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सूरह फातिहा1 =01
सूरह फातिहा1 =01
सूरह फातिहा1 =01
‘फ़ातिहा’ उस चीज़ को कहते हैं जिससे किताब या किसी चीज़ की शुरूआत हो। क़ुरआन मजीद की शुरुआत इसी
सूरह से होती है लिहाज़ा इसका नाम ' अल फातिहा' है ।
सूरह के उतरने का ज़माना
ये हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत के बिल्कुल शुरूआती ज़माने की सूरह है बल्कि सबसे पहली परू ी सूरह जो
हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) पर उतरी वो यही है ।
ये सरू ह एक दआ
ु है जो ख़द
ु ा ने हर उस इंसान को सिखाई है जो उसकी किताब को पढ़ना शरू
ु कर रहा हो।
किताब के शुरू में इसको रखने का मतलब ये है कि अगर तुम सच में इस किताब से फ़ायदा उठाना चाहते हो तो
पहले अल्लाह से ये दआ
ु करो।
इंसान दआ
ु उसी चीज़ की करता है जिसकी जरूरत और तलब उसके दिल में होती है और तब ही करता है जब उसे
ये एहसास हो कि उसकी वो चीज़ जिसकी वो चाहत रखता है उस हस्ती के ही बस में है जिससे वो दआ
ु कर रहा है ।
इसलिए क़ुरआन के शरू
ु में इस दआ
ु को सिखाकर मानो इंसान को ये नसीहत की गई है कि वो इस किताब को सीधे
रास्ते की तलाश के लिए पढ़े , हक़ को हासिल करनेवाले के इरादे से पढ़े और ये जान ले कि इल्म दे ने वाला सिर्फ
अल्लाह है , इसलिए उसी से मदद की दआ
ु करके इस किताब को पढ़ना शुरू करे ।
इस चीज़ को समझ लेने के बाद ये बात ख़द
ु साफ हो जाती है कि सरू ह फ़ातिहा और बाक़ी क़ुरान के बीच रिश्ता दआ
ु
और दआ
ु के जवाब का-सा है । सूरह फ़ातिहा एक दआ
ु है बन्दे की तरफ़ से और फिर दआ
ु के जवाब में अल्लाह
उसको कुरान दे ता है कि यही है वो अकेला तरीका जिस से इंसान दोनों जहां की कामयाबी हासिल कर सकता है ।
इस्लाम जो तरीका इंसान को सिखाता है उसमें ये भी है कि वो अपने हर काम की शुरुआत ख़ुदा के नाम
से करे । इस तरीके को अगर सोच-समझकर और सच्चे दिल से किया जाए तो इससे तीन फ़ायदे हासिल
होंगे- एक ये कि आदमी बहुत से बुरे कामों से बच जाएगा, क्योंकि ख़ुदा का नाम लेने की आदत उसे हर
काम शुरू करते वक़्त ये सोचने पर मजबूर कर दे गी कि क्या हक़ीक़त में वो काम जिस पर खुदा का
नाम लिया जा रहा है इस लायक भी है कि उस पर ख़ुदा का नाम लिया जाए। दस
ू रा ये कि सही और
नेक कामों की शरु
ु आत करते हुए ख़द
ु ा का नाम लेने से आदमी का दिल और दिमाग बिलकुल ठीक रुख़
पर काम करता है जिस वजह से इंसान हमेशा सबसे सही जगह से अपने काम की शुरुआत करे गा।
तीसरा और सबसे बड़ा फ़ायदा ये है कि जब इंसान ख़ुदा के नाम से अपना काम शुरू करे गा तो उस काम
में ख़द
ु ा उसकी मदद करे गा और उस काम के करने की उसे ताक़त दे गा, उसकी कोशिश में बरकत डाली
जाएगी और शैतान की रुकावटों और बिगाड़ों से उसे बचाया जाएगा। ख़ुदा का तरीक़ा ये है कि जब बन्दा
उसकी तरफ़ ध्यान दे ता है तो वो भी बन्दे को अपनी भरपूर नेमत अता करता है ।
सूरह फ़ातिहा असल में तो एक दआ
ु है , लेकिन दआ
ु की शुरुआत उस हस्ती की तारीफ़ से की जा रही
है जिससे हम दआ
ु माँगना चाहते हैं। इसमें मानो ये बात सिखाई जा रही है कि दआ
ु जब माँगो तो अदब
से माँगो। ये कोई अच्छी बात नहीं है कि मँह
ु खोलते ही झट अपना मतलब पेश कर दिया। जिससे दआ
ु
