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Satya Sundar Aur Svatantra Vichar - Hindi - P1 - 50
Satya Sundar Aur Svatantra Vichar - Hindi - P1 - 50
Satya Sundar Aur Svatantra Vichar - Hindi - P1 - 50
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कापीराइट(©) और प्रकािक
अखिल भूमण्डलीि सिवविरोमवि मुवनसमाज (पंजी॰),
मुनीश्वर मठ अलहिािपुरा, गोरिपुर(उ॰ प्र॰) – 273001
Website: www.shivmunisamaj.com
Email: shivmunisamaj@gmail.com
Ph.: 0551-2105156
*
निा संस्करि
मुवन संित 84
सन 2019
*
मूल्य – Rs. 60.00
*
विषि – सूची
अध्याि विषि पेज्
प्रकाशकीय
अध्याय १ सत्य और स्वतंत्र ज्ञान
अध्याय २ नास्तिक कौन है ?
अध्याय ३ स्वतंत्र बुस्ति की मवहमा
अध्याय ४ स्वतन्त्र विचार का महत्व
अध्याय ५ मुस्ति वनजात, सैलिेशन और स्वतंत्रता
अध्याय ६ क्या ईश्वर के मानने िाले अविक है ?
अध्याय ७ ईश्वर के भितं की मुस्ति
अध्याय ८ हत्यारा मजहब और उसकी पैशावचकता
अध्याय ९ लतग ईश्वर कत क्यतं मानने लगे ?
अध्याय १० पूर्ण सुखी हतने के वलए िन की आिश्यकता नहीं है
अध्याय ११ मुवन समाज
अध्याय १२ क्या ईश्वर कत मानना अच्छा है ?
अध्याय १३ संसार का केंद्र और आत्म तत्व
अध्याय १४ मरने के बाद क्या हतता है
अध्याय १५ आत्मा का महत्व और उससे हमारा सम्बन्ध
अध्याय १६ यतग क्या है ?
अध्याय १७ पुिक के गु लाम
अध्याय १८ वसि यतग या राजयतग
अध्याय १९ ज्ञान यतग
प्रकािकीि
मनुष्य सच्चाई, सौंदयण , स्वतंत्रता, ईश्वर और िन कत बहुत वदनतं
से बाहर खतजता आ रहा है । यह उसकी बहुत बडी भूल है जत उसे न
वमलने पर अशास्ति के घर में डालता जा रहा है । इस अशास्ति के गहर
में पडा मानि कराह रहा है विर भी उसकी भ्रष्ट बुस्ति उन्मुख हतने कत
तैयार नहीं है । सच्चाई कत न्यायालय में , सौन्दयण कत बाह्य जगत में ,
स्वतंत्रता कत राजनीवतक माहौल में , ईश्वर कत मंवदर-मस्तिद आवद स्थानतं
में और िन कत विषाि उद्यतग िंितं तथा िैस्तरियतं में ढू ूँ ढ़ रहा है वकिु
सच ये है वक उपयुणि सारी चीजें एक ही जगह है , उस गु प्त जगह से
मानि अज्ञान िश वबछु ड गया है । जहाूँ , “स्व” है िहीं उसका तंत्र है जहाूँ
सत् है िहीं सच्चाई है , जहाूँ पहुूँ च जाने के बाद सारी आसस्तियाूँ नष्ट हत
जाये , िही सौन्दयण है , वजसकी सेिा में सारी प्रकृवत लगी हुई है िही ईश्वर
है , और वजसके वबना वनिन (मृत्यु) हत जाये िही िन है । यवद स्वतन्त्रा
बाहर है और बाहर उपलब्ध है तत सारे भारतीयतं की मानवसकता तथा
आवथणकता दू सरतं के अिीन इतना ज्यादा क्यतं है ? यवद भी बाहर है और
िन से ही सारे सु ख - शां वत वमलती है तत अमेररका जैसे िन सम्राट दे श
के लगभग ३० से ३५ प्रवतशत लतग प्रवतरावत्र नींद की दिा खाकर क्यतं
सतते है ? और जब कतई भारतीय दाशणवनक का विचार िहाूँ जाता है तत
िे लतग पानी के समान उन विचारतं के प्रवत रुपये कत बहाकर परम शास्ति
का अनुभि क्यतं करते है ? ये सारी बातें यह वसि करती हैं वक िे लतग
अभी तक जत पाये गडबड पाये , वमथ्या पाये और व्यथण पाये।
प्रिुत पु िक “सत्य सुन्दर और स्वतन्त्र विचार” राजनीवतक
मजहबी, आवथणक और सामावजक दु वनया कत झकझतरती हुई मनुष्य कत
िािविकता और सच्चाई की ओर ले जाने में ,डूबते कत वतनके का सहारा
नहीं बस्ति मरते कत, अशाि कत अमर सुिा पीला कर अमर कर दे ने में
पूर्ण सक्षम है ।
इसवलए इस पु िक के पु नसं स्करर् का प्रकाशकीय वलखते समय
मुझे अपार हषण हत रहा है वक अब पाठकतं का शुष्क कण्ठ इस “सत्य
सुन्दर और स्वतन्त्र विचार" नामक ज्ञान पीयूष से राहत पाये गा।
अ० भू० स० मुवनसमाज (जी०) गतरखपुर मुवनराज प्रमतद कुमार समदशी
अध्याि १
सत्य और स्वतंत्र ज्ञान
कुछ अत्यंत काल्पवनक वनराकार ईश्वर के गुलाम हैं । बे चारा मनुष्य स्वतन्त्र
नहीं हत पाता। चतुर और हतवशयार पुरूष ईश्वर बवहश्त और दे िताओं की
एक काल्पवनक टट्टी बनाकर उसमें अपने अनुयावययतं कत िूँसाकर गुलाम
बनाये हुए हैं । यवद कभी कतई इनका भेद खतलने कत आगे बढ़ा तत आरम्भ
में ही इन ढतवगयतं द्वारा कुचल वदया जाता है । हजारतं मनुष्य भुखतं मर रहे
हैं , पर यह खुदा के बन्दे मतवतयतं का चूना अपने पान में डालते, हीरतं का
भस्म खाते और मनतं दु ि और गु लाबजल से नहा डालते हैं । वकसी के
खाने के वलए घी नहीं वमलता, पर ये ईश्वर के सेिक हजारतं मन घी अवि
में डाल कर जला डालते हैं । कहते हैं इससे हिा शुि हतती है , पानी
बरसता है । जलने से जत काबणन डाइआक्साइड गै स वनकलती है उससे
