Satya Sundar Aur Svatantra Vichar - Hindi - P1 - 50

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र


विचार
****
रचविता
आवि मुनीश्वर िोगेश्वर श्री वििमुनी जी महाराज

*
कापीराइट(©) और प्रकािक
अखिल भूमण्डलीि सिवविरोमवि मुवनसमाज (पंजी॰),
मुनीश्वर मठ अलहिािपुरा, गोरिपुर(उ॰ प्र॰) – 273001
Website: www.shivmunisamaj.com
Email: shivmunisamaj@gmail.com
Ph.: 0551-2105156

*
निा संस्करि
मुवन संित 84
सन 2019

*
मूल्य – Rs. 60.00

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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*
विषि – सूची
अध्याि विषि पेज्
प्रकाशकीय
अध्याय १ सत्य और स्वतंत्र ज्ञान
अध्याय २ नास्तिक कौन है ?
अध्याय ३ स्वतंत्र बुस्ति की मवहमा
अध्याय ४ स्वतन्त्र विचार का महत्व
अध्याय ५ मुस्ति वनजात, सैलिेशन और स्वतंत्रता
अध्याय ६ क्या ईश्वर के मानने िाले अविक है ?
अध्याय ७ ईश्वर के भितं की मुस्ति
अध्याय ८ हत्यारा मजहब और उसकी पैशावचकता
अध्याय ९ लतग ईश्वर कत क्यतं मानने लगे ?
अध्याय १० पूर्ण सुखी हतने के वलए िन की आिश्यकता नहीं है
अध्याय ११ मुवन समाज
अध्याय १२ क्या ईश्वर कत मानना अच्छा है ?
अध्याय १३ संसार का केंद्र और आत्म तत्व
अध्याय १४ मरने के बाद क्या हतता है
अध्याय १५ आत्मा का महत्व और उससे हमारा सम्बन्ध
अध्याय १६ यतग क्या है ?
अध्याय १७ पुिक के गु लाम
अध्याय १८ वसि यतग या राजयतग
अध्याय १९ ज्ञान यतग

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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प्रकािकीि
मनुष्य सच्चाई, सौंदयण , स्वतंत्रता, ईश्वर और िन कत बहुत वदनतं
से बाहर खतजता आ रहा है । यह उसकी बहुत बडी भूल है जत उसे न
वमलने पर अशास्ति के घर में डालता जा रहा है । इस अशास्ति के गहर
में पडा मानि कराह रहा है विर भी उसकी भ्रष्ट बुस्ति उन्मुख हतने कत
तैयार नहीं है । सच्चाई कत न्यायालय में , सौन्दयण कत बाह्य जगत में ,
स्वतंत्रता कत राजनीवतक माहौल में , ईश्वर कत मंवदर-मस्तिद आवद स्थानतं
में और िन कत विषाि उद्यतग िंितं तथा िैस्तरियतं में ढू ूँ ढ़ रहा है वकिु
सच ये है वक उपयुणि सारी चीजें एक ही जगह है , उस गु प्त जगह से
मानि अज्ञान िश वबछु ड गया है । जहाूँ , “स्व” है िहीं उसका तंत्र है जहाूँ
सत् है िहीं सच्चाई है , जहाूँ पहुूँ च जाने के बाद सारी आसस्तियाूँ नष्ट हत
जाये , िही सौन्दयण है , वजसकी सेिा में सारी प्रकृवत लगी हुई है िही ईश्वर
है , और वजसके वबना वनिन (मृत्यु) हत जाये िही िन है । यवद स्वतन्त्रा
बाहर है और बाहर उपलब्ध है तत सारे भारतीयतं की मानवसकता तथा
आवथणकता दू सरतं के अिीन इतना ज्यादा क्यतं है ? यवद भी बाहर है और
िन से ही सारे सु ख - शां वत वमलती है तत अमेररका जैसे िन सम्राट दे श
के लगभग ३० से ३५ प्रवतशत लतग प्रवतरावत्र नींद की दिा खाकर क्यतं
सतते है ? और जब कतई भारतीय दाशणवनक का विचार िहाूँ जाता है तत
िे लतग पानी के समान उन विचारतं के प्रवत रुपये कत बहाकर परम शास्ति
का अनुभि क्यतं करते है ? ये सारी बातें यह वसि करती हैं वक िे लतग
अभी तक जत पाये गडबड पाये , वमथ्या पाये और व्यथण पाये।
प्रिुत पु िक “सत्य सुन्दर और स्वतन्त्र विचार” राजनीवतक
मजहबी, आवथणक और सामावजक दु वनया कत झकझतरती हुई मनुष्य कत
िािविकता और सच्चाई की ओर ले जाने में ,डूबते कत वतनके का सहारा
नहीं बस्ति मरते कत, अशाि कत अमर सुिा पीला कर अमर कर दे ने में
पूर्ण सक्षम है ।
इसवलए इस पु िक के पु नसं स्करर् का प्रकाशकीय वलखते समय
मुझे अपार हषण हत रहा है वक अब पाठकतं का शुष्क कण्ठ इस “सत्य
सुन्दर और स्वतन्त्र विचार" नामक ज्ञान पीयूष से राहत पाये गा।
अ० भू० स० मुवनसमाज (जी०) गतरखपुर मुवनराज प्रमतद कुमार समदशी

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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१५ निम्बर २००१ मुवनसंित् ६६


संपादक ‘ज्ञान शस्ति'

अध्याि १
सत्य और स्वतंत्र ज्ञान

सच्चे ज्ञान की उन्नवत अिश्य हत रही है , पर बहुत ही िीरे -िीरे । सच्चे


ज्ञान की उन्नवत के बािक है -मजहब, सम्प्रदाय, मत और मागण । मजहबी और
साम्प्रदावयक विचार सत्य कत प्रकाश में नहीं आने दे ते, मजहबी और
साम्प्रदावयक
नेताओं और शासकतं ने स्वतन्त्र विचार के अंकुरतं कत चुन - चु न कर उखाड
डाला है । सत्य कहने िाले स्वतन्त्र विचार के लतग पु राने मजहबी, साम्प्रदावयक
और राजनीवतक दलतं और उनके ने ताओं द्वारा बराबर मारे गये हैं । पादरी,
पैगम्बर और पुजाररयतं ने जनता की बुस्ति पर ताला लगा रक्खा है ।
बडी कवठिा यह है वक यह लतग सभी अपने िावमणक ग्रन्तं कत ईश्वर
का बनाया हुआ कहकर उसे मन, बुस्ति और तकण से परे रखना चाहते हैं । वजन
पुिकतं के कारर् बराबर एक मत के लतग दू सरे मत िालतं के साथ लडते रहे ,
वजस पुिक के कारर् असंख्य मनुष्य बवल के बकरे के समान काट डाले
गये - जत पु िकें तकण, विचार, विज्ञान और बुस्ति के सामने एक वमनट भी नहीं
ठहर सकतीं, िही ईश्वर की बनाई हुई मानी गई।
कहा जाता है हमारे इन ग्रन्तं पर तकण न करत यह स्वतः प्रमार् है ,
इन पर अकल की दखल नहीं हत सकती, इन पर तकण करने िाले नरक में

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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जायेंगे। इन्ीं मूखणतापूर्ण विचारतं तथा अंिविश्वासतं द्वारा इन ग्रन्तं की रक्षा


हत रही है , नही तत सच्ची बात यह है वक इन वकताबतं में कुछ नहीं है । आज
कल के सािारर् दाशणवनक ले खक इन वकताबतं से कहीं अच्छी वकताब वलख
सकते हैं । कहते हैं वक कुरान के समान दू सरी वकताब कहाूँ है ? वकसी भी
वकताब के समान दू सरी वकताब कहाूँ है ? वकसी भी मनुष्य के सिणथा समान
दू सरा मनुष्य कहाूँ हैं ? मजहबी पु िकतं के समान व्यथण पु िक दू सरी
कौन हैं ?
परतन्त्रता और बन्धन सभी दु ःखदायी हैं , पर सबसे अविक दु ःखदायी
मस्तिष्क और अिःकरर् की परतन्त्रता और बन्धन है । कुछ मनुष्य
काल्पवनक भूततं के गुलाम हैं , कुछ काल्पवनक दे िताओं के गुलाम हैं और

सत्य और स्वतन्त्र ज्ञान

कुछ अत्यंत काल्पवनक वनराकार ईश्वर के गुलाम हैं । बे चारा मनुष्य स्वतन्त्र
नहीं हत पाता। चतुर और हतवशयार पुरूष ईश्वर बवहश्त और दे िताओं की
एक काल्पवनक टट्टी बनाकर उसमें अपने अनुयावययतं कत िूँसाकर गुलाम
बनाये हुए हैं । यवद कभी कतई इनका भेद खतलने कत आगे बढ़ा तत आरम्भ
में ही इन ढतवगयतं द्वारा कुचल वदया जाता है । हजारतं मनुष्य भुखतं मर रहे
हैं , पर यह खुदा के बन्दे मतवतयतं का चूना अपने पान में डालते, हीरतं का
भस्म खाते और मनतं दु ि और गु लाबजल से नहा डालते हैं । वकसी के
खाने के वलए घी नहीं वमलता, पर ये ईश्वर के सेिक हजारतं मन घी अवि
में डाल कर जला डालते हैं । कहते हैं इससे हिा शुि हतती है , पानी
बरसता है । जलने से जत काबणन डाइआक्साइड गै स वनकलती है उससे
न हिा शुि हतती न पानी बरसता है । वजस दे श में हिन नहीं हतता, उस
यूरतप, अमेररका और जापानावद दे शतं में पानी अविक बरसता है , हिा भी शु ि
है और लतग बीमार भी कम पडते हैं ।

पुिकतं द्वारा सच्चे ज्ञान का हतना बहुत कवठन है । सच्चे ज्ञान का


बहुत ही न्यून अं श अभी तक पुिकतं में आ सका है । प्रत्येक अनुभिी
विद्वान और सुलेखक से यह बात वछपी हुई नहीं हैं वक वजतना िह जानता

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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है , उससे बहुत कम िह िचन द्वारा व्यि कर सकता है और वजतना िह


िचन द्वारा व्यि कर सकता है उससे भी बहुत कम वलख सकता है ।
वजतना मनुष्य वलखता है , उसमें से वकतनी पुिक ऐसी हतती हैं वक छप
नहीं सकतीं। छपी हुई पु िकतं में से बहुत कम पु िकें प्रचवलत हतती हैं ।
प्रचवलत पुिकतं में से अविकां श, जत इन मजहबी और साम्प्रदावयक विचारतं
के विरूि हतती हैं , नष्ट कर दी जाती है । बची-खुची पु िकतं के अन्दर
भी प्राचीन काल के मजहबी और साम्प्रदावयक लतग बराबर काूँ ट-छाूँ ट
और मेल जतल करते रहे । स्वतन्त्र विचार के अविकतर लतग इन मजहबी
और साम्प्रदावयक लतगतं के डर से अपना विचार वलवपबि करने का साहस
ही नहीं करते थे । आज भी स्वतन्त्र विचार की पुिकतं का वलखा जाना
कवठन है । वलखने पर भी छपना कवठन है और छप जाने पर ऐसी पुिकतं
का वबकना तत बहुत ही कवठन है । अतः अब भी "सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र
विचार" पर ग्रन् वलखना एक तरह से असम्भि ही है । अतः सच्चे और
स्वतन्त्र ज्ञान का ग्रन्तं में आना बहुत कवठन है ।
आजकल पु िक वलखी नहीं जाती है वलखिाई जाती है । प्रकाशक

सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार

वजस मजहब, िमण मत या सम्प्रदाय का हतता है उस मत और उस विचार


की पुिक वलखिाना चाहता है । प्रकाशकतं का दू सरा लक्ष है रूपया पैदा
करना। तुलसीकृत रामायर्, सत्याथण प्रकाश, इं जील, कुरान और सु ख सागर
की यवद अविक वबक्री है तत प्रकाशक इनमें से कुछ पु िकतं का विरतिी हतता
हुआ भी उन्ें द्रव्यतपाजणन के वलए अिश्य छपािेगा। ले खक अपने मन से ,
अपनी रूवच और अपने विचार के अनुसार नहीं वलख पाते। यवद िह अपने
स्वतन्त्र विचारतं का उपयतग करें और अपनी रूवच के अनुसार वलखें तत उसे
छपािे कौन?

रूपये िाले मनुष्य और पु िक-प्रकाशक-गर् अविकतर बु द्िू हतते


हैं । अतः इनका चुनाि भी िैसा ही हतता है और इन्ीं के पसन्द वकये विषय
की पुिकें छपती रहती हैं । बेचारा सच्चा और स्वतन्त्र ज्ञान पडा रह जाता
है । अभी हमारे पाठकतं की भी रूवच ऐसी ही है । कतई पु िक पढ़ रहे
हैं -कहीं उन्ें कतई ऐसा िाक्य वमला जत उनके मत के वबरूि है , बस
पुिक पटक दें गे। हम अपने पाठकतं से पूछते है वक क्या आप कतई बात

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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नहीं जानना चाहते? क्या आप वकसी दू सरे का विचार सुनना और पढ़ना


नहीं चाहते हैं ? क्या आप िही और उतना ही सुनना और पढ़ना चाहते
हैं , जत आपका मत है -िह तत आप जानते ही हैं , उसी कत पढ़ने और जानने
की आिश्यकता ही क्या है ? मनुष्य पु िक पढ़ता है कुछ निीन बात
जानने के वलए, कुछ नये विचार कत दे खने के वलए, कुछ सच्चे और स्वतन्त्र
वसिां ततं कत िारर् करने के वलए।
लेखक की बात मानने या न मानने का सबकत अविकार है । पर वजस
तरह से आप ले खक की बात मानने या न मानने के वलए स्वतन्त्र हैं उसी
तरह से ले खक भी अपने विचार वलखने के वलए स्वतन्त्र है । आप भी स्वतन्त्र
रवहए और अपने दे श के लेखकतं और विद्वानतं कत भी स्वतन्त्र कर दीवजए,
विर दे स्तखए कैसा आनन्द आता है । सु ख और ज्ञान दतनतं स्वतन्त्रता के साथ
रहते हैं । स्वतंत्रता का ही दू सरा नाम मुस्ति है ।
जत दशा लेखकतं की है , िही व्याख्यानदाताओं की हैं । व्याख्यान भी
वदया नहीं जाता है , वदलिाया जाता है । प्रत्येक मत, सम्प्रदाय और
मजहब के िेतन भतगी (वकराये के) व्याख्यानदाता वनयुि रहते हैं । िही
उनके जलसतं, सभाओं और उत्सितं में जाते हैं और उनके वनयत तथा चुने
हुए विषयतं पर उन्ी के मत के अन्दर दत-तीन वदन तक व्याख्यान दे कर

सत्य और स्वतन्त्र ज्ञान

चले आते हैं । जैसे रं वडयां ४०-५० गाना याद करके िही सबके महविल
में अिसर समय और रूवच दे ख कर गाती-विरती हैं , उसी तरह से ये
िेतनभतगी व्याख्यानदाता भी १०-२० व्याख्यान रटे रहते हैं । वकसी
व्याख्यानदाता ने जरा भी स्वतंत्रता से काम वलया वक मारा गया।
व्याख्यानदाता हत तत बस उतना ही और िही कहत, वजतना श्रततागर्
जानते हैं , जत श्रतताओं का मत है या वजसकी सभा में बतल रहे हत। यवद
िही और उतना ही सुनना है विर आप अपना समय क्यतं व्यथण कर रहे
हैं ? उतना और िह तत आप स्वयं जानते हैं । अपनी प्रजा कत, अपने घर
िालतं कत, अपने वमत्रतं कत, अपने पुरतवहततं कत, अपने पस्तिततं और
व्याख्यानदाताओं कत स्वतन्त्र कर दीवजए। स्वयं भी सच्चे ज्ञान कत जानने
के वलए वनष्पक्ष हतकर स्वतन्त्र हत जाइए। जत दू सरतं कत बाूँ िेगा िह स्वयं
भी बूँिा रहे गा।

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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एक मनुष्य एक बैल कत रस्सी से बाूँ िे वलए जा रहा था, एक दू सरे


यात्री ने पू छा वक "इस बैल कत तुम बां िे हत या बैल ने तुम्हें बां िा है "?
उस मनुष्य ने कहा "क्या तुम नहीं दे खते वक बैल कत हम बाूँ िे हैं , बैल हमें
नहीं बाूँ िे हैं "। यात्री ने कहा- “इसका क्या प्रमार् है वक तुम बै ल कत
बाूँ िे हत और बैल तुम्हें नहीं बाूँ िे हैं ?" उसने कहा- "बैल के बन्धन का
प्रमार् यह है वक बैल हमें छतडकर भाग नहीं सकता।" यात्री ने पछा
‘क्या तुम बैल कत छतडकर भाग सकते हत? उसने कहा “नही। यात्री
ने
के साथ बूँिा रहना पडे गा। उसने कहा- “हमने इस पर विचार नहीं वकया
कहा यवद तुम भी बै ल कत छतडकर भाग नहीं सकते हत तत क्या यह
सत्य नहीं है वक जब तक तुम बैल कत बाूँ िे रहतगे तब तक तुम्हें भी बैल
था, िािि में तुम्हारी बात सत्य है । जत दू सरतं कत बन्धन में रखता है
जत दू सरतं कत बाूँ िे हुए हैं िह स्वयं भी कदावप स्वतन्त्र नहीं है । अतः यवद
आप स्वतन्त्र, सुखी, बन्धनरवहत और जीिन्मुि हतना चाहते हैं तत सबसे
पहले इन्े स्वतन्त्र कर दीवजए, जत आपके अविकार में हैं आपके बंिन में
है , आपके िश में है और वजन्ें आप वकसी न वकसी रूप से बाूँ िे हुए हैं । उस
समय संसार वकतना सुखमय हतगा जब सं सार के सब लतग स्वतन्त्रतापूिणक
रह सकेंगे । वकसी के मुूँह पर ताला नहीं लगा रहे गा और कतई खुशामद के
वलए वििश नहीं हतगा सुखी हतने के वलए िन और अविकार की
आिश्यकता नहीं है । सुखी हतने के वलए यवद वकसी ििु की आिश्यकता

सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार

है तत स्वतंत्रता की।

स्वतन्त्र दे श, स्वतन्त्र जावत और स्वतंत्रता मस्तिष्क में सच्चा ज्ञान


उत्पन्न हतता है । जैसे मरूभूवम में गेहूँ का उत्पन्न हतना कवठन है उसी
तरह से मतमतािर और मजहबी पक्षपात से वघरे हुए मस्तिष्क में सच्चे
ज्ञान का उत्पन्न हतना कवठन है । मजहबी और साम्प्रदावयक लतग इसी
हाय-हाय में रहते हैं वक यह ले ख, यह विचार या यह ज्ञान तत हमारे
पवित्र ग्रन्तं के विरूि है । अरे ! यह ले खक तत नावसक है । मु सलमानतं
की दृवष्ट में तमाम वहन्दू और आयण नास्तिक हैं । वहन्दु ओं की दृवष्ट में तमाम
मुसलमान नास्तिक और िमण है । ईसाइयतं की दृवष्ट में जत ईश्वर के पु त्र

