27 Feb 2017 शे यर करें : सं स्कृत का कथा-साहित्य अखिल विश्व के कथा-साहित्य का जन्मदाता माना जाता है , परन्तु आधु निक हिन्दी कहानी का विकास सं स्कृत-कथा-साहित्य की परम्परा में न होकर, पाश्चात्य साहित्य विशे षतया अँ गर् े ज़ी साहित्य के प्रभाव रूप में हुआ। वरिष्ठ आलोचक राजकुमार कहानी के सन्दर्भ में लिखते हैं -"कहानी बोरे की तरह है । और यथार्थ माल की तरह। कहानी इस बाहर पड़े यथार्थरूपी माल को अपने भीतर भरती हैं । यथार्थ के वज़न से कहानी की श्रेष्ठता या महानता का मूल्यांकन होता है । जिसमें जितना ज़्यादा यथार्थ, उतनी ही बड़ी वह कहानी।"1 उपन्यासों की भाँ ति कहानियों की रचना का प्रारम्भ भी भारते न्दु यु ग से हुआ। यद्यपि आलोचकों ने ब्रजभाषा में लिखी गयी भक्त कवियों की कथा-दो सौ बावन वै ष्णवों की वार्ता तथा दो सौ चौरासी वै ष्णवों की वार्ता को आधु निक हिन्दी कहानी का प्रारम्भ माना; परन्तु कहानी के तत्वों को दृष्टि में रखते हुए यह मान्यता उपयु क्त नहीं है । इसके बाद कुछ आलोचकों ने हिन्दी के प्रारम्भिक गद्यकारों- सदासु खलाल के सु खसागर, लल्लूलाल के प्रेमसागर, सदलमिश्र के नासिकेतोपाख्यान तथा इं शाअल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी को हिन्दी की प्रारम्भिक कथा-कृतियाँ माना। परन्तु आधु निक कहानियों के तत्वों, विषयों और विचारधाराओं को दे खते हुए यह मत भी उपयु क्त नहीं दिखायी पड़ता। आधु निक यु ग में विकसित कहानी-कला का जन्म भी भारते न्दुयुग से ही मानना उपयु क्त होगा। हिन्दी-कहानी के सम्पूर्ण विकास को चार यु गों में बाँटा जा सकता है -(1) भारते न्दुयुग, (2) द्विवे दीयु ग, (3) प्रसाद व प्रेमचन्दयु ग, (4) वर्तमान यु ग। भारते न्दयु ग- भारते न्दु द्वारा लिखित "एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न" को इस यु ग की पहली कहानी माना जा सकता है । यद्यपि कहानी कला की दृष्टि से यह अपरिपक्व हैं फिर भी इसमें कहानी जै सी रोचकता है । इस यु ग के दस ू रे कहानीकार गौरीदत्त शर्मा हैं । इनकी "कहानी-टका कमानी" और "दे वरानी जे ठानी की कहानी" उपदे श प्रधान कहानियाँ हैं । द्विवे दीयु ग- इस यु ग में कहानी-कला के विकास में सबसे बड़ा योगदान "सरस्वती" पत्रिका का है । इसमें प्रकाशित होने वाली प्रथम कहानी किशोरीलाल गोस्वामी की "इन्दुमती"(1900 ई.) है । उस पर शे क्सपियर के नाटक "टे म्पे स्ट" का प्रभाव है । बं ग-मं हिला (राजे न्द्रबाला घोष) नाम से बं गला की कई अनूदित कहानियाँ सरस्वती में प्रकाशित हुई। इस यु ग की मौलिक कहानियों में मास्टर भगवानदास की प्ले ग की "चु ड़ै ल"(1902 ई.), रामचन्द्र शु क्ल की "ग्यारह वर्ष" का समय(1903 ई.), गिरजादत्त बाजपे यी की "पं डित और पं डितानी" तथा बं ग-महिला की "दुलाईवाली"(1907 ई.) विशे ष उल्ले खनीय हैं । प्रेमचन्द की भी कई कहानियाँ सरस्वती में छपीं। प्रसाद व प्रेमचन्दयु ग- प्रसाद और प्रेमचन्द ने हिन्दी-कहानी-कला को उसके विकास के उच्च शिखर पर अधिष्ठित किया। प्रसाद की प्रारम्भिक कहानी ग्राम "इन्दु" नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँ धी, बिसाती, इन्द्रजाल, मधु वा, पु रस्कार, गु ण्डा आदि प्रसाद जी की उत्कृष्ट