न हिा शुि हतती न पानी बरसता है । वजस दे श में हिन नहीं हतता, उस
यूरतप, अमेररका और जापानावद दे शतं में पानी अविक बरसता है , हिा भी शु ि
है और लतग बीमार भी कम पडते हैं ।
चले आते हैं । जैसे रं वडयां ४०-५० गाना याद करके िही सबके महविल
में अिसर समय और रूवच दे ख कर गाती-विरती हैं , उसी तरह से ये
िेतनभतगी व्याख्यानदाता भी १०-२० व्याख्यान रटे रहते हैं । वकसी
व्याख्यानदाता ने जरा भी स्वतंत्रता से काम वलया वक मारा गया।
व्याख्यानदाता हत तत बस उतना ही और िही कहत, वजतना श्रततागर्
जानते हैं , जत श्रतताओं का मत है या वजसकी सभा में बतल रहे हत। यवद
िही और उतना ही सुनना है विर आप अपना समय क्यतं व्यथण कर रहे
हैं ? उतना और िह तत आप स्वयं जानते हैं । अपनी प्रजा कत, अपने घर
िालतं कत, अपने वमत्रतं कत, अपने पुरतवहततं कत, अपने पस्तिततं और
व्याख्यानदाताओं कत स्वतन्त्र कर दीवजए। स्वयं भी सच्चे ज्ञान कत जानने
के वलए वनष्पक्ष हतकर स्वतन्त्र हत जाइए। जत दू सरतं कत बाूँ िेगा िह स्वयं
भी बूँिा रहे गा।
है तत स्वतंत्रता की।
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अध्याय- २
नास्तिक कौन है
नास्तिक कौन है
स्तस्पररट Spirit है । स्तस्पररट Spirit कत सं स्कृत में “आत्मा कहते हैं । अतः
इस गू ढ़ अस्ति या “है : का अथण है “आत्मा। अब यवद’ साि-साि
आस्तिक और नास्तिक का लक्षर् वनष्पक्ष भाि से सत्य-सत्य वकया जाय
तत यह हतगा वक अपनी आत्मा कत अजर. अमर, अनावद अविनाशी. सत्य
और स्वतन्त्र मानना आस्तिकता है और इसी तरह से अपनी आत्मा कत
परतंत्र, परिश, गु लाम, असंत्य और नाशमान् मानना नास्तिकता है ।
वजतना ऊपर कहा गया है , उससे अभी सबकत पूर्ण सितष नहीं हत
सकता है । है से तात्पयण आत्मा से क्यतं है ? है ’ और ‘अस्ति यह शब्द
अपने आप और अपनी आत्मा (True-Self) की ओर क्यतं ले जाता है ?
वजसमें है है या वजसमें अस्तित्व है , िही आत्मा क्यतं है ? इसका कारर्
है । अकारर् ही अस्तित्व से मतलब आत्मा से नहीं है
हम हैं मैं हूँ या िह सामने खडा है । है हूँ और है कत
अनुभि करने िाली, कहने िाली और जानने िाली आत्मा ही है । जहाूँ
आत्मा नहीं है , वजसमें जीिन (Life) नहीं है जत जीि (Spirit) नहीं है , िह
कदावप यह नहीं कह सकता वक मैं हूँ , तुम हत और िह है । इस है ’ कत
अनुभि (Feel) करने िाली आत्मा है । वकसी जड ििु कत इस बात का
ज्ञान नहीं है वक ‘हम हैं हमारी इस कलम कत दािात कत, कागज कत और
इस मेज-कुसी कत ज्ञान नहीं है वक िे हैं या उनका अस्तित्व है । जड
ििुओं का अस्तित्व भी हमारे ही भीतर है । कलम नहीं जानती वक िह
है वकिु यह हमारी आत्मा है जत इस बात कत जानती है वक हमारे हाथ
में कलम है । इस कागज के भीतर है नहीं है । कागज स्वयं नहीं जानता
वक िह ‘है अतः कागज के भीतर अस्तित्व (है ि) नहीं है । केिल सजीि
प्रार्ी इस बात कत जानता (या Feel करता) है वक िह है । सजीि प्रावर्यतं
में भी यह भी नहीं कहा जा सकता है वक इस है कत कहने िाला, जानने
िाला और अनुभि करने िाला उस प्रार्ी का शरीर है । शरीर तत मरने के
बाद भी रह जाता है , पर, मृ तक और जड शरीर कभी नहीं कह सकता वक
िह है । है , है और हैं का रहने िाली आत्मा थी, जत इस मृतक शरीर
में अब नहीं है अतः यह वसि है वक यह है या ‘अस्ति’ आत्मा के साथ है ।
इस जीित्व और अस्तित्व में कतई भेद नहीं है । आत्मा में ही ‘अस्ति’ है और
यह अस्ति (है ) आत्मा के साथ है ; जड में ‘अस्ति’ नहीं हतती। अतः है
अस्ति ‘अस्तित्व Existence और “आत्मा यह चारतं नाम एक ही ििु और
सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार
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बन्धन में नहीं रह सकता, यह सत्य तत्व एक परम स्वतंत्र तत्व है । सत्य
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आप’ के अथण में ही संस्कृत का आत्मा शब्द है ; जैसे, आत्मपू जा, आत्मगौरि
और आत्मसम्मान। आत्म शासन, आत्म तन्त्र, स्वतंत्र और स्वराज ये सब
शब्द एक ही अथण के बतिक हैं । अतः यह वसि है वक अत्यि और सिणथा
स्वतंत्र यवद कतई तत्व है तत िह आत्म तत्व है । आत्मा ही सत्य, वशि,
सुन्दर और परम स्वतंत्र है । अतः स्वयं आत्मरूप हतता हुआ, जत अत्यस्ति
स्वतंत्र बुस्ति से “हम पूिोि
करता है िह नास्तिक है और जत लतग इस आत्म तत्व कत जडतत्वतं या
मैटसण (Matters) से उत्पन्न हुआ एक नाशिान पदाथण मानते हैं और मरने
के बाद आत्म तत्व का नाश समझते हैं , िह नास्तिक है । संसार में जब
वकसी ििु का नाश नहीं हतता तत वकसी आत्मा का नाश कैसे हतगा?
