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गांव के ऊपर कविता

वो भी क्या दिन थे जब,


हम अपने गांव में रहते थे ,
इंटरनेट और पब्जी नहीं था,
साइकिल के पहिए चलते थे ।।

गिल्ली और डंडे के हम भी,


तें दल
ु कर कहलाते थे,
जीते जाने पर यारों के,
कांधे पर टं ग जाते थे ,
एक कटी पतंग के पीछे ,
जब दस-दस दौड़ा करते थे ।।

रे स्टोरें ट् और माल नहीं था, 


पॉपकॉर्न और सिनेमा हॉल नहीं था ,
अम्मा की साड़ी पहनकर,
हम राम और सीता बनते थे,
वेद पुराणों की घटना जब,
हम मैदानों में रचते थे ।।

पिज्जा, बर्गर नहीं था,


पास्ता और चाऊमीन नहीं था,
अम्मा के चल्
ू हे में जब,
चोखा और मकुनी पकती थी ,
सोंधी सोंधी खुशबू लेकर,
हम दे सी घी से खाते थे ।।

चोरी और व्यभिचार नहीं था,


बड़े, बुजुर्गों का तिरस्कार नहीं था ,
खेतों के मजदरू भी जब,
काका- काका कहलाते थे,
हर लड़की कर्णावती थी,
 तब हम भी हुमायूं बन जाते थे।।
 - ऋतु सिंह 

कविता का नाम मेरा गांव 

वो सूरज की अरुणाई थी 


या धरती की तरुनाई थी ,
उन पेड़ों की उस सर सर में
जाने कैसी शहनाई थी…….!

कुछ ओस की भीगी बंद


ू ों में
वो कैसी अदभुत सरगम थी ,
मन भीगा था , तन भीगा था
वसुधा थोड़ी शरमाई थी…..!

खेतो की पीली सरसों भी


यौवन पर इतराती थी ,
वो धान रोपती बाला भी
थोडा सा
़ इठलाती थी…..!

पीपल  के बूढ़े पेड़ों में


एक धप
ू का बड़ा झरोखा था  ,
ये मेरे गांव का यौवन था
बचपन में मैंने दे खा था…..!

काका काकी , दादा दादी


घंटो हमसे बतलाते थे ,
कुछ अपनी बाते कहते थे
कुछ नई कथा सिखलाते थे…..!

अब शहर शहर मै जाता हूं


पर कुछ ना ऐसा पाता हूं ,
मै शहर में आज अकेला हूं
वो गांव अभी भी मेला है …….!
लेखक-सुनीता गुप्ता
 दे हाती साँझ।

पंख समेटे तरु शिखरों पर,


जा बैठी चिड़िया मतवाली।
तेज चला रवि का बाजीरथ,
सिमटी धीरे -धीरे लाली।
लुप्त हो रही रवि की आभा,
क्षितिज बीच हो जाती ओझल।
लोट चले खग वंद
ृ नीड़ पर,
कुहूँक भूल गयी अब कोयल।

लोट रहे बगुलें खेतो से,


हलवाये का साथ निभाकर।
बैलों की रुनझन
ु गलमाला,
बज उठती है राग बदलकर।
लोट रही गायो के खुर से,
उड़ती चमक उठी है गोरज।
पैरों की गति तेज हो गयी,
लोट चला अस्ताचल सूरज।

दिनभर वह माटी से खेला,


थका हुआ भरता धीरे डग।
हल की हाल रखे कंधे पर,
घर की ओर बढ़े उसके पग।
सोच रहा कल फिर आना हेै ,
मन में पाल रखे है सपनें।
याद करे हँसते खेतो को,
मिट जाएगे द:ु ख सब अपने।

छोड़ गया रवि अब शासन को,


और चाँद ने डोर पकड़ली।
डूब गऐ गहरे विषाद में ,
गाँव गह
ृ चौपाले दे हली।
धीरे -धीरे नीलमणि पर
तारें आभा को पाते हैं।
जाड़े की भीगी रातों में ,
लगते सपनों से जागे है ।

थोड़ी चमक उठी रजनी अब,


चंद्र चला अपने यौवन पर।
कुत्ते भौक रहे गलियों में ,
नीड़ छोड़ आए चमकादड़।
दरू कही झुन्डों में बैठे,
जोर-जोर से रोते गीदड़।
बीच बीच मगरोठी ठिठकें,
उल्लू बोल उठे शाखों पर।

घर के कोने में चूल्हें पर,


साग छोकती घर की नारी।
पास पड़ी छोटी मचिया पर,
हुक्के में तम्बाकू डाली।
आस पास बैठे है टाबर,
ले हाथों में खाली थाली।
दो काली चिद्दी रोटी ले,
चटनी से भर दे दी प्याली।

छपरे के आले की ढिबरी,


धीरे -धीरे लौ खोती है ।
नहीं निशा से है लड़ पायी,
धआ
ु ँ उगलती वह रोती है ।
कभी कभी जुगनू दे आभा,
उसका साथ निभा जाते हैं।
दीपों की माला से गथ
ु ँ कर,
बार- बार चमका आते हैं।

बाहर खड़े नीम के नीचे,


चौके पर एक धन
ु ी जलती।
आस पास बैठे दे हाती,
बाते सपनों को है बुनती ।
हुक्के की गुड़गुड़ में अपनी,
भूल गए वो यादें बीती।
अनभ
ु व आते जब यादों में ,
छा जाती खामोशी रीती।

धीरे -धीरे शाम खो गयी,


चारों ओर निशा गहरायी।
सभी हुए खामोश दरू से,
पें चक की आवाजे आयी।
नीरव शांति भर गई बस्ती,
डूब गई गहरी निद्रा में ।
निकल गया सारी बस्ती को,
अलसाया अजगर संध्या में ।

शहर में छाले पड़ जाते है जिन्दगी के पाँव में ,


सक
ु ू न का जीवन बिताना है तो आ जाओ गाँव में .

गाँव में बड़े होने पर भी बच्चों को माँ-बाप डांटते है ,


ऐसा लगता है जैसे अपनापन और खुशियाँ बांटते है .