कहानियाँ हैं । प्रसाद जी प्रेमचन्द से पहले कहानीक्षे तर् में आये । इनके हाथों हिन्दी-कहानी को गम्भीर कलात्मक भाषा और उत्कृष्ट विषयों की प्राप्ति हुई। उपन्यासों की भाँ ति हिन्दी कहानी का चरम उत्कर्ष भी मुं शी प्रेमचन्द के हाथों हुआ। इन्होंने लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखकर हिन्दी कहानी कला को समृ द्ध बनाया। उपन्यासों की भाँ ति इनकी तत्कालीन जन-जीवन विशे षतया ग्रामीण-जीवन का सजीव चित्रण मिलता है । अपनी पु स्तक "हिन्दी साहित्य और सं वेदना का विकास" में आलोचक रामस्वरूप चतु र्वेदी प्रेमचं द के विषय में कहते हैं - "प्रेमचं द उन ले खको में हैं जिन्होंने अपने रचनाभिमान को सबसे ऊपर रखा। किसी प्रकार के आर्थिक, राजनै तिक, सामाजिक दबाव को उन्होंने कभी नहीं माना। प्रगतिशील ले खक सं घ के प्रथम अध्यक्ष पद से बोलते हुए (1936) उन्होंने अपनी दो टूक शै ली में कहा था, "वह (साहित्यकार) दे शभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है ।" मृ त्यु के कुछ ही दिनों पहले यहाँ उन्होंने अपनी कला-रचना का निर्दे शक सूतर् और अगली पीढ़ी के लिए अपना सं देश जै से एक साथ दे दिया हो।"2 प्रारम्भ में इनकी कहानियों के सं गर् ह "सप्तसरोज", "नवनिधि", "प्रेमपचीसी", "प्रेमपूर्णिमा", "प्रेमद्वादशी", "प्रेमतीर्थ", "सप्तसु मन", आदि नामों से प्रकाशित हुए थे । बाद में मानसरोवर नाम के आठ सं गर् ह खण्डों में इनकी सभी कहानियाँ प्रकाशित हुई है । प्रेमचन्द की उल्ले खनीय कहानियों में इनकी प्रथम कहानी पं चपरमे श्वर, आत्माराम, बड़े घर की बे टी, शतरं ज के खिलाड़ी, बज्रपात, रानीसारं धा, ईदगाह, बूढ़ी काकी, पूस की रात, सु जान भगत, कफन, पं डित मोटे राम, मु क्तिपथ आदि हैं । इन्होंने अपनी कहानियों में उत्तर भारत के विभिन्न वर्गीय जनजीवन को चित्रित किया है । प्रेमचं द की कहानियों का समीक्षात्मक दृष्टि से अवलोकन करते हुए रामस्वरूप चतु र्वेदी पु नः लिखते है - "मानव चरित्र के ऐसे आत्मीय अं कन विरल हैं जहाँ कि रचना-सं सार में हर पात्र यह अनु भव करे कि ले खक की सहानु भति ू उसी के साथ है , वह चाहे "मं तर् " का आदर्शप्रिय बूढ़ा भगत हो चाहे "कफन" के तीखे यथार्थ में सने विद्रूप घीसू और माधव हो। कथाकार की इस गहरी सहानु भतिू के कारण ही यह चरित्र अपने -अपने सन्दर्भ में पूरे विश्वसनीय बन जाते है और एक गहरे मूल्य-बोध की सृ ष्टि करते हैं । रचना के इस स्तर पर कला और समाज-चे तना के कृत्रिम विभाजन आप से आप विलीन हो जाते हैं ।"3 "कफन" के सन्दर्भ में डॉ. बच्चन सिं ह का कथन विशे ष रूप से दृष्टव्य है - "यह कहानी जीवन का ही कफन नहीं सिद्ध होती बल्कि सं चित आदर्शो, मूल्यों, आस्थाओं और विश्वासों का भी कफन सिद्ध होती है ।"