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प्राचीन भारतीय संस्कार, पुरुषार्थ एव आश्रम व्यवस्थाः एक ऐतिहासिक अध्ययन

अध्याय-1

संस्कार का अर्थ उद्देश्य, प्रकार एवं महत्व

भारतीय समाज की अपनी कुछ विशिष्ट परम्परा रही है जो विश्व के किसी

दस
ू रे समाज में प्राप्त नही होती इसका कारण यह है कि जहाँ हमने आध्यात्मिकता

पर बल दिया है वही दस
ू रे दे शो में भौतिकता को प्रधान माना गया है । हमारे प्राचीन

ऋषि दार्शनिक के साथ-साथ वैज्ञानिक भी थे, उन्होने जीवन को जन्म के पूर्व से लेकर

मरणोपरान्त तक जीवन को संस्कारो की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया के साथ इस प्रकार

अविच्छिन्न रुप से जोड़ दिया ताकि मनुष्य का वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास हो,

दै हिक एवं भौतिक जीवन सर्वागीण उन्नति तथा पारलौकिक जीवन में मोक्ष की प्राप्ति

हो सके। संस्कारो की व्यवस्था के पीछे प्रमुखतः दो उद्देश्य रहे है -पहला व्यक्ति में

माता-पिता के वीर्य, रक्त, भ्रूण एवं गर्भाशय से उत्पन्न दोषों एवं सामाजिक सम्पर्क से

उत्पन्न दोषो का समय-समय निवारण करना, दस


ू रा संस्कारो के माध्यम से व्यक्ति में

स्वस्थ सामाजिक एवं धर्ममय जीवन व्यतीत करने हे तु अपेक्षित गण


ु ो का विकास

करना। इस प्रकार संस्कार वे धार्मिक कृत्य अथवा अनुष्ठान है जिनके द्वारा व्यक्ति

में उत्पन्न स्वभाविक दोषो को दरू करके आवश्यक सद्गुणो का विकसित किया जाये।

संस्कारो को सम्पादित करने का उद्देश्य सामान्यतः शुद्धि अथवा स्वच्छता से है । इसका

प्रयोग विधिवत शद्धि


ु , शिक्षा, प्रशिक्षण, परिष्करण, आभष
ू ण, शोभा, स्वभाव, स्मरण शक्ति,
धार्मिक विधि विधान, विचार भावना, धारणा आदि अनेक अर्थो में किया जाता है ।

संस्कार शब्द ^कृअ^ धातु में ^ध^ प्रत्यय के योग से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ शुद्धता

अथवा पवित्रता से है । अंग्रेजी का ^सेक्रामें ण्ट^ शब्द संस्कार के लिए प्रयक्


ु त किया

जाता है जिसका अर्थ है धार्मिक विधान। मीमांशा के अन्तर्गत इसका अर्थ विधिवत

शुद्धि से है तथा अद्धेत वेदान्ती भाव से इसका सम्बन्ध आत्म व्यजन शान्ति से है ।

डा0 राजबली पाण्डेय ने संस्कार की परिभाषा करते हुये कहा है कि इसका अभिप्राय

शुद्धि की धार्मिक क्रियायों तथा व्यक्ति के दै हिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कार के

लिए किये जाने वाले अनुष्ठानो से है जिससे वह समाज का पूर्ण विकासिक सदस्य हो

सके।1 इसी प्रकार शंकर भाष्य में ^संस्कारो हि नाम गण


ु ाधानेन वा स्याद दोषापनयनेय

वा2 अर्थात जिन प्रकियायो से गुणो का आधान तथा दोषो का अपनयन हो उसे संस्कार

कहते है के अर्थ मे किया है ।

इस प्रकार संस्कार शब्द भष


ू णार्थक है और इसका व्यत्ू पत्तिलभ्य अर्थ हुआ-

परिष्कार, मनोभाव या स्वभाव का शोधन। वस्तुतः जिस प्रकार एक स्पर्णकार भणि को

निरवारकर कटक-कुण्डल प्रभति


ृ मनोवान्छित आभूषण निर्मित कर लेता है हे मकार

प्रकृतलभ्य मणि के रुवरुप में परिवर्तन का प्रयास करता है उसी प्रकार व्यक्ति के

पुर्वजन्म एवं वंशानुंक्रम से प्राप्त दर्गु


ु णो को निकालकर उसमे सद्गुण स्थापना के

प्रयत्न को वैदिक विचारधारा में संस्कार कहा गया है ।

1- हिन्दू संस्कार , डा0 राजबली पाण्डेय, प0ृ -19


2- शंकर भाष्य , वेदान्त सूत्र, 114

(संस्कार का उद्देश्य बाद में )

सामान्यतः संस्कारो के दो पक्ष है - सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक। व्यावहारिक पक्ष दे श

काल की प्रवत्ति
ृ यो के अनुसार परिर्वतित हो सकता है परन्तु सिद्धान्त वही रहता है ।

प्राचीन काल मे संस्कार का अनुष्ठान वैदिक मंत्रो के साथ किया जाता था, आज इष्ट-

मित्रो को आमन्त्रित करके या अधिक से अधिक कुछ पज


ू ा पाठ करके ही संस्कार पूरा

कर लिया जाता है हम यहा संस्कारो के व्यवहारिक पक्ष की अपेक्षा उसके सैद्धान्तिक

पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयास अधिक करे गे जिससे उपयक्


ु त कार्यो का तर्क संगत

औचित्य प्रस्तुत किया जा सके।

संस्कारो के प्रकार

संस्कारो का उदय वैदिक युग में ही हो गया था ऐसा वेदो के कर्मकाण्डीय सूत्रो

से ज्ञात होता है परन्तु संस्कार शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में नही मिलता। इसी

प्रकार वैदिक साहित्य के बाद czkã.k ग्रन्थो में भी उपनयन, अन्त्येष्ठि आदि संस्कारो

के अंगो का वर्णन मिलता है परन्तु संस्कार नामक शब्द उपलब्ध नही है । संस्कारो का

सविस्तार वर्णन x`ãlw= तथा स्मति


ृ ग्रन्थो में हुआ है । उपलब्ध साहित्यो में संस्कारो

की संख्या 10 से 40 तक दे खी जा सकती है । इस प्रकार संस्कारो की संख्या में परस्पर

मतभेद बहुत मिलता है । हिरण्यकेशि तथा कौशिक x`ãlw= में संस्कारो की संख्या 10

मानी गई है वही पारस्कर और बौधायन ने तेरह संस्कारो का उल्लेख किया है , परन्तु


इन विचारको ने संस्कार की अपना तालिका में सर्वप्रथम स्थान विवाह को ही दिया है

जो सैद्धान्तिक रुप से अनुचित प्रतीत होता है क्योकि भारतीय परिवार में संस्कार तो

बालक के गर्भ में आने के पहले से ही उसके साथ जड़


ु ा होता है और उसके मरने के

बाद तक चलता रहता है । वैखानस इस क्रम में समचि


ु त प्रतीत होता है क्योकि वह

ऋतुसंगम के समय से ही संस्कार की गणना प्रारम्भ करता है इस साहित्य में संस्कारो

की संख्या 18 बताई गई। इसी प्रकार अश्वलायन x`ãlw=, खादिर एवं जैमिनि मे 11,

कौषीतकि, आपस्तम्ब और गोभिल x`ãlw= में 12, मनुस्मति


ृ में 13 एवं गौतम ने इनकी

संख्या 40 दी है (इनमे आठ आत्मगुण भी सम्मिलित है )। याज्ञवल्क्य स्मति


ृ में केशान्त

को छोड़कर मनु द्वारा वर्णित शेष बारह संस्कारो का विधान है । संख्या सम्बन्धित

मतैक्य न दिखायी दे ने पर भी प्रायः सभी धर्मशास्त्रकार संस्कारो की संख्या 16 मानते

है जो निम्न है - (1) गर्भाधान (2) पुंसवन (3) सीमन्तोन्नयन (4) जातकर्म (5) नामकरण (6)

निष्क्रमण (7) अन्नप्राशन (8) चूड़ाकर्म(मूण्डन) (9) कर्णवेध (10) विधारम्भ (11) उपनयन (12)

वेदारम्भ, (13) केशान्त (14) समावर्तन (15) विवाह (16) अन्त्येष्टि।

ये संस्कार व्यक्ति के जन्म के पूर्व से लेकर उसके मत्ृ यु के बाद तक

सम्पन्न होते है । इसमें प्रथम तीन संस्कार जन्म के पूर्व के है उसके बाद के छः

संस्कार बाल्यावस्था में सम्पन्न किये जाते है (4 से 9 तक) आगे के पाँच (10 से 14 तक)

शैक्षणिक संस्कार है तथा मत्ृ यु के बाद अन्त्येष्टि संस्कार का विधान है ।


1. गर्भाधान संस्कार

गर्भाधान का अर्थ है - गर्भ का आधान, गर्भ स्थापित करना। इसे निषेक भी

कहते है । यह हिन्द ू समाज में किये जाने वाला प्रथम संस्कार है । इस संस्कार का

प्रचलन वैदिक काल से है । अथर्ववेद से पता चलता है कि इस संस्कार का सम्बन्ध

संतान की कामना द्वारा स्त्री के गर्भ में पुरूष द्वारा संतान के बीजारोपन से है । इस

प्रकार विवाहोपरान्त (सन्तान की कामना से) जिस कर्म द्वारा गर्भ धारण किया जाय

उसे गर्भाधान कहा जाता है - “गर्भ सन्धार्यते येन कर्मणा तद ू गर्भाधानमित्यनग


ु तार्थ

कर्म नामधेयम।”1

पार्सकर और सांख्यायन x`ãlw= में बताया गया है कि स्त्री के रजस्वला

होने के चौथे दिन के उपरान्त पाँचवे दिन स्नान करने के पश्चात ^आदित्व गर्भमिति^

मन्त्र से आहुति दे ते हुये हवन करना चाहिए। शास्त्रो में गर्भाधान के लिए शभ
ु नक्षत्र

तथा तिथियो का भी वर्णन है । इस सम्बन्ध में कहा गया है कि विवाह की चौथी रात्रि

को यह संस्कार करना चाहिए उसमें भी अर्द्धरात्रि और उसके बाद का समय ही अधिक

उपयुक्त बताया गया है ।

ऐसी धारणा है कि जो दिन में यह संस्कार करता है तो उसको दर्गु


ु णी पुत्र की

प्राप्ति होती है । मनु के अनुसार अष्टमी, चतुर्द शी, अमावस्था तथा पर्णि
ू मा को गर्भाधान

का निषेध माना है । सभी पर्वो की रात्री भी इसी प्रकार अनुपयुक्त बतायी गई है ।


पूर्वमीमांसा1.4.2.

