आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की साहित्येतिहास-दृष्टि

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अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी की साद्वहत्येद्विहास-दृद्वि

योगेश प्रिाप शेखर, सहायक प्राध्यापक(हहदी), दद्विण द्वबहार कें द्रीय द्ववश्वद्ववद्यालय
अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी हहदी के ‘पारसमद्वण अचायय’ हैं | जैसे पारस लोहे को सोने
में बदल देिा है वैसे ही हजारीप्रसाद द्विवेदी ने साद्वहत्य की द्वजस द्ववधा को छु अ ईसे ऄपनी
सृजनात्मकिा से ऄलग मुकाम पर पुँचचाया | ईन्होंने ‘हहदी साद्वहत्य का आद्विहास’ नाम से
कोइ ककिाब नहीं द्वलखी पर ईन की दो-िीन पुस्िकों और कइ लेखों में ईन के साद्वहत्येद्विहास
संबंधी द्ववचार देखे जा सकिे हैं | ईन से पहले हहदी साद्वहत्य का ‘व्यवद्वस्िि’ आद्विहास अचायय
रामचंद्र शुक्ल ने द्वलखा िा | अचायय शुक्ल ने ऄपने ‘हहदी साद्वहत्य का आद्विहास’ में यह जरूर
द्वलखा िा कक “प्रत्येक देश का साद्वहत्य वहाच की जनिा की द्वचत्तवृद्वत्त का संद्वचि प्रद्विहबब
होिा है” पर ईन के द्वलए ‘जनिा’ का मिलब ‘द्वशद्विि जनिा’ िा | आस बाि का पिा शुक्ल
जी के द्वनबंध ‘साद्वहत्य’, जो न्यू मैन के ‘अइद्वडया ऑफ यूद्वनवर्ससटी’ के ‘द्वलटरे चर’ द्वनबंध के
अधार द्वलखा गया िा और ‘हचिामद्वण -3’ में संकद्वलि है, से चलिा है | अचायय शुक्ल ने
द्वलखा है कक “ साद्वहत्य ईन श्रेष्ठ मनुष्यों की द्वशिा और वािाय है द्वजन्हें ऄपनी जाद्वि के
प्रद्विद्वनद्वध रूप में बोलने का ऄद्वधकार प्राप्त है और द्वजनके शब्दों में ईनके स्वदेशीय बंधुगण
ऄपने-ऄपने भावों का प्रद्विहबब देखिे हैं और ऄपने ऄनुभव के सारांश का पिा लगािे हैं |”
साद्वहत्येद्विहास से संबंद्वधि अचायय द्विवेदी की पहली पुस्िक ‘हहदी साद्वहत्य की भूद्वमका’
है द्वजस का प्रकाशन 1940 इ. में ुँअ िा | आस से पहले ईन की ककिाब ‘सूर-साद्वहत्य’ िी |
‘भूद्वमका’ के ‘द्वनवेदन’ में अचायय द्विवेदी द्वलखिे हैं कक “ ‘द्ववश्वभारिी’ के ऄहहदी-भाषी
साद्वहद्वत्यकों को हहदी साद्वहत्य का पररचय कराने के बहाने आस पुस्िक का अरं भ ुँअ िा |
बाद में कु छ नए ऄध्याय जोड़कर आसे पूणय रूप देने की चेिा की गइ है | मूल व्याख्यानों में से
बुँि-से ऄंश छोड़ कदए गए हैं, जो हहदी-भाषी साद्वहद्वत्यकों के द्वलए ऄनावश्यक िे | कफर भी
आस बाि का यिासंभव ध्यान रखा गया है कक प्रवाह में बाधा न पड़े | आसके द्वलए कभी-कभी
कोइ-कोइ बाि दो जगह भी अ जाने दी गइ है | ऐसा प्रयत्न ककया गया है कक हहदी-साद्वहत्य
को संपूणय भारिीय साद्वहत्य से द्ववद्वछछन्न करके न देखा जाए | मूल पुस्िक में बार-बार
संस्कृ ि, पाद्वल, प्राकृ ि और ऄपभ्रंश के साद्वहत्य की चचाय अइ है, आसीद्वलए कइ लंबे पररद्वशि
