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Narad Bhakti Sutra PDF
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सा त्विस्मन् परमप्रेमरूपा ॥ २ ॥
२-वह ( भित ) ईश्वरके प्रित परम प्रेमरूपा है ।
अमृतस्वरूपा च ॥ ३ ॥
३-और अमृतस्वरूपा ( भी ) है ।
सा न कामयमाना िनरोधरूपत्वात् ॥ ७ ॥
७-वह ( प्रेमा भित ) कामनायुत नहीं है; क्योंिक वह िनरोधस्वरूपा है ।
िनरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यास: ॥ ८ ॥
लौिकक और वैिदक ( समस्त ) कमोंके त्यागको िनरोध कहते हैं ।
तिस्मन्ननन्यता तिद्वरोिधषूदासीनता च ॥ ९ ॥
९-उस िप्रयतम भगवान्में अनन्यता और उसके प्रितकूल िवषयमें उदासीनताको भी िनरोध कहते हैं ।
अन्याश्रयाणािं त्यागोऽनन्यता ॥ १० ॥
१०-( अपने िप्रयतम भगवान्को छोड़कर ) दूसरे आश्रयोंके त्यागका नाम अनन्यता है ।
अन्यथा पािततत्याशङ्कया ॥ १३ ॥
१३-नहीं तो िगर जानेकी सम्भावना है ।
लोकोऽिप तावदेव िकन्तु भोजनािद-व्यपारस्त्वाशरीरधारणाविध ॥ १४ ॥
१४-लौिकक कमोंको भी तबतक ( बाह्यञान रहनेतक ) िविधपूवमक करना चािहये । पर भोजनािद कायम जबतक शरीर रहे गा
तबतक होते रहें गे ।
कथािदिष्वित गगम : ॥ १७ ॥
१७-श्रीगगाम चायम जीके मतसे भगवान्की कथा आिदमें अनुराग होना ही भित है ।
आत्मरत्यिवरोधेनिै त शािडडल्य: ॥ १८ ॥
१८-शािडडल्य ऋिषके मतमें आत्मरितके अिवरोधी िवषयमें अनुराग होना ही भित है ।
अस्त्येवमेवम् ॥ २० ॥
२०-ठीक ऐसा ही है ।
यथा व्रजगोिपकानाम् ॥ २१ ॥
२१-जैसे व्रजगोिपयोंकी ( भित ) ।
तत्रािप न माहात्म्यञानिवस्मृत्यपवाद: ॥ २२ ॥
२२-इस अवस्थामें भी ( गोिपयोंमें ) माहात्म्यञानकी िवस्मृितका अपवाद नहीं है ।
तिद्वहीनिं जाराणािमव ॥ २३ ॥
२३-उसके िबना ( भगवान्को भगवान् जाने िबना िकया जानेवाला ऐसा प्रेम ) जारोंके ( प्रेमके ) समान है ।
नास्त्येव तिस्मिंस्तत्सुखसुिखत्वम् ॥ २४ ॥
२४-उसमें ( जारके प्रेममें ) िप्रयतमके सुखसे सुखी होना नहीं है ।
सा तु कमम ञानयोगेभ्योऽप्यिधकतरा ॥ २५ ॥
२५-वह ( प्रेमरूपा भित ) तो कमम , ञान और योगसे भी श्रेष्ठतर है ।
फलरूपत्वात् ॥ २६ ॥
२६-क्योंिक ( वह भित ) फलरूपा है ।
ईश्वरस्याप्यिभमानद्वेिषत्वाद् दैन्य-िप्रयत्वाच्च ॥ २७ ॥
२७-ईश्वरका भी अिभमानसे द्वेषभाव है और दैन्यसे िप्रयभाव है ।
अन्योन्याश्रयत्विमत्यन्ये ॥ २९ ॥
२९-दूसरे ( आचायों )-का मत है िक भित और ञान परस्पर एक-दूसरे के आिश्रत हैं ।
अव्यावृतभजनात् ॥ ३६ ॥
३६-अखडड भजनसे ( भितका साधन ) सम्पन्न होता है ।
महत्सङ्गस्तु दुलमभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ ३९ ॥
३९-परन्तु महापुरुषोंका सङ्ग दुलमभ, अगम्य और अमोघ है ।
तिस्मिंस्तज्ज्जने भेदाभावात् ॥ ४१ ॥
४१-क्योंिक भगवान् और उनके भतोंमें भेदका अभाव है ।
कामक्रोधमोहस्मृितभ्रिंशबुिद्धनाशसवम नाशकारणत्वात् ॥ ४४ ॥
४४-क्योंिक वह ( दु:सङ्ग ) काम, क्रोध, मोह, स्मृितभ्रिंश, बुिद्धनाश एविं सवम नाशका कारण है ।
मूकास्वादनवत् ॥ ५२ ॥
५२-गूाँगेके स्वादकी तरह ।
प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयिं-प्रमाणात्वात् ॥ ५९ ॥
५९-क्योंिक भित स्वयिं प्रमाणरुप है, इसके िलये अन्य प्रमाणकी आवश्यता नहीं है ।
शािन्तरुपात्परमानन्दरुपाच्च ॥ ६० ॥
६०-भित शािन्तरुपा और परमानन्दरुपा है ।
स्त्रीधननािस्तकवैररचररत्रिं न श्रवणीयम् ॥ ६३ ॥
६३-स्त्री, धन, नािस्तक और वैरीका चररत्र नहीं सुनना चािहये ।
अिभमानदम्भािदकिं त्याज्ज्यम् ॥ ६४ ॥
६४-अिभमान, दम्भ, आिदका त्याग करना चािहये ।
तीथीकुवम िन्त तीथाम िन, सुकमीकुवम िन्त कमाम िण, सच्छास्त्रीकुवम िन्त शास्त्रािण ॥ ६९ ॥
६९-ऐसे भत तीथोंको सुतीथम , कमोंको सुकमम और शास्त्रोंको सत्-शास्त्र कर दे ते हैं ।
तन्मया: ॥ ७० ॥
७०-( क्योंिक ) वे तन्मय हैं ।
यतस्तदीया: ॥ ७३ ॥
७३-क्योंिक ( भत सब ) उनके ( भगवान्के ) ही हैं ।
वादो नावलम्ब्धय: ॥ ७४ ॥
७४-( भतको ) वाद-िववाद नहीं करना चािहये ।
बाहु ल्यावकाशादिनयतत्वाच्च ॥ ७५ ॥
७५-क्योंिक ( वाद-िववादमें ) बाहु ल्यका अवकाश है और वह अिनयत है ।
अिहिंसासत्यशौचदयािस्तक्यािदचाररत्र्यािण पररपालनीयािन ॥ ७८ ॥
७८-( प्रेमा भितके साधकको ) अिहिंसा, सत्य, शौच, दया, आिस्तकता आिद आचरणीय सदाचारोंका भलीभााँित पालन करना
चािहये ।
य इदिं नारदप्रोतिं िशवानुशासनिं िवश्विसित श्रद्धत्ते स प्रेष्ठिं लभते स प्रेष्ठिं लभत इित ॥ ८४ ॥
८४-जो इस नारदोत िशवानुशासनमें िवश्वास और श्रद्धा करते हैं, वे िप्रयतमको पाते हैं, वे िप्रयतमको पाते हैं ।