Download as pdf or txt
Download as pdf or txt
You are on page 1of 51

ी रामच रत मानसा तगत

पं चगीता
लेखक:-
ी सु दशन िसं ह जी ‘च ’

[इस पु तक को या इसके िकसी अं श को


कािशत करने, उ ृ त करने अथवा िकसी भी
भाषाम अनू िदत करने का अिधकार सबको
है।]
काशक:
ीकृ ण-ज म थान सेवा-सं थान
मथु रा -२८१००१

सं करण:
थम-१००० ितयां
काशन – ितिथ:
दीपावली, संवत् २०४६ िव०
२५ अ टू बर १६६२ ई.
मू य - . २५/-

मु क-
मयू र ेस
ब ीनगर, दरे सी रोड, मथु रा-२८१००१
पं चगीता

१-ल मण-गीता
२-ऋिष-गीता
३– ीराम-गीता
४-नारी-गीता
५-सावभौम-गीता
ल मण-गीता
काह न कोउ सु ख दुख कर दाता।
िनज कृ त करम मोग सबु ाता ॥ अयो०९१/४
कोई िकसीको सु ख-दुख देनेवाला नह । भाई, सभी (सु ख-दुख) अपने ही िकये हए
कम के फल-मोग ह।
शृंगवेरपुरम िनषादराज गुहसे ये वचन ील मणजीने कहे ह। ीलखनलाल जीव के
परमाचाय ह। ीरामच रतमानसम उपदे ाके पम वे यह स मुख आते ह । अतः
उनका यह उपदेश िवशेष पसे मनन करने यो य है। यह उपदेश इसिलए भी
अिधक मह वका है िक जीव के परमाचायने इनका उपदेश िनषादराजको िदया है।
िकसी उ म अिधकारी ऋिषमुिनको िदया गया यह उपदेश नह है। यह सामा य
अिधकारीको िजसक ीरामम भि है, िदया गया है। अतएव भगवान् पर िव ास
करनेवाले सभी लोग इसके अिधकारी ह और सभीके िलए यह परम पथका दशक
है।
भयउ िबषादु िनषादिह भारी।।
राम सीय मिह सयन िनहारी॥ अयो० ९१/२
इस िवषादका बहत कु छ प ीरामच रतमानस म ह। गु विश तक िजसका
प रचय भरतलालको 'राम सखा' कह कर देते ह, उस िनषादराजने अपने
दयसव व कौशल राजकु मारको ीजनकनि दनीके साथ भूिमपर जब कु श-
साथरीपर पड़े देखा तो उसे िकतनी यथा हई होगी, कोई कै से अनुमान कर सकता
है।
कै कयनं िदिन मं दमित किठन कु िटलपनु क ह।
जेह रघुनं दन जानिकिह सु ख अवसर दुखु दी ह।। अयो०९१।।
िनषादपितका आ ेप के वल उनका ही नह था। जो सु नता और आज तक सु नता
है, वही यही बात कहता है। इस आ ेप एवं-मािमक िवषादको क ि थितम ही
ील मणजी को यह िद य ानधारा वािहत हई है।
बोले लखन मधुर मृदु बानी।
यान िबराग भगित रस सानी॥ अयो० ९१।३.
कह सकते ह िक यह अघाली ल मण-गीताक भूिमका और महा य दोन है।
वाणी मधुर है और मृदु है। न तो आ ेप करनेके िलये िनषाद राजको ही दोषी कहा
गया है और न आ ेपको वीकृ ित ही दी गयी है। िकसीपर न रोष, न दोष । वाणीम
ान, वैरा य और भि -रस भरा हआ है । वह ओत- ोत 'सानी' है इससे ।
काह न कोउ सुख दुख कर दाता।
िनज कृ त करम भोग सबु ाता॥ अयो०९१/४

िनषादराज गुहने माता कै के यीको दोषी बताया। जबतक दयम राग- ेष, रोष-मोह
है, वह स यको हण नह कर पाता। स यका दशन तो ि थर, िनरपे , शा त-िच म
ही होता है। ीरामके ित अनुराग होनेसे िनषादराजका िच वभावतः िनमल है।
उसम माता कै के यीके ित जो ोभ आ गया है, बस पिहले उसीको दूर करना है।
िनषाद राजको उपल ण करके जीव के परमगु जीवमा को यह उपदेश कर गये ह।
सामा य जीवक िवचारधारा जहाँ रहती है, वह से तो उसे उठाया जा सकता है।
ार धपर िव ास आि तकताक यही थम सीढ़ी है । इस तरसे जहां हम नीचे
आये िक िफर तो अशाि त; अस तोष, अना था, अधमका भयावह कानन भरा
पड़ा है। अतएव पिहले यह से ील मणलाल ार भ करते ह। िनषादपितको पिहले
सामा य जीवके सामा य भा यिवधानपर ही ि थर करते ह। यहां ि थर होनेपर ही तो
िफर स यके पथ म आगे गित होगी।
'काह न कोउ सु ख दुख कर दाता।'
अमुक यि ने अमुकको गाली दी, अपमािनत िकया, मारा या अमुकको स पि
छीन ली, उसे घरसे िनकाल िदया और इसी कार अमुक यि ने अमुकको धन
िदया, घर िदया, स मािनत िकया आिद दोन कारको मा यताएं के वल म है। न
तो कोई िकसीको सु ख देता और न दुख।
'हािन-लाभु, जीवनु मरनु, जसु-अपजसु िबिध हाथ।' अयो० १७१
ये छ: बात ार ध पर िनभर ह। इनम दूसर को कारण मानना हमारा ही अ ान है ।
िजसने हम धन या मान िदया अथवा िजसने हमारी स पि छीनी या हम अपमािनत
िकया, वे दोन ही के वल िनिम ह। वे दयाके पा ह, य िक हम तो अपने कम का
फल िमलना ही था। वे िनिम बने और इस कार उ ह ने एक नवीन कम िकया,
िजसका फल उ ह आगे भोगना होगा।
भगवान सव ह, सवसमथ ह, सव यापी ह और याय प ह। उनके इस िव म यह
स भव नह िक कोई दूसरे को िबना अपराध द ड दे सक या िबना शुभ कमके
पुर कृ त कर सके । दूसरे चाह ओर चे ा कर, यहाँ तक तो उनके बसक बात है।
य िक कम करने म जीव वतं है पर वह चाह और चे ा कोई प रणाम भी उ प न
करे , यह उनके बस म नह है। प रणाम तो जीवका जैसा ार ध होगा वैसा ही
उ प न होगा।
यह और प हो जाय, इसके िलये हम कमका िवधान समझ लेना चािहये । हमारे
मनम एक इ छा होती है। यह हमारे पूवके कम सं कार, सं ग आिदका फल है। उस
इ छाके अनुसार हम चे ा कर या न कर, यहाँ हम वत ह, य िक हम बुि
िमली है िक हम समझ सक िक उस इ छाके अनुसार चे ा करना उिचत है या नह ।
चे ा करना हमारा कम है । यिद हम उस चे ाम फल क इ छा न कर, कतृ वका
अहंकार न कर तो उस चे ाका फल हम आगे न भोगना हो । चे ाम कतृ वका
अहंकार हम आगे के िलये उसके सं कारसे बां धता है ।रही चे ाके प रणाम क
बात, सो तो हमारे ार ध या उसके ार धपर िनभर है, िजससे उस चे ाके फलका
स ब ध हो । उदाहरणके िलये एक यि के मन म िकसीको लाठी मारनेक इ छा
होती है। यह इ छा तो उसके ेष या अ य िकसी सं कारका फल है। इसे वह चाहे
तो दबा भी सकता है भले इसके िलये बल मन-शि आव यक हो; िक तु
अ ततः वह इस िवषयम वत ही है। लाठी चलाता है वहाँ 'मने लाठी मारी इस
अहंकारके कारण लाठी मारनेके पापका वह भागी होता है। नह तो-
य य नाहंकृतो भावो बुि य य न िल यित ।
ह वािप स इमान् लोका न हि त न िनब यते ।।
(गीता १८।१७ )
िजसे लाठी मारी गयी, उसे चोट लगेगी या नह और लगेगी तो िकतनी बड़ी लगेगी,
यह सब उसके ार धपर िनभर है। उसका ार ध चोट न लगनेका हो तो लाठी लग
नह सकती। यही बात सभी य न के िवषय म समझना चािहये । इस कार प
है इस िक कोई िकसीको सु ख या दुख देने म समथ नह है।
'िनज कृ त करम भोग सबु ाता।'
जब दूसरा कोई िकसीको सु ख या दुःख नह दे सकता तो यह वतः िस है िक
सभीको अपने ही िकये कम के फल भोगने पड़ते ह; लेिकन जगतम यह य
देखा जाता है िक झू ठ, चोरी, घूस आिद पाप का आ य लेनेवाले स पि पा रहे ह
और स य, सदाचारका पालन करनेवाले आिथक लेशम है। इस बात के अपवाद
भी िमलते ह। िक तु आजकल अिधकता इसीक है, इससे सामा य यि का मन
स देह म पड़ जाता है।
यह बात वु स य है िक पापका फल दुःख एवं िवनाश है तथा पु यका फल सु ख
एवं उ नित । पापसे सु ख एवं पु यसे दुःख तो ह नह सकता । जहाँ अस यािद
पापसे लौिकक उ नित तीत होती है, वहाँ भी वह मानिसक अशाि त दे रही होती
है और िवनाशो मुख होती है । इसी कार जहाँ स य आिद धम के आ यपर भी
सां सा रक लेश िमलते दीखते ह; वहां वे आ त रक शाि त दे रहे होते ह और ि थर
उ नितक ओर ही उनक गित होती है ।
हमारे मन म चाहे यह बात न बैठे, पर हम ार धका िवधान समझ ल तो हमारे िलये
कोई उठने का थान रह ही नह जायगा। मनु य जो कम करता है, उ ह
ि यमाण कहते ह। यह ि यमाण सं िचतम िमल जाता है। ि यमाण बहत ही बल
हो या सकाम अनु ान के प म िकया गया हो तभी इस ज मम फल देता है, नह
तो वह सं िचत म िमल जाता है। दूसरे श द म आगे कभी फल देने के िलये जमा हो
जाता है। इसिलये इस समय के अ छे या बुरे कमका इस समय िमलनेवाले फल
सु ख या दुखसे त काल कोई स ब ध नह है । सं िचत तो ज म-ज मके कम के
सं कार का अपार कोष है। सं िचतम-से कु छ सं कार सृि सं चालकके िनयमके
अनुसार पृथक हए ह और उन सं कार के अनुसार ही यह ज म िमला है। वे पृथक
सेसेहए सं कार ही ार ध कहे जाते ह। इस ज म के सभी सु ख-दुःख ार धके
अनुसार ही िमलते ह।
एक ऐसा कायालय है जहां वेतन िनयत समयपर ही िमलता है। एक कमचारी इस
समय पया म कर रहा है। िक तु पिहलेसे उसके पास कु छ पूँजी नह , अत: म
करते हए भी इस समय तो ु धा एवं अभावसे पीिड़त है । दूसरा कमचारी पिहले
मासम म करके पूँजी एक कर चुका है। इस मास वह म नह करता, पर
अप यय करता और आन द मनाता है। वतमान समयको देखनेसे तो बड़ी िवपरीत
यव था लगती है िक जो म करता है। वह भूख रहनेको िववश है और जो म
नह करता, वह मौज कर रहा है। िक तु जो आगे-पीछे देख एवं सोच सकते ह, उ ह
यह नह बताना होगा िक म करने वाला ठीक मागपर है और बेकार रह कर
अप यय करनेवाला अपने िलये क क साम ी एक कर रहा है। यही बात
ार धके िवषयम है। पूव कृ तपु य कम के फल से िज ह धन-मान आिद िमल रहा
है, वे यिद पापरत ह तो अपने िलये आगे लेशका साधन एक कर रहे ह। उनका
धन, मान पूवकृ त पु य का फल है, वतमान अस य या घूतताका नह । इसी कार
जो पूवकृ त अशुभ कम के फलसे लेश पाते हए भी धम एवं स यपर ि थर ह,
उसके अशुभ तो लेश भोगसे न हो ही रहे ह और धम उनके िलये आगे उ वल
भिव य िनि त तुत कर रहा है। साथ ही घमके फल- व प उ ह आ त रक बल
एवं शाि त जो अभी ा होती है, सो पृथक ।
'िनजकृ त कम भोग’ सब सबके सभी सु ख-दुख उसीके पूवकृ त कम के फल भोग ह
और अपने वतमान कम का फल भी िन य ही उसी को भोगना है। दूसरा कोई उसे
सु ख-दुख दे नह सकता। कोई उसके कमफलको न िमटा सकता, न ढाल सकता न
बदल सकता । यह भी कु छ होगा तो उसीके य न एवं िन ा से । इस कार भी
ल मणजीने जीवके कम भोगके सामा य िनयमको यहां बताया। यह िनयम
िनषादराजको समझानेके िलये, उनको कहा गया। ीराम एवं जनकनि दनीके िलये
यह िनयम नह है-यह तो आगे वे वयं कहगे।
जोग-िवयोग, भोग, भल मं दा।
िहत-अनिहत, म यम म फं दा ॥
(अयो० ९१/५)
सं योग तथा िवयोग (िमलन तथा िवछोह) अ छे और िनकृ भोग एवं िम -श ु
तथा उदासीन-ये सब भाव के वल मोहके जाल ह।
सं सारम कभी हमसे हमारे ि यजन िमलते ह और कभी पृथक होते ह। इसी कार
हम िजन लोग से नह िमलना चाहते, उनके साथ भी हम रहना पड़ता है। कभी
अ छे सु ख-भोग िमलते ह और कभी िनकृ लेशदायी ि थित ा होती है। कोई
हमारा िहतैषी- वजन, स ब धी, िम है तो कोई प रखनेवाले श ु और अिधकां श
जगत हमसे उदासीन है। िव म सभी ािणय का इतना ही पर पर स ब ध तथा
यवहार है। ील मणलाल कह रहे ह िक यह सब मका फ दा-अ ानका जाल
है।
जैसे नदीके वेगम बहते हए ितनके कभी वाहके कारण एक हो जाते ह और िफर
वाह वेगसे पृथक हो जाते ह, जैसे या ी मार्ग के िनवास पा यशाला (धमशाला)
म एक होते और िफर पृथक होते ह, वैसे ही यह िव का सं योग-िवयोग है। येक
जीव अपने कम के वाहम पड़ा हआ है। कभी दो या अिधक ािणय के कम उ ह
एक कर देते ह और वे कम ही उ ह पृथक कर देते ह । कमके अनुसार ही जीव
ज म पाता है और उसके वजन आिद उसे िमलते ह। िजसका कम जहाँ उसे ले
जाता है, उसको वहाँ जाना पड़ता है। ऐसी दशाम सं योग-िवयोगका या मू य?
उसम कोई आ ह अथात् अमुक िमल, समीप रह या अमुक न िमले
अथवा अमुकसे हम दूर न होना पड़े यह सब म ही तो है । यह म ही फ दा है ।
इस फ दे म फं से लोग इस सं योग-िवयोगके िलए य न करते ह, तड़फड़ाते ह और
इस कार नूतन कम करते हए अपनेको बराबर उलझाते जाते ह।
कम येवािधकार ते मा फलेषु कदाचन।' गीता २/४७
कम करने म ही अिधकार है, फल म नह । कोई दुःख नह चाहता, कोई हािन,
अपमान, वजन िवयोग, रोग, मृ यु नह चाहता; िक तु ये सभीको िबना यास घेरे
रहते ह। बहधा सु खको अपे ा ये अिधक िमलते ह । जैसे ये दुखािद ार धके
अनुसार िमलते ह, वैसे ही ार धके अनुसार ही ये दूर भी होते ह और सु ख भी
ार धके अनुसार ही ा होता है। हमारा कोई य न हमारे सु ख को न तो तिनक
भी बढा पाता और न दुःख को घटा पाता। लेिकन यह करनेसे सु ख होगा, यह
करनेसे दुःख दूर होगा, यही मा यता सबको चं चल िकये ह। इसी मके फ दे म
फं सकर सब य हो रहे ह। सब इसी मोहके कारण नाना कम को करते और
कमजालको ढ़ बनाते जा रहे ह।
यह हमारा श ु है, हमसे ेष करता है और ये हमारे िम ह, हमारे शुभ िच तक ह
तथा शेष लोग को हमसे और हम उनसे कोई योजन नह । इस मा यताम भी वही
' म फ दा' है। जो हमारे ार ध म सु ख, स पि , यश आिद है उसे कोई लाख
य न करके हम पानेसे रोक तो या थोड़ा कम नह कर सकता। इसी कार
िकसीका कोई य न हमारे ार धज य लेश, अभाव, अयश आिदको भी रोक या
घटा नह पाता। श ु और िम दोन के वल िनिम ह। हम िजतना स पि िजतना
यश अथवा िजतना दुःख, िजतने अभाव या िजतने अयश को भोगना है, उतना तो
भोगना ही पड़े । लेिकन यह श ु और यह िम , इस कारक मा यता हमम अनेक
कारसे राग- ेष उ प न कर के हमसे अनेक चे ाएँ कराती है और इस मा यता के
वश उन चे ाओं के शुभाशुभ कमम हम अिधकािधक उलझते जाते ह।
व तुतः ल मण-गीताको यह अधाली पूरीक पूरी दो कार के भाव य करने
वाली े ष तथा देहली दीपक है। इसका स ब ध पिहली अधाली 'कोउ न काह
सु ख-दुख कर दाता' से भी है और आगे क अधािलय से भी है। पिहली ‘अधाली’
के साथ स ब ध रखकर तो यह ार ध धान भाव य करती है। अबतक इसी
भावको ऊपर प िकया गया । आगेक अधािलय के साथ इसे स बि धत करके
देख तो वह त व ान जो आगेक अधािलयो म है, उसक यह भूिमका है।
भगवा क स ा सव है। सगुण -िनगुण दोन प म वे िवभु ह और सबके
अ तयामी प से येक दयम भी ि थत ह। जीवका उनसे कभी िवयोग न होता।
दूसरे ािणय से सं योग- िवयोग कोई अथ ही नह है । सं सार म जो सं योग-िवयोगक
भावना है, वह तो मका जाल है। एक जीव दूसरे जीवसे सवथा वत त्र है।
शरीरका पां च भौितक पुतला जड़ है और उसके य -त होनेका भी कोई अथ नह ।
दो यि एक या ाम सवथा पास होकर भी िवयु ह, य िक उनम प रचय नह ।
उनम सं यु करनेवाले भाव नह और जाित या एक देशके अनेक लोग जो पर पर
कभी नह िमलते, जातीयता एवं रा ीयताम सं यु ह और सं योगका गव करते ह।
इस कार सं योग या िवयोग शरीरक अपे ा मनसे अिधक स ब ध रखता है। मनके
भाव का े इतना िव तृत, िनःसीम है िक उसम िवयोगका कु छ अथ ही नह ।
शरीर को लेकर ही सं योग-िवयोगक भावना चलता है और िवचार करने पर वह
म ही है जो अपने फ देम उलझाये जीव को लेश दे रही है।
सु ख और दुःख मनके धम ह और ये मा यताम ि थत ह पदाथ म नह । एक यि
कु छ पये पाकर फू ला नह समाता और एक यि इसिलये मारे दुःख के
आ मह या कर लेता है िक उसके पास के वल कु छ करोड़ पये बच गये ह । बमाके
एक भोजन िवशेषके आवरण हीन होनेपर एक भारतीयक नाक फटने लगेगी और
एक बम बड़े नेहसे सू घेगा उसे । यही दशा शराबक है । सौ दयको भावना भी ऐसे
ही िभ न-िभ न देश म पर पर िवरोधी है। अमुक भोग भला है, अमुक पदाथ सु ख
देने वाला है और अमुक भोग िनकृ है, अमुक पदाथ क देनेवाला है। अथवा
अमुक पदाथके अभावसे क हो रहा है, यह सब म है । आपक िच एवं ि थित
ही है जो पदाथ को सु ख या दुःख देनेवाला बनाये ह।
पदाथ म-से न कोई भला है, न कोई िनकृ । न कोई सु ख देने वाला है, न दुख
देनेवाला । पदाथ म सु ख-दुःखदेनेक शि है ही नह । मनु यक मा यता ही उ ह
सु खद या दुखद बनाती है। एक अरबपित अपने सदन म भी अभाव त रहता है
भोग क िवपुलता होते हए भी और एक कौपीन धारी िवपरीत प रि थितय म भी,
अपमािनत एवं तािड़त होनेपर भी उ फु ल रहता है । बात यह है िक आन द तो
दयके भीतर अ तयामी म है 'रसो वै सः’, दय थ भु ही रस प सु ख िस धु ह।
पदाथ म अ ान वश भले एवं िनकृ , सु खद एवं दुःखदको हम सबने क पना कर
ली है। हम म म पडे और इस मके कारण ही नाना कार के कम करते चले जाते
ह । यह म ही हमारे ब धनको ढ़से ढ़तर करता जाता है।
'िहत अनिहत म यम' अथात् िम -श -ु उदासीनका भाव तो बहत प ही म है।
मनु य वयं ही अपना श ु और वयं ही अपना िम है। िवषय म वृ इि याँ
तथा अस पथगामी मन ही मनु यका सबसे बड़ा श ु है। अनाचार-पाप होते ह
शारीराशि - ऐि यक िल सासे और यही लेश के कारण है। जहाँ तक दूसर का
स ब ध है, िकसीका भी जड़ शरीर िकसीका िम -श -ु आिद कु छ नह हो सकते ।
मुदा िकसीसे िम ता या श तु ा नह करता। जीव परमा माका अं श है। सू यक
िकरण म से एक िकरण दूसरे को िम या श ु है, इस बातका अथ या ?

