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संपादकीय, यैस ओशो, अप्रैल 2020 अंक

कोरोना वायरस के साथ एक सन


ु हरा अवसर

संत दरियादास का एक पद है:


दरिया गैला जगत को क्या करिये समझाय।
रोग नीसरै देह में पत्थर पूजन जाय।।

यहां गैला का अर्थ है मूढ़, और नीसरै का अर्थ है उपजना। तो पूरे पद का अर्थ हुआ कि इस मूढ़ जगत
को समझाकर क्या किया जाये, जो देह में रोग उपजने पर पत्थर की पूजा करने निकल पड़ता है।

ओशो इस पद का अर्थ समझाते हुए कहते हैं: ‘ये ऐसे पागल हैं, इनको कार्य-कारण तक का होश नहीं है।
चेचक का रोग निकल आता है शरीर में और जाते हैं किसी पत्थर को पूजने। काली माता को पूजने चले!
इनको इतना भी होश नहीं है कि कार्य-कारण तो देखो। शरीर में बीमारी है तो शरीर की चिकित्सा करो;
तो शरीर के चिकित्सक के पास जाओ। पत्थर को पूजने चले! जिनको कार्य-कारण के संबंध तक का होश
नहीं है, उनको परम तत्व की बात कहने से कु छ अर्थ नहीं है। ये सुन भी लें तो सुनेंगे नहीं। सुन लें, तो
समझेंगे नहीं। समझ लें, कु छ का कु छ समझ लेंगे।’

यहां जिन पत्थरों को पूजने की बात चल रही है, वे कोई काली माता की मूर्ति तक सीमित नहीं है। ओशो
बताते हैं कि ये पत्थर हमारे वे सब मत और विश्वास भी हो सकते हैं जिनमें हम कोई भी सहारा खोजते
हैं। फिर वह महामृत्युंजय का पाठ हो कि कु रान खानी, गोमूत्र का सेवन हो कि सिंदूर का लेपन--यह सब,
और इन जैसे बहुत से दूसरे टोटकों में तो देख पाना कोई बहुत मुश्किल नहीं है कि मन अदृश्य मूर्तियां
गढ़ रहा है। लेकिन मुश्किल तब हो जाती है जब ये मूर्तियां सूक्ष्म रूप लेकर विज्ञान, मनोविज्ञान और
अध्यात्म से चुराए हुए कपड़े पहन लेती हैं--चुराए हुए कपड़े यानि चुराई हुई भाषा, जो प्रतीत तो बहुत
अधिकारपूर्ण हो, लेकिन निदान व निष्कर्ष के पीछे न कोई शोध और न कोई अनुभव।
कोरोना वायरस के इस संक्रमण काल में हम ऐसी बहुत-सी सूक्ष्म मूर्तियों को उभरते हुए देख रहे हैं।
सोशल मीडिया रोज इनसे भरा जा रहा है। बहुत से विशेषज्ञ कु कु रमुत्तों की तरह उग आए हैं जो बता रहे
हैं कि कौनसा आहार, कौनसा व्यवहार या कौनसी क्रिया आपके शरीर में वायरस को निष्क्रिय कर देगी, या
फिर और आगे बढ़ते हुए बताते हैं कि इस वायरस को प्रकृ ति से ही समूल नष्ट कर देगी। जबकि चिकित्सा
वैज्ञानिक अभी तक इस विषय में किसी पक्के निष्कर्ष तक नहीं पहुंचे हैं, वे के वल इतना ही बता रहे हैं
कि हम संभवतया वायरस से संक्रमित होने से कै से बच सकते हैं। किसी भी दूसरे व्यक्ति से कम से कम
छः फीट की दूरी बनाए रखना, सार्वजनिक जगहों पर किसी सतह को न छू ना, हाथों से चेहरे को न
छू ना, हाथों को बार-बार साबुन के पानी से धोते रहना, कु नकु ना पानी पीते रहना, सत्तर डिग्री पर पकाया
हुआ ताजा खाना ही खाना, बाहर से आई या लाई किसी भी चीज को डिसइनफे क्ट करना, अनावश्यक
घर से न निकलना, आवश्यकता पड़ने पर घर से निकलें तो एन-95 मास्क का उपयोग करें जो चेहरे पर
बिलकु ल भी ढीला न हो--कु ल जमा में ये कु छ उपाय हैं जो चिकित्सा वैज्ञानिकों ने बताये हैं जिनसे शायद
हम वायरस के संक्रमण से बच सकें । विश्व भर के इन वास्तविक विशेषज्ञों का जोर सोशल डिस्टेंसिंग पर
है, और जहां जरूरी हो वहां आंशिक या संपूर्ण लॉकडाउन यानि तालाबंदी पर।

