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33वीं क़िस्त 57वाँ दिन PDF
33वीं क़िस्त 57वाँ दिन PDF
33वीं क़िस्त 57वाँ दिन PDF
पाठ-पुनः पाठ
लॉ क डा उ न
57 वें दिन का पाठाहार
तेंतीसवीं िक़स्त
क्रम
प्रकाशकीय
4
युद्ध और शान्ति
उपन्यास-अंश
लेव तोलस्तोय
8
सं कट में कविता
संजय कुंदन
53
ख़ाली जगह
आशुतोष दुबे
55
अशोक महेश्वरी
प्रबंध निदेशक, राजकमल प्रकाशन समूह
5
कहाँ तो तय था चिरांगा हरेक घर के लिए
*
दुष्यंत कुमार
7
युद्ध और शान्ति
खंड-3
*
लेव तोलस्तोय
इसी बीच मास्को ख़ाली हो गया था। उसमें लोग तो थे, उसमें
उसके भूतपूर्व निवासियों का पचासवाँ भाग रह गया था, लेकिन
वह ख़ाली था। वह उसी तरह से ख़ाली था जैसे मधुमक्खियों के
छत्ते की महारानी के बिना नष्ट होता हुआ छत्ता ख़ाली होता है।
महारानीहीन छत्ते में िज़न्दगी नहीं होती, लेकिन सरसरी नज़र से देखने
पर वह दूसरे छत्तों की तरह जीवन से धड़कता प्रतीत होता है।
दोपहर की गर्म धूप में महारानीहीन छत्ते के गिर्द भी वैसे ही मधुमक्खियाँ
मँडराती रहती हैं जैसे जीवन से धड़कते अन्य छत्तों के गिर्द; उसमें
भी उसी भाँति दूर से ही शहद की सुगन्ध आती है, उसमें भी उसी
प्रकार मधुमक्खियाँ दाख़िल होती हैं और उससे बाहर निकलती हैं।
किन्तु उसे ध्यान से देखते ही यह बात समझ में आ जाती है कि
छत्ते में िज़न्दगी नहीं रही। मधुमक्खियाँ उसमें न तो जीवित छत्तों की
भाँति दाख़िल होती हैं और बाहर निकलती हैं, न ही मधुमक्खी-पालक
लॉकडाउन : 55वाँ दिन
युद्ध और शान
भीड़ थी जैसी कि सस्ते मालोंवाले बाज़ार में होती है। लेकिन यहाँ
मीठी-मीठी बातों से ग्राहकों को अपनी दुकान की ओर फुसलानेवालों,
फेरी लगानेवालों तथा रंग-बिरंगी पोशाकों में महिला-ग्राहकों की भीड़
नहीं थी। यहाँ तो हथियारों के बिना वर्दियाँ और फ़ौजी ओवरकोट
पहने हुए सिर्फ़ फ़ौजी ही नज़र आ रहे थे जो दुकानों की क़तारों
में चुपचाप ख़ाली हाथ दाख़िल होते थे और सामान लेकर बाहर
निकलते थे। व्यापारी, दुकानदार और उनके सहायक (उनकी संख्या
बहुत कम थी) फ़ौजियों के बीच किंकर्तव्यविमूढ़-से आ-जा रहे थे,
अपनी दुकानों को खोलते और बन्द करते थे तथा युवा सहायकों के
साथ अपना माल कहीं ले जाते थे। इस बाज़ार के चौक में फ़ौजियों
के अपनी-अपनी सेनाओं में जाने के लिए ढोल बजाय जा रहे थे।
किन्तु ढोलों की आवाज़ लुटेरे सैनिकों को पहले की भाँति सेना में
वापस दौड़ने के लिए नहीं, बल्कि इसके विपरीत, ढोल से दूर भागने
को प्रेरित करती थी। दुकानों में और रास्तों पर फ़ौजियों के बीच
भूरे कोट पहने, सिर मुंडे अपराधी भी नज़र आ रहे थे। दो फ़ौजी
अफ़सर, जिनमें से एक वर्दी पर गुलूबन्द लपेटे और गहरे सलेटी रंग
के दुबले-से घोड़े पर सवार था तथा दूसरा फ़ौजी ओवरकोट पहने
और पैदल था, इल्यीन्का सड़क के सिरे पर खड़े बातें कर रहे थे।
एक तीसरा अफ़सर सरपट घोड़ा दौड़ाता हुआ इनके पास आया।
“जनरल का हुक्म है कि जैसे भी हो, इन सबको फ़ौरन यहाँ से
वापस भगाना चाहिए। यह तो बड़ी बेहूदा बात हो रही है! आधे
फ़ौजी इधर-उधर भाग गए हैं।”
“तुम कहाँ जा रहे हो?...और तुम लोग भी...” वह तीन प्यादा फ़ौजियों
पर चिल्लाया जो बन्दूक़ों के बिना और अपने फ़ौजी ओवरकोटों के
पल्लुओं को ऊपर उठाए हुए दुकानों की क़तारों की तरफ़ खिसके
जा रहे थे। “रुको, बदमाशो!”
