कदम पीछे टा लेता ैं , व ी दशा केशव की ु ई। व सािारण
युवकों की तर मसद्धािंतों के मलए बड़े-बड़े तकष कर सकता था, जबान से उनमें
अपनी भत्क्त की दो ाई दे सकता था; लेककन यातनाएाँ झेलने की सामर्थयष उसनें
न थी। अगर व अपनी त्जद्द पर अड़ा और वपता ने भी अपनी टे क रखी, तो
उसका क ााँ हठकाना लगेगा? उसका सारा जीवन ी नष्ट ो जायेगा।

उसने दबी जबान से क ा- त्जसनें आपसे य क ा ैं , बबल्कुल झूठ क ा ैं।

पिंडड़तजी ने तीव्र नेत्रों से दे खकर क ा- तो य खबर बबल्कुल गलत ैं?


'जी ााँ, बबल्कुल गलत।'

'तो तुम आज ी इसी वक्त उस बतनए को खत मलख दो और याद रखो कक


अगर इस तर की चचाष किर कभी उठी, तो मै तुम् ारा सबसे बड़ा शत्रु ोउाँ गा।
बस, जाओ।'

केशव और कुछ न क सका। व व ााँ से चला, तो ऐसा मालूम ोता था कक


पैरों मे दम न ीिं ैं।

दस
ू रे हदन प्रेमा ने केशव के नाम य पत्र मलखा:-

'वप्रय केशव!

तुम् ारे पूज्य वपताजी ने लालाजी के साथ जो अमशष्ट और अपमानजनक


व्यव ार ककया ैं, उसका ाल सुनकर मेरे मन में बड़ी शिंका उतपन्न ो र ी ैं।
शायद उन् ोंने तुम् ें भी डााँट-िटकार बतायी ोगी। ऐसी दशा में मैं तुम् ारा
तनश्चय सुनने के मलए ववकल ो र ी ू ाँ। मैं तुम् ारे साथ र तर का कष्ट
झेलने को तैयार ू ाँ। मझ
ु े तम्
ु ारे वपताजी की सम्पत्तत का मो न ी ैं; मैं तो
केवल तम्
ु ारा प्रेम चा ती ू ाँ और उसी में प्रसन्न ू ाँ। आज शाम को य ीिं आकर
भोजन करो। दादा और मााँ, दोनों तुमसे ममलने के मलए ब ु त इच्छुक ैं। मैं व
स्वपन दे खने में मग्न ू ाँ , जब म दोनो उस सूत्र में बाँि जायेंगे, जो टूटना न ीिं
जानता; तो बड़ी-से-बड़ी आपत्तत में भी अटूट र ता ू ाँ।'

तुम् ारी,
प्रेमा।

सिंध्या ो गयी और इस पत्र का कोई जबाव न आया। उसकी माता बार-बार


पछ
ू ती थी- केशव आये न ी? बढ़
ू े लालाजी भी द्वार पर आाँखें लगाये बैठे थे। य ााँ
तक की रात के नौ बज गये; पर न तो केशव ी आये, न उनका पत्र।

प्रेमा के मन में भााँतत-भााँतत के सिंकल्प-ववकल्प उठ र े थे; कदाधचत ् उन् ें पत्र


मलखने का अवकाश न ममला ोगा, या आज आने की िुरसत न ममली ोगी, कल
अवश्य आ जायेंगे। केशव ने प ले उसके पास जो प्रेम-पत्र मलखे थे, उन सबको
उसने किर से पढ़ा। उनके एक-एक शब्द से ककतना अनुराग टपक र ा था, उनमें
ककतना कम्पन था, ककतनी ववकलता, ककतनी तीव्र आकााँक्षा! किर उसे केशव के वे
वाक्य याद आते, जो उसने सैकड़ो ी बार क े थे। ककतनी ी बार व उसके
सामने रोया था। इतने प्रमाणों के ोते ु ए तनराशा के मलए क ााँ स्थान था; मगर
किर भी सारी रात उसका मन जैसे सल
ू ी पर टाँ गा र ा।

प्रातुःकाल केशव का जवाब आया। प्रेमा ने कााँपते ु ए ाथों से पत्र लेकर पढ़ा।
पत्र ाथ से धगर गया। ऐसा जान पड़ा, मानो उसके दे का रक्त त्स्थर ो गया
ो, मलखा था:

'मैं बड़े सिंकट में ू ाँ कक तम्


ु ें क्या जवाब दाँ !ू मैं इिर इस समस्या पर खब
ू ठिं डे
हदल से ववचार ककया ैं और इस नतीजे पर प ु ाँ चा ू ाँ कक वतषमान दशाओिं में मेरे
मलए वपता की आज्ञा की उपेक्षा करना दुःु स ैं। मुझे कायर न समझना। मैं
स्वाथी भी न ीिं ू ाँ; लेककन मेरे सामने जो बािाएाँ ैं, उन पर ववजय पाने की शत्क्त
मुझमें न ी ैं। पुरानी बातों को भूल जाओ। उस समय मैंने इन बािाओिं की
कल्पना न की थी।!'

प्रेमा ने एक लम्बी, ग री, जलती ु ई सााँस खीिंची और उस खत को िााँड़कर िैंक


हदया। उसकी आाँखों से अश्रुिार ब ने लगी। त्जस केशव को उसनें अपने अतुःकराँ
से वर मान मलया था, व इतना तनष्ठुर ो जायेगा, इसकी उसको रतती-भर भी
आशा न थी। ऐसा मालूम पड़ा, मानो अब तक व कोई सुन रा सपना दे ख र ी
थी; पर आाँखें खुलने पर सब कुछ अदृश्य ो गया। जीवन में आशा ी लुप्त ो
गयी, तो अब अिंिकार के मसवा और क्या र ा! अपने हृदय की सारी सम्पत्तत
लगाकर उसने एक नाव लदवायी थी, व नाव जलमग्न ो गयी। अब दस
ू री नाव
क ााँ से लदवाये; अगर व नाव डूबी ैं, तो उसके साथ ी व भी डूब जायेगी।

माता ने पछ
ू ा- क्या केशव का पत्र ैं?

प्रेमा ने भूमम की ओर ताकते ु ए क ा- ााँ, उनकी तबीयत अच्छी न ीिं ैं। इसके
मसवा व और क्या क ें ? केशव की तनष्ठुरता और बेविाई का समाचार क कर
लत्ज्जत ोने का सा स उसनें न था।

हदन भर व घर के काम-ििंिों मे लगी र ी, मानो उसे कोई धचन्ता ी न ी ैं।


रात को उसने सबको भोजन कराया, खुद भी भोजन ककया और बड़ी दे क तक
ारमोतनयम पर गाती र ी।

मगर सवेरा ु आ, तो उसके कमरें में उसकी लाश पड़ी ु ई थी। प्रभात की सुन री
ककरणें उसके पीले मुख को जीवन की आभा प्रदान कर र ीिं थी!

***

मशकार

िटे वस्त्रों वाली मुतनया ने रानी वसुिा के चााँद-से मुखड़े की ओर सम्मान-भरी


आाँखों से दे खकर राजकुमार को गोद में उठाते ु ए क ा- म गरीबों का इस तर
कैसे तनबा ो सकता ैं म ारानी! मे री तो अपने आदमी से एक हदन न पटे । मैं
उसे घर में बैठने न दाँ ।ू ऐसी-ऐसी गामलयााँ सुनाऊाँ कक छठी का दि
ू याद आ
जाय।

रानी वसि
ु ा ने गम्भीर ववनोद के भाव से क ा- क्यों, व क े गा न ीिं, तू मेरे बीच
में बोलनेवाली कौन ैं? मेरी जो इच्छा ोगी, व करूाँगा। तू अपना रोटी-कपड़ा
मझ
ु से मलया कर। तझ
ु े मेरी दस
ू री बातों से क्या मतलब? मैं तेरा गल
ु ाम न ी ू ाँ।

मुतनया तीन ी हदन से य ााँ लड़कों को खखलाने के मलए नौकर ु ई थी। प ले


दो-चार घरों मे चौका-बरतन कर चक
ु ी थी; पर रातनयों से अदब के साथ बात
करना कभी न सीख पायी थी। उसका सख
ू ा ु आ सााँवला चे रा उततेत्जत ो उठा।
ककषश स्वर में बोली- त्जस हदन ऐसी बातें माँु से तनकालेगा, माँछ
ू ें उखाड़ लाँ ग
ू ी!
सरकार! व मेरा गुलाम न ी ैं, तो क्या मैं उसकी लौडी ू ाँ? अगर व मेरा गुलाम
ैं, तो मैं उसकी लौडी ू ाँ। मैं आप न ीिं खाती, उसे खखला दे ती ू ाँ, क्योंकक व मदष
का बच्चा ैं। पल्लेदारी में उसे बु त कसाला करना पड़ता ैं। आप चा े िटे
प नाँू, पर उसे िटे -परु ाने न ीिं प नने दे ती। जब मैं उसके मलए इतना करती ू ाँ , तो
मजाल ैं कक व मझ
ु े आाँखें हदखाये। अपने घर को आदमी इसीमलए तो छाता-
छोपता ैं कक उससे बरखा-बाँद
ू ी में बचाब ो। अगर य डर र े कक घर न जाने
कब धगर पड़ेगा, तो ऐसे घर में कौन र े गा? उससे तो रूख की छााँ ी क ीिं
अच्छी। कल न जाने क ााँ बैठा बैठा गाता-बजाता र ा। दस बजे रात को घर
आया। मैं रात-भर उससे बोली न ीिं। लगा पैरों पड़ने, तघतघयाने, तब मुझे दया
आयी। इसी से व कभी-कभी ब क जाता ैं; पर अब मैं पक्की ो गयी ू ाँ, किर
ककसी हदन झगड़ा ककया तो या व ी र े गा, या मैं ी र ू ाँगी। क्यों ककसी की िौंस
स ू ाँ सरकार! जो बैठकर खाये, व िौंस स े ! य ााँ तो बराबर की कमाई करती ू ाँ।

वसि
ु ा ने उसी गम्भीर भाव से किर पछ
ू ा- अगर व तझ
ु े बबठाकर खखलाता, तब
तो उसकी िौंस स ती?

मुतनया जैसे लड़ने पर उतारू ो गयी। बोली- बैठाकर कोई क्या खखलायेगा,
सरकार? मदष बा र काम करता ैं, तो म भी घर में काम करती ैं , कक घर के
काम में कुछ लगता ी न ीिं? बा र के काम से तो रात को छुट्टी ममल जाती ैं।
घर के काम से तो रात को भी छुट्टी न ी ममलती। पुरुर् य चा े कक मुझे घर
में बैठाकर आप सैर-सपाटा करे , तो मुझसे तो न स ा जाय। य क ती ु ई
मतु नया राजकुमार को मलये ु ए बा र चली गयी।

वसुिा ने थकी ु ई, रुआाँसी आखों से खखड़की की ओर दे खा। बा र रा-भरा बाग


था, त्जसके रिं ग-बबरिं गें िूल य ााँ से साि नजर आ र े थे और पीछे एक ववशाल
मत्न्दर आकाश में अपना सन
ु ला मस्तक उठाए, सय
ू ष से आाँखें ममला र ा था।
त्स्त्रयााँ रिं ग-बबरिं गे वस्त्राभर्
ू ण प ने पज
ू न करने आ र ी थीिं। मत्न्दर के दातयनी
तरि तालाब में कमल प्रभात के सुन ले आनन्द से मुस्करा र े थे और काततषक
की शीतल रवव-छवव जीवन-ज्योतत लुटाती किरती थी, पर प्रकृतत की व सुरम्य
शोभा वसुिा को कोई र्ष न प्रदान कर सकी। उसे जान पड़ा, प्रकृतत उसकी दशा
पर व्यिंग्य से मुस्करा र ी ैं। उसी सरोवर के तट पर केवट का एक टूटा-िूटा
झोंपड़ा ककसी अभाधगन वद्ध
ृ ा की भााँतत रो र ा था। वसि
ु ा की आाँखें सजल ो
गयीिं। पष्ु प और उद्यान के मध्य में खड़ा य सन
ू ा झोंपड़ा उसके ववलास औऱ
ऐश्वयष से तघरे ु ए मन का सजीव धचत्र था। उसके जी में आया, जाकर झोंपड़े के
गले मलपट जाऊाँ और खूब सोऊाँ।

वसि
ु ा को इस घर में आये पााँच वर्ष ो गये। प ले उसने अपने भाग्य को
सरा ा था। माता-वपता के छोटे -से कच्चे आनन्द ीन घर को छोड़कर व एक
ववशाल म ल में आयी थी, ज ााँ सम्पत्तत उसके पैरों को चूमती ु ई जान पड़ती
थी। उस समय सम्पत्तत ी उसकी आाँखों में सब कुछ थीिं। पतत-प्रेम गौण-सी
वस्तु थी; पर उसका लोभी मन सम्पत्तत पर सन्तुष्ट न र सका; पतत-प्रेम के
मलए ाथ िैलाने लगा। कुछ हदनों में उसे मालम
ू ु आ, मझ
ु े प्रेम-रतन भी ममल
गया; पर थोड़े ी हदनों में य भ्रम जाता र ा। कुाँवर गजराजमसिं रूपवान थे,
उदार थे, बलवान थे, मशक्षक्षत थे, ववनोदवप्रय थे, और प्रेम का अमभनय करना जानते
थे; पर उनके जीवन में प्रेम से कत्म्पत ोनेवाला तार न था। वसुिा का खखला

ु आ यौवन और दे वताओिं को लुभानेवाला रिं ग-रूप केवल ववनोद का सामान था।


घुड़दौड़ और मशकार, सट्टे और मकार जैसे सनसनी पैदा करने वाले मनोरिं जन में
प्रेम दबकर पीला और तनजीव ो गया था और प्रेम से विंधचत ोकर वसि
ु ा की
प्रेम-तष्ृ णा अब अपने भाग्य को रोया करती थी। दो पुत्र-रतन पाकर भी व सुखी
न थी। काँु वर सा ब, एक म ीने से ज्यादा ु आ, मशकार खेलने गये और अभी तक
लौटकर न ी आये। और ऐसा प ला ी अवसर न था। ााँ, अब उनकी अवधि बढ़
गयी थी। प ले व एक सप्ता में लौट आते थे, किर दो सप्ता का नम्बर चला
और अब कई बार से एक-एक म ीने खबर लेने लगे। साल में तीन-चार म ीने
मशकार की भें ट ो जाते थे। मशकार से लौटते तो घुड़दौड़ का राग तछड़ता। कभी
मेरठ, कभी पूना, कभी बम्बई, कभी कलकतता। घर पर कभी र ते, तो अधिकतर
लम्पट रईसजादों के साथ गप्पें उड़ाया करते। पतत का य रिं ग-ढ़ग दे खकर वसि
ु ा
मन- ी-मन कुढ़ती और िल
ु ती जाती थी। कुछ हदनों से ल्का- ल्का ज्वर भी
र ने लगा था।

वसि
ु ा बड़ी दे र तक बैठी उदास आाँखों से य दृश्य दे खती र ी। किर टे मलिोन
पर आकर उसने ररयासत के मैनेजर से पछ
ू ा- काँु वर सा ब का कोई पत्र आया?

िोन ने जवाब हदया- जी ााँ, अभी खत आया ैं। कुाँवर सा ब ने एक ब ु त बड़े


शेर को मारा ैं।

वसुिा ने जलकर क ा- मैं य न ी पूछती! कब आने को मलखा ैं?

'आने के बारे में तो कुछ न ी मलखा।'

'य ााँ से उनका पड़ाव ककतनी दरू ैं?'

'य ााँ से! दो सौ मील से कम न ोगा। पीलीभीत के जिंगलों मे मशकार ो र ा


ैं।'

'मेरे मलए दो मोटरों का इिंतजाम कर दीत्जए। मैं आज व ााँ जाना चा ती ू ाँ।'

िोन ने कई ममनट के बाद जवाब हदया- एक मोटर तो वे साथ ले गये ैं। एक


ाककम त्जला के बाँगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक मैनेजर की सवारी में ैं।
चौथी की मरम्मत ो र ी ैं।
वसुिा का चे रा क्रोि से तमतमा उठा। बोली- ककसके ु क्म से बैंक मैनेजर और
ाककम त्जला को मोटरें भेजी गई? आप दोनों माँगवा लीत्जए। मैं आज जरूर
जाऊाँगी।

'उन दोनों सा बों के पास मेशा मोटरें भेजी जाती र ीिं ैं , इसमलए मैने भेज दीिं।
अब आप ु क्म दे र ी ैं, तो माँगवा लाँ ग
ू ा।'

वसुिा नें िोन से आकर सिर का सामान ठीक करना शुरू ककया। उसने उसी
आवेश में आकर अपना भाग्य-तनणषय करने का तनश्चय कर मलया था। पररतयक्ता
की भााँतत पड़ी र कर व जीवन समाप्त न करना चा ती थी। व कुाँवर सा ब से
क े गी, अगर आप य समझते ैं कक मैं आपकी सम्पत्तत कौ लौड़ी बनकर र ू ाँ,
तो य मझ
ु से न ोगा। आपकी सम्पत्तत आपको मब
ु ारक! मेरा अधिकार आपकी
सम्पत्तत पर न ीिं, आपके ऊपर ैं। अगर आप मझ
ु से जौ-भर टना चा ते ैं , तो
मै आपसे ाथ-भर ट जाऊाँगी। इस तर की ककतनी ी ववराग-भरी बातें उसके
मन में बगूलों की भााँतत उठ र ी थीिं।

ड क्टर सा ब मने द्वार पर पक


ु ारा- मैं अन्दर आऊाँ?

वसुिा ने नम्रता से क ा- आज क्षमा कीत्जए, मैं जरा पीलीभीत जा र ी ू ाँ।

ड क्टर ने आश्चयष से क ा- अप पीलीभीत जा र ी ैं। आपका ज्वर बढ़ जायेगा।


इस दशा में मैं आपको जाने की सला न दाँ ग
ू ा।

वसुिा ने ववरक्त स्वर में क ा- बढ़ जायेगा, बढ़ जाय; मुझसे इसकी धचन्ता न ी
ैं।

वद्ध
ृ ड क्टर परदा उठाकर अन्दर आ गया और वसि
ु ा की ओर ताकता ु आ
बोला- लाइए, मैं टे म्परे चर ले लाँ ।ू अगर टे म्परे चर बढ़ा ोगा, तो मैं आपको
रधगज न जाने दाँ ग
ू ा।
'टे म्परे टर लेने की जरूरत न ीिं। मेरा इरादा पक्का ो गया ैं।'

'स्वास्र्थय पर ध्यान रखना आपका प ला कतषव्य ैं। '

वसुिा ने मुस्कराकर क ा- आप तनत्श्चन्त रह ए, मैं इतनी जल्द मरी न ीिं जा


र ीिं ू ाँ। किर अगर ककसी बीमारी की दवा मौत ी ो, तो आप क्या करें गे?

ड क्टर ने दो-एक बार और आग्र ककया, किर ववस्मय से मसर ह लाता चला
गया।

रे लगाड़ी से जाने में आखखरी स्टे शन से दस कोस तक जिंगली सुनसान रास्ता


तय करना पड़ता था, इसमलए काँु वर सा ब बराबर मोटर पर ी जाते थे। वसि
ु ा ने
भी उसी मागष से जाने का तनश्चय ककया। दस बजते-बजते दोनों मोटरे आयी।
वसुिा ने ड्राइवरों पर गुस्सा उतारा- अब मेरे ु क्म के बगैर क ीिं मोटर ले गये,
तो मोटर का ककराया तुम् ारी तलब से काट लाँ ग
ू ी। अच्छी हदल्लगी ैं! घर की
रोयें; बन की खायें! मने अपने आराम के मलए मोटरें रखी ैं , ककसी की खुशामद
करने के मलए न ीिं। त्जसे मोटर पर सवार ोने का शौक ो, मोटर खरीदे । य
न ीिं कक लवाई की दक
ू ान दे खी और दादे का िातत ा पढ़ने बैठ गये।

व चली, तो दोनों बच्चे कुनकुमाये; मगर जब मालूम ु आ कक अम्मााँ बड़ी दरू


कौवा को मारने जा र ी ैं तो उनका यात्रा-प्रेम ठिं ड़ा पड़ा। वसि
ु ा ने आज सब

से उन् ें प्यार न ककया था। उसने जलन से सोचा- मैं ी क्यों इन् ें प्यार करूाँ,
क्या मैंने ी इनका ठे का मलया ैं! व तो व ााँ जाकर चैन करें और मैं य ााँ इन् ें
छाती से लगाये बैठी र ू ाँ, लेककन चलते समय माता का हृदय पुलक उठा। दोनों
को बारी-बारी से गोद में मलया, चूमा, प्यार ककया और घिंटे-भर में लौट आने का
वचन दे कर व सजल नेत्रों के साथ घर से तनकली। मागष में भी उसे बच्चों की
याद बार-बार आती र ीिं। रास्तें में कोई गााँव आ जाता और छोटे -छोटे बालक
मोटर की दौड़ दे खने के मलए घरों से तनकल आते और सड़क पर खड़े ोकर
तामलयााँ बजाते ु ए मोटर का स्वागत करते, तो वसुिा का जी चा ता, इन् ें गोद
में उठाकर प्यार कर लाँ ।ू मोटर त्जतने वेग से जा र ी थी, उतने ी वेग से उसका
मन सामने के वक्ष
ृ -समू ों के साथ पीछे की ओर उड़ा जा र ा था। कई बार इच्छा

ु ई, घर लौट चलाँ ।ू जब उन् ें मेरी रतती भर परवा न ीिं ैं तो मैं ी क्यों उनकी
किक्र में प्राण दाँ ?ू जी चा े आयें, या न आये; लेककन एक बार पतत से ममलकर
उनसे खरी-खरी बात करने के प्रलोभन को व न रोक सकी। सारी दे थककर
चूर-चूर ो र ी थी, ज्वर भी ो आया था, मसर पीड़ा से िटा पड़ता था; पर व
सिंकल्प से सारी बािाओिं को दबाये आगे बढ़ती जाती थी! य ााँ तक कक जब व
दस रात को जिंगल के उस डाक-बाँगले में प ु ाँची, तो उसे तन-बदन की सुधि न
थी, जोर का ज्वार चढ़ा ु आ था।

शोिर की आवाज सन
ु ते ी काँु वर सा ब तनकल आये और पूछा- तम
ु य ााँ कैसे
आये जी? सब कुशल तो ैं?

शोिर ने करीब आकर क ा- रानी सा ब आयी ैं ु जूर! रास्ते में बुखार ो


आया। बे ोश पड़ी ु ई ैं।

कुाँवर सा ब ने व ीिं खड़े, कठोर स्वर में पूछा- तो तुम उन् ें वापस क्यों न ले
गये? क्या तुम् ें मालूम न ी था, कक य ााँ कोई वैद्य- कीम न ी ैं ?

शोिर ने मसटवपटाकर जवाब हदया- ु जूर व ककसी तर मानती ी न थीिं, तो मैं


क्या करता?

कुाँवर सा ब ने डााँटा- चुप र ो जी, बातें न बनाओ! तुमने समझा ोगा, मशकार का
ब ार दे खेंगे और पड़े-पड़े सोयेंगे। तुमने वापस चलने को क ा ी न ोगा।
शोिर- व मुझे डााँटती थी ु जूर!

'तम
ु ने क ा था?'

'मैने क ा तो न ी ु जूर?'

'बस तो चुप र ो। मैं तुमको खूब प चानता ू ाँ। तुम् ें मोटर लेकर इसी वक़्त
लौटना पड़ेगा। और कौन-कौन साथ ैं?'

शोिर ने दबी ु ई आवाज में क ा- एक मोटर पर बबस्तर और कपड़े ैं। एक पर


खुद रानी सा ब ैं।

'यानी और कोई साथ न ीिं ैं ?'

' ु जूर! मैं तो ु क्म का ताबेदार ू ाँ।'

'बस, चुप र ो!'

यों झल्लाते ु ए काँु वर सा ब वसि


ु ा के पास गये और आह स्ता से पक
ु ारा। जब
कोई जवाब न ममला, तो उन् ोंने िीरे से उसके माथे पर ाथ रखा। मसर गमष तवा
ो र ा था। उस ताप ने मानो उनकी सारी क्रोि-ज्वाला को खीिंच मलया। लपककर
बाँगले में आये, सोये ु ए आदममयों को जगाया, पलिंग बबछवाया, अचेत वसुिा को
गोद में उठाकर कमरे में लाये और मलटा हदया। किर मसर ाने खड़े ोकर उसे
व्यधथत नेत्रों से दे खने लगे। उस िल
ू से भरे मख
ु -मिंडल और बबखरे ु ए रज-
रिं त्जत केशों में आज उन् ोंने आग्र मय प्रेम की झलक दे खी। अब तक उन् ोंने
वसुिा को ववलामसनी के रूप में दे खा था, त्जसे उनके प्रेम की परवा न थी, जो
अपने बनाव-मसिंगार ी में मग्न थी, आज िूल के पाउडर और पोमेड में व उसके
नारीतव का दशषन कर र े थे। उसमें ककतना आग्र था। ककतनी लालसा थी,
अपनी उड़ान के आनन्द में डूबी ु ई; अब व वपिंजरे के द्वार पर आकर पिंख
िड़िड़ा र ी थी। वपिंजरे का द्वार खल
ु कर क्या उसका स्वागत करे गा?

रसोइए ने पूछा- क्या सरकार अकेले आयी ैं ?

कुाँवर सा ब ने कोमल किंठ से क ााँ- ााँ जी, और क्या। इतने आदमी ैं, ककसी को
साथ न मलया। आराम से रे लगाड़ी से आ सकती थीिं। य ााँ से मोटर भेज दी
जाती। मन ी तो ैं। ककतने जोर का बुखार ैं कक ाथ न ीिं रखा जाता। जरा-सा
पानी गमष करो औऱ दे खो, कुछ खाने को बना लो।

रसोइए ने ठकुरसो ती की- सौ कोस की दौड़ ब ु त ैं सरकार! सारा हदन बैठे-बैठे


बीत गया।

कुाँवर सा ब नें वसुिा के मसर के नीचे तककया सीिा करके क ा- कचूमर तो म


लोगों को तनकल जाता ैं। दो हदन तक कमर न ीिं सीिी ोती, किर इनकी क्या
बात ैं। ऐसी बे ू दा सड़क दतु नया में न ोगी।

य क ते ु ए उन् ोंने एक शीशी से तेल तनकला और वसुिा के मसर में मलने


लगे।

वसि
ु ा का ज्वर इक्कीस हदन तक न उतरा। घर के ड क्टर आये। दोनों बालक,
मुतनया, नौकर-चाकर, सभी आ गये। जिंगल में मिंगल ो गया।

वसि
ु ा खाट पर पड़े-पड़े, कुाँवर सा ब की शुश्रर्
ु ा में आलौककक आनन्द और
सन्तोर् ककया करती। व दोप र हदन चढ़े तक सोने के आदी थे , ककतने सवेरे
उठते, उसके पर्थय और आराम की जरा-जरा-सी बातों का ककतना खयाल रखते।
जरा दे र के मलए स्नान और भोजन करने जाते, और किर आकर बैठ जाते। एक
तपस्या-सी कर र े थे। उनका स्वास्र्थय बबगड़ता जाता था, चे रे पर व स्वास्र्थय
की लाली न थी। कुछ व्यस्त-से र ते थे।

एक हदन वसुिा ने क ा- आजकल तुम मशकार खेलेने क्यों न ीिं जाते? मैं तो
मशकार खेलने आयी थी; मगर न जाने ककस बुरी साइत से चली कक तुम् ें इतनी
तपस्या करनी पड़ गयी। अब मैं बबल्कुल अच्छी ू ाँ। जरा आयीने में अपनी सरू त
तो दे खो!

कुाँवर सा ब को इतने हदनों मशकार का कभी ध्यान ी न आया था। इसकी चचाष
ी न थी। मशकाररयों का आना-जाना, ममलना-जल
ु ना बन्द था। एक बार साथ के
एक मशकारी ने ककसी शेर का त्जक्र ककया था। काँु वर सा ब नें उसकी ओर कुछ
ऐसी कड़वी आाँखों से दे खा कक व सूख-सा गया। वसुिा के पास बैठने, उससे बातें
करने, उसका मन ब लाने, दवा और पर्थय बनाने में उन् ें आनन्द ममलता था।
उनका भोग-ववलास, जीवन के इस कठोर व्रत में जैसे बुझ गया। वसुिा की एक
थेली पर अाँगुमलयों से रे खा खीिंचने में मग्न थे। मशकार की बात ककसी औऱ के
माँु से सन
ु ी ोती, तो किर उन् ीिं आग्नेय नेत्रों से दे खते। वसि
ु ा के माँु से य
चचाष सन
ु कर उन् ें दुःु ख ु आ। व उन् ें इतना मशकार का आसक्त समझती ैं!
अमर्ष भरे स्वर से बोले- ााँ, मशकार खेलने का इससे अच्छा और कौन अवसर
ममलेगा।

वसुिा ने आग्र ककया- मैं तो अब अच्छी ू ाँ , सच! दे खो (आयीने की ओर


हदखाकर) मेरे च े रे पर पीलापन न ीिं र ा। तुम अलबतता बीमार-से ोते जा र े
ैं। जरा मन ब ल जायेगा। बीमार के पास बैठने से आदमी सचमुच बीमार ो
जाता ैं।

वसुिा ने तो सािारण-सी बात क ी थी; पर कुवर सा ब के हृदय पर व


धचनगारी के समान लगी। इिर व अपने मशकार से खब्त पर कई बार पछता
चुके थे। अगर व मशकार के पीछे यों न पड़ते, तो वसुिा य ााँ क्यों आती और
क्यों बीमार पड़ती? मन- ी-मन इसका बड़ा दुःु ख था। इस वक़्त कुछ न बोले।
शायद कुछ बोला ी न गया। किर वसि
ु ा की थेली पर रे खाएाँ बनाने लगे।
वसुिा ने उसी सरल भाव से क ा- अब की तुमने क्या-क्या तो फ़े जमा ककये ,
जरा माँगाओ, दे ख।ूाँ उनमें से जा सबसे अच्छा ोगा, उसे मैं ले लाँ ग
ू ी। अबकी मैं भी
तुम् ारे साथ मशकार खेलने चलाँ ग
ू ी। बोलो, मुझे ले चलोगे न? मैं मानाँग
ू ी न ीिं।
ब ाने मत करने लगना।

अपने मशकारी तो फ़े हदखाने का कुाँवर सा व को मरज था। सैकड़ो ी खालें


जमा कर रखी थी। उनके कई कमरों में िशष, गद्दे, कोच, कुमसषयााँ, मोढ़े सब खालों ी
के थे। ओढ़ना और बबछौना भी खालों ी का था। बाघम्बरों के कई सट
ू बनवा
रखे थे। मशकार में व ीिं सट
ू प नते थे। अबकी भी ब ु त से सीिंग, मसर, पिंजे, खालें
जमा कर रखी थी। वसुिा का इन चीजों से अवश्य मनोरिं जन ोगा। य न
समझे कक वसुिा ने मसिं द्वार से प्रवेश न पाकर चोर दरवाजे से घुसने का
प्रयतन ककया ैं। जाकर व चीजें उठवा लाये; लेककन आदममयों को परदे की आड़
में खड़ा करके प ले अकेले ी उसके पास गये! डरते थे, क ीिं मेरी उतसुकता
वसि
ु ा को बरु ी न लगे।

वसुिा ने उतसुक ोकर पूछा- चीजें लाये?