िािि में नास्तिक िह है , जत आत्मा कत नाशम् समझता है । मजहबी
और साम्प्रदावयक लतग जत एक दू सरे कत नास्तिक समझते हैं , िह व्यथण है ।
वकसी मजहब का न मानने िाला एक ला मजहब भी नास्तिक नहीं है ।
वकसी सम्प्रदाय, मजहब या मत का पक्षपात न करने िाला परम स्वतन्त्र
और वनष्पक्ष पु रुष, जत सत्य तत्व का प्रेमी है िह नास्तिक है ; चाहे िह ईश्वर
कत मानता है या नहीं। नास्तिक का लक्षर् हतने पर कह वदया है वक
ईश्वर कत न मानने िाला नास्तिक नहीं है ; ईश्वर खुदा या गाड संसार का
एक काल्पवनक पदाथण है । यह जाल सािारर् लतगतं कत िंसाने और
भयभीत रखने के वलए रचा गया है , जैसे छतटे लडकतं के वलए हौिा। चाहे
वमट्टी का बनािा पत्थर का बनािा या ख्याल के भीतर साकार अथिा
वनराकार की कल्पना कर लें चाहे जत करें चाहे उसे एक कहें या अनेक
कहें , सब कल्पना ही है । ईश्वर के बडे -बडे भि भी यही कहते हैं वक
अपनी ही श्रिा, अपनी ही भस्ति और अपनी ही विश्वास िलता है । िाििं
में सब मनतरथतं कत पूर्ण करने िाली अपना ही भीतरी आत्मा है । आत्मा में
अपार शस्ति है ; िह अजर अमर और अविनाशी है । इसी सत्य तत्व कत
नहीं बतल रहे हैं , हमारे या वकसी के कान अपने भीतर की बतली जत मन
में हतती है नहीं सुन रहे हैं पर भीतर हमारी आत्मा कह रही है मै , हूँ और
अिश्य हूँ । आश्चयण यह है वक हम इसे वबना कानतं के सुन रहे हैं हम इसे
वबना वजहा और मुूँह कत वहलाये बतल रहे हैं हम वबना आूँ खतं के भी इस
मैं हूँ के कहने िाले कत प्रत्यक्ष कर रहे हैं और वबना कुछ छु ए इस मैं
हूँ के कहने िाले अपने आप कत चारत तरि से अपने आप में ही छू रहे
हैं िह भी वबना मुूँह और वजह के हमसे कह रहा है -हम हैं या मैं हूँ ।
आश्चयण है ! अत्यि आश्चयण है ! हम उसकी िीमी से िीमी बतली कत
जत वबना हतठतं कत वहलाये और वबना वजहा, दाूँ त और कंठ के बतले गये
हैं , साि सुन रहे हैं । िह घण्टतं हमारे साथ गूढ़ से गू ढ़ प्रश्न पर विचार
करता है व्याख्या दे ता है , और समझता है , पर आश्चयण यह है वक वबना
हतठतं कत वहलाये वबना दां त, वजह्वा और कण्ठा की सहायता के। हम बारह
है ; िह भीतर है । काम से लौटकर संसार के झंझटतं से मु डकर जब हम
एकाि मे बैठतें हैं और वबना पैरतं के भीतर जाते हैं तत वबना इन दतनतं हाथतं
J के उसे पा ले ते हैं और वबना आूँ खतं के दे ख लेते हैं बस उसे अपने वनराकार
हृदय से लगाकर आनन्द में मि हत जाते हैं । िेदतं मे वजस अवनिणचनीय
तत्व कत तमाम इस्तियतं से परे माना गया है , िह ईश्वर नहीं, यही आत्मा
है -यही अपने आप है । यह रूपिान या साकार नहीं है , पर तमाम साकार
संसार का अस्तित्व इसी के भीतर इसी के कारर् और इसी में है । िह
बाहर है , िही भीतर है । हम स्वयं बाहर से मुडकर, वसवमट कर विचार
के झरतखे से अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा कत दे खते हैं ; हम दतनतं एक
हैं । अपने से अपने कत दे खने मे आूँ खतं की आिश्यकता ही क्या है ? अपने
से अपने कत अपने पास आने में पै रतं की भी जरूरत नहीं है । अपने से
अपने कत अपने में दे खने के वलए आूँ खतं की आिश्यकता तत वबिुल नहीं
है । हम स्वयं प्रकाश हैं , हम स्वयं वसि है , हमारा अपना आप या आत्मा
वनज ज्ञान स्वरूप है । यवद आप इसी आत्मा कत ईश्वर कहते हैं तत कह
लीवजए इसमें कतई हावन नहीं है । पर, हम यह दे खते हैं वक यवद आत्मा
कत इस लेख में भी हम ईश्वर नाम दे दें गे तत विर बहुत से लतग भ्रम
पड जायेंगे। हमने अपनी बनाई हुई। तमाम पुिकतं में ऐसा ही वकया
है आत्मा का ईश्वर नाम प्रसंग पडने पर दे वदया है और यतं ही रहने वदया
है पर कुछ लतग उससे यह समझने लगे हैं वक शायद हम भी ईश्वर गाड
नास्तिक कौन है
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या खदा का अलग व्यस्तित्व मानते हैं । पर यह गलत है । हमने ऊपर वसि