इस संस्कार को प्राचीन धर्मशास्त्रो द्वारा एक महत्वपर्ण


ू कर्तव्य माना गया है ।

मनु ने कहा है कि अपनी पत्नी के प्रति सत्यव्रती रहते हुये पुरुष का धर्म है कि ऋतु

काल में उसके समीप जाय पाराशर ने यहा तक कहा है कि जो ऐसा नही करता

czkã हत्या का भागी है 1

गर्भ को सदै व के लिए पवित्र करने के लिए इस संस्कार को करना अनिवार्य था।

अलबरुनी ने इस गर्भाधान संस्कार का उल्लेख करते हुये लिखा है कि सन्तान प्राप्ति

के लिए किये गये सम्भोग से पर्व


ू यज्ञ करना अपेक्षित था।2 संस्कार प्रकाश के अनुसार

इस संस्कार को छोड़कर अन्य सभी संस्कार कोई भी सम्बन्धी पति की अनप


ु स्थित

रहने पर कर सकता है । स्मति


ृ चन्द्रिका के अनस
ु ार प्रथम गर्भाधान के होने पर इस

संस्कार का सम्पादन x`g.kh में होम }kjk होना चाहिए इसके बाद के गर्भाधान के

सम्बन्ध मे होम नही होता।

2. पस
ु ंवन संस्कार

सोलह संस्कारो के अन्तर्गत यह दस


ू रा संस्कार है । गर्भ ठहर जाने पर भावी माता

के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन भाव सभी को उत्तम बनाने का प्रयास किया जाय

उसके लिए अनक


ु ू ल वातावरण भी निर्मित किया जाय। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत

पुसव
ं न संस्कार सम्पन्न कराये जाने की व्यवस्था की गई है क्योकि इस समय तक

गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारं म्भ हो जाता है ।


1. पाराशर स्मति
ृ 5.15-

2. ग्यारहवी सदी का भारत प ृ 219

अश्वलायन x`ãlw= में कहा गया है कि वह कर्म पुसव


ं न माना जाता है जिसके

करने से गर्भिणी पुरुष संतान को ही उत्पन्न करे ।1 याज्ञवल्क्य इसे पुत्र के लिए किये

गया यज्ञ- पंस


ु ः सवनम ् कहते है ।2 वायु परु ाण से भी पता चलता है कि तेजस्वी पत्र
ु की

प्राप्ति हे तु यह संस्कार होता था। कभी कभी यह संस्कार गर्भधारण के दो माह

उपरान्त से लेकर आठवे मास के बीच सम्पन्न होता था। जब चन्द्रमा पुरुष नक्षत्र में

स्थित होता था तब यह संस्कार पुत्र के मंगलकारी होने के लिए किया जाता था।

काठक x`ãlw= गर्भाधान के पाँचवे तथा मानव x`ãlw= आठवे मास के

उपरान्त इसके करने का निर्देश दे ता है ।

इस संस्कार का उद्देश्य गर्भ रक्षक करने वाले दे वी और दे वताओ को प्रसन्न

करना है । इसके अन्तर्गत वंश परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र की कामना की

जाती है । इस संसार में रात्रि के पहर गर्भवती स्त्री की नाक के दाहिने छे द में बरगद

की छाल का रस डाला जाता है जिससे की गर्भपात की सम्भावना का निराकरण किया

जा सके।

इस प्रकार पंस
ु वन संस्कार गर्भ के समचि
ु त शारीरिक विकास की ओर माता पिता का

ध्यान आकृष्ट करने के लिए किया जाता है । इसमें अन्तर्हित मूल धारणा यह है कि यदि
गर्भिणी की कोई अंग रुग्ण है तो गर्भस्त शिशु का भी वह अंग प्रभावित होगा। अतएव

गर्भिणी को पर्याप्त सावधानी रखने के लिए सचेष्ट किया जाता है ।

1. अश्वलायन गह्
ृ नसुत्र (14.9)
2. याज्ञवल्क्य स्मति
ृ (1.11)

(3) सीमन्तोन्नय

सीमन्तोन्नय को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते है ।

सीमन्तोन्यन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ -साथ

गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है । इस

संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रशन्न रखने के लिए सौभाग्यवती स्त्रियाँ

गर्भावती की माँग भरती है ।

यह संस्कार गर्भ के चौथे मास में सम्पन्न किया जाता है -

‘चतर्थे
ु मासे सीमन्तोन्नयनमापर्य
ू माणपक्षै यदा पंस
ु ा नक्षत्रे चन्द्रमा यक्
ु त
स्यात ्’।1

इसमें स्त्री के केशों (सीमान्त) को ऊपर उठाया जाता है । ऐसी अवधारणा थी कि गर्भवती

स्त्री के शरीर को दष्ु ट आत्मायें विभिन्न प्रकार की बाधा पहुँचाती है जिनके निवारण

के निमित्त कुछ धार्मिक कृत्य किये जाने चाहिए। इसलिए इस संस्कार का विधान

किया गया जिससे गर्भवती स्त्री की समद्धि


ृ तथा भ्रुण के दीर्घायु की कामना की जाती

है । जिस दिन यह संस्कार होता है उस दिन स्त्री व्रत रखती है तथा पुरुष मातप
ृ ूजा

करता है और इसके साथ-साथ प्रजापति दे वताओ की आहुतियाँ दी जाती है । पूजन


विधि में वह प्रतीक रुप में तीन ग्रन्थो और सफेद चिन्ह वाले शाही के तीन काँटे भी

रखा जाता जिससे दष्ु ट शक्तिया गर्भिणी स्त्री से दरू रह सके।

वेद मन्त्रो के उच्चारण के साथ संस्कार सम्पन्न कराया जाता है । ऐसे समय

गर्भिणी स्त्री खिचड़ी की आहूति दे ती और उसी को खाती। उपस्थित वद्ध


ृ ायें और श्रेष्ठ

स्त्रियाँ उसे वीर पुत्र जन्म दे ने वाली कहकर आर्शीवाद दे ती है । पुराणो में कहा गया है

कि गह्
ृ स्थ को प्रयत्नशील होकर यह संस्कार करते समय नान्दी मख
ु पितरो की पज
ू ा

करनी चाहिए।

सीमन्तोन्णयने चैव पुत्रदिमुखदर्शने।

नान्दीमुख पितग
ृ ण्र पज
ू येत्पयतो गह
ृ ी ।।1

विष्णु पुराण 3-3-6

(4) जातकर्म संस्कार


हिन्द ू धर्म में सोलह संस्कारों के अन्तर्गत जातकर्म संस्कार चतुर्थ संस्कार है ।

शिशु का जन्मकाल ही इस संस्कार का समय है । यह संस्कार नाभिच्छे दन के पूर्व

किया जाता है ।

‘जातस्य कुमारस्याच्छिन्नाया नाड्या मेघजननायुष्ये करोति’। 1

आश्वलायन x`ãlw= के अनुसार जबतक इस नवजात शिशु को माँ और दाई, जो प्रशव

के समय वहाँ उपस्थित रहती है , के अतिरिक्त कोई और न हो तभी यह संस्कार करना

चाहिए।2

सन्तान के जन्म के समय किये जाने वाले प्रमुख कर्म है -गर्भावरण जरायु(उल्व)

को हटाकर बच्चे के मुख, नासिका आदि का सफाई, सिर पर घी का फाया रखना तथा

नाभिछे दन इसके बाद सोने की शलाका में विषम मात्रा में घत


ृ और मधु घिस करके

बालक को चटाया जाता है । इसके माता के गर्भ में जो रस पिने का दोष है , वह दरू हो

जाता है और बालक की आयु तथा मेधाशक्ति को बढाने वाली औषधि बन जाती है ।

सुवर्ण वातदोष को दरू करने के साथ-साथ मूत्र को भी स्वच्छ बना दे ता है और रक्त

के ऊर्ध्वगामी दोष को भी दरू कर दे ता है ।

वह्
ृ दारण्यकोनिषद में इस संस्कार के प्रमख
ु अंश बताये गये है -(1) दही तथा घी

के साथ मन्त्रो द्वारा होम करना (2) कान में वाक शब्द का तीन बार उच्चारण (3) सोने
के चम्मच से बच्चे को दही, मख्खन और घी चटाना (4) नाम रखना (5) माता के स्तन

के पास उसे ले जाना।

1. पारासर x`ãlw=

2. अश्वलायन x`ãlw= 1.15.12

3. वह
ृ दारण्यनिषदा 1.4.2

शतपथ czkã.k के अनुसार इसके साथ एक स्थान पर पिता अपने पुत्र पर

तीन बार अपना साँस छोड़ जिसका तात्पर्य उसको तीन वेदो का ज्ञान दे ने या दिलाने

के लिए आश्वासन या प्रतिज्ञा का बोधक लगता है ।

अंततः इस संस्कार के समय पिता अपने पुत्र को सँघ


ू ता है तथा उसके कान में

कल्याणकारी मन्त्रो का उच्चारण करता है । ये सारी क्रियाये इश्वर की दृष्टि में जच्चा