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पाठ-पुनः पाठ
इसी बीच नगर सुनसान हो गया था। सड़कों पर लगभग कोई नहीं
था। सभी फाटक, सभी दुकानें बन्द थीं। शराबख़ानों के आस-पास
कहीं किसी का चिल्लाना या किसी शराबी का गाना सुनाई देता था।
सड़कों पर घोड़ागाडि़याँ नहीं थीं और पैदल चल रहे किसी व्यक्ति
के पाँवों की भी कभी-कभार ही आहट मिलती थी। पोवर्स्काया सड़क
पर एकदम सन्नाटा और वीराना था। रोस्तोवों की हवेली के बहुत बड़े
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युद्ध और शान
ज़रा मुस्कुराता हुआ अहाते में इधर-उधर आ-जा रहा था। ‘कितने
अफ़सोस की बात है कि मामा जी नहीं मिले। कितनी अच्छी है
यह बुढ़िया! न जाने किधर चली गई वह? कैसे मैं यह मालूम करूँ
कि मेरे लिए किन सड़कों से होते हुए अपनी रेजिमेंट तक पहुँचना
आसान रहेगा जो अब रोगोज्स्की चौक में पहुँच गई होगी?’ जवान
अफ़सर इस वक़्त सोच रहा था। माव्रा कुज़्मीनिश्ना हाथों में लपेटा
हुआ चौख़ानेदार रूमाल तथा चेहरे पर भीरुता, साथ ही दृढ़ता का
भाव लिये घर के कोने से सामने आई। जवान अफ़सर से कुछ
क़दम इधर रह जाने पर उसने रूमाल खोला, उसमें से पच्चीस रूबल
का सफ़ेद नोट निकाला और उसे जल्दी से अफ़सर को दे दिया।
“अगर मालिक, हमारे साहब घर पर होते तो स्पष्ट है कि उन्होंने
रिश्तेदार की तरह...लेकिन आज की स्थिति में...शायद....” माव्रा
कुज़्मीनिश्ना घबरा और झेंप गई। किन्तु अफ़सर ने इनकार नहीं
किया, उतावली किए बिना नोट ले लिया और माव्रा कुज़्मीनिश्ना
को धन्यवाद दिया। “काश, काउंट घर पर होते,” मानो सफ़ाई पेश
करते हुए वह कहती रही। “आप पर प्रभु ईसा की कृपादृष्टि रहे,
भैया! भगवान आपकी रक्षा करें,” माव्रा कुज़्मीनिश्ना ने सिर झुकाकर
उसे विदा करते हुए कहा। जवान फ़ौजी अफ़सर मानो अपने पर
हँसता, मुस्कुराता, सिर हिलाता और सूनी सड़कों पर लगभग भागता
हुआ अपनी रेजिमेंट से जा मिलने के लिए याउज्स्की पुल की तरफ़
बढ़ चला।
और माव्रा कुज़्मीनिश्ना, जिसकी आँखें नम हो गई थीं, कुछ सोचती,
सिर हिलाती और इस अपरिचित जवान अफ़सर के लिए अचानक
मातृवत वात्सल्य और दया की प्रबल भावना अनुभव करती हुई देर
तक बन्द फाटक के सामने खड़ी रही।
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पाठ-पुनः पाठ
दूसरे लोग बातें करते और शोर मचाते हुए इनके पीछे-पीछे जा रहे थे।