कर रहे हो पहले उसकी ख़ूबी को बयान करो और उसके एहसानों को मानों। जब हम किसी की तारीफ
करते है तो दो वजह से करते है ;पहला ये कि जिसकी तारीफ की जा रही है वो खुद ही बहुत ज़्यादा
कमाल की होती है ।
दस
ू रा ये कि उस हस्ती के हम पर बहुत एहसान हो और हम शुक्र के जज़्बे से लबरे ज़ होकर उसकी
ख़बि
ू याँ बयान करें । अल्लाह की तारीफ़ इन दोनों है सियतों से है । यही इस सरू ह की तालीम है की हमारी
ज़बान हर वक़्त उसकी तारीफ़ और शुक्र बयान करने में लगी रहे । और बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि
तारीफ़ अल्लाह के लिए है बल्कि सही बात ये है कि तारीफ़ ‘अल्लाह ही के लिए’ है । ये बात कहकर एक
बड़ी हक़ीक़त पर से पर्दा उठाया गया है और वो हक़ीक़त ऐसी है जिसकी पहली ही चोट से मख़लक़
ू -
परस्ती ( पेड़, पत्थर, सूरज, जानवर वगैरह के आगे झुकना) की जड़ कट जाती है । दनि
ु या में जिस चीज़ में
भी कोई ख़ूबी है तो उसको वुजूद में लाने वाला अल्लाह ही है । किसी इंसान, किसी फ़रिश्ते, किसी दे वता,
किसी सितारे यानी किसी भी मख़लूक़ का कमाल भी उसका अपना नहीं है , बल्कि अल्लाह का दिया हुआ
है । इसलिए अगर कोई इसका हक़दार है कि हम उसकी तारीफ करें तो वो खुदा ही है जिसने ये सब
बनाया।
‘रब्ब’ (रब) का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में तीन मतलब अदा करने के लिए बोला जाता है -
जब कोई चीज़ इंसान की निगाह में बहुत ज़्यादा होती है , तो उसको वो ऐसे अदा करने की कोशिश करता
है जिससे उस चीज़ की बड़ाई का अंदाज़ा लगाया जा सके। अगर एक लफ़्ज़ बोलकर वो महसूस करता है
कि उस चीज़ का हक़ अदा नहीं हुआ, तो फिर वो उसी जैसा एक और लफ़्ज़ बोलता है , ताकि वो कमी परू ी
हो जाए। किसी के रं ग की तारीफ करते है तो गोरा बोलकर बस नहीं किया जाता बल्कि ज़्यादा गोरे पन
को बयान करने के लिए गोरा चिट्ठा बोला जाता है ।
अल्लाह की तारीफ़ में ‘रहमान' यानी मेहरबान का लफ़्ज़ इस्तेमाल करने के बाद फिर ‘रहीम’ का लफ़्ज़
बढ़ा दे ने में भी यही बात छिपी हुई है । ‘रहमान’ अरबी ज़बान में बहुत ही मेहरबान के लिए इस्तेमाल
होता है , लेकिन अल्लाह की रहमत और मेहरबानी इतनी ज़्यादा है , इतनी फैली हुई है और ऐसी बेहिसाब
है कि उसके बयान में बड़े से बड़ा लफ्ज़ बोलकर भी जी नहीं भरता और रहमान के बाद रहीम भी बोला
जाता है । उसकी मिसाल ऐसी है जैसे हम किसी के ज़्यादा लम्बे क़द का ज़िक्र करते हैं और ‘लम्बा’
कहने से तसल्ली नहीं होती तो उसके बाद ‘तड़ंगा’ भी कहते हैं।
अल्लाह उस दिन का मालिक है जब तमाम अगली-पिछली नस्लों को जमा करके उनकी ज़िन्दगी के
कारनामों का हिसाब लिया जाएगा और हर इंसान को उसकी हर नियत और हर काम का परू ा बदला
मिल जाएगा। अल्लाह की तारीफ़ में रहमान और रहीम कहने के बाद बदला दिये जाने के दिन का
मालिक कहने से ये बात निकलती है कि वो ख़ाली रहम करने वाला ही नहीं है , बल्कि पूरी तरह इंसाफ
करने वाला भी है और साथ ही अपने फैसले को लागू करने की भी पूरी ताक़त रखता है । अगर वो किसी
को सज़ा दे ना चाहे गा तो कोई भी उसमें रुकावट न बन सकेगा और इसी तरह अगर वो किसी को इनाम
दे ना चाहे गा तो कोई भी उसमें रुकावट न बन सकेगा। इसलिए हम उसके रब होने और उसकी रहमत की
