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Park
Park
(हिन्दी नाटक)
aRANYA pRESENTS.
उदय- सन
ु ों... यह बताओ...इसमें यहाँ छिपे रहने की क्या ज़रुरत है ? आप को अपने पापा से
सीधे कहना चाहिए कि... मैं स्कूल नहीं जा पाया।
उदय- क्या? परीक्षा नहीं दी?... चलो मैं तुम्हारे पापा से बात करता हूँ।... अरे ! क्या हुआ...। ..अरे
बेटा सुनो... रुको... हुसैन... हुसैन?
उदय- हाँ... पर उसने परीक्षा ही नहीं दी। अपने बाप से डरा बैठा है ... वह आज स्कूल में रिज़ल्ट
लेने आएगें ।
उदय- मैंने बोला चलो मैं तुम्हारे पापा से बात करुगाँ, तो भाग लिया।
(इति की निग़ाह घड़ी की तरफ जाती है .. उदय चुप हो जाता है । दोनों थोड़ी दे र शांत रहते
हैं...।)
इति- नहीं... मैं यहीं ठीक हूँ। तो.... क्या हाल है तुम्हारी बीमारी के।
उदय- काफी समय से तो ठीक ही थी, पर अभी, कुछ ही दिन पहले, एक मंदिर में , उसकी मर्ति
ू
को दे खकर मुझे फिर बुखार आ गया।
उदय- साधारण ही थी... पर जैसे ही मुझे बुखार आया, मुझे वह मूर्ती एकदम बेचारी लगी... इतने
भक्तों की भीड़ में एक बेचारी मूर्ती... कोई पैसा चढ़ा रहा है ... कोई नारियल फोड़ रहा
है ...कोई घंटो ध्यान लगा कर कुछ मांग रहा है । और वह मूर्ती चुपचाप खड़ी है । मुझे
अचानक लगा कि वह मझ
ु े कह रही है कि ’उसके हाथ में कुछ नहीं है ..।’ मैं तुरंत वहाँ से
भाग लिया... जब मंदिर की सीढ़ियाँ उतर रहा था तो मुझे लगा कि शायद, यह इतने सारे
इति- फिर...?
उदय- अरे तम
ु मेरी डॉक्टर हो!! और मझ
ु े तम्
ु हारी कंस्लटन्सी की ज़रुरत है ।
इति- तुम्हें मेरी कंस्लटं सी की ज़रुरत नहीं है । तुम्हें आम होने से डर लगता है ...।
उदय- मतलब?
उदय- ये झूठ है .. जो भी मैं महसूस करता हूँ... वह मैं तुम्हें सच-सच बता दे ता हूँ।
इति- मैं इसी बीमारी की बात कर रही हूँ... अगर तम ु मझ ु से रोज़ मिलते रहोगे तो तम्
ु हें कभी
दौरे नहीं पड़ेगें... पर ज्यों ही मिलना बंद कर दे ते हो, दौरे शरु
ु हो जाते है ।
इति- यही कि... इसका इलाज़ मेरे पास नहीं है , और ना ही मैं इसका इलाज अब करना चाहती
हूँ... इसीलिए मैंने तम्
ु हें अपने क्लीनिक में भी नहीं बल
ु ाया... चलो मझ
ु े दे र हो रही है .. मैं
जाती हूँ।
उदय- अरे ! मैं इतनी दरू से आपको ढूँढ़ता हुआ आया हूँ... और आप मुझसे बात भी नहीं करे गी।
इति- मुझे नहीं चाहिए आपके पैसे... और आप चले जाईयेगा.. मैं आपसे अब नहीं मिलूगीं।
(इति चली जाती है ... उदय गुस्से मैं अपना बैग़ पटक दे ता है ... फिर उसे धीरे से उठाता है ..
सामने की तरफ तीन पार्क बेंच पड़ी हुई हैं... वह उनमें से एक पार्क बेंच पर बैठता है पर
वहाँ धप
ू है तो बैठ नहीं पाता है ... फिर दस
ू री पार्क बेंच पर बैठता है जिसके सिर्फ एक
कोने में ही छाया है ..... वह वहाँ बैठता है और एक किताब निकाल कर पढ़ना शरु
ु करता
है । तभी वहाँ नवाज़ आता है । वह भागता हुआ अंदर आता है ... और उदय को, छाया वाली
जगह पर बैठा दे खकर दख ु ी हो जाता है ।)
उदय- क्यों...?
नवाज़- अरे ! दस-पंद्रह मिनिट में वहाँ छाया आ जाएगी... बस थोड़ी दे र की तो बात है ...।
नवाज़- अरे अजीब ज़िद्दी आदमी हो.... दे खों मैंने एकदम गले-गले तक खाना खाया है .... अगर
जल्दी से सोऊगाँ नहीं तो यही उल्टी कर दग
ू ाँ।
उदय- तो कर दो....।
उदय- क्यों?
उदय- तो..?
नवाज़- बस थोड़ी ही दे र में मेरे कान लाल होने लगेगें... फिर समझ लीजिए कि समय हो गया....
और अगर मैंने फिर भी खद
ु को रोकने की कोशिश की तो मेरी आँखों से पानी आने
उदय- अच्छा आप यहाँ बैठ जाईए... वहाँ छाया आ जाएगी तो मैं वहाँ चला जाऊँगा...।
नवाज़- धन्यवाद.... पर दे खिए मैं बैठ पाने की हालत में भी नहीं हूँ... मेरे लिए सोना बहुत ज़रुरी
है ।
उदय- अरे आप क्या मेरे ऊपर ही लेट जाईएगा? सीधे बैठिए... सीधे..।
नवाज़- दे खिए मेरे कान लाल हो रहे है .... अब बस आँखों से पानी गिरे गा और आप कहीं भी
बैठने लायक नहीं बचेगें।
नवाज़- धन्यवाद!
(उदय जाकर दस
ू री बेंच पर बैठ जाता है .... वह एक किताब निकालता है और धप
ू बचाने
की कोशिश करता है जो उसके सिर पर ही पड़ रही है ।फिर वह एक सिगरे ट निकालता है ,
माचिस ढूँढ़ता है ... पर उसे मिलती नहीं है ।)
नवाज़- हं !!!
