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Laxman Gita
Laxman Gita
पं चगीता
लेखक:-
ी सु दशन िसं ह जी ‘च ’
सं करण:
थम-१००० ितयां
काशन – ितिथ:
दीपावली, संवत् २०४६ िव०
२५ अ टू बर १६६२ ई.
मू य - . २५/-
मु क-
मयू र ेस
ब ीनगर, दरे सी रोड, मथु रा-२८१००१
पं चगीता
१-ल मण-गीता
२-ऋिष-गीता
३– ीराम-गीता
४-नारी-गीता
५-सावभौम-गीता
ल मण-गीता
काह न कोउ सु ख दुख कर दाता।
िनज कृ त करम मोग सबु ाता ॥ अयो०९१/४
कोई िकसीको सु ख-दुख देनेवाला नह । भाई, सभी (सु ख-दुख) अपने ही िकये हए
कम के फल-मोग ह।
शृंगवेरपुरम िनषादराज गुहसे ये वचन ील मणजीने कहे ह। ीलखनलाल जीव के
परमाचाय ह। ीरामच रतमानसम उपदे ाके पम वे यह स मुख आते ह । अतः
उनका यह उपदेश िवशेष पसे मनन करने यो य है। यह उपदेश इसिलए भी
अिधक मह वका है िक जीव के परमाचायने इनका उपदेश िनषादराजको िदया है।
िकसी उ म अिधकारी ऋिषमुिनको िदया गया यह उपदेश नह है। यह सामा य
अिधकारीको िजसक ीरामम भि है, िदया गया है। अतएव भगवान् पर िव ास
करनेवाले सभी लोग इसके अिधकारी ह और सभीके िलए यह परम पथका दशक
है।
भयउ िबषादु िनषादिह भारी।।
राम सीय मिह सयन िनहारी॥ अयो० ९१/२
इस िवषादका बहत कु छ प ीरामच रतमानस म ह। गु विश तक िजसका
प रचय भरतलालको 'राम सखा' कह कर देते ह, उस िनषादराजने अपने
दयसव व कौशल राजकु मारको ीजनकनि दनीके साथ भूिमपर जब कु श-
साथरीपर पड़े देखा तो उसे िकतनी यथा हई होगी, कोई कै से अनुमान कर सकता
है।
कै कयनं िदिन मं दमित किठन कु िटलपनु क ह।
जेह रघुनं दन जानिकिह सु ख अवसर दुखु दी ह।। अयो०९१।।
िनषादपितका आ ेप के वल उनका ही नह था। जो सु नता और आज तक सु नता
है, वही यही बात कहता है। इस आ ेप एवं-मािमक िवषादको क ि थितम ही
ील मणजी को यह िद य ानधारा वािहत हई है।
बोले लखन मधुर मृदु बानी।
यान िबराग भगित रस सानी॥ अयो० ९१।३.
कह सकते ह िक यह अघाली ल मण-गीताक भूिमका और महा य दोन है।
वाणी मधुर है और मृदु है। न तो आ ेप करनेके िलये िनषाद राजको ही दोषी कहा
गया है और न आ ेपको वीकृ ित ही दी गयी है। िकसीपर न रोष, न दोष । वाणीम
ान, वैरा य और भि -रस भरा हआ है । वह ओत- ोत 'सानी' है इससे ।
काह न कोउ सुख दुख कर दाता।
िनज कृ त करम भोग सबु ाता॥ अयो०९१/४
िनषादराज गुहने माता कै के यीको दोषी बताया। जबतक दयम राग- ेष, रोष-मोह
है, वह स यको हण नह कर पाता। स यका दशन तो ि थर, िनरपे , शा त-िच म
ही होता है। ीरामके ित अनुराग होनेसे िनषादराजका िच वभावतः िनमल है।
उसम माता कै के यीके ित जो ोभ आ गया है, बस पिहले उसीको दूर करना है।
िनषाद राजको उपल ण करके जीव के परमगु जीवमा को यह उपदेश कर गये ह।
सामा य जीवक िवचारधारा जहाँ रहती है, वह से तो उसे उठाया जा सकता है।
ार धपर िव ास आि तकताक यही थम सीढ़ी है । इस तरसे जहां हम नीचे
आये िक िफर तो अशाि त; अस तोष, अना था, अधमका भयावह कानन भरा
पड़ा है। अतएव पिहले यह से ील मणलाल ार भ करते ह। िनषादपितको पिहले
सामा य जीवके सामा य भा यिवधानपर ही ि थर करते ह। यहां ि थर होनेपर ही तो