और बच्चा दोनो की सरु क्षा के लिए की जाती है .।

(5) नामकरण संस्कार

हिन्द ू समाज में सन्तान को नाम दे ना भी एक संस्कार माना गया है ।

नामकरण के माध्यम से सन्तान का नाम निर्धारित होता है । इस संस्कार की चर्चा

प्रायः सभी x`ãlw=ks में की गई है , पर कई पक्षों में उसके विवरणो में अन्तर दिखता

है । वह
ृ दारण्यकोपनिषद महाभाष्य आदि में जन्म के दिन ही नाम रखने का विधान

बताया गया है । आपस्तम्ब ने जन्म के 10 वें दिन, याज्ञवल्क्य ने 11 वे दिन, बौधायन ने


12 वे दिन नामकरण के लिए सुझाया है । परन्तु विभिन्न शास्त्रकारो ने 12 वें दिन ही

इस संस्कार के लिए शुभ माना है ।

इस संस्कार में माता शिशु को स्वच्छ वस्त्र से ढक कर तथा उसके सिर को

जल से पवित्र करके पिता के गोद में रख दे ती है । इसके बाद विभिन्न दे वताओ के

पूजन के साथ अग्रिसोम आदि को आहुतियाँ दी जाती है । इसके साथ निम्न कार्य

किया जाता है । (1) शिशू के कमर मे मेखला (सत


ू ी या रे शमी धागे की बनी हो) बाँधी

जाती है । (2) मधु प्राशन के लिए शहद तथा चाटने के लिए चाँदी की चम्मच वह न हो

तो चाँदी की सलाई आदि का प्रयोग किया जा सकता है । (3) नाम धोषणा के लिए

सुन्दर थाली में निर्धारित नाम को चन्दन रोली से लिखकर उस पर एक स्वच्छ वस्त्र

ठककर रखा जाय।

संस्कार प्रकाश मे चार प्रकार के नाम का वर्णन मिलता है ः - दे वता नाम(कुबेर,

विष्णु, शंकर), मास नाम, नक्षत्र नाम तथा व्यावहारिक नाम। मनु ने वर्णो के बोधक नाम

रखने का संकेत दिया है जैसे czkã.k का नाम मांगलिक तथा सन्तोजनक होना

चाहिए, क्षत्रिय का नाम बल शक्ति या रक्षात्मक होना चाहिए जैसे शक्ति सिंह। वैश्यो

का नाम धन अथवा व्यवसाय का बोधक होना चाहिए जैसे धनामल। सद्र


ू ो का नाम

दास अथवा सेवाभाव का सूचक होना चाहिए जैसे रामदास , चरणदास। इसी प्रकार से

स्त्रियो का नाम सरस, सीधा एवं मद


ृ ल
ु और अर्थयुक्त होना चाहिए जैसे सरिता, कोमल,
शान्तिदे वी इत्यादि। इसी प्रकार से विष्णुपरु ाण में उल्लेख मिलता है कि czkã.k अपने

नाम के अन्त मे शर्मा, क्षत्रिया वर्मा, वैश्य गुप्त तथा शूद्र दास लिखे।

इस प्रकार इस संस्कार के माध्यम से शिशु रुप में अवतरित जीवात्मा को

कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहुँचाने का सत्प्रयास किया जाता है । जीव के

पूर्व संस्कारो में जो हीन हो, उनसे मुक्त कराना, जो श्रेष्ठ हो उनका आभार मानना

अभिष्ट होता है । नामकरण संस्कार के समय शिशु के अन्दर मौलिक कल्याणकारी

प्रवत्ति
ृ यो, आकांक्षाओ के स्थापन, जागरण के सत्र
ू ो पर विचार करते हुये उनके अनरु
ु प

वातावरण बनाना चाहिए। शिशु पुत्र हो या पुत्री भेदभाव को स्थान नही दे ना चाहिए।

इसलिए पुत्र या पुत्री जो भी हो उसके भीतर के अवांक्षनीय संस्कारो का निवारण करके

श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना

चाहिए।

(1) विष्णुपुराण 3.10.9

(6) निष्क्रमण संस्कार-

निष्क्रमण शब्द का अर्थ है -बाहर निकलना यह वह संस्कार है जिसके द्वारा

बालक को प्रथम बार घर से बाहर निकाला जाता है । इस संस्कार में शिशु को सर्य

तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है । भगवान भाष्कर के तेज तथा चन्द्रमा
की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है जिससे कि शिशु तेजस्वी

तथा विनम्र हो।

पारस्कर गह्
ृ नसूत्र(1.17) में इस संस्कार का समय चौथा महीना बतलाया गया है

– ‘चतुर्थे मासि निष्क्रमाणिका सूर्यमुदीक्षयति तच्चक्षुरिति’। अष्टागसंग्रह में भी इसी

काल को चिकित्साशास्त्र सम्मत माना गया है । गोभिल x`ãlw= मे तीसरे महीने तथा

कात्यायन-x`ãlw= में तीसरे -चौथे महीने का उल्लेख है । इस संस्कार के निर्देशो में कोई

भी मल
ू गत भेद नही है क्योकि शिशु जब भी वातावरण से समायोजन में समर्थ प्रतीत

हो तब (तीसरे या चौथे) निष्क्रमण किया जाना चाहिए। इस संस्कार में एक निश्चित

मांगलिक तिथि में दे वताओ का पूजन वंदन करते हुये वैदिक मंत्रो का पाठ किया जाता

है । इसके बाद माँ बच्चे को लेकर बाहर निकलती थी तथा उसे प्रथम बार सूर्य दर्शन

कराया जाता था इसी के साथ उसका घर के बाहरी वातावरण से भी संम्पर्क होता था।

नवीनतम फोटो चिकित्सा मे व्यक्ति के मानसिक विषाद से लेकर पथरी ,

टुयूमर, कमजोर आस्थि तथा शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में अनियमितता आदि

कि दशा में सर्य


ू रश्मियो द्वारा उपचार किये जाने की विधि विकसित कर ली गई है ।

फलतः सर्य
ू दर्शन पर्ण
ू तः वैज्ञानिक

(7) अन्नप्राशन संस्कार-


अन्नप्राशन का अर्थ है -जीवन में सर्वप्रथम अन्न का अशन(भोजन)। बालक को

जब पेय पदार्थ, दध
ू आदि के अतिरिक्त अन्न दे ना प्रारम्भ किया जाता है तो वह

शभ
ु ारम्भ यज्ञीय मंत्रोच्चार यक्
ु त धर्मानष्ु ठान के रुप में होता है । इसी प्रक्रिया को

अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है । इसका समय छठवाँ महीना माना गया है जब कि

बच्चे के दाँत निकल चक


ु े हो जन्म के समय न तो बालक के पास अन्न चबाने के

लिए दाँत होते है और न ही अन्न पचाने में समर्थ पाचनशक्ति फलतः बालक जन्म

से माँ के दध
ू पर जीवित रहता है परन्तु बच्चा सारा जीवन माँ के दध
ू पर निर्वाह नही

कर सकता क्योकि दध
ू में सब प्रकार के पोषक तत्वो का समावेश होने पर भी अन्न

का भोजन परमावश्यक है , यही शारीरिक दृढ़ता का साधन है । अन्न का शरीर से गहरा

सम्बन्ध है । दाँतो का निकलना इस तथ्य का प्रतीक है कि बच्चे की आँते अब अन्न

पचाने में समर्थ हो रही है अब वह अन्नका आहार ग्रहण कर सकता है । इससे सिद्ध हो

जाता है कि अन्नप्राशन तथा दाँत निकलने का घनिष्ट सम्बन्ध है ।

आश्वलायन, शंखायन, आपस्तम्ब, पारस्कर, काठक, भारद्वाज तथा वैखानस

x`ãlw=ks में इस संस्कार पर पर्याप्त उल्लेख किया गया है । इसके अन्तर्गत शिशु को

प्रथम बार पका हुआ अन्न खिलाया जाता है जिसमें दध


ू , दही, घी, तथा पका हुआ चावल

खिलाने का विधान है । गहृ सूत्रो में इस संस्कार के समय शिशु के वाणी में प्रवाह लाने

के लिए भारद्वाज पक्षी का माँस तथा उसमें कोमलता लाने के लिए मछली खिलाई
जाती थी। इसका उद्देश्य बच्चो के शारिरिक तथा बौद्धिक दृष्टि से स्वस्थ बनाना था।

बाद में केवल दध


ू और चावल खिलाने की प्रथा प्रचलित हो गई।

वस्तुतः अन्नप्राशन के बाद अवलेह से प्रारम्भ करके क्रमशः बच्चे को ठोस

आहार पर लाया जाता है और उसी अनुपात में माँ बच्चो के स्तनपान की आवत्ति

कम करती है । इस प्रकार शिशू द्रव-भोजन (दध


ू ) से स्थूल-भोजन तक वैज्ञानिक ढं ग से

पहुचता है , अटपटे ढं ग से नही।

(8) चूड़ाकर्म या मुण्डन संस्कार-

बालक के जन्म से समय ही छोटे -छोटे बाल उसके सिर पर होते है । इस बाल

को सर्वप्रथम काटने के आयोजन को चूड्कर्म जाता है । संस्कृत में ’चड़


ू ा‘ शब्द का अर्थ

है - ’शिखर‘ या ’चोटी‘। इस संस्कार में शिखा को छोड़कर गर्भकाल से प्राप्त सारे केश

मुड़वा दिये जाते है । आचार्य सुश्रुत के अनुसार मस्तक के भीतर ऊपर की ओर शिरा

तथा सन्धि का सन्निपात है । वही रोमावर्त में अधिपति है , इस अंग को किसी भी

प्रकार का अघात लगने से तत्काल मत्ृ यु हो जाती है ।1 अतः इसकी सुरक्षा के लिए

शिखा रखने का विधान किया गया है इसके साथ-साथ यह भी धारणा है कि इस

संस्कार के द्वारा शिशु के आयु में वद्धि


ृ , सौन्दर्य एवं उसका कल्याण होता है ।

सुश्रुत, शा0 स्था0 6.83


मनु के अनुसार सभी द्धिजाति बालको का चड़
ू ाकरण प्रथम एवं f}rh; वर्ष में

किया जाना चाहिए।1 पारस्कर के अनुसार यह संस्कार जन्म के प्रथम वर्ष के अन्त में ,

तीसरे , पाँचवे, अथवा सातवे वर्ष में करना चाहिए।2 फलतः जन्म के तीसरे वर्ष में चड़
ू ाकर्म

