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II ी II

राग-परंपरा की िवकास या ा म मतंगकृत बृह े शी का योगदान

डॉ. अ वन भागवत, उ जैन

राग-त व की क पना भारत का िव व संगीत के े म मुख योगदान है I मतंग का थ बृह े शी

भारतीय संगीत की िवकास या ा का एक मह वपूण पड़ाव है , य िक बृह ेशी म ही भारतीय संगीत के

इितहास म ‘ राग-पर परा ‘ का सव थम िववेचन िमलता है I मतंग ने प ट कहा है िक-“िजस रागमाग का


भरत आिद पूव चाय ने िववेचन नह िकया, वे उसका िववेचन कर रहे ह I” मतंग की इस उ त का यह अथ

कदािप नह लेना चािहए िक मतंग से पूव राग-गायन चार म नह था और वे एक नवीन पर परा का सू पात

कर रहे ह I ना शा म ३४ वे अ याय के अ तगत अवन वा की माजना से स बंिधत अंश म ‘ ाम-राग’


श द का प ट उ लेख है तथा ३२ वे व
ु ा अ याय म ५ ाम-राग का ना सि धय म िविनयोग का नामत:

िनदश िमलता है३ जो यह िस करता है िक ना शा काल म ‘राग-पर परा’ का ज म हो चुका था I गा धव

के िनयम के अनु प न होने से ‘राग-पर परा’ को त कालीन शा म थान नह िमल सका था, ह ‘लोक’ म

चलन बढ़ने के कारण त कालीन दे शी पर परा ‘गान’ के अ तगत उसका उ लेख शा कार ारा अव य

होने लगा था I िकसी भी नवीन पर परा को शा ीय मा यता िमलने के िलए उसकी एितहािसक िवकास-या ा

का होना अ य त आव यक होता है , जो िक कुछ पीिढय तक पर परा का लोकि यता के प म पोषण होने

के प चा ही संभव होता है I भरतकाल से मतंगकाल तक राग-पर परा को पय त एितहािसक आधार िमल

चुका था तथा इस पर परा के िवषय म शा कार के बीच पय त मतभे द भी पनप चुके थे I अत: मतंग को इस

पर परा के शा ीय िववेचन की आव यकता महसूस हु ई और इसीकारण उ ह ने बृह े शी की रचना के मा यम

से इस िवषय का थम ितपादन िकया है I अत: राग-पर परा की िवकास या ा के ारंिभक मह वपूण पड़ाव

के प म बृह े शी के योगदान की चच मा तक इस शोध- प को सीिमत रखा गया है I

राग-पर परा का उ म व पृ ठभूिम : ाचीन संगीत के दो मािणक थ ह - ‘ भरतमुिनकृत ना शा ’

तथा दि लाचायकृत ‘ दि लम ‘ I इन दोन ही ंथ म ाचीन संगीत ‘ गा धव ’ का िववेचन िमलता है I दोन

ही आचाय ने राग अथवा ाम-राग का िववेचन नह िकया है I ना शा म ाम-राग श द के तथा ५ ाम-


राग के नामो लेख से यह िस तो होता है िक ना शा काल म राग-पर परा ज म ले चुकी थी पर तु

गा धव-स मत न होने के कारण इस नवजात पर परा को शा म थान नह िमल पाया था I दोन ही ंथ

का ितपा िवषय गा धव होने के कारण इनम ाम-राग का िववेचन नह िमलता है I

राग-पर परा का ारं िभक िवकास : मानव की योगध मता के कारण रंजकता एवं वैिच य हे तु िनयम भंग

होते ह िजसके पिरणाम व प नवीन पर पराय ज म लेती और िवकिसत होती है I जाितय से ाम-राग के

ज म के पीछे भी यही कारण रहा है I

ना शा के व
ु ा अ याय म म यम ाम, ष ज ाम, साधािरत, पंचम तथा कैिशक इन ५ ाम-राग

का नामो लेख है I इनम से साधािरत, कैिशक व पंचम इन तीन राग का वणन (प चम का अ य त अ प व


अपूण वणन ) उपल ध बृह े शी म िमलता है I अपने वणन म मतंग ने इन तीन राग के साथ ‘शु ’ उपसग

