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पंचसंस्कार महिमा पोस्ट
पंचसंस्कार महिमा पोस्ट
अध्याय २
अं बरीष कहते हैं - ज्ञान आदि से सं पन्न हे मु निवर ! उत्तम व्रत को धारण करने वाले हे मु निवर ! सभी कर्मों में ,
विष्णु सं बंधित पाँच सं स्कारही प्रधान हैं ऐसे सभी ऋषियों द्वारा कहा गया है न ! उन पाँच सं स्कारों के विधि को
मु झे विस्तार से सु नाइए।
हारीत मु नि ने कहा - राजन् ! सु निये । विष्णु सं बंधित निर्दोष क्रियाओं को कहता हँ ।ू इनके सं बंध में , पूर्वकाल में
ब्रह्मा तथा वशिष्ठ आदि वै ष्णवों से कहा गया है । चक् र आदि धारण करना सभी सं स्कारों के पूर्व, प्रथम करना
चाहिए। उन सं स्कारों को सभी ब्राह्मणों के लिये विधि अनु सार करना आवश्यक है । इस सं स्कार को पाने के
इच्छुक व्यक्ति को प्रथम एक आचार्य को शरण जाना होगा। आचार्य – निर्दोष, वै ष्णव , ब्राह्मण ,
शु द्धसत्वगु णी , नवविध इज्याकर्म के अनु ष्ठाता , सत्सं पर् दायस्थ , द्वयार्थ में निपु ण , ज्ञान वै राग्य से पूर्ण , वे द
वे दांत का सार के ज्ञाता, अपने आश्रितों को सदाचारों की शिक्षा उपदे श तथा स्वयं के अनु ष्ठान द्वारा दे ने में
समर्थ , सर्वधर्मों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ , भागवतोत्तम , वे दाध्ययन रूपी धन सं पन्न , सदाचार सं पन्न होना
चाहिए। जो वै ष्णव सभी शास्त्रों का अभ्यास करके , उनके अनु सार स्वयं आचरण करता है वही आचार्य
कहलाता है । आस्तिक, सत्सं गी , धर्म में रुचि यु क्त , श्रद्धावान , सदाचारी , गु रु कैंकर्य में तत्पर है , ऐसे व्यक्ति
को एक वर्ष परीक्षण के पश्चात शिष्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए। उस शिष्य को प्रथम इन पं चसं स्कारों
को, विधि अनु सार कराना चाहिए।
तापसं स्कार
प्रातःकाल स्नान के उपरान्त, शु द्ध स्थान में विष्णु की पूजा करे । पश्चात , स्नान किये हुए शिष्य को आमं त्रित
करके , उसके साथ उसके आचार्य , पं चगव्यसे चक् र आदि पांच आयु धों का अभिषे क करें । तत्पश्चात पु ष्प धूप
दीपादि से आराधन करें । अने क प्रकार के नै वेद्यों को समर्पित करके , उचित मं तर् ों से विष्णु के सामने उन
आयु धों की पूजा करें । आचार्य , स्वयं के अग्नि में पलाश समिधाओं से होम करें । आज्य सहित पायस का
पु रुषसूक्त से , आज्य मात्र का १०८ सं ख्या मूलमं तर् तथा विष्णु गायत्री से , परिशु द्ध आचार्य होम करें ।
तत्पश्चात पांचो आयु धों को अग्नि में तपाकर , चक् र की पूजा करें । पश्चात ध्यानपूर्वक उस अग्नि में षडाक्षरी
मं तर् से आज्य की बीस आहुति दे कर होम करें । तत्पश्चात शु द्ध आचार्य शिष्य के सहित अग्नि की प्रदक्षिणा
करके , विष्णु को प्रणाम करें । पश्चात उत्तम तथा शु भ मं तर् के जप करें । उपरान्त , एकाग्र चित्त यु क्त , पूर्व
दिशा की ओर मु ख करके बे ठे हुए शिष्य को , उन उन आयु धों के मं तर् ोच्चारण पूर्वक, पांच आयु धों से अं कित
कराए। दायी भु जा पर चक् र , बायी भु जा पर शं ख , मस्तक पर गदा , वक्षस्थल पर नं दक , शीर्ष पर शार्ंग से ,
व्रण न हो ऐसे , धारण कराए। पश्चात उन आयु धों को जल से प्रक्षालन करके पु नः उनकी पूजा करनी
चाहिए। । शे ष होम को सं पन्न करने के उपरान्त, श्रीवै ष्णवों को प्रसाद ग्रहण कराए। इस प्रकार , सभी
पापनाशक विष्णु सं बंधित ताप सं स्कार को करना चाहिए।
सभी सं स्कारों में विष्णु सं बंधित यह ताप सं स्कार ही अधिक श्रेष्ठ तथा प्रधान है । ताप सं स्कार से ही बहु
सिद्धि को प्राप्त होते हैं । कुछ महानु भाव , मात्र शं ख तथा चक् र को, दोनों भु जाओं में धारण कराते हैं । अन्य
कुछ महानु भाव , चक् र मात्र को धारण कराते हैं । विष्णु के आयु धों में चक् र प्रधान होने से ,बु द्धिमान आचार्य
उसे मात्र धारण कराना चाहिए।
पु त्र के जन्म पर , पिता स्नान करके विधि अनु सार होम करना चाहिए। उस अग्नि में ही तप्त किये हुए
चक् रायु ध से शिशु के दोनों भु जाओं में अं कित करना चाहिए तथा तत्पश्चात शिशु का विष्णु के नाम से
नामकरण करना चाहिए। उसके उपरान्त ही उस शिशु के लिये अन्य सभी कर्मों को करना चाहिए।
हे राजन् ! चक् रां गन कराये बिना इष्टापूर्त आदि किये हुए सभी कर्म व्यर्थ ही होते हैं । मं तर् दीक्षा के समय चक् र
आदि पांचों आयु धों से अं कित कराना चाहिए। जातकर्म के समय , कर्मसिद्धि पाने के लिये , चक् रां कित कराना
चाहिए। चक् रां कित हीन ब्राह्मण सभी कर्मों में निन्दनीय है । वह विष्णु सं बंध हीन होने से नरक को प्राप्त
होगा। चक् र आदि पाँच आयु धों से अं कित नहीं किया हुआ व्यक्ति पामर तथा पापी है । विष्णु सं बंध रहित उस
व्यक्ति को अन्त्यजातीय की भां ति दरू करना चाहिए। ब्राह्मण होने पर भी , यदि विष्णु सं बंध हीन है , तो वह
अं त्यजातीय व्यक्ति से भी नीच है , ऐसा स्मृ तियों में कहा गया है । वह ब्राह्मण श्राद्ध में भाग ले ने योग्य नहीं
है । वह ब्राह्मण ,पं क्ति में भी बै ठने अयोग्य है । इसके अतिरिक्त वह रौरव नरक भी जाये गा। विष्णु सं बंध हीन
ब्राह्मण नियमानु सार सभी धर्मों के अनु ष्ठान करने पर भी , उसे पाषं ड जानना चाहिए। वह कोई कर्म करने
अधिकारी नहीं है । अतः , सभी आश्रमों के स्त्री पु रुष सभी को चक् रां कित कर ले ने में , वे दों में विधान होने से
, तप्त चक् र से विधिवत आचार्य अं कित कराना चाहिए। "
" अनायु धासो असु रा अदे वा " ( आयु धों को धारण नहीं करने वाले असु र ही हैं , दे व नहीं हो सकते ) ऐसा वे द
कहते हैं न ! " चक् रे ण तामभवप " ( चक् र से उस शरीर को अं कित करना चाहिए ) इस ऋचा में भी इस अर्थ को
कहा गया है ।
" अपे त्थम् " तथा " वप " इन शब्दों से वे दमें इस अर्थ को कहा गया है । इसीलिए मु नियों ने तप्त चक् रां गन को
( ताप सं स्कार ) स्मृ तियों में कहा है ।
परिशु द्ध विशाल चक् र को विष्णु के श्रीविग्रह में धारण कराया गया है । उस चक् रां गन को वे द के कथनानु सार
शरीर में कराने से वह विष्णु को प्राप्त होता है ।
" हे अग्नि ! आपके ज्वाला के मध्यभाग में परिशु द्ध विशाल ब्रह्म नामक जो विद्यमान है ( विष्णु के उस चक् र
से हमें परिशु द्ध कीजिये )"
" पवित्र " नाम से अग्नि कहा गया है । अग्नि ही को चक् र कहा गया है । अग्नि ही को सहस्रार कहा गया है ।
उस चक् र से अं कित किये हुए शरीर से यु क्त सूर्य , विष्णु नामक ब्रह्म से साम्य पाता है ।
" हे अग्नि ! आपके ज्वाला में जो पवित्र कहा जाता है , उससे हमें परिशु द्ध बनाओ " , " ब्राह्मण अपने दायीं
भु जा में चक् र को तथा बायीं भु जा में शं ख को धारण करना चाहिए " ऐसे वे द के ज्ञाता कहते हैं । इस प्रकार वे द
, सात्विक स्मृ ति , इतिहास , पु राणों में , विष्णु के चक् र को धारण करने के सं बंध में कहा गया है ।
पं चसं स्कार महिमा पोस्ट ३५
हे राजन् ! शं ख , चक् र , ऊर्ध्वपु ण्ड्र आदि चिन्हों से रहित एक ब्राह्मण का , जो ब्राह्मण में श्राद्ध में पितृ रूप
में वरण करता है , उसके पितरों की अधोगति ही होती है । विष्णु के अतिप्रिय शं ख , चक् र तथा ऊर्ध्वपु ण्ड्र
धारण आदि से रहित व्यक्ति, किसी भी धर्म का अनु ष्ठान करने पर भी , धर्म से च्यु त होकर नरक को प्राप्त होता
है । तिर्यक्पु ण्ड्र लगाकर रुद्र की आराधना करनी चाहिए ऐसे कहीं कहे जाने पर भी , वह शूदर् के निमित्त ही
कहा गया है , कदापि ब्राह्मण के लिये नहीं है । प्रतिलोम अनु लोम जातीय लोगों के लिये ही दुर्गागणभै रव
पूज्य है । उसके योग्य बिल्व चं दनादि धारण करना चाहिए। उसी प्रकार यक्ष,राक्षस, भूत , विद्याधर आदि गण
मद्यपान तथा मांस भक्षण करने वाले चाण्डालों के लिये पूज्य है । इस प्रकार हमारे लिये शास्त्रों में जिस धर्म
का विधान किया गया है उसे जानकर उसके अनु सार अनु ष्ठान करना चाहिए। ब्राह्मण रुद्र की आराधना से
रुद्र की साम्य को पाता है । यक्ष तथा भूतों के आराधना मात्र से ,व्यक्ति चाण्डाल बन जाता है । किसी भी
प्रकार के बु रे स्थिति में भी ब्राह्मण को भस्म नहीं धारण करना चाहिए। अज्ञानता से यदि भस्म धारण किया तो
उसे मदिरापान के समान माना जाये गा। तिर्यक्पु ण्ड्र भस्मधारी ब्राह्मण को चाण्डाल की भां ति मानकर उसे