सम्पन्न अधिक वैज्ञानिक है । पहले यह संस्कार घर में ही होता था किन्तु बाद में इसे

धार्मिक स्थल(मन्दिर) में दे वता के सामने किया जाने लगा। प्रारम्भ में संकल्प गणेश

पूजा, मंगल श्राद्ध आदि सम्पन्न होने के साथ-साथ ckã.kks को भोजन कराया जाता

था। इसके बाद बच्चे का बाल काटा जाता था। कटे हुये बाल को गोबर में छिपा दिया

जाता था। बालो को गोबर में ढँ कने के पीछे यह धारण थी कि वे शरीर के अंग है , अतः

वे शत्रओ
ु द्वारा जाद-ू टोने के शिकार न हो जाय। इसके बाद बालक के मड़ि
ु त सिर पर

मक्खन या दही का लेप किया जाता था।

इस प्रकार गर्भावस्था के बाल साफ हो जाने से सिर की खज


ु ली दाद आदि से

रक्षा हो जाती थी। चरक संहिता में मण्


ु डन को पष्टि
ु , वष्ृ यता, आय,ु स्वच्छता एवं सौन्दर्य

का वर्धन माना गया है ।3

(9) कर्णवेध संस्कार- कर्णवेध का अर्थ है - कान को बींध दे ना अथवा उसमें छे द कर

दे ना। इस संस्कार में बालक के कान छे दकर उसमें बाली अथवा कुण्डल पहना दिया

जाता था। सुश्रुत ने इसके दो उद्देश्य बताये है -

1. मनुस्मति
ृ , 2/65
2. पारास्कर गह्ृ नसत्र
ू 0 2/1, 1/2
3. चरक संहिता 5.93
1. बालक की रक्षा तथा आभूषण धारण करना

2. कर्णवेध से आँत का उतरना(हार्निया) रोग से रक्षा होने का उल्लेख किया है ।

यह संस्कार कब और किस समय किया जाय, इस पर fo}ku में भैतक्य नही

है । गर्ग के अनस
ु ार छठा. सातवाँ आठवाँ अथवा बारहवाँ वर्ष कर्णभेद के लिए उपयक्
ु त

है ।1 सुश्रुत ने छठा अथवा सातवाँ वर्ष इस संस्कार के लिए उचित माना है ।2 संस्कार

प्रकाश में वहृ स्पति को उद्घत


ृ करते हुये जन्म से दसवें , बारहवे, या सोलवें दिन की भी

चर्चा की गई है ।3 इस प्रकार कर्णवेध का समय जन्म के 10 वे दिन से लेकर बारहवे वर्ष

तक होता दिखाई पड़ता है । फिर भी धर्मशास्त्रो के अनुसार कर्णवेध तब किया जाना

चाहिए जबकि शिशु छे दन से होने वाले कष्ट को सहन कर सके , साथ ही उसके कान

कोमल भी बने रहे अन्यथा छे दना कठिन होगा। कर्णवेधन के लिए सोना, चाँदी, तथा

लोहा की सूइयो का प्रयोग विभिन्न वर्ण के बालको के लिए होता था। क्षत्रिय बालक

का कर्णवेध स्वर्ण की सूई से, czkã.k तथा वैश्य का रजत की सूई से तथा शूद्र का

लोहे की सूई से किये जाने का विधान मिलता है ।3 यह धार्मिक रीति रिवाज से सम्पन्न

किया जाता था। बच्चे को पर्व


ू की दिशा की ओर मँह
ु करके बैठाया जाता था। इसके

बाद वैदिक मन्त्रो के बीच पहले दायाँ तथा फिर बायाँ कान छे दा जाने के बाद आभष
ू ण

पहनाने का विधान था।

1. गर्गउद्त-हिन्द ू संस्कार-डा0 राजबली पाण्डेय, पष्ृ ठ-130


2. सश्र
ु तु , 16/1
3. संस्कार प्रकाश-पुष्ठ 258
4. वीरमित्रोदय, संस्कार प्रकाश
कर्णवेध प्राचीन संस्कार के साथ-साथ यह एक अनिवार्य संस्कार था। जिसका

उल्लेख अर्थवेद में भी प्राप्त होता है और जिसे न करना पाप समझा गया। दे वल की

व्यवस्था थी कि जिस czkã.k का कर्णवेध न हुआ हो उसे दक्षिणा नही दी जानी

चाहिए। जो उसे दक्षिणा दे ता है वह असरु या राक्षस होता है ।

इस संस्कार को स्त्री-पुरुषो में पूर्ण स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से

कराया जाता था। मान्यता यह भी है कि सर्य


ू कि किरणे कानो की छिद्र से प्रवेश

पाकर बालक-बालिका को तेज सम्पन्न बनाती है । बालिकाओ के आभष


ू ण धारण हे तु

तथा रोगो से बचाव हे तु यह संस्कार आधुनिक एक्युपच


ं र पद्धति के अनुरुप एक सशक्त

माध्यम भी है ।

(10) fo|kjEHk संस्कार-

जब बालक का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता था तब उसकी

शिक्षा का आरम्भ fo|kjEHk संस्कार से किया जाता था। जिसमे उसको अक्षरो का

बोध कराया जाता था। इसी कारण कुछ लोग इसे अक्षराम्भ भी कहते है । यह संस्कार

प्रायः धौल संस्कार के बाद ही किया जाता था। इसका समय जन्म के पाचवे वर्ष

अथवा उपनयन संस्कार के पूर्व बताया गया है ।

fo|kjEHk संस्कार एक शुभ दिन एवं मुहूर्त में सन्पन्न होता था। उस दिन

बच्चे को स्नान कराकर सुगधि


ं त द्रव्यो एवं वस्त्रो से उसे सजाया जाता था। पज
ू न के
लिए गणेश एवं सरस्वती के चित्र अथवा प्रितआ की पज
ू ा होती थी। पट्टी , दवात और

लेखनी, पूजने के लिए, बच्चो को लिखने में सुविधा हो इसके लिए स्लेट, खड़िया भी रखी

जाती थी, गरू


ु पज
ू न के लिए प्रतीक रुप में नारियल रखा जाता था। तत्पश्चात शिक्षक

पर्व
ू दिशा की ओर बैठकर पट्टी पर बालक से “ओम ्”, स्वाति, नमः सिद्धाय आदि

लिखवाकर fo|kjEHk करवाता था। बालक गुरू की पज


ू ा करता था तथा अपने लिखे

हुये को तीन बार पढ़ता था। इसमें गणेश एवं सरस्वती के पज


ू न का भी आयोजन

किया जाता था। गणेश को वि|k और सरस्वती को शिक्षा का प्रतीक माना गया है । वि|

k और शिक्षा एक दस
ू रे के पूरक है । शिक्षा के अन्तर्गत भाषा, लिपि, गणित, इतिहास,

शिल्प, रसायन, चिकित्सा, कला, विज्ञान आदि विभिन्न प्रकार के भौतिक ज्ञान इसी क्षेत्र

में आते है जो कि वि|k लयो एवं स्कूलो में पढ़ाई जाती है । शिक्षा से मस्तिष्क की

क्षमता विकसित होती है जबकि वि|k का अर्थ विवेक की शक्ति। सद्गुण इसी वर्ग में

गिने जाते है । विवेक के }kjk ही बालक उचित अनुचित एवं कर्तव्य अकर्तव्य में

अन्तर कर सकता है । इसके अन्तर्गत सर्वप्रथम गणेश फिर सरस्वती का पज


ू न किया

जाता था।

इस प्रकार fo|kjEHk संस्कार द्वारा बालक-बालिका में उन मूल संस्कारो की

स्थापना का प्रयास किया जाता है जिनके आधार पर उसकी शिक्षा मात्र ज्ञान न रहकर

जीवन निर्माण करने वाली हितकारी वि|k के रुप मे विकसित हो सके। समारोह द्वारा
बालक के मन में ज्ञान प्राप्ति के लिए उत्साह पैदा किया जा सके जिससे ज्ञानपरक

संस्कारो का बीजारौपण संभव हो सके।

(11) उपनयन संस्कार-

प्राचीन हिन्द ू संस्कारो में ’उपनयन‘ सबसे संस्कार अधिक महत्व था। इस

संस्कार के अनन्तर है बालक के जीवन में भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग

प्रशस्त होता है ।

’उपनयन’ का शाब्दिक अर्थ है ’समीप ले जाना’। इसका तात्पर्य यह है कि

बालक को शिक्षा के निमित्त गुरु के समीप ले जाने से है । जबकि इसके पहले fo|

kjEHk संस्कार के }kjk बालक केवल अक्षरो के ज्ञान का शुभारम्भ करता है।

सामान्य तथा लिखने, पढ़ने एवं प्राराम्भिक गणित की शिक्षा तो बालक घर से ही प्राप्त

करता है । परन्तु उपनयन संस्कार में व्यापक अध्यायन के लिए बालक को गरु
ु के

पास भेजा जाता था। इसलिए ड़ा0 अल्तेकर ने उपनयन का शाब्दिक अर्थ बताया है

‘उपनीयमान’अर्थात बालक को गुरु के गहृ ले जाना इसलिए कि वह वहाँ शिक्षा प्राप्त

करे ।1

वैदिक यग
ु में यह एक प्रचलित संस्कार था। ऋग्वेद में दो स्थानो पर

“czã चर्य” शब्द का उल्लेख धार्मिक वि|k र्थी के जीवन के अर्थ में हुआ है । गौतम

और मनु प्रभति
ृ शास्त्रकारो की मान्यता के अनुसार czkã.k बालक का उपनयन आँठवे
वर्ष में , क्षत्रिय बालक का ग्यारहवे वर्ष में और वैश्य बालक का बारहवें वर्ष में होना