लगाकर उ ह ‘शु ा गीित’ के अ तगत रखा है I ना शा म इन ाम-राग के नाम के साथ ‘शु ’ उपसग

का न होना यह मािणत करता है िक ना शा काल के परवत काल म यह पर परा गीितय का आ य

लेकर िवकिसत हु ई िजससे एक ही ाम-राग के गीितय के आधार पर और भी नवीन प उ प न हु ये िजनम

व पगत समानता होते हु ये भी शैलीगत िभ नता थी और इसीकारण उनम पाथ य हेतु ाम-राग के नाम

के साथ ‘शु ’, ‘िभ न’, ‘गौड़’ आिद उपसग लगाये गये I

मतंग ारा अपने राग-िववेचन के ारंभ म दुगश त, या टक, क यप ५ तथा शादूल के गीित-


िवषयक मत के संकलन से ात होता है िक मतंग ने इन मत के मा यम से उनके काल तक हु ई राग-

पर परा की िवकास-या ा का पिरचय दे िदया है I दुगश त के काल तक हर गीित के मश: उ व के साथ

नवीन राग- प का ज म हु आ िजनम शैलीगत िभ नता थी I परवत काल म नवीन राग की उ पि व प

भेद से होने लगी I इन नवीन राग- प को प च गीितय पर आधािरत राग- प के साथ नह रख पाने के

कारण शादूल ने सम त राग- प को एक ही ण


े ी ‘भाषा’ के अ तगत रखा I त कालीन राग पर परा के

वग करण का आधार ही ‘गीित’ होने के कारण ‘भाषा’ को भी गीित ही माना गया I शादूल के परवत काल म

क यप के काल तक एक और नवीन ेणी ‘िवभाषा’ का उ व हु आ तथा क यप के परवत काल म एक और

नवीन ेणी ‘अ तरभाषा’ का उ व हु आ और या टक ने सम त राग- प को भाषा, िवभाषा तथा अ तर


भाषा इन तीन ेिणय म समािहत िकया और पर परा के मोह के कारण इन तीन नवीन ेिणय को भी नाम

गीित ही िदया गया I

उपरो त िववेचन से प ट है िक दुगश त के परवत काल म राग-पर परा अपनी मौिलक िवशेषता

‘गीित’ के साथ-साथ व प भेद पर आधािरत भाषा, िवभाषा, अ तर-भाषा इन तीन नवीन पर पराओं को

आ मसात करते हु ये िवकिसत हो रही थी I

राग-पर परा का सं ांित-काल ‘मतंगकाल’ : मतंग का काल एक कार से राग-पर परा का सं ांि त-काल

था िजसम ाम-राग हे तु िनध िरत अंश, यास, वर-संगित आिद िवकार के मा यम से कई नवीन राग- प

की िन मती हो चुकी थी I मतंग के स मुख ११० राग- प ऐसे थे िजनम शैलीगत या गीितगत िभ नता न होकर

व पगत िभ नता थी और उ ह ५ गीितय म समेटना मु कल था I राग-पर परा का शा -स मत आधार ही

गीित होने से मतंग ने बीच का रा ता अपनाते हु ये गीितय की सं या म ही वृि कर भाषा और िवभाषा का भी

गीितय म समावेश िकया I७

मतंग ने सम त राग को सव थम ‘माग ’ और ‘दे शी’ इन दो वग म वग कृत िकया I पर परा के

अनुकूल लग रहे राग को चाहे वो ाचीन हो या नवीन उ ह ‘माग ’ प म रखते हु ये शेष नवीन राग- प को

जो िनयम-िवकृित अिधक होने के बावजूद लोकि य हो रहे थे, ‘दे शी’ के वग म रखा I मतंग ने थम वग के

िलए ‘माग ’ िवशेषण का योग नह िकया है तथािप ि तीय वग के साथ ‘दे शी’ िवशेषण के योग८ से यह

प ट हो जाता है िक थम वग दे शी नह है और जो दे शी नह है और दे शी से पहले िजसका वणन िकया गया

है वह िन चत ही ‘माग ’ है I

‘बृह ेशी म राग-पर परा के उ व के कारण से स बि धत अ त:सा य : राग-पर परा के उ व के कारण