उदय- आपने अपना आधा जीवन सोने में गुज़ार दिया है ....। ज़रुर आप सरकारी मुलाज़िम होगें ?
ठीक पहचाना ना... ज़िद्दी, खडूस सरकारी मुलाज़िम?
नवाज़- मैं सो चक
ु ा हूँ!!
उदय- अगर मैं अभी जाकर आपकी शिकायत कर दँ ू तो आपको नौकरी से निकाला जा सकता
है ?
नवाज़- आप मेरे सपने में आकर मुझे धमकी दे रहे हैं... कोई फायदा नहीं है मैं सो चुका हूँ।
(उदय चुपचाप बैठ जाता है .... तभी वहाँ छाया आ जाती है ... और उदय किताब अपने सिर
से हटा लेता है ...। और आराम से बैठ जाता है , किताब पढ़ने लगता है । तभी मदन पार्क
में आता है ।वह उदय को बैठा हुआ दे खता है , तो थोड़ा नाराज़ सा हो जाता है ... फिर थोड़ा
इधर-उधर धूमने के बाद... उदय के पीछे खड़ा हो जाता है , उदय उसे नज़रअंदाज़ कर दे ता
है ।)
मदन- मैं सालों से इस पार्क में आ रहा हूँ.... पहले मैं रोज़ इसे बस बाहर से दे खते हुए निकल
जाता था....सोचो रास्ते में पार्क है , पर नहीं आता था। घर जाने की हमेशा जल्दी लगी
रहती थी.. जब से इस पार्क में मैं आने लगा हूँ यूं समझिए कि.... आदत सी लग गई है ।
अच्छा है यह पार्क ...छोटा सा... क्यों? .... अरे ठीक ही तो है ? नहीं तो और पार्क कैसे होते
हैं? जब आप आ ही गए हैं पार्क में तो खुश रहिये, थोड़ा घूम लीजिए। आप यहीं काफ़ी
समय से, एक ही जगह बैठे हैं इसिलिए शायद आपकों यह पार्क अच्छा नहीं लग रहा है ।
थोड़ा टहल लीजिए... पीछे की तरफ दे खिए... हिरण, खरगोश... सब हैं यहाँ...।
मदन- अच्छा आप पीछे की तरफ हो आए हैं... तभी नाराज़ हैं.... मुझे भी पार्क का यह ही हिस्सा
अच्छा लगता है .... पीछे क्या रखा है ... हिरण!!! और खरगोश बस? और हिरण भी काहे के
हिरण... गाय जैसे दिखते हैं... सच ऎसे कोई हिरण होते है । जब दे खो जग
ु ाली करते रहते
उदय- हाँ।
मदन- हाँ बस वैसे ही दिखते हैं। और खरगोश.. खरगोश तो जनाब क्या बताएं?
मदन- नहीं... खरगोशो को दे खा जा सकता है ...क्योंकि वह तो एकदम खरगोश जैसे लगते हैं।
मगर कोई कितनी दे र तक खरगोशों को दे ख सकता है । अब खरगोश, बंदर तो होते नहीं है
कि... उछले कूदें आपका मनोरं जन करें ... मेरे हिसाब से हर पार्क में बंदरों का होना ज़रुरी
है ... आप क्या कहते हैं?
उदय- मैं आपकी बात से सहमत हूँ, बंदरों का होना भी ज़रुरी है और उनको पिजरे में बंद भी
रखना ज़रुरी है ... यू खल
ु ा छोड़ दो तो... पार्क में शांत बैठे लोगों के लिए काफ़ी परे शानी
खड़ी कर सकते हैं।
मदन- बंदरों को पार्क में कोई खुला छोड़ता है , यहाँ तो हिरण को भी.... आप मुझे बंदर कह रहे
हैं... आपकी हिम्मत कैसे हुई... दे खिए आप जानते हैं मैं कौन हूँ... ... मैं संगीत और साईस
टीचर हूँ सामने के स्कूल में .... और अपनी उम्र दे खिए, मुझे लगा आप कुछ परे शान हैं, तो
आपसे बात करुं .... और आप तो मेरी बेइज़्ज़ती कर रहे हैं.... आप ... मैं चाहूँ तो अभी
आपको इस पार्क से बाहर निकलवा सकता हूँ... आप... ऎ... कोई है ... कोई है ... ?
मदन- नहीं।
मदन- आप?
(मदन थोड़ा सँभलता है .... एक बार घड़ी दे खता है ... फिर चुपचाप बैठ जाता है वह जैसे ही
उदय को दे खता है , उसे गुस्सा आने लगता है ।)
मदन- वह तो अच्छा हुआ आप बीच में आ गये वरना.... आप तो जानते ही होगें पहले इस पार्क
में , दोपहर को जवान लोगों का आना मना था... सही था क्यों?... आपको नहीं लगता।
मदन- मैं तो खुद यहाँ आता हूँ कि दोपहर को थोड़ी दे र इस पीपल के पेड़ की छाया तले बैठूगाँ
पर....
उदय- sorry...|
मदन- सुना आपने...सुना.... सॉरी बोल रहा है .... चलिए ठीक है जाने दीजिए। वैसे आप जहाँ बैठे
हैं वह पार्क की सबसे अच्छी जगह है ।
उदय- तीन तो बेंच है इस पार्क में वो भी एक साथ यही इसी जगह पर हैं.... इसमें क्या ख़ास
है ?