िफर स यके पथ म आगे गित होगी।
'काह न कोउ सु ख दुख कर दाता।'
अमुक यि ने अमुकको गाली दी, अपमािनत िकया, मारा या अमुकको स पि
छीन ली, उसे घरसे िनकाल िदया और इसी कार अमुक यि ने अमुकको धन
िदया, घर िदया, स मािनत िकया आिद दोन कारको मा यताएं के वल म है। न
तो कोई िकसीको सु ख देता और न दुख।
'हािन-लाभु, जीवनु मरनु, जसु-अपजसु िबिध हाथ।' अयो० १७१
ये छ: बात ार ध पर िनभर ह। इनम दूसर को कारण मानना हमारा ही अ ान है ।
िजसने हम धन या मान िदया अथवा िजसने हमारी स पि छीनी या हम अपमािनत
िकया, वे दोन ही के वल िनिम ह। वे दयाके पा ह, य िक हम तो अपने कम का
फल िमलना ही था। वे िनिम बने और इस कार उ ह ने एक नवीन कम िकया,
िजसका फल उ ह आगे भोगना होगा।
भगवान सव ह, सवसमथ ह, सव यापी ह और याय प ह। उनके इस िव म यह
स भव नह िक कोई दूसरे को िबना अपराध द ड दे सक या िबना शुभ कमके
पुर कृ त कर सके । दूसरे चाह ओर चे ा कर, यहाँ तक तो उनके बसक बात है।
य िक कम करने म जीव वतं है पर वह चाह और चे ा कोई प रणाम भी उ प न
करे , यह उनके बस म नह है। प रणाम तो जीवका जैसा ार ध होगा वैसा ही
उ प न होगा।
यह और प हो जाय, इसके िलये हम कमका िवधान समझ लेना चािहये । हमारे
मनम एक इ छा होती है। यह हमारे पूवके कम सं कार, सं ग आिदका फल है। उस
इ छाके अनुसार हम चे ा कर या न कर, यहाँ हम वत ह, य िक हम बुि
िमली है िक हम समझ सक िक उस इ छाके अनुसार चे ा करना उिचत है या नह ।
चे ा करना हमारा कम है । यिद हम उस चे ाम फल क इ छा न कर, कतृ वका
अहंकार न कर तो उस चे ाका फल हम आगे न भोगना हो । चे ाम कतृ वका
अहंकार हम आगे के िलये उसके सं कारसे बां धता है ।रही चे ाके प रणाम क
बात, सो तो हमारे ार ध या उसके ार धपर िनभर है, िजससे उस चे ाके फलका
स ब ध हो । उदाहरणके िलये एक यि के मन म िकसीको लाठी मारनेक इ छा
होती है। यह इ छा तो उसके ेष या अ य िकसी सं कारका फल है। इसे वह चाहे
तो दबा भी सकता है भले इसके िलये बल मन-शि आव यक हो; िक तु
अ ततः वह इस िवषयम वत ही है। लाठी चलाता है वहाँ 'मने लाठी मारी इस
अहंकारके कारण लाठी मारनेके पापका वह भागी होता है। नह तो-
य य नाहंकृतो भावो बुि य य न िल यित ।
ह वािप स इमान् लोका न हि त न िनब यते ।।
(गीता १८।१७ )
िजसे लाठी मारी गयी, उसे चोट लगेगी या नह और लगेगी तो िकतनी बड़ी लगेगी,
यह सब उसके ार धपर िनभर है। उसका ार ध चोट न लगनेका हो तो लाठी लग
नह सकती। यही बात सभी य न के िवषय म समझना चािहये । इस कार प
है इस िक कोई िकसीको सु ख या दुख देने म समथ नह है।
'िनज कृ त करम भोग सबु ाता।'
जब दूसरा कोई िकसीको सु ख या दुःख नह दे सकता तो यह वतः िस है िक
सभीको अपने ही िकये कम के फल भोगने पड़ते ह; लेिकन जगतम यह य
देखा जाता है िक झू ठ, चोरी, घूस आिद पाप का आ य लेनेवाले स पि पा रहे ह
और स य, सदाचारका पालन करनेवाले आिथक लेशम है। इस बात के अपवाद
भी िमलते ह। िक तु आजकल अिधकता इसीक है, इससे सामा य यि का मन
स देह म पड़ जाता है।
यह बात वु स य है िक पापका फल दुःख एवं िवनाश है तथा पु यका फल सु ख