दे खना तथा उससे वार्तालाप करना वर्जित है । अतः ब्राह्मणों को सदा परिशु द्ध श्वे तमृ त्तिका से सु न्दर
ऊर्ध्वपु ण्ड्र विधिवत धारण करना चाहिए।
पु ण्ड्रसं स्कार
परिशु द्ध दिन के पूर्वभाग में , आचार्य स्नान करके विष्णु पूजा करें । पश्चात स्नान किये हुए शिष्य को आमं त्रित
करके पूर्व की भां ति होम करना चाहिए। " परो मात्रया " ऐसे आरम्भ होने वाले विष्णु सक् ू त से मधु सहित पायस
को होम करके , मूलमं तर् से १०८ बार घी से होम करना चाहिए। इसके उपरान्त विष्णु के सामने विधिवत चावल
को बिछाकर , उसके ऊपर आठ दिशाओं में आठ मं डलों को तथा मध्य भाग में चार मं डलों की रचना करनी
चाहिए। उन पर द्वादश पु ण्ड्रों की रचना करनी चाहिए। इसके पश्चात , बु द्धिमान आचार्य उन पर केशवादि
द्वादश भगवन्नामों की अर्चना करते हैं । उन उन स्थानों पर उन उन मूर्ति के ध्यानपूर्वक मं तर् ों के उच्चारण सहित
अर्चना करनी चाहिए। गं ध , पु ष्पादि पदार्थों को उचित मं तर् ोच्चारण सहित आचार्य समर्पण करते हैं । पश्चात
शिष्य सहित एक प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना चाहिए। इसके उपरान्त शिष्य को , केशव आदि द्वादश
पु ण्ड्रों को भु जा आदि अवयवों में धारण करना चाहिए। त्रिकाल सं ध्यावं दन के समय , विशे ष इज्याराधन के
समय , श्राद्ध , दान, होम, वे दपाठ, पितृ तर्पण आदि करते समय , श्रेष्ठ ब्राह्मण को अधिक श्रद्धापूर्वक
ऊर्ध्वपु ण्ड्रों को धारण करना चाहिए। इस प्रकार इन्हें विष्णु प्रीत्यर्थ धारण करना चाहिए। श्राद्ध ,होम, दान,
वे दपाठ,पितृ तर्पण आदि कर्मों को ऊर्ध्वपु ण्ड्र रहित करने से , सभी कर्म भस्म हो जाते हैं । ब्राह्मण से
ऊर्ध्वपु ण्ड्र रहित किया हुआ श्राद्ध को राक्षस लोग ले जाते हैं तथा वह ब्राह्मण नरक को प्राप्त करता है । जो
ब्राह्मण, ऊर्ध्वपु ण्ड्र रहित ब्राह्मण को श्राद्ध में भोजन कराता है , उसके पितृ लोग मलमूतर् का ही भक्षण
करते हैं । इसमें कोई शं का नही है ।अतः ब्राह्मण को ऊर्ध्वपु ण्ड्र को अवश्य धारण करना चाहिए।
प्रथम प्रणव , मध्य में केशव आदि नाम तथा अं त में नमः इस क् रम में मं तर् ों का उच्चारण सहित
ऊर्ध्वपु ण्ड्रों को धारण करना चाहिए। मस्तक पर केशव मूर्ति , उदर पर नारायण मूर्ति , छाती पर माधव मूर्ति ,
कंठ पर गोविन्द मूर्ति , उदर के दायें भाग पर विष्णु मूर्ति , दायीं भु जा पर मधु सद
ू न मूर्ति , दायें कंधे पर
त्रिविक् रम मूर्ति , उदर के बायें भाग पर वामन मूर्ति , बायीं भु जा पर श्रीधर मूर्ति , बायें कंधे पर हृषीकेश मूर्ति ,
पीठ के निचले भाग पर पद्मनाभ मूर्ति , कंठ के पृ ष्ठ भाग पर दामोदर मूर्ति को आवाहन करना चाहिए। शे ष
मृ त्तिका को शीर्ष पर लगाकर वासु देव मूर्ति को आवाहन करना चाहिए।
१) केशव - स्वर्ण वर्ण , शं ख चक् र धारी , शु क्ल वस्त्रधारी, मु क्ताभरणों से अलं कृत सौम्य मूर्ति ।
२) नारायण - घनश्याम वर्ण, शं ख- पद्म- गदा - नं दक नामक छुरा इनको धारण की हुई , स्वर्ण वस्त्र धारी ,
रत्नमय आभरणों से विभूषित मूर्ति ।
३) माधव - नीलोत्पल वर्ण , चक् र- शार्ंग नामक धनु ष - गदा - छुरा इनको धारण किये हुई , विचित्र मालाओं
तथा वस्त्रों को धारण की हुई कमल नयन मूर्ति ।
४) गोविन्द - शं ख वर्ण , पद्म- शं ख -गदा - चाकू इनको धारण की हुई , रक्तवर्णकमलचरण यु क्त , स्वर्ण
आभरणों से विभूषित मूर्ति ।
५) विष्णु - पीत मिश्रित श्वे त वर्ण , शं ख - चक् र - परशु - छुरा इनको धारण की हुई , श्वे त रे श्मी वस्त्रधारी ,
भु जाओं में आभूषण धारण की हुई मूर्ति ।
६) मधु सद ू न - शोभायमान, कमल वर्ण, कमल में विराजमान , चक् र - शार्ंग - मु सल - पद्म इनको धारण की हुई
मूर्ति ।
७) त्रिविक् रम - रक्त वर्ण यु क्त , शं ख - चक् र - गदा - छुरा इनको धारण की हुई , किरीट - मु क्तामाला - केयूर
- कुंडल से प्रकाशित मूर्ति।
८) वामन - कुंद पु ष्प के वर्ण से यु क्त , कमलनयन , वज्र- गदा - शं ख - स्वर्ण पद्म धारण करने वाला मूर्ति।
९) श्रीधर - श्वे तकमल वर्ण से यु क्त , चर्म- शार्ंग- छुरा - पद्म इनको धारण की हुई , मोतीहार धारण की हुई
कमलनयन मूर्ति ।
१०) हृषीकेश - विद्यु त वर्ण यु क्त , चक् र - शार्ंग - मु सल - छुरा आदि धारण की हुई, रक्तवर्ण माला , वस्त्र
यु क्त , कमल के शिरोभूषण को धारण की हुई मूर्ति।
११) पद्मनाभ - इन्द्रनील वर्ण से यु क्त , शं ख - चक् र - पद्म - गदा इनको धारण की हुई , पीताम्बरधारी ,
विचित्र माला - चं दन धारण की हुई मूर्ति।
१२) दामोदर - शाद्वल वर्ण से यु क्त , पद्म- शार्ंग- छुरा - शं ख इनको धारण की हुई , पीतांबरधारी , अने क
प्रकार के रत्न आभूषणों को धारण की हुई , विशालनयन मूर्ति।
श्रेष्ठ श्रीवै ष्णव को इस प्रकार ऊर्ध्वपु ण्ड्रों को सदा धारण करना चाहिए।
ताप तथा पु ण्ड्र सं स्कारों का विधान करने वाले इस द्वितीय अध्याय में , वृ द्धहारीत ऋषि ने अने कों
ृ वाक्यों को उद्धत
श्रति ृ करके विधान किया है । अतः यह सं स्कार अवै दिक है ऐसे मानने वालों का पक्ष अज्ञानवश
ही है , यह स्पष्ट होता है ।
श्रेष्ठ धर्मों का आदे श करते समय , ऋषियों द्वारा , उन धर्मों के आचरण की आवश्यकता को दर्शाने के लिये ही ,
उनका अनु ष्ठान नहीं करने वालों की कटु ता से निन्दा करने की प्रथा है । इस प्रथा के अनु सार पं चसं स्कार नहीं
कराने वालों की निं दा की गयी है । इससे इन सं स्कारों की श्रेष्ठता सिद्ध होती है ।
।। नाम सं स्कार ।।
तीसरा सं स्कार नामसं स्कार है । उसे एक शु भ दिन में करना चाहिए। स्नान के पश्चात दे वाधिदे व परम दे व की
् सहित नामों के अधिदे व
चं दन , पु ष्प आदि से सम्यक पूजा करके , आचार्यों का भी आराधना करके , चित्त शु दधि
की पूजा करनी चाहिए। मार्गशीर्ष मास से ले कर बारह महीने , बारह मूर्तियों से अधिष्ठित है । जिस महीने में
यह दीक्षा दी जाती है , उस महीने के अधिदे वता के श्रीनाम को रखना चाहिए। नृ सिंह , राम , कृष्ण आदि नामों
को दास्यनाम के रूप में रखना चाहिए। भगवद् अवतारों में ( परशु राम आदि ) शक्त्यावे शावतारों के नामों को
वै ष्णव नहीं रखना चाहिए। पापों को नाश करने में समर्थ विष्णु के श्रीनामों को ही प्रयत्नपूर्वक रखना चाहिए।
जिस व्यक्ति का विष्णु का नाम नहीं है , वह अनामिक ही है , वह सभी कर्मों में निन्दित होता है । जिसका
जातकर्म सं स्कार के समय चक् रां गन ( तप्त चक् र से अं कित ) होता है , उसका नाम उस मास के अधिदे वता के
नाम ही विधिवत रख सकते हैं । आचार्य के नाम के अधिदे वता की मूर्ति के ध्यानपूर्वक उस मं तर् से ही अर्चना
करनी चाहिए। धूप दीप नै वेद्य तांबल ू को समर्पण करना चाहिए। अत्यन्त भक्ति से प्रदक्षिणा करके , प्रणाम
करने के उपरान्त उस मूर्ति के मं तर् अथवा मूलमं तर् का अष्टोत्तर सहस्र सं ख्या जप करनी चाहिए। इसके
पश्चात आष्टोत्तर शत सं ख्या हवि का होम करना चाहिए। उसी प्रकार आज्य से विष्णु के सं बंधित अनु वाकों
से होम करना चाहिए। इसके उपरान्त मं तर् के जप से परिशु द्ध किये गये तीर्थ से शिष्य का स्नान कराकर , उसे
दास्यनाम प्रदान करना चाहिए। पश्चात पु ष्पांजलि को समर्पित करके , शे ष होम को सं पन्न करना चाहिए।
इसके उपरान्त श्रीवै ष्णवों को भोजन कराके दक्षिणा आदि समर्पित करके उनको सं तुष्ट करना चाहिए। ब्राह्मणों
में श्रेष्ठ , इस प्रकार नाम सं स्कार को करना चाहिए। शास्त्रों में श्रीविष्णु के जिन गु ण सं बंधित नामों को
कहा गया है , उन नामों को भी रख सकते हैं । किसी भी प्रकार से , विष्णु के नामों को ही सभी कर्मों में श्रेष्ठ
कहा गया है । इसके व्यतिरिक्त , अपने पिता के नाम को दुसरे नाम के रूप में रख सकते हैं । इसके व्यतिरिक्त ,
तीसरे नाम के रूप में अपने इष्ट विष्णु नाम को वे दों के कथनानु सार रख सकते हैं । अतः सभी को भगवान के
श्रीनामों को ही रखना चाहिए , ऐसा मु निजन शास्त्रों में कहते हैं ।
।। मं तर् सं स्कार ।।
इस प्रकार ब्राह्मणों में तथा वै ष्णवों में श्रेष्ठ आचार्य , तीसरे नामसं स्कार के उपरान्त चौथे मं तर् सं स्कार को
शिष्य पर करना चाहिए।