जोड़कर संिेप में वैकदक, बौद्ध और जैन साद्वहत्यों का पररचय करा देने की चेिा की गइ है |
रीद्विकाव्य की द्वववेचना के प्रसंग में कद्वव-प्रद्वसद्वद्धयाच और स्त्री-ऄंग के ईपमानों की चचाय अइ
है | मध्यकाल की कद्वविा के साि संस्कृ ि कद्वविा की िुलना के द्वलए अवश्यक समझ कर
पररद्वशि में आन दो द्ववषयों पर भी ऄध्याय जोड़ कदए गए हैं |”
ईक्त लंबे ईद्धरण से यह स्पि होिा है कक अचायय द्विवेदी ने हहदी साद्वहत्य को भारिीय
साद्वहत्य से जोड़कर कर देखने की बाि की है | द्वनश्चय ही यह दृद्वि ईन्हें रवींद्रनाि की संगद्वि
से द्वमली होगी | हमें यह नहीं भूलना चाद्वहए कक अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी 23 वषय की
ईम्र में शांद्विद्वनके िन गए और वहाच बीस वषय रहकर 1950 इ. में काशी हहदू द्ववश्वद्ववद्यालय
वापस अए | 1930 इ. का शांद्विद्वनके िन अज के शांद्विद्वनके िन की िरह दीवारों में कै द नहीं
िा | ईस समय के शांद्विद्वनके िन में द्विद्विमोहन सेन, नंदलाल बोस, हवटरनीज, द्ववधुशख े र
शास्त्री एवं और भी कइ ऄकादद्वमक नित्र वियमान िे ििा आन सब के बीच जैसे चंद्रमा की
िरह रवींद्रनाि सुशोद्वभि िे | रवींद्रनाि का ‘चाय-चक्रम’ ऄकादद्वमक दृद्विकोण का द्ववस्िार,
स्फू र्सि और नवीन रचनात्मकिा को पुि करिा ही होगा | हमें यह भी नहीं भूलना चाद्वहए कक
अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘हहदी साद्वहत्य की भूद्वमका’ दस वषय के लगािार ऄध्यापन के
बाद द्वलखी िी | 1940 इ. में जब भारि अज़ाद भी न ुँअ िा, ईस समय भारिीय साद्वहत्य
की पररकल्पना और ईस से हहदी साद्वहत्य को जोड़कर देखने की यह दृद्वि नवीन है | ईपयुक्त य
‘द्वनवेदन’ में द्विवेदी जी यह भी बिािे हैं कक हहदी साद्वहत्य का गहरा संबंध संस्कृ ि, पाद्वल,
प्राकृ ि और ऄपभ्रंश के साद्वहत्य से भी है |
‘हहदी साद्वहत्य की भूद्वमका’ का पहला ही ऄध्याय है --- हहदी साद्वहत्य : भारिीय हचिा
का स्वाभाद्ववक द्ववकास | आसी ऄध्याय में वे भद्वक्त अंदोलन के ईद्भव की अचायय शुक्ल िारा
की गइ व्याख्या से ऄसहमि होिे हैं | हहदी में ‘शुक्ल बनाम द्विवेदी’ कर के बुँि कु छ द्वलखा
जा चुका है | ईसे यहाच दोहराने का कोइ ऄिय नहीं | यहाच आस बाि की ओर ध्यान कदलाने की
कोद्वशश है कक अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी हहदी साद्वहत्य को स्वाभाद्ववक द्ववकास के रूप में
देखिे हैं | आस िरह आद्विहास की वे द्वनरं िरिा और द्ववकासमान द्वस्िद्वि को प्रस्िाद्ववि कर रहे
हैं | आद्विहास के बारे में ईन्होंने एक जगह द्वलखा है कक “आद्विहास जीवंि मनुष्य के द्ववकास की
जीवनकिा होिा है, जो कालप्रवाह से द्वनत्य ईद्घारटि होिे रहने नव-नव घटनाओं और
पररद्वस्िद्वियों के भीिर से मनुष्य की द्ववजय-यात्रा का द्वचत्र ईपद्वस्िि करिा है |” मनुष्य की