एवं उ नित । पापसे सु ख एवं पु यसे दुःख तो ह नह सकता । जहाँ अस यािद
पापसे लौिकक उ नित तीत होती है, वहाँ भी वह मानिसक अशाि त दे रही होती
है और िवनाशो मुख होती है । इसी कार जहाँ स य आिद धम के आ यपर भी
सां सा रक लेश िमलते दीखते ह; वहां वे आ त रक शाि त दे रहे होते ह और ि थर
उ नितक ओर ही उनक गित होती है ।
हमारे मन म चाहे यह बात न बैठे, पर हम ार धका िवधान समझ ल तो हमारे िलये
कोई उठने का थान रह ही नह जायगा। मनु य जो कम करता है, उ ह
ि यमाण कहते ह। यह ि यमाण सं िचतम िमल जाता है। ि यमाण बहत ही बल
हो या सकाम अनु ान के प म िकया गया हो तभी इस ज मम फल देता है, नह
तो वह सं िचत म िमल जाता है। दूसरे श द म आगे कभी फल देने के िलये जमा हो
जाता है। इसिलये इस समय के अ छे या बुरे कमका इस समय िमलनेवाले फल
सु ख या दुखसे त काल कोई स ब ध नह है । सं िचत तो ज म-ज मके कम के
सं कार का अपार कोष है। सं िचतम-से कु छ सं कार सृि सं चालकके िनयमके
अनुसार पृथक हए ह और उन सं कार के अनुसार ही यह ज म िमला है। वे पृथक
सेसेहए सं कार ही ार ध कहे जाते ह। इस ज म के सभी सु ख-दुःख ार धके
अनुसार ही िमलते ह।
एक ऐसा कायालय है जहां वेतन िनयत समयपर ही िमलता है। एक कमचारी इस
समय पया म कर रहा है। िक तु पिहलेसे उसके पास कु छ पूँजी नह , अत: म
करते हए भी इस समय तो ु धा एवं अभावसे पीिड़त है । दूसरा कमचारी पिहले
मासम म करके पूँजी एक कर चुका है। इस मास वह म नह करता, पर
अप यय करता और आन द मनाता है। वतमान समयको देखनेसे तो बड़ी िवपरीत
यव था लगती है िक जो म करता है। वह भूख रहनेको िववश है और जो म
नह करता, वह मौज कर रहा है। िक तु जो आगे-पीछे देख एवं सोच सकते ह, उ ह
यह नह बताना होगा िक म करने वाला ठीक मागपर है और बेकार रह कर
अप यय करनेवाला अपने िलये क क साम ी एक कर रहा है। यही बात
ार धके िवषयम है। पूव कृ तपु य कम के फल से िज ह धन-मान आिद िमल रहा
है, वे यिद पापरत ह तो अपने िलये आगे लेशका साधन एक कर रहे ह। उनका
धन, मान पूवकृ त पु य का फल है, वतमान अस य या घूतताका नह । इसी कार
जो पूवकृ त अशुभ कम के फलसे लेश पाते हए भी धम एवं स यपर ि थर ह,
उसके अशुभ तो लेश भोगसे न हो ही रहे ह और धम उनके िलये आगे उ वल
भिव य िनि त तुत कर रहा है। साथ ही घमके फल- व प उ ह आ त रक बल
एवं शाि त जो अभी ा होती है, सो पृथक ।
'िनजकृ त कम भोग’ सब सबके सभी सु ख-दुख उसीके पूवकृ त कम के फल भोग ह
और अपने वतमान कम का फल भी िन य ही उसी को भोगना है। दूसरा कोई उसे
सु ख-दुख दे नह सकता। कोई उसके कमफलको न िमटा सकता, न ढाल सकता न
बदल सकता । यह भी कु छ होगा तो उसीके य न एवं िन ा से । इस कार भी
ल मणजीने जीवके कम भोगके सामा य िनयमको यहां बताया। यह िनयम
िनषादराजको समझानेके िलये, उनको कहा गया। ीराम एवं जनकनि दनीके िलये
यह िनयम नह है-यह तो आगे वे वयं कहगे।
जोग-िवयोग, भोग, भल मं दा।
िहत-अनिहत, म यम म फं दा ॥
(अयो० ९१/५)
सं योग तथा िवयोग (िमलन तथा िवछोह) अ छे और िनकृ भोग एवं िम -श ु