आचार्य प्रातःस्नान के पश्चात विधिवत लोकनायक विष्णु की पूजा करनी चाहिए। मं तर् रत्न द्वयमं तर् का
अष्टोत्रसहस्र सं ख्या जप करना चाहिए। पश्चात उत्तम वे श व अलं कार यु क्त शिष्य को आमं त्रित करके ,
शु द्ध जल से भरा हुआ , पांच आम के पत्ते से सजाया हुआ , पांच रत्नों तथा मं गल द्रव्यों से यु क्त सु न्दर कलश
की स्थापना करके मं तर् से अभिमं त्रित करना चाहिए। शु भ कुशों से उस जल से शिष्य पर प्रोक्षण करना
चाहिए। विष्णु सक्ू त , वायु सूक्त तथा अष्टोत्रशत सं ख्या मं तर् रत्न का उच्चारण करके शिष्य पर प्रोक्षण करना
चाहिए। उसके पश्चात , उस जल से शिष्य का अभिषे क करना चाहिए। श्वे त वस्त्र पहना हुआ , उत्तम प्रकार
से अलं कृत परिशु द्ध शिष्य को आचमन कराके , ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण कराके, पवित्र को धारण कराके ,
नलिनाक्षमाला से अलं कृत शिष्य को कुशासन पर अपने दायीं ओर बिठाकर , अपने गृ ह्यसूतर् ानु सार विधिवत
अग्नि सं धान करना चाहिए। पु रुषसूक्त तथा श्रीसूक्त से मधु तथा घी मिश्रित पायस को, आचार्य होम करते
हैं । उसके उपरान्त अष्टोत्तरशत सं ख्या द्वयमं तर् से आज्य को होम करना चाहिए। मूलमं तर् से ( अष्टोत्तरशत
सं ख्या ) आज्य मिश्रित हवि को होम करना चाहिए। केशव आदि द्वादश मूर्ति , नित्यसूरी तथा मु क्तों के प्रति
एक एक आहुति का होम करके , होम अनु ष्ठान की समाप्ति करनी चाहिए।
।। मं तर् सं स्कार ।।
उसके उपरान्त आचार्य , जनार्दन की प्रदक्षिणा करें । तथा उन्हें नमस्कार करके , अपने गु रु की वं दना करके
गु रुपरं परा का जप करना चाहिए। उसके पश्चात जग्न्माता श्रीदे वी को शरण जाना चाहिए। " हे सर्वलोकेश्वर
की प्रिये ! आप सर्वलोक की माता हैं । सैं कड़ों दोष यु क्त इस जीव को अच्यु त के आश्रित बनाइये " , इस
प्रकार श्रीदे वी को सदाचार्य मानकर शरण जाने के उपरान्त , उस दे वी से सदा यु क्त , वात्सल्य आदि गु णों से
यु क्त , सर्वलोक शरण्य सनातन भगवान को शरण जाना चाहिए।
" नारायणा ! दयासिं धो ! वात्सल्यगु णसागरा ! जगन्नाथा ! अने कों जन्मों के अपराधी इस जीव की रक्षा
कीजिए । " इस प्रकार आचार्य के आदे शानु सार भगवान को शरण जाना चाहिए। पश्चात शिष्य , दयानिधि
आचार्य को शरण जाये । " आचार्य ! आप ही दे व हैं ; आप ही परम प्राप्य हैं ; आप ही परम उपाय हैं ; आप ही
परम तप हैं " इस प्रकार शरण आये हुए शिष्य को, भगवान के सामने कुशासन पर बिठाकर , अपने आचार्य को
प्रथम ध्यानपूर्वक नमस्कार करके , गु रुपरं परा का जप करके , मन में जनार्दन को ध्यान करते हुए , शिष्य को
कृपा से कटाक्ष करके , ज्ञानप्रद अपने दायें हाथ को शिष्य के शीर्ष पर रखकर, बायें हाथ को उसके छाती पर
रखना चाहिए। मन को नियं तर् ण में रखे हुए शिष्य ने , गु रु के चरणों को पकडकर , " कृपासागर गु रो! दास को
मं तर् का उपदे श कीजिए ", ऐसा प्रार्थना करनी चाहिए। इसके उपरान्त , आचार्य मं गल नाम यु क्त मं तर् रत्न
को अं गन्यास, करन्यास, ऋषि,छन्द तथा दे वता सहित , शरणागत शिष्य को उपदे श करना चाहिए।
अष्टाक्षरी, द्वादशाक्षरी , वै ष्णव षडाक्षरी , राम कृष्ण नृ सिंह मं तर् ों को भी उपदे श करना चाहिए।
शरणागति तथा आराधना के समय , भगवान एक को ही प्रतिपादित करने वाले मं तर् ों का उच्चारण कहना
चाहिए। अवै ष्णव आचार्य द्वारा प्राप्त उपदे श मं तर् नरक ही प्राप्ति करा दे गा। वै ष्णव ब्राह्मण यदि अवै ष्णव
आचार्य से मं तर् ोपदे श को प्राप्त करता है , तो वह सहस्र कोटि कल्पकाल तक नरकाग्नि में जलता है । चक् र
धारण रहित ब्राह्मण को यदि एक आचार्य मं तर् ोपदे श करता है , तो वह रौरव नामक नरक को प्राप्त होकर ,
पश्चात चाण्डाल योनि में जन्म ले ता है । अतः बु द्धिमान गु रु , वै ष्णव दीक्षा से वै ष्णव बना हुआ भक्ति यु क्त
शिष्य को ही , पापनाशक मं तर् का उपदे श करें । जो व्यक्ति द्वयमं तर् का उपदे श न पाकर , अन्य श्रेष्ठ वै ष्णव
मं तर् ों का उपदे श पाता है , वह उन मं तर् ों से सिद्धि नहीं पाये गा ; इसमें सं शय नहीं है ।
जातकर्म में , चौलकर्म में , मौंञ्जीबं धन से यु क्त उपनयन में , यदि चक् रधारण किया जाय , तो उस शिष्य को
उसी समय उसके गृ ह्यसूतर् के अनु सार उपनयन सं स्कार कराके , गायत्री मं तर् तथा मं गल द्वयमं तर् का उपदे श
करना चाहिए। इस प्रकार मं तर् ोपदे श पाने के पश्चात गाय , भूमि , स्वर्ण, वस्त्र , आभूषण आदि समर्पित करके
, आचार्य की श्रद्धा से पूजा करनी चाहिए। सद्वरत ् यु क्त आचार्य ने , शिष्य को सदाचार का आदे श दे ना
चाहिए। उसे स्वरूप, साधन , साध्य तथा मं तर् का दर्शन कराना चाहिए। द्वयमं तर् द्वारा कैंकर्य के स्वरूप को
अच्छी तरह दर्शाना चाहिए। इस प्रकार विधिवत सं स्कारित शिष्य , आचार्य के आधीन होकर , सदा सदाचार
सं पन्न होकर रहना है । मनोवाक्काय आदि तीनों उपकरणों से बु द्धिमान शिष्य हरी का ही आश्रित होकर रहना
चाहिए। जीवन के अं त तक सदा द्वयमं तर् का अनु संधान करते रहना चाहिए।
।। मं तर् सं स्कार ।।
इस चौथे अध्याय में अष्टाक्षर , द्वयआदि वै ष्णव मं तर् ों का उपदे श रूपी मं तर् सं स्कार कहा गया।
यहाँ पर द्वयमं तर् के उपदे श का विवरण पद्धति पर ध्यान दे ना चाहिए। महालक्ष्मीजी को पु रुषकार बनाकर
मोक्षोपाय भगवान के चरणों में शिष्य को आचार्य का सौंपना, उसके उपरान्त उस आचार्य को ही शिष्य का
प्राप्य तथा प्रापक ( साधन तथा साध्य ) मानना , इस प्रकार के श्रेष्ठ शरणागति के अनु ष्ठान को
मं तर् सं स्कार के समय ही शिष्य को आचार्य द्वारा किया जाता है । वह शिष्य भी , जीवन के अं त तक कालक्षे प के
लिये , सदा द्वयानु संधान करते रहना चाहिए ऐसा इस स्मृ ति में तथा अन्य परमधर्मशास्त्रों से ज्ञात होता है ।
एक भी धर्मशास्त्र में , पं चसं स्कार में द्वयोपदे श द्वारा की जाने वाली शरणागति के व्यतिरिक्त अन्य किसी
शरणागति का अनु ष्ठान नही कहा गया है । एक बार ही अनु ष्ठान करने वाले शरणागति को अने क बार करना
शास्त्र के विरुद्ध है । प्राचीन गु रुपरं परा ग्रन्थों में भी , हमारे आचार्यों का पं चसं स्कार , मं तर् ोपदे श आदि
वृ त्तान्त दिखाई दे ते हैं । इसके व्यतिरिक्त , पं चसं स्कार के उपरान्त अदृष्टार्थ ( मोक्षार्थ ) भरन्यास कराया गया
था ऐसा उल्ले ख कहीं भी नहीं है । श्रीवे दांतदे शिक ग्रन्थों में भी यही स्थिति दिखाई दे ती है । मं तर् ोपदे श के
समय आचार्य के उच्चारण के पश्चात शिष्य के अनु च्चारण क् रम में प्रपत्ति का अनु ष्ठान के उपरान्त, शिष्य के
हितार्थ करने कुछ भी नही है , ऐसा ही श्रीवे दांतदे शिक ने भी कहा है । वस्तु स्थिति इस प्रकार होने पर ,
पं चसं स्कार के उपरान्त एक शरणागति करने वाले कुछ लोगों का , " हम ही प्रपन्न हैं , अन्य लोग प्रपन्न नहीं
हैं " इस कथन का कारण , शास्त्रों तथा पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों का उचित अभ्यास नहीं करना ही है ।
अब , यागसं स्कार नामक पांचवें सं स्कार को पांचवें अध्याय में दे खेंगे ।
।। याग सं स्कार ।।
मं तर् ार्थ के यथार्थ को जानने वाले शिष्य को आचार्य यागसं स्कार प्रदान करना चाहिए। उस शिष्य के प्रिय
करने वाले मं गल रूपी विष्णु का गं ध , पु ष्प आदि से मं तर् रत्न द्वय से प्रथम प्रहर में आराधना करनी चाहिए।
अच्यु त की भक्ति यु क्त आराधना के पश्चात , पूर्व की भां ति होम करना चाहिए। विष्णु सं बंधित सभी सूक्तों से
, मं तर् ों से आज्य सहित पायस तथा आज्य से अष्टोत्तरशत सं ख्या होम करना चाहिए। यथाशक्ति सभी वै ष्णव
मं तर् ों से होम करना चाहिए। सभी आवरण दे वताओं( नित्यसूरी) के प्रति भी , पूर्व में प्रणव तथा अं त में
चतु र्थी से यु क्त उनके नामों से एक एक आहुति दे कर यज्ञ करना चाहिए। होम की समाप्ति पर श्रीवै ष्णवों को
भोजन कराना चाहिए। उसके उपरान्त मं तर् रत्न द्वय से अर्चामूर्ति की सौ पु ष्पांजलियों से अर्चना करना चाहिए।
भक्ति से दे वेश को प्रणाम करके, अनु पम द्वयमं तर् का जप करने वाले शिष्य को बु लाकर , उस अर्चा मूर्ति का
दर्शन कराना चाहिए। उस अर्चा मूर्ति को आचार्य ने कृपापूर्वक शिष्य को प्रदान करना चाहिए। " हे जगन्नाथ !
