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राजपत

ू काल
Rajput Period

हर्षवर्धन की मत्ृ यु के पश्चात ् भारतीय इतिहास के रं गमंच पर कई छोटे -छोटे राज्यों का उदय हुआ। यां
प्राचीन भारतीय इतिहास के गौरव के अवसान का यग
ु था। भारतीय इतिहास के प्राचीन यग
ु के अवसान
और पूर्व मध्ययुग के आगमन का सन्धि काल राजपूत युग के नाम से प्रसिद्ध है । राजपूत उन राजकुलों,
राजवंशों एवं पराक्रमी सेनानियों का सामहि
ू क नाम है जो अपने शस्त्र-बल पौरुष और पराक्रम के लिए
इतिहास में सुविख्यात हैं। सम्राट् हर्ष की मत्ृ यु के बाद भारतवर्ष में जिन छोटे -बड़े अनेक राज्यों का उदय
हुआ था। उन राज्यों की स्थापना और आधिपत्य के मुख्य सूत्रधार राजपूत थे। किन्तु यह इतिहास की
विडम्बना हा की जिन राजपूतों के राजकुलों ने भारतीय इतिहास में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की,
उनका उत्पत्ति का प्रश्न आज भी विवादित ही कहा जायेगा। राजपूत शब्द संस्कृत भाषा के राजपुत्र शब्द
से निकला है । राजपत्र
ु  शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है  राजा का पत्र
ु  हर्ष चरित्र और परु ाणों में इसी अर्थ
में  राजपूत शब्द का प्रयोग हुआ है ।

राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में इतिहासकारों ने अपने-अपने विचार प्रतिपादित किए हैं। राजपूतों की
उत्पत्ति के विषय में मख्
ु यतया तीन परस्पर विरोधी मान्यताएँ प्रचलित हैं। ये मान्यताएँ संक्षेप में इस
प्रकार हैं-

 प्राचीन क्षत्रिय सिद्धान्त


 अग्निकंु ड की उत्पत्ति का सिद्धान्त
 विदे शी उत्पत्ति का सिद्धान्त
जहां तक कि प्राचीन क्षत्रिय सिद्धान्त का प्रश्न है , इस सिद्धान्त के अनुसार राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के
वंशज है । इस सिद्धान्त के प्रतिपादक गौरीशंकर, हीराचन्द ओझा, सी.वी. वैद्य तथा उनकी परम्परा के
कई अन्य विद्वान हैं। इन विद्वानों ने प्राचीन अनुश्रुतियों, अभिलेखों तथा साहित्यिक स्रोतों के आधार पर
यह स्थापित किया है कि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा मेवाड़ के
सिसोदिया और चालुक्य को श्रीराम का वंशज बताया है । भोज ग्वालियर अभिलेख तथा बाउक जोधपुर
अभिलेख में प्रतिहारों ने अपने को प्रभु श्री राम के भाई लक्ष्मण की संतान बताया है । एक अनुश्रुति के
अनुसार हारीत के कमण्डल से चालुक्य की उत्पत्ति हुई थी। प्रतिहार सम्राटों ने अपने को इक्ष्वाकु अथवा
सूर्यवंशीय क्षत्रिय कहा है । हम्मीर महाकाव्य के अनुसार,  चाहमान अथवा राजपूत सूर्यवंशी क्षत्रिय
थे। पथ्
ृ वी राज रासो में जिन छत्तीस राज्बंशों का उल्लेख किया गया है , उनमें से सभी सर्य
ू , चन्द्र अथवा

1
यदव
ु ंशी बतलाए गए हैं। इस प्रकार उपर्युक्त आधारों पर राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों का वंशज बताया गया
है , जिनका मुख्य कार्य-व्यवसाय शासन और सुरक्षा थी।

राजपत
ू ों की उत्पत्ति का दस
ू रा सिद्धान्त, उनकी उत्पत्ति में अग्निकुण्ड से उत्पत्ति के विचार का
प्रतिपादन करता है । अग्निकुण्ड सिद्धान्त का प्रतिपादन पथ्
ृ वीराज रासों में मिलता है । पथ्
ृ वी राजरासो में
कहा गया है कि जब पथ्
ृ वी पर म्लेच्छों के अत्याचारों में ऐसी वद्धि
ृ हो गई कि वे असह्य हो गए तब इन
अत्याचारियों का दमन करने के लिए महर्षि वशिष्ठ ने आबू पर्वत पर एक अग्निकुण्ड का निर्माण करके
यज्ञ किया। इस अग्निकुण्ड में चार योद्धा अर्थात ् परमार, चाहमान, चालुक्य और प्रतिहार निकले। भारत
के राजपत
ू इन्हीं चारों की की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई। अतएव इन्हें अग्निवंशीय कहा गया है । किन्तु
अधिकांश इतिहासकार इस सिद्धांत को कल्पना पर आधारित मानते हैं।

अनेक विद्वानों के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति विदे शियों तथा अनार्यों से हुयी। इस वर्ग में आने वाले
विद्वानों में कर्नल टाड, विलियम्स क्रुक, स्मिथ तथा  भारतीय इतिहासकार भंडारकर हैं। राजस्थान के
इतिहास एनल्स एंड एंरीक्रिरीज ऑफ़ राजस्थान के प्रसिद्द प्रणेता कर्नल टाड के अनुसार, राजपूत मध्य
एशिया की शक अथवा सीथियन जाति की संतान है । उनकी इस मान्यता का आधार शकों तथा राजपत
ू ों
के रीति-रिवाज में समानाएं हैं। कर्नल टाड के मत का करते हुए स्मिथ महोदय ने लिखा है कि मझ
ु े इस
बात में कोई सन्दे ह कि शकों तथा कुषाणों के राजवंश, हिन्द ू धर्म स्वीकार करने के बाद जाती व्यवस्था में
क्षत्रियों के रूप में सम्मिलित कर लिए गए।' स्मिथ महोदय ने कतिपय राजपूत वंशों को अनायों की भी
सन्तान माना है । उनका कहना है कि विदे शियों की भांति दक्षिण की अनेक अनार्य जातियां राठौर, चन्दे ल
तथा गहड़वाल आदि राजपूत वंश इन्हीं भारतीयकृत अनार्य जातियों की सन्तान हैं। विलियम क्रुक भी
राजपूतों को विदे शियों की सन्तान मानते हैं। डॉ. भण्डारकर के अनुसार भी राजपूत विदे शियों की सन्तान
हैं। सप्र
ु सिद्ध इतिहासकार डॉ. ईश्वरी प्रसाद राजपत
ू ों की विदे शी उत्पत्ति में विश्वास करते हैं किन्तु डॉ.
ईश्वरी प्रसाद क्षत्रियों को निम्न वंश में उत्पन्न नहीं मानते। किन्तु सी.वी. वैद्य तथा गौरीशंकर हीराचन्द
ओझा तथा कतिपय अन्य विद्वानों ने इस मत का खण्डन किया है । डॉ. रमेशचन्द्र मजम
ू दार, डॉ. हरीराम
तथा डॉ. दशरथ शर्मा ने राजपूतों की विदे शी उत्पत्ति के सिद्धान्त को अस्वीकार करते हुए यह स्थापित
किया है कि अधिकांश राजपूत परिवार प्राचीन क्षत्रियों या ब्राह्मणों की सन्तान हैं। इस प्रसंग में डॉ.
मजूमदार के अनुसार मेवाड़ के गहलौत राजपूत वंश का संस्थापक रावल ब्राह्मण था। इसी प्रकार गुर्जर-
प्रतिहार राजकुल संस्थापक हरीसेन ब्राह्मण था जिसकी एक पत्नी ब्राह्मण थी और दस
ू री क्षत्रिय। डॉ.
दशरथ शर्मा ने अपनी पस्
ु तक अर्ली चौहान डायनेस्टीज़ में डॉ. मजम
ू दार के विचारों का समर्थन किया तथा
प्राचीन मुद्राओं और अभिलेखों के आधार पर टाड और स्मिथ जैसे विद्वानों की मान्यताओं को असंगत
बताया है । इस प्रकार राजपत
ू ों के विदे शी मल
ू का सिद्धांत प्रमाणित नहीं मन गया है । अधिकंध विद्वानों