द्ववजय-यात्रा में द्विवेदी जी का बुँि भरोसा है | वे मनुष्य की शद्वक्त और सीमा दोनों को
स्वीकार करिे हैं | सामाद्वजकिा के प्रद्वि भी ईन के मन में बुँि अदर है | ईन के साद्वहत्य में
सब से ऄद्वधक आस वाक्य को देखा जा सकिा है द्वजस में वे द्वलखिे हैं कक “ऄपने-अप को
दद्वलि द्रािा की भाचद्वि द्वनचोड़कर जब िक ‘सवय’ के द्वलए द्वनछावर नहीं कर कदया जािा िब
िक ‘स्वािय’ खंड-सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देिा है, िृष्णा को ईत्पन्न करिा है और मनुष्य
को दयनीय --- कृ पण --- बना देिा है | कापयण्य दोष से द्वजसका स्वभाव ईपहि हो गया है,
ईसकी दृद्वि म्लान हो जािी है | वह स्पि नहीं देख पािा |” ऄकारण नहीं कक द्विवेदी जी
मनुष्य को ही साद्वहत्य का लक्ष्य मानिे हैं | आन बािों को ऄगर द्वमलाकर सोचा जाए और
द्विवेदी जी की आद्विहास दृद्वि पर द्ववचार ककया जाए िो यह स्पि होगा कक वे आद्विहास को
ऄिीि की वस्िु नहीं मानिे | ईन के द्वलए आद्विहास मनुष्यिा और सामाद्वजकिा का द्वनरं िर
द्ववकासमान रूप है | आसीद्वलए वे परं परा की द्वनरं िरिा का प्रस्िाव करिे हैं |
अचायय शुक्ल द्वसद्धों और नािों के साद्वहत्य को ‘सांप्रदाद्वयक’ मानिे िे | शुक्ल जी के
द्वलए ‘सांप्रदाद्वयक’ का ऄिय वह नहीं है जो अज हमारे सामने स्पि है | ईनके द्वलए
‘सांप्रदाद्वयक’ का मिलब ‘संप्रदाय द्ववशेष का’ है | ईन का िकय िा कक द्वसद्धों और नािों का
साद्वहत्य चूचकक संप्रदाय द्ववशेष के प्रचार के द्वलए द्वलखा गया है आसद्वलए यह साद्वहत्य नहीं है |
आसी िरह वे कबीर को भी ‘बड़ी प्रद्विभा’ को मानकर भी ईन्हें वह स्िान नहीं देिे जो
िुलसीदास को देिे हैं | अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी ने यह स्पि ककया कक द्वसद्धों और नािों
का साद्वहत्य संप्रदाय द्ववशेष के प्रचार के द्वलए द्वलखे जाने के बाद भी वे साद्वहद्वत्यक रचनाएच
ही हैं | वे ऄपनी ककिाब ‘हहदी साद्वहत्य का अकदकाल’ में द्वलखिे हैं कक “जैन ऄपभ्रंश-
चररिकाव्यों की जो द्ववपुल सामग्री ईपलब्ध ुँइ है, वह द्वसफय धार्समक संप्रदाय के मुहर लगाने
मात्र से ऄलग कर दी जाने योग्य नहीं है | स्वयंभू, चिुमुयख, पुष्पदंि और धनपाल-जैसे कद्वव
जैन होने के कारण ही काव्य-िेत्र से बाहर नहीं चले जािे | धार्समक साद्वहत्य होने मात्र से
कोइ रचना साद्वहद्वत्यक कोरट से ऄलग नहीं की जा सकिी | यकद ऐसा समझा जाने लगे िो
िुलसीदास का रामचररिमानस भी साद्वहत्य-िेत्र में ऄद्वववेछय हो जाएगा और जायसी का
पद्मावि भी साद्वहत्य-सीमा के भीिर नहीं घुस सके गा |” आिना नहीं वे यह भी द्वसद्ध करिे हैं
कक कबीर की द्ववचारधारा का संबध ं द्वसद्धों और नािों से कहीं-न-कहीं है |
अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी साद्वहद्वत्यक परं परा की खोज और ईस के रचनात्मक प्रभाव