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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ईसा कत नहीं मानते, िह सब नास्तिक हैं । हम ईसाईयतं से पू छते हैं वक


यवद ईसा ही ईश्वर का पुत्र है तत और लतगतं कत वकसने उत्पन्न वकया?
यवद ईश्वर केिल ईसा का ही बाप है और ईसा अपने बाप कत मानता था
तत हम भी अपने बाप कत माने क्यतं ईसा के बाप कत माने ? यवद ईसा का
बाप ईश्वर था तत हमारा भी बाप ईश्वर है । जत केिल ईसा ही का बाप है ,
सारे संसार का बाप और उत्पादक नहीं है , िह ईश्वर कैसे है ? पर कौन
कहे ; मजहबी दु वनया आज भी वनराली है । सब एक-दू सरे कत नास्तिक
कहते हैं । िािि में ये सब स्वयं नास्तिक हैं । वजन मजहबी लतगतं कत
चारतं तरि नास्तिक ही नास्तिक वदखाई दे ते हैं , िह नास्तिक हैं । वजन
लतगतं ने अपने अन्धविश्वास की रक्षा के वलए ईश्वर की लगाई हुई
पुष्पिावटका कत उजाडकर िीरान कर वदया-वजन लतगतं ने इस
पुष्प-िावटका के सु न्दर िूलतं और उसके पौितं कत ततडकर और उखाडकर
मसल डाला-वजन लतगतं ने ईश्वर के बनाए हुए इन सजीि और सुन्दर
स्तखलौनतं कत ितड डाला-िे नास्तिक नहीं तत और क्या हैं ? हम वकसी
मजहबी विशेष का नाम लेना नहीं चाहते। इवतहास खतलकर दे स्तखए और
/ितणमान समय के झगडतं पर विचार कीवजए ईश्वर और मजहब के नाम पर
ईश्वर के बन्दतं ने कैसा तहलका मचा रक्खा है । ईश्वर के से िक ही ईश्वर
के वप्रय पु त्रतं की गदण न काट रहे हैं ।
हमारे खुदा की दाढ़ी सतने की है एक आदमी का ऐसा ही विचार
अब िह चाहता है वक सब लतग जबरदिी हमारे मत, हमारे विचार और
हमारे मजहब कत मानें , जत न माने उसकी गदण न काट लत। हमारे ईश्वर
के चार हाथ हैं , िह समुद्र में सतता है , हमारा ईश्वर आसमान पर रहता
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सत्य और स्वतन्त्र ज्ञान
है और उसके तख्त कत िररश्ते उठाए हुए हैं और हमारा ईश्वर वबलकुल
वनराकार और शू न्य हमारे मत कत मानत, हमारे विचारतं कत मानत, हमारे
मजहब कत मानत, जबरदिी मानतं, जैसे हत तैसे मानत, मानना पडे गा जत
लतग हमारे मजहब कत नहीं मानते िह नालायक हैं , अज्ञानी हैं और मू खण
हैं । हमारे ईश्वर कत मानतं, नहीं तत नरक जाओगे। बहुत खत चु के अबसे
भी राम-राम कृष्ण-कृष्ण और खुदा-खुदा कहत। एक बार राम कहने से
अजावमल ऐसा पापी तर गया अतः सब काम छतड कर िेद-िे दाि कत
छतडकर यतग और ब्रह्म ज्ञान कत छतडकर, विज्ञान और साइं स कत छतडकर
रात-वदन राम-राम कहत-बस, यही मजहब है , मत-मतािर िाले इसी
कत िमण कहते हैं । क्या यही िमण है ? क्या कतई विचारिान इसे स्वीकार

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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करे गा? यवद एक बार राम कहने से अजावमल-ऐसा पापी तर गया तत सब


काम छतडकर हजारतं बार राम-राम कहने की आिश्यकता ही क्या है ?
वदन भर पाप करत, संध्या समय एक बार राम कह दत, सब साि हत
जायगा। राम के से िक, खुदा के बन्दे इसी समय के कारर् संसार में
सबसे पीछे पड गए विर भी बात समझ में नहीं आई वक हम लतगतं ने कहाूँ
भूल की। राम-राम ! तुम तत नास्तिकतं की बात कह रहे हत। साक्षात्
भगिान ने कहा है वक सब छतडकर केिल हमें भजा करत। ठीक है , मुददई
की बात इसवलए सावबत है वक मुद्दई खुद कह रहा है । आपका दािा
बहुत सच है , इसवलए वक आप स्वयं कह रहे हैं । खुदा और बवहश्त दतनतं
सच है इसवलए खुदा ने खुद इस पैगाम कत रसूल के मािणत दु वनयाूँ में
भेजा है । क्या बात है ! आप बहुत अच्छे हैं । इसवलए वक आप खुद कह
रहें है वक हम अच्छे हैं । कैसी अच्छी दलील है -कैसी अच्छी युस्ति
है -क्या अच्छा प्रमार् है भगिान बडे भि ित्सल हैं -ईश्वर बडे
न्यायकारी है इसवलए की भगिान ने स्वयं इसे गीता में कहा है , इसवलए
वक ईश्वर ने स्वयं इस बात कत िेदतं में कहा है भितं और िमण ध्ववजयतं की
इन बाततं कत िही समझे दू सरा कतई विद्वान तत इसे नहीं समझ सकता।
इसी प्रमार् और इसी युस्ति पर लतग चाहते हैं वक सारा संसार उन्ीं के
मत कत माने -न माने तत मार डाला जाय। यवद मारने की शस्ति न हत ता
अपने कानतं कत ही बन्द कर लत। स्वतन्त्र-विचार की पु ि कत-ज्ञान
और विज्ञान की पु िकतं कत िाड कर िेंक दत और हत सके तत उसे जला
भी डालत। मजहबी लतगतं का यही विचार है । ईश्वर के भितं ने बराबर
सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार

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यही वकया है । स्वतन्त्र मनुष्यतं के स्वतन्त्र विचारतं कत यह सु नना ही नहीं


चाहते। यवद आपका मत ठीक है -यवद आपका मजहब सत्य के आिार पर
है -तत आप तकण से इतना भागते क्यतं है ? स्वतन्त्र विचारतं कत भी पवढ़ए,
मानना न मानना आपका काम है । सां चे कत आं च क्या?

वकसी मनुष्य की स्वतंत्रता का अपहरर् िािि में राजा नहीं कर


सकता। शासन द्वारा मनुष्य परतन्त्र नही बनाया जा सकता यवद िह स्वयं
परतन्त्र न हतना चाहे । मनुष्य मनतमय हतता है िह सिणथा िैसा ही है ,

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
P a g e | 11

जैसा उसका विचार मन और अिः करर् है । अिः करर्, विचार और मन


कत कतई शस्ति परतन्त्र नही बना सकती, यवद िह स्वयं परतन्त्र न बनना
चाहे । सु ख मुस्ति और स्वािीनता की कुञ्जी दू सरतं के पास नहीं अपने
पास है । यवद आप सचमुच स्वतन्त्र हतना चाहते हैं तत आज ही से स्वतन्त्र
हैं । मनुष्य एक मनतमय पदाथण है । यवद इसके मन, विचार बुस्ति और अिः
करर् वनष्पक्ष स्वािीन और स्वतन्त्र हैं तत िह भी स्वतन्त्र है सं सार में कतई
ऐसी शस्ति नहीं है , जत सच्चे स्वतंत्रता और स्वािलम्बी पुरुष कत दबा सके।
मनुष्य गुलाम बनता है अपने ही विचारतं के कारर्। भारत वनिावसयतं से
वकसने कहा था वक तुम अपनी उन्नवत का काम न करके, रात-वदन ईश्वर
के सामने नाक रगड के? वहन्दू -मुसलमानतं से ईश्वर ने कब कहा था
वक तुम हमारे वलए परस्पर लडकी कत। अमेररका और यूरतप िालतं से
वकसने कहा था वक तुम सिणथा अपने कत िन का गुलाम बना डालत?
वकसी ने नहीं। मनुष्य स्वंय अपने ही विचारतं के दु ःख और विपवि में पडा
हुआ है । अंग्रेजत कत तत आप कह सकते हैं वक जबरदिी हमारे दे श पर
चढ़ आए थे। पर आप आज जत सैकडतं िषण पहले से मूवतणयतं, दे िताओं, भूततं
और प्रे ततं के गुलाम बने रहे या ईश्वर के सामने नाक रगडते रहे , इसे
वकसने कहा था? क्या सचमुच कभी ईश्वर ने मूवतणयतं ने और भूततं के कहा
था वक हमारी गुलामी वकया करत और हमकत अपना मावलक समझत? क्या
ईश्वर कत आपकी से िा और सहायता की आिश्यकता है ? क्या ईश्वर ने
कभी कहा था वक सब काम छतडकर वदन भर हमारे सामने घण्टी वहलाया
करत? क्या ईश्वर ने कभी कहा था वक सब काम छतडकर हमारा नाम ले
ले कर थपडी पीट-पीट कर पागलतं की तरह नाचा करत? क्या ईश्वर ने
कभी कहा था वक तुम लतग हमें अपना स्वामी, शासक और राजा समझकर
अपने कत गुलाम समझत? क्या ईश्वर ने कभी कहा था वक वबना हमारी इच्छा

सत्य और स्वतंत्र ज्ञान

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के एक कर् भी नहीं वहल सकता और इसवलए आलसी और वनष्कमणण्य बन


कर हमारे भरतसे बै ठे रहत? कभी नहीं। उसने कुछ नहीं कहा यह सब और
उस ईश्वर कत भी आपने स्वयं गढ़-गढ़ के वकताबतं में वलख-वलखकर
संसार के सामने रखा है इसमें ईश्वर का कतई दतष नहीं है । सब अपने ही

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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विचारतं का दतष है । भारतीयतं ने अपने ही विचारतं द्वारा अपने रतम-रतम में


नस-नस में अं ग-अंग में और पतर-पतर में गुलामी के भाितं कत भर रक्खा
है । भारतीयतं कत रामदास, कृष्ण से िक और गुलाम हुसेन बनने में बडा आनन्द
आता है । स्वामी तत यह बनना ही नहीं चाहते। हजारतं िषण में सिेद- सिेद
चेतन मूवतणयाूँ कत खूब अच्छे -अच्छे स्वावमयतं की आिश्यकता थी और
यूरतवपयनतं के अच्छे अच्छे गुलामतं की। भारत में आने पर दतनतं की विवि बैठ
गई थी। परतन्त्रता के भाि पहले विचारतं में उत्पन्न हतते हैं । विर िही विचार
स्थूलता कत प्राप्त हत जाते हैं । विचार ही कैसे सूक्ष्म से स्थूल हत जाते हैं , यह
हमने अपनी बनाई हुई दू सरी पुिकतं में बडे वििार के साथ वलखा है । बस
तात्पयण कहने का यह है वक आप स्वयं अपने ही विचारतं से परतन्त्र परािीन
और गुलाम बने हुए हैं । यवद आप स्वतंत्र स्वािीन और मुि हतना चाहते हैं
तत अपने विचारतं कत बदल दीवजए। विचारतं द्वारा स्वािीन और स्वतन्त्र हतने
में कतई रुकािट नहीं हैं । मन कत कतई गु लाम नहीं बना सकता यवद िह स्वयं :
गुलाम बनना न चाहे । अतः यह आप ही के चाहने की बात है । यवद आप
सचमुच स्वतंत्र हतना चाहते हैं , यवद आप सचमुच अपनी बुस्ति और विचारतं
कत स्वतंत्र करना चाहते हैं , तत सचमुच कतई ऐसी शस्ति सं सार में नहीं है ,
जत आपकत रतक दे । यवद आप सिे स्वतंत्र हतना चाहते हैं तत ईश्वर के
भी सेिक गुलाम न बने गुलाम और सेिक वकसी का हत िह मुि नहीं
कहला सकता। स्वािीनता और गुलामी में बहुत बडा अिर है । इन बाततं पर
वनष्पक्ष और स्वतंत्र हतकर विचार कीवजए। यवद स्वतंत्र हतना है तत सिणथा
स्वतंत्र हत जाइए और स्वतंत्र विचारतं की प्रवतष्ठा कीवजए। मस्तिष्क में से
पुराने विचारतं और गु लामी के भाितं कत वनकाल दीवजए बस आप स्वतन्त्र
स्वािीन और मुि मु स्ति का सच्चा मागण यही है ।

सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार

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अध्याय- २

नास्तिक कौन है

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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यतं तत जैसा हमने अपने पहले के ले खतं में कहा है वक सभी


मतमतां तर के लतग दू सरे मत िालतं कत नास्तिक कहते हैं , पर नास्तिक
का यह लक्षर् नहीं है इस तौर से तत सभी नास्तिक है ; क्यतंवक अभी इस
समय तक संसार में ऐसे मनुष्य बहुत कम हैं , वजनके सम्बन्ध वकसी मजहब
सम्प्रदाय या मत से नहीं हैं । अतः “नास्तिक कौन है इस प्रश्न का ठीक
उिर वमलना बहुत कवठन हत रहा है । अतः आज हम इसी प्रश्न पर विचार
करना और उसे वलवपबि करना चाहते है । इसका सच्चा उिर यह है वक
जत आस्तिक नहीं हैं िह नास्तिक है ।
आस्तिक” शब्द ‘अस्ति से बना हुआ है । संस्कृत में एक िातु है
“अस भुवि To be | अंग्रेजी की वकया “टु बी”(Verb to be) अथण ठीक-ठीक
संस्कृत का आस्तिक दतनतं शब्द बनते हैं । इसी “अस् ” िातु से “अस्ति और
“आस्तिक दतनतं शब्द बनते हैं । अस्ति कत अथाण त् जत है उसकत मानने िाला
आस्तिक” है और नास्ति (जत नहीं है उसी कत) मानने िाला “नास्तिक है ।
अस्ति” का अथण बहुत सीिा सादा वहन्दी में है है । पर इस है ” या
अस्ति का तत्व बहुत गूढ़ है , क्यतंवक इसी “अस्ति कत मानने िाला
आस्तिक और न मानने िाला नास्तिक कहलाता है ।

अच्छा तत इस “है ” में क्या है , कौन सा गू ढ तत्व है ? क्या है , क्या


नहीं है , इसका इसमें कुछ पता नहीं वदया जाता। बस, केिल इतना ही
कहा जाता है वक है कत मानने िाला आस्तिक और नहीं है कत मानने
िाला नास्तिक है । अतः इस केिल है में , इस वनविणकार है में , इस
वनष्पक्ष वनद्वण न्द्व और पवित्र है में कतई गू ढ़ तत्व अिश्य है । अस्ति ही
अस्तित्व है । अस्तित्व कत अंग्रेजी में एस्तिस्टे न्स (Existence) और िारसी
में हिी कहते हैं । इस अंग्रेजी एस्तिस्टे न्स (Existence) शब्द का अथण
अंग्रेजी वडक्शनररयतं में लाइि और बीइं ग (Life; being) वलखा हुआ है ।
अस्ति या अस्तित्व की अंग्रेजी एस्तिस्टे न्सं (Existence) है और Existence
का अथण लाइि Life है और Life का अथण अंग्रेजी वडक्सनररयतं के अनुसार
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नास्तिक कौन है

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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स्तस्पररट Spirit है । स्तस्पररट Spirit कत सं स्कृत में “आत्मा कहते हैं । अतः
इस गू ढ़ अस्ति या “है : का अथण है “आत्मा। अब यवद’ साि-साि
आस्तिक और नास्तिक का लक्षर् वनष्पक्ष भाि से सत्य-सत्य वकया जाय
तत यह हतगा वक अपनी आत्मा कत अजर. अमर, अनावद अविनाशी. सत्य
और स्वतन्त्र मानना आस्तिकता है और इसी तरह से अपनी आत्मा कत
परतंत्र, परिश, गु लाम, असंत्य और नाशमान् मानना नास्तिकता है ।
वजतना ऊपर कहा गया है , उससे अभी सबकत पूर्ण सितष नहीं हत
सकता है । है से तात्पयण आत्मा से क्यतं है ? है ’ और ‘अस्ति यह शब्द
अपने आप और अपनी आत्मा (True-Self) की ओर क्यतं ले जाता है ?
वजसमें है है या वजसमें अस्तित्व है , िही आत्मा क्यतं है ? इसका कारर्
है । अकारर् ही अस्तित्व से मतलब आत्मा से नहीं है
हम हैं मैं हूँ या िह सामने खडा है । है हूँ और है कत
अनुभि करने िाली, कहने िाली और जानने िाली आत्मा ही है । जहाूँ
आत्मा नहीं है , वजसमें जीिन (Life) नहीं है जत जीि (Spirit) नहीं है , िह
कदावप यह नहीं कह सकता वक मैं हूँ , तुम हत और िह है । इस है ’ कत
अनुभि (Feel) करने िाली आत्मा है । वकसी जड ििु कत इस बात का
ज्ञान नहीं है वक ‘हम हैं हमारी इस कलम कत दािात कत, कागज कत और
इस मेज-कुसी कत ज्ञान नहीं है वक िे हैं या उनका अस्तित्व है । जड
ििुओं का अस्तित्व भी हमारे ही भीतर है । कलम नहीं जानती वक िह
है वकिु यह हमारी आत्मा है जत इस बात कत जानती है वक हमारे हाथ
में कलम है । इस कागज के भीतर है नहीं है । कागज स्वयं नहीं जानता
वक िह ‘है अतः कागज के भीतर अस्तित्व (है ि) नहीं है । केिल सजीि
प्रार्ी इस बात कत जानता (या Feel करता) है वक िह है । सजीि प्रावर्यतं
में भी यह भी नहीं कहा जा सकता है वक इस है कत कहने िाला, जानने
िाला और अनुभि करने िाला उस प्रार्ी का शरीर है । शरीर तत मरने के
बाद भी रह जाता है , पर, मृ तक और जड शरीर कभी नहीं कह सकता वक
िह है । है , है और हैं का रहने िाली आत्मा थी, जत इस मृतक शरीर
में अब नहीं है अतः यह वसि है वक यह है या ‘अस्ति’ आत्मा के साथ है ।
इस जीित्व और अस्तित्व में कतई भेद नहीं है । आत्मा में ही ‘अस्ति’ है और
यह अस्ति (है ) आत्मा के साथ है ; जड में ‘अस्ति’ नहीं हतती। अतः है
अस्ति ‘अस्तित्व Existence और “आत्मा यह चारतं नाम एक ही ििु और
सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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एक ही तत्व के हैं । वजसका नाम जीिन, जीि और आत्मा है उसी का नाम


