Download as pdf or txt
Download as pdf or txt
You are on page 1of 384

आहा

सहज ध्यान योग


प्राणायाम व कुण्डलिनी

योगी आनन्द जी

सहज ध्यान योग 1


इस पस्ु तक में सलममलित सामग्री के लकसी अंश को लकसी भी रूप में कोई प्रकाशक/िेखक/संपादक –
इस पस्ु तक के प्रकाशक से अनमु लत लिये लिना प्रयोग न करें । ऐसा करना कॉपीराइट अलिलनयम का
उल्िंघन करना होगा।

लितीय संस्करण

ISBN 978-93-5288-031-7

© िेखक
योगी आनन्द जी

anandkyogi@gmail.com
http://www.kundalinimeditation.in/
http://www.youtube.com/c/YogiAnandJiSahajDhyanYog
https://www.fb.com/sahajdhyanyog/

सहज ध्यान योग 2


प्रस्तावना

इस िेख के िारा मैं सभी पाठकों को जानकारी देना चाहता हूँ लक वास्तव में योग क्या है तथा इसका
महत्त्व क्या है। वततमान समय में ज्यादातर परुु षों को योग के लवषय में सही जानकारी नहीं हो पा रही है।
इसका सिसे िड़ा कारण है िहुत से मागतदशतकों को योग का पणू त ज्ञान न होना, इसीलिए कभी-कभी योग
के लवषय में भ्रलमत करने वािी िातें सनु ने को लमिती हैं।
आजकि जो वास्तव में योगी हैं, वे ज्यादातर अपने आपको प्रकट नहीं करते हैं। कुछ परुु ष छोटी-
छोटी लसलियाूँ प्राप्त करके चमत्कार लदखाते हैं और अपने आपको योगी कहते हैं। चमत्कार योग नहीं है।
योग के िारा सािक अतं मतख ु ी होकर प्रकृ लत के वास्तलवक स्वरूप की जानकारी करता है तथा अपनी प्रवृलि
अपने चेतन स्वरूप की ओर करता है। प्रकृ लत की वास्तलवकता जानने पर दख ु स्वरूप भौलतक जगत के
आवागमन से मक्त ु हो जाता है लिर अपने स्वरूप में अवलस्थत होकर लचरशालं त को प्राप्त होता है।
हे अमृत के पत्रु ों! योग के लवषय को जानो और उससे िाभ िेने का प्रयास करो। लिर अपने
लनजस्वरूप में सदैव के लिए अवलस्थत हो जाओ और परम शांलत को प्राप्त कर अपने जीवन को लदव्य
िनाओ– यही मेरा उद्देश्य है।
िन्यवाद!
- योगी आनन्द जी

सहज ध्यान योग 3


आभार
पस्ु तक के रूप में योग-समिन्िी सािन-सग्रं ह का िड़ा कायत सििता पवू तक सपं न्न हुआ। प्रारंभ में
यह कलठन सा कायत जान पड़ता था। स्वाभालवक रूप से लकसी एक व्यलक्त के लिए इसे परू ा कर पाना मलु श्कि
होता। इस कायत को पणू त करने में प्रो० रवीन्र, डॉ. रलवकान्त पाण्डेय (पीएच.डी.), प्रो० अंशि ु , रजत
(पीएच.डी.), कौशिेन्र (पीएच.डी.), लवकास (एम.टेक.) एवम् आशीष (एम.टेक.) का योगदान
उल्िेखनीय है। मैं सवतप्रथम रजत ढींगड़ा, जो आईआईटी कानपरु में शोिाथी है, को श्रेय देना चाहगूँ ा। उसने
अपने लमत्रों से भी व्यलक्तगत आग्रह करके इस महत कायत को करने में सहयोग लदिवाया। जनकल्याण के
लिए इतनी िगन से काम करने के लिए मैं रजत को लवशेष आशीवातद देता ह।ूँ प्रो० अंशि ु ने व्यस्त होते
हुए भी पस्ु तक में अपने मल्ू यवान समय और श्रम का महत्वपणू त योगदान अलपतत लकया।
पस्ु तक को तैयार करने के लिए कुछ सक्ष्ू म शलक्तयों ने भी मागतदशतन लकया। अतं में, सभं व है लक
कुछ नाम छूट गए हों, तथालप पस्ु तक के लनमातण में दृश्य-अदृश्य, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लजनका भी सहयोग
रहा है उन सभी सािकों को शभु आशीष!
“त्वदीयं वस्तु गोलवन्द, तभ्ु यमेंव समपतयेत”
- योगी आनन्द जी

सहज ध्यान योग 4


ववषय-सूची

लनवेदन 8

पहला अध्याय
योग और योग का महत्त्व 12
ध्यान करने की लवलि 21
शि ु सालत्वक भोजन 44
दान 46
परोपकार 48
इच्छाएूँ 50
लनदं ा 53
नारी 57
सखु और दख ु 61
िैयत 65
मौन 68
गरुु 70
शलक्तपात 74
योगी और भक्त 87
संन्यासी 92
वैराग्य 96
मृत्यु और मृत्यु के िाद 100

सहज ध्यान योग 5


दूसरा अध्याय
अष्ांग योग 114
यम 116
लनयम 124
आसन 131
प्राणायाम 142
त्राटक 153
अशि ु ता 161
मंत्र जाप 165
विय 170
ज्ञानचक्र 179
लदव्यदृलष् 183
लसलियाूँ 189
कुण्डलिनी 197
समालि 230
ज्ञान 240
मोक्ष 245
िोकों के लवषय में 250
योगिि 267

तीसरा अध्याय
शरीर 279
अवस्थाएूँ 290

सहज ध्यान योग 6


कोष 293
नाड़ी 295
चक्र 297
प्राण 301
िन्ि 303
कमत 305
अहक ं ार और इलन्रयाूँ 320
लचि 332
गणु 344
अलवद्या और माया 349
प्रकृ लत 353
ईश्वर 357
आत्मा 362
सृलष् और प्रिय 365
ब्रह्म 371

सहज ध्यान योग 7


ननवेदन

लप्रय पाठकों, यह िेख मैं आलदगरुु शंकराचायत की प्रेरणा से लिख रहा ह।ूँ मैं एक छोटा-सा सािक
ह।ूँ मेंरे अन्दर लजतनी योग्यता और ज्ञान है, उसी के अनसु ार योग पर िेख लिखूँगू ा। इस िेख में कहीं पर
यलद कोई त्रलु ट हो तो कृ पया हमें क्षमा कर दीलजएगा। यलद कोई सािक या योगी हमें हमारी त्रलु टयों से अवगत
कराएगा, तो मैं उसका आभारी रहूँगा। शायद मैं िेख नहीं लिखता, मगर जि मैं शाकमभरी के एक आश्रम
में था, उस समय आलदगरुु शंकराचायत जी की हम पर कृ पा हुई। लिर ध्यानावस्था में उन्होंने हमसे कहा,
“आप तत्वज्ञानी हैं, महान योगी हैं, इसवलए जन-कल्याण के वलए आपको कुछ करना चावहए।”
मैं उस समय उनके कहने का अथत नहीं समझ सका। मैं िोिा, “कृपया आप स्पष्ट कवहए तावक मैं आपके
कहने का अवभप्राय समझ सकूूँ?” वे िोिे, “आप योग पर लेख वलवखए।” मैं िोिा, “मेंरे अन्दर
इतनी योग्यता कहाूँ जो योग पर लेख वलख सकूूँ। योग पर लेख वलखने के वलए योग में पररपूणण
होना जरूरी है।” वे िोिे, “तुम अपने आपको अयोग्य क्यों समझते हो? तुम लेख शुरू कर दो,
तुम्हारे अन्दर क्षमता स्वयमेंव आ जाएगी। भववष्य में तुम योग के ववषय में पररपण ू ण हो जाओगे,
हमारा आशीवाणद तुम्हारे साथ है।” लिर मैंने जनवरी–1994 में इस िेख को लिखना शरू ु कर लदया। हमें
भी योग के माध्यम से कुछ जानकाररयाूँ हालसि करनी थी तथा अपने आपको उच्चतम लस्थलत में िे जाना
था, तालक मैं कुछ लवषयों पर अलिकारपवू तक लिख सकूँू । मैं ध्यान करता और जि इच्छा होती उस समय
थोड़ा िेख भी लिख लिया करता था। इस तरह, इस िेख को परू ा करने में चार वषत िग गये।
मैं अपनी गरुु माता जी की कृ पा से योग में इस अवस्था को प्राप्त हुआ। उन्होंने हमें अपने मागतदशतन
से, योग में पररपक्व िना लदया। वैसे हमें योग का मागतदशतन कई महापरुु षों िारा प्राप्त हुआ है। ये महापरुु ष व
लदव्यशलक्तयाूँ सक्ष्ू म िोक के वासी हैं। ये ध्यानावस्था में हमारी शंकाओ ं का समािान लकया करती थीं।
हमारा मागत ‘सहज ध्यान योग’ है। योग हर मनष्ु य कर सकता है। इसका अभ्यास करने के लिए आवश्यक
नहीं लक आप को आश्रम या जंगि में जाना पड़ेगा। आप गृहस्थ जीवन में रहकर भी न के वि योग का
अभ्यास कर सकते हैं, िलल्क अपने िगन व पररश्रम से इसमें उच्चावस्था भी प्राप्त कर सकते हैं। योग का

सहज ध्यान योग 8


मागत कलठन अवश्य है, मगर थोड़े से सयं म का पािन करके आपका अभ्यास िरािर चिता रहेगा। हमारे
गरुु देव जी ने तो गृहस्थ में रहकर ही सािना की तथा हम जैसे ढेरों सािकों का मागतदशतन लकया। उनका सारा
समय मागतदशतन के लिए ही समलपतत रहा।
लप्रय पाठकों! हमें आशा है लक आप हमारे िेख को पढ़कर िाभालन्वत होंगे। यह िेख, जो सािक
सािना करते हैं, उन्हें यह िेख मागतदशतन का काम भी करे गा। मगर योग का मागतदशतन लिना गरुु के नहीं हो
सकता है। योग पर लिखी पुस्तकों से लसित सहायता ही लमिती है। आजकि िाजार में योग पर लिखी ढेरों
पस्ु तकें उपिब्ि हैं। कुछ िेखक तो पस्ु तकीय ज्ञान से ही योग पर िेख लिखते हैं। मगर लजन्होंने योग का
अभ्यास लकया हो और अपने अभ्यास के आिार पर िेख लिखा हो, ऐसी पस्ु तकें कम होंगी। योग अभ्यास
की चीज है। लकतािी ज्ञान से लसित योग के लवषय में जाना जा सकता है। अथवा जो सािक सािना करते
हैं, उन्हें इस प्रकार की पस्ु तकों से थोड़ी सहायता लमि जाती है तथा शंकाओ ं का समािान हो जाता है। इस
दृलष् से योग पर लिखी पस्ु तकें उपयोगी हैं।
इस िेख में मैं कुण्डलिनी और प्राणायाम पर लवस्तार से लिखूँगू ा। तालक सािकों को अपनी समस्याएूँ
हि करने में आसानी हो। हमने स्वयं कुछ िोगों के मूँहु से कुण्डलिनी के लवषय में उल्टा-सीिा कहते हुए
सनु ा है। ऐसे अज्ञानी िोग स्वयं भ्रम में हैं और दसू रों को भी भ्रम में डािने की कोलशश कर रहे हैं। हे सािकों!
आप लकसी योग्य गरुु के मागतदशतन में अभ्यास अवश्य करें ।
लप्रय पाठकों! आप अपने असिी स्वरूप को पहचानो। आप आलदकाि से महान हैं, मगर अज्ञानता
के कारण मन और इलन्रयों के वश में हो गए हैं। इसलिए आप जन्म-मृत्य के िन्िन में ििं े हुए हैं। इस िन्िन
को तोड़ने का प्रयास कीलजए। आप अवश्य सिि होंगे। हाूँ, सििता भिे ही आपको देर से लमिे। मैं भी
आपकी तरह सािारण परुु ष ह,ूँ मगर सद् गरुु के मागतदशतन में योग की ऊूँचाइयों को छुआ है। इसीलिए हमारे
अन्दर योग पर िेख लिखने में सामर्थयत आ पाया है। आप अपने शरीर के अदं र छुपी सषु प्तु शलक्तयों को
जगाने का प्रयास करो। आपका पररश्रम अवश्य िि देगा, और आप उन शलक्तयों के स्वामी होंगे। हे अमृत
के पत्रु ों! अपने आपको पहचानो, आप अपने को भि ू चक ु े हो। कि तक इस पररवततनशीि माया से यक्त ु ,
क्षणभगं रु ससं ार को अपना समझते रहोगे! यह ससं ार पररवततनशीि है, यहाूँ लसित दुःु ख ही दुःु ख है। अपने
लनजस्वरूप में लस्थत होकर आनन्दमय हो जाइए।

सहज ध्यान योग 9


योग एक ऐसा मागत है लजसका कोई अतं नहीं है। यह मागत अनतं है। इसलिए योग के लवषय में परू ी
तरह से नहीं लिखा जा सकता है। लिर भी मैंने योग के लवषय में थोड़ा लिखने का प्रयास लकया है। मैं जानता
हूँ योग के लवषय में िहुत आवश्यक िातें लिखनी छूट गयी होंगी। यलद मैं लवस्तार से लिखने का प्रयास
करता तो िेख िहुत ििं ा हो जाता। इसलिए सभी िातों को ध्यान में रखते हुए सक्ष
ं ेप में लिखा है।
मझु े मािमू है जि नया सािक सािना करना शरू ु करता है तो उसके समखु कई प्रकार के अवरोि
आते हैं तथा आगे के मागत की पणू त रूप से जानकारी नहीं होती है। इसलिए कहा गया है योग करने के लिए
गरुु अथवा मागतदशतक होना आवश्यक है। हमारा भी यही कहना है लक ध्यान शुरू करने से पहिे योग में
पररपक्व अभ्यासी व अनुभवी योगी की तिाश करें , लिर उसके लनदेशन में सािना करें । सािकों! एक
सािारण व्यलक्त अनुभवी योगी के लवषय में नहीं जान सकता है लक यह योगाभ्यास में पररपक्व है अथवा
नहीं है। आप लकसी भी योगी से तरु ं त दीक्षा न िें, िलल्क उसके लनदेशन में योग का अभ्यास करते रहें।
क्योंलक आजकि वास्तलवक योगी िहुत ही कम लमिते हैं।
सािकों! यह मत सोचो लक आप योग का अभ्यास कर सकते हैं अथवा नहीं। मैं कहता ह,ूँ योग का
अभ्यास प्रत्येक मनष्ु य कर सकता है। गृहस्थ में रहकर भी अभ्यास लकया जा सकता है, आप करके तो
देलखये। यलद लवद्याथी अभ्यास करें तो उनके लिए अलत उिम है क्योंलक योग के अभ्यास से मलस्तष्क का
लवकास होता है। यलद पररवार में प्रत्येक सदस्य सामलू हक रूप से िैठकर अभ्यास करें तो भलवष्य में लनश्चय
ही आपसी मेंि िढ़ेगा तथा मानलसक तनाव आलद दरू होगा। योग का अभ्यास करने का अथत यह नहीं है
लक उसे सििता प्राप्त करने के लिए समाज त्याग कर आश्रम या जंगि आलद में जाना चालहए। योग के
अभ्यास से इलन्रयाूँ अंतमतख
ु ी होती हैं, मन की चंचिता कम होती है, गंभीरता आती है तथा शांलत लमिती
है, स्थि
ू रूप से शरीर लनरोग होता है, मनष्ु य के अन्दर का लचड़लचड़ापन व क्रोि कम होता है, प्रसन्नता
िढ़ती है, सांसाररक दुःु ख िीरे -िीरे कम महससू होने िगते हैं और आनन्दानभु ूलत िढ़ती जाती है।
अि आप योग के लवषय में यह न सोचें लक मािमू नहीं हमसे योग होगा लक नहीं होगा। मैं कहता हूँ
आपसे योग अवश्य होगा। थोड़ी-सी िगन िगाइए तथा थोड़ा पररश्रम कीलजए तो सििता अवश्य लमिेगी।
लजस प्रकार हमने ध्यान करने की लवलि लिखी है, उसी अनसु ार आप ध्यान करने की लवलि अपनाइए। यलद

सहज ध्यान योग 10


आपको कोई िात समझ में न आए अथवा योग के लवषय में जानकारी प्राप्त करनी हो तो मैं अपनी
योग्यतानसु ार आपको जानकारी देने का प्रयास करूूँगा।
मैं उन सािकों से कहना चाहता हूँ जो अभ्यास कर रहे हैं तथा उच्चावस्था को प्राप्त है। यलद हमसे
कुछ पछ ू ें गे तो मैं अपनी योग्यतानसु ार िताने का प्रयास करूूँगा। वैसे आप हमारे अनभु वों में पढ़ सकते हैं।
हो सकता है आपको हमारे जैसे अनुभव न आये हों, मगर अनभु वों का अथत िगभग एक जैसा ही होता है।
कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद आप अपना अभ्यास कम न करें , िलल्क अभ्यास करते रहें। क्योंलक आपको
अभी िहुत िंिा सिर तय करना है। कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद ही लचि पर लस्थत कमातशयों का अलिक
मात्रा में नाश होना शरू ु होता है। अभी योग में कई सीलढ़याूँ चढ़ना शेष है, इसलिए कठोर अभ्यास में िगे
रलहए क्योंलक आपके लचि में ‘क्लेशात्मक कमाणशय’ शेष हैं। इन्हें भोगकर नष् करना है तालक अलवद्या से
मलु क्त लमि सके तथा आत्मा में अवलस्थलत हो सके ।
योगी आनन्द जी

सहज ध्यान योग 11


पहला अध्याय
योग और योग का महत्त्व

आलदकाि से िेकर आज तक भारतवषत योलगयों का देश रहा है। सभी योलगयों ने शरीर, मन और
प्राण को शिु िनाने पर जोर लदया है, लजससे ब्रह्म की सिा का ज्ञान हो सके तथा आत्म-साक्षात्कार लकया
जा सके । तत्त्वज्ञान और आत्मा के साक्षात्कार के लिए एक ही मागत है, वह है योग। इसलिए योगी तत्वज्ञानी
व दाशतलनक होते हैं। योग लजतना सवाांग होगा उतने ही दाशतलनक लवचार होंगे। योग का अथत लसित सत्य को
जानना ही नहीं, िलल्क उसको अपने जीवन में उतार िेना है। योलगयों ने इस सत्य को जानने के लिए अिग-
अिग तरीके अपनाए और वही तरीके आगे चिकर अिग-अिग योग मागत हुए।
योग शब्द संस्कृ त के यजु ् िातु से िना है। लजसका अथत है जोड़ना, लमिना अथवा तादात्मय। इस
अवस्था में योगी को जीवात्मा और परमात्मा की एकता की अनुभलू त हो जाती है। जीवात्मा और परमात्मा
के लमिन को योग कहते हैं। वैसे भी योग का शालब्दक अथत जोड़ ही है। योग वह आध्यालत्मक लवद्या है जो
जीवात्मा का परमात्मा के साथ संयोग कराने की प्रलक्रया ितिाती है। जीवात्मा को इस मायारूपी स्थि ू
जगत के वास्तलवक रूप से अवगत कराकर, परम शांत व शि ु ज्ञान से यक्त
ु करके अपने वास्तलवक स्वरूप
से पररचय करा देती है।
योग में सिसे अलिक महत्त्व मन को लनयंत्रण करने के उपाय से है, क्योंलक मन के लनयंत्रण के लिना
परमात्मा से तादात्मय होना असंभव होता है। मन के लनयंत्रण से सािक के अंदर की संकल्पशलक्त िहुत िढ़
जाती है तथा लवचारों की संकीणतता जाती रहती है और मन में लवशािता आती है। इससे लनश्चय ही सािक
के अंदर आनन्दानभु ूलत िढ़ेगी। मन को लनयंत्रण करने के लिए सािक को स्वयं अपने को लनयम-सयं म में
रखना होगा तथा योग के लनयमों का पािन करना होगा। इन योग के लनयमों का पािन करने से सािक के
अंदर असािारण गणु ों की प्रालप्त होने िगती है। योग के अभ्यास से उसे लवशेष प्रकार की दृलष् प्राप्त होती है,
लजससे उसे इस स्थि ू जगत से परे सक्ष्ू म जगत व सक्ष्ू म पदाथों की जानकारी प्राप्त होती है और उसे ज्ञान भी
प्राप्त होता है। संकल्पशलक्त िढ़ने से सािक ढेरों प्रकार की असािारण शलक्तयाूँ प्राप्त करता है।

सहज ध्यान योग 12


लजस प्रकार ब्रह्माण्ड की सरं चना है, ठीक उसी प्रकार मनष्ु य के शरीर की सरं चना होती है। ब्रह्माण्ड,
ब्रह्म और उसकी शलक्त िारा लनलमतत है। मनष्ु य के शरीर में भी ब्रह्म व शलक्त का स्थान है। लजस प्रकार ब्रह्माण्ड
में ईश्वर व सक्ष्ू म िोक हैं, उसी प्रकार मनष्ु य के शरीर में सभी लवद्यमान हैं। योगी जि अपने शरीर में लस्थत
सक्ष्ू म चक्रों को जाग्रत कर लक्रयाशीि कर िेता है, उस अवस्था में योगी जहाूँ चाहे, लजस िोक में चाहे,
समिन्ि स्थालपत कर सकता है। योगी अपने शरीर में मि ू ािार चक्र में लस्थत ब्रह्मशलक्त कुण्डलिनी को जाग्रत
कर सहस्त्रार में लस्थत ब्रह्म से लमिा देते हैं। इस लमिन को योग कहते हैं। इस लमिन की अवस्था में योगी
लनिीज समालि में होता है। मगर पर-वैराग्य के सस्ं कार रह जाने के कारण उसे िरािर समालि का अभ्यास
करना जरूरी है जि तक लक पर-वैराग्य के सस्ं कार नष् न हो जाएूँ।
योग के अभ्यास से ब्रह्म के वास्तलवक स्वरूप को देखा जा सकता है। प्रकृ लत और उसके लवकारों
को वास्तलवक रूप में देखने की योग्यता आ जाती है। हमारा वास्तलवक स्वरूप क्या है, हम पहिे कहाूँ थे,
भलवष्य में क्या होगा, हम कहाूँ होंग,े अपने लपछिे जन्मों को भी देख सकते हैं, हमारे कमत पहिे कै से थे,
वततमान में पाप और पण्ु य वािे कमों को भिी प्रकार समझ सकते हैं तथा हमारा कततव्य क्या है इत्यालद की
जानकारी योग िारा की जा सकती है। योग आिस्य का सख्त लवरोिी है। योग से शरीर हल्का हो जाता है,
लनरोग रहता है, वासना की इच्छा समाप्त होने िगती है, चेहरे पर तेज आ जाता है, और िढ़ु ापा देर से आता
है।
हमारा शरीर देखने में हाड़-माूँस व चमड़ी िारा िना लदखायी देता है। परंतु इसके अंदर नाना प्रकार
की लदव्यशलक्तयाूँ लस्थत हैं। शरीर के उन स्थानों को, जहाूँ पर गप्तु शलक्तयों के कें र हैं, चक्र कहते हैं। जो
सािकगण और पाठक योग के लवषय में पररलचत हैं, वे इन चक्रों का अथत अच्छी तरह से जानते होंगे। सि
िोग जानते हैं लक जाग्रत अवस्था में मनष्ु य की सोचने-समझने, देखने-सनु ने आलद की सभी लक्रयाएूँ मलस्तष्क
में लस्थत लवलभन्न कें रों के लक्रयालन्वत होने पर होती हैं। इन कें रों पर इसी प्रकार की लक्रयाओ ं को करने की
योग्यता होती है। परंतु उन चक्रों की योग्यता अत्यन्त उच्चकोलट की होती है। इन चक्रों के लक्रयालन्वत होने
पर मनष्ु य को ध्यानावस्था में ब्रह्म का दशतन प्राप्त होता है। लजस प्रकार स्थिू आूँखों के िारा स्थिू जगत के
सयू त का दशतन होता है, उसी प्रकार इन चक्रों के लक्रयालन्वत होने पर योगी को प्रकृ लत से परे शि ु चेतन तत्व
की अनुभलू त होती है। इन चक्रों को लक्रयाशीि करने की लक्रया को योग कहते हैं। इन चक्रों को लक्रयाशीि

सहज ध्यान योग 13


करने के तरीके अिग-अिग होते हैं। यही अिग-अिग तरीके लवलभन्न प्रकार के योग मागत हैं। सािक
अपनी सलु विा के अनसु ार योग मागत का चयन करता है।
जीवात्मा के िन्िन का कारण अहंकार, िुलि, मन और इलन्रयाूँ हैं। यही जीवात्मा को िन्िन में
जकड़ते हैं। क्योंलक इलन्रयाूँ िलहमतख
ु ी होकर सांसाररक लवषयों के भोग में लिप्त रहती हैं। लिप्तता इतनी िढ़
जाती है लक सांसाररक पदाथो को अपना समझने िगती हैं। अपना समझने के कारण राग की उत्पलि होती
है और राग की पलू तत न होने से िेष उत्पन्न होता है। लिर िीरे -िीरे तृष्णा इतनी िढ़ जाती है लक मनष्ु य मृत्यु
के समय भी अज्ञानतावश सांसाररक पदाथों को प्राप्त करने में लिप्त रहता है अथवा सांसाररक पदाथों से राग
रखता है। वह मरना नहीं चाहता है, जिलक वह जानता है लक उसका मरना लनलश्चत है। यह सि कायत तृष्णा
करती है। यही सि जीवात्माओ ं के िन्िन का कारण है। मगर योग के िारा मनष्ु य इस िन्िन से मक्त ु हो
सकता है। जि मनष्ु य संयलमत होकर गरुु िारा िताए गये योग मागत पर चिता है तो उसकी िलहमतख ु ी इलन्रयाूँ
अंतमतखु ी होने िगती हैं। योग के लनरंतर अभ्यास के िारा मन, िुलि आलद अंतमतख ु ी होने िगते हैं। इस
अवस्था में सांसाररक पदाथों से राग भी कम होने िगता है, तृष्णा कमजोर पड़ने िगती है और तमोगणु ी
अहक ं ार भी स्वच्छ होने िगता है। जि योग में लनलवतकल्प समालि का अभ्यास ज्यादा िढ़ने िगता है तो
शेष कमातशय भी समाप्त होने िगते हैं। जि ये शेष कमातशय समाप्त हो जाते हैं तो जीवात्मा िन्िन से मक्त ु
हो जाती है।
पतजं लि के योग सत्रू के अनसु ार लचि की वृलियों का लनरोि कर देने की लक्रया को योग कहते हैं।
जि योग िारा लचि की वृलियाूँ िीरे -िीरे पूरी तरह शांत हो जाती हैं तो उस अवस्था में आत्मा अपने
वास्तलवक स्वरूप में प्रकट हो जाती है। जि लचि में कमातशय रूपी वृलियों का संचय होने िगता है तो इन
वृलियों के कारण आत्मा लछप जाती है। इसी को आत्मा से दरू हट जाना कहते हैं। लजन सािनों िारा दरू हटी
आत्मा का लिर दशतन होने िगे, उस सािन को योग कहते हैं। लचि की पाूँच प्रकार की अवस्थाएूँ ितायी
गयी हैं। ये पाूँचों अवस्थाएूँ हैं– 1. मूढ़, 2. वक्षप्त, 3. वववक्षप्त, 4. एकाग्र, 5. वनरुद्ध। सािक की जि एकाग्र
अवस्था होती है तो लचि में ध्याता, ध्यान, ध्येय तीनों होते हैं। योग का ज्यादा अभ्यास िढ़ने पर लचि की
लनरुिावस्था प्राप्त होती है। अभ्यास ज्यादा िढ़ने पर जीवात्मा और परमात्मा की एकता का अनुभव होता
है। लचि की वृलियाूँ जि तक पणू ततुः नष् नहीं होतीं ति तक जीव की अिग सिा रहती है। गीता के छटवें

सहज ध्यान योग 14


अध्याय में भगवान श्रीकृ ष्ण कहते हैं, “योगी तपवस्वयों से श्रेष्ठ है, योगी शास्त्र ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ
है, सकाम कमण वालों से भी श्रेष्ठ है। इसवलए हे अजणनु , तुम योगी हो जाओ।” इन शब्दों से िगता है
योगी ही श्रेष्ठ है।
योगी योग के माध्यम से मन को लस्थर करके , शरीर के अंदर कहाूँ क्या है, यह सि जानकर लक हर
एक चक्र में, हर एक स्नायु कें र में अिौलकक शलक्त भरी है, उस सषु प्तु अिौलकक शलक्त को प्राणायाम और
ध्यान िारा जाग्रत करते हैं। लिर उन अिौलकक शलक्तयों के स्वामी िन जाते हैं। योगी योग के माध्यम से
ईष्यात-िेष, सख
ु -दुःु ख तथा इलन्रयों पर अपना अलिकार करके शांतलचि होकर पृर्थवी पर शांलत का राज्य
स्थालपत करने में सहायक हुए हैं, जैसे आलद गरुु शंकराचायत, भगवान गौतम िि ु , भगवान महावीर, स्वामी
लववेकानंद आलद।
लचि की वृलियों को लनरोि करने के लिए मन का एकाग्र होना जरूरी है। मन और प्राण का आपस
में गहरा, अटूट ररश्ता है। मन को लस्थर करने से प्राण की गलत कम होने िगती है। यलद प्राण को प्राणायाम
िारा अनश ु ालसत कर लदया जाए तो मन भी एकाग्र होने िगेगा। मन को वैराग्य िारा भी िाह्य लवषयों से हटाने
का िीरे -िीरे अभ्यास लकया जाए तो मन में एकाग्रता आने िगती है। मन को एकाग्र करने के लिए इस तरह
का अभ्यास िीरे -िीरे लकया जाता है। शरुु आत में मन एकाग्र तो नहीं होता है मगर अभ्यास में िगे रहने पर
मन में एकाग्रता आने िगती है।
अध्यात्म मागत का मागतदशतक या गरुु सहज ही नहीं लमि जाता है, िलल्क लपछिे जन्मों के अच्छे
कमों के कारण लमिते हैं। हर लकसी को गरुु िना िेना भी अच्छा नहीं है। आजकि इस मागत में गरुु िनने
वािों की िहुतायत है। वास्तलवकता यह है लक अनेक ढोंगी-पाखडं ी और िोभी योगी, ज्ञानी और महात्मा
िने लिरते हैं। इस कारण वास्तलवक योगी को िोग पहचान नहीं पाते हैं। साि-ु महात्मा के वेश में आजकि
िोग िन कमाने में िगे रहते हैं। िहुत से सतं -महात्मा पस्ु तकों से ज्ञान हालसि कर योग के लवषय में खिू
प्रवचन करते हैं। मगर इस प्रकार के सतं -महात्मा योग का मागतदशतन नहीं कर सकते हैं। क्योंलक योग का
मागतदशतन वही कर सकता है जो अभ्यास िारा योग में पारंगत हो। ऐसे योगी आजकि िहुत कम सख्ं या में
लमिते हैं। वास्तलवक योगी ज्यादातर अपने आपको समाज से थोड़ा दरू रखते हैं। वे अपने आपको प्रकट
नहीं करते हैं। जो योगी कल्याण भाव से समाज में मनष्ु यों के उत्थान में िगे हैं, उन्हें सदैव समाज िारा

सहज ध्यान योग 15


अवरोि लमिता है। क्योंलक आजकि ढोगी-पाखडं ी योलगयों की कमी नहीं है। ऐसे योगी योग के नाम पर
समाज के भोिे-भािे अनलभज्ञ िोगों को ठगते हैं। थोड़ा-िहुत चमत्कार लदखाकर िोगों को प्रभालवत करते
हैं। इसीलिए समाज में उनका आदर सत्कार होता है। मगर जि उनकी असलियत सामने आती है तो वह
योगी जी कुछ और ही लनकिते हैं। समाज के भोिे-भािे िोगों का क्या कसरू है जो वह ऐसे योलगयों िारा
ठगे जाते हैं। चमत्कार लदखाने वािी छोटी-छोटी लसलियों का यह अथत नहीं है लक वह योगी है। लनमन प्रकार
की लसलियाूँ थोड़े से सयं म व पररश्रम से प्राप्त हो जाती हैं। योगी को भी सािना काि में लसलियाूँ लमिती हैं,
मगर इन लसलियों की ओर योगी ध्यान नहीं देता है। लसलियाूँ योग में अवरोि का काम करती हैं। इसीलिए
योगी इन लसलियों को छोड़कर आगे िढ़ जाता है क्योंलक उसे कािी आगे जाना होता है।
मनष्ु य सांसाररक भोग के पीछे दौड़ िगाता रहता है, िेलकन भोगों को भोगने से भोग की इच्छा कम
नहीं होती है। िलल्क ऐसी अवस्था में आग में घी डािने का कायत जैसा होता है। लजससे लदनों-लदन तृष्णा
को िढ़ावा लमिता है। इसी तृष्णा के कारण मनष्ु य को जीवन भर शांलत नहीं लमिती है। सारा जीवन अशांलत
में िीतता है। इन सिका कारण मनष्ु य की इलन्रयाूँ हैं। योग के िारा मनष्ु य की इलन्रयाूँ अंतमतख
ु ी हो जाती हैं।
लजससे सांसाररक भोगों की इच्छा नहीं रहती है। लिर मनष्ु य पर तृष्णा अपना चेतन अलिकार नहीं कर पाती
है, िलल्क तृष्णा िीरे -िीरे क्षीण होने िगती है। योग में सािक अपने शरीर के अंदर ही सत्य की खोज करता
है िाह्य जगत में सत्य की खोज के लिए भटकना नहीं पड़ता है। मनष्ु य की इलन्रयाूँ परम सत्य का ज्ञान नहीं
करा सकती हैं, क्योंलक इलन्रयों की एक लनलश्चत सीमा है। िाह्य इलन्रयों से लसित सीलमत स्थि ू ज्ञान हो सकता
है। मगर सत्य का ज्ञान स्थि ू जगत से परे है। मनष्ु य के अदं र लस्थत आत्मा, जो लक ब्रह्म का स्वरूप है तथा
जगत का साक्षी है, चेतन स्वरूप व सत्य है। लकसी वस्तु को अदं र और िाहर पणू तरूप से जानने के लिए एक
मात्र उपाय है लक उसके साथ तादात्मय स्थालपत करें । जि हम लमिकर उसके साथ एक हो जाएूँगे, तभी उसे
सच्चे रूप में जान सकें गे। इसलिए आत्मा के लवषय में पणू तरूप से जानने के लिए हम अपनी इलन्रयों को
अतं मतखु ी कर दें। लजससे मन की चचं िता भी जाती रहेगी, मन में लस्थरता आयेगी और मन भी अतं मतख ु ी हो
जाएगा। लनरंतर अभ्यास से आत्मा के साथ तादात्मय हो जाएगा, ति सत्य का ज्ञान होना संभव हो जाएगा।
सत्य का ज्ञान होने से अज्ञानता लमट जाएगी तथा माया के प्रभाव से मक्त ु हो सकें गे, ऐसा लनलश्चत है।

सहज ध्यान योग 16


योग एक ऐसा मागत है लजसके िारा हम ईश्वर की प्रालप्त कर सकते हैं। हमने जो अपना अलस्तत्व भि ु ा
लदया है उसे लिर प्राप्त कर सकते हैं। मनष्ु य ईश्वर की प्रालप्त के लिए अथवा अपने भि ू े हुए अलस्तत्व को
दिु ारा प्राप्त करने के लिए योग करता है। योग के मागत कई प्रकार के होते हैं, मगर सभी का िक्ष्य तो एक ही
होता है, लसित रास्ते अिग-अिग हैं। जैसे – सहज ध्यान योग, कुण्डलिनी योग, राजयोग, हठयोग, मत्रं योग,
भलक्तयोग, ज्ञानयोग, साख्ं ययोग, नादयोग, िययोग और कमतयोग आलद ढेरों मागत हैं। मनष्ु य अपनी
इच्छानसु ार लकसी भी मागत को चनु सकता है। हाूँ, यह हो सकता है लक लकसी सािक को अपना िक्ष्य शीघ्र
लमि जाता है, लकसी को उसका िक्ष्य देर से लमि पाता है। योग के िारा मनष्ु य अपनी शलक्त असािारण
रूप से िढ़ा िेता है। यलद लिखरी हुई शलक्त को एकत्र कर लिया जाए तो लनलश्चत रूप से वह शलक्तशािी
होगा। जि तक मनष्ु य इस संसार का वास्तलवक स्वरूप समझ नहीं िेता है, ति तक ईश्वर का साक्षात्कार
नहीं हो सकता। अज्ञानी पुरुष इस संसार को अपना समझता रहेगा, उसे अपने भाई-िहन, माता-लपता,
कुटुमिी ररश्तेदार आलद अपने प्रतीत होते रहेंगे, और वह इसी तृष्णा में िना रहेगा। तृष्णा के कारण इस संसार
को अपना समझना ही िन्िन है। जि तक इन िन्िनों से मक्त ु नहीं हुआ जाएगा, ति तक भि ू ोक पर िरािर
आवागमन जारी रहेगा। हमें इसी िन्िन को तोड़ना है और मक्त ु होना है। इस िन्िन में िन्िने के लिए हमें
लकसी ने मजिरू नहीं लकया, िलल्क हम स्वयं अज्ञानतावश िंिे हुए हैं। इसके लजममेदार हम स्वयं हैं। यलद
कोई मनष्ु य चाहे तो सांसाररक िन्िनों से मक्त ु हो सकता है। लजन परुु षों ने चाहा हमें ईश्वर की प्रालप्त हो, उन्हें
अवश्य ईश्वर की प्रालप्त हुई। उन्होंने सारे िन्िनों से अपने आपको मक्तु कर लिया।
गृहस्थ वािा यह सोचता है लक मैं कै से मक्त ु हो सकता ह,ूँ मैं तो गृहस्थी में िूँ सा ह।ूँ मगर ऐसा नहीं
है। गृहस्थ आश्रम में रहकर भी लनष्काम कमत करके मक्त ु हो सकता है। लनष्काम कमत करने वािे का हर कायत
ईश्वरमय समझकर होता है। उसका िन्िन कै सा? िहुत से महापरुु ष हमारे यहाूँ ऐसे भी हो चक ु े हैं लजन्होंने
गृहस्थ में रहकर ईश्वर की प्रालप्त की है, जैसे सतं तकु ाराम, लनगतणु सतं किीर, सतं रलवदास आलद। मगर िहुत
से हमारे यहाूँ ऐसे भी सतं हुए हैं लजन्होंने ससं ार को नीरस व क्षणभगं रु समझकर अपना सिकुछ त्याग लदया
और ईश्वर को प्राप्त कर महापरुु ष िन गये, जैसे भगवान गौतम िि ु जी, मीरािाई, ति ु सीदास जी आलद।
कुछ ऐसे महापरुु ष हुए लजन्होंने ससं ार को शरू ु में ही अच्छी तरह पहचान लिया। गृहस्थ िमत का पािन न
करते हुए िस एकमात्र सत्य ब्रह्म का लचतं न करने में िग गये और महान योगी हुए, जैसे आलद गरुु
शंकराचायत, समथत गरुु रामदास आलद। इन उदाहरणों से यह अथत िगाया जा सकता है लक ईश्वर प्रालप्त हर

सहज ध्यान योग 17


मनष्ु य कर सकता है, वह चाहे लजस पररलस्थलत में हो। इन महान योलगयों और संतों ने ईश्वर प्रालप्त को ही
प्राथलमकता दी है। तथा ससं ार में रहकर ही ससं ार से लवरक्त रहे और ईश्वर को प्राप्त कर अपने आपको ईश्वरमय
िना लिया।
मनष्ु य रात-लदन सांसाररक वस्तओ ु ं को प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास करता रहता है। लसित
क्षलणक सख ु के लिए ऐसा करता है और इस संसार में भटकता रहता है। मनष्ु य की इच्छा के अनसु ार जि
िलक्षत वस्तु प्राप्त नहीं होती है तो वह दख ु ी हो जाता है। जिलक हर मनष्ु य का असिी सख ु उसी के अंदर
छुपा होता है। वह स्वयं अपने में खोज नहीं करता है। यलद अपने में खोज करे तो अवश्य वह सख ु और
शांलत को प्राप्त कर सकता है, ऐसी शांलत जहाूँ दुःु ख का नामोलनशान नहीं है। इसके िाद वह ईश्वर की प्रालप्त
कर सकता है। इसीलिए आलदकाि से आज तक योगी परुु ष अपने आप में ही ईश्वर को प्राप्त कर उसी का
अखण्ड रूप से लचंतन करते रहते हैं। ऐसे योलगयों पर, संसार में रहते हुए भी, सांसाररक वस्तएु ूँ अपना प्रभाव
नहीं लदखा पायी हैं। सांसाररक वस्तओ ु ं में लिप्त करने का कायत हमारे लवकार और इलन्रयाूँ करती हैं। और
यही इलन्रयाूँ मनष्ु य पर हावी रहती हैं। इलन्रयों के अलिकार में रहने पर मनष्ु य अच्छे और िरु े का लनणतय नहीं
कर पाता है। ऐसे कायों के कारण लवकार उत्पन्न होता रहता है। मनष्ु य की लजंदगी नारकीय िन जाती है।
दुःु खों से भरी यही लजंदगी जीता रहता है और ईश्वर को दोष देता है। अपनी पररलस्थलत का लजममेदार ईश्वर
को िनाता है, जिलक स्वयं मनष्ु य अपनी सििताओ ं और असििताओ ं का लजममेदार होता है।
मगर योग एक ऐसी लक्रया है, लजसके करने से मनष्ु य को अपने ढेरों झंझटों से छुटकारा लमि जाता
है। ऐसा योगी इच्छा से रलहत होकर लनडरतापूवतक संसार में लवचरण करता है। मुझे भी अपने गरुु िारा इस
मागत पर चिने का मागतदशतन लमिा। तृष्णा और दुःु ख से भरे इस संसार के अज्ञान रूपी अंिेरी गलियों से
लनकािकर, अमृत रूपी अनंत का रास्ता लदखा लदया। इस अनंत रूपी रास्ते पर स्वयं गरुु ने मेंरी उंगिी
पकड़कर आगे िढ़ाया। उन्होंने मझु े अंलतम िक्ष्य को िताकर िन्य कर लदया। और अि हमारे ऐसे सद्गरुु
हमारे हर श्वास में, हमारे शरीर के रोम-रोम में, अदृश्य रूप में लवराजमान हैं। ऐसे गुरु को मैं िारमिार प्रणाम
करता ह।ूँ हमें जो हमारे गरुु से प्राप्त हुआ, उसे संक्षेप में लिखने का प्रयास कर रहा ह।ूँ
सिसे पहिे मैं यह समझा दूँू लक योग कोई ऐसी चीज नहीं है जो मनष्ु य न कर पाये। हर मनष्ु य योग
कर सकता है। क्योंलक कुछ मनष्ु यों का सोचना है और कहना है पता नहीं मैं योग कर पाऊूँगा या नहीं। यह

सहज ध्यान योग 18


िात हर परुु ष व स्त्री अपने मन से लनकाि दे। मैं कहता हूँ लक आप सभी योग करने के कालिि हैं। सहज
ध्यान योग हर परुु ष व स्त्री थोड़ा समय लनकािकर अपने घरों में कर सकते हैं। हाूँ, उसके लिए आपको समय
अवश्य लनकािना होगा। यलद आप रोजमरात के कायों के समान इस योग को एक कायत समझकर ही शालमि
कर िें, तो अवश्य समय लनकि आयेगा। आज के िोग कायातिय के लिए, मनोरंजन के लिए, पाटी के
लिए, सैर-सपाटे के लिए समय लनकाि िेता है तो ध्यान के लिए समय क्यों नहीं लनकिेगा? अवश्य
लनकिेगा। जि हम सासं ाररक कायों के लिए समय लनकाि िेते हैं, तो ईश्वर की प्रालप्त व शालं त प्राप्त करने के
लिए समय क्यों नहीं लनकाि सकते! जि स्थि ू कायों में मनष्ु य, दसू रे मनष्ु य को सहानभु लू त जताता है, उसे
िन्यवाद देता है, तो क्या ईश्वर के हमारे ऊपर कम एहसान हैं लजसने हमें मनष्ु य का शरीर लदया। वह तो सृलष्
का लनयंता है। इसलिए उसको चौिीस घंटे में कुछ-न-कुछ समय अवश्य देना चालहए, तालक हम उसको
थोड़ी देर स्मरण कर सकें , अपने इस मनष्ु य जन्म को सिि िना सकें । कुछ योलगयों का मत है लक योग
अत्यन्त गप्तु चीज है, इसलिए सभी के सामने नहीं िताना चालहए। मगर हम इस िात से सहमत नहीं हैं।
हमारा सोचना है हर योगी को योग के िारे में सभी को जानकारी देनी चालहए। योग के िारा क्या-क्या िाभ
हैं, यह भी समझाना चालहए। यलद हमारे पवू तजों ने भी ऐसे सोचा होता तो यह योग आज कोई नहीं जानता
होता और आज न हम इस लवषय पर कुछ लिख पाते। योग एक ऐसा मागत है जो ईश्वर की ओर जाता है।
ईश्वर की ओर जाने का प्रत्येक मनष्ु य को अलिकार है। इसलिए उसे योग के लवषय में अवश्य िताया जाए,
और उसका उलचत मागतदशतन भी लकया जाए तालक मानव जालत का कल्याण हो।
योलगयों व सतं ों की लिखी हुई िहुत सी पस्ु तकें िाजार में उपिब्ि हैं। आध्यालत्मक रुलच रखने वािे
परुु षों की यह लशकायत होती है लक यह तो लिखा है लक मनष्ु य को ईश्वर प्रालप्त के मागत पर चिना चालहए,
मगर उसमें यह नहीं लिखा होता है, लक इस मागत पर लकस प्रकार से चिें अथवा योग लकस प्रकार से लकया
जाए। हमारा सोचना है लक यलद योग करने के तरीके को लिखा जाए तथा योग को िारीकी से समझाया
जाए, तो शायद अध्यात्म में रुलच रखने वािों को सहायता लमि सकती है। योलगयों को योग के लवषय में
खि ु कर लिखना चालहए, तालक सभी मनष्ु य योग के लवषय में अच्छी तरह से समझ सकें । हाूँ, यह लनलश्चत है
लक लिना गरुु या मागतदशतक के योग नहीं लकया जा सकता है। पस्ु तकें पढ़कर लसित थोड़ा-सा योग लकया जा
सकता है, मगर आगे चिकर मागतदशतन के लिना योग नहीं लकया जा सकता है। इसलिए सािना करने के

सहज ध्यान योग 19


लिए मागतदशतक का होना जरूरी है। मागतदशतक वही होना चालहए जो इस मागत की परू ी तरह से जानकारी
रखता हो।
ईश्वर की प्रालप्त के लिए ईश्वर के प्रलत भाव होना जरूरी है। जि तक ईश्वर के प्रलत भाव नहीं होगा
अथातत ईश्वर के प्रलत लखंचाव नहीं होगा, ति तक आपको ईश्वर की प्रालप्त नहीं हो सकती। अपने िक्ष्य के
लिए लववेकपवू तक साहस से कमत करना होगा तभी आपको िक्ष्य लमि पायेगा, अन्यथा आपको िक्ष्य प्रालप्त
में देरी होगी। इसलिए ईश्वर प्रालप्त के लिए भाव होना महत्त्वपणू त है। यलद आप पणू तभाव से अपने आपको ईश्वर
को समलपतत कर दें, तो ईश्वर प्रालप्त में आपको देर नहीं िगेगी। यलद आप अपने अलस्तत्व को ईश्वर के अलस्तत्व
से अिग समझते रहेंगे तो आपको देर िगेगी। ईश्वर प्रालप्त के लिए यलद आप अपने आपको शि ु मन से ईश्वर
को समलपतत कर योग करने की तैयारी कर िेते हैं तो आपको सििता अवश्य लमिेगी।

सहज ध्यान योग 20


ध्यान करने की वववि
सिसे पहिे आप अपने घर में या कमरे में साि-सथु री जगह चनु िीलजए, जहाूँ िैठकर आपको
ध्यान करना है। जहाूँ तक हो सके तो ऐसी जगह चलु नए जो जगह शोर से रलहत हो या कम से कम शोर आता
हो, तालक शोर के कारण आपको अवरोि उत्पन्न न हो। आप एक आसन िना िीलजए लजस पर आप
आराम से िैठ सकें । यह आसन कुश का िना हो तो अच्छा है। यलद कुश का आसन न उपिब्ि हो सके
तो आप एक कंिि िीलजए और तह िगाकर लिछा िीलजए। लिर इसके ऊपर स्वच्छ सिे द रंग का कपड़ा
लिछा दीलजए। यह आसन अन्य कायों में लिल्कुि न प्रयोग कीलजएगा। लसित ध्यान के लिए प्रयोग में होना
चालहए। ध्यान के िाद उस आसन को संभािकर सरु लक्षत रख दीलजएगा। गंदा आसन प्रयोग में नहीं िाना
चालहए। आसन लिल्कुि स्वच्छ होना चालहए। लिना आसन के िशत पर नहीं िैठना चालहए। इसके कुछ
वैज्ञालनक लनयम भी हैं। हमारी पृर्थवी ऋणात्मक (नेगेलटव) चाजत है तथा हमारा स्थि ू शरीर िनात्मक
(पॉलजलटव) चाजत है। ध्यानावस्था में शरीर के अदं र से लवशेष प्रकार की लकरणें लनकिती हैं। वे शरीर से सीिे
पृर्थवी में न समालहत हो जाएूँ, इसलिए कुश का आसन अथवा कंिि का आसन होना चालहए। आसन पर
िैठने में सलु विा होती है तथा पृर्थवी और हमारे शरीर के िीच अवरोि का कायत भी करता है।
ध्यान करने का समय भी लनलश्चत होना चालहए। अभ्यास के शरुु आत में समय का लनलश्चत होना
अलनवायत सा है। यलद आप समय लनलश्चत कर िेंगे तो आपको स्वयं याद आ जाएगा लक यह समय हमारे
ध्यान के लिए है। आप अपना काम अवश्य पहिे लनपटा िेंगे। यलद आप समय लनलश्चत करके ध्यान पर
िैठते हैं तो आपको स्वयं याद आ जाएगा लक अि ध्यान का समय हो गया है। आप अपने कायों को लनपटा
कर स्वयं आसन पर िैठ जाएूँगे। वैसे ध्यान के लिए सिु ह का समय अलत उिम है। वातावरण भी शांत होता
है और ध्यान भी अच्छा िगता है। यलद लकसी कारण यह समय मेंि नहीं करता है तो आप अपनी इच्छानसु ार
समय चनु िीलजए लजस समय आप रोजाना ध्यान पर िैठ सकें । शाम के समय यलद आपके पास समय हो
तो थोड़ा-सा समय लनकाि िें। चौिीस घंटे में दो िार ध्यान में िैठने पर मन थोड़ा िगने िगता है। सायंकाि
के समय 6 से 8 िजे के िीच का समय अच्छा रहता है या लिर अपनी सलु विानसु ार समय लनकाि िें। रालत्र
के ग्यारह िजे से सिु ह चार िजे के िीच का समय नए सािक के लिए वलजतत है। इस समय ध्यान नहीं करना
चालहए क्योंलक यह समय तामलसक शलक्तयों के भ्रमण का समय रहता है। तामलसक शलक्तयों को सालत्वक

सहज ध्यान योग 21


सािक अच्छे नहीं िगते हैं, आपस में लवरोिाभास रहता है। लकसी भी कायत के लिए समय का पािन्द होना
जरूरी है।
अि आप अपना मनपसंद देवता चनु िीलजए। जो देवता आपको अच्छा िगता हो, उस देवता का
मंत्र याद कर िीलजए, क्योंलक हर देवता का मंत्र अिग-अिग होता हैं। ध्यान करने के लिए लसित एक ही
देवता को चुनना चालहए। ऐसा नहीं होना चालहए लक आज इस देवता का स्मरण लकया कि दसू रे देवता का।
यलद अिग-अिग देवताओ ं का स्मरण लकया जाएगा तो हमारा मन लस्थर न होकर चंचि िना रहेगा।
इसलिए इष् एक ही होना चालहए। सभी देवता मि ू त: एक ही हैं, लसित उनका स्वरूप अिग-अिग है।
इसलिए सािक को लकसी देवता की दसू रे देवता से तुिना नहीं करनी चालहए। देवता सभी समान हैं। यलद
आप देवताओ ं को इष् नहीं िनाना चाहते हैं तो मन को लस्थर करने के लिए ‘ॐ’ के लचत्र पर मन एकाग्र
कर सकते हैं अथवा लकसी लिंदु पर मन एकाग्र कर सकते हैं। क्योंलक मन एकाग्र करने के लिए आिार
चालहए। लिना आिार के मन शीघ्र एकाग्र नहीं होगा। इसलिए सािक को मन एकाग्र करने के लिए ध्येय
वस्तु का चयन कर िेना चालहए। ध्यान पर िैठते समय सािक के शरीर पर साि-सथु रे कपड़े होने चालहए।
स्नान करके िैठना जरूरी नहीं है, लिर भी स्नान करके िैठें तो अच्छा है। हाूँ, हाथ-मूँहु , पैर िोकर अवश्य
िैठना चालहए।
नये सािक को ध्यान से पहिे मानस पजू ा करनी चालहए। मानस पजू ा से अंत:करण पर प्रभाव पड़ता
है तथा अंत:करण शि ु होने िगता है। मानस पजू ा करने से ध्यान में मन थोड़ा लस्थर-सा होने िगता है।
मानस पजू ा इष् की मलू तत अथवा िोटो के सामने करनी चालहए। आसन पर िैठकर मानस पजू ा कीलजए।
मानस पजू ा के समय आपका भाव अपने इष् के लिए लजतना ज्यादा होगा, उतनी ही श्रेष्ठ होगी आपकी
मानस पजू ा। कुछ भक्तों को तो मानस पजू ा करते समय प्रभु की याद में आूँखों से आूँसू आ जाते हैं, भाव-
लवभोर होकर प्रभु की याद में खो जाते हैं, उन्हें अपनी सिु -ििु ही नहीं रहती है। आपका ईश्वर के प्रलत
लजतना ज्यादा समपतण होगा, उतनी जल्दी आपका ध्यान िगने िगेगा। वैसे पतंजलि योग सत्रू में योग के
आठ अंग िताये गये हैं। ध्यान सातवीं सीढ़ी है। ये आठ अंग हैं– 1. यम, 2. वनयम, 3. आसन,
4. प्राणायाम, 5. प्रत्याहार, 6. िारणा, 7. ध्यान, 8. समावि। इस लवषय पर थोड़ा आगे वणतन करूूँगा।
मगर सािक को ध्यान के शरू ु आत में आसन व प्राणायाम करना चालहए। आसन व प्राणायाम पर िेख

सहज ध्यान योग 22


आगे लिखूँगू ा। प्राणायाम से मन थोड़ा लस्थर होने िगता है। यलद प्राणायाम उलचत मात्रा में लकया जाए तो
मन की चचं िता थोड़ी कम हो जाएगी।
मानस पजू ा के िाद आप सहजासन अथवा पद्मासन िगाकर िैठ जाइए। अपने दोनों हाथ लमिाकर
गोदी में रख िीलजए। लिल्कुि सीिे िैठ जाइए। शरीर को ढीिा नहीं रखना चालहए। पीठ आपकी लिल्कुि
सीिी रहनी चालहए तालक रीढ़ की हड्डी सीिी रहे। ध्यानावास्था में रीढ़ की हड्डी सीिी रहना अलत
आवश्यक है। ध्यान से पवू त आप ग्यारह िार मृत्यंजु य मंत्र का जाप कररए। यलद न करना चाहें तो न करें , वैसे
इस मंत्र से िाभ लमिता है। इस मत्रं के प्रभाव से शरीर के िाहर चारों ओर रक्षा कवच िन जाता है, तथा
सािक के विय को भी शुि करता है। कुछ क्षणों पश्चात अपने इष् की मलू तत या िोटो पर लकसी एक जगह
कें लरत करके अपनी दृलष् उस स्थान पर िगाये रलखए। इस अवस्था में पिकें िन्द नहीं करनी चालहए। लजतनी
देर हो सके , देख।ें इस लक्रया को त्राटक कहते हैं। त्राटक के लवषय में आगे लिखूँगू ा। लिर आूँखें िन्द कर
िीलजए। आप अपने मन को भृकुलट में लस्थर करने का प्रयास कीलजए तथा भृकुलट में अपने इष् का काल्पलनक
लचत्र (स्वरूप) िनाने का प्रयास कीलजए। उसी समय अपने इष् के मंत्र का जाप मन में कीलजए। यलद आपकी
इच्छा भृकुलट पर कें लरत करने की न हो तो आप हृदय में कें लरत कर सकते हैं। यलद आप मस्तक (भृकुलट)
पर ध्यान कें लरत करें गे तो भलवष्य में आपके मस्तक में भारीपन महससू होगा अथवा हल्का-सा लसर भी
दुःु ख सकता है क्योंलक वायु का दिाव मस्तक में पड़ता है तथा नालड़यों में लखचं ाव होता है। मगर हृदय में
यह सि कुछ नहीं होता है। मगर ज्यादातर योगी मस्तक पर ध्यान करते हैं। मैं भी मस्तक पर ध्यान करता
था और अि भी मस्तक पर ध्यान करता ह।ूँ मस्तक (भृकुलट) पर ध्यान शीघ्र िगने िगता है तथा मन का
स्थान भी मस्तक पर ही है।
जि आप अपने इष् का काल्पलनक स्वरूप िनाने कर प्रयत्न करें गे, और उसी समय मंत्र का जाप
भी करें गे तो आपका मन कुछ समय के लिए ठहर जाएगा। मगर दसू रे ही क्षण मन इिर-उिर भाग जाएगा।
उसी समय ध्यानावस्था में आपको अपने स्थि ू कायों की याद आने िगेगी। मन कभी लमत्रों की याद
लदिाएगा, कभी कायातिय की याद आएगी, तो कभी िाजार की। हमारे कहने का अथत यह है लक मन चंचि
हो जाएगा। कुछ समय िाद आपको याद आएगा लक मैं ध्यान पर िैठा ह।ूँ उसी समय आप लिर भृकुलट पर
मन को लस्थर करने कर प्रयास कीलजएगा। इष् का काल्पलनक स्वरूप िनाने का प्रयास कीलजए तथा मंत्र का

सहज ध्यान योग 23


जाप लिर शरू ु कर दीलजएगा। मगर लिर आपका मन इिर-उिर भाग जाएगा। आपको स्थि ू कायों की याद
लदिाएगा। मगर आप कुछ सोलचए मत, लिर मन को पहिे की भाूँलत िगा दीलजए। िस, यही होता रहेगा।
मन इिर-उिर भागेगा, आप मन को अपने इष् के काल्पलनक स्वरूप में िगाते रलहए। आप इस लक्रया से
घिराना नहीं। मन भागता है तो भागने दो। उसे िारमिार प्रभ-ु लचन्तन में िगा दीलजए और अपना मत्रं चािू
रलखये। अि आप सोचेंगे लक मन एक जगह लस्थर क्यों नहीं होता। इस लवषय में आप लिल्कुि न सोचें,
क्योंलक मन सािारण चीज नहीं है जो वह तरु ं त लस्थर हो जाएगा। मन तो चचं ि है, उसका कायत एक जगह
ठहरना नहीं है। वह तो िदं र की भाूँलत इिर-उिर उछि-कूद करता रहता है। उसके साथ जिरदस्ती मत करो।
जिरदस्ती से वह एक जगह रुकने वािा नहीं है। उसे प्यार से समझाओ। प्यार से एक जगह ठहरने के लिए
प्रेररत करो। उसे समझाओ– अरे भाई, कुछ समय के लिए शांत हो जाओ, कुछ क्षणों के लिए प्रभु का लचंतन
कर िो। यलद आप मन पर क्रोि करें गे तो मन और अलस्थर होगा। मन इसलिए चंचि होता है क्योंलक वह
सांसाररक पदाथों के भोग में लिप्त रहा है। उसे सांसाररक वस्तओ ु ं से भोग के कारण राग है। इसलिए वह
िलहमतख ु ी होकर इिर-उिर भागता रहता है। यह मन लचि की वृलतयों िारा िना हुआ है। लचि का स्वभाव
है लक वृलियाूँ सदैव उठती रहती हैं और वे मन का रूप िारण करती हैं। इसलिए मन शीघ्र नहीं ठहर सकता
है, िीरे -िीरे अभ्यास के िारा ठहरे गा। प्राणायाम के िारा भी मन में ठहराव आता है क्योंलक प्राण और मन
का कािी गहरा ररश्ता है। इसलिए प्राणायाम िारा जि प्राण को अनश ु ालसत करते हैं तो मन भी अनशु ालसत
होने िगता है। त्राटक के िारा भी मन लस्थर होता है। इसलिए सािक को त्राटक का भी अभ्यास करना
चालहए।
शरुु आत में ध्यान पर 15-20 लमनट िैठने का अभ्यास कर िेना चालहए। िीरे -िीरे िैठने का समय
अभ्यास के िारा िढ़ जाएगा। इसी तरह प्रलतलदन सिु ह 15-20 लमनट ध्यान पर िैठना चालहए। ध्यान से उठने
के पश्चात् अपने आसन को उठाकर सरु लक्षत रख दीलजए। उस आसन का प्रयोग अन्य लकसी कायत में न
कीलजएगा। लजस जगह आप ध्यान करते हैं, उस जगह पर अन्य कायत न करें तो अच्छा है। यलद जगह की
कमी है तो कोई िात नहीं। लजस जगह पर ध्यान लकया जाता है उस जगह पर आपके शरीर से लनकिी लकरणें
िै ि जाती हैं। ये लकरणें अत्यन्त शि
ु होती हैं, लजससे वह जगह पलवत्र हो जाती हैं। उस स्थान पर अन्य कायत
करने से वे लकरणें वहाूँ नहीं रह जाएूँगी। शि
ु लकरणें मौजदू रहने से उस जगह पर आपका ध्यान अच्छा
िगेगा।

सहज ध्यान योग 24


ध्यान के िाद जि आपको समय लमिे तो लदन में दो-तीन िार प्राणायाम करें व समय लमिने पर
त्राटक भी करें । त्राटक से आपकी आूँखों की ज्योलत तेज हो जाती है, तथा मन लस्थर होने िगता है। दो-तीन
महीने तो मन थोड़ा कम िगता है ध्यान पर िैठने के लिए, िेलकन लिर मन िगने िगता है। सािक की
इच्छा होने िगती है लक मैं ध्यान पर िैठूूँ। कुछ सािकों का मन देर से िगता है। इसलिए सािक को हताश
नहीं होना चालहए, िलल्क दृढ़तापवू तक ध्यान में िगा रहना चालहए। कुछ सािकों का मन ध्यान में शीघ्र िग
जाता है। हमने पहिे लिखा है लक मन और प्राण का गहरा अटूट ररश्ता है। यलद ध्यानावस्था में मन लस्थर
होगा तो प्राणों का स्पदं न भी िीमा पड़ने िगता है। अपान वायु का स्वभाव है अिोगलत। अपान वायु मनष्ु य
के लनचिे भाग में कायत करती है। उसकी गलत भी नीचे की और है। मन के लस्थर होने से अपान वायु की गलत
ठहर जाती है तथा अपना व्यवहाररक स्वभाव छोड़कर ऊध्वत होने का प्रयास करने िगती है। जि मन लस्थर
होता है तो अन्य प्राण भी अपने कायत अत्यन्त िीमी गलत से करने िगते हैं, ऐसा समझना चालहए। मन के
थोड़ा ठहरने से शरीर के अंदर की लक्रयाएूँ ध्यानावस्था में िीमी पड़ने िगती हैं।
जि सािक का मन ध्यानावस्था में िगने िगता है तो अपान वायु रीढ़ के सहारे ऊध्वत होने िगती
है। रीढ़ के लिल्कुि लनचिे लसरे में मि
ू ािार चक्र है। अपान वायु ऊध्वत होने पर मूिािार चक्र में आ जाती
है। उस समय सािक को महससू होता है लक हवा का िि ु िुिा मिू ािार चक्र के नीचे की ओर से रीढ़ की
हड्डी की नोक में (रीढ़ का लिल्कुि नीचे का लसरा) चढ़ आया है। यह लक्रया ध्यानावस्था में महससू होती
है। उस समय उस जगह पर हल्की-सी गमी महससू होती है। सािक को अपान वायु के स्थान पर हल्की-सी
गदु गदु ी महससू होती है। गमी के कारण उस स्थान पर हल्का-सा पसीना भी कभी-कभी आ जाता है। इस
लक्रया के होने पर सािक में उत्साह सा आ जाता है। सािक की इच्छा होती है लक ध्यान पर िैठा रह।ूँ उस
समय सािक के ध्यान में समय की अपने आप िढ़ोिरी हो जाती है। मैं एक िात और िता द,ूँू यह लक्रया
सभी सािकों को महससू नहीं होती है, लसित कुछ सािकों को महससू होती है। लजन सािकों को महससू
होती है, उनका मन अवश्य प्रसन्न-सा रहने िगता है तथा इच्छा होती है लक मैं ध्यान पर िैठूूँ। अपान वायु
का महससू न होने का यह अथत नहीं है लक आपकी अपान वायु ऊध्वत नहीं हो रही है। अपान वायु ऊध्वत होने
पर भी कुछ सािकों को महससू न होना, यह प्रकृ लत का स्वभाव है। मैंने अपने अनभु वों से ज्ञात लकया है लक
लजस सािक ने लपछिे जन्मों में तीव्र योग का अभ्यास लकया है, उसे यह अवश्य महससू होती है तथा शरीर

सहज ध्यान योग 25


शिु होने पर भी यह लक्रया महससू होती है। इसलिए सािक इस खींचातानी में न पड़े लक हमें यह लक्रया
क्यों नहीं महससू होती है। िस ध्यान करते रलहए, सििता अवश्य लमिेगी।
मनष्ु य के शरीर में सात मख्ु य चक्र होते हैं। ये चक्र स्नायमु ंडि व सक्ष्ू म नालड़यों के िारा िने होते हैं।
ये स्नायमु ंडि लदव्यशलक्तयों से यक्त
ु हैं, मगर सषु प्तु अवस्था में रहते हैं। योग के अभ्यास के िारा इन सषु ुप्त
शलक्तयों को जाग्रत करते हैं। सिसे नीचे लस्थत पहिे चक्र का नाम मि ू ािार चक्र है। यह रीढ़ की हड्डी के
नकु ीिे लसरे से थोड़ा ऊपर गदु ा िार के लनकट लस्थत होता है। सािक की अपान वायु मि ू ािार चक्र में चढ़ती
है तो उसे कोई खास अनभु व नहीं होता है, लसित प्राणवायु की अनभु ूलत होती है। सािक का सािना के प्रलत
लखंचाव-सा हो जाता है। लनत्य अभ्यास के िारा कुछ लदनों पश्चात् मि ू ािार चक्र खि ु जाता है। हर चक्र में
कमि का िूि होता है। सषु प्तु ावस्था में यह िूि किी के समान िन्द रहता है। जि यह किी लखिकर िूि
िन जाती है तो िन्द पंखलु डयाूँ खि ु कर िूि का रूप िारण कर िेती हैं। इसे चक्र का खुिना कहते हैं। इस
चक्र के कमि में चार पंखलु डयाूँ होती हैं। यह सि कुछ सक्ष्ू म रूप में लस्थत है। कभी-कभी सािक को यह
िूि लदखायी देता है। कभी-कभी लकसी सािक को यह िूि लदखायी नहीं देता है। इस चक्र के देवता गणेश
जी हैं।
ध्यान का अभ्यास ज्यादा िढ़ने पर प्राणवायु ऊपर की ओर िढ़ने िगती है। मि ू ािार चक्र से दो
अंगिु ऊपर रीढ़ में स्वाविष्ठान चक्र होता है। स्वालिष्ठान चक्र जननेलन्रय के पीछे रीढ़ में होता है। इस चक्र
से जननेलन्रय प्रभालवत होती है। जि प्राणवायु ऊध्वत होकर स्वालिष्ठान पर आती है तो िगता है लक रीढ़ के
सहारे हवा का िुििुिा ऊपर की ओर चढ़ रहा है। तथा हल्की-सी गदु गदु ी, गमी एवं मीठा-सा ददत महससू
हो सकता है। स्वालिष्ठान चक्र पर प्राण जि आता है तो कुछ लदनों तक इसी चक्र में प्राण ठहरता है। जि
यह चक्र खि ु जाता है तो इस चक्र का कमि लखि जाता है। इस चक्र के कमि में 6 पंखलु ड़याूँ होती हैं।
सभी पंखलु ड़याूँ खिु जाती हैं। लिर प्राणवायु ऊपर जाने का प्रयास करती है। इस चक्र के देवता ब्रह्मा जी हैं।
जि स्वालिष्ठान चक्र खिु जाता है तो प्राण ऊध्वत होकर रीढ़ के सहारे ऊपर चढ़ता है। स्वालिष्ठान
से चार अगं ि
ु ऊपर नालभ चक्र है। नालभ चक्र नालभ के पीछे है। इस चक्र से नालभ के आसपास का क्षेत्र
प्रभालवत रहता है। इसी चक्र को मवणपुर चक्र भी कहते हैं। जि प्राण नालभ चक्र में आता है तो यहाूँ पर
सािकों को ध्यानावस्था में अनभु व आने शरूु हो जाते हैं। नालभ में जठरालग्न रहती है। यह जठरालग्न ध्यान

सहज ध्यान योग 26


के माध्यम से ज्यादा तेज हो जाती है। इसी से शरीर गमत रहता है तथा भोजन पचाने का कायत यही जठरालग्न
करती है। नालभ चक्र में दस दि का कमि होता है। नालभ चक्र में कभी भगवान लवष्णु के दशतन होते हैं,
क्योंलक नालभ चक्र के देवता भगवान लवष्णु हैं। कभी-कभी सािक को ध्यानावस्था में अनभु व होता है लक
मैं अिं कार में आगे िढ़ता चिा जा रहा ह।ूँ आगे कािी दरू ी पर आग जि रही है। आग की िपटें आसमान
को छू रही हैं। यह दृश्य देखकर सािक को डरना नहीं चालहए, क्योंलक यह स्वयं आपकी जठरालग्न लदखायी
देती है। अथवा कभी-कभी अनभु व हो सकता है लक मैं अिं कार में आगे चिा जा रह।ूँ इसी प्रकार के अनभु व
होते हैं। जि यह चक्र खि ु जाता है तो इस चक्र में लस्थत कमि की दसों पख
ं लु ड़याूँ खि
ु कर िूि का रूप
िारण कर िेती हैं। लिर प्राणवायु ऊध्वत होकर हृदय की ओर जाने िगती है।
जि प्राणवायु हृदय चक्र में आ जाती है, ति सािक को अलत प्रसन्नता होती है। हृदय चक्र में 12
दि का कमि है तथा इस चक्र के देवता भगवान रूर हैं। इस चक्र में सािक की प्रसन्नता का कारण यह है
लक इस चक्र में अनभु व िहुत आते हैं। अनभु व इतने अच्छे होते हैं लक सािक सोचता है लक मैं कि ध्यान
में िैठूूँ और अनभु व आएूँ। इस चक्र में अनभु वों की िड़ी भरमार होती है। सािक खश ु ी से झमू ने िगता है,
क्योंलक उसके इष् के यहीं पर दशतन होते हैं। लकसी-लकसी सािक को इतने अनभु व आते हैं लक उसके ध्यान
का समय अनभु वों में ही िीतता है। लकसी सािक को कम अनभु व होते हैं। मैंने यह अनभु व लकया लक
लकसी-लकसी सािक को अनभु व नहीं होते हैं, मगर मन प्रसन्न रहता है। यलद लकसी सािक को अनभु व नहीं
आते तो वह दख ु ी न हो। अनभु व आने का अथत यह नहीं लक लसित अनभु व वािों का ही ध्यान िगता है।
अनभु व न आने वािे का भी ध्यान िगता है। लिर भी यलद मन में लकसी प्रकार की शक ं ा हो तो आप अपने
गरुु देव से जानकारी हालसि कर िें। अथवा लकसी योग्य सािक या योगी से भी शक ं ा का समािान कर
सकते हैं। यहाूँ पर अनभु व कुछ इस प्रकार के आते हैं– आसमान स्वच्छ है, चारों और स्वच्छ चाूँदनी की
तरह प्रकाश िै िा हुआ है, आप उसी प्रकाश में घमू रहे हैं; हरा-भरा जगं ि है, ििीिे पहाड़ हैं, पहाड़ों पर
आप घमू रहे हैं, पहाड़ों पर ऊूँचे पेड़ हैं, हवा िहुत तेज चि रही है; स्वच्छ, सन्ु दर तािाि है, तािाि में
कमि लखिे हैं; चारों ओर हररयािी है, उसी में पगडंडी है, आप पगडंडी पर जा रहे हैं, सन्ु दर पलक्षयों के
चहचहाने की आवाज आ रही है, मोर नाच रहा है; आपके इष् के भी दशतन होंगे आलद। कई प्रकार के सन्ु दर-
सन्ु दर अनभु व आते हैं। इस स्थान पर आपको अपने गुरु के भी दशतन होते हैं।

सहज ध्यान योग 27


िहुत ज्यादा अनभु व होना कोई अच्छी िात नहीं है क्योंलक ये अनभु व सारा वृलियों का खेि है।
हृदय में लवशाि जगह है। यहाूँ कािी मात्रा में प्राणवायु भी होती है। यहीं पर लचि में वृलियाूँ उठती हैं, इन्हीं
वृलियों के कारण अनभु व आते हैं। यहाूँ पर जो चाूँदनी के समान स्वच्छ प्रकाश लदखायी पड़ता है, वह
सालत्वक वृलि के कारण होता है। यहीं हृदय से नाद उत्पन्न होता है जो लकसी-लकसी सािक को सनु ायी
पड़ता है। कािी समय तक सािक इस चक्र में आनन्दानभु लू त महससू करता है। मगर जि प्राण इस चक्र से
ऊपर ऊध्वत होने िगता है तो अनभु व समाप्त हो जाते हैं। सािक की पहिी वािी प्रसन्नता गायि हो जाती
है। हृदय चक्र से प्राण ऊध्वत होकर ऊपर की ओर जाने िगता है। हृदय के ऊपर कण्ठ चक्र है।
कण्ठ चक्र गिे में पीछे की ओर होता है। यह चक्र गिे के क्षेत्र में होता है। इसीलिए इस चक्र को
कण्ठ चक्र कहते हैं। कण्ठ चक्र में 16 दि का कमि है। यहाूँ पर जीव का स्थान है। इस चक्र को ववशुवद्ध
चक्र भी कहते हैं। अभी तक सािक को जो मजा आता था अथवा आनन्द आता था, वह यहाूँ पर सि
समाप्त हो जाता है क्योंलक कण्ठ चक्र में अनभु व लिल्कुि नहीं होते हैं। यहाूँ पर घोर अंिकार लदखायी पड़ता
है। प्राण यहाूँ तक रीढ़ के सहारे िड़े आराम से आ गया है। प्राण को कण्ठ चक्र तक आने में ज्यादा समय
नहीं िगता है, मगर कण्ठ चक्र में प्राण को ऊपर जाने का मागत नहीं लमिता है। क्योंलक कण्ठ चक्र में आगे
का मागत िन्द रहता है। प्राण को आगे जाने का रास्ता नहीं लमिता है। प्राण ऊपर उठने की कोलशश करता
है। आगे का मागत िन्द होने के कारण अवरुि रहता है, इसलिए प्राण के दिाव के कारण गदतन पीछे की ओर
झक ु ती है। यलद सािक की सािना तीव्र है तो लसर पीछे की ओर पीठ से लचपकने िगता है। इस लक्रया से
सािक को िड़ी परे शानी होती है। ऊपर से मन के अदं र लनराशा-सी होने िगती है क्योंलक गदतन पीछे की
ओर जाने के कारण दख ु ने िगती है, प्राण भी कण्ठ में रुका हुआ होता है तथा सािक को लकसी प्रकार के
अनभु व नहीं आते हैं। सािक सोचता है हम कहाूँ आ गये। कुछ सझू ता ही नहीं है। सािक के लिए यही
समय परीक्षा का होता है। जो अच्छे सािक होते हैं, वे अपने िक्ष्य को पाने के लिए लनयम-सयं म से कठोर
सािना में िगे रहते हैं। जो सािक अपने िक्ष्य के लिए उत्साही नहीं होते हैं, वे हताश होने िगते हैं। सािकों
को कण्ठ चक्र में कई वषों तक सािना करनी पड़ती है। कुछ सािक यहीं पर अपनी सािना छोड़ देते हैं।
क्योंलक वे लनराश हो जाते हैं। वास्तव में यह जगह है ही ऐसी लक यहाूँ लकसी भी सािक को जल्दी सििता
नहीं लमिती है। जि सािक की सािना अच्छी होती है तो गदतन पीछे की ओर झक ु ती है। उसी समय कण्ठ

सहज ध्यान योग 28


से ऊूँऽऽऽ, ऊूँऽऽऽ, ऊूँऽऽऽ की आवाज लनकिती है। ऐसा िगता है जैसे भूँवरा जोर से शोर मचा रहा है।
भूँवरे के गजंु न की तरह आवाज आती है।
सािक को यहाूँ से पार होने के लिए कठोर लनयम-संयम करना पड़ता है, शि ु सालत्वक भोजन व
प्राणायाम पर लवशेष ध्यान देना पड़ता है, कठोर सािना करनी पड़ती है। ति कािी समय िाद थोड़ी सी
सििता लमिती है। इसी चक्र के पास नालड़यों की ग्रलन्थ है। यही ग्रलन्थ प्राण का मागत अवरुि लकये रहती
है। जि कठोर सािना के िारा नालड़याूँ थोड़ी शि ु होती है, ति यह ग्रलन्थ थोड़ी-थोड़ी खि ु ती है। जि ग्रलन्थ
के ज्यादा खि ु ने से नालड़याूँ अिग-अिग हो जाती हैं तो थोड़ा-सा मागत प्रशस्त हो जाता है। यहीं पर जीव,
माया, अलवद्या आलद का स्थान है। इसी कारण सािक आगे नहीं िढ़ पाता है। कभी-कभी सािक को कण्ठ
चक्र में अनभु व आ जाते हैं। सािक ध्यानावस्था में देखता है– मैं एक सुरंग के अंदर तीव्र गलत से घसु ता
चिा जा रहा ह।ूँ सरु ं ग में पीिे रंग का प्रकाश है। यह सरु ं ग समाप्त नहीं हो रही है। उसी समय अनभु व समाप्त
हो जाता है। कभी देखता है– मैं सरु ं ग के अंदर तीव्र गलत से जा रहा ह,ूँ आगे वह सरु ं ग िन्द है। उसी स्थान
पर सािक खड़ा हो जाता है और अनभु व समाप्त हो जाता है। इस सरु ं ग को ही भ्रमर गि ु ा कहते हैं। यह कण्ठ
चक्र का दृश्य है। लजस स्थान पर सरु ं ग िन्द लदखायी पड़ती है यह िन्द वािा स्थान ग्रलन्थ के कारण है। जि
तक ग्रलन्थ खुिकर आगे का मागत प्रशस्त नहीं करे गी, ति तक प्राण यहीं पर रुका रहेगा।
इसी स्थान पर दूर-दशणन, दूर-श्रवण लसलि लमिती है। सािक इन लसलियों के िारा दरू के दृश्य देख
सकता है। और उसी स्थान की आवाज भी सुन सकता है। दरू ी के लिए प्रलतिन्ि नहीं है। पृर्थवी के लकसी भी
स्थान का दृश्य देख सकता है व आवाज सनु सकता है। दसू रे लकसी भी व्यलक्त की गप्तु से गप्तु िात सनु ी जा
सकती है। इन लसलियों को कायत करने में समय लिल्कुि नहीं िगता है। पिक झपकाते ही ये लसलियाूँ कायत
करना शरूु कर देती हैं। ऐसा िगता है लक घर िैठे टी.वी. देख रहे हैं। ये लसलियाूँ अलिकतर सािकों को
कभी न कभी अवश्य लमिती हैं। मगर कायत करने की क्षमता में िकत रहता है। ये लसलियाूँ सािना के अनुसार
ही कायत करती हैं। यलद सािक की सािना अलत तीव्र है तो ये लसलियाूँ भी अलत तीव्रता से कायत करती हैं।
यलद सािक की सािना िीमी है, तो लसलियाूँ कम कायत करती हैं। सािक को इन लसलियों के चक्कर में नहीं
पड़ना चालहए। लसलियाूँ योग मागत की अवरोिक हैं। जो सािक इन लसलियों के चक्कर में पड़ जाता है उसका
योग यहीं पर रुक जाता है। लसलियाूँ सदैव कायत नहीं करती। लसलियाूँ सदैव योगिि पर ही कायत करती हैं।

सहज ध्यान योग 29


योगिि कम पड़ने पर अथवा समाप्त होने पर लसलियाूँ कायत करना िन्द कर देती हैं। ति सािक को पछतावा
होता है। साथ ही कण्ठ चक्र में वाचा लसलि भी लमिती है। यह लसलि सािक की शि ु ता व योगिि पर
कायत करती है। इस लसलि के लिए शि ु ता अलत आवश्यक है। यलद सािक को यह लसलि लमि जाए तो मौन
रहने की आदत डािनी चालहए। ज्यादा िेकार की िात नहीं करनी चालहए। यह लसलि हर सािक में एक
जैसा कायत नहीं करती है। सािक की सािना अनसु ार यह लसलि कायत करती हैं। इस अवस्था में सािक
अपनी योग्यतानसु ार अतृप्त जीवात्माओ ं से समिन्ि कर सकता है, उनसे िात कर सकता है, जीवात्माओ ं
के लवषय में जानकारी हालसि कर सकता है। यलद सािक की सािना तीव्र है तो अतृप्त जीवात्माओ ं को तृप्त
कर सकता है, चाहे तो मक्त
ु भी कर सकता है। मगर ये सि िातें सािक की सािना में अवरोि डािने की
हैं, इसलिए इनसे सवतथा दरू रहें।
ज्यादातर सािकों की कुण्डलिनी यहीं पर जाग्रत हो जाती है। यह कुण्डलिनी गरुु अथवा मागतदशतक
िारा ऊध्वत कर दी जाती है। कुण्डलिनी जाग्रत होने से सािक के अंदर सत्वगणु की अलिकता िढ़ने िगती
है, तथा सािना भी तीव्रता से होने िगती है। इसके जाग्रत होने से सािक के अंदर मनोिि िढ़ने िगता है।
ध्यान के लिए उत्साह ज्यादा िढ़ने िगता है। मगर ध्यानावस्था में गदतन पीछे जाने के कारण उसे कष् भी
महससू होता है। कष् के िावजदू उसके अंदर सािना करने की तीव्र िगन होती है। इस प्रकार का कष् वह
सहने के लिए तैयार रहता है। कभी-कभी सािक ध्यानावस्था में पीछे की ओर लगर जाता है। यह लक्रया तभी
होती है जि सािना अलत तीव्र होती है। मगर कुछ सािकों को देखा गया है लक उनकी गदतन ज्यादा पीछे
नहीं जाती है, गदतन थोड़ी-सी पीछे की ओर जाती है। ऐसे सािक यह न समझ िें लक हमारी सािना नहीं हो
रही है। ऐसे सािकों का स्वभाव सौमय होता है, ऐसा देखा गया है।
इसी स्थान पर सािक को िाह्म शारीररक लक्रयाएूँ भी होती हैं। कुछ सािकों को िहुत ज्यादा लक्रयाएूँ
होती हैं, कुछ सािकों को िाह्म लक्रयाएूँ नहीं होती। इन लक्रयाओ ं का कारण प्राणवायु हैं। सािक के शरीर
के अंदर की नालड़याूँ अशुि होने के कारण अवरुि होती हैं। प्राण इन्हीं नालड़यों में रुका होता है। जि
ध्यानावस्था में प्राण का दिाव नालड़यों पर पड़ता है तो सािक को ध्यानावस्था में िाह्य लक्रयाएूँ होने िगती
हैं। इन लक्रयाओ ं को सािक ध्यानावस्था में रोक नहीं सकता है। सािक को इन िाह्य लक्रयाओ ं का िीरे -िीरे
आभास होता रहता है। यह लक्रयाएूँ सािक के ध्यान में अवरोि होती हैं। लक्रयाओ ं के समय मन चंचि हो

सहज ध्यान योग 30


जाता है। सािक मन को लस्थर करने का प्रयास करता है। इन लक्रयाओ ं को िन्द करने के लिए सािक को
ज्यादा-से-ज्यादा प्राणायाम करना चालहए, तथा शि ु रहना चालहए। ज्यादा प्राणायाम से नाड़ी शि
ु हो जाती
है। नाड़ी शिु होने पर प्राण का अवरोि दरू हो जाता है। लिर भी यलद लक्रयाएूँ िन्द नहीं होती हैं तो अपने
मागतदशतक या गरुु से लक्रयाएूँ िन्द करवा िें, तालक सािक लस्थर होकर िैठ सके । गरुु या मागतदशतक का
कततव्य है लक अपने लशष्य की लक्रयाएूँ शलक्तपात कर पणू ततया िन्द कर दें तालक सािक योग में आगे िढ़
सके ।
सािक को मरु ाएूँ भी होती हैं। लक्रयाओ ं और मरु ाओ ं में िकत होता है। वैसे मरु ाएूँ भी प्राण की गलत
के कारण होती हैं। मरु ाएूँ होना सािक के लिए िुरा नहीं है। मरु ाएूँ सािक की योग्यता दशातती हैं। मरु ाओ ं से
सािना में अवरोि नहीं आता है। सािक को सािना काि में कई मरु ाएूँ हो सकती हैं। हर मरु ा का कुछ न
कुछ अथत अवश्य होता है। जि कण्ठ चक्र में लस्थत ग्रलन्थ थोड़ी खि ु ने िगती है तो ऊपर के लिए मागत
थोड़ा सा खि ु जाता है। कण्ठ चक्र में रुका हुआ प्राण थोड़ी मात्रा में भृकुलट पर आ जाता है। कण्ठ चक्र में
रुका हुआ प्राण परू ी तरह से ऊपर नहीं आता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंलक ग्रलन्थ परू ी तरह से नहीं खि ु ी
होने के कारण प्राण को ग्रलन्थ अवरुि लकये रहती है। प्राण जि थोड़ा सा ऊपर जाता है तो अनुभव आने
शरू ु हो जाते हैं। यहाूँ के अनभु व पहिे से उच्चकोलट के होते हैं। यलद सािक की कुण्डलिनी ऊध्वत होने
िगती है तो कण्ठ चक्र इस अवस्था में शीघ्र खि ु जाता है। लिर भी अक्सर सािक की कुण्डलिनी ऊध्वत
होने के 2-3 साि िाद कण्ठ चक्र पणू त रूप से खि ु पाता है। कण्ठ चक्र पणू त रूप से खि ु ने का समय लनलश्चत
नहीं है, यह सािक की सािना पर लनभतर करता है। इस ग्रलन्थ को खि ु ने में कुण्डलिनी सहायता देती है।
ग्रलन्थ खि ु ते समय गदतन िरु ी तरह से दख ु ने िगती है। ग्रलन्थ खिु ने के िाद ददत लिल्कुि महससू नहीं होता
है। ग्रलन्थ खि ु ने पर प्राण परू ी तरह से ऊपर चिा जाता है। कण्ठ चक्र खि ु ना सािक के लिए सािना में
िहुत िड़ी उपिलब्ि है, क्योंलक यह ऐसी जगह है जहाूँ पर सािक अपना िैयत खो िैठता है। सािक सोचता
है लक उसे कई वषत हो गये, न जाने कि यह कण्ठ चक्र खि ु ेगा। मगर सच्चा सािक प्रयासरत रहकर सििता
पा ही िेता है। यलद सािक ने सािना लपछिे जन्म में की है तो उसे जल्दी सििता लमि जाती है। लपछिे
जन्म में की गई सािना वततमान जन्म में सहायक होती है। लजस सािक ने योग के अभ्यास के िारा अपना
कण्ठ चक्र खोि लिया है, उसका अगिा जन्म मनष्ु य का ही होगा, ऐसा लनलश्चत है। ऐसा नहीं सोचना चालहए
लक यह चक्र खि ु गया है, अि सािना िन्द कर देनी चालहए, अगिा जन्म तो मनष्ु य का लमिेगा। सािक

सहज ध्यान योग 31


को लनरन्तर सािनारत रहना चालहए। इसका अथत यह भी नहीं लक जो योग नहीं करते हैं, वे अगिे जन्म में
मनष्ु य नहीं िनेंग।े ऐसे िोगों का कमत लनलश्चत करता है लक उसे लकस योलन में जाना है। मनष्ु य जैसा कमत करता
है, उसी के अनसु ार सक्ष्ू म शरीर अन्य भोग योलनयों में जाकर अपना कमत भोगता है। मगर कण्ठ चक्र पार
करने वािा सािक अन्य योलनयों में न जाकर कुछ समय पश्चात् जल्दी ही मनष्ु य शरीर िारण करता है। और
यह भी लनलश्चत है लक वह अगिे जन्म में सािना करे गा। हाूँ, यह लनलश्चत नहीं है लक वह लकस उम्र में योग
का अभ्यास करना शरू ु करे गा। सािना को शरू ु करना कमत पर आिाररत रहेगा। ऐसा सािक पररलस्थलतयाूँ
प्रलतकूि होने पर भी सािना करना शरू ु कर देगा। उस समय सािना के लिए पररलस्थलतयाूँ स्वमेव अनक ु ूि
हो जाएूँगी।
अि आता है आज्ञा चक्र। यह चक्र दोनों भवों की िीच भृकुलट में होता है। यहाूँ पर दो दि का
कमि है। यहाूँ के देवता भगवान लशव हैं और गरुु का भी यहीं पर स्थान है। कण्ठ चक्र से प्राणवायु दो भागों
में िूँट जाती है। प्राणवायु का एक भाग भृकुलट की ओर आ जाता है। दसू रा भाग गदतन से ऊपर लसर के लपछिे
भाग में िघमु लस्तष्क पर आ जाता है। िघमु लस्तष्क वािे मागत को पलश्चम मागत कहते हैं। जो प्राणवायु कण्ठ
चक्र से आज्ञा चक्र पर सीिे आ जाती है, उसे पूवत मागत कहते हैं। पहिे पवू त मागत के लवषय में लिखूँ।ू जि
सािक का प्राण मस्तक पर आता हैं तो उसे िगता है मस्तक पर ढेर सारी प्राणवायु भर गयी है। साथ ही
मस्तक पर गदु गदु ी व खजु िी-सी होती है। सािक को ध्यानावस्था में यह जगह िहुत अच्छी िगती है। उसे
िगता है लक मैं िहुत ऊपर आ गया ह।ूँ दरू -दरू तक हरा-भरा मैदान लदखायी पड़ता है। यलद सािक के इष्
भगवान शक ं र हैं तो यहाूँ अवश्य दशतन होंगे। यहाूँ पर सािक को लशवलिगं भी लदखायी पड़ता है।
जि सािक की सािना आज्ञा चक्र पर होती है तो उसका लसर दख ु ने सा िगता है। दख
ु ने का कारण
यह है लक लसर में प्राणवायु भर जाती है। लसर की नालड़यों में वायु का दिाव िढ़ जाता है। नालड़याूँ अशि ु
होने के कारण िन्द रहती हैं। उस स्थान पर प्राणवायु दिाव देती है लजससे ददत-सा महससू होता है। ध्यान के
िाद प्राणवायु ऊपर से परू ी तरह नीचे नहीं आ पाती है। वायु रुकने के कारण लसर भारी-सा हो जाता है,
अथवा दख ु ने िगता है। इस अवस्था में सािक को ज्यादा-से-ज्यादा प्राणायाम करना चालहए तालक नालड़याूँ
शिु होने िगें। शि
ु होने से लसर का दखु ना कम हो जाएगा अथवा समाप्त हो जाएगा। यलद सािक की सािना

सहज ध्यान योग 32


तीव्र है तो सािक को शौच में थोड़ी परे शानी होने िगती है क्योंलक शरीर में गमी िहुत िढ़ जाती है। इससे
िचने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा पानी सिु ह को पीना चालहए। इससे शौच में आराम लमिेगा।
सािक ने अभी तक जो सािना की थी, उसके िारा उसे अभी तक अपने सािना के िारे में ज्यादा
ज्ञान नहीं हुआ होता है। मगर आज्ञा चक्र पर आने पर यह जानने का प्रयास करने िगता है लक ‘मैं कौन हूँ,
कहाूँ से आया हूँ, अब कहाूँ जाऊूँ गा’। प्रकृ लत के िारे में ज्ञान होने िगता है। उस समय उसे संसार की
असलियत का पता िगने िगता है। संसार क्या है, यह उसकी समझ में आने िगता है, और इस संसार से
छुटकारा पाने की कोलशश करने िगता है। यलद सािक लकसी वस्तु की खोज करना चाहे तो उसे उस वस्तु
के लवषय में ढेर सारी जानकाररयाूँ हालसि हो जाती हैं। सािक सक्ष्ू म वस्तओु ं को भिी- भाूँलत समझ सकता
है। भतू काि और भलवष्यकाि की घटनाएूँ उसे भिी-भाूँलत लदखायी पड़ने िगती हैं। सािक की शलक्त िहुत
अलिक हो जाती है। लजस कायत में हाथ डािता है, उसे उस कायत में सििता ही सििता लमिती है। ति
सािक को समझ में आता है लक योग का महत्त्व क्या है; सािना करके उसने कोई गिती नहीं की। उस
समय गरुु के महत्व को भी समझ जाता है लक हमारे गरुु ने हमें क्या लदया, हमारे गरुु ने क्या से क्या िना
लदया। उस समय सािक अपने आपको गरुु का ऋणी समझने िगता है। यलद गरुु मागतदशतक न िनते तो वह
इस संसार में भटकता रहता।
अि सािक का मनोिि िहुत िढ़ जाता है। वह लनडर होकर रहने िगता है। यहाूँ तक लक मृत्यु भी
उसे नहीं डरा पाती है। सािक के लवचारों में पररवततन आने िगता है। उसके अंदर सेवा और प्रेम की भावना
जाग्रत हो जाती है। हर जीव, हर वस्तु से प्रेम करने िगता है। सारा संसार एक ब्रह्ममय है, यह समझ में आने
िगता है। सािक में आिस्य नहीं रहता है। वह अपने शरीर में चैतन्यता ही चैतन्यता महससू करता है। ध्यान
में िैठने की अवलि िहुत िढ़ जाती है। एक िार में डेढ़ घंटे से साढ़े तीन घंटे तक आराम से िैठा रहता है।
इतना समय कि िीत गया यह मािमू नहीं होता है, क्योंलक सलवकल्प समालि िगती है। सािक का शरीर
दिु िा-पतिा हो जाता है, मगर शरीर की स्िूलतत कम नहीं होती है क्योंलक शरीर की शलक्त को कुण्डलिनी
िढ़ाये रखती है। भमू ध्य में एक गाूँठ होती है, प्राण इसी गाूँठ में िूँ सने िगता है। जि तक यह गाूँठ खुिती
नहीं है, ति तक मलस्तष्क दख ु ता रहता है। आज्ञा चक्र खोिने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा मंत्रजाप करना
चालहए। मंत्र जाप मन के अंदर नहीं होना चालहए, िलल्क मंत्र की ध्वलन लनकिनी चालहए। मंत्र िोिने का

सहज ध्यान योग 33


तरीका सही होना चालहए, यह महत्त्वपणू त िात है। मत्रं जाप स्वयं अपने आप में एक योग है। मत्रं की शलक्त
िड़ी लवशाि है। सािनाकाि में लजतना ज्यादा मत्रं जाप लकया जाए, उतना ही अच्छा है।
कण्ठ चक्र से प्राणवायु ऊध्वत होकर िघमु लस्तष्क की ओर आती है। िघमु लस्तष्क का स्वरूप सक्ष्ू म
रूप से िचु िचु े माूँस िारा लनलमतत है। सािक की उत्कृ ष् सािना होने पर िघमु लस्तष्क साि लदखायी पड़ता
है। उसके अंदर कोई लछर नहीं होता, मगर योग में िघमु लस्तष्क के अंदर से होकर पलश्चम मागत जाता है। प्राण
िघु मलस्तष्क में आकर रुक जाता है। उसी समय सािक को जािन्िर िन्ि, उलड्डयान िन्ि व मि ू िन्ि
िगते हैं। इन तीनों िन्िों के लवषय में आगे लिखूँगू ा। कण्ठ चक्र खि ु ने के िाद प्राण तो ऊपर चिा जाता
है, मगर कुण्डलिनी तुरंत ऊपर नहीं जाती है। कुण्डलिनी िीरे -िीरे ऊध्वत होती है। कण्ठ के संकरे लछर से
प्राण तो ऊपर हो जाता है, परंतु कुण्डलिनी अपने मूँहु से िक्के मार-मार कर उस लछर को चौड़ा कर देती है
और वहाूँ का माूँस जिा-सा डािती है। कण्ठ से ऊपर पहुचूँ कर उसका मागत सीिे ऊपर जाता है। यह सीिा
मागत ब्रह्यरंध्र िार पर पहुचूँ ता है। इस मागत पर लसित कुण्डलिनी ही जाती है। इस मागत को सीिा मागत कहते
हैं। कण्ठ चक्र से ठीक ऊपर 90० का कोण िनाता हुआ मागत है। मगर कुण्डलिनी पलश्चम मागत व पूवत मागत
पर क्रमश: चढ़ती और वापस आती है। इस प्रकार कुण्डलिनी तीनों मागों पर िारी-िारी (क्रमश:) से जाती
है। पवू त मागत तो भृकुलट तक खि ु ा होता है, मगर पलश्चम मागत परू ी तरह से िन्द रहता है। अि कुण्डलिनी
पलश्चम मागत को खोिने में िग जाती है। पलश्चम मागत पर िक्के मार-मारकर िघमु लस्तष्क के अदं र से मागत
िनाती है। िघमु लस्तष्क से मागत िनाते समय सािक को थोड़ी पीड़ा होती है। उसे महससू होता है लक
िघमु लस्तष्क के अदं र गमत सआ ु की (सजू ा) तरह कोई चीज चभु रही है। कुछ लदनों पश्चात् िघमु लस्तष्क से
अपना मागत िना िेती है, िघमु लस्तष्क के पृर्थवीतत्व को जिा डािती है और चैतन्यता भर देती है।
िघमु लस्तष्क से होकर पलश्चम मागत गोिाई में ऊपर चढ़ता हुआ ब्रह्यरंध्र िार पर आता है। कुण्डलिनी भी
इसी मागत से होकर ब्रह्यरंध्र िार तक आती है, लिर सीिा मागत परू ी तरह से खि ु ने पर कुण्डलिनी सीिे मागत
से ब्रह्यरंध्र िार पर आती है। पवू त मागत से होते हुए कुण्डलिनी आज्ञा चक्र पर आती है। आज्ञा चक्र पर जि
कुण्डलिनी आती है तो आूँखों में जिन होने िगती है। जिन कुण्डलिनी की उष्णता के कारण होती है। इस
चक्र में लस्थत गाूँठ को वह िरु ी तरह से नोंचकर खोि डािती है। यहीं पर आज्ञा चक्र के पीछे की ओर
तीसरा नेत्र होता है। इसे लदव्यदृलष् कहते हैं। वह भी खि ु जाती है। जि कुछ समय िाद आज्ञा चक्र खुि
जाता है तो यहाूँ का रुका हुआ प्राण ब्रह्मरंध्र िार की ओर चिा जाता है। मैं यह िता दूँू लक तीनों मागत (पूवत

सहज ध्यान योग 34


मागत, सीिा मागत, पलश्चम मागत) एक साथ ही िगभग खि ु ते हैं। कुण्डलिनी हमेशा तीनों मागों को एक साथ
क्रमश: खोिती रहती है। पलश्चम मागत देर से खि ु ता है। अि दो भागों में िूँटी हुई प्राणवायु ब्रह्मरंध्र िार पर
एक हो जाती है। आिी प्राणवायु पलश्चम मागत से आकर (लसर के पीछे से होकर) ब्रह्मरंध्र िार पर आ जाती
है, आिी प्राणवायु पवू तमागत से होकर आज्ञा चक्र होते हुए ब्रह्मरंध्र िार पर आ जाती है। यलद पवू त मागत और
पलश्चम को ध्यान से देखा जाए तो िगता है लक पि ु के आकार में ये मागत हैं। ऐसा िगता है दो लमत्र पि ु के
दोनों ओर से चिकर िीच में लमि गये हों। लजस जगह लमिते हैं, उसके ऊपर ब्रह्मरंध्र का िार है। अि
कुण्डलिनी सीिे मागत से होकर ब्रह्मरंध्र िार पर पहुचूँ ती है।
जि आज्ञा चक्र खि ु ने वािा होता है तो सािक की आूँखों पर दवाि पड़ता है। जि कुण्डलिनी पूवत
मागत से आूँखों पर आ जाती है तो आूँखों में िड़ी तेज गमी िढ़ती है। आूँखों में तीव्र जिन होती है। ऊपर
पिकों में ऐसा िगता है लक जिी जा रही हैं। उस समय आूँखों में आग ही आग नजर आती है। सािक की
आूँखें अत्यन्त तेज हो जाती है। आूँखों के लकनारे ज्यादा खि ु ने िगते हैं, क्योंलक आूँखों के लकनारे चौड़े हो
जाते हैं। ति सािक की आूँखें िपू में खोिने पर चकाचौंि सी होने िगती हैं। ऐसे सािक को दसू रे व्यलक्त
से सीिे आूँख लमिाकर िात नहीं करनी चालहए। यलद उस समय सािक लकसी व्यलक्त पर गहरी दृलष् डािता
है तो उस व्यलक्त के अंदर का सारा हाि जाना जा सकता है लक वह लकस तरह का आदमी है, क्या सोच
रहा है। यलद सािक अपने पर आ जाए तो दृलष् मात्र से लकसी भी व्यलक्त को लनयलं त्रत कर सकता है। यह
लक्रया लसित उग्र कुण्डलिनी वािे से होगी। भृकुलट से थोड़ा ऊपर की ओर पीछे की तरि (अदं र की ओर)
तीसरी आूँख होती है लजसे लसित योगी या भक्त ही खोि पाता है। यह आूँख इन चमत चक्षओ ु ं से िड़ी होती
है। देखने पर मस्तक पर खड़े आकार में लदखायी पड़ती है। मगर अनभु व में सािक को यह आूँख आड़ी भी
लदखायी पड़ती है। यह आूँख तेजस्वी लदखायी पड़ती है। जि आूँख खि ु ती है तो सािक को िगता है लक
एक आूँख खड़ी या आड़ी आकार में है, वह िीरे -िीरे खि ु रही है। उसके अदं र प्रकाश ही प्रकाश भरा है,
उससे प्रकाश िाहर आ रहा है। यह प्रकाश िड़ा तीव्र व चमकीिा होता है। इस नेत्र के खि ु ने से लदव्यदृलष्
प्राप्त होती है। लदव्यदृलष् के साथ-साथ दरू दृलष् भी प्राप्त होती है लजससे सािक को सक्ष्ू म से सक्ष्ू म स्पष् लदखने
िगता है। लदव्यदृलष् व दरू दृलष् से सािक अन्य िोकों को देख सकने में सामर्थयतवान होता है।

सहज ध्यान योग 35


लदव्यदृलष् से सािक सक्ष्ू म से सक्ष्ू मतम वस्तु देख िेने में सामर्थयतवान होता है। ब्रह्म का सगणु रूप
अथातत ईश्वर का स्वरूप इसी दृलष् से देखा जा सकता है। इस दृलष् के लक्रयाशीि होने पर सािक को सवोच्च
लस्थलत के अनभु व होने िगते हैं। सािक ध्यानावस्था में लजस िोक में भ्रमण करता है, वहाूँ का दृश्य अच्छी
तरह से देख सकने या समझ सकने में सामर्थयतवान होता है। सािक अपने कायत के लिए भी लदव्यदृलष् से
दरू दृलष् का उपयक्त
ु िाभ उठा सकता है। भतू काि व भलवष्यकाि को िड़े आराम से देख सकता है। लदव्यदृलष्
के िि पर आलदकाि के ऋलष-मलु नयों व तपलस्वयों से समिन्ि अपनी योग्यतानसु ार स्थालपत कर सकता
है। पहिे के सतं -महात्माओ ं के दशतन करके उनसे मागतदशतन िे सकता है। वैसे भी लिना इच्छा के सतं ों के
दशतन व उनका मागतदशतन कभी-कभी लमिता रहता है। इस नेत्र के िारा सािक अपना लपछिा जन्म देख
सकता है। एक ही नहीं िलल्क योग्यतानसु ार कई लपछिे जन्म देखे जा सकते हैं। यलद मैं अपनी िात लिखूँू
तो मझु े अपने लपछिे कई जन्म लदखाई लदये। कुछ जन्मों के लवषय में मैंने अपने अनभु वों में उल्िेख लकया
है। आप हमारे लपछिे जन्मों के लवषय में हमारे अनुभव पढ़कर जानकारी हालसि कर सकते हैं। सािक
अपना अगिा जन्म भी देख सकता है तथा उस जन्म की घटनाएूँ भी लदखायी देती हैं। सािक दसू रे के लवषय
में भी देख सकता है। लकसी भी व्यलक्त का लपछिा जन्म देखना सािारण िात है। अि कोई भी व्यलक्त यह
सवाि कर सकता है लक लपछिा जन्म कै से जाना जा सकता है। मैं यहाूँ पर संक्षेप में िताता ह।ूँ मनष्ु य जो
भी कमत करता है, उसके कमातशय लचि पर वृलियों के रूप में एकत्र होते रहते हैं। उसके लचि में कमातशय
कई जन्मों के संलचत रहते हैं। लदव्यदृलष् के िारा लचि में लस्थत कमातशयों को देखा जा सकता है लजससे उसके
िारा लकया गया कमत स्पष् लदखता है। ऐसा समझो लक लचि एक वीलडयो कै मरा है। मनष्ु य जो भी करता है
या देखता है, उसकी छाप लचि पर पड़ती है। यही संस्कार कहे जाते हैं। इन्हीं संस्कारों के अनसु ार मनष्ु य
वततमान जीवन में भोग करता है।
सािक की लदव्यदृलष् की क्षमता उसकी सािना के अनसु ार होती है। जरूरी नहीं लक सभी सािक
एक जैसा देख पाने में सामर्थयतवान हों। अगर सािक की सािना तीव्र, शि ु व परू ी तरह से सालत्वक है तो
उसका तीसरा नेत्र कण्ठ चक्र खि ु ने के िाद ही खि ु जाता है। लकसी का आज्ञा चक्र खि ु ने पर खि ु ता है।
तीसरा नेत्र खिु ने पर उसकी कायत क्षमता तरु ं त ज्यादा नहीं होती है। जि कुण्डलिनी तीसरे नेत्र या भृकुलट
पर पहुचूँ ती है, उस समय यह नेत्र िहुत शलक्तशािी हो जाता है। कुण्डलिनी अपने तेज से इस नेत्र को
तेजस्वी कर देती है। उस समय लदव्यदृलष् की कायतक्षमता िहुत िढ़ जाती है। मंत्रजाप तीसरा नेत्र खोिने में

सहज ध्यान योग 36


िहुत सहायक होता है। इसलिए सािक को ज्यादा से ज्यादा जाप करना चालहए। मैं तो यह कहगूँ ा लक योग
में सिसे ज्यादा आनन्द ति आता है जि तीसरा नेत्र खि ु जाता है। उस समय उसे उच्चकोलट के अनभु व
होते हैं। ति िगता है लक मैं लकतना शलक्तशािी ह।ूँ िेलकन अभी उसे िहुत िंिा रास्ता तय करना है। सािक
की इस अवस्था में समालि िगती है। इस समालि को सलवकल्प समालि कहते हैं। इस लवषय में आगे
लिखूँगू ा।
अि आती है सािक की सािना ब्रह्मरंध्र िार पर। जि कुण्डलिनी सीिे मागत से ऊपर चढ़ती है तो
सीिा मागत भी खुि जाता है। सीिा मागत खि ु जाने के िाद ब्रह्मरंध्र िार से या लसर के ऊपरी लहस्से से
टपकता हुआ लवशेष प्रकार का रव्य सीिे गिे से होकर नालभ पर लगरता है। ति सािक की जठरालग्न शांत
होने िगती है। सािक ज्यादा भोजन न करके अल्प भोजन करता है। उसकी भूख भी अल्प रह जाती है।
जि ऊपर से उस रव्य की िूँदू ें गिे पर लगरती हैं तो सािक उसके स्वाद का मजा िेता है। रव्य गाढ़ा व
रंगहीन होता है। उसका स्वाद शहद के समान मीठा होता है। ऐसा िगता है जैसे गिे के अंदर शहद िगा
लदया गया हो। शहद का मीठापन कुछ समय पश्चात् समाप्त हो जाता है। मगर इस रव्य का मीठापन लदनभर
नहीं जाएगा। उस समय िगता है कोई चटपटी चीज खायी जाए। मगर चटपटी वस्तु खाने से मीठापन नहीं
जाएगा। रव्य सदैव नहीं टपकता है। एक िार में दो-चार िूँदू ें लगरती हैं लजसका स्वाद िेकर सािक को
लवशेष मजा आता है। योग की भाषा में इसे अमृत की िूँदू ें कहते हैं। कुछ लदनों के अतं र से लिर ये िूँदू ें
लगरती हैं।
इस अवस्था में सािक जि ध्यान पर िैठता है तो ध्यानावस्था में लसर नीचे को दिाव मारता है।
इससे गदतन पर दिाव पड़ता है। और गदतन से नीचे का भाग ऊपर को दिाव मारता है। तो लसर का व शरीर
का दिाव दोनों ओर से गदतन पर पड़ता है, लजससे गदतन लिल्कुि लसकुड़ जाती है। इसका कारण यह है लक
लसर की वायु नीचे जाती है और नीचे शरीर की वायु ऊपर लसर में आती है। कभी-कभी यह दिाव आपस
में इतना हो जाता है लक लसर में हल्का-सा कंपन होने िगता है। उसी समय उलड्डयान िन्द िगता है तो
कुण्डलिनी ऊपर जाने का प्रयास करती है। सािक की श्वास उस समय िन्द व गहरी हो जाती है। आंतररक
कुमभक व िाह्य कुमभक िगता है। िाह्य कुमभक इतने जोर से होता है लक श्वास वापस शरीर में आने का
नाम ही नहीं िेता है। उस समय सािक के अंदर िेचैनी होती है। लिर थोड़ी देर में श्वास वापस आती है तो

सहज ध्यान योग 37


सािक को राहत लमिती है। मगर जैसे ही श्वास अदं र आता है तो िाहर जाने का नाम नहीं िेता है। आतं ररक
कुमभक िहुत जोर से िगता है। लिर कुछ समय पश्चात् श्वास िाहर लनकि जाता है। ये भीतरी और िाह्य
कुमभक सािक रोक नहीं सकता है क्योंलक यह लक्रया स्वयं कुण्डलिनी िारा की जाती है। इन कुमभकों से
कुण्डलिनी को ऊध्वत होने में सहायता लमिती है।
गिे से ब्रह्मरंध्र िार तक का मागत देखने में थोड़ा मािमू पड़ता है, मगर कुण्डलिनी को यह मागत तय
करने में अथवा कण्ठ चक्र से ब्रह्मरंध्र तक का मागत प्रशस्त करने में िहुत समय िग जाता है। जि तक
सािक पणू त रूप से ब्रह्मलनष्ठ नहीं होगा, ति तक अवरोि सा आता रहता है। सािक के अंदर जो लवकार
आते हैं, वे लवकार नष् करने पड़ते हैं। इलन्रयाूँ अत्यन्त सक्ष्ू म रूप में रह जाती हैं, अचेतन-सी हो जाती हैं।
इलन्रयाूँ कभी भी नष् नहीं होती हैं। सािक ने जरा भी असाविानी की, तो ये इलन्रयाूँ लक्रयाशीि होने में देर
नहीं िगाती हैं। इसलिए सािक को हमेशा साविानी िरतनी चालहए।
सािक को ध्यानावस्था में िाि रंग का आग का गोिा लदखायी पड़ता है। यह गोिा कभी-कभी
सािक को अंतररक्ष में चारों और घमू ता नजर आता है। वास्तव में यह ब्रह्मरंध्र के अन्दर का दृश्य है जो
इस रूप में लदखायी पड़ता है। कभी-कभी ध्यानावस्था में नाद भी सुनायी देता है। नाद ह्रदय से उत्पन्न
होता है, मगर आवाज सनु ने का काम कणत ग्रलन्थयाूँ करती हैं। इस अवस्था में कणत ग्रलथयाूँ सक्ष्ू म आवाज
अच्छी तरह से सनु िेती हैं। ऐसा िगता है नाद कानों में ही हो रहा है। नाद योग में दस तरह के नाद िताये
गये हैं। कुछ नाद तो मैंने भी सनु े हैं। इन नादों की आवाज िहुत मिरु होती है। आलखरी नाद मेघ गजतना है।
ऐसा िगता है िरसात के िादि भयंकर रूप से गरज रहे हों। इस नाद की उत्पलि वायतु त्व और
आकाशतत्व से होती है। आकाश तत्व में वायतु त्व समाया हुआ है। वायतु त्व का घषतण आकाश में होता
है, ति यह नाद उत्पन्न होता है। यह नाद ब्रह्मरंध्र िार खि ु ने के पहिे होता है। ब्रह्मरंध्र िार की
संरचना िड़ी लवलचत्र है। यह िार अत्यन्त कठोर परत से िन्द रहता है। इस िार को प्राणवायु नहीं खोि
सकती है। इस िार को कुण्डलिनी िक्के मार-मार कर खोिती है। इस अवस्था में सािक की आूँखें
कभी-कभी (ध्यानावस्था में) अंदर की ओर दिाव मारती हैं यह दिाव इतना ज्यादा होता है लक ऐसा
िगता है लक आूँखें टूटकर लसर के पीछे की ओर चिी जाएगी। सािक खिू जोर िगाए मगर आूँखें

सहज ध्यान योग 38


खिु नहीं सकती हैं। उस समय िगता है लक आूँखों की रोशनी न चिी जाए, मैं अंिा न हो जाऊूँ, मगर ऐसा
नहीं होता है।
लदव्य दृलष् प्राप्त होने पर सािक को एक िार भगवान का दशतन होता है। लकसी-लकसी स्थान पर इन्हीं
भगवान का नीिमय परुु ष के शब्द से वणतन लमिता है। ये भगवान शंकर होते हैं। इनके शरीर का रंग हल्के
नीिे रंग का होता है। मैंने भी नीिमय परुु ष के रूप में भगवान शंकर का दशतन लकया है। भगवान शंकर के
स्थान पर भगवान लवष्णु या भगवान श्रीकृ ष्ण आलद के भी दशतन हो सकते हैं, मगर नीिे रंग के प्रकाश में
नीिे रंग का शरीर िारण लकए होंगे। अथातत् नीिमय परुु ष के दशतन लभन्न-लभन्न रूपों में होता है। अि सािक
की पहुचूँ सभी िोकों में हो जाती है। कारण शरीर का रंग नीिा होता है। यहीं से सािक कारण शरीर में
प्रवेश करता है। जि सािक ध्यानावस्था में कारण शरीर में होता है, तो सािक का समिन्ि कारण जगत से
हो जाता है। कारण शरीर िारण करने वािी जीवात्माओ ं के दशतन होते हैं। यहाूँ पर सारे दशतन चैतन्यमय
होते हैं। कुण्डलिनी जि ब्रह्मरंध्र िार खोिने िगती है, तो सािक को महससू होता है लक कोई चीज ब्रह्मरंध्र
िार पर चभु रही है, क्योंलक कुण्डलिनी अपने मूँहु से जोरदार िक्का मारती है। अंत में एक समय ब्रह्मरंध्र िार
खोि देती है। इसका ज्यादा वणतन कुण्डलिनी वािे पाठ में पढ़ िीलजएगा।
ब्रह्मरंध्र लनगतणु ब्रह्म का प्रवेश िार है। ब्रह्मरंध्र को सहस्त्रार चक्र नहीं कहते हैं। वास्तव में कुछ
मागतदशतक यहाूँ पर अज्ञानता में आ जाते है। वे यह समझते हैं लक यही ब्रह्मरंध्र ही सहस्त्रार चक्र है। सच तो
यह है लक यह सहस्त्रार चक्र नहीं होता है। सहस्त्रार चक्र खि ु ने या लवकलसत होने पर तो ब्रह्मज्ञान की प्राप्त
होने िगती है लजसे हम तत्त्वज्ञान भी कह सकते हैं। ब्रह्मज्ञान या तत्त्वज्ञान प्रकट होने पर मोक्ष प्राप्त होता है,
सभी प्रकार के दख ु ों से लनवृलि लमि जाती है। ब्रह्मरंध्र िार तक अभ्यासी की सािना तन्मात्राओ ं के अंतगतत
चिती है। इन्हीं तन्मात्राओ ं के कारण उसे लवलभन्न प्रकार के नाद सुनाई देते हैं। तन्मात्राओ ं से आगे की
अवस्था अहक ं ार के अंतगतत आती है। इसीलिए ब्रह्मरंध्र िार खुिने पर लिर अभ्यासी को नाद सनु ाई नहीं
पड़ते हैं। क्योंलक वह तन्मात्राओ ं से आगे की अवस्था में पहुचूँ जाता है। तन्मात्राओ ं के कारण यहाूँ पर दसों
नादों में आलखरी नाद मेघ गजतना सनु ाई लदया करता है। कारण यह है लक आकाश तत्व में अलिलष्ठत वायु
तत्व में उसके अंदर जोरदार लखंचाव या घषतण हुआ करता है, उस समय ध्वलन प्रकट होती है। ऐसा िगता
है मानो मेघ गजतना कर रहे हैं, इसलिए इस ध्वलन को मेघनाद कहा गया है। जि ब्रह्मरंध्र खि ु जाता है, तो

सहज ध्यान योग 39


उसे लवलभन्न प्रकार की अनभु लू तयाूँ व दृश्य लदखाई देते हैं। इसकी अनभु लू त के लिए सािक को अपने गरुु के
मागतदशतन में कठोर योग का अभ्यास करना होगा। वैसे यहाूँ पर जो सािक को जो अनभु लू त होती है, उस
अनभु लू त को थोड़ा लिखने का प्रयास कर रहा ह,ूँ क्योंलक अनभु लू त लिखने का लवषय नहीं होता है, लसित
महससू की जाती है।
जि कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र खोिती है तो सािक को मेघों की गजतना सनु ाई पड़ती है। िाद में जि
कुण्डलिनी िार खोि देती है, तो िार पर रुका हुआ प्राण ब्रह्मरंध्र के अंदर प्रवेश कर जाता है। उस समय
सािक कुछ समय के लिए चेतनाशून्य हो जाता है। मेघ गजतना ब्रह्मरंध्र िार खि ु जाने के िाद सदैव के लिए
सनु ाई देना िन्द हो जाती है। लिर लनराकार अत्यन्त तेजोमय ब्रह्म का अत्यन्त सालत्वक सशक्त वृलि के िारा
दशतन होता है। सािक को ध्यानावस्था में जो आग का गोिा चारों ओर घमू ता हुआ अथवा लस्थर लदखाई
पड़ता था, वह भी िटकर लिखर चुका होता है। इसी के िटने पर ब्रह्मरंध्र खि ु ता है। आग का गोिा िटते
ही अथवा ब्रह्मरंध्र िार खुिते ही ऐसा िगता है, जैसे करोड़ों सयू त एक साथ िट पड़े हों। चकाचौंि कर देने
वािा प्रकाश लदखाई पड़ता है। उस समय लदव्यदृलष् भी इस प्रकाश के तेज को सहन नहीं कर पाती है। चारों
ओर प्रकाश ही प्रकाश होता है। स्वयं सािक कई-कई घंटे ध्यान पर िैठा रहता है। उसे मािमू नहीं पड़ता
है लक इतना समय कै से िीत जाता है। शरू ु आत में सािक का प्राण ब्रह्मरंध्र में िहुत समय नहीं रुकता है।
जल्दी ही ब्रह्मरंध्र के नीचे उतर आता है। िीरे -िीरे अभ्यास िढ़ने पर प्राण ब्रह्मरंध्र के अदं र ज्यादा समय
तक ठहरने िगता है। सच यह है लक ब्रह्मरंध्र िार खि ु ने पर जो अत्यन्त तेजोमय प्रकाश लदखाई देता है मानो
हजारों सयू त िट पड़े हों, वह वास्तव रूप में लनगतणु ब्रह्म नहीं होता है, िलल्क अत्यन्त सालत्वक सशक्त अहक ं ार
की वृलि होती है जो इस रूप में लदखाई देती है। ज्यादातर मागतदशतक व अभ्यासी यह समझ िेते हैं लक यह
लनगतणु ब्रह्म का दशतन हुआ है। हाूँ, यह सत्य है लक यह अत्यन्त सालत्वक सशक्त वृलि लनगतणु ब्रह्म की ओर
से लनदेशन कर रही होती है, इसलिए उसका स्वरूप लनगतणु ब्रह्म के समान ही होता है। इसी कारण ऐसी
वृलियों के िारा ही अभ्यासी को समालि अवस्था में यहाूँ पर ‘अहं ब्रह्मालस्म’ जैसे शब्द सनु ाई पड़ते हैं।
जि तक प्राण ब्रह्मरंध्र में रहता है, ति तक सािक की लनलवतकल्प समालि िगती है। संकल्प उठना
िन्द हो जाता है। िलहमतन अंतमतन में लविीन हो जाता है। इस अवस्था में िैतभाव लविीन हो जाता है,
अिैतभाव आ जाता है, सारी वस्तएु ूँ ब्रह्ममय िगने िगती हैं, अपने-पराये का भाव लमटने िगता है, सािक

सहज ध्यान योग 40


को चौथी अवस्था (तरु ीयावस्था) प्राप्त होती है। यहाूँ पर दृष्ा, दृलष् और दृश्य एक हो जाते हैं। जि तीनों एक
हो जाते हैं, तो कौन लकसे देखे, सािक स्वयं ब्रह्ममय हो जाता है। यह लक्रया इस प्रकार होती है– लचि में
तीनों गणु ों का दो प्रकार का पररणाम होता रहता है। पहिे प्रकार का पररणाम लचि को िनाने वािा होता
है। दसू रे प्रकार का पररणाम लचि पर लस्थत वृलियों (कमातशयों) पर होता है लजससे जीव को वृलियों के िारा
ससं ार की अनभु लू त होती है। इसे िाहरी पररणाम भी कहते हैं यह िाहरी पररणाम होना िन्द हो जाता है।
पहिे सलवकल्प समालि में दृष्ा, दृलष् और दृश्य की जो लत्रपलु ट िनती थी, वह अि यहाूँ नहीं िनती है।
सलवकल्प समालि में शब्द, अथत और ज्ञान का प्रवाह िहता रहता है। उसके कारण लत्रपलु ट िनती है। अि
इस अवस्था में शब्द और ज्ञान का प्रवाह अथत रूपी प्रवाह में लविीन हो जाता है। लसित अथत का प्रवाह ही
िहता है। इस कारण अभ्यासी को समय और संसार का ज्ञान नहीं हो पाता है ध्येय वस्तु लसित अथत स्वरूप
में ही रह जाती है। नाम (शब्द) और ज्ञान ये दोनों अथत में लविीन हो जाते है। वृलि लसित अथत स्वरूप में
लवद्यमान रहती है, इसीलिए सािक को लनलवतकल्प समालि के समय लकसी प्रकार के दृश्य नहीं आते हैं और
न ही कुछ याद रहता है। मगर सािक के शेष संस्कारों के कारण समालि भंग हो जाती है। इस अवस्था में
हर एक सािक की समालि का समय कािी अलिक हो जाता है। मैं इस अवस्था में तीन घंटे से िेकर चार
घंटे तक समालि में िैठता था। सािकों, कुण्डलिनी िहुत समय तक ब्रह्मरंध्र में नहीं ठहरती है। समालि का
अभ्यास िढ़ने पर कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र िार से आज्ञा चक्र की ओर आने िगती है। इसे योग की भाषा में
कुण्डलिनी का उिटना कहते हैं। जि कुण्डलिनी आज्ञा चक्र पर आती है तो आूँखों में तीव्र गमी िढ़ जाती
है। ऐसा िगता है आूँखें जि जाएूँगी, लिर आज्ञा चक्र से कुण्डलिनी सीिे नीचे की ओर (पवू तभाग से) आने
िगती है और तािू पर आकर तािू काट डािती है। कुछ योलगयों ने इस स्थान को (तािू को) एक चक्र
माना है। तािू को काट कर नीचे की ओर अपना नया मागत िनाने िगती है, लिर हृदय में आ जाती है।
जि कुण्डलिनी हृदय में आती है, उस समय कुण्डलिनी की िमिाई िगभग सािक के शरीर की
ििं ाई के िरािर हो जाती है, क्योंलक कुण्डलिनी मि ू ािार से ब्रह्मरंध्र तक, ब्रह्मरंध्र से आज्ञा चक्र होते हुए
नीचे की ओर हृदय तक आ जाती है। समालि टूटने के िाद कुण्डलिनी मि ू ािार में लिर आ जाती है। अि
उसकी यात्रा िहुत िंिी हो जाती है। हृदय में आकर हृदय की वायु सोखने िगती है तथा कुछ मात्रा में
कमातशयों को भी जिा देती है। समालि का िीरे -िीरे अभ्यास िढ़ने पर कुण्डलिनी लस्थर हो जाती है। जि
कुण्डलिनी लस्थर हो जाती है, ति मि ू ािार में ध्यान के िाद वापस नहीं िौटती है, िलल्क परू े मागत में उसका

सहज ध्यान योग 41


शरीर समाया रहता है। कुण्डलिनी का शरीर अलग्नतत्व से िना होता है। लस्थर होने के पश्चात् अलग्नतत्व से
वायतु त्व में पररवलततत हो जाती है। लिर कुण्डलिनी वायु रूप में सािक के शरीर में व्याप्त रहती है। कुण्डलिनी
लस्थर होने के िाद हृदय में सािक को ज्योलत का दशतन होता है। वह समालि अवस्था में देखता है लक हृदय
के अदं र अत्यन्त तेजस्वी ज्योलत जि रही है। यह स्वयं सािक की अत्यन्त सालत्वक सशक्त वृलि होती है।
सािक को अभी भी िरािर समालि का अभ्यास करना चालहए क्योंलक अभी उसके शेष कमातशय िाकी हैं।
ये शेष कमातशय भोगकर ही समाप्त होते हैं; योग के प्रभाव से ये जि नहीं सकते हैं। समालि के िारा ये
कमातशय िीरे -िीरे िाहर लनकिते रहते हैं। ये कमातशय क्िेशात्मक होते हैं, लजनके कारण सािक को क्िेश
भोगना ही पड़ता है। शेष कमातशयों की समालप्त पर भी योग करना जरूरी होता है क्योंलक तमोगणु ी अहक ं ार
को मि ू स्त्रोत में लविीन करना होता है तालक शिु अहंकार रह जाए तथा लचि का साक्षात्कार करना जरूरी
है, तालक लिर लचि में लिर कमातशय न िनें। इस अवस्था में सािक को शि ु ज्ञान प्राप्त होता है। प्रकृ लत के
लवषय में जानकारी हो जाती है। लिर जीवात्मा प्रकृ लत के िन्िन में नहीं िन्िती है।
सािक इस अवस्था में िाहर से देखने पर पहिे जैसा लदखता है, मगर उसके अंदर लविक्षण शलक्त
आ जाती है। अि ढेरों कायत अपने योगिि पर कर सकता है। वह समाज का कल्याण कर सकता है, योग
का मागतदशतन कर सकता है, योग के अभ्यास के प्रभाव से अपनी िात दसू रों को मनवा सकता है। अि वह
ससं ार में रहते हुए भी ससं ारी नहीं है। वह तो कमि के समान है। इलन्रयाूँ उसके िस में रहती हैं। सदा सत्य
और अलहसं ा का आचरण करता है। योग के माध्यम से अन्य जीविाररयों से भी सपं कत स्थालपत कर सकता
है। दसू रे जीविाररयों की इच्छा समझ सकता है। अि वह मृत्यु के भय से दरू अपनी मृत्यु को कुछ समय के
लिए टाि सकता है। ऐसे योगी भि ू ोक में जि अपने स्थि
ू शरीर को त्याग कर ऊपर के िोकों में जाते हैं,
तो उन्हें उच्चिोक में स्थान लमिता है और अनतं समय तक वहीं रहते हैं। लिर योग प्रचार के लिए अपनी
इच्छानसु ार भि ू ोक पर वापस आते हैं। समाज का कल्याण करते हुए िमत-प्रचार और योग का प्रचार करते
हैं। लिर अपना कायत करके वापस चिे जाते हैं।
सािकों, योग करने के लिए सािक को कई िातों का ध्यान रखना चालहए। यलद आप अच्छे सािक
िनना चाहते हैं तो आप अपने जीवन में योग के लनयमों का पािन कररए तथा कुछ िातों का ध्यान रलखए
लजससे आपका ध्यान अच्छा चिता रहे। अच्छे अभ्यास के लिए जरूरी है स्थि
ू शरीर तथा अपनी नालड़यों

सहज ध्यान योग 42


को शि ु रखें। इन सि िातों का ध्यान रखने के लिए सािक को ध्यान के अिावा कुछ और लनयम अपने
जीवन में शालमि कर िेने चालहए। जैसे ब्रह्मचयत, अलहसं ा, मौन, परोपकार, दान, शि ु भोजन, आसन,
प्राणायाम, त्राटक, मत्रं जाप, स्वाध्याय आलद के पािन से ध्यान अच्छा िगने िगता है तथा शि ु ता िढ़ती
है। इन सिका पािन करने से योग में प्रगलत शीघ्र होती है। यलद सािक लसित ध्यान ही करे गा और इन सि
िातों का पािन नहीं करे गा, तो योग में अवरोि सा िना रहेगा। प्रगलत शीघ्र सभं व नहीं होगी।

सहज ध्यान योग 43


शुद्ध सावत्वक भोजन
सािक को अपना शरीर शुि रखने के लिए जरूरी है लक सालत्वक भोजन करे । सालत्वक भोजन से
शरीर शि ु होता है, तथा नालड़याूँ भी शि
ु रहती हैं। सािक को सदैव याद रखना चालहए लक उसे सािनाकाि
में सालत्वक भोजन करना है। तामलसक स्वभाव वािे भोजन से सािक को िचना चालहए। तामलसक भोजन
में अशि ु ता अथवा तमोगणु की मात्रा अलिक होती है। ऐसा भोजन सािक को तामलसक स्वभाव वािा
िनाता है तथा तमोगणु का सक्ष्ू म तत्व सािक की सक्ष्ू म नालड़यों में प्रभाव डािता है। इससे नालड़याूँ अशि

होती हैं तथा तमोगणु का सक्ष्ू म तत्व भर जाता है। जि सािक सािना करता है तो सािक का प्राण इन्हीं
नालड़यों में रुक जाता है लजससे ध्यान में प्रगलत रुक जाती है। लिर नालड़यों को शुि करने के लिए सािक
प्राणायाम आलद का सहारा िेता है। सािक की सािना में तमोगणु अवरोि का काम करता है। इसलिए
सािक को सतकत रहना चालहए लक उसके शरीर में तमोगणु की मात्रा िढ़ने न पाये। यलद शरीर में तमोगणु
का प्रभाव अलिक होगा तो सािक का स्वभाव तामलसक हो जाएगा, जिलक सािक को सालत्वक स्वभाव
वािा िनना है। इसलिए सालत्वक भोजन पर सािक को अलिक ध्यान देना चालहए। सािक को दिू , दही,
चावि, हरी सलब्जयाूँ आलद का प्रयोग ज्यादा करना चालहए। सािक ििों का प्रयोग अपने भोजन में कर
सकता है तो और अच्छी िात है। सािक को तेज चटपटे, तिे हुए पदाथत, िासा भोजन, स्वालदष् भोजन
लजसमें मसािे का प्रयोग लकया गया हो, माूँस, िहसुन, प्याज आलद तामलसक भोजन से िचना चालहए।
सािक को यह भी ध्यान देना चालहए लक भोजन िनाने वािा कै सा है, क्योंलक भोजन िनाने वािे
का लजस प्रकार का स्वभाव होगा, उसका असर भोजन पर पड़ता है। मनष्ु य के शरीर के विय के कण भोजन
पर पड़ते हैं। मनष्ु य के आूँखों से तेज के रूप में उसकी इच्छाएूँ लनकिा करती हैं, वे भोजन को प्रभालवत
करें गी। भोजन िनाने वािे के कमातशयों का प्रभाव भोजन पर पड़ेगा। यह सि प्रभाव सक्ष्ू म रूप से पड़ता है।
यलद भोजन िनाने वािा क्रोिी, ईष्यातिु और झगड़ािू स्वभाव का है तथा पाप यक्त ु कमत करने वािा है तो
उसका प्रभाव भोजन पर अवश्य पड़ेगा। उस भोजन को जि सािक खायेगा तो िनाने वािों के लवचार
भोजन िारा सािक के अंदर प्रवेश कर जाते हैं। इससे सािक के अंदर वैसे ही लवचार उत्पन्न होंगे क्योंलक
अन्न के सक्ष्ू म भाग से प्राण प्रभालवत होता है, तथा प्राण का प्रभाव मन पर भी पड़ता है। इससे प्राण व मन
दलू षत होंगे। इसीलिए कहते हैं लक जैसा अन्न खाएूँगे वैसा मन िनेगा या लवचार आएूँगे। इसलिए भोजन
िनाने वािा भी सालत्वक लवचार का होना चालहए। सिसे अच्छा तो यह है लक सािक अपना भोजन स्वयं

सहज ध्यान योग 44


िनाये तो इससे अच्छी िात और क्या हो सकती है। भोजन िनाते समय ईश्वर का लचतं न करना चालहए
अथवा मत्रं ोच्चारण करना चालहए। इससे सािक को सािना में सहायता लमिेगी। सािक से यलद हो सके तो
िाजार के िने लकसी भी प्रकार के भोजन से िचना चालहए। िाजार की िनी हुई वस्तएु ूँ परू ी तरह से अशि

होती हैं। सािनाकाि में भोजन िहुत ज्यादा मात्रा में नहीं करना चालहए अथवा लिल्कुि कम भी नहीं करना
चालहए, नहीं तो शरीर कमजोर पड़ जाएगा। कमजोर शरीर से ध्यान में अवरोि आता है। शरीर का स्वस्थ
होना जरूरी है क्योंलक शरीर के माध्यम से ही सािना होती है।

सहज ध्यान योग 45


दान
दान शब्द की िात याद आते ही िड़े-िड़े दानवीरों की याद आ जाती है। ऐसे दालनयों की लजतनी
भी प्रशंसा की जाए या गणु गान लकया जाए, उतना कम है। ऐसे महापरुु षों ने दान देते समय सि कुछ दान दे
लदया, अपने पास कुछ भी नहीं रखा है। यहाूँ तक लक अपने आपको भी दान दे लदया। राजा िलि ने आलदकाि
में भगवान वामन जी को सि कुछ दान दे लदया था। यहाूँ तक लक िाद में अपने को भी दान में दे लदया था।
दिीलच ने देवताओ ं के कायत हेतु अपने शरीर नष् कर अपनी हलड्डयाूँ दान में दे दी थीं। भगवान परशुराम जी
ने पृर्थवी को जीतकर 21 िार ब्राह्मणों को दान में दे दी थी; स्वयं आप एक पवतत पर रहते थे। राजा हररश्चंर
के लवषय में सभी जानते हैं। कणत के लिना महाभारत अिरू ा है। उसने भी सि कुछ दान में दे लदया था,
इसीलिए उसके नाम के आगे दानवीर कणत िगता है। कहने का अथत यह है लक दान एक ऐसी चीज है
लजसकी िरािरी अन्य लकसी चीज से नहीं की जा सकती है। यह शि ु परोपकार है। दान अपने-पराये को
नहीं देखता है। दानी परुु ष के लिए अपना-पराया दोनों समान हैं, भेदभाव से रलहत है। ऐसे महान परुु ष अपने
लिए नहीं, िलल्क दसू रों के लिए जीते हैं। अपनी जरूरत की चीजें, इच्छा से रलहत होकर, दसू रों (याचक
को) को प्रेमपवू तक दे देते हैं। लजस परुु ष ने लिना स्वाथत के दान लदया है, वह परुु ष महापरुु ष कहिाता है। ऐसा
परुु ष ईश्वर का सच्चा भक्त है।
सािक को अपनी यथाशलक्त के अनसु ार अवश्य दान देना चालहए। दान उसी को देना चालहए जो
दान के योग्य हो। दान देते समय लकसी प्रकार के स्वाथत की इच्छा नहीं रखनी चालहए। दान देने से पण्ु य िढ़ता
है, मन में लवशािता आती है, अंत:करण शि ु होता है। यलद देने के योग्य व्यलक्त है तो चिकर दान देना
चालहए। यलद दान िेने वािा आपके दान से तृप्त हो गया है तो अवश्य अदृश्य रूप में आपको आशीवातद
लमिेगा। दान का अथत यह नहीं है लक दान िेने वािे को लनमनभाव से देखें, स्वाथत अथवा लतरस्कार की
भावना हो। इस प्रकार का दान लिल्कुि उलचत नहीं है। दान का अथत यह भी नहीं है लक ज्यादा मात्रा में दान
लदया जाए, तभी दान हुआ। दान की ति ु ना लकसी दसू रे दानी िारा नहीं की जानी चालहए। यलद गरीि व्यलक्त
एक रुपये का दान देता है तो वह लकसी िनी व्यलक्त िारा लदये 100 रु. से ज्यादा मल्ू य रखता है क्योंलक
गरीि व्यलक्त के पास उसकी हैलसयत के अनसु ार एक रुपये का मल्ू य िहुत है। जिलक िनी व्यलक्त के पास
100 रुपये का कुछ भी मल्ू य नहीं होता। उस व्यलक्त के दान का मल्ू य अलिक है लजसने अपना पैसा अलिक
पररश्रम िारा कमाया है। उस दान का महत्त्व ज्यादा नहीं है लजसने दसू रों का शोषण करके पैसा कमाया है

सहज ध्यान योग 46


अथवा गित ढगं के कायों में लिप्त होकर पैसा कमाया है। दान में लसित रुपए या वस्तएु ूँ लदये जाएूँ, ऐसा नहीं
है। सािक या कोई भी परुु ष लवद्या का दान दे सकता है। अपनी योग्यतानसु ार लकसी को भी लनुःशल्ु क लशक्षा
दे सकता है। यलद ऐसे गरीि िच्चों को लनुःशल्ु क लशक्षा प्रदान की जाए जो लशक्षा शल्ु क नहीं दे सकते हैं,
तो और भी उिम है। िहुत से दानी व्यलक्त सामलू हक रूप से भोजन कराते हैं, कपड़ा दान करते हैं। यह िहुत
अच्छी िात है।
आजकि हमने देखा है लक ज्यादातर आश्रम व िालमतक संस्थान दान िारा ही चिाये जाते हैं। हमने
कुछ आश्रमों में देखा है लक वहाूँ उस लदये हुए दान के रूपये व वस्तओ
ु ं का गित ढंग से उपभोग लकया
जाता है। उन रुपयों को आश्रम के अलिकारी वगत अपनी सुलविाओ ं के लिए खचत करते हैं। आपस में पैसों
के लिए झगड़ते हैं, मकु दमेिाजी करते हैं। उस दान का सदपु योग न होकर दरुु पयोग होता है। इसलिए सािकों
दान देते समय इस िात का ध्यान रखना चालहए वे दान ऐसी संस्थाओ ं को दें जहाूँ उनके दान का सदपु योग
हो। लकसी अंि,े भख ू ,े अपालहज व्यलक्त को खाना दे लदया जाए तो अच्छा है। ऐसा दान कभी भी व्यथत नहीं
जाता है। इसलिए सािक को अपनी हैलसयत के अनुसार दान देना चालहए।

सहज ध्यान योग 47


परोपकार
परोपकार एक ऐसा शब्द है लक सािक क्या, हर एक व्यलक्त को अपने जीवन में शालमि कर िेना
चालहए। परोपकार हर व्यलक्त को करना चालहए। परोपकार एक आदशत है, लनुःस्वाथत कायत है। न मािमू कि
आपकी जरूरत इस समाज को या लकसी प्राणी को पड़ जाए। परोपकार के लिए सदैव तैयार रहना चालहए।
इसमें लकसी प्रकार का संकोच नहीं करना चालहए। ऐसा भी हो सकता है लक आपके परोपकार से लकसी की
जान िच जाए, लकसी का रुका कायत चि जाए, लकसी का कष् कम हो जाए आलद। अगर आप ध्यान दें तो
पाएूँगे सभी प्राणी अपने लिए जीते हैं, अपना-अपना जीवन-यापन करते हैं। मगर मनष्ु य एक ऐसा प्राणी है
जो परोपकार कर सकता है। वैसे आजकि ज्यादातर व्यलक्त स्वाथी होते हैं जो दसू रों का कायत स्वाथत के
लिए करते हैं। कुछ व्यलक्त तो दरू गामी स्वाथत सोचकर दसू रों का कायत करते हैं। मगर उस कायत को परोपकार
का नाम लदया जाता है। परोपकार में स्वाथत के लिए कोई जगह नहीं हैं। परोपकार तो लनुःस्वाथत भाव से
अपना-पराया छोड़कर लकया जाता है। परोपकार जालत व िमत से परे है। एक मनष्ु य दसू रे मनष्ु य के जरूरत
के समय काम आये, इससे िड़ा उपकार और क्या हो सकता है। परोपकार लसित मनष्ु य के साथ नहीं लकया
जाता है, अन्य प्रालणयों के साथ भी लकया जा सकता है। परोपकारी व्यलक्त को हर व्यलक्त में व अन्य प्रालणयों
में ईश्वर का रूप लदखायी पड़ता है, इसीलिए लिना भेदभाव के सभी की सेवा करने को तैयार रहता है।
एक िात ध्यान देने योग्य है, यलद आपने लकसी के साथ परोपकार लकया या सेवा की है, उसके िदिे
में आप उस व्यलक्त से सेवा की इच्छा न रलखए। अथवा आपकी जरूरत पर वह व्यलक्त आपके काम में न
आया तो आपको क्रोि आ गया लक मैंने इसका उपकार लकया था, अि यह हमारे काम में नहीं आया
अथवा इसने अमक ु छोटा-सा कायत नहीं लकया। ऐसी अवस्था में आप समलझए लक आपने परोपकार नहीं
लकया है, िलल्क आपने उसके साथ स्वाथत के लिए कायत लकया है, इसीलिए आपको क्रोि आ गया। क्योंलक
स्वाथत परू ा न होने पर क्रोि आता है। क्रोि आने पर िुलि सही रूप से कायत नहीं कर पाती है, इसलिए वह
गित लनणतय कर िेता है। परोपकार ईश्वर की भलक्त है, ईश्वर की ओर जाने का मागत है। ईश्वर के कायत में स्वाथत
नहीं होता और स्वाथी को कभी ईश्वर नहीं लमि सकता है। जो व्यलक्त अपना जीवन परोपकार में लिताता है,
वह ईश्वर का सच्चा भक्त है। उसने मानव रूप में व अन्य प्रालणयों के रूप में ईश्वर को पहचान लिया है। अपने
समाज में जो व्यलक्त कुष्ठ रोगी हैं, अंिे हैं, अपालहज व लवकिांग हैं, उन्हें हमारी व आपकी जरूरत है। हमें
इनकी सेवा के लिए तैयार रहना चालहए। इस िात का अहक ं ार लिल्कुि नहीं िाना चालहए लक मैं इस व्यलक्त

सहज ध्यान योग 48


की सेवा कर रहा ह,ूँ िलल्क इन व्यलक्तयों का हालदतक अलभनदं न करना चालहए, इन्हें िन्यवाद देना चालहए
क्योंलक इन्हीं व्यलक्तयों ने हमें ईश्वर का कायत करने के लिए ऐसा सपु ात्र िनने का अवसर प्रदान लकया है। हमें
कभी भी अिं ,े लवकिागं ों व कुष्ठ रोलगयों और अत्यन्त वृिों को हीन भावना से नहीं देखना चालहए, िलल्क
ऐसा समझना चालहए लक ये व्यलक्त हमारे लिए एक कसौटी की तरह हैं लक हम लनुःस्वाथत भाव से, मानवता
की दृलष् से अपने आपको कसौटी पर उतार पाते हैं या नहीं। इनको हमारी जरूरत है।
सािक या ईश्वर भक्त अपने आपको परोपकार में अवश्य िगाएूँ। यलद परोपकार की लशक्षा िेनी है
तो मदर टेरेसा के जीवन से लशक्षा िो लजन्होंने अपना सारा से जीवन परोपकार में लिता लदया, भारत में
िगभग 50 वषत तक लनुःस्वाथत परोपकार लकया। आज वह भारत ही नहीं, संपूणत लवश्व के लिए आदशत है।
यलद आप दसू रों की सेवा करें गे तो आपकी सेवा होगी। सािक के लिए अंतुःकरण शि ु करने के लिए िहुत
अच्छा तरीका परोपकार है। इससे अंतुःकरण शि ु व लनमति िनता है।

सहज ध्यान योग 49


इच्छाएूँ
आजकि सभी मनष्ु य लकसी न लकसी प्रकार की इच्छाओ ं से ग्रलसत रहते हैं। ये इच्छाएूँ हर मनष्ु य
की अपनी-अपनी अिग-अिग तरह की होती हैं। इसका कारण है लक मनष्ु य की इलन्रयाूँ िलहमतख ु ी होती
हैं। िलहमतख
ु ता के कारण इलन्रयाूँ चंचि होकर स्थि ू संसार में लिप्त रहती हैं। इस पररवततनशीि संसार में
सख ु कहाूँ है, लसित दुःु ख ही दुःु ख है। मनष्ु य इस पररवततनशीि क्षणभंगुर संसार का असिी स्वरूप अज्ञानता
के कारण पहचान नहीं पाता है। इसी कारण वह इस संसार को अपना समझता है। क्षलणक सख ु भोगने के
लिए सांसाररक वस्तओ ु ं में लिप्त रहता है। इलन्रयों के परािीन हो मनष्ु य सख ु के चक्कर में दुःु ख ही दुःु ख
उठाता है। वह सोचता है लक अमक ु प्रकार का सख ु प्राप्त कर मैं तृप्त हो जाऊूँगा। इसी तृलप्त के चक्कर में वह
लदन-दगु ना रात-चौगुना िगा रहता है मगर तृलप्त नहीं होती है। जैसे-जैसे इच्छाएूँ िढ़ेंगी वैसे-वैसे तृष्णा िढ़ेगी।
लकसी इच्छा की पलू तत हो जाने पर तृष्णा कम नहीं होती है, िलल्क तृष्णा को िढ़ावा लमिता है। यलद जिती
हुई िकलड़यों में आप घी डाि दें तो आग िझु नहीं जाती है, िलल्क और भड़कती है। इसी प्रकार इच्छाओ ं
की पलू तत पर इच्छा और िढ़ती है। लजतनी इच्छाएूँ ज्यादा चिेंगी, उतना ही उस वस्तु पर मोह अलिक हो
जाएगा। मोह को दरू करने के लिए उसे अपनी तृष्णा पर अलिकार करना होगा। तृष्णा पर अलिकार करने के
लिए इच्छाओ ं का दमन करना होगा। इच्छाओ ं को दमन करने के लिए उसे अपनी इलन्रयों पर लनयत्रं ण करना
होगा। इलन्रयों पर अलिकार तभी हो सकता है जि इलन्रयों को अतं मतख ु ी लकया जाए। इलन्रयों के अतं मतख ु ी
होने पर इच्छाएूँ कम हो जाएूँगी। मगर इसके लिए योग का सहारा िेना पड़ेगा।
मनष्ु य सयू त की ओर मूँहु करके सयू त की ओर िढ़े तो परछाई उसके पीछे -पीछे चिेगी। यलद मनष्ु य
सयू त की ओर पीठ करके लवपरीत लदशा में चिेगा तो उसकी परछाई उसके आगे-आगे चिेगी। इसी प्रकार
मनष्ु य जि योग मागत पर या ईश्वर प्रालप्त के पथ पर चिता है तो इलन्रयाूँ िलहमतख
ु ता और चंचिता को छोड़कर
अंतमतख ु ी व शांत हो जाती हैं। जि मनष्ु य ईश्वर से लवमख
ु होकर सांसाररक सख ु की प्रालप्त के चक्कर में पड़
जाता है तो इलन्रयों की चंचिता के कारण इच्छाओ ं व मोह में डूि जाता है। लिर यही इलन्रयाूँ मनष्ु य का
जीवन ििातद कर डािती हैं क्योंलक मनष्ु य इलन्रयों के वशीभतू होकर पथभ्रष् हो जाता है। कभी-कभी इलन्रयों
की दासता के कारण िहुत गित कायत करने के लिए लक्रयाशीि हो जाता है लजससे समाज में तो घृणा का
पात्र िनता ही है, साथ ही पाप-यक्त ु कमत करने के कारण नरकगामी भी हो जाता है। इन्हीं इच्छाओ ं के कारण
मनष्ु य का िहुमल्ू य जीवन मल्ू यहीन िनकर पतन का रास्ता तय करने िगता है। िहुत से मनष्ु य कहते हैं लक

सहज ध्यान योग 50


हमारी अमक ु आदत छूटती ही नहीं है, अथवा अन्य इच्छा के अिीन हूँ जो शायद इस ल दं गी में न छूटे।
जो मनष्ु य यह कहता है लक हमारी अमक ु आदत नहीं छूटती है जिलक आदत का पररणाम िरु ा है, इससे
मािमू पड़ता है लक उसकी इच्छाशलक्त िहुत ही कमजोर है। उसे अपनी इच्छा-शलक्त में दृढ़ता िानी होगी।
साथ ही सक ं ल्प करना होगा लक हमें अमक
ु वस्तु ग्रहण नहीं करनी है अथवा अमक
ु कायत नहीं करना है, तो
अवश्य उस पर असर पड़ेगा। यहाूँ पर थोड़ा हठ का भी प्रयोग करना चालहए, ति लकसी कायत में कामयािी
लमिनी शरू ु हो जाएगी। चाहे नशीिे पदाथत छोड़ने हों अथवा असामालजक कायत छोड़ने हों, सििता
अवश्य लमिेगी। यह सििता एकदम से समझ नहीं आती है, मगर िीरे -िीरे महससू होती है।
सािक को सिसे पहिे अपने लवषय में यह जानकारी करनी चालहए की उसकी कौन सी इलन्रय
चंचि है लजसका वह वशीभतू है, लिर शांत होकर उस इलन्रय को समझाये, क्यों हमारा पतन कर रही हो;
अि ऐसा कायत करो लजससे हमारा उत्थान हो जाए। ऐसा कई िार आप कीलजये। लिल्कुि एकांत में गंभीर
होकर समझाइए। आपको कुछ समय िाद िगेगा लक आप लजस इलन्रय को समझा रहे हैं, उसका समथतन
आपको अन्तुःकरण से भी लमि रहा है। यलद आप सच्चे भाव से उस कायत को छोड़ना चाहते हैं तो आपको
अंदर से सहायता अवश्य लमिेगी। लिर भी यलद उस कायत को छोड़ने में आपको अवरोि आ रहा है तो उसी
समय आपको हठ का प्रयोग करना चालहए। यलद आप लजह्वा के वशीभतू हैं तो आपकी लजह्वा हमेशा स्वालदष्
भोजन अथवा नाना प्रकार के अच्छे -अच्छे व्यञ्जन के लिए व्याकुि रहती होगी। आप उसी समय पलू तत
करने का प्रयास करते होंगे। यलद पास में पैसे नहीं हैं तो दसू रों से उिार माूँग िेते होंगे। लजह्वा के अिीन जो
ठहरे ! लकसी-लकसी की आदत पड़ जाती है दसू रों की िरु ाई करने की, उल्टे-सीिे शब्द िोिने की, क्योंलक
उन्होंने लजह्वा पे िगाम नहीं िगा रखी है। वह िेिगाम घोड़े की तरह भागती रहती है यालन िोिती रहती है।
इससे स्थि ू व स्थि ू से परे दोनों जगह हालन उठानी पड़ती है। इसलिए हमें अपनी लजह्वा को समझाना चालहए
व लवकलसत करना चालहए लक स्वालदष् भोजन की ओर न भागे, दसू रों को गित शब्द न िोिें, िलल्क
आदरयक्त ु िोिे व ईश्वर का गणु गान करे । इसी प्रकार इलन्रयों को समझाएूँ। इससे इच्छाएूँ कम हो जाएूँगी।
हाूँ, लजतनी आसानी से हमने लिख लदया और आपने पढ़ भी लिया लक हमें अपनी इलन्रयों को अतं मतख ु ी
िनाना चालहए और अच्छे कायों के लिए प्रेररत करना चालहए, यह कायत इतना आसान नहीं है। यह कायत
शीघ्र ही नहीं हो जाएगा। मगर दृढ़-लनश्चयी व लववेकी मनष्ु य इस कायत के लिए प्रयत्नशीि रहते हैं। उन्हें
लवश्वास होता है लक एक-न-एक लदन अवश्य सििता लमिेगी।

सहज ध्यान योग 51


मनष्ु य को जन्म-मृत्यु से छुटकारा न लमिने का कारण उसकी इच्छाएूँ ही हैं। क्योंलक वह जीवन भर
इच्छाओ ं की पलू तत के लिए प्रयासरत रहता है और इच्छाओ ं से ग्रलसत रहता है। मृत्यु के समय भी इच्छा नहीं
छूटती है। इन्हीं अतृप्त इच्छाओ ं के कारण मनष्ु य मृत्यु के पश्चात भी सक्ष्ू म शरीर िारण लकए यहीं भटकता
रहता है। सक्ष्ू म शरीर लकसी प्रकार का कायत करके तृप्त नहीं हो सकता है। उसके िारा लकसी प्रकार का कायत
सभं व नहीं है। इसलिए उसे क्िेश होता है। जि तक कोई योगी या भक्त उसको इलच्छत सामग्री ग्रहण न
कराये, ति तक वह उसे ग्रहण नहीं कर सकता है। इसलिए उसकी इच्छापलू तत नहीं हो पाती है। ऐसी अतृप्त
जीवात्माएूँ घोर कष् महससू करती हैं। कुछ समय िाद वे हताश हो जाती हैं और ऊध्वतगमन कर जाती हैं,
क्योंलक उनकी वासना परू ी होती नहीं लदखायी पड़ती है। ऊध्वत िोक में कमातनसु ार यातनाएूँ सहती हैं और
लिर इच्छाओ ं के कारण जन्म िेना पड़ता है।

सहज ध्यान योग 52


वनदिं ा
सािकों, िड़ा मलु श्कि कायत है लकसी के िारा लनंदा सनु ना। कौन ऐसा व्यलक्त है जो लनंदा सनु ेगा
अथवा लनंदा सुनने के लिए तैयार रहेगा? इससे उसके स्वालभमान को ठे स पहुचूँ ती है। कौन है जो अपने
स्वालभमान को ठे स पहुचूँ ाएगा, क्योंलक स्वालभमान को ठे स िगते ही अहक ं ार उिाि मारता है– हम क्या
उससे कम हैं। यलद लकसी व्यलक्त ने थोड़ी सी लनंदा कर दी तो जवाि में उसे भरे समाज में खरी-खोटी सुना
कर आते हैं तथा लनंदक को ढेरों कलमयाूँ व आरोप सुनाकर आते हैं। ऐसे लवचार सभी व्यलक्तयों में आते हैं।
यलद लकसी ने थोड़ी सी लनंदा कर दी तो िड़ी भारी िेइज्जती महससू होती है। वे समझते हैं लक हमारे पूवतजों
के शान के डंके िजते रहे हैं। ज्यादातर व्यलक्त झठू ी शान के लिए पता नहीं क्या-क्या करते हैं। एक झठू को
सच करने के लिए सौ झठू िोिते हैं। कारण यह होता है लक झठू ी शान पर कहीं िब्िा ना िग जाए। समाज
उसे शानदार व इज्जतदार व्यलक्त कहे, उसकी तारीि करे , उसकी हाूँ-में-हाूँ लमिाये, ऐसा सोचा करते हैं।
ऐसे व्यलक्तयों को न तो सच कहने की आदत होती है, न सत्य सनु ने की लहममत ही होती है। यलद लकसी
व्यलक्त ने उसकी खोखिी शान के लवषय में सत्य कह लदया तो उसकी आित समझो, क्योंलक समाज में
उसकी किई खि ु जाती है। इस कारण वह अपनी िेइज्जती महससू करता है। अपनी िेइज्जती का िदिा
िेने के लिए मािमू नहीं क्या-क्या करने को तैयार रहता है। इस िदिे का लनष्कषत कुछ भी लनकिे, मगर
िदिे के लिए तैयार हो जाता है। यलद िदिा ना िे पाया तो मानलसक रूप से परे शान हो जाता है। ऐसा लसित
इसलिए होता है क्योंलक सत्य को सनु ने की लहममत नहीं है। सच पछ ू ो तो िरु ा ही क्या कर लदया, यलद लकसी
के िारे में लकसी ने सत्य कह लदया।
सािारण मनष्ु य तो एक दसू रे की लनंदा करते ही हैं, लकन्तु मैंने देखा है लक एक सािक स्वयं दसू रे
सािक की लनंदा करता है। सािक को दसू रे की लनंदा नहीं करनी चालहए। लनंदा करने से पाप का भागीदार
होता है। लकसी सािक को क्या अलिकार है दसू रे की लनंदा करने का। लकसी को अलिकार नहीं है कोई व्यलक्त
दसू रे की लनंदा करे । लिर भी यलद कोई लनंदा करता है तो वह स्वयं लजममेदार होगा, उसका िि उसे स्वयं
भोगना होगा। सािक के लिए लनंदा करना अत्यन्त वलजतत कायत है। इससे स्वयं सािक का मूँहु गंदा होता है।
यलद लकसी स्थान पर लनंदा हो रही हो तो सािक को उतने समय के लिए वह स्थान छोड़ देना चालहए। यलद
हम गहराई में जाएूँ तो पाएूँगे लक वह स्थान दलू षत हो जाता है। यह िात सािक को ध्यान में रखनी चालहए।
लजस व्यलक्त की लनदं ा करने की आदत हो, उससे ज्यादा सपं कत नहीं रखना चालहए। सािक को चालहए लक

सहज ध्यान योग 53


वह अपनी लनदं ा सनु िे। लनंदा सनु कर लकसी प्रकार से लवचलित न हो, दख ु ी ना हो, क्योंलक लनदं ा सनु ने से
पाप का नाश होता है। जो सािक लनदं ा सनु िेगा, उसके अदं र सहनशीिता िढ़ेगी, साथ में अतं मतख ु ी भी
िनेगा। सच तो यह है लक पहिी िार लनदं ा सनु ने में सािक को अदं र से िड़ी तकिीि महससू होगी, क्योंलक
उसे लनदं ा सनु ने की पहिे से आदत नहीं होती है। अदं र से िेचैनी महससू होती है। सोचता है, मैंने इसका
क्या लिगाड़ा है जो हमारी लनदं ा कर रहा है। िेलकन िीरे -िीरे आदत डािने पर आदत पड़ जाएगी। लिर लनदं ा
सनु ने में तकिीि नहीं होगी। यलद हम गौरपवू तक सोचें, तो समझ में आ जाएगा लक लनदं ा करने वािे से हमें
िड़ा िाभ है। क्योंलक लनदं ा करने वािा हमारी कलमयाूँ िताएगा। मनष्ु य को या सािक को अपनी कलमयाूँ
परू ी तरह से समझ में नहीं आती हैं। मगर उसके अदं र क्या-क्या कलमयाूँ हैं, यह कायत लनदं क हि कर देता है।
वह आपके अंदर की कलमयाूँ िाहर लनकािता रहेगा। लिर आप लनंदक िारा िताई गयी कलमयों पर गौर
कीलजये। उन कलमयों को दरू करने का प्रयास कीलजये। इस प्रकार सािक की सारी कलमयाूँ दरू हो जाएूँगी।
आप एक अच्छे सािक िन जाएूँगे। देखा, लनंदक से लकतना िड़ा िायदा है। एक लववेकहीन व्यलक्त लनंदा
सनु ने पर झगड़ा कर िैठता है। लिर आपस में दश्ु मनी हो जाती है। इससे नुकसान भी हो सकता है। मगर
सािक या िुलिमान परुु ष अपनी िलु ि का प्रयोग करके लनंदक की लनंदा से िायदा उठाते हैं।
सािक को सोचना चालहए हम पर ईश्वर की िड़ी कृ पा हुई है। उसने हमारे पास एक ऐसा व्यलक्त भेज
लदया जो हमारे अदं र छुपी कलमयों को लनकािने के लिए सहायता दे रहा है। हमारा सिु ार करने में सहायक
है। यह हमारा लनदं क नहीं, िलल्क सिु ारक है। सािक को लनदं क के प्रलत ईश्वर से प्राथतना करनी चालहए लक
‘इस पर आप कृ पा करो, इसका कल्याण करो। इसने हमें अच्छा िनाने में सहायता की है’। लजस प्रकार
डॉक्टर मरीज का िख ु ार जाूँचने के लिए थमातमीटर िगाता है, उसी के अनसु ार लिर दवा देता है या इजं ेक्शन
िगाता है, तालक िख ु ार उतर जाए और मरीज ठीक हो जाए; ठीक इसी प्रकार लनदं क भी सािक की गहराई
को नापता है। इससे सािक की सहनशीिता का, क्रोि का व िैयत का पता चि जाता है लक सािक लकतना
सहनशीि है। लनदं ा कर सािक के सारे दोष लनकाि देता है, लजससे सािक दोषरलहत हो जाता है।
लनदं ा सनु ने का िि सािक को तभी लमिेगा जि वह आंतररक रूप से उसकी लनंदा सहन कर िे।
लनंदा सनु ने के कारण सािक के अंदर लकसी प्रकार का लवकार न आए। क्योंलक लनंदा को ग्रहण करने के कई
तरीके हैं:-

