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गुप्तोत्तर काल: वर्धन राजवंश

(Post Gupta Period: Vardhan Dynasty)


गुप्तोत्तर काल

इतिहास के अपना एक चक्र पूरा कर वहीँ आ गया जहाँ मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद की स्थिति थी।
गप्ु तों के साम्राज्य के धराशायी हो जाने के बाद भारतवर्ष में पन
ु : विघटन ओर विकेन्द्रीकरण की प्रवत्ति
ृ याँ
बलवती हो गई। स्कन्द गुप्त के निधन के उपरान्त शीघ्र ही प्रान्तीय राज्य अपनी स्वतंत्रता जयघोष करने
लगे। गप्ु त-साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर जिन राज्यों और राजवंशों का अभ्यद
ु य हुआ, उनमें मख्
ु य थे- 1.
वल्लभी के मैत्रक, 2. मगध के उत्तरकालीन गुप्त तथा 3. कन्नौज के मौखरी। ये राज्य परस्पर संघर्षरत
थे और साथ ही अपने से दर्ब
ु ल राज्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहते थे।
विभिन्न राज्यों के पारस्परिक विद्वेष और संघर्ष तथा केन्द्र में शक्तिशाली शासक के अभाव का लाभ
उठा कर इसी समय भारत पर हूणों ने भी अपने आक्रमण प्रारम्भ कर दिए। हूण एशिया के रहने वाले बर्बर
लोग थे जिन्होंने चौथी एवं पाँचवीं शताब्दियों में एक प्रकार से सारे विश्व को आतंकित कर रखा था।
उनकी क्रूरता, निर्दयता, रक्तपात और हिंसा की कथाएँ आज भी रोगटे खड़ी कर दे ने वाली हैं। सम्राट्
स्कन्दगप्ु त ने 455 तथा 467 ई. के मध्य में हूणों को बरु ी तरह पराजित कर दिया था। इससे कुछ समय
के लिए हूणों के आक्रमण से भारतीय जनता को मुक्ति मिल गई थी। किन्तु कालान्तर में वे पुन: सशक्त
होकर अपनी आक्रामक नीति को मूर्त रूप दे ने लगे। ऐसे समय थानेश्वर में एक ऐसे राजवंश का उत्कर्ष
हुआ जिसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने वाले हूणों से दे श की रक्षा के प्रत्युत, एक बार
पुन: भारत को राजनैतिक एकता के सूत्र में बाँधने में सफलता प्राप्त की। थानेश्वर का यह राजवंश वर्धन
वंश के नाम से सुविख्यात है । सम्राट् हर्ष वर्धन वंश का सबसे प्रतापी सम्राट् था।

वर्धन-वंश के अध्ययन-स्रोत- वर्धन वंश के विषय में हमें प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है । इस
अध्ययन सामग्री को हम मुख्यतया निम्नलिखित रूप में रख सकते हैं-

साहित्यिक सामग्री– जहाँ तक साहित्यिक सामग्री का प्रश्न है , इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और


उपयोगी रचना हर्ष चरित है । हर्षचरित सम्राट् हर्षवर्द्धन के राजकवि बाणभट्ट की रचना है । संस्कृत साहित्य
की यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है । इसमें न केवल सम्राट् हर्ष का राजनैतिक जीवन प्रत्युत तत्कालीन
सामाजिक तथा आर्थिक जीवन का भी उल्लेख है । यद्यपि बाण ने अपने आश्रयदाता का यशोगान एक
प्रशस्तिकार के रूप में किया है । तथापि इसमें पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है । बाणभट्ट की अन्य
महत्त्वपर्ण
ू रचना कादम्बरी है ।

1
कादम्बरी से भी तत्कालीन भारत के सामाजिक-धार्मिक जीवन के विषय में अच्छी जानकारी मिलती है ।
इसके अतिरिक्त दं डिन के दशकुमार चरित, कामन्दक के नीतिसार तथा कात्यायन एवं दे वाला की
स्मति
ृ याँ तथा नारद-स्मति
ृ की टीका से हर्ष के विषय में उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है ।

हर्ष न केवल विद्वानों का आश्रयदाता था। प्रत्युत वह स्वत: भी उच्च कोटि का विद्वान ् तथा लेखक
था। रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिक उसकी सुप्रसिद्ध रचनाएँ हैं। हर्ष और हर्ष कालीन भारत के
विषय में इन रचनाओं से सहायता मिलती है ।

उपरोक्त साहित्यिक साध्यों के अतिरिक्त कतिपय पुरातात्विक साध्यों से भी हमें हर्ष के विषय में
जानकारी मिलती है । पुरातात्विक साध्यों में अभिलेख, मुद्राएँ और स्मारक हैं। जहाँ तक, अभिलेखों का
प्रश्न है , मधुबन अभिलेख, वशखरा अभिलेख तथा गद्देमन अभिलेख मुख्य हैं।

इन पुरातात्विक साक्ष्यों के अतिरिक्त हर्षकालीन मुद्राएँ भी हर्ष के विषय में जानकारी प्रदान करती हैं।
उसके दो पुत्र राज्यवर्धन द्वितीय तथा हर्षवर्द्धन और एक पुत्री राज्य श्री थी। राज्य श्री का विवाह मौखरी
राजा गह
ृ वर्मा से हुआ था। मौखरियों के साथ सम्बन्ध-स्थापन से वर्धन राजवंश की प्रतिष्ठा में वद्धि
ृ हुई।
कारण स्पष्ट है , वर्धन राजवंश जिसे थानेश्वर का राजवंश भी कहा जाता है , पहले मौखरियों के सामन्त थे,
बाद में उन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। प्रभाकर वर्धन के पौरुष और पराक्रम का परिचय
उस युग के ऐतिहासिक साक्ष्यों से मिल जाता है । उदाहरण के लिए बाणभट्ट ने अपनी सुप्रसिद्ध
रचना हर्षचरित में लिखा है वह हूण हिरण के लिए सिंह, सिन्धु राजाओं के लिए तप्त ज्वर, गुर्जर नरे शों
की निद्रा भंग करने वाला, गंधार स्वामी के लिए पित्तरोग एवं मालव की भाग्य-लक्ष्मी के लिए कुल्हाड़ी
था। इस प्रकार प्रभाकर वर्धन ने तत्कालीन भारत के राजनैतिक मान-चित्त में अपना स्थान बना लिया
था।

