Professional Documents
Culture Documents
सुरह बकरा और सूरह आले इमरान की बुनियादी दावत का बयान
सुरह बकरा और सूरह आले इमरान की बुनियादी दावत का बयान
सबसे अहम सवाल- इंसान किस है सियत से अपनी ज़िंदगी बसर करे ??
शरू
ु से लेकर अब तक कोई कौम भी ऐसी नहीं गज़
ु री जिसने इस सवाल को हल करने की
कोशिश ना की हो। और आखिर तक भी यही सवाल सबसे अहम बना रहे गा और सारी द नि
ु या
पहले भी इसी सवाल के इर्द गिर्द घूमती रही थी, अब भी घूम रही है और आगे भी घूमती रहे गी।
जिसने जो भी जवाब तलाशा उसी के हिसाब से अपनी जिंदगी चलाई। उसी के लिए अपना
वक्त, माल, दौलत, दिमाग और बदन की ताकत खपाई।
किसी ने कहा कि जिंदगी दो वक्त की रोटी का नाम है , कोई कहता कि जिंदगी जिस्मानी
ख्वाईश पूरी करने में खपानी चाहिए। एक ख्याल ये भी है कि जिंदगी सामान की खपत और
ऐश से बसर करना का नाम है । एक गिरोह ये भी कहता है कि ज़िंदगी सारी दनि
ु या के मामलों
से कट जाना है । जिसको लोग संन्यासी और राहिब के नाम से जानते हैं।
इंसानी अकल मोहताज होती है । वो एक वक्त के हिसाब से ही पहलू दे ख रही होती है । ज़माना
बदलते ही इंसानी नज़रिए की भी कब्र खुद जाती है । इस वजह से जिंदगी सिर्फ अटकल बाज़ी
पर नहीं गुज़र सकती। लेकिन सारी ज्यादतियों के बीच इस्लाम इंसान को एक पूरा प्रोग्राम
बनाकर दे ता है । इस वजह से इंसान की कामयाबी के लिए जरूरी है कि वो अल्लाह के आगे
घुटने टे क दे । अल्लाह की हिदायत कुरान और हदीस के शक्ल में हमारे पास है । हमे चाहिए कि
ऊपर पेश किए गए सवाल को अल्लाह की हिदायत के मत
ु ाबिक हल करें । जब हम कुरान की
ओर रुख करते है तो पाते हैं कि अल्लाह ने इंसान को बनाते वक्त ही इंसान की असल है सियत
साफ बयान कर दी थी।
1
खलीफा किसको कहते हैं?
ख़लीफ़ा मालिक नहीं होता, बल्कि असल मालिक का नायब होता है । उसके अधिकार उसके अपने
नहीं होते, बल्कि असल मालिक के दिये हुए होते हैं। वो अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ काम करने का
हक़ नहीं रखता, बल्कि उसका काम मालिक की मर्ज़ी को पूरा करना होता है । अगर वो ख़ुद
अपने आपको मालिक समझ बैठे और मिले हुए अधिकारों को मनमाने तरीक़े से इस्तेमाल करने
लगे, या असल मालिक के सिवा किसी और को मालिक मान कर उसकी मर्ज़ी की पैरवी और
उसके हुक्मों को पूरा करने लगे, तो ये सब ग़द्दारी और बग़ावत के काम होंगे।
उम्मते मस्लि
ु मा से पहले ये जिम्मेदारी बनी इसराइल को दी गई थी। इसी का ज़िक्र कुरान में
दिया गया है ।
۱۲۲﴿ َت َعلَ ۡی ُکمۡ َو اَنِّ ۡی فَض َّۡلتُ ُکمۡ َعلَی ۡال ٰعلَ ِم ۡین
ُ ۡ﴾ ٰیبَنِ ۡۤی اِ ۡس َرٓا ِء ۡی َل ۡاذ ُکر ُۡوا نِ ۡع َمتِ َی الَّتِ ۡۤی اَ ۡن َعم
( अल बकरा 122)
"ऐ बनी-इसराईल! याद करो मेरी वो नेमत जो मैंने तुम्हें दी थी, और ये कि मैंने तुम्हें दनि
ु या की