सहज ध्यान योग 54


1. लनदं ा करने वािा अगर आपसे शरीर में हृष्-पष्ु है, वह आपसे शारीररक शलक्त में िहुत ज्यादा है, स्वभाव
से क्रूर भी है, िड़ाई-झगड़ा करने वािा है, तो आपके अदं र लवचार आ सकता है लक यह हमारी िेइज्जती
सिके सामने कर रहा है। ठीक है, यह हमारी मजिरू ी है अभी हम उसके िारा लनंदा सनु िें, क्योंलक अभी
हम इससे झगड़ा करके इसका कुछ नहीं लिगाड़ सकते हैं। आज नहीं तो कि हम इसे देख िेंगे जि हमारे
और दोस्त या शभु लचतं क हमारे साथ होंगे। क्योंलक उस समय इसे हर तरह का जवाि दे सकते हैं। और मन
ही मन में ढेरों गालियाूँ देने िगते हैं। क्योंलक उस समय आप उससे लनिति हैं। आप लनदं क का कुछ नहीं
लिगड़ सकते हैं। इसलिए लनदं ा सनु िी। मगर यह लनदं ा सनु ना नहीं हुआ। आप भी तो अपने मन के अदं र
उस लनदं क की लनदं ा कर रहे हैं या िदिा िेने की सोच रहे हैं। यलद उस समय लनदं क आपके िरािरी का
होता तो आप झगड़ा करने को तैयार हो जाते। क्योंलक आपके अंदर की भावनाएूँ यही कह रही हैं। यलद उस
समय लनंदक आपसे कमजोर होता तो अवश्य झगड़ जाते, क्योंलक आपको मािमू है लक वह आपसे शरीर
में कमजोर है।
2. यलद आपकी लनंदा करने वािा आपके समकक्ष कमजोर है तो आप सोच सकते हैं, क्या िताऊूँ सारा
समाज हमें सािक या भक्त समझता है। यलद मैं लनंदक को जवाि दगंू ा तो सभी व्यलक्त या समाज कहेगा,
लनंदा करने वािा वैसे भी िेकार व्यलक्त है, उससे आप क्यों वातातिाप कर रहे हैं। आप तो एक अच्छे सािक
हैं, ईश्वर के भक्त हैं, आपको लनदं ा सनु िेनी चालहए। सािक को लनदं ा से क्या िेना-देना है, सािक को तो
सभी िोग वैसे भी िरु ा-भिा कहते हैं। यह लनदं ा सनु ना नहीं हुआ। क्योंलक आपके अदं र लवचार आ रहा है
लक मेरी मजिरू ी है क्योंलक मैं सािक ह,ूँ इसलिए सनु रहा ह।ूँ यहाूँ पर लनदं ा सनु ने में लवरोिाभास है, यह
आपका मन जालहर कर रहा है।
3. आपकी लनंदा आपसे िहुत कमजोर व्यलक्त कर रहा है, जो आपकी लकसी प्रकार की िरािरी नहीं कर
सकता है। लिर भी आप उसके िारा की हुई लनंदा िड़े आराम से सनु रहे हैं, आपके अंदर लकसी प्रकार का
लवकार नहीं आया। सही या झठू ी लनंदा सुनते क्रोि जरा-भी नहीं आया, िलल्क आप उस समय उस पर तरस
खा रहे हैं, अज्ञानी समझकर माि कर रहे है। इसी को लनंदा सुनना कहते हैं, क्योंलक आपके अंदर लकसी
प्रकार का लवकार नहीं आया। अि आप अपने को अच्छा सािक समझ सकते हैं। अपने से शलक्तशािी
परुु ष िारा लनंदा सनु कर व्यलक्त मजिरू ी में चपु रह जाते हैं क्योंलक आप उसका कुछ लिगाड़ नहीं सकते हैं,

सहज ध्यान योग 55


लिर भी आपके मन में लनदं क के प्रलत ईष्यात की भावना पनपती है। मन-ही-मन आप िेष करने िगते हैं।
सािक को लकसी से िेष नहीं करना चालहए, क्योंलक इससे सािक को ही हालन पहुचूँ ती है। आपको आदत
िदिनी चालहए, जि आपकी लनदं ा आपसे लनिति व्यलक्त कर रहा हो, लिर भी शातं भाव से सनु िें, आप
पर लकसी प्रकार का असर न पड़े, तो लनदं ा सनु ने का िि अवश्य लमिेगा। मगर सािारण व्यलक्त लनदं ा सहन
नहीं कर पाता है। इसलिए लनदं ा होना, ईष्यात या दश्ु मनी में िदि जाता है। मनष्ु य अपनी िड़ाई सनु ना पसदं
करता है। यलद लकसी ने झठू की अलतशयोलक्त करके तारीि कर दी तो वह अपने आपको एक अच्छा योग्य
व्यलक्त समझने िगता है, लजससे वह स्वयं भ्रलमत हो जाता है। इसलिए सािक को लनदं ा सनु िेनी चालहए,
अपनी प्रशसं ा सुनने की इच्छा नहीं करनी चालहए।

सहज ध्यान योग 56


नारी
नारी शब्द जैसे ही होंठों पर आता है, तो सारे लवश्व का ध्यान भारतीय नारी की ओर आ जाता है।
आज भी सारे लवश्व में भारतीय नाररयाूँ आदशत का प्रतीक िनी हुई हैं क्योंलक वह आज भी सिसे परु ाने
सनातन िमत के अनसु ार गृहस्थ व सारी लजममेदाररयों को लनभाती आ रही हैं। इसीलिए पलश्चमी देशों के िड़े-
िड़े दाशतलनक भारतीय नाररयों को श्रिा भाव से देखते हैं। उनका कहना है, “भारतीय शादी का मतिि है
दो आत्माओ ं का लमिन”। भारतीय नारी अपने पलत के साथ सारा जीवन अपने पलत की सेवा करते ही
गु ार देती है, चाहे उसके पलत में ढेरों त्रलु टयाूँ क्यों न हों। भारतीय नारी पलत की सेवा को ही अपना िमत
मानती है। यलद हम प्राचीन काि की ओर देखें तो पाएूँगे लक नारी ने अपनी योग्यता से अलत उच्च स्थान
प्राप्त लकया है। कभी कभी इन नाररयों के सामने देवता, ऋलष और मलु न भी िीके पड़ गये थे। आज भारत
देश ऐसी नाररयों पर गवत करता है। उन्हीं के िारा ितायी गयी लशक्षाओ ं पर भारतीय नारी को अनसु रण करना
चालहए, तालक उनका दजात एक आदशत नारी के समान िरकरार रहे। हर नारी को समाज में अपने जीवन
काि में कई तरह के ि त लनभाने पड़ते हैं। सभी अिग-अिग रूपों में, जैसे िेटी, िहन, पत्नी व माूँ। जि
वह माूँ के रूप में अपना कततव्य करती है तो उसका पत्रु अपनी माूँ का ऋणी होता है। पत्रु अपनी माूँ का ऋण
सारे जीवन में, माूँ की सेवा के िाद भी नहीं उतार पाता है। माूँ की ममता के आगे सभी ररश्ते िीके पड़ जाते
हैं। यलद आज की नारी को देखें तो पाएूँगे उसकी लकतनी ददु श त ा की गयी है। नारी का शोषण लकया जाता है,
जिायी जाती है, दहेज के कारण उसे कष् लदया जाता है। नाररयों के साथ इस समाज ने ढेरों जल्ु म ढाये है,
आलखर क्यों? जो नारी आदशत का प्रतीक थी, उसका इतना पतन कै से? सच तो यह है लक नारी, नारी का
शोषण करती है। इन सि जल्ु मों के लिए स्वयं नारी और उसकी अज्ञानता लजममेदार है। हमारा मतिि यह
नहीं है लक ऐसे कायों में परुु ष की भूलमका नहीं है। िेलकन यलद नारी इन कायों में लिप्त न हो, िलल्क लवरोि
करे तो इस प्रकार के कायत नहीं हो सकते हैं। यलद हम उदाहरण दें तो पाएूँगे लक नारी ही नारी को कष् देती
है। जि िेटे की शादी होकर िह घर में आती है तो उसकी सास और ननद ही दहेज का ताना देती हैं, ढेरों
प्रकार के कष् देती हैं। दहेज के कारण िह की हत्या तक कर दी जाती है अथवा िहुत समय तक िह को
कष् झेिने पड़ते हैं। यही िह जि भलवष्य में सास िनती है, तो वह भी अपने िह के साथ वैसा ही सिक ू
करती है जैसा उसकी सास ने पहिे उसके साथ लकया था। वह क्यों भि ू जाती है लक मैं भी कभी िह थी।
यही कारण है लक घर में किह होती रहती है। सास क्यों नहीं सोचती है लक हमारी िह भी लकसी की िेटी

सहज ध्यान योग 57


है। अपने िेटे से प्यार करती है, लिर िह से ऐसा सिकू क्यों लकया जाता है? जि आपकी िेटी िह िनकर
जाती है तो उसके ससरु ाि वािे भी वही सिक ू करते हैं, जैसा आप अपनी िह के साथ करती हैं। लिर िरु ा
क्यों िगता है लक तमु हारी िेटी के साथ ससरु ाि वािे गित व्यवहार करते हैं।
जि लकसी के घर में पत्रु जन्म िेता है तो खलु शयाूँ मनायी जाती हैं। यलद पत्रु ी ने जन्म िे लिया तो
परू ा पररवार द:ु खी हो जाता है। वे लस्त्रयाूँ भूि जाती हैं उनके जन्म के समय भी यही हाित थी, उस समय
उन्हें भी घर में उपेक्षा लमिी थी। इस समिन्ि में लसित अपना दृलष्कोण िदिने की जरूरत है। यलद हमारे घर
में लकसी पत्रु ी ने जन्म लिया है तो उसी हषत व उल्िास के साथ उसका स्वागत करना चालहए, लजस हषत और
उल्िास से पत्रु का स्वागत करते हैं। जि तक सामलू हक रूप से हम सि अपना दृलष्कोण नहीं िदिेंगे, लकसी
भी पररवार में अच्छी िह नहीं आ सकती है।
नारी चाहे तो अपनी कायत कुशिता से, सहनशीिता व लववेक से गृहस्थी को स्वगत िना दे और
यही नारी चाहे तो स्वगत सी गृहस्थी को नरक िना दे। नारी लसित अपने घर को नहीं, िलल्क सारे देश को
िदिकर रख सकती है। नारी परुु ष को जैसा चाहे, वैसा िना दे। क्योंलक जि वह माूँ के रूप में होती है तो
वह अपने िच्चे की पहिी गरुु है। वह गरुु रूप उस िच्चे को जो िनाना चाहे वैसी ही लशक्षा दे, वैसे ही
संस्कार उस िच्चे में भरे तालक वही िच्चा कि यवु क िनकर राष्र का वैसा ही लनमातण करे क्योंलक माताओ ं
की छाप ही उस िच्चे पर पड़ती है। यही िच्चे समपणू त जीवन अपने माता िारा िताये गये आदशों पर चिते
हैं। इसी प्रकार नाररयाूँ चाहे तो समाज को िदिकर रख दें। िोग कहते हैं लक नारी अििा है। मैं नहीं कहता
हूँ लक नारी अििा है। मैं कहता हूँ लक नारी सवत-शलक्तमान है। परुु ष अपने को सामर्थयतवान कै से कहता है?
यही परुु ष उस नारी के कोख से जन्म िेता है, लजसे अििा कहता है। शैशव अवस्था में यही नारी पािन-
पोषण करती है, लजसे अििा कहता है। समझ में नहीं आता है लक परुु ष ने लकस क्षेत्र में नारी को अििा
समझ रखा है। यहाूँ तक लक नारी यि ु क्षेत्र में भी परुु षों से पीछे नहीं है। प्राचीन काि से िेकर आज तक
नाररयों ने परुु षों को परास्त लकया है। कािी, दगु ात, चंडी से िेकर रानी िक्ष्मीिाई तक ढेरों उदाहरण मौजदू
हैं। आज की नारी भी परुु ष से लकसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं। आज समपणू त लवश्व में हजारों नाररयाूँ सेना में
कायतरत हैं जो िड़ाई के मैदान में भी जाती हैं। नारी परुु ष से हर क्षेत्र में श्रेष्ठ है। परुु ष कभी भी नारी की िरािरी
नहीं कर सकता है। नारी शलक्त की प्रतीक है। हाूँ, यह िात सत्य है लक कुछ देशों में नारी को स्वतन्त्रता नहीं
है। इसलिए परुु ष अपना पिड़ा भारी रखता है। ऐसी नाररयों को जागरुक होना चालहए। उन्हें अपने अलस्तत्व

सहज ध्यान योग 58


को पहचानना चालहए। नारी में जि जागरुकता की भावना आ जाएगी तो परुु षों के साथ कदम-से-कदम
लमिाकर चि पड़ेगी। िलल्क परुु षों से भी ज्यादा कमतठ व सहनशीिता का पररचय लमिेगा। हाूँ, यह सच है
लक सहनशीिता में कभी भी परुु ष नारी की िरािरी नहीं कर पायेगा। क्योंलक कहीं पर वह िेटी, कहीं पर
पत्नी, कहीं पर माता और कहीं पर िहन िनकर आयी है। उसके ये स्वरूप एक से िढ़कर एक हैं। यह कह
पाना लिल्कुि असभं व है लक इसमें कौन-सा रूप सिसे अच्छा है। इसीलिए िलु िमान परुु षों ने नारी को
‘माया’ भी कहा है क्योंलक नारी हर रूप में खरी उतरी है। इसलिए यह समझ पाना असभं व है उसका असिी
रूप कौन-सा है।
ससं ार एक रंगमंच है। इस रंगमंच को प्रकृ लत ने ििीिे पहाड़, कहीं-कहीं हरे -भरे जंगिों से यक्तु
पहाड़, नलदयाूँ, जंगिों और समरु ों से सजाकर सौंदयतमय िना लदया है। इस रंगमंच का नायक परुु ष है और
नालयका स्त्री है। जो भी नाटक लकया जाता है उसमें नारी की भी भूलमका होता है। लिना नालयका के यह
रंगमंच सनू ा व िेकार है। नारी के लिना इस संसार का अलस्तत्व मल्ू यहीन है। अथातत नारी के लिना यहाूँ पर
नाटक नहीं खेिा जा सकता है। मनष्ु य ही नहीं ईश्वर भी नारी के लिना अिूरा है, चाहे भगवान शंकर हों,
चाहे भगवान लवष्णु हों, चाहे भगवान ब्रह्मा हों। परू े रूप में भगवान शंकर अितनारीश्वर कहिाते हैं।
लकसी-लकसी जगह पर नारी की लनंदा की गयी है। कहा जाता है ‘नारी नरक का िार है’। इसका
मतिि यह नहीं है लक उसे हम लनंलदत भाव से देखें, िलल्क इन शब्दों को अच्छी तरह से समझ िेना चालहए।
इसके दो अथत लनकिते हैं: 1. ब्रह्मचारी व सन्यालसयों के मन में नारी के प्रलत वैराग्य उत्पन्न करने के लिए
नारी को ऐसा कहा गया है, 2. उन दष्ु नाररयों की लनंदा की गयी है जो िमत और िज्जा को त्यागकर अिमत
के मागत पर चिती हैं। वास्तव में, नारी की नहीं, िलल्क उसके दगु तणु ों की लनंदा की गयी है। दरु ाचार में लिप्त
परुु ष हो या नारी हो, सभी लनंदा के पात्र हैं। पत्रु ी, िहन, पत्नी और माूँ सभी आदर की अलिकाररणी हैं।
वास्तव में, नारी परुु ष की जननी होने के कारण सदा ही परुु षों से श्रेष्ठ व वंदनीया है।
योग में नारी का महत्त्व िहुत िड़ा है। दसू रे शब्दों में, योग में लिना नारी के आपको अपने िक्ष्य की
प्रालप्त नहीं हो सकती है। क्योंलक कुण्डलिनी का एक स्वरूप नारी का है। वह ध्यान में योलगयों को नारी के
रूप में लदखायी पड़ती है। यही नारी आलदशलक्त है। सृलष् की उत्पलि इसी से हुई है। यही शलक्त का प्रतीक है।
इसी शलक्त को िारण कर ब्रह्मा सृलष् की रचना करते हैं। इसी शलक्त से भगवान नारायण सृलष् का पािन करते
हैं। इसी शलक्त को िारण कर भगवान शंकर सृलष् का लवनाश (संहार) करते हैं। जि योगी की कुण्डलिनी

सहज ध्यान योग 59


जाग्रत होती है तो यही कुण्डलिनी नारी स्वरूप में अत्यन्त मोहक व कामक ु रूप में भी लदखायी पड़ती है।
यह योगी की परीक्षा का समय होता है। यलद योगी भ्रलमत हो गया तो उसका पतन हो जाएगा। यलद वह
भ्रलमत नहीं हुआ तो यही नारी लत्रपरु सदंु री के रूप में लदखायी देगी। जो लसित योगी ही नहीं िलल्क सारे
ब्रह्माडं की ‘माूँ’ है। योगी की सारी कामवासनाएूँ नष् हो जायेंगी। कभी यही कुण्डलिनी कन्या के रूप में
लदखायी पड़ती है लजसकी उम्र 7-8 साि से 12-13 साि तक हो सकती है। यही कुण्डलिनी हम सभी की
वास्तलवक माूँ है। यह तो हम सभी जानते हैं लक माूँ ही पत्रु को लपता से लमिवा सकती है। माूँ को ही मािमू
होता है पत्रु का लपता कौन है। हमारा वास्तलवक लपता ब्रह्म है क्योंलक सभी की उसी से उत्पलि हुई है। यलद
लकसी को अपने लपता तक पहुचूँ ना है तो उसे अपनी माूँ का सहारा िेना पड़ेगा। वही लपता तक पहुचूँ ने का
मागत ितायेगी और पहुचूँ ा देगी। कुण्डलिनी सािक के शरीर में योग के माध्यम से जाग्रत होकर आलद लशव
से लमिा देगी। वही लशव हम सिका परम लपता है। परम लपता के स्वरूप का वणतन नहीं लकया जा सकता है।
उनका लनवास स्थान मनष्ु य के शरीर में सहस्त्रार में है। लनगतणु ब्रह्म का यही स्थान है। इसीलिए नारी को श्रेष्ठ
कहा गया है, शलक्त का प्रतीक कहा गया है। आलदकाि से िेकर आज तक देवता, ऋलष-मलु न, योगी शलक्त
का प्रतीक नारी की पजू ा करते चिे आये हैं। इसलिए हम सिको नारी के प्रलत सममान व आदर करना
चालहए।
आजकि भी हमने सािकों के िारा सनु ा है लक हमें लस्त्रयों से दरू रहना चालहए, उनसे िात नहीं करनी
चालहए। ऐसा लवचार हमें अपने मन में नहीं िाना चालहए। कलमयाूँ लस्त्रयों के अदं र नहीं है, कलमयाूँ ऐसे सािकों
के अदं र है। सािकों को अपनी कलमयाूँ दरू करनी चालहए। जि आपका अन्तुःकरण स्वच्छ हो जाएगा ति
यह लशकायत अपने आप दरू हो जाएगी। जहाूँ तक मेरा लवचार है, हम यही कहेंगे लक नारी के कारण आज
हमारा जीवन िन्य हो गया। लजसने मझु े जन्म लदया, वह भी नारी थी। मेंरे गरुु देव का स्थि ू शरीर भी नारी का
है। माूँ कुण्डलिनी की सहायता से हमें आत्म-साक्षात्कार हुआ है। इसी ने हमें योगिि में शलक्तशािी िनाया
है। सारे लवश्व की नारी जालत को मैं कोलट-कोलट प्रणाम करता ह।ूँ

सहज ध्यान योग 60


सख
ु और दुख
आजकि तो सारे संसार में हर मनष्ु य दख ु ी है। जि मनष्ु य को उसकी इच्छानसु ार वस्तु प्राप्त नहीं
होती है, तो वह दख ु महसूस करता है। लकसी भी मनुष्य की इच्छाएूँ तो उसके जीवन काि में अनलगनत
होती हैं। सभी इच्छाओ ं की पलू तत होना लनलश्चत रूप से असंभव है। हर मनष्ु य अपने जीवन में सख ु चाहता है।
यलद पररश्रम करके उसके अनसु ार सख ु लमि भी जाएगा, तो जरूरी नहीं सख ु का सदैव भोग करता रहे। जैसे
ही सुख की समालप्त होती है, दख ु लमिना शुरू हो जाता है। िेलकन कोई भी मनष्ु य दख ु को ग्रहण नहीं करना
चाहता है, सदैव सख ु की इच्छा रखता है। मगर इस क्षणभंगरु संसार में दख ु -ही-दखु है। सभी व्यलक्त सख ु की
चाह में भटकते रहते हैं, सुख का प्रयास करते हैं। मगर ढेरों प्रयत्नों के िाद भी दखु ही हाथ िगता है। मनष्ु य
दख
ु को भोगना नहीं चाहता है। मनष्ु य सदैव ईश्वर से सख ु की प्रालप्त के लिए ही प्राथतना करता है लक हमें सख

सदैव लमिता रहे, जीवनभर सख ु भोगूँ।ू मगर मनष्ु य को इच्छानसु ार सख ु नहीं लमिता है। जि सख ु नहीं
लमिता है तो दख ु की अनभु लू त करता है। लिर ईश्वर पर आरोप िगाता है लक ईश्वर ने हमें दख ु -ही-दख
ु लदया
है। जि सख ु लमिता है तो िड़ी प्रसन्नता होती है। उस समय मनष्ु य यह नहीं कहता है लक ईश्वर ने हमें सख ु
लदया है, िलल्क सखु का श्रेय अपने ऊपर िे िेता है। मनष्ु य लकतना स्वाथी है! दख ु तो ईश्वर ने लदया, मगर
सखु का लजममेदार स्वयं अपने को समझता है। जि दख ु की लजममेदारी ईश्वर को देता है, तो सख ु की
लजममेदारी भी ईश्वर को दे। अथवा दख ु और सख ु दोनों का लजममेदार स्वयं अपने को िनाए। मगर मनष्ु य
ऐसा नहीं करता है। यहाूँ पर मनष्ु य ईश्वर से भी भेदभाव िरतता है, लजसने हमें िनाया है, जो सारी सृलष् का
मालिक है। उसके प्रलत जि भाव ऐसा है तो मनष्ु य, मनष्ु य के प्रलत कै सा भेदभाव रखता होगा! लजसकी जैसी
भावना होगी, उसका वैसा ही कायत होगा। लजस कायत का िि दख ु है तो सुख कै से प्राप्त हो सकता है। यलद
कोई चाहे लकसी गंदी नािी से चन्दन की महक आए, तो यह कै से संभव हो सकता है। चन्दन की महक तो
चन्दन से ही आएगी।
सािकों, सख ु और दख ु का जोड़ा है। जि दख ु मनष्ु य की सेवा करता है, तो सुख वहाूँ नहीं रहता है।
क्योंलक सख
ु जानता है, हमारा लमत्र इस समय उसकी सेवा में िगा है, अभी हमें थोड़ा आराम कर िेना
चालहए। जि दख ु कािी समय तक सेवा कर चक ु ा होता है, तो सख
ु सोचता है चिो अि हम उस मनष्ु य की
सेवा कर दें क्योंलक हमारा लमत्र थोड़ा आराम कर िे। िस, लिर क्या, सख ु की िारी आ जाती है। दख ु िहुत
समय तक सेवा करने के िाद आराम करने िगता है, और अपने लमत्र से कहता है, ‘अरे भाई सख ु , लचतं ा

सहज ध्यान योग 61


नहीं करना, मैं शीघ्र ही आ जाऊूँगा। यलद आने में देर िग जाए तो हमें तरु ं त इशारा कर देना, मैं उपलस्थत हो
जाऊूँगा। कहने का अथत यह है लक सख ु और दखु आते-जाते रहते हैं, ये लस्थर नहीं रहते हैं। दोनों में लकतनी
घलनष्ठ लमत्रता है! इन दोनों में दख
ु तो कभी-कभी हमेशा तैयार रहता है मनष्ु य की सेवा के लिए। यह िड़ा
ििवान है। दख ु लजसकी सेवा करता है, उसे शीघ्र नहीं छोड़ता है। शलक्तशािी होने के कारण उसे थकान
भी नहीं आती है। कहने का अथत यह है लक मनष्ु य की लजदं गी में दख
ु का पिड़ा भारी रहता है, इसलिए दख ु
ज्यादा उठाना पड़ता है। सख ु का पिड़ा कमजोर होता है, इसलिए लजदं गी में दख ु की अपेक्षा सख ु कम
लमिता है।
दख ु और सख ु अनभु ूलत के लवषय हैं। सारे जीवन में जन्म से िेकर मृत्यु तक दख ु -ही-दख
ु की
अनभु ूलत होती है। वैसे भी सभी व्यलक्त जानते हैं लक इस संसार में दख
ु -ही-दख
ु है। िच्चा जि गभातवस्था में
होता है तो उसे घोर कष् सहना पड़ता है। मनष्ु य को जि रोग िग जाता है तो दख ु सहना पड़ता है। यलद कोई
कायत मनष्ु य की इच्छानसु ार न हुआ हो तो दख ु महससू करता है, लकसी प्रकार की इच्छापलू तत न होने पर दखु
महससू होता है। उसके पास से जि सख ु चिा जाए या लकसी वस्तु के नष् होने या चोरी हो जाने पर, इलन्रयों
के स्थि
ू पदाथों में लिप्त हो जाने पर दखु लमिता है। यह सारा संसार दख ु से भरा हुआ है। मनष्ु य सख ु की
तिाश में जहाूँ-जहाूँ भागता है, वहाूँ-वहाूँ उसे दखु ही दख
ु लमिता है। सख ु की प्रालप्त के लिए वह प्रयास
करता है। जि उसकी इच्छा पलू तत नहीं होती है, तो दख ु लमिता है और सारी लजदं गी ऐसे ही व्यतीत हो जाती
है।
अि हमें यह ध्यान देना चालहए लक दख ु की उत्पलि कहाूँ से होती है, दखु ों का कारण क्या है। दख ु ों
का मि ू कारण है तृष्णा और अज्ञानता। तृष्णा के कारण ही मनष्ु य को दख ु लमिता है। लजसकी लजतनी कम
या ज्यादा तृष्णा होगी, वैसा ही उसे कम या ज्यादा दख ु लमिेगा। तृष्णा का कारण इलन्रय-सख ु भी है। जीवन
से संिंलित ढेरों ऐसे कायत हैं लजनसे तृष्णा को िढ़ावा लमिता है। देखा गया है लक मनष्ु य को िढ़ु ापे में तृष्णा
का प्रभाव अलिक होता है क्योंलक शारीररक शलक्त कम हो जाने के कारण स्थि ू सख ु ों के सािन कम जटु ा
पाता है अथवा िढ़ु ापे के कारण एक जगह िैठा रहता है। उसमें कायत करने की क्षमता नहीं रहती है। मन तो
अपना असिि प्रयास करता है। इससे तृष्णा और िढ़ती है। इसी तृष्णा के कारण मनष्ु य मृत्यु के समय व
मृत्यु के िाद भी दखु भोगता है, लिर दिु ारा जन्म ग्रहण करता है। जन्म के िाद लपछिे जन्म की तृष्णा के

सहज ध्यान योग 62


कारण पड़े सस्ं कार उभरने िगते है। लिर वही क्रम चिने िगता है। सांसाररक पदाथों की पलू तत के लिए वही
पहिे जैसा दख
ु । िस, यही क्रम चिता रहता है जन्म और मृत्यु का।
ये दख
ु मनष्ु य को अज्ञानता के कारण भी लमिते हैं, अज्ञानता के कारण वह संसार का वास्तलवक
स्वरूप नहीं पहचान पाता है। वह संसार को ही अपना सिकुछ समझने िगता है लक वह वस्तु हमारी है। इस
कायत को समपन्न करने का कायत ईश्वर के ही िारा रलचत माया करती है। माया सिको भ्रलमत लकये रहती है।
जि तक सािक अज्ञानता को नष् नहीं करे गा, ति तक वह स्थूि नश्वर संसार का भेद नहीं समझ सकता
है। जि तक संसार को भिी प्रकार से नहीं पहचानेगा, ति तक दख ु का अंत नहीं हो सकता है। लसित ज्ञान
के िारा ही अज्ञान को नष् लकया जा सकता है। सािक को ज्ञान प्राप्त होने पर संसार की क्षणभंगुरता की
जानकारी हो जाती है। उसकी समझ में अच्छी तरह से आ जाता है लक यहाूँ के कोई भी पदाथत मेंरे नहीं हैं।
लिर सांसाररक पदाथों में सािक लिप्त नहीं होगा। हाूँ, सािक सांसाररक पदाथों के िीच में रहेगा तथा उपभोग
भी करे गा, मगर इन पदाथों से अछूता रहेगा। जैसे कीचड़ के िीच में कमि रहता है, इसी प्रकार ज्ञानी सािक
रहता है। सांसाररक ज्ञान की िात हम नहीं कह रहे हैं, योग िारा प्राप्त लदव्यज्ञान की िात कह रहे हैं। यह
लदव्यज्ञान सािक को सहजता से नहीं लमि पाता है। इसे पाने के लिए एक ही रास्ता है और वह है योग।
योग के िारा सािक लदव्यज्ञान को प्राप्त कर सकता है। ईश्वर की प्रालप्त के लिए कोई सा भी मागत अपना िेने
पर यह ज्ञान अत्यन्त उच्च लस्थलत पर प्राप्त होता है। ज्ञान की प्रालप्त पर सािक को लकसी प्रकार दख ु अथवा
कष् नहीं होता है क्योंलक ईश्वर िारा रलचत माया का आवरण नष् हो जाता है। स्थि ू ससं ार की सभी वस्तओ ु ं
का अलस्तत्व ज्ञात हो जाता है। साथ ही समझ िेता है लक ‘मैं कौन ह’ूँ । सािक की सारी इच्छाएूँ भी नष् हो
जाती हैं। इलन्रयों पर अलिकार कर िेता है। इलन्रयाूँ िलहमतख ु ी नहीं रह जाती हैं, िलल्क अतं मतखु ी हो जाती
हैं। लजससे स्थिू पदाथों के भोग की इच्छा नहीं रह जाती है। इसी प्रकार मनष्ु य भी अपने दख ु ों का अंत कर
सकता है। ऐसा ज्ञानी परुु ष हमेशा इस ससं ार में रहकर भी आनन्द की अनभु लू त करता है।
कुछ मनष्ु य यह भी कह सकते हैं लक हमने आज तक कोई भी ऐसा पाप कमत नहीं लकया था लजसके
कारण अमक ु कष् भोगना पड़ा या वह परे शानी सामने आ गयी। िहुत से छोटे-छोटे िच्चों को भी िड़े-िड़े
कष् उठाने पड़ते हैं। जिलक िच्चा ढंग से िोि भी नहीं पाता है, अभी पैरों से चि भी नहीं पाता है, इतनी
छोटी आयु में भी िड़े-िड़े कष् लमिते हैं। अि यह कहा जा सकता है लक ये दख ु क्यों भोगने पड़ते हैं। हाूँ,
यह सत्य है लक कुछ दख ु मनष्ु यों को इस प्रकार के लमिते हैं। ऐसे कमत उसने वततमान जन्म में नहीं लकये होते

सहज ध्यान योग 63


हैं। इससे यह अथत िगाना चालहए लक लपछिे जन्मों के आिार पर यह दख ु लमिे हैं। लपछिे जन्मों के कमत
इस जन्म में भी भोगने पड़ते हैं। इसलिए मनष्ु य यलद अच्छा कमत करे गा तो वह पण्ु य का भागीदार होगा। पण्ु य
के प्रभाव से सखु का भोग करे गा। यलद िरु ा कमत करे गा तो अवश्य पाप का भागीदार होगा और दख ु भोगेगा।
इसलिए मनष्ु य को अपने कमों का भोग अवश्य करना होता है। अगर इस जन्म में न भोग पाया तो अगिे
जन्म में भोगेगा। कुछ पाप और पण्ु य कमों का भोग मनष्ु य मृत्यु के पश्चात सक्ष्ू म शरीर िारा भोगता है। मतिि
यह लक दख ु ों का अतं मृत्यु के पश्चात भी नहीं होता है।
अि शायद समझ में आ गया होगा लक दख ु व सख ु हमें कौन देता है। दख ु और सख ु के हम स्वयं
लजममेदार होते हैं। इसलिए अि हमें लकसी के ऊपर आरोप नहीं िगाना चालहए लक यह दख ु अमक ु व्यलक्त
के कारण लमिा है। जो आपने कमाया है उसे भोगने से नहीं डरना चालहए क्योंलक दख ु भोगने से पाप नष्
होता है। सख ु भोगने से पण्ु य का क्षय होता है। यलद हम ज्ञान से सोचें तो पाएूँगे लक दख ु लकतनी अच्छी चीज
है। उससे पाप नष् हो जाता है। मगर आप हमेशा सख ु की इच्छा करते हैं। सखु के भोगने से आपके िारा
लकए हुए अच्छे कमत समाप्त होने िगते हैं। जि आप िुरे कमों का भोग परू ा कर िेंगे, तो लकसी की म ाि
है आपको दख ु भोगने के लिए मजिरू करे । लिर आपको हर हाित में सख ु ही सख ु लमिेगा। इसी प्रकार
मनष्ु य इच्छा करता है लक हमें स्वगत की प्रालप्त हो क्योंलक वहाूँ पर सख
ु -ही-सख ु है। मगर नरक की कोई इच्छा
नहीं करता है, क्योंलक वहाूँ पर दखु के लसवाय और कुछ भी नहीं हैं।
हे सािकों, स्वगत एक ऐसी जगह है जहाूँ पर आपका पुण्य क्षीण होगा। पण्ु य के क्षीण होने पर आपका
स्वयमेव पतन हो जाएगा। लिर आपको स्वगत की प्रालप्त लकसी भी हाित में नहीं हो सकती है। आपको पृर्थवी
पर आकर जन्म िेना पड़ेगा। लिर कमत करना पड़ेगा। इसलिए हे मनष्ु यों! आपको ऐसी जगह की इच्छा
करनी चालहए, जहाूँ सुख भी न हो और दुख भी न हो वसर्ण शाश्वत आनन्द हो। योग के िारा ही हमें
शाश्वत आनन्द लमि पाएगा तथा ईश्वर की प्रालप्त होगी, जन्म-मृत्यु से छुटकारा लमि जाएगा। योगी अपने
योग के िारा लचि की वृलतयों को रोक देता है, ति सुख अथवा दख ु दोनों ही नहीं रहते हैं, तृष्णा नष् हो
जाती है, लकसी प्रकार की इच्छाएूँ नहीं चिती हैं। जि लकसी प्रकार की इच्छाएूँ नहीं चिती हैं, तो उसे
लकसी प्रकार का िन्िन नहीं रहता है, िन्िन से मक्त
ु हो जाता है। िन्िन से मक्त
ु योगी स्वगत-नरक से परे ईश्वर
के िोक में लचरकाि तक रहता है।

सहज ध्यान योग 64


िैयण
यह गणु हर मनष्ु य के जीवन में िहुत महत्वपणू त है। िैयतवान परुु ष अपने जीवन में कभी दख
ु महससू
नहीं करता है। भिे ही उसके जीवन में परे शालनयाूँ आएूँ, मगर िैयतपवू तक परे शालनयों से अपने आपको पार
कर िे जाएगा। ऐसा मनष्ु य कभी लवचलित नहीं होता है। जो परुु ष अपने मागत से लवचलित नहीं होते हैं, उन्हें
अवश्य सििता लमिती है। जो मनष्ु य िैयतवान नहीं है, वह कलठन कायत करते समय लवचलित हो जाते हैं,
क्योंलक स्थि
ू जीवन में ढेरों परे शालनयों का सामना करना पड़ता है तथा कलठन कायत करते समय िािाएूँ तो
आती ही है। िािाओ ं के कारण मनष्ु य को अपना िक्ष्य दरू लदखने िगता है, लिर उसका साहस टूट जाता
है। इसलिए कोई भी कायत करते समय िैयत का होना आवश्यक है। िैयतवान मनष्ु य साहसी होता है। ऐसे
मनष्ु य अपनी मंलजि अवश्य तय कर िेते हैं क्योंलक उनका मन एकाग्र होता है। उसे अपना िक्ष्य लदखाई
देता है, इसलिए मन िगाकर अपना कायत करते हैं। जो मन िगाकर कायत करे गा, उसे सििता लमिने से
कौन रोक सकता है?
सािक को िैयतवान होना िहुत जरूरी है। क्योंलक योगमागत पर चिना सािारण िात नहीं है। िड़े-
िड़े योलगयों व सािकों ने कहा है– “यह मागत अत्यन्त कलठन है। इस मागत में काूँटे ही काूँटे हैं”। इसलिए जि
तक सािक के अंदर िैयत व साहस नहीं होगा, तो वह यह मागत कै से तय कर पाएगा! जि गृहस्थी वािा इस
मागत पर चिने िगे तो उसके लिए वह और कलठन कायत है क्योंलक उसे दो मागों पर चिना पड़ेगा। दोनों
मागों पर चिकर उसे आगे िढ़ना होगा। वततमान समय में गृहस्थी में भी ढेरों अवरोि आते हैं। ऐसे में सािक
को िैयत से काम िेना होगा। लिना िैयत के दोनों मागत तय नहीं हो पाएूँगे। सािक सािना की शरुु आत करता
है, लिर कुछ समय िाद ही सोचने िगता है लक हमें सििता लमिने में देरी क्यों हो रही है, न जाने हम कि
अपने िक्ष्य तक पहुचूँ ेंगे। दसू रे सािक से तुिना करना शरू
ु कर देता है लक अमक ु सािक ने और मैंने एक
साथ सािना शरू ु की थी, लिर वह सािना में आगे कै से िढ़ गया। हमारी सािना उसके िरािर अथवा आगे
लकस प्रकार से होगी? ढेर सारा लचंतन करना शरू ु कर देते हैं। इसका कारण है िैयत का न होना, अपने ऊपर
लवश्वास का न होना जैसा है। यलद उसके अंदर िैयत होता तो यह सि नहीं सोचता। कुछ सािक ऐसे होते हैं
लजन्हें जोश आ जाता है, दो-चार महीने खिू सािना करें गे, लिर जोश ठंडा पड़ने िगता है और सािना भी
कम करने िगते हैं। ऐसा नहीं करना चालहए। जोश आया तो िग गए, कुछ समय िाद लिर िीमे पड़ गए।
सािक को योग करने की गलत समान रखनी चालहए अथवा िाद में िढ़ा देनी चालहए। योग में जल्दिाजी

सहज ध्यान योग 65


का काम नहीं है और न लनराश होने से काम चिता है, क्योंलक मागत िहुत ििं ा है। इसलिए सािना की गलत
समान रखनी चालहए।
सािकों में ज्यादातर व्याकुिता इस िात की रहती है लक उनका कण्ठ चक्र कि खि ु ेगा, िहुत
समय से सािना इसी चक्र पर चि रही है, कुण्डलिनी जाग्रत होगी लक नहीं होगी, अथवा कि तक होगी,
लकतनी और सािना करनी पड़ेगी, कौन से उपाय हैं लजससे कुण्डलिनी जाग्रत हो जाए आलद। ढेर सारे प्रश्नों
का उिर जानना चाहते हैं। इससे साि जालहर होता है लक सािक के अंदर िैयत नहीं है। यह जो इस प्रकार
की इच्छाएूँ चिती हैं, इन सिका जवाि आपकी सािना में लमि जाएगा। जि आप सािना िारा अपने
आपको उसके योग्य िना िेंगे तो स्वयं वह लस्थलत आपको प्राप्त हो जाएगी, जल्दिाजी की क्या आवश्यकता
है। इन िातों को जानने की इच्छाएूँ जि प्रिि होगी तो आपका मन इन्हीं इच्छाओ ं से लचंलतत रहेगा। इससे
ध्यानावस्था में मन एकाग्र करने में अवरोि आएगा। इसलिए सािक को लचंता नहीं करनी चालहए, िलल्क
मन को एकाग्र करने की ओर ध्यान देना चालहए। कुछ सािक शरू ु में खिू ध्यान करते हैं, ध्यान के लवषय
में तकत -लवतकत भी खिू करते हैं। तकत -लवतकत करते करते वह सायज्ु य-मलु क्त तक पहुचूँ जाते हैं। कुछ समय
िाद इच्छाएूँ कमजोर पड़ जाती हैं। ध्यान के लवषय में सािना भी कम पड़ने िगती है। उनका तकत होता है
लक उन्हें सािना में सििता नहीं लमिती है। शायद हमारे ऊपर गरुु की कृ पा कम है अथवा नहीं है। कुछ तो
सािना करना ही छोड़ देते हैं अथवा गरुु में त्रलु टयाूँ लनकािने िगते हैं। लिर गरुु िदिने के चक्कर में पड़
जाते हैं और अपना गरुु भी िदि िेते हैं, दसू रा गरुु कर िेते हैं। ऐसे सािकों को अपनी कलमयाूँ देखनी
चालहए। यलद अपनी कलमयाूँ समझ िें तो समस्या हि हो जाती है। इन सिका कारण िैयत का न होना है।
नये सािक को ज्यादा तकत -लवतकत नहीं करना चालहए। िलल्क अपने मागतदशतक से ध्यान-समिन्िी
जानकाररयाूँ हालसि कर िेनी चालहए। अपने मागतदशतक या गरुु पर पणू त लवश्वास करना चालहए। सािक को
सदैव साहस, िैयत, लववेक पूवतक ध्यान में िगा रहना चालहए तथा अपने ऊपर लवश्वास करना चालहए लक उसे
सििता अवश्य लमिेगी। यह अवश्य अपने आप में देखना चालहए लक उसके अंदर त्रलु टयाूँ तो नहीं हैं, जो
ध्यान के लिए अवरोि का कारण िनती हों। सािक को अपनी त्रलु टयों को दरू करना चालहए। सािक को
कभी अपना मनोिि नहीं लगराना चालहए और न ही सििता और असििता के िारे में सोचना चालहए।
सािक को सािना में दसू रे सािक की िरािरी भी नहीं करनी चालहए लक उसे जल्दी सििता लमिी है, हमें

सहज ध्यान योग 66


अभी क्यों नहीं लमिी है। हाूँ, यह सच है लक लकसी सािक को जल्दी सििता लमिती है, लकसी सािक को
देर में लमिती है। हो सकता है सािना करने में कुछ त्रलु टयाूँ हों, इस कारण सािना में सििता शीघ्र नहीं
लमि रही है। यह भी हो सकता है अमक ु सािक ने लपछिे जन्म में भी सािना की हो, आपने लपछिे जन्म
में सािना न की हो; उसकी सािना लपछिे जन्म में सािना करने के कारण तेज गलत से हो रही हो। इसलिए
सािक को दसू रे सािक से िरािरी नहीं करनी चालहए।
लजस सािक ने इसी जन्म में सािना की शरुु आत की है, उसे अवश्य सििता थोड़ी देर में लमिेगी।
उसे कई िार ऐसा िगता है लक सििता नहीं लमि रही है। क्योंलक लपछिे जन्मों के पाप अवरोि करते हैं,
सािक लजतनी सािना करे गा, उससे लपछिे जन्मों के पाप नष् होंगे। जि तक लनलश्चत मात्रा में पाप नष् नहीं
हो जाएूँगे ति तक उसे सािना आगे िढ़ती नजर नहीं आएगी। इसलिए सािक को िैयत रखना चालहए। िस,
उसे अज्ञानता के कारण अपनी सािना के लवषय में जानकारी नहीं हो रही है। आपको समझना चालहए लक
सािना के कारण ही तो पाप नष् हो रहे हैं। इस प्रकार की जानकाररयाूँ अपने मागतदशतक से अवश्य प्राप्त कर
िेनी चालहए। यलद सािक सही तरह से सािना करे गा तो अवश्य उन्नलत होगी। कुछ सािक थोड़े समय तक
सािना करते हैं, लिर सािना छोड़ देते हैं, क्योंलक उनका िैयत डांवाडोि हो जाता है। ज्यादातर सािकों का
िैयत कण्ठ चक्र में कमजोर पड़ने िगता है, क्योंलक यह चक्र कई वषों तक ध्यान करने के पश्चात खुिता है।
सािकों! यह चक्र आपकी परीक्षा के लिए है लक आपका िैयत व साहस लकतना है। इसलिए कभी भी िैयत
को नहीं छोड़ना चालहए।

सहज ध्यान योग 67


मौन
सािकों! मौन रहना एक ऐसा व्रत है लजससे सािक क्या, सािारण मनष्ु यों को भी ढेरों िाभ लमि
सकते हैं। योग में मौन का महत्व िहुत ज्यादा है। हर सािक को कुछ समय के लिए अवश्य इस व्रत को
िारण करना चालहए। मौन रहने से लजह्वा की चंचिता कम होने िगती है तथा इलन्रयाूँ अंतमतख ु ी होने िगेंगी।
सािक को इसलिए इस व्रत का प्रयोग करना चालहए क्योंलक अत्यलिक िोिने से शलक्त का ह्रास होता है।
सािक को अपनी सािना हेतु इस तरह की शलक्त-ह्रास से िचना चालहए। वैसे भी सािक को िातूनी नहीं
होना चालहए। सािक का गंभीर रहना उलचत है। िातूनी मनष्ु य में िूहड़पन झिकने िगता है, जरूरी िात
को भी अंदर नहीं रख पाता है। अलिक िात करने के कारण जरूरी िात भी मूँहु से लनकि जाएगी। लजह्वा
चंचि होने पर कभी शांत नहीं िैठ पाता है। मनष्ु य लजतना कम िोिेगा, उतना सोचकर िोिेगा। ऐसे शब्द
लकसी को कटु नहीं िगेंग,े क्योंलक वह सोच-समझकर िोि रहा है। सािकों को मौन रहने की आदत अवश्य
डािनी चालहए। शरू ु में सािक को लनलश्चत कर िेना चालहए लक वह आिा घटं ा मौन रहेगा। ऐसा करने से
मौन व्रत में सहायता लमिती है। यलद लदन के कायों की व्यस्तता के कारण मौन नहीं रह सकते हैं, तो आप
रालत्र के समय मौन व्रत का पािन कररए। रालत्र का अथत यह नहीं है लक आप सोते समय मौन रहते हैं। मौन
जाग्रत अवस्था में रहा जाता है। मौन के समय आप सांकेलतक भाषा में िात मत कीलजएगा। साक ं े लतक भाषा
में िात करने से मौन नहीं रह जाता है। इसी प्रकार िीरे -िीरे मौन की अवलि िढानी चालहए। सािक को 24
घटं े में 2 घटं े मौन व्रत का पािन अवश्य करना चालहए। इससे लजह्वा की चचं िता जाती रहेगी, लिर अतं मतख
ु ी
होने िगेगी।
जो सािक आश्रमों में या एकांत में रहकर सािना करते हैं, वे मौन व्रत ज्यादा रख सकते हैं। कुछ
सािक तो कई लदनों तक मौन व्रत का पािन करते हैं। मौन व्रत के िारा सािक के अंदर असीम शलक्त आ
सकती है। मौन व्रतिारी को वाचा लसलि भी प्राप्त होती है। क्योंलक उसके अंदर शरीर की शिु ता िढ़ जाती
है। लजसे वाचा लसलि प्राप्त हो जाए उसे अत्यन्त कम अथवा जरूरी काम पड़ने पर ही िोिना चालहए। उसे
सोच-समझकर ही िोिना चालहए। क्रोि को सवतथा त्याग देना चालहए क्योंलक उसके िारा कहा गया शब्द
सच हो जाएगा, दसू रे को हालन पहुचूँ सकती है। ध्यान रहे ऐसे वाचा लसलि प्राप्त करने वािे को कभी भी
लसलि का प्रयोग नहीं करना चालहए क्योंलक उसका आपकी सािना पर प्रभाव पड़ेगा। इस अवस्था में सािक
अपनी वाचा लसलि से दसू रों का परोपकार कर सकता है, लिगड़ा हुआ कायत िना सकता है। िहुत से सािक

सहज ध्यान योग 68


इस कायत में िग जाते हैं, अपने नाम व यश के चक्कर में पड़ जाते हैं, मगर कुछ लदनों के िाद यह लसलि
कायत करना िन्द कर देती है। पहिे के योगी, सतं -महात्मा मौन व्रत का कठोरता से पािन करते थे। जि
कोई व्यलक्त अपशब्द िोिने िगे, ति आप इसी मौन व्रत नामक अस्त्र का प्रयोग कर दीलजये। स्वयं मौन हो
जाओगे तो व्यलक्त स्वयं आपसे हार जाएगा। आप अपने आप में शातं रहेंगे, मगर वह व्यलक्त अशातं होकर
अपने मन का चैन खो चक ु ा होगा।
सािक जि शरू ु में मौन व्रत का पािन करे गा, तो उसके मूँहु में व लजह्वा में लवशेष प्रकार की िेचैनी
महससू होगी। कभी-कभी िोखे में मूँहु से शब्द भी लनकि सकता है। मगर िीरे -िीरे अभ्यास से लिर आपको
लकसी प्रकार की परे शानी नहीं होगी। यलद शरुु आत में ज्यादा िेचैनी महससू हो तो उस समय त्राटक अथवा
मन के अंदर जाप कर सकते हैं। मगर अभ्यास हो जाने पर दोनों को छोड़ दीलजएगा, लसित शांत होकर रहें।

सहज ध्यान योग 69


गरुु
योग का अभ्यास करने के लिए गरुु का होना अलत आवश्यक है। लिना गरुु या मागतदशतक के योग
का अभ्यास नहीं हो सकता है। योग का अभ्यास गरुु की देखरे ख में ही संभव है। इसलिए सािक को गरुु
िनाना अलनवायत है। मगर मलु श्कि यह है लक गरुु लकसे िनाया जाए क्योंलक योग का गरुु अभ्यासी व अनुभवी
होना जरूरी है। योग मागत का गरुु सहज ही नहीं लमि जाता है। अनेक जन्मों के पण्ु य कमों के प्रभाव से
अनभु वी और दयािु गरुु देव लमिते हैं। लिना जाने लकसी को गरुु िना िेना उलचत नहीं है। आजकि अपने
देश में गरुु िनने वािों की भरमार है, क्योंलक कई प्रकार के योगी और महात्मा िने घमू ा करते हैं। इसलिए
इस प्रकार के नकिी योलगयों व महात्माओ ं से दरू रहें। अच्छा यही है लक लजसे गुरु िनाना हो आप उसके
िारे में जानकारी प्राप्त कर िें। वैसे योगी को पहचानना असंभव है। लिर भी यह तो कुछ समय िाद मािमू
पड़ सकता है लक यह योग में अनभु व रखता है लक नहीं। अच्छा है कुछ समय िाद दीक्षा िें, तो मािमू पड़
जाएगा लक योगी के भेष में कोई अन्य तो नहीं है। लिर भी हमने देखा है िहुत से अज्ञानी व भोिे िोग
नकिी योलगयों के चक्कर में िूँ स जाते हैं। मगर योग का मागतदशतन एक अनभु वी गरुु ही कर सकता है।
गरुु शब्द का अथत है अंिकार से दरू करने वािा। अज्ञानरूपी अंिकार से दरू करके ज्ञानरूपी प्रकाश
में गमन करने वािा, ऐसा प्रकाश जो सत्य हो। कभी भी अज्ञानरूपी अंिकार का प्रभाव न पड़ता हो। ऐसा
प्रकाश लसित ब्रह्म है, क्योंलक ब्रह्म ही सत्य है। प्रकाश का मागत वही लदखायेगा अथवा प्रकाश की ओर वही
िे जाएगा लजसे यह मागत मािमू होगा, स्वयं इस मागत पर गया होगा। योग का अभ्यास करते समय सािक
का िक्ष्य होता है अज्ञानरूपी अंिकार लमट जाए, माया के प्रभाव से मक्त ु होकर अपने वास्तलवक स्वरूप
में लस्थत हो जाए। ऐसा मागतदशतक वही हो सकता है लजसको यह लस्थलत प्राप्त हो। इसीलिए गरुु को साक्षात्
ब्रह्म कहा गया है। गरुु एक ऐसा सपु ात्र है जो प्रकृ लत के लनयमों को परू ी तरह से जानकर जन्म-मृत्यु के
आवागमन से मक्त ु होकर भी वह प्रकृ लत के लनयमों का पािन करता है तथा अपने लशष्य को भी इसी मागत
पर आगे िढ़ाते हुए मोक्ष के िार तक िे जाता है। इसीलिए गरुु की ति ु ना ब्रह्मा, लवष्णु व शंकर से की गयी
है।
लजस प्रकार ईश्वर के दो रूप होते हैं सगणु और लनगतणु , इसी प्रकार गरुु के भी दो रूप होते हैं। एक तो
पंचभौलतक शरीर लजसे स्थूि शरीर भी कहा जाता है; दसू रा स्वरूप चैतन्यमय, जो लशष्य की दीक्षा के समय

सहज ध्यान योग 70


अत्यन्त सक्ष्ू म रूप से अपने लशष्य के शरीर के अदं र रोम-रोम में लवराजमान हो जाता है। गरुु तत्व तो वही
चैतन्यमय तत्व है जो सवतत्र व्याप्त है। गरुु का दसू रा स्वरूप तो ब्रह्ममय हो गया है। यही गरुु तत्व लशष्य के
शरीर के अदं र भी योग के अभ्यास के समय मागतदशतन करता है। लशष्य के स्नायमु डं ि में व्याप्त होकर गरुु
सदैव लशष्य के साथ रहता है, चाहे लशष्य गरुु के स्थि ू शरीर से लजतनी भी दरू ी पर हो। इसलिए गरुु सदैव
लशष्य का मागतदशतन करते रहते हैं, क्योंलक गरुु तो लशष्य के प्राणों में व्याप्त होकर शरीर को शिु करता रहता
है, तथा सषु प्तु अवस्था में लस्थत स्नायमु डं ि को जाग्रत करके लक्रयाशीि करता रहता है। एक न एक लदन
गरुु अपने लशष्य को प्रकाश में गमन करा ही देता है। लिर अपने में िीन कर िेता है। इसलिए कहते हैं– गरुु
और लशष्य का नाता जन्म-जन्मातं र का है। ब्रह्म स्वरूप गरुु ज्ञानी होता है, और लशष्य अज्ञानी होता है,
जिलक गरुु और लशष्य का मि ू स्रोत एक ही है। गरुु ने अपने-आपको पहचान लिया है, लशष्य इस माया से
यक्त
ु अज्ञान रूपी अंिकार में भटक रहा है। गरुु अपने लशष्य को योग का मागतदशतन करता है, मागत में आयी
परे शालनयों को दरू करता है। इसीलिए कहा गया है, ‘गरुु के लिना ज्ञान नहीं हो सकता है’ और ज्ञान के लिना
सािक को ईश्वर की प्रालप्त नहीं हो सकती है।
कुछ सािकों का सोचना है लक उनके गरुु सदैव उनकी लनगरानी करते हैं, लशष्यों िारा लकये गये
कायों की गरुु जानकारी करते हैं। ऐसा नहीं है क्योंलक एक गरुु के िहुत से लशष्य होते हैं। कुछ लशष्य गरुु के
स्थिू शरीर से दरू भी रहते हैं। इसका मतिि यह नहीं है लक गरुु चौिीसों घटं े िैठा अपने सभी लशष्यों की
लनगरानी करे । एक गरुु सैकड़ों लशष्यों के स्थि ू लक्रया-किापों की जानकारी नहीं रख सकता है। उसे अपने
भी तो आवश्यक कायत करने होते हैं। ऐसा समझो लक जि गरुु देव स्थि ू लक्रया कर रहे होते हैं, ति वह
सािारण व्यलक्त के समान होते हैं। इतना अवश्य है लक सासं ाररक व्यलक्तयों की तरह उनके अदं र स्थि ू पदाथों
में आसलक्त नहीं होती है, क्योंलक उन्होंने स्थि ू ससं ार को पहचान लिया होता है। इसलिए सारी वस्तएु ूँ
क्षणभगं रु लदखायी पड़ती हैं। इसका मतिि यह भी नहीं हुआ लक गरुु अपने लशष्यों की जानकारी नहीं रखता
है। सद्गरुु ध्यानावस्था में अपने लशष्य के सारे लक्रया-किापों को जान सकते हैं यलद लशष्य की भी उच्चावस्था
है, तो गरुु िारा लदये गए लनदेश अवश्य ग्रहण करे गा। यलद लशष्य सक्ष्ू म संकेतों को समझ सकता है, तो गरुु
स्थि ू रूप से दरू रहकर भी मागतदशतन कर सकते हैं। लजस लशष्य में अभी सक्ष्ू म संकेतों को ग्रहण करने की
योग्यता नहीं आयी है, तो गुरु प्रत्यक्ष रूप से मागतदशतन करें गे।

सहज ध्यान योग 71


लशष्य को हमेशा अपनी सािना सिं िं ी समस्या स्थि ू रूप से व्यक्त कर देनी चालहए, तालक गरुु देव
का ध्यान आपकी समस्या की ओर जाए। लशष्य को ऐसा नहीं सोचना चालहए लक हमारे गरुु तो अतं यातमी
हैं, लत्रकािदशी हैं, समस्या अपने-आप हि कर देंगे। गरुु की ढेरों व्यस्तताएूँ होती हैं। लशष्य की सािना जि
उच्चावस्था में होती है तो गरुु िारा लकया गया शलक्तपात, ध्यानावस्था में गरुु का स्वरूप िारण करके हमेशा
मागतदशतन करे गा। गरुु िारा लकया गया शलक्तपात ही गरुु तत्व है, ऐसा समझना चालहए। वह लशष्य के शरीर में
सवतत्र व्याप्त होकर शरीर को सालत्वक िनाता है। मगर लशष्य इस स्वरूप को तभी पहचान पायेगा, जि उसकी
उच्चावस्था होगी। इसीलिए सद्गरुु लशष्य से अलभन्न होकर रहते हैं। लजन सािकों को ध्यानावस्था में सद्गरुु
मागतदशतन करते हैं अथवा लदखायी देते हैं, वह गरुु तत्व ही है जो गरुु का स्वरूप िारण कर आपको दशतन दे
रहा है अथवा मागतदशतन कर रहा है। यह िात गरुु को मािमू नहीं होती है लक उनका चैतन्यमय तत्व इस
समय क्या कर रहा है। आम िारणा होती है लक आज हमारे गरुु देव ध्यान में आए। सच तो यह है लक गरुु देव
तो आपके शरीर में दीक्षा के समय से ही व्याप्त हो गये थे।
गरुु ने अपने लनजस्वरूप को पहचान लिया है। अपने आपको योगालग्न के िारा परम पलवत्र कर लिया
है। इलन्रयों को उसके मि ू स्त्रोत में लविीन कर लदया है। इसलिए लकसी प्रकार के भय व लचंता से मक्तु होकर
आनन्द में लस्थत रहते हैं। प्रकृ लत के सारे लनयमों को जान लिया है। वह प्रकृ लत के लनयमों के अनसु ार चिते
हैं। इसलिए उनका जीवन अवरोिों से रलहत है। लनरंतर अखण्ड रूप से अपने लनजस्वरूप का लचतं न करते
रहते हैं। इस समपणू त जगत को भिी-भाूँलत पहचान लिया है। इसीलिए ईश्वर ऐसे सपु ात्र को अपना माध्यम
िनाते हैं। गरुु ही अज्ञानी, इस पररवततनशीि ससं ार को अपना समझने वािे, इलन्रयों के वशीभतू अपने
लशष्य को छुटकारा लदिा सकते हैं। लकसी-लकसी स्थान पर गरुु को कुमहार की उपालि दी गयी है। कुमहार
घड़ा िनाते समय घड़े को िाहर से िेरहमी से ठोकता है तालक घड़ा अच्छा िने। मगर वही कुमहार घड़े के
अदं र एक हाथ िगाये रहता है लक घड़ा खराि न हो जाए या टूट न जाए। लिर कुमहार घड़े को पकाने के
लिए आवा भी िगाता है। जि घड़ा आवा से लनकिता है तो घड़ा अत्यन्त मजितू होता है। लिर घड़े को
लवलभन्न प्रकार के उपयोगों में िाया जाता है। यलद घड़ा आवे में चटक जाता है तो वह िेकार समझकर
तोड़कर िें क लदया जाता है।

सहज ध्यान योग 72


इसी प्रकार जो लशष्य सद्गरुु के िताये हुए मागत पर नहीं चिते हैं, वे इस भवसागर में पड़े रहते हैं। लिर
िारमिार जन्म-मृत्यु का दुःु ख उठाते रहते हैं। जो सद्गरुु के िताये हुए मागत पर चिता है, वह सािक िन्य हो
जाता है, उसे जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुटकारा लमि जाता है। जि लकसी कारणवश सािक की सािना नहीं
होती है, तो सािकों को लशकायत होती है लक शायद अभी हमारे ऊपर गरुु कृ पा नहीं हुई है। ऐसे सािकों को
मैं समझा दूँू लक इस प्रकार का सोचना सािकों के लिए अच्छा नहीं है। क्योंलक लजस गरुु को एक व्यलक्त
समझ रहे हो, वह व्यलक्त नहीं है। गरुु एक ऐसा तत्व है जो सवतत्र व्याप्त है। जो तत्व अखण्ड रूप से व्याप्त है,
उसके लिए यलद कहा जाए लक उसकी कृ पा मझु पर कम है और अन्य पर अलिक है तो यह उलचत नहीं है।
लिर गरुु तो आपके शरीर के अदं र रोम-रोम में व्याप्त हैं। स्वयं सािक को पररश्रम करके उसे पहचानना है।
उस चेतन तत्व का िाभ िेना होगा, क्योंलक योग तो स्वयं सािक को करना होगा। वह तो सभी सािकों में
समान रूप से व्याप्त है। गरुु के लिए सभी सािक समान है। इसीलिए उस पर इस प्रकार का आरोप िगाना
गित है।

सहज ध्यान योग 73


शविपात
शलक्तपात का अथत है शलक्त लगराना। अलिक शलक्तमान परुु ष कम शलक्त वािे परुु ष पर शलक्तपात
करता है, अपनी शलक्त दसू रे परुु ष के शरीर के अंदर प्रवालहत करता है। यह लक्रया आध्यालत्मक मागत पर
चिने वािों के ऊपर की जाती है। गरुु शलक्तपात कर लशष्य के शरीर में सक्ष्ू म रूप से नालड़यों में अपनी शलक्त
प्रवेश कराता है लजससे शरीर के अंदर लस्थत स्नायमु ंडि प्रभालवत होता है तथा सक्ष्ू म रूप से जो स्नायु
मण्डि सषु प्तु पड़े हैं, उन्हें जाग्रत कर लक्रयाशीि करने का प्रयास लकया जाता है। शलक्तपात से सािक का
सक्ष्ू म शरीर भी प्रभालवत होता है। जि सक्ष्ू म शरीर प्रभालवत होगा तो उसका स्थि
ू शरीर भी प्रभालवत होगा।
लिर सािक के शरीर में सक्ष्ू म आध्यालत्मक लवकास होता रहता है। इसीलिए गरुु पद के लिए हर व्यलक्त
उपयक्त ु नहीं हो सकता है। इस पद पर आसीन होने का वही अलिकारी है, लजसके अंदर शलक्तपात करने की
क्षमता हो। लशष्य के सािनाकाि में आध्यालत्मक अवरोि आते हैं, उस समय गरुु शलक्तपात कर अवरोि
दरू कर देता है, लजससे योग का मागत प्रशस्त हो जाता है। गरुु लशष्य की योग में उलचत अवस्था आने पर
शलक्तपात कर उसकी कुण्डलिनी भी उठा देता है। कुण्डलिनी मनष्ु य के सक्ष्ू म शरीर में रहती है।
शलक्तपात लसित आध्यालत्मक मागत पर ही नहीं, िलल्क उसका प्रयोग स्थि ू जगत में भी लकया जाता
है जैसे लकसी मनष्ु य का रोग दरू करना। मगर योग्य सािक अपनी कलठन सािना की कमाई स्थूि कायों में
नहीं िगाता है, वह लसित आध्यालत्मक कायों के लिए काम करता है। ज्यादातर देखा गया है शलक्तपात तीन
प्रकार से लकया जाता है। 1. स्पशत से 2. संकल्प से 3. दृलष् से। जि लशष्य गरुु के प्रत्यक्ष होता है तो लशष्य
पर स्पशत करके शलक्तपात करता है। उस समय गरुु अपने हाथ के अंगठू े को स्पशत करके भृकुलट पर शलक्तपात
करता है। अंगठू े से लनकिी शलक्त लशष्य के शरीर में व्याप्त होकर सक्ष्ू म रूप से कायत करने िगती है। प्रकृ लत
का लनयम है मनष्ु य की शलक्त हाथों व पैरों की उंगलियों के अग्र भाग से अलिक मात्रा में लनकिा करती है।
इसलिए शलक्तपात करते समय उंगलियों का स्पशत करते हैं। मगर हाथों के अंगठू े के अग्रभाग से शलक्त ज्यादा
मात्रा में लनकािने की क्षमता होती है, इसी कारण अंगठू े का प्रयोग लकया जाता है। पैर के अंगठू े से भी
शलक्तपात लकया जा सकता है। शलक्तपात करते समय इच्छा-शलक्त सिसे ज्यादा कायत करती है। आप यह
भी कह सकते हैं लक जि सभी मनष्ु यों की उंगलियों से शलक्त लनकिती रहती है, तो सभी मनष्ु य क्यों नहीं
एक-दसू रे पर शलक्तपात कर सकते हैं। इसका कारण यह है लक सािारण मनष्ु य के अंदर आध्यालत्मक शलक्त
नहीं होती है और न ही उलचत मात्रा में नाड़ी शलु ि होती है तथा अन्तुःकरण भी शि ु नहीं होता है, इच्छा-

सहज ध्यान योग 74


शलक्त िहुत कम अथवा सक ं ु लचत होती है, तथा उनमें इलन्रय लनग्रह न होकर, वे इलन्रयों के वशीभतू होते हैं।
सािारण मनष्ु यों के शरीर से शलक्त लनकिती तो है, मगर वह अशि ु व िहुत कम मात्रा में। इस प्रकार की
शलक्त से दसू रे पर लिल्कुि प्रभाव नहीं पड़ सकता है। शलक्तपात करने के लिए इलन्रय-सयं म, ब्रह्मचयत, नाड़ी-
शलु ि तथा आध्यालत्मक लवकास का होना आवश्यक है। यलद सािक में योग सामर्थयत उच्च स्तर पर है, तो
उसके सारे शरीर से शलक्त लनकिती रहती है। उसका शरीर परम पलवत्र होता है। यलद कोई परुु ष ऐसे महापरुु ष
के शरीर से िोखे में ही स्पशत हो जाए तो शलक्तपात हो जाता है। यलद ऐसा महापरुु ष लनकट भी खड़ा हो जाए
तो उसके शरीर में शलक्तपात होने िगता है। कुछ समय के लिए नजदीक खड़े सािारण परुु ष के अदं र लवचारों
में पररवततन होने िगेगा। यह लवचार उस महापरुु ष से शलक्तपात के कारण उठते हैं। महापरुु षों के शरीर का
विय अत्यन्त शि ु व शलक्तशािी होता है। इसलिए कहते हैं लक संत परुु षों की संगत से िुरा मनष्ु य भी
अच्छा िनने िगता है। इसका कारण यही है लक संत या योगी के शरीर से लनकिने वािी तेजस्वी लकरणें
गंदे लवचार व कमत करने वािे मनष्ु यों को भी शि ु करने िगती हैं। हमारे कहने का मतिि यह है लक
शलक्तपात स्पशत िारा लकया जाता है।
शलक्तपात नेत्रों के िारा भी लकया जाता है। नेत्रों के िारा शलक्तपात ज्यादातर ति करते हैं, जि सािक
गरुु से दरू ी पर िैठा हो अथवा गरुु की स्वयं इच्छा हो नेत्रों िारा शलक्तपात करने की। वैसे नेत्रों से शलक्तपात
करना सािारण िात नहीं है। नेत्रों से शलक्तपात सभी के िस की िात नहीं है। नेत्रों से शलक्तपात करने के लिए
अभ्यास होना जरूरी है। इस प्रकार के शलक्तपात के लिए योगिि भी िहुत होना आवश्यक है। नेत्रों के मध्य
में िाहरी ओर जो कािा सा लिन्दु होता है, उसी से अत्यन्त तेजस्वी नीिे रंग की लकरणें लनकिती हैं। लजस
पर शलक्तपात लकया जाता है, उसके शरीर के अदं र ये लकरणें प्रवेश कर जाती हैं। नेत्रों के िारा जि शलक्तपात
लकया जाता है, तो शलक्तपात करने वािे की दृलष् उस व्यलक्त के मस्तक पर होती है अथवा लजस स्थान पर
शलक्तपात करना है। आूँखों से आूँखें लमिाकर (दृलष् लमिाकर) भी शलक्तपात करते हैं। आूँखों से शलक्तपात
करने वािे को त्राटक का अभ्यास िहुत अलिक होना चालहए, तभी शलक्तपात का प्रभाव सही प्रकार से
होगा। नेत्रों िारा शलक्तपात करने वािे को एक आराम रहता है। यलद उसके सामने ढेरों लशष्य िैठे हैं और
ध्यान कर रहे हैं, तो गरुु अपने स्थान पर िैठे ही लकसी भी लशष्य पर शलक्तपात कर सकता है। यलद शलक्तपात
करने वािा अलिक शलक्तशािी है, तो वह अपने से िहुत दरू ी तक के मनष्ु य पर शलक्तपात कर सकता है,

सहज ध्यान योग 75


िशते शलक्तपात-कतात को मनष्ु य लदखायी पड़ रहा हो। कुछ गरुु अपने लशष्यों पर शलक्तपात सदैव नेत्रों िारा
ही करते हैं। ऐसे गरुु लनश्चय ही शलक्तशािी होते हैं।
जो मनष्ु य नेत्रों िारा शलक्तपात करने का सामर्थयत रखता है, वह मनष्ु य िड़े आराम से दसू रे मनष्ु य को
अपनी ओर प्रभालवत कर सकता है अथवा अपनी इच्छानसु ार उससे कायत करवा सकता है। ऐसा शलक्तपात-
कतात लवशाि मनष्ु य समदु ाय को प्रभालवत कर सकता है। उसकी दृलष् जहाूँ तक जाएगी, मनष्ु य उसकी ओर
आकलषतत होने िगेगा। इसीलिए िड़े-िड़े योलगयों की ओर भीड़ की भीड़ आकलषतत होती देखी गयी है।
स्वामी लववेकानंद के नाम से सभी िोग पररलचत होंगे। उन्होंने जि पहिी िार अमेंररका में एक सममेिन में
िोिना शुरू लकया, तो सभी उनका प्रवचन सुनते रह गये। वहाूँ उपलस्थत सभी मनष्ु य उनकी ओर इतने
आकलषतत हुए लक उनकी प्रशंसा करने िगे। कभी-कभी यह कहते सनु ा गया लक उस योगी में िहुत आकषतण
है। मैं यह नहीं कह रहा हूँ लक ऐसे महात्मा या योगी अपनी ओर आकलषतत करने के लिए शलक्तपात करते हैं।
ऐसे योलगयों में आध्यालत्मक शलक्त िहुत अलिक होती है, अन्तुःकरण शि ु होता है, योग के कारण चेहरे व
नेत्रों में तेज अलिक होता है। आूँखें तेजस्वी होने के कारण तेजस रूप में शलक्त लनकिती रहती है, लजसके
कारण मनष्ु य प्रभालवत होते हैं। सममोहन करने वािे या जादू लदखाने वािे भी आूँखों से शलक्तपात करते हैं।
ऐसे व्यलक्तयों को अध्यात्म से कुछ िेना-देना नहीं है। वह लसित अपना प्रभाव लदखाने के लिए, अपनी िात
मनवाने के लिए इसका प्रयोग करते हैं। इस क्षमता को प्राप्त करने के लिए त्राटक का अच्छा अभ्यास करते
हैं। िेलकन योगी या गरुु आध्यालत्मक कल्याण हेतु अपने लशष्यों पर शलक्तपात करते हैं।
सक
ं ल्प िारा भी शलक्तपात लकया जाता है। शलक्तपात कतात मन में संकल्प करता है। यही संकल्प उस
व्यलक्त को प्रभालवत करता है, लजस पर शलक्तपात लकया जाता है। जो महापरुु ष संकल्प िारा शलक्तपात करते
हैं, उनकी इच्छाशलक्त िहुत ही शलक्तशािी होती है। ऐसे महापरुु ष को लनयम-संयम भी िहुत अलिक रखना
पड़ता है। इसके अिावा उनका अन्तुःकरण लिल्कुि शि ु होता है, वाणी शि ु होती है। इसके लिए उन्हें
मौन व्रत रखना पड़ता है। लिना मतिि लकसी से िातचीत नहीं करते हैं। इलन्रयों पर भी उनका अलिकार
होता है। उनका अन्तमतन सदा ईश्वर में िगा रहता है, तथा सदैव सत्य वचन िोिने वािे होते हैं। संकल्पशलक्त
िहुत शलक्तशािी होती है। यलद लकसी पर संकल्प िारा शलक्तपात करना है, तो अत्यन्त दरू ी पर लस्थत व्यलक्त
पर भी संकल्प िारा शलक्तपात लकया जा सकता है। पृर्थवी के लकसी भी कोने पर लस्थत व्यलक्त पर शलक्तपात

सहज ध्यान योग 76


करना संभव है, क्योंलक मन की गलत अिाि है। जहाूँ तक मन पहुचूँ जाएगा, वहाूँ तक शलक्तपात करना सभं व
है। सक ं ल्प के िारा गरुु अथवा मागतदशतक अपने लशष्य पर दरू से ही शलक्तपात कर देता है। साि जालहर है
लक ऐसे गरुु अलिक शलक्त सपं न्न होते हैं। सक ं ल्प का असर सािक पर उतना ही पड़ता है लजतना शलक्तपात
सक ं ल्पकतात करता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है लक लकया गया संकल्प परू ी तरह से कायत नहीं करता है।
इसके दो कारण होते हैं– 1. सक ं ल्पकतात का संकल्प कमजोर रहा अथवा शलक्तपात करने के लिए उसकी
सक ं ल्पशलक्त कमजोर पड़ती है, 2. सािक या लशष्य की अभी ऐसी अवस्था नहीं आयी है लक सक ं ल्प िारा
शलक्तपात का उलचत िाभ िे सके । ऐसा ति होता है जि सािक सािना की शरुु आत करता है, ति उसका
शरीर परू ी तरह से अशि ु रहता है एवं सकं ल्पकतात की सक ं ल्पशलक्त अत्यन्त सक्ष्ू म होती है। सकं ल्पकतात
इस अत्यन्त सक्ष्ू म एवं अत्यलिक शलक्तशािी शलक्त को जैसे ही संकल्प िारा भेजता है, तो यह शलक्त उसी
क्षण उस सािक को प्रभालवत करती है लजस पर शलक्तपात लकया जाता है। शलक्त से सािक का सक्ष्ू म शरीर
प्रभालवत होता है। यलद सािक में जड़त्व की मात्रा अलिक है तो उसे यह शलक्त कम प्रभालवत कर पाती है।
यलद सािक में उलचत योग्यता है तो उसका शरीर शि ु होगा, ति सक्ष्ू म शरीर अलिक सलक्रय होगा। सािक
की शि ु ता के कारण सक्ष्ू म शरीर के थोड़े से सलक्रय होने में ही संकल्पशलक्त अपना कायत करना प्रारमभ कर
देती है। गरुु िारा लकया गया शलक्तपात हर एक सािक पर एक-सा प्रभाव करता है। मगर लजस सािक का
शरीर अशि ु होता है उसे शलक्तपात महससू नहीं होता है, क्योंलक शलक्त अशि ु ता में िीन हो जाती है अथवा
अशि ु ता कम कर देती है। इसलिए देखा गया है लकसी सािक पर शलक्तपात का प्रभाव अलिक होता है एवं
लकसी सािक पर शलक्तपात का प्रभाव कम होता है।
सािकों पर कम-ज्यादा शलक्तपात के प्रभाव से यह अथत नहीं है लक गरुु िारा लकया गया सक
ं ल्प उस
कायत को नहीं करे गा। लजसके लिए गरुु ने सक ं ल्प लकया है, कायत अवश्य होगा। जि गरुु को मािमू होगा
सािारण सक ं ल्प का प्रभाव कम पड़ रहा है तो वह सािक का अभीष् कायत करने के लिए जोरदार सक ं ल्प
करे गा। ज्यादा जोरदार सक ं ल्प करने से शलक्त उत्सजतन ज्यादा होगा। सािक के अदं र ज्यादा शलक्त प्रवेश
करने से कायत सिि हो जाएगा, लजसके लिए उसने शलक्तपात लकया है। इसी प्रकार नेत्रों िारा और स्पशत से
शलक्तपात करते हैं। शलक्तपात-कतात स्वयं अच्छी तरह समझ िेता है लक उसे लकतना शलक्तपात करना है।
अभी यह लिखा गया लक शलक्तपात लकतने तरह से करते हैं। शलक्तपात कै से करना चालहए इस पर थोड़ा-सा
लिख रहा ह।ूँ

सहज ध्यान योग 77


शलक्तपात लसित उन्हें करना चालहए जो इस मागत में पररपक्व हों। इसलिए गरुु िारा भिी प्रकार से इस
मागत की जानकारी हालसि कर िेनी चालहए। स्वयं आपके गरुु देव िता देंगे लक आप अि पररपक्व हो गये
है और अि दसू रों का मागतदशतन कर सकते हैं। एक गरुु के सभी लशष्य योग मागत में पणू त योग्य नहीं हो सकते
हैं क्योंलक योग में सभी पणू तता हालसि नहीं कर पाते हैं। योग मागत में पररपक्व सािक मागतदशतन करने में सही
रूप से सक्षम होते हैं। सािकों में भी आध्यालत्मक शलक्त कम-ज्यादा हो सकती है। कुछ सािकों की सािना
िड़ी उग्र होती है। ऐसे सािकों के अदं र शलक्त ज्यादा लनलहत होती है। ऐसे सािक ज्यादा शलक्तपात करने में
सक्षम होते हैं। सािक को मागतदशतन करने से पहिे योग की िारीलकयों को समझ िेना चालहए। लिर अपनी
सतं लु ष् गरुु के सामने ही भिी-भाूँलत कर िेनी चालहए, तालक उसे स्वयं मािमू हो जाए लक वह मागतदशतन के
योग्य है। लिर मागतदशतन के लिए अपने गरुु से आज्ञा िे िें तो और अच्छा है, क्योंलक आपके िारे में आपके
गरुु ज्यादा अच्छा िता सकते हैं लक आप मागतदशतन के योग्य हैं अथवा नहीं हैं। यलद आपको योग के लवषय
में िारीकी से अनभु व नहीं है तो लिर आप मागतदशतन के योग्य नहीं हैं। ऐसी अवस्था में आप लकसी सािक
के मागतदशतन की लजममेदारी न िें अथवा जरूरत पड़ने पर लसित उतना ही मागतदशतन करें लजतनी आपको
जानकारी हो। लकसी पर शलक्तपात तरु ं त न करें । जि िहुत आवश्यकता हो, तभी शलक्तपात करें । शलक्तपात
करते समय आपको अपने अंदर परू ा लवश्वास होना चालहए लक यह कायत अवश्य हो जाएगा। आपकी
इच्छाशलक्त अत्यन्त शलक्तशािी होनी चालहए।
यलद आपका अभीष् कायत एक िार के शलक्तपात से नहीं हो पाया हो तो आप लचंलतत न हों। एक से
अलिक िार आप शलक्तपात कीलजये, लिर कायत अवश्य होगा। योग कोई ऐसी लक्रया नहीं है लक आपके िारा
लकया गया शलक्तपात का िि तरु ं त सामने आ जाएगा। आपका सक ं ल्प सािक के अदं र िीरे -िीरे िलित
होगा। इसका असर भलवष्य में समझ में आयेगा। जि ध्यान सिं िं ी अवरोि दरू लकया जाता है, तो उसका
प्रभाव शीघ्र समझ में आने िगता है। ध्यानावस्था में सािक को अगर उल्टी-सीिी लक्रयाएूँ हो रहीं हों तो
शलक्तपात करके रोक देनी चालहए तथा उलचत लनयम समझा देने चालहए, तालक दोिारा उल्टी-सीिी लक्रयाएूँ
न हों। गित लक्रयाएूँ होने से सािक के शरीर को परे शानी होती है तथा मन भी एकाग्र नहीं होता है। यह
सािना में अवरोि है।

सहज ध्यान योग 78


शलक्तपात के िारा जो काम करना हो उसके लिए मन में पहिे सक ं ल्प करें , लिर शलक्तपात करें । ऐसे
कायों के लिए शलक्तपात लिल्कुि न करें जो अनलु चत हों। शलक्तपात करते समय आपके अदं र से तेजी से
शलक्त लनकिती है। यह वह शलक्त है जो आपने ढेरों कष् सहकर सािना िारा प्राप्त की है, इसलिए आप इसे
सभं ाि कर रलखये। आध्यालत्मक कायत हेतु लसित सपु ात्र पर ही आप अपनी कठोर पररश्रम की कमाई खचत
कीलजये। ऐसे सािकों को दसू रों पर शलक्तपात लिल्कुि नहीं करना चालहए, लजनका अभी सािनाकाि है,
जो अभी अपररपक्व हैं (पणू तता प्राप्त नहीं हुई है) क्योंलक ऐसे सािकों को अभी और सािना करनी है। यलद
ऐसे सािक शलक्तपात करें गे तो उनकी शलक्त ह्रास होगी, लजससे सािना में रुकावट आ जाएगी। शलक्तपात
करते समय शलक्तपात कतात के मन में लकसी प्रकार की लचतं ा या व्यस्तता नहीं होनी चालहए। उसे उस समय
लिल्कुि शांत होना चालहए। लजस सािक पर आप शलक्तपात कर रहे हैं, उस सािक के मन में आपके प्रलत
श्रिा होनी चालहए। अन्यथा आपका शलक्तपात उस पर उतना असर नहीं करे गा लजतना करना चालहए। आप
उतना ही शलक्तपात करें लजतना उलचत हो क्योंलक िार-िार और ज्यादा शलक्तपात करने से आपकी शलक्त
िीरे -िीरे कम पड़ जाएगी। नहीं तो एक ऐसा समय आयेगा लक सािकों पर शलक्तपात का असर नहीं होगा,
इसलिए सीलमत शलक्तपात करें । साथ ही आप भी ध्यान करते रहें, लजससे आपकी शलक्त ध्यान के िारा लिर
परू ी हो जाएगी। आप ध्यान करना िन्द न करें ।
यलद आप अपने अदं र शलक्तपात की क्षमता िढ़ाना चाहते हैं, पहिे जैसी अवस्था िरकरार रखना
चाहते हैं तो आवश्यक है लक ध्यान के साथ-साथ लनयम-सयं म का पािन करें । जैसे भोजन लिल्कुि सालत्वक
करें , कम मात्रा या उलचत मात्रा में भोजन करें , प्राणायाम पाूँच िार करें , ब्रह्मचयत का लनलश्चत रूप से पािन
करें , इलन्रयों को सयं लमत रखें, मन में गित लवचार न आने दें, सदैव कल्याण की भावना रखें, ब्रह्मलनष्ठ और
गरुु लनष्ठ िनें, अखण्ड रूप से ईश्वर का लचन्तन करें , मौन व्रत का पािन करें , िातचीत कम करें , सत्य वचन
िोिें तथा आपकी इच्छाशलक्त िहुत शलक्तशािी होनी चालहए। शलक्तपात करने से पवू त आप ईश्वर से प्राथतना
करें लक अमक ु कायत आपकी कृ पा से मेंरे िारा हो। पणू तरूप से ईश्वर पर और अपने पर लवश्वास रखकर
शलक्तपात करें । आपका कायत अवश्य सिि होगा। हमने यह भी अनभु व लकया है लक कुछ गरुु ओ ं के लशष्यों
की सख्ं या िहुत होने पर शलक्तपात की क्षमता िीरे -िीरे समाप्त हो जाती है अथवा लिल्कुि कम पड़ जाती
है, लजससे मागतदशतन या शलक्तपात में परे शानी अनभु व होने िगती है। ऐसे गरुु ओ ं से मैं यही कहगूँ ा लक लसित
उतने ही लशष्य िनाएूँ लजतनों का आप मागतदशतन कर सकते हैं। अथवा योग के माध्यम से आप इतनी शलक्त

सहज ध्यान योग 79


प्राप्त कीलजयेगा लक कभी भी योगिि की कमी महससू न हो। लप्रय योलगयों व गरुु ओ!ं एक ऐसी लवलि है
लजससे कुछ क्षणों में ही असीलमत शलक्त प्राप्त की जा सकती है। उसका तरीका मैं इस स्थान पर नहीं लिख
रहा हूँ तालक कोई तामलसक सािक या तामलसक योगी इस लवलि का प्रयोग न कर सके । यह अत्यन्त गप्तु है।
यह लवलि हमें स्वयं माता कुण्डलिनी ने ितायी थी क्योंलक वही शलक्त का स्वरूप है। यलद आप कुण्डलिनी
से िात कर सकते हैं तो आप भी जानकारी हालसि कीलजयेगा। यह लवलि अत्यन्त उच्चावस्था के योगी को
ही उपिब्ि हो सकती है।
अि प्रश्न यह उठता है लक शलक्तपात कै से करें । सिसे पहिे आप छोटे-छोटे प्रयोगों में शलक्तपात
करें तालक आपको अभ्यास हो जाए लक शलक्तपात कै से लकया जाता है। आप छोटा सा स्थि ू प्रयोग भी
करके देख सकते हैं। यलद लकसी सािक को िख ु ार आ गया तो आप शलक्तपात करके उसका िख ु ार उतार
सकते हैं। पहिे आप िशत पर चटाई या कंिि लिछा िीलजये। सािक को इसी पर लिटा दीलजये। सािक
को शवासन मरु ा में लिटाना चालहए। लिर आप अपने हाथ की हथेिी को अपने आूँखों के सामने िाएूँ।
हथेिी की उगलियाूँ आपस में सीिी व लचपकी होनी चालहए। अि आप हथेिी व उंगलियों को गौर से
देखें। अपनी इच्छाशलक्त से हथेिी व उंगलियों की कोलशकाओ ं को संदश े भेजें– “हे कोलशकाओ,ं आप
अपने िारा शि ु प्राणवायु को िाहर लनकािो, तालक इस सािक के शरीर में शि ु प्राणवायु प्रवेश करे ,
लजसके िारा िख ु ार उतर जाए”। आप अपना कायत लजममेदारी पवू तक कीलजये। इस प्रकार आप अपने मन में
सक ं ल्प कीलजये। लिर आप सािक की ओर देलखये और िख ु ार से प्राथतना कीलजये– “आप में ब्रह्म की
शलक्त लनलहत है, आप शलक्तशािी हैं, आप इस सािक पर कृ पा कीलजये, आप इसे मक्त ु कर दें।” लिर आप
कुमभक प्राणायाम कीलजये। अपनी हथेलियों को िेटे हुए सािक के मूँहु के सामने िे जाइये। अपनी
हथेिी सािक के शरीर से 3-4 इचं की दरू ी रखते हुए मूँहु के ऊपर से पैरों की ओर िीरे -िीरे िे जाएूँ। इस
िीच आप श्वास न िें। पैरों (सािक के ) के अलं तम लसरे तक (पजं ों तक) िे जाकर एक ओर हाथ को
झटक दें। इसी प्रकार िार-िार लक्रया करें । मूँहु से पैरों तक अपनी हथेिी सािक के उपर से िे जाएूँ और
लिर एक ओर झटक दें। लिर आप श्वास िे िें। कुछ समय िाद आप देखेगें सािक का िख ु ार उतार गया।
िख ु ार इस प्रकार उतरता है– आपके हथेिी व उंगलियों से योगिि रूपी शि ु प्राणवायु लनकिती है, वह
प्राणवायु रोगी सािक के अदं र प्रवेश कर जाती है। शुि प्राणवायु लमिते ही रोगी सािक का शरीर स्वस्थ
होने िगता है। उस समय श्वास इसलिए नहीं िेना चालहए क्योंलक श्वास के िारा रोगी के िख ु ार का प्रभाव

सहज ध्यान योग 80


आपके अदं र न चिा जाए। हाथ झटक देने का अथत है रोगी सािक की अशि ु प्राणवायु एक ओर िें क
दी। िाद में आप श्वास िे िीलजयेगा। एक अन्य तरीका यह भी है, रोगी सािक को आप लिटा िें या िैठा
िें। अपने दालहने हाथ के अंगठू े को भृकुलट पर स्पशत करें । स्पशत कंु भक की अवस्था में करें तथा सक
ं ल्प
करें – “कृपया आप चले जाइये। आप ब्रह्म की शवि से सम्पन्न हैं, इस रोगी पर कृपा करें।” लिर
आप ोर से ओकं ार कीलजये। तीन िार ओकं ार करके आप ईश्वर से भी प्राथतना करें । िख ु ार चिा जाएगा।
अगर तरु ं त नहीं उतरा है तो कुछ समय की चूँलू क प्रतीक्षा अवश्य कर िें, िख ु ार चिा जाएगा।
इसी प्रकार अन्य रोग भी दरू लकये जा सकते हैं। यलद कोई रोग परु ाना है अथवा महीनों तक चिने
वािा है तो लिर यह लक्रया लनयलमत रूप से करनी पड़ेगी। इस प्रकार वात (हड्डी से संिलन्ित रोग) का रोग
ठीक लकया जा सकता है क्योंलक वात के रोग से हड्लडयों में ददत होता है। वैसे यह रोग ठीक करना कलठन
है, मगर नाममु लकन नहीं है। वातरोगी को प्राणायाम करना चालहए। इससे आराम लमिेगा अथवा रोग ही
चिा जाएगा। वात का रोग ठीक करते समय उस स्थान पर हाथ से स्पशत करना चालहए। लकसी नये सािक
को यलद सािना में अतृप्त जीवात्मा परे शान कर रही हो अथवा उससे प्रभालवत हो तो उसे आप शलक्तपात
कर लनकाि सकते हैं। यलद लकसी शलक्तशािी तामलसक शलक्त से प्रभालवत है तो आप उसे अपने सामने
िैठाकर अपनी लदव्यदृलष् से देखें तो अवश्य सिकुछ मािमू हो जाएगा। लिर सािक की भृकुलट पर शलक्तपात
करें अथवा सािक के दोनों हाथों की किाइयाूँ पकड़कर नालड़यों में शलक्तपात करें और प्राथतना करें लक
आप इस सािक को छोड़कर चिे जाएूँ। आपको तामलसक शलक्त से प्रेम का व्यवहार करना चालहए। यलद
वह कुछ इच्छा व्यक्त करती है तो परू ी कर दीलजये तालक वह तृप्त हो सके और कहें– ‘कृ पया आप अि कभी
न आएूँ।’ आप एक ईश्वर भक्त हैं, आपको कल्याण का भाव रखना चालहए। इसलिए अतृप्त जीवात्मा से
क्रोि न करें , िलल्क प्रेमपवू तक उसके साथ सिक
ू करें । आप तालं त्रकों की भाूँलत जिरदस्ती न करें । आपके
अदं र नम्रता होनी चालहए।
आपने देखा होगा एक लनलश्चत अवस्था में सािक को ध्यानावस्था में लक्रयाएूँ होने िगती हैं। इन
लवलभन्न प्रकार की लक्रयाओ ं से ध्यान में अवरोि आता है। मन एकाग्र होने के िजाय चंचि हो उठता है
तथा लक्रयाओ ं के कारण सािक के स्थि ू शरीर को कष् भी होता है। इन लक्रयाओ ं को शलक्तपात करके रोक
देना चालहए। लक्रयाओ ं का कारण नाड़ी शलु ि का न होना है या अन्य कारणों से लक्रयाएूँ हो सकती हैं। इसलिए

सहज ध्यान योग 81


सािक को प्राणायाम ज्यादा करना चालहए। योग के लनयमों का पािन भी करना चालहए। लिर लक्रयाएूँ नहीं
होंगी। ये लक्रयाएूँ अनलु चत हैं। मगर योग में कुछ मरु ाएूँ भी हुआ करती हैं। वह मरु ाएूँ अनलु चत नहीं हैं िलल्क
सही हैं। यलद लक्रयाएूँ पणू तरूप से िन्द नहीं हुई हैं, तो आप दसू रे लदन शलक्तपात करके लक्रयाएूँ िन्द कर दीलजये।
लिर सािक शातं होकर िैठ जाएगा। यलद आपको वाचा लसलि प्राप्त है तो आप लसलि का प्रयोग करके भी
लक्रयाएूँ रोक सकते हैं।
योग में एक महत्वपणू त िात है कुण्डलिनी उठाना (जाग्रत करना, ऊध्वत करना)। वैसे सािक की
कुण्डलिनी कभी भी उठायी जा सकती है। उठाने का अथत है जाग्रत करके ऊध्वत करना। कुछ गरुु अपने लशष्य
की कुण्डलिनी शरुु आत में ही जाग्रत कर देते हैं। कुछ गरुु अपने लशष्यों की कुण्डलिनी सािना की पररपक्व
अवस्था में जाग्रत करते हैं। हमारा सोचना है यलद सािना की पररपक्व अवस्था में कुण्डलिनी उठायी जाए
तो सािकों को कुण्डलिनी से ज्यादा िाभ लमिेगा। क्योंलक सािना के कारण उसका शरीर अलिकांश मात्रा
में शिु हो जाता है, लजससे कुण्डलिनी ऊध्वत होने में आसानी रहती है या शीघ्र ऊध्वत हो जाती है। लजन
सािकों की कुण्डलिनी शुरुआत में जिरदस्ती उठायी जाती है, उनको उतना िाभ तरु ं त नहीं लमिता है
लजतना लमिना चालहए क्योंलक उसकी (सािक की) स्वयं की सािना कुछ भी नहीं होती है। नये सािक को
कुण्डलिनी उठने का िाभ तभी लमिेगा जि वह लदन भर में चार-पाूँच घंटे सािना पर िैठे। उनकी कुण्डलिनी
लिर सषु प्तु अवस्था में नहीं जाती है। यलद सािना की कमी हुई तो कुछ लदनों पश्चात् कुण्डलिनी सषु प्तु अवस्था
में चिी जाएगी। गरुु को लिर दोिारा जाग्रत करनी पड़ेगी। मेरा अनभु व यह है लक जो सािक परू ी तरह से
योग में उतर पड़े हैं, लजन्हें लसित योग करना है तो शरुु आत में यलद कुण्डलिनी जाग्रत कर दी गयी है तो िरु ा
नहीं है। मगर लजन सािकों को थोड़ा योग करना है, िेहतर है उनकी कुण्डलिनी तरु ं त न उठायी जाए। लजन
सािकों को सदैव गरुु के सामने योग करना है, उनकी कुण्डलिनी उठाने या जाग्रत करने में ही िाभ है क्योंलक
गरुु के सामने ध्यान करने के िाद कुण्डलिनी सषु प्तु अवस्था में नहीं जाएगी। कुछ सािक ऐसे होते हैं, लजनकी
कुण्डलिनी स्वयमेव जाग्रत होकर ऊध्वत होने िगती है। ऐसे सािक की सािना लनलश्चत रूप से उग्र होती है।
ऐसे सािकों में शलक्तपात करने की क्षमता जिरदस्त होती है। योग की दृलष् में ऐसा सािक िहुत शलक्तशािी
होता है। ऐसे सािक ही लनलश्चत रूप से गरुु पद के योग्य होते हैं। मागतदशतन करने में सक्षम होते हैं, क्योंलक
ऐसे सािक लपछिे कई जन्मों से योग करते चिे आ रहे होते हैं।

सहज ध्यान योग 82


कुण्डलिनी जाग्रत करने के लिये योगिि अलिक मात्रा में होना चालहए तथा योग के लवषय में
अच्छा ज्ञान होना चालहए। यलद योग में उसे परू ी तरह से अनभु व नहीं है और योगिि भी पयातप्त नहीं है तो
यह कायत नहीं करना चालहए। क्योंलक कुण्डलिनी एक महान शलक्त है। इससे सभी पररलचत हैं। योग के लवषय
में अिरू े ज्ञान वािा सािक यलद कुण्डलिनी उठाने का प्रयास करे गा तो हो सकता है कुण्डलिनी जाग्रत न
हो अथवा कुण्डलिनी उठने के िाद (जाग्रत होने के िाद) भलस्त्रका भी चि सकती है अन्य लक्रयाएूँ भी हो
सकती हैं। इन सिको लनयंलत्रत करने के लिए सामर्थयत होना चालहए। पररपक्व सािक की कुण्डलिनी िड़े
आराम से उठ जाती है, ज्यादा शलक्तपात भी नहीं करना पड़ता। मगर नये सािक की कुण्डलिनी उठाने के
लिए योगिि अलिक खचत करना पड़ता है। कुछ योलगयों से नये सािक की कुण्डलिनी नहीं उठ सकती है।
जरूरी नहीं सभी योलगयों में योगिि की अलिकता हो।
कुण्डलिनी उठाने के (जाग्रत के ) लिए सािक को अपने सामने ध्यान करने के लिए िैठायें। लिर माूँ
कुण्डलिनी से प्राथतना करें – “कृ पया आप सािक के शरीर में जाग्रत होकर ऊध्वत हो जाइये, लजससे आपके
िारा इसका कल्याण हो।” लिर सािक को ध्यान करने को कहें। आप सािक के लसर के ऊपर (सहस्त्रार के
ऊपर) अपनी हथेिी व उंगलियों से हल्का सा दिाव दें अथवा स्पशत करें और जोरदार ओकं ार करें । यह
ओकं ार तीन िार करें । ओकं ार करते समय आप इच्छा कीलजए लक सािक के शरीर में हमारा योगिि व्याप्त
हो रहा है। लिर यही योगिि मि ू ािार चक्र में जाकर लशवलिगं में लिपटी कुण्डलिनी को जाग्रत कर रहा है।
कुण्डलिनी जाग्रत होकर ऊध्वत होने िगी है। ओकं ार करके आप ध्यान पर िैठ जाइए। ध्यान में िैठकर
लदव्यदृलष् िारा सािक की कुण्डलिनी देलखए लक वह ऊध्वत हुई है लक नहीं। यलद नहीं, तो आप लिर से
शलक्तपात कीलजये। लिर लदव्यदृलष् से देलखये तो लदखायी देगा लक लशवलिगं में लिपटा हुआ नाग अपनी
आूँखें खोि रहा है और िन्द कर रहा है। जैसे नींद से जागा हो, आूँखें खोिकर अपने मूँहु से अपनी पूँछ ू
उगिने िगा, लिर अपनी सारी पूँछ ू उगि दी और लशवलिगं के सहारे मूँहु उठाकर खड़ा होने का प्रयास कर
रहा है, थोड़ा सा उठ भी गया है। हो सकता है आपको इससे लमिता-जि ु ता अनभु व आये। यलद आप
लदव्यदृलष् का प्रयोग करें गे तो िगभग इसी प्रकार लदखेगा। एक कायत और करें , अपने योगिि से सािक को
भी कुण्डलिनी उठने का दृश्य लदखा लदया जाए तो अच्छा है। यलद एक िार में कुण्डलिनी न उठे तो कई िार
शलक्तपात का प्रयोग करें , लिर अवश्य उठ जाएगी। पररपक्व सािक की कुण्डलिनी िड़ी आसानी से उठ
जाती है। पररपक्व सािक की कुण्डलिनी ध्यान के कारण पहिे ही आूँखें खोि चक ु ी होती है तथा अपने

सहज ध्यान योग 83


मूँहु से पूँछ
ू भी पहिे उगि दी होती है। शलक्तपात करते ही कुण्डलिनी सािक की योग्यतानसु ार ऊपर तक
आ जाती है। लकसी सािक की स्वालिष्ठान चक्र या नालभचक्र तक आ जाती है। एक और िात याद आयी,
यलद आप अत्यन्त शलक्तशािी हैं तो सािक की भृकुलट पर जिरदस्त शलक्तपात कर उसकी लदव्यदृलष् खोि
दीलजये तो सािक को लनश्चय ही अच्छे -अच्छे अनभु व आएूँग।े लिर लदव्यदृलष् दो-चार लदन में अपने आप
िन्द हो जाएगी।
लदव्यदृलष् का नाम सनु कर आप चौंलकये नहीं। कुण्डलिनी जागरण के समय लदव्यदृलष् भी खोिी जा
सकती है। योगिि पर क्या-क्या कायत नहीं हो सकते हैं। मैंने तीन िार प्रयोग लकया लक कुण्डलिनी के साथ,
तीसरी आूँख भी खोि दी। इससे सािकों को अच्छे -अच्छे अनभु व हुए थे। कुण्डलिनी के कई स्वरूपों का
दशतन लकया तथा और भी अच्छे -अच्छे अनुभव हुए। कुण्डलिनी जाग्रत करने के लिए सहस्त्रार पर शलक्तपात
करना अच्छा होता है, क्योंलक आपकी शलक्त सारे शरीर के स्नायु मंडिों में शीघ्र िै ि जाती है। वैसे भृकुलट
पर शलक्तपात से भी कुण्डलिनी उठायी जाती है। कुछ योगी कुण्डलिनी को उठाने के लिए नालभ से नीचे
स्पशत करते हैं।
कुण्डलिनी नेत्रों के िारा शलक्तपात करके उठायी जा सकती है। नेत्रों से शलक्तपात करके कुण्डलिनी
उठाने के लिए त्राटक का अच्छा अनुभव होना जरूरी है, तभी नेत्रों के िारा ढेर सारी शलक्त िाहर लनकाि
पायेगी। नेत्रों से सािक के मस्तक पर शलक्तपात करना होता है, ति कुण्डलिनी उठती है। वैसे अन्य जगहों
पर भी शलक्तपात करके कुण्डलिनी उठायी जा सकती है। यह लक्रया सभी योलगयों या सािकों से होना
असंभव है। इसी प्रकार सक ं ल्प िारा भी शलक्तपात करके कुण्डलिनी उठायी जाती है। इस लक्रया से कुण्डलिनी
उठाने के लिए सािक का प्रत्यक्ष होना जरूरी नहीं है। उनके गरुु लकसी भी स्थान पर हों तो भी सािक की
कुण्डलिनी मात्र संकल्प से उठा देते हैं।
सािकों! मैंने अपने शोि के समय कुण्डलिनी ज्ञानचक्र के िारा उठायी थी। हर एक मनष्ु य का
ज्ञानचक्र मस्तक पर अदं र की ओर होता है। नेत्रों से शलक्तपात करके ज्ञानचक्र को इतना तीव्र गलत से घमु ाया
लक सािक पहिी िार में गहरे ध्यान में डूि गया। लिर कुण्डलिनी ऊध्वत होने िगी। मझु े िड़ी खश ु ी है लक
मैंने खोज करके इस नयी लवलि से कुण्डलिनी उठायी है। मैंने अपने प्रयोगों में सािकों के चक्र शलक्तपात
करके खोिे हैं। चार चक्र पहिे वािे तो आसानी से खि ु जाते हैं। कण्ठ चक्र जैसा जलटि और अत्यन्त

सहज ध्यान योग 84


कलठन चक्र मात्र कुछ क्षणों में खोि लदया था। इसकी गवाह श्रीमाता जी की तीन लशष्याएूँ हैं जो जिगाूँव
और पनू ा में रहती हैं। सािकों! सिसे पहिे कठोर संयम करके योगिि एकत्र कीलजये। लिर आप जलटि
से जलटि कायत क्षण भर में कर सकते हैं। असीलमत योगिि प्राप्त करने के लिए माता कुण्डलिनी का
आशीवातद चालहए।
हमारे सनातन िमत में प्राण प्रलतष्ठा करने का ररवाज है। जि लकसी मलू तत की स्थापना की जाती है तो
मलू तत में प्राणों का संचार लकया जाता है। इसी को प्राण प्रलतष्ठा कहते हैं। प्राण प्रलतष्ठा के िाद मलू तत पजू ा करने
के योग्य हो जाती है। एक और ध्यान देने की िात है लक आलदकाि में देवता मनुष्य को जीवन दान देते थे
ऐसा परु ाणों में वलणतत है। मगर मनष्ु य यहाूँ पर देवताओ ं की मलू ततयों में प्राणों का संचार करते हैं। सच तो यह
है लक मनष्ु य स्वयं अपने अंदर प्राणों का संचार अवसर पड़ने पर नहीं कर पाते हैं, उस समय देवताओ ं से
प्राथतना करते हैं। मनष्ु य को इतना अपने ऊपर लवश्वास है लक मलू तत में प्राणों का सचं ार हो जाता है। लकसी-
लकसी जगह पर मलू तत हर वषत िदिी जाती है और प्राण प्रलतष्ठा की जाती है। अरे , ईश्वर तो कण-कण में व्याप्त
है लिर मलू तत के अंदर क्यों नहीं होगा। हम प्राण प्रलतष्ठा के लवरोिी नहीं हैं, िलल्क हमारा कहना है जो मनष्ु य
अपने प्राणों को अपने अलिकार में नहीं रख पाता है, वह मलू तत के अंदर क्या संचार करे गा क्योंलक हर व्यलक्त
शलक्तपात नहीं कर सकता है। शलक्तपात करने की योग्यता िाने के लिए आध्यालत्मक मागत का सहारा िेना
पड़ेगा, तभी आपके अदं र शलक्तपात की योग्यता आ पायेगी।
योलगयों में शलक्तपात करने की क्षमता होती है, क्योंलक उन्होंने योग के िारा ईश्वरीय सिा को पहचान
लिया है। ईश्वरीय सिा से अपना समिन्ि स्थालपत कर रखा है। योगी िाहर से सािारण मनष्ु यों के समान
लदखता है, िेलकन अंदर से उसने ईश्वर से समिन्ि िना रखा है। ऐसे योगी या महापुरुष का ईश्वर से समिन्ि
हो चक ु ा है, प्रकृ लत के लनयमों को पहचान लिया है, इसलिए वह शलक्तपात कर सकता है। योगी के िारा की
गयी प्राण प्रलतष्ठा से मलू तत शलक्तशािी हो जाती है, वहाूँ पर एक शलक्त का कें र िन जाता है, आसपास का
वातावरण शि ु हो जाता है। लजससे उस स्थान पर पहुचूँ ने वािे िोगों को िाभ लमिता है। यलद आप ध्यान
दें, तो पायेंगे लक इस प्रकार के स्थान पर पहुचूँ ने वािे िोगों के लवचार कुछ समय के लिए सालत्वक हो जाते
हैं। इसीलिए हमारे िालमतक ग्रन्थों में लशक्षा लमिती है लक िोगों को तीथत स्थानों, मंलदरों, व पलवत्र स्थानों पर
भ्रमण करना चालहए। क्योंलक उस स्थान पर ईश्वर की शलक्त अदृश्य रूप से लवद्यमान रहती है। इससे अवश्य

सहज ध्यान योग 85


िाभ लमिेगा। मगर िाभ तभी लमिेगा जि वह स्थान जाग्रत होगा। इसलिए जाग्रत स्थान में जाकर िोगों
को अवश्य िाभ उठाना चालहए।
यलद मलू तत पजू ा में देखा जाए तो व्यलक्त को िाभ स्वयं अपनी भावनाओ ं िारा ही लमिेगा। यलद उसकी
भावनाएूँ अच्छी नहीं है और शि ु नहीं हैं, तो क्या िाभ लमिेगा! एक िात और कहना चाहगूँ ा। यलद आप
संत परुु षों व योलगयों की समालियों में जाकर प्राथतना करें तो अवश्य िाभ लमिेगा। लजस स्थान पर महापरुु ष
या योगी की समालि िनायी जाती है, उस स्थान से अन्तररक्ष में लस्थत महापरुु ष का अदृश्य रूप में समिन्ि
रहता है। इसी कारण वह स्थान पलवत्र रहता है। मझु े लमरज में सािना करते हुए संत ज्ञानेश्वर जी के दशतन नहीं
हुए। जि मैं उनकी समालि व तपोस्थि (लसि पीठ आलिंदी) पर गया, ति उनके और उनके भाई-िहनों के
दशतन हुए थे। उस समय मैं लदव्यदृलष् का प्रयोग करता था। इतने महान परुु षों के दशतन के लिए लदव्यदृलष् का
होना आवश्यक है। अथवा वे स्वयं लकसी पर कृ पा करें तो दसू री िात है। ज्ञानेश्वर जी की समालि पनू ा के
पास आलिंदी में िनी है।

सहज ध्यान योग 86


योगी और भि
आजकि अभी भी कुछ व्यलक्त यह नहीं समझ पाते हैं लक योगी और भक्त में क्या अंतर होता है। मैं
दो शब्दों में िता द।ूँू जो व्यलक्त इलन्रयों का संयम करते हुए ध्यान लकया करता है, अपने शरीर के अंदर लस्थत
आत्मा का साक्षात्कार करने का प्रयास करता है, अपने शरीर के अंदर ही अंतमतख ु ी होकर खोज लकया
करता है, उसी को योगी कहते हैं। मगर भक्त का मागत अिग होता है। उसका िक्ष्य ईश्वर प्रालप्त होता है। ईश्वर
ब्रह्म का सगणु रूप है। भक्त ईश्वर का लचंतन करता है तथा पजू ा-पाठ करता है। भक्त के लिए नविा भलक्त
करने का उल्िेख लमिता है और योगी को योग के लिए अष्ांग योग करने का उल्िेख लमिता है। योगी का
िक्ष्य लनगतणु ब्रह्म की प्रालप्त है, जिलक भक्त का िक्ष्य सगणु ब्रह्म अथातत ईश्वर की प्रालप्त है। दोनों के मागत
अिग-अिग हैं। योगी अपने मलस्तष्क का लवकास करके ज्ञान प्राप्त करके आत्मा या ब्रह्म से तादात्मय
करता है। भक्त अपने हृदय में लस्थत भावना को प्रिान मानकर ईश्वर से तादात्मय करता है। इसी प्रकार दो
प्रकार के व्यलक्त होते हैं। एक िलु ि प्रिान, दसू रा भावना प्रिान। यह िता पाना लक इनमें कौन श्रेष्ठ है शायद
मलु श्कि होगा। इसलिए अपनी-अपनी जगह पर दोनों श्रेष्ठ हैं।
आजकि देखा गया है लक मंलदर के पजु ारी को कभी-कभी योगी कहकर संिोलित करते हैं। जिलक
योगी और भक्त का मागत अिग-अिग है। मेरा सोचना है लक योगी तो कोई भी िन सकता है, मगर भक्त
िनना जरा मलु श्कि सा है। योगी िनने के लिए दृढ़ इच्छाशलक्त की जरूरत है, क्योंलक योग में कठोर संयम
को अपनाना पड़ता है। लजन परुु षों की इच्छाशलक्त में दृढ़ता है, ऐसे परुु षों में कठोर कायत करने का साहस
िहुत अलिक होता है, तथा कष् सहने की शलक्त अलिक होती है। योगी िनने के लिए सािना करते समय
सािक को शारीररक यातनाएूँ भी सहनी पड़ती हैं, इलन्रय-संयम कठोरता के साथ अपनाना पड़ता है, तभी
सििता प्राप्त करना संभव हो सकता है। लजन परुु षों के अंदर इच्छाशलक्त कमजोर होती है, वे अपने आपको
योग के अनक ु ू ि संयलमत नहीं कर पाते हैं तथा उनसे कठोर पररश्रम भी नहीं हो पाता है। उनमें शारीररक
यातनाएूँ सहने की शलक्त भी नहीं होती है। जि ऐसे पुरुष योग मागत में आ जाते हैं तो कुछ समय िाद वह
डगमगा जाते हैं और सािना करना छोड़ देते हैं। अपनी असििता का सेहरा अपने गरुु के ऊपर मढ़ देते हैं।
कहते हैं लक हम पर गरुु कृ पा नहीं हुई है अथवा ईश्वर की इच्छा ही नहीं है, इसलिए सििता नहीं लमिी है।
यलद आप पूवतकाि का समय देखें तो मािमू हो जाएगा लक अहक ं ारी स्वभाव के परुु षों को योग में िड़ी
जल्दी सििता लमिती रही है। कुछ परुु ष दष्ु स्वभाव के होते हुए भी िड़े-िड़े योगी हुए हैं। इसका कारण

सहज ध्यान योग 87


है लक इनके अदं र इच्छाशलक्त िहुत ही शलक्तशािी होती है। लजस कायत में िग जाते हैं, उस कायत में चाहे
लजतनी परे शानी व कलठनाई आए, कायत करके ही छोड़ते हैं। ऐसे परुु षों को लसित अपना िक्ष्य लदखाई देता
है। जि लकसी परुु ष का िक्ष्य एक होगा, तो वह कठोर पररश्रम व िगन से अपने िक्ष्य को प्राप्त करने में
िग जाता है। इस अवस्था में मन एकाग्र रहता है। मन में जरा भी चचं िता नहीं आती है। इसी प्रकार योग
में भी मन की एकाग्रता चालहए। मन की एकाग्रता से लचि में लस्थरता आएगी। लचि की लस्थरता से योग में
सििता अवश्य लमिेगी। इस प्रकार के परुु षों में योगिि की अलिकता रहती है तथा शलक्तयाूँ भी अलिक
प्राप्त होती हैं। साि जालहर है, कठोर सयं मी योगी अलिक शलक्तशािी होगा। उसके वचनों में शलक्त होती है।
ऐसे शलक्तशािी योगी में श्राप और वरदान देने की शलक्त अलिक होती है क्योंलक उनके शब्दों में दृढ़ता होती
है। उनके मूँहु से लनकिे शब्द संयम और सािना के कारण शलक्त से ओत-प्रोत होते हैं, जो लक शरीर के अंदर
चभु ते चिे जाते हैं तथा सक्ष्ू म शरीर को प्रभालवत करते हैं। श्राप या वरदान के समय योगी का योगिि कायत
करता है। अक्सर देखा गया है योगी परुु ष स्वभाव से क्रोिी होते हैं। इसका कारण यह है लक उनका अहभं ाव
शीघ्र नहीं जाता है। जि अहम भाव चिा जाएगा ति योगी भी िहुत सरि हो जाएगा। क्या आपको
लवश्वालमत्र जी का क्रोि मािमू नहीं है! वलशष्ठ जी के सभी पत्रु श्राप देकर मार डािे; िाद में राक्षसों का
संहार करने के लिए भगवान राम को लिवा िाये थे। जिलक लवश्वालमत्र की इच्छा मात्र से राक्षस नष् हो जाते,
मगर उन्होंने ऐसा नहीं लकया।
हमारे कहने का मतिि यह है लक योगमागत पर चिने वािे सािक की इच्छाशलक्त दृढ़ या ििवान
होनी चालहए, तभी योग में सििता लमिना सभं व है। योग में भावक ु ता से काम नहीं चिता है। कुछ सािक
यह भी कहते हैं लक जि गरुु कृ पा होगी, ति हमारा योग शरू ु हो जाएगा। ऐसे सािकों को कभी भी सििता
नहीं लमि सकती है, क्योंलक पररश्रम नहीं करना चाहते हैं। गरुु कृ पा पर अपनी दृलष् िगाए िैठे हैं। लिना
पररश्रम के आज तक लकसी को कुछ नहीं लमिा है, न लमिेगा। यलद गरुु लिना पररश्रम के सािकों को कुछ
दे सकता तो आज इस दलु नया में सभी योगी ही होते। क्योंलक योग करने की आवश्यकता ही नहीं रहती,
दीक्षा देते समय ही योगी िना देते। मैं लिख चक ु ा हूँ लक गरुु योग का मागतदशतक है, चिना स्वयं आपको है।
हमारे कहने का अथत यह भी नहीं है लक आप ईश्वर को भि ू जायें। ईश्वर को तो सदैव याद रखना चालहए।
ईश्वर लचतं न से आपका अन्तुःकरण शि ु होने िगेगा लजससे आत्म-साक्षात्कार में सहायता लमिती है।

सहज ध्यान योग 88


भक्त का उद्देश्य ईश्वर की प्रालप्त है। भलक्त में भावना प्रिान है। इसलिए भक्त मानस पजू ा के समय
भावक ु होकर प्रेम में रोने िगता है। भक्त के आूँसू लनकि आते है। यलद पजू ा करते समय भक्त में प्रेमभाव
जाग्रत नहीं हुआ तो ईश्वर कै से प्राप्त होगा? लजस भक्त में ईश्वर के प्रलत लजतना अगाि प्रेम होता है, उसे उतनी
ही जल्दी ईश्वर की प्रालप्त होती है। पजू ा के समय आरती उतारना, घटं ी िजाना मख्ु य भलू मका नहीं लनभाता है
ईश्वर प्रालप्त में। िलल्क पजू ा के समय लवशि ु प्रेम ही ईश्वर से तादात्मय करने का सरि उपाय है। भक्त प्रेम में
मग्न होकर ईश्वर की स्तलु त करता है। इससे भक्त का अन्तुःकरण शि ु होता है। लजतनी शीघ्रता से अन्तुःकरण
शि ु होगा, ईश्वर उतनी शीघ्रता से प्राप्त होगा। भक्त के लिए भावक ु होना अलत आवश्यक है, तभी सििता
लमिेगी। मगर योगी को रूखा होना अलत आवश्यक है, ति सििता लमिेगी। जो योगी लजतना रूखा होगा,
उसे उतनी जल्दी सििता लमिेगी। यलद ये दोनों गणु सािकों के िदि जाएूँ, तो दोनों को अपने-अपने िक्ष्य
को प्राप्त करने में परे शानी होगी। भक्त हृदय में लस्थत भावना को प्रिान मानकर हमेशा भलक्त में आनंलदत
रहता है तथा भावना व हृदय को संतष्ु रखना चाहता है। योगी लनगतणु उपासक होने के कारण रूखा होता
है, वह अपनी िलु ि व मलस्तष्क को संतष्ु करना चाहता है तथा शि ु ज्ञान प्राप्त कर आनंलदत रहता है। मैं
भक्त को इसलिए श्रेष्ठ कहता हूँ क्योंलक उसके अंदर अहक ं ार नहीं होता है। योगी के अंदर अहक ं ार रहता है।
िहुत समय िाद तमोगणु ी अहक ं ार जा पाता है।
भक्त हर कायत में ईश्वर की कृ पा मानता है। चाहे उसे कष् लमिे अथवा सख ु , वह यही कहेगा लक ईश्वर
की इच्छा से हुआ, इसलिए हमें कष् की अनभु लू त नहीं होनी चालहए। वह कष् में भी सख ु की अनभु लू त करता
है। योगी हर अच्छी-िरु ी घटनाओ ं में अपने कमत को लजममेदार मानता है। यलद कोई कष् लमिा, तो यही
कहेगा लक यह तो हमारा पवू तकाि का कमत था, उसका तो भोग करना ही पड़ेगा। वह इस स्थान पर ज्ञान का
प्रयोग करता है, तथा कष् की अनभु लू त न करके सख ु की अनभु लू त करता है क्योंलक उसका कमत समाप्त हो
रहा है। िात एक ही है, मगर दोनों की सोच में िकत है। भक्त अपना सिकुछ ईश्वर को सौंप देता है, वह ईश्वर
में शरणागत हो जाता है। योगी योग के िारा माया रूपी ससं ार से परे हो जाता है। प्रकृ लत लिर उसे िन्िन में
नहीं िािं पाती है। योगी शलक्तशािी अलिक लदखाई पड़ता है क्योंलक उसने सयं म के िारा शलक्त अलजतत की
होती है। मगर भक्त की इच्छा की पलू तत ईश्वर करता है क्योंलक उसने सिकुछ ईश्वर को सौंप लदया है।

सहज ध्यान योग 89


रामचररतमानस में एक जगह पर लिखा है– भक्त हमारे लिए िािक के समान है। चूँलू क िािक को
चिने के लिए, खाना लखिाने के लिए माता की आवश्यकता होती है, इसलिए मैं भक्तों का सदैव ध्यान
रखता हूँ क्योंलक भक्त मेंरे सहारे है। योगी भी हमें लप्रय है, मगर वह प्रौढ़ (वयस्क) पत्रु के समान है। उसे माता
चिने के लिए अपनी अूँगि ु ी नहीं पकड़वाती है क्योंलक वह स्वयं चि िेता है, स्वयं अपने सारे कायत कर
िेता है। अि माता से पछ ू ा जाए लक तमु हें कौन सा पत्रु लप्रय है तो वह यही कहेगी लक मझु े दोनों पत्रु लप्रय हैं।
मगर वह अपने वयस्क (प्रौढ़) पत्रु की ओर सदैव ध्यान नहीं देती है क्योंलक िड़ा पत्रु स्वयं अपने आप में
सक्षम है। मगर छोटे िािक की ओर सदैव ध्यान रखती है लक कहीं उसका हाथ आग में न चिा जाए
अथवा वह पानी में न लगर पड़े। इसी प्रकार योगी प्रकृ लत के लनयमों को जानकर स्वतत्रं हो जाता है। भक्त
अपना सिकुछ ईश्वर को सौंपकर स्वतंत्र हो जाता है। भक्त का िक्ष्य है ईश्वर के िोक में रहकर उसका स्मरण
व लचंतन करे । योगी का िक्ष्य है ब्रह्म में िीन हो जाए।
सािकों, अि आप सोचते होंगे लक भक्त और योगी शरीर छोड़कर (स्थि ू शरीर त्यागकर) कहाूँ
चिे जाते हैं क्योंलक इसका वणतन पस्ु तकों में कम ही लमिता है। वैसे मैंने इसकी जानकारी ढेर सारी की है,
मगर संक्षेप में लिखता हूँ क्योंलक प्रकृ लत भी अपने रहस्य छुपाए रखना चाहती है। योगी अपनी योग्यतानसु ार
इस गढ़ू रहस्य की जानकारी कर िेता है। हम सभी जानते हैं लक भूिोक के ऊपर क्रमशुः भवु िोक,
स्वगतिोक, महिोक, जनिोक, तपिोक व ब्रह्मिोक है। भवु िोक व स्वगतिोक से भक्त या योगी का कुछ
िेना-देना नहीं है। योगी जि अपना शरीर छोड़ता है, तो जनिोक या तपिोक में चिा जाता है। यह उसकी
योग्यता पर लनभतर है लक वह लकस िोक में जाएगा। मगर जि भक्त अपना शरीर छोड़ता है, तो अपनी योग्यता
अनसु ार महिोक या जनिोक में पहुचूँ ता है। अि आप जनिोक के लवषय में जानना चाहेंगे। यह एक ऐसा
िोक है जहाूँ योगी और भक्त दोनों रहते हैं। ज्यादा लववरण िोकों के लवषय में िेख में लमि जाएगा।
भगवान गौतम िि ु जी ब्रह्मिोक में सािना करते हैं। वे सदैव समालिस्थ रहते हैं। मीरािाई गोिोक
में हैं। हर योगी या भक्त का ऊपर के िोकों में कहीं न कहीं अलस्तत्व है अथवा लवराजमान हैं। मैं नहीं जानता
हूँ आज तक लकसे मलु क्त लमिी है। यह िात अिग है लक लजन िारपािों को श्राप लमिा था, वे पृथवी पर
रहकर वापस अपने रूप में आ गए हैं, जैसे रावण, लहरण्यकश्यप आलद। इनका अलस्तत्व नहीं है क्योंलक ये

सहज ध्यान योग 90


जय और लवजय थे। जि पृर्थवी पर योलगयों की या भक्त की जरूरत पड़ती है, ति ऐसे योगी या भक्त योग
प्रचार के लिए जन्म ग्रहण करते हैं।

सहज ध्यान योग 91


सन्िं यासी
हमारे सनातन िमत के अनसु ार मनष्ु य का जीवन चार आश्रमों में िूँटा हुआ है। चौथा आश्रम ही
संन्यास आश्रम है। संन्यास आश्रम को अपनाने वािा ही संन्यासी कहा जाता है। पवू तकाि में संन्यास आश्रम
अपनाना सभी के लिए अलनवायत था, मगर अि ऐसा नहीं है। आजकि पहिे के िनाए लनयमों पर नहीं
चिते हैं। संन्यासी वह है लजसने अपनी इलन्रयों िारा अथवा स्थि ू शरीर िारा सांसाररक कायों को त्याग
लदया है, लसित ईश्वर में आस्था रखता हो। इसी प्रकार संन्यासी की वेषभषू ा भी लवशेष प्रकार की होती है
लजससे यह भालषत होता है लक वह परम पलवत्र है और संसार की लकसी वस्तु से िगाव नहीं रखता है।
संन्यासी भगवा वस्त्र इसलिए िारण करता है क्योंलक भगवा वस्त्र अलग्न के समान प्रतीत होता है। अलग्न परम
पलवत्र तत्व है। उसमें दालहका शलक्त होती है। अलग्न में अिमत या िरु े गणु वािे पदाथत डािे जाएूँ तो वह
अपनी दालहका शलक्त से सिकुछ जिाकर भस्म कर देती है। अलग्न सभी पदाथों को भस्म करने के लिए
समभाव रखती है। इसी प्रकार सन्ं यासी के वस्त्र उसका पररचय देते हैं। उसने अपने आपको योग या तपस्या
से अलग्न के समान परम पलवत्र िना लिया है। उसे अि स्थि ू पदाथत प्रभालवत नहीं कर सकते हैं। वह अि
सासं ाररक पदाथों में वासना से रलहत है। िलल्क यलद कोई मनष्ु य सन्ं यासी के संपकत में आएगा तो वह अपने
गणु ों के अनसु ार मनष्ु य को भी पलवत्र कर देगा, मनष्ु य के अदं र की िरु ाइयों को जिाकर भस्म कर देगा।
लजस प्रकार िोहा पारस पत्थर के स्पशत से सोना िन जाता है, िोहे के अदं र से िोहे का गणु दरू हो जाता है
और सोने का गणु आ जाता है, उसी प्रकार संन्यालसयों के सपं कत में िरु ा मनष्ु य भी अच्छे गणु ों वािा होने
िगता है। संन्यासी अपना लसर मडंु वाकर अपने आपको कुरूप िना िेता है। उसे अपने आपको सन्ु दर
लदखाने की कोई अलभिाषा नहीं होती है। सािारण मनष्ु य अपने आपको सुन्दर लदखायी पड़ने के लिए िािों
को अच्छे ढंग से कटवाते हैं, िािों को संवारते हैं, इत्र का भी प्रयोग करते हैं। ऐसा इसलिए करते हैं तालक
अच्छे लदखें। मगर संन्यासी को इससे कोई प्रयोजन नहीं है लक वह सन्ु दर लदखाई दे। उसकी सन्ु दरता उसकी
तपस्या है, उसकी ईश्वर प्रालप्त है। सभी प्रकार के प्रालणयों को ब्रह्ममय देखना, हर समय सभी के कल्याण में
तत्पर रहना और अपना जीवन प्रभ-ु स्मरण व मानव सेवा में समलपतत करना आलद संन्यासी की सुन्दरता है।
सन्ं यासी हम सभी मनष्ु यों की भाूँलत स्थूि जगत में कायत करता है। हममें और उसमें िकत यह होता
है लक हम लजस कायत को करते हैं, उसे अपना समझकर उसी में लिप्त हो जाते हैं। यही लिप्तता या वासना हम
सभी के लिए िन्िन का कारण है। मगर सन्ं यासी लजस कायत को करता है, अपना कततव्य समझकर या ईश्वर

सहज ध्यान योग 92


का कायत समझकर करता है। उसमें लिप्तता नहीं होती। वह ससं ार में रहते हुए भी ससं ार से परे है। लजस प्रकार
कमि कीचड़ में रहते हुए भी कीचड़ से परे रहता है, अथातत कीचड़ का प्रभाव कमि पर नहीं पड़ता है,
उसी प्रकार सन्ं यासी है। सन्ं यासी अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता है चाहे उसे लजतनी स्थिू परे शालनयों का
सामना करना पड़े। इस समय हमें महान सतं किीरदास जी की वह पलं क्तयाूँ याद आ गयीं–
संत न छोड़े संतई कोटिक टिले असंत।
चन्दन टिष व्यापत नहीं टलपिे रहत भजु गं ॥
सन्ं यासी कै से िदि सकता है! उसने तो क्षणभंगुर संसार को पहचान लिया है लक यह संसार नाशवान है।
उसने ईश्वर के स्वरूप का दशतन कर लिया है। उसने अपनी पहचान कर िी है लक मैं कौन ह।ूँ उसने अपने
िक्ष्य को जान लिया है। उसने अपने कततव्य को पहचान लिया है। उसने मि ू तत्व की जानकारी कर िी है,
लिर यह संसार कै से प्रभालवत कर सकता है; अथातत वह इस संसार में रहकर भी संसार से परे है। संन्यासी ने
अपने सारे लचन्ह लमटा लदये हैं। न वह ब्राह्मण है, न वह क्षलत्रय है, न वह वैश्य है और न ही शरू है। आजकि
संन्यालसयों में िगभग दस संप्रदाय देखने को लमिते हैं।
सन्ं यासी िनने के लिए उसकी योग्यता होनी चालहए लक उसने ईश्वर को जान लिया है। आजकि के
संन्यासी ज्यादातर संन्यास िारण के पश्चात राजनीलत में आ जाते हैं, न्यायािय में जाकर मक ु दमेिाजी करते
हैं, आश्रम िनवाकर उसका खचत चिाने के लिए िड़े-िड़े सेठों से रुपये के लिए इच्छा व्यक्त करते हैं, अपना
नाम कमाने के लिए ढेरों लशष्य िनाने शरू ु कर देते हैं, िहुत से संन्यासी ऐसे देखने में आए लजनकी अपने
लशष्यों से िनती नहीं है, झगड़े होते हैं। कुछ संन्यासी अपना जीवन यापन करने के लिए संन्यास िारण करते
हैं। कुछ मनष्ु य अनैलतक कायत करके काननू से िचने के लिए संन्यास िारण कर िेते हैं। हमारे समाज में कुछ
ऐसे भी संन्यासी हैं जो अपनी इलन्रयों को दमन करना तो दरू , व्यलभचार में लिप्त पाये गए। इस प्रकार के
संन्यालसयों ने तो संन्यास िमत पर किंक ही िगा लदया है। आज यह दशा है लक हमारे समाज में िोगों के
संन्यालसयों के प्रलत पहिे जैसे लवचार नहीं रह गये क्योंलक कुछ संन्यालसयों ने ऐसे कायत लकये हैं जो िड़े दख

की िात है। इसी कारण आज का समाज उन संन्यालसयों की भी अवहेिना करता है जो वास्तव में संन्यासी
हैं। ऐसे संन्यालसयों की लगनती भारतभूलम में िहुत कम है। आजकि के संन्यासी ज्यादातर भ्रष् हो गए हैं
क्योंलक वह स्थि ू संसार में ही लिप्त हैं। वह अपना यश और वैभव िढ़ाने के लिए सारे हथकंडे अपनाते हैं।

सहज ध्यान योग 93


अि पहिे जैसे सन्ं यासी नहीं रहे। हमारे देश में एक से िढ़कर एक सन्ं यासी हो चक ु े हैं लजस पर हम सभी
भारतवासी गवत करते हैं, जैसे भगवान गौतमिि ु , भगवान महावीर, आलद गरुु शक ं राचायत जी, गरुु गोरखनाथ,
सतं ज्ञानेश्वर जी, समथत गरुु रामदास, रामकृ ष्ण परमहसं , स्वामी लववेकानदं जी आलद।
आजकि जो वास्तलवक संन्यासी हैं, समाज उनकी पहचान नहीं कर पाता है। ये संन्यासी अत्यन्त
सािारण रूप में रहते हैं, लसित आध्यालत्मक कायों में ही िगे रहते हैं। आजकि के कुछ संन्यासी चमत्कार
भी लदखाते हैं। कहते हैं यह चमत्कार भगवान की कृ पा से हुआ है। भोिी व अनलभज्ञ जनता सही रूप से
समझ नहीं पाती है और चमत्कारी संन्यालसयों के पीछे पड़ जाती है। अध्यात्म और ईश्वर की प्रालप्त के मागत
में चमत्कार कै सा? आजकि के नये-नये संन्यासी भी ढेरों लशष्य िनाते हैं। लिर लशष्यों से अपनी सेवा
करवाते हैं। ऐसे लशष्यों के गुरु जि ईश्वर प्राप्त नहीं कर पाये, तो लशष्यों का उिार कै से होगा? गरुु स्वयं अज्ञान
रूपी अंिकार में पड़ा होता है, सांसाररक रागों में िंसा होता है, तो लशष्य को कै से अज्ञान रूपी अंिकार से
दरू करे गा? िलल्क लशष्य भी उसी अज्ञान रूपी अंिकार में गोते िगाता रहता है। लकसी भी संन्यासी को
लशष्य ति िनाना चालहए, जि उसके अंदर सामर्थयत आ गया हो लक वह अपने लशष्य को ईश्वर प्रालप्त के मागत
में मागतदशतन कर सकता है। मागतदशतन तभी कर पाएगा जि वह इस मागत से परू ी तरह से पररलचत होगा। वह
अपने लशष्य को तभी ईश्वरानभु लू त करा पाएगा जि उसने स्वयं ईश्वरानुभलू त की होगी। इसलिए सािक पहिे
सािना करके प्रकृ लत के लनयमों को समझ िे, ईश्वर की अनभु लू त कर िे, ति संन्यास िारण करे तो अच्छा
है। लिर उसके पतन होने की सभं ावना नहीं रहती है क्योंलक उसने योग के िारा अपनी इलन्रयों को लनलष्क्रय
कर लदया है। उस पर माया का भी प्रभाव नहीं पड़ता है। ऐसे योग्य सन्ं यासी ही समाज का कल्याण कर सकते
हैं तथा सही पथप्रदशतक हो सकते हैं। ज्यादातर आजकि के संन्यासी इलन्रयों के वशीभतू हैं, लिर वह ससं ार
का कल्याण कै से कर सकते हैं!
हमारे देश के सभी संन्यासी यलद अपना स्तर ऊूँचा उठाकर समाज का कल्याण करें , तो लनश्चय ही
समाज में िदिाव आना शरू ु हो जाएगा। समाज को अपना उत्थान करने के लिए एक अच्छा अवसर लमि
सकता है। यलद आज का संन्यासी समदु ाय ही पतन की ओर जाएगा तो इस समाज का पतन होना लनलश्चत-
सा है। पवू तकाि में हमारे ऋलष-मलु न, तपस्वी आलद सनातन िमत में रीढ़ की हड्डी के समान अपना दालयत्व

सहज ध्यान योग 94


लनभाते थे तथा समाज उनके िताए मागत पर चिता था। सन्ं यालसयों का कततव्य है लक समाज के उत्थान हेतु
मनष्ु यों में जागरूकता िाए तथा मनष्ु यों को सन्मागत लदखाएूँ तालक समाज सही मागत पर चि सके ।
एक घटना याद आ गयी। जि मझु े प॰प॰ू श्रीमाता जी ने जि ु ाई 91 में आश्रम में रुकने को कहा,
उस समय माता जी ने कहा था लक आप यहीं आश्रम में रहकर सािना कीलजये तालक आपकी सािना
अच्छी हो। मैं आपको संन्यास की दीक्षा लदिवाऊूँगी, आप संन्यासी िलनये। पहिे आप संन्यासी की योग्यता
प्राप्त कीलजये। उस समय मैंने लनश्चय लकया लक मैं संन्यासी िनूँगू ा। हमने कठोर सािना करनी शरू ु कर दी।
जि लसतंिर के प्रथम सप्ताह में सन् 1992 में हमारा ब्रह्मरंध्र खि ु ा तो मैंने अपना अनभु व श्रीमाता जी को
सनु ाया। वह प्रसन्न हुई और िोिीं लक अि आपको संन्यासी िनने की योग्यता आ गयी है। आपने ब्रह्म का
दशतन लकया है, ईश्वर की अनुभलू त की है। आप सािना कीलजये, समय आने पर स्वामी लचदानंद जी से संन्यास
की दीक्षा लदिवा दगूँू ी। कुछ समय पश्चात हमने लनश्चय लकया लक अभी संन्यासी नहीं िनूँगू ा क्योंलक हमारा
मन अभी संन्यास की दीक्षा िेने के लिए गवाही नहीं देता है। कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद भी संन्यासी
िनने की इच्छा नहीं हुई।

सहज ध्यान योग 95


वैराग्य
आजकि देखा गया है लक जि कोई मनष्ु य गृहस्थ आश्रम को छोड़कर संन्यासी िन जाता है तो
कहा जाता है लक उस व्यलक्त को वैराग्य इतना हो गया है लक वह संन्यासी िन गया। संन्यासी िनकर िहुत
से राजनीलत से समिन्ि स्थालपत कर िेते हैं। िड़ी-िड़ी संस्थाएूँ चिाते हैं, लिर उस संस्था के पद के लिए
झगड़ते हैं। यहाूँ तक लक कभी-कभी अदाित तक पहुचूँ जाते हैं और मक ु दमा भी िड़ते हैं। हमारा ऐसे
व्यलक्तयों के लिए कहना है लक कै सा वैराग्य हुआ अथवा लकस वस्तु से वैराग्य हुआ। इससे अच्छा था लक
गृहस्थ आश्रम में रहकर परोपकार कर सकते थे अथवा आध्यालत्मक मागत पकड़े रह सकते थे। वैराग्य का
यह अथत तो नहीं है लक स्थि ू रूप से लकसी वस्तु का त्याग कर लदया मगर सक्ष्ू म रूप से लकसी न लकसी वस्तु
से जड़ु े रहे। इसे उस वस्तु से कै सा त्याग कहा जा सकता है?
लकसी स्थि
ू वस्तु से अरुलच हो जाने से, लकसी वस्तु के प्राप्त न होने से अथवा लकसी के कहने पर
अमक ु वस्तु का त्याग कर देने आलद से, इस प्रकार इन वस्तओ ु ं को त्यागने को त्याग नहीं कहा जा सकता
है। क्योंलक इस प्रकार से त्यागने पर स्थिू रूप से तो समिन्ि समाप्त हो जाता है, परंतु सक्ष्ू म रूप से तृष्णा
उसके अन्तुःकरण में िनी रहती है। लसित लकसी वस्तु का त्याग करने से उस वस्तु का त्याग नहीं कहा जा
सकता है। ज्ञान के िारा लवषयों को दख ु रूप और िन्िन का कारण समझकर उससे पणू त रूप से सवतथा
अिग हो जाने को वैराग्य कहा जाता है। अि यह कहा जा सकता है लक लकसी भी वस्तु को अचानक
अथवा लकसी के कहने पर स्थि ू या सक्ष्ू म रूप से त्यागा जा सकता है, लजसका वह जन्म-जन्मांतरों से
भोग करता चिा आ रहा है। यह सत्य है लक ऐसे वस्तु का त्याग नहीं लकया जा सकता है क्योंलक सक्ष्ू म
रूप से उस वस्तु के प्रलत वासना या तृष्णा िनी रहेगी। लजस वस्तु का सवतथा त्याग करना है पहिे उसके
लवषय में पणू तरूप से जानकारी कर िेनी चालहए। आप पाएूँगे उस वस्तु के प्रलत सक्ष्ू म वासना व तृष्णा
लवद्यमान है। यह जो वासना और तृष्णा है, इसे योग के अभ्यास के िारा व ज्ञान के िारा दरू लकया जा सकता
है।
सािारण मनष्ु य की इलन्रयाूँ िलहमतख
ु ी रहती हैं जो सांसाररक भोगों में लिप्त रहती हैं। योगाभ्यास के
िारा िलहमतख
ु ी इलं रयायें अंतमतख
ु ी होनी शरू
ु हो जाती है। जि अभ्यास के िारा लचि की वृलियों का लनरोि
होना शरू
ु हो जाएगा, ति उस वस्तु के प्रलत वैराग्य शुरू हो जाएगा। उस समय वैराग्य िारा वासना और

सहज ध्यान योग 96


तृष्णा का प्रभाव कम होने िगेगा। उसी समय अभ्यास के िारा तमोगणु व रजोगणु कम होना शरू ु हो जाएगा।
तमोगणु िीरे -िीरे िि ु ेगा, साथ में रजोगणु भी क्षीण होगा। रजोगणु के क्षीण होने से वासना व तृष्णा कमजोर
पड़नी शरू ु हो जाएगी। अभ्यास के िारा योगी जि उच्चतम लस्थलत को प्राप्त करता है, ति वह तृष्णा रलहत
हो जाता है। उस समय उसे वास्तलवक वैराग्य की प्रालप्त होती है क्योंलक वैरागी वही है जो लवषयों के प्रलत
तृष्णा रलहत हो। अि आप यह भी कह सकते हैं लक यह लस्थलत तो िहुत समय िाद आती है, तो क्या योग
करने से पवू त अथवा योग की प्रारलमभक अवस्था में वैराग्य िारण न लकया जाए। मैं कहगूँ ा अवश्य लकया
जाए। यलद सािक को शीघ्र सििता चालहए तो अवश्य वैराग्य िारण कर िेना चालहए क्योंलक स्थि ू लवषयों
में दोष देखकर स्थि ू रूप से लवरक्त हो जाएगा। लिर योग का कठोर अभ्यास करे गा। इससे लचि में लस्थत
उस लवषय की तृष्णा िीरे -िीरे क्षीण हो जाएगी। दृढ़ता के कारण एक-न-एक समय तृष्णा से अवश्य छुटकारा
लमि जाएगा क्योंलक अभ्यास के िारा लचि लनमति होता है। योग की चरम अवस्था में वास्तलवक वैराग्य की
प्रालप्त होती है। वास्तलवक वैराग्य होने पर तत्त्वज्ञान की प्रालप्त होती है क्योंलक इस अवस्था में रजोगणु व
तमोगणु नाममात्र को रह जाते हैं। कहने का अथत यह है, अगर वास्तव में योग के लिए वैराग्य िारण लकया
है तो ठीक है, इस अवस्था में सािक को परे शालनयों के िावजदू कठोर योग करना है। यलद कोई कहे लक
हमें लिना योग के वैराग्य हो गया इस संसार से, तो शायद वह अपने आप को िोखा दे रहा है। यलद मान िें
लक आपको वैराग्य हो गया है तो क्या आप हमें िता सकते हैं लक आप के लचत से तृष्णा आलद की समालप्त
हो गयी है। लिर वैराग्य के िाद आप िड़ी-िड़ी इच्छाएूँ क्यों व्यक्त करते हैं?
सािारण व्यलक्तयों का कहना है लक अमकु व्यलक्त को वैराग्य हो गया है, इसलिए घर-गृहस्थी छोड़कर
जगं ि अथवा आश्रम में चिा गया है। यलद उसे इतना ज्ञान या वैराग्य हो गया है लक वह स्थि ू जगत से ही
लवरक्त हो गया है, तो हमारा कहना है लक उसे गृहस्थ छोड़कर िाहर जाने की क्या आवश्यकता थी, क्योंलक
स्थिू जगत से अिग होते ही ईश्वर प्रालप्त अथवा लनजस्वरूप में अवलस्थलत की अवस्था प्राप्त हो जाएगी।
लिर उसे योग या भलक्त की क्या आवश्यकता है? योग अथवा भलक्त से लचि में लस्थत सभी वृलियों से मलु क्त
पाना है। जि तक लचि में एक भी वृलि उपलस्थत रहेगी, ति तक वह लकसी न लकसी रूप में स्थि ू जगत से
सिं लन्ित होगा। यह भी सच है गृहस्थ आश्रम में मनष्ु य कभी-कभी स्वयमेव लवरक्त हो जाता है। मगर ऐसा
मनष्ु य िाखों में एक होगा। कुछ ही समय में उन्हें योग में अच्छी सििता लमिने िगती है। इसका कारण

सहज ध्यान योग 97


पवू त जन्म के सस्ं कार हैं। ऐसा मनष्ु य सस्ं कारों के प्रभाव से अपने आप लवरक्त हो जाता है। यह कहा जा
सकता है लक वह तो पवू तजन्म से वैरागी अथवा योगी था। यह सच भी है।
लप्रय सािकों! जि आपका मन ध्येय वस्तु पर लस्थर होने िगे तो समझना चालहए वैराग्य का अंकुर
लनकिने िगा। इसका मतिि यह है लक मन तभी ध्येय वस्तु पर लस्थर होगा, जि मन में अन्य लवषयों के
प्रलत राग कम होने िगेगा। जि तक मन में िाह्य लवषयों के प्रलत राग रहेगा, ति तक लस्थर नहीं होगा। उन्हीं
लवषयों की ओर भागेगा लजनसे राग होगा। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है लक वैराग्य दो प्रकार के होते
हैं। एक वास्तलवक वैराग्य, दसू रा अवास्तलवक वैराग्य। लिना अवास्तलवक वैराग्य के वास्तलवक वैराग्य प्राप्त
नहीं हो सकता है। अवास्तलवक वैराग्य प्रथम सीढ़ी है। लिना प्रथम सीढ़ी के लितीय सीढ़ी पर नहीं पहुचूँ ा जा
सकता है।
यलद वास्तलवक संन्यासी या वैरागी की आप संगत करें गे तो अवश्य िाभ होगा। ऐसे महापरुु ष
अत्यन्त शि ु व पलवत्र होते हैं। लजस स्थान पर ये रहते हैं, वहाूँ का वातावरण भी शिु हो जाता है। यलद
आपको इनके पास कुछ लदन रहने का अवसर लमिे, तो आपके अंदर भी शि ु ता आने िगेगी। ऐसे महापरुु ष
सदैव ईश्वर या योग से समिलन्ित िातचीत करते हैं, उसका असर आपके अंतुःकरण में पड़ेगा। इससे आपके
अंदर िदिाव आना शुरू हो जाएगा, आपका झक ु ाव ईश्वर की ओर होने िगेगा, आप भी ईश्वर लचंतन में
रुलच िेने िगेंगे। इसीलिए कहा जाता है लक मनष्ु य को अच्छी संगत करनी चालहए लजससे मनष्ु य अच्छे
मागत पर चि सके ।
रामचररतमानस में एक कथा है– काकभश ु ंलु ड जी लजस स्थान पर रहते थे, वहाूँ से कािी दरू तक
चारों ओर की जगह अत्यन्त पलवत्र हो गयी। यलद कोई व्यलक्त इस क्षेत्र में आ जाए, तो उसे माया व्याप्त नहीं
होती थी। स्वयमेव राम नाम का उच्चारण करने िगता था क्योंलक वह राम भक्त थे। उनके तप के प्रभाव से
वह स्थान इतना पलवत्र हो गया था। लजस जगह पर लसि परुु ष रहते हों और सत्सगं लकया जाता हो, वह
जगह पलवत्र होती है। लसि परुु षों का विय अत्यन्त शि ु व लवशाि होता है। यलद इनके विय के पास
सािारण रोग वािा रोगी आ जाए, तो रोग अपने आप ठीक होने िगेगा। योगी के शलक्तशािी व तेजस्वी
विय से रोगी के शरीर में शि ु ता आने िगेगी। हो सकता है रोगी रोग मक्त ु हो जाए। आजकि भी यह प्रथा
है लक लसि परुु ष, संन्यासी व वैरागी के दशतनों के लिए मनष्ु य िहुत दरू -दरू से आते हैं तथा दशतन करने का

सहज ध्यान योग 98


िाभ उठाते हैं। इस यगु में ऐसे ही महापरुु षों के िि पर अभी िमत की उपलस्थलत है। अिमत का साम्राज्य नहीं
हो पाया है।

सहज ध्यान योग 99


मृत्यु और मृत्यु के बाद
मृत्यु एक ऐसी घटना है लजससे मनष्ु य का अलस्तत्व ही नष् हो जाता है। इस भि ू ोक का लनयम है
लक लजसने जन्म लिया उसकी मृत्यु अवश्य होनी है। यह प्रकृ लत की ओर से लनलश्चत लकया गया है। यलद
प्रकृ लत का ऐसा लनयम न होता तो आज सृलष् का क्या हाि हुआ होता! इसीलिए सृलष्कतात ने ऐसा लनयम
िनाया है। मृत्यु के नाम से शायद मनष्ु य भयभीत हो जाते हैं। क्योंलक मृत्यु के िाद उनका सिकुछ यहीं छूट
जाएगा। यह भय लसित उन्हीं मनष्ु यों के लिए है जो इस संसार को अपना समझते हैं। सांसाररक पदाथों से
उनका िगाव होता है। इसी िगाव के कारण भय उत्पन्न होता है। जिलक मनष्ु य जानता है लक लजसका जन्म
हुआ है, उसकी मृत्यु लनलश्चत है, लिर भी अज्ञान से उत्पन्न डर महससू होता है। सच तो यह है लक मृत्यु से
लकसी को घिराना नहीं चालहए, क्योंलक मृत्यु के िाद ही मोक्ष समभव है। ईश्वर के िोक में रहने के लिए
मनष्ु य को इस स्थि ू शरीर को छोड़ना ही पड़ेगा। मनष्ु य को दख ु ों से लसित मृत्यु ही छुटकारा लदिा सकती
है। मृत्यु के िाद मनष्ु य अपने कमातनसु ार आगे िढ़ता है। जन्म इस िोक में आने के लिए मजिरू करता है।
मृत्यु इस िोक से छुटकारा दे देती है।
सािारण मनष्ु य अज्ञानता के कारण मृत्यु की इच्छा नहीं करता है। मगर ज्ञानीजन मृत्यु से नहीं डरते
हैं, क्योंलक उन्हें मािमू है लक परमात्मा के पास जाने के लिए मृत्यु के िाद मागत प्रशस्त होता है। मनष्ु य का
शरीर जि अत्यन्त वृि होता है, तो उसके शरीर के अंदर की कायतप्रणािी भी कम ोर पड़ जाती है अथवा
कुछ अवयव कायत करना िन्द कर देते हैं। लजससे उसका स्थि ू शरीर परू ी तरह ठीक से कायत करने में सक्षम
नहीं होता है। शरीर के अंदर की नालड़याूँ ठीक प्रकार से लक्रयाशीि नहीं हो पाती हैं, कुछ तो िेकार सी हो
जाती हैं। माूँसपेलशयाूँ भी रक्तसंचार ठीक न हो पाने के कारण क्षीण होने िगती हैं। प्राणवायु का सही तरह
से संचार नहीं हो पाता है, इसीलिए शरीर की ऊपरी त्वचा लसकुड़ जाती है। मनष्ु य वृि लदखने िगता है।
जि वृिावस्था ज्यादा हो जाती है तो स्थि ू शरीर भी कायत करना िन्द कर देता है। मनष्ु य इस अवस्था में
घोर कष् उठाता है क्योंलक स्वयं कुछ कर नहीं सकता है। लिर भी मनष्ु य मरना नहीं चाहता है जिलक स्थि ू
रूप से कष् भोग रहा है। इसे अज्ञानता नहीं तो और क्या कहेंगे? जि सक्ष्ू म शरीर अपना अलस्तत्व अपने
अंदर समेट िेता है, लिर स्थि ू शरीर का त्याग कर देता है। इसी स्थूि शरीर का त्याग करने को मृत्यु कहते
हैं। जि स्थि ू शरीर िेकार हो गया तो त्याग करना जरूरी हो जाता है। हर मनष्ु य अपने वस्त्रों को परु ाने होने
पर त्याग कर देता है। इसी प्रकार स्थि ू शरीर का सक्ष्ू म शरीर त्याग कर देता है। मगर ऐसा भी देखने को

सहज ध्यान योग 100


लमिता है लक वृिावस्था से पवू त भी मृत्यु हो जाती है, जैसे लशशु अवस्था से िेकर वृिावस्था तक लकसी
भी अवस्था में। इसका कुछ न कुछ कारण अवश्य होता है, तभी मृत्यु होती है, जैसे – लकसी रोग से, शरीर
के अदं र अवयय के कायत न करने से, दघु तटना से, प्राकृ लतक आपदा से आलद। मनष्ु य के जीवन में मृत्यु कि
आ जाएगी, ऐसा कुछ कहा नहीं जा सकता है। सभी मनष्ु यों की मृत्यु अिग-अिग समय होती है। मृत्यु का
समय लनलश्चत नहीं है लक मृत्यु कि आ जाएगी। इसका कारण स्वयं मनष्ु य का अपना कमत है। कमातनसु ार ही
मृत्यु होती है। कहते हैं– मृत्यु पहिे से लनलश्चत होती है लक मृत्यु कि होगी। मृत्यु के समय मनष्ु य को घोर
कष् होता है। शायद इतना कष् उसे पहिे कभी नहीं होता है। इस कष् के लवषय में स्वयं मरने वािा महससू
करता है। इसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता है।
मनष्ु य की मृत्यु के समय उसके शरीर में लस्थत समस्त प्राणवायु का लखंचाव होता है। प्राणवायु के
लखंचाव से उसे असहनीय कष् झेिना पड़ता है। कष् के कारण उसके गिे से आवाज नहीं लनकिती है।
प्राणों के लखंचाव से उसके स्वर कोष सही प्रकार से कायत नहीं कर पाते हैं। वह िोिना चाहता है मगर िोि
नहीं पाता है। उसे आूँखों से लदखायी देना भी िन्द हो जाता है। सवतत्र अंिकार लदखायी पड़ता है। उसकी
स्थिू आूँखें भिे ही खि ु ी हों, लिर भी नहीं लदखायी पड़ता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंलक वास्तव में यह
आूँखें लसित देखने का स्थान हैं। देखने का कायत तो उसके अंदर लस्थत सक्ष्ू म प्रणािी करती है। यह सक्ष्ू म
प्रणािी सक्ष्ू म शरीर के अदं र होती है, अथवा ऐसे समझो– सक्ष्ू म इलन्रयाूँ तो सक्ष्ू म शरीर के अदं र लस्थत हैं।
यही सक्ष्ू म इलन्रयाूँ शरीर के स्थि ू इलन्रयों में व्याप्त रहती हैं। इसीलिए स्थि ू इलन्रयों का कायत सक्ष्ू म इलन्रयों
की इच्छा पर लनभतर है। इसी प्रकार स्थि ू शरीर में सक्ष्ू म शरीर व्याप्त रहता है। सारा कायत सक्ष्ू म शरीर ही
लनयंलत्रत करता है। अि आप जान गये होंगे लक स्थि ू शरीर यत्रं मात्र है। सक्ष्ू म शरीर के िारा स्थि
ू शरीर
लनयंलत्रत लकया जाता है। जि सक्ष्ू म शरीर अपने अदं र सक्ष्ू म तत्वों को समेंटता है ति आूँखों से लदखायी देना
िन्द हो जाता है क्योंलक सक्ष्ू म इलन्रयों का समििं स्थि ू इलन्रयों से कटने िगता है। स्थि ू इलन्रय (आूँख)
तो खि ु ी रहती है मगर सक्ष्ू म से समिन्ि कटने के कारण लदखायी नहीं देता है। इसीलिए मृत्यु के समय उसे
घोर अिं कार लदखता है। िगता है मैं घोर अिं कार में खड़ा ह।ूँ कानों से सनु ाई देना भी िन्द होने िगता है।
जो ग्रलन्थयाूँ सनु ने का कायत करती थी, सक्ष्ू म समिन्ि कटने के कारण सनु ाई देना िन्द होने िगता है या िन्द
हो जाता है, इसलिए वह लकसी भी आवाज को ग्रहण नहीं कर पाता है। उस समय सक्ष्ू म शरीर के िारा अपने
अलस्तत्व को स्थूि से समेंटने के कारण नालड़यों में लखंचाव होता है क्योंलक प्राणवायु नालड़यों में भरी होती

सहज ध्यान योग 101


है। लखचं ाव के कारण नालड़यों में ददत महससू होता है। िगता है कोई नसों को खींच रहा है। कुछ समय िाद
यह लक्रया िीमी पड़ जाती है लजससे मनष्ु य को थोड़ा होश सा आने िगता है। गिे से हल्की आवाज भी
लनकिने िगती है। आूँख भी ििंु िा-ििंु िा देखने िगती है। अि अपने सगे-समिलन्ियों को पहचानने
िगता है। उस समय वह िहुत थका-थका सा िगता है। मगर जैसे ही प्राणों के लखचं ाव का वेग लिर िढ़ता
है तो पहिे जैसी ही असहनीय अवस्था आ जाती है। अपने आपको गहन अिं कार में महससू करता है।
प्राणों के लखचं ाव के कारण उसे िगता है िहुत जोर से आिं ी चि रही है। िीरे -िीरे आिं ी-ति ू ान का रूप
िारण कर िेती है। वह उसी ति ू ान में उड़ रहा है। घोर अिं कार में तेज वायु के िीच उिटा-सीिा होता
हुआ उड़ता है। उस समय घिराहट के कारण वेदना महससू करता है। यह वेदना लसित मरने वािा ही महससू
करता है, शब्दों में वणतन नहीं लकया जा सकता है। लिर यह लक्रया िीमी पड़ने िगती है। मनष्ु य को होश
आने िगता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंलक एक या दो िार में प्राण परू ी तरह से स्थि ू शरीर से समिन्ि
अिग नहीं कर पाता है। इसलिए लखंचाव होता है लिर रुक जाता है। जि रुक जाता है तो होश आने िगता
है। जि अपने पररवारजनों को देखता है, ति तृष्णा के कारण मरना नहीं चाहता है। मगर उसे मािमू है लक
अि मेरी मृत्यु हो जाएगी, ति और कष् महसूस करता है। कुछ समय िाद लिर प्राणों का लखंचाव होता है,
ति कष् के कारण िेहोश हो जाता है। सक्ष्ू म शरीर सूक्ष्म रूप से जि अपने आप को स्थि ू शरीर से समेट
कर अिग कर िेता है, लिर वह स्थि ू शरीर से लनकिकर अिग खड़ा हो जाता है। स्थि ू शरीर सदैव के
लिए लनलष्क्रय हो जाता है।
स्थि
ू शरीर से सक्ष्ू म शरीर के परू ी तरह समिन्ि-लवच्छे द को मृत्यु कहते हैं क्योंलक पचं तत्वों से यक्त

स्थि ू शरीर अि उपयोगी नहीं रह गया। उसी समय नजदीक खड़ा सक्ष्ू म शरीर अपने सगे-समिलन्ियों और
लमत्रों को स्थि
ू शरीर के पास दुःु ख प्रकट करते देखता है। अपने शभु लचतं कों को दख ु ी देखकर वह भी दख ु ी
होता है। उस अवस्था में अपने स्वजनों से िात नहीं कर सकता है क्योंलक वे सक्ष्ू म शरीर में है। स्थि ू मनष्ु य
सक्ष्ू म शरीर से समिन्ि स्थालपत नहीं कर सकते हैं। कुछ व्यलक्त ऐसे होते हैं लक घोर कष् सहने के िाद भी
मरने की इच्छा नहीं करते हैं क्योंलक मृत्यु के समय कभी उन्हें होश आता है तो कभी कष्ों के कारण िेहोश
हो जाते हैं। होश आने पर जीने की इच्छा करते हैं जिलक उनका शरीर लिल्कुि वृि हो चक ु ा होता है। स्थि ू
जीवन में उन्हें शरीर कमजोर होने के कारण कष् उठाना पड़ता है। अपना एक अनुभव लिख रहा हूँ– जि मैं
लमरज आश्रम में सािना करता था उस समय का यह अनभु व है। शायद यह िात सन् 1992 की होगी। हमारे