'लाया ू ाँ , मगर क ीिं ड क्टर सा ब न आ जाये। '

'ड क्टर नें पढ़ने-मलखने को मना ककया था।'

तो फ़े लाये गये। कुाँवर सा ब एक-एक चीज तनकालकर हदखाने लगे। वसुिा के
चे रे पर र्ष की ऐसी लाली फ्तों से न हदखी थी, जैसे कोई बालक तमाशा
दे खकर मग्न ो र ा ैं। बीमारी के बाद म बच्चों की तर त्जद्दी, उतने ी
आतरु , उतने ी सरल ो जाते ैं। त्जन ककताबों में कभी मन न लगा ो, व
बीमारी के बाद पढ़ी जाती ैं। वसुिा जैसे उल्लास की गोद में खेलने लगी। शेरों
की खालें थी, बाघों की, मग
ृ ों की, शूकरों की। वसुिा र खाल को नयी उमिंग से
दे खती, जैसे बायस्कोप के एक धचत्र के बाद दस
ू रा आ र ा ो, कुाँवर सा ब एक-
एक तो फ़े का इतत ास सन
ु ाने लगे। य जानवर कैसे मारा गया, उसके मारने में
क्या-क्या बािाएाँ पड़ी, क्या-क्या उपाय करने पड़े, प ले क ााँ गोली लगी आहद।
वसुिा रे क कथा आाँखें िाड़-िाड़कर सुन र ी थी। इतनी सजीवता, स्िूततष, आनन्द
उसे आज तक ककसी कववता, सिंगीत या आमोद में भी न ममला था। सबसे सुन्दर
एक मसिं की खाल थी। य ीिं उसने छााँटी!

कुाँवर सा ब की य सबसे ब ु मूल्य वस्तु थी। इसे अपने कमरे में लटकाने को
रखे ु ए थे। बोले- तुम बाघम्बरों में से कोई ले लो। य तो कोई अच्छी चीज
न ीिं ैंय़

वसुिा ने खाल को अपनी ओर खीिंचकर क ा- र ने दीत्जए अपनी सला । मैं


खराब ी लाँ ग
ू ी।

काँु वर सा ब नें जैसे अपनी आाँखों से आाँसू पोंछकर क ा- तम


ु व ी ले लो, मैं तो
तुम् ारे खयाल से क र ा था। मैं किर वैसे ी मार लाँ ग
ू ा।

'तो तम
ु मझ
ु े चकमा क्यों दे ते थे?'

'चकमा कौन दे ता था?'

'अच्छा खाओ मेरे मसर की कसम, कक य सबसे सुन्दर खाल न ीिं ैं? '

काँु वर सा ब ने ार ी ाँसी ाँ सकर क ा- कसम क्यों खाएाँ, इस एक खाल के


मलए? ऐसी-ऐसी एक लाख खालें ो, तो तम्
ु ारे ऊपर नयोछावर कर दाँ ।ू

जब मशकारी सब खाले लेकर चला गया, तो कुाँवर सा ब ने क ा- मैं इस खाल


पर काले ऊन से अपना समपषण मलखग
ूाँ ा।

वसुिा ने थकान से पाँलग पर लेटते ु ए क ा- अब मै भी मशकार खेलने चलाँ ग


ू ी।
किर सोचने लगी, व भी कोई शेर मारे गी और उसकी खाल पततदे व को भें ट
करे गी। उस पर लाल ऊन से मलखा जायेगा- वप्रयतम!

त्जस ज्योतत के मन्द पड़ जाने से रे क व्यापार, रे क व्यिंजन पर अिंिकार-सा छा


गया था, व ज्योतत अब प्रदीप्त ोने लगी थी।

मशकारों का वतृ तािंत सन


ु ने की वसि
ु ा को चाट-सी पड़ गयी। काँु वर सा ब को कई-
कई बार अपने अनुभव सुनाने पड़े। उसका सुनने से जी ी न भरता था। अब
तक कुाँवर सा ब का सिंसार अलग था, त्जसके दुःु ख-सुख, ातन-लाभ, आशा-तनराशा
से वसुिा को कोई सरोकार न था। वसुिा को इस सिंसार के व्यापार से कोई रुधच
न थी; बत्ल्क अरुधच थी। कुाँवर सा ब इस प्रथक सिंसार को बातें उससे तछपाते थे;
पर अब वसि
ु ा उसके इस सिंसार मे एक उज्जवल प्रकाश, एक वरदानोंवाली दे वी
के समान ो गयी। थी।

एक हदन वसुिा ने आग्र ककया- मुझे बिंदक


ू चलाना मसखा दो।

ड क्टर सा ब की अनुमतत ममलने मे ववलम्ब न ू आ। वसुिा स्वस्थ ो गयी


थी। कुाँवर सा ब ने शुभ मु ु तष में उसे दीक्षा दी। उस हदन से जब दे खो, वक्ष
ृ ों की
छााँ में खड़ी तनशाने का अभ्यास कर र ी ैं और कुाँवर सा ब खड़े उसकी परीक्षा
ले र े ैं।

त्जस हदन उसने प ली धचडड़या मारी, कुाँवर सा ब र्ष से उछल पड़े। नौकरों को
इनाम हदये गये ; ब्राह्मणों को दान हदया गया। इस आनन्द की शुभ स्मतृ त में
उस पक्षी की ममी बनाकर रखी गयी।

वसुिा के जीवन में अब एक नया उतसा , एक नया उल्लास, एक नयी आशा थी।
प ले की भााँतत उसका विंधचत हृदय अशुभ कल्पनाओिं से त्रस्त न था। अब उसमें
ववश्वास था, बल था, अनरु ाग था।

कई हदनों के बाद वसि


ु ा की साि परू ी ु ई। काँु वर सा ब उसे साथ लेकर मशकार
खेलने पर राजी ु ए और मशकार था शेर का और शेर भी व , त्जसने इिर म ीने
से आसपास के गााँवों में त लका मचा हदया था।

चारों तरि अिंिकार था, ऐसा सघन कक पर्थ


ृ वी उसके भार से करा ती ु ई जान
पड़ती थी। कुाँवर सा ब और वसुिा एक ऊाँचे मचान पर बिंदक
ू ें मलए दम सािे बैठे

ु ए थे। य भयिंकर जन्तु था। अभी वपछली रात को व एक सोते ु ए आदमी


को खेत में मचान पर से खीिंचकर ले भागा था। उसकी चालाकी पर लोग दााँतों
तले अाँगुली दबाते थे। मचान इतना ऊाँचा था कक शेर उछलकर न प ु ाँच सकता
था। ााँ, उसने दे ख मलया था कक व आदमी मचान पर बा र की तरि मसर ककये
सो र ा था। दष्ु ट को एक चाल सझ
ू ी। व पास के गााँव में गया और व ााँ से एक
लम्बा बााँस उठा लाया। बााँस के एक मसरे को उसने दााँतों से कुचला और जब
उसकी कूची-सी बन गयी, तो उसे न जाने अगले पिंजों या दााँतों से उठाकर
सोनेवाले आदमी के बालों में किराने लगा। व जानता था, बाल बााँस के रे शों में
िाँस जाएाँगे। एक झटके में व अभागा आदमी नीचे आ र ा। इसी मानुस-भक्षी
शेर की घात मे दोनो मशकारी बैठे ु ए थे। नीचे कुछ, दरू पर भैंसा बााँि हदया
गया था और शेर के आने की रा दे खी जा र ी थी। काँु वर सा ब शान्त थे; पर
वसुिा की छाती िड़क र ी थी। जरा-सा पतता भी खड़कता तो व चौक पड़ती
और बन्दक
ू सीिी करने के बदले चौंककर कुाँवर सा ब से धचपट जाती। कुाँवर
सा ब बीच-बीच में उसको ह म्मत बाँिाते जाते थे।

'ज्यों ी भैंसे पर आया, मैं उसका काम तमाम कर दाँ ग


ू ा। तुम् ारी गोली की नौबत
ी न आने पायेगी।'
वसि
ु ा ने मस रकर क ा- और जो क ीिं तनशाना चक
ू गया तो उछलेगा?

'तो किर दस
ू री गोली चलेगी। तीनों बन्दक
ू े तो भरी तैयार रखी ैं। तुम् ारा जी
घबड़ाता तो न ीिं?'

'बबलकुल न ी। मैं तो चा ती ू ाँ , प ला मेरा तनशाना ोता।'

पतते खड़खड़ा उठे । वसि


ु ा चौंककर पतत के किंिों से मलपट गयी। काँु वर सा ब ने
उसकी गदष न में ाथ डालकर क ा- हदल मजबूत करो वप्रये! वसुिा ने लत्ज्जत
ोकर क ा- न ी-न ीिं, मैं डरती न ी, जरा चौंक पड़ी थी?

स सा भैसे के पास दो धचनगाररयााँ-सी चमक उठीिं। काँु वर सा ब ने िीरे से वसि


ु ा
का ाथ दबाकर शेर के आने की सूचना दी और सतकष ो गये। जब शेर भैंसे
पर आ गया, तो उन् ोंने तनशाना मारा। खाली गया। दस
ू रा िैर ककया, शेर जख्मी
तो ु आ, पर धगरा न ीिं। क्रोि से पागल ोकर इतने जोर से गरजा की वसुिा का
कलेजा द ल उठा। कुाँवर सा ब तीसरा िैर करने जा र े थे कक शेर ने मचान पर
जस्त मारी। उसके अगले पिंजों के िक्के से मचान ऐसा ह ला कक काँु वर सा ब
ाथ में बन्दक
ू मलए झोंके से नीचे धगर पड़े। ककतनी भीर्ण अवसर था! अगर
एक पल का भी ववलम्ब ोता, तो कुाँवर सा ब की खैररयत न थी। शेर की जलती

ु ई आाँखें वसुिा के सामने चमक र ी थी। उसकी दग


ु न्
ष िमय सााँस दे में लग र ी
ैं। ाथ-पााँव िूले ु ए थे। आाँखें भीतर को मसकुड़ी जा र ी थीिं; पर इस खतरे ने
जैसे उसकी नाडड़यों में बबजली भर दी। उसने अपनी बन्दक
ू साँभाली। शेर के और
उसके बीच में दो ाथ से ज्यादा अन्तर न था। व उचककर आना ी चा ता थ,
वसुिा ने बन्दक
ू की नली उसकी आाँखों में डालकर बन्दक
ू छोड़ी। िायाँ! शेर के
पिंजे ढीले पड़े। नीचे धगर पड़ा। अब समस्या और भीर्ण थी। शेर से तीन ी चार
कदम पर कुाँवर सा ब धगरे थे। शायद ज्यादा चोट आयी ो। शेर में अगर अभी
दम ैं, तो व उन पर जरूर वार करे गा। वसुिा के प्राण आाँखों में थे और बल
कलाईयों में । इस वक़्त कोई इसकी दे में भाला भी चुभा दे ता, तो उसे खबर न
ोती। व अपने ोश मे न थी। उसकी मच्
ू छाष ी चेतना का काम कर र ी थी।
उसने बबजली की बतती जलायी। दे खा, शेर उठने की चेष्टा कर र ा ैं। दस
ू री
गोली मसर पर मारी और उसके साथ ी ररवाल्वर मलये नीचे कूदी। शेर जोर से
गुराषया, वसुिा ने उसके माँु के सामने ररवाल्वर खाली कर हदया। कुाँवर सा ब
साँभलकर खड़े ो गये। दौड़कर उसे छाती से धचपटा मलया। अरे ! य क्या! वसुिा
बे ोश थी। भय उसके प्राणों को मुट्ठी में मलए उसकी आतम-रक्षा कर र ा था। भय
के शान्त ोते ी मूच्छाष आ गयी।

तीन घिंटे के बाद वसि


ु ा की मच्
ू छाष टूटी। उसकी चेतना अब भी उसी भयप्रद
पररत्स्थततयों में ववचर र ी थी। उसने िीरे से डरते-डरते आाँखे खोली। काँु वर सा ब
ने पूछा- कैसा जी ैं वप्रये?

वसि
ु ा ने उसकी रक्षा के मलए दोनों ाथों का घेरा बनाते ु ए क ा- व ााँ से ट
जाओ। ऐसा न ो, झपट पड़े।

कुाँवर सा ब ने ाँसकर क ा- शेर कब का ठिं ड़ा ो गया। व बरामदे में पड़ा ैं।
ऐसे डील-डौल का, और इसना भयिंतक शेर मैने न ी दे खा।

वसुिा- तुम् ें चोट तो न ीिं आयी?

कुाँवर- बबल्कुल न ी। तुम कूद क्यों पड़ी? पैरों में बड़ी चोट आयी ोगी। तुम कैसे
बचीिं, य आश्चयष ैं। मैं तो इतनी ऊाँचाई से कभी न कूद सकता।

वसि
ु ा ने चककत ोकर क ा- मैं! मैं क ााँ कूदी? शेर मचान पर आया, इतना याद
ैं। इसके बाद क्या ु ए, मुझे कुछ याद न ीिं।

कुाँवर को भी ववस्मय ु आ- वा ! तम
ु ने उस पर दो गोमलयााँ चलायीिं। जब व
नीचे धगरा, तो तम
ु भी कूद पड़ी और उसके माँु में ररवाल्वर की नली ठूाँस दी, बस
ठिं डा ो गया। बड़ा बे या जानवर था। अगर तम
ु चक
ू जाती, तो व नीचे आते
ी मझ
ु पर जरूर चोट करता। मेरे पास तो छुरी भी न थी। बन्दक
ू ाथ से
छूटकर दस
ू री तरि धगर गयी थी। अाँिेरे में कुछ सुझाई न दे ता था। तुम् ारे ी
प्रसाद से इस वक़्त मैं य ााँ खड़ा ू ाँ। तुमने मुझे प्राणदान हदया।

दस
ू रे हदन प्रातुःकाल य ााँ से कूच ु आ।

जो घर वसुिा को िाड़े खाता था, उसमें आज जाकर ऐसा आनन्द आया, जैसे
ककसी बबछुड़े ममत्र से ममली ो। रे क वस्तु उसका स्वागत करती ु ई मालम

ोती थी। त्जन नौकरों और लौंडड़यों से व म ीनों से सीिे माँु न बोली थी, उनसे
व आज ाँस- ाँसकर कुशल पूछती और गले ममलती थी, जैसे अपनी वपछली
रुखाइयों की पटौती कर र ी ो।

सिंध्या का सय
ू ,ष आकाश के स्वणष-सागर में अपनी नौका खेता ु आ चला जा र ा
ैं। वसुिा खखड़की के सामने कुरसी पर बैठकर सामने का दृश्य दे खने लगी। उस
दृश्य में आज जीवन था, ववकास था, उन्माद था। केवट का व सूना झोंपड़ा भी
आज ककतना सु ावना लग र ा था। प्रकृतत में मो नी भरी ु ई थी।

मत्न्दर के सामने मुतनया राजकुमारों को खखला र ी थी। वसि


ु ा के मन में आज
कुलदे व के प्रतत श्रद्धा जागत
ृ ु ई, जो बरसों से पड़ी सो र ी थी। उसने पूजा के
सामान माँगवाये और पूजा करने चली। आनन्द से भरे भिंडार में अब व दान भी
कर सकती थी। जलते ु ए हृदय से ज्वाला के मसवा और क्या तनकलती!

उसी वक़्त कुाँवर सा ब आकर बोले- अच्छा, पूजा करने जा र ी ो। मैं भी व ााँ
जा र ा था। मैंने एक मनौती मान रखी ैं।

वसुिा ने मुस्कराती ु ई आाँखों से पूछा- कैसी मनौती ैं?

काँु वर सा ब ने ाँसकर क ा- य न बताऊाँगा।


***
सुभागी

और लोगों के य ााँ चा े जो ोता ो, तुलसी म तो अपनी लड़की सुभागी को


लड़के रामू से जौ-भर भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान ोकर भी कुछ काठ
का उल्लू था। सुभागी ग्यार साल की बामलका ोकर भी घर के काम में इतनी
चतुर और खेती-बारी के काम में इतनी तनपुण थी कक उसकी मााँ लक्ष्मी हदल में
डरती र ती कक क ीिं लड़की पर दे वताओिं की आाँख न पड़ जाय। अच्छे बालकों से
भगवान ् को भी तो प्रेम ैं। कोई सुभागी का बखान करे , इसमलए अनायास ी उसे
डााँटती र ती थी। बखान से बच्चे बबगड़ जाते ैं , य भय तो न थी, भय था-
नजर का! व ी सभ
ु ागी आज ग्यार साल की उम्र में वविवा ो गयी।

घर में कु राम मचा ु आ था। लक्ष्मी पछाड़ खाती थी। तल


ु सी मसर पीटते थे।
उन् ें दे ख, सभ
ु ागी भी रोती थी। बार-बार मााँ से पछ
ू ती- क्यों रोती ो अम्मााँ, मैं
तुम् ें छोड़कर क ीिं न जाऊाँगी, तुम क्यो रोती ो? उसकी भोली बाते सुनकर माता
का हदल और भी िटा जाता था। व सोचती थी- ईश्वर, तुम् ारी य ी लीला ैं!
जो खेल खेलते ो, व दस
ू रों को दुःु ख दे कर ऐसा तो पागल करते ैं। आदमी
पागलपन करे , तो उसे पागलखाने में भेजते ैं; मगर तुम जो पागलपन करते ो,
उसका कोई दिं ड़ न ीिं। ऐसा खेल ककस काम का कक दस
ू रे रोये और तम
ु ाँसो।
तम्
ु ें लोग दयालु क ते ैं। य ी तम्
ु ारी दया ैं ?

और सभ
ु ागी क्या सोच र ी थी? उसके पास कोठरी-भर रुपये ोते, तो व उन् ें
तछपाकर रख दे ती। किर एक हदन चुपके से बाजार चलीिं जाती और अम्मााँ के
मलए अच्छे -अच्छे कपड़े लाती; दादा, जब बाकी मााँगने आते, तो चट रुपये
तनकालकर दे दे ती, अम्मााँ-दादा ककतने खुश ोते!

2
जब सुभागी जवान ु ई तो लोग तुलसी म तो पर दबाव डालने लगे कक लड़की
का क ीिं घर कर दो। जवान लड़की का यो किरना ठीक न ीिं। जब मारी बबरादरी
में इसकी कोई तनन्दा न ीिं ैं, तो क्यों सोच-ववचार करते ो?

तुलसी ने क ा- 'भाई, मैं तो तैयार ू ाँ ; लेककन जब सुभागी भी माने। य तो ककसी


तर राजी न ीिं ोती।'

रर र ने सुभागी को समझाकर क ा- 'बेटी, म तेरे ी भले की क ते ैं। मााँ-बाप


अब बढ
ू े ु ए, उनका क्या भरोसा? तम
ु इस तर कब तक बैठी र ोगी?'

सभ
ु ागी ने मसर झक
ु ाकर क ा- 'चाचा, मैं तम्
ु ारी बात समझ र ी ू ाँस लेककन मेरा
मन घर करने को न ीिं क ता। मझ
ु े आराम की धचन्ता न ीिं ैं। मैं सब कुछ
झेलने को तैयार ू ाँ। और जो काम तुम क ो, व मसर आाँखों के बल करूाँगी; मगर
घर बसाने की मुझसे न क ो। जब मेरी चाल-कुचाल दे खना, तो मेरा मसर काट
लेना। अगर सच्चे बाप की बेटी ू ाँगी, तो बात की भी पक्की ू ाँगी। किर लज्जा
रखनेवाले भगवान ् ैं, मेरी क्या स्ती ैं कक अभी कुछ क ू ाँ।'

उजड्ड राम बोला- 'तुम अगर सोचती ो कक भैया कमाएाँगे और मैं बैठी मौज
करूाँगी, तो इस भरोसे न र ना। य ााँ ककसी ने जन्म-भर का ठे का न ीिं मलया ैं!'

रामू की दल्
ु न रामू से भी दो अाँगुल ऊाँची थी। मटककर बोली- मने ककसी का
कजष थोड़े ी खाया ैं कक जन्म-भर बैठे भरा करें । य ााँ तो खाने को भी म ीन
चाह ए, प नने को भी म ीन चाह ए, य मारे बत
ू े की बात न ीिं ैं।

सुभागी ने गवष से भरे ु ए स्वर में क ा- भाभी, मैंने तो तुम् ारा आसरा भी न ीिं
ककया और भगवान ् ने चा ा तो कभी करूाँगी भी न ीिं। तम
ु अपनी दे खो, मेरी
धचन्ता न करो।

रामू की दल्
ू न को जब मालम
ू ो गया कक सभ
ु ागी घर न करे गी, तो और भी
उसके मसर ो गयी। मेशा एक-न-एक खच
ु ड़ लगाए र ती। उसे रुलाने में जैसे
उसको मजा आता था। व बेचारी प र रात से उठकर कूटने-पीसने में लग जाती,
चौका-बरतन करती, गोबर पाथती, किर खेत में काम करने चली जाती। दोप र को
आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खखलाती। रात में कभी मााँ के मसर में
तेल डालती, कभी उसकी दे दबाती। तुलसी धचलम के भक्त थे। उन् ें बार-बार
धचलम वपलाती। ज ााँ तक बस चलता, मााँ-बाप को कोई काम न करने दे ती। ााँ,
भाई को न रोकती। सोचती, य तो जवान आदमी ैं; य न काम करें गे, तो
ग ृ स्थी कैसे चलेगी।

मगर रामू को य बरु ा लगता। अम्मााँ और दादा को ततनका कर न ीिं उठाने दे ती


और मुझे पीसना चा ती ैं। य ााँ तक कक एक हदन व जामे से बा र ो गया।
सुभागी से बोला- अगर उन लोगों का बड़ा मो ै , तो क्यों न ी अलग लेकर
र ती ो। तब सेवा करो तो मालूम ो कक सेवा कड़वी लगती ैं कक मीठी। दस
ू रों
के बल पर वा वा ी लेना आसान ैं। ब ादरु व ैं, जो अपने बल पर काम करे ।

सुभागी ने तो कुछ जवाब न हदया। बात बढ़ जाने का भय था। मगर उसके मााँ-
बाप बैठे सुन र े थे। म तो से न र ा गया। बोले- क्या ैं रामू, उस गरीबन से
क्यों लड़ते ो?

रामू पास आकर बोला- तुम बीच में क्यों कूद पड़े, मैं तो उसको क ता था।

तुलसी- जब तक मैं जीता ू ाँ, तुम उसे कुछ न ी क सकते। मेरे पीछे जो चा े
करना। बेचारी का घर में र ना मुत्श्कल कर हदया।

रामू- आपको बेटी ब ु त प्यारी ैं, तो उसे गले बााँिकर रखखए। मुझसे तो स ा
न ी जाता।

तुलसी- अच्छी बात ैं। अगर तुम् ारी य ी मरजी ैं, तो य ीिं ोगा। मैं कल गााँव
के आदममयों को बुलाकर बाँटवारा कर दग
ू ा। तुम चा े छूट जावो, सुभागी न ी छूट
सकती।

रात को तुलसी लेटे तो व पुरानी बात याद आयी, जब रामू के जन्मोतसव में
उन् ोंने रुपये कजष लेकर जलसा ककया था, और सभ
ु ागी पैदा ु ई, तो घर में रुपये
र ते ु ए भी उन् ोंने एक कौड़ी न खचष की। पुत्र को रतन समझा था, पुत्री को पूवष
जन्म के पापों का दिं ड। व रतन ककतना कठोर तनकला और व दिं ड ककतना
मगलमय।

दस
ू रे हदन म तो में गााँव के आदममयों का जमा करके क ा- पिंचो, अब रामू को
और मेरा एक में तनबा न ी ोता। मै चा ता ु ाँ कक तुम लोग इन्साि से जो
कुछ मुझे दे दो, व लेकर अलग ो जाऊाँ। रात-हदन की ककचककच अच्छी न ी ैं।

गााँव के मुख्तार बाबू सजनमसिं बड़े सज्जन पुरुर् थे। उन् ोंने रामू को बुलाकर
क ा- क्यों जी, तुम अपने मााँ-बाप से अलग र ना चा ते ो? तुम् ें शमष न ीिं आती
कक औरत के क ने से मााँ-बाप को अलग ककये दे ते ो? राम! राम!

रामू ने हठठाई के साथ क ा- जब एक में न गुजर ो, तो अलग ो जाता ी


अच्छा ैं।

सजनमसिं - तुमको एक में क्या कष्ट ोता ैं?

रामू- एक बात ो तो बताऊाँ।

सजनमसिं - कुछ तो बताओ।

रामू- सा ब, एक में मेरा इनके साथ तनबा न ोगा। बस, मैं और कुछ न ीिं
जानता।
य क ता ु आ रामू व ााँ से चलता बना।

तुलसी- दे ख मलया आप लोगों ने इसका ममजाज! आप चा े चार ह स्सों में तीन


ह स्से उसे दे दें , पर अब मैं इस दष्ु ट के साथ न र ू ाँगा। भगवान ् ने बेटी को दुःु ख
दे हदया, न ी, मुझे खेती-बारी लेकर क्या करना था। ज ााँ र ता, व ीिं कमाता
खाता! भगवान ् ऐसा बेटा सातवें बैरी को भी न दे । 'लड़के से लड़की भली, जो
कुलवन्ती ोय।'

स सा सुभागी आकर बोली- दादा, य सब बााँट-बखरा मेरे ी कारण तो ो र ा


ैं, मुझे क्यों न ी अलग कर दे त?े मैं मे नत-मजूरी करके अपना पेट पाल लाँ ग
ू ी।
अपने से जो कुछ बन पड़ेगा, तुम् ारी सेवा करती र ू ाँगी, पर र ू ाँगी अलग। यों घर
का बारा-बााँट ोना मुझसे न ी दे खा जाता। मैं अपने माथे पर य कलिंक न ी
लेना चा ती।

तल
ु सी ने क ा- बेटी, म तझ
ु े न छोड़ेगो, चा े सिंसार छूट जाय! रामू का मैं माँु
न ीिं दे खना चा ता, उसके साथ तो र ना दरू र ा।

रामू की दल्
ू न बोली- तम
ु ककसी का माँु न ीिं दे खना चा ते, तो म भी तम्
ु ारी
पज
ू ा करने को व्याकुल न ी ैं।

म तो दााँत पीसते ु ए उठे कक ब ू को मारे ; मगर लोगों ने पकड़ मलया।

बाँटबारा ोते ी म तो और लक्ष्मी को मानो पें शन ममल गयी। प ले तो दोनों


सारे हदन, सुभागी के मना करने पर भी कुछ-न-कुछ क ते ी र ते थे; पर अब
उन् ें पूरा ववश्राम था। प ले दोनों दि
ू -िी को तरसते थे। अब सुभागी ने कुछ पैसे
बचाकर एक भैस ले ली। बूढ़े आदममयों की जान, तो उनका भोजन ैं। अच्छा
भोजन न ममले, तो वे ककसके आिार पर र ें । चौिरी ने ब ु त ववरोि ककया।
क ने, घर का काम यों ी क्या कम ैं कक तू नया झिंझट पाल र ी ैं। सभ
ु ागी
उन् ें ब लाने के मलए क ती- दादा, मझ
ु े दि
ू के बबना खाना न ीिं अच्छा लगता।

लक्ष्मी ने ाँसकर क ा- बेटी, तू झूठ कब से बोलने लगी? कभी दि


ू ाथ से तो
छूती न ीिं, खाने की कौन क े । सारा दि
ू म लोगो के पेट मे ठूाँस दे ती ैं।

गााँव में ज ााँ दे खो, सबके माँु से सुभागी की तारीि। लड़की न ी, दे वी ैं, दो
मरदों का काम करती ैं, उस पर भी मााँ-बाप की सेवा भी ककये जाती ैं।
सजनमसिं तो क ते, य उस जन्म की दे वी ैं।

मगर शायद म तो को य सख
ु ब ु त हदन तक भोगना न मलखा था।

सात-आठ हदन से म तो को जोर का ज्वर चढ़ा ु आ था। दे पर कपड़ो का तार


भी न ी र ने दे त।े लक्ष्मी पास बैठी रो र ी ैं। सभ
ु ागी पानी मलये खड़ी ैं। अभी
एक क्षण प ले म तो ने पानी मााँगा था; पर जब तक व पानी लाये, उनका जी
डूब गया और ाथ-पााँव ठिं ड़े ो गये। सुभागी उनकी य दशा दे खते ी रामू के
घर गयी और बोली- भैया, चलो दे खो, आज दादा न जाने कैसे ु ए जाते ैं। सात
हदन से ज्वर न ीिं उतरा।

रामू ने चारपाई पर लेटे-लेटे क ा- तो क्या मैं ड क्टर- कीम ू ाँ कक दे खने चलाँ ू?


जब तक अच्छे थे, तब तक तो तुम उसके गले की ार बनी ु ई थी। अब जब
मरने लगे, तो मझ
ु े बल
ु ाने आयी ो!

उसी वक़्त उसकी दल्


ु न अन्दर से तनकल आयी और सुभागी से पूछा- दादा को
क्या ु आ दीदी?

सुभागी के प ले रामू बोल उठा- ु आ क्या ैं, अभी कोई मरे थोड़े ी जाते ैं।

सुभागी ने किर उससे कुछ न क ा, सीिे सजनमसिं के पास गयी। उसके जाने के
बाद रामू ाँसकर स्त्री से बोला- बत्रयाचररत्र इसी को क ते ैं।
स्त्री- इसमें बत्रयाचररत्र की कौन-सी बात ैं? चले क्यों न ीिं जाते?

रामू- मैं न ी जाने का। जैसे उसे लेकर अलग ु ए थे, वैसे उसे लेकर र े । मर भी
जाएाँ तो न जाऊाँ।

स्त्री-( ाँसकर) मर जायेंगे तो आग दे ने तो जाओगे, तब क ााँ भागोगे?

रामू- कभी न ी। सब-कुछ उनकी प्यारी सुभागी कर लेगी।

स्त्री- तुम् ारे र ते व क्यों करने लगी।

रामू- जैसे मेरे र ते उसे लेकर अलग ु ए, और कैसे।

स्त्री- न ीिं जी, य अच्छी बात न ी ैं। चलो, दे ख आयें। कुछ भी ो, बाप ी तो
ैं। किर गााँव में कौन-सा माँु हदखाओगे?

रामू- चुप र ो, मझे उपदे श मत दो।

उिर बाबू सा ब ने ज्यों ी म तो का ालत सुनी, तुरन्त सुभागी के साथ चले


आये। य ााँ प ु ाँ ते तो म तो की दशा और भी खराब ो चुकी थी। नाड़ी दे खी, तो
ब ु त िीमी थी। समझ गये कक त्जन्दगी के हदन पूरे ो गये। मौत का आतिंक
छाया ु आ था। सजल नेत्र ोकर बोले- म तो भाई, कैसा जी ैं?