उदय- जो यहाँ से मझ
ु े दिख रहा है ... वो वहाँ से आपको भी दिख रहा है ... और दे खने को है भी
क्या? सामने एक बिल्डिंग खड़ी है उसे आप view कहते हैं।
मदन- यही तो मैं कह रहा हूँ... इस बेंच के ठीक सामने बिल्डिंग है ... जबकि आपकी बेंच से
बिल्डिंग ठीक सामने नहीं दिखती है ।
मदन- फ़र्क है आसमान का... आपको वहाँ से ज़्यादा आसमान दे खने को मिलता है और मझ
ु े
कम।
उदय- मझ
ु े आसमान में कोई दिलचस्पी नहीं है ।
मदन- तो आप यहाँ आ जाईए... मुझे आसमान में बहुत दिलचस्पी है ... चलिए उठिए।
उदय- नहीं है ... पर मुझे इस जगह बैठे रहने में दिलचस्पी है .. अजीब ज़बरदस्ती है ?
मदन- यह क्या बात हुई.? जब तुम स्कूल में अपनी class में जाते थे... तो क्या टीचर की कुर्सी पर
उसका नाम लिखा होता था? नहीं ना..? पर तुम जाकर टीचर की कुर्सी पर तो नहीं बैठ
जाते थे? बैठते तो तम
ु अपनी ही जगह पर थे।
उदय- अरे ! यह क्या उदाहरण हुआ? पार्क का class room से क्या संबंध है ?
मदन- अच्छा, अब तम
ु संबंध की बात कर रहे हो तो यह बताओ...इस गाँव से तम्
ु हारा क्या
संबंध है ?
उदय- मतलब?
उदय- नहीं।
मदन- तो मेरा ज़्यादा हक़ बनता है इस जगह पर... मैं यही पैदा हुआ हूँ... यहीं पला बढ़ा हूँ।
उदय- अगर यह बात है तो... मैं इसी दे श में पैदा हुआ हूँ... तो इस हिसाब से मेरा भी बराबर का
हक़ है ।
मदन- पर तम
ु से पहले मैं इस दनि
ु याँ में आया हूँ। मेरा हक़ ज़्यादा है ।
मदन- मैं ब्राह्मण..। और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का सदस्य भी.... क्यों बोलती बंद हो
गई?
उदय- तो..?
उदय- मी पण्
ू यात शीक्लो आहे । मला मराठी येते।(मैं पन
ू ा में पढ़ा हूँ.. मझ
ु े मराठी आती है ।)
मदन- क्या?...
मदन- मेरी माँ मराठी नहीं है ... और पिताजी, मेरे बचपन में ही चल बसे थे... सो... मैं मराठी नहीं
जानता हूँ... पर.. मैं मराठी हूँ, मेरा ज़्यादा हक़ है बस।
मदन- क्या?
मदन- जब तम
ु यहाँ आए होगें तो दोनों बेंचे खाली होगी?
उदय- जी हाँ।
मदन- मैंने human सायक्लॉजी पढ़ी है ... हर आदमी सामान्य परिस्थिती में हमेशा बीच में बैठना
चाहता है ... पर तम
ु कोने में बैठे हो.... इसका मतलब?
मदन- नहीं इसका मतलब तुम्हारे भीतर कुछ डर है ... डर है पकड़े जाने का... इसलिए तुम कोने
वाली बेंच पर बैठे हो...।
उदय- चप
ु रहिए...।
मदन- वैसे तो मैं सांईस का टीचर हूँ पर human साईकी को जानना, समझना मेरी hobby रही
है ... पकड़ लिया ना बच्चू।
मदन- थोड़ा रूक जाओ... तुम तेज़ हो तुम्हें पकडना आसान नहीं है ... अब समझा... तुम अपनी
ज़िन्दगी से बोर हो चुके हो.... सब कुछ छोड़कर कहीं भाग जाना चाहते हो... फिर से शरु
ु
से अपनी एक नयी ज़िन्दग़ी शुरु करना चाहते हो...। जहाँ तुम वापिस उछलो-कूदो बच्चे
हो जाओ... बोलो सही है ?
उदय- बक़वास...।
मदन- तुम एक निहायती ज़िद्दी आदमी हो, जिसने अपनी ज़िद्द की वजह से अपनी ज़िन्दगी
बरबाद कर ली... वही ज़िद्द है जिसकी वजह से तम
ु मेरी जगह बैठे रहना चाहते हो। अब
बोलो... सही है ?
उदय- बक़वास...।
मदन- तम्
ु हें लगता है कि भगवान ने तम्
ु हारे साथ इंसाफ नहीं किया.... इसलिए तम
ु मंदिरों में
जाकर सेक्स के बारे में सोचते हो जिससे भगवान से बदला ले सको।
उदय- क्या...?
मदन- तम
ु यहाँ suicide करने आए हो...?.... तम्
ु हें एक बीमारी है जिसका इलाज असंभव है ... तम्
ु हें
ज़िन्दा काकरोच खाना अच्छा लगता है ... तम
ु प्रेम में धोखा खाए एक बेचारे प्रेमी हो?...
बस..बस... बस...।
नवाज़- तो कौन सी...? कौन सी बात सही है ... यार बता दो और मुझे भी सोने दो.... सच तुम लोगों
की बातों के चक्कर में मैं सो नहीं पा रहा हूँ... कौन सी बात सही है ... कौन सी?
उदय- मझ
ु े.. एक बीमारी है ।
मदन- पर....!
उदय- नहीं, इसिलिए मैंने कहा कि आधी बात आपकी सही है ... शायद संभव है ।
नवाज़- कौन सी बीमारी है ... कौन सी है .. जल्दी बता दो और बात खत्म करो..।
उदय- मझ
ु े दिमाग़ की बीमारी है ।
मदन- हाँ...।
(नवाज़ वापिस सो जाता है ... मदन थोड़ी दे र चुप रहता है ..फिर धीरे से इशारे से उदय से
पूछता है ... कौन सी ....?)
नवाज़- कि तम
ु जीनियस हो... ऎसा क्या काम किया है तम
ु ने कि तम्
ु हें लगता है कि तम
ु
जीनियस हो?
उदय- मैंने कोई काम नहीं किया है .. इसलिए मैंने कहा है कि ... यह मेरी बीमारी है कि मुझे
लगता है कि मैं जीनियस हूँ... जिसका इलाज चल रहा है ।
मदन- मैं पछ
ू ू ं ...? एक सवाल...?(मदन नवाज़ से पछ
ू ता है ..।)
मदन- कुछ तो कारण होगें जो तुम्हें सोचने पर मजबूर करते होगें कि तुम यह सोचो कि तम
ु
जीनियस हो..?