2
की यह धरना है की राजपूत मूलतया भारतीय हैं, हां उनमे कुछ वे ऐसे लोग भी आत्मसात हो गए जो
मूलतया विदे शी थे किन्तु जिन्होंने भारत और भारतीयता को अंगीकार कर लिया था।

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राजपूतों का उदय

 हर्षवर्धन की मत्ृ यु के बाद उत्तर भारत में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया तेज हो गयी। किसी
शक्तिशाली केन्द्रीय शक्ति के अभाव में छोटे छोटे स्वतंत्र राज्यों की स्थापना होने लगी।
 सातवीं-आठवीं शताब्दी में उन स्थापित राज्यों के शासक ‘ राजपूत’ कहे गए। उनका उत्तर
भारत की राजनीति में बारहवीं सदी तक प्रभाव कायम रहा।
 भारतीय इतिहास में यह काल ‘राजपूत काल’ के नाम से जाना जाता है । कुछ इतिहासकर इसे
संधिकाल का पूर्व मध्यकाल भी कहते हैं, क्योंकि यह प्राचीन काल एवं मध्यकाल के बीच कड़ी स्थापित
करने का कार्य करता है ।
 ‘राजपूत’ शब्द संस्कृत के राजपुत्र का ही अपभ्रंश है । संभवतः प्राचीन काल में इस शब्द का
प्रयोग किसी जाति के रूप में न होकर राजपरिवार के सदस्यों के लिए होता था, पर हर्ष की मत्ृ यु के बाद
राजपुत्र शब्द का प्रयोग जाति के रूप में होने लगा।
 इन राजपुत्रों के की उत्पत्ति के विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रचलित हैं। कुछ विद्वान इसे
भारत में रहने वाली एक जाति मानते हैं, तो कुछ अन्य इन्हें विदे शियों की संतान मानते हैं।
 कुछ विद्वान ् राजपूतों को आबू पर्वत पर महर्षि वशिष्ट के अग्निकंु ड से उत्पन्न हुआ मानते
हैं। प्रतिहार, चालुक्य, चौहान और परमार राजपूतों का जन्म इसी से माना जाता है ।
 कर्नल टॉड जैसे विद्वान राजपूतों को शक, कुषाण तथा हूण आदि विदे शी जातियों की संतान
मानते हैं।
 डॉ. ईश्वरी प्रसाद तथा भंडारकर आदि विद्वान ् भी राजपूतों को विदे शी मानते हैं।
 जी.एन.ओझा. और पी.सी. वैद्य तथा अन्य कई इतिहासकार यही मानते हैं की राजपूत प्राचीन
क्षत्रियों की ही संतान हैं।
 स्मिथ का मानना है की राजपूत प्राचीन आदिम जातियों – गोंड, खरवार, भर, आदि के वंशज
थे।
 इस काल में उत्तर भारत में राजपत
ू ों  के प्रमख
ु वंशों – चौहान, परमार, गर्ज
ु र, प्रतिहार, पाल,
चंदेल, गहड़वाल आदि ने अपने राज्य स्थापित किये।
गुर्जर-प्रतिहार वंश

3
 अग्निकुल के राजपूतों में सर्वाधिक महत्त्व प्रतिहार वंश का था। जिन्हें गुर्जरों से सम्बद्ध होने
के कारण गर्ज
ु र-प्रतिहार भी कहा जाता है ।
 परं परा के अनस
ु ार हरिवंश को गर्ज
ु र-प्रतिहार वंश का संस्थापक माना जाता है , लेकिन इस वंश
का वास्तविक संस्थापक नागभट्ट प्रथम को माना जाता है ।
 प्रतिहार वंश की प्राथमिक जानकारी पल
ु केशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख, बाण के हर्षचरित
और ह्वेनसांग के विवरणों से प्राप्त होता है ।
 प्रतिहारों का राज्य उत्तर भारत के व्यापक क्षेत्र में विस्तत
ृ था। यह गंगा-यमन
ु ा, दोआब,
पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा तथा पंजाब के क्षेत्रों तक फैला हुआ था।
 नागभट्ट प्रथम (730-756 ई.) ने सिंध के अरब शासकों से पश्चिमी भारत की रक्षा की।
ग्वालियर प्रशस्ति में उसे ‘म्लेच्छों (सिंध के अरब शासक) का नाशक’ कहा गया है ।
 वत्सराज (780-805 ई.) इस वंश का शक्तिशाली शासक था। वत्सराज के बाद उसका पत्र

नागभट्ट द्वितीय (800-833 ई.) गद्दी पर बैठा। उसने कन्नौज पर अधिकार करके उसे प्रतिहार
साम्राज्य की राजधानी बनाया।
 मिहिरभोज के पत्र
ु ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को हराकर मालवा प्राप्त किया तथा
आदिवराह तथा प्रभास जैसी उपाधियाँ धारण की।
 मिहिरभोज के पत्र
ु महे न्द्रपाल प्रथम के दरबार में प्रसिद्द विद्वान ् राजशेखर निवास करते थे।
 राजशेखर ने कर्पूर मंजरी, काव्यमीमांसा, विद्वशालमंजिका, बालभारत, बालरामायण,
भुवनकोश तथा हरविलास जैसे प्रसिद्द जैन ग्रंथों की रचना की।
 महिपाल इसी वंश का एक कुशक एवं प्रतापी शासक था। इसके शासनकाल में बगदाद निवासी
अल-मसूदी (915-916 ई.) गुजरात आया था।
 महिपाल के शासनकाल में गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का विघटन प्रारं भ हो गया था। इसके बाद
महे न्द्रपाल द्वितीय, दे वपाल, विनायक पाल और विजयपाल जैसे कमजोर शासकों ने शासन किया।
 ह्वेनसांग ने गुर्जर राज्य को पश्चिमी भारत का दस
ू रा सबसे बड़ा राज्य कहा है ।
चौहान वंश