तथा उदासीन-ये सब भाव के वल मोहके जाल ह।
सं सारम कभी हमसे हमारे ि यजन िमलते ह और कभी पृथक होते ह। इसी कार
हम िजन लोग से नह िमलना चाहते, उनके साथ भी हम रहना पड़ता है। कभी
अ छे सु ख-भोग िमलते ह और कभी िनकृ लेशदायी ि थित ा होती है। कोई
हमारा िहतैषी- वजन, स ब धी, िम है तो कोई प रखनेवाले श ु और अिधकां श
जगत हमसे उदासीन है। िव म सभी ािणय का इतना ही पर पर स ब ध तथा
यवहार है। ील मणलाल कह रहे ह िक यह सब मका फ दा-अ ानका जाल
है।
जैसे नदीके वेगम बहते हए ितनके कभी वाहके कारण एक हो जाते ह और िफर
वाह वेगसे पृथक हो जाते ह, जैसे या ी मार्ग के िनवास पा यशाला (धमशाला)
म एक होते और िफर पृथक होते ह, वैसे ही यह िव का सं योग-िवयोग है। येक
जीव अपने कम के वाहम पड़ा हआ है। कभी दो या अिधक ािणय के कम उ ह
एक कर देते ह और वे कम ही उ ह पृथक कर देते ह । कमके अनुसार ही जीव
ज म पाता है और उसके वजन आिद उसे िमलते ह। िजसका कम जहाँ उसे ले
जाता है, उसको वहाँ जाना पड़ता है। ऐसी दशाम सं योग-िवयोगका या मू य?
उसम कोई आ ह अथात् अमुक िमल, समीप रह या अमुक न िमले
अथवा अमुकसे हम दूर न होना पड़े यह सब म ही तो है । यह म ही फ दा है ।
इस फ दे म फं से लोग इस सं योग-िवयोगके िलए य न करते ह, तड़फड़ाते ह और
इस कार नूतन कम करते हए अपनेको बराबर उलझाते जाते ह।
कम येवािधकार ते मा फलेषु कदाचन।' गीता २/४७
कम करने म ही अिधकार है, फल म नह । कोई दुःख नह चाहता, कोई हािन,
अपमान, वजन िवयोग, रोग, मृ यु नह चाहता; िक तु ये सभीको िबना यास घेरे
रहते ह। बहधा सु खको अपे ा ये अिधक िमलते ह । जैसे ये दुखािद ार धके
अनुसार िमलते ह, वैसे ही ार धके अनुसार ही ये दूर भी होते ह और सु ख भी
ार धके अनुसार ही ा होता है। हमारा कोई य न हमारे सु ख को न तो तिनक
भी बढा पाता और न दुःख को घटा पाता। लेिकन यह करनेसे सु ख होगा, यह
करनेसे दुःख दूर होगा, यही मा यता सबको चं चल िकये ह। इसी मके फ दे म
फं सकर सब य हो रहे ह। सब इसी मोहके कारण नाना कम को करते और
कमजालको ढ़ बनाते जा रहे ह।
यह हमारा श ु है, हमसे ेष करता है और ये हमारे िम ह, हमारे शुभ िच तक ह
तथा शेष लोग को हमसे और हम उनसे कोई योजन नह । इस मा यताम भी वही
' म फ दा' है। जो हमारे ार ध म सु ख, स पि , यश आिद है उसे कोई लाख
य न करके हम पानेसे रोक तो या थोड़ा कम नह कर सकता। इसी कार
िकसीका कोई य न हमारे ार धज य लेश, अभाव, अयश आिदको भी रोक या
घटा नह पाता। श ु और िम दोन के वल िनिम ह। हम िजतना स पि िजतना
यश अथवा िजतना दुःख, िजतने अभाव या िजतने अयश को भोगना है, उतना तो
भोगना ही पड़े । लेिकन यह श ु और यह िम , इस कारक मा यता हमम अनेक
कारसे राग- ेष उ प न कर के हमसे अनेक चे ाएँ कराती है और इस मा यता के
वश उन चे ाओं के शुभाशुभ कमम हम अिधकािधक उलझते जाते ह।
व तुतः ल मण-गीताको यह अधाली पूरीक पूरी दो कार के भाव य करने
वाली े ष तथा देहली दीपक है। इसका स ब ध पिहली अधाली 'कोउ न काह
सु ख-दुख कर दाता' से भी है और आगे क अधािलय से भी है। पिहली ‘अधाली’
