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नारद-भक्ति-सूत्र

अथातो भितिं व्याख्यास्याम: ॥ १ ॥


१-अब हम भितकी व्याख्या करें गे ।

सा त्विस्मन् परमप्रेमरूपा ॥ २ ॥
२-वह ( भित ) ईश्वरके प्रित परम प्रेमरूपा है ।

अमृतस्वरूपा च ॥ ३ ॥
३-और अमृतस्वरूपा ( भी ) है ।

यल्लब्ध्वा पुमान् िसद्धो भवित, अमृतो भवित, तृप्तो भवित ॥ ४ ॥


४-िजसको ( परम प्रेमरूपा और अमृतस्वरूपा भितको ) पाकर मनुष्य िसद्ध हो जाता है. अमर हो जाता है ( और ) तृप्त हो जाता
है ।

यत्प्राप्य न िकिचचद्वाचछित, न शोचित, न द्वेिि, न रमते, नोत्सािह भवित ॥ ५ ॥


५-िजसको ( परमस्वरूपाभितको ) प्राप्त होनेपर मनुष्य न िकसी वस्तुकी इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न िकसी वस्तुमें
आसत होता है और न उसे ( िवषय-भोगोंकी प्रािप्तमें ) उत्साह होता है ।

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवित, स्तब्धधो भवित, आत्मारामो भवित ॥ ६ ॥


६-िजसको ( परम प्रेमरूपा भितको ) जानकर ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, स्तब्धध ( शान्त ) हो जाता है ( और ) आत्माराम
बन जाता है ।

सा न कामयमाना िनरोधरूपत्वात् ॥ ७ ॥
७-वह ( प्रेमा भित ) कामनायुत नहीं है; क्योंिक वह िनरोधस्वरूपा है ।

िनरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यास: ॥ ८ ॥
लौिकक और वैिदक ( समस्त ) कमोंके त्यागको िनरोध कहते हैं ।

तिस्मन्ननन्यता तिद्वरोिधषूदासीनता च ॥ ९ ॥
९-उस िप्रयतम भगवान्में अनन्यता और उसके प्रितकूल िवषयमें उदासीनताको भी िनरोध कहते हैं ।

अन्याश्रयाणािं त्यागोऽनन्यता ॥ १० ॥
१०-( अपने िप्रयतम भगवान्को छोड़कर ) दूसरे आश्रयोंके त्यागका नाम अनन्यता है ।

लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणिं तिद्वरोिधषूदासीनता ॥ ११ ॥


११-लौिकक और वैिदक कमोंमें भगवान्के अनुकूल कमम करना ही उसके प्रितकूल िवषयोंमें उदासीनता है ।

भवतु िनश्चयदाढयाम दू्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ १२ ॥


१२-( िविध-िनषेधसे अतीत अलौिकक प्रेम प्राप्त करनेका मनमें ) दृढ़ िनश्चय हो जानेके बाद भी शास्त्रकी रक्षा करनी चािहये ।
अथाम त् भगवदनुकूल शास्त्रोत कमम करने चािहये ।

अन्यथा पािततत्याशङ्कया ॥ १३ ॥
१३-नहीं तो िगर जानेकी सम्भावना है ।
लोकोऽिप तावदेव िकन्तु भोजनािद-व्यपारस्त्वाशरीरधारणाविध ॥ १४ ॥
१४-लौिकक कमोंको भी तबतक ( बाह्यञान रहनेतक ) िविधपूवमक करना चािहये । पर भोजनािद कायम जबतक शरीर रहे गा
तबतक होते रहें गे ।

तल्लक्षणािन वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ १५ ॥


१५-अब नाना मतोंके अनुसार उस भितके लक्षण कहते हैं ।

पूजािदष्वनुराग इित पाराशयम : ॥ १६ ॥


१६-पराशरनन्दन श्रीव्यासजीके मतानुसार भगवान्की पूजा आिदमें अनुराग होना भित है ।

कथािदिष्वित गगम : ॥ १७ ॥
१७-श्रीगगाम चायम जीके मतसे भगवान्की कथा आिदमें अनुराग होना ही भित है ।

आत्मरत्यिवरोधेनिै त शािडडल्य: ॥ १८ ॥
१८-शािडडल्य ऋिषके मतमें आत्मरितके अिवरोधी िवषयमें अनुराग होना ही भित है ।

