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Gawn
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गाँव स्टे टस
गाँव पर शायरी
My Village Status
गाँव के बहुत से लोग शहर में गायब हो जाते है . बड़ी-बड़ी इमारतों को बनाते वक्त थोड़ी सी
लापरवाही की वजह से कई लोगो की जान चली जाती है . कई बार कमजोर इमारत गिर जाने से
मजदरू ों की मौत हो जाती है . कई बार बीमारी की वजह से अस्पतालों में दम तोड़ दे ते है . तो
कभी सड़क के किनारे फूटपाथ पर सोते वक्त कोई गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है . गाँव से जो माँ-बाप
अपने बेटे को बाहर कमाने के लिए भेजते है . मानों वो अपना कलेजा निकालकर दरू भेजते है .
का लाता है .
Gaon Shayari
गाँव के बहुत से लोग शहर में गायब हो जाते है . बड़ी-बड़ी इमारतों को बनाते वक्त थोड़ी सी
लापरवाही की वजह से कई लोगो की जान चली जाती है . कई बार कमजोर इमारत गिर जाने से
मजदरू ों की मौत हो जाती है . कई बार बीमारी की वजह से अस्पतालों में दम तोड़ दे ते है . तो
कभी सड़क के किनारे फूटपाथ पर सोते वक्त कोई गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है . गाँव से जो माँ-बाप
अपने बेटे को बाहर कमाने के लिए भेजते है . मानों वो अपना कलेजा निकालकर दरू भेजते है .
और त ू मे रे गाँव को गँ व ार कहता है … .
जिस प्रकार हर तरफ अब शहरीकरण बढ़ता जा रहा है वैसे -वैसे ही लोगों का मानसिक
अब संस् कारों की बात कौन करता है , साहब हर इं स ान अब सिर्फ पैस ों की बात करता
है |
माँ बाप अपने बच्चों के लिए अपने सारे स ुख कु र्बा न कर दे ते हैं और बच्चे बड़े होकर
दल
ु ार तो है |
मर्गे
ु की बाग़ से खल
ु ी आंखे,
एक आंख आधी बंद,
दस
ू री खल
ु ती हुई थोड़ी थोड़ी,
चिड़ियों की चहचआहट से,
एक नई सब
ु ह की शरु
ु आत,
बेले की सन्ु दर खश
ु बू में,
हल्के से सरू ज का दीदार,
यहीं तो मिलता है ,
प्रक्रिति का ढे र सारा प्यार,
बाहर थोड़ी दरू पर,
घने बरगद की छाँव,
कितना प्यारा है ये,
अपना गाँव।
दिल को सक
ु ू न जो दे जाये,
वो मौसम बसंत का,
सर्दी और गर्मी का मेल,
सरसों के फूलों संग,
हवा का खेल,
टप-टप करती बद
ँु े ,
वो बारिश के मौसम में,
बादलों का मेल,
अंधी आये बारिश आये,
पर मस्ती न कभी कम पड़ पाए,
भीगते बच्चों की टोली,
करती बद
ंू ों संग अठखेली,
कही दरू जामन
ु की छांव,
कितना प्यारा है ये,
अपना गाँव
कितना प्यारा है ये, अपना गाँव।।
"तम
ु मेरे गांव आना"
अलग-अलग मौसम..
तरह-तरह की फसलें,
धरती का सीना चीर कर..
दिखती हैं उनकी शकलें,
हमारी फसलों को दे खने..
तुम मेरे गांव आना...।।
यह मेरा गांव है ,
यहां गर्मी में ठं डी छांव है ,
पोखर यहां बरसात में जवाँ होते हैं,
लोग यहां एक दस
ू रे का साथ दे ते हैं,
सक
ु ू न है यारो मेरे गांव की हवा में ...
जिसे कर रहा हूं शब्दों से बयां मैं,
इस सक
ु ू न का एहसास लेने..
तम
ु मेरे गांव आना..
तुम मेरे गांव आना...।।
- अभिषेक
मेरा गांव मझ
ु को बहुत याद आता है
बार बार आकर सपनों में सताता है
सन
ु ा है उसने खरीद लिया है करोड़ों का घर शहर में
मगर आंगन दिखाने आज भी वो बच्चों को गांव लाता है
-अज्ञात
ं ों !