के साथ स ब ध रखकर तो यह ार ध धान भाव य करती है। अबतक इसी
भावको ऊपर प िकया गया । आगेक अधािलय के साथ इसे स बि धत करके
देख तो वह त व ान जो आगेक अधािलयो म है, उसक यह भूिमका है।
भगवा क स ा सव है। सगुण -िनगुण दोन प म वे िवभु ह और सबके
अ तयामी प से येक दयम भी ि थत ह। जीवका उनसे कभी िवयोग न होता।
दूसरे ािणय से सं योग- िवयोग कोई अथ ही नह है । सं सार म जो सं योग-िवयोगक
भावना है, वह तो मका जाल है। एक जीव दूसरे जीवसे सवथा वत त्र है।
शरीरका पां च भौितक पुतला जड़ है और उसके य -त होनेका भी कोई अथ नह ।
दो यि एक या ाम सवथा पास होकर भी िवयु ह, य िक उनम प रचय नह ।
उनम सं यु करनेवाले भाव नह और जाित या एक देशके अनेक लोग जो पर पर
कभी नह िमलते, जातीयता एवं रा ीयताम सं यु ह और सं योगका गव करते ह।
इस कार सं योग या िवयोग शरीरक अपे ा मनसे अिधक स ब ध रखता है। मनके
भाव का े इतना िव तृत, िनःसीम है िक उसम िवयोगका कु छ अथ ही नह ।
शरीर को लेकर ही सं योग-िवयोगक भावना चलता है और िवचार करने पर वह
म ही है जो अपने फ देम उलझाये जीव को लेश दे रही है।
सु ख और दुःख मनके धम ह और ये मा यताम ि थत ह पदाथ म नह । एक यि
कु छ पये पाकर फू ला नह समाता और एक यि इसिलये मारे दुःख के
आ मह या कर लेता है िक उसके पास के वल कु छ करोड़ पये बच गये ह । बमाके
एक भोजन िवशेषके आवरण हीन होनेपर एक भारतीयक नाक फटने लगेगी और
एक बम बड़े नेहसे सू घेगा उसे । यही दशा शराबक है । सौ दयको भावना भी ऐसे
ही िभ न-िभ न देश म पर पर िवरोधी है। अमुक भोग भला है, अमुक पदाथ सु ख
देने वाला है और अमुक भोग िनकृ है, अमुक पदाथ क देनेवाला है। अथवा
अमुक पदाथके अभावसे क हो रहा है, यह सब म है । आपक िच एवं ि थित
ही है जो पदाथ को सु ख या दुःख देनेवाला बनाये ह।
पदाथ म-से न कोई भला है, न कोई िनकृ । न कोई सु ख देने वाला है, न दुख
देनेवाला । पदाथ म सु ख-दुःखदेनेक शि है ही नह । मनु यक मा यता ही उ ह
सु खद या दुखद बनाती है। एक अरबपित अपने सदन म भी अभाव त रहता है
भोग क िवपुलता होते हए भी और एक कौपीन धारी िवपरीत प रि थितय म भी,
अपमािनत एवं तािड़त होनेपर भी उ फु ल रहता है । बात यह है िक आन द तो
दयके भीतर अ तयामी म है 'रसो वै सः’, दय थ भु ही रस प सु ख िस धु ह।
पदाथ म अ ान वश भले एवं िनकृ , सु खद एवं दुःखदको हम सबने क पना कर
ली है। हम म म पडे और इस मके कारण ही नाना कार के कम करते चले जाते
ह । यह म ही हमारे ब धनको ढ़से ढ़तर करता जाता है।
'िहत अनिहत म यम' अथात् िम -श -ु उदासीनका भाव तो बहत प ही म है।
मनु य वयं ही अपना श ु और वयं ही अपना िम है। िवषय म वृ इि याँ
तथा अस पथगामी मन ही मनु यका सबसे बड़ा श ु है। अनाचार-पाप होते ह
शारीराशि - ऐि यक िल सासे और यही लेश के कारण है। जहाँ तक दूसर का
स ब ध है, िकसीका भी जड़ शरीर िकसीका िम -श -ु आिद कु छ नह हो सकते ।
मुदा िकसीसे िम ता या श तु ा नह करता। जीव परमा माका अं श है। सू यक
िकरण म से एक िकरण दूसरे को िम या श ु है, इस बातका अथ या ?