नारदस्तु तदिपम तािखलाचारता तिद्वस्मरणे परमव्याकुलतेित ॥ १९ ॥


१९-परन्तु देविषम नारदके ( हमारे ) मतमें अपने सब कमोंको भगवान्के अपम ण करना और भगवान्का थोड़ा-सा भी िवस्मरण
होनेमें परम व्याकुल होना ही भित है ।

अस्त्येवमेवम् ॥ २० ॥
२०-ठीक ऐसा ही है ।

यथा व्रजगोिपकानाम् ॥ २१ ॥
२१-जैसे व्रजगोिपयोंकी ( भित ) ।

तत्रािप न माहात्म्यञानिवस्मृत्यपवाद: ॥ २२ ॥
२२-इस अवस्थामें भी ( गोिपयोंमें ) माहात्म्यञानकी िवस्मृितका अपवाद नहीं है ।

तिद्वहीनिं जाराणािमव ॥ २३ ॥
२३-उसके िबना ( भगवान्को भगवान् जाने िबना िकया जानेवाला ऐसा प्रेम ) जारोंके ( प्रेमके ) समान है ।

नास्त्येव तिस्मिंस्तत्सुखसुिखत्वम् ॥ २४ ॥
२४-उसमें ( जारके प्रेममें ) िप्रयतमके सुखसे सुखी होना नहीं है ।

सा तु कमम ञानयोगेभ्योऽप्यिधकतरा ॥ २५ ॥
२५-वह ( प्रेमरूपा भित ) तो कमम , ञान और योगसे भी श्रेष्ठतर है ।

फलरूपत्वात् ॥ २६ ॥
२६-क्योंिक ( वह भित ) फलरूपा है ।

ईश्वरस्याप्यिभमानद्वेिषत्वाद् दैन्य-िप्रयत्वाच्च ॥ २७ ॥
२७-ईश्वरका भी अिभमानसे द्वेषभाव है और दैन्यसे िप्रयभाव है ।

तस्या ञानमेव साधनिमत्येके ॥ २८ ॥


२८-उसका ( भितका ) साधन ञान ही है, िकन्हीं ( आचायों )-का यह मत है ।

अन्योन्याश्रयत्विमत्यन्ये ॥ २९ ॥
२९-दूसरे ( आचायों )-का मत है िक भित और ञान परस्पर एक-दूसरे के आिश्रत हैं ।

स्वयिं फलरूपतेित ब्रह्मकुमारा: ॥ ३० ॥


३०-ब्रह्मकुमारोंके ( सनत्कुमारािद और नारदके ) मतसे भित स्वयिं फलरूपा है ।

राजगृहभोजनािदषु तथैव दृित्वात् ॥ ३१ ॥


३१-राजगृह और भोजनािदमें ऐसा ही दे खा जाता है ।

न तेन राजपररतोष: क्षुधाशािन्तवाम ॥ ३२ ॥


३२ न उससे ( जान लेनेमात्रसे ) राजाकी प्रसन्नता होगी, न क्षुधा िमटेगी ।

तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुिभ: ॥ ३३ ॥


३३-अतएव ( सिंसारके बन्धनसे ) मुत होनेकी इच्छा रखनेवालोंको भित ही ग्रहण करनी चािहये ।

तस्या: साधनािन गायन्त्याचायाम : ॥ ३४ ॥


३४-आचायम गण उस भितके साधन बतलाते हैं ।

तत्तु िवषयत्यागात् सङ्गत्यागाच्च ॥ ३५ ॥


३५-वह ( भित-साधन ) िवषयत्याग और सङ्गत्यागसे सम्पन्न होता है ।

अव्यावृतभजनात् ॥ ३६ ॥
३६-अखडड भजनसे ( भितका साधन ) सम्पन्न होता है ।

लोकेऽिप भगवद्गुणश्रवणकीतम नात् ॥ ३७ ॥


३७-लोकसमाजमें भी भगवद्गुणश्रवण और कीतम नसे ( भित-साधन ) सम्पन्न होता है ।

मुख्यतस्तु महत्कृ पयैव भगवत्कृ पालेशाद्वा ॥ ३८ ॥


३८-परन्तु ( प्रेमभितकी प्रािप्तका साधन ) मुख्यतया ( प्रेमी ) महापुरुषोंकी कृपासे अथवा भगवद्कृपाके लेशमात्रसे होता है ।

महत्सङ्गस्तु दुलमभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ ३९ ॥
३९-परन्तु महापुरुषोंका सङ्ग दुलमभ, अगम्य और अमोघ है ।