भारत के मौजूदा लॉकडाउन से पहले प्रधानमंत्री ने 22 मार्च को जब एक दिन के जनता कर्फ्यू का ऐलान
किया तो उन्होंने यह भी कहा कि सब लोग अपने-अपने दरवाजों, खिड़कियों या बालकनियों में आकर
ताली, थाली या घंटी बजाते हुए उन लोगों को सम्मानित करें जो अपनी जान के जोखिम की परवाह न
करते हुए हमें स्वास्थ्य, स्वच्छता व अन्य जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए बाहर निकलेंगे। अचानक
कु कु रमुत्ता विशेषज्ञ बताने लगे कि कै से सामूहिक रूप से पैदा की गई ध्वनि की तरंगें वायरस को नष्ट कर
देंगी। उन्होंने अमावस्या, बुरी शक्तियों, व ध्वनि-विज्ञान का एक पूरा शाब्दिक मायाजाल खड़ा कर दिया। यह
एक सूक्ष्म मूर्ति खड़ी हो गई जिसे पूजने करोड़ों निकल पड़े। वे भूल गए कि यह ताली और थाली उन्हें
किन्हीं के सम्मान में बजानी थी, वे तो वायरस का संहार करने वाली सुर-सेना बन गए। हमने देखा कि
कै से थालियों को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया गया, कै से सड़कों पर भीड़ें इकट्ठी हो गईं और पटाखे
फोड़े गए, कै से लोग उन्माद में आकर टीन के पत्तरों को पीट-पीटकर ‘गो, कोरोना गो’ चिल्ला रहे थे,
कै से लोग सोशल डिस्टेंसिंग को जीभ चिढ़ाते हुए हाथ पकड़-पकड़कर नाच रहे थे--जैसे कोरोना वायरस पर
फतह पा ली हो।
फिर अभी कल ही प्रधानमंत्री ने एक और आह्वान किया कि 5 अप्रैल को रात 9 बजे सभी लोग नौ
मिनट के लिए अपने-अपने दरवाजों और बालकनियों पर दीये, टॉर्च या मोबाइल की रोशनी करें। उसके
पीछे मंशा थी कि लॉकडाउन के दौरान लोग जो अलग-थलग या अके ले पड़ गए हैं वे नौ मिनट के लिए
ही सही, लेकिन इस अके लेपन की बेचैनी से बाहर आकर एक सामूहिकता के भाव में प्रवेश कर जाएं। चीन
और इटली में बिना किसी प्रशासनिक आह्वान के ऐसे सहज-स्फू र्त प्रयोग तालाबंद लोगों द्वारा किए जा चुके
हैं। यूरोप और अमरीका में तो लोग अपनी-अपनी खिड़कियों पर आकर पूरा एक ऑर्के स्ट्रा खड़ा कर दे रहे
हैं--कोई गिटार बजाने लगता है, कोई ड्र म, तो कोई गाने लगता है, और बाकी लोग तालियों और चुटकियों
से संगीत की लय में जुड़ जाते हैं। लोगों ने अपनी-अपनी खिड़कियों पर आकर एक साथ हंसने के प्रयोग
भी किए हैं। इन प्रयोगों के लिए आमंत्रण लोग खुद ही व्हॉट्सएप से फै ला रहे हैं और उनमें जुड़ रहे हैं।
संगीत और हास्य के ये प्रयोग मानसिक रूप से स्वास्थ्यदायी भी होते हैं और सबके साथ एक परस्पर
सह-अस्तित्व का बोध भी जगाते हैं। और हां, इन प्रयोगों का उपयोग वायरस से लड़ने के लिए नहीं बल्कि
लॉकडाउन की बेचैनी से उबरने के लिए है।

