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शशवसूत पथम पकाश

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शशवसूत पथम पकाश

सुना जाता है कक आचारर वसुगुपत ने भगवान शशव के सवपादे श से महादे वकगरर के ककसी शशलाखणड पर
अङ् ककत शशवसूतो का संगह ककरा । इन सूतो की संखरा मे कवभभन मत है । इस पुससतका मे २३ +१०+४६ = ७९
सूत है । मैने इसके संगह मे इसके महातमर एवं महातमाओ के कवभभन पाककथन और कवचारो का संगह न करके
मात सूतो को उपरोगी समझकर सवाधरार दकष से संकशलत ककरा है । करोकक रह टीका मेरे परमाराधर शी सवामी
रामाननद सरसवती जी शीमाकरणडेर सननरास आशम ओकारेशर के गुरजी के दारा की गई है । इतनी संभकपत और
सीधे मसषतषक मे पवेश करनी वाली टीका होने से मेरे शलए संगहणीर है । इसकी पुसतके पहले छपी थी ककनतु अब
वे कवलुपत सी होती जा रही है । इस पुसतक का न तो आशम मे ही अधररन हो रहा है और न ही पुनमुरदण ही हो
रहा है । अतः मैने इस आशा से संगहीत ककरा है कक नेट पर संभवतः कही न कही, ककसी न ककसी के पास बनी
रहे और साथ ही जब तक फोन साथ है तब तक मै भी दे ख सकूंगा । ओ३म् !
―सवामी शशवाशम

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शशवसूत पथम पकाश
शीगणेशार नमः । शी सरसवतरै नमः । शीगरवे नमः ।
शी अभराननद सवाममकृतभाषा वखरोपेताकन ततारं
सामानरमचतपकाशकनरपणाखरः —
पथमः पकाशः

(१) मचदाकाशमरे सवाङे कवशालेख कवधाकरने ।


सवारदत ु ोदवभुवे नमो कवषम चकुषे ॥
(२) नररषर-दे व-दुकहण-हरर-रदाददभाकषतम् ।
उतरोतर वैशशषरं पूवर-पूवरपबाधकम् ॥
मनुषर, ऋकष, दे वता, बहा, हरर तथा रद के वचन उतरोतर कवशशष माने गरे है , अतः पर से पूवर-पूवर
पबामधत होते है ।
तातपरर रह है कक मनुषरो मे उतरोतर पूजर भाव के अनुसार वचनो की पामाभणकता होती है , मनुषरो
कवशेषतः मंतीगण एवं राजा की वाणी पमाण है , उनसे भी शेष ऋकषरो की वाणी है , कफर बहा, कफर हरर रानी
कवषणु, एवं अननतम अथारत परम पमाण शशव की वाणी है तथा इसी पकार इनकी उपससथकत मे कमशः पहले का
बामधत होकर बाद का कवशेष सममान एवं पूजा का अमधकारी शासतो ने सवीकार ककरा है ॥
आतमा के रथाथर सवरप को न जानने से , आतमा के कवषर मे बहत सी कवपकतपशतराँ है । सवरसाधारण
दे ह को ही आतमा मानते है, इसमे नासमझ पशु-पकी तो है ही; मनुषर भी बहतेरे है जो दे ह को ही आतमा मानते है
। कोई पाण को, कोई मन को, कोई बुदद को, कोई शूनर को ही आतमा कहते है । वासतकवक आतमा करा है इसका
कनशर नही हो पाता ।
इसशलरे शी महादे व जी ने सवरं कृपा करके आतमा का कनशर कराने के शलए, आतमा और आतमा का
ऐशरर समझाने के शलए पावन सूतो की रचना की है । संसार मे दजतने पकाश है - सूरर, कवदुत, नकत, अनगन,
चनदमा; रे सभी कवमशर से शूनर है, ककनतु आतमपकाश सदा पकाश-कवमशर रप है । रह कनशर सबको है कक ‛हम
है’ और अपने होने का कवमशर रानी अनुभव भी है । अपने कवषर मे ककसी को शंका नही है कक “मै हँ रा नही ” ?
ककनतु मै करा हँ ? इसका कनशर नही । रदद मै पंचभूत कतगुण से रकहत हँ तो करा हँ ? अपने आप को वापर
वापक करा मानूं ? इस कवषर की जानकारी सबको नही है । भगवान भाषरकार कहते है―
दे होऽहममतरेव जड़सर बुदद-
दर हे च जीवे कवदषसतवहं धीः ।
कववेककवजान-वतो महातमनो
बहाहममतरेवमकतः सदातमकन ॥
जो केवल चेतन आतमा को नही जानते ऐसे जड़ बुदद पुरषो को ‛दे ह ही मै हँ’ रही कनशर है , और जो
कवदान् है, वैददक है, वे दे ह और जीव दोनो मे आतमबुदद रखते है । रदकप वे दे ह से दे ही आतमा को पृथक् कनशर
करते है, सवगारदद सुख के शलए कमर करते है, नरकादद दःखो से बचने के शलए कनकषद कमर का तराग करते है ,
तथाकप चैतनर आतमा के रथाथर सवरप को नही जानते । पुररषक से बद होने के कारण पुररषक रकहत
सवरगतमचतसवरप को नही जानते । जो कववेकी महातमा है वे दे हबुदद और जीवबुदद छोड़कर आतमा मे बहबुदद
का कनशर करते है । वे कहते है―
न भूममनर तोरं न तेजो न वारु-
नर खं नेदनदरं वा न तेषां समूहः ।

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शशवसूत पथम पकाश
अनैकाननतकतवातसुषुपतरेकशसद-
सतदे कोऽवशशषः शशवः केवलोऽहम् ॥
न वणार न वणारशमाचारधमार
न मे धारणा-धरान-रोगादरोऽकप
अनातमाशरतवाद् ममाधरासहानात्
तदे कोऽवशशषः शशवः केवलोऽहम् ॥

ऐसे कवशुद कववेककवजानसंपन पराशशकपातकवद अमधकारी के शलए आधरातमसवरपोपदे शाथर आददवका


भगवान् ने “चैतनरम् आतमा” इस पथम सूत की रचना की है :―
चैतनरमातमा ॥१॥
आतमा चैतनर है ।
पकाश-कवमशरसवभाव जान-ककरासवभाव आतमा का सवरप है । अचैतनर दे हादद सवभाव नही है , अतः
दे हादद आतमा नही है । रदकप ककरा का वासतकवक अथर कवमशर ही है , करोकक कोई भी ककरा- दजसका पूवर उतर
भाग होता है, कबना जान हए वह ककरा, ककरा ही नही है, कफर भी ककरा के कवषर मे भममत होना सवाभाकवक है ,
करोकक एक शारीररक ककरा है और एक मानशसक । जैसे―
गुर वशशष अपने मनोमर शरीर से इनदलोक जाकर इनद के शरीर को कहलाते है , इनद कहलते तो है, पर
रह नही जानते कक कौन कहला रहा है । कहलना कहलाना दो ककराएं हो रही है । शरीर कहलता ददखता है तो ‛ककसी ने
कहलारा’ ऐसा अनुमान कनभशत है । कहलाने वाली सारी ककरा वशशष की केवल मानसी है । इसको केवल वशशष ही
जानते है । इनद भी ककरा का अनुभव करते है, कतार का नही, उनको भी कोई कतार अनुममत होता है । “रहाँ
दे हककरा के मानसी होने पर भी सवंतत दे हककरा का भम होता है ।
चेतरते इकत चेतनः । “चेतनसर भावः चैतनरम्” (दषशशक) । भाव पतरर है । “नाना रपेण चेतरते
पतीरते” इकत वा चेतनः ।
जैसे सवप मे एक ही सवतंत चेतन नाना चेतन (दषा) और चेतर (दशर) रप से सवरं ही सवरजान और ककरा
का जाता, कतार होता है । “ककरा जड़ मे होती है जान चेतन मे होता है” रह कवभम उस दशा मे भी पतीत होता है ,
परनतु जान और ककरामात का सवामी पकाश-कवमशरसवरप आतमा ही होता है, दजसको “सदे व सौमरः इदमग
आसीत् एकमेवाकदतीरं” कहा है । वही सदूप बह इचछापूवरक समसत जागत जगत् का जाता कतार है । पकत
अनतःकरण मे जो अणु आतमा है और अणुओ मे जो कवभु है वह एक ही सत् मचत् सुख शशव सवरप है । आतमा मे
शशवता सवरत पररपूणर है, परनतु पंचभूतो मे जो अहनता इदनता पतीकत रप आवरण है, इसी से सब शशव सवरप
होने पर भी अशशव बने हए है ॥१॥

कृपानाथ भगवान् शंकर ने “चैतनरमातमा कहकर आतमकवषरक कवभम दर कर ददरा । अब सहज शशवता
(सवरजान ककरा) समरसीभूत जो शशव है उस पर आवरण करा है ? इसका समाधान करते हए कह रहे है―
जानं बनधः ॥२॥

अकवदा मूलक भेद जान (मेर-मान-मातृरप जान) ही बनध (आवरण) है ।


“ चैतनरमातमाऽजानं बनधः” इस पकार संकहता पाठ मे आकार का पशेष करके (सवमचतसवरपाजानं
बनधः) आननद-मचत्-सद् रप कनजातमा का जो अवबोध है रही अजान है ।
‛अहं-मम-इदम्’ इस पकार का भेद-पथातमक जो जान है रही बनधन है । पंचभूत वाला (दे ह सवरप) मै
‛अहं’ और मेरे (सती-पुतादद) ‛मम’ और इदं रानी जगत्1(‛जगत्’ रह शबद से जाना जाने वाला) इस पकार

1और ‛रह’ शबद से जाना जाने वाला जगत् ‛इदं ’। टीका (१) तंतालोक अ.१/२७-३० मे इन सूतो की पशेषणपरक

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शशवसूत पथम पकाश
भोदोललेख पूवरक शबदानुवेध से जो मन मे भेद उतपन हआ, रह मारीमल ( अकवदा)
मूलक है । अहनता इदनता मे अपना सवतंत ऐशरर (कवभुतव) नही भासता, करोकक वापक सवरप की खराकत अमानर
है ।
‛ सोऽहं’ “मै ससचचदाननद बह हँ” रह जान जो ‛दे होऽहम्’ इस बुददवृशत को मरदरत कर सतसंग , सतशासत के
अभरास से उसतथत हआ है, इस जान को रदकप मोक संजा दी गई है तो भी सही मे रह बनध ही है । पकाशक
सतवगुण की जानासशक दारा बनधकता― तत सतवं कनमरलतवात् पकाशकमनामरं । सुखसङे न बधनाकत जानसङे न
चानघ (गीता १४/६) मे भी कही गई है ।
तातपरर रह है कक सतवगुण के कारर रप (अतएव मशलन और पररसचछन ऐसी) जो आतमाकारा वृशत है,
तदूप जान के कवषर-कवषरी भाव रप संबंध को आतमा से जोड़ना, रानी वासतु ससथकत से उसको इस जानपाश मे
बांधकर गुण मरारदा मे लाना और गुणो के संसगर से उसके सवरपभूत अपररसचछन जान को मशलन तथा पररसचछन
रानी मरारददत करना हआ । अतएव इस जान की भी गणना बंध कोदट मे ही करनी पड़ेगी । इसे वासतकवक मोक
कहना नही बनता ।
रदद आतमा कनखखल जान-घन है, कफर भी उसे पकाशशत करने के शलए जान का सहारा लेना पड़ता है,
तब तो ऐसा ही हआ कक “सूरर उदर हआ” रह जानने के शलए दीपक जलाकर दे ख ले । पर ऐसा नही होता । जैसे
इदनता जानाभास है वैसे अहनता जानाभास है । ‛इदनता-अहनता’ जानाभास ही अखंमडत कनरवरशेष शशवता पभासन
मे अवरोध लाता है । संत जानदे व ने भी ‛अपने अमृतानुभव’ (पकरण ३ ओवी १६, १७) मे “जानं बंधः” इस सूत का
उदरण दे ते हए इसी शसदांत का पकतपान ककरा है ॥२॥

इस शबदानुवेध का करा कारण है ? इस पर कृपालु शशव कहते है―


रोकनवगरः कलाशरीरम् ॥३॥
रोकनवगर ‛सवरकारण रपा अमबा, जरेषा, रौदी, तथा वामा नाम से जो पशसद शशकरां है’ उनका समूह । रे
शशकरां ही ‛कला’ अकारादद ककारानत वणर मे अमधमषत होकर कवभभन शबदानुवेध दारा पशु जीव मे भेद पतररो
को दढ़ करती है । दजससे वह अपने वैभव को भूलकर बनधन को पापत होता है ।
अथवा― रोकनवगर :― मारा पपञचोऽकप बनधः । रोकन रानी कवश के कारर मे कारण करके मानी गई जो
शशकरां है । रह मारा पपञच भी शबद-अथरमर बनधन ही है ।
कला― वापार, ककसञचत् कतृरतव रप कामरण मल है, रह भी बनधन है । मारा से लेकर पृथवी पररत जो
तनु, करण, भुवन, भोग है, रह सब एक ही शुद मचनमात आतमा का ऐशरर है उस ऐशरर को मारामल ने आवृत
ककरा है और कला (ककसञचत् कतृरतवादद) के ही कारण सकल ऐशरर अपना नही कवददत होता ।
अहनता इदनता के ही जानाभास से रह पकट हो रहा है । सवरप का जान हो जाने पर अहनता और
इदनता का अलग अससततव नही रह जाता और ततकृत बनधन भी कनवृत हो जाता है ।
रोकन :― आणवमल (अजान) और मारीमल (मारा) इन दोनो के कारण अपना कनजैशरर कनरोध हआ है
। इसशलए पंचभूत का कवसतार ही भोग की भूमम है , वह है कला । उसका संसकार पुणरातमक-पापातमक शरीर है,
रही बनधन है ।
पशुजीव एक बुदद (एक पुररषक) का पररगह करता है ।

वाखरा की गई है, रथा―


“चैतनरमातमा जानं च बंध इतरत सूतरोः । संशेषेतररोगाभरामरमथरः पदरशरतः ॥
चैतनरममकत भावानतः शबदः सवातनतरमातकम् । अनाभकपतकवशेषं सदाहसूते पुरातने ॥
कदतीरेन तु सूतेण ककरां वा करणं च वा । बवता तसर मचनमातरपसर दै तमुचरते ॥
दै तपथा तदजानं तुचछतवादनध उचरते । तत एव समुचछे दममतरावृतरा कनरकपतम् ॥

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“ रोनरः शकरोजेराः” ― रोकन शबद से अमबा (शानता), जरेषा, रौदी और वामा इन शशकरो को जाना
चाकहए ।
१― कवशवमनाद् वामा― कवश की ओर ही मन जावे रह वामा शशक का कारर है । रह सृकष-शशक है ।
२― जरेषा का कारर लंगोटी, भसमी, रदाक धारण करना, गुहा (गुफा) वन, गंगा ककनारे ही रहना, और पूजा
पाठ करना ही मन को भाता है । रह पालन शशक है ।
३― अमबा (शानता)― जड़-चेतन सब मचदूप ही भाशसत होता है ।
४― रौदी―भरंकर कमर कराने वाली होती है, रह पूणारहनता जानशशक है । जैसे भगवान् शीकृषण ने
कंस को मारने के शलए रौदी शशक धारण ककरा । रह संहार शशक है ।
कला― संसकार, पंचभूतो के जो भोग संसकार है वे ही जीव को पुनः पुनः शरीर मे लाते है । इदनता जेर
है इस जेर से जो संलगन जान है इसी को पशु (जीव) अपना सवरप समझता है इस जेर-जान से उसजझत को अपना
जो सवरप है, उसे वह नही समझता ॥३॥

रह जो मातृका कवगह है― शबद समूह है, इसी के दारा “अहं इदं , मम इदं ” ‛रह मै हँ, रह मेरा है’ रह
जान परंपरा से पसृत― फैला हआ है । रह जान ही सबको कनजैशरर अनुभव कराने मे बाधक है , और इसका
कारण अकरमातृका ही है । इसशलए उमानाथ कहते है―
जानामधषानं मातृका ॥४॥
पर अपर भेद से कदकवध जान का आधार मातृका (कवशजननी) शशक है ।
परजान― अभेदाभास, दजसमे बाहर-भीतर सवातममरता ही भासती है, इसकी अमधषाती ‛अघोराखरा’
शशक है । भेदपथन रप अपर जान, “दजसमे अभेदानुसंधान न होने से बकहमुरखता के कारण सवातमशशवता आवृत
सी रहती है” इसकी अमधषाती ‛घोराखरा’ शशक है । रे दोनो शशकरां मातृकारढ़ (अथारत वणरमर शबदारढ़) होकर
ही पर-अपर जान (मोक-बनध) का कारण बनती है, अतः मूलतः दोनो एक ही है । भाव रह है कक अकारादद ककार
पररनत कला है, रही शबद का कारण है रही मातृका है । “मातरः शकरः” तत् तत् अथर का बोध कराने मे समथर
होती है । रे ही दे कवरां है, रसशमरां है, रे शबदानुवेध पूवरक जान का अमधषान होती है । इसशलए कहा है―
न सोऽससत पतररो लोके रः शबदाऽनुगमादते ।
अनुकवदममवजानं सवर शबदे न भासते ॥
वागूपता चेदतकामेदवबोधसर शाशती ।
न पकाशः पकाशेत साकह पतरवमरशरनी ॥
(वाकर पदीर-बहकाणड शोक १२३-१२४भतृरहरर)
संसार चाहे लौककक हे रा पारलौककक, गुण-भूतो से संबद हो रा आतमा-परमातमा से । उसका जान शबद
के सुने कबना नही होता । (रूं समझा जारे कक जेर कोदट मे आने वाले सभी जान से जानने मे आने वाले है , सभी
जेर जाता के शलए ही है । परनतु शबद कबना जान नही होता ) शबद वणर के कबना नही, वणर मातृका के कबना नही ।
इसशलए सवरजातृ-जान-जेर कतपुटी का जान मातृका से ही होता है । इसशलए जान का अमधषातृ मातृका है ॥४॥

अबपकतबनध (आवरण तथा बकहमुरखता) की कनवृशत के शलए और वासतकवक शशवता की अभभवशक


के शलए उपार महेशर कहते है―
उदमो भैरवः ॥५॥
उदम― उदोग, तदथर समुतकणठारप भैरवाखर शशवततवावेश (शशव ततव का आवेश) ही पकतबंध
कनवृशत पूवरक वासतकवक शशवतवाभभवशक का उपार है ।
केवल शशवततव की अनुभूकत की जो उतकट अभभलाषा है , उसके शलए उतकंदठत, सदा उदरशथत,
सदानदोशलत हदर होना ही उदम भैरव है ।

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शशवसूत पथम पकाश
साकात् जो शशवतव है, सवरजतव-सवरकतृरतव उसकी अभभलाषा । सब राषपकत कहाँ होना चाहते है ? रह
पूणर कृपा पात का पद है । शीगुरमुख से शबद सुने कबना नही बनता । ‛अहमेव सवरम्’ जो कुछ भासता है सब मै ही
हँ, ‛मैने ही भसम कर शलरा अपने मे सबको, मुझ मचदूप मे अहंता की पतीकत हो रही है’― इस पूणर अहंता का
समुदर समसत कवकलपो का नाशक है ।
‛सव-सवरप’ है इसका (जीव का) शशव, और उसको इसने नही जाना, उसकी उपलसबध- उसको जानना,
‛कब मेरा रह शशवसवरप पररपूणर भाशसत होगा ?’ इस पकार की पतरुदबुभूषुता ; सवरप का जो अपररतराग इस
महाकारर के शलए उदुक है । भाव रह कक जब कवश से कवरस हो जाता है , तब भावाकानत होता है, वही उदोग है
दजससे पूणरता होती है । रहां और उदोग उदोग नही है । रह उदोग ही भैरव है । “शसरारामर सब जग जानी ।
करहँ पनाम जोरर जुग पानी ॥” रही पूणररप शशवरप है । इस पकार का उदम ‛भै -र-व’ ‛भै’- भरणात्―सवरत
भरा होने से, ‛र’- रमणात् = सब मे रमण करने के कारण, ‛व’- वमनात् = सवर कवश को उगलने से भैरव है ।
“ एकोऽहं” का भान तो उसकी इचछा पर है । रह काम शशव का है कक ‛ अखंमडत शशवसवरप का
कनभालन (दशरन) हो ।’
परमातमा शशव की कृपा से जब कभी शसद का दशरन हो गरा और चर राने उनके दारा खीर आदद रा
जो कुछ पसाद, साग-पता ममल गरा है, कुछ सुनने को, कुछ सेवा करने को ममल गरा, रही इसका हेतु है, रानी
परमातमा की पूणर कृपा ही पूणरसवरप-अवभासन मे हेतु है ।
चशमा से हम दे ख सकते है । पर आंख हो तो। परनतु मोह से दजसकी आंख फूटी है , उसे चशमा दे कर करा
होगा ?
“हम मथुरा के रहने वाले है, हमारा नाम अमुक है” रह सतर है और रदद तुम बह हो, ‛हम बह है’ तो
झूठ मानते है । दे खो ! दकनरा झूठ को सच मानती है और सच को झूठ ? परमातमा की इचछा ॥५॥

इस पकार “भैरवावेशशाली उदममरो के शलए उनमेष (कवश दशरन) दशा मे मे भी संकवतपकाश का


आवरण नही होता” रह कहा, अब कनमेषावसथा मे भी अपनी ससथकत आवृत नही होती” इस बात को बोध सागर
कहते है―
शशकचकसंधाने कवशसंहारः ॥६॥
शशकचक (संपूणर जगत) का संधान = सवीकरण हो जाने पर कवश का कनमेष दारा कारणभूत सवातमा मे
ही पकवलर हो जाता है ।

षट् ततरशत् (३६) ततवातमक, दजस कवश को अपने सत् मचत् सवरप से भभन मानकर अजान दशा मे पशु
(जीव) मचनता और शोक से वाकुल रहता है, भैरलावेश से अजान नाश की दशा मे उसी कवश को रह “अपनी ही
जान-ककरातमक शशकराँ है” “अपनी ही मचनमर मरीमचरां है” ऐसा मानता है । ऐसा कनशर कर लेने पर कवश का
संहार सव-सवरप मे कवलर होकर, अपने से भभन जगत् का अससततव नही भासता । अनावृत सवशशवतव ही भासता
है । अकवदान् को जो वृशत रप था, वह कवदान् को सव-शशकरपा मचनमरीमच (मचत् पकाश) ही कनभशत होता है ।
अथारत “सवशशक पचरोकवशम्” ‛अपनी शशक का कवसतार ही कवश है’ ऐसा पतीत होता है ।
जैसे सवप का संसार सवप दषा से पृथक् नही, अकपतु उसका सवरप ही है, तथाकप पृथक् जैसा भासता
है, परामशर करने पर ‛सवरप ही है’ ऐसा कनशर हो जाता है । अतः अपरामशर से ही वह कवघनकारक है । सवशशक-
संधान होने पर सवकवभव ही है । दजस पकार पकाश-कवमशारतमा कनराभशत शशव अपने से अभभन समसत कवश को
अपनी शशक का पचर (कवसतार) ही मानते है, वृशत रप नही, वैसे ही जानी के शलए जगत् वृशतरप नही है ।
परमशशव की जो दकष है वही दकष इस परमशशव जाता की भी है ।
उस भैरव की एक महाशशक भैरवी भी है । भैरवी इचछा ही है । पकृकत पंचमहाभूत ही नही, अकपतु वह
सकल संवेद-संवेदन को कवशलत ककरे है, सवचेतनशशक मे ही रे उपसंहत होते है । इसशलए उसी का अनुसंधान

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शशवसूत पथम पकाश
करो । “शशकचक-संधानात् कवशसंहारः” ।
‛ सव’ जो शशव है मचदाननदवपु, अहनता इदनता भी इसका वपु ही है, इसका रानी बोध का, वपु रानी
वैभव है । सवशशक का अनुसंधान करे तो वह अहंता इदनता के पररचछे द मे नही रहता । इस दशा मे सवसवरप
भाशसत होने के कारण, अखणड सवरप अवभाशसत होता है । जैसे अनगन की दाकहका शशक है , सूरर की पकाश
शशक है । इसी पकार उस मचकदभु की अहनता इदनता शशक है । उससे कनतर उपलसबध सवरप की कहाँ अनुपलसबध
रहती है ? वह आवरक नही बनती है । सारा संसार ही इस मचतनाथ की शशक है । इचछा, जान, ककरा, रे जो तीन
इसकी शशकराँ है, इनही की सब शशकराँ पललवभूता है, अतः सब शशव की ही है । इस शशक चक का संधान करा
है ? अपना ही “रह वैभव है” इसे सवीकार कर लेना । इचछा, जान, ककरा का पहले नाम था ‛वृशत’ अब हो गई
शशक । वृशत मे पारतंनतर है और शशक मे सवातंतर । अममत, आतमा की इचछानुसार होता है, ममत आतमा की
इचछानुसार नही होता ।
कवश संहार अथारत चेतन के आधीन सारा कवश है । जो पहले वृशत रप से ही कही गई थी, अब शशक
रप से सवीकार करररे, शशक से करो मुंह मोड़ते हो ? वह कहाँ तुमहे दबाती है ? ॥६॥

इस पकार कवश को “सवशशकचक ही है” ऐसा कनशर करने पर करा होता है ? इस कवषर पर दे वदे व
महादे व कहते है—
जागतसवपसुषुपतभेदे तुरारभोगसंकवत् ॥७॥
जागत-सवप-सुषुपत के भेद पर भी सवशशक चक अनुसध ं ाता के शलए सदा तुरीर चैतनराननद का
अनुभव रहता है ।
रे अवसथाएं उसकी शशकरपा होने के कारण सेकवका होती है न कक सवरपलोप और सवरपभूत ऐशरर
का आवरण करने वाली ।
बकहमुरखसर मनतसर वृतरो राः पकीरतरताः ।
अनतमुरखसर तसरैव शकरः पररकीरतरताः ॥
बकहमुरखसर मंतसर― ‛षट् ततरशत् ततवातमकं कवशं सवसमादकहः’ इकत मननसर-जानसर लकणरा
अनुभकवतुः राः जागदादवसथाः वृतरः, आवरणभूताः बनधहेतवः । तसरैव अनतमुरखसर ‛सवातम
चैतनराभभनमेवसवरम्’ इकत अनुभकवतुः ताः अवसथाः सवकरः इकत कनजाऽऽननदोनमेषा एव न जातु आवृतरः इकत
भावः ।
षट् ततरशत् ततवातमक कवश अपने से बाहर (पृथक्) है ऐसा मानना ही बकहमुरखता है । बकहमुरख के शलए
जो जागदादद अवसथाएं आवरण (सवरपाचछादक) रप मे बनध का कारण बनती है, उसी की अनतमुरखता की
ससथकत मे = (समपूणर कवश सवातमचैतनर की शशक का कवकाश ही है’ऐसा अनुभव होने की ससथकत मे ) शशक रप होने
से आवरण नही बनती पतरुत कनजैशरर रप ही अनुभूत होती है । “शशकचकसंधाने कवशसंहारः” इस लकर को लो ॥
७॥

जागत-सवप-सुषुनपत का भेद होने पर भी तुरार का ही भोग होता । तुरारननद का ही अनुभव बना रहता है ,
तो जागदादद का सवरप करा है ?.इस पर अनुगह मूरतर शशव कहते है―
जानं जागत् ॥८॥
( सवरसाधारण को जान, जेर, जाता रप से जो भास रहा है रह भास ही जागत है अथारत शशवमत मे
जागत जान शशक है अथारत समूचा जागत् जागत् दषा का जान-ककरण ।)
बुदद-शोत और वागादद बाह (चतुदरश) इदनदरो के वृशतजनरजान का नाम जागत् है । सवप मे
बाहेदनदरवृशतजनर जान नही होता रही सवप से जागत् का भेद है ।
रह कनशर, अभभमान, संकलप शबदादनुभव रप होता है । रह जान पशु -जीवो को सवरप से कवमुख

