ਦੱਖਣੀ ਅਫ਼ਰੀਕਾ ਹਿੰਸਾ

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दक्षिण अफ्रीका में हिंसा व लूट-खसोट की घटनाएँ

भूख-बेरोज़गारी से त्रस्त ग़रीबों के गुस्से की अभिव्यक्ति

दक्षिण अफ्रीका के आर्थिक रूप से सबसे अहम माने जाते दो राज्यों कवाज़ुलू-नाटाल व गौटैंग में 9 जुलाई से लेकर 17 जुलाई तक बड़े
स्तर पर हिंसा व लूट-खसोट की घटनाएँ हुईं। पहले पूर्व राष्ट्रपति जैकब ज़ूमा को सज़ा सुनाए जाने के ख़िलाफ़ उसके समर्थकों द्वारा कवाज़ुलू-नाटाल
राज्य में प्रदर्शन कए गए। जैकब ज़ूमा को भ्रष्टाचार के इल्ज़ाम में चल रही जाँच से संबंधित अदालत के आदेश की अवहेलना करने पर 7 जुलाई को
सज़ा सुनाई गई थी। 9 जुलाई को ज़ूमा की रिहाई की माँग कर रहे उसके समर्थकों द्वारा हिंसा शुरु कर दी गई। ज़ूमा के समर्थकों की एक भीड़ द्वारा
प्रमुख शाही-मार्ग एन-3 व एन-2 को बंद कर दिया गया और 28 ट्रकों को आग लगा दी गई। दक्षिण अफ्रीका का सबसे अहम व रणनीतिक महत्व वाला
मार्ग, जो इसकी डरबन बंदरगाह तक जाता था, को भी बंद कर दिया गया। इसके अलावा जलघरों, मोबाइल टॉवर को भी तबाह कर दिया गया।

इन घटनाओं की शुरुआत ज़ूमा के समर्थकों द्वारा की गई थी। लेकिन 11 जुलाई को जब जैकब ज़ूमा की ही पार्टी के मौजूदा राष्ट्रपति सिरिल
रामाफोसा की सरकार ने दमनकारी कोरोना लॉकडाउन से संबंधित नए निर्देशों का ऐलान किया तो पहले ही भूख व बेरोज़गारी से जूझ रही ,
बहुसंख्यक ग़रीब आबादी भी सड़को पर उतर आयी। इसके बाद हिंसा व तोड़ -फोड़ की घटनाओं का चरित्र भी बदल गया। बड़े स्तर पर शॉपिंग मॉल ,
परचून का सामान व गोदामों को लूटने, तोड़-फोड़ करने व आग लगाने की घटनाएँ शुरु हो गयीं। मौजूदा राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा द्वारा सेना तैनात
कर दी गई। हिंसा व लूट-खसोट की ये घटनाएँ लगभग एक हफ़्ते तक चलीं। इस दौरान क़रीब 337 लोगों की मौत हुई व हज़ारों लोगों को गिरफ़्तार
किया गया। इसके अलावा सेहत व भोजन सेवाएँ भी प्रभावित हुईं हैं। इस अराजक माहौल में विभिन्न समूहों ने ख़ुद को हथियारबंद कर लिया है और
उन्होंने अपने-अपने इलाकों में बाहरी व्यक्तियों के दाख़िले को रोकने के लिए नाकाबंदी कर ली है। इस माहौल ने आवाम में नस्लीय हिंसा भड़कने का
डर भी पैदा किया है।

तत्कालिक रूप से दक्षिण अफ्रीका में व्यापक स्तरर पर घटित हुईं लूट-खसोट, तोड़-फोड़, व हिंसा की इन घटनाओं के पीछे जैकब ज़ूमा के
राजनीतिक हित नज़र आ सकते हैं। लेकिन वास्तव में यह एक बहाना था जिसके ज़रिए लंबे वक़्त से ग़रीबी व भूख से जूझ रहे लोगों के गुस्से व बैचेनी
का अराजकता के रूप में विस्फोट हुआ। दक्षिण अफ्रीका की आधी से अधिक आबादी भंयकर ग़रीबी की हालतों में रह रही है। बेरोज़गारी दर 32.6
फ़ीसद है, जो कि कोरोना काल के पहले भी लगभग 30 प्रतिशत थी। काम करने योग्य उम्र के 3.6 करोड़ लोगों में से 2 करोड़ से अधिक लोग बेरोज़गार
हैं। युवा आबादी में हर 4 में से 3 युवा बेरोज़गार हैं। इन आर्थिक हालतों के अलावा पुलिस दमन भी दक्षिण अफ्रीका में एक व्यवस्थागत समस्या है।
2019-20 के दौरान पुलिस द्वारा 629 क़त्ल किए गए।