लेकिन यहां, प्रधानमंत्री के मोमबत्तियां जलाने के आह्वान के साथ ही कई कु कु रमत्ता विशेषज्ञ प्रकट हो गए।
कोई इसे वायरस के संहार के लिए धनुर्धारी राम को आमंत्रित करने का प्रयोग बताने लगा, तो कोई इसे
भाव-ऊर्जा की शक्ति को जगाने का प्रयोग सिद्ध करने लगा। कइयों ने तो इसमें ऐसा सनातन विज्ञान खोज
डाला कि अचंभित रह जाएं। उदाहरण के तौर पर एक कु कु रमुत्ता विशेषज्ञ की निष्पत्ति यहां प्रस्तुत है, जो
सोशल मीडिया पर बहुत घुमाई जा रही है: ‘5 अप्रैल को वामन द्वादशी है। इस दिन पृथ्वी सूर्य से
अधिकतम प्रकाश प्राप्त करती है जो वायरस पैदा करने वाले रोगों को बल देता है। वायरस एक शैतानी
शक्ति है जो अंधकार से पोषित होता है। आदियोगी पुराण के अनुसार ऐसी शैतानी शक्तियों को नष्ट करने
का एक उपाय है कि फोकस के साथ उन प्रकाश डाला जाए। यही कारण है कि प्रधानमंत्री ने हमसे कहा
है कि हम सब अपनी बत्तियां बुझाकर अंधेरा कर दें और फिर छोटे-छोटे दीयों या मोमबत्तियों को जलाएं,
जिनके प्रकाश में एक फोकस होगा। हमारे छोटे-छोटे दीयों और मोमबत्तियों का प्रकाश एक शक्तिशाली बीम
बनकर कोरोना वायरस के हृदय को चीरता हुआ उसे नष्ट कर देगा, और फिर हम वास्तविक रामनवमी मना
पायेंगे। पहले तो प्रधानमंत्री के वल मास्टर स्ट्रोक किया करते थे, इस बार वह मास्टरबीम लेकर आए हैं।’

कमाल है भाईसाहब! सबसे पहले तो वायरस से रोग पैदा होता है न कि रोग से वायरस। और दूसरी बात,
यदि वायरस की ‘शैतानी शक्ति’ अंधेरे से पोषित होती है तो वामन द्वादशी को पृथ्वी जो सूर्य का
अधिकतम प्रकाश ग्रहण करेगी, उसमें उसे खुद ही मर जाना चाहिए। लेकिन आप फोकस्ड लाइट की शर्त
पर ही आमादा हैं, तो आपकी दीयों की रोशनी तो हवा में फोकस्ड होगी और कोरोना वायरस हवा में
ठहरता ही नहीं। और फिर वायरस इतना छोटा होता है कि एक दीये की रोशनी भी उसके लिए ऐसी होगी
जैसी एक मनुष्य के लिए चार सूर्यों की रोशनी, फोकस क्या खाक करेंगे?