मारोसेइका सड़क के नुक्कड़ पर शटरों से बन्द कर एक बड़े मकान
के सामने, जिस पर मोचीख़ाने का साइनबोर्ड लगा था था, लबादे
और फटे कोट पहने दुबले-पतले, मुरझाए तथा उदास चेहरोंवाले
कोई बीसेक मोची खड़े थे।
“वह जैसे भी चाहता है, वैसे ही लोगों को उल्लू बनता है!” भौंहें
सिकोड़े हुए विरली दाढ़ीवाला एक दुबला-पतला मोची कह रहा था।
“हमारा ख़ून चूसता रहा और बस, हिसाब बराबर! हफ़्ते-भर तक
हमें बेवक़ूफ बनाता रहा और आख़िर हमारी यह हालत करके ख़ुद
यहाँ से चला गया।”
लोगों की भीड़ और लहूलुहान व्यक्ति को देखकर बातें करनेवाला
मोची चुप हो गया और सारे मोची जिज्ञासा के वशीभूत होकर फ़ौरन
भीड़ के साथ चल दिए।
“लोग-बाग कहाँ जा रहे हैं?”
“ज़ाहिर ही है कि कहाँ जा रहे हैं, थानेदार के पास!”
“क्या यह सच है कि हमारी फ़ौजें पिट गई हैं?”
“और तुमने क्या सोचा था! सुनो तो लोग क्या कह रहे हैं।”
सवाल-जवाब सुनाई देने लगे। शराबख़ाने का मालिक भीड़ के बढ़
जाने से पीछे रह गया और अपने शराबख़ाने को वापस चला गया।
लम्बे-तड़ंगे नौजवान ने अपने शत्रु यानी शराबख़ाने के मालिक को
खिसकते हुए नहीं देखा; वह अपने उस हाथ को, जिसकी आस्तीन
चढ़ाए था, हिलाते हुए लगातार बोलता जा रहा था और इस तरह
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युद्ध और शान
क़रीब पहुँच गया था, उसने ज़रा काँपती आवाज़ में पर्चे को फिर
से पढ़ना शुरू कर दिया।
“मैं कल तड़के ही महामान्य प्रिंस कुतूज़ोव के पास जा रहा हूँ,”
वह पढ़ रहा था (‘‘महामान्य!’’ लम्बे-तड़ंगे नौजवान ने ज़रा मुस्कराते
और माथे पर बल डालते हुए गम्भीरता से दोहराया), “ताकि उनसे
सारी बातचीत कर लूँ, ज़रूरी क़दम उठाऊँ और कमीने दुश्मन को
नष्ट करने में फ़ौज की मदद करूँ; हम भी उसकी नाक में दम
कर देंगे...” पर्चा पढ़नेवाला यहाँ रुक गया (“देखा?” लम्बा-तड़ंगा
नौजवान विजेता के अन्दाज़ में चिल्ला उठा, “वह उसकी अक़्ल
ठिकाने कर देंगे...”)...‘‘ताकि इनकी जड़ें काटकर इन मेहमानों को
जहन्नुम रसीद कर दिया जाए। मैं लंच के वक़्त तक वापस आ
जाऊँगा और हम काम में जुट जाएँगे, इसे करेंगे, पूरा करेंगे और
कमीने दुश्मन का काम तमाम कर देंगे।”
अन्तिम शब्द गहरी ख़ामोशी में सुने गए। लम्बे-तड़ंगे नौजवान ने
उदासी से सिर झुका लिया। यह स्पष्ट था कि अन्तिम शब्द किसी
की भी समझ में नहीं आए थे। ‘मैं कल लंच के वक़्त तक वापस