आपके निर्हे तु की कृपा से इसकी रक्षा कीजिए। हे सर्वेश्वर ! इसके द्वारा किये जाने वाले पूजा को स्वीकार कीजिये
" ऐसा प्रार्थना करनी चाहिए। इस प्रकार आचार्य से प्राप्त अर्चा मूर्ति का स्वर्ण , वस्त्र , आभूषण , वाहन ,
शै या , आसन आदि से प्रयत्नपूर्वक आराधना करनी चाहिए। पश्चात श्रति ृ , स्मृ ति अथवा आगम में कहे गये
विधियों का ज्ञान प्राप्त करके , उसके अनु सार दे वेश अच्यु त की आराधना करनी चाहिए।
इस प्रकार यागसं स्कार विधि नामक पांचवा अध्याय समाप्त हुआ।
।। मं तर् महिमा ।।
वृ द्धहारीतस्मृ ति कि छटे अध्याय में भगवद् मं तर् ों के स्वरूप , अर्थ , महिमा तथा उनके प्रयोग पद्धति का वर्णन
किया गया है ।
उनमें , " मं तर् रत्नं द्वयं न्यासः प्रपत्तिः शरणागतिः " ( मं तर् रत्न , न्यास , प्रपत्ति , शरणागति आदि नामों से
द्वयमं तर् कहा जाता है ) प्रमाणानु सार प्रपत्ति का स्वरूप होने से , मं तर् रत्न कह जाने वाले द्वयमं तर् का विवरण
प्रथम किया गया है । अष्टाक्षर मं तर् द्वय का भी मूलमं तर् होने से मं तर् राज कहलाने पर भी , शरणवरण स्वरूप
के महिमा के कारण , द्वयमं तर् का विवरण अष्टाक्षर के पूर्व किया गया है । अब द्वयमं तर् के महिमा को
दर्शाने वाले छटे अध्याय के प्रथम भाग को दे खेंगे ।
अं बरीष ने कहा - सु वर् तधारी भगवन् ! सभी मं तर् ों के प्रयोग पद्धति को, अर्थ तथा महिमा सहित मु झे उपदे श
कीजिए।
हारीत ऋषि का उत्तर - हे राजन् ! आदीकाल में परमात्मा विष्णु द्वारा ब्रह्मा को उपदे श किये गये श्रेष्ठतम
मं तर् के प्रभाव को उपदे श करता हँ ।ू
सभी मं तर् ों में प्रधान , रहस्य स्वरूपी , श्रेष्ठतम , मोक्षफल को भी प्रदान करने वाला , सभी ऐश्वर्यों को
प्रदान करने वाला , हित को ही करने वाला , सभी के इच्छाओं की पूर्ण करने वाला है मं तर् रत्न। उसके उच्चारण
मात्र से श्रीहरी अधिक प्रसन्न होते हैं । उसके उच्चारण में दे श, काल आदि नियम , उच्चार करने वाला शत्रु
है अथवा मित्र है इसकी परीक्षा , स्वर तथा वर्ण में कमी के कारण दोष, ( शरीर शु दधि ् आदि ) अं ग आदि नहीं
हैं ।
सत्वगु ण तथा सदाचार सं पन्न मात्र होने से ब्राह्मण , क्षत्रिय , वै श्य , शूदर् , स्त्री आदि कोई भी द्वयमं तर्
उच्चारण करने में अधिकारी हैं । परम पु रुष एक को ही साधन , स्वामी तथा भोग्य मानने वाले ही इसके लिये
अधिकारी हैं । पं चसं स्कार यु क्त , श्रद्धा यु क्त , मात्सर्य रहित , उत्तम भक्ति तथा सदाचार यु क्त व्यक्ति ही
इसके लिये अधिकारी हैं ।
वृ द्धहारीतस्मृ ति निर्णय ( १५ )
।। मं तर् महिमा ।।
द्वयमं तर् पच्चीस अक्षरों का है । उसमें छः पद हैं तथा दो वाक्य हैं । यह बहुत श्रेष्ठ मं तर् है । " लोगों से
आश्रित तथा जगतपति नारायण के आश्रित होने से "श्री" कहलाने वाली भगवान की अनपायिनी
महालक्ष्मीजी के साथ रहने वाले परमपु रुष श्रीमान हैं । वात्सल्य गु णसागर , स्वामी , सु शील , सु लभ ( इस
प्रकार आश्रय ले ने उपयु क्त गु णों से यु क्त ) , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान , परम आपद्बं धु , नित्यमित्र , परिपूर्ण
मनोरथ यु क्त , दयामृ तसागर ( इस प्रकार आश्रित के कार्य करने उपयु क्त गु णों से यु क्त ) , जगतसृ ष्टा ,
वीर्यवान , ते जस्वी , वशी - यह सब नारायण शब्द के अर्थ हैं । उस नारायण के दोनों चरणों को मैं , मे रे हित के
लिये शरण जाता हँ ।ू उस श्रीमान विष्णु का सदा , सभी परिस्थितियों में , अहं कार ममकार रहित मैं नित्य कैंकर्य
करूंगा " - इस प्रकार द्वयमं तर् के अर्थ को जानकर उसके पश्चात ही मं तर् का प्रयोग करना चाहिए। इस मं तर्
का ऋषि नारायण है , परम शु भ गायत्री छन्द है , श्रीमन्नारायण स्वयं दे वता है । अब अं गन्यास करन्यास
करने के पश्चात ध्यान करना चाहिए। इन्दिवरदलश्याम वर्ण , कोटि सूर्य तथा अग्नि के ते ज यु क्त , चतु र्भुज ,
सुं दरां ग , सर्व आभूषणों से अलं कृत , पद्मासनस्थ , दे वेश , कमलनयन , अप्राकृत श्रीकर तथा श्रीचरण से
यु क्त , मणिमकुटधारी , काले घु ं घराले केश से यु क्त , श्रीवत्स चिन्ह , कौस्तु भ मणि तथा वनमाला को
वक्षस्थल पर धारण किये हुए , हार-केयूर- कुंडल - नूपुर से अलं कृत , दिव्य चं दन से लिप्त अं ग से यु क्त , दिव्य
पु ष्पों से अलं कृत , पीतांबरधारी , शं ख- चक् र - गदा - पद्म आदि को चार करों में धारण किये हुए पु रुषोत्तम का
ध्यान करना चाहिए।
भगवान के वामां ग में कमल लोचनी , यु वती , मृ दु अं गी , सभी लक्षणों से अलं कृत , रे श्मी वस्त्रधारीणी , सभी
आभूषणों से विभूषित , तप्त स्वर्ग की भां ति प्रकाशित , काले घु ं घराले केश से यु क्त , दिव्य चं दन से लिप्त
श्रीअं ग यु क्त , दिव्य पु ष्पों से अलं कृत , चार हाथों में अनार- रक्तवर्ण कमल - दर्पण - वरद मु दर् ा धारण की हुई
, सदा सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाली श्रीदे वी का ध्यान करना चाहिए।
इस प्रकार अच्यु त का प्रति दिन ध्यानपूर्वक आराधना करनी चाहिए। अपने शरीर में अं गन्यास तथा करन्यास
के भां ति परमपु रुष के श्रीअं ग में भी करना चाहिए।
उपचारों से तथा मन से जनार्दन की अर्चना करनी चाहिए। आवाहन , आसन , पाद्य, अर्घ्य , आचमनीय , स्नान ,
वस्त्र , उपवीत , आभूषण , गं ध , पु ष्प , धूप , दीप , नै वेद्य , प्रदक्षिणा , नमस्कार , तांबल
ू , पु ष्पहार आदि
समर्पित करना चाहिए। इसके उपरान्त आचार्यों को प्रणाम करके , शांत चित्त से यु क्त होकर अष्टोत्तर सहस्र
सं ख्या अथवा अष्टोत्तर शत सं ख्या जप करनी चाहिए। भगवान का ध्यानपूर्वक एकाग्रचित्त होकर , पूर्व अथवा
उत्तर दिशा की ओर मु हं करके कुशासन पर बै ठकर जप करनी चाहिए। त्रिकाल सं ध्याकालों में इस प्रकार जप
करने से सभी सिद्धियों को प्राप्त कर सकते हैं । जप के पहले तथा अं त में प्राणायाम करना चाहिए।
इस भाग में द्वयमं तर् की महिमा , अर्थ तथा प्रयोग का वर्णन किया गया है । गु रुपरं परा प्रभाव ग्रन्थ के
नं जीयर नं बिल्लै वै भव में " ऋष्यादींश्च करन्यास अं गन्यास च वर्जये त् " ( द्वयमं तर् के लिये ऋषि , छन्द ,
दे वता , अं गन्यास करन्यास वर्जित है ) ऐसे एक वचन को उद्धत ृ किया गया है । तो अं गन्यास आदि करना क्या
उचित होगा ? ऐसा सं देह हो सकता है । जो ऋषि , छन्द, दे वता का अनु संधान तथा अं गन्यास करन्यास करने में
समर्थ हैं , वे कर सकते हैं ऐसा इस स्मृ ति में दर्शाया गया है ; परन्तु जो करने में असमर्थ हैं , उन्हें करने की
आवश्यकता नहीं है , यही गु रुपरं पराप्रभाव ग्रन्थ का तात्पर्य है । अतः कोई विरोध नहीं है ।
अष्टाक्षर मं तर् के लिये ऋषि नारायण हैं ; दे वी गायत्री छन्द है ; परमात्मा दे वता है । श्रेष्ठ अष्टाक्षर मं तर्
सभी पापों तथा दुःखों का नाश करने वाला , इष्ट फलों को प्रदान करने वाला , सभी दे वताओं को अपने में
समाविष्ट किया हुआ है । अतः मनु ष्यों को मोक्ष प्राप्त कराने वाला है ऐसा जानने योग्य है । ऋग्वे द , यजु र्वेद ,
सामवे द , अथर्ववे द , अन्य सभी शास्त्र अष्टाक्षर में समाये हुए हैं । सभी अर्थ वे द में हैं ; वे द अष्टाक्षर में है ;
अष्टाक्षर प्रणव में समाविष्ट है ; प्रणव अकार में समाविष्ट है । इहलोक का ऐश्वर्य , परलोक का स्वर्ग आदि
ऐश्वर्य तथा कैवल्य मोक्ष तथा स्वयं भगवान , इस मं तर् से
साध्य है । सकृत उच्चारण से चारों पु रुषार्थों को प्रदान करता है । स्वरूप, उपाय तथा पु रुषार्थ को प्रदान करता
है । इस मं तर् के जाप से महापाप, अतिपाप तथा उपपाप आदि सभी का नाश होता है । सकृत उच्चारण से सहस्र
अश्वमे ध यज्ञ , सौ राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है ; इसमें शं का नही है । हे रघु कुलनं दन !
