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“अप्प दीपो भव:” – ओशो

प्रश्न: भगवान बु द्ध ने कहा है : अपने दीए आप बनो। तो क्या सत्य की खोज में ककसी भी सहारे की कोई जरूरत नही ीं है ?

यह जानने को भी तुम्हें बु द्ध के पास जाना पड़े गा न!-अपने दीए आप बनो। इतनी ही जरूरत है गु रु की। गु रु तु म्हारी
बै साखी नही ीं बनने वाला है । जो बै साखी बन जाए तु म्हारी, वह तु म्हारा दु श्मन है , गु रु नही ीं है । क्ोींकक जो बै साखी बन जाए तु म्हारी,
वह तु म्हें सदा के कलए लींगड़ा कर दे गा। और अगर बै साखी पर तु म कनभभ र रहने लगे , तो तु म अपने पैरोीं को कब खोजोगे ? अपनी
गकत कब खोजोगे ? अपनी ऊजाभ कब खोजोगे ?

जो तुम्हें हाथ पकड़कर चलाने लगे, वह गुरु तुम्हें अींधा रखे गा। जो कहे : मेरा तो दीया जला है ; तुम्हें दीया जलाने की जरूरत
क्ा? दे ख लो मेरी रोशनी में। चले आओ मेरे साथ। उस पर भरोसा मत करना। क्ोींकक आज नही ीं कल रास्ते अलग हो जाएीं गे ।
कब रास्ते अलग हो जाएीं गे , कोई भी नही ीं जानता। कब मौत आकर बीच में दीवाल बन जाएगी। कोई भी नही ीं जानता। तब तु म
एकदम घुप्प अींधेरे में छूट जाओगे । गु रु की रोशनी को अपनी रोशनी मत समझ लेना। ऐसी भू ल अक्सर हो जाती है ।

सू कियोीं की कहानी है कक दो आदमी एक रास्ते पर चल रहे हैं । एक आदमी के हाथ में लालटे न है । और एक आदमी के हाथ में
लालटे न नही ीं है । कुछ घींटोीं तक वे दोनोीं साथ-साथ चलते रहे हैं । आधी रात हो गयी। मगर कजसके हाथ में लालटे न नही ीं है , उसे
इस बात का खयाल भी पैदा नही ीं होता कक मेरे हाथ में लालटे न नही ीं है । जरूरत क्ा है ? दू सरे आदमी के हाथ में लालटे न है ।
और रोशनी पड़ रही है । और कजतना कजसके हाथ में लालटे न है उसको रोशनी कमल रही है , उतनी उसको भी कमल रही है कजसके
हाथ में लालटे न नही ीं है । दोनोीं मजे से गपशप करते चले जाते हैं । किर वह जगह आ गयी, जहाीं लालटे न वाले ने कहा: अब मेरा
रास्ता तु मसे अलग होता है । अलकवदा। किर घुप्प अींधेरा हो गया।