“अस्ति है , और ‘अस्तित्व’ है । सारा जड संसार अस्तित्व विहीन है । सारे
जड संसार कत “अस्ति* रूप में जानने िाला जीि है , जीिन है और आत्मा
है । सारे जड संसार का अस्तित्व उसकी जडता के भीतर नहीं है वकिु
उसका अस्तित्व भी चेतन आत्मा की चे तना के भीतर है । अतः अस्तित्व
चेतना में है , जडता में नहीं। इसी से अंग्रेजी में Existence का अथण Life और
Being है । अतः वजस आत्मा के हतने से ‘अस्तित्व शब्द का ही संसार मे
अस्तित्व है , उसकत यथाित् मानना ही आस्तिकता है और उसे यथाित् न
मानना नास्तिकता है ।
जत यथाथण है , िही सत्य है , जत नहीं है िही असत्य है । अतः अस्ति,
अस्तित्व आत्मा और सत्य में कतई भेद नहीं है । आत्मा सत्य है और सत्य
आत्मा है वजस बात या ििु का अस्तित्व नहीं है , िही असत्य है और
वजसका अस्तित्व है , िही सत्य है । अतः आत्मा ही सत्य है । वजस “अस्
िातु से अस्ति अस्तित्व और आस्तिक शब्द बने हुए हैं , अत्यि आश्चयण का
विषय है वक उसी अस िातु से ‘सत्य शब्द भी बनता है । अस् िातु का
संस्कृत में हतने और है के अथण में प्रयतग हतता है अतः जत है या वजसका
अस्तित्व है िही सत्य है । अतः यवद अस्ति, “अस्तित्व और “है ” सब एक
आत्म तत्व के ही अनेक नाम हैं तत यह सत्य भी आत्मा के वलए है और
परम सत्य है । इस परम सत्य कत जत हृदय से विश्वास और श्रिा के साथ
स्वीकार करता और जानता है िही सच्चा आस्तिक है । सं सार भर में केिल
और एक आत्मतत्व का ही अस्तित्व है । अतः यह सत्य ही नहीं परम सत्य
है । दू सरी ििुओं के भी सत्यासत्य का वनर्णय करने िाला यही है । सामने
पडा हुआ सूखा काठ यह बतला सकता है वक “क्या सत्य है क्या असत्य
है ? कभी नहीं। जत स्वयं सत्य है , िह सत्य का वनर्णय नहीं कर सकता।

सारा जड संसार एक ही जगह इकट्ठा हतकर भी सत्य और असत्य कत नहीं


जान सकता। सत्या सत्य कत जानने िाला ज्ञान युि आत्मा ही है ।
यतं तत बातचीत और पुिकतं में है और ‘सत्य’ का प्रयतग बहुत
हतता है ; िाक्य-िाक्य में हतता है । पर िािि में सत्य आत्मा ही है । सत्य

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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बन्धन में नहीं रह सकता, यह सत्य तत्व एक परम स्वतंत्र तत्व है । सत्य

स्वतंत्रता चाहती है । और स्वतंत्रता सत्यता कत। स्व और तन्त्र इन दतनतं


के मेल से स्वतन्त्र शब्द बना हुआ है । स्व का अथण है अपना आप। अपने
नास्तिक कौन है

16

आप’ के अथण में ही संस्कृत का आत्मा शब्द है ; जैसे, आत्मपू जा, आत्मगौरि
और आत्मसम्मान। आत्म शासन, आत्म तन्त्र, स्वतंत्र और स्वराज ये सब
शब्द एक ही अथण के बतिक हैं । अतः यह वसि है वक अत्यि और सिणथा
स्वतंत्र यवद कतई तत्व है तत िह आत्म तत्व है । आत्मा ही सत्य, वशि,
सुन्दर और परम स्वतंत्र है । अतः स्वयं आत्मरूप हतता हुआ, जत अत्यस्ति
स्वतंत्र बुस्ति से “हम पूिोि
करता है िह नास्तिक है और जत लतग इस आत्म तत्व कत जडतत्वतं या
मैटसण (Matters) से उत्पन्न हुआ एक नाशिान पदाथण मानते हैं और मरने
के बाद आत्म तत्व का नाश समझते हैं , िह नास्तिक है । संसार में जब
वकसी ििु का नाश नहीं हतता तत वकसी आत्मा का नाश कैसे हतगा?
िािि में नास्तिक िह है , जत आत्मा कत नाशम् समझता है । मजहबी
और साम्प्रदावयक लतग जत एक दू सरे कत नास्तिक समझते हैं , िह व्यथण है ।
वकसी मजहब का न मानने िाला एक ला मजहब भी नास्तिक नहीं है ।
वकसी सम्प्रदाय, मजहब या मत का पक्षपात न करने िाला परम स्वतन्त्र
और वनष्पक्ष पु रुष, जत सत्य तत्व का प्रेमी है िह नास्तिक है ; चाहे िह ईश्वर
कत मानता है या नहीं। नास्तिक का लक्षर् हतने पर कह वदया है वक
ईश्वर कत न मानने िाला नास्तिक नहीं है ; ईश्वर खुदा या गाड संसार का
एक काल्पवनक पदाथण है । यह जाल सािारर् लतगतं कत िंसाने और
भयभीत रखने के वलए रचा गया है , जैसे छतटे लडकतं के वलए हौिा। चाहे
वमट्टी का बनािा पत्थर का बनािा या ख्याल के भीतर साकार अथिा
वनराकार की कल्पना कर लें चाहे जत करें चाहे उसे एक कहें या अनेक
कहें , सब कल्पना ही है । ईश्वर के बडे -बडे भि भी यही कहते हैं वक
अपनी ही श्रिा, अपनी ही भस्ति और अपनी ही विश्वास िलता है । िाििं
में सब मनतरथतं कत पूर्ण करने िाली अपना ही भीतरी आत्मा है । आत्मा में
अपार शस्ति है ; िह अजर अमर और अविनाशी है । इसी सत्य तत्व कत

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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यथाित् जानना आस्तिकता है ।


मैं हूँ ” या “हम हैं ” इसकत कहने िाली हमारी आत्मा है और हमारी
आत्मा ही जानती है वक यह बात ठीक है ; हम हैं अिश्य। हमने इस भीतरी
हम कत चाहे आूँ खतं से नहीं दे खा, कानतं से नहीं सुना वजहा से नहीं चखा,
नाक से नहीं सूं घा और हाथतं से स्पशण भी नहीं वकया विर भी हम जानते
है वक हम हैं अिश्य। हम एकां त में बै ठे हुए सन में बतल रहे हैं , वजहा से

सत्य तत्व या आत्म तत्व का अस्तित्व स्वीकार


सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार

नहीं बतल रहे हैं , हमारे या वकसी के कान अपने भीतर की बतली जत मन
में हतती है नहीं सुन रहे हैं पर भीतर हमारी आत्मा कह रही है मै , हूँ और
अिश्य हूँ । आश्चयण यह है वक हम इसे वबना कानतं के सुन रहे हैं हम इसे
वबना वजहा और मुूँह कत वहलाये बतल रहे हैं हम वबना आूँ खतं के भी इस
मैं हूँ के कहने िाले कत प्रत्यक्ष कर रहे हैं और वबना कुछ छु ए इस मैं
हूँ के कहने िाले अपने आप कत चारत तरि से अपने आप में ही छू रहे
हैं िह भी वबना मुूँह और वजह के हमसे कह रहा है -हम हैं या मैं हूँ ।
आश्चयण है ! अत्यि आश्चयण है ! हम उसकी िीमी से िीमी बतली कत
जत वबना हतठतं कत वहलाये और वबना वजहा, दाूँ त और कंठ के बतले गये
हैं , साि सुन रहे हैं । िह घण्टतं हमारे साथ गूढ़ से गू ढ़ प्रश्न पर विचार
करता है व्याख्या दे ता है , और समझता है , पर आश्चयण यह है वक वबना
हतठतं कत वहलाये वबना दां त, वजह्वा और कण्ठा की सहायता के। हम बारह
है ; िह भीतर है । काम से लौटकर संसार के झंझटतं से मु डकर जब हम
एकाि मे बैठतें हैं और वबना पैरतं के भीतर जाते हैं तत वबना इन दतनतं हाथतं
J के उसे पा ले ते हैं और वबना आूँ खतं के दे ख लेते हैं बस उसे अपने वनराकार
हृदय से लगाकर आनन्द में मि हत जाते हैं । िेदतं मे वजस अवनिणचनीय
तत्व कत तमाम इस्तियतं से परे माना गया है , िह ईश्वर नहीं, यही आत्मा
है -यही अपने आप है । यह रूपिान या साकार नहीं है , पर तमाम साकार
संसार का अस्तित्व इसी के भीतर इसी के कारर् और इसी में है । िह
बाहर है , िही भीतर है । हम स्वयं बाहर से मुडकर, वसवमट कर विचार
के झरतखे से अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा कत दे खते हैं ; हम दतनतं एक
हैं । अपने से अपने कत दे खने मे आूँ खतं की आिश्यकता ही क्या है ? अपने
से अपने कत अपने पास आने में पै रतं की भी जरूरत नहीं है । अपने से

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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अपने कत अपने में दे खने के वलए आूँ खतं की आिश्यकता तत वबिुल नहीं
है । हम स्वयं प्रकाश हैं , हम स्वयं वसि है , हमारा अपना आप या आत्मा
वनज ज्ञान स्वरूप है । यवद आप इसी आत्मा कत ईश्वर कहते हैं तत कह
लीवजए इसमें कतई हावन नहीं है । पर, हम यह दे खते हैं वक यवद आत्मा
कत इस लेख में भी हम ईश्वर नाम दे दें गे तत विर बहुत से लतग भ्रम
पड जायेंगे। हमने अपनी बनाई हुई। तमाम पुिकतं में ऐसा ही वकया
है आत्मा का ईश्वर नाम प्रसंग पडने पर दे वदया है और यतं ही रहने वदया
है पर कुछ लतग उससे यह समझने लगे हैं वक शायद हम भी ईश्वर गाड
नास्तिक कौन है
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या खदा का अलग व्यस्तित्व मानते हैं । पर यह गलत है । हमने ऊपर वसि
कर वदया है वक जत यह कह रहा है वक “मैं हूँ िािि में उसी का
अस्तित्व है ; दू सरे का नहीं “अस्ति “अस्तस्म “हूँ ” और “अस्तित्व सब एक
ही बात है , इसे भी हम वसि कर चुके हैं । इस “मैं हूँ शब्द कत एक
जीिात्मा और शरीरिारी प्रार्ी ही कहता है ; वनराकार शब्द कत वनविणकार
वनगुणर् और काल्पवनक ईश्वर नहीं। हमने इसी ले ख में ऊपर कह वदया है
वक अस्तित्व कत अंग्रेजी में (Existence) कहते हैं । Existence का अथण Life
(जीिन) जीि या प्रार् शरीरिारी प्रार्ीयतं मे ही माना जाता है । ईश्वर कतई
शरीरिारी प्रार्ी नहीं हैं , अतः उसका अस्तित्व भी नहीं है । अस्तित्व शब्द
ही शरीरिारी जीि वलए है , Life या जीिन जीि के वलए है और
जीिात्मा के वलए है वबना शरीर िाला कतई प्रार्ी या जीि अब तक नहीं
दे खा गया। शरीरिारी प्रार्ी कत ही दे खकर लतग कहते हैं वक “िह है
वजसका अनुमतदन दू सरे भी करते हैं वक हाूँ “िह है अतः ऐसतं का अस्तित्व
अिश्य है । िह है या “मैं हूँ इसका यह मतलब नहीं है वक यह तभी
ठीक है जब वहन्दी में इसी तरह से कहा जाय कभी नहीं। कतई यवद
अंग्रेजी मे कह रहा है I Am he is यह भी ठीक है । इतना ही नहीं एक
गूँगे कत हम पकार रहे हैं वक तू कहाूँ है , िह आता है और केिल ऊं ऊं
करता है इसका मतलब भी यही है वक “मैं हूँ । एक बीमार मनुष्य चारपाई
पर पडा हुआ है , बतल नहीं सकता, उठ नहीं सकता, पर पास जाने पर हाथ
से
इशारा करता है , इस इशारे का भी यही मतलब है वक “मैं हूँ और यह
दे खकर सभी यह कहते हैं वक “यह है । एक आदमी ऊूँचे से वगरकर
बेहतश हत जाता है । लतग उसे दे खते हैं , उसकी नाडी चल रही है , नाक

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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जरा भी दबा दी गई और सर पर गुलाब जल वछडका गया, िह अभी बतला


तत नहीं लेवकन “संग लगाया। इसका अथण भी यही है वक मैं हूँ ।
“सगबगाकर उसने यह प्रकट वकया है । सगबगाने पर सबने यही कहा
था वक यह है , “यह जीवित है अभी “इसमें जीिन है । इसी से अंग्रेजी
में अस्तित्व Existence का अथण Being या Life जीि, जीिन या आत्मा है ।
कुिा अंग्रेजी या वहन्दी में यह नही कहता है वक “मैं हूँ पर भूूँककर और
अपनी दु म कत वहलाकर यह बतला दे ता है वक, “मैं हूँ । एक गें हुिन साप
न बतलने पर भी जब िनिना कर खडा हत जाता है तत यह सब पर प्रक
कर दे ता है वक “मैं हूँ सत भी सािारर् रूप में नहीं, बडे गिण के साथ। इसी
सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार
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तरह से सभी प्रार्ी इस बात कत प्रकट कर रहे हैं वक ‘हम हैं । पर एक
पत्थर का टु कडा या रािे की पडी हुई हड्डी हजार उपाय करने पर भी
सगबगा नहीं सकती कुछ कह नहीं सकती। अतः उसमें ‘अस्ति’ या
‘अस्तित्व नहीं है इसी से इस ले ख में सबसे पहले यह वसि कर वदया
गया है वक “है ” “अस्ति”, “अस्तित्व”, “सत्य” और ‘आत्मा यह पाूँ चतं एक
हैं , एक ही तत्व के पाूँ च नाम हैं । मरने के बाद भी आत्मा शरीर ही के साथ
रहती है वजसकत सू क्ष्म शरीर कहते हैं - इस विषय कत हमने अपनी बनाई
हुई पुिक “सू क्ष्म शरीर, सूक्ष्म लतक स्वगण और मुस्ति का रहस्य” नाम की
पुिक में और “नीरतग हतने का अद् भुत उपाय” में बडे वििार के साथ
वलख वदया है । आत्मा वबना शरीर के कहीं नहीं दे खी गई। जीि हर हालत
में हर जगह, चाहे िह जहाूँ रहे , रहे गा शरीर ही में चाहे िह स्थूल शरीर
हत या सूक्ष्म शरीर हत प्रत्येक प्रार्ी, प्रत्ये क जीि और प्रत्ये क जीिात्मा
शरीरिारी हतता है , और ईश्वर श्री राम नहीं है , अतः उसका अस्तित्व नहीं
है पर यवद कतई वकसी शरीरिारी प्रार्ी कत अपना ईश्वर मानता है तत अभी
उसका इन प्रमार्तं से विरति नहीं हतता। अस्तित्व तत केिल आत्मा का है ।
“अस्तित्व शब्द एक मात्र उसी के वलए है । िह सबके भीतर बै ठा हुआ
“अस्ति” “अस्ति” “अस्ति कह रहा है । यवद िह न रहे तत विश्वब्रह्माि भर
का जड-संसार वमल कर भी लाखतं िषों के भीतर एक बार भी “अस्तस्म
या “अस्ति नहीं कह सकता। जड संसार के वलए भी अस्ति” कहने
िाला चेतन आत्मा ही है । जड संसार है , इसे स्वयम् जड सं सार नहीं
जानता, वकिु एक आत्मा जानती है वक यह संसार है । बस “है या
“अस्ति” आत्मा के भीतर है और आत्मा ही का अस्तित्व प्रत्यक्ष है इसी
आत्मा के हतने से दू सरे जड- संसार का भी अस्तित्व है । जड-संसार का

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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अस्तित्व जड-सं सार के भीतर नहीं आत्मा के भीतर है । जैसे सतने िाले
के उठ बैठने पर स्वप्न-सृवष्ट नहीं रह सकती उसी तरह से यवद संसार
में आत्मा न हतती तत इस जड- संसार का कहीं पता भी न लगता।
विर भी आप कहते है वक संसार सत्य हैं ; उसका अस्तित्व है । हम
पूछते हैं वक आप इसका वनर्णय कैसे कर रहे हैं ; वकस है वसयतनी से कर
रहे हैं ? या तत आप न्यायिीश बवनए या साक्षी (गिाह) के रूप में गिाह
की है वसयत से कवहये। पर प्रश्न यह है वक मुद्दई सु ि गिाह चुि नहीं
हत सकता। वबना िादी के या िादी रूप संसार के यह कहे वक “हमारा
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नास्तिक कौन है

अस्तित्व है , पर एक मनुष्य नहीं मानता, आप इसका न्याय कर दें ” आप


न्याय कैसे करें गे ? जब न्यायािीश के सामने इसका प्रश्न ही नहीं
उपस्तस्थत वकया गया तत साक्षी (गिाह) भी कुछ नहीं कह सकता। मतलब
यह है वक जत जड- संसार अपने अस्तित्व का स्वयं दािा नहीं करता,
उसके वलए साक्षी और न्यायािीश कुछ नहीं कर सकते। जत स्वयं नहीं
कहता है वक ‘हम हैं , उनका अस्तित्व वसि करने के वलए कतई समथण महीं

वक माल आत्मा, सबसे बडी चीज है । उसी के अस्तित्व से सबका


अस्तित्व है । उसका कभी नाश नहीं हत सकता, िही परम सत्य है ।
अस्तित्व िाला पदाथण ही सत्य हतता है और जत सत्य है , उसका नाश
वत्रकाल में भी नहीं है .। सत्य तत्व स्वयं प्रकाश और स्वतन्त्र हतता है । ऐसा
गुर् आत्मा ही में है । हमारा अपना आप ही या यह सत्य आत्मा ही स्वयं
प्रकाश और स्वतन्त्र है । यही कारर् है वक प्रत्येक जीि, प्रत्ये क जिु
प्रत्येक पक्षी और प्रत्येक पशु स्वतंत्रता कत सबसे अविक प्यार करता है ।
एक बंिा हुआ बै ल, अच्छे -से अच्छा भतजन पाकर भी उतना सुखी, उतना
प्रसन्न और उतना पु ष्ट नहीं मालूम हतता वजतना वक एक स्वतन्त्र साूँ ड,
और जंगली पशु मालूम हतते हैं । मनुष्यात्मा तत परम स्वतंत्र हैं इसमें अपार
और अनं त ज्ञान है , पर-परतंत्रता के कारर् िह दबा पडा हुआ + यह
मजहब का गुलाम है , ईश्वर का गुलाम है , पैगम्बरतं और मजहबी नेताओं
का गुलाम है , ईटतं और पत्थरतं का गु लाम हैं , पंडे पुजाररयतं का गुलाम है

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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मौलिी-मु -लाओं का गुलाम है और महात्माओं तथा राजनीवतक नेताओं


का गुलाम है कहाूँ तक कहें यह वजसका-वजसका गुलाम है , उसे वगनाने
के वलए बहुत समय चावहए। मनुष्य ने स्वयं हजारतं प्रकार की डतररयाूँ से ;
अपनी नाक कान अपने ही हाथतं से छे दकर उसमें डाल दी है औरः
एक एक रस्सी सबकत पकडने के वलए दे वदया। यह अपने रत सबका
गुलाम बना हुआ नाच रहा है । गुलामी के कारर् इसकी बुस्ति -मारी गई
ज्ञान दु ब गया और इसका सारा सुख कािूर हत गया। अब इसके पास
अपनी बुस्ति से सतचकर अपनी आूँ खतं से दे ख कर, अपने पैरतं से चलने की
शुस्ति नहीं रहीं। यह अब वकताबतं, पैगम्बरतं और ने ताओं का गुलाम हैं ।
कहता है हमारी वकताब ईश्वर ने भेजी है , इसे मानत ब कहता है
हमारी पुिक भगिान की बनाई हुई है , इसके अनुसार चलत एकल
सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार

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परम चे तन, परम सत्य और परम स्वतन्त्र मनुष्य कत लतग वकताबतं का


गुलाम बनाना चाहते हैं । ईश्वर के मानने िालतं यह वकताब ईश्वर की बनाई
हुई है या नहीं इसमें सन्दे ह हत सकता हैं , इसमें झगडा हत सकता है , पर
इस बुस्ति कत हत ईश्वर की बनाई हुई हतने में वकसी ( ईश्वर के मानने िाले)
कत सन्दे ह नहीं है । आपकी वकताब ईश्वर की बनाई हुई है यी दू सरतं की
इसे कौन दे खेगा? आपका मजहब अच्छा है या दू सरतं कत इसे कौन
जाूँ चेगा, इसका मुंवसि (जज) या न्यायािीश कौन हतगा? यही मनुष्य,
यही मनुष्य की बुस्ति। अतः यह मनुष्य बहुत बडी चीज है ईश्वर की बनाई
हुई पुिकें शु रू से लेकर अब तक उन्ें मनुष्य के न्यायालय में विचार
करने के वलए रक्खी गई हैं -इन्ीं मनुष्यतं ने बार-बार ईश्वर और ईश्वर
की बनाई हुई पुिकतं का विचार वकया है । मनुष्य संसार में सबसे बडी है ।
मजहबी ईश्वर ने भी अपनी वसिाररश मनुष्यतं द्वारा ही कराई हैं ईश्वर में
भी अपना अस्तित्व मनुष्यतं द्वारा ही वसि कराने का यत्न वकया है ईश्वर
कत भी अपने शत्रुओं कत पराि करने के वलए मनुष्य ही हतना पडा है ।
मनुष्य सबसे बढ़कर है इस और इसकी बुस्ति कत वकसी जड और मरी हुई
पुिक का गुलाम बनाने का यत्न न करत। पु िकें मनुष्य के वलए ही
‘सकती हैं , मनुष्य पु िकतं के वलए नहीं है । इं जील, कुरान, िे द, पुसर्
और शास्त्र सबि िािि में इन्ीं मनुष्यतं के बनाये हुए हैं , पक्षपात छतडकर

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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इस पर विचार करत। मनुष्य वकताबतं का गुलाम नहीं उसका रचवयता है ।


इसे स्वतन्त्र हतने दत। इसे स्वतन्त्रतापूिणक जरा विचार तत करने दत तत
दे खत यह ज्ञान की वकतनी उन्नवत करता है - ‘दे खत यह विज्ञान कत वकतने
ऊूँचे पहुूँ चा दे ता है । अपनी गलेवलयतं कत स्वतन्त्रतापूिणक विचार करने से
रतक वदया, सुकरात कत जहर दे कर मार डाला और वकतने स्वतन्त्र वबचार
िालतं की जीभ काट ली। बडी बेवहयायी के साथ दु ःख बडे , के साथ विज्ञान
वकसी तरह से िीरे -िीरे आगे बढ़ता हुआ आज इतनी दू र तक पहुूँ चा है ।
ईश्वर यवद हत भी तत उन बालकतं की तरह नहीं हत सकता, जत पंवक्षयतं की
स्वतंत्रता छीनकर सु खी हतते और हूँ सते है । ईश्वर ने कब कहा था वक
तुम अपनी बुस्ति कत वकसी बाबा जी या महात्मा जी के साथ बे चकर हमारे
या वकसी के गुलाम बने रहत। ईश्वर ने कभी इस बात कत नहीं कहा वक
हमारी बनाई हुई पु िकतं में अकल कत दखल नहीं दे ना चावहए। ईश्वर
यवद विचार और बुस्ति से घबडाता; खुदा की वकताब और खुदा कत तकण
नास्तिक कौन है

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से भागना हतता तत िह तकण कत बनाता ही क्यतं? मजहबी खयाल के


मुतावबक उसी ने मनुष्य-जावत कत तकण और बुस्ति दी उसी ने विचार करने
की शस्ति दी, अब िही उससे घबडाता क्यतं है ? िह नहीं, घबडाते हैं िे
लतग, जत उसके नाम से लतगतं कत िूँसाकर अपना उल्लू सीिा करते हैं ।
िह अगर कहीं हतगा तत सबसे पहले इन लतगतं की खबर लेगा जत उसे
वशकार की टट्टी की जगह खडी करके भतले -भाले मनुष्यतं का वशकार कर
रहे हैं वजसका अस्तित्व ही नहीं है , उसी कत मानते हैं जत िािि में नहीं
है । वजसका अस्तित्व ही नहीं है , उसी कत मानते हैं और वजसका अस्तित्व
है , उसे नहीं मानते। इतना ही नहीं इस महान सत्य कत, इस स्वयं वसि
मनुष्य आत्मा कत ितखा दे ते हैं । अपनी आत्मा कत भी ितखा दे तें हैं और दू सरतं
कत भी ितखा दे ते हैं । सत्य कत सत्य कहने िाला, असत्य कत सत्य मानने
िाला “नास्ति” कत “अस्ति” कहने िाला और “अस्ति कत “नास्ति कहने
िाला अिश्य नास्तिक है । अपनी आत्मा ही एक ऐसी ििु है जत वकसी
इस्तिय द्वारा प्रत्यक्ष न हतने पर भी वनजी ज्ञान स्वरूप हतने से अपने कत
जानती है वक हम हैं अपनी आूँ खतं कत बन्द करके हम अपनी एक अंगुली
वहलाने पर जानते हैं वक हमारी एक अं गुली वहल रही है और जब दत

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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अंगुली वहलती है तब वबना आूँ ख के जान लेते हैं वक अब दत वहल रही है ।


पर आूँ ख कत बन्द करके हम दू सरतं की वकतनी अंगुली वहल रही है यह
नहीं जानते। अतः यह वसि है वक वबना इस्तियतं के प्रत्यक्ष हतने िाला यवद
कतई इस्तियातीत हतते हुए भी, है , तत िह हमारी आत्मा है । वबना इस्तिय
के यवद कतई प्रत्याशी हत सकती है और है तत िह हमारी आत्मा है । यवद
इस्तियातीत का नाम ईश्वर है और िह है तत िह ईश्वर हमारी आत्मा है
और आत्मा का ही नाम ईश्वर है । यवद यह ईश्वर नहीं है तत ईश्वर नहीं
सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार

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अध्याय ३

स्वतंत्र बुस्ति की मवहमा

तकण से बचने के वलए लतग कह दे ते हैं वक इस ग्रन् कत तत स्वयं


ईश्वर ने बनाया है या वकसी मनुष्य विशेष द्वारा संसार में भेजा गया है ।
हजार िषण पहले ईश्वर पु िकतं और बडे -बडे ग्रन्तं कत रचा करता था।
पुराने जमाने में ईश्वर लतगतं से बातें करता था, आशीिाण द और श्राप दे ता
था, पूजा मां गता था और लतगतं कत िमकाया था। पुराने जमाने में िररश्ते
और दे िता लतग इस लतक में घूमा करते थे। जगह-जगह बात-बात में
दे िवषण नारद पहुूँ च जाते थे। लतग दु ःख पडने पर खुदा और ईश्वर के
दरबार में जाकर उसकी िुवत और खुशामद करे उसे खुश कर लेते थे।
आदम के बाग में िह बराबर आता था और उसने एक बृ क्ष का िल खाने
के वलए आदमी कत मना भी वकया था। खुदा का शत्रु शै तान खुदा से भी
* अविक बुस्तिमान् और शस्तिशाली था। खुदा के हजार उपाय करने पर भी
िह सब कत बहकाकर अपनी ओर कर लेता था। शै तान और दे िताओं की
लडाई (दे िासुर संग्राम) बराबर हुआ करती थी। भगिान दे िताओं की रक्षा
के वलए बडी-बडी चालबाजी से काम लेते थे। जालंिर दै त्य कत हराने
वलए िृन्दा के सतीत्व का भी नाश वकया था। भितं के वलए क्या नहीं
वकया? भि वसपावहयतं के वलए उसने स्वयं पहरा वदया है । भितं के
कहने पर गली-गली घूमते रहे । भितं के कहने पर रतटी खाई है , दू ि
वपया है , स्वयं जेल में कैद रहे हैं । शंका हतने पर स्वयं आकर उपदे श दे ते

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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थे ; मानते थे और समझाते थे। गली-गली दे िदू त, दे िता और ईश्वर घूमा


करते थे । जत व्यस्ति या दे श उनका नहीं मानता था, उनका नाश कर
डालते थे । पर अब नहीं; केिल पुराने जमाने में। अब तत रूस से
कम्युवनष्टतं ने खुदा वमयाूँ कत एकदम वनकाल-बाहर कर वदया पर कुछ
नहीं बतलते। रूस का नाश नहीं हुआ; उसका महाप्रलय भी नहीं हुआ;
वकिु इसके विरूि िह वनत्य उन्नवत करता जा रहा है । रूस जब तक
खुदा कत मानता था, तब तक दु ःखी था, ज्ञान था और अिनवत के गडहे
में वगरा हुआ था। यूरतप और अमेररका िाले भी जबसे खुदा और उनकी
वकताबतं की ओर से अपने मुूँह कत मतडकर शै तान की विलासिी और
इन्सान की ओर आगे बढ़े हैं तब से सु खी हैं । भारततन्नवत के बािक भी
खुदा के बन्दे और ईश्वर के भि हैं । इन लतगतं ने काविरतं ही के मारने
में अपनी सारी शस्ति लगा दी पर हुआ कुछ नहीं; काविर बराबर आगे
बढ़ते गएं । संसार में काविर ही िनी हैं , ज्ञानी हैं , विद्वान हैं और आगे बढ़े
हुए हैं । विर भी खुदा के बन्दतं कत असली बात समझ में नहीं आई भूतपूिण
अमीर अमानुल्ला ने जरा-सी स्वतंत्रता की बातें की वक दे श से वनकाल
वदया गया। पर तुकी ने मजहब की परिाह नहीं की; खुदा के प्रवतवनवि कतं
तख्त से उतार वदया। शै तान की बात कत उसने दे ि िचन समझकर अपना
वलया। पुरानी रूवढ़यतं कत जड से उखाडकर िेंक वदया और िह आगे बढ़

गया।
सब लतग आगे बढ़ गए, पर इस दे श के लतग बैठे पीछे दे ख रहे है ।
संसार में जब कतई आविष्कार हतता है तत कहते हैं वक यह तत िेदतं में
वलखा है । पर यही बात पहले से नहीं सतती। तरूतार कत ले कर कहते
हैं वक िेदतं में तार के खम्भे मौजूद हैं । पर इस अथण के करने िाले कत यह
नहीं सूझी वक थतडे ही वदनतं बाद वबना तारतं के भी तार भेजे जायेंगे। वबना
िेदतं के प्रमार् के यह लतग एक इं च आगे नहीं बढ़ना चाहते। िेदतं में सब
कुछ है िेद ईश्वरीय ज्ञान है यही कह कहकर मुूँह िुलाए बै ठे रहते हैं ।
िेद के ज्ञान कत स्वयं ईश्वर ने श्रृवषयतं के हृदय में प्रकट वकया है । हम
पूछते हैं वक अब जत अच्छे अच्छे ज्ञान विद्वानतं के हृदय में उत्पन्न हत रहे
हैं , उन्ें कौन उत्पन्न कर रहा है ? इसमें कौन-सी युस्ति और कौन सी
प्रमार् है वक आजकल के वििानतं के ह्रदय में जत ज्ञान उत्पन्न हत रही
िह ईश्वर नहीं है ? एक पिा भी वजसके वबना वहाये नहीं, वहलता,
एक तक भी जत वक वबना ईश्वर की इच्छा के टल नहीं सकता, तत क्याूँ
आजकल के इन बडे -बडे आविष्कारतं के ज्ञान कत मनुष्य-हृदय में उत्पन्न

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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करने िाला कतई दू सरा ही हैं ? आजकल की विलासिी और पदाथण -विज्ञान


के ज्ञान कत मनुष्य-हृदय में वकसने उत्पन्न वकया? यवद उसने आवद में
लतगतं के हृदय के भीतर ज्ञान उत्पन्न वकया है तत अब भी कर रहा है , और
यवद आज कल का ज्ञान ईश्वरीय नहीं है तत िह ज्ञान भी ईश्वरीय नहीं
था याद अब िह वकसी के हृदय में ज्ञान का उपदे श नहीं दे ता तत िेदतं
सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार

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के ज्ञान कत भी उसने वकसी के हृदय में नहीं उत्पन्न वकया था। यवद अब
भी सबके हृदय में ज्ञान का प्रकाश िही करता है तत आजकल की बहुत-सी
उपयतगी और ज्ञान-विज्ञान की पु िकें िे दतं के समान नहीं उससे भी बढ़ कर
हत सकती हैं । अब इस बात कत कतई नहीं मान सकता वक आवद में या पुराने
जमाने में ईश्वर यहाूँ गली-गली घूमता था, उपदे श दे ता था; झगडा करता
आशीिाण द और श्राप दे ता था, और परदे के भीतर बै ठकर अरबी जबान
में अपनी आज्ञाओं कत सुनाया करता था, पर अब िह कुछ नहीं करता अंब
नहीं करता तत तब भी कुछ नहीं कहता था। अब यवद नतरद और िररश्ते नहीं,
वदखलाई दे ते तत तब भी िह नहीं थे . यह सब ढतंग है ।
कतई पु िक ईश्वर की बनाई हुई नहीं हैं । उसके वनयम और कानून
पुिकतं के भीतर नहीं हैं । उसके वनयम और कानून इस विश्वव्रह्माड के
प्रत्येक कायण में ितणमान हैं । उसने अपने ज्ञान कत वकसी भाषा द्वारा नहीं प्रकट
वकया है वकिु सारी सृवष्ट वबना वकसी भाषा के सच्चे ज्ञान का चुपचाप
उपदे श कर रही है । वनयम ही ईश्वर है और इन वनयमतं का वनयिा और
उत्पादक आत्मा है । यही आत्मा ब्रह्म है (अयमात्मा ब्रह्म), यही सत्य और
यथाथण है । पर आप इस बात कत इसवलए नहीं मानेंगे वक इसे पुराने लतगतं
ने नहीं वलखा है ; इसे वकसी ऐसे ऋवष और मुवन ने नहीं कहा है वजसे मरे
हुए हजार िषण : बीत गए हतं। ितणमान मनुष्य की बुस्ति सिणदा पीछे की ओर
दे खती और आगे बढ़ने से रुक जाती है । सच्ची बात तत यह है वक मनुष्य
बीपी बढ़ने के वलए है पीछे दे खने के वलए नहीं “ इसवलए यह आूँ ख पीछे
नहीं आगे हैं । िह मनुष्य आगे नहीं बढ़ सकता, अपनी बुस्ति से विचारकर
अपनी आूँ खतं से दे खते हुए अपने पै रतं से नहीं चलना चाहता
भ लतग प्रायः हड पू छा करते हैं वक तुम वकसके अनुयायी हत।
अनुयायी कहते हैं , पीछे चलने िाले कत मनुष्य की बुस्ति में आगे चलना पाप

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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हम अपनी आं खतं और अपनी बुस्ति से काम लेना नहीं चाहते हम लतग


यहानहीं सतच ले वक जैसे ईश्वर ने िेद के रचवयता ब्रह्मा, व्यास बि, ईसा
और मुहम्मद साहब कत दत आूँ खें और बुस्ति दे कर भेजा है । यवद िह जानता
वक हमारा काम महात्मा ईसा की आूँ खतं और हजरत मुहम्मद की बुस्ति से
चल जायिाित उसे हमारे वलए अलग दत आूँ खें और विचार करने के वलए
अलमा बुस्ति दे ने की जरूरत की थी। पर नहीं, इसमें उन्ीं लतगतं के समान
हमें भी हतता आूँ खें दी और उन्ीं लतगतं की तरह हमारे पास भी विचार करने
126
स्वतन्त्र बुस्ति की मवहमा
के वलए बुस्ति मौजूद है । अतः हमें वकसी का भरतसा न करके इनसे स्वतन्त्र
रूप में काम लेना चावहये ।

यह हम भी मानते हैं वक आपकी बुस्ति इतनी तेज नहीं है वजतनी


व्यास की थी। पर इसका कारर् यही है वक आप अपनी बुस्ति से उतना
स्वतन्त्र रूप में काम नहीं ले ते, वजतना वक ब्यास ने अपनी बु स्ति से वलया था।
सािारर् मनुष्यतं से कसरत करने िाला एक पहलिान क्यतं अविक पु ष्ट हतता
है ? इसका उिर बहुत साि है । उसने अपने शरीर से सािारर् मनुष्यतंकी
अपेक्षा अविक काम वलया है । हमारा दावहना हाथ बायें हाथ अविक पु ष्ट
क्यतं है ? इसवलए वक हमने अपने दावहने हाथ से बायें हाथ की अपे क्षा
अविक काम वलया है बस, यही दशा बुस्ति की भी है । आप अपनी बुस्ति से
इसवलए काम लेना नहीं चाहते वक आपकी बुस्ति उतनी बलिती नहीं है । पर
आप यही नहीं सतचते वक जब तक हम उससे स्वतन्त्र रूप में काम नहीं लेंगे,
तब तक िह बलिती हत भी नहीं सकती हाूँ , यह सम्भि है वक पहले आपकी
बुस्ति-स्वतन्त्र रूप में चलने से कुछ भूल करे या लपटाकर वगर पडे । पर क्या
यह ठीक नहीं है वक जत वगरता है िही पुष्ट हतता है ? िह मनुष्य कभी
बलिान् नहीं हत सकता, जत वगरने के डर से चलता ही नहीं या अखाडे में
नहीं उतरता।
इस बात की भािना छतड दीवजए वक पुराने लतगतं पर ईश्वर की विशेष
कृपा रही। आप अपनी बुस्ति कत स्वतन्त्र करके उससे स्वतन्त्र रूप में काम
लीवजए। विर दे स्तखए आपकी बुस्ति क्या नहीं कर सकती। आप स्वयं अपने
बुस्ति-बल कत दे खकर चवकत हतंगे आपने यह सतच रक्खा है वक हमारी
बुस्ति अमुक ऋवष के विचारतं से अच्छी नहीं हत सकती, हम मू खण, वनबणल और
गुलाम हैं । बस, अपने विश्वास अनुसार आप सचमुच मूखण वनबणल और गुलाम
बनते जाते हैं ।

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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िह िृक्ष िलता, िूलता, िैलता और हरा-भरा रहता है , जत खूब