गाँव में दिखती नही तरक्की की निशानी,


पर यहाँ की सुबह होती है बड़ी ही सुहानी.

कितना भी बड़ा जख्म या घाव हो,


अकेलापन महसूस नही होता अगर गाँव हो.
जहाँ सीधे-सादे लोगो का है डेरा,
खश
ु हाली से भरा वो गाँव है मेरा.

गाँव में , पैसे से जेब हल्की और दिल के बड़े होते है ,


गैरों के मस
ु ीबत में भी अपनों की तरह खड़े होते है .

शहर के बच्चे किताब के पेड़ में


पड़े झूले को दे ख सकते है ,
मगर गाँव के बच्चे उस झूले में झूल कर
एक अनमोल ख़ुशी महसूस कर सकते है .

गाँव के बच्चे बारिश में भीगकर खश


ु हो जाते है ,
शहर के बच्चे बारिश में भीगकर बीमार हो जाते है .

नैनों में था रास्ता, हृदय में था गांव


हुई न परू ी यात्रा, छलनी हो गए पांव
निदा फ़ाज़ली

जो मेरे गांव के खेतों में भख


ू उगने लगी
मेरे किसानों ने शहरों में नौकरी कर ली
आरिफ़ शफ़ीक़

खींच लाता है गांव में बड़े बढ़


ू ों का आशीर्वाद,
लस्सी, गुड़ के साथ बाजरे की रोटी का स्वाद
डॉ सल
ु क्षणा अहलावत
शहरों में कहां मिलता है वो सक
ु ू न जो गांव में था,
जो मां की गोदी और नीम पीपल की छांव में था
डॉ सल
ु क्षणा अहलावत

यूं खुद की लाश अपने कांधे पर उठाये हैं


ऐ शहर के वाशिदं ों ! हम गाँव से आये हैं
अदम गोंडवी

माना शहर में तुम्हारा वो तरक्की वाला मकान है ,


मगर गाँव में गरीबों के जीवन में भी सुकून और शान है .

गाँव में जो लोग ज्यादा भाव खाते है ,


लोग उनसे पैसा खूब खर्च करवाते है .

गाँव स्टे टस

जो गाँव का मजा शहर में ढूंढते है ,


वो जीने का मजा जहर में ढूंढते है .

गाँव की प्यारी यादों को दिल में सजाया करो,


शहर में तरक्की कितनी भी करो लो
पर गाँव अपनों से मिलने आया करो.
गाँव के अनपढ़ बेरोजगारों को नौकरी दे ता है शहर,
कमियों के बावजद
ू गाँव पर उसका बड़ा एहसान है .

गाँव पर शायरी

ईश्वर से ही इतनी ताकत पाते है ,


गाँव वाले हर मस
ु ीबत से लड़ जाते है .

शहर इंसान से कितना कुछ छीन लेती है ,


जिसके बदले में चंद कागज के नोट दे ती है .

कितना तकलीफ उठाकर कमाते है ,


जब गाँव से कम उम्र के बच्चे शहर जाते है .

गाँव के बच्चे माँ-बाप की उम्मीदों को संग लाते है ,


रूपया कमाने के लिए अपनी जिन्दगी भी दांव पर लगाते है .

My Village Status

ख़ुशी से कब हम अपना गाँव छोड़कर आते है ,


पैसे कमाने के लिए अपने दिल को तोड़कर आते है .
बड़ा ही खुश हो जाता हूँ जब कोई मेरे गाँव से आता है ,
जैसे वो कोई मरहम मेरे दिल के घाव मैं गाँव का ग्वाला,
तुम शहर की रानी प्रिये,
मैं तेरे प्यार में बावला,
बोलो कैसे बने अपनी कहानी प्रिये.

शहर की नौकरी जगाता है भगाता है ,


अंत में गाँव में आकर ही हर कोई सक
ु ू न पाता है .

Status on Village in Hindi

गाँव का संस्कार है , कितना भी तेज चलँ ू पर पाँव रूक जाता है ,


जब मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरूद्वारा दे खू तो सिर झुक जाता है .

शहर के लोग गम में पीते है ,


गाँव के लोग गम में ही जीते है .

शहर की मक्कारी गाँव में आने लगी,


सीधे-सादे लोगो को ठग कर जाने लगी.
Village Life Shayari in Hindi

चेहरे पर ख़ुशी कमाने का है ,


दिल में दर्द तो पूरे जमाने का है .
गाँव का सुकून चाहता हूँ
जो मर गया वो जूनून चाहता हूँ.

जो लोग शहर की दवा से ठीक नही हो पाते है ,


वो लोग अक्सर गाँव की हवा से ठीक हो जाते है .

पेड़ में धागा बांधकर पूरी होती है मुरादे ,


कितनी प्यारी-प्यारी सजोकर रखते है यादें .

विलेज शायरी इन हिंदी

दिल खुश हो जाता है गाँव के मेले में ,


ख़ुशी का पता ही नही शहर के झमेले में .

गाँव में अनपढ़ है और रूढ़िवादी है ,


मन के भाव को समझ ले इतने जज्बाती है .
Gaon Shayari

गाँव में चलती है कितनी हसीन हवाएं,


दम हो तो कोई इस तरह का मशीन बनाएं.

जिन्दगी कभी धूप में तो कभी छाँव में है ,


जीवन जीने का असली मजा तो गाँव में है .

Gaon Wali Shayari in Hindi

गाँव के बहुत से लोग शहर में गायब हो जाते है . बड़ी-बड़ी इमारतों को बनाते वक्त थोड़ी सी
लापरवाही की वजह से कई लोगो की जान चली जाती है . कई बार कमजोर इमारत गिर जाने से
मजदरू ों की मौत हो जाती है . कई बार बीमारी की वजह से अस्पतालों में दम तोड़ दे ते है . तो
कभी सड़क के किनारे फूटपाथ पर सोते वक्त कोई गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है . गाँव से जो माँ-बाप
अपने बेटे को बाहर कमाने के लिए भेजते है . मानों वो अपना कलेजा निकालकर दरू भेजते है .

का लाता है .