 वासुदेव को इस वंश का संस्थापक माना जाता है । इसने अपनी राजधानी अजमेर के निकट
शाकंभरी में स्थापित की थी।
 चौहान शासक गर्ज
ु र प्रतिहारों के सामंत थे। दसवीं शताब्दी के आरं भ में वक्पतिराज प्रथम ने
प्रतिहारों से अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।
 पथ्
ृ वीराज के प्रथम पत्र
ु अजयराज (12 वीं शताब्दी) ने अजमेर नगर की स्थापना कर उसे अपने
राज्य की राजधानी बनाया।
 विग्रह्राज चतर्थ
ु बीसलदे व इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। इसने तोमर राजाओं
को पराजित करके दिल्ली पर अपना अधिकार कर लिया।

4
 यह विजेता होने के साथ साथ कवि और विद्वान ् भी था। इसने ‘हे रिकेली’ नमक एक संस्कृत
नाटक की रचना की। इसके दरबार में ललितविग्रह्राज का रचनाकार सोमदे व रहता था।
 इस वंश का सर्वाधिक उल्लेखनीय शासक और ऐतिहासिक महत्त्व का शासकपथ्
ृ वीराज तत
ृ ीय
था, जिसकी चर्चा लोक कथाओं में भी मिलती है ।
 पथ्
ृ वीराज तत
ृ ीय 1178 ई. में चौहान वंश का शासक बना। इसे ‘रायपिथौरा’ भी कहा जाता है ।
 1191 ई. में तराइन के यद्ध
ु में मह
ु म्मद गौरी ने पथ्ृ वीराज को पराजित कर भारत में मस्लि
ु म
सत्ता का मार्ग प्रशस्त किया।
 पथ्
ृ वीराज के दरबार में भयानक भट्ट, विद्यापति गौड़, पथ्ृ वीभट्ट, बागीश्वर तथा चन्द्रबरदाई
आदि विद्वान ् निवास करते थे।
 हम्मीर महाकाव्य में चौहान वंश के इतिहास और परम्पराओं का विवरण मिलता है ।
 पथ्
ृ वीराज तत
ृ ीय के राजकवि चंदरबरदाई ने पथ्ृ वीराज रासो नामक अपभ्रंश महाकाव्य और
जयानक ने ‘पथ्
ृ वीराज विजय’ नमक संस्कृत काव्य की रचना की।
 दिल्ली लेख से पता चलता है की इस वंश के शासकों ने हिमालय से विन्ध्य पर्वत तक के क्षेत्र
से कर वसूल किया था। इस वंश का साम्राज्य दिल्ली, झांसी, पंजाब, राजपुताना और पश्चिमी उत्तर
प्रदे श तक विस्तत
ृ था।
गहड़वाल वंश

 प्रतिहार साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर जिन राजवंशों का उदय हुआ, उनमे गहड़वाल वंश के
शासक प्रमुख थे।
 चंद्रदे व के वाराणसी दानपत्र, मदनपाल का वसही अभिलेख तथा कुमार दे वी के सारनाथ
अभिलेख से गहड़वाल वंश की जानकारी मिलती है ।
 चन्द्रदे व को गहड़वाल वंश का संस्थापक माना जाता है । इसने कन्नौज को अपनी राजधानी
बनाया।
 गोविन्द इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। इसने आधुनिक पश्चिम बिहार तथा
पश्चिमी उत्तर प्रदे श के भागों को अपने अधीन कर कन्नौज के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित किया।
इसने मुसलमानों को वार्षिक भुगतान करने के लिए ‘तुरुष्कदण्ड’ नामक कर लगाया।
 गोविन्द चंद्र एक विद्वान ् शासक था। पथ्
ृ वीराज रासो से इसके और चौहान शासक पथ्
ृ वीराज
तत
ृ ीय के संबंधों के बारे में पता चलता है ।
 आख्यानों के अनस
ु ार पथ्
ृ वीराज ने जयचंद की पत्र
ु ी संयोगिता का अपहरण कर लिया था।
 जयचंद के दरबार में प्रख्यात कश्मीरी विद्वान ् श्री हर्ष निवास करते थे, जिन्होंने ‘नैषधचरित’
एवं ‘खण्डन खाद्य’ की रचना की।
 जयचंद ने तरावादी के यद्ध
ु में पथ्ृ वीराज तत
ृ ीय के विरुद्ध मह
ु म्मद गौरी का साथ दिया था तथा
बनारस (वर्तमान वाराणसी) को अपनी दस
ू री राजधानी बनाया था।
मालवा का परमार वंश

5
 मालवा के परमार शासक पूर्व में राष्ट्रकूट शासकों के सामंत थे।
 इस वंश का संस्थापक उपेन्द्र को माना जाता है । इसने धारानगरी को अपनी राजधानी बनाया।
 सीयक द्वितीय को इस वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है क्योंकि इसने राष्ट्रकूटों
को चन
ु ौती दे ते हुए स्वतंत्रता की घोषणा की।
 मालवा में परमारों की शक्ति का उत्कर्ष वाक्यपतिमंजु (972-994 ई.) के समय आरं भ हुआ।
इसने त्रिपरु ी के कलचरु ी तथा चालक्
ु य नरे श तैलप द्वितीय को पराजित किया।
 वाक्यपतिमंज
ु कला एवं साहित्य का महान संरक्षक था। इसके दरबार में पद्म्गप्ु त, धनंजय,
धनिक तथा हलायुथ जैसे महँ विद्वान ् निवास करते थे।
 इसके द्वारा निर्मित मुंजसागर झील आज तक परिरक्षित है ।
 मुंज की मत्ृ यु के बाद उसका छोटा भाई सिन्धुराज शासक बना, पद्म्गुप्त द्वारा रचित
‘नवसाहसांक चरितम’ में इसके ही जीवन चरित का वर्णन किया गया है ।
 भोज (1011-1066 ई.) सिन्धुराज का पुत्र और परमार वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक था।
इसकी राजनितिक उपलब्धियों का विवरण उदयपुर प्रशस्ति से प्राप्त होता है ।
 भोज ने अपने समकालीन नरे शों, जैसे- कल्याणी के चालुक्यों एवं अन्हिलवाड़ के चालुक्यों को
पराजित किया, किन्तु चंदेल शासक विद्याधर के हाथों पराजित हुआ।
 भोज अपनी विद्वता के कारण कविराज उपाधि से विख्यात था। कहा जाता है की उसने विविध
विषयों-चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र, धर्म, व्याकरण, स्थापत्य शास्त्र आदि पर 20 से अधिक ग्रंथों की
रचना की।
 भोज शिक्षा और संस्कृति का महान संरक्षक था। उसने धारा में एक सरस्वती मंदिर और एक
संस्कृत महाविद्यालय का निर्माण कराया। इसने भोजपुर नामक एक नगर की स्थापना की।
 भोज की मत्ृ यु पर यह कहावत प्रचलित हो गयी कि “अद्यधारा निराधारा निरालम्बा
सरस्वती” अर्थात विद्या और विद्वान ् दोनों निराश्रित हो गए।
गुजरात का चालुक्य वंश

