Miir Ki Galatiyan

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दिन दूरी-ए-चमन में जो हम शाम करेंगे 221 1221 1221 122 मिसरा बह्र मे नहीं है

ता सुबह दो सद नाला सर अंजाम करेंगे

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दिल का मुताला कर ए आगह हक़ायक़


हैं फ़न इशक़ के भी मुश्किल बहुत दक़ायक़
छाती जलूँ के आगे खिंचता है बेशतर दिल
एक आश्ना है मुझसे इस बाग़ में शक़ाइक़
है रास्ती कि इंसां मुश्तक़ है अनस ही से
बीमारी दोस्ती की है दुश्मन ख़लायक़
जी सारे तन का खिंच कर आँखों में आरहा है
किस मर्तबे में हम भी हैं देखने के शावक
कल मीर जी ने ज़ाए अपने तईं किया है
ये काम था ना इन्नकी शाइस्तगी के लायक़

काफ़िया ग़लत है

दीवानगी की है वही ज़ोर आवरी हनूज़


हर-दम नई है मेरी गरीबांवरी हनूज़
सर से गया है साया-ए-लुत्फ़ उस का देर से
आँखों ही में फिरे है मेरी वो परी हनूज़
शोख़ी से ज़ार गिर्ये की ख़ूँ चशम में नहीं
वैसी ही है मुज़ा की बईना तरी हनूज़
कब से निगाह गाड़े है याँ रोज़ आफ़ताब
हम देखे हैं जहां के तईं सरसरी हनूज़
मबहूत हो गया है जहां इक नज़र किए
जाती नहीं इन आँखों से जादूगरी हनूज़
अबर-ए-क्रम ने सई बहुत की पे क्या हुसूल
होती नहीं हमारी ज़राअत हरी हनूज़
मुद्दत से मीरध बेदिल-ओ-दीं दिलबरों में है
करता नहीं है इस की कोई दिलबरी हनूज़

काफ़िया ग़लत है

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बुरक़ा में क्या छु पें वे होवें जिंहों की ये ताब
रुख़सार तेरे प्यारे हैं आफ़ताब महताब

अटकल हमीं को उनने आख़िर हदफ़ बनाया


हरचंद हम बलाकश थे एक तीर परताब

कु छ क़दर में ना जानी ग़फ़लत से रफ़्तगाँ की


आँखें सी खुल गईं अब जब सोहबतें हुईं ख़ाब

इन-बन ही के सबब हैं इस लालची से सारे


याँ है फ़क़ीरी महज़ वां चाहिए है अस्बाब

इस बहर-ए-हुस्न के तीं देखा है आप में किया


जाता है सदक़े अपने जो लहज़ा लहज़ा गिर्दाब

अचरज है ये कि मुतलक़ कोई नहीं है ख़ाहां


जिंस-ए-वफ़ा अगरचे हैगी बहुत ही कमयाब

थी चशम ये रुके गा पलकों से गिर्ये लेकिन


होती है बंद कोई तिनकों से राह सेलाब

तो भी तो मुख़्तलत हो सब्ज़े में हमसे साक़ी
लेकर बग़ल में ज़ालिम मीनए बादा-ए-नाब
निकली हैं अब के कलियाँ इस रंग से चमन में
सर जोड़ जोड़ जैसे मुल् बैठते हैं अहबाब

क्या लाल-ए-लब किसू के अमीर चित्त चढ़े हैं


चेहरे पे तेरे हर-दम बहता रहे है ख़ूनाब

काफ़िया ग़लत है

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जहां में रोज़ है आशूब उस की क़ामत से


उठे है फ़ित्ना हर इक शोख़ तर क़ियामत से
मुआ हूँ हो के दिल-ए-अफ़सुर्दा रंज कु लफ़त से
अगे है सब्ज़ा-ए-पज़मुर्दा मेरी तुर्बत से
जहां मिले तहाँ काफ़िर ही होना पड़ता है
ख़ुदा पनाह में रखे बुतों की सोहबत से
तसल्ली उनने ना की एक दो सुख़न से कभू
जो कोई बात कही भी तो आधी लुक्नत से
पलक के मारते हम तो नज़र नहीं आते
सुख़न करो हो अबस तुम हमारी फ़ु र्सत से
अमीरज़ादों से दिल्ली के मिल नाता मक़दूर
कि हम फ़क़ीर हुए हैं उन्हें की दौलत से
ये जहल देख कि इन समझे में उठा लाया
गिरां वो बार जो था बेश अपनी ताक़त से
रहा ना होगा बख़ुद साने अज़ल भी तब
बनाया होगा जब इस मुँह को दस्त-ए-क़ु दरत से
वो आँखें फे रे ही लेता है देखते क्या हो
मुआमलत है हमें दिल की बेमुरव्वत से
जो सोचे टुक तो वो मतलूब हम ही निकले मीरध
ख़राब फिरते थे जिसकी तलब में मुद्दत से

