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वैदिक और पौराणिक परंपरा में सोलह कला
वैदिक और पौराणिक परंपरा में सोलह कला
वैदिक और पौराणिक परंपरा में सोलह कला
लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी (ईसवी) तक कला का प्रयोग 'अंश', 'भाग' या 'खण्ड' के लिए हुआ। सूर्य की गति को बारह भागों में बाँटा गया
जिसे राशि भी कहा गया। राशि का अर्थ भी हिस्से या अंग्रेज़ी में कहें तो 'Portion' से ही था। सूर्य की गति को बारह कलाओं या राशियों में
बाँटा गया और चन्द्रमा को सोलह कलाओं में। तीसरी-चौथी शताब्दी के बाद कला शब्द का अर्थ 'Art' के लिए होने लगा। जिसका कारण वात्सायन
और जयमंगल द्वारा मनुष्य की विभिन्न रङ्ग (रंग) क्षमताओं, विधाओं और सेवाओं को श्रेणीबद्ध कर देना रहा। जयमंगल ने इन्हें 64 श्रेणियों में विभक्त
किया। जिन्हें चौंसठ योगिनी के रूप में भी प्रसिद्धि, वज्रयानियों के प्रभाव से निर्मित खजुराहो आदि में मिली।
कलाएँ
अत: स्पष्ट है, उदभिज्ज योनि द्वारा परमात्मा की एक कला का विकास होता है। इसी क्रम में परवर्ती जीवयोनि स्वेदज में ईश्वर की दो कला, अण्डज में
तीन और जरायुज के अन्तर्गत पशु योनि में चार कलाओं का विकास होता है। इसके अनन्तर जरायुज मनुष्य योनि में पाँच कलाओं का विकास होता है।
किन्तु यह साधारण मनुष्य तक ही सीमित है। जिन मनुष्यों में पाँच से अधिक आठ कला तक का विकास होता है, वे साधारण मनुष्यकोटि में न आकर
विभूति कोटि में ही परिगणित होते हैं। क्योंकि पाँच कलाओं से मनुष्य की साधारण शक्ति का ही विकास होता है, और इससे अधिक छ: से लेकर आठ
कलाओं का विकास होने पर विशेष शक्ति का विकास माना जाता है, जिसे विभूति कोटि में रखा गया है।
कला विकास
इस प्रकार एक कला से लेकर आठ कला तक शक्ति का विकास लौकिक रूप में होता है। नवम कला से लेकर षोडश कला तक का विकास अलौकिक
विकास है, जिसे जीवकोटि नहीं अपितु अवतार कोटि कहते हैं। अत: जिन के न्द्रों द्वारा परमात्मा की शक्ति नवम कला से लेकर षोडश कला तक विकसित
होती है, वे सभी के न्द्र जीव न कहलाकर अवतार कहे जाते हैं। इनमें नवम कला से पन्द्रह कला तक का विकास अंशावतार कहलाता है एवं षोडश
कलाके न्द्र पूर्ण अवतार का के न्द्र है। इसी कला विकास के तारतम्य से चेतन जीवों में अनेक विशेषताएँ देखने में आती हैं। यथा पाँच कोषों में से अन्नमय
कोष का उदभिज्ज योनि में अपूर्व रूप से प्रकट होना एक कला विकास का ही प्रतिफल है। अत: औषधि, वनस्पति, वृक्ष तथा लताओं में जो जीवों की
प्राणाधायक एवं पुष्टि प्रदायक शक्ति है, यह सब एक कला के विकास का ही परिणाम है।