तमाम क़ौमों पर बड़ाई दी थी।"
(1) हज़रत नूह (अस.) के बाद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) पहले नबी हैं जिनको अल्लाह ने इस्लाम
का पैग़ाम फैलाने की जिम्मेदारी अता करी थी। उन्होंने पहले ख़द
ु इराक़ से मिस्र तक और शाम
(सीरिया) व फ़लस्तीन से अरब-रे गिस्तान के अलग अलग हिस्सों तक बरसों भाग-दौड़ करके
अल्लाह की बन्दगी और फ़रमाँबरदारी (यानी इस्लाम) की तरफ़ लोगों को बल
ु ाया। फिर अपने इस
मिशन को फैलाने के लिये अलग अलग इलाक़ों में ख़लीफ़ा (नायब) मुक़र्रर किये। पूरबी जार्डन में
अपने भतीजे हज़रत लूत (अलैहि०) को, शाम व फ़लस्तीन में अपने बेटे हज़रत इस्हाक़ (अलैहि०)
को और अरब के अंदरूनी हिस्से में अपने बड़े बेटे हज़रत इस्माईल (अलैहि०) को मिशन पर
2
लगाया। फिर अल्लाह के हुक्म से मक्का में वो घर तामीर किया जिसका नाम काबा है और
अल्लाह ही के हुक्म से वो इस मिशन का मरकज़ ठहराया गया।
(2) हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की नस्ल से दो बड़ी शाख़ाएँ निकलीं – एक, हज़रत इस्माईल
(अलैहि०) की औलाद जो अरब में रही। क़ुरै श और अरब के बाद दस
ू रे क़बीलों का ताल्लक़
ु इसी
शाख़ा से था। और जो अरब क़बीले नस्ली तौर पर हज़रत इस्माईल अस. की औलाद न थे,
लेकिन थोड़ा बहुत उनके फैलाए हुए मज़हब का असर उनके अंदर था, इसलिये वो अपना
सिलसिला उन्हीं से जोड़ते थे। दस
ू रे हज़रत इस्हाक़ (अलैहि०) की औलाद, जिनमें हज़रत याक़ूब
अस, हज़रत यस
ू फ़
ु अस, हज़रत मस
ू ा अस, हज़रत दाऊद अस, हज़रत सल
ु ैमान अस, हज़रत यहया
अस, हज़रत ईसा (अलैहि०) और बहुत-से दस
ू रे नबी (अलैहिस्सलाम) पैदा हुए। जैसा कि पहले
बयान किया जा चक
ु ा है कि हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का नाम चँकि
ू इसराईल था, इसलिये ये
नस्ल बनी-इसराईल के नाम से मशहूर हुई। उनकी तबलीग़ से जिन दस
ू री क़ौमों ने उनका दीन
क़बूल किया, वो या तो अपनी पहचान ही को ख़त्म करके उनके अंदर घुल-मिल गईं या वो नस्ली
तौर पर तो उनसे अलग रहे , मगर मज़हबी तौर पर उनके पैरोकार रहे । इसी शाखा में जब पस्ती
और गिरावट का दौर आया, तो पहले यहूदियत पैदा हुई और फिर ईसाइयत ने जन्म लिया।
(4) क़ुरआन की इस सूरह के पिछले दस रुकुओं में अल्लाह ने बनी-इसराईल के सामने उनके
सदियों के जर्मों
ु की चार्जशीट और उनकी वो मौजद
ू ा हालत जो क़ुरआन के उतरने के वक़्त थी
बिना किसी कमी-बेशी के पेश कर दी है और उनको बता दिया है कि तुम हमारी उस नेमत की
बहुत नाक़द्री कर चुके हो जो हमने तुम्हें दी थी। तुमने सिर्फ़ यही नहीं किया कि तुम्हारे ज़िम्मे
रहनुमाई का जो काम था तुमने उसका हक़ अदा करना छोड़ दिया, बल्कि ख़ुद भी हक़ और
3
सच्चाई से फिर गए, और अब बहुत ही थोड़े भले लोगों के सिवा तम्
ु हारी परू ी उम्मत में कोई
सलाहियत बाक़ी नहीं रही है ।