लभ्यतेऽिप तत्कृ पयैव ॥ ४० ॥


४०-उस ( भगवान् )-की कृपासे ही ( महापुरुषोंका ) सङ्ग भी िमलता है ।

तिस्मिंस्तज्ज्जने भेदाभावात् ॥ ४१ ॥
४१-क्योंिक भगवान् और उनके भतोंमें भेदका अभाव है ।

तदे व सा्यतािं तदेव सा्यताम् ॥ ४२ ॥


४२-( अतएव ) उस ( महत्सङ्ग )-की ही साधना करो, उसीकी साधना करो ।
दु:सङ्ग: सवम थवै त्याज्ज्य: ॥ ४३ ॥
४३-दु:सङ्गका सवम था ही त्याग करना चािहये ।

कामक्रोधमोहस्मृितभ्रिंशबुिद्धनाशसवम नाशकारणत्वात् ॥ ४४ ॥
४४-क्योंिक वह ( दु:सङ्ग ) काम, क्रोध, मोह, स्मृितभ्रिंश, बुिद्धनाश एविं सवम नाशका कारण है ।

तरङ्गाियता अपीमे सङ्गात्समुद्रायिन्त ॥ ४५ ॥


४५-ये ( काम-क्रोधािद ) पहले तरङ्गकी तरह ( क्षुद्र आकारमें ) आकर भी ( दु:सङ्गसे िवशाल ) समुद्रका आकार धारण कर
लेते हैं ।

कस्तरयित कस्तरयित मायाम् ? य: सङ्गािंस्त्यजित, यो महानुभाविं सेवते, िनमम मो भवित ॥ ४६ ॥


४६-( प्रश्न ) कौन तरता है ? ( दुस्तर ) मायासे कौन तरता है? ( उत्तर ) जो सब सङ्गोंका पररत्याग करता है, जो
महानुभावोंकी सेवा करता है और जो ममतारिहत होता है ।

यो िविवतस्थानिं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयित, िनस्त्रैगुडयो भवित, योगक्षेमिं त्यजित ॥ ४७ ॥


४७-जो िनजम न स्थानमें िनवास करता है, जो लौिकक बन्धनोंको तोड़ डालता है, जो तीनों गुणोंसे परे हो जाता है और जो
योग तथा क्षेमका भी पररत्याग कर दे ता है ।

य: कमम फलिं त्यजित, कमाम िण सिंन्यस्यित, ततो िनद्वम द्वो भवित ॥ ४८ ॥


४८-जो कमम फलका त्याग करता है, कमोंका भी त्याग करता है और तब सब कुछ त्याग कर जो िनद्वम न्द्व हो जाता है ।

वेदानिप सिंन्यस्यित , केवलमिविच्छन्नानुरागिं लभते ॥ ४९ ॥


४९-जो वेदोंका भी भलीभााँित पररत्याग कर दे ता है और तब सब कुछ त्याग कर जो िनद्वम द्व हो जाता है ।

स तरित स तरित स लोकािंस्तारयित ॥ ५० ॥


५०-वह तरता है, वह तरता है, वह लोकोंको तार दे ता है ।

अिनवम चनीयिं प्रेमस्वरुपम् ॥ ५१ ॥


५१-प्रेमका स्वरूप अिनवम चनीय है ।

मूकास्वादनवत् ॥ ५२ ॥
५२-गूाँगेके स्वादकी तरह ।

प्रकाशयते क्वािप पात्रे ॥ ५३ ॥


५३-िकसी िबरले योग्य पात्रमें ( प्रेमी भतमें ) ऐसा प्रेम प्रकट भी होता है ।

गुणरिहतिं कामनारिहतिं प्रितक्षणवधम मानमिविच्छन्निं सूक्ष्मतरमनुभवरुपम् ॥ ५४ ॥


५४-यह प्रेम गुणरिहत है, कामनारिहत है, प्रितक्षण बढ़ता रहता है, िवच्छे दरिहत है, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर है और अनुभवरुप है ।

तत्प्राप्य तदे वावलोकयित, तदेव श्रणोित, तदेव भाषयित, तदेव िचन्तयित ॥ ५५ ॥


५५-इस प्रेमको पाकर प्रेमी इस प्रेमको ही दे खता है, प्रेमको ही सुनता है, प्रेमका ही वणम न करता है और प्रेमका ही िचन्तन
करता है ।
गौणी ित्रधा गुणभेदादाताम िदभेदाद्वा ॥ ५६ ॥
५६-गौणी भित गुणभेदसे अथवा आताम िद-भेदसे तीन प्रकारकी होती है ।

उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पुवमपुवाम श्रेयाय भवित ॥ ५७ ॥


५७-( उनमें ) उत्तर-उत्तर-क्रमसे पूवम-पूवम-क्रमकी भित कल्याणकाररणी होती है ।

अन्यस्मात् सौलभ्यिं भतौ ॥ ५८ ॥


५८-अन्य सबकी अपेक्षा भित सुलभ है ।

प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयिं-प्रमाणात्वात् ॥ ५९ ॥
५९-क्योंिक भित स्वयिं प्रमाणरुप है, इसके िलये अन्य प्रमाणकी आवश्यता नहीं है ।

शािन्तरुपात्परमानन्दरुपाच्च ॥ ६० ॥
६०-भित शािन्तरुपा और परमानन्दरुपा है ।

लोकहानौ िचन्ता न कायाम िनवेिदतात्मलोकवेदत्वात् ॥ ६१ ॥


६१-लोकहानीकी िचन्ता ( भतको ) नहीं करनी चािहये, क्योंिक वह ( भत ) अपने-आपको और लौिकक, वैिदक ( सब
प्रकारके ) कमोंको भगवान्के अपम ण कर चुका है ।

न तदिसद्धौ लोकव्यवहारो हे य: िकन्तु फलत्यागस्तत्साधनिं च कायम मेव ॥ ६२ ॥


६२-( परन्तु ) जबतक भितमें िसिद्ध न िमले तबतक लोकव्यवहारका त्याग नहीं करना चािहये, िकन्तु फल त्यागकर (
िनष्कामभावसे ) उस भितका साधन करना चािहये ।

स्त्रीधननािस्तकवैररचररत्रिं न श्रवणीयम् ॥ ६३ ॥
६३-स्त्री, धन, नािस्तक और वैरीका चररत्र नहीं सुनना चािहये ।

अिभमानदम्भािदकिं त्याज्ज्यम् ॥ ६४ ॥
६४-अिभमान, दम्भ, आिदका त्याग करना चािहये ।

तदिपम तािखलाचार: सन् कामक्रोधािभमानािदकिं तिस्मन्नेव करणीयम् ॥ ६५ ॥


६५-सब आचार भगवान्के अपम ण कर चुकनेपर यिद काम, क्रोध, अिभमानािद हों तो उन्हें भी उस ( भगवान् )-के प्रित ही
करना चािहये ।

ित्ररूपभङ्गपूवमकिं िनत्यदासिनत्यकान्ताभजनात्मकिं वा प्रेमवै कायम म्, प्रेमवै कायम म् ॥ ६६ ॥


६६-तीन ( स्वामी, सेवक, और सेवा ) रूपोंको भयङ्कर िनत्य दासभितसे या िनत्य कान्ताभितसे प्रेम ही करना चािहये ,
प्रेम ही करना करना चािहये ।

भता एकािन्तनो मुख्या: ॥ ६७ ॥


६७-एकान्त ( अनन्य ) भत ही श्रेष्ठ हैं ।

कडठावरोधरोमाचचाश्रुिभ: परस्परिं लपमाना: पावयिन्त कुलािन पृिथवीं च ॥ ६८ ॥


६८-ऐसे अनन्य भत कडठावरोध, रोमाचच और अश्रुयुत नेत्रवाले होकर परस्पर सम्भाषण करते हु ए अपने कुलोंको और
पृथ्वीको पिवत्र करते हैं ।

तीथीकुवम िन्त तीथाम िन, सुकमीकुवम िन्त कमाम िण, सच्छास्त्रीकुवम िन्त शास्त्रािण ॥ ६९ ॥
६९-ऐसे भत तीथोंको सुतीथम , कमोंको सुकमम और शास्त्रोंको सत्-शास्त्र कर दे ते हैं ।

तन्मया: ॥ ७० ॥
७०-( क्योंिक ) वे तन्मय हैं ।

मोदन्ते िपतरो नृत्यिन्त दे वता: सनाथा चेयिं भुभमवित ॥ ७१ ॥


७१-( ऐसे भतोंका आिवभाम व दे खकर ) िपतरगण प्रमुिदत होते हैं, दे वता नाचने लगते हैं और यह पृथ्वी सनाथा हो जाती है ।