म तो जैसे नीिंद से जागकर बोले - ब ु त अच्छा ैं भैया! अब तो चलने की बेला


ैं। सुभागी के वपता अब तुम् ीिं ो। उसे तुम् ीिं को सौपे जाता ू ाँ।

सजनमसिं रोते ु ए बोले- भैया म तो, घबड़ाओ मत! भगवान ् ने चा ा तो तुम


अच्छे ो जाओगे। सुभागी को तो मैंने मेशा अपनी बेटी समझा ैं और जब
तक त्जऊाँगा, ऐसा ी समझता र ू ाँगा। तम
ु तनत्श्चिंत र ो, मेरे ोते सभ
ु ागी या
लक्ष्मी को कोई ततरछी आाँख से न दे खेगा। और इच्छा ो, तो व भी क दो।
म तो ने ववनीत नेत्रों से दे खकर क ा- और कुछ न ीिं क ू ाँ गा भैया! भगवान ् तम्
ु ें
सदा सख
ु ी रखे।

सजनमसिं - रामू को बल
ु ाकर लाता ू ाँ। उससे जो भल
ू -चक
ू ुई ो, क्षमा कर दो।

म तो- न ीिं भैया। उस पापी तयारे का माँु मैं न ीिं दे खना चा ता। इसके बाद
गोदान की तैयाररयााँ ोने लगी।

रामू को गााँव-भर में समझाया; पर व अन्तेत्ष्ट करने पर राजी न ु आ। क ा-


त्जस वपता ने मरते समय भी मेरा माँु दे खना स्वीकार ककया, न व मेरा वपता
ैं, न मैं उसका पुत्र।

लक्ष्मी ने दा -कक्रया की। इन थोड़े से हदनों में सुभागी ने न जाने कैसे रुपये जमा
कर मलये थे कक जब तेर वीिं का सामान आने लगा, तो गााँववालों की आाँखे खुल
गयी। बरतन, कपड़े, घी, शक्कर, सभी सामान इिरात से जमा ो गये। रामू दे ख-
दे खकर जलता था और सुभागी उसे जलाने के मलए सबको य सामान हदखाती
थी।

लक्ष्मी ने क ा- बेटी, घर दे खकर खचष करो। अब कोई कमानेवाला न ीिं बैठा ैं।
आप ी कुआ खोदना और पानी पीना ैं।

सुभागी बोली- बाबूजी का काम तो िूम-िाम से ी ोगा अम्मााँ, चा े घर र े या


जाय। बाबज
ू ी किर थोड़े ी आयेगे। मैं भैया को हदखा दे ना चा ती ू ाँ कक अबला
क्या कर सकती ैं! व समझते ोंगे , इन दोनो के ककये कुछ न ोगा। उनका
घमिंड़ तोड़ दाँ ग
ू ी।

लक्ष्मी चप
ु ो गयी। तेर वीिं के हदन आठ गााँव के ब्राह्मणों का भोज ु आ। चारो
तरि वा -वा मच गयी।
वपछने प र का समय था; लोग भोजन करके चले गये थे। लक्ष्मी थककर सो
गयी थी। केवल सुभागी बची ु ई चीजें उठा-उठाकर र ी थी कक ठाकुर सजनमसिं
ने आकर क ा- अब तम
ु भी आराम करो बेटी। सवेरे य सब ठीक कर लेना।

सुभागी ने क ा- अभी थकी न ीिं ू ाँ दादा! आपने जोड़़ मलया, कुल ककतने रुपये
उठे ?

सजनमसिं - य पूछकर क्या करोगी बेटी?

'कुछ न ीिं, यों ी पूछती थी।'

'कोई तीन सौ रुपये उठे ोंगे।'

सुभागी ने सकुचात ु ए क ा- मै इन रुपयों की दे नदार ू ाँ।

'तुमसे तो मैं मााँगता न ीिं। म तो मेरे ममत्र और भाई थे। उनके साथ कुछ मेरा
तो भी िमष ैं।'

'आपकी य ी दया क्या कम ैं कक आपने मेरे ऊपर इतना ववश्वास ककया, मुझे
कौन 300 रुपये दे दे ता।'

सजनमसिं सोचने लगा, इस अबला की िमष-बुवद्ध का क ीिं वारपार भी ैं या न ीिं।

लक्ष्मी उन त्स्त्रयों में थी, त्जनके मलए पतत-ववयोग जीवन-स्रोत का बन्द ो जाना
ैं। पचास वर्ष के धचर स वास के बाद अब य एकान्त जीवन उसके मलए प ाड़
ो गया। उसे अब ज्ञात ु आ कक मेरी बुवद्ध, मेरा बल, मेरी स्मतृ त, मानो सबसे मैं
विंधचत ो गयी।
उसने ककतनी बार ईश्वर से ववनती की थी, मुझे स्वामी के सामने उठा लेना;
मगर उसने य ववनती स्वीकार न की। मौत पर अपना काबू न ीिं, तो जीवन पर
भी काबू न ीिं ैं?

व लक्ष्मी, जो गााँव में अपनी बुवद्ध के मलए मश ु र थी, जो दस


ू रों को सीख हदया
करती थी, अब बौर ी ो गयी ैं। सीिी-सी बात करते न ीिं बनती।

लक्ष्मी का दाना-पानी उसी हदन से छूट गया। सुभागी के आग्र पर चौके मे


जाती ; मगर कौर किंठ के नीचे न उतरता। पचास वर्ष ु ए, एक हदन भी ऐसा न

ु आ कक पतत के बबना खाये उसने खुद खाया ो। अब उस तनयम को कैसे तोडे?

आखखर उसे खााँसी आने लगी। दब


ु ल
ष ता ने जल्द ी खाट पर डाल हदया। सभ
ु ागी
अब क्या करे ! ठाकुर सा ब के रुपये चुकाने के मलए हदलोजान से काम करने की
जरूरत थी। य ााँ मााँ बीमार पड़ गयी। अगर बा र जाय, तो मााँ अकेली र ती ैं।
उसके पास बैठे, तो बा र का काम कौन करे ? मााँ की दशा दे खकर सुभागी समझ
गयी कक इनका परवाना भी आ प ु ाँचा। म तों को भी तो य ी ज्वर था!

गााँव में और ककस िुरसत थी कक दौड-िूप करता। सजनमसिं दोनों वक़्त आते,
लक्ष्मी को दे खते, दवा वपलाते, सुभागी को समझाते और चले जाते; मगर लक्ष्मी
का दशा बबगड़ती जाती थी। य ााँ तक की पन्द्र वें हदन व भी सिंसार से मसिार
गयी। अत्न्तम समय रामू आया और उसके पैर छूना चा ता था; पर लक्ष्मी ने
उसे ऐसी खझझकी दी कक व उसके समीप न जा सका। सुभागी को उसने
आशीवाषद हदया- तुम् ारी जैसी बेटी पाकर तर गयी। मेरा कक्रया-कमष तुम् ीिं करना।
मेरी भगवान ् से य ी अरजी ैं कक उस जन्म में भी तुम मेरी कोख पववत्र करो।

माता के दे ान्त के बाद सुभागी के जीवन का केवल एक लक्ष्य र गया-


सजनमसिं के रुपये चक
ु ाना। 300 रुपये वपता के कक्रया-कमष में लगे थे। लगभग
200 रुपये माता के काम में लगे। 500 रुपये का ऋण था और उसकी जान! मगर
व ह म्मत न ारती थी। तीन साल तक सुभागी ने रात-को-रात और हदन-को-
हदन न समझा। उसकी कायष-शत्क्त और पौरुर् दे खकर लोग दााँतो तले उाँ गली
दबात थे। हदन-भर खेती-बारी का काम करने के बाद व रात को चार-चार पसेरी
आटा पीस डालती। तीसवे हदन 15 रुपये लेकर व सजनमसिं के पास प ु ाँच
जाती। इनमें कभी नागा न पड़ता। य मानो प्रकृतत का अटल तनयम था।

अब चारों ओर से सगाई के पैगाम आने लगे। सभी उसके मलए माँु िैलाये ुए
थे। त्जसके घर सभ
ु ागी जायेगी, उसके भाग्य किर जायेंगे। सभ
ु ागी य ी जवाब
दे ती- अभी व हदन न ीिं आया।

त्जस हदन सभ
ु ागी ने आखखरी ककश्त चक
ु ायी, उस हदन उसकी खश
ु ी का हठकाना
न था। आज उसके जीवन का कठोर व्रत पूरा ो गया।

व चलने लगी तो सजनमसिं ने क ा- बेटी, तम


ु से मेरी एक प्राथषना ैं, क ो क ू ाँ ,
क ो न क ू ाँ , मगर वचन दो कक मानोगी।

सभ
ु ागी ने कृतज्ञ भाव से दे खकर क ा- दादा, आपकी बात न मानाँग
ू ी तो ककसकी
बात मानाँग
ू ी? मेरा रोयााँ-रोयााँ आपका गुलाम ैं।

सजनमसिं - अगर तम्


ु ारे मन में य भाव ैं, तो मैं न क ू ाँगा। अब तक तम
ु से
इसमलए न ी क ा कक तुम अपने को दे नदार समझ र ी थी। अब रुपये चुक
गये। मेरा तुम् ारे ऊपर कोई ए सान न ी ैं, रतती भर भी न ी। बोलो क ू ाँ?

सुभागी- आपकी जो आज्ञा ो।

सजनमसिं - दे खो इनकार न करना, न ीिं, मैं किर तुम् ें अपना माँु न हदखाऊाँगा।

सभ
ु ागी- क्या आज्ञा ैं ?
सजनमसिं - मेरी इच्छा ै कक तुम मेरी ब ू बनकर मेरे घर को पववत्र करो। मै
जााँत-पााँत का कायल ू ाँ, मगर तुमने मेरे सारे बन्िन तोड़ हदए। मेरा लड़का
तम्
ु ारे नाम का पज
ु ारी ैं। तम
ु ने उसे बार ा दे खा। बोलो, मिंजरू करती ो?

सुभागी- दादा, इतना सम्मान पाकर पागल ो जाऊाँगी।

सजनमसिं - तुम् ारा सम्मान भगवान ् कर र े ैं। तुम साक्षात ् भगवती का


अवतार ो।

सुभागी- मैं तो आपको अपना वपता समझती ू ाँ। आप जो कुछ करें गे, मेरे भले के
मलए करें गें! आपके ु क्म को कैसे इनकार कर सकती ू ाँ।

सजनमसिं ने उसके माथे पर ाथ रखकर क ा- बेटी, तुम् ारा सु ाग अमर ो।


तम
ु ने मेरी बात रख ली। मझ
ु -सा भाग्यशाली सिंसार में औऱ कौन ोगा।

***
अनुभि

वप्रयतम को एक वर्ष की सजा ो गयी। और अपराि केवल इतना था, कक तीन


हदन प ले जेठ की तपती दोप री में उन् ोंने राष्र के कई सेवकों को शबषत-पान
से सतकार ककया था। मैं उस वक़्त अदालत में खड़ी थी। कमरे के बा र सारे
नगर की राजनीततक चेतना ककसी बन्दी पशु की भााँतत खड़ी चीतकार कर र ी
थी। मेरे प्राणिन थकडड़यों से जकड़े ु ए लाये गये। चारों ओर सन्नाटा छा
गया। मेरे भीतर ा ाकार मचा ु आ था, मानो प्राण वपघले जा र े ों। आवेश की
ल रें -सी उठ-उठकर समस्त शरीर को रोमािंधचत ककयें दे ती थी। ओ ! इतना गवष
मुझे कभी न ु आ था। व अदालत, कुसी पर बैठा अिंग्रेज अिसर, लाल जरीदार
पगडड़यााँ बााँिे ु ए पुमलस के कमषचारी, सब मेरी आाँखों से तुच्छ जान पड़ते थे।
बार-बार जी मे आता था, दौड़कर जीवनिन के चरणों से मलपट जाऊाँ और उसी
दशा में प्राण-तयाग दाँ ।ू ककतनी शााँत, अववचमलत, तेज और स्वामभमान से प्रतीप्त
मतू तष थी। ग्लातन, ववर्ाद या शोक की छाया भी न थी। न ीिं, उन ओठों पर एक
स्िततष से भरी ु ई, मनो ाररणी, ओजस्वी मुस्कान थी। इस अपराि के मलए एक
वर्ष का कहठन कारावास! वा रे न्याय! तेरी बमल ारी ैं। मैं ऐसे जार अपराि
करने को तैयार थी। प्राणनाथ ने चलते समय एक बार मेरी ओर दे खा; कुछ
मुस्कराये, किर उनकी मुद्रा कठोर ो गयी। अदालत से लौटकर मैंने पााँच रुपये
की ममठाई माँगवायी और स्वयिंसेवकों को बुलाकर खखलायी और सिंध्या समय मैं
प ली बार कािंग्रेस के जलसे में शरीक ु आ; -शरीक ी न ीिं ु ई, मिंच पर जाकर
बोली और सतयाग्र की प्रततज्ञा ले ली। मेरी आतमा में इतनी शत्क्त क ााँ से आ
गयी, न ीिं क सकती। सवषस्व लुट जाने के बाद किर ककसका डर? वविाता का
कठोर-से-कठोर आघात भी अब मेरा क्या अह त कर सकता था?

2
दस
ू रे हदन मैंने दो तार हदये- एक वपताजी को, दस
ू रा ससरु जी को। ससरु जी पें शन
पाते थे। वपताजी जिंगल के म कमें में अच्छे पद पर थे; पर सारा हदन गु र
गया, तार का जवाब नदारद! दस
ू रे हदन भी कोई जवाब न ीिं। तीसरे हदन दोनों
म ाशय के पत्र आये। दोनों ामें से बा र थे। ससुरजी ने मलखा- आशा थी, तुम
लोग बुढ़ापे में मेरा पालन करोगे। तुमने उस आशा पर पानी िेर हदया। क्या
अब चा ती ो, मैं मभक्षा मााँग?ू मैं सरकार से पेंशन पाता ू ाँ। तुम् ें आश्रय दे कर मैं
अपनी पें शन से ाथ न ी िो सकता। वपताजी के शब्द इतने कठोर न थे ; पर
भाव लगभग ऐसा ी था। इसी साल उन् ें ग्रेड ममलनेवाला था। व मझ
ु े बल
ु ायेंगे,
तो सम्भव ैं, ग्रेड से विंधचत ोना पड़े। ााँ, व मेरी स ायता मौखखक रूप से करने
को तैयार थे। मैने दोनो पत्र िाड़कर िेक हदये और किर उन् ें कोई पत्र न
मलखा। ा स्वाथष! तेरी माया ककतनी प्रबल ै । अपना ी वपता, केवल स्वाथष में
बािा पड़ने के भय से, लड़को की तरि से इतना तनदष य गो जाय? अपना ी ससुर
, अपनी ी ब ू की ओर से इतना उदासीन ो जाय! मगर अभी मेरी उम्र ी क्या
ै ? अभी तो सारी दतु नया दे खने को पड़ी ै।

अब तक मैं अपने ववर्य में तनत्श्चिंत थी; लेककन अब य नयी धचिंता सवार ु ई।
इस तनजषन घर में , तनरािार, तनराश्रय, कैसे र ू ाँगी; मगर जाऊाँगी क ााँ! अगर कोई
मदष ोती, तो कािंग्रेस के आश्रय में चली जाती या कोई मजदरू ी कर लेती। मेरे
पैरो में नारीतव की बेडड़यााँ पड़ी ु ई थी। अपनी रक्षा की इतनी धचिंता न थी,
त्जतनी अपने नारीतव की रक्षा की। अपनी जान की किक न थी; पर नारीतव की
ओर ककसी की आाँख भी न उठनी चाह ए।

ककसी की आ ट पाकर मैने नीचे दे खा। दो आदमी खड़े थे। जी में आया, पूछूाँ,
तुम कौन ो। य ााँ क्यों खड़े ो? मगर किर ख्याल आया, मुझे य पूछने का क्या
क़? आम रास्ता ैं। त्जसका जी चा े , खड़ा ो।

पर मुझे खटका ो गया। उस शिंका को ककसी तर हदल से न तनकाल सकती


थी। व एक धचनगारी की भााँतत हृदय के अिंदर समा गयी थी।
गमी से दे िाँु की जाती थी, पर मैंने कमरे का द्वार भीतर से बन्द कर मलया।
घर में एक बड़ा-सा चाकू था। उसे तनकालकर मसर ाने रख मलया। व शिंका
सामने बैठी घूरती ु ई मालूम ोती थी।

ककसी ने पक
ु ारा। मेरे रोये खड़े ो गये। मैने द्वार से कान लगाया। कोई मेरी
किंु डी खटखटा र ा था। कलेजा िक् -िक् करने लगा। व ी दोनो बदमाश ोगे।
क्यों किंु डी खडखड़ा र े ैं? मुझसे क्या काम ैं? मुझे झाँुझला ट आ गयी। मैने
द्वार न खोला और छज्जे पर खड़ी ोकर जोर से बोली- कौन किंु ड़ी खड़खड़ा र ा
ैं?

आवाज सुनकर मेरी शिंका शािंत ो गयी। ककतना ढारस ो गया! य बाबू
ज्ञानचन्द थे। मेरे पतत के ममत्रों में इनसे ज्यादा सज्जन दस
ू रा न ी ैं। मैने नीचे
जाकर द्वार खोल हदया। दे खो तो एक स्त्री भी थी। व ममसेज ज्ञानचन्द थी।
य मुझसे बड़ी थी। प ले-प ले मेरे घर आयी थी। मैंने उनके चरण-स्पशष ककये!
मारे य ााँ ममत्रता मदो तक र ती ैं , औरतों तक न ी जाने पाती।

दोनो जने ऊपर आये। ज्ञानबाबू एक स्कूल में मास्टर ैं। बड़े उदार, ववद्वान,
तनष्कपट; पर आज मुझे मालम
ू ु आ कक उनकी पथ-प्रदमशषका उनकी स्त्री ैं। व
दो रे बदन की प्रततभाशाली मह ला थी। चे रे पर ऐसा रौब था, मानो कोई रानी
ो। मसर से पााँव तक ग नों से लदी ु ई। मुख सुन्दर न ोने पर भी आकर्षक
था। शायद मैं उन् ें क ीिं और दे खती, तो माँु िेर लेती। गवष की सजीव प्रततमा
थीिं; पर बा र त्जतनी कठोर, भीतर उतनी ी दयालु।

'घर कोई पत्र मलखा?' - य प्रश्न उन् ोंने कुछ ह चकते ु ए ककया।

मैने क ा- ' ााँ, मलखा था।'

'कोई लेने आ र ा ैं ?'


'जी न ीिं। न वपताजी अपने पास रखना चा ते ै , न ससरु जी।'

'तो किर?'

'किर क्या; अभी तो य ी पड़ी ू ाँ।'

'तो मेरे घर क्यो न ीिं चलती। अकेले तो इस घर में मैं न र ने दाँ ग


ू ी।'

'खुकिया के दो आदमी इस वक़्त भी डटे ुए ैं।'

'मैं प ले ी समझ गयी थी, दोनो खुकिया के आदमी ोंगे।'

ज्ञानबाबू ने पतनी की ओर दे खकर , मानो उसकी आज्ञा से क ा- तो मैं जाकर


तााँगा लाऊाँ?

दे वीजी ने इस तर दे खा, मानो क र ी ो, क्या अभी तुम य ीिं खड़े ो?

मास्टर सा ब चुपके से द्वार की ओर चले।

'ठ रो!' दे वीजी बोली- 'कै तााँगे लाओगे?'

'कै!' मास्टर सा ब घबरा गए।

' ााँ कै! एक तााँगे पर दो-तीन सवाररयााँ ी बैठेगी। सन्दक


ू , बबछावनस बतषन-भााँड़े
क्या मेरे मसर पर जाएाँगे?'

'तो दो लेता आऊाँगा।' - मास्टर सा ब डरते-डरते बोले।

'एक तााँगे में ककतना सामान भर दोगे?'

'तो तीन लेता आऊाँ?'


'अरे , तो जाओगे भी। जरा-सी बात के मलए घिंटा भर लगा हदया।'

मै कुछ क ने न पायी थी कक ज्ञानबाबू चल हदये। मैने सकुचाते ु ए क ा- ब न,


तुम् ें मेरे जाने से कष्ट ोगा और...

दे वीजी ने तीक्षण स्वर में क ा- ााँ, ोगा तो अवश्य। तुम दोनो जून-दो-तीन पाव
आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, मसर में दो-तीन आने का
तेल डालोगी। य क्या थोडा कष्ट ैं।

मैने झेपते ु ए क ा- आप तो मुझे बना र ी ैं।

दे वीजी ने सहृदय भाव से मेरा कन्िा पकड़कर र ा- जब तम्


ु ारे बाबज
ू ी लौट
आयें, तो मुझे भी अपने घर मे मान रख लेगा। मेरा घाटा परू ा ो जाएगा। अब
तो राजी ु ई। चलो, असबाव बााँिो। खाट-वाट कल माँगवा लें गे।

मैने ऐसी सहृदय, उदार, मीठी बातें करनेवाली स्त्री न ी दे खी। मैं उनकी छोटी
ब न ोती, तो भी शायद इससे अच्छी तर न रखतीिं। धचन्ता या क्रोि को तो
जैसे उन् ोंने जीत मलया ो। सदै व उनके मुख पर मिुर ववनोद खेला करता था।
कोई लड़का-बाला न था, पर मैं उन् ें कभी दुःु खी न ीिं दे खा। ऊपर के काम मलए
एक लौंडा रख मलया था। भीतर का सारा काम खुद करती। इतना कम खाकर
और इतनी मे नत करके व कैसे इतनी हृष्ट-पष्ु ट थीिं, मै न ी क ती सकती।
ववश्राम तो जैसे उनके भाग्य ी में न ीिं मलखा था। जेठ की दोप री में भी न
लेटती थीिं। ााँ, मुझे कुछ न करने दे ती, उसपर जब दे खो, कुछ खखलाने को मसर
पर सवार। मुझे य ााँ बस य ीिं एक तकलीि थी।

मगर आठ ी हदन गज
ु रे थे कक एक हदन मैने उन् ीिं दोनो खकु ियों को नीचे बैठा
दे खा। मेरा माथा ठनका। य अभागे य ााँ भी मेरे पीछे पड़े ैं। मैने तरु न्त
ब नजी से क ा- वे दोनों बदमाश य ााँ भी माँडरा र े ैं।

उन् ोंने ह कारत से क ा- कुतते ैं! किरने दो।

मै धचत्न्तत ोकर बोली- कोई स्वााँग न खड़ा करे ।

उसी बेपरवा ी से बोली- भौकने के मसवा और क्या कर सकते ैं?

मैने क ा- काट भी तो सकते ैं।

ाँसकर बोली- इसके डर से कोई भाग तो न ी जाता न?

मगर मेरी दाल में मक्खीिं पड़ गयी। बार-बार छज्जे पर जाकर उन् ें ट लते दे ख
आती। य सब क्यों मेरे पीछे पड़े ु ए ैं ? आखखर मैं नौकरशा ी का क्या बबगाड़
सकती ू ाँ। मेरी सामर्थयष ी क्या ैं? क्या य सब इस तर मुझे य ााँ से भगाने
पर तुले ु ए ैं? इससे उन् ें क्या ममलेगा? य ी तो कक मै मारी-मारी किरूाँ! ककतनी
नीची तबीयत ैं।

एक फ्ता और गुजर गया। खुकिया ने वपिंड न छोड़ा। मेरे प्राण सूखते जाते थे।
ऐसी दशा में य ााँ र ना मुझे अनुधचत मालूम ोता था; पर दे वीजी से कुछ न
क सकती थी।

एक हदन ज्ञानबाबू आये, तो घबराये ु ए थे। मैं बरामदे में थी। परवल छील र ी
थी। ज्ञानबाबू ने कमरे में जाकर दे वीजी को इशारे से बुलाया।

दे वीजी ने बैठे-बैठे क ा- प ले कपड़े-वपड़े तो उतारो, माँु - ाथ िोओ, कुछ खाओ,


किर जो क ना ो, क लेना।

ज्ञानबाबू को िैयष क ा? पेट में बात की गन्ि तक न पचती थी। आग्र से


बल
ु ाया-तम
ु से उठा न ी जाता? मेरी जान आित में ैं।

दे वीजी ने बैठे-बैठे क ा- तो क ते क्यों न ीिं, क्या क ना ैं ?

'य ााँ आओ।'

'क्या य ााँ और कोई बैठा ुआ ैं?'

मै य ााँ से चली। ब न ने मेरा ाथ पकड़ मलया। मैं जोर करने पर भी न छुड़ा


सकी। ज्ञानबाबू मेरे सामने न क ना चा ते थे, पर इतना सब्र भी न था कक जरा
दे र रुक जाते। बोले- वप्रिंमसपल से मेरी लड़ाई ो गयी।

दे वीजी ने बनाबटी गम्भीरता से क ा- सच! तुमने उसे खूब पीटा न?

'तुम् ें हदल्लगी सूझी ैं। य ााँ नौकरी जा र ी ैं।'

'जब य डर था, तो लड़े क्यों?'

'मैं थोड़ा ी लड़ा। उसने मुझे बुलाकर डााँटा'

'बेकसूर?'

'अब तम
ु से क्या क ू ाँ।'

'किर व ी पदाष। मैं क चुकी, य मेरी ब न ैं। मैं इससे कोई पदाष न ी रखना
चा ती।'

'और, जो इन् ीिं के बारे में कोई बात ो, तो?'

दे वीजी ने जैसे प े ली बझ
ू कर क ा- अच्छा! समझ गयी। कुछ खकु ियों का झगड़ा
ोगा। पुमलस ने तुम् ारे वप्रिंमसपल से मशकायत की ोगी।
ज्ञान बाबू ने इतनी आसानी से अपनी प े ली का बूझा जाना स्वीकार न ककया।

बोले- पमु लस ने वप्रिंमसपल से न ीिं, ाककम-त्जला से क ा- उसने वप्रिंमसपल को


बुलाकर मुझसे जवाब तलब करने का ु क्म हदया।

दे वी ने अन्दाज से क ा- समझ गयी। वप्रिंमसपल ने तम


ु से क ा ोगा कक उस स्त्री
को घर से तनकाल दो।

' ााँ, य ी समझ लो।'

'तो तुमने क्या जवाब हदया?'

'अभी कोई जवाब न ीिं हदया। व ााँ खड़े-खड़े क्या क ना।'

दे वीजी ने उन् ें आड़े ाथों मलया- त्जस प्रश्न का एक ी जवाब ो, उसमें सोच-
ववचार कैसा?

ज्ञान बाबू मसटवपटाकर बोले- लेककन कुछ सोचना तो जरूरी था।

दे वीजी की तयोररयााँ बदल गयी। आज मैने प ली बार उनका य रूप दे खा।


बोली- तुम उस वप्रिंमसपल से जाकर क दो, मैं उसे ककसी तर न ी छोड़ सकता,
और न माने, तो इस्तीिा दे दो, अभी जाओ। लौटकर ाथ-माँु िोना।

मैने रोकर क ा- ब न, मेरे मलए...

दे वीजी ने डााँट बतायी- तू चप


ु र , न ी कान पकड़ लाँ ग
ू ी। क्यों बीच में कूदती ैं।
र ें गे तो साथ र ें गे, मरें गे तो साथ मरें गे। इस मदष ए
ु को मैं क ू । आिी उम्र बीत
गयी और बात करना न आया। (पतत से) खड़े सोच क्या र े ो? तुम् ें डर लगता
ैं, तो मैं जाकर क आऊाँ?
ज्ञान बाबू ने खखमसयाकर क ा- तो कल क दाँ ग
ू ा, इस वक़्त क ााँ ोगा, कौन
जाने!

रात-भर मुझे नीिंद न ीिं आयी। बाप और ससुर त्जसका माँु न ीिं दे खना चा ते,
उसका य आदर! रा की मभखाररन का य सम्मान! दे वी, तू सचमुच दे वी ैं।

दस
ू रे हदन ज्ञान बाबू चले, तो दे वी ने किर क ा- िैसला करके घर आना। य न
ो कक सोचकर जवाब दे ने की जरूरत पड़े।

ज्ञान बाबू के चले जाने के बाद मैने क ा- तम


ु मेरे साथ बड़ा अन्याय कर र ी ो
ब नजी! मै य कभी न ीिं दे ख सकती कक मेरे कारण तम्
ु ें य ववपत्तत झेलनी
पडे।

दे वी ने ास्य-भाव से क ा- क चक
ु ी; या कुछ और भी क ना ैं?

'क चुकी; मगर अभी ब ु त कुछ क ू ाँगी।'

'अच्छा, बता तेरे वप्रयतम क्यों जेल गये? इसमलए तो कक स्वयिंसेवकों का सतकार
ककया था। स्वयिंसेवक कौन ैं ? वे मारी सेना के वीर ैं, जो मारी लड़ाईयााँ लड़
र े ैं। स्वयिंसेवकों के भी तो बाल-बच्चे ोंगे, मााँ-बाप ोगें , व भी तो कोई
कारोबार करते ोंगिं; पर दे श की लड़ाई के मलए, उन् ोंने सब कुछ तयाग हदया ैं।
ऐसे वीरों का सतकार करने के मलए, जो आदमी जेल में डाल हदया जाय, उसकी
स्त्री के दशषनों से भी आतमा पववत्र ोती ैं। मैं तझ
ु पर ए सान न ीिं कर र ीिं ू ाँ ,
तू मुझ पर ए सान कर र ी ैं।'

मै इस दया-सागर में डुबककयााँ खाने लगी। बोलती क्या?

शाम को जब ज्ञान बाबू लौटें , तो उनके मुख पर ववजय का आनन्द था।


दे वी ने पूछा- ार कक जीत?

ज्ञान बाबू ने अकड़कर क ा- जीत! मैने इस्तीिा दे हदया, तो चक्कर में आ गया।
उसी वक़्त त्जला- ाककम के पास गया। व ााँ न जाने मोटर पर बैठकर दोनों में
क्या बातें ु ई। लौटकर मुझसे बोला- आप पोमलहटकल जलसों में तो न ी जाते?

मैने क ा- कभी भल
ू कर भी न ीिं।

'कािंग्रेस के मेम्बर तो न ीिं ैं?'

मैने क ा- मेम्बर क्या, मेम्बर का दोस्त भी न ी।

'कािंग्रेस ििंड में चन्दा तो न ी दे ते?'