मैं गाँव का ग्वाला,


तम
ु शहर की रानी प्रिये,
मैं तेरे प्यार में बावला,
बोलो कैसे बने अपनी कहानी प्रिये.
शहर की नौकरी जगाता है भगाता है ,
अंत में गाँव में आकर ही हर कोई सक
ु ू न पाता है .

Status on Village in Hindi

गाँव का संस्कार है , कितना भी तेज चलँ ू पर पाँव रूक जाता है ,


जब मंदिर, मस्जिद, चर्च और गरू
ु द्वारा दे खू तो सिर झक
ु जाता है .

शहर के लोग गम में पीते है ,


गाँव के लोग गम में ही जीते है .

शहर की मक्कारी गाँव में आने लगी,


सीधे-सादे लोगो को ठग कर जाने लगी.

Village Life Shayari in Hindi

चेहरे पर ख़ुशी कमाने का है ,


दिल में दर्द तो परू े जमाने का है .
गाँव का सुकून चाहता हूँ
जो मर गया वो जूनून चाहता हूँ.

जो लोग शहर की दवा से ठीक नही हो पाते है ,


वो लोग अक्सर गाँव की हवा से ठीक हो जाते है .
पेड़ में धागा बांधकर पूरी होती है मुरादे ,
कितनी प्यारी-प्यारी सजोकर रखते है यादें .

विलेज शायरी इन हिंदी

दिल खुश हो जाता है गाँव के मेले में ,


ख़ुशी का पता ही नही शहर के झमेले में .

गाँव में अनपढ़ है और रूढ़िवादी है ,


मन के भाव को समझ ले इतने जज्बाती है .

Gaon Shayari

गाँव में चलती है कितनी हसीन हवाएं,


दम हो तो कोई इस तरह का मशीन बनाएं.

जिन्दगी कभी धूप में तो कभी छाँव में है ,


जीवन जीने का असली मजा तो गाँव में है .
Gaon Wali Shayari in Hindi

गाँव के बहुत से लोग शहर में गायब हो जाते है . बड़ी-बड़ी इमारतों को बनाते वक्त थोड़ी सी
लापरवाही की वजह से कई लोगो की जान चली जाती है . कई बार कमजोर इमारत गिर जाने से
मजदरू ों की मौत हो जाती है . कई बार बीमारी की वजह से अस्पतालों में दम तोड़ दे ते है . तो
कभी सड़क के किनारे फूटपाथ पर सोते वक्त कोई गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है . गाँव से जो माँ-बाप
अपने बेटे को बाहर कमाने के लिए भेजते है . मानों वो अपना कलेजा निकालकर दरू भेजते है .

जलती ज़मीं में , चमकती धूप में ,


बहती लू में , अगर पड़े मेरे पाँव
और महसूस होने लगे पीपल का छांव
तो समझो आ गया मेरे गाँव

शीतल में ओश हो, लोगों में जोश हो,


ढं के हों सर, हाथ, पाँव
और हो अलाव का घेराव
तो समझो आ गया मेरा गाँव

ठं डी हवाएँ हों, सुंदर घटाएँ हों,


नहर, तालाबों में पानी का हो ठहराव,
और हों बादलों का घेराव
तो समझो आ गया मेरा गाँव

खेतों में हरियाली हो, पके फ़सलों में लाली हो,


किसानों के घर होली, दिवाली हो,
और हो सभी में ख़ुशी का भाव
तो समझो आ गया मेरा गाँव
- प्रिन्स सौरभ पाण्डेय
  अयोध्या, फ़ैज़ाबाद
   यूपी
तेरी ब ुराइयों को हर अखबार कहता है . .

और त ू मे रे गाँव को गँ व ार कहता है … .

ऐ शहर मुझे तेरी औकात पता है ,

तू चु ल् ल ू भर पानी को वाटर पार्क कहता है …

थक गया है हर शख्स काम करते करते ,

तू इसे अमीरी का बाजार कहता है …

गाँव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास,

तेरी सारी फु र्सत तेरा इतवार कहता है …

मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहा है ,

त ू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है …


जिनकी सेव ा में बिता दे त े सारा जीवन,

त ू उन माँ -बाप को खुद पर बोझ कहता है …

वो मिलने आते थे तो कले जा साथ लाते थे ,

त ू दस्त ूर निभाने को रिश्ते दार कहता है …

बड़े बड़े मसले हल करती यहां पंचायतें ,

तू अँधी भष्ट दलीलों को दरबार कहता है …

बैठ जाते हैं अपने पराये साथ बैल गाड़ी में ,

पू रा परिवार भी ना बैठ पाये उसे तू कार कहता है …

अब बच्चे भी बडों का आदर भूल बैठे हैं ,

त ू इस नये दौर को संस् कार कहता है …

जिंद ा है आज भी गाँव में दे श की संस् कृ ति,

त ू भूल के अपनी सभ्यता खुद को तू शहर कहता है … !!


कवि ने अपनी इस कविता में एक-एक शब्द को गहरी भावनाओं के साथ पिरोया है |

जिस प्रकार हर तरफ अब शहरीकरण बढ़ता जा रहा है वैसे -वैसे ही लोगों का मानसिक

स्तर भी नीचे गिरता जा रहा है |

अब संस् कारों की बात कौन करता है , साहब हर इं स ान अब सिर्फ पैस ों की बात करता

है |

माँ बाप अपने बच्चों के लिए अपने सारे स ुख कु र्बा न कर दे ते हैं और बच्चे बड़े होकर

शहर पैस ा कमाने चल दे त े हैं |

ब ूढ ी आँखें थक-थककर अपने बच्चों की राह तकती हैं ले कि न पैसे की चकाचौंध इं स ान

को अँध ा कर दे त ी है | कहने को शहर अमीर है ले कि न यहाँ सिर्फ पैस े के अमीर लोग

रहते हैं , दिल का अमीर तो कोई कोई ही मिलता है |

परिवार, रिश्ते नाते अब सब बस एक बं धन बनकर रह गए हैं ,

आत्मीयता और प्यार तो उनमें रहा ही नहीं ,


जो माँ बाप अपना ख ू न पसीना एक करके पढ़ाते हैं

उनको बोलते हैं कि आपने हमारे लिए कु छ किया ही नहीं |

इससे तो अपना गाँव अच्छा है कम से कम लोगों के दिल में एक द स


ू रे के लिए प्यार

तो है , परे श ानियों में एक द स


ू रे का साथ तो है , पैस ा चाहे कम हो ले कि न संस् कार और

दल
ु ार तो है |

लगा सोचने बैठकर इक दिन, शहर और गांवों में अंतर,

बोली यहां की कितनी कड़वी, गांवों में मीठी बोली का मंतर।


 
आस-पास के पास-पड़ोसी, रखते नहीं किसी से मतलब,
मिलना और हाल-चाल को, घर-घर पूछते गांवों में सब,
 
