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प्राचीन भारतीय संस्कार Correction
प्राचीन भारतीय संस्कार Correction
अध्याय-1
दस
ू रे समाज में प्राप्त नही होती इसका कारण यह है कि जहाँ हमने आध्यात्मिकता
पर बल दिया है वही दस
ू रे दे शो में भौतिकता को प्रधान माना गया है । हमारे प्राचीन
ऋषि दार्शनिक के साथ-साथ वैज्ञानिक भी थे, उन्होने जीवन को जन्म के पूर्व से लेकर
अविच्छिन्न रुप से जोड़ दिया ताकि मनुष्य का वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास हो,
दै हिक एवं भौतिक जीवन सर्वागीण उन्नति तथा पारलौकिक जीवन में मोक्ष की प्राप्ति
हो सके। संस्कारो की व्यवस्था के पीछे प्रमुखतः दो उद्देश्य रहे है -पहला व्यक्ति में
माता-पिता के वीर्य, रक्त, भ्रूण एवं गर्भाशय से उत्पन्न दोषों एवं सामाजिक सम्पर्क से
करना। इस प्रकार संस्कार वे धार्मिक कृत्य अथवा अनुष्ठान है जिनके द्वारा व्यक्ति
में उत्पन्न स्वभाविक दोषो को दरू करके आवश्यक सद्गुणो का विकसित किया जाये।
संस्कार शब्द ^कृअ^ धातु में ^ध^ प्रत्यय के योग से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ शुद्धता
जाता है जिसका अर्थ है धार्मिक विधान। मीमांशा के अन्तर्गत इसका अर्थ विधिवत
शुद्धि से है तथा अद्धेत वेदान्ती भाव से इसका सम्बन्ध आत्म व्यजन शान्ति से है ।
डा0 राजबली पाण्डेय ने संस्कार की परिभाषा करते हुये कहा है कि इसका अभिप्राय
लिए किये जाने वाले अनुष्ठानो से है जिससे वह समाज का पूर्ण विकासिक सदस्य हो
वा2 अर्थात जिन प्रकियायो से गुणो का आधान तथा दोषो का अपनयन हो उसे संस्कार
प्रकृतलभ्य मणि के रुवरुप में परिवर्तन का प्रयास करता है उसी प्रकार व्यक्ति के
काल की प्रवत्ति
ृ यो के अनुसार परिर्वतित हो सकता है परन्तु सिद्धान्त वही रहता है ।
प्राचीन काल मे संस्कार का अनुष्ठान वैदिक मंत्रो के साथ किया जाता था, आज इष्ट-
संस्कारो के प्रकार
संस्कारो का उदय वैदिक युग में ही हो गया था ऐसा वेदो के कर्मकाण्डीय सूत्रो
से ज्ञात होता है परन्तु संस्कार शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में नही मिलता। इसी
प्रकार वैदिक साहित्य के बाद czkã.k ग्रन्थो में भी उपनयन, अन्त्येष्ठि आदि संस्कारो
के अंगो का वर्णन मिलता है परन्तु संस्कार नामक शब्द उपलब्ध नही है । संस्कारो का
मतभेद बहुत मिलता है । हिरण्यकेशि तथा कौशिक x`ãlw= में संस्कारो की संख्या 10
जो सैद्धान्तिक रुप से अनुचित प्रतीत होता है क्योकि भारतीय परिवार में संस्कार तो
की संख्या 18 बताई गई। इसी प्रकार अश्वलायन x`ãlw=, खादिर एवं जैमिनि मे 11,
को छोड़कर मनु द्वारा वर्णित शेष बारह संस्कारो का विधान है । संख्या सम्बन्धित
है जो निम्न है - (1) गर्भाधान (2) पुंसवन (3) सीमन्तोन्नयन (4) जातकर्म (5) नामकरण (6)
निष्क्रमण (7) अन्नप्राशन (8) चूड़ाकर्म(मूण्डन) (9) कर्णवेध (10) विधारम्भ (11) उपनयन (12)
सम्पन्न होते है । इसमें प्रथम तीन संस्कार जन्म के पूर्व के है उसके बाद के छः
संस्कार बाल्यावस्था में सम्पन्न किये जाते है (4 से 9 तक) आगे के पाँच (10 से 14 तक)
कहते है । यह हिन्द ू समाज में किये जाने वाला प्रथम संस्कार है । इस संस्कार का
संतान की कामना द्वारा स्त्री के गर्भ में पुरूष द्वारा संतान के बीजारोपन से है । इस
प्रकार विवाहोपरान्त (सन्तान की कामना से) जिस कर्म द्वारा गर्भ धारण किया जाय
कर्म नामधेयम।”1
होने के चौथे दिन के उपरान्त पाँचवे दिन स्नान करने के पश्चात ^आदित्व गर्भमिति^
मन्त्र से आहुति दे ते हुये हवन करना चाहिए। शास्त्रो में गर्भाधान के लिए शभ
ु नक्षत्र
तथा तिथियो का भी वर्णन है । इस सम्बन्ध में कहा गया है कि विवाह की चौथी रात्रि