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करने वाला होने पर भी जानी को सफूरतरदारक होता है । इस अवसथा मे मचदातमा की गहीतृ -गहण-गाह रपा
शशक सफुदटत रहती है ॥८॥

अब शशवमत मे सवप करा है ? इस पर नटराज कहते है—


सवपो कवकलपाः ॥९॥
केवल मनोमातजनर, असाधारण अथर कवषरक कवकलपो को सवप कहते है । इसमे बाह वासतु की
अपेका न करके संसकार मात से अनदर ही (मन मे) पुर, कगरर, वन उपवन, आदद कवमचत कवकलपो का भास होता है
। वे कवकलप वसतुतः तुचछ होने पर भी सवप दषा को अपने -अपने अथर मे होने वाले कारर का अनुभव कराते है ।
उन कवकलपो का नव-नव आकवभारव ही सवप है, जो पशु-जीव के सवरप को आवृत कर दे ता है । परनतु सवभावकनष
मछनपाश जानी का सवपदशा मे भी अनावृत ही रहता है , करोकक कवभु जो आतमा है वह दकषसवभाव है , सवभावतः
मचतपकाशरप है, उसकी अनतदर कष ही (भावातमक अनतःसृकष) सवपरप है और बकहदर दट (भूतातमक बकहःसृकष)
जागत रप है, इनको सवशशक चक रप से अनुसंधान करने पर जागत और सवप इसका वैभव होता है , इससे
इसके सवरप का लोप नही होता । वह न जागत को और न सवप को अजाकनरो के समान पाकृत मानकर खखन
होता है और जो पकतभाव को नही पापत हए अथारत जागत और सवप को अपना वैभव न जाने (इसका कतार जाता
अपने को न जाने) तो रही जागत और सवप इसके सवरप और ऐशरर के आवरण करने वाले होते है ॥९॥

अब शशवमत मे सुषुनपत करा है ? बताते है—


अकववेकोमारासौपतम् ॥१०॥
सव-सुख-सवरप का अकववेक ही मारा है, इसी को सुषुनपत कहते है ।
‛जान जेर मेरी शशक है’ इसका अनुदर दजस दशा मे होता है वह सुषुनपत है । मचदूप का अकववेक इसी को
कहते है, करोकक ‛ वह रही है’ रह कवमशर नही होता है । जान और जेर दजसकी शशक है , वही सोरा है । सकल
आवृशत जाल का पोषक न होने से इसी को मारा कहते भी है । अथर और समृकत सवातमसथ होने पर भी इसका भान
न हो- इसी को सुषुनपत कहते है । उस दशा मे साकी आतमा तो रहता ही है , वह भी न रहे तो जागने पर सुख से
सोने और कुछ भी न जानने का समरण ककसको हो ? बुदद आदद कारण भी तो उसी मे कवलीन रहते है । इन तीनो
अवसथा वाले को ही दे खता (पशरननत जान चकुषा गी.१५/१०) है । अतएव उसके सवरप का आवरण नही होता ।
पशु जीव के शलए सवरपावभास न होने से रे अवसथाएं बंधक है ।
ककसी से पूछा गरा कक भाई ! तुमहारे पास ककतने रपरे है ? तो वह कहता है कक भाई ! हमने कगने नही
है ; इस पकार सुषुनपत मे अपना सवरप तो है पर खोजा नही है । “जानशशक जागत, अनतनरवनव―उदीरमान
कवकलपातमक सवप और सवरप का अकववेक सुषुनपत है । सवरप का अकववेक तो है ही, कववेचनाभाव भी है, रानी
कवषमदशरनाभाव सुषुनपत है, रही अणु आतमा की दसरी अकववेचना रपा शशक है, इसको मारा भी कहते है ।”
इन तीनो को मचतसवरप का जाता अपना वैभव समझता है अथारत जब बकहदर दट की तो बकहःसृकष की ।
अनतदर कष की तो अनतःसृकष की । उभर दकष-सृकष रकहत हआ तो सुषुपत हआ । रानी दोनो दकष-सृकष का अपने मे
लोप(लर) कर शलरा । इस पकार शशवमत का अभरास करने वाला आतमा को पररसचछन नही समझता । “आतमातवं
कगररजामकतः” रह आतमा के सथान मे मचदाननदघन महादे व को और बुदद के सथान मे कगररजा भगवती को कनशर
करके जागत अवसथा को जानशशक, सवप को कवकलप और सुषुनपत को इसी अदुत रचकरता का कववेचनाभाव रप
एक दशा कवशेष समझता है, इस अदुत रचना कवशेष को सवरप वैभव जानता है , रह महान् शशवरोगी है । रही
शशवमत मे अभरास है ॥१०॥

अब तीनो गुणो के अनुरप तीन अवसथाएं जो कही गई है , उन तीनो अवसथाओ को जो जानता है उसको
करा फल ममलता है इस पर महामहेशर कहते है—

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कततर भोका वीरेशः ॥११॥
इन तीनो अवसथाओ को जो कनजशशक कवभव जानता है उसकी वीरेश संजा होती है ।
तीनो का तराग कर तीनो से पृथक् अपने आप मचदूप का कनशर करने वाला वीर है इनको अपना कवभव
मानने वाला वीरेश है । अथारत इन तीनो को जो अपनी मरीमचककरण जानता है वह तीनो का सवामी है , नही तो पशु
है । रदकप कतगुणमर कवश का वमन और गास पवाह के समान सतत् है , तथाकप गाससवभाव ही वीरेशता है । इस
पकार सृकष, ससथकत संहकत जो कुछ जगत ववहार है सबका अमधषान मचदपु है । वीर और वीरेश को कनमन दषांत
से भी जाना जा सकता है—
कोई तालाब मे गरा आबदसत लेने, तो मेढक टरर-टरर करने लगे, वह घंटा भर बैठा रहा, अरे ! करो टरर
टरर करते हो, लेने दो पानी, नही तो घर जाकर धोवेगे । वे टरर -टरर करते रहे और वह चला गरा घर । तीनो
अवसथाओ को ममथरा जानकर छोड़ दे ना उन से डरना है और उनहे अपना ऐशरर जानना मेढक के टरर -टरर करते
रहने पर भी आबदसत लेना है । वह डरता नही है । मेढक हटाकर पानी ले लेता है ॥११॥

जब कवशातीत कनरामर अपने मचतसवरप का अवलोकन करता है तब दजतने सथापक जगत के आशरर
है, सारे आशरर एक ओर रह जाते है और संपूणर कवश कनज इचछाशशक का वैभव भासता है , इस रोगभूममका को
कवसमर अथारत आशरर की संजा दी गई है । गीता मे भगवान शीकृषण ने कहा “आशररवतपशरकत कभशदे नम्” इसी
कवषर मे आशुतोष भगवान शंकर रह अमृत वचन कहते है—
कवसमरो रोगभूममका ॥१२॥
शशवरोगी को वेद-जगत् के दशरन मे अमृत रससार मचदाननद का आसवादन रौकगक कवनद आदद
सथानावधान के अभरास के कबना ही होती है, दजससे वह अलौककक कवसमरावसथा को पापत हो जाता है, रह
कवसमर ही उसके परततवामधरदढ़रप रोग-भूममका का जापक होता है ।
जो संपूणर कवश को एक मचदूप मे पकतमषत भलीपकार जानता है, वह कण महारोग नाम से पशसद है ।
जैसे कोई जागकर अपनी पूवर ससथकत मे आरे इसी पकार मचतसवरप कनजातमवैभव को जब रह रथाथर दे खता है ,
तो रोग की अवसथा मे महान् आशरर होता है ॥१२॥

तब इस पकार के महारोगी की दशा कैसी होती है ? जैसे उस आदद परमातमा की इचछाशशक सवरत
अपकतहत सवतंत (साधनानतर कनरपेक) रप मे पकतफशलत होती है, उसी पकार उस रोगी की इचछाशशक भी
शशवतादातमरावेश से (शशवेचछा से) अभभन होकर सवतंत ऐशररशाशलनी होती है, वह कुसतसत जगत् को सवातमसात्
करके समापत कर दे ती है, इसी बात को अनुगहमूरतर शशव कहते है—
इचछाशशकतमा कुमारी2 ॥१३॥
( सवरशशकरो का मूल होने के कारण “इचछाशशक” शशव से अभभन ततसमरसीभूत है , और उनसे अभभन
होते हए ही उनके पंचकृतरो मे सहाकरका है, इसीशलए उसे उमा भी कहते है)3
दजस पकार आदद परमेशर की इचछा ही सकल जगत् कनमारण मे सवरतम महाशशक है , उस महेशर को
बहादद दे वताओ के समान पकृकत, गुण पंचमहाभूत आदद साधन लेकर जगमनमारण मे साधनपराधीन नही होना
पड़ता है । उसकी सवरतमा महाशशक इचछा ही एकमात साधन है । महेशर से अभभन होने के कारण वह भी परतंत
नही है, इसीशलरे इस शशक को ‛कुमारी’ कहते है । साधनाभशत कुसतसत मागर को मारने वाली होने से से भी इसे ‛कु -
मारी’ कहते है । परमेशर की इचछाशशक मे ककसी भी पकार की कमी नही है । इसी पकार शशवरोगी मे भी इसकी
2 रहाँ “इचछाशशकरमा कुमारी” ऐसा पाठभेद भी ममलता है । परनतु― “तमप् पतरर से अननराशरा इचछाशशक दोकतत है” अनर अननत
शशकराँ इचछाशशक के आधीन है, अतः सवारकतशाकरनी शशक होने के कारण इसे ‛शशकतमा’ कहा गरा है । इसशलरे शशकतमा पाठ ही
ठीक है ।
3 ‛उमासहारं परमेशरं कवभुम्’ (उनकतः शशवसर पञचकृतराकन पूररकत रा स उमा अनपूरणा औणाददकोऽच् -मलोपश ततषाप्) इस दकष से
‛उमा’ पाठ की भी संगकत हो जाती है ।

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इचछाशशक ही कुमारी है । अपने अनदर जो इचछा है वह ककसी को कोई दे नही सकता, इसशलरे ‛इचछा’ सदा
कुमारी ही होती है । दजस पकार परमेशर की इचछा-शशक जगत् की उतपशत, ससथकत, कवनाश, कनगह, अनुगहरप
कारर को सवतंत करती है, साधन सामगी की अपेका करके नही, उसी तरह शशवरोगी की सवतंत इचछा है ॥१३॥

जगमनमारण का मूल महेशर और उसकी इचछाशशक माहेशरी दोनो अभभन शोभा पा रहे है । जैसे उस
महेशर का कोई एक वकष शरीर नही अकपतु सभी शरीर उसी महेशर के है । उसी पकार शशवरोगी का भी एक
वकष शरीर नही रह जाता । इस पर सवरशर भगवान कहते है―
दशरं शरीरम् ॥१४॥
उस सवारतमभाव को पापत शशवरोगी का (अनतबारह रावत् दशर है उनकी) समकष ही शरीर है ।
जैसे सफदटक मे फशलत कवभभन रपो का फशलत अमधषान सफदटक ही है , सफदटक ही उनमे वापार
होकर उनहे पकाश और सता पदान करता है, सफदटक के कबना उनकी सता असंभव है, अतः सफदटक ही तत् तत्
आकार मे भासता है, वैसे ही सवरवेदाकार परमशशव ही अपने मचत् सवरप मे पकतफशलत, संकुमचत, कवकशसत,
बकहरनतरवरदमान सभी भावो का अमधषान है और उनमे वापी होने से उनको सता एवं पकाश पदान करने से
सबके जीवनपाण और आतमा महेशर ही है , अतः संपूणर दशर अशरीरी महेशर अथवा तदावाकवष शशवरोगी का
शरीरवत् होने से “दशरं शरीरम्” ऐसा कहा गरा, इसशलरे उसका शरीर एक नही । अकपतु अनदर-बाहर सवरत
पररपूणरतव का लाभ सतत होने के कारण सभी शरीर उसके है । जैसे एक सूरर अनेक दपरणो मे पकततबरकबत होता है ,
तदवत् वह रोगी सभी शरीरो (भावो) मे कनज चेतन को ही पकततबरकबत दे खता है ॥१४॥

इस रोगी को इस पकार का रोग कैसे आता है ? दजससे अपने कनज मंददर (कनज सवरप) मे सतत्
ससथर रहता है, रोगी को सव-हदर मे कनभालन (दशरन) करने पर रोग की उपलसबध होती है । इसी को गौरीकानत
कहते है—
हदरेमचतसंघटाद् दशरसवापदशरनम् ॥१५॥
ऐकहकामुसषमक कवषर से कवरक अतएव उपरत मचत को हदर मचतपकाश मे एकाग करने से उनमेष
सवरप दशरो का एवं कनमेषसवरप सवाप (कनरवरशेष मचनमरसवरप) का दशरन (अनुभव) सवाङ तुलर होता है ।
तुम दजस पकार अपने मचत को दशर मे नानावसतुवशक मे लगाते हो, उसी पकार कभी रदद
अचानक तुमहारा मचत् उस हदर मे एक बार भी संघट करे , तो जैसे सुषुनपत मे सारे कवश का सवाप हो जाता है ।
वैसे ही दशर-अनथर का भी सवाप हो जाता है ।
अथवा ऊधवर और अधः ससथत शुदाशुद अधवा की अवमध रप मे मधरससथता सुषुनपत संबनधी आकाश
को हदर कहते है, वही सब भासो का मधरसथ है । रहाँ पहंच कर आतमा को जो समाधान होता है कक ‛अभी तक
अनुपलबध आतमा रहा अब सपमुलबध-आतमा हआ’ रही चेतन के साथ संघट है । जब मचत का संघट उस हदर से
हो जाता है तब दशर का सवाप ददखाई दे ता है अथारत समग कवश सवमरीमच कलप पूणर -एकीभूत हो जाता है । ऐसी
दशा मे बहकत (जाकतमात) का बाध (कनवृशत) आनुषंकगक हो जाता है । सारा दशर ही जब उसका कनरावरण शरीर
हो जाता है, तब उसमे चीटी, माटा, कबचछू बाहण ककतर आदद जाकत उसके शलए नही है , सब खंडो का बाध हो
जाता है, करोकक वहाँ दे हाददगत अहंता नही रहती, अतः अनावृत सव-सवभाव की उपलसबध हो जाती है ।
सव-सवरप मे जो जागा उसको रह सारा कवश कनरावरण कनज इचछाशशक का वैभव दीखता है
(अथारत सब चेतन की ककरण है), इसी का नाम है सवाप दशरन । रहाँ कवश सवाप दशरन का कवधान करो करते है ?
तो इस पर वचन है― “सवापकारसर मोहसर हानावतचदशरनम्” सवापकरक जो मोह है उसकी हाकन के शलए । रोगी
इस ददव मुदा के समावेश से सवरदा ही पबुद रहता है ।
अपबुद को तो सवाप का ही दशरन होता है, कवश सवाप का नही । कवशसवाप का दशरन तो तभी होता है
जब मचत का हदर-चेतन मे संघट हो । इसी रोगी को सवप सवातंतर होता है और इसी को तमोरप आवरण का

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कनभरद एवं पकतभोदर कहते है । पकतभोदर से दे श कालादद ववकहत का जान और सवप सवातंतर से सवेचछानुसार
सृकष होती है ॥१५॥

रोगी को अखखलकवशसवांगकलप भासता है । इसी को रहाँ कवशसवाप कहते है । सुषुनपत मे


कवशसवाप दशरन नही होता करोकक वहाँ कवश का लर होता है , सवांगकलपभान नही, इसी को और पररपुष करते हए
करणावरणालर अनाथ के नाथ साधनानतर बताते है―
शुदततवसंधानादा ॥१६॥
अथवा शुद शशवततव के संधान से अखंड शशवचैतनर मे शशवरोगी की ससथकत होती है ।
उपामध रकहत सवरं पकाश जो शुद शशवततव है, इसके अनुसंधान से भी कवश, सवांगकलप भासता है,
जैसे जागृत होने पर सवप कवश सवांगकलप होता है एवं शशवरप को कनजरप से अनुसंधान करने पर सारा कवश
अपना कवभव भासता है । वसतुतः वाह अहंकार का पररतराग होने से अपने सवरप मे अखंड ससथकत होती है ॥
१६॥
॥इकत शशवचैतनरकनरपणम्॥

ॐॐॐ
॥अथ―शशकचैतनर कनरपणम् ॥
अब इस पकार के पररपूणर शशवसवरप का अनुशीलन करने वाला रोगी ककस सवरप शशक से संपन
होता है― इस पर कृपानाथ कहते है―
सवपदशशकः ॥१७॥
सवपद शशवाखर सतपद का जान-ककरातमक जो बल है, वही सवपद-शशक है– पराननद शाक चैतनर है,
दजसको लालभूमम भी कहते है उसी भूमम को वह रोगी पापत करता है ।
सवपद का अथर है― सतपद । उसी सतपद को शशवशबद से कहा गरा है । उस शशवपद की शशक करा है
? जान-ककरा की पररपूणरता । रही सवपद शशक है । ऐसा जो शुद शशवततव है , उसी शशवततव पर ही संपूणर
कवशपररकलप रकहत है अथारत संपूणर कवश शशवमर ही है , जैसे शशव मे संकुमचत पशुशशक नही है , तकरमचत् जान
तकरमचत् ककरा नही है, इसी पकार शशवतव लाभ करने वाला रोगी सदाशशव के समान पशुता से मुक होकर जगत्
का पकत बन जाता है ॥१७॥

ॐॐॐ

॥अथ―आतमचैतनर कनरपणम्॥
इस पकार शशवततव के लाभ का अनर भी कारण दीनानाथ कहते है―
कवतकर आतमजानम् ॥१८॥
‛कवशातमा शशव ही मै हँ’ इस पकार का जो कवतकर अथारत जो कवचार है, इसी को आतमजान कहते है ।
इसमे कवश कववेचन पूवरक कवशातीत, कवशामधषान, शशवसवरप, सवातमा का साकात् अनुभव होता है ।
दे हादद उपामधरो का भेदन हो जाने पर अथारत ‛दे हादद मै नही हँ’ ऐसा कनशर हो जाने पर ‛मै करा हँ’ ?
“मै पकाश-कवमशरकघनचेतन शशव ही हँ” इस पकार की पतरभभजा=अपने शुद सवरप की पहचान हो जाने पर
आतमजान संपन हो जाता है । इस ससथकत को ‛पोललास भूमम’ कहते है । इसमे महाननदसवरप आतमचैतनर का
उनमेष होता है ॥१८॥

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“ कवशामरप कनराननद-शशवचैतनर लाभ रप पराननद शशक चैतनर और पोललास रप महाननदरप


आतमचैतनर की भूममका को पापत रोगी ककस पकार के समामध सुख का कनरावरण लाभ करता है” इस पर अघोर
महादे व कहते है―
लोकाननदः समामधसुखम् ॥१९॥
लोक गाह और गाहक अथारत दशर और दषा उभर वगर के पसरण काल मे दोनो पदो मे - गाहक और
गाह भाव मे शशवसवरप के भान होने से जो चमतकारमर आननद होता है रही समामध सुख है ।
रहाँ पर ‛लोक’ पद “लोकरते इकत लोकः वसतुगामः” तथा “लोकरकत च इकत लोकः गाहकवगरः” इन दोनो
वुतपशतरो के अभभपार से कहा गरा है, अतएव गाह-गाहक उभर वगर परक लोक शबद है तथा च (“तससमन् लोके
सफुरकतसकत पमातृपद कवशानतरवधानात् तचचमतकारमरो र आननदः एतदे व असर समामध सुखम्”) उन दोनो वगर के
सफुरण काल मे भी उनमे शशवरपता का कनशरातमक भान होने से शशवरोगी को अलौककक चमतकारपूणर जो पमाद
होता है, रही इसका समामध सुख है ।
“सवर ममारं कवभवो मकर सवर पकतमषतम् ।
सवारभण सवाङ कलपाकन सरुः पमोदकराभण च” ॥
“संपूणर जगदे वननदनवनम्” इतरादद अनुभव वाकर इस ससथकत के उदाहरण है ।
अथवा सवरतम शुद मचतपकाश ही बाहर, भीतर, सदोददत, कनतर सबको सता पदान करने वाला है ।
अतएव सवरसव रप है । सभी भावो का उदव एवं कवभु सवरवापक रही है । इसी को लोक और इसी को आननद
कहा जाता है । कबना ककसी रनतणा (उपामध) के अपने मचतसवरप का ही जो कचन (चमतकारी-सफुरण) है
‛अहमससम परंबह मकर सवर पकतमषतम्’ इस पकतमषतता का रसासवादन ‛तदे कतानता ही’ समामध सुख है ॥१९॥

इस समामध सुख मे कनमगन रोगी सवतनत सृषटादद कारर कर सकता है । इस बात को


सवेचछाकवकहतनानारप महादे व कहते है—
शशकसंधाने शरीरोतपशतः ॥२०॥
पूवरक सवातंतर शशक का तादातमरेन अनुसंधान करने पर सवतंत शशवरोगी अपनी इचछानुसार दे व -
कतररक्-मनुषरादद कवलक शरीरो की सृकष करने मे समथर हो जाता है ।
सभी भाव शशकरप ही है, इचछादद शशकरां उनका उपादान है, शशकमान मचतसवरप महेशर सवेचछा
मात से अनर उपादान आदद सामगी के कबना ही अपने पकाशसवरप मे एकीभूत होकर ससथत समसत शरीरादद
अथरजात को अपने मचतसवरपभभशतपट पर मचत की भांकत उनमीशलत अथवा कनभारशसत करता है । अतः परमातमा
की उस शशक के साथ तादामरापन शशवरोगी सवतंत रप मे इचछानुसार कारकनमारण अनारास ही कर लेता है ।
शशक जो कनरावरण कुमारी इचछाशशक पूवर मे कही गई । दजस पकार आननद मचतसवरप महेशर अपनी
इचछाशशक से सकल कवश का लवोदर करते है एवं उसी सवरप एवं उसी शशक के अनुसंधान से वह शशवरोगी भी
जैसी इचछा करता है वैसे ही तनु, भुवन, भोग रच लेता है । शशकमान् शशवरोगी ही ससचचदूप , पकाशक है । वह भी
कनरपादान अनतः ससथत सकल भावो को इचछामात से ही बकहःपकाश करता है ।
भूत, गुण का आशर करके ― बहा ।
पकृकत का आशर करके ―कवषणु ।
मारा का आशर करके ― रद ― ईशर सृकष करते है ।
परनतु शशवरोगी बहादद के सदश भूत, गुण, पकृकत, मारा रप उपादान को लेकर कवश रचना नही
करता । अकपतु “इचछरैवजगतसवर ससजर भगवान् पभुः” ।
सवेचछा मात से संपूणर जगत् की सृकष करता है । जैसे परमातमा की इचछाशशकतमाकुमारी कनरपादान
परमातमा से ही अनर उपादान गहणकलंक कवमुक है― “अतकररशररतवकर” । जैसे परमातमा अपने को पंचभूत नही,

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शशवसूत पथम पकाश
कतगुण नही, पंचकंचुक नही, मारा नही, कवदा-अकवदा नही जानता, केवल मचतसवरप, सतपकाश पररपूणर अपने
आपको सदोददत जानता है, इसीशलए इसकी इचछाशशक सवरतंत सवतंत है । (“ककमीहः ककमुपादान इकत च”) उस
परमातमा की इचछा मे ही जान और ककरा कवदमान है , ततपूवरक पांच और मुखर शशकरां है, वे है― ईशानी,
आपूरणी, हादर, वामा और मूरतर । अनर ‛कवजानदे हाः’ नाम की सारी शशकरां भी इनही की अनुगाममनी है ।
वसतुतः सभी शशकरां मचतसवरप की इचछानुगाममनी है । ‛पककरादे ह’ के कनमारण मे इनही का संधान
कहा गरा है । कइस पकार की शशक का संधान करने पर दजस-दजस शरीर, भुवन, भोग का रोगी संकलप करता है
ततकण अमरादद कवलकण सृकष कनमारण कर सकता है ॥२०॥

कनज शशक अनुसध ं ान से रोगी इचछामात से शरीराददको की उतपशत कर सकता है । इस पकार के


सवतंत रोगी का कवभव करा है ? इस कवषर के पकतपादन के शलए महामाहेशर कहते है―
भूतसंधान भूतपृथकतव कवशसंघटाः ॥२१॥
भूतसंधान― भूत जो शरीर पाण आदद है, इनके आपरारन― संवदर न के शलए संधान― पररपोषण
करना ; भूतपृकतव― वामध आदद उपशम के शलए शरीरादद से वामध आदद को पृथक् करना ; और कवशसंघट―
दे शकाल आदद से कवपकृष― दरसथ एवं ववकहत मे जो कवश, उस सबका संघट रानी चाकुष रानी कवषरीकरण,
इस रोगी को कनज शशक संधान से रह सब कुछ होता है ।
अथवा― शबदादद शशकरो के दारा आकाश आदद भूतो का कनमारण ही भूतसंधान है । उन आकाश आदद
के मूरतरभेद की कववका से पतरेक भूत के साथ जो सवसता― ऐकर का भान है वह भूत पृथकतव है । इन भूतो की
कवकवकता होने होने पर भी सामानर आतमसता से एकता बनी रहती है । आतमा की सवरत अनुगतता एवं भूतो की
पृथका ही भूतपृथका है, करोकक कारर की अपेका कतृरतव- अंश पवर होता है, वापक होता है । वृशत (सता),
आहाद (आननद), पकाश (चैतनर), और सपशारनुभव (उनमेषावसथा) की भूममकाओ को धारण करने वाले कवश
कनमारण रज मे दीभकत मचद्-कवभु की जान और ककरा इन दो शशकरो को ही अकर-इनद = जगतकारणीभूत अनगनसोम
(अनगनषोम) जानना चाकहए । पूवरक चार भूममकाओ दारा इस मचद्-कवभु रोगी का संपूणर कवश को ‛सव’ मे परामशर
ही ‛कवशसंघट है । सथूल-सूकम पुररषक इस मचकदभु के ही आधीन है, मचकदभु पुररषक के आधीन नही है । पुररषक
की भूममका मे कवश नाटक का कनवरहण भी इस मचदातमा की सवेषकीड़ा है । [पांच भूत, तीन गुण = सथूल पुररषक
और पांच तनमाता, मन, बुदद, अहंकार सूकम पुररषक है ]
इसशलरे इस पकार का शशवरोगी सारे कवश को कनज कवभव जानने वाला सवतंत कवश को कीड़ा
समझता है । मचदातमा का ‛शुद अधवा मे उपादानभूत अतरनत सवचछ, मचत्, आननद, इचछा, जान और ककरा नामक
शशकरो का जो समूह है, वही अधः अधवा मे पांच पांच करके ततवो के कामावतरण का कारण है । जैसे
अतकरचनदशा (तकरमचजजतवादद अपूणरदशा) के अवभासन के समर ‛मारा’ भाव को पापत मचदातमा अपनी संकुमचत
शशक से पुंसतव की भूममका को पापत होता है । उक शशकरां भी उस भूममका के रोगर पररममत वैभव के उपरोग के
शलए कंचुक बन जाती है । उसके पशात् पुरष (ईशर) के नीचे के ततव समूह के कवसतार के शलए इचछा, जान, ककरा
महेशर की शशकराँ है । उनकी छारा का बल पापत करके वही मारा गुणो की पररणकत से उनमेष को पापत जो
उनकी गुणो की सामरावसथा रप पकृकत है उसमे अमधमषत हो जाती है , दजसके आशरण से शशव ही पुररषक की
भूममका को पापत करता है । इचछापधान कतशशक से मन, जानपधान कतशशक से बुदद, और ककरापधान कतशशक से
अहंकार ततव बनता है । पांचो शकरो के संबंध से जानशशक के पाधानर मे पांचो जानेदनदरो का अकवभारव होता है ,
एवं ककराशशक के पाधानर मे पांचो कमरदनदराँ उतपन होती है । बाहजगत् मे भी इनही शशकरो दारा सथूल भावो की
भूममकाओ को भी कीड़ाथर वह सवेचछा से ही गहण करता है । इस पकार भभन भभन रप मे कवश रचना करके ,
सबमे अपने अभभन पकाशसवरप से वापत रह मचदातमा अपने अभीष कवशनाटकीड़ा मे अपने कवशुद
आननदसवरप का चमतकार दे खता है । मचदातमतादामर से शशवरोगी भी इसी आननद चमतकार को सवकवभूकतरप मे
अनुभव करता है । “भूतसंधान भूतपृथकतव कवशसंघटाः” इस सूत का रही कनगरशलत अथर है ॥२१॥