यह सारा ढकोसला-विज्ञान सिवाय राजनैतिक चाटुकारिता के और कु छ भी नहीं है। शायद किसी प्रचार-तंत्र
का हिस्सा भी हो। इन कु कु रमुत्ता विशेषज्ञों की निष्पत्तियां ऐसी ही होती हैं जैसे गणित में कमजोर कु छ बच्चे
करते हैं--पहले वे किताब के पीछे छपा उत्तर पढ़ लेते हैं और फिर कै सा भी जोड़-घटा-भाग करके गणित
की समस्या को उस उत्तर तक पहुंचा देते हैं। और यहां तो कोई छपा हुआ उत्तर भी नहीं है, ये
कु कु रमुत्ते पहले उत्तर लिखते हैं और फिर अपने जोड़-घटा-भाग से हर समस्या को उस उत्तर तक पहुंचा
देते हैं।
लेकिन यहां यह सब कहने का यह आशय बिलकु ल नहीं है कि आप दीये न जलाएं। जरूर जलाएं। लेकिन
उनको जलाने का उपयोग जानते हुए जलाएं। दीये जलाकर आप किसी वायरस से लड़ने नहीं जा रहे हैं।
लड़ाई थकाती है। लड़ाई विजय भी लाती है तो उसमें हम बहुत कु छ हार चुके होते हैं। फिर, जब आप
वायरस को नष्ट करने की आशा में दीये जलायेंगे औैर कु छ ही दिन में पाएंगे कि वायरस से संक्रमित लोगों
की संख्या अब दुगुनी हो चुकी है तो पहले से अधिक निराशा में गिर जायेंगे। कृ पया लड़ाई की भाषा से
बचें। न ही किसी अंधकार को चुनौती देकर उसे प्रकाश की ताकत का परिचय देने के लिए दीये जलाएं।
अस्तित्व में जितना जरूरी प्रकाश है, उतना ही जरूरी अंधकार भी है। मां के गर्भ में या धरती की कोख
में यदि अंधकार न हो तो इस पृथ्वी पर किसी भी प्रकार का जीवन होगा ही नहीं।

दीये जलाएं तो प्रकाश और अंधकार को एक-दूसरे से खेलता हुआ देखें। इस खेल में प्रकृ ति की उस
सरगम को भी देखें जिसमें दिन-रात, जीवन-मृत्यु, अंधकार-प्रकाश, सुख-दुख सब सह-अस्तित्व में हैं। दीये
जलाएं तो इस गीत को याद कर लें:
शाख पर जब धूप आई घर बनाने के लिए
छांव छम से नीचे उतरी हंस के बोली आइए

यहां सुबह से खेला करती है शाम...।

हवाओं पे लिख दो, हवाओं के नाम

हम अंजान परदेसियों का सलाम...।

मरे हुए धर्मों और मारती हुई राजनीति की कें चुली से निकलकर, सौहार्द के लिए दीये जलाएं, संपूर्ण जीवन
के सह-अस्तित्व के सम्मान में दीये जलाएं। और ‘संपूर्ण जीवन’ यदि हमारे लिए मात्र एक खोखला शब्द न
हो तो उसमें वे सब मनुष्य भी आते हैं जिन्हें हम अपने राजनैतिक व सांप्रदायिक विश्वासों के कारण शत्रु
मानते हैं, हर समस्या का दोषी मानते हैं।

यदि प्रकाश और अंधकार की जुगलबंदी के सम्मान में, और सबके साथ सह-अस्तित्व के भाव में दीये
जलाते हैं तो यह एक सामाजिक इवेंट से बढ़कर आपको ऊं चाई के एक नए पायदान पर ले लाने वाला
एक प्रयोग हो जाएगा। फिर एक दिन ही क्यों, रोज करें--बस यह कोई क्रिया-कांड न हो। वरना क्रिया-कांड
तो ध्यान को भी बना लिया जा सकता है। थोड़ा सूं-सूं करके सांस छोड़ ली, थोड़ा आ-ई कर लिया,
थोड़ा रुक-रुककर उछल लिए, थोड़ा सो गए, थोड़ा अनमने से शरीर को हिला-डु ला लिया--हो गया सक्रिय
ध्यान का क्रिया-कांड और लगे परिणामों का इंतजार करने।