प्रभाकर वर्धन अपनी शक्ति-विस्तार और संगठन के लिए जब प्रयास कर रहा था, उसी समय (लगभग
604 ई. में ) हूणों ने साम्राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर आक्रमण कर दिया। प्रभाकर वर्धन ने अपने
ज्येष्ठ पत्र
ु राज्यवर्धन द्वितीय को हूणों का दमन करने के लिए भेजा। इधर प्रभाकर वर्धन अस्वस्थ हो
गया और उसकी मत्ृ यु हो गई। जिस समय प्रभाकर वर्धन मत्ृ यु शैय्या पर पड़ा हुआ था। राज्यवर्धन हूणों
से यद्ध
ु को राज्य-भार सौंप दिया किन्तु हर्ष राजपद के लिए अनिच्छक था। उसने राज्यवर्धन को बल
ु ाने के
लिए राजदत
ू भेजे। इसी बीच मालव नरे श दे वगुप्त ने महाराज गह
ृ वर्मन की हत्या कर दी और गह
ृ वर्मन की
पत्नी राज्य-श्री को कारागार में डाल दिया। अतएव मालव नरे श को दण्डित करने तथा अपनी बहन को
मुक्त कराने की दृष्टि से राज्यवर्धन एक विशाल सेना के साथ मालव नरे श की ओर चल पड़ा। उसने बड़ी

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आसानी से मालव-नरे श को पराजित कर दिया। वाण के कथनानुसार गौड़-नरे श ने धोखा दे कर राज्यवर्धन
की हत्या कर दी। डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार, डॉ. आर.डी. बनर्जी तथा कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार
मालव नरे श के मित्र गौड़ाधिपति शशांक ने राज्यवर्धन की युद्ध में पराजित होने के उपरान्त ही उसकी
हत्या की थी। ह्येनसांग के अनुसार, शशांक और उसके मंत्रियों ने राज्यवर्धन को सम्मेलन में बुलाया और
उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार किन प्रकार किन परिस्थितियों में किस प्रकार राज्यवर्धन की हत्या की
गई यह प्रश्न विवादास्पद है ।

राज्यवर्धन की हत्या से क्षुब्ध और बहन राज्य-श्री की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध हर्ष ने अपने सेनापति और
मंत्रियों के परामर्श से राज्य-सिंहासन ग्रहण किया। इतिहासकारों के अनस
ु ार हर्ष के सिंहासनारोहण की
तिथि 606 ई. है । इसी समय से हर्ष संवत प्रवर्ति हुआ।

हर्ष ने सर्वप्रथम गौड़ नरे श शशांक को दं डित करने का संकल्प लिया। उसने कहा कि- यदि मैंने कुछ दिनों
के अन्तर्गत ही पथ्
ृ वी को गौड़विहीन न कर दिया तो मैं पतंग की भाँति प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रविष्ट होकर
अपने प्राणों की आहूति दे दं ग
ू ा। वह शशांक पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हो गया। मार्ग में उसे सूचना
मिली कि कन्नौज पर किसी ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है और श्री को बंदी गह
ृ से मक्
ु त कर
लिया है और वह विन्ध्य पर्वत के जंगलों की ओर चली गई है । पिता और भरता की मत्ृ यु से, पहले से ही
शोकाकुल हर्ष और भी क्षुब्ध होकर राज्य-श्री को ढूंढने के लिए निकल पड़ा। सौभाग्यवश राज्य-श्री उसे
मिल गयी। उस समय वह चीता बनाकर अपने को चिताग्नि में समर्पित करने के लिए तैयार कर रही थी।
बहुत समझाने-बझ
ु ाने के उपरांत वह राज्य-श्री को साथ लेकर शिविर लौट आया। हर्ष के विषय में
जानकारी दे ने वाली कई मुद्राएँ हैं। इन मुद्राओं में एक स्वर्ण मुद्रा है जिसके अग्रभाग पर परम-महारक
महाराजाधिराज परमेश्वर श्री महाराज हर्षदे व उत्कीर्ण है और पष्ृ ठ पर नंदी पर आसीन शिव और पार्वती
का चित्र है । हर्षकालीन भारत की जानकारी का अन्य महत्त्वपर्ण
ू स्रोत ह्वेनसांग का राजा-वत्ृ तान्त है ।
ह्येनसांग एक चीनी यात्री और बौद्ध भिक्षु था। वह भारत में लगभग चौदह वर्षों (630-644 ई.) तक रहा
था। उपर्युक्त सामग्री के माध्यम से सम्राट् हर्ष और हर्षकालीन भारत के विषय में पर्याप्त जानकारी
मिलती है ।

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वर्द्धनवंश का उद्भव
(The Emergence of Vardhan Dynasty)

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हर्षचरित के अनुसार वर्द्धन वंश का संस्थापक पुष्यभूति था। वह शिव का भक्त था और उसने एक नवीन
राजकुल की स्थापना की जिसकी राजधानी श्रीकण्ठ थी। इस वंश को वैश्य जाति का कहा गया है ।
मंजूश्रीमूलकल्य ह्वेनसांग के यात्रा विवरण से भी उनके वैश्य होने की पुष्टि होती है । बाण के अनुसार हर्ष
के पैतक
ृ राज्य की राजधानी स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) थी। यह श्रीकण्ठ जनपद में सरस्वती नदी के तट पर
स्थित थी। इस क्षेत्र का समीकरण वर्तमान हरियाणा से किया जा सकता है ।

हर्ष के बांसखेड़ा एवं मधुवन अभिलेखों में पुष्यभूति वंश के प्रारं भिक शासक नरवर्द्धन, राज्यवर्द्धन प्रथम,
आदित्यवर्द्धन और राज्यवर्द्धन द्वितीय थे। इस वंश के प्रारं भिक तीन शासकों की राजनैतिक स्थिति सुदृढ़
नहीं थी, ये महाराज कहलाते थे। यह भी संभव है कि ये गप्ु तों, हूणों या मौखरियों के अधीनस्थ रहे हों।
नरवर्द्धन व राज्यवर्द्धन प्रथम की उपाधि महाराज थी लेकिन यह उपाधि उस समय पूर्ण प्रभुता का सूचक
नहीं थी। प्रभाकर वर्द्धन ही सबसे पहले महाराजाधिराज कहलाया।