खुले मैदान में रहता और स्वतन्त्र रूप में स्वच्छ िायु और प्रकाश कत ग्रहर्
कर सकता। िह पौिे जत वकसी बडे िृ क्ष के छाये में पड जाते हैं वजन्ें
स्वतन्त्र रूप में प्रकाश और हिा नहीं वमलती-िह वकतने पीले , वनबणल और
कमजतर हतते हैं ? ऐसे िृ क्ष न िलते हैं , न िूलते हैं और न बढ़ते हैं । ऐसे
िृक्षतं और मनुष्यतं का जीिन, वनरूत्साह, वनराशा, मूखणता और परािीनता से
वघरा रहता है । वकसी के अनुयायी मत बनत। वकसी का अन्धभि बनने की
सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार

27

आिश्यकता नहीं है ।
िह मनुष्य िन्य है , वजसकी बुस्ति वकसी बाबाजी के हाथ वबकी नहीं
है । संसार में ऐसे ही लतग अविक हैं जत अपनी बुस्ति कत वकसी सम्प्रदाय
मत या मजहब में बाूँ ि चुके है । ऐसी बुस्ति साम्प्रदावयक चक्रतं मजहबी
दायरतं से वनकल कर आगे नहीं बढ़ सकती। सच्ची बात तत यह है वक
हमारी उन्नवत कत साम्प्रदावयक खंडहरतं और पुराने विचारतं की भद्दी दीिारतं
ने इस तौर पर रतक रक्खा है वक इसके बाहर जाकर स्वतन्त्रता का स्वच्छ
िायु लेना कवठन हत गया है । बडी कवठनाई है । हमारी बुस्ति बढ़ना चाहती
है , पर पुराने विचारतं की खाई उसे आगे बढ़ने से रतक दे ती है इस खाई
कत वकसी मजहब के नेता या पैगम्बर ने नहीं बनाया है ; इसे हमने स्वयं
बना रक्खा है । हम चाहें तत पां च वमनट में इसके पार जा सकते हैं ।

सािारर्तः मनुष्य सािारर् संसार या विचार से आगे नहीं बढ़ना


चाहता, िह अपनी पु रानी दशा में पडा रहना अविक पसन्द करता
कभी-कभी यवद कतई उन्नवतशील जीि उच्च विचारतं कत लेकर ऊपर कत
बढ़ता भी है तत िहाूँ पर जनता कत न दे ख कर डर जाता और लौट आता
है । जैसे महान् पु रूषतं या राजराजेश्वर सम्राट कत दे खकर मनु ष्य डर जाता
है , उसी तरह इस स्वतंत्रता और उच्च विचार के पास जाने से मनुष्य डर
जाता और इसकी तरि आगे बढ़ते हुए वझझकता है । मनुष्य सतचता है वक
“क्या हमारे ऐसा आदमी वबना ईश्वर और मजहब के आगे बढ़ सकता
है ? कभी-कभी मनुष्य यह भी सतचता है वक अभी हम इस यतग्य नहीं

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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हैं । जैसे अत्यि उज्जिल प्रकाश कत दे खकर आूँ खें चकमका जाती हैं ,
उसी तरह कुछ मनु ष्य अत्यि उच्च ज्ञान से घबडाकर भाग जाते हैं और
ऊपर उठने की वहम्मत ही नहीं करते। उच्च ज्ञान की पवित्रता, महानता
और चमक छतटे हृदय कत अपने पास नहीं आने दे ती। मनुष्य अपने से
अपने कत दीन, हीन और परािीन मानकर अिनवत के गडहे में पडा हुआ
है । अपनी आत्मा की अद् भुत शस्ति कत अपनी स्वतन्त्र बुस्ति से काम में
लाना नहीं चाहता।
स्वािलम्बन और स्वतन्त्र विचार सारी उन्नवतयतं का मूल मन्त्र है ।
आत्मावभमान और आत्म पूजा िेदाि में बडा महत्व रखता है । हाूँ , वकसी कत
तुच्छ समझना आत्मावभमान नहीं हैं । मनु ष्य जड नहीं. चे तन है । चेतन िही
है , वजसमें बुस्ति या विचार की शस्ति है । मनुष्य की बडाई, छतटाई,

स्वतंत्र बुस्ति का मामला -

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उन्नत्यिनवत और बन्ध-मतक्ष सब उसकी बुस्ति के अिीन में है । कা


यवद आप वकसी मजहब और वकताब के भीतर अपने कत बां ि दे ते
हैं और उस पर तकण करना नहीं चाहते, वकिु उसे ईश्वरकृत मानकर
उसके आने जाने से वझझकते हैं तत समझ लीवजए आप कभी उन्नवत नहीं
कर सकते-आपकत कभी सच्चा ज्ञान नहीं हत सकता ऐसे वसिाि सिणदा
ज्ञान और उन्नवत के बािक हैं । सैंकडतं-बडे -से बडे ज्ञानी गुजर गये हैं ,
सबका आपस में मतभेद है ।इसमें वकसका वसिाि अच्छा है , इसका
वनर्णय हमारी ही बुस्ति के अिीन है । हम सबकी सुनते हैं पर अि में करते
िही हैं , वजसे हमारी बुस्ति स्वीकार करती है ।मुहम्मद साहब के पहले कतई
मुसलमान नहीं था। पहले पहल जत लतग मुसलमान हुए उन लतगतं ने
इसी बुस्ति से ही विचार वकया हतगा वक मुहम्मद साहब की वशक्षायें ठीक
हैं । अब भी हमलतग ईसा, मुहम्मद और व्यास की बाततं कत अपनी ही बुस्ति
से विचार करते हैं । वकस महात्मा की बात सबसे अच्छी है इसे हम अपनी
ही बुस्ति से पू छते हैं । अतः यह वसि है वक हमारी बुस्ति सब से बडी हतनी
चावहए। पर हमारी बु स्ति तब तक बडी नहीं हत सकती जब तक वक उसे
मजहबी और साम्प्रदावयक/बन्धनतं से मु ि न कर वदया जाय। साम्प्रदावयक
लतग अपने अपने सम्प्रदाय ‘के गुरुओं के विचार में आगे नहीं बढ़ना

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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चाहते। उसके आगे सतचना पाप समझ मजहबी लतग अपने ने ताओं
के िाक्यतं पर तकण नहींचकरना चाहते पढ़ते भी िही हैं वजसे उनके
मजहबी आचायण ने कहा है । इसवलए साम्प्रदावयकता लतगतं की बुस्ति कत
िलने , िूलने , िैलने और बढ़ने का अिसर नहीं वमला दू सरे की
सत्य बाततं कत भी इसवलए नहीं मानते वक उनके मजहबी आचायों ने उसे
मानने की आज्ञा नहीं दी है । साम्प्रदावयक मनुष्यतं की बुस्ति कानतं आचायों
के हाथ वबक जाती है । ऐसी बुस्ति कभी उन्नवत नहीं कर सकती গ
u वजस इस्तिय से काम नहीं वलया जाता, िह इस्तिय सिणथा बे कार
और कमजतर हत जाती है ठीक इसी तरह से लतग अपनी बुस्ति से काम
न लेकर अपनी बुस्ति कत कमजतर बना रहे हैं ।
जब कभी आप वकसी पुिक कत पढ़ें तत उसके वसिाितं की केिल
इसवलए सत्य ना समझे वक उसे आपके मजहबी आचायों ने नहीं माना
हैं । वकिु उस पर अपनी स्वतंत्र बुस्ति से पक्षपात रवहत हतकर विचार
करें गे अच्छी बुस्ति पु राने ही जमाने के लतगतं के पास थी यह गलत है ।
सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
आपकी बुस्ति व्यास और िवशष्ठ से भी आगे बढ़ सकती है पर आश्चयण यह
है वक आप स्वयं उसे आगे बढ़ने से रतकते हैं । आप पहले ही मान बैठते हैं
वक हमारी बुस्ति इन ऋवषयतं की बुस्ति से आगे नहीं बढ़ सकती यही
बन्धन है ; यही विचार उन्नवत का बािक है । सच्ची बात यह है वक आप ऋवष
ही नहीं, साक्षात् ब्राह्मर् हैं । पर आप स्वयं बडा बनना नहीं चाहते। आप बडा
बनने से डर जाते हैं । जत अपने कत छतटा मानता है , जत बडा बनने से डरता
है जत अपने कत हर तरह से अयतग्य मानता है और जत स्वयं अपनी उन्नवत
नहीं चाहता उसकी उन्नवत वकसी के मान की नहीं है । आप ईश्वर हैं .
आपकी बुस्ति वकसी से कम नहीं है । अपनी स्वतंत्रता बुस्ति से विचार कीवजए
तत सचमुच-विज्ञान का स्तिरं दा सामने से हट जाएगा और ज्ञान की ज्यतवत
चमक उठे गी। आप खूब जानते हैं वक मु सलमानतं कत अपने कुरान का दतष
कभी दृवष्टगतचर नहीं हतता यवद मुसलमान स्वतंत्र बुस्ति से काम लेते तत
बहुत अच्छा हतता। पर आप यही बात िेदतं और पुरार्तं कत पढ़ते िि भूल
जाते हैं । आप भी स्वतन्त्र और वनष्पक्ष बुस्ति से काम नहीं लेते। एक ईसाई
बाइवबल कत पढ़कर उसके दतषतं कत नहीं जान सकता, क्यतंवक उसकी बु स्ति
पक्षपात से वघरी हुई है । एक ईसाई समझता है वक इजील ईश्वरकृत है अतः
िह वनदोष है । और आयण।और मुसलमान इस वनदोष नहीं मानते और उसकी
बुस्ति पर तरस खाते हैं । पर साथ ही अपने पर तरस नहीं खाते, जब स्वयं
िेदतं और कुरान कत ईश्वरकृत मानते हैं । एक आयण यह सतचता है वक वकतनत

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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अच्छा हतता यवद लतग स्वतन्त्र और वनष्पक्ष बुस्ति से काम ले ते और कुरान


तथा इजील कत ईश्वरकृत न समझने । पर आश्चयण यह है वक इसी बात कत
िह अपने वलए नहीं सुनता और अपनी बु स्ति कत िेदतं के चारतं खूंटतं
बां िकर जकड दे ता है । हम यह नहीं कहते वक आप खामख्वाह हमारी बाततं
कत मान लें कभी नहीं| हम केिल इतना ही चाहते हैं वक यवद आप स्वतन्त्र
और जीिन मुि हतना चाहते हैं और चाहते हैं वक सच्चे ज्ञान का अनुभि कर
सके तत इसकी बडी जरूरत है वक अपनी बुस्ति विचार कत अत्यि स्वतन्त्र,
स्वािीन और वनष्पक्ष बनाकर सच्चे ज्ञान का अध्ययन करें । स्वतन्त्र बुस्ति
गुलामी भाितं कत वनकालकर सच्चा ज्ञान दे ती हुई मनुष्य कत जीिन मुि
कर दे ती है और ऐसा जीिन मुि पुं रूष ब्रह्मानन्दं और सच्चे सुख का
अनुभि कर सकता है हा5 F
firsic By AATE as far for EFFERTERSHIPTE

30

अध्याय ४

स्वतन्त्र विचार का महत्व

तुम क्या नहीं कर सकते? तुम अपनी बुस्ति की दु बणलता दू र कर


दत, इसके बन्धनतं कत ततड दत; तुम सब कुछ कर सकते हत पूिणजतं ने जत
कुछ वकया है िह तुम्हें बां िने के वलए नहीं वकिु जहाूँ तक पहुूँ च गए
हैं , िहाूँ से आगे बढ़ने के वलए जैसे वकसी ने यतगाभ्यास करके, विचार
करके और हजारतं पु िकें पढ़कर एक पु िक वलखी है , िह इसवलए वक
लतगतं कत, जत आगे इस मागण से चलें , उन्े कुछ आसानी हत। अच्छा, इस
लेख के पहले इस विचार कत सुगम करने िाली ऐसी अच्छी पु िक नहीं
थी। अत: उनके वलए या उसके पहले के लतगतं के वलए यह मागण उतना
सुगम नहीं था, पर अब उसके बाद के लतगतं के वलए बडी सुवििा हत गई।
अतः यवद आप चाहें तत अब पहले िालतं से कुछ बडी सुवििा हत गई है ।
अतः यवद आप चाहें तत अब पहले िालतं से कुछ आगे बढ़ सकते हैं । पूिणजतं

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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ने वकसी पुिक कत इसवलए नहीं बनाया था वक आप इसके आगे अपनी


बुस्ति न ले जायें। बहुत-सी पु िकें वजस समय के वलए वलखी जाती हैं ,
उसी समय के वलए उपयतवगनी हतती हैं । कुरान या वजला ग्रन्
वजस समय के वलए या वजस दे श के वलए जब बनाए गये थे , उस समय
के वलए सम्भि हत िे उपयतगी रहे हतं। अतः वकसी की वनन्दा करने की
आिश्यकता नहीं है । दे श और काल के विचार से िह ग्रन् कुछ अच्छे रहे
हतंगे। स्वतन्त्र विचार िालतं कत भी अपने पू िणजतं की प्रवतष्ठा करनी चावहए।
पर पक्षपात और अं िविश्वास से दू र रहकर।
जब संसार में वकसी प्रकार की गाडी नहीं थी-वकसी के हृदय में
गाडी का नाम भी नहीं था, उस समय वजसने लवढ़या या बै लगाडी बना
वदया, उसने उतना ही कमाल वकया था, वजतना इस समय मतटर गाडी
बनाने िाले ने वकया है । हमें उस पुराने लवढ़या बनाने िाले का कृतज्ञ हतना
चावहए, पर कृतज्ञता से मतलब यह नहीं हैं वक हम यह मान बैठें वक िही
अितार था, दू सरे अब इससे आगे नहीं बढ़ सकते, यह अं िविश्वास है ;
सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार

31

यह उन्नवत का कंटक हैं । मतटर बन चु की है क्या गाडी की उन्नवत की


यही सीमा है ? यह बात नहीं है , आप इससे भी अच्छी गाडी बना सकते
हैं पूिणजतं से ज्ञानाजणन करके उससे आगे बढ़ना भी एक प्रकार से उनकी
प्रवतष्ठा ही है । पूिणज तुम्हें लेकर कुछ आगे बढकर तुम्हें मागण में इसवलए
नहीं छतड जाते हैं वक अब तुम पीछे की ओर लौट जाओ। िािि में उनका
उद्दे श्य यह था वक यहाूँ तक तत हमने तुमकत पहुूँ चा वदया है अब तुम भी
इसी प्रकार दू सरतं कत लेकर इससे आगे बढ़त-यही उनकी प्रवतष्ठा है ।
स्वामी दयानन्द जी अपने समय के एक स्वतन्त्र विचार िाले थे। िह
कभी आगे बढ़ने से इसवलए नहीं रुके वक पुराने लतग इससे आगे नहीं गए
हैं । स्वामी जी का जीिन यह नहीं बतलाता वक तुम उसके आगे न बढ़त।
संसार आज भी िहीं नहीं है , जहां स्वामी जी छतड कर मरे थे । सच्ची बात
है वक स्वामी जी का सच्चा वशष्य िह नहीं हैं , जत उनका अनुयायी है । िह
इस विचार के विरूि थे । जैसे िह अपने समय में एक स्वतन्त्र विचार के

मनुष्य थे , उसी तरह से उनके वशष्यतं कत अपने समय में हतना चावहए।

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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स्कूल के नीचे के दजे में जत मास्टर हमे पढ़ाते थे , िह केिल इन्ट्िेन्स ही


पास थे। उस िि उस कक्षा में पढ़ने के वलए हमने उन्ें अपना गुरु बना
वलया था। इसका मतलब यह नहीं है वक इन्ट्िेन्स पास कर ले ने पर भी
उन्ीं से पढ़ते रहें । बु ि, ईसा और मुहम्मद वजस िि पैदा हुए थे दु वनयाूँ
अब भी िहीं नहीं है । उन्ीं पुरानी वकताबतं और पुराने विचारतं से अब काम
नहीं चलेगा। इस बात से हमारे आयण समाज भाई बहुत प्रसन्न हतंगे, पर
यवद यही बात हम उनके वलए कहें तत नाराज हत जायेंगे। क्या संसार
आज भी िहीं है जहाूँ स्वामी जी के िि में था?
बेटा यवद बाप से अविक पढ़ ले तत बाप प्रसन्न हतता है ; नाराज
नहीं। स्वामी जी के वशष्य यवद स्वामी जी से भी आगे बढ़ जायें तत उनकी
आत्मा अिश्य प्रसन्न हतगी। व्यास, िवशष्ठ और कवपल हमसे प्रसन्न हतंगे
यवद हम ज्ञान में उनसे भी आगे बढ़ जायें। जैसे स्वामी जी अपने समय
में एक स्वतन्त्र विचार के मनुष्य थे , उसी तरह से उनके वशष्यतं कत भी
अपने समय में एक स्वतन्त्र विचार का मनुष्य हतना चावहए। स्वामी जी का
आदशण और उद्दे श्य यही बतला रहा है िह वकसी के अनुयायी नहीं थे ,
अतः आयों कत भी उनका अनुयायी नहीं बनना चावहए। िह सवष्ट कम के
विरूि वकसी बात कत नहीं मानते थे । पर सत्याथण प्रकाश में वलखा है वक
32
जत स्वतन्त्र विचार का महत्व
सृवष्ट की आवद में “वबना बाप-माूँ के बहुत से जिान -जिान स्त्री पुरूष पैदा
हत गए। क्या अब भी आप ऐसी बातें मान सकते हैं ? सृवष्ट कत विषय में
स्वामी जी की बहुत सी बातें ऐसी ही है । इस विषय कत यवद आप वििार
से जानना चाहते हैं तत हमारे बनाए हुए ग्रन् “सृवष्ट विज्ञान शास्त्रा
“मुवन समाज और आयण समाज” तथा “सत्याथणप्रकाश की वनष्पक्ष आलतचना है .
मूँगा कर दे स्तखए। स्वामी जी ने वजस तौर से सृवष्ट की उत्पवि मानी
है -वजस तौर से ईश्वर और जीि कत माना है -िह् अंसम्भिः है । सम्मि
है , उस उि के लतगतं की उस पर दृवष्ट न गई हत, पर क्या आज भी हम
उसे आूँ ख बन्द करके मानते रहें ? कभी नहीं स्वामी जी ने सबकी पूजा
छु डा दी तत इसका यह मतलब नहीं वक िह अपने कत पुजाना चाहते थे ।
सत्य कत ग्रहर् करने और असत्य कत त्यागने के वलए सिणदा तैयार रहना
चावहए-यही उनका उद्दे श्य था। िह जब पुराने लतगतं पर खडे हतकर टीका
करते थे -पैगम्बरतं का खिन करते थे -तत लतग उन पर पत्थर बरसाते
थे। उसी तरह से अब यवद कतई दाशणवनक उनका खिन करता है तत
आयण लतग उसे गाली दे ते और मारते हैं । क्या स्वामी जी की आत्मा इससे

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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प्रसन्न हतगी? क्या आयण समाज का यही उद्दे श्य है ?ETTER