प्राप्ति होती है । मनु के अनुसार अष्टमी, चतुर्द शी, अमावस्था तथा पर्णि
ू मा को गर्भाधान
मनु ने कहा है कि अपनी पत्नी के प्रति सत्यव्रती रहते हुये पुरुष का धर्म है कि ऋतु
काल में उसके समीप जाय पाराशर ने यहा तक कहा है कि जो ऐसा नही करता
गर्भ को सदै व के लिए पवित्र करने के लिए इस संस्कार को करना अनिवार्य था।
संस्कार का सम्पादन x`g.kh में होम }kjk होना चाहिए इसके बाद के गर्भाधान के
2. पस
ु ंवन संस्कार
के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन भाव सभी को उत्तम बनाने का प्रयास किया जाय
पुसव
ं न संस्कार सम्पन्न कराये जाने की व्यवस्था की गई है क्योकि इस समय तक
करने से गर्भिणी पुरुष संतान को ही उत्पन्न करे ।1 याज्ञवल्क्य इसे पुत्र के लिए किये
उपरान्त से लेकर आठवे मास के बीच सम्पन्न होता था। जब चन्द्रमा पुरुष नक्षत्र में
स्थित होता था तब यह संस्कार पुत्र के मंगलकारी होने के लिए किया जाता था।
करना है । इसके अन्तर्गत वंश परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र की कामना की
जाती है । इस संसार में रात्रि के पहर गर्भवती स्त्री की नाक के दाहिने छे द में बरगद
जा सके।
इस प्रकार पंस
ु वन संस्कार गर्भ के समचि
ु त शारीरिक विकास की ओर माता पिता का
ध्यान आकृष्ट करने के लिए किया जाता है । इसमें अन्तर्हित मूल धारणा यह है कि यदि
गर्भिणी की कोई अंग रुग्ण है तो गर्भस्त शिशु का भी वह अंग प्रभावित होगा। अतएव
1. अश्वलायन गह्
ृ नसुत्र (14.9)
2. याज्ञवल्क्य स्मति
ृ (1.11)
(3) सीमन्तोन्नय
गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है । इस
‘चतर्थे
ु मासे सीमन्तोन्नयनमापर्य
ू माणपक्षै यदा पंस
ु ा नक्षत्रे चन्द्रमा यक्
ु त
स्यात ्’।1
इसमें स्त्री के केशों (सीमान्त) को ऊपर उठाया जाता है । ऐसी अवधारणा थी कि गर्भवती
स्त्री के शरीर को दष्ु ट आत्मायें विभिन्न प्रकार की बाधा पहुँचाती है जिनके निवारण
के निमित्त कुछ धार्मिक कृत्य किये जाने चाहिए। इसलिए इस संस्कार का विधान
है । जिस दिन यह संस्कार होता है उस दिन स्त्री व्रत रखती है तथा पुरुष मातप
ृ ूजा
वेद मन्त्रो के उच्चारण के साथ संस्कार सम्पन्न कराया जाता है । ऐसे समय
स्त्रियाँ उसे वीर पुत्र जन्म दे ने वाली कहकर आर्शीवाद दे ती है । पुराणो में कहा गया है
कि गह्
ृ स्थ को प्रयत्नशील होकर यह संस्कार करते समय नान्दी मख
ु पितरो की पज
ू ा
करनी चाहिए।
नान्दीमुख पितग
ृ ण्र पज
ू येत्पयतो गह
ृ ी ।।1
किया जाता है ।
चाहिए।2
सन्तान के जन्म के समय किये जाने वाले प्रमुख कर्म है -गर्भावरण जरायु(उल्व)
को हटाकर बच्चे के मुख, नासिका आदि का सफाई, सिर पर घी का फाया रखना तथा
बालक को चटाया जाता है । इसके माता के गर्भ में जो रस पिने का दोष है , वह दरू हो
वह्
ृ दारण्यकोनिषद में इस संस्कार के प्रमख
ु अंश बताये गये है -(1) दही तथा घी
के साथ मन्त्रो द्वारा होम करना (2) कान में वाक शब्द का तीन बार उच्चारण (3) सोने
के चम्मच से बच्चे को दही, मख्खन और घी चटाना (4) नाम रखना (5) माता के स्तन
1. पारासर x`ãlw=
3. वह
ृ दारण्यनिषदा 1.4.2
तीन बार अपना साँस छोड़ जिसका तात्पर्य उसको तीन वेदो का ज्ञान दे ने या दिलाने
कल्याणकारी मन्त्रो का उच्चारण करता है । ये सारी क्रियाये इश्वर की दृष्टि में जच्चा
प्रायः सभी x`ãlw=ks में की गई है , पर कई पक्षों में उसके विवरणो में अन्तर दिखता
है । वह
ृ दारण्यकोपनिषद महाभाष्य आदि में जन्म के दिन ही नाम रखने का विधान
पूजन के साथ अग्रिसोम आदि को आहुतियाँ दी जाती है । इसके साथ निम्न कार्य
जाती है । (2) मधु प्राशन के लिए शहद तथा चाटने के लिए चाँदी की चम्मच वह न हो
तो चाँदी की सलाई आदि का प्रयोग किया जा सकता है । (3) नाम धोषणा के लिए