मन सं सार एवं िवषय का िच तन छोड़ दे, इसका एकमा उपाय अ यास तथा
वैरा य ही योगदशन एवं गीताम भी कहा गया है। नाम जप, क तन, पाठ, पूजा,
यान, ाणायाम आिद जो भी अपना साधन हो उसे बराबर करते रहना अ यास है।
मन जहाँ-जहाँ जाय, वहाँ- वहाँ से बलपूवक हटाकर उसे अपने साधन म लगाते
रहा जाय । इस कार पिहले अ यास और तब वैरा य। वैरा य होता है िवचारके
ारा । वग एवं लोक तक सं सार के सभी भोग दुःख प ह मोह-मूल ह, यह
सब जगजाल है, इस कार बराबर िवचार करनेसे बुि म जो िवषय-सेवन तथा
शरीर एवं इि य क सु ख-सु िवधाका मोह है, वह धीरे -धीरे न हो जाता है।
और ये ' कृ पाल ' या अिवगत अलख' बने रहकर अपनी इ छा, योगमाया और
िकसी शि से उस भोले भ का िहत कर लेते । उसका िहत उसने 'पाय पखा रह '
बना रखा है। अब जब कृ पाल ह तो 'पाय' बनाकर आवे तो कर या। ये िनषादराज
ही या उस 'अिवगत अलख सकल िबकार रिहत गतभेदा से स तु हो जाते? इनके
िलये भी कौशल राजकु मार आखेट सखा बनकर ही स तोष दे सकते थे। अतः इस
करत च रत ध र मनुज तन' का मु य हेतु तो 'भगतिहत' ही है!
'सु नत िमटिहं जगजाल' इस बातको और प कर देना है। उस समय जो परम
भावुक महाभाग भ धराधामपर ये उनक भावनाओसे िववश होकर वे 'अलख
अगोचर, परा पर भु य हए, यह तो ठीक है िक तु उनका ‘करत च रत ध र
मनुज तनु ’ के वल उ ह भ के िहतके िलये नह है। वह तो अपने सम त भ के
िहतके िलये है। सभी साधुजन के प र ाण के िलये भु मनु य प धारण करके
मनोहर च रत करते ह।
"भजते ता शीः डा याः ु वा त परो भवेत् ।'
( ीम ागवत १०।३३।३७ )
वे वैसी ही लीलाएँ करते ह, िजनको सु नकर ाणीका िच उनम लगे। िजनके
वणसे 'जग-जाल' िमट जाय । 'जनम-मरन जह लिग जग जालू' के च से ाणी
उन िद य मं गलमय च रत को वण करके ही छू ट जाता है। इस कार 'सकल
िवकार रिहत गत भेदा व पसे सम त जन का क याण श य नह है। वह प तो
ऐसा है िक वेद ही उसे "नेित नेित' कहते ह, तब दूसरा उसके िवषय म या सु नेगा
और या सोचेगा। भाव ाण भ के िन य मं गलके िलये, उ ह जग-जालसे
प र ाण देकर उनका परमिहत करने के िलये ही वे भु 'मनुज तनु ध र' अप ने
िविवध च रत करते ह। इस कार उनके अवतारका मु य योजन सम त
साधुजन का प र ाण आवागमन प भवच से मुि है। इस 'भगत िहतके िलये
ही वे धरापर य होते ह।
'धरिन िहत' म भू-भार-हरण तो मु य है हो और धरणीने इसके िलये ाथना भी क
थी। यह बनवासको लीला उसी भू-भारको दूर करने क भूिमका है, िक तु इसके
साथ भुका पृ वीपर गट होकर अपनी उपि थितसे, अपने ीचरण के पशसे जो