'िनज भुमय देखिह जगत, के िह सन करिहं िवरोध ।'


-उ र० ११२।ख.
सब सं सार उसी आरा यका व प है जो हमारे ाण का ाण, जीवनका भी जीवन
है । वह न िकसीका श ु हो सकता है और न िकसीके ित उदासीन । उस अकारण
सु हद, अहैतकु कृ पालु क लौिकक िम से भी या तुलना । वह तो अपना आ मा
है। उसी म यह सब ा ड ि थत है। अतः वा तिवक ि तो यह है -
'म सेवक सचराचर प वािम भगव त।'
(िकि क० ३)
परमाथतः शरीर, जीव एवं यापकस ा िकसीको ि से कोई िकसीका िम या श ु
नह । िजसे आज हम श ु जानते ह, दूसरे ज मम वह हमारा भाई, पु आिद नह था
या नह होगा, इसका कु छ भी िन य नह । यावहा रक ि से सबको अपने
कम का फल भोगना ठहरा । उसम िम -श ु आिद भावका कु छ मू य ही नह । इस
कार यह िम -श -ु उदासीन भाव भी म है। इस मके फ दे म पड़कर हम
िकसीको िमन या वजन मानकर मोह त होते ह। उसके अनुकूल अनेक कम
करना चाहते ह। उसके सु ख के िलये लेश उठाते तथा अस य य न भी करते ह
और िकसीको श ु मानकर ेषके वश जलते रहते ह एवं अनथ करते ह। इसी कार
जो हमारे परम भुके सा ात् व प ह उ ह उदासीन मान कर हम उनक उपे ा
करते ह। 'िहत-अनिहत-म यम' का यह भाव इस कार हम मके फ दे म फं साये
हए है।
जब तक मनु यको ार ध, पुनज म, परलोकम ढ़ आ था न हो जाय, वह परमाथ-
पय म अ सर नह हो सकता। परलोक एक पुनज म का आधार है ार धवाद ।
ार धको वीकार कर लेने पर पारमािथक साधकका पथ श त हो जाता है।
पिहली अधालीमे ार धका व प एवं काय े िनदश करके दूसरी अधाली म
परमाथ त वका ार धक मा यम से सके त िकया गया। सं योग-िवयोग, सु ख-दुःख,
श िु म के द को यिद हम म समझ ल और इनसे तट थ हो जाये तो आगे क
बातको समझना बहत सरल हो जाता है। ानके सा ा के िलए आव यक है िक
िच लोकम राग- ेषक इन सीमाओंसे ऊपर उठे । इसिलये इन म का प ीकरण
िकया ील मण जी ने िक इनके व पको बुि समझ कर इनसे तट थ हो जाय ।
जनमु-मरनु जहं लिग जग जालू ।
स पित-िबपित करम अ कालू ॥
धरिन-धामु-धनु-पुर -प रवा ।
सरगु नरकु जहँ लिग यवहा ।
देिखअ सु िनअ गुिनअ मन माह ।
मोह मूल परमारयु नाह ॥ अयो० ६-८ not ok
ज मसे मृ यु तक िजतना भी सं सारका यह जाल (िव तार) है, उस म स पि एवं
िवपि (तथा उनके कारण) कम और काल, (उनके िनिम ) पृ वी, भवन, धन,
थान, प रवार (आिद लौिकक िव तार तथा) वग और नरक जहाँ तक भी
यवहार (जीवक कम त गित) है, जो (सं सार म य ) देखी जाती है (जो
शा से) सु नी जाती है सोचनेसे यह प होता है िक वह सब मोह मूलक है।
उसक परमाथत: स ा नह अथवा उससे जीवके पारमािथक क याणका कोई
स ब ध नह ।
'जनमु-मरनु जहँ लिग जगजालू ।'
ज मसे लेकर मृ यु तक ाणी सं सारम जो कु छ करता है, िजनके स पक म आता
है, जो स ब ध जोड़ता तोड़ता है, वह सब जगतका जाल है। वह सब उसे अपने म
ही उलझाये रखता है। उसी म राग- ेषके कारण वह नाना कारके य न म िल
होता है और ये य न-ये कम उसके सं िचतम बढ़ते रहते ह । ज म मरणका च
इसीसे चलता रहता है। यह सब मोह-मूल है। अ ानके कारण ही ाणी ‘यह मेरा,
यह पराया’ क भावना करके इस जाल म जकड़ा है। सभी अपने-अपने ार धका
भोग करते ह। कोई िकसीक सहायता या हािन कर नह सकता। सभी जीव पर पर
वत ह। उनम स ब धक क पना लौिकक है, मोहज य है।
स पि और िवपि -कभी सु ख और कभी दुःख, यही जगतका भोग प है। इससे
पिहली अघालीम जो 'भोग भल म दा' कहा गया है, उसीका यहाँ प ीकरण करते
ह। इस सं सार वृ के दो ही फल ह-सु ख या दुःख । कभी िकसीको ार ध अनुकूल
होने पर ऐ य ा होता है और कभी ार ध ितकू ल होनेपर नाना कार क
िवपि यां आती ह। जैसे इनम एक (दुःख) ार ध वश आता है, वैसे ही सु ख भी
ार ध वश ही आता है। सु ख और दुःख-स पि तथा िवपि इन दोन क सीमा
शरीर तक ही है। मोहवश ही ाणी इन म अपने को सु खी या दुःखी मान लेता है,
और िफर िवपि को दूर करने तथा स पि को पाने या सु रि त रखनेके नाना
य न म लगता है। यिद वह जान ले िक ये ार धपर िनभर ह तो कम के जाल म न
पड़े, िक तु ये स पि :िवपि मोह मूलक जग-जाल ह। मोहवश ाणी इस जालम
उलझा है।
'करमु अ कालू ' स पि या िवपि के दो ही हेतु सोचे जाते ह- कम और काल ।
हमारे उ ोगम, यह िु ट रही, इसिलये िवपि आयी या अमुक -अमुकने चे ा करके
हम इस ि थितम डाला हमारे या हमारे शुभ िच तक के अमुक उ ोग से यह
स पित-मुख, सफलता हम ा हई, एक कारका यह भाव होता है। दूसरा कारण
कालको हम मानते है- समय अनुकूल या, प रि थितने हम लाभ उठाने का अवसर
िदया अथवा समय ितकू ल था, प रि थितय ने हमारे सम त उ ोग को असफल
कर िदया। इस कार कम तथा काल, उ ोग एवं प रि थित भी जगतका जाल ही
है। प रि थित से हम लाभ या हािन उठाते ह तथा हमारा वतमान म हमारी स पि
या िवपि का हेतु ह, यह भाव मोहमूलक है। मोह अ ानके कारण ही हमारी यह
मा यता होती है और यह मा यता िफर हम जग-जाल म डालती है। हम मोहवश
नाना कारके शुभ या अशुभ कम करते ह।