सहज ध्यान योग 102


पररवार में एक मलहिा (ररश्ते में थोड़ी दरू की) लिल्कुि वृि हो गयी थी। शरीर अत्यन्त कमजोर लसित
हड्लडयों का ढाूँचा था। मृत्यु के समय दो िार िच गयी। थोड़ा सा मृत्यु का कष् हुआ। मगर उसे जीने की
िड़ी इच्छा थी। वह दृढ़ इच्छा शलक्त के कारण कुछ समय के लिए िच गयी। कुछ समय िाद उसकी मृत्यु
हो गयी। यह सि मैं लमरज (महाराष्र) से लदव्यदृलष् के िारा देख रहा था। हमने अपने घर (कानपरु , उिर
प्रदेश) पत्र भेजकर जानकारी हालसि की, तो मािमू हुआ िात सही थी। लिर मैंने अपने योगिि पर मृत्यु
को प्राप्त होते हुए मनष्ु यों को देखना शरू
ु लकया लक मृत्यु के समय कै सी अनभु लू त होती है। तो पाया अत्यन्त
डरावनी व कष्दायक मृत्यु होती है।
मनष्ु य की मृत्यु के पश्चात् उसके लनकट समिन्िी ही उसके स्थि ू शरीर को शीघ्र से शीघ्र शमशान
भलू म पर िे जाने की तैयारी में जटु जाते हैं। िड़े आश्चयत की िात है- लजस व्यलक्त ने अपना सारा जीवन
पररवार के भरण-पोषण में व्यतीत कर लदया, अि मृत्यु के पश्चात् उसे देखना पसन्द नहीं करते हैं। कारण
साि है, उसकी मृत्यु हो गयी है। इस प्रकार की घटना सभी व्यलक्तयों के साथ घटती है। मृत्यु के िाद कोई
लकसी का नहीं होता है। लिर भी सारा जीवन वह अज्ञानतावश अपने पररवार के लिए और अपने लिए, हर
तरह के कमत करने में लझझकता नहीं है। हमारे कहने का मतिि हर आदमी जानता है लक इस संसार में कोई
अपना नहीं है, लसित कमत ही उसका साथ देगा। लिर भी जान-िझू कर पररवार वािों के प्रलत सख ु -सलु विाएूँ
जटु ाने के लिए उिटे-सीिे कायों में िगे रहते हैं। मृतक के कई शभु लचन्तक या लनकट समिन्िी श्मशान भलू म
पर जाकर उसकी लचता िगाकर अलग्न देते हैं। उस समय सभी उपलस्थत व्यलक्तयों के अन्दर वैराग्य आ जाता
है लक ससं ार में कोई अपना नहीं है। मगर लिर घर आकर पहिे जैसे हो जाते हैं। सभी मनष्ु यों को लशक्षा िेनी
चालहए लक यह ससं ार कै सा है। इस प्रकार की मृत्यु सािारण व्यलक्तयों की होती है।
लजन िच्चों की मृत्यु एकदम अल्पायु में हो जाती है, उन्हें यह जगत स्वप्न सा प्रतीत होता है। क्योंलक
अभी उनके अन्दर अपने-पराये आलद का भाव ही नहीं आ पाया था। लजन व्यलक्तयों की मृत्यु एकदम शीघ्र
हो जाती है, उन्हें इस प्रकार की अनुभलू त नहीं होती, जैसे दघु तटना से, आत्महत्या से, प्राकृ लतक आपदा से।
रोगी को भी इस प्रकार की अनभु ूलत हो सकती है अथवा नहीं भी हो सकती है। यह तो उसके रोग से लनलश्चत
होगा क्योंलक कुछ रोगी मृत्यु के समय कािी देर तक तड़पते हैं, कुछ शीघ्र मर जाते हैं, जैसे हृदय गलत रूक
जाने से शीघ्र मृत्यु हो जाती है।

सहज ध्यान योग 103


योलगयों को मृत्यु के समय दख ु नहीं उठाना पड़ता है तथा उनके अन्दर यह भी क्षमता होती है लक
मृत्यु को कुछ समय के लिए टाि दें। यलद योगी अत्यन्त उच्च लस्थलत को प्राप्त कर चक ु ा है तो लिर उसे मृत्यु
सािारण सी घटना लदखायी देती है क्योंलक उसे यह ज्ञान होता है लक उसे उच्च िोक में जाना है, वह इस
मृत्यु िोक में और क्यों जीवन व्यतीत करे । सािारण मनष्ु यों को मृत्यु के समय प्राण के लखचं ाव के कारण
असहनीय कष् महससू करता है। मगर योगी का तो यह रोज का अभ्यास है। वह अपनी प्राणवायु को एक
जगह पर लस्थर करता है, लिर उस प्राण को ब्रह्मरंध्र के अन्दर प्रवेश करा िेता है। इस प्रकार सारे शरीर का
प्राण ब्रह्मरंध्र में लस्थर हो जाता है। यह अभ्यास वह कई वषों तक समालि अवस्था में करता है। मृत्यु के
समय योगी अपना सक्ष्ू म शरीर ब्रह्मरंध्र के िारा िाहर लनकािता है, लजससे वह ऊध्वत गलत को प्राप्त होता है।
मगर सािारण मनष्ु य का सक्ष्ू म शरीर अिोगलत से िाहर लनकािता है। लिर उसके कमत लनलश्चत करते हैं लक
अि उसे कहाूँ जाना है। योगी परुु ष की मृत्यु लकस प्रकार होती है, यह अभी मझु े ठीक से मािमू नहीं है। यह
तो मािमू है लक ब्रह्मरंध्र में प्राण लस्थर करके लिर शरीर का त्याग करते हैं। वैसे योगी समालि अवस्था में
िाहर लनकिता है, मगर उस समय वह पणू त रूप से िाहर नहीं लनकिता है क्योंलक सक्ष्ू म शरीर का स्थि ू
शरीर से सक्ष्ू म रूप से तारतमय िना रहता है। मृत्यु के समय शरीर से पणू त रूप से िाहर लनकि जाता है। मझु े
याद आ रहा है लक लमरज में एक अनभु व हुआ था। वह अनभु व ब्रह्मरंध्र का था। मैं एक ऐसे स्थान को देख
रहा था जो काूँच के समान पारदशी था। उसी समय मैं कहता ह–ूँ योगी अपना शरीर छोड़ते समय इसी स्थान
से िाहर लनकि जाते हैं।
योगी और सािारण मनष्ु य अपना स्थि ू शरीर छोड़ने के िाद अपने-अपने अिग-अिग मागत से
जाते हैं क्योंलक दोनों का अिग-अिग गन्तव्य मागत होता है। योगी परुु ष अपना सक्ष्ू म शरीर छोड़ने के िाद
अपनी योग्यतानसु ार ऊपर के िोकों में जाता है। सािारण परुु ष की मृत्यु के पश्चात् तृष्णा और अज्ञानता के
कारण उनकी इच्छाएूँ अि भी अपने पररवार व स्वजनों के प्रलत िनी रहती हैं। इन इच्छाओ ं को वासना भी
कहते हैं। इन वासनाओ ं के कारण ऐसी जीवात्माओ ं को कष् महससू होता है। इसलिए ये वासना देह में चिी
जाती हैं। वासना देह में ये जीवात्माएूँ अतृप्त रूप से पृर्थवी की पररलि में भटकती रहती हैं। सक्ष्ू म शरीर के
ऊपर वासना देह की एक िहुत पतिी पारदशी लझल्िी-सी चढ़ जाती है। इस देह को प्राप्त करने वािी
जीवात्माएूँ कष् भोगती रहती हैं क्योंलक इनकी अि भी इच्छाएूँ चिती रहती हैं। जि तक इच्छा की पलू तत
नहीं होती है, ति तक भटकती रहती हैं। वैसे ये जीवात्माएूँ अपना समिन्ि घरवािों से िनाने का प्रयास

सहज ध्यान योग 104


करती हैं, मगर सक्ष्ू म शरीर में होने के कारण स्थि
ू शरीर िारी से समिन्ि स्थालपत नहीं हो पाता है। सािारण
िोगों की योग्यता नहीं होती है लक सक्ष्ू म शरीर का समिन्ि महससू कर सकें । ये अतृप्त जीवात्माएूँ ज्यादातर
भोजन व पानी की इच्छा व्यक्त करती हैं। लकसी योग्य सािक के पास जाकर अपनी इच्छा जालहर करती हैं।
सािक के अन्दर योग्यता होती है लक वह सक्ष्ू म शरीर वािी जीवात्माओ ं का सक ं े त समझ सकें अथवा उनसे
िात कर सकें । यलद लकसी सािक या योगी ने उसे तृप्त कर लदया तो इच्छापलू तत होते ही उनकी वासना समाप्त
हो जाती है और वे ऊध्वत िोक में अपना कमत भोगने के लिए चिी जाती हैं। अथवा योगी चाहे तो अपने
योगिि से इन जीवात्माओ ं को ऊध्वत कर सकता है। यलद एक िार आपने यह कायत कर लदया तो आपके
पास ढेरों अतृप्त जीवात्माएूँ आकर कतार िगाएगं ी और ऊध्वत करने की इच्छा व्यक्त करें गी। लिर आप इसी
कायत में व्यस्त हो जाएूँगे, आपके योग मागत में अवरोि आ जाएगा। इससे अच्छा है लक आप इस कायत में न
िगें। उन्हें प्यार से समझा दें तो लिर जीवात्माएूँ वापस चिी जाएगी। उन्हें अपना कमत भोगने दें, ऐसी
जीवात्माओ ं का यह कमत होता है। लजन जीवात्माओ ं की िहुत लदनों तक इच्छापूलतत नहीं होती है, लिर वे
लनराश हो जाती हैं। इनकी इच्छा चिनी िन्द हो जाती है। वे स्वयं लिर ऊध्वत हो जाती हैं। इस वासना देह
की उम्र थोड़ी भी होती है और िहुत ज्यादा भी होती है। मैंने अपने जीवन में ढेरों जीवात्माओ ं से समिन्ि
लकया तथा िातचीत की तो पाया लक सौ वषत से भी ज्यादा समय से अतृप्त रूप से भटक रही हैं। सभी
जीवात्माएूँ अपनी जीवन कहानी िताती थी। मैंने योगिि पर कई जीवात्माओ ं को ऊध्वत भी लकया है।
ये अतृप्त जीवात्माएूँ अपनी इच्छा से कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकती हैं जि तक इन्हें योग्य सािक
िारा लदया न जाए। छोटे िच्चे मरने के िाद इस वासना देह में नहीं जाते हैं, क्योंलक उनके अन्दर अभी तृष्णा
नहीं जाग्रत हुई है। कुछ परुु ष ऐसे भी हैं जो मात्र कुछ लदनों या महीनों के लिए इस देह में जाते हैं। जो सालत्वक
लवचार के होते हैं, उनमें से कुछ तो वासना देह में चिे जाते हैं और कुछ मात्र कुछ समय के लिए जाते हैं।
लजनकी अकाि मृत्यु होती है, आत्महत्या कर िेते हैं अथवा प्रकृ लत के प्रकोप से मरते हैं, वे अवश्य
वासनादेह में जाते हैं क्योंलक इनकी उम्र अभी परू ी नहीं हुई थी। ये वासनादेहिारी पृर्थवी की पररलि में रहते
हैं, ऊध्वत नहीं हो सकते हैं। इन जीवात्माओ ं की इच्छाएूँ तो चिती हैं, मगर इच्छाओ ं के भोग के लिए स्थि ू
शरीर चालहए। यह शरीर उसके पास होता नहीं है तो मानलसक कष् होता है। यह कष् स्थि ू अवस्था के कष्
से ज्यादा होता है।

सहज ध्यान योग 105


कभी-कभी ऐसा देखा गया है लक कुछ अतृप्त जीवात्माएूँ अपनी इच्छा की पलू तत के लिए लकसी दसू रे
व्यलक्त के शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और उस व्यलक्त को मािमू नहीं पड़ता है। कभी-कभी मािमू पड़ता है
तो उसे अपने शरीर में कष् महससू होता है। ऐसी जीवात्माएूँ उन्हीं व्यलक्तयों के शरीर में प्रवेश करें गी जो
नशीिे पदाथों का सेवन करते हैं, इच्छाशलक्त कमजोर होती है, अलिक आिस्य रहता है, अपलवत्र रहते हैं
तथा लजनके शरीर में जड़ता अलिक होती है। प्रवेश करने के िाद ये अपनी इच्छाएूँ उस व्यलक्त के शरीर िारा
भोगकर तृप्त करती हैं, लिर उस व्यलक्त के शरीर से लनकि जाती हैं। मैंने अपने अनभु व में लिखा है लक ऐसी
ही एक अतृप्त जीवात्मा एक सालिका के शरीर से लनकािी थी। पहिे जि इस जीवात्मा ने हमसे िदतमीजी
की, उस समय मैं कुछ न िोिा। लिर उस सालिका को हमारे पास रहने का अवसर लमिा। हमने कई िोगों
के सामने जिरदस्ती उस अतृप्त जीवात्मा को िाहर कर लदया। चिते समय हमने पछ ू ा – “आपको क्या
चालहए, शायद मैं आपकी इच्छा पूलतत कर द?ूँू ” मगर उसने हमसे व सालिका से हाथ जोड़कर मािी माूँगी,
अपनी गिती महससू की और हमेशा के लिए चिी गयी।
कुछ समझदार जीवात्माओ ं को समझ आ जाता है लक हमारी मलु क्त योगी कर सकता है। ति ये
जीवात्माएूँ योगी या सािक से समिन्ि स्थालपत करने का प्रयास करती हैं। लिर अपनी िात योगी से कहती
हैं। अि यह योगी के ऊपर है लक वह ऊध्वत करे अथवा न करे । आप सोचते होंगे लक ये जीवात्माएूँ कै से जान
जाती हैं लक अमक ु व्यलक्त योगी या सािक है। ये जीवात्माएूँ ज्ञान के िारा जान िेती हैं तथा योगी का विय
देखकर जान जाती हैं लक यह योगी है। योगी का विय अत्यन्त तेजस्वी व शलक्तशािी होता है। ये जीवात्माएूँ
इच्छा करते ही पृर्थवी के लकसी भी स्थान पर क्षण भर में पहुचूँ जाती हैं। ऐसी जीवात्माएूँ पृर्थवी तथा अंतररक्ष
में एक लनलश्चत ऊूँचाई तक इच्छानसु ार लवचरण कर सकती हैं। कभी-कभी अतं ररक्ष की एक लनलश्चत ऊूँचाई
तक इच्छानसु ार लवचरण करती हैं। ऐसी जीवात्माएूँ ज्यादातर उस स्थान पर रहती हैं जहाूँ उनकी मृत्यु होती
है। कभी-कभी ऐसी जीवात्माएूँ एक झण्ु ड िनाकर भी रहती हैं। इनका आपस में मेि भी रहता है। ऐसी
जीवात्माएूँ उच्चकोलट के योलगयों से समिन्ि स्थालपत नहीं करती हैं क्योंलक योगी का विय अत्यन्त तेज
होता है और शरीर के अन्दर शि ु ता भी अलिक होती है। उच्चावस्था के कारण योगी का समिन्ि कारण
जगत से रहता है। सक्ष्ू म जगत से परे कारण जगत है। इसी कारण ऐसी जीवात्माएूँ योगी से समिन्ि नहीं िना
पाती हैं। यलद कोई सािक ऐसी जीवात्माओ ं से कायत िे तो वह अपनी योग्यतानुसार कायत भी कर देती हैं,
मगर सािक को ऐसा नहीं करना चालहए।

सहज ध्यान योग 106


मैंने अपनी जानकारी से पाया लक ऐसी जीवात्माएूँ कभी-कभी आपस में झगड़ा भी करती हैं। झगड़ा
करने से इनके पण्ु य क्षीण होते हैं और इनकी अवलि वासना देह में और िढ़ जाती हैं। कुछ जीवात्माएूँ
लिल्कुि चपु चाप रहती हैं। जि मैंने कुछ जीवात्माओ ं से कहा– “आपके पास कोई कायत नहीं होता है तथा
परे शानी भी महससू करती हैं। अतुः आप ईश्वर का नाम िीलजए तथा आप मत्रं जाप कीलजए, आपका उिार
होगा”। जीवात्मा ने िताया– “ईश्वर का नाम िेने के लिए हमारी इच्छा नहीं होती है”। मैं िोिा– “यलद आप
कुछ समय तक ‘ॐ नम: लशवाय’ का जाप करें तो मैं आपको ऊध्वत कर दगूँू ा”। जीवात्मा िोिी– “मैं ईश्वर
का नाम नहीं िूँगू ी, चाहे आप ऊध्वत करें अथवा न करें । हम अपनी इच्छा के वश में हैं, इसलिए नाम नहीं
िे सकते हैं। यलद नाम िे िेते तो आपके पास क्यों आते। कृ पया आप ऐसी शतत न रखें, आप योगी हैं”। मैंने
अपने िचपन के एक दोस्त को ऊध्वत लकया था, उसने लकसी कारण से आत्महत्या कर िी थी। तथा एक
िड़की को भी ऊध्वत लकया था, वह हमारे गाूँव की थी, 18-20 वषत की थी। घरवािों ने उसकी हत्या कर
दी थी। पहिे मैंने अपने लमत्र को ऊध्वत लकया। ऊध्वत करने का लदन लनलश्चत कर लदया था। पहिे मैंने उन्हें
अच्छा भोजन कराया। लिर अपने योगिि पर भुविोक भेज लदया था। जाते समय देखा लक वे िड़ी तीव्रता
से ऊपर जाने िगे क्योंलक मैंने ढेर सारा योगिि िगा लदया था। ऊपर जाते समय कािे रंग के घने िादि
लमिे। उन्हीं िादिों के अंदर से प्रवेश करके भवु िोक के िार पर पहुचूँ े। िार खुि गया, लिर अन्दर गये।
आगे चिकर लिर िार लमिा, उसके अन्दर चिे गये।िार अपने आप खि ु जाता था और िन्द हो जाता था।
लिर अन्दर जाकर एक स्थान पर िैठ गये। मैं िोिा- “लमत्र, आगे िढ़ो”। उसी समय प्रकृ लत देवी प्रकट हो
गयी और िोिी– “योगी, अि यह जीवात्मा आगे नहीं जा सकती है”। लिर देवी अदृश्य हो गयी। यही
घटना उस िड़की के साथ भी घटी। यह दृश्य लदव्यदृलष् िारा देखा गया। रास्ते में जो घने कािे िादि लमिे,
वे पृर्थवी और भवु िोक की सीमा है। अतृप्त जीवात्माएूँ इस सीमा को पार नहीं कर सकती हैं।
अतृप्त जीवात्माएूँ पृर्थवी की पररलि में जि भटक-भटककर परे शान हो जाती हैं, तो अपने आप
उनकी समझ में आ जाता है लक ऊध्वत होकर अपना कमत भोग िें, तभी जन्म समभव है। इसलिए ऊध्वत होने
की इच्छा करती है। शायद मैं अतृप्त जीवात्माओ ं पर ज्यादा लिख गया, अि थोड़ा आगे लिखूँगू ा। जि
जीवात्मा ऊध्वत होकर ऊपर जाती है तो भवु िोक में पहुचूँ ती हैं। भवु िोक में एक ऐसा स्थान है जहाूँ कमों
का लनणतय होता है। कमों के अनसु ार लिर लनलश्चत अवलि तक लवलभन्न प्रकार के नरकों में कष् भोगते हैं। ये
कष् िहुत ही भयंकर होते हैं, इनका मैं वणतन नहीं करना चाहता ह।ूँ जि जीवात्मा लनलश्चत मात्रा में अपने कमत

सहज ध्यान योग 107


भोग िेती है, उसके िाद लिर यलद उसके अन्दर पण्ु य कमों के कमातशय हैं, तो वह जीवात्मा लपतर िोक
भेज दी जाती है अथवा चिी जाती है। लपतर िोक सख ु का स्थान है। यलद जीवात्मा के पण्ु य कमत भोगने
वािे कमातशय नहीं हैं तो जन्म िेने के लिए पृर्थवी पर भेज दी जाती है। जन्म कहाूँ िेना है, यह स्वयं जीवात्मा
जान िेती है। नरक में कमत लनलश्चत मात्रा में भोगे जाते हैं तालक कमत शेष भी रहें। यलद सभी कमत वहाूँ नष् कर
लदये जाएूँगे तो जन्म िेना मलु श्कि हो जाएगा। कमत भोगने के िाद लनलश्चत होता है लक अि जीवात्मा को
लकस योलन में जन्म िेना है। यलद मनष्ु य योलन में जन्म िेना है तो अपने मि ू रूप में (सक्ष्ू म शरीर) िना रहेगा।
यलद अन्य योलन में जन्म िेना है तो भवु िोक से अपने आप पतन हो जाएगा। िलु ि भी अत्यन्त जड़ हो
जाएगी। अपना सि कुछ भूि जाएगी। लिर पृर्थवी पर जन्म िेने के स्थान पर स्वयमेव आ जाएगी। भवु िोक
से जो जीवात्माएूँ सीिे मृत्यि ु ोक (पृर्थवी) पर जन्म िेने के लिए आती हैं, उनके कायत लनश्चय ही पाप से यक्त ु
होते हैं। ऐसी जीवात्माओ ं के अन्तुःकरण पर पाप कमों के कारण मलिनता व अंिकार का आवरण अलिक
मात्रा में लवद्यमान रहता है, लजससे उन्हें मनष्ु य शरीर िारण करने के लिए उपयक्तु नहीं माना जाता है। अपने
अन्तुःकरण पर लस्थत पाप कमों को कम करने के लिए मनष्ु य से लनमन जालत के शरीर में जन्म ग्रहण करना
पड़ता है, जैसे पश,ु पक्षी, रें गने वािे प्राणी व जिीय प्राणी, कीड़े मकोड़े तथा पेड़-पौिे आलद। सिसे अलिक
लनमनकोलट के कमत वािे जीवात्मा को पेड़-पौिों के रूप में जन्म ग्रहण करना पड़ता है। ये सभी भोग योलनयाूँ
है। इसमें लसित तमोगणु ी कमत भोग कर नष् करना होता है। ऐसी जीवात्माओ ं को अपने जीवनकाि में कष्
ही कष् भोगना पड़ता है। अपना नया कमत नहीं िना सकती है। इसी प्रकार की जीवात्माएूँ लकसी भी प्रकार
से अपना उिार करने के लिए अच्छा कमत नहीं कर सकती है। इसीलिए इन्हें लनमनकोलट की जीवात्माएूँ कहा
जाता है। लसित अपने कमातशयों को भोगकर नष् कर सकती है। जन्म िेने के लिए जि भवु िोक से भि ू ोक
के लिए आना होता है, वहाूँ स्वयं पहुचूँ जाती हैं। ऐसा कमातशयों के िारा होता है। उनका अन्तुःकरण पाप
कमों से आच्छालदत होने के कारण मढ़ू ावस्था को प्राप्त हो जाता है। इसलिए इस अवस्था में िलु ि की सोचने-
समझने की क्षमता िुप्त हो जाती है। ऐसी अवस्था में चाहे सुअर, कुिा, िैि, भैंस, शेर, लसयार, पक्षी, पेड़
आलद शरीर िारण करना पड़े तो उसे कोई फ़कत नहीं पड़ता है। उसे ऐसा शरीर क्यों लमिा, यह भी उनके
सोचने का लवषय नहीं होता है।
जो जीवात्मा पण्ु य भोगने के लिए लपतर िोक चिी जाती हैं, उन्हें सख ु ही सख ु लमिता है। लपतर
िोक सख
ु का स्थान है। जीवात्माएूँ स्वतन्त्र लवचरण करती हैं। वहाूँ भख
ू है न प्यास, न लकसी प्रकार की

सहज ध्यान योग 108


लचतं ाएूँ हैं। अपने पण्ु य के अनसु ार जीवात्माएूँ यहाूँ पर सख
ु भोगा करती हैं। इस िोक में लकतने समय तक
रुकना है, यह लनणतय स्वयं जीवात्मा का कमत करता है। जि पण्ु य क्षीण हो जाता है, ति जीवात्मा के जन्म
का समय आ जाता है। लपतर िोक से पतन हो जाता है, मृत्यि ु ोक पर जन्म के लिए आ जाती है। यह लपतर
िोक स्वगत के समकक्ष है। मगर ये जीवात्माएूँ स्वगतिोक में प्रवेश नहीं कर सकती हैं क्योंलक इनका पण्ु य
इतना नहीं होता है लक स्वगतिोक जा सकें । स्वगतिोक और लपतर िोक एक ही स्थान के दो भाग हैं। स्वगत में
देवता आलद रहते हैं। लपतर िोक में स्वच्छ सिे द रंग का प्रकाश रहता है। यलद पृर्थवी िोक से श्राि के िारा
लकसी जीवात्मा के वश ं ज कुछ भेजते हैं, तो जीवात्माओ ं को िाभ होता है तथा वह जीवात्मा कुछ लदन
और उस िोक में रुकी रहती है। यह एक ध्यान देने योग्य िात है लक सभी श्राि लपतरों को (लपतर िोक
वासी) नहीं लमिता है। लसित वही श्राि लमिता है, लजस श्राि को आध्यालत्मक शलक्त सप्पन्न परुु ष भेजते
हैं, क्योंलक उसी के अन्दर यह सामर्थयत होता है लक श्राि का सक्ष्ू म भाग लपतर िोक तक भेज सके , जैसा लक
आजकि प्रचलित है। श्राि के समय ब्राहमणों को भोजन कराया जाता है। क्या वे ब्राह्मण आध्यालत्मक
शलक्त समपन्न हैं? यलद हैं तो आपका श्राि कराना सिि हुआ। यलद लसित नाम के या जालत के ब्राह्मण हैं तो
क्या िाभ श्राि कराने का? वह कै से पहुचूँ ाएगा लपतर िोक में आपके लपतरों को भोजन? आजकि ज्यादातर
ब्राह्मण लसित जालत से हैं, कमत से नहीं। इससे अच्छा है लकसी भी आध्यालत्मक शलक्तशािी परुु ष को भोजन
करायें, तो वह आपका श्राि लपतर िोक तक पहुचूँ ा देगा।
जि लपतर िोक की जीवात्मा और भवु िोक की जीवात्मा पृर्थवी पर जन्म िेने को आती है, तो
अपने लनलश्चत स्थान पर स्वयमेव आ जाती है। यह स्थान प्रकृ लत देवी जीवात्मा के कमातनसु ार लनलश्चत करती
है। जीवात्माओ ं को कमातनसु ार ही माता-लपता लमिते हैं। जीवात्मा माता के गभत में प्रवेश से पहिे, माता से
आज्ञा मागं ती है लक मैं आपके गभत से जन्म िेना चाहता ह।ूँ माता का सक्ष्ू म शरीर आज्ञा दे देता है, तभी
जीवात्मा गभत में प्रवेश करती है। आज्ञा के लिना जीवात्मा गभत में प्रवेश नहीं कर सकती है। स्थि ू रूप से
माताओ ं को मािमू नहीं होता है लक उनसे लकसी ने गभत प्रवेश में प्रवेश करने की आज्ञा माूँगी थी। यलद माता
सालिका है और उसकी इतनी योग्यता है लक सक्ष्ू म शरीर से समिन्ि कर सके , तो माता को अवश्य मािमू
हो जाएगा लक हमसे जीवात्मा ने आज्ञा माूँगी है। इस अवस्था में माता जीवात्मा से ज्यादा िात कर सकती
है। यलद माता अध्यात्म में अत्यन्त उच्च अवस्था रखती है, तो अपने गभत लस्थत लशशु से भी समपकत करके
िात कर सकती है। हाूँ, यह तकत अि प्रस्ततु लकया जा सकता है लक क्या अत्यन्त उच्चकोलट की सालिका

सहज ध्यान योग 109


माता िनना पसन्द करे गी। इसका जवाि मैं नहीं दे सकता ह,ूँ लसित सालिका ही दे सकती है। इस अवस्था में
यह भी लनलश्चत है लक माता िारा जन्मा लशशु योगी िनेगा क्योंलक वही जीवात्मा गभत में आयेंगी जो पहिे से
योगी होगा।
जैसे ही जीवात्मा गभत में प्रवेश करती है, उसी समय अपना सिकुछ भि ू जाती है। उस पर माया का
प्रभाव हो जाता है, जीवात्मा सषु प्तु ावस्था में चिी जाती है। वह अवस्था उसकी लनरा जैसी होती है। कमों
के अनसु ार ही जीवात्मा को माता-लपता लमिते हैं। पैदा होने के िाद लशशु अपने माता-लपता की पररलस्थलतयों
के अनुसार सख ु -दख ु का अनभु व करता है। कुछ जीवात्माएूँ गभातवस्था में भी स्वप्न देखती हैं। ऐसी
जीवात्माओ ं में रजोगणु अलिक होता है। कुछ जीवात्माएूँ लिल्कुि स्वप्न नहीं देखती हैं। लनरा जैसी अवस्था
में पड़ी रहती हैं। ऐसी जीवात्माओ ं में तमोगणु अलिक होता है तथा पाप यक्त ु कमत भी ज्यादा होते हैं। यह
सि कुछ मैंने अपने योग के अनभु वों के आिार पर अलत संक्षेप में लिखा है। हो सकता है लकसी योगी या
सािक को कुछ अन्य तरह के अनभु व आयें तथा शास्त्रों में कुछ अन्य तरह का वणतन लकया गया होगा।
अि मैं अपने अनुभव के आिार पर योलगयों के लवषय में थोड़ा लिखता ह।ूँ योलगयों के लवषय में
लिखना थोड़ा मलु श्कि काम है। कारण यह है लक योगी अपनी योग्यतानसु ार अिग-अिग िोकों में अिग-
अिग स्तर पर पहुचूँ ता है। पहिे सािकों के लवषय में, जो सािक लसित थोड़ी सी सािना करके मृत्यु को
प्राप्त हुए हैं। उन्हें योगिि पर कोई खास स्थान नहीं लमिता है, और इस लवषय में हमारा लवशेष अनुभव भी
नहीं है। हमारे एक गरुु -भाई थे। उनकी सािना ज्यादा नहीं थी। वह िजु गु त थे। उनकी जि मृत्यु हुई तो उन्हें
भवु िोक जाना पड़ा था। कुछ समय तक भवु िोक रहे लिर लपतरिोक में आ गये। हमारा समिन्ि उनसे
लपतरिोक से हुआ था। उस समय उन्होंने स्वयं िताया लक मैं भुविोक में रह चक ु ा ह,ूँ जिलक इनकी
कुण्डलिनी नालभ तक जाग्रत होकर आ गयी थी। लजन सािकों के कण्ठ चक्र खुि जाते हैं और सलवकल्प
समालि िगाते हैं, उन्हें जनिोक की प्रालप्त हो जाती है। लिर वहीं पर समालि िगाते हैं और एक लनलश्चत
समय तक रहते हैं। जैसे ही कमों के कारण जन्म का समय आ जाता है, ति उन्हें पृर्थवी पर आना पड़ता है।
जन्म के िाद एक लनलश्चत अवस्था में वह योग का अभ्यास करना शरू ु कर देते हैं। इस प्रकार के योलगयों को
भवु िोक होकर ऊपर जाना पड़ता है क्योंलक भुविोक में इनके कमों का िेखा-जोखा होता है। इस प्रकार
के योलगयों को दण्ड भी हल्का-सा लमिता है। पापयक्त ु कमत इनके लचि में कुछ मात्रा में रहते हैं। जो योगी

सहज ध्यान योग 110


लनलवतकल्प समालि का अभ्यास कािी समय तक करते िेते हैं, उनके कमातशय भी कम रह जाते हैं। मृत्यु के
पश्चात् भवु िोक होते हुए तपिोक चिे जाते हैं। भवु िोक जाने को ऐसे योलगयों के लिए कमत िाध्य नहीं
करता है। मगर प्रकृ लत के लनयमों के अनसु ार जाना पड़ेगा; वैसे भी भवु िोक मागत में पड़ता है। ऐसे योगी
दलं डत नहीं होते हैं क्योंलक शेष कमातशय लिल्कुि कम रह जाता हैं, तथा योलगयों की अवस्था भी उच्च होती
है। इन्हीं शेष कमातशयों के कारण योलगयों को जन्म िेना पड़ता है। प्रकृ लत की इच्छा रहती है, यगु के अनसु ार
पृर्थवी पर योलगयों को जन्म िेना आवश्यक है। इस प्रकार के योलगयों की समालि तपिोक में कािी समय
तक िगी रहती है अथवा योगी अपनी इच्छानसु ार कहीं भी लवचरण कर सकते हैं। मगर लवचरण करते समय
योलगयों का योगिि थोड़ा सा क्षीण होता है क्योंलक योगिि पर ही लवचरण करते हैं। यलद इस प्रकार के
योगी ब्रह्मिोक में जाएूँगे, तो इनका योगिि ज्यादा मात्रा में क्षीण होगा। इनके सक्ष्ू म शरीर का औसत घनत्व
िहुत कम है। तपिोक की अपेक्षा से इन्हें अपने शरीर का भी घनत्व िदिना पड़ेगा, तभी उस िोक में जा
सकते हैं। जि अपने शरीर का घनत्व िदिकर ऊपर के िोक में लवचरण करें गे, तो लनश्चय ही ज्यादा मात्रा
में योगिि क्षीण होगा। इससे पृर्थवी पर जन्म िेने के लिए अपने लनलश्चत समय से पहिे आना पड़ेगा। वैसे
इस िोक में इच्छाएूँ िहुत कम चिती हैं, लसित अध्यात्म से समिलन्ित इच्छाएूँ चिती हैं। सारा कायत अपनी
लदव्यदृलष् से कर िेते हैं तथा समालि में िगे रहते हैं। तपिोक के मध्य स्तर पर योलगयों की योग्यता कािी
ज्यादा होती है। इस िोक के उच्च स्तर पर लस्थत योगी अत्यन्त उच्च श्रेणी के होते हैं। इस िोक के रहने
वािे योलगयों को कभी न कभी जन्म िेना पड़ेगा। कुछ योगी ब्रह्मिोक में भी रहते हैं। ब्रह्मिोक में योलगयों
के रहने के लिए लसित लनचिा स्तर है, अथातत मध्य से नीचे। मध्य से ऊपर योलगयों के लिए स्थान नहीं है
और न योगी जाएगा। ऊपरी स्तर पर भगवान ब्रह्मा, गंिवत व लकन्नर आलद रहते हैं। वहाूँ पर लवशेष प्रकार
की जगह है। कभी-कभी ब्रह्मिोक के योगी तपिोक में आ जाते हैं क्योंलक ब्रह्मिोक की ध्वलन उनकी
समालि में िािा का कायत करती है। समालि के लिए तपिोक सिसे अच्छा िोक है। मैंने अभी स्तर शब्द
का प्रयोग लकया। स्तर का अथत है, हर िोक में िोक के शरुु आत से अन्त तक घनत्व िदिता रहता है। यलद
घनत्व न िदिे तो सारे िोक एक समान रहेंगे। घनत्व िदिते रहने पर एक लनलश्चत सीमा पर कम घनत्व
होने पर दसू रा िोक शुरू हो जाता है। इसलिए एक ही िोक में थोडी-थोड़ी दरू ी पर घनत्व िदिने िगता
है। जैसे-जैसे िोक में आगे िढ़ेंगे घनत्व कम होने िगेगा। इसी घनत्व के िदिने को स्तर कहते हैं। योगी
की अवस्था के अनसु ार उसके सक्ष्ू म शरीर का जो घनत्व होता है, उसके सक्ष्ू म शरीर के घनत्व के अनसु ार

सहज ध्यान योग 111


ही उसे िोक में स्तर लमिता है। सक्ष्ू म शरीर का घनत्व व िोक में लजस जगह पर उसके घनत्व से मेि करता
है, योगी को वही पर जगह लमिती है।
कुछ योगी क्षीरसागर (वैकुण्ठ) व लशविोक में भी रहते हैं। ये योगी अत्यन्त उच्च अवस्था के होते
हैं। इनके लचि में लकसी प्रकार के कमातशय नहीं रहते हैं। इनका शरीर आकाश तत्त्व की प्रिानता से िना
होता है क्योंलक ये िोक महाकारण जगत में आते हैं। ऐसे योलगयों के शरीर अत्यन्त सक्ष्ू म होते हैं तथा देखने
पर पारदशी लदखते हैं। योग के माध्यम से ये शीघ्र नहीं लदखायी देते हैं। जि तक वह योगी स्वयं इच्छा न
करे , कोई इन्हें देख नहीं सकता है। आलद काि के योगी इसी िोक और इसी अवस्था में रहते हैं। ऐसे योगी
कभी भी जन्म िारण नहीं करते हैं। अनन्त काि तक समालि में िीन रहते हैं क्योंलक ये योगी ब्रह्मज्ञानी होते
हैं। यलद आप मेंरे अनभु वों को पढ़ें तो एक अनुभव मैंने लिखा हुआ है, वह अनुभव लशविोक का है। मैं
लहम लशखर पर पहुचूँ ा। वहाूँ पर सप्तऋलष लमिे थे। मैं सप्तऋलषयों के सामने िैठा था। सप्तऋलषयों में माता
अरूंिती भी थी। मेंरे साथ उस समय माता कुण्डलिनी थी। उन ऋलषयों के शरीर पारदशी थे। योलगयों के
लिए सिसे उच्च स्थान लशविोक ही है। शास्त्रों के अनसु ार इससे ऊपर के िोक को गोिोक कहते हैं।
गोिोक भगवान श्रीकृ ष्ण व ब्रह्माण्ड जननी माता रािा का िोक है तथा अन्य गोप व गोलपयाूँ वहीं पर रहते
हैं। ये तीनों िोक पराप्रकृ लत के अन्तगतत आते हैं। इन िोकों में लसित तत्त्वज्ञान से युक्त योगी रहते हैं।
अि प्रश्न उठता है लक तपिोक में भी योगी समालि िगाये रहते हैं। पृर्थवी पर जन्म िेने के लिए कै से
जान जाते हैं लक उन्हें अि पृर्थवी पर जन्म िेना है। एक – उन्हें समालि अवस्था में ज्ञान के िारा मािमू हो
जाता है। दो – समालि अवस्था में उनके अन्तुःकारण में ध्वलन सुनाई देती है अथवा कभी-कभी स्वयं प्रकृ लत
देवी उन्हें समालि अवस्था में िता देती है लक उसके जन्म िेने का समय आ गया है, क्योंलक उच्च श्रेणी के
योलगयों की लवशेष प्रकार की व्यवस्था प्रकृ लत देवी पहिे से ही कर देती है। पृर्थवी पर लकतने योलगयों की
आवश्यकता है तथा पृर्थवी पर िमत-अिमत का लकतना अनपु ात होना चालहए, इसका लनणतय भगवान िमतराज
जी करते हैं। भगवान िमतराज ब्रह्मा जी को इशारा करते हैं। ब्रह्मा जी के िारा प्रकृ लत देवी को मािमू होता
है, लिर वह व्यवस्था करती है। लजन्हें जन्म िेना होता है, वही योगी पृर्थवी पर भेजे जाते हैं। ऐसा योगी िमत
का प्रचार करता है लजससे पृर्थवी पर िमत िढ़ता है। जि अिमत की मात्रा ज्यादा िढ़ जाती है, ति तत्त्वज्ञानी

सहज ध्यान योग 112


योगी पराप्रकृ लत से जन्म ग्रहण करने आ जाता है, ऐसे जन्म ग्रहण करने वािे योगी को अवतार कहा जाता
है। लिर अिमत का लवनाश कर िमत की स्थापना करता है।
योगी सािारण मनष्ु यों की भाूँलत जन्म नहीं िेता है। योलगयों की व्यवस्था स्वयं प्रकृ लत देवी करती
है। अगर योगी चाहे तो स्वयं अपनी इच्छानसु ार पृर्थवी पर अपनी माता का चनु ाव कर सकता है लक उसे
लकस के गभत से जन्म िेना है। वह तपिोक से ही पृर्थवी का सारा हाि जान िेता है। प्रकृ लत देवी के कहने
पर अथवा स्वयं अपने लनणतय से जन्म ग्रहण करने के लिए अपनी इच्छानसु ार गभत का लनणतय करता है।
ज्यादातर योगी ऐसी माता का चनु ाव करते हैं लक िचपन में लकसी कारण या परे शानी से योग मागत में आ
जाएूँ तालक योग का अभ्यास शीघ्र शरू ु हो जाए। कुछ योगी समपन्न पररवार में भी जन्म िेते हैं। लिर अपने
संस्कार के िि पर मोक्ष मागत पर आ जाते हैं तथा स्थि ू समपन्नता का त्याग कर देते हैं। यलद मैं अपने लवषय
में लिखूँू तो यह सत्य है लक मैंने भी अपने माता-लपता का चनु ाव प्रकृ लत देवी की सहायता से लकया था,
क्योंलक हमारे शेष कमातशयों की समालप्त हमारे लपताश्री ही कर सकते थे। इसीलिए पवू त में हमारी हर तरह की
दगु तलत हो रही थी, लजसके कारण समाज हम पर हूँसता था। मगर मैं मन के अन्दर प्रसन्न होता था क्योंलक
मेंरे कमातशय समाप्त हो रहे थे। कािी लदन िाद मेंरे कमातशय शन्ू य पर आ गए। इन शेष कमातशयों को भोग
कर ही समाप्त लकया जाता है, योगिि पर नष् नहीं लकया जा सकता है। यह प्रकृ लत का लनयम है। ये कमातशय
अत्यन्त क्िेश व कष् वािे होते हैं। इन्हीं कमातशयों के साथ तमोगणु ी अहक ं ार क्षीण हुआ करता है। लिर
सत्वगणु ी अहक ं ार शेष रह जाता है और लचि अत्यतं शि ु हो जाता है।

सहज ध्यान योग 113


दूसरा अध्याय
अष्टािंग योग
िहुत से मनष्ु य ध्यान करने और समालि िगाने की चेष्ा लकया करते हैं, परन्तु उन्हें कािी समय
िाद भी सििता नहीं लमिती है। इसका कारण यह है लक समालि तक पहुचूँ ने के लिए यम-लनयमों का
पािन करना चालहए। लिना यम-लनयमों के पािन के िारा समालि तक पहुचूँ ना मलु श्कि-सा है। समालि लिना
लचि के एकाग्र हुए िग नहीं सकती है। लचि को एकाग्र करने के लिए लचि को पलवत्र करना जरूरी है। यम-
लनयम से लचि में पलवत्रता आती है। योग के आठ अंग िताये गये हैं: (1) यम (2) लनयम (3) आसन (4)
प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) िारणा (7) ध्यान (8) समालि।
यम
शरीर, वचन और मन के संयम को यम कहते हैं। यम के पाूँच भाग हैं– (1) सत्य (2) अलहसं ा (3)
अस्तेय (4) ब्रह्मचयत (5) अपररग्रह।
वनयम
लनयम के पाूँच भाग हैं: (1) शौच (2) संतोष (3) तप (4) स्वाध्याय (5) ईश्वर प्रलणिान।
आसन
लचि को एकाग्र रखने के लिए मन के साथ-साथ शरीर पर लनयन्त्रण रखना अलत आवश्यक है। इससे
शरीर लनरोग व सिि िनता हैं। शरीर को लनयंलत्रत रखने के लिए आसन करते हैं। आसन अनेक प्रकार के
हैं। अपनी इच्छानसु ार आसन का प्रयोग करना चालहए।
प्राणायाम
लस्थर आसन पर िैठकर श्वास तथा प्रश्वास की गलत को लनयंलत्रत करने को प्राणायाम कहते हैं। इसके
तीन अंग हैं– पूरक, कुमभक, रे चक।

सहज ध्यान योग 114


प्रत्याहार
इलन्रयों को उसके लवषयों से हटाकर अपने अन्दर कें लरत करना, सांसाररक वस्तुओ ं के रहते हुए भी
उनका कोई प्रभाव न पड़ना, प्रत्याहार है। इस अवस्था पर पहुचूँ ने के लिए दृढ़ संकल्प व इलन्रय-संयम की
सािना करनी पड़ती है।
िारणा
मन को लकसी वस्तु पर लस्थर कर देना, िारणा कहिाती है। िारणा को लसि करने के िाद समालि
की अवस्था तक पहुचूँ ा जा सकता है।
ध्यान
जि ध्येय वस्तु पर प्रवाह के रूप में मन िग जाए, उसे ध्यान कहते हैं। इसमें ध्येय का लनरन्तर मनन
लकया जाता है। इसके िारा लवषय का स्पष् ज्ञान होता है।
समावि
जि ध्यान ही ध्येय वस्तु के रूप में प्रतीत हो और अपने स्वरूप को छोड़ दे, ति वही समालि है।
ध्यान और ध्याता का भाव नहीं रहता है, के वि ध्येय रहता है। लचि की वृलि ध्येय के आकार को िारण
कर िेती है। ध्याता, ध्यान और ध्येय एक हो जाते हैं।

सहज ध्यान योग 115


यम
यम योग का आिार है, जो मन की शि
ु ता प्राप्त करने में सहायक है। यम के लवलभन्न भागों का वणतन
लनमनलिलखत है।
1) सत्य – सािक के लिए सत्य का अनसु रण करना िहुत ही महत्वपणू त है। वततमान समय में अगर गौर
करें तो पाएूँगे लक ज्यादातर असत्य का ही व्यापार चि रहा है। मनष्ु य जालत ने स्वाथत के कारण
अपना इतना पतन कर लिया है लक व्यलक्त सत्य िोिने की सामर्थयत नहीं जटु ा पाता है। जि भी कुछ
स्वाथत वािा कायत आया तो िोग असत्य िोिने में जरा भी नहीं लहचकते हैं। कुछ िोगों की ऐसी
आदत पड़ चक ु ी है लक असत्य िोिना अपनी शान समझते हैं। ऐसे िोगों के पररवार के भी सदस्य
सत्य का अनसु रण नहीं करते हैं। जहाूँ देखो, लजस क्षेत्र में देखो, असत्य का ही प्रयोग लकया जाता
है। कुछ िोग तो खि ु ेआम असत्य शब्दों का प्रयोग करते रहते हैं। इसका असर लनश्चय ही आने
वािी पीढ़ी पर भी पड़ता है। असत्य िोिने वािे लनश्चय ही मानलसक रूप से कमजोर होते हैं। उनके
लचि में िीरे -िीरे इतनी मलिनता लवद्यमान हो जाती है लजससे वे अिमत की ओर उन्मख ु भी होने
िगते हैं अथवा हो जाते हैं।
योग मागत में सत्य का महत्व िहुत ही अलिक है क्योंलक सत्य को अपनाने वािे का लचि
लनमति होने िगता है तथा लचि पर लस्थत मलिनता का नाश होता है। योग के अभ्यास के लिए लचि
लनमति होना अलत आवश्यक है। असत्य का अनसु रण करने वािा सािक कभी भी योग मागत में
सििता प्राप्त नहीं कर सकता है, सदैव असिि होता रहेगा। सत्य को अपनाने से सािक के अन्दर
िैयत, सन्तोष, शालन्त आलद गणु आने िगते हैं, मन की चंचिता कम होती है तथा वाणी शि ु होती
है। सािक की वाणी शि ु होना अत्यन्त जरूरी है। ऐसा सािक ही आगे चिकर गरुु पद िैठने के
योग्य समझा जा सकता है। सत्य-लनष्ठ सािक अपनी संकल्प शलक्त से कलठन से कलठन आध्यालत्मक
कायत करने में सिि होता है। असत्य का भाषी सािक लकसी भी हाित में मागतदशतक िनने के योग्य
नहीं होता है क्योंलक उसका लचि मलिन होने के कारण उसके िारा लकया गया संकल्प पणू त नहीं
होगा।
कभी भी ऐसा सत्य न िोिो जो दसू रों की कष् देने वािा हो। अगर ऐसा सत्य िोिना पड़े
तो अवश्य िोिो, मगर नम्रता व लशष्ाचार के साथ। अथातत कटुता का प्रयोग न लकया जाए तो

सहज ध्यान योग 116


अच्छा है। क्योंलक ब्रह्म ही सत्य है, ब्रह्म के अलतररक्त प्रत्येक पदाथत भ्रम से यक्त
ु होने के कारण
असत्य है। इसका कारण है– समस्त अपरा-प्रकृ लत पररणाम स्वरूप है, इसलिए प्रत्येक पदाथत की
हर क्षण अवस्था िदिती ही रहती है। इसका कारण कोई भी पदाथत सदैव अपनी वततमान अवस्था
नहीं िनाये रख सकता है। इसी कारण कहा जाता है लक समस्त ससं ार असत्य है, लसित एक ब्रह्म ही
सत्य है। इसलिए सदैव सत्यलनष्ठ िनो।
सािकों! सदैव व्यवहार के समय प्रत्यक्ष प्रमाण से, अनमु ान प्रमाण से तथा शब्द प्रमाण से (गरुु ,
सन्त आलद परुु षों से सनु ा) लजन-लजन िातों का लजस-लजस प्रकार से लनश्चय लकया हुआ हो, उन-उन
िातों को उस-उस लनश्चय के अनसु ार, सुनने वािे को लकसी प्रकार की िेष की भावना उत्पन्न न हो
ऐसा िोिें। आपकी िात दसू रों को लप्रय िगने वािी हो, पररणाम में लहत करने वािी हो, कपट और
भ्रांलत से रलहत हो, ऐसे वचनों का सदैव प्रयोग करना चालहए। लिर एक िार िता दूँू – ब्रह्म के
अलतररक्त लकसी अन्य पदाथत को सत्य न मानना एवं उसी ब्रह्म को िक्ष्य करके उसके सत्य को
जानना ही सत्य है। ऐसी सत्य लनष्ठा होने पर जि सदैव इसी का पािन लकया जाता है, ति अभ्यासी
की वाणी और िि आश्रय हो जाती है।
सत्य िोिना या सत्य का अनसु रण करना ही पयातप्त नहीं है, िलल्क दसू रे के सत्य को
स्वीकार करना परम आवश्यक है। अगर दसू रे व्यलक्त में श्रेष्ठता है, आप में वह श्रेष्ठता नहीं है तो
उसकी श्रेष्ठता स्वीकार कीलजए, उससे िेष न कीलजए और न ही लनन्दा कीलजए। यलद लनन्दा या िेष
करें गे तो आप का ही लचि मलिन होगा, उस व्यलक्त का कुछ भी नहीं जाएगा। इसी प्रकार स्वयं में
अगर कुछ कलमयाूँ है अथवा आपके पररवार के सदस्यों में अगर वास्तव में कलमयाूँ हैं और आपको
िताया जा रहा है, तो उन कलमयों को स्वीकार कीलजए, न लक कहने वािे का ही दोष लनकािने िगें
अथवा उसी की लनन्दा करने िगें। सत्य स्वीकार करने की आदत डालिये।
2) अवहिंसा – हर एक मनष्ु य को अलहसं ा का पािन करना चालहए। इसी कहते हैं अलहसं ा ही परम िमत
है। जो मनष्ु य अलहसं ा-व्रत का पािन करते हैं, उनकी मानलसक शलक्त अत्यन्त शलक्तशािी हो जाती
है। लकसी प्राणी की हत्या न करना, शारीररक कष् न पहुचूँ ाना अलहसं ा है। आध्यालत्मक मागत पर
चिने वािों को अलहसं ा का पािन करना अलत आवश्यक है। ऐसे मनष्ु य के अंदर सत्वगणु की
अलिकता आ जाती है; भय, मोह, राग और िेष आलद का प्रभाव जाता रहता है। जो मनष्ु य लहसं क

सहज ध्यान योग 117


हो जाते हैं, उनमें देखा गया है लक वे भय, मोह, राग और िेष आलद से ग्रलसत हो जाते हैं। उसके
अन्तुःकरण में तमोगणु आच्छालदत रहता है। लहसं क कायों के करने के कारण लचि में सदैव लहसं क
वृलियाूँ ही उठती हैं, वे पाप और असत्य में डूिे रहते हैं। मगर जो मनष्ु य अलहसं ा का पािन करता
है, वह सदैव पण्ु य वािे कायत और सत्य में लवश्वास रखता है। जो मनष्ु य लजतना ज्यादा अलहसं ा का
पािन करता है, वह उतना ही अलिक लनडर हो जाता है। साथ ही जि कोई लहसं क मनष्ु य या लहसं क
प्राणी अलहसं ा वािे मनष्ु य के पास जाता है, तो अलहसं ा के प्रभाव से लहसं क प्राणी के भी मन से उस
समय लहसं ा जाती रहती है जि तक वह अलहसं क व्यलक्त के पास रहता है। इस जगह पर भगवान
गौतम िि ु का उदाहरण उपयक्त ु रहेगा। भगवान गौतम िि ु जि क्रूर डाकू अगं लु िमाि से लमिते हैं
तो अंगलु िमाि के हृदय में उस समय लहसं ा की भावना ठहर जाती है। अंत में वह भगवान गौतम
िि ु का लशष्य िन जाता है। अलहसं ा का यह प्रभाव होता है।
सािक को अलहसं ा का पािन करना अलनवायत है। अलहसं ा के पािन से सािक के लचि में
सत्वगणु के संस्कार िनने शरू ु हो जाएूँगे तथा अन्तुःकरण शि ु व लनमति होने िगेगा। लहसं ा करने
वािे के लचि में तमोगणु वािे क्िेशात्मक संस्कार िनेंग।े लकसी मनष्ु य को पापयक्त ु गित मागत
िताना भी लहसं ा के अंदर आता है क्योंलक ऐसे मागत में जो भी मनष्ु य चिेगा उसका तो पतन हो
जाएगा, यह तो िहुत िड़ी लहसं ा है। ऐसे मनष्ु य का अन्तुःकरण भी पापयक्त ु हो जाता है। जो मनष्ु य
लकसी से िदिा िेने की भावना रखता है, वह भी लहसं ा के अंतगतत आता है। कुछ कायत ऐसे होते हैं
जो देखने में लहसं ा जैसे िगते हैं, मगर वे कायत लकसी लहसं क को सिु ारने के लिए लकए जा रहे हों,
तो वह लहसं ा की सीमा में नहीं आते हैं। मगर ऐसे कायों में यह ध्यान रखना है लक इस कायत में लकसी
प्रकार की िदिे की भावना न हो तथा तमोगणु ी इच्छाओ ं लमलश्रत न हों। शास्त्रों में वणतन है लक देश
की रक्षा के लिए, िमत की स्थापना के लिए यि ु करना क्षलत्रयों का कततव्य है। यह लहसं ा में नहीं आता
है। गीता में भगवान श्रीकृ ष्ण स्वयं अजतनु को िमतयि ु के लिए प्रेररत करते हैं और कहते हैं–"तुमहें
स्वगत की प्रालप्त होगी क्योंलक यहाूँ पर िमत और अिमत का यि ु हो रहा है।" यह भी लहसं ा नहीं हो
सकती है। हर समय इस िात का ध्यान रखना चालहए लक हम अपने जीवन में लकसी को द:ु ख न
पहुचूँ ाएूँ। सदैव कल्याणकारी भावना होनी चालहए।

सहज ध्यान योग 118


सािकों! वैसे अलहसं ा का पािन करना आजकि िड़ा मलु श्कि है क्योंलक पणू त रूप से
अलहसं ा का पािन करना असभं व है। इसलिए सािक को लजतना ज्यादा-से-ज्यादा अलहसं ा का
पािन हो सके , करना चालहए। अलहसं ा के िि पर लहसं क पशओ ु ं को भी िदिा जा सकता है।
अलहसं ा में िहुत शलक्त होती है।
3) अस्तेय – आजकि समाज में खिू देखने को लमिता है – लक िोग एक-दसू रे के साथ छीना-झपटी
करते रहते हैं, एक-दसू रे का अलिकार ििपवू तक छीन िेते हैं। जि घरों में िटवारे होते हैं तो एक
भाई दसू रे भाई का सामान आलद छीन िेता है। पड़ोसी दसू रे पड़ोसी का ििपवू तक जगह-जगह समान
या अन्य पदाथत आलद छीन िेता है तथा दिाने का प्रयास करता है। एक देश दसू रे देश पर अलतक्रमण
करके सीमाओ ं पर भलू म छीनने का प्रयास करता है। गाूँवों से िेकर िड़े-िड़े शहरों तक देखने, पढ़ने
और सनु ने में आता है लक एक व्यलक्त ने दसू रे व्यलक्त से रुपए सामान आलद छीन लिया। लजिर देखो
उिर िोग छीना-झपटी करते रहते हैं। ज्यादातर मनष्ु यों का इसी प्रकार का स्वभाव सा िन गया है।
जंगि में रहने वािे पशु मनुष्य से ज्यादा लमिजि ु कर रहते होंगे। वे इतनी छीना-झपटी नहीं करते
हैं। हजारों पशु एक झण्ु ड िनाकर रहते हैं जिलक मनष्ु य िौलिक लवकास स्तर पर पशओ ु ं से श्रेष्ठ है।
ऐसी श्रेष्ठता का प्रयोग मनष्ु य परस्पर व्यवहार में क्यों नहीं करता है?
गित रीलत के िारा दसू रों के पदाथत को ग्रहण न करना अथातत लकसी भी पदाथत के स्वामी
की अनमु लत के लिना न िेना, चाहे उसका मल्ू य कुछ भी हो, और सांसाररक लवषय और पदाथत का
सेवन न करना तथा लकसी पदाथत या लवषय की इच्छा नहीं रखना अस्तेय है। इसके लसि हो जाने से
समपणू त पदाथत स्वयमेव हाथ के मैि के समान हो जाते हैं।
4) ब्रह्मचयण – ब्रह्मचयत का अथत है ब्रह्म का आचरण करना या अनुसरण करना। सािकों! ब्रह्मचयत की
पररभाषा अत्यन्त कलठन है। परू ी तरह से कोई भी मनष्ु य ब्रह्मचयत व्रत का पािन नहीं कर सकता है।
अि हम शालब्दक अथत पर आएूँ। आमतौर पर ब्रह्मचयत का अथत ‘वीयत को स्खलित न होने लदया
जाए’ से िगाते हैं। इतने से अथत परू ा नहीं हो सकता है, िलल्क सभी प्रकार की वासनाओ ं को
त्यागना जरूरी है, ये वासनाएूँ चाहे लजस प्रकार की हों। इतना ही नहीं, िौलकक तथा पारिौलकक
सभी प्रकार के स्वाथों को त्यागना जरूरी है। ब्रह्मचयत हर मनष्ु य के लिए एक लनलश्चत अवलि के
लिए अलत आवश्यक है क्योंलक ब्रह्मचयत ही हमारा जीवन है। ब्रह्मचयत का हमारे स्थि ू जीवन में

सहज ध्यान योग 119


अत्यन्त महत्वपणू त स्थान है। जो मनष्ु य इसका ठीक प्रकार से पािन नहीं करते हैं, उनकी आयु भी
कुछ न कुछ कम हो जाती है, स्वभाव भी लचड़लचड़ा-सा होने िगता है, कई प्रकार के रोगों से ग्रलसत
होने का भय रहता है, िहुत-से हो भी जाते हैं। ऐसे मनष्ु यों को क्रोि भी अलिक आता है, महत्वपणू त
लनणतय िेते समय जल्दिाजी करते हैं, इस कारण उसका लनणतय सही नहीं हो पाता है, मन की
गभं ीरता पर असर पड़ता है।
लवद्यालथतयों के लिए ब्रह्मचयत अलत आवश्यक है क्योंलक इसका पािन करने से मलस्तष्क पर
सीिा प्रभाव पड़ता है, मलस्तष्क की स्मरणशलक्त िढ़ती है तथा स्मरणशलक्त लटकाऊ रहती है, जो
लक लकसी भी लवद्याथी के लिए अलत आवश्यक है। सािक के लिए यह अलत आवश्यक है लक
इसका पािन करे । सािक को अपना वीयत हर हाित में रोकना चालहए तालक वीयत स्थि ू रूप से
िनना िन्द हो जाए। इसके िाद वह सक्ष्ू म होकर ओजस रूप में पररवलततत होकर ऊध्वत होने िगता
है। यह लक्रया लजस सािक में होती है, उसे ऊध्वतरेता कहते हैं। ऊध्वतरेता िनना सािक के लिए अलत
आवश्यक है। इससे चेहरे पर तेज िढ़ता है, आूँखें भी चमकीिी होने िगती हैं लजससे दृलष् तेज भी
हो जाती है, सारा शरीर कांलतवान होने िगता है। ऊध्वतरेता सािक की आयु भी अलिक होती है।
लकसी प्रकार का रोग उसके पास िटक नहीं पाता है, लनरोगी होकर रहता है। ऊध्वतरेता सािक ही
दसू रे पर शलक्तपात कर सकता है। जो सािक ब्रह्मचयत का पािन लनयमपूवतक नहीं करते हैं, वह
सािक दसू रों पर शलक्तपात नहीं कर पाते हैं अथवा उनका शलक्तपात िहुत हल्का होता है। शलक्तपात
और मागतदशतन कर पाना उसके लिए संभव नहीं हो पाता है। यह कहना गित नहीं होगा लक गरुु पद
के लिए ऐसे सािक योग्य नहीं होते हैं। इसलिए सािक को ऊध्वतरेता िनना िहुत जरूरी है, तालक
वह भलवष्य में सािकों का कल्याण कर सके ।
ऊध्वतरेता सािक का ओज रूप में िदिा हुआ वीयत मलस्तष्क की सभी सक्ष्ू म कोलशकाओ ं
में व्याप्त हो जाता है और उन कोलशकाओ ं को लक्रयाशीि कर देता है। वैसे अलिकांश मात्रा में
कोलशकाएूँ सषु प्तु अवस्था में पड़ी रहती हैं। यही ओज शरीर की मांसपेलशयों में व्याप्त हो जाता है,
लजसके कारण सािक को समय से पहिे वृिावस्था नहीं आती है। वैसे तो ऊध्वतरेता सािक की
वासना क्षीण हो जाती है, लिर भी सािक को हमेशा सतकत रहना चालहए तालक सक्ष्ू म पड़ी इलन्रयाूँ
लक्रयाशीि न हो जाएूँ। चरमसीमा पर पहुचूँ ने का मतिि यह नहीं है लक इलन्रयों पर सदैव के लिए

सहज ध्यान योग 120


लवजय प्राप्त कर िी है। लशखर पर पहुचूँ कर कहीं िढ़ु क न जाए, इसलिए सािक को सयं लमत रहना
अलत आवश्यक है।
सािक को समपणू त सािनाकाि में ब्रह्मचयत से रहना आवश्यक है। समपणू त सािना का अथत
सािना की शरुु आत से िेकर कुण्डलिनी लस्थर तक के समय के लिए है, क्योंलक सािना तो समपणू त
जीवन भर करनी पड़ती है जि तक स्थि ू शरीर है। जि कुण्डलिनी जाग्रत होकर ऊध्वत होती है, उस
समय ब्रह्मचयत का पािन करना अलत आवश्यक है। कुण्डलिनी ऊध्वत होने में ब्रह्मचयत सहायता देता
है। इसका पािन करने पर कुण्डलिनी उग्र रूप िारण करती है और मलस्तष्क में जाकर तेज को
लिखेर देती है, आिस्य और जड़ता को दरू कर देती है, सािक को अपने िक्ष्य की प्रालप्त करने में
जल्दी सििता लमिती है।
स्थि
ू रूप से इलन्रय के लक्रयाशीि न होने का अथत पणू तरूप से ब्रह्मचयत नहीं है, िलल्क
सािक के मन में भी वासना का लवकार नहीं आना चालहए। मन के िारा लकसी प्रकार की वासना
का लचंतन न करना भी जरूरी है क्योंलक ऐसे लवकार पतन के कारण हो सकते हैं। लचंतन करने से
उसका मन मलिन हो जाता है, लजससे स्वप्नवस्था में स्वप्नदोष का भय रहता है, लजससे उसकी
सािना पर सीिा असर पड़ता है। कुण्डलिनी का एक स्वरूप स्त्री का भी है। इसलिए ध्यानावस्था
में भी लकसी-लकसी सािक को अत्यन्त सन्ु दर स्त्री के रूप में दशतन होता है। सन्ु दर स्त्री के साथ उसका
हाव-भाव ऐसा होता है लक सािक के अंदर पड़ी सक्ष्ू म वासना जाग्रत हो जाती है, लजसके कारण
इलन्रय लक्रयाशीि हो जाती है। ध्यानावस्था में इससे िचने का एक उपाय है– जैसे ही लत्रपरु संदु री
कुण्डलिनी सन्ु दर स्त्री रूप में लदखाई दे, सािक को कुण्डलिनी के प्रलत माूँ का भाव आना चालहए।
वैसे भी वह हम सभी की वास्तलवक माूँ है। ‘माूँ’ का भाव आने पर सािक के अंदर वासना का
लवकार नहीं आएगा। सािक को लिना लवचलित हुए उसका अविोकन करना चालहए। कुण्डलिनी
को प्रणाम कीलजये। प्राथतना कीलजये, 'माूँ, आप हमें इस स्वरूप में दशतन न दें'। ऐसा करने से लिर इस
स्वरूप में दशतन नहीं होंगे। इस तरह के अनुभव ज्यादातर ति होते हैं, जि सािक की कुण्डलिनी
स्वालिष्ठान चक्र व नालभचक्र के पास आती है। वैसे इस प्रकार के अनुभव सािनाकाि में कभी भी
आ सकते हैं। जि सािना अत्यन्त उच्चावस्था में होती है, ति ऐसे अनभु व नहीं आते हैं। जि
सािक की कुण्डलिनी कण्ठ चक्र से पार कर गयी हो, ति कण्ठ चक्र से ऊपर चढ़ने के लिए ब्रह्मचयत

सहज ध्यान योग 121


का पािन अखण्ड रूप से करें । कण्ठ चक्र से ब्रह्मरंध्र का रास्ता थोड़ा सा लदखाई देता है, मगर इतना
सिर तय करने में िड़ी कलठनाई व समय िहुत समय िगता है। यलद सािक लनयम-सयं म से नहीं
चिता है तो उसे इतना थोड़ा मागत तय करने में िहुत समय िग जाएगा।
अि यहाूँ पर प्रश्न लकया जा सकता है, लक जो गृहस्थी हैं, उनसे अखण्ड रूप से ब्रह्मचयत का
पािन कै से होगा? सहज ध्यान योग एक ऐसा मागत है जो गृहस्थ िमत वािे आसानी से कर सकते
हैं। यह भी सत्य है, लक गृहस्थ िमत वािे ब्रह्मचयत का पणू त रूप से पािन नहीं कर सकते हैं। यलद
दपं लि लववेक और दृढ़ता से काम िें, तो समस्या हि हो जाएगी। यलद ब्रह्मचयत को अपनी वंश-
परंपरा िढ़ाने के लिए तोड़ना पड़े तो दोषपणू त नहीं है क्योंलक गृहलस्थयों को अपनी वश ं -परंपरा तो
िढ़ानी ही होगी। और यह सृलष् का भी कायत है, लिर दोष कै सा? हाूँ, गृहस्थ-िमत का पािन समझकर
इलन्रय सखु के लिए लिप्त नहीं होना चालहए। ऐसे दपं लि जो दोनों सािक-सालिका हैं या एक सािक
है, समझ-िझू कर लनणतय िेना चालहए तालक गृहस्थ और योग दोनों का समन्वय िना रहे। इससे
सािना में अवरोि नहीं आएगा। हाूँ, थोड़ा आगे चिकर लनयम का पािन कर िें तो अच्छा है। उस
अवस्था तक वासनाएूँ भी सक्ष्ू म हो जाती हैं। यह कहना लिल्कुि गित है लक गृहस्थ व्यलक्त योगी
नहीं िन सकता है। आलदकाि से िेकर आजतक ढेरों ऐसे उदाहरण हैं जो गृहस्थाश्रम में रहकर
महान योगी हुए हैं। क्या उनकी वंश-परंपरा आगे नहीं िढ़ी? अवश्य िढ़ी। लजन मनष्ु यों का यह
सोचना है लक गृहस्थ रहकर योग नहीं हो सकता है, यह उनकी अज्ञानता है। शायद उन्हें योग और
गृहस्थ के लवषय में पणू त जानकारी नहीं है। ब्रह्मचयत से मनोिि िढ़ता है तथा िैयत िढ़ता है। इससे
सािक की संकल्प शलक्त भी िढ़ती है।
एक िात याद आ गयी। यलद कुण्डलिनी के ऊध्वत होने के समय वीयत स्खलित हो जाए, तो
इसका सीिा प्रभाव कुण्डलिनी पर पड़ता है। लिर दो-तीन लदन ध्यानावस्था में कुण्डलिनी का ऊध्वत
होना रुक जाता है तथा मलस्तष्क की सक्ष्ू म कोलशकाओ ं पर कािी लदनों तक प्रभाव रहता है।
सािकों! यह हमारे अनभु व की िात है। यह अनुभव हमने अनभु वों में भी नहीं लिखा है क्योंलक
उलचत नहीं समझा था।
5) अपररग्रह – सभी मनष्ु यों का स्वभाव िन गया संग्रह करने का। सांसाररक पदाथों का संग्रह करने
के लिए प्रत्येक मनष्ु य रात-लदन िगा रहता है। हर लकसी की सोच होती है लकतना ज्यादा से ज्यादा

सहज ध्यान योग 122


िन सग्रं ह कर लिया जाए। इससे हमारा जीवन अतं तक तथा िच्चों का सारा जीवन आराम से
व्यतीत होगा। हमारे पररवार वािों को लकसी के सामने हाथ न िै िाना पड़े अथातत् आवश्यकता
पड़ने पर िन आलद के अभाव के कारण लकसी से याचना न करनी पड़े। सख ु -सलु विा की समस्त
ची ें उपिब्ि करने का प्रयास करता रहता है। अच्छा घर िन जाए, िन ढेर सारा हो जाए, िै क्री
भी खोि दगूँू ा, इससे पत्रु का जीवन आराम से व्यतीत हो जाएगा आलद। गृहस्थ में रहने वािा सदैव
यही सोचता रहता है क्योंलक इसी सासं ाररक जीवन को ही सि कुछ समझे िैठा है।
सच तो यह है लक गृहलस्थयों के लिये तो ये सि िातें लिर भी समझ में आती हैं। आजकि
देखने को लमिेगा आध्यालत्मक कें र अथातत आश्रमों, िड़े-िड़े मलं दरों आलद में भी यहीं हो रहा है।
ढेर मात्रा में िन का संग्रह लकया जा रहा है। आश्रमों और मंलदरो में लस्थत संन्यालसयों ने इसलिए
संन्यास िारण लकया है लक संसार को त्याग कर लसित ईश्वर की प्रालप्त करूूँगा, ऐसे परुु ष भी िन संग्रह
में िग जाते हैं क्या? शायद ईश्वर प्रालप्त का मिू उद्देश्य भि
ू गये, िन प्रालप्त ही याद रह गया।
पाूँचों तत्त्वों से यक्त
ु लकसी भी प्रकार के पदाथों का संग्रह करके उनकी रक्षा करना या उसका
व्यवहार करने से आसलक्त उत्पन्न होती है। इससे लचि में लवक्षेप, मढ़ू ता, आिस्य, प्रमाद तथा संशय
उत्पन्न होता है। इसलिए अभ्यासी को लकसी प्रकार के पदाथों को आवश्यकता से अलिक संग्रह
नहीं करना चालहए। लसित उतना ही संग्रह करे लजतने में जीवन व्यतीत होता रहे। अपररग्रह का पािन
करना आवश्यक है। लकसी भी प्रकार की भोग सामग्री या पदाथों का संग्रह न करना ही ‘अपररग्रह’
है।

सहज ध्यान योग 123


वनयम
लनयमों के पािन से सािक का मन योग की उच्चतर अवस्थाओ ं के लिए तैयार होता है। पाूँच
लनयमों का वणतन लनमनलिलखत है:-
1) शौच – शौच का अथत होता है पलवत्रता। पलवत्रता दो प्रकार की होती है। एक – िाह्य पलवत्रता,
दसू री – आतं ररक पलवत्रता। जि और लमट्टी के िारा िाह्य शरीर को स्वच्छ रखना और आचरण
करना, न्याय से अलजतत लकया हुआ सालत्वक पदाथों का पलवत्रतापवू तक सेवन करना आलद िाहरी
पलवत्रता है। अहम,् ममता, राग-िेष, ईष्यात, भय और काम-क्रोि आलद दगु तणु ों का त्याग भीतरी
पलवत्रता है।
अभ्यासी को सदैव साि-सथु रे स्वच्छ कपड़े पहनना चालहए, मैिे कुचैिे कपड़ों को िारण
न करें । इसीलिए कहा जाता है– ध्यान करते समय सािक को स्वच्छ व सिे द कपड़े पहनना चालहए।
स्वच्छता व कपड़े के रंग का अभ्यासी के मलस्तष्क पर प्रभाव पड़ता है। लकसी व्यलक्त के साथ
व्यवहार करते समय सदैव याद रखना चालहए लक उसमें अश ं मात्र भी स्वाथत न हो। वैसे समाज में
ज्यादातर ऐसा ही होता है लक अगर लकसी व्यलक्त से कोई काम आ गया, तो उसका िड़े प्यार से
सममान करने िगते हैं, उसका गणु गान करने िगते हैं। ऐसा िगता है मानो इस समाज में सिसे
अच्छा व्यलक्त वही है। अथवा कहते हैं – “मैंने उसे िेवकूि िना के अपना काम लनकाि लिया,
अि हमें उससे क्या मतिि है”। कभी-कभी ऐसा भी होता है– लक जो व्यलक्त उसके काम आया
था, जि उसे कोई काम आ गया तो उसके काम के लिए इन्कार कर लदया आलद।
पररश्रम के िारा कमाये हुआ िन अथवा पदाथों का प्रयोग करना चालहए। जो पदाथत अन्याय
से यक्त
ु या अिमत से यक्त ु हो उसका प्रयोग नहीं करना चालहए। अथातत् अन्याय या अिमत के िारा
लकसी भी पदाथत (िन आलद) को प्राप्त करने की चेष्ा नहीं करनी चालहए। ऐसे पदाथों का प्रयोग करने
वािा अिमी होता है तथा उसका लचि मलिन हो जाने के कारण िलु ि भी मलिन हो जाती है। िलु ि
में मलिनता आने पर उसके लनणतय भी अन्याय से यक्त ु होने िगते हैं। उसके पररवार में जो ऐसे पदाथों
का प्रयोग करता है जो अिमत से प्राप्त लकया गया है, उनकी िुलि भी भ्रष् होने िगती है तथा पाप
कमत करने में उन्मख ु हो जाती है। उनकी सोच भी अन्याय से यक्तु तथा झठू में प्रवृि हो जाती है।

सहज ध्यान योग 124


सदैव पलवत्र सालत्वक भोजन ही करना चालहए, इससे प्राण व मन दलू षत नहीं होता है। ये िाहर की
पलवत्रता है।
अभ्यासी को सदैव अहम् का त्याग कर देना चालहए क्योंलक देखा गया है लक अपने अहम्
में िोग अपनी श्रेष्ठता का िखान करते रहते हैं, जैसे मैंने यह लकया, वो लकया, यह कर सकता ह,ूँ
वो कर सकता हूँ आलद। कहते हैं ममता िहुत अच्छी चीज है क्योंलक सभी को अपनों के प्रलत ममता
होती है। ममता के कारण सख ु और दख ु की अनभु लू त भी होती है लजसके प्रलत ममता होती है। ममता
से थोड़ा दरू रलहये, क्योंलक लजसके प्रलत ममता का भाव है वह आपका नहीं है, भिे ही आपके अलत
नजदीक ररश्ते वािे हो। क्योंलक सभी जीवों को अपना कमत भोगने के लिये जन्म ग्रहण करना पड़ता
है। जन्म को िारण करने पर ररश्ते िन जाते हैं, अपनापन व ममता आलद उत्पन्न हो जाती है। मगर
एक िात ध्यान रखने वािी है – लजस जीवात्मा ने जन्म ग्रहण लकया है, उसके पवू त जन्मों के कमातशय
भी उसके लचि में लस्थत हैं, उसे उन कमातशयों को उसे भोगना है। यह जरूरी नहीं उसके संस्कार
पररवार वािों से मेि करते हों। यह कटु सत्य है – प्रत्येक जीव अपना अपना कमत भोगने के लिये
मजिरू है। ऐसे में लकसी जीवात्मा के प्रलत ममता आलद से लचि में मलिनता आती है। इसलिए ममता
से रलहत होना चालहए।
राग-िेष, ईष्यात आलद के भावों से लचि में मलिनता आती है, इसलिए इस प्रकार के भावों
को लचि में न आने दें। सदैव लनडर रहें, भय को लचि में न आने दें, भय लकसी भी व्यलक्त को मानलसक
रूप से कमजोर िना देता है। लनभतयता से मन ििवान होता है। इससे िक्ष्य प्राप्त करने में सहयोग
लमिता है। मनष्ु य जालत की सिसे िड़ी कमजोरी होती है कामवासना। यह एक ऐसा रोग है जो यलद
मनष्ु य को िग जाय तो उसे पशु िना देती है। आजकि समाज में यह रोग िहुत िै िा हुआ है। कहीं
भी सुनने को लमि जाएगा, अमक ु शहर में एक लदन में इतने ििात्कार हुए। इसको रोक पाना िड़ा
मलु श्कि है क्योंलक इस प्रकार की गंदगी मनष्ु य लचि में भरी होती है जो कि प्रकट हो जाए, कहा
नहीं जा सकता है। लजस तरह से मनष्ु य जालत कर रही है, ऐसा तो पशु भी नहीं करते है। इसलिए
अभ्यासी को इससे सवतथा दरू रहना चालहए। मनष्ु य की एक और कमजोरी होती है– क्रोि का आना।
क्रोि आने पर लचि में मलिनता के कारण िलु ि भी मलिन हो जाती है, इस कारण आवेश में गित

सहज ध्यान योग 125


लनणतय िे िेता है और दसू रों के साथ दव्ु यतवहार करने के लिए तैयार हो जाता है। ये सभी अन्दर की
अपलवत्रता है।
2) सन्तोष – सािक के लिए अपने आप में सन्तष्ु रहना परम आवश्यक है। मनष्ु य सदैव लकसी न
लकसी पदाथत को प्राप्त करने के लिए सदैव प्रयासरत रहता है। लजसके अन्दर सन्तोष नहीं, ऐसा मनष्ु य
सदैव सख ु -द:ु ख की अनभु लू त करता रहता है। जि उसके मन के अनसु ार लकसी पदाथत की प्रालप्त हो
गयी, ति सख ु की अनभु ूलत करने िगता है; परन्तु इसके लवपरीत जि उसे वालं छत पदाथत की प्रालप्त
नहीं हो पाती है, ति वह द:ु ख की अनभु लू त करने िगता है। अगर व्यापार हालन हो गयी तो द:ु खी
हो जाता है; यलद िाभ हो गया तो प्रसन्न हो जाता है। मनष्ु य ने इच्छाएूँ इतनी िढ़ा िी हैं लक जीवन
भर उन्हीं की पूलतत करने में िगा रहता है। सारी उम्र समाप्त हो जाती है, मगर मन में संतोष नहीं होता
है लक हमारे पास पयातप्त िन हो गया है। हमारा व पररवार का जीवनयापन हो जाएगा, अि ईश्वर-
प्रालप्त के लिए भी समय लनकाि िें। मगर ऐसा नहीं करता है क्योंलक िन प्रालप्त के लिए अंलतम समय
तक प्रयासरत रहता है।
मनष्ु य ति िहुत ही प्रसन्न होता है जि कोई उसकी तारीि कर दे। अगर कोई तारीि के
पि ु िाूँि दे तो लिर मनष्ु य को ऐसा िगता है मानो कोई िहुत िड़ा पद लमि गया है अथवा िॉटरी
लनकि आयी है। अगर लकसी ने जरा सी िरु ाई कर दी अथवा उसकी वास्तलवक कमी कह दी तो
िहुत दख ु ी अथवा नाराज हो जाएगा। क्योंलक यश-अपयश में समान रूप पाने की आदत नहीं है,
लसित अपना यश ही चाहता है। अगर पररलस्थलतयाूँ अनुकूि हो गयी तो िहुत अच्छी िात है, खश ु ी
का लठकाना नहीं है। अगर पररलस्थलतयाूँ प्रलतकूि हो गयी तो उसका लचि द:ु ख में डूि जाता है।
आजकि खिू देखने को लमिता है लक िोग जरा-जरा सी िातों में झगड़े करने िगते हैं। पड़ोसी से
थोड़ी जगह के पीछे , लमत्र से मात्र थोड़े से िन के पीछे , भाई-भाई िूँटवारे के समय एक दसू रे का
लहस्सा हलथया िेते हैं।
सिसे िड़ा उदाहरण ति देखने को लमिता है जि आश्रम में लस्थत संन्यासी पदों को िेकर
झगड़ा करते हैं और न्यायािय तक में चिे जाते हैं, िमिी और जलटि प्रलक्रया से गजु रते हुए अपने
िहुमल्ू य जीवन का समय ििातद करते रहते हैं और अपने ही साथी की लनन्दा करते रहते हैं तथा
द:ु ख की अनुभलू त करते रहते हैं। सीमा िढ़ाने के लिये एक देश दसू रे देश पर हमिा कर देता है।

सहज ध्यान योग 126


ऐसी अवस्था में ढेरों सैलनकों की दोनों तरि से मृत्यु हो जाती है। लसित थोड़े से भभू ाग के लिए ऐसा
लकया जाता है। हमने तो सािकों और िड़े-िड़े िािाओ ं को देखा है जो एक-दसू रे की लनन्दा करते
रहते हैं। इस सिका कारण उनके अदं र सतं ोष नाम की कोई चीज नहीं है। यलद मनष्ु य के अन्दर
सतं ोष हो तो उसे सदैव प्रसन्नता की अनभु लू त होगी। तथा उलचत आवश्यकताओ ं की पलू तत के िाद
वह तृप्त होगा तथा शान्त होगा। अच्छा सािक िनने के लिए सतं ोष का होना इसीलिए िहुत जरूरी
है।
सखु -द:ु ख, िाभ-हालन, यश-अपयश, अनक ु ू िता-प्रलतकूिता आलद के प्राप्त होने पर सदा
सतं ष्ु , प्रसन्न लचि रहने का नाम ‘सन्तोष’ हैं।
3) तप – तप का अथत है– ‘अपने आप को तपा देना’। दसू रे शब्दों में कहा जा सकता है तपस्या।
आलदकाि के लवषय में पढ़ने को लमिता है अमक ु मनष्ु य ने िहुत ही कठोर तपस्या की। तपस्या
करते समय ग्रीष्म ऋतु की गमी और शरद ऋतु की ठंड सहते हुए, भख ू -प्यास का कष् उठाते हुए,
संयलमत होकर मंत्र जाप लकया और इष् को प्रसन्न लकया व वरदान प्राप्त लकया। पवू त काि में वानप्रस्थ
के समय सभी परुु ष कठोर संयम करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते थे। ऐसा इसलिए करते थे
तालक उन्होंने अपने जीवन में जो भी अिमत से यक्त ु पाप कमत लकये हों, उनको नष् कर सकें । जि
गमी और सदी ऋतओ ु ं की उष्णता और शीतिता सहते हुए, इलन्रयों का संयम करते हुए तपस्या
करते थे, ति लचि पर लस्थत पाप कमत नष् होने िगते थे तथा लचि पर लस्थत मलिनता भी नष् होने
िगती थी। इससे लचि शि ु सालत्वक होता था तथा पाप कमत के नष् होने से लचि पर सत्वगणु की
अलिकता होती थी। इससे प्रत्येक मनष्ु य का अंत समय में लचि लनमति व सत्वगुण से यक्त ु होता
था। अगिा जन्म सत्वगणु की अलिकता से प्रभालवत रहता था। आजकि ऐसी परमपरा नहीं है।
इसलिए प्रत्येक मनष्ु य का लचि पाप कमत और मलिनता से यक्त ु होता है। इसके ििस्वरूप मनष्ु य
की प्रवृलि अिमत में ज्यादा रहती है। अिमत के कारण ही उसका लचि खींचातानी, िड़ाई-झगड़े,
वैमनस्यता, असन्तोष, दख ु , ईष्यात आलद से यक्त
ु होता है। लजस मनष्ु य ने अपने जीवन में तप को
शालमि कर लिया है, उसके लचि में उपयक्त ु लवकार नहीं आते हैं।
शीतोष्ण, सख ु -दख ु आलद िंि को सहन करते हुए लनयलमत और संयलमत होकर जीवन
व्यतीत करना और यज्ञ , मंत्रजाप, उपासना िारा अशलु ि का नाश करना तप है। स्विमत पािन के

सहज ध्यान योग 127


लिए तीव्र कष् सहन करना भी तप ही है। इस प्रकार की तपस्या करने वािे को िीरे -िीरे अशि ु ता
नष् होने पर शरीर तथा इलन्रयों पर अलिकार प्रालप्त होती है।
4) स्वाध्याय – सािक सदैव तो ध्यान में िैठा नहीं रहेगा। जि उसके पास खािी समय हो तो उसे
योग की, ज्ञान की और लशक्षा-सिं िं ी पस्ु तकों का अध्ययन करना चालहए, आध्यालत्मक पस्ु तकें
पढ़नी चालहए। इससे सािक का कुछ-न-कुछ ज्ञान िढ़ेगा। यलद वह खािी समय में चपु चाप िैठा
रहेगा तो कुछ न कुछ अवश्य सोचेगा। एक कहावत है, खािी लदमाग शैतान का घर होता है। अथातत
वह खािी समय में उल्टा-सीिा कुछ न कुछ सोचेगा। इसलिए खािी समय में आध्यालत्मक
लशक्षाप्रद पस्ु तकों का अध्ययन करना िाभदायक रहेगा। सािक लजस प्रकार की पस्ु तक पढ़ेगा,
उसका असर अवश्य अंतुःकरण पर पड़ेगा। लिर कभी न कभी अवश्य संकल्प-लवकल्प िारा उन
लशक्षाओ ं की याद आयेगी, लिर वैसे ही लवचार िनेंगे। पुस्तक पढ़ते समय लसित मनोरंजन के तौर पर
या समय व्यतीत करने के उद्देश्य से पढ़कर एक तरि नहीं रख देनी चालहए, िलल्क साविानीपवू तक
उसके अथत को या गढ़ू अथत को समझने का प्रयास करना चालहए। लिर उन लशक्षाओ ं को अपने
स्थिू जीवन में और आध्यालत्मक जीवन में अमि करने का प्रयास करना चालहए। इन्हीं पस्ु तकों
िारा हम सभी को योलगयों, तपलस्वयों व संतों के जीवन चररत्र की जानकारी लमिती है। उस समय
की जानकारी से मािमू पड़ता है लक वे लकतना कष् सहकर तपस्या या योग लकया करते थे।
जि सािक आध्यालत्मक व योग पर आिाररत पुस्तकों का अध्ययन करता है तो उसके
अंदर कुछ न कुछ अवश्य िदिाव आता है। िाइलिि, रामायण, गीता आलद ग्रंथ मानव जालत के
लिए िहुत उपयोगी हैं। अपने यहाूँ िालमतक पस्ु तकों में अच्छी तरह पढ़ने को लमिता है लक यलद
मनष्ु य ईश्वर की िीिाओ ं व गणु गानों का लनयलमत पाठ करे , तो वह मनष्ु य पाप से मक्त ु हो कर
सद्गलत को प्राप्त होता है। आजकि भी मैंने उिर भारत में देखा है, लक अलिकांश घरों में लनयलमत
रूप से रामचररतमानस का पाठ होता है। इन ग्रंथों को पढ़ने से ईश्वर की स्तुलत हो जाती है, इलन्रयों
को लशक्षा लमिती है, मन की संकीणतता दरू होती है और उसमें व्यापकता आती है। ऐसी लशक्षाप्रद
उपयोगी ग्रंथों के अध्ययन से सािक को सािना करने में सहायता लमिती है। इसलिए सािक को
गीता व उपलनषदों का अध्ययन अवश्य करना चालहए। उपलनषद ऐसे ग्रंथ हैं जो संपणू त मानव जालत
के लिए अत्यन्त िाभकारी हैं क्योंलक ये ग्रंथ तत्व ज्ञान से भरे पड़े हैं। ये ग्रंथ लकसी जालत या िमत से

सहज ध्यान योग 128


समिन्ि नहीं रखते हैं। गीता में भगवान श्रीकृ ष्ण ने योग और कमत के रहस्य को लवस्तारपवू तक
समझाया है। सािक को कभी भी गदं ी व अश्लीि पस्ु तकों का अध्ययन नहीं करना चालहए। ऐसी
पस्ु तकें सािक क्या, अन्य मनष्ु यों को भी पथभ्रष् कर देती हैं। इन्हें पढ़कर कभी भी लकसी का चररत्र
उज्जवि नहीं हो सकता है। ऐसी पस्ु तकों को पढ़कर मनष्ु य के अदं र िरु े लवचारों को िढ़ावा लमिता
है। मनष्ु य को अपनी कणेलन्रय को लवकलसत करना चालहए लजससे वह प्रभु का गणु गान ही सनु सके ।
लजस स्थान पर अनलु चत वातातिाप हो रहा हो, वह स्थान उसी समय छोड़ देना चालहए तालक उन
शब्दों के कारण उस पर गित प्रभाव न पड़े। जो मनष्ु य ऐसे वातातिाप व शब्दों में रुलच रखता है,
िीरे -िीरे वैसी ही रुलच के कारण उसके जीवन में वैसे ही कायत होने िगते हैं और वह अपने मागत से
भटक जाता है। यलद कोई मनष्ु य ईश्वर के गणु गान को एकाग्र होकर सनु े तो अवश्य ही उसे िाभ
पहुचूँ ेगा। इसीलिए संतों व महापरुु षों के प्रवचनों से समाज को सद्मागत पर चिने का प्रोत्साहन
लमिता है।
5) ईश्वर-प्रवणिान – ईश्वर-प्रलणिान अथातत सभी प्रकार के कमत और कमों का िि ईश्वर को अपतण
कर देना ईश्वर-प्रलणिान होता है। शारीररक और मानलसक जो भी व्यापार हो रहा है, वह सि का
सि ईश्वर को अलपतत कर देना अथातत समपतण भाव होना, अनन्य भलक्त भाव से युक्त हो जाना तथा
िारणा के िारा ईश्वर के स्वरूप को वृलि के िारा िारण करके समालिस्थ हो जाना ईश्वर-प्रलणिान
होता है।
सािक को चालहए सदैव ईश्वर का स्मरण करता रहे, इससे दो प्रकार के िाभ होते हैं। एक
– मन जि खािी होता हैं तो अकारण ही व्यथत की िातें सोचता है, क्योंलक सदैव सांसाररक पदाथों
में लिप्त रहा है तो संसार की ओर ही सोचता रहता है। इसके िि स्वरूप सांसाररक पदाथों की प्रालप्त
की इच्छा चिती है। तथा भतू काि का सोचकर सख ु -द:ु ख की अनभु ूलत करता है अथवा नयी-नयी
योजनायें िनाता रहता है। जि ईश्वर का स्मरण करे गा ति सांसाररक पदाथों का लचन्तन करने का
अवसर नहीं लमिेगा तथा ईश्वरालभमख ु होने की आदत पड़ने िगेगी। दसू रा– सांसाररक पदाथों के
लचन्तन से चंचिता िढ़ती है। इससे सािक को मन एकाग्र करने में अवरोि आता है। ईश्वर का
लचंतन करने से चंचिता नष् होने िगती है, लचि में लस्थरता आती है तथा लचि की मलिनता नष्

सहज ध्यान योग 129


होने िगती है शि ु ता िढ़ती है। शिु ता (सत्वगणु ) िढ़ने के कारण समालि की प्रालप्त शीघ्र हो जाती
है।
जो सािक ईश्वर को नहीं मानते हैं अथवा ईश्वर का लचन्तन नहीं करते हैं, उन्हें सििता देर
से लमिती है। ईश्वर-प्रलणिान से लचि पर लस्थत मलिनता दरू होने िगती है। कभी-कभी आध्यालत्मक
मागत में आये अवरोि भी नष् हो जाते हैं अथवा कमजोर पड़ने िगते हैं। मैं सभी सािकों से कहना
चाहता हूँ लक लकसी न लकसी रूप में ईश्वर का नाम अवश्य िें, वही हमारा परम लपता है। मैं स्वयं
इस अवस्था में भी ईश्वर-लचन्तन करना नहीं भि ू ता ह,ूँ जिलक मैं योगी ह।ूँ मैं अपने अभ्यास की
अनभु ूलत के अनसु ार कहता हूँ – ईश्वर लचन्तन ही श्रेष्ठ है। ईश्वर लनगतणु ब्रह्म का ही सगणु रूप है, वही
कमातध्यक्ष है, उसी के िनाये लनयम के अनसु ार प्रकृ लत व्यवस्थापवू तक अपना कायत समपन्न कर रही
हैं। वही सृलष् का लनयंता हैं।

सहज ध्यान योग 130


आसन
आसन योग का महत्त्वपणू त अंग है। सािक को आसन अवश्य करना चालहए। आसन करने से सािक
को ढेरों िाभ होते हैं। शरीर की मांसपेलशयों में िोच आता है, शरीर को सगु लठत िनाता है, अनावश्यक
माूँस व चिी के िढ़ने से रोकता है। जि शरीर की माूँसपेलशयों में िोच आ जाता है, ति स्नायु मण्डि भी
प्रभालवत होता है, स्नायु मण्डिों में चैतन्यता की मात्रा िढ़ती है, लजससे लनरोगी रहने में सहायता लमिती है।
चेहरे पर तेज आता है, िलु ि तीव्र होती है, मलस्तष्क, हृदय, िे िड़े आलद अगं पष्ु होते हैं, लजससे सािक
को (आसन करने वािे को) िढ़ु ापा देर से आता है, आयु िढ़ती है। यह जरूरी नहीं लक आसनों का अभ्यास
लसित सािक ही करे । आसन प्रत्येक व्यलक्त को करना चालहए। लवद्यालथतयों को तो अवश्य करना चालहए
क्योंलक आसनों के करने से मलस्तष्क अलिक सलक्रय हो जाता है, इससे स्मरण शलक्त तेज होती है। आसन
करने से ब्रह्मचयत में सहायता लमिती है। वीयत ऊध्वतगामी होने िगता है, जो लक लकसी भी सािक के लिए
जरूरी है। कुछ आसन ऐसे होते हैं जो कुण्डलिनी जाग्रत करने में सहायक होते हैं। रीढ़ की हड्डी में भी
आसनों के सहारे िोच िाया जा सकता है।
आसन के प्रकार िहुत हैं। उन सभी आसनों के अपने अिग-अिग िायदे हैं। हम लसित उन्हीं थोड़े
आसनों का लववरण दे रहे हैं जो सािकों को सािना में िाभकारी होंगे। ये आसन सािक को प्रातुःकाि
करने चालहए। आसन करते समय उसे ढीिे कपड़े पहनने चालहए जो आसन के लिए उपयक्त ु हों। शरीर पर
कसे हुए कपड़े नहीं होने चालहए। आसन खि ु े, स्वच्छ वातावरण में करने चालहए। ऐसी जगह न हो जहाूँ
घटु न-सी हो। आसन िशत पर करें तो अच्छा है, िशत लिल्कुि समति होना चालहए। अथवा िकड़ी के िने
तख्त पर भी कर सकते हैं। आसन करने से पवू त कमिि लिछा िें। यलद उसके ऊपर सिे द कपड़ा भी लिछा
िें, तो अच्छा है। आसन करने से पूवत कुछ भी न खाएूँ, खािी पेट आसन करें । खािी पेट आसन करने से
सलु विा रहती है। आसन करने के कुछ समय िाद, तरि पौलष्क आहार िे िें तो अच्छा है, जैसे दिू , जसू
आलद। आसन करते समय लकसी प्रकार का तनाव मलस्तष्क में नहीं होना चालहए, तनावमक्त ु होकर आसन
करना चालहए। यलद सामलू हक रूप से आसन कर रहे हों, तो आसन करते समय लकसी अन्य प्रकार की िात
न करें । लिल्कुि चपु चाप रहना चालहए। अच्छा तो यह है यलद लकसी गरुु के लनदेशन में आसन करें , इससे
आपको सलु विा अलिक रहेगी। यलद आप आसन पस्ु तक पढ़कर कर रहे हैं तो पहिे पस्ु तक को अच्छी तरह

सहज ध्यान योग 131


से पढ़ िें। जि सारी िातें समझ में आ जायें, ति आसन करें । आसन करते समय सतकत ता िरतें तालक
आपको लकसी प्रकार की शारीररक परे शानी न हो।
हमने देखा है लक कुछ व्यलक्त लसित आसन करके ही कुण्डलिनी जाग्रत करना चाहते हैं अथवा ऐसे
आसन ज्यादा करते हैं लजनसे कुण्डलिनी जाग्रत हो जाए। मैं ऐसे व्यलक्तयों से कहना चाहगूँ ा लक आप ध्यान
के माध्यम से कुण्डलिनी जाग्रत करने का प्रयास कीलजए। आसनों के िारा लसित आप अपने शरीर को
सािना के योग्य िनाइये। क्योंलक कुछ आसन ऐसे हैं लजनके करने से शरीर के अन्दर प्रभाव पड़ता है। तथा
ध्यान करने के लिए आसन का लसि होना जरूरी है, तभी आप एक आसन पर कािी समय तक िैठ सकते
हैं।
पद्मासन – इस आसन को करने के लिए पहिे भूलम पर लिछे हुए कमिि पर िैठ जाइए। दोनों पैरों
को सामने की ओर सीिा करें । दोनों पैर आपस में लमिे होने चालहए। लिर दालहने पैर को मोड़कर हाथों का
सहारा देकर पंजा व एड़ी को िाएूँ पैर के जाूँघ पर रखें। इसी प्रकार िाएं पैर को मोड़कर एड़ी व पंजे को हाथों
का सहारा देकर दालहने पैर की जाूँघ पर रखें। दोनों पैरों की एलड़याूँ नालभ के दोनों ओर पेट से सटी होनी
चालहए। दोनों पैरों के घटु ने भलू म से स्पशत होने चालहए। शरीर को सीिा रखें। रीढ़ की हड्डी सीिी रहनी
चालहए। दोनों हाथों को सीिा रखते हुए हाथ-पैरों के घटु नों पर होने चालहए। उस समय हाथों की उंगलियाूँ
व हथेिी ज्ञान मरु ा में होनी चालहए। आूँखों को िन्द कीलजए। मन को भमू ध्य या हृदय में एकाग्र करने का
प्रयास कीलजए। इस आसन पर िैठकर आप प्राणायाम भी कर सकते हैं। यलद आप ध्यान के लिए इसी
आसन का प्रयोग करते हैं, तो आप अपने हाथों की उंगलियों को आपस में िूँ साकर गोद में रख सकते हैं।
यलद आप लसित आसन ही कर रहे हैं तो मन को आप भमू ध्य या हृदय में एकाग्र कर 10-15 लमनट िैलठए।
इससे आपको िहुत िाभ लमिेगा। ब्रह्मचयत का पािन करने वािे को यह आसन सहायक लसि होगा। मन
की चंचिता कम होगी। मानलसक कायत करने वािों के लिए यह आसन िहुत उपयोगी है।
शीषाणसन – शीषातसन श्रेष्ठ आसनों में से एक है। सिसे पहिे आप कपड़े की एक गद्दी सी िना िें,
तालक उस पर लसर रखने पर आराम लमिे। यह आसन शरू ु आत में जि सीखें, तो अपनी सहायता के लिए
एक व्यलक्त का सहारा िे सकते हैं, क्योंलक आसनकतात को लसर के िि खड़ा होना पड़ता है। शरुु आत में
लसर के िि खड़ा होना असमभव सा होता है, ति दसू रे व्यलक्त की सहायता से अपने पैरों को ऊपर करके

सहज ध्यान योग 132


खड़े होने का अभ्यास डािें। कुछ समय िाद स्वयं अके िे अभ्यास करें । अथवा शरुु आत में दीवार का
सहारा िे िें और अभ्यास करें । लिर कुछ समय िाद दीवार का सहारा न िें।
आसन करते समय कपड़े की गद्दी िशत पर रख िें। लिर घटु नों के िि आगे झक ु ते हुए िैठ जाएूँ।
हाथों की हथेलियाूँ िशत पर होनी चालहए। अि अपना लसर कपड़े की गद्दी पर रखें। हथेलियों को कानों की
िगि में उलचत दरू ी िनाकर िशत पर रखे। हथेलियों को लसर से इतनी दरू ी पर रखें लक पैर उठाते समय शरीर
का संतुिन िना रहे। अि पैरों को ऊपर उठाने का प्रयास करना चालहए। पैरों को िीरे -िीरे उठाने का प्रयास
करें । पैर ऊपर उठ जाने पर शरीर को सीिा रखना चालहए। एलड़याूँ लमिी होनी चालहए। पंजे ऊपर की ओर
करें । शरुु आत में पैर ऊपर उठाते समय परे शानी-सी महससू होती है। इसी समय दसू रे व्यलक्त का सहारा िे
िें। दसू रा व्यलक्त पैर ऊपर की ओर उठा दे, लिर आप दीवार का सहारा िे िीलजए। आपका सहायक व्यलक्त
कुछ समय तक आप के पैरों के संति ु न पर लनगाह रखे, तालक आप एक ओर लगर न जाएूँ। लिर आप स्वयं
अके िे अभ्यास करें । आसन करते समय गदतन को कड़ा रखें, तालक आपकी गदतन शरीर का भार आसानी
से सह सके । गदतन ढीिी रखने पर आपको परे शानी हो सकती है। शरीर को लस्थर रखें, लहिने-डुिने न दें।
आूँखों को िन्द रखें, शान्त होने का प्रयास करें । शरुु आत में आसन एक-दो लमनट ही करें । लिर िीरे -िीरे
इसकी अवलि िढ़ाते जायें। यह आसन करते समय आप के शरीर का रक्त का दिाव लसर की ओर होता है।
इसलिए आसन के िाद कुछ देर तक शवासन मरु ा में शातं होकर िेट जाएूँ अथवा चपु चाप खड़े रहें तालक
समपणू त शरीर में रक्त का दिाव सही हो जाए।
इस आसन से ढेर सारे िाभ हैं– पाचन लक्रया तेज होती है, भूख खि ु कर िगती है, आूँखों की
ज्योलत तेज होती है, चेहरा तेजस्वी होता है, चेहरे पर जल्दी झरु रत याूँ नहीं पड़ती हैं, िढ़ु ापा देर से आता है।
वीयत को ऊध्वतगामी करने के लिए सिसे उपयोगी आसन है। ब्रह्मचाररयों को यह आसन अवश्य करना
चालहए। मलस्तष्क की कोलशकाएूँ पष्ु होती हैं, लसर में चक्कर आना िन्द हो जाता है, याददाश्त िढ़ जाती
है, मलस्तष्क समिन्िी रोग नहीं िगता है, हृदय मजिूत होता है, िमलनयाूँ और लशराएूँ सही रूप से कायत
करती हैं, शीषातसन के समय ऊध्वत पद्मासन कर सकते हैं। जि शीषातसन का अभ्यास िढ़ जाए, तो इसी
अवस्था में पैरों को मोड़कर पद्मासन िगा सकते हैं। लिर पैरों को खोिकर िीरे -िीरे ऊपर करें । ऐसा करने
से पैरों और लपंडलियों में रोग नहीं िगते हैं।

सहज ध्यान योग 133


सवाांगासन – आप सीिे िेट जाइए। हाथ भी सीिे करके कमर के दोनों ओर सटाते हुए जमीन पर
लचपके रहने दें। अि दोनों पैरों को सीिा लकये हुए ऊपर की ओर 90 अश ं का कोण िनाते हुए उठाएूँ। पैरों
की एलड़याूँ और पजं े आपस में लमिे रहें। अि अपने अन्दर श्वास खींलचए और कुमभक कीलजए। लिर पेट
और कमर को ऊपर उठाने का प्रयास कीलजए। उसी समय हथेलियों का दिाव िशत पर दीलजए। इससे
आपको शरीर ऊपर उठाने में सहायता लमिेगी। जि कमर थोड़ी ऊपर उठ जाए तो कमर के दोनों तरि हाथ
का सहारा दीलजए और दोनों हाथों से शरीर (कमर) ऊपर उठाने का प्रयास कीलजए। अि आपके शरीर को
ऊपर जाने में आसानी होगी। हाथों के सहारे अि ज्यादा से ज्यादा कमर को ऊपर उठाएूँ उस समय आपका
पेट भी थोड़ा ऊपर हो जाएगा। कमर और पैर सीिा रखने का प्रयास कीलजए। अि आपके शरीर का भार
कन्िों और गदतन पर होगा। अपनी गदतन को कड़ा रखें तालक गदतन पर अनावश्यक दिाव न पड़े। अि आपकी
दृलष् पैरों के अंगठू ों पर होनी चालहए। पैरों के पंजों का लखंचाव ऊपर की ओर (आकाश की ओर) होना
चालहए। शरू ु में लजतना हो सके उतनी देर तक इस मरु ा में रलहए। लिर िीरे -िीरे अभ्यास के अनसु ार समय
िढ़ा दीलजए। इस आसन की अवलि 10 से 15 लमनट तक िे जाइए। जि आपको अच्छा अभ्यास हो जाए,
ति शरीर को ज्यादा से ज्यादा ऊपर की ओर उठाइए। पैर सीिे ऊपर की ओर होने चालहए। आसन करते
समय िीरे -िीरे श्वास िीलजए व छोलड़ए। लिर मन को गदतन की ओर कें लरत कररए। गदतन में एक ग्रलन्थ है,
लजसका उल्िेख पहिे लकया जा चक ु ा है। यह ग्रलन्थ पष्ु होती है। लिर िीरे -िीरे खि
ु ने में सहायता लमिती
है। लजसकी सािना कण्ठ चक्र में हो, वे सािक यह आसन अवश्य करें । इस आसन में और िहुत िायदे हैं।
रीढ़ की हड्डी िोचदार होती है। वीयत ऊध्वतगामी होता है। लजससे ब्रह्मचयत में सहायता लमिती है। मलस्तष्क
अलिक लक्रयाशीि होता है। जो िोग मलस्तष्क समिन्िी कायत करते हैं, उन्हें ये आसन अवश्य करना चालहए।
पाचन शलक्त तेज होती है, हृदय समिन्िी रोग नहीं रहते हैं, और चेहरा तेजस्वी हो जाता है।
जि यह आसन लकया जाता है तो गदतन और कंिे जमीन पर लटके रहते हैं। रीढ़ की हड्डी घमु ावदार
िन जाती है, लजससे रीढ़ की हड्डी िोचदार होने के कारण रीढ़ में लस्थत अत्यन्त सक्ष्ू म नालड़याूँ तेजी से
सलक्रय होकर काम करने िग जाती हैं। इससे यवु ावस्था ज्यादा लदन लस्थर रहती है। आसन लसि हो जाने
पर आसन करते समय कमर से हाथ छोड़े जा सकते हैं, लसित कन्िों के सहारे शरीर को शीषातसन के समान
रख सकते हैं। आसनों में यह आसन िहुत महत्वपणू त है।

सहज ध्यान योग 134


भजु गिं ासन – इसे सपातसन भी कहते हैं। सिसे पहिे आप जमीन पर पेट के िि िेट जाइए। दोनों
पैरों की एलड़याूँ आपस में लमिी होनी चालहए। अपनी हथेलियों को सीने के दोनों ओर िशत पर सटाइए। अि
आप अपना लसर िीरे -िीरे ऊपर की ओर उठाइए। जि लसर पणू त रूप से ऊपर की ओर हो जाए, हथेलियों
िारा िशत पर जोर िगाइए और अपने सीने को ऊपर की ओर उठाइए लजतना उठा सकते हैं। मगर याद
रलखए, नालभ से लनचिा लहस्सा जमीन पर लचपका रहे। अि आपके शरीर की आकृ लत िन उठाये हुए सपत
की भाूँलत होगी। हाथ लिल्कुि सीिे होकर जमीन पर हथेलियाूँ लचपकी होंगी। उस समय आपके कमर के
पास की रीढ़ में हल्के ददत की अनभु लू त होगी, क्योंलक हड्डी वहीं से ऊपर की ओर मड़ु ी होगी। आप ऊपर
की ओर उतना ही मड़ु ें लजतना आसानी से मड़ु सकते हों, तालक कमर के पास रीढ़ की हड्डी पर ज्यादा
दिाव न पड़े। जैसे-जैसे आपका अभ्यास िढ़ता जाए, अपने सीना को ऊपर उठाकर पीछे की ओर झक ु ाने
का प्रयत्न करें । तालक आपका सीना ज्यादा से ज्यादा ऊपर उठ सके । यह आसन कुण्डलिनी जागरण में
सहायता देता है। इस आसन को करते समय थोड़ा प्राणायाम कीलजए।
पहिे आप थोड़ा सा सीिा हो जाइए तालक अन्दर श्वास खींचने में आसानी रहे। थोड़ा सीिे होकर
आप जोर से श्वास अन्दर खींचे और महससू करें आपके िारा खींची गयी प्राणवायु मि ू ािार में एकत्र हो
रही है। जि श्वास अन्दर खींच िें, लिर अपने सीने को परू ी तरह ऊपर उठाएूँ और कुमभक करें , और सोचें
लक आपके िारा खींची गयी प्राणवायु मि ू ािार में भरी है। जि आप कुमभक समाप्त करें , ति आप अपना
शरीर थोड़ा सीिा कर िें और िीरे -िीरे श्वास िाहर लनकाि दें। लिर श्वास अन्दर खींचे और पवू तवत हो जाए।
इसी तरह प्राणायाम इस आसन पर करें । शरू ु में प्राणवायु के लवषय में कुछ भी समझ में नहीं आयेगा। कुछ
लदनों िाद िगेगा लक आपके िारा खींची गयी प्राणवायु मि ू ािार में जा रही है। कुमभक करने पर प्राणवायु
मिू ािार में महससू होगी। इसी प्राणवायु को मि ू ािार में ज्यादा से ज्यादा देर तक रोकने का प्रयास करें ।
कुछ लदनों िाद यह प्राणवायु कुमभक करने पर ददत पैदा करे गी क्योंलक जि मि ू ािार में प्राणवायु का दिाव
होगा, तो प्राण कुण्डलिनी को िक्के मारना शरूु कर देगा। यह अभ्यास लनयलमत करें । इस अभ्यास से रीढ़
समिन्िी रोग दरू होते हैं। पीठ, सीना व पेट में रोग नहीं िगते हैं और वायु लवकार नहीं होता है। आसन
समाप्त करते समय िीरे -िीरे सीना जमीन पर लटकाइए, लिर लसर रलखए। कुछ समय तक इसी अवस्था में
शान्त िेटे रलहए, लिर उठें ।

सहज ध्यान योग 135


नाड़ी शद्ध
ु आसन – आप सीिे िैठ जाइए। दोनों पैर आगे की और सीिे कीलजए। सीिे िैठे हुए
ही दोनों पैरों को चौड़ा कीलजए। िायाूँ पैर िायीं ओर और दालहना पैर दालहनी ओर कीलजए। दोनों पैरों की
एलड़यों में आपस में ज्यादा से ज्यादा दरू ी कीलजए। पंजों का लखचं ाव सामने की ओर होना चालहए। अि
दालहने हाथ से िायें पैर का अगं ठू ा स्पशत करने का प्रयास कीलजए। अपना लसर िायें पैर के घटु ने को स्पशत
कराने का प्रयास कीलजए। यलद आपका शरीर अभी ज्यादा नहीं झक ु पाता है तो लनराश मत होइए। अि
पहिे की तरह सीिे हो जाइए। लिर िायें हाथ से दालहने पैर के अगं ठू े को स्पशत करने का प्रयास कीलजए।
अपना लसर दालहने पैर के घटु ने को स्पशत करने का प्रयास कीलजए। लिर आप पवू तवत हो जाइए। यही लक्रया
क्रमश: िार-िार कीलजए। दालहने हाथ से िायें पैर का अंगठू ा, िायें हाथ से दालहने पैर का अगं ठू ा स्पशत कराने
का प्रयास कीलजए तथा लसर भी घटु नों से स्पशत करने का प्रयास कीलजए। कुछ लदनों िाद अभ्यास हो जाएगा।
ऐसा करने से इड़ा, लपंगिा नालड़याूँ शि ु होती हैं। योग में इन नालड़यों का िड़ा महत्त्व है। इनका शि ु होना
अत्यन्त जरूरी है। इन नालड़यों के शि ु होने पर सुषमना नाड़ी पर असर होता है। इड़ा, लपंगिा नालड़याूँ समान
रूप से चिने में सहायता लमिती है। इन नालड़यों के शि ु होने पर स्नायु मण्डि प्रभालवत होता है।
स्नायमु ण्डि शि ु होकर लक्रयाशीि होने िगता है।
पविमोत्तानासन – सीिे िैठ जाइए। अपने पैरों को सामने की ओर सीिा रलखए। पंजे और एलड़याूँ
आपस में लमिे रहने चालहए। अि आप दोनों हाथ सीिे सामने की ओर िढ़ाइए। दालहने हाथ से दालहने पैर
के अगं ठू े और िायें हाथ से िायें पैर के अगं ठू े को पकड़ने का प्रयास कीलजए। दोनों पैर के अगं ठू े पकड़ने के
िाद अपना लसर दोनों पैरों के घटु नों के िीच स्पशत कराने का प्रयास कीलजए। हो सकता है शरुु आत में पैरों
के अगं ठू े पकड़ में न आयें, िेलकन कुछ लदनों के िाद अभ्यास के िारा आप पैरों के अगं ठू ों को पकड़ िेंगे
और लसर भी घटु नों के िीच स्पशत होने िगेगा। इस आसन से कई िाभ हैं। – इसके अभ्यास से पेट में चिी
नहीं िढ़ती है। यलद लकसी की नालभ उखड़ गयी हो इस आसन के करने से नालभ अपने आप िैठ जाएगी।
इस आसन से कुण्डलिनी जाग्रत करने में सहायता लमिती है। भजु गं ासन के समान प्राणायाम करना पड़ता
है। पहिे सीिे होकर श्वास अन्दर खींलचए, लिर कुमभक कीलजए और पैरों के अगं ठू े को पकड़े हुए लसर घटु नों
से स्पशत कीलजए। कल्पना कीलजये लक आपकी प्राणवायु मि ू ािार में जा रही है। लिर थोड़ा सीिा होकर वायु
िीरे -िीरे लनकालिए। लिर तेजी से श्वास अन्दर की ओर िीलजए। अि आप सोलचये लक आपकी प्राणवायु
मिू ािार में जा रही है और कुमभक कीलजए। आसन करते समय मन मि ू ािार में कें लरत कीलजए। कुछ लदनों

सहज ध्यान योग 136


पश्चात् महससू होगा लक प्राणवायु मि
ू ािार में जा रही है। कुमभक होने पर जि आप लसर को घटु नों पर स्पशत
करा रहे होंगे, ति मि
ू ािार में हल्का-हल्का ददत महससू होगा। यह ददत वायु के दिाव के कारण होता है।
इसी प्रकार कुमभक करते रहें। कुछ महीनों िाद आप की प्राणवायु कुण्डलिनी को िक्के मारना शरू ु कर
देगी। इससे कुण्डलिनी जाग्रत होने में सहायता लमिेगी। इस आसन का अभ्यास 10-15 लमनट तक अवश्य
करना चालहए।
हलासन – सवतप्रथम भलू म पर पीठ के िि िेट जाइए। हाथों को अपने शरीर से सटाते हुए भलू म पर
रख िें। हथेलियाूँ नीचे की ओर भलू म पर लचपकी होनी चालहए। आपके पैरों की एड़ी व पंजे आपस में लमिे
होने चालहए। अि आप अपने पैरों को एक साथ उठाते हुए ऊपर की ओर िे जाएूँ। यह ध्यान रहे ऊपर उठाते
समय पैर आपस में लचपके रहने चालहए। हाथों से जमीन पर जोर िगाते हुए पैरों को लसर के पीछे की ओर
िे जाइए। पैरों के पंजों को लसर से पीछे जमीन पर स्पशत कराइए। हाथ जमीन पर सीिे लचपके रहें। उस समय
आपकी कमर व पीठ जमीन से ऊपर की ओर उठी होगी। पैर सदैव सीिे रहने चालहए, झक ु ने नहीं चालहए।
शरुु आत में पैरों के पंजों को लसर के पीछे जमीन पर स्पशत कराने में तकिीि महससू होगी क्योंलक पीठ इतनी
मड़ु नहीं पाती है। अभ्यास करने पर पीठ मड़ु ने िगेगी लिर पंजे आसानी से जमीन पर स्पशत कर िेते हैं। इस
आसन से ढेरों िाभ हैं– पेट पर अनावश्यक चिी नहीं िढ़ती है, पीठ व पेट का ददत जाता रहता है, गिे की
ग्रलन्थ पष्ु िनती है।
वज्रासन – यह आसन सािकों के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस आसन को सािकों को अवश्य
करना चालहए। सवतप्रथम भलू म पर सीिे िैठ जाएूँ। दोनों पैरों को सामने की ओर सीिे िै िा िें। अि िायाूँ
पैर मोड़ें। हाथों से पैर को पकड़कर पैर की एड़ी गदु ािार पर िगाएूँ। गदु ािार को संकुलचत कर एड़ी इस प्रकार
िगाना चालहए लक गदु ािार पणू तरूप से िन्द हो जाए तालक अपान वायु भी न लनकि पाये। यलद आप ध्यान
दें तो देखेंगे आपके इसी पैर के पंजे का ऊपरी भाग जमीन से स्पशत कर रहा है। अि दालहने पैर को अपनी
ओर मोड़ें। पैर को हाथों से पकड़ कर एड़ी िारा लिंगिार को िन्द कर दें। लिर लिल्कुि सीिे होकर िैठ
जायें। अि आपके शरीर का भार िायें पैर की एड़ी व पंजे पर होगा। यलद सािक इसी आसन पर िैठकर
ध्यान करे तो लनश्चय ही उसकी सािना में उन्नलत होगी। यह आसन कुण्डलिनी जागरण में सहायक है। जि
सािक के तीनों िन्ि (मि ू िन्ि, उड्लडयान िन्ि,जािन्िर िन्ि) िगने िगें, तो सािक को इसी आसन

सहज ध्यान योग 137


पर िैठकर ध्यान करना चालहए। इससे कुण्डलिनी शीघ्र उठ जाएगी। यलद सािक के ध्यान में तीनों िन्ि नहीं
िगते हैं, तो आसन करते समय यही तीनों िन्ि िगाकर िैठने का अभ्यास करना चालहए। इससे ध्यान में
भी तीनों िन्ि िगने िगेंगे। इसी आसन पर िैठकर प्राणायाम करना चालहए। इन िन्िों का उल्िेख आगे
करें गे।
वीरासन – जमीन पर सीिे िैठ जायें। दोनों पैर आगे की ओर सीिे िै िाकर रखें। िायें पैर को
िाहरी ओर से मोड़ते हुए हाथों का सहारा देकर पैर को परू ा मोड़ िें। लिर पैर के तिवे पर िायाूँ लनतमि रखें।
इसी प्रकार दालहने पैर को दालहने ओर से होते हुए हाथों का सहारा देकर पूरा मोड़ िें। लिर इसी पैर के तिवे
पर दालहना लनतमि रलखए। अि आपके दोनों लनतमि पैरों के तिवे पर होंगे। अपने हाथ सीिे रखते हुए
हथेलियों को पैरों के घटु नों पर रलखए। यह आसन सािक के लिए उस समय उपयोगी है, जि उसकी सािना
पाूँचवें चक्र में चि रही हो। इस चक्र में सािक की गदतन पीछे जाने के कारण सारा शरीर पीछे की ओर
झकु ता है। अच्छी सािना होने पर सािक कभी-कभी पीछे की ओर लगर भी जाता है। उस समय इसी आसन
पर िैठकर ध्यान करना चालहए लजससे पीछे लगरने की समभावना कम हो जाएगी। यह आसन भगवान
िजरंगििी के नाम से भी जाना जाता है। िहुत से भगवान िजरंगििी के उपासक इसी आसन पर िैठकर
ध्यान करते हैं। इस आसन से सीना मजितू होता है, शरीर लनरोगी रहता है और नेत्र की ज्योलत तेज होती है।
योगमुद्रासन – सवतप्रथम सहजासन या पद्मासन िगाकर िैठ जायें। दोनों हाथों को पीठ के पीछे
करें । अि िायें हाथ से दालहने हाथ की किाई पकड़ें। पकड़ी हुई किाई मि ू ािार के पास िगाएूँ। दोनों हाथों
में लखंचाव रखें। अि श्वास को जोर िगाकर लनकाि दें। पेट में लिल्कुि वायु न रहे। लिर िाह्य कुमभक करें
और लसर को िीरे -िीरे आगे की ओर झक ु ाएं। जि लसर जमीन पर िग जाए तो लसर जमीन पर िगा रहने दें।
लिर सीिे होकर श्वास िें, और पहिे के समान लसर को िीरे -िीरे आगे की ओर झक ु ाकर जमीन पर िगा
दें। यही लक्रया कई िार करें । इस लक्रया से कुण्डलिनी जाग्रत होने में सहायता लमिती है और मि ू ािार में
ऊपर की ओर लखंचाव होता है लजससे कुण्डलिनी ऊध्वत होने में सहायता लमिती है, पेट में गैस समिन्िी
रोग दरू होते हैं और मानलसक शलक्त िढ़ती है। यह आसन सािकों के लिए अत्यन्त महत्वपणू त है। लजनकी
कुण्डलिनी जाग्रत हो, उन्हें यह आसन अवश्य करना चालहए। क्योंलक कुण्डलिनी ऊध्वत होने में यह आसन
सहायक है। लकसी-लकसी सािक को यह आसन ध्यानावस्था में स्वयमेव िग जाता है, जि सािक का

सहज ध्यान योग 138


कण्ठ चक्र खि ु गया हो। लिर जि कुण्डलिनी को कण्ठ चक्र से ब्रह्मरंि तक जाने में िहुत समय िग जाता
है, उस समय यह आसन िहुत िाभकारी हो जाता है। जि सािक को ध्यानावस्था में यह लक्रया होने िगे,
तो ज्यादा से ज्यादा गहरा और लटकाऊ कुमभक करे । इसी लस्थलत में रहने का प्रयास करना चालहए, इससे
कुण्डलिनी में उग्रता आयेगी। मिू ािार में प्राण लिल्कुि न होने के कारण ऊपर की ओर जोर से लखचं ाव
होता है। ऐसा िगता है मानो मि ू ािार टूटकर ब्रह्मरंध्र की ओर आ जाएगा। इससे कुण्डलिनी ऊध्वत होने में
तीव्रता आती है। जि तक सािक का ब्रह्मरंध्र न खि ु जाए, ति तक यह अभ्यास करना चालहए।
शवासन – यह आसन सभी व्यलक्तयों के लिए िाभदायक है। उनके लिए यह आसन िहुत जरूरी
है, जो स्थि ू या मानलसक कायत करने से थक जाते हैं। इस आसन को करने से थकान शीघ्रता से कम हो
जाती है। िशत पर लिछे हुए कमिि पर सीिे िेट जायें। हाथ शरीर से सटाते हुए सीिे रखें। हथेलियाूँ नीचे
की ओर रखें। पैरों की एलड़याूँ आपस में लमिी होनी चालहए। अि शरीर को लिल्कुि ढीिा करके छोड़ दें।
अपने मन को दालहने पैर के अंगठू े पर लटकायें। कुछ समय तक मन को अंगठू े पर एकाग्र रखें। लिर संकल्प
करें लक आपके पैर के अंगठू े व उंगलियों की प्राणवायु लसर की ओर आ रही है, अंगठू ा व उंगलियाूँ प्राणवायु
से रलहत हो गयी हैं। लिर सोचें लक एड़ी व उसके जोड़ की प्राणवायु लसर की ओर आ रही है, वह जगह
प्राणवायु से रलहत हो गयी है। इसी प्रकार अि लपंडिी, घटु ना व जाूँघ के लिए सोचें। लजस अंग के िारे में
सोचें, मन वहीं के लन्रत होना चालहए। अि िायें पैर के अंगठू े पर मन एकाग्र करें । लिर क्रमश: पहिे की भाूँलत
पैर के अगं ों के लवषय सोचें, जि तक इस पैर के जाूँघ तक आ जाए। लिर कमर पर अपने मन को एकाग्र
करें । सोचें लक प्राणवायु लसर की ओर आ रही है, वह जगह प्राणवायु से रलहत हो गयी है। इसी प्रकार िायें
हाथ की उंगलियों से िेकर कंिों तक सोचें। लिर सोचें लक कंिे और गिे की प्राणवायु ब्रह्मरंध्र की ओर जा
रही है। इसी प्रकार मूँहु , नाक, आूँख,ें मस्तक आलद के लवषय में सोचें। अि सोचो लसित ब्रह्मरंध्र में ही
प्राणवायु लस्थत है। अि आूँखें िन्द कर िेनी चालहए। ब्रहारंघ्र तक सोचने में गदतन लिल्कुि ढीिी हो जाएगी।
इसलिए लसर एक तरि िढ़ु क जाएगा अि शांत होकर िेटे रलहए। कम से कम 5 से 10 लमनट तक इसी
अवस्था में रलहए। लिर यही लक्रया उल्टे ढगं से करनी है। ब्रह्मरंध्र से प्राणवायु मस्तक, आूँख,ें मूँहु , नाक
आलद में प्रवालहत होने िगी है, ऐसा सोलचए। लिर सोलचए गिे, कंिे तक प्राणवायु प्रवालहत होने िगी है।
इसी प्रकार सीना, पेट और कमर तक सोलचए। कंिे से दालहने हाथ की उंगलियों तक सोचें। इसी प्रकार िायें
हाथ के लिए सोचें। लिर पैरों के सभी अंगों के लिए क्रमशुः सोचें। जि आप सारे शरीर में प्राणवायु प्रवालहत

सहज ध्यान योग 139


करने की सोच िें, तो आप देखेंगे लक सभी अगं ों में ताजगी सी आ गयी और िगेगा लक शरीर में स्िूलतत भी
आ गयी। कुछ क्षणों तक िेटे रहने के िाद उठें । जि आप शरुु आत में सोचेंगे ति आपको कुछ भी महससू
नहीं होगा। िीरे -िीरे जि आपका अभ्यास िढ़ जाएगा, तो आपको िगेगा सोचते ही प्राण वापस आने
िगता है तथा महससू भी होता है। अलिक अभ्यास होने पर सारी प्राणवायु ब्रह्मरंध्र में महससू होगी। लिर
उसी प्रकार क्रमश: हर अगं के लिए उल्टे ढगं से प्राणवायु प्रवालहत करने के लिए सोचना चालहए लजससे
सभी जगह प्राणवायु का संचार हो जाए। यह लक्रया इच्छाशलक्त पर लनभतर करती है। इस लक्रया में जल्दिाजी
नहीं करनी चालहए। प्राणवायु को वापस प्रवालहत करने की लक्रया अवश्य साविानीपवू तक करनी चालहए।
जल्दिाजी में आपके अगं ों को परे शानी पहुचूँ सकती है। जि आपकी इच्छाशलक्त शलक्तशािी हो जाएगी,
उस समय आपके कहने के अनसु ार प्राणवायु ब्रह्मरंध्र में आ जाएगी लिर वालपस प्रवालहत होने िगेगी। सारा
शरीर शन्ू य-सा पड़ जाएगा। अगर प्राणवायु वापस प्रवालहत करते समय गड़िड़ी हो गयी तो िकवा जैसी
भयंकर िीमारी होने का खतरा हो सकता है। यलद इस आसन को पणू त लसि करना हो तो लकसी मागतदशतक
की देख-रे ख में अभ्यास करें । शरुु आत में मागतदशतक की कोई खास आवश्यकता नहीं पड़ती है। थोड़ा
अभ्यास करके सभी िाभ उठा सकते हैं। इस आसन से ढेरों िाभ हैं।
लसि परुु ष इस आसन को लसि करके ढेरों काम करते हैं। यह िात योग में उच्चावस्था की है। इसके
अभ्यास से सभी सािकों व आसनकतातओ ं की स्थि ू व मानलसक थकान दरू हो जाती है। इस आसन का
अभ्यास थोड़ा ज्यादा करने पर िढ़ु ापा देर से आता है। जो सािक सािना के लिए 8-10 घटं े िैठते हैं, उनके
लिए यह आसन िहुत जरूरी है, क्योंलक ध्यान पर ज्यादा िैठने के कारण पैरों में ददत शरू
ु हो जाता है तथा
पैरों की लपडं लियों की रक्त नलिकाओ ं में अवरोि सा आ जाता है। इस आसन के करने से यह परे शानी दरू
हो जाती है। शवासन लसि हो जाने पर कई प्रकार के कायो के लिए मागत खि ु जाता है।
हम पहिे लिख चक ु े हैं लक आसन कई प्रकार के होते हैं। जो आसन सािकों के लिए सहज ध्यान
योग में सवातलिक उपयोगी हैं तथा ध्यान में लजन आसनों के अभ्यास से सहायता लमिती है, उन्हीं आसनों
के िारे में मैंने उल्िेख लकया है। कुण्डलिनी जागरण के लिए लसित आसन नहीं करने चालहए। कुण्डलिनी
ऊध्वत होने का कायत ध्यान के लिना असमभव है; आसनों से लसित सहायता लमि सकती है। लजनकी हड्डी
टूटने के िाद जोड़ी गयी हो, उन्हें उस अंग का आसन नहीं करना चालहए तालक टूटी हुई हड्डी पर जोर न

सहज ध्यान योग 140


पड़े। लचलकत्सकीय सिाह िे िें तो िेहतर है। वृि परुु षों को कलठन आसन नहीं करने चालहए, लसित सरि
आसन करने चालहए। वैसे यवु क भी तरु न्त कलठन आसन न करें , शरुु आत में सरि आसन करें । जि आसनों
का अभ्यास िढ़ जाए तो कलठन आसनों को करने की शरुु आत करें । आसनों का अभ्यास लनरंतर करना
चालहए; िीच में छोड़-छोड़कर अभ्यास नहीं करना चालहए।

सहज ध्यान योग 141


प्राणायाम
योग के आठों अंगों में प्राणायाम चौथा अंग है। योग में कुछ लक्रयाएूँ शारीररक हैं और कुछ मानलसक
हैं। मगर प्राणायाम शारीररक व मानलसक दोनों है। योग में प्राणायाम का लवशेष महत्त्व है। शरीर के अन्दर
लवलभन्न प्रकार की गन्दगी व दोष एकत्र हो जाते है, उसे साि करने के लिए अन्य लकसी उपचार या लक्रया
की आवश्यकता नहीं है। अके िे प्राणायाम से ही सि कुछ ठीक हो सकता है। इससे शारीररक क्षमता कायम
रख सकते हैं तथा शरीर को तेजस्वी िना सकते हैं। मानलसक लवकार दरू हो सकता है। प्राणायाम दो शब्दों
से लमिकर िना है– प्राण + आयाम। प्राण का स्थि ू और शालब्दक अथत वायमु ण्डि से िी गयी प्राणवायु
का श्वास-प्रश्वास है। आयाम का अथत है िै िाना, उसे अपने वश में करके रोकना और चिाना। यहाूँ पर एक
िात िताना चाहगूँ ा, प्राण का अथत लसित ऑक्सीजन का श्वास-प्रश्वास ही नहीं है, िलल्क प्राणवायु एक तत्व
है जो आकाश तत्व से उत्पन्न हुआ है। पचं भतू तत्वों में से जो वायु तत्व है, यह प्राण उसी का स्वरूप है।
प्राणायाम को पहिे पूरा समझने के लिए श्वास-प्रश्वास को समझना पड़ेगा। मनष्ु य ही नहीं, सभी
जीविाररयों को श्वास िेने की आवश्यकता पड़ती है। लकसी भी जीविारी का श्वास िन्द होने पर जीवनिीिा
समाप्त हो जाती है। इसलिए मनष्ु य का जीवन भी श्वास-प्रश्वास पर लनभतर करता है। प्राणायाम करके इसी श्वास
और प्रश्वास को अपने अनुसार रोककर और चिाकर संतलु ित करते हैं। इसी श्वास-प्रश्वास के कारण हमारे
शरीर के अंदर की लक्रयाएूँ हुआ करती हैं। यलद हम श्वास-प्रश्वास को प्राणायाम के िारा संतलु ित और लनयलमत
करने का अभ्यास कर िें, तो हम अपने शरीर के अंदर के अंगों को स्वयं अपनी इच्छानसु ार संतलु ित व
लनयलमत करके अपने अनसु ार कायत िे सकते हैं। हम सभी जानते हैं यलद लकसी यांलत्रक (मशीनरी) वस्तु की
हम अच्छी तरह से रखरखाव रखेंगे व सन्तुलित रूप में कायत िेंगे, तो वह कािी समय तक लटकाऊ व
अच्छी हाित में रहेगी। इसी प्रकार जि हम अपने शरीर के अवयवों से संतलु ित कायत िेंगे, तो हमारा स्थि ू
शरीर भी पहिे की अपेक्षा ज्यादा लदन तक स्वस्थ रहेगा। पहिे की अपेक्षा का मतिि- प्राणायाम करने से
पवू त की लस्थलत। इससे साि जालहर होता है लक प्राणायाम करने से श्वास-प्रश्वास पर अलिकार करके
इच्छापवू तक चिाने से उम्र िढ़ती है, युवावस्था ज्यादा लटकाऊ रहती है।
हमारे पृर्थवी के वायमु ण्डि में ढेरों प्रकार की गैस हैं। मगर मनष्ु य वायमु ण्डि से जो गैस िेता है
उसका नाम ऑक्सीजन है। यही ऑक्सीजन हमारे लिए जीवनदालयनी है। इसी ऑक्सीजन के सक्ष्ू म रूप को

सहज ध्यान योग 142


प्राणवायु कहते हैं। जि हम सभी को वायमु ण्डि से ऑक्सीजन श्वास के िारा शरीर के अदं र पहुचूँ ती है तो
प्राणवायु िे िड़े में भरती है। िे िड़े वायमु ण्डि से आये ऑक्सीजन में लमलश्रत अत्यन्त छोटे-छोटे दलू षत
कणों की सिाई करते हैं, शि ु ऑक्सीजन हृदय के िारा रक्त में लमलश्रत हो, िमलनयों के रक्त को शरीर के
सभी अगं ों में भेजते हैं और लशराओ ं िारा गदं ा रक्त हृदय में िाते हैं। यही गदं ा रक्त हृदय में साि लकया जाता
है। लिर साि लकया हुआ रक्त िमलनयों के िारा शरीर के सभी अगं ों में पहुचूँ ाने का कायत करता है। हम जि
श्वास को िाहर लनकािते हैं, तो वायु में शरीर के अदं र लस्थत गदं े सक्ष्ू म कण प्रश्वास के िारा िाहर आ जाते
हैं। िाहर लनकािी हुई वायु को काितन डाइऑक्साइड कहते हैं। इसी प्रकार हम सभी श्वास-प्रश्वास करते हैं
सभी के शरीर के अदं र यही लक्रया होती है।
जो मनष्ु य प्राणायाम नहीं करते हैं, वे मनष्ु य हल्की श्वास िेते हैं तथा श्वास-प्रश्वास भी जल्दी-जल्दी
करते हैं। ऐसे मनष्ु यों की उम्र जि थोड़ी ज्यादा होती है, तो उन्हें ढेरों प्रकार के रोग िगते हैं तथा िढु ापा भी
जल्दी आ जाता है। हल्की श्वास िेने पर िे िड़ा पणू त रूप से कायत नहीं कर पाता है। उसका कुछ भाग लनलष्क्रय
सा रहता है तथा ठीक तरह से रक्त की शुलि नहीं हो पाती है। सक्ष्ू म िमलनयों में दिाव न होने के कारण िाह्य
त्वचा में झरु रत याूँ सी पड़ जाती हैं। जि िे िड़े परू ी तरह से कायत नहीं करें गे तो मनष्ु य को ढेरों िीमाररयाूँ िगनी
शरूु हो जाती हैं। कभी-कभी कुछ भयानक रोग भी िग जाते हैं। इन सि रोगों से िचने के लिए हमें शि ु
ऑक्सीजन िेना अलत आवश्यक है। इससे शि ु रक्त संचार शरीर के अदं र होने िगता है। िे िड़ों को अलिक
सलक्रय करने के लिए, िे िड़ों के प्रत्येक कोष्ठकों को प्राणवायु पहुचूँ ाने की अत्यन्त आवश्यकता है। उसके
लिए सभी मनष्ु यों को प्राणायाम करना आवश्यक है। प्राणायाम से मनष्ु य को गहरी व िीमी गलत से श्वास
िेने की आदत पड़ती है। लजससे िे िडों के सभी कोष्ठकों को प्राणवायु पहुचूँ ने िगती है। सािारण मनष्ु य
का िे िड़ा लसित 1/2 भाग कायत करता है, ऊपरी 1/4 भाग सदैव ररक्त रहता है और लनचिे 1/4 भाग में
वायु सदैव भरी रहती है। लनचिे भाग के कोष्ठकों में वायु मण्डि से आये श्वास के िारा अत्यन्त सक्ष्ू म कणों
से अवरोि आ जाता है। सक्ष्ू म कणों के िारा-कोष्ठक िन्द हो जाते हैं। यही 1/2 भाग रोगों को जन्म देता है।
श्वास हल्की िेने व छोड़ने से िे िड़े के लनचिे भाग में दिाव नहीं पड़ता है, इसलिए वायु लस्थर रूप में भरी
रहती है। दलू षत वायु के कण िीरे -िीरे नीचे िैठ जाते हैं लजनके कारण िे िड़े के कोष्ठक िन्द से हो जाते हैं।
जो मनष्ु य प्राणायाम करता है, वह अदं र की ओर दीघत श्वास खींचता है लजससे िे िड़ा पणू त रूप से भर जाता
है। लिर प्रश्वास करते समय वायु परू ी तरह दवाि देकर लनकाि देता है, लजससे िे िड़े में लस्थत समपणू त वायु

सहज ध्यान योग 143


िाहर आ जाती है। िे िड़े का लनचिा चौथाई लहस्सा जो िहुत सािों से लनलष्क्रय पड़ा था, वह भी कायत
करने िगता है तथा उसके कोष्ठकों पर जमी गदं गी की परत िीरे -िीरे वायु के दिाव के िारा साि होने
िगती है। इससे िे िड़े के कोष्ठ खि
ु ने िगते हैं। लिर िे िड़ा सही रूप से कायत करने िगता है।
मनष्ु य के शरीर में िे िड़ा थोड़े िमिे आकार का होता है। िे िड़े में स्पंज की भाूँलत असंख्य छोटे-
छोटे कोष्ठकों (cells) का समहू होता है। ये कोष्ठक खुिते और िन्द होते रहते हैं। जि ये कोष्ठक खि ु े होते
हैं, तो एक ओर से हृदय िारा भेजा गया अशि ु रक्त, दसू री ओर से श्वास िारा िी गयी शिु वायु िारा शिु
कर लदया जाता है। रक्त में मौजदू अशि ु ता प्रश्वास िारा वायु में लमिकर िाहर आ जाते हैं। इसी वायु को
काितन डाइऑक्साइड कहते हैं। लसित रक्त की शुलि ही नहीं करती, िलल्क शरीर के अंदर जो सक्ष्ू म कोलशकाएूँ
टूटती रहती हैं और नयी कोलशकाओ ं का लनमातण होता रहता है, इन टूटी हुई सक्ष्ू म कोलशकाओ ं का मििा
काितन डाइऑक्साइड में लमिकर िाहर आ जाता है।
प्राणायाम के िारा शरीर के सभी अंगों से काम लिया जाता है। सभी अंगों िारा काम िेना आवश्यक
है। हम लजस अंग से काम नहीं िेंगे, वह अंग लनलष्क्रय-सा तथा सषु प्तु ावस्था में पड़ा रहता है। प्राणायाम से
मनष्ु य के शरीर के अंदर की सक्ष्ू म कोलशकाएूँ कायत करने िगती हैं। प्राणायाम करने वािे सािक को अपने
शरीर में सषु प्तु ावस्था में पड़े अत्यन्त शलक्तशािी के न्रों को जाग्रत करने में सहायता लमिती है। सािक जि
कुमभक करता है, तो उसकी प्राणवायु सषु प्तु कोलशकाओ ं में दिाव देती है, लजससे वे लक्रयाशीि होने िगती
हैं। यही प्राण का दिाव जि मि ू ािार चक्र में िढ़ता है तो वहाूँ पर सक्ष्ू म रूप में लस्थत कुण्डलिनी जो
सषु प्तु ावस्था में होती है, उसमें िक्के िगने िगते हैं लजससे वह एक लनलश्चत समय में जाग्रत हो जाती है।
प्राणवायु िारा नाड़ी शि ु होती है। इससे शरीर में लस्थत चक्र खिु ने में सहायता लमिती है। मनष्ु य के मलस्तष्क
में असंख्य सक्ष्ू म कोलशकाएूँ होती हैं। सािारण मनष्ु य में ये सक्ष्ू म कोलशकाएूँ ज्यादा से ज्यादा मात्र 10
प्रलतशत से कम ही लक्रयाशीि हो पाती हैं, शेष कोलशकाएूँ सषु प्तु ावस्था में लनलष्क्रय पड़ी रहती हैं। मनष्ु य
अन्य कोलशकाओ ं को जाग्रत न कर पाने के कारण उनसे काम नहीं िे पाता है। मगर योगी ध्यान व प्राणायाम
के िारा इन कोलशकाओ ं को जाग्रत कर मलस्तष्क में लस्थत अद्भुत अपार शलक्त के भण्डार का स्वामी िनकर
िाभ उठाता है। हम सभी जानते हैं लक मलस्तष्क दो भागों में िूँटा हुआ है। एक को िघु मलस्तष्क कहते है,
दसू रे को िड़ा मलस्तष्क कहते हैं। मनष्ु य िघु मलस्तष्क से कायत ज्यादा िेता है। यह मलस्तष्क ज्यादा सलक्रय

सहज ध्यान योग 144


रहता है। िड़ा मलस्तष्क ज्यादातर लनलष्क्रय-सा पड़ा रहता है। इसके अदं र का भाग खोखिा सा होता है।
सािक की सािना जि कण्ठ चक्र खि ु ने के िाद चिती है, तो वह िघु मलस्तष्क पहिे खि ु ता है। जि
िघु मलस्तष्क में कुण्डलिनी पहुचूँ ती है तो वह िघु मलस्तष्क की कोलशकाओ ं को शीघ्र लक्रयाशीि कर देती
है। कुण्डलिनी पहुचूँ ने से पहिे प्राणायाम िारा भी कोलशकाएूँ खिु ती हैं। जि कोलशकाएूँ खि
ु ती हैं तो इनमें
ददत महससू होता है। कभी-कभी ददत इतना होता है लक सािक को सहन करना मलु श्कि होता है। अगर वह
ददत लनवारक गोलियाूँ खाये तो भी उसका खास प्रभाव नहीं पड़ता है। सािक को यह ददत सहना ही पड़ता
है। जि भी नयी कोलशकाएूँ जाग्रत होंगी, उनमें ददत अवश्य होगा। इसी प्रकार जि िड़ा मलस्तष्क खि ु ने
वािा होता है तो उसमें भी ददत होता है। इस ददत का अथत यह नहीं िगाना चालहए लक हमारे अन्दर लकसी
प्रकार की कमी है, िलल्क प्राणवायु के दिाि के कारण कोलशकाएूँ लक्रयाशीि होते समय ददत महससू होता
है।
प्राणायाम के लिए याद रखें, कभी रालत्र के समय इसका अभ्यास न करें । क्योंलक रालत्र के समय
वायमु ण्डि में काितन डायआक्साइड की मात्रा ज्यादा होती है। प्राणायाम करने का उपयक्त ु समय प्रातुःकाि
है। वैसे लदन में कभी भी लकया जा सकता है। प्रातुःकाि सयू त लनकिने से पवू त का वातावरण अच्छा होता है।
प्राणायाम खि ु े वातावरण में, जहाूँ शि ु वायु लमि सके , वहाूँ करना चालहए। सािक को ध्यान में उन्नलत के
लिए तीन िार प्राणायाम करना चालहए। क्योंलक रोजाना भोजन करते हैं, उसमें (अन्न में) अशि ु ता भी होती
है। यह अशि ु ता हमें अदं र से सक्ष्ू म रूप से प्रभालवत करती है। प्राणायाम करते समय सीिे िैठना चालहए।
सीिे िैठकर परू क करने से िे िड़े में प्राणवायु ज्यादा भरती है, तथा सभी अगं ों में रक्त सचं ार सही रूप से
होता है। श्वास हमेशा गहरी िेनी चालहए। प्राणायाम करते समय तीन तरह की लक्रयाएूँ होती हैं। पहिी –
श्वास िेना, दसू री – िी गयी श्वास अदं र रोके रखना, तीसरी – श्वास को िाहर लनकािना। इसी को क्रमश:
परू क, कुमभक व रे चक कहते हैं।
पूरक – गहरी व दीघत श्वास िेते हुए प्राणवायु को अन्दर खींचना। एक िार में लजतनी ज्यादा से
ज्यादा श्वास खींच सकें , उतनी खींचना चालहए। श्वास को अंदर खींचने को पूरक कहते हैं।
कुम्भक – अदं र िी गई श्वास को रोके रखना कुमभक कहते हैं। हमें श्वास उतनी देर तक रोककर
रखनी चालहए लक शरीर के लकसी अंग पर अनावश्यक दिाव न पड़े, जिरदस्ती नहीं करनी चालहए। कुमभक

सहज ध्यान योग 145


में थोड़ा हठ अवश्य करना पड़ता है, मगर उलचत मात्रा में। अभ्यास िढ़ने पर कुमभक की अवलि िढ़ानी
चालहए। कुमभक लजतनी ज्यादा देर का होगा, उतना ही सािक को िाभ होगा।
रेचक – कुमभक िारा रोकी गयी प्राणवायु को िाहर लनकािने को रे चक कहते है। रे चक करते समय
प्राणवायु को िीरे -िीरे िाहर लनकािना चालहए। इस समय जल्दिाजी न करें , संयम िरतें।
पहिी िार प्राणायाम ति करें , जि आप सिु ह का ध्यान समाप्त करें । ति आसन व प्राणायाम करें ।
सिु ह का प्राणायाम अच्छा होता है। यलद आप लदन में तीन िार प्राणायाम करते हैं तो दसू री िार प्राणायाम
दोपहर के भोजन करने से पहिे खािी पेट में करें । तीसरी िार, अपनी सलु विानसु ार सयू त डूिने से पहिे करें ।
तीन िार प्राणायाम से नाड़ी शि
ु जल्दी होती है। सािना में नाड़ी शलु ि का िड़ा महत्त्व है।
सूयण नाड़ी चिंद्र नाड़ी प्राणायाम – प्राणायाम करते समय भलू म पर कुछ लिछा िें। चादर या कमिि
लिछा सकते हैं। अि लिल्कुि सीिे होकर िैठ जायें। आप अपनी पसंद का कोई भी आसन जो आपको
लसि हो, वह िगाकर िैठ जायें। आप अपने अंदर की सारी वायु जोर िगाकर लनकाि दें। लिर दालहने हाथ
के अंगठू े से नाक का दालहना लछर दिाव देकर िन्द कर दें। मध्यमा और अनालमका अंगि ु ी लमिाकर नाक
का िायाूँ लछर दिाव देकर िन्द कर दें। अन्य दोनों उंगलियों को सीिा रखें। अि िायें लछर से उंगलियों का
दिाव हटाकर इसी िायें लछर से जोर से गहरी श्वास िें। श्वास इतनी गहरी िें लक आपके िे िड़े परू ी तरह से
वायु िारा भर जाए। लिर मध्यमा और अनालमका उंगिी के दिाि से िायाूँ लछर िन्द कर दें और कुमभक
करें । ध्यान रहे लजस लछर से श्वास िे रहे हों, वायु लसित उसी लछर से जाए। दसू रे लछर को पणू त रूप से िन्द
रखना चालहए। अि आपसे लजतना कुमभक हो सके , उतना ही कीलजए। ज्यादा जिरदस्ती दिाव नहीं देना
चालहए। जि आपको कुमभक के कारण घिराहट सी होने िगे तो दालहने लछर से अगं ठू े को हटाकर िीरे -
िीरे रे चक कर देना चालहए। रे चक करते समय श्वास जल्दी से िाहर न लनकािें। परू ी तरह से रे चक करने के
िाद कुछ क्षण रुकें । लिर उसी दालहने लछर से जोर से गहरी श्वास िेकर परू क करें । लिर दालहने लछर को अगं ठू े
के दवाि से िन्द कर दें। लिर कुमभक करें । कुमभक करने के िाद िायें लछर से रे चक कर दें। लिर पहिे की
भाूँलत कुछ क्षण रुककर िायें लछर से परू क करें । लिर अपनी क्षमतानसु ार कुमभक करके दायें लछर से लनकाि
दें। कहने का मतिि है लक लजस लछर से पूरक करते हैं तो रे चक दसू रे लछर से करें । लजससे रे चक करें , उसी
से परू क करें । इसी प्रकार एक लछर से छ: िार और दसू रे लछर से छ: िार कुि लमिाकर 12 िार प्राणायाम

सहज ध्यान योग 146


करें । इसको एक िार का प्राणायाम कहेंगे। इसको सयू त नाड़ी चरं नाड़ी प्राणायाम कहते हैं। रीढ़ की हड्डी के
िायीं ओर चरं नाड़ी होती है और दालहनी ओर सयू त नाड़ी होती है। इन्हें इड़ा और लपगं िा नाड़ी भी कहते हैं।
नाक के िायें लछर से जि श्वास िेते हैं, तो इससे चरं नाड़ी प्रभालवत होती है। नाक के दालहने लछर से जि
श्वास िेते हैं, तो सयू त नाड़ी प्रभालवत होती है। जि इस प्राणायाम का अभ्यास अच्छा हो जाता है तो परू क
करते समय सोचते हैं लक प्राणवायु मि ू ािार में एकत्र हो रही हैं। कुछ समय पश्चात् आपको महससू होने
िगेगा लक श्वास िारा खींची गयी प्राणवायु मि ू ािार में जा रही है। कुमभक करते समय जि प्राणवायु मि ू ािार
में दिाव िढ़ायेगी ति कुण्डलिनी पर िक्के िगने शरू ु हो जाएूँगे लजससे कुण्डलिनी जाग्रत होने में सहायता
लमिेगी। इस प्राणायाम से नालड़याूँ िहुत जल्दी शि ु होनी शरूु हो जाती हैं, पाचन लक्रया शीघ्र होने िगती
है, चेहरे पर तेज आता है।
सूयण नाड़ी प्राणायाम – आसन िगाकर सीिे िैठ जाए। दालहने हाथ के अंगठू े से नाक का दायाूँ
लछर अथातत सयू त नाड़ी िन्द कर दें। मध्यमा और अनालमका से िायाूँ लछर अथातत चंर नाड़ी िन्द कर दें।
इससे पवू त आप अपने िे िड़ों से वायु परू ी तरह से लनकाि दें। अि चंर नाड़ी को िन्द रखें। सयू त नाड़ी से
परू क करें । गहरी श्वास िेते हुए आप अंगठू े से दिाव देकर दालहना लछर िन्द कर दें और कुमभक करें । जि
रे चक करना हो तो सयू त नाड़ी से ही करें । सारी वायु जोर िगाकर लनकाि दें। कुछ क्षण रुककर लिर सूयत नाड़ी
से परू क करें और कुमभक करें । इस प्राणायाम में सयू त नाड़ी से ही परू क करें गे और इसी से रे चक करें गे। इस
प्राणायाम को ति तक करते रहें, जि तक शरीर में गमी महससू न होने िगे अथवा भीषण गमी न िगने
िगे। चूँलू क सयू त नाड़ी गमत होती है, इसके िारा लकया गया प्राणायाम पेट में गमी िढ़ाता है, सदी से छुटकारा
लमि जाता है।
भवस्त्रका प्राणायाम – सहजासन या पदमासन पर सीिे होकर िैठ जायें। नाक के दोनों लछरों से
जोर से श्वास खींचे। लिर लिना कुमभक लकये जोर से श्वास लनकाि दें। लिर दोनों लछरों से जोर से श्वास खींचें
अथातत परू क करें । लिना कुमभक लकये रे चक जोर से कर दें। इस प्राणायाम में कुमभक नहीं करते हैं, लसित
परू क व रे चक करते हैं। रे चक करते समय जोर से वायु की आवाज आती है। ऐसा िगता है जैसे नाग िुिकार
रहा हो। रे चक करते समय जोर से नालभ का पीछे की ओर िक्का देते हैं तालक पेट में वायु न रह जाए। यह
प्राणायाम अपनी शलक्त के अनसु ार करें । शरीर थकने िगे तो िन्द कर दें। शरुु आत में पंरह से िीस प्राणायाम

सहज ध्यान योग 147


करें । यलद शरीर िहुत कमजोर हो तो इस प्राणायाम को न करें । इस प्राणायाम से िे िड़ा, हृदय व रक्त िे जाने
वािी िमलनयाूँ व रक्त वापस िे आने वािी लशराएूँ िड़ी तेजी से कायत करती हैं। शरीर में गमी भी िढ़ती है,
थकान भी महससू होती है। इस प्राणायाम में नाड़ी शि ु िड़ी तेजी से होती है। यलद इस प्राणायाम को करते
समय सािक जािन्िर िन्ि िगा िे तो प्राणवायु मि ू ािार में सीिी टक्कर मारती है, इससे कुण्डलिनी
जाग्रत होने में सहायता लमिती है। सािक को ऐसी अवस्था आती है लक भलस्त्रका प्राणायाम स्वयमेव होने
िगता है। एक समय जि ध्यानावस्था में भलस्त्रका अपने आप चिने िगे तो समझ िेना चालहए लक सािक
की कुण्डलिनी जाग्रत हो गयी है। जाग्रत होने का अथत ऊध्वत होने से नहीं है, लसित आूँख खोि दी है क्योंलक
आूँख खि ु जाने पर भी वह अपनी पहिे जैसी अवस्था में िनी रहती है। ऊध्वत होने का अथत है ऊपर की
ओर चढ़ना। जि सािना अच्छी हो जाती है और नाड़ी शि ु होने िगती है ति स्वयमेव भलस्त्रका चिने से
भी नाड़ी शि ु होती है। इस अवस्था में सािक को भलस्त्रका प्राणायाम अलिक से अलिक कई िार करना
चालहए। सािक की ध्यानावस्था में जि भलस्त्रका चिती है तो ऐसा िगता है मानो नाग िुिकार मार रहा
है।
भ्रामरी प्राणायाम – सिसे पहिे सहजासन पर सीिे होकर िैठ जायें। नाक के दोनों लछरों से जोर
से श्वास अंदर की ओर खींचें। लसर को पीठ की ओर झक ु ाएूँ। लसर का लपछिा लहस्सा पीठ से स्पशत करायें।
इससे आपकी गदतन पीछे की ओर मड़ु जाएगी। लिर अपने गिे के अदं र उंऽऽऽऽ, उंऽऽऽऽ की आवाज थोड़े
तेज स्वर में उत्पन्न कीलजए। जि कुमभक समाप्त हो जाए, लिर परू क करके कुमभक कीलजए। लिर इसी प्रकार
आवाज लनकालिए, इसी प्रकार प्राणायाम कीलजए। यह प्राणायाम आप पाूँच लमनट तक कीलजए। जि
उंऽऽऽऽ, उंऽऽऽऽ की आवाज उत्पन्न करते हैं, ति ऐसा िगता है जैसे भौंरे की आवाज लनकि रही है।
इसीलिए इसको भ्रामरी (भौंरा) प्राणायाम कहते हैं। यह प्राणायाम उन सािकों के लिए अलत आवश्यक है
लजनकी सािना कण्ठ चक्र में चि रही है। हम पहिे लिख चक ु े हैं लक कण्ठ चक्र में सािकों को िहुत साि
व्यतीत करना पड़ता है क्योंलक गिे में एक ग्रलन्थ होती है, वही प्राणों को अवरोि लकए रहती है। जि सािक
भ्रामरी प्राणायाम करता है तो उस ग्रलन्थ में कमपन होता है। इस प्रकार कमपन पैदा करने से ग्रलन्थ खि ु ने में
सहायता लमिती है। सािक की ग्रलन्थ जि तक पणू ततया खि ु न जाए, ति तक यह प्राणायाम करना चालहए।
जि यह ग्रलन्थ खुि जाएगी, ति सािक कण्ठ चक्र को पार कर जाएगा; उसके िाद इस प्राणायाम को करने
की आवश्यकता नहीं है। लसित कण्ठ चक्र के लिए यह प्राणायाम लकया जाता है। इस ग्रलन्थ के खुिने में

सहज ध्यान योग 148


कुण्डलिनी भी सहायता करती है। वह अपने मूँहु से िक्का मार-मारकर ग्रलन्थ को खोिने का प्रयास करती
है। इसी जगह को भ्रमर गि
ु ा भी कहते हैं। जि सािक की सािना उग्र होती है तो ध्यानावस्था में स्वयमेव
गदतन पीछे चिी जाती है और सािक के मूँहु से उंऽऽऽऽ, उंऽऽऽऽ की आवाज लनकिने िगती है।
सीत्कारी प्राणायाम – अपने लकसी लसि लकये हुए आसन पर िैठ जाइए। लिर अपनी जीभ मूँहु
से िाहर लनकालिए। जीभ के दोनों लकनारों को ऊपर की ओर मोड़ते हुए आपस में लमिाइए। अि आपकी
जीभ पोिी निकी की तरह हो जाएगी। कौवे के चोंच के समान िाहर लनकालिए। जीभ की जो पोिी जगह
है, उसी से गहरी श्वास िेते हुए परू क कीलजए। लिर उसे लिना कुमभक लकये नाक के दोनों लछरों से रे चक कर
दीलजए। उसी जीभ के सहारे परू क कीलजए। परू क करते समय सीऽऽऽऽ, सीऽऽऽऽ की आवाज आनी चालहए।
इसीलिए इसको सीत्कारी प्राणायाम कहते हैं। लिर लिना कुमभक लकये नाक से रे चक कर दीलजए। यह
प्राणायाम ति लकया जाता है जि शरीर में अलिक गमी हो अथवा ग्रीष्म काि में करना चालहए।
शीतली प्राणायाम – सीत्कारी और शीतिी प्राणायाम में कोई लवशेष अंतर नहीं होता है। अपनी
इच्छानसु ार लकसी आसन पर िैठ जाइए और सीत्कारी प्राणायाम की भाूँलत जीभ को मूँहु के िाहर गोिाकार
करते हुए लनकािें। अि जीभ के सहारे वायु को िमिा गहरा खींचें और कुमभक करें । जि मन घिराने िगे
तो नाक के दोनों लछरों से रे चक कर दें। परू क करने से जो जीभ के िारा ठंडी वायु अन्दर खींचते हैं, उससे
सारे शरीर को ठण्डक लमिने िगती है, लजससे शरीर की गमी कम होती है। यह प्राणायाम ग्रीष्म काि में
करना चालहए। शरीर में ध्यान के कारण जि अलिक गमी हो गयी हो, ति भी यह प्राणायाम िहुत उपयोगी
है। सािक की कुण्डलिनी अगर उग्र है तो जाग्रत होने के कुछ समय पश्चात् पृर्थवीतत्व व जितत्व को खाना
शरूु कर देती है लजससे पेट के अन्दर लस्थत आतों में पानी की मात्रा कम होने िगती है, लजसके कारण को
अत्यलिक शारीररक कष् भोगना पड़ता है। उस समय सीत्कारी और शीतिी प्राणायाम दोनों करने चालहए
लजससे शरीर के अंदर ठण्डक लमिती है और राहत महससू होती है।
वत्रबन्ि रेचक – सिसे पहिे आप वज्रासन पर िैठ जाइए। पेट की सारी वायु िाहर लनकाि दें।
अि मिू िन्ि, उलड्डयान िन्ि, जािन्िर िन्ि तीनों िन्ि िगाकर िैठ जायें। लिर आखें िन्द कर िीलजए।
कुछ लदन अभ्यास करने के िाद आपका पेट पीछे की ओर लचपकने िगेगा। मि ू ािार में भी लखचं ाव होना
शरू
ु हो जाएगा। इस प्राणायाम में िाह्य कुमभक ही लकया जाता है। जि परू क करना हो तो गदतन सीिी करके

