Professional Documents
Culture Documents
प्रमुख वैदिक यज्ञ
प्रमुख वैदिक यज्ञ
इन यज्ञोंके मख्
ु यतया दो विभाग हैं – 1. श्रौत तथा 2. स्मार्त्त। श्रति
ु प्रतिपादित
यज्ञोंको श्रौतयज्ञ तथा स्मति
ृ प्रतिपादित यज्ञोंको स्मार्त्त यज्ञ कहते हैं।
श्रौतयज्ञोंमें केवल श्रुतिप्रतिपादित मन्त्रोंका प्रयोग होता है तथा स्मार्त्त यज्ञोंमें
वैदिक, पौराणिक तथा तान्त्रिक मन्त्रोंका प्रयोग होता है ।
स्मति
ृ योंमें तथा गह्
ृ यसूत्रोंमें औपासनहोम, वैश्वदे व, पार्णव, अष्टका, मासिश्राद्ध,
श्रवणा तथा शल
ू गव इन सात यज्ञोंका वर्णन किया गया है , अतः ये स्मार्त्त यज्ञ
हैं। इन्हीं को पाकयज्ञ भी कहते हैं। वैवाहिक चतर्थी
ु होमके अनन्तर विधिपर्व
ू क
सम्पादित अग्निको ही स्मार्त्ताग्नि कहते हैं। इसी अग्निमें औपासनहोम,
वैश्वदे व आदि स्मार्त्त यज्ञोंका अनुष्ठान किया जाता है ।
श्रौतयज्ञोंमें सात यज्ञ हविर्यज्ञ हैं तथा सात यज्ञ सोमयज्ञ हैं। हविर्यज्ञ इस प्रकार
है , यथा- अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढपशुबन्ध,
सौत्रामणी तथा पिण्डपितय
ृ ज्ञ। इसी प्रकार सात सोमयाग इस प्रकार हैं, यथा –
अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा
आप्तोर्याम[5]।
संक्षेपमें यदि कहा जाए तो कुल 21 यज्ञोंमें औपासन होम आदि सात यज्ञ
स्मार्त्तयज्ञ तथा शेष चौदह यज्ञ श्रौतयज्ञ। इन चौदहों यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ
जो अग्निहोत्रादि हैं तथा शेष अग्निष्टोमादि सात श्रौतयज्ञ सोम यज्ञ हैं।
जिन यज्ञोंमें चावल – जौं आदिकी आहुति दी जाती हैं, वे हविर्यज्ञ हैं तथा जिन
यज्ञोंमें सोमकी आहुति दी जाती है , उन्हें सोमयज्ञ कहते हैं।
इस सायंकाल अग्निहोत्रके मुख्य दे वता अग्नि तथा अङ्गदे वता प्रजापति तथा
प्रातः अग्निहोत्रके मख्
ु य दे वता सर्य
ू तथा प्रजापति अङ्गदे वता होते हैं।
दर्शेष्टिमें तीन याग किए जाते हैं, यथा – आग्नेय पुरोडाश, इन्द्रदे वताक
दधिद्रव्यक याग तथा इन्द्रदे वताक पयोद्रव्यक याग। इसी प्रकार पौर्णमासेष्टिमें
आग्नेय अष्टाकपाल पुरोडाशयाग, आज्यद्रव्यक अग्निषोमीय उपांशु याग तथा
अग्नीषोमीय एकादश कपाल पुरोडाशयाग। इस प्रकार कुल 6 याग किए जाते हैं।
प्रत्येक चौथे महीने जो याग किया जाता है , उसका नाम चातुर्मास्य है । इसमें चार
पर्व हैं, यथा – वैश्वदे व पर्व, वरुणप्रघास पर्व, साकमेध पर्व तथा शुनासारीय।
पहला पर्व वैश्वदे व[11] फाल्गन
ु मासकी पर्णि
ू माको किया जाता है । अग्नि, सोम,
सविता, सरस्वती,पूषा, मरुत ्, स्वतवान ् तथा द्यावापथि
ृ वी ये वैश्वदे व पर्वके
दे वता हैं। पुरोडाश, चरु, पयस्या, सोम ये द्रव्य हैं, जिनकी आहुति दी जाती है ।
इसका फल भी है । सन्तति के उद्देश्यसे वैश्वदे वपर्व का अनष्ु ठान किया जाता
है [12]।
वरुणप्रघासपर्वके लिए करम्भ पात्रका निर्माण किया जाता है तथा उसके लिए
एक होम भी होता है । यह करम्भ पात्र गोल,दीपककी आकृतिका तथा जौं से
बनाया जाता है [14]। चतुर्द शीके दिन अध्वर्यु के द्वारा चार करम्भ पात्र बनाए
जाते हैं।
पर्णि
ू माके दिन अध्वर्यु मेष तथा प्रतिप्रस्थाता मेषी बनाता है । धेन,ु अश्व तथा