चाहिए।2 यह संस्कार द्धिज वर्णो के लिए था चँकि


ू शूद्र द्धिज वर्ण में सम्मिलित नही थे

इसलिए शद्र
ू ो का इस संस्कार से वंचित रखा गया।

(महिलाओ बाकि)

1. The Education in Ancient India, A.S. Altekar,P.269

2. गौतम धर्मसूत्र-1.6.12
बालक का उपनयन संस्कार का एक शुभ समय में होता था। czkã.k का संस्कार

बसन्त ऋतु में , क्षत्रिय का ग्रीष्म में तथा वैश्य का पतझड़ में किये जाने का विधान था।

उपनयन की तिथि से एक दिन पहले बालक को व्रत रखना पड़ता था। व्रत के बाद वाले दिन

प्रातः काल बालक अपनी माँ के साथ एक ही पात्र में भोजन करता था। जो कि माँ के साथ

उसका अन्तिम भोजन था। अल्तेकर के अनस


ु ार यह क्रिया इस तथ्य का प्रतीक थी उसका

अनियमित बचपन बीत गया है और आगे उसे नियमित एवं अनश


ु ासित जीवन बीताना है ।1

डा0 राजबली पाण्डेय के अनुसार यह माँ-बेटे की विदाई भोज भी हो सकता है जो पुत्र के प्रति

माता के गहरे स्नेह को प्रकट करता है ।2 तत्पश्चात बालक का मुण्डन और स्नान होता था

फिर वह कौपीन वस्त्र धारण करता था। कमर के चारो ओर तीन लड़ियो वाली मेखला बाँधी

जाती थी जो कि तीन वेदो के अध्ययन की प्रतीक थी। इस अवसर पर गरु


ु }kjk बालक को

उत्तरीय वस्त्र दिया जाता था जिससे वह अपने शरीर का ऊपरी भाग ढ़कता था। कालान्तर में

उत्तरीय का स्थान यज्ञोपवीत(जेनऊ) ने ग्रहण कर लिया।

इस संस्कार में यज्ञोपवीत को धराण करना ही प्रमख


ु कृत्य था। तीनो वर्णो के लिए

अलग-अलग प्रकार के यज्ञोपवीत का विधान था। मनु के अनस


ु ार ckã.k, क्षत्रिय, एवं वैश्य

वर्णों के वि|k र्थी क्रमशः कपास, ऊन तथा सन की जनेऊ धारण करे ।1 बाद में सभी के लिए

कपास का जनेऊ धारण करने की मान्यता प्रदान की गई। जनेऊ में तीन डोरिया होती थी। ये

तीन गुणो-सत, रज, तम की प्रतीक मानी गई।

1. Education in Ancient India-276


2. , 0 राजबली पाण्डेय-पी-128
हिन्दू संस्कार डा

3. मनु स्मति
ृ -2.44
इसको धारणा करने वालो को यह भी याद दिलाती थी कि उसे अपने पूर्वजो के

प्रति तीन ऋण-दे व, ऋषि दे व, पित ृ ऋण से उत ्ऋण होना है । वस्तुतः वैदिक कर्मकाण्ड

उपनयन संस्कार के बिना नही किया जा सकता। इस तथ्य को ’यज्ञोपवीत‘ (यज्ञ+

उपवीत) शब्द के द्वारा सुस्पष्ट कर दिया गया था।

यज्ञोपवीत के बाद वि|k र्थी को मग


ृ चर्म (अजिन)् तथा दण्ड प्रदान किये जाते थे।

czkã.k के लिए पलाश, क्षत्रिय के लिए उदम्ु बर तथा वैश्य के लिए विल्व की लकड़ी

का दण्ड धारण किये जाने का विधान था

उपनयन के समय बालक का आचार्य से czã चर्य धारण कराने का निवेदन

करना, झूठ त्यागकर सत्यपान का पाँच बार व्रत ग्रहण करना , अपनी अन्जलि का जल

बालक की अन्जलि में तीन बार छोड़ना आचार्य }kjk शिष्य की उन्नति के लिए

संकल्प करना, उसे सूर्यदर्शन कराना, शिष्य }kjk आचार्य की प्रदक्षिणा करना तथा गुरु

}kjk शिष्य का हृदय स्पर्श करना। इन सभी का अभिप्राय है कि शिष्य परू ी तरह गरुु

की शरण में आ गया।

इस प्रकार इस संस्कार का उद्देश्य मख्


ु यतः शैक्षणिक था। याज्ञवल्क्य के

अनस
ु ार इसका सर्वोच्च ध्येय वेंदा का अध्ययन करना था। जहॉ गरु
ु शिष्य को

अनुशासनमय जीवन में रखकर एक योग्य नागरिक बनाता था ताकि वह अपने

अधिकारो एवं कर्तव्यो को समझने लगे। इस संस्कार के बाद ही बालक अपने वर्ग तथा
समाज का पूर्ण सदस्य बन जाता था और उसे अपने पर्व
ू जो की सास्कृतिक विरासत

प्राप्त करने का अधिकार मिल जाता था। इस समय से उसे कर्तव्यो, आकाक्षाओ,

उत्तरदायित्यो, आशाओ का एक नया संसार प्राप्त होता था जिसमे रहते हुये वह अपने

व्यक्तित्व का पर्ण
ू विकास कर सकता था यह बालक के नये जीवन का सत्र
ू पात था।

यह जीवन था पूर्ण एवं कठोर नियन्त्रण का। इसी नियन्त्रण में रहकर वह प्रकाण्ड

fo}ku एवं सफल नागरिक बन जाता था। इस प्रकार उपनयन संस्कार का आदर्श

अत्यन्त उच्चकोटि का था।

(12) वेदारम्भ संस्कार

यह संस्कार ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है । वेद का अर्थ होता है ज्ञान और

वेदारम्भ(वेद के अध्ययन का आरम्भ) के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर

समाविष्ट करना शुरु करे यही अभिप्राय है । इस संस्कार का सर्वप्रथम उल्लेख व्यास

स्मति
ृ मे मिलता है । प्रारम्भिक समय में उपनयन तथा वेदो का अध्ययन प्रायः एक

ही साथ प्रारम्भ होता था। बाद में वेदो का अध्ययन मंद पड़ गया तथा संस्कृत बोल

चाल की भाषा नही रह गई। इस प्रकार उपनयन एक शारीरिक संस्कार हो गया जिसके

साथ बालक वेद अध्ययन के स्थान पर अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने लगा। अतः

समाजशास्त्रियो ने वेदाध्ययन की परम्परा बनाये रखने के उद्देश्य से इसे एक नवीन

संस्कार का रुप दिया तथा उपनयन को इससे अलग कर दिया।


यह संस्कार उपनयन के पश्चात एक वर्ष के अन्दर ही होता था। इस संस्कार

के प्रारम्भ में मातप


ृ ज
ू ा होती थी। तत्पश्चात आचार्य लौकिक अग्नि प्रज्ज्वलित करके

वि|k र्थी को उसके पश्चिम में आसीन करता था। ऋग्वेद का अध्ययन प्रारम्भ करने के

लिए पश्ृ वी तथा अग्नि को घी की दो आहुतियाँ दी जाती थी। यजर्वे


ु द के अध्ययन में

अन्तरिक्ष तथा वायु को, सामदे व के अध्ययन में |kS स तथा सूर्य को और अथर्ववेद के

अध्ययन के समय दिशाओ एवं चन्द्रमा को आहुतियाँ दी जाती थी। मनु का कथन है

कि इस संस्कार में शिष्य को czã ज्जलि बाँधकर, आचमन कर, हल्के वस्त्र धराण

करना चाहिए।1 वेदाम्भ मे तथा अन्त मे ओम ् का उच्चारण करना चाहिए।2 प्रारम्भ में

उच्चारण न होने से अध्ययन नष्ट हो जाता है तथा अन्त मे न करने से ठहरता नही

है ।3 गायत्री मत्र की दीक्षा के साथ वेदो का अध्ययन आरम्भ कराना ही इस संस्कार का

उद्देश्य है ।

शास्त्रो में ज्ञान से बढ़कर दस


ू रा कोई प्रकाश नही समझा गया है । स्पष्ट है कि

प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्व रखता था।

अनुशासित एवं संयमित जीवन जीने के साथ-साथ czã चर्य को कठोर रुप से पालन

करने के लिए आचार्य बालक से प्रतिज्ञा करवाता था। जिससे कि बालक एक श्रेष्ठ

नागरिक बन सके।

1. मनुस्मति
ृ , 2.70
2. मनुस्मति
ृ , 2.74
3. मनुस्मति
ृ , 2.74
(12) केशान्त संस्कार
जैसा कि नाम से ज्ञात होता है केशान्त का तात्पर्य केश(बाल) का अन्त। इस

संस्कार को करने का विधान वही है जो चड़


ू ाकरण का है । चूड़ाकरण एवं केशान्त में

अन्तर यह है कि चड़
ू ाकर्म संस्कार जातक के जन्म के समय से जो केश उसके सिर

पर होते है उन्हे पहली बार उतरवाने का संस्कार है जबकि केशान्त संस्कार में

किशोरावस्था के दौरान जातक की दाड़ी आती है तो पहली बार उन के शो को उतारा

जाता है । इस दौरान बालक के सिर के बाल पुनः उतारे जाते है । मनु का कथन है कि

czkã.k का सोलहवें वर्ष, क्षत्रिय का बाइसवें वर्ष तथा वैश्य की चौबीसवें वर्ष में केशान्त