आज नही ीं कल गुरु से कवदा हो जाना पड़े गा। या गु रु कवदा हो जाएगा। सदगुरु वही है , जो कवदा होने के पहले तुम्हारा
दीया जलाने के कलए तुम्हें सचेत करे । इसकलए बु द्ध ने कहा है : अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनो। यह भी कजदीं गीभर कहा,
लेककन नही ीं सु ना लोगोीं ने। कजन्ोींने सु न कलया, उन्ोींने तो अपने दीए जला कलए। लेककन कुछ इसी मस्ती में रहे कक करना क्ा है !
बु द्ध तो हैं । आनींद से कही यह बात उन्ोींने। आनींद भी उन्ीीं नासमझोीं में एक था, जो बु द्ध की रोशनी में चालीस साल तक चलता
रहा। स्वभावतः, चालीस साल तक रोशनी कमलती रहे , तो लोग भूल ही जाएीं गे कक अपने पास रोशनी नही ीं है ; कक हम अींधे हैं ।
चालीस साल तक ककसी जागे का साथ कमलता रहे , तो स्वभावतः भूल हो जाएगी। लोग यह भरोसा ही कर लेंगे कक हम भी पहीं च
ही गए। रोशनी तो सदा रहती है । भू ल-चूक होती नही।ीं भटकते नही।ीं गड्ोीं में कगरते नही।ीं और आनींद बु द्ध के सवाभ कधक कनकट
रहा। चालीस साल छाया की तरह साथ रहा। सु बह-साीं झ, रात-कदन। चालीस साल में एक कदन भी बु द्ध को छोड़कर नही ीं गया।
बु द्ध कभक्षा माीं गने जाएीं , तो आनींद साथ जाएगा। बु द्ध सोएीं , तो आनींद साथ सोएगा। बु द्ध उठें , तो आनींद साथ उठे गा। आनींद
कबलकुल छाया था। भू ल ही गया होगा। उसको हम क्षमा कर सकते हैं । चालीस साल रोशनी ही रोशनी! उठते -बै ठते रोशनी।
जागते -सोते रोशनी। भू ल ही गया होगा। किर बु द्ध का अींकतम कदन आ गया। रास्ते अलग हए। और बु द्ध ने कहा कक अब मेरी
आखखरी घड़ी आ गयी। अब मैं कवदा लूींगा। कभक्षुओ! ककसी को कुछ पूछना हो, तो पूछ लो। बस, आज मैं आखखरी साीं स
लूीं गा।

कजन्ोींने अपने दीए जला कलए थे, वे तो शाीं त अपने दीए जलाए बै ठे रहे परम अनुग्रह से भरे हए-कक न कमलता बु द्ध का साथ, तो
शायद हमें याद भी न आती कक हमारे भीतर दीए के जलने की सीं भावना है , तो भी हमने न जलाया होता। हमें यह भी पता होता
कक सीं भावना है , जल भी सकता है , तो कवकध मालूम नही ीं थी।
आखखर दीया बनाना हो, तो कवकध भी तो होनी चाकहए! बाती बनानी आनी चाकहए। ते ल भरना आना चाकहए। किर दीया ऐसा होना
चाकहए कक ते ल बह न जाए। किर दीए की सम्हाल भी करनी होती है। नही ीं तो कभी बाती ते ल में ही कगर जाएगी और दीया बुझ
जाएगा। वह साज-सम्हाल भी आनी चाकहए; कवकध भी आनी चाकहए। किर चकमक पत्थर भी खोजने चाकहए। किर आग पैदा करने
की कला भी होनी चाकहए।

तो अनुग्रह से भरे थे। कजन्ोने पा कलया था, वे तो शाीं त, चुपचाप बै ठे रहे । गहन आनींद में, गहन अहोभाव में। आनींद दहाड़ मारकर
रोने लगा। उसने कहा: यह आप क्ा कह रहे हैं । यह कहो ही मत। मेरा क्ा होगा? आ गया रास्ता अलग होने का क्षण। आज
उसे पता चला कक ये चालीस साल मैं तो अींधा ही था। यह रोशनी उधार थी। यह रोशनी ककसी और की थी। और यह कवदाई का
क्षण आ गया। और कवदाई का क्षण आज नही ीं कल, दे र-अबे र आएगा ही। तब बु द्ध ने कहा था: आनींद! ककतनी बार मैंने तु झसे
कहा है , अप्प दीपो भव! अपना दीया बन। तू सु नता नही।ीं अब तू समझ। चालीस साल कनरीं तर कहने पर तू ने नही ीं सु ना, इसकलए
रोना पड़ रहा है । दे ख उनको, कजन्ोींने सु ना। वे दीया बने शाीं त अपनी जगह बै ठे हैं । बु द्ध के जाने से एक तरह का सीं वेग है । इस
अपूवभ मनुष्य के साथ इतने कदन रहने का मौका कमला। आज अलग होने का क्षण आया। तो एक तरह की उदासी है । मगर दहाड़
मारकर नही ीं रो रहे हैं । क्ोींकक यह डर नही ीं है कक अींधेरा हो जाएगा। अपना-अपना दीया उन्ोींने जला कलया है ।

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“अप्प दीपो भव:” – ओशो

तुम पूछते हो: ‘भगवान बु द्ध ने कहा, अपने दीए आप बनो, तो क्या सत्य की खोज में ककसी भी सहारे की कोई जरूरत
नही ीं हैं ?’

