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सती प्रताप - भारतेंदु हरिश्चंद्र
सती प्रताप - भारतेंदु हरिश्चंद्र
भारतें द ु हरिश्चंद्र
संवत ् 1941
(एक गीतिरूपक)
प्रथम दृश्य
हिमालय का अधोभाग।
तण
ृ लता वेष्टित एक टीले पर बैठी हुई तीन अप्सरा गाती हैं।।
1. अप्सरा- (राग झिझौंटी)
1. जय जय श्री रुकमिन महारानी।
2. निज पति त्रिभअ
ु न पति हरि पद में छाया सी लपटानी।
3. सती सिरोमणि रूपरासि करुनामय सब गन
ु खानी।
4. आदिशक्ति जग कारिनि पालिनि निज भक्तन सख
ु दानी।।
2. अप्सरा- (राग जंगला या पील)ू
जग में पतिब्रत सम नहिं आन।
नारि हे तु कोउ धर्म न दज
ू ो जग में यासु समान ।।
अनुसूया सीता सावित्री इन के चरित प्रमान।
पति दे वता तीय जग धन धन गावत वेद पुरान ।।
धन्य दे स कुल जहँ निबसत हैं नारी सती सुजान।
धन्य समय जब जन्म लेत ये धन्य व्याह असथान ।।
सब समर्थ पतिबरता नारी इन सम और न आन।
याही ते स्वर्गहु में इन को करत सबैन गुन गान ।।
3. अप्सरा- (रागिनी बहार)
नवल बन फूलीं द्रम
ु बेली।
लहलह लहकहिं महमह महकहिं मधुर सुगंधहिं रे ली ।।
प्रकृति नवोढ़ा सजे खरी मनु भूषन बसन बनाई।
आंचर उड़त बात बस फहरत प्रेम धुजा लहराई ।।
गूंजहिं भंवर बिहं गम डोलहिं प्रकृति बधाई।
पत
ु ली सी जित तित तितली गन फिरहिं सग
ु न्ध लभ
ु ाई ।।
लहरहिं जल लहकहिं सरोज मन हिलहिं पात तरु डारी।
लखि रितप
ु ति आगम सगरे जग मनहुं कुलाहल भारी ।।
(पटाक्षेप)
दस
ू रा दृश्य
तीसरा दृश्य
जयन्ती नगर गह
ृ ोद्यान
(जोगिन बनी हुई सावित्री ध्यान करती है )
(नेपथ्य में बैतालिक गान)
प्र. वै. : नैन लाल कुसुम पलास से रहे हैं फूलि
फूल माल गरे बन झालरि सी लाई है ।
भंवर गुंजार हरि नाम की उचार तिमि
कोकिला सी कुहूकि वियोग राग गाई है ।।
हरीचन्द तजि पतझार घर बार सवै
बौरी बनि दौरी चारू पौद ऐसी धाई है ।
तेरे बिछुरे तें प्रान कंत कै हिमन्त अन्त
तेरी प्रेम जोगिनी वसन्त बनि आई है ।। 1 ।।
द्वि. वै. : पीरो तन पर îौ फूली सरसों सरस सोई
मन मरु झान्यौ पतझार मनो लाई है ।
सीरी स्वास त्रिविध समीरसी बहति सदा
अँखियाँ बरसि मधझ
ु रि सी लगाई है ।।
हरीचन्द फूले मन मैन के मसस
ू न सौं
ताहीं सों रसाल बाल बदि के बौराई है ।।
तेरे बिछुरे तें प्रान कंत कै हिम्मत अन्त
तेरी प्रेम जोगिनी बसन्त बनि आई है ।। 2 ।।
प्र. वै. : ”बरुनी बघंबर मैं गूदरी पलक दोऊ,
कोए राते बसन भगौहें भेख रखियाँ।
बड़
ू ी जलही मैं दिन जामिनीहूं जागैं भौंह,
धम
ू सिर छायो विरहानल बिलखियां ।।
आंसू ज्यौं फटिक माल काजर की सेली पैन्ही,
भई हैं अकेली तजि चेलि संग सखियाँ ।।
दीजिये दरस दे व कीजिये संजोगन ये,
जोगिन ह्नै बैठी हैं बियोगिन की अंखियाँ“ ।। 3 ।।
द्वि. वै. : एक ध्यान एकै ज्ञान एकै मन एकै प्रान,
दसों दिसि अविचल एकै तान तानो है ।
जग मैं बसत हूँ मनहुँ जग बाहिर सी,
हियौ तन दोऊ निसि दिवस तपानो है ।।
‘हरिचंद जोग की जुगति रिद्धि सिद्धि सब,
तजि तिनका सी एक नेह को निभानो है ।