4 प्रेमचन्द की कहानियों की भाषा-शै ली अत्यन्त सरल है । इनकी कहानियाँ इनके उपन्यासों का ही लघु सं स्करण कही जा सकती हैं । प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कहानी कला के उत्कर्ष में चन्द्रधर शर्मा "गु ले री" का योगदान चिरस्मणीय है । इन्होंने अपनी तीन कहानियों- "उसने कहा था", "सु खमय जीवन", "बु द्ध ू का काँटा" से ही जितनी कीर्ति अर्जित कर ली, उतनी दर्जनों कहानियाँ लिखकर भी अन्य कहानीकार न कर सके। इनकी "उसने कहा था" कहानी हिन्दी की श्रेष्ठतम कहानियों में से एक है । वही इनकी कीर्ति का अक्षय स्तम्भ भी है । इस कहानी के विषय में विद्वान आलोचक रामस्वरूप चतु र्वेदी के शब्द हैं - "सिक्खों के जीवन के शौर्य भी इस कहानी में आरं भ से अं त तक करुणा की धारा अं तर्व्याप्त है । और करुणा तथा दुखांत के साथ उदात्तता का भाव जो लहना सिं ह के आत्म-त्याग में से बड़े कोमल रूप में प्रस्फुटित होता है ।"5 "गु ले री" जी के बाद कहानी-क्षे तर् ः में विश्वम्भर नाथ कौशिक का नाम उल्ले खनीय है । इनकी "वह प्रतिभा" और "ताई" कहानियाँ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । इस यु ग के अन्य प्रतिष्ठित कहानीकारों में पं . बद्रीनाथ भट् ट, सु दर्शन, (कमल की बे टी, कवि की स्त्री, सं सार की सबसे बड़ी कहानी) पाण्डे य बे चन शर्मा "उग्र" (उसकी बे टी, सनकी, अमीर, जल्लाद) आचार्य चतु रसे न शास्त्री (दुखवा कासो कहँ ू मोरी सजनी, भिक्षु राज, दही की हाँ ड़ी, दे खु दा की राह पर) आदि हैं । वर्तमान यु ग- जै नेन्द्र जी से हिन्दी कहानियों का वर्तमान यु ग प्रारम्भ होता है । बदली हुई प्रवृ त्तियों के अनु रूप इस यु ग की कहानियाँ भी अपने आप में एक नयापन लिये हुए हैं । जै नेन्द्र की तमाशा, पत्नी, घु ँ घुरू, ब्याह, भाभी, परदे शी, चलचित्र, कः पन्थः आदि कहानियों में बदले हुए यु ग की दार्शनिक गम्भीरता, बौद्धिकता तथा सूक्ष्म मनोवै ज्ञानिक विवे चन आदि के स्पष्ट दर्शन होते है । जै नेन्द्रजी के समक्ष ही ज्वाला दत्त शर्मा की भाग्यचक् र, अनाथ बालिका आदि कहानियाँ उल्ले खनीय हैं । जनार्दन प्रसाद झा "द्विज" करुणप्रधान कहानियों के ले खक हैं । चण्डीप्रसाद ह्दये श, गोविन्द वल्लभ पन्त, सियाराम शरण गु प्त, वृ न्दावन लाल वर्मा आदि इसी खे मे के कहानीकार हैं । इसके बाद ही हिन्दी में मनोविश्ले षणपरक कहानियों की परम्परा चली। इस दृष्टि से इलाचन्द्र जोशी की कहानियों तथा भगवती प्रसाद वाजपे यी की मिठाई वाला, झांकी, त्याग, वं शीवादन आदि कहानियों में मनोवै ज्ञानिक तथ्यों का उद्घाटन प्रमु ख है । "अज्ञे य" की कहानियाँ भी फ् रायड के मनोविश्ले षण वाद से प्रभावित है । विपथगा, परम्परा, कोठरी की बात, जयदोल इनके प्रमु ख कहानी-सं गर् ह है । वर्तमान कहानी कला के क्षे तर् में उपे न्द्रनाथ "अश्क" का महत्वपूर्ण स्थान है । इनकी कहानियों में निहित तीखे सामाजिक व्यं ग्य द्रष्टव्य है । प्रेमचन्द की भाँ ति इनकी कहानियाँ भी विस्तृ त जनजीवन से सम्बन्धित हैं । पिं जरा, पाषाण, मोती, दल ू ा, मरूस्थल, गोखरू, खिलौने , चट् टान, जादग ू रनी, चित्रकार की मौत, हलाल का टु कड़ा, कुछ न समझ सका, पराया-सु ख, ज्ञानदान, बदनाम, जबरदस्ती आदि इनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं । इसी समय के आसपास चन्द्रगु प्त विद्यालं कार, जी.