मैने क ा- कानी कौड़ी भी कभी न ी दे ता।''

'तो में आपसे कुछ न ी क ना ैं। मैं आपका इस्तीिा वापस करता ू ाँ।'

दे वीजी ने मझ
ु े गले से लगा मलया।

***
आखिरी हीला

यद्यवप मेरी स्मरण-शत्क्त पर्थ


ृ वी के इतत ास की सारी स्मरणीय तारीखे भूल
गयी, वे तारीखे त्जन् ें रातों का जागकर औऱ मत्स्तष्क को खपाकर याद ककया
था; मगर वववा की ततधथ समतल भूमम में एक स्तम्भ की भााँतत अटल ैं। न
भूलता ू ाँ, न भूल सकता ू ाँ। उससे प ले और पीछे की सारी घटनाएाँ हदल से ममट
गयीिं, उनका तनशान तक बाकी न ीिं। व सारी अनेकता एक एकता में ममधश्रत ो
गयी ैं और व मेरे वववा की ततधथ ैं। चा ता ू ाँ , उसे भूल जाऊाँ; मगर त्जस
ततधथ का तनतयप्रतत सुममरन ककया जाता ो, व कैसे भूल जाय? तनतयप्रतत
समु मरन क्यों करता ू ाँ , य उस ववपत्तत-मारे से पतू छए, त्जसे भगवद्-भजन के
मसवा जीवन के उद्धार का कोई आिार न र ा ो।

लेककन क्या मैं वैवाह क जीवन से इसमलए भागता ू ाँ कक मझ


ु में रमसकता का
अभाव ैं और कोमल वगष की मोह नी शत्क्त से तनमलषप्त ू ाँ और अनासत्क्त का
पद प्राप्त कर चुका ू ाँ? क्या मैं न ीिं चा ता कक जब मैं सैर करने तनकलाँ ू तो
हृदयेश्वरी भी मेरे साथ ववराजमान ो? ववलास-वस्तुओिं की दक
ु ानों पर उनके साथ
जाकर थोड़ी दे र के मलए रसमय आग्र का आनन्द उठाऊाँ। मैं उस गवष और
आनन्द और म ततव को अनम
ु ान कर सकता ू ाँ, जो मेरे अन्य भाईयों की भााँतत
मेरे हृदय में भी आन्दोमलत ोगा, लेककन मेरे भाग्य में व खमु शयााँ- व
राँ गरे मलयााँ न ीिं ैं।

क्योंकक धचत्र का दस
ू रा पक्ष भी तो दे खता ू ाँ। एक पक्ष त्जतना ी मो क और
आकर्षक ैं, दस
ू रा उतना ी हृदयववदारक और भयिंकर। शाम ु ई और आप
बदनसीब बच्चे को गोद में मलये तेल या ईिन की दक
ु ान पर खड़े ैं। अाँिेरा ु आ
और आप आटे की पोटली बगल में दबाये ु ए गमलयों में यों कदम बढ़ाये ुए
तनकल जाते ैं, मानो चोरी की ैं। सूयष तनकला और बालकों को गोद में मलये
ोम्योपैथ ड क्टर की दक
ु ान में टूटी कुसी पर आरूढ़ ैं। ककसी खोमचेवाले की
रसीली आवा सन
ु कर बालक ने गगनभेदी ववलाप आरम्भ ककया औऱ आपके
प्राण सूखे। ऐसे बापों को भी दे खा ैं जो दफ़्तर से लौटते ु ए पैसे-दो पैसे की
माँग
ू िली या रे वडड़यााँ लेकर लज्जास्पद शीध्रता के साथ माँु में रखते चले जाते ैं
कक घर प ु ाँ चते-प ु ाँचते बालकों के आक्रमण से प ले ी य पदाथष समाप्त ो
जाय। ककतना तनराशाजनक ोता ै य दृश्य, जब दे खता ू ाँ कक मेले में बच्चा
ककसी खखलौने की दक
ु ान के सामने मचल र ा ैं और वपता म ोदय ऋवर्यों की-
सी ववद्वता के साथ उनकी क्षणभिंगरु ता का राग आलाप र े ैं।

धचत्र का प ला रुख तो मेरे मलए एक मादक स्वप्न ैं , दस


ू रा रुख एक भयिंकर
सतय। इस सतय के सामने मेरी सारी रमसकता अन्तिाषन ो जाती ैं। मेरी सारी
मौमलकता, सारी रचनाशीलता इसी दाम्पतय के िन्दों से बचने के मलए प्रयुक्त ु ई
ैं। जानता ू ाँ कक जाल के नीचे जाना ैं , मगर जाल ककतना ी रिं गीन और ग्रा क
ैं, दाना उतना ी घातक और ववर्ैला। इस जाल में पक्षक्षयों को तड़पते और
िड़िड़ाते दे खता ू ाँ और किर डाली पर जा बैठता ू ाँ।

लेककन इिर कुछ हदनों से श्रीमतीजी ने अववश्रािंत रूप से आग्र करना शुऱू ककया
ै कक मुझे बुला लो। प ले जब छुहट्टयों में जाता था, तो मेरा केवल 'क ााँ चलोगी'
क दे ना उनकी धचततशात्न्त के मलए कािी ोता था, किर मैंने 'झिंझट ैं' क कर
तसल्ली दे नी शुरू की। इसके बाद ग ृ स्थ-जीवन की असुवविाओिं से डराया, ककन्तु
अब कुछ हदनों से उनका अववश्वास बढ़ता जाता ैं। अब मैने छुहट्टयों में भी
उनके आग्र के भय से घर जाना बन्द कर हदया ैं कक क ीिं व मेरे साथ न
चल खड़ी ो और नाना प्रकार के ब ानों से उन् ें आशिंककत करता र ता ू ाँ।

मेरा प ला ब ाना पत्र-सम्पादकों को जीवन की कहठनाइयों के ववर्य में था।


कभी बार बजे रात को सोना नसीब ोता ैं, कभी रतजगा करना पड़ जाता ैं।
सारे हदन गली-गली ठोकरें खानी पड़ती ैं। इस पर तरु ाष य ैं कक मेशा मसर
पर निंगी तलवार लटकती र ती ैं। न जाने कब धगरफ्तार ो जाऊाँ, कब जमानत
तलब ो जाय। खुकिया पुमलस की एक िौज मेशा पीछे पड़ी र ती ैं। कभी
बाजार में तनकल जाता ू ाँ , तो लोग उाँ गमलयााँ उठाकर क ते ैं- व जा र ा ैं
अखबारवाला। मानो सिंसार में त्जतने दै ववक, आधिदै ववक, भौततक, आधिभौततक
बािाएाँ ैं, उनका उततरदायी मैं ू ाँ। मानो मेरा मत्स्तष्क झूठी खबरें गढने का
कायाषलय ैं। सारा हदन अिसरों की सलाम और पुमलस की खुशामद में गुजर
जाता ैं। कान्स्टे बलों को दे खा और प्राण-पीड़ा ोने लगी। मेरी तो य ालत, और

ु क्काम ैं मेरी सूरत से कााँपते ैं। एक हदन दभ


ु ाषग्यवश एक अिंग्रेज के बाँगले
तरि जा तनकला। सा ब ने पछ
ू ा- क्या काम करता ैं? मैने गवष से साथ क ा-
पत्र का सम्पादक ू ाँ। सा ब तरु न्त अन्दर घस
ु गये और कपाट बन्द कर मलये।
किर मेम सा ब और बाबा लोगों को खखड़ककयों से झााँकते दे खा, मानो कोई
भयिंकर जन्तु ै । एक बार रे लगाड़ी में सिर कर र ा था। साथ और भी कई
ममत्र थे, इसमलए अपने पद का सम्मान तनभाने के मलए सेकिंड क्लास का हटकट
लेना पड़ा। गाड़ी में बैठा तो एक सा ब ने मेरे सूटकेस पर मेरा नाम और पेशा
दे खते ी तरु न्त अपना सन्दक
ू खोला और ररवाल्वर तनकालकर मेरे सामने
गोमलयााँ भरी, त्जसमें मुझे मालम
ू ो जाय कक व मुझसे सचेत ैं। मैने दे वीजी
से अपनी आधथषक कहठनाइयों की भी चचाष न ीिं की; क्योंकक मैं रमखणयों के सामने
य त्जक्र करना अपनी मयाषदा के ववरुद्ध समझता ू ाँ ालााँकक य चचाष करता, तो
दे वीजी की दया का अवश्य पात्र बन जाता।

मुझे ववश्वास था कक श्रीमतीजी किर य ााँ आने का नाम न लें गी। मगर य मेरा
भ्रम था। उनके आग्र पूवव
ष त ् ोते र े !

तब मैंने दस
ू रा ब ाना सोचा। श र बीमाररयों के अड्डे ैं। र एक खाने -पीने की
चीज में ववर् की शिंका, दि
ू में ववर्, िलों में ववर्, शाक-भाजी में ववर्, वा में ववर्,
पानी में ववर्। य ााँ मनष्ु य का जीवन पानी का लकीर ैं। त्जसे आज दे खो, व
कल गायब। अच्छे -खासे बैठे ैं, हृदय की गतत बन्द ो गयी। घर से सैर को
तनकले, मोटर से टकराकर सुरपुर की रा ली। अगर शाम को सािंगोपािंग घर आ
जाय, तो उसे भाग्यवान समझो। मच्छर की आवाज कान में आयी, हदल बैठा;
मक्खी नजर आयी और ाथ-पााँव िूले। चू ा बबल से तनकला और जान तनकल
गयी। त्जिर दे खखए, यमराज की अमलदारी ैं। अगर मोटर और राम से बचकर
आ गये, तो मच्छर और मक्खी के मशकार ु ए। बस, य ी समझ लो कक मौत
रदम मसर पर खेलती र ती ैं। रात-भर मच्छरों से लड़ता ू ाँ , हदन-भर मत्क्खयों
से। नन् ीिं-सी जान को ककन-ककन दश्ु मनों से बचाऊाँ। सााँस भी मुत्श्कल से लेता ू ाँ
कक क ीिं क्षय के कीटाणु िेिड़े में न प ु ाँच जायाँ।

दे वीजी को किर मुझ पर ववश्वास न आया। दस


ू रे पत्र में भी व ी आरजू थी।
मलखा था, तुम् ारे पत्र ने और धचन्ता बढ़ा दी। अब प्रततहदन पत्र मलखा करना,
न ी, मैं एक न सुनाँग
ू ी और सीिे चली आऊाँगी। मैने हदन में क ा- चलो सस्ते
छूटे ।

मगर खटका लगा ु आ था कक न जाने कब उन् ें श र आने की सनक सवार ो


जाय। इसमलए मैने तीसरा ब ाना सोच तनकाला। य ााँ ममत्रों के मारे नाकों दम
र ता ैं, आकर बैठ जाते ैं तो उठने का नाम भी न ीिं लेते, मानो अपना घर बेच
आये ैं। अगर घर से टल जाओ, तो आकर बेिड़क कमरे में बैठ जाते ै और
नौकर से जो चीज चा ते ैं , उिार माँगवा लेते ैं। दे ना मुझे पड़ता ैं। कुछ लोग
तो फ्तों पड़े र ते ैं , टलने का नाम ी न ी लेत।े रोज उनका सेवा-सतकार करो,
रात को धथएटर या मसनेमा ले जाओ, किर सवेरे तक ताश या शतरिं ज खेलो।
अधिकािंश तो ऐसे ैं, जो शराब के बगैर त्जन्दा ी न ी र सकते। अकसर तो
बीमार आते ैं; बत्ल्क अधिकतर बीमार ो आते ैं। अब रोज ड क्टर को बुलाओ,
सेवा-शुश्रर्ा करो, रात भर मसर ाने बैठे पिंखा झलते र ो, उस पर य मशकायत भी
सुनते र ो कक य ााँ कोई मारी बात भी न ीिं पूछता। मेरी घड़ी म ीनों से मेरी
कलाई पर न ीिं आयी। दोस्तों के साथ जलसों में शरीक ो र ी ैं। अचकन ैं ,
व एक सा ब के पास ैं, कोट दस
ू रे सा ब ले गये। जत
ू े और एक बाबू ले उड़े।
मैं व ी रद्दी कोट और व ीिं चमरौिा जत
ू ा प नकर दफ्तर जाता ू ाँ। ममत्र-वन्ृ द
ताड़ते र ते ैं कक कौन-सी नयी वस्तु लाया। कोई चीज लाता ू ाँ, तो मारे डर के
सन्दक
ू में बन्द कर दे ता ू ाँ, ककसी की तनगा पड़ जाय, तो क ीिं-न-क ीिं न्योता
खाने की िुन सवार ो जाय। प ली तारीख को वेतन ममलता ैं, तो चोरों की
तर दबे पााँव घर में आता ू ाँ कक क ीिं कोई म ाशय रुपयों की प्रतीक्षा में द्वार
पर िरना जमाये न बैठे ो। मालम
ू न ीिं, उनकी सारी आवश्यकताएाँ प ली ी
तारीख की बाट क्यों जो ती र ती ैं ? एक हदन वेतन लेकर बार बजे रात को
लौटा, मगर दे खा तो आिे दजषन ममत्र उस वक़्त भी डटे ु ए थे। माथा ठोक
मलया। ककतने ब ाने करूाँ, उनके सामने एक न ीिं चलती। मै क ता ू ाँ , घर से पत्र
आया ैं, माताजी ब ु त बीमार ैं। जवाब दे ते ैं, अजी, बूढ़े इतनी जल्द न ी मरते।
मरना ी ोता, तो इतने हदन जीववत क्यों र तीिं? दे ख लेना, दो-चार हदन में
अच्छी ो जायाँगी, और अगर मर भी जायाँ, तो वद्ध
ृ जनों की मतृ यु का शोक ी
क्या, व तो और खुशी की बात ैं। क ता ू ाँ , लगान का बड़ा तकाजा ो र ा ैं।
जवाब ममलता ैं, आजकल लगान तो बन्द ो र ा ैं। लगान दे ने की जरूरत ी
न ीिं। अगर ककसी सिंस्कार का ब ाना करता ू ाँ , तो िरमाते ैं तुम भी ववधचत्र
जीव ो। इन कुप्रथाओिं की लकीर पीटना तुम् ारी शान के खखलाि ै । अगर तुम
उनका मल
ू ोच्छे द न करोगे, तो व लोग क्या आकाश से आयेंगे? गरज य कक
ककसी तर प्राण न ी बचते।

मैने समझा कक मारा य ब ाना तनशाने पर बैठेगा। ऐसे घर में कौन रमणी
र ना पसन्द करे गी, जो ममत्रों पर ी अवपषत ो गया ो। ककन्तु मुझे किर भ्रम

ु आ। उततर में किर व ी आग्र था।

तब मैने चौथा ीला सोचा। य ााँ मकान ैं कक धचडड़यों के वपिंजरे , न वा, न


रोशनी। व दग
ु न्
ष ि उड़ती ैं कक खोपड़ी भन्ना जाती ैं। ककतने ी को तो इसी
दग
ु न्
ष ि के कारण ववशूधचका, टाइिाइड, यक्ष्मा आहद रोग ो जाते ैं। वर्ाष ु ई और
मकान टपकने लगा। पानी चा े घिंटे -भर बरसे, मकान रात-भर बरसता र ता ैं।
ऐसे ब ु त ी कम घर ोंगे, त्जनमें प्रेत-बािाएाँ न ों। लोगों को डरावने स्वपन
हदखाई दे ते ैं। ककतनों ी को उन्माद-रोग ो जाता ैं। आज नये घर में आयें,
कल ी उसे बदलनें की धचन्ता सवार ो गयी। कोई ठे ला असबाब से लदा ु आ
जा र ा ैं। कोई आ र ा ैं। त्जिर दे खखए, ठे ले- ी-ठे ले नजर आते ैं। चोररयााँ तो
इस कसरत से ोती ैं कक अगर कोई रात कुशल से बीत जाय, तो दे वताओिं की
मनौती की जाती ैं। आिी रात ु ई और 'चोर-चोर! पकड़ो-पकड़ो!' की आवाजे
आने लगीिं। लोग दरवाजों पर मोटे -मोटिं लकड़ी िट्टे या जत
ू े या धचमटे मलये खड़े
र ते ैं; किर भी लोग कुशल ै कक आाँख बचाकर अन्दर प ु ाँच जाते ैं। एक मेरे
बेतकल्लुि दोस्त ैं। स्ने वश मेरे पास ब ु त दे र तक बैठे र ते थे। रात-अाँिेरे में
बतषन खड़के, तो मैंने बतती जलायी। दे खा, तो व ी म ाशय बतषन समें ट र े थे।
मेरी आवाज सुनकर जोर से क क ा मारा; बोले, मैं तुम् ें चकमा दे ना चा ता था।
मैने हदल में समझ मलया, अगर तनकल जाते, तो बतषन आपके थे, अब जाग पड़ा
तो चकमा ो गया। घर में आये कैसे थे ? य र स्य ैं। कदाधचत रात को ताश
खेलकर चले, तो बा र जाने के बदले नीचे अाँिेरी कोठरी में तछप गये। एक हदन
एक म ाशय मुझसे पत्र मलखाने आये , कमरे में कमल-दवात न था। ऊपर के
कमरे से लाने गया। लौटकर आया तो दे खा, आप गायब ैं और उनके साथ
िाउिं टे न पेन भी गायब ैं। सारािंश य ैं कक नगर-जीवन नरक-जीवन से कम
दुःु खदायी न ीिं ैं।

मगर पतनीजी पर नागररक जीवन का ऐसा जाद ू चढ़ा ु आ ैं कक मेरा कोई


ब ाना उन पर असर न ीिं करता। इस पत्र के जवाब में उन् ोंने मलखा- मझ
ु से
ब ाने करते ो, मैं धगषज न मानाँूगी। तुम आकर मुझे ले जाओ।

आखखर मझ
ु े पााँचवााँ ब ाना करना पड़ा। य खोंचेवालों के ववर्य में था।

अभी बबस्तर से उठने की नौबत न ीिं आयी कक कानों में ववधचत्र आवाजें आने
लगीिं। काबल
ु के मीनार के तनमाषण के समय भी ऐसी तनरथषक आवाजें न आयी
ोंगी। य खोंचेवालों की शब्द-क्रीड़ा ैं। उधचत तो य था, य खोंचेवाले ढोल-
माँजीरे के साथ लोगों को अपनी चीजों की ओर आकवर्षत करते; मगर इन औिंिी
अक्लवालों को य क ााँ सूझती ैं। ऐसे पैशाधचक स्वर तनकालते ैं कक
सुननेवालों के रोएाँ खड़े ो जाते ैं। बच्चे मााँ की गोद में धचपट जाते ैं। मैं भी
रात को अक्सर चौंक पड़ता ू ाँ । एक हदन तो मेरे पड़ोस में एक दघ
ु ट
ष ना ो गयी।
ग्यार बजे थे। कोई मह ला बच्चे को दि
ू वपलाने उठी थी। एकाएक ककसी
खोंचेवाले की भयिंकर ध्वतन कानों में आयी, तो चीख मारकर धचल्ला उठी और
किर बे ोश ो गयी। म ीनों की दवा-दारू के बाद अच्छी ु ई। अब रात को कानों
में रुई डालकर सोती ैं। ऐसे कारण नगरों में तनतय ी र ते ैं। मेरे ी ममत्रों में
कई ऐसे ैं , जो अपनी त्स्त्रयों को घर में लाये मगर बेचाररयााँ दस
ू रे ी हदन इन
आवाजों से भयभीत ोकर लौट गयीिं।

श्रीमती ने इसके जवाब में मलखा- तुम समझते ो, मैं खोंमवालों की आवाजों से
डर जाऊाँगी। य ााँ गीदड़ो का ौवाना और उल्लूओिं का चीखना सुनकर तो डरती
न ीिं, खोंमेवालों से क्या डरूाँगी।

किर मैने मलखा- श र शरीि जाहदयों के र ने की जग न ी। य ााँ की म ररयााँ


इतनी कटुभावर्णी ैं कक बातों का जवाब गामलयों से दे ती ैं और उनके बनाव-
साँवार का क्या पूछना! भले घरों की त्स्त्रयााँ तो इनके ठाट दे खकर ी शमष से
पानी-पानी ो जाती ैं। मसर से पााँव तक सोने से लदी ु ई, सामने से तनकल
जाती ैं, तो मालूम ोता ैं कक सुगत्न्ि की लपट लग गयी। ग ृ खणयााँ ये ठाट
क ााँ से लाएाँ; उन् ें तो और भी सैकड़ों धचन्ताएाँ ैं। इन म ररयों को तो बनाव-
मसिंगार के मसवा दस
ू रा काम ी न ीिं। तनतय नयी सज-िज, तनतय नयी अदा, और
चिंचल तो इस गजब की ैं , मानो अिंगों में रक्त की जग पारा भर हदया ो।
उनका चमकना और मटकना और मुस्कराना दे खकर ग ृ खणयााँ लत्ज्जत ो जाती
ैं। और ऐसी दीदा-दीलेर ैं कक जबरदस्ती घरों में घस
ु पड़ती ैं। त्जिर दे खों
इनका मेला-सा लगा ु आ ैं। इनके मारे भले आदममयों का घर में बैठना
मुत्श्कल ैं। कोई खत मलखाने के ब ाने से आ जाती ैं, कोई खत पढ़ाने के ब ाने
से। असली बात य ैं कक ग ृ दे ववयों का रिं ग िीका करने में इन् ें आनन्द आता
ैं। इसीमलए शरीिजाहदयााँ ब ु त कम श रों में आती ैं।

मालूम न ी, इस पत्र में मुझसे क्या गलती ु ई कक तीसरे हदन पतनीजी एक बूढ़े
क ार के साथ मेरा पता पूछती ु ई अपने तीनो बच्चों को मलये एक असाध्या
रोग का भााँतत आ डटी।

मैने बद वास ोकर पूछा- क्यों कुशल तो ैं?


पतनी ने चादर उतारते ु ए क ा- घर में कोई चुड़ल
ै बैठी तो न ीिं ैं? य ााँ ककसी
ने कदम रखा तो नाक काट लाँ ग
ू ी ााँ, जो तुम् ारी श न ो।

अच्छा, तो अब र स्य खुला। मैने मसर पीट मलया। क्या जानता था, तमाचा अपने
ी माँु पर पड़ेगा!

***
िािान

छकौड़ीलाल ने दक
ु ान खोली और कपड़े के थानों को तनकाल-तनकाल रखने लगा
कक एक मह ला, दो स्वयिंसेवकों के साथ उसकी दक
ू ान को छिं कने आ प ु ाँ चीिं।
छकौड़ी के प्राण तनकल गये।

मह ला ने ततरस्कार करके क ा- क्यों लाला, तम


ु ने सील तोड़ डाली न? अच्छी
बात ैं, दे खें तुम कैसे एक धगर कपड़ा भी बेच लेते ो! भले आदमी, तुम् ें शमष
न ीिं आती कक दे श में य सिंग्राम तछड़ा ु आ ै और तुम ववलायती कपड़ा बेच
र े ो; डूब मरना चाह ए! औरतें तक घरों से तनकल पड़ी ैं , किर भी तुम् ें लज्जा
न ी आती! तुम जैसे कायर दे श में न ोते, तो उसकी य अिोगतत न ोती!

छकौड़ी ने वास्तव में कल कािंग्रेस की सील तोड़ डाली थी। य ततरस्कार सुनकर
उसने मसर नीचा कर मलया। उसके पास कोई सिाई न थी, जवाब न था। उसकी
दक
ु ान ब ु त छोटी थी। ठे ली पर कपड़े लगाकर बेचा करता था। य ी जीववका थी।
इसी पर वद्ध
ृ ा माता, रोधगणी स्त्री और पााँच बेटे-बेहटयों का तनवाष ोता था। जब
स्वराज्य-सिंग्राम तछड़ा और सभी बजाज ववलायती कपड़ो पर मु रें लगवाने लगे,
तो उसने भी मु र लगवा ली। दस-पााँच थान स्वदे शी कपड़ो के उिार लाकर
दक
ु ान पर रख मलए; पर कपड़ों का मेल न था, इसमलए बबक्री कम ोती थी। कोई
भूला-भटका ग्रा क आ जाता, तो रुपये-आठ आने बबक्री ो जाती। हदन-भर दक
ू ान
में तपस्या-सी करके प र रात को लौट जाता था।

ग ृ स्थी का खचष इस बबक्री से क्या चलता! कुछ हदन कजष-वजष लेकर काम
चलाया, किर ग ने बेचने की नौबत आयी। य ााँ तक कक अब घर में कोई ऐसी
चीज न बची, त्जससे दो-चार म ीने पेट का भूत मसर से टाला जाता। उिर स्त्री
का रोग असाध्य ोता जाता था। बबना ककसी कुशल ड क्टर को हदखाये काम न
चल सकता था। इसी धचन्ता में डूब-उतरा र ा था कक ववलायती कपड़े का एक
ग्रा क ममल गया, जो एक मश्ु त दस रुपये का माल लेना चा ता था। इस
प्रलोभन को व रोक न सका।

स्त्री ने सुना, तो कानों पर ाथ रखकर बोली- मैं मु र तोड़ने को कभी न क ू ाँगी।


ड क्टर तो कुछ अमत
ृ वपला न दे गा। तुम नक्कू क्यों बनो? बचना ोगा, बच
जाऊाँगी, मरना ोगा, मर जाऊाँगी, बेआबरूई तो न ोगी। मै जीकर ी घर का क्या
उपकार कर र ी ू ाँ? और सबको हदक कर र ी ू ाँ। दे श को स्वराज्य ममले, सब
सुखी ो, बला से मैं मर जाऊाँगी! जारों आदमी जेल जा र े ैं , ककतने घर तबा
ो गये, तो क्या सबसे ज्यादा प्यारी मेरी जान ैं ?

पर छकौड़ी इतना पक्का न था। अपना बस चलते, व स्त्री को भाग्य के भरोसे


न छोड़ सकता था। उसने चप
ु के से मु र तोड़ डाली और लागत के दामों दस
रुपये के कपड़े बेच मलये।

अब ड क्टर को कैसे ले जाय। स्त्री से परदा रखता? उसने जाकर साफ़-साफ़ सारा
वतृ तािंत क सुनाया और ड क्टर को बुलाने चला।

स्त्री ने उसका ाथ पकड़कर क ा- मझ


ु े ड क्टर की जरूरत न ी, अगर तम
ु ने त्जद
की, तो दवा की तरि आाँखें भी न उठाऊाँगी।

छकौड़ी और उसकी मााँ ने रोधगणी को ब ु त समझाया; पर व ड क्टर को बल


ु ाने
पर रा ी न ु ई। छकौड़ी ने दसों रुपयों को उठाकर घर-कुइयााँ में िेंक हदये और
बबना कुछ खाये-पीये, ककस्मत को रोता-झीकता दक
ु ान पर चला आया। उसी वक़्त
वपकेट करने वाले आ प ु ाँचे और उसे िटकारना शुरू कर हदया। पड़ोस के
दक
ु ानदार ने कािंग्रेस-कमेटी में जाकर चुगली खायी थी।

2
छकौड़ी ने मह ला के मलए अिंदर से लो े की एक टूटी, बेरिंग कुसी तनकाली और
लपककर उसके मलए पान लाया। जब पान खाकर कुसी पर बैठी, तो उसनें
अपराि के मलए क्षमा मााँगी। बोला- ब नजी, बेसक मुझसे य अपराि ु आ ैं,
लेककन मैने मजबूर ोकर मु र तोड़ी। अबकी मुझे मुआिी दीत्जए। किर ऐसी
खता न ोगी।

दे शसेववका ने थानेदारों के रौब के साथ क ा- यों अपराि क्षमा न ी ो सकता।


तुम् ें इसका तावान दे ना ोगा। तुमने कािंग्रेस के साथ ववश्वासघात ककया ैं और
इसका तुम् ें दिं ड ममलेगा। आज ी बायकाट-कमेटी में य मामला पेश ोगा।

छकौड़ी ब ु त ी ववनीत, ब ु त ी सह ष्णु था; लेककन धचतात्ग्न में तपकर उसका


हृदय उस दशा को प ु ाँच गया था, जब एक चोट भी धचनगाररयााँ पैदा कर दे ती
ैं। ततनककर बोला- तावान तो मैं न दे सकता ू ाँ, न दाँ ग
ू ा। ााँ, दक
ु ान भले ी
बन्द कर दाँ ।ू और दक
ु ान भी क्यों बन्द करूाँ? अपना माल ैं, त्जस जग चा ू ाँ , बेच
सकता ू ाँ। अभी जाकर थाने में मलखा दाँ ,ू तो बायकाट कमेटी को भागने की रा
न ममले। त्जतना ी दबता ू ाँ, उतनी ी आप लोग दबाती ैं।

मह ला ने सतयाग्र -शत्क्त के प्रदशषन का अवसर पाकर क ा- ााँ, जरूर पुमलस में


रपट करो, मैं तो चा ती ू ाँ। तुम उन लोगों को य िमकी दे र े ो, जो तुम् ारे
ी मलए अपने प्राणों का बमलदान कर र े ैं। तुम इतने स्वाथाषन्ि ो गये ो कक
अपने स्वाथष के मलए दे श का अह त करते तम्
ु ें लज्जा न ी लाती! उस पर मझ
ु े
पमु लस की िमकी दे ते ो! बायकाट-कमेटी जाय या र े , पर तम्
ु ें तावान दे ना
पड़ेगा, अन्यथा दक
ु ान बन्द करनी पड़ेगी।

य क ते-क ते मह ला का च े रा गवष से तेजवान ो गया। कई आदमी जमा ो


गये और सब-के-सब छकौड़ी को बुरा-भला क ने लगे। छकौड़ी को मालूम ो गया
कक पुमलस की िमकी दे कर उसने ब ु त बड़ा अवववेक ककया ै । लज्जा और
अपमान से उसकी गदष न झुक गयी और माँु जरा-सा तनकल आया। किर गदष न न
उठायी।
सारा हदन गुजर गया और िेले की बबक्री न ु ई। आखखर ारकर उसने दक
ु ान
बन्द कर दी और घर चला गया।

दस
ू रे हदन प्रातुःकाल बायकाट-कमेटी ने एक स्वयिंसेवक द्वारा उसे सूचना दे दी
कक कमेटी ने उस पर 101रू. का दिं ड हदया ैं।

छकौड़ी जानता था कक कािंग्रेस की शत्क्त से सामने व सवषथा अशक्त ै । उसकी


जब
ु ान से जो िमकी तनकल गयी थी, उस पर घोर पश्चाताप ु आ, लेककन कीर
कमान से तनकल चक
ु ा था। दक
ु ान खोलना व्यथष ैं। व जानता था। उसकी िेले
की बबक्री न ोगी। 101रु. दे ना उसके बूते से बा र था। दो-तीन हदन तो व
चुपचाप बैठा र ा। एक हदन, रात को दक
ु ान खोलकर सारी गााँठें घर उठा लाया
और चुपके-चुपके बेचने लगा। पैसे की चीज िेले में लुटा र ा था और व भी
उिार। जीने के मलए कुछ आिार तो चाह ए।

मगर उसकी य चाल कािंग्रेस से तछपी न र ी। चौथे ी हदन गोइिंदो ने कािंग्रेस


को खबर प ु ाँचा दी। उसी हदन तीसरे प र छकौड़ी के घर की वपकेहटिंग शुरू ो
गयी। अबकी मसिष वपकेहटिंग न थी, स्यापा भी था। पााँच-छ स्वयिंसेववकाएाँ औऱ
इतने ी स्वयिंसेवक द्वार पर स्यापा करने लगे।

छकौड़ी आाँगन में मसर झक


ु ाये खड़ा था। कुछ अक़्ल काम न करती थी, इस
ववपत्तत को कैसे टाले। रोधगणी स्त्री सायबान में लेटी ु ई थी, वद्ध
ृ ा माता उसके
मसर ाने बैठी पिंखा झूल र ी थी और बच्चे बा र स्यापे का आनन्द उठा र े थे।

स्त्री ने क ा- इन सबसे पूछते न ीिं, खाएाँ क्या?

