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Surahtul Nisa'a 04
Surahtul Nisa'a 04
उतरने का ज़माना
इस सूराह में बहुत से ख़ुत्बे (तक़रीरें ) हैं जो शायद सन 3 हिजरी के आख़िर से लेकर 4 हिजरी के आख़िर या 5 हिजरी
के शुरू तक अलग-अलग वक़्तों में उतरे हैं। हालाँकि यह तय करना मुश्किल है कि किस आयत से किस किस आयत
तक की आयतें एक तक़रीर के सिलसिले के तौर पर उतरी थीं और उनके उतरने का ठीक ज़माना क्या है ले किन कुछ
हुक्मों और वाक़िआत की तरफ़ कुछ इशारे ऐसे हैं जिनके उतरने की तारीख़ें हमें रिवायतों से मालूम हो जाती हैं।
इसलिए इनकी मदद से हम उन अलग-अलग तक़रीरों की एक सरसरी सी हदबन्दी कर सकते हैं जिनमें ये हुक्म और
ये इशारे पाए जाते हैं।
मिसाल के तौर पर हमें मालूम है कि विरासत के बँटवारे और यतीमों के हुक़ूक़ के बारे में हिदायतें उहुद की जंग के
बाद उतरी थीं, जबकि मुसलमानों के सत्तर आदमी शहीद हो गए थे और मदीना की छोटी-सी बस्ती में इस हादसे की
वजह से बहुत-से घरों में यह सवाल पैदा हो गया था कि शहीदों की मीरास किस तरह बाँटी जाए, और जो यतीम बच्चे
उन्होंने छोड़े हैं उनके फ़ायदों और भलाइयों की हिफ़ाज़त कैसे हो? इस बुनियाद पर हम गुमान कर सकते हैं कि
आयत-1 से 28 उसी ज़माने में उतरी होंगी।
रिवायतों में ‘सलाते-ख़ौफ़’ (जंग की हालत में नमाज़ पढ़ने) का बयान हमें ‘ज़ातुर्रि क़ाअ’ की जंग में मिलता है , जो सन
04 हिजरी में हुई। इसलिए अन्दाज़ा किया जा सकता है कि इसी के क़रीब के ज़माने में वह ख़ुत्बा उतरा होगा जिसमें
इस नमाज़ का तरीक़ा और तरतीब बयान की गई है । (आयत-97 से 104)
(एक यहूदी क़बीले) बनी-नज़ीर को माह रबीउल-अव्वल सन 04 हिजरी में मदीना से निकला गया था। इसलिए ज़्यादा
उम्मीद इस बात की है कि वह ख़ुत्बा इससे पहले क़रीबी ज़माने ही में उतरा होगा, जिसमें यहूदियों को आख़िरी
चेतावनी दी गई है कि ‘ईमान ले आओ, इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें ।’
पानी न मिलने पर तयम्मुम की इजाज़त बनू-मुस्तलिक़ की लड़ाई के मौक़े पर दी गई थी जो सन 05 हिजरी में हुई।
इसलिए उस ख़ुत्बे को, जिसमें तयम्मुम का बयान आया है , उसी ज़माने के क़रीब ही में उतरा हुआ समझना चाहिए।
(आयत-43 से 50)
शाने-नज़
ु ल
ू और बहसें
नबी (सल्ल.) के सामने उस वक़्त जो काम था उसे तीन बड़े -बड़े हिस्सों में बाँटा जा सकता है । एक, उस नई मन
ु ज़्ज़म
इस्लामी सोसाइटी की तरक़्क़ी और उसका फलना-फूलना जिसकी बनि
ु याद मदीना और उसके आस-पास के इलाक़ों में
हिजरत के साथ ही पड़ चुकी थी और जिसमें जाहिलियत के परु ाने तरीक़ों को मिटाकर अख़लाक़, तमद्दुन, मुआशरत (,
मईशत और मुल्क को चलाने की स्कीमों और तदबीरों के नए उसूल लागू किए जा रहे थे। दस
ू रे उस
1
कश-म-कश का मुक़ाबला जो अरब के मुशरिकों, यहूदी क़बीलों और मुनाफ़िक़ों की इस्लाह-मुख़ालिफ़ ताक़तों के साथ परू े
ज़ोर-शोर से जारी थी। तीसरे , राह में रुकावट बनीं इन ताक़तों में इस्लाम के पैग़ाम को न सिर्फ़ फैलाना, बल्कि लोगों
के दिलों को और ज़्यादा जीतना। अल्लाह की तरफ़ से इस मौक़े पर जितने ख़ुत्बे उतारे गए उन सबका ताल्लुक़ इन्हीं
तीन हिस्सों से है ।
इस्लामी सोसाइटी को संगठित करने के लिए सूरा-2 बक़रा में जो हिदायतें दी गई थीं, अब इस सोसाइटी को उससे
ज़्यादा हिदायतों की ज़रूरत थी। इसलिए सरू ा निसा के इन ख़त्ु बों में ज़्यादा तफ़सील से बताया गया कि मस
ु लमान
आपनी इज्तिमाई ज़िन्दगी को इस्लामी तरीक़े पर किस तरह ठीक करें । ख़ानदान को मन
ु ज़्ज़म करने के उसल
ू बताए
गए। निकाह की तादाद तय की गई। समाज में औरत और मर्द के ताल्लक़
ु ात की हद मक़