नािस्त तेषु जाितिवद्यारुपकुलधनिक्रयािदभेद: ॥ ७२ ॥


७२-उनमें ( भतोंमें ) जाित, िवद्या, रूप, कुल, धन और िक्रयािदका भेद नहीं है ।

यतस्तदीया: ॥ ७३ ॥
७३-क्योंिक ( भत सब ) उनके ( भगवान्के ) ही हैं ।

वादो नावलम्ब्धय: ॥ ७४ ॥
७४-( भतको ) वाद-िववाद नहीं करना चािहये ।

बाहु ल्यावकाशादिनयतत्वाच्च ॥ ७५ ॥
७५-क्योंिक ( वाद-िववादमें ) बाहु ल्यका अवकाश है और वह अिनयत है ।

भितशास्त्रािण मननीयािन तदुद्बोधककमाम डयिप करणीयािन ॥ ७६ ॥


७६-( प्रेमा भितकी प्रािप्तके िलये ) भितशास्त्रका मनन करते रहना चािहये और ऐसे कमम भी करने चािहये िजनसे भितकी
वृिद्ध हो ।

सुखदु:खेच्छालाभािदत्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणाद्धम मिप व्यथं न नेयम् ॥ ७७ ॥


७७-सुख, दु:ख, इच्छा, लाभ आिदका ( पूणम ) त्याग हो जाय ऐसे कालकी बाट दे खते हु ए आधा क्षण भी ( भजन िबना ) व्यथम
नहीं िबताना चािहये ।

अिहिंसासत्यशौचदयािस्तक्यािदचाररत्र्यािण पररपालनीयािन ॥ ७८ ॥
७८-( प्रेमा भितके साधकको ) अिहिंसा, सत्य, शौच, दया, आिस्तकता आिद आचरणीय सदाचारोंका भलीभााँित पालन करना
चािहये ।

सवम दा सवम भावेन िनिश्चिन्ततैभमगवानेव भजनीय: ॥ ७९ ॥


७९-सब समय, सवम भावसे िनिश्चन्त होकर ( केवल ) भगवान्का ही भजन करना चािहये ।

स कीत्यम मान: शीघ्रमेवािवभम वित अनुभावयित च भतान् ॥ ८० ॥


८०-वे भगवान् ( प्रेमपूवमक ) कीितम त होनेपर शीघ्र ही प्रकट होते हैं और भतोंको अपना अनुभव करा दे ते हैं ।

ित्रसत्यस्य भितरे व गरीयसी भितरे व गरीयसी ॥ ८१ ॥


८१-तीनों ( काियक, वािचक, मानिसक ) सत्योंमें ( अथवा तीनों कालोंमें सत्य भगवान्की ) भित ही श्रेष्ठ है, भित ही श्रेष्ठ है

गुणमाहात्म्यासित रुपासित पूजासित स्मरणासित दास्यासित सख्यासित कान्तासित


वात्सल्यासक्त्यात्मिनवेदनासित तन्मयतासित परमिवरहासित रुपाधाप्येका एकदशधा भवित ॥ ८२ ॥
८२-यह प्रेमरुपा भित एक होकर भी १ गुणमाहात्म्यासित, २ रुपासित, ३ पूजासित, ४ स्मरणासित, ५ दास्यासित, ६
सख्यासित, ७ कान्तासित, ८ वात्सल्यासित, ९ आत्मिनवेदनासित, १० तन्मयतासित और परमिवरहासित-इस
प्रकारसे ग्यारह प्रकारकी होती है ।

इत्येविं वदिन्त जनजल्पिनभम या एकमता:


कुमारव्यासशुकशािडडल्यगगम िवष्णुकौिडडन्यशेषोद्धवारुिणबिलहनुमिद्वभीषणादयो भताचायाम : ॥ ८३ ॥
८३-कुमार ( सनत्कुमारािद ), वेदव्यास, शुकदेव, शािडडल्य, गगम , िवष्णु, कौिडडन्य, शेष, उद्धव, आरुिण, बिल, हनुमान,
िवभीषण, आिद भिततत्त्वके आचायम गाण लोकोंकी िनन्दा-स्तुितका कुछ भी भय न कर ( सब ) एकमतसे ऐसा ही कहते हैं (
िक भित ही सवम श्रेष्ठ है ) ।

य इदिं नारदप्रोतिं िशवानुशासनिं िवश्विसित श्रद्धत्ते स प्रेष्ठिं लभते स प्रेष्ठिं लभत इित ॥ ८४ ॥
८४-जो इस नारदोत िशवानुशासनमें िवश्वास और श्रद्धा करते हैं, वे िप्रयतमको पाते हैं, वे िप्रयतमको पाते हैं ।

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