भागदौड़ की इस दनि
ु या में , लोग बने रहते अनजान,
गांवों में होती है अपनी, हर लोगों की इक पहचान।
 
खुशियां हो या फिर हो गम, शहर में दिखता है कम,
गांव के लोगों में होता है , साथ निभाने का पूरा दम।
 
हर जगह होता प्रदष
ू ण, जिससे बनती बीमारी काली,
संद
ु रता का एहसास कराए, हवा सह
ु ानी गांव की हरियाली।
 
पैसा बना जरूरत सबकी, बढ़े लोग तभी शहर की ओर
कच्चे रे शम की नहीं है , गांवों की वो प्यार की डोर।
 
नहीं बचा पाए हैं दे खो, अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति
गांवों में आज भी बरकरार, भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति।
 
पहचान नहीं तो क्या हुआ, पानी को लोग पछ
ू ते हैं,
वहीं शहर में पानी के लिए, लोग दरवाजे से लौटते हैं।
 
कैसे बदले शहर के लोग, कैसा है उनका ये झाम,
गर्व से करता हूं, मैं तो दे श के गांवों को सलाम।

छांव में छुपी हुई


अनेक कहनाइयां
जिसने तोड़ी हमेशा
जिंदगी की ‍वीरानियां
 
वह बचपन के झूले
वह गांव के मेले
वह ट्रै क्टर की सवारी
वह पुरानी बैलगाड़ी
 
वह पुराना बरगद का पेड़
वह खेत की मेढ़
वह चिड़ियों का चहकना
वह फूलों का महकना
 
पर धीरे -धीरे गांव
बहुमंजिली इमारत में
तब्दील हो गया
वह कोलाहल और
गाड़ियों के शोर से
लबरे ज हो गया
 
शेष रह गया केवल
गाड़ियों का धआ
ु ं
जिसे दे ख परे शान
हर व्यक्ति हुआ
 
सूरज अब जमीं के
पास आ गया
भौतिकता का नशा
हर व्यक्ति पर छा गया
 
आदमी को आदमी से
न मिलने की है फुरसत
भाईचारा और इंसानियत
यहां कर रहे रुखसत
 
इस नए जंगल से
कोई अब तो निकाले
हे परमात्मा मुझे फिर से
मेरे पुराने गांव से मिला दे ।
बात बे बात पे अपनी ही बात कहता है मेरे अंदर मेरा छोटा सा गाँव रहता है ऐसा लगता है न कि गाँव कहीं
भुला आए गाँव कहीं रख के छोड़ आए गाँव की बोली भूल आए गाँव की रस्में तोड़ आए गलत लगता है
आपको टटोल के दे खिए न अपने अंदर ढूंढिए अपने अंदर गाँव के पगडंडर पे आई मोच है आम के पेड़ से
गिरने वाले दिन की खरोंच है । दांत में फंस गया गन्ने का रे शा है मट्ठा खत्म होने के पहले अम्मा के आने
का अंदेशा है गरम गुड़ से जल गई जबान है मोड़ पर दस पैसे के कंपट की दक
ु ान है बाग में खेले क्रिकेट
का पसीना है एक कहानी है सर के नीचे दद्दू का सीना है खेत की रखवाली करते ऊंघने के लिए खाट है जी
हां ये मेरी और आपकी कहानी है क्योंकि अखबार ये कहते हैं कि हर तीन में से दो हिंदस्
ु तानी गाँव में रहते
हैं। मैं वो तीसरा ही रह गया शहर को भीड़ जाती थी उसी में बह गया अपने गाँव से और गांव के हिंदस्
ु तान
से आइए फिर से रिश्ता जोड़ते हैं बात बे बात पे अपनी ही बात कहता है मेरे अंदर मेरा छोटा सा गाँव रहता
है ...

मर्गे
ु की बाग़ से खल
ु ी आंखे,
एक आंख आधी बंद,
दस
ू री खल
ु ती हुई थोड़ी थोड़ी,
चिड़ियों की चहचआहट से,
एक नई सब
ु ह की शरु
ु आत,
बेले की सन्ु दर खश
ु बू में,
हल्के से सरू ज का दीदार,
यहीं तो मिलता है ,
प्रक्रिति का ढे र सारा प्यार,
बाहर थोड़ी दरू पर,
घने बरगद की छाँव,
कितना प्यारा है ये,
अपना गाँव।

यारों के टोली संग सब


ु ह का वाक,
वह एक दज
ू े से मस्ती भरा टॉक,
यहीं कुछ यहाँ वहां की बात,
मस्ती भरे मन से,
सब चलते एक साथ,
भरे जल से लोटा लिए हाथ,
दरू पटरियों की तरफ,
कहीं झाड़ियों के पीछे ,
तो कोई पत्थरों के नीचे,
एक दस
ू रे को रिझाने को,
पत्थरों से करते वॉर,
नीम की दातन
ु लिए,
सब बैठे एक साथ,
कही दरू नीम की छाव,
कितना प्यारा है ये,
अपना गाँव।

नहा धोकर खेलने निकल जाना,


नहीं कोई सध
ु खाने पीने की,
तेज धप
ु भी थका न सके,
ऐसी आग है अपने सीने की,
गर्मी के महीने में,
पसीने से भीगे बदन पर,
हवा जो छू जाये,
वो ठं डी ताजगी दे जाये,
भरी दोपहरी में बगीचे में,
सब बैठे कहीं किसी,
आम की छांव,
कितना प्यारा है ये,
अपना गाँव। 