कमका अथ ार ध तथा कालका अथ कम फल िनय ता-शि या यु गधम


आिदको क सं चािलका शि भी िलया जा सकता है। वैसे मुझे लगता है िक वह
पूरी ल मण-गीता ार धको धान भूिमका मानकर चली है और इससे यहाँ
कमका अथ सामा य कम-जीवका उ ोग तथा कालका अथ प रि थित ही लेना
सीधी बात होगा, पर कमका अथ भा य तथा कालका अथ यु गािदिनयामक-शि
भी ले तो अथ म कोई बहत अ तर नह आवेगा। ार ध जीवके ही पूवकृ तकम का
फल है और काल तो के वल कमका िनयामक-फलदाता है। अतएव यह ार ध ही
कराता है. यह कालने कर िदया, आिद भाव मोह मूलक जगजाल ह। इन भाव म
मसे-मोहसे ाणी पड़ता है और िफर कम कत य से परमुख होता है। स पि का
हेतु हम अपने उ ोगको माने या ार धको, प रि थितको को माने या काल (यु ग
िनय ता शि ) को; िक तु ह ये जगतके जाल । मोहवश ही हम इनम राग-देष करते
ह। ये जगत के सु ख-दुःख बाँधते ह जीवको। इनसे मनको तट थ कर लेने म ही
ाणीका क याण है।
धरिन-धामु-धनु-पुर -प रवा
सरगु नरकु जहँ लिग यवहा ॥
काल-कम े रत स पि और िवपि का लौिकक प पृ वी पर,िनवास तथा प रवार
के पम तथा वग या नरक ाि प मरणोतर होता है। इस सं सार म , स पित है,
भूिमक ाि , उनम उ म भवन, ऐ य अपनी मातृभिू मम यश वी होकर ि थित
तथा सुखी समृ - अनुकूल प रवार और िवपि है भूिम न होना, घर न रहना,
धनका अभाव, ज म थान म दूर-दूर भटकनेको िववश होना तथा प रवारके लेश
उलेश, झगड़े आिद सं सारम हमारा यवहार इ ह सबको लेकर चलता है । मृ यु के
प ात् जीव या तो वग उ म लोको को जायेगा या नरक-यातना थान को।
सं सारम हम जो यवहार करते ह, उनका मरणो र यहाँ तक ही स ब ध है और इस
मरणोतर-गितके िलये भी सं सार म ाणी यवहार करता है। हमारी अधोगित न हो
और हम उ म गित ा हो, इसके िलये भी हमारे बहतसे यवहार चलते ह।
यवहार चाहे सं सा रक स पि क ाि या र ा अथवा िवपित के िनवारण के िलए
हो या मर गई प ात् िवपि िनवारण और स पि । ( वगािद) ाि के िलए;
यवहार जहां तक भी है. सब जगत का जाल ही । सभी जीवको उलझाता है कमके
ारा कम सं कारोम और उससे ज म-मरणका च चलता रहता है। जैसे लौिकक
सु ख -स पि -धरणी, धाम, धन, पुर, प रवारका ऐ य या इनके स ब धको िवपि
अ पकाल थायी है, मोहवश इनम जीव आस होता है,वैसे ही वगक चाह या
नरकका क भी अ पकािलक है । इनम भी राग- ेष मोहवश ही होता है। नह तो-
सरगु नरकु अपवरगु' समाना।
जहँ तहँ देख धर धनु बाना ।।"
(अयो० १३०/७)
ीम ागदतम भगवा ने उ व जी को बताया है
'न नरः वगित कां ेनु नारक वा िवच णः।' भाः ११/२०/१३ ok

शुभकम करके ाणी वग जाता है, यह तो ठीक ही है और यह भी ठीक है िक


अशुभ कम से नरकक ाि होती है। इसिलये अशुभ कम न करना और शुभ कम
करना ही सबका कत य तथा सबके िलये क याणकारी है। लेिकन जैस,े लौिकक
सु ख या लौिकक दुख कु छ कालम चला जाता है, वैसे ही पु यभोगके प ात् वगसे
भी ाणी िगरता है और पाप भोगके प ात् नरकसे भी छु टकारा पाकर इस लोक म
आ जाता है। अतएव मुझे वग िमले, यह भाव मोह-अ ानज य ही है। यह भी जीव
को कम के जग-जाल म उलझाता है। इस वग-नरकके भी मोहमूलक जग-जाल से
मनको तट थ करके ज म-मरणके च से छु टकारा पाने के िलये भगवत्-शरण
हण करना ही उ म है।
इस कार कम और काल े रत 'धरिन-धामु-धनु-पुर -प रवा ' स ब धी िजतना भी
यवहार सं सार म देखा जाता है और 'सरगु नरकु जहँ लागे' पारलौिकक यवहार
शा एवं स पु ष से सु ना जाता है, यिद (गिनअ) सोचा जाय-उसके िवषय म
ठीक िवचार िकया जाय तो िवचार करनेपर यह य हो जायगा िक यह सब
लौिकक एवं वग नरकािद स ब धी पारलौिकक यवहार मोह-मूल है। इि य तथा
इि य के िवषय म मोह होने से ही इन यवहार म जीवक वृि होती है और इस
वृि के कारण वह आवागमन प इस जग जाल म बराबर उलझा रहता है।
'परमारथ नाह ’ इनम- से िकसीके ारा जीयका पारमािथ क याण नह हो सकता।
परम-अथ अित आ यि तक आन द, शा त सु ख तथा दुख क सदाके िलए
िनवृि इन म से कह नह , िकसी म भी नह है। इनम से कह िकसीम लगे रहने पर
भी 'परमारथ नाह ’ जीवका पारमािथक क याण नह होता। इन सब लौिकक-
पारलौिकक भोग क पारमािथक स ा भी नह है। ये तो मोह मूल ह। मोह है तभी ये
ह। यिद इि य तथा उनके िवषय म मोह न हो तो ये तीत ही न ह गे। इनक िन य
स ा नह है। ये सब न र ह।
"परमारथ नाह " कह कर यह भी कहा गया िक ज म-मृ युसे लेकर सं सारके ज म-
मृ यु के म यकालके कम एवं कालपर अवलि बत समपि या िवपि से यु
‘धरिन-धामु-धनु-पुर -प रवा ' तथा मृ यु से दूसरे ज म पय त कम एवं काल े रत
स पि या िवपि यु 'सरगु नरकु ' आिद जहाँ तक भी यवहार है, वह सब
'परमाथ नाह ' अथात् उनम से िकमी को परमाथ-व तु प-स यस ा नह है। ये सब
यवहार मोह मूल अ ान सं कार पर पराज य भाव प स ा वाले ह और जगजाल
ह । इनक परमाथ स ा न होने पर भी जब तक मोह-इि य एवं उनके िवषय म
आसि है, तब तक इनक भाव प स ा रहेगी और जग-जाल होने के कारण ये
अपने म जीवको उलझाये-आब िकये रहगे।
मोह सकल यािध ह कर मूला।
ित ह ते पुिन उपजिह बह सू ला ॥
(उ र. १२०/२९)
इस सं सार पी महा यािधक जड़ मोह ही है। दूसरे सम त लेश उसी से उ प न
होते ह। अतएव परमाथ के साधकको मोहका ही मूलो छे द करना चािहए। इस
चौपाईम मोहका िव तार बताकर अब आगे मोह के व पको और प करगे।

सपने होइ िभखा र नृपु, रं कु नाकपित होइ।


जाग लाभु न हािन कछु ितिम पं च िजयँ जोइ ।।
( अयो०९२)
.
(जैस)े व न म राजा (अपनेको) िभखारी हआ देखता है (और) िभखारी (अपने
को) इ हआ देखता है, पर जग जानेपर न तो (राजाको) कोई हािन है और न
(िभखारी को) कोई लाभ, वैसे ही (इस जगत प) पं च को दय म देखनेपर
(िवचार करनेपर) है ।
व न म हम या देखते ह, या देखगे, इसका न तो कोई ठीक िठकाना है और न
कोई अथ ही है। एक िन क टक रा यका सव च अिधकारी जो यश-ऐ य स प न
है, व न म अपनेको देखता है िक उसक पद ित ा सब न हो गयी है । उसके
पास न रहनेको थान है, न भोजन को अ न और न पिहनने को व । उसका कोई
वजन सहायक नह । नं गा, भूखा, असहाय बह गली-गली, ाम- ाम भटकता
िभ ा मां ग रहा है। एक टु कड़े रोटी के िलये लालाियत है। उस समय उसे जो लेश
है, जो पीड़ा है, उसका आप अनुमान कर सकते ह। व न टू टता है और वह जागता
है। अपने सु दर भवनम अपनी उ म श यापर वह पड़ा है। उसका ऐ य वैभव
य का य है। िन ा टू टनेके साथ उसका सम त लेश समा हो जाता है। व न म
िभ ु क हो जानेसे उसक एक पाई क हािन भी नह हई। इसी कार िवचार करनेपर
इस जगतक सब िवपि है । वह िवपि चाहे लौिकक- धरिन-धामु-धनु-पुर -
प रवा 'के स ब धक हो या मरणो र नरकािद लेशमय गित पम हो। दोन ही
पम वह व न-िवपि है। उसक भाव प ातीितक स ा है। जा त होनेपर
उससे कोई हािन नह हई यह प हो जायगा । य िक आन द प चेतन जीवा मा
जो िन य भु-परमा मा का सखा है-' ा सु पणा सयु जा सखायौ' िजसे िु त कहती है,
उस नारायणके सखा नरक कोई हािन यह माियक पं च कर नह सकता।
जो बात िवपि क है, वही स पि क भी है। एक िभ ु क है। दाने-दानेको भटकता
रहता है। कभी पेट नह भर पाता उसका । ठीक िचथड़े भी उसके शरीर पर नह ।
लेिकन िन ा तो उसे भी आती ही है। कह माग के िकनारे धूिल भरे थानपर वह
िबना िकसी िवछौनेके भूिमपर पड़ रहता है और राि यतीत कर देता है । ु धासे
पीिड़त, िदन भर िभ ा मां गने से थका एक िदन जब वह सो जाता है तो व न म
देखता है िक वह देवराज इ हो गया है। मि लकाके मादक परागके आ तरण पर
अमरावतीको सु धमा सभाम वह आसीन है। र न क िद य जोित वहाँ अ धकारका
वेश नह करने देती। पाटल दल के सु कुमार पा म सु धा, स हाले सु र सु द रयाँ
उसक सेवाम तुत है। ग धव एवं िक नर का यू थ अपने सं गीत एवं वा से उसे
स न करने के य न म है । अ सराओं के मृदुल चरण उसक स नता ा करने
के िलये िथरकते हए थके जा रहे ह। मुिनजन उसक तुित कर रहे ह। बड़े -बड़े
लोकपाल भी उसके स मुख हाथ जोड़े खड़े ह और इस भयसे मनम भी कु छ नह
सोचते िक कह उनके सं क प का कोलाहल देवािधपितको ु ध न कर दे । स पूण
घरा उसक कृ पा चाहती है। य के ारा उसका यजन करते ह तप वी ा ण ।
उसके ऐ य भोग, यश, गौरवक कोई इय ा नह है। पृ वी के िनवासी चे ा करके
भी इतने ऐ य, माधुय एवं गौरवक िवपुलता सोच नह सकते। यह सब देखते हए
उस िभ ु कको िजतना सु ख होता है, आप उसे अनुमान नह कर सकते । लेिकन
उसक भी िन ा टू टती है और वह टू टनी ही ठहरी। हाय, उससे उठा तक नह जाता।
भूख से याकु ल हो रहा है वह । शरीरपर िचथड़े तक नह । टीनका फू टा िपचका
कु प कटोरा पास पड़ा है। भूिम म लु ढ़का-सा वह िभखारी-अभी- अभी वह
देवराज इ था- अमरावतीका अघी र, िक तु व न के उस से या िमला उमे?
इससे तो अ छा था िक उसे रोटीका कोई चौथाई या आठवाँ टु कड़ा भी िमल गया
होता । ‘धरिन-धामु-धनु-पुर -प रवा ' से स बि धत इस सं सारक स पि और
मरनेपर िमलनेवाला वह वग; यह सब स पि उस िभखारीके व न क भां ित ही
िवचार करनेपर पं च तीत होती ह।
देश, काल और प रणामक बात ही ाि त है। व नम हम बहत िव तृतदेश, नगर,
ामािद देखते ह। जागृत होनेपर कोई हमसे पूछे िक व नके उस देश, नगर आिदक
ि थित कहाँ है? तो हम सु ईक एक नोक िजतनी भूिम भी नह बता सकते। इसी
कार जब िक हम कु छ ण व न देखते ह, व न म हम अनेक वष क
घटनाओंका अनुभव करते ह । हम लगता है िक वषके वष सु ख या दुःख भोगते
बीत रहे ह । व न क व तुओ ं क ल बाई-चौड़ाईको या जगने पर कोई थान है?
अथवा व न म आपपर दस मनका भार पड़ा तो जगने पर आप उसे दस र ी भी
कह बता सकते ह? जैसे व न का वह नगर , ाम से पूण बड़ा भारी देश सचमुच
कह नह है वैसे ही हमारे इस जागृत के देश िजसम पृ वी, सू य, तारे आिद सब ह,
इसक भी कोई ि थित नह है। हम जब पूछते ह िक भगवा का िद य धाम कहाँ है
तो शा के अनुसार कहना पड़ता है िक वह सव है । लेिकन हमारा ही
िविच है। व न देखता हआ व नके देश को सच मान कर कोई इस जगतके
िवषयम पूछे तो या उ र हो सकता है? इस जगत म जगनेपर तो व नके उस बड़े
िव तार वाले सं सारको ि थित बतानेको सु ई क नोक रखने िजतना भी थान नह ।
य िक व नक कोई व तु प स ा ही नह । वह तो भाव प है । इसी कार
हमारे जगतक भी भाव प स ा है, व तु प स ा नह है। अतएव वा तिवक
जगत भगवदधामम इस के िलए कोई कहाँ थान बतादे ? यहाँसे कोई या बताये
िक वह िन य धाम िकधर कहाँ है? जैसे देश क दशा है, वैसे ही काल और
प रमाणक भी है। जगते समय हम जान पड़ता है िक हमने व न िकतने क् षण देख;े
िक तु व न देखते समय तो वष , यु ग बीतते जान पड़े थे। इसी कारके हमारे ये
िदन, स ाह, मास, वष, यु ग, तथा असं य ज म ह। िन य जगत के कु छ णम ही
यह कोिट-कोिट यु ग का पं च चल रहा है। सृि - लयके मवाले इस अन त काल
और इस काल म भोगे जानेवाले सु ख-दुख, वग-नरक, हम िकतने बड़े तीत हए,
इसका कोई भी मह व नह । यह है वा तिवक ि से कु छ णका ही खेल।
जगतके सु ख-दुख, हािन-लाभ, ज म-मृ यु वग-नरक तथा यहाँका िव तार, यु ग-
यु ग यापी समय-यह सब पं च है। व न के समान तीित है। इसको पारमािथक
स ा नह है। लेिकन इसका यह भी अथ नह िक जगत नह है, िम या है । व न न
होता, यिद जागृित न हो । व नम ऐसी कोई व तु हम देख नह सकते िजसका
स पूण प या िजसके पके सब अं श हमने जागृत दशाम एक या िभ न-िभ न
पसे देखे या सु ने न हो । व नको भाव प स ा है और भाव िकसी व तु स ा-
स यके आधारपर ही होता है। इसी कार व नसे जागकर इस जगतम आये िबना
व न म ही यह भाव उठे िक व न िम या है तो इससे व नके सु ख-दुख िमट नह
जायगे। हमारे इस जगतक भी भाव प स ा है और वह इसिलये है िक भगवा के
िन य धाम व तु प-स य ह। उन िद य धाम के कारण ही यह भाव है। जो वहाँ
िकसी प म नह , उसक भावारमक तीित जगतम हो नह सकती। जगतके काल
िव तार एवं सु ख-दुख वग-नरकसे छु टकारा इस जगतम रह कर इसे िम या कहनेसे
नह हो सकता । इसके िलये तो इस व न जगतसे उस िन य जगतम जागना होगा।
यहां तक जगत और उसके भोग व नके समान भाव प ह इनक व तु प स ा
नह है, यह िवचार करनेक ेरणा दी ल मणजी ने। इस व नसे जागरणका साधन
तो अ तम कहता है उ ह ।
अस िबचा र निहं क िजये रोस् ।
काहिह बािद न देइस दोसू ॥
(अयो० ९२/१)
ऐसा िवचार करके रोष मत करो और िकसीको यथ दोष भी मत दो।
यह अधाली िनषादराजके िलये यि गत पसे कही गयी है। िनपादराजको
'सीयराम मिह सयन िनहारा’ भारी िवषाद हआ था और 'कै कयी-ना दानम द मित'
आिद कहकर उ ह ने माता कै कयीको िध कारा भी था । यह अघाली एक बात
और बतलाती है िक िनषादपितके मनम रोष भी था। वह रोष उ ह ने अभी तक
गट नह िकया था, िक तु ल मणजीने मुख -मु ा आिदसे समझ िलया था िक
िनषादराज गुहके मनम रोष है । इसीिलये 'अस िवचार नह क िजये रोसू ।' वे कह
रहे ह। रोष िकसके ऊपर है और िकस सीमा तक है, यह इसिलये ं थ
नह गट हआ िक िनषादपितने उसे कट िकया ही नह । रोष मन म था और
ल मणजीके समझानेपर शा त भी हो गया। िनषादपित गुह भगवान् ीरामके
आखेट-सखा है बचपन के । दूसरे पुराणािदसे यह िसद्ध है िक जब ीरामच
आखेटके िलये जाते थे तो िनषादराज गुह अव य उनके साथ जाते थे और
आखेटके ब धक वही यव था भी करते थे। आखेट मै ी बड़ी गाढ़ मै ी होती
है, यह बात िजनका िकसी कार का भी स ब ध आखेट से रहा हो, वे जानते ह ।
िनषादराजके वे परम ि य सखा ीराम िजनको अयो याका यु वराज होना चािहये,
यु वराजपद िजनका व व है, अपनी िव -िव तु ा प नी थीजनकराज तनया के साथ
अयो यासे िनवािसत होकर आज शृंगवेरपुर आये ह, और भूिमपर शयन कर रहे ह,
यह ि थित गुहके िलये िकतनी यथा देनेवाली है, कोई स दय ही अनुमान कर
सकते ह । िनषादराज गृह िकतने शूर; िकतने मन वी, िकतने शि मान एवं
ओज वी है, यह उस समय कट हो गया है, जब ीभरत लालको चतुरं िगणी
सेनाके साथ िच कू टक ओर जाते देख गुहको म हआ िक इस सै य-या ाम कोई
दुरिभसि ध है और उ ह ने अपने सैिनक को आदेश िदया -
होह सँजोइल रोकह घाटा।
ठाटह सकल मरै के ठाटा।।
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ।
िजअत न सु रस र उतरन देऊँ।।
(अयो० १८९०१-२)