कर वदया है वक जत यह कह रहा है वक “मैं हूँ िािि में उसी का
अस्तित्व है ; दू सरे का नहीं “अस्ति “अस्तस्म “हूँ ” और “अस्तित्व सब एक
ही बात है , इसे भी हम वसि कर चुके हैं । इस “मैं हूँ शब्द कत एक
जीिात्मा और शरीरिारी प्रार्ी ही कहता है ; वनराकार शब्द कत वनविणकार
वनगुणर् और काल्पवनक ईश्वर नहीं। हमने इसी ले ख में ऊपर कह वदया है
वक अस्तित्व कत अंग्रेजी में (Existence) कहते हैं । Existence का अथण Life
(जीिन) जीि या प्रार् शरीरिारी प्रार्ीयतं मे ही माना जाता है । ईश्वर कतई
शरीरिारी प्रार्ी नहीं हैं , अतः उसका अस्तित्व भी नहीं है । अस्तित्व शब्द
ही शरीरिारी जीि वलए है , Life या जीिन जीि के वलए है और
जीिात्मा के वलए है वबना शरीर िाला कतई प्रार्ी या जीि अब तक नहीं
दे खा गया। शरीरिारी प्रार्ी कत ही दे खकर लतग कहते हैं वक “िह है
वजसका अनुमतदन दू सरे भी करते हैं वक हाूँ “िह है अतः ऐसतं का अस्तित्व
अिश्य है । िह है या “मैं हूँ इसका यह मतलब नहीं है वक यह तभी
ठीक है जब वहन्दी में इसी तरह से कहा जाय कभी नहीं। कतई यवद
अंग्रेजी मे कह रहा है I Am he is यह भी ठीक है । इतना ही नहीं एक
गूँगे कत हम पकार रहे हैं वक तू कहाूँ है , िह आता है और केिल ऊं ऊं
करता है इसका मतलब भी यही है वक “मैं हूँ । एक बीमार मनुष्य चारपाई
पर पडा हुआ है , बतल नहीं सकता, उठ नहीं सकता, पर पास जाने पर हाथ
से
इशारा करता है , इस इशारे का भी यही मतलब है वक “मैं हूँ और यह
दे खकर सभी यह कहते हैं वक “यह है । एक आदमी ऊूँचे से वगरकर
बेहतश हत जाता है । लतग उसे दे खते हैं , उसकी नाडी चल रही है , नाक
अस्तित्व जड-सं सार के भीतर नहीं आत्मा के भीतर है । जैसे सतने िाले
के उठ बैठने पर स्वप्न-सृवष्ट नहीं रह सकती उसी तरह से यवद संसार
में आत्मा न हतती तत इस जड- संसार का कहीं पता भी न लगता।
विर भी आप कहते है वक संसार सत्य हैं ; उसका अस्तित्व है । हम
पूछते हैं वक आप इसका वनर्णय कैसे कर रहे हैं ; वकस है वसयतनी से कर
रहे हैं ? या तत आप न्यायिीश बवनए या साक्षी (गिाह) के रूप में गिाह
की है वसयत से कवहये। पर प्रश्न यह है वक मुद्दई सु ि गिाह चुि नहीं
हत सकता। वबना िादी के या िादी रूप संसार के यह कहे वक “हमारा
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नास्तिक कौन है
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अध्याय ३
गया।
सब लतग आगे बढ़ गए, पर इस दे श के लतग बैठे पीछे दे ख रहे है ।
संसार में जब कतई आविष्कार हतता है तत कहते हैं वक यह तत िेदतं में
वलखा है । पर यही बात पहले से नहीं सतती। तरूतार कत ले कर कहते
हैं वक िेदतं में तार के खम्भे मौजूद हैं । पर इस अथण के करने िाले कत यह
नहीं सूझी वक थतडे ही वदनतं बाद वबना तारतं के भी तार भेजे जायेंगे। वबना
िेदतं के प्रमार् के यह लतग एक इं च आगे नहीं बढ़ना चाहते। िेदतं में सब
कुछ है िेद ईश्वरीय ज्ञान है यही कह कहकर मुूँह िुलाए बै ठे रहते हैं ।
िेद के ज्ञान कत स्वयं ईश्वर ने श्रृवषयतं के हृदय में प्रकट वकया है । हम
पूछते हैं वक अब जत अच्छे अच्छे ज्ञान विद्वानतं के हृदय में उत्पन्न हत रहे
हैं , उन्ें कौन उत्पन्न कर रहा है ? इसमें कौन-सी युस्ति और कौन सी
प्रमार् है वक आजकल के वििानतं के ह्रदय में जत ज्ञान उत्पन्न हत रही
िह ईश्वर नहीं है ? एक पिा भी वजसके वबना वहाये नहीं, वहलता,
एक तक भी जत वक वबना ईश्वर की इच्छा के टल नहीं सकता, तत क्याूँ
आजकल के इन बडे -बडे आविष्कारतं के ज्ञान कत मनुष्य-हृदय में उत्पन्न
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के ज्ञान कत भी उसने वकसी के हृदय में नहीं उत्पन्न वकया था। यवद अब
भी सबके हृदय में ज्ञान का प्रकाश िही करता है तत आजकल की बहुत-सी
उपयतगी और ज्ञान-विज्ञान की पु िकें िे दतं के समान नहीं उससे भी बढ़ कर