बिना फल आस सीस सहनी सहस्र त्रास,
जोगिन सों कठिन बियोगिन को बानो है ।।
(सावित्री ध्यान से आँख खोलती है )
सावित्री : अहा! एक पहर का दिन आ गया। सखीगण अब तक नहीं आई इसी से ध्यान भी निर्विघ्न हुआ।
हमारी वासना सत्य है तो अंतर्गति जानने वाली सतीकुल-सरोजिनी भगवती भवानी हमारी भावना अवश्य
पूर्ण करें गी। मन बच कर्म से जो हमारी भक्ति पति के चरणारविंद में है तो वे हमको अवश्य ही मिलेंगे।
अथवा न भी मिले तो इस जन्म में तो दस
ू रा पति हो नहीं सकता। स्त्रीधर्म बड़ा कठिन है । जिसको एक बेर
मन से पति कहकर वरण किया उसको छोड़कर स्त्री शरीर की अब इस जगत ् में कौन गति है । पिता माता
बड़े धार्मिक हैं। सखियों के मुख से यह संवाद सुनकर वह अवश्य उचित ही करें गे। वा न करें गे तो भी इस
जन्म में अन्य पुरुष अब मेरे हे तु कोई है नहीं। (अपना वेष दे खकर) अहा! यह वेष मुझको कैसा प्रिय बोध
होता है । जो वेष हमारे जीवितेश्वर धारण करें वह क्यों न प्रिय हो। इसके आगे बहुमूल्य हीरों के हार और
चमत्कार दर्शक वस्त्रा सब तच्
ु छ हैं। वही वस्तु प्यारी है जो प्यारे को प्यारी हो। नहीं तो सर्वसंपत्ति की मूल
कारण स्वरूपा दे वी पार्वती भगवान ् भूतनाथ की परिचर्या इस वेष से क्यों करतीं? सतीकुलतिलका दे वी
़
जनकनंदिनी को अयोध्या के बड़े बडे स्वर्ग विनिंदक प्रासाद और शचीदर्ल ु भ गहृ -सामग्री से भी वन की
पर्णकुटी और पर्वतशिला अति प्रिय थीं, क्योंकि सुख तो केवल प्राणनाथ की चरणपरिचर्या में है । जब तक
अपना स्वतंत्रा सख
ु है तब तक प्रेम नहीं। पत्नी का सख
ु एकमात्रा पति की सेवा है । जिस बात में प्रियतम
की रुचि उसी में सहधर्मिणी की रुचि। अहा! वह भी कोई धन्य दिन आवेगा जब हम भी अपने प्राणाराध्य
दे वता प्रियतम पति की चरणसेवा में नियक्
ु त होंगी। वद्ध
ृ श्वसरु और सास के हे तु पाक आदि निर्माण करके
उनका परितोष करें गी। कुसम
ु , दर्वा
ू , तल
ु सी, समिधा इत्यादि बीनने को पति के साथ वन में घम
ू ेंगी।
परिश्रम से थकित प्राणनायक के स्वेद-सीकर अपने अंचल से पोंछकर मंद मंद वनपत्रा के व्यजनवायु से
उनका श्रीअंग शीतल और चरणसंवाहनादि से श्रमगत करें गी। (नेत्रा से आँसू गिरते हैं)
(गान करते हुए सखीगण का आगमन)
(ठुमरी)
सखीत्राय :
दे खो मेरी नई जोगिनियाँ आई हो-जोगी पिय मन भाई हो।
खल
ु े केस गोरे मख
ु सोहत जोहत दृग सख
ु दाई हो ।।
नव छाती गाती कसि बाँधी कर जप माल सह
ु ाई हो।
तन कंचन दति
ु बसन गेरुआ दन
ू ी छवि उपजाई हो ।।
दे खो मेरी नई जोगिनियाँ आई हो।
(सावित्री के पास जाकर)
(लावनी)
लवंगी :
सखि! बाले जोबन महा कठिन व्रत कीनो।
यह जोग भेख कोमल अंगन पर लीनो ।।
अबहीं दिन तुमसे खेल कूद के प्यारी।
पितु मातु चाव सां भवन बसो सुकुमारी ।।
ओढ़ौ पहिरौ लखि सुख पावै महतारी।
बिलसौ गह
ृ संपति सखी गईं बलिहारी ।।
तजि दे हु स्वांग जो सबही बिधि सों हीनो।
यह जोग भेष जो कोमल अंग पर लीनो ।।
चौथा दृश्य