िनषाद-जाित कभी कापु ष नह रही । वह उ व िनमम शूर क जाित है, िजसे


मारना और मरना दोन आता है। आज इस गये-बीते समय म भी इस जाितक
एकता इसका सं गठन और क अपे ा बहत कु छ सु ढ़ है । िनषादराज गुह उन
माना शूर के अिधपित थे, िजनके िलये मृ यु और लेश िन यके साधारण खेल ये
अपने वीर क शूरता एवं उनके ऐ य तथा वािमभि पर गुहका ढ़ िव ास था
और यही कारण था िक अयो याके च वत सा ा यको सेनासे 'स मुख लोहा ।'
लेनेका िवचार करने म उ ह एक ण भी सोचना नह पड़ा । ऐसे शि स प न,
ओज व िनषादपितके मनम अपने परमि य सखा ीरामच को इस वेश म देखकर
उनके िवप पर रोष न हो, यह स भव ही नह था। ल मणजीने देख िलया िक गुह
ह और इनका रोष िकसी भी प म य हो सकता है। अतएव उस रोषको
िकसी भी अनथकारी पम कट होनेसे पिहले ही रोक देना उिचत था।
िनषादराज गुहके मन म रोष था और या भारी िवषाद । ऐसी अव थाम मनु यका
िच इस यो य नह होता िक िकसी अपूव ानको हण कर सके । उस अव था म
तो जो सामा य मा यता उस यि क है, उस मा यताओं को ही अपना कर उसे
समझाया जाना स भव होता है। इसिलये ल मणजी भी अब तक ार धवादक
सव सामा य माय ताको ही मुखता देकर िनषादराजको समझा रहे ह। अभी वे इस
बात पर आये ही नह िक ीराम कमाधीन नह ह और उनका यह वनवास आिद
ार ध परत नह है। रोष एवं िवषादके आिध यके कारण गुहके िच म अभी
थैय नह । अभी वे ीरामके स ब ध म िवचार करते हए उनके इस बनवासम हेतु
भूत लोग के अपराधपर ही अिधक िवचार कर रहे ह और इसीसे उनके िच म रोष
है। यह रोष दूर हो जाय तो अपराध िकसका है, यह सोचना छोड़ कर वे ीरामका
िच तन करने लं गगे और ीरामका िच तन तो चाहे, िजस भावसे िकया जाय, सदा
सव , अ तः कालु य को न करने वाला है। ील मणलालजी इस अधाली से
पूव तक ार धक मुखता बता कर सं सारके लोग क िन सारता, आिदक बात
करके यही य न कर रहे ह िक िनषादराज अपराध एवं अपराधी-दोष एवं दोषीक
बात सोचना छोड़ द और अपने िच को ीरामम लगाव। िच को यह ि थरता होने
पर ही ीरामके वा तिवक पका उपदेश िकया जा सकता है और ि थर िच ही
उसे हण भी कर सकता है।
इस अधाली म यह बात प पसे कह दी गयी, िजसे मूलम रखकर ील मणजी
अब तक उपदेश कर रहे थे। वे कह रहे है िक- 'अस िवचा र नह क िजये रोसू ।
इसम 'अस िवचा र' से ता पय अब तक कहे गये ार धवाद एवं त व ानके
उपदेशके िवचारसे है। कोई िकसीको सु ख-दुख देनेवाला नह है। सब अपने ही
कम का फल भोगते है। सं योग-िवयोग, श -ु िम -उदासीनक भावनाएँ ाणीको
उलझानेवाली म जाल ह । ज मसे मरण तकका सब यवहार िजसम काल एवं
कम े रत स पि (सु ख) या िवपि प 'धरिन-धामु-घन-पुरप रवा ' तथा 'सरग-
नरक' आिद जगजाल है, वे सब चाहे वे सं सार म देखे जाते ह या सु ने जाते ह
शा ारा, पर ह सबके सब मोह-मूल । वे परमाथ के साधक नह ह। उनक
पारमािथक स ा नह है । जैसे वप्न म कोई राजा अपने को िभ ु क हआ देखे तो
जगनेपर उसक कोई हािन नह हई होती और व न म कोई िभखारी अपनेको
देवराज इ हआ देखे तो जगनेपर उसे कु छ लाभ नह ा होता, वैसे ही िवचार
करनेपर जगतका सब पं च तीत होता है। ऐसा िवचार करके िकसीपर रोष मत
करो य िक जब सबको अपने ही कमका फल भोगना है तो इस ीरामके
वनवासके िलये दूसरे का या दोष । तुम भी जानते हो िक ीराम इस मफं दसे परे
ह । अतएव उनके िलये सं योग-िवयोग, सु ख-दु:ख, रा य-वन सब समान ह। उनका
न कोई श ु है, न िम और न उदासीन ही, उनके िलये ' धरिन -धाम-धनपुर
प रवा ' का कोई अथ नह । जब जगतका रा य एवं वहां क कं गालाव था दोन
व नके योगके समान ही ह तो उनम िकसीको िनिम मान कर उसपर रोष करना
कहाँ उिचत हो सकता है। अतएव ीरामके वनवासका हेतु िकसीको मानकर उसपर
रोष मत करो।'
'अस िवचा र काहिह बािद न देइअ दोसू ।' भी इसके साथ कहा गया है के वल रोष
ही छोड़ दो, इतना ही पया नह है। िकसीने अपराध िकया है, िकसीका दोष है, यह
बात भी इन उपरो बात को िवचार करके मनसे िनकाल दो। य िक दोष देना
‘बािद’ यथ अकारण है। जगतका रा य जैसे व न है, वैसे ही उस रा यसे वनवास
भी व न ही है । ऐसे व न क -सी घटनाम जो िनिम तीत होते ह, उनक तीित
भी म है। ार धका िवचार कर, तो भी िकसी के सु ख दु:खका कारण उसीके कम
ह, दूसरे नह दूसरे तो िनिम ह और इस िनिम होने म उनका कोई अपराध, कोई
दोष नह । िफर जब सु ख दुःख, स पि -िवपि ही व न भोग समान है तो या
िनिम और या दोष । अतः िकसीका दोष है, इस यथ भावको भी मनसे दूर कर
दो। इस कार यह अधाली िनषादराजको िच ि थर करने के िलये प पसे
कही गयी है।
मोह िनसाँ सबु सोविनहारा।
देिखअ सपन अनेक कारा।।
(अयो०९२।२)
(जगतके ) सब (लोग) मोह पी राि म सोनेवाले ह। (सोते हए यह पं च प)
अनेक कार का व न वे देख रहे ह।
अब तक ील मणजीने जो कु छ कहा है, उस सबके िवषय म के वल बहमतका
तक ही िवरोध म आता है। स पि -िवपि को ही धान मान कर जगतके छोटे बड़े,
पि डत, मूख सबक चे ा है। 'धरिन धाम-धन-पुर प रवा ' क काल कम े रत
स पि -िवपि तथा वग-नकको छोड़ द तो सं सारका यवहार रह ही नह जाता।
सभी लोग तो इसी प रिधम यवहार कर रहे ह और ल मणलाल कहते ह िक "जहं
लिग यवहा ' वह सब 'मोह मूल परमारथ नाह ’ तो यह सब ठीक कै से ह ? या
सभी लोग मोह- त ह? इसी शं का का उ र इस अधाली म है। इसम मोहके प
तथा उसक यापकताको प िकया गया है।
'सब सोविन हारा' एक-दो, दस-बीस, सौ-सह नह , ायः जगतके सब ाणी सो
रहे ह । वे जागृत नह ह, के वल जागृतसे तीत मा होते ह। सोते ह 'मोह िनसा' म।
राि म जब अ धकार काशको आ छ न कर लेता है तो ािणय के भीतर तमोगुण
धान होकर उनके स व एवं रजोगुणको दबा लेता है। इस कार समि म
तमोगुणको धानतासे राि होती है और यि म- यि म तमोगुण क धानतासे
उसे िन ा आती है। यि यिद य न कर, साधन- यान करे या कोई अ य काय
कर और इस कार अपने म स वगुण या रजोगुणको धान बनाये रहे तो वह राि
भर जागरण कर सकता है । वह िन ाको नह आने दे सकता।
अिधक य न करके वह कु छ ऐसे लोग को भी जगाये रह सकता है, जो उसके
समीप एवं उसके अनुकूल ह । लेिकन कोई यि िकतना भी य न कर, वह यह
नह कर सकता िक िव म राि न हो। राि के थानपर िदन बना रहे। वह यह भी
नह कर सकता िक सं सार के सभी ाणी को एक रात जगाये रखे । पूरे “सं सारको
तो या, एक नगरको भी एक रात जगाये रखना बहत किठन है। िन ा यि के
अिधकारक , यि को व तु है और य न करके यि उसे दूर कर सकता है।
बहत य न- बल साधना करके वह िन ाजयी भी हो सकता है, िक तु राि का
होना समि क व तु है। यि का उसपर अिधकार नह । राि तो अपने समयपर
होगी ही। इस अधालीके ममको समझने के िलए ये बात यान म रखनेक
ह।
'गो गोचर जहँ लिग मन जाई।
सो सब माया जानेह भाई ॥'
(अर०१४।३)
'जो कु छ इि य से तीत होता है या जहाँ तक मन सोच सकता है, वह सब माया
है। यह बात आगे भगवान् ीराम ल मणजीसे बतावगे । स पूण जगत माियक
पं च है। मायासे ही इसक तीित है। इसक भाव प स ा का कारण माया है।
लेिकन यह माया जीवक माया नह है। एक जीव चाहे िजतना य न कर, सं सारम
लय नह होगा। सम त जीव को तीत होनेवाला यह जगत लु नह हो जायगा।
यह तो 'मोह िनसा'-मोहक राि है। राि तो िकसीके दूर होने से रही। यह मोह िक
सं सारम नाना प, नाना यि , नाना घटनाएँ ह और होती ह, बना ही रहेगा। जो
ानी है, जो जागा हआ है, उसे भी मनु य मनु य ही तीत होगा और बृ ही
लगेगा। वह रोटीके धोखे म प थरक च ान नह चबाने लग सकता। राि राि है,
यह बात तो सोने जागनेवाले सबके िलये एक-सी है। वैसे ही िविभ न प एवं
घटनाओंसे पूण संसार है, यह तो सबको तीत होता रहेगा। य िक यह भेद प
तीित, यह सृि -िव तार जीवक सृि नह है। यह तो समि कताक व तु है । यह
'मोह िनसा' तो सृि क कारण भूता अिव ा है। भगवान क योग मायाका ही एक
छाया मक प है यह ।
'मोह िनसा' तो होती है और है। लेिकन इस मोह िनशा सोविन हारा' सबके सब
ाणी सो रहे ह। सभीके भीतर मोहक बलता हो गयी है और सब मोह त होकर
इस 'मोह मूल ' जगत जालम यवहार कर रहे ह।
'म अ मोर तोर ते माया।
जेिह बस क हे जीव िनकाया ।।
(अरo १४/२)
'यह म हँ, यह मेरा है । यह तू है, यह तेरा है।' यह भाव ही जीव को मोह त
करनेवाली माया-अिव ा है। यही भाव जीवक िन ा है, िजसने ायः सभी
जीव को अपने वश म कर रखा है। इसी मोह के वश 'सब सोविन हारा' हो. गये ह।
पदाथ है, उनका िवभेद है । घटनाए होती ह । प रि थितयां बदलती ह। लेिकन उन
पदाथ म यह मेरा यह दूसरे का भाव होनेके कारण िफर घटनाओं एवं प रि तिथय म
स पि -िवपि बुि होती है । इस म और मेरा भावके कारण ही ‘जहँ लिग
यवहा ' है, उससे सब लोग सं स ह। यही जीवक िन ा। इस कार जगतके
नाना व पं च प मोह िनसाम जो िक समि क सृि है, म और मेरा आिदके
वपर भाव प मोहिन ाम म न होय ायः सब लोग सो रहे ह । सबक िवचार
शि उपहत हो रही है। कोई भी नह सोच पाता िक वह जो य न कर रहा है,
उसका अि तम उ े य या है और वह उ े य इस य नसे िस भी होगा या नह ।
‘देखिह सपन अनेक कारा’।
वैसे जीव क ािणय क इन मोह त नाना कारक चे ाओ का भी कोई अथ
नह है । ये चे ाएँ तो व नक ि याएँ ह। ये ाणी व तुत : कु छ कर नह रहे ह। ये
तो के वल व न देख रहे ह । उनके व न माना कारके ह। कोई व न सु ख देता है,
कोई दुख । कभी वे अपनेको वैभव स प न देखते ह और कभी द र , कभी वग म
देखते ह और कभी नरक म, कभी व थ देखते ह, कभी रोगी। उनका यह सब
देखना और कहना व न ही है।
हम-आप जानते ह िक व न देखनेवाले का व न उस व न ा, या वहाँक
प रि थित म कोई प रवतन नह कर सकता। वैसे राि म जागनेवाले भी उस समय
कोई चे ा करना पस द नह करते; िक िक तु वे कु छ करना चाह तो सोते आदिमय
के व ािदम उलट-फे र कर सकते है। पदाथ को थाना त रत कर सकते ह। यही
बात जगतके िवषयम है। व न देखनेवाले इन िन ा त जीव के य न
सृि कताक सृि एवम् उनके िवधान म कोई प रवतन कर नह पाते; िक तु कोई
बु महापु ष अपने सं क पसे जगतक घटनाओं एवं सामा य जीव के सु ख- दुख
आिद ार ध िवधान म बहत कु छ उलट-पुलट कर सकता है। वैसे इस कारके
य न क इ छा सहज ही ऐसे महापु ष म होती नह है।
इस कार यहां तक जगतके मोह प तथा सम त ािणय के मोह त पका
वणन हआ । जगतक सभी चे ाएँ व न चे ाएँ ह, यह ल मणजीने बताया । अब
आगे इस िन ासे जागरणक बात कही जायगी।
एिहं जग जािमिन जागिहं जोगी।
परमारथी पं च िबयोगी।।
(अयो० ९२/३)
इस जगत प राि म परमाथ-रत तथा पं चसे िवर योगीगण जाग रहे ह। 'जग
जािमिन' अथात् सं सार पी राि , इससे पिहले कहा गया 'मोहिनसा' अथात् मोह
पी राि और अब कह रहे ह 'जग-जािमिन' लेिकन पिहले ही जगतको मोह मूल
कह चुके ह 'जग जाला' भी कहा गया है और वहाँ जालका अथ उलझानेवाला तो
है ही, साथ ही माियक भी है। इससे पूवक अधालीक या याम हम बता आये ह
िक जगतका यह नाना व प, इसके पदार्थ, इसको घटनाएँ 'मोह िनसा' होनेपर भी
यि का मोह नह है। यह तो समि कताका सृजन है। इसी बातको यह अघाली
'जग-जािमिन’ कह कर अिधक प कर देती है। 'मोह िनसा' म जो िनशा है वह
या है? इस का उ र 'जग-जािमिन' म है । वह सम त जगत ही िनशा है। यही
मोह प है; य िक यह 'मोह मूल है।
इस मोह पी जगत-राि म के वल योगी ही जागते ह। नह तो 'मोह-िनसा' 'सब
सोविन-हारा' ही ह। योगीका अथ दोन ही हो सकता है, एक तो परमत वसे यु
हए-भगव ा हए लोग और दूसरे वे लोग जो उसे पानेके य नम स चाईसे लगे
ह। अधाली के उ राध म इसीसे उस योगीका ल ण बता िदया गया । योगी कौन
है? कै से जाना जाय? कब कोई योगी कहला सकता है? इनका उ र है-'परमारथी
पं च िवयोगी।'
परमाथ -परमाथको ा या परमाथको ा करने के य नम लगा हआ। लेिकन
ऐसा अर्थ करनेपर तो पुन ि दोष होगा; य िक तब योगीका ही यह परमाथ भी
पयायवाची होगा। योगी कहने के प ात् परमाथ कहने क िफर या आव यकता
थी? अत: परमाथ का अथ है िक चाहे वह परमत वको ा हो या ा करने के
य नम लगा हो, पर अब परमत व ही उसका एक मा ा य रह गया हो। उसके
िलए एक मा येय, ा य, आकषण परमाथ म ही रहा हो और उसके मन 'वाणी,
शरीरक सम त वृि के वल परमाथ के िलए ही हो।
" पं च-िवयोगी' कहकर 'परमारथी' के उपरो ता पय को पूणत: प कर िदया
गया है। पं च प सं सारम उसका कह कोई योग, कह कोई आसि , कह कोई
वाथ-मूलक वृि न रह गयी हो । एक सामा य ि थित यह होती है िक साधक
स चे दयसे चाहता है, पूरा म करता है िक तु इतना होनेपर भी सफल नह हो
पाता मन तथा इि य को पूणतः िवषय से पृथक करने म ये बार-बार उसे िवषय क
और ले जाते ह मन बार -बार सं सारके लोग , पदाथ या घटनाओं का सकारण या
अकारण िच तन करने लगता है। ऐसा साधक योग अथवा परमाथ के िलए
य नशील नह है, यह तो नह कहा जा सकता, िक तु जैसे पुराने शराबी या पुराने
अफ मचीका अ यास बहत चे ा करनेपर भी अनेक बार उसे िववश कर देता है,
वैसे ही पूवज म के दीघकालीन सं करो के कारण ऐसा साधक य न करते हए भी
पूणतः सफल नह हो पा रहा है। लेिकन जबतक ऐसी ि थित है, तबतक वह
परमाथ या योगी नह हआ है। अभी वह इस 'मोह-िनसा' के 'सोविनहारा' वगम है।
अव य ही वह 'जग जािमिन' म जागने का य न कर रहा है। िक तु अभी जागा नह
है।
'अ यास वैरा या यां ति नरोधः।'-योगदशन
'अ यासेन तु कौ तेय वैरा येण च गृ ते।'- गीता ६।३५