सुन्दर थाली में निर्धारित नाम को चन्दन रोली से लिखकर उस पर एक स्वच्छ वस्त्र
विष्णु, शंकर), मास नाम, नक्षत्र नाम तथा व्यावहारिक नाम। मनु ने वर्णो के बोधक नाम
रखने का संकेत दिया है जैसे czkã.k का नाम मांगलिक तथा सन्तोजनक होना
चाहिए, क्षत्रिय का नाम बल शक्ति या रक्षात्मक होना चाहिए जैसे शक्ति सिंह। वैश्यो
दास अथवा सेवाभाव का सूचक होना चाहिए जैसे रामदास , चरणदास। इसी प्रकार से
नाम के अन्त मे शर्मा, क्षत्रिया वर्मा, वैश्य गुप्त तथा शूद्र दास लिखे।
पूर्व संस्कारो में जो हीन हो, उनसे मुक्त कराना, जो श्रेष्ठ हो उनका आभार मानना
प्रवत्ति
ृ यो, आकांक्षाओ के स्थापन, जागरण के सत्र
ू ो पर विचार करते हुये उनके अनरु
ु प
वातावरण बनाना चाहिए। शिशु पुत्र हो या पुत्री भेदभाव को स्थान नही दे ना चाहिए।
श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना
चाहिए।
बालक को प्रथम बार घर से बाहर निकाला जाता है । इस संस्कार में शिशु को सर्य
ू
तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है । भगवान भाष्कर के तेज तथा चन्द्रमा
की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है जिससे कि शिशु तेजस्वी
पारस्कर गह्
ृ नसूत्र(1.17) में इस संस्कार का समय चौथा महीना बतलाया गया है
काल को चिकित्साशास्त्र सम्मत माना गया है । गोभिल x`ãlw= मे तीसरे महीने तथा
कात्यायन-x`ãlw= में तीसरे -चौथे महीने का उल्लेख है । इस संस्कार के निर्देशो में कोई
भी मल
ू गत भेद नही है क्योकि शिशु जब भी वातावरण से समायोजन में समर्थ प्रतीत
मांगलिक तिथि में दे वताओ का पूजन वंदन करते हुये वैदिक मंत्रो का पाठ किया जाता
है । इसके बाद माँ बच्चे को लेकर बाहर निकलती थी तथा उसे प्रथम बार सूर्य दर्शन
कराया जाता था इसी के साथ उसका घर के बाहरी वातावरण से भी संम्पर्क होता था।
टुयूमर, कमजोर आस्थि तथा शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में अनियमितता आदि
फलतः सर्य
ू दर्शन पर्ण
ू तः वैज्ञानिक
जब पेय पदार्थ, दध
ू आदि के अतिरिक्त अन्न दे ना प्रारम्भ किया जाता है तो वह
शभ
ु ारम्भ यज्ञीय मंत्रोच्चार यक्
ु त धर्मानष्ु ठान के रुप में होता है । इसी प्रक्रिया को
अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है । इसका समय छठवाँ महीना माना गया है जब कि
लिए दाँत होते है और न ही अन्न पचाने में समर्थ पाचनशक्ति फलतः बालक जन्म
से माँ के दध
ू पर जीवित रहता है परन्तु बच्चा सारा जीवन माँ के दध
ू पर निर्वाह नही
कर सकता क्योकि दध
ू में सब प्रकार के पोषक तत्वो का समावेश होने पर भी अन्न
पचाने में समर्थ हो रही है अब वह अन्नका आहार ग्रहण कर सकता है । इससे सिद्ध हो
x`ãlw=ks में इस संस्कार पर पर्याप्त उल्लेख किया गया है । इसके अन्तर्गत शिशु को
खिलाने का विधान है । गहृ सूत्रो में इस संस्कार के समय शिशु के वाणी में प्रवाह लाने
के लिए भारद्वाज पक्षी का माँस तथा उसमें कोमलता लाने के लिए मछली खिलाई
जाती थी। इसका उद्देश्य बच्चो के शारिरिक तथा बौद्धिक दृष्टि से स्वस्थ बनाना था।
आहार पर लाया जाता है और उसी अनुपात में माँ बच्चो के स्तनपान की आवत्ति
ृ
बालक के जन्म से समय ही छोटे -छोटे बाल उसके सिर पर होते है । इस बाल
है - ’शिखर‘ या ’चोटी‘। इस संस्कार में शिखा को छोड़कर गर्भकाल से प्राप्त सारे केश
मुड़वा दिये जाते है । आचार्य सुश्रुत के अनुसार मस्तक के भीतर ऊपर की ओर शिरा
प्रकार का अघात लगने से तत्काल मत्ृ यु हो जाती है ।1 अतः इसकी सुरक्षा के लिए
किया जाना चाहिए।1 पारस्कर के अनुसार यह संस्कार जन्म के प्रथम वर्ष के अन्त में ,
तीसरे , पाँचवे, अथवा सातवे वर्ष में करना चाहिए।2 फलतः जन्म के तीसरे वर्ष में चड़
ू ाकर्म
सम्पन्न अधिक वैज्ञानिक है । पहले यह संस्कार घर में ही होता था किन्तु बाद में इसे