को जानने हेतु जाित-गायन के व प तथा उसके कुछ कड़े िनयम को समझना सहायक होगा –

१) एक ही जाित म एक से अिधक ‘अंश’९ होते थे I अंश वर जाित का मु य वर होता था िजसका

ता पय है ‘आधार- वर’ वतमान स दभ म ‘ष ज’ I आज हर राग का आधार- वर ष ज ही होता है

पर तु ाचीन ाम-मू छना प ित म हर वर आधार वर का थान ले कर ‘अंश’ वर कहलाता था I

इस तरह हर अंश वर से एक नवीन वरावली (आज के स दभ म ठाठ/थाट) की ा त होती थी I


इस त य को ायोिगक स दभ म ‘भूपाली’ राग म अंश-पिरवतन की ि या के मा यम से समझा जा

सकता है I भूपाली राग की वरावली है – ‘ सा रे ग प ध सां ’ I इस वरावली को धैवत से ारंभ

करने पर (वतमान भाषा म धैवत को सा मानने पर ) राग ‘धानी’ की वरावली ‘ सा ग म प िन सां ’

ा त होती है , पंचम से ारंभ करने पर राग ‘दुग ’ की वरावली ‘ सा रे म प ध सां ’ ा त होती है ,

गांधार से ारंभ करने पर राग ‘मालक स’ की वरावली ‘ सा ग म ध िन सां ’ ा त होती है तथा

ऋषभ से ारंभ करने पर राग ‘मधमाद सारंग’ की वरावली ‘ सा रे म प िन सां ’ ा त होती है I

ाचीन जाित-गायन को ायोिगक स दभ म समझने के िलए भूपाली राग सव िधक उपयु त है I यिद

हम भूपाली को एक ‘जाित’ मान ल तो धानी, दुग , मालक स और मधमाद सारंग ये भूपाली के ‘अंश-

िवकृत प’ कहलायगे I

२) हर जाित म कुछ िविश ट ‘ वर-संगितय ’ होती थी, जो उस जाित की पिरचायक होती थी I इन

वर-संगितय का योग उस जाित के हर िवकृत प म होता था I भूपाली के ही मा यम से इस बात

को समझा जा सकता है I भूपाली म ‘ प रे ग ’ यह एक राग-वाचक संगित है I यही वर-संगित

धैव तांश धानी म ‘ िन म प ’ , पंचमांश दुग म ‘ सां प ध ’ , गांधारांश मालक स म ‘ ग िन सा ’ तथा

ऋषभांश मधमाद सारंग म ‘ म सा रे ’ का प ले लेगी I भूप ाली की ‘ प रे ग ’ की राग-वाचक वर

संगित धानी, दुग तथा मालक स म तो राग-वाचक वर संगितय का प लेती है पर तु मधमाद

सारंग म ‘ म सा रे ’ यह कोई राग-वाचक वर-संगित नह है , पर तु ाचीन जाित-गायन म जाित

हे तु िनध िरत वर-संगित का उसके हर अंश-िवकृत प म योग अिनवाय होता था, चाहे वह

रंजक लगे अथवा नह I जाित के अ य ल ण अ प व, बहु व, मं , तार, व य वर आिद योग म

भी इसी कार का यवहार पाया जाता था I

३) जाितय म सव िधक कड़ा िनयम ‘ यास’ वर से स बि धत था I हर जाित का यास वर िनध िरत

होता था और िकसी भी जाित म िवकृित ह, अंश, मं , तार, अप यास, अ प व, बहु व, व य वर

आिद ल ण म पिरवतन से संभव थी पर तु यास वर के पिरवतन की छूट कदािप नह होती थी I

१०
जाित के अंग की ( बंिदश की ) समा त िजससे हो वह वर यास है I इस त य को आधुिनक

स दभ म समझना किठन है तथािप यह माना जा सकता है की यिद यह मान ल भूपाली राग का

यास वर पं चम है तो भूपाली राग के गायन की समा त पं चम वर से होगी I धैवतांश प धानी की