हत सकती हैं । अब इस बात कत कतई नहीं मान सकता वक आवद में या पुराने
जमाने में ईश्वर यहाूँ गली-गली घूमता था, उपदे श दे ता था; झगडा करता
आशीिाण द और श्राप दे ता था, और परदे के भीतर बै ठकर अरबी जबान
में अपनी आज्ञाओं कत सुनाया करता था, पर अब िह कुछ नहीं करता अंब
नहीं करता तत तब भी कुछ नहीं कहता था। अब यवद नतरद और िररश्ते नहीं,
वदखलाई दे ते तत तब भी िह नहीं थे . यह सब ढतंग है ।
कतई पु िक ईश्वर की बनाई हुई नहीं हैं । उसके वनयम और कानून
पुिकतं के भीतर नहीं हैं । उसके वनयम और कानून इस विश्वव्रह्माड के
प्रत्येक कायण में ितणमान हैं । उसने अपने ज्ञान कत वकसी भाषा द्वारा नहीं प्रकट
वकया है वकिु सारी सृवष्ट वबना वकसी भाषा के सच्चे ज्ञान का चुपचाप
उपदे श कर रही है । वनयम ही ईश्वर है और इन वनयमतं का वनयिा और
उत्पादक आत्मा है । यही आत्मा ब्रह्म है (अयमात्मा ब्रह्म), यही सत्य और
यथाथण है । पर आप इस बात कत इसवलए नहीं मानेंगे वक इसे पुराने लतगतं
ने नहीं वलखा है ; इसे वकसी ऐसे ऋवष और मुवन ने नहीं कहा है वजसे मरे
हुए हजार िषण : बीत गए हतं। ितणमान मनुष्य की बुस्ति सिणदा पीछे की ओर
दे खती और आगे बढ़ने से रुक जाती है । सच्ची बात तत यह है वक मनुष्य
बीपी बढ़ने के वलए है पीछे दे खने के वलए नहीं “ इसवलए यह आूँ ख पीछे
नहीं आगे हैं । िह मनुष्य आगे नहीं बढ़ सकता, अपनी बुस्ति से विचारकर
अपनी आूँ खतं से दे खते हुए अपने पै रतं से नहीं चलना चाहता
भ लतग प्रायः हड पू छा करते हैं वक तुम वकसके अनुयायी हत।
अनुयायी कहते हैं , पीछे चलने िाले कत मनुष्य की बुस्ति में आगे चलना पाप
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आिश्यकता नहीं है ।
िह मनुष्य िन्य है , वजसकी बुस्ति वकसी बाबाजी के हाथ वबकी नहीं
है । संसार में ऐसे ही लतग अविक हैं जत अपनी बुस्ति कत वकसी सम्प्रदाय
मत या मजहब में बाूँ ि चुके है । ऐसी बुस्ति साम्प्रदावयक चक्रतं मजहबी
दायरतं से वनकल कर आगे नहीं बढ़ सकती। सच्ची बात तत यह है वक
हमारी उन्नवत कत साम्प्रदावयक खंडहरतं और पुराने विचारतं की भद्दी दीिारतं
ने इस तौर पर रतक रक्खा है वक इसके बाहर जाकर स्वतन्त्रता का स्वच्छ
िायु लेना कवठन हत गया है । बडी कवठनाई है । हमारी बुस्ति बढ़ना चाहती
है , पर पुराने विचारतं की खाई उसे आगे बढ़ने से रतक दे ती है इस खाई
कत वकसी मजहब के नेता या पैगम्बर ने नहीं बनाया है ; इसे हमने स्वयं
बना रक्खा है । हम चाहें तत पां च वमनट में इसके पार जा सकते हैं ।
हैं । जैसे अत्यि उज्जिल प्रकाश कत दे खकर आूँ खें चकमका जाती हैं ,
उसी तरह कुछ मनु ष्य अत्यि उच्च ज्ञान से घबडाकर भाग जाते हैं और
ऊपर उठने की वहम्मत ही नहीं करते। उच्च ज्ञान की पवित्रता, महानता
और चमक छतटे हृदय कत अपने पास नहीं आने दे ती। मनुष्य अपने से
अपने कत दीन, हीन और परािीन मानकर अिनवत के गडहे में पडा हुआ
है । अपनी आत्मा की अद् भुत शस्ति कत अपनी स्वतन्त्र बुस्ति से काम में
लाना नहीं चाहता।
स्वािलम्बन और स्वतन्त्र विचार सारी उन्नवतयतं का मूल मन्त्र है ।
आत्मावभमान और आत्म पूजा िेदाि में बडा महत्व रखता है । हाूँ , वकसी कत
तुच्छ समझना आत्मावभमान नहीं हैं । मनु ष्य जड नहीं. चे तन है । चेतन िही
है , वजसमें बुस्ति या विचार की शस्ति है । मनुष्य की बडाई, छतटाई,
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चाहते। उसके आगे सतचना पाप समझ मजहबी लतग अपने ने ताओं
के िाक्यतं पर तकण नहींचकरना चाहते पढ़ते भी िही हैं वजसे उनके
मजहबी आचायण ने कहा है । इसवलए साम्प्रदावयकता लतगतं की बुस्ति कत
िलने , िूलने , िैलने और बढ़ने का अिसर नहीं वमला दू सरे की
सत्य बाततं कत भी इसवलए नहीं मानते वक उनके मजहबी आचायों ने उसे
