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श्री शनि चालीसा (हिन्दी)

॥ दोहा ॥
!! जय गणेश गगरिजा सुवन, मंगल किण कृ पाल,
दीनन के दुःु ख दिू करि , कीजै नाथ गनहाल,
जय जय श्री शगनदे व प्रभु , सुनहु ववनय महािाज ,
किहु कृ पा हे िवव तनय , िाखहु जन की लाज !!

!! जयगत जयगत शगनदे व दयाला कित सदा भक्तन प्रगतपाला,


चारि भुजा, तनु श्याम वविाजै माथे ितन मुकुट छवव छाजै,
पिम ववशाल मनोहि भाला टे ढी दृवि भृकुटट ववकिाला,
कुण्डल श्रवन चमाचम चमके टहये माल मुक्तन मणण दमकै !!

!! कि में गदा विशूल कुरािा पल विच किैं अरिटहं संहािा,


वपंगल, कृ ष्णो, छाया, नन्दन यम, कोणस्थ, िौद्र, दुःु ख भंजन,
सौिी, मन्द शनी दश नामा भानु पुि पूजटहं सि कामा,
जापि प्रभु प्रसन्न हवैं जाहीं िं कहुं िाव किैं क्षण माहीं !!

!! पववतहू तृण होइ गनहाित तृणहू को पववत करि डाित,


िाज गमलत वन िामटहं दीन्हयो कैकेइहुुँ की मगत हरि लीन्हयो,
वनहुं में मृग कपट टदखाई मातु जानकी गई चुिाई,
लषणटहं शवक्त ववकल करिडािा मगचगा दल में हाहाकािा !!

!! िावण की गगतमगत िौिाई- िामचन्द्र सों िैि िढाई,


टदयो कीट करि कंचन लंका िणज िजिं ग िीि की डं का,
नृप ववक्रम पि तुटह पगु धािा गचि मयूि गनगगल गै हािा,
हाि नौलखा लाग्यो चोिी हाथ पैि डिवायो तोिी !!

!! भािी दशा गनकृ ि टदखायो तेलटहं घि कोल्हू चलवायो,


ववनय िाग दीपक महुँ कीन्हयों ति प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों,
हरिश्चन्द्र नृप नारि विकानी आपहुं भिे डोम घि पानी,
तैसे नल पि दशा गसिानी भूज
ं ी!! मीन कूद गई पानी-

!! श्री शंकिटहं गह्यो जि जाई पािवती को सती किाई,


तगनक ववकलोकत ही करि िीसा नभ उट़ि गतो गौरिसुत सीसा,
पाण्डव पि भै दशा तुम्हािी िची द्रोपदी होगत उधािी,
कौिव के भी गगत मगत माियो युद्ध महाभाित करि डाियो !!

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!! िवव कहुँ मुख महुँ धरि तत्काला लेकि कूटद पियो पाताला,
शेष दे वलणख ववनती लाई- िवव को मुख ते टदयो छु़िाई,
वाहन प्रभु के सात सुजाना जग टदग्गज गदव भ मृग स्वाना,
जम्िुक गसह आटद नख धािी सो फल ज्योगतष कहत पुकािी !!

!! गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं हय ते सुख सम्पवि उपजावै,


गदव भ हागन किै िहु काजा गसह गसद्ध्कि िाज समाजा,
जम्िुक िुवद्ध नि कि डािै मृग दे कि प्राण संहािै ,
जि आवटहं स्वान सवािी चोिी आटद होय डि भािी !!

!! तैसटह चारि चिण यह नामा स्वणव लौह चाुँदी अरु तामा,


लौह चिण पि जि प्रभु आवैं धन जन सम्पवि नि किावैं,
समता ताम्र िजत शुभकािी स्वणव सववसख
ु मंगल भािी,
जो यह शगन चरिि गनत गावै किहुं न दशा गनकृ ि सतावै !!

!! अद्भत
ु नाथ टदखावैं लीला किैं शिु के नगश िगल ढीला,
जो पणण्डत सुयोग्य िुलवाई ववगधवत शगन ग्रह शांगत किाई,
पीपल जल शगन टदवस चढावत दीप दान दै िहु सुख पावत,
कहत िाम सुन्दि प्रभु दासा शगन सुगमित सुख होत प्रकाशा !!

॥ दोहा ॥
!! पार शगनश्चि दे व को, की हों ‘भक्त’ तैयाि,
कित पार चालीस टदन, हो भवसागि पाि !!

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