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भक्ति के 9 प्रकार
भक्ति के 9 प्रकार
श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा,स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित मन से निरं तर सु नना।
कीर्तन: ईश्वर के गु ण, चरित्र, नाम, पराक् रम आदि का आनं द एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।
स्मरण: निरं तर अनन्य भाव से परमे श्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मु ग्ध
होना।
अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वं दन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अं श रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गु रूजन, माता-पिता
आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी से वा करना।
दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ से वा करना।
सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर दे ना तथा सच्चे भाव से अपने
पाप पु ण्य का निवे दन करना।
आत्म निवे दन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर दे ना और कुछ भी अपनी स्वतं तर्
सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं ।
तु लसीदास जी ने रामचरितमानस में राम-नाम का जाप करते हुए श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा करने वाली
शबरी का चरित्रगान करते हुए उन्हें परमभक्त के रूप में निरूपित किया है ।
भगवान् राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि-
भक्ति हुए बिना निष्काम कर्मयोग कभी नहीं हो सकता।भगवद् भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हम
निष्काम कर्म करते हुए ज्ञान के प्रकाश में अपना आत्मदर्शन कर पाते हैं ।