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शशवसूत पथम पकाश

अब रे शशकरां ककस पकार संपूणर जगत का कारण है ? और आतमा का इन सब पर पभुतव कैसे है


? इस पर अनुगहमूरतर महादे व कहते है—
शुद कवदोदराचचकेशतवशसददः ॥२२॥
कवशातमततव की वांछा से जब रह शशवरोगी कनज शशक का अनुसंधान करता है उस समर “मै ही सब
कुछ हँ” इस पकार कवशातमक शुद कवदा का उदर होता है, उससे ‛सवशशकचकेशतव’ रप माहेशरपद की शसदद
होती है ।
परमशशव कवशमर, कवशोतीणर, परमसवतंत है, तदावापन रोगी मे ‛मै सवररप हँ’ इस पकार का बोध
शुदकवदातमक परमसवातंतर का उदर होता है । इस शुद कवदा के कारण रोगी मे अभणमादद अषैशरररप शसददराँ
सवतः पकट होती है । रही चकेशतवशसदद है ॥२२॥

इस पकार के रोगी को मंतवीररसकं वत् ककस पकार से होती है ? इस पर मंतवीररसवरप का पकतपादक रह


अगला माहेशर सूत है―
महाहदानुसंधानानमनतवीरारनुभवः ॥२३॥
परासंकवद् ही सवचछ होने से, अनावृत होने से, गंभीरतवादद धमररुक होने से ‛महाहद’ कही गई है । जैसे―
मचदातमैव महेशानो कनराचारो महाहदः।
कवशं कनमजर ततैव कवमुकश कवमोचकः ॥
उस महाहद के अनुसंधान से― कनरनतर तादातमरकवमशरन से मंतो की वीररभूतपूणारहनता का अनुभव
सवातमरप से होता है ।
परमशुद, शशककवगह, सृकषसवभावमचदातमा ही कवशोदव मे मूल आधार है । वही दे श , काल, वसतु की
कलपना से हीन (अवचछे द रकहत) महाहद के समान होने से महाहद कहा जाता है । इसी को आतमा का अकृकतम
बल भी कहते है ।
इसी आननद-मचद् (शशक-शशकमद्) रप (अरणी) से (सवरस-साररप) अननत शशकराँ कवकशसत होती
है । इस मूल मचदातमा एवं परावाग् रपा शशक (दजस परावाग् मे अननत वाचर वाचक रप कवश कनकहत है ) का
अनुसंधान करने से साधकरोगी महामंतसवरप हो जाता है । एवं महामंतशशक का अनुभव पापत करके वह जो
कुछ कहता, करता है, वह सफल होता है ।

रह शीमतपरमहंससवामी अभराननद सरसवती जी महाराज कृत शशवसूत कहनदी-वाखरा मे सामानर


मचतपकाशकनरपण नामक पथम पकाश पूणर हआ ॥१॥
इकत पथमः पकाशः

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अथ सहजववदोदयाखयः

इवत वदतीयो पकाशः


उतम अधधकारी के ललए पथमपकाश मे धचतपकाशवनरपण शामभवोपाय का कथन वकया गया ।
मनदशलकपात वाले साधको को मनतवीयर पापत करने के ललए ववकलपो का संसकार आवशयक है । जजससे
परसफुरता के संवेदन से भेदाभास धमट जाता है और सहजाववदा का उदय होता है । तदथर मनतवीयर वववेचनरप
सहज ववदोदय नामक वदतीय पकाश का आरंभ वकया जाता है ।
पूवरक कम से आतमा की सवरजानवकयावतारपी सवतनतता- जो लशवता है ; उसका उपपादन
वकया गया । वहाँ मनतवीयर जजस पकार है, वह भी कहा गया, कयोवक ‛महाहदानुसंधान’ जो सवरप ववमशर है, उसी
को मनतवीयर कहा गया । अब आगे कहते है वह कौन मनत है - जजसका सभी मनतो मे अभभनवीयर है ? इस पर
भगवान अज कहते है―
धचतं मनतः ॥१॥
पहले पकरण मे “संववदूप महाहद के वनभालन से मनतवीयर पूणारहनता का अनुभव होता है” ऐसा
कहा गया । यह अनुभव पकाशववमशर के सवरप मे महाबुजदमानो को महत् सौभागय से ही सुलभ होता है । अब
मनत का सवरप और वीयर का सवरप जो अभी भी वकव है , इसके ललए ‛धचतं मनतः’ इस सूत की रचना अजनमा
भगवान ने की । जैसे कहा है―
“धचतमेव लशवोजेयः पमाता वनरपाधधकः ।
सवरजताददगुणवान् ददककालकलोनोजजजतः ॥
सवातमानुभवधरमरतवात् स मनत इवत गीयते ॥”
अथारत चेतयरपी उपाधध से रवहत पमाताधचत को ही ‛मनत’ कहा गया है । वह सवरजता सवरकतररतवाददवैभव
से युक तथा दे शकाल कलना से रवहत लशवरप ही है । सवातमानुभव रप होने से ‛मनन’ से , अभयास से- ताण
करता है, अतः मनत कहा गया है । ‛मननाततायते’ इवत मनतः अथवा मनत दे वता के अनुसंधान मे ततपर,
ततसमरसीभाव को पापत साधक का धचत ही ‛मनत’ है ॥१॥
इस पकार का मनत योवगयो को वकस पकार लसद होता है इसी बात को अनाथनाथमहादे व कहते है―
पयतनः साधकः ॥२॥
अकरवतम― जो सहज पयतन है, वही साधक है । मनतशलकवनभालन करनेवाले के ललए यही मनतदे वता
से तादातमय पापपत का हेतु है ।
बार-बार बाहवरलतयो के उपसंहार से जब धचत जसथर हो जाये और जाता, जान, जेयरप भेदजान का भी
ववलय हो जाय, तब पूवरक ( वनरपाधधक, वनरवजचचन, सवरशलक समपन, सवातमरप लशवतादातमयापन धचतसवरप
) मनतसवरप आतमा ही धयेय रहता है, तदाकार तादातमय भाव की वनरनतरता ही मनतलसजद का उतम साधक है ॥
२॥
मनत का वासतववक रहसय कया है ? इस पर भगवान शंकर कहते है―
ववदा-शरीर सतामनतरहसयम् ॥३॥
ववदाशरीर अथारत शबद रालश, जो वाचय से भभन वाचक से पतीयमान वणारतमक ‛मनत’ है, उसकी
सता-सदूपता अथारत अशेष ववशाभास (वाचय) से अभभन जो पूणारहनता रप से सफुरता है वही मनतो का रहसय है
अथारत जो शुद कमाददरवहत जो परा वाणी है, (ववनदसवरवपणी) वही धचदातमा की शलक है, उसमे सवरशलक
धचनमातता के आवेश से एकाएक जो उनमेष -पशयनती-मधयमा के कम से वैखरी के रप मे पाकट एवं वाचयतया
ततसंबद ववशरपता है, उनकी जो पकाशमानता है, वह अनयथा उपपन नही हो सकती । अतः पकाशसवरप
धचदातमा ही सवारनुगत लसद है । वही अखखल वाचय-वाचक-ववशरप है और ‛वह मै ही हँ’ यही ‛पूणारहनता’ रप जो
सफुरता है, वही ववदाशरीर-सता है । साधक के ललए उसकी अनुभूवत ही ‛मनतरहसय’ है और साधक की यही

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‛मानती-शरीर-सता’ है ॥३॥
पूवर मे ‛मानतशरीर का उदय ही मनत का रहसय है’ यह कहा, यही परमोदय है । अतः साधको के ललए
वाञचनीय है, यह मंत संबंधी ‛परमोदय लसजद’ वकस पकार होती है ? इसी ववषय पर लशवजी कहते है―
गभरधचत-ववकाशो ववलशषोऽववदासवपः1 ॥४॥
पथम पकाश के २३वे सूत मे जजसे महाहद कहा गया है, वही अथर यहाँ गभरशबद से वववभकत है ।
अतः पकाशसवरप शलकमान लशव और आननदमयी शलक के संघट से आववभूरत धचदाननदसारसवरसव सवसंवेद जो
‛अहमेव सवरम्’ इतयाकारक पूणारहनता की अववकलप अनुभव धारा है उसी के गभर मे तदूपतापन जो धचत है , उसका
पाकरत सवभाव नष हो जाने से पकरवत के गुणो के अधीन होने वाली जागदादद अवसथाएं भी समयक् समापत हो
जाती है, इस पकार ववशुद धचत का तुयर एवं तुरीयातीत अतयुनत परमपदरप लशवततव मे आववष होकर तदारढ़
होना ही धचत का ववलशष ववकाश है । यही मनत उदय उथवा साधक के परमोदय का उपाय है । उस पूणारहनता के
उदय होने पर परथवी आदद अननत जालो से अननत ववसतार को पापत अववदा ‛पूणर अहम्’ का गास बन जाती है ।
अतः उसका सवप ववलोप हो जाता है इस उपाय से मनतोदय रपा ववदा की लसजद पापत हो जाने पर, इसी शलक से
साधक के सभी मनत लसद हो जाते है, कयोवक वह ‛ववदा’ ही ‛सवरमनतमुदासवरवपणी’ है ॥४॥
वनराभशत लशव से लेकर धरणीपयरनत जो लसजदजाल का कौतुक है, इसी मे जजनका धचत, वे तीन
पकार के है― अशुद, शुदाशुद एवं शुद । पकरवत से लेकर धरणीपयरनत अशुद ततव है , अशुद सभी ततव सवप
है । माया से लेवकन पुरषपयरनत शुदाशुद ततव है पथम पाकरत है तो वदतीय मावयक है । वनराभशत लशव से लेकर
शुदववदा तक शुदततव है । माया से नीचे भेदगभर है और वह तदतीणर पद शुद पद है । जजसमे ‛वकजञचत्’ का
कोई पश ही नही है शुद पद की लशवावसथा मे सवाभाववक सहज अकरवतम जजस आतमबल की अभभवलक
ववलकण मुदा के रप मे होती है इसे मुदावीयर कहते है― इसी ववषय पर भगवान शंकर कहते है―
ववदासमुतथाने सवाभाववके खेचरीलशवावसथा ॥५॥
‛परादय पथा’ रप शुदववदा का उदय जब सवाभाववक रप मे हो जाता है, तब लशवावसथा को वक
करने वाली अथवा लशवावसथा के आवेश से खेचरीमुदा अभभवक होती है । खे― बोधगगने चरवत इवत ‛खेचरी’ ―
धचदगन मे ववचरण करने से खेचरी कही गई है । लशवतादातमयाऽनुभव रप वोम मे उददत होने से इसे ‛लशवावसथा’
भी कहते है ।
शुद, वनराभशत, लशवसवरप के अभभवक होने से सवपकाश रपा शुदववदा का उदय होता है , इस दशा
मे जागत, सवप, सुषुपपत सब तुरीय रप वनज बोध का ही वैभव पतयभभजात होता है । यहाँ गभर मे शयन का पश ही
नही उठता, लशवतव लाभ मे अववदादशा नही रह जाती । यहां ‛वकधमचचन् कसय कामाय’ इवत बहवाददवत्
नाकाङ् कापेका । जजसके दारा योगी परम धचदाकाश मे ववचरता है , उसे ‛खेचरी’ मुदा कहते है । वह साकात
लशवावसथा ही है । धचवदलास मे कहा गया है―
1 इस सूत का पाठानतर भी है, यथा―
”गभरधचत ववकाशोऽववलशषववदा सवपः”
गभर मे अथारत् मनतलसजद के पपञच मे जो धचत का ववकाश है -धचत की पसनता है अथारत तावनमात मे संतोष है यही अववलशष ववदा
अथारत सवरजनसाधारणी-ववदा है, वकजञचजजतवरपा अशुद ववदा है, यह सवप है, भेदवनष ववधचत ववकलपातमक भम है ।
मनत लसजद मे ही जजसका धचत सनतुष हो गया है , उसे बहत बड़ी लसजदयां पापत होने पर भी अववदाजवनत सवावपक पदाथर ही
पापत होते है, वसतुतः ये पदाथर सव-सवरप के उललास मे बाधक ही है । इसीललये पतञलल मुवन ने कहा है― “ते समाधावुपसगार वुतथाने
लसदयः” समाधध मे जो जसथत है , उसकी जब उतथान दशा होती है , तो जो लसजदयां उदय होती है, ये सभी सववपल, ववकलप रप अववदा
के ही सवभाव वाली होने से पूणारननद के अनुभव मे बाधक ही है ।
जब वेद याने चेतय को चोड़ दे ता है, तब यह धचत ही मनत हो जाता है । अब धचदूप यह ‛मनत’ सकल भेद को वनगल जाता है ।
जब भेद का गनध ही नही रह जाता, तब उसके ललए लसजदजाल का कया पयोजन शेष बचता है ? अतः सवप सदश लसजदजालो की
वाञचा मे लगा हआ धचत अदै त परमाननद का आसवाद कैसे कर सकता है ?
यहां “गभरधचत-ववकाशो ववलशषोऽववदासवपः” इस पाठ मे साधक की अभानत ववशुद जसथवत का वणरन है और ”गभरधचत
ववकाशोऽववलशषववदा सवपः” इस पाठ मे उसके ववपरीत अशुद एवं भानत जसथवत का वणरन है । अतः तदनुसार ही वाखया की गई । परनतु
अगले सूत ( ववदासमुतथाने सवाभाववके खेचरीलशवावसथा ) के सवारसय से पथम पाठ ही उधचत पतीत होता है ।

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“खे वनरसत वनखखलागमवकया या च वनशरवत शाशोदया ।
सा लशवतव-समवापपतकाररणी खेचरी भववत खेदहाररणी ॥
अनयतावप―
मनः जसथरं यत वबनावलमबनं वायुः जसथरो यत वबनावरोधनम् ।
दवषः जसथरा यत वबनावलोकनं सयातसैवमुदा ववमला च खेचरी ॥”
इसी को ‛भैरवी’ मुदा तथा ‛शामभवी’ मुदा भी कहते है ।
यहाँ मुदा-मनत का जो वीयर कहा है, वह मायीय समसत कोभ के पशानत होने और धचदातमक सवरप के
उनमजजन होने से उददत सवरसामय अवसथा है । केवल बाहाथर जान मे कायर के भेद से परथका पतीत होती है । भाव
यह है वक सवरप का जयो का तयो परमलशवतव का लाभ कराके, जो लशवसवरप अनुसनधाता के मोद मे पमेयीभूत
होकर ‛महामोद’ मुदा के रप मे पकट होती है, इसी को शुद ववदा कहते है । इसके समुतथान होने पर― अथारत
उदय होने पर ववदा ही सवाभाववक, सहज, अकरवतम आतमबल के रप का अनुभव कराती है । ऐसा होने पर
साधक मे मुदा का जो वीयर है, वह ववजरजमभत होता है, इसी को खेचरी लशवावसथा कहते है । उपवनषद् मे इसी
को―
“अनतलरकयं बवहदर वषरनरमेषोनमेषवरजरता ।
एषा सा शामभवीमुदा योवगनामवप दलरभा ॥”
कहा गया है । इसी को और पकार से भी कहा गया है, यथा―
‛एषा सा खेचरीमुदा दे वानामवप दलरभा ।
खेचरी का अथर यहां भूताचारी नही अवपतु बोधरपी जो धचदगन है , उसमे चरने का नाम ‛खेचरी’ है ।
इसी को लशवावसथा कहते है, इसीललये यह खेचरी मुदा लशव-वोम मे उदय होती है ।
“खे सवधचदगनाभोगे चरणात् खेचरीवत सा ।
धयेयानुकारतादातमय पवतपतयुदयाततमका ॥
अतएव लशवावसथा सवरपावेशशाललनी ॥”
॥५॥

मनत-मुदा का वीयर जो खेचरी लशवावसथा है, उसकी पापपत का मुखय उपाय कया है ? इस पर
परमसदगुर करपालु महादे व कहते है―
गुररपायः ॥६॥
मनत-मुदा के बल लाभ मे अनुगहमूरतर परमेशरी शलक गुर ही उपाय है । वही साधय, जो लशवपद है,
उसको पापत करा दे ते है । उसी अनुगह शलक के दारा, परमलशव जो अनुतर पद है, जजसकी अनुभूवत उनमनावसथा
मे होती है, अतएव जजसे औनमनसपद कहते है, उस पद मे गुरभक ववशापनत के लाभ का भागी होता है ।
चेतय को चोड़कर योगी का धचत जब मनत का रप धारण करता है ( “हंसः सोऽहम्” यह मनत का
सवरप है, ) तब पूणारहनता रप ववशातीत धचनमय दशा होती है । तदूधमकारढ़ भागयवान महायोगी को अपने
सनमात, पकाशमात पररपूणर सवरप का साकातकार करके जजस महामोद की अवसथा की पापपत होती है उसी को
‛मनतवीयर’ कहते है । इस पूणारहनता रपी मनत को तथा परमोदय दशा (मुदा) को अनुगह शलक शीगुर दारा ही
पकट करती है । इसीललये “गुररपायः” कहा गया है । परमातमा की अनुगावहका शलक जब वकसी भागयवान
अधधकारी पर पकट होती है तो वह पथम कया करती है ?―
“उतपातादभकतो जनतुः वकयते भव वनसपरहः ” ।
भवभय रपी जो उतपात है, उसे उसकी रका के ललए पथम उस जीव के अनतःकरण मे तनु , करण, भोग,
भुवनभूधम रप जो भव है, उसमे वनसपरहता का उदय करके, उस वनसपरहता के दारा उसको पेररत करके “तदधधधषत
दे होऽसौनीयते सदगुरं पवत” सदगुर के पास मनत मुदा के ललए पहंचा दे ती है । कयोवक―

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“वकरतवातापतवकाथारनामुपेय पदलमभनात् ।
गुररौनमनसे धापमन ववशापनत पथदशरकः ॥”
ताततवक अथर का यथाथर वका मनतमुदावीयरलबध सदगुर ही उसका लाभ करा सकता है । उपेय जो
मनत-मुदा ततव है, उसका लाभ करा दे ता है । कोई भी जान वबना शबद के सुने नही होता । सभी जान शबदानुववद
होते है । अतः शबद दारा गुर ही जान कराता है ॥६॥
इस पकार पथपदशरक गुर का अनुसरण करके उनहे पसन ( अनुगहपवण ) करना चावहए । गुर के
पसन हो जाने पर वफर कया लाभ होता है ? गुर उपाय वकस पकार करता है ? इस पर उमानाथ कहते है―
मातरकाचक संबोधः ॥७॥
सवतनत लशवा की सवपकाश वकयाशलक ही ‛मातरका’ है । उसका उससे वाचयवाचकातमक संपूणर ववश
ही ववसफार है, यही मातरका चक है । गुर करपा से ही उसका समयक् जान होता है , याने “लशवसवरप सवातमशलक
रप ही सभी वाचय वाचक है” इस पकार का संबोध साधक को हो जाता है । उस दशा मे वह जजस वकसी इचचा से
संबद-असंबद भाषा अथवा संसकरत जो कुच बोल जाता है , उसमे मनतवीयर उतर आता है, अतः वह लसद मनत
की भांवत वबना रकावट तततकायर संपन करने मे समथर होता है ।
ववशातीत अनुतरमूरतर धचदन पकाशसवरप एवं अननत शलकयो के अभभन अधधषान जो परमलशव है ,
ववश सरवष की इचचा करते है तब अपने ववशातमक सवरप का पतयवमर “एकोहं बहसयाम पजायेय” करते है । यह
पतयवमर ही पथम सपनदाततमका वकयाशलक है , जजसे मातरका कहते है । वह वकयाशलक ही अमबा, जयेषा, वामा और
रौदी इन चार शलकयो के रप मे धुवा, इचचा, उनमेष, वनमेषादद कलाओ के पसार और ववशापनत ( सरवष और संहार
) मे बीजभूत शुदाधवा तथा उससे अभभन जानसवरप ‛ववनद’ को वक करके ‛जजसकी सरवष भावी है’ उस आधार
भूधम [ मायादद परथवी पयरनत ] के ववभभन रपो मे सजरनेचचा रप ववसगर को भी पकट करके वतकोणजनय
योवनसवरप जो शाकोललास है, तनमय अशुद अधवा का ववसतार करती है । इस सरवष पसङ मे सभी शलकयाँ
इचचाशलक के आधीन है, अतएव उसके दारा कोडीकरत है । वही इचचाशलक जब पाणनातमक अधोभूवत मे उतरती
है, तब अनाहत धववन रप वववतर भाव को पापत होती हई पदवाकयादद गभर ‛पाणवकया रप मे पररणत होती है’ ।
इसी को कहा गया है वक “ पाकसंववत् पाणेपररणता” यही ‛पाणवकया’ ववनद सवरवपणी ‛परावाङयी शलक’ है जो
‛पशयनती’ आदद ववकाश कम से वणर, पद, वाकय एवं मनतादद सवरप को धारण करती है, इसललये मातरका ही इस
वाचय-वाचकातमक ववश का रप धारण करती है, वही मनतसवरपा भी है,उ उसका संबोध हो जाने पर उक रीवत
से उसकी वाणी मे मनतशलक अवतीणर होकर पवतबनध रवहत होकर कायर समपन करती है । यही सब वनमनाङ् वकत
वारतरको मे वक वकया गया है―
सवभासा मतरका जेया वकयाशलकः पभो परा ।
तसयाः कलासमूहो यसतचचकधमवत कीरतरतम् ॥१॥
तसय समयक् पररजानं यत् संबोधः स इषयते ।
सवत तेन वववतर यो वाचय-वाचकलकणः ॥२॥
वकयाशकतयुददततवातस भभनोऽभभनः सदामतः ।
वनतयोददतानसतधमतपकाशवपुः पुरा ॥३॥
वीयरनमुखयातपभोररचचाशकेः समुदयोभवेत् ।
ततः संवेदनसपशर पादभूरतौ ततः पुनः ॥४॥
सवारथरपवतभासश ततोधववनरनाहतः ।
पद-वाकयाथरगभरः सयाततः पाणाततमका ॥५॥
पञचाशदणरगभारवाक् ततः सवरसय समभवः ।
मनताददवसतुजातसय मूलमेकं ततः समरता ॥६॥
मातरकैव वकयाशलकः लशवसयेतथं ववजरमभते ।

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मातरकाचकसमबोधः एवं जातोयदातदा ।
यददलक पबुदः सन् पभुमरनतेनदताधमयात् ॥७॥
इस पकार मातरकाचक समबोध जब गुर करपा से हो जाता है, तब साधक जो कुच बोलता है, वह महामनत
हो जाता है ॥७॥
इस पकार मनतवीयर के पजवललत होने पर, उस मानत महातेज मे पुनभरव का कारण जो यह कामरशरीर है,
वह भसम हो जाता है इस ववषय को अगले सूत मे भगवान वक करते है―
शरीरं हववः ॥८॥
मायीय, पमातरतासपद कामरमल वनबनधन पुनजरनम का हेतुभूत जो यहा सथूल -सूकमादद शरीर है, वह
मनततेज से अभभन जो वनतय पजजवललत जानापगन है, उसका हवव बनकर भसम हो जाता है ।
अथारत तेजः समपन मनतसवरप जानापगन के पजवललत होने पर उसमे कमर से बना एवं कमर का
कारण पुनजरनमाददरप संसरण का हेतुभूत जो यह भौवतक शरीर है, वह पगललत हो जाता है । तदननतर मानत
ददवदे ह साधक को पापत हो जाता है । कामरमल सवहत यह भौवतक दे ह धचदपगन मे हववभूरत होकर भसम हो जाता
है । जजससे वह जली हई रससी की भाँवत बनधन का हेतु नही रहता । मानतददवदे ह समपन होने से धचवदभुसवरप
जो साधकरपी यजमान है उसका सवरतकरष दे ह ( जानदे ह ) यही है । जजससे वह वनतय पजवललत वनषपवतबनध
सवारहम् भाव ( पू्णारहनता ) सवरप महावीयर समपन सवरपभूत जानरपी महाअनल मे सवरदा वहवःसथानीय
शरीराददभावजात का हवन कर रहा है। यहाँ शरीरादद भावजात का जो सदा तदपरण है अथारत तदभभनवनभालन है
यही इस महायोगी की हवन वकया है । अब वह धचनमात हो गया, अतः उसका दे ह पूणररप जान ही है । इसी
सवरप को वनमनाङ् वकत शोक मे वक वकया गया है―
“अनतरनररनतरमवननधनमेधमाने,
मोहानधकारपररपजनथवन सपमवदगनौ ।
कतसमंभशददुतववकास मरीधचभूमौ,
ववशं जुहोधम वसुधाददलशवावसानम् ॥”
॥८॥
इस पकार ददवजानदे ह मे जसथत योगी का अन कया है ? कयोवक ‛आदते इवत अनम्’ इस पर गुरमूरतर
महादे व कहते है―
जानमनम् ॥९॥
“ जानं बनधः” ( १-२ ) इस सूत मे कहा गया बनध का कारण जो भेदजान रपी अजान है , उसे यह
योगी वनगलकर तरपत हो जाता है, अतः वह भेदजान ही अदमान होने के कारण इसका अन है ।
अथवा पररपूणर तरपपत का जनक होने से सवातमववशापनत का हेतु जो सवातम-ववमशारतमक जान है, वही
इसका अन है, कयोवक वह रससवरप और तरपपतरप भी है । अतएव उससे उतकरष अन योगी के ललए और कया हो
सकता है ?
‛ जान’ शबद से यहाँ परावसथा का जान समजना चावहए । उस अवसथा मे योगी को भीतर-बाहर समपूणर
ववश सवातमचैतनयववसफुरणमय अनुभूत होता है, अतः सवभाव ‛अहमेव सवरम’् इस पूणारहनता से भीतर-बाहर वापत
होने के कारण धचदूप आतमा से भभन कुच रहता ही नही । उस अवसथा मे सवातमवैभव के ववसफार का पररशीलन
करता हआ वह योगी अतयनत वनराकाङ् क पूणरतरपत रहता है । अभयासवश वह इस जानदे ह मे ही वनरनतर वनवास
करता है, अतएव यह दशा ही उसकी सवाभाववक एवं सहज दशा है । वुतथान मे कदाधचत् वह जब वावहाररक
कायर को करता हआ सा ददखाई दे ता है, तब भी अपने सवभाव याने पूणरता की जसथवत से चयुत नही होता, अवपतु
पबुद कुशल नट की भाँवत ततजजातयादद ववलशष शरीर भूधमका मे सवयं कीडन दारा सवयं को चमतकरत करता हआ
नाटकीय पात जैसा होकर, ववभभन अभभनयो का वनवरहण करता है । उस वावहाररक दशा मे भी वह ववषयेजनदयो
दारा ततत् सभी ववषयो को परामरतैकरसमय रप मे ही गहण करके सवातमा मे समरपरत करता है अथारत