आदित्यवर्द्धन राज्यवर्द्धन के बाद शासक बना। उसने परवर्ती गप्ु त शासक महासेनगप्ु त की बहन
महासेनगुप्ता से विवाह किया। परवर्ती गुप्तों से इस संबंध की स्थापना के बाद पुष्यभूतियों की राजनैतिक
स्थिति में बदलाव अवश्य आया होगा।

प्रभाकरवर्द्धन को इस कुल का प्रथम प्रभावशाली शासक माना जा सकता है । यह प्रथम शासक था


जिसने परमभट्टारक महाराजाधिराज उपाधि धारण की। हर्ष के बांसखड़ा अभिलेख में उसका एक ऐसे
शासक के रूप में वर्णन किया गया है जिसका यश चारों समद्र
ु ों के पार पहुँच गया था, जिसने अपने शौर्य
अथवा नीति द्वारा अन्य शासकों पर विजय प्राप्त कर ली थी। हर्षचरित में इसके राज्याभिषेक होने का
उल्लेख है । स्पष्ट है कि वह एक प्रभुता सम्पन्न शासक था।

यह नि:सन्दे ह है कि प्रभाकरवर्द्धन उत्तरी भारत का शक्तिशाली शासक था। उसकी पत्नी का नाम
यशोमति थी।

हर्ष के शासक बनते ही आसाम के राजा भास्कर वर्मा ने उससे मैत्री करने के लिए अनेक उपहारों के साथ
अपने दत
ू हसवेग को हर्ष के पास भेजा। भास्कर वर्मा हर्ष से मैत्री बनाने के लिए समत्ु सक
ु थे।

यह मैत्री पारस्परिक हित के लिए थे क्योंकि वे दोनों गौड़ाधिपती शशांक के शत्रु थे। शशांक के प्रति दोनों
की शत्रत
ु ा से परस्पर एकता स्वाभाविक थी। हर्षचरित में उल्लेख है कि हर्ष ने शासक बनते ही गौड़ के
राजा शशांक को पराजित करने के लिए अपने सेनापति भण्डि को आगे भेजा। प्रश्न यह उठता है कि
शशांक के विरुद्ध अभियान का क्या परिणाम हुआ, इस संबंध में आंशिक संकेत ह्वेनसांग की जीवनी से

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मिलता है । कहा गया है कि उन्होंने (हर्ष ने) शीघ्र ही अपने भाई की हत्या का प्रतिशोध लिया और अपने को
भारत का अधिपति बनाया। ह्वेनसांग की जीवनी में कोंगद दे श पर हर्ष के आक्रमण का भी उल्लेख है ।
इसके परिणामों के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं हैं। हर्ष शशांक से अपने भाई की हत्या का बदला अवश्य
लेना चाहता था किन्तु हर्ष को 619 ई. तक सफलता नहीं मिली थी। गंजाम के लेख से यह स्पष्ट होता है
कि इस समय तक भी शशांक परू े वैभव के साथ शासन कर रहा था। अभिलेख में कहा गया
है - महाराजाधिराज श्री शशांक राज्य शासति। उसे सामन्तों पर प्रभुता रखने वाला तथा महाराजाधिराज
कहा जाना महत्त्वपर्ण
ू है । यह लेख महासामन्त माधवराज द्वितीय का है तथा उसमें ग्राम दान की चर्चा
है । इसी प्रकार दक्षिणी मगध में रोहतासगढ़ नामक स्थान पर शशांक के नाम का एक प्रस्तर बना हुआ है
जिसमें शशांक को महासामन्त कहा है । उल्लेखनीय है कि हर्षचरित में गौड़ नरे श को गौड़ाधिपति बताया
है जबकि ह्येनसांग ने उसे कर्णसुवर्ण का शासक कहा है । ह्वेनसांग के यात्राविवरण के अनुसार शशांक की
महाराजाधिराज के रूप में 637 ई. तक सत्ता विद्यमान थी। ऐसा प्रतीत होता है कि रोहतासगढ़ का
प्रस्तर (जिसमें शशांक को महासामन्त बताया) हर्ष के सिंहासनारोहण से पूर्व का है अर्थात ् जब शशांक
संभवत: मौखरियों (कन्नौज शासक) का सामन्त था और मौखरियों की शक्ति क्षीण होने पर वह स्वतंत्र
हो गया। स्वतंत्र होने पर शशांक के अधिकार में सम्पर्ण
ू बंगाल रहा होगा, साथ ही उड़ीसा का गंजाम प्रदे श
भी उसके राज्य का एक अंग था।

यहाँ स्मरणीय है कि ह्वेनसांग ने उन प्रदे शों के शासकों का उल्लेख किया है जिन पर हर्ष का आधिपत्य
नहीं था। पूर्वी भारत की यात्रा के समय ह्वेनसांग ने कर्णसुवर्ण (समतट-डवाक एवं पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति) के
प्रदे श के शासक का उल्लेख नहीं किया। इससे अपरोक्ष रूप से संकेत मिलता है कि उसकी पूर्वी भारत यात्रा
(ह्ननसांग की) तक हर्ष का उपरोक्त प्रदे शों पर अधिकार हो गया था क्योंकि पहले कर्णसुवर्ण प्रदे श के
शासक बाण ने गौड़ाधिपति (शशांक) बताया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि 637 ई. तक बंगाल क्षेत्र हर्ष
के अधिकार क्षेत्र में थे। दस
ू रे शब्दों में भाण्डि के साथ सेना भेजने में हर्ष को तत्काल सफलता नहीं मिली
थी क्योंकि गंजाम लेख सच
ू ना दे ता है कि 619-20 ई. तक उड़ीसा क्षेत्र पर शशांक की सत्ता कायम थी ओर
वह महाराजाधिराज के रूप में प्रतिष्ठित था। संभवतः शशाक की मत्ृ यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों को
पराजित कर हर्ष ने बंगाल एवं उड़ीसा पर कब्जा किया होगा। बसाक की मान्यता है , संभवतः शशाक के
साथ दस
ू रा युद्ध भी हुआ था और शशांक के उत्तराधिकारियों से सब प्रदे श छीन कर भास्कर वर्मा को दे
दिये होंगे। भाण्डि के प्रथम अभियान के फलस्वरूप शशांक कन्नौज से वापस लौटा होगा अथवा भाण्डि को
लौटने को बाध्य किया होगा किन्तु उसकी सत्ता 619 ई. तक समाप्त नहीं की जा सकी। इस तथ्य की
पुष्टि आर्य मंजुश्रीमूलकल्प से भी होती है । इसमें विवरण आया है कि हकाख्य (प्रथम शब्द ‘ह’ नामधारी
राजा) नामक राजा भारत के पर्व
ू प्रदे श की ओर बढ़ा और पण्
ु डनगर (पण्
ु ड्रवर्द्धन) तक पहुँच गया और उसने