ऐ शहर के वाशिद
अमत
ृ से बोल भी अब जहर हो गये हैं
तम के समान सारे पहर हो गये हैं
कहां बनायें अपना बसेरा यारों
गांव भी अब तो शहर हो गये हैं
सष्टि
ृ का अद्भत
ु नैसर्गिक सौन्दर्य
जामुन, अमरूद, आम-मंजरी का माधुर्य।
गोधलि
ू में घर आते पशओ
ु ं के बजते घंघ
ु रू
मिट्टी के चल्
ू हे पर सिकती रोटी की मीठी खश
ु ब।ू
मोनिका जैन ‘पंछी’
(19/02/2014)
(2)
मोनिका जैन ‘पंछी’
आज गाँव में प्रवेश करते ही सावन ने हमला कर दिया ..दे खते ही दे खते बचपन में पढ़ी वो पंत जी की
कविताएं एक-एक कर याद आने लगीं..आहा…!
मल्लब कि जिन घासों को बैल और गधे तक नहीं चरते उनका भी सौंदर्य आज दे खते बन रहा है .
जिन पेड़ों के पत्ते बसन्त की भी नहीं सुनते वो सावन में हरियरी के मारे नाच रहें हैं…
वाह ।..अपने अर्धविकसित गाँव के इस पूर्ण विकसित सौंदर्य को दे खकर मेरा मन मयूर नागिन
डांस करने लगा..दे श की सभी पँचवर्षीय योजनाओं पर फख्र होने लगा..
और थोड़ी दे र में ही ग्राम प्रेम के वसीभूत होकर भीतर से पंत,निराला,प्रसाद,किट्स,मिल्टन एक-
एक कर जागने लगे…सोचा क्यों न एक लाइन मैं भी कुछ कहूँ… रामाधीन भीखमखेड़वी स्टाइल
में ही सही..दो लाइन चिपका ही दँ …
ू .
लेकिन साहे ब.. कभी-कभी कविता न लिखना भी साहित्य जगत में बड़ा योगदान दे ना है .
सो इस रोमांटिक मौसम में कवि बनने के बिजनेस से ज्यादा मैने गायक बनना उचित समझा…
और गन
ु गन
ु ाते हुये थोड़ी दे र बाद समझा कि हिंदी के परु स्कृत कवियों ने गाँव की कविताएँ
शहरातीयों के लिए ही तो लिखीं हैं…लोग शहर में रहकर गाँव को महसूस करें ..
गाँव के लोगों को कविता लिखने और उसे पढ़ने की फुर्सत कहाँ है ..
अब दे खिये न… क्या ख़ाक कोई कविता पढ़े गा.. काहें की मखमल सी कोमल हरियाली और काहें
का सावन..
कल दो लोग मलेरिया से ग्रस्त होकर शहर के अस्पताल में भर्ती हैं..सुखबेलास का छोटका बबअ
ु वा
को तो डेंगू का लक्षण लग रहा..काली माई डीह बाबा उसकी रक्षा करें ..
और मात्र चार दिन से गांव में बिजली नहीं आई है ….
आती भी है तो दो-चार मिनट के लिए, ताकि गाँव के लोग ये न कहें कि हमारे गाँव में बिजली के
खम्भे और तार नहीं हैं. ..
कल पता चला आटा चक्की भी बन्द है ..लोग दस
ू रे -तीसरे गाँव में गें हू पिसवाने जा रहे हैं…
मोबाइल चार्ज कराने के लिए दस रुपया में जनरे टर जिंदाबाद है ..
उधर हमारे अखिलेश भाई फिर से एक बार कह रहे हैं कि…”इस बार हम लर्निंग सीएम थे. एक
बार फिर सीएम बनवाइये..इस बार चौबीस घण्टा बिजली दें गे”.
पिछली बार भी यही कहे थे..शायद उस बार कहना सिख रहे थे..