संस्कार होना चाहिए।1

यह संस्कार किसी शुभ मुहूर्त मे सम्पन्न किया जाता था। शास्त्रानुसार विधि

विधान से व्रतो का पालन करते हुये शिष्य गुरु की आज्ञानुसार गणेश आदि दे वताओ

की पज
ू ा अर्चना के पश्चात अपने सिर, दाड़ी एवं मोछो के बाल कटवाता है । तत्पश्चात

स्नान करने के पश्चात बालक को गुरु }kjk स्नातक की उपादि दी जाती थी। इस

संस्कार के अवसर पर गुरु को गौ दान में दी जाती थी। अतः इसे गोदान संस्कार भी

कहा जाता था। इस दौरान गुरु शिष्य को czã चर्य और सदाचार का उपदे श दे ता था

और कम से कम एक वर्ष तक शिष्य को कठोर अनुशासन में रहना पड़ता था। इस

संस्कार के दौरान बालक द्वारा उपनयन संस्कार के दौरान धारण की गई मौजी

मेखला आदि का भी परित्याग किया जाता था।

1. मनस्ु मति
ृ , 2.65
(14) समावर्तन संस्कार

प्राचीनकाल में गरु


ु कुल में शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात वि|k र्थी जब

अपने घर लौटता था तब समावर्तन संस्कार होता था। समावर्तन का शाब्दिक अर्थ

प्रयावर्तन या लौटना है । एक वेद के अध्ययन में प्रायः बारह साल लगता था।

czã चारी अपनी योग्यता एवं सामर्थ के अनुसार एक या सभी वेदो का अध्ययन करता

था। कुछ लोग आजीवन czã चर्यव्रत का पालन करते थे। इस प्रकार समावर्तन संस्कार

की कोई आयु निर्धारित नही थी। चँकि


ू कम से कम एक वेद का अध्ययन द्धिजो के

लिए अनिवार्य था और अधिकांश czã चारी उसी न्यूनतम अपेक्षा का ध्यान में रखकर

अध्ययन करते थे, अतः सामान्य रुप से समावर्तन का समय 24 वाँ वर्ष माना गया।

यह संस्कार किसी शभ
ु मह
ु ू र्त में सम्पन्न किया जाता था। उस दिन czã चारी

को एक प्रकोष्ठ में बन्द रहना पड़ता था क्योकि यह मान्यता थी कि czã चारी के तेज

से सूर्य की दे दीव्यता मंद पड़ जायेगी। 1 मध्याह्न में वि|k र्थी कमरे से बाहर निकलकर

गुरु का चरण स्पर्श करता था तथा वैदिक अग्नि में समिधा एकत्रित कर यज्ञवेदि में

उसको डालकर गरू


ु के प्रति अपनी अन्तिम श्रद्धांजलि प्रकट करता था। ऋग्वेद के दसवें

मंडल के 128 वें सक्


ू त की समस्त नौ ऋचाओ से समिधा का हवन करना पड़ता था

उसके स्नान हे तु आठ जलपूर्ण कलश वहा रखे जाते थे जो इस तथ्य के प्रतीक होते थे

कि czã चारी के ज्ञान का विस्तार पथ्ृ वी की समस्त दिशाओ में वर्षाजल की तरह

व्याप्त है । तत्पश्चात czã चारी उन कलशो के जल से स्नान करता था तथा दे वताओ


से प्रार्थना करता था। वेदारम्भ के समय लगाये गये प्रतिबन्ध हटा लिए जाते थे और

वह दण्ड मेखला मग
ृ चर्म आदि का परित्याग कर नया कौपीन (वस्त्र) पहनता था। वि|

k र्थी जीवन की समाप्ति के लिए गरुु से प्रार्थना करता हुआ शिष्य अनेक प्रकार की

दक्षिणा आदि से गरू


ु को सन्तष्ु ट करता था। अन्त में गरू
ु अनेक उपदे श दे कर

czã चारी को गहृ स्थ जीवन में प्रवेश करने तथा विवाह करने की अनुमति प्रदान करता

था।

इस अवसर पर गरु
ु शिष्य को गहृ स्थाश्रम के योग्य शिष्टाचार बतलाता था

और उसे उदार, निस्पह


ृ , दयावान, विनयी, क्षमाशील, प्रशन्नचीत, शुद्धात्मा और महापुरुषो का

अनग
ु ामी होने की सीख दे ता था। इन सभी उपदे शो की तैतरीय czkã.k में विशद

व्याख्या है । समावर्तन के पश्चात czã चारी को स्नातक (स्नान किया हुआ वि|k र्जन

कर चक
ु ा) कहा जाता था। आजकल विश्ववि|k लयो में प्रचलित दीक्षान्त समारोह का ही

इसे एक रुप समझा जा सकता है ।

1. पालागल x`ãlw=, 11.1.8


(14) विवाह संस्कार

समस्त संस्कारो में विवाह संस्कार का अत्यन्त महत्व है क्योकि इसकी महत्ता आज

भी वि|मान है । czã चर्य से गहृ स्थ आश्रम का प्रवेश इसी संस्कार के द्वारा होता था। हिन्द ू

धर्म में सगह


ृ स्थ की परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक

परिपक्वता आ जाने पर यव
ु क यव
ु तियो का विवाह कराया जाता है । इस संस्कार के द्वारा

व्यक्ति का व्यक्तिगत धरातल उठकर सामाजिक हो जाता है समाज की निरन्तरता व्यक्ति

के गह
ृ स्थ बनने पर ही निर्भर करती है ।

“विवाह” शब्द “वि” उपसर्गपर्व


ू क “वह” धातु से बनता है जिसका शब्दिक

अर्थ है “वधु को वर के घर ले जाना या पहुँचाना।” विवाह का उद्देश्य पति-पत्नी के

सहयोग से मनष्ु य को सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्य का पालन करने योग्य बनाना है ।

पुरुषार्थ की सिद्धि, त्रिऋणो से मुक्ति तथा वंश-वद्धि


ृ विवाह से ही संम्भव है । इसलिए

महाभाष्यकार पतन्जलि ने स्पष्ट रुप से लिखा है कि जो स्नातक विवाह नही करता वह

निन्दा का पात्र है ।1 मनु के अनुसार विवाह का उद्देश्य है , सन्तानप्राप्ति, शास्त्रोक्त धर्मो

का पालन और यौनतुष्टि।2 हिन्द ू समाज में कोई भी धार्मिक कृत्य स्त्री के बिना पूरा

नही होता केवल पुरुष अधुरा माना जाता है । अर्धनारीश्वार की कल्पना इसी तथ्य को

पुष्टि करती है कि पति-पत्नी एक दस


ू रे के परू क है । इसलिए पत्नी परमावश्यक है एवं

उसकी प्राप्ति विवाह से ही सम्भव है । अतः विवाह को czkã.k, क्षत्रिय, वैश्य, शद्रू सभी

वर्गो के लिए आवश्यक माना गया है ।


1. महाभारत, 2.1.26
2. मनुस्मति
ृ , 3.4
मनुस्मति
ृ मे रजस्वला होने (12 वर्ष) से पूर्व कन्या के विवाह की मान्यता

प्रतिपादित की गयी है ।1 ऐसा न करने वाले अभिभावक तथा उसके पितरो को नरकभोगी

कहा गया है । परन्तु विवाह के प्रधान(भौतिक) लक्ष्य-सन्तानप्राप्ति को ध्यान में रखते

हुये महान आचार्य सश्र


ु त ु ने परु
ु ष के लिए पच्चीस वर्ष तथा स्त्री के लिए सोलह वर्ष

की अवस्था को विवाह योग्य बताया है ।2 विवाह के अन्तर्गत वर-वधू की विभिन्न

योग्यतायो और गुण, गोत्र और वर्ण आदि का विचार किया जाता था। विवाह संस्कार के

अन्तर्गत वरप्रेक्षण, वाग्यदान, समंजन, वरवधू, कन्यादान, तिलककरण, मंगलसूत्रबन्धन,

गणपतिपज
ू ा, पाणिग्रहण सप्तपदी, ह्रदयरस्पर्श, सिन्दरू दान, दक्षिणादान, गह
ृ प्रवेश, चतुर्थीकर्म,

दे वकोत्थापन पण्डयोद्धासन आदि सम्पादित किये जाते थे। प्रायः पैतालीस अनष्ु ठान

विवाह के लिए किये जाते थे।

विवार के प्रकार-

हिन्द ू धर्मशास्त्रो में विवाह के आठ प्रकारो का उल्लेख मिलता है - czã, दै व, आर्ष,

प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस और पैशाच।

czãks दै वस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।

गन्धर्वराक्षसौ चान्यो पैशाचाष्टमो मतः।।

मनुस्मति
ृ -3.21
(I) czã विवाह-

विवाह का यह सर्वोत्तम प्रकार था जिसमें पिता कुलीन, वेदज्ञ एवं शीलवान वर

का चयन करके अपने घर स्वय आमन्त्रित करता था तथा उसकी पज


ू ा एवं स्वागत

सत्कार कर वस्त्राभष
ू णो से सस
ु ज्जित कन्या को प्रदान करता था। इस अवसर पर वह

उसे कुछ उपहार दे ता था यह विवाह स्वेच्छा अथवा बिना किसी दबाब के सम्पन्न

होता था इस दौरन वर के कुल, आचरण, वि|k, स्वास्थ एवं उसकी धर्मनिष्ठा पर भी

ध्यान रखा जाता था। ऋग्वेद में वर्णित सोम और सर्या


ू का विवाह इसी कोटि में

आता है । आधुनिक भारत में यह व्यवस्था विवाह के रुप में प्रचलित है ।

(II) दै व विवाह-

मनु के अनुसार यज्ञो के अवसर पर यज्ञ करने वाले ऋत्विक् को वस्त्रभूषणो

से सुशोभित कन्या का दान करना दै व विवाह है ।

यज्ञे तु वितते सम्यग्रात्रजे कर्म कुर्वते।

अलंकृत्य सुतादानं दै वंधर्म प्रचक्षते।।1

इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता किसी यज्ञ का आयोजन करके बहुत