धार्मिक स्थल(मन्दिर) में दे वता के सामने किया जाने लगा। प्रारम्भ में संकल्प गणेश
पूजा, मंगल श्राद्ध आदि सम्पन्न होने के साथ-साथ ckã.kks को भोजन कराया जाता
था। इसके बाद बच्चे का बाल काटा जाता था। कटे हुये बाल को गोबर में छिपा दिया
जाता था। बालो को गोबर में ढँ कने के पीछे यह धारण थी कि वे शरीर के अंग है , अतः
वे शत्रओ
ु द्वारा जाद-ू टोने के शिकार न हो जाय। इसके बाद बालक के मड़ि
ु त सिर पर
दे ना। इस संस्कार में बालक के कान छे दकर उसमें बाली अथवा कुण्डल पहना दिया
1. मनुस्मति
ृ , 2/65
2. पारास्कर गह्ृ नसत्र
ू 0 2/1, 1/2
3. चरक संहिता 5.93
1. बालक की रक्षा तथा आभूषण धारण करना
है । गर्ग के अनस
ु ार छठा. सातवाँ आठवाँ अथवा बारहवाँ वर्ष कर्णभेद के लिए उपयक्
ु त
है ।1 सुश्रुत ने छठा अथवा सातवाँ वर्ष इस संस्कार के लिए उचित माना है ।2 संस्कार
चाहिए जबकि शिशु छे दन से होने वाले कष्ट को सहन कर सके , साथ ही उसके कान
कोमल भी बने रहे अन्यथा छे दना कठिन होगा। कर्णवेधन के लिए सोना, चाँदी, तथा
लोहा की सूइयो का प्रयोग विभिन्न वर्ण के बालको के लिए होता था। क्षत्रिय बालक
का कर्णवेध स्वर्ण की सूई से, czkã.k तथा वैश्य का रजत की सूई से तथा शूद्र का
लोहे की सूई से किये जाने का विधान मिलता है ।3 यह धार्मिक रीति रिवाज से सम्पन्न
बाद वैदिक मन्त्रो के बीच पहले दायाँ तथा फिर बायाँ कान छे दा जाने के बाद आभष
ू ण
उल्लेख अर्थवेद में भी प्राप्त होता है और जिसे न करना पाप समझा गया। दे वल की
माध्यम भी है ।
शिक्षा का आरम्भ fo|kjEHk संस्कार से किया जाता था। जिसमे उसको अक्षरो का
बोध कराया जाता था। इसी कारण कुछ लोग इसे अक्षराम्भ भी कहते है । यह संस्कार
प्रायः धौल संस्कार के बाद ही किया जाता था। इसका समय जन्म के पाचवे वर्ष
fo|kjEHk संस्कार एक शुभ दिन एवं मुहूर्त में सन्पन्न होता था। उस दिन
लेखनी, पूजने के लिए, बच्चो को लिखने में सुविधा हो इसके लिए स्लेट, खड़िया भी रखी
पर्व
ू दिशा की ओर बैठकर पट्टी पर बालक से “ओम ्”, स्वाति, नमः सिद्धाय आदि
किया जाता था। गणेश को वि|k और सरस्वती को शिक्षा का प्रतीक माना गया है । वि|
k और शिक्षा एक दस
ू रे के पूरक है । शिक्षा के अन्तर्गत भाषा, लिपि, गणित, इतिहास,
शिल्प, रसायन, चिकित्सा, कला, विज्ञान आदि विभिन्न प्रकार के भौतिक ज्ञान इसी क्षेत्र
में आते है जो कि वि|k लयो एवं स्कूलो में पढ़ाई जाती है । शिक्षा से मस्तिष्क की
क्षमता विकसित होती है जबकि वि|k का अर्थ विवेक की शक्ति। सद्गुण इसी वर्ग में
गिने जाते है । विवेक के }kjk ही बालक उचित अनुचित एवं कर्तव्य अकर्तव्य में
जाता था।
स्थापना का प्रयास किया जाता है जिनके आधार पर उसकी शिक्षा मात्र ज्ञान न रहकर
जीवन निर्माण करने वाली हितकारी वि|k के रुप मे विकसित हो सके। समारोह द्वारा
बालक के मन में ज्ञान प्राप्ति के लिए उत्साह पैदा किया जा सके जिससे ज्ञानपरक
प्राचीन हिन्द ू संस्कारो में ’उपनयन‘ सबसे संस्कार अधिक महत्व था। इस
संस्कार के अनन्तर है बालक के जीवन में भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग
प्रशस्त होता है ।
बालक को शिक्षा के निमित्त गुरु के समीप ले जाने से है । जबकि इसके पहले fo|
kjEHk संस्कार के }kjk बालक केवल अक्षरो के ज्ञान का शुभारम्भ करता है।
सामान्य तथा लिखने, पढ़ने एवं प्राराम्भिक गणित की शिक्षा तो बालक घर से ही प्राप्त
करता है । परन्तु उपनयन संस्कार में व्यापक अध्यायन के लिए बालक को गरु
ु के
पास भेजा जाता था। इसलिए ड़ा0 अल्तेकर ने उपनयन का शाब्दिक अर्थ बताया है
करे ।1
वैदिक यग
ु में यह एक प्रचलित संस्कार था। ऋग्वेद में दो स्थानो पर