उदय- हाँ.. मझ
ु े बख
ु ार आने लगता है ... परू ा शरीर ठं ड़ा पड़ जाता है ... जब कभी मैं वह सब दे खने
लगता हूँ जो असल में वहाँ नहीं है ।
मदन- दिग़भ्रम...?
नवाज़- क्या..?
मदन- Hallucination....|
उदय- हाँ.....यह कहाँ शुरु हुआ ?.... यह शुरु हुआ उस रात जब मैं मेरी माँ को अस्पताल लेकर
जा रहा था..उनकी अचानक तबियत बिगड़ गई थी। तभी शहर में दं गे शुरु हो गए... मैं
उनको लेकर एक छोटी सी मोची की दक
ु ान में जाकर छुप गया....। दो दिन और दो रात
मैं उनको लेकर वहीं बैठा रहा...। अस्पताल मेरे सामने था पर मैं रोड क्रास ही नहीं कर
पा रहा था। कहते हैं कि वह इलाक़ा सबसे ज़्यादा दं गा ग्रस्त इलाक़ा था।... मैंने एक रात,
उस दक
ु ान के छे द में से झांककर दे खा कि कुछ लोग, कुछ लोगों को मार रहे हैं, काट रहे
हैं.. बरु ी तरह। तब यह पहली बार हुआ, मझ
ु े बख
ु ार सा आने लगा,परू ा शरीर ठं ड़ा पड़
गया... और मैंने दे खा कि यह सब लोग बच्चे हैं.... छोटे बच्चे... जो चोर-पलि
ु स, या हिन्द ू
मस
ु लमान खेल रहे हैं...।. और मझ
ु े लगने लगा कि, अभी कहीं से इनके माँ-बाप निकलकर
आएगें और सबको डॉट लगा दें गें कि- ’चलो बहुत रात हो गई है , अब बंद करो यह
खेल....।’ और सारे बच्चे खेलना बंद कर दे गें, वह भी जिसने अभी-अभी बहुत से लोगों को
काटा था और वह सारे भी जो मरे कटे पड़े हुए थे.... सभी उठे गें और अपने-अपने घर चले
जाएगें ।
उदय- हाँ... हुआ तो... पर अभी एक मंदिर पर घटना हुई थी जिससे मैं थोड़ा डर गया सो....।
नवाज़- यार तम
ु एक बार में अपनी परू ी बात क्यों नहीं कह दे ते...?
नवाज़- यह कह दी तुमने अपनी बात....। जैसे कोई तुमसे पूछे कि तुम्हारा नाम क्या है तो
तुम्हारा जवाब होना चाहिए कि मेरा नाम फला-फला है । बस बात खत्म हो गई... पर तुम
कहते हो मेरा नाम फलॉ-फलॉ है पर... या लेकिन? अरे ! यह लेकिन का क्या मतलब है ।
उदय- लेकिन अभी बहुत दिनों के बाद अपने डाँक्टर को छोड़कर किसी और से यह बात कहीं है
तो मुझे अच्छा लग रहा है ।
नवाज़- हे भगवान! आधे घंटे हो गये और मैं अभी तक सोया नहीं हूँ, मेरा सोना बहुत ज़रुरी है ।
चार बजे से पहले नहीं उठूगाँ।
मदन- आप अगर इतना परे शान हो रहे हैं तो वहाँ पीछे की तरफ क्यों नहीं चले जाते...?
नवाज़- पीछे की तरफ कहाँ...? वह हिरणों और खरगोशों के बीच... या वह बच्चों के झूलों में
दब
ु ककर सोऊं...। दे खिए मुझे सोना है और मैं यहीं सोऊगाँ...अगर आप लोगों को यह
बेहूदा बातें करनी है तो आप दोनों क्यों नहीं पीछे चले जाते हैं। अगर यहाँ बैठना है तो
एकदम चुपचाप बैठिए... मैं सो रहा हूँ।
उदय- अजीब पागलपन है ? मुझे तो लगता है कि यह पागल है , इन्हें इलाज की ज़रुरत है । क्या
कहते हैं आप?
मदन- अरे ! हम दोनों की बात में आप उन्हें क्यों घसीट रहे हो? उन्हें सोने दो..।
उदय- अरे वाह! आप लड़कर यह जगह लेना चाहते हैं? उन्हें फैसला करने दो?
मदन- एक भला आदमी यहाँ सो रहा था आपने उसे भी भगा दिया... बस वहाँ बैठे रहने की ज़िद्द
में ।
(उदय उठके जाता है ... और पीछे आवाज़ लगाता है ... तब तक मदन उदय की जगह बैठ
जाता है ... बेंच के एकदम किनारे पर... ऊपर दे खकर मुस्कुराता है फिर आँखे बंद कर लेता
है । तब तक उदय वापिस आ जाता है ।)
उदय- अरे उठो मेरी जगह से... मेरी जगह हथियाना चाहते हो।
मदन- यह क्या ज़बरदस्ती है । बाहर से हमारे गाँव में आए हो और हमें हमारी ही जगह से उठा
रहे हो?