बहुत से कु कु रमुत्ता विशेषज्ञ इस समय ओशो की ध्यान विधियों को भी कोरोना वायरस का इलाज बनाकर
प्रस्तुत कर रहे हैं, ऑनलाइन सामूहिक प्रयोग करवा रहे हैं। यह ध्यान को क्रिया-कांड बनाना हुआ, यह
देह में उपजने वाले रोग की रोकथाम के लिए पत्थर को पूजने के समान हुआ। ओशो द्वारा दी गई ध्यान
की सक्रिय विधियों में क्योंकि बहुत-सी शारीरिक क्रियाएं हैं इसलिए वे शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत से
अनुकू ल परिणाम लाती हैं, उनमें रेचन भी है इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी प्रभावकारी होती हैं।
ओशो ने इन परिणामों के बारे में बताया भी है--जिसका आधार हजारों लोगों पर उनके खुद के प्रयोग,
और स्वास्थ्य विशेषज्ञों की बहुत-सी शोध भी हैं। लेकिन न तो कभी ओशो ने ऐसा बताया है और न ही
इस पर विशेषज्ञों की कोई शोध है कि ध्यान विधियां किसी को वायरस के संक्रमण से बचा सकें ।
वायरस के संक्रमण से तो बुद्धों का शरीर भी नहीं बचता। जब कभी शहर में वायरल फ्लू फै लता था तो
ओशो के चिकित्सक उन्हें प्रवचन में न जाने का सुझाव देते थे, जिसे ओशो सुनते भी थे। यह सोशल
डिस्टेंसिंग का ही प्रयोग था, जिसकी सलाह आज भी स्वास्थ्य विशेषज्ञ दे रहे हैं। उन्हीं के सुझाव सुनें तो
बेहतर होगा।

यदि वायरस से बचने के लिए ध्यान कर रहे हैं तो कृ पया न करें। उससे कु छ नहीं होगा। ओशो की ध्यान
विधियां उसीलिये हैं जिसलिए उन्होंने दी हैं--मन की परतों के साक्षात्कार के लिए, मनातीत मौन के अनुभव
में उतरने के लिए, जहां हर्ष है। यदि इस समय में आपने ध्यान को इसलिए चुना है कि पहले रोज की
उहा-पोह में समय नहीं मिल पा रहा था और इस मिल गए समय का उपयोग आप किसी भी और चीज
से अधिक भीतर उतरने के लिए करना चाहते हैं, तो बहुत सुंदर।
यदि यह समय आपको एक संक्रमण काल की तरह नजर आ रहा है जिसमें हर तल पर एक अनिश्चितता
है, और अचानक आपको यह प्रतीति हो आई है कि जीवन तो सदा ऐसा ही है लेकिन संकट के इस
समय में मैं उसे महसूस कर पा रहा हूं, और उससे यह भाव सघन हो रहा है कि अब वास्तविक जीवन
को जान लूं--यदि इसलिए आप ध्यान कर रहे हैं तो बहुत ही सुंदर।

और फिर यह समय सुनहरा समय है। यह समय है जब ध्यान एक घंटे की जाने वाली प्रक्रिया न होकर
हमारे जीवन के हर कृ त्य में उतर सकता है। हममें से अधिकांश के लिए डैडलाइंस को लेकर समय का
कोई दबाव नहीं है। हम अपने हर छोटे से छोटे कृ त्य में समग्रता से तल्लीन हो सकते हैं। जैसा कि ओशो
कहते हैं--फर्श पर ऐसे झाड़ू लगाया जा सकता है जैसे ताजमहल बना रहे हों, भोजन ऐसे बनाया जा
सकता है जैसे कोई गीत गा रहे हों। चेहरे को हाथ से न छू ना भी सजगता का एक सतत प्रयोग बन
सकता है--हाथ उठा चेहरे को छू ने के लिए, आप अचानक रुक गए बीच में, और उसे रुके हुए क्षण में
अचानक जैसे सब मौन हो गया।
इस समय जब जीवन को बहुत तलों पर नए ढंगों से जीना पड़ रहा है तो हम देख सकते हैं कि रोजमर्रा
के आम जीवन में हम जो भी करते हैं उसमें से कितना अनिवार्य है, कितना नाहक, और कितना बस
आदतवश। हमें दिखाई पड़ सकता है कि अपने व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन में कौनसे ऐसे परिवर्तन हैं जो
हमें लगता था कि संभव ही नहीं हैं लेकिन आ गए हैं और सुंदर परिणाम लाए हैं--जैसे अचानक प्रकृ ति से
कितने ही प्रदूषणों का विदा हो जाना।