मानने की आज्ञा नहीं दी है । साम्प्रदावयक मनुष्यतं की बुस्ति कानतं आचायों
के हाथ वबक जाती है । ऐसी बुस्ति कभी उन्नवत नहीं कर सकती গ
u वजस इस्तिय से काम नहीं वलया जाता, िह इस्तिय सिणथा बे कार
और कमजतर हत जाती है ठीक इसी तरह से लतग अपनी बुस्ति से काम
न लेकर अपनी बुस्ति कत कमजतर बना रहे हैं ।
जब कभी आप वकसी पुिक कत पढ़ें तत उसके वसिाितं की केिल
इसवलए सत्य ना समझे वक उसे आपके मजहबी आचायों ने नहीं माना
हैं । वकिु उस पर अपनी स्वतंत्र बुस्ति से पक्षपात रवहत हतकर विचार
करें गे अच्छी बुस्ति पु राने ही जमाने के लतगतं के पास थी यह गलत है ।
सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
आपकी बुस्ति व्यास और िवशष्ठ से भी आगे बढ़ सकती है पर आश्चयण यह
है वक आप स्वयं उसे आगे बढ़ने से रतकते हैं । आप पहले ही मान बैठते हैं
वक हमारी बुस्ति इन ऋवषयतं की बुस्ति से आगे नहीं बढ़ सकती यही
बन्धन है ; यही विचार उन्नवत का बािक है । सच्ची बात यह है वक आप ऋवष
ही नहीं, साक्षात् ब्राह्मर् हैं । पर आप स्वयं बडा बनना नहीं चाहते। आप बडा
बनने से डर जाते हैं । जत अपने कत छतटा मानता है , जत बडा बनने से डरता
है जत अपने कत हर तरह से अयतग्य मानता है और जत स्वयं अपनी उन्नवत
नहीं चाहता उसकी उन्नवत वकसी के मान की नहीं है । आप ईश्वर हैं .
आपकी बुस्ति वकसी से कम नहीं है । अपनी स्वतंत्रता बुस्ति से विचार कीवजए
तत सचमुच-विज्ञान का स्तिरं दा सामने से हट जाएगा और ज्ञान की ज्यतवत
चमक उठे गी। आप खूब जानते हैं वक मु सलमानतं कत अपने कुरान का दतष
कभी दृवष्टगतचर नहीं हतता यवद मुसलमान स्वतंत्र बुस्ति से काम लेते तत
बहुत अच्छा हतता। पर आप यही बात िेदतं और पुरार्तं कत पढ़ते िि भूल
जाते हैं । आप भी स्वतन्त्र और वनष्पक्ष बुस्ति से काम नहीं लेते। एक ईसाई
बाइवबल कत पढ़कर उसके दतषतं कत नहीं जान सकता, क्यतंवक उसकी बु स्ति
पक्षपात से वघरी हुई है । एक ईसाई समझता है वक इजील ईश्वरकृत है अतः
िह वनदोष है । और आयण।और मुसलमान इस वनदोष नहीं मानते और उसकी
बुस्ति पर तरस खाते हैं । पर साथ ही अपने पर तरस नहीं खाते, जब स्वयं
िेदतं और कुरान कत ईश्वरकृत मानते हैं । एक आयण यह सतचता है वक वकतनत
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अध्याय ४
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मनुष्य थे , उसी तरह से उनके वशष्यतं कत अपने समय में हतना चावहए।
वक हमारे िेद ही ईश्वर कहते हैं . आप कैसे मानने लगे ? नहीं इस स्वतन्त्र
बुस्ति पर भरतसा कगे इसका आश्रय मत छतडत- तुम भी हठी और दु राग्रही
मत बनत। तुम्हारी वजस स्वतन्त्र बुस्ति ने , तुम्हारे वजस स्वतन्त्र विचार ने ,
तुम्हें (तुम्हारे मतानुसार) आयणसमाज ऐसे ऊूँचे मत पर पहुूँ चाया है , उस
बुस्ति या विचार कत यवद अब भी स्वतन्त्र रखतगे तत इससे तुम्हारा भला ही
हतगा और सम्भि है वक तुम इससे भी अच्छे सम्प्रदाय या मजहब में प्रिेश
कर सकत। यही बात मुसलमान ईसाई तथा और मजहब िालतं के वलए भी
है । तुम्हारे स्वतन्त्र विचार ने ही तुम्हें िेद तक पहुूँ चा वदया। अतः अब उसे
ही त्याग दे ना यतग्य नहीं है । िेद यवद सचमुच ईश्वर कृत है तत आपका
स्वतन्त्र विचार आप से आप उसे न छतड सकेगा; क्यतंवक आस्तखर उसी ने
तत िेदतं कत चुना है । ईसाई इं जील कत मु सलमान कुरान कत ईश्वरकृत
मानते हैं । तुम उनसे कहते हत वक जरा स्वतन्त्र विचार से काम लत तत तुम्हें
मालूम हत जायगा वक ये इलहामी नहीं हैं अच्छा तत यही बात तुम अपने
क्यतं नहीं मानते? तुम भी स्वतन्त्र विचार से काम लत तत शायद उससे भी
अच्छी वसिाि, अच्छे ग्रन् और अच्छी मौत का पता लगा सकत। तुम
कहते हत वक अमुक सम्प्रदाय का मनुष्य स्वतन्त्र विचार से इसवलए काम
जावत उन्नवत करती है तत क्या स्वतन्त्र विचार िाला उन्नवत न करे गा?