(दोनों में हाथा पाई होने लगती है .... तभी नवाज़ अंदर आता है , उसके हाथ में एक डंड़ा है ।
वह अपनी जगह पर बैठता है और ज़ोर से एक ड़ंड़ा ज़मीन पर मारता है .. दोनों डर जाते
हैं।)
(तभी उसकी निग़ाह सामने की बालकनी पर खड़ी एक लड़की पर पड़ती है , जो अपने बाल
सख
ु ा रही है ।)
नवाज़- इसके अलावा क्या समझा जा सकता है ? आप बता दो हम वही समझ लेगें।
(मदन उसे दे खने जाता है ... वह दोनों उसे धक्का दे दे तें हैं।)
मदन- वह अभी वापिस आएगी। अभी उसने सिर्फ अपने बालों को धोया है ... अभी वह उसे शेम्पू
करे गीं फिर कंडिशनर लगाएगी और फिर वापिस आएगी।
नवाज़- आप टीचर हैं... आपको यह सब शोभा दे ता है । शर्म आ रही है मुझे मेरा बेटा आपके
स्कूल में पढ़ता है ।
नवाज़- मेरा बच्चा क्यों निकलेगा स्कूल से, मैं आपकी शिक़ायत करुगाँ... आप निकाले जाएगें
स्कूल से।
(यह कहकर वह वापिस उदय की जगह पर बैठ जाता है .. उदय उसे उठा दे ता है ।)
उदय- दोष है कि आप इस जगह बैठकर उन्हें ताड़ रहे हैं, जो एक तरह से लड़की छे ड़ना है ।
मदन- सन
ु ो....वह हमारे स्कूल की गणित की टीचर हैं... वह सामने के घर में रहती है ... यहाँ,
सिर्फ इस जगह से उसके घर की बालकनी दिखती है ।
मदन- आप पूरी बात सुनेगें..... मैं पहले भी, बिना किसी वजह के, यहाँ आया करता था...। एक
दिन.. मैं यहीं बैठा हुआ था... काफ़ी भीड़ थी इस पार्क में , वरना मैं कभी यहाँ नहीं बैठता
था, मेरी जगह तो वह थी, जहाँ अभी आप बैठे हुए हैं।
मदन- वही बता रहा हूँ.... उसी दिन वह आई अपनी बालकनी पर... नहाने के बाद अपने बाल
सुखाने... मैं उसे दे ख रहा था.... तभी उसके बाल झटकने के साथ ही उसके पानी के छीटे
उड़ते हुए सीधे मेरे मँह
ु पर आए... जबकि उस दिन हवा भी नहीं चल रही थी...। मैंने
सोचा यह मेरा वहम होगा। उस वहम की जॉच के लिए मैं बार-बार यहाँ आने लगा। आप
आश्चर्य करें गें, वह पानी के छीटे ना तो दाँए जाते हैं ना ही बाँए... वह उसके बॉलों से
निकलकर सीधे मेरे चहरे पर आते हैं।
उदय- और ..?
मदन- और क्या, मैंने बता दिया... बस यह ही है , और इसकी मुझे आदत लगी हुई है ।
नवाज़- नहीं...पर।
मदन- तो मझ
ु े मेरी जगह पर बैठने दो... चलो हटो।
नवाज़- सुनों भाई... यह लड़की छे ड़ना या ताड़ना तो नहीं है ... लेकिन यह, लड़की, नहीं छे ड़ना या
नहीं ताड़ना भी नहीं है ।
मदन- सुनों अब बहस का कोई फायदा नहीं है ... यह जगह मेरी है .. उठों यहाँ से..।
नवाज़- नहीं रुको... अभी उसने अपनी बात नहीं कही है । उसे अपनी बात भी तो कहने दो...। फिर
तय करे गें कि यह जगह असल में ज़्यादा किसकी है ।
मदन- अरे ! यह तो वजह बता चुके हैं.. इनकी बिमारी है ... एक बार आप अपने आपको जीनियस
समझ लो तो बस खेल खत्म... फिर तो आपको लगने लगता है कि पूरी दनि
ु याँ पर
आपका ही अधिकार है । हिटलर को भी तो यह ही बिमारी थी।
नवाज़- दोनों चप
ु ... चलिए अब आप इस जगह पर अपना अधिकार सिद्ध करिए?
(उदय गंभीर हो जाता है ... उसे अपनी जगह जाती हुई दिखती है ।)
उदय- तो आप ही ने मझ
ु े वहाँ से उठा दिया? अब मैं यहाँ बैठा हूँ.. और यह मेरी जगह है ।
नवाज़- नहीं तम
ु समझ नहीं रहे हो... उस जगह से उनका इतिहास जुड़ा है , अब। और हम दोनों
इस बात के गवाह भी है कि वह झूठ नहीं बोल रहे हैं.... इतिहास जिनका जगह उनकी...।
नवाज़- पर वक़ील साहब, इस वक़्त इस जगह की समस्या को लेकर कानून तो मैं ही हूँ... और मेरे
हाथ में डंड़ा भी है । आप ही ने यह अधिकार मुझे दिया हुआ है ...फैसला करो? फैसला करो?
सो अब कर रहा हूँ मैं फैसला... कानूनन। जहाँ तक सार्वजनिक शब्द का प्रश्न है , इस दे श
में इसका कोई महत्व नहीं है ।.. यहाँ सब सार्वजनिक है और कुछ भी सार्वजनिक नहीं है ।
वक़ील साहब और कुछ है आपके पास कहने को...।
उदय- वाह! यह तो ऎसा हो गया कि मेरा घर था... जिसमें मैंने आपको सुस्ताने का मौक़ा
दिया...आप वहाँ पसर गए.. अब जब मैं यहाँ आकर बैठा हूँ तो आप किस्से कहानियाँ
बनाकर मझ
ु े यहाँ से.. मतलब इस घर से निकाल निकाल रहे हैं।
मदन- अरे यह पार्क है ... घर का इससे क्या संबंध.. कुछ भी दलील दे रह हैं यह।
उदय- सुनों तुम इधर आने की सोचना भी नहीं, वरना मैं... मैं... अपनी जगह के लिए कुछ भी
कर सकता हूँ।
उदय- ...अब मैं इस जगह पर अपना अधिकार सिर्फ इसी तरीक़े से सिद्ध कर सकता
हूँ. ..उदाहरणार्थ....! आशा करता हूँ आप सब पढ़े -लिखे होगें ., यह सुनिये...उदाहरणार्थ....। उस
बेंच को अगर फिलिस्तीन मान ले तो आपने तो मुझे अरब बना दिया.... मैंने इन(नवाज़)
यहूदी को अपने यहाँ पनाह दी, और इन्होंने मुझे अपने ही घर से निकाल दिया। अब मैं
अपनी इस छोटी जगह के लिए लड़ना चाहता हूँ तो आप मुझे ही कह रहे हैं कि यहाँ यह
सब नहीं चलेगा।
नवाज़- मैं इसका जवाब दे ना चाहता हूँ...।भईया, लेकिन ईश्वर के फरिश्ते से.. अब्राहिम के बेटे
याक़ूब को इज़राईल की उपाधि मिली थी..॥ यह असल में यहूदियों का ही शहर था..। यह
फिलिस्तीन नहीं इज़राईल ही था।.यह अलग बात है कि यहूदी.. वह वहाँ कभी रह नहीं
पाए, पर था तो उनका ही..... सो एक दिन वह आ गए वहाँ रहने...’भाई यह हमारी जगह
है , हटो यहाँ से...’..बात खत्म..। अब इसमें कोई क्या कर सकता है कि अरबी (उदय की
तरफ इशारा करके...) भाषा में इज़राईल का अर्थ... यमराज है , मौत का दे वता।
उदय- पर उन बेचारो(अरब लोगों) का क्या जो उसे अपना घर समझे बैठे थे? अचानक आप
ईश्वर की बातों को कोट कर-करके उनसे सब कुछ छीन लो?