सहज ध्यान योग 149


परू क कर िें, तरु ं त रे चक कर दें और िन्ि िगा िें। इस प्राणायाम से कुण्डलिनी जाग्रत होने में सहायता
लमिती है। लजन सािकों की कुण्डलिनी जाग्रत हो उन्हें यह प्राणायाम अवश्य करना चालहए। इससे
कुण्डलिनी ऊध्वत होने में सहायता लमिती है।
सवणद्वार बन्द प्राणायाम – सवतप्रथम अपने लसि आसन पर िैठ जाइए। नाक के िारा गहरी िमिी
श्वास िीलजए। लिर दोनों हाथों के अंगठू ों से दोनों कान िन्द कीलजए। दोनों तजतनी उंगलियों से दोनों आूँखें
िन्द कीलजए। दोनों मध्यमा उंगलियों से नाक के दोनों लछर िन्द कीलजए। अन्य चारों उंगलियों से मूँहु िन्द
कर िीलजये। मि ू िन्ि िगाकर मन भृकुलट में कें लरत कीलजए। जि मन घिराने िगे तो नाक से रे चक कर
दीलजए। लिर परू क करके नाक के दोनों लछरों को िन्द कर दीलजए। िीरे -िीरे कुमभक की अवलि िढ़ानी
चालहए। यह प्राणायाम उन सािकों को ज्यादा िाभकारी लसि होगा लजनका कण्ठ चक्र खि ु गया है। आज्ञा
चक्र खिु ने में यह प्राणायाम सहायक होता है। इस प्राणायाम के करने से मन एकाग्र होता है।
प्राणायाम करते समय साविालनयाूँ िरतनी चालहए। शरू ु में लजस प्राणायाम को करने वािे हों, उसे
अच्छी तरह से समझ िीलजए अथवा लकसी अनुभवी व्यलक्त से पछ ू िीलजए, लिर प्राणायाम करें । सदी की
ऋतु में सीत्कारी, शीतिी व चंरनाड़ी प्राणायाम नहीं करना चालहए क्योंलक इन प्राणायामों से ठण्डक उत्पन्न
होती है। यलद आपकी उग्र सािना के कारण कुण्डलिनी उग्र है, यलद शरीर में गमी ज्यादा महससू होती हो
तो आप उलचत मात्रा में ये प्राणायाम कर सकते हैं। लजन िोगों को वातदोष की लशकायत है, वे भी यह
प्राणायाम न करें । लजन्हें वातदोष की लशकायत रहती है, वे सयू त नाड़ी चंर नाड़ी प्राणायाम, सयू त नाड़ी
प्राणायाम व भलस्त्रका प्राणायाम करें , लजससे वात की लशकायत िीरे -िीरे कम हो जाएगी।
प्राणायाम के समय कुमभक लजतना ज्यादा लकया जाता है, मन को उतना ज्यादा लस्थर रहने की
आदत पड़ती है। प्राणायाम सािक को ज्यादा-से-ज्यादा करना चालहए। इससे नाड़ी शि ु होती है, रोग दरू
होते हैं तथा कुण्डलिनी जाग्रत होने में सहायता लमिती है। प्राणायाम का कुण्डलिनी से लनकट का समिन्ि
है। लकसी-लकसी स्थान पर प्राणायाम के िेखों में उल्िेख आता है लक प्राणायाम लनलश्चत अनपु ात में करना
चालहए। मगर हमने कभी अनपु ात का ध्यान नहीं लदया है। सािक अपनी सामर्थयत के अनसु ार कुमभक करे ।
कुमभक करते समय अत्यन्त सक्ष्ू म रूप से मत्रं का भी जाप लकया जा सकता है। कुछ िोग कुमभक के समय

सहज ध्यान योग 150


लगनती भी लगनते हैं कुमभक की अवलि िढ़ाने के लिए। यलद आप चाहें तो कुमभक के समय कुछ न करें ,
लसित शातं होकर िैठे रहें।
जि आप प्राणायाम का अभ्यास कर रहे हों, उस अवलि में आप सालत्वक भोजन लिया करें क्योंलक
भोजन का प्राण से लनकट का समिन्ि है। भोजन के सक्ष्ू म भाग से प्राण का लनमातण होता है। यलद भोजन
तामलसक और अशि ु है, तो प्राण वैसा ही अशि ु होगा। प्राण मन को शलक्त देता है, इसलिए मन भी अशि ु
व चंचि होता है। प्राणायाम के िारा प्राण का शलु िकरण होता है। इसलिए सािक को भोजन पर लवशेष
ध्यान देना चालहए। वैसे प्राण भी स्वयं एक कोश (प्राणमय कोश) है। सािकों को अपनी सािना में उन्नलत
के लिए प्राणमय कोश को शि ु करना पड़ेगा। प्राणमय कोश तभी शि ु होगा, जि उसका अन्नमय कोश
शि ु हो चक ु ा होगा। अन्नमय कोश के अंतगतत स्थि ू शरीर आता है और प्राणमय कोश के अंतगतत सक्ष्ू म
शरीर आता है। लजस सािक का प्राणमय कोश शि ु होता है, वह अपने सक्ष्ू म शरीर पर अलिकार कर िेता
है। सक्ष्ू म शरीर की गलत िहुत तेज होती है तथा पृर्थवीिोक से िाहर सक्ष्ू म िोकों तक उसकी पहुचूँ होती है।
क्योंलक सक्ष्ू म िोकों का लनमातण सक्ष्ू म पंच भतू ों के िारा हुआ है, इसी प्रकार सक्ष्ू म शरीर का लनमातण भी
सक्ष्ू म पंचभतू ों िारा हुआ है। दोनों का लनमातण सक्ष्ू म पंचभतू ों िारा होने के कारण आपस में तारतमय िना
हुआ है। यह तारतमय अलतसक्ष्ू म रूप से होता है। इसीलिए सक्ष्ू म शरीर जि अभ्यास के िारा शि ु होने िगता
है, ति सक्ष्ू म शरीर की गलत व व्यापकता सक्ष्ू मजगत (सक्ष्ू म िोकों) होने िगती है। सािक अपने सक्ष्ू म शरीर
के िारा दसू रे िोकों का भी ज्ञान हालसि कर सकता है। तथा सािक की अतं शतलक्त भी िढ़ जाती है।
सािक की जि सािना उच्च लस्थलत पर होती है, ति वह इन्हीं प्राणों की सहायता से दसू रों पर
शलक्तपात कर सकता है। यही प्राणवायु लजस सािक पर शलक्तपात लकया गया हो, उसके शरीर में सक्ष्ू म रूप
से प्रवेश करके कायत करने िगती है। सद्गरुु अपने लशष्यों पर जो शलक्तपात करता है, वह यही सक्ष्ू म रूप से
प्राणवायु होती है।
बाह्य कुम्भक – जि आप रे चक करें तो परू ी तरह से वायु लनकाि देनी चालहए। लिर आप कुछ
समय तक परू क न करे । रे चक के िाद और परू क से पहिे की जो अवलि लिना प्राणवायु की रहती है, उसे
िाह्य कुमभक कहते है। शरुु आत में यह अवलि लिल्कुि कम होगी, क्योंलक वायु के लिना शरीर के अदं र
घिराहट सी होती है। सािक को िीरे -िीरे अभ्यास के िारा िाह्य कुमभक की अवलि िढ़ाना चालहए। लजन

सहज ध्यान योग 151


सािकों की कुण्डलिनी ऊध्वत होती है, उन्हें िाह्य कुमभक का अभ्यास ज्यादा से ज्यादा करना चालहए। िाह्य
कुमभक के समय कुण्डलिनी उग्र होती है तथा ऊध्वत होने में सहायता लमिती है।

सहज ध्यान योग 152


त्राटक
योग में त्राटक का महत्त्व िहुत िड़ा है। त्राटक का अथत है लकसी एक ही वस्तु को लिना पिक
झपकाये हुए देखते रहना। जि आप लकसी वस्तु को टकटकी िगाए (लिना पिक झपकाए) देखते रहेंगे,
ति आपका मन उस वस्तु पर के लन्रत होने िगेगा। उस समय मन में चंचिता कम होने िगती है। जि
सािक का मन ध्यानावस्था में अलिक चंचि होने िगे, ति उसे त्राटक के अभ्यास से लस्थर करने का प्रयास
करना चालहए। नये सािक का मन सािना के शरुु आत में अलिक चंचि रहता है, क्योंलक उसे पहिे कभी
एक जगह ठहरने की आदत नहीं रही है। इसलिए त्राटक का अभ्यास हर सािक के लिए िाभकारी है। हर
सािक को त्राटक का अभ्यास करना चालहए, तालक मन को लस्थर रहने की आदत पड़ सके । जि मन लस्थर
होने िगेगा, ति उसकी चंचिता समाप्त होने िगेगी, लिर मन अंतमतख ु ी होने िगेगा। इस प्रकार सािक का
मन ध्यानावस्था में एकाग्र होने िगता है, लिर सािक की ध्यान में िैठने की अवलि िढ़ जाती है।
त्राटक करने के तरीके लवलभन्न प्रकार के हैं। त्राटक आप लकसी लिन्दु पर कर सकते हैं। लकसी देवता
के लचत्र पर एक जगह के न्र िनाकर चनु िें। आप शीशे के सामने िैठकर अपनी भृकुलट पर भी त्राटक कर
सकते हैं। लकसी दीवार पर लनशान िगाकर भी त्राटक कर सकते हैं। कुछ सािक दीपक की िौ पर भी त्राटक
करते हैं। अि यह देखें त्राटक से होता क्या है। हमारी आूँखों से वृलियाूँ तेजस रूप में िाहर लनकिती हैं,
लजससे मन इिर-उिर के भोग्य पदाथों पर भागता रहता है। जो वस्तु उसे अच्छी िगती है, उसी का सक्ष्ू म
रूप से भोग करता है। लिर स्थि ू रूप से भोग करने के लिए अपनी इलन्रयों को प्रेररत करता है। जो हमारी
आूँखों से वृलियाूँ तेजस रूप में लनकिती हैं, वह चारों ओर िै िी रहती हैं। वह लकसी को ज्यादा प्रभालवत
नहीं कर पाती हैं। जैसे सयू त की लकरणें िेंस िारा एकत्र करके एक जगह पर डािते हैं, उस जगह पर एकत्र
की गयी लकरणें आग िगाने में सामर्थयत रखती है। इसी प्रकार मन की लकरणें एकत्र करके जि एक लिन्दु पर
डािी जाए, वही लकरणें अलिक शलक्तशािी ढंग से काम कर सकती हैं। इस अवस्था में मन की शलक्त िहुत
अलिक हो जाती है। वह लजस व्यलक्त के ऊपर अपनी नजर डािेगा, उस व्यलक्त से अपनी इच्छानसु ार कायत
करा सकता है। क्योंलक लजस व्यलक्त पर नजर डािी जाएगी, उसका मन त्राटक करने वािे की अपेक्षा कमजोर
होगा। त्राटक करने वािे का मन शलक्तशािी होने के कारण, मन तेजस रूप में दसू रे के शरीर में प्रवेश कर
जाता है। लिर दसू रे का मन अपने वश में कर िेता है। त्राटक की उच्चावस्था प्राप्त करने पर सममोहन करने
का सामर्थयत आ जाता है। कुछ व्यलक्त त्राटक का अभ्यास शरू ु में ही दीपक की िौ पर करते हैं, मगर ऐसा

सहज ध्यान योग 153


नहीं करना चालहए। क्योंलक दीपक के प्रकाश से आूँखों में तीव्र जिन होने िगती है। शरुु आत में लकसी चाटत
को िे िें। उसमें लिल्कुि छोटा सा नीिा लनशान िगा िें। िाजार में ॐ लिखे चाटत भी लमिते हैं, जो लसित
त्राटक के लिए प्रयोग में िाये जाते हैं। उसे खरीद िें।
सिसे पहिे त्राटक के लिए ऐसी जगह चनु ें जहाूँ लिल्कुि शांलत हो, लकसी प्रकार का कोिाहि न
हो। लजस स्थान पर िच्चों, मोटरों, रे लडयो आलद का शोर हो, वहाूँ त्राटक नहीं करना चालहए। त्राटक करते
समय कानों में लकसी प्रकार की आवाज सनु ाई नहीं पड़नी चालहए, नहीं तो मन एकाग्र नहीं होगा। त्राटक के
लिए कोई समय लनलश्चत नहीं है। कभी भी लकया जा सकता है। यलद जरूरत पड़े तो रालत्र के नौ-दस िजे
अभ्यास कर सकते हैं। त्राटक करने के लिए आसन का प्रयोग करें । उसी आसन को लिछाकर िैठें। एक
लिल्कुि साि मि ु ायम कपड़ा िे िीलजए। आप रूमाि भी अपने पास रख सकते हैं यह आंसू पोंछने के
काम आयेगा। त्राटक करने से पहिे अपने पास रख िें। सामने दीवार पर चाटत िगा िें चाटत का रंग सफ़े द
हो, चाटत के मध्य में नीिे रंग का छोटा सा लिन्दु िना िे अथवा ॐ लिख िें। लजस जगह पर लिन्दु िना है
या ॐ लिखा है, वह आपके आूँखों के सीि पर रहे, तालक आूँखे न ज्यादा खोिनी पड़ें न कम खोिनी
पड़ें। दृलष् लिल्कुि सीिी पड़नी चालहए, लजस पर त्राटक करना हो। लजस कमरे में आप त्राटक कर रहे हों
उसमें प्रकाश न तेज रहे, और न प्रकाश इतना कम रहे लक आूँखों पर जोर पड़े। मध्यम रोशनी हो तो अच्छा
है। आप अपने आसन को लिछाकर िैठ जाइए। लजस लिन्दु पर आप त्राटक करने वािे हों वह लिन्दु और
आपके आूँखों की दरू ी कम से कम एक मीटर की होनी चालहए। त्राटक करते समय लिल्कुि सीिे िैलठए,
तालक रीढ़ की हड्डी सीिी रहे। अि आप चाटत पर िगे लिन्दु को देलखए। ध्यान रहे आपको पिक िन्द नहीं
करनी है। जि आप पिक िन्द नहीं करें गे, ति आपकी आूँखों में कुछ क्षणों िाद हल्की-हल्की थकान
महससू होगी। ऐसा मन में आयेगा लक पिक िन्द कर िूँ,ू मगर आप दृढ़ता के साथ खोिे रलहए। आपको
आूँखें ज्यादा देर तक खोिने की आदत नहीं थी, इसलिए आूँखों में जिन होने िगेगी। यलद जिन ज्यादा
महससू हो तो आूँखें िन्द कर िीलजए।
आूँखें िन्द करके तरु ं त मत खोलिए; थोड़ी देर तक िन्द रलखए, तालक आूँखों को आराम लमि सके ।
जि आूँखें िन्द कर िें, ति उन्हें खजु िाना नहीं चालहए, लसित िन्द लकए रहना चालहए। कुछ समय िाद
आपको आराम लमि जाएगा। आराम लमिने के िाद लिर पहिे जैसा त्राटक कीलजए। त्राटक करते समय

सहज ध्यान योग 154


आपकी दृलष् लसित लिन्दु पर होनी चालहए। इिर-उिर दृलष् नहीं रखनी चालहए। उस समय आप अपने मन में
कुछ भी न सोलचए। यहाूँ तक की उस समय मन के अदं र मत्रं ोच्चारण भी नहीं करना चालहए। मत्रं ोच्चारण से
मन के लन्रत नहीं होगा। िीरे -िीरे थोडी-थोड़ी जिन सहन करने की आदत डालिए। आपके आूँखों से आसं ू
िरािर िहते जायेंगे। जि आूँखों में ज्यादा थकान व जिन महससू हो ति आूँखें िन्द कर िीलजए। लिर
अपने साि कपड़े को कई परते (तह) िगाकर मोटा कर िें। मोटी तह िगी कपड़े से आसं ू पोंछ िें। आंसू
पोछते समय आूँखें िन्द रखें। लिर कुछ समय तक िन्द रखकर आूँखों को आराम करने दें। जि जिन िन्द
हो जाए तो आूँखों को खोि िें। अि त्राटक न करें । आराम से आप िेट जायें। एक िात का ध्यान रखें,
आूँखों के अदं र के आूँसू व िहने वािे आूँसू कभी भी उस समय हाथ से न पोंछे अथवा आूँखों पर हथेलियाूँ
न रगड़ें। लसित उसी मिु ायम कपड़े का इस्तेमाि करें । क्योंलक त्राटक के कारण आूँखों की िाह्य परत मि
ु ायम
हो जाती है। ऐसी अवस्था में हाथ रगड़ना हालनकारक हो सकता है। इसी प्रकार लदन में कई िार त्राटक का
अभ्यास करना चालहए। इससे िीरे -िीरे त्राटक की अवलि िढ़ती जाएगी। जि आपके त्राटक की अवलि
10-15 लमनट हो जाए, तो आप त्राटक करने के िाद आूँख िन्द करके उसी लिन्दु को देखने का प्रयास करें ।
कई िार प्रयत्न करने के िाद आूँखें िन्द करने पर, आपको वही लिन्दु नजर आयेगा। वह लस्थर नहीं होगा
िलल्क इिर-उिर, ऊपर नीचे िीमी गलत करता नजर आयेगा। लिर िप्तु हो जाएगा। कुछ सप्ताहों िाद आपकी
त्राटक की अवलि आिे घंटे हो जाएगी, उस समय आपका मन थोड़ा लस्थर होने िगेगा। आूँखों में ज्यादा
जिन नहीं होगी। जि आपका मन ज्यादा लस्थर होने िगेगा, तो आपको िगेगा लक आपकी आूँखों से पीिे
रंग की लकरणें लनकि रही हैं और उस लिन्दु पर जा रहीं है। उस समय लिन्दु के आसपास हल्के पीिे रंग का
िब्िा नजर आयेगा; कभी लदखाई पड़ेगा, कभी िप्तु हो जाएगा। सािक को त्राटक की अवलि एक घंटे तक
िे जाना चालहए। पहिे पीिे रंग का िब्िा लहिता या अलस्थर नजर आयेगा, उस समय ऐसा भी िग सकता
है लक आपकी आूँखों से हल्के पीिे रंग के गोि-गोि छल्िे लनकिकर, लिन्दु पर पीिे रंग का गोिाकार
चमकीिा िब्िा िना रहे हैं। आपकी आूँखों से लनकिा यह पीिे रंग का प्रकाश पृर्थवी तत्व को दशातता है।
यह पीिे रंग का प्रकाश आपके शरीर का पृर्थवीतत्व है। इस अवस्था में सािक का मन एकाग्र होने िगता
है। यलद सािक त्राटक का अभ्यास और करे तो उसे सािना में जल्दी सििता लमिती हैं। अि आप चाटत
को दो मीटर दरू भी कर सकते हैं।

सहज ध्यान योग 155


जि आपको चाटत पर पीिा िब्िा लस्थर नजर आने िगे, ति आप आूँखें िन्द करके देलखए। िन्द
आूँखों पर भी वही पीिा िब्िा नजर आयेगा। कुछ समय िाद लस्थर होकर िप्तु हो जाएगा। सािक को
त्राटक का अभ्यास करते-करते महीनों गजु र जाते हैं अथवा लगनती सािों में भी आ सकती है। यह सािक
के अभ्यास के ऊपर है लक वह लदन में लकतनी िार त्राटक करता है। वैसे लदन में दो-तीन िार त्राटक अवश्य
करना चालहए, लिर सािक की अपनी सलु विा। यलद सािक को त्राटक में मालहर होना है तो लदन में कई िार
त्राटक का अभ्यास करे । जि उसका अभ्यास िढ़ जाएगा, तो पीिे रंग के गोि िब्िे की जगह कभी हल्के
िाि रंग का िब्िा नजर सा आने िगेगा अथवा पीिे रंग के िब्िे के आसपास हल्का िाि रंग भी नजर
आने िगेगा। हो सकता है िाि रंग से पूवत हल्का-सा हरा रंग लदखाई पड़े। यलद हरा रंग लदखाई नहीं पड़ेगा
तो िाि रंग नजर आयेगा। िीच में पीिा रंग होगा। यह हरा रंग हमारे शरीर का जितत्व है। िाि रंग का
प्रकाश अलग्न तत्व है। जि सािक का अभ्यास िहुत ज्यादा हो जाता है तो यही िब्िा नीिे रंग में पररवलततत
हो जाता है। अि आपको नीिे रंग का चमकीिा प्रकाश लदखने िगेगा। यह नीिे रंग का िब्िा कुछ समय
िाद िुप्त हो जाएगा, लिर उसी जगह पीिे रंग का िब्िा नजर आयेगा। सािक का उद्देश्य यही नीिे रंग का
िब्िा है। यह हल्का नीिे रंग का चमकदार लदखाई पड़ता है। यह आकाश तत्व का रंग है, कारण जगत से
संिंलित है। यह नीिे रंग की लकरणें जो त्राटक के कारण आपकी आूँखों से लनकि रही हैं, ये लकरणें अत्यन्त
शलक्तशािी होती हैं। यलद सािक ध्यान दे तो याद होगा लक कारण शरीर का रंग भी हल्का नीिा अत्यन्त
चमकदार होता है। यह नीिे रंग की लकरणें इसी शरीर का अंश समझें। िीरे -िीरे सािक को यही नीिे रंग
का िब्िा लस्थर करना चालहए। जि सािक नीिे रंग के िब्िे को लस्थर कर िेता है, तो समझो सािक का
मन भी लस्थर हो जाता है। यह लस्थलत सािक में सािों िाद आयेगी।
जि सािक को अपनी आूँखों िारा नीिी लकरणें लदखाई पड़ने िगें, और लकसी कें र पर लस्थर करने
का अभ्यास हो जाए, तो सािक के अदं र असािारण शलक्त आने िगती है। लकसी व्यलक्त पर दृलष्पात करके ,
उस व्यलक्त को अपनी इच्छानसु ार चिा सकता है। लजस जगह भीड़ पर वह दृलष् डािेगा और इच्छा करे गा
तो वह भीड़ दृलष्पात कतात की ओर आकलषतत हो जाएगी। क्योंलक उसके िारा लनकिी अत्यन्त शलक्तशािी
लकरणें भीड़ में सभी िोगों के शरीर के अदं र प्रवेश कर जायेंगी, और ये शलक्तशािी लकरणें उन व्यलक्तयों के
मलस्तष्क में प्रभालवत करें गी, लजससे सभी व्यलक्त उस दृलष्पात किात की ओर प्रभालवत हो जायेंगे। लकसी भी

सहज ध्यान योग 156


सािारण व्यलक्त का मन लनिति होता है। त्राटक के सािक का मन अत्यन्त सशक्त होता है। सशक्त मन होने
के कारण लनिति मन पर अलिकार कर िेता है।
त्राटक करने वािे की आूँखें िहुत तेज हो जाती हैं। उन्हें आूँखों का रोग नही िगता है। यलद कोई
मनष्ु य दृलष् कमजोर होने के कारण चश्मा िगाता है तो त्राटक करने से उसका चश्मा िगाना िन्द हो जाएगा।
लिना चश्मे के साि लदखाई देने िगेगा। त्राटक करने वािे सािक को िढ़ु ापे तक चश्मे की जरूरत नहीं
पड़ती है। मगर त्राटक वही करे , लजसकी आूँखों में लकसी प्रकार का रोग नहीं हो। यलद लकसी प्रकार का
आूँखों का रोग है, पहिे लचलकत्सक से रोग ठीक करवा िे, अथवा लचलकत्सक से सिाह िे िें, ति त्राटक
की शरुु आत करें । क्योंलक रोगी आूँखों से त्राटक करने पर उसका रोग आूँखों के अंदर जा सकता है। जि
आूँखों में लकसी प्रकार का रोग न हो, ति त्राटक करें । लिर आूँखें रोगी नहीं होंगी। सािक को यलद अपनी
आूँखें अत्यन्त तेजस्वी करनी हैं, तो चाटत के लिंदु का त्राटक छोड़कर मोमििी की िौ पर त्राटक का अभ्यास
सािक को क्रमश: आगे िढ़ाना चालहए। इसलिए पहिे चाटत पर लिर मोमििी की िौ पर अभ्यास करना
चालहए। यलद दीपक के िौ पर अभ्यास करना है, तो घी के दीपक से अभ्यास करें तो अच्छा है, क्योंलक घी
का दीपक जिाने पर काितन मोनोऑक्साइड नहीं लनकिती है। लजस िौ (ज्योलत) से काितन मोनोऑक्साइड
न लनकिे, उस िौ (ज्योलत) पर अभ्यास करना चालहए। काितन मोनोऑक्साइड से सािक को हालन पहुचूँ
सकती है। श्वास िारा यह गैस सािक के शरीर में प्रवेश करे गी तथा आूँखों को भी नक ु सान पहुचूँ ा सकती
है।
जि दीपक की िौ पर अभ्यास करें , तो कमरे में परू ी तरह से अंिकार होना चालहए। कमरे का पंखा
िन्द कर दें। िाहर से भी हवा का प्रभाव नहीं होना चालहए। दीपक की िौ लहिे नहीं, िौ लस्थर होनी चालहए।
लजस प्रकार पहिे लिंदु पर त्राटक करते थे, उसी प्रकार दीपक की िौ के ऊपरी नोक पर पणू त अंिकार में
शांत वायु में त्राटक करना चालहए। शरुु आत में दीपक की िौ और आपकी आूँखों की दरू ी एक मीटर होनी
चालहए। िौ पर त्राटक करने के कुछ समय पश्चात् आपकी आूँखों में तीव्र जिन होगी। आंसू भी लनकि
आयेंगे। यलद आपका लिन्दु पर त्राटक का अभ्यास एक घंटे का होगा, तो िौ पर त्राटक करने पर 15-20
लमनट में आूँखों में जिन व ददत हो जाएगा। इसी प्रकार िौ पर त्राटक का अभ्यास 30-40 लमनट तक लकया

सहज ध्यान योग 157


जाना चालहए। यलद एक घटं े का अभ्यास हो जाए तो और भी अच्छा है। इस अवस्था में सािक की आूँखें
िहुत तेजवान हो जाएगी।
जि सािक का िौ पर अभ्यास एक घंटे का हो जाए तो त्राटक का अभ्यास अि पेड़ पर करना
चालहए। सािक को यह अभ्यास गांव के िाहर या शहर के िाहर करना चालहए। दरू एकांत में लनकि जाए,
अपने से दरू पेड़ के सिसे ऊपरी लसरे पर जो नोक के समान प्रतीत हो उस पर त्राटक करें । शांत िैठकर पेड़
के सिसे ऊूँचे लसरे पर नक
ु ीिे भाग को देखे। इससे आपको दरू का त्राटक लसि होगा। कुछ समय िाद लजस
भाग पर आप त्राटक कर रहे हैं, उसके पीछे आकाश में आपको पीिे रंग का िब्िा लदखने िगेगा। जि
आपका अभ्यास ज्यादा हो जाएगा, तो आकाश में पीिे िब्िे के स्थान पर नीिे रंग का िब्िा नजर आयेगा।
यह नीिा िब्िा आपके आूँखों िारा लनकिा हुआ तेज है। इसके िाद सयू त का त्राटक करना चालहए।
सयू त त्राटक का िहुत िड़ा महत्त्व है। लकसी भी सािक को सयू त का त्राटक एकदम नहीं करना चालहए।
क्रमश: लिन्दु और दीपक पर त्राटक करने के िाद करें तो अच्छा है। क्योंलक सयू त का प्रकाश िहुत तेज होता
है। आूँखें खराि भी हो सकती हैं। लजसने िौ पर त्राटक कर लिया उसकी आूँखें खराि होने का डर नहीं है।
सयू त पर त्राटक करने के लिए पहिे उगता हुआ सयू त देखें, लिर सयू ातस्त के समय त्राटक का अभ्यास करना
चालहए। शरुु आत में आिे घंटे का अभ्यास रुक रुककर करना चालहए, लजससे आूँखों पर गित प्रभाव न
पड़े। लिर अपनी क्षमतानसु ार अपना समय िढ़ा दें। लजस समय आप सयू त पर त्राटक का अभ्यास कर रहे हों,
उस समय यलद आप इिर-उिर लकसी वस्तु पर दृलष् डािेंगे, वह वस्तु आपको हल्के नीिे रंग के तेज प्रकाश
में लदखाई देगी। यलद आप अपनी दृलष् लकसी परुु ष पर डािेंगे तो वह आपको नीिे रंग के प्रकाश में लदखाई
पड़ेगा। यलद आप अपनी दृलष् उसके लसर पर डािें और आप अपने मन में सोचें लक आप हमारे पास आइए
तो वह व्यलक्त आपके पास आ जाएगा। हो सकता है, तरु ं त न आये। आप कई िार यही संकेत उसके पास
भेलजए, तो वह तरु ं त आ जाएगा। वैसे यह सि हमें नहीं लिखना चालहए। यह लक्रया सममोहन लवद्या में आती
है। िेलकन सािक को जानकारी हो जाए, इसलिए यहाूँ पर उल्िेख लकया। सममोहन लवद्या से सािक का
कुछ िेना-देना नहीं है। उसे आत्मसाक्षात्कार की ओर जाना है। सयू त त्राटक करने वािे सािक की आूँखें
िहुत तेज हो जाती हैं। उसकी आूँखों में लवशेष चमक आ जाती हैं। सािक को सािना में सहायता के लिए

सहज ध्यान योग 158


लिन्दु का त्राटक पयातप्त है। यलद उसके पास समय हो तो त्राटक लिन्दु से आगे करना चालहए। अभ्यास ज्यादा
होने पर उपयोगी रहेगा।
सािक को भलवष्य में यलद गरुु पद पर जाना है। अथवा वह योग का मागतदशतक िनना चाहता है,
मागतदशतन करने की सारी योग्यताएूँ उसके पास है, तो मैं ऐसे सािकों से कहगूँ ा लक अवश्य त्राटक में महारथ
हालसि करना चालहए। इससे शलक्तपात करने की क्षमता िढ़ जाएगी। लकसी भी दरू िैठे सािक पर आूँखों
िारा आप शलक्तपात कर सकते हैं। आप कुण्डलिनी भी आूँखों के िारा शलक्तपात से उठा सकते हैं। ऐसा
सािक शलक्तशािी हो जाता है। मगर सािकों, मैं अवश्य यह लिखना चाहगूँ ा लक यलद आपकी कुण्डलिनी
पणू त यात्रा कर चक
ु ी है और कुण्डलिनी लस्थर भी हो गयी है, तो भी आप िरािर समालि का अभ्यास करते
रलहए। तथा सयू त पर त्राटक करते रलहए। आपकी आूँखों पर शरद ऋतु में सयू त का दोपहर के समय लकसी
प्रकार का अवरोि नहीं होगा। िलल्क सयू त आपको चन्रमा के समान हल्के प्रकाश वािा लदखाई देगा।
क्योंलक आपकी आूँखों िारा लनकिी नीिी रंग की लकरणों से सयू त का प्रकाश प्रभावहीन लदखाई देगा।
जहाूँ तक मेरा त्राटक का अनभु व है। लकसी समय हमने िहुत ज्यादा अभ्यास लकया था। अपने
सािना काि में तो त्राटक लकया करता था, मगर सािना पणू त होने पर भी त्राटक का अभ्यास िहुत लकया
था। मैंने त्राटक में महारत कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद ही पायी थी। उस समय मैं लमरज आश्रम से घर आ
गया था। पहिे शाकमभरी में (सहारनपरु ) अभ्यास करता था। लिर शाकंभरी से घर वापस आ जाने पर
अभ्यास करने िगा। घर पर ग्रीष्म काि में सयू त पर त्राटक सयू त लनकिने से दस िजे तक लकया करता था
लिर सयू ातस्त से पवू त लकया करता था। सिु ह कई घंटे सूयत पर त्राटक करने से हमारी आूँखें िहुत तेजस्वी हो
गयी थी। ग्रीष्म काि में सिु ह से ही सयू त तेज चमकने िगता है। सयू त पर त्राटक के समय सदैव आूँखें खुिी
नहीं रहती थी। िीच में आूँखें िन्द भी करनी पड़ती थी। क्योंलक आूँखों में तीव्र जिन होती थी। उस समय
हमारी आूँखों से दसू रा परुु ष ज्यादा देर तक आूँखें नहीं लमिा सकता था, क्योंलक हमारी आूँखों से अत्यन्त
तेजस्वी लकरणें लनकिा करती थी।
उस समय हमें सदैव अत्यन्त तेजस्वी नीिे रंग का दरू सामने गोिा लदखाई पड़ता था। मेंरी आूँखों
से लकरणें लनकि रही हैं, यह भी हम प्रत्यक्ष देख सकते थे। क्योंलक उस समय हमारी सािना िहुत तीव्र चि
रही थी। प्राणायाम भी िहुत करता था। शरीर लिल्कुि शि ु हो गया था, मगर ज्यादा त्राटक के कारण हमें

सहज ध्यान योग 159


परे शानी होने िगी। लजस स्थान पर हमारी दृलष् पड़ती थी उस स्थान पर नीिे रंग का तेजस्वी गोिाकार
िब्िा लदखाई पड़ता था। नीिे रंग के िब्िे के कारण हमें स्थि ू वस्तु उस स्थान की नहीं लदखाई पड़ती थी,
क्योंलक नीिा प्रकाश नजर आता था। यलद हमारे सामने कोई व्यलक्त आ रहा होता तो उसका चेहरा हम नहीं
देख सकते थे, क्योंलक वही चमकीिे नीिे रंग का गोिाकार िब्िा लदखाई देता था। उस परुु ष का चेहरा ही
नजर नहीं आता था। उस समय मैं लकसी व्यलक्त को भी नहीं पहचान सकता था। यलद मैं अखिार पढ़ता, तो
यहाूँ भी अवरोि आता था। लजस जगह दृलष् पड़ती थी उस स्थान पर नीिे प्रकाश का िब्िा नजर आता
था। शब्द लदखाई नहीं देते थे, अखिार पढ़ना िन्द हो गया था। मैं कुछ भी लिख नहीं सकता था। हाूँ, त्राटक
के कारण कभी-कभी हमें अपने शरीर के अदं र के अंग लदखाई पड़ने िगते थे। सच तो यह है लक यह अगं
सक्ष्ू म शरीर के अंदर लवद्यमान रहते हैं, वह दृलष्गोचर होते थे। मैं खि
ु ी आूँखों से अपने मलस्तष्क की सक्ष्ू म
कोलशकाओ ं को देख िेता था। िस, कुछ सेकेंड दृलष् लस्थर करनी पड़ती थी। जि मैं आकाश में देखता, तो
आकाश में नीिे रंग के िब्िे के के न्द में अत्यन्त तेजस्वी लिन्दु (रंगहीन) सईु की नोक के िरािर आकार
का चमक जाता था और उसी समय िप्तु हो जाता था। इस अत्यन्त तेजस्वी रंगहीन लिन्दु के सामने सयू त का
प्रकाश नगण्य है। यह लिन्दु कारण जगत का था। आपको पढ़ने में आश्चयत होगा मगर यह सत्य है उस समय
हमारी लदव्यदृलष् त्राटक के कारण खि ु ी स्थिू आूँखों से कायत करती थी।
एक िार मैं दोपहर के समय में सयू त पर त्राटक करके कमरे में िेटा था। कुछ समय िाद हमें नीिे रंग
के कण कमरे में उड़ते लदखायी लदये। यही कण ज्यादा मात्रा में हो गये। ऐसा िगा कमरे में नीिे रंग का हल्का
प्रकाश भरा है। अि हमें अपने कमरे की छत व दीवारें लदखायी देनी िन्द हो गयीं। मेंरी आूँखें खि ु ी थीं,
मगर मैं स्थि
ू वस्तु नहीं देख सकता था। कािी समय तक ऐसा िना रहा। मझु े त्राटक के कारण स्थि ू वस्तएु ं
न लदखने के कारण िड़ी परे शानी होने िगी। मैंने त्राटक िन्द कर लदया। सयू त सदैव चरं मा की तरह लदखाई
पड़ता था त्राटक के समय। सािकों, त्राटक के लवषय में यह मेरा स्वयं का अनभु व है। उस अवस्था में मैं
खि ु ी आूँखों से लकसी भी व्यलक्त के लवषय में जान सकता था। मगर आप सभी को इतना अभ्यास करने की
आवश्यकता नहीं हैं। मैं उस समय लकसी वस्तु की खोज कर रहा था, इसलिए इतना त्राटक करना जरूरी
था।

सहज ध्यान योग 160


अशद्ध
ु ता
योग में शिु ता का िड़ा महत्त्व होता है। अशि ु ता के कारण सािक को योग में अपने िक्ष्य की
प्रालप्त में िहुत समय िगता है अथवा कई जन्म िग जाते हैं। अशि ु ता ही सािक के योग मागत में रुकावट
है। अशि ु ता का अथत है तमोगणु । आज के यगु में अशि ु ता की भरमार है। आप लकसी भी क्षेत्र में देलखए तो
पायेंगे लक अशि ु ता ही अशि ु ता है। और तो और स्वयं पृर्थवी के वायमु ण्डि में अशि ु ता ही ज्यादा मात्रा
में व्याप्त है। हर मनष्ु य में अशि ु ता की मात्रा िहुत अलिक होती है। लचि में जो कमातशय होते हैं, उनमें
ज्यादातर अशि ु ता भरी होती है। सािक जि सािना करना शरू ु करता है तो यही अशि ु ता ही अवरोि
डािती है। यह अवरोि सक्ष्ू म नालड़यों में भी भरा होता है। इसीलिए नालड़यों को शुि करने के लिए प्राणायाम
लकया जाता है। जो सािक लजतना अलिक प्राणायाम करे गा, उसकी सक्ष्ू म नालड़याूँ उतनी अलिक शि ु होती
हैं। लचि में तमोगणु प्रिान कमातशयों के कारण अशि ु ता की अलिकता सदैव िनी रहती है। जि तक
तमोगणु ी कमातशय समाप्त नहीं हो जाते हैं, ति तक अशि ु ता िनी रहती है। जि तमोगणु ी अहक ं ार पणू त रूप
से अलत सक्ष्ू म हो जाता है, ति शरीर के अदं र से अशि ु ता चिी जाती है। मगर प्रकृ लत के लनयमों के अनसु ार
तथा पृर्थवी पर अशि ु ता व्याप्त होने के कारण शरीर में अशि ु ता कुछ मात्रा में सदैव िनी रहती है।
जि सािक ध्यान पर िैठता है तो उसके शरीर से अशुिता लनकिती है। तथा सत्वगणु की मात्रा
िीरे -िीरे िढ़ती है। इसी अशि ु ता के कारण मनष्ु य अपने वास्तलवक स्वरूप को नहीं जान पाता है। इसलिए
सािक को सदैव अशि ु ता से िचने का उपाय करना चालहए। लजतना िचाव हो सके उतना कीलजए। ऐसा
नहीं समझना चालहए लक लसित अशि ु ता अपनी ही अपने शरीर के अंदर रहती है। िलल्क दसू रों की अशि ु ता
भी हमारे शरीर के अंदर आ जाती है। दसू रों की अशि ु ता अपने शरीर में कई प्रकार से आती है। खासतौर
से सािक का शरीर अशि ु ता िहुत खींचता है। कारण यह है सािक के शरीर में सत्वगणु की अलिकता
सािना के कारण हो जाती है। अशि ु ता की मात्रा कम होने िगती है। इस अवस्था में सािक स्वयं अपने
विय िारा दसू रों की अशुिता खींचने िगता है। इसीलिए सािक ज्यादातर एकांत व शि ु वातावरण में
चिे जाते हैं। एकांत व शुि वातावरण में अशि ु ता की मात्रा कम रहती है। इससे सािना में शीघ्र उन्नलत
होने िगती है। मगर इस तरह तो सभी सािक एकांत में जा नहीं सकते हैं। क्योंलक ज्यादातर सािक गृहस्थी
वािे होते हैं, वह गृहस्थी छोड़कर तो जा नहीं सकते हैं। उनको गृहस्थ िमत का पािन करना है। सािकों को
गृहस्थ में रहकर भी ज्यादा से ज्यादा शिु ता का पािन करना चालहए।

सहज ध्यान योग 161


भोजन के माध्यम से अशि ु ता की मात्रा अलिक आती है। ऐसा समझो भोजन के िारा भोजन िनाने
वािे की इच्छाएूँ भी आ जाती हैं। जि हम भोजन करते हैं तो भोजन िनाने वािे की इच्छाएूँ व अशि ु ता
ग्रहण करना होता है। इसलिए सािक के लिए अच्छा है लक भोजन स्वयं िनाए अथवा लकसी अध्यालत्मक
व पलवत्र स्वभाव वािे से िनवाए। इस प्रकार का भोजन सािक के लिए िाभदायक होगा। िाजार की िनी
हुई चीजें सािक को नहीं खानी चालहए। सच तो यह है लक िाजार में लिकने वािे िि भी अशि ु ता का
लशकार होते हैं। जो िि आप तक पहुचं े हैं वह िहुत से िोगों के हाथों से गजु रकर आते हैं। कई िोगों की
लनगाहें उन ििों पर पड़ती हैं। िि खरीदने के लवचार से ग्राहक जि ििों को देखता है उस ग्राहक की
अशि ु ता नेत्रों के िारा िि के अन्दर आ जाती है। क्योंलक मन तेजस रूप में नेत्रों के िारा लनकिता है।
ग्राहक की इच्छाएूँ ििों में आ जाती हैं। इन्हीं इच्छाओ ं में उसकी अशिु ता भी छुपी रहती है। इसलिए
सािकों, िड़ा मलु श्कि है शि ु ता से रहना क्योंलक आजकि सारा सामान िाजार से ही खरीदकर िाया
जाता है। दसू रों की अशि ु ता ग्रहण करना हम सिकी मजिरू ी है।
सािक जि अपने लमत्रों से लमिता है, िाजार में जाता है अथवा लकसी भी स्थान पर घमू ने के लिए
जाता है तो अपने अंदर अशि ु ता ही िाता है। हाूँ, एक िात और है शि
ु ता देकर आता है। जो व्यलक्त लजतना
ज्यादा अशि ु होता है वह व्यलक्त सािक को उतनी ज्यादा अशि ु ता दे देता है। सिसे ज्यादा अशिु व्यलक्त
लहसं क, दष्ु स्वभाव वािे, नशा करने वािे, अत्यन्त आिसी आलद इस श्रेणी में आते हैं। इसलिए सािक
को अनावश्यक नहीं घमू ना चालहए। व्यलक्तयों से अनावश्यक ज्यादा लमिना-जि ु ना नहीं चालहए। लसित
जरूरत भर ये कायत करने चालहए।
सािक को यह नहीं सोचना चालहए लक सािारण व्यलक्त से ही अशि ु ता आती है। सािक से सािक
के अंदर भी अशि ु ता आती है। सािक िन जाने का अथत यह नहीं है लक अशि ु ता उसके पास नहीं रह गयी
है। हमने देखा है कुछ सािक तो सामान्य व्यलक्तयों से अलिक अशि ु ता से यक्त
ु होते हैं। सािक की अशिु ता
तो तभी कम होगी जि वह योग में उच्चावस्था को प्राप्त करता है। सािक जि सामलू हक रूप से ध्यान करते
हैं, तो िड़ी तीव्रगलत से एक सािक की अशि ु ता दसू रे सािक के अंदर आ जाती है। ध्यानावस्था में शरीर
के अंदर से अशि ु ता िड़ी तेजी से िाहर लनकिती है। जो उससे शि ु सािक होता है उसके शरीर में समा
जाती है। एक साथ सािना करने पर अथवा सामलू हक रूप से सािना करने पर सािकों के विय एक-दसू रे

सहज ध्यान योग 162


में समाये रहते हैं अथवा लमि जाते हैं। इस अवस्था में लजस सािक की शि ु ता ज्यादा होती है वह ज्यादा
अशि ु ता ग्रहण कर िेता हैं क्योंलक अशिु ता रूपी अत्यन्त सक्ष्ू म कण दसू रे सािक के विय में समा जाते
हैं। जो सािक लजतना अशि ु होगा उसका विय भी उतना ही ज्यादा अशि ु होगा। जो सािक लजतना शि ु
होगा उसका विय भी उतना ज्यादा शि ु होगा। जि विय लमिकर कुछ अवस्था के लिए एक हो जाते हैं,
तो अशि ु ता और शि ु ता आपस में लमि जाती है। हालन तो शि ु ता वािे सािक को उठानी पड़ेगी।
अि आप सोच रहे होंगे लक अशि ु ता आती कहाूँ से है और जाती कहाूँ है। अशि ु ता आने के लवषय
में ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। क्योंलक सभी जगह अशि ु ता का ही साम्राज्य है। कुछ व्यलक्तयों में
कमातनसु ार ज्यादा अशि ु ता होती है तो लकसी में कम होती है। इसीलिए आजकि परू ी तरह से शि ु रहना
िड़ा मलु श्कि है। िलल्क यह कहना चालहए शि ु रहना असंभव है, तो यह सत्य होगा। यलद शि ु रहना है तो
जंगिों में जाना होगा। क्योंलक पेड़-पौिे शि ु ता देते हैं, अशिु ता ग्रहण कर िेते हैं। यलद आप जंगि में चिे
भी गये तो शि ु िनने में सहायता तो लमिेगी, मगर जि तक लचि में रजोगणु ी व तमोगणु ी वृलियाूँ हैं ति
तक तो सािक के अंदर अशि ु ता िनी ही रहेगी। जि तक लचि में वृलियाूँ व तमोगणु ी अहंकार है, अशि ु ता
अवश्य रहेगी। जि सािक का तमोगणु ी अहक ं ार अलतसक्ष्ू म हो जाएगा, उस समय वह अत्यन्त उच्चकोलट
का योगी िन जाएगा। जन्म-मृत्यु का िन्िन उसे प्रभालवत नहीं कर पायेगा।
जि सािक की कुण्डलिनी जाग्रत होकर ऊध्वत होती है तो यही अशि ु ता उसके मागत में िािक
िनती है। कुण्डलिनी का स्वरूप चेतनमय है। इसलिए अशि ु ता को कुछ मात्रा में जिा देती है तथा सत्वगणु
की मात्रा िढ़ा देती है। क्योंलक जहाूँ तक कुण्डलिनी चढ़ती है वहाूँ तक पृर्थवीतत्व व जितत्व को जिा देती
है। उस स्थान पर चैतन्यता लिखेरती जाती है। इस प्रकार कुण्डलिनी सािक की एक लनलश्चत मात्रा में अशि ु ता
नष् करती जाती है।
हमने पहिे लिखा है सािक सामान्य व्यलक्त से अलिक अशि ु ता ग्रहण करता है। लिर आप सोचते
होंग,े सािक अशि ु ता का क्या करता है? सािक शि ु कै से िनता है? सािक जि ध्यान करता है ति
योगिि से अशि ु ता जिती है तथा कुछ मात्रा में िाहर िें क देता है। मगर सामान्य व्यलक्त दसू रे की अशि
ु ता
ग्रहण करता रहता है। यही अशि ु ता लचि में लनचिी सतह पर जाकर संलचत कमों में लमि जाती हैं। कुछ
प्रारब्ि कमों में लमि जाती है यलद आप अक्सर लसगरे ट पीने वािों के साथ रहते हैं तो आपकी भी इच्छा

सहज ध्यान योग 163


लसगरे ट पीने की चिने िगेगी। मगर दृढ़ इच्छा शलक्त वािों पर इन सि लक्रयाओ ं का असर नहीं पड़ता है।
जि लसगरे ट के िएु ूँ की अशि
ु ता आपके अदं र समा गयी तो इसे लनकाि नहीं पायेंगे।
समपणू त प्रकृ लत तीन गणु ों से िनी है। इसलिए तमोगणु का रहना जरूरी है। तमोगणु के कारण अशि ु ता
िनी रहेगी, मगर सभी को चालहए लजतना हो सके अशि ु ता से िचें तो अच्छा है। अशि
ु ता के कारण अशि ु
लवचार उत्पन्न होंगे, जो व्यलक्त को पतन के मागत पर िे जायेंगे। शि ु ता से शि
ु लवचार िनेंगे, जो मनष्ु य को
उन्नलत के मागत पर िे जायेंगे।
जो व्यलक्त तांलत्रक व मांलत्रक होता है, वह भतू -प्रेत व तामलसक शलक्तयों की पजू ा करता है ऐसे
व्यलक्त तमोगणु ी कहिाते हैं। इनका भोजन भी तामलसक होता है। ऐसे व्यलक्तयों में अशि ु ता कूट-कूटकर
भरी होती है, अशि ु ता का अमिार होता है। सािकों को ऐसे व्यलक्तयों से िचना चालहए। तामलसक शलक्त
की सवोच्च देवी चण्डी और कािी हैं। इसका अथत यह नहीं है लक सालत्वक सािक इनकी (कािीदेवी व
चण्डी देवी) पजू ा न करे । यलद सािक की इच्छा हो तो पजू ा कर सकता है। यह देलवयाूँ तामलसक होने के
िावजदू आपको सालत्वक शलक्त ही देंगी, क्योंलक आलदशलक्त स्वरूपा हैं।
सािकों को चालहए वह रोजाना जो अशि ु ता ग्रहण करता है अपने योग िि से जिा दे। उसे अपने
शरीर में ज्यादा लदन तक न रोके , नहीं तो सािक का ही नक ु सान होता है। अपनी लनजी अशि ु ता पर भी
मत्रं िि का प्रहार करते रहना चालहए। भोजन करने से पवू त भोजन को अशि ु ता दरू करने के लिए योगिि
का प्रयोग करे , वरना अशि ु ता नहीं लनकिेगी। अशिु ता पर योगिि की मार िगाता रहे तालक यह कमजोर
पड़ती रहे। हाूँ, आपका योगिि जरूर थोड़ा-सा नष् होगा। आप सािना के माध्यम से योगिि अलजतत
करते रलहये। यलद आपके पास योगिि कम है, तो अपने गरुु देव से मागत दशतन िीलजए। तथा योगिि के
लवषय में जो थोड़ा लिखा है वह ध्यानपवू तक पलढ़ए, आपको अवश्य िाभ होगा।

सहज ध्यान योग 164


मिंत्र जाप
मंत्र जाप स्वयं अपने आपमें मंत्र योग है। सािकों को उत्कृ ष् सािना के लिए आवश्यक है, वह मंत्र
योग की सहायता िें। मंत्र योग में मंत्र जाप करना होता है। मंत्र के जाप से शलक्त उत्पन्न होती है। इससे
आसपास का क्षेत्र भी पलवत्र होता है। सािक के अंदर शि ु ता भी िढ़ती है। मंत्र जाप लजतना ज्यादा लकया
जाएगा, सािना में सििता उतनी शीघ्र लमिेगी। मंत्र जाप करने से पहिे मंत्र िोिने की लवलि सीख िेनी
चालहए। मंत्र िोिते समय मंत्र का उच्चारण सही रूप से होना चालहए। तथा मंत्र िोिने का भी लवशेष तरह
का तरीका होता है। यह तरीका लकसी अनुभवी व्यलक्त से सीखना चालहए। क्योंलक मंत्र िोिने का एक लवशेष
प्रकार का उतार-चढ़ाव होता है। जि तक मंत्र लवलिपूवतक नहीं िोिा जाएगा तो वह ज्यादा िलित नहीं
होगा। इसलिए मंत्र का उच्चारण लवलिपूवतक व सही करना चालहए। मंत्र का उच्चारण कभी गित नहीं होना
चालहए। यलद मत्रं का उच्चारण गित लकया जाएगा तो मत्रं के िारा हालन भी पहुचूँ सकती है। मैंने कई जगह
देखा है लक मत्रं िोिने का तरीका सही नहीं था। मत्रं सामलू हक रूप से िोिा जा रहा था। मत्रं िोिने का
अथत भी िहुत गित लनकि रहा था। मत्रं िोिने वािों को लकसी प्रकार का िाभ नहीं लमि रहा था। मैंने
अपनी लदव्यदृलष् से देखा मत्रं िोिने का िाभ तामलसक शलक्तयाूँ उठा रही थी। वहाूँ पर लस्थत सक्ष्ू म रूप से
तामलसक शलक्तयाूँ हवन की सामग्री खा िेती थी। तथा मत्रं गित िोिने के कारण, मत्रं का मि ू अथत से
लभन्न अथत लनकि रहा था। उस मत्रं से सालत्वक शलक्त लनकिने के िजाय तामलसक शलक्त लनकि रही थी।
वहाूँ पर लस्थत तामलसक शलक्तयाूँ उस तामलसक शलक्त को ग्रहण कर िेती थी। मगर मत्रं िोिने वािों को
इस लवषय में मािमू नहीं था क्योंलक वे सािारण परुु ष थे।
मंत्र िोिने का ढंग कई प्रकार का होता है। एक, मंत्र का उच्चारण जोर-जोर से करना। दो, मंत्र का
उच्चारण िीमी आवाज में करना। तीन, मंत्र का उच्चारण मन के अंदर करना। जोऱ-जोर से मंत्र उच्चारण
करना मंत्र की पहिी अवस्था है। इस प्रकार मंत्र जाप करने से सािक का मन एकाग्र होने िगता है, तथा
आसपास के वातावरण में पलवत्रता आने िगती है। मगर इसका िि कम लमिता है क्योलक इसमें मन ज्यादा
एकाग्र नहीं हो पाता है। मंत्र की आवाज इतनी होनी चालहए लक आपकी आवाज से लकसी दसू रे को अवरोि
न हो। हमारे िारा मंत्र जाप का यह अथत नहीं होना चालहए लक अपने जाप के खालतर दसू रे को परे शानी पहुचं े।
िीमी आवाज में मंत्रोच्चारण करना चालहए। इसका िि मध्यम श्रेणी का होता है। इसमें लसित ओठ लहिते
हैं और मूँहु से लनकिने वािी आवाज मत्रं ोच्चारण करने वािे को ही सनु ाई देती है। इस अवस्था में सािक

सहज ध्यान योग 165


का मन एकाग्र ज्यादा होता है। इसका िि भी पहिी अवस्था से ज्यादा लमिता है। लकसी दसू रे को कोई
हालन भी नहीं पहुचूँ ती है। मंत्र जाप करने का सिसे अच्छा तरीका है लक उसका मत्रं जाप अतं ुःकरण में चिे।
यह अवस्था सािक में सिसे िाद में आती है। सािक को यही अवस्था िानी चालहए इस अवस्था में मन
लिल्कुि एकाग्र होता है। इसका िि भी परू ा लमिता है। सािक में लकसी प्रकार की िाह्य हिचि नहीं
होती है। सािक लिल्कुि शातं िैठा रहता है। सािक को क्रमश: इसी प्रकार का जाप करना चालहए। यलद
सािक शरुु आत से ही आूँखें िन्द करके मत्रं जाप करने िगेगा, तो उसका मन तरु ं त एकाग्र नहीं होगा क्योंलक
मन तो चचं ि है। इसलिए िीरे -िीरे अभ्यास करना चालहए। मत्रं जाप करते समय आिार के लिए मािा का
प्रयोग लकया जाता है। इससे सािक अपना एक िक्ष्य िना िेता हैं लक हमें इतनी मात्रा (लगनती) में जाप
करना है। िेलकन मन के अंदर जाप करते समय मािा से लगनती नहीं हो पाती है। अथातत मािा आगे
लखसकाना रुक जाता है, अथवा हाथ से छूट जाता है। क्योंलक मन एकाग्र होने िगता है। जि मन एकाग्र
होने िगता है ति मािा की गरु रया आगे िढ़ाने की याद नहीं रह जाती है। जि तक मािा चिती रहे तो यह
समझ िो मन एकाग्र नहीं हुआ है। वैसे यह लक्रया िीमी आवाज में जाप करने पर भी हो जाती है। उसमें भी
मन एकाग्र होने िगता है। मगर जो सािक जोर-जोर से मंत्रोच्चार कर रहा हो उसमें यह लक्रया नहीं होती है
क्योंलक मन एकाग्र नहीं होता है। मगर मंत्र जाप का िि अवश्य लमिता है। हर एक मंत्र का अपना अिग
अिग देवता होता है। मंत्र जाप करते समय सािक को िहुत जरूरी है लक उस मत्रं के देवता के स्वरूप का
काल्पलनक रूप से अविोकन करे । इससे मन एकाग्र होने में सहायता लमिेगी।
आजकि कुछ मनष्ु यों का कहना है लक मत्रं ों में कुछ भी शलक्त नहीं होती है। हमने हजारों-िाखों
मत्रं जाप लकये मगर उसका िि नहीं लमिा? मत्रं जाप करने का िि क्यों नहीं लमिा अथवा मन क्यों लस्थर
नहीं हुआ। यह कारण अगर वह ढूढ़ं े तो जवाि अवश्य लमिेगा। कारण यह भी हो सकता है, मत्रं जाप करते
समय आपका उच्चारण सही न हो। आपके अदं र का लवश्वास भी कमजोर हो सकता है। मत्रं जाप करते
समय अपने कायत पर लवश्वास पणू त रूप से होना चालहए, लिर सििता अवश्य लमिेगी। सलं दग्ि लिल्कुि नहीं
रहना चालहए। आपके मन व शरीर में शि ु ता नहीं होगी। मन व शरीर में शि ु ता होनी अलत आवश्यक है।
जि तक शि ु ता नहीं आयेगी तो आपके िारा िोिा गया मत्रं लकतना प्रभावी होगा यह कहना मलु श्कि है।
यलद मत्रं का उलचत िि िेना है तो सािक को शि ु रहना अलत आवश्यक है। यही कारण है लक आजकि
के व्यलक्त स्वयं तो शिु नहीं रहते हैं और मंत्र को दोष देते हैं लक अि इस मंत्र में शलक्त नहीं रह गयी। सच

सहज ध्यान योग 166


तो यह है मत्रं में इतनी शलक्त है लक आज भी मत्रं ोच्चारण से उस मत्रं का देवता उपलस्थत हो जाता है। मगर
उस देवता के दशतन करने के लिए लदव्यदृलष् होना जरूरी है क्योंलक लिना लदव्यदृलष् के देवता लदखाई नहीं
पड़ेगा। उसके शरीर की सरं चना अत्यन्त सक्ष्ू म कणों िारा लनलमतत है इसलिए चमत चक्षु नहीं देख सकते हैं।
जो मत्रं िोिा जाता है उस मत्रं के प्रभाव से वायु मण्डि में कमपन होता है। जि मत्रं का प्रभाव अभ्यास के
िारा सक्ष्ू म होता है, तो वायतु त्व में कमपन्न होने से वह कमपन देवता तक पहुचूँ ता है। जि मत्रं का प्रभाव
उस देवता तक पहुचूँ ता है ति वह देवता मजिरू होकर सािक के सामने उपलस्थत हो जाता है। यह लक्रया
उस समय होती है जि मत्रं लसि हो जाता है।
आलदकाि के ऋलष-मलु न अपने िारा िोिे गये मंत्र िि पर कुछ भी कायत करने में सिि होते थे।
क्योंलक स्वयं उनके अंदर अत्यन्त शि ु ता होती थी तथा दृढ़ लनश्चय होकर मंत्रजाप करते थे, तभी ये मंत्र उन्हें
लसि होते थे। यलद सही ढंग से मंत्र िोिा जाए तो अवश्य कभी न कभी आपको मंत्र लसि हो जाएगा। मगर
मंत्र लसि करने के लिए लनयम-संयम का पािन करना होगा तथा िैयत से काम िेना होगा। जि आप मंत्र
जाप करें गे तो आपकी अशुिता कम होगी तथा लनलश्चत मात्रा में कमत भी जिेंगे। मंत्र को प्रभावी होने में कई
वषत िग सकते हैं। इस जगह आप कह सकते हैं लक हमारा मागत तो सहज ध्यान योग है, लिर मंत्र को इतना
ज्यादा क्यों शालमि लकया गया है। यह सच है लक हर योग में दसू रे योग मागत का सहारा िेना पड़ता है।
सािकों, अि थोड़ा मंत्र के लवषय में और लिखूँू तो अच्छा रहेगा। क्योंलक अभी तक उन सािकों
के लवषय में लिखा है जो नये सािक हैं अथवा उच्च अवस्था प्राप्त नहीं हुई है। अि थोड़ा उच्च श्रेणी के
सािकों को अथवा लजन्होंने कुण्डलिनी की पणू त यात्रा करके उसकी लस्थरता प्राप्त कर िी है। सािकों, मैं
आज भी मंत्रों का जाप करता ह।ूँ मैंने सािना काि में िहुत मंत्रों का जाप लकया है तथा कुण्डलिनी लस्थरता
के िाद और अि भी मंत्रों का जाप करता ह।ूँ मैं एक िार अपनी चाहे समालि का समय कर कम कर द,ूँू
मगर मंत्र जाप नहीं छोड़ता ह।ूँ सच तो यह है लक मंत्र में िहुत शलक्त होती है। हम समालि के िारा लजतना
योगिि एक साि में प्राप्त कर पाते हैं, उतना योगिि मंत्र जाप के िारा मात्र कुछ देर में प्राप्त कर िेते हैं।
इसीलिए मैं आज तक कभी भी योगिि के िारे में कमजोर नहीं पड़ा। मैं लकसी का भी मागतदशतन करते
समय सािक से अपनी इच्छानसु ार कायत िे िेता ह।ूँ इस कायत के लिए मैं ज्यादा मात्रा में योगिि का प्रयोग
करता ह।ूँ यलद मैंने सोचा सािक के शरीर के अंदर यह लक्रया होनी चालहए तो अवश्य होगी। हमारा कहने

सहज ध्यान योग 167


का अथत यह है लक मझु े योगिि की कमी नहीं है क्योंलक मझु े कुछ मत्रं लपछिे जन्मों से लसि हैं। उनका
िाभ उठाता ह।ूँ योग के माध्यम से हमें मािमू पड़ गया था लक मझु े पवू त जन्म में यह मत्रं लसि थे। इस जन्म
में भी लसि लकये हैं। सािकों, इन मत्रं ों को लसि करने के लिए मैंने िड़ा कष् सहा है, स्थि ू शरीर की भी
खिू दगु तलत हुई है। क्योंलक लकसी भी िक्ष्य की प्रालप्त के लिए कठोरता के साथ लनयम सयं म का पािन करना
पड़ता है।
आप कुण्डलिनी उग्र करने के लिए कुण्डलिनी मंत्र या शलक्त मंत्र का प्रयोग कीलजए। जि आपकी
कुण्डलिनी कण्डचक्र तक आ गयी हो, ति इस मंत्र का प्रयोग अवश्य कीलजएगा। इससे कुण्डलिनी में उग्रता
आयेगी। अशि ु ता भी कम होगी तथा कण्ठ चक्र खुिने में सहायता लमिेगी। कण्ठ चक्र खि ु ने के िाद से
ब्रह्मरंध्र खि
ु ने तक मंत्र का जाप अलिक िाभकारी होता है। जि आप शलक्तमंत्र का जाप करें गे तो अवश्य
ही कुण्डलिनी ऊध्वत होने का प्रयास करे गी। ब्रह्मरंध्र खुिने में मंत्र अवश्य सहायता करे गा। आप जाप आिे
घंटे से िेकर एक घंटे तक कीलजए। आप आसन पर िैठकर मंत्र को जोर से िोिें। इस समय मन के अंदर
जाप नहीं करना चालहए। कमरे को परू ी तरह से िन्द कर िीलजए तालक आवाज िाहर न लनकिे। न लकसी
को आपके िारा िोिे गये मंत्र से अवरोि होना चालहए। िन्द कमरे के अंदर आवाज गंजू ती रहेगी। इससे
आपको ध्यान की अपेक्षा ज्यादा िाभ होगा। ध्यान के माध्यम से इतनी कुण्डलिनी ऊध्वत नहीं होगी लजतनी
मत्रं के प्रभाव से होती है। इसका अथत यह नहीं है लक आप ध्यान करना िन्द कर दें। ध्यान अपना पवू त की
भाूँलत करते रहें।
यलद आप को कुण्डलिनी लस्थर हो चक ु ी हैं तथा योगिि िढ़ाना चाहते हैं तो शलक्त मंत्र, का जाप
कीलजए अथवा ‘ॐ’ मंत्र का जाप लवलि के अनसु ार कीलजए। एक िात का ध्यान रहे इस समय मत्रं का जाप
उच्च स्वर में कीलजए। यलद लिल्कुि एकांत में, खेतों में या जंगि में यह लवलि अपनायी जाए तो अच्छा है।
आप लसित एक मंत्र को अपनाइए, िदि-िदि कर नहीं िोिना चालहए। यलद आपको मंत्र लसि हो गया है
तो आजीवन योगिि की कमी महससू नहीं करें गे। मंत्र जाप करते समय आप लदव्यदृलष् या ज्ञान के िारा
जानकारी अवश्य करते रहें। यलद लकसी प्रकार की त्रलु ट हो तो अपने ज्ञान िारा जानकारी हालसि कर दरू कर
िीलजए। शलक्तमंत्र अपने गुरु से पलू छए अथवा स्वयं कुण्डलिनी देवी से पछ ू िीलजए। मैं लकसी कारण उस

सहज ध्यान योग 168


मत्रं को लिख नहीं रहा ह।ूँ क्योंलक दष्ु स्वभाव के सािक (तामलसक) इस मत्रं का गित प्रयोग कर सकते
हैं। इसलिए मैं उस लवषय को लिखना उलचत नहीं समझता ह।ूँ

सहज ध्यान योग 169


वलय
प्रत्येक प्राणी के चारों ओर गोिाकार प्रकाश का चक्र जैसा घमू ा करता है। इस गोिाकार प्रकाश
को विय कहते हैं। यह विय स्थि ू शरीर के चारों ओर थोड़ी दरू ी पर घमू ा करता है। विय सक्ष्ू म प्रकाश
कणों िारा िना होता है, इसलिए इसे स्थि ू नेत्रों के िारा नहीं देखा जा सकता है। यह विय प्राणी की रक्षा
करता है, इसलिए इसे रक्षा कवच भी कहते हैं। विय िाहरी आघातों से (जो सूक्ष्म रूप के होते हैं) रक्षा
करता है। यह विय लसित मनष्ु यों-पश-ु पलक्षयों व कीड़े-मकोडों में ही नहीं, िलल्क सभी प्रकार के पेड़-पौिों
व वनस्पलतयों में भी होता है। हर एक प्राणी का विय एक जैसा नहीं होता है, िलल्क गणु , स्वभाव व कमत
के आिार पर होता है। यलद प्राणी में सत्वगणु प्रिान है तो उसका विय ज्यादा प्रकाशशीि व आकार
में िड़ा होगा। यलद प्राणी तमोगणु ी स्वभाव का है तो उसका विय छोटे आकार का िंिु िे प्रकाश वािा
होगा।
मनष्ु य के अिावा अन्य प्रालणयों के विय अपनी-अपनी जालतयों में िगभग एक जैसा होते हैं
क्योंलक वे जालतयाूँ भोग योलन हैं। जैसे शेरों में एक जैसा विय पाया जाता है। थोड़ा सा िकत भी हो सकता
है। इसी प्रकार गाय, भैंस, पलक्षयों में अपनी-अपनी जालतयों में िगभग एक जैसा विय पाया जाता है िस,
थोड़ा-सा िकत हो सकता है। मगर मनष्ु यों में एक जैसा विय नहीं होता है। क्योंलक मनष्ु य नया कमत भी कर
सकता है तथा प्रारब्ि को भोगता है। मनष्ु य का विय उसके कमत के अनसु ार छोटा या िड़ा, िंिु िा व
प्रकाशमान होता है। मनष्ु य यलद क्रूर स्वभाव वािा, पापयक्त ु तथा लनमन प्रकार का काम करने वािा होगा,
तो उसका विय छोटे आकार वािा व िंिु िे प्रकाश वािा होगा। विय का स्वभाव होता है गोिाकार
चक्कर िगाना अथातत गोिाकार गलत करता रहता है। इस स्वभाव वािे मनष्ु य का विय अत्यन्त िीमी
गलत करता है। अगर मनष्ु य अच्छे स्वभाव वािा, परोपकारी, सत्य, अलहसं ा का पािन करने वािा होगा,
तो ऐसे मनष्ु य का विय तेज प्रकाश वािा होता है। विय का आकार भी िड़ा होता है तथा घमू ने की गलत
भी अलिक तेज होती है। यलद मनष्ु य भक्त या योगी है तो उसका विय अलिक प्रकाश वािा तथा आकार
में भी कािी िड़ा, घमू ने की गलत अत्यन्त तेज चक्र के समान लदखाई पड़ता है। ऐसा विय अत्यन्त
शलक्तशािी होता है।

सहज ध्यान योग 170


मनष्ु य जि रोगी होता है अथवा स्थि ू शरीर पर लकसी प्रकार का आघात होता है अथातत मनष्ु य का
स्थि
ू शरीर ज्यादा कष् महससू करता है, ति उसका विय प्रभालवत होता है। लकसी प्रकार से यलद विय
पर प्रहार लकया जाता है तो मनष्ु य का सक्ष्ू म शरीर प्रभालवत होता है। सक्ष्ू म शरीर प्रभालवत होने से स्थि

शरीर कष् भोगने िगता है। क्योंलक विय सक्ष्ू म रूप में होता है। वह सक्ष्ू म शरीर की रक्षा करता है। इसलिए
विय और सक्ष्ू म शरीर का समििं सदैव रहता है। यलद विय पर प्रहार करके लछन्न-लभन्न कर लदया जाए तो
मनष्ु य का सक्ष्ू म शरीर स्थि
ू शरीर का त्याग कर देगा लजससे मनष्ु य की मृत्यु हो जाएगी। जैसे ही विय पर
लकसी प्रकार का प्रहार होगा, उस समय मनष्ु य का शरीर कष् महससू करे गा।
आप यह सोचेंगे लक मनष्ु य के स्थि ू शरीर को क्षलत लकसी भी प्रकार से पहुचूँ ाई जा सकती है मगर
सक्ष्ू म विय को लकस प्रकार से क्षलत पहुचूँ ाई जा सकती है। साि जालहर है, लजस प्रकार स्थूि शरीर को क्षलत
पहुचूँ ाने के लिए स्थिू प्रहार आवश्यक है, इसी प्रकार सक्ष्ू म विय को भी क्षलत सूक्ष्म शलक्त िारा ही पहुचूँ ाई
जा सकती है। यह कायत वही कर सकता है जो सक्ष्ू म शलक्त का मालिक होता है। सक्ष्ू म शलक्त के मालिक तो
भक्त, योगी, तांलत्रक, मांलत्रक आलद प्रकार के मनष्ु य होते हैं। मगर लकसी को हालन पहुचूँ ाने का कायत लसित
दृष् स्वभाव वािे ही कर सकते हैं। यह कायत भक्त अथवा योगी नहीं करे गा, क्योंलक ऐसे महापरुु ष लकसी को
हालन नहीं पहुचूँ ाते हैं। हाूँ, कल्याण भिे कर दें। यह कायत तांलत्रक या मांलत्रक ही करते हैं क्योंलक यह तमोगणु ी
उपासक होते हैं। मैं सभी तालं त्रकों व मालं त्रकों को नहीं कह रहा ह।ूँ मगर अक्सर देखा गया है लक ऐसे तमोगणु ी
शलक्त वािे ही दसू रों को हालन पहुचूँ ाते हैं। कभी-कभी ऐसे परुु ष िन के िािच में भी कायत कर देते हैं। जो
मनष्ु य ऐसा कायत करते हैं उनका िहुत िरु ा हाि होता है। मृत्यु के समय और मृत्यु के िाद भी कष् भोगना
पड़ता है।
लकसी मनष्ु य को यलद सक्ष्ू म रूप से क्षलत पहुचूँ ाई गई है, तो इस क्षलत पूलतत के लिए सक्ष्ू म शलक्त का
ही प्रयोग करना पड़ेगा। इसलिए कभी-कभी देखा गया है लक मनष्ु य का िहुत इिाज लकया जाता है, अच्छे -
अच्छे डॉक्टर इिाज करके परे शान हो जाते हैं, मगर िीमारी ठीक नहीं होती है। परन्तु संत-महात्मा या झाड़-
िूँू क वािे इच्छा मात्र से अथवा अपनी सक्ष्ू म शलक्त का प्रयोग करके िीमारी को ठीक कर देते हैं। इसका
यही कारण है लकसी न लकसी प्रकार यह मनष्ु य सक्ष्ू म रूप से िीमार हुआ है। यलद विय को क्षलत पहुचूँ ाई
गयी है और अगर उसका विय ठीक कर लदया जाए तो िीमारी या कष् ठीक हो जाएगा है। यलद मनष्ु य

सहज ध्यान योग 171


सक्ष्ू म रूप से िीमार था तो लकसी तालं त्रक, मांलत्रक आलद ने क्षलत पहुचूँ ाई होगी। कभी-कभी ऐसा भी होता
है लक लनमन प्रकार की तमोगणु ी शलक्तयाूँ अदृश्य रूप में वायु मण्डि में भ्रमण करती रहती हैं। उनका भी
मनष्ु य लशकार हो सकता है। ये शलक्तयाूँ दष्ु स्वभाव वािी होती हैं। ऐसी शलक्तयों को दरू भगाने के लिए
शलक्तशािी (सक्ष्ू म शलक्त का) परुु ष होना चालहए, वरना शीघ्रता से इन शलक्तयों का प्रभाव नहीं जाएगा।
अगर मनष्ु य लकसी िड़ी दष्ु शलक्त िारा सताया जा रहा है, तो लकसी िड़े योगी, महात्माओ ं व तालं त्रकों िारा
ही छुटकारा लमि पायेगा। क्योंलक दोनों ओर से शलक्तयों का प्रयोग लकया जाएगा।
दृष् स्वभाव वािी अदृश्य शलक्तयाूँ मनष्ु यों को क्यों हालन पहुचूँ ाती हैं, इसके कुछ कारण होते हैं।
एक– ऐसा हो सकता है लक ये शलक्तयाूँ लकसी के िारा भेजी गयी हों। दो– कभी-कभी ऐसा देखा गया है लक
दष्ु स्वभाव की अदृश्य शलक्तयाूँ अपनी इच्छा पलू तत के लिए मनष्ु यों को अपना िक्ष्य िनाती हैं। लजस वस्तु
की इच्छा होती है वह वस्तु उस मनष्ु य िारा ग्रहण करती हैं। ये तमोगणु ी शलक्तयाूँ मनष्ु य के विय को
प्रभालवत करती हैं। लजससे उसका विय लछन्न-लभन्न सा होने िगता है। इस अवस्था में मनष्ु य िीमार हो
जाता है अथवा कष् भोगता है। यह शलक्त उस मनष्ु य से िगातार समिन्ि िनाये रखती है। जि ऐसी तामलसक
दष्ु शलक्तयों से छुटकारा लदिाया जाता है, तो दष्ु शलक्तयों की इच्छा पलू तत कर दी जाती है अथवा पलू तत न
करके शलक्त का प्रहार करके इन्हें भगा लदया जाता है। लजस सािक में विय देख िेने की शलक्त होती है,
ऐसा सािक दसू रे का विय देखकर ढेर सारी जानकाररयाूँ हालसि कर िेता है लक यह मनष्ु य कै से स्वभाव
वािा है, यह कै सा कमत करने वािा है तथा इसके अदं र लकतनी आध्यालत्मक शलक्त है। यह विय मनष्ु य को
िाभ तो देता ही है, क्योंलक वह जीवन रक्षा कवच है। कभी-कभी अकारण विय के िारा दसू रों की अच्छाई
व िरु ाई ग्रहण कर िेता है। यह प्रकृ लत का लनयम है– जि अच्छा विय वािा मनष्ु य िरु े व गदं े विय वािे
मनष्ु य के पास पहुचूँ ता है अथवा लकसी भी प्रकार से नजदीक आता है तो अच्छा विय और िरु ा विय
दोनों आपस में लमि जाते हैं। अच्छे विय में िरु े विय के प्रकाश कण चिे जाते हैं। इसी प्रकार िरु े व गदं े
विय में अच्छे विय के प्रकाश कण चिे आते हैं। इस अवस्था में अच्छे विय वािे मनष्ु य को नक ु सान
उठाना पड़ता है। क्योंलक उसके अदं र िरु े व गदं े तमोगणु ी कण आ जाते हैं। तमोगणु ी कण उसके शरीर को
प्रभालवत करते हैं। इससे उसके अदं र तमोगणु ी लवचार उठने िगते हैं। इसी प्रकार िरु े विय वािे मनष्ु य के
विय में, अच्छे सालत्वक विय कण आ जाते हैं। इन सालत्वक कणों का प्रभाव सक्ष्ू म शरीर पर पड़ता है तो
कुछ समय के लिए अच्छे लवचार आने िगते हैं। मगर तमोगणु की अलिकता के कारण सालत्वक कण

सहज ध्यान योग 172


प्रभालवत नहीं हो पाते हैं। ऐसी अवस्था में अच्छे विय वािे मनष्ु य को घाटा है, िरु े विय वािे को िाभ
है।
कहा जाता है अच्छे मनष्ु यों का साथ करना चालहए, िुरे मनष्ु यों का साथ नहीं करना चालहए। यलद
अच्छे मनष्ु य का साथ करोगे तो अच्छे िनोगे, यलद िरु े मनष्ु य का साथ करोगे तो िुरे िनोगे। इसीलिए
सािक को संगत अच्छी करनी चालहए। अच्छे और िुरे मनष्ु य की संगलत से विय लमिने के कारण लवचारों
में िकत आने िगता है। यलद योगी परुु ष की संगलत कािी लदनों तक की जाए, तो मनष्ु य के अंदर अवश्य
िदिाव आने िगेगा। योगी परुु ष का विय िहुत ही तेजस्वी और लवस्तृत आकार में होता है। ऐसे विय
का प्रभाव शीघ्र ही दसू रे पर पड़ता है। लजस स्थान पर योगी रहता है, वह स्थान अत्यन्त शि ु होता है।
इसीलिए ऐसे स्थानों पर मन प्रसन्न हो जाता है। क्रूर और लहसं क स्वभाव वािे मनष्ु य के यहाूँ वातावरण
गंदा होता है। ऐसे स्थान पर ठहरने की इच्छा नहीं होती है।
इस विय का एक और स्वभाव है। विय के कण पृर्थवी की सतह पर और वायमु ण्डि में अत्यन्त
कम मात्रा में लिखरते रहते हैं। चाहे वह दष्ु स्वभाव वािे विय कण हों अथवा योगी परुु ष के विय कण
हों। विय के अंदर कम हुए कणों की पलू तत स्वयं विय कर िेता है। सक्ष्ू म शरीर िारा कण प्रकट हो जाते हैं।
इसलिए विय कणों में कमी नहीं आती है। यह नये विय कण वततमान कमों िारा िनते रहते हैं और लिखरते
रहते हैं। दष्ु स्वभाव वािे पुरुष को क्या िकत पड़ेगा? लिर दष्ु ता भरे कमत करके विय कण कमा िेगा। मगर
योगी परुु ष के लिखरे कणों की पलू तत करने के लिए योग पर िैठना होगा, ति उससे तेजस्वी कण उत्पन्न होंगे।
इसीलिए योगी परुु ष ज्यादातर ध्यान पर िैठा रहता है। विय के कण लिखरने के कारण उसकी शलक्त कम
मात्रा में क्षीण हो जाती है। यह लक्रया सदैव चिती रहती है। योगी यह भी जानते होंग,े जि उनका सािना
काि था ति वह िहुत शलक्तशािी थे। मगर कुण्डलिनी लस्थरता के िाद उनकी शलक्त पहिे जैसी नहीं रहती
है। क्योंलक वह अपने आपको पणू त समझने िगता है, लिर ध्यान पर िैठना लिल्कुि कम कर देते हैं अथवा
िन्द कर देते हैं। इसलिए उनकी शलक्त पहिे जैसी नहीं रहती है। ऊपर से प्रकृ लत के लनयमों के कारण विय
कण लिखरते रहते हैं तथा अशि ु ता भी अपना अलिकार जमाने िगती है। इसलिए योगी को सदैव पहिे
की भाूँलत ध्यान करते रहना चालहए। चाहे थोड़ा ध्यान करे , परन्तु ध्यान करना िन्द नहीं करना चालहए।

सहज ध्यान योग 173


पवू तकाि में योगी इसीलिए एकातं में रहते थे, लकसी के समपकत में नहीं आते थे। रामचररतमानस में
एक जगह काकभसु ण्ड जी के आश्रम के लवषय में वणतन है। जो उनके आश्रम में जाता था, तो आश्रम के
कािी दरू से ही मनष्ु य राम-राम का नाम जप करने िगते थे। पहिे के आश्रमों में शि ु ता का इतना ज्यादा
प्रभाव था लक लहसं क पशु भी लहसं ा करना भि ू जाता था। योग के कारण वहाूँ का प्रभाव तमोगणु ी वृलियों
पर इतना पड़ता था लक वह वृलियाूँ ही दि जाती थी। सत्वगणु का अलिकार हो जाता था। इसलिए प्राणी
कुछ समय के लिए सत्वगणु ी िन जाता था। अि हमें एक घटना याद आ गयी लजससे भक्त के विय के
लवषय में और योगी के विय के लवषय में जानकारी लमिी। यह घटना शायद नवमिर-लदसमिर सन् 1995
की थी। हमारा झगड़ा भवु िोक की अत्यन्त शलक्तशािी तमोगणु ी शलक्तयों से हो गया। मैं झगड़ा नहीं
करना चाहता था, लिर भी दष्ु शलक्तयाूँ झगड़ा करने के लिए अड़ गयीं। एक रालत्र को मैं ध्यानावस्था में
िैठा था, उसी समय हम पर जिरदस्त हमिा हुआ। मैं ददत से कराह उठा। हमें िगा पसलियाूँ टूट गयीं। उस
समय रालत्र के तीन िजे थे। लिर मैं ध्यान करने के लिए िैठ गया, मेंरे ऊपर लिर प्रहार हुआ। उस समय िगा
लक हमारी जान ही लनकि जाएगी। मझु े भयंकर क्रोि आ गया। मैं िोिा– कौन दष्ु हम पर अकारण
प्रहार का रहा है। उसी समय प्रकृ लत देवी आ गयी। िोिी-योगी पत्रु , शांत हो जाओ, ये भवु िोक की
अत्यन्त शलक्तशािी शलक्तयाूँ हैं जो तमु पर प्रहार कर रही हैं। मैं उन्हें समझा दगूँू ी। लिर मैं शांत हो गया
ध्यान की गहराई में चिा गया। सिु ह मैं अपनी झोपड़ी में गया। झोपड़ी गांव के िाहर जंगि में िनी है लदन
में मैं झोपड़ी में रहता हूँ वहीं पर ध्यान करता ह।ूँ वहाूँ पर कुछ कायत कर रहा था। उसी समय कई तामलसक
शलक्तयाूँ एक साथ प्रहार करने की सोचने िगीं। यह िात हमें ज्ञान के िारा मािमू हुई। मैं उसी समय ध्यान
पर िैठ गया। ज्ञान के िारा सारा दृश्य देखा। पहिे मैं हल्का-सा भयभीत हुआ। जैसे ही हमारा अहक ं ार
जागा, मैं समझ गया लक मेरा योगिि कम पड़ सकता है। क्योंलक तमोगणु ी शलक्तयाूँ लगनती में कई थी।
इसलिए कुण्डलिनी िारा लदये वरदान का प्रयोग करने की सोची। उसी समय हमें याद आया वह वरदान
कल्याण हेतु लदया गया है; इसलिए लवचार त्याग लदया। उसी समय ‘ॐ’ मत्रं का प्रयोग लकया। यह मंत्र
हमें लसि है। एक ही प्रहार से तमोगणु ी शलक्तयों की हाित खराि होने िगी। तामलसक शलक्तयाूँ कािी देवी
और चण्डी देवी के िीज मंत्र का प्रयोग कर रही थी। मगर ‘ॐ’ मत्रं लसि होने के कारण असीलमत
शलक्त प्रकट कर रहा था। इतने में हमें आवाज सुनाई पड़ी- “ठहर जाओ, योगी” उसी समय मैंने आूँखें
िन्द की, मैंने देखा यह आवाज ग्यारहवें रुर भगवान कािालग्न की थी। क्रोि के कारण उनके आूँखों, कानों

सहज ध्यान योग 174


व मूँहु से अलग्न लनकि रही थी। मन में मैंने उन्हें प्रणाम लकया। वह िोिे – “योगी पत्रु , तुम शािंत हो जाओ,
मैं इन्हें दण्ड दूगूँ ा” इतने में भगवान कािालग्न ने मूँहु से आग िें की। वह आग गोिाकार चक्र की भाूँलत
घमू ती हुई भवु िोक में आ गयी और उन्हीं तामलसक दष्ु शलक्तयों की ओर िढ़ी। वह तामलसक शलक्तयाूँ
िीज मत्रं का जाप करती हुई भागीं। सामने चण्डी देवी प्रकट हो गयी। देवी िहुत ही क्रोि में थी।
उन्होंने अपना स्वरूप िढ़ाना शरू ु कर लदया। कुछ क्षणों में स्वरूप लवशाि आकार वािा हो गया लिर
उन्होंने अपना मूँहु खोिा। उनका मूँहु ऐसा िग रहा था मानों उनके मूँहु में सारा ब्रह्माण्ड समा जाएगा। वह
तामलसक शलक्तयाूँ देवी के अत्यतं लवशाि आकार वािे मूँहु के अन्दर समा गयी। लिर भगवान कािालग्न
के मूँहु से िे की गयी गोिाकार अलग्न अदृश्य हो गयी। माता चण्डी िोिीं–योगी पत्रु , तमु लनभतय हो जाओ,
भलवष्य में इस प्रकार की तामलसक शलक्त तुमहारी ओर नहीं देखेगी, जरुरत पड़ने पर तमु मझु े स्मरण कर
िेना।
पाठकों, यह घटना ध्यान का अनभु व नहीं है, िलल्क प्रत्यक्ष थी। मैंने भगवान कािालग्न से पछू ा–
“प्रभ,ु इन शलक्तयों ने हम पर अकारण ऐसा व्यवहार क्यों लकया?” भगवान कािालग्न िोिे – “पत्रु , योगी के
विय से पहचान हो जाती है लक वह लकतना शलक्तशािी है। तुमहारा विय योगिि के कारण िहुत लवस्तृत
हो गया है, इसलिए इन दष्ु ों को भ्रम था लक योगी में इतनी शलक्त नहीं हो सकती है। तुमहारी शलक्त की पहचान
की गयी थी। तमु हें प्राप्त वरदानों के कारण तमु हारा विय िहुत िड़ा गोिाकार लदखता है”। पाठकों, अक्सर
देखा गया है लक सािारण मनष्ु यों का विय 2-3 िीट की (अितव्यास) दरू ी तक घमू ा करता है। यलद मनष्ु य
आध्यालत्मक है, तो विय योग्यतानसु ार िढ़ता रहता है। योलगयों का विय कािी लवस्तार में होता है। इसकी
सही नाप मैं नहीं लिख सकता ह,ूँ क्योंलक योग्यतानसु ार कम ज्यादा होता है। हमारा विय उस घटना के समय
40 िीट का अितव्यास िनाता था। लजन योलगयों का ब्रह्मरंध्र खि ु ा है उनके विय का व्यास 6-10 िीट
तक हो जाता है। ऐसे योलगयों के विय का रंग चमकीिे नीिे रंग के कणों का होता है। गदं े क्रूर स्वभाव
वािे व्यलक्त का विय कािे रंग कें कणों से लमलश्रत ििंु िे प्रकाश का िना होता है। अच्छे स्वभाव वािा
पजु ारी, परोपकारी आलद का विय उजिे प्रकाश के रंग कें कणों का िना होता है। भक्त आलद के विय
सनु हरे रंग के कणों िारा िना होता है। विय का रंग योग्यतानसु ार थोड़ा िकत वािा हो सकता है। मेरा विय
इसलिए लवस्तृत था, क्योंलक मैं ध्यान भी िहुत करता था, सयं लमत भी िहुत रहता था, और सिसे िड़ी िात
है लक मैं प्राणायाम िहुत करता था। उदान वायु जो कण्ठ में रहती है, ऊध्वत करने का काम करती है, इसे

सहज ध्यान योग 175


जिरदस्ती नीचे की ओर िे आता ह।ूँ इस अवस्था में स्थि ू शरीर अत्यन्त कष् भोगता है, मगर मैं इस पर
ध्यान नहीं देता ह।ूँ उदान वायु को नीचे जाने पर मजिरू करता हूँ तथा लनचिे स्थानों पर रोकता ह।ूँ इससे
नाड़ी शोिन तो होता ही है, लसलियों का दरवाजा भी खटखटाता ह,ूँ अथातत् लसलियों के लिए प्राणों पर
सयं म होना िहुत जरूरी है।
लजस योगी का विय लजतने ज्यादा लवस्तार में होगा, उसका विय उतनी ही ज्यादा अशि ु ता अपनी
ओर खींचेगा। ज्यादा लवस्तृत होने के कारण उतना ही ज्यादा शलक्तशािी होगा। अलिक लवस्तार और
शलक्तशािी होने के कारण, विय के कण उतने ही अलिक मात्रा में वायमु ंडि व पृर्थवी की सतह पर लिखरते
रहते हैं। विय में एक प्रकार की चमु िकीय शलक्त सी होती है। लजससे दसू रों के विय के कण अपने में खींच
िेता है। दसू रों के विय कण ज्यादातर तमोगणु ी व रजोगणु ी होते हैं। इन कणों के कारण योगी के कमत पर
भी िकत पड़ता है तथा लचि पर कमातशय िनते हैं जो योगी के नहीं होते हैं। विय के कारण आ जाते हैं।
इसलिए योगी को सतकत रहना चालहए। कुछ ही समय पवू त आये कमातशय दिु ति होते हैं। इन कमातशयों को
योगिि के प्रभाव से िाहर िें क देना चलहए अथवा योगिि के िारा जिाकर नष् कर देना चालहए।
उच्चावस्था के योलगयों को यह लक्रया मािमू पड़ जाती है लक ऐसे कमातशयों से कै से छुटकारा पाया जाए।
जो सािक इस लक्रया को नहीं जानते हैं, वे अपने गरुु देव से पछ
ू िें।
मैं भी थोड़ा सा इस लक्रया के लवषय में लिख रहा हूँ– पहिे लदव्यदृलष् के िारा अपने कमों को
देखो लक आपका कमत लकतना है। लिर यलद कमों में िढ़ोतरी जान पड़े, तो संकल्प करके ध्यान में िैठ
जाइए। अपने योगिि से िाहर से आये हुए कमों को जिा दीलजए अथवा लसि मंत्र का प्रयोग कीलजए
लजस मंत्र से शलक्त लनकिती हो। आप देखेंगे िाहरी कमत जि गये है अथवा चिे गये है। आप इस प्रकार
भी संकल्प करके लनकाि सकते हैं– जो कमत िाहर से आये हैं, वह कमत वापस वहीं चिे जाए जहाूँ से
आये हैं। लिर ओकं ार कीलजए। आप तीन-चार िार ओकं ार कीलजए। वह कमत चिे जायेंगे। आप स्वयं
देखकर लनणतय कर िीलजए। यलद आप नहीं लनकािेंगे तो समालि अवस्था में अपने आप जिकर नष् हो
जायेंगे।
इस प्रकार की अशि ु ता व कमत योगी ही नहीं िलल्क हर मनष्ु य ग्रहण करता है। मगर योगी ज्यादा
ग्रहण करता है। हर मनष्ु य के विय के िारा कुछ न कुछ कमत एक दसू रे के अन्दर चिे जाते हैं। क्योंलक हर

सहज ध्यान योग 176


मनष्ु य को एक दसू रे के समपकत में आना पड़ता है। जैसे यात्रा के समय, लकसी लमत्र या ररश्तेदार के यहाूँ जाने
पर, अपने घर या पड़ोलसयों के यहाूँ, कायातिय में, िाजार आलद में एक दसू रे के विय आपस में एक दसू रे
के अदं र समा जाते हैं। सािारण मनष्ु यों के कमत अकारण ही एक-दसू रे के शरीर में िने रहते हैं।
आपने देखा होगा, लकसी भी सत्वगणु ी परुु ष के पास जि तमोगणु ी स्वभाव वािा परुु ष जाता है तो
सत्वगणु ी परुु ष लिना िाहरी जानकारी के ही िता देता है लक यह परुु ष अच्छे स्वभाव वािा परुु ष नहीं है,
इसका कारण विय है। एक दसू रे के विय समपकत में आने पर सत्वगणु ी परुु ष की लचि वृलियाूँ तरु ं त सलू चत
कर देती हैं लक अमक ु व्यलक्त कै सा है। सत्वगणु ी परुु ष शि
ु होता है। तमोगणु ी परुु ष में अशि
ु ता की भरमार
होती है। शि ु ता में अशि ु ता के लमश्रण से तरु ं त मािमू पड़ जाता है। लजस मनष्ु य का विय लजतना शि ु व
शलक्तशािी होगा वह उतना अलिक दसू रों पर प्रभाव डाि सकता है। क्योंलक सूक्ष्म शलक्त सक्ष्ू म शरीर पर
प्रभाव डािती है। इसीलिए आपने देखा होगा, संत-महात्माओ,ं योलगयों और आध्यालत्मक शलक्त समपन्न
परुु षों में एक लवशेष प्रकार का आकषतण होता है। कुछ दष्ु स्वभाव वािे परुु ष संत-महात्माओ ं की िुराई
करते है, अभरता देते हैं। इसका कारण है ऐसे मनष्ु यों की लचि वृलियाूँ तमोगणु ी होती हैं। सत्वगणु व तमोगणु
आपस में लवरोिी हैं।
लकसी योगी के पास यलद रोगी व्यलक्त चुपचाप िैठा रहे, यह लक्रया कुछ लदन तक करे तो आप देखेंगे
उसके रोग में अपने आप सिु ार होना शरू ु हो जाएगा। यलद आप िाइिि पढ़ें तो भगवान यीशु के लवषय में
पढ़ेंगे लक रोगी व्यलक्त का उनके पास या उनका वस्त्र छू िेने मात्र से रोग दरू जो जाता था। सािकों, आपने
देखा होगा लक जि आप अपने गरुु देव के सामने ध्यान करते हैं, तो आपका ध्यान अच्छा िगता होगा।
इसका कारण आपके गरुु देव का विय है। गरुु देव के विय के प्रभाव से आपका ध्यान गहरा िगता है।
आपका विय अगर अलिक लवस्तार में व शलक्तशािी है, तो सािारण श्रेणी की तमोगणु ी शलक्तयाूँ आपकी
ओर देखेंगी भी नहीं, लसित विय देखकर भाग जाएगी।
लप्रय सािकों, यलद आपको अपना विय शलक्तशािी िनाना है तो आप मत्रं जाप का प्रयोग कीलजए।
मत्रं तो कई हैं, मगर मैं ‘ॐ’ मत्रं का उल्िेख करता ह।ूँ आप स्थिू व सक्ष्ू म रुप से सयं म िरलतए और एक
लनलश्चत शि ु जगह पर जाप कीलजए। मत्रं जाप की ध्वलन लनकिनी चालहए तथा मत्रं िोिने का तरीका सही
होना चालहए। ध्यान रहे ‘ॐ’ मत्रं को दीघत स्वर में िोिना चालहए। शरुु आत में ज्यादा िकत नजर नहीं आयेगा।

सहज ध्यान योग 177


मगर कुछ समय िाद आपका विय तेज प्रकाश वािा तथा लवस्तृत आकार में होने िगेगा। मत्रं के िारा
शलक्त अलिक प्राप्त की जा सकती है। ध्यानावस्था में मत्रं की अपेक्षा योगिि कम प्राप्त होता है, ऐसा मेरा
स्वयं का अनभु व है। मगर ध्यान अपनी जगह अिग महत्त्व रखता है। इस जगह पर मत्रं के िारा अन्य िक्ष्य
प्राप्त करना है; दोनों के िक्ष्यों में िकत है।

सहज ध्यान योग 178


ज्ञानचक्र
ज्ञानचक्र प्रत्येक मनष्ु य के अंदर होता है। इसका स्थान आज्ञा चक्र के पीछे अंदर की ओर होता है।
वैसे लदव्यदृलष् (तीसरी आूँख) भी यहीं पर होती है। लदव्यदृलष् आज्ञा चक्र में अंदर की ओर थोड़ा सा ऊपर
होती है। ज्ञानचक्र लदव्यदृलष् से थोड़ा अंदर की ओर है। देखने पर यह गोिाकार पलहये जैसा लदखता हैं। इसमें
कई आरे िगे होते हैं। मगर मैं आरों की संख्या नहीं िता सकता ह।ूँ इसके मध्य में एक आर-पार छे द होता
है। जैसे रथ के पलहये में आरे िगे होते हैं तथा मध्य में एक छे द (लछर) होता है लजसमें िरु ी िंसी होती है,
इसी प्रकार ज्ञानचक्र में होता है। लदव्यदृलष् वािा योगी ज्ञानचक्र देख सकता है अथवा सािक भी अपनी
सािना काि में ज्ञानचक्र देख सकता है।
योगी लकसी का भी ज्ञानचक्र देखकर आध्यालत्मक योग्यता की जानकारी कर सकता है। मझु े
ज्ञानचक्र के लवषय में एक घटना याद आ गयी है – मैं लत्रकाि को योग की िारीलकयाूँ समझा रहा था, उसी
समय ज्ञानचक्र की िात आ गयी। मैं ज्ञानचक्र के लवषय में जानता तो था, मगर इसके लवषय में ज्यादा
जानकारी हालसि करने के लिए ध्यान नहीं लदया था। लत्रकाि ने प्रश्न लकया, “ज्ञानचक्र के लवषय क्या आप
परू ी तरह से हमें िताएूँगे”। उस समय मैंने लत्रकाि को ज्ञानचक्र के लवषय में थोड़ा समझा लदया, क्योंलक मझु े
ज्ञानचक्र का अनुभव हुआ था। मैं िोिा – “तमु ज्ञानचक्र के लवषय में स्वामी लशवानन्द जी से पछ ू िो”। ये
स्वामी लशवानन्द जी ऋलषके श के थे। आज भी उनका आश्रम ऋलषके श में स्वामी लशवानन्द जी आश्रम के
नाम पर है। इन्होंने सन् 1963 में महासमालि िे िी थी। अि तपिोक में रहते हैं। उस समय हमारा और
स्वामी जी का समपकत िरािर िना रहता था। मैंने जैसे ही लत्रकाि से कहा लक स्वामी लशवानन्द जी से
ज्ञानचक्र के लवषय में पूछ िो, उसी समय लत्रकाि की आूँखें िन्द हो गयी। स्वामी लशवानन्द जी िोिे–
“अपने गरुु से कहो लक ज्ञानचक्र के लवषय में स्वयं जानकारी हालसि करके तमु हें िताए, तथा मझु े भी ितायें
क्या जानकारी लमिी है”। लत्रकाि ने सारी िात जि िताई तो पहिे मझु े हूँसी आयी लक स्वामी जी हमसे
मजाक कर रहे हैं, ‘ज्ञानचक्र के लवषय में िताओ’। लकतना प्यार है इन शब्दों में! मगर स्वामी जी की आज्ञा
समझकर मैं ध्यानस्थ हो गया। मैंने अपने ज्ञान से कहा– देख मेंरी परीक्षा का समय है, कहीं िे ि न हो जाऊूँ।
ज्ञानचक्र के लवषय में कुछ क्षणों में जानकारी हो गयी। वह जानकारी मैंने स्वामी लशवानन्द जी को िताई।
वह िोिे – “लत्रकाि, तमु हारे गरुु की जानकारी सही है”।

सहज ध्यान योग 179


सािारण परुु ष लजसे अध्यात्म में रुलच नहीं है और िलु ि का लवकास भी अलिक नहीं हुआ है, ऐसे
परुु षों का ज्ञानचक्र लस्थर रहता है। तमोगणु ी, नशा का सेवन करने वािे, लहसं क स्वभाव वािों का भी
ज्ञानचक्र लस्थर रहता है। जो परुु ष अध्यात्म के मागत पर चिते हैं, सत्कमत करने वािे हैं, उनका ज्ञानचक्र
उनकी योग्यतानसु ार अपनी जगह पर गोिाकार घमू ता रहता है। सािना करने वािों का ज्ञानचक्र योग्यता
के अनसु ार िीमी व तीव्र गलत से घमू ता रहता है। योलगयों का ज्ञानचक्र अलत तीव्र गलत से अपनी जगह पर
घमू ता रहता है। अत्यलिक लवकलसत िलु ि वािे परुु ष जैसे डाक्टर, इजं ीलनयर, वैज्ञालनक िड़े-िड़े राजनेता
और मलस्तष्क से अलिक कायत िेने वािों के भी ज्ञानचक्र योग्यतानसु ार िीमी गलत से घमू ता रहता है। मगर
आध्यात्म मागत पर चिने वािों का ज्ञानचक्र अलत तीव्र गलत से घमू ता रहता है।
अि मैं एक प्रयोग लिखता ह–ूँ हमारे एक लमत्र की 14-15 वषीया िेटी है। उन्होंने हमेशा कहा लक
मैं योग के लवषय में थोड़ा उसे भी िता द।ूँू मैंने अपने सामने उस िड़की को ध्यान पर लिठाया। पहिे मैंने
उसका ज्ञानचक्र देखा ज्ञानचक्र लिल्कुि लस्थर था। वह िड़की हम से िगभग दो मीटर की दरू ी पर िैठी हुई
थी। मैंने अपनी आूँखों से उसके ज्ञानचक्र पर शलक्तपात लकया। जैसे ही हमारी आूँखों से नीिे रंग की लकरणें
लनकिीं, उसके ज्ञानचक्र में समा गयीं। ज्ञानचक्र में कंपन हुआ, झटका देकर िीमी गलत से चि पड़ा। अि
िड़की ध्यान की गहराई में डूि गयी। कुछ क्षणों िाद मैंने अपनी आूँखों से शलक्तपात लकया। मैंने ज्ञानचक्र
की गलत िढ़ा दी। िड़की ध्यान की गहराई में चिी गई। हमारे िारा शलक्तपात से उसके शरीर में कंपन हुआ,
िड़की की भलस्त्रका चिने िगी। मैं मस्ु कुराया क्योंलक मैं यही चाहता था। मैं 15-20 लमनट तक उसके
ज्ञानचक्र की गलत िढ़ाता रहा, अि गलत कािी तीव्र हो चक ु ी थी। कुण्डलिनी में प्राणवायु के िक्के िगने
से, कुण्डलिनी ने आूँखें खोि दी थीं। कुछ क्षणों के िाद पूँछू भी अपने मूँहु से उगि दी, कुण्डलिनी ऊध्वत
होने का प्रयास करने िगी। इतने में हमें अतं ररक्ष से आवाज सनु ाई दी—“इस िड़की पर अि ज्यादा
शलक्तपात मत करना। इसके सक्ष्ू म शरीर को परे शानी हो रही है”। मैं रुक गया और िड़की से ध्यान तोड़ने
को कहा। मगर वह अत्यन्त गहराई में थी। लिर उसके लपताश्री ने उसका स्थि ू शरीर लहिाकर ध्यान से
उठाया। वह कुछ समय िाद सामान्य हो पायी। मैंने और भी कुछ सािकों पर इसी प्रकार का शलक्तपात
लकया। ऐसा मैं इसलिए करता था, तालक प्रयोग करके जानकारी हालसि हो।

सहज ध्यान योग 180


हमने ज्ञानचक्र के लवषय में कािी जानकारी हालसि की थी। मगर सहज ध्यान योग में योगी उसका
उपयोग ज्यादा नहीं करता। ज्ञानचक्र देखने में िहुत सन्ु दर लदखता है। हमें कुछ ऐसी जानकाररयाूँ लमिी लक
इसका प्रयोग परकाया प्रवेश लसलि वािे और लक्रया योगी परुु ष आलद करते हैं। कुछ योगी अपना सक्ष्ू म
शरीर स्थि ू शरीर से लनकाि कर, अतं ररक्ष में सक्ष्ू म शरीर िारा लवचरण करते हैं, लिर उनका सक्ष्ू म शरीर
स्थिू शरीर के अन्दर आ जाता है। स्थि ू शरीर से लनकिते समय ज्ञानचक्र के मध्य में जो लछर होता है
अपने सक्ष्ू म शरीर को इसी लछर में प्रवेश करा देते हैं, और लछर के उस पार लनकि जाते हैं। उस पार लनकिने
पर योगी स्थि ू शरीर से अिग हो जाता है। लिर योगी अपनी इच्छानसु ार लवचरण करके वापस आ जाता
है। ऐसी अवस्था में स्थि ू शरीर नष् न लकया जाए तो स्वयं नष् नहीं होता है। योगी कािी अतं राि के िाद
अपने स्थि ू शरीर में वापस आ सकता है। सक्ष्ू म शरीर िाहर लनकािने की लक्रया शवासन मरु ा में की जाती
है। सक्ष्ू म शरीर िाहर लनकािने के िाद, स्थि ू शरीर से एक सक्ष्ू म समिन्ि िना रहता है। इसी कारण स्थि ू
शरीर स्वयमेव नष् नहीं होता है। जि सक्ष्ू म शरीर स्थि ू शरीर में वापस आता है, ति उसी लछर से (ज्ञानचक्र
के ) वापस आता है। लजस प्रकार िाहर गया था, उसी प्रकार उिटी लक्रया करके वापस आता है। यह लक्रया
ज्ञान के िारा िताये जाने के अनसु ार लिखी है। स्वयं परू ी तरह से लसि नहीं है। हाूँ, हमने कुछ वषों पवू त
प्रयास अवश्य लकया था, इसे संक्षेप में लिख रहा ह।ूँ
कुछ वषों पवू त हमने लनश्चय लकया मैं भी परकायाप्रवेश लसलि प्राप्त करूूँगा। इस लसिी का मागतदशतक
हमें उपिब्ि नहीं था। मैं स्वयं अपने ज्ञान के सहारे आगे िढ़ रहा था, उसी समय हमें यह लक्रया हुई थी। यह
लक्रया आप हमारे अनभु वों में भी पढ़ सकते हैं। मैं ध्यानावस्था में था, उसी समय हमें ज्ञानचक्र लदखाई लदया
क्योंलक मैं ज्ञानचक्र का िार-िार सक ं ल्प कर रहा था। ज्ञानचक्र हमारे सामने अलत तीव्र गलत से घमू ता हुआ
आ गया। मैं तटस्थ होकर ज्ञानचक्र देखने िगा। ज्ञानचक्र का आकार िड़ा होता गया। वह हमारे नजदीक
आ गया। इच्छा करते ही मैं लछर के नजदीक पहुचूँ गया। ज्ञानचक्र अलत तीव्र गलत से घमू रहा था। मैं अपनी
दृलष् लसित लछर पर के लन्रत लकये था। मैं उड़ता सा लछर के अदं र चिा गया। मैं लछर में कुछ क्षणों तक अदं र
चिता रहा, लिर िगा मैं अत्यन्त लवशाि अतं ररक्ष में आ गया मैं आगे की ओर उड़ सा रहा था। उसी समय
हमारा मागत आगे की ओर अवरुि हो गया। हमारे सामने चतभु तजु ी रूप में भगवान लवष्णु खड़े थे। वह मस्ु करा
रहे थे। मैं िोिा– ‘प्रभु आप’, भगवान लवष्णु िोिे– “योगी, यह मागत तमु हारा नहीं है। तमु हें महान िनना है,
लसित अपने मागत पर आगे िढ़ो”। भगवान अदृश्य हो गये। मैं वापस आने िगा, वापस आते समय उसी

सहज ध्यान योग 181


ज्ञानचक्र के मध्य वािे लछर में प्रवेश हो गया, अपने आप लछर से वापस आने िगा। कुछ क्षणों में मैंने
अपने आपको ज्ञानचक्र से अिग पाया। ज्ञानचक्र हमसे दरू हटता चिा गया। अंतररक्ष में अदृश्य हो गया।
तभी से परकाया प्रवेश के लवषय में सोचना िन्द कर लदया।
जि गरुु अथवा मागतदशतक भ्रमू ध्य पर शलक्तपात करता है, तो ज्ञानचक्र पर भी शलक्तपात का प्रभाव
पड़ता है। ज्ञानचक्र पर प्रभाव पड़ने से सारे शरीर पर प्रभाव पड़ता है। सममोहन किात अपना प्रभाव डािने
के लिए ज्ञानचक्र अथवा मलस्तष्क पर दृलष् कें लरत करता है, इससे स्थि
ू शरीर पर भी प्रभाव पड़ता है।
हो सकता है कुछ सािकों को अपना ज्ञानचक्र लदखाई ही न लदया हो। यलद आपकी सािना
उच्चावस्था में है, तो प्रयास कीलजए, आपको ज्ञानचक्र अवश्य लदखाई देगा। यलद लिर भी आप असिि
रहें, तो आप लदव्यदृलष् का प्रयोग कीलजए। ति आप देखेंगे यह ज्ञानचक्र िहुत सुन्दर लदखाई देता है। उस
समय ज्ञानचक्र अपने स्थान पर तीव्र गलत करता हुआ लदखाई देगा। वैसे कुण्डलिनी लस्थर होने से पहिे आप
इसके लवषय में ज्यादा जानकारी हालसि कर सकते हैं। इसके िाद लदव्यदृलष् से इस प्रकार के दृश्य कम
लदखाई पड़ते हैं, क्योंलक सािक की अवस्था उस समय कारण शरीर में होता है। उसका समिन्ि ज्यादातर
कारण जगत से रहता है इसलिए िेहतर है लक कण्ठ चक्र खि ु ने के िाद और ब्रह्मरंध्र खि
ु ने से पहिे इसके
लवषय में जानने का प्रयास करें ।

सहज ध्यान योग 182


वदव्यदृवष्ट
लदव्यदृलष् को तीसरी आूँख भी कहते हैं। यह तीसरी आूँख प्रत्येक मनष्ु य के अंदर होती है। इस तीसरे
नेत्र का स्थान आज्ञा चक्र से थोड़ा ऊपर की ओर होता है। सािारण मनष्ु य में यह आूँख सदैव िन्द रहती है।
इसे लसित योगी और भक्त या आध्यात्म मागत पर चिने वािा अभ्यासी ही खोि सकता है। सािक जि
सािना के िारा इस नेत्र को खोि िेता है, तो सक्ष्ू म पदाथत व सक्ष्ू म जगत से समिलन्ित दृश्य अपनी
योग्यतानसु ार देख िेने में सामर्थयतवान होता है। जैसे-जैसे समालि में उसकी योग्यता िढ़ती है, उसी प्रकार
लदव्यदृलष् की शलक्त भी िढ़ती है। समालि की चरम अवस्था पर (सलवकल्प समालि की) एक समय सािक
को िगता है लक वह सारे ब्रह्माण्ड से समपकत अपनी इच्छानसु ार कर सकता है। यह अवस्था सािक के लिए
अत्यन्त खुशी के समय का होता है। वह लकसी का भी भतू काि व भलवष्यकाि देख िेने में सामर्थयतवान
होता है। लदव्यदृलष् से लकसी की भी गप्तु से गप्तु जानकारी हालसि कर िेने की शलक्त उसके अदं र लनलहत होती
है। इस अवस्था में सािक को समाज के िारा कािी सममान लमिने िगता है। मगर लदव्यदृलष् वािे योगी
को चालहए वह सदा लदव्यदृलष् से आध्यालत्मक कायत िे, स्थि ू कायत लदव्यदृलष् से नहीं िेने चालहए। लदव्यदृलष्
का प्रयोग करते समय योगी का कुछ न कुछ योगिि नष् होता रहता है। आपके योगिि के आिार पर व
सािना की योग्यता पर ही लदव्यदृलष् कायत करती है। लदव्यदृलष् का प्रयोग ऐसी जानकारी में नहीं िगाना
चालहए, जो जानकारी लकसी की व्यलक्तगत या आपलिजनक हो। क्योंलक हर व्यलक्त अपना जीवन अपने ढगं
से व्यतीत करता है। लकसी की जानकारी िेकर अन्य को नहीं िताना चालहए।
जि सािक का कण्ठ चक्र खि ु जाता है ति लदव्यदृलष् खि ु ती है। उस समय प्राणवायु आज्ञा चक्र
में होता है। ति सािक की लदव्यदृलष् खि ु ने िगती है। कभी-कभी सािक की लदव्यदृलष् ति खि ु ती है जि
कुण्डलिनी आज्ञा चक्र में पहुचूँ ती है। आज्ञा चक्र परू ी तरह खि ु ने से पहिे ही लदव्यदृलष् कायत करना शुरू
कर देती है। वैसे लदव्यदृलष् (तीसरा नेत्र) शरीर के अंदर खड़े आकार में होती है, मगर कभी-कभी सािक को
आड़ी भी लदखाई पड़ती है। यह आूँख स्थि ू आूँखों से थोड़ी िड़ी व चमकदार लदखाई देती है। यह आूँख
देखने में िहुत सन्ु दर िगती है। जि सािक को यह आूँख लदखाई देती है तो ऐसा िगता है लक एक आूँख
खि ु ी हुई है, वह सािक को देख रही है। कभी-कभी लकसी सािक को लदखाई पड़ता है लक एक आूँख िीरे -
िीरे खि ु रही है, उसके अंदर प्रकाश ही प्रकाश भरा है। उससे प्रकाश िाहर आ रहा है। यह प्रकाश तीव्र
और चमकीिा होता है। इस के खि ु ने पर लदव्यदृलष् प्राप्त होती है। लदव्यदृलष् के साथ-साथ दरू दृलष् भी प्राप्त

सहज ध्यान योग 183


होती है। लदव्यदृलष् से सक्ष्ू म से सक्ष्ू मतम देखा जा सकता है। ब्रह्म का सगणु स्वरूप अथातत ईश्वर को इसी दृलष्
से देख पाना समभव है। सािक ध्यानावस्था में लजस िोक का भ्रमण करता है, वहाूँ का दृश्य अच्छी तरह
देख सकने या समझ सकने में सामर्थयतवान होता है। सािक अपने कायों के लिए भी लदव्यदृलष् व दरू दृलष् का
उपयक्तु िाभ उठा सकता है। लदव्यदृलष् से सािक अपनी योग्यतानसु ार लपछिे कई जन्म भी देख सकता है।
दसू रों के जन्म भी देख सकता है। इसी लदव्यदृलष् के सहारे मैंने अपने लपछिे ढेरों जन्म देखे हैं। उन जन्मों के
लवषय में आप हमारे अनभु वों में पढ़ सकते हैं। लदव्यदृलष् के िारा आप िड़े-िड़े योलगयों से समपकत भी
स्थालपत कर सकते हैं और उन योलगयों से मागतदशतन िे सकते है। लदव्यदृलष् के िारा मैंने अपने लपछिे दो
जन्मों के गरुु ओ ं को ढूढं लिया। वह अि भी तपिोक में समालि िगाए हुए हैं।
अि तकत यह भी लकया जा सकता है दसू रों के लवषय में जानकारी कै से लमि जाती है? इसका उिर
यह है लक मनष्ु य जो भी कमत करता है, उन कमों के कमातशय संस्कार रूप में लचि में एकत्र होते रहते हैं। यह
संस्कार उसके लचि में कई जन्मों के हो सकते हैं। लदव्यदृलष् से अंतुःकरण के संस्कारों को देखा जा सकता
था। उन्हीं संस्कारों के माध्यम से लपछिे जन्मों के दृश्य देखे जाते हैं। लजस सािक की लदव्यदृलष् लजतनी
शलक्तशािी हो, उतना ही अलिक देख िेने में सामर्थयतवान होती है। लजन सािकों की सािना अत्यन्त उग्र
होती है तथा शरीर भी अलिक शि ु होता है, उनकी लदव्यदृलष् अत्यन्त शलक्तशािी होती है। लजनकी सािना
िीमी गलत की होती है, उनकी लदव्यदृलष् कम शलक्तशािी होती है। अथवा ऐसे सािक अपनी इच्छानसु ार
लदव्यदृलष् से ज्यादा कायत नहीं िे सकते हैं।
सािक की लदव्यदृलष् उस समय अत्यलिक शलक्तशािी होती है, जि कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र खोिकर
उिट पड़ती है, लिर ब्रह्मरंध्र िार से आज्ञा चक्र की ओर चि देती है। जि कुण्डलिनी आज्ञा चक्र पर वापस
होकर आती है, उस समय लदव्यदृलष् अपनी चरम सीमा पर होती है। लिर कुण्डलिनी लस्थर होने तक इसी
अवस्था में िनी रहती है। कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद लदव्यदृलष् पहिे जैसा कायत नहीं करती है। वैसे मंत्र
जाप भी लदव्यदृलष् खोिने में सहायक होता है। यलद आप मंत्र जाप अलिक करें गे, तो लदव्यदृलष् अपने लनलश्चत
समय से थोड़ा जल्दी खि ु सकती है।
योगी की कुण्डलिनी जि लस्थर होकर वायरू ु प में लविीन हो जाती है, तो लदव्यदृलष् का कायत भी
कम रह जाता है। लिर लदव्यदृलष् से इच्छानसु ार कायत िेना असमभव सा हो जाता है। अि आप यह शब्द

सहज ध्यान योग 184


सनु कर चक्कर में पड़ गये होंगे लक ऐसा कै से हो सकता है। मगर हमारी िात सत्य है। हमने यह भी अनभु व
लकया लक योगी यह नहीं िताता है लक अि उसकी लदव्यदृलष् कायत नहीं कर रही है। इसका अथत यह नहीं लक
योगी जि उच्चतम अवस्था में पहुचूँ ता है, तो सक्ष्ू म पदाथत उसे लदखाई नहीं देते हैं। उच्चतम अवस्था वािों
को ज्ञान के िारा सिकुछ लदखाई देता रहता है। जो ज्ञान के िारा दृश्य देखे जाते हैं, वह लदव्यदृलष् की अपेक्षा
थोड़ा कम स्पष् लदखाई पड़ता है। यह अपनी योग्यता के अनसु ार लदखाई पड़ता है। उस समय सािक कारण
जगत से सिं लं ित रहता है। वहाूँ पर दृश्य ज्यादा नहीं हैं। इस अवस्था में अनभु व भी िहुत कम आते हैं। वह
भी ज्यादातर योग लनरा में आते हैं।
कुछ योगी हमने ऐसे देखे हैं लजनकी लदव्यदृलष् भी काम करना िन्द कर गयी और ज्ञान के िारा भी
नहीं देख पाते हैं। इसका कारण है ऐसे योगी योग का अभ्यास करना िन्द कर देते हैं। स्थि ू कायों में अथवा
आश्रम की व्यवस्था आलद में सारा समय देते हैं। ऐसे योगी मागतदशतन के समय अपने अनुभव और अनमु ान
से लशष्यों का मागतदशतन करते हैं। मैं अपने अनभु वों के आिार पर लिखता हूँ - वततमान यगु में योगी चाहे
लजतना योग कर िे, वह कभी पणू त रूप से लत्रकािदशी नहीं हो सकता है। यह सही है लक योगी परुु ष
लत्रकािदशी होता है। मगर सारी घटनाएूँ भलवष्य की देख पाने में सामर्थयतवान नहीं होता है। इसका कारण है,
प्रकृ लत देवी अपने रहस्य को परू ी तरह से लकसी भी योगी को नहीं िताती है। वततमान योगी क्या आलदकाि
के योलगयों के जीवन चररत्र पर ध्यान दे पायेंगे? वह भी लवलि का लविान परू ी तरह से नहीं जानते थे। जि
कोई योगी जानकारी हालसि करना चाहते हैं तो वह स्वयं अपने अतं ुःकरण से पछ ू िेता है तो जवाि लमि
जाता है। क्योंलक योगी के लचि में सत्वगणु प्रिान वृलियाूँ होती है। सत्वगणु ी वृलियों से सही-सही जवाि
लमि जाता है। सत्वगणु वृलियों के िारा लचत्र िन जाता है। ये सत्वगणु ी वृलियाूँ अत्यन्त शलक्तशािी होती
हैं। सकं ल्प के अनसु ार वृलियाूँ स्वरूप िारण कर िेती हैं। यह लक्रया तभी सभं व है जि लचि में रजोगणु ी-
तमोगणु ी वृलियाूँ न के िरािर रह जायें। सािकों की लदव्यदृलष् सािना काि में स्वयं खि ु जाती है। यलद गरुु
या मागतदशतक चाहे तो पररपक्व अवस्था के पवू त भी खोिी जा सकती है। मगर इस प्रकार खोिी गयी
लदव्यदृलष् उतनी शलक्तशािी नहीं होती है, लजतनी पररपक्व अवस्था में स्वयं खि ु ने वािी होती है।
मैंने अपने अनभु वों से ज्ञात लकया है लक योगी की लदव्यदृलष् स्वयं कायत करना िन्द नहीं करती है।
इसमें प्रकृ लत देवी की कृ पा होती है। लजन योलगयों की लदव्यदृलष् काम करना िन्द कर गयी है, यलद ध्यानावस्था

सहज ध्यान योग 185


में ऐसे योगी की लदव्यदृलष् देखी जाए तो लदव्यदृलष् खि ु ी रहती है, मगर देखने का कायत नहीं करती है। वततमान
यगु में ऐसा ही होता है, क्या लकया जाए। हमारी िात योगी परुु ष अच्छी तरह समझ सकता है। दसू रा कारण
यह है लदव्यदृलष् सक्ष्ू म शरीर की खि ु ी होती है। योगी के आगे की अवस्था कारण शरीर की है। सक्ष्ू म शरीर
व सक्ष्ू म जगत के घनत्व से कारण शरीर व कारण जगत का घनत्व कम होता है। घनत्व कम होने से सक्ष्ू म
जगत से कारण जगत सक्ष्ू मतर है। इसी कारण सक्ष्ू म शरीर, कारण शरीर व कारण जगत की गलतलवलियाूँ व
दृश्य नहीं िे सकता है। उच्चतम अवस्था वािा योगी आूँख िन्द करते ही ध्यानावस्था में कारण शरीर में
प्रवेश कर जाता है, सक्ष्ू म शरीर में ठहरता ही नहीं है। आजकि के योलगयों की कारण शरीर की लदव्यदृलष्
नहीं खुिती है। यलद कारण शरीर से लदव्यदृलष् खि ु ी हो तो इस ब्रह्माण्ड के सक्ष्ू म से सक्ष्ू मतम कण देख िेने
में सामर्थयतवान हो जाते है।
आप सोच रहे होंगे लक यह कै से हो सकता है लक कारण शरीर में लदव्यदृलष् होती है। हर घनत्व के
पदाथत देखने के लिए यंत्र भी अिग-अिग होते हैं। उन यंत्रों की अपनी-अपनी एक लनलश्चत क्षमता होती है।
इसीलिए स्थि ू जगत देखने के लिए स्थि ू नेत्र खि
ु े होने जरूरी हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की लदव्यदृलष्
खिु ने पर सक्ष्ू म जगत तक देखने की शलक्त आ जाती है। सक्ष्ू म जगत ब्रह्मिोक तक है। इसके ऊपर कारण
जगत है। वहाूँ का रंग हल्का नीिा व चमकीिा है। इसीलिए अक्सर लदव्यदृलष् से सिे द उज्जवि प्रकाश
तथा सनु हरा प्रकाश लदखाई देता है। सािना काि में नीिे रंग के प्रकाश में कुछ दृश्य आते हैं। उस समय
कारण जगत को ज्ञान के िारा अथवा लदव्यदृलष् के िारा देखा जाता हैं।
सक्ष्ू म शरीर अपने लनलश्चत घनत्व तक गलत कर सकता है, लिर आगे नहीं जा पायेगा। उसके आगे
कारण शरीर से गलत करनी होगी। मैंने स्वयं देखा है लक हमारा सक्ष्ू म शरीर एक जगह पर (अंतररक्ष में) ठहर
गया। लिर मैं सक्ष्ू म शरीर से लनकिा और ऊपर अनंत में चिा गया। जि मैं वापस आया तो अंतररक्ष में
हमारा सक्ष्ू म शरीर खड़ा था। मैं सक्ष्ू म शरीर में प्रवेश कर गया। मैं वापस सक्ष्ू म शरीर से आया तो हमारा
स्थि
ू शरीर ध्यानावस्था में िैठा हुआ था। मैं अपने स्थि ू शरीर में प्रवेश कर गया। इस अनुभव को आप
हमारे अनुभवों में पढ़ सकते हैं। यह अनुभव शायद जि ु ाई, 89 में आया था। हमारे अनभु वों में आप ऐसे ही
अनभु व पढ़ेंगे। एक अनभु व में हमारा सक्ष्ू म शरीर लहरण्यपरुु ष लिए जा रहा है। मैं लहरण्यपरुु ष से कािी ऊपर
अंतररक्ष में लस्थर हूँ और अपने शरीर को देखकर हूँस रहा ह।ूँ यह अनुभव शायद माचत-अप्रैि, 98 का है।

सहज ध्यान योग 186


सािकों, स्वगतिोक के देवताओ ं के शरीर सक्ष्ू म शरीर के अतं गतत आते हैं। जि उन्हें भी कोई िात
जाननी होती है, तो वह अपनी आूँख िन्द करते हैं, ति वह जान पाते हैं। सक्ष्ू म शरीर में लजतने योगी व
तपस्वी हैं, उनकी लदव्यदृलष् कारण शरीर से खि ु ी होती है। वह ब्रह्माण्ड की कोई भी घटना देख िेने में
सामर्थयतवान होते हैं, क्योंलक सारे ब्रह्माण्ड का लनमातण कारण जगत के अतं गतत आता है। कारण शरीर की
लदव्यदृलष् सक्ष्ू मतम पदाथत को देख िेने में सामर्थयतवान है, क्योंलक कारण जगत की संरचना का स्वयं सक्ष्ू मतम
कणों से लनमातण हुआ है।
लत्रकाि की लदव्यदृलष् (इसे मैंने योग लसखाया था) कारण शरीर से खि ु ी थी, क्योंलक वह लवशेष
प्रकार का व्यलक्त था। वह स्थिू आूँखों से तपिोक तक देख िेता था। तपिोक का दृश्य देखने के लिए उसे
आूँख िन्द नहीं करनी पड़ती थीं। लसित क्षणभर के लिए लस्थर हो जाता था, तथा सक्ष्ू म िोकों की आवाज
सािारण अवस्था में (जाग्रत अवस्था में) सनु िेता था। स्थि ू शरीर के अंदर हिचि, प्राणों की गलत व
कुण्डलिनी का चढ़ना, पानी के अंदर के कीटाण,ु दही के जीवाणु आलद खि ु ी स्थिू आूँखों से देखता सकता
था। पृर्थवी के अंदर छुपी वस्तु लत्रकाि की लदव्यदृलष् से नहीं िच सकती थी। एक िार पानी पीते समय उसने
लगिास िें क लदया। वह िोिा – “मैं पानी नहीं कीड़े पी रहा ह”ूँ । जि मैं उसे लमरज (महाराष्र) माता जी की
पास िे गया था, तो वहाूँ के सािक आश्चयत चलकत थे। मैंने भी सीिे ईश्वर से प्राथतना की थी लक आप मझु े
लत्रकाि की भाूँलत लदव्यदृलष् दीलजए, मगर ईश्वर ने मना कर लदया। वह िोिे-“लत्रकाि लवशेष व्यलक्त है,
इसलिए उसे लदव्यदृलष् कारण शरीर से प्राप्त है। कुछ समय िाद मझु े और लत्रकाि को कुण्डलिनी देवी का
श्राप लमिा। लत्रकाि का योग िन्द हो गया। मेंरी भी खिू दगु तलत हुई। मैंने डेढ़-दो साि में श्राप भोग लिया।
इसी समय लकसी कारण से मैंने भी लत्रकाि को श्राप दे लदया। अि वह अत्यन्त दष्ु स्वभाव का हो गया है,
और पाप यक्त ु कायत करता है। उस समय लत्रकाि की उम्र मात्र ग्यारह वषत थी। वह पवू तकाि में असीलमत
योगिि व शलक्तशािी होने के कारण अहक ं ारी हो गया था। इसलिए इसकी यह दगु तलत हुई। लत्रकाि से मैंने
िहुत सी जानकाररयाूँ भी प्राप्त लकया था।
सािकों, लदव्यदृलष् अलिक शलक्तपात करके सािना की शरुु आत में खोिी जा सकती है। मगर इस
कायत के लिए योगी अत्यन्त शलक्तशािी होना चालहए। मैंने तीन सािकों पर प्रयोग लकया। शरू ु में लदव्यदृलष्
खोि दी, मगर कुछ लदनों में िन्द हो गयी। मैं ऐसे कायत प्रयोग के तौर पर लकया करता था। मैंने अपने अनुभवों

सहज ध्यान योग 187


में दो सािकों के लवषय में लिखा है लजनकी लदव्यदृलष् शरू ु में खोिी थी। एक जिगावं की िड़की थी।
दसू रा मेंरठ (उ.प्र.) का सािक था। तीसरी मेंरी छोटी िहन थी। मैं यह िात स्पष् कर द।ूँू हर एक सािक में
लदव्यदृलष् एक समान कायत नहीं करती है। लदव्यदृलष् का कायत उसकी वततमान सािना पर लनभतर है लक अभ्यासी
लकतने सयं म और वेग से सािना कर रहा है तथा पवू त जन्मों की सािना का भी लदव्य दृलष् पर प्रभाव पड़ता
है, पवू त जन्मों में उसकी सािना लकतनी कठोर रही है तथा सािना करते हुए अलं तम समय तक उसकी अवस्था
कहाूँ तक रही है, सािक का अन्तुःकरण लकतना शि ु व पलवत्र है तमोगणु की मात्रा लकस प्रकार की है। इसी
प्रकार लवलभन्न कारण हो सकते है। लदव्य-दृलष् की देखने की क्षमता सािना की उग्रता व गरुु लनष्ठा आलद पर
भी लनभतर करता है। गरुु लनष्ठा, ब्रह्मलनष्ठ से सािक का अन्तुःकरण शि ु होने िगता है, तथा ससं ार में उसका
व्यवहार लकस प्रकार का है तथा उसकी सोच कै सी है आलद। मैंने देखा-कुछ सािकों का ब्रह्मरंध्र खि ु गया
है, मगर उनकी लदव्य दृलष् कुछ भी देख पाने में सामर्थयतवान नहीं है। वहीं हमारे जैसे सािकों को कण्ठ चक्र
खि ु ते ही लदव्य दृलष् के िारा ढेर सारा देख िेने का सामर्थयत रखते है। ऐसे सािक लनश्चय गुरूपद के योग्य
होते है। यलद सािक की कुण्डलिनी उग्र स्वभाव वािी है, तो ऐसे सािको की लदव्य दृलष् अत्यंत तेजस्वी
होती है। कुण्डलिनी की उग्रता लदव्य दृलष् पर प्रभाव डािती है। लदव्य-दृलष् लजन सािको की अत्यंत तेज हो,
ऐसे सािकों को ही गरू ु पद पर िैठने की इच्छा करनी चालहए अथातत ऐसे सािको को ही गरुु अथवा
मागतदशतक िनना चालहए, लजससे मागतदशतन करते समय सािकों के लवषय में सही रूप से जान सकें तथा
उलचत मागत दशतन कर सकें । आजकि ज्यादातर गरुु व मागतदशतकों की लदव्यदृलष् िारीकी व स्पष्ता से देख
पाने में असमथत होती है क्योंलक उग्र सािना करने का अभ्यास नहीं करते है। िस ढेरों लशष्य िनाकर गरू ु पद
पर िैठ जाते है। तथा कुछ गुरुओ ं का लदव्य दृलष् से कुछ िेना-देना नहीं है। ऐसे अयोग्य गरुु ओ ं की आजकि
भरमार है। कुछ मागतदशतक या गरुु ऐसे भी हैं, लजनकी लदव्यदृलष् िहुत ही तीव्र गलत से तथा स्पष् देखने का
कायत करती है। ऐसे गरुु न के िरािर हैं वे तथा भीड़ नहीं जटु ाते हैं।

सहज ध्यान योग 188


वसवद्धयाूँ
सािक को सािना काि में लसलियाूँ अवश्य लमिती हैं। इन लसलियों का स्थान एक लनलश्चत जगह
अथवा लनलश्चत अवस्था में होता है। सािना के समय जि सािक लसलियों के स्थान पर पहुचूँ जाता है, तो
लसलियाूँ उसका स्वागत करने के लिए खड़ी रहती हैं। सािक को यह लसलियाूँ अपने माया जाि में िूँ साने
का भरसक प्रयत्न करती हैं। अपनी शलक्त के अनसु ार ये सािक का कायत करने के लिए हर समय तैयार खड़ी
रहती हैं। पिक झपकाते ही सािक का कायत करने में समथत होती हैं। ये लसलियाूँ सािक की आज्ञाकारी
होती हैं। मगर वास्तव में ये लसलियाूँ आपके साथ छिावा कर रही होती हैं, तालक आप उनके जाि में िूँ स
जायें, अपने िक्ष्य तक न पहुचूँ सकें , उसी स्थान पर रुके रहें। मगर सािक का िक्ष्य होता है वह अपना
आत्मसाक्षात्कार करे , पणू तता को प्राप्त करे , िार-िार के जन्म मृत्यु से छुटकारा पाए। इसलिए सािकों को
इन िोखे में डािने वािी लसलियों के चक्कर नहीं पड़ना चालहए। जो सच्चा गरुु अथवा मागतदशतक होता है,
वह अपने लशष्य को हमेशा लसलियों का प्रयोग करने या उनके चक्कर में पड़ने से रोक देता है, तालक सािक
पथभ्रष् न हो जाए। जो सािक इन लसलियों के चक्कर में पड़ जाता है, उसका योग में पतन हो जाता है। जि
ये लसलियाूँ कायत करना िन्द कर देती हैं, उस समय उसके मन में पछतावा होता है। जो लसलि आपके लिए
हमेशा सेवा करने को तैयार रहती थी, वह आपका साथ छोड़ कर चिी जाती है। आप सािना में भी उस
समय पतन के स्थान पर खड़े होते हैं। वास्तव में, ये लसलियाूँ आपकी सािना के योगिि पर लनभतर रहती हैं।
जि आप लसलि के चक्कर में पड़ जायेंगे, ति आपको समाज में कीलतत लमिेगी। िहुत से िोग आपकी जी-
हुजरू ी में खड़े होंगे। उस समय आप सािना करना िन्द कर देंगे, अथवा आपके पास सािना करने के लिए
समय ही नहीं रह जाएगा। एक समय ऐसा आयेगा लक आप लजस लशखर पर पहुचं े हैं, वहाूँ से आपका पतन
होना शरू ु हो जाएगा, क्योंलक आपकी सािना क्षीण होती चिी जाएगी। लसलियाूँ जीवनपयतन्त आपका साथ
नहीं देती हैं। वह कुछ समय िाद लनलष्क्रय पड़ने िगती हैं। जो व्यलक्त आपके आगे-पीछे घमू ते थे, वे भी
आपका साथ छोड़कर चिे जायेंगे। लिर आप सोचेंगे लक आपकी मेंहनत की कमाई व्यथत चिी गयी।
इसलिए सािकों को सतकत रहना चालहए। इन लसलियों के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चालहए। जरूरी नहीं
लक आपको िोग लसलि के कारण जानें। आप तो योग ईश्वरप्रालप्त या लस्थतप्रज्ञ होने के लिए कर रहे हैं।
यह सच है लक आज के यगु में िोग चमत्कार को नमस्कार करते हैं। मगर सच्चा सािक कभी भी
चमत्कार नहीं लदखाता है। लजसने ईश्वर प्राप्त कर लिया अथवा लस्थतप्रज्ञ हो गया है, वह कभी चमत्कार नहीं

सहज ध्यान योग 189


लदखायेगा। ऐसे सािकों को चमत्कार से क्या िेना-देना है? सािक को वैभव नहीं, िलल्क ईश्वरीय आनन्द
चालहए। सािक को मािमू है लक स्थि ू सख ु क्षलणक होता है। आजकि के कुछ िोग अज्ञानतावश
चमत्काररयों कों ईश्वर का भक्त समझते हैं। वास्तलवकता न जानने के कारण उनकी सोच होती है लक ये
चमत्कार ईश्वर की कृ पा से होते हैं। ऐसे चमत्कारी समाज में अज्ञानी व भोिे िोगों को भ्रम में डािे रहते हैं।
एक-दो लसलियाूँ लसि कर िीं, िस भोिी-भािी जनता को ईश्वर के नाम पर ठगने िगे। ऐसे चमत्काररयों
की िड़ी सेवा होती है। मगर जो वास्तलवक भक्त या योगी होते हैं, समाज उनका अनादर करता है क्योंलक
वह कुछ भी चमत्कार नहीं लदखाते हैं।
कुछ िोग लसित नाम कमाने के लिए तरह-तरह की लसलियाूँ प्राप्त करते हैं। िहुत-सी तामलसक
लसलियाूँ लििकुि लनमन प्रकार की प्राप्त करते हैं। ऐसी तामलसक लसलियों को लसि करने वािे अक्सर
असामालजक कायत ही करते हैं। कभी-कभी दसू रों को कष् भी देते हैं, क्योंलक ऐसे लसिों का स्वभाव तामलसक
हो जाता है। ऐसे तामलसक लसलि वािे अक्सर पाप कमों में लिप्त रहते हैं। मृत्यु के िाद उन्हें पाप कमों का
िि भोगना पड़ता है। भतू -प्रेत के सािक मृत्यु के पश्चात् भतू -प्रेत के िोक (भवु िोक) में चिे जाते हैं, लिर
इसी योलन को प्राप्त करते हैं। िहुत समय तक उनकी यही ददु श त ा होती रहती है। गीता में भगवान श्रीकृ ष्ण
अजतनु से कहते हैं, "जो िोग मझु े लजस रूप में भजते हैं, उन्हें मैं उसी रूप में लमिता ह।ूँ "
लजन परुु षों के पास लसलियाूँ होती हैं, जरूरी नहीं लक उनका समिंि आध्यात्म से ही हो। यह सही
है योग में एक लनलश्चत स्थान पर लसलियाूँ प्राप्त होती हैं, िेलकन ये लसलियाूँ सामान्य होती हैं। इनसे थोड़ा सा
चमत्कार लदखाया जा सकता है। साथ ही परोपकार की दृलष् से इन लसलियों का प्रयोग लकया जा सकता है।
इन लसलियों से आप लजतना ज्यादा कायत िेंगे, ये उतनी ही तीव्र गलत से कायत करें गी। मतिि यह है आप
लसलियों का प्रयोग लजतना ज्यादा करें गे, वे उतनी ही ज्यादा लक्रयाशीि होंगी। यलद आप इन लसलियों से
कायत न िें, तो ये शांत सी हो जाती हैं। यलद आप इन लसलियों का प्रयोग परोपकार के रूप में करें गे, तो भी
आपकी सािना पर असर पड़ेगा। क्योंलक आपके पास िोगों का आना-जाना िढ़ जाएगा, इससे सािना के
लिए समय कम लमि पायेगा। इसलिए अच्छा है लक इनसे सवतथा दरू रहें, अपना समय सािना में ज्यादा-
से-ज्यादा िगाएूँ। जि ये लसलियाूँ सािक को लमिती हैं, तो उस समय लसलियों का िाभ उसे अवश्य

सहज ध्यान योग 190


लमिता है। लसलि रूपी खशु िू लछपती नहीं है, िलल्क िै िती है। यही समय है लक सािक सयं म से रहे तभी
अच्छा है, क्योंलक समाज के स्वाथी िोग आपकी स्तलु त करें गे।
कुछ मनष्ु य लसित लसलि प्राप्त करने के लिए ही लवशेष प्रकार की सािना करते हैं। उनका ईश्वरप्रालप्त
अथवा लस्थतप्रज्ञ से कुछ िेना-देना नहीं है। लसित वैभव और कीलतत प्राप्त करने के लिए ही लसलियाूँ प्राप्त
करते हैं। कुछ लनमन प्रकार के मनष्ु य कुछ लसलियाूँ गित कायो को करने के लिए ही प्राप्त करते हैं। कुछ
तामलसक लसलियाूँ िहुत ही शलक्तशािी होती हैं। ऐसे लसलियों से यक्त ु परुु ष जि लसलियों का प्रयोग करते
हैं, तो िगता है लक यह साक्षात् भगवान ही है। मगर यह सि लसलि का ही कायत होता है। उनका स्वयं का
कुछ नहीं होता है। िलल्क लसलि पर अलिकार रखने के लिए ही लवशेष तरह की सािना करते हैं।
जि सािक की सािना कण्ठ चक्र में होती है, तो यहाूँ पर कुछ लसलियाूँ लमिती हैं। सािकों को
कण्ठ चक्र तक आने में देर नहीं िगती है, क्योंलक रीढ़ के सहारे प्राण शीघ्र ही ऊपर उठ जाता है, लिर कण्ठ
चक्र में आ जाता है। मगर ये लसलियाूँ तुरंत नहीं लमिती हैं। सभी सािक जानते हैं कण्ठ चक्र में कई साि
गजु ारने पड़ते हैं। जि सािक की सािना अच्छी होती है तो शरीर भी शि ु हो जाता है। इसी चक्र में (कण्ठ
चक्र में) सािना करते समय सािकों की कुण्डलिनी जाग्रत होकर ऊध्वत होने िगती है। उस समय सािक
को दरू दशतन-दरू श्रवण लसलि लमिती है। जि सािक को यह लसलि लमिती है तो उसे दरू का दृश्य और उस
दृश्य से समिंलित वहाूँ की आवाज सनु ाई पड़ती है। यह दृश्य इतने स्पष् होते हैं जैसे आप प्रत्यक्ष देख रहे
हों। आवाज भी लिल्कुि साि व तेज सनु ाई पड़ती है। लजस स्थान की आप आवाज सनु रहे हों, उस स्थान
पर भिे ही आवाज िीमी हो, मगर आपको वही आवाज साि और जोर से सुनाई पड़ेगी। इस लसलि के
लिए कम या ज्यादा दरू ी का कोई महत्त्व नहीं है। पिक िन्द करते ही आपको लदखाई व सनु ाई पड़ता है।
आप पृर्थवी के लकसी भी जगह का दृश्य देख सकते हैं और वहीं की आवाज भी सनु सकते हैं। जैसे अगर
आपकी इच्छा हो यह जानने की लक वह लमत्र क्या कर रहा है, तो आूँख िन्द करते ही वहाूँ का दृश्य आ
जाएगा। लजस स्थान पर आपका लमत्र होगा वहाूँ की आवाज भी सनु ाई देगी। आप लकसी की भी गुप्त-से-गप्तु
जानकारी कभी भी िे सकते हैं। मगर सािक को ऐसी जानकाररयाूँ अपने तक सीलमत रखनी चालहए। इन
जानकाररयों का कभी भी गित िायदा नहीं उठाना चालहए। ये लसलियाूँ अकारण इतनी पीछे पड़ जाती हैं
लक आपको ढेरों जानकाररयाूँ देती रहती हैं। ऐसी जानकाररयाूँ लमिने पर सािक का लखंचाव लसलि की ओर

सहज ध्यान योग 191


ज्यादा हो जाता है। क्योंलक उसके अदं र उत्सक
ु ता जाग्रत हो जाती है लक हमारे जान-पहचान वािे इस समय
क्या कर रहे हैं, उस स्थान पर क्या हो रहा है आलद। पिक िन्द करते ही आपको जानकारी हालसि हो
जाएगी। लिर सािक का ध्यान लसलि की ओर ज्यादा जाने िगता है। इसलिए उसे सयं म से काम िेना
चालहए। अच्छा है लक इस लसलि की ओर ज्यादा ध्यान न लदया जाए। अभी आपको योग में िहुत िमिा
मागत तय करना है।
यलद आपको इन लसलियों से पीछा छुड़ाना है तो आपको ध्यानावस्था में िार-िार संकल्प करना
चालहए। मगर लिर भी इन लसलियों से तरु ं त पीछा छूटने वािा नहीं है, िेलकन िीरे -िीरे कम हो जाएगी। इन
लसलियों को अपनी ओर से इस्तेमाि नहीं करना चालहए। जि आपकी सािना और आगे िढ़ेगी, ति इनका
प्रभाव कम पड़ जाएगा। ये लसलियाूँ हर एक सािक में एक जैसी शलक्त वािी नहीं होती हैं। ये सािक की
सािना पर लनभतर करती हैं। सािक की सािना अगर उग्र होगी तो ये लसलियाूँ अत्यन्त शलक्तशािी ढंग से
काम करें गी। यलद सािक की सािना िीमी होगी, तो ये लसलियाूँ उग्र सािना की अपेक्षा कम कायत करें गी।
हमें याद आ रहा है लक हमें इन लसलियों से िहुत जानकारी लमिी। इन लसलियों ने हमें परे शान करके
रख लदया था। जरूरत पड़ने पर मैंने इन लसलियों से काम भी लिया था। हमारी सािना उग्र होने के कारण वे
लसलियाूँ िहुत ही शलक्तशािी थीं। यहाूँ पर एक अनभु व लिख रहा हूँ; ये जानकारी इन्हीं लसलियों से िी थी।
एक लदन लिल्कुि सुिह अपने लपताजी को िताया-अमेंररका और ईराक यि ु शुरू हो गया है। लजस समय
मैंने यि
ु को देखा उस समय सिु ह के साढ़े तीन अथवा पौने चार िजे थे। उस समय देखा ईराक के आकाश
में तेज प्रकाश िै ि गया। ईराक के कुछ शहर अन्तररक्ष में कृ लतम प्रकाश उत्पन्न करने के कारण स्पष् लदखने
िगे क्योंलक वहाूँ उस समय रालत्र थी। ईराक की गगनभेदी तोपों से आकाश गंजू गया। कुछ समय पश्चात्
आकाश में अनलगनत िड़ाकू जहाज उड़ते लदखाई लदये। इन जहाजों से लवस्िोटक सामग्री िहुत ज्यादा
मात्रा में नीचे िें की जाने िगी। नीचे जमीन पर आग की ज्वािाएूँ लदखाई दे रही थीं। मैं िड़े आराम से अपने
घर में यह सि दृश्य देख रहा था। लिर एक-दो िार वहाूँ के दृश्य और देखे। क्योंलक वहाूँ की िड़ाई के दृश्य
हमें अच्छे िग रहे थे। मैंने कभी इस प्रकार की िड़ाई नहीं देखी थी। इसी प्रकार इस लसलि से मैंने लवश्व की
ढेरों घटनाएूँ देखीं। वही घटनाएूँ लिर हमें िी. िी. सी. िंदन से (रे लडयो पर) सनु ने को लमिती थीं। इसी प्रकार
इस्राइि और लिलिस्तीलनयों की िड़ाई देखी। यह िड़ाई राइििों से होती थी। वहाूँ के पहालड़यों के दृश्य

सहज ध्यान योग 192


हमें आज भी याद हैं। लवश्व की कई घटनाओ ं के दृश्य देखने के िाद हमारा मन भर गया। लिर लसलियों का
प्रयोग लिल्कुि िन्द कर लदया। अि ये लसलियाूँ िेकार सी हो गयी हैं। इनके प्रयोग की कोई इच्छा नहीं
होती।
इसके िाद सािक को यहीं पर वाचा लसलि लमिती है। यह लसलि तभी लमिती है जि सािक के
मन और शरीर में शि ु ता आने िगती है। सािना भी कम-से-कम चार-पाूँच घंटे की हो जाती है तथा
प्राणायाम का अभ्यास भी सािक कािी करता है। सािक को सािना में तथा ईश्वर में लनष्ठा हो जाती है।
साथ ही सत्यभाषी भी होना जरूरी है। सािक की सािना के अनसु ार ही लसलि कायत करती है। यलद सािक
इस अवस्था में मौनव्रत का पािन करता है तो और अच्छा है, लसलि उतना अच्छा कायत करे गी। सािक
को जरूरत पड़ने पर ही िात करना चालहए। क्योंलक िातें करने या िोिने पर शलक्त का क्षय होता है। इस
शलक्त को िचाने के लिए कम से कम िोिा जाए तो अच्छा है। यलद सािक की सािना में उग्रता है, तो
वाचा लसलि से छोटे-छोटे कायत लकये जा सकते हैं। ऐसा सािक लसलि का प्रयोग करके भतू -प्रेत व अन्य
िािाएूँ भी दरू कर सकता है। छोटे-छोटे रोग भी दरू कर सकता है। नये सािकों की सािना में सहायता भी
पहुचूँ ाई जा सकती है। मगर ये सि कायत अत्यन्त प्रेम भाव से करने चालहए। इस प्रकार के कायत करते समय,
लवरोिाभास अथवा अहंकार नहीं होना चालहए।
वैसे यह लसलियाूँ अलिक शलक्तशािी ति होती हैं जि सािक को उच्चलस्थलत प्राप्त होती है।
उच्चलस्थलत प्राप्त होने पर यह लसलि अत्यन्त शलक्तवान हो जाती है, क्योंलक सािक की संकल्पशलक्त भी िढ़
जाती है। इस अवस्था में सािक वरदान या श्राप देने की भी शलक्त रखता है। वह चाहे तो दसू रों का कल्याण
कर दे, वह चाहे तो दसू रों का लवनाश कर देने की भी सामर्थयत रखता है। मगर सािक को चालहए लक वह
जरूरत पड़ने पर दसू रों को आध्यालत्मक िाभ दे दे तो अच्छा है, मगर भूिकर भी स्थि ू िाभ के चक्कर में
नही पड़ना चालहए, नहीं तो सािक की सािना का क्षय होता है। उच्चलस्थलत के िाद भी अगर सािक में
शिु ता और सािना में लगरावट आती है तो यह लसलि कमजोर पड़ जाएगी। मैंने इस लसलि से दो-तीन िड़े
कायत लकये थे। एक िार का प्रयोग मैंने अपने अनभु वों में लिखा है। यह प्रयोग उस समय लकया था जि मैं
लमरज आश्रम में सािना करता था।

सहज ध्यान योग 193


सािक को इसी जगह (कण्ठ चक्र में) पर ऋलि-लसलि की भी कृ पा होती है। ये लसलियाूँ सािक को
ध्यानावस्था में कभी-कभी भगवान गणेश जी के साथ अगि-िगि में खड़ी लदखाई देती हैं। कभी लिना
भगवान श्री गणेश जी के भी लदखाई पड़ती हैं। इन लसलियों के िारा सािकों को वैभव आलद का िािच
लदया जाता है। मगर सािक को सतकत रहना जरूरी है। सािक को वैभव की नहीं िलल्क सािना की
आवश्यकता है। ये ऋलि-लसलि सािक को ज्यादा लदन लदखाई नहीं देती है। कुछ समय िाद लदखाई देना
िन्द हो जाता है।
योग में लदव्यदृलष् का महत्त्व िहुत अलिक है। इस लवषय में ज्यादा जानकारी के लिए लदव्यदृलष् वािे
पाठ को पलढ़ए। दाशतलनकों का मत है लदव्यदृलष् नालड़यों की एक ग्रलन्थ होती है। इस ग्रलन्थ के कायत करने से
भतू काि व भलवष्यकाि की जानकारी होने िगती है। दरू की भी जानकारी होने िगती है। योग के अनसु ार
यह ग्रलन्थ योलगयों को आूँख के रूप में लदखाई देती है। महाभारत काि में यह लदव्यदृलष् दो व्यलक्तयों को
प्रदान की गयी थी– व्यासजी की कृ पा से संजय को लदव्यदृलष् प्रदान की गयी थी। दसू रे , अजतनु को लदव्य
दृलष् प्रदान की गयी थी इन्हें भगवान श्री कृ ष्ण की कृ पा से प्रदान की गयी थी। मगर इन दोनों व्यलक्तयों ने
अिग-अिग ढंग से प्रयोग लकया था। अजतनु ने लदव्यदृलष् का प्रयोग भगवान के लवराट स्वरूप को देखने के
लिए लकया था। उस समय भगवान का यह स्वरूप लसित अजतनु ही देख सके थे, अन्य योिा नहीं देख पाये
थे। क्योंलक लवराट स्वरूप की संरचना अत्यन्त सक्ष्ू म पदाथों िारा होती है। मगर सजं य ने दरू दृलष् से काम
लिया था। क्योंलक उन्हें रणभलू म का सारा हाि घृतराष् को िताना था। सजं य स्थि ू पदाथों को देख रहे थे।
अजतनु ने सक्ष्ू म पदाथों की सरं चना का अविोकन लकया; दोनों में िड़ा िकत था। जि लदव्यदृलष् प्राप्त होती
है तो इसी लदव्यदृलष् के साथ दरू दृलष् भी प्राप्त होती है। सजं य ने दरू दृलष् का प्रयोग लकया था। अि प्रश्न उठता
है लक क्या लदव्यदृलष् समय से पवू त सािक की खोिी जा सकती है। मैं अपने अनभु वों के आिार पर लिखूँगू ा–
यलद योगी अत्यलिक योगिि का स्वामी है, तो लदव्यदृलष् अवश्य खोिी जा सकती है। यलद नये सािक की
कुण्डलिनी उठाने से पवू त लदव्यदृलष् खोि दी जाए तो सािक कुण्डलिनी ऊध्वत होने का दृश्य स्पष् देख सकता
है तथा अच्छे -अच्छे अनभु व भी लदखाई देते हैं। मगर लदव्यदृलष् दो-चार लदनों िाद अपने आप िन्द हो
जाएगी। यह प्रयोग मैंने तीन नये सािकों पर लकया था; उनको अच्छे -अच्छे अनभु व हुए थे।

सहज ध्यान योग 194


आजकि कुछ िोग खि ु ेआम प्रदशतन करते हैं। वह जमीन के अदं र कुछ घटं े तक अथवा कुछ लदनों
तक िने रहते हैं। वास्तव में ऐसा प्रदशतन करने वािे योगी ही नहीं होते है मगर संसारी िोग ऐसे िोगो को
योगी समझने की भि ू करते है ऐसे प्रदशतन का योग से कुछ िेना देना नहीं होता हैं। यह कायत अत्यन्त कलठन
व खतरनाक होता है। अगर कोई परुु ष लसित तमाशा लदखाने के लिए कुछ घण्टों व कुछ लदनों के लिए भलू म
अन्दर अपने आप को कर िेते है, ति ऐसी अवस्था में उस परुु ष का समालि से कुछ िेना-देना नहीं होता
है। लसित भोिी-भािी जनता को वह िेवकूि िना रहा है। इसकी वास्तलवकता जनता समझ नहीं पाती है।
सच यह है लक ऐसे िोग पहिे से लनलश्चत कर िेते है लक लकतने घण्टे के लिए भलू म के अन्दर जाना है। उसी
के अनसु ार ही गड्ढा खोदा जाता है लजससे उतनी मात्रा में गड्ढे के अन्दर आक्सीजन भर जाए क्योंलक
वैज्ञालनक आिार है कोई भी मनष्ु य एक घण्टे में लकतने घन िुट आक्सीजन िेता है। उसी के अनसु ार उतना
ही िड़ा गड्ढा खोद कर उसके अन्दर प्रवेश कर जाता है। गड्ढे को सही ढंग से पाट लदया जाता है। गड्ढे
के अंदर की आक्सीजन समाप्त होने से पहिे ही वह मनष्ु य िाहर लनकाि लिया जाता है। ऐसी अवस्था में
संयम की जरूरत होती है। इसका अभ्यास कई मलहनों तक लकया जाता है। पररपक्व होने पर लिर भीड़ को
एकत्र करके तमाशा लदखाने िगते हैं। रुपए कमाने का यह तरीका गित है। ऐसे मनष्ु य का अध्यात्म से कुछ
भी िेना देना नहीं होता है। पतंजलि योगसत्रू में आठ लसलियों का वणतन लमिता हैं। अलणमा, िघमु ा, गररमा,
मलहमा आलद के लवषय में हमें जानकारी नहीं है। िेखों में लमिता है लक ये लसलियाूँ भगवान िजरंगििी को
लसि थी। वैसे आजकि सिसे ज्यादा लसि परुु ष लहमािय के ऊूँचाई वािे भाग में पाये जाते हैं।
जनू 1993 में मैंने लनश्चय लकया लक मैं भी परकायाप्रवेश के लवषय में जानकारी करके रहगूँ ा। मैंने
कठोर सािना करके थोड़ा ज्ञान हालसि कर लिया। आप हमारे अनभु वों में पढ़ सकते हैं। ध्यानावस्था में मैं
एक नाड़ी में प्रवेश कर जाता था। वह नाड़ी आगे िन्द थी। कई िार प्रवेश करने के िाद मैंने अपना मागत
िदि लदया। मैं जानता था लक नाड़ी कभी न कभी हमें मागत दे देगी। मगर लिर मैं ज्ञानचक्र के िारा िाहर
लनकि गया, मगर मेरा मागत भगवान लवष्णु ने रोक लदया और मझु े समझाया लक यह मागत आपका नहीं है।
आकाशगमन लसलि के लिए आवश्यक है उदान वायु को सयं लमत करें – यह प्रारलमभक अवस्था है। उदान
वायु को कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद प्रयोग में िाया जा सकता है। इसके लिए हर कुमभक कम से कम
तीन लमनट का होना चालहए। कािी समय िाद आपको वायु स्पशत की अनभु लू त होनी समाप्त हो जाएगी।

सहज ध्यान योग 195


आपको िगेगा आप शरीर में नहीं हैं। इस अवस्था में आपके स्थि
ू शरीर की दगु तलत होती है। इन लसलियों
के लवषय में मैंने अपने अभ्यास के आिार पर लिखा है।

सहज ध्यान योग 196


कुण्डवलनी
कुछ िोग कुण्डलिनी के लवषय में पणू तरूप से नहीं जानते हैं, इसलिए इसका महत्त्व नहीं समझ पाते
हैं। कुछ िोगों का सोचना होता है लक संत-महात्माओ ं की कुण्डलिनी जाग्रत होती है। मैं यह िताना चाहगूँ ा
लक जो आपको संत-महात्मा लदखाई पड़ते हैं, जरूरी नहीं लक कुण्डलिनी ही जाग्रत हो। कुण्डलिनी लसित
उनकी जाग्रत होती है जो इस मागत पर चिते हैं अथातत योगमागत पर। सच तो यह है लक योगमागत पर भी
चिने वािों की सािना की पररपक्व अवस्था होने पर कुण्डलिनी जाग्रत होती है। इसलिए जाग्रत कुण्डलिनी
वािों की संख्या िहुत ही कम है। कुछ व्यलक्तयों का यह कहना होता है लक हमें कुण्डलिनी जाग्रत करने की
क्या आवश्यकता है, मैं तो ईश्वर का भक्त ह।ूँ यलद वह ईश्वर भक्त वास्तव में हैं तो अच्छी िात है, परंतु लसित
पजू ा करने से या आध्यालत्मक पस्ु तकों को पढ़ने से भक्त नहीं हो जाता है। समपतण की भावना भी जरूरी है।
कुछ अच्छे भक्तों की भी कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है, मगर ज्यादा ऊध्वत नहीं होती है।
कुछ व्यलक्तयों का कहना है लक कुण्डलिनी िेकार की चीज है क्योंलक उसके जाग्रत होने पर सािक
को परे शालनयाूँ िढ़ जाती हैं, शरीर का तापमान िढ़ जाता है, उसे िख ु ार आ जाता है लजससे डाक्टर से
इिाज करवाना पड़ता है। पता नहीं क्या-क्या िेकार के शब्द िोिते रहते हैं। ये शब्द मैंने उनके मूँहु से सनु े
जो योग का मागतदशतन करते हैं। योग के मागतदशतक िन गये और कुण्डलिनी के लवषय में इस तरह की िातें
करते हैं। ऐसे महापरुु षों से मैं यही कहगूँ ा लक पहिे योग के लवषय में परू ी जानकारी कर िें, योग की िारीलकयों
को समझ िें, तथा योग का अभ्यास स्वयं को होना अलत आवश्यक है। जि कुण्डलिनी लस्थर हो जाए, ति
मागतदशतन की ओर कदम िढ़ाइए। लसित पस्ु तकों को पढ़कर मागतदशतक मत िन जाइए, व्यायाम में महारथ
हालसि करने को योग नहीं कहते हैं। योग के नये सािकों को गित लशक्षा देकर भ्रलमत न करें । स्वयं को
कुण्डलिनी जाग्रत नहीं है इसलिए आपको उसका महत्त्व मािमू नहीं है।
हमें एक घटना याद आ गयी यह िात सन् 1986 की है। उस समय मैं लदल्िी में नौकरी करता था।
उस समय हमें एक पस्ु तक योग समिंिी प्राप्त हो गयी। पस्ु तक पढ़ने पर जानकारी हुई लक इनकी कई शाखाएं
लदल्िी में हैं जहाूँ योग की लशक्षा दी जाती है। मैं इस संस्था के व्यवस्थापक के पास गया। मैंने अपना पररचय
एक सािक के रूप में लदया, तथा योग के कुछ अनभु व सनु ाए। हमारे अनभु व सुनकर उन्हें आश्चयत हुआ।
लिर वह हमसे िोिे – “आप कुण्डलिनी के चक्कर में मत पड़ना।” लिर ढेरों शब्द कुण्डलिनी के नाम पर