आ जाऊँगा,’ ये शब्द पढ़नेवाले और श्रोताओं को सम्भवत: विशेष
रूप से बुरे लगे। लोग बेहद उत्तेजित थे और इस पर्चे में जो कुछ
कहा गया था, वह बहुत आम और मामूली था। यह तो वही कुछ
था जिसे उनमें से हर आदमी कह सकता था और इसलिए उच्चतम
अधिकारी अर्थात मास्को के गवर्नर को इसे अपने पर्चे में नहीं कहना
चाहिए था।
सभी निराशापूर्ण मौन साधे खड़े थे। लम्बे-तड़ंगे नौजवान ने अपने
होंठ हिलाए और वह थोड़ा लड़खड़ाया।
“हम इसी से क्यों न पूछें!...यह वही तो है न? इससे पूछना कैसा
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
युद्ध और शान
सात-आठ महीने लखनऊ में बीत चुके हैं। ठीक-ठाक अंकों से मैंने
द्वितीय सत्र पास कर लिया है। तीसरा सैमिस्टर शुरू हो चुका है।
पर मैं विवश हूँ। मुझे तो लखनऊ में ही रहना है। लेकिन यह शहर
और लोग मुझे भाने लगे हैं। आत्मीयता मिल रही है। मैं यहीं रमा
रहूँ, यह जी करता है। ‘हिन्दुस्थान समाचार’ के शाखा प्रमुख सुरेन्द्र
द्विवेदी और संवाददाता अशोक निगम से भी भरपूर सहयोग मिल
रहा है। तब कौन जाए इस शाने-अवध को छोड़कर!
पर मैं न विधाता हूँ और न ही बॉस। मैं एक सामान्य पत्रकार हूँ
जिसने अपना सफ़र ठीक से अभी शुरू भी नहीं किया है। लखनऊ
से मेरा नागपुर तबादला कर दिया गया है। मुझे पहले कुछ समय
दिल्ली बिताना होगा। इसके बाद मुझे नागपुर भेजा जाएगा। इस
आशय का आदेश दिल्ली मुख्यालय से लखनऊ शाखा पहुँच चुका
है। मेरी जगह पटना से भेजे गए सुरेश अखौरी1 लेंगे। वे पहुँच भी
चुके हैं। सप्ताह भर उन्हें लखनऊ के ख़बर गलियारों से वाकिफ़
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पाठ-पुनः पाठ
कोई आश्चर्य नहीं, आने वाले समय में दिल्ली कांग्रेस पर इसका
कब्जा हो जाए!
इधर केन्द्र की राजनीति अशांत हो चुकी है। कांग्रेस में ज्वार-भाटे तो
हमेशा चलते ही रहते हैं। पर इस बार तो चक्रवात ही चक्रवात हैं।
लगता है इन चक्रवातों की रफ्ऱतार से इस अस्सी ऊपर पार्टी का
शीराजा जरूर बिखरेगा। कांग्रेस के धाकड़ व खुर्राट नेताओं (एस-
के. पाटिल, अतुल्य घोष, निजलिंगप्पा, बनारसीदास गुप्त, मोरारजी
देसाई, तारकेश्वरी सिन्हा आदि) और प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी एवं
उनके समर्थकों (उमाशंकर दीक्षित, डी.पी. मिश्र, ललितनारायण मिश्र,
हेमवती बहुगुणा, इन्द्रकुमार गुजराल, मोहनलाल सुखाड़िया, के.सी.