 गुजरात का चालुक्य अथवा सोलंकी वंश अग्निकंु ड से उत्पन्न राजपूतों में से एक मने जाते हैं।
इस वंश के शासक जैन धर्म के पोषक तथा संरक्षक थे।
 इस वंश के इतिहास की जानकारी मख्
ु य रूप से जैन लेखकों के ग्रंथों से होती है । इन ग्रंथों में
हे मचन्द्र का द्वाश्रयकाव्य, मेरुतग
ंु कृत प्रबंध चिंतामणि, सोमेश्वरकृत कीर्तिकौमद
ु ी आदि का उल्लेख
किया जा सकता है ।
 गज
ु रात के चालक्
ु य वंश का संस्थापक मल
ू राज प्रथम था। इसने गज
ु रात के एक बड़े भाग को
जीतकर अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया।
 भीम प्रथम (1022-1064 ई.) इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसके शासन काल में
गज
ु रात पर महमद
ू गजनवी (1025 ई.) ने आक्रमण कर सोमनाथ मंदिर को लट
ू ा।

6
 इसने सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया तथा इसके सामंत विमल ने आबू पर्वत पर
दिलवाडा के मंदिर का निर्माण करवाया।
 इस वंश के शासक जयसिंह ‘सिद्धराज’ ने मालवा के परमार शासक यशोवर्मन को यद्ध
ु में
पराजित कर अवन्तिनाथ की उपाधि धारण की। जयसिंह शैव धर्म अनय
ु ायी था। इसके दरबार में
प्रसिद्द जैन आचार्य हे मचन्द्र सरू ी निवास करते थे।
 कुमारपाल (1153-1171 ई.) इस वंश का महत्वाकांक्षी शासक था। हे मचन्द्र ने इसे जैन धर्म में
दीक्षित किया था।
 जैन परम्परा के अनुसार कुमारपाल ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में पशु हत्या, मद्यपान एवं
द्यूतक्रीड़ा पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
 मूलराज द्वितीय (1176-1178 ई.) ने 1178 ई. में आबू पर्वत के निकट मुहम्मद गौरी को
हराया।
 भीम द्वितीय-II (1178-1238 ई.) चालुक्य वंश का अंतिम शासक था। इसने चालुक्य शक्ति
एवं प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित किया।
 चालुक्य शासकों की राज्य सीमाएं पश्चिम में काठियावाड़ तथा गुजरात, पूर्व में भिलासा (मध्य
प्रदे श), दक्षिण में बलि एवं सांभर तक फैली थी।
बंद
ु े लखंड के चंदेल

 प्रारम्भिक चंदेल प्रतिहारों के सामंत थे। चंदेलों को अत्री के पुत्र चन्दात्रेय का वंशज कहा जाता
है ।
 इस वंश का प्रथम शासक नन्नुक था उसके पौत्र जयसिंह अथवा गेजा के नाम पर यह प्रदे श
जेजाकभक्ति
ु के नाम से प्रसिद्द हुआ।
 हर्ष (900-925 ई.) रहिद का पत्र
ु था। इसने प्रतिहारों से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की।
खजुराहो अभिलेख में इसे परम भट्टारक कहा गया है , जो उसको स्वतंत्र स्थिति को प्रकट करता है ।
 यशोवर्मन (930-950 ई.) इस वंश का महत्वपर्ण
ू शासक था। इसने मालवा और चेरि पर
आक्रमण करके अपने साम्राज्य के विस्तार किया।
 खजरु ाहो अभिलेख में यशोवर्मन की विजयों एवं पराक्रम का वर्णन मिलता है ।
 यशोवर्मन ने खजरु ाहो में विष्णु को समर्पित चतर्भु
ु ज मंदिर का निर्माण कराया। यशोवर्मन का
पत्र
ु धंग (950-1008 ई.) इस वंश का प्रसिद्द शासक था।इसने कालिंजर को अपनी राजधानी बनाया।
ग्वालियर की विजय धंग की सबसे महत्वपर्ण
ू सफलता थी।
 फ़रिश्ता के अनुसार धंग सुबुक्तगीन के विरुद्ध भटिंडा के शाही वंश के शासक जयपाल द्वारा
बनाये गए संघ में शामिल हुआ, जिसे सुबुक्तगीन ने पराजित कर दिया था।
 धंग एक महान मंदिर निर्माता था। इसने अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया जिनमे
जिजनाथ, विश्वनाथ, वैद्यनाथ आदि मंदिर उल्लेखनीय हैं।

7
 यह प्रतापी शासक था। इसने न सिर्फ महमूद गजनवी का सफल प्रतिरोध किया, बल्कि उसे
संधि करने के लिए बाध्य किया।
 बंद
ु े लखंड के चंदेल शासकों में परमार्दिदे व अथवा परिमल अन्तिम शक्तिशाली शासक था।
प्रसिद्द योद्धा आल्हा और ऊदल चंदेल शासक परिमल के राजाश्रय में थे।
 आल्हा और ऊदल ने पथ्
ृ वीराज चौहान से महोबा की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग
किया।
चेदि राजवंश
 चेदि राजवंश के शासकों को त्रिपुरी के कलचुरी वंश के नाम से भी जाना जाता है ।
 कोक्कल प्रथम इस वंश का प्रथम शासक था। इसने कन्नौज के प्रतिहार शासक मिहिरभोज को
पराजित किया था।
 चेदि शासक लक्ष्मणराज ने बंगाल, उड़ीसा तथा कौशल को तथा पश्चिम में गुर्जर, लाट शासक
एवं अमीरों को जीता।
 कोक्कल द्वितीय के शासनकाल में कुलचुरियों की शक्ति पुनर्स्थापित हुई। इसने गुजरात के
चालुक्य वंशीय शासक चामुण्डराज को पराजित किया।
 गांगेयदे व (1019-1041 ई.) ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। इसने अंग, उत्कल,
प्रयाग पर अधिकार कर लिया तथा पाल शासकों से कशी छीन ली।
 विजय सिंह इस वंश का अंतिम शासक था। तेहरवीं शताब्दी के आरं भ में चंदेल शासक त्रैलोक्य
वर्मन ने इसे पराजित कर त्रिपरु ी पर अधिकार कर लिया।
बंगाल के पाल एवं सेन वंश
 पाल वंश की स्थापना गोपाल (750-770 ई.) नामक एक सेनानायक ने की थी।
 गोपाल के पश्चात उसका पत्र
ु धर्मपाल (770-810 ई.) पाल वंश की गद्दी पर बैठा।
 धर्मपाल एक बौद्ध धर्मानुयायी शासक था। इसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय एवं उदन्तपुर
विश्वविद्यालय की स्थापना की।
 गुजराती कृति सोडढल ने धर्मपाल को उत्तरापथके स्वामी की उपाधि से सम्बंधित किया।
धर्मपाल के लेखों में उसे ‘परम सौगात’ कहा गया है ।
 दे वपाल (810-850 ई.) अपने पिता धर्मपाल की भांति साम्राज्यवादी था। अरब यात्री सुलेमान ने
दे वपाल को प्रतिहार, प्रतिहार, राष्ट्रकूट शासकों से अधिक शक्तिशाली बताया है ।
 महीपाल प्रथम ने (988-1038 ई.) ने पाल वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित करके
अपनी योग्यता सिद्ध की।
 संध्याकर नंदी द्वारा रचित ‘रामपालचरित’ पुस्तक में नायक रामपाल (1077-1120 ई.) को
इस वंश का अंतिम शासक माना जाता है ।
 रामपाल की शासनावधि में ही ‘कैवर्तों का विद्रोह’ हुआ था, जिसका वर्णन राम्पल्चारित में
मिलता है ।