छकौड़ी बोला- ककससे पछ


ू ू ाँ , जब कोई सन
ु े भी!
'जाकर कािंग्रेसवालों से क ो, मारे मलए कुछ इिंतजाम कर दे , म अभी कपड़े को
जला दें गे। ज्यादा न ी, 25 रु. ी म ीना दे दें ।'

'व ााँ भी कोई न ीिं सन


ु ेगा।'

'तुम जाओ भी, या य ीिं से कानून बघारने लगे।'

'क्या जाऊाँ, उलटे और लोग ाँसी उड़ाएाँगे। य ााँ तो त्जसने दक


ु ान खोली, उसे
दतु नया लखपती ी समझने लगती ैं।'

'तो खड़े-खड़े, ये गामलयााँ सुनते र ोगे?'

'तुम् ारे क ने से क ो, चला जाऊाँ, मगर व ााँ ठठोली के मसवा और कुछ न ोगा।'

' ााँ, मेरे क ने से जाओ। जब कोई न सुनेगा, तो म भी कोई और रा


तनकालें गे।'

छकौड़ी ने माँु लटकाए कुताष प ना और इस तर कािंग्रेस-दफ्तर चला, जैसे कोई


मरणासन्न रोगी को दे खने के मलए वैद्य को बुलाने जाता ैं।

कािंग्रेस-कमेटी के प्रिान ने पररचय के बाद पूछा- तुम् ारे ी ऊपर तो बायकाट-


कमेटी ने 101रु. का तावान लगाया ैं?

'जी ााँ!'

'तो रुपया कब दोगे?'

'मुझमें तावान दे ने की सामर्थयष न ी ैं। आपसे सतय क ता ू ाँ , मेरे घर में दो हदन


से चूल् ा न ी जला। घर की जो जमा-जथा थी, व सब बेचकर खा गया। अब
आपने तावान लगा हदया, दक
ु ान बन्द करनी पड़ी। घर पर कुछ माल बेचने लगा।
व ााँ स्यापा बैठ गया। अगर आपकी य ी इच्छा ो कक म सब दाने बगैर मर
जायाँ, तो मार डामलए और मुझे कुछ न ीिं क ना ैं।'

छकौड़ी जो बात क ने घर ले चला था, व उसके माँु से तनकली। उसने दे ख


मलया, य ााँ कोई उस पर ववचार करने वाला न ीिं ैं!

प्रिान ने गम्भीर-भाव से क ा- तावान तो दे ना ी पड़ेगा। अगर तुम् ें छोड़ दाँ ,ू तो


इसी तर और लोग भी करें गे। किर ववलायती कपड़े की रोकथाम कैसे ोगी?

'मैं आपसे जो क र ा ू ाँ, उस पर आपको ववश्वास न ी आता?'

'मैं जानता ू ाँ, तम


ु मालदार आदमी ो।'

'मेरे घर की तलाशी ले लीत्जए।'

'मैं इन चकमों में न ी आता।'

छकौड़ी ने उद्दिंड ोकर क ा- तो य कह ए कक आप सेवा न ी कर र े ैं , गरीबो


का खून चूस र े ैं। पुमलस वाले कानूनी प लू से लेते ैं, आप गैरकानूनी प लू
से लेते ैं। नतीजा एक ैं। आप भी अपमान करते ै , व भी अपमान करते ैं।
मैं कसम खा र ा ू ाँ कक मेरे घर में खाने के मलए एक दाना न ीिं ैं , मेरी स्त्री
खाट पर पड़ी-पड़ी मर र ी ैं किर भी आपको ववश्वास न ीिं आता। आप मुझे
कािंग्रेस का काम करने के मलए नौकर रख लीत्जए। 25 रु. म ीने दीत्जएगा। इससे
ज्यादा अपनी गरीबी का क्या प्रमाण दाँ ?ू अगर मेरा काम सिंतोर् के लायक न ो,
तो एक म ीने के बाद मुझे तनकाल दीत्जएगा। य समझ लीत्जए कक जब मैं
आपकी गल
ु ामी करने को तैयार ु आ ू ाँ , तो इसीमलए कक मझ
ु े दस
ू रा कोई आिार
न ीिं ैं। व्यापारी लोग, अपना बस चलते, ककसी की चाकरी न ी करते। जमाना
बबगड़ा ु आ ैं, न ी 101रु. के मलए इतना ाथ-पााँव न जोड़ता।
प्रिानजी ाँसकर बोले- 'य तो तम
ु ने नयी चाल चली।'

'चाल न ी चल र ा ू ाँ , अपनी ववपत्तत-कथा क र ा ू ाँ।'

'कािंग्रेस के पास इतने रुपये न ी ैं कक व मोटों को खखलाती किरे ।'

'अब भी आप मुझे मोटा क े जायाँगे।'

'तुम मोटे ी ो।'

'मुझ पर जरा भी दया न कीत्जएगा?'

प्रिान ज्यादा ग राई से बोले- छकौड़ीलालजी, मझ


ु े प ले तो इसका ववश्वास न ीिं
आता कक आपकी ालत इतनी खराब ैं , और अगर ववश्वास आ भी जाये, तो मैं
कुछ न ी कर सकता। इतने म ान ् आन्दोलन में ककतने ी घर तबा ु ए और
ोंगे। म लोग सभी तबा ो र े ैं। आप समझते ैं , मारे मसर ककतनी बड़ी
त्जम्मेदारी ैं ? आपका तावान मुआफ़ कर हदया जाय, तो कल ी आपके बीमसयों
भाई अपनी मु रें तोड़ डालें गे और म उन् ें ककसी तर कायल न कर सकेंगे।
आप गरीब ैं, लेककन सभी भाई तो गरीब न ी ैं। तब तो सभी अपनी गरीबी के
प्रमाण दे ने लगें गे। मैं ककस-ककस की तलाशी लेता किरूाँगा। इसमलए जाइए, ककसी
तर रुपये का प्रबन्ि कीत्जए और दक
ु ान खोलकर कारोबार कीत्जए। ईश्वर
चा े गा, तो व हदन भी आयेगा जब आपका नुकसान पूरा ोगा।

छकौड़ी घर प ु ाँ चा, तो अाँिेरा ो गया था। अभी तक उसके द्वार पर स्यापा ो


र ा था। घर में जाकर स्त्री से बोला- आखखर व ी ु आ, जो मैं क ता था।
प्रिानजी को मेरी बातों पर ववश्वास न ीिं आया।

स्त्री का मरु झाया ु आ बदन उततेत्जत ो उठा। उठ खड़ी ु ई और बोली- अच्छी


बात ैं, म उन् ें ववश्वास हदला दें गे। मैं अब कािंग्रेस दफ्तर के सामने मरूाँगी। मेरे
बदन उसी दफ्तर के सामने भख
ू से ववकल ो- ोकर तड़पें गे। कािंग्रेस मारे साथ
सतयाग्र करती ैं , तो म भी उसके साथ सतयाग्र करके हदखा दें । मैं इस मरी

ु ई दशा में कािंग्रेस को तोड़ डालाँ ग


ू ी। जो अभी इतने तनदष यी ैं , व अधिकार पा
जाने पर क्या न्याय करें गे? एक इक्का बुला लो, खाट की जरूरत न ी। व ीिं
सड़क ककनारे मेरी जान तनकलेगी। जनता ी के बल पर तो व कूद र े ैं। मै
हदखा दाँ ग
ू ी, जनता तुम् ारे साथ न ीिं, मेरे साथ ैं।

इस अत्ग्नकिंु ड के सामने छकौड़ी की गमी शान्त ो गयी। कािंग्रेस के साथ इस


रूप में सतयाग्र की कल्पना ी से व कााँप उठा। सारे श र में लचल पड़
जायेगी, जारो आदमी आकर य दशा दे खेंगे। सम्भव ै , कोई िं गामा ी ो
जाय। ये सभी बाते इतनी भयिंकर थी कक छकौड़ी का मन कातर ो गया। उसने
स्त्री को शान्त करने की चेष्टा करते ु ए क ा- इस तर चलना उधचत न ीिं ैं
अम्बे! मैं एक बार प्रिानजी से ममलाँ ग
ू ा। अब रात ु ई, स्यावा बन्द ो जायेगा।
कल दे खी जायेगी। अभी तो तम
ु ने पर्थय भी न ीिं मलया। प्रिानजी बेचारे बड़े
असमिंजस में पड़े ु ए ैं। क ते ै , अगर आपके साथ ररयायत कर दें , तो किर
कोई शासन ी नर जायेंगा। मोटे -मोटे आदमी भी मु रें तोड़ डालें गे और जब
कुछ क ा जायेगा, तो आपकी न ीर पेश कर दें गे।

अम्बा एक क्षण अतनत्श्चत दशा में खड़ी छकौड़ी का माँु दे खती र ी, किर िीरे से
खाट पर बैठ गयी। उसकी उततेजना ग रे ववचार में पररणत ो गयी। कािंग्रेस की
और अपनी त्जम्मेदारी का ख्याल आ गया। प्रिानजी के कथन ककतने सतय थे ,
य उससे तछपा न र ा।

उसने छकौड़ी से क ा- तुमने आकर य बात न क ी थी।

छकौड़ी बोला- उस वक़्त मुझे इसकी याद न थी।

'प्रिानजी ने क ा ैं , या तुम अपनी तरि से ममला र े ो।'


'न ीिं, उन् ोंने खद
ु क ा, मैं अपनी तरि से क्यों ममलाता?'

'बात तो उन् ोंने ठीक ी क ीिं!'

' म तो ममट जायेंगे!'

' म तो यों ी ममटे ुए ैं!'

'रुपये क ााँ से आवें गे? भोजन के मलए तो हठकाना ी न ीिं, दिं ड क ााँ से दें ?'

'और कुछ न ीिं ैं, घर तो ैं। इसे रे न रख दो और अब ववलायती कपड़े भूल


कर भी न ीिं बेचना। सड़ जायाँ, कोई परवा न ी। तुमने सील तोड़कर आफ़त मसर
ली। मेरी दवा-दारू की धचन्ता न करो। ईश्वर की जो इच्छा ोगी, व ी ोगा। बाल-
बच्चे भूखे मरते ैं, मरने दो। दे श में करोड़ों आदमी ऐसे ैं , त्जनकी दशा मारी
दशा से भी खराब ैं। म न र ें गे , दे श तो सख
ु ी ोगा।'

छकौड़ी जानता था; अम्बा जो क ती ैं , व करके र ती ैं , कोई उज्र न ी सुनती।


व मसर झक
ु ाए, अम्बा पर झाँझ
ु लाता ु आ घर से तनकलकर म ाजन के घर की
ओर चला।

***
घासिाली

मुमलया री- री घास का गट्ठा लेकर आयी, तो उसका गे ु ाँआ रिं ग कुछ तमतमाया

ु आ था और बड़ी-बड़ी मद्-भरी आाँखों में शिंका समायी ु ई थी। म ावीर ने उसका


तमतमाया ु आ चे रा दे खकर पूछा - क्या ैं मुमलया, आज कैसा जी ैं?

मुमलया ने कुछ जवाब न हदया। उसकी आाँखें डबडबा गयीिं।

म ावीर ने समीप आकर पछ


ू ा - क्या ु आ, बताती क्यों न ीिं? ककसी ने कुछ क ा
ैं, अम्मााँ ने डााँटा, क्यों इतनी उदास ैं?

मुमलया ने क ा - कुछ न ीिं, ु आ क्या ैं? अच्छी तो ू ाँ।

म ावीर ने मुमलया को मसर से पााँव तक दे खकर क ा - चुपचाप रोयेंगी, बतायेगी


न ीिं?

मुमलया ने बात टालकर क ा - कोई बात भी ो, क्या बताऊाँ।

ममु लया इस ऊसर में गल


ु ाब का िूल थी। गे ू ाँआ रिं ग था, ह रन की-सी आाँखें, नीचें
खखिंचा ु आ धचबुक, कपोलों पर ल्की लामलमा, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें, आाँखों में
एक ववधचत्र आद्रष ता, त्जसमें एक स्पष्ट वेदना, एक मूक व्यथा झलकती र ती थी।
मालूम न ीिं, चमारों के इस घर में य अप्सरा क ााँ से आ गयी। क्या उसका
कोमल िूल-सा गात इस योग्य था कक मसर पर घास की टोकरी रखकर बेचने
जाती? उस गााँव में भी ऐसे लोग मौजूद थे, जो उसके तलवों के नीचे आाँखे बबछाते
थे, उसकी एक धचतवन के मलए तरसते थे , त्जनसे अगर व एक शब्द भी
बोलती, तो तन ाल ो जाते, लेककन उसे आये साल भर से अधिक ो गया, ककसी
ने उसे युवकों की तरि ताकते या बातें करते न ीिं दे खा। व घास मलये तनकलती,
तो ऐसा मालूम ोता, मानो उर्ा का प्रकाश, सुन रे आवरण से रिं त्जत, अपनी छटा
बबखेरता जाता ो। कोई ग़ लें गाता, कोई छाता पर ाथ रखता, पर ममु लया नीची
आाँखें ककये अपनी रा चलीिं जाती। लोग ै रान ोकर क ते- इतना अमभमान!
म ावीर में ऐसे क्या सुखाषब के पर लगे ै । ऐसा अच्छा जवान भी तो न ी, न
जाने य कैसे उसके साथ र ती ैं।

मगर आज ऐसी बात ो गयी, जो इस जातत की और यव


ु ततयों के मलए चा े
गुप्त सिंदेश ोती, मुमलया के मलए हृदय का शूल थी। प्रभात का समय था, पवन
आम की बौर की सुगत्न्ि से मतवाला ो र ा था, आकाश पर्थृ वी पर सोने की
वर्ाष कर र ा था। मुमलया मसर पर झौआ रखे घास तछलने चली, तो उसका गें ू ाँआ
रिं ग प्रभात की सुन री ककरणों से कुन्दन की तर दमक उठा। एकाएक युवक
चैनमसिं सामने से आता ु आ हदखाई हदया। ममु लया ने चा ा कक कतराकर तनकल
जाय, मगर चैनमसिं ने उसका ाथ पकड़ मलया और बोला- ममु लया, तझ
ु े क्या मझ

पर जरा भी दया न ी आती?

ममु लया का व िूल-सा खखला ु आ च े रा ज्वाला की तर द क उठा। व जरा


भी न ीिं डरी, जरा भी न ी खझझकी, झौला जमीन पर धगरा हदया और बोली- मझ
ु े
छोड़ दो, न ीिं तो मैं धचल्लाती ू ाँ।

चैनमसिं को आज जीवन में एक नया अनभ


ु व ु आ। नीची जातत में रूप-मािय
ु ष
का इसके मसवा और काम ी क्या ैं कक व ऊाँची जाततवालों का खखलौना बने।
ऐसे ककतने ी मौकें उसने जीते थे, पर आज मुमलया के चे रे का व रिं ग, उसका
व क्रोि, व अमभमान दे खकर उसके छक्के छूट गये। उसने लत्ज्जत ोकर
उसका ाथ छोड़ हदया। मुमलया वेग से आगे बढ़ गयी।

सिंघर्ष की गरमी में चोट की व्यथा न ी ोती, पीछे से टीस ोने लगती ैं।
मुमलया जब कुछ दरू तनकल गयी, तो क्रोि और भय तथा अपनी बेबसी का
अनुभव करके उसकी आाँखों में आाँसू भर आये। उसने कुछ दे र जब्त ककया, किर
मससक-मससक रोने लगी। अगर व इतनी गरीब न ोती, तो ककसी की मजाल थी
कक इस तर उसका अपमान करता! व रोती जाती थी और घास तछलती जाती
थी। अगर उससे क दे , तो व इस ठाकुर के खन
ू का प्यासा ो जायेगा। कि न
जाने क्या ो! इस ख्याल से उसके रोएाँ खड़े ो गये। इसीमलए उसने म ावीर के
प्रश्नों का कोई उततर न हदया।

दस
ू रे हदन ममु लया घास के मलए न गयी। सास ने पछ
ू ा- तू क्यों न ी जाती और
सब तो चली गयीिं?

मुमलया ने मसर झुकाकर क ा- मैं अकेलें न जाऊाँगी।

सास ने बबगड़कर क ा- अकेले क्या तुझे बाघ उठा ले जायेगा?

ममु लया ने और भी मसर झक


ु ा मलया और दबी ु ई आवाज से बोली- सब मझ
ु े
छे ड़ते ै ।

सास ने डााँटा - न तू औरों के साथ जायेगी, न अकेली जायेगी, तो किर जायेगी


कैसे? साि-साि य क्यों न ी क ती कक मै न जाऊाँगी। तो य ााँ मेरे िर में
रानी बन के तनबाग न ोगा। ककसी को चाम न ी प्यारा ोता, काम प्यारा ोता
ैं। तू बड़ी सुन्दर ै , तो तेरी सन्
ु दरता लेकर चाटूाँ? उठा झाबा और घास ला!

द्वार पर नीम के दरख्त के साये में म ावीर खड़ा, घोड़े को मल र ा था। उसने
मुमलया को रोनी सूरत बनाये जाते दे खा, पर कुछ बोल न सका। उसका बस
चलता, तो मुमलया को कलेजे में बबठा लेता, आाँखों में तछपा लेता, लेककन घोड़े का
पेट भी तो भरना जरूरी था। घास मोल लेकर खखलाये, तो बार आने रोज से कम
न पड़े। ऐसी मजदरू ी ी कौन ोती ै । मुत्श्कल से डेढ़-दो रुपये ममलते ै, व भी
कभी ममले, कभी न ममले। जब से सतयानाशी लाररयााँ चलने लगी ै , इक्केवालों
की बधिया बैठ गयी ैं। कोई सेंत भी न ीिं पछ
ू ता। म ाजन से डेढ़ सौ रुपये
उिार लेकर इक्का और घोड़ा खरीदा था, मगर लाररयो के आगे इक्के को कौन
पूछता ै ? म ाजन का सूद भी तो न प ु ाँच सकता था! मूल का क ना ी क्या।
ऊपरी मन से बोला- न मन ो, तो र ने दे , दे खी जायेगी।

इस हदलजोई से मुमलया तन ाल ो गयी। बोली- घोड़ा खायेगा क्या?

आज उसने कल का रास्ता छोड़ हदया और खेतों की मेड़ों से ोती ु ई चली।


बार-बार सतकष आाँखों से इिर-उिर ताकती जाती थी। दोनो तरि ऊख के खेत
खड़े थे। जरा भी खड़खड़ा ट ोती, उसका जी सन्न ो जाता। क ीिं कोई ऊख में
तछपा न बैठा ो, मगर कोई बात न ु ई। ऊख के खेत तनकल गये, आमों का बाग
तनकल गया, मसचें ु ए खेत नजर आने लगे। दरू के कुएाँ पर परु चल र ा था।
खेतों की मेड़ो पर री- री घास जमी ु ई थी। ममु लया का जी ललचाया। य ााँ
आि घिंटे में त्जतनी घास तछल सकती ै , सूखे मैदान में दोप र तक न तछल
सकेगी। य ााँ दे खता ी कौन ै ? कोई धचल्लाएगा, तो चली जाऊाँगी। व बैठकर
घास छीलने लगी और एक घिंटे में उसका झाबा आिे से ज्यादा भर गया। व
अपने काम में इतनी तन्मय थी कक चैनमसिं के आने की खबर ी न ु ई।
एकाएक उसने आ ट पाकर मसर उठाया तो चैनमसिं को खड़ा दे खा।

मुमलया की छाती िक् से ो गयी। जी में आया, भाग जाय, झाबा उलट दे और
खाली झाबा लेकर चली जाय, पर चैनमसिं ने कई गज के िासले से ी रुककर
क ा- डर मत, डर मत! भगवान ् जानता ै , मैं तम
ु से कुछ न बोलाँ ग
ू ा। त्जतनी
घास चा े तछल ले, मेरा ी खेत ैं।

मुमलया के ाथ सुन्न ो गये, खुरपी ाथ में जम-सी गयी, घास न र ी न


आती थी। जी चा ता था, जमीन िट जाय और मै समा जाऊाँ। जमीन आाँखों के
सामने तैरने लगी।

चैनमसिं ने आश्वासन हदया- छीलती क्यों न ीिं? मैं तुझसे कुछ क ता थोड़ा ी ू ाँ।
य ीिं रोज चली आया कर, मै छील हदया करूाँगा।

मुमलया धचत्रमलखखत-सी बैठी र ी।


चैनमसिं ने एक कदम और आगे बढाया और बोला- तू मुझसे इतना डरती क्यों
ैं? क्या तू समझती ै , मैं आज भी तुझे सताने आया ू ाँ ? ईश्वर जानता ै , कल
भी तुझे सताने के मलए मैने ाथ न ी पकड़ा था। तुझे दे खकर आप- ी-आप ाथ
आगे बढ़ गये। मझ
ु े कुछ सि
ु ी न ीिं र ी। तू चली गयी, तो मैं व ीिं बैठकर घिंटों
रोता र ा। जी में आता था, ाथ काट डालाँ ।ू कभी चा ता था, ज र खा लाँ ।ू तभी
से तुझे ढूाँढ र ा ू ाँ। आज तू इसी रास्ते से चली आयी। मैं सारा ार छानता ु आ
य ााँ आया ू ाँ। अब जो सजा तेरे जी में आये , दे दे । अगर तू मेरा मसर भी काट
ले, तो गदष न न ह लाऊाँगा। मैं शो दा था, लुच्चा था, लेककन जब से तुझे दे खा ै ,
मेरे मन की सारी खोट ममट गयी। अब तो य ी जी में आता ैं कक तेरा कुतता
ोता और तेरे पीछे -पीछे चलता, तेरा घोड़ा ोता, तब तो तू अपने ाथ से मेरे
सामने घास डालती। ककसी तर य चोला लगाया तेरे ककसी आये , मेरे मन की
य सबसे बड़ी लालसा ैं। मेरी जवानी काम न आये , अगर मैं ककसी खोट से यें
बातें कर र ा ू ाँ। बड़ा भाग्यवान था म ावीर, जो ऐसी दे वी उसे ममली।

ममु लया चप
ु चाप सन
ु ती र ी, किर मसर नीचा करे भोलेपन से बोली- तो तम
ु क्या
करने को क ते ो?

चैनमसिं और समीप आकर बोला- बस, तेरी दया चा ता ू ाँ।

मुमलया ने मसर उठाकर उसकी ओर दे खा। उशकी लज्जा न जाने क ााँ गायब ो
गयी। चुभते ु ए शब्दों में बोली- तुमसे एक बात क ू ाँ, बुरा तो न मानोगे? तुम् ारा
वववा ो गया या न ीिं?

चैनमसिं ने दबी जबान में क ा- ब्या तो ो गया ै , लेककन ब्या क्या ै,


खखलवाड़ ैं।

मुमलया के ोटों पर अव े लना की मुस्करा ट झलक पड़ी, बोली- किर भी अगर


मेरा आदमी तुम् ारी औरत से इसी तर बातें करता, तो तुम् ें कैसा लगता? तुम
उसकी गदष न काटने पर तैयार ो जाते कक न ी? बोलो! क्यािं समझते ो कक
म ावीर चमार ैं, तो उसकी दे में ल ू न ीिं ैं, उसे लज्जा न ीिं ैं , अपनी मयाषदा
का ववचार न ीिं ैं? मेरा रूप-रिं ग तुम् ें भाता ैं। क्या घाट के ककनारे मुझसे क ीिं
सुन्दर औरतें न ीिं घूमा करती? मैं उनके तलवों की बराबरी भी न ीिं कर सकती।
तुम उनमें से ककसी से क्यों न ीिं दया मााँगते? क्या उनके पास दया न ीिं ै । मगर
व ााँ तुम न जाओगे, क्योंकक व ााँ जाते तुम् ारी छाती द लती ैं। मुझसे दया
मााँगते ो, इसमलए न, कक मैं चमाररन ू ाँ , नीच जातत ू ाँ और नीच जातत की औरत
जरा-सी घड़
ु की-िमकी या जरा से लालच से तम्
ु ारी मट्ठ
ु ी में आ जायेगी। ककतनी
सस्ता सौदा ैं! ठाकुर ो न ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे?

चैनमसिं लत्ज्जत ोकर बोला- मल


ू ा, य बात न ीिं ैं। मैं सच क ता ू ाँ , इसमें
ऊाँच-नीच की बात न ीिं ैं। सब आदमी बराबर ैं। मैं तो तेरे चरणों पर मसर
रखने को तैयार ू ाँ।

ममु लया- इसमलए न, कक जानते ो, मैं कुछ कर न ीिं सकती। जाकर ककसी
खतरानी के चरणों पर मसर रक्खों, तो मालम
ू ो कक चरणों पर मसर रखनें का
क्या िल ममलता ैं! किर, य मसर तुम् ारी गदष न पर न र े गा।

चैनमसिं मारे शमष के जमीन में गड़ा जाता था। उसका माँु ऐसा सख
ू गया था,
मानो म ीनों की बीमारी से उठा ो। माँु से बात न तनकलती थी। मुमलया इतनी
वाक्पटु ै , इसका उसे गुमान न था।

ममु लया किर बोली- मैं भी रोज बाजार जाती ू ाँ। बड़े-बड़े घरों का ाल जानती ू ाँ।
मुझे ककसी बड़े घर का नाम बता दो, त्जसमें कोई साईस, कोई कोचवान, कोई
क ार, कोई पिंड़ा, कोई म ाराज न घुसा बैठा ो ?य सब बड़े घर की लीला ैं।
और वे औरतें जो कुछ करती ैं, ठीक करती ैं। उनके घरवाले भी तो चमाररनों
और क ाररनों पर जान दे ते किरते ैं। लेना-दे ना बराबर ो जाता ैं। बेचारे गरीब
आदममयों के मलए य बातें क ााँ? मेरे आदमी के मलए सिंसार में जो कुछ ैं, मैं ू ाँ।
व ककसी दस
ू री म ररया की और आाँख उठाकर भी न ीिं दे खता। सिंयोग का बात
ैं कक मैं ततनक सन्
ु दर ू ाँ , लेककन काली-कलट
ू ी भी ोती, तब भी व मझ
ु े इसी
तर रखतास इसका मझ
ु े ववश्वास ैं। मैं चमाररन ोकर भी इतनी नीच न ीिं ू ाँ
कक ववश्वास का बदला खोट से दाँ ।ू ााँ, व अपने मन की करने लगे, मेरी छाती
पर माँग
ू दलने लगे, तो मै भी उसकी छाती पर माँग
ू दलाँ ग
ू ी। तुम मेरे रूप के ी
दीवाने ो न? आज मुझे माता तनकल जाये, कानी ो जाऊाँ, तो मेरी ओर ताकोगे
भी न ीिं। बोलो, झूठ क ती ू ाँ ?

चैनमसिं इनकार न कर सका।

ममु लया ने उसी गवष से भरे ु ए स्वर में क ा- लेककन मेरी एक न ीिं, दोनो आाँखें
िूट जाएाँ, तब भी व मुझे इसी तर रखेगा। मुझे उठावेगा, बैठावेगा, खखलावेगा।
तुम चा ते ो, मैं ऐसे आदमी के साथ कपट करूाँ? जाओ, अब मुझे कभी न छे ड़ना,
न ी अच्छा न ोगा!

जवानी जोश ैं, बल ैं, दया ैं, सा स ैं, आतमववश्वास ैं , गौरव ैं और व सब


कुछ - जीवन को पववत्र, उज्जवल और पूणष बना दे ता ैं। जवानी का नशा घमिंड
ैं, तनदष यता ैं, स्वाथष ैं , शेखी ैं, ववर्म-वासना ैं, कटुता ैं और व सब-कुछ - जो
जीवन को पशुता, ववकार और पतन की ओर ले जाता ैं। चैनमसिं पर जवानी का
नशा था। ममु लया के शीतल छीिंटों ने नशा उतार हदया, जैसे उबलती ु ई चाशनी
में पानी के छीिंटे पड़ जाने से िेन ममट जाता ैं , मैल तनकल जाता ैं और
तनमषल, शुद्ध रस तनकल आता ैं। जवानी का नशा जाता र ा, केवल जवानी र
गयी। काममनी के शब्द त्जतनी आसानी से दीन और ईमान को गारत कर सकते
ैं, उतनी आसानी से उसका उद्धार भी कर सकते ैं।

चैनमसिं उस हदन से दस
ू रा ी आदमी ो गया। गुस्सा उसकी नाक पर र ता
था, बात-बात पर मजदरू ों के गामलयााँ दे ना, डााँटना और पीटना उसकी आदत थी।
आसामी थरथर कााँपते थे। मजदरू उसे आते दे खकर अपने काम में चुस्त ो जाते
थे। पर ज्यों ी उसने पीठ िेरी और उन् ोंने धचलम पीना शुरू ककया। सब हदल में
उससे जलते थे, उसे गामलयााँ दे ते थे, मगर उस हदन से चैनमसिं इतना दयालु,
गिंभीर, इतना स नशील ो गया कक लोगों को आश्चयष ोता था।

कई हदन गज
ु र गये। एक हदन सिंध्या समय चैनमसिं खेत दे खने गया। परु चल
र ा था। उसने दे खा कक एक जग नाली टूट गयी ैं और सारा पानी ब ा चला
जाता ैं। क्याररयों में पानी बबल्कुल न ीिं प ु ाँचता, मगर क्यारी बनानेवाली बुहढ़या
चुपचाप बैठी ैं। उसे जरा भी किक्र न ी ै कक पानी क्यों न ीिं आता ैं। प ले
य दशा दे खकर चैनमसिं आपे से बा र ो जाता। उस औरत की उस हदन की
पूरी मजूरी काट लेता और पुर चलानेवालों को घुड़ककयााँ जमाता, पर आज उसे
क्रोि न ी आया। उसने ममट्टी लेकर नाली बााँि दी और खेत में जाकर बहु ढ़या से
बोला- तू य ााँ बैठी ैं और पानी ब ा जा र ा ैं।

बुहढ़या घबराकर बोली- अभी खुल गया ोगा राजा। मैं अभी जाकर बन्द ककये
दे ती ू ाँ।

य क ती ु ई व थरथर कााँपने लगी। चैनमसिं ने उसकी हदलजोई करते ु ए


क ा- भाग मत, भाग मत, मैने नाली बन्द कर दी ैं। बुढ़ऊ कई हदन से न ीिं
हदखाई हदये, क ीिं कान पर जाते ैं या न ीिं ?

बुहढ़या गद्-गद् ोकर बोली- आजकल तो खाली ी बैठे ैं भैया, क ीिं काम न ीिं
लगता।

चैनमसिं ने नमष भाव से क ा- तो मारे य ााँ लगा दे । थोड़ा-सा सन रखा ै , उसे


कात दें ।

य क ता ु आ व कुएाँ की ओर चला गया। व ााँ चार पुर चल र े थे, पर इस


वक्त दो ाँकवे बेर खाने गये ु ए थे। चैनमसिं को दे खते ी मजूरों के ोश उड़
गये। ठाकुर ने पूछा, दो आदमी क ााँ गये , तो क्या जवाब दें गे? सब-के-सब डााँटे
जायाँगे। बेचारे हदल में स में जा र े थे। चैनमसिं ने पछ
ू ा- व दोनो क ााँ चले
गये?