मन सं सार एवं िवषय का िच तन छोड़ दे, इसका एकमा उपाय अ यास तथा
वैरा य ही योगदशन एवं गीताम भी कहा गया है। नाम जप, क तन, पाठ, पूजा,
यान, ाणायाम आिद जो भी अपना साधन हो उसे बराबर करते रहना अ यास है।
मन जहाँ-जहाँ जाय, वहाँ- वहाँ से बलपूवक हटाकर उसे अपने साधन म लगाते
रहा जाय । इस कार पिहले अ यास और तब वैरा य। वैरा य होता है िवचारके
ारा । वग एवं लोक तक सं सार के सभी भोग दुःख प ह मोह-मूल ह, यह
सब जगजाल है, इस कार बराबर िवचार करनेसे बुि म जो िवषय-सेवन तथा
शरीर एवं इि य क सु ख-सु िवधाका मोह है, वह धीरे -धीरे न हो जाता है।

'दीघकाल न तरीय स कार सेिवत ढ़भूिमः।


(-योगदशन)
दीघकाल तक िबना ऊबे, उकताये, िनर तर िबना बीच म छोड़े िनयम पूवक ठीक
समयपर करते रहने से और वह भी स कार पूवक सावधानी एवं आदर बुि से
िनयम पालन भरको उपे ा पूवक नह , आदरसे साधन करने पर िफर साधनक भूिम
ढ़ हो जाती है। िफर मन वहां लग जाता है।
मनका वभाव है िक पिहले नवीन िवषय म लगना नह चाहता। वह वहां से भागता
है, जैसे छोटा ब चा मुख म अ न देने पर बार-बार थू क देता है । लेिकन बलपूवक
बार-बार दीघकाल तक मनको वहाँ लगाया जाय तो वह िफर वहाँ इस कार लग
जाता है िक वहाँसे हटना नह चाहता। जैसे पशुको एक खूटेसे हटाना हो तो पिहले
दूसरा खूटा गाड़ना पड़ता है, अ यथा पिहले खूटेपर वह भाग ही आवेगा, इसी
कार मनको पिहले सं सारसे हटाकर परमाथम लगानेका आ य इ का व प,
नाम गुण आिद िच तन होना चािहये और वहाँ लगाये रहनेका िनर तर अ यास
करते रहना चािहये । इस अ यासके साथ सं सारके िवषय क न रता, दुःख पता
आिदका बार-बार िवचार करके बुि म इनका जो मोह है, उसको दूर कर देना
चािहये । सं सारके िवषय से अ िच, सु ख-दुखािदसे उदासीनता ही वैरा य है जो
िवचारके ारा स प न होगी।
साधनका अ यास जब दीघकाल िनर तर स कार पूवक होता है तो वह अ यास
प रप व हो जाता है। िफर मन सं सार एवं िवषय म न जाकर बराबर सा यके
िच तन म ही लगा रहता है । यही प रप वाव था परमाथ ि थित है। इसी कार
वैरा यक प रप वाव था िकन इि यके िकसी भोगके ित सवथा अ िच, सभी
सु ख-दुखािदक उदासीनता साधकक ' पं च िवयोगी' अव था है। ये दोन अब
अलग-अलग नह ह। परमाथ पं च िवयोगी होगा ही, य िक अ यास और वैरा य
दोन साथ चलगे, तभी मनोिनरोध होगा और तभी 'योगी' बन सके गा।
इस कार अ यास एवं वैरा यक पूणतः प रप वाव था है परमाथ एवं पं च
िवयोगी और इ ह ा कर लेनेवाला ही योगी है। योगी ही इस 'जग-जािमिन' म
जाग रहा है। 'मोह-िनसा' का घोर तमस उसे ही आ छ न करनेम समथ नह होता।
जािनअ तबिहं जीव जग जागा।
जब जब िबषय िबलास िबरागा।।
(-अयो० ९२/४ )
जीव जागृत हो गया, यह तभी समझना चािहये, जब उसे िवषय के सम त
िवलास के ित वैरा य हो जाय।
‘यिह जग जािमिन जागिह जोगी।' के ारा बताया गया िक 'मोह िनसा पी सं सार
म जागृत-सावधान रहनेवाले लोग के वल योगी ही ह। योगी वे ही ह जो ' परमाथ '
और ' पं च-िवयोगी' ह । अब इस बातको और अिधक प करते ह।
कोई योगी है या नह , इसक पिहचान या? 'म मन नह हँ, इि य नह हँ। मन और
इि य के धम मुझम नह ह। म इन मन-इि तथा इनके िवकार से परे एक
अि तीय िन य िनिवकार शु िच न प हँ।' इस कारका बौि क िन य करने
तथा कहनेवाले आज बहत ह। ऐसे लोग म िवषय-लोलु पता' अनाचार;
ल पटताक बहलता है, यह भी आज कहा ही जा सकता है। ानी बनकर या
भगवान के नामपर अपने सम त पाप का िनल जता पूवक समथन आज होता है।
ऐसे लोग भी अपनेको 'परमाथ ' कहते ह। वे ‘ पं च-िवयोगी' भी बनते ह। तब या
ये ही इस मोह-िनसाम जागनेवाले योगी ह।