उदय- वही जो उनके साथ वहाँ हुई, आप लोग मेरे साथ यहाँ कर रहे हो... यहूदी कहीं के।
मदन- यहूदी? अरे , मैं तो बस इस पार्क बेंच के इस कोने पर बैठना चाहता हूँ...? इसमें आपको
इतनी समस्या क्यों है । बहुत हो गया आप उठिये यहाँ से...।
नवाज़- मझ
ु े कोई आपत्ती नहीं है ... रुको मझ
ु े ज़रा सोचने दो?
नवाज़- बात जितनी सीधी आपको दिख रही है उतनी सीधी नहीं है .... मुझे यह जगह आपको दे ने
में कोई आपत्ति नहीं है .. पर मझ
ु े, मेरी जगह से उठा दिये जाने से एतराज़ है ।
मदन- भाई आपको आपकी जगह से कोई नहीं उठा रहा है ... आपको बस इस जगह के बदले वह
जगह दी जा रही है ।
नवाज़- और फिर उसके बाद आप मुझे वहाँ से भी उठा दे गें... और कहे गें कि आप इधर आ
जाओ, मुझे वहाँ बैठ जाने दो?
मदन- हाँ।
नवाज़- मतलब... आप लोगों की वजह से मैं दो बार अपनी जगह से उठाया जाऊगाँ, जबकि मैं तो
महज़ यहाँ सोना चाहता था।
नवाज़- कैसे मान लँ .ू .. मैं यहाँ बैठा हूँ, मेरी यह जगह है , बस।
मदन- मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप लोग इतनी छोटी सी बात को इतना तल
ू क्यों दे
रहे हैं... अरे यहाँ पार्क में हम तीन हैं, तीन बेंचे रखी है , कोई कहीं भी बैठे क्या फर्क़ पड़ता
है ... आप लोगों ने तो, इसे एक मद्द
ु ा बना लिया है और इस सबमें , बस मैं पिस रहा हूँ...।
अरे आप लोगों को तो बस समय काटना है पर मेरे लिए वह जगह ज़रुरी है ।
मदन- नहीं...।
नवाज़- मैं भी कभी नहीं गया। मैंने हमेशा उसे अपने भारत के नक्शे में ही दे खा है ... पर अगर
कोई दस
ू रा दे श हमसे कहता है कि कश्मीर तम्
ु हारा नहीं हमारा है ... तो मुझे बड़ी बेचेनी
महसूस होती है । मझ
ु े अच्छा नहीं लगता। भले ही कश्मीर, या इस जगह से, मेरा कोई
सीधा संबंध नहीं है ... पर मुझे पता है कि यह जगह अभी हमारी है .... हमारा दे श है ... हमसे
कोई नहीं छीन सकता।
मदन- आप क्या कहना चाहते हैं? मैं आपसे कश्मीर मांग रहा हूँ?
उदय- अरे उनके कहने का मतलब वह नहीं है ...। अरे यह सब उदारणार्थ चल रहा है ।
उदय- संबंध बेंच का नहीं है संबंध जगह का है ... और जगह से उठा दिये जाने का है ।
नवाज़- (उदय से...)पर ऎसा कभी होता नहीं है ... कोई किसी को निकाल दिये जाने के बाद, जगह
वापिस नहीं दे ता...। जब तक आप उस जगह पर हो, तभी तक वह जगह आपकी है । बाद
में तिब्बत, उनके लामा कितना ही चिल्लाते रहें ....कि ’यह जगह हमारी थी’, ’यह जगह
हमारी थी’... पर कोई सुनने वाला नहीं है ।
मदन- अरे कौन तिब्बत है और कौन सुनने वाला? किसकी बात कर रहे हैं आप लोग?
उदय- यही दिक़्कत है कि हमें कभी इस इतिहास के बारे में पता ही नहीं होता। वह जगह मेरी
थी... जहाँ से इन्होने मझ
ु े उठाया था...अब वह सारा परु ाना इतिहास भल
ू कर, दे खो कैसे उस
जगह के लिए आपसे लड़ रहे हैं... मानो यह उन्हीं की जगह है ।
उदय- मैं क्यों भूलूगाँ... जगह से उठा दिया जाना एक तरह का ह्यमि
ू लेशन है ...। अगर आपको
ऎसा नहीं लगता है तो दे दीजिए अपनी जगह?
उदय- नहीं आप बात को समझे नहीं, आप अभी जगह मुझसे बदल रहे हैं...यह आसान है ... मैं
जगह से उठा दिये जाने की बात कर रहा हूँ...। सो आप इनके कहने पर वह जगह
छोड़िये तो मैं आपको यह जगह दग
ू ाँ।
उदय- बात एक नहीं है ... आप कान वैसे पकड़िये जैसे मैं कह रहा हूँ। तब दे खता हूँ आप कैसे
पकड़ते हैं कान?