8
 पाल शासकों के साम्राज्य का विस्तार सम्पूर्ण बंगाल, बिहार तथा कन्नौज तक था। इनका
शासन बंगाल की खाड़ी से लेकर दिल्ली तक तथा जालंधर से लेकर विन्ध्य पर्वत तक फैला हुआ था।
सेन वंश
 पाल वंश के पतन के बाद सेन वंश के शासकों ने बंगाल और बिहार में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर
ली। इनकी राजधानी लखनौती थी।
 सेन वंश के शासक मूलतः कर्णाटक (कर्नाटक) के निवासी थे, जो बंगाल में आकर बस गए थे।
 इस वंश के शासकों ने पुरी, काशी तथा प्रयाग में विजय स्तंभ स्थापित किये थे, जिससे यह
पता चलता है कि सेन शासकों ने समकालीन शासकों से काशी और प्रयाग छीनकर अपने साम्राज्य का
विस्तार किया था।
 इस वंश का शासक सामंत सेन था, जिसे ब्राह्मण क्षत्रिय कहा गया है । विजय सेन (1095-
1158 ई.) सबसे प्रतापी शासक था। इसने विजयपुरी तथा विक्रमपुर की स्थापना की थी।
 विजयसेन की मत्ृ यु के बाद बल्लालसेन बंगाल का शासक बना। इसने बंगाल में जाति प्रथा
तथा कुलीन प्रथा को संगठित करने का श्रेय दिया जाता है ।
 बल्लाल्सेन एक विद्वान ् शासक था। इसने ‘दासनगर’ और ‘अद्भत
ु सागर’ दो ग्रंथों की रचना
की।
 लक्ष्मण सेन एक विजेता तथा साम्राज्यवादी शासक था। इसने गहड़वाल शासक जयचंद्र को
पराजित किया था।
 लक्ष्मणसेन के दरबार में अनेक प्रसिद्द विद्वान तथा लेखक निवास करते थे। इनमे जयदे व,
धोयी और हलायद्ध
ु के नाम उल्लेखनीय हैं।
स्मरणीय तथ्य
 चंदेल शासक धंग ने अपने अंतिम समय में प्रायः के संगम में डूबकर अपने जीवन का अंत कर
किया था।
 राजपूत काल में महिलाओं को सम्मानित स्थान प्राप्त था। लेकिन जौहर और सती प्रथा का
प्रचलन भी था।
 राजपूत काल में ब्राह्मण तथा जैन धर्म अधिक लोकप्रिय थे। दिलवाड़ा के जैन मंदिर में जैन
तीर्थंकर आदिनाथ की मर्ति
ू है ।
 राजपूतो की उत्पत्ति विदे शी मूल से हुई- इस मत के समर्थन में विद्वानों ने गुर्जर-प्रतिहार वंश
को ‘खंजर’ नामक जाति की संतान कहा है , जो हूणों के साथ भारत आयी थी।
 इतिहास के प्रसिद्द चौहान शासक पथ्ृ वीराज तत
ृ ीय सोमेश्वर का पुत्र था।
 खालीमपुर लेख से पता चलता है की बंगाल मत्स्यन्याय शासन से मुक्ति दिलाने के लिए
जनता ने गोपाल नमक सेनानायक को राजा बनाया।
 धर्मपाल ने कन्नौज में एक बड़े दरबार का आयोजन किया था, जिसमे भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु,
युद,ु यवन, अवन्ति, गंधार तथा कीर आदि शासकों ने भाग लिया था।

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 सेन वंशीय शासक लक्ष्मण सेन के समय बख्तियार खिलजी ने लखनौती पर आक्रमण किया,
जिसमे लक्ष्मण सेन को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा।
 12 वीं सदी में उत्तर भारत में प्रभत्ु व स्थापित करने के लिए चंदेलों, गहड़वालों और चौहानों के
बीच संघर्ष हुआ, जिसे ‘त्रिपक्षीय संघर्ष’ कहा जाता है ।
 दिगंबर जैन धार्मिक सम्प्रदाय के अनय
ु ायियों को अस्पश्ृ य माना जाता था।
 बीसलदे व ने आनासागर झील तथा बीसलसागर नामक तालाब का निर्माण करवाया था।

राजपतू राज्यों में प्रशासन


Administration in the Rajput State
शासन का स्वरूप- राजपत
ू राज्य सामन्तवादी प्रथा पर आधारित थे। राजपत
ू राज्य कई जागीरों में बंटा
हुआ था और ये जागीरदार या तो राजवंश के ही कुमार होते थे अथवा आसपास के राज्यों से राजा की सेवा
में आये हुए वीर सैनिक होते थे। ये सामन्त राजा के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा से जुड़े होते थे। संकट के समय
ये राजा की सेना की सहायता करते थे और अपना सब कुछ राजा पर अर्पित करने को तैयार रहते थे।

राजा को सामन्त नियमित रूप से वार्षिक कर दे ते थे। प्रत्येक उत्सव के समय ये राज-दरबार में उपस्थित
होकर राजा को नजराना दे ते थे। अनुपस्थित होने पर इन्हें विद्रोही समझकर इनकी जागीरें तक जब्त की
जा सकती थीं। राजद्रोह, युद्ध से पलायन अथवा अत्याचारी शासन-प्रबन्ध के कारण भी राजा जागीर जब्त
कर सकता था। ये सामन्त राजा की शक्ति का प्रमुख स्रोत थे और राज्य में शांति-व्यवस्था बनाये रखने में
राजा को सहयोग दे ते थे। अपनी जागीर में इन सामन्तों को प्रायः स्वतन्त्र अधिकार प्राप्त थे। ये न्याय भी
करते थे। राजा के यहाँ इनके विरुद्ध फरियाद सुनी जा सकती थी।

निरं कुश राजतन्त्र राजपूत राज्यों में प्रचलित था। राजा को असीमित अधिकार प्राप्त थे। वह अपने राज्य
का सर्वोच्च अधिकारी प्रमख
ु सेनापति और मख्
ु य न्यायाधीश था। सभी पदों पर नियक्ति
ु यां राजा द्वारा
होती थीं। राजा को प्रशासन में परामर्श दे ने के लिए मन्त्रिपरिषद् होती थी, परन्तु राजा मन्त्रिपरिषद् के
परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं था। निरं कुश होते हुए भी राजा प्रजा की रक्षा तथा जनकल्याण को
अपना प्रमुख कर्त्तव्य समझते थे।