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सौमाख्य (‘श' नामधारी राजा) को पराजित किया एवं अपने राज्य में उसे सीमित रहने के लिए बाध्य
किया और फिर हकाख्य राजा वापस लौट आया। इससे प्रतिध्वनित होता है कि हर्ष शशांक का पूर्णत:
उन्मूलन नहीं कर पाया था। इस तरह पूर्व प्रस्तावित 606 ई. के भाण्डि अभियान का कोई तात्कालिक
परिणाम नहीं निकला। अत: ह्वेनसांग का यह कथन समीचीन प्रतीत नहीं होता कि शीलादित्य ने शीघ्र ही
अपने भाई की हत्या का बदला लिया और अपने को भारत का अधिपति बनाया।

पुलकेशिन द्वितीय का अधिकार नर्मदा तक फैले विस्तत


ृ क्षेत्र पर था और लाट (सौराष्ट्र), गुर्जर (गुजरात)
राज्यों पर पुलकेशिन का प्रभाव था। पश्चिमी क्षेत्र पर प्रभाव बढ़ाने के उद्देश्य से मालवा (वलभी) के ध्रुवसेन
पर हर्ष ने आक्रमण कर दिया जिसे पल
ु केशिन के विरुद्ध अभियान का प्रथम चरण कहा जा सकता है ।
गुर्जर नरे श दद्द के 706 ई. के नौसारी दानपत्र से ज्ञात होता है कि हर्षदे व द्वारा पराजित वलभी नरे श का
परित्राण (शरण दे न) करने से उत्पन्न हुआ। यश का वितान गर्ज
ु र राजा दद्द पर निरन्तर फैला हुआ था।
(श्री हर्ष दे वाभिभूतो श्री वलभीपति परित्राणो पजात: भ्रमदभ्र विभ्रमयशो वितान: श्री दद्दः) इससे सहज ही
अनुमान लगाया जा सकता है कि वलभी नरे श ध्रुवसेन पराजित हुआ एवं दद्द की शरण में गया। इस
विजय के बाद ध्रुवसेन को अपने पक्ष में मिलाने हे तु हर्ष ने कूटनीति का प्रयोग किया और उससे अपने पुत्री
का विवाह कर दिया तथा शत्रु को मित्र बना लिया। इस संबंध में निहार रं जनराय का विचार है कि हर्ष
संभवत: ऐसे राजनैतिक उद्देश्य से प्रेरित था जिसका प्रभाव उत्तरी एवं दक्षिणी दोनों सम्राटों पर पड़ता था।
यह नर्मदा सीमाप्रान्त का प्रश्न था जो पूर्व में गुप्त सम्राटों के समय उठा। उन्होंने विजय या वैवाहिक
संबंधों द्वारा हल करने की चेष्टा की थी। वही सवाल हर्ष के समक्ष उठ खड़ा हुआ।

दद्द का समय 629 ई. से 640 ई. के मध्य माना जाता है और ध्रुवसेन 630 ई. के लगभग गद्दी पर बैठा था।
यह युद्ध 633 ई. के आस-पास हुआ था। वलभी के साथ संघर्ष ह्वेनसांग के पश्चिमी भारत में जाने से
(अर्थात ् 641-42 ई.) पर्व
ू हुआ। उसने वलभी को मो-ला-पो कहा है ।

हर्ष का प्रशासन
(Administration of Harsha)
एक कुशल प्रशासक एवं प्रजापालक राजा के रूप में हर्ष को स्मरण किया जाता है । नागानंद में उल्लेख
आया है कि हर्ष का एकमात्र आदर्श प्रजा को सख
ु ी व प्रसन्न दे खना था। कादम्बरी व हर्षचरित में भी उसे
प्रजा-रक्षक कहा है । राजा के दै वीय सिद्धान्त का इस समय प्रचलन था लेकिन इससे तात्पर्य यह नहीं कि
राजा निरं कुश होता था। वस्तत
ु : राजा के अनेक कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व होते थे जिन्हें परू ा करना पड़ता

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था। उनकी व्यक्तिगत इच्छायें कर्त्तव्यों के सामने गौण थी। राजा को दण्ड एवं धर्म का रक्षक माना जाता
था।