यूरतपीय और जमणनी िाले कहते हैं वक क्या कहें यवद वहन्दू लतग
िेद कत हम लतगतं की दृवष्ट से पढ़ें तत उनका बडा उपकार हत। वहन्दू लतग
कहते वक:यवद यूरतवपयन इजील कत हमारी दृवष्ट से पढ़े तत उनका
बडा उपकार हत। दतनतं बातें ठीक हैं । पक्षपात नहीं करना चावहए।पक्षपात
बुस्ति की उन्नवत कत रतक दे ता है । यूरतप के बडे -बडे विलासिर ‘इजील
का पक्षपात कर गए हैं । मुसलमानतं में भी बडे -बडे विलासिी और मंवतक
के जाने िाले सू िी गु जर गए हैं , पर उनमें भी अविकतर कुरान का
पक्षपात कर गए हैं । वहन्दू पस्तित भी इस दतष से खाली नहीं हैं । िह सब
परस्पर एक दू सरे कत दतषी बतलाते हुए भी अपने दतष कत गु र् ही कहते
हैं । इसमें संदेह नहीं वक पूिोिर ‘दाशणवनक, तत्विेिा विलतसतिर यह
सूिी ने पक्षपात छतडकर विचार वकये हतते तत उससे भी उच्च कक्षा का
ज्ञान दे गाए हतते; वजतने वक िे दे गए हैं । पक्षपात मनुष्य कत आूँ ख रहते
हुए भी अन्धा बना दे ता है । यवद दाशणवनक लतग पक्षपात कत अलग कर
तत्वज्ञान का विचार करें तत विचार बहुत ही उच्च कक्षा का हतगा। मुसलमानतं
वकंजल या िेद की अच्छी बातें क्यतं नहीं पसन्द पडतीर क्यतं नहीं वहन्दू
सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
33
लतग कुरान और इं जील की बाततं कत क्यतं गलत बतलाते है । केिल पक्षपात
से। पक्षपात के कारर् हम लतगतं कत दू सरतं की अच्छी बातें भी बुरी मालूम
हतती हैं । इस संसार-क्षेत्र में पक्षपात करने से लाभ कम पर हावन अविक
हतती है । यवद तुम इं जील कत पहले ही खराब समझकर पढ़तगे तत तुम
उसकी अच्छी बाततं से लाभ नहीं उठा सकते आयण लतग केिल खिन के
वलए कुरान या इं जील कत पढ़ते हैं , इससे िे इतना लाभ नहीं उठा सकते
वजतना वक वनष्पक्ष हतकर पढ़ने से उठा सकते हैं । हमलतगतं में से बहुत से
लतग केिल खिन के वलए एक-दू सरे का ग्रन् पढ़ते हैं । यह भी ठीक नहीं
है । न खिन के वलए पढ़त, न उस पर अन्ध विश्वास रखकर पढ़त वकिु
सिणदा ग्रन्तं कत वजसे तुम पढ़ना चाहते हत, पक्षपात रवहत हतकर पढ़त।

__ इजील इलहामी नहीं है -कुरान इलहामी नहीं है -केिल िेद ही


इलहामी है - यह कैसे मालूम हुआ? उिर वमलेगा-बुस्ति से । बहुत से िेद
के मानने िाले कहते हैं वक हमारी बुस्ति ऐसी नहीं है वक िेद की बाततं पर
टीका-वटप्पर्ी करें । िेद ईश्वरकृत हैं , उनके सामने हतते हुए, हमें अपनी

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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बुस्ति पर भरतसा नहीं करना चावहए। पर सतचत तत िेद ही माननीय हैं , िे द


ही इलहामी है और िेद ही ईश्वर कृत है -यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ? हम
कहते हैं , इसी बुस्ति द्वारा मालूम हुआ, वजसे तुम तुच्छ समझते हत, वजसपर
भरतसा नहीं करते। तुम उसी कत तुच्छ बतलाते हत, वजसने तुम्हें िेदतं का
सेिक बना वदया। तुम आयणसमाजी हत गए हत-इसके अनुसार तुम कहते
हत वक तुम अपना सब काम िेदतं के अनु सार वकया करत। पर सतचना यह
है वक आस्तखर तुम आयणसमाजी कैसे हुए- तुमने वकस तरह जाना वक
आयणसमाज अच्छा है ? तुम यही उिर दतगे वक अपनी बुस्ति से ; हमारी
बुस्ति ने ही बताया वक आयणसमाज अच्छा है । तुम तत मानते हत वक
दु वनया में वजतने मजहब हैं उनसे आयण समाज अच्छा है , या दु वनयाूँ में
वजतनी पुिक हैं उनसे अच्छी पु िकें िे द है । अच्छा तुम्हारी बुस्ति ने
तुम्हारे मतानुसार दु वनया में जत सबसे अच्छी चीज थी, उसके पास लाकर
तुम्हें रख वदया-िह चीज तुम्हें वदखला दी-विर इस बुस्ति पर विश्वास
क्यतं नहीं करते?
अनेक स्थानतं पर हम स्वतन्त्र विचार पर व्याख्यान दे चुके हैं । एक
जगह पर हमारे व्याख्यान के बाद एक आयण समाज सज्जन ने हमारे
व्याख्यान का बहुत खिन वकया। उन्तंने कहा वक यह व्याख्यान ठीक
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स्वतन्त्र विचार का महत्व
नहीं है , हम लतगतं कत िे द सिणथा वनिाण ि मानना चावहए िेद के कतई
िाक्य ऐसे नहीं हैं , जत भ्राि हतं या जत माननीय न हतं। िेद सबसे पुरानी
पुिक है , अतः उसके ईश्वरकृत हतने में कुछ सन्दे ह नहीं है । उन्तंने कहा
वक स्वतन्त्र विचार िालतं की िही गवत हतगी जैसे एक उखडे हए पतंग
की। िेद कत वनभ्रां त मानकर चलने ही में हमारा कल्यार् है ; हमें अपनी
इस क्षुद्र बुस्ति पर कदावप विश्वास नहीं करना चावहए। हम ऐसे लतगतं से
यही पूछना चाहते हैं वक आस्तखर आपने जत हमारे व्याख्यान या मिव्य का
खिन वकया िह कैसे वकया? आस्तखर आपने अपनी उसी बुस्ति से काम
वलया या नहीं वजसे आप क्षुद्र और विश्वास न करने यतग्य बतलाते हैं ।
जैसे आप िेदतं कत वनिाण ि मानते हैं , ठीक उसी तरह दू सरे लतग भी
अपने -अपने मजहबी ग्रन् कत वनभाण ि और ईश्वरकृत कहते हैं -इसका
उिर आपके पास क्या है ? यही न वक बुस्ति द्वारा खूब विचारने से आप
ही का ग्रन् ईश्वरकृत ठहरता है । बस, वजस मानि- बुस्ति कत आप तुच्छ
बतलाते हैं उसी के वनर्णय पर आपने भी अपना वसिाि कायम कर वलया
है । यवद आपकी बुस्ति तुच्छ है तत उसका वनर्णय वकया हुआ यह वसिाि

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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वक हमारे िेद ही ईश्वर कहते हैं . आप कैसे मानने लगे ? नहीं इस स्वतन्त्र
बुस्ति पर भरतसा कगे इसका आश्रय मत छतडत- तुम भी हठी और दु राग्रही
मत बनत। तुम्हारी वजस स्वतन्त्र बुस्ति ने , तुम्हारे वजस स्वतन्त्र विचार ने ,
तुम्हें (तुम्हारे मतानुसार) आयणसमाज ऐसे ऊूँचे मत पर पहुूँ चाया है , उस
बुस्ति या विचार कत यवद अब भी स्वतन्त्र रखतगे तत इससे तुम्हारा भला ही
हतगा और सम्भि है वक तुम इससे भी अच्छे सम्प्रदाय या मजहब में प्रिेश
कर सकत। यही बात मुसलमान ईसाई तथा और मजहब िालतं के वलए भी
है । तुम्हारे स्वतन्त्र विचार ने ही तुम्हें िेद तक पहुूँ चा वदया। अतः अब उसे
ही त्याग दे ना यतग्य नहीं है । िेद यवद सचमुच ईश्वर कृत है तत आपका
स्वतन्त्र विचार आप से आप उसे न छतड सकेगा; क्यतंवक आस्तखर उसी ने
तत िेदतं कत चुना है । ईसाई इं जील कत मु सलमान कुरान कत ईश्वरकृत
मानते हैं । तुम उनसे कहते हत वक जरा स्वतन्त्र विचार से काम लत तत तुम्हें
मालूम हत जायगा वक ये इलहामी नहीं हैं अच्छा तत यही बात तुम अपने
क्यतं नहीं मानते? तुम भी स्वतन्त्र विचार से काम लत तत शायद उससे भी
अच्छी वसिाि, अच्छे ग्रन् और अच्छी मौत का पता लगा सकत। तुम
कहते हत वक अमुक सम्प्रदाय का मनुष्य स्वतन्त्र विचार से इसवलए काम

सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार


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नहीं लेता है वक डर वक इससे उसका ितणमान सम्प्रदाय छूट जायगा
क्यतंवक उसमें सत्यता नहीं है और स्वतन्त्र विचार सत्य का प्रकाश है ।
अच्छा यवद स्वतन्त्र विचार सत्य का प्रकाश है और यह असत्य कत
छु डाता है तत यवद तुम्हारा सम्प्रदाय सत्य है तत स्वतन्त्र विचार से डरते
क्यतं हत? सभी सम्प्रदाय िाले कहते हैं वक हमारा ग्रन् वनभ्रभाि
है -ईश्वकृत है -उसी तरह तुम भी कहते हत वक हमारा ग्रन् वनिाण ि
है -ईश्वरकृत है -अतः तुम्हारे कथन में भी कतई विशेषता नहीं है ।

स्वतन्त्र विचार िाले चाहे उखडे हए पतंग के समान हतं या कटे हए


िृक्ष के समान हतं पर स्वतंत्रता सभी चाहते हैं वपंजडे से छूटने पर एक
पक्षी कत चाहे कुछ भी दु ःख क्यतं न उठाना पडे . पर चाहता है िह स्वतन्त्र
ही हतना। स्वतंत्र रहकर सू खी रतटी खाना तुम पसन्द करतगे घर कैद
रहकर मतहनभतग और कचौडी खाना नहीं। कुछ ऐसी बात अिश्य है वक
सभी स्वतंत्रता पसन्द करते हैं स्वतंत्र दे श स्वतंत्र व्यस्ति और स्वतंत्र

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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जावत उन्नवत करती है तत क्या स्वतन्त्र विचार िाला उन्नवत न करे गा?
स्वतन्त्र विचार िाला उखडे हुए पतंग के समान नहीं हतता-स्वतन्त्र दे श
स्वतंत्र जावत और स्वतंत्रता पु रुष इिर उिर मारा-मारा नहीं विरता। िह
वजस तरह विरने या घूमने में स्वतंत्र है उसी तरह एक जगह बैठने में
भी स्वतंत्र है । स्वतन्त्र विचार िाला सबसे अविक शाि, स्तस्थर, गम्भीर
और प्रसन्न रहता है ।

एक ने यह कहा था वक हमारी बुस्ति ऐसी है जैसे हम लतगतं की


जेब घडी। जेब घडी से सिणदा समय दे खकर काम करते हैं पर जब िह
बन्द हत जाता है तत अपने यहाूँ की बडी घडी वगरजाघर िाली से वमला
लेते हैं । इसी तरह जहाूँ अपनी बुस्ति नहीं काम करती वक हमारे वलए क्या
श्रेष्ठ है , िहाूँ इलहामी या ईश्वरकृत ग्रन्तं से वमला लेते हैं । हम कहते हैं
वक इसका क्या मतलब? क्या हम यह कहते हैं वक स्वतन्त्र विचार िाले
इलहामी वकताबतं कत कभी न दे खें? और वगरजेघर िाली घडी सिणदा ठीक
ही रहती है , यह कहाूँ का वसिाि है ? क्या वगरजे की घडी कभी बन्द
नहीं हतती? िह भी बन्द हतती है । और क्या बन्द हतने पर िहां का नौकर
अपनी छतटी जेब घडी दे खकर उसे ठीक नहीं कर दे ता? क्या बडी-बडी
सब घवडयतं से छतटी-छतटी सब घवडयाूँ खराब ही हतती हैं ? ऐसा हतता
तत बहुत सी छतटी-छतटी घवडयाूँ बडी-बडी घवडयतं से भी अविक मूल्य पर

स्वतन्त्र विचार का महत्व

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क्यतं बनाती? और जाने दीवजए, यह बडी-छतटी तमाम घवडयाूँ वकसने


बनाई हैं ? इन्ीं मनु ष्यतं की बुस्ति ने वजसे तुम तुच्छ समझते हत। वजसने
वगरी की घडी बनाई उसने जेब घडी भी बनाई है । वजसने िेदतं कत
बनाया है , क्या उसी ने मनुष्य की बुस्ति कत भी नहीं बनाया है ?
सत्याथण -प्रकाश की प्रवतष्ठा इसवलये नहीं है वक उसे स्वामी जी ने
कहा है , वकिु स्वामी जी की उससे प्रवतष्ठा है वक सत्याथण -प्रकाश ऐसी
पुिक कत ‘वलखा है । तुलसीदास के कारर् रामायर् की प्रवतष्ठा नहीं हैं ,
वकिु रामायर् के कारर् तुलसीदास की प्रवतष्ठा है । तुलसीदास कत कतई
जानता भी नहीं, यवद िे रामायर् ऐसी पु िक न बनाते। श्रीकृष्ण के कारर्

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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भगिद्गीता की प्रवतष्ठा नहीं है वकिु भगिद्गीता के कारर् श्रीकृष्ण की


प्रवतष्ठा है । कौन जानता वक श्रीकृष्ण ऐसे महात्मा और आत्मज्ञानी थे यवद
उनके द्वारा भगिद्गीता ऐसी पु िक न कही गयी हतती। बस वकसी भी
ग्रन् की प्रवतष्ठा इसवलये नहीं हत सकती वक उसे वकसी बडे आदमी ने
कहा है , वकिु उस ग्रन् की उिमता और सत्यता की प्रवतष्ठा का
कारर् हतंगी और ग्रन् की सत्यता और उिमता से उसका रचवयता भी

बडा कहला सकता है ।

ग्रन् और रचवयता दतनतं की प्रवतष्ठा युस्तियुि सत्य वसिाि ही


करा सकता है , अतः वकसी भी मनुष्य के लेख का िह अं श जत युस्तिहीन
है -यथाथण , सत्य और उपयतगी नहीं है -िह कदावप मानने यतग्य नहीं है ।
वक इसी यथाथण ने ही उस मनुष्य कत बडा करने के वलए
वििश वकया है । यवद िह भी कहीं यथाथण कहने से चूकता है तत उसका
िह अंश माननीय नहीं है । उस अंश के वलए िह बडा नहीं है िह यवद
बडा है , िह यवद गुरु है तत उसी अंश के वलए, जत उसने यथाथण कहा है ।
शूद्र, गंिार, ढतल, पशु , नारी।
ये सब ताडन के अविकारी।।
चाहे वकसी ने कहा है , यह वसिां त ठीक नहीं हत सकता। इस
चौपाई कत केिल गतस्वामी तुलसीदास जी के कहने मात्र से नहीं मानना
चावहए। बुस्ति से काम लीवजए तुलसीदास जी मुहम्मद साहब या ईसा मसीह
कभी भूल नहीं कर सकते, यह वसिां त ठीक नहीं है । यह मानकर, इसा
चौपाई कत ततड-मरतडकर अच्छा अथण वनकालना भी व्यथण है । कुरान की कतई
आयत यवद बुस्ति के विरूि है तत उसे यह समझकर वक इसमें कतई बात एस

कारर् यह

सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार


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हत ही नहीं सकती, उसे ततड-मरतडकर उसका दू सरा अथण वनकालना
अनाविकार चेष्टा करनी है । अविकतर लतग ऐसा ही करते हैं । कतई निीन
विचार यवद उनके हृदय में आया तत साि-साि अपना विचार कहके नहीं
वलखते; वकिु उसे िे द, पु रार्, कुरान और इं जील से वसि करने लगते हैं ।

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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ततड-मरतडकर प्राचीन पु िकतं में से अपने विचार की बातें वनकालते हैं । इस


शैली ने आज तक बडे -बडे अनथण वकये हैं । इससे निीन और प्राचीन दतनतं
वसिाितं कत िक्का लगा और तत्व तथा पदाथण का अविकां श वछपा रहा।
पहली बात तत यह है वक ग्रन् कुिा के इस कायण से अविकतर लतगतं
ने यह समझ रक्खा है वक जत कुछ है िह प्राचीन ग्रन्तं ही में है और िे
सिणदा वनभ्राण ि हैं । एक ग्रन् कत वलखे लाखतं िषण व्यतीत हत गए पर इस
समय में भी वजन-वजन लतगतं का अिलम्बन करने से हमारी उन्नवत हत
सकती है , िे सब उन्ीं प्राचीन ग्रन्तं में वलखे हैं , यह कैसे हत सकता
है ? ऐसा मानने से एक बडा अनथण तत यह हतता है वक अथों और
मानी-मतलब के ततड मरतड से ग्रन् और ग्रन् कुिा दतनतं का भाि चौपट
हत जाता है ।

यवद वकसी प्रवतवष्ठत ग्रन् का कतई अं श आप नहीं मानते तत उसे


स्पष्ट वलख दीवजए वक इस ग्रन् का यह अंश हम नहीं मानते और अपने
मंतव्यतं कत युस्ति-प्रमार् से वसि कीवजए। इससे सबका िािविक
उपकार हतगा। वकसी महात्मा के ले ख का कुछ अंश न मानना ठीक है ,
पर उसके अथण का अनथण करना या उसे ततड-मरतडकर उसके स्वाभाविक
भाि कत नष्ट करना अच्छा नहीं है । इस विषय पर िेद ने भी एक बहुत
अच्छी बात कही है

यान्यस्माकं सुचररतावन तावन


त्वयतपास्यावन नत इतरावर्।।
के
अथाण त् हमारे में जत अच्छी बातें हैं (हमारे में जत वसिाि युस्ति-संगत
िही तुम्हारे वलए माननीय हैं ; दू सरे नहीं। स्वामी जी या वकसी महात्मा
अनुयायी हतने का यह मतलब नहीं है वक तुम आूँ ख बंद करके उनकी
सब बाततं कत मान लत; वकिु अनुयायी हतने का यह मतलब है वक वकस तरह
िे अपने समय में स्वतन्त्र विचार के थे िै से आप भी अपने समय में एक
स्वतन्त्र विचार के हतं। वजस तरह िे महात्मा अपने पू िणजतं के वकसी भी
वसिाि कत वबना विचार नहीं मानते थे , उसी तरह आप भी उनके
स्वतन्त्र विचार का महत्व

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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वसिां ततं कत वनभाता न माने वकिु बुस्ति की कसौटी पर रखकर दे खें और