स्वतन्त्र विचार िाला उखडे हुए पतंग के समान नहीं हतता-स्वतन्त्र दे श
स्वतंत्र जावत और स्वतंत्रता पु रुष इिर उिर मारा-मारा नहीं विरता। िह
वजस तरह विरने या घूमने में स्वतंत्र है उसी तरह एक जगह बैठने में
भी स्वतंत्र है । स्वतन्त्र विचार िाला सबसे अविक शाि, स्तस्थर, गम्भीर
और प्रसन्न रहता है ।
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कारर् यह
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वकताब मनुष्य, मनु ष्य के मन और मनु ष्य की आत्मा कत बां िने िाली हैं , िह
मुस्ति नहीं दे सकतीं। बन्धन में मुस्ति कहां ? परतन्त्रता में स्वतन्त्रता
कहां ? परािीनता में स्वािीनता कहां ? अतः मनुष्य कत मुि करने िाला
मजहब नहीं है , मजहबी वकताबें नहीं है और मनुष्य की स्वािीनता कत
छीनकर उसे गुलाम बनाने िाला ईश्वर भी नहीं है । मनुष्य कत मुि करने
िाली उसकी स्वतन्त्र आत्मा है , उसके स्वतन्त्र विचार हैं और उसका
स्वािलम्बन, आत्मावभमान और आत्म पू जा है । मुस्ति दे ने िाली मजहबी
आज्ञाएूँ नहीं है वकिु स्वतन्त्र विचार ही एक ऐसी ििु है जत मनुष्य
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कतणव्य के अथण में नहीं कहा गया है , यहाूँ िमण से मतलब मतमतािर,
सम्प्रदाय और मजहब से है । िािि में ईश्वर ने कभी नहीं कहा वक हमारे
शासन के भीतर रहत और मजहबी वकताबतं और पुरतहततं की आज्ञाओं के
विरुि न चलत। ईश्वर का शासन कल्पना और भािना मात्र है ; यह केिल
िमणभीरु मनुष्यतं का भ्रम है । अतः जत भ्रम मात्र है , उसे दू र करने के वलए
सेना और शस्त्रास्त्र की आिश्यकता नहीं है , आिश्यकता है तत केिल
स्वतन्त्र विचार िािविक और सत्य ज्ञान की। िेद का भी िचन है -ऋते,
ज्ञानान्न मुस्ति’ अथाण त वबना ज्ञान कत मुस्ति नहीं हत सकती।
कल्पना और भ्रम मात्र के बंिन कत ततडने के वलए सच्चा ज्ञान या
स्वतन्त्र विचार पयाण प्त है । अतः मुस्ति कत दे ने िाला ईश्वर या मजहब नहीं,
वकिु यही स्वतन्त्र विचार है वजसकी मवहमा अभी तक आपकतं मालूम
नहीं है । सच्चा ज्ञान हर प्रकार के बन्धन और पदे कत हटा दे ता है । सबसे
बडा अन्धकार अज्ञान है , ठीक इसी प्रकार से सबसे बडा प्रकाश ज्ञान है
अज्ञान ही सबसे बडा बन्धन है और ज्ञान ही सबसे बडी मुस्ति है ।
ईसा मसीह ने कहा है -”ऐ हमार बाप जत आसमान पर है तेरी
बादशाहत आिे ’। सतवचए तत सही, वकसी दू सरे की बादशाहत, वकसी दू सरे
का राज-”स्वराज नहीं कहला सकता चाहे िह अपने बाप ही का क्यतं न
हत। इवतहास खतल करके दे स्तखये , इस बात कत सचमुच लतगतं ने अनु भि
वकया है । यवद ऐसा न हतता तत औरं गजेब कभी अपने तमाम भाइयतं कत
मार कर अपने सगे बाप कत जेल में न डाल दे ता। एक औरं गजेब ही ऐसा
था, यह बात नहीं है , राज्य के लतभ से विभीषर् ने अपने तमाम कुल का
नाश करने िाला और सुग्रीि ने अपने भाई बावल कत मरिा डाला। वकतनी
रावनयतं ने अपने पवत कत विष दे वदया है । एक-दत नहीं, इवतहास ऐसी
घटनाओं से भरा हुआ है । ईश्वर की बादशाहत के भीतर भी रहने िाला
स्वतन्त्र नहीं कहला सकता। शासन अच्छा बुरा तत हतता ही है । पर, अच्छे
से अच्छा शासन भी बंिन है -िह मुस्ति नहीं कहला सकता। दू सरतं के
अच्छे से अच्छे शास्त्र में रहने िाला भी स्वािीनता स्वतंत्रता और मुस्ति
का रं च मात्र भी अनु भि नहीं कर सकता।
सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार
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मुस्ति, नजात, सैलिे शन और स्वतंत्रता
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सकते। मुस्ति हाथ जतडने और भीख मां गने से नहीं वमलती। मुस्ति के
वलए ईश्वर की प्राथणना भी व्यथण है । अजावमल आवद के मुि हतने की कथा
एक झूठी कहानी है मजहबी लतगतं ने अपने -अपने उपास्य दे ितं की प्रशंसा
में अनेक ऐसी ही झूठी कहानी रची ली है उपासना करने िाला या वकसी
का सेिक और गुलाम मुि स्वतन्त्र और स्वािीन नहीं कहला सकता।
मुस्ति चाहने िाले स्वतन्त्र विचार के मनु ष्यतं कत मजहब, मजहबी गुरु और
मजहबी वकताबतं कत मृगतृष्णा की नदी समझकर छतड दे ना चावहए।
वजतनी झूठी बातें मजहबी वकताबतं में हैं , उतनी दू सरी जगह न वमल
सकती हैं और न पच सकती हैं ।