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सवातमाभभन रप मे ही गहण करता है । ववषयासलक से सवरप सफूरतर को भूलकर पशु की भाँवत अधरावसथा को
पापत नही होता । उसका सारा ववहार अभभनयमात ही रहता है । उससे वह वकजञचनमात भी पभाववत नही होता
है ॥९॥
इस पकार अववदा के संहार हो जाने पर वफर कया होता है ? इस पर भगवान शंकर का यह ववमल
कथन है―
ववदासंहारे तदतथसवपदशरनम् ॥१०॥
‛ ववदा’ शबद का तातपयर यहाँ अशुद ववदा अथारत अजान है । जजससे संसार सतय भासता है । उसका
जब जानोदय हो जाने पर संहार हो जाता है तब अजान दशा मे आतमा से भभन सतयवत् पतीत होने वाला जगत्
जागने पर सवप की भाँवत आतमववसफुरण मात ही हो जाता है ।
संसार को वेदन करने वाली अववलशष ( साधारण ) ववदा ही यहाँ ‛ववदा’ शबद से कही गई है । सवपकाश
सहजाववदा के उदय होने पर उसका ( अववलशष ववदा अथारत अववदा का ) संहार हो ही जाता है । अववदा संहार
हो जाने पर उससे उतपन जो ववमोहकभाव समूह है वह सवप सदश हो जाता है । जजस पकार सवप मे वनरपादान
ही सरवष समूह भासता है, उसी पकार योगी को सारा ववश जागत मे भी वनरपादान ही भासता है ।
भाव यह वक वनरनतर सव-सवरप के वनभालन से पपूणरता की जसथवत पापत हो जाने पर
वकजञचजजतवरपा अववलशष ववदा का ववलय हो जाता है । उससे उतपन सथूल -सूकम समग जगत् सवपवत्
सवरपशूनय अथर वनभारसन मात ववकलपमय हो जाता है । मनोववलासमात सवाप जगत् की भाँवत ही योगी सव-
सवातनतयशलक से उपादान आदद सामगी के वबना ही पवरत , नगर, उपवन, नदी आदद वैधचतयपूणर जगत् को संवेदन
( जान ) रपी सवचचतम दपरण मे पवतवबममबत सा जब दे खता है, तब उसे धचतसता से अभभन अपनी सवातनतयशलक
का ववलासमात सवसवरप के अनतगरत ही दे खता है । इस पकार वह योगी वनषपवतबनध लशववत् वनतयसवरजतव
सवरकतररतवादद शलकयो से समपन होकर सहज ववदोदय पदारढ़ होकर यथेचच ववहार करता है , जैसे जैगीषव
आदद योवगयो दारा की गई वनरपादान सरवष रचना दे खी जाती है ॥१०॥

*इवत सहज ववदोदयाखयोवदतीयः पकाशः*

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अथ ववभूवतसपनदनाखयः

तृतीयः पटलः
सवरप की पतयभभजा और मनतवीयर रप सहजववदा के उदय हो जाने पर, शशवयोगी मे जो ववभूवतयां
पकट होती है, उनका वररन अब वकया जा रहा है ।
पूवारपर के ववमशर से इस योगी का जो बोधवैभव ववजृममभत होता है, उसके ववकाश से वह सवयं
अववमचचन पराननदसवरप हो जाता है । जजससे उसकी सहज अखमणणत सवातनतयशशक ही सफुट ववभूवत के रप मे
पकट होती है, इसी ववषय का पवतपादन करने के शलए महेशर शशव ने इस तृतीय पकरर का उपदे श वकया है ।
सवरपथम योगी के चचत के सवरप पर पुनरवरचाराथर कृपानाथ शशवजी कहते है―
आतमा चचतम् ॥१॥
पूवर पकरर मे ‛ चचतं मनतः’ इस सूत मे चचत को मनत रप बताया । अब यहाँ कह रहे है चचत
आतमरप ही है । अतएव आतमा ही मनत है ।
सभी शासतो मे मन का पयारय चचत कहा गया है, अनतररजननय होने के कारर वही जब सङ् कलप रप मे
परररत होता है, तब उसी को ‛मनत’ कहा जाता है । परनतु बवहमुरख साधक का मन से अभभन संकलपसवरप ‛मनत’
संकुचचत ही होता है । वह मन को अलपशशक रप ही दे खता है । अतः उसका मनत भी जो मनःसवरप ही है ,
अलपशशकक होने के कारर सङ् कलपानुववधायी नही होता । अतः उसे सङ् कलपशसजद पापत नही होती । अनतमुरख
साधक का मन सवातममनन करते-करते आतमसवरप हो जाता है । अतः उसका मन सवरजतव सवरकतृरतव
सवातनतयादद शशक समपन आतमरप होकर ‛मनत’ बनता है , अतः अनतमुरख साधक का मनत सवातमरप शशव के
सभी असाधारर गुरो से समपन होकर ववहार दशा मे भी उसके सभी संकलपो का अनुववधायक होता है ।
तातपयर यह है वक मन का बवहमुरखदशा मे जो परामशरन है उसी को संकलप कहते है , परनतु अनतमुरखदशा मे
सवातमसवरप का मनन करने के कारर उसी को ‛मनत’ कहा गया है । अनतमुरखदशा मे ववकेप का अभाव होने से
संकुचचत चचतता का पररतयाग करके सहज चचदातम ( बोधातमशशव ) सवभाव को पापत हो जाता है । उस सवभाव
का दढ़ अभयास हो जाने पर उसका जान और उसकी वकयाएं इजननय वापार के अधीन नही होती, वह वनरावरर
जानशशक और वनरनरयनतर वकयाशशक से समपन हो जाता है और उनके बलावेश से वह सवेचचानुसार शशव के
सदश पाकृत जो पृथवी, जल, अगगन आदद सामगी है उनकी अपेका वकये वबना ही संकमलपत वसतु की सृवष ( जजसे
बाह जगत् मे सभी लोग दे ख सके ) करने मे समथर होता है । जो अयोगी ( बवहमुरख ) है, उसके संकलप आदद
अपने मन मे ही दे खने योगय ववकलप रप ही होते है , वे बाहर वसतु रप पकट नही वकये जा सकते । अतएव वे
अनय दशय न होकर मन मे ही रह जाते है और जो युक है उसके तो मनतादद भी सवातमशशव के असमानय गुरो से
युक होते है, अतएव वे अतयनत ववलकर एवं अतयनत दषकर भी अथर समूह को पकाशशत ( अनय दशय रप मे
वनरमरत ) करने मे समथर होते है ॥१॥
अयुक की संकलप शसजद कयो नही होती ? इस पर शशव जी कहते है―
जानं बनधः ॥२॥
रागादद युक जो ववषयासंगी जान है, वही सवरपावरक होने के कारर चचत के सवरपपकाश के पूररबल
पागपत मे बाधक होता है । अतएव अयुक की संकलप शसजद नही होती । योगी के चचत के भीतर एवं बाहर के
वकसी भी ववषय की आसशक नही होती । अतः वह अनतमुरख होकर सवरप चचनतन के अभयास से पाटव ( बल )
पापत करके मननातमक आतमसवरप चचत का नषा हो जाता है । तब वही मुक है अथारत रागादद के दारा ववषयो मे
वासंग से रज, तम, सतव इन तीनो मलो से ववभकपत जो चचत है, वह वासतववक आतमसवरप को गहर नही
करता, इसशलये उसे आतमबल का लाभ न होने पर आवरर नाश न होने से वनरावरर पकशभूचम उपलबध नही
होती, अतः जनसाधारर के अनुभव योगय संकलपानुसार वसतुओ का वनमारर नही कर सकता । अतः ववषयासशक
ही यथेचच वनमारर मे पवतबनध का मूल है ॥२॥

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इस पकार के वनतयनषा के शलए आवरर कया है ? इस पर ववशेशर कहते है―
कलादीनां ततवानामवववेको माया ॥३॥
वकमञचत् कतृरतवादद रप कला से लेकर भकवत पयरनत ही कञचुक पुयरषक और सथूल शरीर रप से
मसथत है । जजसके कारर उनही मे आतमबुजद हो जाती है और सदोददत सवपकाश चेतननषा-सवरप आतमा का
भान नही होता, वह अवववेक ही माया है । वही आवरर है ।
यह माया ही कला आदद ततवजालो से वतववध शरीर का वनमारर करके जीवो मे “यह दे हादद रप मै ही हँ’”
इस पकार ( पररचमत पमातृभाव ) का अभभमान पैदा करके सदोददत-सवपकाश-दष सवरप को आवृत कर दे ती है ।
अतएव माया मोवहत होकर माया-मोवहत जीव बनधन मे रहता है । उसे सवातनतयशशक नही पापत होती । जो योगी
वववेक का दढ़ अभयास करके “माया” के ऊपर पहंच कर शुदववदा का समाशयर पापत कर लेते है उनहे आवरर
रवहत सवातमा की पवतभभजा हो जाती है, और मावयक पपञच का उनके सवरप मे ही लय हो जाने से उनका बनधन
सदा के शलए वनवृत हो जाता है । इस पकार आतमबल पापत करके वे पूवरक मनत के अचधकारी हो जाते है ।
अब आगे इसी सनदभर मे कलादद ततवो का ववशेष वववरर सपष वकया जा रहा है । कला से लेकर भकवत
पयरनत जो ततवसमूह है, इससे सारा जगत् ‛तत्’ = वापत, अथारत् पररपूरर है, इसी से इनहे ततव कहा जाता है ।
वकमञचनमात कतृरतवसामथयर को ‛कला’ कहते है । इसी पकार वकमञचत् जानसामथयर को ‛ववदाततव कहते
है (पूररता न होने से यह अशुद ववदा है ) । यही हमारे शलए इषतम है’, यह राग है । यह मुखय पाश ( बनधन ) है ।
‛इस समय हमको यह पापत हो’ यह ‛काल’ है । यह भी असीम आतमा को सीचमत करता है । कमरफल का
वनयतपन ही ‛वनयवत’ है ।अनतसततव मे सुख-दःख अजतव ( मोह ) सम हो रज, तम और सतव की सामयावसथा हो
तो यही ‛पधानता’ है, अथारत तादश अनतसततव ही ‛पधान’ याने ‛पकृवत’ ततव है ।
सुख, दःख और मोह ये ही तीन गुर है , मनन ( वनशय ) करने वाली ‛बुजद’ है और इन सबका अभभमान
करने वाला ‛अहंकार’ है । इजननयो का पयोका मन है । शोत आदद इजननयो से ववशेवषत (शवर सपशारदद ) जान
जजससे होता है वही बुजदइजननयगर है । ऐसे ही वाक् आदद इजननयो से ववशेवषत कतृरतव = वकया जजसमे मानी गई
वही कमरजननयगर है । शबदादद ( सूकम ) रप से अवभाशसत होने वाला तनमातागर है , तथा भभनचमशीकृत शबदादद
तनमाताओ से उदत ( सथूल रप मे वक ) पाञचभौवतकगर ( आकाश आदद भकवत पयरनत ) है । इन सब ( कलादद
भकवत पयरनत ) का जो अवववेक है अथारत इनसे ववववक आतमा को न जानना यही ‛माया’ 1 है, कयोवक मोह, भम
अवववेक उतपन करने वाली है, अतः यही वनतयदषा का आवरर है ।
इसीशलये शुदववदा का संशय लेकर वववेकोदय आवशयक है । इसी पयोजन से ततवभेदी महातमा शुद
ततवो का वनरपर करते है । शशव से शुदववदा पयरनत पांच शुदततव है । जो सवयं पकाश है वह शशवततव है ,
उसकी सवतंत जानशशक और वकयाशशक जो है यही शशकततव है । सवरजान और सवरवकया की योगयता जजसमे है
उसको सदाशशव ततव कहते है । सदाशशव ततवाभशत दे वता को ही साददनीकला कहते है । वही सभी ततवो एवं
उनके सवभावो को भाशसत करती2 है, अतः ‛सदाशशव’ ही ‛ईशर’ दारा सभी ततवो को पेररत करता है, इसशलये
मुखय पेरकतव सदाशशव मे ही है, ‛ईशरतव उसका पेयर है और अनयततवो का पेरक है, यही बात इस काररकाधर मे
वक की गई है । यथा―
“पेयरतवमैशरं ततवं तद्वारा पेषरा यतः” ।
यतः सदाशशवततव ईशर दारा ही सब ततवो की पेररा करता है, अतः सदाशशवततव की अपेका
ईशरततव ही पेयर है अनय सभी ततवो का पेरक है ।
शशवशासत, शशवगुर और शशवववदा दारा जो ‛शशवशुदबोध’ है उसी को शुदववदा कहते है । इस

1 माया तीन पकार की है― (१) मोवहनी, (२) ततवरपा, (३) गमनथ रपा, चौथा इसका एक सवतंत नाम है― शशकरपा । मुको को माया
शशकरपा है । माया गभर के शलए वकसी को ततवरपा, वकसी को गमनथरपा, वकसी को मोवहनी रपा है ।
2 यथा―
“मेददनी पमुखमाशशवं मतं ततवचकचमह चकमुतममम् ।
सव-सवभाव समवायभाशसनी दे वताभववत साददनीकला ॥ चचवदलास १७

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पकार आतमा मे ही आतमा की ही इन अवसथाओ दारा ततवो की कलपना है, वसतुतः सभी ततव आतमा की ही
ववभभन अवसथाएं है । अतः आतमरप ही है । अतः सवारनसु यूत होने के कारर पकाश एवं तदभभन ववमशर ही
एकमात परमततव है ॥३॥
इस पकार आतमा के ततवातमक कला ववसतार का वनरपर वकया गया है, अब उनका संकोचादद कैसे
होता है ? इस पर सवरदाता महेशर कहते है―
शरीरे संहारः कलानाम् ॥४॥
समवष सथूल, सूकम अथवा पर-शरीर मे कलाओ का अथारत ततवववभागो का याने पृशथवादद शशवानत
ततवो का सव-सवकारर मे लय भावना से संहार का अनुसनधान करने से मूलकारर सवारचधषान चचनमय सवातममात
शेष रहने पर “परबोधदे ह” का उदय होता है ।
ततवो का जो सव-सामथयर है उसी को कला कहा गया है । उनका अथारत ततवो और कलाओ का जो
संघात यानी समुदाय है, उसी को शरीर कहा गया है, इसी से इसे स-कल भी कहा जाता है । उन आतमकलाओ का
अपने-अपने कारर सवरप-आधार मे पवतलोमयेन अनुपवेश को ‛संहार’ कहा गया है । इस पकार लय करते करते
अनत मे यह पवकया सवारचधषान चचनमय सवातमा मे पहंच कर जब समापत हो जाती है और वही शेष रह जाता है
तब “परबोध-दे ह” का उदय होता है ।
अथवा हठात् उललंघन वृशत से सभी ववकलपो की हावन दारा पापत एकागता रप बल से वनरवरकलप
संववनूप आतमैशयर की पागपत होती है । इस पकार पमाता का जो कलाओ के साथ तादातमय है, यही सव-सवरप का
आवरर है, जो वक उसके अनैशयर का कारर है । कलाओ का उपसंहार ही शसजद का अंकुर है , जो शशवातमभाव मे
ववकशशत होता है ।
पमाता जब कला से लेकर धररीपयरनत सभी कायर को वेद कोदट मे― जेय कोदट मे ववदा के दारा जान
लेता है, तब पूवर जो कायर-करर से बद था, वही कायर-करर के वववेक से मुक हआ । कायर -करर को अपना
वैभव जानकर वही पमाता दोनो के वववेक से गुरो से से मुक होता है । दोनो से मुक होना एक बात है और दोनो
को ऐशयर जानना दसरी बात है । तो कोई पमाता गुरो से मुक है , और कोई पमाता गुरैशयर वाला है । इस पकार
गुरो का सुषुगपत मे जब लय हो जाता है तब उसे पकृवत पधान कहते है । इस पकार पकृवत अथारत पधान का जब
बोध होता है, तब पधान से मुशक होती है और एक दसरी दशा मे पधान ऐशयर होता है एवं कम से जब पुरषततव
का बोध होता है, तब पमाता अपने वनजसवरप का वनभालन करता है । पुरष पकृवत से मुक तो हआ, परनतु
पुयरषक के संसकारो के उस काल मे भी रहने से अभी वह ऊपर कहे गए पञचकञचुको से आवृत ही है । उस पुरष
को पञचकञचुको का जब बोध होता है, तब वह पञचकञचुको से मुक होता है । यहाँ भी पञचकञचुको से मुशक
की एक दशा है और पञचकञचुक ऐशयर से सफुररत हो यह अलग दशा है एवं मायामुक , ववदामुक और मायैशयर,
ववदैशयर भभन दशाएं है । इसी पकार आगे ईशर, सदाशशव, शशक, शशव इन ततवो के बोध से कमशः ततव उललंघन
कम से शुद शशवतव पयरनत तततवो की अभभवशक से पापत होने वाली मुशक और तदै शयर की अवागपत यह सब
अलग-अलग दशाएं है ॥४॥
इस पकार ततव-पसर ततवसंकोच रप आतमा मे वृशत उललंघन के कम से सव-सवरप शशवतव बोध होता
है, यह कहा गया । अब भूतशसजद के उदय का कम कया है ? इसको भी भूतनाथ कहते है―
नाडीसंहारभूतजय भूतकैवलय-भूतपृथकतवावन ॥५॥
नाचडयाँ जो पारादद वावहनी है, उनका सुषुमना अथवा चचदाकाश मे जो लय है, यही नाडी संहार है ।
नाचडयो उपशम हो हो जाने पर ताननतक पवकया के अनुसार ‛कनद’ आदद अचधषनो मे ‛ पृशथवी’ आदद भूतो की
धारराओ का वनयतकाल पयरनत वनयचमत अभयास से, पञचभूतो पर अचधकार पापत हो जाता है, इसी को भूतजय
कहा गया है । जजससे भौवतक पाषारादद ठोस पदाथर के भीतर वनषपवतबनध गमनागमन एवं ववहरर आदद कर
सकता है । इसी पकार जल अगगन आदद अनय भूत की इचचा के पवतबनधक नही होते । भूतजय शसजद पापत हो
जाने पर भी जब योगी शसजद के ऐशयर मे आसक नही होता और सवरप चैतनय का ही अनुसनधान करता रहता है ,

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तब उसे भूतो से अनुपरक सवचच चचदाननदघन सवातमा मे संमसथत रहने की शसजद वबना पयास के ही अनासशक बल
से पापत हो जाती है, इसी को यहाँ भूतकैवलय यहाँ कहा गया है । इस शसजद से पचुर अथवा अननत आतमबल
पापत हो जाता है । वह सारे ततवो को एवं उनसे उतपन ववश को सवातमवववतर दे खता है । अतः अपनी इचचानुसार
ततवो से संघदटत वसतुओ के ततवो का ववशेषर एवं पुनः संशेषर तथा सवातमवववतरन दारा उनमे ववववध
अवसथाओ एवं ववकारो को उतपन करने एवं उनका उपसंहार करने मे समथर होता है , कयोवक उसको अपवतहत
सवातनतय वाली पभुशशक पापत रहती है । यहाँ इसी शसजद को “भूतपृथकतव” कहा गया है ।
शरीर मे कलाओ आदद का उपसंहार कर लेने से शसजद का अंकुर पललववत― सफुररत होता है । ‘कला’
आदद के कारर अपहससतत ऐशयर वाले पुरष चेतन के पञचकञचुक पावरर है । ये कञचुक राग, वनयवत, काल,
ववदा और कला है । जो माया के कायर है । ये ही माया के ववगह है अथारत मावयक है । इनका उपादान माया से
अवतररक पाकृत गुर या भूत नही है, मायामात ही इन पांचो का उपादान है । इन पांचो का माया मे उपसंहार कर
दे ने पर और माया को वनजाचधषान चैतनय की शशकरपा वनभालन से से ही पञचकञचुको से मुशक और
पञचकञचुको का ऐशयर रप से भान होता है । यह दशा “शरीरे संहारः कलानाम्” इस सूत से सथावपत वकया । इसी
पकार नाडी संहार, भूतजय, भूतकैवलय और भूतपृथकतव के भी कायर को कारर मे लयपूवरक चचनतन और समरर
से शसजद होती है । अनैशयर को कायर-कारर मात आबदता है, ( अथारत पाकृत = पाकृतवपु, गुरमय मन, बुजद
और अहंकार इन वतगुर मे ही आबदता है ) इससे मुक और इसका ऐशयर रप से भान होना, यह सब लय चचनतन
से योगी को पापत होता है । जजस पकार पकृवत से ऊरवर पुरष मावयक कञचुको से मुक होकर ईशरवत् मावयक
ऐशयर का अनुभव करता है, उसी पकार पकृवतमुक, गुरमुक, पञचभूतमुक योगी भी भगवतसंबसनधनी मायाशशक
के दारा ही कला आदद कञचुको से सनद अपाकृत ऐशयर का अनुभव करता है । पुरष चैतनय ( वकमञचत् जान,
वकमञचत् वकया सवतनत ) सांखय पवतपाददत नाना पुरष पृथक्-पृथक् ‘नारायर’ है । उपवनषद् पवतपाददत एक
‘महानारायर’ मे सभी नारायरो का अथारत पुरषो का उपसंहार करने पर ततत् अनैशयर ऐशयर के रप मे ततत्
ददशाओ का परामशर समभव है । इसीशलये गुहावतगुह महापभु कहते है― दे खो ! चचत है आधार जजसका ऐसा जो
पाञचभौवतक शरीर है, इस शरीर मे आतमा की ही सवतंतता होने से गृह मे गृहपवत के समान सवामय है , इसशलए
सवामी चचदातमा पर ही नाडी का उपसंहार करने पर भूतजय हो जाता है । चचत को भूतो से हटाकर चचदाकाश मे
लगाने से “भूतकैवलय” भी हो जाता है अथारत पञचभूतो से और पञचभूतो से बना यह जो शरीर है , (
खणणवपणणातमक ) इससे मुक होकर मावयक शसजदयो के समान पाकृत गुरमयी और भौवतक भूतमयी सभी
शसजदयाँ अंकुररत― पललववत होती है ।
नाडी का उपसंहार कैसे करे ? दे खो ! चचदाकाश ही मे सब नाचडयो का मुख है, कयोवक सभी नाचडयो
का आधार पञचवायु है और उनका आधार मात चचद् ववभु है । उसी चचद् की ही वायु पञचक नाडी वृशतयाँ है इन
सबका चचद् मे लय होने पर ये उसकी शशकरपा होकर सफुररत होती है । दे खो ! मसथरतव, नवतव, उषरतव, चलतव
और सौवषयर ( अवकाश ) ये पांच भूतो के गुर है अथवा ये ही पञचभूत है । इनका ववभु मे लय करके जब
सवातनतयशशक के बल से योगी पृशथवादद के उक गुरो के ववपरीत अमसथरतवादद की ववभावना करता है , तब सब
मे एक गुरा आ जाता है और उसकी ववपरीतता भी आ जाती है । मसथरतवादद उसके शलए पवतबनधक नही होते ।
इसको वारतरक वाखया मे कहा गया है―
“तसय वृशतलयानमरये षण् गुरा वृशतरतमा ।
मसथर-नोषर-चलता सौवषयरववपरीतता ॥”
और यही उसकी भूतजयाखय शसजद भी है । सथान और लकय के पभेद से ववभावना करने से
भूतजय होता है । वकसको ? जो भूतो से पृथक् भूतो का अचधषान चचतसवरप वनज को जानता है , अपने मे से
भूतो का वनरास कर दे ने पर अथवा शसजदयो की आसशक का तयाग कर दे ने पर अनुपाचधक कैवलय दशा का वह
अनुभव करता है । इसशलए वह षट् ततरशत् ततवो के ऐशयर से युक होकर पृथक् -पृथक् सब भूतो को सवतंत रप से
उतपन करता है । केवल आतमबल के संसपशर से संपूरर ववश को अपना ही वववतर वनशय कर लेने पर वफर संघातसथ
हो, चाहे आतमसथ हो, वह सवरत सवतंत अखमणणत पभुशशक समपन होता है ॥५॥

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इस पकार मावयक, पाकृत, भौवतक ऐशयरशशक समपन यह पमाता नाना शसजदजालो से वामोवहत
होकर कही चचदाननद सतसवरप के अनुभव से वमञचत तो नही हो जाता ? इस पर उमारमर कहते है―
मोहावररात् शसजदः ॥६॥
यदवप उक शसजदयाँ सवरप पापत योगी को चचतसवरप आतमबल से ही पापत होती, तथावप इनका
पयोग काम-कोधादद सवरपाचचादक मोह दशा मे ही होने से इनका उपयोग करने वाला, इनमे आसक योगी, मुखय
लकय चचदाननद सवरप के अनुभव से वमञचत तो होता ही है । अतः इस अधःपतन से बचने के शलए उसे कामादद
वृशतयो की उतपशत की पूवरमसथवत मे अथवा इन वृशतयो के ववलय-कर की मसथवत मे चचत को समावहत करने के
लकयभूत परशसजद पापत हो सकती है अथारत वृशतयो के उतपशत-लय-सथानभूत-आतमसवरप मे चचत को समावहत
करे ।
जो सवरप को भूलकर मावयक, पाकृत, भौवतक-ववगहाभभवनवेश से अनुरमञत है । उसी के शलए ये
शसजदयाँ उपयोगी है । वसतुतः ये शसजदयाँ समाचध मे ववघन ही है ।
इन सूतो मे भगवान शंकर ने शसजदवाञचा करने वाले साधको को अभीष पागपत के शलए सवरपशसजद के
साथ-साथ आनुषंवगक लाभ ऐशयर रपा शसजद जजस अभयास से होती है उसी पवकया को कहा है , परनतु ये सभी
शसजदयाँ मोहावरर मे ही संभव है, कयोवक पारमारथरक ववचार से अधर भूचमकाओ की शसजदयो का उदय,
भेदपथासपद होने से माया कोदट मे ही आता है । जैसे कोई अजनमा अपनी माया अथारत इचचाशशक से जनम लेकर
और बहतो को जनमाकर मारे और जजलाये । इस पकार भौवतक, पाकृत, मावयक सकलशसजदमात मावयक है ।
इसशलये पभु ने कहा “मोहावररासतसजदः” । दे खो ! मोह का सवरप काम, कोध, लोभ, हषर, भय, तास के उदय की
अवसथा मे चाहे अतयनत पहषर की भी अवसथा हो यहाँ सवरत मोह की ही मवहमा है , ‘सतसवरप’ चचदाननद,
सवरजानवकया मे सवतनत है । कोई भी शसजद सवरजाता सवरकतार जो चैतनय है , उस आतमा उस आतमा का आवरक
होने के कारर ये सब शसजदयाँ हेय है । मोह होने पर ही ऐसी शसजदयो की इचचा होती ॥६॥
इस मायामोह से ववमुक को कया लाभ होता है ? इस पर महेशर कहते है―
मोहजयादननताभोगात् सहजववदाजयः ॥७॥
मोह-माया पर ऐसी ववजय, “जजससे माया मोह की वासना भी सदा के शलए चमट जाय” पापत कर लेने
पर ‘सहजाववदा’ का लाभ होता है ।
( अननतः = संसकार पशमनपयरनतः, आभोगो = ववसतारो यसय तादशात् = मोह जयात् )
कामकोधादद सवरप मोह की बहत शाखाएँ है अथारत उसका बहत ववसतार है , उस पर संसकार पशमन
पयरनत पूरररप से जय पापत कर लेने से योगी सुपबुद हो जाता है , तब उसमे “ पूरारहं ववमशरसववद्” नामक
अकृवतम ववदा का उदय होता है । यही ‘सहजववदा’ है ।
अथवा― मोहजय से योगी अननताभोग = अननतभटारक नामक रन से अचधचषत जो “शुदववदापद है”
उस पर अचधचषत होकर “सहजालोक-सपत्” को पापत करता है “शुदववदापद मे अननत नाम वाले रन पमाता दारा
सब ओर से शुदववदा का सामाजय भोगा जाता है ।” यह आगम पशसद है । यहाँ “अननताभोगात् सहज-
ववदाजयः” का अथर है “अननताभोगं = सहजववदापदम् अरयासय सहजालोक-समपदं पापोवत” यहाँ
“लयबलोपेकमरभर” से कमर मे पञचमी है, कयोवक मोह बहशाखा वाला है, इसको जीत लेने पर ही सुपबुदता मानी
जाती है । एक ही चचत्, संकुचचत होकर नाना रप से पशथत होता है ।
“एको दे वः सवरभूतेषु गूढ़ः सवरवापी सवरभूतानतरातमा ।
कमाररयकयः सवरभूताचधवासः साकीचेता केवलो वनगुररश ॥”
दे ह मे ‘मै हँ’ यह वनशय ही ‘तम’ है सव, सव-दे ह को ही वनजरप जानना ही मोह है । इसी कारर
शसजद की वाञचा होती है । अतएव अपूरर है । तो जब तक दे ह मे ‘मै हँ’ यह वनशय है तब तक दे ही पशु -आतमा,
वासना से ववद होने के कारर ततत् साधनो के दारा ततत् पररचमत शसजदयो का लाभ करके ही दःखी रहता है ।
‘मै दे ह नही हँ’ चचनूप हँ’ ‘मै’ ही पमाता हँ―