“czã चर्य” शब्द का उल्लेख धार्मिक वि|k र्थी के जीवन के अर्थ में हुआ है । गौतम
और मनु प्रभति
ृ शास्त्रकारो की मान्यता के अनुसार czkã.k बालक का उपनयन आँठवे
वर्ष में , क्षत्रिय बालक का ग्यारहवे वर्ष में और वैश्य बालक का बारहवें वर्ष में होना
इसलिए शद्र
ू ो का इस संस्कार से वंचित रखा गया।
(महिलाओ बाकि)
2. गौतम धर्मसूत्र-1.6.12
बालक का उपनयन संस्कार का एक शुभ समय में होता था। czkã.k का संस्कार
बसन्त ऋतु में , क्षत्रिय का ग्रीष्म में तथा वैश्य का पतझड़ में किये जाने का विधान था।
उपनयन की तिथि से एक दिन पहले बालक को व्रत रखना पड़ता था। व्रत के बाद वाले दिन
प्रातः काल बालक अपनी माँ के साथ एक ही पात्र में भोजन करता था। जो कि माँ के साथ
डा0 राजबली पाण्डेय के अनुसार यह माँ-बेटे की विदाई भोज भी हो सकता है जो पुत्र के प्रति
माता के गहरे स्नेह को प्रकट करता है ।2 तत्पश्चात बालक का मुण्डन और स्नान होता था
फिर वह कौपीन वस्त्र धारण करता था। कमर के चारो ओर तीन लड़ियो वाली मेखला बाँधी
उत्तरीय वस्त्र दिया जाता था जिससे वह अपने शरीर का ऊपरी भाग ढ़कता था। कालान्तर में
वर्णों के वि|k र्थी क्रमशः कपास, ऊन तथा सन की जनेऊ धारण करे ।1 बाद में सभी के लिए
कपास का जनेऊ धारण करने की मान्यता प्रदान की गई। जनेऊ में तीन डोरिया होती थी। ये
3. मनु स्मति
ृ -2.44
इसको धारणा करने वालो को यह भी याद दिलाती थी कि उसे अपने पूर्वजो के
प्रति तीन ऋण-दे व, ऋषि दे व, पित ृ ऋण से उत ्ऋण होना है । वस्तुतः वैदिक कर्मकाण्ड
czkã.k के लिए पलाश, क्षत्रिय के लिए उदम्ु बर तथा वैश्य के लिए विल्व की लकड़ी
करना, झूठ त्यागकर सत्यपान का पाँच बार व्रत ग्रहण करना , अपनी अन्जलि का जल
बालक की अन्जलि में तीन बार छोड़ना आचार्य }kjk शिष्य की उन्नति के लिए
संकल्प करना, उसे सूर्यदर्शन कराना, शिष्य }kjk आचार्य की प्रदक्षिणा करना तथा गुरु
}kjk शिष्य का हृदय स्पर्श करना। इन सभी का अभिप्राय है कि शिष्य परू ी तरह गरुु
अनस
ु ार इसका सर्वोच्च ध्येय वेंदा का अध्ययन करना था। जहॉ गरु
ु शिष्य को
अधिकारो एवं कर्तव्यो को समझने लगे। इस संस्कार के बाद ही बालक अपने वर्ग तथा
समाज का पूर्ण सदस्य बन जाता था और उसे अपने पर्व
ू जो की सास्कृतिक विरासत
प्राप्त करने का अधिकार मिल जाता था। इस समय से उसे कर्तव्यो, आकाक्षाओ,
उत्तरदायित्यो, आशाओ का एक नया संसार प्राप्त होता था जिसमे रहते हुये वह अपने
व्यक्तित्व का पर्ण
ू विकास कर सकता था यह बालक के नये जीवन का सत्र
ू पात था।
यह जीवन था पूर्ण एवं कठोर नियन्त्रण का। इसी नियन्त्रण में रहकर वह प्रकाण्ड
fo}ku एवं सफल नागरिक बन जाता था। इस प्रकार उपनयन संस्कार का आदर्श
समाविष्ट करना शुरु करे यही अभिप्राय है । इस संस्कार का सर्वप्रथम उल्लेख व्यास
स्मति
ृ मे मिलता है । प्रारम्भिक समय में उपनयन तथा वेदो का अध्ययन प्रायः एक
ही साथ प्रारम्भ होता था। बाद में वेदो का अध्ययन मंद पड़ गया तथा संस्कृत बोल
चाल की भाषा नही रह गई। इस प्रकार उपनयन एक शारीरिक संस्कार हो गया जिसके
साथ बालक वेद अध्ययन के स्थान पर अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने लगा। अतः
वि|k र्थी को उसके पश्चिम में आसीन करता था। ऋग्वेद का अध्ययन प्रारम्भ करने के
अन्तरिक्ष तथा वायु को, सामदे व के अध्ययन में |kS स तथा सूर्य को और अथर्ववेद के
अध्ययन के समय दिशाओ एवं चन्द्रमा को आहुतियाँ दी जाती थी। मनु का कथन है
कि इस संस्कार में शिष्य को czã ज्जलि बाँधकर, आचमन कर, हल्के वस्त्र धराण
करना चाहिए।1 वेदाम्भ मे तथा अन्त मे ओम ् का उच्चारण करना चाहिए।2 प्रारम्भ में
उच्चारण न होने से अध्ययन नष्ट हो जाता है तथा अन्त मे न करने से ठहरता नही
उद्देश्य है ।
प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्व रखता था।