जत मानने यतग्य हत उन्ें माने।

तुम्हारे में इसी बात की कमी है वक तुम अपनी आत्मा कत छतटी और


बुस्तिहीन समझते हत-उसे उसकी शस्ति विकवसत नहीं हतती। तुम अपनी
बुस्ति कत िैलने नहीं दे ते वकिु सब तरि से दबाने का यत्न करते हत। हमारे
पडतसी भी हमें उत्साह दे ने की जगह उत्साहहीन ही करते हैं ।
अंिविश्वास से बडी हावन हुई है । वकतने विचार िालतं कत लतगतं ने हताश कर
वदया है । िािविक बात यह है वक वकसी की आत्मा न्यून नहीं है ; केिल
संस्कार और कायणिश अिस्था भेद से शस्ति-भेद हत गया | तुम अपनी
स्वतन्त्र बुस्ति से वजतना ही काम लतगे , उतनी ही िह अविक बढ़ती और
िैलती जायेगी। जत इस जन्म से ही अविक बुस्तिमान मालू म हतता है , उसका
कारर् भी पू िणजन्म का संस्कार ही है । लतग मजहब कत नजात पाने के वलए
ही ग्रहर् करते हैं ; बं िन के वलए नहीं। हम यवद वकसी िमण कत स्वीकार
करते हैं या कतई िमाण नुष्ठान करते हैं तत इसीवलए वक इससे मुस्ति सुख, स्वगण
सुख अथिा अभ्युदय प्राप्त कर सकेंगे । पर यवद िमण या मजहब हमारे वलए
अिनवत का कारर् हतता है -हमारी उन्नवत के मागण का कंटक हतता है -िह
मुि करने की जगह बन्धन दे ता है -तत सत्य जानना वक ऐसा “िमण िमण या .
मजहब नहीं है । खेद है वक इस समय अविकतर लतग मजहबी और िावमणक
हतकर जीिनन्मुि नहीं हतते, वकिु एक बंिन में पड जाते हैं और अपना
हृदय संकीर्ण बना ले ते हैं । िावमणकतं का हृदय महात्माओं का हृदय, उपदे शकतं
का हृदय और विद्वानतं का हृदय या विचार भी सं कीर्ण हत तत इससे बढ़कर
आश्चयण का विषय और क्या हत सकता है ? चाहे जत हत पर दे खने में
अविकतर ऐसा ही आता है । विशेषकर भारतिषण में इसकी अविकता है । यहाूँ
के ग्रन् कताण ओं कत पुिक वलखते समय यह भय बना रहता है वक कहीं
हमारी पुिक पुराने लतगतं के विरूि न पडे नहीं तत खरीदना और पढ़ना तत
दू र रहे , कतई इस पु िक कत स्पशण तक न करे गा। वजन-वजन दे शतं की
आजकल उन्नवत हुई है -वजन-वजन दे शतं में आजकल बडे -बडे विद्वान्
उत्पन्न हुए हैं - िहाूँ पर विचार की ऐसी सं कीर्णता नहीं हैं । ऐसे उन्नत और
सभ्य दे शतं में यवद कतई मनुष्य वकसी निीन बात पर पुिक वलखे या वकसी
निीन ििु का आविष्कार करे तत उसकी दे श में बडी प्रवतष्ठा हतती है और
िह समाज में श्रिे य हतता है । पर यहाूँ जत वजतना ही पु रानी बाततं का मानने

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार


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िाला हत-जत वजतना वबना विचारे पुराने मागण पर अपना सूत काते जाय-जत
वजतना ही पुरानी ििुओं से कुछ भी कमी न वदखलािे और उसे ईश्वरकृत
वसि कर दे , िह उतना ही प्रवतवष्ठत पू ज्य और पक्का सनातनिमी समझा
जाता है । हमारे दे श में इस समय ऐसे सनातनिवमणयतं के िचन बडे मूल्यिान
और श्रेष्ठ माने जाते हैं । पर िािि में सनातनिमण का कतई वसिाि मनुष्य
कत संकीर्ण हृदय का नहीं बनाता। वनम्नवलस्तखत िचन सनातन िमण ही के हैं

युस्तियुिमुपादे यं िचनं बालकादवप।


अन्यिृर्वमित्याज्यमप्युिं पद्यजन्मना।।
िेदा विवभन्नाः स्मृतयतं विवभन्ना।
नैकत मुवनयणस्य मतं न वभन्नम्।।
विर भी हम स्पष्ट वलख दे ना चाहते हैं वक हमने स्वतन्त्र विचार का
अिलम्बन केिल इसवलए नहीं वकया है वक प्राचीन काल के लतग इसके
विरूि नहीं थे । पु राने चाहे विरूि क्यतं न रहे हतं यवद िह मागण
लाभदायक और सच्चा है तत आिश्यक ग्राह्य है । यवद कतई मागण सच्चा है
तत उससे इसवलए नहीं डरना चावहए वक इस पर वकसी महात्मा ने पैर नहीं
रक्खा, इस पर पुराने लतग नहीं लगे । ऐसे विचारतं से उन्नवत नहीं हत
सकती।

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मुस्ति, नजात, सैलिे शन और स्वतंत्रता

हमारे पाठक यह कह सकते हैं वक िमण ; सम्प्रदाय और मजहब या


िावमणक ग्रन् हमें मुस्ति वदलाने की प्रवतज्ञा करते हैं , पर यह स्वतन्त्र विचार
हमें क्या दे ता है ? वपछले अध्यायतं में स्वतन्त्र विचार पर िाद-वििाद खूब
हत चुका, पर प्रश्न यह है वक इस विचार और वििाद से लाभ क्या है ?
ठीक है । अच्छा सुवनए-मुस्ति या स्वतन्त्रता बहुत बडी ििु है । स्वतन्त्रता
कहते हैं स्वािीनता का स्वािीन िह है , जत वकसी के बन्धन में नहीं है ,

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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िही मुि है । बन्धन का न हतना मुस्ति है । अतः मुस्ति का अथण है


स्वतन्त्रता। स्वतन्त्रता और मुस्ति दतनतं एकही दशा के एकही अिस्था के
दत नाम हैं । मजहब, सम्प्रदाय-मतमतािर और मजहबी ग्रन् मनुष्य कत
मुि करने िाले नहीं बन्धन में डालने िाले हैं । पर यह सत्य हैं वक मनुष्य
इसी मुस्ति और नजात के लतभ से मजहबी घेरे में पडा हुआ है । पर इसे
खूब सतच लत, मजहबी वकताबें मनुष्य कत बाूँ िने िाली हैं , मु ि करने िाली
नहीं। मजहबी वकताबतं कत छतडकर और वजतनी वकताबें हैं , उन्ें मानने या
न मानने के वलए आप स्वतन्त्र हैं ; पर आप वजस मजहब में है , उस मजहब
की वकताब मानने के वलए वििश हैं और बूँिे हुए हैं । कुरान शरीि की
केिल कुछ अच्छी बाततं कत मानने िाला मुसलमान नहीं है , वकिु कुरान
की प्रत्येक बात कत, कुरान की प्रत्ये क आज्ञा कत मानने के वलए जत वििश
हत, िह मुसलमान है । इं जील की अच्छी बातें क्या मुसलमान और वहन्दू
नहीं मानते? अच्छी बात और अपनी पसन्द की बातें कौन वकसकी नहीं “
मानिता? पर मजहब में अपनी प्रसन्नता का प्रश्न नहीं है , िहाूँ तत गुरुडम
है , गुलामी है , वििशता है । मजहबी वकताबतं की बातें माननी ही पडें गी।
इं जील की केिल अच्छी बाततं कत मानने िाला ईसाई नहीं है । ईसाई िह
है , जत केिल ईसा कत ईश्वर का पुत्र समझकर, उसकी तमाम बाततं कत
आूँ ख बन्द करके मानता और आज्ञाओं पर तकण नहीं करता।
मनुष्य मनतमय है । मनुष्य िही है , िैसा ही है और उतना ही
है -जैसा उसका मन है । अतः जत मजहब, मजहबी नेता और मजहबी

सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार

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वकताब मनुष्य, मनु ष्य के मन और मनु ष्य की आत्मा कत बां िने िाली हैं , िह
मुस्ति नहीं दे सकतीं। बन्धन में मुस्ति कहां ? परतन्त्रता में स्वतन्त्रता
कहां ? परािीनता में स्वािीनता कहां ? अतः मनुष्य कत मुि करने िाला
मजहब नहीं है , मजहबी वकताबें नहीं है और मनुष्य की स्वािीनता कत
छीनकर उसे गुलाम बनाने िाला ईश्वर भी नहीं है । मनुष्य कत मुि करने
िाली उसकी स्वतन्त्र आत्मा है , उसके स्वतन्त्र विचार हैं और उसका
स्वािलम्बन, आत्मावभमान और आत्म पू जा है । मुस्ति दे ने िाली मजहबी
आज्ञाएूँ नहीं है वकिु स्वतन्त्र विचार ही एक ऐसी ििु है जत मनुष्य

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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तमाम बन्धनतं कत नष्ट कर स्वतंत्रता और मुस्ति दे सकती है । मजहब


प्रवतज्ञा करता है मुस्ति वदलाने की पर दे ता है बन्धन। उिारी बाततं पर,
काल्पवनक स्वगण का एक अद् भुत रूप गढ़कर, यह मजहब-भतले -भाले
मनुष्यतं कत िंसा ले ता है । मजहब के जाल में िंसे हुए मनुष्य के वलए
मुस्ति कत प्राप्त करना कवठन ही नहीं असम्भि है । सं स्कृत में वजसे मुस्ति
कहते हैं , उसी कत अरबी में नात और अंग्रेजी में सैलिे शन कहते हैं ।
वजस अिस्था में बन्धन न हत िही मुस्ति है । रे शम की डतरी और सतने के
जंजीर से भी बं िा हुआ मुि नहीं कहला सकता। परतंत्रता या बन्धन
कतइ ऐसी गू ढ़ बात नहीं है , वजसे मनुष्य समझना चाहे और समझ न सके।
केिल शूद्रतं का गुलाम गुलाम नहीं है , ब्राह्मर् का गु लाम भी गु लाम ही है ।
केिल दे िताओं.और भूततं का गुलाम गुलाम नहीं है , ईश्वर का गुलाम भी
गुलाम है : ईश्वर के से िक भी सेिक ही |। ईश्वर की अस्तित्व मानने
िाला, जीिात्मा या मनुष्य आत्मा कत सिण था स्वतंत्रता नहीं मान सकता।
आयण समाज के लतग मनुष्य आत्मा कत कमण करने के वलए स्वतन्त्र और िल
भतगने में परतन्त्र मानते हैं । कतई बात हत, जत दू सरे का मुूँहताज है , जत
िल भतगने मे परतन्त्र है , िह मुि नहीं कहला सकता और न ऐसी
अिस्था कत कतई मुस्ति कह सकता है । कमों का िल कमों के साथ ही
लगा हुआ है । गडहे की तरि जाने िाला अिश्य वगरे गा: आग में उं गली
डालने से अिश्य जलेगी; ईश्वर कत िल दे ने की आिश्यकता नहीं है ।
ईश्वर कत मानने िाले उसे सबका वनयिा और शासक मानते हैं । शासक
चाहे अच्छा हत या बु रा पर दू सरतं के शासन में रहने िाला कभी स्वतन्त्र
और मुि नहीं कहला सकता। जब तक आप शावसत हैं , जब तक आपके
ऊपर दू सरतं की हुकूमत है , चाहे िह ईश्वर ही क्यतं न हत, आप मुस्ति और
स्वतंत्रता अनु भि नहीं कर सकते। ईश्वर के अस्तित्व का भाि मुस्ति;

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मुस्ति, नजात, सैलिे शन और स्वतंत्रता

स्वतंत्रता और स्वािीनता का विरतिी है । ईश्वर के शासन कत उलटकर


उसे अस्वीकार करके, स्वतन्त्र और मु ि हत जाने के वलए बहुत बडी सेना;
सामग्री और िन की आिश्यकता नहीं है , क्यतंवक उसका शासन केिल
कल्पना भािना और िमण भीरुता के अन्दर है । यहाूँ इन ले खतं में िमण शब्द

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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कतणव्य के अथण में नहीं कहा गया है , यहाूँ िमण से मतलब मतमतािर,
सम्प्रदाय और मजहब से है । िािि में ईश्वर ने कभी नहीं कहा वक हमारे
शासन के भीतर रहत और मजहबी वकताबतं और पुरतहततं की आज्ञाओं के
विरुि न चलत। ईश्वर का शासन कल्पना और भािना मात्र है ; यह केिल
िमणभीरु मनुष्यतं का भ्रम है । अतः जत भ्रम मात्र है , उसे दू र करने के वलए
सेना और शस्त्रास्त्र की आिश्यकता नहीं है , आिश्यकता है तत केिल
स्वतन्त्र विचार िािविक और सत्य ज्ञान की। िेद का भी िचन है -ऋते,
ज्ञानान्न मुस्ति’ अथाण त वबना ज्ञान कत मुस्ति नहीं हत सकती।
कल्पना और भ्रम मात्र के बंिन कत ततडने के वलए सच्चा ज्ञान या
स्वतन्त्र विचार पयाण प्त है । अतः मुस्ति कत दे ने िाला ईश्वर या मजहब नहीं,
वकिु यही स्वतन्त्र विचार है वजसकी मवहमा अभी तक आपकतं मालूम
नहीं है । सच्चा ज्ञान हर प्रकार के बन्धन और पदे कत हटा दे ता है । सबसे
बडा अन्धकार अज्ञान है , ठीक इसी प्रकार से सबसे बडा प्रकाश ज्ञान है
अज्ञान ही सबसे बडा बन्धन है और ज्ञान ही सबसे बडी मुस्ति है ।
ईसा मसीह ने कहा है -”ऐ हमार बाप जत आसमान पर है तेरी
बादशाहत आिे ’। सतवचए तत सही, वकसी दू सरे की बादशाहत, वकसी दू सरे
का राज-”स्वराज नहीं कहला सकता चाहे िह अपने बाप ही का क्यतं न
हत। इवतहास खतल करके दे स्तखये , इस बात कत सचमुच लतगतं ने अनु भि
वकया है । यवद ऐसा न हतता तत औरं गजेब कभी अपने तमाम भाइयतं कत
मार कर अपने सगे बाप कत जेल में न डाल दे ता। एक औरं गजेब ही ऐसा
था, यह बात नहीं है , राज्य के लतभ से विभीषर् ने अपने तमाम कुल का
नाश करने िाला और सुग्रीि ने अपने भाई बावल कत मरिा डाला। वकतनी
रावनयतं ने अपने पवत कत विष दे वदया है । एक-दत नहीं, इवतहास ऐसी
घटनाओं से भरा हुआ है । ईश्वर की बादशाहत के भीतर भी रहने िाला
स्वतन्त्र नहीं कहला सकता। शासन अच्छा बुरा तत हतता ही है । पर, अच्छे
से अच्छा शासन भी बंिन है -िह मुस्ति नहीं कहला सकता। दू सरतं के
अच्छे से अच्छे शास्त्र में रहने िाला भी स्वािीनता स्वतंत्रता और मुस्ति
का रं च मात्र भी अनु भि नहीं कर सकता।
सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार

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स्वतन्त्रता के वलए वकसी राजा से लडना व्यथण है । अपनी स्वतन्त्रता

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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कत बचाने िाले आप स्वयं हैं । मनुष्य एक मनतमय प्रार्ी है । इसकत कतई


दू सरा नहीं बां ि सकता यवद, िह स्वयं बन्धन में न जाना चाहे । दृष्टाि
के वलए हम अपने कत उपस्तस्थत करते हैं - हम ईश्वर कत नहीं मानते; कभी
ईश्वर ने हमें अपने कत (अथाण त् ईश्वर कत) मानने के वलए, अपने पर
विश्वास लाने के वलए वििश नहीं वकया। कभी ईश्वर हमसे नाराज नहीं
हुआ। कभी ईश्वर ने हमसे नहीं कहा वक “हमारा शासन तुम्हें मानना
पडे गा। अतः मुस्ति के वलए वकसी से लडने की आिश्यकता नहीं; यह
बन्धन केिल अज्ञान, कल्पना और भ्रम मात्र है । अतः इसे ततडकर िेंक
दे ना कतई कवठन कायण नहीं है हम जानते हैं वक काल्पवनक ईश्वर कत
छतडते िि मनुष्य का हृदय कॉप उठता है । जन्म-जन्मािर से गुलामी
करने के कारर् हृदय अत्यि दु बणल हत गया है । पर मुस्ति और स्वतन्त्रता
वबना हृदय कत मजबूत वकये नहीं वमल सकती। काल्पवनक बन्धन कत भी
ततडने में अज्ञान के कारर् कवठनता हत रही है । पर इस ले ख कत यवद
आप वनष्पक्ष हतकर स्वतन्त्र विचार के साथ पढ़ें गे और बार-बार मनन करें गे

तत हृदय की दु बणलता अिश्य नष्ट हत जायगी।


परमवपता परमात्मा की कल्पना तत मजहबी वकताबतं ने की है ; उसे
छतवडए दृष्टाि के वलए पहले सां साररक वपता कत दीवजए। वपता का अपने
बालकतं पर वकतना प्रेम हतता है । वपता हर तरह से अपने छतटे बच्चतं कत
मानता है , बच्चा भी वपता से प्रेम करता है , पर जब तक िह वपता के सामने
बैठा रहता है , अपने कत कुछ सु रवक्षत समझते हुए भी एक प्रकार का
बंिन अनु भि करता है । बच्चा वपता के सामने अपने मन की नहीं कर
सकता। अपने मन का खेल भी नहीं खेल सकता, अपने मन की चीजें भी
नहीं खा सकता, अपने मन का भर पेट न हूँ स सकता है , न बतल सकता
है , न. दौड सकता है और न कुद सकता है । पर िही बच्चा, जब वपता
आविस चला जाता है और िह स्वतन्त्र हतकर अपनी उमर के बच्चतं के
साथ वमल जाता है तत वकतना हृदय से प्रसन्न हतता है , यह वकसी से वछपा
नहीं है ; क्यतंवक हमारे पाठक सभी एक वदन बालक भी रह चु के हैं । वपता
के प्रेम के साथ ही साथ बच्चतं पर वपता का शासन भी हतता है । प्रेम हतने
पर भी वपता के सामने बैठा हुआ बच्चा स्वािीन और स्वतन्त्रता नहीं है ।
वपता के सामने बच्चा जत चाहे खा नहीं सकता, अपने वमत्रतं के साथ
स्वतन्त्रतापूिणक जत चाहे िह न बतल सकता है , बातें कर सकता है , न

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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मुस्ति, नजात, सैलिे शन और स्वतंत्रता