का मूल्यांकन करने वाले द्वविान हैं | ईन के द्वलए साद्वहद्वत्यक परं परा द्वसफय एक भाषा िक
सीद्वमि नहीं है | उपर यह संकेि ककया गया है कक वे हहदी साद्वहत्य का संबंध संस्कृ ि, पाद्वल,
प्राकृ ि और ऄपभ्रंश से जोड़िे हैं | यह बाि यहाच याद की जा सकिी है कक ईन्होंने ऄपने
द्ववद्यार्सियों से अकदकालीन और मध्यकालीन साद्वहत्य पर बुँि शोध कराए | डा. नामवर
हसह ने ‘हहदी के द्ववकास में ऄपभ्रंश का योग’, द्वशवप्रसाद हसह ने ‘कीर्सिलिा और ऄवहट्ट
भाषा’ और द्ववश्वनाि द्वत्रपाठी ने ‘संदश े रासक’ पर काम ककया िा जो अज भी नइ पीढ़ी को
कदशा-द्वनदेश दे रहे हैं | खुद द्विवेदी जी ने ‘नाि-संप्रदाय’ पर ककिाब द्वलखी | यहाच िक कक
नइ कहानी के अलोचक देवीशंकर ऄवस्िी ने द्विवेदी जी के द्वनदेशन में ऄठारहवीं सदी की
प्रेमाभद्वक्त पर शोध-कायय ककया िा | आसी िरह लल्लन राय ने रीद्विकालीन कद्वविा और
वस्त्राभूषण पर शोध ककया िा | द्विवेदी जी के द्वलखे को पढ़ने पर यह पिा चलिा है कक
ईनके यहाच संस्कृ ि और ऄपभ्रंश की ईद्वक्तयाच सहज भाव से सामने अिी हैं | ईन के द्वलए
साद्वहद्वत्यक परम्परा द्वसफय हहदी साद्वहत्य िक ही नहीं सीद्वमि है बद्वल्क ईस का द्ववस्िार
संस्कृ ि और भारि की दूसरी भाषाओं यिा बचगला और ईद्वड़या अकद िक है | ईनके
‘कल्पलिा’ द्वनबंध-संग्रह में ‘अकदकाल के ऄन्िरप्रान्िीय साद्वहत्य का ऐद्विहाद्वसक महत्त्व’
शीषयक एक लेख संकद्वलि है | आस लेख में ईन्होंने यह बिाया है कक हहदी साद्वहत्य या
भारिीय भाषा के ककसी भी साद्वहत्य का ऄध्ययन दूसरी भारिीय भाषाओं से द्वबना जुड़े हो
ही नहीं सकिा | वे द्वलखिे हैं कक “अपको ऄगर हहदी साद्वहत्य का ऄध्ययन करना है िो
ईसके पड़ोसी साद्वहत्य --- बचगला, ईद्वड़या, मराठी, गुजरािी, नेपाली अकद के पुराने साद्वहत्य
--- द्वलद्वखि और ऄद्वलद्वखि --- को जाने द्वबना घाटे में रहेंगे | यही बाि बचगला, ईद्वड़या,
मराठी अकद पुराने साद्वहत्य के बारे में भी ठीक है | हमारे देश का सांस्कृ द्विक आद्विहास आस
मजबूिी के साि ऄदृश्य काल-द्ववधािा के हािों सी कदया गया है कक ईसे प्रांिीय सीमाओं में
बाचधकर सोचा ही नहीं जा सकिा | ईसका एक टाचका यकद काशी में द्वमल गया िो दूसरा
बंगाल में, िीसरा ईड़ीसा में और चौिा महाराष्ट्र में द्वमलेगा और यकद पाचचवाच मालाबार या
सीलोन में द्वमल जाय िो अश्चयय करने की कोइ बाि नहीं है |” ऐसा ऄनुमान होिा है कक
ईनकी आस दृद्वि के बनने में शांद्विद्वनके िन में संि साद्वहत्य के ममयज्ञ द्विद्विमोहन सेन का भी
योगदान रहा होगा | आस द्वसद्धांि को द्विवेदी जी व्यवहार में भी बरििे हैं | ईन्हें यकद हहदी
का ‘सांस्कृ द्विक आद्विहासकार’ कहा जाए िो कोइ ऄद्विशयोद्वक्त न होगी | ऐसा आसद्वलए भी