यहाँ की शीतल पवन से,


मन विभोर हो उठता है ,
ठं डी हवा जो छू जाये,
दिल ये खिल उठता है ,
सर्दी के दिनों की वो सर्द हवा,
वो कोहरे का जमावड़ा,
कोहरे की अन्धकार में भी,
बच्चों की टोली,
रोज जो खेलती है ,
धए
ु ँ से अठखेली,
घर पर अपने अलाव जलाते,
बढ़
ू े काका, चाचा, दादा,
आग के सामने बैठे,
सब एक साथ,
सकते अपने हाथ पाँव,
कितना प्यारा है ये,
अपना गाँव।

दिल को सक
ु ू न जो दे जाये,
वो मौसम बसंत का,
सर्दी और गर्मी का मेल,
सरसों के फूलों संग,
हवा का खेल,
टप-टप करती बद
ँु े ,
वो बारिश के मौसम में,
बादलों का मेल,
अंधी आये बारिश आये,
पर मस्ती न कभी कम पड़  पाए,
भीगते बच्चों की टोली,
करती बद
ंू ों संग अठखेली,
कही दरू जामन
ु की छांव,
कितना प्यारा है ये,
अपना गाँव
कितना प्यारा है ये,  अपना गाँव।।

"तम
ु मेरे गांव आना"

यह खेत खलियान छोटी सी बगिया..


कच्ची क्यारी और पक्की गलियां,
बहती पवन में नाचती फसलें...
अनंत रं गों की खिलखिलाती कलियां,
इन रं ग-बिरं गी कलियों को दे खने..
तम
ु मेरे गांव आना...।।

मिट्टी का चूल्हा चूल्हे की आग..


उस पर पकता सरसों का साग,
गली में बच्चे, उनके शोर की आवाज..
वह नुक्कड़ पर बैठे दादाओं के राग,
यह राग और साग चखने..
तुम मेरे गांव आना...।।

कागज की नाव और गंदे पांव..


बम्बे में नहाना और टायर घम
ु ाना,
वह घर लेट आने पर..
पापा से! बहाना बनाना,
इन पलों का आनंद उठाने..
तम
ु मेरे गांव आना..।।

गर्मियों में लकड़ी सुखाकर..


सर्दियों में अलाव जलाना,
जायद में बाहर न जाना..
और बरसात में खूब नहाना,
कुछ ख्वाहिशें पूरी करने..
तम
ु मेरे गांव आना...।।

अलग-अलग मौसम..
तरह-तरह की फसलें,
धरती का सीना चीर कर..
दिखती हैं उनकी शकलें,
हमारी फसलों को दे खने..
तुम मेरे गांव आना...।।
यह मेरा गांव है ,
यहां गर्मी में ठं डी छांव है ,
पोखर यहां बरसात में जवाँ होते हैं,
लोग यहां एक दस
ू रे का साथ दे ते हैं,
सक
ु ू न है यारो मेरे गांव की हवा में ...
जिसे कर रहा हूं शब्दों से बयां मैं,
इस सक
ु ू न का एहसास लेने..
तम
ु मेरे गांव आना..
तुम मेरे गांव आना...।।
                      
                - अभिषेक
मेरा गांव मझ
ु को बहुत याद आता है
बार बार आकर सपनों में सताता है

कच्चे घर को जब माँ गोबर से लिपति थी


पड़ जाते थे पांव तब म बहुत डांटती थी
मगर डांट सुनकर भी में बहुत हँ सता था
खुलकर माँ को खूब चिढ़ाया करता था
सचमच
ु वो बचपन आज भी मुझे बहुत लुभाता है
मेरा गाँव मुझको बहुत याद आता है ……

कुएं के पास वो आम, आम से लगी डाली


जिस पर रहती थी पिता की निगाह सवाली
मगर चुपके -चुपके जब आम को चुराता था
पता चलने पर फिर पिता की मार खाता था
यह सब कुछ मुझे कितना आनंद दे ता है
मेरा गाँव मझ
ु को बहुत याद आता है ….

होती थी चैपाल पर जब रं गों की बौछार


तब रहता था उसमें कितना आपसी प्यार
लोगों के संग संग में भी खाता था फाग
चाहे गले से निकले बेसुरा राग।
वह फागुन तो मुझे आज भी रुलाता है
मेरा गाँव मझ
ु को बहुत याद आता है …..

खेलता था कबड्डी सांस टूट जाती थी


गुरूजी की सीटी आउट की बज जाती थी
कबड्डी कबड्डी फिर भी करता रहता है
खेल के नियमों को भंग किया करता था
अब भी गरू
ु जी का डंडा नज़र आता है
मेरा गाँव मुझको बहुत याद आता है …..

(लेखक – रमेश मनोहरा )


ख़ोल चेहरों पे चढ़ाने नहीं आते हमको
गांव के लोग हैं हम शहर में कम आते हैं
-बेदिल है दरी

जो मेरे गांव के खेतों में भूख उगने लगी


मेरे किसानों ने शहरों में नौकरी कर ली
-आरिफ़ शफ़ीक़

....उसने खरीद लिया है करोड़ों का घर

सन
ु ा है उसने खरीद लिया है करोड़ों का घर शहर में  
मगर आंगन दिखाने आज भी वो बच्चों को गांव लाता है  
-अज्ञात

शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूं


ज़ेहन में पर गांव का नक़्शा रखा है
- ताहिर अज़ीम
खींच लाता है गांव...