यह जरा नाजुक सवाल है । नाजुक इसकलए कक एक अथथ में जरूरत है और एक अथथ में जरूरत नही ीं है । इस अथभ में जरूरत
है कक तु म अपने से तो शायद जाग ही न सकोगे ; तु म्हारी नीींद बड़ी गहरी है । कोई तु म्हें जगाए। लेककन इस अथभ में जरूरत नही ीं
है कक ककसी दू सरे के जगाने से ही तु म जाग जाओगे । जब तक तु म ही न जागना चाहो, कोई तु म्हें जगा न सकेगा। और अगर तु म
जागना चाहो, तो कबना ककसी के जगाए भी जाग सकते हो, यह सीं भावना है । कबना गु रु के भी लोग पहीं चे हैं । मगर इसको जड़
कसद्धाीं त मत बना लेना कक कबना गुरु के कोई पहुँ च गया, तो तु म भी पहीं च जाओगे ।

मेरे पास लोग आ जाते हैं । वे कहते हैं : आपसे एक सलाह ले नी है । अगर गु रु न बनाएीं , तो हम पहीं च सकेंगे कक नही?ीं मैं ने कहा
कक तु म इतनी ही बात खुद नही ीं सोच सकते ; इसके कलए भी तु म मेरे पास आए! तुमने गुरु तो बना ही कलया! गुरु का मतलब
क्या होता है ? ककसी और से पूछने गए; यह भी तुम खु द न खोज पाए!

मुझसे लोग आकर पूछते हैं कक आपका गु रु कौन था? हमने तो सु ना कक आपका गु रु नही ीं था! जब आपने कबना गु रु के पा कलया,
तो हम क्ोीं न पा लेंगे? मैं उनसे कहता हीं : मैं कभी ककसी से यह भी पूछने नही ीं गया कक कबना गु रु के कमलेगा कक नही! तु म जब
इतनी छोटी सी बात भी खुद कनणभय नही ीं कर पाते हो, तो उस कवराट सत्य के कनणभ य में तु म कैसे सिल हो पाओगे ?

तो एक अथथ में गुरु की जरूरत है । और एक अथभ में नही ीं है । अगर तु म्हारी अभीप्सा प्रगाढ़ हो, तो कोई जरूरत नही ीं है । लेककन
जरूरत या गै र-जरूरत, इसकी समस्या क्ोीं बनाते हो? कजतना कमल सके ककसी से ले लो। मगर इतना ध्यान रखो कक दू सरे से
कलए हए पर थोड़े कदन काम चल जाएगा। अींततः तो अपनी समृखद्ध खुद ही खोजनी चाकहए। ककसी के कींधे पर सवार होकर थोड़ी
दे र चल लो, अींततः तो अपने पैरोीं का बल कनकमभत करना ही चाकहए। रास्ता सीधा-साि है । प्रबल प्यास हो, तो अकेले भी पहीं च
जाओगे । रास्ता इतना सीधा-साि है कक इस पर ककसी के भी साथ की कोई जरूरत नही ीं है । लेककन अगर अकेले पहीं चने की
कहम्मत न बनती हो, तो थोड़े कदन ककसी का साथ बना ले ना। लेककन साथ को बीं धन मत बना ले ना। किर ऐसा मत कहना कक कबना
साथ के हम जाएीं गे ही नही।ीं नही ीं तो तु म कभी न पहीं चोगे । क्ोींकक सत्य तक तो अींततः अकेले ही पहीं चना होगा। एकाीं त में ही
घटे गी घटना। उस एकाीं त में तु म्हारा गु रु भी तु म्हारे साथ मौजूद नही ीं होगा।

गुरु तुम्हें सींसार में मु क्त होने में सहयोगी हो सकता है । लेककन परमात्मा से कमलने में सहयोगी नही ीं हो सकता। सीं सार से
छु ड़ाने में सहयोगी हो जाएगा। सींसार छूट जाए, तो किर तु म्हें एकाीं त में परमात्मा से कमलना होगा। वह कमलन भीड़-भाड़ में नही ीं
होता।