सौ बार इस मं तर् को जपने से सोलह हजार गाय , भूमंडल , शत सहस्र कन्या तथा उतने ही हाथी , अश्व इन
सबका सत्पात्र को दान करने का फल प्राप्त होता है । मु दर् ा , अं गन्यास करन्यास , ऋषि , छन्द , दे वता
,मं तर् ार्थ आदि के अनु संधान सहित मं तर् का जप करने से मनु ष्य विष्णु सायु ज्य को प्राप्त होता है ।
"ओम् " , " नमः " , " नारायण " नामक तीन पदों से यु क्त , ( अं त में ) " आय " नामक चतु र्थि से यु क्त यह मं तर्
स्वरूप, उपाय तथा पु रुषार्थ को दर्शाता है । इसे जानकर बु द्धिमान व्यक्ति इस मं तर् का जाप करना चाहिए।
इस मं तर् में प्रणव से स्वरूप , नमः पद से उपाय तथा आय पद से पु रुषार्थ का विवरण किया गया है । " अ " , "
उ " , " म " नामक तीन अक्षर मिलकर ओंकार हुआ है । अतः " ओम् " नामक प्रणव तीन अक्षरों को अपने में
समाविष्ट किया हुआ है । " भूर् " , " भु वः " , " सु वः " नामक तीन व्याहृति क् रमशः ऋक् , यजु स् तथा साम वे द
का सार है । ऋग्वे द में कहा गया ( भूः का सार ) अकार , विष्णु को प्रतिपादित करता है । यजु र्वेद में कहा गया (
भु वः का सार ) श्रेष्ठ उकार , लक्ष्मी दे वी को प्रतिपादित करता है । सामवे द का सार पच्चीसवा अक्षर मकार (
सु वः का सार ) का अर्थ जो जीव है वह श्रीमन्नारायण का दास है । वे द , जीव को पच्चीसवा तत्व कहते हैं ।
अतः जीव को पच्चीसवा अक्षर मकार का अर्थ के रूप में चिं तन करना चाहिए। उपनिषद में कहे गये इस
प्रणवार्थ को जानकर स्वयं को परमात्मा को समर्पित करना चाहिए। प्रणव के मध्य अक्षर उकार का अर्थ
एवकार का अर्थ ही है , ऐसे कुछ मु नियों ने का कहना है । " तदे वाग्निस् तद्वायु स् तत् सूर्यस् तद् चं दर् माः " इस
ृ वाक्य में एवकार के स्थान पर उकार को कहने से , उकार का अर्थ एवकार है । ( इस प्रकार उकार का अर्थ
श्रति
एवकार होने पर ) अकार में ही , श्रीपति के वशीभूत गु णशब्द रूपी श्री शब्द के अर्थ का अनु संधान करना
चाहिए , ऐसे उन मु नियों का कथन है । " श्रीरस्ये शाना जगतो विष्णु पत्नी " ( इस जगत की ईश्वरी श्रीदे वी ,
ृ भी कहती है न ! ( इस प्रकार , स्वरूप से श्रीदे वी , विष्णु के अधीन होने पर भी
विष्णु की पत्नी है ) ऐसे श्रति
) लक्ष्मी के पति होने से ही भगवान को कल्याणगु ण की सिद्धि होती है ।
।। अष्टाक्षर महिमा ।।
" अकारो वै सर्वा वाक् " इस श्रति ृ वचन के अनु सार , अकार ही सभी अक्षरों का कारण है । अकार तथा सर्ववाक्
को एक ही बताने से , अकार सर्ववाक् का कारण है यह दिखाई दे ता है । स्पर्शाक्षर तथा ऊष्माक्षर से बताया गया
अकार अने क प्रकार के भिन्नता से यु क्त होता है । ( अकारवाच्य ) लोकनाथ विष्णु भी , वाचक (अकार ) के
भां ति सर्वपदार्थों का कारण है । अतः हरि जगतसृ ष्टि स्थिति तथा सं हार के कर्ता हैं । सर्वव्यापी , गु णों से यु क्त वे
ही जीवों का रक्षक भी हैं । सूर्य से जै सा प्रकाश पृ थक नहीं होता है , उसी प्रकार विष्णु से लक्ष्मी पृ थक नहीं
होती है । इस विषय को ही " लक्ष्मीमनपगामिनीम् " यह श्रेष्ठ वे दवाक्य कहता है । अतः श्रियःपति विष्णु ही
अकारवाच्य है । लक्ष्मीपतित्व , विष्णु का ही स्वरूप है , अन्यों का नही है यह निश्चित होता है । हरी की श्री
तथा जगत की माता लक्ष्मी, विष्णु से पृ थक नहीं होती है । ( अनपायिनी ) विष्णु की भां ति लक्ष्मी भी
सर्वव्यापिनी है । अतः लोकनाथ लक्ष्मीपति विष्णु ही अकारवाच्य है । उस अकार में चतु र्थी विभक्ति लु प्त होने
से , अ उ म नामक तीन पद मिलकर ओम् बना है । इस प्रकार चतु र्थी विभक्ति को लु प्त न मानकर , अकार को
प्रथमा विभक्ति मानकर जीव तथा ब्रह्म के स्वरूप का ऐक्य कहना , जीव ब्रह्म के भे द को दर्शाने वाले अने क
वे दवाक्यों का विरुद्ध है । " ब्रह्मणे त्वा महसे ओमित्यात्मानं यु ञ्जीत " ( तै त्तरीय नारायणवल्ली -७९) ( ब्रह्म
नामक आपके प्राप्ति के लिये ओंकार में आत्मसमर्पण करना चाहिए ।) इस वे दवाक्य में , अकार में चतु र्थी
विभक्ति का लु प्त होना , " ब्रह्मणे त्वा महसे " इस चतु र्थी विभक्ति पदों से दर्शाया गया है । इस वाक्य में
परमात्मा तथा जीवात्माओं में भे द को दृढ़तापूर्वक दर्शाया गया है । " त्वमस्माकम् " आदि अने क श्रति ृ वाक्य
परमात्मा तथा जीवात्मा में भे द को कहते हैं । परमात्मा विष्णु का दासता ही जीव का स्वरूप है । दे व आदि चार
योनियों के सभी जीवों का स्वामी लक्ष्मीनाथ ही है ऐसा शास्त्रों का कथन है । किसी अन्य के न होकर ,
लोकनाथ भगवान के ही दास हैं जीववर्ग । हरी की सदा दासता करना ही जीव का स्वरूप है ।
भगवद् शे षत्व को न मानकर , जो जीव स्वयं को स्वतं तर् अथवा अन्य का शे ष मानता है , वह महापापी
चाण्डाल ही है । अतः मकारवाच्य पच्चीसवा तत्व जीव , अकारवाच्य भगवान का दास है , यही ओंकार का अर्थ
है । ज्ञान का आश्रय , नित्य , विकार रहित ,अव्यय , दे हेन्द्रियों से परे , ज्ञाता , कर्ता , भोगता , सनातन
मकारवाच्य यह जीव अकारवाच्य , श्रियःपति , लोकनाथ विष्णु का सदा दास है । उकार से , दास जीव तथा
स्वामी भगवान का शे षशे षिभाव का सं बंध दृढ़तापूर्वक दर्शाया गया है । उनका सं बंध अन्यथा नही है यही
ऋषियों का कथन है । यही प्रणव का अर्थ है ।
।। अष्टाक्षर महिमा ।।
सभी मं तर् ों का कारण प्रणव है । प्रणव से तीन व्याहृति तथा उन व्याहृति से तीन वे द प्रकट हुए। " भूः "
नामक व्याहृति ऋग्वे द का सार है ; " भु वः " नामक व्याहृति यजु र्वेद का सार है ; " भु वः " नामक व्याहृति
सामवे द का सार है । " भूर्भुवस्सु वः " नामक तीन व्याहृति का सार प्रणव है । " भूः " नामक व्याहृति विष्णु का
प्रतिपादन करती है ; " भु वः " नामक व्याहृति लक्ष्मी का प्रतिपादन करती है ; उन दोनों का स्वं ( धन ) जीव "
सु वः " कहलाता है । अग्नि , वायु तथा सूर्य नामक तीन तत्व भी इन तीन व्याहृतियों से उत्पन्न हुए हैं । इन
तीन व्याहृतियों से होम करना सभी वे दों से होम करने के समान है । प्रसं गात व्याहृति की महिमा कही गयी।
अब , प्रणव का विवरण रूप अष्टाक्षर मं तर् के शे ष भाग का वर्णन किया जा रहा है । जीव स्वतं तर् ता रहित
होने से परमात्मा का अधीन है ; अतः जीव अहं कार ममकार रहित होता है ऐसा नमः पद से कहा गया है । नमः
पद से स्वरूप , उपाय तथा पु रुषार्थ तीनों की सिद्धि कही गयी है । नमः पद के बिना , सब कुछ व्यर्थ है ऐसा
कहा गया है । नमः से सिद्धि प्राप्ति होती है इसमें शं का नही है । ओंकार के साथ नमः को जोड़कर " ओम् नमः
" कहने से ," अकारवाच्य भगवान का ही मैं मकारवाच्य जीव दास हँ ू ; मे रा या अन्य किसीका नहीं " ऐसा
जीवात्मा के स्वरूप की शिक्षा दी गयी है ।
" नारायणाय " से नमः को जोड़ने से " नारायण के लिये ही कैंकर्य करें गे , हमारे लिये नहीं " ऐसा प्राप्य की
शिक्षा दी गयी है । "
" नमो नमः " ऐसा स्वस्थान में रखकर दे खने पर , " ( मे रा रक्षण का भार ) मु झ पर नहीं है " ऐसे उपाय की शिक्षा
दी गयी है । इस प्रकार सभी जीवों के स्वरूप , उपाय तथा पु रुषार्थ की शिक्षा नमः पद से दी गयी है । " मकार "
जीव को स्वतन्त्र कहता है ; " न " उसे नकारता है । अतः " नमः " पद स्वतन्त्रता को हटाता है । " मम "
नामक दो अक्षर सं सार का कारण हैं । " न मम " नामक तीन अक्षर शाश्वत फलप्रद है । इसीलिए सभी कर्मों में
" न मम " के अनु संधान का आदे श दे कर , मु नियों ने जीव के परतं तर् ता को दर्शाया है । अतः सभी मं तर् , नमः
पद से यु क्त होकर ही सभी सिद्धियों को प्रदान करते हैं । इसमें कोई शं का नही है ।नमः पद रहित मं तर्
मु क्तिप्रद नहीं होते हैं । अतः नमः पद से जीव का ईश्वरपारतं त्र्य सिद्ध होता है । पारतं त्र्य से ही जीव सिद्धि
को प्राप्त करता है ; स्वातं त्र्य से नष्ट होता है । नमः पद से जीव परमात्मा का दास है , यही कहा गया है । नमः
पद से कहा गया परमात्मदास्यता रहित पदार्थ ही विश्व में नहीं है । इस नमः पद की महिमा अने क वे दवाक्यों
में प्रतिपादित है ।
।। अष्टाक्षर महिमा ।।
( अब " आय " शब्दार्थ ) सर्व दे शों में , सर्व कालों में , सर्व अवस्थाओं में , सर्व प्रकार के कैंकर्यों को परमात्मा
श्रियःपति के प्रति ही करूँ ऐसे चतु र्थी विभक्ति से भगवद् कैंकर्य ही जीवों के लिये परम फल के रूप में कहा
गया है । इस कैंकर्य हीन शरीर पाने का क्या लाभ ? वह शरीर नरक में पाये जाने वाले यातना शरीर के भां ति है ।
जिस शरीर में परमात्मदास्यता नहीं है , वह शरीर ही सभी दुःखों को दे नेवाला नरक है । विष्णु की दास्यता ही
परम फल है । वही उत्तम सु ख है । वही मोक्ष है । वही उत्तम तप है । ब्रह्मा आदि सभी दे वतायें तथा वसिष्ठ आदि
सभी ऋषिगण भी विष्णु दास्यता के इच्छुक होकर उसकी आराधना करते हैं । अतः मं तर् के चतु र्थी विभक्ति से
प्रधान दास्यता को प्रतिपादित किया गया है ।परमात्मा के प्रति कैंकर्य करना जीव के नाश का हे तु नहीं
बनता।
इस प्रकार मं तर् के अर्थ को जानकर आलस्य रहित होकर मं तर् का जाप करना चाहिए। मं तर् के अर्थ को बिना
जाने , मन के एकाग्रता से जप करने पर भी, सिद्धि की प्राप्ति नहीं होगी तथा स्वरूप लाभ भी नहीं प्राप्त
होगा।
।। मं तर् सं स्कार ।।