ु र्रर की गई। माली मामलों
को ठीक रखने के लिए हिदायतें दी गईं। शराब पीने पर पाबन्दी लगाई गई। सफ़ाई और पाकी के आदे श दिए गए।
मस
ु लमानों को बताया गया कि एक नेक और भले इनसान का रवैया ख़द
ु ा और बन्दों के साथ कैसा होना चाहिए।
मस
ु लमानों को हिदायतें दी गईं कि वे अपने अन्दर एक जमाअत के तौर पर नज़्म और ज़ब्त ( Discipline) क़ायम
रखें।
इस्लाह और सध
ु ार की मख़
ु ालिफ़ ताक़तों से जो कश-म-कश चल रही थी उसने उहुद की जंग के बाद ज़्यादा संगीन
शक्ल इख़्तियार कर ली थी। मस
ु लमानों के उहुद की जंग हार जाने से मदीना के आस-पास के मश
ु रिक क़बीलों, पड़ोस
के यहूदियों और घर के मन
ु ाफ़िक़ों की हिम्मतें बढ़ गई थीं और मस
ु लमान हर तरफ़ से ख़तरों में घिर गए थे। इन
हालात में अल्लाह ने एक तरफ़ जोशीली तक़रीरों के ज़रिए से मस
ु लमानों को मक़
ु ाबले के लिए उभारा और दस
ू री
तरफ़ जंग की हालत में काम करने के लिए उन्हें बहुत-सी ज़रूरी हिदायतें दीं। मदीना में मन
ु ाफ़िक़ और कमज़ोर
ईमान के लोग हर तरह की ख़ौफ़नाक अफ़वाहें उड़ाकर मस
ु लमानों के क़दम उखाड़ने की कोशिश कर रहे थे। हुक्म
दिया गया कि इस तरह की हर ख़बर ज़िम्मेदार लोगों तक पहुँचाई जाए और जब तक वे किसी ख़बर की तहक़ीक़
और छान-बीन न कर लें उसको फैलने से रोका जाए।
मुसलमानों को बार-बार जंगों में जाना पड़ता था और ज़्यादातर ऐसे रास्तों से गुज़रना पड़ता था जहाँ पानी नहीं मिल
सकता था। इजाज़त दी गई कि पानी न मिले तो ग़स्
ु ल और वुज़ू दोनों के बजाय ‘तयम्मुम’ कर लिया जाए। साथ ही,
ऐसी हालत में नमाज़ को छोटी करने की भी इजाज़त दे दी गई और जहाँ ख़तरा सर पर हो, वहाँ सलाते-ख़ौफ़ (ख़तरा
महसूस होने की हालत में नमाज़) अदा करने का तरीक़ा बताया गया। अरब के अलग-अलग इलाक़ों में जो मुसलमान
दश्ु मन क़बीलों के बीच में बिखरे हुए थे और कभी-कभी जंग की लपेट में भी आ जाते थे उनका मामला मुसलमानों
के लिए बड़ा ही सख़्त और परे शान करनेवाला था। इस मसले में एक तरफ़ इस्लामी जमाअत को तफ़सीली हिदायतें
दी गईं और दस
ू री तरफ़ उन मुसलमानों को भी हिजरत पर उभारा गया कि वे हर तरफ़ से सिमट कर दारुल-इस्लाम
में आ जाएँ।
यहूदियों में से बनी-नज़ीर का रवैया ख़ास तौर से बहुत ही सख़्त दश्ु मनी का हो गया था और वे मुआहिदों (सन्धियों)
को तोड़कर खुल्लम-खुल्ला इस्लाम-दश्ु मनों का साथ दे रहे थे और ख़ुद मदीना में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.)
2
और आपकी जमाअत के ख़िलाफ़ साज़िशों के जाल बिछा रहे थे। उनके इस रवैये पर सख़्त पकड़ की गई और उन्हें
साफ़ लफ़्ज़ों में आख़िरी चेतावनी दे दी गई। इसके बाद ही मदीना से उन्हें निकाल दिया गया।
मुनाफ़िक़ों के अलग-अलग गरोह ने अलग-अलग रवैये अपनाए हुए थे और मुसलमानों के लिए यह फ़ैसला करना
मुश्किल था कि किस तरह के मन
ु ाफ़िक़ों से क्या मामला करें । इन सब लोगों को अलग-अलग तबक़ों में बाँटकर हर
तबक़े के मन
ु ाफ़िक़ों के बारे में बता दिया गया कि उनके साथ यह बर्ताव होना चाहिए। ऐसे ग़ैर-जानिबदार क़बीलों के
साथ, जिनके साथ समझौते हुए थे, जो रवैया मस
ु लमानों का होना चाहिए था उसको भी वाज़ेह किया गया।
(इस्लाम की) दावत और तबलीग़ का पहलू भी इस सरू ा में छूटने नहीं पाया है । जाहिलियत के मक़
ु ाबले में इस्लाम
जिस अख़लाक़ी और तमद्दुनी सध
ु ार की तरफ़ दनि
ु या को बल
ु ा रहा था उसको वाज़ेह करने के अलावा यहूदियों, ईसाइयों
और मश
ु रिकों, तीनों गरोहों के ग़लत दीनी अक़ीदों और बरु े अख़लाक़ और आमाल पर भी इस सरू ा में तनक़ीद करके
उनको दीने-हक़ की तरफ़ दावत दी गई है ।
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