पी. श्रीवास्तव, हरिशं कर शर्मा, कृष्णदे व गौड़, बे ढब बनारसी, अजीमवे ग चु गताई, जयनाथ नलिन आदि ने भी अपनी कहानियों द्वारा हिन्दी कहानी कला को समृ द्ध बनाया है । वर्तमान समय में कहानी एक सर्वप्रसिद्ध साहित्यिक विधा है । आजकल की साहित्यिक पत्रिकाओं- सारिका, कादम्बिनी, नयी कहानी, हिन्दुस्तान, धर्मयु ग, कथादे श, अन्यथा, कथाक् रम, अपे क्षा, तहलका, परिचय, वसु धा, पहल, लमही तथा अन्याने क पत्रिकाओं में आये दिन कहानियाँ प्रकाशित होती रहती हैं । सन् साठ के बाद की कहनियों में इस यु ग की दौड़-धूप भरी ज़िन्दगी के किसी एक निश्चित पहलू या क्षण की कथा समाहित रहती है । यु ग की बौद्धिकता और सूक्ष्मचिन्तन की प्रवृ त्ति के अनु रूप ही कहानियाँ भी दिन प्रतिदिन सूक्ष्म और बौद्धिक होती जा रही हैं । इनमें प्रतीकात्मकता को विशे ष प्रश्रय दिया जा रहा है । कहानियों की कोई निश्चित दिशा भी नहीं हैं । कहानीकार किसी भी घटना या अनु भतिू के किसी भी क्षण को ले कर, सं वेदनात्मक स्तर पर चित्रित करने के लिए सर्वथा स्वच्छन्द है । पहले की कहानियों की भाँ ति वर्तमान कहानियों में न तो पात्रों की बहुलता होती है और न ही घटनाओं की। कथावस्तु की सूक्ष्मता और प्रतीकात्मकता की दृष्टि से आये दिन कहानियों की दिशा में नवीन प्रयोग होते दे खे जा रहे हैं । वर्तमान कहानीकला नयी कहानियों से भी आगे बढ़कर अकहानी की पदवी पाने को लालायित है । नयी कविता या अकविता की भाँ ति कहानी भी वर्तमान साहित्यिक प्रयोगों का बहुत बड़ा माध्यम है । वर्तमान कहानी की तु लना "स्नै पशाट" से की जाती है । जै से कैमे रे द्वारा किसी एक निश्चित स्थिति का चित्र एक ही "स्नै प" में खींच लिया जाता है , उसी प्रकार कहानी भी अनु भति ू के किसी एक निश्चित क्षण या किसी घटना के एक पहलू-विशे ष को चित्रित करती दे खी जा सकती है । कुल मिलाकर नयी कविता की भाँ ति नयी कहानी भी दिन प्रतिदिन सूक्ष्मता ग्रहण करती प्रयोगधर्मा बन गयी है । वर्तमान कहानीकारों की गणना कर पाना एक सर्वथा असम्भव कार्य है क्योंकि आये -दिन पत्र-पत्रिकाओं में नये -नये कहानीकारों की कहानियाँ प्रकाशित होती रहती हैं । इस यु ग के कुछ प्रसिद्ध कहानीकारों के नाम हैं - दे वेन्द्र सत्यार्थी, रां गेय राघव, प्रभाकर माचवे , अं चल, मु क्तिबोध, रे णु , मार्क ण्डे य, कमले श्वर, राजे न्द्र यादव, दध ू नाथसिं ह, शै लेश मटियानी, अमृ तराय, नीलकान्त, सु रेशसिं ह, अमर गोस्वामी, काशीनाथ सिं ह, रवीन्द्र कालिया, निर्मल वर्मा, सं जीव, शिवमूर्ति, अरुण प्रकाश, स्वयं प्रकाश, सृं जय, उदयप्रकाश, कैलाश बनवासी, अखिले श, पं कज मित्र, मो. आरिफ, दे वेन्द्र आदि। महिला कहानीकारों में सत्यवती मलिक, महादे वी वर्मा, चन्द्रप्रभा, तारा पाण्डे य, चन्द्रकिरण सौनरिक्सा, रामे श्वरी शर्मा, शकुन्तला माथु र, शिवानी, निर्मला ठाकुर, ममता कालिया, कृष्णा सोबती, मृ दुला गर्ग, अलका सरावगी, मे हरून्निसा परवे ज, गीतांजलिश्री, नीलाक्षी सिं ह तथा मनीषा कुलश्रेष्ठ विशे षतया उल्ले खनीय हैं । सन्दर्भः 1. कहानी पच्चीस साल की - राजकुमार, तद्भव, अक्टूबर 2011, पृ ष्ठ-155 2. हिं दी साहित्य और सं वेदना का विकास - रामस्वरूप चतु र्वेदी, पृ ष्ठ-145 3. हिं दी साहित्य और सं वेदना का विकास - रामस्वरूप चतु र्वेदी, पृ ष्ठ-145-146 4. सं कल्प (प्रेमचं द विशे षांक) - डॉ. बच्चन सिं ह, जनवरी-मार्च 2006, हिं दी अकादमी है दराबाद, पृ ष्ठ-84 5. हिं दी साहित्य और सं वेदना का विकास -रामस्वरूप चतु र्वेदी, पृ ष्ठ-145