मदन- अरे भाई पकड़ क्यों नहीं लेते अपने कान... जैसे यह कह रहे हैं.. पकड़ लो अपने कान।
मदन- भाई आप मझ
ु े बताईये कैसे पकड़ने है कान.... इनके बदले मैं पकड़ लेता हूँ अपने कान।
मदन- अच्छा... मैं यह जगह चाहता हूँ.. और मैं ही बात को नहीं समझ रहा हूँ?
नवाज़- समझाऊँ?
मदन- जी।
नवाज़- तो सुनिये.... अकड़, बकड़ बाम्बे बो...ठीक है ... अस्सी नब्बे पूरे सो... सो में लगा धागा... चोर
निकलकर भागा.... वह भागा और यह जगह मेरी... समझे?
मदन- (अपनी तरफ उं गली करके...) बाम्बे... नब्बे.. चोर.. नहीं नहीं.. यह क्या है ... यह गलत है ...आप
मझ
ु े सीधी बात बताईये कि आप उनके साथ यह जगह बदल रहे हैं कि नहीं?
नवाज़- अब सीधी बात तो यह है कि, मैं बदलने को तो तैयार हूँ पर अब यह ही नहीं मान रहे
हैं।
मदन- आप तैयार है ना.. बस रुकिये..(उदय के पास जाकर)अब आप क्यों अपनी बात से मुकर
रहे हैं...।
उदय- मैं नहीं मुकर रहा हूँ मैं कह रहा हूँ पहले आप उन्हें उनकी जगह से उठाईये , तब मैं वहाँ
जाकर बैठूगाँ।
उदय- अगर उन्हें बार-बार अपनी जगह से उठाओगे तो उनके पास हथियार उठाने के अलावा
कोई चारा भी तो नहीं बचेगा।
मदन- यह उदाहरणार्थ मेरी समझ में आ रहा है .. यह सुनो जीनियस...। अगर आदिवासियों को
उनकी जगह से उठाकर दस
ू री जगह नहीं दोगे तो वह तो हथियार उठाएगें ही। पर मैं तो
इन्हें दस
ू री जगह दे रहा हूँ। हाँ... हाँ... हाँ... मज़ा आ गया.. अब बोलो...उदाहरणार्थ?
उदय- जब आप समझ ही गए हैं तो... आप यह भी समझ गए होगें कि... मैं क्यों कह रहा हूँ कि
आप, उन्हें उनकी जगह से उठाईये ..?
नवाज़- आप रहने दीजिए... मैं समझ गया यह क्या करवाना चाहते है ...। मुझे फर्क़ नहीं पड़ता..
आईये आप मझ
ु से कहिए, ’कृप्या यहाँ से उठो..”, मैं यहाँ से उठ जाऊगाँ।
उदय- नहीं... ऎसे नहीं... कोई भी अपनी जगह, इतने प्यार से नहीं छोड़ता। अपनी जगह छोड़ने में
तकलीफ है .... । आपको आपके स्वर में , ज़बरदस्ती का भाव लाना पड़ेगा।
मदन- अरे ! वह उठ तो रहे हैं? कैसे उठ रहे है .. इससे क्या फर्क़ पड़ता है ?
उदय- फर्क़ पड़ता है ... क्योंकि उठना महत्वपूर्ण नहीं है ... महत्वपूर्ण है उठाया जाना। उन्हें कोई
फर्क़ नहीं पड़ता है ना... तो आप कहिए... और ऎसे कहिए, मानों आपके घर में किसी ने
ज़बरदस्ती कब्ज़ा कर लिया है और निकलने का नाम नहीं ले रहा है ।
नवाज़- हाँ मुझे फर्क़ नहीं पड़ता है पर मैंने किसी के घर पर कब्ज़ा नहीं किया है ।
उदय- नहीं, वाक्य में अभी भी बहुत इज़्ज़त है । गुस्से में ...
नवाज़- अरे सन
ु ो... एक बार में बोलो ना जो भी भाव-वाव से बोलना है और बात खत्म करो...
चलो।
मदन- उठो मेरी जगह से.. अभी... इसी वक़्त.. वरना मैं कुछ भी कर सकता हूँ।(बहुत गुस्से में
नवाज़ की गिरे बान पकड़ लेता है ।) उठ.. तेरी समझ में नहीं आ रहा है क्या? बहरा है क्या
तू.... उठ... वर्ना मैं तुम्हें धक्के मारते हुए उठाऊगाँ.. उठता है कि नहीं? चल उठ....
(नवाज़ अवाक सा उसे दे खता रह जाता है ...मदन गिरे बान से हाथ हटाता है ... नवाज़ खड़ा
हो चुका है ... नवाज़ और उदय दोनों एक साथ चलना शुरु करते है ... उदय उठके नवाज़ की
जगह पर आकर बैठता है ... और नवाज़ उदय की...)
नवाज़- बस आधे घंटे में मेरे बेटे का रिज़ल्ट है । सोचा था पहले सोते हुए समय गज़
ु ार दग
ू ाँ... पर
तुम लोगों की बक़वास के चक्कर में सो नहीं पाया... फिर सोचा तम ु लोग सोने तो दोगे
नहीं... चलो साथ बक़वास करता रहूगाँ..तो समय गुज़र जाएगा।
मदन- क्या आप अब चार बजे तक वहीं बैठे रहे गें? वह बस आती होगी।
उदय- शू...शू...।
नवाज़- मेरे बेटे के साथ मैं दस साल इसी पार्क में खेला हूँ... उसे यह पार्क उसके घर से भी
अच्छा लगता है ।
मदन- हाँ मैं उसे जानता हूँ... वह मेरी संगीत क्लास में भी आया था... वह तो विकलांग है , क्या
नाम है उसका...?
मदन- मैं उस लड़के को जानता हूँ यह पुत्र प्रेम में पगला रहे हैं।
उदय- आप चप
ु नहीं रह सकते?