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इस पकार वनशय हो जाने पर अननत भगवान महारन का जो यह अननत-आभोग है वह सब इस
शशवयोगी का ऐशयर हो जाता है । इस दशा मे― “अहमाससम परबह मवय सवर पवतचषतम्” “सवर ममायं ववभवः”
“मतः सवरचमदं जगत्” इतयादद वचनानुसार सवरत सवपकाशोदय ही सपष मोहजय है । सवरप की सवरत पररपूररता
को भी अननत-आभोग कहते है । सवरप पकाशासतमका जो सहजाववदा पहले कही गई थी, उसी का जो उदव है,
उसी को उतम आलोक कहा है । जैसे ददन होने पर ववश सपष भासता है , इसी पकार चचदालोक मे सब अपना
आतमा-वैभव ही भासता है ॥७॥
इस पकार शसजद पापत योगी को भेदाभासमय ववश को एकमात जानसवरप आतमा से अभभन रप
से दे खने के शलए मोहरवहत होकर वनतय जागरक रहना चावहए― इसी ववषय पर महापभु कहते है―
जागद् वदतीयकरः ॥८॥
जागत् अथारत सहजाववदा की मसथवत मे जो जागरक रहता है उसके शलए पूररववमशारतमक ‘अहमेव
सवरम’् इस अपनी पूरारहनता की अपेका वदतीय याने इदनतया ववमशरनीय वेदाभासातमक जो जगत् है वह कर
पकाश सवरपातमा की रमशम रप मे ही सफुररत होता है । अथारत जैसे सूयर की वकररे एकमेक है उसी पकार
शशवसवरप चैतनय का चेतय-चेतना नाना पमातृ पमेय रप जो जगत् है ये सब चचत् वकरर ही है ।
“तरङ फेनभम बुबबुदादद सवर सवरपेर जलं यथा ।
चचदे व दे हादहमननतमेतत् सवर चचदे वैकरसं ववशुदम् ॥”
अथवा “जानं जागत” इस पूवरक (१/८) सूत मे जानशशक को ही जागत् कहा गया है, तदनुसार यहाँ
जागत् का अथर है― जानशशक । पहले सूत मे जान को अनुवाद ( उदे शय) और जागत् को ववधेय मानकर ववसथा
की गई थी, अब इस सूत मे जागत् को अनुवाद ( उदे शय ) कोदट मे और और वदतीय करतव को ववधेय कोदट मे
रखकर वाखया की जा रही है, कयोवक सूत ववशतोमुख होते है । जैसे बाह वसतुओ को कर = हाथ से गहर वकया
जाता है, उसी पकार रप, आलोक, मानसकारमेय, मान, मातृ रप से भाशसत जो कुच भी यह ववश है , उसे पबुद
योगी अपने जानशशक रपी कर ( हाथ ) से ‘भेदाभेद- ववकलपोपहतनयाय’ से सवातम चैतनयपकाश रप मे गहर
करता है । इस पकार “एक ही संवेदन ( जानशशक ) मे बाहाभयनतर सवातममय ववश को, ववशानत ( अनतभूरत )
जानता हआ योगी मोकलकमी का भागी होकर जीवनमुक होकर ववहार आचरर करता हआ सवातमा मे ही
ववहरर करे” यह तातपयर है । यहां जानशशक को करवत् ( कर ) मानकर लौवकक ‘कर’ की अपेका उसे वदतीय कर
कहा गया है । जैसे आपके हाथ का कया महतव है ? यही न, वक कोई भी चीज हाथ से ले सकते है, गहर कर
सकते है, ऐसे ही जानशशक को दसरा हाथ सवीकार करो, कयोवक पबुद योगी ववश की वसतुओ को जानशशक रपी
हाथ से ही पकाशाभभन रप मे गहर करता है । जैसे सवपशशक हमारे जानशशक का ही ववभव है , परनतु यह जात
नही होता । जागत् अवसथा मे सवप सृवष का एक कर भी शेष नही बचता, इसी पकार सवप मे भी जागत् सृवष का
एक कर भी नही रहता । जजस पकार सवप सृवष जाता-पमाता का जान है यानी जान ही जेय की मूरतर धारर करता
है तथा सूयर और सूयर की वकरर जैसे अभभन रप है वैसे ही जानसवरप आतमसूयर का वकररसथानीय ववश भी
उससे अभभन ही है ।
भाव यह वक जैसे सवप मे, सवप सृवष मे जानरपी मन ही जेय-जानाकार हआ है उसी पकार जागत भी
जानमात आकार वाला है । ववदान को जागत्, सवप के सदश ही अपना मनोववलास वनभशत होता है ॥८॥
इस पकार सवातमा मे ही ववहार करने वाला वनतय-पबुद, अतएव सवरदा जीवनमुक जो शशवयोगी है ,
उसके शरीर मे चचरकाल तक रहने वाली ‘मोहलकमी’ [ जो पहले अववदा रही वही अब आतमववभूवत होने से
‘लकमी’ ( ववदा ) बन गई । ] जीवन पयरनत उसके शरीर का आशयर तो करती ही है, अतः सदा परमाननद से
रसपान से मत जैसी मसथवत मे रहने वाले उस महाजानी की चेषाएं कैसी होती है ? उस दशा का सवयं अनुभव करने
वाले परमशशव कहते है―
नतरक आतमा ॥९॥
ववहार दशा मे जीवनमुक आतमा नतरक अथारत कुशल नट की भांवत अनतरनरगवू हत सव-सवरपभभशत पर

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ततत् जागतादद अवसथाओ के अनुरप भूचमकाओ के पपञच को अपने ववमशर सवरप पररसपनद कीडा के रप मे
पकट करता है ।
जैसे कुशल नट रस, भाव, रसाभाव, भावाभास आदद पूरर अभभज होने पर भी अलपज गामयपात बनकर
अनुकायरगत रस-भावाददको को उन-उन आचङक अभभनयो एवं चेषाओ से वमञत करता हआ भी अपने नट-
सवरप को नही भूलता । अतएव उन अभभनयो से दशरको को पभाववत करके रसवनमगन करता हआ भी सवयं
वकमञचनमात भी पभाववत नही होता । तदत् सदा परमाननद मे वनमगन रहता हआ यह पबुद आतमा, ववहारदशा
मे इष पागपत, अवनष पररहार की इचचा के वबना ही इजननयो की चेषाओ के अनुकरर दारा जगनाट का अभभनय
करता हआ ववभभन रपो से सफुररत होता हआ भी अपने आप मे जयो का तयो रहता है । उसे सवरत सवातमा का ही
भान होता है । उसकी दगशशक ववलुपत नही होती, अतः तृपत मनः होकर ववलास करता है ॥९॥
इस नतरक आतमा की रङभूचम कया है ? इस पर महादे व कहते है―
रङोऽनतरातमा ॥१०॥
नतरक आतमा का ‘रङ’ = ततत् भूचमका ( नेपथय ) गहर सथान ( अनतगृरह ) अनतरातमा अथारत
पुयरषकवनयननततजीव है, सवरप संकोच से पार-पधान ‘जीव’ पद पर अचधचषत होकर आतमा, नर वतयरग्, दे व
आदद दे ह भूचमकाओ को गहर करके अपने शशक-पररसपनद कम से सृवष, मसथवत, संहार, वतरोधान, अनुगह रप
पञचकृतयो को करता हआ जगनाट को आभाशसत करता है ।
ववभु चचदातमा जब बवहरनमेष-दशा को सवीकार करता है तब रङमञच पर सजधज कर खडे हए नतरक
के समान ववशनाट का अभभनय करता है और उसी की अनतरनरमेषावसथा जो है वही अनतरातमा- पञचतनमाता,
मन, बुजद और अहंकार की समवष ( पुयरषक ) है, जहाँ वह ववववध ववतत ववशनाट कीडा पदशरनाथर भूचमकाओ
को गहर करके बवहमरञच ( रङमञच ) पर आकर सृवष आदद कीडा सवरप नृतय जैसा करता है ॥१०॥
नतरक आतमा की ये इजननयाँ सवरपाचचादन तो नही करती ? इस पर भगवान शंकर कहते है―
पेककारीजननयाभर ॥११॥
सवरप मसथवत मे जागरक ववशनाट का अभभनय करने वाले योगी की इजननयाँ , सहदय पेकक की
भाँवत नाट रसामृत का चमतकार पूरर ( आननद ) ही योगी को समरपरत करती है, इसशलये इजननयाँ उसके
आतमसवरप का आवरर नही करती ।
सुपबुद सवतनत योगी परमातमा हो जाता है । उस परमातमभाव के पभाव से उसकी इजननयां भी अपनी-
अपनी वृशत मे पेकको की भांवत पररनृतय करते हए चचवदभु की ओर ही अभभमुख होती है । अतः इस योगी के
सवरप के आवरर के शलए समथर नही होती ।
सवतनत चैतनय आतमा ही बुजद, मन इजननय आदद का अवभासक है कयोवक संपूरर ववश परमातम पकाश से
ही पकाशमान है । यदद वनतयोददत चचनमय भासमान परमातमपकाश का सहारा न पापत हो तो, यह सारा जगत्
जड, अनध, मूक तुलय हो जाय, इसशलये चचतपकाश से अनुपाभरत जो बुजद-इजननयादद अनतबारह कररवगर है, वह
तैलोकय नाटक पकटजनय आहाददवतरेक से भर जाता है । उसका अहं इदं ववभाग भाव गशलत हो जाता है वह (
इजननयवगर ) सवरप रस का ही अनुभव करता हआ सहदय रसज पेकक की भाँवत पतयगातमनषा योगी के शलए
परमामृतमय रससवरप चमतकार ( पूरारननद ) समरपरत करता है । अतः पाकृत पशुजनो की भाँवत इस योगी की
इजननयो का अखणण अभभन चचनमयामृतमय रस का अनुभव खेचरी, भूचरी दगचरी आदद भेदावभासक शशकयो दारा
आचचाददत नही होता, जजससे वे दःखमय ववशसरभर मे पररवरतरत नही होती । इसशलये अनतरङ भूचम पर मसथत
होकर के परमातमा पूरर पमातृभाव मे जब नतरक का सवांग रचता है तब इजननयाँ पेकको के सदश ( जैसे “पेककगर
उस नतरक की चवब नख-शशख भावभंवगमा दे खकर आननदववभोर होकर पेकक नतरक भाव को भूलकर एक अपूवर
आहाद का अनुभव करते है” उसी पकार ) चमतकारपूरर चचवदलास रसमय, अखणण आहाद से पररपूरर होकर उसे
आतमा मे समरपरत करती है । सभी पेकको का एक ही अवलंबन नतरक है । नतरक अपने सवाँग मे अनुरक
सवरबनधनववगशलत परमाननदपूरर ‘वनजवैभव’ का सवयं रसराज रस का आसवादन करता है । आसवाद, आसवादन,

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आसवादक वतपुटी रप लीला पकट करता है । यही आतमा का नतरन है ॥११॥
इसके अननतर सवरतकृष सवतंत अवसथा योगी को कैसे पापत होती ? इस पर अतुल अमूलय पूररतव
पदान करने वाली बात अगले सूत मे आतम-महेशर पकट करते है―
धीवशातसतव शसजदः ॥१२॥
तागतवक सवरप के ववमशरन से वनमरल अथारत भेदगहर रवहत जो बुजद है , वही ‛धी’ है । उसी बुजद
से सतवशसजद अथारत सफुरता रप जो सूकम आनतर पररसपनदन है, उसकी वनतयाभभवशक होती है
शबदादद ववषयक जो बुजद वृशत है वह जजस समय चचनूपता का अभभवनवेश करने वाली होती है , उस
समय बुजद सवरबोरय को बोधमात ही पकाशशत करती है । तब वही बुजद शुद होकर ‘धी’ शशक कही जाती है ।
अनतःकरर और ववभभन जानो का आशय चोडकर एक चचद्आशय– वनशय जब रह जाता है , तब उसे सतव की
भभशत कहते है । वही वेद वेदना का अवचधभूत है, उसी अवचधभूत सत्, चचत् का वनशय ही वेदक-वेद-वेदना को
एक चचनूप पदान करता है । सवरप की जो अखणण पतयभभजा है यही सवरप शसजद है ।
धीवशातसतवशसजदः― बुजद अब ‘धी’ हो जाये याने चचद् का ही वनभालन करे तब धी होती है , धाररात्
धीः और जब पूरर वनशय को चोडती चली जाती है तब बुजद कही जाती है ।
सवतः पकाश रवहत इजननयो मे चचदातम पकाश सदा वनरनतर पवावहत होता रहता है । वही इजननय पराली से
बुजदवृशत का रप गहर करता है । चचनमय पकाशरप वृशत मे पवतवबनमबत मावयक शबदादद चचनमय सवभाव से
ववतररक नही है, जैसे सफदटक रवषत ( पवतवबनमबत ) ववभभन वरर सफदटक से अलग कुच नही है अथारत सफदटक
रप ही है । बुजद जब इस पकार का वनशय शासतोक युशकयो एवं अनुभवादद पमारो दारा कर लेती है तब उसकी
‘चचजदन’ जगत् सता की वासना पकीर हो जाती है और रजसतमोवृशतकृत मशलनता भी नही रह जाती, कयोवक रज
= भेदवेदना, तम-वेद-पदाथर, ये दोनो भी नही रहते । अतः इस पकार की ववशुद बुजद― ‘जजसे यहाँ धी कहा गया
है’ ― सवरत सवजयोवतमरय परपकाश-चैतनयघन का ही समवेकर करती हई योगी को सवफुरता रप जो सवपकाश
शसजद है, उसका आसपद बना दे ती है― यही “धीवशातसतवशसजदः” इस सूत का तातपयर है ॥१२॥
इस पकार का सवभाव कैसा होता है ? तो वनज सवभाव को पकट करते हए महेशर कहते है― हमारी
पकृवत की भाँवत उसका भी सवभाव है―
शसदः सवतनतभावः ॥१३॥
सहज जतव-कतृरतवादद रप सवातनतय ( समपूरर ववश को सववश मे रखने वाला ) शसद ही है ।
जजसके दारा शशव से लेकर धररीपयरनत अशेष ववश को धारर पोषर वकया जाता है , दे खा जाता है,
भाशसत वकया जाता है और सववश मे सथावपत वकया जाता है, वही सवरवशीकरर सवभाव वाला सहज जतव-कतृरतव
ही जजसका सवातनतयभाव ( सवातनतय ) है । जैसे रासायवनक संशसद औषध ( पारदादद ) से जो धातु आववद होती
है, वह धातु हेम वन जाती है, इसी पकार शशवसवरप भावना से भाववत समपूरर ववश इस शशवयोगी के वशवतर हो
जाता है ॥१३॥
शशवयोगी का सवरजतव सवरकतृरतव जैसे इस शरीर मे होता है , वैसे ही परशरीर मे भी होता है कया ? इस
पर पावरतीरमर कहते है―
यथातत तथानयत ॥१४॥
जैसे अपने शरीर मे सवातमबल की भावना से सवरजतव और सवरकतृरतवादद शशकयाँ अभभवक होती है ,
तदत् परकीयतवेन अभभमत शरीरो मे भी वनज वागपत के अनुभव करने पर सवरजतव सवरकतृरतवादद शशकयाँ सफुररत
होती है । अथारत जैसे इस अचधकारी के इसी सवाचधकृत वनज शरीर मे मसथत रहकर सवातमशशवता का परामशर करने
पर सवरजतव सवरकतृरतव समभव होता है । उसी पकार सवातमबल सवाभभन चचदाननद महेशर का जो सहज बल है ,
उस शशक के आकमर से सवरत परकीयतवेन अभभमत जो दसरे शरीर है उनमे भी अवववहत सवरजतवादद सफुररत
होता है । इसमे सनदे ह नही । भाव यह है वक जैसे एक अनतःकरर मे पूरर शशवतव का जो वनभालन है , उस
वनभालन शशक से सवरजता सवरकतृरता शशक से वनभशत है । इसी पकार सवर अनतःकररो मे एक ही सवारचधषान

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पररपूरर शशवतव के वनभालन से सवशरीर के समान परकीय अभभमत शरीरो मे भी सवतनत शशववत् पेरकतव होता है
। चाहे जजसको इचचानुसार पेररत करता है, उसमे पवेश करता है ॥१४॥
अब शंका होती है वक दसरे के अनतःकरर मे पवेश करने पर योगी उस अनतःकरर के , शरीर के धमर
से उपवहत होता है या नही ? कैसे अकाल कशलत रहता है ? इस पर कालारर ; काल के भी काल महाकाल कहते
है―
ववसगर सवाभावादबवहः मसथतेसतमतसथवतः ॥१५॥
ववसगर-सृवष परमेशर का सवभाव है अपनी सवातनतयशशक से वह सवयं को जगत् रप मे आभाशसत
करता है, इसशलये जगत् की मसथवत पकाश सवरप शशव से बाहर नही है । अतः शशवशकतयावेश से कही भी रहता
हआ शशवयोगी सव-सवभाव जो अकाल पद है उसी मे मसथत रहता है । वह काल कलनानतगरत अनतःकररो अथवा
शरीरो के धमर से उपवहत नही होता ।
इचचा से लेकर धररीपयरनत समूची सृवष सत् चचत् से उतपन हई है । अतः समूची सृवष इसी सत् चचत् के
अनतर मे ही मसथत है, सत् चचत् के बाहर नही । अतः उस शशवयोगी की सवतः शसद सवयंपकाश चचजजयोवत रप
सहज सवरजतव सवरकतृरतव शशक अपवतहत रहती है । जैसे― “सदे व सौमय इदमगं आसीत्” “आतमा वा इदमगं
आसीत्” इस वचन से सवदवतरन सवरजगत् सतामात, चचवदतरन सवरजगत् पकाशमात, आननद वववतरन सवरजगत्
वपयतामात, एवं समचचदाननद वववतर ही अशेष ववश सवाङ कलप होने से आतमा शशव से भभन नही है । अतः सवरत
समवमसथत जजतने पकशय है उनमे पकाशक आतमा से अभेद भावना की दढ़ता से योगी अकाल पद पर समासीन
रहता है, अतः वह कभी भी काम और काल के भेद मे नही आता ।
तातपयर यह है वक ‘ववशससृका’ ववसगर ( सृवष ) करने की इचचा परमेशर का सवभाव है “सोऽकामयत सृजै
इवत एकोऽहं बहसयाम” इतयादद शुवतयो के अनुसार वह सवयं बहत हो जाता है । अथारत आधारभूत अपने मे सृजय
वसतु समूहो को समुनमीशलत करता है, उनका धारर, पोषर, ववकास, ववसतार करता है, ववभभन ववचचत रपो मे ।
परनतु उनहे “एकोऽहं बहसयाम”.इस संकलप के अनुसार अपने से अपृथक् रप मे ही दे खता है, अतः सवातम ववसमृत
को नही पापत होता । यहाँ तक वक माया भूचम मे भी वेद का जो पकाशन है वह वसतुतः अववनाभूत होने के कारर
चचनूप पर-पकाश के अनतःमसथत रहता हआ ही उसकी सवातनतयशशक से बवहःसफुररत होता है , इसशलये अपने
वासतववक सवपकाश चचनूप से अववचयुत जो अचधकारी है , वह मावयक पाकृत धरमरधमरभाव से कदाचचत् भी उपवहत
अथवा आकानत नही होता है ॥१५॥
अब भगवान महेशर गुरओ के गुर पावरतीरमर इस अकाल पद पागपत के शलए जो हेतु है, उसे कहते है―
बीजावधानम् ॥१६॥
सवरजगत् का बीज सवरपरर चचदातमा ही शुवत-समृवत आगम के दारा पशसद है । सावधान होकर
तवदमशर ही अवधान है । इसी से अकाल अकाम पद की पागपत होती है, कयोवक मोहाददजनय असद् आगह की
हावन इसी से होती है अथारत पररचमत अहंभाव का वनरास करके ववश कारर शाक पद का वनरनतर दढ़ अभयास
करने से उतपन जो चचत का अवधान है , समाधान है, एक अवदतीय चचनमात वनभालन है, यही अकाल कशलत
शशवसवरप पागपत का उपाय है ॥१६॥
सवर ववश की उतपशत की जो मूलभूचम है―चचदातमा, उसमे पवेश इस शशवयोगी को वकस पकार की
यौवगक पवकया से होता है ? इस पर अनाथ-नाथ सवरयोवगयो के नाथ कहते है―
आसनसथः सुखं हदे वनमजजवत ॥१७॥
शशवयोगी वनतय ऐकातमय भाव से अनतमुरख होकर जजस परभूचम मे रहता है , उसी “शाकबल” को यहाँ
“आसन” कहा गया है । वहाँ पर मसथत होकर वह वनतय अनतमुरख भाव से उसी शाकबल का परामशर करता रहता है
। अतः उससे आववष होकर सुखपूवरक अनायास ही (परापररयान, धाररा आदद सथूल यौवगक पवकया के पयास के
वबना ही ) हदे ( परामृत समुन मे ) वनमगन रहता है । दे हादद संकोच का संहार करके उसी मे णु बोकर सवयं तनमय हो
जाता है । इस पकार शशवयोगी की चचदातम पवेश की यौवगक पवकया अनय योवगयो के पयास बहल यौवगक

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अभयास कम से ववलकर एवं आयास रवहत है― इसी को कहा वक “सुखं हदे वनमजजवत” ।
ववजातततव जो शशवयोगी है वे चचदानदमय आतमसवरप के अभयनतर पवेश के शलए आतमयोग को ही
उपायतया सवीकार करते है तदनुकूल पयतन से उनकी जो आतमपवर चचतवृशत बनती है , उसके साथ उनकी पार
वृशत भी एकीभूत हो जाती है । उसका दढ़ता से पररशीलन करने पर उभयवाह इडा-तपरगला की पूरक और रेचक
वृशतयाँ उमचचन होकर सुषुमरा मे पार की कुमभक वृशत बन जाती है , साथ ही रवीनद पारापान के संघट से उतपन
उदानागगन जजसे कहा जाता है उसी शुचच नामक उषरपार के ऊरवरतकेपरातमक रेचकवाह के दारा सुषुमनासथ चचत
सह कृत पार अधःमसथत आधारादद पदो का कमशः उललंघन करके दादशानत पद ( मूधार ) मे जहाँ दै त का अभाव
है― पहँचकर ववशागनत को पापत करता है । यह उदान ही दै तरपी ईधन को दगध करने से ‘चणण’ तथा परमशुजद
का कारर होने से ‘पवमान’ भी कहा जाता है । उस उदान के आशयर से ही योगी दादशानत पद मे मसथत जो
शशव-चैतनयामृत का जो महाररव है, जजसमे ववशवैचचतय उचचल तरङायमार है, उसमे आयास रवहत होकर
अवगाहन करते है । जजसके वनरनतर समभोगरस के आसवादन मे संलगन शशवयोवगयो की अकालकशलत अनुतर
शाक पद की पागपत होती है, जो बाहाभयनतर भेदजान रवहत अखणण सवतनतयमयी है ।
यहाँ जो सामानय लकय है, उसी को दादशानत पद कहा गया है अथारत सव-सवरप का जो पथम खयापन है ;
सामानय जान-वकया का जो भी पाथमय है, जजसके ववषय मे शुवत― “केन पारः पथमः पैवत युकः” इस वाकय से
संकेत वकया गया है । वह जो पथम पार है, और “पाकसंववत् पारे पवतचषता” यहाँ जो पार है, वही शुचच पावन
चणणादद शबदो से कहा गया है । आननद की अभभवशक इसी चणण पार के दारा होती है , आननद की अभभवशक
मे चनन, सूयर, पमेय, पमार, पार-अपान का एकमात चणण पार सभी ववजानी साधको के शलए उदान रप से
पशसद है । शशवयोगी का जब यही चणण पार आसन हो जाता है जब उसका सुखसवरप जो महाहद है , जजन
योवगयो का उनहोने “सदे व सौमय इदमग आसीत्” इस मनत के सत् और आसीत् इन दो अमृत सकारो से एक सत्
को अवलमबय और एक सत् को अवलमबक जान शलया है । मतसय जजस पकार उलट करके ही जल पीता है ; पवाह
के ववपरीत चलकर के ही अपने जीवन, पार के समुदम महाहद मे पवेश के शलए सतत् ऊरवारत् ऊरवर चलांग मारते
हए मूल हद मे पहँचकर सदा के शलए आनजनदत हो जाता है , एवं सत् जो अमृत है, चचत् जो पकाशसवरप है, जो
अखणण आननद का महासमुन है । दसरा जो पवतवबनमबत कलप गाहक मतसयवत् मतसय है ,. वह इस चणण
महाजयोवत सवरप पार अपान का मरय है ।
यह मरय चणण जो उदान है ; वह पवतवबनमबत सत् है, यही जब सनमतसय वलनातमक पदवत का
अनुसरर करता है, तो अधर अधर की भूचम का तयाग पूवरक ऊरवर ऊरवर अवलमबन पूवरक गाह गाहक संववत् (
संवेद संवेदन ) तयागकर गाहकभूचम सत् के ववजान से ‘सोहं हंसः’ सवरप हो जाता है । बस, इसी कर मे वह
पवमान चणण मरय पार समुददत होता है । उसमे जो पवेश है । उसमे दषानत है “यथा नदः सयनदमानाः समुनेऽसतं
गचचगनत नामरपे ववहाय” इस पकार सनमतसय वलन कम से ववजाततव शशवयोगी का आसन यह पवमान, चणण
मरय पार जजसको योगी लोग सुषुमना कहते है । यही वासतववक कुणणशलनी जागृवत का रहसय है । आगम सार भी
यही है । माशलनय आवरर दर करने के शलए जो उपाय कहा गया है , वह पूरर शुजद-पूरर शुचचता भी इस महाहद
वनमजजन मे ही चररताथर है । यथा―
“आतमा हेव महेशानो वनराचारी महाहदः ।
ववशं वनमजय ततैव ववमुकश ववमोचकः ॥”
अथारत सत् चचत् आननदमय महाशसनधु मे ववश को णु बोकर उसी मे सवयं णू ब जाता है , परनतु वह
“ववमुक” है, सवतनत है, अतएव जजनहे णु बोया है उनका ववमोचक भी है , अथारत अपनी अनुगाहक शशक दारा उदार
करने मे सवतंत है, समथर है । यह आतमा ही महेशर है वनराचार है अथारत गाहाचार रवहत है , इसशलये अगाध गमभीर
शसनधुतुलय है । मातृ मान मेय आदद ववववध वैचचतयपूरर जो समपूरर पपञच है , उसमे वनगमागम पररगभरत ततवो के
अनतगरत ही समपूरर ववश एवं पमाता है । गाहक जो पमाता है , उनहे वकसी भी ववषय का वनशयातमक जान अपने
आनतर और बाह इजननयो के दारा ही होता है । गाह मे णू बने वाले गाहक का वनमनाङ् वकत दषानत है―
जैसे कोई वशक सवप मे कमलपत चमथया कलङ् क से दःखी होकर गलावनवश सव-सवप कमलपत वकसी