खेल सकता है । बडतं का प्रेम बच्चतं पर अिश्य हतता है । पर गु रु, मास्टर,


वपता, वशक्षक और दू सरे बडतं के पास रहने पर सब हतने पर भी यह सिणथा
सत्य है वक बालक स्वािीनता, स्वतंत्रता मुस्ति और उतनी प्रसन्नता का
अनुभि नहीं करता। क्यतं? बात यह है वक प्रसन्नता और िािविक सु ख,
स्वािीनता, स्वतंत्रता और मुस्ति में है , परतन्त्रता और बन्धन में नहीं।
बच्चे कत वमठाई खाना है , पैसा नहीं है , िह वगडवगडा कर या कुछ
लस्तज्जत हतकर वसर नीचा करके डरता हुआ पैसा मां गता है । डरता
इसवलए है वक ऐसा न हत वक वपता जी डाूँ ट दें ; न दें या रूष्ट हत जायें।
सबसे बडी बात यह है वक माूँ गना ऐसी खराब ििु है वक इससे बच्चे की
आत्मा भी संकुवचत और लस्तज्जत हतती हैं । मूँगत भला न बाप से जत
विवि राखे टे क बाप से भी माूँ गना अिरात्मा कत अच्छा नहीं मालूम
हतता। बच्चा यही सतचता है वक कब हम इस यतग्य हतंगे वक हमें माूँ गना
नहीं पडे गा? कब हम अपने घर के मावलक हतंगे? कब हम स्वािीन, मुि
और स्वतन्त्र हतंगे? कहने का तात्पयण यह है वक यवद ईश्वरं का अस्तित्व
स्वीकार करते हैं तत मनुष्य वकसी अिस्था में स्वतन्त्र, स्वािीन और मुि
नहीं हत सकता, क्यतंवक ईश्वर का अस्तित्व सब जगह सब काल में और
सब अिस्था मे मानना पडे गा। और यवद सािारर् शस्ति के सां साररक
वपता के सामने कतई स्वतंत्रता का अनु भि नहीं कर सकता तत उस
सिणशस्तिमान् और परम वपता के सामने प्रेम हतने पर भी स्वतन्त्रता,
स्वािीनता और मुस्ति का कतई अनुभि नहीं कर सकता। अिु, यवद इतने
बडे शस्तिमान शासक का अस्तित्व है और रहे गा- यवद इतने बडे
परमवपता परमात्मा का अस्तित्व है - तत यह मानी हुई बात है वक उसे
अविनाशी अनि, अनावद और सिणशस्तिमान् मानते हुए भी कतई मजहबी
आदमी यह नहीं कह सकता वक ऐसा भी िि आिेगा जब िह नहीं रहे गा;
उसकी बदशाहत नहीं रहे गी अथिा उसकत शासन नहीं रहे गा। बस; यवद
मजहबी ख्याल के मु तावबक उसका शासन उसकी बादशाहत और उसका
गुरुत्व सिणदा सबके ऊपर कायम रहे गा तत यह वनवश्चत है वक कतई मनुष्य
कभी मुि, स्वािीन और स्वतंत्रता भी नहीं हत सकता। वजसके ऊपर इतने
बडे बादशाह का शासन मौजूद है . िह स्वतन्त्र नहीं कहला सकता। यही
कारर् है वक हम प्रत्येक मजहब के विरतिी हैं । ईश्वर और मजहब मनुष्य
कत बन्धन में डालकर परतन्त्र बनाने िाले हैं , मुि और स्वतन्त्र करने िाले

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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नहीं। मुस्ति स्वतंत्रता और स्वराज वकसी की प्राथणना करके आप नहीं पा

सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार

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सकते। मुस्ति हाथ जतडने और भीख मां गने से नहीं वमलती। मुस्ति के
वलए ईश्वर की प्राथणना भी व्यथण है । अजावमल आवद के मुि हतने की कथा
एक झूठी कहानी है मजहबी लतगतं ने अपने -अपने उपास्य दे ितं की प्रशंसा
में अनेक ऐसी ही झूठी कहानी रची ली है उपासना करने िाला या वकसी
का सेिक और गुलाम मुि स्वतन्त्र और स्वािीन नहीं कहला सकता।
मुस्ति चाहने िाले स्वतन्त्र विचार के मनु ष्यतं कत मजहब, मजहबी गुरु और
मजहबी वकताबतं कत मृगतृष्णा की नदी समझकर छतड दे ना चावहए।
वजतनी झूठी बातें मजहबी वकताबतं में हैं , उतनी दू सरी जगह न वमल
सकती हैं और न पच सकती हैं ।
आज शवनिार की सन्ध्या है , कल रवििार है , स्कूल के लडकतं कत
आज वकतनी खुशी है । सरकारी नौकर भी प्रसन्न हैं , क्यतं? इसवलए वक कल
रवििार है , आज इस िि से कल तक स्वतंत्रता रहें गे। यह खुशी स्वतन्त्रता
की है । सरकारी नौकरी करते हैं तत तनख्वाह पाते हैं । पढ़ते हैं तत विद्या
सीखते हैं । पर मावलक के सामने नौकर जब तक रहता है अपने कत स्वतन्त्र
नहीं समझता। बालक जब तक गु रु और वशक्षक के वनकट रहता है , अपने
कत बंिा हुआ समझता 1 अतः यवद हम सािारर् गुरु के सामने और
उसकी विद्यमानता से सां साररक वपता और सािारर् मावलक के सामने या
उसकी विद्यमानता, में मुस्ति, स्वािीनता और स्वतंत्रता का अनुभि नहीं कर
सकते तत उस परम वपता, जगद् गुरु और सबसे बडे मावलक के सामने या
उसकी विद्यमानता में मुस्ति स्वािीनता और स्वतंत्रता का अनुभि करना
कवठन ही नहीं असम्भि है । बस मजहबी लतग जत ईश्वर के व्यस्तित्व का
अस्तित्व अपने से अलग स्वीकार करते और मानते हैं , िह कभी मुि नहीं
हत सकते। सूयण का पू िण से पवश्चम कत उदय हतना शायद सम्भि भी हत पर
ऐसे लतगतं की मुस्ति कदावप नहीं हत सकती।
मुस्ति का स्वरूप जत आयण समाज मानता है , िह मुस्ति, मुि ही
नहीं है ; िह तत एक प्रकार का बं िन है । आयण समाज की मुस्ति सािवि हैं ।
पररवमत है -साि है -वमयादी है । तात्पयण यह है वक आयणसमाज के

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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विचारानुसार मुि पु रुष एक कल्प के बाद विर लौट आते हैं । एक कल्प
के बाद विर लौट आने का वनयम हतने से उसकी सीमा हत गई; अिवि हत
गई और मीयाद हत गई।
हमारे इस तरि यवद कहा जाय वक अमुक मनुष्य मीयाद काटकर
आ गया तत इसके माने यह समझा जाता है वक िह जेल से वनयत अिवि

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मुस्ति, वनजात, सैलिेशन और स्वतंत्रता
काटकर आ गया। बात यह है वक मीयाद या अिवि बन्धन या जेल ही की
हुआ करती है ; मुस्ति की नहीं। एक सां साररक हावकम जब वकसी अपराि में
वकसी कत जेल भेजता है तत उसकी अिवि भी सुना दे ता है ; जैसे-६ मास या
साल भर। पर यही अपरािी कारागार से जब छूटता है तत यह नहीं कहा जाता
वक
तुम इतने वदनतं के वलए छतडे गए हत। मीयाद या अिवि जेल की हतती है ;
मुस्ति की नहीं। मुस्ति के साथ अिवि का कतई बं िन नहीं हत सकता। यही
यवद विर अपराि करे गा तत विर जेल में डाल वदया जाएगा और अबकी बार
एक िषण की जगह दत िषण की मीयाद हत सकती है , पर दत िषों के बाद वनयत
दि भतग लेने पर विर िह मुि हतगा। छूटते िि मुस्ति के समय कतई
हावकम यह नहीं कह सकता वक तुम केिल इतने वदनतं के वलए छतडे गए हत।
मुस्ति की अिवि नहीं हत सकती। कहीं लाखतं में एक, वकसी-वकसी दे श में .
कभी-कभी राजनीवतक कैवदयतं के वलए. ऐसा भी हुआ है वक अपराि कत वकसी
कारर्िश बीच में छतड वदया गया है और एकाि महीना बीत जाने पर और
उपस्तस्थत कारर् के न रहने पर विर जेल में लौट आने के वलए कहा गया है ।
पर जेल की अिवि के भीतर ही छतडने पर ऐसा हतना कभी-कभी वकसी-वकसी
दे श में सम्भि है । इस दृष्टाि से इस वसिाि में कतई भेद नहीं पडता वक
मुस्ति की कतई अिवि नहीं हतती, अिवि, जेल, कारागार,और बन्धन की हतती
है । राजनीवतक कैदी जत बीच में एकाि महीने के वलए घर आने पाते हैं , िह
िािि में मुि हतकर नहीं आते, वकिु वकसी कारर्िश घर के लतगतं कत दे ख
लेने के वलये उन्ें कुछ अिकाश दे वदया जाता है ।
इस वनयम का कतई अपिाद नहीं है । यवद अपिाद हत भी तत
अपिाद सािारर् वनयम का बािक नहीं, सािक ही समझा जाता है । विर
आयण-समाज का यह वनयम तत है नहीं वक केिल इने-वगने की मुस्ति
सािवि और मीयादी हतती है ; वकिु आयण समाज का वसिाि तत यह है वक
मुस्ति असीम, अनि वनरिवि और बेवमयाद की हतती ही नहीं। अतः यह

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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सिणथा असत्य
| सच्ची बात यहां है वक मुस्ति
अिवि हत ही नहीं
सकती; अिवि तत कारागार. जेल और बन्धन की हतती है । अिवि सीमा
और मीयाद स्वयं एक प्रकार के बन्धन हैं । यवद वकसी हावकम की आज्ञा
से मतहन के घूमने का प्रदे श गतरखपुर वजले तक ही सीवमत है और पाूँ च
बजे संध्या के बाद घर में से िह नहीं वनकल सकता तत यह भी एक प्रकार
का जेल है ; यह भी एक प्रकार का बन्धन है । एक मनुष्य कत चारतं तरि
से वकसी ििु द्वारा घेर वदया गया या उसकी गवत सीवमत कर दी गई

सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार


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अथिा उसे एक रस्सी लेकर एक खम्भे में बां ि वदया गया यह तीनतं एक
ही बात हैं ; तीनतं एक ही हैं । अतः यवद आयण -समाज की मुस्ति की सीमा
है , अिवि है या वमयाद है । ऐसी मुस्ति मुस्ति नहीं कहला सकती। यह
बंिन है , जेल है और एक प्रकार का कारागार है ।
कहते हैं वक पुण्य करने से मुस्ति हतती है कमण की सीमा हतती है ;
इसवलए मुस्ति की भी सीमा हतनी चावहए। जब तक कतई अपराि न करे तब
तक मुि रहना तत सबका जन्मवसि अविकार है । बं िन िाली दशा तत
अपराि से प्राप्त हतती है । अपराि सीवमत है , अतः अपराि का िल कारागार
भी सािवि में मीयादी हतना चावहए। पर मुस्ति तत सबका स्वाभाविक रूप ही
है । इसकी अिवि नहीं हत सकती बन्धन से छूटना आिश्यक है , क्यतंवक
बंिन अनि और असीम नहीं हत सकता पर मुस्ति तत बन्धनरवहत हतने से
अनि और असीम है । मुस्ति की सीमा या अिवि नहीं हत सकती। कैदी एक
बार मुि हत गया तत विर वबना अपराि के कैद नहीं वकया जा सकता। मुस्ति
तत बन्धन से छूटने पर ही हतती है ; अतः पहले िाली अिस्था कत बन्धन मानना
ही पडे गा। जत बन्धन में नहीं हैं , उनकी मु स्ति कैसी? कल्पना करत वक स्वामी
दयानन्द जी मरने के बाद मुि हत गए और एक कल्प तक मुिािस्था में रहे ।
अब आयणसमाज के विचारानुसार एक वनयत अिवि बीत जाने पर ईश्वर उन्ें
विर बंिन में भेज दे गा। क्या यह न्याय है ? मुिािस्था जेल नही हैं ।
मुिािस्था बन्धन नहीं मुि है । मुिािस्था में ईश्वर के सवन्नकट रहने पर भी
कौन-सा अपराि करें गे वक विर जेल में भेज वदए जायेंगे। एक बार जेल से
मुस्ति हत जाने पर वबना अपराि वकए कतई न्यायकारी विर वकसी कत जेल नहीं

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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भेज सकता। सीवमत, साि, सािवि और वमयादी हतने से आयण समाज की


मुस्ति’ मुस्ति नही एक प्रकार का जेल है । वजसमें मजहबी से िा रूप
अपराि करने से ईश्वर बडे -बडे िमण -ध्ववनयतं कत एक कल्प के वलए (मुस्ति
नाम िाले) जेल में भेज दे ता है जहाूँ मनु ष्य ईश्वर के सामने और शासन मे
रहकर अपने अपराितं का दि भतगता और वशक्षा ग्रहर् करता है और विर
एक कल्प बीत जाने पर छतड वदया जाता है । यही कारर् है वक हमने इन
मजहबी मूवतणयतं का ढतंग और बन्धन कहा है । मुस्ति का अविकारी तत िह है
जत अत्यि स्वतन्त्र विचार का है । बहुत बडे पक्के और विशाल सरकारी घर
में रहकर भी मनुष्य स्वतन्त्र नहीं कहला सकता। हमारे दे श में जेल कत बडा
घर भी कहते हैं । छतटी-सी पर अपनी झतपडी में रहने िाला एक स्वतन्त्र विचार
का सिुष्ट मनुष्य सिण था मुि और स्वतन्त्र है ।

मुस्ति, वनजात, सैलिेशन और स्वतंत्रता


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मजहबी लतग ईश्वर के इस प्रदे श कत परलतक कहते हैं । परलतक और
परदे श में जाकर कतई सु खी नहीं हत सकता। परदे श कलेश नरे शन कत।
सच्चे और स्वतन्त्र विचार के लतग परं लतक और ईश्वर का अस्तित्व नहीं
मानते। ईश्वर और मजहब का गुलाम स्वगण और नरक की झूठी मृगतृष्णा में
पडा रहता है और कभी मुि नहीं सकता।
मुसलमानतं की मुस्ति, बवहश्त और दतजख और भी विवचत्र है । मरने के
बाद इनके विचार से मृत मनुष्य कबर में पडे रहें गे। कब तक पडे रहें गे,
इसका कुछ वठकाना नहीं। कहा जाता है वक कयामत तक मनुष्य
कबर में जमीन के अन्दर पडे रहें गे। वलखा था वक १३ सौ िषों में
कयामत आ जाएगी। पर िह नहीं आई, दे खें अब िह कब तक आती
है । ऐसी कयामत कभी नहीं आिेगी. लाखतं और करतडतं िषों में भी
नहीं आिेगी। सैकडत िषों के पुराने मुदे की हवड्डयाूँ और पसवलयाूँ भी
वघस गई हतंगी; अतः अब िह क्या कयामत के बाद हशर के वदन
उठें गे ? एक शायर ने ठीक ही कहा है

इलाही क्या दे र है हशर में हतते- हतते,


पसवलयाूँ वघस गई कब्र में सतते- सतते।
इन करतडतं नहीं, असंख्य मुदो का करतडतं िषों के बाद जमीन से विर

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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समूचा वनकल आना अवलिलैला के वकस्से से भी अविक झूठा है । यही बात


यवद वकसी दू सरी वकताब में वलखी हतती तत आजकल के विद्वान उसे छूते
तक नहीं पर मजहब झूठी बाततं का एक भिार है । वजतनी झठी बातें इसमें
हैं , उतनी न कहीं हैं और न कहीं दू सरी जगह पच सकती हैं । बडे -बडे
विद्वान, बडे -बडे पु ण्यात्मा, बडे -बडे खुदापरि और बडे -बडे गुनाहगार सब
करतडतं िषों तक कबर के भीतर पडे रहें गे। यह पडा रहना तत दतजख से भी
बढ़कर है । मामले मु कदमें में तारीख का पड जाना बहुत खलता है । सत भी
दत-एक महीने की तारीख नहीं। एक बार तेरह सौ िषों की तारीख पडी थी.
विर १३ सौ िषों की पड गई। दत-एक महीने की तारीख खलती है , सत भी
मुंबई और मुद्दालेह स्वतन्त्र रहते हैं । चलते-विरते और खाते-पीते हैं । पर
इसे सतवचए ! असं ख्य िषों से जमीन के अन्दर पडे हुए हैं मनतं वमट्टी ऊपर
पडी हुई है , हवड्डयाूँ और पसवलयाूँ तक गल गई विर भी हशर का वदन न
आया न आिेगा। यही नहीं कयामत की प्रतीक्षा करते-करते कबर की
वकतनी जमीन असं ख्य िषों में कट-कटकर समुद्र में चली जायगी। वकतनी
भूचाल के कारर् पृ थ्वी के अन्दर उस अवि के गभण में पहुं च जायेगी, जहां

7.

सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार


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लतहा भी गल जाता है । वकतनी जमीन तत नवदयतं में कटकर बह गई विर
भी मजहबी लतगतं की आशा लगी हुई है वक एक वदन उनका न्याय हतगा।
कैसा अद् भुत तमाशा है ; ऐसी झूठी बाततं झूठे विचारतं का वठकाना मजहब
छतड दू सरी जगह नही लग सकता।

वजसका न्याय हत सकता है जत कमों का वजम्मेदार है -िह आत्मा


कबर के भीतर सडने के वलए नहीं बै ठा | िह अजर, अमर, अविनाशी है ।
उसे कबर के भीतर कैद करने की ताकत वकसी में नहीं है । आत्मा कत ईश्वर
भी न पकड सकता है , न बां ि सकता | आत्मा शासक का भी शासक,
हावकम का भी हावकम और खुदा का भी खुदा है । खुद, खुदी और खुदा यह
तीनतं एक ही शब्द से बने हुए और एक ही अथण रखते हैं । हमारा खुद ही,
हमारी खुदी ही और हमारी आत्मा ही खुदा है । खुदा इस खुदी से अलग

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सत्य, सुन्दर और स्वतन्त्र विचार
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नहीं है । हमलतगतं ने वनराकार, साकार, अनेक प्रकार के खुदा बना डाले और


अभी अनेक प्रकार के खुदा इन मनुष्यतं द्वारा बनाए जायेंगे। जैसे वमट्टी, काठ
और पत्थर के दे िता हमारे बनाए हुए हैं , उसी तरह से वनराकार ईश्वर और
खुदा भी हमारी वतक्ष्र् बुस्ति और विचार का बनाया हुआ है । हमारी आत्मा
के पास दत सािन हैं , एक शरीर दू सरा मन (Mind) या वदमाग। साकार
ईश्वर और दे िता शरीर के बनाये हुए हैं और वनराकार ईश्वर कत बनाने िाला
मन या बुस्ति है । यह विषय गूढ़ अिश्य है , पर है बहुत स्पष्ट। दतनतं हमारे
बनाए हुए हैं । हमें बनाने िाला खुदा नहीं है ; हम खुदा के बनाने िाले हैं
मजहब भी हमारे बनाए हुए हैं । पैगम्बर भी हमीं लतगतं में से हुए हैं । हमे कतई
बां ि नहीं सकता, हम स्वयं अपने विचारतं से बंिे हुए हैं । हम स्वयं अपने कत
नाचीज, वनबणल, वनबुणस्ति और परतन्त्र समझते हैं । हम अपने कत वनबुणस्ति और
परतन्त्र मानने से ही वनबुणस्ति और परतन्त्र हत गए हैं । बन्धन केिल भ्रम का
है , मन का है और मानने का है । अतः आप इन कस्तल्पत और भ्रमजन्य
बन्धनतं कत इस सत्य, सुंदर और स्वतन्त्र विचार द्वारा ततडकर मुि हत
जाइए। मुस्ति कत प्राप्त करने का सबसे उिम सािन यही है ।

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