वजह से उससे मुहब्बत ही नहीं करते है , बल्कि उसके इंसाफ की वजह से उससे डरते भी हैं। और ये
एहसास भी रखते हैं कि हमारे भलाई और बुराई के फैसले परू े तौर पर उसी की कुदरत में है ।
इबादत का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में तीन मतलब को बयान करने में इस्तेमाल होता है -
(1) पज
ू ा और परस्तिश,
(2) इताअत और फ़रमाँबरदारी
(3) बंदगी और ग़ल
ु ामी।
इस जगह पर ये तीनों मतलब मरु ाद हैं। यानी हम अल्लाह को पज
ू ने वाले भी हैं और साथ ही उसके
फ़रमाँबरदार और बन्दे व ग़ल
ु ाम भी है । और बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि हम अल्लाह के साथ ये
ताल्लुक़ रखते हैं बल्कि सिर्फ़ अल्लाह ही के साथ ये ताल्लुक़ रखते हैं। यानी अल्लाह का कोई साझीदार
नहीं है । और अल्लाह के साथ हमारा रिश्ता सिर्फ़ इबादत का ही नहीं है , बल्कि मदद चाहने और मदद
लेने का रिश्ता भी हम अल्लाह ही के साथ रखते हैं। हमें मालूम है कि सारे जहान का रब अल्लाह ही है
और सारी ताक़तें उसके ही हाथ में हैं। सारी नेमतों का अल्लाह ही अकेला मालिक है । इसलिए हम अपनी
ज़रूरतों में उसी की तरफ़ ही पलटते हैं, उसके ही आगे हमारा हाथ फैलता है और उसकी मदद ही पर
हमारा भरोसा है । इसी वजह से हम अपनी ये दरख्वास्त और ज़रूरत लेकर सिर्फ अल्लाह ही की ख़िदमत
में हाज़िर हो रहे हैं।
जिसमें ग़लत दे खने और ग़लत करने और बुरे अंजाम का ख़तरा न हो, जिसपर चलकर हम सच्ची
कामयाबी और ख़ुशनसीबी हासिल कर सकें। – ये है वो दरख्वास्त जो क़ुरआन शुरू करते हुए बंदा अपने
ख़ुदा के सामने पेश करता है । उसकी गुज़ारिश ये है कि अल्लाह उसकी रहनुमाई करें और बताएँ कि
दनि
ु या के इस भूल-भुलैयों में और टे ढ़े मेढे रास्तों में सीधा रास्ता कौन सा है ।
इस सूरत में पूरे दीन का मकसद बताया गया है । पूरा कुरान इसी की तफसीर है । ये खुदा के बारे में
तालीम दे ती है और उसकी कुदरत और हुकूमत का इल्म दे ती है । और ये बताती है कि किस रास्ते पर
कामयाब लोग चला करते हैं। नमाज़ में भी ये सूरह बार बार पढ़ी जाती है ताकि बंदे को याद रहे कि वो
बेवजह नहीं पैदा किया गया है बल्कि उसकी ज़िन्दगी का एक मकसद है । सूरह फातिहा एलान करती है
की इंसान का ये काम नहीं है कि बस रोटी, कपड़ा, मकान और जिस्म की दस
ू री ज़रूरतों को परू ा करने में
लगा रहे और जिस तरह चाहे , हलाल हराम की तमीज किए बिना ज़िन्दगी गुज़ार कर दे और मनमानी
करे । बल्कि इंसान को तो हर दम इससे खबरदार रहना चाहिए कि इस ज़िन्दगी के बाद भी एक ज़िन्दगी
है और उस रोज़ हिसाब किताब खोला जाएगा और पछ
ू ा जाएगा कि क्या कुछ वो दनि
ु या में करता रहा
है । जिसने क़ुरान और सुन्नत के हिसाब से ज़िन्दगी बसर की होगी वहीं उस दिन कामयाब होगा।
अल्लाह का जो फैसला होगा बस वही लागू होकर रहे गा। सारी छूट और मोहलत खत्म कर दी जाएगी।
लिहाज़ा अकल का काम यही है कि हम इस ज़िन्दगी में मस्लि
ु म होने के अलावा अपनी हर है सियत को
मिटा दें । निज़ात सिर्फ तभी मुमकिन होगी जब ज़िन्दगी के हर पल पर कुरान और सुन्नत की हुकूमत
हो। और जब सारे फैसले कुरान और हज़रत मुहम्मद (सल्ल) को सामने रखकर किए जाए और उनके
मुक़ाबले में हर तरीके को ठोकर मार दी जाए। क़ुरआन के नजदीक यही कामयाबी का तरीका है ।