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सैनिक प्रशासन- सैनिक संगठन भी राजपूत राज्यों का दोषपूर्ण था। राजा की व्यक्तिगत सेना कम होती
थी। राजा की शक्ति सामन्तों की संयुक्त सेना पर ही निर्भर थी। दस
ू रे दे शों में प्रचलित युद्ध के तरीकों से
राजपूत राजा अनभिज्ञ थे। युद्ध क्षेत्र में वे आदशों और नैतिकता पर जोर दे ते थे, जैसे धर्मयुद्ध करना, आन
पर मिट जाना, भागे हुए पर पीछे से वार न करना, शरणागत की रक्षा करना इत्यादि।

पैदल, घुड़सवार और हाथी राजपूत सेना में होते थे। घुड़सवार सैनिकों की संख्या कम थी और उनके घोड़े
तुर्क आक्रमणकारियों की अपेक्षा घटिया किस्म  के होते थे। हाथियों की संख्या सेना में अधिक होती थी
और तब तुर्क सैनिक हाथियों की आंखों को अपने तीरों का निशाना बनाते थे, तो ये हठी घाव लगने पर
अपनी सेना की ओर ही दौड़ते थे। राजपत
ू यद्ध
ु प्रणाली दोषपर्ण
ू थी। राज्य की सेना में अधिकतर संख्या
सामन्तों द्वारा प्रदत्त सैनिक दस्तों की रहती थी। अतः उनमें एकता की भावना का अभाव था।

युद्ध करना राजपूत अपना महान ् कर्त्तव्य समझते थे। वे आपस में ही घोर युद्धों में व्यस्त रहते थे और
कभी-कभी इन यद्ध
ु ों के परिणाम भयंकर होते थे। राजपत
ू ों में राष्ट्रीय चेतना तथा राजनैतिक जागरण का
अभाव था और इसी कारण वे विदे शी आक्रमणकारियों का मुकाबला संयुक्त रूप से न कर सके।

राज्य के आय के साधन- भूमिकर राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। विभिन्न  राज्यों में भूमिकर की दरें
विभिन्न थीं। राजपत
ू काल में राजदरबार, महल और निरं तर यद्ध
ु ों पर बढ़ते हुए खर्च की पर्ति
ू के लिए
भूमिकर में भी वद्धि
ृ करनी आवश्यक हो गई। भूमिकर उपज का 1/6 भाग से 1/3 भाग तक लिया जाता
था। बिक्री कर और व्यवसाय कर भी लिया जाता था। राज्य को उद्योग-धन्धों और व्यापार से भी आय
होती थी। सामन्तों से प्राप्त वार्षिक कर, उपहार और आर्थिक दण्ड राज्य की आय के अन्य साधन थे।
राज्य की आय का अधिकांश भाग युद्धों, सेना के रखरखाव, राजमहल और दान पर खर्च होता था। किलों
और मंदिरों के निर्माण पर भी राजपूत राजा खर्च करते थे।

न्याय व्यवस्था- दण्ड-विधान कठोर था। न्याय धर्मशास्त्रों और परम्पराओं के अनुसार किया जाता था।
राज्य में सरकारी अदालतों का जाल बिछा रहता था जहां न्यायाधीश न्याय करते थे। प्राचीन हिन्द ू
धर्मशास्त्रों का न्याय करते समय सहारा लिया जाता था। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्राम
पंचायत ग्रामों में होती थीं जो दीवानी और फौजदारी दोनों प्रकार के मुकदमों का फैसला करती थीं।
पंचायत से सन्तुष्ट न होने पर ऊपर की अदालत में अपील की जा सकती थी। यहां भी न्याय न मिलने पर
प्रजा राजा के पास अपनी फरियाद कर सकती थी। मुकदमों के रिकार्ड्स नहीं रहे जाते थे और न्याय मुख्या
रूप से मौखिक होता था। आजकल के मक
ु ाबले न्याय जल्दी मिलता था और निर्णय खल
ु े आम सन
ु ाया

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जाता था। चोरी, डकैती और हत्या के मामलों में स्थानीय उत्तरदायित्व पर जोर दिया जाता था। जिस
गांव में चोरी होती थी या लूटमार होती थी, वहां के निवासियों से सामूहिक रूप से हर्जाना वसूल किया
जाता था। चोरी और डकैती की घटनाएं कम होती थीं। न्यायालय द्वारा घोषित अपराधियों को कारावास,
राज्य से निष्कासन, आर्थिक जुर्माना, शारीरिक यातना जिसमें अंग-भंग भी था और मत्ृ यु दण्ड की सजाएं
दी जाती थीं।

राजपत
ू राज्यों में सामाजिक जीवन
Social Life In The Rajput States
सामाजिक जीवन

कई जातियों और उपजातियों में समाज विभाजित था। समाज में ब्राह्मणों का ऊंचा स्थान था। वे राजपूत
राजाओं के पुरोहित और मंत्री होते थे। उन्हें विशेष अधिकार और सुविधाएं प्राप्त थीं, जैसे प्राणदण्ड
ब्राह्मणो को नहीं दिया जाता था। वे अपना समय अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ और धार्मिक संस्कारों में
बिताते थे। रक्षा का भार क्षत्रियों पर होता था और वे शासक और सैनिक होते थे। व्यापार वैश्य करते थे।
शूद्र अन्य जातियों की सेवा का कार्य करते थे। जाति-बन्धन कठोर होने के कारण समाज का विकास
अवरुद्ध हो गया था। विचारों में संकीर्णता और रूढ़िवादिता आ गई थी। रूढ़िवादी प्रवत्ति
ृ यों से ग्रस्त हो
जाने के कारण हिन्द ू समाज की गतिशीलता समाप्त हो चुकी थी, फलत: अब वह विदे शियों को अपने में
आत्मसात ् नहीं कर सका।

प्रसिद्ध विद्वान ् अलबेरूनी को यह दे खकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि- हिन्द ू लोग यह नहीं चाहते थे कि जो एक
बार अपवित्र हो चुका है , उसे पुनः करके अपना लिया जाय। उनका विश्वास था कि एक दे श, धर्म और
जाति के रूप में श्रेष्ठतम थे। अलबेरूनी कहता है - हिन्द ू विश्वास करते हैं कि उनके जैसा कोई दे श नहीं,
उनके कोई राष्ट्र नहीं, उनके जैसा शास्त्र नहीं- उनके पूर्वज वर्तमान पीढ़ी के समान संकुचित मनोवत्ति

वाले नहीं थे।

नारी का समाज में सम्मान होता था। पर्दै की प्रथा नहीं थी। राजपूतों की नारियों को पर्याप्त स्वतंत्रता
प्राप्त थी और वे अपने पाती का वरन स्वयं कर सकती थीं। स्वयंवर प्रथा का प्रचलन था। उच्च परिवारों
की नारियां साहित्य और दर्शन का अच्छा ज्ञान रखती थीं। राजपूतों में सती-प्रथा भी प्रचलित थी। जौहर