ककस कदर सीधा सहल साि है यह रास्ता दे खो


न ककसी शाख का साया है , न दीवार की टे क
न ककसी आीं ख की आहट, न ककसी चेहरे का शोर
न कोई दाग जहाीं बै ठ के सु स्ताए कोई
दू र तक कोई नहीीं, कोई नहीीं, कोई नहीीं
चींद कदमोीं के कनशाीं , हाीं , कभी कमलते हैं कहीीं
साथ चलते हैं जो कुछ दू र िकत चींद कदम
और किर टू ट के कगरते हैं यह कहते हए
अपनी तनहाई कलए आप चलो, तन्ा, अकेले
साथ आए जो यहाीं कोई नहीीं, कोई नहीीं
ककस कदर सीधा सहल साि है यह रस्ता दे खो

थोड़ी दू र ककसी के कदम के साथ चल लो, ताकक चलना आ जाए। मींकजल नही ीं आती इससे , कसिभ चलने की कला आती है । थोड़ी
दू र ककसी के पग-कचन्ोीं पर चल लो, ताकक पैरोीं को चलने का अभ्यास हो जाए। इससे मींकजल नही ीं आती; मींकजल तो तु म्हारे ही
चलने से आएगी; ककसी और के चलने से नही।ीं मेरी आीं ख से तु म कैसे दे खोगे ? हाीं , थोड़ी दे र को तु म मेरी आीं ख में झाीं क सकते
हो। तु म मेरे हृदय से कैसे अनुभव करोगे ? हाीं , थोड़ी दे र ककसी गहन भाव की दशा में तु म मेरे हृदय के साथ धड़क सकते हो।
कनकित ही ककसी प्रेम की घटना में थोड़ी दे र को तु म्हारा हृदय और मेरा हृदय एक ही लय में बद्ध हो सकते हैं । उस समय क्षणभर
को तु म्हें रोशनी कदखेगी। उस समय क्षणभर को आकाश खुला कदखायी पड़े गा; सब बादल हट जाएीं गे । लेककन यह थोड़ी ही दे र
को होगा। अींततः तु म्हें अपने हृदय का सरगम खोजना ही है ।

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“अप्प दीपो भव:” – ओशो

अच्छा है कक तु म्हें परमात्मा तक अकेले ही पहीं चने की सीं भावना है । नही ीं तो ककसी पर कनभभ र होना पड़ता। और कनभभ रता से कभी
कोई मुखि नही ीं आती। कनभभ रता तो गु लामी का ही एक अच्छा नाम है । कनभभ रता तो दासता ही है । वह दासता की ही दास्तान है -
नए ढीं ग से कलखी गयी; नए लफ़्ोीं में, नए शब्ोीं में, नए रूप-रीं ग से ; लेककन बात वही है ।

इसकलए कोई सदगुरु तुम्हें गुलाम नही ीं बनाता। और जो गु लाम बना ले, वहाीं से भाग जाना। वहाीं क्षणभर मत रुकना। वहाीं
रुकना खतरनाक है । जो तु म्हें कहे कक मेरे कबना तु म्हारा कुछ भी नही ीं होगा; जो कहे कक मेरे कबना तु म कभी भी नही ीं पहीं च सकोगे ;
जो कहे : मेरे पीछे ही चलते रहना, तो ही परमात्मा कमलेगा, नही ीं तो चूक जाओगे -ऐसा जो कोई कहता हो, उससे बचना। उसे स्वयीं
भी अभी नही ीं कमला है । क्ोींकक यकद उसे स्वयीं कमला होता, तो एक बात उसे साि हो गयी होती कक परमात्मा जब कमलता है ,
एकाीं त में कमलता है ; वहाीं कोई नही ीं होता; कोई दू सरा नही ीं होता। उसे परमात्मा तो कमला ही नही ीं है ; उसने लोगोीं के शोषण करने
का नया ढीं ग, नयी तरकीब ईजाद कर ली है । उसने एक जाल ईजाद कर कलया है , कजसमें दू सरोीं की गरदनें िींस जाएीं गी। ऐसा
आदमी भीड़-भाड़ को अपने पीछे खड़ा करके अहीं कार का रस लेना चाहता है । इस आदमी से सावधान रहना। इस आदमी से
दू र-दू र रहना। इस आदमी के पास मत आना।