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तालाब मे बालुका भरे घडे को गले मे लटकाकर और उसे सवयं दढ़ रमससयो से बांध , णू बकर वनषफल आतम हतया
कर लेता है, और सोचता है अब यहाँ मै सुखी रहँगा । भले ही पीचे लोग मेरी वननदा करे , उससे हमारा कया
वबगडता है ? इस कलङ् क से तो मै मुक हो गया ? ऐसा सोचकर उस जल मे णू बकर वही सो जाता, वफर दसरा
सवप दे खता है, मानो सोकर जाग गया है और पूवर सवप को समरर करके कहता है “अहो ! यह कैसी मोह की
ववडमबना है ? सवप मे अपने को मारकर चमथया जान से मै ठगा गया, वथर ही दःखी हआ” ― ऐसा मानकर आशयर
चवकत हो जाता है । उसी पकार सत्, चचत्, आननद सवरप आतमा अपने को सत् चचत् आननद नही मानता, न
जानता ही है । अतः सवरजातृतव, सवरकतृरतव सवभाव रप अपने महत् ऐशयर को न जानता हआ सवप मे आतमहतया
करने वाले की भांवत नामरपातमक बालू और घडे की मोहरजजु अपने गले मे सुदढ़ बांधकर सूख सत् चचत् सवरप
अपने को असत् अचचत् दःख रप करके सव-कमलपत कासार-तुलय अजान मे णू ब जाता गया । पुनः सवप जागर
अथवा पजागर दशा की भांवत सवरप का जान होने पर यथाथर अनुभव करके कहता है― “मै परबह हँ , मुझसे ही
यह सारा ववश उतपन हआ है और मेरे मे ही पवतचषत है , इसशलये यह सारा ववभव मेरा ही है । वथर ही मैने
आकाशवत् वापक सवातमा को घट तुलय सवलप दे ह मे आवृत जैसा करके , उसी को अपना सवरप मान शलया ।
इस वपणणीभूत सवलप दे ह मे मै नही हँ , मै तो सभी दे हो मे वापत हँ । जैसे सवपनषा का सवावपक दशा का जागर,
पजागर मे केवल समरर ही होता है, उसी पकार मोहगसत जीव की मोकावसथा की मूढ़ दशा, पबोधावसथा मे सत्
चचत् सुखघनसवातमपकाश की पतयभभजा होने पर जागरावसथा मे सवपसमृवतवत् केवल समररमात का ही ववषय
रहती है । अहो ! यह कैसा आशयर है ? “मै दे ह मे हँ” “मै दे ह हँ” इस पकार तम और मोह से अभभभूत होकर मैने
चमथया ही सवप मे आतमहतया करने वाले की भांवत मैने सवयं को वमञचत वकया ? यह तो बडा भारी अनथर हआ ?
इस पकार ववमशर करता हआ यह पमेयचनन षणैशयरसमपन सवातम पमातृभगवचचनन का चुमबन, लीला रसामृत का
पान करता हआ तनमय हो जाता है ।
आसनसथः सुखं हदे वनमजजवत इवत । अकालकशलत अनुतर शाक पद की समपागपत, उक उपाय के
अनुशीलन से बवहरनतःकलना ववकल अखणण सवतनतयमयी दशा को यह महाशशवयोगी पापत होता है । अथारत
सवरभावो का उदव जो चचद् है, जो सबका बीज कहा गया है, उसको यहाँ हद करके कहा गया है उसका जो
अवधान और अनुपवेश है यह दोनो उपाय यहाँ कहे गये है । काल काम की जय के साथ-साथ अजरामरतव की
पागपत भी इस योगी को समभव है ॥१७॥
अब शंका होती है वक इस पकार का अखमणणत सवातनतयशाली शशवयोगी कया ववश वनमारर कर सकता
है ? इस पर वृषरवज महादे व चननमौशल कहते है―
सवमाता वनमाररमापादयवत ॥१८॥
अपनी कतृरतवादद शशक से वह यथेष वेदवेदकावभासातमक ववश के वनमारर करने मे समथर है ।
परमातमा की जगचनमाररकाररी जयतव कतृरतव रपा जो सवकीया शशक है, वही उस योगी का बल और
वीयर है, जो ववश के उदव का कारर है, इसीशलये वह शशक जगनमाता कही गई । पूवरक बीजावधान और पवेश
दारा ततपदववशानत शशव योगी भी उस पराशशक से समपन होता है । यह ववभु समथर है, अतः जगनमाता, जो शशक
है वही उसकी शशक है, अतः उस सवातनतयशशक के बल से अपनी रचच के अनुसार ववचचत ववश का वनमारर
इचचामात से सदः समपन करने मे समथर होता है । भाव यह है वक परमेशर मे जजस पकार जतव-कतृरतव ये दोनो
शशकयाँ अपवतहत है इसी पकार पूवरक बीजावधान मे कहा― अवधान, और ‘आसनसथः’ मे कहा पवेश, इन दोनो
के अनुशीलन के माहातमय से उस दै त रवहत दादशानत पद मे ववशानत शशवयोगी भी अपनी इचचानुसार वेद
वेदकावभासनातमक वसतु समूह सवरप ववश का अपूवर नाम रपातमक उललेखो का अवभासन करने वाली अपनी
कतृरतवादद शशक से वनमारर करने मे समथर होता है । इस पकार का वनमारर ही शशवयोगी की सवातनतयधाम ववशागनत
का सूचक भी है, इसी अभभपाय को ‘सवमाता वनमाररं अपादयवत’ इस सूत मे वक वकया गया है । अथारत दे ह ,
पार, इजननय, अनतःकरर शूनय, अहनता से रवहत, चमतमातृता से रवहत, जो शशववत् जगनमाता है, इसशलये उस
अपनी सव-मातृशशक के दारा जैसा रचता है, तथा वह चचद् ववभु योगी वनमारर करता है , आप ही माता बनता है

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और मेयमान हाथ जोडकर खडे हो जाता है, और जान, जेय उसकी शशक बन जाती है, यह है ‘सवमाता’ । गुर,
भूत, पकृवत, माया, उपादान की उसे वकसी पकार से अपेका नही रहती । शीघ ही सवातमबल के अवलमबन से
शशववत् अननत ववश वनमारर और लय करने मे वह समथर होता है ॥१८॥
परनतु यह जो इस साधक का ववदावपु है , यह ववदा भी एक मल है । इसके ववनाश होने पर पुनजरनम
का अभाव होता है― इसी को सब जानने वाले अनतरातमा पभु कहते है―
ववदाववनाशे जनमववनाशः ॥१९॥
अशुदववदा का ववनाश हो जाने पर जनम-अजानसहकृत कमरहेतुक दःखमय जो दे हेजननयादद बनधन है ,
उसका भी ववनशा सदा के शलए हो जाता है ।
सोपाचधक होने से वेदकोदट मे आने वाली, जो पदाथर मात ववषवयरी है, ववदा है, पुनः संभव का कारर
हो जाने से उसे अशुद ववदा कहा गया है । इस अशुद ववदा का ववनाश हो जाये अथारत सहज ववदा का वनभालन
ही आतमा की परासवातनतय अभभवशक है और पतयभभजान है । उस सवबल के आशय से पुनजरनम नही हो सकता ,
अतः अकालपद पापत कराने वाली जो जीवनमुशक है वह यही है ।
तातपयर यह वक ‘वृशत’ रप जो जान है , उसमे आकार पवतवबनमबत रहता है, इसशलये वृशतजान-वेद जो
संसार है, तनूप साधन होने से ‘अशुदववदा’ कही जाती है । यह अशुदववदा ही जनमादद बनधन मे बांधने वाली है ।
उसके ववपरीत शुदववदा का अथारत सव-सवरप चचद्वनरवरकलप बोध के अनुसनधान से, सहज संववत् की संपागपत से
सववीयर लाभ होने पर आरवमायीय इन दोनो मलो के साथ दे ह , इजननय आदद का संघात रप जो कायरबनधन है ,
यह भी सदा के शलए ववनष हो जाता है । अतः वह जीवनमुक हो जाता है । उसका पुनजरनम नही होता ॥,१९॥
अब कहते है बाहाथर उपाचध से उपरमञत होने के कारर जो यह ववदा वेदनीयपरक हो जाती है ।
उसके पेरर मे कया हेतु है अथारत ववदा के ही वैभव मे योगी कयो उपरमञत हो जाता है ? कया कारर है ? इस
पर अजनमा महादे व कहते है―
कवगारदाददषु माहेशयारदाः पशुमातरः ॥२०॥
कवगारदद अषवगर की अचधषाती जो पशुजनो को मोवहत करने वाली माहेशरी आदद मातृशशकयाँ है , वे ही
पापत ततव योवगयो को भी पमादावसथा मे शबदानुवेध दारा मोवहत करके बाहाथरनमुख कर दे ती है ।
सवारतमक शबदराशश का जो कलामय सवरप पहले ( पकाश १/३-४ ) कहा गया है वक शबदानुवेध दारा
बाह पतययोतपादक होने से जो पशु पाभरयो को सवरथा बवहमुरख बना दे ता है और इसशलये वक शबदानुवेध वबना
सव-शशवतव की अभभवशक भी नही होती । वह दो पकार से कहा गया है । एक बीज और एक योवन । माया नाम
की शशक ही योवन है । इसके क से लेकर क पयरनत आठ वगर है ।इन आठो वगर मे माहेशरी आदद आठ मातृकाएं
अचधचषत है । जो पर-अपर दो पकार का फल पदान करती है ।इन आठ शशकयो के तीन सवरप है । अघोर, घोर
और घोलघोरतर । ये ‘घोर’ रप से पशुओ को बाहाथर का अवबोध कराकर उनमे चमश कमरफलो के पवत आसशक
उतपन करती है तथा ‘घोलघोरतर’ सवरप से ववषयासक पशुओ के अधोऽधः पात का कारर बनती है और ‘अघोर’
रप से शशवतव रप पर-फल पदान करती है । इससे यह कहा गया है वक अघोर शशक से अचधचषत शबदानुवेध के
वबना ही शशवतव की अनुभूवत नही होती । इस पकार माहेशरी आदद अष शशक समूह का पवतवगर अघोर, घोर,
घोलघोरतर- इन तीन भेदो वाला है, इनमे पूवर वगर अघोर मे अपाय रवहत शाशत शशवतव संमसथत है ।
परावाकशशक जो शशवाभभन सवरपा है, वह इचचा, जान, वकया इस वतक को उतपन करके, कवगयारदद
रप मातृकाओ का समुनमीलन करके पशु पमाता जब सववकलप, संवेदन दशा मे बवहमुरख रहते है ; उस मसथवत मे
उनके अनतःकरर मातृकाओ के वववतरभूत सथूल -सूकम शबदो का परामशर कराती है, इसी को शबदानुवेध कहते है ।
इसी शबदानुवेध के समय वगरचधषाती माहेशरी आदग शशकयाँ उन पशु पमाता पशुओ मे राग, दे ष, काम, कोध,
लोभ आदद वृशतयो का ववसतार करती है , जजससे उनका दे हादद के साथ तादातमय भाव ही बनकर दढ़ हो जाता है ।
इससे उनकी अनतःकरर की वृशत इजननयो दारा बाह ववषयो की ओर जब पसार करने लगती है , उस दशा मे
अघोर, घोर, घोलघोरतर आदद नाम वाली माहेशरी आदद मातृकाएं ववषयासशक के कारर सवातम ववमुख पशुओ को

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संसार की अधर भूचमकाओ मे वगरा दे ती है । परनतु वे ही अनतमुरख यवतयो के शलए जब अघोर रप धारर करती है
अथारत अभेद रप धारर करती है तब उनको सवातमववकास रस ( ववभभन रपो से चमतकृत करती हई ) समपरर
करती है । उनमे भेदबुजद नही उतपन करती अथारत अभेद का उतथापन ( उदय ) करती है । जैसे ततवमशस और
ववषयासक पशुओ के शलए “तुम वैगनपुरी हो” तो जीवन पयरनत वैगनपुरी ही मान बैठता है । यह शबद से ही चू टता
है, शबद से ही बँधता है ॥२०॥
“ यह जो अघोर, घोर, घोलघोरतर मातृकाओ से अचधचषत वतसवरप अषवगरज शबद राशश है , इसके भी
आदद, मरय और अनत तीन भेद है, वनरवरकलप परारप शशव ही इनका अचधषान है । अतः उससे अभेद भावना के
शसद हो जाने पर यह शबद राशश भी शशवसवरप होकर बनधकारक नही होती” । इसी आशय को पकट करने के
शलए सवर आशयज महेशर कहते है वक―
वतषु चतुथर तैलवदासेचयम् ॥२१॥
पूवरक सूक घोरादद अचधचषत ववकलपोदोधक वतपकार जो शबद है , उनमे शुदववदा पकाश रप आननद
रसातमक परमशशव का आसेचन अभभनाचधषान तथा भावना करने के तनमयीभाव हो जाने पर शबद राशश
चचनसमय होकर बनधकारक नही होती ।
पूवर सूत मे वरररत जो घोरादद संजक पशुववमोहातमक मातृकाएं है उनसे अचधचषत जो सथूल , सूकम वरारतमक
ववकलप है, उनके आदद अनत मे ( जहाँ ववकलपाभासन ही है ).अचधषान रप से पतीयमान जो चचनमय ववशुद रस
है, उसी रस से मरय मे भासमान ववकलपो को शसक करते रहना चावहए । ऐसा करने से भेदपथा गल कर चचनस मे
घुलचमलकर तनमयी हो जाती गई― इस पकार अनुसनधान होते ही ववकलपो का बनधातमक वापार समापत हो
जायेगा और और अनपायनी अखणण चचनसानुभूवत रपा शसजद पापत हो जायेगी है ।
वरारतमक पमातृ भेदो को वनमनाङ् वकत रप से भी समझना चावहए, यथा― अघोर, घोराघोर, घोर ।
इसी अभेद भेदाभेद और भेद रप से तीन पमाता कहा गया है । “चचनूपोऽहं सवरऽहं ममैव ववभवः” ‘मै चचनूप हँ ,
यह मेरा ही ववभव है’ यह भेदानुभव अघोर शबद से कहा जाता है । “जीवोऽहं इदं सवर जगत् न मतकृतं अनयेनैव
केनावप कृतं ईशरेर वा वनरमरतं तसयैव ववभवः ततकृपातः वकमञचद् मवदभवः” । “मै जीव हँ , यह सारा जगत् मेरी
रचना नही है, यह ईशरकृत है, उसी का वैभव है, उसकी कृपा से वकमञचनमात भी मेरा ववभव है’ । यह जो भेदाभेद
अनुभव है, वह घोराघोर शबद से कहा जाता है और “ईशराजजगतश भभनोऽहं दे हाददमाते दे हाददरपेर च
अयमहमससम” ‘मै ईशर से जगत् से भभन हँ , मै तो यह दे हादद मात मे दे हादद रप से ही हँ’ यह भेदानुभव घोर कहा
गया है । ये शबद ही आतमा से अभेद, भेदाभेद और भेद मात का बोध कराते है । सथूल सूकम शबद राशश दारा भेद ,
भेदाभेद और अभेद तीनो मे जो चचनसमय अनुसयूत जो शशवततव है उसी का अथारत “हंसःसोऽहम्” इसका
अनुसनधान करे ॥२१॥
इस पकार सथूल सूकम वापक वरारनुपवेश मे कया उपाय है ? इस पर सवातमाराम महेशर कहते है―
मगनः सवचचते (न) पववशेत्3 ॥२२॥
सव-सवरप जो चचनूप शशव है, उसमे वनमगन तनूप से ही अगगनवत् अङार सथानीय मनतादद रप वरर
मे चचनूपाववषचचत दारा पवेश करे । ऐसा करने से अगगन के पवेश से अङार जैसे अगगन हो जाता है , उसी पकार
मनतादद भी शशव-भैरव-सवरप होकर सवरशशक समपन हो जाते है ।
अथारत बाह इदनता के उनमुख होते समय चचनाथ की जान वकया शशक उदुक होकर पसार करने लगती है
। उस समय चैतनय की बाहाथर संसपृष पवृशत का उदय होने लगता है । सावधान योगी उस समय उनमेषावसथा का
पतयाहरर करके वनमेषावसथा के अनुसनधान से अववकलप संववनूप होकर अङार-वचह नयाय से वरारनुपवेश करे तो
संशसद भैरव मुना के दारा मनतादद का अनुपारन हो जाता है ।
चैतनय की पवृशत के समय जो बाहाकारता है , जजस कम से पवृशत हई इसके ववपरीत कम के उसका

3 “मगनः सवचचतेन पववशेत्” ऐसा पाठ शशवसूत वृशत मे है । शशवसूत वारतरक मे भी वाखया इसी के अनुसार है । तथा― “एवं वनमेषवतः
शशवोभूतवा सवचेतसा । अङार कलपवरारनां वचहवचचानतरं ववशेत्” इवत । इससे पतीत होता है वक यहाँ भी ‘सवचचतेन’ यही पाठ है ।

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समयक् पवतसंहार हो जाने पर पूवर वृशत चचनूपता का उदय हो जाने से पवृशत का उपराम हो जाता है । इस पकार
योगी वनमेषावसथा ( अनतमुरखता ) मे पहंच कर शशवसवरप हो, तदाववष चचत से अङार तुलय वरर के भीतर
वचहवत् पवेश करे, अनुपवेश दारा शसद भैरवी मुना से मनतो का अनुपारन होता है । भाव यह वक सब वरर मे
अनुसयूत अचधषान चचनस के ही बाहाभयनतर सथूल सूकम वापी भाव है । इसी को भैरव मुना भी कहते है । संपूरर
ववश का अथारत पामतृ पमेय बहववध जो ववचचतावतववचचत जो ववश है, इसका अचधषान चचनाथ ही है, वह मै ही हँ,
मै ही भैरव हँ, सब मे मै भरा हँ, सब मेरा वैभव है । इस पकार परमाननद से जो महामोह दशा है , उसको मुना कहते
है । इस भैरव मुना मे पववष शशवयोगी सभी मनतो का अनुपारन करता है अथारत वह सब मनतो का सवामी है ।
केवल मनतो का ही नही, यावद् ववश सवचचत मे अनतभूरत करने पर परकाय पवेश भी इसके शलए सहज हो जाता है
। जैसे कोई भी अङार वचह नही है कैसे कहा जा सकता है ? इसी पकार कोई भी चेतय = दशय नषा चेतन से भभन
है अथारत यह चचनूप नही है यह कोई भी चेतन ततव का जाता कैसे कह सकता है ? अतः मनत चचनूप ही है ॥२२॥
इस पकार वरर मात की मसथवत = उचचारर दारा अभभवशक पूवर अपर भाग मे नही रहती । केवल मरय मे
ववकलपातमक मसथवत रहती है, तो उस ववकलपातमक मसथवत से कया होता है ? इस पर शी महामहेशर कहते है―
मरयेऽवर पसवः ॥२३॥
पशु पमाता के शलए मरय मे ततत् ववचचत आकारो के सचनवेश का सफुरर होने से अवर = अधःपात
के पसव = कारर वे वरारदद हो जाते है ।
उचचारर के पूवर उमचचचारवयषा ( उचचाररेचचा ) जो है, यह वरर का आदद भाग है । उचचारर के पशात
जो ववशागनत है, वह अनत भाग है, इन दोनो मसथवतयो मे वरारदद अववभक पशयनती पद मे वनलीन रहने से शशवरप
ही रहते है । मरय मे उन ववभभन आकारो का सफुरर होने से पशु पमाताओ के शलए अचधषान शशवरपता के
आचचन हो जाने के कारर, भेद पथाजनक होकर भंश के कारर बनते है और यवत जो शशवयोगी है वह मरय मे
भी वरारददको मे अपने शाकरप का सफुरर ही अनुभव करता है ।
शशवयोगी के शलए जो अङार-वचह नयाय से चचद्वापी सथूल, सूकम वरर, पद मनत है, इसशलये सवशशकरप
है । ततत् अथर वकयाकारी पशु के शलए नही । उचचामारर वरर का तीन भाग करो । आदद, मरय और अनत । आदद
मे उदूषा, अनत मे ववशाम तो आदद मे चचद् ही शशव है , अनत मे ववशाम ही शशव है और मरय मे अथारत चचनूप से
ववतररक आकाश गुर ‘शबद’ मान लेते हो, तब नीचे पसव हो जाता है अथारत शशव चचद् रस ही चैतय चेतनायमान
है, इस परामशर के ववसमृवत मात से शशवता से भष हो जाता है अथारत उनको ( पशु पमाताओ को ) मरयकोदट मे
माने = ततत् ववचचताकार पमातृ पमेय सचनवेश सफुरर को अववकलपसंववत् से ही अङार-वचह नयाय से जानकर
माया-मुगध पशु-पमाता, मावयक, पाकृत, भूतज मानकर शशव चचद् रस से भष हो जाता है ॥२३॥
इस पकार तीनो वापी, सथूल, सूकम-वरर, पद, मनतो से जजस पकार अङार वचह नयाय से पररपूरर
समता होती है, उसी को पावरतीवललभ पारपार भगवान शशव कहते है―
पारसमाचारे समदशरनम् ॥२४॥
महेशर की सवरजानवकया शशक ही ‘पार’ है, उसका परनाद रप से वरर-पद-मनतो मे समाचार
अथारत आवेश हो जाने पर समदशरन अथारत तदभेदानुभव होता है , जजससे वरर-पद-मनत आदद सवरजान-वकयाशशक
से समपन हो जाता है ।
चचद्-रस, शशव मे सवरजान, सवरवकया सवरप सवरतम सवसामथयर है, वही पार है, उसको परनाद कहते
है । सवरपारो के अनुपारन मे वह सकम है । उस पार का समाचार अथारत आवेश होने पर वररशबद रववन मे
सफुररत होते हए सभी सफुररो को अङार-वचहनयाय से चचनस शशव से अभभन अनुभव करने को ही यहाँ समदशरन
कहा गया है । इस पकार शशवयोगीवत् वरर, पद, मनत मे अनुसयूत चचनस के अभेद अनुभव से ही वरर, पद, मनत,
सवरजान, सवरवकयाकारी होते है, इसमे आशयर कया ? कयोवक वैखरी पयरनत पद, मनत आदद रप मे फैले हए जजतने
( शबद रप ).पकाश है, उन सभी पकाशो का पारभूत परनादाखय सवतनत पकाश ही है , इसशलये सभी पकाश
उसके अनतगरत ही है अथारत तनूप ही है, इस पकार परनादाखय पकाश ( जो सहज सवरजानवकया शशक समपन है )

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के साथ पद, मनताददको के अभेदाऽनुभव-धाराचधरढ़ हो जाने पर उनको परवीयर सवरजानवकया शशक का लाभ हो
जाता है ।
अथारत शशवतव का पवतभभजान और ववश-सवैशयर ही पर वीयर लाभ है ॥२४॥
अब वरारनुपरन के वनरपर के पशात पसङवश भावशरीरादद का अनुपारन कैसे होता है ? इस ववषय
पर शमभुनाथ कहते है―
माता सवपतययसंधाने नषसय पुनरतथानम् ॥२५॥
माताओ मे, पदाथर मे, सवपतयय अनुसंधान करने पर अथारत “यह संपूरर ववश मै ही हँ” इस पकार
चचदन आतमा का अनुसध ं ान करने पर, अवर-पसव से नष जो तुयर चमतकारमय सव-भाव है, उसका पुनः उतथान (
उनमजजन ) हो जाता है । अथारत योगी पुनः अपनी चचनसमयी मसथवत को पापत कर लेता है । यही भाव शरीर का
अनुपारन है ।
भाव है वक मायाततव से लेकर पृथवी पयरनत जो ततव कलाएं है , ये ही भूत शरीर के उपादान कारर है,
इन ततव कलाओ मे सवातमाभभन पतयय का अनुसनधान करके , इनहे चचनसमयी बना लेने पर शबदादद ववषयो का
आसपद भाव शरीर भी चचदाननदघन-रसमय बन जाता है । उस समय योगी को सवरकतृतवादद शशक से आववष होने
का बल पापत हो जाता है । जजसे पापत करके वह सवरत पररपूरर जान एवं सवरकतृरतवादद रप परमैशयर पद पर
अरयायसीन हो जाता है ।
अथवा इस अनुसनधान करने से नष हये भूतो को कतटर धारा के आवेश -बल से जहाँ जैसा चाहे वैसा कर
सकता है । उसकी सवरजता और सवरकतृरता मे कोई सनदे ह नही अथारत भूतभावातमक संपूरर जगत् मे चचद्-रस-
अचधषान के पररजात होने पर सवरजता और सवरकतृरता आवेश करने पर ही होती है । इसीशलये गीता मे “ततो मां
ततवतो जातवा ववशते तदननतरम्” ऐसा कहा गया है । भगवान शीकृषरचनन ने पहले “बहभूतः पसनातमा न शोचवत
न काङ् कवत” गी.१८/५४ मे बहभाव को पापत योगी पसन मन रहता है, वह न तो वकसी के शलए शोक करता है
और वह न तो वकसी वसतु की आकाङ् का ही करता है― ऐसा कहकर पुनः कहा “समः सवरषु भूतेषु मदककर लभते
पराम्” गी.१८/५४ मे सब भूतो मे समभाव हआ ही मेरी पराभशक याने अववभक-भाव-रपा परम शसजद को पापत
करता है । यह पराभशक अङार-वचहनयाय से अनुपवेश ही है, अनुपवेश हो जाने पर सवभभन कुच रह ही नही जाता
है इसी को आगे कहा वक―
भकतया मामभभजानावत यावानयाशाससम ततवतः ।
ततो मां ततवतो जातवा ववशते तदननतरम् ॥गी.१८/५५॥
उस पराभशक के दारा मेरे को ततव से भली पकार जानता है वक मै जो और जजस पभाव वाला हँ तथा
उस भशक से मुझ आतमा को ततव से जानकर ततकाल ही मुझमे पववष हो जाता है अथारत मुझसे ततवतः अभभन
हो जाता है, वफर उसकी दवष सवातमा से अभभन वासुदेव के शसवा और कुच भी नही रहता ।
भगवान शीकृषर कहते है वक शशवादद अववन पयरनत समपूरर जगत् आचधषान चचदन की रसमयी ववभूवत
है, तथा― “मुझ वासुदेव की सारी ववभूवतयां है” मेरे ही वश मे समपूरर जगत् है” मुझसे भभन केतज कोई अनय नही”
तथा “केतजं चावप मां ववजद” गी.३/२, “अहमातमा गुणाकेश सवरभूताशयमसथतः ” गी.१०/२०, इस पकार ततव समूह
कलाओ को वनज वैभव पदरशरत करते हए पभु शीगुर भगवान ने ‘अनुपवेशदशा का ही पवतपादन वकया है । “ततो
मां ततवतो जातवा ववशते तदननतरम्” गी.१८/५५, “मम साधमयरमागताः” गी.४/१०, इतयादद अनुपवेशदशा का ही
वररन है ।
जो अनुपवेश के अनुभव से रवहत है , वे कला-ततवजान रवहत होने से पशु ही है । एतत् ततवज
शशवसवरप है, वे सब कुच करने और जानने मे समथर है । अङार-वचहनयाय सवरप जो अनुपवेश है उसका रहसय
तो ततवजान अथारत सवातमततव के अपरोकानुभव का उपाय है , उसे सदगुरओ से जानना चावहए । इसीशलए
भगवान ने वनदर श वकया है “तवदजद पभरपातेन पररपशेन सेवया । उपदे कयगनत ते जानं जावननसततवदरशरनः ॥
गी.४/३४॥ ततवबोध हो जाने पर ही ततवातीत सवातमसवरप का पतयभभजातमक वनशय होता है । जब तक