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की प्रथा भी थी। जौहर एक प्रकार से सामूहिक आत्महत्या की पद्धति थी। जिसमें राजपूत नारियाँ विजयी
शत्रओ
ु ं द्वारा अपवित्र होने के बजाय स्वयं को अग्नि की भें ट कर दे ती थीं।

विवाह सवर्ण और सजातीय होते थे। अन्तर्जातीय विवाह भी कभी-कभी होते थे। विधवा-विवाह आमतौर
पर निम्न जातियों में प्रचलित था। विधवाओं की कठोर जीवन व्यतीत करना पड़ता था। कन्या का जन्म
राजपूतों में अशुभ माना जाता था क्योंकि कन्या के विवाह के समय पिता को झुकना पड़ता था। कई बार
कन्याओं का जन्म के समय ही वध कर दिया जाता था।

शुद्ध शाकाहारी भोजन अच्छा समझा जाता था। शराब और अफीम का भी राजपूतों में प्रचलन था। चावल,
दाल, गेहूँ, दध
ू , दही, सब्जी तथा मिष्ठान्न लोगों का प्रमुख भोजन था। गरीब लोग मक्का, ज्वार, बाजरा
का प्रयोग करते थे। रे शमी, ऊनी और सूती तीनों प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग होता था।

संगीत, नत्ृ य, नाटक, चौपड, आखेट और शतरं ज मनोविनोद के साधन थे। आभूषणों का आम प्रचलन था।
आभूषण स्त्रियां और पुरुष दोनों पहनते थे।

राजपूत राज्यों में कला


Art in the Rajput States
राजपूत राजा महान ् निर्माता थे। उन्होंने अनेक मन्दिर, किले, बाँध, जलाशय और स्नानागार बनवाए।
वास्तुकला की अनेक शैलियों का विकास हुआ। मूर्ति-कला के क्षेत्र में भी उन्नति हुई। राजपूत राजाओं ने
मन्दिर बनवाने में अपार धन खर्च किया। बुन्दे लखण्ड में खजुराहो-मन्दिर-समूह कला की एक महान ् कृति
है । इस में आरम्भ में 85 मन्दिर थे जिनका निर्माण चन्दे ल राजाओं ने 950 और 1050 ई. के बीच किया।
खजरु ाहो के सप्र
ु सिद्ध मन्दिरों में कन्दरिया महादे व का चतर्भु
ु ज का मन्दिर एवं पार्श्वनाथ का मन्दिर मख्
ु य
हैं। खजुराहों के मंदिरों में मंडप और गर्भगह
ृ त को जोडने वाले तथा अर्द्ध मण्डप तथा गर्भगह
ृ प्राय: सभी में
एक ही प्रकार के हैं। कुछ मन्दिरों में मण्डप और गर्भगह
ृ को जोडने वाले अन्तराल भी बने हैं। खजरु ाहों की
कुछ स्थापत्य कृतियां अनुपम हैं। उदाहरण के लिए, पैर से कांटा निकलती हुई एक नायिका, एक
प्रसधान्रत नायिका और आलस नायिका आदि। मध्य भारत के खाजुत्रहो के मंदिरों के अतिरिक्त पश्चिम
भारत में उत्कृष्ट मंदिरों का निर्माण हुआ। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्द आबू पर्वत के जैन मंदिर हैं। चंदेल
राजाओं के प्रोत्साहन से खजुराहों का कला के क्षेत्र में महत्व बहुत बढ़ गया और उड़ीसा के बाद इसी कला

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शैली की प्रधानता रही। यहाँ पर शैव, वैष्णव और जैन लोगों की धार्मिक निष्ठा और उत्साह ने मंदिर-
निर्माण को बड़ा प्रोत्साहन दिया।

उड़ीसा के भव
ु नेश्वर में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। भव
ु नेश्वर में लिंगराज का मंदिर हिन्द ू कला का
एक अच्छा उदाहरण माना जा सकता है । इसका विशाल शिखर 127 फीट ऊंचा है । उड़ीसा में जगन्नाथ
मंदिर भी कला की एक अच्छी कृति है । पूरी से लगभग 20 मिल दे य कोणार्क का सूर्यमंदिर हिन्द ू निर्माण
कला की एक उत्तम और अदभुत कृति है ।

मंदिरों के निर्माण के साथ-साथ इस काल में मूर्ति निर्माण कला में भी प्रगति हुई। सूर्य, विष्णु, शिव, बुद्ध
आदि की विभिन्न मुद्राओं में अनेक मूर्तियों का निर्माण किया गया। शिव-पारवती की सम्मिलित
प्रतिमाएं, गणेश, कार्तिकेय औए जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों की मूर्तियां बनायीं गयी। तीर्थंकरों की मूर्तियों
के साथ यक्ष और यक्षिणी को भी दर्शाया गया है । ये मूर्तियाँ, पठार के अतिरिक्त, मिट्टी, तांबा और कांसा
की भी बनायीं गयी। इन मर्ति
ू यों से हमें संगीत और नत्ृ य कला की प्रगति का भी अनम
ु ान होता है । शिव
को तांडव करते हुए दिखाया गया है । मूर्तियों के साथ बने मद
ृ ं ग, एकत्र, बांसुरी इत्यादि वाद्ययंत्रों द्वारा
संगीत कला का भी ज्ञान होता है ।

एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर की मर्ति


ू याँ अत्यंत मनोरम और आकर्षक है । एलिफैन्टा की मर्ति
ू याँ अपनी
सौम्यता और स्वभाविकता के लिए विख्यात हैं। दक्षिण भारत में पल्लव राज्य के सिंह स्तम्भ बड़े ही
आकर्षक है । मामल्लपरु म ् के रथ-मन्दिरों में दे वी-दे वताओं तथा पश-ु पक्षियों की मर्ति
ू याँ नयनाभिराम हैं।

राजपत
ू राज्यों में साहित्य
Literature in the Rajput States
राजपूत राजा साहित्य-प्रेमी और विद्वानों के आश्रयदाता थे। कुछ राजपूत राजा स्वयं विद्वान ् और लेखक
थे। अपने समय के मन्
ु ज और राजा भोज प्रसिद्ध विद्वान ् थे। राजा मन्
ु ज एक महान ् कवि था और राजा
भोज एक लेखक था जिसने नक्षत्र विज्ञान, कृषि, धर्म ललितकला इत्यादि विषयों पर ग्रन्थ लिखे। इस युग
में पालि, प्राकृत, संस्कृत और प्रांतीय भाषाओं में अच्छे ग्रन्थ लिखे गये। जयदे व जो बंगाल के राजा
लक्षमण सेन का राजकवि था, ने गीतगोविन्द की रचना की। कवि चंद बरदाई ने अपने आश्रयदाता
पथ्
ृ वीराज की प्रशंसा में  पथ्
ृ वीराज रासो की रचना की। कल्हण ने राजतरगिणी की रचना की। कश्मीरी