खैर बिजली आएगी या नहीं लेकिन इस बरसात में गाँव की गलीयों में अनगिनत समाजवादी गड्ढे
हो गये हैं..जिनमें रात के अँधेरे में गिरने पर समाजवाद से सीधा साक्षात्कार हो जाता है ..और दिल
अपने आप लोहिया,जेपी, और मन से मोलायम जी के चरणों में झुक जाता है ..
तब यही गाँव चिल्लाता है …
“काश हम सैफई होते…”
पर हाय! रे उसकी किस्मत…..पता न किस कलम से लिखी है सरकार ने…
हाँ… अन्धेरा होते ही यही रोमांटिक सा सावन भादो की काली और डरावनी रात में बदल जाता
है ..तब शहर में रहकर कविताई करने वालों की सारी कविताएँ सांप-बिच्छु और चोर के डर से
काँपने लगती हैं…
छोड़िये महराज… इधर आइये जरा….
दे खिये न हमारी खेदन बो भौजी कल से परसान हैं..रोपनी करा के खेदन गए तो बेमार पड़
गये..भौजी मना करते रह गयीं..”ए जी बेबी के पापा. तनी द ू चार दिन रह-सह के जाइए न..
तनिक आराम कर लिजिये..अरे ! दन
ु ु टाइम गरम-गरम द ू गो परवठा आ नेनुआ के तरकारी
खाइयेगा हमार हाथ से..नवेडा जाकर तो खिचड़ी खाकर ओवर टाइम करना ही है ..”
लेकिन खेदन काहें माननें जाएं..उनको तो नोट छापने की जल्दी थी…चले गये..
अब भौजी उदास हैं…न में हदी लगाई हैं न, चड़
ू ी पहनी हैं….केकरा पर श्रग
ं ृ ार करें …कौन है दे खने
वाला…जा रे तहार नवेडा…
अब दे खते हैं कि नइहर से तीज लेके कवन आता है ..भाई को फरीदाबाद राखी भी तो भेजना है …
इसी में काली माई,डीह बाबा,बरम बाबा की पूजाई करनी है …बड़ी लोड है भौजी पर..
हाय!…जा रे दरद..पता चला है कि मंटुआ इस धमकी के बाद चार बजे भोरे उठ कर दौड़ रहा है …
दप
ू हरिया में भी डंड,बैठक रियाज मार रहा है ..रात को ग्यारह बजे तक पढ़ाई कर रहा है ..
माई-बाबज
ू ी परे शान हैं कि “आखिर लौंडे को हो का गया है …जो डांटने-समझाने और बड़ी मारने-
पिटने पर भी नहीँ पढ़ा वो आज अपने आप..”
माई बाबज
ू ी का समझे कि प्यार में आदमी आन्हर हो जाता है ..
खैर भगवान से मनाइये डीह बाबा मंटुआ का मनकामना पूरा करें ..
बाकी सब ठीके है ..घर आने के बाद पड़ोस में वही पारम्परिक सवाल..कहिया ले पढ़ोगे और
माताजी का वही सुझाव..तनी खाने-पीने पर ध्यान दो बबुआ ?
लेकिन कुर्सी पर बैठते हुये सोचते हैं..कुर्सी निकालने वालों का क्या दोष..
कमबख्त मेरे और कुर्सी के बीच में वो बनारस न आ गया है …और वो तरह-तरह की चर्चाएँ..”गाँव
का नाम यही लड़का रोशन करे गा..”
बक महराज… रोशन की ऐसी की तैसी
आज फिर हिंदी के मेरे प्रिय कवि केदारनाथ सिंह जी के उस कविता की वो लाइन याद आ गयी हैं.
जिसको कभी उन्होंने अपने गाँव चकिया आने पर लिखा था..
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लाली लग
ु रा पहिर के ना ,
गोरी मोर सपना मा आथे ।
पईरी ला छनकावत रहिथे,
चुरी ला अपन खनकाथे ।।
दोनों के खिलाफ
जिसने आवाज उठाई
उसने कड़ी सजा पाई।
गोरों से लड़े फ्रीडम फाइटर
गोरी से लड़ा कंु वारा दे वर,
दे वर को घोड़ी पर चढ़ना पड़ा।