आज शवनिार की सन्ध्या है , कल रवििार है , स्कूल के लडकतं कत
आज वकतनी खुशी है । सरकारी नौकर भी प्रसन्न हैं , क्यतं? इसवलए वक कल
रवििार है , आज इस िि से कल तक स्वतंत्रता रहें गे। यह खुशी स्वतन्त्रता
की है । सरकारी नौकरी करते हैं तत तनख्वाह पाते हैं । पढ़ते हैं तत विद्या
सीखते हैं । पर मावलक के सामने नौकर जब तक रहता है अपने कत स्वतन्त्र
नहीं समझता। बालक जब तक गु रु और वशक्षक के वनकट रहता है , अपने
कत बंिा हुआ समझता 1 अतः यवद हम सािारर् गुरु के सामने और
उसकी विद्यमानता से सां साररक वपता और सािारर् मावलक के सामने या
उसकी विद्यमानता, में मुस्ति, स्वािीनता और स्वतंत्रता का अनुभि नहीं कर
सकते तत उस परम वपता, जगद् गुरु और सबसे बडे मावलक के सामने या
उसकी विद्यमानता में मुस्ति स्वािीनता और स्वतंत्रता का अनुभि करना
कवठन ही नहीं असम्भि है । बस मजहबी लतग जत ईश्वर के व्यस्तित्व का
अस्तित्व अपने से अलग स्वीकार करते और मानते हैं , िह कभी मुि नहीं
हत सकते। सूयण का पू िण से पवश्चम कत उदय हतना शायद सम्भि भी हत पर
ऐसे लतगतं की मुस्ति कदावप नहीं हत सकती।
मुस्ति का स्वरूप जत आयण समाज मानता है , िह मुस्ति, मुि ही
नहीं है ; िह तत एक प्रकार का बं िन है । आयण समाज की मुस्ति सािवि हैं ।
पररवमत है -साि है -वमयादी है । तात्पयण यह है वक आयणसमाज के
विचारानुसार मुि पु रुष एक कल्प के बाद विर लौट आते हैं । एक कल्प
के बाद विर लौट आने का वनयम हतने से उसकी सीमा हत गई; अिवि हत
गई और मीयाद हत गई।
हमारे इस तरि यवद कहा जाय वक अमुक मनुष्य मीयाद काटकर
आ गया तत इसके माने यह समझा जाता है वक िह जेल से वनयत अिवि
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मुस्ति, वनजात, सैलिेशन और स्वतंत्रता
काटकर आ गया। बात यह है वक मीयाद या अिवि बन्धन या जेल ही की
हुआ करती है ; मुस्ति की नहीं। एक सां साररक हावकम जब वकसी अपराि में
वकसी कत जेल भेजता है तत उसकी अिवि भी सुना दे ता है ; जैसे-६ मास या
साल भर। पर यही अपरािी कारागार से जब छूटता है तत यह नहीं कहा जाता
वक
तुम इतने वदनतं के वलए छतडे गए हत। मीयाद या अिवि जेल की हतती है ;
मुस्ति की नहीं। मुस्ति के साथ अिवि का कतई बं िन नहीं हत सकता। यही
यवद विर अपराि करे गा तत विर जेल में डाल वदया जाएगा और अबकी बार
एक िषण की जगह दत िषण की मीयाद हत सकती है , पर दत िषों के बाद वनयत
दि भतग लेने पर विर िह मुि हतगा। छूटते िि मुस्ति के समय कतई
हावकम यह नहीं कह सकता वक तुम केिल इतने वदनतं के वलए छतडे गए हत।
मुस्ति की अिवि नहीं हत सकती। कहीं लाखतं में एक, वकसी-वकसी दे श में .
कभी-कभी राजनीवतक कैवदयतं के वलए. ऐसा भी हुआ है वक अपराि कत वकसी
कारर्िश बीच में छतड वदया गया है और एकाि महीना बीत जाने पर और
उपस्तस्थत कारर् के न रहने पर विर जेल में लौट आने के वलए कहा गया है ।
पर जेल की अिवि के भीतर ही छतडने पर ऐसा हतना कभी-कभी वकसी-वकसी
दे श में सम्भि है । इस दृष्टाि से इस वसिाि में कतई भेद नहीं पडता वक
मुस्ति की कतई अिवि नहीं हतती, अिवि, जेल, कारागार,और बन्धन की हतती
है । राजनीवतक कैदी जत बीच में एकाि महीने के वलए घर आने पाते हैं , िह
िािि में मुि हतकर नहीं आते, वकिु वकसी कारर्िश घर के लतगतं कत दे ख
लेने के वलये उन्ें कुछ अिकाश दे वदया जाता है ।
इस वनयम का कतई अपिाद नहीं है । यवद अपिाद हत भी तत
अपिाद सािारर् वनयम का बािक नहीं, सािक ही समझा जाता है । विर
आयण-समाज का यह वनयम तत है नहीं वक केिल इने-वगने की मुस्ति
सािवि और मीयादी हतती है ; वकिु आयण समाज का वसिाि तत यह है वक
मुस्ति असीम, अनि वनरिवि और बेवमयाद की हतती ही नहीं। अतः यह
सिणथा असत्य
| सच्ची बात यहां है वक मुस्ति
अिवि हत ही नहीं
सकती; अिवि तत कारागार. जेल और बन्धन की हतती है । अिवि सीमा
और मीयाद स्वयं एक प्रकार के बन्धन हैं । यवद वकसी हावकम की आज्ञा
से मतहन के घूमने का प्रदे श गतरखपुर वजले तक ही सीवमत है और पाूँ च
बजे संध्या के बाद घर में से िह नहीं वनकल सकता तत यह भी एक प्रकार
का जेल है ; यह भी एक प्रकार का बन्धन है । एक मनुष्य कत चारतं तरि
से वकसी ििु द्वारा घेर वदया गया या उसकी गवत सीवमत कर दी गई
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