ील मणजीने आजके इन ािनय एवं द भी भ को जो उ र िदया है, उसम


स देह करने या यहाँ श द छल करने को तिनक भी थान नह है। जागरण- बोध-
ानक इतनी प प रभाषा कदािचत अ य िमले । य िप अनेक थान पर ऐसे
वा य िमलते ह
'िकिम छन् क य कामाय देह पु णाित ल पटः।'
भला जो ानी है, िजसक आ म-बुि एक अ य सि चदान द घन यापक त वम
है, वह िकसी इ छासे िकस काम सु खके िलये ल पट क भां ित शरीरका पोषण
करे गा? िक तु ील मणजीने तो जागरणको प रभाषा ही बड़ी प कर दी-जीवको
तभी जागृत बु ान स प न हआ समझना चािहये, जब उसे िवषय के स पूण
िवलास से वैरा य हो जाय ।
एक यि बहत यासा ह, अब उसे आप सं गीत सु नाने लगे तो या उसे वह गायन
आकिषत कर सके गा? िबना िकसी दवाबके वह वहाँ बैठना चाहेगा। जो यि
गायन गो ी म दूरसे चलकर बार-बार आता है, घ ट बैठा रहता है, वह यिद कहे
िक उसे सं गीतसे तिनक भी िच नह तो उसक बातको आप स य मान लगे?
िवषय का सेवन सदा िवषय म सु ख-बुि होनेपर ही होता है। जो नालीम पड़े-सड़े
दाने चुन -चुन कर खा रहा है, वह भूखा नह है या उसके पास वािद भोजनका
भ डार भरा है, इस झू ठका कोई िसर-पैर ह? ऐसा झू ठ या उसे ु धासे बचा देगा ?
िवषयसेवळू तो इि य तृि के ारा सु ख पानेका वैसा ही यास है, जैसा ग दा
नालीसे सड़े दाने चुनकर ु धा तृि का य न । जो लोग ऐसे यास म लगे ह, उनके
ानका द भ तो एक व चना है।
जीवके जागरणका या अथ? वह बु हआ, उसने ान पाया तो या जाना? या
समझा उसने ? यही तो िक यह जगत 'मोह-िनसा' है। यह जाल है। इसक घटनाएं
और इसके सु ख-दुःख व नके भोगके समान ह । अब यिद वह सचमुच यह जान
गया तो या व न के सु ख के िलये उसक वृि होगी? या व नके दुःखके
िलये वह रोयेगा? एक यि चाहे िजतना यासा य न हो; िक तु यिद वह जानता
है िक आगे म थल है और वहां सू य क िकरण म मृगजलका म हो रहा है, तो
या वह जल पाने के िलये उधर एक पद भी जाने क इ छा करे गा? लेिकन जो
जलक इ छासे उधर चला जाता हो और कहता भी जाता हो िक म जानता हँ िक
वहाँ जल नह है, वहां म थल है उस यि का 'म जानता हँ' वाला जानना या
सचमुच ान है? यह ान या उसे म थलम जलने और तड़पने से बचा सकता
है? आजका द भपूण बौि क ान ऐसा ही िम या ान है और उससे आवागमनक
िनवृि तो दूर रही, पापपरायण होनेसे नरकक ही ाि होती है।
'नाम-िन पण' क भूिमकाम 'नामका सा ात्' िलखते समय इस िवषयपर पया
िलख चुका हँ, अत: यहां उसका सं ि िववरण ही उपयु है । हम यह समझ लेना
चािहये िक जो िन य मु : िनिवकार, शु यापक, अि तीय 'सि चदान द स ा है,
वह तो कभी न ब धनम थी और न उसे मु होना है। ान उसीको होगा जो
अ ानम था। जगेगा वह जो सोया था। मु नह होगा जो ब धन म है यह सं सार
हमारे आपके स मुख है। इसके सु ख-दु:ख हम आपको होते ह। अतः शा के
अनुसार ज म-मृ यु भी हमारे आपके ह। और वर्ग-नरक भी, हम आप आते-जाते
ह। श दका झगड़ा तो यथ है। हम-आपम िजस स ाको सु ख-दुख होता है, जो
वग-नरक जाती है, वही स ा ब धनम है। वही इस 'जग-जािमिन' म सो रही है।
य िक यह 'अनेक कारा व न' वही देख रही है। उसीको जागना है। उसीको इस
आवागमनसे मु होना है। .
इस जगतका आधार या है ? पिहले ही जगतको 'मोह- मूल ' कह आये ह मोह ही
इस सबका हेतु है। शरीर एवं इि य म मोह होनेसे ही उनके सु खक इ छा होती है।
शरीरको आसि से ही िवषय वृि होती है। कोई भी पाप हो नह सकता, यिद
हमम इि यासि न हो । पाप क वृि ही शरीर एवं शरीर के सु ख के मोहसे होती
है। जो इस ‘मोह िनसा’ से जाग गया है, उसम मोह तो होनेसे रहा । जब मोह नह है
तो उसके िलये अपना शरीर तथा इस शरीरके स ब धी ऐसे ही ह, जैसे मरे हए
जीवके िलये छू टा शरीर तथा उसके स ब धी । अब शरीरके सु खके िलये उसक
वृि हो कै से सकती है । इि य एवं उसके िवषय क ाि अ ाि का जब उससे
कोई स ब ध ही नह रहा, जब इ ह वह मोह जानकर इनसे जाग गया, तो िफर इनके
सु ख-दुःखक ाि या अ ाि के िलये उस म कोई चे ा हो यह श य कै से है।
पाप सदा शरीराशि से ही होते ह। िवषय ाि का य न इि य सु खक इ छासे ही
होता है। इि य सु खक इ छा ही न हो, यिद शरीर म आसि तथा अहं भाव न
हो। अतएव िजससे पाप होते ह, िजसक वृि शरीर एवं इि य क तृि के िलये
ह, वह तो 'मोह-िनसा' म व नक वृि करनेवाला है। कोई व न भी देखता रहे
और जागता भी रहे, यह दोन बात एक साथ कभी नह हो सकती । अतएव ऐसा
यि चाहे िजतना बड़ा िव ान हो, चाहे िजतना महान ितभाशाली हो, चाहे जैसी
बात कहे और चाहे जैसा बौि क िन य उसका हो; िक तु वह है व न देखने
वाला। वह जागा हआ योगी बु ानी सवथा नह है। अत: उसक ितभा एवं
उसका बौि क िन य उसे नरक ले जाने से बचा नह सकते।
'जब सब िवषय िबलास िबरागा।
(-अयो० ९२।३)
जब सभी िवषय से वैरा य हो जाय-इसलोकम शरीर के सु ख दुःख स पि -िवपि ,
यश-अपयश एवं परलोकम वग या नरकक ाि आिद से सवथा मन उसी कार
तट थ हो जाय, जैसे व न के षय के स ब ध म हम जागृित होनेपर हो जाते ह।
यहाँ यह नह कहा जा रहा है िक य न पूवक यह वैरा य ा करना चािहये या इसे
बनाए रखना चािहये । वैसे इस वैरा यको पानेका भरपूर य न करना चािहये और
उसे सावधानीमे सु रि त भी रखना चािहये, पर यह तो साधकक ि थित है। उसे तो
‘परमारथी पं च िवयोगी’ के ारा पिहले कह चुके । यहां तो िस ाव था का वणन
कर रहे ह । यहाँ कह रहे ह िक जीवको तब जागा हआ समझो, तब उसे बु या
ानी जानो, जब उसे सभी िवषय-िवलास म वैरा य हो जाय ।यह वैरा य सहज
वैरा य ह। जैसे कोई व न म देखे हए धन को पाने के िलए जागने के प ात् नह
दौड़ता, जैसे कोई व न म लगी अि न बुझाने के िलये जागनेपर घड़े नह उठाता,
वैसे ही इस 'मोहिनसा म जो जाग गया है, उसे सब िवषय-िवलास व नके तार
है, यह प ात हो जाता है और तब उन व न य के ित उसका सहज हो
जाता है।

'सब िवषय िवलास' को तो पिहले ही प कर चुके ह िवपितके घेरेम आनेवाले


'धरिन-धामु-धनु-पुर -प रवा ' और ‘सरगु-नरकु ' आिद 'जहं लिग जग जालू ' के
ारा। इसी सबको 'मोह कहा और यही 'जग-जािमिन है' अतएव जो योगी हो गया
जो जीव यहाँ जाग गया उसम इन सबके ित सहज वैरा य वाभािवक ही होगा
िजसम यह सहज वैरा य नह है, वह जागा हआ नह है।
एक कु तक हो सकता है- न जगा तो हािन या? लेिकन है यह कु तक ही। य िक
िु त कहती है -'ऋते ाना न-मुि ः' ानके िबना मुि नह होती । ान या ?
व न देखने वालेको व नम यिद यह बोध हो िक म व न देखता हँ तो वह
अवा तर व न है । वह ान नह य िक इस ानसे िक म व न देख रहा हँ उसका
व न देखना तथा व नके सु ख-दुःख दूर नह हो जाते । ान तो है उसका
जागजाना । यही जागरण उसे व नके दुःख से थायी छु टकारा देता है। इसी
ा म यका बौि क ान तथा सं सारक न रता, िम या वका बौि का िन य
भी एक कार क मानिसक ि या है, दूसरी मानिसक ि याओं के समान, अतः
यह भी 'देखिहं सपन अनेक कारा' म से एक कार व न ही है। ऐसे ानसे
आवागमनके च से छु टकारा नह हो सकाता य िक ज म-मरणका हेतु है
शरीराशि । इस आसि के कारण ही जगत म नाना वृित होती है और उन
आसि सं यु वृि य के सं कार िच पर पड़ते ह। ये सं कार ही ज म-मरणके
कारण ह। जब तक शरीरासि है उस आसि के योगसे वृि भी होगी और ऐसी
वृि के सं कार भी िच पर पड़गे ही। इस कार जब शरीरासि है, सं कार ह
िच पर, तो वे ज म-मरण वग-नरकको देने वाले भी बनगे ही। आसि ही
जीवको इन सं कार से छु ड़ाती है। आसि यिद शरीरम
शरीरके भोग म न हो तो िफर उन भोग -िवषय िवलास के िलये वृि भी न होगी।
अनासि का ल ण ही है िवषय- वृि क हीनता।यही ि थित जीवको बुध करती
है। जीवका यही स चा ान है जो भव-ब धनसे छु ड़ाता है। 'मोह-िनसा' से जागा
हआ वही योगी जीव िजसम सम त िवषय िबलास से सहज वैरा य िस हो चुका
हो।
होइ िबबेकु मोह म भागा।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा।
(अयो० ९२/५)
(जब) ान हो जानेसे मोहका म दूर हो जाता है, तब ी रघुनाथजीके ीचरण म
(जीवका) अनुराग होता है।
इससे पूव तक ानका वणन करके अब भि का वणन करते ह। भि दो कारको
मानी जाती है-परा और अपरा । पराभि ही व तुतः भि है। अपरा या गौणी
भि साधन पा है। वह जीवको परा भि तक ले जानेवाली है और इसीसे उसे
भी भि कहा जाता है। ील मणजी यहां िनषादराजको परा भि का ही व प
समझा रहे ह। यह पराभि ानके प ात् ार भ होती है। जहां त व ानक पूणता
होती है, वहां से पराभि का ार भ होता है। भगवा ने गीताके अठारहव अ यायम
'अमािन व, अदि म व' आिद ानके साधन बताते हये ानक पूणताका वणन
करके तब इस ानो र भि क ाि 'मद् भि लभते परा.’ पर कह कर िकया है।
अपरा या गौणी भि तो ' थम भगित सं तन कर सं गा।' आिद साधन पा भि है।
' वनािदक नव भि ' कह कर ीराघवे ने भागवतक ' वण क तन िव णो:'
भृित नवधा भि का भी उ लेख िकया है, िक तु उपदेश अिधकारी के अनुसार ही
िदया जाता है। भला राम-सखा िनषादराज गुहको गौणीसाधन पा भि का कोई
या उपदेश देगा। वे तो पहलेसे ीरामके गुण - वण, उनके क तन-वणनके रिसक ह
। उनके दयम सदा ीरामका मरण नह रहता होगा यह कहनेका दु साहस भला
कौन कर सकता है। पाद-सेवन तो उनक अपनी व तु है, य िक ीरामभ के
बचपन के वे आखेट-सखा ह। अचन, ब दन, दा य, स य और आ म-िनवेदन ये
पां च उनम पूण ह । स य तो उ ह ा ही है और वह इतने प पम ा है िक
गु विश जीने भरत लालजोको उनका प रचय राम-सखा कह कर िदया। जहां इस
कार धिन स य ा है, वहां अचन-ब दनक अ ाि श य ही नह , य िक
स यका व प ही सखाका स मान एवं स कार है । वैसे इस सं गसे पूव ीरामके
शृंगवेरपुर पहँचनेका समाचार पाते ही िनषादराजने जो अचन, ब दन, दा य,
आ मिनवेदन गट िकया है, वह भी पया है उनक इन साधन प भि
सोपान को पूणता बतलानेके िलये -
यह सुिध गुहँ िनषाद जब पाई।
मुिदत िलए ि य बं धु बोलाई।।
िलए फल मूल भट भ र भारा।
िमलन चलेउ िहँयँ हरषु अपारा।।
क र दं डवत भट ध र आग।
भुिह िबलोकत अित अनुराग।। अयो ८७।१-३
देव धरिन धनु धामु तु हारा।
म जनु नीचु सिहत प रवारा।। अयो० ८७।६
समपणक पूण ता हो गयी यहां । 'धरिन घामु धनु पुर प रवा ' ही तो लौिकक जग -
जालका िव तार है और उसे िनषादराजने अपने समेत समिपत कर िदया। ीरामने
'कहेह स य सब सखा सु जाना।' कहकर उस आ मसमपणको एक कारसे वीकृ ित
दे दी है। इस कार िनषादपित पिहलेसे ही साधन पा भि के नौ साधन से पूण
स प न ह। अब उ ह उन साधन का उपदेश देना आव यक नह है । आव यक
इतना ही है िक तु ह जो-
राम सीय मिह सयन िनहारी।
भयउ िबषाद िनषाविहं भारी॥
(-अयो० ९१/२)
हआ है, वह दूर हो जाय । ीरामके परा पर व पका बोध उ ह हो, इसीिलये
जीव के परमाचाय ील मणलालजीने उनपर यह कृ पा क है। ानोपदेशके ारा
जगत एवं उसके भोग का िम या व- व न भोग तु य व या भाव प व बता कर
इस मोहमूल 'जग-जािमिन' म जीवको जागना चािहये और वह जागना या है, कै से
हो, आिद समझाया उ ह ने ।
इस ानोपदेशने जब ानोदय होता है, जब बुि ि थर एवं िचत िनमल होता है,
तभी वह भि के त वको हण कर पाता है। अतः ानक पूणता 'जब सब िवषय
िबलास िबरागा बताकर अब भि क ाि बतलाते ह।
'होइ िबबेकु मोह- म भागा।'
(-अयो०९२/५)
जब िववेक- ान हो जानेसे मोहका म माग जाता है-दूर हो जाता है। यहाँ 'मोह-
म श द िवचारणीय है। यिद 'मोह- म भागा' का अथ मोह पी म भाग जाता
है, कर तो उठे गा िक 'मोह िनसाको दूर कर देना तो जीवके वशका है नह । ान
होनेपर ानी के स मुखसे यह 'मोह-मूल ' जगत कह भाग तो नह जाता। शरीर-
र ाके िलये भौजनािद. मयादा-र ाके िलये शा ीय कात य पालन लोक क याण
के िलये उपदेशािद वह भी करता ही है। यिद मोह हो भाग जाय तो 'मोह-मूल ' जगत
रहेगा कसे कै सी? जब जगत रहा ही नह तो जगत क कोई वृि कै सी? अ ततः
ानीका शरीर भी तो ार धसे ही ा ह। ार धका आधार भी वही मोह है। अत:
मोहका समूल नाश हो जाय तो ानी का शरीर रह नह सकता। य िक यिद मनका
शरीरसे तिनक भी स ब ध न रहे तो शरीरको नािड़य म र -सं चारािद भी न हो
सके । य अ य थ म यह वणन िमलता है िक ानक स म भूिमका म ानीका
शरीरापात हो जाता है; िक तु यह तो यदा कदािचत, होनेवाली बात है । सब स म
भूिमम पहँचनेवाले ानी ही नह होते। अतएव यहाँ मोह म भागा' का अथ
'मोह पी म भागा’ न करके मोहका म भागा, यह करना उिचत जान पड़ता है।
'मोह-िनसा सब सौविन हारा' क या या म बता चुके ह िक मोह तो समि कताको
व तु है। वह तो 'िनसा' है. िजसे जीव दूर नह कर सकता।
'गो गोचर जहं लिग मन जाई।
सो सब माया जानेह भाई।
(अर०१४|३)
इस ई रीय माया या अिव ाम जीव मोिहत हो गया है। इस 'मोह-मूल ' जगतम उसे
म हो गया है।
'म अ मोर तोर ते माया।'
(अर०१४/२)
यही जीवका म, जीवक माया है। जैसे िनशाका तमस जीवम िन ा बन जाता है
वैसे ही समि का मोह जीवम "म' मेरा, आिद प म बन गया है। ानके होनेपर
मोहका यह म ही भाग जाता है। िववेक होनेपर जगत तो रहता है और जगतक
िविभ नता भी दीख पड़ती है िक तु तब जगत म कु छ भी पराया नह रहता। तब तो
म भोग चुका होता है । जीवको तब अनुभव होता है और वह कहता है-
'सीय राममय सब जग जानी।।
करउँ नाम जो र जु ग पानी ॥'
(- बाल०७/२)
इस कार जब मोहका म िववेक होनेपर भाग जाता है, तब भि का दयम उदय
होता है । पराभि क तभी ा होती है।
'तब रघुनाथ चरन अनुरागा।'
(-अयो०९२।५)
जबतक 'सब जग' िव का अणु-अणु 'सीय राममय' नह जान पड़ता तबतक
पराभि - ीरघुनाथके चरण कमल म अनुराग कै से हो सकता है ? भुने वयं
बताया है-
'सो अन य जाक अिस, मित न टर हनुम त।
म सेवक सचराचर, प वािम भगव त ।
(-िक० ३)
यही पराभि है। यही ीरघुनाथ-चरणका वा तिवक अनुराग है, जब िक िजत देख
ितत याममयी है, क ि थित ा हो जाय । दयम, मनम, वाणीम, नेन म उस
ेमा पदको छोड़ कर दूसरा आवे ही नह । यह अव था मोहके मके भाग जानेपर
ही ा होती है। यह तो ानो र भि है। इसके व पका के वल इतना िनदश ही
श य है। य िक यह अनुभिू त व प है। मन-वाणीक यहाँ गित नह है।
सखा परम परमारथु एह ।
मन म बचन राम पद नेह।
(अयो०९२।६)
सखा, मन कम एवं वाणीसे ीरामके चरण म नेह हो, यही परम परमाथ है।
ी ल मणजी कभी ीरामसे पृथक तो हए नह , अतः जो ीराम के आखेट-सखा
ह, वे ील मण के सखा भी ह ही। आखेटम न कभी रामजीसे पृथक रहे ह गे, ऐसा
सोचा ही नह जा सकता । महिष वा मीिकके अनुसारसे तो उन सु िम ा दवधनने
मयादा पु षो म कहा है-
परवानि म काकु थ विय वषशते ि थते।'
अथात हे ीराघवे , आप सैकड़ वष वनम रह, तो भी म आपके पराधीन हँ। मने
अपने आपको आपके ित समिपत कर िदया है। अ तु ।
यहाँ सखा कहनेका एक भाव और है जब िकसी कोई गोपनीय या बहत मह वक
बात बतलानी होती है, तभी उससे अपनी आ मीयता य क जाती है। मानो
ल मण जी कह रहे ह िक-'िनषादराज, तुम मेरे सखा हो, इसीिलये तु ह म यह
अ य त मह वक बात बतला रहा हँ।
अभी पूरे जगतको 'मोह-मूल ' कह आये ह । 'सरग-नरक जहँ लिग जग जालू ' को
उ ह ने कहा है 'परमारथ' नह । अथात् यह सब जगत मोह-मूल है। इसक
पारमािथक स ा नह है। इसम वृ होनेसे जीव का परमाथ-आ यि तक क याण
िस नह होता। वभावतः उठता है िक जब िव के सम त भोग और
वगतक 'परमारथ' नह है, तो 'परमारथ है, या? इसी का इस अधाली म उ र
है और उ म है अपने अनोखे ढं गका। ल मणजी परमाचाय ठहरे जीव के । यहाँ
उनके स मुख ऐसा अिधकारी नह है िक उसे दस पां च पारमािथक साधन बता द
और कह द िक इनम से जो अ छा लगे, उसे चुनलो। यहां तो एक भोला-भाला
िनषाद है उनके स मुख जो उनका सखा है। यह तो कोई भी कै से कह सकता है िक
जैसे जगतक 'स पित-िवपित' के िलये नाना य ल करनेवाले और 'सरग-नरक' क
िच ताम लगे लोग 'सब सोविन हारा' ह 'मोह-िनसाम वैसे ही, योग, यान, तप
आिद करनेवाले िन काम कम योगी ानी भी 'सोविनहारा ह। 'जगत मोह मूल है, पर
उसम वे तो जागने ही वाले ह जो 'परमारथी पं च िवयोगी' हो गये ह और िजनम
सब िवषय िवलास िबरागा' पूरा आ चुका है। इससे या िववाद िक वे िकस
कारके 'परमारथी' ह। योगके यम, िनयम, आसन ाणायाम, धारणा, यान और
समािधके आठ अं ग से मशः बढ़ते हए आ मसा ा कार िकया जा सकता है।
साधन चतु य स प न होकर वण-मनन िनिद यासन ारा ानमागसे
आ मसा ा कार हो सकता है। भगवानके िलए िन कामकम करते हए या
लययोगके िकसी माग से भी त वोपलि ध हो सकती है । उपासनाक भी अनेक
िविधयां ह। अनेक धम एवं स दाय है उपासना के िलए। स चाईसे िकसी भी
धमक उपासनाका अनुसरण पूण ता तक पहँचा देगा। सब माग, ये सब साधनाएँ
परमाथ स य-िन य स य तक ले जाती ह। इनम से िकसीके ारा भी जीव
आवागमनके च से मु हो सकता है। इनम से िकसीके भी ारा आ यि तक
क याण ा िकया जा सकता है । अतएव ये सब परमारथ ह । 'जब सब िवषय
िबलास िबरागा हो जाता है, तब जीव इस 'जग जािमिन' म जाग गया है, इसम तो
स देह रहा ही नह । िफर वह ' पं च-िबयोगी' िकसी कार का भी 'परमारथी' हो
िकसी भी परमाथ ाि के साधनको अपनाने वाला हो, उसके साधन एवं आरा य-
सा य का कोई भी व प हो, है वह 'परमारथी' ही। इसिलये यहाँ ल मणजी
परमाथके अनेक पथ का िनषेध नह : करते । उन सब माग क चचा करनेका
अवसर नह है यहां तो जो ोता है, उसके अिधकारका है वह है साधन-
भि के अं ग से स प न । अतः उसे 'परम परमारथ बता रहे ह वे िनिखल जीवाचाय