कक वे साद्वहत्य के आद्विहास को व्यापक सांस्कृ द्विक आद्विहास का द्वहस्सा मानिे हैं | भारिीय
भाषाओं के साद्वहत्य के पररप्रेक्ष्य में हहदी साद्वहत्य को देखने की दृद्वि का एक कारण यह हो
सकिा है कक हहदी का अम व्यद्वक्त हहदी साद्वहत्य से भारिीय भाषाओं की ओर जािा है
जबकक द्विवेदी जी भारिीय भाषाओं से होिे ुँए हहदी की ओर अए िे | काशी में पढ़िे समय
ईनके द्ववषय संस्कृ ि और ज्योद्विष िे | बाद में वे हहदी में द्वनबंध द्वलखने लगे | कफर रवींद्रनाि
की माचग और पंद्वडि मदनमोहन मालवीय की ऄनुशंसा पर बिौर हहदी ऄध्यापक
शांद्विद्वनके िन चले गए | रवींद्रनाि देश-काल और पररद्वस्िद्वियों की संकीणयिाओं से एक मुक्त
मानव िे | आसद्वलए ईनकी संगद्वि में द्विवेदी जी में वह भाषाइ संकीणयिा अ ही नहीं सकिी
िी जो अम भारिीयों में पाइ जािी है | जाद्वहर है कक शांद्विद्वनके िन में स्वभाविः बचगला की
प्रधानिा िी | पहले वे संस्कृ ि से जुड़े िे, शांद्विद्वनके िन जा कर बचगला और ऄंग्रेजी से जुड़े |
हहदी िो खैर िी ही | डा. नामवर हसह ने ऄपनी ककिाब ‘दूसरी परं परा की खोज’ में यह
साफ द्वलखा है कक “द्विवेदीजी को भारिीय संस्कृ द्वि और साद्वहत्य की परं परा रवींद्रनाि के
माध्यम से द्वमली|” आसद्वलए हजारीप्रसाद द्विवेदी के दृद्विकोण में व्यापकिा है | उपर जो
ईद्धरण कदया गया है ईस से यह बाि स्पि होिी है |
द्विवेदी जी कक आद्विहास-दृद्वि की व्यावहाररक भूद्वम हहदी का मध्यकालीन साद्वहत्य है |
‘कबीर’ ईन की बुँचर्सचि कृ द्वि है | हालाचकक वे ऄपनी पहली ककिाब ‘सूर-साद्वहत्य’ में सूर
की राधा की जयदेव,द्ववद्यापद्वि और चंडीदास की राधा से िुलना कर ऄपने ‘सांस्कृ द्विक
आद्विहास-दृद्वि’ का पररचय दे चुके िे पर ‘कबीर’ ककिाब में यह चीज और द्ववस्िार से नज़र
अिी है | कबीरदास को वे भारि की द्ववद्वभन्न धमय-साधनाओं के बीच द्वचद्वन्हि करिे हैं | बुँि
प्रद्वसद्ध ईद्धरण से ही यह बाि स्पि हो जाएगी | वे द्वलखिे हैं कक “कबीरदास ऐसे ही द्वमलन-
हबदु पर खड़े िे | जहाच से एक ओर हहदुत्व द्वनकल जािा है और दूसरी ओर मुसलमानत्व,
जहाच एक ओर ज्ञान द्वनकल जािा है, दूसरी ओर ऄद्वशिा; जहाच पर एक ओर योगमागय द्वनकल
जािा है, दूसरी ओर भद्वक्तमागय; जहाच से एक िरफ द्वनगुयण भावना द्वनकल जािी है, दूसरी
ओर सगुण साधना, --- ईसी प्रशस्ि चौरास्िे पर वे खड़े िे |” आसी िरह वे िुलसीदास की
समन्वय-बुद्वद्ध की बाि करिे हैं | पर यहाच यह भी ध्यान रखना जरूरी है कक द्विवेदी जी
मध्यकाल और मध्यकालीन साद्वहत्य को यूरोपीय नजररए से नहीं देखिे | वे मध्यकाल के
बारे में यह जरूर कहिे हैं कक “सामूद्वहक रूप से मनुष्य एक जबदी ुँइ स्िब्ध मनोवृद्वत्त का
द्वशकार हो जािा है |” लेककन वे ऄपने द्ववश्लेषण में यह द्वसद्ध करिे हैं कक द्वजस िरह यूरोप में
लगभग 500 इ. से लेकर 1550 इ. िक मध्यकाल माना जािा है ईस िरह भारि के आस