खींच लाता है गांव में बड़े बढ़


ू ों का आशीर्वाद,
लस्सी, गड़
ु के साथ बाजरे की रोटी का स्वाद
- डॉ सुलक्षणा अहलावत

शहरों में कहां मिलता है वो सुकून जो गांव में था,


जो मां की गोदी और नीम पीपल की छांव में था
-डॉ सुलक्षणा अहलावत

ं ों !
ऐ शहर के वाशिद

आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में


मैं रहूं या न रहूं, भूख मेजबां होगी
-अदम गोंडवी 

सबसे प्यारा गाँव हमारा (Our fondest village)


सबसे प्यारा गाँव हमारा
हमको है प्राणों से प्यारा
स्वच्छ हवा बहती यहाँ है
स्वच्छ जल मिलती यहाँ है
खेत खलिहानों से भरा पूरा गाँव है
यहाँ हर तरफ पेड़ो की छाँव है
सबसे प्यारा गाँव हमारा
हमको है प्राणों से प्यारा
हर त्यौहार को उल्लास से मनाते है
बड़े बड़े तालाबो में नहाने हम जाते है
पर्यावरण का  ख्याल हम रखते
पेड़ो की रखवाली हम करते
सबसे प्यारा गाँव हमारा
हमको है प्राणों से प्यारा
बड़ो का यहाँ है आदर सम्मान
मुझको है अपने गाँव पे अभिमान
सादगी से सब जीवन जीते
गायो का पौष्टिक दध
ू सब पीते
सबसे प्यारा गाँव हमारा
हमको है प्राणों से प्यारा

अमत
ृ से बोल भी अब जहर हो गये हैं
तम के समान सारे पहर हो गये हैं
कहां बनायें अपना बसेरा यारों
गांव भी अब तो शहर हो गये हैं

हर घड़ी में जहां उम्मीद होती थी


हर दिन जैसे ईद होती थी
अब तो कहीं भी सो जाते हैं
तब मां के आँचल में पूरी नींद होती थी

वक्त बदला, बदल हमारे विचार गये


सच की खातिर लड़ने वाले भी हार गये

बडे गर्व से जिन्हें अपना कहते थे
उन्हीं के कारण वे स्वर्ग सिधार गये

बेगाने से अब घर हो गये हैं


भाई व दश्ु मन सब बराबर हो गये हैं
जख्म के गड्ढे भी नहर हो गये हैं
गांव भी अब तो शहर हो गये हैं

गाँव का वो ख़ुशनुमा वातावरण 


तपती दप
ु हरी में घने वक्ष
ृ ों की शरण। 

वो पेड़ों के झुरमुट और वो बाग़-बगीचे


जो किसान ने अपने खून पसीने से सींचे। 
वो सुन्दर सा मिट्टी का कच्चा घर 
मनभावन माँडणे सजते जहाँ आँगन पर। 

सष्टि
ृ का अद्भत
ु नैसर्गिक सौन्दर्य 
जामुन, अमरूद, आम-मंजरी का माधुर्य। 

बसंत में सरसों के फूलों की महक 


कोयल की कूक और चिड़ियों की चहक। 

पनघट पे जाती पनिहारियों की बोली 


तालाब में नहाते बच्चों की टोली। 

वो बरगद के नीचे बड़ा सा चबूतरा 


हँसी के ठहाके और मनोरं जन जहाँ बिखरा। 

खेतों में गेहूँ की बालियाँ लहरातीं  


बागों के झूलों में कोई गोरी इठलाती। 

गोधलि
ू में घर आते पशओ
ु ं के बजते घंघ
ु रू 
मिट्टी के चल्
ू हे पर सिकती रोटी की मीठी खश
ु ब।ू  

मक्खन से भरे बर्तन से उठती सुगंध 


वो भन
ु ी हुई मंग
ू फली की सौंधी सी गंध। 

ढलता सूरज और नीड़ को लौटते पंछी 


कहीं दरू बजाता कोई ग्वाला बंशी। 

मंद-मंद बहती शीतल बयार


हर तरफ बिखरा बस प्यार ही प्यार। 

छल रहित, साफ़-सुथरे , भोलेपन के भाव 


ख़ुशनुमा ज़िन्दगी के अहसास हैं गाँव। 

मोनिका जैन ‘पंछी’
(19/02/2014)
(2)

गाँव से शहर को आए  


बीत गए हैं कई वर्ष 
पर आज तक ना मिल सका
गाँव जैसा स्पर्श।

गाँव की धूप में भी ठं डक का वास है  


शहर की छाँव में भी जलन का अहसास है ।

गाँव में बहा पसीना भी महकता है  


शहर का सुगन्धित इत्र भी दहकता है ।

गाँव के कण-कण में बिखरा है अपनापन 


शहर की भीड़ में भी खा रहा अकेलापन।

गाँव की सौंधी मिट्टी में बचपन की जान है  


शहर के महं गे खिलौने बड़े बेईमान हैं।

गाँव के तालाब में अक्स दे ख हम सँवर जाते हैं 


शहर के चमकीले आईने अक्सर धोखा दे जाते हैं। 

काश! लौट पाना होता मुमकिन 


तो दौड़ आता गाँव में  
नींद आती सालों बाद 
पीपल की छाँव में ।

मोनिका जैन ‘पंछी’

खुशहाली के गीत लिखे हैं,


मेरे गाँव के खेत में |
पायल संग कुदाली चलती,
मेरे गाँव के खेत में |

पानीदार कुओ पर चलते,


रहटो की आवाज जहा |
धानी-धरती के कणकण को,
धोरों की सौगात वहा
हरियाली ले फसल खड़ी हैं,
मेरे गाँव के खेत में |
खश
ु हाली के गीत लिखे हैं,
मेरे गाँव के खेत में |

बैलो ने कन्धो ने खिची,


हल की फाल जहाँ हर बार |
भर-भर छकड़े धान के लाए,
मुस्काए जिनसे घर द्वार |
रुनझुनकर रमझोले बजे हैं,
मेरे गाँव के खेत में |
खुशहाली के गीत लिखे हैं,
मेरे गाँव के खेत में |

जहाँ नीम की डाली बैठी,


चिड़ियाँ चहक-चहक कर गाती |
कभी धुल में नहां-नहां कर,
बादलों का संदेश सुनाती |
बया घास के महल बनाती,
मेरे गाँव के खेत में |
खुशहाली के गीत लिखे हैं,
मेरे गाँव के खेत में |

काली पिली, दोमट मिट्टी,


फसले कई उगाती हैं |
बिन बोए ही घास के रूप में ,
अपना प्यार लुटाती हैं |
सन-सन हवा बहे मतवाली,
मेरे गाँव के खेत में |
खुशहाली के गीत लिखे हैं,
मेरे गाँव के खेत में |

आज गाँव में प्रवेश करते ही सावन ने हमला कर दिया ..दे खते ही दे खते बचपन में पढ़ी वो पंत जी की
कविताएं एक-एक कर याद आने लगीं..आहा…!