दक्षिण अफ्रीका के मेहनतकशों-मज़दूरों ने पहले अंग्रेज़ बस्तीवाद के ख़िलाफ़ और बाद में अल्पसंख्यक श्वेत शासकों के नस्लीय शासन,
जो 1948 से 1994 तक क़ायम रहा, के ख़िलाफ़ दशकों लंबा व क़ु र्बानियों भरा संघर्ष लड़ा। दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत आबादी बहुसंख्यक है , इसके
अलावा एक अल्पसंख्या जिन्हें बहुनस्लीय (कलर्ड) कहा जाता है और भारतीय मूल के लोगों की है। इन तीन जनसमुदाएओं ने दक्षिण अफ्रीका के
अल्पसंख्यक डच मूल के गोरे शासकों के ख़िलाफ़ एकजुट संघर्ष लड़ा जो राजनीति व आर्थिकता पर क़ाबिज़ थे। 1994 तक दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत
लोगों को वोट का हक़ नहीं था, क़ानूनन 87 फ़ीसद ज़मीन पर अल्पसंख्यक श्वेतों का ही मालिकी हक़ था। श्वेत व अश्वेत लोगों के अलग रिहायशी
इलाके थे और कोई भी अश्वेत व्यक्ति श्वेतों के इलाके में बिना इजाज़त दाख़िल नहीं हो सकता था। अंतर -नस्लीय विवाह ग़ैर-क़ानूनी थे। अश्वेत
मज़दूरों को यूनियन बनाने का हक़ नहीं था। ‘अफ्रीकन नैश्नल कांग्रेस’ , कम्युनिस्ट पार्टी व ‘साऊथ अफ्रीकन कांग्रेस ऑफ़ ट्रेड यूनियंज़’ (साकटू ) के
संयुक्त मोर्चे ने अफ्रीकी लोगों की नस्लीय हुक़ू मत के ख़िलाफ़ हथियारबंद संघर्ष में अगुवाई की। 1994 में ‘अफ्रीकी नैश्नल कांग्रेस’ व श्वेत शासक वर्ग
के बीच समझौता हो गया। नया संविधान तैयार किया गया और वोट के हक़ समेत अफ्रीकी लोगों को कई जनवादी हक़ मिले। 1994 में चुनाव हुए,
‘अफ्रीकीक नैश्नल कांग्रेस’ इन चुनावों में विजयी हुई और नेल्सन मंडेला पहला अश्वेत राष्ट्रपति बना। नस्लवाद पर आधारित व्यवस्था का अंत कर
दिया गया और पूंजीवादी जनवाद स्थापित किया गया, अश्वेत लोगों को सीमित अधिकार भी हासिल हुए लेकिन सत्ता के चरित्र में कोई बुनियादी
तब्दीली नहीं आयी। यहाँ तक कि ‘फ्रीडम चार्टर’ की मुख्य माँग ज़मीनी सुधारों को भी सीमित रूप में ही लागू किया गया। इसके अलावा खानों व बैंकों
का राष्ट्रीयकरण,जो इस चार्टर की मुख्य माँगों में से एक थी, के साथ भी ग़द्दारी की गई। कु ल मिलाकर कहा जाए तो लूट-दमन आधारित आर्थिक
व्यवस्था को जैसे का तैसा रखा गया और श्वेत शासकों के साथ एक छोटी-सा अश्वेत पूँजीपति वर्ग सत्ता में भागीदार बन गया।