जो तुमसे कहे कक मे रे कबना परमात्मा नही ीं कमले गा, वह महान से महान असत्य बोल रहा है । क्ोींकक परमात्मा उतना ही
तु म्हारा है , कजतना उसका। हाीं , यह हो सकता है कक तु म जरा लड़खड़ाते हो। वह कम लड़खड़ाता है । या उसकी लड़खड़ाहट
कमट गयी है और वह तु म्हें चलने का ढीं ग, शैली कसखा सकता है । हाीं , यह हो सकता है कक उसे तै रना आ गया और तु म उसे
दे खकर तै रना सीख ले सकते हो। लेककन उसके कींधोीं का सहारा मत लेना, अन्यथा दू सरा ककनारा कभी न आएगा। उसके कींधोीं
पर कनभभ र मत हो जाना, नही ीं तो वही तु म्हारी बबाभ दी का कारण होगा।

इसी तरह तो यह दे श बरबाद हुआ। यहाीं कमथ्या गुरुओीं ने लोगोीं को गुलाम बना कलया। इस मुल्क को गुलामी की आदत
पड़ गयी। इस मुल्क को कनभभ र रहने की आदत पड़ गयी। यह जो हजार साल इस दे श में गु लामी आयी, इसके पीछे और कोई
कारण नही ीं है । इसके पीछे न तो मुसलमान हैं , न मुगल हैं , न तु कभ हैं , न हण हैं , न अींग्रेज हैं । इसके पीछे तु म्हारे कमथ्या गु रुओीं का
जाल है । कमथ्या गु रुओीं ने तु म्हें सकदयोीं से यह कसखाया है : कनभभ र होना। उन्ोींने इतना कनभभ र होना कसखा कदया कक जब कोई
राजनैकतक रूप से भी तु म्हारी छाती पर सवार हो गया, तु म उसी पर कनभभ र हो गए। तु म जी-हजूर उसी को कहने लगे । तु म उसी
के सामने कसर झुकाकर खड़े हो गए। तु म्हें आजादी का रस ही नही ीं लगा; स्वाद ही नही ीं लगा।

अगर कोई मुझसे पूछे, तो तु म्हारी गु लामी की कहानी के पीछे तुम्हारे गु रुओीं का हाथ है । उन्ोींने तु म्हें मुखि नही ीं कसखायी,
स्वतीं त्रता नही ीं कसखाई। काश! बुद्ध जैसे गु रुओीं की तु मने सु नी होती, तो इस दे श की गु लामी का कोई कारण नही ीं था। काश!
तु मने व्यखित्व सीखा होता, कनजता सीखी होती; काश! तु मने यह सीखा होता कक मुझे मुझी होना है ; मुझे ककसी दू सरे की
प्रकतकलपी नही ीं होना है ; और मुझे अपना दीया खुद बनना है , तो तु म बाहर के जगत में भी पैर जमाकर खड़े होते । यह
अपमानजनक बात न घटती कक चालीस करोड़ का मुल्क मुट्ठीभर लोगोीं का गु लाम हो जाए! कोई भी आ जाए और यह मुल्क
गु लाम हो जाए! जरूर इस मुल्क की आत्मा में गु लामी की गहरी छाप पड़ गयी। ककसने डाली यह छाप? ककसने यह जहर तु म्हारे
खून में घोला? ककसने कवषाि की तु म्हारी आत्मा? ककसने तु म्हें अींधेरे में रहने के कलए कवकधयाीं कसखायीीं? तु म्हारे तथाककथत गु रुओीं
ने। वे गु रु नही ीं थे।

गुरु तो बु द्ध जैसे व्यखक्त ही होते हैं , जो कहते हैं , अप्प दीपो भव!

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