अनुशासित एवं संयमित जीवन जीने के साथ-साथ czã चर्य को कठोर रुप से पालन
करने के लिए आचार्य बालक से प्रतिज्ञा करवाता था। जिससे कि बालक एक श्रेष्ठ
नागरिक बन सके।
1. मनुस्मति
ृ , 2.70
2. मनुस्मति
ृ , 2.74
3. मनुस्मति
ृ , 2.74
(12) केशान्त संस्कार
जैसा कि नाम से ज्ञात होता है केशान्त का तात्पर्य केश(बाल) का अन्त। इस
अन्तर यह है कि चड़
ू ाकर्म संस्कार जातक के जन्म के समय से जो केश उसके सिर
पर होते है उन्हे पहली बार उतरवाने का संस्कार है जबकि केशान्त संस्कार में
जाता है । इस दौरान बालक के सिर के बाल पुनः उतारे जाते है । मनु का कथन है कि
czkã.k का सोलहवें वर्ष, क्षत्रिय का बाइसवें वर्ष तथा वैश्य की चौबीसवें वर्ष में केशान्त
यह संस्कार किसी शुभ मुहूर्त मे सम्पन्न किया जाता था। शास्त्रानुसार विधि
विधान से व्रतो का पालन करते हुये शिष्य गुरु की आज्ञानुसार गणेश आदि दे वताओ
की पज
ू ा अर्चना के पश्चात अपने सिर, दाड़ी एवं मोछो के बाल कटवाता है । तत्पश्चात
स्नान करने के पश्चात बालक को गुरु }kjk स्नातक की उपादि दी जाती थी। इस
संस्कार के अवसर पर गुरु को गौ दान में दी जाती थी। अतः इसे गोदान संस्कार भी
कहा जाता था। इस दौरान गुरु शिष्य को czã चर्य और सदाचार का उपदे श दे ता था
1. मनस्ु मति
ृ , 2.65
(14) समावर्तन संस्कार
प्रयावर्तन या लौटना है । एक वेद के अध्ययन में प्रायः बारह साल लगता था।
czã चारी अपनी योग्यता एवं सामर्थ के अनुसार एक या सभी वेदो का अध्ययन करता
था। कुछ लोग आजीवन czã चर्यव्रत का पालन करते थे। इस प्रकार समावर्तन संस्कार
लिए अनिवार्य था और अधिकांश czã चारी उसी न्यूनतम अपेक्षा का ध्यान में रखकर
अध्ययन करते थे, अतः सामान्य रुप से समावर्तन का समय 24 वाँ वर्ष माना गया।
यह संस्कार किसी शभ
ु मह
ु ू र्त में सम्पन्न किया जाता था। उस दिन czã चारी
को एक प्रकोष्ठ में बन्द रहना पड़ता था क्योकि यह मान्यता थी कि czã चारी के तेज
से सूर्य की दे दीव्यता मंद पड़ जायेगी। 1 मध्याह्न में वि|k र्थी कमरे से बाहर निकलकर
गुरु का चरण स्पर्श करता था तथा वैदिक अग्नि में समिधा एकत्रित कर यज्ञवेदि में
उसके स्नान हे तु आठ जलपूर्ण कलश वहा रखे जाते थे जो इस तथ्य के प्रतीक होते थे
कि czã चारी के ज्ञान का विस्तार पथ्ृ वी की समस्त दिशाओ में वर्षाजल की तरह
वह दण्ड मेखला मग
ृ चर्म आदि का परित्याग कर नया कौपीन (वस्त्र) पहनता था। वि|
k र्थी जीवन की समाप्ति के लिए गरुु से प्रार्थना करता हुआ शिष्य अनेक प्रकार की
czã चारी को गहृ स्थ जीवन में प्रवेश करने तथा विवाह करने की अनुमति प्रदान करता
था।
इस अवसर पर गरु
ु शिष्य को गहृ स्थाश्रम के योग्य शिष्टाचार बतलाता था
अनग
ु ामी होने की सीख दे ता था। इन सभी उपदे शो की तैतरीय czkã.k में विशद
व्याख्या है । समावर्तन के पश्चात czã चारी को स्नातक (स्नान किया हुआ वि|k र्जन
कर चक
ु ा) कहा जाता था। आजकल विश्ववि|k लयो में प्रचलित दीक्षान्त समारोह का ही
समस्त संस्कारो में विवाह संस्कार का अत्यन्त महत्व है क्योकि इसकी महत्ता आज
भी वि|मान है । czã चर्य से गहृ स्थ आश्रम का प्रवेश इसी संस्कार के द्वारा होता था। हिन्द ू
परिपक्वता आ जाने पर यव
ु क यव
ु तियो का विवाह कराया जाता है । इस संस्कार के द्वारा
के गह
ृ स्थ बनने पर ही निर्भर करती है ।
सहयोग से मनष्ु य को सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्य का पालन करने योग्य बनाना है ।
का पालन और यौनतुष्टि।2 हिन्द ू समाज में कोई भी धार्मिक कृत्य स्त्री के बिना पूरा
नही होता केवल पुरुष अधुरा माना जाता है । अर्धनारीश्वार की कल्पना इसी तथ्य को
उसकी प्राप्ति विवाह से ही सम्भव है । अतः विवाह को czkã.k, क्षत्रिय, वैश्य, शद्रू सभी