हर्ष की छवि ह्वेनसांग के विवरण से एक प्रजापालक राजा की उभरती है । वह राजहित के कार्यों में इतना
रत रहता था कि निद्रा एवं भोजन को भी भूल जाता था। मौर्य सम्राट् अशोक की भाँति वह भी पूरे दिन
शासन-संचालन में लगा रहता था। साम्राज्य की दशा, प्रजा की स्थिति, उनका जीवन-स्तर जानने के लिए
प्राचीन काल के राजा वेश बदल कर रात्रि में भ्रमण किया करते थे। हर्ष भी अपने साम्राज्य का भ्रमण
करता था। प्रजा के सुख-द:ु ख से अवगत होता था। दष्ु ट व्यक्ति को दण्ड व सज्जन को पुरस्कार दे ता था।
वह यद्ध
ु शिविरों में भी प्रजा की कठिनाईयाँ सन
ु ता था। हर्षचरित में शिविरों का उल्लेख हुआ है । इस
विवरण से तत्कालीन राजवैभव झलकता है । बाण ने राज्याभिषेक की परं परा का उल्लेख किया है । हर्ष ने
प्रभाकरवर्द्धन के राज्याभिषेक का उल्लेख किया है । राजप्रासाद वैभवपर्ण
ू व सर्वसवि
ु धा सम्पन्न थे। राजा
के व्यक्तिगत सेवकों में पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों की संख्या भी काफी होती थी। इनमें महाप्रतिहारी,
प्रतिहारीजन, चामरग्राहिणी, ताम्बूल, करं कवाहिनी आदि उल्लेखनीय हैं। प्रासादों की सुरक्षा का कड़ा प्रबंध
था। ह्वेनसांग के विवरण से हर्ष के परोपकार कायों का उल्लेख मिलता है । उसने सड़कों की सुरक्षा के
व्यापक प्रबंध किये और यात्रियों के ठहरने की समुचित व्यवस्था की। दान-पुण्य के कायों में भी वह बहुत
खर्च करता था।

एक मंत्रिपिरषद् राजा को राजकीय कार्य में मदद दे ने के लिए होती थी। मंत्रियों के
लिए प्रधानामात्य एवं अमात्य शब्द प्रयुक्त होते थे। रत्नावली व नागानंद में कई प्रकार के प्रशासनिक
पदों का उल्लेख है । बहुत से मंत्री गुप्तकालीन ही थे, जैसे सन्धिविग्रहिक, अक्षयपटलाधिकृत, सेनापति
आदि। मंत्रियों की सलाह काफी महत्त्व रखती थी। ह्वेनसांग के विवरण से स्पष्ट होता है कि राज्यवर्द्धन
के वध के पश्चात ् कन्नौज के राज्याधिकारियों ने मंत्रियों की परिषद् की सलाह से हर्ष से कन्नौज की
राजगद्दी संभालने का अनुरोध किया। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में मंत्रियों को स्वतंत्र रूप से अपने विचार
व्यक्त करने की स्वतन्त्रता थी। प्रशासनिक व्यवस्था की धरु ी राजा ही होता था। वह अंतिम न्यायाधीश व
मुख्य सेनापति भी था। राजा सभी विभागों की दे ख-रे ख करता था। केन्द्रीय शासन सुविधा की दृष्टि से
कई विभागों में विभाजित था। प्रधानमंत्री, संधिविग्रहिक (पर राष्ट्र विभाग दे खने वाला) अक्षयपटालिक
(सरकारी लेखपत्रों की जाँच करने वाला), सेनापति (सेना का सर्वोच्च अधिकारी), महाप्रतिहार (राजप्रासाद
का रक्षक), मीमांसक (न्यायाधीश), लेखक, भौगिक आदि अधिकारी प्रमुख थे। इनके अतिरिक्त
महाबलाधिकृत, अश्वसेनाध्यक्ष, गजसेनाध्यक्ष, दत
ू , उपरिक महाराज, आयक्
ु त तथा दीर्घद्वग (तीव्रगामी
संवादक) जैसे पदाधिकारी थे।

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राज्य प्रशासनिक सुविधाँ के लिए ग्राम, विषय, भुक्ति एवं राष्ट्र आदि में विभाजित था। भुक्ति से तात्पर्य
प्रांत से था और विषय का जिलों से। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्राम अपने क्षेत्र में स्वतंत्र थे।
ग्रामिक ग्राम का प्रमुख होता था। इसके अलावा भी कर्मचारियों की श्रंख
ृ ला मिलती है जैसे महासामंत,
सामत दौस्साध, कुमारामात्य आदि।

दण्ड-व्यवस्था हर्ष के समय की कठोर थी। ह्वेनसांग लिखता है कि शासन कार्य सत्यतापूर्वक सम्पन्न
होने पर लोग प्रेम-भाव से रहते हैं। अत: अपराधियों की संख्या अल्प है । राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र करने पर
आजीवन कैद की सजा दी जाती थी। इसके अलावा अंग-भंग, दे श निकाला आर्थिक जुर्माना भी दिया जाता
था। ह्वेनसांग के अनस
ु ार अपराध की सत्यता को ज्ञात करने के लिए चार प्रकार की कठिनदिव्य
प्रणालियाँ काम में लाई जाती थीं-जल द्वारा, अग्नि द्वारा, तुला द्वारा, विष द्वारा। साहित्यिक एवं
अभिलेखीय साक्ष्य भी न्याय प्रबंध पर प्रकाश डालते हैं। अपराधियों के अपराध का निर्णय न्यायाधीश
करते थे जो मीमांसक नाम से जाने जाते थे। अपराधियों के लिए जेल या बंदीगह
ृ की व्यवस्था थी। कभी-
कभी उन्हें बेड़ियाँ भी पहनाई जाती थीं। विशेष उत्सवों या समारोहों के समय अपराधियों का अपराध क्षमा
कर दिया जाता था। हर्ष जब दिग्विजय के लिए जाते थे, तब भी उनका अपराध क्षमा कर दिया जाता था।

ठोस एवं दृढ़ आर्थिक नीति का पालन हर्ष ने किया था। ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि राजा
आय को उदारतापूर्वक व्यय करते थे। राजकोष के चार हिस्से थे-एक भाग धार्मिक कार्यों तथा सरकारी
कार्यों में , दस
ू रा भाग बड़े-बड़े सार्वजनिक अधिकारियों पर खर्च होता था, तीसरे भाग से विद्वानों को
पुरस्कार और सहायता दी जाती थी, चौथा भाग दान-पुण्य आदि में खर्च होता था।

हर्षकाल में जनता पर करों का अत्यधिक दबाव नहीं था। राजकर उपज का ⅙ था। भूमिकर के अलावा
खनिज पदार्थों पर भी कर लगाया जाता था। चुंगी भी राज्य की आय का प्रमुख स्रोत थी। नागरिकों पर
लगाये गये आर्थिक जुर्माने से भी राज्य की आय होती थी। हर्ष काल के प्रमुख कर भाग, हिरण्य तथा बलि
थे। उद्रं ग व उपरिकर का भी उल्लेख है ।