परम परमाथ के अनेक साधन ह और वे स चे ह, िक तु उनम जो सबसे सु लभ हो,
सबसे िनिव नहो सब िजसे अपना सक और िजसके ारा सव म त वको
सवि य म उपलि ध हो, वही सबसे े माग होगा । वही परमाथ म परम परमाथ
कहा जा सके गा। इस ि से देख तो यह कट है िक योगी, ानी, िन काम कमयोगी
होना जन साधारणके बसका नह है। यम-िनयम, आसनािद कर सक, ऐसे आज
दस-पां च अिधकारी भी िमलने किठन ह । जहाँ अजुनने भी कहा-'चं चलं िह मनः
कृ ण' वहाँ आजके सामा य जन लययोग या और कोई यान करके सफल हो
जायगे, यह सोचना ही बुि मानी नह है। ानक बात उससे भी किठन है । साधन
चतु य स प न परमिवर पु ष ही ानका अिधकारी होता है यिद वह ितभा
धान कृ ितका है। नेता, और ापर म भी िगने चुने नाम ािनय के िमलते ह।
आज के वल बौि क ानको जो ान माना जाता है, वह तो-
'कलो वेदाि तनः सव फा गुने बालका इव ।'
' यान िबनु ना र नर कहिहं न दूस र बात ।
कौड़ी लािग लोभ बस, करिहं िव गुर घात ॥ उ र०९९
ऐसे रौरवम ले जानेवाले वेदा तक तो यहाँ चचा ही यथ है। सचमुच ानके
अिधकारी आज कोई कदािचत ही िमले । अब के वल उपासनाका माग रह जाता है।
ीम ागवतके अनुसार जो न अ यं त सं सारास ह और न पूरे िवर ही ह उनके
िलये उपासना माग है। आजके परमाथक िच रखनेवाले ऐसे ही िमलगे। जहाँ तक
त वोपलि ध का है, योग- ान आिदके ारा उससे अभेद व-सायु य ा होता
है और उपासनाके ारा सामी य, सालो यािद । त व एक ही है और उसका
सवि य प तो साधकको िचक अपे ा करता िक तु है उपासना सवसु लभ,
सवसु गम माग । उपासनाम भी इतना तो मानना ही पड़ेगा िक मयादा पु षो मक
उपासना साधकको मयादाम ि थर रखनेक िन य ेरणा देती है। इ के इस पम
आचार यु त न होनेक सवािधक ेरणा है। इस ि से यह सबसे अिधक मह वपूण
एवं यावहा रक ि से क याणकारी उपासना पथ है। परम परमाथ इस ि से इसे
कह तो इसम िकसीको कोई आपि नह हो सकती। वैसे ीराम परा पर परम त व
ह और उनक आराधना परम परमाथ है, यह ि कोण भी ठीक ही है।
यह परम परमाथ या है ? परम परमाथ गौणी भि नह हो सकती। यह है नेह ।
ऐसा नेह जो मनम ही सीिमत नह रहता। नेह मनका धम है। वह कहा या ि यासे
य भी िकया जा सकता है, पर मनम न हो तो. उसको वाणी या ि यासे य
करना द भ होगा। इसी िलये पिहले मनका उ लेख हआ। ीरामके चरण म दय
नेहसे भरा हो। यह नेह ेम इतना थोडा न हो िक दय म िछपा रह जाय । हम जो
कु छ भी कर उस सब ि याम, हमारे सम त कम म वही दयका ेम वािहत
होता हो। हमारी स पूण ि या ीरामको मरण करते. हए उ ह को स न करने के
िलये, उ ह क सेवाके िलये हो। यह सम त जगत 'सीयराम मय है, यह जान कर
हम सदा अपने कम से ीरामके सेवक ही रह और हमारी वाणी म भी वही नेह
ओत- ोत रहे। हम उन परम भु के नाम, गुण, लीला आिदका वाणी ारा जप, गान,
क तन, वणन ेम पूण दयसे करते रहे। हमारी वाणी उनके इस िव पके ित
सदा नेहपूण, क याण द रहे। इस कार मन, कम एवं वाणीसे हमारा पूरा जीवन
बाहर-भीतर स पूण पसे ीरामके चरण-कमल के ेमसे प र लािवत हो, यह
ेमको परमाव था यह भि क सव े ि थित ही परम परमाथ है। यहां कु छ करने
का ही नह है। यहाँ तो अ तर वा नेह म न है और वही नेह सव य
होता है।
राम परमारथ पा।
अिबगत अलख अनािद अनूपा ॥
सकल िबकार रिहत गतभेदा।
किह िनत नेित िन पिहं बेदा॥
(-अयो०९२।७-८)