प्रतिपादित की गयी है ।1 ऐसा न करने वाले अभिभावक तथा उसके पितरो को नरकभोगी
योग्यतायो और गुण, गोत्र और वर्ण आदि का विचार किया जाता था। विवाह संस्कार के
गणपतिपज
ू ा, पाणिग्रहण सप्तपदी, ह्रदयरस्पर्श, सिन्दरू दान, दक्षिणादान, गह
ृ प्रवेश, चतुर्थीकर्म,
दे वकोत्थापन पण्डयोद्धासन आदि सम्पादित किये जाते थे। प्रायः पैतालीस अनष्ु ठान
विवार के प्रकार-
मनुस्मति
ृ -3.21
(I) czã विवाह-
सत्कार कर वस्त्राभष
ू णो से सस
ु ज्जित कन्या को प्रदान करता था। इस अवसर पर वह
उसे कुछ उपहार दे ता था यह विवाह स्वेच्छा अथवा बिना किसी दबाब के सम्पन्न
(II) दै व विवाह-
इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता किसी यज्ञ का आयोजन करके बहुत
सम्पन्न करा लेता था, उसे पिता अपनी कन्या को दक्षिणा स्वरुप प्रदान करता था।
चँकि
ू यह विवाह दे वताओ के लिए यज्ञ किये जाते समय सम्पन्न होता था इसलिए
इसे दै व विवाह की संज्ञा प्रदान की गई। विवाह की यह प्रथा वैदिक यज्ञो के साथ ही
एक गोमिधन
ु ं द्धे वा वरादायाय धर्मतः
(1) मनुस्मति
ृ , 3. 28
(2) मनुस्मति
ृ , 3.29
विवाह मख्
ु यतः परु ोहित परिवार में ही प्रचलित था। अल्टे कर के अनस
ु ार वर }
kjk कन्या के पिता को दिये गया गाय-बैल को कन्या मूल्य मानते हुये इसे आसुर
विवाह का परिस्कृत अवशेष बताते है ।1 किन्तु हिन्द ू शास्त्रकार इसे कन्या मूल्य नही
मानते। कुल्लुक भट्ट के अनुसार यह उपहार धर्मत स्वीकार किया जाता था। इससें
कन्या ब्रिक्री का कोई इरादा नही था। इस प्रकार यह विवाह आसुर विवाह से भिन्न
था।
हुये अपनी पुत्री को दे ता है कि तुम दोनो साथ-साथ मिलकर सामाजिक एवं धार्मिक
कर्तव्यो का निर्वाह करे । जैसा कि ’प्रजापति‘ नाम से भी यह अर्थ ध्वनि होता है कि
हो। अपने स्वरुप में यह विवाह czã जैसा ही है। इसलिए वशिष्ट, आपस्तंब आदि
प्रारम्भिक सूत्रकार इसका उल्लेख नही करते। इस प्रकार से czã अथवा प्रजापत्य
जाते थे। जबकि अन्त के चार प्रकारों का शास्त्रकार मान्यता नही दे ते। इनका विवरण
निम्म प्रकार है -
(V) आसुर विवाह- इस प्रकार के विवाह में वर कन्या के पिता या उसके सम्बन्धी को
वस्तु थी।
माना गया है । बौधायन ने क्रय द्वारा बनाई गई पत्नी को अवैध माना है ।1 किन्तु यह
निन्दनीय होने के बावजूद भारत के कुछ परिवारो में इसका प्रचलन रहा जो आज भी
बिना ही प्रेम में वशीभूत होकर स्वंय विवाह कर लेते थे। वह गान्धर्व विवाह कहलाता
विवाह बताया गया है । इसी प्रकार वात्स्यायन ने इसे “सबसे पूजित” बताया है ।
चँकि
ू इस विवाह का प्रचलन अधिकतर गान्धर्व जाति के लोगो में था, अतः इस गान्धर्व
2. मनुस्मति
ृ 3.32
(VII) राक्षस विवाह- इस विवाह के अन्तगर्त कन्या अथवा उसके माता पिता की स्वीकृति
के बगैर बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर उससे विवाह किया जाता था। मनु के
अनुसार “कन्या पक्ष वालो की हत्या कर, घायल कर, उनके घरो को गिराकर, रोती-
चिल्लाती हुई कन्या को बलात ् उठा लाना तथा उसके साथ विवाह करना ही राक्षस
विवाह है ।
यह आदिम जनजातियों अथवा युद्धप्रिय जनों में अधिक प्रचलित थी। महाभारत
में इसे “क्षात्र धर्म” कहा गया है । मनु ने क्षत्रियो के लिए इसे प्रशंसनीय कहा (राक्षस
में विवाह के अवसर पर युद्ध तथा हरण का अभिनय किया जाता है जो इस विवाह -
(VIII) पैशाच विवाह- यह विवाह का सबसे निकृष्टतम प्रकार माना गया है । मनु के
अनुसार इसमें व्यक्ति सुप्त, मत्त अथवा अचेतन कन्या के साथ छल-कपट एवं बल
अन्तर्गत था। अतः सभी धर्मग्रन्थों में इसे अधार्मिक, निन्दित एवं नितान्त असभ्य
एवं बर्बर प्रथा बताया है । आपस्तम्ब एवं वशिष्ट आदि fo}kuks ने इसे विवाह भेद में