दक्षिण अफ्रीका पूँजीवादी रास्तों पर आगे बढ़ा और आज बाकी अफ्रीकी देशों के मुक़ाबले में विकसित अर्थव्यस्था व आधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर
वाला देशा है। यह सोना, प्लैटीनम आदि धातुओं का सबसे अधिक निर्यात करने वाले देशों में से एक है। लेकिन इसके साथ ही दक्षिण अफ्रीका दुनिया के
सबसे अधिक असमानता वाले देशों में से भी एक है। यदि के वल आमदन की बात करें तो देश की कु ल आमदन में से 20 फ़ीसद सिर्फ़ ऊपरी 1 फ़ीसद
पूँजीपतियों की तिजोरियों में जाती है और शीर्ष 10 फ़ीसद कु ल आदमन में से 65 फ़ीसद हिस्सा हड़प कर जाते हैं। जहाँ निचली 10 फ़ीसद आबादी की
वास्तविक उजरतें सिर्फ़ 4 सालों के समय में 25 फ़ीसद घटीं हैं वहीं इस दौरान ऊपरी 2 फ़ीसद धनपशुओं की आमदन में 15 फ़ीसद की वृद्धी हुई है।
कु ल धन की बात करें तो दक्षिण अफ्रीका के कु ल धन के 65 फ़ीसद हिस्से पर ऊपरी 1 फ़ीसद अमीरों का क़ब्ज़ा है और शीर्ष 10 फ़ीसद 93 फ़ीसद
धन पर क़ाबिज़ हैं। जबकि शेष 90 फ़ीसद आबादी कु ल धन के सिर्फ़ 7 फ़ीसद हिस्से पर क़ाबिज़ है। ये वे विस्फोटक हालतें हैं जिनमें कोरोना के बहाने
पिछले साल से थोपी जा रही पाबंदियों ने आग लगाने का काम किया है।

दक्षिण अफ्रीका में पिछले दिनों जो घटनाएँ हुईं, वे ग़रीब आबादी के रोष का स्वयंस्फू र्त व अराजक विस्फोट थीं, जिसमें मज़दूर वर्ग लगभग
नदारद था। लूट-खसोट व अराजकता ग़रीबी, बदहाली का अंत नहीं कर सकती, जब तक लूट आधारित असमानता वाली पूँजीवादी व्यवस्था, जो
समस्याओं की वास्तविक जड़ है, को ख़त्म नहीं किया जाता। इस पूँजीवादी व्यवस्था को इसकी क़ब्र में आधुनिक मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में अन्य दबे -
कु चले व दमित लोगों की एकता के ज़रिए ही दफ़नाया जा सकता है। ‘द गार्डियन’ अख़बार में दक्षिण अफ्रीका में हुई घटनाओं से संबंधित एक लेख
छपा, जो पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शासकों की चिंताओं व डर को बयान करता है। इस लेख का निचोड़ यह था कि व्यापक स्तर पर असमानता ने
दक्षिण अफ्रीका में हिंसा को जन्म दिया और यह सभी के लिए ख़तरे की घंटी है , यहाँ सभी का अर्थ है मेहनतकश-मज़दूर आबादी की लूट पर पल रहे
पूँजीवादी-साम्राज्यवादी शासक। आज लगातार बढ़ रही ग़रीबी, असमानता व बेरोज़गारी आदि विश्व व्यापी समस्याएँ हैं। जिसके परिणामस्वरूप वक़्त-
वक़्त पर मुख़्तलिफ़ देशों में इसके ख़िलाफ़ जनाक्रोश की आग भड़कती रहती है। कोरोना पाबंदियों के दौरान यहाँ ग़रीब मेहनतकश -मज़दूर आबादी की
बदहाली में भंयकर इज़ाफ़ा हुआ है वहीं पहले से ही अमीरी के शीर्ष पर बैठे पूँजीपतियों का धन कई गुणा बढ़ा है। ग़रीबी-बदहाली के सागर में
पूँजीपतियों की अय्याशी का टापू लंबे वक़्त तक क़ायम नहीं रक सकता। लाज़िमी ही आने वाले समय में ये हालतें बड़े जन-उभारों के तुफ़ानों को जन्म
देंगी।

तजिंदर

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