इस चौथे अध्याय में अष्टाक्षर , द्वयआदि वै ष्णव मं तर् ों का उपदे श रूपी मं तर् सं स्कार कहा गया।
यहाँ पर द्वयमं तर् के उपदे श का विवरण पद्धति पर ध्यान दे ना चाहिए। महालक्ष्मीजी को पु रुषकार बनाकर
मोक्षोपाय भगवान के चरणों में शिष्य को आचार्य का सौंपना, उसके उपरान्त उस आचार्य को ही शिष्य का
प्राप्य तथा प्रापक ( साधन तथा साध्य ) मानना , इस प्रकार के श्रेष्ठ शरणागति के अनु ष्ठान को
मं तर् सं स्कार के समय ही शिष्य को आचार्य द्वारा किया जाता है । वह शिष्य भी , जीवन के अं त तक कालक्षे प के
लिये , सदा द्वयानु संधान करते रहना चाहिए ऐसा इस स्मृ ति में तथा अन्य परमधर्मशास्त्रों से ज्ञात होता है ।
एक भी धर्मशास्त्र में , पं चसं स्कार में द्वयोपदे श द्वारा की जाने वाली शरणागति के व्यतिरिक्त अन्य किसी
शरणागति का अनु ष्ठान नही कहा गया है । एक बार ही अनु ष्ठान करने वाले शरणागति को अने क बार करना
शास्त्र के विरुद्ध है । प्राचीन गु रुपरं परा ग्रन्थों में भी , हमारे आचार्यों का पं चसं स्कार , मं तर् ोपदे श आदि
वृ त्तान्त दिखाई दे ते हैं । इसके व्यतिरिक्त , पं चसं स्कार के उपरान्त अदृष्टार्थ ( मोक्षार्थ ) भरन्यास कराया गया
था ऐसा उल्ले ख कहीं भी नहीं है । श्रीवे दांतदे शिक ग्रन्थों में भी यही स्थिति दिखाई दे ती है । मं तर् ोपदे श के
समय आचार्य के उच्चारण के पश्चात शिष्य के अनु च्चारण क् रम में प्रपत्ति का अनु ष्ठान के उपरान्त, शिष्य के
हितार्थ करने कुछ भी नही है , ऐसा ही श्रीवे दांतदे शिक ने भी कहा है । वस्तु स्थिति इस प्रकार होने पर ,
पं चसं स्कार के उपरान्त एक शरणागति करने वाले कुछ लोगों का , " हम ही प्रपन्न हैं , अन्य लोग प्रपन्न नहीं
हैं " इस कथन का कारण , शास्त्रों तथा पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों का उचित अभ्यास नहीं करना ही है ।
अब , यागसं स्कार नामक पांचवें सं स्कार को पांचवें अध्याय में दे खेंगे ।
मु नय ऊचु ः
मै तर् े य आदि मु नियों ने सामान्य धर्मों को पराशर स्मृ ति के पूर्वभाग में श्रीपराशर महर्षि से श्रवण करने के
उपरान्त , वे सब मोक्ष के लिये साक्षात साधन न होने के कारण , भगवद् समाश्रयण तथा आराधना के सं बंध में
यहाँ प्रश्न किया हैं ।
हमारे विरोधियों को दरू करके इष्ट को प्रदान करने वाले हरि के समाश्रयण तथा उसके पश्चात की जाने वाली
आराधना , इनके सं बंध में विस्तार से बताइये ।
श्रीपराशर उवाच -
हे मु निगण ! सर्वव्यापक विष्णु के आश्रयण मार्ग , उसके सं बंधित मं तर् , दीक्षा आदि तथा उसकी आराधना के
प्रयोग को कहता हँ ू , श्रवण कीजिए।
भगवान के आश्रयण के सं बंध में पांच सं स्कार कहे गये हैं । १) स्वामी विष्णु के शङृख चक् र आदि चिन्हों को
धारण करना ( ताप सं स्कार)
२) शे षी भगवान के श्रीचरणों के आकार के रूप में ऊर्ध्वपु ण्ड्र को धारण करना ( पु ण्ड्र सं स्कार ) ३) स्वामी
भगवान के श्रीनाम को जीव के दास्यता को दर्शाने निमित्त दास शब्द सहित धारण करना । ( नाम सं स्कार ) ४)
भगवान तथा जीव के दरम्यान के सं बध तथा उपाय उपे य को बोध कराने वाले मं तर् का उपदे श ( मं तर् सं स्कार )
५) जीव के शे षत्व सिद्धि निमित्त श्रीमन्नारायण की आराधना करना ( याग सं स्कार ) ।
यह पं चसं स्कार शास्त्रों के कथनानु सार ब्राह्मण आदि सभी को अवश्य अनु ष्ठे य है ।
चक् र धारण रूपी ताप सं स्कार , द्वयानु संधान तथा यज्ञोपवीत रहित ब्राह्मण चाण्डाल की भां ति नीच है ।
शास्त्रों के अनु सार विधिवत शङ्ख, चक् र आदि आयु धों के धारण रूप ताप सं स्कार , ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण सं स्कार
, यज्ञोपवीत धारण , शिखा धारण आदि सर्वकाल ब्राह्मण के लाये अनिवार्य है ऐसा धर्मशास्त्रों में कहा गया
है । चक् र चिन्ह रहित व्यक्ति का ब्राह्मणत्व व्यर्थ है ।
चक् ररां गन हीन ब्राह्मण को श्राद्ध में निमं त्रित करके भोजन कराना पितरों को रे तस् , मूतर् , मल आदि का
भक्षण कराने की भां ति है ।
शङ्ख चक् र धारण , ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण आदि पं चसं स्कार हीन ब्राह्मण अधम कहलाता है । वह जीवित काल में
ही चाण्डाल बन जाता है । तथा वह सभी वै दिक कर्मों के लिये बहिष्कृत है ।
हे श्रेष्ठ मु नियों ! चक् र आदि चिन्हों से विहीन , व्यक्ति द्वारा की गयी सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं । अतः
चक् रादिधारण रूपी पं चसं स्कारों को अवश्य कराना चाहिए।
मं गल तिथि , वार आदि से यु क्त दिन , आचार्य प्रातःकाल के पूर्व ही स्नान आदि नित्यकर्मों का अनु ष्ठान कर ,
भगवान को आराधना समर्पण कर , स्नान किये हुए परिशु द्ध शिष्य को आमं त्रित कर , उसकी रक्षाबं धन के
पश्चात , विधिवत पं चसं स्कारों को करें ।
आचार्य , चक् राङ्गन निमित्त स्वर्ण , चांदी अथवा ताम्र आदि द्रव्य से , यथाशक्ति शङ्ख, चक् र आदि
आयु धों की सु न्दर प्रतिमाओं को बनाकर रखें ।
शङ्ख, चक् र , गदा , तलवार , शार्ङ्ग नामक भगवान के पांच आयु धों की शु द्ध पञ्चामृ त से विधिवत अभिषे क
कर , उन उन आयु धों की महिमा प्रतिपादित करने वाले मं तर् ों का अनु संधान करते हुए पु ष्प , धूप , दीप आदि
से भगवान के सम्मु ख उनकी आराधना करें ।
उसके उपरान्त , अपने सामने अग्नि की प्रतिष्ठा कर , उस अग्नि में अपने गृ ह्य सूतर् ानु सार समिधा से
इध्माधानहोम पर्यन्त करने के पश्चात , तांबल
ू का निवे दन करें ।
पश्चात , उस अग्नि में उन पांचों आयु धों को रखकर , उन आयु धों की महिमा गान करने वाले मं तर् ों से आचार्य
विधिवत होम करें । उसके उपरान्त शिष्य सहित दे वदे व श्रीमन्नारायण को भक्ति से नमस्कार करें ।
तापसं स्कार क् रम
प्राङ्मु खं तु समासीनं शिष्यं मन्त्रजलाप्लु तम् ।। १६ ।।
प्रतपे च्छङ्खचक् रादिहे तिभिः प्रयतो गु रुः ।
पवित्रेणाङ्कये त् पूर्वं बाहुमूलं तु दक्षिणम् ।। १७ ।।
शङ्खे न प्रतपे त् सव्यं गदया फालमध्यमम् ।
तथा खड्गेन हृदयं शार्ङ्गे णैव तु मस्तकम् ।। १८ ।।
प्रतप्य विमलाकारै ः स्नाप्य पञ्चामृ तैर्गुरुः।
सं पज्
ू य पूर्ववत् पश्चात् होमशे षं समापये त् ।। १९ ।।
कलश आदि पात्र में जल भरकर , उसे मं तर् ों से परिशु द्ध बनाकर , उस जल से शिष्य को स्नान कराके , पूर्व
दिशा की ओर मु हं करके बिठाकर , नियमों से यु क्त आचार्य , अग्नि में तप्त किये गये पञ्चायु धों से शिष्य को
अं कित करें । प्रथम चक् र से दायें बाहु पर , शङ्ख से बायें भु जा पर , गदा से मस्तक पर , छुरी से छाती पर ,
बाण से शीर्ष पर अं कित करें । अज्ञान नाशक परम पवित्र इन आयु धों से इस प्रकार अं कित करने के उपरान्त ,
उन आयु धों का पञ्चामृ त से पूर्ववत आचार्य अभिषे क करके , शे ष होम कार्य को सं पन्न करें ।
इस प्रकार शङ्ख चक् र आदि पञ्चायु धों से ताप नाम सं स्कार करें । हे द्विजश्रेष्ठ जनों ! तपस्वी मु नियों ने
इस ताप सं स्कार को पं चसं स्कारों में प्रथम कहा है । इसे किसी भी आश्रम के मनु ष्यों को तथा स्त्रियों को भी
कराना चाहिए।
जातकर्म आदि सं स्कार हीन व्यक्ति से किये गये यज्ञ आदि कर्म फलीभूत नहीं हो सकते हैं । अतः उन सं स्कारों से
सं पन्न व्यक्ति ही यज्ञ आदि कर्मों को करने के लिये अधिकारी है । उसी प्रकार , इन पञ्चसं स्कार हीन व्यक्ति को
अष्टाक्षर आदि मं तर् मोक्ष नहीं दिला सकने के कारण , इन सं स्कारों से सं पन्न व्यक्ति को ही उन मं तर् ों को
प्राप्त करके अनु संधान करने का अधिकार है ।
स्त्रियों को विवाह के उपरान्त तथा पु रुषों को उपनयन सं स्कार के उपरान्त , उन उन मं तर् ों के उच्चारण पूर्वक
पञ्चायु धों को धारण करने का विधान है ।
।। पु ण्ड्रसं स्कार क् रम ।।
श्रीपराशर उवाच -
अतः परं प्रवक्ष्यामि पु ण्ड्रधारणमु त्तमम् ।
यस्य धारणमात्रेण सर्वतीर्थफलं लभे त् ।। १ ।।
तापसं स्कार के निरूपण के पश्चात , श्रेष्ठ पु ण्ड्रधारण सं स्कार के सं बंध में कहता हँ ।ू इस सं स्कार को पाया हुआ
व्यक्ति , गं गा आदि सभी तीर्थों में स्नान करने के फल को प्राप्त करता है ।
पूर्ववत प्रातःकाल स्नान के पश्चात भगवद् आराधना करें । नहाकर उत्तम वस्त्र तथा आभूषणों से अलं कृत
शिष्य को पु ण्ड्रसं स्कार स्वीकार करने के लिये आदे श दे ।
गोबर से लिप्त साफ सु तरे जमीन पर अथवा बालू प्रदे श में , पूर्व आदि दिशाओं में यथाक् रम केशव आदि बारह
ऊर्ध्वपु ण्ड्रों का चित्र बनायें ।
उनमें , पूर्व दक्षिणपूर्व आदि आठ दिशाओं में आठ पु ण्ड्र , मध्य में पूर्व आदि चार दिशाओं में चार पु ण्ड्र , कुल
बारह ऊर्ध्वपु ण्ड्रों का चित्र बनाकर , उनमें उसी क् रम से केशव से ले कर दामोदर तक बारह भगवन्नामों को
आवाहन कर , उनके नामों से ही अर्घ्य , पाद्य , आचमनीय , धूप , दीप आदि समर्पित करके पूजा करें । उसके
उपरान्त पूर्ववत गृ ह्य सूतर् के अनु सार अग्नि की प्रतिष्ठा कर , पु रुषसूक्त मं तर् , केशवादि बारह नाम तथा
अष्टाक्षर मं तर् से होम को पूर्ण करें ।
उसके पश्चात , आचार्य भक्तिपूर्वक अग्नि की प्रदक्षिणा नमस्कार करें तथा विनम्रता यु क्त समीप बे ठे हुए
शिष्य को , क् रम से ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण करायें । शिष्य भी ज्ञान दाता तथा आचार्य के उपयु क्त गु णों से यु क्त गु रु