समा त कोमल िनषाद वर से होगी, पंचमांश प दुग की समा त ष ज से होगी, गा धारांश प

मालक स की समा त कोमल गांधार से होगी तथा ऋषभांश प मधमाद सारंग म गायन की समा त

म यम से होगी I ऐसा िनयम वतमान राग गायन म नह है इसिलए हम अटपटा ज़ र लगेगा पर तु

११
ाचीन जाित-गायन म यह िनयम सबसे कड़क था और इसम पिरवतन की छूट नह थी I

४) भरत, दि ल के काल म ही सात शु वर के अलावा ‘अ तर गांधार’ व ‘काकली िनषाद’ इन दो

साधारण वर का ज म हो चुका था व जाितय म भी इनका योग होने लगा था I यह योग बहु त

अिधक न बढ़े इसिलए मा तीन जाितय ‘म यमा’, ‘पंचमी’ व ‘ष जम यमा’ म ही साधारण वर के

१२
योग की छू ट दी गयी थी और वह भी केवल आरोह म , अवरोह म कदािप नह I

वर का ऐसा िनयंि त योग आज राग-गायन म भी होता है I भीमपलासी, िमयां म हार,

बहार इन राग म शु िनषाद का तथा राग जोग म शु गांधार का, केवल आरोह म योग मा य है I

जाित-गायन के उपरो त ल ण के आधु िनक स दभ म िववेचन से कुछ त य उभर कर

आते ह िजनसे यह िस होता है की ाम-राग का ज म जाितय के ही उन िनयम की िवकृित से

हु आ है िजनकी जाित-गायन म छू ट नह थी I इन त य पर िवचार भी यह ासंिगक ही होगा –

१३
१) मतंग ने शु कैिशक राग के वणन म उसे कैिशकी व कम रवी जाितय से ज मा बताया है I

कैिशकी म यास वर गांधार तथा िनषाद बताये ह I इसी जाित म धैवत व िनषाद के अंश होने पर

१४
पंचम को यास मानना चािहए ऐसा भी िनदश है I राग शु कैिशक का ज म कैिशकी के ष जांश

प से हु आ है पर तु उसम यास वर जाित-िनयम के िवपरीत ‘पंचम’ बताया गया है I जाित-िनयम

के िवपरीत होने से इस तरह के व प को जाित म थान न दे ते हु ये त कालीन लोक पर परा ‘गान’

म ‘ ाम-राग’ के प म वीकार िकया गया और शा -स मत िस करने हे तु एक अ य जाित

काम रवी से इसका स ब ध जोड़ा गया य िक उसका यास वर पंचम है I१५

१६
२) इसी कार शु कैिशकम यम के वणन म उसे कैिशकी व ष ज म यमा जाित से ज मा बताया है

तथा इसका यास वर ष जम यमा जाित के आधार पर म यम बताया है , अंश वर ष ज ही है I

जाित-गायन का एक और मह वपूण िनयम इस राग म भंग होता िदखाई दे ता है , वह है इस राग

का ‘औडव व प’ I कैिशकी का औडव व प ऋषभ-धैवत के लोप से तथा ष जम यमा का औडव


प िनषाद-गांधार के लोप से बनाने का िनदश िमलता है I१७ शु कैिशकम यम राग की िन मती म

इन दोन के ही औडव व प स ब धी िनयम को भंग कर ऋषभ-पंचम का लोप बताया गया है I

३) िकसी भी नवीन पर परा के शा का िनम ण ार भक चरण म उसकी पूव पर परा के आधार पर ही

होता है I यह त य मतंग के राग-िववेचन म भी िदखाई दे ता है I मतंग पूव पर परा जाित-गायन के

ल ण ह, अंश, मं , तार, यास , अ प बहु ल वर आिद का यौरा तो दे ते ही ह, साथ ही कुछ

१८
नवीन ल ण भी बताते ह यथा- गीित, मू छना, रस, िविनयोग, अलंकार, वण, कला और ताल I

शु , िभ न, गौड़ इन गीितय पर आधािरत ाम-राग की ितमु तय म यास वर समान

रखे गए ह I शु कैिशक, िभ न कैिशक तथा गौड़ कैिशक इन तीन राग म अंश वर ष ज है तथा

यास वर पं चम है I इसी कार शु कैिशकम यम, िभ न कैिशकम यम तथा गौड़ कैिशकम यम

१८
इन तीन राग म अंश वर ष ज तथा यास वर म यम है I प ट है नवीन ाम-राग पर परा को

शा ीय आधार िमले इसिलये ाम-राग म गीितगत भे द के बावजूद यास वर को समान रखा

गया है I

४) पूव म ही बताया गया है िक जाितय म अ तर गांधार व काकली िनषाद का योग अ यिधक मय िदत