(5) इसके बाद अब उन्हें बताया जा रहा है कि इमामत, हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के ख़ूनी रिश्ते
(औलाद होने) की विरासत नहीं है बल्कि ये उस सच्ची बन्दगी और फ़रमाँबरदारी का फल है
जिसमें हमारे उस बन्दे ने अपनी हस्ती को गुम कर दिया था, और इसके हक़दार सिर्फ़ वो लोग
हैं, जो हज़रत इबराहीम अस के तरीक़े पर ख़ुद चलें और दनि
ु या को इस तरीक़े पर चलाने की
ख़िदमत अंजाम दें । चँ ूकि तुम इस तरीक़े से हट गए हो और इस काम की सलाहियत पूरी तरह
खो चक
ु े हो, इसलिये तम्
ु हें रहनम
ु ाई के मंसब से हटाया जाता है ।
(6) साथ ही इशारों-इशारों में ये भी बता दिया जाता है कि जो ग़ैर-इसराईली क़ौमें हज़रत मूसा
अस और ईसा (अलैहि०) के वास्ते से हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के साथ अपना ताल्लक़
ु जोड़ती
हैं, वो भी इबराहीमी तरीक़े से हटी हुई हैं , और अरब के मश
ु रिक भी, जो हज़रत इबराहीम अस
और हज़रत इस्माईल (अलैहि०) से अपने ताल्लुक़ पर फ़ख़्र (गर्व) करते हैं, सिर्फ़ नस्ल और नसब
के फ़ख़्र को लिये बैठे हैं वर्ना हज़रत इबराहीम अस व हज़रत इस्माईल (अलैहि०) के तरीक़े से
अब उनको दरू का वास्ता भी नहीं है , इसलिये उनमें से भी कोई इमामत का हक़दार नहीं है ।
(8) इमामत के मंसब में बदलाव का एलान होने के साथ ही क़ुदरती तौर पर क़िबले की बदलाव
का ऐलान भी होना ज़रूरी था। जब तक बनी-इसराईल की इमामत का दौर था, बैतुल-मक़दिस
दावत का मर्क ज़ रहा और वही हक़ की पैरवी करनेवालों का क़िबला भी रहा। ख़ुद नबी (सल्ल०)
और आपकी पैरवी करनेवाले भी उस वक्त तक बैतल
ु -मक़दिस ही को क़िबला बनाए रहे । मगर
बनी-इसराईल इस मंसब से हटा दिये गए तो बैतल
ु -मक़दिस की मर्क ज़ियत अपने आप ख़त्म हो
गई। इसलिये ये एलान किया गया कि अब वो मक़ाम अल्लाह के दीन का मर्क ज़ है , जहाँ से इस
रसूल की दावत सामने आई है । और चँ कि
ू शुरू में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की दावत का
मर्क ज़ भी यही जगह थी, इसलिये अहले-किताब और मुशरिकों, किसी के लिये भी ये मानने के
सिवा कोई चारा नहीं है कि क़िबला होने का ज़्यादा हक़ काबा ही को पहुँचता है ।
4
कुरान ऐलान करता है कि अब उम्मते मस्लि
ु मा के ज़िम्मे वो काम है जो उससे पहले बनी
इसराइल के पास था। वो इस भार को उठाने में नाकाम हो गए और अब ये जिम्मेदारी हज़रत
मुहम्मद (सल्ल) के माने वालों को दी जाती है ।
कुरान फरमाता है ,
اس َو یَ ُک ۡونَ ال َّرس ُۡو ُل َعلَ ۡی ُکمۡ َش ِہ ۡیدًا ؕ َو َما َج َع ۡلنَا ۡالقِ ۡبلَۃَ الَّتِ ۡی ُک ۡنتَ َعلَ ۡیہَ ۤا اِاَّل ۡ َ َِو َک ٰذل
ِ َّک َج َعل ٰن ُکمۡ اُ َّمۃً َّو َسطًا لِّتَ ُک ۡونُ ۡوا ُشہَدَٓا َء َعلَی الن
ؕ لِن َۡعلَ َم َم ۡن یَّتَّبِ ُع ال َّرس ُۡو َل ِم َّم ۡن ی َّۡنقَلِبُ ع َٰلی َعقِبَ ۡی ِہ....