को दं डवत प्रणाम करके , उस दिन से श्वे तमृ त्तिका से ऊर्ध्वपु ण्ड्रों को धारण करें ।
।। पु ण्ड्रसं स्कार क् रम ।।
श्रीपराशर उवाच -
तापसं स्कार के निरूपण के पश्चात , श्रेष्ठ पु ण्ड्रधारण सं स्कार के सं बंध में कहता हँ ।ू इस सं स्कार को पाया हुआ
व्यक्ति , गं गा आदि सभी तीर्थों में स्नान करने के फल को प्राप्त करता है ।
पूर्ववत प्रातःकाल स्नान के पश्चात भगवद् आराधना करें । नहाकर उत्तम वस्त्र तथा आभूषणों से अलं कृत
शिष्य को पु ण्ड्रसं स्कार स्वीकार करने के लिये आदे श दे ।
गोबर से लिप्त साफ सु तरे जमीन पर अथवा बालू प्रदे श में , पूर्व आदि दिशाओं में यथाक् रम केशव आदि बारह
ऊर्ध्वपु ण्ड्रों का चित्र बनायें ।
उनमें , पूर्व दक्षिणपूर्व आदि आठ दिशाओं में आठ पु ण्ड्र , मध्य में पूर्व आदि चार दिशाओं में चार पु ण्ड्र , कुल
बारह ऊर्ध्वपु ण्ड्रों का चित्र बनाकर , उनमें उसी क् रम से केशव से ले कर दामोदर तक बारह भगवन्नामों को
आवाहन कर , उनके नामों से ही अर्घ्य , पाद्य , आचमनीय , धूप , दीप आदि समर्पित करके पूजा करें । उसके
उपरान्त पूर्ववत गृ ह्य सूतर् के अनु सार अग्नि की प्रतिष्ठा कर , पु रुषसूक्त मं तर् , केशवादि बारह नाम तथा
अष्टाक्षर मं तर् से होम को पूर्ण करें ।
उसके पश्चात , आचार्य भक्तिपूर्वक अग्नि की प्रदक्षिणा नमस्कार करें तथा विनम्रता यु क्त समीप बे ठे हुए
शिष्य को , क् रम से ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण करायें । शिष्य भी ज्ञान दाता तथा आचार्य के उपयु क्त गु णों से यु क्त गु रु
को दं डवत प्रणाम करके , उस दिन से श्वे तमृ त्तिका से ऊर्ध्वपु ण्ड्रों को धारण करें ।
उस मृ त्तिका को दिव्यदे शों से लाकर , उसे शु भर् , मृ दु , गन्ध यु क्त बनाकर , अष्टाक्षर से अभिमं त्रित करके ,
उससे मस्तक आदि अं गों में ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण करके , उनमें केशवादि बारह मूर्तियों को आवाहन करें ।
दो अं गुल अथवा तीन अं गुल मध्य में अन्तर छोड़कर , दोनों पार्श्व में एक एक अं गुल चौड़ा ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण
करना चाहिए।
हरिपादाकृति रूप में , सु न्दर , उचित पार्श्व भागों के सहित , मनोहर ऊर्ध्वपु ण्ड्र को नासिका मूल ( शास्त्र
सिद्ध नासिका के तीसरा भाग ) से आरम्भ करके ललाट के अं त तक धारण करना चाहिए। इसी प्रकार , अन्य
स्थानों में भी अं तर दे कर ( छिद्र सहित ) ऊर्ध्वपु ण्ड्रों को धारण करना चाहिए।
पूर्व वर्णित प्रमाण ( माप ) रहित , अग्र भागों को मिलाकर , अं तर रहित ऊर्ध्वपु ण्ड्र को नहीं धारण करना
चाहिए। इन लक्षणों का ज्ञान हीन मूढ़ व्यक्ति यदि अनु चित प्रकार धारण करता है , तो उसे कुत्ते की पूंछ ही
धारण किया हुआ माना जाये गा। इसमें कोई शं का नहीं है । अतः ब्राह्मण को सदा सछीद्र ऊर्ध्वपु ण्ड्र को ही
धारण करना चाहिए।
प्रतिदिन त्रिकाल सं ध्यावं दन का अनु ष्ठान करते समय , जप - होम- वे दाध्ययन - पितृ तर्पण - श्राद्ध - दान -
यज्ञ आदि नित्य नै मित्तिक काम्यकर्मों का , ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण करने के उपरान्त ही , अनु ष्ठान करना चाहिए।
विप्र के लिये , सं ध्यावं दन की भां ति ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण भी अत्यावश्यक है । श्राद्ध काल में , श्राद्ध को
करने वाले तथा श्राद्ध में भोजन करने वाले , सभी ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण करना चाहिए। ऊर्ध्वपु ण्ड्र विहीन किये गये
नित्य नै मित्तिक कर्म , यज्ञ आदि काम्यकर्म , तालाब निर्माण आदि पु ण्य कर्म सभी विफल हो जाते हैं ।
ऊर्ध्वपु ण्ड्र विहीन शरीर श्मशान की भां ति होने से , उसे नहीं दे खना चाहिए।
हे विप्रश्रेष्ठ ! कृष्ण तु लसी पौधे के जड़ की मिट् टी अथवा दिव्यदे शों की मिट् टी से , त्रिसं ध्याकाल में
ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण करने वाला अनं त फल प्राप्त करता है ।
पं चसं स्कार महिमा पोस्ट ६३
।। अन्य पु ण्ड्रधारण का फल ।।
अं तर रहित ऊर्ध्वपु ण्ड्र अथवा तिर्यक्पु ण्ड्र को धारण करने वाला ब्राह्मण , इसी जन्म में शूदर् बन जाता है
जिसके कारण वै दिक कर्म अनु ष्ठान के लिये , वह अयोग्य हो जाता है ।
कपाल , श्मशान का भस्म, अस्थि, शं ख, शिवलिं ग पाषाण इनको अथवा त्रिपु ण्ड्र को धारण करने वाले विप्र
को चाण्डाल की भां ति दरू करना चाहिए।
घर को आग लगाने वाला , अन्न में विष मिलाने वाला , शिवलिङ्गधारी , तिर्यक्पु ण्ड्रधारी इन सबको राजा
राष्ट् र से बाहर कर दे ना चाहिए।
त्रिपु ण्ड्रधारी विप्र के साथ एक पङ्क्ति में खड़े रहने वाले को ब्रह्महत्ति दोष होता है , इसमें शं का नहीं है ।
अपने धर्म को त्यागकर , दुर्मति से यु क्त होकर त्रिपु ण्ड्र को धारण करने वाले ब्राह्मण का निवासस्थान , पाप से
यु क्त होकर श्मशान के सदृश होता है ।
उत्तम कुलोत्पन्न विद्वान ब्राह्मण यदि तिर्यक्पु ण्ड्र को धारण करता है तो राजा , उसे गधे पर बिठाकर राष्ट् र से
बाहर करना चाहिए।
अतः ब्राह्मण को नित्य ऊर्ध्वपु ण्ड्र ही धारण करना चाहिए जिससे उसे निःसं देह सभी सिद्धि प्राप्त होते हैं ।
।। अन्य पु ण्ड्रधारण का फल ।।
अं तर रहित ऊर्ध्वपु ण्ड्र अथवा तिर्यक्पु ण्ड्र को धारण करने वाला ब्राह्मण , इसी जन्म में शूदर् बन जाता है
जिसके कारण वै दिक कर्म अनु ष्ठान के लिये , वह अयोग्य हो जाता है ।
कपाल , श्मशान का भस्म, अस्थि, शं ख, शिवलिं ग पाषाण इनको अथवा त्रिपु ण्ड्र को धारण करने वाले विप्र
को चाण्डाल की भां ति दरू करना चाहिए।
घर को आग लगाने वाला , अन्न में विष मिलाने वाला , शिवलिङ्गधारी , तिर्यक्पु ण्ड्रधारी इन सबको राजा
राष्ट् र से बाहर कर दे ना चाहिए।
त्रिपु ण्ड्रधारी विप्र के साथ एक पङ्क्ति में खड़े रहने वाले को ब्रह्महत्ति दोष होता है , इसमें शं का नहीं है ।
अपने धर्म को त्यागकर , दुर्मति से यु क्त होकर त्रिपु ण्ड्र को धारण करने वाले ब्राह्मण का निवासस्थान , पाप से
यु क्त होकर श्मशान के सदृश होता है ।
उत्तम कुलोत्पन्न विद्वान ब्राह्मण यदि तिर्यक्पु ण्ड्र को धारण करता है तो राजा , उसे गधे पर बिठाकर राष्ट् र से
बाहर करना चाहिए।
अतः ब्राह्मण को नित्य ऊर्ध्वपु ण्ड्र ही धारण करना चाहिए जिससे उसे निःसं देह सभी सिद्धि प्राप्त होते हैं ।
हे श्रेष्ठ मु नियों ! अब , ऊर्ध्वपु ण्ड्रों के मात्रा , स्थान तथा उनके नामों को पृ थक पृ थक बताते हैं ।
चार , तीन अथवा दो अं गुल ऊंचाई के तो , अपने अपने शरीर , ऊर्ध्वपु ण्ड्र के स्थान आदि के अनु सार
ऊर्ध्वपु ण्ड्रों को धारण करना चाहिए।
मस्तक पर चार अं गुल ऊंचा ऊर्ध्वपु ण्ड्र को धारण कर , उसमें ( चार हाथों में ) चार चक् रों को धारण काये हुए ,
मल रहित स्वर्ण की भां ति प्रकाशमान केशव को , " केशवाय नमः " नामक मं तर् से आवाहन करना चाहिए। (
इस ऊर्ध्वपु ण्ड्र का नाम ही केशव है । अन्य स्थानों के ऊर्ध्वपु ण्ड्रों में आवाहन किये हुए नारायण आदि नाम ही
उन ऊर्ध्वपु ण्ड्रों का है । )
नाभौ नारायणाये ति धारये त्तु दशाङ्गु लम् ।। ३० ।।
चतु ःशङ्खधरं दे वं इन्दीवरदलप्रभम् ।
नाभि के ऊपर , मध्य उदर पर , ( चार हाथों में ) चार शङ्खों को धारण किये हुए , नीलमे घ की भां ति कान्ति
यु क्त नारायण को , " नारायणाय नमः " नामक मं तर् से दस अं गुल ऊंचाई का ऊर्ध्वपु ण्ड्र को धारण करना
चाहिए।
छाती पर - इन्दीवर पु ष्प की आभा तथा ( करों में ) चार गदाओं से यु क्त माधव को " माधवाय नमः " नामक
मं तर् को कहते हुए , आठ अं गुल ऊँचा धारण करना चाहिए।
करोड़ चं दर् की प्रभा से यु क्त , हाथों में चार धनु ष धारण किये हुए गोविन्द को , " गोविन्दाय नमः " नामक
मं तर् को कहते हुए , चार अं गुल ऊँचा कण्ठ में धारण करना चाहिए।
कमल पु ष्प के धातु की भां ति वर्ण से यु क्त , हाथों में चार हल को धारण किये हुए , श्रीविष्णु को " श्रीविष्णवे
नमः " नामक मं तर् को कहते हुए , दस अं गुल ऊँचा उदर के दायें भाग में धारण करना चाहिए।
कमल पु ष्प के आभा से यु क्त , हाथों में चार मु सलों को धारण किये हुए मधु सद
ू न को , " मधु सद
ू नाय नमः "
नामक मं तर् का अनु संधान करते हुए , आठ अं गुल ऊँचा दायें भु जा में धारण करना चाहिए।
प्रकाशमान अग्नि के ते ज से यु क्त , अहाथों में चार छुरियों को धारण किये हुए त्रिविक् रम को , "
त्रिविक् रमाय नमः " नामक मं तर् ोच्चारण पूर्वक दायें कंधे पर चार अं गुल ऊँचा धारण करना चाहिए।
वामनं वामकुक्षौ तु धारये त्तु दशाङ्गु लम् ।। ३६ ।।
चतु र्वज्रधरं दे वं तरुणादित्यसन्निभम् ।
तरुण आदित्य की आभा से यु क्त , हाथों में चार वज्रों को धारण किये हुए वामन को , " वामनाय नमः " नामक
मं तर् ोच्चारण पूर्वक उदर के बायें भाग में , दस अं गुल ऊँचा धारण करना चाहिए।
शु भर् कमल की भां ति आभा से यु क्त , हाथों में पट् टस नामक आयु धों को धारण किये हुए श्रीधर को "
श्रीधराय नमः " नामक मं तर् ोच्चारण पूर्वक आठ अं गुल ऊँचा , बायें भु जा में धारण करना चाहिए।
विद्यु त की आभा तथा हाथों में चार मु दग् र से यु क्त हृषीकेश को , "हृषीकेशाय नमः " नामक मं तर् ोच्चारण