था पर तु मतंग के राग-िववेचन से यह ात होता है िक अ तर गांधार और काकली िनषाद ाम-राग

१८
पर परा म िनयिमत (मु य) वर के प म िदखाई दे रहे ह I इसी कारण इन वर- प से यु त

सांगीितक प को जाित म थान नह िमला और ाम-राग के प म इन सांगीितक प को

मा यता दी गयी I

५) ाचीन जाित-पर परा म हर जाित के एक से अिधक अंश वर होने के कारण उनकी मू छना भरत

तथा दि ल ारा नह दी गयी I केवल ाम ही िदए गये ह I मतंग ने जाितय और ाम-राग दोन के

िलए मू छनाय बतायी है , अ तर केवल इतना है िक जाितय के िलये बतायी गयी मू छनाय ादश-

१९
वर ह (िजससे उस जाित के सभी अंश प का गायन संभव होता था ) तथा ाम-राग के िलये

बतायी गयी मू छनाय स त- वर१८ ह I

६) ाचीन जाित-पर परा म सात वर जाितय के ही शु -िवकृत प के पर पर संसग से (िम ण से)

यारह संसगजा जाितय की िन मती हु ई ह I यह सं या और न बढे इसिलए भरतमुिन ने जाितय की


कुल सं या १८ ा ारा बतायी गयी है२० ऐसा कहकर जाितय के िव तार पर िवराम लगा िदया

था I मानव की योगध मता के कारण यह िनयम भी िटक नह पाया और ाम-राग के प म यह

िव तार हु आ I मतंग के िववेचन से प ट है िक अलग-अलग जाितय से उनकी कुछ िवशेषताओं के

आधार पर ाम-राग का ज म हु आ है और कई ाम-राग एक से अिधक जाितय से ज मे बताये गए

२१
ह I हदोल राग के वणन म मतंग ने उसे धैवती और आषभी को छोड़कर अ य सभी जाितय से

ज मा बताया है I

इस तरह जाित-पर परा के िनयम को भंग करने की वृि ही ाम-राग के उ व का एकमा

कारण रही है , यह बृह े शी म ा त अ त:सा य से िस हो जाता है I

मतंगो र काल म राग-पर परा के वाह की िदशा : पूव-पर परा के लोप एवं राग-पर परा के ज म

एवं िवकास से स बि धत सा य तो बृह े शी म िमलते ही ह, मतंगो र काल म राग-पर परा के वाह

की िदशा के संकेत भी िमलते ह जो एक वतं शोध-प का िवषय है तथािप इनम से कुछ संकेत

का संि त उ लेख यह ासंिगक ही होगा –

१) मतंग के काल म सािरका (पद) वाली वीणा का ज म हो चुका था I इन वीणाओं म सािरकाय तो