पंत, चंद्रशेखर, चंद्रजीत यादव, टी.टी. कृष्णमाचारी, मोहन धारिया,
अर्जुन अरोड़ा, अमृत नहाटा, कुमार मंगलम् आदि) के बीच ठन गई
है। जनवरी 1966 में ताशकंद में लालबहादुर शास्त्री जी के निधन
के पश्चात् इन्दिरा जी को इसलिए प्रधानमंत्री बनाया गया था कि
वे ‘गूंगी गुड़िया’ और ‘कठपुतली’ बनी रहेंगी। खुर्रांट नेताओं के
इशारों पर यह गुड़िया या दरबारी नृत्यांगना नाच करेगी। लेकिन अब
यह गुर्राने लगी है। इसने अपना ‘तांडव’ दिखाना शुरू कर दिया है।
कांग्रेस में कुछ नए शब्दों का प्रचलन शुरू हो गया है : सिंडीकेट
कांग्रेस (निजलिंगप्पा मंडली) बनाम इंडीकेट कांग्रेस (प्रधानमंत्री गुट)—
पुरानी या संगठन कांग्रेस (पार्टी अध्यक्ष समर्थक या खुर्रांटों की
मंडली) बनाम रुलिंग कांग्रेस या नई कांग्रेस। कांग्रेस के संगठन गुट
और सत्ताधारी गुट के बीच अर्द्धरात्रि तक जंग चलती रहती। मध्य
रात्रि के बाद अगले रोज की व्यूहरचना शुरू हो जाती है—गुटों के
सदस्यों की तोड़-फोड़, आरोप-प्रत्यारोप जंग—इन्दिरा निष्कासन की
तैयारी—प्रेस कांफ्रेंसें आदि। अँगरेजी प्रेस में ‘Nocturnal Warfare’
और हिन्दी प्रेस में ‘मध्यरात्रि जंग’ जैसे शब्द ख़ूब उछल रहे हैं।
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
मैं बोनसाई अपने समय क
39
पाठ-पुनः पाठ
41
पाठ-पुनः पाठ
में भाग लेता हूँ। यह अलग बात है, इन बहसों में जनसंघ, संगठन
कांग्रेस के नेता निशाने पर होते हैं। अमेरिका की भी आलोचना होती
है। मुझे कड़े शब्दों में हिदायत दी गई कि मैं कार्य-समाप्ति पर घर
जाया करूँ, वरना अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।
संयोग है कि इस चेतावनी के दो रोज पश्चात् मंडी हाउस से बाहर
निकलते हुए गेट पर मेरा स्कूटर पुलिस वाहन से टकरा गया। ललाट
पर चोट आई। डॉक्टर के यहाँ ले जाया गया। सिर पर पट्टी बाँधी
गई। दो रोज तक बिस्तर पर पड़ा रहा। जब लौट कर आया तब
बालेश्वर जी ने साथियों के सामने मुझे डाँटना शुरू कर दिया। मैं भी
उखड़ गया। धैर्य का बाँध टूट गया। कब की भरी भड़ास निकलने
लगी। मैंने अपने प्रति आक्रमणों में कह डाला—आप अमानवीय हैं,
मनुष्यता नहीं है। दुर्घटना में मेरी जान कैसे बची, कितनी चोट लगी,
इलाज पर कितना ख़र्च हुआ, यह सब जानने के बजाय आपकी
चिंता केवल लोहे-टिन का स्कूटर है, उसका ख़र्च है। सच, उस रोज
ऑफिस में ऐसा धमाका लोगों ने पहली दफ़ा देखा था। ऑफिस
का वातावरण अधिक न बिगड़े, यह देखते हुए पंडित जी बालेश्वर
जी को सम्पादकीय कक्ष से बाहर ले गए।
दरअसल, समाचार में अधिकांश साथी संघ पृष्ठभूमि के हैं। उनका
सीधा सम्बन्ध झण्डेवालान (दिल्ली का संघ कार्यालय) और नागपुर
मुख्यालय से रहता है। इसलिए ये लोग शांतिपूर्वक बालेश्वर जी
की ज्यादतियाँ बर्दाश्त करते रहते हैं। पर मेरे साथ ऐसी कोई स्थिति
नहीं है। यद्यपि मैं जयपुर में बचपन में शाखा में जाता रहा हूँ।
देवेन्द्र शुक्ल की भावनाओं का सम्मान करते हुए दरियागंज की
शाखा में भी गया। जनसंघ की दरियागंज मंडल इकाई का उपाध्यक्ष
(1965-66) भी रहा। पर, संघ व जनसंघ का रंग मुझ पर चढ़
नहीं सका। ये लोग दिल-दिमाग़ से प्राचीनता में रमते हैं, विवशता
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पाठ-पुनः पाठ
नागपुर में पुकार लगाएँगे। वहाँ से मुझे फ़ोन आएगा। तब मेरे लिए
मुश्किल हो जाएगी।”
“तब आप ही हमारा मार्ग निर्देशन करें—किसको अध्यक्ष बनाया
जाए?”