छह अथवा बारह गौवें दक्षिणामें दी जाती है ।
वरुणपाश, जलोदर रोग तथा वात रोगसे मुक्तिके लिए वरुणप्रघास पर्वका
अनष्ु ठान किया जाता है ।
अग्नि, सोम, इन्द्राग्नी तथा वरुण इसके दे वता हैं, जिनके लिए पुरोडाश, चरु
तथा पयस्या की आहुति दी जाती है ।
अग्नि, मरुत ्, अदिति, ऐन्द्राग्न, विश्वकर्मा, त्रयम्बक तथा पितर आदि दे वता
इस पर्वमें होते हैं जिनके लिए चरु, सान्नाय्य,आज्य, धना आदिकी आहुति दी
जाती है ।
घरमें जो कन्याएँ विवाहके योग्य होती हैं, उनके विवाहके लिए साकमेधपर्वका
अनष्ु ठान किया जाता है ।
इन्द्र दे वताके लिए सौत्रामणी याग किया जाता है । इस यज्ञके लिए अध्वर्यु,
ब्रह्मा, होता, आग्नीध्र, प्रतिप्रस्थाता तथा मैत्रावरुण ये छह ऋत्विज होते हैं।
ऋद्धिकी कामनासे ब्राह्मणोंके द्वारा सौत्रामणी यज्ञ विशेष रूपसे किया जाता है ।
स्वराज्य की प्राप्तिके लिए क्षत्रियोंके द्वारा भी सौत्रामणी यज्ञ करनेका विधना
प्राप्त होता है । यह यज्ञ चार दिन तक चलता है तथा विशेष प्रकारका आसव
बनाया जाता है ,जिसकी आहुति दी जाती है । बछड़ेके सहित गाय इस यज्ञकी
दक्षिणा होती है ।
तत
ृ ीय सवनमें आर्भव पवमान[36] तथा अग्निष्टोम[37] स्तोत्र का गायन तथा
वैश्वदे व एवं अग्निमारुत शस्त्रका शंसन किया जाता है ।
जिस प्रकार हविर्यागोंकी प्रकृति दर्शपौर्णमासेष्टि है , उसी प्रकार समस्त
सोमयागोंकी प्रकृति अग्निष्टोम यज्ञ है । उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा
अप्तोर्याम ये छहों सोमयाग, अग्निष्टोम की विकृति हैं।
षोडशी यज्ञमें 15 स्तोत्रों एवं शस्त्रोंके अतिरिक्त एक अन्य स्तोत्र एवं शस्त्रका
गायन एवं पाठ होता है , जिसे तत
ृ ीय सवनमें षोडशीके नामसे पक
ु ारा जाता है ।
इसकी दक्षिणा लोहित-पिंगल घोड़ा या मादा खच्चर होती है [39]।
जिन श्रौतयागोंका संक्षिप्त परिचय आपके सम्मुख दिया गया, उनका अनुष्ठान
करने वाले वैदिक श्रौती सोमयाजी विद्वान ् आज भी भारतवर्षमें हैं तथा अनेक
वैदिक कुल-परिवारोंमें नित्य अनष्ु ठानके रूपमें भगवान ् अग्निदे वकी आराधना
निरन्तर की जाती है ।
[1] तमे तं वे दानु वचने न ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञे न दाने न तपसा नाशकेन।
् श्य
[13] प्रकृष्टो घासो भक्ष्यविशे षो ये षु हविर्विशे षु ते प्रघासाः। वरुणमु ददि
प्रघासाः वरुणप्रघासाः।
[15] साकमे धन्ते बर्ध्दन्ते दे वता एभिर्हविर्विशे षैः इति साकमे धाः।
[16] शु नो वायु ः सीर आदित्यः, तौ दे वते अस्ये ति शु नासीरं पर्व। (सरलावृ त्ति
भूमिका, पृ ष्ठसं ॰ 36)।
[35] “एतानि (“अभि त्वा शूर नोनु म”् , “कयानश्चित्र आभु वत्”, “तं वो
दस्ममृ तीषहम्”, “तरोभिर्वो विदद्वसु म”् ) एतानि क् रमे ण
रथन्तरवामदे व्यनौधसकाले यसामभिर्माध्यन्दिनसवने गीयमानानि
पृ ष्ठस्तोत्राणि इत्यु च्यन्ते ” (विस्तर 1.4.3.6-7)।
[44] अथादीक्षत राजा तु हयमे ध्शते न सः। ब्रह्मावर्ते मनोः क्षे तर् ां यत्र प्राची
सरस्वती।। (भागपु ॰ 4.19.1)।
[45] भगवानपि वै वुफण्ठः सावं फ मघवता विभु ः। यज्ञै र्यज्ञपतिस्तु ष्टो यज्ञभु व्फ
तमभाषत।। (भागपु ॰ 4.20.1)।