से परु ोहितों को आमंत्रित करता था। उनमें से जो परु ोहित विधिपर्व


ू क यज्ञ का अनष्ु ठान

सम्पन्न करा लेता था, उसे पिता अपनी कन्या को दक्षिणा स्वरुप प्रदान करता था।

चँकि
ू यह विवाह दे वताओ के लिए यज्ञ किये जाते समय सम्पन्न होता था इसलिए
इसे दै व विवाह की संज्ञा प्रदान की गई। विवाह की यह प्रथा वैदिक यज्ञो के साथ ही

धीरे -धीरे अप्रचलित होकर समाप्त हो गई।

(III) आर्ष विवाह-

इस विवाह के अन्तर्गत कन्या के पिता वर पक्ष से यज्ञादि क्रियाओ के लिए

एक या दो जोड़ी गाय या बैल प्राप्त करता था।

एक गोमिधन
ु ं द्धे वा वरादायाय धर्मतः

कन्याप्रदांनं विधिवदार्षो धर्मःस उच्चते।।

(1) मनुस्मति
ृ , 3. 28
(2) मनुस्मति
ृ , 3.29

विवाह मख्
ु यतः परु ोहित परिवार में ही प्रचलित था। अल्टे कर के अनस
ु ार वर }

kjk कन्या के पिता को दिये गया गाय-बैल को कन्या मूल्य मानते हुये इसे आसुर

विवाह का परिस्कृत अवशेष बताते है ।1 किन्तु हिन्द ू शास्त्रकार इसे कन्या मूल्य नही

मानते। कुल्लुक भट्ट के अनुसार यह उपहार धर्मत स्वीकार किया जाता था। इससें

कन्या ब्रिक्री का कोई इरादा नही था। इस प्रकार यह विवाह आसुर विवाह से भिन्न

था।

(IV) प्रजापत्य विवाह-इस विवाह के अन्तर्गत कन्या का पिता वर से यह वचन कराते

हुये अपनी पुत्री को दे ता है कि तुम दोनो साथ-साथ मिलकर सामाजिक एवं धार्मिक
कर्तव्यो का निर्वाह करे । जैसा कि ’प्रजापति‘ नाम से भी यह अर्थ ध्वनि होता है कि

प्रजापति के प्रति अपना ऋण चक


ु ाने अर्थात सन्तानोत्पत्ति के लिए दोनो का सम्बन्ध

हो। अपने स्वरुप में यह विवाह czã जैसा ही है। इसलिए वशिष्ट, आपस्तंब आदि

प्रारम्भिक सूत्रकार इसका उल्लेख नही करते। इस प्रकार से czã अथवा प्रजापत्य

विवाह का अत्यधिक प्रचलन था जो आज भी हिन्द ू समाज मे वि|मान है ।

उपयुक्त चारो प्रकार के विवाह समाज में आदर और सम्मान की दृष्टि से दे खे

जाते थे। जबकि अन्त के चार प्रकारों का शास्त्रकार मान्यता नही दे ते। इनका विवरण

निम्म प्रकार है -

(V) आसुर विवाह- इस प्रकार के विवाह में वर कन्या के पिता या उसके सम्बन्धी को

धन प्रदान कर कन्या से विवाह करता था। इस प्रकार के विवाह में धन ही प्रमुख

वस्तु थी।

1.The Position Of Women In Hindu Civilization, Page 45

यह एक प्रकार से कन्या की बिक्री थी। अल्टे कर का अनुभव है कि प्राचीन

असीरियन समाज में कन्यायों की बिक्री की प्रथा प्रचलित थी और उसी के प्रभाव से

भारतीय समाज मे इसका प्रचलन हुआ होगा। स्मति


ृ यो में इस विवाह को निन्दित

माना गया है । बौधायन ने क्रय द्वारा बनाई गई पत्नी को अवैध माना है ।1 किन्तु यह
निन्दनीय होने के बावजूद भारत के कुछ परिवारो में इसका प्रचलन रहा जो आज भी

सीमित रुप से वि|मान है ।

(VI) गान्धर्व विवाह- इस विवाह के अन्तर्गत कन्या एवं वर माता-पिता की इच्छा के

बिना ही प्रेम में वशीभूत होकर स्वंय विवाह कर लेते थे। वह गान्धर्व विवाह कहलाता

था। मनु के अनुसार जब कन्या एवं वर कामुकता से वशीभूत होकर स्वेच्छापूर्वक

परस्पर संम्भोग करते है , तो विवाह के उस प्रकार को गान्धर्व विवाह कहते है ।

इन्छमा·न्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्यच।

गान्धर्वः सतु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भव।।2

इस विवाह का प्रचलन प्रत्येक यग


ु में था। महाभारत में भी इसे सर्वोत्तम

विवाह बताया गया है । इसी प्रकार वात्स्यायन ने इसे “सबसे पूजित” बताया है ।

परन्तु कुछ स्मति


ृ कारो ने इसे धार्मिक तथा नैतिक आधार पर इसका विरोध किया है ।

चँकि
ू इस विवाह का प्रचलन अधिकतर गान्धर्व जाति के लोगो में था, अतः इस गान्धर्व

विवाह कहा गया।

1. वै0 ग0ृ सू0, 1.1..120.-21

2. मनुस्मति
ृ 3.32

(VII) राक्षस विवाह- इस विवाह के अन्तगर्त कन्या अथवा उसके माता पिता की स्वीकृति

के बगैर बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर उससे विवाह किया जाता था। मनु के
अनुसार “कन्या पक्ष वालो की हत्या कर, घायल कर, उनके घरो को गिराकर, रोती-

चिल्लाती हुई कन्या को बलात ् उठा लाना तथा उसके साथ विवाह करना ही राक्षस

विवाह है ।

हत्वा छित्वा च भित्वा च क्रोशन्तीं रुदतीं गह


ृ ात ्।

प्रस á कन्यांहरणं राक्षसो विधिच्यते।।1

यह आदिम जनजातियों अथवा युद्धप्रिय जनों में अधिक प्रचलित थी। महाभारत

में इसे “क्षात्र धर्म” कहा गया है । मनु ने क्षत्रियो के लिए इसे प्रशंसनीय कहा (राक्षस

क्षत्रियस्यैकम)् है । याज्ञवल्क्य मत के अनुसार इस पद्धति का उद्भव युद्ध से ही मानते है

“युद्ध हरणेन राक्षसः राक्षसो युद्ध हरणादिति।” आज भी अनेक जातियो(मुख्यतः गोण्डो)

में विवाह के अवसर पर युद्ध तथा हरण का अभिनय किया जाता है जो इस विवाह -

पद्धति के ही अंग प्रतित होते है ।

(VIII) पैशाच विवाह- यह विवाह का सबसे निकृष्टतम प्रकार माना गया है । मनु के

अनुसार इसमें व्यक्ति सुप्त, मत्त अथवा अचेतन कन्या के साथ छल-कपट एवं बल

प्रयोग से मैधुन करता है ।

सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति।

स पपिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमो·धमः।।


याज्ञवल्क्य ने भी छल द्वारा कन्या के साथ विवाह को पैशाच कहा इस प्रकार

वर द्वारा छल कपट से कन्या के शरीर पर अधिकार कर लेना ही पैशाच विवाह के

अन्तर्गत था। अतः सभी धर्मग्रन्थों में इसे अधार्मिक, निन्दित एवं नितान्त असभ्य

एवं बर्बर प्रथा बताया है । आपस्तम्ब एवं वशिष्ट आदि fo}kuks ने इसे विवाह भेद में

स्थान ही नही दिया है । सम्भवतः पश्चिमोत्तर भारत की पिशाच जाति में यह विवाह

प्रचलित थी इसलिए इसका नाम “पैशाच” पड़ा।

इस प्रकार हिन्द ू विवाह एक पवित्र धार्मिक संस्कार माना गया है । जिसे जन्म

जन्मान्तर का सम्बन्ध स्वीकार किया गया है । इसे सरलतापूर्वक समाप्त नही किया

जा सकता है । प्राचीन धर्माशास्त्रीयो ने कुछ अपरिहार्य परिस्थितियो में ही पति-पत्नी के

सम्बन्ध को तोड़ने की मान्यता प्रदान करते है । याज्ञवल्क्य स्मति


ृ के टीकाकार

विज्ञानेश्वर के अनस
ु ार यदि पत्नी रोगग्रस्त, हिंसक, मदिरापायिनी, कुलटा तथा अप्रिय

बोलने वाली हो तो पति उसे त्यागकर दस


ू रा विवाह कर सकता है । वही नारद के

अनुसार पत्नी पाँच प्रकार की आपत्तियो में अपने पति को छोड़कर दस


ू रे विवाह की

अधिकारिणी थी-(1) नष्ट हो जाने पर (2) मत


ृ हो जाने पर (3) सन्यासी हो जाने पर (4)

नपुंसक हो जाने पर (5) पतित हो जाने पर। पाराशर भी इसका सर्मथन करते है । अतः

यदि परिस्थितियोवश विवाह से जीवन अव्यवस्थित और अशान्त हो जाय तो उसका

विच्छे द आवश्यक हो जाता था। इस तरह विवाह विच्छे द के कुछ नियम निर्धारित थे

जो पूर्ववैदिक काल से आधनि


ु क तक स्वीकार की जाती रही है ।
अतंतः विवाह को एक अनिवार्य संस्कार बताया गया जिसे सम्पन्न करना