काफ़िया ग़लत है

141
काम मेरा भी तिरे ग़म में कहूं हो जाएगीगा
जब ये कहता हूँ तो कहता है कि हूँ हो जाएगीगा
ख़ून कम कर अब कि कु श्तों के तो पुश्ते लग गए
क़तल करते करते तेरे तीं जुनूँ हो जाएगीगा
इस शिकार अंदाज़ ख़ूनीं का नहीं आया मिज़ाज
वर्ना आहूए हरम सैद-ए-ज़बूँ हो जाएगीगा
बज़्म-ए-इशरत में मिला मत हम निगों बख़्तों के तीं
जूं हुबाब बादा-ए-साग़र सर-निगूँ हो जाएगीगा
ता-कु जा ग़ुंचा-सिफ़त रुकना चमन में दहर के
कब गिरफ़्ता-दिल मरे सीने में ख़ूँ हो जाएगीगा
क्या कहूं मैं मीरास आशिक़ सितम महबूब को
तौर पर उस के किसू दिन कोई ख़ूँ हो जाएगीगा

काफ़िया ग़लत है

1112

अजब नहीं है न जाने जो मीर चाह की रीत


सुना नहीं है मगर ये कि जोगी किस के मीत
मत इन नमाज़ियों को ख़ाना-साज़ दें जानो
कि एक ईंट की ख़ातिर ये ढाते हैंगे मसीत
गुम-ए-ज़माना से फ़ारिग़ हैं माया बाख़तगां
क़िमार ख़ाना-ए-आफ़ाक़ में है हार ही जीत
हज़ार शाना-ओ-मिस्वाक-ओ-ग़ुसल शेख़ करे
हमारे अनदीए में तो है वो ख़बीस पलीत काफ़िया ग़लत है सही शब्द 'पलीद' है
किसू के बिस्तर-ओ-संजाब-ओ-क़सर से किया काम
हमारी गुरू के भी ढेर में मकाँ है मबीत
हुए हैं सूख के आशिक़ तम्बूरे के से तार
रक़ीब देखो तो गाते हैं बैठे और ही गीत
शफ़क़ से हैं दर-ओ-दीवार ज़र्द शाम-ओ-सहर-ए-हवा
है लखनऊ इस रहगुज़र में पीलीभीत
कहा था हमने बहुत बोलना नहीं है ख़ूब
हमारे यार को सौ अब हमें से बात ना चीत
मिले थे मीर से हम कल कनार दरिया पर
फ़तीला मू वो जिगर-ए-सोख़्ता है जैसे अतीत

काफ़िया ग़लत है

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तेरे क़दम से जा लगी जिस पे मिरा है सर लगा


गो कि मरे ही ख़ून की दस्त गिरिफ़ता हो हिना
संग मुझे बजाँ क़बूल? उस के इव्ज़ हज़ार बार
ताबा कु जा ये इज़्तिराब? दिल ना हुआ सितम हुआ
किस की हुआ कहाँ कागल हम तो क़फ़स में हैं असीर
सैर-ए-चमन की रोज़-ओ-शब तुझको मुबारक ए सबा
किन ने बदी है इतनी देर? मौसिम-ए-गुल में साक़िया
दे भी मय-ए-दो-आतिशा ज़ोर ही सर्द है हुआ
वो तो हमारी ख़ाक पर आ ना फिरा कभी ग़रज़
उनने जफ़ा ना तर्क की अपनी सी हमने की वफ़ा
फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ तिलक तो मैं इतना ना था ख़राब गर्द
मुझको जुनून हो गया मौसिम-ए-गुल में क्या बला
जान बल्ब रसीदा से इतना ही कहने पाए हम
जावे अगर तू यार तक कहियो हमारी भी दुआ
बोई कबाब सख़्ता आती है कु छ दिमाग़ में
होवे ना होवे ए नसीम? रात किसी का दिल जला
मैं तो कहा था तेरे तीं आह समझ ना ज़ुलम कर
आख़िर-ए-कार बेवफ़ा जी ही गया ना मीरध का

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लने लगे हो दैर देर? देखिए किया है क्या नहीं
तुम तो करो हो साहबी बंदे में कु छ रहा नहीं
बोई गिल और रंग-ए-गुल दोनों हैं दिलकश ए नसीम
लेक बक़दर यक निगाह? देखिए तो वफ़ा नहीं
शिकवा करूँ हूँ बख़्त का इतने ग़ज़ब ना हो बुताँ
मुझको ख़ुदा-न-ख़्वास्ता तुमसे तो कु छ गिला नहीं
नाले किया ना कर सुना नौहे मरे पे अंदलीब
बात में बात ऐब है मैंने तुझे कहा नहीं
ख़ाब ख़ुश सह्र से शोख़? तुझको सबा जगा गई
मुझपे अबस है बेदिमाग़? मैंने तो कु छ कहा नहीं
चशम सफ़ै द-ओ-अश्क-ए-सुर्ख़ आह-ए-दिल हज़ीं है याँ
शीशा नहीं है मै नहीं अब्र नहीं हुआ नहीं
एक फ़क़त है सादगी तिस-पे बला-ए-जाँ है तो
इशवा करिश्मा कु छ नहीं आन नहीं अदा नहीं
आब-ओ-हूए मुल्क इशक़? तजुर्बा की है में बहुत
करके दवए दर्द-ए-दिल कोई भी फिर जिया नहीं
होवे ज़माना कु छ से कु छ छोटे है दिल लगा मिरा
शोख़ किसी ही आन मैं तुझसे तो मैं जुदा नहीं
नाज़-ए-बुताँ उठा चुका देर को मीरध तर्क कर
काबे में जाके बैठ मियां तेरे मगर ख़ुदा नहीं

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