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पडित क्षेमेन्द्र ने ग्यारहवीं शताब्दी में अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें  वह
ृ त्कथा
मञ्जरी, दशावतारचरित और कलाविलास प्रसिद्ध हैं। बारहवीं शताब्दी में संस्कृत ् के प्रसिद्ध विद्वान ् और
कवि श्रीहर्ष ने नैषधचरित की रचना की। श्रीहष कन्नौज के राजा जयचन्द के दरबारी कवि थे।

इस काल में कुछ प्रसिद्ध नाटककार भी हुए। संस्कृत साहित्य के महान ् विद्वान भवभूति
ने उत्तरामचरित ् की रचना की जो संस्कृत साहित्य की अमूल्य कृति है । इसके अतिरिक्त भवभूति ने दो
अन्य नाटक, महावीरचरित ् और मालतीमाधव लिखे। भवभूति कन्नौज के राजा यशोवर्मा के सभा-पंडित
थे और उनको कालिदास के बाद दस
ू रा स्थान दिया जा सकता है । प्रसन्नराघव की जयदे व ने रचना
की। राजशेखर ने बालरामायण, बालभारत और कर्पूर मञ्जरी नाटकों की रचना की। कर्पूर मञ्जरी प्राकृत
भाषा में लिखी गई उत्कृष्ट रचना है । इस प्रकार राजशेखर ने संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में साहित्य
का सज
ृ न किया।

इस समय दार्शनिक साहित्य की भी काफी उन्नति हुई। बौद्ध, जैन और हिन्द ू तीनों प्रकार के दर्शनशास्त्रों
का राजपूत काल में विकास हुआ। इस काल में अनेक ऐसे विद्वान ् हुए जिन्होंने अपने मतों का तर्क के
साथ प्रतिपादन किया। शंकराचार्य (788-820 ई.) ने वेदान्त दर्शन पर शंकर भाष्य,  उपनिषद्
भाष्य और गीता भाष्य नामक ग्रन्थ लिखे। इस समय के प्रसिद्ध दार्शनिक लेखक वाचस्पति मिश्र (नवीं
शताब्दी) थे। प्रसिद्ध विद्वान ् रामानुज (1140 ई.) का नाम भी उल्लेखनीय है जिन्होंने विशिष्टाद्वैत मत
का प्रतिपादन किया।

राजपूत-काल इस प्रकार कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रगति का काल था।

उत्तर भारत के राज्य: राजपत


ू काल
The North Indian State: Rajput Period
जिस कन्नौज को सम्राट् हर्ष ने अपनी राजधानी बनाकर गौरवान्वित किया था उसी का इतिहास हर्ष की
मत्ृ यु के बाद धूमिल हो गया। परन्तु यह स्थिति बहुत समय तक नहीं रहने पाई। कन्नौज के विगत वैभव
से साम्राज्य-निर्माण के इच्छुक राजाओं को उत्साह प्राप्त होता था, अत: यशोवर्मन ने कन्नौज पर
अधिकार करके उसके पूर्व गौरव को पुनर्जीवित किया। यशोवर्मन के वंश और उसके प्रारम्भिक जीवन के
विषय में हमें कोई सनि
ु श्चित बात नहीं मालम
ू । परन्तु उसकी राजसभा के प्राकृत कवि वाक्पतिराज ने
काव्य गौड़वहो लिखा, जिससे उसके विषयों और सैन्य-सफलताओं के विषय में काफी महत्त्वपूर्ण सामग्री

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प्राप्त होती है । हाँ, यह अवश्य है कि चूंकि गौड़वहो एक काव्य-ग्रन्थ है , अतएव इसमें वर्णित तथ्यों को हम
विवेक तथा समालोचनात्मक बुद्धि का आश्रय ग्रहण करके ही सत्य स्वीकार करते हैं।

वाक्पतिराज के काव्य गौड़वहो के नाम से अभिप्राय निकलता है कि इस ग्रन्थ में यशोवर्मन द्वारा गौड़-
विजय का वर्णन किया गया है , परन्तु वास्तविकता यह है कि इसमें यशोवर्मन की अन्य सैनिक
सफलताओं का भी विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । गौड़-विजय का अन्त में केवल उल्लेख भर कर
दिया गया है । पूर्व में यशोवर्मन बंगाल तक अपनी विजयवाहिनी लेकर गया और गौडाधिपति को युद्ध में
पराजित कर दिया। यह जान लेना आवश्यक है कि इस समय तक अनुवर्ती गुप्त नरे शों की शक्ति, जिनके
राज्य की स्थापना आदित्यसेन गप्ु त ने की थी, काफी क्षीण हो गई थी। गौड्-शक्ति के पर्व
ू -संक्रमण से
मगध के गुप्त राजकुल का विनाश हो गया और मगध के राज्य पर गौड़ों का अधिकार हो गया। अतएव
जब यशोवर्मन ने बंगाल तक अपनी विजय-सेना की यात्रा कराई और गौड़ाधिपति को यद्ध
ु में हराया तो
स्वभावतः मगध राज्य पर भी उसका अधिकार हो गया। यशोवर्मन की पूर्वविजय की पुष्टि एक स्वतन्त्र
साक्ष्य द्वारा भी हो जाती है । नालन्दा में एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जो यशोवर्मन का उल्लेख एक
सर्वशक्तिमान सम्राट् के रूप में करता है । इसका यह अर्थ निकाला जा सकता है की उसकी राजसत्ता
मगध तक विस्तत
ृ थी। अतएव हम यह विश्वास कर सकते हैं की अपनी विजय यात्रा के सम्बन्ध में
यशोवर्मन पूर्व में बंगाल तक गया और गौड़-नरे श को पराजित करने का यशोपार्जन किया।

यद्यपि यशोवर्मन और कश्मीर नरे श ललितादित्य ने एक सत्कार्य के लिए एक-दस


ू रे से सहयोग किया था
और अरबों के प्रसार को रोकने में वे सफल गये तथापि उनकी मैत्री अधिक दिनों तक टिक नहीं सकी। उन
दोनों ही युद्ध छिड़ गया और कुछ समय के लिए उन दोनों में सन्धि हो गई, फिर भी उनमें पारस्परिक
प्रतिद्वन्द्विता की भावना के कारण विग्रह की प्रवत्ति
ृ बलवती हो गई। युद्ध में यशोवर्मन की पराजय हो
गई और राजतरं गिणी के अनस
ु ार कान्यकुब्ज का राज्य, जिसकी सीमायें जमन
ु ा तट से लेकर कालिका
तट तक थीं, ललितादित्य की अधीनता में , उसके घर के आंगन के रूप में हो गया। यशोवर्मन के राज्य पर
ललितादित्य का अधिकार हो गया। यद्ध
ु में पराजित हो जाने पर यशोवर्मन की शक्ति बिल्कुल नष्ट-भ्रष्ट
हो गई और उसका यश का गौरव लुप्त हो गया। यशोवर्मन के शासन-काल को बिल्कुल असन्दिग्ध रूप में
निश्चित नहीं किया जा सकता परन्तु कतिपय विद्वानों ने 690 ई. से लेकर 740 सन ् ई. तक के समय को
उसका शासन-काल निर्धारित किया है ।

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