पूर्वक दायें कंधे पर चार अं गुल ऊँचा धारण करना चाहिए।
कोटि सूर्य की आभा तथा हाथों में सर्व आयु धों से यु क्त पद्मनाभ को , " पद्मनाभाय नमः " नामक
मं तर् ोच्चारण पूर्वक , पीठ के निचले मध्य भाग में , चार अं गुल ऊँचा धारण करना चाहिए।
इन्द्रगोप के वर्ण से यु क्त तथा हाथों में पाश आयु धों को धारण किये हुए दामोदर को , " दामोदराय नमः "
नामक मं तर् का अनु संधान पूर्वक , कंठ के पिछले भाग पर चार अं गुल ऊँचा धारण करना चाहिए।
शे ष श्वे तमृ त्तिका को " वासु देवाय नमः " कहकर शीर्ष पर धारण करना चाहिए।
( केशव आदि बारह नामों से यु क्त ) इन ऊर्ध्वपु ण्ड्रों को धारण किया हुआ शरीर भगवान का मं दिर है । अतः
उत्तम द्विजों को ऊर्ध्वपु ण्ड्रों को धारण करना चाहिए।
ऊर्ध्वपु ण्ड्र धारण किये बिना किये हुए सं ध्यावं दन , मं तर् जप , होम आदि नित्य नै मित्तिक कर्मों के अनु ष्ठानों
को राक्षस ले जाते हैं । ( अर्थात वह कर्म राक्षसों को प्राप्त होने से , दे वतायें तृ प्त नहीं होंगे ।)
केशव को मन में न धारण करने वाले शव ही हैं । केशव का चिं तन करने वाले तो शव नहीं है । वे मोक्ष को प्राप्त
हो जाने से उनका पु नर्जन्म नहीं होता है ।
पं चसं स्कारों में तीसरा नामसं स्कार है । उसके सं बंध में अब कहता हँ ।ू वह सभी पापों का नाश करने वाला उत्तम
सं स्कार है । इस सं स्कार को जातकर्म के समय , चौल ( शिखा रखना ) के समय , उपनयन के समय अथवा
मं तर् ोपदे श के समय विधिवत करना चाहिए।
नामकरण करना ही नामसं स्कार है । ऐसे नामकरण करते समय वासु देव आदि व्यूह मूर्तियाँ , केशव नारायण आदि
व्यूहान्तर मूर्तियाँ , मत्स्य कू र्म वराह आदि अवतार मूर्तियाँ , श्रीरं गनाथ श्रीनिवास वरदराज आदि अर्चा
मूर्तियाँ इनमें से अपने प्रिय मूर्ति के श्रीनाम को अथवा अन्य मं गल ( शठकोप, रामानु ज आदि आल्वार्
आचार्यों के ) श्रीनाम को तो रखना चाहिए।
आचार्य प्रथम भगवान को आराधना समर्पित कर, पश्चात शिष्य को प्रदान करने वाले श्रीनाम के मूर्ति का
ध्यानपूर्वक उस मूर्ति को कलश अथवा कू र्च में आवाहन कर, अर्घ्य पाद्य आचमनीय आदि समर्पित कर, माला
चं दन आभूषण आदि से अलं कृत कर, इस प्रकार षोडषोपचारों से आराधना करके , विधिवत अग्नि में होम
करना चाहिए ।
केशव से ले कर दामोदर तक के बारह मूर्तियाँ , मार्गशीर्ष से ले कर कार्तिक तक के बारह महीनों के दे वतायें हैं ।
अतः जिस मास में तापसं स्कार अथवा नामकरण सं स्कार कराया जाता है , उस मास के दे वता मूर्ति के नाम को
रखना अधिक श्रेष्ठ है ।
केशव आदि नामकरण करते समय , उस मास के अधिपति मूर्ति को भगवद् सन्निधि के सामने आवाहन कर ,
पूर्ववत् सभी उपचार समर्पण पूर्वक प्रदक्षिणा, नमस्कार कर , उस मूर्ति को मनमें ध्यान करके , आचार्य को उस
नाम से शिष्य का नामकरण करना चाहिए।
नामकरण करते समय , भगवन्नाम को प्रथम कहकर , अं त में दास शब्द को (उदाहरण - श्रीकृष्णदास )
मिलाना चाहिए। भागवतों के नाम को रखते समय , उस नाम के साथ दास शब्द को जोड़ना चाहिए। ( उदाहरण
- श्रीरामानु जदास ) भगवद् सं बंध प्राप्त करके वै ष्णव बनने के लिये यह नामसं स्कार प्रधान कारण है । ( इसके
सिवाय वै ष्णवत्व की सिद्धि नही है ) ऐसा स्वरूप ज्ञान यु क्त बु द्धिमानों का कथन है ।
पं चसं स्कार महिमा पोस्ट ७०
।। मं तर् सं स्कार का क् रम ।।
श्री पराशर भगवान ने ऋषियों से कहा , " नामसं स्कार के पश्चात किये जाने वाले मं तर् सं स्कार के विधि को
कहता हँ ।ू
सूर्योदय के पश्चात करीब दो घं टों का काल पूर्वाह्ण कहा जाता है । मं तर् ोपदे श करने वाले आचार्य , प्रातःकाल
उठकर , ( भगवन्नाम स्मरण, दं त मं जन से आरम्भ करके ) स्नान , सं ध्यावं दन तक के प्रातःकाल के अनु ष्ठानों
को पूर्वाह्ण में कर ले ने के उपरान्त , पु रुषोत्तम श्रीमन्नारायण का आराधना करनी चाहिए। पश्चात स्नान आदि
अनु ष्ठान को किये हुए शिष्य को बु लाकर अपने समीप बिठाकर , पाञ्चरात्र आदि शास्त्रों के कथनानु सार ,
अग्नि में अष्टाक्षर , द्वयमं तर् , विष्णु गारत्री नामक प्रत्ये क मं तर् से १०८ सं ख्या , पु रुषसूक्त के ऋचाओं से
तथा विष्णु षडाक्षरी आदि वै ष्णव मं तर् ोसे , घी से यथाशक्ति होम करके , उस अग्नि को शिष्य के साथ
प्रदक्षिणा करके दं डवत प्रणाम करना चाहिए।
उसके पश्चात , मं तर् के ज्ञाता आचार्य , परिशु द्ध कलश में , कावे री आदि पु ण्यतीर्थों के जल को भरकर , उसमें
ू के अग्रभाग , सफेद सरसों को मिलाकर , रे श्मी वस्त्र से लिपटाकर , अष्टाक्षर तथा
तु लसी , चं दन , दर्वा
द्वयमं तर् से अभिमं त्रित करके , उस जल से उन मं तर् ो का अनु संधान करते हुए , शिष्य पर प्रोक्षण करके उस
जल को तीन बार प्राशन कराना चाहिए।
आचार्य अपने ज्ञानप्रद दायें हस्त को शिष्य के शीर्ष पर रखकर , अपने बायें हस्त को शिष्य के छाती पर रखकर
, दया यु क्त होकर शिष्य को दे खना चाहिए।
उसके उपरान्त , स्वाचार्य के ध्यानपूर्वक , गु रुपरं परा का अनु संधान करके , सर्वलोकेश्वरी जीवों की हितै षी
महालक्ष्मीजी से निम्नलिखित प्रार्थना करनी चाहिए।
" हे महालक्ष्मीजी ! जब सर्वेश्वर भगवान जीव के पापों को दे खकर उन्हें दं ड दे ने के लिये इच्छा करता है , यह
जीव उसके समीप भी जाने के लिये योग्य नहीं होता है । आप सभी के अपराधों को क्षमा करके , उनकी रक्षा
करने वाली माता हैं । सर्वेश्वर भगवान की भी प्रियतमा होने से , वह भी आपके बातों को मानता है । अतः इस
जीव के अपराधों को क्षमा करके , सर्वेश्वर के चरणों की आश्रय प्रदान कीजिये । " ऐसे महालक्ष्मीजी के
पु रुषकार द्वारा आचार्य को , भगवान का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।
द्वयमं तर् को नियमपूर्वक , आचार्य से जो अध्ययन नहीं करता है , वह ब्राह्मण कुल में जन्मा होने पर भी , वे द में
कहे गये किसी भी कर्म के अनु ष्ठान के लिये अनधिकारी ही है । अतः उस व्यक्ति से दरू ही रहना चाहिए।
आचार्य , शिष्य के प्रति वात्सल्य यु क्त होने से , उसे प्रथम द्वयमं तर् का उपदे श करना चाहिए। उसके उपरांत
अष्टाक्षर मं तर् का उपदे श करना चाहिए।
हे ऋषियों ! जो आचार्य तापसं स्कार रहित विप्र को द्वयमं तर् का उपदे श करते हैं , वे अने क कल्प नरक में वास
करते हैं ।
हे उत्तम ऋषियों ! अतः ताप, पु ण्ड्र आदि सं स्कार कराने के पश्चात् ही अष्टाक्षर , द्वय आदि सभी मं तर् ों का
उपदे श करना चाहिए। नहीं तो आचार्य नरक को प्राप्त करते हैं ।
ताप आदि सभी सं स्कारों को एक ही दिन में विधिवत क् रमशः पृ थक पृ थक बिना आलस्य के करा सकते हैं ।
।। शिष्य कर्तव्य ।।
मं तर् को नियमपूर्वक आचार्य से अध्ययन करने के उपरान्त , भक्तिपूर्वक आचार्य का आराधना करनी चाहिए।
तथा सं पर्ण
ू जीवन काल , आचार्य के अधीन होकर रहना चाहिए।
शिष्य को मं तर् ोपदे श करने के उपरान्त , शे ष होम की पूर्ति करके , शिष्ट ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।
शिष्य भी , जीवन के अं त तक द्वयमं तर् का अनु संधान करते रहना चाहिए।
।। यागसं स्कार क् रम ।।
श्रीपराशर उवाच -
श्रीपराशर कहते हैं - ताप से ले कर मं तर् तक के चार सं स्कारों के पश्चात , शु भ तिथि, वार , नक्षत्र यु क्त दिन
में , प्रातःकालीन नित्यकर्मों के अनु ष्ठान के उपरान्त , आचार्य को दं डवत प्रणाम करके , आचार्य द्वारा प्राप्त
अर्चाविग्रह को - श्री भूमि नीला दे वी , शं ख चक् र आदि आयु ध , अनं त आदि परिजन , छत्र चामर आदि
परिच्छद इन सब से यु क्त , सं पर्णू जीवन काल तक बिना आलस्य के , आराधना करना चाहिए। ( भगवद्
आराधना ही याग है । )
वे द , धर्मशास्त्र, श्री पांचरात्र वै खानस आगम इनमें प्रतिपादित आराधना क् रमों में से , अपने आचार्य के
प्रिय क् रम द्वारा , सर्वान्तर्यामि श्रीमन्नारायण का श्रद्धा से प्रतिदिन , उस अर्चा में आराधना करना चाहिए।
आचार्य प्रातःकालीन अनु ष्ठानों को करने के उपरान्त , शिष्य को जो विग्रह प्रदान करने वाले हैं उस विग्रह
की आराधना करनी चाहिए। उसके पश्चात विधिपूर्वक प्रतिष्ठा की गयी अग्नि में श्रीमदष्टाश्रर , षडाक्षर ,
द्वादशाक्षर , पु रुषसूक्त आदि के पठन से , हवि को होम करना चाहिए। अष्टाक्षर तथा षडाक्षरद्वादशाक्षर से सौ
सौ बार , पु रुषसूक्त के सोलह ऋचाओं से सोलह बार , नियमपूर्वक हवि को होम करना चाहिए। विमान पालक,
सु दर्शन , अनं त , गरुड आदि आवरण दे वताओं के प्रति एक एक बार उनके नामोच्चारण पूर्वक होम करना
चाहिए। होम की समाप्ति पर , अर्चाविग्रह तथा अग्नि की प्रदक्षिणा करके दं डवत प्रणाम करने के पश्चात ,
उस दिव्यमं गल विग्रह को शिष्य को प्रदान करना चाहिए। तथा शिष्य को , भगवान का प्रतिदिन आराधना
करने के लिये , उचित प्रकार उपदे श करना चाहिए।
आचार्य , माध्यान्हिक स्नान के पश्चात , उसी समय वै ष्णव शिष्य द्वारा भगवद् आराधना रूपी याग को कराना
चाहिए। उसके पश्चात भक्ति पूर्वक श्रीवै ष्णवों को भोजन कराना चाहिए।
हे महर्षियों ! इस प्रकार ताप से ले कर याग सं स्कार तक सभी सं स्कारों को सभी लोग अवश्य कराना चाहिए।
भगवान के अति प्रिय परमै कान्ति बनने के निमित्त , ब्राह्मण भी इन्हें विशे षकर कराना चाहिए।।