“फैली खेतों में दरू तलक


मखमल सी कोमल हरियाली..”

मल्लब कि जिन घासों को बैल और गधे तक नहीं चरते उनका भी सौंदर्य आज दे खते बन रहा है .
जिन पेड़ों के पत्ते बसन्त की भी नहीं सुनते वो सावन में हरियरी के मारे नाच रहें हैं…
वाह ।..अपने अर्धविकसित गाँव के इस पूर्ण विकसित सौंदर्य को दे खकर मेरा मन मयूर नागिन
डांस करने लगा..दे श की सभी पँचवर्षीय योजनाओं पर फख्र होने लगा..
और थोड़ी दे र में ही ग्राम प्रेम के वसीभूत होकर भीतर से पंत,निराला,प्रसाद,किट्स,मिल्टन एक-
एक कर जागने लगे…सोचा क्यों न एक लाइन मैं भी कुछ कहूँ… रामाधीन भीखमखेड़वी स्टाइल
में ही सही..दो लाइन चिपका ही दँ …
ू .

लेकिन साहे ब.. कभी-कभी कविता न लिखना भी साहित्य जगत में बड़ा योगदान दे ना है .
सो इस रोमांटिक मौसम में कवि बनने के बिजनेस से ज्यादा मैने गायक बनना उचित समझा…
और गन
ु गन
ु ाते हुये थोड़ी दे र बाद समझा कि हिंदी के परु स्कृत कवियों ने गाँव की कविताएँ
शहरातीयों के लिए ही तो लिखीं हैं…लोग शहर में रहकर गाँव को महसूस करें ..
गाँव के लोगों को कविता लिखने और उसे पढ़ने की फुर्सत कहाँ है ..

अब दे खिये न… क्या ख़ाक कोई कविता पढ़े गा.. काहें की मखमल सी कोमल हरियाली और काहें
का सावन..
कल दो लोग मलेरिया से ग्रस्त होकर शहर के अस्पताल में भर्ती हैं..सुखबेलास का छोटका बबअ
ु वा
को तो डेंगू का लक्षण लग रहा..काली माई डीह बाबा उसकी रक्षा करें ..
और मात्र चार दिन से गांव में बिजली नहीं आई है ….
आती भी है तो दो-चार मिनट के लिए, ताकि गाँव के लोग ये न कहें कि हमारे गाँव में बिजली के
खम्भे और तार नहीं हैं. ..
कल पता चला आटा चक्की भी बन्द है ..लोग दस
ू रे -तीसरे गाँव में गें हू पिसवाने जा रहे हैं…
मोबाइल चार्ज कराने के लिए दस रुपया में जनरे टर जिंदाबाद है ..

उधर हमारे अखिलेश भाई फिर से एक बार कह रहे हैं कि…”इस बार हम लर्निंग सीएम थे. एक
बार फिर सीएम बनवाइये..इस बार चौबीस घण्टा बिजली दें गे”.
पिछली बार भी यही कहे थे..शायद उस बार कहना सिख रहे थे..

खैर बिजली आएगी या नहीं लेकिन इस बरसात में गाँव की गलीयों में अनगिनत समाजवादी गड्ढे
हो गये हैं..जिनमें रात के अँधेरे में गिरने पर समाजवाद से सीधा साक्षात्कार हो जाता है ..और दिल
अपने आप लोहिया,जेपी, और मन से मोलायम जी के चरणों में झुक जाता है ..
तब यही गाँव चिल्लाता है …
“काश हम सैफई होते…”
पर हाय! रे उसकी किस्मत…..पता न किस कलम से लिखी है सरकार ने…

हाँ… अन्धेरा होते ही यही रोमांटिक सा सावन भादो की काली और डरावनी रात में बदल जाता
है ..तब शहर में रहकर कविताई करने वालों की सारी कविताएँ सांप-बिच्छु और चोर के डर से
काँपने लगती हैं…
छोड़िये महराज… इधर आइये जरा….

दे खिये न हमारी खेदन बो भौजी कल से परसान हैं..रोपनी करा के खेदन गए तो बेमार पड़
गये..भौजी मना करते रह गयीं..”ए जी बेबी के पापा. तनी द ू चार दिन रह-सह के जाइए न..
तनिक आराम कर लिजिये..अरे ! दन
ु ु टाइम गरम-गरम द ू गो परवठा आ नेनुआ के तरकारी
खाइयेगा हमार हाथ से..नवेडा जाकर तो खिचड़ी खाकर ओवर टाइम करना ही है ..”
लेकिन खेदन काहें माननें जाएं..उनको तो नोट छापने की जल्दी थी…चले गये..
अब भौजी उदास हैं…न में हदी लगाई हैं न, चड़
ू ी पहनी हैं….केकरा पर श्रग
ं ृ ार करें …कौन है दे खने
वाला…जा रे तहार नवेडा…
अब दे खते हैं कि नइहर से तीज लेके कवन आता है ..भाई को फरीदाबाद राखी भी तो भेजना है …
इसी में काली माई,डीह बाबा,बरम बाबा की पूजाई करनी है …बड़ी लोड है भौजी पर..

इधर पिंकिया ने कल मंटुआ को फोन किया…


-ए मंटू
का जी
-सन
ु ोन
का बोलो
-बक….लाज लग रहा
अरे ..अरे बोलो न..मेरी सिया सक
ु ु मारी..
-कह रहे न
का ?
-कल हम न ममतवा संगे रे वती आएँगे..तम
ु भी आओ न..
अच्छा..क्या करने रे वती जी?

-अरे राखी न खरीदना है बबुआ..


किसलिए
-नहीं जानते का
नहीं..
-तुम्हारे लिए
बक
-हाँ सच में ….अब जल्दी से मलेटरी में भर्ती होकर बियाह नहीं करोगे तो का करें गे हम? राखी
बांधकर तम
ु को मामा बना दें गे…फेर
मुंह में कमला पसन्द और रजनी गन्धा खाकर अल्ताफ राजा का गाना सुनना…
हम चले जाएंगे रोते हुये किसी बीटे क्स वाले के संगे..