समय को मध्यकाल नहीं माना जा सकिा क्योंकक आसी समय “भारिीय आद्विहास में नवीन
ईत्साह और नवीन जोश का ईदय ुँअ िा | ... आस काल को और जो चाहे कहा जाय,
पिनोन्मुखी और जबदी ुँइ मनोवृद्वत्त का काल नहीं कहा जा सकिा |” आसी क्रम में वे यह भी
स्पि करिे हैं कक भारि में काल द्ववभाजन की प्रकक्रया में जो चार युगों यानी सियुग,
त्रेिायुग, िापरयुग और कद्वलयुग की कल्पना है वह भी आस कारण है कक एक द्वनराशावादी
मनोवृद्वत्त है जो यह मानिी है कक मनुष्य क्रमश: नैद्विक दृद्वि से पिन की ओर बढ़ रहा है | जो
कु छ ऄछछा िा वह पहले हो चुका है और ऄब अगे के वल ह्रास की ही संभावना है | यहीं पर
द्विवेदी जी यह भी स्पि करिे हैं कक ऄंग्रेजी में आस्िेमाल होनेवाला शब्द ‘द्वमद्वडएवल’ और
हहदी में प्रयोग होनेवाला शब्द ‘कद्वलयुग’ एक ही ऄिय नहीं देिे | द्विवेदी जी ने द्वलखा है कक “
‘कद्वलयुगी’ शब्द में जो ऄनादर का भाव है, वह चररत्रपरक होिा है और
‘द्वमद्वडएवल’(मध्ययुगीन) शब्द का ऄनादर भाव कुं रठि-मनोवृद्वत्तपरक ऄिय में होिा है |” आस
द्वववेचन से यह स्पि होिा है कक द्विवेदी जी की आद्विहास-दृद्वि औपद्वनवेद्वशक प्रभावों और
परं परावादी ऄसर से मुक्त और खुली ुँइ दृद्वि है | वे एक ही साि दोनों नजररए की
अलोचना या सीमा बिािे ुँए मध्यकालीन हहदी साद्वहत्य का मूल्यांकन करिे हैं |
यह सभी जानिे हैं कक अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी के द्वप्रय कद्ववयों में से एक काद्वलदास
िे | काद्वलदास ने ऄपने पहले नाटक ‘मालद्ववकाद्विद्वमत्र’ में आस बाि की घोषणा की िी कक
पुराना होने से ही सब ऄछछा नहीं हो जािा और नया होने से ही सब खराब नहीं हो जािा |
संि लोग परीिा कर के दोनों का मूल्यांकन करिे हैं | द्विवेदी जी के कायय का मुख्य िेत्र
अकदकालीन और मध्यकालीन हहदी साद्वहत्य िा | आस काल के द्ववशेषज्ञ द्वविान प्राय:
अधुद्वनक साद्वहत्य को शंका की नज़र से देखिे हैं | पर द्विवेदी जी जैसे काद्वलदास से प्रेरणा
लेिे ुँए ऄपने जमाने के समकालीन साद्वहत्य यानी प्रगद्विवादी साद्वहत्य को बुँि ही अशा
और ईत्साह भरी दृद्वि से देखिे हैं | वे द्वलखिे हैं कक “प्रगद्विवादी अंदोलन बुँि महान् ईद्देश्य
से चाद्वलि है | आसमें सांप्रदाद्वयक भाव का प्रवेश नहीं ुँअ िो आसकी संभावनाएच ऄत्यद्वधक हैं
| भद्वक्त के महान् अंदोलन के समय द्वजस प्रकार एक ऄदम्य दृढ़ अदशय-द्वनष्ठा कदखाइ पड़ी
िी, जो समाज के नए जीवन-दशयन से चाद्वलि करने का संकल्प वहन करने के कारण
ऄप्रद्विरोध्य शद्वक्त के रूप में प्रकट ुँइ िी, ईसी प्रकार यह अंदोलन भी हो सकिा है |” आस
ईद्धरण से द्विवेदी जी की संवेदनशीलिा के साि-साि ईन की दृद्वि का भी पिा चलिा है | वे
भद्वक्त अंदोलन से प्रगद्विवादी साद्वहत्य का संबंध जोड़िे हैं आस से ईनकी दृद्वि की व्यापकिा