सैनिक शासन– अपने साम्राज्य की सरु क्षा हे तु हर्ष ने एक संगठित सेना का गठन किया था। वह सेना का
सर्वोच्च अधिकारी था। सेना में पैदल, अश्वारोही, रथारोही, अस्तिआरोही होते थे। ह्वेनसांग के विवरण से
स्पष्ट है कि हर्ष की सेना में पैदल सैनिक असंख्य थे, एवं 20,000 घड़
ु सवार व 60,000 हाथी थे। हर्षचरित
के विवरण से सेना में ऊंटों के अस्तित्व का बोध होता है । हर्ष की सेना में नौ सेना भी अवश्य रही होगी।
महाबलाधिकृत सेनापति अश्वसेनाध्यक्ष आदि बहुत से सैनिक अधिकारियों का उल्लेख मिलता है । इस

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समय तक सेना में रथ का प्रयोग समाप्त हो चुका था। हर्ष ने गुप्तचर संस्था का भी विकास किया था।
पुलिस विभाग का भी गठन किया गया। चौरोद्धरणिक, दण्डपाशिक आदि पुलिस विभाग के अधिकारी थे।

धार्मिक आस्था- ह्वेनसांग के विवरण से भी हर्ष का महायान बौद्धानय


ु ायी होना स्पष्ट होता है । हर्ष ने बहुत
से बौद्ध स्तूपों का निर्माण करवाया। बौद्ध के प्रसार के लिए उसने चीनी यात्री की सहायता प्रदान की।
बांसखेड़ा व मधुवन अभिलेख में उसे परमसौगात कहा गया है । ब्राह्मणों को भी वह बहुत कुछ दान करता
था। लेकिन बौद्ध धर्म के प्रति उसके झुकाव का आशय यह नहीं था कि वह कट्टर बौद्ध था। बांसखेडा
ताम्रपत्र, नालंदा व सोनीपत से प्राप्त मुहरों में उसे परममाहे श्वर कहा गया है । इससे उसकी शिव-भक्ति
का भी बोध होता है । हर्ष एक धर्मसहिष्णु शासक था जिसके शासन-काल में सभी धर्म फले-फूले।

कन्नौज धर्म-परिषद्- सम्राट हर्ष के शासन-काल की एक महत्त्वपूर्ण घटना कन्नौज की परिषद् है ।


कन्नौज की धर्म-परिषद् हर्ष के आयोजन का मुख्य उद्देश्य उन तमाम भ्रान्तियों का निराकरण था जो उस
समय विविध धर्मावलम्बियों के समक्ष समस्या उत्पन्न कर रही थी। कन्नौज की धर्म परिषद् के
आयोजन के पूर्व इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए चीनी यात्री ह्वेनसांग से कहा था- मैं
कान्यकुब्ज में एक विशाल सभा करने की इच्छा करता हूँ और महायान की विशेषताओं को दिखाने तथा
चित्र के भ्रम का निवारण करने के लिए श्रमणों, ब्राह्मणों तथा पंचगौड़ के बौद्ध तथा धर्मेतर मतावलम्बियों
को आज्ञा दे ता हूँ कि वे आकर उसमें सम्मिलित हों। जिससे उनका अहर्भाव दरू हो जाय और वे परमेश्वर
के महान ् गुण को समझ सके। 643 ई. की फरवरी में कन्नौज में परिषद् की बैठक हुई। इसमें 18 दे शों के
राजा तीन हजार श्रमण (महायान तथा हीनसान), तीन सहस्र ब्राह्मण एवं निग्रन्थ अर्थात जैन तथा
नालन्दा मठ के एक हजार पुरोहितों ने भाग लिया। ह्वेनसांग को वाद-विवाद का अध्यक्ष बनाया गया।

महामोक्ष परिषद्- हर्ष पाँचवें वर्ष प्रयाग में एक दान वितरण समारोह का आयेाजन करता था।
इसे महामोक्ष परिषद् कहा जाता था। इसमें सम्राट् विभिन्न दे वी-दे वताओं की पूजा करता था। इसमें
सम्मिलित मनुष्यों को मुक्त हस्त से दान दे ता था। ह्वेनसांग इस प्रकार के समारोह में सम्मिलित हुआ
था। उसने इसका विस्तत
ृ विवरण दिया है , छठी महामोक्ष परिषद् में लगभग 5 लाख मनुष्य सम्मिलित
हुए।

ह्वेनसांग का यात्रा-विवरण- प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्ष के समय भारत आया था। वह 629 ई. में
चीन से भारत आया व 645 ई. में लौट गया। वह नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने तथा भारत से
बौद्ध ग्रन्थों को लेने आया था। हर्ष की प्रयाग सभा में सम्मिलित होने के बाद वह वापस चला गया। वह
अपने साथ बहुत से बौद्ध ग्रन्थ और भगवान बुद्ध के अवशेष ले गया। उसने चीन पहुँचकर अपनी यात्रा
विवरण लिखा। यह विवरण ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपर्ण
ू है । इसमें हर्ष से संबंधित विवरण के

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साथ तत्कालीन जनजीवन की झांकी मिलती है । उसके विवरण के आधार पर हमारे समक्ष प्राचीन भारत
का एक सजीव चित्र उपस्थित हो जाता है । ह्वेनसांग ने हर्षवर्धन की प्रशासनिक अवस्था का चित्र खींचा
है । हर्ष राज्य के कार्यों में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेता था। दण्डनीति उदार थी, लेकिन कुछ अपराधों में
दण्ड-व्यवस्था कठोर थी। राज्य के प्रति विद्रोह करने पर आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती थी।
दिव्य प्रथा का प्रचलन था। राजनैतिक दृष्टि से वैशाली व पाटलिपत्र
ु का महत्त्व घटने लगा था। उसके
स्थान पर प्रयाग व कन्नौज का महत्त्व बढ़ने लगा था।