“तुम लोग ऐसा करो—अण्णा को बनाओ। उन पर किसी का दबाव
नहीं चलेगा। मैं उन्हें अभी फ़ोन कर देता हूँ।” ढेंगड़ी जी ने तुरंत
ही एस.एम. जोशी जी को सविस्तार फ़ोन पर मराठी में समाचार
के कर्मचारियों की समस्या बतला दी। ढेंगड़ी जी का यह ‘इनकार’
उनकी ईमानदारी और श्रमिकों के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक है।
श्रमिक नेता को कैसा होना चाहिए, यह ढेंगड़ी जी से सीखना चाहिए।
हम सभी साथी कैनिंग लेन स्थित जोशी जी के यहाँ पहुँच गए।
चूँकि जोशी जी मुझे पहले से जानते थे, बम्बई-दिल्ली यात्रा साथ
की थी, इसलिए मैं भी उनके यहाँ पहुँच गया। मैंने भी उन्हें हिन्दी
में पत्रकारों और कर्मचारियों की समस्याओं-माँगों के सम्बन्ध में
विस्तार से बताया। उन्होंने अध्यक्ष बनने की सहमति दे दी। अगले
ही रोज यूनियन की स्थापना की घोषणा कर दी गई और बालेश्वर
जी को माँग पत्र दे दिया गया। सभी अख़बारों में इसकी ख़बर भी
मैंने दौड़-धूप करके छपा दी। ‘हिन्दुस्थान समाचार’ के इतिहास
में यह स्तब्धकारी घटना थी। संघ और बालेश्वर जी के लिए यह
अकल्पनीय था कि किसी रोज समाचार में यूनियन बनेगी, माँग पत्र
दिया जाएगा और श्रमिक असंतोष की शुरुआत होगी! मेरे जीवन में
यूनियन की स्थापना से एक नया आयाम जुड़ा है। मुझे यह अपनी
भावी भूमिका का पूर्वाभ्यास लगता है!
मेरा नागपुर तबादला कर दिया गया है। लखनऊ वाले आदेश का
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पाठ-पुनः पाठ
संदर्भ दिया गया है। मैंने जाने से इनकार कर दिया है। मैंने डी.यू.जे.
(दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स) से शिकायत की है। हमारी यूनियन
ने अपने माँग पत्र में मेरा भी प्रकरण शामिल किया है। हम यूनियन के
लोग मंडी हाउस गेट पर धरने पर बैठ गए हैं, नारेबाजी-पोस्टरबाजी
शुरू हो गई है। चाणक्य कहते हैं—शत्रु का शत्रु, आपका दोस्त।
समाचार भारती के धर्मवीर गाँधी व घनश्याम पंकज परोक्ष रूप से
यूनियन का समर्थन कर रहे हैं। पोस्टर-पर्चे आदि छपवाने में मदद
कर रहे हैं। वे बालेश्वर जी से अपना पुराना हिसाब-किताब चुकता
करना चाहते हैं। प्रबंध सम्पादक बालेश्वर अग्रवाल को हम लोगों
ने ऑटो से बाहर खींच कर घेराव भी किया। उन्होंने मेरे प्रकरण
को छोड़ लगभग अन्य सभी माँगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने
का आश्वासन दे दिया है, अवकाश की माँग तो तुरंत मान ली है।
राजधानी के अँगरेजी अख़बार, विशेषरूप से लिंक, पेट्रियट, स्टैट्समैन,
एक्सप्रेस आदि हमारे आंदोलन की कई ख़बरों को छाप भी रहे हैं।
बिल्टज के ब्यूरो प्रमुख ए.के. राघवन जी ने तो अपने सभी संस्करणों
में सवा पेज पर फैला विश्लेषणात्मक लेख लिखा है, जिसमें संघ
और समाचार के परम्परागत रिश्तों व वैचारिक प्रभावों की खोज-ख़बर
ली गई है। इसमें मेरे संघर्ष का भी उल्लेख है। सांसद सुभद्रा जोशी
जी का सेक्युलर हाउस और मासिक ‘सेक्युलर डेमोक्रेसी’ पत्रिका
के सम्पादक डॉ. डी.आर. गोयल से भी हमें अपेक्षित समर्थन मिल
रहा है। ये लोग धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष
के प्रति समर्पित रहते हैं। समाचार के प्रबंधकों और वरिष्ठ पत्रकारों
को यह उम्मीद नहीं थी कि राजधानी की प्रेस से मुझे और यूनियन
को ऐसा अप्रत्याशित समर्थन प्राप्त होगा! बालेश्वर जी ने सोचा था
कि यूनियन और मैं दो रोज में टूटकर बिखर जाएँगे। लौटकर हम
लोग उनके सामने शरणागत हो जाएँगे। उनकी तानाशाही के सामने
घुटने टेक देंगे। उनका यह सपना—सपना ही रहा!