पृ वी का मानवधन करना है, धराके अनेक थल को तीथ बना देना है, वह धरिन
िहत, भी गौण नह है । भू-भार-हरण तो इ छा करने मा से हो जाता, िक तु इस
िहतके , िलये तो धरणीपर पधारना ही था। अत: कृ पालु, भु इस "धरिन" िहतके
िलये भी 'मनुजतनु ' धारण करके नाना च रत कर रहे ह।
'भूसु र-िहत' भी रावण-बधम है। रावणके अनुचर या करते थे, यह बतलानेको
आव यकता नह है। ा ण और गाय के तो वे असु र ज मजात श ु ठहरे ।
'जेिहं जेिहं वेस धेनु ि ज पाविहं।
नगर गाउँ पुर आिग लगाविहं ॥'
(बाल० १८२/६)
वे उस देश, नगर या ामको ही भ म कर देते थे, जहाँ गाय या ामण रहते ह ।
भु ठहरे यदेव एवं परम गोव सल, अत: इन गो ि ज ोिहय का िवनाश
करनेके िलये वे यह मनुज तनु' धारण करके ये वनवासािद च रत कर रहे ह ।
'सु रिहत' भी रावण तथा उनके अनुचर के िवनाशम ही है। य िक रावणने देवताओं
का पोषण िजस य -भागसे होता है, उस य को ही रोक िदया है।
'जप जोग िबरागा तप मख भागा वन सु नइ दससीसा।
आपुनु उिठ धावइ रहै न पावइ ध र सब घालइखीसा॥
बाल० १/१८२ CH OK।
भुक बनवास लीलाम रावण वध- पी सु रकाज ही मुख है और इसीिलये
देवताओंने सर वतीको े रत करके म थराक बुि ा त करवाया और इस कार
इस लीलाको भूिमका तुत क ।
ये सब च रत भु वयं 'मनुज तनु ध र' कर रहे ह। उनका यह मानव प कम
परत नह है। उ ह ने वे छासे यह प योगमाया मुपाि तः योगमायाका आ य
लेकर कट िकया है । इसी कार वयं वे छासे वे कृ पालु भगत भूिम भूसु र सु रिभ
सु रिहत लािग, ये च रत कर रहे ह। इन च रत के करने म वे कम या ार धके परत
नह ह । पिहले जो कहा गया है
काह न कोउ सु ख दुख कर दाता।
िनज कृ त करम भोग सबु ाता॥
(-अयो० ९१/४)
वह बात इन राम परमारथ पाके िलये नह है। वह तो सामा य जीवके िलये
कही गई बात है। काल करम गुन िजनके हाथ उनको भला कमभोग या। लेिकन
यह भी ठीक नह िक उ ह िकसीने वनम भेजा है। उनके बनवासम माता कै के यी
आिद जो िनिम ह, वह भी उ हीक इ छा से । 'ध र मनुज तनु' वे, यै ीराम
वे छासे ही ये सब च रत कर रहे ह।
सखा समुिझ अस प रह र मोह ।
अिधकार अिधकार िसय रघुबीर चरन रत होह ॥
(-अयो०९३/१)
ल मणलालजी अपने उपदेशका उपसं हार करते हए कहते ह-सखा, ऐसा समझ कर
मोहको छोड़ दो िक इन तु हारे ि य सखा ीरामको माता कै के यीने वन देकर बड़ा
अनथ िकया और ये बड़े क म ह। ये अपनी इ छासे ही पृ वीपर इस मनु य प म
आये और अपनी इ छासे ही 'भगत भूिम भूसु र सु रिभ सु रिहत लािग' ये परम
कृ पालु, ऐसे च रत कर रहे ह, िजनको सु नकर ही ािणय का जग-जाल िमट जाता
है। अतः तुम तो इन 'िसय रघुवीर' के ीचरण म िच को लगाओ।