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ततवातीत, कलातीत, सवशशवतव को नही जानता तब तक अपने को ततवकला ववगह ही मानकर जीव पशु -कलेशो
का ही अनुभव करता है । अपने शशवततव को अभभजात करके शशवशशक से कवलीकृत सदाशशव से लेकर धररी
पयरनत शुद, शुदा, शुदाशुद, अशुद समपूरर ववश को पूररशसद योगी अपना वैभव बना लेता है । “माता सवपतयय-
संधाने नषसयपुनरतथानम्” इस सूत का यही तातपयर है4 ॥२५॥
जो इस पकार वनतययुक साधक है, वह कैसा होता है ? इस पर गौरीकानत कहते है―
शशवतुलयो जायते ॥२६॥
तुयर पद के पररशीलन से से साधक तुयारतीत को पापत करके सवचच-सवचचनद-चचदाननदघन भगवान
शशव के समान हो जाता है, अथारत दे हकला के रहने पर भी शशव के समान जीवनमुशक-सुख का आसवादन करता है
। पारबध कमर की समागपत पर दे ह के ववगशलत हो जाने पर साकात् शशव ही हो जाता है ।
सभी काररो का आदद कारर ढूँ ढ़ा जाये तो एकमात शशव ही आननदचचद्, सनमात, सवरपरर वनगमागम-
पशसद ठहरता है । उपाचध रवहत चचतसवरप जयोवत ही शशवतव है । दे हाभशत सवरचेषा करता हआ भी वनतययुक होने
से शशव तुलय होता है अथारत जान के बल से शशव के समान जीवनमुशक का सुखासवादन करता है ।
तातपयर यह है वक वनतययुक साधक वनरनतर शशवसवरप का ही सवातमरप से अवतशय पररशीलन करता है ।
अतः वह शशवपद को पापत कर लेता है । अतएव दे ह के रहने पर भी वह जीवनमुशक-सुख का आसवादन करता है ।
भेद इतना ही रहा वक इस साधक का पारबध दे ह से संबनध है और शशव का नही । अतः तजदन तदत भूयोधमरवान्
होने से शशवतुलय कहा गया । पारबध कमर के उपसथावपत भोगो के समापत हो जाने पर ववदे हमुशक दशा मे तो
शशवतादातमय को पापत होकर वह एकमेव अवदतीय चचदाननदघन शशव ही हो जाता है ॥२६॥
इस पकार शशवतव का अभयास करते हए शरीर, इजननय, पार, मन, बुजद के ववहारकाल मे उसकी
वनतययुकता वकस पकार रहती है ? इस पर भगवान आननदकनद उमासहाय उसके बत का याने ववहार का
वनरपर करते है―
शरीर वृशतवृरतम् ॥२७॥
उक पकार से शशवाहं भाव से वतरमान योगी का शरीर मे रहना ही वत वनयम है अथारत बाह
उपकररो के वबना ही उसका पाशुपताखय महावत शरीर मात से ही सवतः शसद है ।
उक पकार से शशवाहं का पररशीलन करने वाले शशवयोगी का पाशुपताखय महावत सवतः शसद है । जजसमे
कङ् काल, कपाल, दणण, पञचमुना, भसम, उपवीत, रवज, भूषर, वनवास, ववहार आदद संपूरर सामगी अवक रप
से शरीरानतगरत नव का ही उपयोग होता है । वक शलङी धमररवजजयो के समान बाहाणमबर का उपयोग वह नही
करता, जजसमे मलकाशलमा से उपशलपत होना पडता है ।
शशव के उपकरर कङ् काल, कपाल, खट् वाङ, भसम आदद माने जाते है एवं शशवयोगी का शरीर ही
कङ् काल है, इस पर शशरोभाग मे मसथत कपाल ही कपाल है, पृष का जो मेरदणण है वही दणण ( खट् वाङ ) है ।
कर, पाद, गला मे मसथत जो अमसथखणण है, ये ही पञचमुना और सारे शरीर मे जो पारादीगपत याने अङार-वचहनयाय
से आववष चचदगगन की उजजवल दीगपत है, वही भसम है । गुरतय, मन, बुजद, अहङ् कारं ही सुनदर यजोपवीत और
महापथ (पृथवी से लेकर शशव पयरत यही महापथ) ही रवजा खडी है । सारी इजननयाँ भूषर है । इन इजननयो की जो
ववषयो मे वाहवत है अथारत इन इजननयो का पयोजन ववषय दशरन मे पररसमापत होता है इसी पकार भूषर
शोभामात दशरन मे हेतु होने से इजननयो को भूषर कहा गया है । इनकी ववषय पवृशत ही ववहार है । जजस चचद्हदय
मे इनकी एकरसता होती है, वही वासतव मे शमशान है, जैसे शमशान सेवी शशव शमशान सेवन करते है
“शमशानेषवकीडा” तथा इस शशवयोगी का जो हदय बोध (हदयोबोधपयारयः) उस बोध रपी शमशान मे “ जहाँ
बोरयवगर भसम हो जाता है” सदा आसशक रहती है । शरीर, वारी, मन (अनतःकरर बवहःकरर) का जो सफुररत
होने वाली चेषा पररसपनदन है, ववहार है, वही इस वीरेश का वनतयोतसव है । यह जो वनरगरल सवतनत मसथवत है यही

4 शशवसूत वृशत मे― “मातासु सवपतयय संधाने नषसयपुनरतथानम्” ऐसा पाठ है । तथा पाठकम मे इसके पूवर ‘मरयेऽवरपसवः’ यह सूत है ,
और ‘मरयेऽवर पसवः’ के पूवर ‘पारसमाचारे समदशरनम्’ का पाठ है ।

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शशवयोगी का महावत है ॥२७॥
इस पकार के शशवयोगी का जप वकस पकार का होता है ? इस पर महायोगी महेशर कहते है―
कथा जपः ॥२८॥
महामनतातमक अकृत जो “अहमेव परोहंसः शशवः परमकाररम्” इस पकार का अहं ववमशर है , तदारढ़
योगी का जो कुच कथन है वह सभी वनरनतर आवतरमान ( अभयसयमान ) सवातम दे वता ववमशरन रप जप है ।
इस पकार महावती वीरेश (पराहं भाव की भावनाभूचम मे अचधरढ़ है ) का शाक, वनषकल, हंसः और
पौदल इन चार पकार के मनतो का जजन मनतो का साराथर परचचनूप जो सवातमदे वता है उसका परामशरन है , जप
(आवतरन) अनवरत अववमचचन रप से चलता रहता है ।
अथारत शुदकतार की भूचम पर अचधरढ़― अतएव पबुद होकर यह शशवयोगी जो भी कुच भाषर करता
है, इस महावती का वही जप है । इस जप के कारर ही वह पुरषोतम होता है । परवीयर के अवलमबन से अङार-
वचहनयाय से, चचवदमशर के आवेश से युक जो सूकम-सथूल उचचारर है वही जप है । इस पकार यह जप चार पकार
का जानना चावहए । शाक, वनषकल, हंस और पौङल । इन मे चैतनय की जो अहं वकया है - पूरारहनता सवरप
है―यही शाक जप है । परवाङसथ जो लकयाथर भावना है वह वनषकल जप है तथा नादखय कलातमक जो जप है
वही हंस संजक है, और जो २१६०० शास-पशासातमक वायु रप वनरनतर ( जागत्, सवप, सुषुगपत सभी अवसथाओ
मे अववमचचन ) चलता रहता है यही पौदल = जीव संजक जप है ॥२८॥
अब इस पकार का वतजप परायर जानवान शसद महापुरष वकस दान से शोभा पाता है ? कयोवक वबना
दान ददये मनुषय की शोभा नही होती । इस पर कलयार करने वाले पभु शंकर कहते है―
दानमातमजानम् ॥२९॥
‘ आतमसवरप का दान कराना’ यही इस महावती का दान है । आतमसवरप की जो पजगपत है , वही
सवरशेष उतम जान है, जजसको पहले कह आये है और आगे भी कहेगे इसी उतम जान का समयक् पकाशन जो
पूरर कृपापात पबदजन है, उनके पवत पकट करना यही उतम जानदान ही शशवयोगी का दान है । इस जानदान से
ही पशु (बद) जनो के पाशो का समयक् रप से कपर होता है, अतएव सवरतम ( साथरक ) दीका भी इसी को
कहते है ॥२९॥
इस पकार शशवता को पापत सवरपसथ शशवयोगी ही जानोपदे श दारा बनध-मोक करने मे समथर है― इस
ववषय मे दयासागर महेशर कहते है―
योऽववपसथो जानहेतुश5 ॥३०॥
जो शशवयोगी अवव = पशुजनो को मोवहत करके उनके पशुतव की रका करने वाला जो घोर, घोरघोरतर
संजाक माहेशयारदद मातृ वगर है, उसका अचधषाता पभु है, अतः उसे वनयननतत करके अघोर रपता पदान करने से
वह जानशशक का हेतु है, अतः उपदे श योगय कृपापात अनतेवाशसयो को वह जानशशक दारा बोध कराने मे सकम है ,
कयोवक सृवष, मसथवत, संहार, वनगह ( वतरोधान ) , अनुगह का परमकारर शशव ही है । अतः ततपद पापत
अनुगहमूरतर शशवयोगी अनुगह के शलए ही है ।
इस पकार सवरशशक समपन सवर ववश को अपना आकार समझने वाला जो योगी, उसका सव-
संववतशशकववकास ही जगत् है― इस पर दीनबनधु महादे व कहते है―
सवशशक पचयोऽसयववशम् ॥३१॥
5 शशवसूत वृशत मे “ योऽववपसथो जानहेतुश” ऐसा ही पाठ है तदनुसार उपयुरक वाखया की गई है । शशवसूत वारतरक मे खणणाकार ‘ऽ’
रवहत― “यो ववपसथो जानहेतुश” ऐसा पाठ है तदनुसार वाखया की जा रही है । इस सूत को वसत एवं समसत रप से वाखयेयता की दवष
से भगवान महेशर ने कहा है― यथा “यो = योवनः, वव = ववशसय, प = परः शशवः एवपभुः, सथा = मसथतः, जा = जानवकयातमा, हे =
हेयसय, तु = तुचचीकरर हेतुः, अतः ततपदसथ ― यो = योगी, ववपसथः = ववशरप-पद-सथः, जान = जानपूवरकः, हेतुः = भोगसय मोकसय
पकृषः हेतुः” इवत बोचधतम् । अथारत ववश के कारर परातपर शशव ही है जानशशक, वकयाशशक उनकी आतमभूताशशक है, अतः शशव ही हेय
अथारत दःख रप जगत् के तुचचीकरर के कारर है , इसशलये उस शशवपद पर मसथत योगी ववश-रप-पदसथ होकर जानदान दारा
अचधकारी कृपापात के शलए भोग और मोक का पकृष अननय कारर है” ऐसा कहा गया है ॥३०॥

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इस शशवतुलय योगी का “शकयोऽसय जगत् कृतसनम्” इसके अनुसार अपनी संववत् रपा शशक का
‘पचय’ याने वकयाशशक सफुरर रप ववकास ही संपूरर ववश है ।
भाव यह है वक “जजस पकार यह समपूरर ववश शशव की जो अनुतरशशक अथारत सवरकाररभूता शशक है ,
तनमय ही है, उसी पकार यह योगी जो शशवतुलय कहा गया है , उसकी जो सव-संववद्शशक है, उसका ववचचत
नवनवोललास सपनदमय जो वकयाशशक का सफुरर है तनूप ववकास ही ववश है , कयोवक बवहररजननय और अनतररजननय
के ववषय रप मे ववसतार को पापत, यावत् नील-सुखादद वेद समूह है, वह सबका सब चैतनय पकाश रप भभशत पर
ही आभाशसत है, अनयथा उसकी सवयं सता उपपन ही नही हो सकती, इसशलये उस योगी की सव-संववद् ततत्
वैचचतयपूरर ववश मे सवमनोरथ की भाँवत सवरत पसफुररत होती है । शशक-शशकमान मे अभेद होने से सवातम शशव ही
जगनूप मे ववभासमान होता है” ॥३१॥
इस पकार सवरसृवष का कतार यह ( आतमा ) मसथवत और लय भी करता है- इस पर वतपुरानतक भगवान
शङ् कर कहते है―
मसथवतलयौ ॥३२॥
सवशशक पचय जैसे ववश रप है, वैसे ही मसथवत एवं लय भी है, कयोवक शशक का बवहमुरखतवावभासन
ही सृवष एवं मसथवत है तथा चचनमात पमाता मे ववशागनत ही पलय है ।
इस पकार सवरशशकमान चचदातमा अपनी वकयाशशक से उनमीशलत ववश की अपनी ही इचचाशशक से
मसथवत एवं पलय भी करता है ।
शशकततव पयरनत ततत् पदो के अरयक जो जो अनाभशतादद पमाता है , उन उन की अपेका अपने से
आधरसथ ववश का ततत् पराधरकाल अथारत जो उनका आयुषयकाल है तावत् पयरनत बवहमुरखतवेन अवभासन ही
मसथवत है और सव से ऊपर के पद की वनमेषावसथा मे जो अधः मसथत सव का भी ववलय हो जाता है , अपने से
अरयसथ ववश के ववलय मे तो कहना ही कया है ? इस पकार चचत् जो पमाता है उसमे सभी ततवो की ववशागनत ही
लय है, इसशलये अवभासमान मसथवत और लय दोनो ही चचदातमशशक के पचार रप ही है । कयोवक यावद् वेद
समूह है, वह चाहे वनमीलयमान् = लयावसथा मे हो अथवा उनमीलयमान् = मसथवत दशा मे हो, दोनो अवसथाओ मे
संववत् शशक का सफुरर ही है, अनयथा संववत् पकाश के वबना उनका पकाशन ही असमभव है । अतः “सृवष की
भाँवत मसथवत लय भी शशक पचय रप ही है” ऐसा कहा गया “मसथवतलयौ” ॥३२॥
सृवष, मसथवत, रवंस काल मे भी इस योवगराज की सवातममसथवत कैसे रहती है ? इस पर शासताररव
सवरसंशयो का हरर करने वाले महादे व कहते है―
ततपवृतावपयवनरासः संवेतृभावात् ॥३३॥
ततपवृतौ = याने सृवष मसथवत रवंसादद पञचकृतय मे पवृत होने पर भी जो संवेतृभाव है उससे योगी
पृथक नही होता ।
अथारत सृषटादद कायर मे वापृत होने पर भी शशवयोगी सवरप संववद् से कभी चयुत नही होता, कयोवक
उसकी संवेतृता का अभाव कब होता है ? अथारत कभी नही । सृवष, मसथवत, लयादद रप जो कायर है, जोवक
पाभरयो की अपेका करके होते है , इनमे पवृत हआ भी योगी जगपत सवरप मे होने से कभी भी पजेय नही हआ ।
वकसी भी अवसथा मे अवसथा का अचधषान ही रहा, जजस पकार ववश वापार मे अववचल अखणण वह परमशशव है ,
उसी पकार यह शशवयोगी भी ।
भाव यह है वक सृषटादद के उनमीलन होने पर भी योगी की चचनूप मसथवत, तुयर चमतकार का ववमशर रप
जो सवेतृभाव है, उससे पृथक् वकसी भी दशा मे करमात के शलए भी नही होती । पञचकृतयकारी जो चचदातमा है
उसका ततत् ववभभन कृतयो के रप मे जो उललास है, वह उसका अपना ऐशयर ही है, उसे पकट करता हआ वह
ववनशयत् सवभाव वाले जो दशयातमक भाव है, उनके पूवर एवं पर कोदट मे “ जहाँ दशयो की उनमीलन दशा नही
रहती” चमतकारी रप मे वनतयोददत रहकर सवयं को उनके साकी रप मे वक करता रहता है । इस पकार
अववनाशी अवसथातासवरप जो साकी आतमा है , उसकी ववववध अवसथाएं ही जो नष और उतपन होती हई बार-बार

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बदलती रहती है, न वक अवसथाता का ववनाश होता है । यदद अवसथाता का भी उन-उन अवसथाओ के साथ ववनाश
हो जाय, तब तो असाभकक होने के कारर उनका उदव और ववलय भी अशसद हो जाय, इसी अभभपाय से कहा
गया है वक “ततपवृतावपयवनरासः संवेतृभावात्” इवत ॥३३॥
इस योगी के शलए सुख और दःख कैसे होते है ? इस पर असङ शशव भगवान कहते है―
सुख दःखयोबरवहमरननम् ॥३४॥
योगी वेद संसपशर से उतपन सुख और दःख को अपने से बाहर = अपने से असंबद-नीलादद की भाँवत
‘इदनताभासरप’ मानता है । सामानयजन की तरह अहनता का अनुभव संसपशर रप से नही करता, कयोवक उसका
पुयरषक से संबद पमातृभाव समापत हो गया होता है, अतएव वह सुख-दःख से संसपृष नही होता ।
अददव = लौवकक ववषयो मे रस लेने वाले पशु पमाता को सांसाररक वपय ववषयो के सपशर से , यदा
उनकी पागपत से होने वाला बाह अथवा आनतर जो अनुभव होता है , वही उसके शलए सुख माना गया है, अथारत
वपय-सपशर अथवा ततपागपत से उतपन आननदमयी अनतःकरर वृशत सुख है और उसकी अपागपत अथवा अवपय की
पागपत से उतपन अनाननदमयी वृशत दःख है । वह दःख आरयासतमक, आचधभौवतक और आचधदै ववक भेद से तीन
पकार का है तथा तम, मोह, महामोह, ताचमस और अनधताचमस भेद से पाँच पकार का होता है । इनके अवतररक
भी दःख के अननत भेद है । अषधा पकृवत― पञचमहाभूत , मन, बुजद अहंकार इनको जो अपने होने का वनशय है
इसको ‘तम’ कहते है, “दे हादद मै हँ” यह ‘तम’ है और “दे ह ही मै हँ” यह दे हातमभाव ‘मोह’ है । बाह सती -पुतादद को
आतमरप मानना यह महामोह है” । “आतमीय कुटं बादद को बाधा पहँचाने वाले के पवत अमषर यानी कोध करना”
यह ‘ताचमस’ और “अमर आतमा को मररमय मानना” यह पाचवाँ ‘अनधताचमस’ है । इनके चमशर से तथा अनयोनय
भेदो से यह दःख अननताननत रप धारर करता है । जानी मे दे हादद ववषयक अहनता ममता नही रहती, “मै
चचदाननदघन शशव ही हँ” इस पकार का सवातमववमशर उसका दढ़ रहता है , अतः उक अननत भेद वाले सुख-दःख
पकट होकर भी उसकी दवषः मे ‘ नीलादद’ बाह ववषय के समान ही पतीत होते है , इसशलए उसके चचतसवरप को
आवृत नही करते, कयोवक पशु पमाता की भाँवत वह अहनतमभाव से अभभभूत नही होता, वह अहनता ममता के
सपशर से रवहत होता है ॥३४॥
वे बाह मनन से जब अनतर-आतमा मे पवेश नही करते उस समय बाह अभयनतर मननीय मनन को
चोडकर मनतृसवरप की आखयावतदशा होती है, तब उस योगी की कैसी मसथवत होती है ? इस पर आतमनाथ कहते
है―
तवदमुकसतु केवली ॥३५॥
सुख दःख एवं ततकृत मोह से ववमुक, ववशेषरमुक अथारत उनके संसकार मात से भी असंसपृष होने से
योगी का सवातमववभव ववलुपत नही होता, इसशलये वह केवल चचनमात जो पर पमाता का सवरप है, उसमे ववशाम
करता हआ योगफल जो सवातमशशवतवपतयभभजान है और ततसदै शयरववशववभव है उसका अनुभव करता है ।
उसको मूढ़भाव होता ही नही ।
जानी को वेदसपशर जावत वाले बाह नीलाददक के सदश इदनता भास रप से सुख दःख का संवेदन,
मनन होता है । लौवकक पशुओ के समान अहनता के अनतभूरत न होकर अहनतासंसपशरवरजरत योगी को नही होता,
कयोवक योगी पाशानत पुयरषक भाव वाला होता है, अतः पुयरषक संबनध से होने वाला सुख दःख योगी को सपशर
नही करता । इसी को दढ़ करने के शलए यह सूत (तवदमुकसतु केवली) कहा गया है ।
अथारत वह सुख दःख से ववमुक उसके संसकार ववशेष से भी असंसपृष केवली केवल चचनमात पमाता होता
है ।
वनराभशतः शूनयमाता बुजदमाता सदाशशवः ।
पारमातेशरः शुदा-ववदा सयादे ह-मातृता ॥
पमार, पमेय, पमाता से रवहत जो शूनय है, उसका माता वनराभशत शशव है और बुजद उदय होने पर
सवरबुजदयो का माता सदाशशव है । सवरपारो का माता ईशर है और दे हमातृता ‘शुदववदा’ है । अहनता इदनता के

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ऐकय को शुदववदा कहते है । वनराभशत ‘शशव’ शशक, सदाशशव, ईशर, ववदेशर, मनतमहेशर ये सब पमाता अपने
शरीर को वकस पकार जानते है ? अथारत संववद् जानते है । जब दे ह को भी संववनूप जानता है , तब बोध पूरर हआ
। अथारत वेद वेदन संववत् का ही बवहमुरखीभाव है । वेदक का बवहमुरखभाव वेदन और वेदन का बवहमुरखीभाव वेद
है । जब वेदक ही सवसवरप से चयुत हए वबना वेदनवेदरप धारर वकया है , तब सब चचनमात ही हआ ॥३५॥
अब मूढ़भावाचचन होने पर कया होता है ? इस पर महेशर महादे व कहते है―
मोहपवतसंहतसतु कमारतमा ॥३६॥
जब मोह अथारत अववदा से वापत होकर दे हादद मे आतमाभभमानी हो जाता है तब तो दे हावयव जो
इजननयाँ है उनके दारा ततत् ववचचत कमरफलो के पवत आसशक पूवरक अभभलाषी बनकर शुभ, अशुभ, चमश कमर
को समयक् करता हआ नानाववध दे व, नर, वतयरग्, पशु आदद योवनयो मे संसरर करता है । उस समय वह अपने
चचदाकाशैक रप आतमसवरप को भूलकर अथवा चचपाकर कमारतमा हो जाता है ।
“ सुखासुखयोबरवहमरननम्” इस पूवर सूत की वाखया मे तम, मोह, महामोह, ताचमस और अनधताचमस
जो अववदापवर कहा गया है उसी को यहाँ “मोहपवतसंहतसतु कमारतमा” ( इस सूत मे ) कहा । महामहेशर कहते है―
“मोह, जो महामूखरता है जजसका दसरा नाम ’अनुदोग’ , तीसरा नाम है ’अववदा’, चौथा ‘जडता’,पाँचवां है ‘आवृवत’
याने आवरर, चठा है ‘अवववेक’, सातवां है ‘मूचार’, एवमादद अनेक पयारयो से इसी मोह का ही वैभव कहा गया है ।
इसी महामूखरता से ही शरीर आदद मे अहंभाव का ववजृमभर होता है । उस दे हाहंभाव से वनरनतर वापत होकर
‘पूरारतमा’ सीचमत होकर ‘कमारतमा’ बना है अथारत ‘कतुनयाय’ से जैसा शुभ, अशुभ, चमशकमर करता है उसी पकार
पशु के समान वह बँधकर उस समय अपना जो पूररतव है , उससे वमञचत होकर अभेदाखयावत रप जो
भेदावभाशसतव है, उसी को सतय मानने लगता है अथारत भेद को सतय मानता है ॥३६॥
मोह के होने पर तो अहनता इदनता रप हथकडी बेडी सदा ही लगी रहती है , परनतु यदद तद्उदे षनकम
से ( जैसे फैलाई हई दकान वफर समेट ली जाये, उसी कम से ) वासतववक जगत् कतृरभूचम का आशय करके पबुद
हआ शशवसवरप योगी जब वनतय वनजसवरप मे मसथत होकर भेद का वतरसकार कर दे ता है , तब उसमे कौन सामथयर
अभभवक होता है ? इस पर परमशशव कहते है―
भेद-वतरसकारे सगारनतरकमरतवम् ॥३७॥
शरीर, पार आदद मे अहनताभभमान रप जो भेद पथा है, उसका चचदन जो सवभाव है उसके उदबुद हो
जाने पर जब वतरसकार हो जाता है अथारत सवारहंभाव से जब भेदका अभाव हो जाता है तब योगी मे अपनी इचचा
के अनुसार सृवष ( वनमरय के ) वनमारर की शशक अभभवक हो जाती है ।
अथारत ‘बोधसवरप होने से आतमा ही सब कुच है’ इस पकार का बोध उदय हआ तब “भभनं नेहाससत
वकञचन” ‘आतमा से भभन कुच नही है’ ऐसा जानता है , तब तो वह ववशातमा हो जाता है । ववषयो की पवृशत एवं
वनवृशत दोनो दशाओ मे वह अपने अज, अवय सवरप को जानकर उसी मे अचल भाव से मसथत रहता है , इसशलये
दोनो दशाएं उसके शलए समान ही रहती है । इस पकार भेद का वतरसकार हो जाने पर आतमा ही सृतय ववषयो के
साथ एकाकार हो जाता है अथारत चचदातमा ही इचचा दारा ववषयो का कतार और सवयं तनूप गहर करने से ववषय
रप कमर भी वही होता है । इस पकार वह अपनी रचच के अनुसार सगारनतर अथारत सामानय सृवष से ववलकर
वैचचतययुक नव-नव संसथानाददयुक सृवष वनमारर के शलए सवतंत और समथर होता है ।
तातपयर यह है वक शशवयोगी का हदय शशवशशकपात से आवबद हो जाता है, इस पकार वह कमरबनधन
को खोलने के शलए शशवयोग का समाशयर करके बनधनमुक एवं पबुद होकर परमशशवसवरप जो आतमभाव है
उससे ववतररक कुच नही दे खता । इसशलये दे ह आदद मे अहनतातमक जो सकलपलयाकलादद पमाता है , तदाभशत
भेदाभास को अपनी पूरारहनता मे वनगीरर करके वतरसकृत कर दे ता है । इस पकार का वह शशवयोगी सवरप की
पतयापशत से उसमे वनशल भाव से मसथत होकर, पर जो शैवशाकबल है उसे पापत कर लेता है , जजससे उसे मनत
तथा मनतमहेशर आदद पमाताओ का महावैभव ( सामथयर ) पापत हो जाता है और वह सवेचचा ( शशवेचचा ) अनुसार
ही नवीन-नवीन आकृवतयो एवं सवनवेशो से युक ववववध वैचचतयपूरर अपूवर सगर के वनमारर मे समथर हो सकता है ॥