सहज ध्यान योग 197


उिटे-सीिे कहे, और िोिे आप मेंरी क्िास में शालमि हो जाइए। मैं दख ु ी भाव से वापस िौट आया।
सोचने िगा इतनी िड़ी संस्था है, ढेरों शाखाएूँ हैं, यह क्या योग की लशक्षा देंगे जिलक स्वयं इन्हें योग के
िारे में मािमू नहीं है। कुछ प्रलतलष्ठत सन्ं यालसयों को देखा है लजनका कहना है लक उनके शरीर में कुण्डलिनी
शलक्त का जागरण हो चक ु ा है, वह दसू रों को भी कुण्डलिनी शलक्त का दशतन करा सकते हैं; मगर कुछ नहीं
कर पाते हैं, लसित जनता को िोखा देते हैं।
कुछ िेखक ऐसे हैं लजन्हें स्वयं को कुण्डलिनी की अनुभलू त नहीं है क्योंलक अपनी कुण्डलिनी जाग्रत
नहीं कर पाये, मगर कुण्डलिनी के लवषय में िमिे-िमिे िेख लिख डािे, उन्हें छपवाकर िाजार में िेचते
हैं। मगर योग्य सािकों को इस िात की जानकारी हो जाती है लक िेखक योग का अभ्यासी नहीं है। ऐसे
िेखक लसलियों के लवषय में भी लिख डािते हैं, जिलक उन्हें वह लसलि प्राप्त नहीं होती है। हम एक िार
लिर लिखना चाहेंगे, लजन सािकों को अथवा लजज्ञासुओ ं के अंदर कुण्डलिनी के लवषय में गित िारणा हो
गयी है, वह अपने अंदर से गित िारणा लनकाि दें। क्योंलक कुण्डलिनी सािारण शलक्त नहीं है िलल्क
आलदशलक्त है। इसी के िारा सािक पणू तता प्राप्त करता है। कुण्डलिनी ही समस्त ब्रह्माण्ड की जननी है,
इसलिए यह हम सभी की वास्तलवक ‘माूँ’ है। माूँ ही िेटे को लपता से लमिवा सकती है अथवा पहचान करा
सकती है। हमारे परम लपता ब्रह्म हैं।
कुण्डलिनी आलदशलक्त का पयातयवाची शब्द है, शलक्त का स्वरूप है और अखण्ड रूप से कण-कण
में व्याप्त है। ब्रह्माण्ड के चौदहों िोकों में शलक्त रूप में व्याप्त है, इसीलिए भुवनेश्वरी कही गयी है। भगवान
ब्रह्मा, भगवान शंकर, भगवान लवष्ण,ु कुण्डलिनी की ही शलक्त से शलक्तमान हुए हैं। यही कुण्डलिनी शलक्त
ब्रह्मिोक में ब्रह्मा के पास गायत्री रूप में, लवष्णिु ोक में लवष्णु के पास िक्ष्मी रूप में, कै िाश पर अमिा या
पावतती रूप में और गोिोक में कृ ष्ण के साथ रािा रूप में रहती है।
प्रकृ लत की सृलष् के अनसु ार ब्रह्माण्ड रूपी लपण्ड और शरीर रूपी लपण्ड दोनों एक ही हैं। ब्रह्माण्ड
रूपी लपण्ड िड़ा है, शरीर रूपी लपण्ड छोटा है। इन दोनों लपण्डों का आपस में तारतमय िना रहता हैं इसलिए
जो ब्रह्माण्ड रूपी लपण्ड में लदव्य शलक्तयाूँ लवद्यमान रहती हैं वही शलक्तयाूँ शरीर रूपी लपण्ड में लवद्यमान रहती
हैं। ब्रह्माण्ड व्यापनी कुण्डलिनी शलक्त मनष्ु य के शरीर में मि ू ािार चक्र में लस्थत है। लनगतणु ब्रह्म का स्थान
मनष्ु य के शरीर में सहस्त्रार चक्र में माना गया है। मि ू ािार चक्र में लशवलिंग पर कुण्डिाकार रूप में यह

सहज ध्यान योग 198


कुण्डलिनी साढ़े िीन चक्कर िगाये लिपटी रहती है। कुण्डलिनी अपनी पूँछ ू को मूँहु के अदं र दिाये रहती
है। क्योंलक मनष्ु य के शरीर में यह शलक्त कुण्डिाकार रूप में लवद्यमान रहती है, इस कारण इसका नाम
कुण्डलिनी पड़ा है।
मनष्ु य के शरीर में कुण्डलिनी सक्ष्ू म रूप में सषु प्तु ावस्था में रहती है। इसे योग के अभ्यास िारा जाग्रत
लकया जाता है। सािक की सािना जि पररपक्व अवस्था में होती है, ति गरुु या मागतदशतक शलक्तपात करके
जाग्रत करके ऊध्वत कर देता है। सािारण मनष्ु यों की कुण्डलिनी सदैव सोयी रहती है, इसलिए मनष्ु य अपने
जीवन में इस कुण्डलिनी शलक्त का उपयोग नहीं कर पाता है। लजस प्रकार लकसी मनष्ु य को हीरों का खजाना
दे लदया जाए लिर िाहर से खजाने का दरवाजा िन्द कर लदया जाए, वह मनष्ु य लभखारी के समान दसू रों से
कहे मैं लनितन हूँ इसलिए भीख माूँगनी पड़ रही है, ति इसमें लकसका दोष है। ठीक वैसा ही सांसाररक मनष्ु य
करता है। उसके शरीर के अंदर अक्षय खजाने का भण्डार भरा हुआ है लिर भी सारी लजन्दगी दीनता का हाथ
िै िाये रहता है, मगर अपने शरीर के अंदर खजाने का दरवाजा खोिने का प्रयास नहीं करता है। वह संसार
में दख
ु ी होकर सख ु के तिाश में भटकता रहता है। मगर इस स्थि ू संसार में सख ु नहीं लमिता है, लिर मृत्यु
और जन्म चक्र में िरािर घूमता रहता है। इसलिए मनष्ु य को अपने अंदर सोई शलक्त जाग्रत करनी चालहए।
यही शलक्त आपको योग का अभ्यास करने के िाद शाश्वत आनन्द की अनुभलू त करायेगी तथा जन्म-मृत्यु
के िन्िन से छुटकारा भी लदिाएगी।
आलदशलक्त कुण्डलिनी सारे स्त्रोतों का स्त्रोत है, इसलिए हर मनष्ु य को कुण्डलिनी का िाभ उठाना
चालहए। यह हर मनष्ु य का अलिकार भी है। इसको जाग्रत करने के लिए योग के लनयमों का पािन करना
चालहए तथा गरुु की देख-रे ख में ध्यान करने की आवश्यकता है तालक स्थि ू शरीर शि ु हो सके । इसे जाग्रत
करने के लिए नालड़यों का शि ु होना अलत आवश्यक है। इसे जाग्रत करने के लिए कई साि सािना करनी
पड़ती है। कभी-कभी सािक को कुण्डलिनी जागरण के लिए दसू रे जन्म का भी इतं जार करना पड़ता है।
िेलकन लजसका अंतुःकरण लिल्कुि शि ु होता है, ईश्वर प्रालप्त की िगन होती है, वततमान कमत अच्छे होते
हैं तथा योगलनष्ठ व गरुु लनष्ठ होते हैं, ऐसी सािना करने वािे सािकों की कुण्डलिनी शीघ्र जाग्रत हो जाती
हैं। यह नहीं िताया जा सकता है लक अमक ु सािक की कुण्डलिनी कि जाग्रत होगी; यह सािक की
योग्यतानसु ार जाग्रत होती है।

सहज ध्यान योग 199


सािक का मन ध्यानावस्था में जि एकाग्र होने िगता है, ति प्राण के िक्के कुण्डलिनी पर िगने
िगते हैं। सािक को जि तीनों िन्ि िगने िगते हैं, ति प्राण का दवाि उस समय मि ू ािार चक्र पर होता
है। मि ू ािार पर प्राण के दिाव के कारण प्राण के िक्के कुण्डलिनी पर िगते हैं, प्राण के िक्के िगने पर
कुण्डलिनी अपनी आूँखें खोिने िगती है, उस समय कुण्डलिनी आूँख खोिती है और िन्द करती है। मगर
िार-िार प्राण के िक्के िगने पर वह आूँखें पणू त रूप से खोि िेती है। आूँखें खि ु ने के िाद भी कुण्डलिनी
पहिे की भाूँलत चपु चाप मूँहु में पूँछ
ू दिाए हुए शातं िनी रहती है। सािक को ध्यानावस्था में यलद उड्डीयान
िन्ि अपने आप िगने िगे, तो समझ िेना चालहए लक कुण्डलिनी ने आूँख खोि दी है। इस अवस्था में
मि ू िन्ि भी स्वयमेव िगने िगता है। जि सािक का िीरे -िीरे अभ्यास िढ़ता है तथा मन गहराई में जाता
है, ति प्राणों का दवाि व िक्के कुण्डलिनी पर ज्यादा िगते हैं। उस अवस्था में कुण्डलिनी अपने मूँहु से
पूँछ
ू उगिने िगती है। एक समय ऐसा आता है लक वह मूँहु से पूँछ ू परू ी तरह से उगि देती है।
जि गरुु सािक को अभ्यास में पररपक्व अवस्था वािा समझता है अथवा कुण्डलिनी ऊध्वत करने
का समय समझ िेता है, उस समय गरुु सािक पर शलक्तपात करके कुण्डलिनी ऊध्वत कर देता है। कुण्डलिनी
लशवलिंग का थोड़ा सा चक्कर (िपेट) खोिकर िन उठाकर खड़ी हो जाती है। इस अवस्था में कुण्डलिनी
जोर-जोर से िुिकारती है। जैसे लकसी नालगन को सोते हुए अगर जगा लदया जाए तो वह नालगन क्रोि में
होती है, इसी प्रकार कुण्डलिनी भी क्रोि में िुिकारती है। शरुु आत में कुण्डलिनी लिल्कुि थोडी सी ऊध्वत
होती है, लिर सािक की सािना के अनसु ार थोड़ा-थोड़ा ऊध्वत होती रहती है। कुण्डलिनी ऊध्वत करने का
यह अथत नहीं होता है लक एक िार में ही यह कण्ठ तक आ जाएगी, िलल्क शरू ु में लशवलिगं के िरािर िन
उठाकर खड़ी हो जाती है। लिर योग के अभ्यास के अनसु ार ऊध्वत होती रहती है।
मिू ािार चक्र के मध्य में लत्रकोण के िीच में लशवलिंग है इसी लशवलिंग पर यह लिपटी रहती है।
लत्रकोण के मध्य से सषु मु ना नाड़ी मेंरुदण्ड के अंदर से होती हुई ऊपर की ओर चिी जाती है। इसी सुषमु ना
नाड़ी के िायीं ओर इड़ा नाड़ी है, यह भी लत्रकोण के िायीं ओर से लनकिकर ऊपर की ओर चिी जाती है।
सषु मु ना नाड़ी के दायीं ओर लपंगिा नाड़ी है। यह नाड़ी लत्रकोण के दालहनी ओर से लनकिती है और ऊपर
की ओर चिी जाती है। इन इड़ा और लपंगिा नालड़यों में प्राणवायु का संचािन होता है। इसीलिए इन दोनों
नालड़यों को शलक्तवालहनी कहा गया है। इन दोनों नाड़ी के िीच सषु ुमना नाड़ी का सािारण अवस्था में मूँहु

सहज ध्यान योग 200


िन्द रहता है। यह कुण्डलिनी शलक्त इसी सषु मु ना के अदं र प्रवेश कर जाती है। इसी के अदं र से ऊध्वत होती
है। कुण्डलिनी ऊध्वत होते समय सािकों को अच्छे -अच्छे अनभु व आते हैं।
ध्यानावस्था में जि प्राण के िक्के कुण्डलिनी पर पड़ते हैं ति वह अपनी आूँखें खोि देती है। उस
समय सािक की भलस्त्रका अपने आप चिने िगती है। इस भलस्त्रका का चिने का कारण स्वयं कुण्डलिनी
ही है। भलस्त्रका चिने से नाड़ी शि ु होती है। यह कायत स्वयं कुण्डलिनी ध्यानावस्था में सािक से करवा
िेती है। जि कुण्डलिनी ऊध्वत होती है, ति भी सािक की कुछ न कुछ ध्यानावस्था में भलस्त्रका चिती है।
इस अवस्था में सािक को भलस्त्रका प्राणायाम ज्यादा से ज्यादा करना चालहए।
लजस समय कुण्डलिनी जाग्रत होकर ऊपर की ओर चढ़ती है ति उसका स्वरूप ऐसा िगता है जैसे
नालगन कुमकुम में लिपटी हुई हो। अपने मूँहु से आग की िपटें लनकािती हुई आगे को िढ़ती है। कुण्डलिनी
जागते ही सिसे पहिे पृर्थवी तत्त्व को खाना शरूु कर देती है। ऐसा िगता है जैसे लकसी को िहुत अंतराि
के िाद भोजन लमिा हो तो वह भोजन पर िेसब्री से टूट पड़ता है; उस समय जो भी लमि जाए खा िेता है।
ठीक इसी प्रकार िहुत समय के िाद जागी परमेंश्वरी कुण्डलिनी सािक के शरीर का पृर्थवीतत्व खाने में िग
जाती है। इससे सािक के शरीर की जड़ता नष् होने िगती है। सािक के शरीर में आिस्य नहीं रहता है।
सािक का शरीर िुतीिा सा हो जाता है। लकसी भी कायत को पहिे की अपेक्षा जल्दी से लनपटा िेता है।
जड़ता व आिस्य न रहने के कारण उसे लनरा भी कम आती है। कुण्डलिनी लजस लजस स्थान की जड़ता
खा िेती है अथवा नष् कर डािती है लिर उस स्थान पर चैतन्यता लिखेरती जाती है। क्योंलक कुण्डलिनी
स्वयं चैतन्यस्वरूपा है इसकी जड़ता से सख्त दश्ु मनी है। इसीलिए यह सवतप्रथम जड़ता पर हमिा कर देती
है उसे खाती व नष् करती हुई आगे की ओर िढ़ती है तथा स्वभाव के अनक ु ू ि चैतन्यता लिखेरती जाती
है।
परमेंश्वरी कुण्डलिनी जि पृर्थवीतत्व (जड़ता) को खा िेती है, लिर उसका भोजन जितत्व होता है,
जितत्व को पीना शरू ु कर देती है। जितत्व की कमी के कारण शरीर में उष्णता िढ़नी शरू
ु हो जाती है।
इस अवस्था में सािक की सािना भी िढ़ने िगती है लजससे गमी उत्पन्न होती है। जि कुण्डलिनी िीरे -
िीरे ऊपर की ओर चढ़ती हुई उग्र होती है, वैस-े वैसे जितत्व को सोखती या पीती है। सािक का स्थूि
शरीर दिु िा पतिा होने िगता है, मगर शरीर की कांलत िढ़ती है और चेहरे का तेज िढ़ता है। पेट में लस्थत

सहज ध्यान योग 201


आतं ों का पानी कम होने िगता है। यलद सािक की कुण्डलिनी उग्र हुई तो पेट में उष्णता के कारण आतं ों
में जख्म होना शरू
ु हो जाता है। लिर शौच के समय कभी-कभी हल्का-सा रक्त लनकि आता है। इससे
सािक को अत्यलिक तकिीि शरू ु हो जाती है उस समय सािक को अलिक से अलिक पानी पीना
चालहए, मगर शरीर में पानी अपने आप सख ू ता रहता है। उस समय सािक को उष्णता की तकिीि तो
सहनी पड़ती है। सािक का शरीर पतिा हो जाता है। मगर सािक के शरीर के अदं र शलक्त की कमी नहीं
रहती है, िलल्क पहिे से ज्यादा स्िूलतत आ जाती है। उष्णता अलिक हो जाने के कारण सािक को भख ू भी
कम िगती है। मगर यह लस्थलत थोड़ी आगे चिकर आती है।
कुण्डलिनी जि जाग्रत हो कर ऊध्वत होती है ति मि ू ािार में लस्थत जड़ता को समाप्त करके उस
चक्र में लस्थत नालड़यों और स्नायु मण्डि में चैतन्यता लिखेर देती है। इससे मि ू ािार चक्र चैतन्मय हो जाता
है। मिू ािार चक्र जड़ता प्रिान चक्र है। इस चक्र में जड़ता की मात्रा अलिकता में पायी जाती है। कुण्डलिनी
िारा चैतन्यता लिखेरने के िाद ऊपर की ओर िढ़ती है जि स्वालिष्ठान चक्र में पहुचूँ ती है। स्वालिष्ठान चक्र
जननेलन्रय स्थान पर है। कुण्डलिनी जि इस स्थान पर आती है ति सािक की काम वासना अत्यन्त तीव्र
हो जाती है। इस अवस्था में काम वासना इतनी तेज हो जाती है लक सािक की वासना पहिे कभी इतनी
तीव्र नहीं हुई होगी। कुछ सािक यह भी सोच सकते हैं हमें वासना-समिन्िी लवकार पहिे नहीं आया था,
अि यह लवकार इतना ज्यादा क्यों आ गया। सािकों, ऐसी अवस्था में घिराना नहीं चालहए, िैयत से काम
िेना चालहए। जो वासना उठी है, उसे कुण्डलिनी स्वयं जिाकर भस्म कर देगी। यहाूँ पर सािकों को ऐसा
समझना चालहए लक आपकी सािना समिन्िी परीक्षा िी जा रही है। ध्यानावस्था में आपको अनभु व भी
आ सकते हैं। यलद ध्यानावस्था में कामवासना समिन्िी अनभु व आये, उस समय सािक को तटस्थ होकर
अविोकन करना चालहए। मन के अदं र लवकार नहीं आना चालहए। यलद मन के अदं र लवकार आ गया, तो
आपका ध्यानावस्था में पतन भी हो सकता है। इस पतन के कारण कुछ लदनों की सािना की हालन भी उठानी
पड़ सकती है। इस अवस्था में स्वयं कुण्डलिनी देवी सन्ु दर स्त्री का स्वरूप िारण करके आपके सामने कामक ु
मरु ा में हो सकती है। इसलिए सािक को सतकत ता की जरूरत है। हर मनष्ु य की कामवासना इसी चक्र से
लक्रयालन्वत होती है। इसलिए जि कुण्डलिनी इस चक्र में पहुचूँ ती है, ति वासना भी उग्र हो जाती है। मगर
कुण्डलिनी वासनाओ ं को नष् करती हुई जितत्व को पीना शरू ु कर देती है। इस चक्र में जितत्व की
अलिकता रहती है। जि जितत्व को सोख िेती है, ति इस चक्र में अपनी चैतन्यता लिखेर देती है, यह

सहज ध्यान योग 202


चक्र भी चेतनमय हो जाता है। लिर सािक की कामवासना अत्यन्त सक्ष्ू म रूप में रह जाती है। इसके आगे
कुण्डलिनी िीरे -िीरे ऊध्वत होकर नालभचक्र पर पहुचूँ ती है।
जि कुण्डलिनी नालभचक्र में पहुचूँ ती है, उस समय सािक को अलिक उष्णता सहनी पड़ती है।
कुण्डलिनी स्वयं आग की ज्वािाएूँ उगिती है, तथा नालभ में ही जठरालग्न का स्थान है। यही जठरालग्न
भोजन पचाने का कायत करती है तथा सारे शरीर को गमत रखती है। नालभ स्वयं नालड़यों का सलन्िस्थान है।
इन नालड़यों की जड़ता नष् करके चैतन्यता भर देती है तथा जठरालग्न को पवू त रूप से प्रज्जवलित कर देती
है। इस कारण सािक के पेट में आग ही आग िै ि जाती है। सािक का सारा शरीर गमत रहने िगना है। इस
समय सािक को भख ू िहुत िगती है। उसे समझ में नहीं आता है लक वह जो भी खाता है, इतनी जल्दी
भस्म कै से हो जाता है। शौच के लिए तो सािक दो-दो लदन तक नहीं जाएगा, सारा भोजन भस्म हो जाता
है। इसी समय पेट की आूँतों का पानी सख ू ने िगता है। यलद सािकों को पेट के आंतों में जख्स महससू हो
तो दिू में थोड़ा सा देशी घी डािकर पीना चालहए इससे जख्मों को आराम लमिेगा। इस चक्र में अलग्नतत्व
की अलिकता रहती है। ऊपर से कुण्डलिनी भी आग ही आग लनकािती है ति सािक को अलिक उष्णता
महससू होना जरूरी है। नालभचक्र में चैतन्यता लिखेरती हुई ऊपर की और अग्रसर होती है आगे चिकर वह
हृदयचक्र में पहुचूँ ती है।
जि कुण्डलिनी सषु मना के सहारे ऊपर चढ़ती हुई हृदयचक्र में पहुचूँ ती है ति ऐसा िगता है मानो
हृदय में जिन हो रही है। हृदय के चारों ओर आग ही आग िै ि गयी है। कभी-कभी िगता है, हृदय परू ी
तरह से जि जाएगा। अथवा उग्र कुण्डलिनी वािे सािक कभी-कभी ऐसा महससू करते हैं लक कुण्डलिनी
हृदय को नोचे िे रही है। हृदय नोचने की अनुभलू त सभी सािकों को नहीं होती है, इसका कारण यह है
कुण्डलिनी का एक मागत नालभचक्र से सीिे हृदय की ओर जाता है। इस मागत को चौथा मागत भी कहते हैं।
इस मागत से कुण्डलिनी सीिे हृदय में पहुचूँ जाती है। वहाूँ लचि में लस्थत कमातशयों को भी थोड़ी मात्रा में
जिाती है तथा हृदय लस्थत वायु को भी सोखने िगती है। लिर वह नालभचक्र में वापस आ जाती है और
रीढ़ के सहारे हृदयचक्र में आ जाती है। लिर नालभचक्र से वापस आकर सीिे हृदय में प्रवेश कर जाती है।
यह लक्रया कुछ लदनों तक करती है। लिर सषु मना के सहारे हृदयचक्र से आगे िढ़ जाती है। जि हृदयचक्र से
आगे िढ़ जाती है, लिर कुण्डलिनी नालभचक्र से सीिे हृदय पर नहीं आती है। इस चौथे मागत पर कुण्डलिनी

सहज ध्यान योग 203


सभी सािकों की नहीं जाती है। जो पवू तकाि से (पवू तजन्मों) योगी हैं, उनकी कुण्डलिनी चौथे मागत पर जाती
है। इस मागत पर जाने से सािक को कािी िाभ लमिता है क्योंलक कुछ मात्रा में संस्कार जि जाते हैं। िहुत
से योलगयों को भी मािमू नहीं होता है लक कुण्डलिनी का यह भी मागत है। इस लवषय पर आगे लिखेंगे। जि
सािक की कुण्डलिनी हृदयचक्र पर आती है ति अच्छे -अच्छे लदव्य अनभु व भी होतें हैं। कुण्डलिनी
हृदयचक्र की अशि ु ता व जड़ता नष् करके चैतन्यता भरती हुई सािक की सािना के अनसु ार आगे िढ़ती
है और कुछ लदनों पश्चात् कण्ठ चक्र पर पहुचूँ ती है।
कण्ठ चक्र एक ऐसा चक्र है लजसे खोिने में िहुत समय िग जाता है। कई सािक तो इस चक्र को
खोि नहीं पाते हैं क्योंलक उनकी सािना इतनी उग्र नहीं होती है। वैसे यह चक्र खोिने में उग्र सािना करने
वािों को भी कई वषत िग जाते हैं। कुण्डलिनी जि कण्ठ चक्र में पहुचूँ ती है, ति वहाूँ से आगे जाने का मागत
नहीं लमिता है तथा यहाूँ पर मागत भी िहुत सकरा है। इस मागत को एक ग्रलन्थ अवरोि लकये रहती है। यह
ग्रलन्थ नालड़यों का एक गच्ु छा है। जि तक यह ग्रलन्थ खिु नहीं जाएगी, कुण्डलिनी आगे नहीं जा सकती है।
इस अवस्था में सािक को िहुत शि ु रहना चालहए। सािना भी ज्यादा से ज्यादा करनी चालहए। इस ग्रलन्थ
को खोिने के लिए प्राणायाम का महत्त्व अलिक होता है, सािक को प्राणायाम भी खिू करना चालहए।
लजनकी कुण्डलिनी उग्र होती है, उन सािकों को अच्छी तरह महससू होता है लक कुण्डलिनी हमारे गिे में
ठोकर मार रही है तथा ऊपर जाने का प्रयास कर रही है। जि सािक की सािना अच्छी होती है और शरीर
में शि ु ता भी िढ़ जाती है, ति यह ग्रलन्थ खि ु ने िगती है। खिु ते समय ऐसा िगता है जैसे नसें टूट रही हों
अथवा ग्रलन्थ को कुण्डलिनी नोंच रही है। जि ग्रलन्थ पणू तरूप से खि ु ने वािी होती है, ति उस समय गदतन
दख ु ने िगती है। मगर जि कुछ लदनों िाद ग्रलन्थ खि ु जाती है, ति प्राण ऊपर की ओर चिा जाता है।
कुण्डलिनी तरु ं त ऊपर नहीं जा पाती है क्योंलक मागत संकरा है, इसलिए ठोकर मार-मार कर मागत चौड़ा कर
देती है। कण्ठ चक्र का मागत इतना चौड़ा कर देती है तालक कुण्डलिनी को ऊपर जाने के लिए सलु विा हो
जाए। कण्ठ चक्र से कुण्डलिनी अत्यन्त िीमी गलत से ऊपर चढ़ती है। अि ऊपर का मागत तय करने के लिए
सािक को कठोर लनयम-संयम का पािन करना होता है तथा सािना भी कठोर करनी पड़ती है। कण्ठ चक्र
तक कुण्डलिनी िड़े आराम से सषु मु ना के सहारे आ जाती है। मगर आगे का मागत अि स्वयं िनाना पड़ेगा।

सहज ध्यान योग 204


कण्ठ चक्र से ब्रहारंघ्र तक कुण्डलिनी को पहुचूँ ने में िहुत समय िग जाता है। कण्ठ चक्र से ब्रहमरंध्र
जाने के लिए कुण्डलिनी को तीन मागों से होकर गजु रना पड़ता है। इसलिए कण्ठ चक्र से ऊपर कुण्डलिनी
के तीन मागत कहे गये हैं, एक– पवू तमागत, दो– पलश्चम मागत, तीन– सीिा मागत।
पूवणमागण – कण्ठ चक्र से आगे की ओर से होकर आज्ञा चक्र पर आना, आज्ञा चक्र से थोड़ा ऊपर
की ओर होते हुए गोिाई से पीछे की ओर जाकर ब्रह्मरंध्र िार पर पहुचूँ ना, क्योंलक यह मागत मूँहु की ओर
होता है। इसलिए पवू त मागत कहा गया है।
पविम मागण – यह मागत कण्ठ चक्र से लसर के पीछे िघु मलस्तष्क के िीच से होते हुए, िघु मलस्तष्क
से थोड़ा ऊपर उठते हुए गोिाई में ब्रह्मरंध्र िारा तक आना, यह पलश्चम मागत कहा गया है। क्योंलक यह मागत
लसर के पीछे की ओर से आता है।
सीिा मागण – कण्ठ चक्र से ऊपर की ओर सीिे चिा जाता है। कण्ठ चक्र से सीिे ऊपर ब्रह्मरंध्र
िार है। यह मागत कण्ठ चक्र से ऊपर की ओर तीर के समान जाता है। ये तीनों मागत ब्रह्मरंध्र िार पर पहुचूँ ते
हैं। कुण्डलिनी इन तीनों मागों पर क्रमश: आती-जाती रहती है। कण्ठ चक्र खि ु ने के िाद प्राणवायु दो भागों
में लवभालजत हो जाती है। आिा प्राण पूवत मागत से आज्ञा चक्र पर तरु ं त आ जाता है, आिा प्राण कण्ठ चक्र
से िघु मलस्तष्क अथातत पलश्चम मागत में आ जाता है।
इस अवस्था में िघमु लस्तष्क के अंदर से जाने वािा मागत अभी िन्द रहता है, इसलिए प्राण इसी
जगह पर रुका रहता है। कुण्डलिनी सिसे पहिे इस मागत को अथातत पलश्चम मागत को खोिने का प्रयास करने
िगती है। िघमु लस्तष्क का स्वरूप िूि-गोभी के जैसा होता है। जि कुण्डलिनी िघमु लस्तष्क में अपना मागत
िनाती है, ति उग्र कुण्डलिनी वािे सािक को परे शानी होती है क्योंलक िघमु लस्तष्क में वह घसु जाती है।
जि घसु ती है, ति उस क्षेत्र की अशि ु ता को नष् करती हुई आगे की ओर गमन करती है। सािक को ऐसा
िगता है, मानो िघमु लस्तष्क के माूँस को चीरती हुई चिी जा रही है, तथा आसपास के माूँस को भी जिा
रही है। सक्ष्ू म िघमु लस्तष्क, स्थि
ू िघमु लस्तष्क में समाया हुआ है। इस कारण ऐसी अनभु लू त होती है।
िघमु लस्तष्क में मागत प्रशस्त करते समय वह पवू त मागत पर भी जाती है तथा सीिे मागत पर भी जाती है, इसलिए
तीनों मागत क्रमश: तय करती है। पहिे िघमु लस्तष्क का मागत खोिती है लिर पवू तमागत पर आ जाती है। लिर
मस्तक पर लस्थत आज्ञा चक्र खोिने में िग जाती है। जि कुण्डलिनी आज्ञा चक्र पर पहुचूँ ती है, उस समय

सहज ध्यान योग 205


सािक की लदव्यदृलष् खि ु जाती है, अथवा पहिे भी लदव्यदृलष् खि
ु जाती है। जि कुण्डलिनी आज्ञा चक्र
पर पहुचूँ ती है ति लदव्यदृलष् अत्यन्त तेज हो जाती है। इस समय कुण्डलिनी के कारण अत्यन्त तेज हुई
लदव्यदृलष् की देखने की क्षमता िहुत ज्यादा हो जाती है।
लजस समय कुण्डलिनी आज्ञा चक्र पर आती है उस समय स्थि ू नेत्र भी अत्यन्त तेजस्वी लदखाई
देने िगते हैं तथा आूँखों व पिकों में तीव्र जिन भी होती है। ऐसा िगता है जैसे पिकों में चीलटयाूँ काट
रही हैं। आूँखों में कािी जिन के कारण, तेज िपू में आूँखें नहीं खुिती हैं अथवा आूँखों में परे शानी होती
है। ध्यानावस्था में आूँखें अंदर की ओर लखंचती हैं, ऐसा िगता है आूँखें टूटकर पीछे की ओर चिी जायेंगी,
तथा आूँखों की पुतलियाूँ घूमने िगती हैं। ऐसा िगता है आूँखों की दृलष् भी चिी जाएगी, मगर ऐसा होता
नहीं है। सािक को इस अवस्था में घिराहट िहुत होने िगती है। उग्र कुण्डलिनी वािे सािकों के अंदर इस
अवस्था में िहुत ज्यादा शलक्त आ जाती है। सािक दसू रों को हालन भी पहुचूँ ा सकता है। जि आज्ञा चक्र
खि ु जाता है ति कुण्डलिनी लिर सीिे मागत से होकर ब्रह्मरंध्र िार पर पहुचूँ जाती है। जि िघमु लस्तष्क खिु
जाता है ति आिा प्राणवायु पलश्चम मागत से ऊपर चढ़ता हुआ ब्रह्मरंध्र िार पर आ जाता है। आिा प्राणवायु
आज्ञा चक्र से पवू त मागत होता हुआ ब्रह्मरंध्र िार पर आ जाता है। दोनों िटे हुए प्राण आपस में लिर लमि जाते
हैं। कुण्डलिनी िघमु लस्तष्क व आज्ञा चक्र पर जड़ता को नष् करके अपनी चैतन्यता लिखेरकर उस भाग को
चेतनमय िना देती है।
जि कुण्डलिनी सीिा मागत खोि देती है तो उस समय ब्रह्मरंध्र से टपकने वािी अमृत रूपी िंदू ें
सीिे नालभ पर आकर लगरती हैं और नालभ पर लस्थत जठरालग्न को शांत कर देती हैं। जि यह िंदू ें लगरती हैं
उस समय गिे में इन िंदू ों की अनुभलू त होती है। इसका स्वाद िहुत ज्यादा मीठा होता है। ऐसा िगता है लक
शहद की िूँदू ें लगरी हों, इसका स्वाद एक-दो लदन तक िना रहता है। इसे योग की भाषा में अमृत की िूँदू ें
कहते हैं। खेचरी मरु ा िगाने वािे सािक जीभ की नोक पर इन िंदू ों का स्वाद लिया करते हैं। इससे भूख
प्यास पर लवजय प्राप्त होती है। जि सािक का कण्ठ चक्र खि ु जाता है, ति कुण्डलिनी तीनों मागों को
खोिने में िग जाती है। उसी समय सािक को ध्यानावस्था में यह लक्रया होती है। उसका लसर नीचे की ओर
शरीर पर दिाव देता है, उसी तरह कंिों से लनचिा भाग ऊपर की ओर दिाव देता है। दोनों ओर के दिाव
से गदतन लिल्कुि लसकुड़ जाती है, क्योंलक दोनों ओर से (लसर का और शरीर का) दिाव गदतन पर पड़ता है।

सहज ध्यान योग 206


लसर का लनचिा भाग कंिों पर िग जाता है। लसर का दिाव कभी-कभी इतना ज्यादा िढ़ जाता है लक लसर
में कमपन होने िगता है। उसी समय उड्लडयान िन्ि भी िगा होता है तथा मि ू िन्ि भी जोर से िगा रहता
है। इस लक्रया का कारण यह होता है लसर की वायु नीचे की ओर आती है और नीचे की वायु ऊपर लसर में
जाती है, इसलिए यह लक्रया होती है। गदतन में व लसर में उदानवायु का व्यापार चिता है, इसलिए कुछ मात्रा
में उदानवायु नीचे आती है।
अि कुण्डलिनी सीिे मागत से होकर ब्रह्मरंध्र िार पर अपना मूँहु स्पशत लकये रहती है। उसी समय प्राण
भी ब्रह्मरंध्र पर रुका रहता है। ब्रह्मरंध्र िार को प्राणवायु खोि नहीं सकती है, क्योंलक ब्रह्मरंध्र िार की संरचना
अन्य चक्रों के समान नहीं होती है। ब्रह्मरंध्र िार की संरचना लवशेष तरह की परत िारा होती है। यह परत
पतिी मगर अत्यन्त सख्त होती है इसीलिए प्राण इस िार को नहीं खोि सकता है। सािक जि ध्यानावस्था
में होता है उस समय कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र िार पर अपने मूँहु से ठोकर मारती है। कुण्डलिनी लजतनी ज्यादा
उग्र होती है ब्रह्मरंध्र पर ठोकर उतनी ज्यादा जोर से मारे गी। सािक को महससू होता है लक ब्रह्मरंध्र िार पर
गरम-गरम सजू ा सा (सआ ु ) चभु रहा है यह कुण्डलिनी ही होती है। इस अवस्था में ब्राह्य कुमभक िहुत
िगता है तथा कुमभक दीघत भी िगता है। कभी-कभी िाह्य कुमभक इतना ज्यादा दीघत हो जाता है लक सािक
को घिराहट महससू होने िगती है। िगता है लक अि श्वास वापस नहीं आयेगा। मगर लिर श्वास अंदर आता
है, तो अतं कतु मभक िगता है। यह कुमभक इतने जोर से िगता है लक सािक अपनी श्वास िाहर नहीं लनकाि
पाता है। िस, यही िाह्य और अतं कतु मभक िगते हैं। इस अवस्था में सािक को िड़ी तकिीि उठानी पडती
है। यह लक्रया स्वयं कुण्डलिनी िारा होती है। इस लक्रया से कुण्डलिनी में उग्रता आती है तथा ब्रह्मरंध्र िार
पर जोरदार प्रहार करती है।
जि कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र िार खोिने का प्रयास करती है उसी समय िादिों की गजतना सनु ाई पड़ती
है। ऐसा िगता है लक आकाश में िादिों की भयंकार गजतना हो रही है, जैसे िरसात के समय िादिों में
गजतना होती है। इस प्रकार की गजतना को मेघनाद भी कहते हैं। यह गजतना दस प्रकार के नादों में दसवाूँ नाद
है। ऐसी गजतना आकाशतत्व में वायतु त्व का आपस में घषतण होने के कारण सुनाई देती है। यह लक्रया
कुण्डलिनी िारा होती है यह अवस्था तन्मात्राओ ं की आखरी सीमा है ब्रह्मरंध्र िार खि
ु ने के िाद सािक
की अवस्था अहक ं ार के अंतगतत आ जाती है। इसीलिए ब्रह्मरंध्र िार खुिते समय भयंकर मेघनाद की

सहज ध्यान योग 207


भयकं ार गजतना सनु ाई देती हैं लिर सािक को सालत्वक अहक ं ार रूपी वृलि का लभन्न-लभन्न रूपों में दशतन
होता है। ये वृलियाूँ अत्यतं शलक्तशािी होती है इसी कारण ब्रह्मरंध्र िार खिु ने पर अभ्यासी को करोड़ो सयू त
के समान तेज प्रकाश लदखाई देता हैं इसीलिए सािक को ब्रह्मरंध्र खि ु ने से पहिे एक आग का गोिा
अथवा उगते हुए सयू त के समान गोिा लदखाई देता है।
लजन सािकों की कुण्डलिनी अत्यन्त उग्र होती है, इस अवस्था में वे सािक ध्यानावस्था में आगे
की ओर झक ु ते है। उसका मस्तक आगे िशत को स्पशत करने िगता है। क्योंलक कुण्डलिनी में इतना ज्यादा
वेग होता है लक सािक का शरीर आगे की ओर झक ु जाता है और आगे िशत पर मस्तक दिाव देता है।
मि ू ािार वािा लहस्सा ऊपर की ओर उठने िगता है। यह सि लक्रया कुण्डलिनी के कारण होती है। सािकों,
हमारी कुण्डलिनी अत्यन्त उग्र रही, इसलिए उग्र कुण्डलिनी के लवषय में हमें ज्यादा जानकारी है। मैंने लजन
अन्य सािकों का मागतदशतन लकया, उनमें कुछ सािकों की कुण्डलिनी पणू त यात्रा करके लस्थर हो गयी है।
अि मैं कुछ शब्द मध्यम और शांत स्वभाव वािी कुण्डलिनी के लवषय में लिखता ह।ूँ लजनकी कुण्डलिनी
मध्यम श्रेणी में आती है ऐसे सािकों के ब्रह्मरंध्र खि
ु ते समय वह पीछे की ओर लगर जाते हैं, अथवा पीछे
की ओर झक ु जाते हैं। शांत स्वभाव वािी कुण्डलिनी के सािक चपु चाप सीिे िैठे रहते हैं, मगर इनका
ब्रह्मरंध्र िहुत समय में खुि पाता है।
जि सािक का ब्रह्मरंध्र खिु ता है ति उसे भयंकर मेंघों की गजतना सनु ाई देती है। ऐसा िगता है लक
कान िटे जा रहे हों। उसी समय िगता है जैसे िादि िट गये। कुण्डलिनी ने ब्रह्मरंध्रिार पर छे द कर लदया,
यह भी महससू होता है। जो आग का गोिा लदखाई पड़ता था वह िट जाता है। ऐसा िगता है मानो करोड़ों
सयू त िट गये हों। चारों ओर ब्रह्माण्ड भर में तेज प्रकाश िै ि गया। उसी तेज प्रकाश में (जो चकाचौंि कर
देने वािा है) सािक स्वयं अपने आपको पाता है। िगता है करोड़ों सयू त एक साथ चमक उठे हों। उसी समय
सािक को एक और लक्रया होती है। जि कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र खोि देती है, ति ब्रह्मरंध्र िार पर रुका प्राण
ब्रह्मरंध्र के अंदर चिा जाता है। प्राण अंदर जाते ही सािक कुछ समय के लिए चेतनाशन्ू य सा हो जाता है
अथातत उसे अपना होश नहीं रहता है और आसन पर ही एक ओर िढ़ु क जाता है। मझु े अपना याद आ रहा
है, मैं िहुत समय के लिए िेहोश हो गया था। इस लवषय में आप हमारे अनुभवों को पलढ़ए लक हमारा ब्रह्मरंध्र
लकस प्रकार खुिा था।

सहज ध्यान योग 208


जि ब्रह्मरंध्र खि
ु जाता है, ति ध्यानावस्था में प्राण ब्रह्मरंध्र के अदं र चिा जाता है, उस समय
सािक को लसर के ऊपरी भाग में गदु गदु ी सी होती है। शरुु आत में प्राण ब्रह्मरंध्र में ज्यादा समय नहीं ठहरता
है, कुछ समय िाद नीचे आ जाता है। जैसे-जैसे अभ्यास िढ़ता है, प्राण ब्रह्मरंध्र में ज्यादा ठहरने िगता है।
जि सािक का प्राण ब्रह्मरंध्र में आता है, ति सािक की उस अवस्था में लनलवतकल्प समालि िगती है। कण्ठ
चक्र खिु ने के िाद और ब्रह्मरंध्र खि
ु ने से पहिे सािक की सलवकल्प समालि िगती है।
इस समय कुण्डलिनी सदैव सीिे मागत का प्रयोग करती है। कुण्डलिनी मि ू ािार से ब्रह्मरंध्र तक
सीिी खड़ी रहती है। कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र के अंदर प्रदेश नहीं करती है। िलल्क ब्रह्मरंध्र िार खोिकर अपना
मूँहु थोड़ा सा ब्रह्मरंध्र के अंदर करती है। यह कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र िार पर ज्यादा समय तक नहीं ठहरती है वह
अि आज्ञा चक्र की ओर ब्रह्मरंध्र िार से चि देती है। ब्रह्मरंध्र िार से पवू त का मागत अपना िेती है। इसे योग
की भाषा में कुण्डलिनी को उिटना कहते हैं। लिर लदव्यदृलष् िारा होते हुए आज्ञा चक्र पर आ जाती है। जि
कुण्डलिनी उिटकर आज्ञा चक्र पर आती है, उस समय ऐसा िगता है लक स्थि ू आूँखें जिी जा रही हैं।
कुण्डलिनी के कारण जिन होती है। पिकों में ऐसा िगता है लक पिकों को ब्िेड से चीरा जा रहा है। लिर
आज्ञा चक्र से नीचे को मूँहु करके आने िगती है। इस समय कुण्डलिनी पवू त मागत का प्रयोग नहीं करती है
िलल्क आज्ञा चक्र से नीचे की ओर अपना नया मागत िनाती हुई तािू को कुतरने िगती है। जि कुण्डलिनी
तािू को कुतरती है, तो ध्यानावस्था में सािकों को महससू होता है। तािू को काटकर कुण्डलिनी नीचे की
ओर मूँहु लकये हृदय की ओर आने िगती है, लिर हदय में आकर वह हृदय में लस्थत वायु को सोखने िगती
है। जि वायु को सोखती है ति सािक को ध्यानवस्था में थोड़ी सी घिराहट सी होती है तथा हृदय में तीव्र
जिन भी होती है। मगर इस लक्रया से सािक को दरू गामी िाभ िहुत होता है। लजस समय वह कुण्डलिनी
वायु सोखती है, उस समय लचि में वृलियों का उठना िन्द हो जाता है। जो तीव्र जिन होती है वह ढेर सारे
सस्ं कारों को जिाकर राख कर देती है। जैसे-जैसे सािक का अभ्यास िढ़ता है, लिर कुण्डलिनी लस्थर होने
िगती है। एक समय ऐसा आता है लक कुण्डलिनी लस्थर हो जाती है, लिर मि ू ािार में वापस नहीं िौटती
है। कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद अपना अलग्नतत्व का स्वरूप छोड़ देती है और सािक के शरीर में वायतु त्व
में लविीन हो जाती है। सािक का शरीर कांलतवान व तेजस्वी हो जाता है, क्योंलक कुण्डलिनी सािक के
शरीर में वायु रूप में व्याप्त रहती है।

सहज ध्यान योग 209


कुछ सािकों ने पछ ू ा लक हम लकतनी सािना करें , अथवा हमारी कुण्डलिनी लकतने लदनों में जाग्रत
हो जाएगी। इस प्रश्न के उिर में हम यही कह सकते हैं लक कुण्डलिनी जाग्रत होने का कोई लनलश्चत समय नहीं
होता है। यह तो सािक की सािना पर लनभतर होता है। सािक की सािना जि पररपक्व अवस्था में होगी तो
आपके गरुु देव स्वयं आपकी कुण्डलिनी ऊध्वत कर देंगे। मगर इसके लिए सािक को कठोर सािना,
प्राणायाम तथा लनयम-सयं म आवश्यक हैं। कुण्डलिनी सािक की ही नहीं, सारे ब्रह्माण्ड की माूँ है। यही
कुण्डलिनी माूँ हमें हमारे वास्तलवक परम लपता से लमिा सकती है। िच्चे की माूँ को ही मािमू होता है लक
िच्चे का लपता कौन है। इसलिए कुण्डलिनी जि जाग्रत होती है, लिर ऊध्वत होकर लनगतणु ब्रह्म के स्थान
सहस्त्रार चक्र में लपता परमेंश्वर से लमिा देती है। इस िात से लसि होता है लक कुण्डलिनी के लिना हमें लनगतणु
ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो सकता है।
वैसे सािक को सदैव ब्रह्मचयत का पािन करना चालहए, मगर कुण्डलिनी जागृत होने में ब्रह्मचयत का
िहुत महत्त्व है। ब्रह्मचयत का पािन न करने से कुण्डलिनी को ऊध्वत करने में अवरोि आयेगा, तथा ब्रह्मचारी
का मन अशांत भी रहता है। ब्रह्मचयत का अथत लसित शारीररक वासना से नहीं है िलल्क मन और िाचा को
भी संयलमत रखना होता है। ब्रह्मचयत का पािन ही सािक के लिए महत्त्वपणू त व कलठन है। सािक को सािना
काि में भोजन पर भी लवशेष ध्यान देना चालहए। सालत्वक भोजन अलत आवश्यक है क्योंलक भोजन के िारा
सािक के अदं र अशि ु ता िहुत जाती है। यह अशि ु ता कुण्डलिनी के लिए अवरोि का काम करती है।
सालत्वक भोजन के साथ पौलष्क होना जरूरी है तालक सािक का स्थि ू शरीर कमजोर न हो। सािक को
मौनव्रत का भी पािन करना चालहए।
सािक की कुण्डलिनी जि जाग्रत होने वािी होती है अथवा जाग्रत होती है, ति सािक को
ध्यानावस्था में तीनों िन्ि िगने िगते हैं। तीनों िन्ि िगने से कुण्डलिनी ऊध्वत होने अथवा जाग्रत होने में
सहायता लमिती है। कुण्डलिनी जाग्रत होने के समय सािक को लवलभन्न प्रकार के अिग-अिग अनभु व
होते हैं। यलद सािक को कुण्डलिनी जाग्रत होते समय अनभु व न हुए हों, तो ऊध्वत होते समय अनुभव होते
हैं। कुछ इस प्रकार के अनुभव हम लिख रहे हैं।
1. लशवलिगं पर साढ़े तीन चक्कर िपेटे हुए सपत लदखाई देता है, यह सपत कािा या पीिा भी हो
सकता है। कभी-कभी सुखत िाि रंग का सपत लदखाई देता है। कभी-कभी लशवलिंग िंिु िे प्रकाश में लदखाई

सहज ध्यान योग 210


देता है। कभी-कभी यही लशवलिगं अंतररक्ष में लदखाई देता है। कभी-कभी लशवलिगं में सपत लिपटा हुआ
अपनी पूँछू अपने मूँहु में दािे हुए लदखाई देता है।
2. ध्यान में लदखाई देगा, एक पीिा नाग (मगर सामान्य नाग से मोटा) । हमारी ओर िन उठाये हुए
कुण्डिी मारे हमें देख रहा है। पीिे नाग का िन आपके लिल्कुि नजदीक अथवा दरू भी हो सकता है। यह
नाग आपको सामान्य नागों से सन्ु दर िगेगा। कभी-कभी यह नाग िुिकार मारता हुआ भी लदखाई देता है।
3. आपको आकाश में लिजिी चमकती हुई लदखाई देगी, जो तरु ं त अदृश्य हो जाएगी, लजस तरह
से िरसात में िादिों के िीच लिजिी चमकती है और गायि हो जाती है। मगर यह आकाश लिल्कुि
स्वच्छ होता है नीिे रंग का। आकाश में न िादि होते हैं, न सयू त और न चन्रमा होता है, तारे भी नहीं होते
हैं। इस प्रकार के आकाश को सािक ने पहिे देखा नहीं होगा, िहुत ही आकषतक होता है।
4. कुण्डलिनी आलदशलक्त है, इसलिए यह सािकों को सन्ु दर स्त्री के रूप में लदखाई देती है। िाि
रंग की साड़ी पहने होती है। इस साड़ी में चमकदार लसतारे िगे होते हैं। लसर पर सन्ु दर मक ु ु ट िारण लकये
होती है। मकु ु ट में मलणयाूँ भी िगी होती हैं, सारे शरीर में सन्ु दर आभषू ण पहने होती है। यह स्त्री इतनी सुन्दर
होती है लक सािक तुरंत कहेगा लक इतनी सन्ु दर लस्त्रयाूँ पृर्थवी पर नहीं होती हैं। कभी-कभी यह सािारण स्त्री
की भाूँलत लदखाई देती है, लिर भी िहुत सन्ु दर लदखती है। दाूँत मोलतयों के समान चमकदार होते हैं। कभी-
कभी यह अतं ररक्ष में खड़ी लदखाई देती है, तो कभी-कभी प्रकाश के विय के अदं र लदखाई देती है। सािकों,
एक-दो िार यह हमें हरी साड़ी में भी लदखाई दी थी।
5. कािा नाग अथवा पीिा नाग िन उठाये कुण्डिी मारे आपकी ओर देख रहा होगा। इसके िन
के ऊपर एक मलण िगी होगी, वह मलण अत्यन्त प्रकाशवान होती है। मलण के िारा प्रकाश िै िा होता है।
6. जि कुण्डलिनी जागती है तो लकसी-लकसी सािक को कभी-कभी छोटी सी िालिका के रूप में
लदखाई देती है। ऐसा िगता है 8-10 वषत की सन्ु दर िालिका ब्िाउज-घाघरा पहने अतं ररक्ष में खड़ी मस्ु करा
रही है अथवा हूँस रही है। उसके चारों ओर तेज प्रकाश िै िा होगा, कभी-कभी यह प्रकाश नहीं होता है।
यह भतू ाकाश नहीं होता है िलल्क लचिाकाश होता है। इसीलिए उसमें सयू त, चन्रमा और तारे आलद नहीं
लदखाई देते हैं।

सहज ध्यान योग 211


7. जि सािक का अपना ही स्वरूप उसके सामने स्त्री रूप में खड़ा हो, उस समय स्त्री वािा शरीर
िाि या हरे रंग की चमकीिे लसतारोंदार साड़ी और आभषू ण आलद पहने हो, लसर पर मक ु ु ट हो, वह शरीर
सन्ु दर यवु ती के समान हो, आपको आशीवातद दे रही हो, हूँस रही हो अथवा मस्ु कुरा रही हो, तो आप यह
समलझए, आपकी कुण्डलिनी ऊध्वत होने िगी है। उस समय आपको आश्चयत होगा, आप खड़े होंगे आपके
ही सामने आपका एक और सन्ु दर शरीर स्त्री रूप में खड़ा होगा। स्त्री का स्वरूप अलितीय सन्ु दर व तेजस्वी
होगा। वह आपके शरीर की शलक्त ही आपका स्वरूप िारण लकये हुए लदखाई दे रही है।
8. जि लकसी जिाशय या लस्थर पानी के ऊपर नाग कुण्डिी मारे िन ऊपर उठाये हुए अगर लदखाई
दे तो समझ िेना चालहए आपकी कुण्डलिनी ऊध्वत होने िगी है अथवा शीघ्र ऊध्वत हो जाएगी। कभी-कभी
यह नाग पानी में िुिकार मारता हुआ लदखाई देता है।
9. जि कुण्डलिनी ऊध्वत होने का समय आ जाता है, तो मि ू ािार में तीव्र जिन होनी शरू
ु हो जाती
है। कुछ समय िाद चींलटयाूँ-सी काटती समझ में आती हैं। अथवा कुण्डलिनी जहाूँ तक ऊध्वत होती है ति
ऊध्वत होते समय ऐसा िगता है लक चींलटयाूँ ऊपर की ओर काटती चिी जा रही हैं। चींलटयाूँ-सी काटने का
अनभु व अशि ु ता के कारण होता है। कुण्डलिनी अशि ु ता को जिाती हुई आगे को िढ़ती है, इसलिए
सािक को स्थि ू शरीर में चींलटयाूँ-सी काटती हुई महससू होती हैं।
10. लजन सािकों का स्थि ू शरीर शिु होता है तथा कुण्डलिनी भी उग्र स्वभाव की होती है, उन्हें
ऊध्वत होते समय ऐसा िगता है लक गमत िोहे की छड़ ऊपर की ओर माूँस िाड़ती व जिाती हुई चिी जा
रही है। ऐसी कुण्डलिनी से सािकों का स्थि ू शरीर अत्यन्त कष् महससू करता है। क्योंलक लजस स्थान तक
कुण्डलिनी ऊध्वत होती है, वहाूँ तक की नालड़यों में आग-सी भर देती है और िगता है लक नसों को ब्िेड से
काटा जा रहा है। ऐसी कुण्डलिनी ध्यानावस्था के िाद सािारण अवस्था में भी ऊध्वत होने िगती है, लिर
वापस मि ू ािार में आ जाती है। लजन सािकों की कुण्डलिनी इस तरह की होती है, वह लन:सदं ेह अत्यन्त
शलक्तशािी (योग में) होते हैं। ऐसे सािकों को गरुु पद पर लिठाया जाए तो अच्छा है।
11. कभी-कभी सािक को ध्यानावस्था में कुण्डलिनी ऊध्वत होते हुए लदखाई देती है, चढ़ते समय
यह लवद्यतु रे खा की भाूँलत एक पतिी रे खा सी ऊपर की ओर जाती नजर आती है। कभी-कभी ऐसा लदखाई

सहज ध्यान योग 212


देता है लक एक सपत चक्करदार ढगं से ऊपर की ओर अलत तीव्र गलत से चढ़ रहा है। यह अनभु व सािकों को
कम आता है।
12. सािकों, अंतररक्ष में कभी-कभी िहुत िड़ा, सोने का िना हुआ दरवाजा लदखाई देता है। यह
दरवाजा अत्यन्त लवशाि होता है तथा हल्का सा प्रकाश दरवाजे से लनकिता है। दरवाजे में लडजाइन िहुत
सन्ु दर िना होता है। कभी-कभी अंतररक्ष में सन्ु दर लसंहासन लदखाई देता है। यह परू ी तरह से सोने का िना
होता है। आप लसंहासन देखकर समझ जायेंगे लक यह लसंहासन अवश्य लदव्यिोक का है। कभी-कभी सोने
से लनलमतत सन्ु दर महि अंतररक्ष में लदखाई देगा, समपणू त महि सोने व अत्यन्त चमकीिी िातु से िना लदखाई
देता है। इस महि के ऊपर अथवा दरवाजे पर िाि साड़ी पहने सन्ु दर स्त्री आपको लदखाई देगी, कभी-कभी
यह स्त्री आपको िि ु ाएगी। हो सकता है आप महि के अंदर भी चिे जायें, अथवा इसी समय आपका
अनभु व समाप्त हो जाएगा। यलद आप महि के अंदर चिे गये तो अलत उिम है, आपको भलवष्य में लनश्चय
ही कुण्डलिनी की लवशेष कृ पा प्राप्त होगी। लसित लसंहासन अथवा दरवाजा लदखना कुण्डलिनी जागरण से
समिंलित है। कभी-कभी लसंहासन के ऊपर सन्ु दर स्त्री अथवा सनु हरी या पीिी नालगन िैठी लदखाई देगी।
इसी तरह दरवाजे के चौखट पर सुन्दर स्त्री िाि रंग की साड़ी पहने हुए खड़ी या िैठी लदखाई देगी अथवा
चौखट पर सुनहिी अथवा पीिी नालगन लदखाई देगी। सािकों, ये सारे दृश्य िहुत सन्ु दर होते हैं। महि के
अदं र का दृश्य अलत सन्ु दर देखने को लमिेगा। यह महि सािारण नहीं है, सारा ब्रह्माण्ड इसी में समाया है।
आप हमारे अनभु वों में पलढ़ए तो अवश्य आपको अच्छा िगेगा।
13. सािकों, जि ध्यानावस्था में ओकं ार की ध्वलन अपने आप लनकिने िगे, तो समझ िेना
चालहए लक यह ध्वलन कुण्डलिनी की कृ पा से लनकि रही है। कुण्डलिनी जाग चुकी है अथवा ऊध्वत होने
िगी है। इस प्रकार की ओकं ार की ध्वलन गूँजू ती हुई गमभीर स्वर में होती है। सनु ने में िहुत आकषतक होती
है। कभी-कभी ओकं ार की ध्वलन सािक के मूँहु से िाहर भी लनकि जाती है। उस समय दसू रा सािक सनु
सकता है।
कुण्डलिनी ऊध्वत होने के िाद उतनी ही ऊध्वत होगी लजतनी सािक की योग्यता होती है। कुण्डलिनी
को ब्रह्मरंध्र तक पहुचूँ ने में कई साि िग जाते हैं। अत्यन्त उग्र कुण्डलिनी जल्दी ही ब्रह्मरंध्र तक पहुचूँ जाती
है। कुण्डलिनी ध्यानावस्था में िरािर चढ़ी ही नहीं रहती है, कुछ समय के लिए चढ़ती है लिर वापस मि ू ािार

सहज ध्यान योग 213


में आ जाती है। यलद सािक ज्यादा देर तक ध्यान पर िैठता रहता है तो कुण्डलिनी कई िार उतर-चढ़ सकती
है। क्योंलक कुण्डलिनी का ऊध्वत होना व मि
ू ािार में वापस िौटना मन की लस्थरता और कुमभक के ऊपर
लनभतर करता है। कुमभक ज्यादा देर तक होगा तो कुण्डलिनी ऊपर चढ़ जाएगी। क्योंलक कुमभक से प्राणवायु
का दिाव मि ू ािार पर पड़ता है। दिाव पड़ने से कुण्डलिनी ऊध्वत होने िगती है। कुण्डलिनी जागरण में
प्राणायाम और आसन भी सहायक है लजनका वणतन हम पहिे कर चक ु े हैं।
लजन सािकों की कुण्डलिनी ऊध्वत होने िगी है, वे ध्यान रखें लक कुण्डलिनी से लकसी प्रकार का
काम न िें। क्योंलक कुण्डलिनी ऊध्वत होने पर सािक की संकल्पशलक्त िहुत िढ़ जाती है। यलद कुण्डलिनी
के िारा लकसी प्रकार का कायत लिया गया तो आपकी सािना में रुकावट जा जाएगी। अतुः ऐसी भूि
लिल्कुि न करें । सािक को शलक्तपात ति करना चालहए जि सािक की कुण्डलिनी लस्थर हो चक ु ी हो। लिर
योग के लवषय में पणू त रूप से जानकारी हालसि कर िीलजए। यलद आपने अपने सािनाकाि या ऊध्वत होते
समय शलक्तपात लकया अथवा अन्य कायत लिए, तो इसका असर आपकी कुण्डलिनी पर सीिे आयेगा।
जि सािक के शरीर में कुण्डलिनी उठती है ति जरूरी नहीं लक उसे िार-िार लदखाई पड़े लक
कुण्डलिनी ऊपर चढ़ रही है। कुण्डलिनी ऊपर चढ़ते समय सदैव लकसी को नहीं लदखाई देती है, लसित महससू
होती है। लकसी-लकसी सािक को शरुु आत में कुण्डलिनी चढ़ने का ज्ञान नहीं हो पाता है। ऐसे सािकों की
सािना जि आगे िढ़ती है, ति कुण्डलिनी कािी समय िाद महससू होती है क्योंलक लिर कुण्डलिनी
हल्की-सी गमत हो जाती है; ति सािक को मािमू पड़ता है लक उसकी कुण्डलिनी ऊध्वत हो रही है। मगर
कुछ सािकों को कुण्डलिनी चढ़ते ही पीड़ा होती है, उनको िगता है लक गमत िोहे की छड़ के समान कोई
वस्तु ऊपर चढ़ रही है चढ़ते समय उस क्षेत्र का माूँस जिाती चिी जाती है। उस क्षेत्र की नालड़यों में आग
सी िै ि जाती है। नालड़यों में इतनी जिन होती है। ऐसा िगता है लक नालड़याूँ टूटी जा रही हैं या ब्िेड से
काटी जा रही हैं।
सािकों को कुण्डलिनी जाग्रत व ऊध्वत होने के अिग-अिग अनभु व होते हैं। क्योंलक सभी सािकों
की कुण्डलिनी एक जैसी स्वभाव की नहीं होती है। वैसे कुण्डलिनी के प्रकार तो नहीं होते हैं मगर हमारा
लजस तरह का अनुभव है, मैंने कई सािकों के लवषय में जानकारी हालसि की, लजन्हें कुण्डलिनी के अिग-
अिग अनुभव हुए। इसलिए कुण्डलिनी के लवषय में ज्यादा स्पष् करने के लिए, कुण्डलिनी को तीन श्रेणी

सहज ध्यान योग 214


में कर लदया– एक उग्र स्वभाव वािी कुण्डलिनी, दो मध्यम स्वभाव वािी कुण्डलिनी, तीन शातं स्वभाव
वािी कुण्डलिनी।
सािकों में उग्र स्वभाव की कुण्डलिनी िहुत कम पायी जाती है। जि कुण्डलिनी ऊध्वत होती है ति
सािक को भिी-भाूँलत मािमू पड़ जाता है लक उसकी कुण्डलिनी ऊध्वत हो रही है क्योंलक यह अत्यन्त गमत
होती है। ऊध्वत होते समय िगता है लक आग उगिते हुए ऊपर की ओर चढ़ रही है। शरुु आत से ही सािक
को परे शानी सी महससू होती है ऊध्वत होते समय ऐसा महससू होता है लक रीढ़ की हड्डी के चारों ओर माूँस
का लहस्सा जिता सा जा रहा है। लजस जगह तक चढ़ती है वहाूँ से संिंलित नालड़यों में आग सी भरती जाती
है शरीर में उष्णता होने िगती है। इस प्रकार के सािकों की सािना िहुत कठोर होती है। अपने िक्ष्य को
प्राप्त करने में तत्पर रहते हैं। कुण्डलिनी उग्र होने के कारण उतनी ही शीघ्रता से शरीर को शि
ु करना शरू

कर देती है। इससे चक्र खि ु ने में िड़ी सहायता लमिती है तथा सत्वगणु की अलिकता शीघ्र िढ़ने िगती
है। यलद इस तरह के सािक के पास दसू रा सािक सािना करे तो उसकी भी सािना तीव्र होने िगेगी। उग्र
कुण्डलिनी वािे सािकों में योगिि भी िहुत होता है। ऐसा सािक लजस क्षेत्र में शलक्त का प्रयोग करे गा,
उसे सििता अवश्य लमिेगी। मगर ऐसे सािकों को लसित आध्यालत्मक क्षेत्र में ही शलक्त का प्रयोग करना
चालहए। सािकों को स्थि ू कायों में शलक्त को लिल्कुि नहीं िगाना चालहए। ऐसे सािक लनलश्चत रूप से
लपछिे जन्मों में सािना करते रहे हैं। प्रकृ लत का लनयम है लक लपछिे जन्मों की सािना का प्रभाव वततमान
सािना पर पड़ता है। लिर अत्यन्त उच्चावस्था में लपछिे जन्मों की सािना का प्रभाव परू ी तरह से आ जाता
है। इसीलिए सािक को अपना िक्ष्य शीघ्र लमि जाता है। इस प्रकार के सािक में शलक्तपात करने की क्षमता
िहुत अलिक होती है तथा वह दसू रे सािकों को मागतदशतन भी कर सकता है। योग कायत में आयी परे शानी
को दरू कर सकता है तथा सािकों की कुण्डलिनी उठाने में सक्षम होता है। मैं सािकों को एक िात और
िता द,ूँू कुण्डलिनी उठाने में ज्यादा शलक्तपात की आवश्यकता नहीं होती है। महत्त्वपणू त िात यह है
कुण्डलिनी ऊध्वत होने के िाद सािक को लकसी प्रकार की गित लक्रयाएूँ नहीं होनी चालहए। यलद गित
लक्रयाएूँ हों, तो मागतदशतक की लजममेदारी है लक वह सािक को गित लक्रयाएूँ न होने दे, सािक को लिल्कुि
लस्थर कर दे तालक सािक का ध्यान में मन एकाग्र हो सके । ऐसे सािक गरुु पद के लिए लिल्कुि उपयक्त ु हैं।

सहज ध्यान योग 215


मध्यम स्वभाव वािी कुण्डलिनी के सािक िहुत होते हैं। ऐसे सािक दसू रों पर शलक्तपात कर सकते
हैं मगर लसित कामचिाऊ शलक्तपात होता है। ऐसे सािकों की कुण्डलिनी जि चढ़ती है तो उन्हें भी महससू
होती है लक कुण्डलिनी चढ़ रही है, मगर िहुत ज्यादा गमत नहीं होती है। लसित िगता है लक गमत-गमत कुण्डलिनी
चढ़ रही है। ऐसे सािकों को कुण्डलिनी से परे शानी महससू नहीं होती है, क्योंलक यह कम तेजस्वी होती है।
ऊध्वत होते समय महससू होता है लक ढेर सारी चीलटयाूँ काट रही हैं। अपने िक्ष्य को प्राप्त करने में कई साि
िग जाते हैं अथवा सािक की सािना पर लनभतर करता है लक कुण्डलिनी लकतने समय िाद लस्थर होगी। ऐसे
सािकों में योगिि उग्र स्वभाव वािी कुण्डलिनी के सािकों की अपेक्षा कम होता है। मध्यम स्वभाव
वािी कुण्डलिनी के सािक जि उच्चावस्था में होते हैं ति कुण्डलिनी से परे शानी महससू होती है। क्योंलक
उस समय सािक का शरीर शि ु होता है ति कुण्डलिनी अलिक गमत होने िगती है। गमी के लदनों में सािना
करने पर लनश्चय ही परे शानी महससू होगी। यलद आवश्यक समझा जाए तो ऐसे सािकों को गरुु पद पर
लिठाया जा सकता है अथवा गरुु पद ग्रहण कर िें। मगर यह ध्यान रखे, लशष्य लसित सीलमत रखे तो अच्छा
है। लशष्यों की संख्या िढ़ाते न चिा जाए, अन्यथा सही मागतदशतन नहीं हो सके गा। तथा स्वयं भी सदैव
समालि का अभ्यास करता रहे, तालक योगिि की कमी न पड़ जाए। वरना भलवष्य में योगिि क्षीण होकर
शलक्तपात होना िन्द हो जाएगा।
कुछ सािकों में शातं स्वभाव वािी कुण्डलिनी पायी जाती है। इस प्रकार की कुण्डलिनी पर चन्र
नाड़ी का प्रभाव ज्यादा रहता है। ऐसा कहते हैं, शरुु आत में ऐसे सािकों को कुण्डलिनी ऊध्वत होते समय
महससू नहीं होता है अथवा कई लदनों िाद महससू होता है लक कुण्डलिनी चढ़ रही है। जि ध्यानावस्था में
कुण्डलिनी ऊध्वत होकर कािी देर तक खड़ी रहती है, लिर िीरे -िीरे गमत होती रहती है, उस समय सािक
को महससू होता है लक उसकी कुण्डलिनी ऊध्वत है। ऐसे सािकों का कण्ठ चक्र कई सािों में खि ु पाता है।
मैं स्वयं नहीं िता सकता हूँ लक शातं स्वभाव वािी कुण्डलिनी के सािकों को लकतने सािों में कुण्डलिनी
की पणू त यात्रा होती है। मैं लसित इतना जानता हूँ लक लनश्चय ही िहुत सािों िाद कुण्डलिनी की पणू त यात्रा
होती है। इन सािकों में योगिि भी कम होता है, इसलिए शलक्तपात कमजोर होता है। मैं लसित यही कहगूँ ा
लक ऐसे सािक लकसी के कहने पर भी गरुु पद ग्रहण न करें तो अच्छा है, लिर सािकों की जैसी इच्छा हो।
लदव्यदृलष् भी कम शलक्तशािी होती है।

सहज ध्यान योग 216


एक िार मैं लिर लिख द,ूँू कुण्डलिनी की अिग-अिग श्रेलणयाूँ नहीं होती हैं। मगर सािकों की
अनभु लू त के अनसु ार, तथा समझाने की दृलष् से इसे तीन श्रेलणयों में लवभक्त कर लदया है। अि तकत यह भी है
लक जि कुण्डलिनी की श्रेलणयाूँ नहीं होती हैं तो एक ही गरुु के लशष्यों को अिग-अिग कुण्डलिनी की
अनभु लू त क्यों होती है तथा कुण्डलिनी की शलक्त में िकत क्यों हैं। इसका कारण है उग्र स्वभाव वािी
कुण्डलिनी वािे सािक लनश्चय ही कई जन्मों से योग का अभ्यास करते चिे आ रहे हैं अथातत पवू त जन्म से
उच्चकोलट का योगी है। पवू त जन्मों के प्रभाव से कुण्डलिनी उग्र है, इसीलिए ऐसे सािक लनश्चय ही शलक्तशािी
होते हैं। ऐसे सािकों के कमत भी थोड़े मात्रा में शेष रह जाते हैं। मध्यम स्वभाव वािी कुण्डलिनी वािे सािक
भी पवू त जन्म में सािना कर चक ु े हैं और पवू त जन्म के योगी हैं लजन्होंने लसित कुछ जन्मों से योग लकया है। ऐसे
सािकों के अभी कमत कािी शेष रहते हैं, तथा कुछ और जन्म िेने पड़ेंगे योग करने के लिए। लपछिे जन्मों
के प्रभाव से कुण्डलिनी मध्यम स्वभाव वािी होती है। शांत स्वभाव वािी कुण्डलिनी वािे सािक लपछिे
जन्म में योगी रह चक ु े हैं यह लनलश्चत है, मगर लकतना योग लकया है कहा नहीं जा सकता है। हो सकता है
लपछिे जन्मों में कुण्डलिनी ऊध्वत न हुई हो, अथवा मात्र कुछ चक्रों तक ऊध्वत हुई होगी। यह भी हो सकता
है, वततमान जन्म में ही उनकी कुण्डलिनी पहिी िार ऊध्वत हुई हो। यह सि लनणतय ऐसे सािक का लपछिा
जन्म देखकर िताया जा सकता है।
अिग-अिग तीनों स्वभाव वािी कुण्डलिनी वािे सािक जि स्थि ू शरीर त्यागकर ऊपर के िोक
में जाते हैं, ति वहाूँ भी उनकी लस्थलत अिग-अिग होती है। उग्र स्वभाव वािी कुण्डलिनी वािे सािक
मृत्यु के पश्चत तपिोक के आिे भाग से ऊपर के हकदार होते हैं; अपनी योग्यतानसु ार जगह लमिती है।
मध्यम स्वभाव वािी कुण्डलिनी वािे सािक को मृत्यु के पश्चात तपिोक के लनचिे आिे भाग में अथवा
जनिोक के ऊपरी भाग में स्थान लमिता है। शातं स्वभाव वािी कुण्डलिनी के सािक को तपिोक शायद
नहीं लमिेगा, लसित जनिोक से ही सतं ोष करना पड़ेगा। लजन सािकों की कुण्डलिनी पणू त रूप से ऊध्वत नहीं
हो पायी अथवा थोड़ी ऊध्वत हो पायी, या अकाि मृत्यु के कारण शरीर छूट गया हो, उन्हें पवू त जन्म व
वततमान जन्म के योग्यतानसु ार िोक में लस्थलत लमिेगी।
लजन सािकों की कुण्डलिनी मध्यम व शांत स्वभाव वािी है, ऐसे सािकों को अपना शरीर अत्यन्त
शि
ु रखना चालहए। प्राणायाम िहुत करना चालहए। मंत्र जाप का भी सहारा िें, तथा सािना करें तो लनश्चय

सहज ध्यान योग 217


ही आपकी कुण्डलिनी का स्वभाव िदि सकता है। लजन सािकों का उद्देश्य लसित योग का अभ्यास करना
ही है, वह कठोर सािना करके अपनी कुण्डलिनी में िकत िा सकते हैं। मगर गृहस्थ सािकों को इतना समय
नहीं लमि पाता है तथा शि ु ता भी ज्यादा नहीं रख पाते हैं, इसलिए हताश नहीं होना चालहए। आप अपने
कमों पर लवशेष ध्यान दें तो इसका िाभ अवश्य लमिेगा। लकसी-लकसी गृहस्थ सािक की भी कुण्डलिनी
उग्र होती है, मगर ज्यादातर मध्यम स्वभाव वािी होती है। सच तो यह लक मैं पहिे गृहस्थाश्रम में था, मगर
कुछ समय िाद मक्त ु हो गया। जि से योग मागत में आया, परू ी तरह से योग के अभ्यास में िग गया, पीछे
मड़ु कर नहीं देखा। जि तक स्थि ू शरीर जीलवत है ति तक योग मागत में िगा रहगूँ ा।
सािक की सािना जि पररपक्व अवस्था में होती है, उस समय गरुु स्वयं सािक की कुण्डलिनी
उठा देता है। वैसे कुण्डलिनी ऊध्वत करने का तरीका गुरु अपने-अपने ढंग से अपनाते हैं। जैसे स्पशत करके ,
नेत्रों से दृलष्पात करके , संकल्प करके आलद लवलभन्न तरीके हैं। गरुु अपनी सलु विानसु ार तरीका अपनाता है।
गरुु या मागतदशतक योगिि में शलक्तशािी है तो सािक की कुण्डलिनी शरुु आत में िड़े आराम से उठा
सकता है। कुण्डलिनी ऊध्वत होने िगेगी, मगर ऐसे सािक को सािना िहुत अलिक करनी चालहए, वरना
कुण्डलिनी मि ू ािार में पहिे की भाूँलत सषु प्तु ावास्था में चिी जाएगी। कुछ मागतदशतकों का सोचना है लक
कुण्डलिनी लिल्कुि शरुु आत में नहीं उठाई जा सकती है। मैं ऐसे मागतदशतकों से कहगूँ ा या तो आप में ज्ञान
की कमी है अथवा योगिि की। मैंने स्वयं कई सािकों की कुण्डलिनी सािना के शरुु आत में उठाई है।
अगर सािक के अदं र तीव्र योग करने इच्छा नहीं है तो कुण्डलिनी नहीं उठानी चालहए। यलद कुण्डलिनी
ऊध्वत होने के लिए पयातप्त सािना नहीं होगी तो सषु प्तु ावास्था में चिी जाएगी। इसी प्रकार लजस सािक की
कुण्डलिनी पररपक्व अवस्था में उठाई गयी है यलद सािना कम हो गयी अथवा लकसी कारण से कुछ लदनों
के लिए िन्द कर दी गयी तो कुण्डलिनी को सषु प्तु ावस्था में जाने का भय रहता है। हमारा कहने का उद्देश्य
यह है लजस सािक की कुण्डलिनी ऊध्वत कर दी गयी है, ति कुछ समय तक कठोर सािना करता रहे तालक
लिर कुण्डलिनी सषु प्तु ावस्था में न जाए।
जि सािक की कुण्डलिनी पररपक्व अवस्था में उठाई जाती है ति कुण्डलिनी उठाने वािे को
ज्यादा शलक्तपात नहीं करना पड़ता है। कुण्डलिनी चाहे लजस तरीके से उठाई गयी हो, इसीलिए कुण्डलिनी
सािना की पररपक्व अवस्था में संकल्प से उठाना संभव है। यलद सािना की शरुु आत में संकल्प से

सहज ध्यान योग 218


कुण्डलिनी उठाई जाए तो लनश्चय ही एक से ज्यादा िार सक ं ल्प करना पड़ेगा। लिर हो सकता है लक सािक
को लक्रयाएूँ होने िगें। लक्रयाएूँ भी िन्द कर देनी चालहए तालक सािक का मन एकाग्र हो सके । कुछ मागतदशतक
लक्रयाएूँ रोक नहीं पाते हैं, इस कारण लक मागतदशतक के पास योगिि की कमी होती है। ऐसे मागतदशतकों के
लशष्यों की सािना अवरोिों के कारण िीमी गलत से होती है। सािक की लक्रयाओ ं से ध्यान में अवरोि तो
होता ही है, साथ में शारीररक परे शानी भी होती है। यह लक्रयाएूँ अशि ु ता के कारण होती हैं। इसलिए सािक
को शि ु ता के सारे लनयमों का पािन करना चालहए। इसमें प्राणायाम प्रमख ु है।
शलक्तमंत्र के जाप से कुण्डलिनी शीघ्र जाग्रत व ऊध्वत होने से सहायता लमिती है। मगर शलक्तमंत्र का
जाप सही ढंग से लकया जाए तभी उलचत िाभ लमिेगा। यह मंत्र आप अपने सद्गरुु या मागतदशतक से पलू छए।
मैं लकसी कारण से शलक्तमंत्र को नहीं लिख रहा ह।ूँ जि तक कुण्डलिनी लस्थर न हो जाए, ति तक जाप
करना चालहए। यलद शलक्तमंत्र का जाप कुण्डलिनी लस्थर के िाद लकया गया है, ति यही मंत्र सािक को
योगिि प्रदान करे गा। इस मंत्र का उपयोग योगी को सारे जीवन भर करना चालहए।
शलक्तपात करके यलद कुण्डलिनी समय से पूवत उठायी गयी तो सािक कुण्डलिनी की वह लक्रया नहीं
देख पायेगा जि वह अपनी आूँख खोिती है और लिर मूँहु से पूँछ ू उगिने िगती है। क्योंलक शलक्तपात के
प्रभाव से कुण्डलिनी शीघ्र ऊध्वत होने िगती है। यह लक्रया लसित वही सािक देख पाते हैं लजनकी कुण्डलिनी
उग्र होती है। यलद ऊध्वत न की गयी हो, तो सािक ध्यानावस्था में कुण्डलिनी की यह लक्रया स्पष् देख सकता
है। ऐसे सािकों की सािना अलत तीव्र होती है। यलद सािक को कुण्डलिनी के लवषय में ज्यादा जानकारी
हालसि करनी है, तो अपनी कुण्डलिनी शलक्तपात करके ऊध्वत न करवाये; अपनी सािना के िि पर ऊध्वत
करे तो लनश्चय ही आपको कुण्डलिनी के ज्यादा अनुभव होंगे। यह लक्रया उग्र सािना करने वािों के लिए
उलचत है, कम सािना करने वािे इस लक्रया के चक्कर में न पड़े।
यलद सािक की कुण्डलिनी शरू ु में ही ऊध्वत कर दी गयी है तो जिरदस्ती और ज्यादा ऊध्वत न करें ,
तालक कुण्डलिनी अपना परू ा कायत करते हुए आगे िढ़े। यलद आप लकसी की जल्दी सािना कराने के चक्कर
में कुण्डलिनी ऊध्वत करते जा रहे हैं, क्योंलक कुण्डलिनी आपके योगिि के प्रभाव से ऊपर कण्ठ चक्र तक
जा सकती है। ऐसा करने से सािक को परे शानी हो सकती है। वैसे मैं यह भी जानता हूँ लक यह कायत हर एक
मागतदशतक नहीं कर सकता है। लसित वही करने में सक्षम है, लजस मागतदशतक के पास अत्यलिक योगिि और

सहज ध्यान योग 219


अनभु व होता है। जि कुण्डलिनी ऊपर चढ़ाने की लक्रया की जाए, तो पहिे सािक की अशि ु ता कम कर
देनी चालहए। एक और महत्त्वपणू त िात है लक जैसा गरुु होता है वैसे ही लशष्य िनते हैं। यलद गरुु का स्तर महान
अथवा उच्च है, तो ज्यादातर लशष्य भी महान व उच्चश्रेणी के ही िनेंगे। यलद गरुु का स्तर उच्च श्रेणी का
नहीं है तो उसके लशष्य थी ज्यादातर उच्च श्रेणी के नहीं िनेंगे। क्योंलक गरुु को स्वयं नहीं मािमू होता है लक
सािक को उच्चता पर कै से पहुचूँ ाये? इसका सीिा मतिि कुण्डलिनी से है। आप सोचते होंगे लक
कुण्डलिनी से यह कै से हो सकता है। कुण्डलिनी के ही योगिि पर कम अथवा ज्यादा ज्ञान प्राप्त होता है
तथा कुण्डलिनी के प्रभाव से सािक को अनभु लू तयाूँ होती हैं तथा लदव्यदृलष् सामर्थयतवान होती है।
लजसकी कुण्डलिनी लजतनी उग्र होगी, उस सािक का योगिि उतना ही ज्यादा होगा। लजसकी
कुण्डलिनी लजतनी शांत होगी, उसका योगिि उतना ही कम होगा। सािक का योगिि कुण्डलिनी पर
आिाररत होता है। लजस सािक की कुण्डलिनी उग्र होगी, थोड़ी ही सािना में उसका योगिि िहुत िढ़
जाएगा। मध्यम और शांत स्वभाव वािी कुण्डलिनी वािे सािक कािी समय तक ध्यानावस्था में िैठने के
िाद भी उग्र कुण्डलिनी वािे सािक की िरािरी नहीं कर पायेंगे। हमने अपने जीवन काि में अनभु व लकया,
उग्र कुण्डलिनी वािे सािकों को योगिि सदैव ज्यादा रहता है। सािक का योगिि नापने का एक लवशेष
तरीका है। यह कायत लसित लदव्यदृलष् िारा लकया जा सकता है। यह तरीका लिखना उलचत नहीं हैं क्योंलक
लदव्यदृलष् िहुत ज्यादा समय तक कायत नहीं करती है। ज्यादा जानकारी लदव्यदृलष् वािे पाठ में पलढ़ए।
सािकों, कुण्डलिनी ऊध्वत होने से पूवत ही जाना जा सकता है लक लकस सािक की कुण्डलिनी उग्र,
मध्यम अथवा शांत होगी। यह जानकारी लसित योगी ही कर सकते हैं। नया सािक ऐसी जानकारी नहीं कर
सकता है। इस प्रकार की जानकारी के लिए सािक के लपछिे जन्म देखने होंगे लक अमक ु सािक लकतने
जन्मों से और लकस प्रकार की सािना करता आ रहा है, अथातत सािना उग्र की है अथवा सािारण की है।
जि इस तरह की अच्छी जानकारी लमि जाए तो लनणतय करने में देर नहीं िगेगी लक कुण्डलिनी लकस
स्वभाव वािी होगी। दसू रा, एक और तरीका है, मगर कलठन है। अमक ु सािक का जन्म लकस िोक से
हुआ है, उस िोक में लकस प्रकार के स्तर पर समालि िगाता रहा है, जन्म िेते समय कमत लकतने थे। यह
लक्रया अत्यन्त जलटि है। लपछिे जन्मों को देखना दसू री लक्रया से ज्यादा सरि है। यह लक्रया ति करें जि

सहज ध्यान योग 220


लकसी लशष्य को गरुु पद के लिए तैयार करना हो अथवा लवशेष िगाव हो, लकसी सािक से उसे श्रेष्ठ
िनाना हो।
यलद लकसी सािक की कुण्डलिनी का स्वभाव िदिना है, तो ऊध्वत करने से पूवत ही उसे गप्तु लवलियाूँ
िताएूँ लजससे कुण्डलिनी का स्वभाव िदिने िगेगा। ऊध्वत होने के िाद यलद वह लवलियाूँ सािनाकाि में
कुण्डलिनी ऊध्वत होते समय ही अपनायी जाएूँ तो सििता पूरी तरह से लमिने की आशा रहती है।
सािनाकाि िीत जाने पर अथातत कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद कुछ नहीं लकया जा सकता है। क्योंलक
कुण्डलिनी का अलस्तत्व लिर वायु रूप में लविीन हो जाता है तथा सािक के शरीर में पहिे जैसी कुण्डलिनी
नहीं रह जाती है। कुण्डलिनी का स्वभाव हर सािक नहीं िदि सकता है, क्योंलक लवलियाूँ अपनाने के साथ
कठोर सािना करनी पड़ेगी। ति शांत स्वभाव वािी से मध्यम स्वभाव वािी में, मध्यम स्वभाव वािी से
उग्र स्वभाव वािी में पररवलततत हो जाएगी। उग्र स्वभाव वािी कुण्डलिनी वािे सािक को आवश्यकता ही
नहीं है लकसी लवलि अपनाने की क्योंलक उसकी कुण्डलिनी पवू त जन्मों के प्रभाव से तेजस्वी रहेगी। उग्र
स्वभाव वािी कुण्डलिनी वािे सािकों को भलवष्य में ज्यादा जन्म नहीं िेने पड़ते हैं, क्योंलक ऐसे सािकों
के कमातशय लिल्कुि थोड़े रह जाते हैं।
अि िहुत से सािकों की समस्याएं हि हो गयी होंगी। सािक अक्सर पूछते हैं लक शांत, मध्यम,
उग्र कुण्डलिनी के लवषय में कै से जानें तथा कुण्डलिनी का शांत, मध्यम और उग्र स्वभाव होना वततमान
समय में सािक के िस की िात है या नहीं क्योंलक कुण्डलिनी के स्वभाव का समिन्ि लपछिे जन्मों से रहता
है। अि थोड़ा भलस्त्रका के लवषय में लिख रहा ह,ूँ क्योंलक कुण्डलिनी जाग्रत होते समय अथवा ऊध्वत होते
समय सािक को स्वयमेव भलस्त्रका प्राणायाम होने िगता है। जि भलस्त्रका स्वयमेव होने िगती है उस समय
सािक भलस्त्रका प्राणायाम रोक नहीं सकता है। क्योंलक वह कुण्डलिनी िारा कराया जा रहा होता है तथा
सक्ष्ू म शरीर भी प्रभालवत होता है। मनष्ु य के शरीर में कुण्डलिनी सपातकार रूप में रहती है, जि जागती है तो
वह अपने स्वभाव के अनुसार िुिकार मारती है। यह कुण्डलिनी शलक्त सालत्वक होती है। इसका जड़ता व
अशि ु ता से लवरोि होता है। इसलिए सािक के शरीर की जड़ता व अशि ु ता कम करने के लिए िुिकार
मार-मारकर जिाती है, लिर उस स्थान पर चैतन्यता लिखेर देती है। कुण्डलिनी के प्रभाव से अशि ु ता िाहर
भी लनकिने िगती है। आपने देखा होगा लकसी की ध्यानावस्था में भलस्त्रका तेज चिती है, लकसी की

सहज ध्यान योग 221


भलस्त्रका िीमी चिती है, लकसी सािक की भलस्त्रका चिती ही नहीं है। लकसी सािक की कभी-कभी
भलस्त्रका इतनी ज्यादा तीव्रगलत से चिती है, यलद ध्यान दें तो भलस्त्रका प्राणायाम आिा हो पाता है। इसके
भी कुछ कारण हैं। यह सािक की अशि ु ता, कमत और कुण्डलिनी के स्वभाव को दशातते हैं।
लजस सािक की कुण्डलिनी अलत उग्र होती है, ज्यादातर उसके कमातशय भी कम ही होंगे। यलद कमत
कम हैं तो अशि ु ता की मात्रा भी कम ही होगी। इस अवस्था में कुण्डलिनी की उग्रता के कारण अशि ु ता
व कमत अपना प्रभाव नहीं लदखा पाते हैं, ति अशि ु ता शीघ्र ही दि जाती है। थोड़ी सी भलस्त्रका में ही
अशि ु ता की मात्रा कम पड़ जाती है तथा जिने भी िगती है। कभी-कभी अशुिता इतनी कम पड़ जाती
है लक कुण्डलिनी का मागत ज्यादा समय तक अवरूि नहीं कर पाती है। कुण्डलिनी ऐसी अवस्था में जल्दी
ही ऊध्वत होने िगती है। ऊध्वत होते समय कमत भी जिने िगते हैं। पहिे से भी कमत कम होने के कारण
सािक शीघ्र ही पणू तता की ओर चि देता है। यलद कुण्डलिनी उग्र स्वभाव वािी है और कमत भी लकसी
कारण से ज्यादा मात्रा में हैं तो अशि
ु ता मध्यम श्रेणी में होंगी। जि कुण्डलिनी ऊध्वत होती है तो कमत व
अशि ु ता मागत अवरुि करते हैं। इसलिए भलस्त्रका जोर से (भयंकर रूप में) चिती है। श्वास परू ी तरह से िाहर
लनकिती है। ऐसा िगता है नाग गहरी श्वास िेकर जोर से िुिकार रहा है। ऐसा इसलिए होता है उग्रता के
कारण कुण्डलिनी मागत प्रशस्त करने में िगी होती है; कुण्डलिनी आगे िढ़ने का प्रयास करती है उतने ही
वेग से कमत व अशि ु ता मागत को अवरुि कर देते हैं, इसलिए भलस्त्रका भयक ं र रूप िारण करती है। इस
अवस्था में सािक को थोड़ा कष्-सा महससू होता हैं, क्योंलक शरीर थकान महससू करता है। ऐसे सािक
भलवष्य में लनश्चय ही शलक्तशािी योगी िनते हैं। ऐसे सािकों को लकसी प्रकार से योग मागत से लवमख ु नहीं
लकया जा सकता है।
यलद लकसी सािक की कुण्डलिनी अलत उग्र है, कमत लसित नाममात्र का है तो भलस्त्रका नहीं चिेगी।
अथवा अलत जोर से दो-चार िार भलस्त्रका प्राणायाम होता है ऐसे सािक को कुण्डलिनी अलत शीघ्र पणू त
यात्रा करके लस्थर हो जाती है। ऐसा सािक िहुत समय िाद भि
ू ोक पर आता है। स्वयं का कमत िहुत ज्यादा
नहीं होता है लक भूिोक पर जल्दी जाने को लववश करे । िचपन में विय िारा ग्रहण लकया गया कमत भी
होता है जो ज्यादा प्रभावी नहीं होता है।

सहज ध्यान योग 222


मध्यम श्रेणी की कुण्डलिनी वािे सािकों का कमत यलद ज्यादा है तो अशि ु ता भी ज्यादा होगी।
कमत और अशि ु ता के कारण कुण्डलिनी पर दिाव रहता है ति भलस्त्रका कम चिती है। यलद सािक अलिक
देर तक ध्यानावस्था में िैठता है तो कुण्डलिनी को ध्यान के माध्यम से शलक्त लमिती है। उस समय
कुण्डलिनी अशि ु ता को िाहर लनकािने िगती है लजसके कारण भलस्त्रका शरू ु हो जाती है। यलद सािक
वततमान में अपना स्थिू शरीर अत्यन्त शि ु रखता है, ति शि
ु ता के कारण थोड़ी ही देर में भलस्त्रका तेज
चिेगी। क्योंलक शिु ता के कारण नाड़ी शि ु हो जाती है।
लजन सािकों की कुण्डलिनी शांत स्वभाव वािी होती है, उनका कमत िहुत ज्यादा होता है। ऐसे
सािकों पर कमों का दिाव रहता है। इसलिए भलस्त्रका कम चिेगी या कभी-कभी चिेगी। ऐसे सािकों
को कुण्डलिनी लस्थर करने में िहुत साि िगेंगे। ऐसे सािकों को शि ु ता अलिक रखनी चालहए। यलद ऐसा
सािक भलक्त में रुलच रखता है अथवा भावक ु है तो भलस्त्रका ज्यादा चि सकती है। ऐसे सािकों को
कुण्डलिनी उग्र करने की लवलि अपनानी चालहए, वरना कुण्डलिनी लस्थर के लिए िहुत इतं जार करना
पड़ेगा।
अि आप भी यह कह सकते हैं कुण्डलिनी स्वयं शलक्त का रूप है, वह चैतन्यमय है, लिर कमत और
अशि ु ता उसका मागत कै से अवरुि कर देते हैं। कुण्डलिनी कमत और अशि ु ता को क्यों नहीं जिा डािती
है? सािकों, कमत और अशि ु ता स्वयं शलक्त हैं, क्योंलक इनकी प्रकृ लत से उत्पलि हुई है। इसलिए कमत और
अशि ु ता की शलक्त कुण्डलिनी से अलिक हो जाती है क्योंलक सािक के लचि पर तमोगणु ी कमो की
मलिनता िहुत अलिक होती है। सत्वगणु ी कमों की मात्रा कम होने के कारण कुण्डलिनी को उग्र होने में
सहयोग नहीं लमि पाता है। सत्वगणु कुण्डलिनी को सहयोग देता है, तमोगणु कुण्डलिनी का लवरोिी होता
है। उस समय सािक िारा अलिक पररश्रम करने पर ही कुण्डलिनी अपना मागत प्रशस्त कर पाती है, लजसके
ििस्वरूप ध्यानावस्था में भलस्त्रका तेज हो जाती है। कुण्डलिनी सदैव सािक की सािना के अनसु ार ही
शलक्तशािी िनती है। क्योंलक शरीर में तथा भि ू ोक में आजकि अशि ु ता (तमोगणु ) का ही राज चि रहा
है। जि सािक के शरीर में कमत व अशि ु ता कम हो जाती है और कुण्डलिनी उग्र हो जाती है ति कुण्डलिनी
कमत और अशि ु ता को जिाती हुई तीव्रगलत से आगे िढ़ती है। इसलिए सािक को शि ु ता का परू ा ध्यान
रखना चालहए लक शरीर में अशि ु ता कम से कम रहे।

सहज ध्यान योग 223


सािकों, कुण्डलिनी सदैव सषु मु ना के अदं र से ही ऊध्वत नहीं होती है, िलल्क अन्य नालड़यों के सहारे
भी ऊध्वत होती है। कुण्डलिनी ऊध्वत होते समय चार मागों का प्रयोग करती है। कण्ठ चक्र से ब्रह्मरंध्र तक
जाने के लिए तीन मागों का प्रयोग करती है। चौथे मागत के िारा कुण्डलिनी नालभचक्र से सीिे हृदय में एक
नाड़ी के सहारे पहुचूँ ती है। इस समय सषु मु ना वािा मागत छोड़ देती है। कुण्डलिनी सीिे हृदय में पहुचूँ कर
लचि के उस स्थान पर अपना प्रभाव लदखाती है जहाूँ पर कमातशय होते हैं। कुण्डलिनी का मूँहु जि कमातशयों
के पास जाता है तो उस स्थान पर अपनी सत्वशलक्त उगिने िगती है। इस लक्रया से कुछ मात्रा में गदं े सस्ं कार
व अशि ु ता जिने िगती है। इस अवस्था में कुण्डलिनी ज्यादा समय तक हृदय में नहीं ठहरती है। लिर
वापस नालभचक्र में आ जाती है। कुछ समय िाद कुण्डलिनी लिर इसी मागत पर जाकर हृदय में पहुचूँ जाती
है और अपना कायत करके वापस आ जाती है। कुछ क्षणों में कुण्डलिनी लिर इस मागत पर ऊध्वत की जा
सकती है। इसका लनणतय मागतदशतक को करना होता है।
लप्रय सािकों, आपने पढ़ा नहीं होगा लक कुण्डलिनी का चौथा मागत भी होता है। िहुत से योलगयों
को भी मािमू नहीं होता है लक कुण्डलिनी ऊध्वत होते समय चार मागों का प्रयोग करती है। यह मागत अत्यन्त
कलठन और खतरनाक है। अनाड़ी मागतदशतक को इस मागत का प्रयोग नहीं करना चालहए। जो अनभु वी हों
वही इस मागत का प्रयोग करें । इस मागत पर सािक की कुण्डलिनी लजतनी िार जाएगी, उतना ही उसे िाभ
होगा। लजस सािक के अदं र कमातशयों का अिं ार िगा हो, मागतदशतक को चालहए सतकत तापवू तक कुण्डलिनी
को ज्यादा से ज्यादा इसी मागत पर िे जाना चालहए तालक कुण्डलिनी कुछ मात्रा में कमत व अशि ु ता को
जिाकर नष् कर देगी। इससे सािक को योग मागत में आगे िढ़ने में सलु विा लमिेगी। महत्त्वपणू त सस्ं कारों को
न छे ड़ें तो अच्छा है, क्योंलक ऐसी घटनाएूँ महत्त्वपणू त होती हैं। अच्छा सािक िनने के लिए सािक को कष्
उठाना जरूरी है। सािक को लजतना अलिक कष् लमिेगा, वह योगी उतना ही महान िनेगा। इसलिए आपने
देखा होगा महान योलगयों को अत्यन्त कष् लमिता है, तभी महान िन पाते हैं।
मागतदशतक को चालहए लक लशष्य के लवषय में ज्ञान के िारा अविोकन करे । लिर कुण्डलिनी को इस
मागत से हृदय में िे जाएूँ। तथा कुण्डलिनी के लिए संकल्प करना चालहए लक वह सालत्वक संस्कारों को ऊपरी
सतह पर कर दे तालक सािक सालत्वक संस्कार के प्रभाव से िरािर योग मागत में िगा रहे। क्योंलक कुछ
सािक सािनाकाि में ही इस मागत को लकसी न लकसी कारणवश छोड़ देते हैं। संलचत कमों में हर तरह के

सहज ध्यान योग 224


कमत सषु प्तु ावस्था में पड़े रहते हैं। यलद सालत्वक कमत ऊपर सतह अथवा प्रारब्ि में आ जाए तो सािक को
इस मागत पर चिने में सहायता लमिेगी। हमें ज्ञान के िारा मािमू हुआ है लक लकसी-लकसी सािक की
कुण्डलिनी स्वयं चौथे मागत में जाकर अपना काम करके वापस आ जाती है, मागतदशतक को कुछ नहीं करना
पड़ता है।
सािकों, ब्रह्मरंध्र खिु ने के िाद कुण्डलिनी उिटकर हृदय में आ जाती है। ब्रह्मरंध्र से हृदय तक
आने के लिए तीनों प्रकार की कुण्डलिनी अपना अिग-अिग कम-ज्यादा समय िगाती हैं तथा थोड़ा-सा
मागत में भी पररवततन होता है। हमें एक घटना याद आ गयी। यह घटना शायद जनवरी 96 की है। मझु से एक
िार भगवान पतंजलि ने कहा था लक यलद तमु हें हमसे कभी योग के लवषय में पछ ू ना हो तो अवश्य पछ ू िेना।
वैसे उन्होंने हमें कई िार योग के लवषय में िताया था। एक िार हमारे अंदर उत्सक ु ता हुई लक कुण्डलिनी के
लवषय में पूछूूँ। मैंने लत्रकाि के माध्यम से पछ
ू ा। उस समय वह समालि िगाये हुए थे, उनका शरीर पारदशी
था। मैंने पछ
ू ा, “प्रभ,ु आप हमें पारदशी क्यों लदखायी दे रहे हो। आप स्पष् क्यों नहीं लदखते हैं?” वह मस्ु कराये
और िोिे, "योगी, जि योगी अत्यन्त उच्च अवस्था में होता है, तो वह अपने आप को ब्रह्म में िीन लकये
रहता है और समालि िगाये रहता है। ब्रह्म में िीन का अथत यह नहीं लक वह पूणतरूप से ब्रह्म में िीन हो
गया। अत्यन्त सक्ष्ू म पारदशी शरीर िारण लकये रहता है। सािारण योगी को लदव्यदृलष् से भी नहीं लदखायी
देते हैं। जि योगी सक ं ल्प करता है, वह सक ं ल्प जि मझु तक पहुचूँ ता है ति मैं अपने आपको उसकी
लदव्यदृलष् िारा लदखाता ह।ूँ इस समय ऐसा ही तमु हारे साथ हो रहा है। शेष जानकारी तमु अपने ज्ञान से िे
िो। इस लवषय में जानकारी लमि जाएगी लक मैं क्यों पारदशी लदखता ह।ूँ योगी, तमु क्या पछ ू ने वािे थे
कुण्डलिनी के लवषय में?” मैं िोिा, “प्रभु कृ पया आप िताइए लक तीनों प्रकार की कुण्डलिनी अिग-अिग
मागत पर लकस प्रकार जाती हैं।” भगवान पतजं लि िोिे, "योगी, तमु हें तीनों प्रकार के मागों के लवषय में तथा
उग्र, मध्यम और शातं कुण्डलिनी के लवषय में मािमू ही है। ब्रह्मरंध्र खि ु ने तक तीनों स्वभाव वािी
कुण्डलिनी एक ही प्रकार का मागत तय करती हैं। ब्रह्मरंध्र खि ु ने के िाद कुण्डलिनी उिटकर वापस आने
िगती है। इसमें थोड़ा िकत है।
“उग्र कुण्डलिनी वािे सािक सािना में ज्यादा समय देते हैं। उनका स्थि ू शरीर भी अलिक शि ु
रहता है। उग्र कुण्डलिनी के कारण शरीर में उष्णता भी िहुत रहती है। शि
ु ता व उष्णता के कारण कुण्डलिनी

सहज ध्यान योग 225


ब्रह्मरंध्र से शीघ्र आज्ञा चक्र में वापस आ जाती है। आज्ञा चक्र से पवू त मागत के िारा नीचे आने िगती है।
तािू के ऊपरी लहस्से से अपना मागत िनाती हुई हृदय में आ जाती है। वापसी के समय कण्ठ चक्र के मागत
से वापस नहीं आती है िलल्क कण्ठ चक्र के एक तरि से वापस आती है। तीव्र सािना के कारण कहीं
रुकती नहीं है।”
“मध्यम कुण्डलिनी का भी मागत यही है जो उग्र कुण्डलिनी का है, मगर यह उग्र की अपेक्षा िीमी
चिती है। अपने मागत में आगे िढ़ने के लिए समय ज्यादा िगाती है। जि वापस होकर कण्ठ में आती है तो
यहीं ठहर जाती है। उस समय सािक को कठोर सािना करनी पड़ती है। लिर उलचत सािना होने पर
कुण्डलिनी आगे हृदय की ओर िढ़ती है। लिर हृदय में आती है। उग्र कुण्डलिनी और मध्यम स्वभाव वािी
कुण्डलिनी में यही िकत है। उग्र कुण्डलिनी कहीं रुकती नहीं है। मध्यम कुण्डलिनी कण्ठ में कािी समय
ठहरकर नीचे की ओर आगे िढ़ती है लिर हृदय में आती है। हृदय में आने के पश्चात् लस्थर होने में उग्र
कुण्डलिनी की अपेक्षा ज्यादा समय िे िेती है।”
“शातं स्वभाव वािी कुण्डलिनी के सािकों को ब्रह्मरंध्र से हृदय तक लस्थर होने में लनश्चय ही कई
वषत िग जाते हैं, क्योंलक शांत स्वभाव वािी कुण्डलिनी िहुत ही िीमी गलत से आगे िढ़ती है। इसे
ब्रह्मरंध्र से हृदय तक िहुत िंिा मागत तय करना पड़ता है। शांत स्वभाव वािी कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र खि ु ने
के िाद, उग्र और मध्यम स्वभाव वािी कुण्डलिनी की तरह ही, आज्ञा चक्र होते हुए पवू तमागत से नीचे की
ओर कण्ठ में आकर रुक जाती है। लिर सािक को िहुत समय तक सािना करनी पड़ती है। जि सािना
पयातप्त हो जाती है, ति कुण्डलिनी पलश्चम मागत की ओर िढ़ जाती है, जिलक पलश्चम मागत पहिे से खोि
चक ु ी है। पलश्चम मागत में होते हुए ऊपर की ओर िढ़ जाती है। एक िार लिर ब्रह्मरंध्र िार पर पहुचूँ ती है। लिर
ब्रह्मरंध्र से ठीक नीचे की ओर सीिे मागत से मूँहु नीचे करके उतरने िगती है (इसी मागत से पहिे ऊपर चढ़ी
थी), लिर कण्ठ में आ जाती है। अि की िार आज्ञा चक्र की ओर नहीं जाती है, कण्ठ में थोड़ा ठहरकर
ह्रदय में आ जाती है। इसीलिए शांत स्वभाव वािी कुण्डलिनी को िहुत समय िग जाता है लस्थर होने में।
लसर में चारों ओर चक्कर िगाना पड़ता है, ति कुण्डलिनी अपना पूरा कायत कर पाती है, क्योंलक
िघमु लस्तष्क भी महत्त्वपणू त जगह है। शांत स्वभाव के कारण कुण्डलिनी िारा चैतन्यता कम मात्रा में
लनकि पाती है तो िघमु लस्तष्क में दिु ारा जाना पड़ता है। िघमु लस्तष्क को चक्र जैसा ही समझो।

सहज ध्यान योग 226


िघमु लस्तष्क सारे शरीर को लनयलं त्रत करता है। इसलिए िघमु लस्तष्क को परू ी तरह चैतन्य करना जरूरी है,
लिर यह प्रकृ लत का लनयम भी है।” भगवान पतजं लि ने अपने ही लसर में तीनों स्वभाव वािी कुण्डलिनी
के मागत लदखाये। लिर हमारा और भगवान पतजं लि का समिन्ि-लवच्छे द हो गया। वह समालि में िीन हो
गये।
हमने कुछ सािकों व मागतदशतक से सनु ा है जो वास्तव में योगी हैं- “कुण्डलिनी जाग्रत करना हूँसी-
खेि नहीं है। कुण्डलिनी जाग्रत होकर मािमू नहीं लकस ओर को चढ़नी शरू ु हो जाए अथवा गित मागत
पकड़ िे। इससे सािक को कष् होने िगेगा अथवा सािक की मृत्यु हो सकती है।” ऐसे ही एक कुशि
मागतदशतक ने कहा। इस जगह पर उसका नाम लिखना उलचत नहीं समझते हैं। “हमारे पास दसू रे गरुु का लशष्य
आया और िोिा, “आप हमारी कुण्डलिनी सही मागत पर चढ़ा दें, क्योंलक कुण्डलिनी के कारण हमें भारी
कष् है।” लिर उस मागतदशतक ने सािक को अपने सामने ध्यान पर लिठाया। मागतदशतक ने सािक को िताया,
“आपकी कुण्डलिनी गित मागत पर चढ़कर गिे में उिझ गयी है उसे आगे का मागत नहीं लमि पा रहा है।
पहिे आप अपने गरुु से कुण्डलिनी वापस मि ू ािार में करवाइये। लिर मैं सही मागत पर कर दगूँू ी। सािक
वापस चिा गया। उसके गुरु कुण्डलिनी को वापस नहीं कर पाये। कुछ समय िाद मािमू पड़ गया लक कष्
के कारण वह सािक मर गया है।”
जि वह िात हमसे कही जा रहीं थी तो हमें समझ में नहीं आया लक यह िात हमें क्यों ितायी जा
रही है। क्या यह िमकी है लक मैं कभी कुण्डलिनी न उठाऊूँ? अथवा हमें मागत से भ्रलमत लकया जा रहा है?
उस समय मैं योग में इतना नासमझ नहीं था लक हमें भ्रलमत लकया जा सके । हाूँ, हमें इन शब्दों को सनु कर
िड़ी लचढ़ हुई लक हमें गित क्यों समझाया जा रहा है। ऐसे मागतदशतक क्या यह सालित करना चाहते हैं लक
कुण्डलिनी स्वयं अपने मागत में सही रूप से नहीं जा सकती है। यह लकतनी अज्ञानता की िात है लक
कुण्डलिनी जो स्वयं शलक्त का स्वरूप व ज्ञान स्वरूपा है, उसके लिए हमें यह समझाया जा रहा है लक
कुण्डलिनी गित मागत पर भी जा सकती है। शायद ऐसे मागतदशतक अपने आपको कुण्डलिनी से भी ज्यादा
ज्ञानवान समझते हैं। यह ठीक है लक योग में मागतदशतक की जरूरत पड़ती है। लिना मागतदशतक के योग संभव
नहीं है। मागतदशतन सािक के लिए है न लक कुण्डलिनी को आप मागतदशतन देंगे। कुण्डलिनी स्वयं अपना मागत
जानती है। उसे िताने की जरूरत नहीं है। ऐसे मागतदशतक नये सािकों को मनगढ़ंत िात करके भ्रलमत करते

सहज ध्यान योग 227


रहते हैं तालक ऐसे मागतदशतक को ज्यादा योग्य समझा जाए। मगर ऐसे मागतदशतक िाद में उपहास के पात्र होते
हैं। जहाूँ तक मेरा सवाि है, मैंने कभी भी अपने गरुु से मागतदशतन के लवषय में एक शब्द नहीं पछ ू ा। मैं हर
तरह का मागतदशतन के लिए अपने ज्ञान से पछ ू ता हूँ अथवा आवश्यकता पड़ने पर ऊपर के िोकों के योलगयों
से पछू िेता ह।ूँ योगी जि स्वयं पररपक्व अवस्था में होता है, ति उसे ज्ञान प्राप्त होता है, लिर उसे दसू रों से
पछ ू ने की क्या आवश्यकता है। हमारा यह कहना है लक ऐसे कुशि मागतदशतक को गित िातें योग के लवषय
में नहीं करनी चालहए।
कुछ सािक अपनी कुण्डलिनी जाग्रत करने के लिए मि ू ािार पर ही ध्यान करते हैं। आसनों व
प्राणायाम की सहायता िेते हैं तथा ध्यानावस्था में इच्छा करते हैं लक कुण्डलिनी जाग्रत हो रही है और
सषु मु ना नाड़ी में प्रवेश कर रही है। िीरे -िीरे सािक की जि सािना अच्छी हो जाती है तथा इच्छा शालक्त
भी ििवान हो जाती है उस अवस्था में कुण्डलिनी जाग्रत व ऊध्वत हो सकती है।
मंत्र जाप से भी कुण्डलिनी जाग्रत की जा सकती है। कुण्डलिनी जाग्रत करने के लिए िहुत ज्यादा
मंत्र जाप लकया जाता है, क्योंलक मंत्र स्वयं एक योग मागत है। मगर मत्रं योग के सािकों को भी गरुु िनाना
आवश्यक है। वह आपको मंत्र को िोिने की लवलि समझाएूँगे, योग में और भी आवश्यक मागतदशतन करें गे।
कुण्डलिनी जाग्रत करने की ढेरों लवलियाूँ हैं। कुछ लवलियों का मैंने उल्िेख लकया है।
कुछ सािकों की कुण्डलिनी स्वयं ऊध्वत हो जाती है। ऐसे सािक िहुत ही कम लमिते हैं, लजनकी
स्वयं ऊध्वत हुई हो। ऐसे सािक लनश्चय ही अत्यन्त शलक्तशािी होते हैं तथा महान िनते हैं। ऐसे सािकों के
कमत िहुत ही कम अथवा नाममात्र के होते हैं। सािकों, आपको आश्चयत होगा यह जानकर लक कुण्डलिनी
लस्थर होने के िाद भी योलगयों में सामर्थयत (योगिि और ज्ञान की) अिग-अिग होता है। कभी-कभी
योलगयों की योग्यता मागतदशतन के समय मािमू पड़ जाती है। लकसी भी योगी को अपनी योग्यता पर गवत नहीं
करना चालहए। कुछ योगी तो अत्यन्त योग्य व शलक्तशािी होते हुए भी अपने को छुपाये रहते हैं।
लप्रय पाठको, आपको संक्षेप में यह िता दूँू लक कुण्डलिनी लसित योलगयों की ही नहीं, गायकों की
भी जाग्रत हो जाती है। लसित उन्हीं गायकों की कुण्डलिनी जाग्रत होती है जो शास्त्रीय गायन का कठोर
अभ्यास करते हैं। गाते समय जि उनके मूँहु से अिाप लनकिता है उस समय अभ्यास के अनसु ार कुण्डलिनी
थोड़ी सी ऊध्वत भी होने िगती है। ऐसे गायकों को स्वयं मािमू नहीं पड़ता है लक उनकी कुण्डलिनी जाग्रत

सहज ध्यान योग 228


हो गयी है। गायकों की कुण्डलिनी ज्यादा ऊध्वत नहीं होती है। पवू तकाि में गायक सम्राट तानसेन की
कुण्डलिनी जाग्रत थी। दलक्षण भारत के गायक कुमार गिं वत की भी कुण्डलिनी जाग्रत हो गयी थी। वततमान
में कुछ गायकों की कुण्डलिनी जाग्रत है, ऐसा मैंने ध्यानावस्था में देखा था।

सहज ध्यान योग 229


समावि
समालि योग की आलखरी सीढ़ी है। सािक का कण्ठ चक्र जि खि ु जाता है उसके िाद ही समालि
िगतीहै। कुछ सािक कण्ठ चक्र में सािना करते हैं तभी ऐसा सोचते हैं लक हमारी समालि िगती है,मगर
यह उनका भ्रम रहता है। जि ध्यान ही ध्येय वस्तु में प्रतीत हो, लिर अपना स्वरूप छोड़ दे, उसे समालि
कहते हैं। समालि दो प्रकार की होती है। - 1. सलवकल्प समालि, 2. लनलवतकल्प समालि। सलवकल्प समालि
कण्ठ चक्र से ऊपर और ब्रह्मरंध्र खि
ु ने से पहिे िगती है। ब्रह्मरंध्र खि
ु ने के िाद लनलवतकल्प समालि िगती
है। लिर सािक सदैव लनलवतकल्प समालि का अभ्यास करता रहता है।
सलवकल्प समालि में मन लसित ध्येय वस्तु में िना रहता है। इस अवस्था में मन अन्य लवषयों से राग
नहीं रखता है इसीलिए मन ध्येय वस्तु पर ही ठहरता है। अन्य लवषयों में राग न रखना मन की एकाग्रता है।
ज्यादातर अभ्यालसयों के लिए ध्येय वस्तु ईश्वर ही होते हैं। इसलिए भगवान का दशतन तथा उससे संिंलित
दृश्य सािक को लदखायी पड़ते हैं तथा भगवान अथवा ध्येय वस्तु के लवषय में ज्ञान भी होता है। देखने का
कायत तो इस समय लदव्यदृलष् ही करती है। इसी तरह एकाग्रता को अलिक िढ़ाया जाए अथवा समालि का
अलिक अभ्यास लकया जाए तो ज्ञान की प्रालप्त होती है। ज्ञान प्राप्त होने पर प्रकृ लत की वास्तलवकता लदखायी
पड़ती है। यह सि जो लदखायी पड़ता है वह लचि की ही सालत्वक वृलि होती है।
शरुु आत में समालि घटं े, डेढ़ घटं े की होती है। लिर िीरे -िीरे , अभ्यास िढ़ने पर, अभ्यास के अनसु ार
समालि का भी समय िढ़ जाता है। अि यह योगी के अभ्यास के ऊपर है लक वह लकतनी देर तक समालि
में िैठा रहता है। सािक समालि में लजतना अलिक होगा, एकाग्रता भी उतनी अलिक िढ़ जाएगी। एकाग्रता
िढ़ने के कारण संस्कार दिे रहते हैं। एकाग्रता भंग होने पर कभी-कभी सस्ं कार भी लदखायी पड़ने िगते हैं।
सािक जि इस अवस्था में होता है तो वैराग्य कािी तेजी से िढ़ने िगता है।
समालि अवस्था में कभी-कभी ऐसा होता है, जो वस्तु पहिे कभी न देखी गयी हो वह भी लदखायी
पड़ती है। जो शब्द पहिे कभी नहीं सनु े होते हैं, वह भी सनु ायी पड़ते हैं। सािक यह सोचता है यह तो मैंने
कभी नहीं देखा है, लिर क्यों लदखायी पड़ रहा है। और न ही यह शब्द या वाक्य पहिे कभी सनु े थे, लिर
क्यों सनु ायी पड़ रहे हैं। इसका कारण यह है, हमारा शरीर स्थि ू है। इलन्रयाूँ भी स्थि
ू हैं। हमारे जीवन का
व्यापार भी जाग्रत अवस्था में स्थि
ू जगत में रहता है। जो हमारी ध्येय वस्तु है, वह अलत सक्ष्ू म है। समालि

सहज ध्यान योग 230


के समय इलन्रयाूँ िलहमतख ु ी से अतं मतख
ु ी (सक्ष्ू म की ओर) होती हैं। इसलिए सिसे पहिे योगी को स्थि
ू जगत
से सिं लं ित दृश्यों का साक्षात होता है। इसीलिए लवलचत्र दृश्य लदखायी पड़ते हैं। एकाग्रता िढ़ने पर सक्ष्ू म
स्वरूप स्वयं साक्षात होने िगता है। ऐसा इसलिए होता है लक एकाग्रता िढ़ने पर सत्वगणु िढ़ने िगता है,
तमोगणु कम पड़ने िगता है। सत्वगणु के िढ़ने पर समालि में हल्का प्रकाश लदखाई पड़ने िगता है। यही
सक्ष्ू म लवषयों को साक्षात कराता है। इस अवस्था में योगी का सक्ष्ू म जगत से समिन्ि हो जाता है। सक्ष्ू म
जगत से समिन्ि होने के कारण, सक्ष्ू म जगत के दृश्य और उसी का ज्ञान होने िगता है। इस अवस्था में
योगी को िहुत प्रसन्नता होती है। ध्यान में िैठते ही सक्ष्ू म िोकों के अनभु व आते हैं तथा लसि परुु षों के
दशतन व उनसे िातचीत करने का अवसर भी लमिता है। इस अवस्था में लदव्यदृलष् की महत्त्वपणू त भलू मका
होती है।
योगी सक्ष्ू म जगत के लवषय में िताने में सामर्थयतवान हो जाता है तथा उसे भतू काि व भलवष्यकाि
लदखायी पड़ने िगते हैं। समालि अवस्था में योगी को कभी डरावनी आकृ लत अथवा छलव लदखायी पड़ती
है। इसका कारण यह होता है, उस समय तामसी संस्कार लदखायी पड़ते हैं। ऐसी आकृ लतयाूँ िंिु िे प्रकाश
में लदखायी पड़ती हैं। िूँिु िा प्रकाश तमोगणु के कारण होता है। जि सालत्वक संस्कार की आकृ लत या छलव
लदखायी देती है तो वह प्रकाश में लदखायी देती है। ऐसे समय में कभी-कभी िमातत्माओ ं के दशतन भी होते
हैं। उनसे उपदेश या मागतदशतन भी लमिता है। यलद सािक ऐसे िमातत्माओ ं से आध्यालत्मक प्रश्न करें तो वे
उिर अवश्य देते हैं।
सक्ष्ू म भतू ों से िेकर तन्मात्राओ ं तक एक लवशेष प्रकार का तारतमय रहता है। इसी के अंतगतत सारे
सक्ष्ू म िोक आते हैं। सत्वगणु की अलिकता के कारण यहाूँ पर आनन्द महससू होता है। एक िात और
कहनी है, इस अवस्था में लचि के अंदर लनचिी सतह पर पड़े हुए सालत्वक संस्कार, जो संलचत कमत हैं, ये
सषु प्तु ावस्था में होते हैं वह जाग्रत होकर ऊपर आ जाते हैं। इस कारण अच्छे -अच्छे दृश्य देखने को लमिते
हैं। कभी-कभी सािकों को अपना ही स्वरूप प्रकाशमय आभा के िीच लदखायी पड़ने िगता है। उस समय
सािक को ऐसा िगने िगता है लक मैं देवता हूँ अथवा पहिे रह चक ु ा ह।ूँ ऐसी लक्रया सत्वगणु की अलिकता
के कारण होती है। ऐसा समझो लक यह काल्पलनक है। सत्ववृलि के रूप में मन ही होता है। इस अवस्था में
कई प्रकार के अनुभव होते हैं। सभी का वणतन नहीं लकया जा सकता है। हमने इसका वणतन इसलिए लकया

सहज ध्यान योग 231


क्योंलक कभी-कभी सािक अपने को ईश्वर का अवतार मानने िगता है। हे सािकों, ऐसी भि ू मत करना,
नहीं तो पतन होना लनलश्चत है। पहिे लचि के सस्ं कारों को नष् करके शि
ु ज्ञान प्राप्त कीलजए। शि
ु ज्ञान की
प्रालप्त पर आपको सि कुछ मािमू पड़ जाएगा लक आप कौन हैं? यह सि कुछ काल्पलनक सालत्वक वृलि
की देन है।
सत्वगणु की अलिकता होने पर दृष्ा, दृलष् और दृश्य लििकुि लस्थर-से हो जाते हैं क्योंलक इस समय
अंतुःकरण का व्यवहार सत्य व लनमति होता है। इस अवस्था में योगी व देवताओ ं के दशतन होते हैं। सािक
अपने इष् के ध्यान में लनमग्न रहता है। होता यह है लक इसमें दृष्ा, दृलष् और दृश्य अिग-अिग रहते हैं।
लचि की सालत्वक वृलि सािक के इष् का रूप िारण कर िेती है। इस अवस्था में लचि एकाग्र रहता है।
लचि में लनरोि नहीं होता है। यहाूँ पर थोड़ी मात्रा में लसित ईश्वर या अपने ध्येय वस्तु के प्रलत भावना रहती है।
सत्वगणु के कारण आनन्द की अनभु ूलत होती है। सक्ष्ू म रूप से अहक ं ार लवद्यमान रहता है जो लचि पर
आिंिन का कायत करता है।
सािक को कभी-कभी ध्यानावस्था में अचानक सगु ंि सी महससू होती है। ऐसा िगता है मानो
लवलभन्न प्रकार के िूिों की खश ु िू आ रही है अथवा लकसी अमक ु िूि की खश ु िू आ रही है। कभी-कभी
सािक को अपने आप मीठे स्वाद की अनुभलू त होती है अथवा लकसी अच्छे िि के स्वाद की अनुभलू त
होती है। ऐसा िगता है मानो अमक ु िि अभी-अभी खाया है। कभी िगता है मंद-मंद सगु ंलित वायु चि
रही है, उसी का मजा आ रहा है। कभी-कभी शब्द सुनायी पड़ते हैं। ऐसा िगता है ये शब्द आकाश में स्वयं
प्रकट हो रहे हैं अथवा जोर-जोर से कोई कह रहा है। मझु े अपनी यही अवस्था याद आ गयी। मझु े भी समालि
में ये शब्द सनु ायी पड़ते थे। कभी-कभी स्थि ू कायत करते समय ये शब्द सनु ायी पड़ जाते थे। ति मैं जोर से
चौंक पड़ता था। ऐसा िगता था जैसे लकसी ने कान में कहा हो। एक िार मैंने श्री माता जी को यही िात
ितायी लक ऐसे शब्द सुनायी पड़ते हैं तो माता जी िोिीं, “यह योग की एक अवस्था है लजससे ऐसा सनु ायी
पड़ता है।” सािकों, इस प्रकार के सभी अनभु व पाूँचों तन्मात्राओ ं के कारण आते हैं। सािक का अभ्यास
जि ज्यादा िढ़ जाता है तो सक्ष्ू म भतू ों से आगे िढ़कर तन्मात्राओ ं का साक्षात्कार होता है। समालि अवस्था
में लजन-लजन लवषयों का साक्षात्कार होता जाता है लिर वे लवषय अपने मि ू स्रोत में लविीन हो जाते हैं।
समालि में सिसे पहिे स्थि ू भतू ों का साक्षात्कार होता है, ति स्थूि भतू , सक्ष्ू म भतू ों में लविीन हो जाते हैं।

सहज ध्यान योग 232


लिर सक्ष्ू म भतू ों का साक्षात्कार होने पर, वे तन्मात्राओ ं में लविीन हो जाते हैं। जि तन्मात्राओ ं का साक्षात्कार
हो जाता है ति तन्मात्राएूँ िीरे -िीरे अहक ं ार में लविीन हो जाती हैं। जि अहक ं ार का साक्षात्कार हो जाता
है तो वह लत्रगणु ात्मक लचि में लविीन हो जाता है।
सािकों, जि सािक तन्मात्राओ ं का समालि में सख ु भोग करता हुआ अभ्यास के िारा आगे िढ़ता
है ति रजोगणु और तमोगुण कमजोर पड़ने िगता है। सत्वगणु की अलिकता आ जाती है। अि यहाूँ पहिे
जैसे दृश्य नहीं आते हैं। इस अवस्था में सािक आनन्द का अनुभव करता है। कभी-कभी सािक को अनभु व
इस प्रकार आते हैं- चारों ओर प्रकाश िै िा हुआ है, उस प्रकाश में मैं खड़ा ह।ूँ आगे चिा जा रहा ह।ूँ प्रकाश
का रंग श्वेत होता है। मैं प्रकाश में िैठा ह।ूँ आनंलदत हो रहा ह।ूँ अथातत् योगी स्वयं अके िा लदखायी पड़ता
है। यह लक्रया सत्वगणु ी अहक ं ार की होती है। जि इस अवस्था में सािक को अनभु व ज्यादा नहीं आते हैं,
ति उसके अंतुःकरण में वृलि उठती है, ‘मैं ह’ूँ अथवा कभी-कभी अंतररक्ष में सनु ायी पड़ता है, "मैं ब्रह्म ह"ूँ ।
वास्तव में, जो अंतररक्ष मािमू होता है अथवा लदखायी देता है वह सािक का स्वयं लचि ही है। लचि में
ध्वलन उठती है, “मैं ही ब्रह्म ह।ूँ ”
इस अवस्था में सािक अगर उसी ध्वलन से कोई प्रश्न करे तो जवाि अवश्य लमिेगा। यलद सािक
को जवाि भी लमिे तो लकसी प्रकार की शंका नहीं करनी चालहए। जि उिर िेना आवश्यक हो तो ध्यान में
िैठने से पवू त उसी प्रश्न का संकल्प करके िैठे तो ध्यानावस्था में जवाि लमि जाएगा। सािक को यह सतकत ता
िरतनी चालहए लक कभी भी भि ू कर अनावश्यक प्रश्न अथवा अनावश्यक जानकारी हालसि नहीं करे और
न स्थिू लवषयों की जानकारी करे , क्योंलक इस अवस्था में लदव्यदृलष् िारा योग्यतानसु ार कुछ भी देखा जा
सकता है। सािक को योग मागत में आगे िढ़ना है इसलिए योग से ही मतिि रखे। समालि में िैठकर आनन्द
की अनुभलू त िेनी चालहए।
कुछ सािकगण सोचेंगे लक अभी तक सनु ा है अथवा पढ़ा है अहक ं ार िरु ा होता है। इसलिए सभी
कहते हैं लक अहकं ार छोड़ देना चालहए। मैं यहाूँ पर लिख रहा हूँ लक अहक ं ार में आनन्द की अनभु लू त होती
है। आप सभी लजस अहक ं ार की िात कर रहे हैं, वह तमोगणु ी अहक ं ार होता है। तमोगणु ी अहक ं ार िड़ा
खतरनाक अहक ं ार होता है, सदैव पतन के मागत पर िे जाता है। यहाूँ पर तमोगणु ी अहक ं ार को समालि के
िारा लिल्कुि क्षीण अवस्था में कर लदया जाता है। अि सत्वगणु ी अहक ं ार ही प्रिान है रूप में रहता है,

सहज ध्यान योग 233


तमोगणु ी दि चक ु ा है। सत्वगणु का ही व्यापार चिता है। सत्वगणु ी अहक
ं ार आनन्द स्वरूप रहता है, लिर
सािक स्वयं को सख ु ी समझने िगता है। इस आनन्द का अनभु व मैं लिखकर शब्दों में वणतन नहीं कर
सकता ह।ूँ यहाूँ पर तन्मात्राओ ं का प्रभाव नहीं रहता है।
यहाूँ पर अहक ं ार का साक्षात्कार होता है। अहंकार अन्य सक्ष्ू म लवषयों जैसा नहीं है। क्योंलक यहाूँ पर
सक्ष्ू म इलन्रयाूँ व तन्मात्राएं स्वयं अहंकार में लविीन हो चकु ी होती हैं। इस अवस्था में सत्वगणु की अलिकता
रहती है। सत्वगणु में ही आनन्द है। इसीलिए लचि की वृलि के िारा अहक ं ार की अनभु ूलत होती है। यलद
सािक को उच्चकोलट का योगी िनना है तो इस अवस्था में ज्यादा से ज्यादा समालि में िैठने का अभ्यास
करना चालहए तालक 2-3 घंटे आराम से िैठ सके । समालि के अभ्यास के अिावा कुछ और िातों का ध्यान
रखना चालहए। भोजन कम करना चालहए। भोजन पौलष्क व सालत्वक होना चालहए। भोजन में के िा, दिू ,
दही और ििों का भी प्रयोग करना चालहए। यलद कुण्डलिनी ज्यादा उग्र हो तो आप दिू में थोड़ा घी डाि
िें, तालक कुण्डलिनी की उष्णता से आंतों में जख्म न हो जाए। प्राणायाम पर अलिक ध्यान देना चालहए।
लदन में िगभग पाूँच िार प्राणायाम करना चालहए, तालक नालड़याूँ लििकुि शि ु हो जाएं। जि कुण्डलिनी
ब्रह्मरंध्र खोिने का प्रयास करने िगे तो मंत्रों का भी सहारा िेना चालहए तालक कुण्डलिनी और उग्र हो जाए।
मंत्रों के प्रभाव से ब्रहमरंध्र खि ु ने में सहायता लमिती है।
ब्रह्मरंध्र खि
ु ने पर सािक की लनलवतकल्प समालि िगती है। ब्रह्मरंध्र में लनगतणु ब्रह्म का िार है। इस
अवस्था में योगी का प्राण ब्रह्मरंध्र के अंदर रहता है। यहाूँ पर लकसी प्रकार के लवचार उत्पन्न नहीं होते हैं
क्योंलक लनलवतकल्प समालि में लत्रपलु ट िननी िन्द हो जाती है। लकसी प्रकार का लवकल्प नहीं रहता है।
सलवकल्प समालि में जो दृष्ा-दृलष्-दृश्य का प्रवाह िह रहा था, वह प्रवाह िहना िन्द हो चक ु ा होता है।
अथातत् नाम, रूप (अथत), ज्ञान का प्रवाह िह रहा था। इसीलिए ध्येय वस्तु का दशतन हो रहा था। लनलवतकल्प
समालि में नाम और ज्ञान का प्रवाह अथत (रूप) में लविीन हो जाता है। सािक की वृलि अथत स्वरूप में
लवद्यमान रहती है, इसलिए कौन लकसे देखे। कभी-कभी सािक अत्यन्त तेज चकाचौंि कर देने वािे प्रकाश
में अपने आपको पाता है, मगर यह वास्तव में सािक की लस्थलत नहीं है। क्योंलक लचि के अंदर अभी संस्कार
शेष रहते हैं और ये शेष संस्कार रजोगणु व तमोगणु लमलश्रत होते हैं। जि तक सािक इन शेष संस्कारों को

सहज ध्यान योग 234


नष् नहीं कर देता है ति तक चेतन स्वरूप में लस्थत नहीं हो सकता है। लप्रय सािकों, शि
ु चेतन स्वरूप में
लस्थत कौन है, यह मैं नहीं जानता ह।ूँ यह िात लसित ज्ञान के िताने पर लिखी है।
अक्सर कहा जाता है लक अमक ु योगी ब्रह्मिीन हो गया, मगर ऐसा नहीं होता। क्योंलक उसका
अलस्तत्व सक्ष्ू म िोकों में होता है। लिर लनलश्चत समय के िाद वह जन्म िेता है। ऐसा भी कहा जाता है जो
योगी कामनाओ ं से परे है अथवा लजसकी सारी कामनाएं परू ी हो चक ु ी हैं, लसित आत्मा की कामना है वह
ब्रह्म को प्राप्त होता है। हमारा सोचना है लक लनगतणु ब्रह्म को कै से प्राप्त होगा? जि तक सािक की ऋतमभरा-
प्रज्ञा का प्राकट्य नहीं होता है ति तक लचि से अज्ञान पणू त रूप से नष् नहीं हो सकता है। क्योंलक यह प्रज्ञा
अज्ञान की लवरोिी होती है। अभ्यास के अनसु ार िीरे -िीरे अज्ञान को नष् करती रहती है और उस स्थान पर
ज्ञान को भरती रहती है। ऐसी अवस्था में सािक को तत्त्वों का भी वास्तलवक स्वरूप लदखाई देता है। इन
पाूँचों तत्त्वों के वास्तलवक साक्षात्कार के िाद वषों तक अभ्यास करना पड़ता है। ति अपने स्वरूप में लस्थलत
हो पाती है। इसके िाद ब्रह्मिीन हो पाना संभव है। ब्रह्मरंध्र में योगी जि ध्यान िगाता है तो वह सि कुछ
भि ू जाता है। यहाूँ तक लक समय का भी आभास नहीं होता है लक वह लकतनी देर तक समालि में िैठा है।
समालि में िैठे चार घंटे िीत जाएूँ ति भी समालि भंग होने पर उसे िगेगा लक अभी-अभी ध्यान पर िैठा ह।ूँ
ऐसा इस प्रकार होता है, सािक का प्राण व मन एक साथ ब्रह्मरंध्र के अन्दर लवद्यमान रहते हैं तथा सािक
की ध्येय रूपी वृलि अथत स्वरूप में लवद्यमान रहती है। ज्ञान का प्रवाह अथत स्वरूप ध्येय वृलि में लविीन हो
जाता है। इसलिए समय आलद का ज्ञान नहीं हो पाता है।
अि प्रश्न लकया जा सकता है क्या लनलवतकल्प समालि का अभ्यास करने वािे सािक को मोक्ष लमि
जाता है। उिर– नहीं लमि सकता है क्योंलक लचि में अभी संस्कार शेष रहते हैं और ये संस्कार रजोगणु व
तमोगणु लमलश्रत होते हैं। इसलिए पनु : वापस पवू त लस्थलत में आना पड़ता है। जि तक योगी अपने शेष
संस्कारों को परू ी तरह समाप्त नहीं कर िेता है ति तक कै वल्य की प्रालप्त नहीं हो सकती है। इस अवस्था में
योगी के जो कमातशय शेष रहते हैं, वे शेष कमातशय ज्यादातर क्िेशात्मक ही होते हैं। योगी को अपने स्थि ू
जीवन में क्िेश उठाने पड़ते हैं। ये कमातशय लनलश्चत रूप से योगी को भोगने ही होते हैं।
शरुु आत में लनलवतकल्प समालि कुछ समय के लिए ही िगती है, लिर अभ्यास िढ़ाने पर समालि का
समय िढ़ता ही जाता है। शरुु आत में शेष संस्कारों के कारण ज्यादा देर तक लनलवतकल्प समालि नहीं िग

सहज ध्यान योग 235


पाती है। मगर जि सािक समालि का अभ्यास िार-िार करके िढ़ाता है ति िीरे -िीरे शेष सस्ं कार दिने
िगते हैं। अभ्यास के कारण समालि का समय भी िढ़ने िगता है। दसू रा कारण यह भी होता है, शरुु आत में
प्राण ब्रह्मरंध्र में ज्यादा देर तक नहीं ठहरता है, लिर वापस नीचे आ जाता है। जि तक प्राण ब्रह्मरंध्र में लस्थर
रहता है, ति तक लनलवतकल्प समालि िगती है। अभ्यास के िारा प्राण वायु ब्रह्मरंध्र में िीरे -िीरे ज्यादा देर
तक ठहरने िगता है। वैसे ही समालि का समय िढ़ता रहता है। इस अवस्था में योगी को वैराग्य होने िगता
है अथवा हो जाता है। वैराग्य के िारा तमोगणु क्षीण होने िगता है तथा िीरे -िीरे तमोगणु ी कमातशय भी
योगी भोग कर समाप्त करने िगता है।
कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र िार खोिकर वापस होने िगती है। जि वापस आती है तो अपना नया मागत
िनाकर वापस आती है। जि कुण्डलिनी हृदय में आती है तो लचि में लस्थत शेष संस्कारों का कुछ भाग
जिाकर भस्म कर देती है और स्वयं लस्थर होकर वायु रूप में पररवलततत हो जाती है। इिर जैसे-जैसे योगी
का अभ्यास िढ़ता है, शेष संस्कार दिु ति होकर दिने िगते हैं। इसी अवस्था में दीपलशखा के समान एक
ज्योलत का दशतन होता है। यह वास्तव में लचि की एक सालत्वक वृलि होती है जो ज्योलत का स्वरूप िारण
कर िेती है। कुछ योगी इसे ही वास्तलवक आत्मा समझ िेते हैं। वह शायद यह ध्यान नहीं देते हैं लक अभी
तो लचि में संस्कार शेष हैं। इसलिए अभी सािक आत्मा में अवलस्थत नहीं हुआ है। मैंने कुछ योलगयों से
िात की तो इसी अवस्था को अपना िक्ष्य िताकर यह दशातया लक मैंने आत्म साक्षात्कार कर लिया है। मैं
पणू त हो गया हूँ तथा जन्म-मृत्यु के आवागमन से मक्त
ु हो गया ह।ूँ मैं ऐसे योलगयों से कहना चाहगूँ ा अभी
िहुत िंिा मागत तय करना है। इसलिए समालि में िगे रहो जि तक आपका लचि परा प्रकृ लत में अवलस्थत
न हो जाए।
जि िहुत समय तक लनलवतकल्प समालि का अभ्यास करते हैं ति एक समय योगी का ऐसा आता
है लक उसके लचि पर ऋतमभरा-प्रज्ञा का प्राकट्य हो जाता है। इससे रजोगणु व तमोगणु लमलश्रत सारे संस्कार
नष् हो जाते हैं ति लचि का स्वरूप पारदशी हो जाता है। लचि लििकुि स्वच्छ हो जाता है। अि लचि में
सत्वगणु का ही साम्राज्य रहता है, लिर सािक के संस्कार लचि पर नहीं ठहरते हैं। इस अवस्था में योगी की
तृष्णा परू ी तरह समाप्त हो चुकी होती है। लकसी प्रकार की वासना नहीं रहती है। जि सािक की कोई इच्छा
व तृष्णा ही नहीं रह गयी तो कमातशय लचि पर नहीं िन पाते हैं। यह लक्रया इस प्रकार होती है लक जि योगी

सहज ध्यान योग 236


कोई कायत करता है तो उसके सस्ं कार लचि पर पड़ते हैं। लचि उसी समय सािक को उस सस्ं कार का
वास्तलवक ज्ञान करा देता है। वास्तलवक ज्ञान होने के कारण लचि पर उन सस्ं कारों की कोई छाप नहीं रह
जाती है। सस्ं कार लचि पर ठहर नहीं पाते हैं, अथातत् नष् हो जाते हैं। योगी की इसी अवस्था को कहते हैं
“योगी ससं ार में रहता हुआ भी ससं ार में नहीं है।”
हम पहिे लिख चक ु े हैं समालि अवस्था में शेष कमातशय दिे रहते हैं। समालि भंग होने पर ये
कमातशय अत्यन्त प्रिि हो जाते हैं। इन प्रिि कमातशयों का योगी स्थि ू जीवन में भोग करता है। ये कमातशय
समालि िारा नष् नहीं लकये जा सकते हैं। ये अत्यन्त क्िेशात्मक होते हैं। सािकों, जि मैंने ये कमातशय भोगे
तो मेंरी िहुत दगु तलत हुई। दगु तलत इतनी हुई लक मझु े एक-दो िार िगा लक शायद हमें आत्महत्या कर िेनी
चालहए। मझु े ज्ञान के िारा अपना सारा भलवष्य मािमू है, लिर आत्महत्या कै से कर सकता था। आलखरकार
ये कमत मेंरे हैं, भिे ही जन्म-जन्मातरों के हों। मैं दसू रों को दोष क्यों द।ूँू अि तो मैं इन सिसे दरू प्रसन्न,
आनंलदत ह।ूँ मेरा नाम भी आनन्द है और आनन्द की अनभु ूलत भी स्थि ू जीवन में करता ह।ूँ हाूँ, समाज वािे
हमारी दगु तलत पर हूँसते हैं। हमें समाज वािों को देखकर दया आती है। वे स्वयं नहीं जानते हैं लक वे क्या कर
रहे हैं। चिो अच्छा है, वे (समाज वािे) अपना कायत करके प्रसन्न हैं, मैं अपना कायत करके प्रसन्न ह।ूँ चिो
दोनों प्रसन्न ही प्रसन्न हैं। ईश्वर सभी को प्रसन्न रखे।
हमने जो समालि के लवषय में लिखा है लक समालि में आनन्द की अनभु ूलत होती है अथवा समालि
की अनभु ूलत होती है, वह शब्दों में नहीं लिखी जा सकती है लसित अनुभलू त का लवषय है। इसकी अनभु लू त
अभ्यासी सािक ही कर सकता है। सलवकल्प समालि के समय कुछ लसलियाूँ भी सािक को प्राप्त होती हैं।
उनका वणतन मैंने नहीं लकया है। हाूँ, हमें लसलियाूँ प्राप्त हुई थीं, उनसे थोड़ा कायत भी लिया था, मगर ज्ञान के
समझाने पर मैंने लसलियों से नाता तोड़ लिया है। लसलियों के चक्कर में योगी उिझ जाता है, क्योंलक वह
चीज ही ऐसी है। मैंने कुछ ही शब्दों में समालि का वणतन लकया है, मगर योगी की समालि शरुु आत से िेकर
अंत तक पणू त करने में कई जन्म िग जाते हैं। एक जन्म में योग पणू त नहीं होता है। जि तक योगी अपने सारे
संस्कारों को नष् न कर दे, ति तक उसे िार-िार जन्म िेकर योग करना पड़ता है। जो योगी समालि अवस्था
का अभ्यास करते हुए ही मृत्यु को प्राप्त होता है उसे अगिे जन्म में संस्कारों के कारण लपछिी अवस्था
जल्दी लमि जाती है। लिर समालि का अभ्यास शरू ु कर देता है। यही क्रम चिता रहता है जि तक वह योग

सहज ध्यान योग 237


का अभ्यास पणू त न कर िे। समालि का अभ्यासी मृत्यु के पश्चात् भी अपनी योग्यतानसु ार सक्ष्ू म िोकों में
अभ्यास करता रहता है।
सािकों! कुछ योगी चौदह िोकों से भी परे रहते हैं। ऐसे योगी अपने शरीर को अत्यन्त सक्ष्ू म व
पारदशी लकये रहते हैं। वह योगी की लदव्यदृलष् से भी जल्दी लदखायी नहीं पड़ते हैं। जि उनके लिए संकल्प
करो ति वह दशतन देते हैं। ऐसे योगी अत्यन्त उच्चकोलट के होते हैं। ज्यादातर ऐसे योगी आलदकाि के होते
हैं तथा इनकी समालि भी िहुत िंिी होती है।
हमें कुछ मनष्ु यों के लवषय में जानकारी लमिी। वे समालि के अभ्यास के लिए नशे का सेवन करते
हैं। मझु े इस िात का आश्चयत है लक नशे का सेवन करके कै से समालि िगाते हैं। समालि के लिए तो शरीर
अत्यन्त शि ु होना चालहए। नशे के सेवन से शरीर अशुि होता है, नालड़यों में अवरोि भर जाता है।
लनलवतकल्प समालि के अभ्यास के समय जो कमातशय शेष रह जाते हैं वे कमातशय किेशात्मक होते
हैं। ये कमातशय योगिि से कभी नष् नहीं होते हैं िलल्क सािक इन कमातशयों को भोगकर समाप्त करता है।
जि सािक इन कमातशयों को भोग िेता है ति लिर समालि अवस्था में अलवद्या, तमोगणु ी अहक ं ार,
सत्वगणु ी अहक ं ार व माया का साक्षात्कार होता है। इन सभी के साक्षात्कार के िाद प्रज्ञा उत्पन्न होती है।
प्रज्ञा के समय लचि पर तमोगणु लसित नाममात्र का रह जाता है। रजोगणु लसित इतनी मात्रा में रह जाता है लक
आत्मा और लचि में लभन्नता की लक्रया कर सके । आत्मा और लचि में लभन्नता का ज्ञान लववेक कराता है।
इस अवस्था में कारण शरीर अतं मतख ु ी होने िगता है। लचि पर सत्वगणु परू ी तरह से िै ि जाता है। इससे
लचि अत्यन्त स्वच्छ लदखायी देता है। लचि पर ज्ञान का प्रकाश भी अलिक िै ि जाता है। जि आत्मा और
लचि की लभन्नता का साक्षात् हो जाता है तो उसकी यह भावना लक ‘मैं कौन हूँ, क्या ह’ूँ की लनवृलि हो
जाती है, क्योंलक वह लचि में ही सारे पररणामों को देखता है। लचि से अपने को लभन्न अपररणामी ज्ञानस्वरूप
आत्मा अनभु व करने िगता है। ऐसा योगी ही आत्मज्ञान का अलिकारी होता है।
योगी के लचि में जि तक आत्मा और लचि की लभन्नता का ज्ञान प्रििता से रहता है ति तक
उसकी प्रवृलि कै वल्य की ओर रहती है। परंतु जि ज्ञान में (आत्मा और लचि की लभन्नता में) लशलथिता
आने िगती है ति व्यत्ु थान की वृलियाूँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन व्यत्ु थान की वृलियों के कारण योगी सोचता
है– ‘यह मेरा है, मैं सख
ु ी ह,ूँ मैं दख
ु ी ह।ूँ ’ ऐसा इसलिए होता है क्योंलक ज्ञान पररपक्व नहीं हुआ है। हम पहिे

सहज ध्यान योग 238


लिख चकु े हैं लक लनलवतकल्प समालि में लकसी प्रकार का दशतन नहीं है और न ही कोई लवचार आता है। इन
सभी का साक्षात् (अहक ं ार, आत्मा और लचि की लभन्नता का) लनलवतकल्प समालि के िहुत समय िाद होता
है।
समालि का अभ्यास िढ़ने पर लचि कै वल्य की ओर अलभमख ु होता है। तीनों गणु अपना िाह्य
पररणाम कुछ समय के लिए िन्द कर देते हैं। लचि आत्मा में अवलस्थत हो जाता है। इसको लनिीज समालि
कहते हैं। योगी को वास्तलवक वैराग्य (पर-वैराग्य) भी उत्पन्न होता है। वास्तलवक वैराग्य के कारण योगी
स्थि
ू व सक्ष्ू म रूप से सांसाररक वस्तओ
ु ं का त्याग कर देता है क्योंलक उसका लचि तृष्णा रलहत हो जाता है।
योगी को जानने योग्य कुछ भी शेष नहीं रह जाता है।

सहज ध्यान योग 239


ज्ञान
योगाभ्यास के िारा लचि की एकाग्रता प्राप्त हो जाने पर ज्ञान प्रकट होने िगता है। यही ज्ञान अभ्यास
के अनसु ार िीरे -िीरे िढ़ता रहता है। अंत में इसी ज्ञान से योगी को उच्चिम अवस्था लमिती है। सािारण
मनष्ु यों का जो ज्ञान है वह वास्तलवक ज्ञान नहीं हैं, क्योंलक सभी जीवात्माएूँ माया के िंदे में जकड़ी रहती हैं।
लिना माया का िंदा तोड़े सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है। माया का िंदा तोड़कर सच्चा ज्ञान प्राप्त करने
का उपाय लसित योग है। योगलवहीन सांसाररक ज्ञान लसित अज्ञान मात्र है। इससे लसित सख ु -दुःु ख की अनभु ूलत
होती है। मलु क्त पथ पर चिने की सहायता नहीं लमिती है। लिना योग के के वि सािारण नाम मात्र के ज्ञान
से ब्रह्मज्ञान प्राप्त नहीं होता। योग के िारा तमोगणु ी व रजोगणु ी वृलियाूँ जि नष् होती हैं लिर योगी को ज्ञान
लमिने की शरुु आत हो जाती है।
लकसी पदाथत के लवषय में वास्तलवक जानकारी को ज्ञान कहते हैं। इसमें (ज्ञान में) अलवद्या व माया
का लमश्रण लििकुि नहीं होता है, क्योंलक अलवद्या के कारण लकसी भी पदाथत का वास्तलवक ज्ञान नहीं हो
पाता है। जि लकसी पदाथत से अलवद्या समाप्त हो जाती है ति उस पदाथत का वास्तलवक स्वरूप स्पष् हो जाता
है। आत्मा और लचि में अलभन्नता को अहंभाव ही दशातता है जिलक आत्मा और लचि को अिग-अिग
िताने वािे को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान अलवद्या और माया का लवरोिी है। जि योगी को ज्ञान की प्रालप्त हो जाती
है तो उसके अंदर लकसी प्रकार की वासना नहीं रह जाती है। क्योंलक जड़ प्रकृ लत के अलनत्य स्वरूप का भान
होने िगता है।
ज्ञान की प्रालप्त पर कतातपन का अलभमान नहीं रह जाता है अथातत् ‘लकसी कायत को मैं कर रहा ह’ूँ
‘आज मैं िहुत दख ु ी ह’ूँ ‘अि मैं िहुत सख
ु ी ह’ूँ इत्यालद का जो अहभं ाव है वह अहभं ाव जाता रहता है। यह
लनमति लचि की ही एक वृलि है। यह ज्ञान लचि की अंलतम सालत्वक वृलि है। इस अवस्था में सािक को
वास्तलवक वैराग्य की लस्थलत रहती है।
ज्ञान की प्रालप्त पर सािक को भिी-भाूँलत मािमू पड़ जाता है, ‘मैं शरीर नहीं ह,ूँ ‘मैं इलन्रय नहीं हूँ,
‘मैं मन नहीं ह’ूँ ‘मैं िुलि नहीं ह’ूँ ‘मैं लचि भी नहीं ह’ूँ लचि मझु से लभन्न है। यही वास्तलवक ज्ञान है। एक
ज्ञान वह भी कहा जाता है जो शास्त्रों में पढ़ते हैं, उपदेश सनु ने से लमिता है। ऐसा ज्ञान वास्तलवक ज्ञान नहीं
है, क्योंलक ऐसा ज्ञान अलवद्या को नष् नहीं कर सकता है। सािक के अंदर रजोगणु ी व तमोगणु ी वृलियों का

सहज ध्यान योग 240


उदय होता रहता है, क्योंलक रजोगणु ी व तमोगणु ी संस्कार उसके अतं ुःकरण में लवद्यमान रहते हैं। मगर जो
ज्ञान समालि की उच्चतम अवस्था में प्राप्त होता है, उस ज्ञान से अलवद्या का नाश हो जाता है, कतातपन का
भाव चिा जाता है, यह रजोगणु व तमोगणु की गदं गी को िो डािता है। लचि में लनमतिता आती है। आत्मा
से प्रलतलिलं ित होने के कारण लचि में चैतन्यता-सी प्रतीत होती है तथा क्िेशों का सवतथा नाश हो जाता है।
ज्ञान का स्थान िलु ि कहा गया है। मगर ज्ञान तो तमोगणु ी अहक ं ार को नष् कर डािता है और िलु ि
तो अहक ं ार से उत्पन्न हुई है। इस स्थान पर यह िुलि अहक ं ार में लविीन हो जाती है। इसका तात्पयत यह है
लक िलु ि से यह ज्ञान परे है तथा ज्ञान लचि में सारे पररणामों को देखता है एवं अपररणामी स्वरूप का अनुभव
करने िगता है। इस लस्थलत को प्राप्त सािक ही आत्मज्ञान के उपदेश का अलिकारी है, क्योंलक उसने
योगाभ्यास के िारा आत्मज्ञान की अनुभलू त की है। ऐसा योगी ही आत्मज्ञान को भिी-भाूँलत समझ सकता
है।
लजस व्यलक्त ने योगाभ्यास के िारा आत्मज्ञान की अनुभलू त नहीं की है, वह भिा क्या आत्मा का
उपदेश दे सकता है, क्योंलक उसे स्वयं आत्मज्ञान की अनभु ूलत नहीं होती है। लजस सािक ने लजस वस्तु को
प्राप्त ही नहीं लकया है वह भिा उसका वास्तलवक ज्ञान क्या जाने। लसित आध्यालत्मक पस्ु तकों व उपलनषदों
से पढ़कर ज्ञान अलजतत कर िेने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता है।
जि सािक समालि में लस्थत होकर आनन्द की अनभु लू त करता है उस समय उसे ज्ञान की प्रालप्त होने
िगती है। जैसे-जैसे समालि का अभ्यास िढ़ता है वैसे-वैसे ज्ञान की प्रालप्त भी िढ़ती है, क्योंलक रजोगणु व
तमोगणु क्षीण पड़ने िगते हैं। इसी के साथ अलवद्या भी कमजोर पड़ने िगती है। सत्वगणु की प्रिानता िढ़ने
िगती है।
लस्थतप्रज्ञ सािक (ज्ञान में लस्थत) सत्वगणु के प्रभाव से आनन्दमय कोष अथातत् महाकारण शरीर
में अंतमतख
ु ी होता है तथा ज्ञान के प्रकाश से आत्मानंद की अनुभलू त करता है। सािारण परुु ष रजोगणु और
तमोगणु के प्रभाव से सांसाररक कायत करते हैं। मगर ज्ञान में लस्थत सािक, ममता, अहकं ार तथा आसलक्त से
रलहत, मात्र लनष्काम भाव से, कततव्य समझकर कायत करता रहता है। इस अवस्था में सािक के लचि में
संस्कार नहीं िनते हैं।

सहज ध्यान योग 241


सािक को लचि प्रकालशत लदखायी देता है। वास्तव में, यह प्रकाश स्वयं लचि का नहीं है। यह
प्रकाश आत्मा का प्रलतलिंि है। लचि जड़ प्रकृ लत है इसलिए स्वप्रकाशी नहीं है। लचि में अहभं ाव होने के
कारण आत्मा और लचि में लभन्नता का ज्ञान नहीं होता है। मनष्ु य राग-िेष, सकाम-कमत, उनके ििों की
इच्छाएूँ, जन्म-मृत्यु और आयु को प्राप्त होता है, तथा सख ु -दुःु ख भोगता है। इन सिकी जननी अलवद्या है।
यह अलवद्या तमोगणु ी अहक ं ार में िीजरूप में रहती है। जि सािक को ज्ञान प्राप्त हो जाता है ति लत्रगणु ात्मक
लचि और चेतन-स्वरूप आत्मा में लभन्नता का ज्ञान हो जाता है। इस लभन्नता का ज्ञान हो जाने पर अलवद्या
अपने क्िेश रूपी पररवार सलहत अतं मतख ु ी होकर अपने मि ू स्त्रोत में लविीन हो जाती है। ज्ञान रूपी सालत्वक
वृलि लचि की सिसे उच्चतम सालत्वक वृलि है। लजस प्रकार दपतण में लदखायी देने वािा स्वरूप, वास्तलवक
स्वरूप नहीं होता है, इसी प्रकार लचि में आत्मा का साक्षात्कार वास्तलवक आत्मा का स्वरूप नहीं है।
इसीलिए इस ज्ञान रूपी वृलि से भी योगी को आसलक्त हटा िेनी चालहए।
सािक को जि ज्ञान प्राप्त होता है तथा कठोर अभ्यास के िारा ज्ञान में लस्थत रहता है, ति वास्तलवक
वैराग्य का उदय होता है। वास्तलवक वैराग्य के लिना दुःु ख की लनवृलि नहीं होती है। ज्ञान में िगातार लस्थत
न रहने के कारण िीच-िीच में व्यत्ु थान की वृलियों का उदय होता रहता है। ये वृलियाूँ रज और तम से
लमलश्रत होती हैं तथा सािक को सख ु -दुःु ख महससू होता रहता है। ज्ञान होने पर सािक को दृष्ा और दृश्य
में लभन्नता का ज्ञान हो जाता है। सािक जान जाता है लक शरीर, इलन्रयाूँ, मन, िलु ि, अहक ं ार और लचि
मझु से लभन्न हैं।
मनष्ु य को स्कूिी लशक्षा, गरुु उपदेश व शास्त्रों को पढ़ने से भी ज्ञान का उदय होता है। पर यह
वास्तलवक ज्ञान नहीं है, क्योंलक ऐसा ज्ञान अलवद्या से लनवृलि करने में असमथत होता है। रजोगणु ी व तमोगणु ी
वृलियाूँ लचि में उलदत होती रहती हैं। पस्ु तक के पढ़ने व सनु ने वािे ज्ञान से लचि में व्यत्ु थान की वृलियाूँ
(रजोगणु ी व तमोगणु ी वृलियाूँ) िनी रहती हैं। जि ज्ञान समालि की उच्चतम अवस्था में प्राप्त होता है, उस
समय लचि में सत्वगणु की परू ी तरह से अलिकता रहती है। रज व तम नाममात्र रहता है। यह दोनों गणु भी
सत्वगणु का साथ देते हैं, इसे तत्त्वज्ञान भी कहते हैं। ज्ञान की अवस्था में लचि रजोगणु व तमोगणु के मिों
से शन्ू य, कतातपन के अलभमान से रलहत हो जाता है। लचि के लनमति ज्ञान के लनरंतर प्रवाह से सभी प्रकार के
क्िेशों का सवतथा नाश हो जाता है। जीव को िन्िन की उत्पलि करने में लचि असमथत हो जाता है।

सहज ध्यान योग 242


ज्ञान िारा सािक के लचि के अशि ु ता रूपी मि के नष् हो जाने पर तथा सासं ाररक ज्ञानों के उत्पन्न
न होने पर उत्कषत अवस्था वािा ज्ञान उत्पन्न होता है। इस अवस्था वािे ज्ञान से सािक के लचि को कायत
से लवमक्त
ु करने वािी अवस्था प्राप्त होती है। जि सािक का अभ्यास और िढ़ता है ति लचि से लवमक्त ु
करने वािी अवस्था प्राप्त होती है। ति सािक को अपने आत्म-अवलस्थत की अवस्था प्राप्त होती है। कायो
से लवमक्त
ु होने की अवस्था में सािक को लनमनलिलखत जानकारी होती है– 1.जो कुछ जानना था वह सि
जान लिया, अथातत् जो लत्रगणु ालत्मका प्रकृ लत का दृश्य है वह सि पररणामी है। पररणामी होने के कारण
असत्य व दुःु ख स्वरूप है, 2. जो कुछ अिग करना था वह अिग कर लदया, अथातत आत्मा और लचि की
लभन्नता का ज्ञान हो गया है। अि कुछ भी अिग करने योग्य नहीं रह गया, 3. जो कुछ साक्षात् करना था
वह साक्षात् कर लिया। (इलन्रयाूँ, तन्मात्राएूँ, अहक
ं ार आलद) अि कुछ भी साक्षात् करने योग्य नहीं रहा, 4.
जो कुछ करना था वह कर लिया। अि कुछ भी करने योग्य नहीं रहा, अथातत् ज्ञान िारा सि कुछ कर लिया,
5. लचि ने अपने अंदर लस्थत सभी प्रकार की वृलियों का भोग कर लिया है। अि कुछ भी शेष नहीं रह गया,
6. तीनों गणु अपना प्रयोजन परू ा करके अपने कारण में िीन हो रहे हैं। 7. गणु ों से परे अपने लनजस्वरूप में
(आत्मा में) अवलस्थलत हो रही है।
जि ज्ञान की वृलि का प्रवाह लनरंतर िहने िगता है, अथातत् ज्ञान पररपक्व हो जाता है ति व्यत्ु थान
की वृलियाूँ नहीं उठती हैं। इससे लनिीज समालि िगती है, लजसे आत्मा में अवलस्थलत भी कहते हैं। लप्रय
सािकों, मैं अपने व्यलक्तगत अनभु व के आिार पर लिख रहा ह।ूँ परू ी तरह से ज्ञान में पररपक्व होने के लिए
कठोर अभ्यास को कुछ समय के लिए ढीिा (कम) कर िीलजए। जि तक आप सासं ाररकता में थोड़ा नहीं
आयेंगे ति तक आपको कै से मािमू होगा लक आपका ज्ञान (तत्त्वज्ञान) पररपक्व हुआ है लक नहीं। पर वैराग्य
(वास्तलवक वैराग्य) के िारा स्थि ू पदाथों से लिप्तता छूट जानी चालहए। थोड़ा स्थिू ता में आइए, अपनी
परीक्षा आप स्वयं िीलजए, आपको लकसी स्थि ू पदाथत से राग तो नहीं है। लकसी भी स्थिू पदाथत से यलद
मन के अदं र सक्ष्ू म रूप से भी राग है तो अभी पररपक्वता में कमी है।
ज्ञान लचि की अंलतम, सवोच्च वृलि है। इस वृलि का प्रादभु ातव तीनों गणु ों के िारा हुआ है। यह वृलि
कमातशय की वृलि नहीं है, यह वृलि जीव की उत्पलि के समय प्रकट होती है। लजस सािक ने ज्ञान प्राप्त कर
आत्मा और लचि की लभन्नता का ज्ञान कर लिया है वही आत्मज्ञान उपदेश का अलिकारी है। लजसने

सहज ध्यान योग 243


आत्मानभु लू त ही न की हो, वह आत्मज्ञान के उपदेश का अलिकारी कै से हो सकता है? आध्यालत्मक पस्ु तकों
व शास्त्रों से आत्मानभु लू त नहीं हो सकती है।