ककसी के माँु से आवा न तनकली। स सा सामने से दोनों मजदरू िोती के एक


कोने मे बेर भरे आते हदखाई हदये। चैनमसिं पर तनगा पड़ी, तो दोनो के प्राण
सख
ू गये। पााँव मन-मन भर के ो गये। अब न आते बनता ैं , न जाते। दोनो
समझ गये कक आज डााँट पड़ी, शायद मजदरू ी भी कट जाए। चाल िीमी पड़ गई।
इतने में चैनमसिं ने पुकारा- बढ़ आओ, बढ़ आओ ! कैसे बेर ैं, लाओ जरा मुझे
भी दो, मेरे ी पेड़ के ैं न?

दोनों और भी स म उठे । आज ठाकुर जीता न छोड़ेगा। कैसा ममठा-ममठाकर बोल


र ा ैं! उतनी ी मभगो-मभगोकर लगायेगा। बेचारे और भी मसकुड़ गये।

चैनमसिं ने किर क ा- जल्दी से आओ जी, पक्की-पक्की सब मैं ले लाँ ग


ू ा। जरा
एक आदमी लपककर घर से थोड़ा-सा नमक तो ले आओ। (बाकी दोनों मजूरों से)
तुम भी दोनो आ जाओ, उस पेड़ के बेर मीठे ोते ैं। बेर खा लें , काम तो करना
ी ैं।

अब दोनों भगोड़ों को कुछ ढाढस ु आ। सबों ने आकर सब बेर चैनमसिं के आगे


डाल हदये और पक्के-पक्के छााँटकर उसे दे ने लगे। एक आदमी नमक लाने दौड़ा।
आि घिंटे तक चारो पुर बन्द र े । जब सब बेर उड़ गये और ठाकुर चलने लगे ,
तो दोनो अपराधियों ने ाथ जोड़कर क ा- भैयाजी, आज जान बकसी ो जाय।
बड़ी भख
ू लगी थी, न ीिं तो कभी न जाते।

चैनमसिं ने नम्रता से क ा- तो इसमें बुराई क्या ु ई। मैने भी तो बेर खाये। एक-


आि घिंटे का रज ु आ, य ी न? तुम चा ोगे, तो घिंटे-भर का काम आि घिंटे में
कर दोगे। न चा ोगे, हदन-भर घिंटे-भर का काम न ोगा।

चैनमसिं चला गया, तो चारों बात करने लगे।


एक ने क ा- मामलक इस तर र े , तो काम करने में भी जी लगता ैं। य न ीिं
कक रदम छाती पर सवार।

दस
ू रा- मैंने तो समझा, आज कच्चा ी खा जायाँगे।

तीसरा- कई हदन से दे खता ू ाँ, ममजाज ब ु त नरम ो गया ैं।

चौथा- सााँझ को पूरी मजूरी ममले तो क ना!

प ला- तुम तो ो गोबर-गनेश। आदमी न ीिं प चानते।

दस
ू रा- अब खब
ू हदल लगाकर काम करें गे।

तीसरा- और क्या! जब उन् ोंने मारे ऊपर छोड़ हदया, तो मारा भी िरम ैं कक
कोई कसर न छोड़े।

चौथा- मुझे तो भैया, ठाकुर पर अब भी ववश्वास न ी आता।

एक हदन चैनमसिं को ककसी काम से कच री जाना था। पााँच मील का सिर था।
यों तो बराबर अपने घोड़े पर जाया करता था, पर आज िूप बड़ी तेज ो र ी थी,
सोचा इक्के पर चला चलाँ ।ू म ावीर को क ला भेजा, मुझे भी लेते जाना। कोई नौ
बजे म ावीर ने पुकारा। चैनमसिं तैयार बैठा था। झटपट इक्के पर बैठ गया, मगर
घोड़ा इतना दब
ु ल
ष ो र ा था, इक्के को गद्दी इतनी मैली और िटी ु ई, सारा
सामान इतना रद्दी कक चैनमसिं को उसपर बैठते शमष आयी! पूछा- य सामान
क्यों बबगड़ा ु आ ैं म ावीर? तम्
ु ारा घोड़ा तो इतना दब
ु ल
ष , कभी न था। आजकल
सवाररयााँ कम ैं क्या?
म ावीर ने क ा- न ीिं मामलक, सवाररयााँ का े न ी ैं , मगर लारी के सामने इक्के
को कौन पूछता ैं? क ााँ दो, ढाई, तीन की मजूरी करके घर लौटता था, क ााँ अब
बीस आने भी न ी ममलते? क्या जानवर को खखलाऊाँ, क्या आप खाऊाँ? बड़ी
ववपत्तत में पड़ा ू ाँ। सोचता ू ाँ , इक्का-घोड़ा बेच-बाचकर आप लोगों की मजरू ी कर
लाँ ू, पर कोई ग्रा क न ी लगता। ज्यादा न ी तो बार आने तो घोड़े को चाह ए,
घास ऊपर से। अब अपना ी पेट न ीिं चलता, जानवर को कौन पूछे।

चैनमसिं ने उसके िटे ु ए कुरते की ओर दे खकर क ा- दो-चार आने बीघे की


खेती क्यों न ीिं कर लेत?े

म ावीर मसर झुकाकर बोला- खेती के मलए बड़ा पौरुख चाह ए मामलक, मैने तो
य ी सोचा कक कोई ग्रा क लग जाए, तो इक्के को औने-पौने तनकाल द,ू किर घास
छीलकर बाजार ले जाया करूाँ। आजकल सास-पतो ू दोनो घास छीलती ैं, तब
जाकर दो-चार आने पैसे नसीब ोते ैं।

चैनमसिं ने पछ
ू ा- तो बहु ढ़या बाजार जाती ोगी?

म ावीर लजाता ु आ बोला- न ीिं भैया, व इतनी दरू क ााँ चल सकती ैं।
घरवाली चली जाती ैं। दोप र तक घास छीलती ैं , तीसरे प र बाजार जाती ैं।
व ााँ से घड़ी रात गये लौटती ैं। लकान ो जाती ैं भैया, मगर क्या करूाँ,
तकदीर से क्या जोर!

चैनमसिं कच री प ु ाँ च गये और म ावीर सवाररयों की टो में इिर-उिर इक्के


को घम
ू ाता ु आ श र की तरि चला गया। चैनमसिं नें उसे पााँच बजे आने को
क हदया।

कोई चार बजे चैनमसिं कच री से िुरसत पाकर बा र तनकले। ाते में पान की
दक
ु ान थी, जरा और आगे बढ़कर एक घना बरगद का पेड़ था। उसकी छााँ में
बीसों ी तािंगे, इक्के, किटनें खड़ी थी। घोड़े खोल हदये गये थे। वकीलों, मख्
ु तारो
और अिसरों की सवाररयााँ य ीिं खडी र ती थी। चैनमसिं ने पानी वपया, पान
खाया और सोचने लगा, कोई लारी ममल जाय तो जरा श र चला जाऊाँ कक उसकी
तनगा एक घासवाली पर गयी। मसर पर घास का झाबा रखे साईसों से मोल-
भाव कर र ी थी। चैनमसिं का हृदय उछल पड़ा- य तो मुमलया ैं! बनी-ठनी,
एक गुलाबी साड़ी प ने कोचवानों से मोल-भाव कर र ी थी। कई कोचवान जमा
ो गये थे। कोई हदल्लगी करता था, कोई घरू ता था, कोई ाँसता था।

एक काले-कलूटे कोचवान ने क ा- मूला, घास तो अधिक-से-अधिक छुः आने की


ैं।

मुमलया ने उन्माद पैदा करनेवाली आाँखों से दे खकर क ा- छुः आने पर लेना ैं,
तो सामने घमसयाररनें बैठी ैं , जोऔ दो-चार पैसे कम में पा जाओगे, मेरी घास तो
बार आने में जायेगी?

एक अिेड़ कोचवान ने किटन के ऊपर से क ा- तेरा जमाना ैं, बार आने न ी,


एक रुपया मााँग! लेनेवाले झख मारें गे और लें गे। तनकलने दे वकीलो को। अब दे र
न ीिं ैं।

एक तााँगेवाले ने, जो गुलाबी पगड़ी बााँिे ु ए था, क ा- बुढई के माँु में भी पानी
भर आया, अब मुमलया का े को ककसी की ओर दे खेगी!

चैनमसिं को ऐसा क्रोि आ र ा था कक इन दष्ु टों को जूतों से पीटे । सब-के-सब


कैसे उसकी ओर टकटकी लगाये ताक र े ैं , मानो आाँखों से पी जायेंगे। और
मुमलया भी य ााँ ककतनी खुश ैं ! न लजाती ैं, न खझझकती ैं, न दबती ैं। कैसी
मुसकराकर, रसीली आाँखों से दे ख-दे खकर मसर का आाँचल खखसका-खखसकाकर, माँु
मोड़कर बाते कर र ी ैं। व ी ममु लया, जो शेरनी की तर तड़प उठी थी।

इतने में चार बजे। अमले औऱ वकील-मुख्तारों का एक मेला-सा तनकल पड़ा।


अमले लाररयों पर दौड़े, वकील-मख्
ु तार इन सवाररयों की ओर चले। कोचवानों ने
भी चटपट घोडे जोते। कई म ाशयों ने ममु लया को रमसक नेत्रों से दे खा और
अपनी गाडड़यों पर जा बैठे।

एकाएक ममु लया घास का झाबा मलये उस किटन के पीछे दौड़ी। किटन में
अिंगरे जी िैशन के जवान वकील सा ब बैठे ैं। उन् ोने पायदान के पास घास
रखवा ली, जेब से कुछ तनकालकर मुमलया को हदया। मुमलया मुस्काई। दोनों में
कुछ बाते ु ई, जो चैनमसिं न सुन सके।

एक क्षण में ममु लया प्रसन्न-मख


ु घर की ओर चली। चैनमसिं पानवाले की दक
ु ान
पर ववस्मतृ त की दशा में खड़ा र ा। पानवाले ने दक
ु ान बढ़ायी, कपड़े प ने और
अपने कैबबन का द्वार बन्द करके नीचे उतरा, तो चैनमसिं की समाधि टूटी।
पूछा- क्या दक
ु ान बन्द कर दी?

पानवाले ने स ानुभूतत हदखाकर क ा- इसकी दवा करो ठाकुर सा ब, य बीमारी


अच्छी न ीिं ैं।

चैनमसिं ने चककत ोकर पछ


ू ा- कैसी बीमारी?

पानवाला बोला- कैसी बीमारी! आि घिंटे से य ााँ खड़े ो जैसे कोई मुदाष खड़ा ो।
सारी कच री खाली ो गयी, सब दक
ु ाने बन्द ो गयीिं, मे तर तक झाड़ ू लगाकर
चल हदये, तम्
ु ें कुछ खबर न ु ई? य बरु ी बीमारी ,ैं जल्दी दवा कर डालो।

चैनमसिं ने छड़ी साँभाली और िाटक की ओर चला कक म ावीर का इक्का सामने


से आता हदखाई हदया।

कुछ दरू इक्का तनकल गया, तो चैनमसिं ने पछ


ू ा- आज ककतने पैसे कमाये
म ावीर?

म ावीर नें ाँसकर क ा- आज तो मामलक, हदनभर खड़ा ी र गया। ककसी ने


बेगार में भी न पकड़ा। ऊपर से चार पैसे की बीडड़यााँ पी गया।

चैनमसिं ने जरा दे र बाद क ा- मेरी एक सला ैं। तुम मुझसे एक रुपया रोज
मलया करो। बस, जब मैं बुलाऊाँ, तो इक्का लेकर चले आया करो। तब तो तुम् ारी
घरवाली को घास लेकर बाजार न आना पड़ेगा। बोलो, मिंजूर ू ाँ ?

म ावीर ने सजल आाँखों से दे खकर क ा- मामलक, आप ी का तो खाता ू ाँ।


आपकी परजा ू ाँ। जब मरजी ो, पकड़वा माँगवाइए। आपसे रुपये...

चैनमसिं ने बात काटकर क ा- न ीिं, मैं तुमसे बेगार न ीिं लेना चा ता। तुम मुझसे
एक रुपया रोज ले जाया करो। घास लेकर घरवाली को बाजार मत भेजा करो।
तुम् ारी आबरू मेरी आबरू ैं। और भी रुपये-पैसे का जब काम लगे, बेखटक चले
आया करो। ााँ, दे खो, मुमलया से इस बात की भूलकर भी चचाष न करना। क्या
िायदा!

कई हदनों बाद सिंध्या समय मुमलया चैनमसिं से ममली। चैनमसिं असाममयों से


मालगुजारी वसूल करके घर की ओर लपका जा र ा था कक उस जग , ज ााँ
उसने ममु लया की बााँ पकड़ी थी, ममु लया की आवाज कानों में आयी। उसने
हठठककर पीछे दे खा, तो ममु लया दौड़ी चली आ र ी थी। बोला- क्या ैं, मल
ू ा!
क्यों दौड़ती ो, मैं तो खड़ा ू ाँ ?

ममु लया ने ााँिते ु ए क ा- कई हदनों से तम


ु से ममलना चा ती थी। आज तम्
ु ें
आते दे खा, तो दौड़ी। अब मैं घास बेचने न ी जाती।

चैनमसिं ने क ा- ब ु त अच्छी बात ैं।

'क्या तुमने मुझे कभी घास बेचते दे खा ैं?'


' ााँ, एक हदन दे खा था। क्या म ावीर ने तुमसे सब क डाला। मैने तो मना कर
हदया था।'

'व मुझसे कोई बात न ीिं तछपाता।'

दोनो एक क्षण चप
ु खड़े र े । ककसी को कोई बात न सझ
ू ती थी। एकाएक ममु लया
ने मस्
ु कराकर क ा- य ीिं तम
ु ने मेरी बााँ पकड़ी थी।

चैनमसिं ने लत्ज्जत ोकर क ा- उसको भूल जाओ मूला! मझ


ु पर न जाने कौन
भत
ू सवार था।

मुमलया गद्-गद् किंठ से बोली- उसे क्यों भूल जाऊाँ? उसी बााँ ग े की लाज तो
तनभा र े ो! गरीबी आदमी से जो चा े करावे। तुमने मुझे बचा मलया।

किर दोनो चुप ो गये।

जरा दे र के बाद ममु लया ने किर क ा- तम


ु ने समझा ोगा, मैं ाँसने-बोलने में
मगन ो र ी थी?

चैनमसिं नें बलपव


ू क
ष क ा- न ीिं ममु लया, मैने एक क्षण के मलए भी य न ी
समझा।

मुमलया मुस्कराकर बोली- मुझे तुमसे य ी आशा थी, और ैं।

पवन के मसिंचे ु ए खेतों में ववश्राम करने जा र ा था, सूयष तनशा की गोद में
ववश्राम करने जा र ा था, और इस ममलन प्रकाश में चैनमसिं मुमलया की ववलीन
ोती ु ई रे खा को खड़ा दे ख र ा था।

***
धगला

जीवन का बड़ा भाग इसी घर में गुजर गया, पर कभी आराम न नसीब ु आ।
मेरे पतत सिंसार की दृत्ष्ट में बड़े सज्जन, बड़े मशष्ट, बड़े उदार, बड़े सौम्य ोंगे,
लेककन त्जस पर गुजरती ैं, व ी जानता ैं। सिंसार को तो उन लोगों की प्रशिंसा
करने में आनन्द आता ैं , जो अपने घर को भाड़ में झोंक र े ों, गैरों के पीछे
अपना सवषनाश ककये डालते ों। जो प्राणी घरवालों के मलए मरता ैं , उसकी
प्रशिंसा सिंसारवाले न ीिं करते। व तो उनकी दृत्ष्ट में स्वाथी ैं , कृपण ैं, सिंकीणष
हृदय ैं, आचार-भ्रष्ट ैं। इसी तर जो लोग बा रवालों के मलए मरते ैं, उनकी
प्रशिंसा घरवाले क्यों करने लगे! अब इन् ीिं को दे खो, सारे हदन मुझे जलाया करते
ैं। मैं परदा न ीिं करती, लेककन सौदे -सुलि के मलए बाजार जाना बुरा मालूम
ोता ैं। और इनका य ाल ैं कक चीज माँगवाओ, तो ऐसी दक
ू ान से लायेंगे,
ज ााँ कोई ग्रा क भल
ू कर भी न जाता ो। ऐसी दक
ू ानों पर न तो चीज अच्छी
ममलती ैं, न तौल ठीक ोती ैं , न दाम ी उधचत ोते ैं। य दोर् न ोते, तो
दक
ू ान बदनाम ी क्यों ोती, पर इन् ें ऐसी ी गयी-बीती दक
ू ानों से चीजें लाने
का मर ैं। बार-बार क हदया, सा ब, ककसी चलती ु ई दक
ू ान से सौदे लाया
करो। व ााँ माल अधिक खपता ैं, इसमलए ताजा माल आता ैं , पर इनकी तो
टुटपाँत्ू जयों से बनती ैं, और वे इन् ें उलटे छूरे से माँड
ू ते ैं। गे ू ाँ लायेंगे, तो सारे
बाजार से खराब, घन
ु ा ु आ, चावल ऐसा मोटा कक बैल भी न पछ
ू े , दाल में कराई
और किंकड़ भरे ु ए। मनों लकड़ी जला डालो, क्या मजाल कक गले। घी लायेंगे, तो
आिों-आि तेल या सोल ों आने कोकोजेम और दरअसल घी भी एक छटााँक कम!
तेल लायेंगे तो ममलावट, बालों में डालो तो धचपट जायें, पर दाम दे आयेंगे शुद्ध
आाँवले के तेल का! ककसी चलती ु ई नामी दक
ू ान पर जाते इन् ें जैसे डर लगता
ैं। शायद ऊाँची दक
ू ान और िीका पकवान के कायल ैं। मेरा अनम
ु ान तो य ैं
कक नीची दक
ू ान पर ी सड़े पकवान ममलते ैं।
एक हदन की बात ो, तो बदाषश्त कर ली जाय, रोज-रोज का टिं टा न ीिं स ा
जाता। मैं पछ
ू ती ू ाँ, आखखर आप टुटपाँत्ू जयों की दक
ू ान पर जाते क्यों ो? क्या
उनके पालन-पोर्ण का ठे का तुम् ीिं ने मलया ैं? आप िरमाते ैं दे खकर सब-के-
सब बुलाने लगते ैं! वा , मुझे क्या क ना ैं! ककतनी दरू की बात ैं? जरा इन् ें
बुला मलया और खुशामद के दो-चार शब्द सुना हदये, थोड़ी स्तुतत कर दी, बस,
आपका ममजाज आसमान पर जा प ू ाँचा। किर इन् ें सुधि न ी र ती कक य
कूड़ा-करकट बााँि र ा ैं कक क्या। पछ
ू ती ू ाँ, तम
ु उस रास्ते से जाते ी क्यों ो?
क्यों ककसी दस
ू रे रास्ते से न ीिं जाते? ऐसे उठाईगीरों को माँु ी क्यों लगाते ो?
इसका जवाब न ी। एक चुप सौ बािाओिं को राती ैं।

एक बार एक ग ना बनवाने को हदया। मैं तो म ाशय को जानती थी। इनसे


पूछना व्यथष समझा। अपने प चान के एक सन
ु ार को बल
ु ा र ी थी। सिंयोग से
आप भी ववराजमान थे। बोले- य सम्प्रदाय ववश्वास के योग्य न ीिं , िोखा
खाओगी। मैं एक सुनार को जानता ू ाँ , मेरे साथ का पढ़ा ैं। बरसों साथ-साथ
खेले थे। व मेरे साथ चालबाजी न ी कर सकता। मैं भी समझी, जब इनका ममत्र
ैं और व भी बचपन का, तो क ााँ तक दोस्ती का क न तनभायेगा? सोने का
एक आभर्
ू ण और सौ रुपये इनके वाले ककये। इन भले मानस ने व आभर्
ू ण
और सौ रुपये न जाने ककस बेईमान को दे हदये कक बरसों के झिंझट के बाद जब
चीज बनकर आयी, तो आठ आने तााँबा और इतनी भद्दी कक दे खकर तघन लगती
थी। बरसों की अमभलार्ा िूल में ममल गयी। रो-पीटकर बैठ र ीिं। ऐसे-ऐसे
विादार तो इनके ममत्र ैं, त्जन् ें ममत्र ी गदष न पर छूरी िेरने में भी सिंकोच न ीिं।
इनकी दोस्ती भी उन् ीिं लोगों से ैं, जो जमाने भर के जट्टू, धगर कट, लाँ गोटी में
िाग खेलनेवाले, िाकेमस्त ैं, त्जनका उद्दम ी इन जैसे आाँख के अिंिों से दोस्ती
गााँठना ैं। तनतय ी एक-न-एक म ाशय उिार मााँगने के मलए मसर पर सवार
र ते ैं और बबना मलये गला न ीिं छोड़ते। मगर ऐसा कभी न ु आ कक ककसी ने
रुपये चुकाये ों। आदमी एक बार खोकर सीखता ैं, दो बार खोकर सीखता ैं,
ककन्तु य भलेमानस जार बार खोकर भी न ीिं सीखते! जब क ती ू ाँ , रुपये तो
दे आये, अब मााँग क्यों न ीिं लाते! क्या मर गये तुम् ारे व दोस्त? आप तो बस,
बगलें झााँककर र जाते ैं। आप से ममत्रों को सख
ू ा जवाब न ीिं हदया जाता।
खैरस सख
ू ा जवाब न दो। मैं भी न ी क ती कक दोस्तों से बम
ु रु ौवती करो, मगर
धचकनी-चुपड़ी बातें तो बना सकते ो, ब ाने तो कर सकते ों। ककसी ममत्र ने
रुपये मााँगे और आपके मसर पर बोझ पड़ा। बेचारे कैसे इन्कार करें ? आखखर लोग
जान जायेंगे कक न ीिं, कक य म ाशय भी खुक्कल ी ैं। इनकी ववस य ैं कक
दतु नया इन् ें सम्पन्न समझती र ें , चा े मेरे ग ने ी क्यों न धगरवी रखने पड़े।
सच क ती ू ाँ , कभी-कभी तो एक-एक पैसे की तिंगी ो जाती ैं और इन भले
आदमी को रुपये जैसे घर में काटते ैं। जब तक रुपये के वारे -न्यारे न कर लें ,
इन् ें चैन न ीिं। इनकी करतूत क ााँ तक गाऊाँ। मेरी तो नाक में दम आ गया।
एक-न-एक मे मान रोज यमराज की भााँतत मसर पर सवार र ते ैं। न जाने क ााँ
के बेकिक्रे इनके ममत्र ैं। कोई क ीिं से आ मरता ैं, कोई क ीिं से। घर क्या ैं,
अपाह जों का अड्डा ैं। जरा-सा तो घर, मुत्श्कलसे दो पलिंग, ओढ़ना-बबछौना भी
िालतू न ीिं, मगर आप ै कक ममत्रों को तनमिंत्रण दे ने को तैयार ! आप तो अततधथ
के साथ लेटेंगे, इसमलए चारपाई भी चाह ए, ओढ़ना-बबछौना भी चाह ए, न ीिं तो घर
का परदा खुल जाय। जाता ैं मेरे और बच्चों के मसर। गरममयों में तो खैर कोई
मुजायका न ीिं, लेककन जाड़ो में तो ईश्वर ी याद आते ैं। गरममयों में भी खुली
छत पर तो मे मानों का अधिकार ो जाता ैं , अब बच्चों को मलए वपिं डे में पड़ी
िड़िड़ाया करूाँ। इन् ें इतनी भी समझ न ीिं कक जब घर की य दशा ैं , तो क्यों
ऐसे मे मान बनाएाँ, त्जनके पास कपड़े-लतते तक न ीिं ैं। ईश्वर की दया से इनके
सभी ममत्र इसी श्रेणी के ैं। एक भी ऐसा माई का लाल न ीिं , जो समय पड़ने पर
िेले से भी इनकी मदद कर सके। दो बार म ाशय को इनका कटु अनुभव -
अतयिंत कटु अनुभव ो चुका ैं, मगर जड़ भरत ने जैसे आाँखें न खोलने की
कसम खा ली ैं। ऐसे ी दररद्र भट्टाचायों से इनकी पटती ैं। श र में इतने
लक्ष्मी के पुत्र ैं, पर आपका ककसी से पररचय न ीिं। उनके पास जाते इनकी
आतमा दख
ु ती ैं। दोस्ती गाठें गे ऐसों से, त्जनके घर में खाने का हठकाना न ीिं।

एक बार मारा क ार छोड़कर चला गया और कई हदन कोई दस


ू रा क ार न
ममला। ककसी चतुर और कुशल क ार की तलाश में थी, ककन्तु आपको जल्द-से-
जल्द कोई आदमी रख लेने की िन
ु सवार ो गयी। घर के सारे काम पव
ू व
ष त्
चल र े थे, पर आपको मालम
ू ो र ा था कक गाड़ी रुकी ैं। मेरा जठ
ू े बरतन
मााँजना और अपना साग-भाजी के मलए बाजार जाना इनके मलए असह्य ो उठा।
एक हदन जाने क ााँ से एक बागडू को पकड़ लाये। उसकी सरू त क े दे ती थी कोई
जााँगलू ैं! मगर आपने उसका ऐसा बखान ककया कक क्या क ू ाँ! बड़ा ोमशयार ैं ,
बड़ी आज्ञाकारी, परले-मसरे का मे नती, गजब की सलीकेदार और ब ु त ी
ईमानदार। खैर मैने रख मलया। मैं बार-बार क्यों इनकी बातों में आ जाती ू ाँ,
इसका मझ
ु े स्वयिं आश्चयष ैं। य आदमी केवल रूप से आदमी था। आदममयत
के और कोई लक्षण उसने न थे। ककसी काम की तमीज न ी। बेईमान न था, पर
गिा था अव्वल दरजे का। बेईमान ोता, तो कम-से-कम तस्कीन तो ोती कक
खुद खा जाता ैं। अभागा दक
ु ानदारों के ाथों लुट जाता था। दस तक की धगनती
उसे न आती थी। एक रुपया दे कर बाजार भेजाँ,ू तो सिंध्या तक ह साब न समझा
सके। क्रोंि पी-पीकर र जाती थी। रक्त खौलने लगता था कक दष्ु ट के कान
उखाड़ लाँ ू, मगर इन म ाशय को उसे कभी कुछ क ते न ीिं दे खा, डााँटना तो दरू की
बात ैं। मैं तो बच्चों का खून पी जाती, लेककन इन् ें जरा भी गम न ीिं। जब मेरे
डााँटने पर िोती छााँटने जाता भी, तो आप उसे समीप न आने दे त।े बस, उनके
दोर्ों को गुण बनाकर हदखाया करते थे। मूखष को झाडू लगाने के तमीज न थी।
मरदाना कमरा ी तो सारे घर में ढिं ग का कमरा ै । उसमें झाडू लगाता, तो इिर
की चीज उिर, ऊपर चीज नीचे, मानो कमरे में भक
ू म्प आ गया ो! और गदष का
य ाल कक सााँस लेना कहठन, पर आप शात्न्तपूवक
ष कमरे में बैठे ैं, जैसे कोई
बात ी न ीिं। एक हदन मैने उसे खूब डााँटा- कल से ठीक-ठीक झाडू न लगाया, तो
कान पकड़कर तनकाल दाँ ग
ू ी। सबेरे सोकर उठी तो दे खती ू ाँ, कमरे में झाडू लगी

ुई ैं और रके चीज करीने से रखी ु ई ैं। गदष -गुबार का नाम न ीिं। मै चककत
ोकर दे खने लगी। आप ाँसकर बोले- दे खती क्या ो! आज घूरे ने बड़े सबेरे
उठकर झाडू लगायी ैं। मैने समझा हदया। तम
ु ढिं ग से बताती न ीिं, उलटे डााँटने
लगती ो।

मैंने समझा, खैर, दष्ु ट ने कम-से-कम एक काम तो सलीके से ककयार् अब रोज


कमरा साि-सथ
ु रा ममलता। घरू े मेरी दृत्ष्ट में ववश्वासी बनने लगा। सिंयोग की
बात! एक हदन जरा मामल
ू से उठ बैठी और कमरे में आयी, तो क्या दे खती ू ाँ
कक घूरे द्वार पर खड़ा ैं और आप तन-मन से कमरे में झाड़ ू लगा र े ैं। मेरी
आाँखों में खून उतर आया। उनके ाथ से झाडू तछनकर घूरे के मसर पर जमा दी।
रामखोर को उसी दम तनकाल बा र ककया। आप िरमाने लगे - उसका म ीना तो
चुका दो! वा री समझ! एक तो काम न करे , उस पर आाँखे हदखाये। उस पर पूरी
मजरू ी भी चक
ु ा दाँ ।ू मैने एक कौड़ी भी न दी। एक कुरता हदया था, व भी छीन
मलया। इस पर जड़ भरत म ोदय मझ
ु से कई हदन रूठे र े । घर छोड़कर भागे
जाते थे। बड़ी मुत्श्कलों से रुके। ऐसे-ऐसे भोंद ू भी सिंसार में पड़े ु ए ैं। मैं न
ोती, तो शायद अब तक इन् ें ककसी न बाजार में बेच मलया ोता।

एक हदन मे तर ने उतारे कपड़ों का सवाल ककया। इस बेकारी के जमाने में


िालतू कपड़े तो शायद पुमलसवालों या रईसों के घर में ो, मेरे घर में तो जरूरी
कपड़े भी कािी न ीिं। आपका वस्त्रालय एक बकची में आ जाएगा, जो डाक
पारसल से क ीिं भेजा जा सकता ैं। किर इस साल जाड़ों के कपड़े बनवाने की
नौबत न आयी। पैसे नजर न ी आते, कपड़े क ााँ से बनें ? मैने मे तर को साि
जवाब दे हदया। कड़ाके का जाड़ा पड़ र ा था, इसका अनभ
ु व मझ
ु े कम न था।
गरीबों पर क्या बीत र ी ैं? इसका मुझे ज्ञान था लेककन मेरे या आपके पास खेद
के मसवा इसका और क्या इलाज ैं? जब तक समाज का य सिंगठन र े गा, ऐसी
मशकायतें पैदा ोती र े गी। जब एक-एक अमीर और रईस के पास एक-एक
मालगाड़ी कपड़ों से भरी ु ई ैं, तब किर तनिषनों को क्यों न नग्नता का कष्ट
उठाना पड़े? खैर, मैने तो मे तर को जवाब दे हदया, आपने क्या ककया कक अपना
कोट उठाकर उसकी भें ट कर हदया। मेरी दे में आग लग गयी। मैं इतनी
दानशीन न ीिं ू ाँ कक दस
ू रों को खखलाकर आप सो र ू ाँ। दे वता के पास य ीिं एक
कोट था। आपको इसकी जरा भी धचन्ता न ु ई कक प नेंगे क्या? यश के लोभ ने
जैसे बुवद्ध ी र ली। मे तर ने सलाम ककया, दआ
ु यें दी और अपनी रा ली।
आप कई हदन सदी से हठठुरते र े । प्रातुःकाल घूमने जाया करते थे, व बन्द ो
गया। ईश्वर ने उन् ें हृदय भी एक ववधचत्र प्रकार का हदया ैं। िटे -पुराने कपड़े
प नते आपको जरा भी सिंकोच न ीिं ोता। मैं तो मारे लाज के गड़ जाती ू ाँ , पर
आपको जरा भी किक्र न ीिं। कोई ाँसता ैं, तो ाँसे, आपकी बला से। अन्त में जब
मुझ से दे खा न गया, तो एक कोट बनवा हदया। जी तो जलता था कक खूब सदी
खाने दाँ ,ू पर डरी कक क ीिं बीमार पड़ जायाँ, तो और बुरा ो। आखखर काम तो
इन् ीिं को करना ैं।