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३७॥
शशवयोगी अपूवर सचनवेशाददयुक नव-नव ववलकर सृवष करने मे सवतनत होता है― इसमे हेतु कया है ?
इस पर सुराधीश महेशर कहते है―
कररशशकः सवतोऽनुभवात् ॥३८॥
जजस पकार संकलपसवपादद मे उन-उन असामानय वसतुओ का वनमारर जनसाधारर के शलए भी
अनुभवगमय है, उसी पकार योगी के शलए अकृवतम परवीयर के आशयर से सवेचचानुसार वनमारर करना संभव नही
है ।
यहाँ सृवष का अथर सगारनतर सामानय से ववलकर सृवष उतपादन का सामथयर , जो अकृवतम आतमबल के
आशयर से इजननयो मे दे खा जाता है वह सवानुभव शसद है । जैसे एक शरीर मे बुजद, मन, पञचजानेजननयाँ एवं
पञच कमरजननयाँ एवं सवर शरीर मे अभभवापत आतमबल के सपशर से ही बुजद, मन, बुदीजननयो, कमरजननयो दारा
जानवकया का संपादन होता है, एवं परमशशव के सदश शशवयोगी जब चचदयवतररक माया, पकृवत गुर, भूत-भेद
का वतरसकार कर दे ता है, तब वह नव-नव सृवष वनमारर मे समथर होता है, इसी आतमबल को अकृवतम बल कहते है
। दे ह, इजननय, मन, बुजद का जो बल है, वह आतमबल के आशयर का ही फल है इसशलये अकृवतम आतमबल
चचतसवरप अभभजात होने पर समपूरर ववश मे अभभवागपत से वह महान् सामथयर वाला सब कुच कर सकता है ,
इसशलये सतयधरारढ़सदोगी जैसा-जैसा कायर करने की इचचा करता है , परम सामथयर होने से वह अपने संकलप को
उसी रप मे परररत कर ही दे ता है, “तादशं पकरोतयेव सङ् कलपं परमेशरः” ।
तातपयर यह है वक साधारर कृचम आदद भी वकमञचत् ववचचत वकया जान रखते ही है और मनुषयो मे सवप
तथा मनोराजयादद सवतनत ववकलपो मे ववचचत ववश वनमारर शशक दे खी जाती है । इसी ववशशष शशक के दारा ततत्
उदान, वन, वगरर, सरोवर, नगर आदद असाधारर पदाथर का वनमारतृतव सवानुभवगमय है । मनुषयो के अनुभव से
कृचम आदद मे भी ततत् शशक एवं वनमारतृतव का अनुमान वकया जा सकता है । इसी पकार योगी गाढ़तर
चचदातमैकयाभभवनवेश दारा अकृवतम चचद् महाबल का आशय करके अभेदाखयावत भूचम पर आरढ़ होकर अपने
संकलपानुसार जैसा कायर वनमारर करना चाहता है, वह सब अपनी करर शशक से वनरमरत कर सकता है ।
यदवप ववश वैचचतयोतपादनसामथयर का उपाय पहले कहा जा चुका है , तथावप शसजदयाँ बहत पकार की
होती है, अतः पकारानतर से उसे यहाँ पुनः कहा गया ॥३८॥
इस पकार तुयरपद रप अथारत चचदाननदघन शशवतवरप जो सवानुभव है वह पूरर रप से सवरत
सृषटादद कायर मे जब सफुररत होता है, तब आतमा अपने वासतववक सवरप मे समयक् मसथवत पापत करता है - इसी
रहसय को पकट करने के शलए अनुगहमूरतर भगवान शशव कहते है―
वतपदादनुपारनम् ॥३९॥
वतपदादद जो तुरीय चचदाननदघन शशवतवसवरप पद है, उसी पद मे मसथत योगी भावो का अनुपारन
करता है । पूवरक उपायो के वनरनतर अभयास से योगी को चचदाननदघन, पररपूरर, शशवततव सवरप तुयरपद की
पागपत होती है । वह तुयर ही जागत आदद तीनो अवसथाओ का अनुपारन तथा सभी भावो ( पदाथर ) का
ववसथापन करता है । उस तुयर पद को पापत योगी जब ववहार दशा मे ततत् इष संगीतादद ( शबदादद ) ववषयो
का ततत् इजननयो दारा आसवाद लेता है , तब भी उसकी वृशत बवहमुरखी नही रहती, पतयुत वह अनतमुरख
ववमशारवसथा मे रहता है, उस समय भी “वनरावरर बोदधृततव ही ततत् ववषय एवं आसवाद रप मे सफुररत होता है”
ऐसा वह अनुभव करता है ।
सूत का भाव यह है वक जागत् आदद तीन पद जजसके आददभूत है , वह वतपदादद अथारत तुयर पद जो
सवारचधषान पकाश रप होने से जागदादद का अनुपारन करता है, उसी से अथारत उसी पद मे मसथत योगी के दारा
सवरभावो का अनुपारन अथारत सत् पकाश आननद रप जो आतमबल है , उसका समपरर होता है । अतः योगी
सवरप मे संमसथत रहता हआ ही सत् चचत् सुख सवातमाभभन रप मे ही शबदादद ववषयो का अनुभव करता है ॥
३९॥

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जागत सवप आदद ववकलपो मे दे हेजननयादद का अनुपारन वकस पकार करना चावहए ? इस पर हादर तम दर
करने वाले महेशर कहते है―
चचतमसथवतवचचरीरकररबाहेषु ॥४०॥
जजस पकार अनतमुरखता मे शशवयोग के आशयर से चचत की मसथवत चचदाननदघन सवभाव मे ही मसथत
रहती है, वैसे ही शरीर इजननय और वेद के आभास होने पर, बवहमुरखी अवसथा मे भी योगबल के आशयर से तुयर
के अनुपारन दारा तासतवक सवभाव से पचयुवत नही होती ।
चचदातमा जब वेद के उनमुख होता है , तब उसका सवरप संकुचचत होकर सवरप बन जाता है , उस संकोच
का आभास होते ही सावधान शशवयोगी पवतलोमवृशत से उपाय का अवलमबन कर ऐसा दढ़ अनुभव करता है वक
चचदाननदघन सवातमा ही चचत बना हआ है । इसी पकार सवातमाचधषान मे कमलपत बवहररजननय, दे ह तथा बाह पदाथर
जो वेद है, वे भी योगी की दवष मे चचनूप तासतवक सवभाव से अपचयुत ही रहते है , कयोवक पागवसथा ( अनतमुरखता
) मे सभी भाव समूह चचनसरप ही रहते है , वही बवहमुरख अवसथा मे जल जैसे बफर बन गया हो अथवा मन ही
जैसा सवप के अथवा मनोराजय के पदाथर बनाकर आभाशसत होता हो, वैसे ही वकमञचत् कादठनयापन सदश
पकाशशत होते है । वसतुतः बाहर भीतर सवरप ववसफार ही ततत् भाव मे घनीभूत भभनाकारतया अवभाशसत होता
है और योगी की दवष मे ववलीन होकर पुनः चचनस सवरप हो जाता है ॥४०॥
इस पकार यह वनशय हआ वक “अनतःमसथत भाव समूह का ही बाह पसार होता है” परनतु इसमे कारर
कया है ? इस पर वगररजाधीश कहते है―
अभभलाषादवहगरवतः संवाहसय ॥४१॥
संवाह = एक योवन से अनय योवनयो मे नीयमान जो पुयरषकाभभवनववष जीवातमा है इसके बवहगरवत मे
अभभलाष = अपूररताखयावतरप ‘राग’ ही कारर है ।
खेचरी, गोचरी, ददकचरी, भूचरी नामक शशकवृनद से अचधचषत कञचुको के साथ यह कमारतमा जीव एक
योवन से अनय योवनयो मे अभभलाष जो ‘राग’ है, इसके दारा ही भमाया जाता है, कयोवक अभभलाष ही अववदा-
काम-कमारतमा पाशराशश का मूल आरवमल कहा गया है । इसके संबनध से आतमा अनतमुरखता से बवहः उनमुख
होने के कारर सवसवरपानुभव का तयाग करके बाह ववषयो मे रमर करने की इचचा से ववषयासक होने लगता है
। उतरोतर वह अभभलाष ही गाढ़ावतगाढ़ होकर मोह का ववसतार करता हआ ‘भूचरी’ नामक शशक का आशयर
करके पशुभूत आतमाओ को ववभभन योवनयो मे भमाता है । यह पशुपरक वाखया हई । इस सूत की ‘अपशु’ परक
वाखया इस पकार है―
यथा― संवाह अथारत पेयर जो कररादद वगर है, उसकी बवहगरवत याने वापार पूवरक अपने-अपने ववषयो
की ओर जो पवृशत है वह “सवरप मसथत योगी की अधर भूचमकाओ मे दशरन शवरादद वकयाओ मे वनवारहाथर ,
जानेजननयो एवं कमरजननयो मे अपने उदनक चचदल के आधान की जो इचचा है , वही “अभभलाष” है । उसी से होती है
। उसी सवबल के वकयावेश पपूरर के अभभलाष से ही संवाह जो करर चक है वह पेररत होकर शबदसपशारदद
ववषयो मे पवृशत का सामथयर पापत करता है । ऐसी मसथवत मे वह ‘योगी’ अभभनय रप मे इजननयो दारा ववषय
गहरादद वापार करता हआ भी वनवृत राग होने से पूररतृगपत सवभाव से ववचयुत नही होता, अतएव रागजनय
मोहपाशो से मुक ही रहता है ।
यहाँ पशुपरक वाखया मे ‘संवाह’ का अथर इजननयो दारा ‘अभभलषरीय’ भी वववभकत है । अतः ‘संवाह’
जो कमारतमा है उसकी ‘संवाह’ = अभभलषरीय― ववषयो के पवत जो अभभलाषा है उसी से बवहगरत संसरर होता
है । यहाँ काकाभकनयाय से “संवाह” शबद का ‘बवहगरवत’ और ‘अभभलाषात्’ उभयत अनवय होता है कतृरतवेन
बवहगरवत मे तथा कमरतवेन अभभलाषात् मे ।
भाव यह है वक आप मन, बुजद, वफर शवर नेत से बाहर कयो दे खते हो ? वकसी वसतु वशक को जब
दे खते है तब अभभलाष ही कारर है । मोटर पडी है, अभभलाषा हो तब मन, बुजद अहंकार मे वनववष होकर पैर,
हाथ चलाते है, यह पवृशत कयो हई ? अभभलाषा से ही । जब सभी अभभलाषाओ को चोडोगे तभी परमातमा की

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अभभलाषा जगती है । इसशलये अभभलाषा-मतवाले को ही ‘संवाह’ कहते है । कररचक की पेररा दारा शबदादद
ववषयो मे पवृशत अभभलाषा वबना कैसे हो सकती है ? यहाँ ‘अभभलाष’ पद से भी काकाभकनयाय से अपूरर, पूरर
दोनो अभभलाषाओ का संकेत है । जो सृवष ववषय मे अभभलाषा है, करर चकादद की पेररा से वकमञचत् कतृरतव,
वकमञचत् जातृतव और सवारभभवापतृतव से सवरकतृरतव, सवरजातृतव दोनो मे अभभलाषा ही ‘संवाहता’ का कारर है ।
‘कब मै सवरजाता, सवरकतार बनूँगा’ इस पकार की अभभलाषा पूररतव की ओर ले जाने वाली है, इसका उदय होता
है― ‘ईशरानुगहदे व’ । इसशलये कमारतमा याने सकाम आतमा, अववदा, काम, कमर ये मृतयु के तीन पाश है ।
जजसको अजान है वह कामना करेगा, जो कामना करेगा वह कमर करेगा, कमर करेगा तो कान ऐठा जायेगा― सवगर
नरक जायेगा ।
जैसे वकमञचत् जातृता, वकमञचत् कतृरता की अभभलाषा करता है तो अपने पररपूरर सवरप से चयुत है, इसी
पकार संपर ू र जातृता, संपूरर कतृरता की अभभलाषा करता है तब भी अपने सवरप से चयुत है , तभी तो अभभलाषा है
? इसशलये ‘संवाह’ की बाहगवत है ॥४१॥
यह वनशय हआ वक कमारतमा ही ‘जीव’ संजा है , दष अभभलाषा के कारर ही यह ‘कमारतमा’ ही संवाह
बना है, यदद इस दष अभभलाषा का कय हो जाय, तब आतमा को कया लाभ होता है ? इस पर महेशर कहते है―
तदारढ़पचमतेसततकयाजजीवसंकयः ॥४२॥
जब योगी की पचमवत = अनुभूवत, तदारढ़ अथारत नषटभूचम नामक जो तुयर पद है , उस पर आरढ़ हो
जाती है, उस समय उसको बाहाभयनतर सवरपपञच सवसंववनमरीचचका-पकाश रप ही सफुररत होता है । उसमे
सवरपाननदमय पूरररस का आसवादन करने से उसकी पाशव अभभलाषाएं नष हो जाती है , जजससे उसके
‘जीवभाव’ अथारत संवाह जो पुयरषक पमातृभाव है, उसका संकय हो जाता है, उसको सब चचनमात ही सफुररत
होता है ।
अभभलाषा जब उददत होती है, तब उसकी दो कोदटयाँ होती है, पूवार और अपरा । परा कोदट मे अभभलाषा
अभभवक होकर संवाह के बवहगरवत का कारर बनती है, अभभलाषा की पूवरकोदट जो है वह नषा की भूचम है ।
परमाथरवेता योगी सावधान होकर अभभलाषोनमेष दशा मे भी सव-सवरप नषटधरा से पचयुत नही होता, पतयुत
पुणयोदय से उसकी आतमशशक जागत हो जाती है, साथ ही शैवशासतावबोधजनय वववेकबल भी उददत हो जाता है ,
जजससे नषटधराचधरढ़ पबुद पमातृभाव मे ववराजमान रहता है, उस पमाता की पचमवत सवातमसंववत् चचदाननद
रसमयी अनुभूवत ही होती है, यही ‘तदारढ़ पचमवत है’ । इस दशा मे सभी अभभलाष सवयं गल जाते है
अभभलाषोनमेष होता ही नही, अभभलाषकय से जीव संजक कमारतमा का भी संकय हो जाता है ।
भाव यह है वक दष अभभलाषाकवयषरु ववषयो की अभभलाषा कही जाती है , उस अभभलाषा मे आतमा सव-
सवरप सववैभव को भूलकर, चमतहनता के संयोग से मोह मे पडकर, संकुचचत हो जाता है, कदाचचत् पकन पुणय
संचय के उदय से शशक सफुरर होने पर उसे अपने मोह का अनुभव होता है तब शशकपात के पभाव से वह
शैवशासत के अनुसार वववेक परायर होकर जब नषटभूचम मे अचधरढ़ हो जाता है और उसकी संववत् अनुभूवत भी
उसी चचनमयी भूचम मे परढ़ हो जाती है, तब खेचरी आदद उदारक शशकयां पशुतव के ववपरीत भाव से कञचुक से
लेकर तनमाता पयरनत बाहर भीतर सबको सवसंववगतकरर के ववसफार रप मे पकाशशत कर दे ती है । उस दशा मे
योगी सवरत सवरपाननदमय रस का ही आसवादन करता हआ संसरर हेतु पाशव अभभलाषाओ का तयाग कर दे ता
है, उसी समय संवाह = आतमा जीव = पुयरषक पशम हो जाता है ॥४२॥
पुयरषक आतमा जीव संजक बनध योगय नाना योवनयो मे संसररशील, अतएव पशु कहा गया है । उक
रीवत से पाशराशश के कय होने पर वह कैसा होता है ? इस पर आतमाराम शशव कहते है―
भूतकञचुकी तदा ववमुको भूयः पवतसमः परः ॥४३॥
जब अभभलाषातमक पापराशश का कय हो जाता है तब वह भूत कञचुकी हो जाता है अथारत उसके
शरीरारमभक जो भूत है वे अहनतासपद न होकर ववतररक = सवभभन कञचुक याने पावरर वसत अथारत कोट के
समान हो जाते है, उस दशा मे वह ववमुक = वनवारर को पापत होकर अचधकांश रप मे शशवतुलय होने से पररपूरर

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हो जाता है । कञचुक कलप दे हादद मे रहते हए भी पमातृतासंसकार से सपृष नही होता ।
दे खो ! पञचभूत एक कञचुक मात है, जैसे लोग कोट, कुतार पहनते है । भभन, और एक दसरे पञचभूत
आतमजन है जो पुयरषक (सूकम ) और पञचभूत ( सथूल ) इन दोनो मे आबद आतमा है । अभभलाषासार जो
पुयरषक है उसके कय होने से अब भूतकञचुक मात रह जाते है ।
महाभूत जो पाँच है वे ही पाश रप कञचुक है । कञचुक का अथर है- आवृवत, जब यह आतमा पञचभूत
की चोली पहनता है तब उसको भूत कञचुकी कहते है । उस दशा मे वह अववमुक अथारत बद ही है , परनतु पूवरक
रीवत से अभभलाषकय हो जाने पर जीवभाव को चोडकर जब वह―
“न भूचमनर तोयं न तेजो न वायुनर खं नेजननयं वा न तेषां समूहः । अनैकागनतकतवात्
सुषुपतयेकशसदसतदे कोऽवशशषः शशवः केवलोऽहम् ” इसी आशय के अनुसार भूतकञचुक से ववमुक सवरज , सवरकतृर
भूचम पर आरढ़ हो जाता है, तब वह पूरर रप से पवत-सम अथारत शशवतुलय हो जाता है इसमे सनदे ह नही, कयोवक
उसे समयक् अपने पूरर रप का अनुभव हो जाता है ।
भाव यह है वक अभभलाषातमक मल का पकय हो जाने पर भौवतक दे ह का संबनध रहने के कारर उसमे
अववमुकता पतीवत मात होती है । वसतुतः वह बनध योगय पशु भाव से वनकल कर सवरजातृतव, सवरकतृरतव भूचम मे
लबध पद होने से वनरनतर अनुतर चचदाननदघन सवातमाभभन शशवतव का अनुभव करता हआ दे ह कला के रहने के
कारर पूररतया शशव ही न होकर शशव सदश ही रहता है । दे हपातानतर उसे शशवभाव की पागपत होती है ॥४३॥
इस पकार पुयरषकाभभमान के ववगशलत हो जाने पर उससे संबद भूतकञचुक का भी भंश अवनवायर है ,
वफर कञचुक-पुयरषक वबना पार सपनदन कैसे होगा ? इस पर परम पकाश पभु कहते है―
नैसरगरकः पारसंबनधः ॥४४॥
पार और पुयरषक का संबनध वनसगरशसद है । पूवरक रीवत से योगी सवपकाश संववद्वनष रहता है ।
अतः उसके पुयरषकाभभमान का पशम यदवप हो जाता है तथावप पारबध कमर का भोग जब तक समापत नही होता
तब तक सवाभाववक रप से पार एवं ततसंबद भूतकञचुक की अवमसथवत रहती है । उसके शलए योगी कोई पयतन
नही करता, कयोवक पार भी तो पारमय अथारत संववनमय ही है ।
तातपयर यह है वक योगी की संववत् = पचमवत की नषटभूचम मे वनरनतर आरढ़ रहने से उसका पुयरषक मे
आतमाभभमान नही रह जाता । उस दशा मे पुयरषक से संबद जो भूतकञचुक है , उसका भी भंश अवशय हो जाना
चावहए । परनतु ऐसा होता नही, शरीर कमरभोग पयरनत मसथर रहता है । अतः उसकी मसथरता के कारर ‘पार
पुयरषक संबनध वनसगरतः शसद है’ ऐसा सवीकार करना पडता है । वसतुतः ववमशारखय जो संववत् है वही ववशवैचचतय
के अवभासन की इचचा से अपनी पूररता को संकुचचत रप से अवभाशसत करती हई पारनातमक गाहकभूचम का
समाशयर करके गाह जो जगत् है तनूप मे भी सफुररत होती है , संकोचावभासन के कारर वह सवयं अपने पूरर
वैभव को भूलकर जीवदशा को गहर कर लेती है । पुनः अपने मे ही “यह शुभ ( इष फल दे ने वाला ) है, यह
अशुभ ( अवनष फल दे ने वाला ) है” इस पकार के ववकलपो को पकट करके पुणयापुणयातमक पभूत कमर का संगह
करके उन कमर के अनुरप नरयोवन, पशु आदद योवन एवं दे वता आदद योवनयो मे दीघरकाल तक संसरर करती
रहती है । कदाचचत् पुणयावतशय पररपाक से नर दे ह मे “रनशकतया समाववषोनीयते सदगुरं पवत” के अनुसार सवयं
जागत् रनशशक से पेररत होकर शशव की अनुगहमूरतर अतएव वनरपेक शशकपात के अचधषान जो सदगुर है उनकी
शरर मे जाकर जीवभाव से अनुतर जो ऊरवरधाम है अथारत शशव पद है उसकी पागपत की अभभलाषा वक होती
है, गुर के कृपापूरर उपदे श से सवातम रप शशव जान के सोपान पदवत कम से वनरनतर समारोहर करते -करते जब
शशव पद की सवरपतया उपलमबध हो जाती है, तब जानागगन से सभी कमर के दगध हो जाने पर भी उसके वतरमान
दे हारमभक पारबध संजक कमर का वापार, कमर के उपकीर हो जाने पर भी, दणण के दर हो जाने पर भी
चकभमर की भांवत बना ही रहता है । अतः जब तक पारबध कमर का उपभोग समापत नही हो जाता तब तक
पार एवं उससे संबद पञचकञचुक से संववत् वनवृत नही होती अथारत कुशल अभभनेती की भाँवत अपने पूरर
सवरप मे आरढ़ होकर भी तावत् गाह-गाहक की भूचमकाओ के अनुसार पारबधोपभोगातमक अभभनय का वनवारह

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सवतनत वकनतु सवाभाववक रप मे करती ही है ॥४॥
शरीर रहते पवत भाव पापत हो जाने पर योगी को शशवतुलयता पापत हो जाती है , तदननतर अनुतर
सवातमशसजद के शलए इडा, वपङला, सुषुमना इन तीन पधान नाचडयो मे पवाही जो वबनद नादातमक पार है उसका
जय करना चावहए अथवा नही ? इस पर योगीशर शशव कहते है―
नाशसकानतमररय-संयमात् वकमतसवापसव-सौषुमनेषु ॥४५॥
( नसते कुदटलं वहवत इवत नाशसका पारशशकः, ( ऽरसकौदटलये ) नाशसका जो पारशशक है उसके
अनतःपवतचषत जो संववत् है, ( पाकसंववत् पारे पवतचषता भववत ) उस संववत् का भी मरय अथारत सवारनतरतम होने
से पधान जो ववमशरमय रप है उसमे चचत का संयम करने से अथारत अनतरनररनतर वनभालन-पकषर से पार सवहत
चचत की वृशतयाँ ववलीन हो जाती है और अनुतर सवातमशशवता का उदय हो जाता है । इस पकार उचच भूचम मे
पार जय शसद हो जाने पर वनमन भूचम मे पारवावहनी नाचडयो मे पधान इडा, वपङला और सुषुमना रप नाचडयो
दारा पूरक, कुमभक, रेचक वापार से पार जय का पयास करने का कोई पयोजन नही रह जाता ।
इस सूत मे पवतभाव पापत योगी के शलए सवातमशसजद हेतु वनववड अभयासाथर पारातमा जो अनाहत
शबदबह है उसकी उपासना का वनदर श वकया गया है । नाशसकानतमररय जो हदय है जहाँ पाराकर का असतमन हो
जाता है, उस पदे श मे चचत का संयमन करने वाले योवगयो का अभयासावतशय जब अवत सहज हो जाता है तब
इडा आदद तीनो मागर मे बहने वाले ववनदनाद-गभर पार का हदयदे श मे ही ववलय हो जाने से नाडी जय संपन हो
जाता है । पारवृशत के उपरत हो जाने पर चचतवृशत अनाहतबह मे ववशानत होती है , उस समय अनाहतबह
पतीवत के साथ चचतवृशत एक होकर पवावहत होती है । इस पकार तनमयीभूत होने से उसके रयातृ रयान रयेयातमक
भेद ववगशलत हो जाते है, जजससे परमसवातमशशव का उदय हो जाता है । इस पकार सारय-शसजद हो जाने पर
परमोचच पद को समयक् पापत योगी सभी अवसथाओ मे दे दीपयमान वुतथान रवहत परम समाचध सुख के समुन मे
वनमगन रहता है । उस दशा मे उसे आरवोपाय मे वनरदरष अधरभूचम की उपासना दारा पार-नाडीजय की पवकया मे
पडने का कया पयोजन है ?
अतएव ‘सवचचनद तनत’ मे योगीशर भगवान शशव ने पूरक रेचकादद पारायाम दारा नाडीजय के वररन को
“सानुषचङक” कहकर शशवमय ववशुद आतमसवरप को पापत, अतएव सवतनत शशवयोगी के शलए अनुपयोगी ही
वक वकया है ।
अथवा नाशसकानत का तातपयर है- वामदभकरवाहमरय अवाह रपा सुषुमना ; वही चचत को मसथर करना ।
शशवयोगी सवचचनद-वाह-मरयधाम शशवमय है । रेचक, पूरक, कुमभक दारा पार जय से जो शसजदयाँ होती है , वे
शसजदयां इस योगी के शलए आनुषचङक होती है । सवरप के वनभालन रप मुखय परमलाभ की ऐशयरभूता शसजदयाँ
आनुषचङक इस पकार होती है जजस पकार गायकीत कर लेने पर उसका वतस-बचडा आनुषचङक वबना मोल ही
चमलता है ।
इस पकार पूवरक शशवतव उनमीलन युशक के वनभालन से जीवनमुक शशवयोगी शशव सदश कञचुक
अभभलाषासार पुयरषक से ववमुक होकर के शुदारवा मे शकतयणडकीडा, मायारवा मे शुदाशुद कीडा यावदे ह (
दणण दारा वफराना बनद करने पर भी चक भमर के सदश ) पारबध वेग होने तक करता रहता है । दे हपात के
अननतर वह साकात् शशव ही हो जाता है ॥४५॥
इस पकार इन तीनो पकररो मे उपायकम रप मे कही गई शैव पवकया का सार संकेप , अगले सूत मे
वनरदरष करते हए पञचकृतयकारी महेशर ( वनरदरष करते हए ) गनथ का उपसंहार कर रहे है―
भूयः सयात् पवतमीलनम् ॥४६॥
चैतनयातमसवरप से उदय को पापत जो यह भेद-पथातमक दग-दशय रप ववश है उसके उक उपाय के
पररशीलन से भेद संसकारो के ववगशलत हो जाने पर भूयः ― पुनः तथा बाहलयेन पूरररप से पवतमीलन-
पुनरवपचैतनयातमसवरप का उनमीलन रप सवसवरप-शशवततवोपलमबध परयोगाभभवनववष योगी को होती है ।
भाव यह है वक संववनमय अनुतर सवरप परमशशव ही अपनी सवतनत इचचाशशक रपी बीज को

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सवबलाकमर से उचचू न करके उससे वनगरत शशवशशक आदद पललवाङ् कुरो को पललववत कर शुदअरवा मे पवतचषत
हआ । यहाँ तक शुदअरवा मे वह अपने चचदन सवभाव से अचयुत ही रहता है । परनतु अधरअरवा मे वह सवरप
ववसमररातमक जो आतमकीडा है उस कीडा के पदशरन के अभभपाय से मायापमातृता का सवांग भरकर ववशनाट
का अभभनय करता है । वही पुनः तीवतम शशकपात से अपनी सहज सवरजान-वकयाशशक को अपने मे आववभूरत
करके ववश को अपनी अलुपत शशकयो के वैभव रप मे दे खता हआ शैवजान पदवत दारा अपने केतज भाव को
उसमे णु बोकर = वतरसकृत करके केतमात का कारर जो पारबधकमर वापार रपी जो कालुषय है , उसका
भोगाभभनय दारा पकय हो जाने पर पररपूरर चचदाननदघन जो अनुतरपरमशशवीभाव है , जो मरय मे पकट रहा,
उसका उनमजजन करके वह ववशनाट का अभभनेता पुनः सवरप मसथवत मे लौट आता है । इसी आशय से कहा
गया है ― “भूयः सयात् पवतमीलनम्” ॥४६॥ समपूररम् ॐ
॥शीमत् परमहंस सवामी अभयाननद सरसवती कृत शशवसूत वहनदी वाखया पूरर ॥
इवत शशवसूत वाखया सनदबधा लोकभाषया रमया ।
अभयाननदयतीननै राञसयेनाथरबोध समपतयै ॥१॥
सूतवाखया यामलमेतत् शशवयोररवादै तम् ।
वनगमागमाथरसारं शशचचानतयै सतां भूयात् ॥२॥

इवत शशवासूताभर तृतीयः पकाशः

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