इस समय बेचैनियां भी उभरेंगी, अनिश्चितताएं भी, घबराहट भी, भय भी। ये सभी बहुत मानवीय भाव हैं
और हम सभी रोज किसी न किसी मात्रा में इनसे गुजरते हैं, लेकिन चूंकि उनसे निपटने का समय हमारे
पास नहीं होता इसलिए हमारा स्वचालित यंत्र उन्हें दबा लेता है और वे हमारे शरीर व मन में रोग बनकर
बैठ जाते हैं। अब चूंकि समय है तो स्वचालित यंत्र ढीला पड़ जाएगा और हम उन्हें ज्यादा देख पायेंगे। जो
प्रतिभाशाली होंगे वे देख पाएंगे कि जो भाव मुझ में उभर रहे हैं वे इसलिए उभर रहे हैं कि वे मेरे
संस्थान का हिस्सा हैं, किसी परिस्थिति ने उन्हें पैदा नहीं किया है। परिस्थिति ने उन्हें मात्र उभारा है,
और यह परिस्थिति ऐसी है कि इसमें वे स्पष्टता से दिख रहे हैं। अब चूंकि हमारे पास समय है तो हम वे
प्रयोग कर सकते हैं जिनमें ओशो सुझाते हैं कि भय है तो हम भय से भागने की बजाय उसमें पूरे उतर
जाएं, बेचैनी है तो बेचैनी में पूरा उतरकर उसे देख लें--और उसके पूरे दर्शन में ही उसे विदा होते हुए
देखें, अपनी सारी जड़ों समेत।
इसके विपरीत, ऐसा भी होगा कि पूरी परिस्थिति की अनिश्चितता को जानते-समझते हुए भी आप स्वयं को
अपने कें द्र में कें द्रित पाएं, आप पाएं कि आप जीवन की छोटी-सी छोटी चीज को--चाहे वह चाय की एक
प्याली क्यों न हो--एक महोत्सव की तरह जी रहे हैं। तब आपकी श्रद्धा उस जीवन शैली के प्रति और
गहन होगी जो आपने ओशो के साथ जी है। आपके पांवो को और बल मिलेगा। आप अपनी यात्रा में और
भी त्वरा ला सकते हैं।

ओशो कहते हैं कि कोई भी संक्रमण का काल हममें से सर्वश्रेष्ठ और निकृ ष्टतम को बाहर ला सकता है।
यदि समय का उपयोग स्वयं पर लौटने के लिए कर लें, स्वयं के साथ कु छ प्रयोग करने के लिए कर लें
तो श्रेष्ठतम संभावनाएं बाहर आ सकती हैं। समय काटने के लिए राजनैतिक स्वार्थों द्वारा पैदा किए गए हिंदू-
मुसलमान और चीन-पाकिस्तान के मुद्दों में उलझे रहे तो अपने भीतर बस द्वेष को जगाएंगे। और यह याद
रखिये द्वेष अपने टारगेट बदलता रहता है, आपको पता भी नहीं चलता कि कब वह आपके भीतर आपको
ही अपना टारगेट बना लेता है।

समय सुनहरा है तो चूकें तो मत ही। दरियादास के साथ ही शुरुआत की थी, आइए उन्हीं के साथ
समापन भी करें। दरियादास कहते हैं--मत चूके ओ उल्लुआ, काल सुनहरा चीन्ह। यानि अरे उल्लू चूकना मत,
सुनहरे समय को पहचान।

स्वस्थ रहें, सौहार्दपूर्ण रहें, सुंदर रहें।

संजय भारती

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ताकि कई लोग जो प्रतीक्षारत हैं उन्हें शायद आपके माध्यम से उपलब्ध हो सके ।

यैस ओशो के अप्रैल माह के अन्य स्तंभ भी हम एक-एक करके यहां प्रस्तुत करते रहेंगे।

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