म ाशय हदल में समझते ोंगे , मैं ककतना ववनीत, ककतना परोपकारी ू ाँ। शायद
इन् ें इन बातों का गवष ो। मैं इन् ें परोपकारी न ी समझती, न ववनीत ी
समझती ू ाँ। य जड़ता ैं, सीिी-सादी तनरी ता। त्जस मे तर को आपने अपना
कोट हदया, उसे मैने कई बार रात को शराब के नशे में मस्त झूमते दे खा ैं और
आपको हदखा भी हदया ैं। तो किर दस
ू रों की वववेक ीनता की परु ौती म क्यों
करें ? अगर आप ववनीत और परोपकारी ोते, तो घरवालों के प्रतत भी तो आपके
मन में कुछ उदारता ोती, या सारी उदारता बा रवालों के मलए सुरक्षक्षत ैं?
घरवालों को उसका अल्पािंश भी न ममलना चाह ए? मेरी इतनी अवस्था बीत गयी,
पर इस भले आदमी ने कभी अपने ाथ से मुझे एक उप ार भी न हदया। बेशक
मैं जो चीज बाजार से माँगवाऊाँ, उसे लाने में इन् ें जरा भी आपत्तत न ीिं, बबल्कुल
उज्र न ी, मगर रुपये मैं दे दाँ ,ू य शतष ैं। इन् ें खद
ु कभी य उमिंग न ी ोती।
य मैं मानती ू ाँ कक बेचारे अपने मलए भी कुछ न ीिं लाते। मै जो कुछ माँगवा दाँ ,ू
उसी पर सन्तुष्ट ो जाते ैं, मगर आखखर आदमी कभी-कभी शौक की चीजें
चा ता ी ैं। अन्य पुरुर्ों को दे खती ू ाँ , स्त्री के मलए तर -तर के ग ने, भााँतत-
भााँतत के कपड़े, शौंक-मसिंगार की वस्तुएाँ लाते र ते ैं। य ााँ व्यव ार का तनर्ेि ैं।
बच्चों के मलए भी ममठाइयााँ, खखलौने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये
ो। शपथ-सी खा ली ैं। इसमलए मैं इन् ें कृपण क ू ाँगी, अरमसक क ू ाँगी, हृदय-
शून्य क ू ाँगी, उदार न ी क सकती। दस
ू रों के साथ इनका जो सेवा-भाव ैं, उसका
कारण ैं, इनका यश-लोभ और व्याव ाररक अज्ञानता। आपके ववनय का य ाल
ैं, कक त्जस दफ्तर में आप नौकर ैं , उसके ककसी अधिकारी से आपका मेल-जोल
न ीिं। अिसरो को सलाम करना तो आपकी नीतत के ववरूद्ध ैं , नजर या डाली तो
दरू की बात ैं। और-तो-और, कभी ककसी अिसर के घर न ीिं जाते। इसका
खाममयाजा आप न उठायें, तो कौन उठाये? औरों को ररआयती छुहट्टयााँ ममलती ैं,
आपको कोई पछ
ू ता भी न ीिं, ात्जरी में पााँच ममनट की दे र ो जाय, तो जवाब
पूछा जाता ैं। बेचारे जी तोड़कर काम करते ैं, कोई बड़ा कहठन काम आ जाता
ैं, तो इन् ीिं के मसर मढ़ा जाता ैं, इन् ें जरा भी आपत्तत न ीिं। दफ्तर में इन् ें
'तघस्सू, वपस्स'ू आहद उपाधियााँ ममली ैं, मगर पड़ाव ककतना ी बड़ा मारे , इनके
भाग्य में व ी सूखी घास मलखी ैं। य ववनय न ीिं ैं! स्वािीन मनोवत्ृ तत भी
न ीिं ैं, मैं तो इसे समय-चातरु ी का अभाव क ती ू ाँ , व्याव ाररक ज्ञान की क्षतत
क ती ू ाँ। आखखर कोई अिसर आपसे प्रसन्न क्यो ो? इसमलए कक आप बड़े
मे नती ैं? दतु नया का काम मरु ौवत और रवादारी से चलता ैं। अगर म ककसी
से खखिंचे र ें , तो कोई कारण न ीिं कक व मसे खखिंचा र े । किर, जब मन में क्षोभ
ोता ैं, तो व दफ्तरी व्यव ारों में भी प्रकट ो गी जाता ैं। जो मात त
अिसर को प्रसन्न रखने की चेष्टा करता ैं , त्जसकी जात से अिसर को कोई
क्यत्क्तगत उपकार ोता ैं , त्जस पर व ववश्वास कर सकता ैं, उसका मल ाज
व स्वभावतुः करता ैं। ऐसे मसराधगयों से क्यों ककसी को स ानुभूतत ोने लगी?
अिसर भी तो मनुष्य ैं। उनके हृदय में जो सम्मान और ववमशष्टता की कामना
ैं, व क ााँ से पूरी ो? जब अिीनस्थ कमषचारी ी उससे किरिं ट र ें , तो क्या उसके
अिसर उसे सलाम करने आयेंगे? आपने ज ााँ नौकरी की, व ााँ से तनकाले गये या
कायाषधिक्य के कारण छोड़ बैठे।

आपको कुटुम्ब-सेवा का दावा ैं। आपके कई भाई-भतीजे ोते ैं , व कभी इनकी


बात भी न ीिं पूछते, आप बराबर उनका माँु ताकते र ते ैं।

इनके एक भाई सा ब आजकल त सीलदार ैं। घर की ममत्ल्कयत उन् ीिं की


तनगरानी में ैं। व ठाठ से र ते ैं। मोटर रख ली ै , कई नौकर-चाकर ैं, मगर
य ााँ भूल से भी पत्र न ीिं मलखते। एक बार में रुपये की बड़ी तिंगी ु ई। मैने
क ा, अपने भ्राताजी से क्यों न ीिं मााँग लेते? क ने लगे, उन् ें क्यों धचन्ता में डालाँ ।ू
उनका भी तो अपना खचष ैं। कौन सी बचत ो जाती ोगी। जब ब ु त मजबरू
ककया, तो आपने पत्र मलखा। मालूम न ीिं, पत्र में क्या मलखा, पत्र मलखा या मुझे
चकमा दे हदया, पर रुपये न आने थे, न आये। कई हदनों के बाद मैने पछ
ू ा- कुछ
जवाब आया श्रीमान ् के भाई सा ब के दरबार से? आपने रुष्ट ोकर क ा- अभी
केवल एक सप्ता तो खत प ु ाँ चे ु ए, क्या जवाब आ सकता ैं ? एक सप्ता और
गुजरा, मगर जवाब नदारद। अब आपका य ाल ैं कक मुझे कुछ बातचीत
करने का अवसर ी न ी दे त।े इतने प्रसन्न-धचतत नजर आते ैं कक क्या क ू ाँ।
बा र से आते ै तो खुश-खुश। कोई-न-कोई मशगूिा मलये। मेरी खुशामद भी खूब
ो र ी ैं, मेरे मैकेवालों की प्रशिंसा भी ो र ी ैं, मेरे ग ृ -प्रबन्ि का बखान भी
असािारण रीतत से ककया जा र ा ैं। मैं इन म ाशय की चाल समझ र ी थी।
य सारी हदलजोई केवल इसमलए थी कक श्रीमान ् के भाई सा ब के ववर्य में कुछ
पूछ न बैठूाँ। सारे राजनीततक, आधथषक, सामात्जक , आचाररक प्रश्नों की मुझसे
व्याख्या की जाती थी, इतने ववस्तार और गवेष्णा के साथ कक ववशेर्ज्ञ भी लो ा
मान जायाँ। केवल इसमलए कक मुझे प्रसिंग उठाने का अवसर न ममले! लेककन मैं
भला कब चक
ु नेवाली थी? जब परू े दो सप्ता गज
ु र गये और बीमे के रुपये भेजने
की ममती मौत की तर मसर पर सवार ो गयी, तो मैने पूछा- क्या ु आ? तुम् ारे
भाई सा ब ने श्रीमुख से कुछ िरमाया चा अभी तक पत्र न ीिं प ु ाँचा? आखखर घर
की जायदाद में मारा भी कुछ ह स्सा ैं या न ी? या म ककसी लौड़ी-दासी की
सन्तान ैं? पााँच सौ रुपये साल का निा तो दस साल प ले था। अब तो एक
जार से कम न ोगा, पर में कभी एक कानी कौड़ी न ममली। मोटे ह साब से
में दो जार ममलना चाह ए। दो जार न ो, एक जार ो, पााँच सौ ो, ढाई सौ
ो, कुछ न ो तो बीमा के प्रीममयम भर को तो ो। त सीलदार सा ब का
आमदनी मारी आमदनी से चौगुनी ैं, ररश्वतें भी लेते ैं, तो किर मारे रुपये
क्यों न ीिं दे ते? आप ें - ें , ााँ- ााँ करने लगे। व बेचारे घर की मरम्मत करवाते ैं।
बिंिु-बािंिवो का स्वागत-सतकार करते ैं , नातेदाररयों में भेट-भााँट भेजते ैं। और
क ााँ से लावें , जो मारे पास भेजे? वा री बुवद्ध! मानो जायदाद इसीमलए ोती ैं
कक उसकी कमाई उसी में खचष ो जाय। इस भले आदमी को ब ाने गढने भी
न ीिं आते। मुझसे पूछते, मैं एक न ी जार बता दे ती, एक-से-एक बढ़कर- क
दे त,े घर में आग लग गयी, सब कुछ स्वा ा ो गया, या चोरी ो गयी, ततनका तक
न ीिं बचा, या दस जार का अनाज भरा था, उसनें घाटा र ा, या ककसी से
िौजदारी ो गयी, उसमें हदवाला वपट गया। आपको सझ
ू ी भी लचर-सी बात।
तकदीर ठोककर बैठ र ीिं। किर भी आप भाई-भतीजों की तारीिों के पल
ु बााँिते
ैं, तो मेरे शरीर में आग लग जाती ैं। ऐसे कौरवों से ईश्वर बचाये।

ईश्वर की दया से आपके दो बच्चे ैं , दो बत्च्चयााँ भी ैं। ईश्वर की दया क ू ाँ या


कोप क ू ाँ? सब-के-सब इतने ऊिमी ो गये ैं कक खद
ु ा की पना , मगर क्या
मजाल ैं कक भोंद ू ककसी को कड़ी आाँख से भी दे खे! रात के आठ बज गये ैं ,
युवराज अभी िूमकर न ीिं आये। मैं घबरा र ी ू ाँ, आप तनत्श्चिंत बैठे अखबार पढ़
र े ैं। झल्लाई ु ई जाती ू ाँ और अखबार छीनकर क ती ू ाँ , जाकर दे खते क्यों
न ीिं, लौंड़ा क ााँ र गया? न जाने तुम् ारा हृदय ककतना कठोर ैं! ईश्वर ने तुम् ें
सन्तान ी न जाने क्यों दे दी? वपता का पत्र
ु के साथ कुछ तो िमष ैं! तब आप
भी गमष ो जाते ैं, अभी तक न ी आया? बड़ा शैतान ैं। आज बच्चा आता ैं, तो
कान उखाड़ लेता ू ाँ। मारे िं टरों के खाल उिेड़कर रख दाँ ग
ू ा। यों बबगड़कर तैश के
साथ आप उसे खोजने तनकलते ैं। सिंयोग की बात! आप उिर जाते ैं, इिर
लड़का आ जाता ैं। मैं पूछती ू ाँ- तू ककिर से आ गया? तुझे ढूाँढने गये ुए ैं।
दे खना, आज कैसी मरम्मत ोती ैं। य आदत छूट जायेगी। दााँत पीस र े थे।
आते ी ोंगे। छड़ी भी उनके ाथ में ैं। तम
ु इतने अपने मन के ो गये ो कक
बात न ीिं सुनते! आज आटे -दाल का भाव मालूम ोगा। लड़का स म जाता ैं
और लैम्प जलाकर पढ़ने बैठ जाता ैं। म ाशयजी दो-ढाई घिंटे के बाद लौटते ैं ,
ै रान, परे शान और बद वास ोगा। घर में पााँव रखते ी पूछते ैं- आया कक
न ीिं?

मैं उनका क्रोि उततेत्जत करने के ववचार से क ती ू ाँ - आकर बैठा तो ैं, जाकर
पूछते क्यों न ीिं? पूछकर ार गयी, क ााँ गया था, कुछ बोलता ी न ीिं।

आप गरजकर क ते ैं - मन्नू, य ााँ आओ।

लड़का थर-थर कााँपता ु आ आकर आाँगन में खड़ो ो जाता ैं। दोनों बत्च्चयााँ
घर में तछप जाती ैं कक कोई बड़ा भयिंकर कािंड ोने वाला ैं। छोटा बच्चा
खखड़की से चू े की तर झााँक र ा ैं। आप क्रोि से बौखलाए ु ए ैं! ाथ में
छड़ी ैं ी, मैं भी य क्रोिोन्मतत आकृतत दे खकर पछताने लगती ू ाँ कक क ााँ से
मशकायत की। आप लड़के के पास जाते ै , मगर छड़ी जमाने के बदले आह स्ते
से उसे किंिे पर ाथ रखकर बनावटी क्रोि से क ते ैं - तुम क ााँ गये थे जी?
मना ककया जाता ैं, मानते न ीिं ो। खबरदार, जो अब कभी इतनी दे र ोगी?
आदमी शाम को अपने घर चला आता ैं या मटरगश्ती करता ैं ?

मैं समझ र ी ू ाँ कक य भूममका ैं। ववर्य अब आयेगा। भूममका तो बुरी न ीिं,


लेककन य ााँ तो भूममका पर इतत ो जाती ैं। बस, आपका क्रोि शािंत ु आ।
बबल्कुल जैसिं क्वार का घटा- घेर-घार ु आ, काले बादल आये, गड़गड़ा ट ु ई और
धगरी क्या, चार बाँद
ू ें । लड़का अपने कमरे में चला जाता ैं और शायद खश
ु ी से
नाचने लगता ैं।

मैं पराभूत ो जाती ू ाँ- तुम तो जैसे डर गये। भला, दो-चार तमाचे तो लगाये
ोते! इसी तर लड़के शेर ो जाते ैं।

आप िरमाते ैं - तुमने सुना न ीिं, मैने ककतने जोर से डााँटा! बच्चू की जान ी
तनकल गयी ोगी। दे ख लेना, जो किर कभी दे र से आये।

'तुमने डााँटा तो न ीिं, ााँ आाँसू पोंछ हदये।'

'तम
ु ने मेरी डााँट सन
ु ी न ीिं?'

'क्या क ना ैं, आपकी डााँट का! लोगों के कान ब रे ो गये । लाओ, तुम् ारा गला
स ला दाँ ।ू '

आपने एक नया मसद्धान्त तनकाला ैं कक दिं ड दे ने से लड़के खराब ो जाते ैं।


आपके ववचार से लड़को का आजाद र ना चाह ए। उन पर ककसी तर का
बन्िन, शासन या दवाब न ोना चाह ए। आपके मत से शासन बालकों के
मानमसक ववकास में बािक ोता ैं। इसी का य िल ैं कक लड़के बबना नकेल
के ऊाँट बने ु ए ैं। कोई एक ममनट भी ककताब खोलकर न ी बैठता। कभी गल्
ु ली-
डिंडा ैं , कभी गोमलयााँ, कभी कनकौवे। श्रीमान ् भी लड़को के साथ खेलते ैं। चालीस
की उम्र और लड़कपन इतना। मेरे वपताजी के सामने मजाल थी कक कोई लड़का
कनकौआ उड़ा ले या गुल्ली-डिंडा खेल सके। खून ी पी जाते। प्रातुःकाल से लड़कों
को लेकर बैठ जाते थे। स्कूल से ज्यों ी लड़के आते, किर से ले बैठते थे। बस,
सिंध्या समय आि घिंटे की छुट्टी दे ते थे। रात को किर जोत दे त।े य न ीिं कक
आप तो अखबार पढ़ा करे और लड़के गली-गली भटकते किरें । कभी-कभी आप
सीिंग काटकर बछड़े बन जाते ैं। लड़कों के साख ताश खेलने बैठा करते ैं। ऐसे
बाप का भला, लड़को पर क्या रौब ो सकता ैं? वपताजी के सामने मेरे भाई सीिे
ताक न ीिं सकते थे। उनकी आवाज सुनते ी त लका मच जाता था। उन् ोंने घर
में कदम रखा और शािंतत का साम्राज्य ु आ। उनके सम्मुख जाते लड़कों के प्राण
सख
ू ते थे। उसी शासन की य बरकत ैं कक सभी लड़के अच्छे -अच्छे पदों पर
प ु ाँच गये। ााँ, स्वास्र्थय ककसी का अच्छा न ीिं ैं। तो वपताजी ी का स्वास्र्थय
कौन बड़ा अच्छा था! बेचारे मेशा ककसी न ककसी और्धि का सेवन करते र ते
थे। और क्या क ू ाँ , एक हदन तो द ी ो गयी। श्रीमानजी लड़कों को कनकौआ
उड़ाने की मशक्षा दे र े थे - यों घुमाओ, यों गोता दो, यों खीिंचो, यों ढील दो। ऐसा
तन-मन से मसखा र े थे, मानो गुरू-मिंत्र दे र े ो। उस हदन मैने इनकी ऐसी
खबर ली कक याद करते ोंगे- तम
ु कौन ोते ो, मेरे बच्चों को बबगाड़नेवाले!
तुम् ें घर से कोई मतलब न ीिं ैं , न ो, लेककन में र बच्चों को खराब न कीत्जए।
बुरी-बुरी आदतें न मसखाइए। आप उन् ें सुिार न ीिं सकते, तो कम-से-कम
बबगाडड़ए मत। लगे बगलें झााँकने। मैं चा ती ू ाँ , एक बार भी गरज पड़े तो चिंडी
रूप हदखाऊाँ, पर य इतना जल्द दब जाते ैं कक मैं ार जाती ू ाँ। वपताजी ककसी
लड़के को मेले-तमाशे न ले जाते थे। लड़का मसर पीटकर मर जाय, मगर जरा भी
न पसीजते थे। और इन म ातमाजी का य ाल ैं कक एक-एक से पछ
ू कर मेले
ले जाते ैं- चलो, चलो, व ााँ बड़ी ब ार ैं, खूब आततशबात्जयााँ छूटें गी, गुब्बारे उड़ेंगे,
ववलायती चखखषयााँ भी ैं। उन पर मजे से बैठना। और-तो-और, आप लड़कों को
ाकी खेलने से भी न ीिं रोकते। य अिंग्रेजी खेल भी ककतने जानलेवा ैं - कक्रकेट,
िुटबाल, ाकी - एक-से-एक घातक। गें द लग जाय तो जान लेकर ी छोड़े, पर
आपको इन सभी खेलों से प्रेम ैं। कोई लड़का मैच जीतकर आ जाता ैं , तो िूल
उठते ैं , मानो ककला ित कर आया ो। आपको इसकी जरा भी परवा न ीिं
कक चोट-चपेट आ गयी तो क्या ोगा! ाथ-पााँव टूट गये तो बेचारो की त्जन्दगी
कैसे पार लगेगी!

वपछले साल कन्या का वववा था। आपकी त्जद थी कक द े ज के नाम कानी


कौड़ी भी न दें गे, चा े कन्या आजीवन क्वााँरी र े । य ााँ भी आपका आदशषवाद आ
कूदा। समाज के नेताओिं का छल-प्रपिंच आये हदन दे खते र ते ैं, किर भी आपकी
आाँखे न ीिं खुलती। जब तक समाज की य व्यवस्था कायम ैं औऱ युवती कन्या
का अवववाह त र ना तनन्दास्पद ैं, तब तक य प्रथा ममटने की न ी। दो-चार
ऐसे व्यत्क्त भले ी तनकल आवे, जो द े ज के मलए ाथ न िैलावें , लेककन इनका
पररत्स्थतत पर कोई असर न ीिं पड़ता और कुप्रथा ज्यों-की-तयों बनी ु ई ैं। पैसों
की कमी न ीिं, द े ज की बुराइयों पर लेक्चर दे सकते ैं, लेककन ममलते ु ए द े ज
को छोड़ दे नेवाला मैने आज तक न दे खा। जब लड़को की तर लड़ककयों को
मशक्षा और जीववका को सुवविाएाँ तनकल आयेंगी, तो य प्रथा भी ववदा ो
जायेगी, उसके प ले सम्भव न ीिं। मैने ज ााँ-ज ााँ सिंदेश भेजा, द े ज का प्रश्न खड़ा

ु आ और आपने प्रतयेक अवसर पर टााँग अड़ायी। जब इस तर पूरा साल गुजर


गया और कन्या का सत्र वााँ लग गया, तो मैने एक जग बात पक्की कर ली।
आपने भी स्वीकार कर मलया, क्योंकक वर-पक्ष ने लेन-दे न का प्रश्न उठाया ी
न ीिं, ालााँकक अन्तुःकरण में उन लोगों को ववश्वास था कक अच्छी रकम ममलेगी
औऱ मैने भी तय कर मलया था कक यथाशत्क्त कोई बात उठा न रक्खूग
ाँ ी। वववा
के सकुशल ोने में कोई सन्दे न था, लेककन इन म ाशय के आगे मेरी एक न
चली- य प्रथा तनिंद्य ैं , य रस्म तनरथषक ैं , य ााँ रुपये की क्या जरूरत? य ााँ
गीतो का क्या काम? नाक में दम था। य क्यों, व क्यों, य तो साि द े ज ैं ,
तुमने माँु में कामलख लगा दी। मेरी आबरू ममटा दी। जरा सोधचए, इस पररत्स्थतत
को कक बारात द्वार पर पड़ी ु ई ैं और य ााँ बात-बात पर शास्त्राथष ो र ा ैं।
वववा का मु ू तष आिी रात के बाद था। प्रथानुसार मैने व्रत रखा, ककन्तु आपकी
टे क थी कक व्रत की कोई जरूरत न ी। जब लड़के के माता-वपता व्रत न ीिं रखते,
लड़का तक व्रत न ीिं रखता, तो कन्या-पक्षवाले ी व्रत क्यों रखें! मैं और सारा
खानदान मना करता र ा; लेककन आपने नाश्ता ककया। खैर! कन्यादान का मु तष
आया। आप सदै व से इस प्रथा के ववरोिी ैं। आज इसे तनवर्द्ध समझते ैं।
कन्या क्या दान की वस्तु ैं? दान रुपये-पैसे, जग -जमीन का ोता ैं। पशु-दान
भी ोता ैं, लेककन लड़की का दान! एक लचर-सी बात ैं। ककतना समझती ू ाँ ,
परु ानी प्रथा ैं, वेद-काल से ोती चली आयी ैं, शास्त्रों में इसकी व्यवस्था ैं।
सम्बन्िी समझा र े ैं , पिंडडत समझा र े ैं , पर आप ैं कक कान पर जाँू न ी
रें गती। ाथ जोड़ती पैर पड़ती ू ाँ , धगड़धगड़ाती ू ाँ , लेककन आप मिंडल के नीचे न
गये। और मजा य ैं कक आपने ी तो य अनथष ककया और आप ी मुझसे
रूठ गये। वववा के पश्चात म ीनों बोलचाल न र ी। झख मार कर मुझी को
मनाना पड़ा।

ककन्तु सबसे बड़ी ववडम्बना य ैं कक इन सारे दग


ु ण
ुष ों के ोते ु ए भी मैं इनसे
एक हदन भी पथ
ृ क न ीिं र सकती- एक क्षण का ववयोग न ीिं र सकती। इन
सारे दोर्ों पर भी मुझे इनसे प्रगाढ़ प्रेम ै । इनमें य कौन सा गुण ैं, त्जन पर
मैं मग्ु ि ू ाँ, मैं खद
ु न ीिं जानती, पर इनमें कोई बात ऐसी ैं , जो मझ
ु े इनकी चेली
बनाये ुए ैं। य जरा मामूली सी दे र से घर आते ैं, तो प्राण न ों में समा जाते
ैं। आज यहद वविाता इनके बदले मुझे कोई ववद्या और बुवद्ध का पुतला-रूप और
िन का दे वता भी दे , तो मैं उसकी ओर आाँख उठाकर न दे ख।ूाँ य िमष की बेड़ी
ैं, कदावप न ीिं। प्रथागत पततव्रत भी न ीिं, बत्ल्क म दोनों की प्रकृतत में कुछ
ऐसी क्षमताएाँ, कुछ ऐसी व्यवस्थाएाँ उतपन्न ो गयी ैं मानो ककसी मशीन के
कल-परु जे तघस-तघसकर किट ो गये ों, और एक परु जे की जग दस
ू रा परु जा
काम न दे सके, चा े व प ले से ककतना ी सुडौल, नया और सुदृढ़ ो। जाने ु ए
रास्ते से म तनुःशिंक आाँखे बन्द ककये चले जाते ैं , उसके ऊाँचे-नीचे मोड़ और
घुमाव, सब मारी आाँखों मे समाये ैं। अनजान रास्ते पर चलना ककतना कष्टप्रद
ोगा। शायद आज मैं इनके दोर्ों को गुणों से बदलने पर भी तैयार न ू ाँगी।
***
रमसक सम्पादक

'नवरस' के सम्पादक पिं. चोखेलाल शमाष की िमषपतनी का जब से दे ान्त ु आ ैं,


आपको त्स्त्रयों से ववशेर् अनुराग ो गया ै और रमसकता मात्रा भी कुछ बढ़
गयी ैं। पुरुर्ों के अच्छे -अच्छे लेख रद्दी में डाल हदये जाते ैं , पर दे ववयों के लेख
कैसे भी ो, तरु न्त स्वीकार कर मलये जाते ैं और ब ु िा लेख की प्रशिंसा कुछ इन
शब्दों में की जाती ैं- आपका लेख पढ़कर हदल थामकर र गया, अतीत जीवन
आाँखों के सामने मूततषमान ो गया, अथवा आपके भाव साह तय-सागर के उज्जवल
रतन ैं त्जनकी चमक कभी कम न ोगी। और कववताएाँ तो उनके हृदय की
ह लोरे , ववश्व-वीणा की अमर तान, अनन्त की मिुर वेदना, तनशा की नीरव गान
ोती थी। प्रशिंसा के साथ दशषनों की उतकष्ट अमभलार्ा भी प्रकट की जाती थी -
यहद आप कभी इिर से गज
ु रें , तो मझ
ु े न भमू लएगा। त्जसने ऐसी कववता की
सत्ृ ष्ट की ैं, उसके दशषनों का सौभाग्य में ममला, तो अपने को िन्य मानाँग
ू ा।

लेखखकाएाँ अनुराग-मय प्रोतसा न से भरे पत्र पाकर िूली न समातीिं। जो लेख


अभागे मभक्षुकों की भााँतत ककतनी ी पत्र-पबत्रकाओिं के द्वार से तनराश लौट आये
थे, उनका इतना आदर! प ली बार ऐसा सम्पादक जन्मा ैं , जो गुणों का पारखी
ैं! और सभी सम्पादक अ म्मन्य ैं , अपने आगे ककसी को समझते ी न ीिं।
रा-सी सम्पादकी क्या ममल गयी मानो कोई राज्य ममल गया। इन सम्पादकों
को क ीिं सरकारी पद ममल जाय तो अन्िेर मचा दें । व तो क ा कक सरकार
इन् ें पूछती न ीिं, उसने ब ु त अच्छा ककया, जो आडडषनेन्स पास कर हदये। और
त्स्त्रयों से द्वेर् करो! य उसी का दिं ड ैं! य भी सम्पादक ी ैं , कोई घास न ीिं
छीलते और सम्पादक भी एक जगत ् ववख्यात पत्र के 'नवरस' सब पत्रों में राजा
ैं।
चोखेलालजी के पत्र की ग्रा क-सिंख्या बड़े वेग से बढ़ने लगी। र डाक से
िन्यवादो की एक बाढ़-सी आ जाती, और लेखखकाओिं में उनकी पज
ू ा ोने लगी।
ब्या , गौना, मुिंडन, जन्म-मरण के समाचार आने लगे। कोई आशीवाषद मााँगती, कोई
उनके मुख से सािंतवना के दो शब्द सुनने की अमभलार्ा करती, कोई उनसे घरे लू
सिंकटों में परामशष पूछती। और म ीने में दस-पााँच मह लाएाँ उन् ें आकर दशषन भी
दे जाती। शमाषजी उनकी अवाई का तार या पत्र पाते ी स्टे शन पर जाकर उनका
स्वागत करते, बड़े आग्र से उन् ें एक-आि हदन ठ राते, उनकी खब
ू खाततर
करते। मसनेमा के िी पास ममले ु ए थे ी, खब
ू मसनेमा हदखाते। मह लाएाँ उनके
सद्भाव से मुग्ि ोकर ववदा ोती। मश ु र तो य ााँ तक ैं कक शमाषजी का कई
लेखखकाओिं से ब ु त ी घतनष्ट सम्बन्ि ो गया ैं, लेककन इस ववर्य में म
तनत्श्चतपूवक
ष कुछ न ीिं क सकते। म तो इतना ी जानते ु ाँ कक जो दे ववयााँ
एक बार य ााँ आ जाती, व शमाषजी की अनन्य भक्त ो जातीिं। बेचारा साह तय
की कुहटया का तपस्वी ैं। अपने वविरु जीवन की तनराशाओिं को अपने
अन्तस्थल में सिंधचत रखकर मूक वेदना में प्रेम-मािुयष का रस-पान कर र ा ैं।
सम्पादकजी के जीवन में जो कमी आ गयी थी, उनकी कुछ पूततष करना मह लाओिं
ने अपना िमष-सा मान मलया। उनके भरे ु ए भिंडार में से अगर एक क्षुधित प्राणी
को थोड़ी-सी ममठास दी जा सके, तो उससे भिंडार की शोभा ैं। कोई दे वी पासषल
से आचार भेज दे ती, कोई लड्डू। एक ने पूजा का ऊनी आसन अपने ाथों से बना
कर भेज हदया। एक दे वी म ीने में एक बार आकर उनके कपड़ो की मरम्मत कर
दे ती थी। दस
ू री म ीने मे दो-तीन बार आकर उन् ें अच्छी-अच्छी चीजें बनाकर
खखला जाती थी। अब व ककसी एक के न ोकर सबके ो गये थे। त्स्त्रयों के
अधिकारों को उनसे कड़ा रक्षृक शायद ी कोई ममले। पुरुर्ों से तो शमाषजी को
मेशा तीव्र आलोचना ी ममलती थी। श्रद्धामय स ानुभूतत का आनन्द तो उन् ें
त्स्त्रयों में ी पाया।

एक हदन सम्पादकजी को एक ऐसी कववता ममली, त्जसमें लेखखका ने अपने उग्र


प्रेम का रूप हदखाया था। अन्य सम्पादक उसे अश्लील क ते, लेककन चोखेलाल
इिर ब ु त उदार ो गये थे। कववता इतने सुन्दर अक्षरों में मलखी थी, लेखखका का
नाम इतना मो क था कक सम्पादकजी के सामने उसका एक कल्पना-धचत्र-सा
आकर खड़ा ो गया। भावक
ु प्रकृतत, कोमल गीत, याचना भरे नेत्र, बबम्ब-अिंिर,
चिंपई-रिं ग, अिंग-अिंग में चपलता भरी ु ई, प ले गोंद की तर शुष्क और कठोर,
आद्रष ोते ु ए ी धचपक जाने वाली। उन् ोंने कववता दो-तीन बार पढ़ी और र
बार उनके मन में सनसनी दौड़ी-

क्या तुम समझते ो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?