थी पर वे ‘अचल’ थी I आज की वीणाओं के पद के समान इन वीणाओं के पद को सरकाने की

सुिवधा नह थी I त कालीन ‘मतंग-िक नरी’ भी एक अचल सािरका यु त वीणा थी I मतंग ारा

बतायी गयी ादश वर मू छना को इस वीणा पर थािपत करने के बाद एक ही जाित के

िविभ न अंश प हे तु बार-बार वीणा को अलग-अलग मू छना के आधार पर िमलाने की

आव यकता समा त हो गयी थी, ह िविवध अंश प के गायन हे तु मं व तार स तक म योग

सीिमत अव य हु आ था िजसके िलए भी शारंगदे व के काल तक मानव ने चल सिरकाओं वाली

वीणाओं के िनम ण से माग खोज ही िलया I पिरणाम यह हु आ की शारंगदे व के काल म आधार-

वर थर होने लगा और परवत काल म ष ज ही सभी राग के आधार वर के प म मा य

हु आ I िन चत ही मतंग के ादश वर मू छनावाद के कारण ही मानव को इस िदशा म सोचने

की ेरणा िमली है I

२) बृह े शी म ाम-राग के नाम पु लगवाची है तथा भाषा, िवभाषा तथा अ तर भाषा के नाम

ी लगवाची है I इस आधार पर यह कहा जा सकता है की म यकालीन राग-रािगणी पर परा


का बीजारोपण बृह े शी काल म ही हु आ था िजसके पिरणाम व प यह पर परा परवत काल म

अंकुिरत होकर िवकिसत हु ई I

िन कष : तुत शोध-प म िकये गये मतंग के राग-िववेचन के िव लेषण से जाित-पर परा के लोप

एवं राग-पर परा के ादुभ व, िविभ न मत-मता तर के बीच उसकी िवकास या ा के िविवध पड़ाव

एवं मतंगो र काल म राग-पर परा के वाह की िदशा से स बि धत रह य का उ ाटन होता है I

यही राग-पर परा की िवकास या ा म मतंगकृत बृह े शी का मह वपूण योगदान है I

स दभ :

१) ी मतंगमुिन िणता बृह ेशी भाग -२ , कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA , लोक २६२, पृ ठ २६४ I

२) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय ३४ पृ ठ ४५५ I

३) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय ३२ पृ ठ ३९६ I

४) ी मतंग मुिन िणता बृह ेशी भाग -२ , कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA , लोक ३०१ से ३०३, अनु छे द १६६ से

१६९, पृ ठ ८८ से ९२ I

५) यह उ लेि त क यप भरतमुिन के समकालीन क यपमुिन नह है I

६) ी मतंग मुिन िणता बृह े शी भाग -२ , कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA , लोक २७१ से २७३, , पृ ठ ७८ से ८० I

७) ी मतंगमुिन िणता बृह ेशी भाग -२ , कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA , लोक २६८ से २७०, पृ ठ ७८ I

८) ी मतंगमुिन िणता बृह ेशी भाग -२ , कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA , लोक ३४६ तथा ३५२, पृ ठ २०० I

९) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय २८ पृ ठ ४४ तथा ५४ तो ६३ I

१०) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय २८ पृ ठ ४७ I

११) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय २८ , लोक . ४५ व ४६ के बीच

का ग भाग, पृ ठ ३७ I

१२) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय २८ , लोक . ४४, पृ ठ ३६ I

१३) ी मतंगमुिन िणता बृह ेशी भाग -२ , कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA , लोक ३०३ तथा अनु छे द १६९ ,पृ ठ ९०

से ९२ I

१४) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय २८ , लोक . १३७ व १३८ ,

पृ ठ ६३ I

१५) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय २८ , लोक . १३६ , पृ ठ ६२ I

१६) ी मतंगमुिन िणता बृह ेशी भाग -२ , कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA , लोक ३०२ तथा अनु छे द १६८ ,पृ ठ ९० I
१७) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय २८ , लोक . १३९ , पृ ठ ६३

तथा लोक . १११ पृ ठ ५७ I

१८) ी मतंगमुिन िणता बृह ेशी भाग -२ , कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA ,स पूण रागा याय के िव लेषण के आधार

पर I

१९) ी मतंग मुिन िणता बृह ेशी भाग -२ , कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA ,जाित िवशेष ल ण के िव लेषण के

आधार पर I

२०) ना शा , गायकवाड ओिरए टल सीरीज १४५, ि तीय सं करण, भाग ४, अ याय २८ , लोक . ३९ , पृ ठ ३५ I

२१) ी मतंगमुिन िणता बृह ेशी भाग -२, कलामूलशा थमाला (१०) IGNCA , लोक . ३२५, पृ ठ ११२ I

लेखक : डॉ. अ वन भागवत ,

४ िव ा नगर, सांवेर रोड,

उ जैन -४५६०१० (म. .),

मण विन . ९८२६०२४१३७ /८६०२४३२१६०

ई मेल : bhagwatashvin@gmail.com

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