प्रत्तेक व्यक्ति के लिए धार्मिक एवं सामाजिक बाध्यता थी। सभी वर्णो के लिए इसे

करना आवश्यक माना गया। याज्ञवल्क्य के अनस


ु ार- czkã ण, क्षत्रीय, वैश्य, शद्रू , कोई भी

हो यदि वह विवाहित नही है तो कर्म के योग्य नही है ।

(16) अन्त्योष्ठि संस्कार –

अन्त्योष्ठि का अर्थ है -अन्तिम इष्टि(कर्म)। अतएव अन्त्योष्ठि का तात्पर्य उस

संस्कार से है जिसके आगे उस शरीर के लिए कोई भी अन्य संस्कार शेष नही रहा

जाता है । यह मनुष्य की मत्ृ यु के बाद किया जाता है । इसका उद्देश्य मत


ृ ात्मा को स्वर्ग

लोक में सख
ु और शान्ति प्रदान करना है । बौधायन के अनस
ु ार जन्म के बाद के

संस्कारो द्वारा व्यक्ति इस लोक को जीतता है तथा मत्ृ यु के बाद के संस्कार से

परलोक को विजित करता है ।

जातसंस्कारे णेमं लोकमभिजयति।

मत
ृ संस्कारे णामुं लोकम ्।।1

अन्त्योष्ठि संस्कार की प्राचीनता प्रगैतिहासिक युग तक जाती है । मत्स्यपुराण

में अन्त्योष्ठि के तीन प्रकार बताये गये है । (1) शव जलाना (2) शव का गाड़ना (3) शव

को फेंकना। आमतौर पर हिन्दओ


ु ं को मरने के बाद अग्नि की चिता पर जलाया जाता

है । इसे दाह संस्कार, अन्त्योष्ठि क्रिया, शवदाह, दाग लगाना आदि भी कहा जाता है ।
स्मति
ृ ग्रन्थो के अनुसार वैदिक मंत्रो के साथ अन्तिम संस्कार किया जाना

चाहिए। मत
ृ क को गंगाजल से स्नान करवा कर अर्थी बनाई जाती है । परिजनो मित्रो

द्वारा अर्थी को कंधा दे कर शमशान तक ले जाया जाता है , जिनमे ज्येष्ठ पत्र


ु सबसे

आगे रहता है । शमशान में लकड़ियो की चिता बनाकर शव को उस पर रखा जाता है ।

कुछ धार्मिक कृत्य करने के बाद नारियल, कुश आदि के साथ चिता में अग्नि लगाई

जाती है । अग्नि के प्रज्वलित होने के उपरान्त मंत्रो का पाठ किया जाता है कि है कि

हे अग्नि ! इस शरीर को तू भस्म कर, इसे कष्ट न दे , और न ही इसकी त्वचा और

अवयवो को इधर-उधर कर तथा शरीर भस्म हो जाने के बाद इसी आत्मा को चित ्

लोक में ले जा।1 शव के अवशेष को नदी में प्रवाहित किया जाता है । उसके बाद नदी में

स्नान कर लोग घर लौटने है । शवदाह के बाद अशौच की अवधि प्रारम्भ होती है ।

शास्त्रो के अनुसार czkã ण दस दिन, क्षत्रिय बारह दिन, वैश्य पन्द्रह दिन तथा शूद्र

तीस दिन तक अशौच की स्थिति में रहता है ।

विप्रस्यैतद्द्धीशांह राजन्यस्याप्य शौचकम ्।

अर्थमांस तु वैश्यस्य मांस शद्र


ू स्य शद्ध
ु ये।।2

शुद्धि के बाद शान्ति एवं श्राद्ध क्रिया जाती है । संपिडं ीकरण श्राद्ध के बाद मत
ृ क

को पितरो से मिला दिया जाता है । पिण्डदान, श्राद्ध czkã णभोज आदि से मत


ृ क का
परिवार शुद्ध होता है । श्राद्ध एवं तर्पण प्रत्तेक वर्ष किया जाता है । ये सभी क्रिराये आज

भी हिन्द ू समाज में विधिपर्व


ू क सम्पन्न होती है ।

महत्व

हिन्द ू धर्म में उपयक्


ु त सोलह संस्कारो के विवरण से ज्ञात होता है कि इन

संस्कारो की प्रक्रिया जन्म के पूर्व से लेकर मत्ृ यु के बाद तक फैली हुयी थी। संस्कारो

की व्यापक योजना में व्यक्ति के जीवन को नियमबद्ध किया गया था। वस्तुतः मनुष्य

के विकास एवं परिवार के लिए संस्कारो का अत्यधिक महत्व था।

1. ऋग्वेद, 10.16.1

2. विष्णुपुराण 3.13.19

संस्कार ही इंसान को प्रकृति के नियमों से परिचित कराना और जिस समाज

में हम रहते है , उस समाज के सामाजिक नियमो से परिचित कराना। मनुष्य और प्राणी

में बहुत बड़ा फर्क है । प्राणी के सष्टि


ृ में जन्म लेते समय ही ईश्वार उसे ज्ञान दे ता है ।

इसलिए प्राणियो को सिखाने की जरुरत नही होती। परन्तु मानव में जन्म से जो ज्ञान

होता है , वह सप्ु त रुप मे होता है । यह ज्ञान प्रत्यक्ष रुप में बाहर से दिखाई नहीं दे ता।

यही कारण है कि बच्चे का शरीर साफ रखना उसे खाना खिलाना कोई दस
ू रा करता है ।

इस प्रकार का जो ज्ञान दिया जाता है , उसे संस्कार कहते है । इसी प्रकार उसकी बुद्धि

का परिचय उसके माता-पिता एवं गुरु द्वारा वेदारम्भ एवं उपनयन संस्कार द्वारा दिया
जाता है । जिससे मानव को भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति में आगे बढ़ने का स्तर

प्राप्त होता है ।

अनेक fo}kuks का मत है कि प्राचीन भारतीय जन जीवन में अन्ध विश्वास

की जो भावना थी उसके फलस्वरुप अनेक संस्कारो का जन्म हुआ। अवांछित प्रथाओं

के निराकरण के लिए संस्कारो को अनेक हिन्दओ


ु ने विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्डो एवं

दे वताओ से सम्बन्ध स्थापित किये। यह मान्यता थी कि जीवन का प्रत्येक क्षण किसी

न किसी दे वता द्वारा आधिष्ठित है । अतः प्रत्येक अवसर पर सांस्कतिक व्यक्ति को

आशीर्वाद दे ने के लिए उसी दे वता का उद्बोधन किया जाता था। इस प्रकार संस्कारो

का भौतिक महत्व भी आध्यात्मिक था। वे घरे लू कर्मकाण्ड के रुप में समझे जाते थे।

1. बौधापन, पाराशर स्मति


ृ -3.1.4

संस्कार अभिव्यक्ति के साधन भी थे। सख


ु -दःु ख को व्यक्त करने के लिए

संस्कारो का अनष्ु ठान किया जाता था. संस्कारो का संस्कृति प्रयोजन भी था। यह

मान्यता थी कि अनेक प्रकार के संस्कारो को करने से शरीर की अपवित्रता दरू होती है

क्योकि पैदा होते समय प्रत्येक व्यक्ति शूद्र होता है और उसका संस्कार व परिमार्जन

करना आवश्यक है (जन्मना जायते शुद्धः संस्काराद्द्धिज उच्चते)। उपनयन के द्वारा

मनुष्य दे वता वेदो के अध्ययन के द्वारा विप्र एवं स्नातक कहलाता था एवं czã चर्य

जीवन के उपरान्त उसे समाज में प्रविष्ठ होने का प्रवेश-पत्र प्राप्त होता था।
संस्कार का आध्यात्मिक महत्व भी था। ये आध्यात्म को प्राप्त करने का एक

साधन था। इसके द्वारा संस्कारिक व्यक्ति यह अनुभव करता था कि सम्पूर्ण जीवन

वास्तव में संस्कारमय है और सम्पर्ण


ू दै हिक कार्य आध्यात्मिक ध्येय से अनप्र
ु ाणित है ।

यही वह मार्ग था जिससे सांसारिक जीवन का समन्वय आध्यात्मिक तत्वो के साथ

स्थापित किया जा सकता है । अतः संस्कार स्वर्ग एवं मोक्ष के साधन माने गये।

संस्कारो द्वारा अनेक सामाजिक समस्यायो का समाधान भी होता है । जन्म के

पर्व
ू के संस्कार यौनविज्ञान एवं प्रजननशास्त्र की शिक्षा प्रदान करते है । विधारम्भ से

समावर्तन तक के संस्कार शैक्षिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इसी प्रकार विवाह के विधि -

विधान से अनेक सामाजिक समस्याओ का निदान होता है । अन्त्योष्ठि संस्कार से

मत
ृ क के प्रति जीवितो का कर्तव्य पालन होता है , जिससे गहृ स्य धर्म में स्थायित्व

आता है । सभी संस्कार मनष्ु य के पवित्रि भावनाओ के प्रतीक है । ये बौद्धिक , सामाजिक,

आध्यात्मिक उन्नति के साधन के रुप में आपनाये जाते है । यधपि आज के वैज्ञानिक

युग में संस्कारो का प्रचलन कम हो गया है तथापि कुछ संस्कार जैसे नामकरण ,

चूड़ाकरण, उपनयन, विवाह अन्तयोष्ठि जैसे संस्कार अपने महत्व को अक्षुण्ण बनाये हुये

है ।

(1) त्रिवषोद्धहे त ् कन्यां ह्रघां द्धादशवार्षिकीम ्


ऋष्टवर्षोडष्टवर्षो वा धर्मे सीदति सत्वर- मनुस्मति
ृ 9.94

(2) पञ्चविंशे ततो वर्से पुमान ् नारी तु षोडशे


समत्वागतवीयाँ तौ जानीयात ् कुशलो भिषक् -सुश्रुत, 35 सुतस्थान

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