तत्कालीन समाज को ह्वेनसांग ने चार भागों में बाँटा है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। शूद्रों को उसने
खेतिहर कहा है । स्पष्ट है कि शद्र
ू ों की स्थिति में अवश्य ही सध
ु ार हुआ होगा। चीनी यात्री ने मेहतरों,
जल्लादों जैसे अस्पश्ृ य लोगों का भी उल्लेख किया है । वे शहर से दरू रहते थे और प्याज, लहसुन खाते थे।
सामान्य रूप से लोग हर प्रकार के अन्न-मक्खन आदि का प्रयोग करते थे। ह्वेनसांग वहाँ के लोगों के
चरित्र से बहुत प्रभावित हुआ था। उसने उन्हें सच्चे व ईमानदार बताया है । सरलता, व्यवहारकुशलता व
अतिथि प्रेम भारतीयों का मुख्य गुण माना है ।

ह्वेनसांग के विवरण से ऐसा आभास होता है कि उस समय भारत में हिन्द ू धर्म का प्रभाव अधिक था।
ब्राह्मण यज्ञ करते थे व गायों का आदर करते थे। विभिन्न प्रकार के दे वी-दे वताओं की पूजा की जाती थी।
विष्णु, शिव व सूर्य के अनेक मंदिर थे। जैनधर्म व बौद्धधर्म का भी प्रचलन था। सामान्य रूप से लोग धर्म
सहिष्णु थे। विभिन्न सम्प्रदायों में एकता कायम रहती थी। वादविवाद या शास्त्रार्थ का भी माहौल रहता
था जो कभी-कभी उग्र रूप धारण कर लेता था।

यहाँ की आर्थिक समद्धि


ृ से ह्वेनसांग बहुत प्रभावित हुआ था। लोगों के रहन-सहन का स्तर ऊंचा था। सोने
व चाँदी के सिक्कों का प्रचलन था लेकिन सामान्य विनिमय के लिए कौड़ियों का प्रयोग होता था। भारत
की भूमि बहुत उपजाऊ थी। पैदावार अच्छी होती थी। भूमि अनुदान के रूप में भी दी जाती थी। रे शमी,
सूती, ऊनी कपड़ा बनाने का व्यवसाय उन्नत था। आर्थिक श्रेणियों का भी उल्लेख मिलता है । हर्ष-काल में
उनका विकास हो गया था। ताम्रलिप्ति, भड़ौंच, कपिशा, पाटलिपत्र
ु आदि शहर व्यापारिक गतिविधियों के
प्रमख
ु केन्द्र थे। भारत के व्यापारिक संबंध पश्चिमी दे शों, चीन, मध्य एशिया आदि से थे। दक्षिणी-पर्वी

द्वीप समूह यथा-जावा, सुमात्रा, मलाया आदि से व्यापार जलीय मार्ग द्वारा होता था।

ह्वेनसांग ने हर्ष द्वारा आयोजित कन्नौज व प्रयाग की सीमाओं का उल्लेख किया है । ह्वेनसांग ने नालंदा
विश्वविद्यालय का भी उल्लेख किया है जो उस समय की शैक्षणिक गतिविधियो का केन्द्र था। तत्कालीन
समाज का शैक्षणिक स्तर बहुत उच्च था। हर्ष के धार्मिक दृष्टिकोण, दानशीलता व प्रजावत्सलता का भी
उसने उल्लेख किया है ।

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हर्ष एवं पल
ु केशिन द्वितीय
Harsh and Pulakeshin II
दक्षिण का सर्वाधिक प्रभावशाली सम्राट् पल
ु केशिन द्वितीय था जिसकी उत्तरी सीमा नर्मदा तक विस्तत

थी। दोनों राजाओं की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं ने संघर्ष को अनिवार्य बना दिया। मालवा व गुजरात
में हर्ष व पुलकेशिन द्वितीय की साम्राज्य विस्तार की योजनायें टकराती थीं। अत: दोनों में संघर्ष
अनिवार्य हो गया था। यह युद्ध वलभी पर हर्ष के आक्रमण का प्रतिफल था। युद्ध स्थल नर्मदा नदी के पास
ही था। इस संघर्ष के परिणाम के विषय में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसमें पुलकेशिन हर्ष को
पराजित करने में सफल हुआ।

यह युद्ध नर्मदा के समीप 612 ई. के लगभग लड़ा गया, जैसा कि ह्वेनसांग का कथन है कि हर्ष ने अपना
विजय अभियान छ: वर्ष (606-612 ई.) में समाप्त कर 30 वर्ष शांतिपूर्वक शासन किया। दस
ू रे चालुक्य
सम्राट् पल
ु केशिन द्वितीय (पल
ु केशी द्वितीय) के है दराबाद दानपत्र (शक संवत ् 535-613 ई.) में कहा
गया है कि चालुक्य राजा ने अन्य राजाओं (या राजा) को परास्त कर परमेश्वर की उपाधि ग्रहण की (पर
नप
ृ ति पराजयोपलब्ध परमेश्वरी पर नाम धेय) अर्थात ् अनेक यद्ध
ु ों में कई राजाओं को हराकर यह उपाधि
धारण की। दानपत्र की तिथि 613 ई. है अत: हर्ष को 612 ई. में पराजित किया होगा।

सम्राट् हर्षवर्धन: एक मल्


ू यांकन
Emperor Harsha: An Evaluation
सम्राट् हर्षवर्धन प्राचीन भारत के शासकों की गौरवमयी परम्परा का अन्तिम प्रतापी सम्राट् था। वह एक
सफल योद्धा, पराक्रमी विजेता, सुयोग्य शासक, प्रजावत्सल और धर्मपरायण सम्राट् था। एक साधारण
स्थिति से उठकर हर्ष ने तत्कालीन भारत के राजनैतिक मान-चित्र पर एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया
था। वाण ने अपनी कालजयी कृति हर्षचरित में हर्ष को चतु, समुद्राधिपति एवं सव चक्रवर्ति नाम
धीरे य:आदि उपाधियों से समलंकृत किया है । हर्ष के साम्राज्य में मालवा, गुजरात एवं सौराष्ट्र के
अतिरिक्त हमालय पर्वत से लेकर नम्रदा तक (जिसमें नेपाल भी सम्मिलित था) गंगा की परू ी तरे टी पर
हर्ष का प्रमुख निर्विवाद रूप से स्थापित था। उत्तर भारत में प्रभत्ु व स्थापित करने के कारण ही हर्ष
को सकलोत्तरा पथनाथ पदवी से विभषि
ू त किया गया हे ।