नवाज़- हाँ मैं पगला गया हूँ। तुम्हें पता है मैंने उसे दो साल पहले ही साईकल दिला दी थी? पर
उसने उसको छुआ भी नहीं, वह जानता है कि वह पास नहीं हुआ है ...। जब आप जैसे
गब्बर सिंह जैसे टीचर... स्कूल में उसका मज़ाक उड़ाते हैं तो वह रात मैं खाना नहीं
खाता...।अब हम दोनों ने तय किया है कि हम जैसे ही पाचवीं पास होगें , हम खुद स्कूल
छोड़ दे गें... और इस सॉल मझ
ु े पूरा विश्वास है कि वह पास हो जाएगा। मुझसे यह चार
बजे तक का वक़्त ही नहीं कट रहा था, इसलिए मैंने सूअरों कि तरह ठूस-ठूस कर खाना
खाया था.... कि पूरी दोपहर सोते हुए निकाल दँ .ू ... सीधा चार बजे उठूँ और मुझे रिज़्लट
पता लग जाए....। मैं यह धीरे -धीरे रैंगता हुआ समझ बरदाश्त नहीं कर सकता ।
उदय- मैं उस नकल की बात नहीं कर रहा हूँ, हम सबकी इस कहानी में अपनी-अपनी भमि ू काएँ
है ... कोई व्यक्ति अगर ज़बरदस्ती किसी और की भमि
ू का निभाता है तो वह जी नहीं रहा
है .. नकल कर रहा है ...। हुसैन जीना चाहता है , नकल नहीं करना चाहता।
(मदन उठकर वापिस अपनी जगह पर बैठ जाता है । अब उदय और नवाज़ एक बेंच पर
बैठे हैं... मदन बीच वाली बेंच पर और जिस बेंच की जिस जगह के लिए लड़ाई चल रही
थी... वह खाली पड़ी हुई है ।)
नवाज़- क्या हुआ? अब आपको अपनी जगह नहीं चाहिए? मैं आपसे बात कर रहा हूँ.. आपको
सुनाई नहीं दे रहा है क्या?
उदय- सुनिये... अब आप अपनी जगह पर क्यों नहीं जा रहे हैं? जाईये वह खाली पड़ी है ।
नवाज़- नहीं, अब आप ’संत’ मत बनिये.... आपकी जगह खाली पड़ी है .. आप जाईये वहाँ पर...।
नवाज़- क्यों... क्यों नहीं जाएगें वह... हमारी नाक़ में दम कर रखा था... कि यह मेरी जगह है ... यह
मेरी जगह है .... अब खाली पड़ी है जगह.. तो उन्हें जाना पड़ेगा... उठिए... उठिए आप...।
(नवाज़ ज़बरदस्ती उसे उठाने की कोशिश करता है ..उदय रोकता है ... पर मदन नहीं उठता
है ।....)
(नवाज़ सामने जाकर गणित की टीचर को आवाज़ लगाता है ... उदय रोकता है ।)
मदन- चिल्लाईये... बुलाईये उनको...मैं भी आपका साथ दे ता हूँ... (चिल्लाता है ...) मेडम.. सुनिये...
मिस..बाहर आईये..। अरे आप क्यों चुप हो गए। चिल्लाईये... अब मुझे कोई फ़र्क नहीं
पड़ता है ....आप लोगों ने सब खत्म कर दिया है ।
मदन- यहाँ इस जगह में वह गणित की टीचर महत्वपूर्ण नहीं है ... उसका वहाँ खड़े रहना, बाल
सुखाना, कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है ... जो महत्वपूर्ण था वह आज आपने खत्म कर दिया।
नवाज़- अरे , आप तो ऎसे इल्ज़ाम लगा रहे हैं मानो... हमने किसी का खून कर दिया हो?
मदन- खून ही हुआ है । मैं गब्बर सिंह हूँ...अपने स्कूल में .. घर में .. बाज़ार में ... सब जगह...सारी
जगह मैं विलेन हूँ.. बुरा आदमी। सिवाय इस जगह के... यहाँ इस बेंच पे.. मैं हीरो हूँ...
अच्छा हूँ, सच्चा हूँ... मैं बस यहाँ पर ही मैं हूँ।आप लोगों ने अभी, इस मैं का खून कर
दिया।... मुझे यहाँ भी आप लोगों ने विलेन बना दिया। अब मैं सब जगह गब्बर सिहं हूँ।
(उदय, मदन के पास जा रहा होता है ... नवाज़ उसे रोकता है ....। नवाज़, मदन के पास
जाता है ।)
नवाज़- दे खो... मैं अपनी जगह के लिए कुछ भी कर सकता हूँ... तम्
ु ही ने मझ
ु े यह जगह दी है ...
आप वहाँ अपनी जगह पर बैठीए....। जाओ भाई...।
नवाज़- अरे बेटा... कितना बज गया... अरे ! चार बज चुका है ... रिज़ल्ट निकल गया होगा। बेटा तू
यहीं रुक मैं अभी रिज़ल्ट लेकर आता हूँ।
(मदन उठने को होता है ... पर कुछ सोचकर वापिस बैठ जाता है । उदय उसकी तरफ
मुस्कुराकर दे खता है ... और उसे यहाँ आने का इशारा करता है । मदन वहाँ बैठता है वह
उस लड़की को दे खता है आँखें बंद करता है ...। कुछ दे र में आँखें खोलता है .. धीरे से
उठकर मदन, उदय के पास आता है । उसके गाल छूता है ...जो गीले हैं... दोनों मस्
ु कुरा दे तें
है ... मदन चला जाता है ।)
(उदय अकेला समय काट रहा होता है । वह हर बेंच पर मदन, नवाज़ बनकर.... अलग-
अलग तरीके से बैठता है । अकेले बहस करके टाईम काटने की भी कोशिश करता है , पर
उससे यह अकेलापन बर्दाश्त नहीं होता है । कुछ दे र में वह अपना सामान उठाता है और
चला जाता है ।)
(कुछ ही दे र में इति पार्क में आती है ... वह चारों तरफ दे खती है ... उसे उदय दिखाई नहीं
दे ता... उसे अपने आने पर ही हं सी आने लगती है .. वह SMIRK करके चली जाती है ।)