सहज ध्यान योग 244


मोक्ष
मोक्ष का अथत है छुटकारा पाना। छुटकारा पाना अथातत् जन्म-मृत्यु के िन्िन से मक्त ु होना। जो
सांसाररक िन्िन में अपने आपको िांिे हुए है उससे छुटकारा प्राप्त करना, तालक वह पुन: अपने पूवत के
समान लदव्यरूप को प्राप्त कर िे। एक िात िता दूँू लक मोक्ष के स्वरूप को िेकर महापरुु षों में थोड़ी लभन्नता
है लजसे आगे लिखेंगे। मोक्ष प्राप्त करने के लिए मनष्ु य को, योग का अपनी इच्छानसु ार एक मागत अपनाना
पड़ेगा। कठोर लनयम, संयम के िाद अभ्यास जरूरी है। लिना अभ्यास के अज्ञानता को नष् नहीं लकया जा
सकता है तथा सािक में मोक्ष प्राप्त करने की अलभिाषा होनी चालहए। भलक्त योग के सािक को मोक्ष प्रालप्त
करने के लिए अपने इष् के प्रलत शरणागत होना आवश्यक है। योग की उच्चलस्थलत आने पर अज्ञान नष् हो
जाता है लजससे सािक में राग, िेष, मोह आलद लवकारों का लनरोि हो जाता है। िचे हुए संस्कार भी नष् हो
जाते हैं, लिर लचि में सस्ं कार नहीं रह जाते हैं। एक िार सस्ं कार नष् हो जाने पर नये कमों के सस्ं कार नहीं
िन पाते हैं। जि सािक के सारे सस्ं कारों का नाश हो जाता है, ति उसे मोक्ष प्राप्त होता है।
सपं णू त संस्कार नष् होने के िाद, नये संस्कार इसलिए नहीं िन पाते हैं, क्योंलक योगी की अज्ञानता
नष् हो जाती है। संस्कार लसित अज्ञानतावश लकये गये कमों के िनते हैं। अिैत भाव से यक्त ु सािक के
संस्कार नहीं िनते हैं। अज्ञान के नष् होने पर तत्त्वज्ञान की प्रालप्त होती है। तत्त्वज्ञान से सांसाररक दुःु खों का
भी अंत हो जाता है। इस तरह सािक को प्रकृ लत के वास्तलवक स्वरूप की जानकारी हो जाती है। िन्िन,
मोक्ष व पनु जतन्म यह सि प्रकृ लत के ही खेि हैं। वैसे प्रकृ लत स्वयं सवतत्र अलत सक्ष्ू म रूप से लवद्यमान रहती
है। जि सािक प्रकृ लत के लवषय में सारी जानकारी कर िेता है तो लिर प्रकृ लत उसे अवरोि नहीं करती है,
क्योंलक वह उसके वास्तलवक स्वरूप को पहचान गया है। इसीलिए कहते हैं सकाम भाव से कमत करने पर
िार-िार जन्म िेना पड़ता है तथा इसमें सुख-दुःु ख लमश्रण वािा िि लमिता है। ऐसे कमों को इलन्रयों का
िन्िन रहता है तथा सुख-दुःु ख की अनभु लू त मन व इलन्रयाूँ करती हैं, लजससे मनष्ु य सांसाररक जीवन से ऊि
जाता है। लनष्काम भाव से कमत करने पर इलन्रयाूँ तथा मन अिग हो जाते हैं लजससे आत्मज्ञान प्राप्त होता है।
अिैत लसिांत के अनसु ार ब्रह्मभाव को प्राप्त करना ही मोक्ष है। क्योंलक उस अवस्था में ज्ञानी, ज्ञान
और ज्ञाता में कोई अंतर नहीं रह जाता है। इस समय याद आ गया, महान संत ज्ञानेश्वर िारा लिखी गयी
ज्ञानेश्वरी में लकसी जगह पर पढ़ा था ‘ब्रह्मभाव आ जाना ही ब्रह्म में िीन हो जाना है।’

सहज ध्यान योग 245


शास्त्रों के अनसु ार मोक्ष चार प्रकार का होता है–
1. सािोक्य 2. सालन्नध्य 3. सारूप्य 4. सायज्ु य।
सालोक्य मुवि – इस प्रकार की मलु क्त में योगी ईश्वर के िोक में रहता है।
सावन्नध्य मवु ि – इस प्रकार की मलु क्त में योगी ईश्वर के लनकट रहता है।
सारूप्य मुवि – इस प्रकार की मलु क्त में योगी लदव्य होकर ईश्वर का रूप िारण कर िेता है।
सायज्ु य मवु ि – इस प्रकार की मलु क्त में योगी ब्रह्म में िीन हो जाता है। सािकों, मझु े नहीं मािमू
है लक सायज्ु य मलु क्त आज तक लकसे लमिी है।
पहिे की तीनों प्रकार की मलु क्त में, जीवात्मा को िहुत समय तक ईश्वर के िोक में रहना पड़ता है।
अनन्त समय िाद योगी ईश्वर अथवा ब्रह्म में िीन हो जाता है। भक्त, ईश्वर (सगणु ब्रह्म) में िीन हो जाता है।
योगी लनगतणु ब्रह्म में िीन हो जाता है। ये तीनों प्रकार के योगी अपने-अपने ढंग से सािना (समालि) करते
रहते हैं। सायज्ु य मोक्ष ही वास्तव में सही मोक्ष है इसमें सािक का अपना अलस्तत्व ही समाप्त हो जाता है।
भक्त सगणु उपासक के कारण अपने इष् (ईश्वर) में िीन हो जाता है।
अि तकत यह भी लकया जा सकता है प्रिय के समय तो सभी को मोक्ष लमि जाता है, क्योंलक एक
समय ऐसा भी आता है, प्रकृ लत ईश्वर में िीन हो जाती है। उस समय अच्छे -िरु े कमों वािी जीवात्माएूँ सभी
एकाकार हो जाती हैं, यह सत्य है। मगर ऐसी लक्रया अनंतकाि के िाद होती है। इसलिए हर मनष्ु य को ईश्वर
प्रालप्त अथवा मोक्ष की इच्छा रखनी चालहए। इस िक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वैसा ही कायत करना चालहए,
तभी प्रालप्त हो सके गी। वैसे सनातन िमत में, परु ाणों के अनसु ार प्रिय कई प्रकार का होता है। हर चतयु तगु के
िाद प्रिय होता है। ऐसा कहते हैं, उस समय पृर्थवी पर सभी जगह जि भर जाता है। पृर्थवी प्रालणयों से लवहीन
हो जाती है। इसी प्रकार एक लनलश्चत समय के िाद पृर्थवी के साथ ऊपर के िोक भी नष् हो जाते हैं।
सािकों, हम सभी को ज्ञात है लक एक न एक लदन सपं णू त सृलष् का प्रिय के समय लवनाश हो जाता
है। इस प्रिय में सभी प्रकार के प्रालणयों अतं हो जाता है। यलद कोई मनष्ु य सोचे लक मझु े उस समय तो मोक्ष
लमि ही जाएगा, लिर मैं क्यों मोक्ष का प्रयास करूूँ। सािकों, इस लवषय में मैं यही कहगूँ ा लक लकसी भी

सहज ध्यान योग 246


मनष्ु य का इस तरह सोचना उलचत नहीं है। हाूँ, अज्ञानता अवश्य है। क्योंलक सृलष् जि परू ी तरह प्रिय के
कारण नष् हो जाती है तो प्रकृ लत सारी सृलष् को िीज रूप में अपने में समेंट िेती है। इसलिए सभी प्रालणयों
के कमातशय भी िीज रूप में प्रकृ लत के अदं र रहते हैं। जि सृलष् की शरुु आत होती है तो शेष िचे कमातशयों
को भोगने के लिए जीवात्मा को जन्म ग्रहण करना पड़ता है। इसलिए प्रिय के िाद भी जीवात्मा को मलु क्त
नहीं लमिती है। जीवात्मा जि तक अपने कमातशय परू ी तरह समाप्त नहीं कर देती है ति तक जन्म ग्रहण
करना अलनवायत है। इसीलिए प्रिय के िाद सृलष् अलनवायत है। जि तक जीवात्मा अपने अलवद्या यक्त ु कमत
भोग कर समाप्त नहीं कर िेती है ति तक जीवात्मा जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता रहेगा।
मोक्ष व िन्िन वास्तव में प्रकृ लत के कायत हैं। आत्मा स्वयं न तो िन्िन में िन्िता है और न ही मोक्ष
को प्राप्त होता है। आत्मा का स्वरूप ही असंग व लनलितप्त है। संपणू त कमत प्रकृ लत के गणु ों िारा ही लकये जाते
हैं। तमोगणु ी अहक ं ार से मोलहत हुआ जीवात्मा ‘मैं किात ह’ूँ ऐसा मान िेता है। इसीलिए उसके (जीवात्मा)
अंदर आसलक्त आ जाती है। तत्त्वज्ञान को प्राप्त हुआ सािक आसक्त नहीं होता है। उसे (तत्वज्ञानी को)
मािमू होता है लक सारे कायत प्रकृ लत के गणु ों िारा लकये जा रहे हैं। अज्ञान (अलवद्या) के कारण िन्िन है और
ज्ञान के कारण मोक्ष है। िमत-अिमत अथवा जो भी सांसाररक कायत होते हैं वह सि लचि के िमत हैं, क्योंलक
इन सभी का समिन्ि लचि से होता है। पररणाम लचि में होता है। आत्मा का इन सि कायों से कुछ िेना-
देना नहीं है, क्योंलक वह अपररणामी है। इसलिए कमतिि, िन्िन, मोक्ष व ससं ार का समिन्ि लचि से है।
आत्मा िन्िन में, मोक्ष में तथा सभी प्रकार के सासं ाररक कायो में समान रूप से रहती है।
अि आप सोचेंगे आत्मा को क्यों कहा जाता है लक आत्मा को मोक्ष लमि गया। आत्मा िन्िन के
कारण जन्म िेती है। लचि के लिए क्यों नहीं कहा जाता है? इन सिका कारण लचि ही है। लचि में भेद होता
है। अलवद्या (अज्ञान) के समय जो अवस्था लचि की होती है ज्ञान (तत्त्वज्ञान) के समय उससे लभन्न अवस्था
लचि की हो जाती है। आत्मा लचि की दृष्ा है। अलवद्या (अज्ञान) के समय आत्मा और लचि में लभन्नता न
समझने के कारण, आत्मा की अवस्थाएूँ समझ िी जाती हैं जिलक वास्तव में लचि की अवस्थाएूँ होती हैं।
इसीलिए आत्मा को आरोलपत कर लदया जाता है। प्रकृ लत ही अपने आपको िन्िन में िांिती है तथा प्रकृ लत
ही अपने आपको मक्त ु करती है।

सहज ध्यान योग 247


जाग्रत अवस्था में मनष्ु य रजोगणु ी व तमोगणु ी वृलियों से यक्त ु सासं ाररक कायत करता है, मगर
तत्त्वज्ञान में लस्थत सािक अपने सभी कायों का भोग, लनवृलि अथवा ईश्वर की ओर से कततव्य मात्र समझकर
आसलक्त से रलहत लनष्काम भाव से करता है। इसीलिए उसके लचि में कमों के संस्कार नहीं िनते हैं। जो
सािक आत्मा में अवलस्थलत की अवस्था प्राप्त कर चक ु े हैं वे दो प्रकार के होते हैं – (1) लजनके कमत के वि
भोग लनवृलि के लिए होते हैं और (2) लजनके कमत भोग लनवृलि तथा ईश्वर की आज्ञा का पािन करते हुए
सभी प्रालणयों का कल्याण करने के लिए होते हैं। इसी प्रकार मलु क्त भी दो प्रकार की होती है – (1) पहिे
प्रकार के योलगयों की मलु क्त में लचि को िनाने वािे तीनों गणु अपने मि ू स्त्रोत (आत्मा) में िीन हो जाते हैं।
इसे कै वल्य मोक्ष कहते हैं। (2) दसू रे प्रकार के योगी आपने सालत्वक लचि के साथ ईश्वर के िोक में अवलस्थत
रहता है। ईश्वर के लनयमों के अनसु ार जि-जि उसकी आवश्यकता होती है ति-ति संपणू त प्रालणयों के
कल्याण हेत,ु िमत की मयातदा के लिए पृर्थवी पर जन्म िारण करते हैं, लिर अपना कायत करके अपने िोक में
वापस िौट जाते हैं।
जि सािक अपने अभ्यास से तमोगणु ी अहक ं ार, अलवद्या और माया अपने मि ू स्त्रोत में लविीन कर
देता है तथा लचि के शेष कमातशय भी भोग लिए जाते हैं तो लचि स्िलटक मलण के समान शि ु हो जाता है।
लिर सािक िारा लकये गये कमों के संस्कार लचि पर नहीं िनते हैं। उस समय सािक को ज्ञान प्राप्त हो जाता
है। ज्ञान की प्रालप्त पर सािक को आत्मा और लचि में लभन्नता का ज्ञान हो जाता है। इसलिए उसे मािमू हो
जाता है सारे कायत प्रकृ लत के गणु ों िारा लकये जाते हैं। जि तक ज्ञान पररपक्व नहीं हो जाता है ति तक िीच-
िीच में व्यत्ु थान की वृलियाूँ (रजोगणु ी व तमोगणु ी वृलियाूँ) उत्पन्न होती रहती हैं। ज्ञान पररपक्व हो जाने पर
व्यत्ु थान की वृलियाूँ उत्पन्न होनी समाप्त हो जाती हैं। इस अवस्था में सकाम कमत और उनकी वासनाएूँ मि ू
रूप से नष् हो जाती हैं। सभी प्रकार के मिों के आवरण से रलहत होकर लचि रूपी प्रकाश अनतं होने से
जानने योग्य पदाथत अल्प रह जाता है। क्योंलक ज्ञान रूपी प्रकाश इतना ज्यादा िढ़ जाता है लक जानने योग्य
कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती है। लवषय िहुत न्यनू तथा ज्ञान अनतं हो जाता है। सासं ाररक वस्तएु ं उसकी
दृलष् में तच्ु छ हो जाती हैं।
सािक को जि यह अवस्था प्राप्त हो जाती है ति उसके पररणाम वािे कमत समाप्त होते जाते हैं,
अथातत् गणु ों का कायत समाप्त हो जाता है। अि गणु लिर से अपने पररणाम कमत शरू
ु नहीं करते हैं क्योंलक

सहज ध्यान योग 248


उनका कायत पणू त हो गया है। सािक िारा समालि का अभ्यास करते रहने पर गणु ों का अपने मि ू स्रोत
(आत्मा) में अलभमख ु होना शरू
ु हो जाता है। परुु षाथत से शन्ू य हुए गणु ों का अपने मि
ू स्रोत में िीन होना
कै वल्य मोक्ष है।
पररणाम कमत का अथत है – तीनों गणु ों िारा सालत्वक लचि का लनमातण हुआ। लचि से सत्वगणु ी
अहक ं ार प्रकट हुआ। सत्वगणु ी अहंकार में लवकृ लत आने पर तमोगणु ी अहक ं ार िलहमतख ु ी हुआ। इसी प्रकार
क्रमशुः िलु ि, मन व इलन्रयाूँ िलहमतख
ु ी हुए। ग्राह्य रूप से पाूँचों तन्मात्राएूँ, पाूँचों सूक्ष्म भतू , लिर पाूँचों स्थि

भतू िलहमतख ु ी हुए।

सहज ध्यान योग 249


लोकों के ववषय में
हम लजस ब्रह्मांड में रहते हैं इसमें चौदह िोक माने गये हैं। इन चौदह िोकों में लवलभन्न प्रकार के
प्राणी रहते हैं। इन िोकों का घनत्व अिग-अिग होता है। घनत्व के कारण ही इन्हें चौदह भागों में िांटा
गया है। हर िोक में घनत्व के अनसु ार ही प्राणी रहते हैं। प्रालणयों की जालतयाूँ तो अनलगनत हैं, मगर शास्त्रों
में प्रालणयों की जालतयाूँ 84 िाख ितायी गयी हैं। मैं लसित इतना कहगूँ ा लक यह सत्य है जालतयाूँ अनलगनत
हैं तथा मैं शास्त्रों में लवश्वास भी रखता ह।ूँ
पृर्थवी से नीचे जो िोक हैं उनमें लनमन प्रकार की जीवत्माएूँ रहती हैं। पृर्थवी के ऊपर के िोकों में
उच्च श्रेणी की जीवात्माएूँ रहती हैं। पृर्थवी से नीचे सात िोक हैं लजनमें ज्यादातर अंिकार व िंिु िा प्रकाश
रहता है। पृर्थवी पर हम सभी रहते हैं। यहाूँ पर सयू त के कारण लदन और रात होते हैं, अथातत् प्रकाश व अंिकार
दोनों लनलश्चत समय में िदिते रहते हैं। पृर्थवी से ऊपर के िोक स्वप्रकालशत हैं तथा सक्ष्ू म िोक हैं। इन िोकों
में प्रकाश के रंग में भी लभन्नता है, लजसे मैं आगे लिखंगू ा। अि मैं िोकों के नाम लिखता ह।ूँ सिसे नीचे के
िोक से क्रमश: ऊपर के िोकों के नाम लिख रहा ह–ूँ (1.) पाताि (2.) रसाति
(3.) महाति (4.) तिाति (5.) सतु ि (6.) लवति (7.) अति (8.) पृर्थवी (9.) भुविोक
(10.) स्वगतिोक (11.) महिोक (12.) जनिोक (13.) तपिोक (14.) ब्रह्मिोक। ब्रह्मिोक के ऊपर भी
तीन िोक हैं, मगर इनकी लगनती िोकों में नहीं मानी गयी है। ये तीनों िोक लनत्य हैं, क्योंलक परा प्रकृ लत के
अन्तगतत आते हैं। परा-प्रकृ लत में ईश्वर (सगणु ब्रह्म) रहता है अथातत् परा-प्रकृ लत ईश्वर का लचि होता है,
इसलिए ये िोक लनत्य माने गए हैं। परा-प्रकृ लत में लकसी प्रकार का पररणाम नहीं होता है। अपरा-प्रकृ लत की
अपेक्षा परा-प्रकृ लत लनत्य मानी गयी है। यह भी ध्यान रखने की िात है, परा-प्रकृ लत चाहे लजतनी स्िूलततमान
हो मगर यह जड़ ही है। भक्त अथवा योगी की भावना के अनसु ार ही सगणु ब्रह्म (ईश्वर) का स्वरूप लदखाई
देता है। सगणु ब्रह्म नारायण, परम लशव और कृ ष्ण के रूप में लदखाई देता है। क्योंलक उपासक ईश्वर को इन्ही
रूपों में देखना चाहता है। इसी के अनसु ार तीन िोक माने गए हैं। यह िोक क्रमश: इस प्रकार हैं – 1. क्षीर
सागर 2. लशविोक 3. गोिोक। गोिोक सिसे ऊपर का िोक माना गया है।
हमने पहिे लिखा है पृर्थवी के नीचे के िोक लनमन कोलट के जीवात्माओ ं के िोक हैं। इन सातों
िोकों में प्रकाश की कमी रहती है। िंिु िा प्रकाश अथवा अंिकार छाया रहता है। लनमन िोकों की िनावट

सहज ध्यान योग 250


व सतहें भी िड़ी लवलचत्र व अच्छी नहीं हैं। यहाूँ की जीवात्माओ ं को कष् ही भोगना पड़ता है, मगर इसका
मतिि यह नहीं है लक सभी जीवात्माएूँ कष् भोगती हैं। कुछ जीवात्माएूँ लकसी कारणवश यहाूँ रहती हैं, उन्हें
कष् महससू नही होता है। इन िोकों में कुछ जीवात्माएूँ ऐसी भी हैं लजन्हें श्राप देकर कष् भोगने के लिए
भेजा गया है। ऐसी जीवात्माएूँ िोकों के वातावरण में ढि जाती हैं। िलु ि मलिन होने के कारण लकसी प्रकार
का कष् महससू नहीं करती हैं। इन जीवात्माओ ं की शरीर की िंिाई िहुत कम होती है। यह वहाूँ के िोकों
का लनयम है। मैं स्वयं अपनी जानकारी के आिार पर लिख रहा हूँ जि पृर्थवी की जीवात्मा लकसी कारण
कष् भोगने के लिए रसाति भेजी गयी तो रसाति जाते समय उसका सक्ष्ू म शरीर कष् भोग रहा था। जैसे ही
रसाति पहुचूँ ा तो इस जीवात्मा के सक्ष्ू म शरीर पर, लसर पर और पैर के तिवे पर भारी दिाव पड़ा। जीवात्मा
ददत से चीखने िगी। कुछ क्षणों में जीवात्मा का सक्ष्ू म शरीर मात्र 3-4 इचं का रह गया। आप आश्चयत में तो
नहीं पड़ गए। 3-4 इचं का मनष्ु य कै से हो सकता है। उस िोक में सक्ष्ू म शरीर की िंिाई इतनी ही होती है।
उस िोक में कीचड़ व अंिकार होता है। जो जीवात्माएूँ यहाूँ रहती हैं वो उसी कीचड़ में कुछ ढूंढ़-ढूंढ़कर
खाया करती हैं।
इसी प्रकार पाताि िोक में पानी ही पानी है। वहाूँ के सारे प्राणी पानी के अंदर रहते हैं। वहाूँ पर
हिका प्रकाश है। उस हल्के प्रकाश में स्पष् लदखायी पड़ता है। मगर पृर्थवी के समान ज्यादा दरू ी तक लदखायी
नहीं देता है। यहाूँ के कुछ प्रालणयों को अन्य लनमन िोकों की अपेक्षा कम कष् है। कभी-कभी कुछ अच्छी-
अच्छी जीवात्माएूँ भी कुछ समय के लिए यहाूँ गयी हैं। ध्यानावस्था में पाताि िोक ज्यादा घमू ा नहीं ह।ूँ
अि अति िोक के लवषय में थोड़ा लिखता ह।ूँ इस िोक में लकसी प्रकार का ति (आिार) नहीं
है। लकसी प्रकार का ति न होने के कारण इसका नाम अति पड़ा है। इसमें वायु ही वायु भरी है। वायु के
कारण यहाूँ की जीवात्माओ ं को कािी परे शानी का सामना करना पड़ता है। इस िोक में लकसी प्रकार का
आिार न होने के कारण चिने अथवा घमू ने-लिरने में कािी परे शानी होती है। जि चिने का प्रयास करते
हैं तो लगर पड़ते हैं। िस, यही कष् होता है। इस िोक में जीवात्माएूँ ठीक प्रकार से चि नहीं सकती हैं। ऊपर
से वायु के झोंके िगते हैं। जि लगरते हैं तो उिटे-सीिे लगरते हैं। यहाूँ पर भख
ू की तृलप्त नहीं होती है अथातत्
जीवात्माएूँ घोर कष् उठाती हैं।

सहज ध्यान योग 251


लवति िोक के लिषय में थोड़ा-सा अनभु व याद आया। इस िोक का ति (आिार) िड़ा िेकार-
सा है। कहीं-कहीं इस िोक के सतह पर कंकड़ ही कंकड़ हैं, कहीं पर पत्थर ही पत्थर हैं। कहीं पर िािू के
ढेर जैसे हैं। यहाूँ की सतह िहुत ही ऊिढ़-खािड़ है। यहाूँ पर जीवात्माओ ं को घोर कष् उठाना पड़ता है।
जि मझु े इस िोक का अनभु व हुआ, उस समय हमारे सक्ष्ू म शरीर को कािी कलठनाई-सी हो रही थी वहाूँ
पर घमू ने-लिरने में। वहीं पर िािू के ढेर पर मैंने कुछ स्त्री व परुु ष िैठे हुए देखे थे। ये स्त्री व परुु ष हमें
आश्चयतभरी दृलष् से देख रहे थे। कुछ समय िाद मैं इन जीवात्माओ ं के पास थोड़ी दरू ी पर खड़ा हो गया, मगर
जीवात्माएूँ कुछ नहीं िोिीं। मैं भी उनसे कुछ नहीं िोिा। उनके चेहरे से उनका कष् झिक रहा था, लिर
हमारा अनभु व समाप्त हो गया।
सतु ि िोक अन्य िोकों की अपेक्षा अच्छा है। इस िोक का ति भी सुन्दर है, अथातत ठीक है।
सन्ु दर ति का अथत अपने यहाूँ की सुन्दरता से न िगाएूँ। इतना अवश्य है लक इन सातों िोकों में सिसे सही
ति इसी िोक का है। यहाूँ का िराति समति है तथा कहीं-कहीं पर पानी भी भरा है। सािकों, मैं यह नहीं
िता सकता हूँ लक यहाूँ पर लकस प्रकार से जीवात्माएूँ कष् भोगती हैं। यह लनलश्चत है, यहाूँ पर जीवात्माएूँ कष्
भोगती हैं। यहाूँ का एक अनभु व हमें आया था। मैं सक्ष्ू म शरीर से इस िोक में पहुूँचा, तो देखा एक जगह
नदी के आकार में पानी भरा हुआ है। पानी लस्थर है। मैं पानी के लकनारे भलू म पर िैठ गया। कुछ समय िाद
उठकर घमू ने िगा, तो देखा कुछ स्त्री-परुु ष एक स्थान पर िैठे हैं। ये सभी स्त्री-परुु ष हमें गौर से देख रहे हैं।
मैंने भी उन्हें गौर से देखा और सोचने िगा, ये िोग चपु चाप क्यों िैठें हैं। हमसे िोिते क्यों नहीं हैं। उसी
समय ज्ञान ने मझु े िताया, “ये स्वयं अपने आप में कष् भोग रहे हैं। कुछ क्षणों िाद मैं वापस आ गया।
सािकों! महाति और तिाति के लवषय में हमें ज्यादा कुछ अनभु व नहीं आए हैं। जि अनभु व
आते हैं तो यह लनणतय करना मलु श्कि हो जाता है लक यह लकस िोक का अनुभव आया था, लिर ज्ञान से
कायत िेना होता है। इतना तो मािमू है लक ये िोक िंिु िे प्रकाश व अंिकार में रहते हैं तथा सािना काि
में हमें नीचे के िोक के और अनभु व आए, मगर मैं लनणतय नहीं कर सकता हूँ लक ये लकस िोक के अनभु व
हैं। अभी तक संक्षेप में मैंने नीचे के िोकों के लवषय में थोड़ा-सा लिखा है। अनुभव व ज्ञान के आिार पर
लिखा है। लनचिे िोकों में मािमू तो पड़ता नहीं है। ऐसा भी हो सकता है लक अन्य योलगयों को नीचे के
िोकों के अनुभव कुछ और तरह से आए हों, क्योंलक एक ही िोक में कािी लवस्तार में जगह होती है। हो

सहज ध्यान योग 252


सकता है लक दसू री जगह का दृश्य, दसू रे ढगं का हो। मगर अिं कार व ििंु िा प्रकाश एक जैसा ही रहेगा।
मैंने तो लसित अपने अनभु वों के आिार पर लिखा है।
सन् 96 के शरुु आत के लदन थे। मैंने प्रकृ लत देवी से पूछा, “माता, मझु े नीचे के िोकों का ज्यादा ज्ञान
नहीं है, हमें वहाूँ के लवषय में िताएूँ, लजससे उन िोकों के लवषय में जानकारी हो सके ।” प्रकृ लत देवी िोिीं,
“योगी, वहाूँ के लवषय में लजतनी जानकारी है उसी पर संतोष करो। अि वहाूँ के लवषय में ज्यादा जानकारी
नहीं दी जाएगी। तमु हें जो काम सौंपे गये हैं, लसित उनसे मतिि रखो। लजन िोकों के लवषय में पूछ रहे हो,
वह लनमन श्रेणी के िोक हैं। योगी को ऐसे िोकों के लवषय में ज्यादा जानकारी नहीं िेनी चालहए। तमु हें ऊध्वत
िोकों के लवषय में जानकारी करनी चालहए। तमु हें मृत्यु के पश्चात् लजस िोक में पहुूँचना है वहाूँ के लवषय में
पछ
ू ो तो मैं िता दगूँू ी, और वहाूँ के दृश्य भी तमु हें लदखा सकती ह।ूँ ” मैं िोिा, “माता, मझु ें मािमू है मृत्यु के
िाद मैं कहाूँ जाऊूँगा, कृ पया क्षमा कीलजए।” लिर प्रकृ लत देवी अदृश्य हो गयीं। इसलिए अि ज्यादा नीचे के
िोकों के लवषय में नहीं लिख सकता ह।ूँ मैंने जो लिखा है वह अपने सािनाकाि के समय आये हुए अनुभवों
के आिार पर लिखा है। ये नीचे के िोक सक्ष्ू म िोक हैं, इसलिए सक्ष्ू म शरीरिारी यहाूँ पर रहते हैं।
लजस पृर्थवी पर हम सि रहते हैं इसे मृत्यि
ु ोक भी कहते हैं। इसके लवषय में क्या लिखें, क्योंलक पृर्थवी
के लवषय में सभी को ज्ञात है, मगर थोड़ा अवश्य लिखूँगू ा, जो सभी को ज्ञात नहीं है। आप सभी ने िरमडू ा
रैंगि (Bermuda triangle) का नाम अवश्य सुना होगा। यह समरु में अमेंररका के पास है। हम सभी को
जानकारी है उस िरमडू ा में ढेरों जहाज चिे गये और कई मनष्ु य चिे गये। वे सभी आज तक िौटकर नहीं
आये। उस क्षेत्र का लजतना आकाश है वह लवशेष प्रकार के गरुु त्वाकषतण से यक्त ु है। वैसा ही पानी की सतह
पर भी है। िरमडू ा रैंगि के आकाशीय क्षेत्र और पृर्थवी के अन्य आकाशीय क्षेत्र में थोड़ा-सा िकत है। इस
क्षेत्र में जो भी मनष्ु य पहुचूँ ता है वह अपना होश खो िैठता है, लिर िेहोश-सा हो जाता है। इसका कारण
वहाूँ का घनत्व व चंिु कीय क्षेत्र है।
पृर्थवी पर िहुत से क्षेत्र िड़े लवलचत्र से हैं। इन क्षेत्रों में चमु िकीय सरु ं गें होती हैं। ये चमु िकीय सरु ं गें
लनलश्चत जगह पर सदैव िनी रहती हैं। ये चमु िकीय सरु ं गें आूँखों से लदखाई नहीं देती हैं, उनके क्षेत्र में जाने
पर मािमू होता है। कुछ चुमिकीय सुरंगें कभी-कभी कुछ समय के लिए ही िनती हैं, लिर समाप्त हो जाती
हैं। अगर उस समय कोई प्राणी उस चमु िकीय क्षेत्र में जाएगा तो वह कुछ क्षणों में अदृश्य हो जाएगा।

सहज ध्यान योग 253


चमु िकीय क्षेत्र समाप्त होने पर वह प्राणी कभी नहीं लमिेगा। चमु िकीय सरु ं गें (क्षेत्रों) का अतं ररक्ष में जाि
िना हुआ है। ऐसे चमु िकीय क्षेत्र ब्रह्माण्ड के प्रत्येक ग्रह पर लवद्यमान रहते हैं। कुछ चमु िकीय सरु ं गें (क्षेत्र)
िनती व नष् होती रहती हैं। पृर्थवी के जाि क्षेत्र व भ-ू भाग पर भी यह लक्रया चिती रहती है। ऐसा ब्रह्माण्ड
के लनमातण के समय से हुआ है और अतं तक होता रहेगा।
पृर्थवी पर िड़े लवलचत्र स्थान हैं लजनका उल्िेख करना मलु श्कि है। हमें भी ज्यादा रुलच नहीं रही, इन
सि लवषयों में जानकारी करने के लिए। लहमािय के ििीिे इिाके में िड़े लवलचत्र स्थान हैं। इन स्थानों का
समिन्ि योलगयों से है। पृर्थवी पर हम सभी मनष्ु य, पश,ु पक्षी आलद तो रहते ही हैं, मगर पृर्थवी के अंतररक्ष में
सक्ष्ू म शरीर में िहुत ही अतृप्त जीवात्माएूँ भी रहती हैं। ये जीवात्माएूँ अपनी तृष्णा के कारण अथवा अकाि
मृत्यु के कारण भटकती रहती हैं। एक लनलश्चत समय में अथवा तृष्णा समाप्त होने पर ऊध्वत गलत को प्राप्त
करती हैं। ऐसी जीवात्माएूँ कभी-कभी योग्य व्यलक्त से भी समिन्ि स्थालपत करती हैं अथवा समिन्ि स्थालपत
करने का प्रयास करती हैं जो उन्हें ऊध्वत कर सके । इन जीवात्माओ ं को ऊध्वत करने की क्षमता लसित वही
व्यलक्त रखते हैं जो आध्यालत्मक शलक्त रखते हैं। मैंने भी कुछ अतृप्त जीवात्माओ ं को ऊध्वत लकया है। इन
अतृप्त जीवात्माओ ं के लवषय में हमने िहुत जानकारी हालसि की है। उसका वणतन तो यहाूँ नहीं करूूँगा,
क्योंलक उससे लकसी प्रकार से सािकों को िाभ नहीं लमिेगा। िेख का लवषय भी िदि जाएगा। अतृप्त
जीवात्माओ ं से मैं उन्हीं के लवषय में पछ ू ा करता था। वह अपने जीवन की कहानी िड़े प्यार से िताती थीं।
आलखर ऐसी जीवात्माओ ं को हमसे थोड़ा िाभ ही हो जाता था। मैंने स्वयं अपनी पत्नी की मृत्यु के िाद
उससे िहुत समय तक समिन्ि िनाये रखा था तथा उससे ढेर सारी जानकाररयाूँ लिया करता था जो िाद में
सत्य लनकिती थीं। लिर उसका कमतभोग का समय आ गया इसलिए समिन्ि काट लिया तालक उसे हमारे
कारण कोई परे शानी न हो।
भवु िोक के लवषय में भी िहुत जानकारी प्राप्त की है, मगर यहाूँ पर संक्षेप में लिख रहा ह।ूँ यह िोक
सक्ष्ू म िोक है। इसे समझाने की दृलष् से तीन भागों में िाूँटते हैं- एक भाग वह, जहाूँ पर मृत्यु के पश्चात्
जीवात्माएूँ पहुचूँ ती हैं। यमराज के सामने लचत्रगप्तु िारा लनणतय लकया जाता है लक इस जीवात्मा के कै से कमत
हैं और कहाूँ जाएगी। अच्छे कमत करने वािी जीवात्माएूँ ऊध्वत हो जाती हैं। िुरे कमत करने वािी जीवात्माएूँ
यहीं रुक जाती हैं। कमत के अनसु ार ही जीवात्मा को यमदतू दडं देते हैं। दडं जहाूँ लदया जाता है वह जगह

सहज ध्यान योग 254


इसी िोक में एक सीमा के अदं र है। यह जगह अत्यन्त लवस्तृत क्षेत्र में है लजसे दसू रे शब्दों में नरक कहते हैं।
लनलश्चत अवलि तक दडं भोगने के िाद, जीवात्मा पण्ु यकमत भोगने के लिए ऊध्वत हो जाती है अथवा जन्म
िेने के लिए पृर्थवी पर आ जाती है। अपने कमातनसु ार जन्मस्थान के पास आ जाती है। इन नरकों में लभन्न-
लभन्न प्रकार के कष् लदये जाते हैं।
भवु िोक के एक भाग में तामलसक शलक्तयाूँ रहती हैं। ये तामलसक शलक्तयाूँ अत्यन्त शलक्तशािी होती
हैं। ऐसी शलक्तयाूँ अपनी शलक्त िढ़ाने के लिए, तामलसक मंत्रों का जाप लकया करती हैं।
लकसी-लकसी स्थान पर यज्ञ कुण्ड की तरह कुण्ड िने रहते हैं। इनमें सक्ष्ू म रूप से अलग्न प्रज्वलित
रहती है। इसी अलग्नकुण्ड में सक्ष्ू म तामलसक वस्तओ ु ं की आहुलत लदया करते हैं तथा अपनी तामलसक शलक्त
भी िढ़ाया करते हैं। ऐसी जीवात्माएूँ अत्यन्त दष्ु स्वभाव की होती हैं। ये पृर्थवी की ओर भी देखते रहते हैं।
जो इनका उपासक होता है, उनका कायत कर देते हैं एवं उस कायत के िदिे में तामलसक वस्तएु ूँ िे िेते हैं।
इन तामलसक वस्तओ ु ं का सक्ष्ू म भाग उन्हें प्राप्त होता है। कभी-कभी पृर्थवी के कुछ लवलशष् जगहों पर
जिरदस्ती छीना-झपटी करके वस्तओ ु ं का सक्ष्ू म भाग िे िेते हैं। इस लक्रया को पृर्थवी के सािारण मनष्ु य
नहीं जान पाते हैं। पृर्थवी पर कभी-कभी नये सािकों के सामने अवरोि भी डािते हैं। ऐसे अवरोि सािक
के मागतदशतक को ठीक करने पड़ते हैं। अथवा दृढ़ता से ध्यान में िगे सािक के सामने लटक नहीं पाते हैं।
ऐसी तामलसक शलक्तयों की सािकों से िड़ी दश्ु मनी होती है। क्योंलक तामलसक व सालत्वक का लवरोि तो
सदैव से चिा आ रहा है। इन तामलसक शलक्तयों के पास शलक्त िहुत होती है, क्योंलक ये सदैव तामलसक
शलक्त मंत्र िारा अलजतत लकया करते हैं। यह अपनी इच्छानसु ार तामलसक शलक्त से अपने समान परुु ष प्रकट
करने की शलक्त भी रखते हैं। यह कायत िड़ी तामलसक शलक्तयाूँ करती हैं। सािक और तामलसक शलक्त का
कभी मेंि नहीं हो सकता है। सािक को इनसे सवतथा दरू रहना चालहए। लजस जगह ये शलक्तयाूँ रहती हैं, वहाूँ
पर हल्का प्रकाश रहता है।
भगवान सयू त के पत्रु िमतराज जी इसी िोक में रहते हैं। आप सोचेंगे, िमतराज जी यहाूँ रहते हैं। इनका
स्थान इसी िोक में है। मगर िमतराज जी लजस क्षेत्र में रहते हैं, वह स्थान इस िोक से सवतथा लभन्न है। क्योंलक
इस िोक में तामलसक शलक्तयाूँ व नरक आलद हैं। मगर िमतराज जी के रहने के स्थान पर सिे द रंग का
उज्जवि तेज प्रकाश िै िा रहता है। यह स्थान सख ु -दखु से दरू आनन्दमय है। िमतराज जी के सामने एक

सहज ध्यान योग 255


तराजू सदैव िना रहता है यह तराजू लदव्य है। िमतराज जी की दृलष् इसी तराजू पर िनी रहती है। यह तराजू
सािारण तराजू की भाूँलत नहीं है, यह तराजू स्वयमेंव ब्रह्माण्ड भर का िैिेंस िताता रहता है। यह तराजू िमत
और अिमत का लनणतय स्वयं करता है। ब्रह्माण्ड में लकसी जगह अगर अिमत िढ़ता है तो तराजू का एक
पिड़ा नीचे हो जाता है, दसू रा पिड़ा ऊपर हो जाता है। उसी समय भगवान िमतराज को मािमू हो जाता है
लक लकस स्थान पर अिमत की मात्रा ज्यादा हो रही है। उसी समय िमतराज जी के आवाहन पर प्रकृ लत देवी
व्यवस्था करती हैं। तराजू का कांटा लििकुि सही रहता है। यलद लकसी मनष्ु य के कमों का, िमत अिमत का
लनणतय इनके पास पहुचूँ ता है तो तराजू िारा स्वयमेंव िता लदया जाता है। पृर्थवी पर यगु के अनसु ार लकतना
िमत होना चालहए, लकतना अिमत होना चालहए, यह तराजू िताता रहता है। जि पृर्थवी पर अिमत एक लनलश्चत
अनपु ात से अलिक हो जाता है तो तराजू िारा ज्ञात होने पर भगवान िमतराज ब्रह्मा जी को िताते हैं। लिर
ब्रह्मा जी प्रकृ लत देवी को प्रेररत करते हैं। प्रकृ लत देवी योलगयों को िमत की व्यवस्था के लिए, िमत प्रचार के
लिए भेजती हैं। योलगयों की लगनती ज्यादा भी हो सकती है। अलिक अिमत िढ़ने पर स्वयं भगवान भी पृर्थवी
पर अवतार ग्रहण कर िेते हैं। यहाूँ पर यह नहीं कहा जा सकता है लक वततमान यगु में अिमत अलिक क्यों हैं
क्योंलक कलियगु है। कलियुग के समय यह लनलश्चत रहता है लक अिमत अनपु ात में इतना िढ़ेगा, िमत अनपु ात
में इतना घटेगा। भिे ही देखने में अिमत अलिक हो, मगर लनलश्चत अनपु ात में है, तो सही कहा जाएगा।
लप्रय सािकों, एक लदिचस्प िात लिखता ह,ूँ भगवान िमतराज जी िहुत ही ज्यादा सन्ु दर हैं। हमारी
और भगवान िमतराज की खिू िनती थी। मैं तो कभी-कभी िमतराज जी से मजाक भी कर देता था। एक िार
मैंने मजाक में पछ ू ा – “प्रभ,ु आप इतने सन्ु दर क्यों हैं?” भगवान िमतराज जी मस्ु कराने िगे। मैंने दिु ारा यही
प्रश्न लकया, तो वह िोिे– "क्यों, मैं आपको सचमचु सन्ु दर लदखता ह।ूँ ” मैं िोिा– “हाूँ, आप वास्तव में
िहुत सन्ु दर हैं।” वह िोिे- “चिो आपने मझु े सन्ु दर तो कहा, लकसी ने आज तक सन्ु दर नहीं कहा।” मैं
िोिा – “प्रभ,ु मैं क्यों सन्ु दर नहीं ह?ूँ ” भगवान िोिे– “माता प्रकृ लत से पछ
ू ो।” कुछ समय िाद मैंने माता
प्रकृ लत से यही सवाि लकया, तो माता प्रकृ लत देवी िोिीं – “आप अपना पीछे का तीसरा जन्म देलखए
जवाि लमि जाएगा।” लिर मैंने अपना लपछिा तीसरा जन्म देखा, मझु े अपने प्रश्न का जवाि लमि गया था।
सािकों, यलद आपकी लदव्यदृलष् अत्यन्त तेजस्वी है तो आप एक िार भगवान िमतराज के दशतन अवश्य
कीलजए। उनका स्वरूप देखकर आप भी मोलहत हो जायेंगे।

सहज ध्यान योग 256


यहाूँ पर लजस स्थान पर यमराज जी व लचत्रगप्तु रहते हैं, वह स्थान भी अिग है। यमराज जी अपनी
इच्छानसु ार अपने शरीर से यमदतू प्रकट कर सकते हैं। लचत्रगप्तु जी के पास जो पस्ु तक है उसमें ब्रह्माण्ड की
सभी जीवात्माओ ं के लवषय में िेखा-जोखा रहता है, जरूरत पड़ने पर कई कल्प पीछे का भी देखा जा
सकता है। यह पस्ु तक ज्यादा मोटी नहीं है मगर यह पस्ु तक लदव्य है। लदव्य होने के कारण इसमें सभी
जीवात्माओ ं के लवषय में लमि जाता है।
अि मैं एक लदिचस्प घटना लिख रहा ह।ूँ यह घटना लदसमिर, 95 की है, कई वषों पवू त हमारे एक
लमत्र ने आत्महत्या कर िी थी। हमने अपना ध्यान करने के लिए गांव से िाहर नदी के लकनारे एक झोपड़ी
िना रखी है। उस समय मैं झोपड़ी में था, ति हमारे लमत्र ने (लजसने आत्महत्या कर िी थी) लत्रकाि से
अपनी िात कही- “मैं तमु हारे गरुु का लमत्र था, उनसे कहो – मझु े इच्छानसु ार भोजन करा दें और मेंरी ऊध्वत
गलत कर दें। उस िड़के लत्रकाि ने मझु े िताया। मैंने लत्रकाि को िताया - यह सही है ये हमारे लमत्र थे मगर
मजिरू ी में आत्महत्या कर िी। वैसे मैं यह कायत नहीं करता मगर लमत्र के कारण करना पड़ा। पहिे इच्छानसु ार
भोजन कराया लिर मैं िोिा – लमत्र आपको िहुत साि हो गये भटकते हुए, अि आप ऊपर जाने की तैयारी
कीलजए। वह नदी के ऊपर आकाश में खड़े हो गए। मैं और लत्रकाि झोपड़ी में िैठे हुए थे। जैसे ही मैंने
ओकं ार लकया, हमारे िारा लकये गये ओकं ार से सिे द रंग की शलक्त लनकिी और लमत्र के पैरों के नीचे तिवे
पर पहुचूँ गयी। लमत्र ने हमें प्रणाम लकया लिर ऊपर की ओर अतं ररक्ष में जाने िगे। जाने की गलत तीव्र थी।
कुछ क्षणों िाद अतं ररक्ष में कािे रंग के िादि लदखाई लदये। लमत्र उन िादिों को िीच से चीरता हुआ ऊपर
की ओर चिा जा रहा था। ऊपर भवु िोक की सीमा में पहुचूँ गया। वहाूँ ऊपर अतं ररक्ष में एक दरवाजा
लदखाई लदया। उस दरवाजे से पहिे सीलढ़याूँ थीं। लमत्र हमारे योग िि पर सीलढ़यों पर खड़े हो गये। लिर
सीलढ़याूँ चढ़ने िगे। सीलढ़याूँ ऊूँची थी। जि सारी सीलढ़याूँ चढ़ िी ति दरवाजे के सामने खड़े हो गये,
दरवाजा िन्द था। मैं चौंका, दरवाजा िन्द है। मगर उसी समय दरवाजे के पास दो कािे रंग के तेजस्वी यमदतू
प्रकट हो गये। उन्होंने दरवाजा खोि लदया। हमारे लमत्र अदं र चिे गये। थोड़ी दरू चिने पर उन्हें लिर सीलढ़याूँ
लमिीं, उन सीलढ़यों पर लमत्र लिर चढ़ने िगे। मैं उत्सक ु तावश सारा दृश्य देख रहा था। कुछ सीलढ़याूँ चढ़ने के
िाद लिर दरवाजा लमिा। इस दरवाजे को भी दो यमदतू ों ने प्रकट होकर खोिा। दरवाजे के अदं र लमत्र पहुचूँ
गया। दरवाजा अपने आप िन्द हो गया। अदं र का दृश्य अच्छा था, वहाूँ िैठने का स्थान था। लमत्र िड़ी
शांलत से वहाूँ पर िैठ गये। आगे नहीं िढ़े।

सहज ध्यान योग 257


पहने मैंने सोचा लमत्र रुक क्यों गया, लिर मैं िोिा– लमत्र आगे िढ़ो, मैं तमु हें योगिि से आगे भेज
दगूँू ा। इतने में माता प्रकृ लत देवी प्रकट हो गयीं। वह िोिीं– योगी पत्रु , यह जीवात्मा अि आगे नहीं जा
सकती है। मैं िोिा– क्यों माता? वह िोिीं– यह मेरा लनयम है, अभी इसे पृर्थवी पर रहना था। तमु ने योगिि
से भवु िोक पहुचूँ ा लदया। यह भवु िोक का दृश्य मैंने तमु हें लदखाया है। मैं िोिा– माता मैं आगे का भी दृश्य
देखना चाहता ह,ूँ हमारे अंदर उत्सक ु ता है लक आगे क्या होता है। माता प्रकृ लत िोिीं– अि आगे का दृश्य
नहीं देख पाओगे। हर एक िात पर हठ मत लकया करो। प्रकृ लत देवी अदृश्य हो गई। सािकों, आगे का दृश्य
मैं नहीं देख सका। हमारे लमत्र वहीं पर िैठ गये। दसू रे लदन एक तरुण िड़की की जीवात्मा को भी ऊध्वत
लकया। उसकी हत्या कर दी गयी थी। वह मझु े भैया कहती थी। उसने हमसे प्राथतना भी की थी। स्थि ू रुप से
मैं उस िड़की को जानता था। उस िड़की पर दया आ गयी, लिर उसे भी भोजन करा कर ऊध्वत कर लदया।
यह िड़की भी वहीं पर िैठ गयी, जहाूँ पर हमारे लमत्र महाशय िैठे हुए थे। दोनों आमने-सामने थे मगर आपस
में िोिते नहीं थे। मैंने लमत्र से कहा– तमु दोनों एक दसू रे को जानते हो, आपस में िातें क्यों नहीं करते हो।
लमत्र िोिे– मेंरी इच्छा नहीं होती है। िड़की ने भी यही जवाि लदया। मगर हमारा और िड़की का समिन्ि
िहुत लदनों तक िना रहा। वह हमसे िात करती थी। एक लदन प्रकृ लत देवी ने िताया लक आप उस िड़की से
समिन्ि मत स्थालपत कररए, आप योगी हैं। हमें िड़की से मािमू हुआ था वहाूँ पर लकसी तरह की परे शानी
नहीं है। वह जगह भख ू -प्यास से रलहत है।
सािकों, मैंने लिखा है जि हमारे लमत्र की जीवात्मा ऊध्वत हो रही थी तो मागत में कािे रंग के िादि
लमिे थे। यह सि सक्ष्ू म जगत से समिलन्ित है, स्थि
ू जगत से नहीं। पृर्थवी के आकाश में जो अतृप्त जीवात्माएूँ
रहती हैं वे चाहे लजतनी शलक्तशािी हों, इन कािे िादिों को भेदकर पार नहीं हो सकती हैं। जि उनका
ऊध्वत होने का समय आ जाता है तो स्वयं पार हो जाती हैं, वरना ये अतृप्त जीवात्माएूँ कािे िादिों से नीचे
ही रहती हैं। मैंने यह सि संक्षेप में लिखा है।
स्वगत िोक का नाम कौन नहीं जानता है। िच्चे-िच्चे से पछ ू िो स्वगतके लवषय में लक वहाूँ पर देवता
रहते हैं। चिो, हम थोड़ा सा स्वगत के लवषय में भी लिखते हैं। स्वगत तो वैसे भी सुन्दर जगह है, लकसका मन
नहीं चाहेगा लक स्वगत की प्रालप्त हो। मगर स्वगत लमिता कहाूँ है। यलद समझाने की दृलष् में स्वगत को दो भागों
में िाूँट दें तो अच्छा रहेगा। एक भाग में इन्र और देवता आलद रहते है, तो दसू रे भाग को हम लपतर िोक

सहज ध्यान योग 258


कह सकते हैं। लपतर िोक में पण्ु य कमत करने वािी जीवत्माएूँ रहती हैं। पृर्थवी पर मनष्ु य जो पण्ु य कमत करते
हैं उन कमों का िि लपतर िोक में सख ु भोगने के रूप में लमिता है। यह जगह भख ू प्यास से रलहत है। यहाूँ
पर लकसी प्रकार का कष् नहीं भोगना पड़ता है। जीवात्माएूँ सख ु ही सख ु का भोग करती हैं। इस िोक में
अपनी इच्छानसु ार जीवात्मा लवचरण करती है। यहाूँ पर ढेर सारी जीवात्माएूँ एक साथ रहती हैं, मगर आपस
में िातें नहीं करती हैं क्योंलक इनके अन्दर िात करने की इच्छा नहीं रहती है। मझु े लपतर िोक के अनुभव
आए हैं। मैंने लपतर िोक की सैर की है। यह िोक स्वगत िोक के समकक्ष है, इसीलिए सख ु ही सखु है। जि
पण्ु य कमत समाप्त हो जाते हैं, एक लनलश्चत मात्रा में, ति जीवात्मा जन्म िेने के लिए पृर्थवी पर आ जाती है।
लपतर िोक की जीवात्मा स्वगत के क्षेत्र में नहीं जा सकती है। लपतर िोक में रहने के लिए अिग-
अिग स्तर हैं। यह स्तर थोड़े-थोड़े घनत्व पर िदि जाते हैं। कमत के अनसु ार जीवात्मा के सक्ष्ू म शरीर का
हल्का-सा घनत्व िदि जाता है। लिर जीवात्मा अपने सक्ष्ू म शरीर के घनत्व के अनसु ार उसी घनत्व के स्तर
पर पहुचूँ जाती है और उसी स्तर पर रहती है। जरूरत पड़ने पर दसू रे घनत्व के स्तर पर ये जीवात्माएूँ जा
सकती हैं। मगर इस लक्रया से उनके पण्ु यकमों पर सीिा असर पड़ेगा। स्थि ू दृलष् से ये स्तर हम सीढ़ीनमु ा
समझ सकते हैं। इस िोक का सिसे ऊूँचा स्तर महिोक को स्पशत करता है।
स्वगत के क्षेत्र में देवताओ ं के रहने का स्थान है तथा इसी क्षेत्र में लवशाि आकार में व अलत सुन्दर
भगवान इन्र का दरिार है। लजस जगह देवता रहते हैं वह जगह स्वप्रकाश से यक्त ु है। यहाूँ का प्रकाश िहुत
सन्ु दर है तथा सन्ु दर रमणीक जगह है। कुछ लवशेष स्थानों पर अत्यन्त चमकीिी लदव्य मलणयों का प्रयोग
लकया गया है। ये मलणयाूँ स्वप्रकालशत हैं। सािकों, स्वगत का वणतन मैं ज्यादा नहीं कर सकता ह,ूँ क्योंलक स्वगत
के उस स्थान पर मैं कभी नहीं गया जहाूँ पर देवताओ ं के रहने का स्थान है। वैसे योगी के सािना काि में
ऐसा समय अवश्य आता है जि वह सक्ष्ू म शरीर से स्वगत में जाता है। लिर वहाूँ पर योगी का सममान भी
लकया जाता है। ऐसा जरूरी नहीं लक सभी सािकों को स्वगत घमू ने का अवसर लमिता हो, मगर ज्यादातर
अच्छी सािना करने वािे सािकों को यह अवसर आता है। हमें भी यह अवसर आया था, मगर मैंने स्वगत
जाने से इक ं ार कर लदया। मझु े ब्रह्म की ओर से यह अवसर लदया गया था लक ऐरावत पर चढ़ाकर स्वगत घमु ाया
जाए। स्वगत के अंदर जाना तो दरू रहा, मैं स्वगत के दरवाजे से िहुत दऱू खड़ा रहा। अलिक जानकारी हमारे
अनभु वों में पढ़ सकते हैं।

सहज ध्यान योग 259


लिर सन् 1995-96 में हमारी और इन्र की कई िार िातचीत हुई। मैंने पृर्थवी से ही भगवान इन्र की
सभा देखी और वहाूँ के दृश्य भी देखे। हमारा और इन्र का समिन्ि कई लदनों तक िना रहा। लवलि का
लविान ऐसा था, लिर हमारा और इन्र का समिन्ि टूट गया। क्योंलक हमें योग की मलं जिें भी तय करनी थी।
इन्र के दरिार (सभा) में अप्सराएूँ अक्सर नृत्य लकया करती हैं। इन अप्सराओ ं को हमें हेय दृलष् से नहीं
देखना चालहए लक यह नततकी हैं। ये तो जन्म और मृत्यु से रलहत हैं। ये एक प्रकार की लदव्यशलक्तयाूँ हैं जो
अपनी किा का प्रदशतन लकया करती हैं तथा देवताओ ं का मनोरंजन लकया करती है। इन्र से हमारा लमत्र
जैसा व्यवहार रहा है। िहुत सीिे और सरि हैं। मैं पहिे उन्हें भगवान शब्द से समिोलित करता था, लिर
वह िोिे योगी, तमु मझु े भगवान क्यों कहते हो। मैं िोिा– आप देवताओ ं के राजा हैं इसलिए मैं आपको
भगवान कहता ह।ूँ इन्र िोिे– मझु े योलगयों से िड़ा डर िगता है तथा उनका स्थान भी हमसे ऊपर के िोकों
में है, इसलिए योगी महान हुआ, लकतना अपनापन है इन िातों में। लिर हमारे और उनके िीच दोस्ती कायम
हो गयी। मगर ज्यादा लदन न चि सकी।
इन्र पद का नाम है लकसी देवता का नाम नहीं है। जैसे अपने यहाूँ प्रिानमंत्री का पद है इसी प्रकार
इन्र का पद है। इन्र पद पर जो देवता िैठता है वह कभी-न-कभी पवू तकाि में पृर्थवी िोक पर रह चक ु ा होता
है। यह पद अत्यन्त पण्ु यकमों के कारण लमिता है। एक इन्र 72 से 74 यगु ों तक अपने पद पर रहता है। लिर
दसू रा इन्र आ जाता है। इन्र के पास जो शलक्त है वह इन्र पद की होती है, इसलिए इन्र अत्यन्त शालक्तशािी
होता है। एक िार इन्र ने िताया, जि पृर्थवी पर कलियगु चिता है ति हमें लकसी प्रकार की परे शानी नहीं
होती है। क्योंलक उस समय पृर्थवी पर कोई भी इतना शलक्तशािी नहीं होता है, जो हमें परे शान कर सके ।
अन्य यगु ों में परे शानी ही परे शानी होती है। यलद स्वगत से ऊपर की जीवात्माएूँ चाहें तो इन्र के पास जा सकती
हैं। ऐसी जीवात्माओ ं के पास योगिि होना जरूरी है। लजतना समय इन्र के पास गजु ारा जाएगा, उस भक्त
या योगी का योगिि कुछ-न-कुछ क्षीण होगा, यह प्रकृ लत का लनयम है। वैसे योलगयों को, जो उच्चिोकों
में रहते हैं, इन्र से कोई काम नहीं होता है। यलद कोई योगी या जीवात्मा इन्र के दरिार में पहुचूँ ती है तो इन्र
िारा उस योगी का सममान लकया जाता है।
महिोक स्वगत से ऊपर का िोक है। इस िोक में भक्त ही भक्त रहते हैं। ये भक्त सदैव अपने इष् की
याद में डूिे रहते हैं। कुछ भक्त अपने इष् का नाम जप करते हैं और अपने-अपने ढंग की भलक्त में िगे रहते

सहज ध्यान योग 260


हैं। यहाूँ पर माया का प्रभाव कम होने के कारण एक भक्त दसू रे से मतिि नहीं रखता है। इस िोक में कई
स्तर हैं। भक्त अपनी योग्यतानसु ार अपने स्तर में िैठा नाम जप अथवा ध्यानमग्न रहता है। यलद इस िोक में
भलक्त के कारण योगिि िढ़ गया तो भक्त का स्तर िदि जाता है। लिर अपने से उच्च स्तर पर चिा जाता
है। एक लनलश्चत समय में जन्म िेने का समय आ जाता है। ति प्रकृ लत की प्रेरणा से भक्त पृर्थवी पर जन्म िेने
के लिए आ जाता है। ऐसी जीवात्मा जि स्थि ू शरीर ग्रहण करती है तो स्थि
ू जीवन में अपने कमातशयों के
अनसु ार कमत करता हुआ भक्त िनता है। इस िोक में सिे द उज्जवि प्रकाश सदैव िना रहता है। ये िोक
स्वप्रकालशत है।
जनिोक, महिोक से ऊपर है इसलिए यह िोक महिोक से उिम है। इस िोक को हम स्तर के
अनसु ार दो भागों में िांट दें तो अच्छा रहेगा। हमारा मतिि, समझने में आसानी रहेगी। इस िोक में
अनलगनत स्तर हैं। नीचे के आिे स्तरों में भक्त रहते हैं, ऊपर के आिे स्तरों में योगी रहते हैं। यह योगी
ज्यादातर वे हैं लजनका योगिि कम होता है तथा योग में उच्चतम लस्थलत प्राप्त नहीं हुई है। ऐसे सािक
ज्यादातर योग का अभ्यास भी करते रहे तथा स्थि ू संसार में भी जीवन व्यतीत करते रहे। शांत कुण्डलिनी
वािे सािकों की संख्या इस िोक में ज्यादा होती है, लकसी कारण योग भ्रष् हो गये, योगिि भी थोड़ा रह
गया आलद। यहाूँ पर यह लनलश्चत है लक इन सािकों का योगिि ज्यादा नहीं होता है। इस िोक में वे सािक
भी आते हैं लजन्होंने स्थि
ू शरीर से योग का अभ्यास तो लकया लिर स्थिू सखु में लिप्त होकर अपना योगिि
भी समाप्त कर लिया। इस िोक में सािक समालि िगाए िैठे रहते हैं। इनका जन्म िहुत ज्यादा देर तक नहीं
रुकता है। इस िोक का प्रकाश सिे द उज्ज्वि व सनु हरे रंग के लमश्रण का है।
तपिोक, जनिोक से ऊपर का िोक है। इस िोक का जैसा नाम है वैसी ही यहाूँ की भलू म है, वैसा
ही यहाूँ का वातावरण है। यह िोक योलगयों का िोक है। इस िोक में एक से िढ़कर एक योगी रहते हैं। इस
िोक के ऊपरी स्तरों में लजतने भी सािक रहते हैं, सभी ज्ञानी होते हैं। इस िोक के लनचिे स्तरों के सािकों
को ज्ञान नहीं होता है। यहाूँ पर ज्ञान का अथत तत्त्वज्ञान से न िगाया जाए। तत्त्वज्ञानी तो ईश्वर के िोक अथातत्
परा-प्रकृ लत में रहते हैं। मगर एक िात अवश्य है लक यहाूँ समालि िगाने वािे योगी होते हैं। सािकों, इस
िोक से हमें िड़ा प्यार है। इसका कारण यह भी है लक मैं भी यहीं का लनवासी रहा ह।ूँ पृर्थवी से मृत्यु के
पश्चात् कई िार मैं इस िोक में आया ह।ूँ लिर कािी िमिी समालि िगाकर पृर्थवी पर जन्म िेने के लिए

सहज ध्यान योग 261


आया ह।ूँ अिकी िार मैं इस िोक से नहीं आया हूँ क्योंलक हमारा समिन्ि प्रकृ लतिय अवस्था से रहा है।
प्रकृ लतिय अवस्था में सािक अपरा-प्रकृ लत के िाहरी आवरण में रहता है। ऐसा सािक जि जन्म ग्रहण
करता है ति उसे तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है। हमारी लपछिी िार की समालि सिसे कम रही है। लसित 25 वषत के
िगभग समालि िगाने के िाद प्रकृ लत देवी ने हमें जन्म िेने के लिए भेज लदया। अि की िार हमें सिसे
जल्दी आना पड़ा। जि मझु े प्रकृ लत देवी ने समालि से उठाकर जन्म िेने के लिए कहा, ति मैं िोिा– माता,
अभी-अभी पृर्थवी िोक से आया ह,ूँ आप कह रही हैं पृर्थवी पर जाकर जन्म ग्रहण करो। क्या हमें इतनी
जल्दी जन्म िेना पड़ेगा? प्रकृ लत माता िोिीं– तमु हें लकसी कारण से इतनी जल्दी भेजा जा रहा है। वहाूँ पर
तमु हें कुछ कायत करने हैं, तथा तमु हें तमु हारे योग का िि भी लमिने वािा है। पृर्थवी पर जाकर अपने कमत
समाप्त करना, तालक तुमहें उच्चतम लस्थलत प्राप्त हो सके । लिर मैं पृर्थवी पर जन्म िेने के लिए आ गया, यह
िात मैंने अलत संक्षेप में लिखी है।
इस िोक का वातावरण ऐसा है लक कभी-कभी इस िोक में उच्च लस्थलत वािे योगी भी समालि
के लिए आ जाते हैं। क्योंलक यहाूँ का वातावरण अत्यन्त शांत है, योलगयों के अनक ु ू ि है। इस िोक में हमारे
स्वामी लशवानंद जी भी (ऋलषके श, लशवानंद आश्रम वािे) समालिस्थ रहते हैं। यहीं पर हमारे लपछिे जन्मों
के लमत्र भी (योगी लमत्र) रहते हैं। मैंने कािी समय तक अपने लमत्रों से समिंि िनाए रखा मगर उन्हें समालि
िगानी थी, इसलिए समिन्िलवच्छे द कर लदया तालक समालि िगा सकें । अप्रैि, 96 में समिन्िलवच्छे द हो
गया था। हमारे चारों लमत्रों ने एक िार कहा– कि आओगे तपिोक? मैं िोिा– मृत्यु के पश्चात। लमत्र िोिे–
तेरी मृत्यु के लिए अभी िहुत समय है। मैं िोिा– तो मैं क्या करूूँ। लमत्र िोिे– आत्महत्या कर िे, अथवा
कहीं पर एक्सीडेंट में मर जा। मैं िोिा– ऐसा प्रकृ लत को मजं रू नहीं है। लमत्र िोिे– यार, तेरी िड़ी याद आ
रही है, तू जल्दी से तपिोक आ जा, हम तेरा इतं जार कर रहे हैं।
सािकों, ये चारों लमत्र हमारे लपछिे जन्म में िचपन के लमत्र थे। लिर हम पाूँचों योगी हो गये। थोड़े
– थोड़े अंतराि में मृत्यु के पश्चात तपिोक पहुचूँ गये। मैं अपने कमों को समाप्त करने लिर मृत्यिु ोक आ
गया। लमत्रों ने जन्म ग्रहण नहीं लकया। वततमान समय में तपिोक पर हमारे लपछिे जन्मों के पररलचत कुछ
और योगी हैं लजनसे दो-चार िार समिंि स्थालपत लकया था। इस िोक का सिसे ऊंचा स्तर ब्रह्मिोक को
स्पशत कर रहा है। हमारे लप्रय योगी भगवान गौतम िि ु जी कभी-कभी तपिोक की अत्यन्त उच्च स्तर पर

सहज ध्यान योग 262


समालि िगाने आ जाते हैं। कभी-कभी ब्रह्मिोक में समालि िगाते हैं। एक िार भगवान गौतम िि ु जी से
मैंने पछ
ू ा– आप कभी-कभी तपिोक में क्यों समालि िगाते हैं, आपको ब्रह्मिोक में रहना चालहए। वह
िोिे– योगी पत्रु , तपिोक योलगयों की भलू म है, इसलिए इच्छानसु ार आ जाता ह।ूँ इस िोक में तेज सनु हिे
रंग का प्रकाश रहता है। िि ु जी की अवस्था अत्यतं सक्ष्ू म है क्योंलक वे तत्त्वज्ञानी हैं। अि उन्हें जन्म ग्रहण
नहीं करना है। वे परा-प्रकृ लत के लनचिे स्तर पर भी समालि िगाते हैं अथवा रहते हैं। उनका दशतन करना
दिु तभ है।
ब्रह्मिोक भगवान ब्रह्मा का िोक है। भगवान ब्रह्मा इस िोक के उच्च स्तर पर कमि के िूि पर
लवराजमान रहते हैं। भगवान ब्रह्मा का िोक होने के कारण इस िोक का नाम ब्रह्मिोक पड़ा। यह िोक तपे
हुए सोने के समान तेज सनु हिे प्रकाश से चमकता रहता है। इस िोक के ऊपरी भाग में भगवान ब्रह्मा,
सरस्वती और गायत्री आलद देलवयों का स्थान है। इसके लनचिे स्तर पर गंिवत, लकन्नर आलद अपनी किा
का प्रदशतन करते हैं। यह स्तर गंिवो व लकन्नरों का है। इस िोक के मध्य स्तर पर िहुत लवलचत्र जगह है। इस
स्थान पर सगु ंलित और आनंलदत कर देने वािी वायु सदैव िहती रहती है। यह लदव्य वायु अत्यन्त सगु ंलित
होती है। यह वायु सगु ंलित और आनंलदत अवश्य है, मगर योगी यहाूँ पर समालि नहीं िगा सकता है, इसका
कारण यही वायु है। योगी यहाूँ इस वायु का आनन्द अवश्य िे सकता है। अगर ज्यादा आनन्द के चक्कर
में पड़ा तो योगी के योगिि पर िकत पड़ता है। इसलिए योगी यहाूँ ठहरता नहीं है। इस जगह से लनचिे भाग
पर योगी समालि िगा सकते हैं। मगर ज्ञान के िारा मािमू हुआ इस स्थान पर कभी-कभी गिं वो का आिाप
सनु ाई पड़ने िगता है। इसलिए योगी इस स्थान पर समालि कम िगाते हैं, तपिोक में समालि िगाने आ
जाते हैं। ब्रह्मिोक में सख
ु महससू होता है। योगी को सख ु नहीं चालहए।
हमने यहाूँ पर लजन-लजन िोकों का वणतन लकया, वह अपने अनभु व के आिार पर लकया है। हो
सकता है लकसी अन्य सािक को अन्य प्रकार के अनभु व हुए हों। हमने िोकों में योग से समिंलित ही
जानकारी हालसि की है। अन्य जानकाररयाूँ छोड़ दी। कुछ िोकों की िहुत ज्यादा जानकारी है मगर ज्यादा
लिखना उलचत नहीं समझा। ऊपर के िोकों में लवलभन्न स्तर हैं यह स्तर घनत्व के आिार पर हैं।
चौदह िोक कहे गये हैं, उनका थोड़ा-थोड़ा वणतन मैंने लकया। ये िोक पृर्थवी िोक के अिावा सक्ष्ू म
िोक हैं। इन चौदह िोकों से ऊपर तीन और िोक हैं। इनकी गणना िोकों में नहीं की गयी है। ब्रह्मिोक

सहज ध्यान योग 263


तक लजतने िोक हैं, इन िोकों में रहने वािी सभी जीवात्माओ ं का कभी न कभी जन्म िेना लनलश्चत है। ये
चौदह िोक अपरा-प्रकृ लत के अन्तगतत आते हैं। अपरा-प्रकृ लत में लस्थत जीवात्माओ ं को भि ू ोक पर कभी
न कभी जन्म अवश्य ग्रहण करना होता है। इससे ऊपर के िोकों में लस्थत (परा-प्रकृ लत में) जीवात्माओ ं को
जन्म ग्रहण करने के लिए भि ू ोक पर नहीं आना पड़ता है। ऐसी जीवात्माएूँ तत्त्वज्ञान से यक्त
ु होती हैं।
ब्रह्मिोक से ऊपर क्षीर सागर है। क्षीर सागर में भगवान नारायण वास करते हैं। भगवान नारायण शेषनाग के
शरीर की िनी शैय्या पर योगमरु ा में महािक्ष्मी जी के साथ लवराजमान रहते हैं। भगवान नारायण पािनकिात
हैं। ये ईश्वर हैं। इनका िोक भी लनत्य है। कभी भी प्रिय का प्रभाव इस िोक पर नहीं आता है। क्षीर सागर
में हल्के नीिे रंग का चमकदार प्रकाश लवद्यमान रहता है। क्षीर सागर की संरचना महाकारण तत्व से है।
इसलिए क्षीर सागर महाकारण जगत में आता है। महाकारण का रंग हल्का नीिा चमकीिा होता है। इस
िोक में नारायण भक्त तथा लवष्णु भक्त भी रहते हैं। वैकुण्ठ भी इसी िोक को कहते हैं। भगवान नारायण के
पाषतद भी भगवान नारायण की तरह चार भजु ाओ ं वािे होते हैं। भलक्त के िि पर अथवा योग के िि पर
जो जीवात्माएूँ इस िोक को प्राप्त करती हैं, लिर अनंत समय तक यहाूँ रहती हैं, इनका जन्म नहीं होता है।
यहाूँ पर रहने वािी जीवात्माओ ं को एक प्रकार का मोक्ष सा ही है।
क्षीर सागर से ऊपर का िोक लशविोक है। यह िोक भी महाकारण तत्वों से िना है। यह िोक
महाकारण जगत में आता है। यहाूँ पर भगवान परमलशव सदा समालि में िीन रहते हैं, इनके पास आलदशलक्त
भी लवराजमान रहती हैं। भगवान लशव के पाषतद भगवान लशव के समान रूप वािे होते हैं। लशव िोक में
अत्यन्त उच्चकोलट के योलगयों का स्थान है। ये योगी ज्यादातर आलदकाि के हैं। ऐसे योलगयों की समालि
िहुत ही िमिी अवलि की होती है। ऐसे योगी शीघ्र लदव्यदृलष् से भी लदखाई नहीं पड़ते हैं। ऐसे योगी अपने
शरीर का घनत्व इतना कम कर िेते हैं लक ऐसा िगता है लक ये योगी ब्रह्म में िीन हो चक ु े हैं। मगर इनका
अलस्तत्व रहता है, इसलिए ब्रह्म में िीन नहीं हुए होते हैं। साि जालहर है, ऐसे अत्यन्त उच्चकोलट के योगी
जि इच्छा करते हैं, ति दसू रों को लदखाई पड़ते हैं। इसी लवषय पर भगवान पतजं लि और वैद्यों के गरुु
िनवन्तरर से िात की थी, तथा सािनाकाि में इसी प्रकार के दशतन हमें सप्तऋलषयों के हुए थे। सािना काि
में जि मैं लशविोक महाकारण शरीर से पहुचूँ ा, पहिे लशविोक में थोड़ा सा घमू ा, लिर ब्रह्म से कुछ माूँगा,
ब्रह्म ने आकाशवाणी िारा हमारी माूँग का जवाि लदया। यह अनुभव आप हमारे अनभु वों में पढ़ सकते हैं।
यहाूँ पर भी नीिे रंग का प्रकाश रहता है। यह स्थान हमें वृलियों के िारा योगलनरा में लदखाई लदया।

सहज ध्यान योग 264


भगवान परमलशव से ग्यारह रुर प्रकट हुए थे, लजन्हें शकं र भी कहते हैं। यह भी भगवान परमलशव के
समान हैं तथा सहं ार का कायत करते हैं। रुरों की उत्पलत भगवान परमलशव के तीसरे नेत्र से होती है। रुरों में
ग्यारहवें रुर सिसे अलिक शलक्तशािी कहे गये हैं। ग्यारहवें रुर का नाम कािालग्न है। सािना काि में हमारा
ज्यादा समपकत इन्ही ग्यारहवें रुद भगवान कािालग्न से रहा है। लशविोक में वही योगी रह सकता है लजसके
लचि में लकसी प्रकार के कमातशय शेष नहीं हैं। लचि में शि ु सालत्वक अहक ं ार ही रह गया है, तमोगणु ी
अहक ं ार का िेशमात्र नहीं है।
लशविोक से ऊपर का िोक गोिोक है। यही िोक सिसे ऊपर है, इससे ऊपर कोई िोक नहीं हैं।
इस िोक में भगवान श्रीकृ ष्ण और आलदशलक्त स्वरूपा रािा जी रहती हैं। भगवान श्रीकृ ष्ण के सखा भी रहते
हैं लजन्हें गोप कहा जाता है। आलदशलक्त स्वरूपा रािा जी के साथ उनकी सलखयाूँ भी रहती हैं लजन्हें गोपी
कहा जाता है। भगवान श्रीकृ ष्ण जी व रािाजी कम उम्र के रूप में रहते हैं। गोिोक के लवषय में ज्यादा नहीं
लिख सकता ह,ूँ क्योंलक मैं सािना काि में और िेख लिखते समय तक कभी भी योग के माध्यम से गोिोक
नहीं गया ह।ूँ सािना काि में हमें एक अनभु व हुआ था, अनुभव गोिोक का था। उस समय मैंने भगवान
श्रीकृ ष्ण व रािाजी के एक साथ दशतन लकये थे। मगर दशतन करते समय भगवान श्रीकृ ष्ण जी व रािा जी के
तेज के कारण हमारी लदव्यदृलष् चकाचौंि हो रही थी। िड़ी मलु श्कि से उनके दशतन हुए। दशतन लििकुि
नजदीक से लकये। उन दोनों ने आशीवातद भी लदया था, मगर गोिोक घमू ने का अवसर नहीं लमिा था।
सन् 1996 के शरुु आत में हमारा समिन्ि भगवान श्रीकृ ष्ण व रािाजी से हुआ था। भगवान श्रीकृ ष्ण
ने हमें एक वरदान भी लदया था। वह वरदान मृत्यु के िाद सदैव के लिए कायत करे गा। सािकों, हमारी भी
कभी कोई इच्छा नहीं चिी, गोिोक देखने की। यलद मैं चाहूँ तो ज्ञान के िारा गोिोक देख सकता ह।ूँ मगर
अि मैं तृप्त ह,ूँ गोिोक भी महाकारण तत्व से िना है। गोिोक का प्रकाश नीिे चमकीिे रंग का है। क्षीर
सागर, लशविोक व गोिोक लनत्यिोक हैं, इन पर प्रकृ लत के लनयम िागू नहीं होते हैं।
मैंने अभी जो िोकों के लवषय में लिखा है इसका मतिि यह नहीं है लक भक्त लसित महिोक और
जनिोक में ही रहेगा, अपनी योग्यतानसु ार लकसी भी िोक में रह सकता है। मगर ऐसे भक्त मात्र कुछ हैं जो
तपिोक में रहते हैं, वे कलियगु के नहीं हैं। इसी प्रकार मैं एक ऐसे सािक को जानता हूँ लजसकी कुण्डलिनी
नालभ तक उठी थी मगर वह जनवरी, 96 के आसपास लपतर िोक में थे। जि मैंने उनसे पछ ू ा-दादा जी,

सहज ध्यान योग 265


आपकी कुण्डलिनी नालभ तक उठी है। इस समय आप लपतर िोक में क्यों हैं, आपको ऊपर के िोक में
होना चालहए। वह िोिे– आनन्द कुमार, मेंरी कुण्डलिनी अलं तम समय में उठी थी, इसलिए हमारे पास
योगिि कोई खास नहीं है। कािी लदन भवु िोक में रहने के िाद अि लपतर िोक में आया ह।ूँ सािकों, भक्त
या सािक अपनी योग्यतानसु ार लकसी भी िोक में रह सकता है, मगर लजस तरह का मैंने वणतन लकया
ज्यादातर वैसा ही होता है। यहाूँ पर िोकों का वणतन योग से संिलन्ित लकया है। लकसी भी िोक का परू ा
वणतन नहीं लकया जा सकता है। क्योंलक सक्ष्ू म िोक अत्यन्त लवस्तार में होता है, इसलिए कोई भी वणतन नहीं
कर सकता है।

सहज ध्यान योग 266


योगबल
मनष्ु य जि योग के लनयमों का पािन करता है। ध्यान के माध्यम से जि वह िलहमतख ु ी इलन्रयों को
अंतमतखु ी करता है। सत्य और अलहसं ा का पािन करता है। ति मनष्ु य के अंदर सक्ष्ू म रूप से एक लवशेष
प्रकार की शलक्त िढ़ती है। जैसे-जैसे मनष्ु य अपने आंतररक मि को साि करता है, अलवद्या के प्रभाव को
कमजोर करता है, वैसे-वैसे, िीरे -िीरे शलक्त की िढ़ोिरी होती रहती है। जि मनष्ु य समालि िगाने िगता
है, ति उसकी शलक्त में िढ़ोिरी ज्यादा होती है। इस शलक्त को हम योगिि कहते हैं, क्योंलक यह शलक्त योग
के माध्यम से प्रकट होती है। समालि िगाने पर शरीर में शि ु ता िढ़ती है तथा इलन्रयाूँ अंतमतख
ु ी होती हैं।
समालि िगाने से िीरे -िीरे वह आत्मा के नजदीक पहुूँचने िगता है। क्योंलक अलवद्या के कारण स्थि ू जगत
को अपना समझकर आत्मा से दरू होते गये। मनष्ु य यलद लसित सत्य और अलहसं ा का पािन करे तो भी उसके
अदं र मानलसक शलक्त की इतनी िढ़ोिरी हो जाएगी लक वह दसू रे मनष्ु य को अपनी िातों से प्रभालवत कर
सकता है। दसू रे मनष्ु य को अपनी इच्छा के अनसु ार चिा भी सकता है। मानलसक शलक्त िढ़ जाने पर मनष्ु य
लनडर हो जाता है। वह लकसी प्रकार का भय अथवा दिाव महससू नहीं करता है।
योग के माध्यम से प्राप्त की गयी शलक्त को योगिि कहते हैं। सािक ने लजतना अलिक योग लकया
होगा, उतना ही अलिक उसका योगिि होगा। वैसे सािक का िक्ष्य आत्मसाक्षात्कार होता है, शांत
स्वाभाव वािे सािक योगिि पर ध्यान नहीं देते हैं। मगर सािक को योगिि की ओर ध्यान देना चालहए।
सािक को जीवन में योगिि की िहुत जरूरत पड़ती है। सािक अपने योगिि से ढेर सारे कायत कर सकता
है। उसका योगिि लसित कायत करने के लिए नहीं िलल्क मृत्यु के िाद भी योगिि कायत करता है। सािक
के लिए योगिि ठीक वैसा है, जैसे लकसी आदमी के लिए उसकी शारीररक शलक्त है। स्वस्थ आदमी के
लिए जरूरी है उसके अंदर शारीररक शलक्त हो। इसी प्रकार सािक के लिए जरूरी है लक उसके पास ज्यादा
योगिि हो।
सािक के लिए जरूरी है ज्यादा योगिि के लिए, ज्यादा से ज्यादा समालि िगाए। स्थि ू तथा
सक्ष्ू मरूप से संयलमत रहे। मौनव्रत का पािन करे । ब्रह्मचयत का पािन करे । सालत्वक भोजन करे । प्राणायाम
अलिक से अलिक करे । सत्य का पािन करे । लजतना हो सके एकांत का पािन करे । मन में सदैव अपने इष्
को स्मरण करता रहे। इन सि लनयमों का पािन करने से योगिि में िढ़ोिरी होती है। योगी जि शलक्तपात

सहज ध्यान योग 267


करता है तो उसका योगिि उसके शलक्तपात के अनसु ार ही क्षीण होता है। अच्छा यही है िहुत जरूरत
पड़ने पर आध्यालत्मक कायत के लिए शलक्तपात लकया जाए। योगिि का प्रदशतन नहीं करना चालहए। योगिि
को समभाि कर रखना चालहए क्योंलक मृत्यु के िाद सािक लजस िोक में रहेगा, वहाूँ पर योगिि कायत
करे गा। यलद सािक का योगिि अलिक होगा, तो वह उस िोक में ज्यादा लदन रुक सके गा। अलिक योगिि
होने पर सािक के तमोगणु ी सस्ं कार कमजोर पड़ने िगते हैं। क्योंलक अलिक योगिि होने का अथत है,
सत्वगणु की अलिकता होना। तथा अलिक योगिि के प्रभाव से समालि भी अलिक समय तक िगाने का
अभ्यास हो जाएगा।
लजस सािक के लपछिे जन्म में योगिि अलिक रहा होगा, वततमान में जि वह योग करे गा, तो उसे
शीघ्र ही सििता लमिनी शरू ु हो जाएगी। ऐसा योगी अपने लपछिे जन्मों के प्रभाव से वततमान जन्म में
सििता पाता है। क्योंलक लपछिे जन्मों के संस्कार के प्रभाव से सािना की शरुु आत करते ही सािक
तेजस्वी रूप में उभरे गा। उसके िक्षण उच्चकोलट के योगी की तरह लदखाई पड़ने िगते हैं। ऐसे सािकों की
कुण्डलिनी जाग्रत होने पर शरूु से ही तेजस्वी लदखाई देने िगती है।
लजस सािक की कुण्डलिनी तेजस्वी होती है, भलवष्य में उसका योगिि भी अलिक मात्रा में होता
है। तेजस्वी कुण्डलिनी वािे सािक थोड़ा सा योग करने पर अन्य की अपेक्षा ज्यादा योगिि प्राप्त कर िेते
हैं। मध्यम और शांत स्वभाव वािी कुण्डलिनी के सािक, तेजस्वी कुण्डलिनी वािे सािकों की अपेक्षा
योगिि कम प्राप्त कर पाते हैं। इसलिए उग्र स्वभाव की कुण्डलिनी वािे सािक भलवष्य में शलक्तशािी
योगी िन सकते हैं। क्योंलक योगिि शीघ्रता से ज्यादा मात्रा में प्राप्त होता है।
लजन सािकों के पास योगिि अलिक मात्रा में होता है, वह गरुु पद पर िैठने के लिए सवतथा योग्य
हैं। क्योंलक लशष्यों पर शलक्तपात करना पड़ता है लजससे सािक का योगिि क्षीण होता है। लजन सािकों के
पास योगिि कम मात्रा में है, उन्हें गरुु पद पर प्रलतलष्ठत नहीं होना चालहए। क्योंलक ऐसे गरुु लशष्यों के अवरोि
(आध्यालत्मक) परू ी तरह ठीक नहीं कर पाते हैं। आध्यालत्मक अवरोि लसित योगिि से ही ठीक लकये जा
सकते हैं। मगर आजकि हमने देखा है, स्वयं तो सािक नहीं हैं, लसित लदखावे में सािक हैं, और गरुु पद पर
िैठ जाते हैं। अथवा गरुु में इतना योगिि नहीं है लक लशष्य के अवरोि दरू कर सके । ऐसे गरुु लशष्यों को
िोखा देते हैं।

सहज ध्यान योग 268


मैं अपने अनभु वों के आिार पर लिख रहा ह।ूँ लजस सािक के पास योगिि का अपार भडं ार होता
है, वह सािक आजकि भी लकसी को श्राप व वरदान दे सकता है। यह श्राप व वरदान वततमान जन्म के
लिए लदया गया है तो तरु ं त प्रभावी नहीं होगा। कुछ समय िाद प्रभावी होगा। क्योंलक उस मनष्ु य के प्रारब्ि
कमत पहिे से ऊपरी सतह पर (लचि के ) रहते हैं। लिर श्राप अथवा वरदान प्रारब्ि कमत में लमिेगा। जि श्राप
व वरदान का समय आयेगा ति भोगना होगा। सािक को ऐसे कायों में योगिि िहुत ज्यादा िगाना होता
है, तभी आपका श्राप और वरदान कायत कर पायेगा। श्राप व वरदान देते समय सािक को देखना चालहए लक
जो लदया जा रहा है क्या वह उलचत है। लिर वह अपने आपको देखे लक क्या उसके पास इतनी सामर्थयत है
लक उस मनष्ु य के कमातशयों में उसका श्राप व वरदान प्रवेश कर जाए और उसके शब्दों के अनसु ार मनष्ु य
को भोगने पर लववश कर दे। यलद आप शलक्तशािी हैं तो ठीक है वरना आपका योगिि िेकार चिा जाएगा,
कुछ नहीं होगा। यह ध्यान रहे श्राप देने का कुछ न कुछ कमत अवश्य िन जाएगा। अगिे जन्म के लिए लदए
गए श्राप व वरदान के लिए योगिि ज्यादा नहीं िगता है। आपका श्राप व वरदान संलचत कमों में लमि
जाएगा। लचि के लनचिी भूलम में चिा जाता है।
अगर आपको महान योगी िनना है तो आप योगिि का अपार भंडार एकत्र कीलजए। लिर आपसे
कुछ हो सके गा, वरना आप शांत होकर रहें और अपने योग मागत में िगे रहें। लकसी से ज्यादा मतिि न
रखें, तभी ठीक है। जि तक सािक का ब्रह्मरंध्र न खिु े ति तक उसे अपने योगिि को लकसी भी हाित में
क्षीण नहीं करना चालहए, नहीं तो उसके योग मागत में अवरोि आ जाएगा। सािक को पहिे समालि का
अभ्यास िढ़ाते हुए, कुण्डलिनी को पणू तयात्रा करा िेनी चालहए। लिर जि तक कुण्डलिनी लस्थर न हो जाए,
ति तक शलक्तपात नहीं करना चालहए। इसके िाद लिर अगर उसकी इच्छा हो तो आध्यालत्मक मागत में
अपनी शलक्त िगाये। सािक लजतनी शलक्त आध्यालत्मक मागत में िगाए, उससे ज्यादा शलक्त योग के अभ्यास
िारा अलजतत कर िेनी चालहए। वरना एक लदन ऐसा आएगा उसके पास योगिि की कमी पड़ने िगेगी।
िहुत से सािकों को देखा है लक कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद योग करना ही िन्द कर देते हैं; वे
समझते हैं लक मैं पणू त हो गया ह,ूँ परन्तु यह क्यों नहीं देखते लक लचि में अभी भी संस्कार शेष हैं। वास्तव में
योगिि िढ़ाने का असिी समय अि आया है। कुण्डलिनी लस्थर होने के पश्चात सािक को अपनी समालि
के अभ्यास का समय िढ़ा देना चालहए। इस अवस्था में योगिि अलिक मात्रा में िढ़ता है, इसलिये इस

सहज ध्यान योग 269


अवस्था में कुमभक प्राणायाम की अवलि िढ़ा देनी चालहए। भोजन थोड़ा करें , पर स्थि ू शरीर की शलक्त में
कमी न आने दें। यलद आप दिू -दही और िि का प्रयोग करें तो और भी अच्छा है। यलद आप सलब्जयों पर
लनभतर रह सकें तो सब्जी को काटकर पानी में उिाि िें, उसमें लकसी प्रकार का मसािा न डािें। यलद लिना
नमक के खा सकें तो और भी अच्छा है। यलद ज्यादा जरुरत समझें तो थोड़ा सा नमक डाि िें। इससे
आपका शरीर अत्यन्त शि ु हो जाएगा; तमोगणु की मात्रा भी घट जाएगी। हाूँ, आपका स्थि ू शरीर जरुर
दिु िा-पतिा हो जाएगा, मगर साथ में आपका योगिि अलिक िढ़ने िगेगा, आपका चेहरा तेजस्वी होने
िगेगा। लिर िग जाइये आप योगिि िढ़ाने में। ऐसा आप करके देलखये– आपके अन्दर लकतनी तेजी से
शलक्त िढ़ती है; लनश्चय ही आप शलक्तशािी होंगे।
हमने देखा है लक आजकि िहुत से मनष्ु य अपने पूवतजों की मृतात्माओ ं के लिए श्राि कमत करते
हैं। अपने पवू तजों की भूख व प्यास की तृलप्त के लिए ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं तालक भोजन व पानी का
सक्ष्ू म भाग उनके पवू तजों को लमि जाए। मगर सत्य तो यह है लक उन्हें भोजन का सक्ष्ू म भाग (प्राय:) नहीं
लमिता है क्योंलक उन ब्राह्मणों में योगिि नहीं होता। आजकि अलिकतर ब्राह्मण लसित जालत से होते हैं,
कमत से नहीं। इसलिए उन ब्राह्मणों में आध्यालत्मक शलक्त नहीं होती है। यलद वे कमत से ब्राह्मण है तो मृतात्माओ ं
को भोजन अवश्य लमिेगा। मलु श्कि तो इस िात की है लक जो कमत से ब्राह्मण है उसे आप कहाूँ ढूूँढेंग;े और
जो लसित नाम का ब्राह्मण है वह तो एक सािारण सा मनष्ु य है– उसमें इस प्रकार का सामर्थयत नहीं होता है।
हम सि ऐसा लसित सोच िेते हैं लक श्राि कमत कर िेने से उनके पवू तजों को भख ू व प्यास से तृलप्त लमि गयी
होगी। यह के वि एक सामालजक रीलत है लक शव का दाह सस्ं कार करने के िाद स्नान करके मृतात्मा को
जि देते हैं; मगर इससे मृतात्माओ ं को जि का सक्ष्ू म भाग नहीं लमिता है। क्योंलक सािारण िोगों में इतनी
शलक्त नहीं होती है लक स्थि ू जि से उसका सक्ष्ू म तत्त्व लनकाि कर मृतात्मा को दे दें। मृतात्मा सक्ष्ू म तत्त्व
स्वयं तो नहीं िे सकती है, लसित दी हुई वस्तु ही ग्रहण कर सकती है।
लजन मनष्ु यों के पास आध्यालत्मक शलक्त होती है, ऐसे मनष्ु य ही लकसी भी मृतात्मा को भोजन व
पानी का सक्ष्ू म तत्त्व दे सकने में समथत होते हैं। वे आध्यालत्मक शलक्त के प्रभाव से स्थि
ू पदाथत का सक्ष्ू म
तत्त्व लनकािकर संकल्प के अनसु ार मृतात्मा तक पहुचूँ ा देते हैं, लजसे मृतात्मा ग्रहण कर िेती है। यह कायत
एक सािक के लिए तो सािारण सी िात है। सािक की इच्छा मात्र से ही मृतात्मा भोजन का सक्ष्ू म तत्त्व

सहज ध्यान योग 270


ग्रहण कर िेने में समथत होती है। सािक अगर चाहे, तो लिना भोजन लदये भी अपने सक ं ल्प मात्र से लकसी
भी मृतात्मा को तृप्त कर सकता है। सािक के योगिि के प्रभाव से, भोजन सक्ष्ू म रूप से प्रकट हो जाएगा।
योगिि ही भोजन के रूप में प्रकट होकर मृतात्मा के पास पहुचूँ जाएगा। योगी िारा इस प्रकार कराया गया
भोजन मृतात्मा को अत्यन्त िाभकारी होगा, क्योंलक मृतात्मा को भोजन के रूप में योगिि लमि जाता है,
इससे िहुत समय तक मृतात्मा तृप्त रहेगी।
सािक अपने योगिि से सक्ष्ू म वस्तएु ूँ प्रकट करने में समथत होता है। आलदकाि में तो योगी स्थि

वस्तएु ूँ भी प्रकट करने में समथत होते थे, मगर आजकि यह कायत नहीं हो सकता है क्योंलक कलियगु का
समय चि रहा है; तमोगणु व अशि ु ता का ही व्यापार इस यगु में चि रहा है, और तमोगणु का कायत है
अवरोि डािना। अन्य तीनों यगु ों में तमोगणु का प्रभाव इतना ज्यादा नहीं होता है। लिर भी, यलद सािक
लसलियों से यक्त ु है, तो आजकि भी वह स्थि ू वस्तएु ूँ प्रकट कर सकता है; मगर ऐसा कायत योगी के
आध्यालत्मक मागत में अवरोि का कायत करता है।
यहाूँ एक और िात– यलद सािक अत्यन्त शलक्तशािी है, तो वततमान यगु (कलियगु ) में भी अपनी
लप्रय जीवात्माओ ं की सहायता कर सकता है। यलद लपतृिोक की जीवात्मा महिोक जाना चाहे तो सािक
सहायता कर सकता है। सािक अपने संकल्पानसु ार अपना योगिि उस जीवात्मा को दे देगा; जैसे ही
जीवात्मा को सािक का योगिि प्राप्त होगा, जीवात्मा स्वयं ही ऊध्वत हो जाएगी। यलद लकसी जीवात्मा ने
स्थिू जीवन में नाम-जप आलद न लकया हो और लपतर िोक में हो, तो शलक्तशािी सािक अपने योगिि
पर उस जीवात्मा को भक्त िना सकता है; वह वहीं आूँख िन्द करके नाम जाप करने िगेगी। वैसे लपतर
िोक का स्वभाव है लक वहाूँ पर जीवात्मा सख ु भोगे; मगर योगिि के प्रभाव से वह ईश्वर का नाम-जप
शरूु कर देगी। अथवा सािक अपने योगिि के प्रभाव से महिोक भेज सकता है, और वहाूँ महिोक के
स्वभाव के अनुसार जीवात्मा स्वयं ईश्वर का स्मरण करने िगेगी। इसी प्रकार, महिोक की जीवात्मा को
जनिोक पहुचूँ ाया जा सकता है। जि तक सािक का योगिि जीवात्मा के पास रहेगा, सािक के
संकल्पानसु ार जीवात्मा उस िोक में रहेगी; लिर, वहाूँ कमत के अनसु ार ही जीवात्मा की लस्थलत होगी। मगर,
जीवात्मा ति तक कुछ न कुछ योगिि उस िोक में भी प्राप्त कर िेगी। यह सि मैंने अनभु वों के आिार
पर लिखा है– इस प्रकार के कायत मैंने स्वयं लकये हैं। मैं अपनी लजन्दगी में सदैव लवलभन्न प्रकार के प्रयोग

सहज ध्यान योग 271


करता रहता हूँ– हािाूँलक कभी-कभी सक्ष्ू म शलक्तयों से डाूँट भी खानी पड़ी है। सािक कै से अपने योगिि
के प्रभाव से सक्ष्ू म िोकों को पृर्थवी से ही प्रभालवत कर सकता है, इस िारे में मैं एक लदिचस्प घटना लिखता
ह।ूँ
यह प्रयोग मैंने और लत्रकाि ने लमिकर लकया था। लत्रकाि लसित (लदव्य दृलष् से) देखने का कायत
करता था, शेष कायत मैं करता था। यह िात जनवरी 1996 की है। पृर्थवी की एक सक्ष्ू म शरीरिारी जीवात्मा
ने हमारे कई कायत लकये थे लजनका उल्िेख मैं यहाूँ पर नहीं कर रहा ह।ूँ इस जीवात्मा से हमारा प्रेम हो गया
था। वैसे पवू तकाि में इस जीवात्मा ने दष्ु ता के भी कुछ कायत लकये थे, इसलिए अि इसे घोर कष् था। मगर
हमारे साथ इस जीवात्मा की िहुत अच्छी दोस्ती थी। एक लदन इस जीवात्मा ने इच्छा जालहर की। हमसे
पछू ा– “योगी लमत्र ! क्या मैं अगिे जन्म में योगी िन सकता ह?ूँ ”। मैंने उसके कमों के आिार पर िताया,
“कमातनसु ार तमु कई जन्मों तक योगी नहीं िन सकते हो।” वह हताश हो गया। मझु े भी दुःु ख हुआ। लिर वह
िोिा, “योगी! हमें कोई ऐसा मागत िताओ लजससे मैं भी योगी िन सकूँू ।” मैं िोिा, “इसका कुछ उपाय
सोचता ह।ूँ ” लिर, पहिे मैंने प्रकृ लत देवी से कहा, “माता! आप हमारे लमत्र पर कृ पा कीलजये।” माता प्रकृ लत
िोिी, “योगी पत्रु ! तमु ज्ञानी हो, और ऐसी िातें करते हो!” मैं िोिा, “माता! आप सत्य कहती हैं, मगर
लिर भी, वह मेरा लमत्र है।” उसी समय प्रकृ लत देवी लिना कुछ उिर लदये ही अदृश्य हो गयीं।
मैं अपने लमत्र से िोिा, “लमत्र! तमु तैयार हो जाओ, मैं तमु हें अपने योगिि िारा तपिोक भेज दगूँू ा,
और ति तक नीचे नहीं आने दगूँू ा, जि तक मैं पृर्थवी पर ह।ूँ ” लमत्र तो पहिे से ही तैयार था। मैंने लत्रकाि से
कहा, “तमु अपनी लदव्य दृलष् से देखो और मैं योगिि का प्रयोग करता ह।ूँ ” मैंने अपनी आूँख िन्द की,
और जैसे ही मैं लसि मन्त्रों का प्रयोग करने को तैयार हुआ, हमें आवाज सनु ाई पड़ी, “ठहरो योगी!” मैंने
देखा लक स्वयं यमराज जी की यह आवाज थी। यमराज जी पनु ुः िोिे, “योगी! यह कायत प्रकृ लत के लनयमों
के लवरुि है।” मैं िोिा, “प्रभ!ु आप सत्य कहते हैं; मगर, हमारे लमत्र ने हमसे सहायता माूँगी है, इसलिए मैं
सहायता जरुर करूूँगा।” यमराज जी िोिे, “योगी! तमु एक कमत-योगी हो, कमत पर लवश्वास रखते हो, इसलिए
इस जीवात्मा को हमारे पास भेज दो। मैं दण्ड देकर कमत कम कर दगूँू ा।” इस िात पर हमारा लमत्र भी तैयार
हो गया। मगर मैंने उसे भुविोक नहीं भेजा, िलल्क उसी समय मैंने दीघत ओकं ार का उच्चारण लकया; और
लिर ओकं ार िारा लनकिी शलक्त से कहा, “इस जीवात्मा के कमत जिाने शुरू कर दो।” लिर क्या था,

सहज ध्यान योग 272


जीवात्मा से कािे रंग के छोटे–छोटे कण लनकिकर अन्तररक्ष में िै िने िगे। यह लक्रया ऊपर की कुछ
शलक्तयाूँ व तपिोक के कुछ योगी देख रहे थे। उसी समय हमारे ‘ज्ञान’ ने हमें रोक लदया, “िन्द करो यह
लक्रया! इसे यमराज के पास जाने दो।” हमारा लमत्र कष् भोगने को तो पहिे से ही तैयार था; लमत्र को उसी
समय भवु िोक भेज लदया। वहाूँ पर उसे यमदतू ों के िारा घोर कष् लदया गया। कुछ लदनों िाद, मैंने अपने
योगिि िारा लमत्र को तपिोक पहुचूँ ा लदया। लमत्र हमारा तपिोक के लििकुि लनचिे स्तर पर िैठ गया,
मगर योगिि नहीं होने के कारण उस िोक में रुक नहीं सकता था। इस िात को मैं समझ गया; लिर मैंने
सकं ल्प करके उसे ढेर सारा योगिि दे लदया। उसी समय माता कुण्डलिनी प्रकट हो गयी। मैंने उन्हें प्रणाम
लकया। वह थोड़े क्रोि-भाव से िोिी, “पत्रु ! एक तो तमु गित कायत करते हो, और ऊपर से इतना योगिि
भी दे लदया!” मैंने माता कुण्डलिनी से क्षमा माूँगी। लिर, मैंने लमत्र को दो अंक की शलक्त देकर, लजतनी
तपिोक में रहने के लिए न्यनू तम रुप से आवश्यक है, उसे वहाूँ समालिस्थ कर लदया।
लजस गरुु के पास योगिि िहुत होगा, वह अपने लशष्यों पर शलक्तपात कर उन्हें ध्यान की गहराई में
शीघ्र पहुचूँ ा सकता है। लकसी भी सािक पर अगर कई िार शलक्तपात लकया जाए, तो उसके सािना की गलत
तीव्र िनी रहेगी। मगर इस काम लिए योग्य सािक होना चालहए। हमने यह भी देखा है लक कुछ सािकों की
गलत तो तीव्र होती है, मगर योग में उलचत मागतदशतन न लमि पाने के कारण कुछ समय िाद वे ठहर से जाते
हैं। लकसी भी गरुु को उतने ही लशष्य िनाने चालहए लजतनों का वह सही मागतदशतन कर सके । अपनी क्षमता
से अलिक लशष्य िनाने पर लशष्यों को उलचत मागतदशतन नहीं लमि पाता है।
मैं यहाूँ पर उदाहरण के तौर पर एक घटना का संक्षेप में उल्िेख करना चाहता ह।ूँ यह सभी जानते
है लक सािक का कण्ठ चक्र कई वषों की कठोर सािना के िाद खुिता है। कभी-कभी तो सािक सारा
जीवन कण्ठ चक्र खोिने के प्रयास में ध्यान करता रहता है, मगर यह चक्र खि ु ता नहीं है। ऐसा इसलिए लक
कण्ठ चक्र की संरचना ही कुछ ऐसी है– यहाूँ पर एक ग्रलन्थ है जो ऊपर के मागत को अवरोलित लकये रहती
है। िरवरी 1996 की िात है, मैं पूना गया था; पूना में एक गरुु -िहन के पास ठहरा था। गरुु -िहन ने हमसे
योग से समिलन्ित सहायता माूँगी तालक उसकी भी योग में उन्नलत हो जाए। मैंने देखा लक उस सालिका की
कुण्डलिनी मि ू ािार में सोई हुई थी। यह भी मािमू हुआ लक कुण्डलिनी तो पहिे जाग्रत होकर थोड़ी ऊध्वत
हुई थी, मगर सािना के अभाव में कुण्डलिनी पनु ुः शान्त भी हो गयी। मैंने सालिका को अपने सामने ध्यान

सहज ध्यान योग 273


पर लिठाया, लिर उसकी कुण्डलिनी जाग्रत करके ऊध्वत कर दी; पहिी िार में कुण्डलिनी को नालभ तक
उठा दी। लिर दसू री िार, सायक ं ाि को ध्यान पर िैठा; इस िार कुण्डलिनी को कण्ठ चक्र तक पहुचूँ ा लदया।
दसू रे लदन लशवरालत्र थी, इसलिए ज्ञानेश्वर जी की समालि (जो लक आलिन्दी में है) के दशतन हेतु चिा गया।
दोपहर को पनु ुः वापस आ गया। उसी समय हमें माता कुण्डलिनी का आदेश लमिा– “इस सालिका का
कण्ठ चक्र खोि दो”। मैं िोिा– “माता! मैं कण्ठ चक्र कै से खोि सकता हूँ; लिर, यह तो एक नई सालिका
है।” माता कुण्डलिनी ने कहा, “तमु हमारे वरदान का प्रयोग करो, कण्ठ चक्र खि ु जाएगा।” मैंने सालिका
को िि ु ाया और कहा, “आप हमारे सामने ध्यान पर िैठ जाइए , हमें ऊपर से आज्ञा लमिी है लक मैं आपका
कण्ठ चक्र खोि द।ूँू ” लिर क्या था, सालिका प्रसन्न ही प्रसन्न थी– उसका कण्ठ चक्र जो खिु ने वािा था;
वह जानती थी लक कण्ठ चक्र खि ु ना कोई सािारण िात नहीं है। सालिका हमारे सामने ध्यान पर िैठ गयी।
मैंने माता कुण्डलिनी के वरदान का प्रयोग लकया। पहिे कण्ठ में लस्थत ग्रलन्थ खोिी, लिर कण्ठ चक्र खोि
लदया; कुण्डलिनी कण्ठ चक्र से ऊपर चिी गयी। दसू रे लदन, िघु मलस्तष्क भी खोि लदया; लिर कुण्डलिनी
को आज्ञा चक्र पर पहुचूँ ा लदया। दसू रे लदन मैं लमरज चिा गया।
मैं आपको यह िता दूँू लक मेंरे और श्रीमाता जी के लवचार मेंि नहीं करते थे। इसलिए दरू ी कािी
िढ़ गयी थी। जि मैं लमरज आश्रम में पहुचूँ ा तो वहाूँ हमें जिगाूँव की एक सालिका लमिी। हमारी और इस
सालिका की िहुत िनती थी। यहाूँ भी मैंने अपनी शलक्त (माता कुण्डलिनी के वरदान) का प्रयोग लकया। मैंने
जिगाूँव की सालिका का कण्ठ चक्र लसित दो लमनट में खोि लदया। दो-तीन लदन लमरज आश्रम में रहने के
िाद, मैं इस सालिका के साथ, महाराष्र एक्सप्रेस िारा, लमरज से जिगाूँव आ गया। यहाूँ पर हमें एक और
सालिका ने िि ु ाया था। इस सालिका से भी मेंरी िहुत िनती थी। मैं जि कभी जिगाूँव आता तो इसी
सालिका के घर रुकता था। यहाूँ मैं एक माह तक रुका। इस सालिका की कुण्डलिनी उठायी, लिर कण्ठ चक्र
खोिकर कुण्डलिनी को आज्ञा चक्र में पहुचूँ ा लदया। मात्र कुछ लदनों में ही इतनी सािना हो गयी थी लक
अगर यह सारी लजन्दगी भी िगी रहती, लिर भी इस अवस्था (कण्ठ चक्र का खि ु ना, आलद) तक न पहुचूँ
पाती। इस प्रकार जिगाूँव की दो और सालिकाओ ं का कण्ठ चक्र खोिते समय भी मैंने माता कुण्डलिनी
के वरदान का प्रयोग लकया। मैं यहाूँ कहना चाहगूँ ा लक मैंने माता कुण्डलिनी का वरदान प्रयोग लकया था,
तभी तीनों सालिकाओ ं का कण्ठ चक्र खोि पाया। लिना ऐसे असािारण वरदान के लकसी योगी के लिये
कण्ठ चक्र का खोि देना, वह भी लसित पाूँच लमनटों में, एक सािारण िात नहीं हैं। वैसे यह वरदान ऐसे

सहज ध्यान योग 274


कल्याण कायों के लिए ही लदया गया है, मगर शायद अि इसका प्रयोग कभी न करूूँ, क्योंलक मैं अपनी
भलवष्य की लजन्दगी शालन्त से व्यतीत करना चाहता ह।ूँ
लप्रय सािकों! हमारे पास योगिि की कोई कमी नहीं है, इसलिए हमने योगिि पर ढेरों कायत लकये।
जैसा लक हमारा स्वभाव है, मैं अपने योगिि का प्रयोग करके सािकों की कुण्डलिनी तुरन्त उठा देता था,
और साथ में, ऐसी अवस्था में सािक की आध्यालत्मक लजममेदाररयाूँ िे िेता था। मैं अलनवायततावश ही
ऐसा करता था, क्योंलक सािारणतुः कुण्डलिनी तभी जाग्रत करनी चालहए, जि सािक पररपक्व अवस्था में
आ जाए। पररपक्वावस्था में थोड़ा सा भी शलक्तपात करने से लकसी भी सािक की कुण्डलिनी उठ जाती है;
िेलकन यलद सािना की के वि शरुु आत भर हो, तो कुण्डलिनी उठाने के लिए ढेर सारा योगिि िगाना
पड़ता है, ऊध्वत करते समय िगातार शलक्तपात करते रहना पड़ता है। इससे शलक्तपात करने वािे सािक का
ढेर सारा योगिि क्षीण होता है। ऐसी लस्थलत में, शलक्तपात करने वािे सािक को कािी लजममेवारी व
साविानी से काम करना होता है। सच तो यह है लक योगिि ही सारा मजा है; यलद योगिि खूि है तो कुछ
भी कर सकते हैं, योग में असििता कभी नहीं लमिेगी।
योग मागत एक कल्याणकारी मागत है। इस मागत में पहिे सािक अपना कल्याण करता है; लिर,
योग्यता हालसि कर िेने पर दसू रों का भी कल्याण करता है। मगर, अि मैं ऐसे कायों को लिखना चाहूँगा
लजससे आपको सालित हो जाएगा लक ऐसे कल्याणकारी मागत में भी कुछ दष्ु लकस्म के सािक दष्ु ता के
कायत करते हैं। मैंने देखा लक योग में भी सािक एक दसू रे से वैमनस्य रखते हैं। दसू रे का योग मागत अपने
योगिि से अवरुि कर देते है। जो अलिक शलक्तशािी हैं, वो अपने से कम योगिि वािे सािक की
सािना में रुकावट डाि देते हैं, लजससे उस सािक को कािी परे शानी उठानी पड़ती है। जि तक अवरोि
दरू नहीं हो जाता है, ति तक उसकी उन्नलत रुकी रहती है। ऐसी घटना मैंने स्वयं देखी है। जो सािक ऐसे िरु े
कायत करते हैं, उन्हें कभी न कभी अवश्य इस दष्ु कमत का िि भोगना पड़ता है। योग में लकसी के लिये
अवरोि नहीं डािना चालहए; िलल्क हो सके तो कल्याण कर दो, लकसी सािक की सहायता कर दो, िेलकन
कभी लकसी को अवरोि मत डािो। यहाूँ एक प्रश्न उठता है, लक यह अवरोि कै से डािा जाता है। मैं इसकी
लवलियों का उल्िेख नहीं कर रहा ह,ूँ तालक इसका गित प्रयोग न हो सके । मगर, इतना अवश्य लिखूँगू ा लक
यलद लकसी सािक पर अवरोि डािा गया हो, तो कै से हटाया जाए। ऐसे लकसी सािक की सहायता करने

सहज ध्यान योग 275


के लिये यह आवश्यक है, लक पहिे यह जानकारी कर िी जाए लक ‘अवरोि’ में लकतनी शलक्त िगाई गयी
है। लिर, इससे अलिक मात्रा की शलक्त इस अवरोि को हटाने में िगानी होगी, तभी यह अवरोि हट पाएगा;
वरना शलक्त िेकार चिी जाएगी।
हाूँ, यलद आपको मजिरू ीवश लकसी ऐसे दष्ु सािक को आध्यालत्मक दण्ड देना है जो दसू रों के लिये
अवरोि डािते हैं, या कोई अन्य अनुलचत कायत करतें हैं, तो पहिे आप देखें लक उस सािक के पास लकतना
योगिि है। आपका योगिि उससे अलिक होना चालहए, तभी यह कायत हो पाएगा। आप उस सािक का
योगिि समाप्त कर सकते हैं; समाप्त तभी होगा जि उसका योगिि आत्मा अथवा ब्रह्म में िीन कर दें; उसे
आप स्वयं न िें, तभी अच्छा है। यलद आपका योगिि उस सािक से कम है, तो आप अपने लवरोिी का
योगिि समाप्त नहीं कर सकते हैं, िलल्क स्वयं आपका ही योगिि समाप्त हो जाएगा; इसलिए, सतकत ता
से कायत करें । योगिि लकस लवलि से समाप्त लकया जाता है, इसका वणतन मैं नहीं करूूँगा तालक अकारण कोई
इसके अनलु चत प्रयोग का लशकार न हो जाए; इसके िारे में आप अपने ‘ज्ञान’ से ध्यानावास्था में पछ
ू सकते
हैं।
योगिि कै से िढ़ाया जाए, इस पर थोड़ा सा लिखना चाहगूँ ा। मैं पहिे लिख चुका हूँ लक समालि
की अवस्था में योगिि ज्यादा िढ़ता है। यलद आपको योगिि ही िढ़ाना है तो सािनाकाि में आप अपनी
कुण्डलिनी को उग्र करने का प्रयास कीलजये। इसके लिए ब्रह्मचयत का पािन अत्यन्त आवश्यक है। साथ में,
सत्य और अलहसं ा का पािन कीलजये, लििकुि अल्प व सालत्त्वक भोजन कीलजये, कुमभक प्राणायाम की
अवलि िढ़ाइये तथा मन्त्रों का भी प्रयोग कीलजये। इस प्रकार से जि आपका शरीर शि ु हो जाए, ति मन्त्र
का जाप अलिक िढ़ा दें- इससे आपका योगिि और भी ज्यादा िढ़ जाएगा।
सािकों, एक िात ध्यान में रखना, समालि की अपेक्षा मन्त्र-जप िारा योगिि अलिक प्राप्त लकया
जा सकता है। िेलकन मन्त्र िोिने का तरीका सही होना चालहए। यलद योगिि िढ़ाने के उद्देश्य से मन्त्र-जाप
लकया जा रहा है, तो मन्त्र का जाप मन के अन्दर नहीं लकया जाना चालहए। िलल्क अच्छा होगा, आप एकान्त
में लनकाि जाएूँ; पहिे मन्त्र को लसि करना पड़ेगा, तभी वह ज्यादा से ज्यादा शलक्त दे सके गा। एक िार
अगर मन्त्र लसि हो जाए, तो आपको अगिे जन्म में भी यह कुछ मात्र समय में ही लसि हो जाएगा। िेलकन,
यहाूँ एक और िात– सभी प्रकार के मन्त्रों से योगिि प्राप्त नहीं होता है। इसलिए शलक्त प्रदान करने वािे

सहज ध्यान योग 276


मन्त्र जैसे, ‘शलक्त मन्त्र’, ‘कुण्डलिनी मन्त्र’, प्रणव आलद मन्त्रों का जाप लकया जाए; वैसे इस कायत के लिये
और भी मन्त्र होते हैं। यलद एक िार भी आपको ये मन्त्र लसि हो जाएूँ, तो लिर आपको योगिि की कमी
नहीं पड़ेगी। वैसे ये सि कायत अपने गरुु देव के देख-रे ख में करें तो अच्छा है, तालक लकसी जगह पर गिती
होने पर वे आपको िता सकें , वरना गित प्रभाव पड़ सकता है। मैंने तो यहाूँ थोड़ा सा ही लिखा है। हाूँ,
लजतना योगिि िढ़ा िेंगे उतना अलिक िाभ आपको मृत्यु के पश्चात् सक्ष्ू म िोकों में लमिेगा। क्या िाभ
लमिेगा, यह सि कुछ वहाूँ पहुचूँ ने पर मािमू पड़ जाएगा; यहाूँ उसका वणतन करने पर िेख और भी िढ़
जाएगा, अत: वणतन नहीं कर रहा ह।ूँ यहाूँ एक जरुरी िात िता द–ूँू लक योगिि िढ़ाने का सही समय
कुण्डलिनी लस्थर होने के पश्चात् ही होता है।
सक्ष्ू म िोकों में लजतने ऋलष, मलु न, योगी व तपस्वी रहते हैं, उनके योगिि की जानकारी की जा
सकती है। स्वगत िोक में इन्र के पास जो शलक्त होती है वह व्यलक्तगत इन्र की नहीं है, िलल्क इन्र पद की
शलक्त होती है। वह ब्रह्म के िारा दी गयी एक लनलश्चत शलक्त है। मगर, जो ईश्वर है लजनका समिंि पराप्रकृ लत
से हैं– जैसे भगवान श्री कृ ष्ण, भगवान श्री नारायण, परम् लशव आलद के पास जो शलक्त है, उसकी गणना
नहीं की जा सकती है क्योंलक ये ईश्वर हैं, ब्रह्म का सगणु रुप हैं, इसलिए इनकी शलक्त को नापा ही नहीं जा
सकता है। मगर भगवान लवष्ण,ु भगवान शंकर तथा भगवान ब्रह्मा की भी शलक्त को नापा नहीं जा सकता हैं
भिे ही ये अपराप्रकृ लत में लस्थत हो, क्योंलक ये तीनों अपराप्रकृ लत के स्वामी हैं। गणेश जी भी अतल्ु यनीय
शलक्त के स्वामी हैं, इसलिए इनका स्थान मि ू ािार चक्र में है।
मैंने कुछ जगहों पर लिखा है लक अपने गरुु देव की देख-रे ख में अमक
ु कायत करो। इसका कारण यह
है लक ऐसे कायत लकसी मागतदशतक की देखरे ख में ही करने चालहए तालक वे उस कायत का तरीका देखकर, सही
अथवा गित के लवषय में िताएूँगे; ऐसे ही लसित पस्ु तक पढ़कर शरू ु नहीं कर देने चालहए। ऐसे कायत यलद
मागतदशतक की देख-रे ख में न लकए गए तो परे शानी भी हो सकती है, गित लनष्कषत भी लनकि सकता है।
इसलिए कहते हैं लक योग लिना गरुु के मागतदशतन के नहीं हो सकता है। हाूँ, हमने यह भी देखा है, गरुु का
मागतदशतन सही न हो पाने से भी लशष्यों को परे शानी उठानी पड़ती है। मेरा मानना है लक जो सािक योग में
परू ी तरह से पररपक्व न हो, उसे गरुु पद पर नहीं िैठना चालहए।

सहज ध्यान योग 277


कुछ योगी यह सोच सकते हैं लक हमें योगिि लक क्या आवश्यकता है, मैं तो अपने जीवन
शालन्तपवू तक एकान्त में लिता रहा ह।ूँ वैसे तो ऐसा सोचना ठीक ही है, मगर अलिक योगिि सदैव काम
आता है– वततमान् जीवन में, मृत्यु के िाद तथा अगिे जन्म में भी। अलिक योगिि, लसलियों की प्रालप्त में
भी सहायक होता है। यहाूँ मैं छोटी-मोटी लसलियों की िात नहीं कर रहा ह,ूँ िलल्क परकाया प्रवेश व आकाश
गमन जैसी लसलियों के लवषय में िात करता ह;ूँ हािाूँलक इन लसलियों के लिए कमातशयों का लििकुि कम
होना जरूरी है। इन लसलियों की प्रथम अवस्था में योगिि िहुत क्षीण हो जाता है। परकाया प्रवेश में
‘ज्ञानचक्र’ का उपयोग िहुत जरूरी है, अथवा, एक ऐसी नाड़ी का, लजसके अन्दर से होकर आपका सक्ष्ू म
शरीर िाहर लनकि जाता है; आप इस लिषय में थोड़ा सा हमारे अनुभवों (पस्ु तक– योग कै से करें ) में पढ़
सकते हैं। आकाश गमन लसलि के लिए उदान प्राणवायु और कुमभक प्राणायाम का उपयोग प्रमख ु है।

सहज ध्यान योग 278


तीसरा अध्याय
शरीर
शरीर रूपी लपण्ड और सृलष् रूपी ब्रह्माण्ड ये दोनों एक ही हैं, तथा इन दोनों का आपस में अटूट
समिन्ि है। जो पदाथत व शलक्त आलद-ब्रह्माण्ड में है, वही इस शरीर रूपी लपण्ड में है; मगर मनष्ु य िलहमतखु
होकर इलन्रयों के वशीभतू हो अपने आप को लसित स्थि ू शरीर तक सीलमत रखे हुए है। िाहरी इलन्रयों का
व्यवहार लसित स्थि ू जगत तक ही सीलमत है, इसलिए वह अपने स्थि ू शरीर को ही सि कुछ मानता है।
मनष्ु य स्थि ू जगत में इतना लिप्त हो गया है लक स्थिू जगत से परे के लवषय में न तो उसे ज्ञान है और न ही
ज्ञान प्राप्त करने की कोलशश करता है। मनष्ु य जि कभी लकसी की मृत्यु होते देखता है, अथवा इस िारे में
सनु ता है, तो ‘सक्ष्ू म सिा’ को कुछ समय के लिए तो मानता है, मगर लिर, वह सि कुछ भुिा देता है। वह
‘सक्ष्ू म सिा’ के लवषय में जानने का प्रयत्न नहीं करता है; और न ही इस समिन्ि में लवचार करता है लक, जो
मृत्यु के समय सक्ष्ू म शरीर लनकि जाता है वह आलखर इस स्थि ू शरीर में कहाूँ लस्थत है; तथा यह शरीर
लकन-लकन सक्ष्ू म तत्त्वों से िना है, स्थि
ू शरीर को लक्रयाशीि कौन करता है, अथवा ये लक्रयाशीिता कहाूँ
से आती है, आलद।
मनष्ु य का शरीर पञ्चतत्त्वों से िना है। ये पञ्चतत्त्व हैं– (1) पृथ्वी तत्त्व (2) जल तत्त्व
(3) अवग्न तत्त्व (4) वायु तत्त्व (5) आकाश तत्त्व। ये पाूँचों तत्त्व स्थि
ू व सक्ष्ू म रूप से होते हैं तथा अपने-
अपने लवलशष् आकार वािे रूप में होते हैं। इन पञ्चभूतों का अपना-अपना गणु है। इन्ही गणु ों िारा इनकी
पहचान होती है।
(1) पृथ्वी तत्त्व – पृर्थवी तत्त्व का गणु गन्ि है। ‘पृर्थवी तत्त्व’ में सभी तत्त्व लवद्यमान होते हैं। िेलकन, ‘पृर्थवी
तत्त्व में’, ‘पृर्थवी तत्त्व’ प्रिान रूप से रहता है- अन्य चारों तत्त्व गौण रूप में रहते हैं। इसी के अनसु ार अन्य
चारो तत्त्वों की तन्मात्राएूँ भी पायी जाती हैं; ये तन्मात्राएूँ हैं – रस (जि तत्त्व की), रूप (अलग्न तत्त्व की),
स्पशण (वायु तत्त्व की) और शब्द (आकाश तत्त्व की)। पृर्थवी तत्त्व में गरुु ता (भारीपन) रूखापन, लस्थरता,
सहनशीिता, कठोरता आलद गणु हैं। यलद आप सोचें लक पृर्थवी तत्त्व में अन्य चारों तत्त्व क्यों हैं तो इसका
कारण इस प्रकार से है– पञ्चभतू ों में सिसे पहिे आकाश तत्त्व की उत्पलि हुई; आकाश तत्त्व से वायतु त्त्व

सहज ध्यान योग 279


की उत्पलि हुई; वायतु त्त्व से अलग्नतत्त्व की उत्पलि हुई; अलग्नतत्त्व से जितत्त्व की उत्पलि हुई, और लिर
जि तत्त्व से पृर्थवी तत्त्व की उत्पलि हुई। क्योंलक पृर्थवी तत्त्व की उत्पलि सिसे िाद में हुई, इसीलिए चारो
तत्त्व पृर्थवी तत्त्व के अन्दर लनलहत है। जि पृर्थवी तत्त्व में सभी तत्त्व सलममलित हैं तो उनकी तन्मात्राएूँ भी
उपलस्थत हैं।
(2) जल तत्त्व – जि तत्त्व का गणु रस है। जि तत्त्व में अलग्न तत्त्व, वायु तत्त्व, व आकाश तत्त्व भी लवद्यमान
है। जि तत्त्व में ‘जि तत्त्व’ प्रिान रूप से रहता है, इसी कारण इसका गणु रस प्रमख ु ता से रहता है, िेलकन
रस, रूप, स्पशत और शब्द तन्मात्राएूँ भी जि तत्त्व में रहती हैं। जि तत्त्व में लचकनापन, सक्ष्ू मता, मृदिु ता,
शीतिता, पलवत्रता आलद का गणु है।
(3) अवग्न तत्त्व – अलग्न तत्त्व का गणु उष्णता है। अलग्न तत्त्व में वायु तत्त्व और आकाश तत्त्व लवद्यमान
रहते हैं। अलग्न तत्त्व में ऊध्वत गलत, पलवत्रता, दाह, शीिता, िघतु ा, आलद गणु होते हैं। अलग्न तत्त्व में रूप,
स्पशत व शब्द तन्मात्राएूँ रहती हैं।
(4) वायु तत्त्व – वायु तत्त्व का गणु स्पशत है। वायु तत्त्व में आकाश तत्त्व लवद्यमान है। वायु तत्त्व में गलत,
कमपन, िि और चञ्चिता आलद गणु होते हैं। स्पशत व शब्द तन्मात्राएूँ वायु तत्त्व में रहती हैं।
(5) आकाश तत्त्व – आकाश तत्त्व का गणु शब्द है। व्यापकता, शन्ू यता, दो वस्तओ
ु ं को अिग करना,
आलद गणु आकाश तत्त्व के होते है। शब्द तन्मात्रा आकाश तत्त्व में रहती है।
अि हम पञ्चभतू ों को दसू री तरह से समझें। यहाूँ प्रश्न उठता है लक क्या आकाश तत्त्व में अन्य चार
तत्त्व नहीं हैं। तो मैं कहगूँ ा– अन्य चारों तत्त्व होते हैं। अि पनु ुः प्रश्न उठता है लक ये लकस प्रकार से लवद्यमान
हैं। इसको यथाथत रूप से समझने के लिए हमें तत्त्वज्ञान की आवश्यकता पड़ेगी। मगर, सक्ष ं ेप में हम यही
समझ सकते हैं लक आकाश तत्त्व से ही अन्य सभी तत्त्वों की क्रमश: उत्पलि हुई है, इसलिए आकाश तत्त्व
में ये चारों तत्त्व उपलस्थत हैं; यलद आकाश तत्त्व में ये तत्त्व उपलस्थत न होते तो उससे उत्पलि समभव न हो
पाती। इसलिए अि यह कहा जा सकता है लक प्रत्येक तत्त्व में अन्य सभी तत्त्व भी अत्यन्त सक्ष्ू म रुप से
लवद्यमान रहते हैं। िेलकन अन्य तत्त्व अत्यन्त गौण रूप में रहते हैं। इन पाूँचों तत्त्वों में आकाश तत्त्व का
घनत्व सिसे कम है; लिर वायु तत्त्व, अलग्न तत्त्व, जि तत्त्व और पृर्थवी तत्त्व का घनत्व क्रमश: अलिक

सहज ध्यान योग 280


होता जाता है। जि और पृर्थवी तत्त्वों का घनत्व तो इतना ज्यादा होता है लक हमारे स्थि ू शरीर में ये ही तत्त्व
सिसे ज्यादा लवद्यमान हैं, ऐसा लदखाई देता है। पृर्थवी तत्त्व का घनत्व सिसे ज्यादा है; उसका रूप कठोरता
में िदि जाता है।
पञ्चभतू ों से उत्पन्न मनष्ु य के शरीर में पाूँच ज्ञानेलन्रयाूँ हैं और पाूँच कमेलन्रयाूँ हैं। इन कमेलन्रयों
और ज्ञानेलन्रयों से अिग-अिग भूतों के िमत भी प्रत्यक्ष हो रहे हैं लजनका समिन्ि तन्मात्राओ ं से भी है।
पृर्थवी तत्त्व से उत्पन्न कमेलन्रय गदु ा है। गदु ा से मि त्याग करने का कायत लिया जाता है। मि भी
पृर्थवी तत्त्व की प्रिानता से समपन्न है। पृर्थवी तत्त्व की तन्मात्रा गन्ि है। गन्ि सूँघू ने से मािमू पड़ती हैं, सूँघू ने
का कायत नाक करती है, इसलिए पृर्थवी तत्त्व का कायत ज्ञानेलन्रय के रूप में नाक करती है। पृर्थवी तत्त्व की
अलिकता मि ू ािार चक्र में होती है।
जि तत्त्व से उत्पन्न कमेलन्रय जननेलन्रय है। जननेलन्रय से मत्रू त्याग करने का कायत लकया जाता है।
मत्रू वास्तव में, जि तत्त्व है। जि तत्त्व की तन्मात्रा रस है। जि तत्त्व से ही लजव्हा की उत्पलि हुई है। लजव्हा
ज्ञानेलन्रय हैं क्योंलक स्वाद िेने का कायत करती है। जि तत्त्व की अलिकता वािा चक्र, स्वालिष्ठान चक्र है।
स्वालिष्ठान चक्र लिंग के पास लस्थत है।
अलग्न तत्त्व से उत्पन्न कमेलन्रय, पैर है। अलग्न तत्त्व से उत्पन्न ऊजात अथातत चिने की शलक्त, पैरों
िारा उपयोग होती है। अलग्न तत्त्व की तन्मात्रा रूप है। रूप-तन्मात्रा से उत्पन्न, देखने की शलक्त का स्थान
आूँख है; आूँख ज्ञानेलन्रय है तथा देखने का कायत करती है। अलग्न तत्त्व का अलिकता वािा चक्र नालभचक्र
है। यह नालभ के पास लस्थत है।
वायु तत्त्व से उत्पन्न कमेलन्रय हाथ है; हाथ से पकड़ने का काम लिया जाता है। वायु तत्त्व की
तन्मात्रा स्पशत है। स्पशत तन्मात्रा से उत्पन्न त्वचा है; त्वचा िारा स्पशत की अनभु लू त होती है। वायु तत्त्व की
अलिकता वािा चक्र हृदय चक्र है, यह हृदय के पास लस्थत है।
आकाश तत्त्व से उत्पन्न कमेलन्रय वाणी है; इसका स्थान मख ु है; मखु से िोिने का कायत लिया
जाता है। आकाश तत्त्व की तन्मात्रा शब्द है; शब्द-तन्मात्रा से उत्पन्न-श्रवण शलक्त, का स्थान कान है; कान

सहज ध्यान योग 281


ज्ञानेलन्रय है; इससे सनु ने का कायत लिया जाता है। क्योंलक कण्ठ से ही वाणी की उत्पलि होती है, इसलिए
आकाश तत्त्व की अलिकता वािा चक्र कण्ठ चक्र है; यह चक्र कण्ठ में लस्थत है।
जो योगीजन योग के िारा इन्हीं पञ्चभतू ों के संयम का अभ्यास करते हैं, उन्हें लजन-लजन भतू ों पर
संयम स्थालपत हो जाता है, उसे उस तत्त्व से समिलन्ित लसलि प्राप्त होने िगती है। यहाूँ, मैं इन लसलियों के
लवषय में उल्िेख करना उलचत नहीं समझता हूँ क्योंलक ये लसलियाूँ हर लकसी योगी को प्राप्त नहीं हो सकती
हैं। इसके लिए कई जन्मों की कठोर सािना होना जरूरी है। आकाश गमन अथवा जि पर चिने की लसलि
के लिए लनलश्चत मात्रा में कमों का नाश होना जरुरी है। ‘कमतशन्ू यता’की अवस्था इन लसलियों से कािी ऊूँची
है। यह सािकों को अलन्तम जन्म में ही उपिब्ि हो पाती है।
हमारे स्थि
ू शरीर के अन्दर क्रमश: सक्ष्ू म शरीर और कारण शरीर लवद्यमान हैं। मृत्यु के समय स्थि ू
शरीर से सक्ष्ू म शरीर लनकि जाता है। इस सक्ष्ू म शरीर के अन्दर कारण शरीर लवद्यमान रहता है। चेतन तत्त्व
अथातत आत्मा इन तीनों शरीरों से अत्यन्त व्यापक है। अज्ञान की अवस्था में आत्मा के ऊपर क्रमश: कारण
शरीर, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर आवरण के रूप में माने जाते हैं। परन्तु वास्तव में तत्त्वज्ञान की दृलष्
में आत्मा के अंदर तीनों शरीर लवद्यमान रहते हैं, क्योंलक चेतन तत्त्व अथातत आत्मा इन तीनों जड़ शरीरों से
अत्यन्त व्यापक हैं। चंलु क प्रत्येक प्राणी अज्ञान की अवस्था में ही संसार में व्यवहार कर रहा है, इसलिए
समझाने की दृलष् से िताया जाता है लक जो स्थि ू शरीर है, यह आत्मा के ऊपर का तीसरा शरीर है। सािारण
आदमी की मृत्यु के समय लसित स्थि ू शरीर ही अिग होता है। अन्य दोनों शरीर आत्मा के ऊपर आवरण
रूप में चढ़े रहते हैं। इन दोनों शरीरों का घनत्व ब्रह्माण्ड में लस्थत लभन्न-लभन्न घनत्वों से मेंि करता है। सािक
समालिकाि में लजस शरीर में अन्तमतख ु ी होता है, शरीर के उस घनत्व के अनसु ार ही ब्रह्माण्ड के घनत्व से
समिन्ि हो जाता है। इसी प्रकार तत्त्वज्ञानी योगी समालि के समय उसका लचि महाकारण जगत में अन्तमतख ु ी
होता है अथातत उसका समिन्ि पराप्रकृ लत से हो जाता है। यह ईश्वर का िोक या मि ू प्रकृ लत भी कहा जाता
है, ऐसा लसित तत्त्वज्ञानी योगी के साथ ही होता है।
स्थल
ू शरीर – स्थि ू शरीर पाूँच तत्त्वों व तीन गणु ों िारा लनलमतत है। इस शरीर के िारा हम कमत करते हैं।
अच्छे -िरु े कमत करके मनष्ु य अपना भलवष्य अच्छा अथवा िरु ा िनाता है। के वि मनष्ु य का स्थिू शरीर ही
एक ऐसा स्थि ू शरीर है, जो नये कमत कर सकता है। अन्य प्रालणयों के स्थि ू शरीर ऐसा नहीं कर सकते हैं,

सहज ध्यान योग 282


वे लसित भोग करने का काम करते हैं। इस स्थि ू शरीर के लिए कहा गया है लक यह कई जन्मों के पण्ु य कमों
के ििस्वरूप प्राप्त होता है। इस शरीर में मनष्ु य ईश्वर लचन्तन कर सकता है तथा अच्छे कमत करके जन्म-
मृत्यु के चक्र से छुटकारा प्राप्त कर सकता है। इसी शरीर के िारा वह दसू रों की सेवा कर सकता है, परोपकार
कर सकता है। सक्ष्ू म िोकों में लस्थत योलगयों, भक्तों आलद का योगिि क्षीण होने पर लिर पृर्थवी पर स्थिू
शरीर िारण करना होता है। लिर इसी शरीर से योगिि अलजतत करते हैं और वापस सक्ष्ू म िोकों को िौट
जाते हैं।
कुछ अज्ञानी मनष्ु य इस शरीर का महत्व नहीं समझते हैं। वे कहते हैं, यह शरीर तो लमट्टी का िना
हुआ है। इसे तो नष् होना ही है, लिर हम इसकी परवाह क्यों करें ? इस शरीर के रहते सुख भोग िो वरना
मृत्यु होने पर वैसे भी नष् हो जाएगा। ऐसे मनष्ु य इलन्रयों के वशीभतू होकर स्थूि जगत में क्षलणक सुख
भोगते रहते हैं, लिर कष् महससू करने िगते हैं। मगर लववेकी और ज्ञानी परुु ष इस शरीर का सही उपयोग
करता है। अपना सारा जीवन ईश्वरीय कायों में व प्रभु लचन्तन में गजु ारते हैं। सािक इस शरीर का सही उपयोग
करते हुए अपने वास्तलवक स्वरूप की खोज में िग जाता है। क्योंलक, स्थि ू शरीर ही एक ऐसा माध्यम है
जो आत्मसाक्षात्कार करा सकता है, हमें अपने भूिे हुए अलस्तत्व से लमिा सकता है। इसलिए, मैं यही
कहगूँ ा, हे अमृत के पुत्रों! इस मानव शरीर का सदुपयोग करो। इस शरीर के सदुपयोग करने से
आपको वचर शावन्त वमलेगी, वरना आप सदैव इिर-उिर भटकते रहेंगे।
सूक्ष्म शरीर– सक्ष्ू म शरीर आत्मा के ऊपर का दसू रा आवरण है। स्थि ू शरीर से सक्ष्ू म शरीर का घनत्व िहुत
ही कम होता है। सक्ष्ू म शरीर का रंग श्वेत (उजिा, सिे द) होता है। इसमें पृर्थवीतत्त्व व जितत्त्व िहुत ही कम
मात्रा में होते हैं। लजस प्रकार स्थि ू शरीर में इलन्रयाूँ होती हैं, उसी प्रकार सक्ष्ू म शरीर में भी इलन्रयाूँ होती हैं।
हमारी ये जो इच्छाएूँ हैं, वे सक्ष्ू म शरीर में ही चिा करती हैं। मनष्ु य जो भी कायत करता है उससे सक्ष्ू म शरीर
प्रभालवत होता है। जैसे– मनुष्य जि भोजन करता है तो भोजन का स्वाद सक्ष्ू म शरीर महससू करता है। मनष्ु य
के अन्दर जो भी इच्छाएूँ चिती हैं अथवा कोई भी कायत करना होता है, इसका संकेत सक्ष्ू म शरीर ही देता
है। सक्ष्ू म शरीर के संकेत पर स्थि ू शरीर कायत करने िगता है। जि स्थि ू शरीर को लकसी प्रकार का आघात
पहुचूँ ता है, जैसे स्थिू शरीर को गहरी चोट िगना या अन्य लकसी प्रकार से कष् पहुचूँ ना इत्यालद, इससे

सहज ध्यान योग 283


सक्ष्ू म शरीर को कष् पहुचूँ ता है, क्योंलक स्थि
ू शरीर में सक्ष्ू म शरीर व्याप्त है। ऐसा समझो लक स्थि
ू शरीर,
सक्ष्ू म शरीर का वाहन है। जैसा सक्ष्ू म शरीर चाहेगा वैसा ही स्थि ू शरीर करे गा।
मनष्ु य के स्थि
ू शरीर का इिाज तो लचलकत्सक कर देता है, मगर कभी-कभी मनुष्य को ऐसा रोग
िगता है लक लचलकत्सक परे शान हो जाता है लक रोगी को कौन सा रोग है, यह समझ में नहीं आता है। रोग
ठीक होने का नाम नहीं िेता है। ऐसी अवस्था में सक्ष्ू म शरीर लकसी कारण से िीमार या क्षलतग्रस्त होता है,
जो लचलकत्सक िारा ठीक नहीं हो पाता है। स्थिू शरीर और सक्ष्ू म शरीर को जोड़ने की कड़ी मलस्तष्क है।
स्थि
ू शरीर को लनदेश देने वािा मलस्तष्क ही है। जि सक्ष्ू म शरीर को कोई कायत करना होता है तो वह
मलस्तष्क की कोलशकाओ ं को प्रभालवत करता है। और लिर, मलस्तष्क की सक्ष्ू म कोलशकाएूँ स्थि ू शरीर के
अंगों को लनदेश देती है।
मृत्यु के समय जि सक्ष्ू म शरीर, स्थि ू शरीर से लनकिता है ति स्थि ू शरीर में अत्यन्त लखंचाव
होता है, क्योंलक स्थि ू शरीर में सक्ष्ू म शरीर व्याप्त रहता है। जि सक्ष्ू म शरीर स्थिू शरीर से समिन्ि अिग
करता है ति स्थि ू शरीर परे शानी महससू करता है। मगर सच यह है लक कष् तो सक्ष्ू म शरीर में ही होता है।
जि स्थि ू शरीर से सक्ष्ू म शरीर अिग हो कर िाहर आ जाता है ति स्थूि शरीर परू ी तरह से लनलष्क्रय हो
जाता है। इसे ही ‘मृत्य’ु कहते हैं। सक्ष्ू म शरीर अिग होते समय सक्ष्ू म रूप से सि कुछ अपने साथ िे िेता
है। ढेर सारे कमत भी अपने साथ समेंटे रहता है। लिर कमातनसु ार अपने गन्तव्य स्थान पर पहुचूँ जाता है।
योगी ध्यानावस्था में अपने सक्ष्ू म शरीर के िारा िाहर लनकिता है तथा सक्ष्ू म जगत का भ्रमण करके
वापस स्थि
ू शरीर में आ जाता है। जि सक्ष्ू म शरीर ध्यानावस्था में िाहर लनकिता है ति वह पणू त रूप से
नहीं लनकिता है, क्योंलक सक्ष्ू म शरीर का स्थिू शरीर से तारतमय अलत सक्ष्ू म रूप से िना रहता है। िाहर
लनकिकर भ्रमण करते समय सक्ष्ू म शरीर का स्थि ू शरीर से तारतमय कभी टूटता नहीं है। स्थि ू शरीर पर
जरा भी आघात होने पर सक्ष्ू म शरीर तरु ं त वापस िौट आता है। सक्ष्ू म शरीर अन्तररक्ष में एक लनलश्चत सीमा
तक ही जा सकता है लिर आगे की ओर गलत नहीं कर सकता है, क्योंलक आगे का घनत्व सक्ष्ू म शरीर से
िहुत कम होता है। कम घनत्व के कारण सक्ष्ू म शरीर उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता है।
मझु े जि
ु ाई 1989 में एक अनभु व आया था। ध्यानावस्था में हमारा सक्ष्ू म शरीर, स्थि ू शरीर से
लनकिकर अन्तररक्ष में चिा गया। कुछ क्षणों िाद हमारा सक्ष्ू म शरीर अन्तररक्ष में खड़ा हो गया। लिर इस

सहज ध्यान योग 284


सक्ष्ू म शरीर से दसू रा शरीर लनकिा, यह शरीर ऊपर अन्तररक्ष में चिा गया। इस शरीर को कारण शरीर कहते
हैं। कारण शरीर अन्तररक्ष में अनतं दरू ी तक चिा गया। वहाूँ सयू त से भी अलिक तेज प्रकाश वािी ‘प्रज्ञा’
को देखा। कुछ समय तक खड़ा हुआ कारण शरीर ‘प्रज्ञा’ को देखता रहा। लिर, वापस आने िगा। नीचे
आकर देखा लक अन्तररक्ष में सक्ष्ू म शरीर अपनी जगह पर खड़ा था। लिर मैं सक्ष्ू म शरीर के अन्दर प्रवेश कर
गया, और सक्ष्ू म शरीर के िारा नीचे की ओर आने िगा। वापस आकर मैंने देखा- हमारा स्थि ू शरीर
ध्यानावस्था में िैठा हुआ था लिर मैं स्थि ू शरीर के अन्दर प्रवेश कर गया। लवस्तृत जानकारी आप हमारी
‘योग कै से करें’ पस्ु तक में पढ़ सकते हैं। सािनाकाि में मैंने कई िार देखा लक मेरा सक्ष्ू म शरीर ध्यानावस्था
में िाहर लनकिता है।
कारण शरीर– सक्ष्ू म शरीर का आवरण हटने के िाद कारण शरीर आता है। यह आत्मा के ऊपर
का पहिा शरीर है। इसका घनत्व सक्ष्ू म शरीर से कम होता है तथा आकार भी सक्ष्ू म शरीर से छोटा होता है।
इसका रंग नीिा होता है। इस शरीर में भी सक्ष्ू म शरीर की भाूँलत कमेलन्रयाूँ, ज्ञानेलन्रयाूँ, प्राण आलद सि होते
हैं। मगर, ये सक्ष्ू म शरीर की अपेक्षा अलत सक्ष्ू म होते हैं। इस शरीर की अनुभलू त सािारण मनष्ु य को नहीं होती
है लसित योगी को ही कारण शरीर की अनुभलू त होती है। वो भी ऐसा ति होता है जि सािना की अवस्था
उच्च होती है। योगी की सािना कारण शरीर में िहुत ज्यादा समय तक चिती है। सािक का जि ब्रह्मरन्ध्र
खि ु ता है ति उसकी सािना कारण शरीर के अन्तगतत होनी शरू ु हो जाती है। इसके िाद कुण्डलिनी लस्थर
होने तक तथा इसके िाद िहुत समय सािना कारण शरीर में ही चिती रहती है। ज्यादातर सािकों को ढेरों
जन्म ग्रहण करने पड़ते हैं, लिर अलन्तम जन्म में ‘ऋतमभरा प्रज्ञा’ के उदय होने पर कारण शरीर से आगे की
अवस्था प्राप्त होती है।
महाकारण शरीर– सगणु ब्रह्म महाकारण शरीर में लवध्यमान रहता है, यह शरीर परम शि ु तत्त्वों
से लनलमतत है। लिर भी यह शरीर जड़ मि
ू प्रकृ लत के अन्तगतत आता है। इसका रंग हल्का नीिा चमकदार है।
इसका नीिापन लविक्षणता को लिए हुए है, क्योंलक यहाूँ पर गणु ों की सामयावस्था होती है। इस शरीर
का समिन्ि महाकारण जगत से रहता है। महाकारण जगत में तीन िोक आते हैं। ये तीनों िोक, लनत्य िोक
होते हैं। वैकुण्ठिोक, लशविोक व गोिोक, महाकारण जगत में आते हैं। लजस सािक का आलखरी
जन्म होता है, वह जि अभ्यास करता हुआ सिीज समालि की पराकाष्ठा पर पहुचूँ ता है, ति उसके

सहज ध्यान योग 285


लचि पर ‘ऋतमभरा-प्रज्ञा’ का उदय होता है। इस प्रज्ञा के िारा अज्ञानता िीरे -िीरे नष् होने िगती है। उस
समय यही कारण शरीर अत्यन्त सक्ष्ू म व व्यापक होने िगता है। इस अवस्था में योगी को तत्त्वज्ञान प्राप्त
होने की शरूु आत होने िगती है, तथा वह ईश्वर के लचि में अन्तमतख ु ी होने िगता है, अथातत परा-प्रकृ लत
में उसकी अवस्था आ जाती है। यह परा-प्रकृ लत परमआकाश तत्त्व के िारा लनलमतत होती है। इसमें गणु ों का
पररणाम नहीं होता है, गणु सामयावस्था में रहते हैं। जो योगी महाकारण जगत में रहता है वहाूँ पर अनंतकाि
तक रहता है। अन्त में सगणु ब्रह्म अथातत ईश्वर में अथवा लनगतणु ब्रह्म में िीन हो जाता है। महकारण जगत
में रहने वािे योलगयों को भि
ू ोक पर जन्म ग्रहण नहीं करना पड़ता है। ऐसा समझो एक प्रकार का मोक्ष जैसा
है। आलदकाि के ब्रह्मलषत महाकारण जगत में रहते हैं और स्वयं ईश्वर भी महाकारण शरीर में लवद्यमान
रहता है।
योगी का लचि जि महाकारण जगत में अन्तमतख ु ी होता है ति उसे स्वयं का शरीर भी नीिा जैसा
लदखाई देता है। नीिे चमकदार प्रकाश के अन्दर वह अपने आपको पाता है। अन्तररक्ष भी नीिा होता है।
यह नीिा अन्तररक्ष स्वप्रकालशत है। वास्तव में महाकारण शरीर नीिा नहीं होता है िलल्क ऐसा भालसत
होता है। यह शरीर अत्यन्त सक्ष्ू मतम अवस्था वािा व अत्यन्त पारदशी होता है। इसलिए ऐसे शरीरिारी
योगी लदव्यदृलष् से भी शीघ्र लदखायी नहीं देते हैं, क्योंलक आकाश तत्त्व की प्रिानता से ऐसे शरीर लनलमतत
होते है। महाकारण जगत में रहने वािे योलगयों के अन्दर लकसी प्रकार की तृष्णा नहीं होती है और न ही
इच्छाएूँ चिती है। वे लसित समालि में िीन रहते हैं। महाकारण जगत में रहने वािे प्रालणयों के लिए मोक्ष
कहा गया है।
लकसी-लकसी स्थान पर िेखों में तीन ही शरीर का वणतन लमिता है- महाकारण शरीर को नहीं मानते
हैं। अथातत ईश्वर को नहीं मानते है। इनका कहना है लक आत्मा के ऊपर लसित तीन शरीर होते हैं– स्थि
ू शरीर,
सक्ष्ू म शरीर और कारण शरीर। अि हम शरीर के लवषय में थोड़ा और जान िें तो अच्छा है। इन तीनों शरीरों
को जोड़ने का कायत वासनामय और मनोमय शरीर करता है। ये शरीर के नाम पर पारदशी लझल्िी मात्र
होते हैं। ये लसित शरीरों के िीच की कड़ी जैसे है- स्थूि शरीर और सक्ष्ू म शरीर के िीच वासनामय शरीर
है, तथा सक्ष्ू म शरीर और कारण शरीर के िीच मनोमय शरीर है। वासनामय शरीर के लवषय में आप सभी
जानते होंगे। मृत्यु के पश्चात् सािारण मनष्ु य वासनामय शरीर में चिा जाता है। लिर, अतृप्त रूप में इिर-

सहज ध्यान योग 286


उिर भटकता रहता है। जि यह पारदशी लझल्िी, शरीर से अिग हो जाती है ति सक्ष्ू म शरीर ऊध्वतगलत कर
जाता है। मनष्ु य का यह वासनामय शरीर स्थि
ू शरीर तथा सक्ष्ू म शरीर दोनों को प्रभालवत करता रहता है।
मनोमय शरीर लसित सक्ष्ू म शरीर को प्रभालवत करता है। कारण शरीर को इसलिए प्रभालवत नहीं कर
पाता है, क्योंलक वह आत्मा के नजदीक का शरीर है इस पर आत्मा का प्रभाव पड़ता है। ज्ञान योग के सािक
मनोमय शरीर के लवषय में अच्छी तरह समझ सकते हैं– क्योंलक इस मागत का सािक इसे मनोमय कोष
कहता है। हर परुु ष व स्त्री अपने आप में पणू त है, क्योंलक स्त्री व परुु ष का मिू स्वरूप तो एक ही है। आत्मा
तो न स्त्री है और न परुु ष है। स्थि
ू दृलष् से स्त्री व परुु ष में अन्तर माना जाता है। कुछ परुु ष तो लस्त्रयों को हेय
दृलष् से देखते है तथा अपने से छोटा व कमजोर समझते हैं, मगर ऐसा है नहीं। अि हम यह देखें लक अन्तर
क्यों लदखाई पड़ता है, और कहाूँ से इस अन्तर की शरुु आत होती है।
स्त्री और परुु ष का जो पहिा स्थि
ू शरीर है, उसमें अन्तर स्पष् लदखाई पड़ता है। स्त्री का स्थूि शरीर
ऋणात्मक, और परुु ष का िनात्मक होता है। ऋणात्मक का अथत होता है- संग्राहक, अथातत संग्रह करने
वािा। इसमें शलक्त का संग्रह होता है। उसकी शलक्त एकत्र रहती है, िेलकन यह लक्रयाशीि नहीं रहती है
जिलक शलक्त का भण्डार रहता है। परुु ष का स्थिू शरीर िनात्मक होता है, स्थि ू दृलष् से कािी शलक्तशािी
होता है तथा इसका रुख आक्रामक होता है। लकसी वस्तु की खोज अथवा सृजन करने के लिए आक्रामक
होना जरूरी है।
स्त्री का जो दसू रा शरीर वासना देह है, वह िनात्मक होता है अथातत स्त्री का दसू रा शरीर परुु ष का
होता है। इसी प्रकार परुु ष का दसू रा शरीर ऋणात्मक होता है अथातत स्त्री होता है। स्त्री और परुु ष के दसू रे
शरीर आपस में लवपरीत होते हैं। क्योंलक स्त्री का पहिा शरीर ऋणात्मक होता है, इसलिए वासना के समिन्ि
में वह कभी भी आक्रामक नहीं हो सकती है। परुु ष के लिना स्त्री कुछ भी नहीं कर सकती है। िेलकन, परुु ष
का पहिा शरीर िनात्मक होता है, इसलिए स्त्री के लिना इच्छा के कुछ भी कर सकता है क्योंलक िनात्मक
शलक्त आक्रामक होती है। परुु ष का पहिा शरीर िनात्मक और दसू रा ऋणात्मक है, जो आपस में जड़ु े रहते
हैं। इसी कारण एक वृि िनता है। इसी तरह स्त्री का भी एक वृि िनता है। परुु ष का दसू रा शरीर ऋणात्मक
होने के कारण कमजोर होता है। स्त्री का दसू रा शरीर िनात्मक होने के कारण शलक्तशािी होता है, इसलिए
स्त्री िाहर से देखने में कमजोर नजर आती है अन्दर से शलक्तशािी होती है। ठीक इसके लवपरीत परुु ष िाहर

सहज ध्यान योग 287


से शलक्तशािी लदखता है, मगर अन्दर से कमजोर होता है। यही कारण है लक स्त्री में कष् सहने की क्षमता
परुु ष की अपेक्षा ज्यादा होती है क्योंलक उसका दसू रा शरीर अलिक शलक्तशािी है। स्त्री के अन्दर परुु ष की
अपेक्षा सहनशीिता अलिक होती है। स्थि ू रूप से परुु ष स्त्री की ओर अलिक आकलषतत होता है। इसके दो
कारण हैं। एक, परुु ष का दसू रा शरीर ऋणात्मक (स्त्री का) है। वासनमय शरीर का प्रभाव स्थि ू शरीर पर
पड़ता है, इसलिए स्त्री की ओर आकलषतत होता है। दसू रा कारण, परुु ष का स्थि ू शरीर िनात्मक है। िनात्मक
का स्वभाव आक्रामक होता है तथा ऋणात्मक की ओर आकलषतत होता है।
स्त्री का तीसरा शरीर (सक्ष्ू म शरीर) ऋणात्मक होता है, अथातत स्त्री का ही होता है, तथा चौथा शरीर
िनात्मक अथातत परुु ष का होता है। चौथा शरीर मनोमय शरीर है। इसी प्रकार परुु ष का तीसरा शरीर (सक्ष्ू म
शरीर) िनात्मक अथातत परुु ष का होता है। चौथा शरीर (मनोमय शरीर) ऋणात्मक अथातत स्त्री का होता है।
स्त्री और परुु ष के तीसरे और चौथे शरीर, ऋणात्मक व िनात्मक, आपस में जड़ु े होने के कारण चुमिकीय
शलक्त िनती है। यह चमु िकीय शलक्त परुु ष में तेज के रूप में प्रकट होती है, और स्त्री में िावण्य के रूप में
प्रकट होती है।
स्त्री का पाूँचवा शरीर कारण शरीर ऋणात्मक (स्त्री का) ही होता है। इसी प्रकार परुु षों का पाूँचवा
शरीर परुु ष का अथातत िनात्मक ही होता है। यह शरीर ‘आत्मा’ के अलत लनकट है, इसलिए इस शरीर पर
'आत्मा' का प्रभाव अलिक पड़ता रहता है, तथा लवकारों से रलहत होता है। इस शरीर में भी स्त्री व परुु ष का
लभन्न अलस्तत्व रहता है। मगर लवकारों से रलहत होने के कारण एक-दसू रे के प्रलत लकसी प्रकार का आकषतण
या लवकषतण नहीं होता है, लसित शान्त से होते हैं। यह अवस्था लसित एक उच्च सािक ही महससू कर सकता
है।
अि हम आएूँ, थोड़ा अनभु वों की ओर। कुछ सािकों को अनभु व आते हैं लक ध्यानावस्था में
उनका शरीर स्त्री का हो गया है, अथवा सािक अपने आपको सन्ु दर स्त्री के रूप में पाता है, अथवा कभी-
कभी देखता है उसका आिा शरीर परुु ष का है, आिा शरीर स्त्री का है। इस प्रकार के अनभ ु व हमें भी
खबू आए। हमने इस प्रकार के अनभ ु व अपनी पस्ु तक के भाग-2 में वलखे हैं, वजसे आप पढ़ सकते
हैं। इस प्रकार के अनभु व आने का कारण है लक हर पुरुष के अन्दर स्त्रीत्व है और हर स्त्री के शरीर में परुु षत्व
है।

सहज ध्यान योग 288


आपने छोटे-छोटे िच्चों को देखा होगा, वह चिते हैं लिर लगर पड़ते हैं। मगर लिर उठकर चि पड़ते
हैं। लदन भर कई िार लगरते हैं। कभी-कभी उल्टे-सीिे लगर जाते हैं, मगर उनको चोट नहीं िगती है। यलद
उतनी िार वयस्क परुु ष लगरे तो उसकी हड्लडयाूँ ही टूट जायेंगी। इसका कारण है- िच्चों का स्थिू शरीर से
ज्यादा समिन्ि नहीं हुआ है, जिलक वयस्क परुु ष का परू ी तरह से स्थि ू शरीर से समिन्ि होता है। िच्चों
का सक्ष्ू म शरीर से समिन्ि ज्यादा रहता है, अभी स्थि ू शरीर का भान कम होता है। इस अवस्था में िच्चों
को स्वप्नावस्था और जाग्रतावस्था का कोई लवशेष भेद नहीं होता है। स्वपनावस्था और जाग्रतावस्था उनके
लिए समान है। यलद िच्चा सो रहा हो और अगर सोते समय रोने िगे, तो जागने के िाद भी वह जाग्रत
अवस्था में भी रोएगा। क्योंलक अभी उसे जाग्रत अवस्था का भान ही नहीं हुआ है-जाग्रतावस्था को अि
भी स्वप्नावस्था मान रहा है। इसलिए िच्चों की आूँखें लििकुि शान्त व लवकार से रलहत होती हैं क्योंलक
अभी उन्हें जीवन की वास्तलवकता का आभास नहीं हुआ है। यह आभास इसलिए नहीं हुआ है क्योंलक
अभी उसने स्थि ू शरीर में प्रवेश ही नहीं लकया है, लजसके िारा िाह्य जगत (स्थूि जगत) का आभास होता
है। नवजात लशशु के लिए लदन और रात में कोई िकत महससू नहीं होता है। वह रालत्र में भी िड़े आराम से
आूँखे खोिकर जागता रहता है और लदन के समय भी सोता-जागता रहता है। मगर वयस्क परुु ष को रालत्र
में ही नींद आती है और लदन में जागता है, क्योंलक उसने अपनी ऐसी आदत िना िी है। वयस्क परुु ष ने
अपने आपको स्थि ू जगत के अनसु ार ढाि लिया है, अपने शरीर को अपना सिकुछ मान रखा है। इसीलिए
उसे स्थि ू जगत ही सिकुछ लदखाई पड़ता है।
आपने सममोहन का नाम सनु ा होगा। सममोहन के िारा इिाज भी लकया जाता है। डॉक्टरों की अपेक्षा
सममोहन के िारा इिाज ज्यादा िाभकारी है– क्योंलक इसमें लकसी प्रकार के िन का खचत नहीं आता है,
इसलिए यह गरीि परुु ष के लिए ज्यादा गणु कारी लसि हुआ है। सममोहनकतात को अनभु वी होना चालहए,
तभी यह कायत समभव हो पाता है। सममोहनकतात किात रोगी पर सममोहन करके उसके सक्ष्ू म शरीर पर प्रभाव
डािता है। लजस समय रोगी के सक्ष्ू म शरीर पर प्रभाव डािा जाता है उसका असर रोगी के स्थि ू शरीर पर
भी पड़ता है। सममोहन कतात की आूँखों के िारा लनकिी हुई तेजस्वी लकरणें तथा इच्छा शलक्त रोगी के सक्ष्ू म
शरीर को लनरोग कर देती हैं, लजससे रोगी का स्थिू शरीर लनरोगी होने िगता है। यलद सममोहनकतात प्रकाण्ड
लविान है तथा अनुभवी भी है, तो दसू रों की कुण्डलिनी भी उठा सकने तक में सामर्थयतवान होता है।

सहज ध्यान योग 289


अवस्थाएूँ
मनष्ु य का जीवन चार अवस्थाओ ं में िीतता है। सािारण मनष्ु य अपना जीवन तीन अवस्थाओ ं में
व्यतीत करता है। लसित योगी परुु ष का जीवन चार अवस्थाओ ं में व्यतीत होता है। योग के कारण योगी को
चौथी अवस्था तरु ीयावस्था प्राप्त होती है। यह अवस्था सािारण परुु ष को प्राप्त नहीं होती है। ये अवस्थाएूँ
हैं– (1) जाग्रत अवस्था (2) स्वप्नावस्था (3) सुषप्तु ावस्था (4) तूरीयावस्था।
(1) जाग्रत अवस्था– जाग्रत अवस्था में मनष्ु य का स्थि ू शरीर लक्रयाशीि रहता है। इलन्रयाूँ
िलहमतख
ु ी होकर लक्रयाशीि रहती हैं। मनष्ु य स्थि
ू जगत को अपना समझकर स्थूि पदाथों में लिप्त रहता है।
इस अवस्था में स्थिू शरीर के साथ-साथ सक्ष्ू म शरीर भी लक्रयाशीि रहता है। जाग्रत अवस्था में स्थि