स्थान ही नही दिया है । सम्भवतः पश्चिमोत्तर भारत की पिशाच जाति में यह विवाह
इस प्रकार हिन्द ू विवाह एक पवित्र धार्मिक संस्कार माना गया है । जिसे जन्म
जन्मान्तर का सम्बन्ध स्वीकार किया गया है । इसे सरलतापूर्वक समाप्त नही किया
विज्ञानेश्वर के अनस
ु ार यदि पत्नी रोगग्रस्त, हिंसक, मदिरापायिनी, कुलटा तथा अप्रिय
नपुंसक हो जाने पर (5) पतित हो जाने पर। पाराशर भी इसका सर्मथन करते है । अतः
विच्छे द आवश्यक हो जाता था। इस तरह विवाह विच्छे द के कुछ नियम निर्धारित थे
प्रत्तेक व्यक्ति के लिए धार्मिक एवं सामाजिक बाध्यता थी। सभी वर्णो के लिए इसे
संस्कार से है जिसके आगे उस शरीर के लिए कोई भी अन्य संस्कार शेष नही रहा
लोक में सख
ु और शान्ति प्रदान करना है । बौधायन के अनस
ु ार जन्म के बाद के
मत
ृ संस्कारे णामुं लोकम ्।।1
में अन्त्योष्ठि के तीन प्रकार बताये गये है । (1) शव जलाना (2) शव का गाड़ना (3) शव
है । इसे दाह संस्कार, अन्त्योष्ठि क्रिया, शवदाह, दाग लगाना आदि भी कहा जाता है ।
स्मति
ृ ग्रन्थो के अनुसार वैदिक मंत्रो के साथ अन्तिम संस्कार किया जाना
चाहिए। मत
ृ क को गंगाजल से स्नान करवा कर अर्थी बनाई जाती है । परिजनो मित्रो
कुछ धार्मिक कृत्य करने के बाद नारियल, कुश आदि के साथ चिता में अग्नि लगाई
अवयवो को इधर-उधर कर तथा शरीर भस्म हो जाने के बाद इसी आत्मा को चित ्
लोक में ले जा।1 शव के अवशेष को नदी में प्रवाहित किया जाता है । उसके बाद नदी में
शास्त्रो के अनुसार czkã ण दस दिन, क्षत्रिय बारह दिन, वैश्य पन्द्रह दिन तथा शूद्र
शुद्धि के बाद शान्ति एवं श्राद्ध क्रिया जाती है । संपिडं ीकरण श्राद्ध के बाद मत
ृ क
महत्व
संस्कारो की प्रक्रिया जन्म के पूर्व से लेकर मत्ृ यु के बाद तक फैली हुयी थी। संस्कारो
की व्यापक योजना में व्यक्ति के जीवन को नियमबद्ध किया गया था। वस्तुतः मनुष्य
1. ऋग्वेद, 10.16.1
2. विष्णुपुराण 3.13.19
इसलिए प्राणियो को सिखाने की जरुरत नही होती। परन्तु मानव में जन्म से जो ज्ञान
होता है , वह सप्ु त रुप मे होता है । यह ज्ञान प्रत्यक्ष रुप में बाहर से दिखाई नहीं दे ता।
यही कारण है कि बच्चे का शरीर साफ रखना उसे खाना खिलाना कोई दस
ू रा करता है ।
इस प्रकार का जो ज्ञान दिया जाता है , उसे संस्कार कहते है । इसी प्रकार उसकी बुद्धि
का परिचय उसके माता-पिता एवं गुरु द्वारा वेदारम्भ एवं उपनयन संस्कार द्वारा दिया
जाता है । जिससे मानव को भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति में आगे बढ़ने का स्तर
प्राप्त होता है ।
आशीर्वाद दे ने के लिए उसी दे वता का उद्बोधन किया जाता था। इस प्रकार संस्कारो
का भौतिक महत्व भी आध्यात्मिक था। वे घरे लू कर्मकाण्ड के रुप में समझे जाते थे।
संस्कारो का अनष्ु ठान किया जाता था. संस्कारो का संस्कृति प्रयोजन भी था। यह
क्योकि पैदा होते समय प्रत्येक व्यक्ति शूद्र होता है और उसका संस्कार व परिमार्जन
मनुष्य दे वता वेदो के अध्ययन के द्वारा विप्र एवं स्नातक कहलाता था एवं czã चर्य
जीवन के उपरान्त उसे समाज में प्रविष्ठ होने का प्रवेश-पत्र प्राप्त होता था।
संस्कार का आध्यात्मिक महत्व भी था। ये आध्यात्म को प्राप्त करने का एक
साधन था। इसके द्वारा संस्कारिक व्यक्ति यह अनुभव करता था कि सम्पूर्ण जीवन
स्थापित किया जा सकता है । अतः संस्कार स्वर्ग एवं मोक्ष के साधन माने गये।
पर्व
ू के संस्कार यौनविज्ञान एवं प्रजननशास्त्र की शिक्षा प्रदान करते है । विधारम्भ से
मत
ृ क के प्रति जीवितो का कर्तव्य पालन होता है , जिससे गहृ स्य धर्म में स्थायित्व
युग में संस्कारो का प्रचलन कम हो गया है तथापि कुछ संस्कार जैसे नामकरण ,
चूड़ाकरण, उपनयन, विवाह अन्तयोष्ठि जैसे संस्कार अपने महत्व को अक्षुण्ण बनाये हुये
है ।