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
मैं बोनसाई अपने समय क
संदर्भ
1. सुरेश अखौरी बाद में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ को छोड़ कर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में पहुँच गए।
कई वर्षों तक रहे।
2. शरद द्विवेदी बाद में यूनिवार्ता के सम्पादक बने और प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी
रहे।
3. अब मंडी हाउस प्रसार भारती और दूरदर्शन के मुख्यालय में बदल गया है।
4. पंकज बिष्ट ने मेरे साथ स्कूटर सवारी के अनुभव का रोचक वर्णन, ‘समयांतर’ में प्रकाशित
अपने एक संस्मरण में विस्तार से किया है।
5. विस्तार के लिए देख:ें अटलबिहारी वाजपेयी अभिनन्दन ग्रंथ, सम्पादक राजेन्द्र शर्मा, प्रकाशक:
स्वदेश प्रकाशन, (भोपाल)
6. देखें : ‘कहाँ गए वो सम्पादक?’ मासिक पत्रिका ‘अक़सर’, सम्पादक हेतु भारद्वाज, (जयपुर)
51
जगलेखा
इन दिनों फेसबुक
सं कट में कविता
*
संजय कुंदन
18 मई, 2020
17 मई, 2020
55
पाठ-पुनः पाठ
16 मई, 2020
हम भी पैदल खूब चले, लेकिन वह चलना मजबूरी नहीं थी, कुछ यात्राओं
का हिस्सा थीं...याद है ईया के साथ सिमरिया घाट गंगा नहाने जाना
जब गंगा जी घाट से दूर भाग जाती थीं और हम बालू में पैदल चल
उनके पास पहुँचते वो दूरी क्या होती थी, नहीं मालूम लेकिन नन्हें पैर
दुखने लगते थे। ...बचपन में कितने दफे मैरवा स्टेशन से अपने गाँव
पैदल जाती थी। पाँच से आठ किलोमीटर की दूरी वो रूट पर डिपेंड
करता था, गाँव से टायर गाड़ी छज्जा लगा हुआ और गद्दा चादर तकिया
बिछा हुआ आता, भोला काका हमारे गाड़ीवान थे, माँ थोड़ा आँचल
चेहरे पर आगे कर गाड़ी में बैठती, गाँव जाने की तारीख नज़दीक आते
माँ बेगुसराय, बरौनी रिफायनरी टॉउनशिप में पेड़ा बनाना शुरू कर
देती, दूध वाले बाबा रोज ज्यादा दूध देकर जाते, मेरे गाँव में माँ के
हाथ का बना बरौनी का पेड़ा फेमस था, मैरवा स्टेशन से उतरते सबसे
पहले भोला काका को पानी पीने के लिए वो पेड़ा मिलता, खैर हम
57
पाठ-पुनः पाठ
टायर गाड़ी पर बीच-बीच में बैठते, सारे रास्ते पैदल चलते, आसपास
के खेतों से ऊख चूसते, भुट्टा तोड़ते, चने और खेसारी के साग की
टुस्सी चबाते, टमाटर, मटर की छीमी खाते, जो खेत बगल से गुजरता
और खाने लायक चीज़ अगर होती तो उसका जायका लेते हुए आगे
बढ़ते, इस सफर में इंतज़ार चुपचुपवा डीह का होता, मेरे गाँव की सड़क
नहर की बाँध हुआ करती थी, वही नहर जिसमें नेपाल से नारायणी या