जगत से मनष्ु य का समिन्ि रहता है। जाग्रत अवस्था में मन आज्ञा चक्र पर होता है।
(2) स्वप्नावस्था– स्वप्नावस्था में सक्ष्ू म शरीर लक्रयाशीि रहता है। स्थि ू शरीर लशलथि व शान्त
होता है। मनष्ु य जि स्वप्नावस्था में होता है तो स्वप्न देखने का कायत यही सक्ष्ू म शरीर करता है। इसका साथ
मन देता है। यलद मनष्ु य के स्थि ू शरीर में लकसी प्रकार का कष् हो रहा है, ति वह स्वप्नावस्था में भी कष्
की अनभु लू त करता है– उस समय मनष्ु य इस प्रकार के स्वप्न देखता है लक उसे िगता है लक वह कष् महससू
कर रहा है। कभी-कभी ऐसा होता है लक मनष्ु य स्वप्नावस्था से आगे लनकि जाता है, लिर गहरी लनरावस्था
में चिा जाता है। उस समय उसे स्वप्न याद नहीं रहता है अथवा जागने पर कहता है लक स्वप्न देखा तो था
मगर याद नहीं आ रहा है। याद न आने का कारण उसकी स्मृलत है। याद आना या न आना स्मृलत का कायत
है। स्वप्नावस्था में मनष्ु य की स्मृलत कायत करती है। जि मनष्ु य स्वप्नावस्था के िाद जाग्रतावस्था में आता
है ति उसे अपनी स्मृलत स्वप्नावस्था की िरािर िनी रहती है, इसीलिए स्वप्न याद रहता है। लनरावस्था में
स्मृलत स्वयं कायत नहीं करती है इसलिए उसे लनरावस्था की याद नहीं रहती है। स्वप्न भि ू जाने का कारण
यह है, मनष्ु य का स्वप्नावस्था से लनरावस्था में चिे जाना। स्वप्न में जो देखा था तरु न्त लनरावस्था में जाने
से, स्मृलत में जो संग्रह हुआ था वह लमट जाता है। मगर स्वप्नावस्था से जाग्रत अवस्था में आने पर दोनों
अवस्थाओ ं में स्मृलत कायत करती है, इसलिए परू ी तरह से उस व्यलक्त को याद रहता है।
हर व्यलक्त सोते समय स्वप्न देखता है, क्योंलक गहरी नींद में जाने से पवू त उसे सक्ष्ू म शरीर से गजु रना
पड़ता है। इसलिए जि सोया हुआ व्यलक्त सक्ष्ू म शरीर में प्रवेश करे गा तो स्वप्न अवश्य आएूँगे। जि व्यलक्त

सहज ध्यान योग 290


गहरी नींद के कारण, कारण शरीर में लस्थत होता है, तो उसे स्थि ू शरीर व सक्ष्ू म के िारे में कोई याद या
जानकारी नहीं रहती है। मगर, जि मनष्ु य सक्ष्ू म शरीर में होता है तो उसे जाग्रत अवस्था की महत्वपणू त
घटनाएूँ याद रहती हैं। मन ही स्वप्नावस्था में महत्वपणू त कायत करता है। यह िलहमतन ही स्वप्न लदखाने का
कायत करता है। यह कभी-कभी तो स्थि ू घटनाओ ं से समिलन्ित स्वपन लदखाता है, और कभी-कभी
काल्पलनक दलु नया भी िना िेता है। मन ही दृष्ा होता है तथा मन ही दृश्य िनता है। मन एक से अनेक िन
जाता है। स्वप्न की दलु नया का मालिक मन ही है। स्वप्नावस्था में मन हृदय में लस्थत होता है। जि मनष्ु य
स्वप्नावस्था में होता है ति िलहमतन अन्तमतन में अवलस्थत रहता है। अन्तमतन आत्मा के पास अथातत कारण
शरीर से समिलन्ित है, वह स्वप्न लदखाने का कायत नहीं करता है। उच्च अवस्था के सािक के अन्दर अन्तमतन
कायत करता है, िलहमतन अन्तमतख ु ी होकर अन्तमतन में लविीन हो जाता है। इसलिए उसे स्वप्न नहीं आते,
िलल्क वह योगलनरा में रहता है। योगलनरा में योग से समिलन्ित अनभु व आते हैं।
(3) सुषुप्तावस्था– मनष्ु य को प्रगाढ़ लनरावस्था में होश नहीं रहता है, अथातत स्मृलत कायत नहीं
करती। आपने देखा होगा लक मनष्ु य जि अलिक शारीररक पररश्रम करता है, ति उसे अलिक थकान महससू
होती है। ति अलिक थकान से सक्ष्ू म शरीर भी थकान महससू करता है, इसी कारण स्थि ू शरीर में और
पररश्रम करने की शलक्त नहीं रहती है। लिर उसे आराम अथवा लवश्राम की आवश्यकता पड़ती है। िेटते ही
गहरी लनरा में चिा जाता है। उस समय सक्ष्ू म शरीर भी शान्त व लस्थर िना रहता है, क्योंलक वह भी थका
हुआ होता है। यलद आप गहरी लनरा में सो रहे व्यलक्त को जगाएूँ, तो वह शीघ्र नहीं जागता है, कुछ क्षणों के
िाद जागता है। जागने के िाद भी उसके चेहरे पर आिस्य रहता है, क्योंलक सक्ष्ू म शरीर को परू ी तरह लवश्राम
नहीं लमि पाता है। मगर कुछ मनष्ु य जगाने पर तरु न्त िोि देते हैं अथवा जग जाते हैं और उनके चेहरे पर
आिस्य नहीं होता है। इसका कारण है लक वह गहरी नींद में नहीं सोये थे, वह स्वप्नावस्था में ही थे। मनष्ु य
जि गहरी नींद में सोता है ति वह कारण शरीर में होता है। उस समय मन का स्थान कण्ठ चक्र पर कहा गया
है, अथातत मन गहरी लनरा के समय कण्ठ चक्र में होता है।
(4) तूरीयावस्था– तरू ीयावस्था इन तीनों अवस्थाओ ं से परे है। यह अवस्था लसित योगी को प्राप्त
होती है। यह अवस्था चैतन्यमय अवस्था है। इस अवस्था में स्थि ू जगत भालसत नहीं होता है, क्योंलक
िलहमतन, अन्तमतन में लविीन हो जाता है। अन्तमतन आत्मा के लनकट होने के कारण आत्मा से संिग्न रहता

सहज ध्यान योग 291


है। यह अवस्था जाग्रत अवस्था जैसी लदखती है। मगर उस समय अन्तमतन आत्मा या ईश्वर में अतं मतख ु ी होता
है। जि योगी तरु ीयावस्था में होता है ति उसके स्थिू नेत्र लििकुि लस्थर व नेत्रों की मरु ा लवलचत्र सी होती
है। उसकी पिकें ज्यादातर खि ु ी अथवा कम खि ु ी हुई व लस्थर रहती हैं। कभी-कभी तरु ीयावस्था वािा
योगी पागिों सा लदखाई देता है। इस अवस्था में लस्थत योगी यलद स्थि ू कायत भी करे तो उसे याद नहीं रहता
है जैसे भोजन करना आलद। क्योंलक स्थि ू जगत में रहता हुआ भी वह स्थि ू जगत में नहीं रहता है। वह
चैतन्यमय जगत में खोया हुआ होता है। यह अवस्था सिसे उत्कृ ष् अवस्था है। योगी की जि लनलवतकल्प
समालि िगती है, ति यह अवस्था प्राप्त होती है। योगी जि तन्मात्राओ ं का साक्षात्कार कर िेता है, उस
समय यह अवस्था कािी अलिक रहती है। लिर योगी की समालि के अभ्यास के ऊपर है लजतना अलिक
अभ्यास करे गा, उतना अलिक वह इस अवस्था में रह सके गा। योगी के अभ्यास के अनसु ार यह अवस्था
कम अथवा ज्यादा रहती है।

सहज ध्यान योग 292


कोष
कोष का अथत है खोि अथवा आवरण। मनष्ु य के शरीर में पाूँच कोष होते हैं। यह मागत ज्ञानयोग के
सािकों के लिए है। इन कोषों के लवषय में समझ िेना हर योग मागत के सािकों के लिए अच्छा है। पाूँचों
कोषों के नाम इस प्रकार हैं– (1) अन्नमय कोष, (2) प्राणमय कोष, (3) मनोमय कोष, (4) ववज्ञानमय
कोष, (5) आनन्दमय कोष। इस आनन्दमय कोष के िाद आत्मा होती है। अथवा इस प्रकार भी समझा
जा सकता है लक आत्मा के ऊपर ये पाूँच कोष रूपी खोि चढ़े रहते है।
अन्नमय कोष – अन्नमय कोष स्थि ू शरीर को कहते हैं। स्थिू शरीर अन्न से ही िनता है तथा
अन्न से ही उसका पािन-पोषण होता है, इसलिए इसको अन्नमय कोष कहते हैं। स्थि ू शरीर का मलस्तष्क
भी अन्नमय कोष के अन्तगतत आता है, परन्तु मलस्तष्क की कोलशकाएूँ संवेदना का कायत भी करती है,
इसलिए यह प्राणमय कोष के अन्तगतत भी है। दसू रे शब्दों में कहा जाए तो अन्नमय कोष व प्राणमय कोष
को जोड़ने का कायत यही कोलशकाएूँ करती हैं। इसलिए मलस्तष्क को इन दोनों कोषों का सलन्ि स्थि भी
कहते हैं। अन्नमय कोष के अन्तगतत पञ्चभतू ों का िना स्थि
ू शरीर तथा स्थिू इलन्रयाूँ आती हैं।
प्राणमय कोष – प्राणमय कोष को सक्ष्ू म शरीर भी कह सकते हैं। प्राणमय कोष सक्ष्ू म शरीर के
अन्तगतत आता है। प्राणमय कोष में पाूँचों प्राण व सक्ष्ू म रूप से पाूँचों कमेलन्रय आती है। प्राणमय कोष
अन्नमय कोष पर आिाररत रहता है क्योंलक मनष्ु य लजस प्रकार का अन्न खाएगा, शि ु अथवा अशि ु , ठीक
उसी प्रकार का प्राणमय कोष िनेगा। यलद मनष्ु य सालत्वक भोजन करता है ति प्राणमय कोष सालत्वक व
शि
ु िनेगा। यलद मनष्ु य तामलसक भोजन करता है ति उसका प्राणमय कोष अशि ु हो जाता है। प्राणमय
कोष अन्न के सक्ष्ू म भाग से िनता है। प्राणायाम तथा सालत्वक अल्प भोजन से प्राणमय कोष सयं लमत लकया
जा सकता है।
मनोमय कोष – मनोमय कोष, सक्ष्ू म शरीर व कारण शरीर के िीच की कड़ी अथवा सलन्ि स्थि
है। मगर मनोमय कोष सक्ष्ू म शरीर (प्राणमय कोष) को प्रभालवत करता रहता है। यह कोष सक्ष्ू म शरीर में भी
रहता है, इसलिए यह कहा जा सकता है सक्ष्ू म शरीर में दो कोष हैं तथा सलन्ि स्थि भी है। इच्छाएूँ इसी
कोष में कायतयत होती हैं। मनोमय कोष प्राणमय कोष पर लनभतर करता है। यलद प्राणायाम के िारा प्राणमय

सहज ध्यान योग 293


कोष सयं लमत कर लिया जाए तो मनोमय कोष भी सयं लमत होने िगेगा। यह कोष प्राणमय कोष से ज्यादा
व्यापक है। मनोमय कोष में मन व पाूँच ज्ञानेलन्रय आती है। इसमें स्वाथतमय सक
ं ल्प होता है।
ववज्ञानमय कोष – लवज्ञानमय कोष के अन्तगतत अहंकार और िलु ि आती है। इसमें किातपन का
अलभमान रहता है। इस अवस्था में सािक समालि िारा तन्मात्राओ ं का साक्षात्कार कर रहा होता है। जि
सािक इस कोष में प्रवेश करता है तो ढेर सारा ज्ञान प्राप्त होता है। सािक लजस लवषय में भी जानकारी िेना
चाहता है उसे उस लवषय का ज्ञान अवश्य लमिता है। इस अवस्था में सािक को अलभमान रहता है।
आनन्दमय कोष – आनन्दमय कोष में सािक सख ु -दखु से रलहत आनन्द की अनभु लू त करता है।
सािारण मनष्ु य इस कोष से अनलभज्ञ रहता है। उच्च कोलट का योगी ही समालि में इसकी अनुभलू त कर पाता
है। जि लचि अत्यन्त शि ु हो जाता है, ति उसमें लकसी प्रकार के कमातशय नहीं रहते हैं। अहकं ार से तमोगणु
भी ििु जाता है। तमोगणु गौण रूप में रहता है। लचि में सत्वगणु ी अहक
ं ार रहता है। इसी सत्वगणु ी अहकं ार
के िारा आनन्द की अनुभलू त होती है। यह महाकारण शरीर में होता है। इसी कोष के अन्तगतत लचि आता
है।

सहज ध्यान योग 294


नाड़ी
मनष्ु य के सक्ष्ू म शरीर में नालड़यों का जाि सा लिछा हुआ है। प्राण तत्व इन्हीं नालड़यों के िारा शरीर
में प्रवालहत होता है। शास्त्रों के अनसु ार मनष्ु य के शरीर में 72000 नालड़याूँ हैं। इस सभी नालड़यों में तीन
नालड़याूँ मख्ु य मानी गयी हैं। इन तीनों नालड़यों के नाम हैं- इड़ा, लपंगिा और सषु ुमना है। ये तीनों नालड़याूँ
मि ू ािार से िेकर रीढ़ की हड्डी के सहारे सभी चक्रों को स्पशत करती हुई लसर के ऊपरी भाग तक चिी
गयी हैं। सषु ुमना नाड़ी दोनों नालड़यों के मध्य में हैं, इड़ा नाड़ी िायीं ओर तथा लपंगिा नाड़ी दालहनी ओर
होती है। इन्हें क्रमश: चन्र नाड़ी और सयू त नाड़ी भी कहते है। इड़ा और लपंगिा नालड़यों को शलक्तवालहनी
नालड़याूँ भी कहा जाता है क्योंलक शलक्त का संचार इन्हीं दोनों नालड़यों के िारा है।
मनष्ु य जि श्वास िेता है उस समय यही दोनों नालड़याूँ चिा करती हैं। ये नालड़याूँ सदैव समान रूप
से नहीं चिती हैं िलल्क क्रमश: एक कम एक ज्यादा चिा करती है। यलद यह ज्ञात करना हो लक कौन सी
नाड़ी ज्यादा चि रही है, कौन सी नाड़ी कम चि रही है उसके लिए अपनी हथेिी को हम नाक के लििकुि
नजदीक िे जाएूँ। लिर नाक से तीव्रगलत से श्वास िाहर की ओर छोड़ें। श्वास िाहर छोड़ते समय नाक के लजस
लछर से अलिक वायु लनकिती हुई महससू हो, उसी से अन्दाज िगा िीलजए लक कौन सी नाड़ी ज्यादा चि
रही है। क्योंलक नाक के एक लछर से ज्यादा वायु लनकिेगी। लजससे ज्यादा वायु लनकिे वही नाड़ी ज्यादा
चि रही है। इन नालड़यों को समान रूप से चिाने के लिए प्राणायाम और ध्यान का सहारा लिया जाता है।
जि दोनों नालड़याूँ समान रूप से चिने िगेंगी, उस समय मन लस्थर व शान्त होता है। यह अवस्था िहुत
अभ्यास के िाद आती है। आप नालड़यों की चाि को िदि भी सकते हैं। यलद आपकी सयू त नाड़ी अलिक
चि रही है तो आप इसमें पररवततन कर चन्र नाड़ी को लक्रयाशीि कर सकते है। आप िशत अथवा लकसी
और समति जगह पर दायीं करवट करके िेट जाइए िगभग दस लमनट िेटे रलहए, आपकी चन्र नाड़ी
अलिक चिने िगेगी। यलद आप सयू त नाड़ी को अलिक चिाना चाहते है तो दस लमनट तक िायीं करवट
करके िेटे रलहए इससे आपकी सयू त नाड़ी अलिक चिने िगेगी।
सयू त नाड़ी चिते समय शरीर के अन्दर गमी िढ़ती है यह नाड़ी गमत स्वभाव की होती है। चन्र नाड़ी
चिते समय शरीर के अन्दर ठण्डक िढ़ती है क्योंलक यह नाड़ी शीति होती है। लजन सािकों की सािना

सहज ध्यान योग 295


तीव्र होती है अथवा अच्छे सािक होते हैं उनकी सयू त नाड़ी सयू ोदय से िेकर सयू ातस्त तक चिती है। सयू ातस्त
से िेकर सयू ोदय तक सारी रालत्र चन्र नाड़ी चिती है।
सषु मु ना नाड़ी सभी नालड़यों में प्रमख
ु है। यह नाड़ी मिू ािार के लत्रकोण के मध्य से लनकिकर लसर
के ऊपरी भाग तक जाती है। यह नाड़ी अत्यन्त शलक्तशािी होने के कारण सािक इसे लक्रयाशीि करने का
प्रयास करता रहता है। इस नाड़ी का नीचे की ओर का मूँहु िन्द रहता है। शास्त्रों में कहा गया है लक इस
सषु मु ना नाड़ी के अन्दर तीन और नालड़याूँ होती हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं– (1) वज्र नाड़ी, यह सषु मु ना
के अन्दर लस्थत है, (2) वचत्रणी नाड़ी, यह वज्र नाड़ी के अन्दर लस्थत है, तथा (3) ब्रह्म नाड़ी, यह लचत्रणी
नाड़ी के अन्दर है। ये नालड़याूँ सत्त्व गणु प्रिान, प्रकाशमय और अद्भूत शलक्त वािी होती हैं। सािकों! सािना
काि में मैंने सषु मु ना नाड़ी अवश्य देखी थी, िेलकन उसके अन्दर की तीनों नालड़यों का हमें अनभु व नहीं
आया। कुण्डलिनी जाग्रत होकर इसी सषु मु ना के अन्दर प्रवेश कर जाती है। ऊध्वत होते समय कुण्डलिनी
सदैव सषु मु ना नाड़ी के अन्दर से ही नहीं गलत करती है, िलल्क कभी-कभी सषु मु ना नाड़ी के िाहरी ओर से
भी सषु ुमना के सहारे ऊपर की ओर चढ़ती है। इसी सुषमु ना के अन्दर लदव्यशलक्तयाूँ लनलहत हैं। इस नाड़ी को
देवमागत या ब्रह्ममागत भी कहते हैं। सषु मु ना नाड़ी को न्यरू ि चाजत (neutral charge) भी कहते हैं। चन्र
नाड़ी को ऋणात्मक आवेश (negative charge) और सयू त नाड़ी को िनात्मक आवेश (positive
charge) कहते हैं।
हमारे शरीर में अन्य ढेर सारी नालड़याूँ भी सक्ष्ू म रूप में रहती हैं। िेलकन वह शान्त व लनलष्क्रय पड़ी
रहती हैं। इन नालड़यों में तमोगणु के प्रभाव के कारण अशि ु ता भरी रहती है। जि सािक ध्यान करता है ति
इन नालड़यों में प्राण अवरुि होता है, इससे ददत की अनुभलू त होती है। इसलिये, सािक को ज्यादा से ज्यादा
शि ु रहना चालहए। प्राणायाम का प्रयोग ज्यादा करना चालहए। इससे थोड़ी राहत लमिती है। लसर ज्यादा
दखु ा करता है जि सािना आगे िढ़ती है। लजसकी सािना अलत उग्र होगी उसे ज्यादा ददत महससू होगा
क्योंलक प्राण का दिाव अलिक होता है। जि कोई भी कोलशका लक्रयाशीि होगी, ति उसमें ददत अवश्य
महससू होगी क्योंलक िहुत समय से वह लनलष्क्रय पड़ी थी। इस अवस्था में ज्यादा से ज्यादा प्राणायाम करना
चालहए।

सहज ध्यान योग 296


चक्र
मनष्ु य का स्थि
ू शरीर देखने में तो हड्लडयों और माूँस का लपण्ड लदखता है परन्तु सृलष्किात ने इस
स्थिू शरीर में लवलभन्न प्रकार की लदव्यशलक्तयाूँ स्थालपत कर दी हैं। शरीर के उन स्थिों को जहाूँ पर इन गप्तु
शलक्तयों के के न्र स्थालपत लकये गये हैं उन्हें चक्र या कमि कहते है। ये सभी चक्र सक्ष्ू म शरीर में होते हैं,
स्थि ू में नहीं। इसलिए लचलकत्सकों िारा शारीररक अन्वेषण िारा जाने नहीं जा सकते। जो पाठकगण योग
की पररभाषा से पररलचत हैं वे इन शब्दों का अथत भिी प्रकार समझते होंग।े सभी जानते है लक जाग्रत अवस्था
में मनष्ु य की समझने-िझू ने और देखने-सनु ने आलद की सभी लक्रयाएूँ उसके मलस्तष्क में लस्थत लवलभन्न के न्रों
के लक्रयावान होने पर होती है। मलस्तष्क के इन के न्रों में तो के वि इसी प्रकार की लक्रयाओ ं को प्रकट करने
की योग्यता है परन्तु इन चक्रों की योग्यता अत्यन्त उच्चकोलट की होती है। यहाूँ तक लक एक ऐसा चक्र है
लजसके लक्रयावान होने पर मनष्ु य को लनगतणु ब्रह्म का वृलि के िारा दशतन प्राप्त होता है। लजस प्रकार इन चमत
चक्षओ ु ं से स्थि ू जगत के सयू त का दशतन करते हैं, उसी प्रकार, इस चक्र के चेतन्यमय होने पर अभ्यासी
सािक को प्रकृ लत से परे शि ु चेतन तत्त्व की अनभु लू त होती है। इसलिए मनष्ु य को अपने शरीर के अन्दर
चक्रों को सषु प्तु ावस्था से जाग्रत करना चालहए। लजससे मनष्ु य लवलभन्न प्रकार की लदव्यशलक्तयों से यक्त
ु हो
जाए। इन चक्रों को जाग्रत करने से तथा अभ्यास और िढ़ाने के िाद अपने लनजस्वरूप आत्मा की अनभु लू त
कर सकता है। जो मनष्ु य इस प्रकार का अभ्यासी होता है, लजसने अपने सारे चक्र जाग्रत कर लिए हैं, अपने
स्वरूप की अनभु लू त कर िी है, उस मनष्ु य ने अपने स्थि ू शरीर का परू ी तरह से उपयोग कर लिया है। मनष्ु य
के शरीर में सात प्रमख ु चक्र होते हैं। चक्रों के नाम इस प्रकार है– (1) मलू ािार चक्र, (2) स्वाविष्ठान
चक्र, (3) नावभ चक्र, (4) हृदय चक्र, (5) कण्ठ चक्र, (6)आज्ञा चक्र, तथा (7) सहस्त्रार चक्र।
(1) मूलािार चक्र – यह चक्र रीढ़ के सिसे लनचिे भाग में लस्थत है। गदु ा िार से थोड़ा ऊपर की
ओर होता है। इस चक्र में कमि की चार पंखुलड़याूँ होतीं हैं। यह चक्र पृर्थवीतत्त्व का मख्ु य स्थान है। इस चक्र
का गणु गन्ि है। इस चक्र में अपान वायु का मख्ु य स्थान है। पृर्थवीतत्त्व से उत्पन्न होने वािी मि त्याग की
शलक्त गदु ा कमेलन्रय का मख्ु य स्थान है। गन्ि तन्मात्रा से उत्पन्न होने वािी व सूँघू ने की शलक्त नाक ज्ञानेलन्रय
का प्रमखु स्थान है। इस चक्र के देवता भगवान गणेश जी हैं। इसी चक्र में लत्रकोण के मध्य में स्वयंभू लिंग
में साढ़े तीन चक्कर लिपटी कुण्डलिनी शलक्त लवराजमान रहती है। इसी लत्रकोण के मध्य से सषु मु ना नाड़ी,

सहज ध्यान योग 297


िायीं ओर से इड़ा अथवा चन्रनाड़ी, दालहनी ओर से लपगं िा अथवा सयू तनाड़ी लनकिी हुई है। ये तीनों
नालड़याूँ ऊपर की ओर जाकर लसर के ऊपरी भाग में पहुचूँ ती है।
(2) स्वाविष्ठान चक्र – यह चक्र मि
ू ािार चक्र से दो अूँगि ु ऊपर जननेलन्रय के स्थान पर है। इस
चक्र में छ: दि की पंखड़ु ी का कमि है। यह चक्र जितत्त्व का मख्ु य स्थान है। इसका गणु रस है। इस चक्र
में सारे शरीर में व्यापक होकर गलत करने वािी व्यान वायु का मख्ु य स्थान है। जितत्त्व से उत्पन्न मत्रू त्यागने
वािी जननेलन्रय कमेलन्रय का मख्ु य स्थान है। रस तन्मात्रा से उत्पन्न स्वाद िेने की शलक्त लजह्वा ज्ञानेलन्रय
का मख्ु य स्थान है। इस चक्र के देवता भगवान ब्रह्मा जी है।
(3) नावभ चक्र – यह चक्र नालभ के पीछे रीढ़ के पास सषु मु ना नाड़ी से स्पशत करता हुआ लवद्यमान
है। इस चक्र में दस पंखड़ु ी वािा कमि है तथा अलग्नतत्त्व का मख्ु य स्थान है। इसका गणु रूप है। इस चक्र
में भोजन के सक्ष्ू म तत्त्व को समान रूप से पहुचूँ ाने वािी समान वायु का मख्ु य स्थान है। अलग्न तत्त्व से
उत्पन्न चिने की शलक्त पैर कमेलन्रय का मख्ु य स्थान है। रूप तन्मात्रा से उत्पन देखने की शलक्त नेत्र ज्ञानेलन्रय
का स्थान है। इस चक्र के देवता भगवान लवष्णु हैं।
(4) हृदय चक्र – यह चक्र हृदय के पीछे लस्थत है। इस चक्र में िारह पंखड़ु ी होती है। इस चक्र में
वायु तत्त्व का मख्ु य स्थान है। इसका गणु स्पशत है। इस चक्र में मूँहु और नाक से गलत करने वािी प्राण वायु
का मख्ु य स्थान है। वायु तत्त्व से उत्पन्न पकड़ने की शलक्त हाथ कमेलन्रय का मख्ु य स्थान है। स्पशत तन्मात्रा
से उत्पन्न त्वचा ज्ञानेलन्रय का मख्ु य स्थान है। इस चक्र के देवता भगवान रुर हैं। इसी हृदय चक्र के अन्तगतत
हृदय से ही नाद की उत्पलि होती है।
(5) कण्ठ चक्र – यह चक्र कण्ठ में लस्थत है। इस चक्र में सोिह पंखलु ड़यों वािा कमि है। इस
चक्र में उदानवायु का प्रमखु स्थान है। इसका गणु शब्द है। इस चक्र में आकाशतत्त्व प्रमख ु है। आकाशतत्त्व
से उत्पन्न वाणी (मूँहु ) कमेलन्रय है। शब्द तन्मात्रा से उत्पन्न श्रवण शलक्त कान ज्ञानेलन्रय है। इस चक्र का
देवता स्वयं जीव माना गया है।

सहज ध्यान योग 298


(6) आज्ञा चक्र – यह चक्र भृकुलट के पास लस्थत है। इस चक्र के कमि में लसित दो पख
ं लु ड़याूँ हैं।
इस चक्र के देवता भगवान लशव हैं। इस चक्र से थोड़ा ऊपर की ओर तीसरा नेत्र अथातत लदव्यदृलष् भी है।
जि सािक की सािना इस चक्र पर आ जाती है ति सलवकल्प समालि िगने िगती है।
(7) सहस्त्रार चक्र – यह चक्र लसर के मध्य में ऊपरी सतह पर लस्थत है तथा यह सभी शलक्तयों का
के न्र है। इस चक्र का कमि सहस्त्र (हजार) पंखुलड़यों वािा कहा गया है। यह चक्र लनगतणु व लनराकार ब्रह्म
का स्थान है। इस चक्र के लवषय में कुछ भी नहीं लिखा जा सकता है, लसित अनभु ूलत का लवषय है। क्योंलक
लनगतणु ब्रह्म के लवषय में लिखा नहीं जा सकता है वह शब्दों से परे है। यह चक्र सभी का नहीं खुिता है
अथवा लवकलसत नहीं होता है। कुछ अज्ञानी सािक अथवा गरुु ब्रह्मरन्ध्र को ही सहस्त्रार चक्र समझ िेते हैं।
ऐसे अज्ञानी सािक व गरुु न जाने लकतने वततमान समय में हैं। सहस्त्रार चक्र में हजार दि कमि होता है।
मैंने कमि की पंखलु ड़यों की गणना तो नहीं की है, मगर मैं यह अवश्य कह सकता हूँ, शायद इतनी पंखुलड़याूँ
होगी। मझु े कई िार इसका अनुभव आया है। आप हमारी तीसरी पस्ु तक में पढ़ सकते हैं। जो सािक
प्रकृ लतिय अवस्था से जन्म ग्रहण करते हैं, उन्हीं सािकों का यह चक्र लवकलसत होता है। क्योंलक यह उनका
आलखरी जन्म होता है। इसी जन्म में ऋतमभरा प्रज्ञा का प्राकट्य होता है। यही प्रज्ञा लचि पर लस्थत अज्ञान
को िीरे -िीरे अभ्यासानसु ार नष् करती रहती है और ज्ञान का प्रकाश भरती रहती है। इसी प्रलक्रया के साथ-
साथ सहस्त्रार चक्र का लवकास होता रहता है। कई वषों के अभ्यास के िाद सहस्त्रार चक्र पणू त लवकलसत
होता है। लिर अभ्यासी जन्म-मृत्यु के चक्र से मक्त
ु हो जाता है।
सािकों, लकसी स्थान पर नालभ चक्र को मलणपरु चक्र कहा गया है, यह पयातयवाची शब्द है। इसी
प्रकार हृदय चक्र को अनाहत चक्र कहा जाता है। कण्ठ चक्र को लवशि ु चक्र कहा जाता है। सहस्त्रार चक्र
को ब्रह्मरंध्र भी कह देते हैं, िेलकन ब्रह्मरंध्र व सहस्त्रार अिग-अिग होते हैं। यह िात ज्यादातर अभ्यासी
समझ नहीं पाते है। लकसी-लकसी ने िघु मलस्तष्क में भी चक्र माना है। तथा तािू में भी चक्र माना है।
कुण्डलिनी जि ब्रह्मरन्ध्र खोिकर, लिर आज्ञा चक्र से होकर नीचे हृदय की ओर वापस आती है तो आज्ञा
चक्र से नीचे तािू में एक चक्र माना गया है। वैसे मध्यम और शान्त स्वभाव की कुण्डलिनी अवश्य कािी
समय रुकती है परन्तु उग्र स्वभाव वािी कुण्डलिनी लिल्कुि नहीं रुकती है।

सहज ध्यान योग 299


सािकों, हम पहिे लिख चक ु े हैं लक इन चक्रों में अद्भुत शलक्तयाूँ लनलहत हैं। मगर सािारण मनष्ु य
के अन्दर ये शलक्तयाूँ सषु प्तु ावस्था में रहती हैं, क्योंलक जि तक ये चक्र जाग्रत करके लक्रयाशीि नहीं लकए
जाएूँगे, ति तक ये शलक्तयाूँ सषु प्तु ावस्था में रहेंगी। जि सािक प्राणायाम और ध्यान के माध्यम से मि ू ािार
में लस्थत आलदशलक्त कुण्डलिनी को जाग्रत करके सषु मु ना िार से प्रवेश कराके ऊध्वत करने िगता है। ति
यह कुण्डलिनी जाग्रत होकर पहिे मि ू ािार लस्थत पृर्थवीतत्त्व को नष् करने िगती है। पृर्थवीतत्त्व को एक
लनलश्चत मात्रा में ही नष् करके इस चक्र में चैतन्यता लिखेर देती है लिर यह चक्र चेतन्यमय व लक्रयाशीि हो
जाता है। इसी प्रकार कुण्डलिनी ऊध्वत होते समय लजस चक्र में पहुचूँ ती है उसे जाग्रत करके चैतन्यता
लिखेरती जाती है। लजससे चक्र लक्रयाशीि हो जाता है। उस चक्र में लस्थत शलक्तयाूँ भी कायत करना शरू ु कर
देती है। इससे सािक के अन्दर दैवी गणु आने शुरू हो जाते है। जि कुण्डलिनी सहस्त्रार चक्र खोि देती है
उस समय सािक को प्रकृ लत से परे लनगतणु ब्रह्म की अनभु लू त होती है। सािक को इन चक्रों की जाग्रलत का
िाभ वततमान जीवन में तथा मृत्यु के िाद भी लमिता है।

सहज ध्यान योग 300


प्राण
प्राणतत्त्व तो पंचभतू ों में से एक तत्त्व है। इस तत्त्व से ब्रह्माण्ड की रचना हुई है तथा प्रालणयों के स्थि

शरीर में भी प्राणतत्त्व लमिकर संरचना में शालमि हुआ है अथातत प्राणतत्त्व सवतत्र व्याप्त है। स्थि ू शरीर
िारण करने वािों को यही प्राण वायु जीलवत रखती है इसलिए जीविारी श्वास के िारा वायु िेता है और
लिर िाहर लनकाि देता है। मनष्ु य के लिए जीवनदायी इस प्राण वायु का स्थि ू रूप ऑक्सीजन ही है। स्थि ू
शरीर को जीलवत रखने के लिए ऑक्सीजन की जरूरत पड़ती है। यह ऑक्सीजन रूपी प्राण वायु हमें
वायमु ण्डि से लमिती है। जि मनष्ु य श्वास िारा वायुमण्डि से वायु अन्दर खींचता है ति ऑक्सीजन के
साथ अन्य गैसें भी आ जाती हैं। इन गैसों में नाइरोजन सिसे ज्यादा मात्रा में होती है। लवज्ञान के अनसु ार
ऑक्सीजन मात्र 21 प्रलतशत होती है, नाइरोजन व अन्य गैसें 79 प्रलतशत होती है। जि ये दोनों प्रकार की
गैसें िे िड़ों के अन्दर जाती हैं ति मनष्ु य के िे िड़े शि ु ऑक्सीजन एक लनलश्चत मात्रा में सोख िेते हैं,
नाइरोजन िे िड़ों में भरी रहती है। ऑक्सीजन सोखने का काम, िे िड़ों में लस्थत कोष्ठक करते हैं। सोखी
गयी ऑक्सीजन रक्त में लमिकर िमलनयों िारा सारे शरीर में पहुचूँ ाने का कायत करती है तथा अशि ु रक्त
लशराओ ं िारा वापस होकर लिर िे िड़ों में आ जाता है यही गन्दा रक्त िे िड़ों में शि ु होता है। जो रक्त में
अशि ु ता होती है वह िे िड़ों में लस्थत नाइरोजन गैस में लमि जाती है, प्रश्वास के िारा सारी गन्दी वायु िाहर
आ जाती है लजसे हम काितन डाइऑक्साइड कहते हैं। इसी ऑक्सीजन िारा रक्त शि ु लकया जाता है तथा
सारे शरीर में प्राण व्याप्त रहता है। शरीर के अन्दर इस प्राण के अिग-अिग ढगं से कई कायत होते हैं। इन्हीं
कायों के कारण प्राण के अिग-अिग नाम लदये गये हैं। मख्ु य रूप से पाूँच प्रकार के प्राण होते हैं मगर इनके
पाूँच उपप्राण भी हैं– (1) प्राण (2) अपान (3) समान (4) उदान (5) व्यान, ये मख्ु य प्राण हैं तथा उप
प्राणों के नाम इस प्रकार हैं, (6) नाग (7) कूमण (8) कृकल (9) देवदत्त (10) िनिंजय।
यहाूँ पर यह िात िताना अलत आवश्यक है लजस प्राण से अपरा-प्रकृ लत की संरचना हुई है उसे वायु
तत्त्व भी कहते है यह वायु तत्त्व अत्यन्त सक्ष्ू म रूप में सवतत्र लवद्यमान रहती है। प्रत्येक प्राणी को जो प्राण
वायु लजंदा रखती है उस प्राण वायु के स्थि ू रूप को ऑक्सीजन भी कहते हैं।
(1) प्राण – इसका स्थान हृदय में है, यह हृदय में कायत करता है तथा मृत्यु के समय इसकी भलू मका
मख्ु य होती है।

सहज ध्यान योग 301


(2) अपान – ये लकये हुए भोजन को नीचे की ओर िे जाने और मि त्यागने का कायत करता है।
(3) समान – यह वायु शरीर के समस्त अंगों में समान रूप से कायत करती है, इसीलिए इसको समान
वायु कहते हैं।
(4) उदान – यह वायु ऊध्वत करने का काम करती है तथा इसका स्थान कण्ठ है। यह वायु योगी के
लिए महत्त्वपणू त है।
(5) व्यान – जो समस्त अंगो को िढ़ाती हुई समभाव से व्याप्त रहती है उसे व्यान कहते हैं।
(6) नाग – यह प्राण वमन (उल्टी) करने का कायत करता है।
(7) कूमण – यह आूँख खोिने और िन्द करने का कायत करता है।
(8) कृकल – छींक आते समय यह प्राण कायत करता है।
(9) देवदत्त – जमहाई िेने में यह प्राण कायत करता है।
(10) िनिंजय – यह प्राण समपणू त शरीर में व्याप्त रहता है तथा मृत्यु होने के पश्चात् भी यह प्राण
मौजदू रहता है।
सािकों, उदान वायु सािक के लिए िहुत महत्वपणू त है। सािक को ऊध्वतरेता िनाने का कायत यही
प्राण करता है। यह कण्ठ से िेकर लसर तक व्याप्त रहता है। जि सािक की कुण्डलिनी लस्थर हो जाए ति
प्राणायाम के िारा इस प्राण वायु का सयं म करे और इसे नीचे की ओर गलत कराकर पैरों के पजं ों में लस्थर
कर दे उस समय योगी अत्यतं शलक्तशािी हो जाएगा। यह मैंने अभ्यास के आिार पर लिखा है।

सहज ध्यान योग 302


बन्ि
योग मागत में िन्ि का िहुत अलघक महत्व है क्योंलक िन्ि के अभ्यास से ध्यान में शीघ्र सििता
लमिने में सहायता लमिती है। प्राण शीघ्र ऊध्वत होने िगता है तथा कुण्डलिनी जाग्रत करने में सहायता
लमिती है। तथा इन िन्िों के कारण कुण्डलिनी ऊध्वत होने में भी सहायता लमिती है। सािक को समय
लनकािकर इनका अभ्यास करना चालहए। इस प्रकार के अभ्यास करने से लिर सािक को ध्यानावस्था में
भी स्वयमेव िन्ि िगने िगते हैं, इससे सािक की सािना पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
योग मागत में प्रगलत के लिए मख्ु य रूप से तीन िन्िों का उपयोग लकया जाता है:-
(1) मूल बन्ि – गदु ा िार को संकुलचत करके ऊपर की ओर लखंचाव करते हुए िन्द कर देना, मि ू
िन्ि कहिाता है। यलद अभ्यास कर रहे हैं तो इसका सहजासन अथवा पद्मासन की मरु ा में अभ्यास करना
चालहए। गदु ा िार का लखंचाव ऊपर की ओर होना आवश्यक है। सािक की सािना जि थोड़ी सी अच्छी
होने िगती है ति मि ू िन्ि ध्यानावस्था में स्वयमेव ही िगने िगता है इससे अपान वायु ऊपर की ओर
जाने िगती है, तथा कुण्डलिनी को भी ऊध्वत होने में सहायता लमिती है। ऊध्वतरेता िनाने के यह िन्ि अलत
उिम है। सािक का ध्यानावस्था में िरािर मि ू िन्ि िगा रहना चालहए।
(2) उड्डीयान बन्ि – नालभ का लनचिा भाग तथा नालभ में थोड़ा ऊपर का भाग ििपूवतक पीछे
की ओर खींचकर पीठ की ओर ऐसे िगा दें लक पेट के स्थान पर गड्ढ़ा सा लदखाई देने िगे, तथा नालभ ऐसी
महससू हो लक पीछे की ओर पीठ से लचपक गयी हो। पेट को लजतना अन्दर की ओर खींचा जाएगा उतना
ही अच्छा रहेगा। इससे प्राण का दिाव मि ू ािार पर पड़ता है। इससे कुण्डलिनी जाग्रत करने में तथा प्राण
सषु मु ना नाड़ी के अन्दर प्रवेश करने में तथा कुण्डलिनी ऊध्वत करने में सहायता लमिती है। इससे िे िड़े
मजितू िनते हैं, जठरालग्न तेज होती है तथा भख ू में वृलि होती है। यलद सािक ने उड्डीयान िन्ि का
अभ्यास न लकया हो, ध्यानावस्था में उड्डीयान िन्ि जोर से स्वयमेव िगने िगता हो, तथा उसी समय
साथ मि ू िन्ि भी िगता हो, तो समझ िेना चालहए लक कुण्डलिनी ने आूँखें खोि दी है। यलद भलस्त्रका भी
स्वयमेव उसी समय चिने िगे तो यह लनलश्चत है लक कुण्डलिनी की आूँखें खि ु गयी है।
(3) जालन्िर बन्ि – लसिासन पर सीिे िैठकर गदतन को आगे की ओर लसकोड़ते हुए ठोढ़ी को
सीने में ऊपर की ओर स्पशत करायें। इस अवस्था में श्वास िेने में परे शानी होती है। कण्ठ में लस्थत ढेर सारी
नालड़यों के जाि को दिाव देकर िाूँिें रहता है इसीलिए जािन्िर िन्ि कहते है। कण्ठ के संकुलचत करने

सहज ध्यान योग 303


पर इड़ा और लपंगिा नालड़यों पर दिाव िढ़ता है इससे प्राण सषु मु ना नाड़ी में प्रवेश करने में सहायता लमिती
है।
िन्ि तो और भी होते हैं मगर तीन िन्ि प्रमख
ु हैं, इसलिये हमने लसित इन्हीं िन्िों का उल्िेख लकया
है। सािक को तीनों िन्िों को एक साथ िगाने का अभ्यास करना चालहए। इससे कुण्डलिनी शीघ्र जाग्रत
व ऊध्वत होने में सहायता लमिती है। सािक की सािना जि तीव्र होने िगती है ति ये तीनों िन्ि एक साथ
िगने िगते हैं। इससे मि ू ािार में प्राण का दिाव िढ़ता है तथा मि ू ािार गमत होता है मि ू ािार लजतना
ज्यादा गमत होगा उतना ही ज्यादा सािक को िाभ होता है, क्योंलक इस अवस्था में जि सािक की
कुण्डलिनी ऊध्वत होगी वह अवश्य ही उग्र अथवा मध्यम स्वभाव वािी होगी। शान्त स्वभाव वािी
कुण्डलिनी िहुत समय तक िन्ि िगाने के िाद ही ऊध्वत हो पाती है।

सहज ध्यान योग 304


कमण
ससं ार में लजतने प्राणी हैं, वे सभी प्राणी कमत करते हैं। सभी प्रालणयों िारा कमत लकया जाना अलनवायत
है क्योंलक कमत रजोगणु के कारण करना मजिरू ी सा है। रजोगणु हर वस्तु या पदाथत में पाया जाता है। इस गणु
का स्वभाव गलत करना है। गलत करने से लकसी न लकसी प्रकार के कमातशय िनना अलनवायत है। प्रालणयों िारा
गलत करने का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है।
मनष्ु य के लचि में कमातशय दो प्रकार के रहते हैं। एक, प्रिान रूप से लजसे मनष्ु य वततमान जन्म में
भोगता है। ये कमातशय लचि की ऊपरी सतह पर प्रिान रूप िारण लकए रहते हैं इसलिए मनष्ु य को ये
कमातशय भोगना जरूरी है। इन्हीं प्रिान कमों के अनसु ार मनष्ु य का जीवन चिता है। इन कमों को प्रारब्ि
कहते हैं। दसू रे प्रकार के वे कमत हैं, जो लचि की लनचिी सतह पर सषु प्तु ावस्था में पड़े रहते हैं, यह कमत
वततमान जीवन में नहीं भोगे जाते हैं। क्योंलक प्रारब्ि कमत इन कमों को दिाये रखते हैं। इन्हें संलचत कमत कहते
हैं। ऐसे कमत अगिे जीवन काि में भोगे जाते हैं। मनष्ु य जो वततमान कमत करता है उनसे जो कमातशय िनते
हैं, उनमें से कुछ तो लचि की लनचिी सतह पर सषु प्तु अवस्था में चिे जाते हैं तथा कुछ कमत प्रिान रूप
िारण करके प्रारब्ि कमों के साथ लमि जाते हैं, इसलिए ऐसे कमत वततमान जीवन में भोगने पड़ते है तथा
जो कमत सषु प्तु ावस्था में शालमि होकर लचि की लनचिी सतह पर चिे गये, ऐसे कमत अगिे जन्मों में भोगने
पड़ते हैं।
कभी-कभी ऐसा देखा गया है लक संलचत कमत भी लनचिी सतह (सषु प्तु ावास्था) से ऊपर आकर
प्रिान रूप िारण कर िेते हैं और वह प्रारब्ि के साथ लमि जाते हैं। ऐसी अवस्था में कुछ कारण हो
सकते हैं। एक कारण यह भी हो सकता है लक वततमान जीवन में लकया गया कमत अथातत लक्रयमाण कमत से
कुछ इस प्रकार के कमातशय िनते हैं, जो लचि की लनचिी सतह में जाकर कुछ कमातशयों को जगा देते हैं।
ऐसे कमातशय जागकर लचि की ऊपरी सतह पर आ जाते हैं और प्रिान रूप िारण कर िेते हैं। दसू रा
कारण यह भी हो सकता है सलं चत कमों को जानिझू कर जिरदस्ती जगा लदया जाएूँ। ऐसा तभी हो सकता
है जि उसके लचि पर जोरदार शलक्तपात लकया जाए। शलक्तपात करने से सषु प्तु अवस्था वािे कमत जाग्रत
अवस्था में आकर उपरी सतह पर आने िगते हैं, लिर प्रारब्ि कमों के साथ लमिकर प्रिान रूप िारण कर
िेते हैं। तीसरा कारण यह हो सकता है लक मनष्ु य जि योग का अभ्यास करता है ति ध्यानावस्था में लचि
के अन्दर हिचि होती है। इसलिए सषु प्तु अवस्था वािे कमत जागकर प्रिान कमों में लमिकर प्रिान रूप
िारण कर िेते हैं। इसलिये मनष्ु यों को कभी-कभी इस प्रकार के कमत भोगने पड़ते हैं। चाहे उच्चकोलट का

सहज ध्यान योग 305


योगी ही क्यों न हो, उसे भी अच्छे -िरु े कमत भोगने ही पड़ते हैं। समाज वािे कहते हैं लक अमकु व्यलक्त िहुत
अच्छा था अथवा योगी परुु ष था, लिर इसे कष्दायक कमत क्यों भोगने पड़ रहे हैं। इसका कारण यही है लक
लचि की लनचिी सतह पर जन्म-जन्मान्तरों के कमत पड़े रहते हैं। जि योग के संस्कार लनचिी सतह पर जाते
हैं ति संलचत कमों को जगाने का कायत करते हैं। ऐसे संलचत कमत तेजी के साथ उपर आ जाते हैं। इसलिए
अपने समाज में हम अच्छे मनष्ु य का उदाहरण िे तो देखेंगे लक उसने सारा जीवन अच्छे कमों में लिता लदया
होगा, मगर उसे लिर भी कष् लमिते है, क्योंलक वततमान कमत उनके अन्तुःकरण की गन्दगी को ऊपरी सतह
पर िें क देते हैं, इसलिए कष्ों का सामना करना पड़ता है। यलद कोई मनष्ु य िरु े कमत करने वािा है, हो सकता
है वह अपना जीवन अच्छे ढंग से व्यतीत कर रहा हो, मगर मनष्ु यों को कभी न कभी अपने िरु े कमों का
िि अवश्य भोगना पड़ता है।
समपणू त जगत में मनष्ु य ही एक ऐसा प्राणी है जो कमत कर सकता है, तथा कमों का भोग भी करता
है। क्योंलक लकये गये कमों के कमातशय भी िनते हैं और कमातशय भोगकर समाप्त भी होते हैं। जिलक अन्य
लजतने भी प्राणी हैं, वह सभी अपने कमातशयों का लसित भोग करते हैं, नवीन कमत नहीं कर सकते हैं। इसलिए
कमत भोगने वािे प्रालणयों के कमातशय नष् होते रहते हैं नये कमातशय नहीं िनते हैं। यलद कोई दष्ु स्वभाव
वािा मनष्ु य दोिारा मनष्ु य शरीर िारण करता है ति वह लपछिे संस्कारों के कारण दष्ु स्वभाव वािा ही
िनेगा। क्योंलक लपछिे जन्म के कमातशयों का लिर से उदय हो जाएगा लिर से इसी प्रकार के संस्कार िनेंगे।
यही क्रम चिता रहेगा। ऐसा मनष्ु य अपने वास्तलवक कल्याण से दरू रहेगा। इसलिए दष्ु स्वभाव वािे मनष्ु य
का जि अलिक पाप कमत हो जाता है, ति उसे इन पाप कमों को भोगने के लिए अन्य योलनयों में जाना
पड़ेगा। अन्य योलनयों में जि लनलश्चत मात्रा में कमत भोग लिए जाते हैं, ति वह लिर से मनष्ु य योलन में आ
जाता हैं। मनष्ु य योलन में लिर से आने का यह अथत है कुछ न कुछ अच्छे कमातशय अवश्य ही उसके
अन्तुःकरण में होते हैं। यह ध्यान रखने योग्य िात है लक मनष्ु य शरीर प्राप्त होने पर इसका सदपु योग करना
चालहए। मनष्ु य अपनी आत्मोन्नलत करे और अपने मूि स्वरूप को प्राप्त करे ।
यलद योगी चाहे तो लकसी का मागत िदि भी सकता है। जैसा लक मैंने पहिे लिखा है लचि में जन्म-
जन्मान्तर के कमातशय भरे रहते हैं। यलद लकसी मनष्ु य का मागत दष्ु ता या लहसं ा करने वािा है ति इसका मागत
िदिकर अध्यात्म में िगाया जा सकता है। यह तो साि जालहर है लक दष्ु परुु ष के कमत दष्ु ता के ही होंग,े
तभी तो गित कायों में लिप्त है। मनष्ु य के जो दष्ु ता के प्रारब्ि कमत हैं, उसे शलक्तपात कर प्रारब्ि कमों को
लचि की लनचिी सतह पर पहुचूँ ा लदया जाए, उसके संलचत कमत में जो अच्छे कमत हों उन्हें जाग्रत कर उन्हें

सहज ध्यान योग 306


प्रारब्ि कमत िना लदये जाए अथातत उन कमों को ऊपरी सतह पर कर लदया जाए, ति उसके जीवन का मागत
िदि सकता है। इस प्रकार िरु ा मनष्ु य अच्छा मनष्ु य िनाया जा सकता है। इसी प्रकार अच्छा मनष्ु य भी
िरु ा मनष्ु य िनाया जा सकता है क्योंलक प्रकृ लत का स्वभाव है कोई भी शलक्तशािी प्राणी कम शलक्त वािे
को सदैव दिाता रहता है। प्रारब्ि कमत शलक्तशािी होते हैं, संलचत कमत सुषप्तु अवस्था में कमजोर पड़े रहते
हैं। प्रारब्ि कमों को एक तरि हटा लदया, संलचत कमों को ऊपर कर लदया जाय, इससे भी मनष्ु य में िदिाव
आ सकता है।
अभी जो मैंने लिखा लक संलचत कमत ऊपरी सतह पर लकये जा सकते हैं, और प्रारब्ि कमत लनचिी
सतह पर लकये जा सकते हैं। ऐसे परू ी तरह से कमों में िदिाव नहीं िाया जा सकता है क्योंलक प्रकृ लत के भी
कुछ लनयम हैं। यलद प्रकृ लत के अनसु ार कोई घटना इसी जन्म में घटनी है, ति वह कमत नीचे की सतह पर
नहीं जाएूँगे, यह मेरा अनुभव है। कुछ मात्रा में कमों का िदिाव लकया जा सकता है तथा मनष्ु य के जीवन
में िदिाव िाया जा सकता है। मगर यह कायत हर सािक नहीं कर सकता है, लसित वही सािक कर सकता
है लजसके पास योगिि िहुत अलिक मात्रा में हो। मगर यह भी ध्यान रखना प्रकृ लत के लनयम सवोच्च है।
प्रकृ लत देवी अपना व्यवस्था भी करती है। इसलिए परू ी तरह से लकसी भी लनयम को नहीं िदिा जा सकता
है।
जो सािक उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर चक ु े हैं, अथातत उनके लचि पर ऋतमभरा प्रज्ञा का
प्राकट्य हो चकु ा है, ऐसे सािकों िारा लकये गये कमों के कमातशय नहीं िनते हैं। क्योंलक ऐसे सािकों िारा
पाप कमत त्याग लदये जाते हैं, पाप से वह िहुत दरू रहता है तथा कततव्य रूप में लकया गया कमत आसलक्त,
ममता एवं अहभं ाव छोड़कर लनष्काम भाव से करते हैं। लनष्काम भाव से लकये गये कमों के कमातशय नहीं
िनते हैं। सािारण मनष्ु यों के कमत पाप और पण्ु य से यक्त
ु होते हैं तथा पाप-पण्ु य लमलश्रत होते हैं। गीता में
भगवान श्रीकृ ष्ण जी अजतनु से कहते हैं जो मनष्ु य कमत करके मझु े समलपतत कर देता है, अपनेपन का अलभमान
छोड़कर कायत करता है, वह मनष्ु य कीचड़ में कमि के समान है। उसे लकसी प्रकार का कमत िन्िन नहीं
होता है।
सािारण मनष्ु य के कमातशय कभी समाप्त नहीं होते है। इसीलिए जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता रहता है।
योगी के योगालग्न से कुछ संलचत कमत तो जि जाते हैं मगर प्रारब्ि कमत तो भोगने ही होते हैं। इसलिए सािक
को कष् लमिना अलनवायत है। ये संलचत कमत एक जन्म में ही नहीं, िलल्क कई जन्मों में समाप्त होते हैं। यह
योगी के योग पर आिाररत है। सािक के कमातशय जि पणू तरूप से समाप्त होने को होते हैं ति अलन्तम समय

सहज ध्यान योग 307


में क्िेशात्मक कमत रह जाते हैं ति सािक को क्िेश ही क्िेश अकारण भोगने पड़ते हैं। यह क्िेशात्मक
कमत स्वयं सािक के ही लकसी न लकसी जन्म के होते हैं। ऐसे कमत कुछ मात्रा में समालि के िारा समाप्त कर
लदये जाते हैं तथा ज्यादातर कमत भोगकर ही समाप्त लकये जाते हैं। जि लचि के सभी कमातशय समाप्त हो जाते
हैं, ति भी कभी-कभी सािक को क्िेशात्मक कष् भोगने होते हैं। इसका कारण यह है लक लचि में कमत तो
समाप्त हो जाते हैं, परन्तु लचि में अभी ज्ञान का प्रवाह लनरन्तर न िहने के कारण व्यत्ु थान के संस्कार प्रकट
होने िगते हैं। इसलिए लचि पणू त रूप से प्रकालशत नहीं रहता है, िलल्क लचि में व्यत्ु थान के संस्कार के
कारण हल्का सा अज्ञान सा रहता है। लनिीज समालि की अवस्था में पर वैराग्य के संस्कार िीरे -िीरे प्रिि
होकर व्यत्ु थान के संस्कारों को दिाते रहते हैं, लनिीज समालि समाप्त होने पर लचि पर व्यत्ु थान के संस्कार
प्रकट होने िगते हैं और पर वैराग्य के संस्कारों को दिाने िगते हैं। यहीं प्रलक्रया चिती रहती है, अन्त में
लचि पर परवैराग्य के संस्कार िने रहते है। व्यत्ु थान के संस्कार प्रकट नहीं हो पाते है। इस अवस्था में अभ्यासी
अपने स्वरूप में लस्थत रहता हैं। उसे जीवन चक्र से छुटकारा लमि जाता है।
सािकों, एक िार हमारे लमत्र ने हमसे प्रश्न लकया लक कहते हैं मनष्ु य अपने कमों िारा भाग्य िदि
सकता है तथा यह भी कहा जाता है मनष्ु य का भाग्य व घटनाएूँ पवू तकाि से लनलश्चत है। ये दोनों िातें एक
दसू रे के लवरोि में हैं लिर सत्य क्या है? सािकों, दोनों िातें अपनी-अपनी जगह पर सत्य हैं। सािारण मनष्ु य
अपना भाग्य नहीं िदि सकता है। वह ज्यादातर पवू त लनलश्चत कमों के अनसु ार चिेगा, क्योंलक प्रारब्ि लनलश्चत
हो चक ु ा है। मगर, कमतठ मनष्ु य लक्रयमाण कमत अपनी इच्छानसु ार करके भाग्य में िदिाव िाने में सिि हो
जाएगा, क्योंलक वततमान कमों के कमातशय प्रारब्ि कमों में भी लमिेंगे। इन्हीं कमों के प्रभाव से भाग्य िदिना
शरूु हो जाएगा। योगी परुु ष अपना भाग्य योग के िारा लनश्चय ही िदि देता है। क्योंलक योग के प्रभाव से
एक लनलश्चत मात्रा में संलचत कमत नष् कर देता है, प्रारब्ि कमत उसे भी भोगने पड़ते हैं। उच्च कोलट का योगी
चाहे तो थोड़ा-सा प्रारब्ि कमों में हस्तक्षेप कर सकता है, जैसे मख्ु य घटनाओ ं को वह कुछ समय के लिए
टाि सकता है, क्िेश थोड़े कम कर सकता है। मगर लनलवतकल्प समालि के समय जो कमत शेष रह जाते हैं,
उसे योगी को भोगना ही होगा, ऐसा लनलश्चत है। कमतठ मनष्ु य के लिए कुछ भी समभव है क्योंलक वह दृढ़-
लनश्चयी, पररश्रमी, और िैयतवान होता है।
मनष्ु य जो भी कमत करता है उस कमत के संस्कार लचि पर िनते हैं। लजस प्रकार के संस्कार मनष्ु य के
लचि पर िनते हैं, उसी प्रकार का उसका स्वभाव होता है। उसी प्रकार से उसकी जन्म-आयु और मृत्यु होती
है और अपने जीवन काि में वैसा ही भोग करता है। इन्हीं संस्कारों के िारा मनष्ु य में सोचने की शलक्त, याद

सहज ध्यान योग 308


रहने की शलक्त लनभतर करती है, तथा संस्कारों के कारण मनष्ु य की इच्छाएूँ लनभतर करती है। इस तरह ये
संस्कार दो तरह के कायत करते हैं– एक, स्मृलत के रूप में और दसू रा, वासना (इच्छाएूँ) के रूप में। स्मृलत का
कायत िघु मलस्तष्क के क्षेत्र में होता है। इच्छाओ ं का कायत इलन्रयों का स्वामी मन करता है।
मनष्ु य जि भी लकसी प्रकार का कमत करता है, ये कमत चाहे स्थि ू रूप से लकये गये हों, अथवा
मानलसक रूप से, इन कमों के संस्कार लचि पर अंलकत हो जाते हैं। इस लचि को एक प्रकार का वीलडयो
कै मरा समझो। लकये गये कमों का लचत्र िेता रहता है। इसीलिए सािक की जि उच्चावस्था आती है, ति
उसके अन्तुःकरण में लस्थत (लचि में) इन संस्कारों को देख िेने की शलक्त आ जाती है, ति संस्कारों के
आिार पर वह अपने पवू त जन्मों को भी देख िेता है क्योंलक ये संस्कार जन्म-जन्मातरों के भरे रहते हैं। योगी
अपनी योग्यतानसु ार लपछिे कई जन्म देख िेने में सामर्थयतवान होता है, पूवत जन्मों की घटनाएूँ स्पष् लदखाई
देती हैं। पूवत जन्म का ज्ञान उसके संस्कारों के आिार पर लकया जाता है। इसी प्रकार योगी दसू रे मनष्ु यों के
लचि के संस्कारों को देखकर उसके भी लपछिे जन्मों को िता सकता है। तथा भलवष्य की घटनाएूँ भी िता
सकता है क्योंलक लचि में ही तो यही संस्कार रूपी कमातशय है। संलचत व प्रारब्ि कमत देखकर योगी लकसी
भी व्यलक्त का भतू काि व भलवष्यकाि िताने में समथत होता है।
इन्हीं सस्ं कारों के आिार पर मनष्ु य की प्रखर िलु ि अथवा मन्द िलु ि होती है। िच्चा जि छोटा
होता है, तभी से यह लदखाई पड़ने िगता है लक इसका स्वभाव कै सा होगा। कुछ िच्चे छोटी-छोटी उम्र में
ही चञ्चि होते हैं कुछ िि ु ू स्वभाव वािे होते हैं। कभी-कभी देखा गया है िच्चे कम उम्र में ही झठू िोिने
िगते हैं, चोरी करने िगते हैं अथवा उद्दण्ड स्वभाव के हो जाते हैं। यह सि सस्ं कार का ही प्रभाव होता है।
लजस जीवात्मा का जैसा संस्कार होगा, ज्यादातर उसका जन्म भी उसी प्रकार के सस्ं कारों वािे माता-लपता
के यहाूँ होगा। इसीलिए ज्यादातर देखा गया है लक जैसे माता-लपता होते हैं, उनके िच्चे भी वैसे ही िनते हैं।
यलद लकसी जीवात्मा के संस्कार योग का अभ्यास करने वािे हैं, तो वह योगी के यहाूँ अथवा अध्यात्म रुलच
रखने वािों के यहाूँ पैदा होगा। जो मनष्ु य लजस स्वभाव वािा होगा, वैसे ही स्वभाव वािे मनष्ु य से लमत्रता
करना पसन्द करे गा। लकसी भी मनष्ु य को योगी िनने के लिए, उसके संस्कार योलगयों जैसे होने चालहए, नहीं
तो योग में थोड़ा अवरोि आने पर वह योग मागत को छोड़ देता है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है, माता-लपता के स्वभाव से ठीक उल्टे स्वभाव वािा िच्चा िचपन से
ही होता है। इसके दो कारण होते हैं माता लपता के लवपरीत संस्कारों वािी जीवात्मा इसलिए जन्म िेती है
उनके िच्चे के रूप में माता-लपता को िच्चे के िारा कमतवश कष् भोगना होता है अथवा िच्चे के रूप में

सहज ध्यान योग 309


माता-लपता के िारा परे शालनयाूँ सहनी होती हैं पूवत जन्म के कमों के कारण। जैसे – माता-लपता अच्छे कमत
करने वािे हैं तो उनका िड़का दष्ु स्वभाव का पापयक्त ु कमत करने वािा होता है। इससे माता-लपता को
कष् सहना पड़ता है अपने िड़के के कारण तथा समाज में अपमालनत होना पड़ता है। यलद माता लपता दष्ु
स्वभाव के हैं, उनका िड़का सत्य कमत करने वािा है तो िड़के को अपने जीवन में अवरोिों का सामना
करना पड़ता है। ऐसी अवस्थाओ ं में, लजसे अवरोि या कष् उठाना पड़ता है, उसके कमातशय ही ऐसे होते हैं
लक लकसी न लकसी कारण से कष् भोगना होता है। कारण कोई भी िन जाए, मगर कमतिि तो भोगना ही है।
ऐसी अवस्था में लकसी को दोषारोपण नहीं करना चालहए। हर मनष्ु य अपने कष्ों का स्वयं लजममेदार होता
है।
कमत दो प्रकार से लकए जाते हैं– एक, सकाम भाव से, दसू रा, लनष्काम भाव से। सकाम कमण वे कमत
हैं जि कमत करते समय िि की इच्छा होती है लक अमक ु कायत करते समय उस मनष्ु य को यह कमत-िि
लमिेगा। अथवा िि की आकांक्षा से लकया गया कमत सकाम कमत कहा जाता है। ऐसे कमों के करने से पण्ु य
अथवा पाप की प्रालप्त होती है, लजससे मनष्ु य को मृत्यु के पश्चात भुविोक अथवा स्वगत िोक की प्रालप्त होती
है। ऐसे कमत करने से मनष्ु य को िार-िार जन्म और मृत्यु के िन्िन में िन्िना होता है। वनष्काम कमण वह
कमत है जि िि की आकांक्षा से रलहत कमत लकया जाए अथवा इलन्रयों में लकसी प्रकार से कमत करते समय
लिप्तता महससू न करें , उसे लनष्काम कमत कहते हैं। ऐसा कमत वही कर सकता है लजसने अपनी इलन्रयों को
अन्तमतख ु ी कर लिया है। ऐसे लजतेलन्रय ज्यादातर योगी ही होते हैं। इसलिए लनष्काम कमत सािारण मनष्ु य
नहीं कर सकता है सािारण मनष्ु य कुछ न कुछ अपनी इच्छाएूँ रखता है। कमत करते समय, योगी के लचि में
जि कमातशय नहीं होते हैं, ति उसकी इच्छाएूँ भी नहीं चिती हैं क्योंलक उसके लचि में जि कमातशय नहीं
होते हैं, ति ऐसे परुु ष लनष्काम भाव से कमत करते हैं। लनष्काम कमत करने वािे मृत्यु के पश्चात परा-प्रकृ लत में
जाते हैं। इनका जन्म कभी भी समभव नहीं होता हैं। अनन्तकाि तक समालि में िीन रहते हैं। ऐसा योगी
तत्त्वज्ञानी होता है।
मनष्ु य का जीवन तीन प्रकार के कमों से चिता है– सिंवचत कमण, प्रारब्द्ध कमण और वक्रयमाण
कमण। संलचत कमत वे कमत हैं जो लचि की लनचिी सतह पर सषु प्तु ावस्था में रहते हैं। ऐसे कमत अगिे जन्मों में
भोगे जाते हैं। प्रारब्ि कमत उन्हें कहते हैं जो लचि में ऊपरी सतह पर प्रिान रूप में रहते हैं। ये प्रिान कमत ही
वततमान जन्म में भोगने पड़ते हैं। ये कमत प्रिान होने के कारण संलचत कमों को दिाए रहते हैं। ये प्रिान कमत
शलक्तशािी होते हैं। संलचत कमत सषु प्तु ावस्था के कारण कमजोर रहते हैं। लक्रयमाण कमत उन्हें कहते हैं जो

सहज ध्यान योग 310


वततमान समय में लकए जाते हैं। इन कमों के कारण िनने वािे कुछ कमातशय प्रारब्ि में लमि जाते हैं, तथा
कुछ संलचत कमों में लमिकर सषु प्तु ावस्था में चिे जाते हैं। ऐसे कमत अगिे जन्मों में भोगने होते हैं। तथा जो
कमत प्रारब्ि कमों में लमिकर प्रारब्ि कमत िन जाते हैं, वह शीघ्र अथवा वततमान जीवन में कभी भी भोगने
पड़ते हैं।
कुछ मनष्ु य भाग्य के सहारे िने रहते हैं। उनका कहना है लक हमारे भाग्य में जो लिखा होगा वही
होगा। मगर कुछ मनष्ु य भाग्य के सहारे न िैठकर कमत पर लवश्वास रखते हैं। ऐसे मनष्ु य ज्यादातर सिि
होते हैं, क्योंलक उन्होंने जो कठोर कमत लकया है, उसका िि अवश्य लमिेगा। जो भाग्य के सहारे िैठे रहते
हैं, वे ज्यादातर असिि होते हैं, क्योंलक कमत नहीं करना चाहते। मनष्ु य को कमत करना चालहए। लिर भी
यलद कमत के अनसु ार सििता नहीं लमिती है, तो हताश नहीं होना चालहए। उसे यह समझना चालहए लक
प्रारब्ि कमों के कारण ही उसे सििता नहीं लमिी। हो सकता है प्रारब्ि कमत अच्छे न हों, इसलिए
िैयतपवू तक कमत करते रहना चालहए। जि लक्रयमाण कमों के कारण प्रारब्ि कमत ज्यादा मात्रा में िनेंगे तो
कभी न कभी लक्रयमाण कमों के प्रभाव से सििता अवश्य लमिेगी। लजस मनष्ु य को कम मात्रा में कमत
करने से ढ़ेर सारी सििताएूँ लमिती हैं, उसने पवू त जन्मों में अच्छे कमत लकये होते हैं, इसलिए शीघ्र सििताएूँ
लमिती हैं।
ससं ारी मनष्ु य इस स्थिू जगत में ज्यादातर दुःु ख ही दुःु ख भोगता है। क्योंलक अज्ञानतावश इस ससं ार
को ही अपना सि कुछ समझता रहता है। वह हमेशा अपने पररवार व सगे-समिलन्ियों के लिए लचन्तन
करता रहता है। ऐसा िलहमतख ु ी इलन्रयों के कारण होता है, क्योंलक इलन्रय-भोग की इच्छाएूँ कभी परू ी नहीं
हो पाती हैं। उसके लचि में ढेरों इच्छाएूँ रहती हैं। इस स्थि
ू ससं ार में सख
ु प्रालप्त की िािसा में सदैव कमत
करता रहता है। मगर जि संसार ही पररवततनशीि है, तो सख ु कै से लस्थर रह सकता है? लसित क्षलणक सुख
की खालतर इस संसार में िगा रहता है। क्षलणक सख ु के िाद लिर दुःु ख ही दुःु ख लमिता है। मनष्ु य ने कोई
सा कमत चाहे अपने पररवार, सगे-समिलन्ियों या लमत्रों के लिए लकया हो, मगर उस कमत का भोग उसे स्वयं
भोगना पड़ता है। चाहे वह कमत अच्छा लकया हो, चाहे िरु ा हो। इन कमों को भोगने में लमत्र, पररवार आलद
साथ नहीं देते हैं। इसलिए मनष्ु य को सदैव अच्छे कमत करने चालहए।
कमत का रहस्य िहुत ही गढ़ू है। इसलिए सभी मनष्ु य इस गढ़ू रहस्य को नहीं समझ सकते हैं। इस गढ़ू
रहस्य को समझने में िड़े-िड़े लविानों, िुलिमानों से गिलतयाूँ हो जाती हैं। जि स्वयं सािक ही कभी-कभी
इस गढ़ू रहस्य को नहीं समझ पाता है, तो सािारण मनष्ु य कै से समझ सकता है। सािक स्वयं अपने आपको

सहज ध्यान योग 311


कभी-कभी देवता का अवतार समझने िगते हैं और अपनी पजू ा करवाने िगते हैं। सािक जि समालि
अवस्था में अपने आप को कहता है “मैं ब्रह्म ह”ूँ , “मैं ही ब्रह्म ह”ूँ , अथवा अपने आपको लकसी देवता व
शलक्त के रूप में देखता है तो वह भ्रलमत हो जाता है। सोचता है लक मैं तो स्वयं ही ब्रह्म हूँ अथवा अमकु
देवता का अवतार ह।ूँ लिर स्वयं अथवा अपने लशष्यों के िारा प्रचार करवाता है। अपने को सवे-सवात
समझकर, कमों पर ध्यान न देकर कुछ भी करता रहता है। ऐसे सािकों का पतन होना शुरू हो जाता है। ऐसे
सािकों को मैं यह कहना चाहगूँ ा लक जि तक उनको शि ु ज्ञान प्राप्त न हो जाए, ति तक अपने योगमागत में
िगे रहें, अपने को देवता या ब्रह्म न समझें। शि
ु ज्ञान के प्राप्त होने पर आपको सिकुछ मािमू हो जाएगा
लक आप कौन है। यह सि लचि की वृलियों के कारण होता है।
एक िात हमें याद आ गयी। मैंने लिखा है लक कमत के अनसु ार ही जन्म, आयु और मृत्यु लनलश्चत
होती है। अि आप सोच सकते हैं लक कभी-कभी दघु तटनाओ ं में, अथवा प्राकृ लतक आपदा में एक साथ
सैकड़ों मनष्ु यों की मृत्यु हो जाती है। क्या इन सि मनुष्यों का कमत ऐसा ही था लक एक साथ इस प्रकार से
मृत्यु हो? उिर में, मैं यही कहगूँ ा ऐसा नहीं हो सकता है। एक साथ सैकड़ों या हजारों मनष्ु यों के इस प्रकार
की मृत्यु के लिए ऐसे कमत हों। प्राकृ लतक आपदा में हुई मृत्यु की लजममेदार प्रकृ लत देवी है। प्रकृ लत देवी अपनी
व्यवस्था अपने अनसु ार करती हैं क्योंलक ये मृत्यु लकसी व्यलक्त लवशेष के कारण नहीं होती है। प्रकृ लत पर
लकसी का लनयंत्रण नहीं है; वह चाहे तो सृलष् का सृजन करे अथवा लवनाश करे । जैसे– ज्वािामख ु ी, भूकमप,
िाढ़, अकारण िड़ी-िड़ी दघु तटनाएूँ, यि ु के समय हजारों और िाखों मनष्ु यों की मृत्यु आलद। इन सभी
प्राकृ लतक आपदा में हुई मौतों की लजममेदार प्रकृ लत देवी होती है। प्रकृ लत स्वतंत्र है अपने कायों को करने के
लिए। ऐसी जीवात्माएूँ अपने कमातनसु ार लिर जन्म िेती हैं।
ज्ञानी परुु ष प्रकृ लत के लनयमों के अनसु ार ही अपने कायत करता है क्योंलक उसने प्रकृ लत के लनयमों को
जान लिया है। ऐसे मनष्ु य को जीवन में कभी क्िेश की अनुभलू त नहीं होती है। वह अपने सभी प्रकार के
कमत लनष्भाव से करता है, इसलिए ऐसे परुु ष को महापरुु ष कहा जाता है। मगर जो मनष्ु य अज्ञानी है, वह
इलन्रयों के वशीभूत होकर प्रकृ लत के लनयमों के लवरुि कायत करता है तथा स्थि ू पदाथों के भोग में िगा
रहता है। अन्त में तृष्णा के कारण द:ु ख महससू करता है। ऐसा मनष्ु य िन्िनों में िन्ि कर जन्म मृत्यु के चक्र
में घमू ता रहता है।
कभी-कभी मनष्ु य कहता है लक मैंने अपने जीवन में कभी ऐसे कमत नहीं लकये लक कष् भोगना पड़े,
सदैव अच्छे कमत लकये लिर भी हमें जीवन में कष् भोगने पड़ रहे हैं। इससे साि जालहर होता है लक वह व्यलक्त

सहज ध्यान योग 312


अपने लपछिे िुरे कमत भोग रहा है। इसलिए हम सिको लशक्षा िेनी चालहए लक अमक ु मनष्ु य अपने लपछिे
जन्म के िरु े कमत भोग रहा है, यलद हम वततमान जन्म में अच्छे कमत करें गे तो अगिे जन्मों में इसका िि
अवश्य लमिेगा। कभी-कभी वततमान जन्म में अच्छे कमों के कारण िरु े कमत दि जाते हैं, ति मनष्ु य के
जीवन में सख ु आ जाता है। मगर यह ध्यान रखना चालहए लक अच्छे या िरु े कमत कभी नष् नहीं होते हैं, कुछ
समय के लिए दि भिे ही जाए। अनक ु ू ि समय आने पर ये कमत लिर लचि में उभरकर ऊपर आ जाते हैं।
इसी प्रकार कुछ मनष्ु य वततमान जीवन में पाप यक्त
ु कमत करते हैं, लिर भी वह सुख भोग रहे होते हैं। इसका
कारण यही है उनका पूवत काि का कमत अच्छा रहा है इसलिए वततमान में सख ु भोग रहा है। वततमान कमत
वृिावस्था में अथवा अगिे जन्म में भोगेगा।
आपने देखा होगा लक लकसी व्यलक्त के यलद कई पत्रु है और वह अपने सभी पत्रु ों का समान रूप से
पािन-पोषण करता है, समान रूप से लशक्षा का प्रिन्ि करता है, मगर पत्रु जि िड़े होते हैं तो भलवष्य में
एक समान नहीं िनते हैं। लकसी की प्रकृ लत चञ्चि होती है, लकसी की प्रकृ लत आिसी होती है। कोई अपने
जीवन में सििताएूँ अलजतत करता है तो लकसी को असििता हाथ िगती है। लवद्यािय में एक ही लशक्षक
के पढ़ाये लवद्यालथतयों में कुछ के मलस्तष्क का लवकास अलिक हो जाता है तो लकसी लवद्याथी के मलस्तष्क
का लवकास कम होता है। आलखरकार ये सि असमानताएूँ क्यों पायी जाती हैं? ति इसका उिर यही लमिेगा
लपछिे कमों के प्रभाव से ये सभी प्रभालवत होते रहते हैं। सभी मनष्ु यों के कमत एक समान नहीं होते हैं,
इसलिए असमानता होना लनलश्चत है। कुछ िच्चे गरीि पररवार में जन्म िेते हैं, कुछ मध्यम वगत के पररवार
में तथा कुछ िनवान पररवार में जन्म िेते हैं। इन सभी िच्चों पर कमातनसु ार शरू
ु से ही कमों का प्रभाव पड़ने
िगता है।
कुछ सािकों का कहना है, उनकी सािना आगे क्यों नहीं िढ़ती है, जिलक वह सािना करते हैं,
लनयम-संयम से रहते हैं। सच तो यह है लक सािना हो रही होती है, मगर उनके पास िरु े कमों की मात्रा ज्यादा
होती है, इसलिए दसू रों की अपेक्षा उन्नलत की गलत उनकी कम होती है। ऐसी अवस्था में यलद सािक कहे
लक हम पर गरुु की कृ पा नहीं है अथवा ईश्वर की कृ पा नहीं है, तो हम यही कहेंगे लक यह िात सत्य नहीं है।
ये सि स्वयं सािकों के कमों का िि हैं। कभी-कभी कहा जाता है लक ईश्वर की कृ पा से मनष्ु य शरीर लमिा
है, परन्तु ऐसा नहीं होता है। यलद जीव ने मनष्ु य शरीर िारण लकया है तो वह अपने कमों के कारण ही लकया
है। इसलिए कहा जाता है जो जैसा िोता है वह वैसा ही काटता है। अतुः संसार में जो पाप-पण्ु य, सख ु -दखु ,
क्िेश, आलद लदखाई देता है, उसका कारण ईश्वर नहीं िलल्क स्वयं मनष्ु य का ही कमत िि है। सृष्ा होने के

सहज ध्यान योग 313


कारण ईश्वर को अपणू त नहीं कहा जा सकता है। क्योंलक सक्ष्ू म और स्थि ू लवभालजत जगत अपने आलद कारण
ईश्वर में िौटकर, अपने इन लवशेष गणु ों को छोड़कर िीज रूप िारण कर िेता है। अतुः इससे ईश्वर की
लवशि ु ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जगत िाह्य रूप में ईश्वर से सवतथा लभन्न है, परन्तु मूि रूप में वही
है। मनष्ु य की जाग्रत, स्वप्न और सषु लु प्त अवस्थाओ ं की तरह, अलवद्या के कारण जगत अनेक रूपों में प्रकट
होता है लजससे जगत की जड़ता अथवा अन्य दोषों से ईश्वर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। ईश्वर तो कमों का
लनयामक तथा कमों का अध्यक्ष है; वह सवतज्ञानी है। ईश्वर के िनाए हुए कमतिि के लनयम के अनसु ार ही
जीवात्माओ ं को शरीर लमिता है तथा जीवात्माओ ं के कमों के अनुसार वस्तुओ ं (पदाथों) की प्रालप्त होती
है।
अि शायद समझ में आ गया होगा लक हमें ईश्वर अपनी कृ पा से मनष्ु य शरीर नहीं देता है, और न
ही लकसी को भोग योलनयों में जाने को िाध्य करता है, िलल्क स्वयं अपने कमों के कारण, ईश्वर के िनाए
हुए कमों के लनयम के अनुसार, जीवात्मा को जन्म ग्रहण करना पड़ता है। ईश्वर स्वयं िमत और अिमत से परे
है, वह अन्तयातमी है, सवतव्यापी है। इसलिए हमें ईश्वर को, राग-िेष, सख ु -दख
ु , पाप-पण्ु य जैसे िन्िनों से
नहीं िाूँिना चालहए, लक यह सि ईश्वर ने लदया है। उसको इससे कुछ िेना देना नहीं है, इसकी लजममेदारी
स्वयं जीवात्मा की है। ईश्वर ने जो लनयम िनाए हैं, उनके अनसु ार ही जीवात्मा भोग करता है। यलद मनष्ु य
का कमत अच्छा है, तो उसका अन्तुःकरण शि ु होगा, िलु ि भी लनमति होगी, हर कायत के लिए लनणतय भी
सही होंगे तथा उसके अन्तुःकरण में उठने वािे लवचार भी शि ु होंगे। लजस व्यलक्त का कमत िुरा होगा, वह
पाप में लिप्त होगा, उसका अन्तुःकरण अशि ु होगा, अन्तुःकरण से उठने वािी वृलियाूँ भी अच्छी नहीं
होंगी। इन्हीं गित वृलियों के कारण, उसके िारा लकए गए कमत भी अच्छे नहीं होंगे। इन दोनों प्रकार के
मनष्ु यों के लिए यह नहीं कहा जा सकता हैं, लक एक पर ईश्वर की कृ पा है, और दसू रे पर ईश्वर की नाराजगी
है, इसलिए ये मनष्ु य ऐसा कमत कर रहे हैं। ईश्वर ने एक लनयम िना लदया है, हर जीवात्मा को अपने अनसु ार
कमत करना है। जीवत्मा कमत करने के लिए स्वतंत्र है। लजस जीवात्मा का कमत जैसा होगा, वह वैसा ही भोग
करे गी। इसमें लकसी की कृ पा या नाराजगी नहीं होती है।
ईश्वर को प्राप्त करना है तो उसके लिए कमत करना होगा। लकसी की कृ पा का इतं जार करने का कोई
िाभ नहीं है। जि आप कमत करें गे ति ईश्वर अवश्य प्राप्त होगा। इस प्रकार ईश्वर की प्रालप्त स्वयं आपकी
योग्यता होती है। लकसी की कृ पा नहीं होती है। कृ पा उसे कहते है, लजसके हम योग्य न हों और वह वस्तु
प्राप्त हो जाए। जैसे कोई लवद्याथी परीक्षा में उिीणत हो जाए, तो इसे कहेंगे लवद्याथी योग्यता के कारण पास

सहज ध्यान योग 314


हुआ है, न लक परीक्षक की कृ पा के कारण उिीणत हुआ है। परीक्षक की कृ पा हम ति समझेंगे, यलद कोई
लवद्याथी उिीणत होने की योग्यता नहीं रखता है लिर परीक्षक उसे उिीणत कर दे। परीक्षा में वही उिीणत होता
है लजसमें उिीणत होने की योग्यता होती है। इसी प्रकार कहा जाता है लक भगवान अपने भक्त की परीक्षा िेते
है, ति दशतन देते हैं। इससे साि जालहर होता है लक भगवान अपने भक्त की योग्यता के कारण ही दशतन देते
हैं। आपके अन्दर योग्यता कमों के िारा ही आएगी, इसलिए कमत पर लवश्वास रखो। कुछ पाना है तो कमत
करो, कमों के िारा अपने आप को योग्य िनाओ।
वेद भी कमतवाद को मानते है। वेदों में कई जगह पर लिखा लमिेगा लक शुभ कमों के करने से अमरत्व
लमिता है। जीव अपने कमातनसु ार िार-िार संसार में पैदा होता और मरता है। वेदों के अनसु ार जीव अपने
दष्ु कमों के कारण ही पाप कमत में प्रवृि होता है। जीव अपने अगिे जन्म में अपने ही वततमान के शभु और
अशभु कमों का िि भोगता है। अच्छे कमत करने वािे मनष्ु य मरने के िाद ‘देवयान’ मागत िारा ब्रह्मिोक
जाते हैं। सािारण कमत करने वािे िोग लपतृयान मागत से चन्र िोक जाते हैं। और नीच कमत करने वािे िोग
मरने के िाद पेड़-पौिों के रूप में जन्म ग्रहण करते हैं।
मनष्ु य अपने कमों के अन्तर के कारण ही, दसू रे मनष्ु य के समान नहीं होता है। कुछ दीघातयु होते हैं,
कुछ अल्पायु होते हैं। कुछ स्वस्थ होते हैं, कुछ अस्वस्थ होते हैं। कुछ गरीि होते हैं, कुछ अमीर होते हैं,
कुछ राग-िेष व िड़ाई-झगड़े में लिप्त रहते हैं, और कुछ शान्त, सरि और परोपकार में तत्पर रहते हैं।
भगवान गौतम िि ु का लशष्य एक िार उनके पास आया। उसका लसर िटा हुआ था, लसर से रक्त िह रहा
था। भगवान गौतम िि ु ने कहा–“इसे ऐसे ही सहन करो। तमु अपने उन कमों का िि सहन कर रहे हो,
लजसके लिए तमु हें िहुत समय तक नरक का कष् सहन करना पड़ता। प्रत्येक व्यलक्त अपने कमों का उिरदायी
है। कमों का िि अवश्य भोगना पड़ता है। तमु हें अपने कमों के अनसु ार ही िि भोगना पड़ रहा है, इसलिए
दख
ु ी मत हो।”
यलद लकसी दश्चु ररत्र ने पाप कमत लकया है, तो उसे अवश्य नरक की यातनाएूँ सहन करनी पड़ेंगी।
यलद लकसी सचु ररत्र वािे व्यलक्त से पाप कमत हो गया हो, तो उसे जीवन में थोड़ा सा ही कष् झेिकर छुटकारा
लमि जाएगा। यह इस प्रकार होता है यलद एक कटोरी के पानी में नमक का ढेिा डाि लदया जाए
तो सारा पानी नमकीन हो जाता है, और पानी पीने िायक नहीं रहेगा। वही नमक का ढेिा लकसी नदी
के पानी में डाि लदया जाए तो उसमें कोई भी दोष समझ में नहीं आयेगा। दसू रे शब्दों में, नमक के ढेिे का
असर नदी के पानी में न के िरािर रहेगा। आपने देखा होगा, िरु े कमत करने वािा मनष्ु य खिू पापयक्त ु

सहज ध्यान योग 315


कमत करता है मगर उसे जरा भी कष् नहीं उठाने पड़ते हैं। ऐसे मनष्ु यों का पाप का घड़ा भरता रहता है।
जि पाप का घड़ा भर जाएगा, लिर उसे असहनीय नारकीय कष् उठाने होंगे। चाहे ये कष् उसे अगिे जन्म
में ही क्यों न उठाने पड़ें। मगर जो मनष्ु य अच्छे कमत करने वािा है, उसे अपने पापयक्त
ु कमत का तुरन्त िि
भोगकर नष् करना होगा, क्योंलक अच्छे कमत करने वािे मनष्ु य में पाप कमत लटकता नहीं है।
जि सािक की अत्यन्त उच्चावस्था आती है ति उसके लचि के सारे कमातशय नष् हो जाते हैं
अथवा भोग लिए जाते हैं। लचि सत्त्वगणु के कारण लनमति हो जाता है। इस अवस्था में सािक िारा लकए
गए अच्छे -िरु े कमों का प्रभाव नहीं पड़ता है। वह सािक अच्छे -िरु े कमों से ऊपर उठ जाता है, क्योंलक
सािक िारा लकए गए कमों का लचि साक्षात्कार करा देता है, इसलिए उसके लचि पर कमातशय ठहरते नहीं
हैं। सािक की अज्ञानता भी नष् हो चक ु ी होती है। लसित उन्हीं कमों का िि िनता है, जो अलवद्या के
कारण वासनाओ ं (कामनाओ)ं से प्रेररत होते हैं। कमों से छुटकारा लमि जाने पर (लचि कमत शन्ू य हो जाने
पर) कमों के िि नहीं िनते हैं, जैसे लकसी भुने हुए अनाज को यलद खेत में िो लदया जाए तो उस िीज से
अंकुर नहीं लनकिेगा। सािकों, यह िात ध्यान रखने योग्य है लक जो कमत अलवद्या (अज्ञान) से यक्त ु होते
हैं, उन्हीं का कमतिि िनता है, तभी मनष्ु य कमों का िि भोगने के लिए मजिूर होता है। जि योग के
अभ्यास के प्रभाव से सािक ज्ञान प्राप्त करता है, तो अज्ञान (अलवद्या) स्वयं नष् हो जाता है। माया का
आवरण भी लछन्न-लभन्न हो जाता है। मनष्ु य अज्ञानता और माया के प्रभाव से ही जन्म-मृत्यु के चक्र में
घमू ता रहता है।
सािकों, कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद भी शेष कमातशय लचि में रहते हैं। यह कमातशय योगी को
ध्यानवस्था में कभी-कभी लकसी न लकसी रूप में लदखाई पड़ते हैं। जि तक यह कमातशय भोग कर समाप्त न
कर लदये जाए, ति तक जन्म िेना लनलश्चत है। महलषत पतंजलि के अनसु ार इन शेष कमातशयों के समाप्त होने
के पश्चात् ही मनष्ु य को मोक्ष की प्रालप्त होती है। मगर आलदगरुु शंकराचायत के अनसु ार शेष कमातशयों की
समालप्त के िाद भी जन्म हो सकता है। इस जगह पर कुमहार के चाक का उदाहरण देते हैं। िततन िनाने के
िाद चाक लिना उद्देश्य के ही घमू ता रहता है, इसी तरह शेष कमों के अन्त के िाद भी जन्म हो सकता है।
उन्हें अवतार कहते हैं।
कुण्डलिनी लस्थर होने के िाद योगी को जो दीपलशखा के समान जिती हुई ज्योलत उसके लचि में
लदखाई देती है, वह वास्तव में लचि की एक सालत्त्वक वृलि होती है जो लक संस्कार के रूप में लचि में
लस्थत है। ऐसी वृलि सालत्वक व अत्यन्त शलक्तशािी होती है इसीलिए वह ऐसा स्वरूप िारण कर िेती है।

सहज ध्यान योग 316


सािक इसे ही आत्मसाक्षात्कार समझने िगता है। जिलक लचि में कमातशय अभी भी शेष होते हैं। ये
कमातशय रजोगणु व तमोगुण से यक्तु वृलियों के रूप में रहते हैं। लनलवतकल्प समालि के िाद भी यह शेष
कमातशय नष् नहीं होते हैं। इस अवस्था में सािक के लचि के अन्दर अभी तमोगणु ी अहक ं ार, अलवद्या,
माया, आलद मौजदू रहते हैं। सािक को इन्हीं शेष कमातशयों के कारण शि ु ज्ञान प्राप्त नहीं होता है।
यह शेष कमातशय समालि के िारा अथवा योगिि के िारा जिाये नहीं जा सकते हैं। इन शेष
कमातशयों को सािक भोगकर ही नष् करता है। यह शेष कमातशय िहुत ही क्िेशात्मक होते हैं। सािक जि
इन कमातशयों को भोगता है तो उसे स्थि ू जगत में लनश्चय ही अत्यलिक कष् उठाना पड़ता है, सािक की
िहुत ही दगु तलत होती है, ऐसा प्रकृ लत का लनयम होता है। इसलिए ऐसे कमातशय लनलवतकल्प समालि के कठोर
अभ्यास के िाद भी नष् नहीं होते हैं। सािक इन शेष कमातशयों को जैसे-जैसे भोगता है, उसके लचि के
अन्दर रजोगणु व तमोगणु की मात्रा घटने िगती है। लिर तमोगणु ी अहक ं ार और साथ में अलवद्या भी नष्
होने िगती है। अलवद्या की अनपु लस्थलत में माया का प्रभाव सािक पर नहीं पड़ता, क्योंलक उसे शि ु ज्ञान
प्राप्त होने िगता है। चंलु क माया अलवद्या का सहारा िेकर ही मनष्ु यों को भ्रलमत लकए रहती है, माया का
आवरण नष् होने के कारण सािक को स्थि ू संसार की वास्तलवकता का ज्ञान होने िगता है। जि शेष
कमातशय भोगकर नष् कर लदये जाते हैं ति सािक को शि ु ज्ञान की प्रालप्त होती है। इससे आत्मा और लचि
में लभन्नता का ज्ञान हो जाता है। इस अवस्था में सािक िारा लकए गए कमों के संस्कार लचि पर नहीं पड़ते
हैं क्योंलक सािक लकसी भी कमत को लनष्काम भाव से करता है।
जि तक शि ु ज्ञान पररपक्व नहीं होता है, ति तक िीच-िीच में व्यत्ु थान की वृलियाूँ (रजोगणु ी व
तमोगणु ी वृलियाूँ) प्रकट हो जाती हैं। ऐसा आत्मा और लचि में लभन्नता के ज्ञान में लशलथिता आने के कारण
होता है। जि आत्मा और लचि की लभन्नता के ज्ञान में प्रििता आती है ति व्यत्ु थान की वृलियाूँ नष् हो
जाती हैं। यह लक्रया ति तक चिती रहती है, जि तक लक शि ु ज्ञान पररपक्व नहीं हो जाता है। ज्ञान पररपक्व
होने पर सािक िारा लकए गए कमों के संस्कार जैसे ही उसके लचि पर पड़ते हैं, लचि िारा उन संस्कारों का
साक्षात्कार करा लदया जाता है इससे संस्कार नष् हो जाते हैं।
सािक इस अवस्था में भिी प्रकार समझ िेता है लक कमत प्रकृ लत के तीनों गणु ों िारा लकए जाते हैं।
‘कमत मैं कर रहा ह’ूँ , यह भान समाप्त हो जाता है। चंलु क ‘मैं किात ह’ूँ का भान कराने वािा तमोगणु ी
अहक
ं ार मि ू स्त्रोत में लविीन हो चक
ु ा है, अि के वि सालत्वक अहकं ार शेष रह गया है। अि सािक अपना

सहज ध्यान योग 317


कमत भोग लनवृलि के लिए करता है अथवा ईश्वर की आज्ञा समझकर सभी प्रालणयों के कल्याण हेतु करता
है।
सािकों! यलद आप गौर पवू तक देखें तो पायेंगें, लक िहुत से सािक जि सािना शरू
ु कर देते हैं, ति
उनके सामने ढेरों कष् आ जाते हैं, जिलक सािक को पहिे इतने कष् नहीं लमिते थे। इसका कारण यह है
लक सािना के कारण उसके लचि में लस्थत कमातशय िाहर लनकिने िगते हैं, लजन्हें सािक भोगने पर मजिरू
होता है। ये कष्दायक कमातशय उसके िारा पूवतकाि में लकए गए कमो के कारण होते हैं। सािक को ऐसे
(कष्दायक) कमातशय भोगते समय प्रसन्न होना चालहए लक आपके लचि में कमातशय कम हो रहे हैं, क्योंलक
लचि को कमों से शून्य िनाना है।
अि मैं कुछ शब्द उन सािकों के लिए लिखना चाहगूँ ा जो अत्यन्त कठोर सािना करते हैं तथा
उनका एक ही िक्ष्य रह गया है– आत्मा में अवलस्थलत। सािक पहिे ही कठोर सािना करके अपना ब्रह्मरन्ध्र
खोिें। इसके िाद मन्त्रजाप का भी सहारा िें तथा कठोर जाप करें तालक मन्त्र लसि हो सके । मन्त्र िोिने
का तरीका सही होना चालहए। लकसी अनभु वी सािक से पछ ू िें। अथवा लदव्य दृलष् का प्रयोग कर लकसी
सक्ष्ू म शलक्त से जानकारी हालसि कर िें। ऐसे मन्त्र का जाप करें लजससे शलक्त लनकिती हो, जैसे– ‘ॐ’
मन्त्र का जाप अच्छा रहेगा। जि मन्त्र लसि हो जाए अथवा अलिक शलक्त लनकिने िगे ति इसी का सहारा
िेकर अपना योगिि िढ़ाइए। योगिि का कािी भण्डार होने पर, योगिि का सक ं ल्प करके अपने कमों
पर ही प्रहार करो। यह लक्रया करते समय आपको अन्तररक्ष में लस्थत सक्ष्ू म शलक्तयाूँ रोक भी सकती है।
उनका रोकना उलचत भी है क्योंलक योगिि का कमत पर प्रभाव करते समय सक्ष्ू म िोक प्रभालवत होंगे। इस
लक्रया से आपके लचि से कुछ न कुछ कमत लनकिेंगे, कुछ जि जाएूँगे। जि कमातशय लनकिने शरू ु होंग,े
ति लनकट भलवष्य में आपको कष् लमिने शुरू हो जाएूँगे। लिर भी कमों पर रोज प्रहार करें । इससे आपको
लनश्चय ही भलवष्य में िाभ प्राप्त होगा, भलवष्य में आपको कम जन्म िेने पड़ेंगे तथा योग में उच्च लस्थलत प्राप्त
होगी। इस िात का अवश्य ध्यान रलखए लक यह लक्रया करने पर आपको ढेरों कष् उठाने पड़ सकते हैं। सच
तो यह है लक मैंने भी यही लक्रया की थी तथा दगु तलत सही थी, अि योग में अत्यन्त उच्चतम अवस्था पर आ
गया ह।ूँ मैं अि भी कठोर सािना करता ह।ूँ जि तक स्थि ू शरीर हमारा साथ देगा अथवा स्थि ू शरीर में ह,ूँ
कठोर सािना करता रहगूँ ा।
लप्रय सािकों, आप यह तो नहीं सोचने िगे लक मैं इस प्रकार का (कठोर) कायत करने के लिए क्यों
प्रोत्साहन दे रहा ह,ूँ जिलक सहज ध्यान योग शालन्त का मागत है। यह मैंने लसित उन सािकों के लिए लिखा

सहज ध्यान योग 318


है, जो अत्यन्त कठोर सािना करते हैं तथा भलवष्य में कठोर सािना करने की इच्छा रखते हैं। ऐसा सािक
लनश्चय ही भलवष्य में महान योगी िनेगा। यह लक्रया प्रत्येक सािक से हो भी नहीं सकती है।

सहज ध्यान योग 319


अहिंकार और इवन्द्रयाूँ
अहक ं ार लचि की पहिी लवकृ लत है। दसू रे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है लक लचि में अहक ं ार
िीज रूप में लछपा रहता है। सृलष् के समय, गणु ों के पररणाम से अहक ं ार लवकृ त होकर िलहमतख ु होने िगता
है। िलहमतख ु ी होने का कारण रजोगणु व तमोगणु हैं। तमोगणु के प्रभाव से अहक ं ार में अलवद्या िीज रूप में
छुपी रहती है। अहक ं ार ही एकत्व और िहुत्व में अिगाव प्रकट करता है। लिर जीवात्मा के अन्दर ‘मैं ह’ूँ
का भाव प्रकट होता है, तथा किातपन का भी भाव आ जाता है। अहंभाव के कारण ही जीव अपने आपको
ब्रह्म से अिग समझने िगता है, यही कारण है लक जीवात्मा का पतन होना शरू ु हो जाता है। अहंभाव आने
का कारण रजोगणु व तमोगणु है, इन्हीं दोनों गणु ों की अलिकता के कारण ऐसा होता है। अहक ं ार में दो
लवषम पररणाम हो रहे हैं– (1) ग्रहण और (2) ग्राह्य। ग्रहण का अथत यहाूँ पर– लजसके िारा कुछ लिया
गया। ग्राह्य का अथत है– जो लिया गया है। अहंकार के यही दोनों पररणामों के कारण जीवात्मा की दरू ी मि ू
उत्पलि से िढ़ जाती है। क्योंलक अि अहक ं ार ही अपने आप को सवेसवात मानने िगता है, अहक ं ार से िलु ि
लवकृ लत रूप में िलहमतख ु ी हो रही है। अहक ं ार की अपेक्षा िुलि में रजोगणु व तमोगुण की अलिकता िढ़ती
जाती है। यह िुलि लनणतय अथवा लनश्चय करने का कायत करती है। जि िलु ि में रजोगणु व तमोगणु की
अलिकता और आ जाती है ति मन व्यक्त भाव में िलहमतख ु ी होने िगता है। यह मन इच्छाएूँ चिाने का
कायत करता है। यह मन दस इलन्रयों का स्वामी है। दसों इलन्रयाूँ मन के अिीन कायत करती हैं। अहक ं ार के
सत्त्वगणु में रजोगणु व तमोगणु कुछ लवशेषता के साथ अलिकता से लवकृ त हो कर पाूँच तन्मात्राएूँ व्यक्त
भाव में िलहमतख ु ी हो रही हैं। पाूँचों तन्मात्राओ ं व दसों इलन्रयों की अपेक्षा सत्त्वगुण में रजोगणु व तमोगणु
की अलिकता पाूँचों सक्ष्ू म व स्थि ू पंचतत्त्वों में क्रमश: िढ़ जाती है। इस स्थिू संसार में रजोगणु व तमोगणु
ही पूरी तरह से व्याप्त हो रहा है। इन्हीं दोनों गणु ों का व्यवहार ही प्रमख ु रुप से चि रहा है। पाूँचों तन्मात्राएूँ
व दसों इलन्रयाएूँ सक्ष्ू म शरीर में और स्थि ू शरीर में क्रमश: व्यक्त भाव में िलहमतख ु ी हो रही हैं।
अहक ं ार से िेकर स्थिू शरीर तक रजोगणु व तमोगणु की अलिकता क्रमश: िढ़ती जाती है। इसी
प्रकार शरुु आत में सत्त्वगणु जो प्रिानता में लवद्यमान था, वह क्रमश: िीरे िीरे कम होता जाता है। स्थि ू
शरीर तक आने में सत्त्वगणु लसित गौण रूप में रह जाता है। रजोगणु व तमोगणु समयानसु ार प्रिानता िारण
करते रहते हैं। पहिे सत्त्वगुण प्रिान था, अि तमोगणु प्रिान है। स्थि ू संसार में रजोगणु व तमोगणु की
प्रिानता होती है। स्थिू शरीर व स्थि ू संसार, दोनों का ही परू ी तरह से गणु ों के कारण मेंि-सा हो जाता है।
जीवात्मा पर तमोगणु के प्रभाव से, जीवात्मा अपने वास्तलवक स्वरूप को भि ू जाता है। भूिने का एक

सहज ध्यान योग 320


कारण और भी है– तमोगणु की अलिकता से जीवात्मा पर अलवद्या का अलिकार पणू त रूप से हो जाता है।
अलवद्या के कारण ईश्वर की एक शलक्त माया का प्रभाव भी जीवात्मा पर परू ी तरह से हो जाता है। माया के
प्रभाव से जीवात्मा भ्रम में रहती है। इसी कारण मनष्ु य स्थि
ू संसार को अपना समझने िगता है। मनष्ु य की
इलन्रयाूँ िलहमतख
ु ी होने के कारण, मनष्ु य एक तरह से इलन्रयों के वशीभतू हो जाता है। तमोगणु प्रिान मन
अपनी मनमानी करता रहता है, लजसके ििस्वरूप मनुष्य घोर कष् उठाता हुआ स्थि ू संसार में लिप्त रहता
है।
इन्हीं इलन्रयों के कारण राग, िेष, क्िेश और सकाम कमत होते हैं। सकाम कमों के कारण उन्हीं के
अनसु ार कमातशय िनते हैं। इन्हीं कमातशय के अनसु ार मनष्ु य जन्म, जीवन और मृत्यु को प्राप्त होता है। जि
मनष्ु य जीवन काि में होता है, ति वह स्थि ू पदाथों का भोग करता है। इसी भोग के अनसु ार सख ु और
द:ु ख उत्पन्न होते हैं तथा राग के कारण तृष्णा िढ़ती है। जैसे-जैसे मनष्ु य की आयु िढ़ती है, वैस-े वैसे यह
तृष्णा भी िढ़ती है। जीवन की समालप्त पर अथातत मृत्यु के समय तो मनष्ु य की तृष्णा चरम लिन्दु पर होती है।
लिर मृत्यु अपने प्रभाव में िे िेती है, इसके िाद लिर जन्म होता है। अथातत जन्म-जीवन-मृत्यु का चक्र
घमू ता रहता है, यह चक्र कभी समाप्त नहीं होता है। यलद मनष्ु य को जन्म-मृत्यु के चक्र से िचना है तो उसे
योग का सहारा िेना होगा। योग के माध्यम से इलन्रयाूँ अन्तमतख ु ी होने िगती हैं तथा अपने मि ू स्त्रोत में
लविीन होकर प्रभावहीन सी होकर रहने िगती हैं। जि तत्त्वज्ञान की प्रालप्त होती है, ति स्थि ू संसार से
िगाव हट जाता है, क्योंलक इस संसार की वास्तलवकता सािक जान जाता है।
ध्यान देने योग्य िात यह है, अहक ं ार तो ईश्वर में भी होता है। अि आप सोचेंग,े उसके अन्दर मनष्ु यों
के समान इलन्रयाूँ आलद व्यवहार क्यों नहीं करती हैं क्योंलक मनष्ु य में भी अहक ं ार है। मनष्ु य का अहकं ार
उिटे-सीिे कायत करता रहता है, मगर ईश्वर का अहक ं ार ऐसे कायत क्यों नहीं करता है? इसका कारण यह है
लक ईश्वर का अहंकार लवशुि सत्त्वगणु िारा िना हुआ होता है। लवशि ु सत्त्वमय होने के कारण अहक ं ार में
लवकृ लत नहीं आती है। इसका कारण यह भी है लक ईश्वर के लचि में गणु ों की सामयावस्था है। सामय पररणाम
में सत्त्वगणु सदैव सत्त्वगणु में रहता है, रजोगणु सदैव रजोगणु में रहता है, तमोगणु सदैव तमोगणु में रहता है।
इसलिए लवकृ लत को अवसर नहीं लमिता है, क्योंलक एक गणु दसू रे गणु पर दिाव नहीं देता है। दिाव न देने
के कारण रजोगणु व तमोगुण जो अत्यन्त गौण हैं सदैव गौण रूप में रहते हैं। जिलक जीवात्माओ ं के लचि
में गणु एक-दसू रे को सदैव दिाने का प्रयास करते रहते हैं, इसलिए जीवात्माओ ं के लचि की अवस्था सदैव

सहज ध्यान योग 321


िदिती रहती है। इलन्रयाूँ जो तमोगणु प्रिान होने से सांसाररक पदाथों के भोग में लिप्त रहती हैं, उसका िि
जीवात्मा को सख
ु -द:ु ख, जन्म-आयु मृत्यु के रूप में लमिता रहता है।
अहक
ं ार के जो लवषम पररणाम हो रहे हैं, वह दो प्रकार के हैं– (1) ग्रहण रूप में, (2) ग्राह्य रूप
में।
(1) ग्रहण रूप में – अहक ं ार में रजोगणु व तमोगणु की अलिकता िढ़ने के कारण लवकृ लत होकर
पाूँच ज्ञानेलन्रयाूँ और पाूँच कमेलन्रयाूँ उत्पन्न होती हैं। इन ज्ञानेलन्रयों और कमेलन्रयों का स्वामी मन होता है।
ये ज्ञानेलन्रयाूँ अपना कायत करके मन को संकेत भेजती हैं, इनका स्वामी मन लिर जैसा कहता है, उसी के
अनसु ार कमेलन्रयाूँ कायत करती हैं।
(2) ग्राह्य रूप में – अहक ं ार में रजोगणु व तमोगणु की अलिकता िढ़ने से लवकृ त होकर पाूँच
तन्मात्राएूँ उत्पन्न होती हैं। लिर रजोगणु व तमोगणु की और अलिकता िढ़ने से िलहमतख ु ी हो रही हैं। ये पाूँच
तन्मात्राएूँ हैं– 1. शब्द, 2. स्पशत, 3. रूप, 4. रस, 5. गन्ि। शब्द तन्मात्रा का समिन्ि आकाशतत्त्व से है।
आकाश का अथत है ररक्तता। आकाश का स्वभाव शब्द है। स्पशत तन्मात्रा का समिन्ि वायतु त्त्व से है इसलिए
वायु की अनुभलू त स्पशत से होती है। रूप तन्मात्रा का समिन्ि अलग्नतत्त्व से है। रस तन्मात्रा का समिन्ि
जितत्त्व से है। गन्ि तन्मात्रा का समिन्ि पृर्थवीतत्त्व से है। जितत्त्व और पृर्थवीतत्त्व ये दो तत्त्व ऐसे हैं,
लजनकी स्थूिता सभी को स्पष् लदखाई देती है क्योंलक दोनों तत्वों का घनत्व भी सिसे ज्यादा है।
स्थि
ू तत्त्व (जो लगनती में पाूँच हैं) और तन्मात्राओ ं के िीच एक और अवस्था है लजसे सक्ष्ू मतत्त्व
कहते हैं। इसी सक्ष्ू मतत्त्व का समिन्ि स्थिू तत्त्व से भी है और तन्मात्राओ ं से भी है। अि यह कहा जा सकता
है, स्थि ू तत्त्व से तन्मात्राओ ं तक एक सक्ष्ू मता िारा तारतमय चिा गया है। अथातत तन्मात्राओ ं और स्थि ू
तत्त्वों को जोड़ने वािी िीच की कड़ी सक्ष्ू मतत्त्व है। पाूँचों तन्मात्राओ ं का कायत पाूँचों ज्ञानेलन्रयाूँ करती हैं।
तन्मात्राओ ं और ज्ञानेलन्रयों का आपस में गहरा समिन्ि है। ये इलन्रयाूँ स्थि ू शरीर में व्यक्त होकर िलहमतख ु ी
हो रही हैं। स्थूि शरीर में इन इलन्रयों के अिग-अिग स्थान इस प्रकार हैं– (1) कान,
(2) त्वचा, (3) आूँखें, (4) वजव्हा, तथा (5) नाक। ये पाूँचों ज्ञानेलन्रयाूँ हैं। कमेलन्रयों के नाम इस प्रकार
हैं– (1) हाथ, (2) पैर, (3) मुूँह, (4) जननेवन्द्रय, और (5) गुदा।
स्थिू तत्त्व और तन्मात्राओ ं के िीच की अवस्था का जो वणतन लकया गया है, उन सक्ष्ू म तत्वों से
िनता है सक्ष्ू म शरीर। इसलिए इस सक्ष्ू म शरीर में सभी इलन्रयाूँ व तन्मात्राएूँ होती हैं। स्थि
ू शरीर के लजस

सहज ध्यान योग 322


इलन्रय से कायत लिया जाता है, अथवा जो इलन्रय कायत करती है, उससे सक्ष्ू म इलन्रय प्रभालवत होती है। सक्ष्ू म
इलन्रय अपना संकेत अपने स्वामी मन को दे देती है। अि मन सक्ष्ू म कमेलन्रय को अपना संकेत दे देता है
लक अमक ु कायत करो अथवा न करो लकस प्रकार करना है आलद। कहने का अथत यह है लक मनष्ु य कायत कर
तो रहा है िाह्य इलन्रयों से, मगर वास्तव में िाह्य इलन्रयों का लनदेशन सक्ष्ू म इलन्रयाूँ कर रही हैं। इन िाह्य
इलन्रयों िारा लकए कमों का िि सख ु और द:ु ख की अनभु लू त भी सक्ष्ू म इलन्रयाूँ ही कराती हैं। मगर आमतौर
पर समझा जाता है लक िाह्य इलन्रयाूँ सख ु और दख ु की अनुभलू त कर रही हैं, मगर ऐसा नहीं है। अनभु ूलत
सक्ष्ू म है न लक स्थि
ू । इसलिए स्थि
ू इलन्रयाूँ सख
ु -द:ु ख नहीं भोग सकती हैं, लसित सक्ष्ू म इलन्रयों का लनदेश
मानती हैं।
अि तन्मात्राओ ं को िे िें। स्थि ू ज्ञानेलन्रय ही सक्ष्ू म ज्ञानेलन्रय को संकेत भेजती है। स्थि ू ज्ञानेलन्रय
ने जो कुछ ग्रहण लकया, वह सक्ष्ू म ज्ञानेलन्रय ने िे लिया। ज्ञानेलन्रय ने ग्रहण लकया। ज्ञान अपने स्वामी मन
को दे लदया। स्थि ू ज्ञानेलन्रयों पर सक्ष्ू म ज्ञानेलन्रय व्याप्त है सक्ष्ू म रूप से क्योंलक हम पहिे लिख आएूँ हैं लक
स्थि ू से िेकर तन्मात्राओ ं तक एक सक्ष्ू म तारतमय है। ये तारतमय स्थि ू ज्ञानेलन्रय में व्याप्त रहता है। जि भी
कोई िाह्य अनभु ूलत स्थि ू ज्ञानेलन्रय के समपकत में आती है, तो तुरन्त ही सक्ष्ू म ज्ञानेलन्रय लक्रयाशीि हो जाती
है और अपना कायत करने िगती है। अगर यह कहा जाए लक स्थि ू शरीर की ज्ञानेलन्रयाूँ लसित ज्ञान ग्रहण
करने का स्थान हैं, तो यह सत्य होगा। क्योंलक वास्तव में ग्रहण तो सक्ष्ू म ज्ञानेलन्रय ही करती है। यलद सक्ष्ू म
ज्ञानेलन्रयाूँ कायत करना िन्द कर दें तो स्थि ू इलन्रय िारा लकए गये कायत का कोई अथत नहीं लनकिेगा क्योंलक
सक्ष्ू म इलन्रय तो अपना कायत कर ही नहीं रही है। अथातत इलन्रय का कायत िेकार हो गया, लिर मनष्ु य के लिए
इलन्रय िेकार समझो। कभी-कभी ऐसा भी होता है लक स्थि ू शरीर की इलन्रय लकसी कारणवश खराि हो
गयी, तो भी वह इलन्रय कायत करने में असमथत होगी। िेकार हुई इलन्रय का समिन्ि सक्ष्ू म इलन्रय से नहीं हो
पाता है, अथवा सक्ष्ू म इलन्रय का संकेत िेकार हुआ। इस दशा में भी इलन्रय लक्रया शन्ू य होती है। उदाहरण–
कभी-कभी मनष्ु य को सनु ाई देना अथवा लदखाई देना िन्द हो जाता है। इसका अथत यही है लक सक्ष्ू म इलन्रय
ने लकसी कारण से कायत करना िन्द कर लदया अथवा स्थि ू रूप से देखने या सनु ने वािा स्थान क्षलतग्रस्त
हो गया है। उपचार लसित स्थि ू शरीर का लकया जाता है। यलद स्थि ू रूप से कमी आयी है, ति उपचार िारा
वह लक्रयाशीि हो सकती है अथवा उपचार समभव है। अगर वह इलन्रय सक्ष्ू म रूप से खराि हुई है, ति
आिलु नक लचलकत्सा िारा उपचार समभव नहीं है।

सहज ध्यान योग 323


अि शायद पाठकगण समझ गए होंगे लक स्थि ू शरीर लसित कायत करने का यन्त्र मात्र है। कायत कराने
की लक्रया तो सक्ष्ू म शरीर करता है। कायत करते-करते स्थूि शरीर रूपी यन्त्र जि कमजोर पड़ जाता है अथातत
िढ़ु ापा आ जाता है, ति एक समय आता है लक स्थि ू शरीर में कायत करने की क्षमता नष् हो जाती है। िाह्य
इलन्रयाूँ भी लशलथि पड़ जाती हैं। ति सक्ष्ू म शरीर स्थि ू से अपना समिन्ि समाप्त कर िेता है और स्थि ू
शरीर को छोड़कर चिा जाता है अथातत मृत्यु हो जाती है।
अहक ं ार का लवकृ त रूप िुलि िीज रूप में छुपी होती है। जि अहक ं ार में रजोगणु व तमोगणु की
अलिकता िढ़ जाती है, ति िलु ि व्यक्त रूप में िलहमतख ु ी होने िगती है। जि िुलि में रजोगणु व तमोगणु
की अलिकता िढ़ती है ति मन िलहमतख ु ी होने िगता है क्योंलक िलु ि में मन िीज रूप में लवद्यमान रहता है
मन इलन्रयों का स्वामी है। िलु ि का कायत है लनणतय करना अथवा लनश्चय करना। स्मृलत का कायत भी िलु ि का
ही है। तमोगणु से आच्छालदत िलु ि सदैव अज्ञान यक्त ु होती है, इस अवस्था में लकया गया लनणतय भी अज्ञान
से लमलश्रत होता है। इसलिए अक्सर मनष्ु यों का लनणतय अिमत यक्त ु होता है क्योंलक राग-िेष और तृष्णा के
कारण सही लनणतय करने में असमथत होते हैं। हर संसारी मनष्ु य सख ु चाहता है, द:ु ख नहीं। मगर यह संसार
दख
ु ों से भरा हुआ है, सखु लसित क्षलणक होता है।
मनष्ु य का मन व इलन्रयाूँ तमोगणु की प्रिानता लिए हुए हैं, इसलिए जो मनष्ु य मन और इलन्रयों के
वशीभतू होकर अिमत यक्त ु कायत करता है, उसका िि राग-िेष, सख ु और दख ु है। इसी कारण जन्म-मृत्यु
के चक्र में घमू ता रहता है। मनष्ु य का कततव्य है अपने लनज स्वरूप की प्रालप्त करे लजसे वह भि ू गया है। लनज
स्वरूप अथातत आत्मा की अनभु लु त तभी होगी, जि इलन्रयों को अन्तमतख ु ी लकया जाए। इलन्रयों को
अन्तमतख ु ी तभी लकया जा सकता है, जि तमोगणु व रजोगणु को प्रिानता से हटाकर सत्त्वगणु की अलिकता
िायी जाए तथा इलन्रयों को सांसाररक भोगों से हटाना होगा। साथ ही सत्त्व प्रिान कायत करने होंगे, अथातत्
आध्यालत्मक मागत पर चिना होगा। आध्यालत्मक कायत करने से लचि में आध्यालत्मक कमातशय िनेंगे। ऐसे
कमातशय योग करने में सहायक होंगे। योग के िारा मनष्ु य इलन्रयों को अन्तमतख ु ी कर सकता है। जि इलन्रयाूँ
अन्तमतख ु ी होंगी. ति तमोगुण कम होगा तथा रजोगणु की भी प्रििता कम होगी। इस अवस्था में सत्त्वगणु
िढ़ेगा। इलन्रयों के अन्तमतख ु ी होने पर मन भी अन्तमतख ु ी होने िगेगा। मन िलु ि में कुछ समय के लिए लविीन
होने का प्रयास करे गा। इसी प्रकार क्रमश: जो लजसकी लवकृ लत है, वह अपने मि ू स्त्रोत में लविीन होने का
प्रयास करे गा। योग के अलिक अभ्यास पर सत्त्वगणु की अलिकता आने िगेगी तथा अन्त में तत्त्वज्ञान की
प्रालप्त होने िगती है। तत्त्वज्ञान की प्रालप्त पर यह संसार सारहीन भालसत होने िगता है।

सहज ध्यान योग 324


कुछ मनष्ु यों का सोचना है लक अहंकार िहुत खराि चीज है, मगर ऐसा नहीं है। सच तो यह है लक
अहम एक अच्छी चीज है। यलद अहक ं ार नहीं होगा तो इस संसार में कुछ भी नहीं होगा। स्थि ू संसार की
सारी लक्रयाएूँ ठप्प पड़ जायेंगी। लकसी कायत को करने में अहक ं ार अपनी महत्वपूणत भलू मका अदा करता है।
अहक ं ार के कारण ही जीवात्मा अपने आपको ब्रह्म से अिग समझती है। अगर यह कहा जाए लक अहक ं ार
तो ईश्वर के अन्दर भी रहता है तो यह गित नहीं होगा। मगर, ईश्वर के अहंकार में और मनष्ु य के अहक ं ार में
कोई समानता नहीं होती है। ईश्वर का अहक ं ार लवशि ु सत्त्वगणु से िना होता है। मनष्ु य का अहक ं ार तमोगणु
प्रिान होता है। तमोगणु प्रिान होने के कारण वह सदैव अज्ञान में लिप्त रहता है। इसीलिए मनष्ु य इस प्रकार
सोचने के लिए िाध्य हो जाता है लक अहक ं ार ही सिसे ज्यादा खराि वस्तु है। यलद इसे दसू री ओर से सोचें
लक अहंकार से तमोगणु की प्रिानता को यलद योग के अभ्यास िारा इतना कम करे दें लक वह लसित गौण
रूप में रह जाए, ति यही अहक ं ार लिर सत्त्वगणु प्रिान हो जाएगा, अज्ञानता लमट जाएगी और माया का
प्रभाव भी समाप्त हो जाएगा। ति शि ु ज्ञान की प्रालप्त होगी। उस समय यह अहक ं ार (सत्त्वगणु प्रिान) अपने
किातपन का भाव भि ू जाता है, उसमें लनष्काम भाव आ जाता है। लनष्काम भाव से लकये गये कमों के लचि
पर कमातशय नहीं िनते हैं। तमोगणु प्रिान अहक ं ार, अलवद्या और माया से यक्तु रहता है। अलवद्या के कारण
ही लचि पर कमातशय िनते हैं, इन कमातशयों का िि सख ु और दख ु है। सख
ु कम है और दख ु ज्यादा होता
है।
प्रत्येक मनष्ु य में िुलि लनणतय करने का कायत करती है। ज्ञानयोग के सािक इस िुलि को लवज्ञानमय
कोष कहते है। िलु ि का कायत है– लनश्चय करना और स्मरण करना। इसी के िारा समालि अवस्था में ज्ञाता,
ज्ञेय और ज्ञान का भेद रहता है। िलु ि का उदय अहक ं ार में तम और रज की मात्रा िढ़ने पर होता है। िलु ि
(लववेक) की सहायता से मनष्ु य आत्मा और प्रकृ लत का भेद समझ कर अपने वास्तलवक रूप की लववेचना
कर सकता है। सत्त्वगणु की अलिकता होने पर िुलि में िमत, ज्ञान और वैराग्य िढ़ता है। तमोगणु िढ़ने पर
इसमें अिमत, अज्ञान और आसलक्त िढ़ती है। िलु ि जि लनमति या शि ु होती है, ति इलन्रयाूँ अन्तमतख
ु ी और
मन में ठहराव आ जाता है, मन की चञ्चिता चिी जाती है। यह सािक की उच्चावस्था होती है। सािारण
परूु ष में िलु ि लकसी वस्तु का वास्तलवक ज्ञान नहीं करा पाती है और सही लनश्चय करने में भी असमथत होती
है। इसका कारण मनष्ु य में अलवद्या व आसलक्त है। कुछ मनष्ु यों का सोचना होता है लक अमक ु कायत मैंने
िलु ि से खिू सोच-लवचार कर लकया था, लिर मैं गित मागत में कै से भटक गया। कुछ मनष्ु यों का कहना है
जि कोई कायत करो तो िलु ि से नहीं, िलल्क आत्मा से सोच-लवचार कर करो, लिर सििता अवश्य लमिेगी।

सहज ध्यान योग 325


इसी प्रकार मनष्ु य लभन्न-लभन्न प्रकार की दिीिें देता है। सच तो यह है लक ऐसे मनष्ु यों की िुलि तमोगणु
की अलिकता के कारण सही लनणतय नहीं िे पाती है, अथवा अपनी इच्छा को ही िुलि का लनणतय समझ
िेते हैं। सही रूप से जानकारी न होने के कारण मनष्ु य कहता है लक आत्मा से सोचकर कायत करना चालहए।
आत्मा तो अकिात व अभोक्ता है, लवकार से रलहत है, लिर वह कै से लनणतय करने का कायत करे गी। लनणतय
करने का कायत लसित िुलि का है, अन्य लकसी का नहीं।
िलु ि में मन िीज रुप में लस्थत रहता है। जि िलु ि में रजोगणु व तमोगणु की अलिकता िढ़ने िगती
है, ति मन व्यक्त रूप में िलहमतख ु ी होने िगता है। मन की दो अवस्थाएूँ होती है- 1. अन्तमतन 2. िलहमतन।
अन्तमतन को उत्कृ ष् मन भी कहते हैं। िलहमतन को लनकृ ष् मन कहते हैं। िलहमतन सांसाररक पदाथों में लिप्त
रहता है, यह इलन्रयों को स्थिू कायों के लिए प्रेररत करता है। इसकी गलत इतनी तीव्र होती है लक सारे संसार
में इसकी कोई िरािरी नहीं कर सकता है। क्षण भर भी कभी लस्थर नहीं िैठता है, िस इिर-उिर भागना
इसका कायत है, िड़ा चञ्चि है। इसे आराम से समझाओ तो जल्दी समझ में इसे नहीं आता है।
अि हम इस पर ध्यान दें लक इसको इतनी शलक्त कहाूँ से लमिती है, तो पायेंगे लक इसको शलक्त प्राणों
से लमिती है, और प्राणों को शलक्त अन्न से लमिती है। सािक को ध्यानावस्था में मन की एकाग्रता चालहए।
मन एकाग्र होने वािा नहीं है, इसे तो इिर-उिर भागने की आदत पड़ी है। मन की चञ्चिता को लस्थर
करने के लिए सािक को प्राणायाम का सहारा िेना चालहए। प्राणायाम करने से प्राणों की गलत कम होने
िगती है। सािक जि प्राणायाम िारा कुमभक करता है ति प्राण एक जगह लस्थर हो जाते हैं। जि प्राण शरीर
के अन्दर रुकता है, ति मन को शलक्त लमिनी िन्द हो जाती है अथवा कम हो जाती है। उस समय मन उतनी
देर के लिए ठहर जाता है, अथातत् मन लस्थर हो जाता है। इसलिए सािक को मन को रोकने के लिए प्राणायाम
अवश्य करना चालहए।
मन कोई सािारण वस्तु नहीं है लक उस पर तुरन्त कािू कर लिया जाए। क्योंलक उसकी कायत-प्रणािी
िड़ी सशक्त होती है। मन के अिीन दस इलन्रयाूँ होती हैं। ये दसों इलन्रयाूँ अपने स्वामी (मन) के लिए हमेशा
कायत करने को तैयार रहती हैं। ज्ञानेलन्रयाूँ अपनी सांसाररक पदाथों की जानकारी मन को देती हैं। मन कि
चपु िैठने वािा है– मन तरु न्त कमेलन्रयों को लनदेश देता है। कमेलन्रयाूँ मन के अनसु ार कायत करने के लिए
आतरु हो जाती हैं। वे मन की आज्ञा का उल्िन्घन कै से कर सकती हैं। ये कमेलन्रयाूँ अपने स्वामी मन की
िड़ी आज्ञाकारी होती हैं। उन कमेलन्रयों से अमक ु कायत होगा अथवा नहीं, इससे इन्हें कुछ िेना-देना नहीं
होता है, िस कायत करने के लिए लक्रयाशीि हो पड़ती हैं। इन कायों को करने के लिए अहक ं ार भी साथ देता

सहज ध्यान योग 326


है। अहक ं ार प्रेररत करता है लक अमक
ु कायत क्यों नहीं होगा, अवश्य होगा। चाहे समपूणत कायत करने में अवरोि
क्यों न हो। लकसी कायत को करने में िलु ि भी महत्वपणू त भलू मका लनभाती है। लकसी कायत को करने का लनणतय
िलु ि ही करती है।
ज्ञानयोग के अनसु ार शरीर में पाूँच कोश होते हैं। तीसरा मनोमय कोश यही मन है। मनोमय कोश ही
सक्ष्ू म शरीर व कारण शरीर को जोड़ने का कायत करता है। मगर मनोमय कोश का प्रभाव सक्ष्ू म शरीर पर
रहता है, इसका प्रभाव कारण शरीर पर नहीं पड़ता है। मनोमय कोश को शि ु करने के लिए, प्राणमय कोश
को शि ु करना आवश्यक है। प्राणमय कोश अन्नमय कोश की अपेक्षा शि ु होता है अथातत् मन को शि
ु व
लस्थर करने के लिए सालत्त्वक भोजन व प्राणायाम जरूरी है। यलद सािक का भोजन तामलसक है, ति मन भी
वैसा ही िनेगा। सालत्त्वक भोजन भी यलद तामलसक व्यलक्त ने िनाया है, ति इसका प्रभाव मन पर पड़ेगा।
सािक के ध्यान में तामलसक मन अवरोि है।
मनष्ु य के लचि में लजस प्रकार की वृलियाूँ उठती हैं, वही मन का रूप िारण कर िेती हैं। लचि में
सलं चत कमत व प्रारब्ि कमत के सस्ं कार रहते है। मनष्ु य का लपछिा कमत लजस प्रकार का रहा होता है, उन्हीं
कमों के अनसु ार मन हो जाता है। कुछ मनष्ु य कहते हैं ‘मैं जानता हूँ लक यह कायत िरु ा है। िरु े कायत का िरु ा
ही पररणाम लनकिता है। लिर भी वह कायत मेंरे िारा हो जाता है। मैं अपने आपको रोक नहीं पाता ह’ूँ । इसका
मतिि यह है लक उस मनष्ु य की िलु ि ने लनणतय तो सही लकया लक यह कायत िरु ा है, मगर सस्ं कारवश उसका
मन िहुत अशि ु है। इसलिए उससे िरु ा कायत हो जाता है। साथ में ऐसे कायों में अहक ं ार लहममत िढ़ाए
रखता है। इसलिए सस्ं कार जैसे होंगे, मन भी वैसा ही होगा। लकसी मनष्ु य के सस्ं कार यलद चोरी करने अथवा
झगड़ा करने वािे हैं, तो वह चोरी अथवा झगड़े में रूलच अवश्य रखता होगा, चाहे चोरी अथवा झगड़ा भिे
ही न करे ।
ज्यादातर सािकों की समस्या होती है लक जि वह ध्यान पर िैठते हैं, ति उनके मन में गन्दे लवचार
िहुत आते हैं। कभी-कभी ऐसे लवचार आते हैं जैसा इस जीवन में सोचा ही नहीं था। इसका यही कारण है
लक उनके लचि से लपछिे जन्मों के संस्कार लनकिने िगते हैं। ऐसे संस्कार लनकिना िन्द भी नहीं हो सकते
हैं क्योंलक यह उनके लपछिे जन्मों की कमाई है जो संस्कारों के रूप में जमा है, अि उनकी सिाई होनी शुरू
हो गयी है। ऐसी अवस्था में सािक को घिराना नहीं चालहए और न ही ऊिना चालहए। जो लवचार आये तो
आने दें। अन्दर की सिाई हो रही है। समय चाहे लजतना िग जाए, ऐसे लवचार कभी न कभी अवश्य िन्द
हो जायेंगे। सािक को िैयत से कायत िेना चालहए।

सहज ध्यान योग 327


मनष्ु य को कभी-कभी हठपूवतक भी मन से कायत िे िेना चालहए, लजससे मन को अच्छे कायों में
िगने की आदत पड़ सके । यलद कोई यवु क है, ति उसका मन लमत्रों के साथ िैठकर िातचीत करने के लिए
उत्सक
ु होगा, घमू ने के लिए, लिल्में आलद देखने के लिए िािालयत रहता है। उस यवु क को चालहए लक
अपने मन को हठपवू तक रोक दे। उसी समय मलन्दर के लिए अथवा सन्तों के प्रवचन सनु ने के लिए चि दे।
हािाूँलक वहाूँ पहुचूँ ने पर उसका मन नहीं िगेगा, लिर भी िैठा रहे और रोजाना यही लक्रया करे , ति कुछ
समय िाद पायेगा लक उसका मन मलन्दर में व सन्तों के प्रवचन सुनने में रूलच िेने िगा है। एक समय ऐसा
भी आयेगा लक उसका मन आध्यालत्मक कायों में परू ी तरह से रम जाएगा और िरु ी आदतें छूटने िगेंगी।
इसी प्रकार जरूरत पड़ने पर मनष्ु य को िरु ी आदतों की जगह अच्छी आदतें डािने का अभ्यास करना
चालहए। कुछ समय िाद आपकी िुरी आदतें छूटने िगेगी और अच्छी आदतों का अभ्यास हो जाएगा।
कानों को आदत डािनी चालहए लक वह ईश्वर का गणु गान व लशक्षाप्रद िातों को सुनने का अभ्यास
करें और उसमें रूलच िें। लजस जगह पर दसू रों की लनन्दा हो रही हो या अपमान लकया जा रहा हो, उसमें
रूलच नहीं िेना चालहए िलल्क उठकर चि देना चालहए। आूँखों को अच्छा देखने की आदत डािनी चालहए।
हाथों को अच्छा काम करने की आदत डािनी चालहए, लजससे दसू रों का भिा हो। ऐसा कायत नहीं करना
चालहए जो सामालजक दृलष् से अशोभनीय व लनन्दनीय हो, लजससे दसू रों को कष् होता हो। इसी प्रकार अच्छा
िोिना चालहए, जो दसू रों को अच्छा िगे। इसी प्रकार हमें सभी इलन्रयों को लशलक्षत करना चालहए तालक
इलन्रयों की लिप्तता सांसाररक पदाथों से कम हो जाए। इसी प्रकार िीरे -िीरे आपका मन आपका कहना
मानने िगेगा। जि आपका मन आपका दोस्त िन जाएगा, लिर आपका मन, आपका साथ देने िगेगा और
आपका मन अन्तमतख ु ी होने िगेगा।
जि इलन्रयाूँ अन्तमतख
ु ी हो जाती है उस समय भी इलन्रयाूँ स्थि
ू शरीर में पहिे की भाूँलत लदखाई देती
हैं मगर उनका स्वभाव व कायत शैिी िदि जाती है। इलन्रयों में सालत्त्वकता आने िगती है लिर आप की
इलन्रयों से लकसी को द:ु ख अथवा नक ु सान नहीं होगा। अि आपको अपने शत्रु भी अच्छे व्यलक्त के रूप में
लदखने िगते हैं। सभी के प्रलत आपका आदर भाव होता है। मन में लस्थरता आने िगती है। स्थि ू पदाथों से
पहिे जैसा िगाव नहीं रह जाता है। मन अलत सक्ष्ू म होकर तेज रूप में आूँखों िारा िाहर को गमन करता
है। पहिे यही तेजस रूप में लनकिा मन अपनी पसन्द की वस्तु पर ठहरकर चञ्चि हो उठता था, मगर अि
इसकी चञ्चिता समाप्त हो जाती है। आूँखों के िारा लनकिा तेजस रूप में मन इिर-उिर िै िा रहता है।
यलद िै िे हुए तेजस रूपी मन को एक लिन्दु या एक िक्ष्य पर कें लरत करने का अभ्यास कर िें, तो मन की

सहज ध्यान योग 328


शलक्त अपार रूप से िढ़ जाएगी। एक कहावत है एकता में शलक्त होती है। इसी प्रकार तेजस रूपी लकरणें
एकत्र होने पर शलक्तशािी हो जाती हैं। शलक्त इतनी िढ़ जाती है लक अि मनष्ु य इसी मन से ढेरों आश्चयतजनक
कायत कर सकता है। ऐसा मनष्ु य अपने मन को सैकड़ों-हजारों लकिोमीटर दरू भेजकर अपना कायत करा िेगा,
जैसे दरू की जानकारी िेना, दरू सन्देश भेजना, कहीं दरू लस्थत मनष्ु य से अपनी इच्छानसु ार कायत करा िेना,
यहाूँ तक लक िीमार मनष्ु य का इिाज भी लकया जा सकता है। मगर ऐसे कायत लसित परोपकार की दृलष् से ही
करने चालहए। अपने स्वाथत के लिए लकसी को कष् नहीं देना चालहए। वरना गित कायत करने वािे को उसके
कमों की सजा अवश्य लमिेगी।
जि तक मन गन्दा रहेगा, ति तक ईश्वर प्रालप्त में यह मन अवरोि का काम करता है क्योंलक ईश्वर
और सािक के िीच यही गंदगी की दीवार िनी रहती है। अथातत् जि तक आप मन की सिाई नहीं करें गे,
ति तक कुछ प्राप्त होने वािा नहीं है, इसलिए सािक के लिए मन की सिाई करना जरुरी है। जि मन की
सिाई हो जाएगी, ति आपका मन शीशे के समान शि ु हो जाएगा। लिर आपका मन ईश्वर प्रालप्त में सहायक
हो जाएगा। जो अभी तक सांसाररक पदाथों की ओर भागता था, अि उसका भागना िन्द हो जाएगा। लिर
मन ईश्वर लचन्तन व ईश्वरीय आनन्द में िगा रहेगा। जि मन शि ु हो जाता है, ति लचि में संस्कारवश गन्दी
वृलियाूँ उठी भी, तो इन वृलियों का प्रभाव मन पर नहीं पड़ता है। लजस मन को स्थिू संसार की असारता का
ज्ञान होने िगता है, ऐसे सािक के अन्दर अिैत भाव का उदय होने िगता है, िैतभाव नष् होने िगता है।
यह सि तभी होगा जि अन्त:करण में सत्त्वगणु का प्रभाव अलिक होने िगेगा, ति िलु ि भी लनमति होने
िगती है।
आप तािाि के गन्दे पानी में अपनी शक्ि देखना चाहें तो लिल्कुि नहीं लदखेगी। पानी में लमिी
हुई लमट्टी की सिाई कर दें। पानी में उगा हुआ लसवाि भी उखाड़कर िें क दें। लिर वह पानी साि हो जाएगा।
मगर उसमें आपकी परछाई या चेहरा लिर भी नजर नहीं आयेगा, क्योंलक उसमें िहरें उठ रही हैं, हमें िहरों
को शान्त करना होगा। जि िहरें लििकुि शान्त हो जायेंगी, लिर आपका चेहरा लििकुि साि नजर
आयेगा। यहाूँ पर समझने की िात यह है लक पानी स्वच्छ है मगर वायु के कारण उठी िहरों में आपका
चेहरा साि नजर नहीं आता है। यहाूँ पर िहरों के िारा ही अवरोि है। इसी प्रकार आपको लसित अपना मन
ही शि ु नहीं करना है, िलल्क लचि में उठी वृलियों को भी शान्त करना होगा, तभी आपको अपनी आत्मा
की परछाई लदखाई पड़ेगी।

सहज ध्यान योग 329


मनष्ु य को जो स्वप्न लदखाई देते हैं, स्वप्न का कारण यही मन (िलहमतन) होता है। मनष्ु य तीन
अवस्थाओ ं में रहता है– 1. जाग्रत अवस्था, 2. स्वप्नावस्था 3. सषु प्तु ावस्था। वैसे चौथी अवस्था
तरु ीयावस्था है, मगर यह अवस्था लसित सािक को ही प्राप्त होती है, क्योंलक तुरीयावस्था में अन्तमतन कायत
करता है। उस समय िलहमतन, अन्तमतन में लविीन रहता है। जाग्रत अवस्था में मन का स्थान मस्तक (आज्ञा
चक्र) है। यलद आप ध्यान दें, मनष्ु य जि कुछ सोचता है ति सोचते समय मनष्ु य मस्तक पर जोर िगाता है।
अथवा कोई भूिी हुई िात जि याद करने की कोलशश करता है, ति अपनी अंगुलियाूँ कभी-कभी मस्तक
पर िगाता है। उस समय वह अपने मन पर दिाव देता है तालक जो िात वह सोच रहा है, वह उसे याद आ
जाए। सषु प्तु ावस्था में मनष्ु य को गहरी नींद आती है। उसे स्वयं अपनी भी सिु -ििु नहीं रहती है। उस समय
उसका मन कण्ठ चक्र में लस्थत रहता है। इस अवस्था में मनष्ु य का सक्ष्ू म शरीर भी लिल्कुि शान्त रहता है।
वह कारण शरीर में रहता है।
स्वप्नावस्था में मनष्ु य का मन हृदय चक्र में लस्थत रहता है। यहीं पर लचि का स्थान है। इसलिए
वृलियाूँ भी यहीं से उठती हैं। इस अवस्था में मनष्ु य सक्ष्ू म शरीर में अवलस्थत रहता है। स्वप्न लदखाने का
काम मन ही करता है। मन में अपार शलक्त होती है। वह स्वयं अपना संसार िसा िेता है। मन जैसा चाहता
है उसका वैसा ही संसार होता है। मन के िारा िनाया गया संसार मनष्ु य को स्वप्नावस्था में लदखाई देता है।
स्वप्न में मनष्ु य जो देखता है वह उसे उस समय सच िगता है मगर जि वह जागता है ति वही स्वप्न लमर्थया
सालित होता है। स्वप्न में मन स्वयं एक से अनेक हो जाता है। उस समय जो भी वस्तु लदखाई देती है वह
सि मन ही है। चाहे नदी, तािाि, पहाड़, पेड़, भीड़-भाड़ के दृश्य अथवा अन्य वस्तएु ूँ सि मन ही हैं। एक
तरि मन स्वयं द्दष्ृ ा है दसू री ओर वही मन दृश्य है। स्वप्न में मन के लसवाय कुछ भी नहीं होता है। अि प्रश्न
उठता है लक स्वप्न क्यों आते हैं। मनष्ु य जि कोई कायत जाग्रत अवस्था में परू ा नहीं कर पाता है, अथवा
लकसी कायत को करने की सोचता है तो उसका संस्कार लचि में िन जाता है। लिर वही स्वप्न में लदखाई
पड़ता है लक मनष्ु य वही कायत कर रहा है। स्वप्नावस्था ने जो वृलियाूँ उठती है उन्हीं वृलियों को मन साकार
कर देता है। जैसे मनष्ु य यलद जाग्रत अवस्था में सोचता है लक उसे कार खरीदनी है, मगर लकसी कारण से
नहीं खरीद पाता है ति स्वप्न में देखेगा उसने कार खरीद िी है और चिा रहा है अथवा खरीदने जा रहा है।
इसी प्रकार उसको स्वप्न में िाल्यावस्था की घटनाएूँ लदखाई पड़ सकती है। लपछिे जन्मों के संस्कारों के
कारण उसे लपछिे जन्म की घटनाओ ं के दृश्य भी आ सकते हैं। कभी-कभी मनष्ु य को ऐसे भी स्वप्न आ
सकते हैं जो उसने कभी सोचा भी न होगा। ऐसे स्वप्न दो प्रकार के कारणों से आ सकते हैं। एक, उसे अपने

सहज ध्यान योग 330


लपछिे जन्म के संस्कारों के कारण आये होंगे। दसू रा, कभी-कभी मन स्वयं काल्पलनक रूप से अपना संसार
िना िेता है लजसका संस्कारों से कोई मतिि नहीं होता है। ऐसी अवस्था में मनष्ु य को लवलचत्र दृश्य लदखाई
पड़ते हैं लजसका स्थि
ू जगत से कोई मतिि नहीं होता है। ऐसे दृश्य लसित काल्पलनक होते हैं।
कुछ मनष्ु यों का कहना है लक कभी-कभी उन्हें स्वप्नावस्था में भलवष्य की जानकारी हो जाती है
अथवा उनका स्वप्न सही लनकिता है। इस तरह की लक्रयाएूँ कभी-कभी मनष्ु य को हो जाती हैं। इस तरह
की घटनाएूँ ज्यादातर ति होती हैं, जि वततमान जीवन में उसके िारा अच्छे कायत लकये जाते हों। सत्त्वगणु
अलिक मात्रा में पाया जाता हो। यलद ये गणु नहीं हैं, मनष्ु य पापी और क्रूर है, ति उसके लपछिे अच्छे
संस्कारों के कारण उसे ऐसी जानकारी लमिी होगी, मगर ऐसी घटना कभी-कभी ही घटती है।
मनष्ु य जि स्वप्न देखता है ति उसे उस समय सि सत्य सा िगता है। जिलक स्वप्न मनष्ु य अके िा
देखता है। उस स्वप्न में जो भी दृश्य देखता है, परन्तु जाग जाने पर उस स्वप्न से कोई मोह नहीं होता है,
क्योलक उसे असलियत का पता चि जाता है। अि यह देखा जाए स्वप्न में और स्थि ू जगत में अन्तर क्या
है क्योलक स्वप्न भी उस समय सत्य सा प्रतीत होता हैं। स्वप्न की संरचना मन करता है। स्थि ू ससं ार की
सरं चना ब्रह्म करता है। स्वप्न मन स्वयं अके िे देखता है। स्थि ू ससं ार को अनेक मनष्ु य देखते हैं। स्वप्न में
मन एक से अनेक हो जाता है। स्थि ू ससं ार में ब्रह्म एक से अनेक हो जाता है। मनष्ु य जि जाग्रत अवस्था
में आता है ति स्वप्न लमर्थया िगता है। मगर योगी जि तरु ीयावस्था में आता है ति स्थि ू ससं ार लमर्थया
िगता है।
योगी परुु ष को स्वप्न नहीं आते हैं क्योंलक उनका िलहमतन, अन्तमतन में लविीन हो चक ु ा होता है।
स्वप्न का कारण यही िलहमतन है। िलहमतन जि अन्तमतन में लविीन हो जाता है ति योगी का अन्तमतन कायत
करता है। अन्तमतन स्वप्न लदखाने का कायत नहीं करता है। अन्तमतन कारण शरीर में रहता है। कारण शरीर
आत्मा के लनकट का शरीर है। इसलिए यह शरीर आत्मा से प्रभालवत रहता है। अन्तमतन भी आत्मा के अथवा
ईश्वर के लचन्तन में िगा रहता है। ति योगी स्वप्नावस्था की जगह योग लनरा में लस्थत रहता है। इस अवस्था
में (योग लनरा में) जो कुछ लदखाई पड़ता है वह स्वप्न नहीं होता है िलल्क योग समिन्िी अनुभव अथवा
अनभु ूलत ही होती है।

सहज ध्यान योग 331


वचत्त
लत्रगणु ात्मक प्रकृ लत का पहिा पररणाम लचि ही है। इस जगह पर पररणाम का अथत है िदिाव।
अथातत अपने पहिे रूप को छोड़कर, अन्य दसू रे रूप को ग्रहण कर िेना। तीनों गुणों का पररणाम दो प्रकार
का होता है। प्रथम पररणाम सामय है। सामय का अथत है समान रूप से (जो सदैव एक जैसा रहे)। दसू रा
पररणाम लवषम है, अथातत लजसमें समानता न हो। सामय पररणाम लदखाई नहीं पड़ता है क्योंलक सामय पररणाम
वािा पदाथत पहिे जैसा िना रहता है लसित सामय पररणाम का अनमु ान िगाया जा सकता है। लवषम पररणाम
लदखाई पड़ता है क्योंलक उसके स्वरूप में पररवततन होता है। जैसे िकड़ी सड़ जाने के िाद लमट्टी में लमि
जाती हैं, िकड़ी का रूप िदि जाता है। यलद िकड़ी में आग िगाकर जिाई जाए तो िकड़ी का स्वरूप
अलग्न, िआ ु ं और राख में पररवलततत हो जाता है, इसे लवषम पररणाम कहते हैं। िकड़ी जि तक िकड़ी रहेगी
अथातत पहिे जैसे रूप में रहेगी ति उसे सामयावस्था कह सकते हैं। मगर िकड़ी सदैव एक जैसी अवस्था
में नहीं रह सकती है। कभी-न-कभी वह सड़ जाएगी अथवा रूपांतर होने िगेगी। इसलिए पणू त रूप से
सामयावस्था नहीं कह सकते है क्योंलक लवषमावस्था को प्राप्त हो गयी है। सामयावस्था वह है जो सदैव एक
जैसी रूप में रहे। अि आप कह सकते हैं लक िकड़ी सामयावस्था में नहीं थी। उसके अन्दर अलत सक्ष्ू म रूप
से पररणाम हो रहा था। लचि का लनमातण गणु ों के आिार पर होता है। लजस प्रकार गणु ों के दो पररणाम होते
हैं उसी प्रकार लचि में भी दो प्रकार के पररणाम होते हैं।
गणु ों की सामयावस्था के कारण लजस लचि का लनमातण होता है, वह लवशि ु सत्वमय लचि होता है।
इस प्रकार का लचि लसित ईश्वर का होता है ऐसे लचि में लकसी प्रकार की लवकृ लत नहीं होती है। लवकृ लत न
होने का कारण स्वयं गणु ही है। इस अवस्था में गणु एक दसू रे पर प्रभाव नहीं डािते हैं। सत्वगणु , सत्वगणु
में रहता है। रजोगणु अत्यन्त गौण रूप में रजोगणु में रहता है। तमोगणु अत्यन्त गौण रूप में तमोगणु में रहता
है। चेतन तत्व का प्रकाश लचि पर पड़ता है लजससे लचि भी प्रकालशत सा हो जाता है। यह गणु ों का प्रथम
पररणाम है इसलिए लचि भी सवतव्यापक सा होता है। ईश्वर का लचि सवतव्यापक होने के कारण कहा जाता
है लक सभी सृलष् सवतव्यापी ईश्वर में समाई हुई है। यह सत्य भी है, इसीलिए ईश्वर को साक्षी व दृष्ा कहा जाता
है क्योंलक जि सि-कुछ ईश्वर के अन्दर समाया हुआ है इसीलिए वह सभी के लवषय में जानता है।
गणु ों की लवषमावस्था के िारा भी लचि का लनमातण हुआ है। ऐसा लचि भी सत्व गणु की प्रिानता
वािा होता है। ऐसे लचि के सत्वगणु में लक्रया होना रजोगणु का लवषम पररणाम और लक्रया को रोकना
तमोगणु का लवषम पररणाम होता है। ऐसे लचि असख्ं य हैं, ये जीवात्माओ ं के लचि हैं। ऐसे लचिों में अहक
ं ार

सहज ध्यान योग 332


िीज रूप में लछपा रहता है। रजोगणु और तमोगणु के प्रभाव से अहक ं ार िलहमतख ु ी होने िगता है। इसीलिए
अहक ं ार को लचि की लवकृ लत कहा गया है। अहक ं ार की लवकृ लतयाूँ तन्मात्राएूँ व इलन्रयाूँ है। जैसे-जैसे
लवकृ लतयाूँ िढ़ती जाती हैं, वैसे-वैसे रजोगणु व तमोगुण की अलिकता िढ़ती जाती है, और जीवात्माओ ं के
अन्दर राग-िेष, िोभ, िािच, तृष्णा आलद िढ़ते जाते हैं। इसीलिए जीवात्मा स्वयं अपने आपको िन्िन
में िांिता जाता है। इसलिए अनंत लचि व जीवात्माएूँ हुई, अहक ं ारवश जीवात्मा में कतातपन का भाव आ
गया और पतन का कारण िन गया।
सािकों, अि तकत लकया जा सकता है लक लवशि ु सत्वमय लचि में अहक ं ार नहीं होता है क्या।
इसका उिर है लक अवश्य होता है, मगर लवशि ु अहक ं ार होता है। इसमें लकसी प्रकार की लवकृ लत नहीं आती
है जिलक सत्वमय लचि में लवकृ लत आ जाती है, क्योंलक रजोगणु और तमोगणु का प्रभाव पड़ रहा होता है।
ऐसा लवषम पररणाम के कारण होता है। लवशि ु अहक ं ार में तमोगणु अपना प्रभाव नहीं लदखा पाता है, मगर
सत्वमय लचि लवशि ु ता छोड़े हुए है इसीलिए तमोगणु का प्रभाव पड़ रहा है। तमोगणु के प्रभाव से अज्ञानता
का प्रादभु ातव होता है; इसीलिए जीव अपने आपको ब्रह्म से अिग मानता है तथा ‘मैं ह’ूँ की वृलि उत्पन्न
होती है। अज्ञानता के कारण ही आत्मा और लचि में अलभन्नता भालसत होती है।
जीवात्मा जो भी कमत करता है, देखता है, सनु ता है अथातत ज्ञानेंलन्रयों और कमेलन्रयों िारा लकये
कमों के सस्ं कार लचि में लचलत्रत होते रहते हैं। ये सभी लचलत्रत सस्ं कार लचि में एकत्र होते हैं। इन्हीं सस्ं कारों
के अनसु ार लचि सक ं ल्प-लवकल्प करता है, अहभं ाव प्रकट करता है, लनणतय, लनश्चय और स्मृलत का कायत
करता है। जि सक ं ल्प-लवकल्प करता है, ति उसे मन कहते हैं। अहभं ाव प्रकट करने पर अहक ं ार कहते हैं।
लनणतय तथा स्मृलत के समय उसे िलु ि कहते हैं। कहीं-कहीं पर अतं :करण का उल्िेख आता है अथवा कहा
जाता है लक अतं :करण में अमक ु सक ं ल्प, लनणतय अथवा अहभं ाव आया। अतं :करण का तात्पयत है लचि,
अहकं ार, िुलि व मन। इसे अंत:करण चातष्ु य भी कहते हैं।
मनष्ु य जो भी कायत करता है उसके संस्कार लचि में एकत्र होते रहते हैं। लिर यही संस्कार वृलत रूप
में लचि में उठते रहते हैं। उसी प्रकार की इच्छाएूँ (वृलि के अनसु ार) चिती हैं तथा सख
ु -दुःु ख, ऐश्वयत-अनैश्वयत
आलद की प्रालप्त होती है। मनुष्य के लचि में कमों के संस्कार कई-कई जन्मों के पड़े रहते हैं। जि ऐसे संस्कारों
का उदय होता है, तभी उनसे समिलन्ित कमातशय भोगे जाते हैं। स्वयं मनष्ु य को यह मािमू नहीं पड़ता है
लक ये संस्कार लकतने जन्म परु ाने हैं। जि द:ु ख की प्रालप्त होती है, ति मनष्ु य कहता है लक ऐसे कमत तो मैने

सहज ध्यान योग 333


कभी नहीं लकये थे, लिर हमें यह दखु क्यों आ गया। मगर वास्तव में ऐसा दख ु स्वयं उसके पवू त जन्मों िारा
कमाया गया होता है। मनष्ु य के लचि का लनमातण जि से हुआ है ति से उसके लचि में संस्कार पड़ने शुरू हो
जाते हैं। ऐसा समझो लक लचि एक नदी है लजसमें वृलियों का प्रवाह िहता रहता है। लजसने पवू त जन्म में
सांसाररक लवषयों को भोगने का कायत लकया है, उसकी वृलियों का प्रवाह संस्कारों के कारण दखु -रूपी संसार
सागर में लमिता है, अथातत संसारी वस्तओ ु ं का भोग करता है। लजसने पवू त जन्म में कल्याण अथवा योग
रूपी कायत लकया है, उसकी वृलियों की िारा कल्याण-रूपी अथवा मोक्ष-रूपी अनंत में जाकर लमिती है।
हमारे कहने का तात्पयत यह है लक मनष्ु य के लचि में जैसा भरा होगा वैसा ही भोग करे गा। जि तक लचि में
कमातशय हैं, ति तक उसको भोग करने के लिए भूिोक में जन्म िेना होगा, और जि जीवन होगा तो कमत
भी करना होगा। इसलिए मनष्ु य को लचि की वृलियों को लनरोि करने के लिए योग का सहारा िेना चालहए।
लचि की अवस्थाएूँ गणु ों के कारण पाूँच प्रकार की होती हैं। पहिी तीन अवस्थाओ ं में, रजोगणु व
तमोगणु की अलिकता से लवक्षेप तथा मैि का आवरण िना रहता है। िाद की दो अवस्थाएूँ उच्च होती हैं।
यह दोनों अवस्थाएूँ मनष्ु य योग के माध्यम से ही प्राप्त कर सकता है। लिना योग के ये दोनों अवस्थाएूँ प्राप्त
करना समभव नहीं हैं। इसलिए ये अवस्थाएूँ योगी परुु ष ही प्राप्त कर सकता है। सािारण या सांसाररक पदाथों
के भोग में लिप्त तृष्णा वािा मनष्ु य ये अवस्थाएूँ प्राप्त नहीं कर सकता है। ये अवस्थाएूँ लनमन प्रकार की हैं-
(1) मढ़ू ावस्था, (2) लक्षप्तावस्था, (3) लवलक्षप्तावस्था, (4) एकाग्रावस्था, (5) लनरूिावस्था।
जि कोई मनष्ु य अपने आपको अनश ु ालसत करके योग में आरूढ़ हो जाता है अथवा यलद पूवत जन्म
का योगी है ति उसके लपछिे जन्म के संस्कार भी शीघ्र समालि की ओर प्रेररत करते हैं क्योंलक पवू त जन्मों
व वततमान कमत के कारण शीघ्र सििता लमिती है और समालि िगने िगती है, ति उसके लचि के अन्दर
रजोगणु व तमोगणु का प्रभाव कम पड़ने िगता है और सत्त्वगणु की अलिकता िढ़ने िगती है। इसलिए
रजोगणु व तमोगणु की प्रिानता वािी वृलियाूँ शीघ्र ही तेजी के साथ उठने िगती हैं। इन वृलियों के कमतिि
लनश्चय ही द:ु ख से भरे हुए होते हैं, इसलिए सािक को सांसाररक कष् भी लमिते है। कभी-कभी सािक इन्हीं
कष्ों के कारण लवचलित-सा होने िगता है, मगर दृढ़ता के कारण आगे िढ़ता रहता है। वैसे गन्दे संस्कार
भी िाहर लनकिने िगते हैं, अथातत लचि में तमोगणु की मात्रा कम होने िगती हैं तथा लचि में सत्वगणु की
अलिकता िढ़ने िगती है। अभ्यास िढ़ने के कारण समालि उच्चावस्था को प्राप्त होने िगती है। ति लचत
में कमातशय कम होने िगते हैं। कमातशय कम होने से सािक के जन्म भी घटने शरू ु हो जाते हैं अथातत् सािक
को जन्म कम िेने पड़ते हैं।

सहज ध्यान योग 334


लजन सािकों की कुण्डिनी पणू त यात्रा करके हृदय में लस्थर हो चुकी है तथा गहरी समालि िगती है,
ति इस अवस्था में अनभु व नहीं आते हैं। मगर यह भी देखा गया है लक इस अवस्था में सािक को कभी-
कभी कुछ अनुभव आ जाते हैं, जैसे लक हल्के नीिे रंग का प्रकालशत अंतररक्ष लदखाई पड़ता है। इस आकाश
में सयू ,त चन्रमा, नक्षत्र आलद नहीं होते हैं ऐसा आकाश सािक ने जाग्रत अवस्था में कभी नहीं देखा होता
है। वास्तव में, आकाश-तुल्य भासता हुआ लचि ही है। कभी-कभी ध्यानावस्था में सयू त लदखाई पड़ता है,
िगता है लक मैं सयू त के अलत लनकट ह।ूँ कभी-कभी पूणत या अित चन्रमा लदखाई पड़ता है। कभी एक तारा
िहुत चमकीिा लदखाई पड़ता है। िहुत कम सािकों को अत्यन्त तेज मलण लदखाई पड़ती है। यह उज्जि,
सिे द प्रकाश की मलण िहुत तेज होती है। यह एक प्रकार की लचि की अत्यन्त सालत्त्वक वृलि है। ऐसा
समझो, सािक को यलद अत्यन्त तेजयक्त ु मलण स्वच्छ आकाश (लचि रूपी आकाश) में लदखाई पड़े, तो
समझ िेना चालहए लक योगी को उच्चतम अवस्था की प्रालप्त कुछ समय िाद होने वािी है।
लजन सािकों ने सांसाररक लवषयों की अलभिाषा छोड़ दी है, अलवद्या रूपी क्िेशों के संस्कार थोड़े
रह गये हैं, ऐसे सािकों के लचि में सालत्त्वक संस्कार ही उत्पन्न होते हैं। सािकों को लनरुिावस्था शीघ्र प्राप्त
नहीं होती है तथा सभी सािकों को लनरुिावस्था प्राप्त नहीं होती है। सच तो यह है लक यह अवस्था प्राप्त
करने के लिए योगी को कई जन्मों तक योग करना होता है, ति यह अवस्था प्राप्त कर पाता है। इस अवस्था
को प्राप्त सािक को सांसाररक लवषयों के भोग की अलभिाषा परू ी तरह छूट चुकी होती है तथा कई घण्टे
िगातार समालि में लस्थत रहता है। इस अवस्था में अनभु व लििकुि नहीं आते हैं, क्योंलक वृलियाूँ लनरुि
हो चकु ी होती है। लनरुिावस्था सािक को एकदम प्राप्त नहीं होती है। शरुु आत में मात्र कुछ समय के लिए
यह अवस्था रहती है जिलक योगी समालि में कई-कई घण्टे िैठा रहता है। वास्तव में, एकाग्र अवस्था की
चरम सीमा के िाद इस अवस्था की शरुु आत होती है। इसलिए एकाग्र अवस्था में लनरुिावस्था का समय
िढ़ता रहता है; िीरे -िीरे समय िढ़ते-िढ़ते लनरुिावस्था की प्रालप्त हो जाती है।
लनरुिावस्था की प्रालप्त के समय अभ्यासी अपने चेतन स्वरूप में लस्थत रहता है। उस समय शेष
संस्कार नहीं रहते है, लचि का साक्षात्कार हो चक
ु ा होता है। अहक ं ार का रजोगणु और तमोगणु क्षीण पड़
जाता है, सत्त्वगणु की मात्रा िढ़ जाती है। इस समय अहक ं ार में तमोगणु की मात्रा अि सत्व की अपेक्षा
लििकुि कम रह जाती है। सािक को तत्त्वज्ञान की प्रालप्त हो जाती है। जि शेष संस्कार भोग लिए जाते हैं,
ति सािक के लचत में कमातशय नहीं िनते हैं। कमातशय न िनने का कारण अज्ञानता की समालप्त हो जाना है,
कमातशय लसित अज्ञान यक्त ु कमों के िनते हैं। इस अवस्था में लचि एकदम स्वच्छ हो जाता है। लचि में