भाग सकोगे?
मै तुम् ारे गले में ाथ डाल दाँ ग
ू ी,
मै तुम् ारी कमर में करपाश कस दाँ ग
ू ी,
मैं तम्
ु ारी पााँव पकड़कर रोक लाँ ग
ू ी,
तब उस पर सर रख दाँ ग
ू ी।

क्या तुम समझते ो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?


छोड़ सकोगे?

मैं तुम् ारे अिरों पर अपने कोपल धचपका दाँ ग


ू ी,
उस प्याले में जो मादक सुिा ैं,
उसे पीकर तम
ु मस्त ो जाओगे।
क्या तुम समझते ो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?

- कामाक्षी

शमाषजी को र बार इस कववता में एक नया रस ममलता था। उन् ोंने उसी क्षण
कामाक्षी दे वी के नाम य पत्र मलखा-

'आपकी कववता पढ़कर, मैं क न ीिं सकता, मेरे धचतत की क्या दशा ु ई। हृदय में
एक ऐसी तष्ृ णा जाग उठी ैं, जो मझ
ु े भस्म ककये डालती ैं। न ी जानता, इसे
कैसे शान्त करूाँ? बस य ी आशा ैं कक इसको शीतल करनेवाली सि
ु ा भी व ीिं
ममलेगी, ज ााँ से य तष्ृ णा ममली ैं। मन पतिंग की भााँतत जिंजीर तड़
ु ाकर भाग
जाना चा ता ैं। त्जस हृदय से य भाव तनकले ैं , उसमें प्रेम का ककतना अक्षय
भिंडार ैं, उस प्रेम का, जो अपने को समवपषत कर दे ने में ी आनन्द पाता ैं। मैं
आपसे सतय क ता ू ाँ कक, ऐसी कववता मैने आज तक न ी सुनी थी और इसने
मेरे अन्दर जो तूिान उठा हदया ैं, व मेरी वविुर शािंतत को तछन्न-मभन्न ककये
डालता ैं। आपने एक गरीब की िूस की झोपड़ी में आग दी ैं, लेककन मन य
स्वीकार न ी करता कक व केवल ववनोद-क्रीड़ा ैं। इन शब्दों में मझ
ु े एक ऐसा
हृदय तछपा ु आ ज्ञात ोता ैं, त्जसने प्रेम की वेदना स ी ैं , जो लालसा की आग
से तपा ैं। मैं इसे परम सौभाग्य समझाँूगा, यहद आपके दशषनों का सौभाग्य पर
सका। य कुहटया अनुराग की भें ट के मलए आपका स्वागत करने को तड़प र ी
ैं।'

तीसरे हदन ी उततर आ गया। कामाक्षी ने बड़े भावुकतापूणष शब्दों में कृतज्ञता
प्रकट की थी और अपने आने की ततधथ बतायी थी।

आज कामाक्षी का शुभागमन ैं।

शमाषजी ने प्रातुःकाल जामत बनवायी, साबन


ु और बेसन से स्नान ककया, म ीन
खद्दर की िोती, कोकटी का ढीला चन्
ु नटदार कुरता , मलाई के रिं ग की रे शमी
चादर-ठाठ से कायाषलय में बैठे, तो सारा दफ्तर चमक उठा। दफ्तर की भी खूब
सिाई कर दी गयी थी। बरामदे में गमले रखवा हदये गये थे, मेज पर गुलदस्ते
सजा हदये गये थे। गाड़ी नौ बजे आती ैं , अभी साढे आठ बजे ैं , साढ़े नौ तक
य ााँ आ जायेगी। इस परे शानी में कोई काम न ीिं ो र ा ैं। बार-बार घड़ी की
ओर ताकते ैं, किर आइने में अपनी सरू त दे खकर कमरे में ट लने लगते ैं।
माँछ
ू ो से दो-चार बाल पके ु ए नजर आ र े ैं, उन् ें उखाड़ िेंकने का इस समय
कोई सािन न ीिं ैं। कोई रज न ीिं। इससे रिं ग कुछ और ज्यादा ी जमेगा। प्रेम
जब श्रद्धा के साथ आता ैं , तब व ऐसा मे मान ो जाता ैं , जो उप ार लेकर
आया ो। युवकों के मलए प्रेम खचीली वस्तु ैं लेककन म ातमाओिं या म ीतमापन
के समीप प ु ाँचे ु ए लोगों का प्रेम-उलटे और कुछ ले आता ैं। युवक जो रिं ग
ब ु मूल्य उप ारों से जमाता ैं, ये म ातमा या अद्धष-म ातमा लोग केवल आशीवाषद
से जमा लेते ैं।

ठीक साढ़े नौ बजे चपरासी ने आकर काडष हदया। मलखा था- कामाक्षी।

शमाषजी ने उसे दे वीजी को लाने की अनुमतत दे कर एक बार किर आइने में


अपनी सूरत दे खी और एक मोटी-सी पुस्तक पढ़ने लगे, मानो स्वाध्याय में तन्मय
ो गये ैं। एक क्षण में दे वीजी ने कमरे में कदम रखा। शमाषजी को उनके आने
की खबर न ु ई।

दे वीजी डरते-डरते समीप आ गयी, तब शमाषजी ने चौंककर मसर उठाया मानो


समाधि से जाग पड़े ो, और खड़े ोकर दे वीजी का स्वागत ककया, मगर य व
मूततष न थी, त्जसकी उन् ोंने कल्पना कर रखी थी!

एक काली, मोटी, अिेड़, चिंचल औरत थी, जो शमाषजी को इस तर घूर र ी थी,


मानो उसे पी जायेगी। शमाषजी का सारा उतसा , सारा अनुराग ठिं ड़ा पड़ गया। व
सारी मन की ममठाइयााँ, जो व म ीनों से खा र े थे, पेट में शूल की भााँतत चुभने
लगी। कुछ क ते-सन
ु ते न बना। केवल इतना बोले- सम्पादकों का जीवन बबल्कुल
पशुओिं का जीवन ैं। मसर उठाने का समय न ी ममलता। उस पर कायाषधिक्य से
इिर मेरा स्वास्र्थय भी बबगड़ र ा ैं। रात ी से मसर-ददष से बैचैन ू ाँ। आपकी
क्या खाततर करूाँ?

कामाक्षी दे वी के ाथ में एक बड़ा-सा पुमलिंदा था। उसे मेज पर पटककर रूमाल से


माँु पोंछकर मद
ृ -ु स्वर में बोली- य तो आपने बड़ी बुरी खबर सुनाई। मैं तो एक
स े ली से ममलते जा र ी थी। सोचा रास्ते में आपके दशषन करती चलाँ ू, लेककन
जब आपका स्वास्र्थय ठीक न ी ैं , तो कुछ हदन र कर आपका स्वास्र्थय सि
ु ारना
पड़ेगा। मैं आपके सम्पादन-कायष में भी आपकी मदद करूाँगी। आपका स्वास्र्थय
स्त्री-जातत के मलए बड़े म ततव की वस्तु ैं। आपको इस दशा में छोड़कर अब मैं
जा ी न ी सकती।

शमाषजी को ऐसा जान पड़ा, जैसे उनका रक्त-प्रवा रुक गया ैं, नाड़ी टूटी जा र ी
ैं। उस चुड़ल
ै के साथ र कर तो जीवन ी नरक ो जायेगा। चली ै कववता
करने, और कववता भी कैसी? अश्लीलता में डूबी ु ई। अश्लीलता तो ैं ी। बबल्कुल
सड़ी ु ई, गिंदी। एक सुन्दरी युवती की कलम से व कववता काम-बाण थी। इस
डायन की कलम से तो व परनाले की कीचड़ ैं। मै क ता ू ाँ , इसे ऐसी कववता
मलखने का अधिकार ी क्या ैं ? व क्यों ऐसी कववता मलखती ैं? क्यों न ी ककसी
कोने में बैठकर राम-भजन करती? आप पूछती ैं- मुझे छोड़कर भाग सकोगे? मैं
क ता ू ाँ , आपके पास कोई आयेगा ी क्यों? दरू से ी दे खकर न लम्बा ो
जायेगा। कववता क्या ैं, त्जसका न मसर ैं, न पैर, मात्राओिं तक का तो इसे ज्ञान
न ीिं ैं। और कववता करती ैं ? कववता अगर इस काया में तनवास कर सकती ैं,
तो किर गिा भी गा सकता ैं! ऊाँट भी नाच सकता ैं! इस रााँड़ को इतना भी
न ीिं मालूम कक कववता करने के मलए रूप और यौवन चाह ए, नजाकत चाह ए।
भूतनी-सी तो आपकी सूरत ैं, रात को कोई दे ख ले, तो डर जाय और आप
उततेजक कववता मलखती ैं! कोई ककतना ी क्षुिातुर ो, तो क्या गोबर खा लेगा?
और चुड़ल
ै इतना बड़ा पोथा लेती आयी ैं। इसमें में व ी परनाले का गिंदा कीचड़
ोगा!

उस मोटी पुस्तक की ओर दे खते ु ए बोले- न ीिं, न ीिं, मैं आपको कष्ट न ीिं दे ना
चा ता। व ऐसी कोई बात न ी ैं! दो-चार हदन के ववश्राम से ठीक ो जायेगा।
आपकी स े ली आपकी प्रतीक्षा करती ोंगी।

'आप तो म ाशयजी सिंकोच कर र े ैं। मै दस-पााँच हदन के बाद भी चली


जाऊाँगी, तो कोई ातन न ोगी।'

'इसकी कोई आवश्यकता न ीिं ैं दे वीजी।'

'आपके माँु पर तो आपकी प्रशिंसा करना खुशामद ोगी, पर जो सज्जनता मैने


आप में दे खी, व क ीिं न ी पायी। आप प ले म ानुभाव ैं , त्जन् ोंने मेरी रचना
का आदर ककया, न ी, मैं तो तनराश ो चुकी थी। आपके प्रोतसा न का य शुभ
िल ैं कक मैने इतनी कववताएाँ रच डालीिं। आप इनमें से जो चा े रख ले। मैने
एक ड्रामा भी मलखना शुरू कर हदया ैं। उसे भी शीघ्र ी आपकी सेवा में भेजाँग
ू ी।
कह ए तो दो-चार कववताएाँ सन
ु ाऊाँ? ऐसा अवसर मझ
ु े कब ममलेगा? य तो न ी
जानती कक कववताएाँ कैसी ै , पर आप सुनकर प्रसन्न ोंगे। बबल्कुल उसी रिं ग की
ैं।'

उसने अनम
ु तत की प्रततक्षा न की। तरु न्त पोथा खोलकर एक कववता सन
ु ाने
लगा। शमाषजी को ऐसा मालूम ोने लगा, जैसे कोई मभगो-मभगोकर जूते मार र ा
ैं। कई बार उन् ें मतली आ गयी, जैसे एक जार गिे कानों के पास खड़े अपना
स्वर अलाप र े ो। कामाक्षी के स्वर में कोयल का मािुयष था। पर शमाषजी को
इस समय व भी अवप्रय लग र ा था। मसर में सचमुच ददष ोने लगा। य गिी
टलेगी भी, य यों ी बैठी मसर खाती र ें गी? इसे मेरे चे रे से भी मेरे मनोभावों
का ज्ञान न ीिं ो र ा ैं! उस पर आप कववता करने चली ैं ? इस माँु से म ादे वी
या सुभद्राकुमारी की कववताएाँ भी घण
ृ ा ी उतपन्न करें गी।

आखखर र ा न गया। बोले- आपकी रचनाओिं का क्या क ना, आप य सिंग्र य ीिं


छोड़ जायें। मैं अवकाश में पढूाँगा। इस समय तो ब ु त-सा काम ैं।

कामाक्षी ने दयाद्रष ोकर क ा- आप इतना दब


ु ल
ष स्वास्र्थय ोने पर भी इतने
व्यस्त र ते ैं ? मझ
ु े आप पर दया आती ैं।

'आपकी कृपा ैं।'


'आपको कल अवकाश र े गा? जरा मैं ड्रामा सुनाना चा ती थी? '

'खेद ैं, कल मझ
ु े जरा प्रयाग जाना ैं।'

'तो मै भी आपके साथ चलाँ ू? गाड़ी में सुनाती चलाँ ग


ू ी?'

'कुछ तनश्चय न ी, ककस गाड़ी से जाऊाँ।'

'आप लौटें गे कब तक?'

'य भी तनश्चय न ीिं।'

और टे मलिोन पर जाकर बोले- ल्लो, न. 77

कामाक्षी ने आि घिंटे तक उनका इन्तजार ककया, मगर शमाषजी एक सज्जन से


ऐसी म ततव की बातें कर र े थे, त्जसका अन्त ी ोने न पाता था।

तनराश ोकर कामाक्षी दे वी ववदा ु ई और शीध्र ी किर आने का वादा कर गयी।


शमाषजी नें आराम की सााँस ली और उस पोथे को उठाकर रद्दी में डाल हदया और
जले ु ए हदल से आप- ी-आप क ा- ईश्वर न करे कक किर तुम् ारे दशषन ो।
ककतनी बेशमष ैं, कुलटा क ी की! आज इसने सारा मजा ककरककरा कर हदया।

किर मैनेजर को बल
ु ाकर क ा- कामाक्षी की कववता न ी जायेंगी।

मैनेजर ने स्तत्म्भत ोकर क ा- िामष तो मशीन पर ैं!

'कोई र न ीिं। िामष उतार लीत्जए।'

'बड़ी दे र ोगी।'
' ोने दीत्जए। व कववता न ी जायेगी।'

***
मनोित्ृ ति

एक सुन्दर युवती, प्रातुःकाल गााँिी पाकष में बबल्लौर के बेंच पर ग री नीिंद में
सोयी पायी जाय, य चौंका दे नेवाली बात ै । सुन्दररयााँ पाकों में वा खाने आती
ैं, ाँसती ैं, दौड़ती ैं , िूल-पौिों से खेलती ैं, ककसी का इिर ध्यान न ीिं जाता,
लेककन कोई यव
ु ती रववश के ककनारे वाले बेंच पर बेखबर सोये, व बबल्कुल
गैरमामल
ू ी बात ैं, अपनी ओर बलपव
ू क
ष आकवर्षत करनेवाली। रववश पर ककतने
आदमी च लकदमी कर र े ैं , बूढ़े भी, जवान भी, सभी एक क्षण के मलए व ीिं
हठठक जाते ैं , एक न र व दृश्य दे खते ैं और तब चले जाते ैं। युवक-वन्ृ द
र स्य-भाव से मुस्काते ु ए, वद्ध
ृ -जन धचन्ताभाव से मसर ह लाते ु ए और युवततयााँ
लज्जा में आाँखें नीची ककये ु ए।

विंसत और ामशम तनकर और बतनयान प नें निंगे पााँव दौड़कर र े ैं। बड़े हदन
की छुहट्टयों में ओमलत्म्पयन रे स ोनेवाले ैं, दोनों उसी की तैयारी कर र े ै । दोनों
इस स्थल पर प ु ाँचकर रूक जाते ैं और दबी आाँखों से युवती को दे खकर आपस
में ख्याल दौड़ाने लगते ैं।

विंसत ने क ा- इसे और क ीिं सोने की जग न ममली।

ामशम ने जवाब हदया- कोई वेश्या ैं।

'लेककन वेश्याएाँ भी तो इस तर बेशमी न ीिं क ती।'

'वेश्या अगर बेशमष न ो, तो व वेश्या न ी।'

'ब ु त-सी ऐसी बातें ैं, त्जनमें कुलविु और वेश्या, दोनों एक व्यव ार करती ैं।
कोई वेश्या मामल
ू ी तौर पर सड़क पर सोना न ीिं चा ती।'

'रूप-छवव हदखाने का नया आटष ैं।'

'आटष का सबसे सुन्दर रूप तछपाव ैं, हदखाव न ी। वेश्या इस र स्य को खूब
समझती ैं।'

'उसका तछपाव केवल आकर्षण बढ़ाने के मलए ैं।'

' ो सकता ैं, मगर केवल य ााँ सो जाना, य प्रमाखणत न ीिं करता कक य वेश्या
ैं। इसकी मााँग में मसन्दरू ैं।'

'वेश्याएाँ अवसर पड़ने पर सौभाग्यवती बन जाती ैं। रात भर प्याले के दौर चले
ोंगे। काम-क्रीड़ाएाँ ुई ोंगी। अवसाद के कारण, ठिं डक पाकर सो गयी ोगी।'

'मुझे तो कुल-विु-सी लगती ैं।'

'कुल-विु पाकष में सोने आयेगी?'

' ो सकता ैं, घर से रूठकर आयी ो।'

'चलकर पूछ ी क्यों न लें ।'

'तनरे अ मक ो! बगैर पररचय के आप ककसी को जगा कैसे सकते ै ?'

'अजी, चलकर पररचय कर लें गे। उलटे और ए सास जताएाँगे।'

'और जो क ीिं खझझक दे ?'

'खझझकने की कोई बात भी ो। उससे सौजन्य और सहृदयता में डूबी ु ई बातें


करें गें। कोई युवती ऐसी, गतयौवनाएाँ तक तो रस-भरी बातें सन
ु कर िूल उठती ैं।
य तो नवयौवना ै । मैने रूप और यौवन का ऐसा सन्
ु दर सिंयोग न ीिं दे खा था।'

'मेरे हृदय पर तो य रूप जीवन-पयषत के मलए अिंककत ो गया। शायद कभी न


भूल सकूाँ।'

'मैं तो किर भी य ी क ता ू ाँ कक कोई वेश्या ैं।'

'रूप की दे वी वेश्या भी ो, उपास्य ैं।'

'य ीिं खड़े-खड़े कववयों की-सी बातें करोगे, जरा व ााँ तक चलते क्यों न ीिं? केवल
खड़े र ना, पाश तो मैं डालाँ ग
ू ा।'

'कोई कुल-विू ैं।'

'कुल-विू पाकष में आकर सोये, तो इसके मसवा कोई अथष न ीिं कक व आकवर्षत
करना चा ती ैं और य वेश्या मनोवत्ृ तत ैं।'

'आजकल की यव
ु ततयााँ भी तो िारवडष ोने लगी ैं।'

'िारवडष युवततयााँ युवकों से आाँखें न ीिं चुराती।'

' ााँ, लेककन ैं कुल-विु। कुल-विू से ककसी तर की बातचीत करना मैं बे ू दगी
समझता ू ाँ।'

'तो चलो, किर दौड़ लगाएाँ।'

'लेककन हदल में व मतू तष दौड़ र ीिं ैं।'

'तो आओ बैठें। जब व उठकर जाने लगे , तो उसके पीछे चलें । मै क ता ू ाँ


वेश्या ैं।'
'और मैं क ता ू ाँ कुल-विू ैं।'

'तो दस-दस की बाजी र ी।'

दो वद्ध
ृ पुरुर् िीरें -िीरें मीन की ओर ताकते आ र े ैं। मानो खोई जवानी ढूाँढ
र े ों। एक की कमर झक
ु ी, बाल काले, शरीर स्थल
ू , दस
ू रे के बाल पके ु ए, पर
कमर सीिी, इक रा शरीर। दोनों के दााँत टूटे , पर नक़ली लगाए, दोनों की आाँखों
पर ऐनक। मोटे म ाशय वक़ील ै , छर रे म ोदय ड क्टर।

वक़ील- दे खा, य बीसवीिं सदी का करामात।

ड क्टर- जी ााँ दे खा, ह न्दस्


ु तान दतु नया से अलग तो न ीिं ैं?

'लेककन आप इसे मशष्टता तो न ीिं क सकते?'

'मशष्टता की द ु ाई दे ने का अब समय न ीिं।'

' ैं ककसी भले घर की लड़की।'

'वेश्या ैं सा ब, आप इतना भी न ीिं समझते।'

'वेश्या इतनी िू ड़ न ीिं ोती।'

'और भले घर की लड़की िू ड़ ोती ैं।'

'नयी आ ादी ैं , नया नशा ैं।'

' म लोगों की तो बुरी-भली कट गयी। त्जनके मसर आयेगी, व झेलेंगे।'


'त् न्दगी ज न्नम
ु से बदतर ो जायेगी।'

'अफ़सोस! जवानी रुखसत ो गयी।'

'मगर आाँखें तो न ीिं रुखसत ो गई, व हदल तो न ीिं रुखसत ो गया।'

'बस, आाँखों से दे खा करो, हदल जलाया करो।'

'मेरा तो किर से जवान ोने को जी चा ता ैं। सच पूछो, तो आजकल के जीवन


में ी त्जन्दगी की ब ार ैं। मारे वक़्तों में तो क ीिं कोई सरू त ी न र न ीिं
आती थी। आज तो त्जिर जोओ, ु स्न ी ु स्न के जलवे ैं।'

'सुना, युवततयों को दतु नया में त्जस ची से सबसे ज्यादा नफ़रत ैं , व बूढ़े मदष
ैं।'

'मैं इसका कायल न ीिं। पुरुर् को ौ र उसकी जवानी न ीिं, उसका शत्क्त-
सम्पन्न ोना ैं। ककतने ी बूढ़े जवानों से ज्यादा से ज्यादा कडड़यल ोते ैं।
मुझे तो आये हदन इसके त ुरबे ोते ैं। मै ी अपने को ककसी जवान से कम
न ीिं समझता।'

'य सब स ीिं ैं, पर बूढ़ों का हदल कम ोर ो जाता ैं। अगर य बात न ोती,
तो इस रमणी को इस तर दे खकर म लोग यों न चले जाते। मैं तो आाँखों भर
दे ख भी न सका। डर लग र ा था कक क ीिं उसकी आाँखें खल
ु जायें और व मझ
ु े
ताकते दे ख लें , तो हदल में क्या समझे।'

'खुश ोती कक बूढ़े पर भी उसका जाद ू चल गया।'

'अजी र ने भी दो।'

'आप कुछ हदनों 'आकोसा' को सेवन कीत्जए।'


'चन्द्रोदय खाकर दे ख चक
ु ा। सब लट
ू ने की बातें ैं।'

'मिंकी ग्लैंड लगवा लीत्जए न?'

'आप इस युवती से मेरी बात पक्की करा दें । मैं तैयार ू ाँ।'

' ााँ, य मेरा त्जम्मा, मगर मारा भाई ह स्सा भी र े गा।'

'अथाषत ्?'

'अथाषत ्, य कक कभी-कभी मैं भी आपके घर आकर अपनी आाँखें ठिं ड़ी कर मलया
करुाँ गा।'

'अगर आप इस इरादे से आये , तो मै आपका दश्ु मन ो जाऊाँगा।'

'ओ ो, आप तो मिंकी ग्लैंड का नाम सुनते ी जवान ो गये।'

'मैं तो समझता ू ाँ, य भी ड क्टरों नें लूटने का एक लटका तनकाला ैं। सच।'

'अरे सा ब, इस रमणी के स्पशष में जवानी ैं, आप ैं ककस िेर में । उसके एक-
एक अिंग में , एक-एक मुस्कान में , एक-एक ववलास में जवानी भरी ु ई। न सौ
मिंकी ग्लैंड़, न एक रमणी का बा ु पाश।'

'अच्छा कदम बढाइए, मव


ु त्क्कल आकर बैठे ोगे।'

'य सूरत याद र े गी।'

'किर आपने याद हदला दी।'

'व इस तर सोयी ै , इसमलए कक लोग उसके रूप को, उसके अिंग-ववन्यास को,
उसके बबखरे ु ए केशों को, उसकी खुली ु ई गदष न को दे खे और अपनी छाती पीटें ।
इस तर चले जाना, उसके साथ अन्याय ैं। व बल
ु ा र ी ैं और आप भागे जा
र े ैं।'

' म त्जस तर हदल से प्रेम कर सकते ैं , जवान कभी कर सकता ैं?'

'बबल्कुल ठीक। मुझे तो ऐसी औरतों से साबबका पड़ चुका ैं, जो रमसक बूढों को
खोजा करती ैं। जवान तो तछछोरे , उच्छृिंखल, अत्स्थर और गवीले ोते ैं। वे प्रेम
के बदले कुछ चा ते ैं। य ााँ तनुःस्वाथष भाव से आतम-समपषण करते ैं।'

'आपकी बातों से हदल में गुदगुदी ो गयी।'

'मगर एक बात याद रखखए, क ीिं उसका कोई जवान प्रेमी ममल गया, तो?'

'तो ममला करे , य ााँ ऐसों से न ीिं डरते। '

'आपकी शादी की कुछ बातचीत थी तो?'

' ााँ, थी, मगर जब अपने लड़के दश्ु मनी पर कमर बााँि,े तो क्या ो? मेरा लड़का
यशविंत तो बन्दक
ू हदखाने लगा। य जमाने की खूबी ैं!'

अक्तब
ू र की िप
ू तेज ो चली थी। दोनो ममत्र तनकल गये।

दो दे ववयााँ- एक वद्ध
ृ ा, दस
ू री नवयौवना, पाकष के िाटक पर मोटर से उतरी और
पाकष में वा खाने आयी। उनकी तनगा भी उस नीिंद की मारी युवती पर पड़ी।

वद्ध
ृ ा ने क ा- बड़ी बेशमष ै ।

नवयौवना ने ततरस्कार-भाव से उसकी ओर दे खकर क ा- ठाठ तो भले घर की


दे ववयों के ैं?

'बस, ठाठ ी दे ख लो। इसी से मदष क ते ै , त्स्त्रयों को आजादी न ममलनी


चाह ए।'

'मुझे तो वेश्या मालूम ोती ैं।'

'वेश्या ी स ी, पर उसे इतनी बेशमी करके स्त्री-समाज को लत्ज्जत करने का


क्या अधिकार ै ?'

'कैसे मजे से सो र ी ैं, मानो अपने घर में ैं।'

'बे याई ैं। मैं परदा न ीिं चा ती, पुरुर्ों की गुलामी न ी चा ती, लेककन औरतों में
जो गौरवशीलता और सलज्जता ैं , उसे न ीिं छोड़ती। मैं ककसी युवती को सड़क
पर मसगरे ट पीते दे खती ू ाँ, तो मेरे बदन में आग लग जाती ैं। उसी तर आिी
का जम्िर भी मझ
ु े न ी सो ाता। क्या अपने िमष की लाज छोड़ दे ने ी से
साबबत ोगा कक म ब ु त िारवडष ैं ? पुरुर् अपनी छाती या पीठ खोले तो न ीिं
घूमते?'

'इसी बात पर बाईजी, जब मैं आपको आड़े ाथों लेती ू ाँ , तो आप बबगड़ने लगती
ैं। पुरुर् स्वािीन ैं। व हदल में समझता ै कक मै स्वािीन ू ाँ। व स्वािीनता
का स्वााँग न ीिं भरता। स्त्री अपने हदल में समझती र ती ै कक व स्वािीन न ीिं
ैं, इसमलए व अपनी स्वािीनता को ढोंग करती ैं। जो बलवान ैं, वे अकड़ते
न ीिं। जो दब
ु ल
ष ैं, व ी अकड़ करती ैं। क्या आप उन् ें अपने आाँसू पोंछने के
मलए इतना अधिकार भी न ी दे ना चा ती?'

'मैं तो क ती ू ाँ , स्त्री अपने को तछपाकर पुरुर् को त्जतना नचा सकती ैं अपने


को खोलकर न ीिं नचा सकती।'

'स्त्री ी पुरुर् के आकर्षण की किक़ क्यों करें ? पुरुर् क्यों स्त्री से पदाष न ीिं
करता।'

'अब माँु न खुलवाओ मीनू! इस छोकरी को जगाकर क दो- जाकर घर में


सोये। इतने आदमी आ-जा र े ैं और य तनलषज्जा टााँग िैलाये पड़ी ैंय़ य ााँ
नीिंद कैसे आ गयी?'

'रात ककतनी गमी थी बाईजी। ठिं ड़क पाकर बेचारी की आाँखें लग गयी ैं। '

'रात-भर य ीिं र ी ैं , कुछ-कुछ बदती ैं।'

मीनू यव
ु ती के पास जाकर उसका ाथ पकड़कर ह लाती ैं - य ााँ क्यों सो र ी ो
दे वीजी, इतना हदन चढ़ आया, उठकर घर जाओ।

युवती आाँखें खोल दे ती ैं- ओ ो, इतना हदन चढ़ आया? क्या मैं सो गयी थी?
मेरे मसर में चक्कर आ जाया करता ैं। मैने समझा शायद वा से कुछ लाभ
ो। य ााँ आयी; पर ऐसा चक्कर आया कक मैं इस बेंच पर बैठ गयी, किर मझ
ु े
ोश न र ा। अब भी मैं खड़ी न ीिं ो सकती। मालूम ोता ैं , मैं धगर पड़ूाँगी।
ब ु त दवा की; पर कोई फ़ायदा न ी ोता। आप ड क्टर श्याम नाथ को आप
जानती ोगी, व मेरे सुसर ैं।

युवती ने आश्चयष से क ा- 'अच्छा! य तो अभी इिर ी से गये ैं।'

'सच! लेककन मझ
ु े प चान कैसे सकते ैं? अभी मेरा गौना न ी ु आ ैं।'

'तो क्या आप उसके लड़के बसिंतलाल की िमषपतनी ैं ?'

युवती ने शमष से मसर झुकाकर स्वीकार ककया। मीनू ने ाँसकर क ा- 'बसन्तलाल


तो अभी इिर से गये ै ? मेरा उनसे युतनवमसषटी का पररचय ैं।'

'अच्छा! लेककन मझ
ु े उन् ोंने दे खा क ााँ ैं?'
'तो मै दौड़कर ड क्टर को खबर दे दाँ ।ू '

'जी न ीिं, ककसी को न बुलाइए।'

'बसन्तलाल भी व ीिं खड़ा ैं , उसे बुला दाँ ।ू '

'तो चलो, अपने मोटर पर तम्


ु ें तम्
ु ारे घर प ु ाँ चा दाँ ।ू '

'आपकी बड़ी कृपा ोगी।'

'ककस मु ल्ले में ?'

'बेगमगिंज, मम. जयराम के घर?'

'मै आज ी मम. बसन्तलाल से क ू ाँगी।'

'मैं क्या जानती थी कक व इस पाकष में आते ैं।'

'मगर कोई आदमी साथ ले मलया ोता?'

'ककसमलए? कोई जरूरत न थी।'

***

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