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डॉ. के.एम. पणिक्कर ने हर्ष के साम्राज्य-विस्तार पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि हर्ष का साम्राज्य
कामरूप से लेकर पश्चिम में कश्मीर तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य-क्षेत्र तक
फैला हुआ था। किन्तु डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने इसका खण्डन किया है । डॉ. मजूमदार के अनुसार, हर्ष
के साम्राज्य में आगरा एवं अवध का संयुक्त प्रान्त, बिहार तथा पूर्वी पंजाब का कुछ भाग, उत्तर-पश्चिम
के मो.ती. पल्
ु ली (ह्वेनसांग के अनस
ु ार) को छोड़कर शेष क्षेत्र आता था।

सम्राट् हर्ष न केवल एक कुशल विजेता प्रत्युत एक कुशल शासक भी था। शासन-प्रबन्ध में राजा का स्थान
सर्वोच्च था। साम्राज्य का वह प्रधान सूत्रधार था। उसके हाथों में शासन की सर्वोच्च शक्तियाँ प्राप्त थीं।
वही सभी उच्च पदाधिकारियों की नियक्ति
ु करता था, आज्ञा-पत्र एवं घोषणा-पत्र निकालता था,
न्यायाधीश का काम करता था, युद्ध में सेना का नेतत्ृ व भी करता था। उसे परम भट्टारक, परमेश्वर, परम
दे वता, महाराजाधिराज आदि की उपाधियाँ प्राप्त थीं। अपने शासन सम्बन्धी दायित्व का वह परू ी निष्ठा
से निर्वाहन करता था। वाटर्स के शब्दों में हर्ष अधिक परिश्रमी था और दिन का विस्तार उसके कार्य के
लिए सर्वथा अल्प था। हर्ष की प्रशासनिक कुशलता का परिचय इस बात से लग जाता है की हर्ष ने पानी
राजस्व व्यवस्था को संतुलित रखा। उस्मने एक ओर अपनी प्रजा पर  कर का बोझ नहीं बढ़ाया और दस
ू री
ओर राज्य के व्यय में वद्धि
ृ नहीं की। उसने लोक कल्याण के लिए अनेक उपयोगी कार्य किए उसकी
दानशीलता का सबसे जीवंत प्रमाण उसका प्रयाग प्रति पांचवें वर्ष में दान के रूप में अपना सब-कुछ अर्पित
कर दे ना था। ह्वेनसांग ने जो प्रयाग के छठे धार्मिक सम्मेलन (643-644 ई.) में स्वत: उपस्थित था,
लिखा है , महाराज हर्षवर्धन ने भी अपने पर्व
ू जों का अनस
ु रण करते हुए पाँच वर्ष का संचित कोष एक दिन
में वितरित कर दिया। हर्ष ने विद्यार्थियों, विधवाओं और दीन-दखि
ु यों को भी अपनी सम्पत्ति में हिस्सा
दिया। जब उसके पास कुछ भी शेष न रहा तब उसने रत्नजड़ित मक
ु ु ट और मक्
ु ताहार भी उतार कर दान
कर दिया। अंत में अपनी निर्धनता के प्रतीक स्वरूप हर्ष ने अपनी बहन राज्य श्री से जीर्ण-शीर्ण वस्त्र लेकर
उसे धारण किया।

इसके अतिरिक्त उसने ज्न्मर्गों के निर्माण तथा उनकी सरु क्षा का पर्ण
ू प्रबंध किया। इस प्रसंग में हम पन
ु :
ह्वेनसांग के शब्दों को प्रस्तुत कर सकते हैं। इस यात्री के अनुसार- उसने (हर्ष ने) पंचभारत (पंचगौड्) में
मांसाहार बंद कर दिया तथा जीवों को कठोर शारीरिक दं ड दे ने की मनाही कर दी।उसने गंगा तट पर हजारों
स्तूपों का निर्माण करवाया, अपने सम्पूर्ण राज्य में यात्रियों के लिए विश्रामगह
ृ बनवाया तथा पवित्र बौद्ध
स्थानों में बिहारों की स्थापना करवाई। वह नियमित रूप से पंचवर्षीय दान-वितरण का आयोजन करता
और धर्म के निमित्त वह प्रति दिन 100 बौद्ध भिक्षु तथा 500 ब्राह्मणों को भोजन दे ता था। राजा का दिन
तीन भागों में विभक्त था। जिसमें एक भाग राज-काज के लिए तथा शेष दो धार्मिक कृत्यों के लिए
निर्धारित था।

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सम्राट् हर्ष के व्यक्तित्व की अन्य विशेषता यह श्री वह स्वतः विद्वान ् था, लेखक था और विद्वानों तथा
लेखकों का आश्रयदाता था। कादम्बरी और हर्षचरित जैसी सुविख्यात रचनाओं के यशस्वी विद्वान ्
वाणभट्ट पर उसकी विशेष अनुकम्पा थी। वाण के सम्बन्धी मयूर को भी हर्ष ने आश्रय प्रदान किया था,
और उसने कामशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ अष्टक की रचना की थी। हर्ष के दरबार में एक अन्य प्रसिद्ध
साहित्यकार था मतंग दिवाकर। हर्ष साहित्यकारों का आश्रयदाता तो था ही वह स्वयं भी एक सय
ु ोग्य
साहित्यकार था। रत्नावली, प्रियदर्शिका तथा नागानन्दनामक संस्कृत के तीन नाटकों का उसे प्रणेता
माना जाता है । हर्ष के व्यक्तित्व के इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए डॉ. बैजनाथ शर्मा ने लिखा है
कि भारत के महान ् शासकों में हर्ष की गणना होती है । उसमें चन्द्रगुप्त मौर्य की सैनिक प्रतिभा, अशोक
की उदारता एवं समुद्रगुप्त की राजनीतिज्ञता तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की प्रबुद्धता थी।

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