ीराम (ही) परमाथ व प ह। वे (मनसे) न जानने यो य (इि य से) अल य,


अनािद, उपमा-रिहत, सम त िवकार से हीन, भेद, रिहत ह। वैद भी िन य नैित-नेित,
कह कर उनका िन पण करते ह।
अब इस चौपाई म ीरामके पर वका ितपादन है। य िक येक दशनशा
उपासनाको बौि क आधार देनेके िलये ही वृ होते ह। िजस त वको िु त नेित
कहती है, िजसको सब एक मतसे 'अवाढ मनस गोचर' मानते ह, उसका वणन कै से
स भव है। जो परमाथ भी वणन ह, वे के वल ल णासे ही ह। उपासनाक ि थरताके
िलये दयक भाव भूिमको बौि क पृ भूिमका सु ि थर आधार देने म ही उनका
योजन है। इसीिलये उपासनाके सभी स दाय का अपना दशन शा है। जैसे-
िच, भाव एवं अिधकारी भेदसे उपासक के परमोपा य त वतः एक होनेपर भी
उनम प भेद होता है। वैसे ही अिधकारी भेदसे चलनेवाली उन उपासनाओंको
आधार देनवे ाले सा दाियक दशन म भेद होता है। लेिकन जैसे सबके उपा य
अनेक प म होनेपर भी एक ही ह, एक के ही वैसे ही सभी दशन के िस ा त एवं
ितपाहा िभ न होनेपर त वत: एक है। के वल उस ितपा को वणन करनेक ,
ितपािदत णाली ही सबक पृथक-पृथक है और यह पृथकता इसिलये है
अिधकार भेदसे चलनेवाले साधक अपने अनु प आधारभूिमको बुिधगत कर
सक। सभी उपासनाएँ दाशिनक आधारभूिमपर ही िति त होती इससे पिहलेक
अधालीम 'रामपद नैह' को परम परमारथ, कर उपासनाक ित ा कर आये ह,
अतः उस उपासनाको पृ भूिम-ि थती धार देनेके िलये परमाथ ये इस चौपाईम
ीरामके व पका वणन और आगे दोहेम अवतार-त व बता कर यह सं ग पूण हो
गया।
एक ि से और िवचार िकया जा सकता है। पिहले कह आये। िक िजतना भी
सं सारका लौिकक पं च िदखाई पड़ता है और जो भी वगािदका वणन शा म है
वह सब-
देिखअ सु िनअ गुिनअ मन माह ।
मोह मूल परमारथु नाह ।।
(-अयौ० ९१/८)
और अब कह रहे ह िक परम 'परमारथ' तो 'रामपद नेह' है। सो ीराम भी तो
िनषादराजके िलये य ह। इस य को शा से ितपािदत कह, यह कह िक
िु तय म उपिनषािदम ीरामका वणन है, तो वह वणन 'सु िनअ' को सीमाम आ
जायगा। िफर जब सब देिखए सु िनअ मोह-मूल -है जब-
गो गोचर जहँ लिग मन जाई ।
सो सब माया………………. ॥
(अर० १४॥३)
है, तब ीराम एवं उनके च रत भी गो-गोचर होनेसे माया ही हए । 'देिख-सु िनअ' क
सीमाम आनेसे वे भी मोह मूल जगतका ही एक भाग हए ल मणजी पूरे जगतको
'परमारथ नाह कह चुके ह, तब यह िफर रामपद नेह, को परम परमारथ कै से कह रहे
ह ! जो वयं परमाथ नह है, उससे नेह करना भला परम परमाथ हो कै से सकता
है? यिद मोह मूल जगतके य पा से नेह करना परमाथ हो तो िफर 'देिखिहं
सपन अनेक कारा, का या उपयोग? इस मोह िनसाम जागनेवाले जो परमारथी
कहे गये ह, वे तो ' पं च-िवयोगी' होते ह। इन सब शं काओंका समाधान इस
चौपाईम हो जाता है।
'राम परमारथ पा।'
(.. अयो० ९२/७)
ीराम के वल अयो या राजकु मार नह ह। वे परमाथ व प ह । वे यापक ह ।
िजस को एक पाद िवभूितम िनिखल पं च है, जो इस स पूण ा डम यापक
है और इससे परे भी है, जो जगतके अणू-अणुम है और िफर भी जो जगतके
प रवतनािदसे सवथा असं पृ है वही िन य, िच मय अिवनाशी स ा ही परमाथ
स य है। वही शा त त व है । वह -त व ीराम ही ह। अत: ीरामम नेह होना
परम परमाथ है।
'अिबगत अलख अनािद अनूपा।'
(अयो० ९२।७)
ीरामका वह प, वह पर व प मन एवं बुि के ारा जाना नह जा सकता।
अपने इस पम वे अिवगत मनक पहँचसे परे ह । वे 'अलख ह। च ु ो वक,
नािसका तथा रसना आिद ानेि यां तथा कमि यां उ ह लि त नह कर सकत
इस कार वे मन तथा वाणी आिदसे परे ह । गो गोचर जहं लिग मन जाईको सीमाम
वे नह आते। इसिलये उनम 'माया' का लेश भी नह । वे तो अनािद ह िच मय ह,
िन य ह शा त ह। लेिकन और भी ऐसा कोई कु छ है या वे ही ऐसे ह, यह पूछनेपर
कहना ही पड़ेगा िक वे अनूप ह। उन अि तीयक िकसी दूसरे से उपमा नह दी जा
सकती। 'अलख' होनेसे वे इि यातीत य के िवषय नह ह। अिवगत होनेसे वे
मन एवं बुि क प रिधसे परे ह, अत: उनके िवषयम अनुमान भी नह िकया जा
सकता । उन अनूपके िलये लोक या शा म उनसे िभ न दूसरी कोई उपमा नह है।
इस कार वे य , अनुमान उपमान इन तीन माण के ारा जाने नह जाते ।
उनके िवषयम ये माण असमथ ही रहते ह, य िक वे अनािद ह । सभी माण एवं
उनके साधन मन, इि यां, बुि आिद उनके पीछे क ही उनक ही सृि ह। पु
कभी भी माण के ारा यह नह जान सकता िक उसका िपता कौन है । वह के वल
ा-आ था कर सकता है। इसी कार ये सब माण उन परत वके स ब ध म
असमथ ह। वे तो ा-िव ां ससे ही जाने एवं पाये जाते ह।
'सकल िबकारं रिहत गतभेदा।
(अयो० ९२/८)
ीरामम कोई िवकार नह और कोई भेद नह । ज म, मृ यु, ास, वृि , ि थित,
प रवतन ये जगतके छ भाविवकार, सु ख-दुःख, हष, शोक, राग-दोष आिद िवकार
तथा मनके अ य िजतने िवकार ह वे सब ीरामम नह ह । वे िन य एकरस
अिधकारी ह जो भी िवकार दीखते ह जगत म, वे सब 'गो-गोचर' को माियक
सीमाम ही रह जाते ह। इसी कार भेद भी 'मोह मूल जगतम ही ह। ीराम सव यापी
है, िवभु ह िक तु एकरस ह । िव के सम त िवकार एवं भेद उनका पश नह कर
पाते । वे तो अिवकारी एवं अभेद पसे ही सबम ि थत ह।
'किह िनत नेित िन पिह बेदा।'
(-अयो० ९२/८)
िु तयां उन परत वका वणन सदा 'नेित-नेित' अथात् 'यह नह ' कहकर िनषेध मुखसे
ही करती ह। उन 'अलख अिवगत" का वणन तो स भव ही नह है इसिलये वे जैसे
य , अनुमान, उपमानसे परे ह, वैसे ही श द िु त भी उनके वणनम असमथ ह।
इसिलये वे 'सु िन' क सीमाम भी नह आते। देिखस-सु िनअक सीमा मोह मूल ,
जगत तक ही है और ीराम उससे सवथा परे , उसके िवकार एवं भेदोसे असं पृ
िवभु व प परमाथ स य ह । वे अनूप ही परमाथ प ह।
भगत भूिम भूसु र सु रिभ, सु र िहत लािग कृ पाल ।
करत च रत ध र मनुज तनु सु नत िमिह जग जाल ।
(-अयो०९३)
भ , पृ वी, ा ण , गाय तथा देवताओंके क याणके िलये दयामय ( ीराम)
मनु य शरीर धारण करके (यह) च रत कर रहे ह। िजसे सु ननेसे जग-जाल िमट जाता
है।
जो अिवगत अलख ह, 'सकल िवकार रिहत ह, वे परमाथ प ीराम आज तापस
वेस िवशेष उदासी' बने शीशमके तले िकसलय श यापर भूिमपर ही प नीके साथ
शयन कर रहे ह। वेद भले उनका िन पण 'नेित-नेित' कहकर करते ह , िक तु िनषाद
गुहके तो वे अपने परमि य स मा य सखा ह और आज अयो यासे बनवासका त
लेकर शृङ्गवेरपुर पहँचे ह। अतः 'राम परमारथ पा' के उस 'अलख अगोचर'
एवं 'सकल िबकार रिहत गत भेदा' प एवं इस लोक नयनािभराम नवदुवादल याम
वतमान तप वी पम कु छ साम ज य होना चािहये । इसी साम ज यको बतलाने
के िलये इस दोहेम उन परा पर 'अलख अगोचर' का अवतार य होता है, यह त व
बतलाया गया है।
भगत भूिम मसु र सु रिभ, सु र िहत लािग कृ पाल।
करत च रत ध र मनुज तनु,.........................॥
ये परमाथ व प ीराम कृ पाल' ह, दयासागर ह। िु त एवं स त इ ह अन त
क णाव णालय कहते ह । कृ पा करना ही इनका वभाव है । अतः कृ पा परवश ही
यह अयो या राजकु मारका मानव शरीर धारण करके नाना कारक लीलाएँ कर रहे
ह। कृ पा िकसीके ित क जाती है। िकनके ित कृ पा करके भगवान अवतार हण
करते ह ? इसका उ र थम ही है-'भगत' । भगवा के अवतारका मु य कारण है
भ पर कृ पा करना । गीताम भगवा ने कहा-
'प र ाणाय साधूनां िवनाशाय च दु कृ ताम् । ।
धमसं थापनाथाय सं भवािम यु गे यु गे॥'
(-गीता ४/८)
साधुजन (भ ) को र ाके िलये-उनके पालनके िलये, दु कम रत पािप के
नाशके िलये और धमक थापनाके िलये म यु ग-यु गम अवतार हण करता हँ।
िजनके ू भं ग मा से सम त ा ड का िवनाश स भव है, िजनके ने क पलक
के िगरनेसे ही कोिट-कोिट ा ड लय-गभ म चले जाते ह, उनके िलये
िहर यकिशपु, रावण, कं स आिदका िवनाश ऐसा काय नह हो सकता, िजसके
िलये उ ह अवतार धारण करना पड़े । इ छा मा से वे उन सम त दु का नाश
करने म सहज समथ ह। इसी कार धमक थापना भी उनक इ छासे ही हो
सकती है। वे सकल ा डनायक िनिखल जीवगण प रपालक अपने सं क प मा
से धम थापना एवं लोक र ण, भू-भार-हरणम िन य समथ ह। अतः ये सब कारण
उनके अवतार लेनेके मु य कारण नह हो सकते। ये तो ऐसे काय ह जो मु य काय
म वृ होने के कारण आनुषङ् िगक पसे हो गये ह। जैसे कोई करोड़पित िकसी
िम से िमलने कह जाय और मागम म डी पड़े तो वयं फल लेने लगे या लेता
आवे। अब वह फल लेने म डी गया था, यह बात " होनेपर भी उसके घरसे म डी
जानेका मु य कारण नह है। यह का तो उसक आ ासे उसके सेवक ही कर देते।
इसी कार परा पर पर भुका अवतार हण करके धराधामपर आना भूिम भूसु र
सु रिहत लािग मु य नह हो सकता। भू-भार-हरण, धम- थापना ऋिष-मुिन जन क
तथा गौओंक र ा और देवताओंको य भागािद िमलने क यव था तो एकपलम
उनके इ छा करते ही हो जाती। अतएव उनके इस य जगत म आनेका मु य
कारण कु छ और होना चािहए।
भगत िहत लािग कृ पाल,
करत च रत ध र मनुज तनु।
इस "भगत िहत लािग, के मु य काय के साथ 'भूिम भूसु र सु रिभ सु रिहत लािग'
आनुषं िगक काय भी वे कर देते ह। उनके अतवारका मु य योजन तो यह
'प र ाणाय साधूनां ' ही है। िजसे वे अपनी इ छासे, िबना धराधामपर आये पूरा नह
कर सकते थे। भ क भावनाओंक कोई सीमा नह और अपनी भावनाम वे
एकिन होते ह। सव व याग कर उनका िच उसी भावनाम लगा रहता है। उनक
भावनाएँ- च वत महाराज दशरथ एवं माता कौश याने अपने मनु-शत पा पम
िकतना उ तप िकया? और उनक भावना है 'चाहउँ तु हिहं समान सु त।' इसी
कार कोई उन 'अिवगत अलख' को अपना सखा बनाकर उनके साथ खेलना
चाहता है, कोई उनक चरण-सेवा करनेको उ सु क है और कोई शरभं गजीक भां ित
वे छासे लोक जाने म समथ होकर भी उनके दशन क ती ाम बनम बैठा ह।
वह 'अिवगत अलख, करे या, जब कोई परम भावुक भ बड़ी ढ़तासे कह देता
है।
'भ र लोचन िबलोिक अवधेसा। .
तब सु िनहउँ िनगुन उपदेसा ॥'
(उत्तर० ११०।११)

वह तो उस सकल िवकार रिहत गतभेदा' क बात ही सु ननेको तब तक तुत नह ,


जब तक उसे 'नवघन याम मृदुल तन सु दर, व प म देख न ले। कोई बतावे तो
सही िक ऐसे साधुओकं ा प र ाण, ऐसे भ का िहत िबना इस धराधामपर पधारे
वह परा पर नामक कर कै से सकता है। दुसरे क बात जाने दीिजये, इन िनषादराजका
तु छ सेवक के वट अभी कल सबेरे झगड़नेवाला है -
ब तीर मारहँ लखनु पै
जब लिग न पाय पखा रह ।
तब लिग न तुलसीदास
नाथ कृ पाल पा उता रह ।।
(-अयो०९९/११)

और ये ' कृ पाल ' या अिवगत अलख' बने रहकर अपनी इ छा, योगमाया और
िकसी शि से उस भोले भ का िहत कर लेते । उसका िहत उसने 'पाय पखा रह '
बना रखा है। अब जब कृ पाल ह तो 'पाय' बनाकर आवे तो कर या। ये िनषादराज
ही या उस 'अिवगत अलख सकल िबकार रिहत गतभेदा से स तु हो जाते? इनके
िलये भी कौशल राजकु मार आखेट सखा बनकर ही स तोष दे सकते थे। अतः इस
करत च रत ध र मनुज तन' का मु य हेतु तो 'भगतिहत' ही है!
'सु नत िमटिहं जगजाल' इस बातको और प कर देना है। उस समय जो परम
भावुक महाभाग भ धराधामपर ये उनक भावनाओसे िववश होकर वे 'अलख
अगोचर, परा पर भु य हए, यह तो ठीक है िक तु उनका ‘करत च रत ध र
मनुज तनु ’ के वल उ ह भ के िहतके िलये नह है। वह तो अपने सम त भ के
िहतके िलये है। सभी साधुजन के प र ाण के िलये भु मनु य प धारण करके
मनोहर च रत करते ह।
"भजते ता शीः डा याः ु वा त परो भवेत् ।'
( ीम ागवत १०।३३।३७ )
वे वैसी ही लीलाएँ करते ह, िजनको सु नकर ाणीका िच उनम लगे। िजनके
वणसे 'जग-जाल' िमट जाय । 'जनम-मरन जह लिग जग जालू' के च से ाणी
उन िद य मं गलमय च रत को वण करके ही छू ट जाता है। इस कार 'सकल
िवकार रिहत गत भेदा व पसे सम त जन का क याण श य नह है। वह प तो
ऐसा है िक वेद ही उसे "नेित नेित' कहते ह, तब दूसरा उसके िवषय म या सु नेगा
और या सोचेगा। भाव ाण भ के िन य मं गलके िलये, उ ह जग-जालसे
प र ाण देकर उनका परमिहत करने के िलये ही वे भु 'मनुज तनु ध र' अप ने
िविवध च रत करते ह। इस कार उनके अवतारका मु य योजन सम त
साधुजन का प र ाण आवागमन प भवच से मुि है। इस 'भगत िहतके िलये
ही वे धरापर य होते ह।
'धरिन िहत' म भू-भार-हरण तो मु य है हो और धरणीने इसके िलये ाथना भी क
थी। यह बनवासको लीला उसी भू-भारको दूर करने क भूिमका है, िक तु इसके
साथ भुका पृ वीपर गट होकर अपनी उपि थितसे, अपने ीचरण के पशसे जो
पृ वी का मानवधन करना है, धराके अनेक थल को तीथ बना देना है, वह धरिन
िहत, भी गौण नह है । भू-भार-हरण तो इ छा करने मा से हो जाता, िक तु इस
िहतके , िलये तो धरणीपर पधारना ही था। अत: कृ पालु, भु इस "धरिन" िहतके
िलये भी 'मनुजतनु ' धारण करके नाना च रत कर रहे ह।
'भूसु र-िहत' भी रावण-बधम है। रावणके अनुचर या करते थे, यह बतलानेको
आव यकता नह है। ा ण और गाय के तो वे असु र ज मजात श ु ठहरे ।
'जेिहं जेिहं वेस धेनु ि ज पाविहं।
नगर गाउँ पुर आिग लगाविहं ॥'
(बाल० १८२/६)
वे उस देश, नगर या ामको ही भ म कर देते थे, जहाँ गाय या ामण रहते ह ।
भु ठहरे यदेव एवं परम गोव सल, अत: इन गो ि ज ोिहय का िवनाश
करनेके िलये वे यह मनुज तनु' धारण करके ये वनवासािद च रत कर रहे ह ।
'सु रिहत' भी रावण तथा उनके अनुचर के िवनाशम ही है। य िक रावणने देवताओं
का पोषण िजस य -भागसे होता है, उस य को ही रोक िदया है।
'जप जोग िबरागा तप मख भागा वन सु नइ दससीसा।
आपुनु उिठ धावइ रहै न पावइ ध र सब घालइखीसा॥
बाल० १/१८२ CH OK।
भुक बनवास लीलाम रावण वध- पी सु रकाज ही मुख है और इसीिलये
देवताओंने सर वतीको े रत करके म थराक बुि ा त करवाया और इस कार
इस लीलाको भूिमका तुत क ।
ये सब च रत भु वयं 'मनुज तनु ध र' कर रहे ह। उनका यह मानव प कम
परत नह है। उ ह ने वे छासे यह प योगमाया मुपाि तः योगमायाका आ य
लेकर कट िकया है । इसी कार वयं वे छासे वे कृ पालु भगत भूिम भूसु र सु रिभ
सु रिहत लािग, ये च रत कर रहे ह। इन च रत के करने म वे कम या ार धके परत
नह ह । पिहले जो कहा गया है
काह न कोउ सु ख दुख कर दाता।
िनज कृ त करम भोग सबु ाता॥
(-अयो० ९१/४)
वह बात इन राम परमारथ पाके िलये नह है। वह तो सामा य जीवके िलये
कही गई बात है। काल करम गुन िजनके हाथ उनको भला कमभोग या। लेिकन
यह भी ठीक नह िक उ ह िकसीने वनम भेजा है। उनके बनवासम माता कै के यी
आिद जो िनिम ह, वह भी उ हीक इ छा से । 'ध र मनुज तनु' वे, यै ीराम
वे छासे ही ये सब च रत कर रहे ह।
सखा समुिझ अस प रह र मोह ।
अिधकार अिधकार िसय रघुबीर चरन रत होह ॥
(-अयो०९३/१)
ल मणलालजी अपने उपदेशका उपसं हार करते हए कहते ह-सखा, ऐसा समझ कर
मोहको छोड़ दो िक इन तु हारे ि य सखा ीरामको माता कै के यीने वन देकर बड़ा
अनथ िकया और ये बड़े क म ह। ये अपनी इ छासे ही पृ वीपर इस मनु य प म
आये और अपनी इ छासे ही 'भगत भूिम भूसु र सु रिभ सु रिहत लािग' ये परम
कृ पालु, ऐसे च रत कर रहे ह, िजनको सु नकर ही ािणय का जग-जाल िमट जाता
है। अतः तुम तो इन 'िसय रघुवीर' के ीचरण म िच को लगाओ।

You might also like