गंडक का पानी ठेल दिया जाता था, उस नहर के बनने से पहले तमाम
किस्म की फसलें होती थीं लेकिन नहर ने केवल चावल, गन्ना में समेट
दिया, शुरू में जब बिहार में चीनी मिलों का स्वर्णिम दौर था तब गन्ने
की खेती के मायने थे, हमारी आखों के सामने हमने इन चीनी मिलों
को कबाड़ में बदलते देखा और गन्ने की चौपट होती खेती भी, खैर
बात चुपचुपवा डीह की जहाँ अचानक नहर की ऊंचाई बढ़ जाती थी,
एक छोटा मंदिर, पीपल का पेड़, मंदिर के बाबा और एक चापा नल,
अजीब सी शान्ति होती थी उस जगह और नल का पानी इतना मीठा
कि हम कई बार पानी पीते फिर अपने थर्मस में भरते, बाबा से बात
करते, पीपल की छाँह में सुस्ताते फिर आगे बढ़ते...इंतज़ार उस पूल के
आने का करते जो गाँव का पुल था और उससे उतरते ही पांड़े लोगों
की बारी का, वहाँ एक सिंदूरियाँ आम का पेड़ होता था आधा लाल,
पीला, हरा वो आम गज़ब आकर्षक लगते, अगर गर्मियों के दिन होते
तो एक दो हासिल कर लेने के लालच से बचना मुश्किल था...ये वो
पैदल चलना होता जिसका हमें महीनों से इंतज़ार होता, हम उन रास्तों
पर पैदल ही चलना चाहते थे, रास्ते में मिलने वाले लोगों से बात करते,
हाल चाल पूछते बताते...लेकिन हमारा जाना प्रवासी पंछियों की तरह
होता था, जहाँ जब कुछ तय था, निश्चिंतता के साथ...
30 अप्रैल, 2020
2 मई, 2020
जैसे स्वप्न के भीतर स्वप्न देखा जाता रहा है, जैसे कविता और कवियों
पर कविताएँ की जाती रही हैं, वैसे ही पोस्टों पर पोस्ट लिखी जा रही हैं।
बाहर का सब मसाला चुक चुका है। सारे रिफॉर्म्स और सुधार सामने
उपलब्ध लोगों के ही हो रहे हैं। सारी प्रशंसाएँ, उपेक्षाएँ, आलोचनाएँ,
ईर्ष्याएँ, प्रतिस्पर्धाएँ, स्वीकार्यताएँ यहीं केंद्रित हैं। टैबू अभिव्यक्ति का
नया तरीका है। वैचारिक स्वतंत्रतता क्या है भला, हम तय करेंगे कि
कोई क्या बोले, कैसे बोले। विविधता क्यों हो, हमसे अलग कोई क्यों
सोचे और बोले?
यह तुम्हारा मानसिक लॉकडाउन, क्रांति नहीं अवसाद है। वे लोग जो
इस डिब्बे से बाहर भी एक जीवन जी रहे हैं, कुछ अलग बातें कर रहे
हैं, कुछ अदेखे दृश्यों और लोगों को तुम्हारी दुनिया में ला रहे हैं। उन्हें
छोटी ही सही रोशनी की किरण मानो। दुनिया बड़ी है, रोज़ बदल रही
है, उसके सीने से लगकर उसकी बदलती धड़कन सुनो। कुछ न हो
सके तो एक गमले की मिट्टी ज़रा देर मुट्ठी में भरे बैठे रहो।
https://bit.ly/36qMnSx
https://bit.ly/2WPFjtU