बैतल
ु -मक़दिस से काबे की तरफ़ क़िबले का फिरने का मतलब ये है कि अल्लाह ने बनी-
इसराईल को दनि
ु या की पेशवाई के मंसब से हटा दिया और हज़रत मह
ु म्मद (सल्ल०) की उम्मत
को इस पर बिठा दिया। ‘उम्मते-वसत’ लफ़्ज़ का मतलब इतना गहरा है कि किसी दस
ू रे लफ़्ज़
से इसके तर्जमे का हक़ अदा नहीं किया जा सकता। इससे मुराद एक ऐसा ऊंचा और बेहतरीन
गिरोह है , जो अदल और इन्साफ़ और मुनासिब और दरम्यानी राह पर चलनेवाला हो, जो दनि
ु या
की क़ौमों के बीच इमामत की है सियत रखता हो। जिसका ताल्लक़
ु सबके साथ एक जैसा हक़
और सच्चाई का ताल्लुक़ हो और इंसाफ से परे ताल्लुक़ किसी से न हो।
5
इस तरह किसी शख़्स या गिरोह का इस दनि
ु या में ख़द
ु ा की तरफ़ से गवाही के मंसब पर
मुक़र्रर होना ही हक़ीक़त में उसका इमामत के मक़ाम पर बिठाया जाना है । इसमें जहाँ बल
ु ंदी
और बड़ाई है , वहीं ज़िम्मेदारी का बहुत बड़ा बोझ भी है । इसके मानी ये भी हैं कि जिस तरह
ख़ुदा की हिदायत हम तक पहुँचाने के लिये अल्लाह के रसल
ू (सल्ल०) की ज़िम्मेदारी बड़ी सख़्त
थी, उसी तरह दनि
ु या के आम इन्सानों तक इस हिदायत को पहुँचाने की बहुत सख़्त ज़िम्मेदारी
हम पर आती है । अगर हम ख़ुदा की अदालत में वाक़ई इस बात की गवाही न दे सकें कि हमने
तेरी हिदायत, जो तेरे रसूल (सल्ल०) के ज़रिए से हमको पहुँची थी, तेरे बन्दों तक पहुँचा दे ने में
कोई कोताही नहीं की है , तो हम बहुत बरु ी तरह पकड़े जाएँगे और पेशवाई का यही घमंड हमें
वहाँ ले डूबेगा। हमारी सरदारी और इमामत के दौर में हमारी लापरवाहियों की वजह से सोच और
अमल की जितनी गम
ु राहियाँ दनि
ु या में फैली हैं और जितने फ़साद और फ़ित्ने ख़द
ु ा की ज़मीन
में पैदा हुए हैं उन सबके लिये बुराई के सरदारों और इन्सान रूपी शैतानों और जिन्न रूपी
शैतानों के साथ-साथ हम भी पकड़े जाएँगे। हम से पूछा जाएगा कि जब दनि
ु या में बुराई और
ज़ुल्म और गुमराही का ये तूफ़ान बरपा था, तो तुम कहाँ मर गए थे?
किबला बदलने का एक मकसद ये भी था कि ये जान लिया जाए कौन लोग हैं जो जाहिलियत (
बत
ु परस्ती, कौमपरस्ती, वतन परस्ती, मसलक परस्ती, इंसानी कानन
ू ,रं ग, नसल,इंसानी की खद
ु ाई
वगैरह) की ग़ल
ु ामी में पड़े हैं और कौन हैं जो इन बंदिशों से आज़ाद होकर सच्चाइयों को सही
समझ पाते हैं। एक तरफ़ अरबवाले अपने वतन और नस्ल के घमण्ड में पड़े हुए थे और अरब
के काबा को छोड़कर बाहर के बैतुल-मक़दिस को क़िबला बनाना उनकी इस क़ौम-परस्ती के बुत
पर ऐसी चोट थी जिसे वो बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे। दस
ू री तरफ़ बनी-इसराईल अपनी
नस्लपरस्ती के घमण्ड में फँसे हुए थे और अपने बाप-दादों के क़िबले के सिवा किसी दस
ू रे
क़िबले को बरदाश्त करना उनके लिये मुश्किल था। ज़ाहिर है कि ये बुत जिन लोगों के दिलों में
बसे हुए हों, वो उस रास्ते पर कैसे चल सकते थे जिसकी तरफ़ अल्लाह का रसूल उन्हें बुला रहा
था। इसलिये अल्लाह ने उन बुतपरस्तों को सच्चे हक़परस्तों से अलग छाँट दे ने के लिये पहले
बैतल
ु -मक़दिस को क़िबला तय किया, ताकि जो लोग अरब वालों के बत
ु की परस्तिश करते हैं , वो
अलग हो जाएँ। फिर इस क़िबले को छोड़कर काबा को क़िबला बनाया ताकि जो इसराईलियत के
पज
ु ारी हैं, वो भी अलग हो जाएँ। इस तरह सिर्फ़ वो लोग रसल
ू के साथ रह गए जो किसी बत
ु
के पज
ु ारी न थे, सिर्फ़ अल्लाह के पुजारी थे। आगे जिम्मेदारी को और साफ बयान किया जा
रहा है ......