का पिा चलिा है |
अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी की साद्वहत्येद्विहास-दृद्वि की एक और द्ववशेषिा है कक वे
साद्वहत्य और संस्कृ द्वि को द्ववद्वशि मानविावादी नजररए से देखिे हैं | यह द्ववद्वशि
मानविावादी नजररया ईन के पूरे साद्वहत्य में द्ववद्यमान है | वे ऄपने द्वनबंध ‘मनुष्य ही
साद्वहत्य का लक्ष्य है’ में द्वलखिे हैं कक “पुरानी सड़ी रूकढ़यों का मैं पिपािी नहीं हच, परं िु
संयम और द्वनष्ठा पुरानी रूकढ़याच नहीं हैं | ... मनुष्य के रं गमंच पर अने के पहले प्रकृ द्वि
लुढ़किी-पुढ़किी चली अ रही िी | प्रत्येक कायय ऄपने पूवयविती कायय का पररणाम है | संसार
की कायय-कारण-परं परा में कहीं फाचक नहीं िी | जो वस्िु जैसी होने को है, वह वैसी ही होगी
| आसी समय मनुष्य अया | ईसने आस नीरं ध्र ठोस कायय-कारण-परं परा में एक फाचक का
अद्ववष्कार ककया | जो जैसा है, ईसे वैसा ही मानने से ईसने आनकार कर कदया | ईसे ईसने
ऄपने मन के ऄनुकूल बनाने का प्रयत्न ककया | सो, मनुष्य की पूवयविती सृद्वि ककसी प्रकार
बनिी जा रही िी, मनुष्य ने ईसे ऄपने ऄनुकूल बनाना चाहा --- यहीं मनुष्य पशु से ऄलग
हो गया | ... यह ठीक है कक मनुष्य का आद्विहास ईसकी गलद्वियों का आद्विहास है, पर यह भी
ठीक है कक मनुष्य बराबर गलद्वियों पर द्ववजय पािा अया है |” आस ईद्धरण से कइ बािें पिा
चलिी हैं | पहली बाि िो यही कक परं परा या पुराने से ऄसहमद्वि का साहस और सहमद्वि
का द्वववेक द्विवेदी जी को एक मुक्त आद्विहासकार बनािा है | दूसरी बाि यह कक वे कायय-
कारण परं परा की सीमाओं के प्रद्वि सजग भी हैं और ईस की ईपयोद्वगिा को ले द्ववश्लेषणात्मक
भी | िीसरी बाि यह कक वे जानिे हैं कक मनुष्य गलद्वियाच करिा है पर ईन का द्ववश्वास है कक
मनुष्य गलद्वियों पर द्ववजय पािा अया है और अगे भी पािा रहेगा | मनुष्य की जय-यात्रा
में जो ईन का यकीन है वह ईन की साद्वहत्येद्विहास-दृद्वि को व्यापक, मार्समक, बुँअयामी
और समावेशी बनािा है | ईनकी खुली दृद्वि एक ओर िो काद्वलदास को ‘राष्ट्रीय कद्वव’( ध्यान
रहे ‘राष्ट्रकद्वव’ नहीं |) के रूप में देखिी है िो दूसरी ओर रवीन्द्रनाि से प्रेरणा ग्रहण करिी है
| आसी बीच में कबीर और बाकी कद्वव हैं | पुराने का मूल्यांकन और नए के द्ववकास की
संभावना को बरकरार रखना आस दृद्वि की द्ववशेषिा है | वे पुराने का मूल्यांकन नए की
कसौटी पर नहीं करिे और न ही नए के सामने पुराने की महानिा का बखान | आसद्वलए
अचायय हजारीप्रसाद द्विवेदी की साद्वहत्येद्विहास-दृद्वि एक द्ववस्िृि और खुले वृत्त का द्वनमायण
करिी है जहाच पुरानी रचनाशीलिा ऄपनी साियकिा पािी है और नइ रचनाशीलिा
द्ववकद्वसि होने का वािावरण एवं सहयोग |

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