हाय!…जा रे दरद..पता चला है कि मंटुआ इस धमकी के बाद चार बजे भोरे उठ कर दौड़ रहा है …
दप
ू हरिया में भी डंड,बैठक रियाज मार रहा है ..रात को ग्यारह बजे तक पढ़ाई कर रहा है ..
माई-बाबज
ू ी परे शान हैं कि “आखिर लौंडे को हो का गया है …जो डांटने-समझाने और बड़ी मारने-
पिटने पर भी नहीँ पढ़ा वो आज अपने आप..”
माई बाबज
ू ी का समझे कि प्यार में आदमी आन्हर हो जाता है ..
खैर भगवान से मनाइये डीह बाबा मंटुआ का मनकामना पूरा करें ..
बाकी सब ठीके है ..घर आने के बाद पड़ोस में वही पारम्परिक सवाल..कहिया ले पढ़ोगे और
माताजी का वही सुझाव..तनी खाने-पीने पर ध्यान दो बबुआ ?

पड़ोस में जो दे खता है ..कुर्सी निकालता है ..”बईठ बबआ


ु ..”
कई बार पूछने का मन होता है ..
“काहें कुर्सी भाई..कवन विशिष्ट अतिथि हैं हम..रिश्तेदार..की अजनबी अतिथि जैसा व्यवहार
किया जा रहा…”

लेकिन कुर्सी पर बैठते हुये सोचते हैं..कुर्सी निकालने वालों का क्या दोष..
कमबख्त मेरे और कुर्सी के बीच में वो बनारस न आ गया है …और वो तरह-तरह की चर्चाएँ..”गाँव
का नाम यही लड़का रोशन करे गा..”
बक महराज… रोशन की ऐसी की तैसी
आज फिर हिंदी के मेरे प्रिय कवि केदारनाथ सिंह जी के उस कविता की वो लाइन याद आ गयी हैं.
जिसको कभी उन्होंने अपने गाँव चकिया आने पर लिखा था..

“किस तरह मिलूं की…


बस मैं ही मिलूं
और बीच में दिल्ली न आए..

ये भी पढ़ें …

बड़ का पान की गाड़ी बंणांता,

        कमली केसरो रै हता लार। 

धसूळा सूं केसरो गार खोदतो,

        कमली भरती गाड़ी म गार।  

कदी खेलता वे बड़ा हे त सं,ू


        कदी करता एक दज
ू ा प वार। 

व करिकै सोलह श्रंग


ृ ार चली|
गन्ना अल्हरी खेतों की गली||
हाथों में आयध
ु शान लिए,
मख
ु में सुवासित पान लिए,
सिर पे गठरी सामान लिए,
वो यौवन का अभिमान लिए,
होंठों पे इक मुस्कान लिए,
दो सुन्दर सी जलयान लिए,
मैं कूद के उसमें बैठ गया,
फिर बंद करी उसने पुतली||
वक्ष
ृ ों की गहरे मूल गयी,
हिम से पातों की धल
ू गयी,
सिन्दरू ी टे सू छूल गयी,
मन्जरी सक
ु ोमल झूल गयी,
खेतों में सरसों फूल गयी,
गेहूं की बाली खल
ू गयी,
मस्त पवन के झोकों से,
मै मचला औ व मचली||
ऋतुराज सुराज अनन्द किये,
रति काम सकाम सनन्द किये,
झीनी चुनर तन बन्द किये,
बहु मोहपाश के फन्द किये,
सगरे प्रयोग छलछन्द किये.
तब जाके मतिमन्द किये,
मै फिसला होई मढ़
ू मती,
ज्ञानवती होई व फिसली||
प. अनुपम मिश्र ‘पुरोहित’

गांव के गोरी बड़ अलबेली ,


        टुरी हावय अबड़ नखरे ली ।
 सम्हर के आथे मोर गली ,
         टुरी धरके द ु झन सहे ली ।।

लाली लग
ु रा पहिर के ना ,
        गोरी मोर सपना मा आथे ।
पईरी ला छनकावत रहिथे,
         चुरी ला अपन खनकाथे ।।

करिया काजर आंखी के ,


           करिया बादल के जईसे ।
नैना ले मऊहा के रस बरसे,
         खुद ला सम्भालवं कईसे ।।

चढ़ जाथे छत के ऊपर,


           भात साग ला रांध के ।
दिल ला मोर लेगे टुरी हा,
        अपन अचरा मा बांध के ।।

गोरों पे गोरी भारी

गोरी की जनम-पत्री से मिलाई


दोनों में अद्भत
ु समानता पाई।
दोनों बाहर से आए,
दोनों का गोरा रं ग,
अब गोरा रं ग हमारा फेवरे ट रं ग,
हम जानबझ
ू के हार गए जंग।

गोरों के साथ अंग्रेजी आई,


गोरी के साथ साली आई,
अंग्रेजी दिमाग में घस
ु गई
साली दिल में बस गई।

दोनों गिफ्ट लाए हाई-फाई,


गोरे दे श में रे लगाड़ी लाए,
गोरी दहे ज में कार लाई,
रिटर्न गिफ्ट में गोरों ने वतन लट
ू ा
गोरी ने मेरा वेतन लट
ू ा।

दोनों के खिलाफ
जिसने आवाज उठाई
उसने कड़ी सजा पाई।
गोरों से लड़े फ्रीडम फाइटर
गोरी से लड़ा कंु वारा दे वर,
दे वर को घोड़ी पर चढ़ना पड़ा।

तुलना अभी जारी है ,


बस एक बात में
गोरी, गोरों पे भारी है
कि गोरों को गए
इतने साल हो गए
कभी याद भी नहीं आती है ,
लेकिन गोरी मायके जाती है
तो दो दिन तक पंद्रह अगस्त,
तीसरे दिन घर अस्त-व्यस्त,
बर्तन गंदे समस्त,
कढ़ाही में चाय बनाने की
राह प्रशस्त,
जब तक गोरी नहीं लौटती है ,
आजादी काटने को दौड़ती है ।

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