ہّٰلل
ِ ف َو ت َۡنہَ ۡونَ َع ِن ۡال ُم ۡن َک ِر َو تُ ۡٔو ِمنُ ۡونَ بِا
ِ اس ت َۡا ُمر ُۡونَ بِ ۡال َم ۡعر ُۡو
ِ َّ ؕ ُک ۡنتُمۡ خ َۡی َر اُ َّم ٍۃ اُ ۡخ ِر َج ۡت لِلن...
6
"अब दनि
ु या में वो बेहतरीन गिरोह तम
ु हो जिसे इनसानों की रहनम
ु ाई और सध
ु ार के लिये
मैदान में लाया गया है । तुम नेकी का हुक्म दे ते हो, बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान
रखते हो।"
अल्लाह की रस्सी से मुराद उसका दीन है और दीन को रस्सी इसलिये कहा गया है कि यही वो
रिश्ता है जो एक तरफ़ ईमानवालों का ताल्लुक़ अल्लाह से क़ायम करता है और दस
ू री तरफ़
तमाम ईमान लानेवालों को आपस में मिलाकर एक जमाअत बनाता है । इस रस्सी को ‘मज़बूत
थामने’ का मतलब ये है कि मस
ु लमानों की निगाह में असल अहमियत ‘दीन’ की है इसी से
उनको दिलचस्पी हो, इसी को क़ायम करने की वो कोशिशें करते रहें और इसी की ख़िदमत के
लिये आपस में मदद करते रहें ।
ٓ ٰ ُت ؕ و ا
ِ ک لَہُمۡ َع َذابٌ ع
۱۰۵﴿ َظ ۡی ٌم َ ِولئ َ ُ د َما َجٓا َءہُ ُم ۡالبَیِّ ٰنWِ اختَلَفُ ۡوا ِم ۡۢن بَ ۡع
ۡ ۙ﴾ َو اَل تَ ُک ۡونُ ۡوا َکالَّ ِذ ۡینَ تَفَ َّرقُ ۡوا َو
"कहीं तुम उन लोगों की तरह न हो जाना जो फ़िरक़ों और गरोहों में बँट गए और खुली-खुली
साफ़ हिदायतें पाने के बाद फिर इख़्तिलाफ़ात में पड़ गए।जिन्होंने ये रवैया अपनाया वे उस दिन
सख़्त सज़ा पाएँगे।"
7
ये इशारा उन उम्मतों की तरफ़ है जिन्होंने अल्लाह के पैग़म्बरों से दीने -हक़ की साफ़ और
सीधी तालीम पाई, मगर कुछ वक़्त गुज़र जाने के बाद दीन की बुनियाद को छोड़ दिया और ऐसे
मसलों की बनि
ु याद पर जिनका दीन से कोई ताल्लुक़ नहीं और जो मामूली और फ़ुरूई और
ग़ैर-अहम थीं, अलग-अलग फ़िरक़े बनाने शुरू कर दिये, जिनका दीन से कोई ताल्लुक़ नहीं था।
फिर फ़ुज़ल
ू और बेकार की बातों पर झगड़ने में ऐसे लगे कि न उन्हें उस काम का होश रहा जो
अल्लाह ने उनके सुपुर्द किया था और न इस्लाम के उसूलों से कोई दिलचस्पी रही जिनपर
हक़ीक़त में इनसान की कामयाबी और ख़ुशक़िस्मती का टिकी हुई है ।
जिन दो सूरतों की आयात का बयान हुआ उन दोनो सूरतों में बार बार बनी इसराइल के
करतूत बयान बयान किए गए है ताकि उम्मते मस्लि
ु म उस बर्बादी से बच सके।
अल्लाह से दआ
ु जिस अज़ीम ज़िम्मेदारी का भार हम पर डाला गया है उसको सही तरह
अंजाम दे ने वाला बना।