सहज ध्यान योग 335


रजोगणु व तमोगणु लसित गौण रूप में रहने पर वह शि ु स्िलटक के समान स्वच्छ हो जाता है। ऐसी अवस्था
में लकये हुए कमों के कमातशय जैसे ही लचि पर पड़ते हैं, ज्ञान तरु न्त उन कमातशयों का साक्षात्कार करा देता
है, लिर कमातशय स्वयमेव नष् हो जाते हैं। लिर कभी लचि पर कमातशय ठहरते नहीं हैं। अि सािक को कुछ
भी जानने को शेष नहीं रह जाता है।
अि हम उन सािकों के लिए कुछ शब्द लिखेंगे लजन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया है। प्रश्न यह उठता
है क्या वास्तव में आत्मसाक्षात्कार कर लिया है। सािकों का कहना है हमें आत्मा का दशतन हुआ है। यलद
मान लिया जाए लक वास्तव में आत्मा का दशतन हुआ है, ति इसका अथत है उन्हें मोक्ष की प्रालप्त हो जाएगी।
लिर अगिा जन्म िारण करने की आवश्यकता क्यों है, अथवा अगिे जन्म का प्रयोजन ही क्या है, लजसने
प्रकृ लत के सारे िन्िन तोड़ लदये हैं? मैने ऐसा इसलिए लिखा है क्योंलक आत्मसाक्षात्कार संस्कारों के पणू ततया
अभाव के िाद ही समभव हो सकता है, जिलक सािकों का कहना होता है आत्मसाक्षात्कार हो गया है,
परन्तु अभी कुछ संस्कार शेष हैं, अभी और अगिा जन्म िूँगू ा आलद। आत्मसाक्षात्कार हो जाना, साथ ही
कमातशयों का शेष रहना, दोनों िातें एक साथ असमभव हैं। यलद आत्मसाक्षात्कार हुआ है ति संस्कार शेष
नहीं रहेंगे। अवस्था परम उच्च होगी। अगर संस्कार शेष हैं तो आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ है। वास्तव में
आत्मा का साक्षात्कार नहीं लकया जा सकता है, िलल्क आत्मा में लस्थत हुआ जाता है लजसे लस्थतप्रज्ञ भी
कहते हैं। आत्मा को कौन देखेगा, वह स्वयं चेतन तत्त्व है। जो दीपलशखा के समान ज्योलत लदखाई देती है,
वह लचि पर लस्थत अत्यन्त सालत्वक सशक्त वृलि होती है। अन्य वृलियाूँ इसका सहयोग करती है।
मगर सािकों, आप जो कह रहे हैं वह सही है लक आपने समालि अवस्था में दीपक की िौ के समान
तेजस्वी ज्योलत का दशतन लकया है। ऐसा ति होता है जि सािक की कुण्डिनी पणू त यात्रा करके लस्थर हो
जाती है तथा एकाग्रवस्था का अभ्यास कािी िढ़ जाता है, और लचि में सत्वगुण की अलिकता िढ़ जाती
है। इसलिए सत्वगणु ी वृलियाूँ अत्यन्त शलक्तशािी हो जाती हैं। उनको यह शलक्त आत्मा के प्रलतलिमि से
लमिती है। अथातत आत्मा का प्रलतलिमि (परछाई) लचि पर पड़ता है, इसलिए लचि स्वप्रकालशत-सा भालसत
होने िगता है लजससे सत्वगणु ी वृलियाूँ प्रिि हो जाती हैं। ति सिसे शलक्तशािी वृलि (सत्वगणु ी) ज्योलत
का स्वरूप िारण कर िेती है। ऐसी वृलियों में व्यापकता भी आने िगती है। यह सत्वगणु की प्रििता के
कारण होता है। तमोगणु कम होने के कारण दिा रहता है और सत्वगणु को रोकने का कायत नहीं कर पाता
है। जि वृलि ज्योलत का स्वरूप िारण करती है, ति लचि में लस्थत सभी वृलतयाूँ उसका समथतन करती हैं,
इसलिए लचि में लसित ज्योलत का स्वरूप ही लदखाई पड़ता है। यह अवस्था उच्च है। मगर अभी क्िेशात्मक

सहज ध्यान योग 336


कमातशय शेष रहते हैं जो सािक को भोग कर ही समाप्त करने होते हैं।
लप्रय सािको, आपने देखा होगा लक योगी लकसी के भी लपछिे जन्मों के लवषय में िता देते हैं। अथवा
वततमान जन्म के लवषय में मख्ु य घटनाएूँ भी िता देते हैं। प्रश्न यह है लक दसू रों के लवषय में अथवा लपछिे
जन्मों के लवषय में कै से िता देता है। जि योगी की उच्चावस्था आती है तो उसके अन्दर यह क्षमता आ
जाती है लक वह दसू रे के लचि के लवषय में जानकारी हालसि कर िेता हैं। एक तरह से उसके लचि का
साक्षात् होने िगता है। लचि के साक्षात् होने पर संस्कार अपने आप साक्षात् होने िगते है। संस्कारों के
अनसु ार ही सािक सि कुछ जान िेता है लजसके लवषय में जानना होता है।
पहिे लिखा जा चक ु ा है लक लचि स्वप्रकालशत नहीं है। लचि पर आत्मा का प्रलतलिमि पड़ रहा है
तथा आत्मा के सिसे ज्यादा नजदीक लचि ही है। लचि पर आत्मा का प्रलतलिमि पड़ने से लचि प्रकालशत
होने िगता है तथा लचि चैतन्य सा मािमू पड़ने िगता है। जैसे सयू त का प्रलतलिमि शीशे पर डािा जाए तो
सयू त की लकरणें शीशे पर परावलततत होने िगती हैं; उस समय िगता है शीशा स्वयं प्रकालशत हो रहा है।
क्योंलक उस समय सयू त की लकरणें परावलततत होने से ऐसा होता है। इसी प्रकार लचि पर भी शीशे के समान
प्रकाश परावलततत होने के कारण, लचि प्रकालशत लदखाई पड़ता है। जि लचि में रजोगणु व तमोगणु लसित
गौण रूप में रह जाता है, उस समय लचि में लजतनी शेष वृलियाूँ रह जाती हैं, वे भी लचि के प्रकालशत होने
के कारण प्रकालशत लदखाई पड़ने िगती हैं। ऐसी वृलियों में व्यापकता व अत्यन्त शलक्त आ जाती है। वह
लकसी का भी रूप िारण कर सकती है। यहाूँ तक लक वह लकसी भी भगवान अथवा देवी-देवताओ ं का
स्वरूप िारण कर सकती है। ज्योलत का भी स्वरूप िारण कर िेती है। सािक अपनी उच्च अवस्था में
देखता है लक उसे ईश्वर के दशतन हुए जिलक वृलि ही ईश्वर का स्वरूप िारण कर िेती है।
आप यह कह सकते हैं लक वृलियाूँ ईश्वर का स्वरूप िारण क्यों करती हैं अथवा कै से जानें लक
वास्तव में ईश्वर का दशतन हुआ है अथवा वृलि का ही खेि है। वृलि ईश्वर का स्वरूप िारण इसलिए करती
है, क्योंलक यलद सािक ने ईश्वर के दशतन का इस जन्म में अथवा लपछिे जन्म में संकल्प लकया हो तो दशतन
हो सकता है। ईश्वर दशतन के संकल्प की वृलि लचि पर हो सकती है, वह वृलि अि प्रकट हो गयी हो क्योंलक
संस्कार की वृलियाूँ कई जन्मों पवू त की लचि में िनी रहती है। दसू री िात यह भी हो सकती है लक सािक को
जि उलचत मागतदशतन की आवश्यकता होती है और उस समय स्थि ू संसार में लकसी कारणवश मागतदशतन
नहीं लमि पा रहा हो, ति ब्रह्माण्ड की सालत्त्वक शलक्तयाूँ स्वयं मागतदशतन करने िगती हैं। ये सालत्त्वक शलक्तयाूँ
योगी, ऋलष, मलु न, देवता आलद कोई भी हो सकता है। मागतदशतन के समय वे शलक्तयाूँ सािक के लचि में

सहज ध्यान योग 337


सालत्वक वृलि के सहारे अपना दशतन कराने िगती हैं। उस समय वे शलक्तयाूँ अपने स्थान पर ही लस्थत रहती
हैं। इच्छा करते ही सािक से समिन्ि कर िेती हैं, लिर वृलि के िारा उन्हें दशतन होने िगते हैं। यह भी हो
सकता है लक लदव्यदृलष् के िारा सारा कायत हो रहा हो। यलद ऐसा है तो लदव्यदृलष् अपनी शलक्त के अनसु ार
दशतन करा रही है। लदव्यदलष् िारा वास्तव में देखा जाता है। मगर लदव्यदृलष् िारा देखे गये दृश्य के लिए िहुत
अलिक गहराई (समालि की) में जाने की आवश्यकता नहीं है। एकाग्रावस्था में ही दशतन होने िगते हैं।
सालत्वक वृलियाूँ अक्सर देवी-देवताओ ं के स्वरूप को िारण कर िेती हैं। सारा वृलियों का ही खेि है।
अभ्यासी को भ्रलमत नहीं होना चालहए। ऐसी वृलियों में व्यापकता के अनसु ार लकसी का भी स्वरूप िारण
करने की सामथत रखती है।
लचि का आत्मा के सिसे नजदीक होने के कारण, आत्मा का प्रभाव लचि पर पड़ता है। आत्मा
सवतव्यापक, दृष्ा, ज्ञान का स्वरूप आलद होने के कारण लचि में भी ऐसे गणु आ जाते हैं। आत्मा ज्ञानस्वरूप
होने के कारण उसका लचि पर प्रलतलिमि पड़ रहा है इससे लचि भी ज्ञानवान सा भालषत होने िगता है।
इसीलिए सािक को उच्चतम अवस्था पर तत्वज्ञान की प्रालप्त होती है। वैसे सत्य तो यह है लक लचि जड़ है
क्योंलक प्रकृ लत िारा िना है, प्रकृ लत िारा िनी सभी वस्तएु ं जड़ होती हैं। चेतन तत्व की लनकटता के कारण
वह चैतन्य सा भालषत होता है।
कहा जाता है ईश्वर एक है आत्मा एक है, परन्तु एक की प्रकृ लत से लचि अिग-अिग अनेक क्यों
है? ईश्वर का लचि गणु ों की सामयावस्था से िना हुआ है। उसके लचि में लकसी प्रकार का पररणाम नहीं हो
रहा है, इसलिए एक है। मगर जीवों की लचि गणु ों की लवषमावस्था से िने हैं। लवषमावस्था के कारण लचि
अनेक हैं। गणु ों के लवषमावस्था के कारण जीवों के लचि में अिग-अिग प्रकार के कमातशय भी है। उन्हीं
कमातशयों के अनसु ार मनष्ु य का स्वभाव होता है व कमों का भोग करता है। कामी परुु ष को यलद सन्ु दर रूप
वािी स्त्री लमि जाए तो उसका (कामी परुु ष) लचि सुखी हो जाता है, उसी स्त्री की सौतन का मन द:ु खी हो
जाता है तथा सािक का लचि सन्ु दर स्त्री के प्रलत उदासीन रहता है अथातत उपेक्षा करता है, ऐसा क्यों? इसका
उिर यह है लक लचि और सन्ु दर स्त्री दोनों ही लत्रगणु ात्मक प्रकृ लत है। जि तक लचि में िमत, अिमत और
अलवद्या िनी रहती है, ति तक सत्वगणु , रजोगणु व तमोगणु की क्रमश: अलिकता से सख ु -दख ु और मोह
हुआ करते हैं। तत्वज्ञान की प्रालप्त पर लत्रगणु ात्मक वस्तओ
ु ं की उपेक्षा हो जाती है, इसी से स्थि
ू संसार को
लमर्थयावाद, स्वप्नवाद आलद का समािान समझना चालहए।
लप्रय सािकों, हम सभी जानते है अथवा सनु ते हैं, मनष्ु य का कततव्य है लक अपने भि
ू े हुए वास्तलवक

सहज ध्यान योग 338


स्वरूप को पहचाने और उसी में लस्थत रहे। ये शब्द हम िड़ी आसानी से कह देते हैं। इसकी प्रालप्त िड़ी
मलु श्कि से होती हैं। हाूँ, यह कहा जा सकता है लक असमभव नहीं है। िोग िड़ी आसानी के साथ कह देते
हैं अमकु योगी ब्रह्म में िीन हो गया है। अरे सािकों, ब्रह्म में कौन िीन हुआ है, मझु े मािमू नहीं है। लचि
अपना स्वरूप जि तक िारण लकये है ति तक ब्रहा में िीन नहीं हुआ, ऐसा कहा जा सकता है। मझु े अच्छी
तरह से याद है लक मैंने सप्तऋलषयों और कई ऋलषयों से िात की, ये ब्रह्म में िीन नहीं हो सके । लिर, िीन
कौन हुआ है? मझु े मािमू नहीं। कई-कई कल्पों की उम्र वािे ऋलष-मलु न ब्रह्माण्ड में उपलस्थत हैं।
मैंने पहिे लिखा है लक लचि की अवस्थाएूँ पाूँच प्रकार की होती हैं। वे इस प्रकार की हैं–
(1.) मढ़ू ावस्था, (2.) लक्षप्तावस्था, (3.) लवलक्षप्तावस्था, (4.) एकाग्रवस्था तथा (5.) लनरुिावस्था।
1. मूढ़ावस्था – इस अवस्था में लचि में तम प्रिान होता है। रज और सत्त्व दिे हुए गौण रूप में
रहते हैं। इससे मनष्ु यों में आिस्य िहुत रहता है तथा लनरा में खिू रहते हैं। ऐसे मनष्ु य नशीिे पदाथत पीकर
अपने को नशे में डुिोये रहते हैं। क्रोिी स्वभाव भी होता है। दसू रों का अपमान करने में इन्हें मजा आता है।
मनष्ु य की प्रवृलि अज्ञान, अिमत, राग-िेष आलद में होती है। िलु ि का लवकास िहुत कम हुआ होता है। यह
सिसे लनमन अवस्था है।
2. वक्षप्तावस्था – इसमें रजोगणु की प्रिानता रहती है। तम और सत्त्व दिे रहते हैं। ऐसे मनष्ु यों के
लचि में चञ्चिता अलिक रहती है लजससे वह सासं ाररक पदाथों के भोग के चक्कर में इिर-उिर भटकता
रहता है। ऐसे मनष्ु य िन और वैभव के मद में चरू रहते हैं। लसवाय इन्हीं लवषयों के , इन्हें कुछ और नहीं
लदखाई देता है।
3. वववक्षप्तावस्था – ऐसी अवस्था में लचि में सत्त्वगणु की अलिकता हो जाती है। सत्त्वगणु की
अलिकता रहने पर भी, मनुष्य के लचि में कभी लस्थरता आ जाती है, मगर दसू रे क्षण रजोगणु के कारण
अलस्थरता हो जाती है। इस अवस्था में लचि लवलक्षप्त-सा रहता है। सािक को यह अवस्था योग में कभी न
कभी अवश्य आती है। ये तीनों अवस्थाएूँ सािारण मनष्ु य के अन्दर पायी जाती हैं।
4. एकाग्रावस्था – जि एक ही लवषय में वृलियों का प्रभाव लचि में लनरन्तर िहता रहे, ति उसको
एकाग्रावस्था कहते हैं। योगी को यह अवस्था प्राप्त होती है। इस अवस्था में लचि की वृलि इिर-उिर
चिायमान नहीं होती है। एक समय में एक ही लवषय में िगा रहता है। इस अवस्था में सािक की और
लनलवतकल्प समालि िगती है तथा लवषयों का साक्षात होता है। यह अवस्था स्थि ू लवषयों से िेकर अहंकार

सहज ध्यान योग 339


तक चिी जाती है।
5. वनरुद्धावस्था – जि लचि में वृलियों का पणू त रूप से लनरोि हो जाता है, ति उसमें शेष सस्ं कार
नहीं रह जाते हैं। वृलियों के लनरोि के कारण इस अवस्था को लचि की सवोच्च अवस्था कहते हैं। लकसी
भी सािक के लिए यह अवस्था आनी अलत आवश्यक है अथातत सािक को कठोर सािना करके यह
अवस्था अवश्य पानी चालहए। इस अवस्था में लनिीज समालि िगती है।
सािक के लिए पहिी तीन अवस्थाएूँ सािना में अवरोि डािती हैं। मगर, उसे दृढ़लनश्चय और
पररश्रम से इन अवस्थाओ ं को पार करना चालहए। यह अवस्थाएं पार करने में उसे कुछ साि अवश्य िग
जाते हैं। िाद की दो अवस्थाएूँ चौथी और पाूँचवीं सािक के लिए िाभदायक हैं। सािक में जि तमोगणु
क्षीण होने िगता है तथा रजोगणु भी घटने िगता है, ति लचि में शि ु ता िढ़ने िगती है और सािक के
अन्दर ज्ञान व वैराग्य िढ़ने िगता है। यहाूँ पर लचि की जो तीसरी अवस्था है, इस अवस्था में सािक को
कभी-कभी अपना होश नहीं रहता है। िाहर से वह पागिों की भाूँलत लदखता है मगर पागि न होकर मन
की उत्कृ ष् लस्थलत है। कभी-कभी वह भि ू सा जाता है। व्यवहाररक कायत करते समय उसका मन कहीं और
रहता है, इसलिए व्यवहाररक कायों में गड़िड़ी भी हो जाती है। इस अवस्था को कुछ िोग उन्मनी अवस्था
भी कहते है।
सािक इस अवस्था में कभी-कभी अपने मूँहु पर थप्पड़ भी मारता है क्योंलक उसकी ऐसी इच्छा
चिती है लक मैं अपने थप्पड़ मारूूँ। यह अवस्था हमें िहुत लदनों तक रही। मैं अपने आप मूँहु में थप्पड़ जोर-
जोर से मारा करता था। एक-दो िार मैंने अपना लसर भी दीवार में मारा। मझु े अपने आप से डर िगता था
लक यह सि क्या है। मगर स्वामी मक्त ु ानन्द जी की पस्ु तक में लमि गया लक यह लचि की एक अवस्था है,
ति मझु े मानलसक शालन्त लमिी। मगर इस तरह की लक्रया हर सािक को नहीं होती है।
लजस तरह से प्रकृ लत दो प्रकार की होती है– (1) परा-प्रकृ लत (2) अपरा प्रकृ लत, उसी प्रकार लचि भी
दो प्रकार के होते हैं– (1) लवशि ु लचि (2) पररणामी लचि। परा-प्रकृ लत ही मि ू प्रकृ लत है। इस प्रकृ लत में
पररणाम नहीं होता है, सदैव सामयावस्था में रहती है। इस प्रकार की प्रकृ लत के िारा ईश्वर के लचि का लनमातण
हुआ है। ईश्वर का लचि सामयावस्था वािा लचि कहा गया है। ऐसा लचि लवशि ु लचि होता है, इसमें लवशि ु
अहक ं ार रहता है तथा तीनों गणु सामयावस्था में रहते हैं अपरा प्रकृ लत पररणामी अथातत पररवततनशीि है।
इस प्रकृ लत में हर क्षण पररवततन होता रहता है। इसी प्रकृ लत से स्थिू संसार का लनमातण हुआ है। यही कारण

सहज ध्यान योग 340


है लक स्थिू संसार पररणामी अथवा पररवततनशीि है। अपरा प्रकृ लत िारा ही जीवों के लचि का लनमातण हुआ
है। जीवों के लचि, पररणामी लचि कहे गये हैं। इनकी संख्या अनन्त है। पररणामी लचि सत्वलचि ही होते हैं
मगर लवशि ु ता (अलत लनमतिता) को छोड़े हुए होते हैं। ऐसे लचिों में तमोगणु ी अहंकार िीज रूप में रहता है।
तमोगणु ी रूप में रहने के कारण अहक
ं ार में लवकृ लत पैदा हो जाती है, इसलिए िलहमतख ु ी होने िगता है।
आत्मा लक्रया से रलहत होते हुए भी लचि की दृष्ा है। लचि पर आत्मा का प्रकाश पड़ता है। उसके
प्रकाश में लचि पर जो कुछ हो रहा है, वह आत्मा को ज्ञात रहता है। चेतन तत्त्व (आत्मा) का समिन्ि जि
सामयावस्था वािे लचि से होता है, ति उसे ईश्वर कहते हैं। इसे सगणु ब्रह्म भी कहते हैं। यह सवतज्ञ है।
चेतनतत्त्व का समिन्ि जि पररणामी लचि से होता है तो उसे जीव कहते हैं। यह असंख्य और अल्प ज्ञान
वािा होता है, क्योंलक तमोगणु ी अहक ं ार रज व तम की अलिकता से लवकृ त होकर िलहमतख ु ी हो रहा है।
जाग्रत अवस्था में लचि में सत्त्वगणु हल्का सा दिा रहता है। तमोगणु , सत्त्वगणु को वृलियों के
वास्तलवक रूप को लदखाने से रोके रहता है। रजोगणु प्रिान होकर लचि को इलन्रयों िारा िाह्य लवषयों में
िगाये रखता है। इलन्रयाूँ िलहमतख ु ी होकर स्थिू शरीर िारा कायत करती हैं। स्वप्नावस्था में सत्त्वगणु परू ी तरह
से दिा रहता है। तमोगणु , रजोगणु को इतना दिा िेता है लक वह लचि को इलन्रयों िारा िाह्य लवषयों में नहीं
िगा पाता है। लकन्तु रजोगणु की लक्रया सक्ष्ू म रूप से चिती रहती है। इससे मन इलन्रयों के अन्तमतख ु ी होने
से सक्ष्ू म शरीर में स्वप्न का कायत करता रहता है। सषु प्तु ावस्था में सत्त्वगणु परू ी तरह से दि जाता है। तमोगणु ,
रजोगणु को भी परू ी तरह से दिा िेता है, लिर स्वयं तमोगणु लचि पर परू ी तरह से अलिकार कर िेता है।
इसीलिए सषु प्तु ावस्था में लकसी लवषय पर लकसी प्रकार का ज्ञान नहीं रहता है। सक्ष्ू म शरीर में लकसी प्रकार
का कायत नहीं होता है। सषु ुप्तावस्था कारण शरीर में रहती है।
जि सािक की समालि िगनी शरू ु हो जाती है, ति तमोगणु हल्का सा दिा रहता है। रजोगणु की
लचि में लस्थत वृलियों को चिायमान िनाने की लक्रया कमजोर पड़ने िगती है। सत्त्वगणु प्रिान होकर लचि
को एकाग्र करने और वस्तु के वास्तलवक स्वरूप को लदखाने में समथत होने िगता है। सलवकल्प समालि के
समय लचि में तमोगणु परू ी तरह से दिा रहता है। सत्त्वगुण, रजोगणु को परू ी तरह से दिा देता है तथा सत्त्वगणु
लचि पर परू ा अलिकार कर िेता है। इससे सत्त्वगणु का लचि पर प्रकाश िै ि जाता है। लचि वस्तु से तदाकार
होकर उसका यथाथत रूप लदखिाने में सामर्थयतवान हो जाता है। सक्ष्ू म शरीर में एकाग्र वृलि िनी रहती है।
शि
ु ज्ञान की अवस्था में तमोगणु लसित नाममात्र का रहता है। लचि से तमोगणु व रजोगणु का

सहज ध्यान योग 341


आवरण हट जाता है। सत्त्वगणु लचि पर परू ी तरह से अलिकार कर िेता है, लजससे लचि पर प्रकाश िै ि
जाता है। रजोगणु के वि इतनी मात्रा में रहता है लक वह आत्मा और लचि को लभन्न-लभन्न लदखिाने की
लक्रया कर सके । लनिीज समालि के समय लचि में तीनों गणु ों का िाह्य पररणाम होना िन्द हो जाता है। तीनों
गणु ों के पररणाम के अभाव में आत्मा और लचि के लभन्नता का ज्ञान कराने वािी वृलत भी रुक जाती है।
इससे लचि चैतन्य स्वरूप आत्मा में अवलस्थत हो जाता है।
प्रिय के समय लचि की अवस्था सषु प्तु जैसी होती है। प्रिय का यह अथत नहीं लक जीव को मलु क्त
लमि गयी है क्योंलक जीव के लचि पर जि तक कमातशय रहेंगे, उसे भोग करना ही होगा, अथातत जन्म िेना
अलनवायत है। प्रिय के समय लचि प्रकृ लत में लविीन हो जाता है। लचि के अन्दर कमातशय िीज रूप में िने
रहते हैं। लचि जि प्रकृ लत में लविीन होता है ति जीव सषु प्तु जैसी अवस्था में होता है। सृलष् के समय जीव
को लिर अपने कमातशयों का भोग करने के लिए स्थि ू संसार में आना पड़ता है। िस, यही क्रम अनालद
काि से चिा आ रहा है।
सािकों, जि ध्यानावस्था में सािक की कुण्डलिनी जाग्रत होती है, ति उसे हल्के नीिे रंग के
स्वप्रकालशत आकाश में लिजिी सी चमकती हुई लदखाई देती है। यह जो हल्के नीिे रंग का स्वप्रकालशत
सा आकाश लदखाई देता है लजसमें सयू त, चन्रमा, नक्षत्र आलद नहीं होते हैं, यह नीिा आकाश लचि ही है।
लचि ही हल्के -नीिे रंग का स्वप्रकालशत सा लदखाई देता है। सािक अपने अभ्यास को जैसे-जैसे िढाताा़ है,
वैस-े वैसे सत्त्वगणु की अलिकता िढ़ती है, लचि की भी लनमतिता िढ़ती है। उसकी लनमतिता का अन्दाज
ति िगने िगता है, जि सािक की कुण्डलिनी पणू त यात्रा करके हृदय में लस्थर हो जाती है। लचि में तमोगणु
व रजोगणु के सस्ं कार कम रह जाते हैं, ति सािक के अभ्यासानसु ार लचि में क्रमश: चन्रमा, सयू त, नक्षत्र,
मलण व प्रभा लदखाई देने िगते हैं। इन सिके लदखाई देने से लचि की लनमतिता का ज्ञान होने िगता है। जि
लचि में प्रभा लदखाई दे, ति सािक को समझ िेना चालहए लक लनकट भलवष्य में उसे उच्चतम लस्थलत प्राप्त
होने वािी है। कुछ समय िाद सािक को शि ु ज्ञान प्राप्त होने िगता है। शि
ु ज्ञान की पररपक्व अवस्था में
सािक को लचर शालन्त प्राप्त होती है।
सािक को ध्यानावस्था में कभी-कभी नदी लदखाई देती है। कभी-कभी अनन्त जिाशय भी लदखाई
देता है। सािक ध्यानावस्था में कभी-कभी नदी अथवा जिाशय के पानी के ऊपर चिता है, तैरता है,
डुिकी िगाता है, स्नान करता है आलद। यह नदी या जिाशय स्वयं सािक का लचत ही है। पानी कमातशय
रूप में वृलियाूँ है। जि नदी या जिाशय का पानी गन्दा लदखाई दे, ति समझ िेना चालहए उसके लचि के

सहज ध्यान योग 342


ऊपरी सतह पर तमोगणु ी कमातशयों की िहुत अलिकता है। यलद पानी स्वच्छ लदखे ति इसका यह अथत नहीं
है लक उसके लचि में तमोगुणी वृलियाूँ नहीं है, िलल्क लचि में सत्वगणु ी वृलियाूँ िढ़ने के कारण पानी स्वच्छ
लदखाई देता है। इस पानी में कभी-कभी मगरमच्छ अथवा मछलियाूँ भी लदखाई दे सकती हैं। मगरमच्छ
तृष्णा, िोभ, मोह आलद का प्रतीक है, मछिी लकसी िड़ी इच्छा का प्रतीक है। पानी में मछिी ज्यादातर
उच्चावस्था में लदखाई पड़ सकती है। यह सि मैंने इसलिए लिखा तालक सािकों को समझने में आसानी हो
जाए।

सहज ध्यान योग 343


गुण
प्रकृ लत लत्रगणु ात्मक है। प्रकृ लत लत्रगणु ात्मक होने के कारण ही सृलष् में िढ़ोिरी होना समभव हो पाता
है। प्रकृ लत के लत्रगणु ात्मक होने के साथ-साथ ईश्वर की एक शलक्त माया भी प्रकृ लत का साथ देती है। माया के
प्रभाव से जीव इस संसार में भ्रलमत िना रहता है। इन तीनों गणु ों के नाम हैं– सत्त्वगुण, रजोगुण और
तमोगुण। सत्त्वगणु का स्वभाव प्रकाश व हल्कापन है। रजोगणु का स्वभाव लक्रया व चञ्चिता है। तमोगणु
का स्वभाव लस्थलत व भारीपन है। ये तीनों गणु प्रत्येक पदाथत में पाये जाते हैं। जि कोई वस्तु प्रकाशवान
होती है ति उसमें सत्वगणु की अलिकता आ जाती है। रजोगणु व तमोगणु उस समय सत्त्वगणु की अपेक्षा
कािी कम रहते है। जि कोई वस्तु लक्रयाशीि होती है ति रजोगणु की अलिकता िढ़ जाती है, सत्त्वगणु व
तमोगणु की मात्रा कम पड़ जाती है। इसी प्रकार जि कोई वस्तु लस्थर हो जाती है अथवा लस्थर रहती है ति
तमोगणु की अलिकता िढ़ जाती है, सत्त्वगणु व रजोगुण कम पड़ जाता है। यह तीनों गणु हर पदाथत में हर
अवस्था में लवद्यमान रहते हैं। मगर इन तीनों की मात्रा न्यनू ालिक रहती है, कभी समान रूप से नहीं रहते हैं।
इन तीनों गणु ों की दो अवस्थाएूँ रहती हैं– 1. साम्यावस्था, 2. ववषमावस्था। सामयावस्था
दृलष्गोचर नहीं होती है, लवषमावस्था दृलष्गोचर होती है। पररणामी व लवनाशी है। मि
ू प्रकृ लत, ईश्वर आलद में
गणु ों की अवस्था सामय है। सामयावस्था के कारण अपररणामी व अनालद है। इसीलिए इसका लवशि ु सत्त्वमय
लचि है। सामयावस्था का अथत है गणु समान रूप से िने रहना। गणु ों के समान रूप से होने के कारण गणु ों
की अवस्था न्यनू ालिक नहीं होती है। एक गणु अपने दसू रे साथी को नहीं दिाता है और न ही दिाने की
चेष्ा करता है, इसीलिए लकसी प्रकार का पररणाम नहीं होता है। पररणाम न होने के कारण अपररणामी कहा
जाता है। ईश्वर का लचि गणु ों की सामयावस्था व अपररणामी के कारण सवतव्यापक है।
गणु ों की लवषमावस्था के कारण ही पररणाम समभव हुआ है। लवषमावस्था के कारण गणु समान रूप
से एक-दसू रे के साथ नहीं रहते हैं, सदैव न्यनू ालिक रहते हैं। एक गणु दसू रे गणु को सदैव दिाने का प्रयास
करता रहता है, इसी लक्रया के कारण एक गणु दसू रे पर हावी िना रहता है। लकसी भी वस्तु में कभी सत्वगणु
की मात्रा अलिक हो जाती है, कभी रजोगणु की अलिकता हो जाती है, कमी तमोगणु की अलिकता हो
जाती है। लजस पदाथत में लजस गणु की अलिकता होती है, उसी का गणु उभरकर आने िगता है। इसी कारण
वस्तु में पररवततन आने िगता है, यह पररवततन सदैव िना रहता है। पररवततन को ही पररणामी कहा गया है।
इसी पररवततन के कारण यह ससं ार लवनाशी कहा गया है क्योंलक ससं ार की सभी वस्तओ ु ं का पररवततन होना
लनलश्चत है। पररवततन के कारण ही वस्तएु ूँ एक स्वरूप छोड़कर दसू रा स्वरूप िारण कर िेती हैं। इसी कारण

सहज ध्यान योग 344


इस संसार की तीन अवस्थाएूँ हैं– सृलष्, लस्थलत और प्रिय। इस संसार को क्षणभंगुर इसीलिए कहा गया है।
गणु ों की लवषमावस्था के कारण ही जीवों के लचि में छुपा हुआ अहक ं ार िलहमतखु ी हो जाता है। इसी
लवषमावस्था के कारण जीवों के लचि में पहिी लवकृ लत के रूप में अहक ं ार की उत्पलि होती है। अहक ं ार के
िलहमतख
ु ी होने से अहक ं ार से लवकृ लत रूप में िुलि की उत्पलि होती है। इसी प्रकार क्रमश: लवकृ लतयाूँ िढ़ती
जाती हैं। अन्त में जीवात्मा स्थि
ू शरीर को प्राप्त होता है। लचि की जो पहिी लवकृ लत अहक ं ार है, उसमें
पहिे सत्वगणु की अलिकता रहती है, जि क्रमश: लवकृ लतयाूँ िढ़ती हैं, ति तमोगुण और रजोगणु के प्रभाव
से िोभ, मोह, राग, तृष्णा आलद का जन्म होता है। लिर जीवात्मा इस स्थूि संसार को अपना मानने िगता
है और अपने वास्तलवक स्वरूप को भि ू जाता है। इस कारण जीवात्मा में रजोगणु व तमोगणु की मात्रा िढ़
जाती है। सत्वगणु की मात्रा कम पड़ने िगती है। मगर तीनों गणु सदैव एक साथ लवद्यमान रहते हैं। ऐसा
कभी नहीं हो सकता है लक लकसी वस्तु से एक गणु चिा जाए, लसित दो रह जायें। हाूँ, मात्रा िहुत कम
अथवा िहुत अलिक हो सकती है।
सत्वगणु का रंग उज्जवि सिे द व स्वभाव हल्का है। इसकी अलिकता से प्रकाश की उत्पलि होती
है। रजोगणु का रंग िाि व स्वभाव में लक्रया व चचं िता है। इसकी अलिकता से वस्तु या पदाथत में गलत
करने की शलक्त आती है। तमोगणु का रंग कािा व स्वभाव में भारीपन है। इसकी अलिकता होने पर यह
गलतमान पदाथत को रोकने का कायत करता है। शरीर में जि तमोगणु प्रिान हो जाता है ति शरीर में भारी हो
जाता है तथा काम करने का मन नहीं होता है। सत्वगणु में सख ु , रजोगणु में दख
ु , तमोगणु में मोह उत्पन्न
होता है।
गणु ों की लवषमावस्था के कारण लचि से लवकृ लत रूप में अहक ं ार िलहमतखु ी हो रहा है। अहक ं ार की
ग्रहण रूप में लवकृ लत मन है। मन की लवकृ लत इलन्रयाूँ हैं। इन इलन्रयों का स्वामी मन है। दसू री तरि अहक ं ार
की ग्राह्य रूप में लवकृ लत पाूँच तन्मात्राएूँ है। इन्ही पाूँचों तन्मात्राओ ं से लवकृ लत रूप में सक्ष्ू म पञ्चभतू िलहमतखु ी
हो रहे हैं। इन्हीं सक्ष्ू म पञ्च भतू ों से सक्ष्ू म शरीर का लनमातण होता है। सक्ष्ू म पञ्च भतू ों से लवकृ लत रूप में स्थिू
पञ्च भतू िलहमतख ु ी हो रहे है। इन्हीं स्थूि पञ्च भतू ों से स्थि ू शरीर व स्थि ू जगत का लनमातण हुआ है। जि
सािक समालि िारा इन लवकृ लतयों का साक्षात्कार करता है। समालि की उच्चतम अवस्था में कमातशय पणू त
रूप से समाप्त हो जाते हैं, ति अहक ं ार में तमोगणु व रजोगणु समाप्त होकर लसित गौण रूप में रह जाते हैं।
उस समय सत्त्वगणु ी अहक ं ार प्रिान रूप में रहता है। इस अवस्था में सािक को गुणों की लवषमावस्था का
ज्ञान हो जाता है। अगर यह कहा जाए सारी सृलष् गणु ों का ही पररणाम है, तो यह गित नहीं है।

सहज ध्यान योग 345


गणु ों की लवषमावस्था का अनभु व हमें इस प्रकार आया, लजसे मैं संक्षेप में लिख रहा ह।ूँ यह अनभु व
जनवरी, 1996 में आया था। ध्यानावस्था में देखा लक एक अत्यन्त सन्ु दर कितू र, लजसका रंग लििकुि
सिे द है, लदखने में िहुत आकषतक है, वह आकाश नें उड़ रहा है। उसके उड़ने का तरीका िड़ा लवलचत्र सा
है। वह आकाश में इतनी तीव्र गलत से उड़ता है मानो ऐसा िगता है लक पिक झपकाते ही आकाश के एक
लसरे से दसू रे लसरे पर पहुचूँ जाएगा। कभी-कभी आकाश की अनन्त ऊूँचाई में चिा जाता है लिर उसी क्षण
पृर्थवी पर आ जाता है। मैं ध्यानावस्था में यही सि देखकर हलषतत हो रहा था। कुछ क्षणों में दृश्य िदि जाता
है। आकाश में दो कितू र हैं जो एक के ऊपर दसू रा िैठा हुआ है। ऊपर वािा किूतर नीचे वािे कितू र के
लसर पर जोरदार चोंच से प्रहार कर रहा था। नीचे वािा कितू र चोंच के प्रहार से लशलथि हो गया और लिर
लिल्कुि शान्त हो गया मानो मर गया हो। उसमें लकसी प्रकार का कमपन नहीं हो रहा था। उसी क्षण देखा,
आकाश में उड़ने वािा कितू र िड़ी तेजी से उड़ता हुआ आया, ऊपर िैठे हुए कितू र के ऊपर िैठ गया।
िैठते ही अपने नीचे वािे (िीच वािे) कितू र के लसर पर, अपनी चोंच से जोरदार प्रहार करने िगा। चोंच
के प्रहार से िीच वािा कितू र छटपटाने िगा। छटपटाते समय िीच वािे कितू र ने अपने नीचे वािे कितू र
के भी लसर पर चोंच से प्रहार लकया। मगर नीचे वािा कितू र तो पहिे से ही लशलथि पड़ा था, वह (सिसे
नीचे वािा) मरा-सा पड़ा रहा। मगर सिसे ऊपर वािा कितू र, िीच वािे कितू र पर िगातार प्रहार कर
रहा था। अि िीच वािा कितू र भी शान्त होने िगा। उसी क्षण ऊपर वािा कितू र आकाश में उड़ गया।
लिर पहिे की भाूँलत इिर-उिर उड़ने िगा। इतने में िीच वािे कितू र के अदं र थोड़ी सी जान सी आ गई,
उसी समय आकाश में उड़ने वािा कितू र, लिजिी के समान गलत से उड़ता हुआ आया, और िीच वािे
कितू र के ऊपर िैठ गया। लिर वही पहिे जैसी लक्रया करने िगा। िीच वािे कितू र के लसर पर चोंच का
प्रहार लकया, चोंच िरु ी तरह से लसर में घसु गयी। िीच वािा कितू र तड़पा और लिर शान्त हो गया। लिर
ऊपर वािा कितू र आकाश में उड़ने िगा। मैं ध्यानावस्था में यही लक्रया देख रहा था, अनभु व समाप्त हुआ।
मैं सोचने िगा, अि मझु े अनभु व नहीं आते हैं। इस अवस्था में अनुभव क्यों आ रहे हैं। मैं इस
अनभु व का अथत नहीं लनकाि पाया। जि ध्यानावस्था में कई िार अनभु व आया, ति हमें जानकारी हो
गयी, यह तीनों कितू र तीनों गणु ों के प्रतीक हैं। उड़ने वािा कितू र सत्त्वगणु है, िीच वािा कितू र रजोगणु
है तथा नीचे वािा कितू र तमोगणु है, जो एक दसू रे को दिाने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ लदनों पश्चात् ये
अनभु व आने िन्द हो गये। उड़ने वािा कितू र िहुत ही सन्ु दर था। िीच वािा किूतर उससे कम सन्ु दर था।
नीचे वािे कितू र का रंग मटमैिा था तथा अच्छा नहीं िग रहा था। यह अनभु व हमारी योग्यता को िता

सहज ध्यान योग 346


रहा है।
सत्त्व, रज और तम का प्रभाव लचि पर पड़ता है। मनष्ु य का लचि जि तमोगणु प्रिान होता है ति
सत्त्वगणु और रजोगणु दिे हुए गौण रूप में रहते हैं। यह अवस्था मनष्ु य के िारा काम, क्रोि, िोभ और मोह
के कारण आती है, उस समय मनष्ु य की प्रवृलि अिमत, राग-िेष आलद में होती है। मनष्ु य के लचि में जि
रजोगणु की प्रिानता रहती है सत्त्व और तम दिे हुए गौण रूप में रहते हैं। यह अवस्था राग और िेष के
कारण आती है, ति मनष्ु य की प्रवृलि िमत-अिमत, ज्ञान-अज्ञान आलद में होती है। जि तमोगणु सत्त्वगणु को
दिा िेता है ति अज्ञान और अिमत में प्रवृलि होती है, और जि सत्त्वगणु तमोगणु को दिा िेता है ति ज्ञान
और िमत में प्रवृलि होती है। यह अवस्था सािारण परुु षों में होती है। इसीलिए मनष्ु य िालमतक कायत करता है
और अिमत भी करता है। कभी ज्ञान की िात करता है तो कभी अज्ञान की िात करता है।
जि मनष्ु य के लचि में सत्त्वगणु प्रिान होता है, ति रज और तम दिे हुए रहते हैं। यह अवस्था मनष्ु य
की उस समय आती है, जि मनष्ु य अपने जीवन में िगातार परोपकार व िमतयक्त ु कायत करता है तथा काम-
क्रोि, राग-िेष, िोभ-मोह आलद छोड़ने का प्रयास करता है एवं उसकी प्रवृलि िालमतक कायों में होती है,
ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है, वैराग्य की इच्छा होती है। इस अवस्था में रजोगणु कभी-कभी चञ्चिता
का प्रभाव छोड़ता है। इस कारण लचि में कई प्रकार की लजज्ञासाएूँ प्रकट होने िगती हैं। यह अवस्था श्रेष्ठ
परुु षों की है क्योंलक िाह्य लवषयों का प्रभाव लचि पर पड़ता है, जैसे मलन्दरों, तीथत-स्थिों में भ्रमण करना,
पजू ा करना, आध्यालत्मक पस्ु तकों को पढ़ना, िालमतक कमत करना आलद। हमारा कहने का अथत है लक यह
जरूरी नहीं लक यह अवस्था लसित योगी की ही होती है। योग में सािक की जि उच्चावस्था आती है, ति
यह लस्थलत प्राप्त होती है। लिर आगे की अवस्था लसित योगी की ही होती है, जि सत्त्वगणु अत्यन्त प्रिि
होता है, ति रज और तम एकदम गौण हो जाते हैं।
लत्रगणु ात्मक प्रकृ लत का पहिा लवषम पररणाम लचि है। सत्त्वगणु में रजोगणु लसित लक्रया मात्र तथा
तमोगणु लसित रोकने मात्र होने से लचि की उत्पलि हुई है। इसी लक्रया के कारण सृलष् की उत्पलि हुई है।
जाग्रत अवस्था में मनष्ु य में रजोगणु प्रिान रहता है, इसलिए सत्त्वगणु की मदद से (जो लक गौण रूप
में है) लचि को चञ्चि कर िाह्य लवषयों में िगा रहता है। सषु प्तु अवस्था में तमोगणु प्रिान होकर प्रिि
िना रहता है। सत्त्वगणु व रजोगणु को जोरदार ढंग से दिाये रखता है, इसीलिए लचि में तमोगणु की प्रिानता
का पररणाम होता रहता है। लचि की सभी वृलियों को दिाकर स्वयं लस्थर रूप में प्रिान रहता है। सषु प्तु ावस्था

सहज ध्यान योग 347


में कुछ भी नहीं लदखाई देता है। अन्िकार अथवा दृश्य का अभाव सा प्रतीत होता है। इस अवस्था से जि
मनष्ु य जागता है तो कहता है लक मैं सोया था मगर हमें कुछ मािमू नहीं, यह तमोगणु के प्रभाव से कहता
है। ऐसा समझो लक तमोगणु का प्रभाव सषु प्तु ावस्था में परू ी तरह से रहा। जि सोने के िाद कहे लक मैं ठीक
से सो नहीं पाया, मन दखु ी सा है, ति समझो रजोगणु का प्रभाव सोते समय हल्का-सा िना रहा। जि सोने
के िाद कहे लक मैं सखु पवू तक सोया, मेरा मन प्रसन्न है, ति समझो सत्वगणु का प्रभाव हल्का-सा रहा, तथा
सोने के िाद शरीर हल्का सा हो जाता है। स्वप्नावस्था में रजोगणु प्रभावी रहता है तथा सत्त्वगणु भी तमोगणु
को दिा िेता है। रजोगणु , सत्वगणु की सहायता से व्यापार चिाता है।
स्वगतिोक व ऊपर के िोकों में जो लदव्यात्माएूँ हैं, उनके शरीर में सत्त्वगणु -प्रिान रूप से रहता है,
रजोगणु और तमोगणु गौण रूप में लवद्यमान रहते हैं। मगर, जो जीवात्माएूँ मृत्यु के पश्चात् भुविोक में यातनाएूँ
भोगती हैं वे तमोगणु प्रिान होती हैं, रजोगणु व सत्त्वगुण दिा रहता है। मृत्यु के पश्चात् जो जीवात्माएूँ पृर्थवी
की पररलि में भटकती हैं, उनमें रजोगणु प्रिान रूप से रहता है, तमोगणु सत्त्वगणु को दिाये रखता है। भूिोक
के नीचे के िोकों में जो जीवात्माएूँ रहती हैं, उनमें तमोगणु प्रिान रहता है। भूिोक के नीचे के िोकों के
लिए परु ाणों में कहीं-कहीं वणतन आता है लक लदव्यात्माएूँ रहती हैं। मैंने उनके लिए नहीं लिखा है लक तमोगणु
प्रिान रहता है। मैंने लसित उन जीवात्माओ ं के लिए लिखा है जो अपने कमत भोगने के लिए श्राप देकर नीचे
के िोकों में पहुचूँ ाई गई अथवा कभी-कभी तामलसक शलक्तयाूँ भी लकसी कारण से नीचे के िोकों में कुछ
समय के लिए चिी जाती हैं। क्यों चिी जाती हैं, उनका वणतन करना यहाूँ पर उलचत नहीं है। ऐसी जीवात्माएूँ
तमोगणु प्रिान होती हैं।
भिू ोक पर तीनों गणु ों (कमशुः अिग-अिग) की प्रिानता वािी जीवात्माएूँ रहती हैं। स्वयं मनष्ु य
भि ू ोक पर तीनों अिग-अिग गणु ों में प्रिान रूप में पाये जाते हैं। पौिों में, पेड़ों में तमोगणु प्रिान रहता है।
पशओ ु -ं जानवरों में भी तमोगणु प्रिान रूप में पाया जाता है। मगर पलक्षयों, उड़ने वािे कीट-पतगं ों में रजोगणु
प्रिान रहता है, तमोगणु सत्वगणु को दिाये रखता है। सारी सृलष् में तीनों गणु ों के कारण िदिाव होता रहता
है। यह लक्रया अनालद काि से चिी आ रही है और यही अनंत भलवष्य तक चिती रहेगी।

सहज ध्यान योग 348


अववद्या और माया
अलवद्या का अथत है अज्ञान। मनष्ु य के अन्दर अलवद्या आलद काि से लस्थत है। जि ब्रह्म से जीवात्मा
अिग होकर अलस्तत्व में आयी, ति लत्रगणु ात्मक प्रकृ लत के प्रभाव से लचि की उत्पलि हुई। इस लचि में
सत्वगणु प्रिान रूप से था, रजोगणु लक्रया मात्र तथा तमोगणु लक्रया को रोकने मात्र के लिए था, अथातत्
रजोगणु व तमोगणु गौण रूप में थे। गणु ों के लवषम पररणाम के कारण, तमोगणु में थोड़ी अलिकता के कारण
लचि में लवकृ लत रूप में अहंकार िलहमतख ु ी होने िगा। क्योंलक लचि में अहक ं ार िीज रूप में लवद्यमान रहता
है। इसी अहंकार में अलवद्या िीज रूप में छुपी रहती है। जि अहक ं ार िलहमतख ु ी होने िगता है, तभी से
अलवद्या (अज्ञान) का प्रभाव जीवात्मा पर पड़ता है। अलवद्या के कारण अहभं ाव की उत्पलि होती है। इसी
अहभं ाव के कारण क्िेश उत्पन्न होता है और लिर जीवात्मा अपने आपको ब्रह्म से अिग मानने िगती है,
लत्रगणु ात्मक प्रकृ लत को अपना मानने िगती है जिलक प्रकृ लत जड़ है। इसी जड़ प्रकृ लत को अपना मानने के
कारण जीवात्मा को क्िेश सहने पड़ते हैं क्योंलक जीवात्मा को जड़ प्रकृ लत चैतन्य जैसी िगने िगती है।
जड़ प्रकृ लत स्वयं कुछ नहीं कर सकती है। उस पर चैतन्यमय तत्व का प्रलतलिमि पड़ रहा है, इसलिए चैतन्य
सी लदखती है। यह सि अलवद्या के कारण होता है। अलवद्या तमोगणु ी अहक ं ार से उत्पन्न हुई है। इसी से राग-
िेष आलद दुःु ख उत्पन्न होते हैं।
सािारण मनष्ु य अलवद्या के कारण स्थि
ू पदाथों को अपना मानने िगता है तथा अलवद्या से यक्त

होकर कायत करता है। इसी अलवद्या यक्त ु कायत करने के कारण लचि में कमातशय िनते हैं। ये कमातशय ही
मनष्ु य के जन्म और आयु का कारण होते हैं। दुःु ख, क्िेश, मोह और देहालभमान अलवद्या के कारण होता
है। अलवद्या के कारण पहिे जीव का ज्ञान क्षीण होने िगता है, इसी कारण आत्मा और लचि में लभन्नता
नजर नहीं आती है।
मनष्ु य लजतने भी कमत करता है, वे प्रकृ लत के गणु ों िारा लकये जाते हैं। मगर अहक
ं ार वश मनष्ु य यह
समझ िेता है लक यह कमत मैं कर रहा ह,ूँ यही अज्ञान अथातत अलवद्या है। अलवद्या का लवरोिी ज्ञान है। ज्ञान
जि सािकों में प्रकट हो जाता है, ति अलवद्या का आवरण लछन्न-लभन्न हो जाता है। वैराग्य के उदय होने
पर अलवद्या का प्रभाव भी कम पड़ने िगता है। वैसे मनष्ु य के शरीर में अलवद्या का स्थान कण्ठ चक्र में माना
गया है। इसीलिए सािक जि कण्ठ चक्र से ऊपर की लस्थलत प्राप्त करता है, ति आज्ञा चक्र पर पहुचूँ ता है।
उस सािक के अन्दर ध्यानावस्था में लवचार आते हैं ‘मैं कौन ह’ूँ , ‘कहाूँ से आया ह’ूँ , ‘कहाूँ जाऊूँगा’ आलद।
उसके अन्दर यह सि जानने की लजज्ञासा उत्पन्न होने िगती है, तथा खोज में िग जाता है।

सहज ध्यान योग 349


सािक जि योग का अभ्यास अलिक करता है और समालि अवस्था पर आ जाता है उस समय
लचि की एकाग्रता िारा तन्मात्राओ ं का साक्षात्कार होता है। लिर तमोगणु ी अहक ं ार का साक्षात्कार होता है।
इसी तमोगणु ी अहंकार के साक्षात्कार के समय से अलवद्या का प्रभाव कम पड़ने िगता है क्योंलक वैराग्य
और ज्ञान का उदय होने िगता है। मगर इस समय अलवद्या का लवनाश नहीं होता है। आगे चिकर लनलवतकल्प
समालि िगती है। इस समय कमातशय अभी शेष रहते हैं। ये शेष कमातशय अलवद्या वािे तथा क्िेशात्मक
होते हैं। यह कमातशय सािक योगिि से जिा नहीं सकता क्योंलक प्रकृ लत का लनयम है, ये कमातशय भोगकर
ही समाप्त लकये जाते हैं। इसलिए इन कमातशयों को भोगते समय सािक को िहुत ही अलिक क्िेश उठाने
(सहने) पड़ते हैं। जि यह कमातशय भोग लिए जाते हैं, ति लचि में कमातशय नहीं रहते हैं, सत्वमय अहक ं ार
की प्रिानता रहती है। अलवद्या का परू ी तरह नाश हो जाता है, शि ु ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ये शेष कमातशय
भोगते समय ही अलवद्या का नाश होता रहता है तथा अहक ं ार का तमोगणु िीरे -िीरे वास्तलवक कम होने
िगता है, लिर तमोगणु लसित गौण रूप में रह जाता है। अलवद्या अपने मि ू स्रोत अहक ं ार में, िीज रूप में
लस्थत हो जाती है। शिु ज्ञान के प्राप्त होने पर सािक को आत्मा और लचि के लवषय में ज्ञान हो जाता है
लजससे आत्मा और लचि की लभन्नता समझ में आ जाती है।
माया ईश्वर की अद्भुत शलक्त है। ईश्वर जि सृलष् की रचना करते हैं ति इस माया रूपी शलक्त के
सहयोग से करते हैं। ईश्वर की शलक्त होने के कारण, यह ईश्वर के ही समान सदा से है। माया और ईश्वर का
आपस में तादात्मय है। ये एक-दसू रे से अिग नहीं हो सकते हैं। माया– जीवात्मा को भ्रम में डािे रखती है।
जैसे कभी-कभी जमीन पर पड़ी हुई रस्सी सपत के रूप में लदखाई पड़ती है, उस समय सपत पणू त रूप से िगता
है। मगर जि जानकारी हो जाती है लक यह रस्सी है, ति सपत नहीं रहता है। इसी प्रकार ज्ञान प्राप्त हो जाने पर
माया दरू हो जाती है। ज्ञालनयों पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता है। ज्ञान की प्रालप्त पर माया रूपी जगत की
असलियत साि लदखाई पड़ने िगती है। इसलिए माया अलनवतचनीय है। इसका प्रभाव स्वयं ईश्वर पर नहीं
पड़ता है। लजस प्रकार जि जादगू र अपना जादू लदखाता है, ति जादू का प्रभाव स्वयं जादगू र पर नहीं पड़ता
है िलल्क उपलस्थत अन्य सभी व्यलक्तयों पर पड़ता है। देखने वािे को जादू उस समय सत्य िगता है मगर
वास्तव में सत्य नहीं होता है, लसित भ्रम मात्र है। माया समपणू त जगत में व्याप्त रहती है।
अलवद्या जीव में रहती है। अलवद्या से िलु ि प्रभालवत रहती है। अलवद्या भी अनालद काि से है।
अलवद्या और माया लमिते जि ु ते एक ही पहिू जैसे हैं। वैसे इन दोनों में अन्तर है, माया ईश्वरीय शलक्त है,
जिलक अलवद्या स्वयं जीव में मौजदू रहती है। अलवद्या अव्यक्त रूप में है, इसका स्वभाव आवरण डािना

सहज ध्यान योग 350


है। अलवद्या का आश्रय जीव ही है। जीव पर जैसे ही अलवद्या का प्रभाव पड़ता है ति वह अपने लनजस्वरूप
आत्मा को नहीं पहचान पाता है। मगर आत्मा के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जैसे वषात ऋतु में
िादिों के आच्छालदत होने से सयू त का लदखाई पड़ना िन्द हो जाता है, मगर सयू त पर िादिों का कोई प्रभाव
नहीं पड़ता है, वह पहिे की भाूँलत ही रहता है। अलवद्या का अथत अज्ञान होता है। अज्ञान का मतिि ज्ञान
का अभाव होना। इसका मतिि शि ु ज्ञान होने पर अलवद्या का नष् होना लनलश्चत है।
अलवद्या के कारण ही जीवात्मा को कमों के िन्िन में िन्िना पड़ता है, ज्ञान प्राप्त होने पर कमों के
कमातशय नहीं िनते हैं। ज्ञान की प्रालप्त ही माया की असलियत खोिती है। माया रहती तो पहिे जैसी ही है,
मगर वह ज्ञालनयों पर अपना प्रभाव नहीं लदखा पाती है। योग के अनसु ार माया और अलवद्या का स्थान कण्ठ
चक्र है।
आत्मा और लचि की लभन्नता का ज्ञान न होना ही अलवद्या है। तमोगणु ी अहक ं ार में अलवद्या सक्ष्ू म
रूप से (िीज रूप में) लवद्यमान रहती है। समालि अवस्था में जि तमोगणु ी अहक ं ार का साक्षात्कार होता है,
उसी समय अलवद्या का साक्षात्कार होता है। अभ्यास िढ़ने पर तमोगणु ी अहक ं ार के साथ अलवद्या भी अपने
मिू स्रोत में लविीन होने िगती है। अलवद्या और माया की आपस में गहरी दोस्ती है। अज्ञान के कारण माया
मनष्ु य को भ्रम में डािे रहती है। जि अलवद्या का साक्षात्कार हो जाता है ति माया का भी प्रभाव समाप्त
होने िगता है। माया लसित अज्ञालनयों को प्रभालवत करती है। माया अलवद्या के लिना अपना प्रभाव नहीं
लदखा पाती है। इसीलिए कहा गया है ज्ञानी परुु षों को माया प्रभालवत नहीं कर पाती है।
जि तमोगणु ी अहक ं ार के साथ अलवद्या मि ू स्रोत में लविीन होने िगती है, ति ऋतमभरा-प्रज्ञा
प्राकट्य होने के कारण शि ु ज्ञान (तत्वज्ञान) प्राप्त होने िगता है। जि सािक के अन्दर शि ु ज्ञान की प्रििता
कम हो जाती है, ति व्यत्ु थान की वृलियाूँ प्रकट होने िगती है। इन व्यत्ु थान की वृलियों के प्रकट होने के
समय अलवद्या भी तमोगणु ी अहक ं ार के साथ अपने मि ू स्रोत से प्रकट हो जाती है। तभी सािक को िगने
िगता है ‘मैं सख ु ी ह’ूँ , ‘मैं दखु ी ह’ूँ आलद। जि शि ु ज्ञान की प्रििता समालि के अभ्यास िारा लिर िढ़ती
है, ति व्यत्ु थान की वृलियाूँ िीरे -िीरे नष् होने िगती हैं। अलवद्या लिर अपने मि ू स्रोत में लविीन हो जाती
है। जि तक शि ु ज्ञान पररपक्व नहीं होता है, यही क्रम चिता रहता है। यह मेंरी स्वयं की अनुभलू त है।
सािकों, यह िात ध्यान में रखनी चलहए लक स्वाध्याय से, शास्त्रों के पढ़ने से अथवा उपदेश सुनने
से अलवद्या से मलु क्त नहीं लमि सकती है अथातत् ज्ञानवान नहीं िना जा सकता है। अलवद्या से मलु क्त के लिए

सहज ध्यान योग 351


समालि िगाना अलत-आवश्यक है। कई जन्मों तक समालि िगाते रहने के अभ्यास के िाद ही अलवद्या से
आप मक्त
ु हो पायेंगे। अलवद्या का लवरोिी शि
ु ज्ञान है, शि
ु ज्ञान से अलवद्या का मि
ू ोच्छे द हो जाता है।

सहज ध्यान योग 352


प्रकृवत
प्रकृ लत पाूँच तत्त्वों व तीन गणु ों से लनलमतत है। इसका स्वभाव जड़, सलक्रय तथा सदैव पररणामी हैं।
पाूँच तत्त्वों व तीनों गणु ों के कारण इसमें हर क्षण कुछ न कुछ पररवततन होता रहता है। इस पररवततन का
कारण तीनों गणु हैं। ये तीनों गणु लवषम अवस्था में रहते है। लवषम अवस्था के कारण एक गणु दसू रे गणु को
दिाता रहता है। अि यह कहा जा सकता है लक प्रकृ लत जड़ है तो चैतन्य-सी क्यों लदखती है। इसका कारण
है लक यह जड़ प्रकृ लत चेतन तत्व के अलत लनकट है। इसलिए चेतन तत्व की परछाई (प्रलतलिमि) जड़ प्रकृ लत
पर पड़ती है, ति यह जड़ प्रकृ लत भी चेतन सी भालसत होने िगती है। सत्त्वगणु में रजोगणु लक्रया मात्र तथा
तमोगणु रोकने मात्र होता है। इन्हीं गणु ों की लवषम अवस्था के कारण, प्रकृ लत का सिसे पहिा पररणाम लचि
है। इसी लचि में अहक ं ार िीज रूप में लवद्यमान रहता है। जि जीवात्मा ब्रह्म से अिग होती है, ति प्रकृ लत
का प्रभाव पड़ता है। प्रकृ लत के प्रभाव के कारण गणु ों की जो लवषम अवस्था है, वे लचि का लनमातण करते हैं।
लचि में अहक ं ार िीज रूप से लवद्यमान होने के कारण, अहक ं ार िलहमतख
ु ी होने िगता है। इसी अहक ं ार में
अलवद्या िीज रूप में लवद्यमान रहती है। इसी अलवद्या के कारण जीवात्मा के अन्दर अहम् भाव आ जाता
है। इस अहम् भाव आने के कारण सत्वगणु में रजोगणु व तमोगणु की अलिकता आने िगती है। इससे जीव
अपने आपको ब्रह्म से अिग मानने िगता है। जि अहक ं ार िलहमतख
ु ी होता है, ति इससे िलु ि प्रकट हो
जाती है। अहक ं ार की अपेक्षा िुलि में रज और तम का प्रभाव अलिक रहता है। िलु ि के िलहमतख ु ी होने पर
मन व दसों इलन्रयों की उत्पलि होती है। इन इलन्रयों का स्वामी मन होता है।
अहकं ार में गणु ों का प्रभाव िढ़ने से यह िलहमतख ु ी होता है, ति इसकी लवकृ लत होकर ग्रहण और
ग्राह्य दो लवषम पररणाम होने िगते हैं, लजससे िलु ि, मन और इलन्रयाूँ उत्पन्न होती है, तथा पाूँच तन्मात्राएूँ
उत्पन्न होती है। इन तन्मात्राओ ं से सक्ष्ू म पञ्चभतू और इन पाूँचों सक्ष्ू म भतू ों से स्थि ू पंचभतू िलहमतख ु ी होते
हैं। इसीलिए िलहमतख ु ता के कारण लचि की अपेक्षा अहक ं ार में, अहंकार की अपेक्षा िलु ि में, िलु ि की
अपेक्षा मन में, मन की अपेक्षा इलन्रयों में रज और तम की मात्रा क्रमशुः िढ़ती जाती है तथा तन्मात्राओ ं में,
तन्मात्राओ ं की अपेक्षा सक्ष्ू म पंचभतू ों में, सक्ष्ू म पंचभतू ों की अपेक्षा स्थि
ू पंचभतू ों में रज और तम की मात्रा
िढ़ती जाती है। इसलिए स्थि ू शरीर में रज और तम ही व्याप्त रहता है सत्वगणु तो नाम मात्र रहता है।
लजस समय लचि गणु ों की लवषम अवस्था के पररणामस्वरूप िनता है, उस समय तमोगणु की मात्रा
अत्यतं कम होती है। तभी उसमें अलवद्या िीज रूप में लवद्यमान रहती है। इस अलवद्या के कारण ही जीवात्मा
अपने आपको ब्रह्म से अिग मानती है। क्योंलक जि अहक ं ार िलहमतख
ु ी होता है, ति उसके अदं र से ‘मैं ह’ूँ

सहज ध्यान योग 353


की वृलि उठती है। इसी अहम् भाव के कारण राग, िेष, क्िेश कमत होते हैं और सकाम कमत लकए जाते हैं
और यही कमातशय जन्म, आय,ु मृत्यु िारा भोगे जाते हैं।
जो ईश्वर का शरीर है वह भी प्रकृ लत के पाूँचों तत्वों व तीनों गणु ों से लनलमतत है। मगर जीवात्मा और
ईश्वर में लभन्नता होती है। लभन्नता का कारण तीनों गणु हैं। ये तीनों गणु ईश्वर में सामयावस्था में रहते हैं। इस
कारण एक गणु दसू रे गणु पर दिाव नहीं देता है। सामयावस्था के कारण ईश्वर के लचि में कभी लवकृ लत नहीं
आती है। स्वयं मि ू प्रकृ लत जड़ होते हुए भी गणु ों की सामयावस्था वािी होती है। गणु ों की सामयावस्था के
कारण मि ू प्रकृ लत अदृश्य रूप में रहती है। जो प्रकृ लत हमें नेत्रों िारा लदखाई पड़ती है, वह गणु ों की
लवषमावस्था वािी है जो लक पररणामी है और माया जैसी प्रतीत होती है। इसीलिए ईश्वर हमें स्थि ू नेत्रों से
लदखाई नहीं पड़ता है गणु ों की सामयावस्था के कारण वह स्थि ू भतू ों से रलहत अलत सक्ष्ू म है।
समपणू त कमत प्रकृ लत के गणु ों िारा लकये जाते हैं। अहं कार के िारा मोलहत हुआ जीव यह समझता है
लक यह कमत मैं करता ह,ूँ ऐसा अज्ञान के कारण होता है। अज्ञान के कारण ही जीव िन्िन में पड़ता है। यह
सि लक्रया लचि में होती है क्योंलक सारे पररणाम लचि में होते हैं। आत्मा अपररणामी है। इसलिए आत्मा
सख ु और दुःु ख में, ज्ञान के समय या मोक्ष में, समान रूप से रहती है। सि कुछ प्रकृ लत का ही िदिाव है।
प्रकृ लत अपने आपको िन्िन में डािती है। प्रकृ लत ही अपने आपको िन्िन से छुड़ाती है।
सािक जि समालि अवस्था में पहुचूँ ता है, ति तन्मात्राएूँ, इलन्रयाूँ आलद अंतमतख
ु ी होने िगती हैं।
लजस क्रम से िलहमतखु ी हुई थी, उसी उल्टे क्रम में अंतमतख
ु ी होने िगती हैं। इससे तमोगणु का प्रभाव कम
पड़ने िगता है। रजोगणु भी िीरे -िीरे कम होने िगता है। सत्वगणु का प्रभाव िढ़ने िगता है। सत्वगणु का
प्रभाव िढ़ने पर अंत में अपने लनज स्वरूप तक पहुचूँ ा जा सकता है।
जि सािक योगाभ्यास के िारा अतं मतख ु ी होने िगता है ति उसकी अवस्था भी िदिने िगती है।
स्थि ू शरीर से सक्ष्ू म शरीर में, सक्ष्ू म शरीर से कारण शरीर में, कारण शरीर से महाकारण शरीर में सािक की
लस्थलत हो जाती है। महाकारण शरीर का उल्िेख अक्सर कम ही लमिता है। मगर सािक कारण शरीर के
िाद महाकारण को मानता है। ये शरीर स्थूि शरीर से घनत्व औसत में क्रमशुः कम घनत्व वािे होते जाते
हैं, इसीलिए सािक के अंदर व्यापकता आती जाती है। महाकारण शरीर आलखरी शरीर है अथातत प्रकृ लत
के गणु ों की सामयावस्था है।
सािक को जि योग में उच्चावस्था प्राप्त होती है, ति सािक लदव्यदृलष् के िारा प्रकृ लत देवी के दशतन

सहज ध्यान योग 354


कर सकता है। वैसे प्रकृ लत देवी के दशतन सािकों को कई रूपों में होते हैं। जहाूँ तक मेरा स्वयं का अनभु व
है, मैंने प्रकृ लत देवी के दशतन अंतररक्ष में कई िार लकये। उस समय उसके शरीर पर हरे रंग की साड़ी व हरा
ब्िाउज होता था। उसकी साड़ी में चमकदार लसतारे िगे रहते थे। उन लसतारों से चमक लनकिा करती थी।
लसर पर ऊूँचा मक ु ु ट होता था। वह अंतररक्ष में खड़ी मस्ु कराया करती थी। एक िार प्रकृ लत देवी ने िताया था
लक मैं ही सारे ब्रह्मांड की व्यवस्था करती ह।ूँ कुछ समय के लिए मेरा और प्रकृ लत देवी का ज्यादा लनकट का
समिन्ि रहा है। कभी-कभी मैं प्रकृ लत देवी िारा िताये गये कायों को करता था। उसी समय प्रकृ लत देवी ने
हमें ढेरों गुप्त कायत िताये तथा अपने कुछ लनयमों से अवगत कराया, लजसका वणतन मैं यहाूँ पर नहीं कर
सकता ह,ूँ क्योंलक प्रकृ लत के लनयमों के अनसु ार वह अपने भेद गप्तु रखती है। मैं लसित इतना िता सकता हूँ
लक इस लवषय में हमें गप्तु लनयम िताये गए व कुछ गप्तु दृश्य भी लदखाये गए। जैसे– सािक अपने कमातशय
कै से कम कर सकता है, क्योंलक सािकों को कई जन्मों तक योग का अभ्यास करना पड़ता है, ति कहीं
उसका जन्म िेना रुकता है। यलद सािक इन लनयमों को अपनाये तो उस सािक के कमातशय कम हो जाते
हैं, ति उस सािक को जन्म कम िेने पड़ेंगे। िेलकन ये कमातशय एक लनलश्चत मात्रा में ही कम लकये जा सकते
है, क्योंलक कमातशयों के कारण ही जन्म लनलश्चत है। प्रकृ लत देवी को अपनी व्यवस्था भी िदिनी पड़ती है,
इस व्यवस्था के लवषय में लसित उच्चकोलट का सािक ही समझ सकता है। कुछ सरि शब्दों में वणतन करूूँ–
इस ससं ार को योलगयों की िहुत जरूरत पड़ती है। सािकों के िारा योग की परमपरा चिती रहती है लजससे
िमत और अिमत का लनलश्चत मात्रा में सतं ि ु न िना रहता है। यही कारण है जि अिमत अलिक िै ि जाता है
तो िड़े-िड़े सािक स्वयं स्वेच्छा से जन्म ग्रहण करने िगते हैं, लिर भि ू ोक पर िमत का प्रचार करते हैं।
जैसे-जैसे कलियगु िढ़ेगा, वैस-े वैसे अिमत लनलश्चत मात्रा में िढ़ेगा। यलद अिमत लनलश्चत अनपु ात से अलिक
हो गया हो, क्योंलक मनष्ु य अिमी व तमोगणु ी अलिक संख्या में हो जाते हैं, ति सािक िमत का प्रचार करके
संति ु न िना देते हैं। हाूँ, यह सच है कलियगु के अंत में अलिकांश मनष्ु य अिमी हो जायेंगे। मगर ऐसा
प्रकृ लत देवी की व्यवस्था के अनसु ार होगा।
प्रकृ लत देवी ने िताया मनष्ु य की मृत्यु के िाद की अवस्था क्या होती है अथातत जीवात्मा कहाूँ जाती
है, क्या करती है। सािारण मनष्ु य की जीवात्मा और सािक परुु ष की जीवात्मा के लवषय में जानकाररयाूँ
उपिब्ि करायीं तथा सक्ष्ू म जगत में क्या होता है, लजसका थोड़ा-सा वणतन मैं पहिे कर चक ु ा ह।ूँ सािक
जन्म लकस प्रकार िेता है तथा सािारण परुु ष जन्म लकस प्रकार िेता है, पश-ु पक्षी और पेड़ों के लवषय में
िताया। सिसे महत्वपणू त िात यह है लक सािक प्रकृ लत की व्यवस्था में गड़िड़ी पैदा कर सकता है। वह इस

सहज ध्यान योग 355


प्रकार से लक सािक जि लकसी को श्राप या वरदान देता है तो श्राप और वरदान दोनों अवस्थाओ ं में सािक
का योगिि कायत करता है। इसलिए सािक के शब्द सत्य करने के लिए, प्रकृ लत देवी को वैसी ही व्यवस्था
करनी पड़ती है। हाूँ, यह भी सत्य है लक श्राप व वरदान तरु न्त िागू नहीं होता है। उसका कारण है आज के
यगु में (कलियगु में) अिमत के कारण अशि ु ता अथवा तमोगणु की ही अलिकता है। सािक का योगिि
सत्वगणु वािा होता है। इसलिए सत्वगणु में तमोगणु अवरोि डािता है। श्राप अथवा वरदान से यक्त ु परुु ष
की मृत्यु के िाद दसू रा जन्म ग्रहण करते समय वैसी ही व्यवस्था कर दी जाती है। श्राप तथा वरदान परुु ष के
लचि पर अंलकत हो जाता है। जि उलचत समय आता है ति यह िलित होता है।
वैसे प्रकृ लत देवी िारा हमें एक लवशेष प्रकार का आशीवातद प्राप्त है– मैं लकसी भी पुरुष के एक लनलश्चत
मात्रा में कमातशय कम कर सकता ह।ूँ मगर यह ध्यान रखना है लक यह कायत िहुत सोच समझकर करना
चालहए। इस आशीवातद का प्रयोग मैंने तीन सालिकाओ ं पर लकया। एक सालिका पनू ा की है तथा दो
सालिकाएूँ जिगाूँव (महाराष्र) की हैं। िाद में इन सभी के कमातशयों के कारण हमें िड़ा कष् उठाना पड़ा
क्योंलक हमने लजतने चाहे कमातशय कम कर लदये, मगर उनको भोगेगा कौन? कुछ योगिि से जिा लदये,
कुछ पृर्थवी के अंतररक्ष में लिखेर लदये। िाद में हमें मािमू हुआ लक हमें ऐसा नहीं करना चालहए था। यह सि
कुछ मोह वश हुआ था, मगर अि भलवष्य में ऐसा नहीं होगा। अि ज्ञान के िारा सारी जानकारी हो गयी है।

सहज ध्यान योग 356


ईश्वर
ईश्वर लनगतणु ब्रह्म का सगणु स्वरूप है। ईश्वर चेतनतत्त्व और कारण शरीर (महाकारण) से लनलमतत है।
उसका शरीर पाूँचों तत्व व तीनों गणु ों िारा लनलमतत हैं। ईश्वर के अंदर गणु ों की सामयावस्था होती है अथातत
तीनों गणु समान रूप से रहते हैं। कोई भी गणु दसू रे गणु को दिाव नहीं देता है। ईश्वर का लचि गणु ों की
सामयावस्था से लनलमतत होने के कारण, लचि में लवकृ लत नहीं होती है। इसीलिए ईश्वर लवभु (व्यापक) है।
जिलक जीवों का लचि गणु ों की लवषमावस्था से लनलमतत होने के कारण उसमें लवकृ लत उत्पन्न होती है। इसी
लवकृ लत में अहक ं ार व अलवद्या िीज रूप में रहते हैं। इसी कारण जीव लवभु नहीं है। योगी चाहे लजतनी तपस्या
अथवा योग कर िे, वह ईश्वर नहीं िन सकता है। ईश्वर के समान शरीर वािा हो सकता है, मगर ईश्वर की
जगह नहीं िे सकता है इसी कारण िैतवादी योगी अपनी अंलतम अवस्था में ईश्वर के शरीर के अंदर लविीन
हो जाता है।
ईश्वर की एक शलक्त माया भी है जो जीवों को भ्रम में डािे रहती है। माया अलवद्या के कारण अपना
कायत करती रहती है। जि योगी अहक ं ार को, लजसमें अलवद्या िीज रूप में लस्थत रहती है, रजोगणु व तमोगणु
से साि (क्षीण) कर देता है, ति सत्वमय अहक ं ार के समय, इस अलवद्या का भी आवरण हट जाता है। इस
अवस्था में योगी को ईश्वर की माया प्रभालवत नहीं करती है। एक उदाहरण दे रहा ह–ूँ ईश्वर और जीव रूपी
दो पक्षी एक की साथ रहने वािे और लमत्र भी हैं। ये दोनों एक ही लत्रगणु ात्मक प्रकृ लत रूपी वृक्ष पर रहते हैं।
इनमें से एक जीव रूपी पक्षी, स्वाद वािे िि को खाता है और दसू रा ईश्वर रूपी पक्षी िि को नहीं खाता
है, लसित साक्षी रहता है। प्रकृ लत रूपी वृक्ष पर जीव रूपी पक्षी िि पर आसक्त होकर िोखा खाता है और
दुःु ख महससू करता है, मगर ईश्वर रूपी पक्षी िि पर आसक्त नहीं होता है, इसलिए वह सख ु -दुःु ख से परे
है। यहाूँ पर िि का अथत जन्म है तथा भोग रूपी सुख-दख ु लजसे आयु व मृत्यु कहते हैं।
लवशिु सत्वमय चेतन स्वरूप ईश्वर में लकसी प्रकार का पररणाम होना लििकुि असभं व है क्योंलक
उसमें रजोगणु व तमोगणु नाम मात्र को लवद्यमान हैं। इसीलिए अलवद्या से कोई समिन्ि नहीं है; वह स्वयं
ज्ञान स्वरूप है। ज्ञान का स्वरूप होने के कारण ईश्वर ने ससं ार सागर में दख
ु भोग रहे जीवों को ज्ञान व उपदेश
के िारा उिार करने के लिए, लवशि ु सत्वरूप िारण कर रखा है। ईश्वर का लचि गणु ों की सामयावस्था के
कारण, पररणामी नहीं होने के कारण लवभु है, अथातत स्वयं ईश्वर व्यापक है। जीव का लचि गणु ों की
लवषमावस्था के कारण पररणामी है, इसीलिए जीव िन्िन में है। िन्िन के कारण लनलश्चत सीमा तक (सीलमत)
है, इसीलिए जीवों की सख्ं या अनतं है। ध्यान देने योग्य िात यह है ईश्वर का लचि व्यापक होने के कारण,

सहज ध्यान योग 357


हर क्षण प्रत्येक कण-कण में उपलस्थत रहता है। कण-कण में व्याप्त होने के कारण, वह सभी जीवों के लवषय
में जानता है, हर जीव के लचि को वह भिी प्रकार जानता पहचानता है। जीवों के कल्याण हेतु कभी-कभी
उनका अंश अवतार ग्रहण कर िेता है।
ईश्वर सवतत्र व्याप्त होने के कारण तथा लवशि ु सत्वमय होने के कारण सवतशलक्तमान है क्योंलक उसकी
उपलस्थलत हर जगह पर होती है। यही कारण है सृलष्, लस्थलत, प्रिय के समय ईश्वर सदैव रहता है। यह तीनों
कायत (सृलष्, लस्थलत, प्रिय) लिना ईश्वर के नहीं हो सकते हैं अथातत सृलष्, लस्थलत और प्रिय ईश्वर की इच्छा
पर होती है। प्रिय के समय सभी िीज रूप में ईश्वर के अंदर समा जाते हैं। सृलष् के समय यही िीज रूप अंश,
ईश्वर से िाहर आ जाते हैं। क्योंलक जीवों के कमातशय समाप्त न होने के कारण सृलष् होना अलनवायत है जीवों
के कमातशय सक्ष्ू म िीज रूप में िने रहते हैं। प्रकृ लत ईश्वर के अंदर समा जाती है और ईश्वर लनगतणु ब्रह्म के
अंदर समा जाता है। ऐसा के वि आत्यंलतक प्रिय के समय होता है। ईश्वर को प्रकृ लत से परे व सगणु ब्रह्म
कहते हैं।
प्रकृ लत को स्वतत्रं नहीं माना जा सकता है, जिलक कुछ िोगों का मानना है लक प्रकृ लत स्वतत्रं है।
इसका समािान इस प्रकार हो सकता है लक ईश्वर को प्रेरक न मानकर प्रकृ लत को ससं ार की रचना का कारण
मानें, तो दोष होगा। लिना चेतन की प्रेरणा से जड़ पदाथत में लकसी प्रकार की लक्रया उत्पन्न नहीं हो सकती
है, जैसे सारथी के लिना रथ नहीं चि सकता है। इसीलिए लवशि ु सत्वमय, ज्ञान स्वरूप, चेतन ईश्वर को
मानना ही पड़ेगा।
सखु -दुःु ख, क्िेश आलद जीवों के लचि का स्वभाव है न लक आत्मा का। ईश्वर का इन सख ु -दुःु ख,
क्िेश आलद से कोई समिन्ि नहीं है। ईश्वर तीनों कािों में (सृलष्, लस्थलत और प्रिय) मक्तु है। ईश्वर का अथत
है– ‘ईशनशीि’ अथातत इच्छा मात्र से सि कायत करने में समथत। इसीलिए ईश्वर की इच्छा मात्र (संकल्प
मात्र) से सृलष् होनी शरूु हो जाती है। लस्थलत भी इच्छामात्र से रहती है। प्रिय भी इच्छामात्र से होने िगती
है। इन तीनों कायों के लिए उसे कहीं जाना नहीं पड़ता है। अथवा लकसी प्रकार की लक्रया नहीं करनी पड़ती
है। ईश्वर का ऐश्वयत अनालदकाि से है क्योंलक ईश्वर का लचि तीनों गणु ों की सामयावस्था िारा लनलमतत
अनालदकाि से है। ईश्वर के लवशि ु सत्वमय लचि में ज्ञान लनत्य है। इसीलिए ईश्वर ज्ञान का स्वरूप कहा गया
है। योगी चाहे लजतने यगु ों तक योग करे (समालि िगाये), वह ईश्वर नहीं हो सकता है। क्योंलक जीवों के लचि
गणु ों की लवषमावस्था िारा लनलमतत हुआ है। योगी योग के िारा ईश्वर के लनकट पहुूँच सकता है, जैसे– उसी
(ईश्वर) के स्वरूप का हो जाना अथवा ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त कर िेना, मगर जो गणु ईश्वर में अनालदकाि

सहज ध्यान योग 358


से है, यह गणु योगी कहाूँ से िायेगा। इसीलिए योगी को अंलतम अवस्था में ईश्वर के शरीर में लविीन होना
पड़ेगा, लजसे सायज्ु य मोक्ष कहते है ूँ। ईश्वर के शरीर में वही योगी लविीन होगा जो सगणु उपासक अथवा
िैतवादी होगा। अगर अिैतवादी अथवा लनगतणु उपासक है, ति योगी अत्यंत तेजोमय प्रकाश (लनगतणु ब्रह्म)
में लविीन होगा।
ईश्वर को ज्ञान का स्वरूप इसलिए कहते हैं लक ईश्वर के लचि में लकसी प्रकार का पररणाम नहीं होता
है उसका लचि लवशि ु सत्त्वगणु मय है। वह अनालद काि से दृष्ा है– इस संसार का, क्योंलक वह सवतत्र व्याप्त
है, उसकी सवतत्र व्यापकता अनालद है। अनालदकाि से दृष्ा होने के कारण वह समपणू त जगत का ज्ञान रखता
है। यह ज्ञान पररणाम िारा प्राप्त नहीं हुआ है, िलल्क अनालद दृष्ा होने के कारण उसका ज्ञान अपररणामी है।
अपररणामी का तात्पयत लनत्य है, ईश्वर का ज्ञान लनत्य है। लनत्य ज्ञान होने के कारण उसे ज्ञानस्वरूप कहा गया
है। जिलक योगी का ज्ञान पररणाम िारा प्राप्त हुआ है। योगी को ज्ञान उच्चतम अवस्था में प्राप्त होता है, यह
उच्चतम अवस्था उसने समालि िारा प्राप्त की है। लचि के पररणाम अहक ं ार से जि रजोगणु व तमोगणु हटने
िगते हैं, ति योगी को ज्ञान प्राप्त होने िगता है; इसलिए योगी का ज्ञान लचि का पररणाम है। योगी का ज्ञान
योग के िारा िीरे -िीरे िढ़ता रहता है। िीरे -िीरे िढ़ता हुआ एक न एक सीमा पर जाकर रुक जाता है,
इसलिए योगी का ज्ञान ईश्वर की अपेक्षा कम होता है। योगी का ज्ञान सीलमत है। ईश्वर का ज्ञान लनत्य होने के
कारण असीलमत है। सभी योलगयों का ज्ञान इसीलिए समान नहीं हो सकता है। योगी का ज्ञान लजस सीमा पर
जाकर रुक जाए, लिर समझ िेना चालहए लक उसके ज्ञान का आिार ईश्वर है।
ईश्वर का शरीर परा-प्रकृ लत िारा लनलमतत होता है। ईश्वर के िरािर कोई िड़ा भी नहीं है, वह सवतत्र
व्याप्त है। लवशि ु सत्वगणु िारा उसका शरीर िने होने के कारण तथा सवतत्र व्याप्त होने के कारण सभी प्रकार
की शलक्तयाूँ उसके अंदर लनलहत हैं, इसलिए उसे शलक्तमान कहा गया हैं। ईश्वर की एक शलक्त माया है, लजसके
िारा इस संसार में प्राणी, सांसाररक पदाथों को अपना समझकर भ्रलमत िने रहते हैं। इसीलिए ईश्वर को
मायापलत कहा गया है। ईश्वर शलक्तमान होने के कारण उसे सभी उपालियों से यक्त ु कहा गया है।
ईश्वर जगत का उिार करने के लिए अपने अंश से अवतार ग्रहण कर िेता है, इसीलिए उसे
उिारकतात व दयािु कहा गया है। ऐसा ति होता है जि इस जगत में अिमत अलिक हो जाता है। अथातत
अज्ञान वश मनष्ु य अिमत को ही अपना िेता है और अपना वास्तलवक मागत (ईश्वर-प्रालप्त) छोड़ देता है, ति
ईश्वर का अंश पाप के मागत को छोड़कर ईश्वर-प्रालप्त का मागत िताता है तालक मनष्ु यों का उिार हो सके । जैसे
भगवान यीशु स्वयं कहते हैं– तू पाप का मागत छोड़ दे, मेंरे िारा िताएूँ हुए मागत पर चि, मैं तेरा उिार करूूँगा।

सहज ध्यान योग 359


भगवान यीशु ने मनष्ु यों को सन्मागत िताने में अपना सारा जीवन व्यतीत कर लदया। जि उन्हें सि ू ी पर चढ़ाया
गया तो कहा– हे लपता (ब्रह्म), इन्हें माि कर दे (लजन्होंने सि ू ी पर चढ़ाया था) क्योंलक इन्हें नहीं मािमू है
लक ये क्या कर रहे हैं। इसी तरह भगवान श्रीकृ ष्ण ने स्वयं अिलमतयों का नाश लकया और नाश कराया।
भगवान श्रीकृ ष्ण के िारा महाभारत में गीता का उपदेश लदया जाना, आज के यगु में इस संसार में अमृत के
समान है, क्योंलक स्वयं भगवान िारा गीता का उपदेश लदया गया है। लजसमें इस जगत के उिार के लिए
सवोिम लशक्षाएूँ हैं। भगवान कृ ष्ण ने प्रकृ लत, कमत योग और ज्ञान योग के लवषय में सिकुछ स्पष् कर लदया
है।
मैंने देखा है लक आजकि के योगी अपने आपको भगवान का अवतार कहिाने िगते हैं। उनके
लशष्य तथा अनयु ायी यही कहते हैं लक हमारे गरुु देव भगवान के अवतार हैं। कै सी लवडमिना है, लकतने द:ु ख
की िात है लक थोड़ा-सा योग क्या कर लिया, भगवान िन गये! ऐसे योलगयों के लिए मैं यही कहगूँ ा लक उन्हें
अभी और योग करना चालहए। समालि के िारा योगी को अलत उच्च अवस्था प्राप्त करनी चालहए तालक उन्हें
ज्ञान प्राप्त हो सके । ज्ञान (तत्त्वज्ञान) प्राप्त होने पर वह (योगी) अपने आपको भगवान कहिाना छोड़ देगा।
अपने लशष्यों को व अनयु ाइयों को तत्त्वज्ञान की लशक्षा देनी चालहए तालक भगवान कहने वािों को यह
मािमू हो सके लक भगवान और योगी में क्या िकत है। क्योंलक भगवान कभी मनष्ु य नहीं हो सकता है, और
योगी चाहे लजतनी समालि िगाये रहे वह भगवान नहीं हो सकता है। अपने आपको भगवान कहिाना व
दसू रों को भगवान कहना (योगी को) अज्ञानता के अिावा और कुछ नहीं है। ऐसे योलगयों को योग में
उच्चावस्था प्राप्त न होने के कारण लचि में लस्थत अनेक प्रकार की वृलियों के कारण भ्रम हो जाता है। जि
योगी समालि की प्रथम अवस्था प्राप्त कर चक ु ा होता है, ति लचि की वृलियाूँ साकार रूप में लदखाई पड़ती
हैं। इस अवस्था के प्राप्त होने पर योलगयों को तरह-तरह के अनभु व आते हैं। कुछ लवशेष प्रकार के अनभु व
होने के कारण योगी अपने आपको भगवान समझ िैठता है। इस अवस्था से अभी तत्त्वज्ञान िहुत दरू है।
तत्त्वज्ञान की प्रालप्त के लिए योगी को कई जन्मों तक सािना करनी पड़ती है। इसलिए योगी की सािना एक
जन्म में कभी भी पणू त नहीं हो सकती है। योगी एक जन्म में समालि की लजस अवस्था को प्राप्त कर िेता है,
लिर जि अगिे जन्म में योग की शरुु आत करता है ति कुछ ही वषों में पवू त जन्म की लस्थलत प्राप्त कर िेता
है। लिर अभ्यास के िारा समालि की उच्च अवस्था प्राप्त करता है।
जि ईश्वर अंश रूप से अवतार ग्रहण करता है ति वह शरुु आत से ही अपनी ढेरों शलक्तयों से युक्त
होता है। उसे अन्य योलगयों के समान योग करने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर ने अवतार रूप में स्थि ू शरीर
िारण लकया है। लिर भी उसमें सांसाररक परुु षों के समान प्रकृ लत के पररणामस्वरूप अहंकार, इलन्रयाूँ आलद

सहज ध्यान योग 360


िलहमतख ु ी नहीं होती हैं। क्योंलक वह जगत का उिार करने आया है। इस जगत का उिार करने के लिए उसने
स्थिू शरीर िारण लकया, स्थि ू शरीर के कारण इलन्रयाूँ, मन, िलु ि, अहक ं ार (सत्यमय अहक ं ार), लचि
आलद से यक्त ु है, मगर वह इन सिसे परे है। क्योंलक प्रकृ लत तो स्वयं उसी के अिीन है और उसी में लविीन
हो जाती है। लिर, प्रकृ लत उसे कै से प्रभालवत कर सकती है। वह सांसाररक भोग अथवा लकसी प्रकार के
िन्िन के कारण नहीं आया है। अवतार स्वतन्त्र है। वह जगत के उिार के लिए आता है। अपनी इच्छा से
आया है और अपना कायत करके अपनी इच्छा से वापस चिा जाता है। अवतार ग्रहण करने के लिए प्रकृ लत
का सहारा तो लिया, मगर प्रकृ लत से परे रहता है। स्थि ू जगत में आने के लिए, स्थि ू भतू ों का सहारा िेना
आवश्यक है। लिर भी वह प्रकृ लत के लनयमों की मयातदा रखता है अथातत िौलकक कायत करता है, जैसे
भगवान श्रीराम ने लकया, भगवान श्रीकृ ष्ण ने लकया, भगवान यीशु ने लकया।
सािकों, भगवान का अथत संक्षेप में लिखता ह।ूँ भगवान दो शब्दों से लमिकर िना है। पहिा शब्द
है ‘भग’, दसू रा शब्द ‘वान’ है। भग का अथत प्रकृ लत है वान का अथत है ‘चािक’ अथातत प्रकृ लत का चािक,
प्रकृ लत को चिाने वािा। ‘प्रकृ लत’ िारा सारे ब्रह्माण्ड की रचना हुई है। सारे ब्रह्माण्ड की रचना करने वािी
जो शलक्त (प्रकृ लत) है, उस शलक्त का जो चािक अपना नायक है, उसे भगवान कहते हैं। दसू रे शब्दों में यह
कह सकते हैं, प्रकृ लत जो कायत करती है वह भगवान की इच्छानसु ार ही करती है। प्रकृ लत में जो सृलष्, लस्थलत
और प्रिय का स्वरूप है, उसके नायक भगवान ही हैं। इसीलिए कहा जाता है ब्रह्मा, लवष्णु और महेश
क्रमश: सृलष्, लस्थलत और प्रिय का कायत करते हैं। प्रिय के िाद प्रकृ लत इस जगत को अपने अन्दर िीज
रूप में समेंट िेती है लिर प्रकृ लत भगवान नारायण के शरीर में लविीन हो जाती है। भगवान नारायण
अनन्तकाि तक क्षीर सागर में योगमरु ा में शान्त िेटे रहते हैं लिर उनकी इच्छानसु ार ही प्रकृ लत का प्रादभु ातव
होता है और सृलष् का कायत शरू ु हो जाता है। सािकों, भगवान और ईश्वर पयातयवाची शब्द हैं। लिर लकसी
योगी को भगवान कहना लकतना अनुलचत है एक तरह से ऐसा समझो लक भगवान शब्द के अपमान जैसा
है। लिर योगी स्वयं अपने आपको भगवान कै से कहिवा िेता है। ऐसे योलगयों का तत्त्वज्ञान उस समय क्या
कर रहा होता है। हमारा सोचना है लक न तो लकसी योगी को भगवान कहना चालहए और न ही लकसी योगी
को अपने आपको भगवान कहने के लिए लकसी को प्रेररत करना चालहए। क्योंलक कोई भी योगी चाहे लजतना
योग कर िे, वह भगवान नहीं हो सकता है।

सहज ध्यान योग 361


आत्मा
आत्मा ब्रह्म का ही स्वरूप है, इसलिए ब्रह्म के ही सारे गणु उसमें लस्थत हैं। आत्मा भी प्रकृ लत से
सवतथा परे , लनिेप, सवतव्यापक, गणु ातीत, लनलष्क्रय, अपररणामी व लनत्य है। इसी आत्मा का जि अपरा
प्रकृ लत से समिन्ि होता है ति जीव कहा जाता है। ति जीव में तीनों गणु ों की लवषमावस्था के कारण अहम्
भाव जाग्रत हो जाता है, इसलिए जीव अपने आपको ब्रह्म से अिग मानने की भि ू कर िैठता है अतुः
आत्मा पर जीव रूपी आवरण चढ़ जाता है। इसी जीव रूपी आवरण के कारण स्थूि जगत को ही वास्तलवक
समझकर जन्म, आयु और मृत्यु को प्राप्त होता है और सख ु -द:ु ख भोगता है।
आत्मा चैतन्य स्वरूप है। आत्मा का प्रकाश लचि पर पड़ता है इसलिए लचि प्रकालशत सा लदखाई
पड़ने िगता है। लजस प्रकार सयू त का प्रकाश चन्रमा पर पड़ता है और चन्रमा प्रकालशत लदखाई पड़ता है
मगर वह स्वप्रकालशत नहीं है, इसी प्रकार आत्मा के कारण लचि में चैतन्यता सी आ जाती है। इससे अहक ं ार,
िलु ि, मन, इलन्रयाूँ आलद लक्रयाशीि हो जाते हैं। इन सभी में आत्मा की ही शलक्त काम करती है। आत्मा के
कारण ही मनष्ु य में श्वास िेने की शलक्त है, देखने की शलक्त है, सनु ने की शलक्त है, मनष्ु य के अन्दर सारी
लक्रयाएूँ करने की शलक्त आत्मा िारा लमिती है क्योंलक आत्मा के अलतररक्त सभी सक्ष्ू म और स्थि ू भतू जो
प्रकृ लत के हैं, लिना आत्मा के कुछ भी नहीं कर सकते हैं।
आत्मा तो लनिेप है, उदासीन है, इसलिए प्रकृ लत का प्रभाव उस पर कुछ भी नहीं पड़ता है। उसे तो
जगत के व्यवहार से कोई मतिि नहीं हैं। वह सख
ु -द:ु ख, राग-िेष, जन्म, यवु ावस्था, जरा, मृत्यु आलद इन
सिसे अिग है, यह व्यवहार तो जीव का है।
योगीजन जि योग के माध्यम से अपने यथाथत रूप की (आत्मा की) अनभु ूलत कर िेते हैं, ति सभी
प्रकार के क्िेशों से छुटकारा लमि जाता है क्योंलक क्िेश आलद िमत तो प्रकृ लत का स्वभाव है। आत्मा की
अनभु ूलत कर िेने पर योगी, प्रकृ लत के सारे व्यवहारों को अच्छी तरह समझ िेता है। प्रकृ लत में रहते हुए भी
प्रकृ लत के प्रभाव से अिग रहता है।
जीवों िारा लकये गये सभी प्रकार के कायत, चाहे अतीत या वततमान में लकये गये हों, की आत्मा
लनलितप्त रूप से साक्षी है। क्योंलक वह तो (आत्मा) लचि से भी पहिे थी, और उसी के िारा प्राणी के अन्दर
कायत करने की क्षमता आती है। इसलिए कोई भी प्राणी आत्मा से छुपाकर कोई कायत नहीं कर सकता है।
आत्मा हम सभी प्रालणयों की तथा जगत की साक्षी है।

सहज ध्यान योग 362


आत्मा को ब्रह्म से लभन्न मानना सवतथा दोषपणू त है, इसे अज्ञानता ही कहेंगे। व्यवहार की दशा में
आत्मा के रूप में ब्रह्म का ही व्यवहार होता है, क्योंलक दोनों एक ही हैं।
मनष्ु य के शरीर में आत्मा का स्थान हृदय में माना गया है। हृदय के अन्दर जो आकाश है उस
आकाश में आत्मा रहती है। आकाश पञ्चभतू ों में आता है इसलिए आत्मा आकाश से भी परे है। सािकों
को हृदय के अन्दर ज्योलत के रूप में जो दशतन होता है, वह लचि की ही अत्यंत सालत्वक सशक्त वृलि होती
है।
अपने ज्ञान के अनसु ार सािकों को ितिाना चाहगूँ ा लक जि कुण्डिनी ब्रह्मरन्ध्र खोिकर हृदय में
आती है, लिर समालि के कािी अभ्यास के िाद कुण्डलिनी हृदय में लस्थर हो जाती है। लस्थर होने का
तात्पयत कुण्डलिनी का मि ू ािार में वापस न आकर मूिािार से ब्रह्मरंध्र होते हुए हृदय में हमेशा के लिए
लस्थर रहने से है। कुण्डलिनी लस्थर होने पर वह अपना अलग्नतत्त्व का स्वरूप छोड़कर वायतु त्त्व में लविीन हो
जाती है। उसके िाद सािक को कुण्डलिनी का दशतन अपने शरीर में नहीं होता है। इसके िाद सािक को
जो हृदय के अंदर दशतन तेजस्वी ज्योलत रूप में होता है, वह वृलि का स्वरूप होता है।
आत्मा की अनभु लू त ति होती है जि योगी ने लचि के अदं र के सारे कमातशय भोगकर नष् कर लदये
हों। सारे कमातशय तभी नष् होते हैं, जि लनलवतकल्प समालि के समय शेष कमातशयों को भोग लिया जाता है।
इन शेष कमातशयों को भोग िेने पर शि ु सालत्वक अहक ं ार रह जाता है, तमोगणु ी अहकं ार व अलवद्या नहीं
रह जाते हैं, शि
ु ज्ञान की प्रालप्त हो जाती है। अि प्रश्न यह उठता है लक क्या सालत्वक अहक ं ार आत्मा का
दशतन करा सकता है। क्योंलक आत्मा को देखने वािा भी तो कोई होना चालहए, तभी तो मािमू पड़ेगा लक
आत्म-साक्षात्कार हुआ है। यह भी मािमू है लक आत्मा प्रकृ लत से परे है; जि प्रकृ लत से परे है तो क्या जो
वस्तु अपने से परे हो उसे देखा जा सकता है? आत्मा का साक्षात्कार अहक ं ार नहीं करा सकता है। आत्मा
का साक्षात्कार नहीं होता है, उसकी अनुभलू त की जाती है। क्योंलक आत्मा तो सवतत्र व्याप्त है, जिलक अहक ं ार
व लचि की लनलश्चत सीमाएूँ है। अज्ञान की अवस्था में आत्मा लचि के अन्दर भालसत होती है, मगर ज्ञान की
अवस्था में आत्मा के अन्दर लचि लवद्यमान हुआ लदखता है, यही वास्तलवकता है। इसलिए आत्मा का
साक्षात्कार नहीं लकया जा सकता है, उसमें लस्थत होना होता है। इसीलिए लस्थतप्रज्ञ शब्द का प्रयोग लकया
जाता है।
लजस सािक के कमातशय पणू त रूप से समाप्त नहीं हुए हैं अथातत कुछ संस्कार लचि में पड़े हुए हैं, उसे
कुण्डलिनी लस्थर के िाद समालि अवस्था में आत्मा का दशतन होता है। होता यह है लक लचि की सालत्त्वक

सहज ध्यान योग 363


व अत्यन्त सशक्त वृलि आत्मा का स्वरूप िारण कर िेती है, लजसे सािक आत्मा के रूप में देखता है। अि
प्रश्न उठता है लक आत्मा का स्वरूप वृलि िारण कर सकती है। उिर है– हाूँ, कर सकती है। क्योंलक आत्मा
के ही प्रकाश से लचि प्रकालशत है। जि आत्मा का प्रकाश लचि में पड़ता है लचि में लस्थत वृलियाूँ (सत्त्वगणु
वािी) भी स्वप्रकालशत सी भालषत होने िगती है। इसी प्रकार लचि में लस्थत वृलि भी आत्मा का स्वरूप
िारण कर िेती है लजसे योगी वास्तलवक आत्मा समझने िगता है। इसलिए सािक को यह समझ िेना
चालहए लक यलद आत्मा का दशतन हो गया है, ति लचि में शेष कमातशय रह ही नहीं गये होंगे। यलद कमातशय
नहीं होंग,े ति जन्म िेना असमभव है। जिलक सािक जानता है लक वह लपछिे कई जन्मों से योग कर रहा
है, अभी वह और जन्म ग्रहण करे गा, ति आत्म-साक्षात्कार कै से हुआ है! सािकों! आपकी लचि की वृलि
ने ही आत्मा का स्वरूप िारण कर लिया है।
अभी मैंने आत्म-साक्षात्कार के लवषय में लिखा लक योगी को समालि काि में आत्मा का साक्षात्कार
होता है। सच यह है लक लचि में जो िौ के रूप में आत्म-साक्षात्कार होता है, वह अलिक सालत्वकता वािी
वृलत ही है, चाहे वह सालत्वक अहक ं ार की ही वृलि क्यों न हो। ऐसी वृलियाूँ आत्मा के अलत नजदीक होने
के कारण आत्मा का स्वरूप िारण कर आत्मा का लनदेशन करने िगती हैं, मगर यह वास्तलवक आत्मा
नहीं है। लजस प्रकार दपतण को देखने पर चेहरे की आकृ लत लदखाई देती है, जो दपतण पर चेहरा लदखाई देता है
वह वास्तलवक चेहरा नहीं होता है, िलल्क चेहरे की परछाई होती है। लचि पर लस्थत अत्यंत सालत्त्वक व
शलक्तशािी वृलि आत्मा का स्वरूप िारण कर िेती है जो जिती हुई मोमििी के िौ के आकार की होती
है। िहुत से अज्ञानी अभ्यासी इसी को आत्म-साक्षात्कार कहते हैं।
अि आप कह सकते हैं वास्तलवक आत्मा का आत्म-साक्षात्कार कि और कै से होता है। आत्मा
स्वयं दृष्ा है तथा लनराकार है। जो स्वयं दृष्ा हो उसे कौन देख सकता है अथातत कोई नहीं। योगी की अवस्था
जि शि ु ज्ञान में हो, ति आत्मा और लचि के लभन्नता का ज्ञान हो जाता है। अभ्यास के और िढ़ने पर लचि
कै वल्य की ओर अलभमख ु होने िगता है। ति तीनों गुण कुछ समय के लिए अपना कायत पररणाम का करना
िन्द कर देते हैं, ति लचि व तीनों गणु अपने मि ू स्रोत आत्मा में अवलस्थत हो आत्माकार हो जाते हैं।
समालि भंग होने पर लचि व तीनों गणु अपने स्वरूप में आ जाते हैं। आत्मा में अवलस्थत होने को लनिीज
समालि कहते हैं। सािक अि समझ गये होंगे लक आत्मा का साक्षात्कार नहीं हो सकता है, िलल्क आत्मा
में अवलस्थत हुआ जाता है। आत्मा लनराकार होने के कारण उसका कोई स्वरूप नहीं है, मगर वह लचि में
िौ के आकार में भालसत होती है।

सहज ध्यान योग 364


सवृ ष्ट और प्रलय
सृलष् और प्रिय की लक्रया अनालद काि से होती चिी आ रही है। सृलष् से पूवत लसित तेजोमय
लनराकार ब्रह्म ही रहता है। जि उसके अन्दर एक से अनेक होने का संकल्प उठता है ति सृलष् का समय आ
जाता है। इस जगह पर यह तकत नहीं लकया जा सकता है लक वह लवकार यक्त ु है। ब्रह्म तो लनलवतकार है; सृलष्
की लक्रया अनालद काि से चिी आ रही है। संकल्प उठने के साथ ही ओकं ार की ध्वलन प्रकट होती है। इस
ओकं ार के साथ पाूँचों तन्मात्राएूँ प्रकट होती हैं। इन तन्मात्राओ ं के िारा सक्ष्ू म रूप से सक्ष्ू म पंचभतू प्रकट
होते हैं। यही सक्ष्ू म पञ्चभतू ों से लिर स्थि
ू पञ्चभतू प्रकट हो जाते हैं। स्थि ू पञ्चभतू ों से ही सयू त, चन्रमा,
पृर्थवी, तारों आलद का लनमातण हुआ है। शरुु आत में ओकं ार की ध्वलन के साथ तीनों गणु ों का प्रादभु ातव हुआ।
इन तीनों गणु ों का प्रभाव तन्मात्राओ ं व सक्ष्ू म, स्थि
ू पचं भतू ों पर रहता है। इसीलिए प्रत्येक पदाथत में तीनों
गणु ों का प्रभाव रहता है। ओकं ार की ध्वलन िहुत समय तक गूँजू ती रहती है; यह ध्वलन लनलश्चत कें र लिंदु से
उत्पन्न होती है।
ब्रह्म सृलष् का कायत करने के लिए अपना सगणु रूप प्रकट करता है। अथातत स्वयं ब्रह्म सगणु रूप में
प्रकट हो जाता है लजसे भगवान नारायण कहते हैं। भगवान नारायण के नालभ कमि से भगवान ब्रह्मा की
उत्पलि होती है। परम-लशव ब्रह्म के सगणु रूप में पहिे ही प्रकट हो जाते हैं। प्रकृ लत पाूँच तत्त्व व तीन गणु ों
से िनी है, इन आठों का लमश्रण है। प्रकृ लत के िारा ही सृलष् होती है। हर पदाथत में पाूँचों तत्त्वों व तीनों गणु
न्यनू ालिक मात्रा में पाये जाते हैं।
सृलष् का कायत करने के लिए प्रकृ लत दो स्वरूपों में प्रकट हो जाती है। एक परा-प्रकृ लत के रूप में,
दसू री अपरा-प्रकृ लत के रूप में प्रकट होती है। ईश्वर की प्रकृ लत परा-प्रकृ लत के रूप में और जीवों की प्रकृ लत
अपरा-प्रकृ लत के रूप में प्रकट होती है। इसीलिए योग शास्त्रों में उल्िेख लमिता है लक प्रकृ लत दो प्रकार की
होती है। परा-प्रकृ लत में सामय पररणाम हो रहा है। इस पररणाम में गणु समान रूप से रहते हैं, एक गणु दसू रे
गणु को नहीं दिाता है। अपरा-प्रकृ लत में लवषम पररणाम हो रहा है। इस पररणाम में तीनों गणु समान रूप से
नहीं रहते हैं। एक गणु दसू रे गणु को दिाता रहता है, इसी कारण लवकृ लत उत्पन्न होती है और सृलष् का कायत
आगे िढ़ता है। परा-प्रकृ लत को मि ू प्रकृ लत भी कहते हैं।
मि
ू प्रकृ लत सामयावस्था में रहती है। इसमें लकसी प्रकार की लवकृ लत नहीं होती है, इसलिए मि ू
प्रकृ लत सवतव्यापक है। ईश्वर का शरीर भी गणु ों की सामयावस्था से िना होता है। ईश्वर सवतव्यापक है। ईश्वर

सहज ध्यान योग 365


की एक शलक्त माया है। माया का स्वभाव है अलवद्या से यक्तु जीव को भ्रम में डािे रखना। माया और अलवद्या
दोनों लमिकर सृलष् आगे िढ़ाने का कायत करती हैं। गणु ों की लवषमावस्था से िने लचि में लस्थत तमोगणु ी
अहक ं ार में अलवद्या िीज रूप में लछपी रहती है। तमोगुण की अलिकता होने पर अलवद्या व्यक्तभाव में प्रकट
हो जाती है। अलवद्या का अथत है अज्ञान। इसी अलवद्या के कारण अहक ं ार में अहभं ाव प्रकट हो जाता है,
लिर जीव अपने आपको ब्रह्म से अिग समझने िगता है तथा जड़ प्रकृ लत को अपना मानने िगता है,
इसीलिए जीवात्मा इस स्थूि संसार में अलवद्या यक्त ु कमत करता है। ऐसे कमों का िि द:ु ख ही द:ु ख है।
क्योंलक पररवततनशीि प्रकृ लत में स्थायी सखु नहीं हो सकता है। इन्हीं कमों के िारा िने कमातशयों के कारण
जीव जन्म, आयु और मृत्यु को प्राप्त होता है। यही क्रम सदैव चिता रहता है।
जि चेतन तत्त्व का समिन्ि अपरा-प्रकृ लत से होता है ति उस चेतन तत्त्व को जीव कहते हैं। जीव
का लचि अपरा-प्रकृ लत से िने होने के कारण उसके लचि में पररणाम होता रहता है। ऐसे लचि में तमोगणु ी
अहक ं ार िीज रूप में छुपा रहता है। तमोगणु की अलिकता होने पर तमोगणु ी अहंकार प्रकट हो जाता है।
इसी तमोगणु ी अहक ं ार में अलवद्या िीज रूप में छुपी रहती है, वह भी प्रकट हो जाती है। उसी समय अहम
भाव प्रकट हो जाता है, ति जीवात्मा अपने आपको ब्रह्म से अिग मानने िगता है। यहीं से उसका पतन
होना शरू ु हो जाता है। लिर जीवात्मा का पतन होते-होते वह अपने आपको स्थि ू शरीर तक सीलमत मानने
िगता है। जि चेतन तत्त्व का समिन्ि परा-प्रकृ लत से होता है, ति उस चेतन तत्त्व को ईश्वर कहते हैं। परा-
प्रकृ लत में गणु सामयावस्था में रहते हैं, इसीलिए ईश्वर के लचि में लकसी प्रकार का पररणाम नहीं होता है। परा-
प्रकृ लत अव्यक्त रूप में रहती है। अपरा प्रकृ लत व्यक्त रूप में रहती है। परा-प्रकृ लत को समलष् प्रकृ लत और
अपरा-प्रकृ लत को व्यलष् प्रकृ लत भी कहते है। ईश्वर जीवों पर शासन करता है, जीव शालसत होता है। जीव
िन्िन में रहता है। ईश्वर पणू तरूप से स्वतंत्र है।
भगवान नारायण की नालभ कमि से ब्रह्मा जी की उत्पलि हुई है। ब्रह्मा को लहरण्यमय परुु ष भी कहा
जाता है क्योंलक उनका शरीर स्वणत के समान सनु हिे रंग का होता है। उनके के श व दाढ़ी भी स्वणत के समान
सनु हिे रंग के होते हैं। सृलष् का सृजन इन्हीं ब्रह्मा िारा होता है तथा ये ही सक्ष्ू म िोकों के अलिपलत माने गये
हैं। भगवान नारायण के अंशरूप भगवान लवष्णु पािन का कायत करते हैं। भगवान लशव से उत्पन्न भगवान
रुर (शंकर) संहार का कायत करते हैं। भगवान लशव से उन्हीं के समान ग्यारह रुर प्रकट हुए हैं। भगवान ब्रह्मा
ने कई प्रकार के प्रालणयों की उत्पलि की है उनमें कुछ इस प्रकार से हैं– इन्र, वस,ु आलदत्य, देवता, दैत्य,
गंिवत, लकन्नर, यक्ष, ऋलष, लपतर, मनष्ु य, पश,ु पक्षी, रें गने वािे जीव, कीट, पेड़, पौिे आलद। ये सभी प्राणी

सहज ध्यान योग 366


चौदह िोकों के अंतगतत आते हैं। परु ाणों में वणतन है लक 84 िाख योलनयाूँ इस ब्रह्माण्ड में है। आज के
वैज्ञालनकों ने भी कई िाख लवलभन्न प्रकार के जीविाररयों की खोज कर िी है, ऐसा मैंने सामान्य ज्ञान में
पढ़ा था। ब्रह्माण्ड में चौदह िोक माने गये हैं। इन चौदह िोकों के ऊपर तीन िोक और हैं लजन्हें क्षर िोकों
में नहीं माना गया है। इन चौदह िोकों में भूिोक स्थूि जगत है, अन्य सभी िोक सक्ष्ू म हैं। इन िोकों के
आपस में घनत्व अिग-अिग हैं। इन चौदह िोकों से ऊपर के िोक महाकारण जगत में आते हैं। ईश्वर
इन्हीं महाकारण जगत में रहता है। उसका शरीर भी महाकारण तत्त्वों से िना है।
जीवात्माएूँ दो प्रकार की होती हैं- (1) िि, (2) मक्त
ु ।
बद्ध - इनमें वे जीव आते हैं जो जन्मते और मरते रहते हैं। चौदह िोकों में रहने वािे जीव इसी श्रेणी
में आते हैं क्योंलक इनके जन्म और मृत्यु कभी न कभी अवश्य होते हैं। इनमें से कुछ जीवात्माएूँ उत्कृ ष् होती
हैं जो हमेशा प्रभु स्मरण में िगी रहती हैं तथा मोक्ष की इच्छा रखती हैं, जिलक अलिकतर जीवात्माएूँ भोग
की इच्छा रखती हैं। इनमें से कुछ की आयु िहुत ज्यादा होती है तथा कुछ की अल्पायु होती है। इनमें से
कुछ ईश्वर िारा िनाये गये लनयमों के अनसु ार कायत करते हैं, कुछ अपनी इलन्रयों के वशीभतू होकर स्वयं को
कमों के िन्िन में िािं िेते हैं। अगर वे चाहें तो कमों के िन्िन से मक्त
ु हो सकते हैं।
मुि - इस प्रकार की जीवात्माएूँ संसार में कभी नहीं आती हैं। इनका ज्ञान भी कभी क्षीण नहीं होता
है। भलक्त करने वािे सािक ईश्वर के गणु गान व सेवा में तत्पर रहते है। योग करने वािे सािकों के अन्दर
एक्यभाव रहता है। ऐसे सािक समालि के िारा ईश्वर के लचि में अंतमतख ु ी रहते है। ये स्थान परा-प्रकृ लत के
अन्तगतत आता है। शास्त्रों के अनुसार परा-प्रकृ लत के अन्तगतत तीन िोकों का वणतन लमिता है। इन िोकों
को गोिोक, लशविोक और वैकुण्ठ कहा गया है।
सृलष् की शरुु आत में जि जीवात्माएूँ मनष्ु य शरीर िारण करने के लिए आती हैं, ति उनमें सत्वगणु
की अलिकता पायी जाती है। उस समय पृर्थवी पर सत्वगणु का ही ज्यादा व्यापार चिता है, क्योंलक उस
समय पृर्थवी पर सत्वगणु का प्रभाव अलिक रहता है। जैसे-जैसे समय िीतता जाता है, वैसे-वैसे तमोगणु की
अलिकता िढ़ने पर अिमत की वृलि होने िगती है। अंत में अिमत का नाश करने के लिए, िमत की स्थापना
करने के लिए ईश्वर का अंश अवतार ग्रहण करता है।
पृर्थवी पर सत्वगणु तथा तमोगणु की न्यनू ालिक मात्रा के अनसु ार चार यगु कहे गये हैं–
(1) सत् यगु , (2) त्रेता यगु , (3) िापर यगु , (4) कलियगु । सत्ययगु के आरमभ में सत्वगणु का ही व्यापार

सहज ध्यान योग 367


चिता है। सभी मनष्ु य सत्यवादी होते हैं, तथा परू ी तरह से िमत पर लवश्वास रखते हैं। इसलिए मनष्ु य योग,
तप व यज्ञ आलद अलिक लकया करते थे। जि तमोगणु का प्रभाव थोड़ा िढ़ने िगता है, ति िोग तमोगणु
के प्रभाव से अिमत करने िगते हैं। ति भगवान वराह व नृलसंह आलद का रूप िारण कर अिलमतयों का नाश
करते हैं। इस यगु में जि अिमत 1/4 भाग में प्रभालवत हो जाता है ति यगु पररवततन मान लिया जाता है।
उसके िाद से त्रेतायगु कहा जाता है। इस यगु की शरुु आत में िमत 3/4 तथा अिमत 1/4 भाग में रहता है।
िीरे -िीरे जि अिमत िढ़ता रहता है, ति भगवान श्री राम के रूप में अवतार ग्रहण करके अिलमतयों का नाश
करते हैं और िमत की स्थापना करते हैं। इस यगु के अंत में 1/2 भाग िमत रह जाता है तथा 1/2 भाग अिमत
हो जाता है। जि आिा िमत और आिा अिमत हो जाता है, ति िापर यगु की शरुु आत कही जाती है। अिमत
जि और िढ़ता है, ति यगु के अंत में भगवान श्रीकृ ष्ण अवतार ग्रहण करते हैं। भगवान श्रीकृ ष्ण अिलमतयों
का नाश कर िमत की स्थापना करते हैं। इस यगु के अंत में िमत 1/4 भाग रह जाता है तया अिमत 3/4 भाग
हो जाता है, ति कलियगु का आगमन माना जाता है। कलियगु का अथत है अिमत का यगु । इस यगु में
तमोगणु का ही व्यापार अलिक रहता है। िीरे -िीरे अिमत िढ़ता रहता है। इसलिये िालमतक स्वभाव वािों
को कािी परे शानी उठानी पड़ती है। इस यगु में योग, जप-तप, यज्ञ आलद प्राय: िप्तु से होने िगते हैं। कलियगु
के अतं में िमत (सत्वगणु ) लसित नाम मात्र का रह जाता है। िगभग परू ी तरह से अिमत का साम्राज्य हो जाता
है। लिर पृर्थवी पर लवनाश शरू ु हो जाता है। इसे प्रिय भी कहते हैं। प्रिय के समय सभी मनष्ु यों व जीविाररयों
की मृत्यु हो जाती है। पृर्थवी जिमग्न हो जाती है।
पृर्थवी पर इन यगु ों का कारण प्रकृ लत का लवषमावस्था का पररणाम है। सृलष् के समय तीनों गणु ों में
सत्वगणु की अलिकता रहती है। गणु ों की लवषमावस्था के कारण तमोगणु का प्रभाव सदैव िढ़ता रहता है।
तमोगणु का प्रभाव िढ़ने से मनष्ु यों में अज्ञानता िढ़ने िगती है। अज्ञानता िढ़ने के कारण मनष्ु यों की प्रवृलि
अिमत में होने िगती है। इसी प्रकार अिमत सदैव िढ़ता रहता है। प्रकृ लत का लनयम है अिमत एक लनलश्चत
मात्रा में िढ़े। जि िमत-अिमत का लनलश्चत मात्रा में असंति ु न हो जाता है, ति भगवान का अंश अिमत का
नाश करने के लिए अवतार ग्रहण कर िेते हैं, लिर िमत की स्थापना करते हैं। सतयगु की अवलि सिसे
ज्यादा रहती है। अन्य यगु क्रमश: कम अवलि के होते जाते हैं।
कहा जाता है प्रिय कई प्रकार की होती है। एक प्रकार की प्रिय में पृर्थवी जिमग्न हो जाती है,
ऊपर के िोक िने रहते हैं। लिर, एक लनलश्चत समय में पृर्थवी का पानी िित रूप में जम जाता है और सृलष्
होनी शरू
ु हो जाती है। एक अन्य प्रकार की प्रिय में चौदह िोक नष् हो जाते हैं। स्वयं ब्रह्मा जी, भगवान

सहज ध्यान योग 368


नारायण के शरीर में िीन हो जाते हैं। ऊपर के तीनों िोक िने रहते हैं, इसीलिए ये िोक लनत्य कहे गये हैं।
परंतु आत्यंलतक प्रिय में चौदह िोकों को तथा तीनों ऊपर के िोकों को मि ू प्रकृ लत अपने अन्दर िीज रूप
में समेंट िेती है। भगवान लशव व भगवान श्रीकृ ष्ण सगणु रूप छोड़कर लनगतणु ब्रह्म में प्रवेश कर जाते हैं।
मि ू प्रकृ लत भगवान नारायण के अन्दर िीज रूप में िीन हो जाती है। भगवान नारायण अपना सगणु रूप
छोड़कर लनराकार ब्रह्म में िीन हो जाते है। उस समय लसित तेजोमय ब्रह्म रह जाता है। तेजोमय ब्रह्म अनन्त
काि तक अके िा रहता है, लिर वही सृलष् का क्रम चिता है। इस सृलष् और प्रिय का क्रम अनालदकाि
से चिा आ रहा है।
अि प्रश्न उठता है– क्या प्रिय के समय सभी को मोक्ष लमि जाता है। क्योंलक एक समय ऐसा आता
है, जि प्रकृ लत ईश्वर में, ईश्वर ब्रह्म में िीन हो जाता है। उस समय अच्छे और िुरे कमत करने वािी जीवात्माएूँ
सभी एकाकार हो जाती हैं। हाूँ, यह सत्य है लक एक समय ऐसा भी आता है जि तमोगणु ी और सत्त्वगणु ी,
िमी व अिमी सभी प्रकार की जीवात्माएूँ प्रकृ लत में, प्रकृ लत ईश्वर में, ईश्वर लनगतणु ब्रह्म में िीन हो जाते हैं,
मगर यह समय अनन्त काि िाद आता है। इसका अथत यह नहीं है लक जीवात्मा मोक्ष का प्रयास न करे
अथवा ईश्वर लचन्तन न करे । यलद ऐसा नहीं करे गा ति अनन्त काि तक, इस द:ु ख रुपी संसार में जन्म, आयु
व मृत्यु को प्राप्त होता रहेगा।
सािकों! सृलष् होने का कारण यह भी है, प्रिय के समय प्रकृ लत सभी जीवात्माओ ं को िीज रूप में
अपने अन्दर समेंटकर ईश्वर में िीन हो जाती है। इस अवस्था में जीवात्माओ ं को उनके कमातशय भोगने के
लिए शेष रह जाते है, इसी कारण सृलष् होना अलनवायत होती है क्योंलक जीवात्माओ ं को उनके कमत भोगना
जरूरी है। सृलष् के समय जीवात्मा जि प्रकट होती है, ति पवू तकाि के कमातशय लचि में रहते हैं। इन िीज
रूपी कमातशयों के कारण इस जगत में आना पड़ता है, इसलिए जीवात्मा को प्रिय के िाद भी मोक्ष नहीं
लमिता है।
जि योगी योगाभ्यास िारा लचि के कमातशय समाप्त कर लनिीज समालि का अभ्यास िढ़ाता है, ति
उसे शिु ज्ञान की प्रालप्त होती है। इस अवस्था में योगी का अज्ञान नष् हो जाता है तथा वह प्रकृ लत के रहस्य
को जान िेता है। इसलिए प्रकृ लत के िन्िन में अपने आपको नहीं िन्िने देता है, क्योंलक उसने प्रकृ लत के
स्वरूप को भिीभाूँलत से जान लिया है, अि िन्िन में िन्िने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इसका अथत यह भी
नहीं िगा िेना चलहए लक लचि में कमातशय नहीं रह गये हैं, तो स्थि ू शरीर छोड़ने के िाद ब्रह्म में िीन हो
जाएगा। ऐसा योगी अि भी ब्रह्म में िीन नहीं हो पायेगा। क्योंलक लचि में गणु ों का आतं ररक पररणाम हो रहा

सहज ध्यान योग 369


होता है। इस अवस्था वािा योगी महाकारण जगत में अनन्त काि तक समालिस्थ रहेगा।
मझु े एक अनभु व याद आ गया। मैंने प्रिय का दृश्य देखा है। मैंने यह अनभु व अपने अनभु वों में नहीं
लिखा है। अनभु व में यह देखा है लक चन्रमा, पृर्थवी, सयू त और तारे आलद लकस प्रकार लविीन होते हैं। सिसे
पहिे ब्रह्माण्ड भर में ओकं ार की ध्वलन गूँजू ती है। उस ओकं ार की आवाज से सभी तारों, सयू त, चन्रमा,
पृर्थवी आलद में कंपन पैदा होता है। यह कमपन िीरे -िीरे िढ़ता रहता है। लिर स्थूि पृर्थवी, सयू त, चन्रमा,
नक्षत्रों आलद में भयंकर आवाज के साथ सभी में लवस्िोट हो जाता है। लवस्िोट के साथ नक्षत्रों और ग्रहों
का स्थि ू आकार नष् हो जाता है। स्थि ू पदाथत सारे अंतररक्ष में िै ि जाते हैं। उसी समय सारे अंतररक्ष में
आग ही आग नजर आती है। एक लनलश्चत समय िाद लिर सि कुछ शांत हो जाता है। अलग्न तत्व वायतु त्व
में लविीन हो जाता है, वायतु त्त्व आकाशतत्त्व में लविीन हो जाता है, आकाशतत्त्व (अपरा-प्रकृ लत) परा-
प्रकृ लत में लविीन हो जाता है। जि सृलष् की शरुु आत होने वािी होती है, ति ओकं ार की ध्वलन प्रकट होने
के िाद भयंकर लवस्िोट होता है। लवस्िोट के साथ ही प्रकाश व गलत उत्पन्न हो जाती है। लिर से सृलष् का
कायत होना शुरू हो जाता है।

सहज ध्यान योग 370


ब्रह्म
ब्रहा लनगतणु , लनराकार, लनलवतकार, अनन्त, सवतव्याप्त, सारे स्रोतों का स्रोत, सत्य, गलत से रलहत, व
चेतन है। ब्रह्म के लवषय में ज्यादा जानना अत्यंत कलठन है। आलदकाि से आज तक िड़े-िड़े योगी, ऋलष,
मलु न भी ब्रह्म के लवषय में अलिक नहीं जान सके हैं। ब्रह्म गलत से रलहत होता हुआ भी सिसे तेज गलत वािा
कहा गया है क्योंलक ब्रह्म सवतत्र व्याप्त है। इसलिए उसकी उपलस्थलत हर जगह पर है। प्रत्येक जगह उपलस्थत
रहने के कारण उसे सिसे अलिक गलत वािा भी कहा गया है। अन्य लकसी भी प्राणी को एक स्थान से दसू रे
स्थान पर पहुचूँ ने के लिए कुछ न कुछ समय िगता है। मगर ब्रह्म को कोई समय नहीं िगता है इसलिए वह
सिसे तेज गलत वािा कहा गया है। सारे तत्त्व ब्रह्म में ही समाये हुए हैं। इससे लसि होता है लक जो तत्त्व
लकसी प्रकार गलत करे गा उसकी लनलश्चत सीमाएूँ होती हैं, जैसे वायतु त्त्व वहीं तक गलत कर सकता है जहाूँ
तक उसका अलस्तत्व है। वायतु त्त्व आकाशतत्त्व में समाया हुआ है और आकाशतत्त्व से उत्पन्न हुआ है।
जो तत्त्व लजस तत्त्व के अन्दर समाया होता है उसकी एक लनलश्चत सीमाएं होती हैं। जहाूँ तक उसकी सीमाएूँ
होती हैं वहीं तक उसका अलस्तत्व होता है तथा वहीं तक वह गलत कर सकता है, उससे परे नहीं जा सकता
है। ठीक इसी प्रकार आकाशतत्त्व ब्रह्म में समाया हुआ है, इसीलिए आकाशतत्त्व की एक लनलश्चत सीमा हुई।
ब्रह्म लकसी में नहीं समाया है, इसलिए उसकी कोई सीमाएूँ नहीं हैं। वह आलद-अंत से रलहत है, इसीलिए उसे
पणू त कहते हैं। वह सवतत्र व्याप्त है। सवतत्र व्याप्त होने के कारण हर जगह उसका अलस्तत्व है। दसू रे शब्दों में
वह हर जगह उपलस्थत है।
जि कोई पदाथत गलत करे गा और अपने िक्ष्य तक पहुचूँ ेगा ति गलत करके अपने िक्ष्य तक पहुचूँ ने
में अवश्य कुछ न कुछ समय िगेगा तथा अपनी पररलि के अन्दर रहेगा क्योंलक उसकी सीमाएूँ होती हैं। मगर
ब्रह्म असीलमत है, हर जगह उपलस्थत है, हर जगह अखण्ड रूप से उपलस्थत होने के कारण, उसे गलत करने
की कोई आवश्यकता नहीं है। मगर सिसे अलिक गलतशीि इसलिए कहते हैं लकसी पदाथत को दसू रे स्थान
पर पहुचूँ ने के लिए गलत करनी पड़ती है। गलत के कारण समय िगता है। मगर ब्रह्म पहिे से ही उपलस्थत है।
उसे लकसी प्रकार का समय नहीं िगता है। लजसे लकसी स्थान पर पहुचूँ ने में लकसी प्रकार का समय नहीं
िगता है उसे हम यही कहेंगे लक सिसे अलिक गलतशीि है। वह काि या समय से भी परे है।
ब्रह्म सारे स्रोतों का स्रोत होने के कारण सारे तत्त्व अपने में समालहत कर िेता है, और सारे तत्त्वों को
पनु : प्रकट कर देता है। मगर काि या समय की गणना तो तत्त्वों के प्रकट होने के िाद ही की जाती है जि
प्रकृ लत अलस्तत्व में आती है। ब्रह्म की यह लक्रया प्रकृ लत को उत्पन्न करना और अपने में समालहत कर िेना,

सहज ध्यान योग 371


कि से चि रही है यह कोई नहीं जानता है। इसलिए ब्रह्म को काि या समय की पररलि में नहीं िांिा जा
सकता है वह इससे सवतथा परे है।
इस जगत की सृलष्, लस्थलत और प्रिय लजसके िारा होती है वह ब्रह्म है। यह ब्रह्म इलन्रयों की पहुचूँ
से परे है। लसित ज्ञान के िारा अनमु ान िगाया जा सकता है क्योंलक वह स्वयं ज्ञान का स्वरूप है। ब्रह्म का
सारे पदाथों से अिग उसका लनजी लनगतणु शि ु स्वरूप है। परन्तु वास्तव में समचू ी परा और अपरा प्रकृ लत
तत्त्व दृलष् से ब्रह्मस्वरूप ही है। ब्रह्म से लभन्न लकसी भी पदाथत अथवा जीविारी की कोई स्वतंत्र सिा नहीं
है। वास्तव में एकमात्र ब्रह्म ही है, जो स्वयं लभन्न-लभन्न रूपों में प्रकट होता है, स्वेच्छा से अिग-अिग
पात्रों िारा िीिा करता है, और अन्त में सिकुछ स्वयं में ही समेंट िेता है। तालत्त्वक दृलष् से इकिौते ब्रह्म
के अलतररक्त अन्य लकसी का अलस्तत्व कभी हुआ ही नहीं है, और न ही होना संभव है। ब्रह्म प्रकृ लत के
समिन्ि से जो सगणु रूप में है, उसका वणतन तीन रूपों में लमिता है– (1) लवराट, (2) लहरण्य गभत, (3)
ईश्वर।
1. ववराट - लवराट स्वरूप में वह जड़ और चेतन में अलभव्यक्त हो रहा है। इस शरीर में सारे स्थि ू
पदाथत समाए हुए है। महाभारत के समय भगवान श्रीकृ ष्ण ने अजतनु को लवराट स्वरूप लदखाया था अजतनु को
समझाया था लक मोहवश लजनसे यि ु नहीं करना चाहते हो, वे पहिे से ही मृत्यु को प्राप्त हो चक
ु े हैं, तमु
(अजतनु ) लसित लनलमि मात्र हो। भगवान श्रीकृ ष्ण पहिे से ही अपने शरीर के अन्दर (लवराट स्वरूप में) उन्हें
मृत लदखा रहे हैं लजनसे अजतनु िड़ने के लिए मना कर रहे हैं, क्योंलक सृलष्, लस्थलत और प्रिय लवराट स्वरूप
के अन्दर ही लस्थत है।
2. वहरण्यगभण - लहरण्यगभत, चेतन तत्व व सक्ष्ू म पदाथों जगत से लनलमतत होता है। वहीं से सारी सृलष्
का प्राकट्य होता है। लहरण्यगभत के लवषय में वेद व महाभारत में भी वणतन लमिता है। उपलनषद में भी वणतन
लमिता है। लहरण्यमय परुु ष का दशतन योगी लसित उच्चावस्था में कर सकता है क्योंलक वह सक्ष्ू म जगत का
नायक अथवा अध्यक्ष है। उसका शरीर अत्यंत तेजोमय स्वणत के समान सुनहिे रंग वािा है। उसके के श व
दाढ़ी भी सनु हिे रंग के हैं। नाखून से िेकर सारा शरीर स्वणत के समान सनु हरा है। लहरण्य गभत की उत्पलि
सिसे पहिे हुई लिर उसने सृलष् के सृजन का कायत लकया। इन्हें लवरंच और अजन्मा कहा गया है। लहरण्यगभत
का स्थान प्रत्येक प्राणी के लचि पर लस्थत लहरण्यगि
ु ा (हृदय गि
ु ा) के अन्दर होता है। लहरण्यमय परुु ष ब्रह्मा
जी को कहते हैं।

सहज ध्यान योग 372


3. ईश्वर - ईश्वर चेतन तत्त्व व कारण (महाकारण) जगत से लनलमतत है। जैसे– नारायण, लशव, कृ ष्ण,
आलद। ईश्वर, ब्रह्म का सगणु रूप कहा गया है। भक्त अथवा सगणु उपासक ईश्वर को ही ब्रह्म मानते हैं। ईश्वर
के लवषय में पहिे लिखा जा चक ु ा है।
एक िार राजा जनक की सभा में गागी ने याज्ञविक्य जी से पछ ू ा –“'ब्रह्म क्या है?” महलषत याज्ञवल्क्य
ने उिर लदया – “गागी, वह अक्षर है, वह न मोटा है; न पतिा है, न छोटा है, न िमिा है, न लकसी रंग का
है, वह वायु नहीं है, वह आकाश नहीं है, वह असंग है, रस से रलहत है, गन्ि से रलहत है, उसके नेत्र नहीं हैं,
स्त्रोत नहीं है, वाणी नहीं है, मन नहीं है, प्राण नहीं है, सख
ु नहीं है, पररणाम नहीं है, उसके कुछ अन्दर नहीं
है, उसके कुछ िाहर नहीं है, न कुछ भोगता है, न कोई उसका उपभोग करता है।”
ब्रह्म के िारा ही सृलष् की रचना हुई है, लिर भी वह सृलष् में समालहत होते हुए भी सृलष् से अिग है।
इसी ब्रह्म को माया के समिन्ि से ईश्वर कहते हैं। इसी ब्रह्म को अलवद्या के समिन्ि से जीव कहते हैं। अलवद्या
के कारण जीव अहक ं ार, िलु ि, मन, इलन्रयों, व स्थि
ू शरीर को अपना मानने िगता है। इसी कारण ईश्वर,
जीव पर शासन करता है। ईश्वर शासक है, जीव शालसत होता है।
योगी जि सलवकल्प समालि में िहुत समय तक अभ्यास करता है, ति कुण्डलिनी िारा उसका
ब्रह्मरंध्र खोि लदया जाता है। ब्रह्मरंध्र खि
ु ने पर योगी को अत्यंत तेजस्वी प्रकाश लदखाई पड़ता है। उस समय
लसवाय तेज प्रकाश के कुछ नजर नहीं आता है। योगी स्वयं अपने को तेज प्रकाश में लस्थत हुआ देखता है।
यह तेज प्रकाश अहक ं ार की एक सालत्वक वृलि होती है, जो ब्रह्म की ओर से लनदेशन करती है। इस प्रकार
का तेज प्रकाश योगी ने पहिे कभी नहीं देखा होता है। इस अवस्था को प्राप्त होने पर योगी को लवशेष प्रकार
के आनंद की अनभु ूलत होती है। इसका शब्दों में वणतन नहीं लकया जा सकता है, लसित अनभु लू त की जा
सकती है और न ही उस तेज प्रकाश के लवषय में कुछ लिखा जा सकता है। सहस्त्रार चक्र में लनगतणु ब्रह्म का
लनवास स्थान कहा गया है।

सहज ध्यान योग 373


साधकों के दो शब्द
जि मैं गरुु देव से प्रथम िार लमिा, ति मैं भारतीय प्रौद्योलगकी संस्थान, कानपरु में एक शोि छात्र था।
मझु े याद है जि मैं और मेंरे कुछ लमत्र, जो उनकी पुस्तकों (जो लक संस्थान के पस्ु तकािय में उपिब्ि थी) से
प्रभालवत थे, उनसे लमिने उनकी कुलटया में गये थे। लमिने पर हम िोगों को योग के िारे में िहुत कुछ नया सनु ने
को लमिा। योगी जी (यही समिोिन हम सभी उनके लिए प्रयोग करते थे) के हमारे प्रश्नों के उिर देने की शैिी में
उनका योग के लवषय में अलिकार स्वत: ही पारदलशतत होता था। उस समय मैं आध्यालत्मक लवषयों में अलत रुलच
िेता था, और इिर-उिर की पस्ु तकें पढ़कर थोड़ा िहुत अभ्यास भी लकया करता था। िेलकन मैं इससे सन्तष्ु नहीं
था। इस भेंट के िगभग चार वषों के िाद मैं पनु : उनसे समपकत लकया और मागतदशतन की प्राथतना की। उस समय
हािाूँलक उन्होंने– मैं इस समिन्ि में लवचार करूूँगा– ऐसा कह कर इसे स्थलगत कर लदया। मैंने उनसे समपकत िनाए
रखा। एक वषत के िाद उन्होंने मागतदशतन करना स्वीकार कर लिया। मैं उनकी कुलटया में गया। तीसरे लदन उन्होंने
मझु पर एक लवशेष प्रकार का शलक्तपात लकया जो लक अपने आप में अलत दि ु तभ प्रयोग था। उन्होंने सीिे मेंरे कारण
शरीर पर शलक्तपात लकया था। उन्होंने मझु े ध्यान का अभ्यास सतत् रखने का सझु ाव लदया अन्यथा शलक्तपात का
समलु चत िाभ नहीं लिया जा सकता था। इस शलक्तपात से मेंरे भीतर जो सक्ष्ू म पररवततन हुआ उसका प्रभाव मेंरे
भौलतक जीवन पर भी पड़ा। इस शलक्तपात के अगिे वषत गरुु देव ने मेंरे नीचे के चार चक्र खोि लदए। लिर, इसके
अगिे वषत मेंरे कण्ठ चक्र और दो माह िाद मेंरे ब्रह्मरन्ध्र भी उन्होंने खोि लदए। मेंरी ध्यान में गलत िढ़ गयी है। मेंरी
नींद भी कम हो गयी है। मैं लनयलमत रुप से ध्यान करता ह।ूँ मेंरे वैवालहक जीवन का मेंरे ध्यान के अभ्यास पर कोई
नकारात्मक प्रभाव नहीं आता। मैं वततमान में कॉिेज में एक प्राध्यापक ह।ूँ ध्यान के साथ-साथ मैं भौलतक कततव्यों
का भी लनवातह करता ह।ूँ मैं तो ऐसा समझता हूँ लक ध्यान मनष्ु य की मि ू आवश्यकता है। ध्यान के अनभु व के
लिना यलद उसका जीवन समाप्त हो जाता है तो यह िड़े द:ु ख की िात होगी। ऊपर की आप-कहानी लिखने का
मेरा उद्देश्य यह था लक शायद यह पस्ु तक आपके लिए भी आध्यालत्मक प्यास जगा जाय।
इस पस्ु तक में आप योग के िारे में तो जानेंगे ही, साथ में गरुु देव की अपनी स्वयं की सािना से भी पररलचत
होंगे; कुछ अद्भुत सक्ष्ू म घटनाओ ं के भी िारे में जानेंगे। साथ में, अध्यात्म लवषयक कुछ शब्दों जैसे, ब्रह्म, ईश्वर,
पनु जतन्म, मृत्य,ु आलद के सटीक अथत भी आप समझ पायेंगे। इस पस्ु तक के माध्यम से पाठकों के जीवन में एक
उच्चतर आध्यालत्मकता का प्रवेश हो जाए, मैं ऐसी कामना करता ह।ूँ
डॉ. रवीन्र,
(आई.आई.टी. कानपरु )

सहज ध्यान योग 374


सद्गरुु योगी श्री आनन्द जी के िारे में और उनसे जड़ु े अपने अनभु व के िारे में लिखते समय मेंरी लस्थलत
– “सनु हु तात यह अकथ कहानी। समझु त िनै न जाइ िखानी।।” की हो रही है। कहाूँ तो उनका लवराट व्यलक्तत्व!
कहाूँ मेंरी िघु िेखनी! तथालप पाठकों से जड़ु ने का िोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ एवम् अपनी अल्पिलु ि के
अनसु ार जो थोड़ा-िहुत ग्रहण कर सका हूँ उसे संक्षेप में लनवेलदत करता ह।ूँ यहाूँ यह भी िता देना उलचत प्रतीत
होता है लक मैंने आध्यालत्मक उन्नलत की चाह में शास्त्रों का पयातप्त अध्ययन लकया, लविानों की दरू ु ह व्याख्याएूँ
पड़ी, कुशि मागतदशतक की तिाश में जगह-जगह की खाक छानी। िेलकन पररणाम भसू े के ढेर में सईू खोजने जैसा
सालित हुआ। साथ ही वैज्ञालनक पररवेश में लशलक्षत होने के कारण लसित कोरे तकत जाि या अिं श्रिा से सतं ष्ु हो
पाना मेंरे लिए संभव नहीं था। मैंने आई.आई.टी.कानपरु से पीएच.डी. लकया है और वततमान में चेन्नई में वैज्ञालनक
पद पर कायतरत ह।ूँ ऐसे में ईश्वरीय कृ पा का अनपु म उदाहरण योगी श्री आनन्द जी से लमिन के रूप में सामने आया।
सद्गरुु की तिाश परू ी हुई। लिर उनके मागतदशतन में सािना प्रारमभ हुई। शीघ्र ही कृ पापजंु गरुु देव ने शलक्तपात िारा
कुण्डलिनी मागत के चक्रों को खोि लदया। कािांतर में गरुु देव से कुण्डलिनी उध्वत हुई एवम् वततमान में कण्ठ चक्र
से ऊपर आज्ञा चक्र एवम् ब्रह्मरंध्र िार तक गलत करती है। इस दौरान कई अनभु व भी आए लजनका अथत श्री गरुु देव
ने िारीकी से समझाया। सािना एवम् तत्सिं िं ी अनभु व लसित श्रिावश नहीं लिखा गया है िलल्क गरुु कृ पा से ऐसा
प्रत्यक्ष अनभु व लकया है।
पनु श्च, “कहते हैं गरुु दो प्रकार के होते हैं – पहिे, लशष्य के लवि का हरण करने वािे और दसू रे , लशष्य
के लचि का हरण करने वािे। योगी श्री आनन्द जी उन लवरिे गरुु ओ ं में हैं जो दसू री श्रेणी में आते हैं। योग की
उच्चतम अवस्था प्राप्त करने के िाद भी व्यवहार में सरिता एवम् स्पष्वालदता श्री आनन्द जी के व्यलक्तत्व को
लवलशष्ता प्रदान करती है। मेरा सौभाग्य है लक उनके मागतदशतन में मझु े योग के अभ्यास का अवसर लमिा है एवम्
समय-समय पर उनकी कृ पा का प्रत्यक्ष अनभु व भी लकया है। प्रस्ततु पस्ु तक में योगी श्री आनन्द जी ने थोथे पांलडत्य
से दरू , सहज, सरि शैिी में योग के गढ़ू रहस्यों को प्रकट कर सािकों पर िड़ा उपकार लकया हैं लनश्चय ही यह
पस्ु तक न के वि योग के प्रारलमभक अभ्यालसयों के लिए िलल्क प्रौढ़ सािकों के लिए भी पठनीय, अनक ु रणीय
एवम् संग्रहणीय है।”
डॉ. रलवकान्त पाण्डेय,
वैज्ञालनक, पी.िी.डी.सी.
(िाइजर िायोिोलजक्स डेविपमेंट सेंटर)
टाइसेि िायो-पाकत , चेन्नई – 113

सहज ध्यान योग 375


अखण्ड मण्डिाकारम् व्याप्तम् येन चराचरम।्
ततपदम् दलशततम् येन तस्मै श्री गरुु वे नमुः।।
हमारे प्राचीन समय के ऋलष मलु नयों िारा प्रदि योग का वास्तलवक स्वरूप वततमान में प्रायुः देखने को नहीं
लमिता है, अलपतु अलिकाश ं तुः इसे मानलसक एवं शारीररक व्यालियों के लनवारण तक ही सीलमत मान लिया गया
है। जिलक इसका वास्तलवक िि तो आत्म लस्थलत है।
योगी श्री आनन्द जी उन दि ु तभ योलगयों में से एक हैं जो सािक को न के वि योग के पणू त सत्य से अवगत
कराते हैं अलपतु स्वयं उन्हें समालि की अवस्था तक पहुचूँ ने हेतु सहायता भी करते हैं। मैं भाग्यशािी हूँ लजसे गरुु
जी का कृ पा प्रसाद प्राप्त हुआ एवं उन्हीं के मागतदशतन में लनयलमत अभ्यास कर रहा ह।ूँ जि से गरुु जी ने मेंरी
कुण्डलिनी जाग्रत करके ऊध्वत की है ति से मेंरे जीवन में के वि और के वि सकारात्मक पररवततन ही हुए हैं।
उदाहरण हेतु मैं पहिे की भाूँलत व्यथत चचात या वाद लववाद में ना उिझ कर स्वयं की उिरोिर अंतमतख ु ता एवं
ध्यान लसलि हेतु प्रयास करता रहता हूँ एवं अपनी ऊजात को सकारात्मक समािानों में व्यय करता ह।ूँ
संतत्व भीतर का गणु है इसे लकसी िाहरी आडंिर की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे अनेक व्यलक्त जो
संतों की वेशभषू ा में होते हैं, वे आध्यालत्मक पस्ु तकों का अध्ययन कर अथवा पवू त में सनु े हुए प्रवचनों के आिार
पर इस लवषय पर चचात करते रहते हैं परंतु इसमें उनका न तो अपना अनभु व और न ही अभ्यास होता है। अतुः मैं
उनसे संतष्ु कम ही हो पाता था, परन्तु गरुु जी की अनभु व लसलि एवं अभ्यास को जानकर योग के वास्तलवक
मिू को समझ कर मझु जैसे तालकत क लवश्लेषण में समथत अच्छे संस्थानों के छात्र भी प्रयोगात्मक अभ्यास करने
िगे हैं। अतुः मेंरे अनसु ार एक सिि सािक होने के लिये एक लसि गरुु का होना अत्यतं आवश्यक है, जो सािना
की मथनी िारा सािक को योग का माखन स्वरूप लदव्य रस चखा देते हैं लजसे अन्य अनभु वहीन गरुु न तो स्वयं
चख पाते हैं न अपने सािकों को चखा पाते हैं अलपतु माखन के प्रलतिि छाछ को पाकर ही प्यासे रह जाते हैं।
गरुु जी ने योग के वास्तलवक स्वरूप को अत्यतं सरि शब्दों में वलणतत लकया है जो आप के समक्ष एक
पस्ु तक के रूप में उपिब्ि है। मैं लनवेदन करता हूँ लक इसे पढ़कर न के वि आप स्वयं िाभालन्वत हों, अलपतु अन्य
लमत्रों, सिं लं ियों को भी िाभ पाने का अवसर दें लजससे सभी को यह ज्ञात हो सके लक वततमान में भी ऐसे कुछ
लदव्य महात्मा लवद्यमान हैं जैसे प्राचीन यगु में हुआ करते थे।
रजत,
पीएच.डी. छात्र
(आई.आई.टी. कानपरु )

सहज ध्यान योग 376


ध्यानमि
ू म् गरुु मततु ी पजु ामि
ू म गरुु पतदम, मंत्रमि
ू म गरुु वातक्यम मोक्षमि
ू म गरुु ुः कृ पा।
जीवन रूपी नौका अपने सत्य गन्तव्य को के वि तभी प्राप्त कर सकती है जि उसकी पतवार एक अनभु व
लसि मागतदशतक के हाथ हो। अनेकानेक जन्मों के पश्चात सौभाग्यवश सद्गरुु का सालनध्य प्राप्त होता है।
मैं स्वयम् को भाग्यशािी मानता हूँ लक मझु े इस जन्म में सद्गरुु जी जैसे लसि योगी के दशतन भी हुए और
समय-समय पर उनका सालनध्य भी प्राप्त होता है। सद्गरुु जी से भेंट होने के पवू त मैंने उनके िारा रलचत पस्ु तकों का
अध्ययन लकया लजसके लिए मैं श्रीमान अश ं ि
ु खण्डेिवाि जी का आभारी ह।ूँ अध्ययन के पश्चात ही मैं अपने
क्षलणक अनभु व का सत्य जान पाया अन्यथा मैं उसे एक स्वप्न जानकर ही जी रहा था एवम् तभी से मझु में एक
नयी लजज्ञासा का संचार हुआ लक मैं भी सद्गरुु जी से मागतदशतन एवम् उनकी कृ पा प्राप्त करूूँ एवम् अपने जीवन को
वास्तलवक अथों में सिि िनाऊूँ । ऐसे उच्च कोलट के योगी सतं लवरिे ही दशतन देते हैं क्योंलक वे तो सदैव ब्रह्म
लचंतन में ध्यानस्थ एवं आत्मस्थ होते हैं, लकन्तु सद्गरुु जी सपु ात्रों पर करुणा करके अपने लशष्य होने का सौभाग्य
प्रदान करते हैं एवं सभी लशष्यों के कल्याण में सदैव तत्पर रहते हैं। मैं जि भी उनके समीप जाता हूँ मझु में शलक्त
का संचार होने िगता है।
सद्गरुु जी के मखु मंडि पर एक सहज िािस्वरूप हास्य सदैव शोभायमान रहता है, वे अलत गढ़ू रहस्यों
को सरिता से उद्घालटत करते हैं एवं सश ं यों का लनवारण करते हैं। सद्गरुु जी के समान मैंने अपने जीवन में लकसी
योगी के दशतन नहीं लकए हैं; वे अतल्ु य हैं एवं उनमें एक लदव्यानन्द स्वतुः प्रस्िुलटत होता लदखाई देता है लजसका
अलभिाषी ये चराचर जगत है। सद्गरुु जी अवगणु ों को सद्गणु ों में पररवलततत करने का सामर्थयत रखते हैं एवं लशष्यों
को उनके स्वरूप ही िनाते जाते हैं। वे वततमान समय के ध्यान योग के सयू त हैं लजनसे अनेक सािक प्रकाशमान हुए
हैं और हो रहे हैं।
अतुः मैं प्रलतलदन सद्गरुु देव जी के श्री चरणों एवं लदव्य मख
ु मंडि का स्मरण करता हूँ एवं परमलपता परमात्मा
से प्राथतना करता हूँ लक सद्गरुु जी के प्रलत मेंरी यह श्रिा एवं लवश्वास अटूट रहे और मझु े वो सामर्थयत दें लजससे मझु े
भी उनका वरद हस्त एवं कृ पा प्राप्त हो सके ।
आशीष जोशी,
वैज्ञालनक अलिकारी
एप्सीजेन टेक्नोिोलजस प्राइवेट लिलमटेड,
एस. आई. डी. िी. आई. (आई.आई.टी. कानपरु )

सहज ध्यान योग 377


योगी श्री आनन्द जी से मेरा प्रथम पररचय मई 2009 में उनकी पस्ु तक ‘योग कै से करें ’ के माध्यम से हुआ
था, जि मैं आईआईटी कानपरु में एम.टेक. अध्ययनरत लवद्याथी था। उनके आध्यालत्मक अनभु व इतने अद्भुत
और अिौलकक थे लक मैं उनके लवषय में जानने को आतरु हो गया। िचपन से ही मेंरे मन में गहन आध्यालत्मक
लजज्ञासा और रुलच रही है, और ऐसे सच्चे संतों से लमिने की हालदतक उत्कंठा लजन्होंने स्वयं अपने जीवन में
आध्यालत्मक रहस्यों का अन्वेषण कर लनज अनभु व िारा सच्चा ज्ञान प्राप्त लकया हो। जैसे ही मझु े लकसी के माध्यम
से यह ज्ञात हुआ लक वे अभी भी जीलवत हैं, मैं यथाशीघ्र उनके लनवास स्थान के लवषय में पड़ताि कर एक लमत्र
के साथ उनके गाूँव तक उनसे लमिने गया। जनजीवन से कटे उनके गाूँव, जहाूँ अि तक लिजिी के तार ही नहीं
लिछे हैं, तक पहुचूँ ने में िहुत सी असलु विाओ ं का सामना करते हुए जि मैं घंटों तक भटकने के िाद उनके गाूँव
तक पहुचूँ ा, तो पता चिा लक वे जंगि में एक कुलटया िना कर रहते हैं। उस समय वह कुलटया कच्ची ही थी। उस
लदन उनसे प्रथम भेंट मेंरे जीवन का सिसे अलवस्मरणीय अनभु व िन गया। मैंने उनसे अपनी अनेक लजज्ञासाएूँ भी
शांत की। उस रात हम उनके साथ अलिक समय लिताने के मंतव्य से रात में उनके गाूँव ही रुक गए, और लिर
अितरालत्र तक लवलभन्न रोचक लवषयों पर चचात होती रही। ति से िेकर आज तक, जि मैं राजस्थान तकनीकी
लवश्वलवद्यािय में लशक्षक के रूप में कायतयत ह,ूँ मैं उनके लनरंतर सपं कत में रहा ह।ूँ उनका मेंरे आध्यालत्मक जीवन
पर उल्िेखनीय प्रभाव रहा है।
2010 से 2015 तक जि मैं आईआईटी कानपरु से पीएचडी कर रहा था, योगी श्री आनन्द जी का
असंख्य िार संस्थान में आने का प्रयोजन हुआ। उनके आने का मख्ु य उद्देश्य जनमानस में अध्यात्म का प्रचार
और िोगों की लजज्ञासा शातं करना होता था। अनेक िार मेंरे कमरे पर गोलष्ठयाूँ हुई लजनमें अनेक िोगों ने आकर
हर प्रकार के प्रश्न पछ
ू े । मझु े योगी श्री आनन्द जी की सिसे िड़ी खिू ी उनकी ईमानदारी िगी; वो हर िात का
जवाि अपने अनभु व से ही देते थे। लजस लवषय का उन्हें ज्ञान नहीं होता था, सरिता से िता देते थे। लिल्कुि एक
सािारण व्यलक्त की तरह रहना और सिसे सरिता से िात करना उनके व्यलक्तत्व की ऐसी लवशेषताएूँ हैं लक लकसी
के लिए भी उनकी वास्तलवक अवस्था का अनमु ान िगाना कलठन है। िाद में जि उन्हें चलु नन्दा िोगों को
आध्यालत्मक मागत में आगे िढ़ा देने का संदश े प्राप्त हुआ, तो उन्होंने कुछ यवु ाओ ं को चनु कर अपना लशष्य िनाया,
लजनमें से कई मेंरे घलनष्ठ पररलचत थे। मैंने खदु िोगों को पररवलततत होते देखा और लमत्रों ने भी िताया लक कै से
योगी जी इच्छा मात्र से कुण्डलिनी को जाग्रत और ऊध्वत कर देते हैं, और अत्यन्त कलठनता से खि ु ने वािे चक्रों
का िात-ही-िात में भेदन कर देते हैं। मैंने एक साथी को, लजसके ऊपर योगी श्री आनन्द जी ने कारण शरीर के स्तर
पर शलक्तपात लकया था, िातों के िीच ही में समालिस्थ होते देखा। ये घटनाएूँ योगी जी के योगसामर्थयत की प्रत्यक्ष
प्रमाण थी। इसी प्रकार उनके लशष्यों से मैंने अलवश्वसनीय लदव्य अनभु व सनु े। योगी जी एक पारस के समान हैं, जो
लकसी भी सािक को क्षण-भर में रूपांतररत कर देने का सामर्थयत रखते हैं।

सहज ध्यान योग 378


आज जि योगी जी की प्रथम पस्ु तक के लितीय संस्करण के लवषय में ‘दो शब्द’ लिखने का अवसर
लमिा, तो मैं खदु को गौरवालन्वत महससू कर रहा ह।ूँ पाठकों, यह पस्ु तक अमृत कणों से भरी हुई है, लजसमें योग
के अनछुए रहस्यों से पदात उठाया गया है। चूँलू क इसमें वलणतत तर्थय स्वयं योगी जी के दीघत सािनामय जीवन के
श्रमसाध्य शोि के अनभु व हैं, अतुः मझु े कोई संशय नहीं लक इसमें योगमागत और जीवन के गोपनीय रहस्यों के
लवषय में अत्यन्त प्रामालणक जानकारी उपिब्ि कराई गयी है, जो वततमान काि में िहुत ही दि ु तभ है। योगी जी
सािारण वेश में एक लसि पुरुष हैं, और इतने उच्च कोलट के योगी का वततमान काि में लमिना अत्यंत दि ु तभ हैं।
उनसे लमिकर मेरा जीवन कृ ताथत हो गया। इस समपणू त पस्ु तक का मैंने स्वयं गहराई से अध्ययन लकया है। लकसी
भी सािक के मागतदशतन हेतु यह एक िेहतरीन पुस्तक है। इस पस्ु तक का अलिकालिक प्रसार हो, तालक ज्यादा-
से-ज्यादा िोग इससे िाभालन्वत हो सकें , और अपना अनमोि मानव जीवन सिि िनाएूँ, ऐसी मेंरी शभु कामनायें
हैं।
प्रो॰ अश
ं ि
ु खण्डेिवाि
राजस्थान तकनीकी लवश्वलवद्यािय

सहज ध्यान योग 379


मैं गरुु जी से 2014 में लमिा था। उनसे लमिने के िाद से ही मैंने ध्यान शरूु कर लदया था।.वो लदन याद है
मझु े जि उन्होंने मझु पर शलक्तपात लकया था, ति मझु े मि ू ािार में गरम-गरम महससू हुआ था। उसके िाद मैंने
अपनी ध्यान की अवलि िढ़ा दी थी। शरू ु में मझु े वायु के ििु िि
ु े जैसा कुछ मि
ू ािार में महसूस हुआ और वो
िि ु ििु ा रीढ़ की हड्डी के सहारे ऊपर चढ़ते हुए भी महससू हुआ। अि मझु े ध्यान करते-करते एक साि हो गया
है और कभी-कभी कुण्डलिनी कण्ठ चक्र तक अनभु लू त होती है। गरुु जी िहुत उच्च कोलट के योगी हैं। मझु े ध्यान
में जो भी उपिलब्ि लमिी है, उनकी वजह से ही लमिी है। यह उनका मझु पर कृ पा प्रसाद है।
लवपिु ,
एम.टेक.
(आई.आई.टी. लदल्िी)

आई.आई.टी. लदल्िी में एम.टेक. करते समय इस पस्ु तक के िारा ही योगी आनन्द जी (गरुु जी) हमें गरुु
रूप में प्राप्त हुए। गरुु जी ने अपनी कठोर सािना और अभ्यास से जो आध्यालत्मक ज्ञान व अनभु व प्राप्त लकया है,
उन्होंने उसका इस पस्ु तक में सरि व सहज भाषा में वणतन लकया है जो सभी सािकों के लिए िहुत िाभकारी है।
साथ ही गरू ु जी की सािना पिलत का अगर कोई सािक लनष्ठापवू तक अभ्यास करे तो वह स्वयं अपने शरीर में
कुण्डलिनी की अनभु लू त करे गा जैसा मैंने लकया। अत: मेरा सभी पाठकों से लनवेदन है लक वे एक िार इस पस्ु तक
को अवश्य पढ़ें तथा अपना आध्यालत्मक लवकास करें ।
लवकास
एम.टेक.
(आई.आई.टी. लदल्िी)

सहज ध्यान योग 380


योगी आनन्द जी द्वारा वलवखत अन्य पुस्तकें

योग कै से करें तत्त्वज्ञान


(एक योगी के अनभ ु व)

त्राटक प्राण तत्त्व

सहज ध्यान योग 381


सहज ध्यान योग 382
हे सािकों!
“लक्ष्य को प्राप्त करने के वलए सयिं म, पररश्रम,
िैयण और सतिं ोष का होना आवश्यक है। मागण में
अवरोि आवश्य आएगे। स्वयिं अभ्यासी का शरीर,
प्राण और मन अवरोि उपवस्थत करेगा। अभ्यासी
को ठहरना नहीं है। अवरोिो को समवझये,
सल ु झाइये अगर न सल ु झे तो छलािंग लगा कर पार
हो जाइये। अभ्यास की वनरन्तरता बनाए रखे।
सर्लता आपका स्वागत करेगी”।
-योगी आनन्द जी

Email id: anandkyogi@gmail.com


Facebook: http://www.fb.com/sahajdhyanyog
Website: http://www.kundalinimeditation.in/
Youtube: http://www.youtube.com/c/YogiAnandJiSahajDhyanYog

सहज ध्यान योग 383

You might also like